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RST
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CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫.
મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૯૮
સમરાંગણ સૂત્રધાર-૨
: દ્રવ્ય સહાયક :
1
%
પૂજ્ય બાપજી મ.સા.ના સમુદાયના પૂજ્ય આચાર્ય નરરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ. સાધ્વીજી શ્રી જયવંતાશ્રીજી મ.સા. તથા અન્ય ઠાણાની પ્રેરણાથી
સાબરમતી જૈન આરાધના ભવન ટ્રસ્ટ તથા
સંવત ૨૦૬૭
અભયસાગરજી આરાધનાભવનના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯) સેટ નં-૧
ક્રમાંક
પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકા-સંપાદક
001
002
003
004
005
006
007
008
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017
018
019
020
021
022
023
024
025
026
027
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता - भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजित पृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम्भाग-१
शिल्परत्नम्भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
पर्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદમાર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
न्यायप्रवेशः भाग - १
दीपार्णव पूर्वार्ध
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग २
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
पू. विक्रमसूरिजीम. सा.
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणिम. सा.
पू. भद्रबाहुस्वामीम. सा.
पू. पद्मसागरजी गणिम. सा.
पू. मानतुंगविजयजीम. सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारतीगोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલસોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराजदोशी
श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
પૃષ્ઠ
238
286
84
18
48
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810
850
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162
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156
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226
640
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500
454
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214
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028
414
192
824
288
520
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278
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324
302
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202
| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
480
228
043
6o
044
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190
138
296
2io
049.
274
286
216
052
532
13
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પાદક | પૃષ્ઠ !
160
202
48
322
અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
406
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076 | જન વિને
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧
080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧
114
08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં
| ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ
238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ
194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ
192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ
260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ
238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ
260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી
910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा
436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી
336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી |
230 સં. | પૂ. મે વિનયની
પૂ.સવિનયન, પૂ.
पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560
088 .
322
114
089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
272
92
240
93
254
282
95
118
466
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
342
98
362
134
70
101
316
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307
250
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107
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सं./हि
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सं./हि
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सं./हि सं./हि सं./हि
142
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336
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सं./गु सं./गु
पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा
218
116
656
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जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ ।
विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा 117
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन
__ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
764
सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु
404
404
121
540
रॉयल एशियाटीक जर्नल
274
रॉयल एशियाटीक जर्नल
41
124
400
अं.
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
125
320
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Page #10
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GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES
Published under the Authority of the Government of His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda,
GENERAL EDITOR B. BHATTACHARYYA, M, A,
No. XXXII.
SAMARÂNGANASÚTRADHÁRA
VOL II.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #11
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"Aho Shrut Gyanam"
Page #12
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समराङ्गणसूत्रधारः महाराजाधिराजश्रीभोजदेवप्रणीतः SAMARÂNGANASÚTRADHÁRA
BY
KING BHOJA DEVA
EDITED BY MAHÂMAHOPADHYAYA T. GANAPATI SÂSTRI,
Honorary Member, Royal Asiasio Sooiety of Great Britain and Ireland, Honorary Doctor of Philosophy, University of Tabiagen,
Editor of the TRIVANDRUM SANSKRIT SERIES
IN TWO VOLUMES
Yolume II,
1925,
BARODA CENTRAL LIBRARY
"Aho Shrut Gyanam"
Page #13
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Printed by L. Ramaswamy Sastri at the Sridhara Power Press, Trivandrum, and published by Newton Mohun Dutt, Curator of Libraries, Baroda State, on behalf of the Government of His Highness the Maharaja Gaekwad, at
the Central Library, Baroda.
Price Rs 51- Net.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #14
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PREFACE
This the second volume, completes the work of Samarangana which runs up to a portion of the 83rd Adhyaya. It contains descriptions of Prasadas pertaining to Devas, statues made of goli, gilver etc., the art of painting, and are to be delineated in pictures and images, 64 kinds of Efa beginniog with Pataka and similar other topics, a detailed mention of which may be found in the contents attached.
Great difficulty lud to be experienced in bringing out thiis edition as no other manuscript was available than the one referred to in the preface to the first volume, which contains several errors and is in many places not legible. Proper substitutes for the errors have been proposed within interrogations and new readings for impure words and phrases suggested as far as possible by means of foot notes.
The subject matter being silpa, the work need not possess the characteristics of a literary work. Nevertheless it is remarkable for its sweet and simple hlavya style. It is for this reason that I will in the first volume that the author of the work is the same King Bhoja of Dhara who wrote Sringaraprakasa and veher works anl to whom is assignei a high place in the domain of Salitya.
It inay be said that, because the various machines such 28 the elephant machine, «loor keeper machine, iying machine etc., mentioned in the work, have not been either seen or heard of before, they are only products of imagination and not actual machines made and put into practical use. That is not s0; fur, even things which once existed might, in the long run, come to be considered as unreal on account of their disuse and things involving much labour, time and money may also get out of use very easily.
"Aho Shrut Gyanam
Page #15
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It may be asker uest why the poet ha: 11: described the method of constructing the machines. The poet himself answers thus:
यन्त्राणां घटना नोक्ता 10 Alfaraaa ! तत्र हेतुरयं शेयो
5487 at 9.990: " (Vol. I, P. 175) The meaning of the line. 24 à fazr is, in case the methois are revealed in the work, then every one not initiated in the art by the preceptor will try to construct the machines and the atteinpt made by such a person may not cnly not achieve success but bring about troubles and difficulties. The followiny sloka contains the qualifications necessary for constructing the machines: -
पारम्पर्य कौशलं सोपदेश TENISITI TE IH 51: सामग्रीयं निर्मला यस्य सोऽस्मि
suzluqa ale ani 4 l) (Vol. I, P. 170) It is also not mean s , in the case of highly useful machines, tu keep inrevealesi ile methods of constructing them.
T. Ganapati Sastri.
"Aho Shrut Gyanam"
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विषयानुक्रमणी।
:
:::::
::
विषयः
पृष्ठम् . ५५. मेवादिषोडशप्रासादादिलक्षणाध्यायः पञ्चपञ्चाशः-- मेर्वादयः षोडश प्रासादाः तेधु मेरुलक्षणम् ... कैलासलक्षणम् सर्वतोभद्रलक्षणम् ... विमानच्छन्दलक्षणम् ... नन्दनलक्षणम् स्वस्तिक लक्षणम् मुक्तकोणलक्षणम् श्रीवत्सलक्षणम् हंसरुचकवर्धभानगरुडगजभसादानां लक्षणम् ... सिंहपद्मकयोर्लक्षणम् ... मेर्वादिप्रासादसामान्यविधयः वलभीप्रासादलक्षणम् ... मेर्वादीनां विनियोगः ... एषु जगत्यादिकल्पननियमाः ... परिवाराणां स्थाएनप्रकारः द्वारमानविधयः ... स्तम्भहीरग्रहतुलाधारणकुम्भपद्मादीनां कल्पनम्
११,१२ रूपशाखादिप्रकल्पनम् ... ... ...
५६. रुचकादिचतुष्पष्टिप्रासादकाध्यायः षट्पश्चाश:---- रुचकादिचतुष्पष्टिप्रासादानां साधारणा विधयः तेषु रुचकादयः पञ्चविंशतिर्ललितप्रासादाः ... तेषां सन्निवेशः
::::
१३
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::::::
विषयः सुभद्रादयो नव मिश्रकप्रासादाः ... केसर्यादयः पञ्चविंशतिः सान्धारप्रासादाः । लतादयः पञ्च निगूढप्रासादाः .... कसर्यादिष्वण्डकसंख्या मेरोर्विनियोगः कर्तृनियमादिकं च ललितप्रासादेषु रुचकभद्रकहंसानां लक्षणम् ... हंसोद्भवप्रतिहंसनन्दनन्द्यावर्तधराधरवर्धमानगिरि
कूटानां लक्षणम् ... श्रीवत्सत्रिकूटमुक्तकोणगजगरुडसिंहाख्यानां लक्षणम् भवविभवमालाधराणां लक्षणम् ... पद्ममलयग्ज्रकाणां लक्षणम् ... स्वस्तिकशङ्कोर्लक्षणम् एषु चतुरश्रतदायतवृत्ततदायताष्टाश्रिमासादानां विभागः मिश्रकरासादेषु सुभद्रादित्रिकूटान्तानां लक्षणम् धराधरादिसर्वाङ्गसुन्दरान्तानां लक्षणम् मिश्रकप्रासादसामान्यलक्षणम् ... सान्धारप्रासादेषु केसरिलक्षणम् ... सर्वतोभद्रलक्षणम् ... नन्दननन्दिशालयोर्लक्षणम् नन्दिवर्धनमन्दिरयोलक्षणम् श्रीवत्सामृतोद्भवयोर्लक्षणम् हिमवद्धेमकूटयोर्लक्षणम् कैलासपृथिवीजयेन्द्रनीलानां लक्षणम् महागलभूधरयोलक्षणम् रत्नकूटवैडूर्ययोर्लक्षणम् पद्मरागवज्रकमुकुटोज्ज्वलैरावतराजहंसानां लक्षणम् गरुडवृषभमेरूणां लक्षणम् निगूढप्रासादेषु लताध्यस्य लक्षणम् ... त्रिपुष्कराख्यपञ्चवक्त्रचतुर्मुखाना लक्षणम् ...
२५
2.
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"Aho Shrut.Gyanam"
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
... ३५-३७ ...३७,३८
.... ४० .... ४०-४३ ... १३.४५
९१टललणम्
...
४६,४७
विषयः नवात्मकप्रासादलक्षणम् ... ... ... एष परिवारप्रतिष्ठानियमादिकम् ... ... ...
५७. मेदिविंशिकाध्यायः सप्तपञ्चाशःअन्ये श्रीधरादयश्चत्वारिंशदुत्कृष्टप्रासादाः, तेषां विनियोगश्च नन्दनादयो दश मिश्रकप्रासादाः ... तेषु श्रीधरलक्षणम् ... हेमकूटलक्षणम् सुभद्रलक्षणम् रिपुकेसरिलक्षणम् ... पुष्पकलक्षणम् विजयभद्रलक्षणम् श्रीनिवासलक्षणम् सुरसुन्दरलक्षणम् नन्द्यावर्तलक्षणम् ... पूर्णप्रासादलक्षणम् ... सिद्धार्थलक्षणम् ... शङ्खवर्धनलक्षणम् ... त्रैलोक्यभूषणलक्षणम् ... पद्मपक्षबाह्वोर्लक्षणम् ... विशाललक्षणम् ... कमलोद्भवलक्षणम् ... हंसध्वजलक्षणम् ... लक्ष्मीधरलक्षणम् महावज्ररतिदेहयोर्लक्षणम् सिद्धकामलक्षणम् पञ्चचामरलक्षणम् नन्दिघोषलक्षणम् ... मनूत्कीर्णलक्षणम् ...
४८-५० ... ५०-५२ ... ५२-५४ .... ५४ ... ५५-५७
५७-५९ ... ५९
:: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: ::
६१
... ६२-६४
६६
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________________
विषयः
पृष्ठम्..
...७३,७४
८८
::::::::::::
*.
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सुप्रभलक्षणम् सुरानन्दलक्षणम् हर्षणलक्षणम् दुर्धरलक्षणम् दुर्जयलक्षणम् त्रिकूटनबशेखरयोर्लक्षणम् पुण्डरीकलक्षणम् ... सुनामलक्षणम् महेन्द्रलक्षणम् वराटलक्षणम् सुमुखप्रासादलक्षणम् ... नन्दलक्षणम् महाघोषवृद्धिरामवसुन्धराणां लक्षणम् मुद्कलक्षणम् बृहच्छाललवणम् ... सर्वदेवसाधारणेष्वन्येषु विंशतिप्रासादेषु मेरुलक्षणम् मन्दरलक्षणम् फैलासलक्षणम् त्रिविष्टपलक्षणम् पृथिवीजयलक्षणम् क्षितिभूषणलक्षणम् सर्वतोभद्रलक्षणम् विमानप्रासादलक्षणम् ... नन्दनलक्षणम् स्वस्तिकलक्षणम् मुक्तकोणलक्षणम् श्रीवत्सलक्षणम् हंसलक्षणम्
८७,८८
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.
... ९३-९५
१०१,१०२ ... १०३ १०३,१०४
१०६-१०८ ... १०८
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________________
विषयः
रुचकवर्धमानयोर्लक्षणम् गरुडगजसिंहप्रसादानां लक्षणम्
पद्मलक्षणम् नन्दिवर्धनलक्षणम्
...
ब्रह्मणः प्रासादाः
सूर्यस्य प्रासादाः
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५८. प्रासादस्तवनाध्यायोऽष्टपञ्चाशः
विश्वकर्मणे ब्रह्मणा दत्तेषु विमानादिचतुष्षष्टिप्रासादेषु वास्तुदेवतापूजनादिकम्
एषां प्रासादानां विनियोगः
तत्र शिवस्य समुद्दिष्टा अष्टौ प्रासादाः
विष्णोः प्रासादाः
...
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पृष्ठम्.
१०९
११०
१११
११२-११४
⠀⠀⠀⠀⠀
...
***
चण्डिकायाः प्रासादाः
विनायकस्य प्रासादाः
लक्ष्म्याः प्रासादाः
सर्वदेवसाधारणाः प्रासादाः
५९. विमानादिचतुष्षष्टिमासादलक्षणाध्याय एकोनषष्टितमः
समनन्तरोक्त चतुष्षष्टिप्रासादेषु विमानलक्षणम्...
सर्वतोभद्रलक्षणम्
गजपृष्ठप्रासादलक्षणम् ..
पद्मकवृषभमुक्तकोणनलिनप्रासादानां लक्षणम् ... मणिकगरुडप्रासादयोर्लक्षणम् बर्धमानशङ्खावर्तयोर्लक्षणम्
पुष्पक गृहराजस्वस्तिकप्रासादानां लक्षणम्
रुचकलक्षणम्
पुण्ड्रवर्धन मेरुमन्दरप्रासादानां लक्षणम् कैलासहंसभद्रतुङ्गप्रासादानां लक्षणम्
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११४
११५
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११६-११८
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१२३
१२४
१२५
१२६
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________________
पृष्ठम् .
१२८
3
विषयः मिश्रकगवयचित्रकूटकिरणप्रासादानां लक्षणम् ... सर्वानसुन्दरनन्द्यावर्सवलभ्यप्रासादानां लक्षणम् सुपर्णश्रीवत्सपासादयोर्लक्षणम् ... पद्मनाभवैराजवृत्तकासादानां लक्षणम् ... सिंहचित्रकूटयोर्लक्षणम् योगपीठघण्टानादपताकिनगुहाधरपासादानां लक्षणम् शालाकवेणुककुञ्जरप्रासादानां लक्षणम् ... हर्षणमहापद्महर्म्यप्रासादानां लक्षणम् ... उज्जयन्तगन्धमादनशतशृङ्गविभ्रान्तमनोहरप्रासादानां
लक्षणम् ... ... ... वृत्तवृत्तायतचैत्यकिङ्किणीकलयनपट्टिसविभवप्रासादानां
__लक्षणम् ... ... ... तारागणप्रासादलक्षणम्
१३३
...
... १३६ ... १३७
१३८
६०. श्रीकूटादिषत्रिंशत्मासादलक्षणाध्यायः षष्टितमःनागरक्रियाणां श्रीकूटादिषत्रिंशत्प्रासादानां . नामनिर्देशः ... तत्र श्रीकूटलक्षणम् ... श्रीमुखलक्षणम् ... श्रीधरवरदप्रियदर्शनकुलनन्दनान्तरिक्षाणां लक्षणम् पुष्पाभासविशालकसङ्कीर्णमहानन्दनन्द्यावर्तसौभा
ग्याख्यानां लक्षणम् ... ... विभङ्गकविभवधीभत्सश्रीतुञ्जमानतुझानां लक्षणम् ... सर्वतोभद्रबायोदरनिर्वृहोदराणां लक्षणम् भद्रकोशचित्रकूटविमलहर्षणभद्रसङ्कीर्णभद्रविशालक
____ मद्रविष्कम्भाणां लक्षणम् ... उज्जयन्तलक्षणम् ... चित्रकूटादुजयन्ताच्चोत्पन्नाः प्रासादाः ...
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________________
विषयः विमानादीनां श्रीकूटादीनां च साधारण नियमाः ... उत्तमादिप्रासादानां मानम् ... ... ...
६१. पीठपञ्चकलक्षणाध्याय एकषष्टितमः-- द्राविडप्रासादयोग्यानि पञ्च पीठानि तेषु पादबन्धपीठस्य लक्षणम् ... ... श्रीबन्धवेदीबन्धप्रतिक्रमपीठानां लक्षणम् ... क्षुरबन्धपीठस्य लक्षणम् ... पद्मादयः पञ्च तलच्छन्दप्रासादाः... ... तेषु पद्मतलच्छन्दलक्षणम् महापद्मवर्षमानस्वस्तिकतलच्छन्दानां लक्षणम् सर्वतोभद्रतलच्छन्दलक्षणम् ... एषामेव सान्धाराणां लक्षणम् ... ...
६२. द्राविडप्रासादलक्षणाध्यायो द्विषष्टितमःभूमिकायुक्तेषु द्राविडप्रासादेषु एकभूमिकस्य लक्षणम् ... द्विभूमिकस्य लक्षणम् ...
... १५३ त्रिभूमिकस्य लक्षणम् ...
१५४-१५७ चतुभूमिकस्य लक्षणम् ...
१५-१६० पञ्चभूमिकस्य लक्षणम् ... ...
१६०-१६५ षड्भभिकस्य लक्षणम्
... १६५ सप्तभूमिकस्य लक्षणम् अष्टभूमिकनवभूमिकयोर्लक्षणम् ... ...
..... १६७ दशभूमिकैकादशभूमिकद्वादशभूमिकानां लक्षणम्
१६८,१६९ ६३. मेवादिविंशिकानागरप्रासादलक्षणाध्यायः त्रिषष्टितम:मेदियो विंशति गरमासादाः ...
___... १७० एषु भूमिकादिकल्पननियमादयः ...
१७०-१७२ पक्षान्तरेणैषां मानप्रदर्शनम् ...
... १४२ भूमिकाष्टकस्य मानं, पृथक् पृथक् तदवयवकल्पनं च ... १७३.१७९
...
१५२
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________________
iv.
विषयः
पृष्ठम्. ६४. दिग्भद्रादिप्रासादलक्षणाध्यायः चतुष्षष्टितमःदिग्भद्रादीनां द्वादशवावाटपासादानां नामानि तेषु दिग्भद्रलक्षणम् ... श्रीवत्सलक्षणम् वर्धमानलक्षणम् नन्द्यावर्तनन्दिवर्धनयोर्लक्षणम् विमानलक्षणम् ... पचमहाभद्रयोर्लक्षणम् ... ... श्रीवर्धमानलक्षणम् ... ... महापद्मपञ्चशालपृथिवीजयानां लक्षणम्
६५. भूमिजप्रासादलक्षणाध्यायः पञ्चषष्टितमःभूमिजप्रासादेषु निषधादयश्चत्वारश्चतुरश्रप्रासादाः तेषु निषधलश्चणम् ... मलयादिलक्षणम् ... ... माझ्यवतो लक्षणम् ... नवमालिकस्य लक्षणम् ... कुमुदादयः सप्त वृक्षजातिप्रासादाः ।
... १९१ तेषु कुमुदलक्षणम् ...
१९२,१९३ कमललक्षणम् ...
१९३ कमलोद्भवलक्षणम् ... किरणशतशृङ्गयोर्लक्षणम् निरवद्यलक्षणम् सर्वाङ्गसुन्दरलक्षणम् ... भूमिजातिष्वेव स्वस्तिकादयः पश्चाष्टशालप्रासादाः सेषु स्वस्तिकलक्षणम् ... वजस्वस्तिकलक्षणम् ... हर्म्यतललक्षणम्
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________________
विषयः
उदयाचललक्षणम्
गन्धमादनलक्षणम्
नागरादिप्रासादगतानां पञ्चविंशतिरेखाणां संज्ञाः, तत्करणविधिश्व
9
६६. मण्डपलक्षणाध्यायः षट्षष्टितमः
सामान्यतो मण्डपस्य द्वैविध्यं तदर्थो वास्तुपदविभागश्च भद्रादयोऽष्टौ मण्डपाः
सर्वेषां मण्डपानां सामान्यविधिः
तत्र भद्रमण्डपलक्षणम्
नन्दनमहेन्द्रवर्धमानाख्यानां लक्षणम् स्वस्तिक सर्वतोभद्रमहापद्मगृहराजानां लक्षणम् - अन्ये मण्डप निर्माणसम्बद्धा विशेषाः
६७. सप्तविंशतिमण्डपलक्षणाध्यायः सप्तषष्टितमः
सन्निवेशविशेषेण भिन्नेष्वन्येषु सप्तविंशतिमण्डपेषु उत्तमाधममध्यमकल्पननियमाः
तेषु पुष्पकलक्षम् अन्येषां मण्डवानां नामनि
मिश्रकादिमण्डपानां लक्षणम्
६८. जगत्यङ्गसमुदायाविकाराध्यायोऽष्टषष्टितमः
जगतीस्वरूपकथनम्
पीठात् पृथग् जगती सम्भवे कारणम् जगतीनां सन्निवेशाः
प्रासादेषु जगत्या निवेशनस्थानम् ... उत्तमादीनां जगतीनां विनियोगप्रकार:
कर्णोद्भवादयः षट्प्रकाराः शालाः, तल्लक्षणं च उत्तमादिजगतीपीठानां लक्षणम्
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पृष्ठम्.
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२२०-२२२
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________________
10
विषयः
पृष्ठम्. ६९. जगतीलक्षणाध्याय एकोनसप्ततितमः - चतुरश्राकाराणामेकोनचत्वारिंशतो जगतीनां संज्ञाः ...
२२२ तासु वसुधाघेकभद्रान्तानां लक्षणम् द्विभद्रिकादिनमरावश्यन्तानां लक्षणम्
२२४ स्वस्तिक्यादिमन्दारमालिकान्तानां लक्षणम् ...
.... २२५ अनालेखादिनन्द्यावर्तान्तानां लक्षणम्
२२६ ताम्रमूलादिकर्णमञ्जय॑न्तानां लक्षणम्
२२७ विश्वरूपादिसुभद्रान्तानां लक्षणम्
... २२८ सिंहपञ्जरादिदेवयन्त्रिकान्तानां लक्षणम् ।
.... २२९ चतुरश्रायतानां यमलादित्रिपथान्तानां लक्षणम्
२२९-२३२ वृत्ताकाराणां वलयादिचन्द्रमण्डलान्तानां लक्षणम्
२३३-२३६ वृत्तायतानां मातुलुङ्गमादिकालिङ्गयन्तानां लक्षणम् ... ... २३६ अष्टाश्रिसंस्थानानां मातृकादिजगतीनां लक्षणम्
२३७-२३९ ___७०. लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणाध्यायः सप्ततितमः-- उत्तमादिलिङ्गानां प्रमाणं, द्रव्याणि, लक्षणोद्धारादि च ... २४०-२४२ उद्देश्यफलभेदेन तत्तद्दिक्षु प्रतिष्ठापनीयानां लोकपाललिकानां __ लक्षणं, तत्पशंसा च ... ...
२१३-२४५ लिङ्गानां द्रव्यभेदेन फलभेदप्रदर्शनं, सान्निध्यकारका विधयश्च ... ...
... २४६ चिहाभिव्यक्तिहेतुकप्रलेपद्रव्यादिकम् ...
... २४० तेषां लिङ्गानां पीठकल्पनप्रकारः ... ... पृथ्वादिकाः पीठिकाः, तल्लक्षणं, तद्विनियोगश्च
२४८-२५० मेस्खलाप्रणालब्रह्मशिलादिकरुपनविधयः ... ... ... २५० लिङ्गसविधे ब्रह्मविष्ण्वादीनां निवेशनप्रकारः ... ... ... २५१ द्वारप्रमाणानुरोधेनोत्तमादिप्रविमानां, तत्पीठानां च कल्पनम् प्रासादगर्भेषु पिशाचादिभागविभजनक्रमः ... ... ... २५२
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________________
२५४
विषयः
पृष्ठम् . ७१. चित्रोद्देशाध्याय एकसप्ततितमः - चित्रप्रशंसा
२५२ चित्रलेखनाधिष्ठाननि ... चित्रोदेशाः चित्रकर्मानानां निर्देशः ...
७२. भूमिबन्धाध्यायो द्विसप्ततितमः - वर्तिकाबन्धनोपयोगिन्यो मृदः, तत्संस्करणं च वर्तिकालक्षणं, भूम्बिन्धनप्रकारश्च
२५५ कुड्यभूभिवन्धनक्रमः ... ... ...
२५६ पट्टभूमिबन्धनक्रमः ... ... ...
२५७ पटभूमिबन्धनक्रमः ... ... ... ... . २५८
७३. लेप्यकर्मादिकाध्यायः त्रिसप्ततितमःलेप्यकर्मोचिताया मृदो लक्षणं, तत्संस्करणं च ... ताभिर्लेपनक्रमः, कूर्चकलक्षणं च ... ... ...
... २५९ कूर्चकैलेखाकरणनियमाः
२६० ७४. अण्डकप्रमाणाध्यायः चतुःसप्ततितमः --- आलेख्यकर्मणि मुखाण्डकवृत्ताण्डकयोरालेखनविधिः ... ...
... ... ... जलसाण्डकादानामालखनावाधः ...
२६१ ७५. मानोत्पत्त्यध्यायः पञ्चसप्ततितमःमानगणनम् ... ... ... ... ... २६२ देवादीनां शरीरप्रमाणप्रदर्शनम् ... ... ... २६२,२६३ देवासुरनरादीनां रूपविशेषाः, गजवाजिसिंहव्यालकुक्कुटा
दीनां जातिभेदाश्च ... ... ... ... २६४ चत्रकमाकमानरमा :... ... ... ... ... २६५
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विषयः
७६. प्रतिमालक्षणाध्यायः षट्सप्ततितमः
प्रतिमाद्रव्याणि तत्प्रयुक्ताः फलभेदाश्च प्रतिमानिर्माणोपक्रमविधिः
पुरुषप्रतिमावयवेषु नेत्रश्रवणनासापुट चिवुकोप्रसृकुनासिकानां नदंशभूतानां च पृथक् पृथक्
3
12
प्रमाणप्रदर्शनम्
ललाटगण्डग्रीव वक्षो नाभिमेोरुत्रानुजङ्घापादाङ्गुलिनखानां प्रमाणपरिमाणादिकम्
चाहोरतदङ्गुलीनां च प्रमाणादिकम्
स्त्रीप्रतिमानामङ्गप्रत्यङ्गप्रमाणादिकम्
शिवस्य लक्षणम्
कार्तिकेयस्य लक्षणम्
बलभद्रम्य लक्षणम्
विष्णोर्लक्षणम्
७७. देवादिरूपमहरणसंयोगलक्षणाध्यायः सप्तसप्ततितमः
प्रतिमाविशेषेषु ब्रह्मणो लक्षणम्
महेन्द्रादीशानान्तानां लोकपालानां लक्षणम्
लक्ष्म्या लक्षणम्
कौशिक्या लक्षणम् अश्विनोर्लक्षणम्
पिशाचादीनां लक्षणम् ...
यक्ष नागगन्धर्वादीनां सामान्यलक्षणम्
दुष्टाः प्रतिमाः, तत्पूजनफलं च शुभावहानां प्रतिमानां सामान्यलक्षणम्
७८. दोषगुणनिरूपणाच्यायोऽष्टसप्ततितमः -
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पृष्ठम्.
२६६, २६७
...
२६६
२६८,२६९
२६९
२७०
***
२७१
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२७६, २७७ २७८
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________________
•
२२२
विषयः
पृष्ठम्. ७९. ऋज्वागतादिस्थानलक्षणाध्याय एकोनाशीतितमः -- प्रतिमानान् ऋज्वागतादिकाः स्थानविशेषाः, तत्परावृत्तानि, तयन्तराणि च ...
... २७८ तेषु ऋज्वागतार्धर्वागतयोर्लक्षणम् ।
२७९.२८१ साचीकृतलक्षणम् ... ... ... ...
२८२-२८४ अध्यर्धाक्षलक्षणम् ... ...
२८४.२८८ पार्श्वगतलक्षणम् ... ...
... २८८ ऋज्वागतपरावृत्तलक्षणम्
... २८९ परावृत्तान्तराणा लक्षणसंक्षेपः ... एषु तत्तदवयविभागप्रमाणनिर्णयार्थः सूत्रपातविधिः ... २९०,२९१
८०. वैष्णवादिस्थानकलक्षणाध्यायोऽशीतितमः वैष्णवादिकानि चेष्टास्थानानि तल्लक्षणं च ... ... सर्वेष्वपि स्थानकेषु जायमानानि द्रुतादिकानि गम
नानि, तल्लक्षणं च ... ... ... अन्येषामपि क्रियाविशेषागां प्रतिपत्त्यर्थं पातनीयानि त्रीणि सूत्राणि, तत्पातनविधिश्च ... ...
८१. पञ्चपुरुपस्त्रीलक्षणाध्याय एकाशीतितमः--- हंसादयः पञ्च पुरुषविशेषाः तेषु हंसलक्षणम् ... शशलक्षणम् रुचकलक्षणम् भद्रलक्षणम्
८२. रसदृष्टिलक्षणाध्यायो यशीतितमः चित्रशास्त्रप्रसिद्धा एकादश रसाः ... ... ... तेषु शृङ्गाराद्यद्भुतान्तानां लक्षणम् शान्तरसलक्षणम्
१०९
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________________
14
AM
विषयः ललितादयोऽष्टादश दृष्टिविशेषाः ... ... तेषु ललितादिविनमान्तानां लक्षणम् सङ्कुचितादिस्थिरान्तानां लक्षणम् प्रतिमादिषूक्तदृष्टीनामावश्यकताप्रतिपादनम् ...
८३. पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणाध्यायः व्यशीतितमःपताकादयश्चतुर्विशतिरसंयुता हस्तविशेषाः ... तेषु पताकस्य लक्षणं कर्माणि च ...
३०१-३०४ त्रिपताकस्य लक्षणं कर्माणि च ...
३०४-३०६ कर्तरीमुखार्धचन्द्रयोर्लक्षणं कर्माणि च ... अरालस्य लक्षणं कर्माणि च ... शुकतुण्डमुष्टयोर्लक्षणं कर्माणि च ... शिखरकपित्थखटकामुखानां लक्षणं कर्माणि च सूचीमुखस्य लक्षणं कर्माणि च ... पद्मकोशस्य लक्षणं कर्माणि च ...
... ३११ सर्पशिरोमृगशीर्षकयोर्लक्षणं कर्माणि च ... काङ्ग्रलालपमयोर्लक्षणं कर्माणि च ...
३१३ चतुरस्य लक्षणं कर्माणि च ...
३१३-३१५ भ्रमरहसवक्त्रहंसपक्षाणां लक्षणं कर्माणि च ... सन्दंशस्य लक्षणं कर्माणि च ... ...
३१६ मुकुलोर्णनाभताम्रचूडानां लक्षणं कर्माणि च ... अधाञ्जल्यादयस्त्रयोदश संयुता हस्तविशेषाः ...
... ३१८ कर्कटस्वस्तिकखटकोत्सङ्गानां लक्षणं कर्माणि च
... ३१९ तेषु अञ्जलिकपोतयोर्लक्षणं कर्माणि च दोललक्षणम्
... ३२० पुष्पपुटस्य लक्षणं कर्माणि च ... मकरलक्षणम् गजदन्तलक्षणम्
1. उद्देशदृष्ट्या तु संख्या चतुःषष्टिमतिवर्तते ।
३१२
.
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विषयः
अवहित्थस्य लक्षणं कर्माणि च
वर्धमानलक्षणम्
...
एषां प्रयोगाश्रिता नियमाः चतुरश्रादय एकोनत्रिंशन्नृतहस्ताः तेषु चतुरश्रविप्रकीर्णयोर्लक्षणम्
पद्मकोशलक्षणम्
अरालखटकामुखलक्षणम् आविद्धवककलक्षणम्
सूचीमुखलक्षणम्
चितलक्षणम् उत्तानवञ्चितलक्षणम्
अर्धरेचितलक्षणम्
-पलवलक्षणम्
केशबन्धलक्षणम्
:::
...
::
15
लताहस्तलक्षणम्
करिहस्तलक्षणम्
पक्षवञ्चितकलक्षणम्
पक्षप्रच्योतक लक्षणम् गरुड पक्षलक्षणम्
दण्डपक्षोर्ध्वमण्डलिपार्श्वमण्डलिनां लक्षणम्
उरो मण्डलिलक्षणम् उरः पार्श्वर्षमण्डललक्षणम्
शुभं भूयात् ॥
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11 : 11 श्रीगणेशाय नमः |
महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचितं समराङ्गणसूत्रधारापरनामधेयं वास्तुशास्त्रम्
( द्वितीयः सम्पुटः । )
अथ मेवदिषोडशप्रासादादिलक्षणो नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ।
प्रासादानामतो लक्ष्म षोडशानां विशेषतः । ज्येष्टमध्यकनिष्ठानां यथावदभिदध्महे ॥ १ ॥
विभज्यते यथा येन प्रागश्रोर्ध्व विधीयते ?) । यावदे यस्य प्रमाणं तु तथा तत् तस्य कथ्यते ॥ २ ॥ मेरुः प्रासादुराजश्च कैलासश्च हरेंप्रियः । सर्वतोभद्रकचैव विमानच्छदनन्दनौ || ३ || स्वस्तिको मुक्तकोणच श्रीवत्सो हंससंज्ञितः । Fast वर्धमानश्च गरुडेश्व गजस्तथा ॥ ४ ॥ मृगराजश्च पद्मश्च वलभी चेति ते स्मृताः । न त्रयस्त्रिंशतोऽधस्तान्नापि पञ्चाशतः परा ॥ ५ ॥ सङ्ख्या भवति हस्तानां मेरोरिति पुराविदः । विभज्य दशधा क्षेत्रं शृङ्गं कुर्याद् द्विभागिकम् || ६ ॥ कृत्वा षभागिकं मध्यं निर्गमस्तत्र दीयते । भागस्य षोडशांशेन विधेयं सलिलान्तरम् ॥ ७ ॥
'था प्रायः प्रापेोवि ' (१), २. 'दस्य ', ३० 'न', जो गरुडस्तक. पाठः
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४. 'रि',
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समराङ्गणसूत्रधारे पदैः षोडशभिर्गर्भे विधेया चास्य विस्तृतिः । प्रासादभित्ति(:)पदिका पदविस्तृतमन्तरम् (?) ॥ ८ ॥ पंदिका वाह्यभित्तिः स्यादित्येप स तदा स्मृतः । द्विपदो वेदिकावन्धो जङ्घा पञ्चपदोदया ॥ ९ ॥ पदार्धन पदार्धेन मेखलान्तरपत्रक ।। शृंशोच्छ्रितिनिभिर्भागैर्नवभिः शिखरोच्छ्रितिः ॥ १० ॥ शिखरस्यास्य कर्तव्यास्त ः पोडश भूमिकाः । स्कन्धोंऽशैविस्तृतः पभिरंशेनोन्छूितमण्डकम् ॥ ११ ॥ ग्रीवा वंशोच्छ्रिता कार्या शिरवरस्यादिविस्तृतौ । पगुणेनैव सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् ॥ १२ ॥ विस्तृतेरपि भद्रायाः कुर्याद द्विगुणमुच्छ्यम् । कुम्भं भागेन कुर्वीत प्रासादेष्वखिलेष्वपि ।। १३ ।। एवमेष चतुःशृङ्गश्चतुद्वारोपशोभितः । मेरुमरूपमः कार्यों वाञ्छता शुभमात्मनः ।। १४ ॥ सर्वस्वर्णमयं मेरुं यद् दत्त्वा पुण्यमाप्नुयात् । तमिष्टकाशैलमयं कृत्वा तदधिकं भजेत् ॥ १५ ॥
मेरुः ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे सप्तविंशतिपाणिकम् । दशधा विभजेत् स स्यात् कैलासः पुण्यवर्धनः ॥ १६ ।। ब्रह्मकोष्ठगतो गर्भः शेष भित्त्यन्धकारिका । चतुर्भागं भवेद् भद्रं मूलकर्णी त्रिभागिको ॥ १७ ॥ सप्तभागोच्छ्रिता जया मेखला चार्धभागिका । भागेनान्तरपत्रं स्याद् भागेनाण्डकमुच्छ्रितम् ॥ १८ ॥ ग्रीवाग्रभागमुत्सेधाच्छिखरं दशकोच्छ्रितम् । अर्धपष्ठांशविस्तारः स्कन्धः कैलाससंज्ञिते ।। १९ ।।
१. वाटिका', २. 'विभागोच्छि', ३. 'षगणा तेनु सू', ४, 'पद. वात् पु', ५. 'वे', ६. 'ई' क. पाठः ।
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मेर्वादिषोडशप्रासादादिलक्षणो नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः । अस्मिन्नन्तरपत्रे तु मूत्रं दत्वा सुताडितम् । त्रिगुणेन लिखेत् तेन वेणुकोशं मनोरमम् ॥ २० ॥ अष्टभूम्युच्छ्यः श्रीमान् मञ्जर्या च विराजितः ।। उच्छ्यश्चास्य कर्तव्यो द्विगुणः श्रियमिच्छता ।। २१ ।। कार्य षड्भूमिकं चास्य भद्रं भागानिर्गतम् । पाकः सिंहकर्णस्युः(१) समाप्ति यकेन च ॥ २२ ॥ कैलास एष कथितो विशेषेण हरप्रियः ।
कैलासः ।। इदानी सर्वतोभद्रः प्रासादः परिकीर्त्यते ॥ २३ ॥ स स्यात् षडिशतिं हस्तान् परमः परिमाणतः ।। जठर बाह्यसीमा च भित्तयो ह्यन्धकारिकाः ॥ २४ ॥ अडोत्सेधश्च कर्णो च यथा मेरोस्तथा स्मृताः । तथैव भद्रविस्तारैः कार्यो भागार्धनिर्गतः ॥ २५ ॥ रथिकैका चतुर्भागा ततः सार्धद्विभागिको । तासां परस्परं ज्ञेयो भागभागं विधीयते(?) ॥ २६ ॥ पभागाद् विस्तृतं कार्य शिखरं सप्तमोच्छ्रितम् । षभिदेशभिभोगेः स्यान्मूलजा स्कन्धविस्तृतिः (१) ।। २७ ॥ ग्रीवार्धभागमुत्सेधादण्डकं भागमुच्छ्रितम् । मूलमूत्रानुसारेणच्छेदः संयुज्यते यथा ॥ २८ ॥ अस्य रेखा तथा कार्या सर्वश्रेयःप्रसाधनी । मेरोरस्य च शृङ्गाणि सिंहकर्णविभूपयेत् ॥ २९ ॥ मञ्जरी पद्मकोशाग्रतुल्यां सर्वत्र कारयेत् । जयं लक्ष्मी यशः कीर्ति सर्वा(नि?णी)टफलानि च ।। ३० ॥ करोति सर्वतो भद्रं सर्वतोभद्रकः कृतः ।
__ सर्वतोभद्रः ॥ धतुरश्रीकृते क्षेत्रे विभागशतभाजिते ॥ ३१ ॥
१. ' क. पाठः । २. 'काः' ख. पाटः। ३. यो भागं' क. पाठः। ४, 'बो' ख, पाठः । ५. ‘ाः ', ६. 'नी;' क, पाटः।
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समराङ्गणसूत्रधारे विमानं विभजेत् प्राज्ञः श्रेयः पुष्टिसुखावहम् । भद्रेश्चतुर्भिस्तत् कुर्यात् कर्णप्राग्ग्रीवकैस्तथा ॥ ३२ ॥ पश्चभूमिर्भवत्येप यदि वा त्रिविधा भवेत् । हस्तास्त्रिंशद् भवेज्ज्येष्ठो मध्यमः पञ्चविंशतिः ।। ३३ ॥ स्यादेकविंशतिहस्तात् कनीयान् षोडशाथवा । जातिशुद्धो भवेदेको मञ्जया वे परो भवेत् ।। ३४ ।। मिश्रकोऽन्यो विमानानामिति संख्या निधोदिता । ज्येष्ठो मिश्रकनिर्माणः स च कौलाशभद्रकृत ?) ।। ३५ ।। मध्यमो जातिशुद्धःस्यात् कनीयान् मञ्जरीयुतः । पञ्चभागयुतं भद्रं विस्तरेण प्रकीतितम् ।। ३६ ।। कर्णप्राग्ग्रीवविस्तारः कर्तव्यो भागसंमितः । भागा) क्षोभणे कार्य तलिप तालान्तरं । ॥ ३७॥ गुप्तकणं तु कर्तव्यं यदिच्छेल्लक्षणान्वितम् । तस्माद् भद्रस्य निष्कशं (?) भागेनैकेन कारयेत् ॥ ३८ ॥ मिश्रकस्य चतुर्भागं भद्रं कुर्याद विचक्षणः । पञ्चभागोच्छ्रिता जसा खुएपिण्डकया सह ।। ३९ ।। द्विभा(गा) रथिका कार्या भूमिः स्थाचतुरंशका । . द्वितीयाधाशहीना च तृतीया भूमिरिष्यते ।। ४० ।। चतु(र्थे ?र्थी) तु त्रिभि गैरर्धहीना तु पञ्चमी । उदयो भूमिकाया यः कूटं कुर्यात् तदर्धतः ॥ ४१॥ अर्धेन कुम्भिकां कुर्यादुन्छालकसमन्विताम् । ऊध्र्वभवस्तु(?) पञ्चम्या वेदिका भागमुच्छ्रिता ॥ ४२ ॥ घण्टा षड्भागविस्तारा कायो भागद्वयोच्छ्रिता ।। घण्टोत्सेधं त्रिभिर्भागविभजेन तदनन्तरम् ॥ ४३ ॥ भागिकानि प्रकुर्वीत कण्ठग्रीवाण्डकानि च । भागं कण्ठप्रदेशः स्याद् दण्टि कायाः समुच्छूितिः ॥ ४४ ॥ घण्टार्धन विधातव्या निभाना कलशोच्छितिः । सूरसेनादिकं सर्वं कर्तव्यं पूर्ववत् तथा ॥ ४५ ॥
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मेर्वादिषोडशप्रासादादिलक्षणो नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः । भद्रं मनोरमैश्वेह सिंहकर्णविभूषयेत् । पञ्चव्यासेन मूत्रेण पद्मकोशं समालिखेत् ।। ४६ ॥ लतातयो(?)भवेदेषां लताभिस्त प्रकल्पयेत् । मिश्रको मिश्रितैरङ्गैः शुद्धः स्याद् भूमिकान्वितः ॥ ४७ ।।
विमानः । नन्दनस्य भवेत् सीमा द्वात्रिंशद्धस्तनिर्मितः । अष्टाष्टकविभागेन चतुःषष्टिपदो हि सः ॥ ४८ ॥ भागेश्चतुर्भिर्गर्भोऽस्य शेष भित्यन्धकारिका । भद्र गर्भसम कार्य तदर्वेनास्य निर्गमः ।। ४९ ॥ द्वौ रथौ पावतो भूयः सर्वतः कर्णमत्रतः । पश्चभागोन्द्रिता जङ्गा मेखला भागसंमिता ।। ५० ॥ षद्(भभू )मिरेष भूमिः स्यादेकका द्वादशांशका। रेखास्कन्याण्डकादीनां कैलासे(न) समाकृतिः ॥ ५१ ॥ नन्दनो नन्दयत्येप समृद्धिा या हन्ति चापदः ।।
नन्ददनः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे पञ्चविंशति हस्तके ।। ५२ ॥ मूत्रपातं ततः कुर्यात् कर्मायनमुखायतम् (?) । ततः सीमार्धमत्रेण सम्यग् वृत्तं समालिखेत् ।। ५३ ॥ ततस्तदष्टाविंशत्या भजेद् भागैर्यथापदम् । निर्मापये(शालार्धनीत् तदर्धेन शाला)दिक्मूत्रसंश्रिताः ॥ ५४॥ तासां तु मध्यगाः कार्या एकैकस्य रथास्त्रयः। अन्ये चार्धरथाः कार्योः शालाकर्णसमाश्रिताः॥ ५५ ॥ भागषट्कोच्छिता जन भागार्धेन तु मेखलाः ।। भागेनान्तरपत्रं स्याद् भागं चोवृत्तमण्डकम् ।। ५६ ।। अर्धभागोच्छ्रिता जीवा विष्कम्भेन चतुष्पदाम् (१) । शिखरस्योच्छ्यो भागैरेकादशभिरिष्यते । ५७ ।। सर्वेषामेघ लतिना मात्रिधा द्विगुणो हि सः (१) । विस्ताराद् द्विगुणं सूत्रं स्कन्धाधं चापि षड्गुणम् ॥ ५८ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे सुत्तानितं(?) समाकृष्य पद्मकोशं समालिखेत् । स पश्चविंशतिहस्ता ज्येष्ठः षोडश मध्यमः ॥ ५९ ॥ कनीयान द्वादशकरच्छस्यो(?) विजानता । ज्येष्ठस्य भागसंख्येयमेतदर्धेन मध्यमः ॥ ६ ॥ मध्यमस्य तथार्धन कनीयान भागसंख्यया । भागषद्कमिता जङ्घा ज्येष्ठस्य परिकीर्तिता ॥ ६१ ॥ सप्तभागोच्छिता सा स्यान्मध्यमे सकनीयसि । सर्वेषां लतिनामेष क्षेत्रेण विधिरीरितः ॥ ६२ ।। स्वस्तिकोऽयं समाख्यातः स्वस्तिश्रेयस्करो नृणाम् । इदानीं मुक्ताकोणस्य (मूल)क्ष्म घूमः स तु त्रिधा ।। ६३ ।। षोडश द्वादशाष्टौ च हस्तसंख्या परस्य च ।। न्येष्ठः षोडशभिर्भागमध्यो द्वादशभिर्भवेत् ॥ ६४ ॥ कनीयानष्टभिः प्रोक्तः प्रासादो मुक्तकोणकः । मुक्तकोणस्वस्तिकयोरिदमेवान्तरं भवेत् ॥ ६ ॥ स्वस्तिको वर्तुलस्तत्र चतुरश्रोऽपरः स्मृतः । पश्चभागोन्नता जङ्घा द्वौ भागौ रथिका भवेत् ।। ६६ ।। भागैश्चतुर्भिः कर्तव्या द्वितीया तस्य भूमिका । शेषास्त्वर्धाधभागेन विधेयास्त(द्वी,स्य भूमिकाः ॥ ६७ ।। विधाय नवधा गर्भस्तैस्त्रयोदशभिर्भवेत् । जवापादोनपञ्चाशैराद्यैकाप्पणिको(?)भवेत् ।। ६८ ॥
मुक्तकोणः । विस्तारं दशधा कृत्वा पड्भागं मध्यमालिखेत् । कर्णा द्विर्भागिको(?)मध्यं चतुर्धा विभजेत् पुनः ॥ ६९ ॥ तद्वन्मध्ये कृतौ यंशौ भागिको वामदक्षिणौ । अङगुलीकरसंख्यातैविधेयो स्थनिर्गमः ।। ७० ॥ प्रागग्रीवैर्विकटः स्वष्टैः स्तम्भैः सद्भूपकर्मभिः) । एवं गुणसमायुक्तः श्रीवत्सः सुखदो भवेत् ॥ ७१॥ .
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मेर्वादिषोडशप्रासादादिलक्षणो माम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः । बङ्गुलं त्र्यगुलं वापि चतुरङ्गुलमेव च । उदकान्तरकं कार्य श्रीव(त्सो नन्दनोत्से नन्दने पिच ।। ७२ ।।
श्रीवत्सः ॥ विस्तारैर्दशधा भक्तैः षड्भा(गा मञ्जरी भवेत् । सर्वतोभद्रवन्मूलकणांवस्य द्विभागिको ।। ७३ ।। उदकान्तरम(न्य?प्य स्य श्रीवत्सस्येव कल्पयेत । हंसोऽयं कीर्तितःसम्यक् शुभदो लक्षणान्वितः ॥ ७४ ।।
हंसः ॥ रुचकोऽप्येवमेव स्यादुदकान्तरवर्जि(ता?तम् । भित्तयश्चतुरंशेन गर्भो व्यासार्धसंमतः ।। ७५ ।।
रुचकः !! चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विभजेद दशभिः पदैः । विदध्यादधेमानाख्यं तत्र भ्रान्तमनुक्रमात् ।। ७६ ।। भद्रस्य च भवेद् भागैश्चतुर्भिः परिविस्तृतम् । एकेनैकेन भागेन द्वौ रथौ वामदक्षिणौ ।। ७७ ।। द्विभागविस्तृतौ कौँ निर्गम: स्यात् कराङ्गुलैः। वर्धमानः क्रियायुक्तो यशोलक्ष्मी विवर्धयेत् ॥ ७८ ॥ रुचको वर्धमानो वा श्रीवत्सो हंस एव च । य एको रोचते तेषु न्यसेत् तं गरुडे सुधीः ॥ ७२ ॥ पक्षावेतस्य कर्तव्यौ प्रासादाविनिर्गमौ । नासिकां वैनतेयस्य त्रिगर्भी कारयेदपि ॥ ८० ॥
गरुडः ॥
चतुःषष्टिपदे क्षेत्रे प्रासादं विभजेच्छुभम् । क्षेत्रार्थेन च सूत्रेण पृष्ठतो वृत्तमालिखेत् ।। ८१ ॥ भार्गश्चतुर्भिर्जखास्य मेखलाचार्धभागिका । पुरतःऽसूरसोयं(१) पृष्ठतश्च गजाकृतिः ॥ ८२ ॥
गजः ॥
'सूकरास्योऽवम् 'इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
चतुःषष्टिपदः सिंहो भद्रं भागचतुष्टयम् । यंशको मूलकर्णी च गर्भः षोडशभिः पदैः ।। ८३ ।। विस्ताराधे भवेज्जङ्घा मेखला पदिका भवेत् । एकैका रथिकाचास्य भवेद् भागत्रयोच्छ्रिता ॥ ८४ ।। सर्वतोभद्रवच्चास्या रेखाग्रीवाण्डकादिकम् ।। सिंहाक्रान्तैस्तथा भद्रैः प्रासादः सिंह उच्यते ।। ८५ ॥ विक्रमार्जवशीलानां प्रासादोऽयं शुभावहः ।
सिंहः ।। पदस्य हस्तसंख्या स्यात् षोडश द्वादशाथवा ॥ ८६ ।। चतुलः स च कर्तव्यः मूत्रं तु स्वस्तिके यथा ।। सर्वे रथाः स्मृताः पद्मपत्राकृतिमनोरमाः ।। ८७ ।। उदकान्तरकं कुर्याच्छ्यसे नन्दने यथा ।
पभकः ॥
स्वस्तिकस्य यथा पूर्व कथितं मानलक्षणम् ॥ ८८ ।। तेनैव लक्षलितः सर्वो(?)विदधीत विचक्षणः । यथामूलविभक्तस्तु लतिषु स्वस्तिकादिषु ।। ८९ ॥ यथास्कन्धविभागोऽपि रेखामध्यविभागतः । स्वस्तिकाङ्को विधातव्यः शुकना(शोसो)च्छयाच्छुभः ॥ ९ ॥ मासादानां स भागैः स्यात् सप्तभिर्विहितः श्रिये । विमाने स धरात्र्यंशन्यूनः कार्यों विपश्चिता ।। ९१ ॥ कैला(सो च साच्च)तुरंशोना विधे(ना?या) शुकनासिका । सर्वतोभद्रसिंहाख्यौ मेरूणां तु विशेषतः ॥ ९२ ॥ पद्भिर्भागविना कार्या शुकनासा विजानता । प्रासादोचेन सन्धारो विमानाद्याः प्रकीर्तिताः ।। ९३ ॥ विस्तारार्धेन तद्भों यच्छेपं तेन भित्तयः । पासाद(सि?)जोच्छ्येण तुल्यो गर्भतुलोदयः ॥ ९४ ॥ 5. लतिकाः सर्वा' इति स्यात् ।
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मेर्वादिषोडश मादादिलक्षणो नाम पञ्च {ञ्चाशोऽध्यायः । सभित्तिर्गर्भतुल्यः स्यात् सन्धारेषु तुलोदयः । स विधेयः पुनासाद यदि वा किञ्चिदुन्नतः ॥ ९५ ॥ मूलमूत्रं तु दशधा ++ (मश्य?)समालिखेत् । गर्भसूत्रं प्रतिष्ठाप्य सिंहकर्ण प्रकल्पयेत् ।। ९६ ॥ सार्धभागेन सूत्रेण मध्यमस्य समालिखेत् । उरो द्विभागतुल्यं तु मस्तकं भागमुच्छ्रितम् ॥ ९७ ॥ अर्धेन वोच्छ्यस्तस्याः पक्षोच्छ्राया द्विभागिकाः । उरो (लेख्य?) च सीमान्ते सूत्रेणच्छन्दमादिशेत् ।। ९८ ।। नवधा दशथा चैव सिंहक(मौ?)वुभौ स्मृतौ । एकपविस्तृतो भागा(?) उदयात् पञ्चभागिकः ।। ९९ ।। मूरसेनो द्वितीयस्तु स्वात् समोदयविस्तृतिः । उदयात् सार्थविस्तीर्ण सिंहकर्णस्त्रिसंकुला) ॥ १०० ॥ कामलान् मल्लकांथान्यान् सिंहकर्णात् प्र(लोप?कल्प)येत् । प्रासादानां हि सर्वेषां सर्वमेतद् विभूषणम् ॥ १०१ ॥ यस्य यत्रोचितं स्थानं तत् तत्र विनिवेशयेत् । निर्मिती वलभेस्तिर्यक् सूत्रं कुर्वीत सप्तथा ॥ १०२ ।। पञ्चभागांश्च मुखतस्तेनैवांशेन कल्पयेत् । मेखलान्तरपत्रे च जम्माकुम्भकमेव च ॥ १०३ ॥ पञ्चभागोच्छ्रितं कुयात् तद्वच्छिखरपुच्छ्रितम् । कीर्तितानि विमानानि यान्येव सुरवमनि ॥ १०४ ।।. सान्येव स्थावरत्वेन प्रासादा इति विश्रुताः । महेश्वरस्य कैलासो विष्णोस्तु गरुडामिधः ॥ १०५ ॥ कार्यः प्रजापतेः पद्मो गणनाथस्य च द्विपः । न खल्वेतेऽन्यदेवानां विधातुमुचिताः स्मृताः ॥१०६ ॥ यस्तु त्रिविष्टपः स स्यात् सर्वदेवनिकेतनः । अस्मात् तु येऽन्ये प्रासादाः स्मृतास्तेऽने करूपिणः ॥ १०७ ॥ सर्वेषामेव देवानामभेदेन भवन्ति ते । जगत्यां विस्तरः कार्य: प्रासादोच्छ्यसंमितः ॥ १०८ ॥ .
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समराङ्गणसूत्रधारे गर्भाधनोच्छ्यस्तस्याः शुभदः परिकीर्तितः । मण्डपस्य षडंशा?(?)पञ्चमांशादथ स्मृतः ॥ १०९ ॥ कर्णप्रासादकाः कार्याः प्रासादस्य त्रिभागतः । पूर्वापरमुखाः कार्या एते याम्यात्तराननाः ।। ११० ॥ ऐन्द्रे याम्ये वारुणे च कौवेरे च यथाक्रमम् । दिग्भागेषु चतुर्वेषु वलभी विनिवेशयेत् ॥ १११ ।। गर्भविस्तारविस्तीर्णा द्वौ त्रिभागौ मुखायताम् । इति बाह्यपरीवारे जङ्घा प्रासादमानतः ॥ ११२ ।। तिर्यगायतमारोप्य सूत्रं गर्भेण मण्डपे । (गुरुकक्षोऽथ?) कर्तव्या गवाक्षस्तम्भसंयुताः ॥ ११३ ॥ मासादविस्तरात् कार्यों द्विगुणो मण्डपः सदा। मण्डपस्य (स?स्व विस्तारा(द) जगती द्विगुणा बहिः ॥ ११४ ॥ कर्णप्रासादकाः कार्याः प्रासादस्यार्धतोऽपि वा। तेषामध्यर्धतः कुयोद वलभीनां निवेशनम् ॥ ११५ ॥ अनेन क्रमयोगेन बाह्याद वाह्य सुसंवृतम् । य(दाथा) हि शोभते राजा केयूराङ्गदकुण्डलैः ॥ ११६ ॥ तथा प्रासादराजोऽयं शोभते भूषणैर्निजैः । ध्वास्याहोस्यातिसौम्यस्य(१) श्रीकीर्तिविजयावहः ॥ ११७ ॥ अनेन विधिना न्यस्तः प्रासादः स्यात् सदा नृणाम् । आदित्यं पूर्वतो न्यस्येत् कुमारं पूर्वदक्षिणे ॥ ११८ ।। दक्षिणे मातृदे(वैश्वां)स्तु गजास्यं दक्षिणोपरि । विन्यसेद वारुणे गौरीं वायव्येऽपि च चण्डिकाम् ॥ ११९ ॥ विष्णुं कुबेरदिग्भागे तथेशान्यां महेश्वरम् । अन्येषामपि देवानां कथ्यते तु क्रमोऽधुना ॥ १२० ॥ तत्रैशान्यां दिशि न्यस्येदीशानं लोकनायकम् । दानवानां निहन्तारं पूर्वस्यामपि वासवम् ।। १२१ ॥ वैश्वानरं तथाग्नेय्यां धर्मराजं च दक्षिणे । नैर्ऋत्यां निऋतिं न्यस्येत् प्रतीच्यां तु प्रचेतसम् ॥ १२२ ।।
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मेर्वादिषोडशप्रासादादिलक्षणो नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः। ११ वायुं वायव्यदिग्भागे कुवेरमपि चोत्तरे । अष्टौ घेते महात्मानो लोकपालाः प्रकीर्तिताः ॥ १२३ ॥ पालयन्ति जगत् सर्व स्वस्वस्थाने प्रतिष्ठिताः। पुर(कर्कट?कर्वट)दुर्गेषु ग्रामेपु नगरेषु च ॥ १२४ ॥ क्रमेणानेन विन्यस्ताः स्युः प्रजानां सुखावहाः । न यत्र देवताबाधस्तत्र द्वारं प्रकल्पयेत् ॥ १२५ ॥ प्रासादस्यानुसारेण भवेद् द्वारं शुभावहम् ।। अथातः प्रोच्यते सम्यग् द्वारमानमनुक्रमात् ।। १२६ ।। ज्येष्ठमध्यकनिष्ठानां द्रव्यं स्तम्भानुसङ्गतम् । एकहस्ते भवेद् द्वारं प्रासादे षोडशाङ्गुलम् ॥ १२७ ।। द्विकरे द्विगुणं तत् स्यात् त्रिकरे द्विकरं शुभम् । चतुष्करे चतुःषष्टिरमुलानि प्रशस्यते ।। १२८ ।। अत ऊर्ध्व प्रतिकरं व्यङ्गुला वृद्धिरिष्यते । द्वारोदयकरैस्तुल्यान्यङ्गुलानि नियोजयेत् ॥ १२९ ॥ (पोह्याजयवान्यालर्ध?) ध्रुवके चतुर(र?)ड्गुले । विस्तारो द्विगुणस्तस्य स्तम्भपिण्डं स एव हि ॥ १३० ॥ एकद्वित्रिचतुष्पञ्चषट्सप्तककरावधि । द्वारविस्तारभागेन स्तम्भः सम्यग विधीयते ॥ १३१ ॥ चतुर्भागेन कर्तव्या सीमास्तम्भः प्रमाणतः(?) । तथा स्तम्भस्य बाहुल्याच्चतुभोगविभोगविना (१) ॥ १३२ ॥ +भागौ तत्र कर्तव्यो हीरग्रहणमुच्छ्रितम् ।। भागत्रयेण कर्तव्यः पट्टस्य च समुच्छयः ॥ १३३ ॥ भागेनैकेन नीस्यातव्यविस्तारं भत्रिभागरच्यकिम् (१) ।। पट्टहस्ते विधातव्यमङ्गुलद्रयनिर्गमम् ।। १३४ ॥ +ड++++स्सारः स्तम्भतुल्यः प्रशस्यते । एकैकमङ्गुलं (ला?)पट्टपार्श्वयोरधिकस्ततः ।। १३५ ॥ पट्टदस्य विस्तारः(१)कार्यश्चतुर्भागविभाजितः । भागेनैकेन चोत्सेधस्तुलाधारणमिष्यते ।। १३६ ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे तुलाधारणकोत्सेधाचतुर्भागविभाजितात् । भागमेकं परित्यज्य पिण्डस्तस्य विधीयते ॥ १३७ ॥ मात्राहीना भवेन्मेढ्यां तावन्न्यस्येच्छलान्तले (?) । द्वौ भागौ मूलभागेन जयन्तीपिण्डविस्तरौ ॥ १३८ ।। इति हीरग्रहादीनां समासालश्मकीर्तनम् । पञ्चांशाभ्यधिकं स्तम्भविस्तारस्थन कुम्भिका (?) ॥ १३९ ॥ कुर्वीत स्तम्भतः सार्धा गर्ग(?)कुम्भस्य विस्तृतीः । अथवा स्तम्भकर्णेन स्तम्भाग्रद्विगुणा क्वचित् ।। १४० ॥ पादोनस्तम्भविस्तारादग्रकुम्भे समुच्छ्रितिः । स्तम्भविस्तारकणोद् वा यद्वा पिण्डोऽग्रकुम्भके ।। १४१ ॥ तस्य भागान् प्रवक्ष्यामो यथाकु कथं स युज्यते । विभक्तोऽत्र त्रिधा पिण्डो भागेनैकन पुत्तली ।। १४२ ॥ चतुर्भिस्तस्य मध्यस्य (बखं?, पदां समालिखेत् । उच्छाले पञ्चधा भक्ते त्रिभिरावर्तनं ++ ॥ १४३ ॥ वर्तनं योषव्येत्(?) किञ्चिन्न च खल्वं समाचरेत् । वतेने कुम्भकुम्भी तु मूत्रं दत्वा सुतानितम् ॥ १४४ ॥ पद्मनालासमा स स्यान भवेत् पङ्किवर्जिता (?) । नवाघोच्चाहा(?)लके भत्ते वीरगण्डस्तु भागिकः ।। १४५ ।। एकेनैकेन भागेन विधेया पट्टिकट्टिका । (ध्वसंछाकाल?)कर्तव्यं भागद्वितयसंमितम् ॥ १४६ ॥ तलकुम्भकपिण्डं तु पञ्चधा प्रविभाजयेत् । भागेनैकेन पनं स्याद भागन कलशं लिखेत् ॥ १४७ ।। द्वाभ्यां समालिखेत् कुम्भं भागेनकेन पट्टिकाम् । वर्तमाना चत्रा(१)कार्या शोभा स्यादस्य यावतः ॥ १४८ ॥ एष कुम्भक्रमः प्रोक्तः स्तम्भपादे व्यवस्थितः । तलपट्टस्य पिण्डस्तु भागपट्टसमो भवेत् ।। १४९ ॥ द्रव्येष्वत्र हि सर्वेषु सम्यक् शोभा विवक्षिता । न्यूनातिरिक्तमप्यस्मान्मानेष्वगुलमाचरेत् ॥ १५० ॥
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मेवादिषोडशप्रासादादिलक्षणो नाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः । १३ द्वारामुदयविस्तारी द्रव्यसंस्थानमेव च । पूर्वमेव यथोद्दिष्टं (य?तथा सर्वमनुस्मरेत् ।। १५१ ॥ पिण्डेन त मूलशाखागा द्वितीया प विधीयते । सपायते सपादन प्रत्ययदेनाथ साधनरूपशाखा प्रशस्यते(?)||१५२।। अर्धेन मूलशाखाः समा चैव वापशाखा शाखा प्रकल्पयेत् (?) । ऊर्ध्वपञ्चमशाखाया (दु?)सप्तमी नवमी च सा ।। १५३ ॥ रूपशा++++स्यान्न न्यूना नाधिकापि च । विस्तरार्ध तु कर्तव्यः सर्वालामेव निर्गमः ॥ १५४ ।। शाखाविस्तार विस्तीर्णा(नुन्युत्तरङ्गानि कारयेत् । सार्धेन ध्रुवशारखानां पिण्डेनोदुम्वरोदयः ।। १५५ ।। उदुम्बरस्य पिण्डेन सिंहवाणि कारयेत् । सदधैं बिलसन्धिः स्यात् तत्समा भूमिरङ्गिका ।। १५६ ॥ तलन्याससमः पट्टः पिण्डपूर्वव्यवस्थितः । कूटाकारैर्विचित्रैश्च शोभनै रूपकर्मभिः ॥ १५७ ।। पत्र जातैरनेकैश्च कण्ठं कुर्याद् यथेप्सितम् । पाचकः कटुतीक्ष्णाघेरनुसाररसयथा ॥ १५८ ॥ अन्वीक्ष्य विपचेत् तद्वन् स्थपतिः सर्वमाचरेत । यदुक्तं यदनुक्तं च तत् समग्रमपि स्फुटम् ॥ १५९ ॥
(युक्ता)युक्तं समालोच्य यथाशोभं समाचरेत् । आरभ्य मेरोरिति पोडशैते प्रासादमुख्याः कथिता यथावत् । संक्षेपतो लक्ष्म तथा जगत्यां द्वारादिसम्बन्धि च(द्वा?) दारुमानम् ॥१६० । इति महाराजाधिरामश्रीभोज दे विचित समागमअधारापर नाम्नि वास्तुशास्त्र मेर्वादिषोडशप्रासादलक्षाजातीलशगद्वारादिकला नाम
(पञ्चमो पञ्चपञ्चाशो)ऽध्यायः ॥
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সলঙ্গসুধাই अथ रुचकादिचतुष्पष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः ।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रासादाञ् शिखरान्वितान् । रुचकादींचतुःषष्टिं नामलक्षणतः क्रमात् ॥ १॥ पूर्व यानि विमानानि पञ्चोक्तान्यभवंस्ततः। तदाकारभृतः सर्वे प्रासादाः पञ्चविंशतिः ॥ २ ॥ शिखरैर्विविधाकारैरेकेनाण्डेन भूषिताः । केचिदण्डत्रयोपेताः केचित पञ्चाण्डकान्विताः ॥३॥ ईषभेदेन ते ज्ञेयाः प्रासादाः सर्वकामदाः । सौवर्णा राजताश्चैव देवानां सतनं प्रियाः ॥ ४ ॥ मणिमुक्तापवालाद्यैर्भूषणः सुविभूषिताः । रीतिकाताम्रघोषाः पिशाचोरगरक्षसाम् ॥ ५ ॥ देवलोका भवन्त्येते कामस्वच्छन्दचारिणः । पाताले चापि निर्दिष्टाः पाषाणैः स्फटिकैस्तथा ॥ ६ ॥ इष्टकाकाष्ठपाषाणैर्मर्त्यलोकेऽपि नन्दकाः । सुखदाश्च भवन्त्येते कर्तुः कारयितुस्तथा ॥ ७ ॥ लक्षणेनान्वितानेतान् कथयामो यथाविधि । पुराणां भूषणाथाय भुक्तिमुक्तिप्रदा तृणाम् ॥ ८ ॥ रुचको भद्रकश्चैव हंसो हंसोद्भवस्तथा । प्रतिहंसस्तथा नन्दो नन्द्याव? धराधरः ॥ ९ ॥ वर्धमानोऽद्रिकूटश्च श्रीवत्सोऽथ त्रिकूटकः । मुक्तकोणो गजश्चैव गरुडः सिंह एव च ।। १० ॥ भवश्च विभवश्चैव पद्मो मालाधरस्तथा । वज्रकः स्वस्तिकः शङ्कुर्मलयो मकरध्वजः ।। ११ ॥ इत्येते नामतः प्रोक्ताः प्रासादाः पञ्चविंशतिः । एतेषां रूपनिर्माणं कथयामो यथाविधि ॥ १२॥
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रुचकादिचतुष्पष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । रुचका(द्य,टादशैषां चतुरश्राः प्रकीर्तिताः ।। भवश्च विभवथैव चतुरश्रायतोऽथवा ।। १३ ।। पद्मो मालाधरश्चैव वृत्तावतावुदाहृतौ । मलयो मकराख्योऽथ द्वौ तु वृत्तायताविमो ॥ १४ ॥ वजकः स्वस्तिकः शकुरित्थमष्टाश्रयस्त्रयः ।। ललिताः कथिता घेते बमोऽन्यान् मिश्रकानथ ॥ १५॥ सुभद्रो योकिटश्च(?) सर्वतोभद्र एव च । सिंहकेसरिसंज्ञोऽन्यश्चित्रकूटो धराधरः ॥ १६ ॥ तिलकाख्यः स्वतिलकस्तथा सर्वाङ्गसुन्दरः। नवामी मिश्रकाः प्रोक्ताः कथयन्ते (साधकारिकाः) ॥ १७ ॥ केसरी सर्वतोभद्रो नन्दनो नन्दिशालकः । नन्दीशो मन्दिराख्यश्च श्रीक्षश्चामृतोद्भवः ॥ १८ ॥ हिमवान् हेमकूटश्च कैलासः पृथिवीजयः । इन्द्रनीलो महानीलो भूधरो रत्नकूटकः ॥ १९ ॥ वैडूर्यः पद्मरागश्च वज्रको मुकुटोत्कटः । ऐरावतो राजहंसो गरुडो वृषभस्तथा ॥ २० ॥ मेरुः प्रासादराजश्व देवानामालयो हि सः । +संयोगे तु संधारान् कथयामो यथाविधि ॥ २१ ॥ लतात्रिपुष्कराख्यौ च पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः । नवात्मकश्च निगूढः प्रासादाः पञ्च संज्ञिताः ॥ २२ ॥ आद्यः पञ्चाण्डकः कार्यः प्रासादः केसरीति यः । सर्वतोभद्रको यस्तु विधेयः स नवाण्डकः ॥ २३ ॥ त्रयोदशाण्डकस्तु स्यानन्दनो नाम यो भवेत् । नन्दिशालस्तु यः प्रोक्तः स स्यात् सप्तदशाण्डका ।। २४ ।। अण्डकैरेकविंशत्या नन्दीश: परिवारितः । पञ्चविंशाण्डकोपेतं मन्दरं कारयेद् बुधः ॥ २५ ॥ श्रीवृक्षः शस्यते चैतेष्वेकोनत्रिंशताण्डकैः । स्यात् त्रयविंशताण्डैस्तु प्रासादो शमृतोद्भवः ॥ २६ ॥
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समराङ्गणसूत्रधार अण्डकैः क्रियते सप्तत्रिंशता हिमवानपि । सेकया हेमकूटस्तु स्याच्चत्वारिंशताण्डकः ॥ २७ ॥ पञ्चचत्वारिंशताण्डैः कैलासो नाम नामतः । भवत्येकोनपञ्चाशदण्डकः पृथिवीजयः ॥ २८ ॥ इन्द्रनीलश्च यः प्रो(कारः? क्तः स त्रि)पश्चाशताण्डकैः । सप्तपञ्चाशता युक्तो महानीलस्तथाण्डकैः ॥ २९ ॥ एकषष्टयण्डकोपेतः प्रासादो भूधरी भवेत् । पञ्चषष्टयण्डकेयुक्तां रनकूटः प्रशस्यते ॥ ३० ॥ नवषष्टयण्डकः कार्यों वैदयः शुभलक्षणः। त्रिसप्तत्यण्डकयुतः पद्मरागो विधीयते ॥ ३१ ॥ अण्डकः सप्तसप्तत्या प्रासादो विजयाभिधः । एकाशीत्यण्डकोपेतो विधेयो मुकुटोत्कटः ।। ३२ ।। ऐरावतस्तु पञ्चाशीत्यण्डकः परिकीर्तितः । नवाशीत्यण्डकयुक्तो राजहंसः प्रशस्यते ॥ ३३ ॥ नवत्या सप्तयुतया प्रासादो कृपभोऽ डकैः । शतेनेकोत्तरेणाण्डर्मेरुः प्रासादराट् स्मृतः ॥ ३४ ॥ हरेर्हिरण्यगर्भस्य +++ भास्करस्य च । मेरुरेष विधातव्यो नान्यस्य त्रिदिवौकसः ॥ ३५ ॥ मेरोः प्रासादराजस्य देवानामालयस्य च । कर्ता क्षत्रिय एवास्य वै(श्य?श्योऽस्य स्थपतिर्भवेत् ॥ ३६ ॥ एवं विधीयमानेऽस्मिन् मेरौ द्वावपि नन्दतः । वास्तुशास्त्रविधिज्ञोऽपि क्षत्रियः स्थपतियेदि ॥ ३७॥ तदास्य सत्यं शौचं च विक्रमश्च विनश्यति । ईश्वरोऽपि यदा विप्रो मेरुपासादकृद् भवत् ।। ३८ ॥ कतुः कारयितुः पीडा पूजा चास्य न ताशी। ब्राह्मणः स्थपतिश्चास्य वास्तुशास्त्रे विशारदः ॥ ३९ ॥ वणिकर्मणि वर्तेत धनवानपि यद्यसौ । सर्वविमेधु निर्दिष्टः कर्ता स्थपतिरेव सः॥४०॥
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रुचकादिचतुष्पष्टिपासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । तत्रस्था देवताः सर्वास्तस्य वृद्धिः कथञ्चन । वास्तुशास्त्रविधिज्ञोऽपि तत्तत् कारयिता यदि ॥४१॥ राजापि क्षत्रियः कर्ता यदा मेरो)र्भवेत तदा। राष्ट्रभको भवेत् तस्य प्रजा यान्ति दिशो दश ॥ ४२ ॥ क्षत्रियेण नरेन्द्रेण कर्ता स्थपतिना यदि (१) । मेरोः पूजा भवेत् तत्र क्षत्रियोऽप्यक्षयं पदम् ॥ ४३ ॥ एकैकस्य च यन्मानं सकर्णस्य च यदशम् । प्रासादानां च सर्वेषां तत् सम्यगभिधीयते ॥४४॥ चतुरश्रीकते क्षेत्रे चतुर्भागविवर्जिते ।। भागिका सर्वतो भित्तिः शेषं गर्भगृहं भवेत् ॥ ४५ ॥ तस्याग्रतः पुनः कार्यो भागद्वयविनिर्गतः। विस्तारेण त्रिभागश्च प्राग्ग्रीवास्तम्भभूषितः ॥ ४६ ॥ पीठोत्सेधस्य भागेन भवेजङ्घा द्विभागिका । भागाध+तरं पत्रं(?) पादेन स्याद् वरण्डिका ॥४७॥ सपादांश्चतुरो भागान् शिखरस्योच्छ्यः स्मृतः । त्रिगुणेन च सूत्रेण पद्मकोशं समालिखेद ॥४८॥ स्कन्धकोशान्तरं चास्य भागैः प्रविभजेत् त्रिभिः। भवेद् ग्रीवार्धमागेन भागेनामलसारकम् ॥ ४९ ॥ पद्मशीर्ष च भागार्धाद भागेन (+ लसी:?)स्मृतः । इत्युक्तो रुचकाख्योऽयं
रुचकः ।। ___ भद्रकाख्योऽथ कथ्यते ॥ ५० ॥ ++++++++++++++++ ++ + + + + + ++ ++ + + + + + ||५१॥
भद्रकः॥ भद्रं तु कर्णयोर्मध्ये कारयेदुदकान्तरम् । तदा हंसो विजानीयात् प्रासादो देवतालयः ।। ५२ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे हंसस्येव यदा कुर्याद भद्रस्यान्ते जलान्तरम् । तदा हंसोद्भवो नाम प्रासादः परिकीर्तितः ।। ५३ ॥
हंसोद्भवः ।। रथान्तकर्णयोश्चैवं यदा स्यादुदकान्तरम् । प्रतिहंसस्तदा प्रोक्तः प्रासादोऽयं मनोरमः ।। ५४ ।।
प्रतिहंसः ।। प्राग्रीवा रुचकस्यैव सीमाविस्तारविस्तृताः । निर्गता भद्रमानेन तदा नन्दः स उच्यते ॥ ५५ ॥
नन्दः ॥ प्राग्नीवैर्भद्रमानेन नन्दो यदि विभूष्यते । निर्गतैर्भागमानेन चतुरभैः समन्ततः ।। ५६ ॥ प्राग्ग्रीवः पुरतः कार्यः स्तम्भद्वयविभूपितः । नन्द्यावतस्तदा प्रोक्तः प्रासादो विजयावहः ॥ ५७ ।।
नन्द्यावर्तः ॥ नन्द्यावर्ते यदा कुर्याद् भद्रान्ते जलनिर्गमम् । धराधरस्तदा ज्ञेयः प्रासादो भुवनोत्तमः ।। ५८ ॥
धराधरः॥ दशधा भाजिते क्षेत्रे चतुरश्र समन्ततः ।। भागद्वयेन कर्णः स्याद् भजेच्छेषं च सप्तथा ॥ ५९ ॥ भागत्रयेण स्थको मध्यमोऽस्य विधीयते । द्वाभ्यां द्वाभ्यां तु भागाभ्यां रथको वामदक्षिणौ ॥ ६ ॥ भागस्यैव त्रिभागेन भवेदस्य विनिर्गमः । कथितो वर्धमानोऽयं
वर्धमानः ।।
गिरि कूटोऽथ कथ्यते ॥ ६१॥ वर्धमानस्य भद्रस्थमध्यसूत्रेण योजयेत् । कर्णिसूत्रं तदग्राभ्यां न्यस्येत् सूत्रचतुष्टयम् ।। ६२॥
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रुचकादिचतुःषष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । १९ तदुत्पन्नस्तु भद्रस्थकर्णैः स्याच्चित्रकूटकः ।
गिरिकूटः ॥ कर्णान्ते च रथान्ते च यदि स्यात् सलिलान्तरम् ।। ६३ ॥ वर्धमानस्य भवति श्रीवत्सः स्यात् तदा शुभः ।
श्रीवत्सः ॥ गिरिकूटस्य संस्थाने तद्रूपे विनिवेशिते ।। ६४ ॥ कर्णा (न्) प्रतिरथेष्वस्य निखिलेष्वपि योजयेत् । प्राग्वत् प्रतिरथोद्भूतमूत्राभ्यां कर्णवर्मना ।। ६५ ॥ त्रिकूाख्यस्तदैव स्यात् प्रासादो देवतालयः ।
त्रिकूटः ॥ त्रिकूटस्यैव संस्थाने भद्रकर्णपरिच्युते ॥ ६६ ।। स्वरूपभद्रसंस्थाने मुक्तकोणः प्रजायते ।।
मुक्तकोणः ।। चतुर्भि(विस्तृते गैः क्षेत्रे पञ्चभिरायते ॥ ६७ ॥ भागेन भित्तिः कर्तव्या शेषं गर्भगृहं भवेत् । अस्य क्षेत्रार्धसूत्रेण पृष्ठतो वृत्तमालिखेत् ॥ ६८ ॥ पुरतः शूरसेनोऽस्य पृष्ठतोऽपि गजाकृतिः। प्रासादोऽयं गजो नाम गणेशस्य विधीयते ॥ ६९ ।।
वर्धमानस्य संस्थाने गरुडं विनिवेशयेत् । तस्य पक्षौ विधातव्यौ प्रासादान निर्गतौ ॥ ७० ॥ पक्षयोस्तु दशस्तस्य(?) वर्धमानं विभाजयेत् । जातिशुद्धा रथाः कार्याः पार्श्वयोर्गरुडो भवेत् ॥ ७१ ।।
वर्धमानस्य संस्थाने प्राग्वत् कर्णी नियोजयेत् । द्विभागा रथिका कार्या शेषं भद्रं प्रकल्पयेत् ।। ७२ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे जङ्गास्य पञ्चभिर्भागैः पीठं चास्य तदर्धतः । विरण्ड्यर्धाशिकाद्भिश्च(१) भागश्चान्तरपत्रयोः ॥ ७३ ।। तथोत्सेधत्रिभागैश्च नवभिः शिखरोच्छ्रितः। कुम्भश्चामलसारश्च सिंहेऽ(स्मिद्रास्मिन् भा)गमा(ग?नतः।। ७४ ॥
सिंहः ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्भि जितेः पदैः । सीमाविस्तारमानेन रथांस्तस्य प्रकल्पयेत् ॥ ७५ ॥ पादेनैकेन निर्यातान् दिक्षु सर्वास्वनुक्रमात् । प्राग्ग्रीवान् पुनरस्यैव भागद्वितयविस्तृतान् ॥ ७६ ॥ पदषड्भागनिर्यातान् विदधीत चतुर्दिशम् । चतुर्भागायतो गर्भः कार्योऽस्य द्वयंशविस्तृतः ॥ ७७ ॥ जङ्घोत्सेधश्च पीठं च यथा भद्रे तथा भवेत् । प्रासादो भवसंज्ञोऽयं देवतात्रितयाश्रयः ॥ ७८ ॥
भवः ॥
भवस्यैव यदा कुर्याद् रथान् सजलनिर्गमान् । द्विभङ्गं संश्रयोऽन्यः सा(?)प्रासादो विभवाभिधः ॥ ७९ ॥
(त्रिलिङ्गः) । अष्टधा भाजिते क्षेत्रे चतुरश्रे समन्ततः । विदध्याद गर्भसूत्राणि कर्णसूत्राणि च क्रमात् ।। ८० ॥ दिक्सूत्रेष्वखिलेष्वस्य सीमाध पदमेव च । पदस्याष्टादशो भागस्तद्योगाद वृत्तमालिखेत् ॥ ८१ ॥ विस्तारार्घ भवेद गर्भो गर्भार्धास्तस्य भित्तयः । तवृत्तबाह्यसूत्रेण भागान् षोडश कारयेत् ।। ८२ ॥ दिक्सूत्रकर्णसूत्रेषु रथकान् सम्प्रकल्पयेत् ।। द्विभागा रथिका कायो सलिलान्तरभूषिता ॥ ८३ ॥ सलिलान्तरमेतस्य श्रीवत्सस्येव कल्पयेत् । जजोस्सेधे च पीठे च शिखरं(१) च तथा भवेत् ।। ८४।।
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रुचकादिचतुःषष्टिपासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः। मालाधारः स विज्ञेयः सबाह्याभ्यन्तरः समः ।
मालाधरः ।। मालाधरस्य संस्थाने यत् क्षेत्र पूर्ववत् स्थितम् ।। ८५ ।। उदकान्तरविच्छिन्नं पद्मं तत्र निवेशयेत् । तथाग्रे कारयेत् कर्णव्यासाधेन विनिर्गमान् ।। ८६ ॥ पद्मपत्रनिभाकाराज जतिशुद्धान् सलक्षणान् ।
पद्मः ।। षड्भागानायते क्षेत्रे विस्तारे चतुरश्रके ॥ ८७ ॥ द्विभागाद् विपुलो गर्भश्चतुर्भागायतो भवेत् । गर्भव्यासमितं मूत्रं पदपादसमन्वितम् ।। ८८ ॥ वृत्ताध भ्रमयेत् तेन दक्षिणेनोत्तरेण च । सीमाविस्तारसूत्रेण पदपादयुतेन च ।। ८९ ॥ पुरतः पृष्ठतश्चापि तद्त्त मनुवर्तयेत् । वृत्तक्षेत्रमिदं तस्य भागैादशभिर्भवेत् ॥ ९० ॥ द्विभागो भद्रविस्तारो भागिकी भागविस्तृतिः । भद्राणां च रथान्मध्ये भागेनैकेन विस्तृता(?) ॥ ९१ ॥ उदकान्तरकं चात्र मालाधरवदाचरेत् । वृत्तायतस्तु कर्तव्यः प्रासादो मलयाभिधः ॥ ९२ ॥
मलयः ।
मलयस्यैव कर्णेषु रथिकान यदि कल्पयेत् । उदकान्तरविच्छिन्नान् पदषड्भागनिर्गतान् ।। ९३ ।। पीठोत्सेधश्च जङ्घा च शिखरं चात्र यद भवेत् । एकमात्रासमायुक्तं लतिना ते(१) प्रतीयते ।। ९४ ॥ नान्ताधायते व्यंमाशाणां चतुरश्राणां कोणेष्वर्धपरिक्षयात्()। अष्टाअं जायते यत्र वाजाग्रमपि तां नरम् (१) ।। ९५ ।। अष्टानं चतुरो भागान् विदध्यात् तत्र भागिकी । भित्तिर्विधेया भागाभ्यां भवेद् गर्भगृहं ततः ।। ९६ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे
रथिकासु विधेयोsस्य परितो जलनिर्गमः । वज्रको नाम कथितः प्रासादः शुभलक्षणः ॥ ९७ ॥
वज्रकः ॥
वज्रकस्यैव संस्थाने सलिलान्तरवर्जिते । चत्वारिंशद्भागभक्ते रथिकाः स्युविभागिकाः ॥ ९८ ॥ sert दिक्षु कर्णा भवन्त्यस्य द्विभागिकाः । कर्णैः पद्मकतुल्योऽयं स्वस्तिकः समुदाहृतः ॥ ९९ ॥ स्वस्तिकः ॥
वज्रकस्यैव संस्थाने ये रथाः प्राकू प्रदर्शिताः । एकैकस्तेषु कर्तव्यश्चतुरश्चतुरोऽशकान् ॥ १०० ॥ भागद्वयेन मध्यः स्याद् रथकोशाद विनिर्गतः । शकुर्नामायमुद्दिष्टः प्रासादोऽष्टाभिरश्रिभिः ॥ १०१ ॥
शङ्कुः ॥
चतुरश्राः षोडश प्रोक्ताश्चतुरंश्रायतद्वयम् ( 2 ) | वृत्तवृत्तायतौ द्वौ द्वावुक्ताश्राष्टाश्रयस्त्रयः ।। १०२ ॥
पञ्चविंशतिरित्येते प्रासादा ललिताः स्मृताः । मिश्रकाणामथ मो लक्षणानि यथाक्रमम् ॥ १०३ ॥ भद्रकस्यैव संस्थाने भद्रे शृङ्गं यदा भवेत् । सुभद्रो नाम(?) संज्ञोऽयं कर्णकूटैः करीब सौ (९) ॥ १०४ ॥ पूर्वोक्तस्य यदा शृङ्गं भद्रं केसरिणो भवेत् । लताख्योक्तं (?) तदा स स्यात् सर्वतोभद्रसंज्ञितः ॥ १०५ ॥
भद्रे शृङ्गं परित्यज्य सिंहं तत्रैव कारयेत् । मिश्रयोगे तयोर्मिश्रः स भवेत् सिंहकेसरी ।। १०६ ॥
श्रीवत्सस्यैव संस्थाने भद्रे कूटं निवेशयेत् । कर्णे तेनैव योगेन प्रतिशृङ्गोपशोभितम् ।। १०७ ॥ कलशैः सप्तदशभिः पद्मघण्टामलैः सह । स च त्रिकूट इत्युक्तो विचित्रशिखरान्त्रितः ॥ १०८ ॥
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रुचकादिचतुष्पष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । २३ कर्णे भद्रे प्रतिस्थाने पूर्णे शृङ्गे यदा भवेत् । अण्डकैः सप्तदशभिस्तदा स्यात् स धराधरः ॥ १०९ ।। श्रीवत्सस्यैव संस्थाने कर्णे कूटं निवेशयेत् । शृङ्गं भद्रो + भद्रे च तदा तिलक उच्यते ।। ११० ।। यथा कर्णे त था) भद्रे यो भवेचित्रकुटवत । उत्तमाड्गे च यस्तद्वत् स स्यात् सवोङ्गसुन्दरः ॥ १११ ॥ प्रतिशृङ्गेषु सर्वेषु यदा कूटं निवेश्यते । मिश्रकः स तु विज्ञेयः श्रीनाम्ना चान्तिकोन्तिकः॥११२ ॥ सर्वे कूटाटताः कार्याः सर्वे कार्याश्चतुर्मुखाः । मिश्रका बहुशृङ्गाश्च कुटीसंज्ञास्ततोऽपरे ।। ११३ ।। इदं नवानां मिश्राणामिह लक्षणमीरितम् । साधारणमतः स्पष्टं ब्रूमः सम्पति लक्षणम् ॥ ११४ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भागाष्टकविभाजिते । तस्य मध्ये भवेद् गर्भो द्विभागो देवतालयः ॥ ११५ ॥ भागे निवेशयेद् भित्ति कुर्याद् भागेन कारिकाम् । बाह्यभित्तिं पुनर्भागे विधेयास्तस्य सिद्धये(?) ।। ११६ ॥ तस्य कर्णेषु कर्तव्या रथिकाच द्विभागिकाः। शेषं भद्रं प्रकर्तव्यमुदकान्तरभूषितम् ॥ ११७ ॥ भागेन निर्गतं दिक्षु सर्वास्वेष भवेद् विधिः । चतुर्भागोच्छ्रिता जा करकश्च तदर्धकः ।। ११८ ।। वरण्ड्यन्तरपत्रं च भागेनैकेन कल्पयेत् । रथिकैकान्तरं तस्य सार्धभागत्रयोच्छ्रिताः(१) ॥ ११९ ॥ षड्भागे शिखरं मूले शेषांशकसमुच्छ्रितम् । तस्योच्छ्रयं त्रिधा कृत्वा वेणुकोशं समालिखेत् ॥ १२० ।। स्कन्धकोशान्तरं तस्य चतुर्धा विभजेत् ततः । पशीर्ष तथा ग्री(वां) सार्धनांशेन कारयेत् ॥ १२१ ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे
कुर्याद् भागेन भागेन कुम्भं चामलसारकम् । भागार्थेन प्रकुर्वीत तदूर्ध्वं बीजपूरकम् ॥ १२२ ॥ प्रासादः कैसरी नाम सर्वतः सन्ततिप्रियः ।
कैसरी ॥
चतुरश्रं समं कृत्वा भूमिभागं विचक्षणः || १२३ ॥ प्रासा (दोद) व्यासतः कुर्याज्जगतीं द्विगुणामिह । विदध्याज्जगतीपीठं प्रासादार्थसमुच्छ्रितम् ॥ १२४ ॥ पीठस्योपरि संस्थाप्य प्रासादं विभजेत् ततः । सर्वतोभद्र संस्थानं हस्तसंख्या यदा भवेत् ।। १२५ ।। हस्तैः सप्तत्रिंशता तु ज्येष्ठः सार्धे ( 2 ) उदाहृतः । मध्यमः सप्तविंशत्या प्रासादः स्यात् कलाधिकैः || १२६ || कनीयान् पञ्चदशभिः प्रासादः समुदीरितः । तलच्छन्दो यदा ह्येषां तथाचैवोर्ध्वतो गतिम् ॥ १२७ ॥ ज्येष्ठमध्यकनिष्ठानां तथा सम्यङ् निगद्यते । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे शतमूलविभाजिते ।। १२८ || न्यसेत् तन्मध्यतो गर्भं चतुर्वर्गपदान्वितम् । गर्भपादेन भित्तिः स्यात् तद्वदेवान्यकारिका ॥ १२९ ॥ बाह्यमित्तिस्त(थवा ?थैव) स्याद् दशशास्युर्द्विभागिका (१) । प्रतिवर्णपदांशेन (3) षोडशेन जलान्तरम् ॥ १३० ॥ शेषं भद्रं (?) प्रकर्तव्यं गर्भार्धेन विनिर्गतम् । भागार्थं क्षोभयेत् पार्श्वे निर्गमं च तथाचरेत् ॥ १३१ ॥ शेषः स्याद् भद्रविस्तारः पञ्चभागायतस्तथा । पीठं तस्यैव कर्तव्यं सार्धद्वयसमुच्छ्रितम् ।। १३२ । द्विगुणां च तथा जङ्घामुच्छ्रायेणास्य कल्पयेत् । मेखलामर्वभागेन भागेनान्त (र) पत्रकम् ॥ १३३ ॥ प्रथमा रथिका तत्र कार्या भागत्रयोच्छ्रिता । द्वितीया रथिका या सा सार्वभावेन वोच्छ्रिता ॥ १३४ ॥
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रुचकादिचतुष्षष्टिपासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । २५ भागे भागेऽन्तरं कार्यमुपर्युपरि चोभयोः । षड्भागान् विस्तृतं कुर्याच्छिखरं सप्तमोच्छ्रितम् ॥ १३५ ॥ एवं भूमिभिरष्टाभिः कुर्यादेनं विचक्षणः । जलनिर्गमविच्छिन्ना रथाः प्रतिरथास्तथा ॥ १३६ ॥ चतुर्गुणैः पृथक्मूत्रैः ) पद्मको समालिखेत ! मञ्जरी ललिता कार्या नीलोत्पलदलाकृतिः ॥ १३७ ।। ग्रीवा चैकार्धभागेन (भागेना)मलप्सारकम् । . पद्मशीपं च कर्तव्यं ग्रीवामानेन धीमता ॥ १३८ ।। सार्धमागेन सोष्णीषः पद्मस्योपरिकुम्भकः । सर्वतोभद्र इत्युक्तो रेपानानाम् (१) एष शेखरः ॥ १३९ ।। विधाय सर्वतोभद्रं देवानामालयं शुभम् । लभते परमं लोकं दिवि स्वच्छन्दभाषितम् ।। १४०॥
सर्वतोभद्रः ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशधा प्रविभाजिते । व्यासपादेन गर्भ(स्तीस्यात् तदर्शदन्यकारिका ॥ १४१ ॥ जङ्घा स्कन्यश्च तं कर्ण(?) भद्रं चाप्यस्य यद् भवेत् । सर्वतोभद्रवत् सर्व तद विधेयं चतुर्दिशम् ।। १४२ ।। तस्य भद्राणि सर्वाणि भितिभिः परिवेष्टयेत् । भद्रे भद्रे पुनश्चास्य वर्धमानं निवेशयेत् ॥ १४३ ।। पञ्चभागास्तथा सार्धाः शिखरस्योदयो भवेत् । सर्वतोभद्रकाकारा रथिकाश्चात्र कारयेत् ।। १४४ ॥ कुर्यात् षडशा विस्तीर्णशिखरं प्र+धोच्छ्रितम् (१) । सर्वतोभद्रसंस्थानादेषां चास्वत्र योजयेत् (?) ॥ १४५ ॥ ग्रीवा चामलसारं च कुम्भश्चापि तथा भवेत।। मासादो नन्दनो नाम कर्तव्यो देवतालयः ॥ १४६ ॥ कृतेऽस्मिन् नन्दति स्वामी दुरितानि च निर्दहेत् ।
नन्दनः ।। भक्ते द्वादशषा धेत्र चतुरभीकते ततः ॥ १४७ ।।
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२६
समराङ्गणसूत्रधारे
afat गर्भो भिच्या सह विधीयते । सपादपादिका भित्तिगर्भे (?) कुर्याद् विचक्षणः || १४८ ॥ वाह्यभित्तिश्व तद्वत् स्यात् तद्वच्चाप्यन्धकारिका । पीठोच्छ्रयस्तथा जङ्घा कर्णेषु रथिकाश्रयाः ॥ १४९ ॥ सर्वतोभद्रकाकारान्मृलकर्णाश्च योजयेत् । एकैकां रथिकां चान्यां विन्यसेत् पक्षयोर्द्वयोः ॥ १५० ॥ चतस्रो रथिकाचैवं कर्णे कर्णे निवेशयेत् । शेषो भद्रस्य विस्तारः स्वविस्तारार्धनिर्गतः ।। १५१ ।। भूषयेत् सिंहकर्णैश्च भद्रव्यासार्धमुन्नतैः । विन्यसेच्छिखरं तत्र भागविस्तृतमष्टभिः || १५२ ॥ चतुर्गुणेन सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् । स्कन्त्रकोशान्तरं चास्य त्रिभिर्भागैर्विभाजयेत् || १५३ ॥
ग्रीवार्धभागिकोत्सेधा (?) भागेनामलसारकः | पद्मशीर्ष तथार्धेन भागेन कलशः स्मृतः ।। १५४ ॥ त्रिपादा रथिकास्तिस्र उच्छ्रायेण प्रकीर्तिताः । सर्वतोभद्रकाका नन्दिशालः प्रकीर्तितः ॥ १५५ ॥ नन्दिशालः ||
