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RST
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CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫.
મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૯૭
સમરાંગણ સૂત્રધાર-૧
: દ્રવ્ય સહાયક :
1
%
પૂજ્ય બાપજી મ.સા.ના સમુદાયના પૂજ્ય આચાર્ય નરરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ. સાધ્વીજી શ્રી જયવંતાશ્રીજી મ.સા. તથા અન્ય ઠાણાની પ્રેરણાથી
સાબરમતી જૈન આરાધના ભવન ટ્રસ્ટ તથા
સંવત ૨૦૬૭
અભયસાગરજી આરાધનાભવનના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005 (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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પૃષ્ઠ
238
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાસંપાદક 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा
| श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम्
| श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक
| श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली
| श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१
| श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२
| श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः
श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री
156
352
120
88
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018
498
019
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454
021
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640
452
024
500
454 188
026
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038
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202
| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
480
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043
6o
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138
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2io
049.
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પાદક | પૃષ્ઠ !
160
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
406
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________________
076 | જૈન ચિત્ર કલ્પનૂમ ભાગ-૨
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
078 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩
| 083 | આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
084
કલ્યાણ કારક
183 વિધઓપન જોશ
086
087
188 હસ્તસીવનમ્
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2
089 એન્દ્રચનુવિંશતિકા
090
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
સં.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
ગુજ.
ગુજ.
ગુજ.
सं./ हिं श्री नंदलाल शर्मा
ગુજ.
ગુજ.
સં.
સં.
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
238
194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
पृष्ठ
272
92
240
93
254
282
95
118
466
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
342
98
362
134
70
101
316
224
612
307
250
514
107
454
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सं./हि
337
110
सं./हि
354
111
372
112
सं./हि सं./हि सं./हि
142
113
336
364
सं./गु सं./गु
पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर पुरणचंद्र नाहर जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार अरविन्द धामणिया यशोविजयजी ग्रंथमाळा | यशोविजयजी ग्रंथमाळा | नाहटा ब्रधर्स | जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा | फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा | फार्बस गुजराती सभा
218
116
656
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जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिसागरजी जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा 114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी प्राचिन लेख संग्रह-१ ।
विजयधर्मसूरिजी बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा 117
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री 120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 122 __ इन मुंबई सर्कल-१
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. | पी. पीटरसन 123 इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन । इन मुंबई सर्कल-५
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत पी. पीटरसन
__ इन्स्क्रीप्शन्स | 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
जिनविजयजी
764
सं./हि सं./हि सं./हि सं./गु सं./गु सं./गु
404
404
121
540
रॉयल एशियाटीक जर्नल
274
रॉयल एशियाटीक जर्नल
41
124
400
अं.
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
125
320
148
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GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES
Published under the Authority of the
Government of His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda
GENERAL EDITOR B, BHATTACHARYYA, M.
SAMARANG ANASŪTRADHARA
VOLUME I
Volume XXV
"Aho Shrut Gyanam"
Page #11
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"Aho Shrut Gyanam"
Page #12
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समराङ्गणसूत्रधारः महाराजाधिराजश्रीभोजदेवप्रणीतः SAMARANGAŅASÚTRADHARA
BY KING BHOJA DEVA
EDITED BY MAHÂMAUẬPADAraya
T. GANAPATI SASTRÎ, Loboracy Maruber of the Royal Asiatic Society of Great Britain an Ireland; Dotor of Philosophy, University of Tubingen,
Editor of the TRIVANDRUM SANSKRIT SERIES
IN TWO VOLUMES
Volume 1
1924
BARODA CENTRAL LIBRARY
"Aho Shrut Gyanam"
Page #13
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Printed by .. Ramaswamy Sastri at the Sridhara Power Press, Trivandrum, and
published by Newton Mohun Dutt, Carator of Libraries, Baroda State, on behalf of the Government of His Highness the Mabaraja Gaekwad, at the Central Library, Baroda.
Price Rs. 5 Net.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #14
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________________
PREFACE.
Samaranganasútraithira is a work on architecture. It mcans, literally, an architect of huinan dwellings and deals with the planning of towns and villages, buikling of houses, halls and palaces as well its machines of varions kinds. The edition is based on the following three inanuscripts:(1) The manuscript tbarked , belonging to the
Central Library, Baroda, which runs up to a certain portion in the 2nd adbyaya but is wanting in 19 folios, and which was copied, as
mentioned in the colopliun, in Samxat 1594. (2 Thu manuscript markeu tam, belonging to the same
library, which runs up to a portion in the 55th
adhyayu. (3) The manuscript marked 17, obtained on loan
from the Bhandar at Pattan, which runs up to a portion of the 19th adlaya ya bit is wanting in 10 folius and which appears to be of the same
ilge as the first. These manuscripts are full of errors and not very legible. To examine them for the press was a very difficult task. The first 54 adhyayay are now issued as the first volume while the remaining adhyayas are in the press and will be published before long as the second volume.
An exhaustive table of contents is prefixed to this volume a perusal of which will give an idea of all the subjects imbedded in it.
The work treats of the construction of cities, palaces and mapsicns with greater clearness of expression and wealth of details than any other available work of Silpa Sastra. The 31st chapter contains crescriptions of various kinds of machines that are not found in other Silpa works, such as the elephant machine (714a), woolen bir l-in:chine travelling in the sky( ara. 29977), woolen vitan: machine fișing in the air (m m 6HqQhay), door-keeper machine (art917477), soldier machine (11949) etc.
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"यन्त्रेण कलिलतो हस्ती नदन गच्छन् प्रतीयते । शुकाद्याः पश्चिमः क्लप्तास्तालस्यानुगमान्मुहुः ।। जनस्य विस्मयकृतो नृत्यन्ति च पठन्ति च । पुत्रिका वा गजेन्द्रो वा तुरगो मर्कटोऽपि वा ।। बलनैवतनै त्यस्तालेन हरते मनः।"
"लघुदास्मयं महाविहनं दृढसुश्लिष्टतनुं विधाय तस्य । उदरे रसयन्त्रमादधीत ज्वलनाधारमधोऽस्य चामिपूर्णम् ॥ तत्रारूदः पूरुषस्तस्य पक्षद्वन्द्वोच्चालप्रोक्झितेनानिलेन । सुप्तस्यान्तः पारतस्यास्य शक्तया चित्रं कुर्वन्नम्बरे याति दूरम् ॥ इत्यमेव सुरमन्दिरतुल्यं सञ्चलत्यलघु दारुविमानम् । आदधीत विधिना चतुरोऽन्तस्तस्य पारदभृतान् दृढकुम्भान्" ॥
Generally, the linguage of the extant Silly works is ungrammatical, but the present work is free from yraumatical solecisms and written mostly in a sweet and beautiful style. The work will prove to be of immense benefit to students of Indian architecture as well as to those who wish to follow it in practice.
The author of the work, as mentioned in it, is Maharajadhiraja Sri Bhojadeva who is probably the same Bhoja of Dhara wbo ruled over Malwa in the first part of the lith century A. D. and to whom inany inportant works are ascribed such as, Sringaraprakåsa (Alankara) and Saraswatikanthabharana (Vyakarana).
T, Ganapati Sastri.
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विषयानुक्रमणी।
विषयः
पृष्ठम् .
१. महासमागमनाध्यायः प्रथमः -
मङ्गलाचरणम् शुभानामुपादानस्य, अशुभानामनुपादानस्य चावश्यकता ... देशपुरादीनां श्रेयःसाधनत्वकथनम् ... शास्त्रारम्भसमर्थनम् ... अन्थोपक्रमोपक्षेपः ... पुरा ब्रह्मसन्निधौ पृथूपद्रुताया भूमेरभयप्रार्थनम् ... भूमिमनु प्रस्थितस्य पृथोस्तत्राविर्भावः आविर्भूतस्य तस्य ब्रह्माणं प्रति स्वोद्यमविज्ञापनम् श्रुतवृत्तान्तस्य ब्रह्मणः प्रतिवचनम् ... पृथ्वभिप्रेतस्य स्थानादिविनिवेशनस्य विधानाय विश्वकर्माणं प्रति ब्रह्मणो नियोगः समाहितयोः पृथुभूभ्योर्विसर्जनम् ... ... ... भूम्या सह पृथौ, ब्रह्मणि च स्वं स्वं स्थानमुपाश्रिते विश्वकर्मणो हिमाचलमभि गमनम्. ... ... ... ...
२. विश्वकर्मणः पुत्रसंवादाध्यायो द्वितीयः --- अथ ब्रह्मनियोगानुष्ठानाय हिमालयं गतस्य विश्वकर्मणः स्वपुत्रस्मरणम् , स्मरणमात्रोपनतानां तेषां जयादीनां चतुर्णा मानसानां पितुः पादाभिवन्दनम् ,, तेभ्यो ब्रह्मनियोगनिवेदनं, स्वसाह्यार्थे तत्तत्स्थानादिविनिवेशनाय तेषां विश्वकर्मणा नियोजनं च.
३. प्रश्नाध्यायस्तृतीयःअथ जयस्य शास्त्रप्रमेयभूतान् वास्त्वाश्रयानन्यांश्च विविधान् अर्थानधिकृत्य प्रश्नः
... ५-१०
"Aho Shrut Gyanam" |
Page #17
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________________
विषयः
2
४. महदादिसर्गाध्यायश्चतुर्थ:
जयेन जिज्ञासितानामर्थानां यथासम्भवमनुक्रमेण विश्वकर्मणोपदेशः
तत्र प्रथमं महाप्रलयावस्थावर्णनम्
प्रलयावसाने ब्रह्मण आविर्भावः, सृष्टयुपक्रमश्च
महदहङ्कारादीनां सृष्टिः
महदादिभ्यः पञ्चमहाभूतानां स्वस्वगुणयुक्तानामाविर्भावः भौतिकसर्गे ब्रह्मणोऽशैः सृष्टाः सुरासुरादयः
कारणजलाद भूम्युदधिमहीधर निम्नगाद्वीपानामुत्पत्तिप्रकारः भूमेरो रौरवादिनरकाणां सृष्टिः
जरायुजादीनां चतुर्णां भूतानां सृष्टिः
तत्र जरायुजानां विभागः ...
ग्राम्यारण्यभेदेन पुनर्द्विधा भिन्नानां तेषां विवरणम् अण्डजस्वेदजोद्भिज्जानां विभागादिकम्
भुवनकोशाध्यायः पञ्चमः
५.
भूपरिमितिः सप्तसु द्वीपेषु जम्बूद्वीपवर्णनम् शाकद्वीपवर्णनम्
कुशकौञ्चशाल्मलिगोमेद पुष्करद्वीपानां वर्णनम् लोकालोकाचलस्थितिपरिमाणादिकम् सूर्यादीनां स्थितिर्गतिश्च ...
६. सहदेवाधिकाराध्यायः षष्ठः
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२०, २१
कृतयुगे मनुष्याणामत्युत्कृष्टा स्थितिः कालान्तरे क्रमशस्तस्या अपकर्षे हेतुः च्युतप्रभावानां तेषां तादात्विकी वृत्तिः
क्रमेण रागलोभादीनामुत्पस्या तेषां मिथुनीभावेनावस्थानम् .
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तात्कालिकी लोकस्थितिः हिमानिलादिवारणाद्यर्थे तेषां गृहापेक्षा, गृहनिर्माणाय तैरुपात: प्रथमोपायश्च २५
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पृष्ठम् .
विषयः
७. वर्णाश्रमप्रविभागाध्यायः सप्तमः --- अथैवं दुःखाभिभूतानां लोकानामनुग्रहायादिराजस्य पृथोरभिषेकः पृथु प्रति नराणां दुःखापनोदनप्रार्थनम् पृथुना कृतो वर्णविभागस्तद्धर्माश्च ... आश्रमविभागस्तद्धर्माश्च ... ... शिष्यधर्माः स्त्रीधर्माश्च ... सर्वेषां वृत्त्यर्थं खेटयामादिकल्पनम् ... ...
८. भूपरीक्षाध्यायोऽष्टमः ---- भूमेः सामान्यतो जागलादिभेदेन त्रैविध्यं, तल्लक्षणं च ... त्रिविधाया अपि भूमेः पुनर्बालिशस्वामिन्यादिभेदेन षोडशधा
विभागस्तल्लक्षणं च. जनपदादिनिवेशनोचिता भूमयः ... दुर्गनिवेशनोचिता भूमयः पुरनिवेशने प्रशस्ता भूमयः सर्ववर्णोचिता भूमिः ... तत्तद्वर्णोचिता भूमयः ... अपरा सर्वसाधारणी भूमिः पुरादिनिवेशनेषु वानां भुवां लक्षणम् कृष्यमाणायां भुवि काष्ठादिदर्शने फलम् ... अन्यानि भूपरीक्षणानि ... ... ...
९. हस्तलक्षणाध्यायो नवमः हस्तलक्षणम् ... हस्तदण्डनिर्माणप्रकारः ... ... ... तद्देवतानां स्थानवेधे फलम् ... तासां स्थानविशेषेषु करधारणे फलम् प्राशयादीनां त्रयाणां हस्तविशेषाणां लक्षणम् पुरादीनां माने तेषां विनियोगप्रकारः
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विषयः मात्राकलादिकानां सामान्यमानानां लक्षणम् ... ... एकादीनि सङ्ख्यास्थानानि .. निमेषादीनि कालमानानि
१०. पुरनिवेशाध्यायो दशमः --- उत्तमाधममध्यमपुराणां मानम् ... सर्वपुराणां सामान्यविधिः उतमादिपुरेषु कचित् कचिद् योजनीया विशेषाः तेषु महारथ्यादिविधानम् वप्रविधानम् ... ... ... परिखाविधानम् वोर्श्वभागगतमाकारविधानम् ... कपिशीर्षकस्य काण्डवारिण्याश्च प्रमाणम् अट्टालकादिविधानम् . चरिकाविधिः ... ... ... पुरद्वारप्रमाणादिकम् ... प्रतोल्यादिकल्पनम् ... जलभ्रमविधानम् छिन्नकर्णादीनि गर्हितानि पुराणि, तन्निवासफलं च पुरनिवेशादिषु शान्तिकादिविधेरावश्यकता, तद्विधौ नियोज्याः
स्थपत्यादयश्च ... खेटप्रामादीनां प्रमाणादिकम् ... उत्तमादिषु राष्ट्रेषु ग्रामसंख्या ... पुरेषु सुवर्णकारादीनां निवेशनस्थानम् प्रपादीनां निवेशनस्थानम् बलाध्यक्षादीनां निवेशनस्थानम् ... लक्ष्मीवैश्रवणयोर्निवेशनस्थानादिकम् नगरारक्षकदेवतानां बाह्याभ्यन्तरभूमिषु स्थापनप्रकारादिकम्
...
४७
४७-५०
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___ ...
५०, ५१
विषयः
११. वास्तुत्रयविभागाध्याय एकादशः -- एकाशीतिपदवास्तौ देवतानां निवेशः पदभोगश्च शतपदवास्तौ तासां पदभोगः ... ... ... चतुःषष्टिपदवास्तौ तासां पदभोगः ... सिरानयनप्रकारः ... ... ... ...
१२, नाड्यादिसिरादिविकल्पाध्यायो द्वादशः ---- घोडशपदवास्तौ देवतानां पदभोगः सहस्रपदवास्तौ तासां पदभोगः चतुष्पष्टिपदवृत्तवास्तुविधानम् ... ... शतपदवृत्तवास्तुविधानम् त्र्यश्रादिवास्तुषु वृत्तवास्तुगतपदविभागातिदेशः । वास्तुपुरुषाकृतौ मुखाद्यवयवकल्पनवचनम् ... वास्तुशरीरगतानां नाडीवंशादीनां परिगणनम् ... तत्र नाडीस्वरूपप्रदर्शनं, तत्प्रमाणं च ... वंशानुवंशमहावंशानां मर्मोपमर्मणोः सन्ध्यनुसन्ध्योश्च स्वरूपप्रदर्शनं
प्रमाणं च ... ... तत्तद्हद्रव्यैर्महावंशादीनां पीडने फलम् ... ... ....