नन्दिशालस्य संस्थाने तद्रूपे समवस्थिते । तस्य भद्राणि सर्वाणि भित्तिभिः परिवेष्टयेत् ।। १५६ ॥ भद्रे भद्रे तस्य तस्य वर्धमानं निवेशयेत् । अर्थषष्ठांस्तथा भागान् स्याद् भद्रशिखरोच्छ्रयः ॥ १५७ ॥ पीठोच्छ्रायं च जङ्घां च तथास्य शिखरोच्छ्रयम् । नन्दिशालसमाकारं सममेव प्रकल्पयेत् || १५८ ।। कार्योऽयं सर्वदेवानां प्रासादो नन्दिवर्धनः ।
नन्दिवर्धनः ॥
नन्दिवर्धन संस्थानं पूर्ववत् परिकल्पयेत् ।। १५९ || उभयोः कर्णयोर्मध्ये ये तत्र रथिके स्थिते । तयोश्वोपरि कर्तव्यं शिखरं लक्षणान्वितम् ॥ १६० ॥
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रुचकादिचतुष्पष्टिपासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । पडंशविस्तृतं चैतत् सार्धपटकसमुच्छितम् । चतुर्गुणेन सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् ।। १६१ ।। ग्रीवा चामलसारं च कुम्भकस्याश्रयो भवेत् । कार्यः स सर्वतोभद्रसंस्थान इति निश्चयः ॥ १६२ ॥ मन्दिरोऽयमिति ख्यातः प्रासादः क्षितिभूषणः ।
मन्दिरः ॥ नन्दिवर्धनसंस्थाने तपसमवस्थित ॥ १६३ ।। दिक्मत्रे कर्णसूत्रे च (कुम्भ?)+रथिकाष्टकम् । रथिका अपि चैताः स्युर्द्विभागायतविस्तृताः ॥ १६४ ॥ षड्भागविस्तृतिश्चास्य शेष शिखरमाचरेत् । उच्छ्यश्चास्य कर्तव्यो भागानां सार्थसप्तकम् ॥ १६५ ॥ षड्भागः स्कन्धविस्तारो ग्रीवा चास्य द्विभागिका । रेखा चामलसारं च कलशचात्र यो भवेत् ॥ १६६ ॥ सर्वतोभद्रवत् स स्याच्छीक्षोऽयमुदाहृतः ।
श्रीवृक्षः ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दशविभाजिते ॥ १६७ ॥ द्विभांगविस्तृताः कर्णा रथिकास्तेषु कारयेत् । उदकान्तरविच्छिन्ना मूलकणषु योजयेत् ॥ १६८ ॥ शेपं भद्रस्य विस्तारस्तदर्धमपि निर्गमः । सर्वतोभद्रमप्यस्य भद्रे भद्रे विभज्य च ॥ १६९ ।। पूर्वैर्गुणैस्तु संयुक्ते चतुर्दिक्षु निवेशयेत् । तस्य गर्भस्तु कर्तव्यः (पदापृष्टक)विस्तृतः ॥ १७० ॥ सार्थभागप्रमाणः स्याद भित्तिर्गर्भस्य मध्यतः। बाह्यभित्तिस्तथैवास्य शेपं भ्रमणमाचरेत् ।। १७१ ॥ जापभागमुत्सेधात् पीठं तस्य तदर्धतः ।। वरण्डी(ना?मान्तरं पत्रं भागनैकेन कारयेत्।। १७२ ॥ रथिकाद्वादशविस्तारानुपयुपरि योजिता(?) । तिस्रस्तिस्रो निवे(शाश्याः स्युः कर्णे कर्णे(तीय)थाक्रमम् ॥१७॥
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समराङ्गणसूत्रधारे प्रथमा रथिकास्तस्य कुर्याद् भागत्रयोच्छ्रिताः । कुर्यादु(पयुपर्यन्याः पादपादविवर्जिताः ॥ १७४ ।। अष्टभिविस्तृतं भागैः सानैवभिरुच्छ्रितम् । सर्वतोभद्रकाकारं शिखरं तस्य कारयेत् ।। १७५ ।। प्रासादोऽयं विमानाख्यः प्रख्यातश्चामृतोद्भवः ।
विमान. ॥ द्विसप्तायामविस्तारं हिमवन्तं विभाजयेत् ।। १७६ ॥ चतुधा रथिकास्तत्र कर्णे कणे निवेशयेत् । द्विभागविस्तृताः सर्वा उपयुपरि कारयेत् ।। १७७ ।। प्रथमा भूमिका तस्य स्याच भागत्रयोच्छिता । पादपादविहीनास्तु क्रमणोपरिभूमयः ।। १७८ ।। नन्दिशालगुणयुक्तं शिवरं चात्र कारयेत् । सर्वतोभद्रवन्मध्ये भूमिकाच समाचरेत् ।। १७९ ॥ द्विभागा रथिकास्तस्य सर्वा) भागत्रयोच्छ्रिताः । द्वितीयभूमि का? रथिका भूम्युश?च्छा येण कारयेत् ।। १८० ॥ शिखरस्योच्छ्यः कार्यः सपादव्याससंमिनः । अमृतोद्भववज्जङ्घा पीटं चात्र तथा भवेत् ।। १८१ ।। जातिशुद्धो भवत्येष दिगवान सुवनोत्तमः ।।
हिमवान् । हिमाचलस्य संस्थान तप समवस्थिते ।। १८२ ॥ तस्य भद्रेषु सर्वेषु वधमानं च योजयेत् ।। भागषदकप्रविस्तारं तदर्थेन विनिर्गतम् ॥ १८३ ॥ भागैः सप्तभिरप्यम्य साधैः स्याच्छिखरोच्छ्रयः । शिखरस्याग्रनः स्न(म्म:?म्भ सिंहकाणे वि?णैर्वि)भूषयेत् ।। १८४॥ दिकसूत्ररस्य सर्वेषु क्रियां प्राग्वत् प्रकल्पयेत् । जङ्घोत्सेधश्च कश्च शिश्वां चास्य यद् भवेत् ।। १८५ ।। हिमवत्सदृशं सर्वे विधेयं तद विजानता । हेमकूट इति ख्यातः पासादोऽयं जगत्त्रये ॥ १८६ ।।
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रुचकादिचतुष्षष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः ।
एष त्रिमूर्तिनिलयः कार्यो नान्यस्य कस्यचित् |
हेमकूटः ||
हिमवतुल्यसंस्थानं प्रासादं परिकल्पयेत् || १८७ ॥ तस्य मध्ये विधातव्यः सर्वतोभद्रसंज्ञितः । वर्जनीयं तु तन्मध्ये वर्धमाननिवेशनम् ॥ १८८ ॥ ततः स्थानेषु सर्वेषु खण्डरेखा निवेशयेत् । व्यासोच्छ्रितैस्ततः सिंहकणैर्भद्रं विभूषयेत् ॥ १८९ ॥ ऊर्ध्वं च शिखरं तस्य वर्जनीयं विचक्षणैः । द्वे द्वे च रथिके कार्ये सपादशकोच्छ्रिती ॥ १९० ॥ तयोश्चोपरि विस्ताराच्छिखरं चतुरश्रकम् I उच्छ्रयः पञ्चभिः साधैर्विधेयः शिखरस्य च ॥ १९१ ॥
दिक्सूत्रेषु च सर्वेषु क्रियामेव प्रकल्पयेत् । बाह्यरेखा तु जङ्घा च हिमवत्सदृशी स्मृता ॥। १९२ ।। कैलासोऽयमिति ख्यातः कर्तव्यः शूलपाणये ।
कैलासः ॥
एतस्यैव यदा भद्रमुच्छ्रितं सिंहकर्णः || १९३ ॥ द्वे द्वे च रथिके तत्र दी (य? ये) ते सुमनोरमे । शेषः शिखरविस्तारः पञ्चभावसमुच्छ्रितः ॥ १९४ ॥
प्राग्ग्रीवकाच भद्रेषु भागभागविनिर्गताः । विस्तारेण चतुर्भागा दिक्षु सर्वास्वयं विधिः ॥ १९५ ॥
विमानसदृशी चास्य बाह्यलेखा विधीयते । गुणैरेभिस्तदा युक्तः प्रासादः पृथिवीजयः ।। १९६ ॥ पृथिवीजयः ॥
भक्ते षोडशभिः क्षेत्रे चतुरश्रे समन्ततः । गर्भोऽष्टवर्गः स्यात् तस्य मध्ये भित्तिद्विभागिका ॥ १९७ ॥
भ्रमणं बाह्यभित्तिश्च तत्समे एव कीर्तिते । कर्णेषु रथिका कार्या सलिलान्तरभूषिता ॥ १९८ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे
तत्तुल्यायामविस्तारा रथिकाः स्युस्तथापराः । तद्वत् तृतीयरथिका भद्रं चतुष्पदायतम् ॥ १९९ ।। विस्तारार्धेन निष्क्रान्तं क्षोभयेद वर्धमानतः । घरण्ड्यन्तरपत्रे च सा(?) भागेन कारयेत् ।। २०० ॥ उपर्युपरि भागान हि हीनाः स्युः क्रमशोभव:(१)। भद्रे रथिकयोमध्ये सिंहकों विधीयते ॥ २०१॥ एतस्य चोच्छ्यो भागः पञ्चभिः परिकीर्तितः । पावस्थे सिंहकर्णस्थराथके य निवेशिते ॥ २०२ ।। तयोरुपरि षड्भागं विस्तृतं शिखरं भवेत् । विधेयमुच्छ्येणेतत् त्रिभागान् स(साप्त)वाधिकान् ।। २०३ ॥ पक्षयोरुभयोस्तस्य रथिक (च) तव॑तः । सिंहं निवेशयेद् दिक्षु निखिलास्वप्ययं विधिः ।। २०४ ॥ मूलकणे ततथा शिवरं दशविस्तृतस् । एकादशोच्छ्रितं कार्य क्रमवृत्या मनोरमम् ।। २०५ ॥ चतुर्गुणेन सूत्रेण वेणुकोशं ततो लिखेत् । पूर्वोक्ता सातरंभागेरमुष्या?) विभनेत् त्रिभिः ।। २०६ ।। ग्रीवार्धभागमुत्सेधादण्डकं भागमुच्छ्रितम् । पाशीष तथार्धेन कलशश्चांशकोदयः ॥ २०७॥ देवानामालयः स स्यादिन्द्रनीलोऽयमीरितः ।
इन्द्रनीलः ॥ एतस्यैव यदोर्ध्वस्थं शिखरं क्रियतेऽन्यथा ॥ २८ ॥ चतुर्थी रथिका चास्य दीयतेऽतिमनोरमा । पूर्वोक्तेन विधानेन पादं वि++वर्जिता ।। २०९ ॥ शिखरस्याष्ट विस्तारो नव भागास्तथोच्छ्यः । इन्द्रनीलस्य सदृशं शेषमन्यद् विधीयते ॥ २१० ॥ महानीलोऽयमाख्यातः प्रासादत्रिदशालयः ।
___महानीलः ॥ इन्द्रनीलस्य संस्थाने दिक्सूत्रेषु समन्ततः ॥ २११ ।।
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रुचकादिचतुष्षष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः ।
सर्वतोभद्रशिखरं हित्वा ( हो + ? निवेशयेत् । विधिरेष समस्तासु ककुप्सु प्रविधीयते ।। २१२ । भद्रेषु वर्धमानस्य विन्यासं परिवर्जयेत् । व्यासोच्छ्रितैः सिंहकर्णैर्भद्रमस्य विभूषयेत् || २१३ ॥ महानीलस्य सदृशं सर्वमस्य प्रकल्पयेत् । इन्द्रगोपनिभाकारः प्रासादो भूधरः स्मृतः ॥ २१४ ॥ सुरेश्वरस्य कर्तव्यो नान्येषां कथमप्यसौ ।
भूधरः ॥
भूधरस्य तु संस्थाने तद्रूपे समवस्थिते ।। २१५ ॥ भद्रे भद्रे पुनः प्राज्ञो वर्धमानं निवेशयेत् । चतुर्भागमितव्यासं सार्थचतुः समुच्छ्रितम् ॥ २१६ ॥ रत्नकूटः समाख्यातः प्रासादः श्रीपतेरयम् ।
रत्नकूटः ॥
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विंशत्या भाजितेंऽशकैः || २१७ ॥ कुर्याद् द्विभागविस्तारा रथिकाः पञ्च कर्णगाः । पञ्चोपरि पुनः पञ्च दद्यादेकां तदूर्ध्वतः || २१८ | प्रथमा भूमिका चास्य कार्या भागत्रयोच्छ्रिता | पादपादविहीनास्तु क्रमेणापरभूमयः || २१९ ॥ भद्रकर्णान्तरस्थे द्वे रथिके ये तदूर्ध्वतः । शिखरं दशविस्तारं कुर्यात् सार्धदशोच्छ्रितम् ॥ २२० ॥ मूलकर्णानुसारेण शिखरं तत्र यद् भवेत् । तस्य द्वादशविस्तारं त्रयोदशसमुच्छ्रितम् ॥ २२९ ॥ भद्रं विभूषयेत् पत्रैः सिंहकर्णैर्मनोरमैः । पञ्चव्यासेन सूत्रेण वेत्रकोशं समालिखेत् ।। २२२ ॥ स्कन्धकोशान्तरं चास्य त्रिभिर्भागैर्विभाजयेत् । पद्मशीर्ष तथा ग्रीवां सार्वभागेन कारयेत् || २२३ | कुर्याद् भागेन भागेन कुम्भं चामलसारकम् । नवमागतां जङ्घ तदर्धखर पिण्डकाम् ॥ २२४ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे वरण्ड्यन्तरपत्रं च कुर्याद् भागद्वयेन च । वैदूर्योऽयं समाख्यातः प्रासादो दानवद्विषः ॥ २२५ ॥
वैडूर्यः ।। एतस्यैव यदा भद्रे भद्र स्याद् वर्धमानकः । पद्मरागस्तथैव स्याद् कार्योऽयं पद्मरागतः ॥ २२६ ॥
पद्मरागः ॥
पद्मरागस्य भद्रेषु वर्धमानं विवर्जयेत् । भद्रस्य पार्थद्वितये प्रदद्याद् रथिकाद्वयम् ।। २२७ ।। व्यासोच्छ्रायैश्च भद्राणि सिंहकनुविभूषयेत् । यदन्यदस्य तत् सर्वं पद्मरागसमं भवेत् ॥ २२८ ।। वज्रकोऽयं समाख्यातो विधेयस्त्रिपुरद्विषः ।
वज्रकः ॥
वज्रकस्यैव भद्रेषु पूर्ववद् रथिकास्थितौ ॥ २२९ ॥ षड्भागविस्तृनं तत्र शिखरं विनिवेशयेत् । सप्तभागसमुत्सेधं दिक्षु सर्वास्वयं विधिः ॥ २३० ॥ मुकुटोज्ज्वल इत्युक्तः प्रासादोऽयं सुरालयः ।
मुकुटोज्ज्वलः ॥ अस्यैव तु यदा स्थाने भद्र भद्रे चतुर्दिशम् ।। २३१ ॥ सिंहकर्ण परित्यज्य वर्धमानो विधीयते । ऊवीभवतृतीयायाः(१) सप्तोच्छ्रायषडायताः ॥ २३२ ।। ऐरावतोऽयं कर्तव्यः प्रासादस्त्रिदशे(सतिःशितुः) ।
ऐरावतः ॥ ऐरावतस्य संस्थाने प्रासादे पूर्ववत् स्थिते ॥ २३३ ।। वर्धमानं विहायोर्ध्वं यदा सिंहो निवेश्यते । शिखराणि च चत्वारि दिक्षु सर्वासु वर्जयेत् ॥ २३४ ।। क्षेत्राया(टामे)विस्तारं गर्भवेश्म निवेशयेत् । चतुर्भागायतं भद्रं मिर्गमेण विभाजितम् ॥ २३५ ।।
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रुचकादिचतुष्षष्टिपासादकः पट्पश्चाशोऽध्यायः । भद्रत्रयं प्रयुजीत भित्तिभागेन वेष्टितम् । द्वारोच्छ्रयं (सस्व)विस्ताराद (वा)रार्धेन समुच्छ्रयः ।। २३६ ॥ गवाक्षस्तत्र कर्तव्यो यथा द्वारं न लङ्घयते ।। मध्ये चतुष्किका कार्या द्विभागायामविस्तृता ॥ २३७ ॥ प्रासादो राजहंसोऽयं ब्रह्मादीनां प्रशस्यते ।।
राजहंसः ॥ राजहंसस्य संस्थाने तृती(ये?य)रथिकोपरि ॥ २३८ ।। यदा(र?स्य)शिखरं सप्तसमुच्छायं पडायतम् । स्यात् तदा गरुडो नाम गरुडध्वजवल्लभः ॥ २३९ ॥ प्रासादः सवे* ++ + ++ कारयितुस्तथा ।
गरुडः ।। अस्यैव मूलशिखरं त्यक्त्वा भागद्वयोन्मितम् ॥ २४० ॥ क्रियन्ते रथिकाः (पू.क) तवं मूलमजरी । क्रियते द्वादशोच्छ्रा(ये या) दशभागायता यदा ।। २४१ ।। तदा स्याद् दृषभो नाम दृषभध्वजवल्लभः ।
वृषभः ॥ (स?श)ताहस्तविस्तारं ज्येष्ठं मेरुं प्रकल्पयेत् ।। २४२ ॥ मध्यमे हस्तसंख्या स्यात् (षट्व्यं द्विकालाधिकः?) । दशत्रिगुणिता (हस्ताभ्यां?)संख्या मोक्ता कनीयसि ॥ २४३ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भागविंशविति)भाजिते । विस्तारार्धं भवेद् गर्भ गृहंर्भगृह)भिच्या समन्वितम् ॥ २४४ ॥ भागप्रमितविस्तारा गर्भभित्तिर्विधीयते । सार्धद्विभागान्या भित्तिस्तद्वदेवान्धकारिका(?) ।। २४५ ॥ द्विभागा रथिका कार्या कर्णे कर्णे विजानता । चतुभांगा रथा भद्रेवेतदर्धेन (वि?)निर्गता ॥ २४६ ॥ भद्रकान्तयोः कार्या यदाष्टांशयं तदष्टांश)जलान्तरम् । भद्राणां रथिकाः कार्याः पार्श्वयोरुभयोस्तथा ।। २४७ ॥ 'कामायः कर्तुः' इत्येवजातीयं साक्षरस्थाने निवेश्यम् । १, धनूरेग्वान्तर्गतं 'हस्त' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे रथिकानां च सर्वासां स्वभद्रं विस्तरार्धतः । शृङ्गं भद्रं यथैवैकं तथा सर्वाणि कारयेत् ।। २४८ ॥ दिकमत्रेषु (च) सर्वेषु वर्धमानं निवेशयेत् । अष्टभागोच्छ्रिता जसा खुरपिण्डं तदर्थतः ।। २४९ ॥ (ये?मेखलान्तरपत्रे च स्यातां भागद्वयोद्गते । प्रथमा रथिकास्तत्र (सपादानुसू त्रयोच्छ्रिताः ।। २५० ।। पदपादविहीनाः स्युः क्रमेणोपरिभूमयः । दिक्मूत्रेपु सकर्णेषु क्रिया प्राग्वद् विधीयते ॥ २५१ ।। शिखरं दशविस्तारं भा(गैगिद्वादशकोच्छूितम् । चतुगुणेन सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् ।। २५२ ।। स्कन्धकोशान्तरं चास्य त्रिभिनिर्विभाजयेत् । ग्रीवा च पद्मशीपं च तावद् भागाधमुच्छ्यात् ।। २५३ ।। भा(गमामा?गं चाम)लसारं स्यात् कलशो भागमेव च । (साश)तशृङ्गातो मेरुरयं प्रासाद ईरितः ।। २५४ ॥ प्रदक्षिणीकृते तस्या तत्पुण्यं कनकाद्रिणा(?) शैलेष्टकामये तत् स्यात् कृतेऽस्मिन्नधिकं ततः ।। २५५ ।।
मेरुः ॥ नन्दिशालस्य संस्थाने तद्रूषे समवस्थिते । द्वितीया रथिका कार्या भागद्वयविनिर्गता ।। २५६ ।। शेषो भद्रस्य विस्तारः स्वविस्ता(रोरा)निर्गतः । अष्टांशायामविस्तारः स्वविस्ता(रोऽरा)निर्गतः ।। २५७ ॥ अष्टांशायामविस्ता(
ररा) शाला स्यात् पुरतः पुनः । तस्या मध्ये भवेद् गर्भो द्विभागायामविस्तरः ॥ २५८ ।। गर्भभित्तिर्भवेचास्य भागेनैकेन निर्गता । वाह्यभित्तिस्तथैव स्यात् तत्समा चान्धकारिका ॥ २५९ ॥ द्विभागा रथिकास्तस्य सलिलान्तरभूपिताः । शेषो भद्रस्य विस्तारो भागेनकेन निर्गमः ॥ २६० ॥
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रुचकादिचतुष्षष्टिप्रासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः ।
जोत्सेधं (च) पीठं च विदध्यान्नन्दि (सार? शाल) वत् । रथिकास्तत्र कर्तव्याः क (र्ण र्णे) भागत्रयोच्छ्रिताः ॥ २६१ ॥ पशान् विस्तु (तः) कुर्याच्छिखरं सप्त (चोमो) च्छ्रितम् । कार्या केसरिच्चास्य रेखा सामलसारिका ॥ २६२ ॥ एभिर्गुणैर्युतं चैनं पार्श्वयोरपि योजयेत् । प्रासादोऽयं लताख्यः स्यात् कर्तव्यो दानवद्विषः || २६३ ॥
लतास्यः ॥
अग्रेतनं यदा पश्चान्न्यस्येत सरिणं तदा । भवेत् त्रिपुष्कराख्योज्यं प्रासादस्त्रिदशालयः || २६४ ॥ त्रिपुष्कराख्यः ॥
नन्दिशास्य सर्वासु दि(?) यं केसरी यदा । स्यात् तदा पञ्चसौ विधेयः पद्मजन्मनः ॥ २६५ ॥
पञ्चवक्त्रः ।।
यदा च पञ्चवक्त्रस्य मध्ये गर्भाभों न दीयते । वाह्यलेखादिकं प्रावद दिक्षु सर्वासु कल्पते ॥ २६६ ॥ चतुःस्तम्भसमा कार्या मध्ये चास्य चतुष्किका | वितानं चोपरि न्यस्येन्मध्यतस्तस्य भूषणम् ॥ २६७ ॥ हरो हिरण्यगर्भ हरिर्दिनकरस्तथा । एते चतुर्मुखे स्थाप्या नापरेषां भवत्ययम् ॥ २६८ ॥ चतुर्मुखः ॥
चतुःषष्टिकरे कुर्यात् क्षेत्रे मानेकविंशतिः (१) । सप्तपदो गर्भो भिच्या सह विधीयते ॥ २६९ ॥ स्याद् गर्भभित्तिर्भागेन भागेनैवान्धकारिका | पड़भागं कर्णविस्तारं दशधा प्रविभाजयेत् || २७० ॥
भिर्भागैर्भवेदस्य गर्भो भित्त्या समन्वितः ।
वाह्या भित्तिर्भवेद् भागाद् भागचैवान्धकारिका || २७१ ॥
द्विभागं कर्णवैपुल्यमुदकान्तरभूषितम् । शेषो भद्रस्य विस्तारचतुर्थांशविनिर्गतः ॥ २७२ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे
क्षोभयेदर्धभागे तु तदर्धेन जलान्तरम् । मत्तवारणकैर्विद्यात् स्तम्भैरुपरि शोभिताः || २७३ || रथिकैका त्रिभागेन पुनः सार्वद्विभागिका । तासां परस्परक्षेपो भागो भागो विधीयते ॥ २७४ ॥ शेषं शिखरविस्तारः सार्धपट्कं तदुच्छ्रयः । पृथक्सूत्रस्त्रिगुणितैर्वेणुकोशं समालिखेत् ।। २७५ ।। स्कन्धकोशान्तरं भागैश्चतुर्भिस्तस्य भाजयेत् । ग्रीवार्धभागमुत्सेधो भागेनामलसारकम् || २७६ | पद्मशी (स्तः तथा भागं कलशो भागसंमितः । अर्धभागस (मो/मुत्सेधं कारयेद् वीजपूरकम् || २७७ ॥ सर्वकर्णेषु कर्तव्याः क्रियायैवं विचक्षणः दिक्सूsaraभागेषु वलभी सन्निवेशयेत् ॥ २७८ ॥ निर्गमे पञ्चभागः स्यात् तिर्यक प्रतिभागिका: (१) । अस्याद्विभागको गर्भो मध्ये भागत्रयोच्छ्रितः ॥ २७९ भागाभागं भित्तिः स्यात् तत्समा चान्धकारिका । 'स्याचा विधातव्य: (१) पड्दारुकसमन्वितम् ॥ २८० ॥ एकैai रथिकां सार्वभागां कर्णेषु योजयेत् । शेषं भद्रस्य विस्तारो भागः स्यादस्य निर्गमः || २८१ ॥ एवं भद्रं (वि द्विभागं स्यात् स्तम्भद्वयसमन्वितम् । वभावर्तयोर्मध्ये भागमेकं च विस्तृतम् || २८२ ॥ तत्रोदकान्तरं कुर्यात् गुणद्वारविभूषितम् । नवभागोच्छ्रिता जङ्घा पीठमस्य तदर्धतः ॥ २८३ ॥ मेखंलांन्तरपत्रे च कुर्याद् भागद्वयोन्मिते । रथिका स्याद् द्विभागा च ततः सार्वेकभागिका ॥ २८४ ॥
शेषं शिखर विस्तारः पञ्चांगं शिखरोच्छ्रयः । उपर्युपरि कर्तव्यं सर्वतोभद्रकद्वयम् ।। २८५ ।।
१. ' तस्याश्चामं विधातव्यम्' इति स्यात् ।
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रुचकादिचतुष्पष्टिपासादकः षट्पञ्चाशोऽध्यायः । द्वे द्वे च सर्वतोभद्रे कर्णे कर्णे निवेशयेत् । दिकसूत्रेषु समस्तेषु क्रियामेवं प्रकल्पयेतं ॥ २८६ ॥ विस्तार शिखरस्याष्टौ भागात्स्याधसमुच्छ्यः (१) । पञ्चव्यासेन मूत्रेण ++++++++॥ २८७ ।। वेणुकोशान्तरं चास्य त्रिभिर्भागविभाजयेत् । ग्रीवा च पद्मशीर्ष च भागेन स्यादिदं द्वयम् ॥ २८८ ॥ प्रत्येकं भागिको कार्यों कलशामलसारको। (तीन)वात्मकोऽयं कथितः प्रासादस्त्रिदशालयः ॥ २८९ ॥
नवात्मकः ।। विन्यसे(द दिदी शमैशान्यामाग्नेय्यां पुरुषोत्तमम् । ब्रह्माणं वायुदिग्भागे नैऋते च दिवाकरम् ।। २९० ।। मध्यगर्भे शिवः स्थाप्यः प्राच्यामपि पुरन्दरः ।। धर्मो(यमांयाभ्यां) प्रतीच्यां च वरुणः सोम उत्तरे ॥ २९१ ॥ (भक्ताठा?) शक्तिसम्पन्नः पूर्वायतनसन्निधौ । प्रासाद कारयेद् यत्नात् तदाद्यं नव पीडयेत् ।। २९२ ॥ उत्कृष्टमपकृष्टं वा यत्र स्थाने निवेशयेत् । प्रासादं तत्र कमोणि यानि तान्यभिदध्महे ।। २९३ ॥ सम्मुखं नैव कुर्वीत हीनं वा यदिवाधिकम् । वेदभागास्तं तव सश्रितस्तंस्या स्यात्प्रासादोऽतिविगर्हितः(१) । अन्योन्यं दक्षिणे वेधो हीन इत्यभिधीयते । वेधभागामृते(?)मृत्युं हीने हानि विनिर्दिशेत् ॥ २९५ ॥ हरो हिरण्यगर्भश्च हरिर्दिनकरस्तथा । एते देवाः समाख्याताः परस्परविरोधिनः ॥ २९६ ॥ एता न दक्षिणापार्श्व स्थापयेत् पुरमाश्रितान् (?) । वामतो नान्यदेवानां ना(स्ति?)पि हीनालयेषु च ॥ २९७ ॥ नैतेषां दक्षिणे कुर्यादन्येषामपिचालयम् । हीनं वा यदि वाहीनं यदीच्छेच्छूिर यात्मनः ॥ २९८ ॥ 1. 'विस्तारः शिखरम्यारी भागाः साधं समुच्छ्रयः' इति स्यात् । २ 'वेणुकोशं समालिखेत्' इति चतुर्थपादः स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
तेषामुत्तरतो (नू ही) नं य (दिदी) च्छेद् देवतालयम् । मासादपदमानेन नवपत्रिंश (दाद) न्तरे ।। २९९ ।। प्रासादं कारयेदन्यं ममैवेधविवर्जि (तान् ? तम्) | पुरतः पृष्ठतो वापि पार्श्वयोरुभयोरपि ।। ३०० ॥ महामर्माणि चत्वारि कुर्याद येत्ताघतोत्तरे (?) | क्षणमध्येषु सर्वेषु द्रव्यमेकं न दापयेत् || ३०१ ॥ तदा युग्म ++++ वैधमर्म विवर्जयेत् । क्षणमध्ये यदा द्रव्यमेकं मोहात् प्रदीयते ।। ३०२ ॥ कर्तृकारकयोः पीडा भवेत् पूजा न तादृशी । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन स्थपतिः कारकोऽपि च ।। ३०३ ॥ मर्माणि वर्जयेव यत्नात् प्रासादस्य समीपतः । अथ मर्मवियु (क्तोक्तं) यः प्रासादं कर्तुमिच्छति ॥ ३०४ ॥ प्रासादतः सदा तेन विधेयं महदन्तरम् । (प्रासादां तूत्तरं कवः) कार्य फलपुष्पैर्विभूषितम् || ३०५ ॥ य एतैर्लक्षणैर्युक्तं कारयेद देवतालयम् । धनधान्यमवाप्नोति मोदते सुखमेव च ॥ ३०६ ॥ हरो हिरण्यगर्भश्च हरिर्दिनकरोऽपिच । एते देवाः समाख्याता देवानामपि पूजिताः ॥ ३०७ ॥ पृथक्त्वेन च कर्तव्या एकरूपसमन्विताः । अष्टबाहुचतुर्वक्त्रः कुण्डली मुकुटोज्ज्वलः ॥ ३०८ ॥ हारकेयूरसंयुक्तो रत्नमालोपशोभितः । ऋष्यागतपुरः कार्यः पद्महस्तो दिवाकरः || ३०९ ॥ शङ्खचक्रधरो देवो वामे च मधुसूदनः । कण्ठाभरणसंयुक्तों मूर्धा च मुकुटोज्ज्वलः || ३१० ॥ ब्रह्मा पश्चिमतः कार्यो बृहज्जठरमण्डलः | कुण्डिकामसूत्रं च दधत् कूर्चविभूषितः || ३११ ॥
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१. ' यत्नाद्यथोत्तरम्' इति स्यात् ।
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मेदिविंशिका नाम सतपञ्च (शोऽध्यायः । ३९ प्रासादा रुचकादयोऽत्र ललिताः प्राग विंशतिः पञ्चयुक् तावन्तश्च ततोऽनु केसरिमुखाः(स)न्धारकाः कीर्तिताः । मिश्राख्या नव पञ्च चानुकथितास्तद्वनिगृढारख्यया षष्टिः स्याच्चतुरन्वितेति विदिता सैषा भवेत् सम्पदे ॥ ३१२ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचित समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
रुचकादिचतु षष्टिपासादको नाम
षट्पञ्चाशोऽध्यायः ॥
अथ मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
अथान्यान् कथयिष्यामः समासात् सूक्ष्मलक्षणान् ।। पञ्चाशतमिहोत्कृष्टान् प्रासादाबू श्रीधरादिकान् ॥ १ ॥ श्रीधरो हेमकूटश्च सुभद्रो रिपुकेसरी । पुष्पो विजयभद्रश्च श्रीनिवासः सुदर्शनः ॥२॥ भगवत्याः प्रिया ह्येते तथा कुसुमशेखरः । देवस्य शम्भोर्दयितः प्रासादः सुरसुन्दरः ॥ ३ ॥ नन्द्यावर्तश्च पूर्णश्च सिद्धार्थः (सिरवीशङ्खवर्धनः । त्रैलोक्यभूषणश्चेति पद्म(सुस्तु) ब्रह्मणः प्रियः ॥४॥ पक्षबाहुर्विशालश्च तथान्यः कमलोद्भवः । हंसध्वज इति ख्याताः प्रासादा ब्रह्मणः प्रियाः ॥ ५॥ लक्ष्मीधरा(क्षरख्य): प्रासादो वस्त?स)तौ मधुविद्विषः । महावज्रो रतितनुः सिद्धकामस्तथापरः ॥६॥ पञ्चचामरसंज्ञश्च नन्दिघोषाख्य एव च । अनुकीर्णः सुमभश्च सुरानन्दोऽथ हर्षणः ॥ ७ ॥ दुर्धरो दुर्जयश्चैव त्रिकूटो नक्शेखरः । पुण्डरीकः सुनाभश्च महेन्द्रः शिखिशेखरः ।। ८ ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे वराटः सुमुखः शुद्धश्चत्वारिंशादितीरिताः । मिश्रकास्तु दश प्रोक्ता मिथः कर्मप्रभेदतः ।। ९ ।। विज्ञेयो नन्दसंज्ञश्च महाघोषस्तथापरः । दृद्धिरामाभिधानश्च प्रासादोऽन्यो वसुन्धरः ॥१०॥ मुद्गकोऽथ बृहच्छालस्त(था?थैव च सुधाधरः । संवराख्यः शुकनिभस्तथा सर्वाङ्गसुन्दरः ॥ ११ ॥ पञ्चाशदेवं कथिता प्रासादानां यथाक्रमम् । इदानी लक्ष्मतो ब्रूमः श्रीधरं सर्वकामिकम् ।। १२ ॥ वल्लभं सर्वदेवानां पुण्यानां कारणं परम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्विंशतिभाजिते ।। १३ ।। द्वादशाखिलकोणेषु कर्णशृङ्गाणि योजयेत् । विस्तारं च चतुभांगमेकेकस्य विनिर्दिशेत् ॥ १४ ॥ परस्परं च (निष्कोऽसौ?विष्कम्भो) द्विपदोन विधीयते । द्वयंशानि कार्णिःण)भद्राणि निर्गमश्वार्धभागिकः ॥ १५ ॥ 'कर्णकर्णपदेन्यस्यात् पदार्धाधेत(?)विस्तृतः। वारिमन्नो विधातव्यो मध्यगः पूर्वमानयोः ॥ १६ ॥ भद्रस्य मानमुद्दिष्टं विस्ताराद् दशभागिकम् । निर्गमश्च त्रिभिर्भागैः समसूत्रसमाहितः ।। १७ ।। द्विपादा बाह्यभित्तिस्तु द्विपादा चान्धकारिका । भवेच्छतपदः कन्दो गर्भः षड्विंशदंशकः ॥ १८ ॥ द्विपदः कर्णकन्दश्च प्रत्यङ्ग पदिकं स्मृतम् । निर्मतं चार्धभागेन चतुर्दिक्षु व्यवस्थितम् ॥ १९ ॥ भागेन निर्गता कार्या शाला चास्य चतुष्पदा । अभ्यन्तरं वाह्यभित्तेः कन्दस्य च तथा बहिः ॥ २० ॥ उभयोरन्तरं कार्य विस्तारात् पञ्चभागिकम् । अन्तरालं च कुर्वीत शृङ्ग तच्च चतुष्पदम् ॥ २१ ॥ * 'कर्णः कर्णपदेइन्यः स्यात् पदार्धाधैन' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । विभागस्तादृशोऽस्य स्याद बाह्यशृङ्गस्य यादृशः। भित्तिकन्दान्तराले च कार्य षड्दारुकं बुधैः ॥ २२ ।। इतिकातोरणयुतं चतुर्दिक्षु मनोरमम् । पुरतो मण्डपं कुर्यात् सर्वलक्षणसंयुतम् ।। २३ ॥ भागैः पञ्चाशता कुर्यादस्य मानमिहोर्ध्वगम् । एषां मध्ये सविंशत्या प्रविधेयास्तुलोदयाः ॥ २४ ॥ तेषां मध्येऽशकैः षड्भिर्वेदीवन्धो विधीयते । नवधा भाजिते तत्र वेदीवन्धे समैः पदैः ॥ २५ ।। कुम्भश्चतुष्पदस्तत्र द्विपदस्तु ममूरकः । भागेनान्तरपत्रं स्यान्मेखला द्विपदाः स्मृताः ॥ २६ ॥ मूलभागास्तु ये तैः स्याज्जा दशभिरुच्छ्रिताः । द्विपदा मेखला प्रोक्ता द्वयंशे चान्तरपत्रके ॥ २७ ॥ अधस्तादूर्ध्वपक्षीदृस्य तलपट्टस्य गेपरि । षोडशांशा विधातव्यास्तत्रैतत् कर्म वाचेयेत्(?) ।। २८ ॥ भागेन रूपधारा स्यात् सार्धा सार्धा च सेनकम् () । वेदी भागत्रयोत्सेधा + द्वेनासनपट्टकः ॥ २९ ।। (सोर्ध्वासार्थ)भागेन कर्तव्यमूलचन्द्रावलोकनम् । आसनस्योर्ध्वतः स्तम्भाः सार्धपश्चपदाः स्मृताः ॥ ३० ॥ भागेनोच्छालक कार्य (शाषःशीर्ष) सार्धपदोन्नतम् । पट्टः स्याद् द्विपदोत्सेधत्रिपदश्छायविस्तरः ॥ ३१ ॥ लम्बनं तु लदर्धेन यथाशोभमथापिवा । अविनान्तरः१नान्तर)पत्रस्य क(स्याप्य तेऽप्ययथाक्रमम् ।। कोणेषु कूटः कर्तव्यो विविधैः कर्मसम्भ्रमैः । विस्तारः स्याचतुर्भागस्तेषां पहभाग उच्छ्यः ।। ३३ ।। कर्णा घण्टासमायुक्ताः कूटमानं विधीयते । तत्र मृत्युक्रमात् (1) कुर्यादेकैकं च तदूर्ध्वतः ॥ ३४ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे तेषां च तुल्यता कार्या विस्तारादुच्छ्यादपि । चत्वार एककर्णे स्युरेवं सर्वेषु षोडश ॥ ३५ ॥ सिंहकर्णस्य विस्ता(रार)मानं स्यादष्टभागिकम् । षड्भागस्तु तथोत्सेधो रथिकैश्च विभूषणम् ।। ३६ ।। गुण(द्वा?ता)रसमायुक्तः शूरसेनाभिधानकः । सिंहकों विधातव्यः सर्वकर्मसमाकुलः ॥ ३७॥ सिंहकर्णोदयादूर्ध्वमुरोमञ्जरिका भवेत् । विस्तारादष्टभागासावुच्छ्रा(यन?यान्न)वभागिका ।। ३८ ॥ लतापञ्चकसंयुक्ता मञ्जरी स्यात् सुशोभिता । ग्रीवा पादोनभागा स्यादण्डकं भागमुच्छ्रितम् ॥ ३९ ॥ चन्द्रिका चार्धभागेन कलशश्चैव भागिकः । कूटमू(भिं) द्वितीया स्यादुरोमञ्जरिका तथा ।। ४० ।। (भागात्तद्वादशविस्तीर्णा तु सार्धा न त्रिदशावाच्छ्रिता?) । भागमेकं भवेद् ग्रीवा सार्धभागेन चाण्डकम् ॥ ४१ ।। कपरि(?) चार्धभागेन कलशश्च द्विभागिकः । उरःशिखरका(न्य?ण्य)ष्टौ भवन्त्येवं चतुर्द?र्दि)शम् ॥ ४२ ॥ द्वितीयकूटकस्योर्चे कर्तव्या मूलमञ्जरी । भागपोडशविस्तारा पदाष्टादशको द(यःया) ॥ ४३ ॥ स्कन्धमानं हि सर्वेषां यथोक्तं शतवास्तुनि । ग्रीवा सार्धपदांशा स्यादण्डकं द्विपदान्वितम् ॥ ४४ ॥ कङ्कतीफलतुल्यानि कुर्यात् सर्वाण्डकानि च । . द्विपदं (चम)ण्डिकायुग्मं कार्य सामलसारकम् ।। ४५ ।। तस्योपरि स्यात् कलशो वर्तुलत्रिपदोच्छ्रितः। तोरणैर्मकरैः पत्रैः साग्रैश्च स(वाम)रालकैः ॥ ४६ ॥ हस्तिमुण्डैः समाकीर्णम(धीप्स)रोगणभूषितम् । ईदृशं श्रीधरं कुर्यात् सर्वालङ्कारभूषितम् ॥ ४७॥ १. 'भागदादाविस्तीर्णा साधानत्रिंशतोच्छ्रिता' इति स्यातू ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । श्रीधरं कारयेद् यस्तु कीर्त्यर्थमपि मानवः । इहैव ल(वसतः?)भते सौख्यममुत्रेन्द्रत्वमाप्नुयात् ॥ ४८ ॥ भोगान् भुक्त्वा पुमान् स्वर्ग नीयते च परे पदे । सपापविनिमुक्तः शान्तश्च स्यान्न संशयः ।। ४९ ॥
श्रीधरः ॥ हेमकूटमथ ब्रूमः शुभलक्षणसंयुतम् । सर्वविद्याधरस्थानमाश्रयः स पिनाकिनः ॥ ५० ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे षड्विंशत्यंशभाजिते । तत्र स्युः षड्पदाः कर्णाः शाला द्वादशभागिकाः ॥५१॥ निर्गताश्च त्रिभिर्भागैर्भवन्त्येताश्चतुर्दिशम् । अष्टभागायता भूयो निर्गमश्च त्रिभिः पदैः ॥ ५२ ।। चतुःस्तम्भाश्चतुष्पा(वर्धा) दिक्षु सर्वास्वयं विधिः । कर्णशालान्तरं कार्य पदेनकेन विस्तृतम् ॥ ५३ ।। प्रविष्टं तत् पदेनैकं तदेवात्र जलान्तरम् । पदेन कर्णे कोणः स्यात् प्रत्यङ्गे पदविस्तृते ॥ ५४ ॥ निर्गते चार्धभागेन सममाने मनोरमे। द्विपदा रथिका भद्रे निर्गतार्धपदेन सा ॥ ५५ ॥ चतु(क?ष्कर्णेषु कर्तव्यं (मानपेमेवंधुनु?) धीमता । बाह्यभित्तेस्तु विस्तारस्त्रिपदः परिकीर्तितः ।। ५६ ॥ चतुःषष्टिपदो गर्भस्तद्भित्तिस्त्रिपदा भवेत् । त्रिपदं कर्णमानं स्याद् वारिमार्गेण संयुतम् ॥ ५७ ॥ पदार्ध वारिमार्गः स्यात पदमस्य प्रवेशकः ।। शालाष्टपदविस्तीर्णा भागार्धेन विनिर्गता ।। ५८ ॥ चतुर्भागायता भद्रं पुनर्भागार्धनिर्गतम् । तलन्या(सौ.सो) हेमकूटे विभक्तपदनिश्चयात् ॥ ५९ ।। अस्याग्रे मण्डपं कुर्यान्महान्तं गुणपूजितम् । ऊर्ध्वं (तु) हेमकूटस्य द्विगुणं स्यात् कलाधिकम् ॥ ६०॥ १. :मानमेवं तु' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अधस्तादासनं तस्य सप्तभागसमुच्छ्रितम् । भागेनैकेन खुरके न मध्ये पूर्वमानयोः ॥ ६१ ॥ अत ऊर्ध्वं पुनर्ब्रमः पादमानमनुक्रमात् । । सप्तभागोन्नतं कुर्याद वेदीव(न्धे?न्धं) सुशोभनम् ।। ६२ ॥ तस्याध कुम्भकस्या (?) भागेन कलशोन्नतिः । पदार्धनान्तरं पत्रं यथाशोभं विधीयते ॥ ६३ ॥ सार्धं पदं पुनः प्रोक्ता कपोताली सुशोभना । दशभागोच्छ्रिता जङ्घा कर्तव्यातिसुलक्षणा ।। ६४ ॥ अस्योपरि विधातव्यं भर(णै?णं) द्विपदोच्छ्रितम् । मेखलान्तरपत्रे तु विधीयते पदत्रये ॥ ६५ ॥ अधस्तान्मेखलायास्तु खुरकस्य तथोपरि । एकोनविंशतिं भागानन्तरं संप्रचक्षते ॥ ६६ ॥ कर्मप्रमाणमेतस्य पृथङ् मध्येऽभिधीयते । द्विपदं (राजासेनं स्याद्वेदा++ चतुष्पदा (१) ॥ ६७ ॥ भवत्यासनपट्टस्य कल्पना भागमानतः । साधं भागद्वयं कायेमूचे चन्द्रावलोकनम् ॥ ६८ ।। स्तम्भानासनपट्टान युज्यादष्टभागिकान्(?) । भरणस्तम्भशीर्षे च प्रत्येकं पदके स्मृते ॥ ६९ ॥ द्विपदश्चार्धपट्टः स्याच्छाद्यकेन सुशोभितः । त्रिपदं छाधकं तत्र विस्तारेण प्रकीर्तितम् ॥ ७० ॥ एतन्मानं समाख्यातमलिन्देषु चतुर्दिशम् । ऊर्ध्वमन्तरपत्रस्य कथयामो यथाक्रमम् ।। ७१ ॥ षट्पदे कर्णविस्ता(रा?रे) सप्तांशा कर्णमञ्जरी । ग्रीवामपदं कुर्यात् पदमेकं तथाण्डकम् ॥ ७२ ॥ अर्धांशा चन्द्रिका च स्यादेकांशः कलशोच्छ्रयः । अस्योरोमञ्जरी कार्या विस्तारेण चतुष्पदा ॥ ७३ ॥ राजासनं स्याद् वेदी चास्य चतुष्पदा' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । प्रीवाण्डके विधात(व्यं?व्ये भागेनार्धन कुम्भकः । सिंहकर्णस्तु कर्तव्यो द्विपदोऽस्यैव मध्यतः ॥ ७४ ॥ इत्थं पश्चाण्डकाः कर्णे हेमकूटेषु कीर्तिताः । अष्टांशविस्तृतं कुर्यादुदयेन च षट्पदम् ॥ ७५ ।। अलिन्दस्योर्ध्वभाग(स्तं?स्थं, सिंहकर्ण मनोरमम् । सिंहकर्णे द्विभाग(स्थो?स्थां) द्वादशांशकविस्तृत ताम्) ॥ ७६ ।। उरोमञ्जरिकां कुर्यात् त्रयोदशपदोच्छ्रिताम् । सप्तशिविस्तृतः स्कन्धो ग्रीवा च पदमुच्छ्रिता ॥ ७७॥ अण्डकं सार्धभागेन चन्द्रिकार्धपदा स्मृता। आकाशलिङ्गं कुर्वीत द्विपदं सुमनोरमम् ॥ ७८ ॥ विस्तारो मूलमजर्या भागविंशतिसंमितः । उच्छ्रायोऽस्यैकविंशत्या स्कन्धो द्वादशभागिकः ॥ ७९ ॥ पञ्चभौमस्तु कर्तव्यो यथा चारुः स जायते । प्रथमा भूमिका तत्र पञ्चभागा विधीयते ॥ ८ ॥ परा परार्धभागेन न्यूना न्यूना विधीयते । स्कन्धमानं विधातव्यं पदेनैकेन चोन्नतम् ॥ ८१ ।। विभज्य दशधा कुर्याल्लताः पञ्चातिसुन्दरीः । हेमकूटस्य कर्णेषु प्रत्यङ्गे नरकिन्नराः ।। ८२ ॥ (म?अ)न्ये तिलककूटाश्च कर्तव्यास्तु निरन्तराः । ईदृशी मञ्जरी(हे?है)मे विधेया कूटनिर्गता(!) ।। ८३ ॥ ग्रीवा सार्धपदा प्रो(क्तोक्ता) विस्तारादष्टभागिका(१) । अण्डकं द्विपदोत्सेधमेकादशपदायतम् ।। ८४ ॥ . दण्डिका सार्धभागो(चचा विस्तारा (नम्न)वभागिका । त्रिपदः कलशः कार्यो विस्तारेणोच्छ्येण च ॥ ८५ ॥ एवंविधं विधत्ते यो हेमकूटं मनोरमम् । स क्रीडति पुमान् स्वर्गे यावत् क्रीडा पिनाकिनः ॥ ८६ ॥
हेमकूटः ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे सुभद्राख्यमथ ब्रूमः प्रासादं भद्रभद्रकम् । सुभद्रोऽयमतः प्रोक्तो भद्रे भद्रे यतोऽन्वितः ॥ ८७ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दशविभाजिते । गर्भः षोडशभिर्भागः (स्क क)न्दः षट्पदविस्तृतः ॥ ८८ ॥ भित्तिः स्यात् पदविंशत्या तत्र कन्दसमाः (सीस्म)ताः। कर्णाः प्रत्यङ्ग(कोका)न्येषां प्रत्येकं पदविस्तरात् ॥ ८९ ॥ द्वथंशो मध्यगविस्तार उभयोर्निर्ग(ताम): पदम् । द्वयंशः सरसि(१)विस्तार आक्रान्तपदनिर्गमैः ॥ ९० ॥ द्विपदा बाह्यभित्तिः स्याद् विस्तारेण सुशोभिता(:)। चतुष्पदायतः कर्णो भद्रं तस्य द्विभागिकम् ॥ ९१ ॥ निर्गमोऽस्यार्धभागेन स्यादेवं सुन्दरं कृतम् । कर्णे कोणा(सुस्तु) पदिका दिक्षु सर्वासु शोभनाः ॥ ९२ ॥ निगढविस्तरः कार्यः सा(ध)पञ्चपदोन्मितः । द्विपदो निर्गमस्तत्र सर्वदिक्षु विधीयते ॥ ९३ ॥ सलिलान्तरकं कुर्यादन्तरे कर्णभद्रयोः । प्रविष्टं पदमानेन पदपादेन विस्तृतम् ॥ ९४ ॥ ऊर्ध्वमानमर्थतस्य यथावदभिधीयते ।। राजपीठं विधातव्यं भागार्धनातिसुन्दरम् ॥ ९५ ॥ ऊर्श्वभागेन खुरकपीठं स्याचतुरंशकम् । द्विपदः कुम्भकोत्सेधः पादोनं (सोम स्यान्म)मुरकम् ॥ ९६ ॥ भागार्धनान्तरं पत्रं पादोनांशेन मेखलाः । षडभागमुच्छ्रिता जङ्घा भागेन ग्रासपट्टिकाः() ।। ९७ ॥ मेखलान्तरपत्रे च प्रत्येकं पदके स्मृते । पट्टादधरखुरादूर्ध्व भागा सैकां दशान्तरम् (१) ॥ ९८ ॥ राजासनं पदं प्रोक्तमुत्से(धंधे)नातिशोभनम् ।
अर्धनात्यधिके कार्ये द्वे पदे वेदिकोच्छ्रयः ॥ ९९ ॥ 7. पवादधः खुरादूर्व भागास्त्वेकादशान्तरम्' इति स्यात् ।
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मेवादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । पदार्धमासनं कार्य यंशं चन्द्रावलोकनम् । ऊर्ध्वमासनपट्टस्य स्तम्भः पञ्चपदान्वितः ॥१०० ॥
(पञ्चपदान्वितः:) भरणं स्तम्भशीर्ष च पदेन स्यात् समुच्छ्रितम् । छाद्यकेनावृतं कुयोत पदेनैकेन पट्टकम् ॥ १०१॥ द्विपद(स्थः प्रश्छाद्य)विस्तारः पदेनैकेन लम्बनम् । ऊध्वमन्तरपत्रस्य कथयामो यथास्थितम् ॥ १०२ ॥ चतुष्पदेषु कर्णेषु ये कर्णाः पदिकाः स्थिताः । तेषु (पिखरकाः!) कार्या विस्तारोच्छ्रायतः पदम् ॥ १० ॥ कलशोनं तथा ग्रीवा पदार्धेन समुच्छ्रिता । द्विपदः सिंहकर्णस्तु विस्तारोच्छ्रायतः समः ॥ १०४ ॥ (शिखिरोऽधः) विधातव्या त्रिपदी कर्णमञ्जरी । ऊर्ध्वं च त्रिपदा (ससा) स्याद् द्विपदा स्कन्धविस्तृतिः ॥ १०५ ।। सार्धमागेन कर्तव्यं सग्रीवं कलशाण्डकम् ।। सिंहप्रासादवत् कर्णा विधेयाः शुभलक्षणाः ।। १०६ ॥ मूलमानेन विस्तीर्णा नि? गूढस्योपरि स्थिताः । द्वितीयश्च तृतीयश्च तदूर्ध्वं च समुच्छ्रितः ।। १०७ ॥ कर्णस्थकलशादूर्ध्वं कर्तव्या मूलमञ्जरी।। विस्तारो दशभा(गांशानुगःस्यादु)च्छायो द्वादशांशकः ॥ १०८ ॥ लताभिः पञ्च(वि?)भियुक्ता विचित्रैश्वापि कर्मभिः । षट्पदोऽस्य स्मृतः स्कन्धो ग्रीवा चास्य चतुष्पदा ॥ १०९ ।। विस्तारेण समा ख्याता पादोन पदमुच्छ्रिता । अण्ड(कांक) साध्रिभागेन (भविषड्भागविस्तृतम् ॥ ११ ॥ पादोनं चन्द्रिकाभागं कलशश्च द्विभागिकः। प्रासादं ये सुभद्राख्यं कारयन्ति सुलक्षणम् ।। १११ ।। फल्पकोटिसहस्राणि भद्रं तेषां शिवाग्रतः ।
सुभद्रः ।। सर्वपापक्षयकरत्रिषु लोकेषु कीर्तितः ॥ ११२ ॥ निखराधो' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
रिपुकेसरिसंज्ञोऽयं प्रासादः परिकीर्त्यते । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भागविंशतिभाजिते ॥ ११३ ॥
द्विपदा बाह्यभित्तिः स्यान्मध्यभित्तिश्च ताव (ता.ती) । भ्रमण द्विपदा कार्या विस्तारात् सर्वदि (ग्रताः ?ग्गता ॥ ११४ ॥
गर्भोऽविस्तृतः कर्णः (+कन्द ? ) सार्धभागिकः । चतुर्भागायतं भद्रं कुर्याद भागेन निर्गतम् ॥ ११५ ॥
११८ ॥
resist समुद्दिष्ट विधातव्यश्चतुर्दिशम् । पार्श्वयोश्च प्रतिरथौ कार्यो सार्धपदायतौ ॥ ११६ ॥ पदार्धेन विनिष्क्रान्तौ + + + विविधेष्वपि । कर्णायामचतुर्भागो द्विपदं कर्णभद्रकम् ॥ ११७ ॥ पदार्धेन विनिष्क्रान्तं बाह्यकर्णे व्यवस्थितम् । पद ( 12 ) पादेन विस्तीर्ण प्रविष्टं पदमात्रकम् ॥ कार्यं जलान्तरं मध्ये कर्णस्य तिलकस्य च | व्यंशस्तिलकविस्तारः पदेनैकेन निर्गमः ॥ ११९ ॥ सुवर्णिता: स्युस्तिलका भद्रकोणव्यवस्थिताः । अष्टभागं भवेद् भद्रं पदत्रयविनिर्गतम् ॥ १२० ॥ चतसृष्वपि तद् दिक्षु कर्तव्यं स्तम्भभूषितम् । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमः प्रतिपत्रं सुखावहम् ॥ १२१ ॥ ऊर्ध्वप्रमाणं द्विगुणं कर्तव्यं द्विकलाधिकम् । भागैरे कोनविंशत्या मध्ये कार्यस्तलोदयः ॥ १२२ ॥ एभ्यो मध्याद विधातव्या वेदीबन्धाः सुशोभनाः । द्विपदः कुम्भकः सार्धं पदं तु कलशो भवेत् ।। १२३ ॥ मेखलान्तरपत्रे तु कार्ये सार्धपदोन्नते ।
नवभागोन्नता जङ्घा द्विपदा रूपपट्टिका ॥ १२४ ॥
मेखलान्तरपत्रे तु विदधीत पदद्वयम् ।
मध्यं स्यात् षोडशपदं (मानायाः)खुर (केको) ऽस्य च ।। १२५ ।।
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भयांविधिशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
राजसना तथा बंदी तवदासनपद कम् । पदः पञ्चभिर तानि विदामासानतः ।। १२६ ।। चन्द्रावलोकन कुदिप मा पतः । उपयासनपद्रस्य यमःलात् रागिरः ॥ १२७ ॥ भरणं स्तम्भशीप विप पीना । द्विपदः पट्टपिण्डः स्याद त्रिपदयविस्तरः ॥ १२८ ।। ऊर्ध्वमन्तरपत्रस्य साम्रो परिकायत । चतुष्पदः कणेशृङ्गमायामोच्लायसः + + (!) ॥ १२९ ।। ग्रीवाण्डकं च भामेन मान्द्रिकाधान। कलशश्चाधेभागेन कम्पोजन संशयः ॥ १३० ॥ अस्थायता प्रमाहितीया मारी। त्रिपदानामविस्तामा प्राण्डकाय म् ॥ १३१ ॥ भद्र कर्णाश्रिते दूचंशो विस्तारस्तिलके स्मृतः। उक्ट्रास्त्रिपदस्तस्य द्वितीय र ततिः ॥ १६२ ॥ सार्धद्विपद उच्चायो विस्तो विषदः स्मृतः । सप्तभागोजतं तहद विस्ताइप्रसानिकम् ॥ १३३ ॥ सिंहकरणा?ण) प्रकुवात सुधमानपूर्वक (?) । अरोमञ्जरिका काया मिना निशतः ॥ १३४ ॥ अर्धभामायका मूले नमामि गोमा) । तस्यास्तु स्कन्धविस्तारो भागः स्यादधेपञ्चमः ॥ १३५॥ ग्रौवार्धभागमुत्सेधाद् भागेना(मूमलसारकम् । चन्द्रिका चार्धभागेन ५.लशो भागमुच्छ्रितः ॥ १३६ ॥ द्वितीया कर्णशृङ्गस्य स्यायें मूलमञ्जरी । भा(गाग)द्वादशविस्तारा कलयाभ्यधिकोयतः ॥ १३७ ॥ स्कन्धः सप्तपदिशादः) प्रोक्तो ग्रीवा भागसमुच्छ्रिता । अण्डस्य द्वांश उत्सेधो विस्तारः सप्तभागिकः ॥ १३८ ॥ चन्द्रिकैकेन भागेन कलशस्तु बिसाधिकः । (तलालता)नागरिका कार्या(नात्यन्तरतनान्यत् क)मात्र योजयेत् ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे जेस्मिन् (?) विजयमिच्छन्ति भोगान् सुविपुलानपि । सर्वपापप्रणाशं च कार्यो वा रिपुकेसरी ॥ १४०।।
रिपुकेसरी ॥ इदानी (प्रेष?पुष्प)कं नाम प्रासादभिदध्महे । निर्मि(तं तो) धनदस्याथै (यः) पूर्व विश्वकर्मणा ॥ १४१ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दशविभाजिते । विभज्यस्त्रिपदाकीण (१) चत्वारोऽपि विदि(ग्रगताः ॥ १४२ ॥ कर्णमकर्णगर्भाद्य(?) सूत्रं तेन समानि च । रक्तानि दत्त्वा मूत्राणि तदनविनयः ?) स्मृताः ॥ १४३ ॥ सूत्रेण चतुरः कर्णान् दिक् स्थानुत्पा(तद)येत् ततः । चत्वारोऽन्ये पुनः कणोः संसिद्धाः सर्व(मेए)व हि ॥ १४४ ।। एवमष्टदला(न् ) कर्णान् वृत्ताने(व) प्रकल्पयेत ! भागप्रवेशविस्तारं कर्णान्ते च जलान्तरम् ।। १४५ ॥ शाला स्यात् पट्पदायामा त्रिपदोऽस्याश्च निर्गमः । द्विपदा बाह्यभित्तिः स्यात् पदपदा कन्दविस्तृतिः ॥ १४६ ॥ कन्दगर्भस्थितं तन्त्रं भ्रामयेत् कर्णकंवत(?) । उत्पद्यते ततो वृत्तं सममूत्रं सुशोभनम् ॥ १४७ ॥ कुति तस्य मध्ये तु कन्दं पोडशपत्रकम् । भित्तिकन्दान्तराले यच्छेपंस्थाद्धमन्तिका(?) ॥ १४८ ॥ पुष्पकस्य तलन्यासः पञ्चदुप्पाकृतिर्भवत् । इदानीमूर्ध्वमस्यैव कथ्यते मानपूर्वकम् ।। १४९ ॥ (एकोनत्रिंशदन्यूज़ सा स्युः पदान् पूर्व?) यथाक्रमम् । अतो वहिर्विधातव्यः पीठवन्धः पदत्रयम् ॥ १५० ॥ (जयोः) कुम्भः सपादांशः पादोनः स्यान्ममूरकः । अर्धनान्तरपत्रं स्यात् कपोताली च तत्समा ॥ १५१ ॥ माला विद्याधरी कार्या पुष्पहस्तैरलङ्गकृता । पदद्वादशकोत्सेधः (सगुरुः) स्थात् तुलोदयः ॥ १५२ ॥ १. 'पत्रं भ्रामयेद् कर्णकन्दताः' इति स्यात् ।
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स्यात् ।
मेर्वादिविशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
अस्य मध्ये विधातव्यो वैदीबन्धस्त्रिभागिकः । पदार्थ खुरकं कुर्यादभागेनैकेन कुम्भकम् || १५३ | मसुरकं पदार्धन मेखला पद्मानतः । षड्भागमुच्छ्रिता जङ्घा पुष्पके परिकीर्तिता ॥ १५४ ॥ (बम) गलग्रा (साह) मकरैः पुष्पविद्याधरैरपि । सूक्ष्मकर्णसमा कर्णा (2) चास्य जङ्गा विधीयते ॥ १५५ भागेनैकेन भरणं भागेनैकेन पट्टिका | मेखलान्तरपत्रं च भागेनैकेन चोच्छ्रितम् ।। १५६ ॥ ऊर्ध्वतस्तलपट्टस्य पट्टस्योर्ध्वस्य मस्तकम् 1 antaratara विधेया कर्णचर्चिता ( ) || १५७ ॥ भागेन राजसेनं स्याद् द्विभागो वेदिकोच्छ्रिताः (१) । भवेदास पव भागार्थेन समुन्नतः ॥ १५८ ॥ चन्द्रावलोकनं कुर्याद भागिकं त्र्यंशलम्बितम् । आसनस्योर्ध्वतः कुर्यात् स्तम्भं पञ्चपदं शुभम् || १५९ ।। attग्रहणकं शीर्ष द्वयं साधकभागतः ।
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( गुलाल ) पट्टश्च भागेन मलकाद्यं द्विभागिकम् ॥ १६० ॥ भागेन लम्बितं तत् स्यात् सुसृष्टं सुमनोरमम् । एतस्योपरिभागेन कर्तव्या (छेद छाय) पट्टिका | १६१ ॥ पदेनैकेन चास्योर्ध्वं कपोताल्यन्तरच्छदे | भागषट्केन विस्तीर्णे पञ्चभागसमुन्नतं ते) || १६२ ।। शूरसेनं प्रकुर्वीत मध्यवर्तालितोरणम् । वरालग्रासमकरैर्व राहगजसुण्डकै : (१) ॥ १६३ ॥ एवमादिभिराकीर्णमलिन्दस्योपरिस्थितम् । कोणं कुर्यात् पुष्पकूटं पुष्पकर्मनिरन्तरम् ॥ १६४ ॥ चतस्रो भूमयोsस्य स्युस्ता न्यूनाः पुरः पुरः । प्रथमा भूमिका + + + + + स्यात् परा परा ।। १६५ ।।
1. 'सूक्ष्म कर्णसमाकीर्णा' इति स्यात् । २. 'द्विभागाद् देदिकोच्छ्रिता इति
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समराङ्गणसूत्रधारे आद्यस्य कोणकूटस्य विस्तारक्षिपदः स्मृतः । परेषां पुनरेप स्यात् प्रादुनोऽपणाघ्रिणा ।। १६६ ॥ वाह्यात् परस्परं क्षमादान योजन। मध्ये लतास्य कतव्या साकार विस्ता । १६७ ।। स्कन्धे द्विपदविस्तागं विदध्यान्माली । पद्गुणं मूत्रमार लामा शाहवेन ।। १६८ ।। श्रालेखं च ततः कर्मात माल भारदरम् । भागेन वेदिकोत्सेधः पादः सत्यविस्त ?r): ॥ १६९ ।। भागेनैकेन च ग्रीवा द्वाभ्यां र गलमारकम् । विशालपदास्पदशं विधेयं सो रकम् ॥ १७० ।। चन्द्रिका पापना करेनर होस । त्र्यंशः स्यात (कटत्या मान करवातमाल:१) ॥ १७१ ।। एवंविधं वियते यः पुष्पकं सपनोस । तुष्येत् तस्य धनाधीशः शुभगति बजेच सः) ।। १७२ ।।
पुष्पकः ।। बेमो विजयभद्रस्य सुभद्रावलक्षणः । वल्लभः पण्मुखस्यामा मुख्याविनायकः ।। १८३॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्र साबिंशतिभाजिते ! कुर्यादएपदं काम वास्प चतुष्पदम् ।। १७४ ॥ पदेनकेन निर्यालं सर्वोच्च विधिः । उदकान्तरकं काय पदवलदायत ॥ १७५ ।। दशभागायतं भद्रं कार्य त्रिपदनिर्गतम् । दिक्षु(येवः) विधेयः स्यान्मुखनो मुरयमण्डपः ।। १७६ ।। त्रिपदा बाह्यतो भितिनिदा मात्वारिका। मध्ये प्रासादमानं तु काय पोडशाशकाम् ।। १७ ।। कर्णा चतुष्पदा (१) कन्दे मद्रपा पम पम् । निष्क्रान्तानि पदेन स्युः अन्नकणोषितानि हि ॥ १७८ ।। १, 'कर्णाश्चतुष्पदाः' इति स्यात् ।।
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मेंदिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।। पदपदं मध्यमङ्गं स्याद् द्विपदवास्य निर्गमः । कर्णशालान्तरं यत् स्यात् (सा गन्धमार्गः) विधीयते ।। १७९ ।। द्विपदा कन्दभित्तिः स्याद् गर्भो द्वादशभागिकः । ऊध्र्वमानमिह प्रोक्तं द्विगुणं द्विकलाधिकम् ।। १८० ॥ चतुर्विंशतिभागान्ते तुलोच्ट्रायस्य मध्यतः । ऊवमानं तु यत् प्रोक्तं ग्रीवाण्डाद्यं ततो बहिः ॥ १८१ ॥ कार्य तुलोदयं म्यांच?) वेदीवन्धोंऽशसप्तकम् । त्रिभागं कुम्भकः मूत्र(?) सार्धभागो ममरकः ।। १८२ ॥ भागेनान्तरपत्रं स्यात् सार्धभागन मेखला । जङ्गा द्वादशभिर्भागद्वयंशा वा गलपट्टिका(:) ॥ १८३ ।। अन्धारिका च भागाध सार्धभागा वरण्डिका । भागेनान्तरपत्रं स्याद् रूपकमसमाकुलम् ॥ १८४ ॥ ऊर्ध्वाधःपट्टयोर्म(ध्ये?ध्य भागो भागैकविंशतिः । अतो मध्याद विधातव्यं द्विपदं राजसेनकम् ।। १८५ ॥ वेदी चतुष्पदा प्रोक्ता भागेनासनपट्टकः । पदद्वयेन सार्धन कार्य चन्द्रानलोकनम् ॥ १८६ ॥ नवभागोच्छितः स्तम्भः पत्रकर्मसमाकुलः । भागनके न भरणं शीर्षक च द्विभागिकम् ॥ १८७॥ उच्छालकमुभी भागो हारग्रहणमासिकम् (१) । द्वयंशा पट्टोचितिभांगचतुष्का वाह्यविस्तृतिः ।। १८८ ।। (द्वयंशास्यालम्बनोर्वे तु रूपकं चक पट्टिकाः) । सा च भागत्रयेण स्यात् सुश्लिष्टा साधुचित्रिता ॥ १८९ ॥ कर्णकर्णेषु शृङ्गाणां विस्तृतिविपदा भवेत् ।। ऊर्ध्वमानं त्रिभागं स्याद ग्रीवाण्टमालशैः सह ।। १९० ॥ मध्ये चतुष्पदा क(?) दुरोमञ्जरिका भवेत् । उच्छायः पदपदस्तस्या ग्रीवाण्डं द्रिपदोच्छितम् ॥ १९१ ॥ भागेन कलशोत्सेधः स्यादेवं कर्णनिर्मि(त?नि) । कर्णा + पिण्डिका कार्या भद्देशे तथोच्छ्रितः ॥ १९२ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे कर्तव्यः सप्तभिर्भागः सिंहकर्णः सुचर्चितः । कर्णद्वये तथा शृङ्गे तयोरुवं चतुर्दिशम् ।। १९३ ।। उरोमञ्जरिकायामादुदया(?)दश पञ्च च ।। तस्याश्चाष्टपदः कन्दो ग्रीवा भागसमुन्नता ॥ १९४ ॥ द्विभागमण्डकं कार्य चन्द्रिका पदमुच्छिता । त्रिपदाः कलशास्तेषां मध्यगान्तरमञ्जरी ।। १९५ ।। (तला?लता)पञ्चकसंयुक्ता चरटक्रिययान्विता । भागविंशतिविस्तीर्णा कर्तव्या मूलमजरी ।। १९६ ।। द्वाविंशतिसमुन्सेधा स्कन्धो द्वादशभागिकः । मध्या लता (मूशू )रसनकर्मरूपसमाकुला ।। १९७ ।। ग्रीवा सार्धपदोत्सेधा कार्या द्विपदमण्डकम। भागेन (चौमाण्डिकां कुर्यात् कलशं तु चतुष्पदम् ।। १९८ ॥ एकोनत्रिंशदण्डोऽयं प्रासादः शुभलक्षणः । पटपदं पीठमाख्यातं चरितं पूर्वकर्मवत् ।। १९९ ॥ आरोग्यं पुत्रलाभश्च भवेद विजयकारिणाम् । तेषां तुष्यति पदवको भक्तया ये विदयत्यमुम् ।। २०० ।।
विजयभद्रः ।। अधुना श्रीनिवासाख्यः प्रासादः सम्यगुच्यते । तृप्त्यर्थमेव क्रियते जयश्रीस्तत्र तिष्ठति ।। २०१ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्तेऽष्टादशभिः पदैः । अन्धारिका च भि(तेत्तिश्च पदे द्वे द्वे यथाक्रमम् ।। २.०२ ॥ गर्भश्च षट्पदः कार्यः श्रीनिवासस्य सुन्दरः । कन्दे स्युर्द्विपदाः कर्णा भागेन सलिलान्तरम् ।। २०३ ॥ भद्रं चतुष्पदं का पदेनैकेन निर्गतम् । वाद्याः स्युत्रिपदाः कर्णा भद्रश्च द्विपदैर्युताः ।। २०४ ।। भद्रं चतुर्थकर्णे(पु?तु) पदेनकेन निर्गतम् । कोणकोणाश्च कर्तव्याः पदस्या समायताः ॥ २०५॥
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
verageरः कार्यः प्रवेशाद् विस्तृतेरपि । विस्तारात् षट्पदं भद्रं पदद्वितयनिर्गमम् || २०६ ॥ नीरस्यालान्तरे (?) कार्या(:) तिलका द्वयंशविस्तृताः । पदेनैकेन निष्क्रान्ताः शोभिताचारुकर्मणा ॥ २०७ ॥ ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमः श्रीनिवासे यथाक्रमम् । खुरकस्यच्छ्रितिः पीठे पादोनं पदमिष्यते ॥ २०८ ॥ कुर्यात् सपा (दो) नशेन जाड्यकुम्भ ( : ?, समुच्छ्रितिम् । भागेनान्तरपत्रे तु भागेनैकेन मेखलाम् ॥ २०९ ॥
पीठोत्सेधचतुर्भागः श्रीनिवासे भवेदिति । aairat खुरको भागार्थेन समुन्नतः ।। २१० ॥
कुम्भकः सार्वभागेन तदर्धेन मै+++।
[इ] ऊर्ध्वमादर्शयन्थे द्वे पत्रे (१६८, १६९ तमे ) दुसे । तयोराहत्य उपञ्चाशाः श्लोका नष्टाः संभाव्यन्ते । ]
+++++++++++++ पञ्जरात् ॥
त्रिभागेन तु भागस्य अष्टशृङ्गस्य (९) पक्षकः । नष्टशृङ्गस्य (?) शृङ्गस्य चान्तरे सलिलान्तरम् || अन्योन्यं शृङ्गनिष्कासी भागेनैकेन शस्यते । दशभागायतं भद्रं चतुर्थांशेन निर्ग (मतम्) | एवमेष तलच्छन्दः कथितः सुरसुन्दरे । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमो भागशुद्धचा यथाक्रमम् ||
पीठादारभ्य विस्ता (रो/राद्) द्विगुणा स्यात् समुन्नतिः । उपपीठेऽप्यलंकुर्याद भागमेकं समुन्नतम् ॥
पदेन पादहीनेन ( गजा) द्वारसमुन्नतिः । उच्छ्रितिर्जायकुम्भस्य सार्धभागा विधीयते ॥ कलशोत्तरपत्रे च पादहीन पदोन्नते (:) | अस्यादूर्ध्वं तु कर्तव्या पदार्थं ग्रासपट्टिका ( १ ) ||
१. 'मसूरकम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
(आयपीठांच्या प्रोक्ता मूलभूताभिवास्तुनः १) | खुरकच पदार्धन (सार्वभागे कुम्भपूरक : 2 ) || भागेनैकेन कलशः समवृत्तोऽतिसुन्दरः । भागं सपादं कुर्वीत मेखलान्तरपत्रके ||
भागे (नुनो) च्छ्रिता जङ्घा भागाधं ग्रासपट्टिका | कर्णे चैकेन भागेन भागा (कुणपो ) भवेत् ॥ भागेन हीरकं कुर्याद् यथा शोभा प्रजायते । मेखलान्तरपत्रे च सार्धभागेन कारयेत् || ऊर्ध्वतः पदयोर्मध्ये स्यात् सार्घद्वादशांशकम् | तन्मध्ये सार्धभागं तु राजसेनं सपट्टकम् || द्वौ भागौ वेदिका भागस्यार्धमा सनपट्टकः । भागं चन्द्रावलोकं स्यात् स्तम्भमासनमूर्धनि || निवेशयेत् पञ्चभागं भरणं भागिकं ततः । भागमेकं समुच्छ्रा (यां?यः) शीर्षकं द्विगुणायतम् ॥ पट्टस्य कुर्यादुत्सेवं भागमर्धसमन्वितम् । सार्धभागद्वयं बाह्यं (तद्रूपं दूतावलं छिवितम् ? ) ॥ atri छास्योर्ध्वे कार्या वासनपट्टिका । विराजमाना सा कार्या रूपग्रासवरालकैः || मेखलान्तरपत्रे (बुतु) भागाद् रूपसमन्विते | भागद्वयेन कर्तव्या द्वितीया मेखला बुधैः ॥ कूटान्यतः परं कुर्यात् कर्मयुक्तानि सर्वतः । कूटेषु कुर्यात् प्रत्येकं सिंहकुम्भसमन्वितम् (१) ॥
रोमञ्जरिका तानि भवेत्येव (!) यथाक्रमम् | अष्टाण्डकत्रयान्तेषु पडण्डं स्याच्चतुष्टयम् ||
चतुरण्डं द्वयं कृत्वा त्वेवं कर्णे विदुर्बुधाः (१) । नव कुण्डानि (!) तुल्यानि विस्तारेण पदद्वयम् ॥
१. 'कोणयोः' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । सार्धं भवति प्रत्येकं सार्धमुच्चैः पदद्वयम् । एवं (निकर्त एकैकं स्यात् ) तत्पदं वांशदण्डकम् ॥ सिंहकर्णः षडुच्छ्रायो भद्रे स्यात् प्लवविस्तृतिः । द्वितीय(श्चानुदन्तश्चा?) शोभितश्चारुकर्मणा ॥ तृतीयो द्विपदः कार्यः सिंहकर्णो मनोरमः । विस्तारो मूलमचर्याश्चतुर्दशपदो भवेत् ।। भागसप्तदशोचे तु मातृभिः() पाकोशवत् । स्कन्धश्चाष्टपदः प्रोक्तो ग्रीवा साधेपदोच्छ्रिता । द्विपदश्चाण्डकोत्सेधश्चन्द्रिकार्धपदोन्न(तःता)। कलशं त्रिपदं प्राहुर्मातुलिङ्ग(स्य?स)मुद्भवम् ॥ मध्ये तु मूलमञ्जर्याः कुर्वीत शिखरत्रयम् । सुरेखं सुप्रसन्नं च सर्वदेशिविभूषितम् ॥ पटपञ्चाशं() भवेदस्मिन्नण्डकानां शतद्वयम् । एवं श्रेष्ठोऽयमाख्यातः प्रासादोऽण्डकमानतः ॥ (सप्तशत)मेकानसप्तत्या युतं स्यान्मध्यमे पुनः । एकोत्तरं श(रं?तं प्राहुरण्डकानां कनीय(सामीसि)॥ मन्दारकुसुमाकारा(ण्या?ण्येता)नि सुरसुन्दरे । कुयोद् (य) एनं प्रासादमीदृशं सुरसुन्दरम् ॥ स वैरिश्चं (यु)गशतं सूर्यलोके महीयते ।
सुरसुन्दरः !! नन्द्यावर्तमथ ब्रूमः प्रासादं नृपद्धिदम् ॥ भूषितं (मनानाग)कन्याभिर्वल्लभं पृथिवीभुनाम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशधा अविभाजिते ।। पदद्वयमिदं यत्र नादाय(१) ब्रह्मणः पदात् । वृत्तं समालिखेद गर्भा वस्मैलं च तुलं(?) भवेत् ।। भागेन च तुलो भित्ति गेन स्याद भ्रमन्तिका । भागेन बाह्यभित्तिः स्यात् पदपञ्चकवर्जिता ॥ , 'यस्मादादाय' इति सात् ।
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ચૂંટ
समराङ्गणसूत्रधारे
कन्दे (वि.द्विभागं कुर्वीत पुष्पशेखरकं ततः । द्विपदा बाह्यतः कर्णा विधातव्यास्तु वर्तुलाः || यथागात्रं विधातव्याः स्वस्तिकाकृतयश्च ते । चत्वारो रथिका (कन्दो कोणे कर्णे?) चतुष्टयम् ॥ पञ्चभागायतं भद्रं सार्धभागविनिर्गमम् । भद्रान्तपातिनी कुर्यात् प+ पदसंमिते ॥ शेषं भद्रं तु कर्तव्यं विस्तारेण त्रिभागिकम् । भागस्यार्धेन विस्तीर्ण तथा भागप्रवेशकम् ॥ एतत्प्रमाणं कर्तव्यमिह प्राज्ञैर्जलान्तरम् । तलच्छन्दानुगं भद्रं नन्द्यात्र ( त ? तें) यथाक्रमम् || ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमो नन्द्यात्र(?) यथाक्रमम् । सार्धभागद्वयो च्छ्रा (यामासनं तस्यः) दूध्वेतः ॥ (कार्य तुलोदयस्य + ?) मध्ये भागैस्तथाष्टभिः । तुलोदयस्य मध्ये स्याद् वेदीबन्धो द्विभागि (केक)ः ॥ भागिकः कुम्भको (सेनः त्सेधो) मेखलाकलशान्वितः । चतुर्भागा भवेज्जङ्घा भागिकं भरणं भवेत् ॥ मेखलान्तरपत्रे तु भागेनेकन कल्पयेत् । पादेन राजसेनं स्याद् (वद्वत्तच पट्टतः ) || वेदी साष्टपदत्वा भागपादेन चासनम् । भागार्थेन नतं कुर्याद् भागं (पञ्चवलोकत ? ) || पादोनत्रिपदः स्तम्भः पल्लवैरुपशोभितः । हरग्रहणशीर्षं च कुर्याद् भागसमुच्छ्रिति ||
मेदोत्से छायकं द्विपदायतम् । भागेन कुर्यादुपरिपट्टिकां चारुकर्मणा (म्) | अंशांस्त्रीनुच्छ्रितः सिंहकर्णः स्याच्चतुरायतः । भूषितः (स्वरसे+न ? ) स च कार्योऽतिशोभनः ॥
१. 'यमासनं स्यात् त' इति स्यात् । २. 'कार्यस्तुलोदयस्तस्य' इति स्थात् । ३. चन्द्रावलोकनम्' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । विस्ताराद् द्विपदे शृङ्गे सार्धभागद्वयोच्छ्रिते । अस्योर्ध्वमन्यशृङ्गं स्यात् सदृशो(च्छ?च)परिस्तृति':१) ॥ प्रत्य(अस्तु व?जेषु च) कूटानि सापांशोच्छ्रायवन्ति च । द्वितीयः सिंहकर्णः स्यात् सिंहकर्णस्य मस्तके ।। (ततो शृङ्ग) तृतीयः स्याञ्चतुर्थस्तस्य चोपरि । षड्भागविस्तृता कर्ण(:१)कूटस्था मूलमजरी ॥ सप्तभागोच्छ्रिता च स्यात् स्कन्धस्यच्च शोच्छितिः)। स्यादुरोमञ्जरी मूलमञ्जयाँ मध्यसंश्रया ।। भागैश्चतुर्भिविस्तारः पदभिवास्याः समुच्छ्रितिः । कलशाण्डकसंयुक्ता कर्णाभ्यन्तरमजरी ॥ स्यादण्डकैकविंशत्या नन्द्यावर्तः मुलक्षणः । भक्त्या ये कारयन्त्येनं नन्द्यावर्तमनुत्तमम् ॥ विमानं शुभमारुह्य शक्रलोकं ब्रजन्ति ते ।
नन्द्यावर्तः ।। प्रासादमथ वक्ष्यामः पूर्ण पूरितवाञ्छितम् ।। वन्दि(तैः१) किन्नरैर्यक्षेर्मनुष्यपितृवल्लभम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागविभाजिते । विस्तार?राद्) द्विपदो गर्भः कार्या भित्तिस्तु भागिका । द्विपदं कन्दभद्रं च निर्गमोऽस्या:भागिकः ॥ शोभना दि(पुक्षु) सर्वासु द्विपदा च भ्रमन्तिका । पदिका बाह्यभित्तिस्तु द्विपदा कर्णविस्तृतिः ॥ आयत्या चतुरो (भागावण्डभित्तेर्विनिर्गमा?) । भद्रं सुशोभनं तस्या (द्विःविधातव्यं द्विभागिकम् ।। पर्णस्तु पदिका(?) पक्षभद्रं भागार्धनिर्गतम् । जलान्तरं तु भागार्धमायामक्षेपयोः समम् ।। चतुर्भागो वलस्यास्य(?) गर्भो भित्तिस्तु भागिकी । यामायुर्वित्तगोस्त्रीणां वलभी कीर्तिकारयेत् (?) ।। ,, 'वतः शृङ्गे' इति स्यात् । २. 'स्कन्धः स्याच दशोच्छ्रितिः' इति पाठ्यं स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पूर्वतः कारयेद् द्वारं चतुर्गभेऽत्र मन्दिरे । ऊर्ध्वमानं तु वक्ष्यामः प्रासादस्यास्य सम्प्रति ।। पीठं द्विभागिकं कार्य वेदीवन्धो द्विभागिकः । जङ्घा पदचतुष्कं च शोभिता रूपकर्मणा ।। पदद्वयं तु कर्तव्यं (हीन सातपत्रकम् । कलशाण्डकयुक्तानामुच्छायत्रिपदो बुधैः ।। कर्तव्यः कर्णशृङ्गाणां सर्वेषामपि मानतः । चतुष्पदोचा वलभी घण्टाकलशसंयुता ।।। मल्लच्छाद्यत्रयं कुर्यात् कर्णशृङ्गस्य चोपरि । युक्तमन्तरपत्रेण भागोच्छ्रायं पृथक् पृथक | भागेनैकेन घण्टा स्याद (भद्राभागाभ्यां कलशाण्ड के । समूलकलशे कर्णे मूत्रं सम्पातयेद् बुधः ।। मल्लच्छाचं विधातव्यं मूत्रेणैकेन लाञ्छितम् । प्रासादमेवं पूर्णायुर्यः कुर्याद् भक्तिमानिमम् ।। (सप्तकामः+) पुरुषः (सश)वलोके महीयते ।
सिद्धार्थमथ वक्ष्यामः सर्वकामार्थसिद्धिकीद)म् ।। कामाः सिध्यन्ति यत्कर्तुरिहलोके परत्र च । चतुरश्रे समे क्षेत्रे विभक्त दशभिः पदैः ।। कुर्वीत षट्पदं गर्भ ++चास्य चतुष्पदम् । भागेनेकेन रमणीं बाह्यभित्तिं च भागिकीम् ।। कुर्वीत द्विपदान् कर्णाञ् शालां पडभिः पदैर्बु(धौधः) । तदा कर्णशृङ्गाश्च?ङ्गं च) यथाशोभं प्रकल्पयेत् ।। त्रिपदं निर्गमं तस्याश्चतुष्कीच चतुर्दिशम् । मध्ये बहिश्च कुर्वीत तस्या द्वारचतुष्टयम् ।। उन्नतं भागविंशत्या मानमस्योर्वतो भवेत । त्रिपदः पीठबन्धः स्याद् द्विगुणोच्छ्रायवाह्यतः ॥ १. 'आसकामः सु' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
सार्धं भागद्वयं कार्यो वेदिन्यस्तु शोभनः अर्धकुम्भे मर्देच मेखलां समसूरक: (१) ॥ जङ्घा साचतुर्भागा कार्योट्रायेण शोभना । मेखलान्तरपत्रे च भागेनैकेन कारयेत् ॥
खुरका (द) मेखला यावत् सप्तभागान्तरं भवेत् । भागाभ्यां राजसेनं च कुर्याद वेदीं च सासनाम् ॥ त्रिभागं स्तम्भमुत्सेधाद् भागस्यार्धेन हीरकम् । भागा स्तम्भशीर्ष स्याद भागः पट्टस्य चोन्नतिः || सूर्यच्छाद्य द्विभागः स्वाद् भागेनैकेन लम्वना ( ? ) । शृङ्गोत्सेधस्त्रिभागच कलशाण्डकसंयुत (म्::) || चतुर्भागोन्नतः सिंहकर्णः पद्मागविस्तृतः । कुर्वीत भृतयोरूर्ध्व शोभनां मूलमञ्जरीम् ॥ अष्टाभागप्रविस्तीर्णां नवभागसमुच्छ्रि (तताम् ) | स्कन्धः पञ्चपदो ज्ञेयो ग्रीवा चार्धपदोच्छ्रिता | अण्डकं भागमात्रं स्यादूर्ध्वं भागेन चन्द्रिका | वर्तुलः समविस्तारः कलशस्तु द्विभागिकः ॥ भद्रे वराटकाचे कर्तव्या हेमकूटवत् । यः कुर्यात् कारयेद् यस्तु सिद्धार्थं सर्वकामदम् || स भवेत् सर्वकामाप्तिः शिवलोके च शाश्वतः ।
सिद्धार्थः ॥
अथाभिधीयते सर्वपापन्नः शङ्खवर्धनः || आलयः सर्वदेवानां प्रासादो भूभृतां प्रियः । चतुरश्रे समे क्षेत्रे (गर्भा कर्णे?) विशोधितम् || वर्तुलं कारयेत् पश्चात् सर्वकोणेषु लाञ्छितम् । विस्तारार्धे भवेद् गर्भो यच्छेषं तेन (भर्ति: १) ॥ द्विगुणं कारयेदूर्ध्व भागविंशतिभाजिते । तुलोदयोऽष्टभागः स्याद् द्वादशांशा च मञ्जरी |
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समराङ्गणसूत्रधारे कुम्भकं कलशं द्वाभ्यां कपोताली च कल्पयेत् । पञ्चभागोच्छ्रिता जङ्घा मध्येऽस्या ग्रासपट्टिका(म्) । मेखलान्तरपत्रे च भागेनैकेन कारयेत् । भागार्थ कारयेत् प्राज्ञः (संख्याशवा वर्तकमञ्जरीम् । शङ्खावर्तककूटांश्च विदधीत+विस्तरात् । शतवास्तुविभक्तेऽस्मिन या मानानुसारतः ॥ स्कन्धो विधेयो ग्रीवा च भागार्धेन समुच्छ्रिता । चन्द्रिका शिरसा साधु कार्या सार्धपदोन्नता ।। द्विपदः कलशोच्छ्रायः कर्तव्यः शङ्कवर्धने । गर्भ(चास्याच्छादनं कुर्यात् (संख्या?शङ्का वर्तवितानकम् ॥ यः शङवर्धनं कुर्यात् स भुनक्ति चिरं महीम् । वशगा चास्य सततं भवेल्लंश्मीजलाञ्चलिः (१) ॥
शङ्खवर्धनः ।। त्रैलोक्यभूषणं ब्रूमो वन्दितं त्रिदशैरपि । आश्रयं सर्वदेवानां पापस्य च विनाशनम् ॥ त्रिंशद्धस्तः कनीयान् स्यान्मध्यमस्त्रिदशाधिकः । पञ्चाशद्धस्त उत्कृष्टस्विवि(धंयो) हस्तसंख्यया ॥ चतुरश्रे समे क्षेत्रे त्रिंशद्भ(क्तोप?क्ते प्रकल्पयेत् । दशभागायतं गर्भ कन्द द्विगुणसप्तकम् ।। चतुष्पदं कन्दक(त?ण) भद्रं चास्य द्विभागिकम् । कुर्वीत षट्पदा शालां भागेनैकेन निर्गताम् ।। अन्धोऽर्धद्विपदे चास्य द्विपदाश्चात्र भित्तयः । शृङ्गमेकं भवेन्मध्ये विस्तारेण चतुष्पदम् ।। मध्ये शृङ्गस्य चान्नः ++ + पड्दारुकं भवेत् । द्वयंशा द्वितीया रमणी(या') वा भित्तिद्विभागिका ॥ कणेशृङ्गद्वयं कार्य विस्तारेण चतुष्पदम् ।
द्वादशांशमिता शाला निगमोऽस्याः पदत्रयम् ।। ,, 'लक्ष्मीः कृताञ्जलिः' इति स्यात् ।
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मे दिविंशिका नाम सप्तपश्चाशोऽध्यायः । प्राकर्णशृङ्गमष्टांस्तिस्यादुर्जनफलोपमम् (१) । ++ द्विशृङ्गभागेन विनिष्क्रान्तं चतुष्पदम् ।। द्विपदं तस्य भद्रं च निर्गमो द्विपदं भवेत् । शृङ्गयोरुभयोमध्ये पदाधे पक्षभद्रकम् ।। पदार्ध वारिमार्गश्च प्रक्षेपः पदसंमितः । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमः पष्टिभागसमुच्छ्रितम् । तुलोदयस्ततो (विंशपञ्चमूदनुमञ्जरी) । (स नृप्तंसत्यदोचट्रायो) भागेष्वेपु विधीयते ।। तुलोदयस्य मध्ये तु वेदी पञ्चपदोदया। तदर्ध कुम्भकं कुयोत् तद्वत् कलशमेखला ।। एकादशपदा जङ्घा हीरकं तु पदत्रयम् । द्वौ भागौ मेखला तद्वद् द्वितीयापि सतारका ॥ ऊर्ध्वतस्तलपट्टस्य प+षोडशभिः पदैः। राजसेनं साधेभागं वेदी कायों द्विभागिका ॥ पदाधेमासनं साधपदं चन्द्रावलोकनम् । स्तम्भः सप्तपदो दैर्घ्यहार!) सार्धत्रिभागिकम् ।। शीर्ष सार्धपदोत्सेधं पक्षस्तु द्विपदो भवेत् । त्रिपदं छाधकं कुयोद् भागेनकेन लम्बितम् ॥ द्विपदां छेदहारां तु(१) द्वथंशा वा सन्तु पट्टिकाः। तदूचे मञ्जरी कुर्याद् द्राविडक्रमभूषितम् ।। सप्तोच्छ्रितं कोणकूटं सघण्टाकलशाण्डकम् । द्वितीयामेतदूर्ख च तन्मानेनैव कारयेत् ।। कर्णे कर्ण समाश्रित्य षट्पदानि तु कारयेत् । (षेष्ठाण्डके) द्वे कुर्वीत प(डंशडण्ड)कचतुष्टयम् ।। एवं कर्णाण्डकानि स्युश्चत्वारिंशत् समासतः ।
द्वादशांशकविस्तारमुच्छ्रायानवभागिकम् ।। १. देयादार' इति स्यात् । २. 'अष्टाण्डके' इति पाध्य भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
आक्रमे विजानीयाद् द्राविडाभक्रियान्वितम् । अष्टाण्डकं समुत्सेधाद् विस्ताराद् दशभागिकम् ॥ भद्रक्रमं द्वितीयं तु विद्यात् कर्मविभूषितम् । विस्तारो मूलमञ्जर्याद्वाविंशत्यंशसंमितः ॥ त्रयोविंशतिरुच्छ्रायः स्कन्धाचैव त्रयोदश । ग्रीवा (?) द्वयोत्सेधात् त्रिपदोन्नतमण्डकम् ॥ कर्परं द्विपदं भागचतुष्कं कलशांच्छ्रयः । प्रासा (दादे) द्वादशैतस्मिन्नुरोमञ्जरिका मताः ॥ अण्डकानां तु विज्ञेयं त्रिसप्तत्यधिकं मतम् । त्रैलोक्यभूषणं कृत्वा त्रिदशानन्दकारकम् ॥ कल्पान्तं यावदध्यास्ते पुरुषस्त्रिदशालयम् ।
त्रैलोक्यभूषणः ॥
प्रासादमथ पद्माख्यं कथयामोऽश्विनोः प्रियम् ||
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे सप्तभागविभाजिते ।
त्रीन् भागान् मध्यमे त्यक्त्वा द्वौ ( द्वौ ) कोणेषु लाञ्छयेत् ॥
(सा द्वयेद्वभि) रष्टौ च पश्चादपि च षोडश । विस्तारार्धेन गर्भः स्याद् विस्तारार्धं तथा वहिः ॥
ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमः पद्माख्यस्य यथाक्रमम् । विस्ताराद् द्विगुणोत्सेधं भागविंशतिभाजितम् ॥ वेदी जङ्घा तथैतस्मिन् कार्या मालाथ मञ्जरी । ग्रीवाण्डलशाह शङ्खवर्धनवर्त्मना || पद्माख्यः कारितो येन प्रासादो द(शत्र) वल्लभः । आत्मा समुद्धृतस्तेन पापपङ्कमहोदधेः ॥
पक्षवाहुमथ ब्रूमः प्रासाद कुलनन्दनम् । सर्वरोगहरं पुण्यं सर्वलोकक्षणं भवं (३) चतुरश्रीकृते क्षेत्रे द्वादशांश विभाजिते । अष्टभागातं गर्भं कुर्याद भित्तिर्द्विभागका ||
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पद्माख्यः ॥
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । द्विपदं कारयेत् कर्ण भागार्धमुदकान्तरम् । प्रत्यङ्गं सार्धभागे (सा:स्यात् ) शाला चैव चतुष्पदा ।। निष्काम(मु!उ)भयोर्भागाद् भागार्धेन पृथक् पृथक् । कर्त(व्याव्यौ) पक्षयो_हू विस्तारे(व?णाष्टभागिको ॥ चतष्पदस्तयोर्गो द्विपदा भित्तिविस्तृतिः। चतुर्भागं भवेद् भद्रं कोणश्चैव द्विभागिकः ।। ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमश्चतुर्विंशतिभागिकम् । त्रिपदो वेदिकाबन्धो जङ्घा पञ्चपदोन्नता ।। द्वौ भागौ कलशः कार्यों द्वौ भागौ चन्द्रिकाण्डकम् । मध्ये तु मञ्जरी कार्या घण्टा(बधावद्धा) च पार्श्वयोः ।। पक्षवाहुः कृतो येन त्रिगर्भः कर्मभूषितः । स त्रिनेत्रप्रतापः स्या(चात् ) तुरङ्गवातनायकः ॥
पक्षबाहुः ।। विशालं सम्प्रवक्ष्यामि विशालैरन्वितं गुणैः । दयितं कृत्तिकासुनोः पूजितं गणकिन्नरैः ॥ क्षेत्रे) दशांशं कुर्वीत पभागा मध्यमञ्जरी । भागिक्यो भित्तयः कार्या भ्रम(न्त्यभिन्त्योऽपि) तथाविधाः ॥ भागद्वयं भवेत् कर्णो वारिमार्गेण संयुतः । पदेन तिलकं कुर्याद् भागार्धेन विनिर्गतम् ।। आयामनिर्ग(मा:मौ) चास्य चतुर्भागा चतुष्किका । चतुष्पदो मध्यगर्भः ) चतुरस्य शस्यते ॥ विस्ताराद् द्विगुणोच्छा(यान्युश्यमूर्ध्वमानं विधीयते । विदध्याद वेदिकावन्धं सार्धमागयोगेन) संमितम् ॥ सार्धेश्चतुर्भिः कुर्वीत भागैकोचितिं बुधः । मालामन्तरपत्रं च भागेनैकेन कारयेत् ॥ सार्धद्विभागिकं शृङ्गं कलशाण्डकसंयुतम् । तस्यामपरं शूलं तावन्मानं विधीयते ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे
षद्भागविस्तृतां जङ्घामन्तर्या भागसप्तकम् । तद्विस्तारदशां (शैः ?शे) स्वात् षडभिः स्कन्धस्य विस्तृतिः ॥ ग्रीवायास्तु विधातव्या पदस्यार्धं समुन्नतिः । भागेनाण्डकमुच्छ्रायो भागेनार्घे ( तु न ) चन्द्रिका ||
द्विपदं कलशं कुर्यात् समसूत्रं सुशोभनम् । प्रासादोऽयं विशालः स्यादेवं सप्तदशाण्डकम् || यः करोति स लोकेऽस्मिन् (+) नागाधिपो भवेत् । लभते च बहून् कामान् देहान्ते चोत्तमं पदम् ॥
विशालः ॥
मोथल (क्ष्म क्ष्मी) दयितं प्रासादं कमलोद्भवम् । सिद्धगन्धर्वसहितं स्कन्दो यत्र व्यवस्थितः ॥ चतुरश्रं समं क्षेत्रं भुवि दिक्षु विदिक्षु च । कृत्वा वृत्तं समालिख्य भागैर्द्वात्रिंशता भ (वे? जे ) त् । भागौ द्वौ द्वौ ततः कुर्यादेकैकां दलपट्टिकाम् | कर्णं षोडशभिः (काकु)र्यादम्भोजसदृशाकृति (म्) | पञ्चभिर्भाजिते सीनि गर्भो भागत्रयं भवेत् । अधस्तादा (समत्त स्यात् ?) पद्मपीठं प्रकल्पयेत् || कृत्वा (द्विगुणमूर्ध्वानद्विंशत्या?) प्रविभाजयेत् । तुलोदयोऽथ भागः स्याद् द्वादशांशा च मञ्जरी ॥ वेदी जङ्घा च माला च स्याद् यथा शङ्खवर्धने | तदूर्ध्वं पद्मकूटा (निदि) चोन्नतं पद्मपत्रवत् || भूमिका (:) पञ्च कर्तव्या (:) पदहीना (द्यय) थोत्तरम् । (देविवेदि) का तस्य कर्तव्या विकासिशतपत्रवत् ॥ पादोनभागो ग्रीवा च सपादं पदमण्डकम् । चन्द्रिका चैव भागेन विकासिकमलाकृतिः ॥
१. 'नरो' इति स्यात् । २. 'सनं तस्य' इति स्यात् । ३. 'द्विगुणमूर्ध्य बिंधया' इति पठनीयं स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
द्विपदं कलशं कुर्यात् साब्जपत्रं सपल्लवम् ! आरोग्यं स्यात् पुरोदेशे कारिते कमलोद्भवे || आयुः श्रीवृद्धिपुत्राः स्युरपयानां (?) च संख्यया ।
कमलोद्भवः ।
हंसध्वजमथ ब्रूमो हंसक्रीडाविभूषितम् ॥
सेवितं सुरसङ्गेन वल्लभं पद्मजन्मनः । विभज्य दशधा क्षेत्रमारभ्य ब्रह्मणः पदात् ॥ आदाय पार्श्वयोर्भागांस्त्रींस्त्रीन् वृत्तं प्रकल्पयेत् । एवं गर्भो विधातव्यलाद्यस्य (जगतालुभि: १) ॥ द्विपदा बाह्यतो भित्तिः कर्णः कार्यो द्विभागिकः । भद्रं पञ्चपदं कार्य पदार्थमुदकान्तरम् ॥
द्वौ भागौ निर्गतं भद्रं स्तम्भद्वयसमन्वितम् । मध्ये तुच्छाद्यकं कुर्याद वातोच्छ्रायं (?) द्विविस्तृतम् ॥
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कुर्याद्भागं सविस्तारं तोरणं चतुरुन्नतम् | वरालमकरैर्युक्तं स्तम्भेषु स्यात् तथेल्लिकाः || पुरस्तान्मण्डपं प्राज्ञो (रवायरिचये ) न्मानपूर्वकम् । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमः सूत्रं स्याद भागविंशतिः || मेखलावेदिकाजङ्काः शङ्खवर्धनवन्मताः । कर्तव्याः कर्णरथिकास्त्रिपदाः कलशान्विताः | चतुष्किका पञ्चपदा वराटीघटयान्विता । कार्या कलशसंयुक्ता विस्तारोच्छ्राययोः समा || कोणशृङ्गोर्द्वयः (?) कुर्यादष्टांशां मूलमञ्जरीम् । उच्छ्रिता नवभिर्भागैः पञ्चभौमास्तु संवृताः ॥ प्रथमा द्विपदा भूमिर्हेमकूटक्रियोपमा । अन्यास्तु पदपादार्धहीनाः कार्या यथोत्तरम् ॥
१. ' भागोच्छ्रायम्' इति स्यात् । २. कर्णशृङ्गोर्ध्वतः' इति पाठ्यं भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे महारत्नपुनः(१) कार्यो भूमिकापरिवर्तने । भागेन वेदिकोच्छ्रायः स्कन्धस्तु शतवास्तुवत् ।। ग्रीवाण्डकसमुत्सेधं विदधीत पदद्वयम् । अण्डके वर्तना कार्या कङ्कतीफलसन्निभा ॥ चन्द्रिका भागमेकं च द्वौ भागौ चेत् ++++। हंसध्वजः कृतो येन वल्लभः पद्मजन्मनः ॥ स याति विविधैर्यानेदेहान्ते वसु+गतिम् ।।
हंसध्वजः ॥ अथ लक्ष्मीधरं चूमो यं कृत्वा विजयं नरः ॥ राज्यमायुष्यपूजां च गुणानाप्नोति चैश्वरान् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्ते षोडशभिः पदैः ॥ कर्तव्यः षट्पदः कन्दो गर्भसूत्रचतुष्पदः । चतसृष्वपि दिक्षु स्यात् त्रिभिर्भागभ्रमन्तिका ॥ द्विपदा बाह्यभित्तिः स्याच्छभा कार्या चतुर्दिशम् । कर्णेषु शृङ्गमेकैकं द्वे द्वे शृङ्गे तु मध्यगे । द्वयंशानि तानि विस्ताराद दशशृङ्गाणि दि(क्रये?क्वये)। षदशालाश्च विधातव्याः शुभा दिक्षु तिसृष्वपि ।। याम्येन (च) चतुर्भागा भागद्वितयनिर्गताः । तलच्छन्दोऽयमुद्दिष्टो मण्डपः पुरतो भवेत् ॥ विस्ताराद् द्वि(गुणा सासः?णो यामः प्रासादस्यास्य चोच्छ्रयः । स्यात् त्रयोदशभागोऽत्र प्रमाणेन तुलोदयः ।। ऊर्ध्वं च विंशतिपदं वेदीबन्ध(:) पदत्रयम् । उत्सेधात् षट्पदा जङ्घा भागेन भरणं भवेत ।। भागैस्त्रिभिर्मेखले द्वे शृङ्गं च कलशं त्रिभिः । उच्छ्येण विधातव्यः सिंहकर्ण(चच)तुष्पदः ॥ दश शृङ्गाणि कुर्वीत घण्टा(पकं?)च (विक्रीदिकत्र)ये । चतुर्दशांशविस्तारा पञ्चगा(१) मूलमञ्जरी ॥ 1. 'महान् यत्नः पुनः' इति स्यात् Irut Gyanam"
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपश्चाशोऽध्यायः । ऊर्च सप्तदशांशा च ग्रीवोच्छ्रायः पदद्वयम् । अण्डकं द्विपदं कार्य भागेनैकेन कर्परम् ।। कलशं त्रिपदं मूर्ध्नि वर्तयेत् सुमनोरमम् । लक्ष्मीधराख्यं प्रासादं यः कुयोद वसुधातले ।। अक्षये स पदे तत्वे लीयते नात्र संशयः ।
लक्ष्मीधरः ॥ महावज्रमथ ब्रूमः (प्रात्यपापहरं शुभम् ॥ प्रासादे का(रये?रिते) यत्र सुरेन्द्रः परितुष्यति । अष्टौ हस्तान् कनीयान् स्यान्मध्यो द्वादश मानतः ।। उत्तमः षोडश प्रोक्तस्त्रिधैवं करसंख्यया । स्वविस्तारस्य मुत्रेण(++क्षेत्र)मालित्य वर्तुलम् ।। कोणेषु लाञ्छितं कृत्वा भागैः पत्रिंशता भजेत् । द्विपदाः कर्णिकाचेह कायो द्वादशसंख्यया ॥ कर्णिकाद्वयमध्ये तु स्तम्यो भागे च वर्तुलः । शतपत्राकृतिः कायो द्वौ भागा मधेमानतः ॥ अधस्तान्मेखलायाश्च कमलोद्भववद् भवेत् । स्तम्भयेत् कर्णिकामध्ये तेषु कूटानि कारयेत् ।। कुर्यादालेखमुपरि कर्णिकायाः गुशोभनम् । कर्तव्या भूमयः पञ्च क्रमेणायतयान्विता (?) || स्याद भागा?दया ग्रीवा विस्तारेण चतुष्पदा । अण्डकं सार्धभागेन विधातव्यं सकर्परम् ।। भागद्वयं तु कलशः शृङ्गकणेः सपल्लवैः । यः करोति महावज्रं प्रासादं पुरभूषणम् ।। तुष्टो दिवि सदाम्पत्यो रमते सोऽप्सरोगणः ।
महावज्रः ।।
रतिदेहमथ ब्रूमः प्रासादं सुमनोरमम् ॥ अप्सरोगणसंकीर्ण कामदेवस्य मन्दिरम् । अष्टभागीकृते क्षेत्रे समभागे समायते ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे द्विपदं कर्णकूटं स्याद वारिमार्गसमन्वितम् । आलिन्दस्य चतुर्भागा विस्तारायामतः समाः ॥ भागिकी बाह्यभित्तिस्तु शेषं गर्भ प्रकल्पयेत् । मध्ये चतुष्किका कार्या यत्र स्तम्भाः सुशोभनाः ।। नेकरका त्रिवक्त्रैश्च हस्ते सर्वैः सपत्रकैः(१) । पल्लवैनोगबन्धैश्च सालभञ्जिभिरन्विताः ॥ खेल्लिका तत्र कर्तव्या मकरास्यविनिर्गता। चत्वारो बाह्यतोऽलिन्दाः स्तम्भद्वितयभूकुलम् (१) ।। सदृशं प्रथमं कार्य भवनं कर्मयुक्तिमत् । द्वितीयं भवनं कार्य बाह्यालि(कन्दविवर्जितम् ।। शेष कर्म तथा कार्य प्रथमायां यथा (भवतिः) । तृतीयायां पुनः कार्या चतुःस्तम्भा चतुष्किका ।। खेलिकातोरणन्यस्ता(:) समुखाश्च वरालकाः । स्तम्भानां कुटकान् पूर्वान् सिंहक(र्ण?)श्चमध्यतः ॥ म(ध्य?)लच्छाद्यानि(वायाधः) भागोच्छ्रायान्यनुक्रमात् । त्रीणि कुर्वीत युक्तानि शुभैरन्तरपत्रकैः ।। घण्टां च भागिनी कुर्याद(बें नामलसारकीम् । चन्द्रिको भागपादेन द्विभागां कलशोचितिम् ॥ एवंविधं यः कुरुते प्रासादं रतिवल्लभम् । सन्तोषयति कन्दर्प स्याजनेषु स पुण्यभाक् ।।
रतिदेहः ।। सिद्धिकाममथ ब्रूमः प्रमथैरुपशोभितम् । धनपुत्रकलत्राणि कृते यत्राप्नुयानरः ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्भागविभाजिते । गर्भ विभागं कुर्वीत भित्तिर्भा?भा,गेन शोभनम् ।। भद्रं द्विभागविस्तारं भागनेकन निर्गतम् । कर्णमेकेन भागेन कुर्यात् प्रतिदिशं बुधः ॥
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मेदिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । अस्योर्च द्विगुणं कुर्यात् षष्ठभागविभाजितम् । भागे च वेदिकावन्धं जवा सार्धपदोन्नता ॥ मेखलान्तरद्रत्रे च पादहीनं पदं मते । स्यादुच्छ्रितीश्चामा(?) जङ्घा पादोनं पदपश्चकम् ।। त्रिभागविस्तृता ग्रीवा भागपादसमुच्छ्रिता । पदाधमण्डकं प्राहुः पदपादेन चण्डिकाम् (१) । भागस्यार्धेन कलशसमुच्छायो मतः समः।। +++ गुणसूत्रास्या द्वितीयाः पञ्चभूतिकाः(१) ॥ यः सिद्धिकामं कुरुते सर्वपापविमोचनम् । सर्वेऽस्य कामाः सिध्यन्ति येकेचिन्मनसि स्थिताः ॥
सिद्धिकामः॥ अथाभिधीयतेऽस्माभिः प्रासादः पञ्चचामरः । यो भक्तथा कारयत्येनं स चिर दिवि मोदते ॥ भक्ते द्वादशभिः क्षेत्रे चतुरश्रे समन्ततः । चतुर्भागे भवेद् गर्भो भित्तिं भागेन कल्पयेत् ।। अन्धारिका तु भागौ द्वो बाह्यभित्तिस्तु भागिकी । त्रि(भि) गैर्विनिष्क्रान्तं तेषु कार्याश्चतुष्किकाः ॥ द्विगुणं कथितेत) चोर्ध्वमानं घण्टाण्डकान्वितम् । प्रमाणेन विधातव्यो दश भागास्तुलोदयः ।। त्रिपदो वेदिकाबन्धो जङ्घा स्यात् षडंशकः । मेखलान्तरपत्रे च भागेनैकेन कारयेत् ।। पदत्रयेण (सावं शृङ्ग कलश चाण्डकम् ) । शिखरा विंशतिः कार्याः (सभित्ताःसंभिन्नाः) सर्वमण्डपैः ।। शादधो विधात(व्याव्य) मल्लच्छाधं मनोहरम् । एवं सर्वचतुष्केषु मल्लच्छाद्यानि कारयेत् ।। छायकैः पञ्चभिः कार्यो मध्ये प्रासादनायकः । घटिकानां समुच्छ्रायः सपादं पदमिष्यते ॥ १. 'स्वादूर्व भङ्गं सकलशाकम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधार घण्टायाः सार्धभागेन ग्रीवायाश्च पदा(दिधि)का । कर्तव्यामलसारी तु (पादोनांशायबण्डिकाम्) ।। द्विपदः कलशः कार्यो बीजस्वरसमन्वितः । पञ्चघण्टाटतं कृत्वा विमा(नान) पञ्चचामरम् ।। (अतीतविस्त्वयान सर्वान् लोकः प्रामोति सम्भव?) ।
पञ्चचामरः॥ नन्दिघोषमथ ब्रूमो विपक्षभयनाशनम् ।। य एनं भक्तितः कुर्यात् स भवेदजरामरः । चतुरश्रे समे क्षेत्रे चतुभोगविभाजिते । भद्रं द्विभागविस्तारं कुर्याद् भागविनिर्गमम् । भित्तिरत्र न कर्तव्या दिशि कस्यामपि ध्रुवम् ।। कुर्वीत राजसेनं तु वेदिचन्द्रावलोकनम् । दिक्षु क्रमोऽयं सर्वासु त्यक्त्वा मार्गचतुष्टयम् ॥ विस्तारसदृशोच्छ्राया कर्तव्या पूर्वभूमिका । वक्ष्यमाणैर्विभागैश्च विप्रभज्यासणाः + +(3) ।। भागेन राजसेनं स्याद वेदिर्भागद्वयेन च । भागेन चन्द्रालोकः स्यादनासनपट्टकः ।। स्तम्भोच्छ्रायस्त्रिभिर्भागैस्ततो भागेन शीर्षकम् । पट्टोच्छ्रायो भागमेकं स्याच्चतुर्विंशतिर्धराः॥ नानासधैः पल्लवैश्च चारुकर्मकराननैः । द्वितीया भूमिका कार्या स्तम्भैः पोडशभिर्युता । एवं भूमौ द्वितीयायामपि कर्म विधीयते । स्तम्भैश्चतुर्भिः संयुक्ता तृतीयायां चतु(र्थिीष्कि)का ।। नन्दिघोषः कृतो येन (मूयं तेजो?) स जायते । कर्मक्ष(या तुतुं त् तनुं) त्यक्त्वा पामोति परमं पदम् ॥
नन्दिघोषः। 'दुर्वतेजाः ' इति ला : Aho Shrut Gyanam"
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । प्रासादमभिधास्यामो मनूत्कीर्ण महा(द्रुद्भुतम् । विमृश्य बुद्धया निपुणं निर्मितं प्राक् स्वयम्भुवा ॥ क्षेत्रे षड्भागविस्तारे ग(भ) भागचतुष्टये। कुर्वीत वृत्तं मध्ये च नवभिटृत्तिमालिका(१)॥ अष्टो (च) रथिकाः कार्याः क्षेत्रे दिक्षु विदिक्ष वा । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमो द्विगुणं द्विपदान्वितम् ॥ (छाद्ययावद्विधातव्या तत्सार्धा कपञ्चकम् ?) । भागानष्टार्धसहितान् कुर्यादूर्ध्वं तुलोदयात् ॥ सार्धभागेन कर्तव्यो वेदीबन्धश्च शोभनः । भागद्वयं ततः सार्धं कायर्या जङ्घासमुच्छ्रितिः ॥ भागाध हीरकं कुर्यान्मनोज्ञं क(तिर्णि)कान्वितम् । मेखलान्तरपत्रे च भागेनैकेन कारयेत् ॥ शृङ्गोच्छ्रायस्ततः कार्यः सार्धभागद्वयोन्मितः । मध्येन सर्वशृङ्गाणां मस्तके वृत्तमालिखेत् ।। षदभागविस्तृतं तस्य + पड्भागसमुच्छ्रितम् । यावन्मात्रा(चरेत्?वरे) प्रोक्ता तावत् कार्या च मञ्जरी ॥ त्रिभौमं पञ्चभौमं च विचित्रं कारये(दि)मम् । ग्रीवा स्याद् भागपादेन विस्ताराद् द्विपदायता ॥ पादहीनं पदं कुर्यादण्डकं मनुसंभवे(?) । चन्द्रिका भागपादेन पादोनं (कुशलः कलश:) पदम् ॥ पासादं मनसाप्येवं मनुकीतः?ण)करोति यः। स (गंध्या गत्वा) भवनं शम्भोर्माणपत्यमवाप्नुयात् ।।
मानकीर्णः(1) ॥ अथ सुमभनामानं प्रासादमभिदध्महे । यं कृत्वा प्रभयान्येषां प्रभा हन्ति रविर्यथा ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे द्वादशांशविभाजिते । कुयोच्चतुष्पदं गर्भ विस्तारो यामतः समः ।। 1. मनूत्कीर्ण' इति पूर्व ब्यपदिष्टः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
प्रासादा भवेत् कन्दः कन्दभद्रं पदद्वयम् । भ्रमन्ती द्विपदा दिक्षु चतसृष्वपि शोभना ।। पदिका वाह्यभित्तिस्तु द्विपदा कर्णविस्तृतिः । चतुष्पदं मध्मभद्रं विनिष्क्रान्तं त्रिभिः पदैः ।। (अस्यैर्वात?) पुनः कार्या द्विपदा तु चतुष्किका । (सालायाः) पाश्वेतः कुचोदतिभद्रद्वयं वुधः ।। तयोः पादेन निष्कासं पाश्चयोरुभयोरपि । पार्श्वभद्रस्य कर्णस्य चान्तरं पदिके नयेत् ॥ जालैर्विचित्रितं कुर्यान्मध्ये ज्योतियथा भवेत् । एवं दिक्षु समस्तासु कुर्वातनमानुक्रमात् ॥ प्रासादभागविधिना पुरः कुर्वीत भण्डपम् । चतसृष्वपि मञ्जयों दिक्ष काया यथाक्रमम् ।। लीयमलसजङ्घात्रा स्वसाधो च यथादिमम् (?) । उच्छ्रायो मूलविस्ताराद द्विगुणो द्विकलाधिकः ॥ तुलोदयो दशपदो मञ्जरी षोडशांशिका । वेदीबन्धसमुत्सेधः सार्धभागद्वयोन्मितः ।। पञ्चभागोच्छ्रिता जलन हीरं भागसमुन्नतम् । साधेभागेन कतव्ये मेखलान्तरपत्रके ।। कर्णशृङ्गसमुत्सेधः कलशान्तस्त्रिभागिकः । दिङ्मञ्जरी तु कतेच्या विस्तारेण चतुष्पदा ॥ उदयेन विधातव्या पश्चभागा प्रमाणतः । ग्रीवा पदस्य पादेन कलशोऽर्धपदं भवेत् ।। विस्तारो मूलमञ्जर्याः कर्तव्यो दशभागिकः । ++ भागत्रयोत्सेधो ग्रीवा पारदेदो)नभागिका ॥ अण्डकं सार्धभागेन द्विपदा कलशोच्छितिः । (देशांशषटकतो मूलास्कन्धोरेपोऽन्तको?) भवेत् ।। १. 'अस्यैवान्तः' इति स्यात् । २. 'शालायाः' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविशिंका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । विस्तारो मलमजर्याः कर्तव्यो दशभागिकः । नगण्डकोऽयं कर्तव्यः प्रासादः शुभलक्षणः ॥ यः प्रासादमिमं कुर्यात् सुप्रभं भक्तिमान् नरः । दिव्यते(जारवहस्यास्य?) देहान्ते मुक्तिमा नुयात् ॥
शुभलक्षणः ।। सुरानन्दमथ ब्रूमः प्रासादमतिसुन्दरम् ।। चतुरथ समं क्षेत्रे दशधा अविभाजयेत् ।। षड्भागो गर्भविस्तारो द्वी भागौ भित्तिविस्तृतिः । कर्तव्या सार्धभागेन(?) भागार्धेन जलाश्रयः । प्रत्यङ्गस्थानकं कुर्यात् (सप्रसं वृत्त)भागिकम् । शालास्त्रिभिः पदैः कार्याः शुभरूपाश्चतुर्दिशम् ॥ शालायाः पार्श्वयोः कार्यो वारिमार्गः पदार्धकः । परस्परं तु निष्कासो भागं भागं विधीयते ॥ ऊर्ध्वमानं विधातव्यं विस्ताराद् द्विगुणो?णं) बुधैः । गभेच्छाचं पदान्यष्टौ भागा द्वादश मञ्जरी ॥ वास्तुविस्तारपादेन वेदीवन्धो विधीयते । चतुष्पदोध्येतो जसा भागाधं ग्रासपट्टिका ।। मेखलान्तरपत्रे च विधातव्ये पदोच्छ्रिते। कोणा द्रविडकूटस्य वृत्तस्तम्भा वराटका(?) । मध्यानतोरणानां स्युद्विशतिश्चतुरो(?) भवेत् । षट्पदः स्कन्धविस्तारो ग्रीवा भवति भागिकी । शिरः सार्धं पदं ज्ञेयं भागमेकं च चन्द्रिका | कलशोऽशद्वयोच्छ्रायः कार्य: पल्लवभूषितः ।। यः करोति सुरानन्दं वरदास्तस्य मातरः । सुरास्तस्य ह्यनिस्तार्यगपमृत्युं हरन्ति च ॥
सुरानन्दः ॥ 1. 'जोवहः स स्याद्' इति पाठ्यं स्यात् । २. उपक्रमोपसंहारयोः सुप्रभ इत्यस्य नाम दृश्यते । ३. अत्र क्रियाश्चिच्छोकांशो गलित इव भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अथ हर्ष प्रवक्ष्यामि सर्वलोकप्रहर्षणम् । नित्यं वसति यत्र श्रीः स्थानं यद विश्वकर्मणः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्तेऽष्टादशभिः पदैः । प्रतिकोणं विधातव्याः (कणेभागौ?) स्त्रिभिस्त्रिभिः ।। द्विपदं कर्णभद्रं च भागेनैकेन निर्गतम् । वारिमा(ग) पदं कुर्यात् प्रवे(श्यीशा)यामतः समम् ।। त्रिभागमस्य प्रत्यङ्गं पदद्वितयनिर्गमम् । वेदिचन्द्रावलोकाभ्यां प्रत्यङ्गे कर्म कल्पयेत् ॥ चतुष्पदं मध्यभागं द्विपदं चास्य भद्रकम् । विनिर्गतं च भागेन विदधीत विचक्षणः ॥ वलभ्यश्च द्विभागाः स्युः(वा?स्वा)नुरूपाश्चतुर्दिशम् । गर्भो भागेश्चतुर्भिस्तु वलभीनां विधीयते ।। द्विपदा बाह्यतो भित्तिद्विपदा च भ्रमन्तिका । स्कन्धः स्याद् दशभिभागगर्भः षट्त्रिंशता पदैः ।। ऊर्ध्वप्रमाणमेतस्य स्याच्चत्वारिंशता पदैः । भागैः षोडशभिश्वास्य विदध्याच्छादनं शुभम् ॥ वेदीबन्धः पञ्चपदो जङ्गा चाष्टपदा भवेत् । शा(लालां) चान्तरपत्रं च कुयोद् भागत्रयाद बुधः॥ ऊर्ध्वमन्तरपत्रं स्याद् विधातव्यं यथाक्रमम् । वलभीसंवृतिः प्राज्ञैरुच्छ्रायात् पञ्चभागिकी । (सास)शृङ्गैः सिंहकर्णैश्च कार्यो?र्या) भागसमुच्छ्रितिः । वर्धमानेन कर्तव्या त्रिपदा कर्णमञ्जरी ॥ ऊर्व पदेभ्यस्त्रिभ्यः स्याद् भागेन कलशाण्डकम् । विस्तारात् षोडशपदा कर्तव्या मूलमजरी ।। ऊ(?)विंशतिभागास्य स्कन्धो नवपदायतः । ग्रीवा सार्धपदं कार्या ततो द्विपदमण्डकम् ।। १. 'कर्णा भागै' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । चन्द्रिकैकेन भागेन कलशस्त्रिपदात् ततः । हषेण: क्रियते यत्र स देशः सुखमेधते ।। क्षेमं गोब्राह्मणानां स्यात पूर्णकामश्च पार्थिवः ।
हर्षणः ।
इदानी दुर्धरं धूमः प्रासादं शुभलक्षणम् ॥ चतुरश्रे समे क्षेत्रे चतुर्विंशतिभाजिते । कर्णाः (षडापदाः कायां प्रतिस्थं च ?) द्वयं भवेत् ॥ कर्तव्याष्टपदा शाला निर्गमोऽस्य चतुष्पदः । पदद्वयं विनिष्क्रान्ता सर्वतः कर्णशोभिता ॥ द्विपदा बाह्यभित्तिः स्याञ्चतुर्भागान्धकारिका । द्विपदा कन्दभित्तिस्तु गर्भश्चाष्टपदायतः ॥ षट्पदा कन्दशाला च कन्दङ्गणाः पदत्रयम् । ऊध्र्वप्रमाणं विस्ताराद द्विगुणं द्विपदाधिकम् ॥ (विंशत्यम?) तुलोच्छ्रायाः शिखरं त्रिंशता पदैः । कुम्भः साधेद्विभागश्च कलशो भागमुच्छि(ति?त): ॥ भागार्धनान्तरं पत्रं भायेनकेन मेखला । दशभागोच्छ्रिता जवा हीरकं भागिकं भवेत् ।। भागेश्चतुर्भिः कर्तव्यं मेखलाद्वितयं ततः । अधस्तादृर्वपट्टस्य तलपट्टम्य चोपरि ।। भवेत् षोडशभिर्भागैरनयोरन्तरं द्वयोः । द्विपदो वेदिकाबन्धो वेदी कार्या चतुष्पदा ।। भासनं चैव भागेन स्तम्भः पञ्चपदैर्भवेत् । भागेनैकेन भरणं शीर्षकं भागमुन्नतम् ॥ पट्टो भागद्वयोत्सेधश्छाद्यं च त्रिपदायतम् । मूलभरणानि(१) चत्वारि कोगभद्राणि (कं भवेत् ?) ।। कर्णशृङ्गाणि दश च द्वयम(थ)स्मिंश्चतुर्दिशम् । (ग्रीवां भगसन्तानां?) शृङ्गाणां त्रिपदोच्छ्रितिः ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे षट्पदाः कर्णमञ्जयः सप्तभागसमुच्छ्रिताः । ग्रीवार्धभागिकी भागः स्यादुच्छ्रायोऽण्डकस्य (तत्) । पदत्रयोन्नता कार्या सिंहकर्णश्चतुष्पदा (?) । मध्ये भद्रे तदुत्सेधो विस्तारादर्धभागिकः ॥ विस्तारो मूलमजोः पदैः षोडशभिर्भवेत् । अष्टादशभिरुच्छायो ग्रीधा सार्धपदोच्छ्रिता ।। अण्डकं द्विपदं कार्य चन्द्रिका पदमुच्छ्रिता । कलशं त्रिपदं विद्यात् सर्वलक्षणसंयुतम् ।। अण्डकैः सप्तदशभिः प्रासादो दुर्धरो भवेत् । दुर्धरं या करोतीह (भागा?भर्गाच्छक्ति समा?आ)प्नुयात् ।। कालेन शिवसायुज्यं (निगधिश्च प्रद्यतेः)।
दुर्धरः ।। इदानी दुर्जयं ब्रूमः प्रासादं शत्रुमर्दनम् ।। यं कृत्वा (दुर्जयं लोके?) भवेत् क्रीडति च क्षितौ । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे पञ्चभागविभाजिते । गर्भ नवपदं कुर्याद भित्तिः पोडशभागिकी । भागेन कणेरथिका भागाभ्यां मध्यमे रथः ।। भागेन निर्ग(मं स्त)स्य वि(घि)रेष चतुर्दिशम् । भद्रकान्तरे कुर्याद वारिमार्ग पदाधिकम् ।। ऊर्ध्वमानं विधातव्यं (त्वमस्मिः) दशभागिकम् । वेदिबन्धः सपादांशी जङ्घांसौ पादसंयुतौ ॥ मेखलान्तरपत्रे तु पदार्थेन प्रकल्पयेत् । शिखरः (खिखिरैः?) साध भागषट्कोच्छ्रितो भवेत् ॥ त्रिपदः स्कन्धविस्तारो रेखा पद्मदलाकृतिः । भूमयः पञ्च कतेव्या न्यूनमाना यथाक्रमम् ॥ प्रथमा साधेभागान्या पदपादोनिता क्रमात् । स्कन्ध(:)पादोनभागेन स्याद् ग्रीवा(धौधे) पदेन च ॥ ., 'निधने च प्रपद्यते' इति स्यात् । २. 'दुर्जयो लोको' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । अण्डकं त्वेकभागेन कपरं चार्धभागिकम् । भागोत्सेधस्तु कलशः समवृत्तः सुशोभनः ।। दुर्जयः क्रियते यत्र पुरे वा नगरेऽथवा । न भवेत् तत्र दुर्भिक्षं न च व्याधिकृतं भयम् ॥
दुर्जयः ॥ ब्रूमस्त्रिकूटं ब्रह्माद्यैः सेवितं त्रिदशैत्रिभिः । फलं क्रतुसहस्रस्य येन मोक्षं च विन्दति ।। (संसाध्यतुल्यन्निभज)क्षेत्रमिष्टप्रमाणतः । ततोऽस्य बाहुमेकैकं चतुर्भिविभजेत् पदैः ॥ द्विभागं मध्यमं भद्रं भागिकी कर्णप(क्षिट्टि काम् ) । अर्धेन गर्भमर्धेन कुर्याद भित्तित्रयं बुधः ।। विस्तारं पञ्चधा भक्ताक्त्वा) कुर्याद द्विगुणमुच्छु(यायम्) । वेदिवन्धो विधातव्यः सपादं भागमुच्छ्रितः ।। जङ्घा सपादो भागो द्वौ कार्या तस्य समुच्छितिः । मेखलान्तरपत्रे च भागस्यार्थेन कारयेत् ॥ मञ्जरी भागषट्केन पञ्चभागविभाजिता । आसमन्तात् (स्तम्भस्कन्धः?) कार्यः पूर्वोक्तवर्मना ॥ पादभागेन तु ग्रीवामर्धभागेन चाण्डकम । चन्द्रिका भागपादेन कलशं भागमुच्छ्रितम् ।। त्रिकूटं कारयेद् यस्तु ब्रह्मेशानहरिप्रियम् । सिद्धाद्धो)भूत्वा पुरी तेषां यात्यसौ नात्र संशयः ॥
त्रिकूटः ।। इदानीमभिधास्यामः प्रासादं नवशेखरम् । चतुरश्रं भजेत् क्षेत्रं विंशत्यैकोनया पदैः ॥ कर्णाश्चतुष्पदाः कार्यास्तेषां भद्रं द्विभागिकम् । . विनिर्गतं पदार्धेन जलमार्गस्त+++il १. 'संसाध्य तुल्यत्रिभुजम् ' इति पाठ्यं भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे ++भागायता कायों सा भवेहि (१) विचक्षणः । शाला(कणेपदाद्वतु:) प्रत्यहं भागमानतः ॥ त्रिपदो रथकः कार्यो मञ्चरीणां चतुष्टयम् । चतुष्पदा भवेद भित्तिगभश्चकादशांशकः ।। चत्वारिंशत्पदाचं यावत् स्कन्धं समस्तकम् । तुलोदयः षोडशभिर्मजरी चाष्टकैस्त्रिभिः ।। चतुष्पदो वेदिबन्धो जङ्घा साष्टपदा भवेत् । भागेन भरणे व्यंशं मेखलान्तरपत्रकम् ।। उच्छ्रायतः पञ्चपदा कर्तव्या कर्णमञ्जरी । ग्रीवार्धभागेनं भवेदण्डकं चैव भागिकम् ॥ भागेन चन्द्रिकामूर्ष भागेन कलशं तथा । सपादमुदयं (शाला मजा विस्तृते!) विदुः ।। ग्रीवा पादेन भागेन सपा(दासमता?)ण्डकम् । भागाद्धि चन्द्रिका भागद्वयेन कलशोदयः॥ विस्तारो मूलमर्याः कार्यः पञ्चदशांशकः । सथा सप्तदशोच्छायः स्कन्धायामो नवांशकः ।। ग्रीवा चास्यार्धभागेन सार्यद्विपदमण्डकम् । वण्डिका सार्धभागेन त्रिपदः कलशोदयः ।। एवं यः कारयत्येनं प्रासादं नवशेखरम् ।। नवभिः सहितां खण्डैः स भुनक्ति वसुन्धराम् ॥
नक्शेखरः॥ पुण्डरीकमथ ब्रूमो यशसो वर्धनं परम् । यस्मिन् कृते स्थिरा कीर्तिर्भवेद् यावद् वसुन्धरा ॥ धतुरनं समं क्षेत्रं विभजेत् पञ्चभिः पदैः । त्रिपदं कल्पयेद गर्भ तस्य भित्तिं च भागिकाम् ।। त्रिपदं तस्य भद्रं स्यात् सार्धभागविनिर्गमम् । भद्रेषु वर्तुलं दिक्षु रथिकानां चतुष्टयम् ॥ 1. 'दांशमथ' इति स्यात् ।
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मादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । भागेनैकेन रथिका मूलच्छन्दोऽयमीरितः । ऊवमानं भवेद् यस्य द्विगुणो दशभागिकम् (१) ।। भागेनोन्छालकं विद्याद् भागाधेन तु मेखला। वेदिवन्धं न कुर्वीत जङ्घा सार्धद्विभागिका || मेखला चार्धभागेन भवेत् सान्तरपत्रका। पदानि पञ्च सार्धानि मजाः स्यात् समुच्छितिः ॥ त्रिपदः स्कन्धविस्तारो ग्रीवा वा (पदसादिकाः)। अण्डकं स्यात् पदार्धेन भागपादेन चन्द्रिका ।। भागोच्छ्रायस्तु कलशः कर्तव्यः शुभलक्षणः । मध्येन मूलमञ्जयोस्त्रिपदा भद्रमजरी ।। सार्धा+त्रिपदोच्या ग्रीवा भागसमुच्छ्रिता । अण्डकं च त्रिभागेन कलशो भागमुच्छ्रितः ।। पञ्चाण्ड: पुण्डरीकोऽयं कर्तव्यः शुभवर्धनः ।
पुण्डरीकः ॥ सुनाम(स)मथ ब्रूमो वन्दि(तोतं) देवदानवैः ।। बल्लभं लोकपालानां पुण्यमुत्कृष्टलक्षणम् । विभजेत् सप्तदशभिः समक्षेत्रं चतुर्भुजम् ।। पश्चभागायताः कोणा गर्भ: कार्यविभिः पदैः । उभयोः कोणयोर्मध्ये सप्तभागिकमन्तरम् ।। व्यक्षेपात(?) कर्णयोर्मध्ये (प्रा?प्रो)ञ्छयेत् पदमन्तरम् । भागप्रवेशं भागा(?)विस्ता(रार)मुदकान्तरम् ।। द्विपदा बाह्यभित्तिः स्यात् त्रिपदाथ भ्रमन्तिका । पश्चभागायतो मध्ये भवेत् प्रासादनायकः ॥ त्रिपदस्तस्य गर्भस्तु भित्तिर्भागं विधीयते । त्रिपदं कर्णभद्रं चं भागेनैकेन निर्गतम् ॥ पदप्रमाणकोणांस्तु च(त्वातु)रो(पवि)निवेशयेत् । 'यथा कन्दस्तथा कोणो विभागैः स विधीयते ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे पञ्च गर्भास्तु कर्तव्याः सममानप्रकल्पिताः । द्विगुणं चोर्ध्वमानं स्याद् ग्रीवाण्डकविवर्जिनम् ।। त्रिभिः पदैर्वदिवन्धो जङ्घा सप्तपदा भवेत् । पदत्रयेण कर्तव्यं मेखलाद्वितयं बुधः ॥ ऊर्थातो बाह्यच्छन्द(स्या?स्य) कर्तव्या कणमञ्जरी । षट्पदाः कणमञ्जयों द्विपदं कलशाण्डकम् ।। (द्वादशा सप्तविस्ताराः) कतव्या मूलमञ्जरी । त्रयोदशपदोच्ट्राया ग्रीवास्या भागमुच्छ्रिता । अण्डकं द्विपदोत्सेधं भागोत्सेधा तु चन्द्रिका । कलशस्त्रिपदोत्सेधो बतुलः शुभलक्षणः ।। यावत् क्षितिर्यावदाब्धिर्यावच्छशिदिवाकरो। कर्तास्य तावद दिव्यास्ते यावत् सुग्गुरुः सुराः ॥
सुनाभाः। माहेन्द्रमथ वक्ष्यामः प्रासादं भूषणं क्षितेः । सेवितं यक्षगन्धवः फणीन्द्रेश्च महाप्रभः ।। माहेन्द्रं पश्चदशभिर्भागैः प्राज्ञो विभाजयेत् । नवभागायतं गर्भ कुर्याद भित्ति त्रिभागिकीम् ॥ विस्तारणास्य विख्याता तज्ज्ञैः शाला पदत्रयम् । शालायाः पार्श्वयोः कार्यों रथौ सार्धपदा बुधैः ।। रथशालान्तरेणैव कर्तव्यमुदकान्तरम् । (स्थस्याप्रातः पश्चारि गृहकार्य पदार्थकम्?) ॥ प्रत्यङ्गानि पदं साधु++++जलान्तरम् । द्विपदं कणेमानं च कार्य कोणचतुष्टयं?ये) ॥ भागेनान्योन्यमेतेषां विधातव्यो विनिर्गमः । ऊर्ध्वमानं तु कर्तव्यं द्विगुणं सीमविस्तृतेः ॥ तुलोदयो दशांशः स्याद् विंशत्यंशा च मञ्जरी । .. वेदिवन्धं प्रकुर्वीत सार्धभागद्वयं बुधः ॥ है, 'द्वादशांशसविस्तारा' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्याया। मङ्गयोस्तु समुच्छायमपञ्चमभागिकम् । भागेन भरणं कुर्याल्लाञ्छितं पत्र भनिभिः ।। तर्ध्व मेखला कार्या भागद्वितयमुच्छ्रिता । ऊर्ध्वतो मजरी कार्या क्रमेणैव मनोहरा ।। नवभागायतं (रुद्ध ग्रीवा भागसमुन्नता । अण्डकं द्विपदोत्सेधं चन्द्रिका भागमुच्छ्रिता ॥ द्विपदं कलशं कुर्याद् विस्तारोत्सेधतः समाः। लताः सप्त विधातव्या (रेषा ब्रूम कुलाकृति?) ॥ मध्ये लतायाः कर्णस्य वेलकः षड्विधः क्रमः । प्रत्यङ्गे तिलका कूटाः पञ्चालार्धा द्विपक्षकः (१)।। कोणे वराटका(१) कूटाः कार्या माहेन्द्रमन्दिरे । कृत्वा महेन्द्रं गजा स्याद माहेन्द्रस्य(?) वसेद् दिवि ॥
महेन्द्रः ।। अथो ब्रूमो वराटाख्यं प्रासादं शुभलक्षणम् । दयितं किन्नरेन्द्राणां नागानां चातिवल्लभम् ।। चतुरश्रं समं क्षेत्रं विभजेद् दशभिः पदैः । कु(यो त् षड्भिः पर्दैगर्भ भिर्ति भागद्वयेन च ॥ द्विपदं कर्णविस्तारं कुर्यात् कोणचतुष्ट(यम् ये) । उदकान्तरविस्तारमधंभागप्रवेशकम् ॥ पञ्चभागायतं भद्रुमन्तरं वारिमार्गयोः । विस्तारार्धन कर्तव्यस्तस्य भद्रस्य निर्गमः ॥ कुर्यान्मध्येऽष्टभिर्भागः सपादै(तत्त)मुत्तमम् । सहितो वारिमार्गेण तलच्छन्दोऽयमीरितः ॥ ऊर्ध्वप्रमाणमेतस्य विस्ताराद द्विगुणं भवेत् । तुलोच्छायोऽष्टभिभांगैः पदानि द्वादशोर्वतः ॥ पदत्रितयमुत्सेधात् कर्तव्यं भद्रपीठकम् । विस्तारार्धार्धमुत्सेधं वेदिबन्धस्य कारयेत् ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे
चतुर्भागोच्छ्रितां जहां हीरकं चार्धभागिकम् | मेखलान्तरपत्रं च कुर्याद भागसमुच्छ्रितम् || त्रिपदं शृङ्गमुत्सेधाद ग्रीवा च कलशाण्डकम् | (त) दूर्ध्वं पञ्चविस्तारा स्यादुरोमञ्जरी शुभा ॥ ग्रीवा कार्या पदार्धेन भागेनैकेन चाण्डकम् | कलशोंऽशोच्छ्रितोऽष्टांशविस्तारा मूलमञ्जरी || तस्याः कार्यः समुत्सेधः प्रमाणान्नवभागि (का? क) | स्कन्धः पञ्चपदो ग्रीवा पादहीनं पदं भवेत् ॥ सपादं पदमञ्जर्या(?) पदस्यार्धेन चन्द्रिका | कलशो द्विपदोच्छ्रायः प्रासादे स्याद् वराटके || वराटं कारयेद्यस्तु प्रासादं भक्तिमान् नरः । स याति यानैर्विविधैः स्वर्गं प्राप्नोति चाक्षयम् ॥
वराट ||
सुमुखस्याधुना लक्ष्म प्र ( का मागतमुच्यते । भागैरेकोनविंशत्या चतुरश्रे विभाजिते ।। तत्रैकादशभिर्गर्भश्चतुर्भिर्भित्तिरंशकैः । कोणो द्विभागिकस्तत्र भागपादो जलान्तरम् ॥ भागार्थेन प्रवेशोऽस्य चतुरंशक विस्तृतम् । भद्रमेवं विनिर्दिष्टमभागेन निर्गतम् ॥ पादोनभागद्वितयादन्तरे कर्णभद्रयोः । त्रयः प्रतिरथाः कार्याः सहिताः सलिलान्तरैः || restore मिथस्तेषां विनिर्गमः । ऊर्ध्वमानं भवेदस्य द्विगुणं द्विकलाधिकम् || अंशकैः पञ्च (मभिचैव विधेयोऽस्य तुलोदयः । विभागैः पञ्चविंशत्या तदू मञ्जरी भवेत् ॥ वेदवन्ध विधेयोऽस्य सार्वभागचतुष्टयात् । जङ्गांशैरभिः सार्धं धः) वरण्डी तु द्विभागिका ||
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । लताभिनवभिर्युक्ता प्राग्वत् कार्यास्य मञ्जरी । । स्यादेकादशभिर्भागैरेतत्स्कन्धस्य विस्तृतिः ।। चतुर्गुणेन सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् । कोणासन्नप्रतिरथो द्राविडोऽस्य विधीयते ॥ भूमिका नव कर्तव्याः शेष कार्य महेन्द्रवत् । पादोनभागद्वितया ग्रीवास्य च विधीयते ।। सार्धभागद्यमितं विदध्यादण्डकं शुभम् । चण्डिका साधेभागेन कलशचाण्डकैस्त्रिभिः ।। इत्येष कथितः सम्यक प्रासादः सुमुखाभिधः । य एनं कारयेद् भक्त्या स कामानश्नुतेऽखिलान् ।। भुक्त्वेह विपुलान् भोगान् पदमभ्येति शाश्वतम् ।
मुमुखप्रासादः ।। *चतुर्मुखा(?)श्रीधरादीनां ये प्रोक्तास्तान प्रचक्ष्महे ।। लक्षणैरधुना सम्यग देवानामनिवर्तनात्(१) । यत् स्याद् विजयभद्रस्य रूपं तस्मिन्नथास्थिते ॥ विजयो नाम कर्तव्यः प्रासादो देवताप्रियः । कणे केसरि + ++ सर्वतोभद्रकः पुनः ।। निवेशनीयो रथकैः सर्वलक्षणसंयुतः । तस्योपरि विधातव्या मजरी चारुरूपिणी ।। विस्तारादुदयात् तस्याः कुर्वीतैककलाधिकम् । स्कन्धस्तु षट्पदः कार्यों ग्रीवा भागसमुच्छ्रिता ॥ अण्डकं सार्धभागेन चन्द्रिकापि च तत्समा । तस्या एव हि मध्ये तु कुयोदामलसारकम् ।। सार्धभागद्वयोलोधं कलशं च तदर्ध्वतः । द्राविडैश्च वराटेश्व प्रकुर्वीतास्य मञ्जरीम् ।। १. श्वांश कैस्त्रिभिः' इति तु युक्तः पा - इद्द अन्धपात इव लक्ष्यते ।
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समराङ्गणसूत्रधारे +++++प्रपन्ना नापि जन्मनि जन्मनि(?) ।
महाघोषाभिधानोऽथ प्रासादः कथ्यतेऽपरः ॥ नन्दिघोषस्य संस्थाने रूपे चास्य व्यवस्थितः । अस्य करते?णे)पु सर्वेषु भद्राणि विनिवेशयेत् ।। भद्रे चतुष्किका कार्या द्विपदायामनिर्गमा । भागिकी भित्तिरन्तश्च शेषं गर्भगृहं स्मृतम् ।। शृङ्गाणि कर्णे कुर्वीतेत्येषा प्रथमभूमिका ।। द्वितीया तु पुनः कार्या भित्तिविन्यासवर्जिता ॥ चतुर्दिशं विधातव्यं वंदीचन्द्रावलोकनम् । विदधीत चतुःस्तम्भां तृतीयामपि भूमिकाम् ।। छोद्यकैरून तस्या कार्या संवरणा बुधैः(१) । कारयेन्नन्दिघोषं यः प्रासादमिममुत्तमम् ।।। विभूतिवाञ्छिता तस्य कुलेऽपि न. विनश्यति ।
महाघोषः । प्रासादो मिश्रकेष्वेव वृद्धिरा(गोमो) विधीयते ।। (स्त्रीनिसस्य?) संस्थानं यत तदस्यापि कीर्तितम् । गर्भकन्दं परित्यज्य स्तम्भैः पोडशभितम् ।। अस्य मध्यं विधातव्यं शेपं च श्रीनिवासवत् । जरोघण्टाभिरष्टाभिरश्वशालाभिरेव च ॥ अस्य भद्राणि कुर्वीत सर्वालङ्कारवन्ति च । वसुन्धरस्य ये भेदास्तैः सर्वेरन्वितः शुभः ॥ कलशैरेकविंशत्या दृद्धिरामः प्रशस्यते । प्रासादस्यास्य कर्ता च यावचन्द्रार्कतारकम् ॥ तावदिन्द्र इव स्वर्गे क्रीडत्यप्सरसां गणैः ।
वृद्धिरामः ॥ वृद्धिरामस्य संस्थाने प्रासादः स्याद् वसुन्धरः ॥
१. 'छाद्यरूर्वतस्तस्या: काय संवणं बुधैः' इति पटनीयं स्यात् । २. 'श्रीनिवासस्य इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । बाह्यभित्तीः परित्यज्य गर्भभित्तिर्विधीयते । वेदिकाकालरूपाद्यो(?) भद्रतोरणभूषितः ।। एतद्भेदसमायुक्तः प्रासादः स्याद् वसुन्धरः । भक्तया यः कारयेदेनं सोऽधितिष्ठत्यसंशयम् ॥ दुष्प्रापमपि देवानां महादेवस्य मन्दिरम् ।
वसुन्धरः ॥ प्रासादं मुद्नामानमिदानीमभिदध्महे ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे षभिर्भागेर्विभाजिते । कुर्वीत भागिकी भित्तिं गर्भ चैवास्य वर्तुलम् ॥ भद्रं चतुष्पदं वृत्तं निर्गमेण पदद्वयम् । स्वस्तिक(श्वीस्य) समाकाराश्चत्वारो रथिकाः स्मृताः ।। कर्णाश्च सर्वे कर्तव्या अश्रिभिः षड्भिराताः। जा वेदी च पीठं च (तंत्र कीर्तिः)निमानि च ॥ विस्तृतान्येकमागेन द्विभागोत्सेधवन्ति च । कणेकूटानि कुर्वीत सप(वात्र)मकराणि च ॥ भद्रं चतुष्पदायाम पञ्चभागसमुच्छ्रितम् । ग्रीवाण्डकं सकलशं कुर्यात् सार्धपदद्वयम् ॥ विस्तारं मूलमञ्जर्याः पदपदं + + मालिखेत् । उच्छ्यं दशभिभोगग्रोवाकलशसंयुतम् ।। मञ्जरीमत्र कुर्वीत (मन्नकीत?) यथा कृता। मासादं + + ++ यो भक्तितः कारयेदिमम् ॥ गायन्ति तस्य किन्नयों दिवि चन्द्रामलं यशः ।
मुदप्रासादः ॥ इदानी भ +++++-हच्छालं सु(रा)लयम् ।। कमलोद्भवसंस्थाने कुर्वीतेमं यथास्थितम् । दिक्सूत्रे कर्णमूत्रेण स्थ ++++++त् ।। १. 'मानकी' इति स्यात् । २. 'मानकीर्णे' इति स्यात् ।
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समराङ्गण सूत्रधारे
कर्णान्ते भद्रमध्ये च कारयेदुदकान्तरम् | पदपादेन विस्तीर्ण प्रक्षेपेण पदार्थकम् ॥ कर्णा + + + तव्या परिमृलिङ्गवृत्ताः (?) 1 पीठं वेदी च जङ्घा च मेखलान्तरपत्रकम् ॥ कमलोद्भववत् कार्यं बहुधा क + + षितम् । कर्तव्य शिखरं (?) कुर्यात् ++++++++ इलिकामकरग्रासैर्वरा: सासुरैश्विता । कथिता पुष्पके यादृग् (ज) ( घाङ्क्षा) तादृगिण्यते ॥ ऊर्ध्वपीठप्रमाणस्य तथावच्छादकस्य च । यन्मध्यं तत्र कुर्वीत पड्दारुकनिवेशनम् || रुष्टिकातोरणश्चारुसालभञ्जाविराजितम् (!) | वेदिकाराजसेनाढ्यं (शभूतेद्ववलोकनम् ) || सस्तम्भशीर्षभरणं पट्टनोपशोभितम् । (म्लल्ल मल्ल) च्छाद्यं विधातव्यं सिंहकर्णविभूषितम् ।। सिंहरूपैः समाक्रान्तं विचित्रैश्व वरालकैः ।
शोच्छ्रितं कर्णकूटं कुर्या (दिम्बद्विप) दविस्तृतम् ॥ ग्रीवाण्डकसमेतं च (व) रण्ड्यां (का?) कलशान्वितम् । कर्णाः : पृथक् पृथक् चेह स्युः षट्पञ्चाशदण्डकाः ॥ उमञ्जरकाभिस्ते तिसृभिः स्युर्विभूषिताः । कर्णान्ते मूलरेखा च विस्तारात् सप्तभागिका || भाष्टकं चास्या विधातव्या समुच्छ्रितिः । उरोमञ्जरका कार्या चतस्रोऽनुदिशं तथा ||
प्रथमा स्यादुरोरेखा द्वादशाण्डकभूषिता । चतुर्दशाण्डका चान्या तृतीया पोड (शांश ? शाण्ड ) का || अष्टादशण्डकोपेता चतुर्थी परिकीर्तिता । षट्त्रिंशताण्डकैर्युक्ता मूलरेखा विधीयते ॥ ग्रीवा पदं स्यात् पादोनं सपादं पदमण्डकम् । averagei refsका च पदोच्छ्रिता ॥
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । द्विपदं कलशं विद्यात् समवृत्तं मनोरमम् । अधोंतु दू विधातव्यं बुजं तस्य चोपरि(१) । विचित्रभूमिके(सप्तदशम्मिल्लिख्यराक्षणण्यपि?) । स्तम्भैर्विविधविन्यासैबहुभाविनिर्मितैः ॥ भूषितैः कर्मभिश्चित्रैः सर्वत्र शुभलक्षणैः । । चन्द्रशालादिसंयुक्तैस्तोरणैश्चारुचामरैः ॥ तथाक्षतमुखग्रासैघनरूपतया स्थितैः । व्यालैयालोलजिह्वश्च मकरग्राससंयुतैः ॥ मदान्धालिकुलाकीर्णगजवक्रविभूषितैः। विद्याधरवधूवृन्दैः क्रीडारम्भविभूषितैः ।। सुराणां सुन्दरीभिश्च वीणाहस्तैश्च किन्नरैः। सिद्धगन्धर्वयक्षाणां वृन्दैश्च परितः स्थितैः ॥ अप्सरोभिश्च दिव्याभिर्विमानावलिभिस्तथा । चारुचामीकरान्दोलाक्रीडासक्तैश्च (निःसराम्) । नागकन्याकदम्बैश्च सर्वतः समलङ्कृतम् । एवंविधाभिः सर्वत्र भूमिकाभिर्निरन्तरम् ।। अलङ्कृतो विधातव्यो मेरुः प्रासादनायकः । मध्य(म)द्विगुणैर्येष्ठः कर्तव्यो)मेरुरण्डकैः ॥ कनीयान् मध्यमार्धेनेत्यण्डकस्थितिरीरिता । उत्तमेवृत्तमं न्यस्येन्मध्यमेषु च मध्यमम् ॥ (अघ)मेष्वधर्म लिङ्गमेवमन्येषु धामसु । मेरोस्तु त्रिविधस्यापि लिङ्गमुत्तममृद्धिदम् ॥ अन्यथाविहित++++++दिरोषकृत् । मेरु मेरूपमं दिव्यं यः कारयति पार्थिवः ।। स प्रामोति परां भुक्तिं ++++सदाशिवाम् । मेरुं प्रदक्षिणीकृत्य काश्चनं यत्फलर्द्रिभाक् ॥ १. 'निर्भराम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे शैलेष्टकादारुमये कृतेऽस्मिस्तत्कलर्द्धिभाक् ।
(लक्षणं) मन्दरस्याथ प्रासादस्याभिधीयते ।। सिद्धिप्रदस्य पुण्य(स्य)स्तुतस्य त्रिदशैरपि । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे++ भागविभाजिते । गर्भः कार्यश्चतुर्भागो भित्तिरेकांशविस्तृता । अन्धारिकैकमागेन बाह्यभित्तिस्तु भागिकी ॥ कोणेषु रथिकाः कार्याः पदद्वितयसंमिताः । चत्वारो मण्डपाः कार्याः पत्रिंशत्पदसंमिताः ॥ चतुर्दिशमलिन्दाश्व विधातव्याश्चतुष्पदाः । भागेन निर्गतास्ते च सर्वतः शुभलक्षणाः ॥ अस्योर्ध्वमानं कर्तव्यं विस्ताराद् द्विगुणं बुधैः । कर्णावेधश्च(१) विस्तारसीमा सर्वत्र गृह्यते ।। प्रासादे मूलमानं यत् तच्च सम्यक् प्रकल्पयेत् । द्विपदं पीठमुत्सेधात् कार्य प्रा(मुनतो?मूलतो) बहिः॥ तत् परङ्कितं कार्य सिंहैरपि च मन्दिरे । पदाध खुरकः कार्यः प्रासादसमवर्जितः(१) ।। सार्ध पदद्वयं कार्यो वेदीबन्धः सुशोभनः । चतुर्भागोन्नता जङ्घा भागाध रूपपट्टिका ।। मेखलान्तरपत्रं च कार्य पदसमुच्छ्रितम् । पदद्वयायतानि स्युः कर्णे शृङ्गाणि मानतः ॥ उच्छ्रयस्त्रिपदस्तेषां ग्रीवाण्डकलशैः सह । मूलरेखा विधातव्या कर्णकूटस्य चोपरि ॥ नवभागोच्छ्रिता शस्ता विस्तारेणाष्टभागिका । विस्तारं दशधा कृत्वा तैः पभिः स्कन्धविस्तृतैः ।। लताः पञ्च विधातव्याः श्रीवत्से कथिता यथा। . कुर्वीत पञ्चभौमं वा सप्तभौममथापि वा ॥
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । ग्रीवा पादोनभागा स्यात स(पाद) पदमण्ड कम् । चन्द्रिकैकपदा कार्या कलशो द्विपदोदयः॥ (विश्वरं?)त्रिपदं कुर्यात् तत्रैकं भागमुत्सृजेत् । शुकनासोत्सृतं कुर्यात् सिंहस्थानविभूषितम् ।। कनकाभरणैर्युक्तः पुमान् यद्वद् विराजते । तथा प्रासादराजोऽयं शोभते चित्रकर्मभिः ॥ मञ्जरी दशधा कृत्वा कर्मशोभा प्रकल्पयेत् । भागैर्भद्रस्य विस्तारः षड्भिोगेन निर्गमः ॥ भागिक्यौ रथिके तत्र कुर्याद् भागाद विनिर्गमः । भागद्वयमितान् कर्णान् विदिक्षु च निवेशयेत् ॥ शालाश्चतस्रः कर्तव्या युक्ताः कूटैमनोरमैः । नीरान्तराणि ता अष्टौ मञ्जर्या द्विगुणान्विता ॥ कूटेऽर्धे प्रथमा भूमिः कार्या भागद्वयोच्छ्रिता । पदपादविहीनास्तु क्रमेणोपरि भूमिकाः ॥ अर्धभागोच्छ्रिता ग्रीवा भागिकोच्छ्रायमण्डकम् । भागेन कलशः कार्यः सर्वलक्षणसंयुतः ॥ विस्तारार्धन कर्तव्यो वेदीवन्धो विवन्धुरः । षड्गुणेनैव सूत्रेण मध्यरेखां समालिखेत् ॥ द्वितीयामालिखेत पञ्चगुणितेन विचक्षणः । सार्धत्रिगुणसूत्रेण++रेखां समालिखेत् ।। मञ्जरीभिर्विचित्राभिः सर्वत्रैव विराजितः । प्रासादो मन्दरः कायेः प्रमाणेनामुना शुभः ।। मन्दरं मन्दराकारं कृत्वा प्रासादमुत्तमम् । प्राप्नोतीह परं सौख्यं परत्र च शुभां गतिम् ।।
मन्दरः ॥ कथयामोऽथ कैलासमशेषसुरसेवितम् । प्रमथप्रवरैर्जुष्टं प्रासादं पुण्यवर्धनम् ।। १. 'शिखरम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे चतुरश्रीकृते क्षेत्रे शतधा प्रविभाजिते । शाला षड्भागविस्तारा कर्तव्या भागनिर्गमा ॥ (कलात्रिभागिका कुर्यात् सलिलान्तरसंयुतान् !)। (आरभ्य ब्रह्मणः स्थानात् समा इव पादद्वयम् ?) । भ्रमयित्वा समं वृत्तं (गर्भगर्भमंश) प्रकल्पयेत् । तथा भित्तिर्विधातव्या समन्तादर्धभागिका ॥ भागिका बाह्यभित्तिः स्यात् (कार्या स्याद्?) भद्रभूषिता । अन्तराले तु सर्वत्र विदध्यादन्धकारिकाम् ॥ अलिन्दकाश्चतुर्भागाः कर्तव्या दिक्त्रये बुधैः । भागद्वयेन निष्क्रान्ताः सर्वतः शुभलक्षणाः ॥ (चतुर्थोकां?) विधातव्यास्तेषु स्तम्भद्वयान्विताः । मुखे तु मण्डपः कार्यः स्तम्भपङ्क्तिविराजितः ॥ अथोर्ध्वमानं वक्ष्यामः कैलासस्य यथास्थितम् । पीठं तस्य पदे द्वे तु कर्तव्यं गणभूषितम् ।। पदस्यान कर्तव्यः खुरकस्तु खुरादिति (?) । तवं द्विगुणा ज्ञेया प्रासादस्य समुच्छ्रितिः ॥ एकेन कुम्भकः कार्यो भागेन समवर्जितः । मसूरकस्तु भागेन पादोनेन विधीयते ॥ कार्य पदस्य पादेन ततश्चान्तरपत्रकम् । मेखलार्धपदेन स्याञ्चन्द्रशालाविभूषिता ॥ जङ्घा तर्ध्वं कर्तृव्या सार्धं पदचतुष्टयम् । भागेनैकेन कुर्वीत मेखलान्तरपत्रकम् ॥ कर्णशृङ्गं विभिआँगैः कुर्यात् सकलशाण्डकम् । तवें द्विपदानि स्युः कूटान्युच्छ्रायमानतः ॥ पूर्वोक्तानाममीषां च प्रक्षेपः स्यात पदां(शतः)। चतुर्थी कूटविस्तारं संविभज्य पदद्वये ।। १. 'चनुष्किका' इति स्यात् । ho shrut Gyanam"
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपश्चाशोऽध्यायः । (संद्रस्यादितिक्तयनि?) सिंहक्रान्तानि कारयेत् । विस्तारं मूलमञ्जर्याः कुर्यात् एड्भागसंमितम् ॥ सप्तभागिकमुच्छ्रायं कैलासेऽस्याः प्रकल्पयेत् । भागार्धन भवेद (भाग?)भागिकोच्छ्रायमण्डकम् ।। चण्डिकामर्धभागेन कलशं सार्धभागिकम् । कुर्वीत शिखरं चास्य स्वस्तिकस्य यथोदितम् ॥ युक्तं भूमीभिरष्टाभिर्मञ्जरीभिरलङ्कृतम् । सिंहकर्णैर्विचित्रैश्च भद्राण्यस्य विभूषयेत् ॥ कर्तव्यः स्कन्धविस्तारस्तस्मिन् पदचतुष्टयम् । विदधीत समालेखमूत्रेण त्रिगुणेन च । एवं ++++++ कैलासं विदधाति यः । विभूतिं लभते सोऽत्र सुखसौभाग्यसंयुताम् ॥ कामानवाप्य विविधान् कीर्तिमारोग्यमेव च । भुक्त्वा भोगांश्च कैलासे कल्पान्ते यावदीप्सितम् ।। शार्व पदमवामोति शान्तं ध्रुवमनामयम् ।
. कैलासः ।
त्रिविष्टपमथ ब्रूमः प्रासादममरप्रियम् ।। सेवितं यक्षगन्धर्वसिद्धविद्याधरादिभिः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विंशत्यंशविभाजिते । षडभागविस्तृता शाला स्याचतुर्भागनिर्गमा । चतु(रंशश्श)ती कोष्ठकानां द्वासप्तत्यधिका भवेत् ॥ आशात्रयस्थितैर्भद्रैः सार्धमेवं प्रजायते । कुर्याद् गर्भगृहाण्यष्टौ (दिक्षुष्वास्वपि?) तानि तु ।। कोणे तु पोडशांशानि तन्मध्ये चतुरोंऽशकान (?) । भित्तिादशाभिर्भागगर्माणामिति निर्णयः ।। चतुःषष्टिपदः कार्यो मध्ये प्रासादनायकः । पदैः षोडशभिस्तस्य मध्ये गर्भ प्रकल्पयेत् ॥ १. 'दिश्वष्टास्वपि' इति स्यात् ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे द्विभागविस्तृता भित्तिः कर्तव्या तस्य बाह्यतः । (चतुद्विशतिं भ्रमन्ती स्य?)++पञ्चपदायता ॥ वलभीः कारयेत् तद्वद् (द्वि?दिग्) भागेषु चतुर्पपि । प्रत्यङ्गं द्विपदं कर्णशालावलभिकान्तरे ॥ तञ्च द्विपदमुद्दिष्टं जलमार्गे पदाधिके । पदैादशभिर्दिक्षु चतसृष्वपि मण्डपान् ॥ प्रासादस्य प्रकुर्वीत कर्मशोभाविभूषितान् । मू(लाल)प्रासादगर्भस्य कुर्याद द्वारचतुष्टयम् ।। विज्ञेयेयं) तच्च दिग्भद्रे सूत्रमार्गानुसारतः । जलान्तराणि कुर्वीत प्रत्यङ्गे पार्श्वयोरपि ॥ बाह्यभित्तिं तु कुर्वीत भागेनैकेन संमिताम् । एवं विभज्य कुर्वीत पुरतो मुखमण्डपम् ॥ अर्ध्वमानमथ(स्त्रिंशा)तत्र पीठं चतुष्पदम् । मध्यप्रासादजङ्घा च तद्वदेव समुच्छ्रिता ।। अतः पदैः स्याद् विस्ताराद् द्विगुणा शिखरोन्नतिः । तस्याश्च मध्ये कुर्वीत षोडशशि तुलोदयम् ॥ तुलोदयस्य मध्ये द्वे वेदीवन्धं सपञ्चकाम् (?) । जसा चाष्टपदा कार्या मध्ये चासनपट्टिका ॥ एषा (त?मन्तर)पत्रं च कर्तव्यं त्रिपदोच्छ्रितम् । तुलोदयस्योपरिष्टात् प्रमाणमथ कथ्यते ॥ चतुष्पदेषु कर्णेषु कुटं पञ्चपदोदयम् । ग्रीवा पदस्य पादो(नाना)त्रिभिः पादैस्तथाण्डकम् ॥ चन्द्रिकाकलशोत्सेधं पादेनकेन कल्पयेत् । प्रत्यङ्गे तिलकास्त्र्यंशा घण्टाकलशसंयुताः ॥ मध्ये तु वलभीशृङ्गमुन्नतं सप्तभिः पदैः । ऊर्वतस्तिलकानां स्यादुरोमञ्जरिका दश ॥ २. 'चतुर्दिशं अमन्ती स्यात् तस्याः' इत्येवलातीयं पाठ्यं स्यात ।
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मेर्वादिविशिंका नाम सप्तपश्चाशोऽध्यायः । विस्तारेण पदान्यूज़ भवेद द्वादशभागिका । स्कन्ध(पट्टादिः)विस्तारो ग्रीवा पादोनभागिका ॥ अण्डकं सार्धभागेन चन्द्रिका भागमुच्छ्रिता । द्विपदः कलशोच्छ्रायस्तद्वद्(द्व?)बीजपूरकम् । विस्तारो मूलमञ्जर्याः कार्यः षोडशभिः पदैः । उच्छ्रायः सप्तदशभिः स्कन्धो नवपदः स्मृतः ।। कार्या सप्तलतोपेता प्रशस्ता मूलमश्वरी । ग्रीवास्य भागिका भागद्वयमामलसारकम् ॥ चन्द्रिका भागमेकं स्यात् त्रिपदा कलशोच्छितिः । उक्ता या मूलमञ्जयः प्राक् प्रासादेषु तास्वियम् ॥ कार्ये माहामाकारा(१) चारुकर्मोपशोभिता। बाह्यभित्तिसमायुक्तं प्रासादस्य चतुर्दिशम् ।। मल्लच्छाचं प्रकुर्वीत यथाशोभं विचक्षणः । सर्वतश्चारुरूपायैर्विचित्रैः शुभलक्षणैः ।। विभूषयेत् सिंहकर्णैर्मल्लच्छाचं मनोहरैः । वलभीत्रयसंयुक्तं कर्णकूटचतुष्टयम् ।। यथाशोभं विधातव्यं प्रासादेऽस्मिस्त्रिविष्टपे । वास्तौ शतपदे यानि ममोण्युक्तानि सर्वतः ॥ उत्सृज्य तानि यत्नेन परिकर्मात्र कारयेत् । प्रासादं कारयित्वैनमुक्तरूपं त्रिविष्टपम् ।। लभेतेह यशो राज्यं परत्रानन्त्यमेव च । कृत्वा त्रिविष्टपं दिव्यं प्रासादं पुरभूपणम् ।। वसेत् त्रिविष्टपे तावद् यावदाभूतसंप्लवम् । तस्यान्ते तु परे तत्त्वे लयमामोति मानवः ।।
त्रिविष्टपः । अथाभिधीयते सम्यक् प्रासादः पृथिवीजयः। किन्नरासुरयक्षायुवन्दितः सुरसत्तमैः ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे (विभागाव ) विभाजिते । चतुर्भागा भवेच्छाला सपा (दै ? दां) शविनिर्गता || कर्णशृङ्गद्वयं कार्य प्रत्येकं भागविस्तृतम् । पादोनपदनिष्क्रान्तं ++++++++ भागैश्चतुर्भिर्गर्भः स्याद् भित्तिः कार्या तु भागिका भ्रमन्तिकापि भागेन बाह्यभित्तिश्च भागिकी || भागद्वयेन कुर्वीत दिकत्रयेऽस्य चतुष्किकाम् | पुरतो मण्डपं कुर्यादुपेतं कर्मशोभया ||
एवं विभागान् संकल्प्य यथोद्देशं विचक्षणः । मन्दरस्येव कुर्वीत कर्मशोभां समन्ततः ॥ ऊर्ध्वतो यत् प्रमाणं स्यात् तदस्येहाभिधीयते । अधस्तान्नागपीठ: स्यात् प्रमाणेन 'पदद्वयम् ॥ हीरकं भागपादेन तस्य मध्ये निवेशयेत् । विस्ताराट् द्विगुणं चोर्ध्वमानं भागार्थसंयुतम् ॥ ऊर्ध्वमानस्य मध्ये स्यात् षट्पदानिबर्हणादयः (१) । वेदवन्धश्च तन्मध्ये कर्तव्यः सार्धभागिकः ॥
ततो हीरकसंयुक्ता जङ्घा पदचतुष्टया | मेखलान्तरपत्रं च कार्यं भागार्धसंमितम् ॥ भागद्वयेन कर्तव्यं वेदिका राजसेरका । चन्द्रावलोकं भागेन विदधीत विचक्षणः || कुर्यात् पदस्य पादेन तत्रैवासनपट्टकम् | पदद्वयेन सांशेन स्तम्भमूर्ध्व निवेशयेत् ॥ अर्धभागेन कुर्वीत भरणं स्तम्भशीर्षके । अर्धभागेन प चच्छाद्यं सार्धपदायतम् ॥
(द्वे सन्त पठिका ) कार्या ततो भागार्धसंमिता । ऊर्ध्वमन्तरपत्रस्य (कथमोथ ? ) यथाक्रमम् ॥
'मागाष्टक' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । कुर्याद ग्रीवाण्डकलशं चन्द्रिकाभिः समं बुधः । उच्छ्रायं कर्णशृङ्गाणां सार्धभागं प्रमाणतः ।। स्तम्भसूत्रेण कतैव्यं नष्टशृङ्गं विचक्षणः । कूटानि पञ्च कुर्वीत यथावत् प्रथमक्षितौ ॥ (प्रात्री)णि भूमौ द्वितीयायां तृतीयायां तु कूटकम् । कुर्यात् तुल्यसमुच्छ्रायविस्तारं तच्च मानतः ॥ कर्णे कर्णे तु कूटानि भवन्त्येवं पृथङ्क नव । शुकनासोन्नतिः कार्या सार्धभागद्वयं बुधैः ॥ स्यादुरोमञ्जरी पूर्वा नष्टशृङ्गस्य चोपरि । विस्तारात् त्रिपदा सा स्यात् सार्धभागत्रयोनता। भागं सपादं कुर्वीत ग्रीवांसकलशाण्डकम् । द्वितीयशृङ्गस्योध स्यादुरोमञ्जरिकापरा ॥ विस्तीर्णा चतुरो भागान् कार्या पश्चपदोच्छ्रिता । स्कन्धावरोहणग्रीवाचन्द्रिकाकलशैः सह ॥ एतेषां तु समुच्छ्रायः सार्धभागं विधीयते । उरःशिखरकाण्यष्टावेवं कुर्याचतुर्दिशम् ॥ तृतीयकर्णशृङ्गस्य स्यादूचं मूलमञ्जरी । सा भवेत् षट्पदोच्छ्राया पदपञ्चकविस्तृता । त्रिपदः स्कन्धविस्तारो दिक्षु स्याञ्चतसृष्वपि । कूटैश्च विविधन्यासैरलकुर्वीत मञ्जरीम् ।। अर्धभागोच्छ्रिता ग्रीवा सा(शद्वयविस्तृता। अण्डकस्य समुच्छ्रायस्त्रिभागोनपदं भवेत् ॥ कपरं चार्धभागेन कलशः पदमुच्छ्रितः । नवभिः शिखरेयुक्तः कर्तव्योऽयं समन्ततः ॥ वैदीवन्धस्तु सर्वत्र कर्तव्यः शतवास्तुवत् । कुर्यात् तेन विभागेन कलशानपि शोभनान् । मञ्जरीः पद्मपत्राग्रतुल्याः सर्वत्र कारयेत् । श्रण्डकानि भवन्त्यत्र चत्वारिंशच्च पञ्च च ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे एवंविधं विधत्ते यः प्रासादं पृथिवीजयम् । पृथ्वीं विजयते कृत्स्नां निर्जितारिः स पार्थिवः ।। अन्योऽपि कश्चिद् यः कुर्याद (वर्णाच्छत?) भक्तिमानिमम् । सोऽपि सौख्यमवामोति पश्चादन्ते परं पदम् ।।
पृथिवीजयः ।। अतःपरं प्रवक्ष्यामि प्रासादं क्षितिभूषणम् । अमरैर्वन्दितं सर्वैस्तथा चारसां गणैः ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे द्वादशांशविभाजित । भद्रे पञ्च पदानि स्थुः कोणे कार्य पदत्रयम् ।। गर्भ षोडशभिर्भागस्तस्य कुर्याद विचक्षणः । कतेव्या पदविंशत्या कन्दभित्तिः समन्ततः ।। प्रासादस्यास्य कतव्या रपणी तु पदद्वयम् । पाटिदि का वाद्यभित्तिः स्याद् हिपदो भद्रनिर्गमः ॥ जलान्तरं तु भागस्तु + +++ गवाक्षकाः । भद्राणां मध्यतः पञ्च (स?)प्रकाशाः (स?सु)मनोरमाः ।। वाह्यालिन्दं प्रकुर्वीत वेदीजालविभूषितम् । तस्योपरिष्टात् कुर्वीत माल्युच्छायं सुशोभनम् ।। ऊर्ध्वमानमथ ब्रमः प्रासादे क्षितिभूषणे । क्षुरकं तस्य कुर्वीत त्रिपदं पीठसंयुतम् ।। अस्योच्छ्रायस्तता साध(पदाः स्यात् !)पञ्चविंशतिः । एतन्मध्ये तु दशभिः पदैः कार्यस्तुलोदयः॥ रेखा पञ्चदशांशा स्यात् स्कन्धशीर्ष पदार्थकम् । वेदीबन्धस्तु कर्तव्यः सार्धभागद्वयं बुधैः ॥ जङ्गा षड्भागिकोच्छ्राया भागार्ध (पेचरा)शुभाः। मेखलान्तरपत्रं च पदेनैकेन कारयेत् ।। कार्या चतुष्किका पञ्चविस्तारा त्रिपदोच्छ्रिता । तर्ध्वतः क्रमः कार्यों द्विपदोऽन्योऽधिकं पदम् ।। 1. 'वर्णानाम्' इति स्यात् ।
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भेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । भूमयः पञ्च कर्तव्या न्यूना(+च?)यथोत्तरम् । प्रथमा भूमिका (का)र्या सार्ध(द्विभागास्तु गवाक्षः, भागत्रयं बुधैः ।। सपादास्तु त्रयो भागा द्वितीया(यास)मुदाहृता । तृतीया त्रिपदा++++++++परा ॥
+++++++ पश्चमी भूमिरिष्यते । पादहीनपदं ग्रीवा सपादपदमण्डकम् ।। चन्द्रिका भागमेकं स्यात् पद्मपत्रनिभा शुभा । त्रिपदं कलशं विद्यान्मातलिङ्गसमन्वितम् ॥ द्राविडं नागरं वापि वाराटं वास्तु शोभनम् । (यदेकं तवते कतु)तद्रूपं तं प्रकल्पयेत् ॥ नानाप्रकारैः स्तम्भैश्च नानाभूषणभूषितैः । कलशैः पापत्रैश्च हीरकैचोपशोभितम् ।। कृत्रिमग्रासयुक्ताभिश्चन्द्रशालाभिरन्वितम् । मकरग्राससंयुक्तैस्तोरणलक्षणान्वितः ।। (कोणोत्कण्ठैः?)विचित्रश्र रूपैश्वित्रैश्च शोभितम् । कर्म रम्यं प्रकुर्वीत यथावद वित्तविस्तृतम् ॥ गुणवान् नृपतिर्यद्वद भूषयत्पखिलां महीम् । क्षितिं विभूषयत्येवं प्रासादः क्षितिभूषणः ।। द्रव्येषु रेणुसंख्या या सुधायामपि यावती । तावद्युगसहस्राणि कर्ता शिवपदे वसेत् ॥
क्षितिभूषणः ॥ संस्थानं सर्वतोभद्रस्याधुना परिकीर्त्यते । चतुरश्रीकृतं क्षेत्रं विभजेट दशभिः पदैः ।। तत्र गर्भो भवेत् तावान् यावत् स्याद् ब्रह्मणः पदम् । ++++++ ++ भित्तिश्चेति पदं पदम् ॥ १. 'न्यूनास्ताश्च' इति स्यात् । २. 'तृतीया त्रिपदा कार्या पादोनत्रिपदा परा।' इति पाठ्यं स्यात् । १. अदानात्रभागातु पञ्चमी भूमिरिष्यते' हात पीट्य स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
भागषट्केन भद्रं स्यात् सार्धभागविनिर्गतम् । कर्णं द्विभागिकं कुर्यात् + लमाग्रसमन्वितम् पदपादस्य पादेन विस्तारो जलवर्त्मनः । यत्रैकमेव भद्रं स्याच्चारुस्तम्भैरलङ्कृतम् ॥ ( स सं ) मोददं स्यात् तद् वस्तु धनधान्यसुखावहम् | चतुर्भिर्विस्तृतं भागैः सार्धभागविनिर्गतम् || भद्रस्यैवाग्रतो भद्रं तच्छा?च्च) बाह्योदरं विदुः । विस्ताराद द्विगुणश्चास्य समुच्छ्रायः प्रकीर्तितः ॥ कुम्भकं भागिकं कुर्याद् भागार्थेन मसूरकम् । भागपादेन कुर्वीत ततश्चान्तरपत्रकम् || मेखलायाः समुच्छ्रायमर्धभागेन कारयेत् । चतुर्भागोन्नता जङ्घा प्रासकिङ्किणिकान्विता ॥ पदं पादविहीनं स्यात् (कुलं ? ) स्थानेषु हीरकम् । मेखलान्तरपत्रं च पदार्धेन समु (घृच्छ्र) तम् ॥ त्रिभागविनतं कुर्याद् भागे चन्द्रावलोकनम् । ऊर्ध्वमासनपट्टस्य स्तम्भं कुर्यात् पदद्वयम् || हीरग्रहणशीर्षं च पदेनैकेन कारयेत् । भागेनैकेन कुर्वीत पट्टपिण्डं विचक्षणः || द्विपदं छाद्यविस्तारं तदर्धेन ( तुलस्वनम: ? ) | जठरं बाह्यसीमा च भित्तयश्चान्धकारिका ॥ जङ्गोत्सेधश्च कर्णश्च++++ यथा भवेत् । कोणेषु रथिकाः कार्याः कलशान्ताः पदत्रयम् || द्वितीया द्विपदोच्छ्राया रथिका परिकीर्तिता । उच्छ्रायः सिंहकर्णस्य प्रथमस्य पदत्रयम् ॥ पदद्वयं द्वितीयस्य तत एव समुन्नतिः । शृङ्गाणां स्यान्मिथः क्षेपो भागं ( प + 2 ) यथोत्तरम् ॥ भागान् सप्तोच्छ्रितं कुर्याच्छिखरं विस्तृतं + षट् । अर्धभागोच्छ्रिता ग्रीवा स्यादेकं भागमण्डकम् ||
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मेदिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । चन्द्रिकार्धपदेन स्यात् सार्धं तु कलशः पदम् । मञ्जरीः पद्मपत्राग्रे तुल्याः सवत्र कारयेत् ॥ अधस्ताद भद्रपीठं तु वास्तु(वाया,देन शोभनम् । यः कुर्यात् सर्वतोभद्रं सर्वलक्षणसंयुतम् ।। जयश्रीर्जायते तस्य + + + ++ + + + |
सर्वतोभद्रः ।। ब्रूमो('विमानं दस्या सादम्याथ?) लक्षणम् ॥ गणगन्धर्वजुष्टस्य वल्लभस्य दिनस्पतेः। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे शतथा प्रविभाजिते । विमानं विभजेत् प्राज्ञः श्रेयःपुष्टिसुखावहम् । भदैश्चतुर्भिस्तं कुर्यात् कर्णप्राग्नीवस्तिथा ।। विस्तारा भवेद गर्भो गच्छेतं तेन भित्तयः । ("त्रिंशद्वा)मतो ज्येष्ठो मध्यमः पञ्चविंशतिः ।। कनीयांस्तु विधातव्यः पोडशाप्येकविंशतिः । जातिशुद्धो भवेदेको मन्जरीभिस्तथापरः ।। मिश्रकस्य विमानस्य वैविध्यमिति कीर्तितम् । (ज्येष्ठो मिश्रको निर्मागेः सर्वः कैलास द्रवान् ?) । मध्यमो जातिशुद्धस्तु मञ्जरीभिर्विवर्जितः । कनीयांश्च विधातव्यो मञ्जरीमिरलङ्कृतः ।। कर्णप्राग्नीवविस्तारः कर्तव्यो भागसम्मितः । भागाचे क्षोभणा कायो यच्छेपं तच्च कर्णवत् ।। भागस्यार्धेन कुर्वीत तस्माद् भद्रस्य निर्गमम् । मिश्रकस्य चतुर्भागः प्राग्ग्रीवो विस्तरेण तु ॥ मूलसूत्रानुसारेण पार्श्वयोः पदिको रथौ । ऊर्ध्वमानं विमानस्य यथावदथ कथ्यते ।। .. 'विमानसंज्ञस्य प्रासादस्थाय' इति पाठ्यं स्यात् । २. त्रिंशत्पदो' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
द्विपदं पीठमाख्यातं किन्नरैरुपशोभितम् । स्कन्धं यावच भागानां द्वाविंशतिरुदाहृता || (वेदबन्ध तु + + + सार्धभाग + भवेत् ? ) । (चतुर्भागोsa + छाद्या भागार्थेन + किन्नरा १) || मेखलान्तरपत्रं च पदमेकं समुन्नतम् । रूपाणि जङ्घागात्रे स्युर्वा (चारिणां रथके ) || ( स्तर से का?) तस्य मध्ये स्यान्मकरग्रासभूषिता । भल्लिकातोरणैश्चारुघण्टाचमरकिन्नरैः ||
ऊर्ध्व तुलाप्रमाणस्य चतुभौमं तु प्रथम (१) । + + + + भूमिकायां चतुर्भागसमुन्नता ।। (सोभागा cave विस्तारा ? ) सार्धभागिकी | संक्षेपः प्रथमतोऽस्याः कलशान्ते पदं भवेत् (१) ॥ तृतीया त्रिपदा कार्या सपादपदविस्तृता । पदार्थेन तु संक्षेपस्तस्याः कार्यो विचक्षणैः ॥ चतुर्थी त्रिपदा कार्या भूमिर्मेखलया सह । ललिता मञ्जरिभिश्व नीलोत्पलदलाकृतिः || सीम्नः पञ्चगुणं सूत्रं रेखान्तं तत्र वर्तयेत् । (व्यासह व सममात्रा) प्रवेशः प्रथमो भुवः ॥ ततोऽर्घवृद्धिवृद्धौ द्वावन्यस्तुर्यस्तु तत्समः । पदार्थ वेदोत्से (धाद् ) विस्तारात् पञ्चभागिकी || ग्रीवा पादोनभागं स्यात् सपादं भागमण्डकम् | कङ्कतीफलरूपं च मन्दारकुसुमाकृति || चन्द्रिका ग्रीवया तुल्या कलशो द्विपदोन्नतः । विमानं छन्दकं कुर्यात् सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ अश्वमेघप्रधानैर्यदिष्टैः (क) तुशतैर्भवेत् । तदेकेन विमानेन फलमाप्नोति मानवः ॥
विमानम् ॥
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । नन्दनस्याथ वक्ष्यामः प्रासादस्येह लक्षणम् । द्वाविंशतिकरं क्षेत्रमष्टधा प्रविभाजयेत् ।। चतुर्भागप्रविस्तारं तस्य भद्रं प्रकल्पयेत् । भागेनैकेन निष्क्रान्तं प्राग्रीवं चास्य शोभनम् ।। मलकर्णस्य पदिको कर्तव्यों पार्श्वगौ रथौ। पडगुलं त्र्यमुलं वा चतुरङ्गुलमेव च ।। जलान्तरं प्रकुर्वीत दीयते तत्र मञ्जरी । गर्भश्चतुर्भिभौगैः स्याच्छेषं भित्त्यन्धकारिका ।। द्विपदं कन्दभद्रं स्यात् पदपादेन निर्गतम् । पुरतो मण्डपं चास्य सुग्रीवं नाम कारयेत् ॥ द्वैगुण्यं मूर्धविस्तारार्धे भ ++ + वेदिका । रेखामस्य तथा कुयोत् केलासस्य यथोदिता ॥ भूमयः षड् विधातव्या द्वादशाण्डाः पृथक् पृथक् । नन्दयत्येष कर्तारमिह लोके परे च यत् ।। नन्दनो नाम तेनोक्तः प्राज्ञैः प्रासादसत्तमः ।
नन्दनः ।। अ(था)भिदध्मः प्रासादं स्वस्तिकं स्वस्तिदायकम् ।। देवासुरगणैर्वन्धं यक्षसिद्धमहोरगैः।। ज्येष्ठमध्यकनिष्ठस्य तलच्छन्दोऽस्य (यदेशः? यादृशः) ।। याप्रमाणं च तत सम्यगिह कथ्यते । चतुरश्रे समे क्षेत्रे पञ्चविंशतिहस्तके । सूत्रपातं प्रकुर्वीत कर्णतिर्यमुखायतम् । ततः सीमार्धसूत्रेण वृत्तमालिख्य निश्चितम् ॥ द्वात्रिंशता समन्तात्त)देखाभिर्विभजेत् ततः । वृत्तं (तथोमुघाताक्षि दिदि)स्थाभिरङ्कयेत् ॥ दिकर्णसूत्रयोर्मध्यं (ततो सेव?)त्रयं बुधः । कुर्याद द्वात्रिंशदेवं स्युभोंगास्तुल्यप्रमाणका: ॥ १. 'दिग्विदिक्यामिः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे ऐन्धादिष्वीशपर्यन्तास्वष्टौ शालाः प्रकल्पयेत् । शालान्तरेषु कुर्वीत कोणानष्टौ यथाक्रमम् ।। कोणात् कोणं नयेत् सूत्रं त्यक्ता शालाद्वयं मुहुः । विदिश्वष्टसु सूत्राग्रं पद्मपत्रवदानयेत् ।। कोणाश्च रथिकाचैव भवन्त्येवं सुलक्षणाः । चतुरश्रा भवन्त्यष्टी शाला भागद्वयायताः।। व्यंशानि कर्णभद्राणि पद्मपत्रनिभानि च । ऊर्ध्वमानं भवत्यस्य द्विगुणं (हालमा + नात् ?) ।। विंशत्या विभजेचं तत्राष्टाष्टांशस्तुलोदयः। शेषां तु मञ्जरी कुर्यादास्कन्धावधि बुद्धिमान् ॥ विस्तारपञ्चमांशेन पीठोच्छ्रायं प्रकल्पयेत् । त्रिपदं वेदिकावन्ध (सुएकेण?)समन्वितम् ।। जङ्घांशल (ब)नां कुर्याचतुर्भागसमुच्छ्रिताम् । मेखलान्तरपत्रं च भागेनैकेन कारयेत् ॥ द्वादशांशोच्छ्रिता रेखा कार्या सप्त च भूमयः । अर्धभागोच्छ्रिता ग्रीवा विस्तारेण चतुष्पदा ॥ स्कन्धः षड्भागविस्तारः कार्यों वृत्तः सुशोभना । समालिखेदेषु कोशं विस्ताराद् त्रिगुणात्मना ॥ सूत्रेण येन वा स्कन्धो भवेत् पड्भागविस्तृतः । हस्तैः स्यात् पञ्चविंशत्या ज्येष्ठः पोडशभिः परः ॥ कनीयान स्वस्तिको ज्ञेयः करैदशभिः पुनः । भागपदकसमुच्छाया जङ्घा ज्येष्ठस्य कीर्तिता ॥ मध्यमाधमयोः पञ्चचतुर्भागोच्छ्रिता क्रमात् । स्वस्तिके कारिते स्वस्ति सर्वलोकस्य जायते ॥ . विशेषतश्च भूपानां कर्तुश्च स्वात् समीहितम् ।
स्वस्तिकम् । एककोणमय बमा प्रासादं स्यात् स च विधा।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपश्चाशोऽध्यायः । १०५ हस्तैः क्रमेण ज्येष्ठादिः षोडशद्वादशाष्टभिः । ज्येष्ठो(अष्टादश भागान् स्यान्मध्यमस्तु चतुर्दश ॥ कनीयान् दश भागा(न्) (य?स्या)त् सदस्तस्याभिधीयते । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्तेष्टादशभिः पदैः ॥ कोष्ठकानां विधातव्यं चतुर्विंशं शतत्रयम् । भागषट्त्रिंशता कुयोन्मध्ये गभेगृहं शुभम् ॥ बाह्यभित्तिस्तथान्धारी मध्यभित्तिरिति त्रयम् । पृथक् पृथक् स्याद् द्विपदविस्तारं परिमाणतः ॥ चतुर्भागायता शाला भागेनैकेन निर्गता 1 शालाया भूषणं भद्रं विधायैतत् पदद्वयम् ॥ तत्पार्थद्वितये कुर्यात् त्वधिके भागिके बुधः । वार्यन्तराणि कुर्वीत विश्वष्ट चतसृष्वपि ॥ वार्यन्तरानन्तरं तु भागद्वितयसंमितान् । अष्टौ कुर्वीत रथिकांश्चतुर्दिशमनुत्तमान् ॥ कोणे द्विभागिकैः कुर्याद रथानामांससंमिता (१) । कोणे रथान् परित्यज्य शेष कुर्याद् यथोदितम् ॥ मध्यमोऽयं समाख्यातः कनीयान् कथ्यतेऽधुना । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागविभाजिते ॥ चतुर्भागा भवेच्छाला भागेनैकेन निर्गता। एकभागप्रमाणानि पार्चे वार्यन्तराणि च ॥ सेषां मध्ये प्रकुर्वीत सरोजदलसंनिभम् । रथक(ोन्यःणे य)थावच्च सलिलान्तरभूषणम् ॥ भागाध क्षोभणा कार्या चतुष्कोणे व्यवस्थिता । सार्धभागोन्मितान् कुर्यात् कर्णप्राग्ग्रीवकान् शुभान् । धार्यन्तराणा(+प्रोक्ता भूषश्रोभि?) कनीयसि । प्रासादे मध्यमेऽप्येषा ज्यायस्यपि च कल्प्य(वैते)॥ ..'मा प्रोका भूषणभी: ' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधार
त्रिविधोऽयं समाख्यातो मुकोणः समासतः । ऊर्ध्वमानं भवेदस्य विस्ताराद द्विगुणोच्छ्रयम् ॥ (असिस्तु ?) पञ्चदशभिस्तन्मध्ये स्यात् तुलोदयः । चतुष्पदो वेदिवन्धो जङ्घा सावध सप्तभिः || मेखलान्तरपत्र (चार्य साधी) हीरकं पदम् । त्रिपदा कर्णशृङ्गास्य कलान्तसमुच्छ्रयान् (?) || सिंहकर्णश्च कर्तव्यः स्वमागे सतः । ऊर्ध्वतः कर्णशृङ्ग (स्व) विधेया मूलभञ्जरी ।। (सावषो विस्तरो + + ) दादशोच्छ्रिताः (१) । चतुर्दिशं समायामः कन्या वाचवभागिकः ॥ मञ्जर्यास्त्रचंशपुरंमनः (१) शुकनास समुच्छ्रितिः । ग्रीवा + मेन भागेन कुद्विपदण्डकम् ॥ चण्डिकां सार्वभागेन त्रिपदं कलशीच्छ्रयम् । + + + यन्नरः कश्विन्मुक्ककोणं महायशाः ॥ (सं) प्रामोति महासौख्यं विमुक्तः सर्वपातकैः । सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तः सर्वकल्पितः ॥ सर्वपापविनिर्मुक्ता भाग मोदी च विन्दति ।
मुक्तकोणः ॥
श्रीवत्समथं वक्ष्यामः प्रासाद सुरपूजितम् ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशवा प्रविभाजित । षद्भिर्भागैर्भवेद् गर्भो भित्तिः कार्या द्विभागिकी | रथकं त्रिपदं कुर्यात् प्रत्यात् सार्वभागिकात् । द्विपदं कर्णमस्य ॥ भागा क्षोभणा क्षेत्र वर्ष जलान्तरम् । प्रक्षेपः स्यात् पदार्पण पानस्य बाह्यतः ॥ द्वे पदे निर्गतं चास्य शुना निवेशयेत् । वास्तुविस्तारपादेन कर्तव्या द्वारविस्तृतिः ॥
7
१. ' निर्मापयन् नरः इति स्वाद ।
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दिवंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
द्वारोच्छ्राय (स्तु) विस्तारात् कर्तव्यो द्विगुणो बुधैः । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमः श्रीवस्य यथोदितम् ॥ पीठं प्रासादपादेन खरव पदार्थ | विस्ताराद द्विगुणं (ना कर्तव्यं कुम्भकादितः ॥ दशभिस्तेषु विरमायतम् । अष्टभागं तुलच्छायं वेदी साविभागिकी || कुम्भकं पदिकं कुर्यात्पादमसूरकम् । ( पादोनं पादेन स्यात् ?) सेवलान्तरपत्रकम् || चतुर्भागोच्छ्रिता का लागावे हीरकं भवेत् । मेखलान्नरपत्रं तु यागेन केन कारयेत् ॥ षड्भागविस्तृतं सत्यं वदनः पदैः । यथा मूले तथा स्वना ॥ स्कन्धपार्श्वे तु या रेखा व्यक्ताथ स्कन्धवाद्यतः । भजेत् ता दशभिर्भागरूता ) मेनं विभाजयेत् ॥ (ऊर्ध्वाधः प्रतिभागस्तवास्यात् ?) पत्रसंहतिः | तदाकृतिं वाह्यरेखां गात्रे गात्रे प्रकल्पयेत् ॥ अनुमात्रगुणं सूत्रं विभागेन समन्वितम् । भ्रमयेत् (कोरेखा स्यात प्रत्यस्त्रपञ्चकान ?) | षड्गुणेन तु मत्रेण रथख समालिखेत् । अत्र स्युर्भूमयः सप्त प्रथमांशद्वयोच्छ्रिता ॥ द्वितीया पदपादाहीना भूमिस्ततो भवेत् । पादद्वयं भागहीनं तृतीयायां भवेत् सुवि ॥
भागविहीनं च चतुर्थी स्वात् पदद्वयम् । पञ्चमा सार्धभागेन पदं स्यात् कन्यशीर्षकम् ॥ एवं परस्परं भागं पादार्थेन (जिनाः) युवः । त्रिभागीकृत्य शिखरं तत्रैकं भागमुत्सृजेत् ॥ शुकनासोच्छ्रितः शेषं सिंहनाधिष्ठिता भवेत् । पादोन भागा ग्रीवाण्डं सपादं पदमुच्छ्रितम् ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे
रेखा + + विधाव्यं + + न्यूनाधिकमण्डकम् । सपादभागमानेन कर्तव्यं चन्द्रिकाद्वयम् ॥ पद्मपत्राकृतिं कुर्यान्मध्ये चामलसारि (काम् ) | द्विपदं कलशं कुर्याद् बीजपूरकवर्जितम् || श्रीवत्सं कारयेद् यस्तु प्रासादमतिसुन्दरम् | कुलानां शतमुद्धृत्य स व्रजत्यमरावतीम् ॥
श्रीवत्सः ॥
अथ हंसस्य वक्ष्यामः प्रासादस्येह लक्षणम् | चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुभिर्विभजेत् पदैः || भागैवतुर्भिर्गर्भः स्याद् मित्तिर्द्वादशभागिकी | भागद्वयेन भद्राणि ततश्च परिकल्पयेत् || चतुर्भागेन निष्कामस्तेषां गर्भस्य शस्यते । भागस्य षोडशांशेन कुर्याद् नी ( र ? रा) न्तराणि च || पीठिका वेदिकावन्धो जङ्घा मेखलया सह । ऊर्ध्वमानं च कर्तव्यं स्वस्तिकस्य यथोदितम् || मध्ये किन्नररूपाणि पद्मपत्राणि चाप्यधः । उपरि व्यालहाराश्च पीठमेवं विभूषयेत् ॥ त्रिभौमं पञ्चभौमं वा कुर्यादेनं विचक्षणः । नागरं द्रावि (?) चेति कर्णे कर्णे निवेशयेत् ॥ भूमिकाभाञ्जि कूटानि कुर्यादेकान्तराणि च । रथिके रथिका (?) कुर्याद् (विन्य १) नागरकर्मणा || विस्तारार्धेन वेदी स्याद् ग्रीवा चास्य पदार्धिका | अण्डकं पदिकं कार्यं कङ्कती फलसन्निभम् ॥ + चण्डिका (चार्धेन?) कलशः स्यात् पदोच्छ्रितः । यथा विराजते हंसो (हंसोमाशिरसि) स्थितः || प्रासादोऽपि तथा हंसः पुरमध्ये विराजते । हंसाख्यमेनं प्रासादं कारयेद् यो (भरोत्तमाः) ॥
१. ' च पदार्थेन ' इति स्यात् । २. ' नरोत्तमः ' इति स्यात् !
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मेर्वादिविंशका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ।
तावत् स्वर्गे वसेड्रीमान यावदिन्द्राचतुर्दश ।
रुचकाख्यमथ ब्रूमः प्रासादं पुरभूषणम् ॥ आदी समस्त वस्तूनां कल्पितं पद्मजन्मना । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्भिर्भाजिते पदैः ॥ भागमेकं भवेद् भित्तिस्तस्य गर्भः पदद्वयम् । वेदीबन्धं तथा जङ्गां मेखलामूर्ध्वमेखलाम् ॥ मानमूर्ध्वमधश्वास्य श्रीवत्सस्येव कारयेत् । कोणेषु स्तम्भकाः कार्या (हाइ ही इसा) समन्विता ॥ मध्ये तु रथिका कार्या चारकर्मविभूषिता । चतुर्भीममिदं कार्य (स्तत्रैवसटी) कर्मणा ।।
हंसः ॥
युक्तं मध्ये तु रथिका प्रतिभूमि विधीयते । रुचकः कारितो येन प्रासादः शुभवास्तुनि || कुलानां वारितं तेन शतमात्मा तथोद्धृतः।
१. 'हीरशीर्ष' इति स्यात् ।
वर्धमानमथ ब्रूमो धर्मारोग्ययशस्करम् ।। तस्याष्टगुणमैश्वर्यं भवेद् यः कारयेद् यदि । चतुरश्रं समं क्षेत्रं भाजयेद् दशभिः पदैः || ततो भागचतुष्केन कर्तव्यो मध्यमो रथः । एकैकेन विभागेन द्वौ रथौ वामदक्षिणी || (कर्णास्तु पदा कार्या वर्जं चारिधर्मभिः) । भद्रस्य निर्गमं तत्र भागेनैकेन कारयेत् || भागस्यार्धेन पार्श्वस्थरथकानां विनिर्गतम् । विस्तारार्धेन गर्भः स्याद यच्छेषं तेन भित्तयः || ऊर्ध्वमानं भवेदस्य स्वस्तिकस्य यथोदितम् । वर्धमानोऽयमाख्यातो यशोलक्ष्मीविवर्धनः ॥
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रुचकः ॥
वर्षमानः ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे गरुडस्याधुना ब्रूमः प्रासादस्येह लक्षणम् । प्रासादः सर्वदेवायं गरुडध्वजवल्लभः ।। द्वाविंशतिपदं क्षेत्र (भक्ताल्या समायतम ?) 1 पूर्वापरेण दशभिर्भागभूयो विभाजितम् ।। कुर्वीत मध्ये प्रासादं तस्मि शतपदं बुधः । द्विपदं भित्तिविस्तारं कर्णाश्चापि द्विभागिकान् ।। उत्सृष्टमूलप्रासादमुभयोरपि पक्षयोः । अग्रतः पृष्ठतश्चापि द्वौ द्वौ भागौ परित्यजेत् ।। शेषेण षट्पदौ++सहसायामविस्तृती (?) । गर्भः षोडशभिभोगेभित्तिः स्यात पदमेतयोः । श्रीवत्सहंसरुचकवर्धमानेषु कोऽपि यः । रोचते गरुडं कुर्यात् तमेकं स्वेच्छया बुधः ॥ तस्य पक्षौ विधातन्यौ निर्गतौ वामदक्षिणम् । एवमेते त्रयो गभी गरुडे परिकीर्तिताः ।।
गरुडः ॥ प्रासादस्य गजस्याथ लक्षणं सम्प्रचक्ष्महे । चतुःषष्टिपदं क्षेत्रं विधाय विभजेद् गजम् ।। ततः सीमार्धमत्रेण पृष्ठतो वृत्तमालिखेत् । गर्भ कुयोत् तदर्धेन + + रेखाकृति त + || ऊध्वंप्रमाणमधुना गजस्य स्पष्टमुच्यते ।। स्तम्भाश्चतुष्पदोच्छायाः कायोः कोणचतुष्टये ।। जवेयमस्य निर्दिष्टा(खल्लस्तम्भान्तरं?) भवेत् । पट्टिकान्तरपत्राभ्यां समभागेन मेखला ॥ अग्रतः शूरसेनं स्यात् पृष्ठतस्तु गजाकृतिः ।
गजः । भासादस्या(धुना) लक्ष्म सिंहसंज्ञस्य कथ्यते ।। चतुरश्रं समं क्षेत्रं विभनन्दने यथा । गर्भो भागेश्चतुर्भिः स्यात् क(श्चन्द)भित्तिस्तु भागिकी ।।
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मर्यादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । भागेनान्धारिका कार्या बाह्यभित्तिश्च भागिकी । भद्रं भागैश्चतुर्भिः स्याद् भागेनैकेन निर्गतम् ॥ कर्णस्तु द्विपदः कार्यों जलमार्गसमन्वितः । द्विपदं पीठमुत्सेधात् सिंहरूपैरधिष्ठितम् ।।
खुरकं च पदार्धन कुर्यात् पीठस्य मध्यतः । कुर्याय + विस्ताराद् द्विगुणं कलयाधिकम् ।। द्विपदं वेदिकावन्धं जया चास्य चतुष्पदम् । मेखलान्तरपत्रं च विदध्याद् भागिकोदयम् ।। त्र्यंशानि कर्णशृङ्गाणि ग्रीवाण्डकलशैः सह । सिंहकर्णस्तु कर्तव्यः समुच्छ्रायाच्चतुष्पदः ॥ सिंहरूपसमाक्रान्ते प्रासादे सिंहसंज्ञिते । ऊर्ध्वतः. कर्णशृङ्गस्य षट्पदा मूलमञ्जरी ।। सप्तभागसमुत्सेधा लताभिः पञ्चभिर्युता । ग्रीवोच्छ्रायस्तु कर्तव्यः पदं पादेन वर्जितम् ॥ अण्डकं तु पदोत्सेधं रेखायां च द्विनिस्मृतम् । पादोनभागमुच्छ्रायश्चन्द्रिकायाः प्रकीर्तितः ।। द्विपदं कलशं कुर्याद बीजपूरकसंयुतम् । (यदामंः) कारयेत् स स्यादजेयः पुरुषो घुवम् ।। न्यवहारे नृपकुले सङ्ग्रामे शक्रसंसदि ।।
सिंहः ।। इदानी पद्मकं ब्रूमः प्रासादं पद्मसन्निभम् ॥ यः (केसान् ?) कारयत्येनं स कामाल्लभतेऽखिलान् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे + + दिक्षु विदिक्षु वा ॥ भ्यस्येत् पृथक पृथक् सूत्राण्यथ वृत्तं प्रसाधयेत् । (दिधिसूत्रयोर्मध्ये चतुरश्रं तु रोमकम् ॥
१, 'य इमम्' इति वा 'यः सिंहम् ' इति वा स्यात् । २. 'पुमाम् ' इति लाए।
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समराङ्गणसूत्रधारे तुल्यप्रामाण्यविन्यस्येत् स्युत्रिंशदमीरितः १) । विस्तृतान्यथ भागौ द्वौ कर्णपत्राणि षोडश ।। पनपत्रसमानानि वारिमार्गान्वितानि च । गर्भः स्याद् बाह्य संमोहा?)सीमाधं यच्छेषं तेन मिचयः॥ पडष्टद्वादशकरः पद्मो ज्येष्ठादिकः क्रमात् । द्वात्रिंशत् षोडशाष्टौ च तस्य स्यू रथकाः क्रमात् ।। मलान्तराणि चैतस्य श्रीवत्सस्येव कारयेत् । पीठकं वेदिकाबन्धं जवाशेखरचन्द्रिकाः ॥ अण्डकं कलशं ग्रीवामेतस्योच्छ्यमानतः । कुर्वीत स्वस्तिकस्येव स्वविस्तारानुसारतः ॥
पद्मः ।। अथाभिधीयते सम्यक् प्रासादो नन्दिवर्धनः । नन्दयत्येष कर्तारं पुत्रदारधनादिभिः ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भजेत् षोडशभिः पदैः । अतद्वयं विभागाः स्युः षट्पञ्चाशत् तथा(परैः) । गर्भः शतपदः कार्यो भित्तिश्च त्रिपदायता। फर्णप्रमाणं त्रिपदं नवबन्धसमन्वितम् ॥ भागायतं भाग(पदंपाद)विस्तीर्ण वारिवमै च । विमजेत् पञ्चधा कर्ण तस्य भद्रं त्रिभिः पदैः ॥ भागं भागं भवेत् कर्णे भागाध भद्रनिर्गमः । प्रत्यकं द्विपदं कुर्याद् वारिमार्गेण संयुतम् ॥ निर्ग(मामा) सार्धभागेन पार्श्वयोरुभयोरपि । पागनिस्वारा भल्या भागनिर्गवम् ।।
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मेर्वादिविंशिका नाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः । भद्रं तदग्रतः कुर्याद् विस्तारेण चतुष्पदम् । भागाधनिर्गमं सम्यग् (दिक्षु) सर्वास्वयं विधिः ।। कर्णस्याः नयेट् गर्भाद वृत्तं तत् पूर्वमालिखेत् । अनुसारेण वितरेदङ्गप्रत्यानिर्गमम् ।। सार्धभागं गजाधारं साब्जपत्रं समेखलम् । कुर्यात् पदं पादहीनं जङ्घाकुम्भसमुच्छ्रितम् ।। भागपादेन कणकं पादोनान्तरपत्रकम् तदर्थं ग्रासहारं च भागाधैं खुरकं तथा ।। खुरकेण समं प्रोक्ता पीठस्यैषा समुच्छ्रितिः । विस्ताराद् द्विगुणश्वायं (स्यादुवकल्पयाधकः१) ॥ तुलोदयो विधातव्यस्त्रयोदशभिरंशकः। विंशत्यंशं तु शिखरं ++ ++श्चतुष्पदम् ।। पादोनभागद्वितयं कुम्भकं तेषु कारयेत् । भागेनैकेन कलशमर्धनान्तरपत्रकम् ॥ पादहीनपदं कार्या मेखलास्प सुशोभना । जङ्घा षड्भागिकोच्छ्राया भागाध ग्रासपट्टिका ।। हीरकं चैकभागेन कर्णस्थं परिकीर्तितम् । मेखलान्तरपत्रं च सार्धभागसमुन्नतम् ।। जडामध्ये तु कर्तव्या स्थकारथकास्तथा (2) । वृत्तस्तम्भैः समकरैसिर्मुक्तावरालकैः ॥ जङ्घा तु संवृता कार्या मल्लच्छाद्यैविभूपिता। जलान्तरेषु रूपाणि कुर्यात् सङ्घाटकैः शुभैः ।। कुर्याद तुलोदयस्यो मिमि(१)भूमिभिरष्टभिः। स्कन्धाष्टांशोऽस्य दूराद्या +++ सपदत्रयम् ।। द्वितीया त्रिपदा प्रोक्ता तृतीया पादवर्जिता । सार्धधशा चतुर्थी च पादोना पञ्चमी ततः ॥
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रामराङ्गादत्रधार पष्ठी तु द्विपदा काला दादाला सप्तमी ततः । अष्टमी तु (ऋक्षितिः कायर्या रात्रभागेन संमिता ।। एकैकस्याः पदाधना लेपः सन परस्परम् । कोणे कूटानि कुमति प्रत्यो नि का?ल कानि च ।। भद्रे कुर्वीत रथिका विविधाः कपसकुलाः । रथस्य पायोलेलाः व्याश्री भयोरपि ।। वेदिकास्य विधातव्या नागमेक समुन्नता । ग्रीवा तावद् भागवण्डकं द्विपदोदयम् ।। कुर्यात् सामलसरिन्द्र साभागिकाम् । कलशस्त्रिपदः कार्यानीज पहिस्ततः ।। पुरतः शूरसेनं स्थानमध्ये रूपसमाकुलम् । मिश्रकस्य विमानस्थ साशं कारयेदमुम् ।। भूपणं भवनस्यास्य प्रासाद नन्दिवर्धनम् । . मासादविंशतिरिय परिकीर्तिदेह
मेवादिका सकलदापभीष्टा । तत्त्वेन वेत्ति य इमां से समप्रशिल्पि
वांग्रणीवहुमतश्च भवेन्नृपाणाम् ।। इति महाराजाधिराजपरमेश्वर वाचते साराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
मेवादिविंशिका नाम (पद सभापञ्चाशोऽध्यायः॥
अथ प्रासादस्तवनं नाम अष्टपञ्चाशोऽध्यायः।
प्रासादानां चतु: पष्टिरिदालीमाभिधीयते । या पूर्व ब्रह्मणा दत्ता प्राप्रसादा विश्वकर्मणे ॥ १ ॥ मर्मवेधस्थिता वास्तुदेयाः पूज्या यथोचितम् । पूज्यता च स्मृता तेषा मासाद मण्डपे ध्वजे ॥२॥
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प्रासादस्तवनं नाम अष्टपञ्चाशोऽध्यायः । आसने वाहने तद्वत् सर्वोपकरणेष्वपि । प्रासादे यादृश(श्छन्दस्ताद ड्मन्दपीठयोः?) ॥ ३ ॥ तथा वास्तुविरुद्धं स्यात् प्रासादाड़े हिते? विदुः । अष्टावष्टो स्मृतास्तेषु त्रिदशानां एक एथक् ॥ ४ ॥ शम्भो(हरे विरिश्चस्य ग्रहाणाय धिास्य च) । चण्डिकाया गणेशस्य श्रियाः यदिवौकमास ॥५॥ विमानः सर्वतोभद्रो गजपृष्ठोऽथ पाकः । वृषभो मुक्तकोणश्च नलिनो द्राविडस्तथा ॥ ६॥ इत्येतेऽष्टो समुद्दिष्टाः प्रायादात्रियुग्दुहः । गरुडो वधेमानश्च शङ्खायाऽथ पकः ॥ ७॥ गृह(रराट् ) स्वस्तिकचैव रुः पुण्टवर्धनः । कायों जनार्दनस्याष्टा धापादाः परमपणाः ॥ ८ ॥ मेरुमन्दरकैलासा हंसाख्यो भद्र एव च । उत्तुङ्गो मिश्रकश्चैव तथा पालावरोऽष्टमः | ९ ॥ इत्यष्टौ ब्रह्मणः प्रोक्ताः प्रासादाः पुरमध्यगाः । गवयश्चित्रकूटश्च किरणः सर्वसुन्दरः ॥१०॥ श्रीवत्सः पद्मनाभश्च वैराजो इत्त एव च । एते कायो रवेरप्टो प्रासादाः शुभलक्षणाः ॥ ११ ॥ (नन्द्यावर्तश्चैव चलभश्चर्गदिमा?; सिंद एन च । विचित्रो योगपीठश्च घण्टानारताकिनी ।। १२ ।। अष्टावेते विधातव्याश्चण्डिकायाः मुरालयाः । (गुहारसलोकश्च?) वेणुपद्रोऽथ कञ्जरः ।। १३ ॥ तथाच हर्षविजयावुदकुम्भो गोदकः । एतान विनायकस्याष्टं अमादान कारयेच्छभान् ॥ १४ ॥ महापद्म(हेम्यननल)मुज्जयन्तम्तया परः। गन्धमादनसं(शंचज्ञश्च शत (नवकको?नवद्यकी) ॥ १५ ॥
१. 'नन्यावों वलभ्यश्च सुपगा: महनीय माति । २. 'गुहाधरश्च शालाक' इति पाठ्यं भाति । ३. 'स्तया म्य' इति पाठ्य स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे सु(मः)विभ्रान्तो (मनो)हारीत्यष्टौ लक्ष्म्याः प्रकीर्तिताः । वृत्तो वृत्तायतश्चैत्यः किङ्किणी लयनाभिधः ॥ १६ ॥ पट्टिशो विभवाख्यश्च तत(श्चास्ता)राग(णा?णोऽमः । कुर्वीत सर्वदेवानां प्रासादान् वास्तुशास्त्रवित् ॥ १७ ॥
(प्रासादस्तवनं नाम?)