१३. मर्मवेधाध्यायत्रयोदशः-- नगरादिषु मध्ये एकाशीतिपदेन शतपदेन च विभजनीयं वस्तु चतुष्पष्टिपदेन विभजनीयं वस्तु एकाशीतिपदादिषु वास्तुषु मर्मादीनां स्थानानि ... द्वारभित्त्यादिभिर्मर्मवेधे फलम् द्वारमध्यादिषु द्रव्यान्तरैर्विद्धेषु, तेष्वनुवंशादिनिहितेषु च फलम् ... वेधेऽपि केषाञ्चित् कचिद् दोषाभावकथनम् ... ... ...
१४. पुरुषाङ्गदेवतानिघण्वादिनिर्णयाध्यायश्चतुर्दशः ---
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पमाकतेस्तोरङ्गदेवताविभागः ...
...
वास्तुपुरुषस्य शिरःस्थानम्
...
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पृष्ठम्.
विषयः शतपदषोडशपदवास्त्वोः प्रकृतिः ... ... ... वास्तुदेवानां निघण्टुः वास्त्ववयवविहिता वर्णाः
१५. राजनिवेशाध्यायः पञ्चदशः - पुरे राजवेश्मनिवेशनस्थानम् दुर्गेषु तन्निवेशनस्थानम् उत्तमादीनां राजवेश्मनां प्रमाणम् ... तेषां ज्येष्ठादिषु पुरेषु विनियोगः राजवेश्मसन्निवेशसम्बद्धा विशेषाः ... तत्र द्वारादिनिवेशनस्थानम् ... नृपवासप्रासादनिवेशनस्थानम् ... नृपवसतियोग्याः प्रासादविशेषाः ... धर्माधिकरणकोष्ठागारमहानसादीनां स्थानानि रथादीनां स्थानानि अन्तःपुरक्रीडागृहकुमारीभवनादीनां स्थानानि ... अशोकवनिकास्थानम् सानगृहधारागृहलतागृहदारुशैलवापीपुष्पवीथ्यादीनां स्थानानि आयुधागारभाण्डागारयोः स्थानानि उलूखलशिलायन्त्रदारुकर्मान्तभवनादीनां स्थानानि पुरोधसः, अभिषेचनस्य, दानाध्ययनशान्तिकर्मणां,
छत्रचामरयोश्च स्थानानि ... मन्त्रगृहस्थानम् अश्वशालास्थानम् राजकुमाराणां राजमातुश्च गृहस्थानम् कुमारविद्याधिगमशालानां स्थानम् ... शिबिकाशय्यासनानां स्थानानि ... नृपद्विपानां विषाणिनां च स्थानानि सलिलाशयानां स्थानम् ... राजबन्धूनां पितृव्यमातुलादीनां स्थानम् ...
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विषयः सामन्तानां गृहस्थानम् ... देवकुलस्थानम् ज्योतिर्विदां सेनापतेश्च गृहस्थानम् शस्त्रकर्मान्तस्थानम् ब्रह्मस्थानविनियोगः विषाणिनां स्थानान्तरप्रदर्शनादि ...
१६. वनप्रवेशाध्यायः षोडशः -- द्रव्यानयनाथै वनप्रस्थानाय विहितो नक्षत्रराश्यादिः .... द्रव्यच्छेदनभेदनवनप्रवेशनकार्यारम्भाणां राशयः ... वृक्षपरीक्षणम् श्मशानायुद्भूतानां, बालानां वृद्धानां च वृक्षाणां वर्जनीयत्वकथनम् सारद्रुमाणां वयः ... तत्र गृहकर्माहं वृक्षवयः अतदहे वयसि स्थितानां वृक्षाणां लक्षणम् ... तदर्हे क्यसि स्थितेष्वपि तेषु वक्ररूक्षादीनां त्यजनीयत्वकथनम् कुटुम्बिनामहीं वृक्षाः ... गृहकर्मण्युपादेयानामन्येषामपि वृक्षाणां सामान्यलक्षणम् ... गृहाथै गर्हिता वृक्षाः ... वृक्षप्रमाणविज्ञानम् ... वृक्षनक्षत्रविज्ञानम् ... वृक्षच्छेदनशान्तिप्रयोजकं स्वस्तिवाचनबलिदानादि वृक्षच्छेदनविधिः छिद्यमानानां वृक्षाणां सवादिनापि तद्धेयोपादेयतानिर्णयप्रकारः वृक्षपातादिना तज्ज्ञानम् छेदारम्भे खरोष्ट्रादीनां दर्शने फलम् .. छेदादुरिक्षप्तेष्ववक्षिप्तेषु च वृक्षेषु फलम् ... छित्त्वा पातितानां वृक्षाणां भागशश्छेदने विधिः गोधादिगर्भितानां तेषां लक्षणम् ... मण्डलगतेन तत्तद्वर्णविशेषेण गर्भस्थतत्तजन्त्वादीनां विज्ञानम्
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विषयः
जन्त्वादिगर्भितानां वृक्षाणामुपयोजने फलम् वनान्तर च्छित्त्वानीतानां तेषां परिग्रहप्रकारः
१७. इन्द्रध्वजनिरूपणाध्यायः सप्तदशः
इन्द्रध्वजोत्थापनसम्बद्धा कथा इन्द्रध्वजस्यावश्यकता, तद्विधानप्रकारोपक्रमश्च इन्द्रध्वजस्योत्तमाधममध्यमानि मानानि तस्य मूलाप्रभागयोर्मानम्
कुप्यस्य मानम्
श्रमपीठमूलपादादीनां मानम्
इन्द्रगृहनिर्माणविधिः
तेषां जलाधिवासनप्रकारः ध्वजस्थाने तेषां निवेशनक्रमः
मल्लरय, शक्रमातुः, कुमारीणां कन्यकोदयादीनां च मानम्
लकटस्य सूच्याश्च मानादिकम् मृगाली कल्पनादिकम् ध्वजयष्टेर्यन्त्राणां चोरक्षेपणसमयः
इन्द्रप्रतिमाप्रतिष्ठा
ध्वजप्रतिष्ठापनविधिः
...
...
कुटन्यादियोजनम्
ध्वजपट्टविधानम्
शान्तिहोमविधिः
यथावद्धुतरयामेर्वर्णादिना शुभाशुभपरीक्षणम् ... होमद्रव्याणामाज्यसमिकुः शपुष्पपात्रादीनां दुष्टत्वे फलम्
बलिदानप्रकारः
शीलवृत्तविद्यावयरसम्पन्नानां ब्राह्मणानां सन्तर्पणम्
तैः स्वस्तिवाचनम्
प्रतिष्ठाङ्गभूतोऽभिषेकः
ध्वजदण्डसमुच्छ्रयविधिः
सपरिकरे ध्वजदण्डे यथावदविलम्बितं स्वस्थानस्थिते फलम्
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विषयः समुच्छ्रितस्य शक्रध्वजस्य प्राच्यादिदिगाश्रयणे फलम् ... भ्रमं भिवा भूमौ प्रतिष्ठमाने तस्मिन् फलम् तस्य स्थानान्तरभ्रंशादिषु फलम् रज्जुच्छेद फलम् ... ... इन्द्रध्वजम्य भङ्गे फलम् ... छत्रादीनामिन्द्रध्वजस्य वा पाते फलम् माल्यविभूषणादीनां च्युतौ फलम् ... शक्रवेश्मादीनां विशरणे फलम् ... मृगालीलकटादीनां भङ्गे फलम् ... ध्वजे निर्धातादीनां पाते फलम् शक्रोपरि मक्षिकाभिर्मधुच्छत्रकरणे फलम् । शक्रपार्थे मक्षिकादीनां भ्रमणे फलं शक्रमूर्धनि श्येनादीनां सङ्गे फलम् केतौ वायसादीनां सङ्गे फलम् चित्रपटे सुराद्याकाराणां यथावन्निवेशने फलम् ... एतेषां कुट्टनपातच्छेदप्लोषादिषु फलम् ... चित्रपटस्य पातादिषु फलम् धजोच्छ्यविधौ नरादीनां चेष्टादिभिर्निमितावलोकनम् तदानीं दृष्टिपाते फलम् उत्सवान्तिमदिवसकृत्यम्। इन्द्रस्थानभूतस्य क्षेत्रस्य मानादिकम् । क्षेत्रप्रमाणेन ध्वजायामादिकल्पनम् प्रतिवत्सरं केतुप्रमाणस्य वर्धनम् ... यन्त्रपादकुमारिकादीनां निवेशनस्थानानि
१८. नगरादिसंज्ञाध्यायोष्टादशःनगरपर्यायाः नृपाध्युषितस्य नगरस्य संज्ञा ... शाखानगरकर्वटनिगमग्रामसंज्ञितानां स्वरूपकथनम् । पत्तनपुटभेदनपल्लीजनपदराष्ट्रशब्दितानां तत्कथनम्
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विषयः गृहपर्यायाः हर्म्यस्य स्वरूपनिर्देशः
सोपानस्य
अधिरोहणस्य
निःश्रेण्याः
काष्ठविटङ्कस्य सौ
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प्रासादस्य
वलभ्याः
अलिन्दस्य
वलभायाः
अपवरकस्य
शुद्धान्तन्य प्रतोत्याः
कक्षायाः
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अभिगुप्त्याख्यस्य
वातायनस्य अवलोकनस्य उलोकस्य हर्म्यप्राकारस्य,, वितर्दिकायाः ईहामृगस्य निर्यूहस्य वलीकस्य
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चतुश्शालत्रिशालद्विशा लैकशालानाम्,,
शालायाः 23
वापीसंज्ञस्य गर्भगृहस्य उपस्थानाभिषस्य
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विषयः कोष्टकस्य स्वरूपनिर्देशः भित्तेः महानसस्य , द्वारकोष्ठकस्य ,, प्रवेशनस्य उदकभ्रमस्य भवनाजिरवनाजिरा
श्रमाजिराणाम् ,, देहल्याः द्वारपक्षस्य , अर्गलार्गलसूच्योः ,, परिघफलिहगवाक्षाणाम्,, तोरणस्य तद्विशेषाणां च,, सिंहकर्णस्य .. संयमनास्यस्य ,, मरालपालीप्रणालीप्रद्वाराणां,, प्राकारस्य आस्थलकाख्यस्य, अमेध्यभूमेः ,, अवस्करस्य , परिसरस्य , अट्टाभिधस्य , अट्टालकस्य " अट्टाल्याः , अट्टालिकायाः,, काष्ठप्रणाल्याः धारागृहस्य , दर्पणगृहम्य ,. पक्षद्वारस्य ।
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विषयः .
गोपुरद्वारस्य स्वरूपनिर्देशः उपकार्यायाः , क्षौमादयस्य .. पुरीस्वरणस्य ., उपनिष्कलस्य ,. उद्यानस्य . जलोद्यानजलवेश्मनोः, क्रीडागारस्य । विहारभूमेः ।, चैत्यम्य " सभायाः गोष्ठम्य
१९. चतुश्शालविधानाध्याय एकोनविंश एकशालादिषट्शालान्तानां गृहभेदानां
पृथक्पृथगेकीकृता सङ्ख्या ... ... ... अष्टाङ्गयुक्तानां तेषां दशशाला
न्तानां पृथक्पृथगकीकृता सङ्ख्या गृहद्वितययोगेन निष्पन्नानां गृहविशेषाणां संख्या उत्तमवर्णिनां विहितानि गृहमालादी
न्यन्यान्यष्ट वेश्मानि विप्रादिविषये चतुश्शालादीनां मानविकल्पाः तेषु शालालिन्दादीनां प्रमाणम् ... मूषावकोसिमयोः म्वरूपकथनादिकम् भद्रायाः संज्ञाभेदाः प्रवहणायाः म्वरूपं फलं च ... मूषासङ्ख्याज्ञानोपयोगी प्रस्तारः ... चतुश्शालगतानां मूषाभेदानां सङ्ख्या पृथगनेकधा निवेशितैः संवृतैर्विवृतैरप्य
लिन्दादिभिर्गृहाणामानन्त्यकथनम् प्रस्तारे एकभद्राणां विवेचनम् ... ..
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पृष्ठम्
A
विषयः अष्टानामेकभद्रगृहभेदानां नामानि अष्टाविंशतिभेदानां द्विभद्रगृहाणां नामानि षट्पञ्चाशतस्त्रिभद्राणां नामानि ... सप्ततेश्चतुर्भद्राणां नामानि ... षट्पञ्चाशः पञ्चभद्राणां नामानि अष्टाविंशतेः षड्भद्रभेदानां नामानि अष्टानां सप्तमद्राणां नानानि अष्टमद्वस्य नाम एषु मूषाविन्यासक्रमः उक्तानामेकभद्रादीनां सर्वेषां
चतुश्शालभेदानां पिण्डीकृता सङ्ख्या क्वचित् कचिद गृहविशेषेषु मूषायकोसिम.
योर्यसनक्रमादिकम् अथ एकभद्रभेदेषु प्रायःयतादिषु मूपास्थितिः तेषां प्रत्येकं फलप्रदर्शनम् द्विभद्रभेदेषु ईरादिषु मूषास्थितिः ... त्रिभद्रभेदेषु ऐन्द्रादिषु मूषास्थितिः चतुर्भद्रभेदेषु कृतादिषु मूषास्थितिः पञ्चभद्रभेदेषु कानलादिपु मूषास्थितिः घडभद्रभेदेषु किन्नरादिषु मूषास्थितिः सप्तभद्रभेदेषु भाण्डीरादिषु मूषास्थितिः अष्टभद्रे सर्वतोभद्राख्ये मूषास्थितिः
२०. निनोच्चादिफलाध्यायो विंशः --- अग्रपृष्टशब्दयोः परिभाषा द्रव्यायामादिभिः शालाया आधिक्ये फलम् ... गृह मेर्वा मदक्षिणादिभागेषु निनोन्नतत्वे फलम् सच्छत्रादिकं चतुर्विधं गृहं, तल्लक्षणं च गृहस्य मुखादिमागेवलिन्दकल्पना, तत्फलं च तत्रैव हलकालिन्दकल्पना, तत्फलं च
९८-१०० १०१-१०५ .०५.१०७
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विषयः सुसमापिते सति वास्तुनि फलम् बहुप्रकारेषु त्रिशालेषु निन्द्यौ प्रकारौ तत्रैव धन्यौ प्रकारौ तेषां चतुर्णा नामानि सिद्धार्थादीनां षण्णां द्विशालवेश्मनां स्वरूपं फलं च सप्तशालेषु मणिच्छन्दादीनां स्वरूपप्रकटनम् गृहसचट्टस्य स्वरूपं फलं च
२१. द्वासप्ततित्रिशाललक्षणाध्याय मुख्यानां चतुणा त्रिशालानां नामानि लक्षणं फलं च अष्टादशानां हिरण्यनामभेदानां संज्ञा: तत्रालयानां सुक्षेत्रचुल्लीपक्षनभेदानां
पृथक्पृथङ नामनिर्देशः हिरण्यनामभेदेषु जाम्बूनदहिरण्यरुक्म
हेमसंज्ञितानां लक्षणम् अवशिष्टानां कनकादीनां लक्षणम् सुक्षेत्रभेदानां नागादीनां लक्षणम् चुल्लीभेदानां भुजङ्गमादीनां लक्षणम् पक्षमभेदानां राक्षसादीनां लक्षणम् पञ्चभद्रकस्वरूपम्
___२२. द्विशालगृहलक्षणाध्यायो द्वाविंशः - द्विशालगृहेषु मुख्यानां षण्णां सिद्धार्थादीनां लक्षणम् ... तेषु प्रत्येकमेकादशधा भिन्नानां सिद्धार्थयम
सूर्यदण्डवाताख्यानां, चतुर्धा भिन्नयोश्शुलीकाचयोश्च संज्ञाः सिद्धार्थभेदानां वसुधारादीनां, यमसूर्यभेदानां
संहारादीनां च लक्षणम् दण्डगृहभेदानां प्रचण्डादीनां, वातभेदानां ।
मरुदादीनां, चुलीभेदस्य रोगाख्यस्य च लक्षणम् अवशिष्टानां चुलीभेदानां, काचभेदान
छलादीनां च लक्षणम्
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विषयः
२३. एकशाललक्षणाध्यायत्रयोविंशःएकशालेष्वलिन्दप्रस्तारः षोडशानां ध्रुवाद्याख्यानामेकशालभेदानां निर्देशदि ... एष्वेव भेदेष्वलिन्दविन्यासवैचित्र्येण निप्पन्नानां रम्यनन्दश्रीधरमुदिताख्यानामन्येषा
मेकशालविशेषाणां लक्षणं फलं च तादृशानामेव वर्धमानाद्याख्यानां लक्षणं फलं च पूर्वमुक्तेषु ध्रुवादिषु षोडशवेश्ममु पदारुकल्पनया
रूपान्तरं प्राप्तानामन्येषां षोडशगृहभेदानां संज्ञाः एषामेव भेदानां शालापुरतो विन्यस्तैः षडदारुभिरुत्प
नानां षोडशगृहभेदानां संज्ञाः शालामध्यविन्यस्तैः षड्दारुभिरेतेभ्य उत्पन्नानां
षोडशगृहभेदानां संज्ञाः शालान्तविन्यस्तषड्दादिभिः प्रकारान्तरमाप
न्नानामपरेषां षोडशवेश्मनां संज्ञाः अनन्तरोक्तेषु गृहेषु प्रत्येकं चतुर्दिक्षु अलि.