विमानादिवतुष्पष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ।
विमानमथ वक्ष्यामः प्रासादं शम्भुवल्लभम् । स्वर्गपातालमांनां त्रयाणामपि भूषणम् ॥ १ ॥ सर्वेषां गृहवास्तूनां प्रासादानां च सर्वनः । प्रासादो मूलभूतोऽयं तथाच परि कर्मणाम् ॥ २ ॥ एकाशीतिप(देदं) वास्तु विमाने पञ्चभूमिके । कर्णान्तयोः शतपदं प्रारमने प्वपरेषु तु ।। ३ ।। ब्रह्मासृजत् पञ्च भोगविमानानि पुरा वेः । मूलकणानुगभेद्रद्विगुणोछायवन्ति च ॥ ४ ॥ शेषभद्रस्य निष्कासो भद्रदेवचतुष्टयम्(?) । आकाशदेवताधार(चत्र्यथा?) विदिक्षु च ॥ ५ ॥ दशधा कृतविस्तारो विमाने सम्प्रकीर्तितः । पञ्चभा(ग्य?ग)प्रमाणश्च गर्भे भित्तिस्तदर्धतः ।। ६ ॥ प्राग्ग्रीवं भित्तिविस्तारं गर्भायामत्तथाग्रतः (१) । ततः प्राग्नीवविस्तारः क्षोभणीयः कगगुलैः ॥ ७ ॥
१. इहाध्यायस्य समाप्तिरिति भति । अतः " इति महाराज!घिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्र प्रासात स्तवनं नामाष्टपश्चाशोऽध्यायः ॥" इति लेखनीयम् ॥
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विमानादिचतुष्पष्टिपासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः । ११७ भागिको रथविस्तारः कर्णिका चार्धभागिकी । भागपश्चकविस्तारं भद्रं यत् (तत्) प्रकीर्तितम् ॥ ८ ॥ (भूणस्तोवहेस्तस्य?) निर्गमो माय: स्मृतः । भागार्धन विधातव्यः क्षोभणो जलवमनः ॥९॥ कर्णिकां जलमार्ग (च) समसूत्रेण मापयेत् । अथीच्यते भूमिकानां स्तम्भानां चेह लक्षणम् ।। १० ।। विस्ताराद द्विगुणः स्कन्धः सबैस्मिन बुद्धनागरे । ++ ++ पञ्चभागा स्वाज्जास्वसमुच्छितिः ॥ ११ ॥ तिलकानां तथोच्छायो विधातव्यो द्विभागिकः । तिलकस्य शिरोघण्टां चकमुत्रेण मापयेत् ।। १२ ॥ जङ्घामानत्रिभागेन खुरपिण्डी प्रकल्पयेत् । खुरकं वेदिवन्धं च सममूत्रेण मापयेत् ॥ १३ ॥ जङ्गामानत्रिभागेन खुरपिण्डी प्रकल्पयेत् ।। खुरकं वेदिवन्धं च सममूत्रेण मूत्रयेत् ।। १४ ॥ द्वितीयभूमिकोत्सेधं सिंहकर्ण विभूषयेत् । मस्तके घण्टया युक्ता चतु भौगोच्छ्रिता च सा ।। १५ ॥ ततस्तृतीयभून्सेधः पदतुल्यांशवर्जितः ।। चतुर्थी भूमिका कार्या साधेभागत्रयोच्छ्रिता ।। १६ ।। मञ्जरीस्तम्भयोर्मध्ये सवातायनमेखला । द्वितीया भूमिका या सा सिंहकर्णैरलङ्कृता ॥ १७ ॥ तस्था द्वारं विधातव्यं कपाटद्वयसंयुतम् । (स्यावर्द्धात पाटितं द्वारं तृतीयायां सदा भुवि ॥ १८ ॥ पा(देदो नद्विपदोत्सेधा तवं वेदिमेखला । कैरवाणां दलैयुक्ता कर्तव्या दृष्टिहारिभिः ॥ १९ ॥ वेदिका पञ्चविस्तारा कार्या भागसमुच्छ्रिता । ग्रीवाभागिकोत्सेधा घण्टैकं भागमुच्छिता ॥ २०॥
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समराङ्गणसूत्रधारे पश्चभाग + विस्तारा घण्टाकोटिविधीयते । (कुमान्द)वेदिवन्धं च घण्टाग्रं मस्तकोदयम् ॥ २१ ॥ मापयेत् समात्रेण समन्ताद् भूमिपञ्चके । व्यासार्धहस्तसङ्ख्यानि प्रवेशा?)प्रथमं क्षितेः ।। २२ ।। अगुलानि तदा द्यर्थो द्वितीयायाः प्रकीर्तिताः) । संयोगादनयोर्यः स्यात् तृतीयायास्तमादिशेत् ॥ २३ ॥ तदध्यर्धश्चतुर्थ्यास्तु पञ्चम्याः शेष ईरितः । स्वमूलविस्तृतेर्भागस्तृतीयो वेदिकोर्ध्वतः ॥ २४ ॥ लतया विस्तृतिभद्रे युक्ताया जालवर्त्मनः(?) । (वेदिदोग्रविधातव्यो) सार्धसविस्तृतौ ।। २५ ॥ मजाः स्तम्भसीमानां क्षोभयेत् पुष्टिमानतः(१) । (वेद्यां भागे?)शालायां निष्कामो मूलकोणतः ॥ २६ ॥ स्थानैर्विचित्ररूपैः स्यात् सिंहकर्णैश्च भूषितः । पञ्चव्यासेन सूत्रेण रेखामस्य ममालिखेत् ॥ २७ ॥ एतद् विमानं ललितं देवदेवस्य कारयेत् ।
विमानम् ॥ संस्थानं सर्वतोभद्रस्येदानीमभिधीयते ॥ २८ ॥ जठरं वाह्यसीमा च तथा भित्त्यन्धकारिका । जडोत्सेधश्च कर्णौ च यथा मेरोस्तथा भवेत् ॥ २९ ॥ तथैव भद्रविस्तारः षड्भागेन समन्ततः । रथिके च द्विभागे स्तः कोणसंज्ञे च पार्श्वयोः ॥ ३० ॥ मुष्टिप्रमाण?ण विस्तारं कर्तव्यमुदकान्तरम् । विस्ताराद् द्विगुणः स्कन्धस्योच्छायो भागविंशतिः(१) ।। ३१ ।। पञ्चभागसमुत्सेधा जला कार्या सदा बुधैः । मेखलान्तरपत्रं च सार्धभागसमुच्छ्रिनम् । ३२ ॥ १. 'मञ्जर्याः स्तम्भसीमानं क्षोभयन्मुष्टिमानतः' इति पाठः स्यात् ।
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विमानादिचतुष्पष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः । ११५ शृङ्ग भागत्रयोत्सेधं सग्रीवामलसारकम् । मूलशृङ्गस्य गर्भेण न्यस्ये दुपरिभूमिकाम् ।। ३३ ।। द्वितीयभूमिविस्तारं दशधा प्रविभाजयेत् । द्वौ भागौ शृङ्गविस्ता(रौ रो) विधेयः पार्श्वयोर्द्वयोः ॥ ३४ ॥ सग्रीवामलसारस्व तैः शृङगस्योदयस्थितिः । तस्य शृङ्गस्य गर्भेण कर्तव्योपरिभूमिका ॥ ३५ ।। तस्या भूमेस्तु विस्तारं दशधा भाजयेत् पुनः । यः शेषः शिखरायामो (तद्वितिनंते?)विनिर्दिशेत् ।। ३६ ।। विभजेद् वर्धमान वा रुचकं वास्तु शोभनम् । कर्णान्तरे भद्रमध्ये वल्लभालभी) तत्र कारयेत् ॥ ३७॥ भूमिकाशिखरेणो नवभूमि विभेदयेत् । वेदिकामध्यसूत्रस्य (कर्णतोर्ध्वभुवस्तथाः) ।। ३८ ॥ भूमिकोर्श्वभुवश्चैव विस्तारं दशधा भ(वेजे) त् । मूलसीमानुसारेण स्याच्छेदावधि संहतिः ॥ ३९ ॥ ग्रीवा मूलार्धभागे+++ नामलसारकम् ।। चन्द्रिका चाधेभागेन+++कलशो भवेत् ॥ ४० ॥
सर्वतोभद्रः ।। गजस्य संस्थानमथ प्रासादस्याभिधीयते । चतुःषष्टिपदं वास्तु प्रासादस्य विभाजयेत् ॥ ४१ ॥ ततः सीमासूत्रेण पृष्ठतो वृत्तमालिखेत् । पञ्चभागमिता जङ्घा मेखला साधेभागिकी ॥ ४२ ॥ अग्रतः सूरसेनः स्यात् पृष्ठतः कुञ्जराकृतिः । सीमानमष्टधा कृत्वा विभजेन्नन्दने यथा ॥ ४३ ॥ दौ द्वौ च कर्णयोर्भागौ भद्रेषु चतुरो विदुः । विस्तारार्धेन जङ्घा स्याद् रथिकायाः पृथक पृथक् ।। ४४ ॥ भागत्रयोच्छ्रितं शृङ्गं कर्णदेशे विधीयते । समभागसमुत्सेधा वलभी मध्यसंश्रिता॥१५॥
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समराङ्गणसूत्रधारं
समन्ताद् भद्रसंस्थाना रेखाग्रीवाण्डकादिभिः । सिंहकर्णैश्च भद्रेषु प्रासादो गर्भ उच्यते(?) ।। ४६ ॥ (वित्तसाध्यविहीनेन?) कर्तव्यः स्वस्तिक यथा । (सर्ववत् तस्य स्युः पत्रनिभाः?) ।। ४७॥ विस्तारोऽ+थ जङ्घा च लतिनि स्वस्तिके यथा। उदकान्तर + ++ श्रीवत्से नन्द ने यथा ॥ ४८ ॥
*पद्मः ॥
बूमोऽथ वृषभं स स्यात् पूर्वोक्तै रूपकर्मभिः।। चतुर्भद्रश्चतुरो विमानो (पत्रिसाकृति?) ॥ ४९ ॥ (तेवृद्धिस्तत्प्रमाणाश्च?) सीमाशिखरकोदयैः । कर्णवेदकपोताली जयाने मस्तकेन च(१) ॥ ५० ॥ सार्धद्विभागविस्तारौर(थ)कामदक्षिणों । कार्यों भद्रं चतुर्भागं भागाध सलिलान्तरम् ।। ५१ ।। स्तम्भद्वयं भवेत् तस्य सर्वभूम्यन्तरेषु च ।। एकः स्तम्भो विमाने स्याद् द्वौ स्तम्भो वृषभे पुनः ।। ५२ ॥ एष भेदः समाख्यातो विमानस्य वपस्य च ।
वृषभः ।।
मुक्तकोणमथ मस्त भागैरदभिर्भजेत् ।। ५३ ॥ मृलकर्णावुभौ भागौ भवतो वामदक्षिणी। मध्यशृङ्गं चतुर्भागं प्रमाणं जठरस्य च ।। ५४ ॥ कर्णशृङ्गान्तयोर्मध्ये कुर्वीत सलिलान्तरम् । रथको पार्श्वयोः पूर्णौ भद्रदेशे जलान्तरम् ॥ ५५ ॥ विस्तारोत्सेधजधाश्च सग्रीवामलसारकः। लतिनामिव कतेव्याः प्रमाणेन समन्ततः॥५६॥
मुक्तकोणः ।। बमोऽथ नलिनी तस्याः प्रमाण लक्षणान्वितम् । तस्यां तु (मार्गस्यश्च?) देवगर्भः सुरालयः॥ ५७ ॥ पाप्रासादलक्षणस्यारम्भो गजपृष्ठप्रासादलक्षणस्यावसानं च नोपलभ्यते।
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विमानादिचतुष्पष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः । १२१ भित्तिविस्तृतिरायायो मुक्तकोणे यथा तथा । मध्यदेशे तु यच्छों + + कणोन्तरे च यत् ।। ५८ ॥ मुक्तकोणे यथा तच दः कर्मविभेदनात् । चतुरश्रे स्मृतो मध्ये कणेशृङ्गे विचक्षणः ।। ५९ ॥
नलिनः॥ धूमोऽथ मणिकं तस्य शालालि(ङ्गन्द)समुद्गता। अलिन्दकासीमायां सर्वतः स्याचतुष्किका ॥ ६० ।। श्रेयः पुष्टिसुखार्थोऽयं गणिकोऽत्र विमानवत् । दशवा क्षेत्रसीम्नः स्थान विभागः सर्वतोदिशम् ।। ६१ ॥ रथ + कर्णिकार्धं च जलवनाथ भद्रकम् । मूलगभस्तथोत्सेधो चण्या स्तम्भान्तविस्तृता ।। ६२ । भूमिज हयासमुत्सेधः कपोताद् द्वारनिर्गमः । सिंहकर्णा विमानानि स्तम्भचित्रादिकास्तथा ।। ६३ ।। तोरणान्यथ माल्यानि तस्यालरणानि च । नीलोत्पलदलाकारा मञ्जयः सर्वशोभनाः ॥ ६४ ॥ विमानमरातद योनिरेकस्तयोद्वयोः । केवलं भद्रभेदेन मणिको प्राविडोऽप्ययम् ।। ६५ ॥
मणिकः ॥ भासादमथ वक्ष्यामो गरुडं सर्वसुन्दरम् । दशधा क्षेत्रविस्तारं तस्य पूर्व विभाजयेत् ॥ ६६ ।। द्वौ भागौ रथिकाः कार्या मूलकर्णाद विनिस्मृताः । भद्रं प(भाग)विस्तारं पक्षवंशादिभेदितम् ॥ ६७ ॥ अलिन्दनिर्गमः कार्यः सीमार्थेन चतुर्दिशम् । मूलसीमा तु कर्नच्या सलिलान्तरवर्जिता ॥ ६८ ॥ स्यान्मूलसीमविस्तारात स्कन्धः स्याद् द्विगुणोच्छ्रितिः । प्रासादस्य समुन्द्रायात् त्रिभागेन समेखलाम् ॥ ६९ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे जामन्तरपत्रेण (कुं + युक्तं कुर्वस्तसा?) । (जी?ही)रकं वेदिवन्वं च भागत्रयसमुच्छ्रितम् ।। ७० ॥ अलि(म्बान्दा)नां समुत्सेधं (शे?शि)खरार्धन कारयेत् । षड्भागं स्कन्धविस्तारं विदधीत विचक्षणः ।। ७१ ॥ ग्रीवार्धभाग(मुत्से)धाद् भागमामलसारकम् । कुमुदं चाधेभागेन कुम्भः स्यादेकभागिकः ।। ७२ ।।
गरुडः ॥
अथोच्यते वर्धमानो दशधा तं विभाजयेत् । पादोनांशद्वयं कुर्यात् पार्श्वयोः कर्णविस्तृतिम् ।। ७३ ।। सपादपदविस्तारौ रथको वामदक्षिणी ! चतुर्भागोन्मितं भद्रं विस्तारेण प्रकीर्तितम् ।। ७४ ।। विस्ता(रो?राद) द्विगुणोच्छायं स्कन्धं यावत् प्रकल्पयेत् । खुरकस्याथ जङ्घाया मञ्जरीस्कन्धयोरपि ।। ७५ ।। ग्रीवामलसारकादेः प्रमाणं गरुडे यथा ।
वर्धमानः ॥ द्वाविंशतिकरायामः शङ्खावताऽथ कथ्यते ।। ७६ ।। मूलसीमात्तनाहस्तस्य स्यात् पद्मके यथा । भित्तिगर्भस्य विस्तारः (पादेनार्धनवकमात् ?) ।। ७७॥ अलिन्दमग्रतः कुर्यात् सिंहकर्णविभूषितम् । उत्सेधत्र्यंशतो जङ्घा (वेद्यं? ) तत्र विभागतः ॥ ७८ ।। आस्कन्धं वेदिकाबन्धाद् विस्तृतेर्द्विगुणोच्छ्रितिः । मेखलान्तरपत्रं च जङ्घामध्ये विधीयते ।। ७९ ।। भ्रमयेत् कर्णसूत्रेण बहिर्वृत्तं समन्ततः । कणेदिक्पालयोमध्यं वृत्तमूत्रेण वर्त(यन् ?येत्) ।। ८० ॥ अवशिष्टं त(ल)च्छन्दं स्वस्तिकस्येव कारयेत् । ग्रीवा(म मलसारं च कलशं वारिनिर्गमम् ।। ८१ ।। १, ‘पादेनाधेन च क्रमात् ' इति स्यात् ।
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विमानादिचतुष्षष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ।
gain स्वस्तिकस्यैव विस्तारोत्सेधमानतः । (शुमूलसीमानुसारेण च्छेदे संवरणं भवेत् ॥ ८२ ॥ तद्रूपमेव लतिनं वर्तयेद् चलनाकृतिम् ।
शङ्खावर्तः ॥ मोse पुष्पकं स स्याद् विमानसदृशाकृतिः ॥ ८३ ॥
तावत्प्रमाणस्तद्वद्धिः पञ्चभूवतुरश्रकः ।
( विमानेन मानयुक्त ? ) यन्मञ्जर्या यश्च लक्षणम् || ८४ ॥ कार्यमत्र मर्या नतु कार्य जलान्तरम् ।
तत्
पुष्पकः ॥ गृहराजमथ ब्रूमः स स्यात् कैलाससन्निभः ॥ ८५ ॥ विटङ्कनिर्गमाधारनिर्युहैः सर्वतो नृतः ।
लभ्या भूषितो मध्ये गवाक्षद्वारसंयुतः ॥ ८६ ॥ कपोतस्तम्भपर्यन्तः शा(लाल) भञ्जीविराजितः । वेदिकाखण्डजाला क + + परितो भवेत् ॥ ८७ ॥ (कुवीत्य१) मल्लकच्छाद्यैः सिंहकर्णैश्च भूषितः । अलिन्दभेदतः प्राहु (गृह) राजमि (तं? मं) बुधाः ॥ ८८ ॥ कैलासस्येव संस्थानं स्यादस्योर्ध्वमधोऽपिच ।
गृहराजः ||
मोऽथ स्वस्तिकं तस्य पूर्ववन्मानलक्षणम् ॥ ८९ ॥ तेनैव लतिनं सर्वं कुर्वीतैनं विचक्षणः । यथा मूले विभक्ताः स्युर्लतिनस्वस्तिकादयः ॥ ९० ॥ तथैषां स्कन्धभक्तानां मध्ये रेखा प्रकल्पयेत् । प्रासादः स्वस्तिको नाम स्यादेवं लक्षणान्वितः ॥ ९१ ॥
(सुधानासोदयः स्वस्य कर्तव्यः स + भागिकः । स्कन्धं यावत् समुत्सेधो विस्ताराद द्विगुणो भवेत् ॥ ९२ ॥
१. ' शुकनासोदयः' इति स्यात् ।
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মজাদার (त्य?)द्भागोच्छ्रिता जङ्घा मेखला चा + भागिकी । मध्यशाला द्विभागाश्च मूलसूत्रविभागतः ॥ ९३ ।। कर्णा द्विभागिकाश्चैवं जलमार्गस्तु पोडश । अष्टौ शाला भवन्त्यस्मिन् कर्णाश्चाष्टौ समन्ततः ॥ ९४ ॥ प्राग्ग्रीवं बाह्यतः कुर्यात् (सुखभाग?) विचक्षणः । कलशश्चण्डिका ग्रीवा तद्वदामलसारकः ।। ९५ ॥ ऊर्ध्व ऊर्ध्वप्रमाणं च यथैवाद्य ? तथा भवेत् ।
स्तिकः ।। रुचकं ब्रूमहे तस्य विभागो दशधा भवेत् ।। ९६ ।। भागद्वयमितौ कौँ भद्रं पड्भागसम्मितम् । तेषां विनिर्गमं विद्या(दस्तामात्रा प्रमाणतः ॥ ९७ ।। कुर्यादुदकमार्गाश्च प्रासादे सबके कचित । स्कन्धावशिष्टमुत्सेधो विस्ताराद द्विगुणो भवेत् ।। ९८ ।। वेदिकायास्तु निस्तारः स्कन्धे पझागिकः स्मृतः । तृतीयांशेन कुर्वीत अङ्कामूर्य खुरोदयात् ।। ११. ।। जवायाश्च त्रिभागेन कार्या खुरखरण्डिका । मेखलान्तरपत्रं च कुयोदध्यभागिकम् ।। १०० ।। सार्धत्रिगुणसूत्रेण पूर्वा कर्कटना भवेत् । (चतुर्गुणं मूलसूत्रेण मध्ये कटना स्मृतौर) ।। १०१ ।। विभज्य दशधा स्कन्धविस्तारं ते प्रकल्पयेत् । भद्रं चतुर्भिः कर्णाशु?णांस्तु) कुयोद् भागस्त्रिभित्रिभिः ।। १०२ ।। स्वच्छाया भूमिकाः कार्या या वा मूलार्धभागिकी:(?) । भागेनामलसारं च कुमुदं चाधभागिकम् ।। १०३ ।। कुम्भ भागेन कुर्वीत प्रासादे रुचके बुधः । साधारणोऽयं सर्वेषां प्रासादस्तु दिवाकसाम् ।। १०४ ।।
रुचकः ।। १. 'मुखभागे' इति स्यात् । २. 'स्तमात्रा' इति स्यात् । ३. 'चतुर्गुणेन सूत्रेण मध्यकर्कटना स्मृता !' इति स्यात् ।
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विमानादिचतुष्षष्टिप्रासादलक्षणं नामेकानषष्टितमोऽध्यायः । १२५
पुण्ड्रवर्धनकं ब्रूमः प्रासादं वल हरेः ! भ्रमयेन्मूलसीमास्पृवृत्तमादौ समन्ततः ॥ १०५ ॥
तच्छाला कर्णसंयुक्तं कर्तव्यं सर्वतोदिशम् ।
यश्छन्दः स्वस्तिके (ऽस्य स ) स्याद द्विगुणः पुण्ड्रवर्धने ॥ १०६ ॥
जङ्घोदकान्तभद्राणामुच्छायो विस्तृतिश्च या । स्वस्तिके कथिता सेव विज्ञेया पुण्टुवर्धने ॥ १०७ ॥ पुण्ड्रवर्धन |
अथाभिधीयते मेरुदर्शना तत्र भाजयेत् । सीमा (नं) तस्य कुर्वीत शृङ्गं चापि (विभागिकम् ॥ १०८ ॥ शेष+भागिकं मद्र (मामाने ?) विधीयते । पदस्य पोड (शौसेनं?शांशेन) कर्तव्यमुद्रकान्तरम् ॥ १०९ ॥ पदैः षोडशभिर्गर्भो विधातव्यः पदं पदम् । मित्तिरन्यारिका बाह्यभित्तिवास्य विधीयते ॥ ११० ॥ भागषट् कोच्छ्रिता जङ्घा मेखला चैकभागिकी | शृङ्गे च त्रिपदोत्सेधं शिखरं स्याद् दशोच्छ्रितम् ॥ १११ ॥ कर्तव्यं वास्तुशास्त्रज्ञैस्तस्यैतदशभूमिकम् ।
पञ्चमविस्तारः स्कन्धी ग्रीवा भागिका ।। ११२ ।।
उच्छ्रायेण विधातव्या भा (गि) कोत्सेधमण्डकम् । भागा (१६)कं च कुमुदं भागिका कलशोच्छ्रितः ॥ ११३ ॥
षड्गुणेनैव सूत्रेण रेखा तस्य प्रकीर्तिता । मेरुं मेरुगिरिप्रख्यमेवं यः कारयेदिमम् ॥ ११४ ॥ शिलाभिरिष्टकाभिर्वा स महत् पुण्यमाप्नुयात् ।
मरुः ॥
लक्षणं मन्दरस्याथ प्रासादस्याभिधीयते ॥ ११५ ॥ गर्भस्यार्धेन निष्क्रान्तं भद्रं कुर्वीत मन्दरे । +++ मेरुसङ्काशं विन्यस्येत् सर्वतोदिशम् ॥ ११६ ॥
१. ' मायामेन' इति पाठः स्यात् ।
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१२६
मराङ्गणसूत्रधारे
बलभी मध्यदेशे तु शिखरोसमुद्धृता । सर्व (माप्रमाणं तु मेरोग्वि भवेदिह ॥ ११७ ॥
मन्दरः ||
कैलासमथ वक्ष्यामो दशधा तं विभाजयेत् । भद्रं भागविस्तारं मध्यदेशे विनिःसृतम् ॥ ११८ ॥
(f) द्विभागविस्ताराः सलिलान्तरवर्जिताः । गर्भस्यार्धन निष्कासः कार्यो भद्रस्य सर्वतः ॥ ११९ ॥ (लतिस्यावर?) मध्ये शिखरार्धसमोदयम् । भित्तिगर्भभ्रमन्तीनां जङ्गामेखलयोरपि ।। १२० ॥
विस्तारमुदयं चास्मिन् विदध्यात् स्कन्धयोः । मेरोरिवस्मिन् प्रासादे (वचचद? ग्रीवाण्डकस्य च ।। १२१ ।। कैलासः ||
।
मोहंस (क)स्य स्याद् विभागो रुचके यथा ( १ ) जलान्तरं विशेषोऽत्र शेषं (भारु) चकवद भवेत् ।। १२२ ।। हंसः ॥
भद्रस्य लक्षणं ब्रूमो दशधा तं विभाजयेत् । गर्भ विस्तारमानेन स्यादस्मिन् भद्रविस्तृतिः १२३ ॥
सार्वद्विभागविस्तारौ रथको वामदक्षिणौ ।
गर्भा (?) तुल्यमायामात् प्राग्ग्रीवं चेह (?) कारयेत् ॥ १२४ ॥ प्रारग्रीवस्य समुत्सेधं शिखरार्धेन कारयेत् । वलभीं मध्यदेशेऽस्य सिंहकर्णसमन्विताम् ।। १२५ । (लताज लेगवाक्षायाः) चतुष्का भिश्रतुर्दिशम् | भद्रो भवति शेषं तु स्यादव रुचके यथा ।। १२६ ।।
भद्रम ||
अथ तु वक्ष्यामो द्वितीयो ग्रुप मन्दरः । भूपयेत् सिंहकर्णैस्तं लतामूर्ख च कारयेत् १२७ ॥
;
१. ' लताजालगवाक्षायैः इति स्यात् । २. उत्तुङ्ग' इति लक्ष्यनिर्देशे व्यते ।
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विमानादिचतुष्षष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः ।
भूमिभूमिसमुत्सेधः स्तम्भचित्रादिकं तथा । मेरोरिवात्र मध्ये तु मञ्जर्यः सर्वतो दिशम् ॥ १२८ ॥
तुङ्गः ॥
मो मिश्रकं सस्यान्मानसंस्थानलक्षणैः । भौमो (?) वि (मानव) मध्ये शृङ्गे कैलासवद् भवेत् ॥ १२९ ॥ मिश्रकः ॥ (अथ मालामाकारं तु तं कृत्वा गवाक्षैरुपशोभयेत् ? ) | * यत्किञ्चिन्मानमध्यं तु तदायस्येव (प्रकल्पयेत् ॥ १३० ॥
गवयः ॥
चित्रकूटमथ मोदशा तं विभाजयेत् । प्रारग्रीवा निर्गता(?) तस्य गर्भमानेन कारयेत् ।। १३१ ॥ सार्घद्वयाधोविस्तारांस्तत्कर्णान वामदक्षिणान् । उत्सेधस्य विभागेन जङ्घोत्सेधं प्रकल्पयेत् ॥ १३२ ॥ जोत्पत्रिभागेन विन्यस्येत् खुरपिण्डिकाम् | कपोतान्तरपत्रं च तत्र स्यादर्धभागिकम् ॥ १३३ ॥ शिखरोत्सेधमानं यत् तत् त्रयोदशभिः पदैः । तत्र (भूमास्तदुत्सेधं ) कल्पवेदनुसारतः ।। १३४ ।। (स्तास्तम्भसो मिति : १) कुर्यान्मुक्ताश्र परिकर्मणा । कूटच्छेदेन तत्कर्म विन्यस्येत् सर्वतो दिशम् ।। १३५ ।। भक्तमन्तरपत्रेण तलच्छन्दं तदूर्ध्वतः । द्वे द्वे कुठे ततो न्यस्येद् वामदक्षिणकर्णयोः ॥ १३६ ॥ शालामध्ये तु चत्वारि (नामे ) कूटानि सर्वतः । भूमिका : सिंहकर्णाश्च कपाटद्वारघट्टनाः || १३७ ॥ शिखराणां समुत्सेधो (तीय ) थैवाद्ये तथा भवेत् ।
चित्रकूटः ॥
किरणः कथ्यते स स्यात् पद्मतुल्यः प्रमाणतः ॥ १३८ ॥
* अत्र मालाधरप्रसादलक्षणस्यावसानं, गवयप्रासादलक्षणस्यारम्भश्व मातृकार्या
नोपलभ्यते ।
१२ १
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समराङ्गणसूत्रधार द्वात्रिंश(दनारा?)नस्मिन् विदध्यात पाडसाथवा । शालासु भेदः कणः स्याच्छेषं मालाधरे यथा । १३९ ॥
किरणः ॥ सर्वाङ्गसुन्दरं चूमः कर्मभेदैरनेकधा । नानाशिल्पलताधारं प्रासादैर्बहुभिर्युतम् ।। १४० ।। (तलच्छन्दतुल्यन्यासविरुक्तं?) बहुलक्षणम् । ना+++++++ प्रासादे सर्वसुन्दरे ॥ १४१ ॥ तोरणः सिंहकर्णेश्च संयुक्तं परिकर्मभिः । प्रमाणमिह यत्किश्चित् सर्व विद्यान् तदाधवत् ।। १४२ ।।
सर्वसुन्दरः ।। श्रीवत्समथ वक्ष्यामो दशधा तं विभाजयंत । भागत्रयेण कुर्वीत शालां तत्र विचक्षणः ।। १४३ ।। सार्थभागमविस्तारौ रथको वामदक्षिणी । मूलकर्णा भवन्त्यत्र भागद्वितयविस्तृताः ॥ १४४ ।। प्रासादहस्तमात्राभिः प्रत्येकं भद्रनिर्गमः । द्यगुलं व्यङ्गुलं वापि चतुरङ्गुलमे(व वा) ।। १४५ ॥ (भली)मध्ये तु मञ्जयः कार्याः पद्मदलोपमाः। सर्वतः परिकर्म स्याद् रथिका कर्णसंश्रया ॥ १४६ ।। आमलिश्चन्द्रशालाभिः स्कन्धान्तं परिपूरयेत् (१) । खुरपिण्डा च जङ्घा च कुम्भाग्रं शिखरादि च ।। १४७ ॥ यत्किञ्चित् तत् प्रमाणेन वर्धमानसमं भवेत् ।
नन्धावतः ॥ बेमो वलभ्यं स भवेद् गृहराजस्य सनिभः॥ १४८ ।।
1 इह श्रीवत्सः पनानामः वैराजः वृत्तकः नन्यावतः वलभ्यः सुपर्णः इत्येतेषां प्रासादाम क्रमेण लक्षणेषु वक्तव्येषु तानि आदर्शान्थे तथा संकुलतया लिखितानि , यथा मियो विवक्तुं न शक्येरन् । अता यथास्थित एवादर्शपाठी मुद्रणीय आपतितः । किन्तु पद्मनाभ-वैराज वृत्तकाना लक्षणं परं क्रमिक दृश्यते ।
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विमानादिचतुष्पष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषाष्टतमोऽध्यायः । १२९ आ(वय)तश्चतुरश्रो वा प्रमाणेनैकतः समः । चतुरश्रस्तु विस्तारादुद(यो?ये) द्विगुणो भवेत् ।। १४९ ॥ (आध्यतन्त्रस्य पुनः सार्धः स्कन्धोच्यायो विधीयते?) । (विस्तारं दशधा समक्ष + तुरश्र समन्तः) ।। १५० ॥ वि(भजे भागे) स्यात् ततो मानं पूर्वप्रासादसन्निभम् । स्वरूपं तस्य वक्ष्यामः श्रीवत्समिव तं भवेत् ॥ १५१ ॥ यद्वा विमानरुचकवर्धमानादिसमना । छन्दनकस्य कस्यापि प्रासादस्य विभाजयेत् ।। १५२ ।। भूस्तम्भपरिकर्माणि विस्तारोत्सेधमेखलाः । सिंहकर्णरथा घण्टा तथा कुम्भारपण्ड कम् ।। १५३ ॥ यत्किश्चित् तत् प्रमाणेन यथैवाद्यं तथा भवेत् ।
बलभ्यः
।
सुपर्णस्य (स्व)रूपं च प्रमाणं चाभिधीयते ।। १५४ ॥ विभक्तं सिंहरूपेण सर्वभद्रं निवेशयेत् । भागैश्चतुर्भिनिष्क्रान्तं भद्रं (गमयितः)समम् ॥ १५५ ।। द्वौ भागौ मूलकौँ तु षड्भागा भद्रविस्तृतिः । पञ्चभागोच्छ्रिता जङ्घा मेखला तस्य भागिका ॥ १५६ ॥ मूलजङ्घात्रिभागेन खुरवेदिसमुच्छ्रितिः। (स)मध्ये तु शृङ्गे द्वे कर्तव्ये वामदक्षिणे ॥ १५७ ॥ उच्छ्रायाद् द्विपदे स्यातां विभक्ते सर्वतोदिशम् । मूलकर्णेषु शृङ्गाणां त्रिपदा स्यात् समुच्छ्रितिः ॥ १५८ ॥ +++++सेवापि चतुरङ्गुलमेव वा । कुर्याजाला(ध)विस्तारं श्रीवत्से नन्दने यथा ॥ १५९ ॥ विस्ताराद् द्विगुणोत्सेधः स्कन्धः षड्भागविस्तृतः । उत्सेधस्य त्रिभागेन जङ्घोत्सेधो विधीयते ।। १६० ।। 1. गवयतः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
तृतीयांशेन जङ्घायाः कुर्वीत खुरपिण्डिकाम् । मेखलान्तरपत्रं च विदध्यात् सार्धभागिकम् || १६१ ।। विभाज्या दशभिर्भागैः पूर्ववत् स्कन्धविस्तृतिः | साद्विगुणविस्तृत्या पूर्वा कर्कटना भवेत् ॥ १६२ ॥ चतुर्गुणेन सूत्रेण मध्या कर्कटना भवेत् । (श्रीग्री) वार्धभागमुत्सेधात् कुमुदं कुम्भकं पुनः ॥ १६३ ॥ अस्मिन्नामलसारं च यथा चाद्ये तथा भवेत् ।
पद्मनाभमथ ब्रूमः पद्मशालाभिरन्वितम् द्वितीयः पद्मको ह्येष पद्ममालाधरः शुभः । सर्वमन्यत् प्रमाणं तु पद्मस्वस्तिकयोर्यथा ।। १६५ ।।
श्रीवत्सः ॥
१६४ ॥
वैराजमथ वक्ष्यामि स विज्ञेयो विमानवत् । (रूपशिख+मुत्सेधस्तम्भग्रीव + रूपकम् ? ) || १६६ ॥
पद्मनाभः ||
सभातोरणनिर्यूह सिंहक (र्णा च तादृशैः । साधारं चतुरथं च तं कुर्यात् पञ्चभूमिकम् || १६७ ॥ विमानसदृशाकारो वैराजोऽयमुदाहृतः ।
,,
बैराजः ॥
मोऽथ वृत्तकं मूले चतुरः प्रकीर्तितः ।। १६८ । जङघामूले ततोऽष्टा(भिखिः श्रि) वृत्तो भाग तृतीयके । मूलमध्यायतः पूर्णं तं कुर्यात् सर्वतो दिशम् || १६९ ॥ भद्राकारं च भद्रेषु विभागे चतुरश्रके ।
( अष्टाश्रिवज्जकाकारा ) वृत्ते स्वस्तिकसन्निभम् ॥ १७० ॥
'अष्टाश्रौ वज्रकाकारम्' इति स्यात् ।
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यथा मूलविभागेन लतिनः स्वस्तिकोदयः । तथा वृद्धिप्रमाणाभ्यामयमप्याद्यवद् भवेत् ॥ १७१ ॥
वृत्तकः ॥
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विमानादिचतुष्षष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः । १३१
१७३ ॥
नयावर्तमथ मो दशधा तं विभाजयेत् । ( पादोमध्यंशविस्तारो ) कर्णौ कुर्वीत पार्श्वयोः ॥ १७२ ॥ चतुर्भागविस्तारं भद्रमस्य प्रकल्पयेत् । सपादपदिकं कुर्याच्छालाकर्णान्तरे रथम् जलाधाररथं कर्ण (तः १) शालान्तेषु यथेष्टतः । ष+सु शिखरायामास्तन्मध्ये वलभी भवेत् ॥ १७४ ॥ जलमार्ग च कुर्वीत शालाकर्णान्तमूलयोः । प्रमाणमन्यथा किञ्चिद् (भूसिंहस्येव ) कारयेत् ॥
१७५ ॥ सुपर्णः ॥
प्रमाणमथ सिंहस्य लक्षणं चाभिधीयते । दशधा क्षेत्रविस्तारं विभजेत् सर्वतः समम् ।। १७६ ।। द्विभाग मूलकण तु कर्तव्यो वामदक्षिणौ । मूलभद्रस्य विस्तारः षड्भिर्भागैर्विधीयते ।। १७७ ॥ विस्तारो द्विगुणः कार्यः स्कन्धोत्सेधप्रमाणतः । पञ्चभागोच्छ्रिता जङ्घा मेखला सार्धभागिकी || १७८ ॥ खुरकं वेदिबन्धं च तत्रिभागेन कल्पयेत् । भागत्रयोच्छ्रितानि स्युः शृङ्गाणि च चतुर्दिशम् ॥ १७९ ॥ सिंह (स्य) कर्णवन्मध्ये वलभ्या भूषयेद् बुधः । सर्वमन्यत् प्रमाणं च सर्वतोभद्रवद् भवेत् ॥ १८० ॥
सिंहः ॥
विचित्रकूटं वक्ष्यामो दशधा तं विभाजयेत् । (द्विभागको मूलभद्रस्य) हस्ततुल्याङ्गुलो भवेत् ॥ १८१ ॥ शालामध्यप्रदेशे तु वलभीं सन्निवेशयेत् । कूटे द्वे सर्वतो न्यस्येच्लिष्टे +मूलक+योः ॥ १८२ ॥
एष भेदः समुद्दिष्टः शाला स्यात् कूटवर्जिता । प्रमाणमन्यत् सर्वं तु विज्ञेयं चित्रकूटवत् || १८३ ॥
"चित्रकूटः ॥
१. पादोनांशविस्तारौ ' इति पाठ: स्यात् । २. 'विचित्र' इति लक्ष्यनिर्देशे पठितः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
योगपीठमथ ब्रूमस्त्रिविष्टपमिवोत्तमम् । विभजेद् भागविंशत्या चतुरश्रं समन्ततः ॥ १८४ ॥ (कोष्ठान्यद्भागविस्तारा) कुर्याद् दिक्षु विदिक्षु च । भागिको जलमार्गे च विदध्याद् वामदक्षिणौ ॥ १८५ ॥ विस्तारात् तेषु गर्भः स्याद् भागत्रितयसंमितः । पञ्चभागोच्छ्रिता जङ्घा कपोतान्तरवर्जिता ।। १८६ ॥
खुरकं वेदिबन्धं च कुर्याद् भागत्रयोच्छ्रितम् । विस्तारात् (कुर्याद् दिक्षु) द्विगुणोच्छ्रायः कार्योऽयं पञ्चभूमिकः ॥
सिंहकर्णै रथैर्घण्टाभ्रमिकास्तम्भतोरणैः ।
रचनास्य विधातव्या कथिता पुष्पके तथा ॥ १८८ ॥ सान्धारः केवलं कार्यः प्रासादोऽयं विचक्षणैः ।
योगपीठः ॥ घण्टानादमथ ब्रूमः स भवेत् पञ्चभूमिकः ॥ १८९ ॥ अष्टाश्रिकोणः कर्तव्यः संस्थानात् पुष्पकोऽपरः । भैरवो भद्रकाली च (स्थाप्य चात्र पाठको ? ) ॥ १९० ॥ घण्टानादः ||
पताकिनमथ ब्रूमो वातोद्भूतमिवार + | लतिनं लतिनाकारं (?) विभक्तं सर्वतोदिशम् ॥ १९१ ॥ तं चण्डिकायाः कुर्वीत रुचकं वर्धमानकम् । (वृक्षपताकिनं वक्ष्यामि + भूतं शाखिनं यथा ) ॥ ९९२ ॥ पताकिनः ॥
गुहाघरमथ ब्रूमः श्रीपुष्टिसुखदायिनम् । विभक्ते दशधा क्षेत्रे भद्रं स्याद् गर्भमानतः ॥ १९३ ॥
अन मूलगर्भस्य कार्यो भद्रस्य निर्गमः । सामाविष्ट कर्णौ द्वौ द्वौ च पार्श्वयोः ॥ १९४ ॥
( जलाधा ) मूलक कर्तव्यः पार्श्वयोर्द्वयोः । तद्वारमध्यदेशे तु विन्यस्येत् स्तम्भतोरणम् ॥ १९५ ॥
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विमानादिचतुष्पष्टिपासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः। १५३ विस्तारद्विगुणोत्सेधश्चतुःशृङ्गश्चतुर्मुखः । भूग्रीवामेखलाजवाः कुम्भकामलसारके ॥ १९६ ॥ सिंहस्येव प्रकुर्वीत गुहाधारस्ततो भवेत् । द्वारभेदेन नामास्य प्रासादस्य विनिर्मितम् ।। १९७ ॥
गुहाघरः ॥ कथयामोऽथ शालाकं दशधा तं विभाजयेत् । द्विभागिको मूलकर्णी षड्भागा भद्रविस्तृतिः ।। १९८ ॥ द्वाराणि भद्रमध्ये स्युर्मूलद्वारसमानि तु । चतुर्बाहुश्चतुद्वारो द्वितीयो रुचको ह्यसौ ।। १९९ ॥ द्वारमानेन नामास्य शालाक इति कीर्तितम् । प्रमाणमन्यद् यत्किञ्चिद् भद्रकस्येव तद भवेत् ॥ २०० ॥
शालाकः ॥ इहानी वेणुकं ब्रूमश्चतुरश्रं समं शुभम् । न कुयोद् भद्रनिष्काममात्रच्छत्रात्मनः(१) शुभम् ।। २०१॥ विस्तारद्विगुणोच्छ्रायः कुम्भाग्रं (यचेदिष्यत्) । शिखाद्विगुणमानस्य नवा व्यंशेन कल्पते ।। २०२ ॥ जङ्घात्रिभागमुत्सेधात् कार्या खुरवरण्डिका । कपोतान्तरपत्रं च कर्तव्यं सार्धभागिकम् ।। २०३ ॥ चतुर्भा(गोगे)न सूत्रेण वेणुकोश समालिखेत् । सर्वतः शोभनं कुयात् तं कपोतविनिर्गमे ॥ २०४ ॥ मुखेऽस्य सिंहकर्णाः स्युश्चन्द्रशालाविवर्जिताः । प्रमाणमस्य यत्किञ्चिद् वेणुकं च विधीयते ॥ २०५॥
वेणुकम् ॥ इनानी कुञ्जरं ब्रूमो गजलक्षणलक्षितम् । अर्धसूत्रेण तत(सारसी,म्नः पृष्ठतो वृत्तमालिखेत् ।। २०६ ।। चतुर्भागा भवेज्जका मेखला सार्धभागिका । वृत्ताकारं पृष्ठदेशे तं कुर्वीत विचक्षणः ॥ २०७॥
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समराङ्गणसूत्रधारे शालासु सिंहकर्णाः स्युः पार्श्वतः पृष्ठतोऽग्रतः । कर्णाश्च तस्य कर्तव्याः शृङ्गः स(?)ऽपि पूरिताः ॥ २०८ ।। मध्यप्रदेशे वलभी कर्तव्या चातिशोभना । यत्किञ्चित् तत्प्रमाणं तु यथैवाये तथा भवेत् ॥ २०९ ॥
कुञ्जरः ॥ अथ हर्ष प्रवक्ष्यामश्चतुरश्रं मनोरमम् । विस्तारात् सार्ध उत्सेधः (स्यायटां?)मस्तकावधेः ।। २१० ।। छाद्यरूपं च कुर्वीत चतुरश्रं चतुर्दिशम् । शुकनासं सुखातेन शोभितं परिकर्मणा ॥ २११ ॥ जङ्घामेखलयोश्च+खुरपिण्डस्य चोच्छ्रितिः । घण्टाग्रं चन्द्रशाला च च्छाधकं च यदृच्छया ।। २१२ ॥ कुर्यात् प्रमाणमन्यच्च यथैव मनसः प्रियम् ।
हर्षणः ॥ इदानीं विजयं ब्रूमः प्रासादं (सार्थ? शोभनम् ॥ २१३ ॥ लतिनो वर्धमानेन ++++विभाजयेत् । शुकनासोदयं न्यस्येदंशोनशिखरोदयम् ॥ २१४ ॥ अग्रप्राग्नीवको कार्यों रथको वामदक्षिणौ । (कर्तव्योलतचापं पूर्णः१) सर्वतोदिशम् ।। २१५ ।। विजयो वर्धमानश्च प्रमाणेन समावुभौ । अलिन्दभेदानामास्य कृतं विजय इत्यदः ॥ २१६ ॥
महापद्मः ॥ मोऽथ हयं प्रासादं तं कुर्यादेकभूमिकम् । दारुजं चतुरश्रं च (पट्टतुलाभित्तिभिः) ।। २१७ ॥ दण्डच्छाद्यं च कुर्वीत समन्ताच चतुष्किकाम् । ऊर्वतस्तुम्बिकाक्रान्तं पद्मखण्डविभूषितम् ॥ २१८ ।।
१. इह "विजयः' इति लेख्यं भाति । महापद्म इति लेग्वनेन च विजयानन्त. रक्रमलक्षणीयानामुदकुम्भमोदकमहापद्मानां लक्षण श्लोका गलिता इत्यनुमायते ।
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विमानादिचतुष्पष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनषष्टितमोऽध्यायः। १३५ मु(वैः खे) पत्रैगवाक्षश्च वेदिकास्तम्भतोरणः । वलभीशालभञ्जीभिः सिंहकर्णेश्च भूषयेत् ।। २१९ ।। विस्तारमस्य हर्म्यस्य कुर्यादुच्छ्यसंमितम् ।
हर्म्यः ।। इदानीमुज्जयन्तस्य लक्षणं सम्प्रचक्ष्महे ॥ २२० ॥ कुर्याद् भूहर्म्यमानेऽत्र द्वारि मण्डपभूषितम् । चतुद्वारं च कुर्वीत सर्वतो मण्डपान्वितम् ।। २२१ ॥ प्रमाणमन्यदप्यस्य हर्म्यस्येवाखिलं भवेत् ।
उज्जयन्तः ॥ इदानीमभिधास्यामा गन्धमादनलक्षणम् ।। २२२ ॥ हर्म्यमानेन कर्तव्यः प्रासादो गन्धमादनः।। अग्रतः पृष्ठदेशे च मण्डपं तस्य कारयेत् ॥ २२३ ॥ चतुष्कीजालपक्षमाद्या वामदक्षिणभागयोः । प्रमाणमस्य कतेव्यं यथा हम्यस्य कीर्तितम् ।। २२४ ॥
गन्धमादनः । बमोऽथ शतशृङ्गं स त्रिविष्टपसमो भवेत् । विभजेद् भागविंशत्या पञ्चभौमं च कारयेत् ॥ २२५ ॥ +द्विभागानि कूटानि सैकमण्डशतं भवेत् । भूमी भूमौ च शृङ्गाणि भूविस्तारदशांशतः ॥ २२६ ॥ प्रमाणमस्य यत्किञ्चित् तत् त्रिविष्टपवद् भवेत् ।
निरवद्यः ।।* विभ्रान्तमथ वक्ष्यामः सर्वतोभद्रसन्निभम् ।। २२७ ॥ सान्धारं तं प्रकुर्वीत सर्वतो मण्डपैर्युतम् । गवाक्षा वेदिजालाद्याः(१) कुर्याद् दिक्षु चतुष्किकाः ॥ २२८ ॥
विभ्रान्तः ॥ मनोहरमथ ब्रूमः स भवेन्मण्डपो यथा। साच्छाद्यतोरणैर्दिक्षु चतुरः समण्डपः ॥ २२९ ।। *हर 'शतशृङ्ग' इति लेख्यम् । निरवधस्य लक्षणमपि गलितम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे वेदिषण्डाम्बुमार्गाद्यैः प्रतोलीद्वारजालिकैः । सिंहपीठतलन्यासैः कलशैः परिपूरितः ॥ २३० ।। वृत्तस्तम्भस्तुलाच्छन्नो बहिश्छायेन भूषितः । सिंहव्यालगजैः पत्रैमुखे सस्तम्भतोरण: ।। २३१ ॥ पुनः कार्य प्रमाणं तु यथाशोभं विधीयते ।
मनोहरः ॥ वृत्तवृत्तायतो मस्तयोः कम्बुसमाकृतिः ॥ २३२ ॥ वृत्तस्तत्र तलन्यासचतुरस्रोंऽशपञ्चकम् (१) । वृत्ताधमूर्ध्वतो वृत्तं यथाशोभं समुत्थितम् ।। २३३ ।। कुर्यान्मुखायतं चान्यं सिंहकर्णान्वितं मुखे ।
. वृत्तवृत्तायतौ ।।
चैत्यस्य लक्षणं ब्रूमः स स्याच्छा(द्य)त्रयान्वितः ।। २३४ ॥ अस्याकार: प्रमाणं च यथा वृत्ते तथा भवेत् ।
चैत्यः
॥
किङ्किणीकमथ ब्रूमः पञ्चाण्डं नवभूमिकम् ॥ २३५ ॥ वृत्तकूटाः शुभाः कार्याः सर्वेऽमी शुभलक्षणाः ।
किङ्किणीकः ॥ इदानी लयनं ब्रूमः स शैलखननाद् भवेत् ॥ २३६ ॥ निःश्रेण्यारोहसोपाननियुहकगवाक्षकान् । वेदीभ्रमविटङ्कांच प्रतोलीद्वारसंयुतान् ।। २३७ ।। (उत्कीर्णानाचरे तरमाग्रीवन्मानं च?)॥
लयनम् ।।
इदानी पट्टिसं ब्रूमः प्रासादं वस्त्रसम्भवम् (१) ॥ २३८ ॥ (पोहातो?) जालपादैश्च वेदीषण्डैश्च मण्डितम् । कूर्मपृष्ठं प्रदातव्यमिच्छता शुभलक्षणम् ॥ २३९ ॥
पट्टिसः ॥ विभवः कथ्यते स स्यात् (सुयोमन्यसमाश्रयः?)। दारवे दारवो योज्या शैलजे शैलसम्भवः ॥ २४० ॥
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श्रीकूटादिषट्त्रिंशत्प्रासादलक्षणं नाम षष्टितमोऽध्यायः । १३७ मृन्मये मृन्मयः कार्यश्चयने चयनोद्भवः । प्रत्यन्तग्रामखेटेषु दारुस्तम्भैर्विधीयते ॥ २४१ ॥ विभवस्यानुसारेण स कार्यो धार्मिकैस्त्रिभिः।
विभवः ।। तारागणमथ ब्रूमः स भवेन्मण्डपाकृतिः ॥ २४२ वनचीरतुलाशाण्डो(?) डोलाक्रीडाभ्रमैहैः । वस्त्रजैश्चित्ररूपाधैर्घण्टादर्पणतोरणैः ॥ २४३ ॥ ध्वजच्छत्रविमानायैः किङ्किणीभिर्विराजितम् । यत्किञ्चित् सुन्दरं सर्वं तदत्र विनिवेशयेत् ।। २४४ ॥
तारागण: ॥
अष्टाष्टकैट्टै च विशेषयोगात्
प्रासादषष्टिश्चतुरन्वितैषा । विमानमुख्याः कथिता य एतान्
(जातायस्यैस.) शिल्पिगणाग्रणीः स्यात् ।। २४५ ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
विमानादिचतुःषष्टि मैकोनषष्टितमोऽध्यायः ।।
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अथ श्रीकूटादिषत्रिंशत्प्रासादलक्षणं नाम
षष्टितमोऽध्यायः ॥
--- -- प(ड्वित्रिं)शतमथ ब्रूमः प्रासादान् नागरक्रियान् । साधारान् प्रथमस्तेपु श्रीकूटः श्रीमुखस्ततः ॥ १ ॥ श्रीधरो बैदरश्चैव तथा(भ्यःन्यः) प्रियदर्शनः । कुलनन्दोऽन्तरिक्षश्च पुष्पभासो विशालकः ॥ २ ॥ सङ्कीर्णोऽथ महानन्दो नन्द्यावर्तस्तथापरः । सौभाग्यश्च विभङ्गश्च विभवस्तदनन्तरम् ॥ ३ ॥ 1. 'जानात्यसौ' इति स्यात् । २. 'वरद ' इति लक्षणे दृश्यते ।
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समराङ्गणसूत्रधार
बीभत्सकोऽथ श्रीतुङ्गो मानतुङ्गस्तथापरः । (भवतो रुद्र?)संज्ञश्च (भवद्वाह्योदरस्तचः) ।। ४ ।। नियुहोदर(संज्ञोऽन्य)स्ततो ज्ञेयः समोदरः । नन्दिभद्रो भद्रकोशचित्रकूटस्ततः परम् ।। ५ ।। विमलो हर्पणो भद्रसङ्कीर्णस्तदनन्तरम् । ततो भद्रविशालाख्यो भद्रविष्कम्भ एव च ॥ ६ ॥ उज्जयन्ताभिधानश्च सु(खे?मे)रुरथ मन्दरः । कैलासः कुम्भका(क्ष?ख्य)श्च गृहराजश्च नामतः ।। ७ ।। एते(परिषद) त्रिंशदुदिष्टा लक्षणं कथ्यतेऽधुना । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे द्वादशांशविभाजिते ।। ८ ॥ प्रासादं विभजेत् प्राज्ञः श्रीकूट) नाम शोभ(ने?नम् ) । ज्येष्ठः स्याद् विंशतिहस्ता मध्यमो दश पञ्च च ॥९॥ कनीयान् दश विज्ञेयः प्रमाणं हस्तसङ्ख्यया । भद्रं षड्भागिकाया(सं?म) कणोः कार्या द्विभागिकाः ॥१०॥ तिलकं भागिकं कार्य भागेनकेन निर्गतम् । तस्माद् भागेन निष्क्रान्तं भद्रमस्य विधीयते ॥ ११ ॥ भागिकी बाह्यभित्तिः स्याद् द्विपदा चान्धकारिका । भागिकी गर्भभित्तिश्च गर्भः कार्यश्चतुष्पदः ॥ १२ ॥ अधश्छन्दः समुद्दिष्ट ऊर्ध्वच्छन्दोऽभिधीयते । विस्तारार्धेन जङ्घा स्यान्मेखला चैकभागिका ।। १३ ।। भागत्रयोच्छ्रितं शृङ्गं द्वितीयमपि तादृशम् । पूर्वशृङ्गस्य मध्ये तद् विधातव्यं विचक्षणः ॥ १४ ॥ सार्धभागोदयः कार्यस्तिलकोऽन्यश्च तादृशः । द्वितीयतिलकस्योर्ध्व सुश्लि(ष्टष्टा) रूपसंयुता ॥ १५ ॥ १. सर्वतोभद्र' इति स्यात् । २, ‘भवेद् बाह्योदरस्ततः' इति पाठः स्यात् ।
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श्रीकूटादिषदत्रिंशत्प्रासादलक्षणं नाम षष्टितमोऽध्यायः । १३९ स्यादुरोमञ्जरी सप्तभागोत्सेधा षडायता । स्याद् भागिकम(स्छा?धश्छा)धे मञ्जर्या या तु विस्तृतिः ॥ १६ ॥ दशधा प्रविभाज्यासौ शेषं श्रीवत्सबद् भवेत् । स्कन्धः षड्भागविस्तारो ग्रीवा भागाधेमुच्छ्रिता ।। १७ ॥ अण्डकं भागिकं कार्य कुमुदं चार्धभागिकम् । सार्धमागेन कलशो वीजपूरकसंयुतः ॥ १८ ॥ द्वितीयकर्णशृङ्गस्य स्यावं मूलमञ्जरी । +++++++ + अष्टभागसमुच्छ्रिता ॥ १९ ॥ श्रीवत्सवद् विभागोऽस्याः स्कन्धग्रीवादिके भवेत् । एवं श्रीकूटसं(क्षेपं?ज्ञोऽयं) प्रासादः परिकीर्तितः ।। २० ॥ यं कृत्वा त्रिसहस्राणि दिव्यानि दिवि मोदते ।
श्रीकूदः ॥ अथ लक्ष्म + ++++++ स्याभिधीयते ॥ २१ ॥ तुल्यं प्रासादमानेन विदध्यादिह मण्डपम् । मुखायामेन तिर्यक् तु चतुरश्रं++++ ॥ २२ ॥ +++भद्रविस्तारः कर्णाश्च तिलकास्तथा । मध्ये चतुष्किका कार्या भद्रविस्तारसम्मिता ॥ २३ ॥ नि+++++++ विधातव्यस्तु मण्डपे । जङ्घामासादजवायाः समोत्सेधा(?)विधीयते ।। २४ !! मेखलं भागिक ++++++च पूर्ववत् । स्तम्भं व्यंशोच्छ्रितं भागं वेदी घण्टा त्रिभागिका ॥ २५ ॥ क्रमाश्रयो यवाः पञ्च सिंहक +++++ । शोभिताः सिंहकर्णैश्च नृच्छाद्यानातिभूषिताः(?) ।। २६ ।। मण्डपं कारयेदेवं श्रीकूटस्य विचक्षणः ।
श्रीकूटस्य मण्डपः समाप्तः । अलिन्दे तु यदास्यैव क्रियते भद्रवेदिका (यदा?) ॥ २७ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे प्रासादः श्रीमुख + + तदानीं स्यात् सुखावहः ।
श्रीमुखः ।। यदा कूपरमस्यैव चतुरश्रमधो भवेत् ।। २८ ॥ तदा स्याच्छ्रीधरो नाम प्रासादो देवताश्रयः ।।
श्रीधरः ॥
अस्यैव तु यदालिन्दः क्रियते भद्रवर्जितः ॥ २९ ॥ (रुचेः१)भवेत् तदानीं वरदः प्रासादः शुभदायकः ।
वरदः ॥ विधीयते यदास्यैव भद्रमेकं विनिर्गतम् ॥ ३० ॥ निय॒हश्च तदा स स्यात् प्रासादः प्रियदर्शनः।।
प्रियदर्शनः ॥ विधीयते यदास्यैव नन्द्यावर्तो विनिगमः ॥ ३१ ॥ कुलनन्दस्तदा ज्ञेयः प्रासादः सुखकारकः ।
कुलनन्दनः ॥ . इति श्रीकूटादिपदकम् । अन्तरिक्षमथ ब्रूमस्तस्य द्वादशभागिका(?) ॥ ३२ ॥ षडविंशत्या करैज्येष्ठमानायां दशभिर्भवेत(?) । मध्य(मेमो) मध्यमानेन हस्तसंख्येयमीरिता ।। ३३ ।। पञ्चभागायतं भद्रं कर्णाः कार्या द्विभागिकाः । विस्तारस्तिलकानां स्यादन्तरं भद्रकर्णयोः ।। ३४ ॥ निर्गमः सार्धभागः स्याद् भद्रस्य तिलकस्य च । गर्भः षोडशभागः स्याद भागिकी भित्तिविस्तृतिः ॥ ३५ ॥ प्रदक्षिणा तु भागौ द्वौ बाह्यभित्तिः पदं भवेत् । कथितोऽयमधश्छन्दो ब्रूमश्छन्दमथोर्ध्वतः ॥ ३६ ॥ जङ्घा षड्भागिकोत्सेधा भागोत्सेधा च मेखला ।
++भागत्रयोत्सेधे शिखरं प्रथमं तथा ॥ ३७ ॥ १. 'स स्याद् द्वादशभागिकः' इति स्यात् । २. 'ठ: कनीयान्' इति स्यात् ।
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श्रीकूटादिषट्त्रिंशत्प्रासादलक्षणं नाम षष्टितमोऽध्यायः । १४१
द्वितीयं तत्समं चोर्ध्वं तिलकस्योपरि स्थितम् । अधस्ता +++++++ छाद्यं तु भागिकम् || ३८ ॥ शिखरं गर्भविस्तारं कर्तव्यं षट्पदोच्छ्रितम् । अर्धेन गर्भवस्तारा + + + + + + स्तथा ॥ ३९ ॥ द्वितीयशिखरस्योर्ध्व (प्रागुल्भ्यान् ) मूलमञ्जरी । इत्येष कथितः सम्यगन्तरिक्ष ++++ ॥ ४० ॥ अन्तरिक्षमिया देवाः सर्वे वैमानिका यतः ।
अन्तरिक्षः ||
भागैरष्टभिरत्रैव क्रियतेऽलिन्द +++ ॥ ४१ ॥ पुष्पाभासस्तदा ज्ञेयः प्रासादश्चारुदर्शनः ।
पुष्पाभासः || अथास्य क्रियते भद्रमलिन्दा + + + + + ॥ ४२ ॥ * + विशालको नानामासादाज्जायते शुभः (१) 1
विशालकः ॥ अथास्य क्रियते भद्रयुक्तस्य + + वर्जितः ॥ ४३ ॥ तदा संकीर्णको नाम प्रासादः परिकीर्तितः ।
संकीर्णकः ॥ यदा संकीर्णकस्यैव नन्दिका स (म) भागिकी || ४४ ॥ क्रियते निर्गमेणैव महानन्दस्तदा भवेत् ।
विस्तारेण समश्च स्यान्नन्दिकानिर्गमो यदा ॥ नन्द्यावर्त इति ज्ञेयः प्रासादः स तदा बुधैः ।
महानन्दः ||
४५ ॥
नन्द्यावर्तः ||
अन्तरिक्षषट्कम् ।
सौभाग्यमथ वक्ष्यामः स स्याद् द्वादशभिः पदैः ॥ ४६ ॥ उत्तमो विंशतिस्ता मध्यमो दश पञ्च च । कनीया (त्रिसान् दश) मानेन सौभाग्य मानतस्त्रिधा ॥ ४७ ॥
*' विशालको नाम तदा प्रासादो जायते शुभः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
गर्भश्चतुर्भिर्भागैः : स्याद् भद्रं तद्विस्तृतेः समम् । भद्रस्यार्थेन तिलकाः कर्णाः कार्या द्विभागिकाः ॥ ४८ ॥ द्वे द्वे पदे विधातव्यस्तथैकैकस्य निर्गमः । भद्राणां निर्गमं यद्वा विध्यादेकभागिकम् ॥ ४९ ॥ भागका गर्भभित्तिस्तु द्विपदा च प्रदक्षिणा | भागिकी बाह्यभित्तिः स्याज्जङ्घोच्छ्रायः पदानि षट् ॥ ५० ॥ भागिका मेखला प्रोक्ता (शृङ्गः ) तन्मध्ये शिखरं भवेत् । मल्लच्छाद्यं च मध्ये स्याच्छृङ्गस्य शिखरस्य च ॥ ५१ ॥
एकभागोच्छ्रितं तच्च मञ्जर्यास्त्विह विस्तृतिः । गर्भभित्तिसमा कार्या सप्तभागा समुच्छ्रितिः ॥ ५२ ॥ ऊर्ध्वं द्वितीयशृङ्गस्य पूर्ववन्मूलमञ्जरी । अण्डकाद्यं यथोक्तं स्यात् सौभाग्योऽयं प्रकीर्तितः ॥ ५३ ॥ सौभाग्यः ॥
विधीयते यदास्यैव विना भद्रमलिन्दकः । तदा विभङ्गको नाम प्रासादः स्यात् सुशोभनः ॥ ५४ ॥ विभङ्गकः ॥
यदि भद्रस्य निष्कासः क्रियतेऽस्य तदा पुनः । प्रासादो विभवो नाम जायते परमोत्तमः ॥ ५५ ॥
भागद्वयविनिष्क्रान्ता नन्दिका क्रियते यदि । तदा वदन्ति वीभत्ससंज्ञं प्रासादमुत्तमम् ॥ ५६ ॥
विभवः ॥
यदा वन्दिकोsस्यैव क्रियते न विनिर्गतः । प्रासादो मानतुङ्गाख्यस्तदानीमुपजायते ॥ ५८ ॥
बीभत्सः ॥
यदा निर्गमविस्तारसमा भवति नन्दिका । श्रीतुङ्ग इति विज्ञेयस्तदा प्रासादसत्तमः ।। ५७ ।।
श्रीतुङ्गः ॥
मानतुङ्गः ॥
१. इत उत्तरं 'सौभाग्यादिषट्कम् ' इति पदमादर्श समिति पूर्वोत्तरप्रक्रमाद् विज्ञायते ।
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श्रीकूटादिषत्रिंशत्प्रासादलक्षणं नाम षष्टितमोऽध्यायः । १४५ मोऽथ सर्वतोभद्रं दशधा तं विभाजयेत् । पड़(विधात्या विंशत्या) भवेज्ज्येष्ठः कनीयान् दशभिः करैः ॥ हस्तैस्तथाष्टादशभिर्मध्यमः परिकीर्तितः । कर्णा द्विभागिकाः कार्या अलिन्दाः पदपदोन्मिताः ॥ ६ ॥ चतुर्भागानि भद्राणि (विद्वि)भागस्तद्विनिर्गमः ।। गर्भभित्तिहिभित्तिरन्धारी च पदं पदम् ।। ६१ ॥ गर्भस्तु षोडशपद इत्येवं छन्द ईरितः । विस्तारार्धेन जङ्घा स्यान्मेखला चैकभागिका ।। ६२ ॥ प्रथमं कल्पयेच्छृङ्ग विस्तारात् सार्धमुच्छ्रितम् । द्वितीयशृङ्गं तत्राल्पं पूर्वशृङ्गस्य मध्यगम् ॥ ६३ ।। प्राच्छ्रिता पडायाम्या सुरःशिखमिष्यते (?) । कर्तव्यं मूलशिखरं तद्वच्चोपरिशृङ्गयोः ।। ६४ ॥ मञ्जर्या विभजेद् भागं विस्तारं दशधा बुधः । स्कन्धः षड्भागविस्तारो धनुग्रीवाण्डकादिकम् ॥ ६५ ।। श्रीवत्सस्येव तत् कार्य मञ्जरी भागमानतः । क्रमा वा पञ्चसिंह ++ रूपैर्विभूषिता ।। ६६ ।। इत्युक्तः सर्वतोभद्रः ++ कल्याणकारकः ।
सर्वतोभद्रः ।। अलिन्दशोभितं भद्रं यदास्यैव विधीयते ॥ ६७ ॥ तदा बाह्योदरो नाम प्रासादपवरो भवेत् ।
बाह्योदरः ॥ यद्यलिन्दो न भवति भद्रमेकं तु निर्गतम् ।। ६८॥ स्थानियहोदरो नाम प्रासादप्रवरस्तदा ।
नि!होदरः ।। यदा न तत्र भद्रं स्यानन्दिकानिर्गमो भवेत् ॥ ६९ ॥
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१४४
समराङ्गणसूत्रधारे भद्रकोशं तदा विद्यात् षष्ठं प्रासादमुत्तमम् ।
*भद्रकोशः ॥ __ सर्वतोभद्रपटकम् । चित्रकूटमथ ब्रूमस्तं भजेदष्टभिः पदैः ॥ ७० ॥ कुयोत् करेभ्योऽष्टाभ्यस्तं यावत् स्याद्धस्तविंशतिः । कर्णभागिकविस्ताराः शेषालिन्दतिविस्तृतिः (१) ॥ ७१ ॥ भद्रं चतुष्पदं विद्याद भागेनैकेन निर्गतम् । भागेन निर्गतोऽलिन्दो भित्त्यन्धार्यः पदं पदम् ॥ ७२ ॥ द्विपदोऽस्य भवेद् गर्भ(स्तलच्छत्ति समशिख)मिष्यते । अण्डकं भागिकं कार्य क्रमाच्च क्रमसंवता ॥ ७३ ॥ ऊर्ध्व द्वितीयशृङ्गस्य कर्तव्या मूलमञ्जरी। सप्तभागोदया प्राग्वद् भागषट्कं तथायता ।। ७४ ॥ प्रासादमीदृशं कुर्याचित्रकूटं प्रमाणतः ।
चित्रकूटः ॥ (भद्रागवविनिष्का!) तस्यैव यदा भवेत् ।। ७५ ॥ प्रासादो विमलो नाम तदानीमुपजायते ।
विमलः ॥ अलिन्दस्तु यदास्यैष भद्रहीनो विधीयते ॥ ७६ ॥ सदानी हर्षणो नाम प्रासादः स विजायते ।
___ हर्षणः ॥ क्रियते तु यदास्यैव कूपरं भागनिर्गमम् ॥ ७७ ।। तदानी भद्रसंकीर्णः प्रासादो जायते शुभः ।
भद्रसेकीर्णः ॥ अस्यैव तु यदा भद्रं भागेनैकेन निर्गतम् ।। ७८ ॥ भवेत् तदानी प्रासादो नाना भद्रविशालकः ।
भद्रविशालकः ।। ++ + भद्रश्च विना यदा त्वेष विधीयते ॥ ७९ ॥ * सम्ोदरनन्दिभद्रयोर्लक्षणं व्युतम् ।
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श्रीकूटादिषट् त्रिंशत्प्रासादलक्षणं नाम षष्टितमोऽध्यायः । १४५
तदानीं भद्रविष्कम्भः मासादः स्यात् सुखप्रदः ।
भद्रविष्कम्भः ॥
चित्रकूटादिषट्कम् |
चतुरश्रे समे क्षेत्रे विभक्तेऽष्टभिरष्टकैः || ८० || प्रासादं (चयेद्वा) उज्जयन्तं सुशोभनम् । पदमेकं भवेत् कर्णस्तिलकन्तावदेव च ॥ ८१ ॥ समित्तिगर्भशनेन भद्रं कुर्याद् विचक्षणः । बाह्यभित्तिर्भवेद् भागं भागमेकं प्रदक्षिणा ॥ ८२ ॥ भागिका गर्भमित्तिथ गर्भमध्ये चतुष्पदम् । पञ्चभागोन्मिता जङ्घा भागं तत्रैव मेखला || ८३ ॥ कर्तव्यं भागिकं शृङ्गमण्डकं चार्थभागिकम् । द्वितीयं साण्डकं शृङ्गं तत्समं पदमध्यगम् ॥ ८४ ॥ मच्छायं विधातव्यमुत्सेधेनार्थभागिकम् । पदोत्सेधं च शिखरं गर्भभित्तिसमं भवेत् || ८५ || भागिकः कलशः कार्यो ध्वजशं + स्य तत्समः । एतस्य मूलशिखरं कुर्यात् भागविस्तृतम् ॥ ८६ ॥ भागाधिकसमुत्सेधं कार्य कल्याणमिच्छता । ऊर्ध्वं तिलकशृङ्गस्य शिखरं स्यात् पदोच्छ्रितम् ॥ ८७ ॥ पञ्चाशद्वस्तृतं (?) शेषं श्रीवत्सस्येव कारयेत् । इत्येष कथितः सम्यगुज्जयन्तोऽभिधानतः ॥ ८८ ॥ कार्योऽयं सर्वदेवस्य प्रासादः शुभलक्षणः ।
उज्जयन्तः ॥
चित्रकूटा ( द ) यथोत्पन्नाः प्रासादा विमादयः ॥ ८९ ॥ उज्जयन्तात् तथा पञ्च मेरुप्रभृतयो मताः । मेरुश्च मन्दरचैव कैलासः कुम्भ एव च ॥ ९० ॥ गृहराज इति प्रोक्ताः प्रासादास्ते सुलक्षणाः । अष्टोत्तरमिहोद्दिष्टं प्रासादानां शतं बुधैः ॥ ९१ ॥
१. 'रचयेद् विद्वान्' इति पाठ्यं भाति । २. 'पञ्चांशविस्तृतम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे ज्येष्टमध्यकनिष्ठानां साधाराणां तथैव च । तेष्वलिन्दैर्युताः केचिद् भद्रैः केविच वेष्टिताः ॥ ९२ ॥ केचिद् वर्णसमाः कार्याः प्रासादाः सर्वशोभनाः । सर्वेऽप्येते विधातव्या (रिज )भागप्रतिष्ठिताः ॥ ९३ ॥ कोणा न विषमाः कार्या वर्गभेदश्च नेष्यते । एकहस्ता द्विहस्ता ++ ++ ये प्रकीर्तिताः ॥ ९४ ॥ यक्षनारागृहादीना(?) रक्षसां च भवन्ति ते । भागेन (धूमः सतु?) त्रेधा विनिर्दिशेत् ॥ ९५ ॥ ज्येष्ठं मध्यं कनीयश्च ज्ञेयं तच्चांशमानतः । ज्येष्ठं सात्रिहस्तं स्यात् त्रिहस्तं मध्यमं विदुः ।। ९६ ॥ सार्धहस्तद्वयमितं कनीयस्तद् विधीयते । त्रिहस्तं ज्येष्ठमपरं मध्यं हस्तसमन्वितम् ॥ ९७ ।। अर्धहस्तं कनीयश्च मानं भागस्य कीर्तितम् । ज्येष्ठो भागो द्विहस्तः स्यात् पादोनं मध्यमः करम् ।। ९८ ॥ कनीयान् मध्यमार्धेन भागमानमिदं करैः । पडन्वितास्त्रिंशदमी विचित्राः
श्रीकूटका(धातिथिता ग्रवात)। प्रासादमुख्या इह षट्प्रभेदा
भिन्ना +-+-+ सह मण्डपैश्च ॥ ९९ ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे
श्रीकूटादिषट्त्रिंशत्रासादलक्षणं नाम
षष्टितमोऽध्यायः ॥
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१.द्याः कथिता यथावद्' इति स्यात् ।
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पाठपञ्चकलक्षणं नामैकषष्टितमोऽध्यायः । अथ पीठपञ्चकलक्षणं नामैकषष्टितमोऽध्यायः।
इदानी द्राविडान् ब्रूमः प्रासादाञ् शुभलक्षणान् । एकभूम्यादयस्ते स्युयोववादशभूमिकाः ॥ १ ॥ पीठान्यपिच कथ्यन्ते तेषां पञ्चैव लक्षणैः । तलच्छन्दाश्च पञ्चैव तेषां ये शुभलक्षणाः ॥ २ ॥ पीठमायं भवेत् तेषु पादवन्धनमुत्तमम् । (स्त्री?श्री)बन्धाख्यं द्वितीयं च तृतीयं वेदिबन्धनम् ॥ ३॥ प्रतिक्रममिति प्रोक्तं चतुर्थं पीठमुत्तमम् । पञ्चमं पीठमुद्दिष्टं नाम्ना क्षुरकबन्धनम् ।। ४ ॥ एतानि पञ्च पीठानि प्रोक्तानीह समासतः । उत्सेधं भागविंशत्या विभजेत् पादवन्धने ॥ ५ ॥ खुरकः पञ्चभागः स्याद् द्वौ)भागौ पद्मपत्रिका । भागिकी कणिका कायों विभागं कुमुदं भवेत् ॥ ६ ॥ कण्ठस्तु भागेनैकेन कण+श्च द्विभागिकः ।। पटिका भागमेकं स्याद् भागिकी पद्मपट्टिका ।। ७ ।। त्रिभागिकं कपोतं च कुर्यान्नासिकया सह । भागमेकं भवेच्छेद (:)पादवन्धाख्यपीठके ।। ८ ।। पद्मपच्याः प्रवेशः स्यात् खुरकादङ्गुलद्वयम् । ग्रासः षडङ्गुलस्तस्याः कुमुदं सप्तनिगमम् ।। ९॥ प्रवेशमानं तावत् स्याद् याव(द्वि?द्धि)च्छेदपट्टिकी । पडगुलप्रवेशं च च्छेदपदृस्य कारयेत् ॥ १० ॥ समस्तत्रं(?) विधातव्यं छेदस्य कणिकस्य च । निर्गमेण पुनस्तस्माद् द्वयगुला कण्ठ पट्टिका ।। ११ ॥ अङ्गुलत्रितयं तस्याः पमपत्रीविनिर्गमः । (कापोत्तस्य + + + + तस्या? स्यादगुलत्रयम् ।। १२ ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे पट्टिकानां (समसूत्रच्छेदानां च संष्टिथः) । पादबन्धोऽयमाख्यातः श्रीवन्धः कथयतेऽधुना ।। १३ ॥ पीठच्छेदस्य मानं तु सप्तविंशतिधा भजेत् । (तीडवर्तिचतुर्भाग?) द्विभागा पद्मपत्रिका ॥ १४ ॥ कणिकां भागिकां कुर्यात् त्रिभागं कुमुदं ततः । छेदमेकं पदं विद्याद भाग (मेडथरार्थ?) तथा ॥ १५ ॥ मकरं भागमेकं च भागं मकरपट्टिकाम् । छेदमेकं पदं विद्यात् कण्ठमेकं पदं तथा ॥ १६ ॥ पट्टिको भागमेकं च वेदी भागं ततः परा । छेदमेकपदं कुर्यात् ततः कण्ठं द्विभागिकम् ॥ १७ ॥ पट्टिका भागमेकं च ++ + पद्मपत्रिका । कपोतं नालिकायुक्तं विदधीत पदत्रयम् ॥ १८ ॥ छेदं च भागिकं कुर्यात् पीठे श्रीवन्धनामनि । श्रीबन्धोऽयं सपाख्यातो वेदीवन्धोऽथ कथ्यते ॥ १९ ॥ भागैरेकानविंशत्या ('पीठस्याच्छोति?) भजेत् । नीडवर्तिश्चतुर्भागा द्विभागा पद्मपत्रिका ।। २० ।। कणिकां पदिकां विद्यात् कुमुदं त्रिपदं तथा । कुर्वीत पदिकं छेदं तद्वन्भेण्ठस्तरं(?) युधः ।। २१ ।। भागेनैकेन मकरं तथा मकरपट्टिकाम् । छेदं पदं ++ कण्ठं भागिका पद्मपत्रिका ।। २२॥ (कर्तव्याः) भागिकी कुर्यात् कुमुदं च त्रिभागिकम् । छेदमेकपदं विद्यात् ततः कण्ठं द्विभागिकम् ।। २३ ।। पट्टिको भागिकी कुर्याद् भागिकीं ++ पट्टिकाम् ।। द्विभागो रसनापट्टाश्छादस्तु पट्टिको भवेत (१) ॥ २४ ॥
१. 'पीठकस्योच्छृितिम् ' इति स्यात् ।
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पीठपञ्चकलक्षणं नामैकषष्टितमोऽध्यायः । इति प्रतिक्रमं पीठं क्षुरबन्धोऽधुनोच्यते । वि(भजेद) भागविंशत्या पीठोच्छ्रायं विचक्षणः ॥ २५॥ नीरवर्तिश्चतुर्भागा ++ + पद्मपत्रिका । कणिका भागमेकं स्याद् द्विभागं कुमुदं ततः ॥ २६ ॥ (भागं मेडथाक्षेपो?) मकरो भागिकस्तथा । भागमेकं विधातव्या ततो मकरपट्टिका ॥ २७ ॥ ('छेदा मकरपदं?) कुर्यात कण्ठमेकं पदं ततः । पट्टिको भागिकी विद्याद् भागिकी पद्मपत्रिका ॥ २८ ॥ कपोतं त्रिपदं कुर्यात् ततो नासिकया सह । छेदश्च भागिकः कार्यः क्षुरबन्धोऽयमीरितः ।। २९ ।। पीठपञ्चकमित्युक्तं मूत्रित पूर्वमेव यत् । पीठादूर्ध्वं तु विज्ञेया प्राज्ञैः खुरवरण्डिका ॥ ३० ॥ सन्ति चान्यानि पीठानि लक्ष्मभेदादनेकया । तेषां मध्ये प्रकृष्टत्वादेतत् पञ्चकमीरितम् ।। ३१ ।। प्रासादानथ वक्ष्यामस्तलच्छन्दादनन्तरम् ।। तत्र पद्मो महापद्मा वर्धमानस्तथापरः ॥ ३२ ॥ स्वस्तिकः सर्वतोभद्रः प्रासादाः पञ्च कीर्तिताः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे कर्णमूत्रं प्रसारयेत् ।। ३३ ॥ कर्णस्या ततः कृत्वा (गर्भाक्?) बहिर्नयेत् । तदग्रयोः मूत्रपातात् स्यादन्यचतुरश्रकम् ॥ ३४ ॥ कूटं कुर्याद द्विभागेन (समस्तत्राद्?) विचक्षणः । सूकराननसंस्थानं कुर्वीत सलिलान्तरम् ॥ ३५ ॥ एवं सर्वेषु कूटेषु सलिलान्तरमिष्यते । यदायतं भवेत् सूत्रचतुर्भागविभाजिते ।। ३६ ।। गर्भो द्विभागिकस्तेन भागिका भित्तिरुच्यते । गर्भकणार्धमादाय कोणा(स्तंन्त)लाञ्छयेत् पुनः ॥ ३७॥ १. 'छेदमेकं पदं ' इति स्यात् । २. ' समसूत्रादिति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अष्टम + + मध्ये स्यादेवं ++++ बहिः । एवं पद्मतलच्छन्दो विधातव्यो विचक्षणैः ॥ ३८॥ महापमतलच्छन्दमधुना सम्प्रचक्ष्महे । पूर्व यः कीर्तितश्छन्दः (सम्पाता सूत्रयकृताः) ।। ३९ ॥ तेषु संपादयेद् ++++ दिग्विदिगन्तरे । कर्णार्धं दापयेत् तत्र बाह्यभागविनि(मितार्गतम्) ॥ ४० ॥ ('णंडीग्रेय्यो )र्दिशोमध्ये लाञ्छनं यद् व्यवस्थितम् । नैऋतीयाम्ययोर्मध्ये तस्मात् तत्र प्रसारयेत् ॥४१॥ नैर्ऋतीयाम्ययोर्मध्या वायवम्बुपदिगन्त(रौरे) । वाय्वम्बुपदिशामेध्यादीशसोमदिगन्तरे ॥ ४२ ॥ तृतीयां ++ ++ + कूटस्य जलान्तरम् । कूटयोरुभयोर्मध्ये सूकराननमन्निभम् ॥ ४३ ॥ महापद्मतलच्छन्दः प्रोकोऽयं राजपूजितः ।। इदानीं वर्धमानस्य ललच्छन्दोऽभिधीयते ।। ४४ ॥ चतुरनं भजेत् पञ्चदशधा क्षेत्रमादितः । कूटं द्विभागिकं + ++ + सलिलान्तरम् ॥ ४५ ॥ पञ्जरं साध + + + भाभिक सलिलान्तरम् । चतुभांगा भवेच्छाला (द्विविदध्या व पखरे मः?) ॥ ४६॥ अर्धभागं प्रवेशस्तु शाला(सस्त्र)त्र जला(धव)नः । अष्टाङ्गुलविनिष्क्रान बाह्यतः शुभदा ने ॥ ४७ ।। भागपादं प्रवेशः स्यात् पञ्जरान्त (जीज)लाध्वनः । अर्धभागं प्रवेशस्तु ++++++:-- ॥ ४८ ।। जलान्तरं तृतीयं च कर्तव्यं भागसम्मितम् । अनन्तरं प्रकुर्वीत एउजरं सार्थभागिकम् ।। ४९ ।। भागमेकं तलच्छन्दो गथावदभिधीयते । चतुरश्रं समं क्षेत्रमष्टाविंशतिधा भजेत् ।। ५० ॥
१. 'ऐन्द्यायो' इति पात: स्यात् । २. वर्धमानतलच्छन्द लक्षणापरिसमाप्तावेव छन्दान्तरस्य लवणोपक्रमादादर्श ग्रन्थपातोऽनुमीयते ।
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पीठपञ्चकलक्षणं नामैकषष्टितभोऽध्यायः । कुर्यात् कूटं चतुर्भागं + + + सलिलान्तरम् । त्रिभागं पञ्जरं तद्वद् द्विभागं सलिलान्तरम् ।। ५१ ।। शालां षड्भागिकी कुर्याजलमार्ग विभागिकम् । त्रिभागं पञ्जरं भूयश्चन्द्रशालाविभूषितम् ।। ५२ ॥ पुनर्द्विभागिकं कुर्याचतुर्थ सलिलान्तरम् । विदधीत चतुभोग रथकं च सुशोभनम् ॥ ५३ ॥ एवं दिक्षु समस्तासु समै गैः प्रकल्पयेत् । चतुभोगे ततः क्षेत्रे गर्भ कुर्याद द्विभागिकम् ।। ५४ ।। स्वस्तिके वर्धमाने च भागिक्यो भित्तयः स्मृताः। स्वस्तिकोऽयं तलच्छन्दः कथितोशतमनोहरः ॥ ५५ ॥ इदानी सर्वतोभद्रतलच्छन्दोऽभिधीयते । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे गर्भ कुर्याद द्विमागिकम् ।। ५६ ।। कुर्यात् त्रिभागि कूटं जलमार्ग द्विभागिकम् । त्रिभागिकं ततः कूटं तोयमार्ग द्विभागिकम् ।। ५७ ॥ शालाष्टभागिकी कुर्याजलव(मोतिभागिकम् । भूयस्त्रिभागिकं कूटं द्विभाग सलिलान्तरम् ।। ५८ ॥ त्रिभागिकी च रथिका भवेद् दिक्षु (चतुर्दश?) । चतुरश्रीकृ(ते?त)क्षेत्रित्रम्) अष्टाविंशतिधा भजेत् ॥ ५९ ॥ कुर्यात् त्रिभागिकं कूटं चतुर्धा प्रविभाजिते । भागिक्यो भित्तयः कायर्यास्तथा गर्भो द्विभागिकः ॥ १० ॥ इत्येष सर्वतोभद्रस्तलच्छन्दो विधीयते । एते प्रोक्ता निरन्धाराः सान्धारांस्तु प्रचक्ष्महे ॥ ६१ ॥ चतुरश्रीकृतं क्षेत्रं भजेद् द्वादशभिः पदैः । चतुर्भागो भवेद् गर्भो भागिक्यो भित्तयः स्मृताः ॥ ६२ ॥ भागिकान्धारिका तद्वद् द्विभागा बाह्यभित्तयः । एवमेते सलच्छन्दाः पद्माद्याः परिकीर्तिताः ॥ १३ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे पीठान्युक्तान्येवमेतानि पञ्च
प्रासादानां नामभिर्लक्षणैश्च । पञ्च प्रोक्ता ये तलच्छन्दभेदा
स्तैर्विज्ञातैः पूज्यतामेति लोके ॥ ६४ ।। इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे
पीठपञ्चकाध्यायो नामैकषष्टितमः ॥
अथ द्राविडप्रासादलक्षणं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ।
ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमो घण्टान्तपुरपादितः(?) । प्रमाणं कर्णमानेन सर्वेषामेव धारयेत् ॥ १ ॥ तत्रैकभूमि(कः) कार्यों हस्तपञ्चकविस्तृतः । अगुलद्वितयोपेतः१) सप्तहस्तसमुच्छ्रितः ॥ २ ॥ पादो द्विहस्त उत्सेधात् सर्वालङ्कारभूषितः । सार्धहस्तसमुत्सेध(स्तावन्मानः स्तरावधि?) ॥ ३ ॥ माला तु द्विस्तरा प्रोक्ता स्तरो लशुनकं भवेत् । भरणं स्तरमेकं स्याद् भरणार्ध स्तरद्वयम् ।। ४ ।। कलशाातरं ज्ञेयो वाररावासमन्वितः(?) । द्विस्तरं कुलकं कुर्यात् पद्मपत्रसमन्वितम् ॥ ५ ॥ वीरगन्द्रा(१) पुनः कुर्यात् स्तरमेकं तव॑तः । द्विस्तरं हीरकं प्रोक्तं पट्टश्चैव तथाविधः ॥६॥ पट्टिका स्तरमेकं स्याद् वसन्तं द्विस्तरं विदुः । वसन्तपट्टिका चोवं स्तरमेकं विधीयते ॥ ७ ॥ कपोतं नासिकायुक्तं विदधीत स्तरत्रयम् । + दन्तरं प्रकुर्वीत मेटमेकस्तवंस्तत (2) ॥ ८॥ १, तदन्तरे प्रकुर्वीत मेडमेकं स्तरं ततः' इति स्यात् ।
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द्राविडप्रासादलक्षणं नामैकषष्टितमोऽध्यायः । स्तरप्रमाणं मकरं तद्वन्यकरपष्टिकाम् । पुनश्छेदं स्तरं कुर्याद् वेदीवन्धस्ततः स्तरम् ।। ९ ।। छेदः स्तरप्रमाणश्च कण्ठः स्याद् द्विस्तरं ततः । पट्टिका स्तरमेकं तु तद्बच्चाम्बुजपट्टिका ॥ १० ॥ मालादिपनपत्रान्तं द्विहस्तोत्सेधमीरितम् । सार्धहस्तः समुत्सेधः कूटस्य परिकीर्तितः ॥ ११ ॥ नासिकापद्मसंयुक्तं तदूर्ध्व कलशो भवेत् । एकभूमेरिदं मान प्रासादस्य प्रकीर्तितम् ।। १२ ॥
एकभूमिकः॥ द्विभूमिकस्य लक्ष्मान प्रासादस्वाभिधीयते । सप्तहस्तसविस्ता -: -- -- -- समुच्छ्रितः ॥ १३ ॥ कर्णमानाद् भवेदस्य विभागोऽथ निगद्यते । द्विहस्तं कल्पयेद् बीजं जङ्घा सार्धद्विहस्तकम् ॥ १४ ॥ कूटस्य सन्निवेशोऽयं विज्ञातव्यः सभागिकः । जङ्घा द्वितीया तु पुनः कर्तव्या तस्य भागिका ॥ १५ ॥ सन्निवेशो द्वितीयस्थ स्यात् कूटस्यार्धभागिकः । (दिदिक्रव्यस्) कर्तव्या सह कण्ठेन भागिकः ॥ १६ ॥ तस्योपरिष्टाद घण्टा च सार्धभागसमुच्छ्रिता । नासिकापद्मसंयुक्ता विधातव्या विपश्चिता ॥ १७ ॥ पीठानां पूर्वमुक्तानां पादवन्धादिनामभिः । पञ्चानां कल्पयेदेवं --- भूम्यादितः क्रमात् ॥ १८ ॥ तेषां शोभावहं यत् स्यात् तत् कर्तव्यं विपश्चिता । तस्योपरि भवेज्जङ्घा मालाल+ +संयुता ॥ १९॥ भरणं कलशस्तद् (द्वारची)रगण्डसमन्वितम् । उच्छालं पूर्वमानेन पद्मपत्रायुतं ततः(१) ॥ २० ॥ वीरगण्डः पुनः कार्यो हीरं पूर्वक्रमेण च । तस्योपरिष्टात् पट्टश्च भवेत् पट्टिकया सह ॥ २१ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे (वसन्तवेदृर्ध्व ततः,स्तस्यैवोपरि पट्टिका । ततः कपोतच्छेदश्च (मेटकर एव च?) ।। २२ । पट्टिका (मकरोप्या च भेदः)कण्ठोऽथ पट्टिका । वेदीच्छेदश्च कण्ठश्च पट्टिका पनपट्टिका ॥ २३ ॥ कूटं तवं कुर्वीत विचित्रं नासिकान्वितम् । छेदान्तं पूर्वमानेन सर्वमेतद् विधीयते ।। २४ ।। तस्योपरि पुनर्जङ्घा सर्वाभरणभूषिता । ततो मालाथ (ल)शुनं तोरणं कलशस्ततः ॥ २५ ॥ वीरगण्डस्त(तो?थो)च्छालं पत्रकं वीरगण्डकः । हीरकं पट्टिका तद्वद्वसन्तपट्टिका पुनः ।। २६ ॥ कपोतच्छेदमेढाश्च (मैकरोऽस्यः) च पट्टिका । छेदः करपट्टिका च (?) वेदीच्छेदोऽथ कण्ठकः ॥ २७ ॥ पट्टिका पद्मपूर्वा च कर्तव्या पट्टिका + + | ततश्छेदो विधातव्यः सर्वैराभरणैर्युतः ।। २८ ॥ ततश्छित्त्वा तथा कार्य यथा शोभा प्रजायते । पुनः कण्ठ्यं(?) प्रदातव्यः पट्टिका पद्मपट्टिका ।। २९ ।। ततः कण्ठं विधातव्यं चन्द्रमालाविभूपितम(?) । प्रकुर्वीत ततश्छेदमुपरिष्टाद् विचक्षणः ॥ ३० ॥ कण्ठपट्टिकया युक्तं तवं कण्ठपट्टिकाम् ।। सप्ताङ्गुलानि कतेव्यस्ततो घण्टाविनिगमः ॥ ३१ ॥ भागाध विस्तृतिस्तस्या विस्ताराध समुच्छ्रितिः । एवं द्विभूमिकं प्राज्ञः प्रासादं परिकल्पयेत् ॥ ३२॥
द्विभूमिकः ॥ त्रिभूमिकस्तृतीयोऽथ प्रासादोऽस्माभिरुच्यते । तस्यैकादश विस्तारो हस्ताः पञ्चदशोच्छ्यः ॥ ३३ ॥ चतुर्दशाङ्गुलान्येषां भवेदस्याधिका(पि?नि) च । के++भूमिकस्यैतत् कर्णमानमसंशयम् ।। ३४ ॥ मकराख्या च वेदी ' इति स्यात् । २, 'मकराख्या ' इति स्यात् ।
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द्राविडप्रासादलक्षणं नामैकषष्टितमोऽध्यायः । पीठं द्विहस्तं कुर्वीत तत्रादौ पूर्वसूचितम् । जडा त्रिभागिकोत्सेधां कूटोच्छ्रायं तु भागिकम् ।। ३५ ।। भवेज्जङ्घा तृतीया च सार्धभागद्वयं ततः । भागं च कूटप्रसरश्चन्द्रशालाविभूषितः ।। ३६ !! पुनस्तृतीया जङ्घा (स्याद् भाग)द्वय(समुच्छ्रिता ।। ततश्च(शा)कूट)प्रस्तारो भागिको भूषणान्वितः ॥ ३७॥ भागं स्याद् वेदिबन्धः + सगुणद्वारकण्ठकः । चतु(दीदि)शमसौ कार्यों भूषायुक्तो यथोचितम् ॥ ३८ ॥ घण्टाच्छेदस्तु भागौ (द्वौ) द्वयगुलद्वयसंयुतौ । एकादशस्तरा (कुरु?)स्तस्योपरि विधीयते ॥ ३९ ॥ इदानी प्रविभागोऽस्य पीठावं विधीयते । हस्तमेकं भवेज्जचा(ायपिच?)तया समा ॥ ४०॥ माला तु द्विस्तरा प्रोक्ता लशुनं भागिकं ततः । भरणं स्तरमेकं स्यात् कलशोऽपिच तत्समः ॥ ४१ ॥ वीरगण्डसमायुक्तमुच्छालं द्विस्तरं ततः । ततस्तरं वीरगण्डो + + -- -- + + + + || ४२ ॥ हीरकं द्विस्तरं विद्यात् (स?स्तरं वासन्तपट्टिका । कपोतं नासिकायुक्तं त्रिस्तरं कारयेत् ततः ।। ४३ ।। छेदं प्रस्तप्रमाणं च मेढं च तत्सम्मितम् (?) । स्तरं कुर्वीत मकरं तदर्धेनास्य पट्टिका ॥ ४४ ॥ छेदं तथैव कुर्वीत कण्ठमेकस्तरं ततः। पट्टिका वेदिका चय स्तरमेकं विधीयते ॥ ४५ ॥ छेदमर्धस्तरं विद्यात् कण्ठं सार्धस्तरं ततः । पट्टिका स्यात् स्तरं पद्म सारमेकं ततो भवेत् ।। ४६ ॥ शेषे च सुन्दरं दण्डं विधातव्यं(?) विचक्षणैः । अनन्तरं द्वितीया च जङ्घा कार्या नवस्तरा ॥४७॥
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समराङ्गणसूत्रधारे मध्ये च सा प्रकर्तव्या तवं तां विभाजयेत् । ततस्तरं भवेच्छाला स्तरार्ध लशुनं ततः ॥ ४८ ॥ तथैव भरणं ज्ञेयं पूर्वनिर्दिष्टलक्षणम् । वीरगण्डेन सहितः कलशोऽपि तथा भवेत् ॥ ४९ ॥ पद्मपत्रिकया युक्तं स्तरमुच्छालक विदुः । वीरगण्डं स्तरं विद्यादर्धभागं च हीरकम् ॥ ५० ॥ पढें तथैव कुर्वीत स्तरस्यार्धन पट्टिका ! वसन्तः स्तरमेकं स्याद स्तरं वासन्तपट्टिका ॥ ५१ ॥ कपोतं त्रिस्तरं कुर्यान्नासिकासहितं बुधः । छेदमर्धस्तरं विद्यान्मेहं तत्तुल्यमेव च ॥ ५२ ॥ मकरं स्तरमेकं च भागाध पट्टिका ततः । भागमेकं भवेच्छेदः स्तरं कण्ठस्तदूर्ध्वतः ॥ ५३ ॥ पट्टिका वेदिका चैव स्तरमेकं विधीयते । छेदं भागार्धिकं कुर्यात कण्टकं सार्धभागिकम् ॥ ५४ ॥ भागेन पट्टिका कुर्यात् तथा कमलपत्रिकाम् । कूटं ततः परं कुर्यान्नासिकाचीसु) विभूषितम् ।। ५५ ॥ तृतीयजङ्घा(मद्वा तद्वत् ) स्याचतुर्भिः कल्पिता स्तरः । स्तरमेकं भवेन्माला स्तरं च लशुनं विदुः ।। ५६ ।। भरणं स्तरमेकं च कुम्भमेकस्तरं तथा । वीरगण्डसमोपेतमुच्छालं स्यात् तदृवतः ॥ ५७ ।। स्तरमेकं प्रकुर्वीत वीरगण्डलमु(च्छूि तिम् । ततश्व हीरकं कुयोद भागेनकेन बुद्धिमान् ।। ५८ ॥ सार्धभागेन पहिः स्यात् पष्टिका स्तरं तथा । स्तरमेकं वसन्तं स्यात् स्तर वासनाटिका ।। ५९ ।। कपोतो द्विस्तरश्छेदोऽर्धस्तशे मेण्ड का स्तरः । भागिको मकर: कार्यः पट्टिका चार्ध भागिका ॥ ६०॥
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द्राविडप्रासादलक्षणं नामैकषष्टितमोऽध्यायः । (भेदो?)ऽर्धभागिको भागमेकं कण्ठः प्रकीर्तितः । पट्टिकावेदिका भेदा? स्त्रयोऽप्यर्धस्तरं पृथक् ॥ ६१ ॥ कण्ठश्चार्धस्तरः कार्यः पीठिका चार्धभागिका । अर्धभागेन कर्तव्या तदूर्ध्व पद्मपत्रिका ॥ ६२ ।। विचित्रलक्षणोपेतं ततः कूटं विधीयते । स्तरमेकं भवेच्छेदः स्यात् कण्ठोऽप्येवमेव (च?) हि ।। ६३ ॥ पट्टिका स्तरमेकं स्यात् ततो वेदी स्तरद्वयम् । उदः स्तरं भवेद् भूयः कण्ठः स्याद् द्विस्तर ततः ।। ६४ ॥ कर्तव्ये स्तरमेकैकं पट्टिका पन्मपत्रिका । घण्टा ततः(कोपरं कार्या मानतो विंशतिस्तरा । ६५ ॥ एकादशस्तरः कुम्भः सर्वेषां सर्वतो भवेत् । त्रिभूमिकोऽयमाख्यातश्चतुर्भूमिरथोच्यते ॥ ६६ ॥
त्रिभूमिकः ।। हस्तान् पञ्चदश क्षेत्र विस्तारा(तु)प्रकल्पयेत् । उच्छ्रायेण तु हस्तानां स्यात् (पौदकविंशतिः) ॥ ६७ ॥ द्विहस्तं कारयेत् पीठं जवां हस्तत्रयोच्छ्रिताम् । सार्धहस्तं भवेत् कूटं सर्वालङ्कारभूपितम् ।। ६८ ॥ द्वितीयजका कर्तव्या पादहीनं करत्रयम् । सपादहस्तं कुर्वीत कूटमन्यत् तदृवतः ॥ ६९ ॥ तृतीयजङ्घा कर्तव्या साध हस्तद्वयं ततः । ततश्च कूटप्रस्तारो हस्तमेकं विधीयते ।। ७० ।। जङ्घा चतुर्थी कर्तव्या सार्धहस्तद्वयं ततः। ततश्च कूटप्रस्तारो हस्तमेकं विधीयते ।। ७१ ॥ जङ्घा चतुर्थी कर्तव्या सपादद्विकरोच्छ्रिता । हस्तं च कूटप्रस्तारो वेदीवन्धस्तथाविध: ।। ७२ ।। गर्भाधविस्तृता घण्टा कायो हस्तत्रयोच्छ्रिता । चतुदेशस्तरः कुम्भः सर्वेपासुपरि स्थितः ।। ७३ ।। १. पादौनकविंशतिः' इति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे सूचि(का?ता हस्तसङ्ख्यैषा विभागः कथ्यतेऽधुना। पीटं हस्तद्वयोत्सेधं जयालकुतिरुच्यते ।। ७४ ॥ दशभागो भवेदेकमुच्छालं द्विस्तरं ततः । वीरगण्डं स्तरं विद्याद् द्विस्तरं हीरकं भवेत् ।। ७५ ॥ पट्टस्तथैव विज्ञेयो(त्सेधकी?)पट्टिका ततः । वसन्तं द्विस्तरं +++ + चासन्तपट्टिका ॥ ७६ ॥ कपोतस्त्रिस्तरः कार्यो भागं छेदो विधीयते । मेढं स्तरं प्रकुर्वीत स्तरं कण्ठस्य पट्टिका ॥ ७७ ।। कुर्वीत भागिकी (देवा वेदी)तत(च्च्छेछे)दे च भागिकम् । , पुनः कण्ठं प्रकुर्वीत द्विस्तरं पट्टिकां ततः ।। ७८ ॥ स्यात् पद्मपत्रिकाप्येवं घण्टा पञ्चस्तरा ततः । विचित्रं लक्षणोपेतं ततः कुम्भं निवेशयेत् ॥ ७९ ॥ जङ्घारतम्भं द्वितीया(यां विदध्यादष्टभागिकम् । मालां+द्विस्तरं कुर्याद् भागिक तल शुनं ततः ॥ ८ ॥ भर(णं) स्तरमेकं च कलशं तत्प्रमाणत:। वीरगण्डेन संयुक्तं (तावांवो? लालकं भवेत् ॥ ८१ ॥ द्विस्तरं तत्तु विज्ञेयं वीरगण्डः इतरं भवेत् । हीरकं द्विस्तरं विद्याल पद्मं चैव तथाविधम् ॥ ८२ ॥ पहिका स्तरमेकं स्याद् वसन्तं द्वितार ततः । वसन्तपट्टिको भागं कपोतं त्रिस्तरचितम् ।। ८३ ॥ कुर्वीत भागिक (भदं?; स्तरमेकं च मेढकम् । मकरं स्तरमेकं च तथा मकरपट्टिकाम् ॥ ८४ ॥ भेदः स्तरं भवेत कण्ठः स्तरं मागं च एट्टिका । वेदिका स्तरमेकं च च्छेदमन जारपेत् ।। ८५ ॥ : कण्ठं सार्धस्तरं कुर्यात स्तम्शेक च पट्टिकाम् । (आभा अम्भो)जपत्रिका भाग कुमाः घण्टां चतुःस्तराम् ॥ ८६ ।।
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द्राविडप्रासादलक्षणं नामकषष्टितमोऽध्यायः । १५९ प्राग्नीवभूपिता सा स्यात कुम्भं कुर्यात ततः। जङ्घास्तम्भस्तृतीयायां सत्तारचतुर+कः ॥ ८७ ।। ततो मालाथ लशुलं भरणं कुम्भकाण्डको । उच्छालं गण्डको ही प्रत्येक स्थुः स्तर स्तरम् ।। ८८ ।। पद्म सार्धस्तरं विद्याद् भागऽर्थे पट्टिका तथा । भागमेकं वसन्तः स्याद मागं वासन्तपट्टिका ।। ८९ ।। कपोतं त्रिस्तरं कुर्याच्छेदमेकस्तरं ततः। ततश्च मे(ढकं मरं?) विदधीत स्तरं स्तरम् ।। ९० ॥ तत्पट्टिका तु भागार्धं (भदं) भागार्धमेव च । कण्ठो वेदी पट्टिका (च) त्रीण्येतानि स्तरं स्तरम् ।। ९१ ।। स्तरस्या भवेच्छेदः कण्ठः सार्धस्तरं ततः । भागाध पट्टिका कायाँ तावती पद्मपत्रिका ॥ ९२ ॥ चतुर्भागा भवेद् घण्टा गुणद्वारसमन्विता । द्विस्तरं कारयेत् कुम्भं घण्याचाः स्थितमूवतः ॥ ९३ ॥ एवं भूमिस्तृतीयैषा चतुर्थी कथ्यतेऽधुना । कर्तव्या (पट्टरा?)जङ्गा महास्तम्भसमन्विता ॥ ९४ ॥ मालाथ लशुनं तद्वद् भरणं कुम्म एव च । उच्छालं गण्डकं हीरमिति प्रा+ पृथक पृथक् ।। ९५॥ सार्धभागं भवेत् (पादपट्टः) पट्टिकार्धस्तरं ततः । वसन्तं (स्त)रमेकं स्यात् तत्संज्ञः(१) पट्टिका स्तरम् ॥ ९६ ॥ कपोतं द्विस्तरं विद्याच्छेदं चार्षस्तरं ततः । मेहं तथैव कुर्वीत मकरं च स्तरं बुधः ॥ ९७ ।। पदिकां मकराख्यां च च्छेदमेकस्तरं विदुः । स्तरमेकं भवेत् कण्ठः स्तरस्याधं च पट्टिका ॥ ९८ ॥ तथैव वेदिकां कुर्याच्छेदमयस्तरं पुनः । सार्धभागं प्रकुति कण्ठदेशं विचक्षणः ॥ ९९ ॥ 1. 'द मकरम्' इति स्यात् । २. 'तत्संज्ञा 'इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पट्टिका (मद्यः)संज्ञा तु स्तरमेकं विधीयते । घण्टा स्तरद्वयं कार्या गुणद्वारविभूषिता ।। १०० ॥ कुम्भं विदध्यादुपरि द्विस्तरं यत्र जाननम् । भागमेकं भवेच्छेदस्ततः कण्ठः स्तरद्वयम् ।। १०१॥ पट्टिका स्तरमेकं तु वेदिका तु स्तरावुभौ । पुनश्छेदो भवेद् भागं ++ कण्ठो विधीयते ॥ १०२ ॥ पट्टिका स्तरमेकं तु तद्वदम्भोजपत्रिका । स्तराणां विंशतिघण्टा भवेद् गांधविस्तृता ।। १०३ ॥ चन्द्रशालाश्च कर्तव्या दर्शनीयाश्चतुर्दिशम् । एवं पझे महापः स्वस्तिके वर्धमानके ।। १०४ ॥ तथैव सर्वतोभद्रे कुर्याद घण्टाभिमां बुधः । कुम्भं तु पञ्चदशभिः स्तरैः (कार्याकुर्यात् ) समुन्नतम् ।। १०५॥ स्याच्चतुर्भूमिको ह्येवं तलच्छन्दस्तु कामतः।
चतुर्भूमिकः ।। पञ्चभौममथ ब्रूमः प्रासादं राजपूजितम् ॥ १०६ ॥ विस्तारेण विधातव्यः स ह स्वस्ता)नेकविंशतिम् । विभाजयेत् तथोत्सेधं पादोनत्रिशतं करान् ॥ १०७ ॥ पीठं भागद्वयं साधं जड्या (साराम्रा)त्रिभागिकी। कुर्वीत कूटप्रस्तारं साधेहस्तं च बुद्धिमान् ॥ १०८ ॥ जङ्घा द्वितीया कर्तव्या हस्तत्रितयमुच्छ्रिता । भूयोऽपि कूटपस्तारं सार्धहस्तं प्रकल्पयेत् ॥ १०९ ॥ जङ्घा तृतीया कर्तव्या पादहीनं करत्रयम् । सार्धहस्तसमुत्सेधः कूटप्रस्तार इष्यते ॥ ११० ॥ चतुर्थभूमिजया च सार्धहस्तद्वयोच्छिता। कूटप्रस्तारकं कुर्यात् पूर्वमानेन बुद्धिमान् ॥ १११ ।। १. पद्म' इति स्यात् ।
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द्राविडप्रासादलक्षणं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ।
पञ्चम्यां भुवि कुर्वीत (जङ्घा सा ) हि करद्वयम् । कुर्वीत कूटप्रस्तारं तथा प्रा (मादितो यथा ॥ ११२ ॥ कुर्यादस्तद्वयोत्सेधं कपोतमपि बुद्धिमान् । चतुर्भागसमुत्सेधा महाष्टा विधीयते ॥ ११३ ॥ उपरिष्टाद्भवेत् तत्र प्रासादे पञ्चभूमिके । कुम्भं तदूर्ध्वं कुर्वीत स्तरानेकोनविंशतिम् ॥ ११४ ॥ संस्थानमेतत् कर्तव्यं सर्वतोभद्रसंज्ञ(कौ के) | विभाजयेद विशेषेण ततः स्तरविभाजनात् ॥ ११५ ॥ श्रीवन्धपीठ कर्तव्यं साहस्तद्वयोच्छ्रितम् । चतुर्दशस्तरं जङ्घा कर्तव्या स्तम्भसंयुता ॥ ११६ ॥ कर्तव्या द्विस्तरा माला लशुनं स्तरसम्मितम् । विदधीत स्तरं पद्मकुम्भगण्डसमन्वितम् (१) ॥ ११७ ॥ उच्छालं द्विस्तरं कुर्या (दिडो ) भागं विधीयते । द्विस्तरं हीरकं कार्य पट्टाचैव तथाविवाः ।। ११८ ।।
पट्टिका स्तरमेकं च वसन्तं द्विस्तरं ततः । वसन्तपट्टिका भागं कपोतं त्रिस्तरं ततः ।। ११९ ।। छेदमेकस्तरं कुर्यात् स्तरमात्रं च मेटकम् |
मकरं भागमेकं च भागं (चराली पट्टिका (म्) ॥ १२० ॥
कुर्वीत भागिकं छेदं ततः कण्ठं च भागिकम् । कण्ठे छेदं ततः कण्ठं च + + + + भागिकम् ॥ १२१ ॥ ( वाख्यापट्टिकां ?) भागं वेदीं विचक्षणः । कुर्वीत भागिकं छेदं ततः कण्ठं स्तरद्वयम् ॥ १२२ ॥ स्तरं स्तरं प्रकुर्वीत पट्टिका पद्मपट्टिका | कूटप्रस्तारके कुर्यान्मकराननपञ्चकम् ॥ १२३ ॥
विचित्ररूपं सर्वासु दिक्षु सर्वगुणान्वितम् । ऊर्ध्वतः पट्टिकायास्तु घण्टा पश्चस्तरा भवेत् ॥ १२४ ॥
• श्लोकान्ते 'पुनर्भूषणैः' इत्यधिकं पठ्यते ।
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समराङ्गणसूत्रधारे नासिकाभिर्विचित्राभिरत्युदाराभिरन्विता । भद्राणि यस्य दृश्यन्ते कूटे कूटे समन्ततः ॥ १२५ ॥ स सर्वतोभद्र इति प्रासादः शिल्पिनां मतः । अवलम्बन तदनु स्तम्भच्छेदं प्रकल्पयेत् ॥ १२६ ॥ स्तम्भत + + +त्रेण समानं भुवि मुत्रयेत ।। मेढस्य निगमे दद्याद गुलद्वितयं बुधः ।। १२७ ।। पञ्चाङ्गुलानि कर्तव्यस्ततो मकरनिर्गमः । सूत्रयेत् समसूत्रेण ततो मेढकास्य)पट्टिका ॥ १२८ ॥ षडङ्गुलप्रवेशस्तु कार्यश्छेदस्य धीमता। यथा प्रवेश + + + छेदस्थापि तथा भवेत् ।। १२९ ॥ अगुलद्वितयं कार्यः पट्टिकाया विनिर्गमः । विनिर्गमो वेदिकाया विधातव्यः षडङ्गुलः ॥ १३० ॥ अङ्गुलद्वयनिष्क्रान्ता विधेया कण्ठपट्टिका । पद्माव्यानिर्गमं कुर्यादङ्गुलत्रितयं ततः ॥ १३१ ।। अगुलानि ततः पञ्च योनि + निर्गमो भवेत् । घण्टा त्विह विधातव्या सर्वालङ्कारभूषिता ।। १३२ ॥ (भेद?)स्ततः स्याद् भवति भूमिका तस्य चोपरि । द्विती(याय)भूमिकाजङ्घा (सद्यः) स्यादष्टभिः स्तरैः ॥ १३३ ॥ मालाबैलशुनं चैकं भरणं कलशस्तथा । यथा माला तथोच्छालं वीरगण्डं स्तरं भवेत् ॥ १३४ ।। उच्छालहीरके पट्टसमे कुर्याद विचक्षणः। पट्टिका भागिकोत्सेधा वासन्त + + का तथा ॥ १३५॥ कपोतं त्रिस्तरोत्सेधं (छेदो?) सत्र्यंशवर्जितम् । छेदस्यार्थे भवेन्मेढो मकरः पट्टिका तथा ॥ १३६ ॥ ततश्छेदं (च) कण्ठं च + + + पट्टिकां तथा । मालार्धेन प्रकुर्वीत च्छेदमेव ततो बुधः ॥ १३७ ।।
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द्राविडप्रासादलक्षणं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः । १६३ पुनः कण्ठं प्रकुर्वीत हीरके(गाण) समन्वितम् । पट्टि(का) पद्मपूर्वा च त्रिभा गोगे न कपोतके । १३८ ।। कुर्याचतुःस्तरां घण्टां द्वाभ्यां कुम्भं तथोपरि । पुनश्छेदो भवेद् भागं जहां कुर्वीत सप्तभिः ॥ १३९ ।। (सीतमाठा) विधातव्या मालो चुच्चो) द्विस्तरो भवेत ! लशुनं भरणं कुम्भो गण्डश्चेति स्तरं स्तरम् ।। १४० ॥ गण्डद्विगुणमुच्छालं हीरपट्टस्तथैव च । पट्टिका स्तरमेकं स्याद् वसन्तपट्टिकास्य च ॥ १४१ ॥ पीठं द(शगुणं कुर्याच्छेदमेण्टौ स्तरं स्तरम् । स्तरं कुर्वीत (राकर?) (तथा) मकरपट्टिकाम् ।। १४२ ॥ स्तरं छेदं च कण्ठं च पट्टिकां वेदिकां तथा । छेदं कुर्यात् पुनर्भागं कण्ठं तद्विगुणं ततः ।। १४३ ॥ पट्टिका स्तरपेकं स्याद् वसन्तपट्टिका स्तरम् । चतुःस्तरा भवेद् घण्टा (प्राग्नाचकभूषिता?) ।। १४४ ॥ तस्योपरि पुनः कुम्भं घण्टार्धेनैव कारयेत् । छेदं भागं विजानीयाज्जङ्गा सप्तांशिका स्मृता ।। १४५ ॥ माला द्विभागिका कार्या भागिक लशुनं भवेत् । भरणं कुम्भकं गण्डं कुर्याल्लशुनपद बुधः ।। १४६ ।। उच्छालं गण्डकं चैव हीरकान्तं च भागिकम् । साथै भागं भवेत् ++ पट्टिका स्तरं भवेत् ॥ १४७ ।। ++ तं भागमेकं स्याद् वसन्ताख्या च पट्टिका। कपोतं त्रिस्तरं कुर्यानासायुक्तं विचक्षणः ।। १४८ ॥ छेदमंशेन कुर्वीत (मण्डमंशेनः) कारयेत् । मकरे पट्टिकां छेदं विदधीत स्तरं स्तरम् ॥ १४९ ॥ कुर्वीत भागिकं (कण्ठं) पट्टिका वेदिकामपि ।
भागं कुयोत पुनश्छेदं ततः कण्ठं द्विभागिकम् ॥ १५० ।। . मकरम्' इति स्यात् । २. प्राग्नीवकविभूषिता' इति स्यात् । ३. 'मेदमंशेन' इति स्यात् ।
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१६२
समराङ्गणसूत्रधारे पट्टिका पद्मपूर्वा च विधातव्या स्तरं स्तरम । कुर्वीत घण्टामुपरि चतुभांगां विचक्षणः ॥ १५१ ।। तदर्धमूर्ध्वतः कुम्भं छेमर्चेन तस्य च । जङ्घा षड्भागिका कायों (पात्ता गेन जुन कारयेन? ॥ १५२ ।। लशुनं भरणं कुम्भं गण्डमुच्छाल काडी) हीरकं चेति कुर्वीत भागिकानि पृथक पृथक । १५३ । सार्धभागं भवेत् पट्टः पट्टिकार्धस्तरोन्ट्रिना । वसन्तं भागमेकं स्याद् वसन्ताख्या च पट्टिका । १५४ ॥ कपोतं त्रिस्तरं कुर्याच्छेदं (त्र्यंशोजशंसकाम् ?) ।। मण्डको मकरश्चैव पट्टिका छेदकण्ठको ।। १५५ ।। कण्ठं पट्टी च वेदी च च्छेदश्च स्यात् स्तर स्तरम् । द्वितीयो द्विस्तरः कण्ठो भागिकी पट्टिका भवेत् ।। १५६ ॥ तथैव पद्मसंज्ञा च स्यादुच्छायेण पट्टिका । घण्टा कुर्याचतुर्भागां कुम्भमर्धन तस्य च ।। १७ ।। छेदमेकेन भागेन जनाममागिकी । माला(मे)केन भागेन लशुनं साथैभागिकम् ।। १५८ ।। तथैव भरणं कुर्यात कुम्भोच्छाले स्तरं स्तरम् । हीरकं भागिकं कुर्यात् यह सार्धस्तरं ततः ।। १५९ ।। पट्टिकार्धस्तरं कार्या वसन्तं च स्तरं ततः। कपोतं द्विस्तरं कुर्याद वेदीमर्धस्तरं तथा ।। १६० ।। यथा छेदस्तथा मण्डो मकरश्च विधीयते । पट्टिकार्धस्तर कार्या छेदोऽप्यस्तरं भवेत् ।। १६१ ॥ भागं कण्ठः पट्टिका च वेदी कार्या द्विभागिकी । छेदो भागेन कर्तव्यः कण्ठश्चान्यत्रिभागिकः ।। १६२ ॥ पट्टिकां पद्मपत्री च विदधीत स्तरं स्तरम् । तुलस्य चलनं कार्य द्विभागिकमनन्तरम् ।। १६३ ।।
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द्राविडप्रासादलक्षण नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः । १६५ घण्टा कार्या समुत्सेधात्) त्रयस्त्रिंशद्विभागिकी । सर्वतोभद्रसंयुक्ता चन्द्रशालाविभूषिता ।। १६४ ॥ कुर्वीत त्रिस्तरं पमं चित्रपत्रसमन्वितम् । तस्योपरि (भवेत् ) कुम्भश्चतुर्दशविभागिकः ॥ १६५ ॥ ग्रीवा द्विभागिका कार्या कर्णश्चव तथाविधः । बीजपूरं ततः कार्य (मा?मो सासंयुक्तपर्धतः ॥ १६६ ।। पद्मचक्र त्रिशूलं वा विधातव्यं यथोचितम । प्रोत्तुङ्गग्राससंयुक्तं + । मकरमेटकैः ॥ १६७ !! सोत्तुङ्गकूटके कुर्यादेवं दिक्षु दिदिक्षु च । भूमी भूमी विधातव्या शाला हाणलतोरण (?) ॥ १६८ ।। कोणे कोणे च (+गः भरे करिक्यकोगनपि । ++कूटस्त्रिभियुक्तं चतुर्भित्र जलानरः ।। १६९ ॥ कुर्वीत सर्वतोभद्रभेवलक्षणलक्षितम् । एवं पद्मो महापड़ाः स्वस्तिको बधनानकः ।। १७० !! सर्वतोभद्र इत्यते ममारभ्य पिकान । पञ्चभूमिकपर्यन्तं कायोः सायाः ।। १७१ ॥ एतैर्विंशतिभागेश्च प्रासादाः पूर्वमान्यताः । पीठादारभ्य घण्टान्तं पश्चल लक्षणान्विताः !! १७२ ।। षड़भूमिकादि(कोक) ब्रूमो वाल द्वादशभूमिकम् ।
पञ्चभूमिकः । अथ पटभीममेकान्तं त्रिंशद्धस्तं प्रमहे ।। १७३ ।। चत्वारिंशत्कर: कामनाको नियते ! पीटं प्रकल्पयेत् नम :
९७४ ।। जया सुचने का
६ कूटप्रस्तारमस्याहुः सोलापाः ।। १७५ ।। १. 'मकरान्' इति स्यात् ।
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१६६
समराङ्गणसूत्रधारे
जङ्घा द्वितीया तु भवेत् तस्य हस्तचतुष्टयम् । द्वितीय कूटस्योत्सेधं साहस्तं प्रकल्पयेत् ॥ १७६ ॥ घण्टा तृतीया चतुरो हस्तास्ताद्विवर्जिता(?) | तृतीयकूटप्रस्तारं कुर्याद भूयोऽपि पूर्ववत् । १७७ ।। जङ्घा भवेच्चतुर्थी+(स सार्धा ) करत्रयम् । पूर्वमानेन कुर्वीत कूटप्रस्तरमूर्ध्वतः ॥ १७८ ॥ हस्तत्रयं विधातव्या जहयोच्छ्रायेण पञ्चमी । कूटमस्तारकं कुर्यात् सार्धहस्तोच्छ्रितं ततः ।। १७९ ।। प (ष्ठष्ठी) हस्तत्रयं जघा पादहीनं विधीयते । प्राग्वत् प्रस्तारकूटं तु कपोतं त्रिकरोच्छ्रितम् ।। १८० ।। तस्योपरि भवेद् घण्टा हस्तपञ्चकमुच्छ्रिता | कर्तव्यं पद्ममुपरि सुविचित्रं पङ्गुलम् || १८१ ॥ कुर्याद्भागैकविंशत्या कुम्भमा (हरणैतम् (भरणैर्युतम्) | षड्भूमिकोऽयमाख्यातः कथ्यते सप्तभूमिकः ॥ १८२ ॥ षड्भूमिकः ॥
पञ्चत्रिंशत्करः प्रोक्तो विस्तारात् स (म) भूमिकः । साधकान्नपञ्चाशत्कर्ण नित्योति करात् ( 3 ) ॥ १८३ ॥ त्रिहस्तं पीठमुत्सेधाज्जङ्घा पञ्चकरोच्छ्रिता । सार्वहस्तोच्छ्रितः कूटप्रस्तारो (ऽस्य विधीयते ॥ १८४ ॥ द्विहस्तो वेदिकाबन्धो जङ्घोच्छ्रायथतुष्करः । सार्धहस्तसमुत्सेधः कूट विस्तार इष्यते ।। १८५ ॥
सार्धहस्तोच्छ्रिता वेदी जङ्घा सार्धंकरत्रयम् । सार्धहस्तोच्छ्रितः कूट ( : ) प्रस्तारः परिकीर्तितः ।। १८६ ।।
सपादहस्ता वेदी स्याज्जङ्गा ( ख्यंशं व्यंशं) करत्रयम् । सार्धहस्तस्तु कृत्स्व प्रस्तारः स्यात् समुच्छ्रयात् ॥ १८ ॥ हस्तं स्याद वेदिकान् जङ्कां हि करद्वयम् । सपादहस्तः कूटस्य प्रस्तारो वेदिका करम् ।। १८८ ॥
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द्राविडप्रासादलक्षणं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः । १९७ पादोनद्विकरा जङ्घा कूटं पादयुतः करः । हस्तमात्रोच्छ्रिता बेदी जया सार्यकरोच्छ्रिता ।। १८९ ।। कूटप्रस्तारको हस्तं कपोतः स्यात् कस्त्रयम् । सपद्मशीर्षघण्टा तु साधु स्यगद्धस्तपञ्चकम् ।। १९० ॥ एवमेष समुद्दिष्टः प्रासादः सप्तभूमिकः ।
सप्तभूमिकः ॥ अथाष्टभूमिकं ब्रूमः प्रासादं शुभलक्षणम् ।। १९१ ॥ चत्वारिंशत्करांस्तस्य विस्तारं परिकल्पयेत् । उच्छ्रायः सप्तपश्चाशत् कराः स्यु(स्त्रिास्त्र्यं)शवर्जिताः ॥ १९२ ॥ नवहस्तान् प्रकुर्वीत सार्धान् प्रथमभूमिकाम् । द्वितीयाष्टौ (सपादो(?)स्तृतीयाष्टो करान् भवेत् ।। १९३ ।। चतुर्थी सप्तहस्ता तु षट्करा पञ्चमी भवेत् । पञ्चहस्ता ततः पष्ठी चतुहेस्ता तु सप्तमी ।। १९४ ॥ ततोऽष्टमी त्रिहस्ता स्याद् वेदीवन्धः करद्वयम् । घण्टां चतुष्करां कुयोदेवं स्यादष्टभूमिकः ।। १९५ ॥
अष्टभूमिकः ।। अयोच्यते हस्तमानात् प्रासादो नवभूमिकः । विस्तारादेकपश्चाशदुच्छ्रित्या स्याद् द्विसप्ततिः ॥ १९६ ॥ कर्णप्रमाणं (तस्योक्ता विस्तारोऽस्य चनुछितिः)। पञ्चहस्ता भवेद् घण्टा वैदिवन्धस्तदर्धतः ॥ १९७ ॥ कुर्याद्धस्तत्रयं साध नवमीमस्य भूमिकाम् । अष्टमी चतुरः सार्धान् सपादान् पञ्च सप्तमीम् ॥ १९८ ॥ षष्ठी षट् पादहीनांश्च (सपादोनाम:) पञ्चमीम् । अष्टौ चतुर्थी पादोनान् हस्ता(त्राचा) तृतीयकामे ॥ १९९ ॥
1. 'नव' इति पाठ्यं भाति । २. इत उपरि प्रथमद्वितीयभामकयोः प्रमाण मारकाय न श्यते।
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समराङ्गणसूत्रधारे विलोमेनै(कप) कथितः प्रासादो नत्रभूमिकः ।
नवभूमिकः ॥ इदानीमभिधास्वामः प्रासाई दशधूभिकम् ।। २०० ।। एकोनाशीतिरुत्सेधः समादा विस्तृतिः पुनः । पदपञ्चाशत्कराः कर्णमानाद ब्रूपोऽथ भागशः ॥ २०१॥ एकादशकरोत्सेवा कार्यो प्रथमभूमिका । साधान् दश द्वितीया स्यात् तृतीया तु करान् दश । २०२॥ सार्धानष्टी चतुर्थी तु राह(सार्धस्वीधास्तु) पञ्चमी । षष्ठी सप्तकरा प्रोक्ता सहमी षट्करा भवेत् ॥ २०३ ।। पञ्चहस्ताष्टमी ज्ञेया नवमी त चतुष्करा। त्रिहस्ता दशमी काया वेदी साशं करद्वयम् ।। २०४ ।। ++++ प्रमाणेन साधे कर चतुष्टयम् । एवमेष समुद्दिष्टो विन्यासो दशभूमिके ॥ २०५ ॥
दशभूमिकः प्रासादः ॥ धूमः (समासादभीथैः कादशभूमिकम् । पञ्चषष्टिकरः कार्यों द्विनवत्युच्छ्रित(च) सः ॥ २०६ ॥ कर्णमानेन विज्ञेयः प्रासादः शास्त्रवेदिभिः। प्रथमा भूमिका तस्य चतुर्दशकरा भवेत् ॥ २०७ ॥ द्वितीया द्वादशार्धं च तृतीयकादशोच्छ्रिता।। नव साधाश्चतुर्थी स्यात् सपादानष्ट पश्चमी ॥ २०८ ॥ सप्तहस्ता भवेत् पष्ठी पड्डस्ता सप्तमी ततः । पञ्चहस्ताष्टमी सार्धाश्चतुरो नवमी करान् ॥ २०९ ॥ चतुर्हस्ता तु दशनी सार्धमेकादशी त्रयम् । सपादद्विकरा देदी घण्टा साधेचतुष्क(सारा) ॥ २१० ॥ प्रासादः कथितः सम्यगित्येकादशभूमिकः ।
एकादशभूमिकः ।। बूमो द्वादशभौमं स सप्तपष्टिकरायतः ॥ २११ ॥ 1. समासात् प्रासादमथै ' इति स्यात् ।
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द्राविडप्रासादलक्षणं नाम द्विष्टि तमोऽध्याय : । उच्छ्रायात् पञ्चनवतिहस्तः स्यात् कर्णमानतः । आद्या चतुर्दशकरा भूमिकास्य विधीयते ॥ २१२ ॥ द्वितीयैकादशकरा(न) तृतीयार्थयुता(न् ) दश । दश हस्तांश्चतुर्थी स्यादष्टो साधास्तु पञ्चमी ।। २१३ ।। सार्धसप्तकरा षष्ठी सप्तहस्ता च सप्तमी। अष्टमी षट्करा पश्चहस्ता तु नवमी भवेत् ।। २१४ ॥ दशमी स्याचतुर्हस्ता त्रिहस्तैकादशी क्षितिः । द्वादशी द्वौ करों साधा वेदीवन्धः करद्वयम् ॥ २१५ ।। चतुर्हस्ता भवेद घण्टा सर्वालङ्कारभूषिता । स्तम्भकर्णस्य मानेन कुम्भं कुर्याद् विचक्षणः ॥ २१६ ॥ उच्छालं द्विगुणं स्तम्भात् (हीरसाधसगुणाम् ?) । इत्येते द्राविडाः सम्यक् प्रासादा द्वादशोदिताः ॥ २१७ ॥ एषां पद्ममहापद्मस्वस्तिका वर्धमानकः । सर्वतोभद्र (लता)स्तलबन्धान निवेशयेत् ॥ २१८ ॥ (आरभ्यन्तामरेकस्या च?) द्वादशभूमिका(त्) । ऊर्ध्वमानं च कर्तव्यं सामान्यं तेषु पञ्चसु ॥ २१९ ॥
द्वादशभूमिकः ।। (पीठमूल?)च्छन्दकभूमिकाभि
विनिर्मिता द्राविडनामधेयाः। प्रासादमुख्याः कथिता(यथा यथा
वेत्यं स्वल्पिविभिरुच्यतेऽसौ ?) ॥ २२० ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे द्राविडप्रासादाध्यायो नाम द्विषष्टितमः ॥
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१. 'हीरं सार्धगुणान्वितम्' इति स्यात् । २. 'इत्येता' इति पाठः स्यात् । ३. 'आरम्य भूमेरकस्या आ च' इति स्यात् । ४. 'पीठस्तल' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अथ मेदिविंशिकानागरप्रासादलक्षणं नाम
त्रिपष्टितमोऽध्यायः ।
अधुना नागरान् नः प्रासादान् नामलक्षणैः । मेरुमन्दरकैलासाः कुस्भोऽथ मृगराड् गजः॥ १ ॥ विमानच्छन्दसंज्ञश्च चतुरश्रस्तथापरः। अष्टाश्रिः षोडशाश्रिश्च वतुलः सर्वतोद?भद्र)कः ॥ २ ॥ सिंहास्यो नन्दनो नन्दिवर्धमा?)नो हंसको वृषः। (गुरुत्सागरुडः) पद्मकाख्यश्च समुद्र इति विंशतिः ॥ ३॥ नागराणामिति प्रोक्ता प्रासादानां समासतः। शत(मुद्र)श्चतुद्वारः पाडशक्षितिरूध्व(तः) ॥ ४ । विचित्रशिखराकीर्णो मेरुः प्रासाद उच्यते । मन्दरो द्वादशतलः कैलासो नवभूमिकः ॥ ५ ॥ अनेकशिखरश्चित्रश्चतुहारी महोच्छूितिः । विमानच्छन्दकस्त्वष्टभूमिकः परिकीर्तितः ॥ ६ ॥ विंशत्यण्डकसंयुक्तः सप्तभूर्नन्दिवर्धनः । पडभूमिनेन्दनः कार्यः प्रासादः षोडशाण्डकः ॥ ७ ॥ पञ्चभूः सर्वतोभद्रो भद्रशालाविभूषितः । अनेकशिखराकीणेः कतेव्यः प्रचुराण्डकः ॥ ८ ॥ वलभिच्छन्दकः कार्यों देवतानां (ए?)वृषः सदा । वृषस्तु स्वोच्छ्रितेस्तुल्यः सर्वतः स्वस्ति वर्तितः ॥९॥ मण्डलं () स तु विज्ञेय एकाण्डकविभूषितः । सिंहः सिंहाकृति यो गजो गजसमाकृतिः ॥ १० ॥ कुम्भः कुम्भाकृतिस्तद्वद् भूमिकानवकोच्छ्रितः । अञ्जलीपुटसंस्थानः पञ्चाण्डकविभूषितः ॥ ११ ॥
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मेदिविशिकानागरप्रासादलक्षणं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः । १७१ षोडशाश्रिः समन्ताच विज्ञेयः स समुद्रकः । पार्श्वयोश्चन्द्रशाला च उच्छ्रायात् स द्विभूमिकः ।। १२ ॥ तथाष्टाश्रिः पद्मनिभो भूमिकात्रयमुच्छ्रितः । षोडशाश्रिः स विज्ञेयो विचित्रशिखरः शुभः ।। १३ ॥ मृगराजस्तु विख्यातश्चन्द्रशालाविभूषितः । प्राग्ग्रीवेण विशालेन भूमिका(स यदु?सु य उचितः ।। १४ ।। अनेकचन्द्रशालस्तु गजः प्रासाद उच्यते । पर्यस्तो मृगराजस्तु गरुडो नाम नामतः ॥ १५ ॥ सप्तभूम्युच्छ्रितस्तद्वञ्चन्द्रशालात्रयान्वितः । अश्रिभि(विहरं तस्यः) पद्भिर्युक्तः समन्ततः ॥ १६ ॥ स्यादन्यो गरुडस्तद्वदच्छाये दशभूमिकः । पद्मकः षोडशाश्रिः स्याद् भूमिकाद्वितयाधिकः ॥ १७ ॥ पद्मतुल्यप्राणन(?)वावृक्षश्चतुरश्रकः । पञ्चाण्ड(मे?ए कभूमिस्तु गर्भो) हस्तचतुष्टयम् ॥ १८ ॥ वृषो भवति ना(त्रीय प्रासादः सर्वकामिकः । सप्तकापश्चकाभूमिप्रासादो(?)य इहोदिताः ।। १९ ।। (हिंस्य)ते समा ज्ञेया ये चान्ये तत्प्रमाणकाः । विचित्रशिखराः कायोश्चन्द्रशालाविभूषिताः ॥ २० ॥ सर्वे प्राग्नीवसंयुक्ताः कर्तव्यास्तोरणान्विताः । ऐष्टिका दारवा यद्वा शैलजा वाजनाकुलाः ॥ २१ ॥ स्यात् पञ्चाशत्करान्मेरुमूत्रलिङ्गं नवोदयान् (१) । गभोस्तु द्विगुणा लिङ्गाद मित्तयः स्युश्चतुष्कराः ॥ २२ ॥ अन्धारिका हस्तपदकं विधातव्या समन्ततः । अन्धारिकां च कुर्वीत बाहाभित्तिं विचक्षणः ॥ २३ ॥ अयं साधारकः प्रोक्तो मेरुः सर्वगुणान्वितः । प्रासादानां तथान्येषां गर्भो (लिङ्गदिशगुणः) ॥ २४ ।।
1. बहिरन्तश्च' इति स्यात् । २. 'माय' इति त्यात् । ३. ' हंसस्य ' इति पाठ: स्यात ..
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समराङ्गणसूत्रधारे
प्रासादगर्भमुत्सृष्टं यच्छेषं तेन कल्पयेत् । सहान्धारिकया सर्वां?) समभागेन पूर्ववत् || २५ |
मे (वाव) द्या ये विमानान्ताः ( सं +2 ) पूर्व प्रकीर्तिताः । शस्तांस्ते (मृज्य) लिङ्गानामन्येषां तु भयाव (हम् ? हा) || २१ || वाक्षमुख्या ये तूक्ता नन्दिवर्धनपश्चिमाः । (तष्टोऽष्टौ शुभा मध्यमानामन्येषां दुःखदाः स्मृताः ॥ २७ ॥
हंसादयः समुद्रान्ताः पञ्च ये समुदाहृताः । प्रशस्तास्ते समुद्दिष्टा लिङ्गानां (विधीयसाः) ।। २८ ।। मन्दरस्तु करात् कार्यश्चत्वारिंशत्तु +++। ++++++लासो विमानोषष्टिताः (१) ।। २९ ॥ हस्तद्वात्रिंशता कार्यः प्रासादो नन्दिवर्धनः । हस्तांस्तु नन्दनस्त्रिंशत् सर्वतोभद्र एव च ॥ ३० ॥ अष्टाविंशतिमष्टा(भिः श्रिः) षोडशा ( श्रि)स्त्रिभिर्विना | वर्तुलः पद्मकः श्वेतो विमानच्छन्द एव च ।। ३१ ।। एते द्वादशस्ताः + कार्या विंशतिहस्तकों (?) | गजः सिंहश्च कुम्भव वलभीछन्द (क) स्तथा ॥ ३२ ॥ चत्वार एते तुल्याः स्युर्हस्तोन्मेडसमानतः ( 2 ) | वाक्षो मृगराजच विमानच्छन्द एव च ॥ ३३ ॥ एते द्वादशहस्ताः (स्युः) प्रमाणेन पृथक पृथक् । दशहस्तो भवेद् वास गरु (ते डोs)टकरः स्मृतः ॥ ३४ ॥
एतैः प्रमाणैः प्रासादा (न्) कुर्यादित्यपरे स्थिताः | एकहस्ता द्विहस्ताच (त्रि) हस्ता ये च कीर्तिताः ॥ ३५ ॥
यक्ष नागग्रहादीनां विधेया रक्षसां च ते । विधिरेष समुद्दिष्टः प्रासादानां समासतः ॥ ३६ ॥ विशेषेण पुनर्ब्रूमो विमानं शुद्धपुष्पकम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे पञ्चत्रिंशद्विभाजिते ।। ३७ ॥
१.
' सप्त' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिकानागरप्रासादलक्षणं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः। १४॥ रथिका पञ्चभागा स्याद द्विभाग सलिलान्तरम् । (कूट!)त्रिभागं पञ्जरं कुर्यात् प्राग्नीवकविभूषितम् ॥ ३८ ॥ जलान्तरं द्वितीयं तु तदपि स्याद् द्विभागिकम् । शालैकादशभागा तु पूर्ववत् सलिलान्तरम् ॥ ३९ ॥ त्रिभागं पञ्जरं कुर्याद द्विभागं सलिलान्तरम् ।। कूटं पञ्चकरं प्रान्ते दिक्षु सर्वास्वयं विधिः ॥ ४०॥ नागरोऽयं तलच्छन्दः प्रासादे शुद्धपुष्पके । जङ्घा सपीठा क्षेत्राधेविस्तारसदृशोदया ।। ४१ ॥ सार्धेर्द्वितीया दशभिस्तृतीया नवभिः करैः । अष्टहस्ता चतुर्थी स्यात् सप्तहस्ता तु पञ्चमी ॥ ४२ ॥ षष्ठी तु भूमिका कार्या प्रमाणेनास्य पदकरा । सप्तमी पञ्चहस्ता तु (चतु)हेस्ता ततोऽष्टमी ॥ ४३ ॥ त्रिहस्तं वेदिकावन्धं विचित्रं कारयेद् बुधः । विस्ताराद् द्विगुणोच्छ्रायः स्कन्धोऽयं (वेदिकावन्ध?) ॥ ४४ ॥ स्कन्धादुर्ध्व भवेद घण्टा यदि वामलसारकम् । तद् वर्तुलं शुभं कार्य घण्टा स्कन्धाधमुच्छिता ॥ ४५ ।। घण्टाविस्तार(तः) कुम्भं चतुर्थांशन कारयेत् । प्रमाणं समुदायेन भूमिकानामुदाहातानम्) । ४६ ।। एकैक(स्या?स्य)विशेषण प्रविविच्याधुनोच्यते । प्रमाणेन विधातव्या (खकारा? भूमिरणिका ।। ४७ ॥ (यं हस्तं तु?) खुरकं द्विभागा पद्मपत्रिका । भागिका (कणकयास्थ्यशं?) कुमुदं छेद एव च ।। ४८ ।। त्र्यंशस्तद्विगुणः कण्ठः किङ्किणीपल्लवान्वितः । तस्यार्धं पट्टिका कार्या तत्समा गिरिपत्रिका ।। ४९ ॥ (भाव्यंशावरण्डीतमध्ये पच्छीतलार्थभागिकी) । पूर्वप्रोक्तेन कण्ठेन समसूत्रा च सा भवेत् ॥ ५० ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे छेदं तदुवं कुर्वीत स्तरमेकं विचक्षणः । पुनः कण्ठः प्रदातव्यो भागद्वितय पम्मितः ।। ५१ ॥ पट्टिका स्तरमेकं तु तत्समा गिरिपत्रिका | चतुगुणाथ त्रिगुणा कार्याविति लानासिका ।। ५२ ॥ स्तम्भद्वितयमध्ये तु पञ्चाल्यं कर्म कारयेत् । शोभनं तत्तु कर्तव्यं युन्त दिलाना मया ॥ ५३ ॥ पुनश्छेदः प्रदातव्यः पूर्वमानेन धोमता ।। जङ्घा सप्तस्तरा मेठा वरण्डी त्रिस्तरीयतः ।। ५४ ।। भवेदधस्ताजवायात्रिस्तर स्तरल!)म्भका। घण्टा(पम टपसंयुक्ता माला स्यात (पंधरात) ततः ।। ५५ ॥ अर्धेन तस्या लशुनं स्तरेण भरणं भवेत् । कुर्वीत द्विस्तरं कुम्भं गण्डमेकस्तां ततः । ५६ ।। उच्छालं द्विस्तरं कुर्याद् वीरगडं ततः स्तरम् । द्विस्तरः स्यात् ततः (पट्टः) पस्यान पट्टिका ।। ५७ ।। तत्समा गिरिपत्री च वरण्डी त्रिस्तरा ततः । स्तम्भस्योध्य विधातव्या मनोद्धा य? ज्य)पादिका ।। ५८ ॥ स्तरमेकं ततश्छेदस्तत: कण्टः स्तस्त्रयम् । पट्टिका स्तरमे स्यात् ततस्मा गिरिपात्रेका ।। ५९ ॥ वरण्डी त्रिस्तरां कुर्यादप्रसस्त संयुतम् । पुनश्छेदः स्तरं कार्यः कम्यस्लेन समस्ततः ।। ६० ॥ तत्समा गिरिपत्री च व्यंशयामल पावन । ततश्छेदं च कण्ठं च गिरिपत्री वरण्डिकाम् ॥ ६१ ।। पूर्वमानेन कुर्वीत च्छेदकम्मे नथा पुनः । गिरिपत्री स्तरं कुर्यात् (यशकखरंकततः?) ॥ ६२ ॥ छेदं कण्ठं पत्रिकां च (प्रास्तारमेक ततश्छेदकं कुर्यात् पुनर्बुधः?) । वरण्डी त्रिस्तरां कुर्यादर्धप्रस्तर संयुतम् । ६३ ।। १. 'घटस्तरा' इति स्यात् । २. 'यंशन खुरकं ततः' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविंशिकानागरप्रासादलक्षणं नाप त्रिषष्टितमोऽध्यायः। १७५ छेदं कण्ठं च पीठं च (प्राग्ववामलसारकंण्ठं कुर्यात् तथापरम्) । पूर्ववद् गिरिपत्री च द्विस्तरां वेदिकां ततः ॥ ६४ ।। छेदं कुर्यात् तदर्थं च ततः कण्ठं स्तरद्वयम् । गिरिपत्रीं ततः कुर्यात् स्तरमेकं सुशोभनाम् ।। ६५ ॥ चतुरश्रप्रमाणं च कुर्यादामलसारकम् । पद्मपत्रं तु तस्याधमुपरिष्टात् प्रकल्पयेत् ।। ६६ ॥ चतुःस्तरो भवेत् कुम्भः स्तरं कण्ठस्ततो भवेत् । स्तरमेकं ततः कर्णो द्विरतरं बीजपूरकम् ॥ ६७ ॥ चतुर्भिः कूटविस्तारं ततो (भागे विराजयेत्?) । द्विभागं मञ्जरी कार्या (स्त?शू)रसेनैरलङ्कृता ।। ६८ ॥ वरण्डिकाख्यो बन्धश्च भागं भाग (भागं?) भवेत् ततः। विस्ता(राद्) मूलमअयोः शुकनासा प्रकल्पयेत् ॥ ६९ ।। अथ निर्णीयते द्वयर्धपादाख्यं तत्र विस्तृतिः । उच्छायाद द्विगुणा कार्यो पञ्चभागक्रमोऽथवा ।। ७० ॥ शूरसेनोऽथवा कार्यः शुक)नासास्त्रि (वेधे, त्यसौ । कृत्वा त्रिभागमुच्छ्रायं (चमकरं चोर्ध्वभागिकम् ॥ ७१ ॥ स्तम्भयुक्तं गुणद्वारं (स्योतस्थोधिः संप्रताम् ?) । अर्धप्र(श?)स्तरसंयुक्तं कुर्यात् + पार्श्वयोद्वयोः ।। ७२ ॥ कर्तव्यं गर्भकूटं वा शुभं तत्र विपश्चिता । द्वितीयभूमिकायां तु पीठं सा(स्त?)दशस्तरम् ॥ ७३ ॥ (मेलान्ततोवती?) जङ्घा माला कार्या चतुःस्तरा । लशुनं द्विस्तरं प्रोक्तं स्तरं भरणमिष्यते ॥ ७४ ॥ कुम्भं(?) तद्वत् प्रकर्तव्यमुच्छालं द्विगुणान्वि(तः तम्)। गण्डकः स्तरमेकं स्यात् ततः पट्टः स्तरद्वयम् ।। ७५ ।। अर्धेन पट्टिका कार्या तथैव गिरिपत्रिका । (सू?स्त)रत्रयं वरण्डी स्याच्छ्रसेनैरलङ्कृता ।। ७६ ॥ 1. 'भागैर्विभाजयेत् । इति पाठः स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
स्तरमेकं भवेच्छेदस्ततः कण्ठः स्तरद्वयम् । पट्टिका भागमेकं च तत्सम गिरिपत्रिका ।। ७७ ॥ त्रिभागं शिखरं कुर्याच्छेदं मे(रु.)तु भागिकम् । एकं कण्ठं प्रकुर्वीत (पथिकां गिस्तरं?) विदुः ।। ७८ ॥ स्तरमेकं भवेत कण्ठः पट्टिकापि च तत्समा । गिरिपत्रीं च कुर्वीत भागार्धन विचक्षणः ॥ ७९ ॥ (द्वाय)पादिकया युक्ता त्रिस्तरा स्याद वरण्डिका । छेदं कण्ठं च कुर्वीत पूर्वमानेन बुद्धिमान् ॥ ८० ॥ पट्टिका गिरिपत्री च भागं भागं विधीयते। द्विस्तरं शिखरं कुर्या(त् तथा) छेदं तु भागिकम् ॥ ८१ ॥ एवं कण्ठं प्रकुर्वीत +++ ++ पट्टिकाम् । वरण्डिका (द्विभास्योहकारेण?) समन्विता ॥ ८२ ॥ छेदं कण्ठं च पत्री च गिरिवर्ती त्रिभागिका(?) । प्राग्वद् (विरिहिर?)कुर्याद् यथाशोभं प्र+++ ।। ८३ ॥ चतुर्थी भूमिका चोर्ध्व कर्तव्या लक्षणान्विता । त्रयोदशस्तरं पीठं मध्यजङ्घा च तत्समा ॥ ८४ ।। चतुःस्तरा भवेन्माला तदर्ध लशुनं ततः। कुम्भं तेन समं (कार्यमुकुर्यादु)च्छालं द्विस्तरं भवेत् ।। ८५ ॥ तस्याघे गण्डकं कुर्यात् पढें तद्विगुणं ततः । पट्टिका गिरिपत्री च विधातव्ये स्तरं स्तरम् ॥ ८६ ।। घरण्डी त्रिस्तरा कार्या छेदमेकस्तरं विदुः। कुर्वीत द्विस्तरं कण्ठं तदर्धेन तु पट्टिकाम् ।। ८७ ॥ तत्समां गिरिपत्री द्वौ स्तरौ (सिरिहिरं?) ततः । छेदः कण्ठः पट्टिका च गिरिपत्रीति भागिकाः ॥८८ ॥ धरण्डी द्विस्तरा कार्या ततश्छेदः स्तरं भवेत् । कण्ठश्च पत्रिका चेति गिरिपत्रीति भागिकाः॥ ८९ ।।
१. 'रथिको त्रिस्तरां' इति स्यात् । २. 'छेदः कण्ठश्च पत्री च गिरिपत्रीति मागिकाः' इति स्यात् ।
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मेर्वादिविशिकानागरप्रासादलक्षणं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः। (प्राग्वकाशिखिरिहिरं) कुर्याच्छेदं पूर्वक्रमेण च । द्विस्तरा तिलनासा (तु) विधातव्या विपश्चिता ।। ९० ॥ कुर्वीत भागिकं छेदं ततः कण्ठा?ण्ठं) द्विभागि(की कम)। पट्टिको भागमेकं च तत्समां गिरिपत्रिकाम् ।। ९१ ॥ घण्टा सप्तस्तरा प्रोक्ता पमं द्विस्तरमुच्यते । द्विगुणः कलशस्तस्यां छेदं पूर्ववदाचरेत् ।। ९२ ॥ ऊवं स्यात पञ्चमी भूमिः पीठमेकादशस्त(तर)म् । तद्वन्महाः) भवेज्जङ्घा माला च त्रिस्तरा ततः ॥ ९३ ।। साधस्तरं स्याल्लशुन स्तरेण भरणं भवेत् । कुम्भं गण्डक संयुक्तं कुर्यात् सार्धस्तरं बुधः ॥ ९४ ॥ उच्छालं द्विस्तरं प्रोक्तं स्तरं गण्डो विधीयते । द्विस्तरः स्यात् (तरः?) पट्टः पदृस्यार्धन पट्टिका ।। ९५ ॥ तत्समा गिरिपत्री च त्रिस्तरा तु वरण्टिका। स्तरमेकं भवेच्छेदः कण्ठस्तद्विगुणस्ततः ॥ ९६ ।। तदर्थ पट्टिका कार्या तथैव गिरिपत्रिका । स्तर(क)द्वय विरिदिरं तदध छेदमाचरेत् ।। ९७ ॥ एवं कण्ठः पट्टिका च स्याल तथा गिरिपत्रिका । द्वौ स्तरौ तिलनासा स्वाच्छेदः साधेक(रो?रा)यतः ॥ ९८ ।। कण्ठं तद्विगुणं कुर्याद् भागेनैकेन पट्टिकाम् । तत्समा गिरिपत्री स्याद् घण्टा पञ्चस्तरा भवेत् ।। ९९ ॥ कुर्वीत द्विस्तरं पचं शेषं पूर्वक्रमात ततः । ततो भूमिर्भवेत् षष्ठी पीठं तत्राभिधीयते ।। १००॥ द्विस्तरा भूमिरजा स्या(तुलः)खुरकस्ततः । छेदो भवेत् तदर्धेन ततः कण्ठः स्तरद्वयम् ॥ १०१॥ पट्टिका भागमेकं स्याद् भागं च गिरिपत्रिका । वरण्डी द्विस्तरां कुर्यात् तदर्ध छेदमादिशेत् ॥ १०२ ॥
१. 'प्राग्वत् स्विीरहिरं ' इति स्यात् । २. 'न्मेढा' इति स्यात् । ३. 'तत्तुल्यः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधार द्वादशां(श)मि(दंत) पाठं जङ्घा (माहा) तदर्धतः । माला तु द्विस्तरा प्रोक्ता लशुनं तत्समं भवेत् ॥ १०३ ॥ भरणं स्तरमेकं तु द्विभागः कलशो भवेत् ।। उच्छालकं च तत्तुल्यं गण्डो भागं विधीयते ॥ १०४ ॥ कुर्वीत द्विस्तरं पर्ट भागेनैकेन पट्टिकाम् । पूर्ववद् गिरिपत्रीं + + स्तरां तु वरण्डिकाम् ॥ १०५ ॥ स्तरमेकं भवेच्छेदः कण्ठस्तद्विगुणस्ततः । पूर्ववत् पत्रिके द्वे तु द्वयंशं खिरिहिरं भवेत् ।। १०६ ॥ छेदः कण्ठः पट्टिका च गिरिपत्रीति भागिकाः। द्विस्तरा तिलनासा स्याच्छेदः कार्यस्तु भागिकः ॥ १०७॥ द्विस्तरः स्यात् ततः कण्ठो भागिका कण्ठपट्टिका । भागिकी गिरिपत्री च विधातव्या ततः परम् ।। १०८ ।। पञ्चस्तरा(न्) विभागोना(न्) कुर्यादामलसारकम् । त्रिस्तरं स्यात् ततः ++ शेषं पूर्वक्रमाद् भवेत् ॥ १०९ ॥ पञ्चम्यां भूमिकायां तु पीठं स्याद् द्वादशस्तरम् । जङ्घा पञ्चस्तरा मेठा माला च स्याद् द्विभागिकी ।। ११० ॥ अर्धस्तरेण लशुनं स्तरेण भ(?रणं) भवेत् । कुम्भ गण्डेन सहितं स्तरं कुर्याद् विचक्षणः ॥ १११ ।। उच्छालं द्विस्तरं कुर्याद् गण्डो भागं विधीयते । पट्टः साधेस्तरः कार्यः पट्टिका तु स्तरं भवेत् ॥ ११२ ॥ तत्समा गिरिपत्री च त्रिस्तरा तु वरण्डिका। छेदो भागत्रिभोगं कण्ठस्यार्धे गुणस्ततः(१) ॥ ११३॥ पत्रिके द्वे तु भागिक्यौ + स्तरा तिलनासिका। अर्धप्रस्तारयुक्तासौ कार्याथ प्रस्तरान्विता ॥ ११४ ।। छेदं भागेन कुर्वीत कण्ठं तद्विगुणं ततः। (अर्धमस्तरं?) पूर्ववत् पत्रिके द्वे तु घण्टा स्तरचतुष्टयम् ॥ ११५ ॥ १. भागं त्रिभागोनं कण्ठश्वार्धगुणस्ततः' इति स्यात् ।
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दिग्भद्रादिप्रासादलक्षणं नाम चतुष्पष्टितमोऽध्यायः। १७९ कुर्वीत द्विस्तरं पद्मं शेषं पूर्वक्रमेण तु ।
अष्टमी भूमिका या तु सा कार्या शुभलक्षणा ।। ११६ ॥ मेर्वादयो विंशतिरेवमुक्ताः
प्रासादमुख्याः '+ + + + + + । भूम्यष्टकान्तास्तदिमान् विदध्यात् ।
स्याच्छिल्पिनां संसदि पूजनीयः ॥ ११७ ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवावरांचते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे मेवादिविंशिकानागरप्रासादभूमिजा नामाध्यायत्रिषष्टितमः ॥
अथ दिग्भद्रादिप्रासादलक्षणं नाम चतुष्षष्टितमोऽध्यायः ।
प्रासादमथ (वारोयं?) वक्ष्यामो नामलक्षणैः । लक्षण(१)स्तेषु दिग्भद्रः श्रीवत्सो वर्धमानकः ॥१॥ नन्द्यावर्तश्चतुर्थः स्यात् पञ्चमो नन्दिवर्धनः । विमानश्च तथा पद्मो महाभद्राख्य एव च ॥ २ ॥ श्रीवर्धमानकाख्यश्च महा(पद्मतोऽपि वा.)। एकादशः पञ्चशालो द्वादशः पृथिवीजयः ॥३॥ तत्र प्रागेव (दिग्भद्रः श्रावणः) प्रतिपाद्यते । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे नवभागविभाजिते ॥ ४ ॥ कोणो द्विभागविस्तारः प्रत्यङ्गो भागिको स्मृतौ । शाला भागत्रया कायो नासिकात्रयशोभिता ॥५॥ परस्परं विनिष्कासमभागेन कारयेत् । कोणप्रत्यङ्गयोरन्तः शालाप्रत्यङ्गयोस्तथा ॥६॥ षोडशांशेन कुर्वीत + + + सलिलान्तरम् । सीमा(स्थाद्स्य) दशभिर्भागैः प्रविभज्य विधीयते ॥ ७ ॥
1. 'शुभलक्ष्मयुक्ताः' इति म्यात् । २. 'वावाटम् ' इति स्यात् । ३. 'पद्मा-. मिघोऽपिवा' इति स्यात। ४. दिग्भद्रलक्षणम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे + + का गर्भपादैः षड् भित्तयः स्युद्विभागिकाः । (वर्धमानेनमथ बमो?) विस्ताराद द्विगुणं हि सा ।। ८ ॥ द्वौ भागौ वेदिकाबन्धो जङ्घा ज्ञेया चतुष्पदा । (शान्तापत्राः) कपोताली सार्धभागं समुच्छ्रिता ।। ९ ।। सार्धभागसमुच्छाया कार्या प्रथमभूमिका । द्वितीया भूमिका ज्ञेया साधभागत्रयोदया ॥ १० ॥ तृतीया च विधेया स्यात् सार्घभागद्वयोच्छ्रिता । उच्छालकं च जसा च भूमिकाध विधीयते ।। ११ ।। कूटं (!) चार्धतो देयं कर्मशोभासमन्वितम् । घण्टा भागत्रयोत्सेधा वहुभिश्वानिभिर्युता ॥ १२ ॥ कलशं स्थापयेवं भागद्वयसमुच्छिनम् । बीजपूरकसंयुक्तं वर्तुलं पल्लवावृतम् ।। १३ ।। शिखरार्थस्य कुर्वीत सपाद दयं तथा ! इमं दिग्भद्रसंझं यः मासादं कारयेत् पुमान् ॥ १४ ॥ शतक्रतुफलं सोऽपि लभते नात्र संशयः । लक्ष्म श्रीवत्ससंज्ञस्य प्रासादस्वामितीयते ।। १५ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्त पञ्चदशांशकैः । (अस्योच्छ्रायो सकास्थ्यंशस्त्रं ओणस्यादेशस्थिभि.) ॥ १६ ॥ कर्णशालान्तरे कायौँ द्वयंशौ प्रतिरथावुभौ । (तयोरुभयोः सार्धं सादं तु मानों निवेशयेत् ) ॥ १७ ॥ भागमेकं प्रविष्टौ च शाला भागत्रयात्मिका । निर्गमः स्यात् पदार्थेन गर्भस्तु नवभागिकः ॥ १८ ॥ त्रिपदा च भवेद् भित्तिरूमस्याथ कथ्यते(?) । श्रीवत्सः कीर्तितः सम्प्रत्युच्यते वधमानकः ।। १९ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे + + + भागकल्पितम् । छेदादि गिरिपत्र्यन्तं दद्यात् पूर्वक्रमेण(तु) ॥ २० ॥ १. 'शतपत्रा' इति स्यात् ।
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दिग्भद्रादिप्रासादलक्षणं नाम चतुष्षष्टितमोऽध्यायः। द्विस्तरा त्रिस्तरा चापि कर्तव्या वेदिका (न?म)ता । स्तरमेकं भवेच्छेदः कण्ठस्तद्विगुणो भवेत् ॥ २१ ॥ पट्टिकां गिरिपत्री च तस्यैवार्धेन कारयेत् । दशस्तरा ततो घण्टा यदिवामलसारकम् ।। २२ ॥ द्विस्तरं स्यात् ततः पनं द्विगुणः कलशस्ततः । तदृचे भूमिका कार्या सपीठा लक्षणान्विता ॥ २३ ॥ स्तरैः स्यात् पञ्चदशभिः पीठं जङ्घापि तावता । चतुःस्तरा भवेन्माला लशुनं तु स्तरद्वयम् ।। २४ ॥ तस्या(प्यान भरणं कुम्भं कुर्वीत तत्समम् । तस्य द्विगुणमुच्छालं गण्डमेकस्तरं भवेत् ।। २५ ।। पर्ट द्विगुणमेतस्मात् कुर्यादर्धेन पट्टिकाम् । पट्टिकायाः प्रमाणेन कर्तव्या गिरिपत्रिका ।। २६ ।। वरण्डी त्रिस्तरा कार्या शूरसेनैरलङ्कृता । एकस्तरस्ततश्छेदः कण्ठस्तु द्विगुणस्ततः ।। २७ ।। पट्टिका गिरिपत्री च विधातव्ये स्तरं स्तरम् । उभौ (स्तरौ खिरिहिरं भवेच्छेदः स्तरं ततः ॥ २८ ॥ तथैव कण्ठस्तद्वच्च पट्टिकागिरिपत्रिके। वरण्डिका द्विस्तरा स्याच्छेषं पूर्ववदाचरेत् ।। २९ ॥ उभौ स्तरौ खिरिहिरं छेदं कुर्वीत भागिकम् । कण्ठश्च पत्रिका चैव गिरिपत्री च पूर्ववत् ।। ३० ॥ द्विस्तरा वेदिका कार्या (द्यवयादिकया') युता ।। छेदमेकं स्तरं कुर्यात् कण्ठं (तदाद्विगुणं ततः ।। ३१ ।। पत्रिका गिरिपत्री च तस्यैवार्धन कारयेत । स्तराष्टकन घण्टा स्याद् यदिवामलसारकम् ॥ ३२ ॥ भवेत्यम(?) + + + + कलशो द्विगुणस्ततः । स्तरमेकं भवेद् ग्रीवा कर्ण कुर्वीत तत्समम ।। ३३ ॥ १. 'घर्धपादिकया' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे द्विगुणं बीजपूरं तु पूर्वत्राप्येवमाचरेत् । (त्कृष्टा समदशांशकै गेलिभिर्भवेत् ॥ ३४ ॥ द्विभागिकः प्रतिरथः शाला स्यात् पञ्चभागिका । शालाप्रत्यङ्गयोरन्तभोगानोदकान्तरम् ॥ ३५ ॥ परस्परं विनिष्कासः पादहीनं पदं भवेत् । गर्भः स्याद् दशभिर्भागैभित्तिः साधेपदयात् ॥ ३६ ॥ चतुर्भिर्वेदिकावन्धो जवा स्यादष्टभिः पदैः । साधैः पञ्चभिराधा भूः कपोतालीसमन्विता || ३७ ॥ (द्वितीया भूमिका चास्थ कर्तव्या पञ्चभिः पदैः । साधैर्भवेत् तृतीयापि चतुर्भिभूमिका पदैः ।। ३८ ॥ चतुर्थी भूमिका भागेश्चतुर्भिः कीर्तिता पदैः । घण्टा च त्रिपदा कायो कूटभक्त्यादि पूर्ववत् ।। ३९ ॥ शुकनासादि कुम्भादि पूर्ववत् समुदाहृतम् । उक्तोऽयं वधमानाख्यः प्रासादः शुभलक्षणः ॥ ४० ॥ नन्द्यावर्तमथ ब्रूमः क्षेत्रे सप्तदशांशके । कोणाश्चतुष्पदान् कुर्यात् पञ्जरं सार्धभागिकम् ॥ ४१ ॥ पह(भिर्भागैर्भवेच्छाला गर्भस्तु दशभागिकः । साधेत्रिभागिका भित्तिरूध्चेमान(द्विभांगुणम् ) ॥ ४२ ।। वेदी चतुष्पदोत्सेधा जङ्घा भागाष्टकोच्छ्रिता । षट्पदा भूमिका +++ + पञ्चपदायता ।। ४३ ॥ स्यात् सम्पदे चतुर्भागा तृतीयान्या पदोच्छ्रिता । (साद्भिवांसेवघटा?) स्यात् पूर्ववत् कलशादिकाः ॥ ४४ ॥ नन्द्यावर्तोऽयमाख्यातः प्रासादः सर्वकामदः । अथातः सम्प्रवक्ष्यामः प्रासादं नन्दिवर्धनम् ॥ ४५ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे पदाष्टादशकाङ्किते । कोणस्त्रिपदविस्तारः प्रत्यङ्गं स्यात् पदद्वयम् ।। ४६ ॥ .
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दिग्भद्रादिप्रासादलक्षणं नाम चतुष्वष्टितमाऽध्यायः ।
शाला चतुष्पदा मोक्ता चित्रकर्मोपशोभिता । पादोनभागमानेन निर्गमः स्यात् परस्परम् ॥ ४७ ॥ steersatiध्ये शालाप्रत्ययोस्तथा । भागेन विस्तृतं कार्य सर्वत्र सलिलान्तरम् ॥ ४८ ॥ गर्भः स्याद् दशभिर्भागैभित्तिर्भाग चतुष्टयात् । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमो द्विगुणं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ४९ ॥ वेदtaraisशकाः पञ्च जङ्घा स्यादष्टभागिका । प्रथमा भूमिका कार्या कपोतालीसमन्विता ॥ ५० ॥ सपादैः पञ्चभिर्भागैर्द्वितीया तद्वदेव हि । तृतीया तु भवत्यस्य भूमिका पञ्चभागिका ॥ ५१ ॥ चतुर्थी भूमिका ज्ञेया सार्वभागचतुष्टया | घण्टा तस्योर्ध्वतः कार्या पदत्रयसमुच्छ्रिता ॥ ५२ ॥ शुकाघ्रा ( शूरसेनश्च स्तम्भिकाकूटभक्तयः | कलशस्योदयस्तस्य विधेयाश्वास्य पूर्ववत् ॥ ५३ ॥ अमुं यः कारयेदन्यः प्रासादं नन्दिवर्धनम् । स नन्दिगणसामान्यो जायते नात्र संशयः ॥ ५४ ॥ अतः परमथ ब्रूमो विमानं शुभलक्षणम् । चतुरश्रीकुते क्षेत्रे विंशत्या भाजिते पदैः || ५५ ॥ को (णाः) पञ्चपदाः कार्या मध्ये च सलिलान्तरम् । कर्णिका सार्वभागेन भागार्थमुदकान्तरम् || ५६ || (सालोपयदः) विस्तीर्णा सार्वभागेन निर्गता । कोणस्य चाभागेन कर्णिकानिर्गमः स्मृतः ॥ ५७ ॥ गर्भश्चास्य विधातव्यो द्वादशांश कविस्तृतः । भित्तिचतुष्पदा कार्या दिक्षु सर्वास्ववस्थिता ॥ ५८ ॥ ऊर्ध्वमानमथैतस्य ब्रूमस्तद् द्विगुणं भवेत् । वेदीबन्धोंऽशकाः पञ्च जङ्घा नवपदोच्छ्रिता ।। ५९ ।।
१. 'शाला षट्पद' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
प्रथमा भूमिका कार्या भागैः षड्भिः समुच्छ्रिता | शतपत्रां कपोतालीं मध्ये चास्याः प्रकल्पयेत् ॥ ६० ॥ द्वितीया भूमिका चास्य विधेया पञ्चभिः पदैः । अर्थेऽस्याः स्तम्भकोच्छालं कूटं चार्धव्यवस्थितम् ॥ ६१ ॥ ( परस्परपार्धेन हमा?) स्तिस्रोऽन्य भूमिकाः । स्तम्भिका कूटभर णशूरसेनाः सघण्टकाः ॥ ६२ ॥ कलशस्योदयश्चात्र प्राग्वत् कार्या विपश्चिता । य इमं कारयेद् भक्त्या विमानाख्यं नृपुङ्गवः ॥ ६३ ॥
इह भोगान् स लभते तथा ( सत्कायदविधेः ) | अथ पद्मप्रियमीतिजननः पद्म उच्यते ॥ ६४ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्ते षोडशभिः पदैः । कोणाचतुष्पदाः कार्याः सलिलान्तरभूषिताः || ६५ ॥ द्विपदः पञ्जरो ज्ञेयो गर्भे कोणाश्चतुष्पदाः । (भागः स्यात् षोडशांशेन तदन्ते सलिलान्तरम् ॥ ६६ ॥ गर्भः स्यान्नवभिर्भागैर्भित्तिः सार्धपदत्रयम् । ऊर्ध्वमानमथ ब्रूमस्त (था?) स्य द्विगुणं भवेत् ॥ ६७ ॥ द्वितीया भूमिका ज्ञेया भागैः पञ्चभिरुच्छ्रिता | अन्योन्यं तु पदार्धेन हीनं स्याद् भूमिकाद्वयम् ॥ ६८ ॥ स्तम्भिका कूटभरणशुका (घा) शूरसेनकाः । घण्टा (कारसः)विस्तारा भवन्त्येतस्य पूर्ववत् ॥ ६९ ॥ पद्ममासादमेनं यः कारयेद् भक्तिसंयुतः । स श्रीपतिरिव श्रीशो भवत्यवनिमण्डनः ॥ ७० ॥ महाभद्रमथ भूमः प्रासादमतिसुन्दरम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विंशत्या सैकयाङ्किते ॥ ७१ ॥ कोणाश्चतुष्पदाः सार्धद्वयंशाः प्रत्यङ्गकाः स्मृताः । शाला पश्चपदा कार्या दिक्षु सर्वास्ववस्थिता ॥ ७२ ॥
१. 'परस्परं पदार्धेन हीना' इति स्यात् । २. 'भागस्य' इति स्यात् । ३. 'कलश'
इति स्यात् ।
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दिग्भद्रादिप्रासादलक्षणं नाम चतुष्पष्टितमोऽध्यायः । १८५ पादोनभागविस्तारं कर्तव्यं सलिलान्तरम् । गर्भस्त्रयोदशपदो भित्तयश्च चतुष्पदाः ।। ७३ ॥ ऊर्ध्वमानमर्थतस्य मस्तद् द्विगुणं भवेत् । वेदी चतुष्पदोत्सेधा जङ्घा स्यादष्टभागिका ॥ ७४ ।। सप्तभागसमुत्सेधा विधेया चादिभूमिका । मध्ये सान्तरपत्रास्याः कपोताली पदत्रयम् ।। ७५ ॥ द्वितीय भूमिका चास्य सार्धेः षड्भिः पदैः स्मृता । भागभागविहीनास्तु तिस्रोऽन्या भूमिकास्ततः ॥ ७६ ॥ घण्टा भागत्रयोत्सेधा पद्मपत्रिकया सह । स्तम्भिकाकूटभरणशुकाघ्राशूरसेनकाः ॥ ७७ ।। कलशः (कुम्भं नघाः१) प्राग्वत् तस्य भवन्त्यमी । महाभद्रामिमं योऽत्र कारयेद् भक्तिमान् नरः ।। ७८ ।। स स्वर्गे सुरनारीभिः सेव्यते मदनाज्ञया । अथ श्रीवर्धमानस्य लक्ष्म साम्प्रतमुच्यते ।। ७९ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्विंशतिभाजिते ।। कोणाः षड्भागिकाः कार्याः शालाः स्युनेवभागिकाः ।। ८० । साधे पदद्वयं कार्यः शालानामत्र निर्गमः । कुर्याजलान्तरं तत्र मध्यतः कोणशालयोः ॥ ८१॥ विस्तृतं सार्धभागेन प्रविष्टमपि भागतः। (कोणे मध्यं?) विधातव्यं भागेनैवोदकान्तरम् ।। ८२ ॥ नवांश(क्लप्तशालायाः प्रत्यङ्गो द्वावुदाहृतौ । भागद्वितयविस्तारौ भागेनैकेन निर्गतौ ।। ८३ ॥ चतुर्दशपदो गर्भो भित्तिः पञ्चपदा स्मृता । ऊर्ध्वमानमथ मस्तदस्य द्विगुणं भवेत् ।। ८४ ॥ वेदिका षट्पदोत्सेधा जङ्घकादशभिः पदैः। प्रथमा भूमिका चास्य कार्या सप्तांशकोच्छ्रिता ॥ ८५ ॥ पादोनैः सप्तभिर्भागर्द्वितीया भूमिकेष्यते । तृतीया भूमिका षडभिः सपादैर्जायते पदैः ॥ ८६ ।। 1. 'कोणमध्ये' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे (पादेन पदका?)भागेन चतुर्थी भूमिका स्मृता । भागं भागं विधातव्यः प्रवेशः प्रतिभूमिकम् ॥ ८७ ॥ सपादैः पञ्चभिर्भागैः कार्यो घण्टासमुच्छ्यः। भागत्रयसमुत्सेधस्तदूधै कलशो भवेत् ॥ ८८ ॥ ++++++++++++पदाः स्मृताः । भागद्वितयविस्ताराः कर्तव्या बालपञ्जराः ।। शाला षड्भागविस्तीर्णा भागत्रि(तयमुच्छ्रिता)। (को)णप्रत्यङ्गयोमध्ये शालाप्रत्यङ्गयोस्तथा । कक्षान्तरे विधातव्यं भागिकं सलिलान्तरम् । गर्भः स्याद् दशभिर्भागैमित्तिः कार्यास्य षट्पदा । पट्पदा स्यात् तृतीयात्र + + भागोच्छ्रिताः पराः । कर्ण ++++ स्तिस्रो घण्टा चाष्टपदोच्छ्रिता ॥ कूटैरलङ्कृता कार्या शुकाघ्रादि च पूर्ववत् । स+++पि चेतेषां प्रासादान कारयेत् ।। घण्टां तु संहतां श्लक्षणां बन्धनैरुपशोभिताम | यादृशी कम ++ ने कूटेष्वेषां विधीयते ॥ भद्रेषु तादृशी कार्या कृत्स्नप्रासादसिद्धये । य इमं कारयेद् राजा प्रासादं पृथिवीजयम् ॥ भुनक्ति निखिलां पृथ्वी स सप्ताम्भोधिमालिनीम् । इतीरिता द्वादश (स्यगते?)
प्रासादमुख्याः शुभलक्ष्मयुक्ताः। वावाटसंज्ञास्तदमून् विदित्वा
(लभेत् पूज्यस्थयते नृ?)पेभ्यः ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे
(वटोक?)प्रासादो नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥
1. 'पादोनषट्क' इति स्यात् । २. इत ऊर्ध्वं मातृकायां पत्रमेकं (२३३तम) सुखम् । ३, 'लभेत पूजा स्थपतिर्ने 'इति स्यात् ।
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः । १८७
अथ भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ।
:G:
भूमिजानां विमानानां ब्रूमो लक्ष्म क्रमागतम् । चतुरश्रीकृतानां च वृत्तानां (पूर्वशः १) ॥ १ ॥
केषाञ्चिन्निर्गमस्तत्र जायते भागसंख्यया । केषश्चित् पुनरेष स्याद् वृत्तमध्यमधिष्ठितः ॥ २ ॥
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागविभाजिते । चतुर्भूमियुतस्याथ लक्ष्म ( त्संशस्य च्छन्दस्य) कथ्यते ॥ ३ ॥
चत्वारचतुरश्राः स्युर्निषधो मलयाचलः । माल्यवान् नवमाली च निषधस्तेषु कथ्यते ॥ ४ ॥ (कोणा शंभोतरो द्वयंशं भादशंभो भागिक : १) | विस्तारायामतः प्रोक्तो भद्रं पञ्चांशविस्तृतम् ॥ ५ ॥ कार्या (:) पादोनभागेन भद्रस्यैतस्य निर्गमाः । कार्या पल(विवि)का तस्य पादभागेन विस्तृता ॥ ६ ॥
भागेन कर्णिका कार्या विस्तृत्या निर्गमेण च । प्रतिभद्रं च भागार्धनिर्गतं तत्र कल्पयेत् ॥ ७ ॥
पादोनभागद्वितयं प्रतिभद्रस्य विस्तृतिः । षड्भिर्भागैर्भवेद् गर्भो भित्तिरस्य द्विभागिका ॥ ८ ॥
तलच्छन्दस्य लक्ष्मोक्तमूर्ध्वमानमथोच्यते । विस्तृतेर्द्विगुणं तच्च चतुर्भागाधिकं भवेत् ।। ९ ।। datest भवेदस्य सार्वभागद्वयोच्छ्रितः । तत्तु भागद्वयं सार्धं विभजेदपञ्चमैः ॥ १० ॥ भागद्वयेन कुम्भः स्यात् कलशो भागिकः स्मृतः । भागार्धेनान्तरं पत्रं कपोताली तु भागिकी ॥ ११ ॥
१. ' अनुपूर्वशः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
(a) क्तोऽयं वेदिकाबन्धो भागैरित्यर्धपञ्चमः | अर्धपञ्चमभागैः स्याज्जङ्घोच्छालकसंयुता ॥ १२ ॥ त्रिभि ++++++ भूत्सेधः सवरण्डिकः । द्वितीयास्य भवेद् भूमिरर्धपञ्चमभागिका || १३ | कुम्भः सोच्छालका + + + + + यापि तावता । तृतीया स्याद्) भूर्विधेया (स्यासादा) चतुरङ्गिका ॥ १४ ॥ चतुर्थी चतुरो (भागाच्चः समु + + + + + ?)। (कु)म्भः सोच्छालकः कूटस्योच्छ्रायोऽपिच पूर्ववत् ॥ १५ ॥ वेदी स्यात् सांशका सार्धपञ्चांशा स्कन्धविस्तृतिः । (+ + + + + खेत्सार्थः) चतुर्गुणितविस्तरात् ॥ १६ ॥ तले या कथिता शाला भागपञ्चकविस्तृता । स्कन्धस्थानं ++++ भागद्वितयविस्तृता (:) || १७ | रेखावशेन कर्तव्याः प्रवेशाथ क्र (मातु?माद भुवाम् | मूलतः स्कन्धपर्यन्तं घण्टायाः पु + + +याः ॥ १८ ॥ भवेत् प्रासादविस्तारः (पञ्चमः) सुन्दरः । (वेदको रं?) यत् स्याच्छालायास्तत्प्रमाणतः ॥ १९ ॥ ++ ये विस्तरः प्रोक्तस्तं + पभिर्विभाजयेत् । भागेनैकेन कण्ठस्य प्रवेशः परितो भवेत् ॥ २० ॥ कण्ठवृत्तं चतुर्भागविस्तृतं परिकल्पयेत् । घण्टोत्सेधं त्रिभिर्भागैर्विभजेत् तत्र भागिकात्) || २१ ॥ घण्टोत्सेधादतः कार्यं पद्म) शीप विपश्चिता । उत्सेधात् कलशो द्वयंशः सार्वभागेन विस्तृतः ।। २२ ।। शिखरात् त्र्यंशहीना स्यात् सर्वत्र (ताशिका :) | इति त्र्यंश्चतुर्भूमिः प्रासादो निषधो मतः ॥ २३ ॥ सर्वासामेव कर्तव्यो देवतानां विभू(पयेत् । तथे) |
निपधप्रासादः || मलयादेरिदानीं तु लक्षणं सम्प्रचस्महे ॥ २४ ॥ १. 'शुकनासिका' इति स्यात् ।
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ।
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे द्वादशांशविभाजिते । कर्णा द्विभागिकाः कार्याः समं सलिलवर्त्मभिः || २५ || शाला स्यात् पञ्चभिर्भागैः सार्धंशस्तु प्रतीरथः । सशालाकर्णयोर्मध्ये कर्तव्यः सोदकान्तरः ॥ २६ ॥ प्रतीरथस्य +++ श्रार्थभागं विनिर्गमः । भवेत् (पथविकान्यः स विभागोऽन्य +१) पूर्ववत् || २७ ॥ ते च (१) द्वादशभागा ये दशभिस्तान् विभाजयेत् । गर्भभित्तिं तथोत्सेधं जङ्घायाः प्रथमक्षितेः ॥ २८ ॥ वेदीबन्धस्य चोत्सेधं पूर्वमानेन कारयेत् । मध्यं पल्लविकान्तं तु शालयेोर्दशभिर्भजेत् ॥ २९ ॥ क्षितेरारभ्य पूर्वस्याः स्कन्धं यावत् समुच्छ्रि(तातिः) । कार्या द्वादशभिर्भागैरनन्तरनिरूपितैः ॥ ३० ॥ सार्धयैकोनविंशत्या भाजयेद् भूय एव ताम् । द्वितीयभूमिकोत्सेधस्तैर्भवत्यथ भागिका (१) ॥ ३१ ॥ तिस्रोऽन्याः पदपादेन हीनाः कार्या यथाक्रमम् ! भागेन वेदिकोत्सेधः शाला कार्या च नागरः (१) ॥ ३२ ॥ ऊर्ध्वमा(?) क्षितेः कार्या मालायाः शूरसेनकाः । कोणप्रतिरथा ये तु पञ्चभागसमुच्छ्रिताः ॥ ३३ ॥ स्तम्भच्छालकमध्येन तेषु कूटोच्छू ( ता ति ) स्तथा । अर्धेन प्रविधातव्या भूवन्यास्वप्ययं विधिः || ३४ ॥ स्कन्धविस्ताररेखा भूप्रवे (श? शो) घण्टया सह । कलशः शुकनासस्य चोच्छ्रितः पूर्वव भवेत् ॥ ३५ ॥ मलयाद्रिरयं प्रोक्तः प्रासादः शुभलक्षणः | य एनं कारयेत् तस्य तुष्यन्ति सकलाः सुराः ॥ ३६ ॥ वर्षकोटिसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ।
मलयाद्विप्रासादः ||
अथ माल्यवतो लक्ष्म यथावदभिधीयते ॥ ३७ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे
भजेदर्धयुतैः पञ्चदशभिश्चतुर + + 1
कर्णा द्विभागिकाः कार्याः शाला पञ्चांशविस्तृता ॥ ३८ ॥ कर्णाभ्यर्णेऽशयुगलं पादो (नाः नं) स्युः प्रतीरथाः । शालायाः पार्श्वयोः कार्यों प (ण्डा (ज) रौ सार्धभागिकौ || ३९ || पृथकूपञ्जरशालाया ++++ भागिका । शालायाः पल्लवी या (चस्या) निर्गमश्चार्धभागि (काकः) ॥ ४० ॥ सार्धपञ्चदशोक्ता ये भागास्ता +++++ गर्भोऽथ भित्तिविस्तारस्तथा खुरवरण्डिका ॥ ४१ ॥ जङ्घाधः क्षितिराद्या च रेखोच्छ्रायश्च पूर्ववत् । + + + + + + भाज्यं पादहीनाष्टयुक्तया ॥ ४२ ॥ पञ्चभागसमुत्सेधा द्वितीया भूमिका भवेत् । पदपादविही (नाः स्युस्तिस्रोऽन्याभू) मयः (क्रमात् ) ।। ४३ ।। सार्धंशो वेदिकोच्छ्रायः कर्तव्यो वास्तुवेदिभिः । स्कन्धस्य विस्तृती रेखा घण्टा च कलश (स्तथा ) ॥ ४४ ॥ (' + + यांस्तरासमाच? ) स्तम्भकूटादिकल्पना | शुकनासोच्छ्रति (वेति इति एतानि) पूर्ववत् ॥ ४५ ॥ इत्येवं माल्य (वान् नाम) प्रासादः परिकीर्तितः । य एनं कारयेत् तस्य जायन्ते सर्वसिद्धयः || ४६ ॥ शिवलोके निवासोऽस्य भवेत् कल्पायुरप्ययम् ।
माल्यवान् ॥
नवमालिकसंज्ञस्य लक्षणं कथ्यतेऽधुना ॥ ४७ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्तेऽष्टादशभिः पदैः । कर्णा द्विभागिकाः कार्याः समं सलिलवर्त्मभिः ॥ ४८ ॥ शाला स्यात् पञ्चभिर्भागैः पार्श्वयोर्वालपञ्जरौ | सपादभागको तौ च कार्यों (स) सलिलान्तरौ ॥ ४९ ॥ कर्णाभ्यर्णे प्रतिरथ ( पादौ नालद्वयोन्मितौ 3 ) । सोदकान्त कार्यों पञ्जरौ सार्धभागिकौ ॥ ५० ॥
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१. 'शालायां शूरसेनाश्व' इति स्यात् । २. 'पादोनांशद्वयोन्मितौ ' इति स्वात् ।
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः । १९१ (द्वौ?) बालपञ्जरकस्यैतौ मध्ये प्रतिरथस्य च । प्रतीरथः पञ्जरो वा (बा)लपञ्जरकस्तथा ॥ ५१ ।। शालापल्लविकां यावदेतानि तु पृथक् पृथक् । भागाधेनिगमानि स्युभोगा येऽष्टादशोदिताः ॥ ५२ ।। विभाजयेत् तान् दशभिर्विभागैर्वास्तुतत्त्ववित् । गर्भो भित्तिः समुच्छ्रायो वेदिकाजश्योरपि ॥ ५३ ।। आधभूम्युच्छ्रितिस्तद्वदुच्छ्रायः शिखरस्य च । पासादेऽस्मिन्निदं सर्वं पूर्व(वत्) कथितं बुधैः ।। ५४ ॥ तत् पञ्चत्रिंशता भागैः पादोनैः शिखरं भवेत् । द्वितीया भूमिका कार्या ततः पञ्चपदोच्छ्रिता ।। ५५ ॥ पदपादविहीनास्तु शेषाः स्युः (सप्तः) भूमयः । पादोनभागद्वितयं वेदिकायाः समुच्छितिः ।। ५६ ॥ स्कन्धस्य विस्तृती रेखा घण्टाथ कलशस्तथा । शालायां शूरसेनाश्च स्तम्भकूटादिकल्पना ॥ ५७ ।। शुकनासोच्छूितिभूमिप्रवेशश्चेह पूर्ववत् । य इमं कारयेद् भक्त्या प्रासादं नवमालिकम् ।। ५८ ॥ तुष्यन्ति देवतास्तस्य भवन्ति च समृद्धयः ।
नवमालिकः ।। इहानीमभिधीयन्ते प्रासादा वृक्षजातयः ॥ ५९ ॥ वल्लभाः सर्वदेवानां भूमिजाः पुरभूषणम् । आश्रयः श्रेयसामेको यशसामपि राशयः ॥ ६॥ भुक्तिमुक्तिप्रदातारः (समागते कृता?) नृणाम् । तत्रायः कुमुदो नाम कमलः कमलोद्भवः ॥ ६१ ।। (किरणः शतशृङ्गश्च निरवधस्तथापरः । सर्वाङ्गसुन्दरश्चेति प्रासादा (तीक्षाजातयः ।। ६२ ।। नविस्तरान्नसंक्षेपालक्ष्मषामथ कीर्त्यते । तत्रायः कुमुदो नाम सवानन्दकुदुच्यते ।। ६३ ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विस्तारायामतः समे। विभक्ते दशभिर्भागैर्भवेद् गर्भनिषदपदः ॥ ६४ ।। तत्र शेषेण कुर्वीत ++++ चतुष्टयम् ! + ततः कर्णसूत्रेण तत्र वृत्तं समालिखेत् ॥ ६५ ।। दिग्विदित्वष्ट कर्णाः स्युः सलिलान्त(रभूषिताः) । समन्त(?)भूमिपर्यन्तं दशभिः स्यादयं पदैः ॥ ६६ ॥ वेदीबन्धो विधातव्यः सार्धांशस्य पदद्वयम् । + + + + + + सार्घचतुर्भिविभजेत् पदैः ॥ ६७ ॥ कुम्भकं द्वि + + + + + + + + + + + + | (भागार्धनान्तरं पत्रं कपोताली च भागिका ॥ ६८ ।। वेदीबन्योऽयमित्युक्तो जङ्घोत्सेध + + + + | (स्यादधे) पञ्चमैमोगैः सोच्छालस्तलकुम्भकः ।। ६९ ॥ आधभूमौ भवेत् कूटं भागत्रितयलक्षितम् । प्रासादे पञ्चदशभिर्विभजेत समुच्छ्रयम् ।। ७० ।। द्वितीया भूमिका तत्र कार्या पञ्चांशकोच्छ्रिता । अर्धेनोच्छालकस्तम्भैः कूटोच्छायस्तथोव॑तः ॥ ७१ ॥ पादोनैः पञ्चभिभूमि तृतीयां परिकल्पयेत् । चतुर्थी रचयेद् भागैर्भुमिकामर्धपञ्चमैः ।। ७२ ॥ द्वितीयभूमिकावत् स्यात् कूटस्तम्भादिकल्पना । वे(दिकादी)भागोच्छ्रिता कार्या षट्पदा स्कन्धविस्तृतिः ॥ ७३ ।। षड्गुणेन च सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् । प्रासादपञ्चमांशेन कार्यों घण्टासमुच्छ्रितिः ।। ७४ ॥ घण्टोत्सेधं ततस्तस्य त्रिभि गर्विभाजयेत् । कण्ठग्रीवाण्डकान्यस्य भागे(न नानकेन) कारयेत् ॥ ७५ ॥ षड्भागभक्तघण्टायाः समन्ताद् भागविच्युतेः । भागेश्चतुर्भिः कर्तव्ये घण्टे कण्ठस्य विस्तरम् ॥ ७६ ॥
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पश्चषष्टितमोऽध्यायः । घण्टोत्सेधार्धतः कुर्याद् घण्टाः पद्मशीर्षकम् । घण्टोत्सेधसमा कुम्भे बीजपूर(वितो समुच्छ्रितिः ॥ ७७ ॥ (चतुरश्रांजितोच्छ्ायो विस्तारः कलशः स्मृताः) । य इमं कारयेत् प्रीत्या प्रासादं कुमुदाभिधम् ॥ ७८ ॥ स मोदते जगद्भर्तुः शिवस्य भवने शुभे ।
कुमुदप्रासादः ।। अथातः सम्प्रवक्ष्यामः प्रासादं कमलाभिधम् ॥ ७९ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागविभाजिते । ततः कणोधेसूत्रेण वृत्तं तत्र समालिखेत् ।। ८० ॥ विस्तीर्ण पञ्चभिर्भागैः कुर्याद् (भद्र)चतुष्टयम् । ('सुरेन्द्रसमतायस)कुवेराशास्वनुक्रमात् ।। ८१ ॥ भवेत् पल्लविका(या)स्तु विस्तारो भागपादिकः। भागेन (का) कायर्या (भद्राणां निर्गमा वृत्तवाह्यतः॥ ८२ ।। शालायाः प्रतिभद्रं स्यात् कर्णिकार्धेन निर्ग(तारतम्) । पादोनभागत्रितयात् कार्या (वित्तस्य विस्तृतिः ॥ ८३ ।। द्विभागविस्तरायामौ (रंशुकं द्वयमतोध्यगौ ) । परिवर्तनया कार्यों द्वौ कोणौ सोदकान्तरौ ॥ ८४ ॥ पूर्वप्रासादवद् गर्भो विधेयो भित्तयोऽपिच । वेदीबन्धादिकुम्भान्तं सर्वमेतस्य पूर्ववत् ॥ ८५ ॥ द्वितीयभूमिपर्यन्तमूर्ध्व प्रथमभूमितः । शूरसेनं विधातव्यं शालासु (विश्लि)ष्टमुत्तमम् ॥ ८६ ॥ कूटस्तम्भादिकन्यासाः कोणप्रतिस्थादिषु । (शाला स्याम्रागरास्तले:) पञ्चांशा द्वयंशकोपरि ॥ ८७॥ शिखरस्य त्रिभागोना शुकाघ्रायाः समुच्छ्रितिः । य एनं कमलं नाम प्रासादं कारयेन्नृपः ।। ८८ ॥ 1. 'सुरेन्द्रयमतोयेश' इति स्यात् । २. रथकद्वयमभ्यगो' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे त्रैलोक्ये कमलाधीशविज(ये?यी) स भवेन्नृपः ।
कमलप्रासाद: ॥
अथातः कथ्यते सम्यक् प्रासादः कमलोद्भवः ।। ८९ ।। सदा लक्ष्मीपतिर्यत्र देवो विश्राम्यति स्वयम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दशभि(रंशिते) ॥ ९० ॥ + + + + + + स्तारो भद्रं पश्चपदं भवेत् । (विद्वि)भागायामविस्ता(रौराः) कार्याः प्रतिरथास्तथा ॥ ९१ ॥
++++++++++++++1
कार्याार्यः) पल्लविकायाश्च नि(गेमो) वृत्तमध्यतः ॥ ९२ ॥ शालाविभक्तिश्चैतस्य कर्त + + + + + + । '+ + + + + + + + न्तरेषु स्याज्जलान्तरम् ॥ ९३ ।। दूधगुलं (व्यङ्गुलं) वापि तद् विधेयं विपश्चिता । भागा + + + + + + + + + + + + ल्पयेत् ॥ ९४ ॥ प्रासादस्यास्य +++ भाजयेद् दशभिः पदैः । गर्भश्च पूर्ववत् कार्य पूर्ववद भित्तयोऽपिच ॥ ९५ ॥ भाग्वत् खुरवरण्डी स्याज्जङ्घाकूटाघभूमिका(:)। शिरवरस्योच्छ्रितिः प्राग्वत् तां साधैंका(नुन)विंशतिम् ॥ ९६ ॥ भागान् कुर्यात् ततः कार्या भूद्धितीयांशपञ्चकम् । कायोस्तिस्रो भुवः शेषाः पादपादपरिच्युताः॥ ९७॥ भागं वेदी भूप्रवेशः कार्यों रेखावशादितः । पूर्ववच्चा(थे?थ) विस्तारः स्याद् घण्टाकलशादि वा ॥ ९८ ।। कूटस्तम्भादिकं प्राग्वच्छुकनासोच्छ्योऽपिच । य इमं कारयेत् कान्तं प्रासाद कमलोद्भवम् ।। ९९ ॥ स समस्तजगन्नाथः प्रतिजन्म प्रजायते ।
कमलोद्भवप्रासादः ॥ लक्षणं किरणस्याथ ब्रूमः सम्यक् क्रमागतम् ॥१०॥ 1. "शालाकोणप्रतिरथा' इति पूरणीयं भाति ।
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टिनमोऽध्यायः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्ते ++++++ । ++ पञ्चदशांशा ये तान् भजेद दशभिः पुनः ॥ १०१॥ गर्भोऽत्र पूर्ववत् कार्यः पूर्ववद भित्तयोऽपिच । माग्वत् खुरवरण्डी स्याज्जङ्घाकूटोच्छ्रितिस्तथा ॥ १०२ ॥ पूर्ववच्छिखरोत्सेधस्तं भजेत् पादहीनया । चतुरुत्तरविंशत्या भागानां तत्र भूमिका ॥ १०३ ॥ द्वितीया पञ्चभिर्भागैश्चतस्रस्त्वपराः पुनः । पादोनपदहीनाः स्युः क्रमशश्चास्य भूमिकाः ॥ १०४॥ वेदिका चास्य कर्तव्या सपादांशसमुच्छ्रिता । शुकनासोच्छ्रितिः शालास्तम्भकूटविभक्तयः ।। १०५ ॥ रेखा स्तम्भस्य विस्तारो घण्टाकुम्भादि पूर्ववत् ।। कूटा द्राविड(काः) कार्याः प्रतिभूम्यथ (भौमज?) ॥ १०६ ।। हरो हिरण्यगर्भश्च हरिर्दिनकरस्तथा । एषामेव विधेयोऽसौ नान्येषां तु कदाचन ॥ १०७ ॥ अमुं यः कारयेद् राजा मासादं किरणाभिधम् । स दुःसहप्रताप: स्यात् सहस्रकरवद् भुवि ।। १०८ ॥
किरणप्रासादः॥ कथ्यते शतशृनोऽथ प्रासादः (शुभलक्षणः) । वल्लभः सवेदेवानां (शि)वस्य (तु) विशेषतः ॥ १०९।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विंशत्यैकोन(यान्तिभे?) । कर्णा(द्विध)सूत्रेण ततो वृत्तमत्र प्रकल्पयेत् ॥ ११ ॥ कर्णा द्विभागिकाः कार्याः शाला स्यात् पञ्चभागिका । शालापल्लविका चास्य (निर्गता) वृत्तमध्यतः ।। १११॥ द्वौ द्वौ प्रतिरथौ कार्यों द्विभागायामविस्तृतौ । परं वर्तनतो वृत्तमध्य(ता.तः) कोणशालयोः॥११२ ॥ 1. 'याधिते' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे शालाकोणप्रतिरथान्तरेषु स्याजलान्तरम् । एकोनविंशतिं भागांस्तान् भजेद् दशभिः पुनः ॥ ११३ ॥ गर्भः प्राग्वत् तथा भित्तिः प्राग्वत् खुरवरण्डिका । जङ्घोत्सेधो(ऽथ) भूत्सेधः पूर्ववच्छिखरोच्छितिः ॥ ११४ ॥ ('अथाभिस्ते?)मेरारभ्य पट्टयन्तं शिखरोच्छ्रि(तिः तिम्) । भागानामष्टविंशत्या(?) विभजेत् पादहीनया ।। ११५ ॥ द्वितीयभूमिका तस्य कार्या पञ्चपदोच्छ्रिता । रेखास्तु पश्च कर्तव्याः पदपादोच्छ्रिता भुवः ॥ ११६ ॥ सार्धभागोच्छूिता वेदी प्रविधेयास्य तद्विदा । (शालास्यस्तम्भक्तयदिविभक्तयदिविभक्तिः)शुकनासिका!।११७॥ (रेखाचं चकंभस्य?) प्राग्वत स्यात् सर्वमप्यदः। शतशृङ्गमिमं कुर्याद् यः प्रासादं मनोरमम् ॥ ११८ ।। तस्यैकविंशतिकुला + + + + + + + + । कर्ता कारयिता चेति द्वावेतौ जगतां प्रभोः ॥ ११९ ॥ त्रिपुरद्वेषिणः स्यातां नियतं गणनायकौ ।
शतशृङ्गप्रासादः॥ ++++++ यामो निरवद्यस्य लक्षणम् ।। १२० ॥ स स्याज्ज्येष्ठोऽथ मध्यश्च कनीयनिाति च त्रिधा । चत्वारिंशत्करो ज्येष्ठो (पि मध्यः) त्रिंशत्करो भवेत् ।। १२१ ।। विंशत्या च करैरेष कनीयान् समुदाहृतः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विंशत्या भाजिते पदैः ॥ १२२ ।। ततः कर्णद्विसूत्रेण(१) वृसमत्र प्रकल्पयेत् । कार्यो तैः पञ्चभिः शालापल्लवी वृत्त(म)ध्यतः ।। १२३ ।। शालाविभक्तिः प्राग्वत् स्याच्छालयोरेतयोः पुनः । कोणे कोणे च षद्कों + भागायामविस्तृताः॥ १२४ ॥
1. 'अथादिभू' इति स्यात् । २. शालास्य स्तम्भकूटादिभक्तयः' इति स्यात् । ३. 'प्रासादस्याथ वक्यामो' इति स्यात् । ४. 'कर्णार्धसूत्रेण ' इति पाख्यं भाति ।
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः । परिवर्तनया कार्या वृत्तान्तः सोदकान्तराः । (ता तागा त्रिभागः)विभजेद् दशभिस्ततः ॥ १२५ ।। विमुच्य भूमिकाभागाञ्छेपं गर्भगृहादि यत् । तत् पूर्ववद् विधातव्यं तद्वच्च शिखरोच्छ्रितिः ।। १२६ ॥ तामेकत्रिंशता भागैः सार्धेश्व विभजेत पुनः । द्वितीयभूमिका कार्या पदैः पञ्चभिरुच्छ्रिता ॥ १२७ ॥ पदपादेन हीनाः स्युः शेषा (पदभास)भूमिकाः । वेदी (पैश्चयंः) कार्या पादोनमिह शिल्पिना ॥ १२८ ।। स्तम्भकूटादि शालानां विन्यासः शूरसेनकाः । शुकनासोच्छ्रितिघण्टा कलशादि च पूर्ववत् ।। १२९ ।। य इमं निरवद्याख्यं प्रासादं कारयेत् सुधीः । स प्राप्नोति परं स्थानं ब्रह्मादीनां सुदुलेभम् ।। १३० ॥
प्रासादः ॥ सर्वाङ्गसुन्दरं ब्रूमः प्रासादमथ सुन्दरम् । भुक्तिमुक्तिप्रदातारं (वरवालय?) मण्डनम् ॥ १३१ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्विंशतिभाजिते । कर्णा द्विभागविस्ताराः शाला स्यात् पञ्चभागिका ॥ १३२ ।। वृत्तान्तः पल्लवी कार्या शेषाः शालासु पूर्ववत् । त्रयस्त्रयः प्रतिरथा मध्ये स्युः कणेशालयोः ॥ १३३ ।। परिवृत्त्यया) वृत्तमध्ये द्विभागायामविस्तृताः । शालाकर्णप्रतिरथप्रान्तेषु स्याज्जलान्तरेरम्) ।। १३४ ।। त्रिचतुर्विंशतिर्भागा विभाज्याः शिल्पिभिः पुनः । विधेयं गर्भभित्यादि प्राग्वत् स्याच वरण्डिका ॥ १३५ ॥ जङ्घादिभूमिकोच्छ्रायः प्राग्व(द्वद्वा) शिखरोच्छ्रितिः । (त) पञ्चत्रिंशता भागैविभजेच्छूिखरोच्छ्रयम् ।। १३६ ॥ द्वितीया भूमिका चास्य कार्या पञ्चपदोच्छ्तिा । पदपादविहीनाः स्युः शेषाः सप्तास्य भूमिकाः ॥ १३७ ॥ 1. 'षट् चास्य' इति स्यात् । २. 'पदत्रयम्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे द्विभागो वेदिकोच्छायो भूमिकानां प्रवेशनम् । रेखावशेन कर्तव्यं शेषमेतस्य यत् पुनः ॥ १३८ ॥ तत् पूर्ववद् विधातव्यं स्तम्भकूटादि तद्विदा। सर्वागसुन्दरं योऽत्र प्रासादं कारयेदमुम् ॥ १३९ ॥ स स्वर्गसुन्दरीभोगानाप्नोति विपुलान् दिवि ।
सर्वाङ्गसुन्दरःप्रासादः ॥ अथाष्टशालान् वक्ष्यामो + ++ भूमिजातिषु ॥ १४ ॥ तेष्वाद्यः स्वस्तिकोऽन्यश्च वज्रस्वस्तिकसंज्ञितः । तृतीयो हर्म्यतलकश्चतुर्थ उदयाचलः ॥ १४१ ॥ गन्धमादनसंज्ञश्च पञ्चमः परिकीर्तितः। अथाभिधीयते तेषु +++ स्वलक्षणः ॥ १४२ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्र विस्तारायामतः समे । कर्णाधे सूत्रपातेन वृत्तमस्य समं लिखेत् ॥ १४३ ।। वर्तुलं भाजयेत् क्षेत्रं षड्गुणैरष्टभिः पदैः । अष्टौ शाला विधातव्या विस्तारेण चतुष्पदाः ॥ १४४ ॥ पल्लवी वृत्तसूत्रेण + + + + + + + + । + ++ कर्णिका ज्ञेया मानमूर्ध्वमथोच्यते ॥ १४५ ॥ वेदिवन्धो विधातव्यो भागद्वितयमुच्छ्रितः। तं भजेत् पञ्चभिभोगैः+++ तत्र कुम्भकः ॥ १४६ ॥ पादयुक्तेन भागेन कर्तव्यस्तु मसूरकः । अर्धाशे(नोत्तानान्त)रं पत्रं कपोताली ततो भवेत् ॥ १४७ ।। सपादेनास्य भागेन ज(वाचा) भागचतुष्टयात् । . तलकुम्भोच्छालकाभ्यां संयुक्ता शुभलक्षणा ॥ १४८ ॥ भागद्वितयमाद्या भूः कर्तव्या सवरण्डिका | व्यासं दशपदं कृत्वा तैर्वादशभिरुच्छितिः ॥ १४९ ॥
१. 'स्वस्तिकः शुभलक्षणः' इति स्यात् । २. 'बाह्मतो भद्रकर्णिके ' इत्ययं पूरगीबांधा प्रकरणान्तरादुपलभ्यते ।
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भूमिजप्रासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ।
स्कन्धश्च षट्पदस्तत्र विधातव्यो विजानता । षड्गुणेनैव सूत्रेण वेणुकोशं समालिखेत् ।। १५० ।। द्वादशांशो य उत्सेधो भागानां सम + + + 1 तं कृत्वा पञ्चभिर्भागै (स्ते द्विस्तैर्द्वितीया भवेन्मही ॥ १५१ ॥ पदपादोच्छ्रिताः कार्यास्ततस्तिस्रोऽपरा भुवः । (गर्भा गर्भ) विधातव्यं भूमिकानां प्रवेशनम् ॥ १५२ ॥ वेदिका च ततः कार्या सार्धभागसमुच्छ्रिता । पादोनद्विपदा घण्टा विभजेत् तां त्रिभिः पदैः ॥ १५३ ॥ पदं स्यात् कण्ठकोत्सेधो ग्रीवा भागसमुच्छ्रिता । अण्डकं भागिकं तस्यां कर्तव्यं सुमनोरमम् ॥ १५४ ॥ कर्परं सार्धभागेन कुर्यात् सामलसारकम् । (सीस्तन चाभागायाः ? ) सार्धभागचतुष्टयात् ॥ १५५ ॥ घण्टाया विस्तरः कार्यस्तं भजेत् षद्भिरंशकैः । चतुर्भिः कन्दविस्तारात् ++++++++ ॥ १५६ ॥ सार्वभागः समुत्सेधः कलशस्य तदर्धतः । शिखरस्य त्रिभागेन शुकनासा विधीयते ॥ १५७ ॥ विस्तारा ( द ) गर्भमानेन हीना वाष्टशतो भवेत् । (विस्ताराथ सपादेनः) शूरसेनस्तदूर्ध्वतः ॥ १५८ ॥ द्वितीयभूमिकातुल्य आयभूमेः स ऊर्ध्वतः । शालाविस्तारतुल्यास्तु शूरसेनास्त्रयो मताः ॥ १५९ ॥ शाला नागरिकाचाष्टौ ग्राहग्रासविराजिताः । य इमं कारयेद् धन्यः प्रासादं स्वस्तिकं शुभम् ।। १६० ।। तस्यानुजन्म ( शातानां ?) स्वस्तिश्रीभाजनं भवेत् ।
स्वस्तिकप्रासादः ॥
अतः परं प्रवक्ष्यामो वज्रस्वस्तिकसंज्ञितम् ॥ १६१ ॥ प्रासादं लक्षणोपेतं शक्रादिसुरवल्लभम् । पूर्वोक्तलक्षणोपेते स्वस्तिके (दवमध्यदे ) || १६२ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे
भद्रे शृङ्ग प्रदातव्यं तीक्ष्णाग्रं सुमनोरमम् । पुरस्तान्मण्डपं कुर्यात् सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ १६३ ॥ इत्येष कथितः सम्यग् वज्रस्वस्तिकसंज्ञितः । य इमं कारयेद् धन्यः प्रासादं सर्वकामदम् ॥ १६४ ॥ स स्याद् भोग्यः सुरस्त्रीणामैन्द्रं च पदमश्नुते ।
वज्रस्वस्तिकमासादः ॥
अथ हर्म्यतलं ब्रूमः प्रासादं मण्डनं भुवः ॥ १६५ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विस्तारायामतः समे । कर्णार्धसूत्रपातेन तस्मिन् वृत्तं समालिखेत् ॥ १६६ ॥ तद् वृत्तं विभजेत् क्षेत्रं चतुःषष्ट्या पदैस्ततः । कर्तव्या विस्तरेणास्मिन्नष्टौ शालाचतुष्पदाः || १६७ ॥ पल्लवी वृत्तसूत्रेण बाह्यतो भद्रकर्णिके । कर्णौ द्वौ द्वौ विधातव्यौ शालाद्वितयमध्यतः ॥ १६८ ॥ (विद्वि भागायामविस्तारौ सलिलान्तरभूषितौ । परिवर्तनतोऽन्योन्यं कोणान् कुर्वीत षोडश ॥ १६९ ॥ अष्टास्वपिच दिक्ष्वेवं (माना कर्मभिरन्विताः) । गर्भो भित्तिश्च वेदी च जङ्घाप्रथमभूमिकाः ॥ १७० ॥
कर्तव्याः पूर्वमानेन स्वस्तिको क्तेन तद्विदा । द्वादशांशो य उत्सेधो विंशत्या तत्र भाजितः ॥ १७१ ॥ सोऽ (त्रा)ष्टाविंशतिविधः कर्तव्य ( सू / स्त)त्र भूमिका | द्वितीया पञ्चभिर्भागैः पदपादोज्झिताः पृथक् ।। १७२ ॥ अन्याः स्युर्भूमयः पञ्च वेदी ( व्यंद्भिः) द्विभागिकाः (परा!) | चतस्रो मञ्जरीः कुर्यान्नागरैः कर्मभिर्युताः ॥ १७३ ॥ चतस्रः पुनरन्याश्च युक्ता द्रविडकर्मभिः । घण्टा स्कन्धस्य विस्तारो वेदिकाकलशोच्छ्रयौ ॥ १७४ ॥ शूरसेनः शुकाघ्रा च स्तम्भिकाकूट (वि) भक्तयः । रेखा(अ) पूर्ववत् कार्याः प्रासादस्यास्य जानता ।। १७५ ॥
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भूमिजपासादलक्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः । २.६ प्रासादस्यास्य को यस्तथा कारयिता च यः । (प्राप्नुतामिव लोकं?) तौ नित्यानन्दसुखोदयम् ॥ १७६ ॥
हर्म्यतलकप्रासादः ।। अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रासादमुदयाचलम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भुजाकर्णसमे शुभे ॥ १७७ ॥ ततः कर्णाधमूत्रेण तस्मिन् वृत्तं समालिखेत् । वर्तुलं कारयेत् क्षेत्रमशीतिपदभाजितम् ।। १७८ ॥ शालाथाष्टौ विधातव्याः पूर्वदिक्षु चतुष्पदाः । पल्लवी वृत्तसूत्रेण बाह्यतो भद्रकर्णिके ॥ १७९ ॥ कुर्याच्छालाद्वयस्यान्तः कोणानां च त्रयं त्रयम् । द्विभागायामविस्तारसलिलान्तरभूषिताः ॥ १८० ॥ एवं कोणा विधातव्या विंशतिश्चतुरुत्तरा । परिवर्तनमन्योन्यमेषां कुर्याद् यथाक्रपम् ।। १८१ ।। एत(त्सास)मप्रमाणेन गर्भ भित्तिं च वेदिकाम् । जवां च भूमिशिखरं पूर्ववत् परिकल्पयेत् ।। १८२ ।। अष्टौ च मञ्जरीः कुर्याद् युक्ता नागरकर्मणा । रुद्रेश्वरसमायुक्ता नीरधारोपशोभिताः ॥ १८३ ॥ (घण्टाकूटाश्च रेखा च स्तम्भिकाः शूरसेनकः । शुका(घा)स्कन्धविस्तारकलशेन समन्विती) ॥ १८४॥ स्वस्तिकोक्तविधानेन विदध्यादुदयाचलम् । द्वादशांशो य उत्सेधो विंशत्या तत्र भाजितः ॥ १८५ ॥ स्यात् पञ्चत्रिंशता भाज्यो+++तत्र भूमिका । पञ्चभागोच्छ्रिता कायो ततोऽन्याः सप्त भूमयः ॥१८६॥ (पदपादोच्छिता भागद्वयो यो तु वेदिका । ++++++++ सर्वलक्षणसंयुता) ॥ १८७ ॥ 1. 'प्रामुवः शिवलोकं' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
पासादं यस्त्विमं सम्यग भत्तिमान कारयेन्नरः ।। शाश्वतं पदमामोति स दुष्प्रापं संगपि ॥ १८८ ॥
उदयाचलप्रासादः। इदानी प्रक्रमायातः कथ्यते सन्धमादनः । स्वलक्षणप्रमाणात्यक्षितिस्मिन्तुदयाचले (?) ।। १८९ ।। कुर्वीत मञ्जरीरष्टौ युक्ता द्राविडकर्मभिः । कूटाश्च मणिकाः कायो नानाकभिरन्विताः ।। १९० ॥ स्थानेषु शूरसेनान- पुगरखात्रयं भवेत् । शुकनासां च घण्टां च स्कन्धं शिवरमेव च ।। १११ ॥ कूटा+ स्तम्भिका कुम पूर्ववत् परिकल्पयेत् । य इमं कारयेद् धन्यः मासाद मण्डनं भुकः ॥ १९२॥ विद्याधराधिपः श्रीमान् स भवेनात्र संशयः । भुङ्क्ते च विविधान् भोगान सुरखीभिश्च सेव्यते ।। १९३ ।।
गन्धमादनप्रासादः ॥ उदयस्य विभेदेन रखा याः पञ्चविंशतिः । लतिनागरभीमानां ताः कथ्यन्ते यथागमम् ।। १९४ ।। लतिनां (स्याद्वारंगतो.) नागरागां तु कूटकः । भूमिजानां विधातव्या (माथायाः?) पुरतो भुवः ॥ १९५ ॥ शिखरं व्यासकर्णाभ्यां तु स्वादधमोत्तमम् । भाजनीयचतुयुक्तविशस्थादनन्तरम् (१) ॥ १९६ ।। ++++++भागरेखास्तावत्य हरिताः । संख्या सा(?)शोभना भद्रा सुरूपा सुमनोरमा ॥ १९७ ।। शुभा चैव तथा शान्ता कावेरी च सरस्वती । लोका च करवीरा च कुमुदा पद्मिनी तथा ।। १९८ ॥ कनका विकटा देवरम्या च रमणी तथा। वसुन्धरा तथा इंसी विशाखा नन्दिनीति च ॥ १९९ ॥
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मण्डपलक्षणं नाम षट्पष्टितमोऽध्यायः । जया च विजया चैव सुमुखा च प्रियानता । इत्येताः कीर्तिता रेखाः ।। मा पञ्चविंशतिः ॥ २०० ।।
रेखा एताः (?) एताः शुभफलाः सर्वाः कर्तुः कारयितुस्तथा ।
चतुरश्रचतुष्कमेवमुक्तं वृत्ताः सप्त च भूमिजा इमे(१) ।। इति महाराजाधिराजपरभेश्वरश्री मोजदे विभिने समानणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे
भूमिजप्रासादाध्यायो नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ।
अथ मण्डपलक्षणं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः ।
इदानीं मण्डपानष्टौ ब्रूमः प्रासादस्थितान् । प्रासादं कल्पयेत् पूर्व भागशुद्धं सुलक्षणम् ॥ १ ॥ संवृतो वा भवेदेष व्यतिरिक्तोऽथवा कचित् । (चतुरश्री विभागेश्च घटतः य समंवृतः) ॥ २॥ (पशुभागर्विघटते.) व्यतिरिक्तः स कीर्तितः। गर्भो गर्भसयः शस्तः (सोन्यघटोषमारहेत!) ।। ३ ।। एवं निवेशयेदने मण्डपान्येव समतः (१) । भजेच्छतपदाख्येन ज्येष्ठमध्यकनीयसः ।। ४ ।। मण्डपास्तेषु भद्रः स्यानन्दनाख्यस्तथापरः । महेन्द्रो वर्धमानश्च स्वस्तिकः सर्वभद्रकः ॥ ५ ॥ महापद्मोऽष्टमश्चैषां गृहराजः प्रकीर्तितः । एते यथार्थनामानो लक्ष्मतेपां प्रचक्षाहे ॥ ६ ॥ प्रासादद्विगुणायामः पादोनद्विगुणायतः (१) । कार्यो यस्तथा व्यर्थमनतः १) नुरमन्दिगत् ।। ७ ॥ प्रासादोन्ायतुल्यं वा कार्या भण्ड पविस्तृतिः । शुकनासान्विताः कार्यास्ते चालिन्दसमन्विताः ॥ ८ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे अलिन्दः सर्वतोभागनिर्गता लावविस्तृताः (१) । कदाचित् सार्धमागेन निष्क्रान्ता भागविस्तृता ॥ ९ ॥ ++ भिर्भाजयेद् भागैर्भद्रं प्राज्ञः समन्ततः । शृङ्गाणि स्युर्द्विभागानि सहितान्युदकान्तरैः ॥ १० ॥ भागं प्रमा + + + रादामूलतलमस्तकम् । शृङ्गेषु रथिका कार्यों भागपादेन निर्गता ॥ ११ ॥ भागेनैकेन निष्क्रान्तं विस्तृतं (चतुश्वतान् १) । मध्यभद्रं विधातव्यमाशासु चतसृष्वपि ।। १२ ।। पीठं प्रासादपीठस्य नात्र कुर्वीत मण्डपे । (तलपट्टे भवेच्छोकनाशोयाक्षितिरङ्गिका?) ॥ ३ ॥ तलपट्टमधस्तस्या मण्डपस्य निवेशयेत् । कर्तव्यमेवमग्रेऽग्रे निम्नं निम्नतरं ततः ॥ १४ ॥ अथवा तत्समं दद्यात स्थपतिः शास्त्रवित्तमः । चतुभागायतद्वारं पड्(द्वारुकादारुक)समन्वितम् ॥ १५ ॥ अग्रभद्रं विधातव्यं चतुस्तम्भविभूषितम् । पृष्ठतश्च भवेदेवं संमृतिश्चैत्रमण्डपे ॥ १६ ॥ संसृतेः शुकनासा स्याद् भूमिता:(१) पृष्ठभद्रकम् । शेष तथैव कतेव्यं विधानं मण्डपस्य तु ।। १७ ॥ स भित्तिभिः परिक्षिप्तः कर्तव्यः पार्श्वयोर्द्वयोः । भागेन कल्पयेद् भित्तिं गवाक्षरुपशोभिताम् ॥ १८ ॥ वातायनाश्च कर्तव्याः सह चन्द्रावलोकनैः । प्रासादद्वारवद् द्वारविस्तारो मण्डपे भवेत् ॥ १९ ॥ सपादः सत्रिभागो वा सार्धः (सौम्याथवाः) भवेत् । ऊर्ध्वद्वारवि(धेधिः) कार्यों मूलद्वारानतिकमात् ।। २० ॥ जालव्यालकपोतालीमत्तवारणकैर्युताः। भ्रमनिर्मापित स्तम्भैः कर्तव्याश्च गवाक्षकाः ॥ २१॥
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मण्डपलक्षणं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः । वातायनं तदर्धेन पादोनं (द्वाटचा)वलोकनम् । क्षणमध्ये प्रकुर्वीत चतुष्की विधिवच्छुभाम् ॥ २२ ॥ क्षोभायां बाह्यतो रेखा क्षात्या द्रमं च विवर्जयेत्() । दारुकमवि(धैः धि)मध्ये यथा स्यात् कथ्यते तथा ॥ २३ ॥ समैः क्षणैः समैः स्तम्भैः समैश्वालिन्दकैर्युतः। समैः कर्णैश्च + + + समद्रव्यविधानवान् ॥ २४ ॥ षड्दारुकैस्तिरश्चीनैः कार्याः कैश्चिन्मुखायतैः । तुला समतला यद्वा प्रोत्क्षिप्रा मध्यदेशगा ॥ २५ ॥ तुलाषड्दारुकाधी(नांस्तीना तोदधीनानि तानि वा । केचिन्मन्थानसंस्थाना(लीगतियुताप) ॥ २६ ॥ अथवा मध्यतः कार्या + स्तम्भालिन्दवेष्टिताः । महाधरयुता कायों चतु(क?क्यु)भयतः समा ॥ २७ ॥ गजतालुलुमाकर्म द्रव्यैः स्यादुत्तरोत्तरैः। एते नानाविधाः कायो द्रव्येरविकलैस्तथा ॥ २८ ॥ या काचिद रोचते प्राज्ञस्तामेकां कारयेत् क्रियाम् । (ल)क्षणान्तराण्यलङ्कुर्यादिल्लीतोरणकैस्तथा ।। २९ ॥ वज्रवन्धसमायुक्ता घण्टिकापल्लवैर्युताः । हारपद्मदलाकीर्णाः शालभञ्जीविराजिताः ॥ ३० ॥ स्तम्भकाश्च विधातव्याः पश्चाभरणभूषिताः । कण्ठकैरतिचित्रैश्च रथकैस्तोरणैः सह ॥ ३१ ॥ विधानैर्विविधाकारैरूपकोपशोभितैः । एवंविधा विधातव्या सीमातुल्या(तु?स्तु)लोदयाः ॥ ३२ ॥ प्राग्नीवकेष्वलिन्देषु मध्ये भागे च पार्श्वयोः । न तलानि विधीयन्ते यथाकामं क्रिया भवेत् ।। ३३ ॥ सीमाद्वारे यथा वायोः प्रवेशं नैव पीडयेत् । (तथादरिका?) कार्या पदस्योपर्यवस्थिता ॥ ३४ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे वेदिव्यालकपोताली मत्तवारणतुलोदयः(१) । षड्वारुकं + + भद्रे तत्र कुर्वीत बुद्धिमान् ॥ ३५ ॥ बाह्यतो मण्डपेऽप्येवं मानतः कर्मतोऽपि च । कपोतालीवरण्डीभिस्तथाचान्तरपत्रकः ॥ ३६॥ कर्णप्रासादकैश्चित्रः कर्म स्याद् भद्रमण्डपे । उच्छ्रायस्य (विवेचीयादशस्त्वन्यतमो?) बुधैः ॥ ३७ ॥ शि(ख)रस्य त्रिभागेन पादोनैकेन वा भवेत् । उच्छ्रायो (मण्डपस्यामः शुकनाससमुच्छ्रिते!) ॥ ३८ ॥ हयं वा तत्र कुर्वीत चारुकर्णोपशोभितम् ।
भद्रमण्डपलक्षणम् ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे नन्दनं प्रविभाजयेत् ॥ ३९ ॥ भद्रं षड्भागमायामाश्चतुर्भागं तथा (पव?)। भागभागं निष्क्रान्ते(?) स्तम्भैः प्राग्ग्रीवकल्पितैः ।। ४० ॥ पञ्चभागायता ज्ञेया कर्णे भद्रान्तरस्थिता । भित्तिः स्याद् भागविस्तारा सलिलान्तरसंयुता ॥४१॥ एवं चतुर्दिशं कार्यो नन्दनो मण्डपः सदा ।
नन्दनः ।।
महेन्द्रस्य तलच्छन्दः कर्णी लागलसंयुतौ ।। ४२ ।। चतुर्भागायतो दिक्षु दारुकर्मविभूषितः ।। द्विभागिकानि शृङ्गाणि क्षोभयेदुदुकान्तरैः ॥ ४३ ॥ चतुर्भागायतं भाग + + मेकं तु निस्सृतम् । एकतश्च मुखं दद्याद् दारुकम(परिच्युतम् ) ॥ ४४ ॥
महेन्द्रः ॥ नन्दनश्चेद बहिभदैर्जलमार्गेर्विवर्जितः । भागद्वितयविस्तारो भागमके विनिर्गती(?) ॥ ४५ ॥ प्राग्नीवपार्श्वयोर्दद्यादुच्छायोर्ध्वरदस्थितौ(?) । (वोतयेनौ वा.) कुर्वीत वर्धमानस्तथा भवेत् ॥ ४६ ॥
___ वर्धमानः ॥
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मण्डपलक्षणं नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः । पक्षद्वये नन्दनस्य भद्रे भित्त्याभिवेष्टयेत् । गवाक्षकैरलकुर्यान्न कुर्यादुदकान्तरम् ।। ४७ ॥ स्वस्तिकोऽयं समाख्यातः सर्वलक्षणलक्षितः ।
स्वस्तिकः ॥ अथाभिधीयते सम्यक् सर्वतोभद्रलक्षणम् ।। ४८ ॥ कर्णे कर्णे (लागले वेत्सार्धः) भागद्वयायतम् । कार्या परस्परं तेषु दारुक(म)विकल्पना ॥ ४९ ।। भागेनैकेन निर्यात भागषट्केन चायतम् । षड्दारुकद्वयं भद्रं कारयेद् (बाह्यवस्थितम्) ।। ५० ॥
सर्वतोभद्रः ।। चतुरंश्रीकृते क्षेत्रे + प्राग्भागैर्विभाजयेत् । त्यक्त्वा(तेस मध्ये?) कर्णेष्वादध्याल्लाङ्गलानि च ।। ५१ ॥ चतुर्भागान्तरस्थानि षड्दारुकयुतानि च । कर्तव्यं भागनिष्क्रान्तं दिक्षु भद्रचतुष्टयम् ।। ५२ ॥ चतुष्पदस्तदायामात् सर्वतोलिन्दको बहिः । प्रतिभद्राणि कुर्वीत चतुर्भागायतानि च ।। ५३ ॥ निर्गतानि(रभागेनः) दिक्षु स्तम्भान्वितानि च । इत्येतैर्लक्षणयुक्तो महापद्मः प्रकीर्तितः ॥ ५४॥
महापद्मः॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुष्कोणविभूषिते । अलिन्दावेष्टितं कुर्यात् प्राग्नीवं मुखसंश्रितम् ॥ ५५ ॥ गवाक्षकाच कर्तव्यास्तथा चन्द्रावलोकनाः। वातायनास्तथोद्योताः समन्ताद रूपशोभिताः ॥ ५६ ॥ गृहराजक्रिया ह्येवं सर्वशोमासमन्विता । एवं लक्षणसंयुक्त (मतगोमपि) मन्दिरम् ॥ ५७ ॥
गृहराजः ॥ १. 'मातृणामपि' इति स्यात् ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे
(द्वरा:) शुकनासस्य शुकनासस्य मूलतः । फनीयसं मण्डपानां कर्तुरिच्छावशाद् भवेत् ।। ५८ ॥ पार्श्वयोरुभयोस्तुल्यं विदध्यात् तिर्यगायतम् । (व्यापिचक्षु रघनद्यापि वा + + + + + + ॥ ५९ ॥ प्रासादमसमं(१) स्थानं विदध्यान्मण्डपं बहिः । (यथापूर्व:) द्वारविस्तारविस्तीर्णास्तेषु कार्या गवाक्षकाः ॥ ६॥ समा सपादपादोना सार्धा चोच्छ्रितिरायता । अष्टाङ्गुल(बमोपेता!) दशांशे द्वारविस्तृते ॥ ६१ ॥ विस्तारो मण्डपस्तम्भद्वारोच्छ्रायसमोच्छ्रितिः । गर्भव्यासो मण्डपस्य साष्टांशः सांश एव च ।। ६२ ॥ सार्थो वा मण्डपस्यायं गर्भ + + + + + + 1 + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + + कार्यति शक्त्या । या देवसंयति स सद्मनि देवताना
मास्तेऽप्सरोगणतः शरदां शतानि ॥ ६३ - ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशाने
मण्डपाध्यायो नाम पदक्षष्टितमः ॥
अथ सप्तविंशतिमण्डपलक्षणं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ।
इदानीमाभिधीयन्ते मण्डपाः सप्तविंशतिः। प्रासादाद द्विगुणं कुर्यात् कनिष्ठं तत्र मण्डपम् ॥ १॥ पादोनद्विगुणं मध्यं प्रासादे तु कनीयसि । तस्मिन्नेव कनीयांसं विदध्यात् सार्धमानतः ॥ २॥ पादोनद्विद्वणः सार्धः सपादश्चेति मध्यमे । सा सपादस्तुल्यश्चेत्युत्तमाद्याः स्युरुचमे ॥ ३॥..