न्दपरिष्कारेण प्रसूतानां षोडशगृहाणां संज्ञाः एवं भेदप्रभेदैर्वर्धितानामेकशालानामाहत्य सङ्ख्याकथनं ... सिद्धार्थस्थितयोर्हस्तिनीमहिप्याख्ययोः, दण्डगृहस्थितयोर्गावीछगल्याख्ययोश्च शालयोर्यथायथं मेलनेनात्र संभूतानां चतुर्णां गृहविशेषाणां । संज्ञाः फलं च
२४. द्वारपीठभित्तिमानाद्यध्यायश्चतुर्विंशः --- हलकाख्यानां पञ्चदशगृहाणां संज्ञाविशेषाः लक्षणं फलं च ... प्रकृताध्याय एवोपरि वक्ष्यमाणानां विषयाणां सङ्ग्रहः ... पञ्चानां वर्गाधिपानां स्वरूपकथनम् तत्र सामान्यतो भित्त्यलिन्दपीठद्वारोच्छायादीनां __ प्रमाणप्रदर्शनम् भद्रनन्दपीठसौरभपुष्कराख्यानां चतुर्णी
गृहविशेषाणां लक्षणं फलं च
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विषयः
२५. समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनाध्यायः पञ्चविंशः -- तत्र पञ्चशालानामाहत्य सङ्वा , पञ्चशालोत्पत्तिप्रकारश्च अष्टानां पञ्चशालानां संज्ञाः प्रकारान्तरेण निष्पन्नानां तेषां संज्ञाः विभद्रादिदशभद्रान्तानां तेषां प्रत्येकं सङ्ख्या ... पटशालोत्पत्तिप्रकार: घोडशविधानां पदसालानां संज्ञाः लक्षणं च ... अग्टिलवर्णिनां शुभानि षट्शालानि, तद्भेदाश्च राजोचितानि विंशतिः षट्शालानि विद्रादिद्वादश भद्रान्तानां घट्शालानां प्रत्येक संख्या सप्तशालनिष्पत्तिः, तद्भेदाश्च राजयोग्यानि : तमालानि
१३३,१३४ प्रकारान्तरेण निष्पन्नानि अन्यानि
तादृशानि सप्तशालानि विभद्रादिचतुर्दशभद्रान्तानां सप्तशालानां
प्रत्येक सव्या अष्टशालनिष्पादनप्रकाराः
१३७ विभद्रादिषोडशभद्रान्तनामष्टशालानां प्रत्येकं सङ्ख्या तेषां सर्वेषामेकीकृता सव्या नवशालनिष्पादनप्रकाराः विभद्राद्यष्टादशभद्रान्तानां नवशालानां
पृथकपृथक सहव्या दशशालनिष्पादनप्रकाराः विभद्रादिविंशतिभद्रान्तानां दशशालानां पृथक्पृथक् सङरव्या तेषां सर्वेपामेकीकृता सङ्ख्या चतुश्शालादिदशशालान्तानां सर्वेषां वेश्मनां भूषावहनादिना निर्दिष्टाः सङ्ख्याः ।
२. आयादिनिर्णयाध्यायः षड्विंशः --- प्रासादकर्मणि सूत्रपातविधिः
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विषयः प्राच्यादिदिङ्मुखानां वेश्मनामारम्भे निषिद्धा मासाः आये परिज्ञातव्ये क्षेत्रमानसाधननियमः आयानयनप्रकारः प्राच्यादिदिक्षत्पन्नानामायानां यथाक्रममु.
द्दिष्टा ध्वजादिसंज्ञाः, तेषां फलं च विप्रादीनां प्रशस्ता आयाः तत्तन्निवेशनानि प्रति तत्तदायानां विनियोगः ... तेष्वधमानां कचिददोषत्वकथनम् व्ययानयनप्रकारः समाधिकादिभेदेन त्रिप्रकारस्य व्ययस्य यथा
क्रममुद्दिष्टाः पिशाचादिसंज्ञाः अंशकानयनप्रकारः गृहादिष्वंशकस्य मुख्यत्वव्यवस्थापनम् अंशकत्रयस्य संज्ञाः गृहतारास्तत्संज्ञाश्च वा मध्यमाश्च ताराः त्रयाणां नक्षत्रगणानां संज्ञास्तदन्तर्भूतानि
नक्षत्राणि च मर्निक्षत्रगणसाम्यादिना विहितस्य गृहस्य
शुभफलप्रदत्वकथनम् गृहविधाववश्यचिन्तनीयानि षट् करणानि व्यादिभिः शुभैस्तैर्यथोत्तरं शुभकरत्वकथनम् ... समायव्ययादिवेश्मनां वर्जनीयत्वकथनम् समसप्तकादीनां गृहाणां कर्तव्यत्वोपदेशः षट्कोष्ठकादिगृहाणां वर्जनीयत्वकथनम् गृहजीवितादिविज्ञानोपायादिकम् मेर्वादीनि षट् छन्दांसि तद्विन्यसनप्रकारश्च ... तेभ्यो गृहमूषासङ्ख्यादिज्ञानम्
१४६,१४७ ... १४८
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पृष्ठम्
विषयः
२७. सभाटकाध्यायः सप्तविंशःअष्टानां समानां संज्ञादिकम् नन्दादिसंज्ञानां तासां लक्षणम्
२८. गृहद्रव्यप्रमाणाध्यायोऽष्टाविंश:---- द्वारप्रमाणम् प्रकारान्तरेण तत्प्रदर्शनम् पेद्यापिण्डोदुम्बरद्वारशाखारूपशाखाखल्वशा
खादीनां प्रमाणम् शुभाः पञ्च द्वारशाखाः तलोच्छ्रायः शालाप्रमाणम् तलन्यासविधिः पद्मकस्तम्भविधिः घटपल्लवकस्तम्भविधिः कुबेराख्यस्तम्भविधिः श्रीधराख्यस्तम्भविधिः तलपट्टहीरग्रहणादीनां प्रमाणम् प्रतिमोकादीनां लक्षणम् भूताख्यादीनां चतुर्णी गृहच्छाद्यानां लक्षणम् ... सिंहकर्णादीनां गृहेषु वर्जनीयत्वकथनम् अन्येषामप्येवंविधानां निषेधः
२९. शयनासनलक्षणाध्याय एकोनत्रिंश:-- शयनासनकर्मारम्भसमयः शयनासननिर्माणार्थे विहिता वृक्षाः हेमादिनद्धानां शयनासनानां श्रेष्ठत्वकथनम् ... शयनासनाद्यर्थकवृक्षादाने तत्कारम्भे च
लक्षणीयानि निमित्तानि नृपादीनां शय्यायाः प्रमाणम्
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पृष्ठम्
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१५६
विषयः शय्याङ्गानां विधानम् गुकद्रव्यजायाः शय्यायाः श्रेष्ठत्वं, मिश्रद्रव्यजाया
द्विदा देश्च तस्या निन्द्यत्वं च शय्यादारुसन्धानविधिः मध्यव्रणाद्युपलक्षितस्य शयनासनस्य दुष्टत्वम् ... सुश्लिष्टत्वादिगुणयुक्तत्वेन तेषां निर्मितेरावश्यकता निष्कुटादीनां षण्णां छिद्राणां लक्षणं फलं च। शयनासनद्रव्यसामान्यविधिः आसनक्लृप्तौ शय्योक्तदारूणामतिदेशः आसनाङ्गानां विधानम् तेषां द्रव्योपाधिकृतोत्तमादिता आसनालङ्काराः पादुकासङ्ग्रहादीनां मानम्
३०. राजगृहाध्यायस्त्रिंशः उत्तमादीनां राजवेश्मनां मानम् पृथ्वीजयप्रासादलक्षणम् मुक्तकोणप्रासादलक्षणम् श्रीवत्सप्रासादलक्षणम् सर्वतोभद्रप्रासादलक्षणम् शत्रुमर्दनाख्यमासादलक्षणम् राज्ञः क्रीडानि क्षोणीविभूषणादीनि पञ्च गृहाणि अवनिशेखरप्रासादलक्षणम् भुवनतिलकप्रासादलक्षणम् विलासस्तबकाल्यप्रासादलक्षणम् कीर्तिपताकप्रासादलक्षणम् भुवनमण्डनप्रासादलक्षणम् क्षोणीभूषणप्रासादलक्षणम् पृथ्वीतिलकपासादलक्षणम् श्रीनिवासाख्यप्रासादलक्षणम्
५९,१६०
१६२
१६३
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20
:
विषयः प्रतापवर्धनप्रासादलक्षणम् लक्ष्मीविलासाख्यप्रासादलक्षणम् क्षाणीभूषणादिषु पञ्चसु प्रासादेषु भूमिकासंख्या । उक्तानां सर्वेषां प्रासादानां द्वारमानादिकम् ... तुम्बिन्याद्याः सप्त लुमाः मदलादीनां निवेशनस्थानादि राजासनमत्तवारणादीनां विधानम्
३१. यन्त्रविधानाध्याय एकत्रिंशः-- इष्टदेवतावन्दनमध्यायोपक्रमप्रतिज्ञा च यन्त्रशब्दनिर्वचनम् यन्त्रबीजानि . तत्र पक्षान्तरप्रदर्शनं, तत्खण्डनं, स्वमतस्थापन बीजशक्तिस्वभावासूत्रणम् तज्ज्ञानस्य सर्वार्थसाधकता पार्थिवादीनां पदार्थानां बीजानि तत्तत्पदार्थेषु बीजभूतानां कार्याणि बीजबीजिभावविकल्पनानां नानात्वम् क्रियानिष्पादनाधिष्ठानम् यन्त्रगुणाः तेषूत्कृष्टा गुणाः यन्त्रसाध्याः क्रियादयस्तद्विवरणं च प्रकृतग्रन्थोक्तदिशा युक्तया सम्यङ् निष्पादितै
यन्त्रैः साध्यानां विचित्राणां दिङ्मात्रप्र
दर्शनपरो निर्देशः तत्र प्रथमभूमिकात उपरिभूमिकासु पञ्चसु कल्पि
तासु प्रतिप्रहरमेकैकभूमिकां प्रति यन्त्रेण शय्यायाः
प्रसर्पणम् पुत्रिकया नाडीप्रबोधनम् तोये वह्रिदर्शनादीन्यत्यद्भुतानि यन्त्रकार्याणि ...
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विषयः सूर्यादिग्रहगतिप्रदर्शनपरं गोलभ्रमणम् दारवस्य पुरुषस्यैकनाडिकयैकयोजनगमनम् ... तालगत्यनुसारेण नृत्यन्त्या पुत्रिका दीपे क्षीण
क्षीणतैलप्रक्षेपः यन्त्रहस्तिनः प्रदीयमानभूरिवारिपानम् यन्त्रशुकानां तालगत्या गाननर्तनादीनि पुत्रिकाणां गजानां तुरगादीनां च ताल
गत्या वलनवर्तननर्तनादीनि वापीकूपादितः क्षेत्रेषु यन्त्रेण जलानयनापन
यनवैचित्र्यम् कृत्रिमाणां गजादिरूपाणां यथेच्छं निर्गमन
धावनयुद्धकरणादिकाश्चेष्टाः स्वबुद्धिपरिकल्पितानामुक्तानामेषामन्येषां च
यन्त्राणां घटनारीतिप्रदर्शनं प्रति ग्रन्थक
तुरप्रवृत्ती कारणम् पुरातनोक्तदिशा वक्ष्यमाणानां यन्त्राणां सु
ग्रहाय बीजभूतानां भूतानां पुनः स्मारणम् ... एतादृशविचित्रनानायन्त्रनिर्माणप्रावीण्यसामग्री स्वनोदारियन्त्रद्वयघटना पटहमुरजादिस्वनोद्गारियन्त्राणां तत्त्वम् अम्बरचारिविमानघटना दुष्टगजोच्चाटनाय रसयन्त्रेण सिंहनादविधा
नप्रकारः दासादिपरिजनवगैर्विना तत्कृत्यानां सर्वेषां
यथावन्निर्वहणाय कल्पितस्य स्त्रीपुरुषप्रतिमायन्त्रस्य घटना अनभिमतजनप्रवेशनिरोधनाय द्वारदेशे स्था
पनीयं द्वारपालयन्त्रम् निशि प्रविशतश्चौरस्य प्रसभघातनाय स्थापनी
यं योधयन्त्रम्
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विषयः
पृष्ठम्
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१८४
दुर्गगुप्त्यै क्रीडाद्यर्थं च युक्तया योजितैर्यन्त्रै
श्वापशतध्यादितत्तद्वस्तुविधानवचनम् अथ वारियन्त्रप्रस्तावः तत्र पातयन्त्रस्वरूपम् उच्छ्रायसमपातयन्त्रस्वरूपम् पातसमोच्छ्ययन्त्रस्वरूपम् उच्ट्रय यन्त्रम्वरूपम् धारागृहादिवारिगृहपञ्चकम् तत्र धारागृहविधानम् प्रवर्षणगृहन्धिानम् प्राणालगृहविधानम् जलमग्नगृहविधानम् नन्द्यावर्तगृहविधानम् अथ रथदोलाप्रस्तावः बसन्तादयः पञ्च दोलाः तत्र वसन्तदोलाविधानम् मदननिवासाख्यदोलाविधानम् बसन्ततिलकाख्यदोलाविधानम् विभ्रमकदोलाविधानम् त्रिपुराख्यदोलाविधानम् यन्त्राध्यायविधातुरभिधानम्
३२. गजशालाध्यायो द्वात्रिंशः - सुभद्राख्याया गजशालाया लक्षणम् नन्दिन्यारवाया लक्षणम् सुभोगदाया लक्षणम् भद्रिकाया लक्षणम् वर्षश्याझ्याया लक्षणम् प्रमारिकाया लक्षणं फलं च
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१८६-१८८ ... १८८
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विषयः
३३. अश्वशालाध्यायस्त्रयस्त्रिंशः
23
अवशालनिवेशनस्थानम्
अश्वशाला निर्माणे निषिद्धा वृक्षाः, भूमयश्च निषिद्धदेशजैर्वृक्षैस्तच्छालानिर्माण फलम्
निषिद्धभूमिषु तन्निवेशने फलम् भगृहपरिसरे तन्निवेशने स्थाननियमाः
अश्वशालाविधानम्
शालायामश्वानां स्थानकल्पना
यवसस्थानकल्पना
खादनको कल्पना
पादबन्धनकीलककल्पना
शाला निर्माणाङ्गबलिहोमादिकरणकथनम्
प्रत्यृतु शालासंस्करणविशेषाः बहूनां तुरगाणामवस्थापन नियमाः अश्वरक्षार्थानामुपकरणानां संग्रहः
वाङ्मुखायां शालायां तुरगबन्धनस्थानम् अश्वानां प्राच्याभिमुख्येन बन्धनस्य सर्वस
मृद्धिहेतुत्वस्थापनम् स्नानाधिवासनादिकरणे दिनियमः दक्षिणाभिमुखायामुत्तराभिमुखायां च शालायावश्ववन्धनस्थानादिकम्
सन्नाह्यादीनामश्वानां दक्षिणपश्चिमाग्नेयीनैर्ऋत्याभिमुख्येन बन्धनस्य निषेधः वायव्यैशान्याभिमुख्येन बन्धनस्य निषेधः बाहूम्यां दिश्यनुवंशस्थाने च तन्धननिषेधः रुग्णानामितरेषां च बन्धने नियमा भेषजतदुपकरणारिष्टव्याधिताश्वमन्दिराणां
स्थानानि, चिकित्सोपकरणानि च उक्तानां चतुर्णां मन्दिराणां सामान्यविधिः
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विषयः
३४. अप्रयोज्यप्रयोज्याध्यायश्चतुस्त्रिंशः --- राजादीनां वेश्मस्वप्रयोज्यानां परिगणनम् तेषु प्रयोज्यानां प्रदर्शनोपक्रमः तत्र प्रयोज्या देवता द्वारेषु प्रयोज्याः प्रतीहार्यादिप्रतिकृतयः तत्रैव निधीनां लक्ष्म्याश्च निवेशनप्रकारः गृहबाद्याभ्यन्तरभित्तिष्वालेख्यानां नियमाः वासधाग्नि निवेशनायानामालेल्यानां विधिः गृहभित्तीनामधोभागेषु, प्रेक्षासङ्गीतभूम्या
दिषु च प्रयोज्यानां लेख्यानां विधिः वेश्मनि प्रयोक्तव्यत्वेनोकानां सर्वेषां पाठ__ शय्यासनसभादेवकुलादिष्वप्यतिदेशः ...
३५. शिलान्यासविध्यध्यायः पञ्चत्रिंशः शिलान्यासविधये विहितोऽयनपक्षतिथिनक्षत्रादिः प्रथमेष्टकालक्षणम् वर्जनीयाः शिलाः नन्दादिकाश्चतसः शिलास्तद्देवताश्च वेदीप्रकल्पनम् नन्दाप्रतिष्ठापनविधिः उपशिलान्यसनम् नन्दादीनामङ्काः, निवेशनस्थानानि च तासां प्रतिष्ठापनमन्त्रादिकम् । वैदिकाः शिलाचयनमन्त्राः विधिना स्थापितानां तासां पुनश्चालनादिषु फलम्
३६. बलिदानविध्यध्यायः षट्त्रिंशः मण्डलकरणम् कलशन्यसनम् वास्तुदेवताकल्पनम्
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... २०६
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विषयः अय॑निवेदनम् विश्वकर्मणो वास्तुदेवानां च पूजा विधिः शान्तिबलिकर्माहा॑णि वास्त्वादीनि
३७, कीलकसूत्रपाताध्यायः सप्तत्रिंशः -- प्रशस्ताः कीलकवृक्षाः विप्रादीनां विहिताः कीलकवृक्षाः . अशोकादीनां विनियोगे क्वचिद् विशेषः तत्तद्वर्णानधिकृत्यापरो वृक्षविधिः वर्णानां कीलकप्रमाणम् तेषां सूत्रविधिः कीलकस्थापनप्रकारः तत्र कीलकस्थानपूजा वेदीकल्पनम् वेद्यां ब्रह्मकुम्भस्थापनम् कीलसंस्करणम् परश्वाद्युपकरणपूजा अग्निकार्यम् सुलग्नपरीक्षणम् पुरोहितसांवत्सरिकस्थपत्यादीनां पूजा सूत्रपातसम्बद्धं बलिकर्म यथोक्तबल्यलाभे कार्यो बलिविशेषः विप्रपूजनम् स्थापनाय प्रथमशङ्कोरुद्धरणनियमाः भूमौ प्रतिष्ठापितस्य तस्य परशुना हनने मन्त्राः शकुमूर्धनि दातव्यानां प्रहाराणां संख्या .. हन्यमाने तस्मिञ् शुभाशुभनिमित्तोपलक्षणम् ... ताडनसाधननियमः ताडितस्य कीलस्य प्राच्यादिषु नमने फलम् ... तस्मिन् कूर्चके जाते फलम्
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विषयः
तस्य स्फुटनहस्तभ्रंशादिषु फलम् प्रथमप्रहाराष्ट्रकेन कीलकस्य स्वास्थ्याभावे
कर्तव्यं कर्म शङ्कुभिषेकादि
सूत्रबन्धनप्रकारः कीलकस्थानेषु बलिदानविधिः
साम्ना मन्त्रितेन कुम्भोदकेनं वास्तुप्रोक्षणम्
चत्वारिंशतः क्षेत्रसंस्थानानां संज्ञास्तद्विनियोगश्च
३८. वास्तुसंस्थानमातृकाध्यायोऽष्टात्रिंशः
:
तत्र राज्ञस्तत्कुमाराणां पुरोहितस्य सेनापतेश्च वासोचितानि क्षेत्रसंस्थानानि वाहनानामन्तःपुरस्य वणिजां वैश्यानां सुवर्णकृतां नगरगोष्ठिकानां च क्षेत्रसंस्थानानि पुत्राभिलाषिणां महामात्राणां मृगलुब्धकानावनां गणाचार्याणां प्रजाध्यक्षाणां मालिकानां च तत्संस्थानानि सौचिकवाजिपोषकतक्षवन्दिमागधवेण्वादिवा
दकानां तत्संस्थानानि
रथिनां नौचानां श्वपाकानां धान्यजीविनां श्रमणानां हस्त्यारोहिणां च तत्संस्थानानि बन्धनागारिणां सुराकाराणां कर्मकारिणां नापितानां कोशरक्षिणां वह्निजीविमानोपजीविनोश्च तत्संस्थानानि चैत्यवृक्षवाटयज्ञवाटादीनां क्षेत्रसंस्थानानि
विप्रादिविषये गृहाणां द्वाराणां च स्थानानि तेषु वास्तुद्वारगृहद्वाराणां निवेशननियमाः उत्सङ्गादयश्चत्वारो निवेशा:
:
३९. द्वारगुणदोषाध्याय एकोनचत्वारिंशः
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विषयः तत्रोत्सङ्गलक्षणम्
बाहुकादीनां लक्षणम् ब्राह्मणाद्यावासस्थानकल्पनेषु विशेषविधिः
वर्णानामुत्तमा भूमिका संख्या तेषां गृहोर्ध्वप्रमाणम् देवादिविषये विशेषविधिः
तद्वर्णानामवरा भूमिका संख्या
27
उत्कृष्टस्य वास्तुद्वारस्य गुणाः द्वारकल्पनसम्बद्धा नियमाः रथ्यादिभिर्द्वारवेधे फलम् भिन्नदेहाख्यस्य वास्तुनो लक्षणं पूर्वादिद्वाराणां निवेशनस्थानानि द्वारेष्वविहितस्थाने विनिवेशितेषु फलम्
४०.
पीठमानाव्यायश्चत्वारिंशः
उत्तमाधममध्यमानां पीठानामुच्छ्रायः, विष्ण्वा
दिषु तद्विनियोगश्च मनुष्यवास्तुपीठानां सामान्यविधिः विप्रादिषु विषये पीठोत्सेधाः तेष्वेव प्रकारान्तरेण पीठविभागः
४१. चयविध्यध्याय एकचत्वारिंशः
विंशतिश्चयगुणाः
तद्विपरीताश्चयदोषा अपि विंशतिरिति कथनम् .. दक्षिणपश्चिमादिकुड्यानां बहिर्मुखत्वेन विचयने फलं कुड्येषु दलितादिषु फलम् प्राग्दक्षिणादिकर्णानां बहिर्मुखत्वेन प्रवर्तने
फलम्
सर्वबाहुषु चयनेन विद्यालीकरणे तत्सन्निवेशः
इहायव्ययव्यवस्था
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विषयः
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चीयमानस्यातिसंक्षिप्तविस्तृतत्वादिषु संज्ञा
न्तरं फलं च
भित्तिचयन प्रकारः
४२. शान्तिकर्मविध्यध्यायो द्विचत्वारिंशः
affarथापनम्
कर्णिका वायसादीनामधिरोहणे फलम् तासां गृप्रादिभिर्धर्षणे शान्तिकविधिः गृहाङ्गानां मधुसञ्चयादिभ्यो रक्षणीयत्वक
थनम्
गृहदारुणामिन्द्रकीलादीनां भङ्गादिषु फलम् नवदारुभङ्गादिषु प्रतिविधानम् स्थूणामलकपृष्ठवंशानां भङ्गे शान्तिविधिः वारणसङ्ग्रहस्थूण्योपधिकायतुलानां भने
तद्विधिः
कर्णिकाभ्यन्तरस्थूणाशालापादयुगतुलापादादीनां भने तद्विधिः प्रधानस्थूणाग्रवक्रतादिषु फलम् विशेषतश्चतुर्णां तुलादीनां वास्तुमुख्याङ्गानां हिंसने शान्तिविधानकथनम्
४३. द्वारभङ्गफलाध्यायस्त्रिचत्वारिंशः
उक्तानां नवकर्मविधीनां ग्रामादिष्वप्यतिदेशः नवकर्मणि स्निग्धत्वादिगुणयुक्तेषु तद्विहीनेषु
द्रव्येषु फल पूर्वादिपु नगरभागेषु रम्येषु सत्सु राज्ञः फलम् तेष्वरम्येषु तस्य फलम् देवागारपुरद्वारादिपूत्पन्नानि
शुभाशुभानि राज्ञ एवेति कथनम् उक्तेषु स्थलविशेषेषु नवकर्मण्यूर्ध्ववंशालादीनां मुख्याङ्गानां भङ्गे राज्ञः फलम्
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पृष्ठम्
विषयः तद्भङ्गे ग्रामे सति फलम् दिगुत्थिते गृहोत्थिते च तस्मिन् फलभाजः ... इह सर्वनिमित्तेषु शुभाशुभानां फलानां ___ कालनियमः वास्तुनि पुराणत्वव्यपदेशस्य कालः नवकर्मणि निष्टिते तुम्बिकादीनां भङ्गे फलम् ... लमामुण्डकानुपूर्वमुण्डगोधानागपाशाख्यानां
गृहद्रव्याणां भङ्गे फलम् कपाटस्यार्गलापार्श्वस्य तोरणस्य वास्तुमध्यस्य
सोपानस्य वेदिकायाः गवाक्षस्य पट्टस्त
म्भस्य च विनाशे फलम् । गजशुण्डायाः कपोताल्याः स्थपनीपट्टिकाया विटङ्कस्य तुलायाः शालास्तम्भस्य स्त
म्भशीर्षादेश्व भङ्गे फलम् । प्रतिमोकभजवाहिन्याकाशतलकतिच्छन्न मा
सादमण्डलबलभीनां भङ्गे फलम् प्रलीने विलीने विनष्टे च प्रासादे फलम् ... पूर्वोक्तेषु गृहावयवेषु स्निग्धत्वादिगुणवि
शिष्टेषु फलम् कर्णिकाभ्यन्तरस्थूणाशालापादहानौ फलम् ....
४४. स्थपतिलक्षणाध्यायश्चतुश्चत्वारिंशः स्थपतेलक्षणम् वास्तुशास्त्रस्याष्टाङ्गानि स्थपतेः कृत्यविशेषाः शास्त्रमविज्ञाय प्रयोक्तः स्थपतेर्घातः अविदुषः स्थपतेनिन्दा केवलशास्त्र ज्ञस्य केवलकर्मज्ञस्य वा तस्य प्रयो.
गकाले सम्पद्यमाना दोषाः कर्मविदः स्थपतेर्लक्षणम्
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विषयः शास्त्रकर्मसामर्थ्य विद्यमानेऽपि प्रज्ञाभावे तस्य सम्भाव्यमाना दोषाः
... ... ... २३५ प्रज्ञावत एव तम्य सर्वकर्मनिह पक्षमत्वस्थापनम्
२३६ सर्वेषु स्थपतिगुणेषु सत्स्वपि शीलाभावे कर्म
वैफल्यस्य विपरीतफलोपनमनस्य च निरूपणम् आलेख्याद्यष्टविधकर्मविज्ञानस्याप्यावश्यकता ...
४५. अष्टाङ्गलक्षणाध्यायः पञ्चचत्वारिंशःस्थापत्याष्टाङ्गविवरणम् नृपालस्थपतेर्गुणाः अङ्गेषु सप्तमस्य यज्ञशालामानम्य प्रयोगः तत्र यज्ञशालानिवेशनविधिः यजमानकुटीप्रमाणादिकम् प्राग्वंशपरिकल्पनम् प्रक्रमनिवेशनविधिः वेदीकल्पनम् होमस्थानकल्पनम् यजमानस्थानकल्पनम् कोटिहोमलक्षहोमस्थानादि सर्वाङ्गेषु याज्ञिकाङ्गस्य प्राशस्त्यम् यज्ञभूमिमापने विहितं वास्तुपदम् अष्टमस्य राजशिबिरनिवेशाप्यस्याङ्गस्य निरूपणम् तत्र शिबिराणामाकृतिविशेषाः शिबिरद्वारसङ्ख्या रथ्याप्रमाणम् नरपतेः स्थानम् मन्त्रिपुरोहितबलाध्यक्षान्तः
पुरभाण्डागाराणां स्थानानि अश्वानां दन्तिनां च स्थानानि
२
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विषयः
परिखाप्रमाणम् शिबिरस्थानमापनोचितं वास्तुपदम् अष्टमानेऽवशिष्टस्य दुर्गकर्मणो निरूपणप्रारम्भः..
तंत्र पविधानां दुर्गाणां संज्ञाः तेषु प्रशस्तं दुर्गम्
दुर्गस्थानविभाजनार्ह वास्तुपदम् हर्म्यप्रमाणादिकम्
स्थ्योपरयाद्वाराणां प्रमाणानि दुर्गेश्वरप्रासादानां स्थानानि दुर्गरक्षार्थं स्थाप्यानां वीराणां लक्षणम् अन्तःपुरादीनामपि तत्र निवेशनीयत्वकथनम्
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४६. तोरणभङ्गादिशान्तिकाध्यायः षट्चत्वारिंशः
तोरणभङ्गप्लोषादिषु दोषाः, सत्नशमनविधिश्व प्रासादं गृहं वा प्रविष्टाः सन्तो दोषसूचकाश्चतुर्विधाः कपोताः, तत्प्रवेशफलं च
कपोतप्रवेशदोषपशमनार्थो विधिः
४७. वेदीलक्षणाध्यायः सप्तचत्वारिंशः
चतुर्विधानां वेदीनां संज्ञाः तद्विनियोगश्च
तत्र सर्वतोभद्रालक्षणम्
श्रीधरी लक्षणम्
पद्मिनीलक्षणम्
चतुरश्रालक्षणम्
सर्ववेदीगता विशेषाः
तास्विष्टकाचयनविध्यादि स्तम्भविन्यसनविधिः
· स्तम्भस्थापनाङ्गं देवतापूजादिकम्
भूलवफलम्
४८. गृहदोषनिरूपणाध्यायोऽष्टचत्वारिंशः
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विषयः गृहविधौ वा भूमयः चैत्रादिमासेषु निर्मितानां गृहाणां फलम् कीलादीनां स्थानम् तत्तद्दिङ्मूढेषु वेश्मसु फलम् पुरे प्रासादादीनां निवेशनस्थानम् वलितादीनि चतुर्विधानि दुष्टगृहाणि तेषां लक्षणं फलं च मूषकोत्करादिभिर्दुष्टानां भुवां वर्जनीयत्वकथनम् तासु वास्तुनिवेशने फलम् वेश्मस्वनिष्टो मुखायामः मानुषशालायां मूषालिन्दयोरावश्यकता, देवा
गारशालायां तदाभावश्च खादकाल्यस्य वेश्मनो लक्षणं फलं च सशल्यादिकं मर्मदोषचतुष्टयम् । छिन्नाख्यस्य वास्त्वङ्गस्य लक्षणं फलं च स्वगृहद्वयमध्येन वर्त्मनो निर्वाहे फलम् मार्गवेधस्य स्वरूपं फलं च उत्सङ्गादीनां चतुर्णा प्रवेशानां स्वरूपं फलं च ... शालाभेदस्य स्वरूपं फलं च विकोकिलगृहस्व स्वरूपं फलं च सीमाशालाप्रभिन्नेषु प्रासादादिषु फलम् गर्ने चन्द्रावलोकिताया निषेधः गवाक्षके मूषानिवेशनस्यावश्यकता गण्डकुक्षिपृष्ठकक्षाख्यानामङ्गानां गृहात् पृथक्करणे" गण्डादीनां स्वरूपनिर्देशः स्थापितानां द्वाराणां संरोधे फलम् गृहश्रोत्रादीनां रोधे फलम् कृत्तानां गवाक्षालोकनानां चयने फलम् ... प्राच्यादिषु चीयमानाया मित्तर्बहिर्गमने फलम् ...