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सतविंशतिमण्डपलक्ष णं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः। २०९ सपादद्विगुणाः सार्धद्विगुणाः सान्तरोद्भवाः । क्षुद्रप्रासादकेषु स्युर्मण्डपा बहवोऽपरे ॥ ४ ॥ क्षेत्रालाभे पुनरिमान् सर्वान् सर्वेषु योजयेत् । दैादैर्येण गृहणीयाद् विस्तृती+++तथा ॥ ५॥ प्रमाणं मण्डपे(कार्येः) वलभ्यां गरुडेऽपिच । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशधा प्रविभाजिते ॥ ६ ।। भागैश्चतुर्भिर्भद्रं स्याद् द्वौ भागौ प्रतिभद्रकम् । अग्रतः पृष्ठतो वापि निगमो भागिको भवेत् ।। ७ ॥ भद्राणां निर्गमो भाग सार्धभागमथापि वा। प्रासादस्य त्रिभागेन चतुभांगेन वा भवेत् ॥ ८॥ अर्धनाथ षडंशेन पञ्चांशेनाथ निर्गतिः । प्रासादानां समा कार्या पादोना वा प्रमाणतः ॥ ९ ॥ कार्या त्रिभागहीना वा मण्डपास्तु समैः क्षणैः । स्वविस्तारसमं भद्रे मुखे चैषा प्रकीर्तिता ॥ १० ॥ कर्णा द्विभागिका ज्ञेयास्तेषां कोणचतुष्टये । वामदक्षिणभागाभ्भां सह भद्रं षडंशकम् ॥ ११ ॥ प्रतिभद्रे नचैतस्मिन् विदध्यादग्रपृष्ठयोः । चतुःषष्टिधरोऽयं स्यात् पुष्पको नाम मण्डपः ॥ १२ ॥
पुष्पकः ॥ दिकत्रये प्रतिभद्राणि मुखे प्राग्नीव एव हि । पुष्पभद्रो (तिस्तम्भश्चतुष्कः सुप्रभो?) भवेत् ॥ १३॥ इति स्तम्भद्यत्यगाद् ब्रूमो मण्डपविंशतिम् । (यो पुष्पभद्रस्तु व्रतोऽमृतनन्दनः) ।। १४ ॥ कौसल्यो (युद्विा)संकीर्णो गजभद्रो जयावहः । श्रीवत्सो विजयश्चैव वस्तुकीर्णश्रुतिर्जयः ॥ १५ ॥ यज्ञभद्रो विशालश्च सुश्लिष्टः शत्रमर्दनः । (भायंवोः) दपश्चैवं मानवो मानभद्रकः ॥ १६ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे सुग्रीवो मण्डषः प्रोक्तो भयुक्तश्चतुष्पदः । चतुर्भिस्त्रिपदैः कर्णनिगमः प्रागुदाहृतः ।। १७ ।। धराणामेव विंशत्या चतुरुत्सरया युतः । (अस्मद्वासस्तम्भं पडन्ये द्विधरक्षयान्ः) ॥ १८ ॥ सुग्रीवो हर्षनामा च कर्णिकारः पदाधिकः। सिंहश्च सा(ग)भद्रश्च (सुस्तत्री) श्चेति सप्तमः ॥ १९ ॥ सप्तविंशतिरित्युक्ता मण्डपानां समासतः। एषां विचित्ररूपाणां प्रासादाकृतिधारिणाम् ॥ २० ॥ मिश्रकाश्च परिज्ञेया हस्तैर्द्विव्येकमानतः । मूलप्रासादतुल्या वा व्यंशेनार्धन चोर्जिताः ॥ २१ ॥ द्विस्तम्भशुकनासाग्रे विज्ञयः पादमण्डपः । प्रासादभित्तिमानेन मण्डपे भित्तयः स्मृताः ॥ २२ ॥ (सपादसत्रिभागा वा वी स्यु ++ + + + १) । कचिद् भित्तिविहीनांश्च कुयोदाकाशमण्डपान् ॥ २३ ॥ लतिष्वेष विधिः प्रोक्तः सान्धारेषु स्वमानतः। प्रासादो यादृशस्तादृङ् मण्डपोऽपि सदग्रतः ॥ २४ ।। यानि प्रासादनामानि तानि स्युर्मण्डपेष्वपि । वास्तुमेदेन भेदोऽयं मण्डपानां विधीयते ॥ २५ ॥ शतार्धमण्डपस्थानं (नीलार्धं भोजनाय च?) । यज्ञार्थो यतिमुख्यार्थी बिहा(रा)ों नृपालदो(१) ॥ २६ ॥ कार्यों (दशभ्यः) विस्तारो+++नु शतावधेः। हस्तानां संख्यया मानं हस्तेन स्याद् गृहेशितुः ॥ २७ ॥ उपयोगानुसारेण स्वधिया परिकल्पितः । आयतश्चतुरश्रो वा कर्तव्यो नाद्यमण्डपः ॥ २८ ।। शतमष्टोत्तरं ज्येष्ठश्चतुःषष्टिकरोऽवरः । कनिष्ठो मण्डपः कार्यों द्वात्रिंशत्करसंमितः ॥ २९ ॥
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सप्तविंशतिमण्डपलक्षणं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ।
द्विविस्तारोsस्य स्यानेपथ्यगृहकादि तु ( 3 ) । परिच्छेदानुसारेण स्वधिया परिकल्पयेत् ॥ ३० ॥ द्वारद्वयं च कर्तव्यं तत्प्रमाणानुसारतः । नेपथ्यगृह चान्यत् तृतीयं रङ्गसम्मुखम् || ३१ || समैः क्षणैः समैः स्तम्भैरलिन्दैश्व समैर्युताः । समकर्णाः समा द्रव्यविधेया मण्डपाः शुभाः ॥ ३२ ॥ ( भित्तिमां चतुखस्यात्) कार्य ः कामं सनिर्गमः । स्तम्भकोणाश्रितं मानं भित्तिः स्यान्मानवाह्यतः ॥ ३३ ॥ वेदिर्मण्डपभूषाद्यैः स्यान्मध्ये बाह्यतोऽपि वा । क्षेत्रलोभे तु कर्तव्या भित्तिमानस्य मध्यतः ॥ ३४ ॥ चतुःषष्टिपदं ज्येष्ठे भद्रं कुर्याचतुष्पदम् । एकाशीतिपदं मध्ये भद्रं स्यात् पञ्चभागिकम् || ३५ ॥ ( सततागा ) विभक्ते तु खण्डशः स्यात् कनीयसि । aff द्विभागिकाः कार्या भित्तियुक्तश्च मण्डपः || ३६ || भद्रप्रासादसदृशौ कर्णभद्रं च भाजयेत् । क्षोभणं वाह्यतो रक्षेत् (पाडनं?) स्याद् विपर्यये || ३७ ॥
क्षरकं कुम्भकलाशा (?) कपोतं जङ्घया सह । प्रासादस्यानुरूपेण + + + + ÷ ÷ + + || 36 ||
रुचकञ्चतुरश्रः स्यादष्टाश्रिर्वत्र उच्यते । द्विवज्रः षोडशाश्रिच प्रतीतो द्विगुणस्ततः ॥ ३९ ॥ मध्यप्रदेशेऽयं स्तम्भो वृत्तो वृत्तः प्रकीर्तितः । अथान्येन प्रकारेण षोढा कुर्वीत मण्डपान् ॥ ४० ॥
त्रिपञ्चसप्तनवभिश्रतेक्षणैः उभयसमः (१) । (साद्रमध्यक्षणोऽन्येभ्यः) सत्र्यंशः सार्ध एव वा ॥ ४१ ॥
एवमेव कर्तव्यः पद्मकारेऽपि मण्डपे । प्रासादगर्भस्यान्तेन ( स्युस्तद्भितिरथापिवा) || ४२ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे स्तम्भसूत्रस्य मार्गेण क्षणे मण्डपमध्यगे । मूलप्रासादगर्भेण कार्या वा भद्रविस्तृतिः ॥ ४३ ॥ शेषाः क्षणा विधातव्या (समसंख्याक्षतैधेरैः) । प्रासादच्छादनासाद्भिः(१) सत्र्यंशावापि मण्डपे ॥४४॥ सदृशा स समञ्चशद द्वा + समतले भवेत् (१) । उच्छ्राय मण्डपे ब्रूमः प्रकारेणापरेण च ॥ ४५ ॥ तलार्ध पदमध्येया + यस्य विहितः शुभः। प्रासादे दशधा भक्त चतुःपञ्चकरे समा ॥ ४६॥ नव्यंश मण्डपस्यादुत्तरपट्टयोर्द्वयोः(१) । षड्युट्सहस्तत्वष्टांशं सप्तभागे न वास्तके(?) ॥ ४७ ॥ दशैकादशके षद् स्युः सार्धभागासु संख्यया । प्रयोदशक + + + हस्तयोः सार्धपश्चकम् ।। ४८ ॥ सपादाः पञ्चभागाः स्युश्चतुर्दश करे पुनः । तदूर्ध्व विंशतिं यावदुच्छ्रितिः पञ्चभागिकी ।। ४९ ॥ संसृता (व्यतिरिक्तव्या त यथा वापि:) प्रकल्पयेत् । शुकनासस्य यः स्तम्भः स्तम्भो यो मण्डपस्य च ॥ ५० ॥ मिथः श्लिष्टावपि व्यक्तौ यत्र तौ संश्रितौ हसः(१) । (प्रासादकोणस्तम्भो य ग्रस्तास्त ग्रस्तमण्डपा) ॥ ५१ ॥ निर्गता व्यतिरिक्ताः स्युश्चतुर्भद्रविभूषिताः । तलपट्टाञ्छौकनासाव्यातले(?) भूमिरङ्गिका ॥ ५२ ॥ तलपट्टमधस्तस्या मण्डपानां नियोजयेत् । एवं परं परं कुर्यानिन्नान्निन्नतरं बुधः ।। ५३ ।। सममेवाथवा कुर्यात् प्रासादतलमानतः । ध्रुवादिनाम्नां श्रीकूटः प्रवृत्तानां तथैव च (१) ॥ ५४ ॥ रुचकप्रभृतीनां च या संज्ञा या विभक्तयः। मण्डपेष्वपि ता झेया (तस्तोत्सम्बन्धेषु नान्यथा ॥ ५५ ॥
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सप्तविंशतिमण्डपलक्षणं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः । देवालयोत्सवार्थाय विमानानि पृथक पृथक् । मण्डपादि समाख्यातादृवं(?) स्युः सप्तविंशतेः ॥ ५६ ॥ देवयात्रानिमित्तानि तथैव परिकल्पयेत् । चतुःषष्टेरप्यधिकाः स्तम्भाः स्युः पदसंख्यया ॥ ५७ ॥ प्रासादााङ्गानि ++ स्युस्तत्क्षणान्मण्डपेन च । संवास्तुपदं संबुद्धया(?)कर्तव्यो विषमैः क्षणैः ॥ ५८ ।। न दोषो जायते तत्र (शिल्पीच्छतेऽत्र?) कारणम् । अथ दारुकलां ब्रूमः+मण्डपसंश्रयाम् ।। ५९ ॥ (या)हक् समतलं तत्र विभागस्तागुच्यते । प्रासादस्य विभागेन राजसेनं तु भागिकम् ॥ ६० ॥ वेदी भागद्वयं ज्ञेया द्वौ भागौ मत्तवारणम् । चन्द्रावलोकनं तद्वद् विधातव्यं द्विभागिकाम् ।। ६१ ।। पट्टो भवति भागार्धमर्धभागिकमासनम् । कूटस्तम्भं तु भागेन सपादेन प्रकल्पयेत् ॥ ६२ ॥ शीर्षक(कभारणं चैव सपादं भागमिष्यते । एतत् समतले कार्य विषमोऽपि कचिद् भवेत् ॥ ६३ ॥ पट्टि(१)आंगिकी विधातव्या प्रकारेणापरेण च । अधस्तावपट्टस्य तलपट्टस्य चोध्वेतः ॥ ६४ ।। पदे त्रिभागमध्ये वा कार्या चन्द्रावलोकने । तदधस्ताद विधातव्यो विभागः पञ्चभिः पदैः ।। ६५ ॥ भागिकं राजसेनं स्याद् वेदिकापि द्विभागिकी। मत्तवारणकं काये भागद्वितयसंमितम् ॥ ६६ ॥ दशभक्तेऽथवा कार्या चतुर्भिश्चन्द्रलोकना । भागद्वयेन वेदी च तत्समं मत्तवारणम् ॥ ६७ ॥ भागेन रूमहारस्तु भागेनैकेन कण्ठिका । मचवारणपातश्च व्यंशहीनकभागिकः ॥ ६८ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे भागार्धनाथवा पातस्तयोर्मध्ये च मध्यमः। कूटागारेण्विदं मानमिदं चासनपट्टके ।। ६९ ॥ भागद्वितयविस्तारमासनं परिकल्पयेत् । पिण्डो भागद्विकं तस्य व्यंशोना मत्तवारणा(?) ॥ ७० ॥ वेद्यां पिण्डः सपट्टः म्यात क्रूटागारे तथैव च । राजसेनस्य पिण्डस्तु कूटागारसमो भवेत् ॥ ७१ ॥ कुम्भिकापि च तत्पिण्डा चोदरूव॑तयासनम्(!) । विद्यात् + सशिरःस्तम्भः कूटकं + + + + + || ७२ ॥ राजसेनसमा कुम्भी जङ्घा वेदिसमा भवेत् । एवमेतत् त्रिधा प्रोक्तं (सूप)च्छाद्यमथोच्यते ।। ७३ ॥ अधःपोर्ध्वपट्टान्तं पञ्चधा प्रविभाजयेत् । उभाभ्यां वा त्रिभिर्वापि भजे निगतिस्तु सायते?) ॥ ७४ ॥ ++ पट्टसमोऽथ (द्वा?) त्रयोदशविभाजिते । शूर्पभागं त्यजेदृर्ध्वं (भघटना द्वादशांशिका ।। ७५ ॥ कुर्यान्निपातं शूर्पस्य पञ्चभागमथापि वा । दण्डकैर्भूषयेच्छूष मध्ये दण्डं विवर्जयेत् ॥ ७६ ॥ मध्ये च स्तम्भिका वेद्या मत्तवारणकस्य च । भागेन पट्टपिण्डस्तु सपादेनाथवा भवेत् ॥ ७७ ॥ पृथुत्वं स्यात् स षड्भागपिण्डतुल्यं तु पट्टके । स्तम्भः पट्टसमः कार्यः शीर्षकं त्रिगुणं ततः ॥ ७८ ।। स्तम्भादप्यधिका कूटी हीरकादपि पट्टकः । बाहापट्टवदुच्छ्रायः शुकनासस्य पट्टके ।। ७९ ।। पट्टपिण्डोच्छ्रिता वेदी यद्वा पट्टाधिका भक्त । मण्डपे स्यात् तुलोच्चायो विभागैः प्रमितोऽष्टभिः ।। ८० ॥ स्थलमासादतुल्यो वा पातस्य च सतोऽपि वा । निम्नोन्नतं छादयेच छेदिकायोगतो बुधः ॥ ८१ ॥
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सप्तविंशतिमण्डपलक्षणं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः । २१५ कण्ठकश्थे + कार्थेन विधातव्यो विचक्षणैः । छेदिकायोगतो मध्ये स्तम्भाः स्युवाह्यतोऽधिकाः ॥ ८२ ॥ पञ्चाशेनाष्टषष्ठेन केशान्तात् सालभञ्जिकाः । रथिकाशालभञ्जीभिः स्थिताभिः पट्टिकोव॑तः ।। ८३ ॥ मध्ये(क?वा)राटकं कार्य मनोज्ञं वा सरोरुहम् । छादयेद् वास+ मलं विमानैवेहुभेदवत् ।। ८४ ॥ क्षणान्तरेषु रचयेद दीप्तिकातोरणानि च । अन्यथा वा भवेद् वृत्तं चतुरश्रो यथा कचित् ॥ ८५ ॥ गजतालुयुतः पदृस्योर्ध्वमष्टाश्रिरेववा । कुर्वीत मध्ये चाष्टाश्रिवाह्यतः पतयस्तथा ॥ ८६ ॥ (विशेष छादये ब्रूमः स्तम्भिकामूत्र द्भासयेत्)। षोडश द्वादशाष्टौ बा + + + चतुरोच्छ्रायाः(१) ॥ ८७ ।। पादान्यदूपर्यत् शिल्पीमवेक्षणवशात्() सदा। त्रयोविंशतिधा भाज्यमन्तरं पट्टघण्टयोः ।। ८८ ॥ घण्टा_(१)पद्मपत्री साधभागसमुछूिता । उच्छ्रिता सार्धभागेन तवं (दृट्टरी!) भवेत् ॥ ८९ ॥ कपोता ग्राससंयुक्ताः सार्धभागसमुच्छ्रिताः । कण्ठक(स्तःस्तु)द्विभागः स्यादमरस्तु द्विभागिका(?) ॥ ९ ॥ भागद्वयं विनिष्क्रान्तं त्रिभागे गजतालुके । (दत्ताभागानुच्छितकोसलं भागं च धालिका भवेत्।) । ९१ ॥ भागद्वयं द्वितीयं च तृतीयं च द्विभागिकम् । तस्योपरिष्टात् कतेव्या(वलिन्याधेभागिका) ॥ ९२ ।। निर्गमा सूत्रमार्गेण एकैकस्य स्वमानतः । + + गर्भकोणास्यात् पक्ष्मपत्र्याश्च मस्तमे(१) ।। ९३ ।। विमृश्य सूत्रधारो वा निर्गमं कल्पयेत् स्वयम् । समै गैश्च पत्रैश्च विकटैः पनपत्रकैः ।। ९४ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे हस्तितुण्डैर्वरालैश्च शालभञ्जीभिरण्डकैः । भल्लिकातोरणैश्चैव भूषणीया चतुष्किका ।। ९५ ॥ खेचरैर्मा(लील्य)वन्धैश्च नानाकर्मवितानिभिः । मन्दारकैः शुक्तिभिर्वा पर्वा नागपाशकैः ॥ ९६ ॥ मण्डपं छादयेत् प्राज्ञो बाह्यतस्त्वभिधीयते । द्विगुणा(?) मौलिकद्वारात् पादोनद्विगुणं कचित् ।। ९७ ॥ सार्धभागमितं यद्वा त्र्यंशोनं द्विगुणं कचित् । कापि व्यंशाधिकं कार्य चतुारं + मण्डपे ।। ९८ ।। द्वारे कार्यों प्रतीहारौ भल्लिका तोरणास्तथा । स्तम्भयोश्च वरालौ द्वौ शालभजिकया सह ॥ ९९ ॥ प्राग्नीवं भद्रभदं च रथिका वेदिका बहिः । मण्डपे वरकस्योर्ध्वमधस्ताच्छिखरस्य च ॥ १००॥ भागाध छेदपट्टः स्याच्छेषं कुर्वीत संवृति(१) । (शिखरा व्यंशयुग्मेन पादोन वा कारयेत् (१) ॥ १०१॥ प्रासादे शुकनासं तु (सन्तु सम्भ्रमेऽथवाः) । मण्डपस्योदयः स्वस्मादधस्तादथवा भवेत् ॥ १०२ ।। वामनाद्या अनन्तान्ताः प्राक प्रोक्ता ये दशो(पये दयाः) । कर्तव्यो मध्यतस्तेषामुदयः कोपि मण्डपे ।। १०३ ॥ प्रविभज्योदयं त्रेधा घण्टां. भागेन कारयेत् । तत् त्रिभागेन तिलकस्तिलकार्थेन(फंसना) ॥ १०४ ॥ क्रमैस्विभिः पञ्चभिर्वा शूनिर्माणमिष्यते । स्कन्धछाद्यवासने वामेषा सवणोदिता(?) ॥ १०५ ।। शोभा भद्रेषु कर्णेषु यथायोग प्रकल्पयेत् । वीथीभिश्चन्द्रशालाभिः सिंहकर्णैश्च शोभनैः ॥ १०६ ॥ रथिकाभिर्वरालैश्च तिलकैश्चारुदर्शनैः । शकनासर्गजैः सिंहैरन्यैरित्येवमादिभिः ॥ १०७ ॥
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जगत्यङ्गसमुदायाधिकारो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः । २१७ कर्मप्रकारैः कर्तव्या मण्डपे भूपणक्रिया । त्रिविधैरथवा कूटैः सङ्घटैः कक्षकूटकैः ।। १०८ ।। निलकैर्वा तमा खुरच्छाद्यैः सघट्टकैः । शृङ्गादिभिः प्रभेदैश्च कार्या मण्डपसंवृतिः ॥ १०९ ॥ शुकनासोच्छ्रितेरूज़ न कार्या मण्डपोच्छ्रितिः । अधस्ताद् यत्र या प्रोक्ता कर्तव्या सा त्वशङ्कितैः ।। ११० ॥ बलभ्यां शुकनासान्ता कर्तव्या मण्डपोच्छ्रितिः । (मण्डपः शुकनासान्तं योग्रासकुलम् ?) ।। १११ ।। न च तत् पुरमध्ये तु यत्र सा मण्डपोन्टितिः । (स पुत्रयस्तबन्धवतस्य तयः कर्तकारकैः) ।। ११२ ॥ हीनाधिकप्रमाणेषु (दविष्टेषु?) वास्तुषु । द्रव्यैवाधिकप्रमाणेषु(१) स्युरनोंः पदे पदे ॥ ११३ ।। ऋद्धिः पुरस्य न भवेत् स्यात् पुराधिपतेर्भयम् । क्लप्तरेवं मण्डपैः सुप्रमाणे
लक्ष्मोपतैः सद्विधानेन कर्तुः । ऋद्धिः सिद्धिः कारकस्यापि लोके
क्षेमं च स्याद् भूमिभर्तुर्जयश्च ॥ ११४- ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीभोजदेवावरांचते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे सप्तविंशतिमण्डपाध्यायो नाम सप्तषष्टितमः ॥
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अथ जगत्यङ्गसमुदायाधिकारो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः।
त्रिदशागारभूत्यर्थे भूषाहेतोः पुरस्य तु । भुक्तये मुक्तये पुंसां सर्वकालं च शान्तये ॥ १॥ निवासहेतोर्देवानां चतुर्वर्गस्य (हे?) सिद्धये । मनस्विनां च कील्युर्यशस्सम्प्राप्तये नृणाम् ॥ २॥
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संमराङ्गणसूत्रधारे
जगतीनामथ ब्रूमो लक्षणं विस्तरादिह । प्रासादं लिङ्गमित्याहु (स्त्रिग? ) लयनाद् यतः || ३ | ततस्तदाधारतया जगती पीठिका मता । आकारविस्तृतायामानुच्छ्रायं (ते क्रिया) || ४ ॥ विना तमङ्गप्रत्यङ्गा कल्पना नापि + क्रमम् ( 2 ) । विभक्ति तिलकन्दानां भद्रविस्तारनिर्गमम् ॥ ५ ॥ जलाधार (दो) प्रवेशं निर्गमोद्गमम् । मानसंख्यां च शालानां संस्थानोन्मानलक्षणम् ॥ ६ ॥ परिक्रमं (ते मेवासा) संज्ञां च त्रिविधामपि । पप्रकारत्वमे (वासा) सम्भवस्य च कार(णः णम्) ॥ ७ ॥ मूलशा (लोला) परिच्छित्ति परिक्रमविनिर्गमम् । सञ्चयद्वार सोपानमुण्डिकामण्डसम्भवा (न्) || ८ ॥ द्वित्र्यादिदेवताधिष्ण्याज्जगतीस्तोरणानि च (!) 1 युक्तानि लक्षणैः सर्वैर्यथावत् संप्रचक्ष्महे ॥ ९ ॥ चतुरश्रा समा शस्ता मनोज्ञा सर्वतः प्लवा । अंशप्रगृढदिग्भागा ग्रामादानुगता शुभा ॥ १० ॥
चतुरश्रायता यद्वा वृत्ता वृत्तायता तथा । अष्टाश्रिर्वा विधातव्या सा संशोध्यादितः क्षितिम् ॥ ११ ॥
निरूप्य त्रिदशागारं संस्थानोन्मानलक्षणैः । तदाकारवतीं पार्श्वे जगतीं तस्य योजयेत् ॥ १२ ॥ कनीयसी मध्यमा च ज्येष्ठा चेति त्रिधैव सा । कनीयः प्रभृतिष्वेताः प्रासादेषु नियोजयेत् ॥ १३ ॥ जगत्यो(भ्ररमणीभिः स्फारौकद्वित्रिस्त्रिभि: १) क्रमात् (नानाशातिशान्तिन्यकनिष्ठाद्या) मनोरमाः ॥ १४ ॥ प्रासादस्या (सुनु) रूपेण साङ्गोपाङ्गादिसंख्यया । शालास्तासां मताः कर्म प्रोच्यते सामुदायिकम् ॥ १५ ॥
१, 'प्रदेशांश्च' इति स्यात् । २. 'तमङ्गानाम्' इति स्यात् ।
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जगत्यङ्गसमुदायाधिकारो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः । २१९ (श्री आ द्वादशकरादूर्ध्वमो;:) विंशतिहस्ततः । शालात्रिभागं तुर्यांशः स्याद्वा द्वात्रिंशतः पुनः(१) ।। १६ ॥ आसनार्धात्तु पञ्चाशच्छाला(?) ग्रासादतो भवेत् । बहुदेवकुला या तु प्रासादस्यानुसारतः ।। १७ ।। अमः प्रकारा शालानां यथायोगमिहाधना । कर्णोद्भवा भ्रमो(च्छा त्था) च भद्रजा गर्भसम्भवा ।। १८ ॥ मध्यजा पार्श्वजा चेति भेदास्तासां भवन्ति षट् । (विस्तारायामतोस्यभिः कर्णजा पूर्वमारिणा?) ॥ १९॥ भ्रमजा तत्प्रमाणेन ++पादेन वेष्टिता । भद्रजा कणेजातीया साधाया(भ्य?मा) प्रकीर्तिता ।। २० ॥ गर्भजा मध्यजा चेति कर्णजाय(सात)सम्मिते । पार्श्वजा भ्रमजाया(सामा) स्थानं तासामथोच्यते ।। २१ ॥ कर्णेषु कर्णजा ख्याता भ्रमजा च परिभ्रमे ।। भद्रेषु भद्रजा ज्ञेया त्रयमध्ये च गर्भजा ।। २२ ।। मध्ये व्यवस्थिता या तु पञ्चानां मध्यजा तु सा । (पाश्वसंस्थानश्चतस्रो यास्तासां शान्ताः) पार्श्वद्वये स्मृताः॥२३॥ पार्श्वद्वयं स्युः कर्णानां +स्ता अपिच पार्श्वजाः) । प्रासादविस्तृतेरधैं विधातव्या भ्रमन्तिका ॥ २४ ।। (पदद्धतिवाह्यस्याः कन्दा दिक्षु +++ च । सुरसमानुसारेण कुर्यादष्टौ विचक्षणः ।। २५ ॥ (आरभ्य भद्रमालत्या यावत त्रिंशमत्रिकाम?) नवाण्डकाया यावत् स्यादेकत्रिंशत्तमे क्रमात् ॥ २६ ॥ शालाकन्दाः स्मृतास्तासां चतुर्वर्गविभाजिताः । चतुष्पदा तत्र सास्या(?) स्याद् द्वादशपदो भ्रमः ॥ २७ ॥ क्रमेणानेन कर्तव्यं शालाकन्दनिवेश(तः'नम्) । तवं तु भ्रमो नास्ति शालागणविभाजने ॥ २८ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे (रु?भद्राद् भ्रमोऽयं न पुनः कर्णनिर्गमधारिणाम् । रुचकस्येव कर्तव्यः कर्णदेशात् परिक्रमः ।। २१ ।। शालानुसारतो भद्रे विस्तारैः कन्दका बहिः । कतेव्यो निगेमस्तन बुधैः पदचतुष्टयम् ॥ ३० ॥ उदकान्तरविस्तारो भागेनार्धन वा कचित् । प्रजाङ्गस्य विधातव्यं क्षोभणं च पदद्वयम् ।। ३१ ।। प्रासादस्य च विस्तारं दत्त्वाग्रे सलिलान्तरम् । गण्डौ तत्सूत्रगौ कार्यो भ्रमाद् द्विपदनिर्गतौ ।। ३२ ।। पासादानां तु विस्तृत्या स्युरेकद्वित्रिनिघ्नया(?) । कर्णाद् विनिस्सृतौ गण्डौ ज्येष्ठमध्यकनीयसा(म् ) ।। ३३ ।। (भवग्रे सुण्डिकाः?) कार्याः कर्णशालाविनिर्ग(मःताः) । मालासोपानसंयुक्ताः प्रतीहारसमाकुलाः ॥ ३४ ॥ प्रतोली चाग्रतः कार्या सपटो + गला दृढा । ब्रूमोऽथ जगतीपीठं तत् कुयोदेकहस्तके ।। ३५ ।। प्रासादे विस्तृतेस्तुल्यसमुत्सेधे विचक्षणः । द्विहस्तके तु पादोनं व्यंशहीनं त्रिहस्तकम् ।। ३६ ।। चतुर्हस्ते (तु) कर्तव्ये साधहस्तद्वयोचितम् । चतुरिष्टा त्रया च + + + द्वादशहस्तकम् (?) !! ३७ ।। कनीयोमध्यमज्येष्ठानुदयान् कल्पयेत् क्रमात् । अर्धे वा कर्णशालायाः पादोनं वाथ तत्समम् ।। ३८ । अनेन (च) प्रकारेण ज्येष्ठमध्यमयोगी । प्रासादयोर्जगत्युचा कर्णप्रासादमानतः ।। ३९ ।। पीठस्य यः समुत्सेधा +++ तं विभाजयेत् । भागेन खुरकं कुर्याद् भागेनैकेन वर्मना(?) ।। ४० ।। कुम्भस्य खुर(काक)भागं द्विभागं कुम्भकं तथा । कलशं भागिकोत्सेधं तथैवान्तरपत्रकम् ॥ ४१॥
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जगत्यङ्गसमुदायाधिकारो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः । २११ वरण्डी भागिकी कुर्यात् तथा पट्टे च भागिकम् । जगत्याः खुरकाद् भागं (प्रचिशोकोद्भकः सुरः) ॥ ४२ ॥ पट्टो भागेन सार्धन प्रतिष्ठाजगतीखुरान् । (खुरकारकुम्भकाकिश्चित्कुम्भका क्षणकस्तथाः) ।। ४३॥ (कणकादन्तरपत्र?) कपोताली तथैव च । पट्टिकानां प्रवेशांश्च नासिकावर्तनास्तथा !! ४४ ॥ निनोन्नतप्रवेशांश्च विदधीत मनोहरान् । +धिकाभिर्विचित्राभिः कूटैश्वानेकशेखरैः ॥ ४५ ॥ सुविभक्ता विधातव्याः शालानां कन्दका(मस्त)ले। कमाण्यतिविचित्राणि स्थानस्थानोचितानि तु ॥४६॥ कुर्यात् पीठेषु शोभार्थं प्रासादानां विचक्षणः । यथा सिंहासनं राज्ञां शोभते मणिदीप्तिभिः ॥ १७ ॥ तथा प्रासादराजस्य पीठं कर्मभिरुत्तमैः । पदृस्योध्र्व विधातव्यमुत्कृष्टं राजसेनकम् ॥ ४८ ॥ पुष्पितेः कमलेयुक्तं शोभितं भारपुत्रः । तदर्थ वेदिका देया नानापत्रसमाकुला ।। ४९ ।। (रूपं संघटकोपेता ततश्चासमघट्टकः । स्तम्भिकाभिरने काभिधारयेत् तं समन्वितः) ।। ५० ।। तस्योपरि विधालव्यं (करव्यासनसमुत्तमम् । अन्तरं कणशालाना तलपादाधेपट्टयोः ।। ५१॥ राजसेनयुतां वेदी तत्रिभागेन कारयेत् । वेदिकार्थे त्रिभागं वा तले स्याद राजरोनकम ॥ ५२ ।। कूटार + त्रिभागेन वेदेरूज़ मनोहरम् । करमात्रसपुत्रोध कलेव्यं मत्तवारणम् ।। ५३ ॥ सुखलीलाशनार्थं तत् सप्रवेशं सनिर्गमम् । (गन्द्राग्रे सुकाग्रे) च प्रतोल्यग्रे तथैव च ॥ ५४॥
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समराङ्गणसूत्रधारे तोरणं त्रिविधं ज्ञेयं कनीयोमध्यमोत्तमम् ।
इत्थं जगत्यायतनस्य सम्यक प्रासादपीठस्यच सम्प्रदिष्टम् ।
विधानमेतज्जगतीषु (नातमन्यथाभिदधाः सह लक्षणानाम्?) ॥ ५५ ॥ इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे
जगत्यनसमुदायाधिकारो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः ।
अथ जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः ।
--------20:---- वसुधा वसुधारा (च) वहन्ती च तथाप(रेरा)। श्रीधरा भद्रिका चैव एकभद्रा द्विभद्रिका ॥१॥ त्रिभद्रिका भद्रमाला वैमानी भ्रमरावली । स्वस्तिका हरमाला च कुलशीला महीधरी ।। २ ॥ मन्दारमालिकानङ्गलेखाथोत्सवमालिका । नागारामा मारभव्या तथाच मकरध्वजा ॥ ३ ॥ नन्द्यावतो(नं.) च भूपाला पारिजातकमञ्जरी । चूडामणिप्रभा चैव तथा श्रवणमञ्जरी ॥ ४ ॥ विश्वरूपादिकमला तथा त्रैलोक्यसुन्दरी । गन्धर्वबालिका चान्या विद्याधरकुमारिका ॥ ५ ॥ सुभद्रा च समाख्याता तथान्या सिंहपजरा । (वज्जपकुरवायाः!) गन्धर्वनगरी तथा ॥ ६ ॥ तथामरावती ज्ञेया रत्नधमा च नामतः । त्रिदशेन्द्रसभा चैव तथान्या देवयन्त्रिका ।। ७॥ चत्वारिंश(द्विदितीयं स्यादेकोना नामसंख्यया । (यमलाम्बरधरा नेत्रा दद्युडाः खण्डिला सिता) ॥ ८॥ १. 'यमलाम्बुधरा नेत्रा दोर्दण्डा खण्डला सिता' इति स्यात् ।
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः । अथातः कथ्यते तासां प्रविभागो यथायथा। जगतीनां क्रमेणैव शालानां च यथोदितः ॥ ९ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे (षडेते स?)विभाजिते । समं वाचार्धयुक्ते वा गुणेऽथ मुखायताम्(?) |॥ १० ॥ मण्डपेनोज्झिते कुर्याज्जगतीमनुसारतः । द्वौ भागौ मध्यदेशे स्यात् प्रासादो भागिको भ्रमः ॥ ११ ॥ (कर्णादृशां समुज्य?) पार्श्वयोरुभयोः पुरः। श्रीखण्डिका विधातव्याः प्रासादमं ++ मिमाम् (१) ॥ १२ ॥ मत्तवारणसंयुक्ता प्रतोल्यादिविभूषिता। प्रथ(मेमा) च समाख्याता जगती वसुधाभिधा ।। १३ ॥ वसुधा वसुधारा स्यात् समायुक्ताग्रशालया। निर्गमः पुरतः कार्य प्रासादस्य प्रमाणतः ॥ १४ ॥ +विस्तारस्तथा कार्यस्तं चतुर्धा विभाजयेत् । भागिका श्रमणी कार्या शेषशाला द्विभागिका ॥ १५ ॥ सुण्डिका चापि पूर्वोक्तमानेनैवायता भवेत् । वसुधा च पुनः कर्णशालाभ्यां राजसिंहिका ॥ १६ ॥ भासादार्धेन ते कायर्ये) कर्णयोरुभयोरपि । स्वमानार्धेन च तयोभ्रंमणी परिकल्पयेत् ॥ १७ ॥ मूलप्रासादविस्तारा कर्तव्या सुण्डिका पुरा । शाला स्याद् वसुधा राजहंसाः(१) पुरो यदा ॥ १८ ॥ श्रीधरी सा तदा तस्याः (सुरोयधन्दः) पूर्ववत् । यदा तु हंसिकास्थाने शाले स्तोऽपरकर्णयोः ॥ १९ ॥ तद्रूपे तत्प्रमाणे च तदा सा भद्रिका भवेत् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे षोडशांशविभाजिते ।। २० ॥ पूर्वोक्तक्रमसम्पन्ने यथाकामं मुखायते । मण्डपायामसंयोगाद् यथाभागं विभाजिते ॥ २१॥
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समराङ्गणसूत्रधारे मध्ये देवालयः कार्यश्चतुर्वर्गपदान्वितः । बहिर्द्विपदविस्तारो भ्रमस्तस्य समन्ततः ॥ २२ ॥ कर्णे कर्णे च कर्तव्या द्विपदायामविस्तृता । चतुर्दिशं कर्णशाला या (पदिभ्रमणान्विता ।। २३ ।। पदद्वितयविस्तारा त्रिपदायामसंयुता। पदिका च भ्रमणा(१) कार्या भद्रशालाश्च सुन्दराः ।। २४ ।। वार्यन्तराणि परितः कुर्यान्मध्येषु शालयोः । पदमेकं प्रविष्टानि तदर्धे विस्तृतानि च ।। २५ ॥ शालायाः पृष्ठभद्रे स्यादेकभद्रद्विभद्रिका(?)।। (कपोकृताभ्यां त्रिभद्राणि पृष्ठकुक्षिषुः) ॥ २६ ॥ शालाभि(स्याचा)थ तिसृभिर्जगती भद्रमालिनी ।
एकमद्रादिचतुष्टयम् ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्विंशतिभाजिते ।। २७ ।। षवर्गलक्षणोपेतो मध्ये कार्यः सुरालयः । देवालय(स्य)परितत्रिपदः स्यात् परिभ्रमः ॥ २८ ॥ ततः शालाविभक्तिश्च कर्तव्या प्रोक्तलक्षणा । पञ्चभागायता मध्ये(भूचतुविस्तृता?) पदैः ॥ २९ ॥ भद्रशालाश्च कर्तव्यास्तन्मध्ये भागिकभ्रमः । भद्रस्य पार्थद्वितये द्वि(तःप)दायामविस्तृतम् ॥ ३० ॥ शालाद्वयं विधातव्यं द्वादशी शत + भ्रमम्(?) । भागमेकं प्रवेशस्तु तयोः (कर्ण)द्वयोर्भवेत् ॥ ३१ ।। तिस्रस्तिस्रो भवन्त्येवं शालादि (क्रा) ति(स)ष्वपि । षडेवोदकमार्गाश्च कार्या भागाधनिस्मृताः ॥३२॥ भागमेकं प्रविष्टाश्च भवेयुर्दिकत्रयेऽपि ते । कर्णौ च पुस्तः कायौँ भागद्वितयसम्मितौ ॥ ३३ ॥ ससुण्डिका(?) विमानोऽयं सुरासुरनरार्चि(तातः) । सुण्डिकाग्रे यदेतस्यां शालाप्रासादसंमुखम् ॥ ३४ ॥
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः ।
संस्तुता किन्नरैः सिद्धैस्तदा स्याद् भ्रमरावलिः | वक्त्रशालाविहीना तु पार्श्वशालाद्वयान्विता ॥ ३५ ॥ तद्रूपा तत्प्रमाणा या स्वस्तिकी सा प्रकीर्तिता । मासादाभिमुखी शाला स्वस्तिक्यामेव चेद् भवेत् ॥ ३६ ॥ तदानीं हंसमालति विख्याता जगती भुवि । मुख्य ख) स्य पार्श्वद्वितये भागं वार्यन्तरं यदा ॥ ३७ ॥
कृत्वा (मासादयद्भुग्रेः) भद्रमानेन निर्गमम् । प्रासादसंमितं सूत्रं शालास्तु गलभूषिताः || ३८ ॥
शुण्डिका तदवस्थे च मुखे स्याच्छालया विना । कुलशैला तदा ज्ञेया हंसमालागमाश्रया । ३९ ॥ सदा महेश्वरस्येष्टा स्कन्दस्य तु विशेषतः । अस्या एव यदा शाला पुरोभद्रे विधीयते ॥ ४० ॥ तदा महीधरा प्रोक्ता महीधरमनः प्रिया | चतुरश्रीकृते क्षेत्रे साष्टाविंशतिभाजिते ॥ ४१ ॥ चतुःषष्टिपदं मध्ये कुर्याद् देवालयं बुधः । चतुष्पदो भ्रमः कार्यो देवागारस्य सर्वतः ॥ ४२ ॥
भ्रमसूत्रस्य कर्णस्था द्विपदायतविस्तृताः । शाला (तुस्तस्रः) कर्तव्या भागिक भ्रमवेष्टिताः ॥ ४३ ॥
तासां पार्श्वेषु सन्त्यज्य भ्रमाद् मागचतुष्टयम् । (शाली कं + ) प्रकुर्वीत + भागायतविस्तृतम् ॥ ४४ ॥ एकभागिकविस्तारः कर्णः (स्यात्) पार्श्वशालयोः । मध्ये भागे जलाध्वा स्याद् विहाय त्रिदशं बहिः ॥ ४५ ॥ द्विभागविस्तृतां तां च कुर्याद् भागत्रयायाम् (?) | अन्तरेण जलाध्वा स्याद् भद्रपार्श्वज (ला?शा) लयोः ॥ ४६ ॥
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१. 'हरमाले 'ति लक्ष्ये पठ्यते । २. 'कुलशीले 'ति पूर्व पठिता । ३. 'शालाकन्दम्' इति स्यात् ।
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Ol.
समराङ्गणसूत्रधारे स च भागार्धमायामा(त्) प्रविष्टस्तावदेव च । कृत्वा तिसृषु दिक्ष्वेवं सुण्डिकाकन्दमध्यतः ॥ ४७ ।। प्रासादासमायामो सम्यक् तुण्डौ निवेशयेत् । तमोरपिच शाले द्वे भ्रमक्रमविभूषिते ॥ ४८ ॥ कार्ये मन्दार(शामा)ला स्यादेवं हरमनःप्रिया । सुण्डिकायर्या यदा तस्याः शाला सम्पद्यते तदा ॥ ४९ ॥ अनालेखा भवति जगती पार्वतीप्रिया । यत्रास्मिन्नेव विन्यासे मुखशाले विना कृते ॥ ५० ॥ शुण्डिकागण्ड + + न्यौ शाला सोपानमालिका । मुखशालान्विता सैव यदा नागोगना तदा ॥ ५१ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे द्वात्रिंशद्भाग(वि)भाजिते । चतुःषष्टिपदं मध्ये कतव्यं सुरमन्दिरम् ॥ ५२ ।। कार्यस्तस्य भ्रमः सम्यक् समन्ताच्च चतुष्पदः । भ्रम(न्तिान्ती) द्विपदायामे शाले (तु) भ्रमसंयु(तोते) ॥ ५३॥ स्वप्रमाणाद विधातव्ये मध्यगे भद्रकर्णयोः। स्युः षोडशप(द्रः दाः) कन्दास्तेषु शालाश्चतुष्पदाः ।। ५४ ॥ चतुर्वपिच कर्णेषु प्रविष्टा भ्रमजाः पदम् । कर्तव्यं द्विपदायामं भद्रशालायुगं तथा ।। ५५ ।। विस्तारात् प्र + पादोनमन्योन्याभिमुखं भवेत् । आयता(द) द्वयंशविस्तारा पदेनैकेन वेष्टिता ॥ ५६ ॥ भद्रशाला विधातव्या सार्धत्रिपदनिर्गमा । सौम्यानिलीवारुणीषु नैऋतीया(भ्ययो)रपि ॥ ५७ ॥ शाल्पस्तितः प्रतिदिश(मशालाग्नेय्यायदिना मुरविद्विषः)। अस्या एव मुखे शाला यदि तन्मकरध्वजा ।। ५८ ॥ अमराणां कृतानन्दा कृत्वनां मोक्षमाप्नुयात् । मुखशाला परित्यज्य यदैकैकाग्रकर्णयोः ॥ ५९ ॥ 1. 'उत्सवमालिके'ति निर्देश दृश्यते । २. नागरामेति पूर्वत्र पठिता।
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः । २२० शाला प्रदीयते सा स्यानन्यावर्त(यत्यहर्पतेः) । विकर्णकन्दधोराग्रे() यदास्याः पृष्ठवंशगा ॥ ६॥ द्विभागायामविस्तारा शाला भवति शोभना । चतुर्वसंस्थिता(?) शाला शालायाः संमुखी भवेत् ॥ ६१ ।। ताम्रमूला तदा ज्ञेया ब्रह्मविष्णुहरिहर)प्रिया । यदास्याः पृष्ठवंशस्था (हस्तायाम्योत्तरात्तथा ।। ६२ ॥ शाले क्रियेते.) तदा ज्ञेया पारिजातकमञ्जरी । (वारणीचतुष्टःस्थिताः) शालायाः सम्मुखी भवेत् ॥ ६३ ॥ (ताम्रयाम्यासौम्यासु?) शालाः स्युर्यदि वंशगाः । प्रिया स्यात् सर्वदेवानां तदा चूडा(मणिः प्रभोः१) ॥ ६४ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुरश्रः समन्ततः । दशांशः (स्यादुभायान्ता?) मध्ये प्रासादनायकः ॥ ६५ ॥ + + + पुरतश्चैवं पार्श्वयोरुभयोरपि । भ्रमास्तस्या विधातव्याः + + + पञ्चभिः पदैः ॥ ६६ ॥ कर्णकन्दाश्च कर्तच्या भ्रमसूत्राद बहिः स्थिताः । द्विभागायामविस्ताराश्चतुःशालोपशोभिताः॥ ६७ ॥ अमुनैव क्रमेण स्युभद्रकन्दाः पदाधिकाः । मूलप्रासादमालायां मालात्रितयधारिणाम्(१) ॥ ६८ ॥ कर्णे कर्णे तु याः शालास्ता द्वयंशायामविस्तृताः। द्विभागिकजलाधारा(स्तथा) भागपरिभ्रमाः ॥ ६९ ॥ पदम(वि)ष्टाम्बुपदा भ्रमपद्धतिसंयुताः। तुल्याश्चतुषु कर्णेषु तुल्या भद्रत्रयेऽपिच ॥ ७० ॥ भागद्वितयविस्तीर्णा भागत्रितयमायताः । (सृग)भ्रमाश्च कर्तव्या भ्रमशालादिशान्तयोः ॥ ७१ ॥
१. ' स्वहर्पतेः' इति स्यात् । २. 'भूगले'ति लक्ष्यनिर्देशे पट्यते। ३. 'मणि. प्रभा' इति पाठ्यं भाति । ४, इह क्षेत्रविभाजकांशादर्शनात् किचिल्लुप्तमिव प्रतिभाति,
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समराङ्गणसूत्रधारे शेषं च पूर्ववत् कार्य शुण्डिकागण्डमण्डनम् । स्यात् कर्णमञ्जरीत्येषा त्रिलोक्यानन्ददायिनी ।। ७२ ॥ कर्णमञ्जरिकामद्रे विभक्त दशभिः पदैः। द्विभागायामविस्तारां तुर्या शालां निवेशयेत् ॥ ७३ ।। उद (क) क्षणपूर्वाणि मुखान्यासां प्रकल्पयेत् । परिक्रम(स्त्रिास्तु) सर्वासां भागैकः सर्वतो भवेत् ॥ ७४ ॥ द्वौ भागौ भद्रकर्णाभ्यां संक्षेपो(भ्याभयपार्थयो)। भागिकोभयविस्तारा भद्रेऽन्या कर्णिका भवेत् ।। ७५ ॥ पदैः षोडशभिर्युक्तता)विचित्रभ्रमविभ्र(म?मा) । भद्रास्या (च) चतुष्की स्यात् पुरतः संवृतान्त(रा)) ॥ ७६ ॥ श्रीमण्डपं प्रकुर्वीत प्रभूतस्तम्भमण्डितम् । (दितामेतानेन परिक्षिप्तं छाधकाले हसंयुत?) ॥ ७७ ।। (एश्वास्याद् विश्वरूपे च कस्यायास्तुदपरस्कराः) । चतुष्किका(भि)स्तिसृभिर्भवेत् त्रैलोक्यसुन्दरी ।। ७८ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भक्त द्वादशभिः पदैः। त्रिभागायामविस्तारा मध्ये शाला चतुर्मुखी ।। ७९ ।। सर्वतः सार्धभागा(च) कर्तव्या पदपद्धतिः । तस्याः प्रागुदक++++ शालाचतुष्टयम् ।। ८० ॥ द्विभागायामविस्तारं विधातव्यं सुशोभनम् । भागिकालिन्दकेनैतत् स्यात् प्राक्से+न वेष्टितम् ॥ ८१ ॥ कक्ष्यास्थाभिर्द्विभागाभिः कर्णिकाभिरलङ्कृतम् । एवैत् कर्णमञ्जर्याः कर्णे ++ विधीयते(?) ॥ ८२ ॥ जगती स्याच्छिवस्येष्टा तदा गन्धर्व(मावालिका । इय(वे.मे)वापरे भागे चतुथ्यो शालयान्वि(तं.ता) ॥ ८३ ॥ विज्ञेया जगती नाना विद्याधरकुमारिका । अपरस्यां चतुर्थी थीं) तु हित्वा शालां (विनीयते?) ॥ ८४॥
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः ।
ते द्वे + ( कुद्योः) कुर्वीत सुभद्रां त्रिदशप्रियाम् । ( चतसृषु भद्रेषु प्रत्येकं पञ्च कर्णिगा ॥ ८५ ॥ शालाः स्युर्यदिचन्द्राष्टाः) तदा स्यात् सिंहपञ्जरा | चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्दशविभाजिते ॥ ८६ ॥ त्रिभागायामविस्तीर्ण मध्ये देवकुलं भवेत् । भागेनैकेन कर्तव्यो भ्रमो दिक्षु तिसृष्वथ ॥ ८७ ॥ प्रासादायामविस्तीर्णे तस्याग्रे मुखमण्डपः । भद्रस्य पार्श्वद्वितये बाह्यतो भद्रविस्तृत (म्) || ८८ ॥
शालायुग्मं विधातव्यं त्रिपदायामविस्तृति | भागिक (भद्रमा भ्रम) णोपेतं (यदिकाच्च पयास्वितः) ॥। ८९ ।। द्विभागायामविस्तारे भागिक भ्रमणान्विते ।
शाले द्वे पुरतः कार्ये साम्मुख्याच्च परस्परम् ॥ ९० ॥
(पञ्चस्वलं ?) भवेदेवं पृष्ठभद्रं यदा शुभम् । याम्योत्तरे चतुःशाले (भद्रद्वयपञ्चकञ्जराः) ॥ ९१ ॥ पृष्ठभदं यदैतस्या + + + न्मध्यशालया । (कक्षाभद्रे तया स्यायुते?) गन्धर्वनगरी तदा ॥ ९२ ॥ पञ्च त्रीण्येव भद्राणि पञ्चशालान्वितानि च । (शिशुतत् ) पत्रिंशत्तमा ज्ञेया सा जगत्यमरावती ॥ ९३ ॥ शुण्डिकाग्रे यदैतस्याः शाला सम्पद्यते कचित् । तदा स्याद् दन्तचूडेति जगती जगतः प्रिया ॥ ९४ ॥ (इनि) शुण्डिकाशाला गण्डशालाद्वयान्विता । त्रिदशेन्द्रसभा ज्ञेया ससुण्डी देवयन्त्रिका ॥ ९५ ॥ (इति चतुरस्राणां कीर्त्यतेषायताः कासानकामाः) । सप्तभागायते क्षेत्रे भागपञ्चकविस्तृते ।। ९६ ।। द्विभागायतविस्तारे स्तः शाले वामदक्षिणे । चतुष्किकैकभागेन तयोरेवाग्रतो भवेत् ।। ९७ ।।
१. ' रत्नधूमा' इति पूर्व पठितम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे भ्रमश्च भागिको मध्ये समन्ताच्च विधीयते । प्रतोल्या भूपिता खण्डशुण्डिकाभिरलङ्कृता ॥ ९८ ॥ मत्तवारणशोभाढ्या (यमालेखा) प्रकीर्तिता । यदा स्यात् पृष्ठतः कन्दो भागत्रितयविस्तृतः ॥ ९९ ॥ भागत्रितयनिष्कामश्चतुर्धा भाजितः पुनः । द्विभागायामविस्तारा शाला भागद्वयं भ्रमः ॥१०० ॥ तदा पयोधरा नेत्रा शालाभ्यामग्रपृष्ठयोः । (नेत्राद्याश्चेत्यरशालास्यातां तु काया ।। १०१॥ पौरस्त्ययोरुभयोः साम्नमृत्कन्दो भागनिर्गतः)। भागमन्तः प्रविष्टश्न विभाज्यः सोऽपि पूर्ववत् ॥ १०२ ॥ (शालयोः स्यांतमोमानभ्रमयोरपि पूर्ववत् । पार्श्वयोमण्यं चागौ द्वे च चेन्मूलशालायाः ॥ १०३ ॥ शेषं तु पूर्ववत् सर्वदोर्दण्डा प्रासादाः प्रकीर्तिताः) । दोर्दै(ण्डयोण्डाया)स्तु पार्थेऽपि शालासुश्लिष्टकर्णयोः॥ १०४ ।। राक्षसानिलयोः शाळे कुर्यादाखण्डला भवेत् । आखण्डालायास्तु यदा पश्चाच्छाला विधीयते ॥ १०५॥ (पयो यं सरयोनि इव वच्छिदेति?) जगती भवेत। (शिवायं वारुणी यद्वा शालात्रयविभूषिता ॥ १०६ ॥ शुण्डिकारालय मचेन्माहेन्द्री वंपका तदा । कोकणेषु यमेलायासाद्यदा शालाचतुष्टय ॥ १०७॥ भन्नयोऽपि तिस्रस्ताः पूर्वभद्रममालकम् । ये कणे व + कन्दाः स्युः सार्धयंशविनिर्गतः) ॥ १०८ ॥ चतुर्भिस्तेषु भक्तेषु शाला भागद्वयं भवेत् । भागं भागं भ्रमण्यः स्युः कर्णशाला इमा बहिः ॥ १०९ ॥ (त्रिनिष्क्रान्ता सृविस्तीर्णा भद्रकन्दास्थिते बहिः । चतुर्भित्येषुतैः शाला स्युरा| भ्रमस्तथा ॥ ११० ।। 7. 'यमलैषा' इति स्यात् ।
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्तस्तिमोऽध्यायः । पदार्घसंमितः कुष्टौ जलमार्गो विधीयते । पृष्ठसाधोसिकास्तस्या द्वै कुलामोदिकाष्टमा ॥ १११ ॥ भागार्धयलमाला+++द्वितयशालिना। पृष्ठभद्रेण जगतीतिलकाले केचिस्तुता) ॥ ११२ ।। एतस्यां शुण्डिकायां स्याच्छाला चेन्मुखभूषणम् । असो + पल्लवा ना(वाम) जगती जायते सदा ॥ ११३ ॥ तिलका गण्डकण्डेषु(?) शा(लाले) द्वे भ(ब)तो यदा । (तेदा सिद्धार्थसंमुखां:) तदा विद्याधरी भवेत् ॥ ११४ ॥ त्रिविस्तृतं द्विनिष्क्रान्तं पृष्ठशालातलं यदि । विद्याधर्याः पृष्ठभद्रे तदा यक्षं विनिर्दिशेत् ।। ११५ ॥ षड्भागविस्तृते क्षेत्रे दशभागकृतायते । द्विभागायामविस्तारं कुर्याच्छालात्रयं बुधः ॥ ११६ ॥ तदने तत्समं कुर्यान्मण्ड(पा अधिवाधिका?) । यथाकामं प्रकुर्वीत कर्मशोभाविभूतये ॥ ११७ ॥ ++भागं भ्रमं कुर्यात् तासां पार्थचतुष्टये । (विशेषकरणायंच शालानां मध्यमैरपिः) ॥ ११८ ॥ मत्तवारणसंयुक्ताः सुण्डिकागण्डमण्डिताः। इयं त्रिकूटा जगती ख्याता (तृपुषपूर्याः) ।। ११९ ॥ त्रिकूटा पूर्ववंशस्था त्रिभागाथामविस्तृता । (विदध्यात् सवमां शालां प्राग्वत् स्याचित्रकूटिका) ॥ १२० ॥ यथा पृष्ठे तथाग्रेऽपि यदि शाला विधीयते । तदा सरनिकूटीति विज्ञेया जगती बुधैः ॥ १२१ ॥ (युक्ता प्राणास्य लाभ्यामनशालाविवर्जिता)। उपमेवाजोत्तमा?) सा जगती विश्रुता भुवि ।। १२२ ॥ नैर्ऋतानलकारवीशकर्णमासादकैर्युता । (त्रिकूटैभवेन्नन्दै विभक्तपडला यथा ॥ १२३ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे चित्रकूटा क्रमान- द्विभजनं पूर्विविकूटवद् विचक्षणः । त्रिकूटायामतो रूपे सिद्धिद्वयायामविस्तृतम्?) ॥ १२४ ॥ कर्णे कर्णे कृतं कन्दं चतुर्धा प्रविभाजयेत् ।। भागद्वयेन शाला स्याद् भागेन भ्रमणं तथा ॥ १२५ ॥ (मूलतार्धविस्तारं भवतच्छेह मानतः । याम्योत्तरे चतुर्भागविस्तार भागं निर्गताम् ॥ १२६ ॥ +++++++ भद्रं भागिकद्वयान्वितम् )। शेषं तु भ्रमणं तत्र मध्यपार्थेषु कारयेत् ॥ १२७ ॥ एवमग्रेऽपि शाले द्वे द्वारस्योभयपार्श्वयोः । कर्तव्ये भागनिष्क्रान्ते भागिकायामविस्तृती ॥ १२८ ॥ पृष्ठभद्रं च कर्तव्यं सा(शद्वयविस्तृतम् । द्विभागनिर्गमं युक्तं शालया सार्धभागया ॥ १२९ ॥ याम्योत्तरेण चास्यैव कार्य शालाद्वयं ततः । (प्रमाणे पसन्नकार्ये भागे प्रवेशनम् !)॥ १३०॥ शेषो भ्रमः स्याच्छालानां सप्तानां मध्यगस्ततः। स्याच्छैवी (श्रयणी) त्वेषा सर्वामरगणप्रिया ।। १३१ ॥ अस्या एव मुखे शाला यदा संजायते तदा । त्रिविक्रमेति विख्याता जगती जायते शुभा ॥ १३२ ॥ यदा सार्धविनिष्क्रान्ते सार्धाशद्वयविस्तृते । पार्श्वभद्रद्वये शाले भवेतां भागविस्तृते ॥ १३३ ॥ ++++++सार्धभागि(कंक)भ्रमणान्विते । (लिप्यते चापि मा शाला?) क्रमायाता तदा भवेत् ॥ १३४ ।। शालायाः शुण्डिकाग्रे तु त्रिपथा सैव जायते । (चतुर्यातो प्रोक्ताः) कथ्यन्ते वृत्तजातयः ॥ १३५ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्भागविभाजिते । मध्ये देवगृहं वृत्तं सा(शायामविस्तृति ॥ १३६ ॥ 1. 'चतुरश्रायताः प्रोकाः' इति स्यात् ।
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः । २३३ भ्रमयेज्जगतीवृत्तं (समगां?) भागिकं ततः । पूर्वोक्तविधिना कार्य पार्श्वतो मत्तवारणम् ॥ १३७ ॥ गोपुरद्वारशोभाढ्या जगती वलया भवेत् । वलयापृष्ठतः कन्दं मूलशालासमायतम् ॥ १३८ ।। पूर्वोक्तविधिना भक्तां शालां कुर्यात् तदर्धतः। कलशेयं समाख्याता जगती कलशाकृतिः ॥ १३९ ।। कर्णस्थं द्विपदायामं कर्णशालाचतुष्टयम् । चतुरश्रं भवेद् यत्र (शानार्थे +१)भिधीयते ॥ १४ ॥ सप्तभागायते क्षेत्रे चतुरश्रे समन्ततः । भागांस्त्रीन् वर्जयेदने चतुरः(पृव्यन्तरश्चतान्?) ॥ १४१ ॥ सार्धास्त्रीन पार्श्वयोर्भागांस्त्यक्त्वा (गर्भततोकयेत् !) । द्विभागायामविस्तारं वृत्तं स्याद् देवमन्दिरम् ।। १४२ ।। भागमेकं भ्रमस्तस्य विधातव्यः समन्ततः ।। भ्रमण्याः पृष्ठतः कन्दो भागायामविभूषितः ॥ १४३ ॥ तस्यान भवेच्छाला तदर्धन परिक्रमः । गर्भाद् भागद्वयस्यान्त ईशानानलयोर्दिशोः ॥१४४ ॥ द्विभागौ भवतः कन्दावर्धभागप्रवेशितौ । पृष्ठशालोर्ध्वगे तिर्यसूत्रे(ण?) दत्ते भ्रमान्तिके ॥ १४५ ॥ कर्णिकाद्वितयं कार्य राक्षसानिलयोर्दिशोः। (व्यय?)शालां च कुर्वीत पृष्ठशालासमां ततः ॥ १४६ ॥ प्राक (च.) पश्चात् कन्दगर्भ(स्थास्थासूत्रद्वितययोगतः। कुर्वीत कर्णि(काका) तीक्ष्णाक्षणां)पाश्वयोरुभयोरपि॥ १४७ ।। (शेषा भी) पूर्ववत् सर्वा शुण्डिकादिक्रिया भवेत् । (यदागभी?) करवीरेयमीशादित्रिदशमिया ॥ १४८ ॥ एतस्या एव पृष्ठस्था यदा सन्त्य(पीष्ट) कर्णि(को?काः) । वामशाले विधीयते नलिनीति तदा भवेत् ॥ १४५ ॥
१. 'सा कर्णेत्य' इति स्यात् । २. 'पृष्ठतश्च तान्' इति स्यात् । ३. 'गर्भ ततोऽप्रत्येत्' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
(दत्तंशस्य सालिख्यात् तया दृभिः पदैः !) | सूत्राणि पातयेत् तस्य ततो दिक्षु विदिक्षु च ॥ १५० ॥ प्रासादभ्रमणस्यान्ते द्विपदायाम (व विस्तृती (न्) | कुवताष्टसु सम्पातेष्वष्टौ कन्दान् समन्ततः ॥ १५१ ॥ (विधाय तां चतुर्भक्तां कुर्याद् ज्रामांस्तथा) | अन्तरेण च कन्दानां कर्तव्यं कर्णिकाष्टकम् ।। १५२ ।। देशात् सार्धं यदा सूत्रे (?) यथा सम्पत्स्यते मिथः । पार्श्वद्वयात् कर्णिकानां संस्थानं स्यात् तथाविधम् ।। १५३ ॥ भक्त्वैवं सर्वभद्राणि त्रिपदोऽन्तः सुरालयः । पार्श्वभ्रम व्यर्धपादो (?) दशधा भाजिते भवेत् ॥ १५४ ॥ कन्दा द्विपदाः कार्या बहिर्दिक्षु विदिक्षु च । अन्योन्याभिमुखास्तेषु शालाः कार्या यथोदिताः ॥ १५५ ॥ ( शक्तियस्ता समीक्षते ? ) विष्णोरप्रतिमौजसः । कार्येयं तस्य (तान्येयु::) (ऍण्डरीकविनामतः १) ।। १५६ ।। एतस्याः कर्णिकास्थाने यदा वृत्तं प्रकल्प्यते । तदानीमापत्रं स्यात् कर्तव्या ब्रह्मणश्च सा ।। १५७ ॥
कृत्वा वृत्तायतं क्षेत्रं विभजेद् दशभिः पदैः । तस्य मध्ये विधातव्यं देवागारं पदैखिभिः ॥ १५८ ॥ तस्य पार्श्वेषु कर्तव्यो भ्रमः सार्ध (द्वि) भागिकः । द्विभागं बाह्यवृत्तं स्यात् तत्र कुर्यादिमां क्रियाम् ॥ १५९ ॥ भागैर्द्वादशभिस्तच तुल्यमानैर्विभाजयेत् । एकैकं च पुनर्भागं चतुर्धा तेषु भाजयेत् ।। १६० ।
द्विभागायामविस्तारा शाला मध्ये विधीयते । भागिकश्चतुरश्र दिछा ( ( ) ला (नृः त्रि) तये भ्रमः ॥ १६९ ॥ 'वामदक्षिणतः शाले (ताँ) ये भवतः शुभे ।
ते वृत्ते संविधातव्ये संमुखे च परस्परम् || १६२ ॥
१. ' विधाय तांश्चतुर्भकान् कुर्याद् दिक्षु भ्रमांस्तथा' इति स्यात् । नामतः' इति स्यात् । ३. 'तास' इति स्यात् ।
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२. 'केति
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः । २३५ (शाला तु खुमागस्याच्छालार्धभागाविस्मृतः) । कल्प्यस्तेनैव मानेन (सञ्चावा?) भ्रमणं भवेत् ।। १६३ ॥ जगत्येषा समाख्याता चक्रवालेति नामतः ।। दिवाकराय कर्तव्या सग्रहायाथवेन्दवे ॥ १६४ ॥ (समक्षवायभद्रायामात्रिषुक्तायं वा पुनः) । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागविभाजिते ।। १६५ ॥ गर्भात् कोणगसूत्रेण सर्वतो वृत्तमालिखेत् । बहित्रिपदविस्तारं कन्दं कुर्याच्चतुष्पदम् ॥ १६६ ॥ शा(लाया'लां) च द्विपदायामां विस्तारात सार्धभागिकाम । शेषं तु भद्रशालायाः समन्ताद् भ्रमणं भवेत् ॥ १६७ ।। भद्रस्योभयतो वृत्ते द्विभागायतविस्तृते | शाले च वृत्तयोरन्तर्भागिकायामविस्तृती ॥ ॥ १६८ ॥ याम्यसौम्यापरास्वेवं दिक्षु भद्रत्रयं भवेत् । साधेमायामविस्तारा(स्तत्तदर्धभ्रमणान्विताः ॥ १६९ ।। शाला विदिक्षु कर्तव्याः शोभनाश्चतसृष्वपि । भद्रमध्ये स्थितां शालां हित्वा प्राच्या(तु सा) भवेत् ॥ १७० ॥ सार्धमायामविस्तारा(स्तीत्तदर्धभ्रमणान्विता । सनक्षत्राय सोमाय कर्तव्या पुष्टिहेतवे ॥ १७१ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभांगविभाजिते । पञ्चभागायतां मध्ये शालां वृत्तां प्रकल्पयेत् ।। १७२ ॥ सार्धभागद्वय(स्तः)मिता देवागारस्य बाह्यतः । (अमण संविद्यातव्यः) कर्णशालाश्च कर्णगाः ॥ १७३ ॥ कर्णमानं बहिर्वृत्तं भ्रमयित्वा(सारन्दसमन्ततः । भद्रोपभद्रकर्णेषु वृत्ताः शालाः प्रकल्पयेत् ॥ १७४ ॥ पदद्वयसमायामा(:) पदत्रितयविस्तृताः) । भागि(कारक)भ्रमणोपेता(:) शालाः कुर्वीत भद्रजाः ॥ १७५ ॥ १. 'भ्रमणाः संविधातव्याः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे द्वे भद्रात् पार्श्वयोः शाले द्वे च प्रतिरथाश्रये । भागिकायामविस्ता(रा?रे) कुर्यादर्धपरिभ्रमे ॥ १७६ ॥ (वौबा)हल्यायामतः सार्धभागा(४) शालार्धकर्णगा। तासां तदर्धमानेन विधातव्यः परिक्रमः ॥ १७७ ।। प्रविष्टौ तु पदार्धन भद्रान् प्रतिस्थावुभौ । इत्येषा जगती प्रोक्ता मानतश्चन्द्रमण्डला ।। १७८ ।। अथ वृत्ता++ ब्रूमो जगतीः षड् यथाक्रमम् ।। पञ्चभागायताः क्षेत्रा विस्तरेण चतुष्पदाः(१) ।। १७९ ॥ विदध्यादायतं वृत्तं (चमस्यां भवभागिकः) । मध्ये स्यात्(त्रिपदास्तामा सद्विपदविस्तृताः) ॥ १८० ।। मत्तवारणसंयुक्ता (यप्र)तोल्यालङ्कृता शुभा। सोपानशुण्डिकाप्रान्तं ++ गण्डितमण्डिता(?) ॥ १८१ ।। उक्तेयं मातुलिङ्गीति जगत्यमरवल्लभा । अस्या एव यदा पृष्ठे द्विभागायामविस्तृतिः ॥ १८२ ॥ शाला पूर्वक्रमेण स्यात तदा ज्ञेया घटीति सा । तद्रूपे (तद्यतालालं.) द्वे शाले वामदक्षिणे ॥ १८३ ॥ (यदि पश्चिमशाला च तत्रेस्यायमती जगती तदा?) । घटीकर्णेषु सर्वेषु द्विभागायामविस्तृ(ती?ताः) ॥ १८४ ॥ यदि स्युभ्रंमसंयुक्ता(:) शाला(:) प्राग्वद विभाजिता(:)। (कुरुक्ष्येधोयंतरिक्षे द्वे च पृष्ठे वातन्तदूये?) ।। १८५ ।। कालिङ्गीयं भवेदेवं (पार्श्वयो अंयुलमदात्रेपुट)। (पुस्यांसुःएतस्यां तु) यदा शाला शुण्डिकाननसं(त्रिस्थि)ता ॥ वृत्तायतविनिर्माणा जगती स्या(ष्टत्) ++++ ।
एता वृत्तायताः ॥ बमोऽथाष्टाश्रिसंस्था(नाना) जगतीः शुभलक्षणाः ॥ १८७ ॥ चतुरश्रीकृतं क्षेत्रं सपादैर्दशभिर्भजेत् । परित्यजेत् ततः सूत्रं कर्णे कर्णे पदत्रयम् ।। १८८ ।। १. बचायताः' इति स्यात् । २. 'त्रिपदायामा साद्विपदविस्तृता' इति स्यात् ।
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जगतीलक्षणं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः । २३७ सपादश्चितुरो भागान् मध्यभागेऽवशेषयेत् । संसिध्य(तेति) च साष्टाश्रि तस्याईं स्यात् सुरालयः ॥ १८९ ।। अष्टाश्रिमध्यभागस्थः + शेष भ्रमणं भवेत् । प्रासादश्च (च)तुरश्च(च?)तुर्भिर्मण्डपैर्यु(तातः) ॥ १९० ॥ (प्रासादसाकसूत्र?) मुखलिङ्गं निवेशयेत् । मूलकन्दार्धतः (कन्दा क्रमादिक्षु च?) ॥ १९१ ॥ तुल्यप्रमाणकानष्टौ चतुर्भागविभाजि(तातान)। भ्रमशालाच पूर्वोक्तक्रमेण परिकल्पयेत् ॥ १९२ ।। सोपानशुण्डिकागण्ड(स्तागो)पुराद्यैरलङ्कृताः । (करव्यासामेरुपेता ववा सर्वायमुदाहृता?) ॥ १९३ ॥ कृत्वा पूर्ववदष्टाश्रि क्षेत्रं भद्रं (विद्वि)धा भजेत् । कुर्याद् भागार्धकं भद्रे पक्षयोश्च विनिर्गतम् ।। १९४ ॥ तद्विस्तारं भजेत् षड्भिर्निर्गमस्तैत्रिभिः पदैः । परिक्रमो भवेत् ++ पार्श्वयोः पृष्ठ(तो)ग्रतः ॥ १९५ ॥ शेषं (शाला)युगं कार्य भागद्वितयमायतम् । सार्धभागिकविस्तारं (संघचेस्यरस्य च?) ॥ १९६ ।। अनेनैव प्रकारेण भद्रे भद्रे भवेद् गतिः । कर्णभद्रं विधातव्यं त्रिपदायामविस्तृति ।। १९७॥ चतुर्धा भाजिते तस्मिन् भागेन भ्रमणं भवेत् । शेषं तु शाला विज्ञेया द्विपदायामविस्तृता ॥१९८ ।।. विदिग(न्ते)षु सर्वेषु न्यासोऽयमतिसुन्दरः । मूलशाला तु कन्दार्धे (भ्रंमचाधीभ्रमं ततः) ॥ १९९ ।। मातृकेयं समाख्याता (जगतुपसरचन्दितकिन्नरोशप्रदितिः) । भद्रं++ पदेभ्यः स्याद् (भद्रीभाग)त्रितयनिर्गतम् ॥ २०० ।।
१. 'कन्दान् क्रमाद् दिक्षु विदिक्षु च' इति स्यात् । २. 'भ्रमश्वार्धनमस्ततः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे चतुर्भागिकविस्तारं त्रिपदायामकन्दकम् । तदा स्थाच्छेखरा नाम भत्रितयभूषिता ॥ २०१॥ नित्यप्रमुदितानेकदेववृत्त्तदन्द)कृतास्पदा । भाग(ष्टयाष्टा)श्रीकृते क्षेत्रे चतुर्भागविभाजिते ॥ २०२ ।। द्विभागायामविस्तारे प्रासादे दशमे भ्रमे । अश्रिभिः समविस्तारा(दासष्टो++?) प्रकल्पयेत् ॥ २०३ ॥ सदा भागप्रविस्तारं रान ) तांश्च कुर्यात् पृथक् पृथक् । निर्गमेण चतुर्भा(गोगान् ) भागिकभ्रमणान्वितान् ।। २०४ ।। द्विभागायामविस्तारं मध्ये शालाद्वयं भवेत् । पयगर्भयमित्युक्ता प्रजापतिमनःप्रिया ।। २०५ ॥ भवे(तादा)र्यादिदेवीनां सदा चित्रीत)प्रसादिनी । विधाय(क्षेत्रमष्टास्तवदर्धायामविस्तृतौ?) । २०६ ।। मध्ये देवगृहं कार्य तदर्धेन भ्रमो बहिः।। भद्रं भवेद द्वादशभिस्तैश्चतुर्भिर्विनिर्गमः ।। २०७ ।। तस्य(स्यात्य?) भद्राणां निर्गमोऽपि चतुष्पदः । विस्तारः षट्पदस्तेषां चतुर्भिस्तं विभाजयेत् ॥ २०८ ॥ भागार्धेन (च) शाला स्याद भागत्रितय(स.)मा(यात्म्यता) । भ्रमश्च स्या+(त्तु)कर्तव्यो भागं तत्पार्धयोः (रुद्रायाः) ।। २०९ ॥ द्विभागायामविस्ता(रा? रे) शाले स्यातां पदभ्रमे । इयमंशुमती प्रोक्ता जगती शुभलक्षणा ।। २१० ॥ विधाय क्षेत्रमष्टाश्रि तदर्धायामविस्तृति । मध्ये देवगृहं कार्य तदर्धेन भ्रमो बहिः ।। २११ ॥ पासादसमविस्तारं भद्रं कृत्वा ततो भजेत् । चतुर्दशभिरस्य (स्यान्नितिर्यमो?) दशभिश्च तैः ॥ २१२ ॥ १. 'नष्टौ कन्दान्' इति स्यात् । २. क्षेत्रमष्टानि तदर्धायामविस्तृति' इति
स्यात । ३. 'स्यान्निर्गमो' इति स्यात् ।
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लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः ।
मौलिक भ्रमणस्यान्ते त्रिपदायतविस्तृता । शालातिशोभना कार्या सार्धभागभ्रमान्विता ॥ २१३ ॥ द्विपदायामविस्तारे भागिक भ्रमणान्विते । कर्तव्ये पार्श्वयोस्तस्याः शाले द्वे चारुदर्शने ॥ २१४ ॥
प्रतिभद्रं विधातव्यं भागपञ्चकविस्तृतम् । भागत्रयं प्रविष्टं च तत्र शाला त्रिभामिकी ॥ २१५ ॥
भागद्वितयविस्तारा भागिक भ्रमणान्विता । पार्श्वयोः प्रतिभद्रस्य कर्णिके भागनिर्गमे ॥ २१६ ॥ साभागा स्यातां कर्णाः शालायुगान्विताः पूर्ववच्छुण्डिकायं च कमलेयमुदाहृता || २१७ || चतुर्दशविभक्ता सप्तस्वस्तिषु (?) कल्पयेत् । निर्गमायामतुल्यासु शालाः पञ्च पृथक् पृथक् ।। २१८ ॥
अग्रभद्रे तु कर्तव्यं शालात्रितयमुत्तमम् ।
इति विज्ञेय :) समाख्याता शाला वज्रधरप्रिया ॥ २१९ ॥
इत्थं जगत्यश्चतुरश्रसंस्थाः (स्पदायतां?) वर्तुलसन्निवेशाः ।
( वृत्तायता थस्तियुताश्रयः सम्यग् )
जङ्घाः सदा शिल्पिभिरप्रमत्तैः || २२० ||
इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाभि वास्तुशास्त्रे जगती लक्षणाध्याय नामैकोनसप्ततितमः ||
20:
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अथ लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः ।
अथ प्रमाणं लिङ्गानां लक्षणं चाभिधीयते । (लोहं हस्तत्रिभागेन कनीयसम् ) ॥ १ ॥
१. 'स्तदायता ' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे (ध्यंशवृद्धानावेवं स्युराहस्तात्रतवाविधेः) । (इस्वमध्योत्तमाख्यानि त्रीणि त्रीण्यकल्पकादिभिः ॥ २॥ लिअनामभिः प्रासादस्यानुसारतः) । अतश्च द्विगुणानि(स्युवारुणाजानि प्रमाणतः?) ॥ ३ ॥ (त्रिगुणान्यस्माजातानि?) मृत्तिकाप्रभवानि च । स्वस्य स्वस्य कनिष्ठस्य पदेन परिवर्तनात् ।। ४ ॥ कनिष्ठायाने(?)हीनं च कर्तव्यं लक्षणं बुधैः । (सप्तमे यदि वा तिर्यग्रजलोधसनिभाम् ।। ५ ।। स्तम्भद्रातौ दैतकैवलेषा विष्णुवारिताः) । पक्षरेखा विधातव्या लक्षणोद्धरणार्धनी(?) ॥ ६ ॥ पक्षक्षेत्रे कृते पोढा त्यक्ता(शकरैर्वृता(१) । पुत्रार्थिनां पक्षलेखा हिता (राद्यपिर्थिनानामपिः) ।। ७ ॥ अष्टभिनेवभिर्वास्मिन् भक्ते त्यक्त्वांशकावधः। स्यात् पक्षलेखा षभिश्च सप्तभिश्चेष्टकामदा ॥ ८ ॥ यद्वा षोडशभिर्भक्ते विहायाधोंऽशकद्वयम् । (पशुरेखासरैनन्दैः स्तर्यैः शक्रैश्च शस्यते?) ॥ ९॥ लिङ्गेऽगुलानि यावन्ति यकव्यशैस्तदुन्मितः । लक्षणाद्वारणा कार्यमन्तरं लक्ष्यरेखयोः (१) ॥१०॥ रेखान्तरेषु (मांशस्य नर्थाशे) पूर्वकसम्मितम् । खातं कुर्वीत रेखायां विस्तारं च विचक्षणः ॥ ११ ॥ कुर्यान्न लक्षणे द्वाःणोद्धार लिङ्गे (लोहेचरत्रजे?) । बाणलिने चले चापि (तथातोजाहिलक्षणम् ) ॥ १२ ॥ पूजांशमेकादशधा भक्त्वोचं सर्वतः स(माम)म । तिर्यक् तथैकनवति भागानां शिरसो भजेत् ॥ १३ ॥
१. 'वंशवृद्धा नवैवं स्युरा हस्तत्रितयावधेः' इति स्यात् । २. 'स्युर्दारजानि प्रमाणतः' इति स्यात् । ३. 'त्रिगुणान्यश्मजातानि' इति स्यात् । ४. 'विद्यार्थिनानामपि ' इति स्यात् । ५. 'लक्षणोद्धारणं कार्यमन्तरे पश्चरेखयोः' इति स्यात् ।
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लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः । २४१ भवेत् सहस्रं लिङ्गानां सैकमित्यसमैः पदैः। सहस्रलिङ्गमित्युक्तं (पश्चाङ्कव्यङ्कमेवताः) ।। १४ ।। (अर्था विभागं ववधा लिङ्गे सर्वमे भावयेत्?) । ऊर्ध्व भागत्रयं त्यक्त्वा भागभागेन कल्पयेत् ॥ १५ ॥ भागेन (शकास्य?) ग्रीवाः कुर्यात् ततः परम् । भागद्वयेन (स्कन्धांशपणै युग्मपटानि च?) ॥ १६ ॥ (पुष्पसंस्थे च?)माशासु चिहिते चतसृष्वपि । चतुर्मुखं भवल्लिङ्गमर्चितं सर्वकामदम् ॥ १७ ॥ त्रिमु(खं खे) तु ललाटा(दी)(नान्य)ङ्गान्यंशेन साध्रिणा। पृथक् पृथक विधेयानि शेषांशात् स्कन्धकल्पना ।। १८ ।। एकचक्रे(?) तु सार्धेन ललाटा(दानादीनि) कल्पयेत् । नवभक्ते (त्याने त्यजेद्) द्वौ द्वौ विभागौ पार्श्वयोर्द्वयोः ।। १९ ।। विधिरेष चतुर्वक्त्रे (विभक्ते?) पार्श्वयोर्द्वयोः । साधं सार्धं त्यजेद् (भूषा?)मेकवक्त्रे(र्धशस्य च !) ॥ २० ॥ चन्द्राधोलकृतं कार्य (कू?ज टाकूटधरं शिरः। शिरसो (वंतते?) कायर्या पूर्वप्रोक्तेन वर्मना ।। २१ ॥ (एकत्र चातुरो स्यातां विसृते?) मुखनिर्गमः । स्याद्वा विभाग(राकेन्द्रि काराख्यैर्यथाक्रमम?) ॥ २२ ॥ मुखलिङ्गं न कर्तव्यं लिङ्गात् सर्वसमाते । सर्वेषां मुखलिङ्गानां द्विदलं पीठमिष्यते ॥ २३ ॥ (तेज दैर्ध्य?) जायन्ते त्रयस्त्रिंशत् सहोदितैः । (लो?लौ)हानि तद्वद् दारूत्थान्य(स्माश्म मृ(त्पत्य)भवानि च ॥ तेषां (यवनवाल्यायान्यान्तराणि च ततोऽपि षट् !) । चतुराद्याश्चतुर्थीदा हस्तेः (सहस्तपद्धतः) ॥ २५॥
1. 'एकवक्रे' इति स्यात् । २. 'भाग' इति पाठः स्यात् । ६. 'वर्तना' इति स्यात् । ४. 'एकत्रिचतुरास्यानां विस्तृतेः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे ये प्रासादा निरन्धारा नवलिङ्गानि तेष्विह । पञ्चद्वादशायेषु साधारेष्वा शतार्धतः ।। २६ ।। एकाघेकोत्तरैहस्तैः शैलजानि प्रचक्षते । प्रासादगर्भमानाद् वा प(ञ्चदश्चां)शैस्त्रिभिरुत्तमम् ॥ २७ ॥ नवांशैः पञ्चभिर्मध्यं कनीयोऽर्धेन तद् भवेत् । प्रभेदैरन्त(र?)स्तेषां यथायोगं त्रिभित्रिभिः ॥ २८ ॥ षडन्यानि भवन्त्येवं नवलिङ्गानि पूर्ववत् । तेभ्योऽप्यवान्तरै दैः प्राग्वत् सत्रिविधैर्युता(?) ॥ २९ ॥ दिशानया दारुजानि '++ यल्लोहजानि च ।। (दौप्पेल्दैध्ये) षोडशधा भक्ते चतुर्भिः सुरपूजितम् ।। ३० ॥ लिगं विष्कम्भतो (नाद्यं भूतैः स अंशतैः) शुभैः । भवेद सर्वसमं षड्भिराद्याख्यं चतुरश्रकम् ॥ ३१ ॥ कोणे का?)र्धसूत्रेण लाञ्छिते शेषलोप(मा:नात् । अष्टाभि स्यात् सप्तभक्ते (होनातुणेशयोरन्थः) ॥ ३२ ।। गर्भसीमार्धसूत्रेण वर्तनाद् वृत्तनिर्मि(ताता)। अधोमध्योर्ध्वभागाः स्युश्चतुरश्रादिकाः क्रमात् ॥ ३३ ।। ब्रह्मविष्णुमहेशानां दैयाल्लिङ्गे समोत्तमाः । (नमस्तेष्वपि लिङ्गानां थुथुभागतः) ।। ३४ ॥ (पूनाधेवैः) विधातव्यौ भागौ ब्रह्मशिवाश्रयो । लिङ्गस्य दैर्घ्यजं पीठे विस्तारोऽसौ विधीयते(?) ॥ ३५ ॥ लिङ्गविस्तारतश्चान्यत् पार्श्वपीठे विशिष्यते । तत्समो ब्रह्मणो भा(गगात् संप्रदायापहृत्य वा ।। ३६ ॥ रुद्रभागो विधातव्यो ब्रह्मभा(गे गो)ऽपि तद्वशात् । एवं कृते परिहृत(स्वास्त्वा )यदोषो भवेदिह ॥ ३७ ॥ फर्तुः (कैरेष्टेतुचः) स्यात् तस्मिन् परिदृते शुभम् ।
ऊर्ध्व व्यंशस्य दानेन वर्तनाद् बालचन्द्रमाः ॥ ३८ ॥ १.कस्पये' इति स्यात् । २. 'हानात् कर्णाशयोरथ' इति स्यात् । ३. 'कारयितुभ' इति स्यात् ।
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लिङ्गपीटपतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः २४३ (कुक्कुटाण्डचंतुर्यस्य त्रपुसम्भवे तु) । अष्टमा(स्या सशस्य) तुच्छत्रं दानादर्धस्य वर्तनात् ॥ ३९ ॥ कृतेऽष्टांशे चतुर्धास्मिन् भागवृद्धया तदुच्यते । पुण्डरीकं विशालाख्यं श्रीवत्सं (शक्रसर्चनम् ) ॥ ४० ॥ लिङ्गेषु (लक्षणार?) कर्तव्यः स च कथ्यते । रुद्रभागं त्रिधा भक्त्या?क्ता) द्वाभ्यां लक्षणमुद्धरेत् ॥ ४१॥ (शिरोर्धायतो लिङ्गे लक्षणापि?) तदिष्यते । यद्वायताननं षष्ठे कर्त(व्याव्यं) नवमांशके ॥ ४२ ॥ +वायं ++ वाकारपक्षरे(खा)विवर्जितम् । पावरेखात्रिभागेन विस्तृतं चतुरश्रकम् ॥ ४३ ॥ माग्वदष्टा(स्तिःश्रि) वृत्तं च षडश्रिच्छत्रमस्तकम् । शत्रुमर्दनसंज्ञेन च्छत्रेण समलकृतम् ।। ४४ ॥ लिङ्गमिन्द्रार्चितं शस्तमैन्द्रदिग्विजयार्थिना(म्) । प्रतिष्ठाप्यमिदं शत्रोयद्वा स्तम्भनमिच्छता ॥४५॥ लोकपालैश्चेति कुर्यात् + त्र्यंशाधिलक्षणम् । ऐन्द्र वनाममध्येऽ(स्यास्य) (प)क्षरेखा विधीयते ।। ४६ ।। स्वदैर्घ्यदलरुद्रांशैः पञ्चभिश्चित्रभावना(म्) । विस्तृतं चतुरश्रं स्यान्मध्ये वृत्ते च पूर्ववत् ॥ ४७॥ अश्रिभिः सप्तभिर्युक्तं वृत्तं स्वा(लाख)विवर्जितम् । (प्राविस्तारार्धविस्तारि लक्ष्मस्योतमस्तकम् ) ॥ ४८ ॥ (पूद्वधे?यद्वै)कादशभिर्भक्ते पक्षयोश्च(छिभिः)त्रिभिः । लुप्तैरंगैस्तदेवा(शै!शेनो)च्छ्रितं छत्रमिष्यते ।। ४९ ॥ इदमग्न्यर्चितं लिङ्गं कृत्वाग्नेर्योजयेद् दिशम् । चिकीर्षुणारिसन्तापं प्रतिष्ठाप्यमिदं सदा ॥ ५० ॥
१.. 'शत्रुमर्दनम्' इति स्यात् । २. 'लक्षणोद्धार ' इति स्यात् । ३. 'त्रिमि' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे स्व(थै दै)र्धिनवांशानां पञ्चकेन प्र(विस्तृतम् । कुर्यात् कुण्डं चष्टिाष्टं च पार्श्वयुगं:) त्रिभित्रिभिः ।। ५१ ॥ नवधा सर्वतः कृत्वा त्रीस्त्रीनुत्सृज्य कोणगान् । कुर्वीताप्य(नस)मेवं स्यात् क्रमाद् वृत्तं विनाश्रिभिः ।। ५२ ।। मूर्धानं दशभिर्भक्त्वा भागत्रितय(ला?लो)पने | पक्षयोर्विहिते कुर्यादुच्छ्रिति दशमांशतः ।। ५३ । लक्षणं पूर्ववत् कार्य (दण्डाग्रकोर?)मग्रतः । (कथं यान्यादिष्वि:)++ लिङ्गमेतज्जिगीषुभिः ॥ ५४ ॥ वधार्थ वा विपक्षाणां सर्वैवस्वता(न्वि?र्चि)तम् । (आनयवत्कविष्णोसाः किन्वर्तुस्यदशापिक ।। ५५ ॥ स्वराशिर्मस्तकेरुक्ते?) सार्धभागपरिक्षते । पार्श्वयोः ‘स्यादभिर्लाभ?) खड्गाग्राभं च शस्यते ॥ ५६ ॥ (षड्भा खड्गा)भिधमिदं लिङ्गं प्रतिष्ठाप्य (तु) नितिः । (अथापश्यन्दिरासत्व?) तत्त्व(व्योयो)गं च शाङ्करम् ॥ ५७ ।। (सार्व' सप्तांशकलिंविष्वास्यारुणान्वितोः) । चतुर्भिक्ष्म चैतस्य पाशाग्राम (कतासिचत?) ॥ ५८ ॥ लिङ्गमेतत् प्रतिष्ठाप्य (वरुणास्वादिगासतम?) । यो(नंग)तथाप्तवानैशं किन्तै न्त्वे)तच्छान्तिपुष्टिकृत् ।। ५९ ॥ (स्वर्धे द्वादशभागांशैः सप्तभिः पुवतेनिले । वेष्णासांक शोकः भक्ते द्वित्रिलोपने परश्चतम् ।। ६० ।। विधेयं पूर्ववद् वृत्तं शरच्छत्रं विनापरम् । लक्ष्म ध्वजाग्रवच्चास्य (त्वैतसृषतांपरिः) ॥ ६१ ॥ अथाप (सुदिर्गसेत्वं.) तथा योगं च शाभवम् । द्विषदुच्चाटविश्लेष(परीक्षकंधान्विधेश्वाभिः) ।। ६२ ।।
1. 'दण्डाग्राकारम्' इति स्यात् । २. याप्यं गाम्यदिशि' इति स्यात् , ३. 'अथाप स्वं दिगीशत्वं' इति स्यात् । ४. 'करणः स्वदिगीताम्' इति स्यात् । ५. 'स्वदिगीयत्वं' इति स्यात् ।
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लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः । २१५ प्रतिष्ठाप्यमिदं लिग (व्यधीयां+१) मनीषिभिः । (कार्यवारुणः सव्याक्षं किन्त्वाञ्चोसे गुरुदशाम्?) ॥ ६३ ॥ (पैत्तांशेमूदि) पार्श्वस्थ + पादांशपरिच्युतेः । छत्रं स्यात्(परिच्युते?) लक्ष्म चैतस्य गदाग्रसदृशं भवेत् ॥ ६४॥ एतन्ननेश्वरः कृत्वा (स्वैदिर्गासत्वसाम)वान् । योगं च शिवधामाप्त्यै विभू(त्यंति) प्राप्तवानतः ।। ६५ ।। (स्वद्वेः) रुद्रांशकैः षभिर्विस्तृतं चतुरश्रकम् । (भवभक्त त्रयं?) त्यागाद् भवत्य(था?ष्टा)श्रि पार्श्वयोः ॥ ६६ ॥ वृत्तं तु पूर्ववत् कार्य कुक्कुटाण्डनिभं शिरः। (त्र्यंशवसयैनवाभिः) कुक्कुटाण्डमिदं भवेत् ।। ६७ ।। (मूषनवाभिः पार्श्वयोनिस्विशातनाः कुक्कुटाण्डकम् ?) । अश्रित्रयं च कतेव्यं पूजाभागसमाश्रयम् ॥ ६८।। शू (द्राला)ग्रप्रतिमं लक्ष्म लिङ्गे कर्तव्यमैश्वरे । स्यादिदं योगसाम्राज्यज्ञानसम्प्राप्तिकारकम् ।। ६९ ॥ ब्राह्मे स्याद् रौद्रवन् स(?) पद्मकुदमलवच्छिरः । लक्ष्मा(स्मास्मिन् कमलाकारं लि(गंगे) कमलजन्म(निनः)।। लिङ्गमेतत् प्रतिष्ठाप्य प्राजापत्यं प्रजापतिः । लेभे पदमतः (स्थासिदं व्येषपदेस्यतिः) ।। ७१ ॥ वैष्णवे री(द्रावत् सर्व शिरोऽस्मिन् कुन्तुन्त)सन्निभम् । भ(क्ता क्त्वा) भवजतुल्यं वा कर्तव्यं लक्ष्म वेष्णवे ॥ ७२ ॥ पुण्यक्षेत्रोद्भवमिदं द्विजादीनां (सिताद्यया)। संग्राहयेच्छिलाद्रव्यं (गुक्तयोषितयान्विराम्) ॥ ७३ ॥ इदं पक्कमपकं वा लोहतू?) भयगर्भितम् । अप(कके) वज्रलेपाचं कर्तव्यं सिद्धि(सास्नु?)भिः ॥ ४ ॥
.. 'वायव्याय' इति स्यात् । २. 'सप्तांशे मूर्भ' इति स्यात् । ३. 'स्वदिगीशत्वमात्म' इति स्यात् । ४. 'भक्ते, भागवय' इति स्यात् । ५. 'स्थाप्यमिदं श्रेष्टपदे. छुभिः' इति स्यात् ।
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१
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समराङ्गणसूत्रधारे भूतये लोह लिङ्गं सीसकरपुवर्जितम् । काञ्चन(पर्यः)शत्रुच्छेद (काययि संचितम्) ॥ ७५ ।। (यास्य लिङ्गोक्तलक्ष्मैतत् त्रापुंसांनागाकुन्मचान्यादि)। लोहोद्भवं वा यन्मात ++गुह्यकसिद्धिकृत् ।। ७६ ॥ भिरक्ष क्षणां चलमेतत् स्यान्मु(मूक्ष मुक्षूणां च वेश्मशु । श्रेष्ठं समस्त(रान्ता ) व (ज्जज्ज ब्रज) तदरिच्छिदे ॥ ७७ ।। पद्मरागं (महाभृत्यौ?) सौभाग्या(पर) मौक्तिकम् । पुष्परागम(हा)नीलौ+यातीरसमुद्भवम् ॥ ७८ ।। यशसे कुलसन्तत्यै तेजसे सूर्यकान्त(रकम् । ताच्छिं स्फाटिकं सर्वकामदं (शूलारस्रो) ॥ ७९ ॥ मणि + + + श(क्रत्रु)क्षयाय (पुलका) तथा । सस्यकं सस्यनिष्पत्यै (भोजगं?) दिव्यसिद्धिदम् ।। ८०॥ श्रेष्ठं (सारक्त+) लिङ्गमारोग्याहितचेतसाम् । वैकृ(तन्त)कसहावर्तराकायस्कान्तजं हितम् ॥ ८१॥ (क्षुद्र सिस्त्रिषु?) तन्मन्त्र + + + जातिसंस्कृतम् । फलं सम्यग् गुणादूह्यमन्यासु मणिजातिषु ॥ ८२ ॥ वर्णाभिधानसंस्थानविशेषाभ्य + तद्विदा । (पृथियां सपीठं वा त) स्यानोवं नवागुलात् ॥ ८३ ॥ सिद्धये (चरदारान्तावश्वनकाहा) प्रशस्यते । सुसंस्थानं सुदीप्तं चेद(वाक्यं पिनयं?) दोषकृत् ॥ ८४ ॥ (सूक्ष्मोपकोगुणोपेत?) बलीयान् सर्वदोषकृत् । सान्निध्यकारणं दीप्तिः समस्तमणि(य?ज)न्मनाम् ।। ८५ ॥ मानोन्मानप्रमाणादित्येषु ग्राह्यं नवा बुधैः । शैलं हस्तादधः (स्थे?)यः प्रासादेषु च शस्यते ॥ ८६ ॥
1. 'प्रभव' इति, २. 'महाभूत्यै' इति, ३. 'य तु' इति, ४. 'पृथिव्यां वा स्वपीठे वा तत्' इति च स्यात् ।
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लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः ।
ततमपि प्राहु (हीणाश्रयसिस्त्रियो । इतश्वेदकृत्ये सुयवांकं पिण्डिकाधियाङ्कम् || ८७ ॥ अर्धा भागद्वये ता + + भागपिण्डिकावटे ? ) । वृत्ता भागास्त्रयोऽध्यस्य प्रतिष्ठा स्याद् गुहासु च ॥ ८८ ॥
क्षेत्रे परिगृहीतेऽसौ देशे देशाधिपक्षयः । [ निष्पन्नरूपप्रगुप्तं मण्डलां भाव्यसाकया || ८९ ॥
सिद्धरालाप्तधौतेस्मिनभिः सिद्धरसं गतम् । यत्रोक्तः गर्भस्तंकास्यात् तत्रालेखात् समा भवेत् ॥ ९० ॥ करखीइजटाकाङ्का हरितालविष्टेधिभिः । सर्वेषाभिः प्रविष्टाभिरनालि ने लेखनीकृतम् ॥ ९१ ॥ प्रदेशो यानित्यां विभ्रान्तिः ] व्यक्तिकृद् भवेत् । विषरुद्रजटापथ्या(चब्रू')कन्दविभीतकैः ॥ ९२ ॥ सुदर्शनाश्वमाराभ्यामविदुग्धेन संयुतः । अलेपो यदि वा पार्श्वे ( चिह्नाभिव्यक्तिहेतवे ॥ ९३ ॥ इदानीमिह पीठानां (स्तथाव ) कथ्यते । मानतो नामतो (र्घाच१) विशेषे तर सिद्धये ।। ९४ ।
( देव्यादि भेदवती तु पदेको गर्भमानतः । तत्सिद्धिर्मुखतः प्रोक्त शुनं षंगे मुक्तयो || ९५ ॥ कारादिलिङ्गमानेन यामितंन्यमुखं तत: १) | भुक्तये मुक्तये चैतान्युपदिष्टानि मुख्यतः || ९६ ॥ लिङ्गवद् गर्भमानेन सम्यग्वा (ता) नि कल्पयेत् । लिङ्गदैर्घ्यप्रमाणानि (मानेषु वेश्मसा १) ॥ ९७ ॥
अव्यक्तमुक्तलिङ्गानां समं [ विष्पतः । कारादिलिङ्गमानेन यामितान्यनुषङ्गतः ॥ ९८ ॥
भुक्तये भुक्तये तेनात्फपदिव्यभानां तददघ्रविस्तृत्तिः । नृपार्क विक्कजायामास्तदर्धोच्छ्रायविस्तृतिः ॥ ] ॥ ९९ ॥
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२४.७
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समराङ्गणसूत्रधारे उत्तमादि सहा_नां(?) सिद्धयै कुर्वीत पीठिकाम् । वृत्तं वा चतुरअं वा सर्वप्रासादलिङ्गगम् ।। १०० ॥ वृत्तं व्यक्तेषु न हितं विनाशादि ++ ++ विधिना पृथिवी ++ (पो पा)वकी पूर्णसंज्ञिता ॥ १०१ ।। भाभावती अपाक्षी(१) च गण्यन्ते ताश्च नामतः ।। इन्द्रादिलोकपालाना कार्या लिङ्गे (व्यचसु?)क्रमात् ॥ १०२॥ ऐशानलिङ्गे रौद्रान्ति + + या पीठिका भवेत् । ते चैतासु त्रयेऽन्यास्तु(?) भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ॥ १०३ ॥ (पपापपावरावापी वज?) चन्द्रकला स्मृता संवर्ता नन्दिकाव(तेर्ता) चैताः साधारणा मताः ।। १०४ ॥ अथ लक्षणमे(तेपातासां) सर्वासामभिधीयते । ऐन्द्रलिङ्गा वृत्ता पृथ्वी स्तम्भादौ चतुरश्रिका(१) ॥ १०५ ।। चतुरश्रस्य यः कर्णस्तच्चतुर्थांशमष्टधा । कृत्वांशसप्तकेनास्य (तुर्यात्तर्गत्सकल्पनात्) ॥ १०६ ॥ पाश्चात्यभागयोः पार्थे बहिः सूत्रस्थिताव(थे)। वृत्तद्वयस्य भ्रमणं विदधीत विचक्षणः ।। १०७ ॥ (चतुरश्रे पुरोगर्भसूत्राष्टस्यासवर्धनात् । कृतपत्रभमुद्देशं पाश्चाभ्यां सूत्रमात्रयेत् १) १०८ ।। लोपनात त्यक्तभाग(स्या होतासि) पीठिका भवेत । आग्नेयलिङ्ग स्याच्छ(क्र त्रु)नाशसन्तापदाकृत् ॥ १०९॥ क्षेत्रे+चतुरश्रेऽस्य द्वादशांशं परित्यजेत् । (पामदो गर्भनस्तेन) वृत्तस्यार्धं समालिखेत् ॥ ११० ॥ इत्यर्धचन्द्राकारोऽयं (सामी)भवति पीठिका । याम्यलिङ्गस्य नगरा(दिक्षिणास्था)रिनाशनी ॥ १११ ॥ चतुरश्रे विभागार्धवर्धनात् पार्श्वयोर्द्वयोः । (पुरिस्वी ) भागवृद्धया च सूत्रद्वयनिपातनात् ॥ ११२ ॥
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लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः । २४९ (रौत्संत्तत्या?) नैरृती स्त्रीमरणद्वेषरोगकृत् । (पूर्वचन्द्रमाकृतिर्णाः) वारुणी परिमेखला(?) ॥ ११३ ॥ शान्तिके पौष्टिके (चष्टाचाथ) मृत्युनाशे (नेच) पीठिका । प्रतीच्यो(?) षडंशस्य वृद्धिं कृत्वा + ++तः॥११४ ॥ (गर्भाव?) वृत्तलेखेन यत् सम्पातचतुष्टयम् । (कर्णाभ्यकर्णः) भवेत् तेन वृत्तित्त)स्थानद्वयेन च ॥ ११५ ॥ पडझं सममा(ले)ख्यं यद्वा वज्रसमाकृति । नाभस्वती पीठिका स्यात् (पर्णेनि)मरुतो दिशि ॥ ११६ ॥ कर्मसूञ्चाटनायेषु विनियोज्या जिगीषुभिः । याक्षी त्रिमेखला वृत्ता वित्ताप्त्यै धनदार्चि(ते?ता) ।। ११७ ॥ (गणाद्विमखलाष्पश्रितः)। कुर्वीतेकेन खुरकं चतुर्मिर्जाड्यकुम्भकम् ।। ११८ ॥ (द्वाभ्यामजं तथैकेन प्रवेशोत्र जाड्यकुम्भस्य शस्यते । अजूयस्य चतुर्भिस्तैः कर्णिकाया द्वये नराः) ।। ११९ ॥ एकेन कण्ठक(स्याश्चा)तो निर्यात्येकेन कर्णिका। (विभाजैरं पुजी) षड्भिस्ततश्चैकेन मेखलाः ॥ १२० ॥ पद्धेयं पीठिका ख्याता सर्वकामप्रदायिनी। क्षेत्रे षोडशधा भक्ते भागेन खुरको भवेत् ॥ १२१ ॥ चतुर्भिर्जरीताः) कुम्भस्त्रिभिरेकेन कर्णिका । त्रिभिः कण्ठश्चतुर्भिश्च पूर्ववनिर्गमो भवेत् ।। १२२ ॥ इ(मध्य)+व्यक्तलिङ्गेषु पीठका स्यात् पयोधरा । (एवंविधैव चापीठ स्याकिमुच्यक्तो?) लक्षणे ।। १२३ ।। भक्ते द्वादशभिः पीठमानं द्विर्भागिको भवेत्(?) । जगती(तितु) त्रिभिः (कुसे?) द्वाभ्यामेकेन वेदिका ।। १२४ ॥ कण्ठो द्वाभ्यामथैकेन वेदिका पुनरुत्तरा । एकैकेन तु भागेन तत: स्यात् पीठिकाद्वयम् ॥ १२५ ॥
.. 'पूर्णचन्द्राकृतिः कार्या' कार्या' इति स्यात् । २. 'कर्णाभ्यणे' इति स्यात् । ३. 'विभागैरम्बुज' इति स्यात् । ४. 'जंगती' इति स्यात् । ५. 'कुम्भो' इति स्याद ।
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२५.०
समराङ्गणसूत्रधारे एवं षडश्रा कर्तव्या वज्राक्षा पीठिका बुधैः । (पीठिका क्षेत्रेण निर्भक्तषोः) भागेन खुरको भवेत् ।। १२६ ।। द्वाभ्यां जलाथ भागेन वेदी द्वाभ्यां तु कण्ठ(य?कः) । (उभयाभ्यां निर्गमः सा स्रीच्छि!) चन्द्रकला भवेत् ॥ १२७ ॥ (आपायनायपुद्यौ च पदारेखैव चामृताः) । भवेत् षण्मेखलादोदृवंकण्ठोऽथ भागिकः ।। १२८ ॥ पट्टिकात्रितयं शेषे क्षेत्रवे) स्यानिर्गमान्तरम् । रुद्रार्चिता पीठिकेयं संवर्तेत्यभिधानतः ॥ १२९ ॥ यां कृत्वा प्रकृतेरूचं गताः संवर्तकादयः। रुद्रावोथस्तराख्यं(?) ते भेजिरे पदमव्ययम् ।। १३० ॥ घोढा पीठोदये भक्ते भागं स्यात् पट्टिकात्रयम् । एकेन कण्ठो भागेन पट्टिकान्यापि भागिका ।। १३१ ।। नन्द्यावाङ्किता सेयं नन्द्यावर्तेति कीर्तिता। साधारणीयं सर्वेषां लिङ्गानां सर्वसिद्धिदा ।। १३२ ।। (भवाकण्ठसुवासध्यानामियं सिद्धखुरा । दोदेरन्योनमिथैः) भवन्त्यन्याश्च पीठिकाः ॥ १३३ ॥ मा(सन)संस्था न कथितास्तासामानन्त्यकारणात् । व्यंशेन गतेः स्यादासां षोडशांशेन मेखला ॥ १३४ ॥ खातश्च नेयः श्वभ्रान्तं मेखलामध्यतो ह्य(तौ सौ) । (प्राणाला_समा?) दैर्घ्य विस्ताराभ्यामुददिशि ॥ १३५ ।। [पञ्चाशद्विशयंस्ताल सद्वयंमन्तरा । सदांसद्विभयं प्रान्ते खातोऽग्रे द्विगुणामुखान् ।। १३६ ॥ सार्धाभमेखला कार्याः प्राणालः स्वसृतं भागतः । गुणागुणास्त्रयो लिङ्गे तान्यापत्रेव.] भावयेत् ॥ १३७ ।। आवर्ताः शोभनाकाराः शुभाः स्यु + + + +धः। (नतु:) पीठब्रह्मशिले सस्ते लिङ्गजात्यनुगे सदा ॥ १३८ ॥
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लिपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः ।
(गर्भ) कर्णचतुर्थांशमाना स्याद् ब्रह्मणः शिला । +++ गस्य कर्णेन यद्वा ब्रह्मशिला भवेत् ॥ १३९ ॥ (क) ब्रह्मशिला ब्रह्मांशतो भवेत् । ताव (त्या ताभ्यधिका कार्या तस्याः कर्मशिला बुधैः ॥ १४० ॥ स्थापयेत (पुरुषत्रया ?) शि(वा) मध्ये निवेशयेत् । ब्रह्माणं दक्षिणेनास्य वामतः पुरुषोत्तमम् ॥ १४१ ॥ अन्यथा स्थापनादेषां प्रत्यवायो महान् भवेत् । (त्रिभागौना शचाः) स्यातां कोशान्तश्चक्रिणो भवेत् ।। १४२ ।। (त्रिभागोनस्तिवासात कोशान्तश्चक्रिणो भवेत् । त्रिभागोन्नतस्यादान्तः कोकस्यान्तः ?) पद्मजन्मनः ॥ १४३ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशानां *++++ निवेशने ।
प्रमाणमेतेषु (द्विः) पृथक्स्थानां यदृच्छया ॥ १४४ ॥
उमामहेश्वरौ यत्र तत्रोमा ब्रह्मविष्णुवत् ।
आकाशे (?) प्रतिमा (येष्टा?) चत्वारिंशच पञ्च च ॥ १४५ ॥ हस्तान् कार्या त्रिभागोना मध्या हीना तदर्धतः । यात्रार्था प्रतिमा द्वारप्रमाणेन विधीयते ॥ १४६ ॥
२५१
(भव तच) द्वारं त्रिधा ( चत्वा भक्त्वा) पीठं भागेन कल्पयेत् । (ताद्वाभ्यां (तु) प्रतिमा कार्या ज्येष्ठा (स्यायां ) मानमीदृशम् || मध्यायां नवधा द्वारं कृते ? वै) कं भागमुत्सृ (ते ? जेत् ) । शेषान् भागान् त्रिधा कृत्वा पीठं भागेन कल्पयेत् ॥ १४८ ॥ अर्चामुभाभ्यां हीनायां विदध्याद् द्वारमष्टधा ।
(a) मुत्सृज्य शेषेण + + + + + + + + ।। १४९ ।। पी (ठात् ?) त (तू) त्रितयेनार्चामुप (रि) विष्टां प्रकल्पयेत् । द्वारा त्रिधा कृत्वा द्वाभ्यां पीठं विधीयते ॥। १५० ।। (चाक्लृप्तिरुक्तवतयद्वाः) द्वेधा चतुर्धा वा द्वारं कृत्वैकमुत्सृजेत् । शेषं भागत्रयं कृत्वा पीठमच च पूर्ववत् ॥ १५१ ॥
१. 'यावाका' इति स्यात् । २. 'क्रमोऽयं स्याद्' इति पूरणीयं भाति । ३. 'ज्येष्ठा' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
द्वारोच्छ्रितेः पश्चदशभागं (कृ) त्यक्त्वा विधीयते । भागत्रयं तदेकेन पीठमों तु (तद्)द्वयात् ॥ १५२ ।। भागान् पञ्च विधीयेत यदिवा भागयुग्मतः । पीठं (तत्)त्रितयेनार्चामुपविष्टां प्रकल्पयेत् ॥ १५३ ।। द्वारस्याध त्रिधा कृत्वा द्वाभ्यां पीठं विधीयते । भागेनार्चा(शयानागार्धेऽचर्चा?) वेश्मानुसारतः ॥ १५४ ।। भक्ते प्रासादगर्भा(वर्धे) दशधा पृष्ठभागतः । पिशाचरक्षोदनुजाः स्थाप्या गन्धवेगुह्यकाः ।। १५५ ।। (आदित्यचन्द्रिकाविष्णुब्रह्मेशानान्ताः) पदक्रमात् । गर्भे षड्भागभक्ते वा त्यक्त्वैकं (पृथता शतः) | १५६ ।। स्थापनं सर्वदेवानां पञ्च(मेशो मेंऽशे) प्रशस्यते । यदनप्रत्यङ्गप्रहरणगतं लक्ष्म विततं
तदर्थानां (चित्रकनावधो वाच्यमक्ष्य?) । सपीठा(र्थार्चा)लिङ्गोन्मिति(मपि) विदित्वा बाटु'हुमतो
भवेद भूपालानां कृतिभिरपि पूज्येत सकलैः ॥ १५६ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेबिचिते समराङ्गणसूबधारनाम्न याम्याने
लिङ्गपीठप्रतिमालक्षणं नाम सप्ततितमोऽध्यायः ।।
अथ चित्रोद्देशो नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ।
अथ(प्रियं विते?)ऽस्माभिर्विन्यासश्चित्रकर्मणः । (राचि)नं हि सर्वशिल्पानां मुखं लोकस्य च प्रियम् ।। १॥ (पैदे पदे वा?) कुड्ये वा यथा(चित्रं सं वचने)। वतयः कृतबन्धाश्च लेखामानं यथा भवेत् ।। २ ।।
, 'पृथगंशकम् ' इति स्यात् २. 'प्रपञ्च्यते' इति स्यात् । ३. 'पट्टे पटे वा' इति स्यात् । ४. 'चित्रस्य सम्भवः' इति स्यात् ।
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चित्रोद्देशो नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ।
२५३ (वर्णगव्यक्तियाः) यादृग् यादृशो वर्तनाक्रमः । मानोन्मानविधिश्चैव नवस्था(नेन)विधिस्तथा ॥ ३॥ हस्तानां यश्च विन्यासो (लक्षणनात्रसंशय?) । दिव्यानां मानुषाणां च (दिव्या सा मुखजन्मना?) ॥ ४ ॥ गणरक्षःकिन्नराणां कुब्जवामन(यस्तेषाम्) । विकल्पाकृतिमानानि रूपसंस्थानमेव च ।। ५॥ वृक्षगुल्मलतावल्लीवीरुधां पापकर्मणाम् । शूराणां दुर्विधानां च धनिनां पृथिवी(क्षिःभृ)ताम् ॥ ६ ॥ ब्राह्मणानां (विसासोडजातन?) क्रूरकर्मणाम् । मानिनामथ रङ्गोपजीविनां चेह(ज?क)थ्यते ।। ७ ॥ रूपलक्षणनैपथ्यं सतीनां राजयोषिताम् । दासीप्रजितारण्डा(यतिवल्लीषु लक्षणा ।। ८ ॥ कन्यानामसंकारणां च विध्याना)गजवागिनाम् । मकरव्यालसिंहानां तथा यज्ञोपयोगिनाम् ॥ ९ ॥ (विना)रात्रिविभागस्य ऋतूनां चापि लक्षणम् । (अत्र योज्यं याप्यंभ्र कथं भवतिः) ॥ १० ॥ प्रविभागस्य देवानां रेखाणां चापि लक्षणम् । लक्षणं पञ्चभूतानां तेषामारम्भ एव च ॥ ११ ।। वृकादीनां विहङ्गानां सर्वेषां जलवासिनाम् । चित्रन्यासविधानस्य ब्रूमः सम्प्रति लक्षणम् ॥ १२ ॥ (कर्भण कर्या करमे) यस्माच्चित्रकर्मणि वर्तते । तस्याङ्गान्यभिधीयन्ते तेन सर्वाणि विस्तरात् ॥ १३ ॥ वर्तिका (प्र)थमं तेषां द्वितीयं भूमिबन्धनम् । लेख्यं तृतीयं स्यात् रेखाकर्माणि (वर्ततेमिह लक्षणम्)।
१. 'वर्णव्यक्तिक्रमो' इति पाठः स्यात् । २. 'दिव्यमानुषजन्मनाम् ' इति, ३. ' योषिताम्' इति, ४. 'विशां शूद्रजातीनाम् ' इति, ५. 'दिवा' गते च स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पञ्चमं (कर्षकर्मच्च?) षष्ठं स्याद् वर्तनाक्रमः । सप्तमं (लेखनं लेखकरणं द्विचकम?) तथाष्टमम् ॥ १५ ॥ सङ्ग्रहोऽयमिति (चेवं कर्मणः?)