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विषयः
चीयमानानां प्राग्दक्षिणादिकर्णानां बहिर्गमने फलम्
मल्लिका कृतिमन्दिरस्य लक्षणम्
तत्रायव्ययव्यवस्था संक्षिप्तगृहस्य लक्षणं फलं च मृदनाकृतिगृहस्य लक्षणं फलं च मृदुमध्यगृहस्य लक्षणं फलं च कर्णेषु विषमोन्नतेषु फलम् गृहमध्ये द्वारकरण निषेधः द्वारवेषेऽनिष्टद्रव्ययोजने च फलम् नवेन पुराणयोजने फलम् मिश्रजातिद्रव्योत्थेषु गृहादिषु फलम् तत्तत्स्थानेष्वधिवास्य प्रतिष्ठितानां पुनश्चालने
फलम्
अन्यवास्तुच्युतस्यान्यवास्तौ योजने फलम् देवदग्धेन द्रव्येण गृहकरणे फलम् सूर्यद्रुमध्वजच्छायानां गृहद्वारातिक्रमणे
फलम् ध्वजच्छायायाः स्वरूपनिर्देशः
निषिद्धा गृहताराः निम्नोन्नतत्वादिदोषयुक्तस्याग्रतरद्वारस्य करणे
फलम्
नागदन्तादीनां द्वारमध्ये निवेशनस्य, तेषां विषमस्थितेश्च निषेषः
गृहे इतिहासाद्युक्तवृतान्तप्रतिरूपणस्य निषेधः इन्द्रजालतुल्यानां मिथ्याकृतानां, भीषणानां च प्रतिरूपणस्य निषेधः स्वयमुद्घाटनं पिधानं च कुर्वतः सशब्दस्य,
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पादशीतलस्य च, द्वारस्य निवेशने फलम् ... अधोमुखत्वेन प्रत्यग्या म्याननत्वेन च द्रव्यस्य निवेशने फलम्
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पृष्ठम्
विषयः स्तम्भद्वारस्य भित्तेश्च वैपरीत्येन निवेशनस्य निषेधः उपर्युपरिभूमिकाकल्पने, तत्र क्षणक्लप्तौ च
नियमाः शालाया निम्नत्वे अलिन्दस्याधिक्ये च फलम् ... उपरिभूमिषु द्वारनियमाः आध्मातादिद्वाराणां निवेशने फलम् चत्वररथ्यादिभिरवेधे फलम् हीनाधिकप्रमाणस्य द्वारस्य निवेशने फलम् ... कृशादिद्वाराणां निवेशने फलम् अन्तारादुच्चस्य बहिारस्य, विशकटस्य च
द्वारस्य निवेशने फलम् पट्टसन्धौ द्वारमध्ये निवेशिते फलम् तुलायामुपतुलायां च द्वारि तिर्यनिवेशितायां
जयन्त्यामनुवंशमनुप्राप्तायां फलम् । ललाटिकाख्यायास्तुलायाः स्वरूपं फलं च ... यज्ञोपवीतिन्याख्यायास्तस्याः स्वरूपं
फलं च भारतुलाया मध्यवेधे फलम् अखिलैस्तुलाभित्तिभेदकरणस्य निषेधः भारपट्टे ब्रह्मपदन्यस्ते फलम् अयुक्तयोर्युक्तयोर्वा सन्धेर्भारपट्टगतसन्धौ
योजने फलम् अनुवंशमाश्रित्य भोजने शयने च कृते फलम् ... नागदन्तके तिर्यस्थे शयनागारविन्यस्ते च
पक्षिराजघण्टाध्वजच्छत्रादीनां गृहे निषेधः ... गृहनमने पञ्च हेतवः अनुचितस्थौल्यादिकैव्यैर्गृहस्य वैरूप्ये दृष्टान्तः
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विषयः जीर्णघुणक्षतादीनां दारूणां वजनीयत्वकथनम् ... गृहकर्मणि वर्जनीया वृक्षाः द्वारैभित्तिभिश्च मर्मपीडायां फलम् .. कायसन्धिपालादिषु मर्मस्थानस्थितेषु फलम् ... स्तम्भादिभिारमध्ये निपीडिते फलम् ... षड्दारुकाणां द्वाराणां च मध्येषु कर्णद्रव्या
दिभिर्विद्धेषु फलम् नागदन्तादिभिः शय्यावेधे फलम् गृहमध्यभागे द्वारे निवेशिते फलम् द्रव्येण महामर्मपीडायां फलम् गृहस्य शून्यतापादका दोषाः विभागपदहीनेषु वास्त्वादिषु फलम् पुरप्रासादवेश्मनां परिसरे वर्जनीया वृक्षाः ... द्रव्यायामोच्छायविस्ताराणामाधिक्ये फलम् ... घातितेषु पातितेषु च स्तम्भद्रारादिषु फलम् ... निएफलदायिनो गृहस्य सामान्यलक्षणम् ...
४९. रुचकादिभासादलक्षणाध्याय एकोनपञ्चाशः -- पुरा ब्रह्मणा सृष्टानि पञ्च विमानानि तेषां विनियोगः सूर्यादीनामुपयोगायान्यान्यपि बहूनि विमानानि ।
स कल्पयामासेति वचनम् ब्रह्मभृष्टानां वैराजादीनां पञ्चानां विमानविशे
पाणामाकृतिः वैराजभेदानां संज्ञाः कैलासभेदानां संज्ञाः पुष्पकमणिकत्रिविष्टपाख्यविमानत्रयभेदानां
संज्ञाः एषामुत्तमाधममध्यमानि मानानि अव चतुर्विशतेराजभेदानां लक्षणप्रस्तावः ...
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विषयः सत्र रुचकलक्षणम् चित्रकूटलक्षणम् सिंहपञ्जरलक्षणम् भद्रलक्षणम् श्रीकूटलक्षणम् उष्णीषलक्षणम् शालाख्यलक्षणम् गजयूथपलक्षणम् नन्द्यावर्तलक्षणम् अवतंस् लक्षणम् स्वस्तिकलक्षणम् क्षितिभूषणलक्षणम् भूजयलक्षणम् विजयनन्दश्रीतरुप्रमदाप्रियाभिधानां चतुर्णी
विमानानां लक्षणम् व्यामिश्रहस्तिजातीयकुबेरवसुधाधराणां लक्षणम्... सर्वतोभद्रविमानाख्यमुक्तकोणानां लक्षणम् अथ दशानां कैलासविमानभेदानां लक्षणप्रस्तावः तत्र वलयदुन्दुभिप्रान्तपद्मकान्तचतुर्मुखमण्डू
कास्यानां सप्तानां विमानानां लक्षणम् ... अवशिष्टानां कूर्माद्याख्यानां त्रयाणां लक्षणम् ... अथ दशानां पुष्पकविमानभेदानां लक्षणप्रस्तावः तत्र भवविशालसाम्मुख्याख्यानां लक्षणम् प्रभवशिबिरागृहमुखशालद्विशालगृहराजामल.
विभ्वाख्यानां सप्तानां लक्षणम् चतुरश्रायतानामेषामेव सन्निवेशान्तरप्रदर्शनम् .... अथ दशानां मणिकभेदानां लक्षणप्रस्तावः तत्रामोदरैतिकतुङ्गचारुभूत्याख्यानां पञ्चानां
विमानानां लक्षणम्
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विषयः
निषेवकनिषेधसिंह सुप्रभाख्यानां लक्षणम्
लोचनोत्सव विमानलक्षणम्
अथ दशानां त्रिविष्टपविमानभेदानां लक्षण
प्रस्तावः
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तत्र वज्रकनन्दनशङ्कुवामनमेखललय महापद्मानां लक्षणम् हंस विमानलक्षणम्
व्योमचन्द्रोदयविमानयोर्लक्षणम्
५०.
शुभकराणां प्रासादानां लक्षणम् तद्विपरीतलक्षणेषु प्रासादेषु प्रत्येकं फलानि
प्रासादशुभाशुभलक्षणाध्यायः पञ्चाश:
उत्तमादिभेदेन त्रिधा भिन्नस्य नृपायतनस्य
मानं विन्यासश्च
५१. आयतननिवेशाध्याय एकपञ्चाशः
नृपानुजीविनृपपत्नीगृहाणां देवधिष्ण्यानां च
दिग्भागादिकम्
मन्त्रिसेनानी प्रतीहारपुरोधः प्रासादानां दिग्भागादिकम् राजमातृस्वसृमातुलकुमारप्रासादानां दिग्मा
गादिकम्
द्विजमुख्य सामन्तकुञ्जरारोहभटपौरजनगृहाणां दिग्भागादिकम्
सर्वेषां गृहाणां सामान्यविधिः
इतरेषां गृहाणां भूषणादिभी राजगृहैः साम्यमाधिक्यं च परिहरेदिति वचनम्
अवशिष्टस्य भूभागस्य विनियोगः
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वैराजविमान सामान्य विधिः वैराजविमानप्रभवाः प्रासादविशेषाः
५२. प्रासादजात्यध्यायो द्विपञ्चाशः
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विषयः
:
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तथाविधा अष्टौ शिखरोत्तमाः प्रासादाः ... वैराजजन्मनां सर्वेषामेषां प्रासादानां सर्वकाम
फलप्रदत्वकथनम् एष्वन्यजातिदूषितेषु फलम्
५३. जघन्यवास्तुद्वाराध्यायत्रिपञ्चाश जघन्यवास्तुद्वारप्रमाणम् तत्र पेद्यापिण्डादीनां मानम् रूपशाखाखल्वशाखातुङ्गशाखानां मानम् तुकाया बाह्यतः क्रियमाणानां शाखानां
मानम् तलोदयमण्टपादीनां मानम् उत्तममध्यमयोः प्रासादयोस्तलमानम् कुम्भिकादिषु हीनाधिकमानकल्पननिषेधः ...
५४. प्रासादद्वारमानायध्यायश्चतुष्पञ्चाश:प्रासादद्वारमानम्
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पेद्यामानम्
शाखामानम् उत्तराङ्गमानम् रूपशाखामानम् पीठबन्धमानम् भरणमानम् कपोतमानम् रथिकामानम् द्वारभूषा कपोतादिविधानम् परिमण्डलीकरणम् पद्मपत्रिकामानम् रसनामानम् जवामानम्
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विषयः खल्वशाखामानम् बाह्यशाखामानम् द्वारशाखानां सङ्ख्या शाखानां निर्गमविस्तारयोर्मानम् पिण्डोदुम्बरमानम् तलन्यासमानम् सिंहमुखमानम् त्रिविधं पट्टपिण्डमानम् हीरग्रहणमानम् कुम्भिकोत्कालकयोर्निवेशनप्रकारः उत्तरपट्टतद्धीरयोर्मानम् तदूर्ध्वभागपरिष्करणम् सप्तानां लुमानां संज्ञाः तत्र तुम्बिनीनिष्पादनप्रकारः अन्यासां लुमानां निष्पादनप्रकारः पञ्चविशतिवितानानां नामानि कोलादीनां नागबन्धान्तानां सप्तानां
वितानानां रूपनिर्माणप्रकारः पुष्पकादीनां विद्युन्मन्दारकान्तानां तेषां रूप
निर्माणप्रकारः दशच्छाद्योदयाः सप्त वृत्तच्छाद्योदयाः छाद्यक्षेत्रानुसारेण कल्प्यानि लमामानानि ... छाद्यलमानां गण्डिकाच्छेदादिकम् उत्तमादिप्रासादानां छाद्यनिर्गमाः
___ ... सिंहकर्णलक्षणम्
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Gommam
शुभम् ।
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11 eft: 11 श्रीगणेशाय नमः | महाराजाधिराजश्री भोजदेवविरचितं
समराङ्गणसूत्रधारापरनामधेयं वास्तुशास्त्रम् |
महासमागमनो नाम प्रथमोऽध्यायः ।
देव: स पातु भुवनत्रयसूत्रधारस्त्वां बालचन्द्रकलिकाङ्कितजूटकोटिः । एतत् समग्रमपि कारणमन्तरेण
कायदसूत्रितममूध्यत । येन विश्वम् ॥ १ ॥ सुखं धनानि ऋद्धि सन्ततिः सर्वदा नृणाम् । प्रियाण्येषां तु संसिद्धयै सर्वं स्याच्छुभलक्षणम् ॥ २ ॥
यच्च निन्दितलना (चत्र ) तदेतेषां विघातकृत् । अतः सर्वपादेयं (यद् ) भवेच्छुभलक्षणम् ॥ ३ ॥ देशः पुरं निवास सभा वेश्मासनानि च
वीमन्यच तत्तच्छ्रेयस्करं मतम् || ४ || वास्तुशास्त्रादृते तस्य न स्वालक्षणनिश्वयः । तस्माल्लोकस्य कृपया शास्त्रमेतदुदीर्यते ।। ५ ।।
S भुवनत्रयसूत्रधारः लोकत्रयशिल्पी | शिलवैचित्र्यमुत्तरार्धे प्रतिपाद्यते । समग्र कारणमन्तरेणापि समवायसमवायिनिमित्तात्मना त्रिप्रकारमन्योन्यविलक्षणस्वरूपं लोकप्रतीत कारण कलापं कार्यमात्रसाधारणं विनापीत्यर्थः, जगद्रूपस्य हि कार्यस्यैक एवेश्वर उपादानं निमित्तं चानय इति । अत आकारोले पूर्वमन्यत ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
अथैकदा जगज्जन्महेतुमम्बुरुहासनम् ।
पृथ्वी पृथुभयभ्रान्ता चकिताक्षी समाययौ ॥ ६ ॥
प्रणम्य प्रणतिप्रद्धनिखिलत्रिदशेश्वरम् | सगदमुवाचेति भूतधात्री पितामहम् ॥ ७ ॥
भगवन्नाहमेतेन पृथुना पृथुतेजसा ।
उप ( हू? द्रुता त्वां शरणं प्राप्ता त्रायस्व मां ततः ॥ ८ ॥ चदन्त्यामिति मेदिन्यामाविरासीदयो पृथुः | संरम्भमुक्तहृदयो ब्रह्माणं प्रणनाम च ॥ ९ ॥ जगादैनमथ स्निग्धध्वनिगम्भीरया गिरा । कुर्वस्तद्यानहंसानां पयोदध्वनिशङ्कितम् ॥ १० ॥ त्वयास्मि जगतां नाथ ! जगतोऽधिपतिः कृतः । स्थापितानि च भूतानि सर्वाण्यपि वशे मम ॥। ११ ॥ तेष्वियं मम विश्वेश ! कदाचिद वशवर्तिनी । समीकरोमि पाषाणजालान्यस्याः किलाघुना ॥ १२ ॥
व्यस्तानि धनुषा तावद् गौर्भूत्वेयं पलायिता । argatniserai चिरमन्वगमं महीम् ॥ १३ ॥ Fearfu प्रत्येषा तत्र मामेव पश्यति । अपश्यन्त्यन्यतस्त्राणमदुग्धा त्वामुपस्थिता । १४ ॥ अस्यां वर्णाश्रमस्थानविभागश्च विवास्यते । इयं च दुर्गमानेकक्षोणीघरकुलाकुला ।। १५ ।। विधreastri कथं त्वेतदिति मे शङ्कितं मनः । पृथुनेत्यथ विज्ञतो भगवानव्जसम्भवः ॥ १६ ॥ उवाच बोधयन्नेनं कृत्वा भूमिं च निर्भयाम् । इयं मही महीपाल ! विधिवत् पालिता सती ॥ १७ ॥ सस्यैरुपा (?) निष्पन्नैस्तव भोग्या भविष्यति । यच ते स्यादभिप्रेतं स्थानादिविनिवेशनम् ॥ १८ ॥
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विश्वकर्मणः पुत्रसंवादी द्वितीयोऽध्यायः ।
तप त्रिदशाचार्यः सर्वसिद्धिप्रवर्तकः । 'सुतः प्रभासस्य विभोः स्वस्रीयश्व बृहस्पतेः ॥ १९ ॥ विश्वातिशायिधीः सर्वं विश्वकर्मा करिष्यति । राजन्नस महेन्द्रस्य विधावमरावतीम् ॥ २० ॥ “अन्या अप्यमुना रम्याः पुर्यो लोकभृतां कृताः । त्वया क्षेत्रीकृतां मूर्त्तिदृष्ट्रा साद्रिद्रुमामसौ ॥ २१ ॥ सन्निवेशान् पुरग्रामनगराणां विधास्यति ।
तद् गच्छ वत्स ! लोकानामितस्त्वं हितकाम्यया ॥ २२ ॥ भोज्झिता त्वमप्यु!ि पृथो: मियकरी भव | काले स्मृतः स्मृतः पुण्यो राज्ञः प्रियचिकीर्षया ॥ २३ ॥ antaraanana fवश्वकर्म (न्) ! करिष्यसि । इत्युक्त्वा गमनमुपेयुषि प्रजेशे स्वं स्थानं क्षितिभुजि चाश्रिते मुदोयम् । मालेगावनिभृतमाजगाम खेलत्सिद्धस्त्री परिगतमाशु विश्वकर्मा || २४ ||
इति महाराजाधिराजश्री भोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे "महासमागमनो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥
अथ विश्वकर्मणः पुत्रसंवादो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।
अथ पृष्ठे हिमगिरेः शशाङ्कशुचिरोचिषि । सिद्धामरवधूभुक्तमणिमञ्जुगुहागृहे ॥ १ ॥ विस्तीर्णासनमासीनं सर्वज्ञमथ संस्मृताः । आययुर्विश्वकर्माणं चत्वारो मानसाः सुताः ॥ २ ॥ जयो विजयसिद्धार्थौ चतुर्थश्चापराजितः ।
तमुपागम्य शिरसा नेमुः प्राञ्जलयो मुनिम् ॥ ३॥
१. 'श्रुतप्रभावश्च विभो प्रीतये ते बृहस्पतिः', २. 'सुराणामपि चान्येषां पु', २. ' तवाप्य', ४ . ' विश्वकर्मा करिष्यति' क पाटः | ५. प्रथिव्याख्याना शास्त्रसंबन्धा. (१) प्र' ख पाठः ।
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समराङ्गणमूत्रधारे नांनुवाच मुनिर्वत्सा! विदितं वो यथा पुरा । 'वास्तु ब्रह्मा स(पर्या? सर्जा)दौ विश्वमप्यखिलं तथा ॥ ४ ॥ धर्म्य कर्म तदा श्रेष्ठयप्राप्त्ये लोकावनानि च । व्यवस्थाप्य चकारैष लोकपाल (श्च?स्य) कल्पनाम् ।। ५ ।। अहमप्यमुना विश्वनाथनाम्बुजजन्मना। लोकानां सन्निवासार्थमादिष्टोऽस्मि स्वयम्भुवा ॥ ६ ॥ रम्याणि नगरोद्यानसभास्थानान्यथो मया । मुरासुरोरगादीनां निर्मितान्यात्मबुद्धितः ॥ ७ ॥ गत्वोर्वी "वैन्यनृपतेर्वत्साः ! प्रियचिकीर्पया। नगरग्रामखेटादीन् करिष्यामि पृथक पृथक् ।। ८ ॥ कार्ये त्वमुष्मिन् सकले मम विश्वसृजार्पिते । सम्यक्साहायकेभाव्यं भवद्भिरिति नः स्थितम् ॥ ९॥ यतस्त्रिभुवनालोकप्रद्यातस्याब्जिनीपतेः । सहायतां तमश्छेदे कलयन्ति मरीचयः ॥ १० ॥ स्वयं करिष्येऽहमथो निवासाय पृथोः पुरीम् । विचित्रनगरग्रामखेटांमतिमनोहराम् ॥ ११ ॥ भवन्तः पुनरागत्य चत्वारोऽपि चतुर्दिशम् । तांस्तान् निवेशान् कुर्वन्तु पृथग्जनकृताश्रयान् ॥ १२ ॥ अन्तरेवध्वपाथोधिशैलानां सरितां तथा । विधातव्यानि दुर्गाणि नृपाणां भयशान्तये ॥ १३ ॥ वर्णप्रकृतिवेश्मानि संस्थानानि च लक्ष्मभिः । विधेयानि प्रतिग्रामं प्रतिपूः प्रतिपत्तनम् ॥ १४ ॥
१. 'बास्तुबहा सदा विश्वं व्याप्नोति सकलं जगत् ', २. 'टानतिमनोहरान् । *. पाठः। ३. 'णि संजारामय ' ख. पाठः ।
* वैयनृपतेः वेनसूनोभूपतेः पृथोरित्यर्थः ।
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प्रश्नस्तृतीयोऽध्यायः । तानित्थमात्मतनयानभिधाय सम्यक्
सारार्थभूतमपरिस्फुटतोज्झितं च । 'स्थानार्पितोरुभरनिवृतचित्तवृत्ति
स्तूष्णी प्रभासतनयो नयविज्जगाम ।। १५ ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्न वास्तुशास्त्रे
*विश्वकर्मणः पुत्रसंवादो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥
अथ प्रश्नो नाम तृतीयोऽध्यायः ।
अथ तेषु जयो नाम वाक्यं तद विश्वकर्मणः । श्रुत्वा कृताञ्जलिः प्राह स्निग्धगम्भीरया गिरा ॥१॥ ज्ञानैकनिधिरप्यस्मान् यत् सहायतया किल । वृणोषि तेन न वयमात्मानं बहुमन्महे ।। २ ।। तदिदानी हितार्थे नः प्रजानामपि च प्रभो!। अप्रमेयप्रभावस्त्वं सर्वमाख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥ पूर्वमेकार्णवे जाते जगति प्रलयं गते । महाभूतामरपुरीज्योतिषां कथमुद्भवः ॥ ४ ॥ किमाकारा किमाधारा किंप्रमाणा च मेदिनी । विस्तृतिः परिधिवास्या बाहुल्यमपि कीदृशम् ॥ ५ ॥ उच्छायव्यासदीर्घत्वैः के केऽस्यां कुलभूभृतः । कति ख्यातानि वर्षाणि द्वीपा नद्योऽब्धयस्तथा ॥ ६॥ काः सूर्येन्दुग्रहादिगतयश्च पृथक्पृथक् । भूमेरुपरि किं चैषामन्योन्यं प्रोक्तमन्तरम् ॥ ७॥
१. 'स्थानार्पणातिशयनि', २. 'जयविजयसिद्धार्थापराजितमुतागमनो नाम' का पाठः । ३. 'प्रभोः 'ख. पाटः।
5 तूष्णीं मौनमित्यर्थः ।
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समराङ्गणसूत्रधार किमाधारं दिवि ज्योतिश्चक्रं भ्रमयते च कः। लोके कथं महाभूतान्यूर्वाधो विभ्रति स्थितिम् ॥ ८ ॥ युगधर्मव्यवस्थाभिः काश्चादौ लोकवृत्तयः । कश्चादिमस्ततो राज्ञां ग्रहाणां वर्णिनां कथम् ॥ ९ ॥ कति देशाः कति भुवः पृथक्त्वेन निरूपिताः । कार्यः क च कथं सन्निवेशो जनपदाश्रयः ॥ १० ॥ व्यक्तचिह्नः स्वनस्पर्शगन्धवर्णरसादिभिः । काः शस्ता निन्दिताः काच पुराणामपि भूमयः ॥ ११ ॥ कार्य केन विधानेन भूभृत्पुरनिवेशनम् । किं फलं सुनिविष्टेऽस्मिन् दुनिविष्टे च किं पुनः ॥ १२ ॥ कतिप्रकारं दुर्ग च दुर्गकर्मक्रमश्च कः । किमग्रपुरसंस्थानमनिन्द्यं किं च निन्दितम् ॥ १३ ॥ कश्चात्रानुक्रमविधिः प्रमाणैरुपपादितः । प्राकारगोपुराट्टालपरिखावप्रकर्म च ।। १४ ।। तमङ्गनिर्गमद्वारमतोल्यट्टालकादिभिः । कीदृशः प्रविभागश्च रथ्याचत्वरवमभिः ॥१५॥ भूमिप्रमाणसंस्थानं सीमा च क्षेत्रदिक्पथैः । नगरपामखेटानां निवेशाः स्युः पृथक्पृथक् ॥ १६ ॥ पुरस्याभ्यन्तरे पूर्व कै व्यावयवक्रमैः । कस्मिन् स्थाने कथं कार्य शक्रवजनिवेशनम् ।। १७ ॥ प्रतिसंवत्सरं तस्य नियुक्तस्य कथं पुनः। हिताय नृपलोकानां विधातव्यो महोत्सवः ॥ १८ ॥ गृहेषु केषु केष्वत्र कासु कासु ककुप्सु च । भागैर्वाह्यान्तरेः कैः कैः कार्याः काः काश्च देवताः॥१९॥ कैः कर्यानपरीवारवर्णरूपविभूपणैः । कार्याः कैः कैः सुरा वस्त्रवयोवेपायुधध्वजैः ॥ २० ॥ १ 'भू' क, ग, पाठः।
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प्रश्नस्तृतीयोऽध्यायः । प्रमाणमितिसंस्थानसट्यानोच्छ्यलक्ष्मभिः । प्रासादाः कस्य के वा स्युः सुरराजद्विजातिषु ॥ २१ ॥ प्राकारपरिखागुप्तं पुरे स्याद् गोपुरं क च ।।
युग्ममध्याम्बुवेश्मानि क च स्युः क महानसम् ।। २२ ।। कोष्ठागारायुधस्थानभाण्डागारनिवेशनैः । च्यायामनृत्तसङ्गीतम्नानधारागृहादिभिः ॥ २३ ॥ शय्यावासगृहप्रेक्षावेश्मादर्शगृहैः पृथक । क्रीडादोलाश्रयारिष्टगृहान्तःपुरवेश्मभिः ।। २४ ।। विटक्कभ्रमनिमूहकक्षासंयमनादिभिः । अशोकवनिकाभिश्च लतामण्डपवेश्मभिः ।। २५ ॥ वापीभिरुगिरिभिश्चित्राभिः पुष्पवीथिभिः । एतर्विशेषैरन्यैश्च विचित्रैर्विपिनाश्रयैः ॥ २६ ॥ मानोन्मानक्रियायामद्रव्याकृतिविनिर्मितः । निकेतननिवेशः स्याद् राज्ञां भागाश्रितः कथम् ॥ २७ ॥ पुरोधःसैन्यभूश्रेष्ठदैवचिन्तकमन्त्रिणाम् । कं कं च भागं प्राप्य स्युनिवेशा नृपवेश्मनः ॥ २८ ॥ पुरे स्युर्दिक्षु भागेषु पदभागेषु केषु च । विप्रराजन्यविन्शूद्रास्तन्जेरन्तरजैः समम् ।। २९ ॥ तथा कृषितुलाशिल्पकलापण्योपजीविनः । हिंसाश्रिताश्च पुरुषा निवेश्याः स्युः कथं क्व च ॥ ३० ॥ निवेशाः कीदृशाश्चैपां कियन्तो वा भवन्ति ते । शस्यन्ते केन वा केषां के प्रवेशजलभ्रः ॥ ३१ ॥ धिष्ण्यमायं कतिायं द्रव्याण्याद्यानि कानि वा । हेतुरेषां च सर्वेषां स्याच काहगनुक्रमः ॥ ३२ ॥
युग्मं मिथुन मध्ये येषां तानि युग्ममाव्यानि भीडागृहाणि तानि च अम्बुवेदानि चेति द्वन्दूममामः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे भजन्ते योगमन्योन्यं कानि द्रव्याणि कैः सह । कानि योगं न गच्छन्ति कैर्वा कः क्व वसेत् पुमान् ॥ ३३ ॥ इष्टकाकर्म किं चेष्टं कीर्तिता कतिधा च भूः । परिकर्मक्रमस्तासां वयम्बुपवनैश्च कः ॥ ३४ ॥ गुरुवर्णिध्वजोर्वीशतनृत्यप्रतिमा(?) पुराम् । वृक्षाः के के प्रशस्ताः स्युर्यहार्थे के च गर्हिताः ॥ ३५ ।। तच्छेदसावसंभूतं शब्ददिक्पातगर्भजम् । विज्ञायते कथं कर्तृकारकादिशुभाशुभम् ।। ३६ ॥ प्रमाणं तक्षणच्छेदैः शोधितानां कथं भवेत । आहृत्य स्थापनं पूर्व दारूणां स्थानके क्व च ।। ३७ ॥ सामान्यतोऽखिलानां काः काश्च जातेर्विशेषतः । प्रशस्तैलक्ष्मभिर्युक्ता भूमयः परिकीर्तिताः ॥ ३८ ॥ शल्योद्धारविधिः कीदृक् कीदृशं भूमिकर्म च । दिग्ग्रहः मूत्रणं चाधिवासनं च कथं भवेत् ॥ ३९ ॥ प्रमाणं मूलपादस्य शिलान्यासे च को विधिः । विभज्यते कथं वेश्म शालालिन्दविभाजनैः ॥ ४० ॥ मानानि कानि भित्तीनां पीठानामुच्छ्रयाश्च के । कथं तानि विकल्प्यानि वर्णानां मेखलादिभिः ॥ ४१ ॥ समस्तकानां स्तम्भानां द्वारस्तम्भासनैः सह । नागवीथ्युपधानानां समं कण्ठविनिर्गमैः ॥ ४२ ॥ जयन्तीसङ्ग्रहतुलाकार्याणां वास्तुनोऽपि च ।। कीदृशं फलकानां च प्रमाणं परिकीर्तितम् ।। ४३ ।। स्वमानात सर्ववर्णानां तलोच्छायास्तु कीदृशाः । का गवाक्षकपोतालिवेदिकाजाल कक्रियाः ॥ ४४ ॥ स्थूणा निसृष्टिकोत्मूका मृगाल्यो?ल्यु)पतुलास्तथा । सान्तःप्राणिशिरोवंशाः किंप्रमाणाः प्रकीर्तिताः ॥ ४५ ॥
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1. 'साधिताना' स्व. ग. पाटः । २. शिल्पाभ्यामे', ३. 'णिष्टि न. पाटः ।
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प्रश्नस्तृतीयोऽध्यायः । छायोदयाः कियन्तः स्युर्वृत्तच्छाद्यक्रमश्च कः। त्र्याणां खण्डवृत्ताला लुगानां च क्रियाः कथम् ।। ४६ ।। सीमालिन्दशिर(स्त्वा?स्वा)सां कीदृशी चावलम्बना । कतिप्रकाराः प्रासादशिरसां च विकल्पनाः ॥ ४७ ।। यच्चान्यदेवमादि स्यात् प्रासादभवनादिपु । 'द्रव्यकाष्ठकलासङ्गि प्रमाणं तस्य कीदृशम् ।। ४८ ।। शालालिन्दप्रमाणानि चतुःशालेषु धामसु । ज्यायोमध्ययत्रीयस्सु मूपाभिः काष्ठकल्पना ।। ४९ ॥ एकद्वित्रिचतुःशालान्येषां संयोगतोऽपि च । कथं कति च वेश्मानि कल्प्यन्ते प्रविभागशः ॥ ५० ॥ कथं च पोडशचतुःपष्टयेकाशीतयः शतम् । संविभागाः पदानां स्युः कथमत्रामरस्थितिः ॥ ५१ ॥ आयो नवपदो वास्तुरन्त्यः साहसिकः कथम् । अङ्गप्रत्यङ्गभागेषु केषु केपु क तस्थुषः ।। ५२ ।। कथमेते सुराः सर्वे वास्तोरस्य व्यवस्थिताः । एतद्वंशशिरश्चक्षुःकुक्षिवृन्मूर्धमर्मसु ॥ ५३ ॥ जायेत पीडा द्रव्येषु सन्निविष्टेषु कस्य का । वास्त्वारम्भप्रवेशेषु यात्रायां स्थापनेषु च ॥ ५४ ॥ दुतस्वप्ननिमित्तायैः कथं ज्ञेयं शुभाशुभम् । दारुक्रियासु चित्रेषु तथा लेप्यक्रियासु च । ५५ ।। योज्यं किं किमयोज्यं च किं भूपभवनादिषु । हस्तस्य लक्षणं मानसंज्ञा व जायते कथम् ॥ ५६ ॥ किं हव्येष्वग्निलक्ष्म स्यात् किं च नियुक्तलक्षणम् । अनुक्रमेण वर्णानां बलिकर्म च कीदृशम् ॥ ५७ ॥ विधेयं विधिना केन भवने च प्रवेशनम् ।
पतिते स्फुटिते जीणे प्लुष्टे वाशनिक्षते ॥ ५८ ॥. १. 'द्रव्यं' क. पाटः । २. “र:कक्षकु', ३. 'अङ्गप्रत्यङ्गयोज्यं किं किं भू स्व. पाटः।
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समराङ्गणसूत्रधारे निमग्नभग्ननिर्भिन्नप्रशीर्णेषु च वास्तुषु । मधुवल्मीकसंभूतौ प्रविरूढे च दारुणि ।। ५९ ॥
जायते किं फलं कुत्र प्रायश्चित्तेन को विधिः । इत्येवमादिकमनेकविध विधानं वेश्मोपगं च पृथगाश्रयसंभृतं च । अस्मास्वनल्पकरुणादितचित्तवृत्तिर्व्याख्यातुमर्हसि सगस्तमनुक्रमेणा॥६०॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
प्रश्नाध्यायस्तृतीयः ॥
अथ महदादिसर्गश्चतुर्थोऽध्यायः ।
जयस्येति समाकर्ण्य विश्वकर्मा च तद् वचः । जगाद गर्जदम्भोदध्वनिगम्भीरया गिरा ॥१॥ साधु वत्स! त्वया सम्यक् प्रज्ञयातिविशुद्धया । प्रश्नोऽयमीरितो वास्तुविद्याब्जवनभास्करः ॥ २ ॥ स त्वं निधाय प्रश्नानां समुदायममुं हृदि । वदतो मेऽवधानेन शृणु यद् ब्रह्मणोदितम् ॥ ३ ॥ इदमासीद् युगान्ताग्निप्लुष्टं संवर्तकादिभिः । समुत्सृजद्भिरम्भांसि विश्वमेकार्णवीकृतम् ॥ ४ ॥ तमोभूते ततस्तस्मिन् भोगिपर्यङ्कमाश्रितः । हरिः सुष्वाप सलिले कृत्वोदरगतं जगत् ।। ५ ॥ अथास्य नाभावम्भोजमभूत् तस्मिन्नजायत । सर्वज्ञानाश्रयः श्रीमांश्चतुर्वक्त्रः सुरेश्वरः ॥ ६ ॥ स कदाचिद् दधचेतः प्रजासृष्टिं प्रति प्रभुः । महान्तमसृजत् तत्र पूर्व विश्वस्य हेतवे ॥ ७ ॥
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महदादिसर्गश्चतुर्थोऽध्यायः ।
त्रिधाहङ्कृतमेतस्मान्मनोऽभूत् सात्त्विकादतः ।
राजसादपि चाक्षाणि तन्मात्राणि च तामसात् ॥ ८ ॥
तेभ्यः पञ्च महाभूतान्याविरासन्ननुक्रमात् । व्योमादीनि धरान्तानि स्त्रैः स्वैर्युक्तानि तैर्गुणैः ॥ ९ ॥
अधरोत्तरभावश्च सम्यगेषामथोच्यते । आदौ पृथ्वी ततोsधस्तादापस्तासां च पावकः ॥ १० ॥
तस्याप्यधस्तात् पवनस्ततः खमवकाशदम् । भूतादिस्थं वियत् सोऽपि महता परिवारितः ॥ ११ ॥ महांश्च विशति व्यक्तं व्यक्तमव्यक्तकं पुनः । ग्राहयग्राहकभावेन व्यक्तको भूतसमुद्भवः || १२ | आधाराधाभाव यथार्थी च स्थितिव्ययौ । महाभूतानि सगुणान्येवं सृष्ट्रा ततः प्रभुः ॥ १३ ॥ मनः पुनरसौ सर्गे भौतिके सम्यगादधौ । सुरासुरान् सगन्धर्वान् यक्षरक्षांसि पन्नगान् ॥ १४ ॥
'नागान् मुनीनप्सरसो मनसा समजीजनत् । अर्केन्दु चक्षु (पी? पो) जातो गगनभ्रमणक्षमौ ॥ १५ ॥
गात्रेभ्योऽपि च नक्षत्रचक्रमस्मादजायत । इन्द्रियेभ्यश्च पञ्चभ्योऽभूत् ताराग्रहपश्चकम् ॥ १६ ॥ ग्रहत्वं पुनरेतेषामिन्द्रियग्रहणाद् विदुः । सुरेन्द्रचापचिह्नानां विद्युद्वलयशालिनाम् ॥ १७ ॥ भीमाशनिभृतां चासीत् केशेभ्योऽम्बुचां भवः । विश्वमापूरयन् कृत्स्नमाविरासीत् तदिच्छ्या ॥ १८ ॥
त्रिलोकीपानस्तिर्यग्गामी चण्डः समीरणः । ततश्चण्डानिलोतमुपशुतापितम् ।। १९ ।।
१.१
१.