(सूत्रिति तदनुक्रमेणा थः)। भावयेन्न खलु मोहममे)त्यसो
चित्रकमेणि कुली च जायते ।। १६ ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविशित समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे
चित्रोदेशाध्यायो नाम (सप्तमः) ।
अथ भूमिबन्धो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ।
इदानीं वर्तिकालक्ष्म भूमिवन्धश्च कथ्यते । गुल्मान्तरे शुभे क्षेत्रे पद्मिन्यां सरितस्तटे ॥ १॥ पार्वतानां च कक्षेषु वापि(का)काननान्तरे । भीमा लवणपिण्डाः स्युमलेषु च महीरुहाम् ।।२।। क्षेत्रष्येतेषु या जाताः स्थिराः ऋक्ष्णा(च) पाण्डराः। ग्राह्या (मृद्वावसासेवा) विज्ञया कारटु)शर्करा ।। ३ ।। क्षेत्राणामानुपूव्र्येण मृत्तिका कथिता शुभा। पेषयेत् कुट्टयित्वा तां ततः कल्क समाचरेत् ॥ ४ ॥ शालिभक्तस्य दातव्यस्तत्र थागो यथोदितः । ग्रीष्म? सप्तमं भागं शीतकाले च पञ्चम् ॥ ५ ॥ षष्ठं शरदि वर्षासु चतुर्थं भाग्मानयेन । वर्तिकावन्धनाथा(यादा)मायान्ति तेन ता(:)॥६॥ (अनाया शालिवाभा यवं समां मुखगृहम् । कुर्कुटाराग्रसदृशी' कर्मधाणविकल्पतः ॥ ७ ॥
१. 'वणकम स्थान् इति :: : २. नया : इति स्यात् । ३. 'सूच्यते स्म तदनुक्रमेण यः' इति स्यात् । ४.न.म एकमसाततमः इति स्यात् । ५. 'य दाम्य इति स्यात् ।
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भूमिबन्धो नाम द्विसप्ततिनमोऽध्यायः । शिक्षाकालेऽङ्गुलद्वन्द्वं प्रमाणेन विधीयते । कुथरेखासु शस्यन्ते वर्ति(काः व्यङ्गुलोन्मिताः ॥ ८ ॥ (पटा?)रेखासु कुर्वीत मानेन चतुरङ्गुलाः । इदानीमाभिधास्यामो वसुधाबन्धनक्रियाम् ॥ ९ ॥ पक्षिका चैव कूटाश्च + + + पट एव च । तस्य तस्य (किभानः) भूमिबन्धो निगद्यते ।। १० ।। पुण्यनक्षत्रवारेषु माङ्गल्यदिवसेषु च । (क्षतो वासो भुक्ता) च कर्ता भाथ शिक्षकः ॥ ११ ॥ अनेकवणः कुसुमैर्गन्धैः (न कृपापाः?) । नानाधूपैः सुरभिभिरर्चयित्वारभेत ताम् ।। १२ ॥ [नवसूत्रात्तुलमृद्वस्तितजलेन समं समम् । नवत्वामात्सदृशं वृक्तनभविद्वात्यपराक्रियः ॥ १३ ॥ लिङ्गसूत्रविनीक्षेतानिकटं सहतं नवः । अनुत्ततमनिस्मं च कुयोद् यावत् क्षितौ समम् ।। १४ ॥ सुस्थितं जलवक्षायं] सम्यगालोक्य धीमता । कृत्वा भूमिक्रियामेतां पश्चाद् बन्धनमाचरेत् ॥ १५ ॥ (लुचिमलांस्तिस्व?) व्रीहितण्डुलसनिभाम् । संगृ(स्य?ह्य)तीर्थमथवा पिता कल्कं समाचरेत् ॥ १६ ॥ तेन पिण्डं प्रकुर्वीत (शाषेयेचतमात्तयो?) (शवयेत् ?) कल्कयेद् येन (व्यासायषव्यस्तुयाः) ॥ १७ ॥ एवमेव (चतुष्कोन्ता?) सप्त वारान् प्रघर्षयेत् । हस्तेन संमृशेत् पश्चाद् यथा (लोन:) च जायते ॥ १८ ॥ अथवा शिक्षिकाभूमौ (ख)रवन्धनमाचरेत् । पूर्वोदितस्य कल्कस्य नियोसे बन्धनं क्षिपेत् ॥ १९ ॥
१. 'कृतोपवासो भक्त्या' इति स्यात् । २. 'शोषयेच्च तमातपे' इति स्यात् । ३. 'भपयेदिति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पञ्चभागप्रमाणेन ग्रीष्मकालेषु शस्यते । शराशत्रयं साधं त्रीनंशा समागमम्?) ॥ २० ॥ वर्षाकाले हि भागेन प्रदद्यादिति निश्चयः। पञ्चभागप्रमाणेन ग्रीष्मसं + + + + + ॥ २१ ॥ (बन्धानयं प्रकुर्वीतापपूर्वकं धिनाक्षितो?)। (लो ले)पयेद् रोमकूर्चेण शुष्कां शुष्कामनुक्रमात् ॥ २२ ॥ तोयेन हस्त(क्तवचिः) प्रदातव्यो विचक्षणैः । विधिनैवं कृतं श्रेष्ठं शिक्षिकाभूमिबन्धनम् ।। २३ ॥ बन्धनं कुड्यभूमेश्च यथावत् कथ्यतेऽधुना । स्नुहीवास्तुककूश्माण्डकुद्दालीनामुपाहरेत् ॥ २४ ॥ क्षीरमन्यतम(स्यापामामीस्येक्षरुकस्यः) च । (तेषांणां वागसूत्रे?) सप्तरात्रं निधापयेत् ॥ २५ ॥ (सिंहपासननिम्बानां त्रिफलव्याधेर्यातयो?) । स(मो.मा)हरेद् यथालाभं (कथया!)कुटजस्य च ॥ २६ ॥ फषाय(काक्षारयुक्तेन सामुद्रलवणेन च । (पूर्वा कुढ्यं रामं कृत्वा कषायैः परिषे परिषेभयतुः) ।। २७ ॥ चिक्करण?णां') मृदमादाय स्थूलपापाणवर्जिता(म्) । (मानुषां)स्ताद्विगुणान् (न्य)स्य(स्वदय)वा(च)लुकाम(दाद)म् ककुभस्य (स्कन्दद्याधान्माषाणां शाल्मलेरपि । श्रीफलानां रसं तद्वद् दद्यात् कालानुरूपतः ॥ २९ ॥ पूर्वकालानुसारेण यत् प्रोक्तं बन्धनं क्षितेः। तत् सर्वे सिकतायुक्तं कृत्वैकत्र (न)वं बुधः ॥ ३० ॥
१. बन्धने च प्रकुर्वीत पूर्वोक्तविधिना क्षितौ' इति स्यात् । २. 'स्यापामार्गस्येसुरकस्य' इति स्यात् । ३. "शिंशपासननिम्बानां त्रिफलाव्याधिघातयोः' इति स्यात् । ४. पूर्व कुज्यं समं कृत्वा कषायैः परिषेचयेत्' इति स्यात् । ५. 'वोदयेद्' इति स्यात् । ६. 'रसं दया' इति स्यात् ।
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२.५७
भूमिबन्धो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः । (कुमाद्यमालयापालं म?)हस्तिचर्मप्रमाणतः । (विशेषां प्याथ प्रतिक्षिपेत् तोयं कुर्यादशसनिभाम् ) ॥ ३१ ॥ विशुद्ध विमलं स्निग्धं पाण्डुरं मृदुलं स्फुटम् । पूर्वोदितां समादाय विधिवत् (कण्टकरीम् ) ।। ३२ ।। तां कुट्टयित्वा घृष्टा च कल्कं कुर्याद् विचक्षणः । पूर्वोक्तभक्तभागं च नियोसांश्च प्रदापयेत् ।। ६३ ।। (विष्वङ्कः) यदिवा दद्यात् (कूटसकरयाः) समम् । त्रीन् वारा(न्) लेपयेत् कुड्यं पूर्वोक्तेन विचक्षणः ॥ ३४ ॥ हलेन हस्तमालिप्य प्रदद्यात् (कूटकूर्तकाम् ?) । जायत्ते विधिनानेन कुड्यबन्धनमुत्तमम् ।। ३५ ॥ साम्प्रतं कथयिष्यामः पट्टभूमिनिवन्धनम् । बिम्बाबीजानि संगृह्य त्यक्त्वा तेषां मलं बुधः ।। ३६ ॥ एवं वि(मृद्धशोध्य) निष्पावान् यदिवा(न्य?) शालितण्डुलान् । तेषामन्यतमं श्लक्ष्णं पिष्टा पात्रे विपाचयेत् ॥ ३७॥ पट्टमालिप्य बन्धेन पूर्वोक्त मिवा विधिमा)चरेत् । पूर्वोक्त(नियोसा पुना विधात्तयः) कदशर्कराम् ।। ३८ ।। तोयेन तां (पंचांकृत्य?) पटमालेखयेस् तया । अनेन विधिना बन्धश्चित्रकर्मणि शस्यते ।। ३९ ।। विधिनान्येन वा कुर्यात् (सादानां) भूमिबन्धनम् । (प्राद्यद्यामिकतालपङ्कनियोस?)समन्विताम् ।। ४० ॥ निर्याससंयुतां दद्यात् त्रिस्ततः कटशर्कराम् । (पाटायनां) भूमिबन्धोऽयं विक्षेप्तव्यः प्रयत्नतः ।। ४१ ॥ (गोमयेन कटंपेने शैस्तदनन्तरम् )। (केटशर्करयुक्तिवारास्त्राक्तचकेन च?) ॥ ४२ ॥
१. ' कुङ्यमालेपयेत् पूर्व' इति पाउ । .. 'कटश राम्' इति, ३. 'कटशकरया' इति, ४. 'कटशर्कराम्' इति च स्यात् । ५. 'निमयुतां विधाय' इति स्यात् ६. 'द्रवीक्रत्य' इति स्यात् । ७, ८. 'पानाम' इति स्यात् । ९. 'कहा धर्करमा युक्तास्त्रीन् कूर्चकेन च' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे (यथा पन्थत्तास्वां पश्चाद् भूमिबन्धः कटेपिह!) । इति निगदितमेवं लक्षणं वर्तिकाना
(मिहकपदकुड्यक्ष्मानिविविविधेश्च?) । इदमखिलमवैति (पग्रन्थतो योऽर्थतश्च
(प्रतिवति स विधातुर्विभ्रमस्यास्य योगात्) ।। ४३॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे
भूमिबन्धो ना(मैकाम द्वि)सप्ततितमोऽध्यायः ॥
अथ लेप्यकर्मादिकं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।
लेप्यकर्म समृल्लक्ष्म (लक्षा?)लक्ष्म च कथ्यते । वापीकूपतटाकानि पग्रिन्यो दीर्घिकास्तथा ॥ १॥ वृक्षमूलं नदीतीरं गुल्ममध्यं तथैव च । मृत्तिकानामिति क्षेत्राण्युक्तान्येतानि तत्वतः ।। २ ।। तासां वर्णः सिताक्षौद्रसन्निभो गौर एव च । कपिलश्चेति ते स्निग्धाः शस्ता विप्रादिषु क्रमात् ।। ३ ।। (इन्द्रांशी?) मृत्तिका ग्राह्या स्थूलपाषाणवर्जिता। शाल्मली(शामा)पककु(भीम मधूकत्रिफलोद्भवम् ॥ ४॥ रसं विनिक्षिपेत् तस्यां (पैप्रेक्षस्यसिकथितां चपिः) । क्रमुकं(चनका?)बिल्वे सटालोमानि वाजिनः ॥ ५ ॥ गवां रोमाणि वा दद्यान्नालिकरस्य (कावल्कलम् । मृदा संयोज्य मृगीयाद् दद्याद् वा द्विगुणांस्तुषान् ।। ६ । (वॉलुकातीवतीचापि तपासांयोगयेन्मृदम्) । भागद्वयं मृत्तिका(यैःयां) कापासांशेन मिश्रयेत् ॥ ७॥
१. 'यथा पट्टे तथैव स्याद् भूमिबन्धः पटेऽपि सः' इति स्यात् २. 'लेखा' इति स्यात् । ३. 'प्रक्षिप्य सिकतामपि' इति स्यात् । ४. वालुका यावती चापि तावती योजयेन्मृदम्' इति स्यात् ।
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लेप्यकर्मादिकं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । तदेकीकृत्य मृद्भागं तृतीयमुपरि क्षिपेत् । पूर्वोदितां स(नि?निधाय ततश्च कटशर्कराम् ॥ ८ ॥ कल्यं?ल्क) विधाय(:१) चीरेण रूपं तत्परिवेष्टि(तारतम्) । तेन निर्यासयुक्तेन कुर्यादाकारमादृतः ॥९॥ कटशर्करया लिम्पेत् कूर्चकेन विचक्षणः । मृत्तिकाकाथसङ्घाताल्लेप(क)म प्रशस्यते ॥ १० ॥ (रवयेल्लोहसङ्घातं लसंकार्यसुधामध्यये । युक्तं पक्षेत संयोज्य मोममान योजयेत् ।। ११ ॥ अनेपकं समायुक्तः) कर्तुः स्थानविनाशनम् ।
लेपकर्ममृत्तिकानिर्णयः ॥ विलेखा(ल)क्षणं सम्यगिदानीमभिधीयते ॥ १२ ॥ कूर्चनं कूर्चकेनाथ द्वितीयं हस्तकूर्चकम् । तृतीयं भासकूर्चाख्यं चतुर्थं चल्लकूर्चनम् ॥ १३ ॥ (वर्तनं पञ्चमं वर्तन्यकूर्चमान्यकूर्चनमिष्यते । लेप्यकर्मणि तच्छस्तमनामणवः ॥ १४ ॥ जलचूर्णकमानीतमिह सत्सन्तितो!)++ । कूर्चकं धारयेद् धीमान् वृषश्रवणरोम(तिभिः ) ॥ १५ ॥ ++++++++++ तत्कृतकूर्चकैः । वल्कलैर्वा विधातव्यः खरकेशैरथापि वा ॥ १६ ॥ कूर्चको (यमतिर्यापि?) विहितोऽत्र प्रशस्यते । (कूर्चकं धारयेद् धीमान् वृषश्रवणरोमभिः) ॥ १७ ॥ तन्तुतः कूर्चकः श्रेष्ठो विले(पाखा)कर्मणि स्वतः । (आयो वदाङ्कुराकारस्ततो स्वच्छाङ्कुराकृतिः) ॥ १८ ॥ प्लक्षसूची निभश्चान्यस्तृतीयः कूर्चको भवेत् । उदुम्बराङ्कुराकारश्चतुर्थः परिकीर्तितः ।। १९ ॥ 'आयो वटाकुराकारस्ततोऽश्वयाकराकतिः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधार स्थूला लेखा न कुर्वीत वटाकुरनि भे?भा)दितः । न्यूनलेखा न कुर्षीत प्लक्षाकुर समेन च ॥ २० ॥ अश्वत्थाङ्कुररूपेण यत्र (विद्वत्सहीकरात् :) । उदुम्बराफराकारो लेप्यकमणि शस्यते ॥ २१ ॥ ज्येष्ठः स्यादायतो दण्डो वैणवो + + + गुलः । लेप्यकर्म + + + समासतः __ संस्कृति तेः)विधिरनन्तरं मृदः । अत्र सम्यगुदिता विलेखनी
कूर्चकस्य रचना (च) पञ्चधा ।। २२- ॥ इति महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीभोजदेवावरचिते समराङ्गणसूत्रधाग्नाम्नि वास्तुशास्त्रे
लेप्यकर्मविलेखाकूर्चकाध्यायो नाम (द्विात्रि)सप्ततितमः ।।
अथाण्डकप्रमाणं नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ।
अथात्र प्रक्रमायाता कथ्यतेऽण्डकवर्तना । कायप्रमाणमपिच जातिभावादिसंश्रयम् ।। १ ।। अथ (मधोतिरालिख्य सोरका सन्निवेशयेत् । तारका त्रयमालेख्य तत्रान(न)समायति ॥ २ ॥ ताव(त)प्रमाणमायाम गोल(क)स्योत्तमं विदुः । तेन गोलकत्वेन(१) मानोन्माने तु कारयेत् ।। ३ ॥ मुखाण्डकस्य विस्तारो (लेप षट्केन सम्मितः । द्विदैर्ध्य तु (८) गोलकाः सप्त वापीसं:थानमेव च ॥ ४ ॥ मुखाण्डकमिदं श्रेष्ठं कर्तव्यं चित्रकर्मणि । त्रिकोटि वृन्ति?त्त)मालेख्य वृत्ताण्ड (क)मिति क्रमात् ।। ५ ।। १. गदितं ' इति स्यात् ।
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अण्डकप्रमाणं नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः । २३१ (भावाण्डकान्यथ ब्रूमः सोहस्याभिप्रस्तकेडकम्) । गोलार्धाभ्यधिकं कार्य (पूर्वेस्तोत्तद्विचक्षणैः१) ॥ ६ ॥ अर्धगोलकमायामादलसाण्डकमुच्यते । नवगोलकदैर्घ्य तदद्वहासमुखं(?) भवेत् ॥ ७ ॥ पंसां षडा(दात्तं यत) मानं विस्तारात् पश्चगोलकम् । वनिताण्डकमालेख्यं नालिकेरफलोपमम् ॥ ८ ॥ चतुर्गोलकविस्तीर्णमायतं पञ्चगोलकान् । शिशूनामण्डकं तावत् कर्तव्यं चित्रकर्मणि ॥ ९ ॥ (हास्योभिः प्रस्रवेत्!) तस्य गोलकार्धान् विशेषयेत् । आलस्याण्ड कमप्येवं रोदनं तद्वदेव तु ॥ १० ॥ षड्गोलक(प्र)विस्तारमायतं सप्तगोलकम् । राक्षसस्याण्डकं कुयोच्चन्द्रमण्डलसन्निभम् ॥ ११ ॥ (हास्योभिप्रस्तवे?) तस्य गोलकार्धान् विशेषयेत् । देवाण्डकं प्रमाणेन तदालस्येव कीर्तितः, ।। १२ ।। षड्गोलक(प्र)विस्तारं गोलकाष्टकमायतस् । (हत्तांया) समालेख्यं दिव्याण्डकमिति स्मृतम् ॥ १३ ॥ अथाभिधीयते दिव्यमानुषाण्ड (क)(वि)लक्षणम् । गोलकार्धाधिकं (भेरत)च्च कार्य मानुषमानतः ॥१४॥ पञ्चगोलकविस्तीर्ण षड्गोल(सेमायुतम्)। मुखाण्डं मानुषं कृत्वा(केत्तरस्यः) विधीयते ।। १५ ।। शिशुफाण्डकमानेन प्रमथानां मुखाण्डकम् । राक्षसाण्डकमानेन यातुधानाण्डकं भवेत् ।। १६ ॥ दानवस्याण्डकं कुर्याद देवानां वदनोपमम् । गन्धर्वनागयक्षाणां तद्वदेवाण्डकं भवेत् ।। १७ ॥ विद्याधराणां विज्ञेयं दिव्यमानुषमण्डकम् । बुध्यन्ते केऽपि शास्त्रार्थ केचित् कर्माणि कुर्वते ॥ १८॥ १. 'चायत' इति स्यात् । २. 'कसमायतम् ' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे करामलकव(त्यास्यं पर?)द्वयमप्यदः । न वेत्ति शास्त्रवित् कर्म न शास्त्रमपि कर्मवित् ।। १९ ।। यो वेत्ति द्वयमप्येतत् स हि चित्रकरो वरः* ॥ १९ ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे अण्डकप्रमाणं नाम (त्रिचतुः)सप्ततितमोऽध्यायः ।।
------- अथ मानोत्पत्तिर्नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः।
मोऽथ(मातमाणा) परमाण्वादि तद् भवेत् ॥ १॥ परमाणू रजो रोम लिक्षा (प्रेरिकाः) यवोऽङ्गुलम् । क्रमशोऽष्टगुणा वृद्धिरे(व:) मानाङ्गुलं भवेत् ॥ २॥ यङ्गुलो गोलको ज्ञेयः कलां वा तां प्रचक्षते । द्वे कले गोलको (बाही?) भागो मानेन तेन तु॥३॥ आयामाद विस्तृतश्चित्रमन्यूनाधिकमाचरेत । देवादीनां शरीरं स्याद् विस्तारेणाष्टभागिकम् ॥ ४ ॥ (त्रिदशद)भा(गा)यतं चैतद् विदध्याचित्रशास्त्रवित् । असुराणां (सरंः) स्याद् भागान् स(मामा)संयुतान् ॥ ५॥ विस्तारेण वदायामादेकान्नत्रिंशदिष्यते । सप्तभागं राक्षसानां विस्तारेणायतं पुनः ॥६॥ सप्तविंशतिभागं स्याद् यत् पुनर्दिव्यमानुषम् । (साधो तु षडंशास्त कुयोत्याद्वशत्यायतम् ) ॥ ७॥
१. 'मानगणनम् ' इति स्यात् । २. 'यूका' इति स्यात् । ३. 'वा द्वौ' इति स्यात् । ४. 'त्रिंशद' इति स्यात् । ५. 'शरीरं ' इति स्यात् ।
- अध्यायावसाने नियमेन दृश्यमानां तत्चदध्यायविषयक्रोडीकरण कारिका विनवेहाध्यायपरिसमाप्ति तृकायामुपलभ्यते, एतदध्यायारम्भे 'कायमानमपि च' इति यद् विषयान्तरं प्रतिज्ञात, तत् समनन्तराध्याये सप्रपञ्चं निरूप्य मध्ये 'अण्डकवर्तना' 'कायमान. मिस्येतयोरेसदध्यायगतयोर्दयोर्विषययोः कोडीकारः कारिकारूपेणाध्यायावसान व नियबः।
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मानोत्पत्तिर्नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः। २६३ षड्भागविस्तृत कार्य शरीरं मर्त्यजन्मनि । चतुर्विंशतिभागान् + सार्धान कुर्वीत दैर्ध्यतः ॥ ८॥ पुरुषस्योत्तमम्यैतन्मानम(स्या?स्मा)भिरीरितम् । मध्यमस्य तु साधे स्याद् विस्ताराद् भागपञ्च(माकम् ॥९॥ आयामस्तस्य तु प्रोक्तो ('विंशतिस्वितिः)रन्विता। (केनीयसानां कुब्जानां विस्तारान् पञ्चभागिका ॥ १० ॥ दैर्घ्यमस्य विधातव्यस्तथा शरीरस्य विस्तरा पञ्चभागिका?)। दै(य?ध्य) द्वाविंशतिर्भागा वपुषोऽस्य प्रशस्यते ॥ ११॥ (कार्यां शरीरस्य?) कुब्जानां विस्तारात् पञ्चभागिकम् । दैर्घ्यमस्य विधातव्यं तथा भा(गं शुभदश?) ॥ १२ ॥ भागपश्चिकावस्तारं (वामनानां वपुर्भवेत)। कुर्वीत सा(धर्धान् ) सप्तैव भागा(न् ) दैर्येण तद्वतत् पुनः।। (किंवा राणि) प्रोक्तं प्रमाणमिद(मेद? मेव हि । (प्रथमानं:) तु विस्तारो वपुषोंऽशचतुष्टयम् ॥ १४ ॥ (दैदो पुनमूस्ये) भागषट्कप्रमाणतः । उक्तं देहप्रमाणस्य भागसूत्रमिदं पृथक् ॥ १५ ॥ देवानामसुराणां च राक्षसानां तथैव च । दिव्यमानुषमयोनां कुब्जवामनयोरपि ।। १६ ॥ किन्नराणां सभूतानां क्रमेणास्मिन्नुदाहृतम् । इत्थमण्डक(वेले च वनं क्रम)
1. 'विंशतिविभि' इति स्यात् । २. कुब्जानामित्यादितथेत्यन्तं पदजातमुपरिवश्यमाणकुब्जशरीरप्रमामादिह लेखकेन प्रमादान प्रक्षिप्तमिव भाति । ततश्च प्रकृतानुगुण्येन 'कनीयसः शरीरस्य विस्तारः पञ्च भागकः' इतीह पाठो योजनीयः स्यात् । ३. 'कार्य शरीर' इति स्यात् । ४. 'गांश्चतुर्दश' इति स्यान। ५. 'किन्नराणामपि' इति स्यात् । ६. 'प्रमथानो' इति स्यात् । ७. 'देध्य भवेत् पुनस्तस्य' इति स्यात् । ८. 'विलेखनक्रमः' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे (का)यमानमपि जातिभेदतः । भावतश्च कथितं विभा(जन्मना)वयन्
(यलित्याख्या स्त?)खलु चित्रवित्तमः ॥ १७ ॥ अथ मानसमुत्पत्तिर्यथावदभिधीयते ।। १८ ॥ देवानां त्रीणि रूपाणि सुरजो++ कुम्भको । स्याद् दिव्यमानुषस्यैकं शरीरं दिव्यमानुषम् ।। १९ ।। असुराणां त्रिधा रूपं चक्रमुत्तीर्णकं तथा । दुर्दरः शकटः कूर्म (त्रिदिवौ?इति द्वे) रक्षसां पुनः ॥ २० ॥ पुंसां रूपाणि पश्च स्युस्तान्युच्यन्ते यथाक्रमम् । (हंसः सासाप्ररूचको भक्तामालाव्य एव च ॥ २१ ॥ कुयस्वविद्विधौ ज्ञेयो मेषो वृत्तकरस्तथा?) । वामनास्त्रिविधा ज्ञेयाः सपिण्डास्थानपद्मकाः ॥ २२ ॥ (कुश्माण्डकवेटस्तियक++++प्रथमतः)। मयूरः कुर्वटः काशः किन्नरस्त्रिविधो भवेत् ।। २३ ॥ (वालकापौरुषी वृत्ता+++दण्डका तथा। त्रयः) पञ्चधा प्रोक्ताः समस्ताश्चित्रवदिभिः ॥ २४ ॥ भद्रो मन्दो मृगो मिश्र इति हस्ती चतुर्विधः । जन्मतस्विविधं प्राहु(निधिने गिरिनारुखांश्रयम्।) ॥ २५ ॥ (विविधा वाजिनो रथ्य?) पारसादुत्तरान्ततः । सिंहाश्चतुर्थो शिखरबिलामतृणारव्यया?) ॥ २६ ।। च्यालाः षोडश निर्दिष्टा हरिणो गृध्रकः शुकः। कुक्कुटः सिंहशार्दूलवृकाजागण्डकीगजाः ।। २७ ।। (क्रीनो)डाश्वमहिषश्वा(ना'नो) मर्क(टोताटाख)र इत्यमी । [एसामिन्दमासं यं याम्यनैर्ऋतवारुण ॥ २८ ॥ वायव्यां सौम्यमित्युक्तं जज्ञिपातमिहव्यधारु । नतस्तमिहर्भामः शिषद्या सूकरोऽपिच ॥ २९॥
.. यो लिवेत् स' इति स्यात् । २. गिरिनापराश्रयम्' इति स्यात् । १. 'डिषिषा वाजिनी रभ्याः' इति स्यात् । ४. 'गुल्मणाश्रयाः' इति स्यात् ।
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मानोत्पत्तिर्नाम पश्चसप्ततितमोऽध्यायः । पशु!ः सुसुमारुश्च गजमेषश्चतुर्मुखः । तुरसिंहशार्दूलमेषाश्चेत्यत्र षोडश ॥ ३० ॥
(जातसंस्तृतिः) ।। शुक्लवासाः शुचिर्दक्षः स्त्रीशूद्रानभिलाषुकः । स्थाने कारभेतैतद् विभक्ते संवृतेऽपिच ॥ ३१ ॥ आरम्भो देवता नां रोहिण्यामुत्तरेषु च । साधकं वा भवेद् (यस्तु भवा)रम्भो विधीयते ॥ ३२ ॥ *मुखं भागेन कुर्वीत ग्रीवा वक्त्रात् त्रिभागिका । (ओयमतन्मुखं?) ज्ञेयं केशान्तं द्वादशाङ्गुलम् ।। ३३ ।। द्वादशैवामुलान्येतद विस्तारेण पुनर्भवेत् । (प्रविमानं?) त्रिभागेन नासिका च त्रिभागतः ॥ ३४ ।। त्रिभागेन ललाटं स्यादुत्सेधात् त्रिसमं मुखम् । अक्षिणी द्वयमुलाया तदर्धा(ध्यदापि विस्तृते ॥ ३५ ।। तारकाक्षित्रिभागेन कर्तव्या सुप्रतिष्ठिता । तारकायास्ततो मध्ये ज्योतिस्व्यंशेन कल्पयेत् ।। ३६ ॥ (भ्रवौ व्यक्षिरामे कुर्यादक्षिमांसयो। मंकाराणा स्युरुचाता सम्यगालिखेत् ?) ॥ ३७॥ एवं विधानतो योज्यं रूपजातमशेषतः । जातीनां वशत इति प्रमाणमुक्तं । ___ (दिवादिष्यखिलमुक्तं देवाः)मिदं स्फुष्टं विदित्वा ।
यश्चित्रं लिखति बहुप्रकारमस्मै __ प्राधान्य वितरति चित्रकृत्समूहः ॥ ३०॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नेि वास्तुशास्त्रे
मानोत्पत्तिोम (चतुःपञ्च)सप्ततितमोऽध्यायः ॥
-------:0:
१. 'यस तदा इति स्यात् । २. 'अयामतो मुखाद्' इति स्यात् । ३. भुवो - मौनं इति स्यात् । ४. 'दिव्यादिष्यखिल' इति स्यात् ।
-इत आरभ्य श्लोकपञ्चकगता विषयाः समनन्तराध्यायादिह प्रश्चिता इति मावि।
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समराङ्गणसूत्रधारे अथ प्रतिमालक्षणं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः
-::- - प्रतिमानामथ ब्रूमो लक्षणं द्रव्यमेव च । सुवर्णरूप्यता(म्राः स्युर्दारुलेखानि?) शक्तितः ॥ १॥ चित्रं चेति विनिर्दिष्टं द्रव्यमर्चासु सप्तधा । सुवर्ण पुष्टिकृद् विद्याद् रजतं कीर्तिवर्धनम् ॥ २ ॥ प्रजाविद्धि(जद) तानं शैलेयं भूजयावहम् । आयुष्यं दारवरचारवं) द्रव्यं लेख्यचित्रे धनावहे ॥ ३ ॥ प्रारभेद विधिना प्राज्ञो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । हविष्यनियताहारो जपहोमपरायणः ।। ।। ४ ।। शयानो धरणीपृष्ठे (कुशास्तरणे तदन्तरम् ?)* | अमाप्साया() द्वयोर्मध्यं भवेत् पञ्चाक्षिसम्मितम् ॥ ५ ॥ नेत्रश्रवणयोर्मध्यं भवेदगुलपञ्चकम् । कर्णी चाक्षिसमो ज्ञेयावुत्सेधाद् द्विगुणायतौ ॥ ६॥ (सा कर्णपाली स्यान्मध्यं पत्पिष्यल्यकृकूटयोः । द्विभागोलकायता पिष्पल्याश्रितागुलविस्तृताः) ।। ७ ।। अरोमप्रभवा ज्ञेया व्याकृष्टधनुराकृतिः । एवम्प्रमाणं स्यादेषां कर्णपृष्ठाश्रयोऽपिच । ८ ॥ ऊर्ध्वबन्धादधोबन्धः कर्णमूलसमाश्रि(ता?तः) । अध्यर्ध गोलकं ज्ञेयः पृष्ठतश्चैवमेव सः ।। ९ ।। निष्पावसदृशाकारा कर्तव्या कर्णपिप्पली ।
आयामेनाङ्गुलं सा स्याद् विस्तारेण चतुर्य(यावा) ॥ १० ॥ पिप्पल्याधातयोमध्ये(?) लकार इति संज्ञितः । स्याद(ध्य)र्धाङ्गुलायामो विस्तारेण च सोऽङ्गुलम् ॥ ११ ॥ १. 'माश्मदाग्लेख्यानि' इति स्यात् ।
* इत उत्तरं वाक्यपरिसमाप्त्यदर्शनात प्रक्रमान्तरमझमणाच कियांश्चिद् अन्कपात: संभाव्यते।
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प्रतिमालक्षणं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः । मध्ये लकारो निम्नः स्यान्मानाद यवचतुष्टयम् । मूले पिप्पलिकायाः स्याच्छ्रोत्रच्छिद्रं चतुर्यवम् ॥ १२ ॥ या(गोलकारपीगृष्मो स्तुतिकेतिः) प्रकीर्तिता । अधोमुलायता सा स्याद् यवद्वितयविस्तृता ॥ १३ ॥ लकारावर्तयोर्मध्ये पीयूषी सा प्रकीर्तिता । अङ्गुलद्वितयायामा विस्तृता सार्धमङ्गुलम् ।। १४ ॥ कर्णस्य बाह्या रेखा या तामावर्त प्रचक्षते ।। षडङ्गुलप्रमाणः स्याद् वक्रो वृत्तायतश्च सः ॥ १५ ॥ मलांशोऽर्धागुलः कार्यः क्रमान्मध्ये यवद्वयम् । अग्रे यवप्रमाणश्च विस्तारेण विधीयते ॥ १६ ॥ लकारावर्तयोमध्यमुद्धात इति कीर्तितम् । अधोभागे + पीयूष्या विस्तारेण यवत्रयम् ॥ १७ ॥ ऊर्ध्वतः कर्णविस्तारो गोलकाद् द्वियवान्वितः । मध्ये च द्विगुणं नालं मूले मात्रा स(पद्मीषड्य)वा ॥१८॥ समुदायप्रमाणेन (णेलक?)द्वितयायतः। कर्णप्रसप्तः(१) कर्तव्यो निन्नो(च्चूमती)विभागवान् ॥ १९ ॥ अङ्गुलं पश्चिमं नालं पूर्वमर्थामुलं भवेत् । कुर्वीत कोमले नाले कालला)द्वितयमायते ॥ २० ॥ श्रवणस्य विभागोऽयं (पर्वाश्यथा)वत परिकीर्तितः । अन्यूनाधिकमानः स्यात् प्रशस्तो दृक्षितोऽन्यथा ॥ २१॥ चिबुकं यमुलायामं तस्यार्धमधरं विदुः । तदधेमुत्तरोष्ठः स्याद् भाजी चाागुलो(ष्टधाच्छ्या) ॥ २२ ॥ नासापुटौ तु विज्ञेयौ चतुर्थ भागमष्टीमोष्ठ)यो। तयोः प्रान्तौ तु कर्तव्यौ करवीरसमौ शुभौ ।। २३ ।। तारकान्तःसमे चैव मृकणी परिचक्षते । नासिका स्या(त) प्रमाणेन चतुरङ्गुलमाय(ते?ता) ॥ २४ ॥ 1. 'गोलक' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पुट(भाषा)न्ते च विस्तारो नासाग्रस्याङ्गुलद्वयम् । विस्तारणाशलान्यष्टौ लंदमपि चायतम् ॥ २५ ॥ प्रमाणगुणसंयुक्तं ललाट परिकीर्तितम् । आरभ्य चिबु(का?काद) यावत् (कु.के)शान्तं पश्चिपात् तथा ॥ गाणिक?ण्डा)न्तं शिरसो मानं भवेद द्वात्रिंशदइगुलम् । + ++ कर्णयोर्मध्ये (मष्टको)ऽष्टादशाङ्गुलः ॥ २७॥ +ग्रीवयोः परीणाहो विंशतिश्चतुरन्विता । (श्रीग्री)वातः स्यादुरोभा(गाग) उरसो नाभिरेव च ।। २८॥ नाभे('मेन्द्र) भवेद् भागौ (ोवुभयमेव च!) । ऊर्वोः समे मते जवे जानुनी चतुरङ्गुले ।। २९ ।। चतुर्दशाङ्गुलौ पादौ स्मृताचायाममानतः । षडङ्गुलौ तु विस्तारादुत्सेधाचतुरङगुलौ ।। ३० ।। (पश्चाङ्गुलपरीणाह अगुलौ व्यङ्गुलायतः१) । अङ्गुष्ठकसमा चैव स्यादायामा(द) प्रदेशिनी ॥ ३१ ॥ तस्याः षोडशभागेन हीना स्थान्मध्यमाङ्गुलिः । अष्टभागेन मध्येध्या)या हीनां विद्यादनामिकाम् ॥ ३२ ।। तस्याश्चैवाष्टभागेन हीना ज्ञेया कनिष्ठिका । पादोनमलं कुर्यादङ्गुष्ठस्य नखं बुधः ।। ३३ ।। अङ्गुलीनां नखान् कुर्यात् (ख) पञ्चव्यंशसंमितान् । (कुर्वीताशुलकोत्सेधं त्रिभ्यन्वित्तमङ्गुलाम् ) ॥ ३४ ॥ प्रदेशिन्यगुलोत्सेधा हीना(:) शेषा यथाक्रमम् । जङ्गामध्ये परीणाहो भवेदष्टादशागुङ्लः ॥ ३५ ॥ जानुमध्ये परीणाह(इ?)(स्तस्त्वाङ्गुलान्येकविंशतिः । तस्यैव सप्तम भागं विद्याज्जानुकपालकम् ।। ३६ ॥ (कु.ऊ)रुमध्ये परीणाहो भवेद् द्वात्रिंशदङ्गुलः ।
(भागार्धमाशै?) वृषणौ मेर् वृषणसंस्थितम् ।। ३७ ॥ १. '' इति स्यात् । २. दावूरद्वयमेव च' हति, ३. 'पञ्चाङ्गुलपरीणाहावगुष्ठी बगुलायती' इति च स्यात् । ४. 'कुतागुष्ठकोत्येधं त्रियवान्वितमगुलम् इति स्यात् ।
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प्रतिमालक्षणं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः । २१९ षडङ्गुलपरीणाहं कोशस्तु चतुरङ्गुलः । अष्टादशाङ्गुलमिता विस्तारेण कटिर्भवेत् ।। ३८ ॥ अगुलाध (भवेन्नारीरोधोवश्वाङ्गुलं?) भवेत् । नाभिमध्ये परीणाहः षट्चत्वारिंशदगुलः ।। ३९ ॥ द्वादशाङ्गुलमात्रं तु स्तनयोरन्तरं षिदुः। स्तनयोरुपरिष्टात्तु कक्षप्रान्तौ पडङ्गुलौ ।। ४० ॥ उत्सेधात् पृष्ठविस्तारो विंशतिश्चतुगन्विता । उरसः सह पृष्ठन परीणाहः प्रकीर्तितः ॥ ४१ ॥ षडङ्गात् परीमाणादगुलानीति निश्चयः(१) । परीणाहाच्चतुर्विशत्यगुलाष्टौ च विस्तृता ॥ ४२ ॥ ग्रीवा(वा?) कार्या भुजायामः षट्चत्वारिंशदङ्गुलः। पर्वोपरितनं बाहोः कार्यमष्टादशाङ्गुलम् ।। ४३ ॥ षोडशाङ्गुलमात्रं तु द्वितीयं पर्व कथ्यते । बाहुमध्ये परीणाहो भवेदष्टादशाङ्गुलः ।। ४४ ॥ प्रवाहोस्तु परीणाहो भवति द्वादशाङ्गुलः । आयामेन (तलवापि?) कीर्तिः ते तो) द्वादशाङ्गुलः ॥ ४५ ॥ अगुलीरहितः प्रा(ज्ञोः) सप्ताङ्गुल उदाहृतः । पश्चागुलानि विस्ती(णार्णो) लेखालक्षणलक्षितः॥४६॥ पञ्चाङ्गुलानि मानेन कर्तव्या मध्यमाडगुलिः । पर्वणोऽध(तु मध्याया हीनां विद्यात् प्रदेशिनीम् ॥ ४७ ॥ प्रदेशिनीसमा चैत्र स्यादायामादनामिका । पबोधेमानहीना च प्रमाणेन कनिष्ठिका ।। ४८ ॥ अगुलीनां नखाः कायाः सर्वे पर्वार्धसंमिताः। आयाममात्रमेतासां परीणाहं प्रचक्षते ॥ ४९ ॥ अङ्गुष्ठकस्य देध्ये स्यादगुलानां चतुष्टयम् । पञ्चाङ्गु लालं) पराणा(इंहः) स्पष्टचारुयवाङ्कितं.ता) ॥५०॥ 1. 'तलश्चापि' इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे तुझा(स्थत्तमानपर्यन्तात किञ्चिद्धीना नखा मताः । अङ्गुष्ठकप्रदेशिन्योरन्तरं द्वयगुलं भवेत् ॥ ५१ ॥ स्त्रीणामप्येवमेतत् स्यात् स्तनोरुजघनाधिकम् । त्रीणि चत्वारि चत्वारि त्रीणि चत्वार्यथापिच ।। ५२ ॥ एकादशैकादश वा दश(धावा) विंशतित्रास्त्र)यम् । विंशतिस्त्रीणि च स्त्रीणां मानमेतत प्रकीर्तितम् ।। ५३ ।। कनिष्ठं मानमेतत् स्यान्मध्यं सव्यंशमष्टकम् । (पीक)लानाष्टमकं साधेमुत्तमं परिकीर्तितम् ।। ५४ ॥ उरसश्च भवेत् तासां विस्तारोऽष्टादशाङ्गुलः।। कर्तव्यः कटिविस्तारो विंश(ति' चतुरुताः?) ।। ५५ ।। एतत् प्रमाणमुद्दिष्टं प्रतिमानां समासतः । प्रमाणभेतत् सक(लाशराणा
मर्धास्तु) निर्दिष्टमनुक्रमेण । कार्य सदा शिल्पिभि(रंशुमते?)
यथोचितद्रव्यसमुद्भवासु !। ५६ ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेविरांचते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे प्रतिमालक्षणं नाम (पञ्च?षद् )सप्ततितमोऽध्यायः॥
- - - अथ देवादिरूपप्रहरणसंयोगलक्षणं नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ।
----- --- त्रिदशानामथाकारान् ब्रूमः प्रहरणानि च । दैत्यानामथ यक्षाणां गन्धर्वोरंगरक्षसाम् ।। १ ।। विद्याधरपिशाचानां++++ यथायथम् ।
ब्रह्मानलार्चिःप्रतिमः कतेव्यः सुमहाद्युतिः ॥२॥ 1. 'तिश्चतुरन्विता' इति स्यात । २. 'लामराणामर्चासु' इति स्यात् । ३. 'रममचे इति स्यात् ।
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देवादिरूपप्रहरणसंयोगलक्षणं नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः । २७१
स्थूलाः श्वेतपुष्प श्वेतवेष्टनवेष्टितः । कृष्णाजिनोत्तरीयश्च श्वेतवासाचतुर्मुखः || ३ || दण्डः कमण्डलुवास्य कर्तव्यो वामहस्तयोः ः । अक्षसूत्रधरस्त (द्वाद्वद्) मौज्ज्या मेखलया वृतः ॥ ४ ॥ का (र्याय) वर्धयमानस्तु जगद दक्षिणपाणिना । एवं कृते तु लोके (शे) क्षेमं भवति सर्वतः ॥ ५ ॥
ब्राह्मण (?) वर्धते सर्वकामैर्न संशयः । यदा विरूपा (दीनां वा कुरसोदरी ॥ ६ ॥
ब्राह्मणैर्वा) भवेद् वर्णा ( 2 ) सा नेष्टा भयदायिनी । निहन्ति कारकं रौद्रा दीनरूपा च शिल्पिनम् ॥ ७ ॥ कृशा व्या(धिःधि) विनाशं च कुर्यात् कारयितुः सदा । कृशोदरी तु दुर्भिक्षं विरूपा चानपत्यताम् ॥ ८ ॥ एतान् दोषान् परित्यज्य कर्तव्या सा सुशोभना । ब्रह्मणो (alisa) विधानज्ञैः प्रथमो मे ) यौवने स्थिता ॥ ९ ॥
चन्द्राङ्कितजटः श्रीमान् नीलकण्ठः सुसंय (तेतः) । विचित्रकुट : शम्भुर्निशाकरसमप्रभः ॥ १० ॥
दोर्भ्यां द्वाभ्यां चतुर्भिवा (वधा?) युक्तो वा दोर्भिरष्टभिः । प (टि. ट्टि ) शव्यग्रहस्तश्च पन्नगाजिनसंयुतः ॥ ११ ॥
सर्वलक्षणसम्पूर्णो नेत्रत्रितय भूषणः । एवंविधगुणैर्युक्तो यत्र लोकेश्वरो हरः || १२ || परा तत्र भवेद् वृद्धिर्देशस्य च नृपस्य च । यदारण्ये (माने) वा विधीयेत महेश्वरः ॥ १३ ॥
एवंरूपस्तदा कार्यः कारकस्य शुभावहः । अष्टादशभु ( लो जो दोष्णां विंशत्या वा समन्वितः ॥ १४ ॥
१. 'दीना वा कृशा रौद्रा कृशोदरी । ब्रह्माणोऽची' इति स्यात् ।
इति स्यात् ।
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२. ' श्मशाने '
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समराङ्गणसूत्रधारे
शतबाहुः कदाचिद्वा सहस्रभुज एव च । रौद्ररूपो गणवृतः सिंहचर्मोत्तरीयकः || १५ || तीक्ष्णदंष्ट्राग्रदशनः शिरोमालाविभूषितः । चन्द्राङ्कितशिराः श्रीमान् पीनोरस्कोग्रदर्शनः ।। १६ ।। (भद्रमू) कर्तव्यः श्मशानस्थो महेश्वरः । द्विभुजो राजधान्यां तु पत्तने स्याच्चतुर्भुजः ॥ १७ ॥ कर्तव्यो विंशतिभुजः श्मशानारण्यमध्यमः । एकोऽपि भगवान भद्र (:) स्थानभेदविकल्पितः ॥ १८ ॥ रौद्रसौम्यस्वभावश्च क्रियमाणो भवेद्बुधैः । (उद्याद्यथा भावद्भागभगवान् ) सौम्यदर्शनः ॥ १९ ॥ स एव तीक्ष्णतामेति मध्यन्दिनगतः पुनः । तथारण्यस्थितो नित्यं रौद्रो भवति शङ्करः || २० || ( स येद सौम्यावति स्थाने सौम्यो व्यवस्थितः) | स्थानान्येतानि सर्वाणि ज्ञात्वा किम्पुरुषादिभिः ॥ २१ ॥ प्रमथैः सहितः कार्यः शङ्करो लोकशङ्करः । एतद् यथावत् कथितं संस्थानं त्रिपुरद्रुहः || २२ ॥ कार्त्तिकेयस्य संस्थानमिदानीमभिधीयते । तरुणार्कनिभो रक्तवासाः पावकसप्रभः ॥ २३ ॥ ईषद्वालाकृतिः कान्तो मङ्गल्यः प्रियदर्शनः । प्रसन्नवदनः श्रीमानोजस्तेजोन्वितः शुभः ॥ २४ ॥ (विशेषान्मुटुकै चित्रि) मुक्तामणि(विभूषितः । gar area वा शक्ति रोचिष्मतीं दधत् ॥ २५ ॥ नगरे द्वादशभुजः खेटके षड्भुजो भवेत् ।
ग्रामे भुजद्वयोपेतः कर्तव्यः शुभमिच्छता ॥ २६ ॥
१. 'भद्रमूर्तिस्तु' इति स्यात् २ 'उद्यन् यथा भवेद् भानुर्भगवान्' इति स्यात् । ३. 'स एव सौम्यो भवति स्थाने सौम्ये व्यवस्थितः' इति स्यात् । मित्रैः' इति स्यात् ।
४. 'विशेषान्मुकुटै
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देवादिरूपपहरणसंयोगलक्षणं नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः। २७३ शक्तिः शरस्तथा खङ्गो मुसृण्ठी मुद्गरोऽपि च । हस्तेषु दक्षिणेष्वेतान्यायुधान्यस्य दर्शयेत् ॥ २७॥ एकः प्रसारितनान्यः षष्ठो हस्तः प्रकीर्तितः । (चतुः) पताका घण्टा च खेटः कुक्कुट(क)स्तथा ॥ २८ ॥ वामहस्तेषु षष्ठस्तु तत्र (शोजर्जन?) करः। पवमायुधसम्पन्नः संग्रामस्थो विधीयते ॥ २९ ॥ (अन्यया) तु विधातव्यः क्रीडालीलान्वितश्च सः । छागकुक्कुटसंयुक्तः शिखियुक्तो मनोरमः ॥ ३० ॥ नगरेषु सदा कार्यः स्कन्दः परजयैषिभिः । खेटके तु विधातव्यः षण्मुखो ज्वलनमः ॥ ३१ ॥ तथा तीक्ष्णायुधोपेतः स्रग्दामभिरलकृतः । ग्रामेऽपि द्विभुजः कार्यः कान्तिद्युतिसमन्वितः ॥ ३२ ।। (दक्षिणा च भवेद् भक्तिर्नाम हस्ते तु कुक्कुट!) । विचित्रपक्षः (ससु)महान् कर्तव्योऽतिमनोहरः ॥ ३३ ॥ एवं पुरे खेटके च ग्रामे (वाभिलं?) शुभम् । कार्तिकेयं ++ कुर्यादाचार्यः शास्त्रकोविदः ॥ ३४ ॥ अविरुदेषु कार्येषु खेटे (यात्रा)मे पुरोत्तमे । कार्तिकेयस्य संस्थानमेतद् यत्नेन कारयेत् ॥ ३५ ॥ (बालस्तु सुभुजः श्रीमान् स्थले केतु महाद्युतिः) । वनमालाकुलोरस्को निशाकरसमप्रभः ।। ३६ ॥ गृहीत(सारोसी)मुसलः कार्यो दिव्यमदोत्कटः । चतुर्भुजः सौम्यवक्रो नीलाम्बरसमावृतः ॥ ३७॥ (कु:मु)कुटालङ्कृतशिरोरोहो रागविभूषितः । रेवतीसहितः कार्यो (वनबल)देवः मतापवान् ॥ ३८॥
1. 'धनुः' इति, २. 'संवर्धनः' इति, ३. 'अन्यदा' इति, ४. 'दक्षिणे च भवेभक्तिर्वामे हस्ते तु कुकूटः इति, ५. 'बलस्तु सुभुजा श्रीमांस्तालकेद्रमहाद्युतिः' इति
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२७१
समराङ्गणसूत्रधारे विष्णुर्यसङ्काशः पीतवासाः श्रिया(कृ)तः । वराहो वामनश्च स्यानरसिंहो भयानकः ।। ३९ ॥ कार्यो (वा?) दाशरथी रामो जामदग्न्यश्च वीर्यवान् । द्विभुजोऽष्टभुजो वापि चतुवाहुररिन्दमः ॥ ४० ।। शङ्खचक्रगदापाणिरोजस्वी कान्तिसंयुतः । नानारूपस्तु कतेव्यो ज्ञात्वा कार्यान्तरं विभुः ॥ ४१ ॥ इत्येष विष्णुः कथितः (सुरास्वरनमस्वरनमस्त्वतः) । त्रिदशेशः सहस्रा(क्षौ क्षो) वज्रभृत् सुभुजो बली ।। ४२ ॥ किरीटी सगदः श्रीमाञ् श्वेताम्बरधरस्तथा । श्रोणिसूत्रेण म(हा?हता) दिव्याभरणभूषितः ॥ ४३ ।। कार्यो राजश्रिया युक्तः पुरोहितसहायवान् । ववस्वतस्तु विज्ञेयः (कालेः केसं.)परायणः ॥ ४४॥ तेजसा सूर्यसङ्काशो जाम्बूनदविभूषितः। सम्पूर्णचन्द्रवदनः पीतवासा(स्तु:शुभेक्षणः ॥ ४५ ॥ विचित्रमुकुटः कार्यो वराङ्गदविभूषितः । तेजसा सूयेसङ्काशः कतेव्यो बलवाञ्छुभः ॥ ४६ ।। धन्वन्तरिभरद्वाजः (प्रजानीयतयस्तथा । दक्षाथोंः सदृशाः कायो कार्यो रूपाणि+रपिः) ॥४७॥ अर्चिष्मान् (क्षज्व)लनः कार्यः (यत्कण्ठाश्व?)समीरणः । सौम्यः कार्यस्तथा(विस्या?) + + रुद्रशरीरिणः ॥ ४८ ॥ रक्तवस्त्रधराः कृष्णा नानाभरणभूषिताः। कर्तव्या राक्षसाः सर्वे बहुप्रहरणान्विताः॥४९॥ पूर्णचन्द्रमुखा शुभ्रा बिम्बोष्ठी चारुहासिनी । धेतवस्त्रधरा कान्ता दिव्यालङ्कारभूषिता ॥ ५० ॥ .. कटिदेशनिविष्टेन वामहस्तेन शोभना । सपझेन (वान्तेनः) दक्षिणेन शुचिस्मिता ॥ ५१ ॥ १, 'सुरासुरनमस्कृतः' इति स्यात् ।
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देवादिरूपप्रहरणसंयोगलक्षणं नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः। २७५ कर्तव्या श्रीः प्रसन्नास्या प्रथमे यौवने स्थिता । गृहीतशूलपरिघ(पाहिका?)पट्टिसध्वजा ।। ५२ ।। बिभ्राणा खेटकोपेतलघुखड्गं च पाणिना | घण्टामेकां च सौवर्णी दधती घोररूपिणी ।। ५३ ।। कौशिकी पीतकौशेयवसना सिंहवा(हना । (सेचोष्टौ?) + विधातव्याः शुक्लाम्बरधराः + + ।। ५४ ॥ शोभमानाश्च मुकुटैर्नानारत्नविभूषितैः । सदृशावश्विनौ कार्यों लोकस्य शुभदायकौ ॥ ५५ ॥ शुक्लमाल्याम्बरधरौ जाम्बूनदविभूषितौ । (त्रिपञ्चदशपूतिरस्येदं भृगवन्मेचकप्रभाम् ॥ ५६ ॥ वैर्यशकंसङ्काशा) हरितश्मश्रवोऽपि च । रोहिता विकृता रक्तलोचना बहुरूपिणः ॥ ५७ ॥ नागैः शिरोरुहाली विरागाभरणाम्बराः । कार्याः पिशाचा भूताश्च परुषासत्यवादिनः ॥ ५८ ॥ (बहुपकारमन्दहाः) विरूपा विकृताननाः । घोररूपा विधातव्या ह्रस्वा नानासु)धाश्च ते ॥ ५९ ।। सुभीमविक्रमा भीमा(ः) सङ्घा यज्ञोपवीतिनः । वर्मभिः शाटिकाचित्रैर्भूताः कार्याः सदा बुधैः ।। ६० ।। येऽपि नोक्ता विधातव्यास्तेऽपि कार्यानुरूपतः । यस्य यस्य च यल्लिङ्गमसुरस्य सुरस्य च ।। ६१ ।। यक्षराक्षसयोर्वापि ना(नाग)गन्धर्वयोरपि । तेन लिङ्गेन कार्यः स यथा सा(शु?धु) विजान(जाता) ।। ६२ ।। प्रायेण (वा?) वीर्यवन्तो हि दानवाः क्रूरकर्मिणः । किरीटिनश्च कर्तव्या विविधायुधपाणयः ॥ ६३ ।। तेभ्योऽपीषत् कनीयांसो दैत्याः कार्या गुणैरपि । दैत्येभ्यः परिहीणास्तु यक्षाः कार्या मदोत्कटाः ॥ ६४॥
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समराङ्गणसूत्रधारे हीनास्तेभ्योऽपि गन्धर्वा गन्धर्वेभ्योऽपि पन्नगाः । नागेभ्यो राक्षसा हीनाः क्रूर(विक्रिमतमूषिणः) ।। ६५ ॥ विद्याधराश्च यक्षेभ्यो हीनदेह(ताधाराः स्मृताः । चित्रमाल्याम्बरधराश्चित्रचमासिपाणयः ।। ६६ ॥ नानावेषधरा घोरा भूतसङ्घा भयानकाः । पिशाचेभ्योऽधिकाः स्थूलास्तेजसा परुषास्तथा ।। ६७॥ अन्यूनाधिकरूपांश्च कुर्वीत प्रायशः शुभान् । *(दिव्यैरासणाभरणैश्च युक्ताः
कृतीथविदधीत यथोदितांस्तान्?) ॥ ६८ ॥ इति महाराजाधिराजलीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे देवादिरूपप्रहरणसंयोगलक्षणाध्यायो नाम (षटू?सप्त)सप्ततितमः ॥
अथ दोषगुणनिरूपणं नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ।
अथ वानि रूपाणि महे दिकर्मसु । यथोक्तं शास्त्रतत्त्वज्ञैर्गोब्राह्मणहितार्थिभिः ॥ १ ॥ अशास्त्रज्ञेन घटि(तारतं) शिल्पिना दोषसंयुतम् । अपि माधुर्यसम्पन्न (न) ग्राह्य शास्त्रवेदिभिः ॥ २॥ अश्लिष्टस(न्धेन्धि) विभ्रान्तां वक्रां चावनतां तथा । अस्थितामुन्नतां चैव काकजङ्क तथैव च ॥ ३ ॥ प्रत्यङ्गहीनां विकटां मध्ये ग्रन्थिनता तथा । ईदृशी देवतां प्रा(हि?ज्ञो हि)तार्थं नैव कारयेत् ॥ ४ ॥ अश्लिष्टसन्ध्या मरणं भ्रान्तया स्थानविभ्रमम् । वक्रया कलहं विद्यान्नतया (मिवसः) क्षयम् ॥ ५ ॥
इदमशुद्ध वसन्ततिलक श्लोकस्यार्धम् , अर्धान्तरं तु भ्रष्टम् । १. 'वयसः' इति स्यात् ।
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दोषगुणनिरूपणं नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः ।
नित्यमस्थितया पुंसामर्थस्य क्षयमादिशेत् । भयमुन्नतया विद्याहृद्रोगं च न संशयः ॥ ६ ॥ देशान्तरेषु गमनं सततं का ( रुक जाया । प्रत्यङ्गहीनया नित्यं भर्तुः स्यादनपत्यता ॥ ७ ॥ विकटाकारया ज्ञेयं भयं दारुणम (?) या । अधोमुख्या शिरोरोगं (तथानयापि चः) ॥ ८॥ एतैरुपेता दोषैर्या वर्जयेत् तां प्रयत्नतः । अन्यैरपि युत दोषैरर्चा वूमोऽथ सम्प्रति ॥ ९ ॥
२७७
(उद्धद्धपिण्डिका सासिसास) स्वामिनो दुःखमावहेत् । ( कुक्षिष्टिप्रायः) दुर्भिक्षं रोगा (न्) कुब्जार्चिता नृणाम् ॥ १० ॥ पार्श्वहीना तु भवति राज्यस्याशुभदर्शनी ।
( शालायासनया स्थानं स्त्रीश्री) प्रतिमाया भवेत् ॥ ११ ॥ आसनालयहीनाय बन्धनं स्थानविच्यु(ते?तिः) | नानाकाष्टसमायुक्ता या चैत्रायसपिण्डिता ॥ १२ ॥ सन्धिभिः (प्रक्सिहिर्या?) सानर्थमयदा भन्छ । (सम्बन्धाकृष्ट) लोहेन त्रपुणा वा कदाचन ॥ १३ ॥ दारुणा च तथैवोक्ता प्रतिमा (यास्तु शास्त्र) वैदिभिः सन्यचापि कर्तव्याः सुश्लिष्टाः पुष्टिमिच्छता ॥ १४ ॥ अर्चनाम धरान (?) शास्त्रदृष्टविधानतः ।
या ताम्रलोन सुवर्णरजतेन वा ॥ १५ ॥ (कृतेन केणुना चान्यथा स्तुंसामबद्वावरुजावहा ?) । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन स्थपतिः शास्त्रकोविदः ॥ १६ ॥ कुर्यादच यथान्यायं सुविभक्तां प्रमाणतः । (न क्षतां नोपदिगां च न च विवर्जिता ॥ १७ ॥ न प्रत्यज्ञैः प्रहीनं च घाणपादैर्नखादिभिः) । सुविभक्तां यथोत्सेधां प्रसन्नवदनां शुभाम् ॥ १८ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे निगूढस(न्धे?न्धि)करणां समायतिमृजुस्थिताम् । ('ईदृशां राणायेदर्घा?) प्रमाणगुणसंयुताम् ।। १९ ॥ समोपचितमांसाझाः पुरुषाः स्युः समासतः । प्रमाणलक्षणयुता वस्त्ररत्नविभूषितः (१) ॥ २० ॥ (क्षान्त) गुणान् परिकलय्य च दोषजात
मर्चा यथोदितगुणां (विदधीता मतून्याः) । शिष्यत्वमेत्य विविध(त्स!)मुपासतेऽन्ये
तं शिल्पिनः कृत(ध्ये?धि)यश्च मुहुः स्तुवन्ति ॥ २१ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे
दोषगुणाध्यायो ना(म सप्त?माष्ट)सप्ततितमः ।।
अथ ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं
नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः ।
अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि (नेविस्थानविधिक्रमम् । (संपात्यारुघाणां?) हि जायन्ते नव वृत्तयः ।। १ ।। (पूर्वभृष्कागतं तेषां ततोऽवं क्षरगतं भवेत्) । ततः (शचीक्षतं?) विद्यादध्यर्धाक्षमनन्तरम् ॥ २॥ चत्वार्ध्वागतादीनि परावृत्तानि तानि च । ऋज्वागतपरा(तात्त) ततोऽर्धवागतादिकम् ॥ ३॥ (शचीकृत् !)परावृत्तं ततोऽध्यर्धाक्षपूर्वकम् । पा(प्री )गतं च नवमं स्थानं भित्तिकविग्रहम् ॥ ४ ॥ ऋज्वर्धऋजुनोमध्ये चत्वारि व्यन्तराणि च । अधैर्जुसाचीकृतयोमध्ये च व्यन्तरत्रयम् ।। ५ ।।
1. ईदृशी कारयेद इति स्यात् । २. ज्ञाता' इति स्यात् । ३. 'विदधीत भूत्यै' इति स्थान । ४. 'पूर्वमृज्वागतं तेषां ततोऽधागतं भवेत्' इति स्यात् । ५. 'साचीकृतम्' इति स्यात् । ६. 'साचीकृत' इति स्यात् ।
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः। २७९ (द्वयर्धाो ?)साचीकृतयोर्मध्ये द्वे व्यन्तरे परे । (परोधर्धक्षपार्श्व:) व्यन्तरं चैकमन्तरे ॥ ६ ॥ ऋज्वागतपरावृत्तपाचा(भ्यं?भ्या)गतयोर्दश । अन्तरे व्यन्तराणि स्युः स्थानकान्यपराण्यपि ॥ ७ ॥ ऋज्वागताधं मध्यं च विग्रहं (वेन्वा+++ । ऋज्वागतां++++शेषभाव्यन्तरा व्यया) ॥८॥ अर्धापानमर्धपुटमर्धार्धपुटमेव च । । (अर्धवसेऽपि कथितं सिलीदव्यन्तरं व्ययः) ॥ ९ ॥ अर्धसाचीकृतं चैव स्वस्तिकं च ततः परम् । (साचीकृतोशे?) द्वावुक्तावंशौ वर्धाक्षसंज्ञिते ॥ १० ॥ द्वयर्धाक्षांशपरावृत्तं द्वधर्धाक्षांसं च ते उभे(१) । (द्विज्वाक्षे?)व्यन्तरे प्रोक्त चित्रशास्त्रविशारदैः ॥ ११ ॥ ऋज्वागतादध्यर्धाक्ष) यथा प्रोक्तानि संज्ञया । व्यन्तराणि तथैव स्युः परावृत्ते यथाक्रमम् ॥ १२ ॥ वैचित्र्यं भित्तिके नास्तीत्येव चि(त्र्यंत्र)(विचित्र्यं वि)विदो विदुः । एकानत्रिंशदेवं च स्थानानि व्यस्तवमेना ॥ १३ ॥ बैतस्त्यमन्तरं स्थाप्यं पादयोः सुप्रतिष्ठितम् । हिकायां पादयोश्चान्तभूमौ लम्बे प्रतिष्ठिते ॥ १४ ॥ प्रोक्तमृज्वागतं पूर्व प्रमाणेन निरूपितम् । ततोऽर्धवागतस्येदं प्रमाणमुपलक्षयेत् ॥ १५ ॥ ब्रह्मसूत्रं तु कर्तव्यं मुखस्यैव तु मध्य(गः गम्)। नेत्ररेखासमत्वेन तिर्यतालो भवेन्मुखम् (१) ॥ १६ ॥ अपाङ्गस्याक्षिकूटस्य कर्णस्य च भवे(त्) क्षयः।। अन्यत्र कर्णमानं स्यादागुलविशेषितम् ॥ १७ ॥ हस्त्रे ब्रह्मलेखाया अपरे स्यात् (कलाइवम् । यम्छमात्राभुपातोक्षि क्षीयतान्योपवस्तथा) ॥ १८ ॥ ...