' ( सावित्री पुनरप्सरसः १ सावित्रीं चाप्यप्सरसः ) ' ख, ग पाठः । २. ' ' पाठः
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सभराङ्गणसूत्रधारे वायुभिः शौपमानीतं जगाम घनतां पयः । तस्योपरिष्टादम्भोधेरधः कुण्डलितं वपुः ॥ २० ॥ विष्णोः (सच्या? शय्या)त्वमभ्येत्य धत्तेऽनन्तोऽखिलां भुवम् । न तप्तं येषु येष्वम्भः प्रदेशेष्वर्करश्मिभिः ॥ २१ ॥ नीतं न वानिलैः शोपं तत्र तत्राब्धयोऽभवन् । महाम्भोवीचिसङ्घाता विक्षिप्ताश्चण्डमारुतैः ॥ २२ ॥ यत्र यत्रापुरैक्यं ते तत्र तत्राद्रयोऽभवन् । निश्चलत्वार्थमवनिश्चर्मवद् वितताथ तैः ॥ २३ ॥ शैलैः कीलैरिव स्थानेष्वाचिता तेषु तेष्वियम् । वृद्धिं गताद्रिनिःष्यन्दैर्भूभृतां प्रविभागजा ॥ २४ ॥ निम्नगाभूत् ततोऽम्भोधेः कान्ता निम्नानुसारिणी । मेदिन्यन्तेषु जलधिपर्यन्तेषु विनिर्ययुः ॥ २५ ॥ अम्भांसि यत्र यत्रासंस्ते द्वीपाश्चित्ररूपिणः । सनिम्नगाम्बुधिद्वीपा विभक्ताखिलभूधरा ।। २६ ।। व्यक्ता बभूव कृत्स्नैव भूगिर्भूतानि विभ्रती । स चक्रे रौरवादीनां निरयाणामधः क्षितेः ॥ २७ ॥ स्वकर्मफलभुक्त्यर्थं स्थानं दुष्कृतकर्मणाम् । जरायुजाण्डजोद्भिज्जस्वेदजैः सह स प्रभुः ॥ २८ ॥ चतुर्धेत्यमजल्लोके भूतग्रामं चराचरम् । देवा जरायुजास्तत्र मनुष्याः पशवस्तथा ।। २९ ।। ग्राम्याः सप्ताभस्तेषु सप्तारण्यकृतालयाः । पुमान् गौस्तुरगच्छागौ मेपो वेगसरः खरः ॥ ३० ॥ ग्रामवासेकनिरताः सप्ते परिकीर्तिताः। सिंहद्विपोष्ट्रमहिपा शरभो गवयः कपिः ॥ ३१ ॥
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भुवनकोशः पञ्चमोऽध्यायः । अरण्यगोचरा जीवाः सप्तैते वत्स! निर्मिताः । धर्माधर्मविवेकित्वाच्छ्रेयान् ग्राम्येपु पूरुषः ।। ३२ ।। अरण्यचारिपु श्रेष्ठः सिंहः शौर्यबलादिभिः । सुपर्णों भुजगाः कीटाः येऽपि च स्युः पिपीलिकाः ॥ ३३ ॥ चतुर्धेत्यण्डजन्मानो जन्मिनस्ते प्रकीर्तिताः। 'लेद (केपीकेश)समुद्भूताः कृमियूकादिजन्तवः ॥ ३४ ॥ सर्वेऽपि स्वेदजन्मानस्ते प्रजापतिना कृताः। उद्भिज्जाः पञ्चधा भू(त्वा? त्था) निर्दिष्टाः स्थावराश्च ते ॥ ३५॥ दुमा वल्ल्यश्च गुल्माश्च वंशाः सतृणजातयः।। छन्नान्तःकरणत्वं च स्वस्थानात्यागितापि च ॥३६ ॥ छिन्नप्ररोहिता चैषां वैशेषिकगुणत्रयम् । गायत्री भूतसंह(पां? पा) चतुर्विंशतिपर्विका ।। ३७ ॥ ज्ञात्वैनां पुरुषः पुण्यां भवति स्वर्गभाजनम् । भुवनभूजलवझिमरुद्वियत्प्रमुख एप भवस्तव कीर्तितः । वसुमतीपरिमाणविनिश्चयं कथयतः शृणु सम्प्रति वत्स! मे ॥३८ । इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
महदादिस(गा ? गा)ध्यायचतुर्थः ॥
अथ भुवनकोशः पञ्चमोऽध्यायः।
अथो यथाक्रमं भूमेः कृत्स्नायाः कथयामि ते । विष्कम्भपरिधी वत्स ! वाहुल्यमपि च स्फुटम् ॥ १ ॥ विष्कम्भोऽस्याः समुद्दिष्टो दशयोजनकोटयः । लक्षाण्यपि च मेदिन्यास्तद्वदेकोनविंशतिः । विष्कम्भत्रिगुणो यावद विष्कम्भांशश्च पञ्चमः ॥ २॥ . १. 'क्लेशकोपुस : (१), २. 'ये' ख, ग. पाटः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे मेदिन्याः परिधिस्तावोजनैः परिकीर्तितः । द्वात्रिंशत्कोटयः पष्टिलक्षाणि परिधिः क्षितेः ॥३॥ अशीतिश्च सहस्राणि योजनानां प्रकीर्तितः । योजनानां सहस्राणि विंशतिर्लक्षयोयम् ।। ४ ।। इति बाहुल्यमेतस्याः क्षितेर्वत्स ! तवोदितम् । चतुर्णा सलिलादीनां भूतादेर्महतोऽपि च ॥ ५ ॥ उत्तरोत्तरमुर्वीतो मानं शतगुणं विदुः । तोयादिपु स्थितेयं भूश्चक्रवद् वृत्तशालिनी ॥ ६ ॥ पात्रस्थापरपात्रश्रीहारीण्यन्यान्यपि क्रमात् । प्रमाणमिदमेतेषां क्षित्यादीनां तवोदितम् ॥ ७ ॥ द्वीपादीनां तु पाथोधिनिवेशः पुनरुच्यते । दीपानामम्वुधीनां च सप्तानामपि मध्यगः ॥ ८॥ जम्बूद्वीपो भवेद् वृत्तः सहस्रर्शतविस्तृतः । हिमाद्रिहेमकूटाख्यो निषधो नीलसंज्ञितः ॥९॥ श्वेतः शृङ्गी च षडमी भवन्त्यस्मिन् कुलाचलाः । एतस्मादुत्तरेणाद्रेस्तुपाराङ्कितमेखलात् ॥ १० ॥ पूर्वापरायताः सर्वेऽप्यद्रयो यावदम्बुधि । अन्तरा नीलनिषधो जम्बूद्वीपस्य नाभिगः ॥ ११ ॥ वृत्तः पुण्यजनाकीर्णः श्रीमान् मेरुमहाचलः । उदग्याम्यायते मेरोः प्राग्भागे माल्यवान् गिरिः ॥ १२ ॥ सेवितः सिद्धनारीभिरानीलनिषधायतः । सुमेरोः पश्चिमेनाद्रिर्गन्धर्वकुलसकुलः ॥ १३ ॥ माल्यवत्सदृशायामो महीभृद् गन्धमादनः । पर्वतावुभयान्तस्थौ हिमवान् शृङ्गवांस्तथा ॥ १४ ॥
१. 'वर', २. 'हार', ३. 'पावनीषु पाोधेर्निवे' ख, ग, पाटः । ४. 'समवि' क. पाठः।
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भुवनकोशः पञ्चमोऽध्यायः योजनानां सहस्र दे सार्धे स्यादुच्छ्रयस्तयोः । श्वेतश्च हेमकुटश्चेत्यन्तयोः पृथिवीधरौ ।। १५॥ योजनानां सहस्रार्धमेकैकस्योच्छ्रयस्तयोः । निषधाचलनीलाद्रिमाल्यवद्गन्धमादनाः ॥ १६ ॥ सहस्रयोजनोच्छ्रायाचत्वारोऽमी पृथक्पृथक् । एतेऽष्टावपि शैलेन्द्राः सहस्रदयविस्तृताः ।। १७ ॥ उच्छ्याधमधश्चापि विलग्नाः सह मेरुणा । मेरोः समुच्छ्योऽशीतिः सहस्राणि चतुर्युता ।। १८ ॥ षोडशाधः सहस्राणि द्वात्रिंशन्मूर्तीि विस्तृतिः । जम्बूतर्महान् मध्ये सुमेरोर्निपधस्य च ।। १९ ॥ दीपस्यामुष्य ययोगाज्जम्बूद्वीप इति श्रुतिः। शृङ्गैर्हिमशिलानद्धैः सर्वतो हिमवानयम् !। २० ॥ महान्तो निवसन्यत्र पिशाचा यक्षराक्षसाः । कूटेहेममयेहेमकूट इत्यवनीधरः ॥ २१ ॥ यं सर्वतो निपेवन्ते सदा चारणगुह्यकाः । तरुणाकेप्रभाजालप्रतिमो निषधाचल: ।। २२ ॥ निवसन्ति सुखं तत्र शेषवासुकितक्षकाः। हेमाजकर्णिकाकारः सुमेरुर्मणिकन्दरः ॥ २३ ॥ अत्रामराः साप्सरसस्त्रयस्त्रिंशद् वसन्ति ते । वैडूर्यनद्धैः शिखरैनीलो नीलमहीवरः ॥ २४ ॥ कलयन्ति तपोनित्या यत्र ब्रह्मर्षयः स्थितिम् । श्वेतः स काञ्चनैः शृङ्गैर्गगनोल्लेखिभितः ।। २५ ।। दोर्दर्पशालिनां यत्र निवासस्त्रिदशदिषाम् । महानीलमयो बर्हि पिञ्छच्छायो बहिर्महान् ।। २६ ॥ १. 'द्वे द्वे साधे उच्छु' ख. ग. पाटः । २. 'त', ३. 'ततो नि', ४. 'स्थिताः'
क पाटः।
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समराङ्गणसूत्रधारे पितृणामालयः शृङ्गेरुच्छ्रितेः शृङ्गवान् गिरिः।। हिगांचलस्य याम्येन क्षाराधिकृतमन्यतः ॥ २७ ॥ वर्ष स्याद् भारतं नाम प्रथमं कामुकाकृति । तुषारनिलयस्यादेमकूटाचलस्य च ।। २८ ॥ मध्ये किंपुरुषं नाम द्वितीयं वर्षमीरितम् । अन्तरे हेमकूटस्य निषधस्य च भूभृतः ।। २९ ॥ हरिवर्पमिति प्रोक्तं तृतीयं वर्षमुत्तमम् । निपधाचलनीलाद्रिमाल्यवद्गन्धभूभृताम् ।। ३० ॥ चतुर्णा मध्यगं वर्ष तुर्यमस्मिन्निलावृतम् । उत्तरे नीलशैलस्य याम्ये च श्वेतभूभृतः ॥ ३१ ॥ पञ्चमं वर्षमत्यर्थरम्यं रम्यकसंज्ञितम् । श्वेतशृङ्गवतोः शैलराजयोरनयोरिह ।। ३२ ॥ मध्ये पष्ठं हिरण्यांशुरम्यं हैरण्यकाट्यम् ।
अस्योत्तरे शृङ्गवतो याम्ये च क्षारवारिधेः ॥ ३३ ॥ कुरुवर्षाभिधं वर्षमुत्तरेण प्रचक्षते । अन्तरा नीलनिपधो प्राग्भागे माल्यवगिरेः ॥ ३४ ॥ भद्राश्चमष्टमं वर्ष प्राक्समुद्रान्तमीरितम् । गन्धमादनशैलस्य प्रत्यक् प्राक् चापराम्बुधेः ॥ ३५॥ नवमं वर्षमाचार्याः केतुमालं प्रचक्षते । इति प्रोक्तानि वर्षाणि नवामूनि मया तव ।। ३६ ॥ साम्प्रतं पुनरेतेषां प्रमाणमवधारय । प्रमाणेन सहस्राणि चतुस्त्रिंशचतुर्दिशम् ॥ ३७ ॥ योजनानामिहेच्छन्ति चतुरश्रमिलावृतम् । प्राक्प्रत्यग्भागो वर्ष तस्योदग्याम्यतः समे ॥ ३८ ॥
१. 'मध्यतः' ख. ग. पाठः
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भुवनकोशः पञ्चमोऽध्यायः । एकत्रिंशत्सहस्राणि किञ्चित् प्राक्प्रत्यगायते । यान्युक्तानि पडन्यानि वर्षाण्येभ्योऽवराणि *ते ॥ ३९ ॥ तेषां नवसहस्राणि प्रत्येकं विस्तृतिर्मता । . वर्षे किम्पुरुषे नार्यो नराश्च प्लक्षभोजनाः ॥ ४० ॥ जीवन्त्ययुतमब्दाना जात्यजाम्बूनदत्विपः । हरिवर्षे नरा नार्यो वसन्तीक्षुरसाशिनः ॥ ४१ ॥ सायुतं च सहस्रं ते जीवन्ति रजतत्विषः । इलाहते नराः पद्मरागभासोद्गतास्तथा ।। ४२ ॥ जम्बूफलरसाहाराः सपादायुतजीविनः ।। नास्मिन् मेरुतदच्छन्ने तारकार्केन्दुरश्मयः ॥ ४३ ॥ स्वाङ्गप्रभाभिः किन्त्वत्र कृतोद्योता वसन्त्यमी । कैरवोदरसच्छाया भद्राश्वे साङ्गना नराः ॥ ४४ ॥ नीलाम्रकफलाहारा भवन्त्यत्रायुतायुपः । दलत्कुवलयश्यामाः केतुमाले शरीरिणः ॥ ४५ ॥ शरदामयुतं तेषामायुः पनसभोजिनाम् । श्वेताभो रम्यके रम्ये न्यग्रोधफलभुग जनः ॥ ४६ ।। हरिवर्ष इव प्रोक्तमेतस्मिन् मानमायुपः । श्यामत्विषः स्त्रियो वर्षे पुमांसश्च हिरण्यके ॥ ४७ ।। जीवन्त्ययुतमब्दानां सर्वेऽपि लकुचाशिनः । कुरुष्वभीष्टदैवृक्षर्जीवन्ति स्त्रीयुता नराः ॥ ४८ ।। सपादमयुतं देवगर्भभा गौरकान्तयः । पुण्यकर्मा वसत्येषु वर्षेषु निखिलो जनः ॥ ४९ ॥ शोकव्याधिजरातङ्कशङ्कोन्मुक्तः सदासुखी । वनैः कीर्णानि सर्वाणि कुसुमस्तबकानतैः ॥ ५० ॥ उद्भिज्जाद्भिर्नदीभिश्च तेस्तैस्तुङ्गैश्च पादपः । उदञ्चद्वीचिमालेन लारणेनाधिना वहिः ॥ ५१ ॥ * ते तव ।