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२.८०
समराङ्गणसूत्रधारे
त्रियवाः श्वेतभागः स्यात् तादा व प्रोक्तमानतः । विस्तारः श्वेतभागच करवीरोऽपि चोक्तवत् ॥ १९ ॥ परभाः (१) करवीरं स्याद् ब्रह्मसूत्रात् तथाङ्गुलम् । पूर्व भाकरवीरात्तु (१) समथाङ्गुलं भवेत् ।। २० ।। कर्णनेत्रान्तरं प्रोक्तं कला (भ्यध्य)र्धाङ्गुलाधि (कम्?का) 1 (पूर्व सर्वदिस्याविक्षायत् कथयेत् पराम् १) ॥ २१ ॥ पुटोऽङ्गुलं ब्रह्मसूत्रात् कपोलाद् द्वचङ्गुलं भवेत् । पूर्वे परत्र मात्रा पुटः स्याच्छेषमुक्तवत् || २२ || (परभागान्तराष्ट्रः) स्यादङ्गुलं द्वियवाधिकम् । अधरः परभागे तु यवषट्कं विधीयते ॥ २३ ॥ अधरान्ता कला(?) गण्डो ब्रह्मसूत्रात् पुमर्हतुः । परभागेगुळं सार्धं मुखकेनाङ्गुलं ततः ।। २४ ॥
(आरुड वा यत्कार्य सुखयां पर्वतलेखया । परिवर्तसुखादेशाः) ज्ञात्रा कार्या प्रयत्नतः ।। २५॥
(अपादमध्यं हि ज्ञातः १) सूत्रेऽन्यस्मिन् प्रवर्तिते । (खरे लुप्येततुर्याशः पूर्वेत्येवाविवर्धते ॥ २६ ॥
कक्षारः परे भने सूत्रतः पञ्चगोलकः । पूर्वभागे ( तृतं) विद्या ( पट्टो पड्गो) लपरिमाणतः ॥ २७ ॥
मध्ये सूत्रात् (पर?) पार्श्वलेखा + + यात्रचतुष्फलम् । उरसो मध्य (मो मात्.) सूत्रात् कक्षा स्यानव ( माभवाः) ॥
(दंतलेखातस्मात्वं विधाकलत्रयम् ।
स्तनाः पार्श्वकलां कुर्यात् स्तनं वा पतमण्डलम् १) ।। २९ ॥
परतो हस्तकः कार्यः कर्मयोगानुसारतः ।
(पार्श्व पर्यन्त सर्वा भागे पडलालम् १) ॥ ३० ॥
तथैव पूर्वहस्तस्य यथायोगं प्रकल्पना । (अभ्ययस्वाग + दीनां) किया -स्याद दक्षिणे करे ॥ ३१ ॥
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः । २८१ मध्ये षडङ्गुला रेखा बाह्यसूत्रात् परे भवेत् । पूर्वस्मिन् बाह्यलेखा तु मध्ये (सास्या)दष्टमात्रका ॥ ३२ ॥ नाभिदेशे परे भागे बाह्यासौ सप्तमात्रका । कलामानं भवेन्नाभिस्तस्याः पूर्व नवाझुला ॥ ३३ ॥ परे भागे कटिः सप्त मात्रा दश च पूर्वतः । ऊरुलेखा परे भागे मुखमानस्य मध्यतः ।। ३४ ॥ प्राग्भागस्य बहिर्लेखा + ++ परजानुतः । (परभागेन्द्रवास्तेश्च सूत्रस्यात् तद्वदगुले) ।। ३५ ।। परस्य नलकस्य स्याल्लेखा प्रागगुलान्तरे । परभागस्य षष्ठांशाः (सूत्रा प्रागङ्गुलद्वयोः) ।। ३६ ॥ नलेन परपादस्य भूमिलेखा विधीयते । ततोऽङ्गुष्ठोऽङ्गुलेनाधः पाणिरूवं तदर्धतः ।। ३७ ॥ अङ्गुष्ठाग्रं ब्रह्मसूत्रात् परस्मिन् पश्चमात्रकाः । तलं च परभाग स्तियेक पञ्चाङ्गुलं स्मृतम् , (सत्वितस्तलघाटप्यः?) स्यादङ्गुष्ठाग्रं कलात्रये । अगुल्योऽङ्गुष्ठतः सवा (बजत्परयं?) क्रमात् ।। ३९ ।। (सन्निवेशसवासाद द्विरङ्गुल्यतो.) नवाङ्गुलः । यथोक्तं जानु पूर्व स्यात् सूत्रतश्चतुरङ्गुले ॥ ४० ॥ नलकस्तद्वदेवास्य नलको व्यङ्गुलान्तरौ । (सूत्रादक्षः कलास्तिस्राङ्गुष्ठस्त्वमुलत्रयम् ) ॥ ४१ ॥ भूमिसूत्राद् गतोऽधस्तात् पूर्वाङ्गुष्ठो भवेत् कला । अङ्गुष्ठोऽगुलयश्चेति सर्वमन्यद् यथोदितम् ॥ ४२ ।। (दृश्यपार्श्वतलप्रविपारंही!) मध्यमे तलम् । एवमुक्तप्रमाणेन ज्ञात्वा युक्त्या समादिशेत् ॥ ४३ ।। अर्धवागतमित्येतत् प्रवरं स्थानमीरितम् । लक्ष्म (सा वो साची)कृतस्याथ स्थानकस्याभिधीयते ।। ४४ ॥
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समराबणसूत्रधारे विन्यस्येद ब्रह्मसूत्रं मा (क स्था)नबोधस्य सिद्धये । ललावं परमा(मी) स्यात् केशलेखा तथा कला ॥ ४५ ॥ परभागध्रुवो लेखा+++मुदाहृता। (परता + लिखायां कालिका द्वियतो जत?) ।। ४६ ।। ज्योतिषः स्यात् परे भागे तारा दृश्या यवोम्मिता । यवमानं ततो ज्योविस्तस्मात् तारा यवद्वयम् ।। ४७॥ श्वेतं च करवीरं च ततः प्रागुक्तमानतः । (कनीलिका तु) नासाया मूलं विद्याद् यवान्वरम् ॥ ४८ ॥ नासामू(लाल) प्रमाणेन ततो क्षेयं यवत्रये । ब्रह्मसूत्रात् पूर्वभागे (नगन्तो?)वंगोलकौ ॥ १९ ॥ (आपाझं स्तात्रेतो.) विद्याद् द्विगोलकमितेऽन्तरे । तस्माद् भागेन कर्णान्तः कर्णः स्याद् विस्तरेण तु ॥ ५० ॥ द्वियवोना कला चक्षुावृत्त्या परिवर्धितः । पूर्वस्य करवीरेण सह श्वैत्यं यवत्रयम् ॥ ५१ ॥ द्वितीयश्चैत्यदृकताराप्रमृतिः प्रोक्तमानतः। कपोललेखा परतो (यवद्वा ता?) कला भवेत् ॥ ५२ ॥ ब्रह्मसूत्रान्नासिकाग्रं परस्मिन् सप्तभिर्यवैः । नासापुटः पूर्वमागे स्याद् य(थावा)धिकमगुलम् ॥ ५३॥ पू(ो ? बे) भागे यवं गोजी (स्तीत)त्रोपान्ते विधीयते । परमागोत्तरोष्ठः स्यात् प्रमाणेनार्धमात्रकः ॥ ५४॥ त्रियवश्चाधरोष्ठः स्याच्छेपश्चापचयस्तयोः । पाल्या मध्ये भवेत् सूत्रं पाल्या(शुःस्तु) चिबुकं परे ॥ ५५ ॥ हनुपर्यन्तलेखा च सूत्रादर्धाङ्गुले भवेत् । हनोमध्यगतं सूत्रं परे स्यात् परिमण्डलम् ॥ ५६ ॥ सहैकसूत्रे परहक् पर्यन्तेन परिस्फुटा । मुखपर्यन्तलेखाघे (ह)नोरुपरि चाधरः ।। ५७ ॥
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः । २८३
कुर्याखाभिरेताभिः परमागं विचक्षणः । (सूत्राङ्गुलोर्ध्वमात्रायां तस्माद् ग्रीवा यथोदिता ॥ ५८ ॥
सूत्रसंयोगात् पूर्वस्मिन्नङ्ग्गुले सयवेऽङ्गुल: १) | हिक्काध्यर्धाङ्गुलं सूत्रात् पूर्वे स्यात् सुप्रतिष्ठिता ॥ ५९ ॥ बाह्यलेखा हि (बस) त्सूत्रात् परस्मिन्नगुलाष्टके | (ताले यवोनग्रीवातो नग्रीवज्ञेयौनदुर्वकौः) ॥ ६० ॥ हिकासूत्रात् समारभ्य वक्षोभागोऽग्रिकं (?) भवेत् । (तावन्मात्रे तरेवाहुः) तस्मात् प्रभृति निर्दिशेत् || ६१ ॥
हिकासूत्रात् परे भागे स्तन वागुलपञ्चके । रेखान्तसूचकः कार्यो मण्डलं सार्धमङ्गुलम् ॥ ॥ ६२ ॥
तस्मादनन्तरं बाह्यभागमात्रं विनिर्दिशेत् । हिकासूत्रात् समारभ्य स्तनः (पूर्वषडङ्गुलेः ) || ६३ ॥ स्तनात् षडङ्गुले (तिर्यगक्षो स्मा द्वौ ) द्विभागिकः । कक्षतो द्विकलेऽधस्ताद् बाह्य लेखा विधीयते ॥ ६४ ॥
आभ्यन्तरा बाह्यलेखा स्तनात् पञ्चाङ्गु (ले तालेऽन्त) रे । ब्रह्मसूत्राच्च भागेन मध्यभागे (परि) विदुः ॥ ६५ ॥
(मध्यात्त्वकलयावहः परेः) तिर्यम् विभज्यते | मध्यप्रान्तः पूर्वभागे भवेत् सूत्राद् दशाङ्गुलः ॥ ६६ ॥ तिर्यङ् नाभिप्रदेशः स्यात् प ( रतो ) ब्रह्मसूत्रतः । यवैश्चतुर्भिरधिकमङ्गुलानां चतुष्टयम् ॥ ६७ ॥ पूर्वभागे विनिर्दिष्टः स एवैकादशाङ्गुलः । मध्येनैति परस्योरोः सु( त्रः ) नाभ्यन्तराश्रितम् ॥ ६८ ॥ प्रयात्यपरजाच्चैतात् (?) पूर्वतः कलया च तत् । जान्वधोभाग (d) चार्धकलया त्रियवेन च ॥ ६९ ॥
जङ्गामध्येन लेखायाः प्रसक्तं नलकस्य तु । (षांते वैरवं ) परतचतुर्भिः सूत्रमिष्यते ॥ ७० ॥
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२८१
समराङ्गणसूत्रधारे अनेनैवानुसारेण बहिर्लेखा विधीयते । ब्रह्मसूत्रात् परे भागे कटिरगुलपञ्चके ।। ७१ ॥ (तामालमात्रा तु सा पूर्थे मेडाग्रं सूत्रसक्तम् । सूत्रादरभागोरू मूलाग्रये?) ।। ७२ ।। सूत्रादपरभागोरुमध्ये रेखा कलाद्वये । मूत्रात् पूर्वोरुमूलं स्यात् पूर्वतः कलया तथा ॥ ७३ ॥ कलाद्वयेन विज्ञेया रेखा पूर्वस्य जानुतः । साधोङ्गुलयवं जानु तत्पार्थे चाधेमङ्गुलम् ॥ ७४ ।। सूत्रेण पर(पादस्य मध्यरेखा विभज्यते । आदिमध्यान्तलेखायां सूत्रशोचमुदाहृता(?) ॥ ७५ ॥ मूत्रात् प्राग्भागमलके१) प्रान्तः पञ्चभिरङ्गुलैः । अर्धागुलं क्षयः कार्यः परभागोरुजङ्घयोः ।। ७६ ॥ पराक्षिमध्यगं मूत्रं लम्बभूमिप्रतिष्ठितम् । परपादतलान्तात् प्रागगुलेन विधीयते ।। ७७ ॥ + मूत्रात् पूर्वपादस्य तलमष्टाङ्गुलं भवेत् । अ(भ्यध)स्तात् तलयोः सूक्ष्मा(?)स्यालेखाष्टादशाङ्गुलम् अगुष्ठकाद्रकमात्) प्रदेशिन्यगुलाधिका । (परपादतलावस्तून् पूर्वा ह्यङ्गुष्ठमूलगम् ॥ ७९ ॥ मूत्रं यथाति?) सा भूमिलेखेति परिकीर्तिता । सूत्रादधोगुलेनोचे तस्मात् पाणिः परस्य च ॥ ८० ॥ अङ्गुष्ठादगुलीपातः पूर्वपादेऽनुसारतः । उ(प)प्रदाशनीमानात् कुयाङ्त्र प्रदेशिनीम् ।। ८१ ।। अपराश्चाङ्गुलीः सर्वाः क्रमेण क्षपयेत् ततः । इति साचीकृत स्थानमेतदुक्तं यथार्थतः ॥ ८२ ॥ अध्याक्षमिदानी च स्थानकं (म् प्रचक्षते?) । ब्रह्ममूत्रमुखे कृत्वा मानमानं(?) विधीयते ॥ ८३ ॥ 1. 'संप्रचश्महे इति स्यात् । २. 'ब्रह्मसूत्रं मुख कृत्वा मानमत्र' इति स्यात् ।
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः । २८१ केशान्तलेखा सूत्रात) स्या(न्मो?न्मा)त्रैका यवसंयुता। पृथग् वक्षः पृथक् श्रोणिः वृत्तःवाहः सुसंस्कृतिः (१) ।। ८४ ।। भद्राकारो भवेद भद्रो वृत्तवक्त्रः स्वभावतः । मालव्यस्य भवेन्मूधो प्रमाणेनागुलत्रयम् ।। ८५ ।। (चतुर्मात्रललाटं च नाश वक्त्राशिरोधरा । मात्रा द्वादश वक्षेस्ये नाभिमेदान्तरोदरे') ॥ ८६ ॥ अष्टादशाङ्गुलौ चोरू जो अप्येवमेव हि । चतुरङ्गलको ++ जानुनी चतुरङगुले ।। ८७ ॥ मालव्यस्यायमायामः (पण?षण्णावत्यगुलो मतः । विस्तारो वक्षसस्तस्य मात्राः षड्विंशतिः स्मृतः ॥ ८८ ।। बारह्योहोः) पोडशमात्रश्च प्रवा(हो हो)रेवमेव सः ।। (पाण्यौँ द्वादशमात्रस्ये मालव्यस्त्वेह विस्तुतिः) ।। ८९ ।। पीनांसो दीर्घबाहुश्च पृथुवक्षाः कृशोदरः। वृत्तोरुकटिजङ्घश्च मालवः पुरुषोत्तमः । ९० ।। हंसस्य वक्र पृथ(ग? थु)गण्डभागं
कृश शशस्यायतमास्यमाहुः । विस्तारदैाद भवकस्य तुल्यं (१)
सुखं सुवृत्तं त्विहच(?) भद्रवके ।। २१ ॥ (स्यान्मालावस्या लेपनं तु कान्तमयोज्यं । देही तु रूपैश्च भवन्ति युक्तास्ते कर्मणि सर्वगुणान्वितास्तेः) ॥१२॥ (स दुर्लभं स्यात् पुरुषः प्रमेय
मानोऽस्ति कीर्ण इति ह षष्टः !) ॥ ९२ ।। (मांसलेन शरीरेण ग्रीवासिरा अया + + । मांसलायात शाखा च नारी वृत्तेति सा मता) ।। ९३ ॥
१. भद्र हंसादीनां पुरुषविशेषाणां लाणायान्तरेण वक्ष्यति । ततः कियांश्चिदंश इह प्रमादात् प्रक्षिप्त इति भाति, प्रक्रमातू ।
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२८६
समराङ्गणसूत्रधारे पृधुवक्त्रा कटीहस्वा इस्वग्रीवा पृथदरी । पुंषत्काण्डकतुल्या(?) स्यात् सा नारी पौरुषी मता ॥ ९४ ॥ अल्पकायशिरोग्रीवा लघुशाखा भवेञ्च या । कृशाल्पब्रह्मसचा च सा नारी बालकी स्मृता(?) ॥ ९५ ॥ पुंस्पर्शात् पश्यता(!)या स्यात् कौमारे प्राप्तयौवना । अन्या सा बालकी प्रोक्ता स्त्रीलक्षणविचक्षणैः ।। ९६ ॥ [भुवः सद्वियवामात्रा लेखा कृशयवाङ्गुलाः। दक्तोयमन्तरे वर्त्म ताराय अर्धमालिखेत् ।। ९७ ।। स्वैत्यं चतुर्यवं दृश्यशेष सा तिरस्कृतम् । कपोतरेखा परतो यववर्जितमङ्गुलम् ॥ ९८ ॥ सूत्रापूर्वपटान्तः स्यादर्धाङ्गुलमितेन्तरे । नासिकान्तोऽङ्गुलं सूत्रात् परे पूर्वेतपाङ्गुलम् ॥ ९९ ।। मूले नासापुटः सादः सूत्रं गोज्याश्च मध्यगम्?] । यवार्धमात्रा गोजी स्यादुत्तरोष्ठः परस्य यः ॥ १०० ।। स ब्रह्ममूत्रादारभ्य विज्ञेयो द्वियवोन्मितः ।। परे त्वधस्तानासाया रेखा चार्धामुलैभवेत् ॥ १०१ ॥ परभागेऽधरोष्ठस्य प्रमाणं + यवं मतम् । हनुपर्यन्तलेखाया मध्ये सूत्रं प्रतिष्ठितम् ॥ १०२ ॥ सूत्रात् प्राक् करवीरः स्याद् द्वियवोनागुलद्वयम् । यवाधे स च दृश्येत श्वेत्यं साधेयवं ततः ॥ १०३ ॥ + तारा त्रियवा ज्ञेया शेषमुक्तप्रमाणतः ।। कर्णावर्तादधः कर्णमध्यभागेन संमितम् ?) ।। १०४ ॥ द्वयङ्गुलः कर्णविस्तारः कर्णावर्ताच्चतुर्यवे । शिरःपृष्ठस्य लेखा स्यादिति ज्ञात्वोक्तपाचरेत् ।। १०५ ॥ कर्णसूत्राद् बहिग्रीवा विधातव्यैकमङ्गुलम् । गलो ग्रीवा च हिक्का च सूत्राद् प्रागगुलोत्तरे ॥ १०६ ॥
१. इत उत्तरं वक्ष्याणास्तु प्रकृताध्याय गता विषयाश्चतुरशीतितम श्लोकपूर्वार्धानु गता इति क्यमुन्नेतुम् ।
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः । २८७
हिकासूत्राद् भवेदूर्ध्वमं (शस) लेखा तथाङ्गुलम् | ब्रह्मसूत्रात् परे भागे स्यादं (शो सो ऽङ्गुलसंमिते ॥ १०७ ॥ (वक्षोऽङ्गुलं ब्रह्मसूत्रां + + नस्ति कालान्तरे (f) | भागमात्रे भवेत् कक्षासूत्रात् पूर्वः स्तनस्य च ॥ १०८ ॥ कक्षातस्त्रिकलं यावत् पार्श्वलेखा विधीयते । ( दूराग्रभुजस्तस्यादग्रे कर्मानुसारतः ॥ १०९ ॥ प्रासादमध्यः सूत्रः स्यादेकादशभिरङ्गुलैः । परभागस्य मध्यस्त ) सूत्रात् स्यादङ्गुलैस्त्रिभिः ॥ ११० ॥ अङ्गुलेन परे भागे सुत्रतो नाभिरिष्यते । ना(भिः) रुदरलेखा तु विज्ञातव्याङ्गुलाये ॥ १११ ॥ श्रोणी कर्णो भवेन्नामे १) मुखमर्धा गुलान्वितम् । ब्रह्मसूत्रात् कटिः पूर्वे त्रिभागा व्यङ्गुला परे ।। ११२ ।। (ब्रह्मसूत्राश्रित मेस्तले चा परतो भवेत ।
पूर्वोक्तः मध्यभेवास्यात् सूत्रात् प्रत्यङ्गुल्यन्तरे ॥ ११३ ॥ तस्यैव मूलरेखा च सूत्रात् प्राग् व्यङ्ग्गुलेऽन्तरे । मूललेखा परस्योरोः सूत्रान् स्याद् द्विकलेऽन्तरे ॥ ११४ ॥ पर्यन्तजानुनो भागे पर्यन्तोपरा ( ? ) जानुतः । परभागका जात (?) सूत्रस्य सम्यक् प्रतिष्ठितम् ॥ ११५ ॥ जानुमध्ये गता लेखा वाह्यलेखाश्रिता भवेत् । अध्यर्धमात्रं जानु स्यादधोलेखा तु तस्य या ।। ११६ ॥ अर्धाङ्गुलेन सा सूत्रात् पूर्वतः प्रविधीयते । सूत्रात् परे (पराङ्गुष्ठं मूल ? ) पादोनमङ्गुलम् ॥ ११७ ॥ मूलादङ्गुष्टकस्याग्रं सार्वैः स्यादङ्गुलैखिभिः । सूत्रात् परं स्याज्जङ्घाया लेखाङ्गुलचतुष्टये ॥ ११८ ॥ तस्यास्तु पूर्वजङ्घाया लेखा स्यादङ्गलद्वये । पूर्वजानु कलामानं शेषं कुर्याद् यथोदितम् ॥ ११९ ॥ १. 'पराङ्गुष्ठमूल' इति स्थात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे परपादतले (स्तम्भं?) यत् तिर्यक् सुप्रतिष्ठितम् । (तत्माक्प्रदेलस्यो?) सार्धया कलया भवेत् ।। १२० ॥ (माग्भङ्गोऽङ्गुष्ठमूलेच्छस्तत्रास्वीया) कनिष्ठिका । (कलामात्रं निजागुष्ठादंधासागं') प्रपद्यते ॥ १२१ ॥ (यत् परागुलम्बसूत्रं प्रतिपद्यते?) यत् पराङ्गुष्ठमूलोत्थं लम्बसूत्रं प्रपद्यते । (मध्येन पूर्वभागाति सबन्धाङ्गुष्ठकस्य तत् ।। ।। १२२॥ पूर्वपाणितलावं विदध्यादङ्गुलत्रये । पाणैः परस्थ पादस्य पूर्वपादं तिरस्कृतम् ॥ १२३ ।। अध्यर्धाक्षं यथाशास्त्रमेवं स्थानकमालिखत् । अथ पार्वागतं ना(स?म स्थानीनं पञ्चममुच्यते ।। १२४ ॥ व्यावर्तितमुरवस्यान्ते ब्रह्मसूत्रं विधीयते । ललाटबाह्यलवां च भूत्रस्पृष्टां प्रदर्शयेत् ।। १२५ ।। सूत्रात तु नासिकावंशः (संवृद्धय द्वाक्षनानतः?) अपाङ्गो द्विकले सूत्रात् कर्णो (वंशात्?) कलाद्वये ।। १२६ ।। कर्णो द्वयङ्गुलविस्तारः शिरःपृष्ठं कला ततः ?)। अस्य मध्यनतं मूत्रमास्या) स्थापयेत् ततः ।। १२७ ।। अङ्गु लो?ले) चिबुकं सूत्राद्धनुमध्यं चतुर्यवे । सार्धाङ्गुले ततः कण्ठवर्तिग्रीवाङ्गुले नतः ।। १२८ ॥ अङ्गुलेन ततो हिका चतुर्भिब्रह्मसूत्रतः । मूभी श्रवणपालयोनेति सूत्रं तदुच्यते।। १२९ ।। ग्रीवायागुल्यमध्येन(?) मध्यसूत्रं तदुच्यते । भागे हिकामध्यसूत्रादण्डमूलं कलाइये ! १३० ।। मात्राष्टके च पृष्टं तो?) हृल्लेखाप्येवमेव हि । (तस्त)नस्य यण्डलं तस्मादगुलेन विधी ते ॥ १३१ ॥ कक्षा च पूर्वभागे स्यात् सूत्रात् पञ्चभिरङ्गुलैः । मात्रात्रयेणापरस्मिन् भागे कक्षा विधीयते ।। १३२ ॥
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामकोनाशीतितमोऽध्यायः। २८९ उभयोरन्तयोः प्राहुर्मभ्यमष्टाङ्गुलं बुधाः । अमुलैर्दशभिर्मध्यं पर्यन्तो मध्यसूत्र(तं?तः) ।। १३३ ॥ मध्यपृष्टं चतुर्भिः स्यान्नाभिपृष्ठं च पञ्चभिः । नाभ्यन्तरेखा नवभिः कटिपृष्ठं कलात्रये ।। १३४॥ उदरप्रान्तलेखा च ज्ञेया दशभिरङ्गुलैः । (मां मा भ्रात्रयेणाभिरष्टाभिः) सूत्रात् स्फिजो मध्यं प्रचक्षते ।। वस्तिशीर्षे च नवभिः स्फिगन्तो(ऽष्टाभिरङ्गुलैः । अष्टभिर्मेद्मूलं स्यादूरुमध्यं च सप्तभिः ॥ १३६ ॥ अड्गुलैः पञ्चभिमूलमूरोः (पार्धात्यमुच्यते?) । चतुर्भिरङ्गुलैः सा(ध धैः) क'र)मध्यं च पृष्टतः ॥ १३७ ।। अग्रतः पञ्चभिः सार्धेस्तदेव प्राहरगुलैः । करमध्यागु(लले मध्यं सूत्रमध्ये विधीयते ॥ १३८ ॥ जान्वर्धे मध्यसूत्रं स्याद् भागो लेखा च जानुतः । भवदुभयता(स्तम् )त्रं जङ्घा मध्ये च कीर्तिता ॥ १३९ ।। जङ्घा षडङ्गुला मूत्रं मध्ये स्यानलकस्य च । उभयोः पार्श्वयोः कार्यों नलकश्चाङ्गुलद्वयम् ।। १४० ॥ चतुर्भिरगुलैः पाणि(म?म)ध्यमूत्राद् विधीयते । यथोक्तमानेनागुल्यस्तथा पादतलं भवेत् ॥ १४१ ।। पार्थागतमिदं प्रोक्तं स्था(नान) भित्तिकसंज्ञकम् ।
पाचागतस्थानम् ॥ अतः परं परायत्तस्थानकान्यभिदध्महे ॥ १४२ ॥ ऋ(जाज्वागतपरावृत्तं तत्रादावभिधीयते । तत्रागुलद्वयं को विधातव्यौ पृथक् पृथक् ।। १४३ ॥ पाणिपर्यन्तयोमध्यं तथा सप्ताङ्गुलं भवेत् । अङ्गुलत्रितयं साधं पाणी कार्यों पृथक् पृथक् ॥ १४४ ॥
१.'मात्राभिरष्टभिः' इति स्यात् । २. पाश्चात्यमुच्यते' इति स्यात।
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समराङ्गणसूत्रधारे कनिष्ठानामिकामध्या दर्शयेचतुरङ्गु(ली लम्) । अङ्गुष्ठानामिकामध्याकनिष्ठा(वलिखेन्तरेः) ॥ १४५ ।। परावृत्तमिदं शेषमृज्वागतवदादिशेत् । अध्यर्धाक्षादिका(दू:) यानि स्थानानि तेषु यत् ।। १४६ ।। भवेद् यस्य परावृत्तं तद्वशात् तस्य तद् भवेत् । ++ यस्य हि यद् दृश्यं स्थानकस्याङ्गमीरितम् ॥ १४७ ।। तद दृश्यं परावृत्ते तस्यादृश्यं च दृश्यते(?)। (स्थानानी भवितानि?)+ जीवेषु द्विपदेषु च ॥ १४८ ।। निर्जीवेष्वपि जानीयाद् या(मा?ना)सनगृहादिषु । स्थानानि मूलभूतानि नवैवैतानि वस्तुतः ॥ १४९ ॥ यानि (निविशत?)भक्तानि तद्भेदा(निच?) तान् विदुः । मूस्थिता यदा दृष्टा ऋज्वादीनि विलोकयेत् (१) ।। १५० ।। स्थानानि तेषां यन्मानं तदस्मात तदिहोच्यते । विस्तृत्याष्टादश न्यस्येदायत्या द्विगुणानि च ।। १५१ ॥ (अङ्गुल्यन्यादारामूत्र) यथाभागं यथोचितम् । आयामस्यादेशे च विस्तारोऽस्याग्रतोऽष्टभिः ।। १५२ ॥ +++++ + (पृष्ठप्रदेशार्द्र+मयेन् ?) । तन्मध्यगामिनी (स्तमूत्रे न्यस्येदायतविस्तृते ॥ १५३ ॥ अङ्गानां स्यात तदवधिर्निगेमो (वष्टमाणकः ॥ मृनत्योगतो गर्भसूत्रादित्यादिः) ॥ १५४ ॥ स्तनगर्भो गर्भमत्राद विस्तृ(तो?तो) स्यात् पडङ्गुलः । षडङ्गुल: स्यात् स्तनयोस्तियेग गर्भ(वि)निर्गमः ॥ १५५ ।। तिर्यग गर्भा(तू) पृष्ठपक्षी स्फिजावपि दशाङ्गुले । (नेन वागुले पृष्ठवंशः स्फिो :) सप्ताङ्गुलेऽन्त(रमीरे) ॥१५६॥ कक्षाया मूलमायामाद् गर्भतश्च दशाङ्गुलम् ।। निर्गमोऽग्रेऽङ्गुलं तस्य सूत्रात् सप्त च पृष्ठतः ।। १५७ ॥
१. 'दान' इति स्यात् । २. 'स्थानानि गदितानि' इति स्यात् । ३. "विशतिर इति स्व त् । ४. 'नेव' इति स्यात् ।
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ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः । २९१ गर्भसूत्रात् ततस्तिर्यक् पादांशोऽष्टादशाङ्गुलः । गोद् यवप्रदेशश्च(१) भवेत् पञ्चभिरगुलैः ॥ १५८ ॥ अष्टाभिर्जठरं गर्भात् पार्थयोः पुरतोऽपिच । उदरस्य+मं पृष्ठं पश्चात् सप्तभिरङ्गुलैः ।। १५९ ॥ सा(धै द्वार्धा)दशभिर्मूलमूर्वो(रथो!) मतोऽङ्गुलैः । पञ्चाङ्गुलं निर्गमस्तत् + स्यात् सप्त च पृष्ठतः ।। १६० ।। ऊरुमूलस्य पृष्ठात् तु स्फिनो व्यङ्गुलनिर्गतौ। मेढ़मग्रे ततो ज्ञेयं गर्भमूत्रात् षडङ्ले ।। १६१ ।। तिर्यकसूत्राजानुपार्थ सा(धै ? धै)नवभिरगुलैः ।
आयाममूत्राज्जान्वन्तपृष्ठेऽग्रे चतुरङ्गुल:(१) ।। १६२ ॥ नलकश्च भवेद् गर्भात् तिर्यगस्य षडङ्गुलः । गर्भमूत्रात् तु नलकः पृष्ठतश्चतुरङ्गुलः ॥ १६३ ॥ सूत्रान्ताङ्गुल्यपर्यन्तः(१) स्यात् साधैः पहिरगुलैः। अक्षः(१) साधोगुले मूत्राद् भवेद विस्तृतिदर्शनात् ।। १६४ ॥ चतुर्दशाङ्गु(लाल): पादो दैयेणात्र प्रकीर्तितः । गर्भादष्टाङ्गुलाग्रोऽसौ पश्चादपि षडगुलः ।। १६५ ।। जानुनारक्षश्च स्यादन्तरमगुलं मिथः (१) । ऊर्वारगुलमुदिष्टं (न भलयो? चतुरङ्गुलम् ।। १६६ ।। ऋज्वागतमिति प्रोक्त(मद्वजो) मध्यसूत्रतः । (परिवतेतगुलगं सावावप्यगुलद्वयम् ॥ १६७॥ तस्मात् सावेस्त सार्धाक्ष्यः) त्वगुले परिवर्तनी। +++भित्तिके प्रोक्तं परावृत्तेऽप्ययं विधिः ।। १६८ ॥ ऋज्वागतार्जुकसाचिसंज्ञाध्यर्धाक्षपार्थागतसंज्ञकानि । तेषां परात्तचतुष्टयं च प्रोक्तान्यथो विंशति(र)न्तराणि ॥ १६० ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोज देवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्र ऋज्वागतादिस्थानलक्षणं ना(माटसप्तमैकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥
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... 'मजा' इति स्यात् ।
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२९२
समराङ्गणसूत्रधारे
अथ वैष्णवादिस्थानकलक्षणं नामाशीतितमोऽध्यायः ।
अथान्यान्यभिधीयन्ते चेष्टास्थानान्यनेकशः । यानि ज्ञात्वा न मुह्यन्ति++चित्रविचक्षणाः ॥ १॥ वैष्णवं समपादं च वैशाख मण्डल तथा । प्रत्यालीढमथालीदं स्थानान्येतानि (लक्षणम् ?) ।। २ ।। (अश्वक्रामत्तमथायामविहितनाकत्रयं स्त्रीणाम् !) । द्वौ तालावधतालश्च पादयोरन्तरं भवेत् ॥ ३॥ तयोः समन्वितस्त्वैकस्यश्रः पक्षस्थितोऽपरः । किञ्चिदश्चितजहुंच (शगात्रभोज्यचसंयुतम्) ।। ४ ॥ वैष्णवस्थानभेतद्धि विष्णुरत्राधिदैवतम् । समपादे समौ पादौ तालमात्रान्तरस्थितौ ॥ ५॥ स्वभावसौष्ठवोपेतौ ब्रह्मा चात्राधिदैवतम् । तालास्त्रयोऽर्धतालश्च पादयोरन्तरं भवेत् ।। ६ ॥ अश्रमेकं द्वितीयं च पादं पक्षस्थितं लिखेत् । (नैषमोरु?) भवत्येवं स्थानं वैशाखसंज्ञितम् ।। ७ ॥ विशाखो भगवानस्य स्थानकस्याधिदैवतम् । ऐ(न्द्रीन्द्र) स्यान्मण्डलं पादौ चतु(?स्ता लान्तरस्थितौ ॥ ८॥ ध्य(स्थाश्र)पक्षस्थिरत?ति)चैव कटिर्जानुसमा तथा । प्रसार्य दक्षिणं पादं पञ्चतालान्तरस्थितम् ॥ ९ ॥ आलीढं स्थानकं कुर्याद् रुद्रश्चात्राधिदैवतम् । कुञ्चितं दक्षिणं कृत्वा वामपादं प्रसारयेत् ।। १० ।। आलीढं परिव(ती)न प्रत्यालीढमिति स्मृतम् । दक्षिणस्तत्र समः(१) पादस्यश्रः पक्षस्थितोऽपरः ॥११॥ समुन्नतकटिर्वामश्चावहित्थं तदुच्यते । एकः समस्थितः पादो द्वितीयोऽग्रतलान्वितः ॥ १२ ॥ १. 'लक्षयेत्' इति स्यात् ।
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वैष्णवादिस्थानकलक्षणं नामाशीतितमोऽध्यायः । (शूद्वमविद्धं वाती चक्रान्त उच्यते। स्थानत्रयमिदं स्त्रीणां नृणामपि (भवेत् ) कचित् ॥ १३ ॥ कटीपार्श्वे करौ वक्त्रमुरो ग्रीवा शिरस्तथा । स्थानफेषु समस्तेषु कार्यमेतत् क्रियानुगम् ।। १४ ।। क्रियाणां पुनरानन्त्यात समस्तेन न शक्यते । व(क्त्रं क्तुं) तथापि दिङ्मात्रमस्माभिः (सं)प्रदश्यते ॥ १५॥ हृष्टायाः प्रिय(विच?) नार्याः पुरुषस्य वा प्रियाभ्यणे । भवति स्थितसंस्थानं त्रिभिरिति तच्च कथयामः(१) ॥ १६ ॥ यद् ब्रह्मसूत्रमृज्वागते भवेत् (तन्मतृभागेऽपि)। अवय(व)विभागतस्तत् कथयामः साम्प्रतं क्रमशः ॥ १७ ॥ (शीनं तत्रय वि') नासिकाधरपुटेषु मृक्कणि च । (कंगते परचूचुकपूर्वेण कलान्तरे) नाभौ ॥ १८ ॥ पश्चादोमध्ये पश्चिमगुल्फस्य तद्वदन्ते च । (स्थाने त्रिभंगा भामिनि?) (सूत्रस्य गतिविनिर्दिष्टा ।। १९ ।। पादौ तालान्तरितौ कर्तव्यौ स्थानके त्रि(भागा?भङ्गा)ख्ये । षोडशविंशत्यङ्गुलमध्येऽन्तरितो (पितुदडिदाक्षे.) ॥ २० ॥ गमनं त्रिविधं प्राहुर्दुतमध्यविलम्बितप्रभेदेन । (स्थानेष्वधनेत्राख्यभित्तिषु जयगमध्ये?) ।। २१ ।। प्रा(न्ते) करवीरस्याथ +++ ++ सूकपर्यन्ते । कण्टान्ते (परभागा स्तनतोगुलदुम्मपयेन्ते?) ।। २२ ॥ नाभ्यासन्ने मध्ये मेदस्य तथा परस्य नलकस्य । प्रान्ते (वज्जा? याते गमने स्याद् ब्रह्मसूत्रगतिः ।। २३ ॥ (सोधेगमने तु पूर्व लोचनखीरके पुटे तद्धि । तविबुकरान्ते स्तनचूकस्य मध्ये?) तथा नाभौ ॥ २४ ॥ मध्ये मेदस्यान्ते +++ परजानुनः क्रमेणैव ।
अपराङ्गुष्ठकमूले विज्ञेयं ब्रह्मसूत्रमिति ॥ २५ ॥ 1. 'सविष इति स्यात् । २. 'स्थाने त्रिभङ्गनामनि' इति स्यात् ।
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२९१
समराङ्गणसूत्रधारे परपादद्वाद्वक्षि(?) स्थित्या क्रियते (त)थाच पूर्वाह्न । कुर्यात् तलमिह भूतलसूत्रा) + गुलोरिक्षप्तम् ॥ २६ ॥ भूपर्यन्तेऽपाने (चिबुकांशो) गोलकान्तरे नाभः। सूत्रपरत्वतः पूर्वेण परावसार्धाक्षे (?) ॥ २७ ॥ पार्श्वगते संस्थाने पश्चिमपादोत्र सप्तगोलः स्यात् । द्वयधोक्षगमनमुक्तं ब्रूमः पार्थागतेर्गमनम् ।। २८ ॥ आवर्ते++ कूट ग(डे?ण्ड)प्रान्ते च सृकभागस्य । गलवत्तौ स्तनमध्ये (गाले गोल)त्रितयान्तरे नाभेः ॥ २९ ॥ (स्फिकपार्श्वपश्चिमजानुनश्चा पूर्वार्तमामृतं सूत्रम् । स्यादपरपाणिपूर्वस्थितं चभिवेत्थोने?) ।। ३० ।। क्षपयेत् परभागाहि(?)स्वस्मान्मानाद् यथोदितादत्र । (पूर्वाह्ने? रङ्गुष्ठः कतेव्यो भूमिसूत्रस्थः ।। ३१ ॥ पश्चादङ्गुष्ठाग्रं सुश्लिष्टं स्याद् विलम्बिते गमने । अगुष्ठागुले ब्रह्मसूत्रतस्तालिके मध्ये(१) ॥ ३२ ॥ द्रु(त)गमनेऽङ्गुष्ठाग्रं कर्तव्यं षोडशाङ्गुले तस्मात् । (परपादाभूमेस:१) (?प्रोत)क्षिप्तो भवति पूर्वपादश्च ।। ३३ ।। इति सर्वेषु ज्ञेयं गमनस्थानेषु संस्थानम् । (गोत्राणां मध्येषां) विदधीत बुधः स्थिति यथायोगम् ॥ ३४ ॥ (विन्यासयोषणक्षिसणः) दृष्टिहस्तादिविनिवेशैः। अ(थ) स्थानचतुष्कस्य प्रविच्छन्दककीतेनात् ॥ ३५ ॥ अन्या अपि क्रिया लेख्याः सम्भवन्तीह या नृणाम् । शिष्याणां प्रतिपत्त्यर्थं सूत्राणि त्रीणि पातयेत् ।। ३६ ॥ ब्रह्मसूत्र(मभे?गते) सूत्रे ये च पा(श्वेश्व)समाश्रये । ऊवानि त्रीणि सूत्राणि स्थानकेष्व(भिष्वपि) ॥ ३७ ।। कुर्वीत तेषु मध्ये यद् ब्रह्मसूत्रं तदुच्यते । भित्तिके पुनरन्यस्य भागस्यापेक्षया मतम् ।। ३८ ॥ 1. 'स्त्राणामन्येषां' इति स्यात् ।
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२९५
पञ्चपुरुषस्त्रीलक्षणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः । पार्श्व(स्तिस्थं) ब्रह्मसूत्रं स्यात् कार्यतो मध्यगं हि तत् । ये द्वयोः पार्श्वयोः सूत्रे ++++ हि ते स्मृते ॥ ३९ ॥ प्रदेशावयवस्यात्र निष्पत्त्यै यद्यदीप्सितम् । तत्र सूत्रं विधातव्यं तिर्यगूयानुसारतः ॥ ४० ॥ अपेक्षेतानि(?) यावन्ति प्रत्यङ्गव्यक्तिसिद्धये । तावन्त्यवयवव्यक्तिसिद्धथै तिर्यङ् नियोजयेत् ॥ ४१ ॥ ऊर्ध्वानि त्रीणि सूत्राणि तिर्यङ्मा(ना)नुसारतः । स्थानानि वैष्णवमुखान्युदितानि सम्यक
(त्रिमंगितडिते?)गमनैरुपेते । सूत्रस्य पातनविधिश्च यथावदुक्तो
ज्ञाते (न) भवेत् तदिह सूत्रभृतां वरिष्ठः ॥ ४२ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे वैष्णवादिस्थानकलक्षणाध्यायो ना(मैकोनामा)शीतितमः ॥
-:08
अथ पञ्चपुरुषस्त्रीलक्षणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः ।
पश्चानां हंसमुख्यानां (देहबन्धाति खन्नृणाम्?) । दण्डिनीप्रमुखानां च स्त्रीणां (तो?) बमहे पृथक् ॥१॥ इंसः शशोऽथ रुचको भद्रो माल(व्य) एव च । (पञ्चैते) पुरुषास्तेषु मानं हंसस्य कथ्यते ॥ २ ॥ अष्टाशीत्यङ्गुलो हंसस्यायामः परिकीर्तितः। विज्ञेया वृद्धिरन्येषां चतुणों द्वयगुलक्रमात् ।। ३॥ तस्यङ्गुलद्वयं साधु (शौटालं!) नासिका मुखम् । ग्रीवा च (वैक्तश्चयमोद् ?) भवेदेकादशाङ्गुलम् ॥४॥
१. 'देहबन्धादिकं नृणाम् ' इति, २. 'तद्' इति, ३. 'ललाटं' इति, 7. 'वक्षश्शायामात्' इति च स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे एवमेवोदरं नाभिमेढ्योरन्तरं दश । विंशतिश्चाङ्गुलान्युरू जत्रे च त्रीणि जानुनी ।। ५ ।। त्रीण्यगुलान्यङ्गुले च केशभूरङ्गुलद्वयम् । केशान्तमानं सर्वेषामधिकं स्यात् स्वमानतः ॥ ६ ॥ विस्तारेण भवेद् वक्षस्तस्यैवाङ्गुलविंशतिः । द्वादशाङ्गुल(विस्तारो बाहुसंसस्य) निर्दिशेत् ।। ७ ॥ दशाङ्गुलौ प्रकोष्ठौ च (हस्ततथे ++++ ?) । तथा पृथक्पृथक् च्छोणिः पीनाङ्गुलि(?) ततो भवेत् ॥ ८॥ हंसस्वभावेन पृथग + + म्भारनासिकः (१) । (शेसस्यः) व्यङ्गुलं ++ नासिका वक्त्रमेव च ॥ ९॥ ग्रीवापि तत्प्रमाणैव (यव)क्षस्त्वेकादशाङ्गुलम् । तथादरं तथा नाभिमेढ़योरन्तरं दश ॥ १० ॥ ऊरू विंशतिमात्रौ च शशस्य परिकीर्तितौ । व्यङ्गुले जानुनी (लज)ङ्के मात्राविंशतिमायते ।। ११ ।। गुल्फो च व्यगुलायामौ तावन्मात्रं शिरो भवेत् । आयामो(य?ऽयं) शशस्यै(व?) स्यान्नवत्यगुलोन्मितः।। १२ ॥ द्वाविंशत्यङगुलं (वैक्ष्यां) विस्तारेणास्य कीर्तितम् । बाहुप्रबाहू पाणी च शशकस्यापि हंसवत् ।। १३ ।। समयाच्च स कर्त(व्या?व्य): स्वभावाच्च कृशोदरः । (तथोयवेत् केशोरुजको द्विद्वान् ?) विचक्षणः ॥ १४ ॥ रुचकस्य (तुखायामद्याम?) प्रोक्तः सार्धदशाङ्गुलः । ग्रीवाङ्गुलत्रयं सार्धमायामेनास्य कीर्तिता ।। १५ ।। एकादशाङ्गुलो(व्यापूर्वकृस्तस्य?) प्रमाणतः । तावन्त्येवोदरं तस्य नाभिमेद्वान्तरं दश ॥ १६ ॥
१. 'विस्तारौ बाहू इंसस्य' इति स्यात् । २. 'शशस्य' इति स्यात् ३. 'वक्षो' इति स्यात्। ४. 'मुस्खायामः' इति स्यात् । ५. 'न्याहुर्वक्षस्तस्य' इति स्यात् ।
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पञ्चपुरुषस्त्रीलक्षणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः । विंशतिश्चागुलान्यूरू जानुनी चागुत्रयम् । विंशत्यङ्गुलमायामं जयोस्तस्य निर्दिशेत् ।। १७ ॥ अगुलत्रितयं गुल्को कुर्यात् तस्य शिरोऽपिच । द्विनवत्यगुलायामो रुचकः परिकीर्तितः ।। १८ ।। इत्यायामोऽस्य विस्तारो वक्षसोऽगुलविंशतिः । भुजौ दशाङ्गुलायामौ प्रकोष्ठौ तद्वदेव च ॥ १९ ॥ एकादशाङ्गुलौ हस्तौ विस्तारेणास्य कीर्तितौ । पीनांसः पीनबाहुश्च स(लिली)लगतिचेष्टितः ।। २० ॥ बलवान् वृत्तबाहुः स्याद् रुचको रुचकाकृतिः। भद्रस्य प्राहुरायाम मस्तकस्याङ्गुलत्रयम् ।। २१ ॥ एकादशाङ्गुला ++ ग्रीवा सार्धागुलत्रया । वक्षो जठरमप्यस्य सपादैकादशाङ्गुलम् ॥ २२ ॥ नाभिमेदान्तरं चास्य विद्यात् सार्धदशाङ्गुलम् । आयाममूर्वोजानीयात् सपादाङ्गुलविंशतिम् ॥ २३ ॥ जङ्ग्रे च तावदायामे जानुगुल्फ त्रिमात्रकम् । (चतुर्तवतिसरामो चन्द्रस्यैष?) प्रकीर्तितः ॥ २४ ॥ आयाम एष विस्तारो वक्षसस्त्वेकविंशतिः । एकादशाङ्गुलौ बाहू तस्य ++++++ ॥ २५ ॥ हंसादिपुंसामिदमेवमुक्तं
यद्वा यथालक्षणमानमत्र । स्त्रीणां च सम्यग (गदिता सुखानाद!) __ यो वेत्ति मान्यः स भवेन्नृपाणाम् ॥ २६ ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनानि वास्तुशास्त्रे पञ्चपुरुषस्त्रीलक्षणं नामाध्या(योऽय एका)शीतितमः ।।
१. 'चतुवतिरायामो भद्रस्यैष' इति स्यात् । २. 'अवशिष्टानामङ्गानां विस्तारसभिवेशादि कं, मालम्यादिलक्षणं चेह अषम् । तदेतत् २८५ सम पृष्ठे मिश्रितात् 'एय. वि' इत्यादिवाक्यजातादवगन्तव्यम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अथ रसदृष्टिलक्षणं नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः ।
रसानाम(स्यथ) वक्ष्यामो दृष्टीनां (इ) लक्षणम् । तदायत्ता यतश्चित्रे भावव्यक्तिः प्रजायते ॥ १॥ शृङ्गारहास्यकरुणा रौद्रप्रेयोभयानकाः । वीर(प्रत्ययाक्षौ?) च बीभत्सश्चाद्भुतस्तथा ॥ २ ॥ शान्तश्चैकादशेत्युक्ता रसाश्चित्रविशारदैः । निगद्यते क्रमेणैषां सर्वेषामपि लक्षणम् ॥ ३ ॥ सभ्रूकम्प(कटीक्षपेच?) तथा प्रेमगुणान्वितः । यन्त्रेष्टललिता चेष्टा स शृङ्गारो रसः स्मृतः ।। ४ ।। विकासिललितापाजो मृदु चा(१)स्फुरिता(धारः।। लीलया सहितो यश्च स हास्यो रस उच्यते ।। ५ ।। अश्रुक्लिन्नक(पो)लान्तः शोकसङ्कुचितेक्षणः । चित्तसन्तापसंयुक्तः प्रोच्यते करुणो रसः ॥ ६ ॥ निर्मार्जितललाटान्तः संरक्तोद्वृत्तलोचनः । दन्तदष्टाधरोष्ठो यः स रौद्रो रस उच्यते ॥ ७ ॥ अर्थलाभसुतोत्पसिप्रियदर्शनहर्षजः । सञ्जातपुलकोद्भेदो रसः प्रेमा स उच्यते ॥ ८॥ वैरिदर्शनविनाससम्भ्रमोद्धान्तलोचनः । हृदि संक्षोभयोगाच रसो ज्ञेयो भयानकः ॥९॥ (अष्टावष्टम्भसमे)सूत्रसङ्कुचितानतः । धैर्यवीर्यबलोत्प(मान्नः) स वीरस्तु रसः स्मृतः ॥ १० ॥ (ईषेदुप्तसित्तत्र कस्तच्चा)स्तिमिततारकः । असम्भाव्यं विलोक्यार्थमद्भुतो जायते रसः ॥ ११ ॥ १. 'चेह' इति स्यात् । २. इह वीरादनन्तरयोर्दयो रसयोर्लक्षणं लुप्तम् ।
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रसदृष्टिलक्षणं नाम व्यशीतितमोऽध्यायः । २९९ अधिवि)कारः प्रसन्नैश्च भ्रूनेत्रवदनादिभिः । अरागाद् विषयेषु स्याद् यः स शान्तो रसः स्मृतः ॥ १२ ॥ इत्येते चित्रसंयोगे रसाः प्रोक्ताः सलक्षणाः। मानुषाणि पुरस्कृत्य सर्वसत्त्वेषु योजयेत् ॥ १३॥
इति रसाः । अथ दृष्टीरभिदमो ललिता हृष्टा विकासिता विकृता । भृकुटी विभ्रमसंज्ञा संकुचिता (छवितनाप्रीव) ॥ १४ ॥ ऊर्ध्वगता योगिन्यथ दीना दृष्टा च (विविष्टबला खेवेः) । (स्यादङ्किता?)भिधाना (विविख्यावः)जिह्मा च ॥ १५ ॥ मध्यस्थेति तथान्या स्थिरेति (चाष्टावेवमुद्दिष्टा?) । एता दृशोऽथ लक्षणमेता(नासा)मुच्यते क्रमशः ॥ १६ ॥ विकसित(प्रगल्लाससम्भ्रमत्रः) कटाक्षविक्षेपा। भृङ्गाररसोद्भता दृष्टिललितेति विज्ञेया ।। १७ ।। प्रियदर्शने प्रसन्ना प्रोद्गतरोमाञ्चविकसिता(पा)का । (प्रस्तरसासि,जाता हृष्टा दृष्टिः समाख्याता ॥ १८ ॥ विकसितनयनप्रान्ता वि(काका)सितापागनयनगण्डतला। क्रीडाकारयुता(न्या) हास्यरसे (स्याद् ) विकासिता दृष्टिः॥ १९ ॥ विख्याता प्रीतिविकारि(?)र्व्यक्तभया भ्रान्ततारका या च । ज्ञेया(विकृत्यकारैः सारै च.) भयानका दृष्टिः ॥ २० ॥ (दीप्तीर्थताकातास्रप्रतता?) मन्ददर्शना । दृष्टिरूर्व निवि(ष्टेष्टा) तु भृकुटिः परिकीर्ति(ताता) ॥ २१ ॥ सत्त्वस्था ढलक्ष्मा स(सोष्टीसौष्ठ)(व)व्यक्ततारका सौम्या । (विप्रत्यपरजालाता?) दृष्टिः स्याद् विभ्रमा नाम ।। २२ ॥
१. विहला चैव' इति स्यात् । २. 'स्याच्छङ्किता' इति स्यात। ३. चाष्टाद. बमुद्दिष्टाः' इति स्यात् । ४. 'दीतोवतारकाताम्रपतता' इति स्यात् ।
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३००.
समराङ्गणसूत्रधारे
मन्मथमदेन युक्ता स्पर्शरसोन्मीलिताक्षपुयुग्मा ।
(तरु) सुखानन्दयुता (सकुचिता नाम दृष्टि (राखता । २ ॥ निर्विका (1) कचित् तावन्नासिकाग्रावलोकिनी । योगि (नी) नाम सा दृष्टिस्तच्चे चित्तस्य योजनात् ॥ २४ ॥ अर्धसतोच (र) पुटा किञ्चित् संरुद्धतारका । मन्दसञ्चारिणी साखा शोके दीनाभिधीयते ॥ २५ ॥ संस्थिते तारके यस्याः स्थिरा विकसिता तथा ।
मुरिती दृष्टा दृष्टिरुत्साहसम्भवा || २६ ॥ म्लान पुटपक्ष्मा या शिथिला मन्दचारिणी । (काम) प्रविष्टतारा च विद्दला (तोमला?) स्मृता ॥ २७ ॥
चला स्थिरा किञ्चिदुत्ताना तिर्यगायता । मू ( हाढा) चकिततारा च शङ्किता दृष्टिरिष्यते ॥ २८ ॥ आनिकुञ्चितपक्ष्मा या पुटैराकुञ्चितस्तता तथा । ( सत्रिजन्त + १) तारा च कुञ्चिता दृष्टिरुच्यते ॥ २९ ॥ लम्बिता ( ) पु (राटा) + + तिर्यक्षेक्षणा शनैः । निगूढा गूढतारा व जिल्ह्मा दृष्टिरुदाहृता || २० | ऋजुतारा (राजः ऋजु) पुटा प्रसन्ना रागवर्जिता । त्यक्तादरा च विषये मध्यस्था दृष्टिरुच्यते ॥ ३१ ॥
समतारा समपुटा समग्रूरविकारिणी । (उपगारा ? ) विहीना च स्थिरा दृष्टिः प्रकीर्तिता ॥ ३२ ॥ हस्तेन सूचयन्नर्थं दृष्ट्या च प्रतिपादयन् । सजीव इति दृश्येत सर्वाभिनयदर्शनात् ॥ ३३ ॥
आङ्गिके चैत्र चित्रे +++ साधनमुच्यते । (भवेदत्रादत?) स्तस्मादनयोचित्रमाश्रितम् || ३४ ॥
१, 'सुरत' इति स्यात् । २. 'नाम सा' इति स्यात् ।
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दृष्टिः ॥
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पताकादिचतुष्षष्टिहस्तलक्षणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः
३०१
प्रोक्तं रसानामिदमत्र लक्ष्म दृशां च संक्षिप्ततया तदे ( त्ये त्) । (विज्ञेयचित्रा लिखनान्तराणां?) न संशयं याति मनः कदाचित् ॥
इति महाराज धिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारनाम्नि वास्तुशास्त्रे रसदृष्टिलक्षणाध्यायो ना (मैकाम व्यशीतितमः ॥
-:0:
अथ पताकादिचतुष्षष्टिहस्तलक्षणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः
60
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चतुःषष्टिरिहेदानी हस्तानामभिधीयते । लक्षणं विनि (योग) योगायोगविभागतः ॥ १ ॥ पताकपिताकच तृतीयः कर्तरीमुखः । अर्धचन्द्रस्तथारालः शुकतुण्डस्तथापरः || २ |
मुष्टिश्व शिखरचैव कपित्थः खटकामुखः । सूच्या (स्या स्यः) पद्म) कोशाहि (शि) रसों मृगशीर्षकः ॥ ३ ॥ काङ्गलपद्मकोलच (?) चतुरो भ्रमरस्तथा । इंसास्यो हंसपक्षश्च सन्देशमुकुला (वैदि?) || ४ ॥ ऊर्णनाभस्ताम्रचूढ इत्येषा चतुरन्त्रिता । हस्तानां विंशतिस्तेषां लक्षणं कर्म चोच्यते ।। ५ ॥ प्रसारिताग्राः सहिता यस्याङ्गुल्यो भवन्ति हि । कुञ्चितश्च तथाङ्गुष्ठः सपताक इति स्मृतः ॥ ६॥ उत्क्षिप्तेन (शिरो या + त्पाणिनां मेरसा) पुनः । तेन वामतः किञ्चिद् भ्रकुटीकुटिल च ॥ ७ ॥ तोकविष्फारिताक्षेण प्रहारमभिनिर्दिशेत् । प्रतापनं तथोद्भूतो (नरे सोग्रतेन चः) ॥ ८ ॥
७
१. 'विज्ञाय चित्रं लिखतां नराणां' इति स्यात् । २. 'कालकालपदाचे 'ति लक्षणदृष्टपाठानुरोधात् पठ्यम् । २. 'वपि' इति स्यात् ।
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३०२
समराङ्गणसूत्रधारे
तथैवा विकृतास्येन भालस्थः किञ्चित् विचलितः करः (१) । पता कस्फोरिताक्षेण भ्रुकुटीकुचितभ्रुवा ॥ ९ ॥ कार्योऽहमिति गर्वः स्याच्चित्रशास्त्रविशारदैः । अर्थेषु वक्ष्यमाणेषु संयुतं चैनमाचरेत् ॥ १० ॥ द्वितीय हस्तयुक्तो यः स हस्तः संयुतः स्मृतः । (तत्रासूपणाचामः पुरतो क्षिणतः पुनः १) ॥ ११ ॥ ऊर्ध्व प्रसर्प्य कर्तव्यः प्रचलद्विरला (गुलिः) | विदध्यादित्थमेवो (क्तोक्तं) वर्षधारानिरूपणम् ) ॥ १२ ॥ (विधायितं तौ तावमच्छन्तौ च ) दर्शयेत् । पुष्पवृष्टिप्रपतने प्रचलद्विरलाङ्गुलिः || १३ | कार्य हस्तद्वयं व त्रयोऽप्यत्राधिकारिघः (१) । (तैत्र?) + + चोत्तानं विधाय स्वस्तिकं बुधः ॥ १४ ॥ कुर्वाणो विच्युतिं तस्य पल्वलं सम्प्रदर्शयेत् । पुष्पोपहारं (सप्पणिः) ये चार्था भूतलस्थिता (:) || १५ ।। तानुन्नमितवामभूः किञ्चिदुद्वाहय (ज्ञिः ञ्छि) रः । तादृशं हस्तयुग्मं तु कुर्यादविकृताननः || १६ ||
अधोमुखं (च) तेनैव कर्तव्या (माघ)टना मिथः । संवृतं वा (थ) विश्लिष्टं ताः ++++++ ॥ १७ ॥
दर्शनीयं च वदनमस्मिन्नविकृतं सदा ।
(यो ? पाल्यं छ (तन ?न च) कर्तव्यं ( शल्कशे परस्पराः ।। १८ ।। किञ्चिद्विनतमूर्धा च विधायाधोमुखाँ तलौ ।
निविडं निविडे (मै? नैव) निर्विकारमुखाम्बु (जा?जः) ॥ १९ ॥ उरसोऽग्रे तथोर्ध्वेन परावृत्ते च हस्तयोः । युगलेन मन (सा?शू शक्तिं प्रयत्नेन प्रदर्शयेत् ॥ २० ॥ गोप्यं वामेन गुप्तेन किञ्चिद्विनतमस्तकः । किञ्चिदाकुञ्चितां वामां श्रुत्रं कृत्वा प्रदर्शयेत् ॥ २१ ॥
१. 'संसकेन परस्परम्' इति स्यात् ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम व्यशीतितमोऽध्यायः । १०३ पार्श्वस्थेन पताकेन (पाण्यङ्गद्वितयेन तु । अधिकस्थेन पताकेनः) पाण्यब्जद्वितयेन तु ॥ २२ ॥ अधिकारिमुखे(?) वायोः कुर्यादभिन(न्द?)यं ततः । नतोत्त + शिरास्तेन (द्विहित भ्रकुटिमानके?) ॥ २३ ॥ वेलामुर्वी च मतिमान् पाणियुग्मेन दर्शयेत् । पुरःस्थितेन वामेन दक्षिणेन तु पाणिना ।। २४ ।। (तसृष्टेः) सर्पता स्तोकमुद्वाहितशिरा न(रार)। वेगं प्रदर्शयेनित्यमविकारि दधन्मुखम् ॥ २५ ।। (इत्युधेनुश्व:) चलता हस्तयोतियेन तु । मूर्धा तदनुगेनैव तथैव विकृताननः ॥ २६ ॥ क्षोभस्या(भि)नयं कुर्याद्धस्ताभिनयकोविदः । (उधस्तृधो मुखेनावः यतन्परार्थतापि च?) ।। २७ ॥ पताकेनाभिनेतव्यो विधाय भ्रकुटिं मना । पार्थव्यवस्थितेनोर्ध्व चलदगुलिना मुहुः ॥ २८ ॥ उत्साहनं विधातव्य(त्तप्य?)(च) शिरोधराम् । तिर्यग्विष्फार्यमाणेन प्रभूतमभिनिर्दिशेत् ॥ २९ ॥ महतोऽभिनयः कार्यः पार्थयोरूर्ध्वसर्पिणा । भ्रान्तेनोत्तानिते(चानिकृतास्येन सिंहाजनम् ॥ ३० ॥ रूपयेदुच्चमुच्चेन पताकेनैव पाणिना । इतस्ततः प्रचलता दर्शयेत् पुष्कराहतिम् ॥ ३१॥ (सत्ताक्षपेण वक्त्रेण चलय + मुखेन च)। स्थितेन पायोस्तिर्यग् रिच्यमानेन दर्शयेत् ॥ ३२ ॥ पक्षोत्क्षेपक्रियां नित्यं वक्त्रेण विकृतेन च । उत्तानितेन वामेन विधृतेनेतरेण तु ॥३३॥
१. 'अविकारिमुखो' इति स्यात् । २. नाट्यशास्त्रे पताकहस्तकमनिरूपणप्रसने 'वायूमिवेगवेलाक्षोभे त्यादिदर्शनादत्र 'वेलामूर्मिमिति पान्नं भाति। ३. 'मुभम्य' इति स्यात् । ४. 'नाविकतास्येन महाजनम्' इति स्यात् ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे पुरप्रसर्पिणाधौत हस्तानुगतदृष्टिना । निघृष्टतलहस्तेन भ्रकुट्या मृदितं पुनः ॥ ३४ ।। प्रघृष्टमेकरूपेण द्वितीयेन प्रसर्पता । (तेन?)स्योपरि हस्तेन निविष्टेन विधीयते ॥ ३५ ॥ (अन्योन्य)घर्षणा(त्येत् पि)ष्टं भ्रकुट्या च (प्रदर्शयेत् । पार्थस्थितेन शैलेन्द्रं दूरविष्फारितेन च ।। ३६ ॥ प्रदर्शयेत् समुत्क्षिप्य(मोमा?) भ्रलतिकां शनैः । शैलधारणमन्योन्य(श?स)क्तेनाभिमुखेन च ॥ ३७॥ पार्श्वयोः सम्प्रवेश्याधः कृ(कीत)भ्रकुटिना ततः । कार्यमुत्क्षिप्यमानेन शैलपोत्पाटनं तथा ॥ ३८ ॥ शिरःप्रदेशसंस्थेन दरमुत्तानितेन च ।। समुन्नतभ्रवा कार्या पर्वतोद्धरणक्रिया ॥ ३९ ॥
ताकहस्तः ।
पताके तु यदा वक्रानामिका त्वगुलिर्भवेत् । त्रिपताकः स विज्ञेयः कर्म चास्याभिधीयते ॥ ४० ॥ (अयं ++ अविचलन्मध्याकनिष्ठिकः । अनोहेन विधातव्यो न(तुत) मूनो तथा मनाक् ॥४१॥ उन्नामेन समुरिक्षप्तपुरमारो)भागेन चामुना । नमता शिरसा कुर्यात् तथा(चव)तरणक्रियाम् ॥ ४२ ॥ पार्वतः सर्पता कार्यममुनैव विसर्जनम् । पराङ्मुखाना(रयोग्रः) भ्रुकुटि विरचय्य वा ॥ ४३ ॥ वारणं पार्श्वसंस्थेन प्रवेशोऽधो नतेन च । प्रवेशं कुर्वताकारो (वेकुब्जमविकारिता) ॥ ४४ ॥ उत्क्षिप्ताङ्गुलियुग्मेन तथोत्तानेन चामुना । उन्नामनं विधातव्यमविकारिमुखेन च ॥ ४५ ॥ । 'मनाग्' इति स्यात् । २. 'धारणम्' इति मुद्रितमुनिपाठो दृश्यते ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम ध्यशीतितमोऽध्यायः। ३.५ पार्श्वतो नपता (कार्या प्राणेना) नतमस्तकैः । निदर्शनं तयोवृत्तेनो;गुलिशिखेन (र!च) ॥ ४६ ॥ प्रसर्पितमुखस्याग्रे विधिसम्बन्धनं पुन:(१) । उत्तानेना(सुमाशुल्या श्वहीत्वा)नामिकाख्यया ॥ ४७॥ म(गुगोल्यानां समालम्भः पदार्थानां विधीयते । पराङ्मुखेन शिरसः प्रदेशे सर्पता तथा ।। ४८॥ प्रवेशदर्श)येच्छिरःसन्निवेशमेतेन पाणिना । एतानि दर्शनीयानि सर्वाण्यविकृताननैः ॥ ४९ ॥ हस्तद्वयेनोभयतः केशानासनवर्तिना। उष्णीषमुकुटादीनि प्रामोतीति निरूपयेत् ॥ ५० ॥ कर्तव्यः (सोनाशास्यं विधानेन समीपरा) । पाणिः कृतभ्रुकुटिना (तत्रोद्वस्तो)गुलिद्वयः ।। ५१ ॥ अधोमुखं प्रस्थिताभ्या(मङ्गुलीभ्यां) प्रदर्शयेत् । चलाभ्यां मुकुलाभ्यां च हस्तस्यास्यैव (पद्येदान्) ।। ५२ ॥ दर्शयेत् पाणियुग्मेन कदाचित् पक्षिणो लघून् । पधनप्रभृतींश्चैव पदार्थानपरानपि ॥ ५३॥ घलिताङ्गुलिना हस्तद्वयेना(धोनति + स्या)। अधोमुखेन वा (श्रोःस्रो)तो दर्शयेत् सर्पता पुरः ॥ ५४ ॥ ऊर्धावस्थितिना गङ्गास्रोतः मूत्रनिभेन च । अधो वि(निन)मता पाणिद्वितयेन प्रदर्श(नाये)त् ॥ ५५ ॥ पुरः प्रसप्तकेन चलता विकृतान(मन)। हस्तेन साभिनयं विदधीत विचक्षणः ।। ५६ ॥ अगुलिद्वितयेनाधोमुखेनाथुप्रमार्जनम् । कुर्यात् कनीनिकादेशसर्पिणा विनताननः ॥ ५७ ।।
9. 'कार्यः प्रणामो' इति स्यात् । २. 'निदर्शनं विविधवचनं च' इति त्रिपा कास्तकर्मप्रदर्शनप्रकरणे मुनिः। ३. 'श्रोत्रनासास्यपिधाने तु समीपगः। इति, ४. 'तयोस्था' इति च स्यात् । ५, 'षटपदान्' इति स्यात् । ६. 'भो नतेन च' इति लात्।
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३.०६
समराङ्गणसूत्रधारे अ(वाध)श्वाध च सर्पन्त्या भालदेशे त्वनामया । तिलकं रचयेदेका(सुन्द्रस्य भ्रलतां शये?) ॥ ५८ ॥ तया (चैवा)नामिकया कार्या (स्याद) रोचनाक्रिया । आलभ्य रोचनां मूर्ध्नि तथैव च विचिक्षिपेत् (१) ।। ५९ ॥ तयैव च विधातव्यमल(केनो) प्रदर्शनम् । उत्तानितेन हासश्च त्रिपताकेन पाणिना ॥६० ॥ (चंदनेस्याग्रह)स्तिर्यगलिद्वयचालनात् । त्रिपताकाङ्गुलीभ्यां तु चलिताभ्यामुरोग्रतः ॥ ६१ ।। शिखण्डिशारिकाकार?क)कोकिलादीन् प्रदर्शयेत् । हस्तस्यानुगतां दृष्टिं (त्रैलोक्य?) + + कारयेत् ।। ६२ ।।
इति त्रिपताकः ॥ त्रिपताके यदा हस्ते भवेद पृष्ठावलोकिनी।। तर्जनी मध्यमायाश्च तदासौ कर्तरीमुखः ॥ ६३ ॥ नमता संयुसेनेतस्ततः सश्चरणं पदैः । (तेतस्य स्तद्वलनत्वं हि युगस्य तदमातया?) ॥ ६४ ॥ (अधो)मुखेन कर्तव्य(मतेचैव?) रङ्गणम् । ललाटवर्तिना शृङ्ग संघायु)तेनोन्नतभ्रवा ।। ६५ ।। प्रदर्शये(त् त?)दुल्लिखसा लेख्यमभ्युनतभ्रुवा । अधोमुखेन चैकेन तथाधो नमता मनाम् ॥ ६६ ॥ दर्शयेत् पतनं वाधो गच्छता मरणं तथा। नयसेत्तस्ततः शक्रविक्षेपेण(?) विवर्जितम् ॥ ६७ ॥ पाणिना जता(भेस्ता') कुञ्चितनमस्छिराः । न्यस्तं प्रदर्शयेत् (कार्याहकसंवम्यमाचस्तं कुर्यानिर्घाटनं तथा ॥ पीनं वालद्रुमीं: कञ्चुकरानुगा)।
इति कर्तरीमुखः॥ यस्थागुल्यस्तु विनताः सहाद्गुष्ठे(न) चापवत् ।। ६९ ॥ ...'मुभम्य धूलतां शनैः' इति स्यात् । २. 'कानां'इति स्यात् । ३. 'बदमस्यामत' इति स्यात् । ४. 'मनयैव च इति स्यात् । ५. 'घस्ताद'इति स्यात् ।
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पताकादिचतुःषष्टिहस्तलक्षणं नाम व्यशीतितमोऽध्यायः। ३०४ सोऽर्धचन्द्र इति प्रोक्तः करः कर्मा(चस्य) कथ्यते । सेनोन्नतभ्ररेफेन शशिलेखां प्रदर्शयेत् ॥ ७० ॥ (मध्यस्यौ यस्य?)मायस्तं कुर्यानिर्घाटनं तथा। पीनं वालनुमाः (क)म्बु कलशा वलयानि च ॥ ७१ ॥ प्रदर्शनीयान्येतेन संयुतेनेति चापरे । रशनाकुण्डलादीनां तलपत्रस्य चामुना ॥ ७२ ॥ कटीअघनयोश्चाभिनयस्तदेशवर्तिना। अस्याप्यनुगता दृष्टिः कार्या) सर्वत्र नर्तकैः ॥ ७३ ॥
इत्यर्धचन्द्रः ।। आधा धनुर्नता कार्या कुश्चितोऽङ्गुष्ठकस्तथा । शेषा भिभोर्ववलिता अरालेऽङ्गुलयः स्मृताः ॥ ७४ ॥ (अमृतेनाग्रतोतेन?) किञ्चिदभ्युत्थितेन च । सत्वशौण्डीर्यगाम्भीर्यधृतिकान्तीः प्रदर्शयेत् ।। ७५ ॥ दिव्याः (पापार्ध?) ये चान्ये तानप्यविकृताननः। . दर्शयेदुन्नतभ्रश्च पाणिनानेन नतेकः ॥ ७६ ॥ आशीर्वाद (तथा कानांह) स्त्रीकेशग्रहणं च यत् । निवर्णनं च सर्वाङ्गमा(लात्म)नो यद् विधीयते ॥ ७७ !! उत्कर्षणं च तत् सर्व कार्यमभ्युन्नतभ्रवा । दर्शयेद्धस्तयुग्मेन प्रदक्षिणगतेन च ।। ७८ ।। विवाह संप्रयोगं च कौतुकानि बहूनि च । अगुल्यग्रसमायोगरचितस्वस्तिकेन च । ७९ ॥ परिमण्डलयातेन प्रादक्षिण्यं प्रदर्शयेत् । परिमण्डलसंस्थानं तथानेन महाज(ल?न)म् ।। ॥ ८० ॥ द्रव्यं महीतले यच्च रचितं तत् प्रदर्शयेत् । दानं वारणमाहानमनेक (वचनं तथा) ॥ ८१॥ १. मध्यमौपाय' इति स्यात् । २. 'स्तृतेनाग्रतोड़नेन' इति स्यात् । ३. 'पदार्था' इति स्यात् । ४. 'तथैकेन' इति स्यात् ।
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বঙ্গানুপথাৰ दर्शयेचलता तेन हस्तेनासंयुतेन च । स्वेदापनयनं कार्य ग(त्वान्धा)घ्राणं तथामुना ।। ८२ ।। सत्मदेशे प्र(वृत्तेन) पाणिना नृत्तकोविदः । योषितां विषये चैष (पाणिना?) मायेण युज्यते ॥ ८३ ।। कर्माण्येतानि सर्वाणि त्रिपता(कः सकवादाचरेत् । नाहमित्यभिनेतव्य(मस्यादश?)स्थितेन च ॥ ८४ ॥ अस्यानुयायिनी दृष्टिं विदधीत भ्रवौ तथा ।
इत्यरालः ॥
अराल(क्रस्य) यदा वक्रानामिका त्वगुलिर्भवेत् ।। ८५ ॥ शुकतुण्डः स विज्ञेयः कर्म चास्याभिधीयते ।। न त्वमित्यमुना तिर्यक् प्रसृतेन प्रदर्शयेत् ॥ ८६ ॥ व्यावृत्तेन तु हस्तेन (मीन) कृत्यमिति निर्दिशेत् । प्रसारितेन पुरतो नमताभिमुखं मुहुः ॥ ८७ ।। कुर्यादावाहनं तिर्य (++ मातु?) विसर्जनम् । व्यात्तेन तु हस्तेन न कृत्यमिति वारताम् (१) ।। ८८ ॥ (अपेक्षे निपोनिषेक अ) परावृत्तेन शस्यते । दृष्टिभ्रो चानुगते हस्तस्यास्य समाचरेत् ॥ ८९ ॥
तुण्डः ॥ अगुल्यो यस्य हस्तस्य तलमध्ये ग्रसंस्थिताः । तासासुपरि चाङ्गुष्ठः स मुष्टिरभिधीयते ।। ९० ॥ एष प्रहारे (व्या)यामे कार्यः सभृकुटीमुखैः । पार्श्वस्थहस्तयुग्मेन निर्गमे तु विधीयते ॥ ९१ ॥
इति मुष्टिः ॥ १. 'खेदापनय' इति मुद्रितमुनिपाठो दृश्यते। २. 'पाणिः' इति स्यात् । ३. 'मास्यदेश' इति स्यात् । ४. 'इनमता तु' इति स्यात् । ५. इदं ९२ तमश्लोकान्वे निवेधनीयमिति भाति ।
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पताकादिचतुप्पष्टिहस्तलक्षणं नाम अशीतितमोऽध्यायः। ३०९ (यष्यतिग्रहणमात्रमर्धनः) स्तनपीडने । असं(स्तुयुतो विधातव्यो (सुदृष्टिभ्रवो तथा?, ।। ९२ ॥ अस्यैव तु यदा मुष्टरूवोऽङ्गुष्ठः प्रयुज्यते । हस्तः स शिखरो नाम तदा ज्ञेयः प्रयोक्तृभिः ॥ ९३ ॥ अयं वामो विधातव्यः कुशरश्मि चतुर्हि +?) । हस्तद्वयं व्याप्रियतो(?) (श्रोमणिग्रहणकर्मणि ॥ ९४ ॥ शक्तितोमरमोक्षे तु सव्यहस्तः प्रयुज्यते । । पादौष्ठरञ्जने चैव चलिताङ्गुष्ठको भवेत् ॥ ९५ ॥ अलकस्य समुत्क्षेपे तत्प्रदेशस्थितो भवेत् । कुर्यादनु (ग)तामम्य दृष्टिभ्रयुगलं!) तथा ।। ।। ९६ ॥
इति शिखरः ॥ अस्यैव शिखराख्यस्य (अन्य)ङ्गुष्ठकनिपीडिता । यदा प्रदशिनी वक्रा स कपित्थस्तदा स्मृ(तात:) ॥ ९७ ॥ चापतोमरचक्रासिशक्ति(चक्रांगदाबिना) । एतेनान्यानि शस्त्राणि सवाण्यभिनये बुधः ।। ९८ ॥ सत्यप्यभिनये जन्म +++ विक्षिपेन्मुहुः। अत्रापि हस्तानुगतं दृष्टिभ्रम शस्यते ।। ९९ ।।
इति कपित्थः ॥ उरिक्षप्तवक्रा तु यदा ती कार्याः) सकनीयसी । अस्येव तु कपित्थस्य (पंदांशौषटकमुखः') ॥ १०० ॥ अनेन होत्रं हव्यं च नमतानं विधीयते । द्वाभ्यामाकर्षण च्छत्राग्रं प्रग्रहप्रदर्शनम्) ।। १०१॥
1. 'यष्टयमिग्रहणे गात्रमदमे' इति स्यात् । २. चतुर्थः पादोऽयं दृष्टिभ्रुवोईस्ता. नुयानविध्यर्थस्य लुप्तस्य श्लोकान्तरस्य स्यात् । ३. 'धनुग्रह ' इति स्यात् । ४. 'ष्टिं भ्रयु. गलं' इति स्यात् । ५. 'वज्रगदादिना' इति स्यात् । ६. 'नामिका' इति पदमत्रार्थसाङ्ग. त्याय कल्पनीयम् । ७. 'तदासौ खटकामुग्वः' हात स्यात् । ८. 'छत्रप्रग्रहाणां प्रदर्शनम् । इति स्यात् ।
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३१०
समराङ्गणसूत्रधारे
( एतेन न चास्यरादर्श वा जग्री) पुनः ।
अवक्षेपसमुत्क्षे (प? पौ) व्यावृत्तेन तु ( क ख ) ण्डनम् ॥ १०२ ॥
भ्रमता तु विधातव्यममुना परि (षेत्र ? पेष) णम् | ariaurat aa (खीतालम्बने ?) तथा ॥ १०३ ॥
शशकलापादिग्रहे खग्दामसंग्रहे ।
दृष्टि (भ्र) सहितो हस्तः प्रयोक्तव्यो विचक्षणैः ॥ १०४ ॥
+
इति (ष ? खटकामुखः ||
खटकाव्ये यदा हस्ते तर्जनी संप्रसारिता । हस्तः सूचीमुखो नाम तदा ज्ञेयः प्रयोक्तृभिः ॥ १०५ ॥
एतदीयप्रदेशिन्या व्यापारः प्रायशो भवेत् ।
rasafe कम्पितो (बालो) लव्यालोद्वाहित (क) भ्रमाः ॥ १०६ ॥ (ते स तत्र नत्र कर्मणि युज्यते । भ्रमाया)भिनयेच्चक्रं (तंत्रजृम्भितं चलयानया ॥ १०७ ॥ विलोलया पताकादीन् +++++++ या । (धूपदीपप्लुतावल्लीपल्लवान् वालपत्रमात् ॥ १०८ ॥
++++++++ श्रुद्वया) पुष्पमञ्जरी (म्) । चलया वक्रगमनं चूलिकामुद्ध ++ या ॥ १०९ ॥ (सा बुधा चादाहु विधातर्धकम्पिता ? ) | धूपदीपलतावल्लीपलवान् बालपन्नगान् ॥ ११० ॥ शिखण्डकान् मण्डलं च नयनं चोर्ध्वलोलया । तारकानासिकादण्डय (टी पूर्वसुस्थया ? ) नया ॥ १११ ॥ दक्षिणो दर्शयेत्रासन्नताघो नताक्रया (९) । तिर्यङ्मण्डलया सर्वं तया लोकं प्रदर्शयेत् ॥
११२ ॥
१. 'एकेन च स्यादादर्शधारणं व्यञ्जनं' इति स्वात् । २. 'वस्त्रालम्बने ' इति स्यात् । ३. 'ष्टीरूर्ध्वस्थया' इति स्यात् । ४ 'दांष्ट्रणो दर्शयेद् वक्त्रासन्नयाघो नताप्रया'
इवि स्यात् ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम अशीतितमोऽध्यायः । ३११ (आयदीर्घ च विधास्ते?) विदध्यादुनतामिमाम् । वि(ममन्तानमन्ती) पुनः कुर्यादपराणप्रदर्शने ॥ ११३ ॥ कर्तव्या वदनाभ्याशे सा कुञ्चितविजृम्भिता । अशु(लिं?लिः) नृत्ततत्त्वज्ञैर्वाक्यार्थस्य निरूपणे ॥ ११४ ॥ सोऽयं तदिति(?) निर्देशे प्रस्तोत्वा तोत्ता)नकम्पिता । रोषे प्रकम्पिता(र्धा ग्रा)च हस्तेनाभ्युनतेन च ॥ ११५ ।। प्रमृताग्रेण (स'न)मता (च.) कर्तव्या स्वेदरूप(णाणे)। कुन्तलाङ्गदगण्डानां कुण्डलानां च रूपणे ॥ ११६ ॥ (सर्दिश वर्तना कार्या प्राचलती च सा मूहः) । ललाटसंतृतोद्वत्ता कार्या (हँस्तिनिरूपणा) ॥ ११७ ॥ प्रसारितोनामिता वा रिपूद्देशे(स) विधीयते । (कार्या संकपानी साग्रे सो प्रकोपदर्शने) ॥ ११८ ॥ कोऽसावित्यपि निर्देशे (तया कार्या) तिर्यग्विनिर्गमा । (कर्णकूटनयेन शब्दश्रवणेस्तातसंश्रया') ॥ ११९ ।। कार्ये हस्तद्वयाङ्गुल्यौ संयुते संमुखे युते । वियोगे विघटन्त्यौ तु कलहे स्वस्तिकाकृती ।। १२० ॥ (चतुधनिता?) कार्ये परस्परनिपीडने । ऊध्वोंग्रचलिता यावत् कर्त(स्यैव्यै) के + वर्णने ॥ १२१ ॥ कुर्याद दृशं भ्रुवौ चा(स्य) इस्तस्यानुग(तं ते) बुधः ।
इति सूचीमुखः ॥ यस्याङ्गुल्यस्तु (विरलामाभोरुहाङ्गुष्ठेन?) कुञ्चिताः ॥ १२२ ।। ऊर्धाश्च सङ्गताग्राश्च (स) भवेत् पद्मकोशकः । श्रीफल(क)स्य कपित्थस्य ग्रहणं तेन रूपयेत् ॥ १२३ ॥
1. 'आये दीर्घ च दिवसे' इति स्यात् । २. 'प्रणतीकता च कार्या खाये दी च दिवसे च'इति तु मुनिः । ३. 'तद्देशवर्तिनी कार्या प्रचलन्ती च सा मुहुः' इति, ४. 'हमिति रूपणे इति, ५. 'कार्या प्रकम्पिनी साने चोग्रकोपप्रदर्शने' इति च स्यात् । १. कर्ण कप्यूयने शम्झषणे भोप्रसंश्रया' इति स्यात् । ७, 'बिरला सहारमुष्ठेन' इति स्यात् । ।
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३१२
समराङ्गणसूत्रधारे बीजपूरकमुख्यानामन्येपामपि दर्शनम् । कार्य फलानां तत्तुल्यरूपेणोर्ध्वस्थितेन च ।। १२४ ॥ कुर्यात् प्रसारितास्येन योषित्कुचनिरूपणम् । कुर्याद् दृष्टिभ्रुवो चास्य हस्तस्यानुगते बुधः ॥ १२५ ॥
पद्मको(ण?श)कः ॥ अगुल्यः संहताः सर्वाः सहाङ्गुष्ठेन यस्य तु । (तथानितघाश्चैव?) स तु सर्पशिराः करः ॥ १२६ ॥ उत्तानि(तेनातं तु) कुर्वीत सेचनोदकदानयोः । अधोमुखं विचलितं भुजगस्य गतौ पुनः ॥ १२७ ॥ (विधात द्विगुणां वामबाहुतस्थिशरादधः)। विदध्यात् सपेशिरसा हस्तेनास्फोटनक्रियाम् ।। १२८ ॥ रचित कुटिः कुर्यादेवं तिर्यछिरो दधत् । पुरतोऽधोमुखे(नै भास्या लनमाचरेत् ।। १२९ ॥ दृष्टिभ्रूसहिता कार्या हस्त(स्यास्यानुयायिनी ।
___इति सर्पशिराः॥ (अधोमुखीनानिमुणे)मङ्गुलीनां समाग(तति)ः ॥ १३० ॥ कनिष्ठाङ्गुष्ठकावृधे तदासौ मृगशीर्षकः । इह साम्प्रत(मैस्तथेत्यत्नाः) प्रयोजयेत् ॥ १३१ ॥ (स्थाच्छव्यलाभेने तिर्यगुक्ति पूवाक्षे पातने)। स्वेदापमार्जने कार्योऽधोमुखस्तत्प्रदे(र्यशग)ः ॥ १३२ ॥ (क्रुद्धाकुट्ट)मिते (संचलितः कर्तव्योs)धोमुखश्च सः। . (अस्यानुयायिनी दृष्टिः पाणी कुर्याद् भवापि) ॥ १३३ ॥
इति मृगशीर्षकः ॥ १. 'तया निम्नतलाश्चैव' इति स्यात् । २. 'नेभकुम्भास्फा' इति स्यात् । ३. 'अ. धोमुखीनां तिसृणा' इति स्यात् । मुद्रितनाट्यशास्त्रे तु 'अधोमुखीनां सर्वासाम्' इति पाठो दृश्यते । ४. 'मस्त्यद्येत्यत्र चैनं' इति स्यात्। ५. 'स्याच्छवालम्भने तिर्यगुरिक्षसमावपातने' इति स्यात् । ६. 'अस्थानुयायिनी दृष्टिं पाणेः कुर्याद ध्रुवावपि इति स्यात् ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः । ३१३ त्रेताग्निसंस्थिता मध्यातर्जन्यङ्गुष्ठका मता(:) । काङ्गलेऽनामिका वक्रा तथाचो(वा) कनीयसी ।। १३४ ॥ (त्रेतोत्तनेन) कर्क(न्तुन्धू प्रभृतीनि प्रदर्शयेत् । तरुणानि फलान्यन्यद् वस्तु किश्चिच यल्लघु ॥ १३५ ।। वाक्या(नान्य)ङ्गुलिविक्षेपैः स्त्रीणां रोषकृतानि च । मुक्तामरकतादीनां (रत्नानां) च प्रदर्शनम् ॥ १३६ ॥ हस्तेनानेन कर्तव्यं ध्रुवौ (चारपृष्टष्टगे)।
इति काफूलः ।। आवर्तिन्यः करतले यस्याङ्गुल्यो भवन्ति हि ॥ १३७ ।। पार्थागता विकीर्णाश्च सोऽलपद्मः प्रकीर्तितः । तिर्यक् पुरःस्थितः कार्यो हस्तोऽयं प्रतिषेधने ।। १३८ ॥ कस्य त्वमिति नास्तीति वाक्ये शून्ये च धीमता। आत्मोपन्यसने स्त्रीणां (न सन्देशच्छेतो?) भवेत् ॥ १३९ ॥ अस्य चानुगता दृष्टिर्विधातव्या ध्रुवौ तथा ।
इत्यलपमः ।। अगुल्या प्रस्तास्तिस्रस्तथाचो(या) कनीयसी ॥ १४० ॥ तासां मध्ये स्थितोऽङ्गुष्ठः स करश्वतुरः स्मृतः । अधोमुखः प्रचलितो (मतस्येन ततत्कथा) ॥ १४१ ॥ विनये च नये चायं कार्योऽभिनयवेदिना । (वैर्गुणा तूनतशिवा साः कृस्वा भ्रतां श्रुवा) ॥ १४२ ।। विदध्याच्चतुरं हस्तमुत्तानं नियमे पुनः । किन्तु ध्रुवं + कु(टिलां) विनयं प्रति नाचरेत् ॥ १४३ ॥ अधोमुखेन हस्तेन तेन बालं प्रदर्शयेत् । बालप्रदर्शने कुर्याद् (कुंटीविनतानिरः!) ।। १४४ ॥
१. 'तेनोत्तानेन' इति स्यात् । २. 'चोत्सृष्टदृष्टिगे' इति स्यात् । ३. 'सन्देशे चोच्छ्रितो' इति स्यात् । ४. नैपुणे तून्नतशिराः सत्वे कृत्वोन्नतां ध्रुवम्' इति स्यात् । ५. 'भुकटीविनतं शिरः' इति स्यात् ।
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३१४
समराङ्गणसूत्रधारे
तेनोत्ताने (न) वलता (वेदातुरनन्तरम् ) । तिर्यक् मस तूत्तानो वहिश्राविकृताननैः || १४५ ॥ सत्ये चानुमतौ चैव (हस्त एष) विधीयते । एवमेव प्रयोक्तव्यो युक्ते ( पैय्येशमध्यमः १) || १४६ ॥ द्वाभ्यामेकेन वा (स्तुतों की ) मण्डलावस्थितेन च । विचारितं प्रयोक्तव्यं विहृतं लज्जि (तं) तथा ॥ १४७ ॥ वदनं तत्र कर्तव्यमविकार्य नतर्भुवा । वितर्कितमुरोभ्यर्णे मण्डलावस्थितेन तु ॥ १४८ ॥ अधोमुखेन पुरतः कार्य विश्लिष्यता तथा । मुखं चात्रिकृतं तत्र कार्यमभ्युन्नते शिरस्तु वामतो (तत्र तं च पुन: १) | उभाभ्यां नयनाभ्यां (तु) मृगकर्णप्रदर्शनम् ॥ १५० ॥
|| १४९ ॥
कार्यं तदेशवर्तिभ्यां सम्रक्षे (प) विचक्षणैः | उत्तानेन युतेनाथ पत्राकारं प्रदर्शयेत् ।। १५१ ।।
हस्तेन (चंतुरा खे?) विनमय्य ध्रुवं मनाक् । लीलां रतिं स्मृतिं बुद्धिं संज्ञामायाविचारणा ( : ) ।। १५२ ।। सङ्गतं प्रणयं (शौचमावर्त्य ) भावमक्षमम् । पुष्टिं (सविच ) शीलं च चातुर्य मार्दवं सुखम् ॥ १५३ ॥ (स्त) वार्ता च वेषं च युक्ति दाक्षिण्ययौवने । विभवाविभवोस्तोकं सुरतं (सेंदूर) मृदु ॥ १५४ ॥ गुणागुणौ गृहा दारा वर्णा नानाविधाश्रयाः । चतुरेणाभिनेतव्यास्ते सर्वेऽपि यथोचितम् ।। १५५ ॥
१. ' दर्शयेदातुरं नरम्' इति स्यात् । २. 'पथ्ये शमे यमे' इति वा, 'पथ्ये च मध्यमे' इति वा स्यात् । ३ 'स्तोकं' इति स्यात् । ४. 'विवृतविवारितरचितम् ' इति तु मुद्रितमुनिपाठः । ५. 'चतुराख्येन' इति स्यात् । ६. 'शौचं माधुर्य' इति मुनिसम्मतः पाठ: । ७. 'बादल' इति स्यात् ।
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पताकादिचतुःषष्टिहस्तलक्षणं नाम अशीतितमोऽध्यायः । ३१५ कचित् प्रभावता कापि (भ्रमता?) मृदुता कचित् । प्रतीतिर्जायतेऽर्थस्य यस्य यस्य यथा यथा ॥ १५६ ॥ प्राज्ञैस्तथा तथा शीर्षेऽभिनेयान्यु(त्यात पाणिना। भ्रदृष्टि(चकुरगोश्च?) कार्यास्तदनुसारतः ।। १५७ ।। मण्डलस्थेन हस्तेन पीतं रक्तं च दर्शयेत् । किञ्चिन्नतभ्रः शिरसा परिमण्डलितेन च ।। १५८ ॥ तेन (भूप्रदर्शयेत् कष्टष्णं) नीलं च परिमृद्गता । चतुरेण कपोतादीन् वर्णान् स्वाभाविकेन च ॥ १५९ ॥
इति चतुरः ।। मध्यमाङ्गुष्ठसन्दंशो वक्रा चैव प्रदेशिनी । ऊर्ध्वमन्ये (प्रकीर्णो + अगुल्यो?) भ्रमरे करे ॥ १६० ॥ कुमुदोत्पलपझानां ग्रहणं तेन पाणिना । तथैव दीर्घटन्तानामन्येषामपि रूपयेत् ॥ १६१ ॥ कर्णपूरो विधातव्यः कर्णदेशे स्थितेन च । दृष्टिभ्रवौ चाभिमानये) तेषां कार्य करानुगे ॥ १६२ ।।
इति श्रम(रार):॥ तर्जनीमध्यमाङ्गुष्ठा(भूस्खे)ताग्निस्था निरन्तरा(क)। भवेयुहंसवक्त्रस्य (शेष सम्प्रसारिता) ।। १६३ ॥ किञ्चित् प्रस्पन्दिताङ्गुष्ठेनामुनोरिक्षप्य च भ्रवौ । निस्सारमल्पं सूक्ष्मं च दर्शयेन्मृदुलं लघु ॥ १६४ ॥ कर्तव्यो:व्ये)ऽभिनये चैषां दृग्वौ च करानुगे ।
। इति हंसवक्त्रः ।। अगुल्यः प्रस्तास्तिस्रस्तथाचोर्ध्वा कनीयसी ।। १६५ ॥ अङ्गुष्ठः कुश्चितश्चैव हंसपक्ष इति स्मृतः। उत्तानेन बहिस्तियग् ग्रीवाय जलभूषणम् (१) ।। १६६ ॥
1. 'प्रकीर्ण द्वे अगुल्यो' इति स्यात् । २. 'शेष द्वे सम्प्रसारिते' इति स्यात् । ३. 'स्तिर्यङ् निवापजलमोक्षणम् । इति स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
कर्तव्यं तेन गण्डस्य रूपस्य (गण्डवर्तनम् ) । कुर्वीत चैनमुत्तानं भोजने च प्रतिग्रहे ॥ १६७ ॥ तथाचमनकार्ये च कर्तव्योऽयं द्विजन्मनाम् । अधस्तादन्तयोरेनं कुर्यात् स्वस्तिकयोगिनम् ॥ १६८ ॥
किञ्चिन्नतेन शिरसा ( ये परि यथारसम् ?) 1 उभाभ्यां पार्श्वयोस्तिर्यग्वैताभ्यां स्तम्भदर्श (ने? नम् ) ॥ १६९ ॥
कुर्वीतैकेन रोमाचं वामबाहुप्रसर्पिणा । संवाहनेऽनुलेपे च स्पर्शे त (र्दि ? दे ) शवर्तिनम् ॥ १७० ॥ विषादे विभ्रमे स्त्रीणां (स्तन्यं तत्स्थं यथा रसः) । अधस्तलं प्रयुञ्जीत (हत ) थैनं हनुधारणे ॥ १७१ ॥ अस्यानुयायि (नीनीं) दृष्टिं पाणेः कुर्याद् भ्रुवौ तथा । इति हंसपक्षः ॥ तर्जन्यङ्गुष्ठसन्देश स्व रोदनस्य ) यदा भवेत् ।। १७२ ॥
आ(नुतभुम) तलमध्यश्व सन्देश इति स स्मृतः । स चाग्रमुख पार्श्वका )नां भेदेन त्रि (वि)धो भवेत् ।। १७३ ।। तं पुष्पावच पुष्प (मग्र ग्रथने च प्रयोजयेत् । तृणपर्णग्रहे केशसूत्रादिस्तथापरे (?) || १७४ ।।
(शः शिल्पैका देशग्रहणे त्वग्र (स्त सं ) दशकं स्थिरम् । आकर्ष (णात् ?) तथा कृष्णे (?) वृन्ता (त्) पुष्पस्य चोद्धृतौ ॥ विदध्यादेवमेवैनं शलाका (रदि) निरूप (णाणे) ! रोषे धिगिति वाक्ये च बहिर्भागप्रसर्पिणम् ॥ १७६ ॥
(यज्ञोपचितं?) तत्प्रदेशे स्थितेन च । उत्तानेनोरसोऽग्रे तु संयुतेन च (निर्द्वतम्) || १७७ ॥
इति
१. इद्द कियांश्चिदशो लुप्तः सम्भाव्यते । २. ' स्तनान्तःस्थं यथारसम् स्यात् । ३. 'स्त्वरालस्य' इति स्यात् । ४. 'केवसूत्रादेश्व परिग्रहे' इति स्यात् । ५. 'वेधनम्' इति स्यात् ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम न्यशीतितमोऽध्यायः । ३१७ (वचनं बलहा किञ्चित् समध्येनाधोमुखेन च!)। ग्रहणं गुणसूत्रस्य बाणलक्षनिरूपणम् ।। १७८ ।। ध्यान योगं च हृदेशवर्तिना संप्रदर्शयेत् ।। (स्तोकतिभिन्ना ये!) कर्तव्यः संयुतस्तूरसः पुरः।। १७९ ॥ कुत्सा(स्त?म्याकोमलेषु सदोषवचनेषु च । विवर्तितानः कर्तव्यो वामो विघटितो मनाक् ॥ १८ ॥ प्रधालरचने वर्तिग्रहणे नेत्ररञ्जने । आलेख्ये चैष कतैव्यस्तथालक्तकपीडने ॥ १८१॥ अस्य भ्रवौ च दृष्टिं च कुर्यादनुगतां ततः।
(इति सन्देशः ।।) समागताग्रसहिता यस्याङ्गुल्यो भवन्ति हि ॥ १८२ ॥ ऊर्ध्व हंसमुखस्येव स भवेन्मुकुलः करः । कर्तव्यः संहतोऽत्रातो मुकुलाम्भोरुहादिषु ॥ १८३ ।। पुरः प्रस(पर्यो)चलितः कर्तव्यो विटचुम्बकः ।
इति मुकुलः ॥ पद्मकोशस्य हस्तस्थ (अव)मुल्यः कुञ्चिता यदा ।। १८४ ।। ऊर्णनाभः स विज्ञेयश्चौर्यकेशग्रहादिषु । चौर्यकेशग्रहे चैप कर्तव्योऽधोमुखः (स?कारः ॥ १८५ ॥ शिरःकण्डूयने मूर्ध्नः प्रदेशे प्रचलन्मुहुः । (तयेकवर्ती?) विधातव्यः कुष्ठव्याधेर्निरूपणे ।। १८६ ।। अधोमुखः (स्थितेनाधः?) सिंहव्याघ्रादिरूपणे । कार्यो भ्रकुटिवक्त्रेण संयतोऽस्य ग्रहस्तथा ॥ १८७ ।। अत्रापि दृष्टिभ्रकर्म प्राग्वदेव विधीयते ।
इत्यूर्णनाभः ।। मध्यमाङ्गुष्ठसन्दंशो वक्रा चैव प्रदेशिनी ॥ १८८ ।।
१. 'स्तोकाभिनये' इति स्यात् । २. "तियग्वर्ती' इति स्यात् । ३. इत उत्तरमव. शाष्ट्र लक्षणवाक्यं शेषे तलरथे कर्तव्ये ताम्रचूडकरेऽङ्गुली' इति मुन्युक्तदिशा पूरणीयम् ।
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समरावणसूत्रधारे
मृगव्यालादिविश्वासं श्रासे) बालसन्धारणे तथा । अयं इस्तो विधातव्यो भर्त्सने भ्रुकुटीयुतः ॥ १८९ ॥ सिंहव्याघ्रा (दि) योगे च विच्युतः शब्दवान् भवेत् । दृष्टिभ्रुवौ च कर्तव्यौ न्यः) त्यमस्यानुगे बुधैः ॥ १९० ॥ अप (रे?(:) छिदितासंज्ञो (1) हस्तोऽयं परिकीर्तितः । इति ताम्रचूडः ॥ अ (लं?सं) युतानां हस्तानां चतुर्विंशतिरीरिता । १९१ ॥ त्रयोदशाथ कथ्यन्ते संयुता नामलक्षणैः । अञ्जलि कपोतश्च कर्कटः स्वस्तिकस्तथा ॥ ९९२ ॥ खट (को' का) वर्धमानश्वा (प्यस? प्युत्स) ङ्गनिपधावपि । डोल: पुष्पपुटस्तद्वन्मकरो गजदन्तकः || १९३ ॥ ( वैरित्थादश कथ्यन्ते संयता नामलक्षणैः । अञ्चल कपोतस्य कर्कटः स्वस्तिकस्तथा ॥ १९४ ॥
त्रयोदशैते कथिता हस्ताः संयुक्त संज्ञिताः ।
पताकाभ्यां तु हस्ताभ्यां संश्लेषात् सोऽञ्जलिः स्मृतः ॥ १९५ ॥
शिरश्च विनतं किञ्चित् तत्र कार्यं विपश्चिता । कार्यो गुरुनमस्कारो मुखस्यासन्नवर्तिना ॥ १९६ ॥ (पेक्षते न?) मित्राणां न स्थाननियमः (कुंथे?) |
इत्यञ्जलिः || उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामन्योन्यं पार्श्वसङ्ग्रहः ९हात् ) ॥ १९७ ॥ (सः) हस्तः कपोतनामा (स्यात्) कर्म चास्याभिधीयते । . (कुर्यात् प्रणमनं) वक्षः स्थितेन (तु) (न) मच्छिराः ॥ १९८ ॥
१. 'स् नि' इति स्यात् । २ अ लोकोऽशुद्धः पुनरावर्तितश्च । अस्य स्थाने 'अवहित्याभिधान वर्धमानस्तथापरः' इत्येवमेकम निवेशनीयम् । ३. 'वक्षः स्थितेन इति स्यात् । ४. 'स्त्रियाः' इति स्थात्, 'वक्षःस्त्र मित्राणां स्त्रीणां कार्यो यथेप्सितः ' इति नाट्यशास्त्रे दर्शनात् । इह षष्ठयन्तस्य 'नमस्कारे' इति प्रक्रमागतसप्तम्यन्तेन सम्बन्धो ज्ञेयः ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम ज्यशीतितमोऽध्यायः । ३१९ गुरुसंभाषणं कुर्यात् (स्ताते)न शीतं भयं तथा । विनयस्याभ्युपगमे चायमित्यभिधीयते ॥ १९९ ।। (ते)नैवाङ्मु(लि)संघृष्यमाणमुक्तेन पाणिना । (एतान् वदतिः) नेदानी कृत्य(धोचे)ति प्रदर्शयेत् ।। २०० ॥ (एवंरूपो पमे च रूपेण ?)
(इति कपोतः 1) अगुल्यो यस्य हस्तस्यान्योन्याभ्यन्तरनिःसृताः। स कर्कट इति ज्ञेयः (करः) कर्मास्य कथ्यते ॥ २०१॥ समुन्नतशिराः किञ्चिदुक्षिप्तभ्रश्च जृम्भणम् । अनेनैवाङ्गम(द) च कामार्तानां निरूपयेत् ॥ २०२॥
(इति कर्कटः ।) उत्तानौ वामपा(श्वावस्थौ) स्वस्तिकः परिकीर्तितः। समन्ततस्तदूर्ध्वं च विस्तीर्ण च (व) नानि च ॥ २०३ ॥ ऋ(जात)वो गगनं मेघा (+ + तेनार्थवर्तिना) ।
इति स्वस्तिकः ॥ खटकः खटके न्यस्तः (ख)टकावर्धमान(यो?क)ः ॥ २०४॥ शृङ्गारार्थे प्रयोक्त(या व्यः) परावृत्तस्तथापर।। कार्यो विटगतौ नम्रमूर्धा + तत्प्रमाणतः ॥ २०५॥
इति खटकः ॥ अरालौ तु विपर्यस्तावुत्तानौ वर्धमानको। (उत्सङ्ग इति ज्ञेयः + स्पर्शग्रहणे करः) ॥ २०६ ॥ उत्सङ्गसंज्ञको स्यातां हस्तौ तत्कर्म चोच्यते । विनियोगस्तयोः कार्यः (बालाका प्रहरेण तु) ॥ २०७ ॥ (ति:विधातव्याविमौ हस्तौ स्त्रीणामीायिते तथा । दक्षिणं वापि (मानीवामं वा न्य)स्येत् कूपरमध्यगरें । २०८ ॥
१. 'एतावदिति' इति स्यात् । २. इह लक्षणवाक्ये एकमधे लुसम् । तत्तु 'मणिय. न्धनविन्यस्तावरालौ स्त्रीप्रयोजितौ' इति मुनिप्रदर्शितदिशा योज्यम् । ३. ह कियांमिदंशो लसः। ४. इत उपरि निषधहस्तलक्षणं तत्कर्म च लुप्तम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे (अस्यो?) प्रशिथिली मुक्तौ पताको तु प्रलम्बितौ । यदा भवेतां कर(ण?णे) स दोल इति (सं)स्मृतः ।। २०९ ।।
(इति दोलः ॥) यस्तु सर्पशिराः प्रोक्तस्तस्याङ्गुलिनिरन्तरः । द्वितीय(:) पार्श्वसंश्लिष्टः स तु पुष्पपुटः (पैराणि च ॥ २१० ॥ ग्रास्यान्यथो यानि यानि?) द्रव्याण्येतेन दर्शयेत् । जलादानापयने कुर्यात् + +++++।। २११॥
(इति पुप्पपुरः ।) पताकौ तु यदा हस्तावूर्वाङ्गुष्ठावधोमुखौ । उपर्युपरि विन्यस्तौ तदासौ मकरध्वजः ।। २१२ ॥
(इति मकरः ।। (परौ) सन्धितौ हस्तौ यदा स्तां सपेशीर्षकौ । गजदन्तः स विज्ञेयः करः कर्मास्य तस्य च ॥ २१३ ॥
(इति गजदन्तः ।।) शुकतुण्डौ करौ कृत्वा वक्षस्यभिमुखाचितौ। शनैरधोमुखाविद्धौ (सौबहिस्थल?) इति स्मृतः ॥ २१४ ।। उक्त)त्कण्ठाप्रभृतीनि च कुर्यादेतेन हस्तेन ।
___ इत्यवहित्यः ॥ वर्धमानः स विज्ञेयः कर्म चास्य निगद्यते ॥ २१५ ॥ [एतेन सत्यवचनं परिग्रह सग्रहस्तथा।। संखेयकल्पश्चानेन निपीडितेन कर्तव्यः ॥ २१६ ॥ अनयापि नीगेषां ++ क्रौञ्चौ च कायौँ ! नलिनीपनकोशश्च तथा गरुडपक्षकः१] ।। २१७ !!
१. 'असौ' इति स्यात् । २. इतः परमस्य कर्माणि लुप्तानि । ३. अत्रापि ग्रन्थाशस्य लोपः संभाव्यते । ४. 'कर्परे' इति स्यात् । ५. शिष्टं लुप्तम्। ६. 'सोऽवहित्य' इति स्यात् । ७. लक्षणवाक्ये पूर्वाध लुप्तम् । तच्च 'हंसपक्षौ यदि स्यातां पूर्वमुक्तौ पराङ्मुखौ' इत्येवजातीय योज्यम् । ८. इत उत्तरं ग्रन्थशरीरे दृश्यमानमिदमशुद्ध वाक्यजातं निषध. हस्तकर्मप्रदर्शकादू वाक्यादिह प्रचितं प्रक्रमान्तरे संक्रामितं चेति संभाव्यते ।
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पताकादिचतुष्षष्टिहस्तलक्षणं नाम व्यशीतितमोऽध्यायः । ३२१
एतेषां (a)तहस्तत्वेऽप्यभिनीत्युपयोगिता (म्) । समा + + जितां तत्र स्वयमभ्युद्य कल्पये (त्) ।। २१८ ।। ( चेष्टयान हस्तेन प्रयोगः सवकैरपि ।
rusोष्टना सापारुपाद (चचा) रा (म्भः) दिभिस्तथा ॥ २१९ ॥
यथा यथा प्रतीतिः स्यात् प्रयतेत तथा तथा । कृतानुकरणं ++++++++++ || २२० ।। लक्षणं (ala) हस्तानामिदानीमभिधीयते । चतुरश्र तथोवृत्तौ स्वस्तिकौ विप्रकी (णौ कौ) ॥ २२१ ॥ (पद्मकोशाभिधानी) चाप्यरालखटकामुखौ |
(आ) विद्धवक्त्रको सूचीमुद्गरेविव) संज्ञकौ ॥ २२२ ॥
अर्धरेचितसंज्ञौ तु तथैवोत्तानवश्चितौ ।
पल्लवा (क्षोः ख्यौ ) (निरावोऽथ ?) केशवन्धौ लताकरौ ॥ २२३ ॥
करिहस्तौ तथा पक्षवञ्चिता (क्षौख्यौ ) ततः (परम् ) । (पैक्षे प्रद्योतकरेव्याच ?) तथा गरुडपक्षकौ ॥ २२४ ॥ ततश्च दण्डपक्षाख्यावृर्ध्वमण्डलिनौ ततः । पार्श्वमण्डलिनौ तद्वदुरो मण्डलिनावपि ।। २२५ ॥ अनन्तरं करो ज्ञेयावरः पार्श्वार्धमण्डलौ । मुष्टिकस्वस्तिकाख्यौ च नलिनीपद्मकोशकौ ॥ २२६ ॥ ततश्च कथितौ हस्तावलपल्लव कोल्बणौ । ललितौ बलिपता) ख्यावित्येकान्नत्रिंशदीरिता ।। २२७ ॥ पुरस्ताद वृक्ष (सा? सो) हस्तौ प्रदेशेऽष्टाङ्गुले स्थितौ । समान (कर्पूरशी ) तु संमुखौ खटकामुखौ || २२८ ॥ चतुरथाविति प्रोक्तौ नृत्तहस्तविशारदैः ।
इति चतुरश्र ॥ तावेव इंसपक्षाख्यौ व्यावृत्तिपरिवर्तनात् ॥ २२९ ॥
१. 'सूचीतुखचित' इति स्यात् । २. 'करौ चाथ' इति स्यात् । ३. 'पक्षप्रद्योतकी 'चैव' इति स्यात् । ४. प्रदर्शितक्रमेणाशविंशतिरेवोपलभ्यते ५. 'कूर्परांसौ' इति स्यात् । ६. इ. उपरि उद्वृत्तस्वस्तिकयोर्विविक्तं लक्षणमादर्श तुप्तमिति भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे नीतौ स्वस्तिकता पश्चात् पच्च्या)वितौ मणिबन्धनात् । (विप्रकीर्णाविति प्रोक्तौ) नृत्ताभिनयकोविदः ॥ २३० ॥
इति विप्रकीर्णः । तावेव हंसपक्षाख्यौ कृत्वा व्यावर्तनक्रियाम् । अलपल्लवतां नीती ततश्च परिवर्तितौ ॥ २३१ ।। विधायोर्ध्वमुखौ हस्तौ कर्तव्यो पद्मकोशको ।
(इति पद्मकोशको ॥) पुनर्विवर्तितं कृत्वा परिवर्तनकं ततः ॥ २३२ ।। अरालं दक्षिणं कुर्याद् वामं च खट(कः सुकामुखम् । खटकाख्यात्यो हस्ताः(१) स्वक्षेत्रेऽसौ विधीयते ॥ २३३ ।।
इत्यरालखटकामुखौ ॥ भुजांसपरैः सार्धं कुटिलावर्तितौ यदा। हस्तावधोमुखतलावाविद्धावुद्धतावुभौ ।। २३४ ॥ (वि)नतो नामतो (विद्याद् दीनाना)विद्धक्रकौ । (आ)विद्धवक्रको चैव गदावेष्टनयोगतः ।। २३५ ॥
(इत्याविद्धवकको ।) (रचितौ सलावर्तितो) यदा (तु) सर्पशिरसौ तलस्थाङ्गुष्ठको करौ। (तेयकास्थौः) प्रस्ताग्रौ च (शूलन्यासो भरस्तदा) ॥ २३६ ॥
इति सूचीमुखौ ॥ हस्तौ सूचीमुखा(तेच वेव) मणिबन्धनविच्युतौ । ब्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां वर्तितौ तदनन्तरम् ।। २३७ ॥ हंसपक्षत्वमानीय कुर्यात् कमलवर्तिताम् । तथा द्रुतभ्रमौ कृत्वा रेचितौ पार्श्वयोः शनैः ।। २३८ ॥ रेचिता(चितविति) विज्ञेयौ हस्तौ हस्तविशारदैः ।
इति रोचितौ ॥ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां वर्तितौ चतुरश्रवत् ॥ २३ ॥
1. 'विद्यादिमावा' इति स्यात् । २. 'वनको' इति लक्ष्यानर्देश दृश्यने । ३. तिर्थ क्रयौ' इति स्यात् । ४. 'सूयास्याख्यो करौ तदा' इति स्यात् । ५. अयं सर्वश्लोकः अरेचितलक्षणानन्तरं निवेश्यो भाति ।
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पताकादिचतुष्पष्टिहस्तलक्षणं नाम व्यशीतितमोऽध्यायः । ३२३ कूर्परांसा(विचितौ हस्तौ नीतौ च त्रिपताकताम् । (शकिञ्चि आश्रस्थितावेतौ ज्ञेयावुत्तानितौ?) ॥ २४० ।।
इत्युत्तानवश्चितौ ॥ बाहु)वर्तनया कृत्वा पूर्वव्यावर्तितक्रियाम् । चतुरश्रक(?)परित्तिभ्यां चतुरश्रः कृ(तातो) यदा ॥ २४१॥ वामहस्त(स्त)दितरः (कृत्वादेवित?)रेचितः करः। अर्थरेचितसंज्ञौ तौ विज्ञातव्यौ तदा बुधैः ।। २४२ ॥
इत्यर्धरोचितौ ॥ बारह?हुविर्तनया बाहुशी(पंधौर्षाद् व्या)वर्तनेन वा । करणेन वि(निष क्रान्तौ (मितं?) वाभ्यर्णमागतौ ॥ २४३ ।। पताकावेव निर्दिष्टौ पल्लवी नामतः करौ ।
इति पल्लवौ ॥ उद्वेष्टितवर्तनया गत्या (वसंत्रायाः) स्थिती मूर्ध्नः। पार्थद्वितये पल्लवसंस्था ने नौ) केशबन्धाख्यौ ॥ २४४ ।।
इति केशबन्धौ ॥ अभिमुखमुभौ निविष्टौ (भुविष्टितवर्तनक्रमादसौ?) । पल्लवहस्तौ पाश्चद्वितये स्यातां लतासंज्ञौ ॥ २४५ ॥
इति लताहस्तौ ॥ क्यावर्तितकरणाभ्यां (करिहस्ते) दक्षिणो लताइ(स्ता स्त): । इम्मतविलोलितः स्यात् त्रिपक्त पता)को वामहस्तस्तु ।। २४६ ॥
इति करिहस्तः । उद्वेष्टित(परि?)वर्तनया त्रिपताकावभिमुखौ यदा पटितौ । करिहस्तसनिविष्टौ करौ तदा पक्षवश्चितकौ ॥२४७॥
इति परक्षवश्चितको ।। तावेव त्रिताको हस्तौ कटिशोर्षसन्निविष्टायो । विपरावृत्तिविधानात पक्षप्रच्योतको नान्ना ।। २४८ ॥
इति पक्षप्रच्योतकौ ॥ 1. "किञ्चित् व्यस्थितावतो शेयावुचानवञ्चिती' इति स्याद। अक्षरसाम्यदेवमु. नीतम् । 'किश्चित् तिर्यक्त लावि ति तु मुद्रितमुनिपाठः । २. 'यदि' इति स्यात् । ३. स्तया' इति स्यात् । ४. "पक्षमयोत कौ' इति उद्देशानुसारेण पापम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे (त्रिप शाखौ हस्तावधोमुखा हितद् !) विज्ञेयो गरुडपक्षाल्यौ ।
इति गरुडप(क्ष)को । [आवर्तितपरिवर्तितकरणकृतौ हंसपक्षको गम् ।। २४९ ।। पक्षतिरूपत्वमानान्तौ प्रसृतौ च यदा भवेत् उपक्षौ । *व्यावर्तितपरिवर्तितयोगी यदि मण्डलाकृती स्याताम् ॥२५० ॥ ऊर्ध्ववर्तितादयवदा स्मृतावूर्ध्वमण्डलिनौ । तथोत्रमण्डलिसंज्ञौ वावर्तितं विधाया परिवर्तितकरणतारौ ।।
इति पार्श्वमण्डलिनौ । उद्वेष्टितौ यदैक एव भ्रमित उरसः स्थाने तो द्वावपि स्याताम् ?] नियतमुरोमण्डलिनौ विज्ञातव्यौ तदा तज्ज्ञैः ।।
इत्युरोमण्डलि(नौ) ।। +++पल्लवो हस्तस्तथाराला(हा वापरा?) । ध्यावर्तनाकृतश्चैकस्तयोरन्योपवेष्टनात् ।। उरोर्धयोगात् पार्धियोगाच क्रमशः(स्थिती)। (एतौ विद्वान् विजानीयादुरःपावधिमण्डलो ।। 3
(इत्युरःपार्घिमण्डली
"
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२ .seir &
शुभं भूयात् ॥ Zererarderers
१. वलयान्तर्गतमशुद्धप्रायं लुप्तकतिपयपदमिदं वाक्यम् 'अधोमुखतलाविद्रौ शेयो गरपक्षको' इति मुनिना सङ्ग्रह्मोतं लक्षणवाक्यमवष्टभ्य शोधनीयम् । 'त्रिपताको इति विशेष्यम् । २. इत उपरि श्लोकत्रयं दण्डपक्षोलमण्डलिगमण्डल्युरोमण्डल्याख्यानां चतुर्मा हस्तविशेषाणां लक्षणप्रदर्शनपरमशुद्धादप्रक्षेपादिना तथा मिश्रितं यथा तत् प्रायो विवेनमपि न पार्येत । अतस्तदर्थशानाय मुन्युक्तं तलक्षणमिह प्रदश्यते । यथा-"हंसपचकृतो इम्तो व्यावृत्तपरिवर्तिती । तथा प्रसारितभुजौ दण्डपक्षाविति स्मृतौ ।। ऊर्वमण्डलिनी हस्तायदेशविवर्तनात् । तावेव पार्श्वविन्यस्तो पाश्वमण्डलिनौ स्मृतौ ।। उद्वेष्टितो भवेदेको द्वितीयश्चाप वेष्टितः । भ्रामितावुरमः स्थाने युरोमण्डलिनौ स्मृतौ ॥' (नाट्यशा० अ०. ९. मो० १७९-१८१) इति ।
• इत उपरि श्लोकानां यथावद विभागानुपलम्भात् संख्या न निशिता । पतावानेव ग्रन्थ उपलभ्यते हस्तलिखितादर्थ | cjanam
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Gaekwad's Oriental Series.
SELECT OPINIONS.
The Series ils & whole will bring notable accession to our knowledge of the inmense and wonderful Sanskrit Literature. The volumes are excellently printed and edited and the notes and introductions are scholarly and useful. I think the undertaking of the Series by H, H. the Gaekwad's Government will evoke the gratitude of scholars both in India and elsewhere and that the manner in which it is carried out will give satisfaction to the State.
(Dr.) F. W. THOMAS. Librarian, India Office Library.
The editions have been executed with the greatest care. The prefaces are learned and inforrning, and the books are well selected for the study of Indian History and Literature, They are worthy of the State which published them.
(Mw.) HARAPRASAD SHASTRI, M. A,, C. I. E.
It is a splendid idea of His Highness the Gaekwad of Baroda that the Oriental Library should be doing also original work of research and editing of old Sanskrit manuscripts, and publish them to the world with the necessary aids to render them readable by the modern public. The work of editing is done well and carefully. The printing and the general get up of the volumes are also excellent. Sanskrit scholarship is thus under a deep debt of obligation to His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda for the publication of rare and unknown works in the Oriental Series that goes by his name.
COMMONWEAL.
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GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES.
CRITICAL EDITIONS OF ONPRINTED SANSKRIT WORKS, EDITED BY
COMPETENT SCHOLARS, AND PUBLISHED BY
THE CENTRAL LIBRARY, BARODA.
BOOKS PUBLISHED.
1. Kavyanimamsa , a work on poetics, by Rajasekhara (880-920
A. D.): edited by C. D. Dalal, v. A, and R. Anagtakrishna Sastry, 1916. Re-issue. 1924
Rs. 2-4
2. Naranarayanananda , a poem on the Pauranic story of Arjuna and
Krishna's ranıbles on Mount Girnar, by Vastupala, Minister of King Viradhavala of Dhoika, composed between Samvat 1277 and 1287 i., c. A. D, 1221 and 1251: edited by C, D, Dalal sad R. Ananthakrishna Sastry. 1916
1.4
3.
Tarkasangrala , & work on Philosophy (Refutation of Vaiseshika tt:eory of atomic creation) by Anandajnana or Anandagiri, the famous commentator on Sankaracharya's Bhashyas, who flourished in the latter half of the 13th century, edited by T. M. Tripathi, B. A. 1917
2.0
4. Parthaparakrama , a drama describing Arjuna's recovery of the
cows of King Virata, by Prahladanadeva, the founder of Palanpur and the younger brother of the Paramara King of Chandravati; (& state of Marwar) and a feadatory of the Kings of Gazerat, who was a Yuvaraja in Samvat 1220 or A, D. 1164: edited by C. D. Dalal, M. A, 1917
0-6
5. Rashtrardhavamsa , an historical poem (Mahakavgal describing the
history of the Bagulas of Mayuragiri, from Rashtraudha, King of Kansuj ard the originator of the dynasty, to Narayana Shah of Mayuragiri by Rudra Kavi composed in Saka 1518 or A. D. 1596 edited by Pandit Embar Krishnamacharya with introduction by C, D, Dalal: Mi 4. 1917 **
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8. Linganugadne , on Grammar, by Vamana, who lived between the last
quarter of the 8th century and the first quarter of the 9th centary: edited by C.D, Dalal, M, s. 1918
0-8
7. Vasaotavilasa , an historical poem (Malakarya) describing the life of
Vastapala and the history of Guzerat, by Balachandraguri, (from Modheraka or Modhera in Kadi Prant, Baroda State), contemporary of Vastupala, composed after his death for his son in Samvat 1298 (A.D. 1240): edited by C. D. Dalal, m. A. 1917
1-8
8. Rupakashatkam, six dramas by Vatsaraja, wipister of Paramardidera
of Kalinjara, who lived between the 2nd balf of the 12th and the 1st quarter of 13th century, edited by C. D. Dalal, m, 4, 1918 ... 24
Mohaparajaya, an allegorical dravia describing the orercoming of King Moha (Terrptation), or the conversion of Kumarapala, the Chalakya King of Guzerat to Jainism, by Yasanpala, an officer of King Ajayadeva, son of Kumarapala, who reigned from A. D. 1229 to 1232, edited by Magi Chaturvijayaji, with latroduction and Appendices by C, D, Dalal m. 4. 1918
10. Lammiramadanr irdana , # drama glorifying tbe {wo brothers
Vastupala and Tejahpala and their King Viradbavala of Dboiks, bg Jayasimhaguri, pupil of Virazuri and an Acharya of the temple of Manigu vrata at Broach, composed between samvat 1267 and 1286 or A. D. 1920 and 1239; edited by C.D. Dalal, m. A. 1920...20
II. Udayaşındarikatha, 3 romance (Champu, jo prose and poetry)
by goddhala, a coutemporary of god patronised by the three brothers Chchittaraja. Nagarjuna, and Mumanniraja, successive rulers of Kookan, composed between A, D. 1026 and 1050 : edited by C.D. Dalal m. d., and pandit Embar Krishnamacharya, 1920. ..2-4
12. Mahavidyavidambana , a work vn Nyaya Pbilosophy, by Büstta
Vadindra who lived about A. D. 1210 to 1274, edited by M. R. Telaog 1920,
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Prachinagurjarakarysangrha, a collection of old Gujarati poems dating from 13th to 15th centuries A, D, edited by C. D. Dalal 31, a. 1930
14. Kumarapalapratibodhe , & biographical work in Prakrita, by Boma
prablacharya composed in Samyat 1241 or A. D. 1195, edited by Muni Jinavijajaji 1920
78
lnrila a work on Philosophy (Pasupata gehool) by Bhasar vann who lived in the 2nd half of the 10th century, edited by S. D. Daial, . A. 1921
... 1.4
16. Sangitainakaranda , & work on Mnsie, by Narads, edited by M. R.
Telang, 1920
17. Kavindr-charya List, List of ganskrit works in the collection of
Kavindracharya, a Benares Pandit (1656 A. D.), edited by R. Ananiakrishna gastry with a foreword by Dr. Ganganatha Jha.
... 0-12
1921
...
18.
Varahagrilosigutra, Vedic ritual edited by Dr, R. Shamasastry. 1920
domestic) of the Fajtırveda,
... 012
19. Leklimpaddhati a collection of models of state and private doen.
inerts dating frodi 8th to 15th centnries A, D, edited by C.D. Dalat
A and G. K. Shrigondekar, M. A. 1925
20. Bhasirnyattakaha or Panchamikalia , & romance in Apabhramga
langiiage by Dhanapala (circa 12th century), edited by C. D. Dalal; ». a, and Dr. P, Đ. Gune m. A. 1923
21.
A Descriptisa Cainlogne of the Palm.leaf and Important paper MSS in the Bhandara at Jiggalmere, compiled by C. 2. Dalal .I. A., and elitrd hy 1. B. Gandhi, 1924
22, 23. Parnsaramakalaantra, a work on Tantra, with commentary by
RameAvara and Paddhati by Umananda, edited by A. Mahadeva gastry, B. 4,vols. 1923
... 11-3
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24, Tautrarahasya , a work on the prabhakara gilool of porsamimamsa,
by Ramanujacharya, edited by Dr. R. shamasas!ry, 1929, ... 1.8 25. Samarangana , a work on Architecture, town planning and engineer,
ing by king Bhoja of Dhars (uth century) pdited by Miahamaho.
padhyaya T. Ganapati Sastry, Ph. I), etc. 2 vols, Vol. 7. 1924 3-0 20. gadhanamala, Buddhist Tantrie text of rituals, lated 1165 A. 1),
consisting of more than 800 small works composed by distingnished writers'editcaib Penoytosh Bhattacharyya, M. A., General Editor,
Gaekwad's Oriental Series, 2 rols, vol. I 1925 ... 5.0 27. A Descriptive Catalogue ni Mss in the Central Library Barods
Vol. I (Veda. Vedalakshana and Upanishads), complied by G. K.
Shrigondekar. M. A. and K, S. Ramaswami sair1925. ... 6-0 28. Mannsnllasa or Abhilashitarthachintamani, anneyclopaedic work
divided into one hundred chazıters treating of one hundred different topics by, somesparadera, a ChalnkyKing of the 12th century:
edited by G. K. Shrigondekar, m. A. 2 vols-Pol. 1. 1923. ... 2.8 29, Nalavilasa , a drama by Ramachandra Suri, pupil of Ilemachandra
suri, describing the Pauranie story of Ysla an! Damayanti; edited by
Messrs G. K. Shrigondekar, M. A. and LD. Gandli 1921. (Shortly) 30. Tattvasangraba , a Buddhist philosophieai work of the 8th century
by Sântarakshita a Professor at the Nalanda University, with Panjika (commentary) by his disciple Kamalasila, also a Professur in Nalanda (about 750 A, D.): edited by Pandit Embar Krishnama. cbarya 2 vols, 1925
.. ..
(Shortly) 31. Adyayarajrasangraha ; consisting of tweniy short works on Buddhist
philosophy by Advayavajra, & Buddhist savant belonging to the 11th century A-D, edited by Mahanahopadhyaya Pandit Harapragad
shastri, M. A', C. 1. E', 1. A. 3, R. etc. 92. samarangana , & work on Architecture, town planning and engineer.
ing by king Bhoja of Dhara (lith century edited by Mahamado. padhyaya T, Ganapati Sastri, Ph. D. etc, 2 rols, vol II, 1925
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5
BOOKS IN THE PRESS.
1. Nyavapravesa, the earliest work on Buddhist logie, by Dinnaga, with commentaries of Haribhadrasuri aud Parsvadeva, edited by A. B. Dhruva, M. 4. LL B., Pro-Vice-Chancellor of the Hindu Uni versity, Benares. Shortly.
Sadhanamale. Vol, II, edited by Benoytosh Busitacharyyn M. A. General Editor, Gackrad's Oriental Beries Illustrated.
3. Natyasastra on dramatargy, by Bharats with commentary by Abhinavagupta of Kashanir; edited by M. Ramakrishna Kavi, M. A. Illustrated. 4 vols.
4. Kalpadrumakosa, a standard work on Banskrit Lexicography, edited by Pandit Ramavatars Burma Sahityacharya, M. A.
5. Manavagrihyasutra, a work on Vedic ritual (domestic) of the Yajurveds with the Bhashys of Ashtavakra, edited by Pandit Ramakrishna Harshaji with Introduction by Prof. B. C. Lele,,
6. Apabhiramsakavyatrayi, consisting of three works, the Charchari, Upadesarasayana and Kalasvarupakulaka by Jinadatta Buri (12th century) with commentaries, edited by L. B. Gandhi.
Vol, II,, edited by G.
7. Manssollass or Abhilashitarthachintamani.
K. Shrigondekar,
A Descriptive Catalogue of M88 in the Jain Bhandars at Pattan edited from the notes of the late Mr. C. D. Dalal, M. a. by Pandit L. B. Gandhi, 2 vols.
3. Mirat-i-Ahmadi with its Khatimae or supplement, by Ali Maham mad Khan, the last Moghul Dewan of Gujarat, edited in the original Persian by Byed Nawabali wa, Professor of Persian Baroda Collego. 2 vols.
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???