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समराङ्गणसूत्रधारे परिक्षिप्तोऽयमुक्तस्ते जम्बूद्वीपो मयाखिलः । द्वादशाम्बुनिधावत्र पृथग् भूमिभृतः स्थिताः ।। ५२ ॥ अयस्त्रयो दिशि दिशि स्फारोर्मिस्थगितोपलाः । मैनाकश्च बलाहश्च चक्रनामा च दक्षिणे ॥ ५३॥ नारदाख्यो वराहाख्यः सौमकाख्यश्च पश्चिमे । उदग्भागेऽपिच द्रोणकङ्कचन्द्रा इति त्रयः ॥ ५४ ।। धूम्रको दुन्दुभिश्चैव सार्द्रकश्चेति पूर्वतः । सहस्रं योजनानां ते दीर्घास्तस्यार्धमुच्छ्रिताः ।। ५५ ॥ मनास्तदर्धगम्भोधौ विस्तृताश्व धराधराः । जुष्टाः सर्वे सुरैः शृङ्गप्रौहिलीढविहायसः ।। ५६ ॥ ज्वलितोषधयः कान्तविचित्रद्रुमवीरुधः । द्वीपाः शाककुशक्रौञ्चशाल्मल्य इति च क्रमात् ।। ५७ ॥ गोमेदः पुष्कराख्यश्च षडमी बाह्यतः स्थिताः । क्षीराज्यदधिमोक्षुरसस्वाद्वम्भसोऽर्णवाः ।। ५८ ॥ द्वीपान शाकादिकानेते परिवार्य स्थिताः क्रमात् । स्वद्वीपतुल्याः सर्वे ते प्रमाणेन यथाक्रमम् ॥ ५९ ।। अमी शाकादयो द्वीपा जम्बूद्वीपप्रमाणतः । यथाक्रमं स्युढिगुणास्तथाम्भोनिधयोऽपिच ॥ ६० ॥ शाके सप्ताद्रयस्तेषूदयो जलधरस्तथा । नारको रेवतः श्यामो राजतोऽथाम्बिकेयकः ॥ ६१॥ चतुःसाहसिकस्तेषां विष्कम्भोऽय समुच्छ्रयः । तदर्थं भूप्रदेशश्च सेवितानां सुरर्षिभिः ।। ६२ ॥ वृत्तानां द्वीपवत् तेषां बाह्यतोऽभून्यनुक्रमात् । वर्षाणि सन्निविष्टानि सप्त तानि ब्रवीमि ते ॥ ६३ ॥ जलदाख्यं कुमारं च सुकुमारं मणीचकम् । कुसुमोत्तरमोदाकीमहाद्रुमवनानि च ॥ ६४ ॥ १. 'तालकु', २. 'जा' ख. पाठः। ३. 'जयः' ग. पाठः ।
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भुवनकोशः पञ्चमोऽध्यायः । कुशे विद्रुमहेमाख्यौ द्युतिमानथ पुष्पवान् । कुशेशयो हरिक्ष्माभृन्मन्दरश्च कुलाचलाः ॥ ६५ ।। विष्कम्भोऽष्टसहस्राणि तेपां प्रत्येकमीरितः । तदर्धमुच्छ्यस्तद्वदुच्छ्याधेमधोगमः ॥ ६६ ॥ उद्भिदं वेणुवत्संज्ञं 'सरालमथ लम्बनम् । वर्ष श्रीमत् प्रभाकृच्च कपिलं पन्नगाभिधम् ॥ ६७ ॥ क्रौञ्चे क्रौञ्चोऽन्धकारश्च देवो गोविन्दवामनौ । द्विविदः पुण्डरीकश्चेत्यस्मिन् सप्त कुंलाद्रयः ॥ ६८ ॥ विष्कम्भोऽयुतमेतेषां विष्कम्भाधं समुच्छ्रयः । अधोगतिस्तदर्थं च वर्षाण्येषां तु बाह्यतः ॥ ६९ ॥ कुसलाख्याष्टवर्षाख्ये परापतमनोनुगे। मुनिवर्षान्धकाराख्ये सप्तमं दुन्दुभीति च ॥ ७० ॥ गिरयः शाल्मलिद्वीपे रक्तः पीतः सितस्तथा । वैपुल्यमेषां द्वात्रिंशत्सहस्राणि प्रचक्षते ॥ ७१ ॥ वैपुल्या समुच्छ्रायस्तदर्धमवनौ गतिः।। वर्षे शान्तभयं वीतभयं चेत्यत्र संस्थिते ॥ ७२ ॥ गोमेदे तु सुरश्चेति कुमुदचेति भूधरौ । योजनानां चतुःषष्टिस्तौ सहस्राणि विस्तृतौ ।। ७३ ॥ उच्छायो विस्तरस्या) तदर्धं चाप्यधोगतिः । धातकीखण्डनामास्य मध्ये वर्षमुदीरितम् ॥ ७४ ।। अस्त्यद्रिः पुष्करद्वीपे मानसोत्तरसंज्ञितः । बाह्यतो वर्षमेतस्य महावीतमिति स्मृतम् ।। ७५ ॥ विस्तृतोष्टौ सहस्राणि शैलोऽयं द्वे तथायुते । सहस्रशतमन्यच्च सुरसिद्धर्षिसेवितः ।। ७६ ॥ व्यासार्धेनोच्छ्रयस्तस्य तदर्धेनाप्यधोगमः । सुरेशानां नगर्योऽस्मिन् मया वत्स! निवेशिताः ॥ ७७ ।। - १. 'स्वराल' ख., 'स्वाराल' ग, पाटः । २. 'कुलाचलाः' ख, ग, पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधार ऐन्द्री वस्वोकसारा प्राग याम्या संयमनी ततः । पाचेतसी सुखा पश्चात् तथा सौम्युत्तरे विभा ॥ ७८ ॥ धर्मरक्षार्थमेतासु चत्वारश्चतसृष्वपि । तथा लोकव्यवस्थार्थ पृथग लोकभृतः स्थिताः ॥ ७९ ॥ लोकालोकाचल: स्वादुसलिलाद् द्विगुणो बहिः । स्वादूदाब्धिप्रमाणात् स विस्ताराद् द्विगुणोऽपिच ।। ८० ॥ समच्छितोऽसौ नियुतं नियुतार्धमधो गतः। पञ्च क्रोशाः प्रतिदिशं नियुतानि तथा नव ॥ ८१ ॥ तद्वच्च नियुतस्या मेरुमध्यात् तदन्तरम् । समुद्भासितदेहाधस्तिग्मांशोः किरणैरयम् ॥ ८२॥ तत्समेन च भूम्यर्धेनादृतः परतः पुनः । भौतान्यावरणान्युा यस्यैतानि स्थितान्यधः ॥ ८३ ॥ वाह्यतोऽपिच भूम्यूर्व निविष्टानि तथानघ। इति वत्स! तव प्रोक्तः सनिवेशोऽखिलः क्षितेः ॥ ८४ ॥ स्थितिं गतिं च कथयाम्यादीनामतःपरम् । सूर्येन्दुधिष्ण्यज्ञसितभौमार्कित्रिदशार्चिताः ॥ ८५ ॥ सप्तर्षयो ध्रुवश्चेति भूमेरूज़ क्रमात् स्थिताः । चत्वारि द्वे तथा भूमेरूर्वमा मूर्यनन्दनात् ॥ ८६ ॥ पडेवमन्तराणि स्युः सहस्राणां शतं शतम् । ग्रहान्तराणि यान्यन्यान्यवशिष्टान्यनुक्रमात् ॥ ८७ ॥ तानि चत्वार्यपि द्वे द्वे लक्षे प्रोक्तानि मानतः । धरित्रीध्वयोमध्ये योजनानां चतुदेश ॥ ८८ ॥ नियुतानि समुत्सेधस्टेलोक्यस्य प्रकीर्तितः । एकाथ द्वे चतस्रोऽष्टावन्तरं कोटयः क्रमात् ॥ ॥ ८९ ॥ महोजनस्तपःसत्यलोकानामुपरि ध्रुवात् । ये स्थिताः सत्यलोको मधस्तादण्डकपरात् ॥ ९० ॥. एका कोटिर्भवेत् तेषां पञ्चाशनियुतान्विता । अथावरणयोगोऽस्य विहितः (स?प)अजन्मना ॥ ९१ ॥
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भुवनकोशः पञ्चमोऽध्यायः । यथैवाधस्तथा तिर्यक् तथैवोर्ध्वमपि क्रमात् । वहेऽब्दाः प्रवहे मूर्यः स्थितः शीतांशुरुद्वहे ॥ ९२ ॥ संवहस्थानि नक्षत्राण्यावहस्थाः पुनर्ग्रहाः । सप्तर्षयः परिवहे ध्रुवश्चापि परावहे ॥ ९३ ॥ प्रदक्षिणममी सप्त मरुतो भ्रमयन्त्यमन् । मेधीभूतः स्थितो मध्ये सुमेरुक्ष्माभृति ध्रुवः ।। ९४ ।। समस्तमपि तद्वद्धं ज्योतिश्चक्रं भ्रमत्यदः । सप्ताश्वेनैकचक्रेण रथेन रथिनां वरः ।। ९५ ॥ *तेजोमयेन सततं भ्राम्यति ज्योतिषां पतिः । केतुमाले (रजन्यजन्नूर्व) करोत्यस्तं कुरुष्वपि ॥ ९६ ॥ मध्यन्दिनं च भद्राश्वे(ष्टद्गस्तं ग)च्छन् भारते रविः । रसाधिपक्षसङ्ग्यानि योजनानि निमेषतः ॥ ९७ ।। सप्तविंशतिका चाष्टौ भागान् सर्पत्यहपतिः । योजनान्य(ध्विनंदर्नु ? ब्धिनन्दतु) गुणसङ्ख्यानि काष्ठया ॥९८ ॥ नवांशकचतुष्कं च कामत्यहिमदीधितिः । वह्नयग्निवसुखेन्द्रक्ष्मासङ्ख्यातान्यब्जिनीपतिः ॥ ९९ ॥ योजनस्य त्रिभागं च प्रयाति कलयैकया । वियत्वब्योमभूताश्विगुणपावकसङ्ख्यया ॥ १० ॥ योजनान्युष्णकिरणो मुहूर्तेन प्रसर्पति । रात्र्यहेण सहस्राणि पश्चाशनवकोटयः ॥ १०१॥ लक्षाणि सप्तनवतिर्गतिः स्यात् तिग्मरोचिपः । मध्येन पुष्करद्वीपस्यार्को गत्यानया वजन् ॥ १०२ ॥ नभस्तलेन पुनरप्युदयादुदयं श्रयेत् । इत्थं गतिरियं सम्यक् तिग्मभानोनिरूपिता ॥ १०३ ॥ गतिं चन्द्रग्रहाणां भोगं चार्काद् विभावयेत् । मोक्तं तवेत्यहोरात्रप्रमाणमधुनानघः ॥ १०४ ॥ * एतदादिश्लोकद्वयं ख. ग. मातृकयो स्ति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
पक्षमास वर्षादीन् व्यवहाराय कल्पयेत् ।। १०४ ॥ इति निगदित एप द्वीपशैलाम्बुधीना
मवनिवलयवती कात्स्य॑तः सनिवेशः। गतिरपि दिनभर्तुः कीर्तिता विश्वमानं
पुनरिह युगधर्म कीर्त्यमानं निबोध ॥ १०५ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
भुवनकोशाध्यायः पञ्चमः ॥
अथ सहदेवाधिकारः षष्ठोऽध्यायः ।
अथ प्राकथितादस्माद् भूतसर्गादनन्तरम् । प्रजासीदमरैः सार्धमियं पूर्णजनाकुला ।। १ ॥ शोकव्याधिजरातङ्कविमुक्तास्त्रिदशा इव ।। पुराभवन् कृतयुगे पुमांसः स्थिरयैवनाः ॥ २ ॥ ते निकुञ्जषु शैलानां नदीषु च सरस्सु च । वनेषु च विचित्रेषु चिक्रीडुर्दैवतैः सह ॥ ३॥ हेलया ते समुत्पत्य कदाचिदमरैः सह। निरर्गलाः समासाथ स्वर्विचेरुः सुरा इव ।। ४ ॥ चित्राम्बराहताः सर्वे नानाभरणशालिनः । विमानाकृतयस्तेषामासन् कल्पद्रुमा द्रुमाः ॥ ५ ॥ मनोज्ञाभिः सह स्त्रीभिर्विचित्राभर(णास्त्रि?णश्रि)यः । कल्पद्रमेष्वकार॑स्ते वासं क्रीडां च तेष्वथ ॥ ६॥ क्षुत्तृड्दुःखोज्झिताः सर्वे बभूवुरयुतायुषः । रत्नावदातदेहास्ते कदाचिद् भूरसाशिनः ॥ ७॥ रतिमायास्तदासंस्ते स्वेच्छाहारविहारिणः । स्वीकारविग्रहच्छेदविशदीकृतचेतसः ॥ ८॥
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सहदेवाधिकारः षष्ठोऽध्यायः । नास्मिन्नर्कस्तपत्युग्रं न वाति प्रबलोऽनिलः । नीहारच्छेदसुन्दर्यो निशाः पूर्णेन्दुभूषणाः ॥ ९॥ भिन्नस्निग्धाञ्जनश्यामाः सतडिन्मन्द्रनिस्वनाः। अचण्डाशनथश्वासन् कबरीकान्तयो घनाः ॥ १० ॥ माद्यपिफवधूदष्टमाकन्दमुकुराकुराः।। आसन् सदापुष्पफलाभोगा येषां वनालयाः ॥११॥ एकोऽग्रजन्मा वर्णोऽस्मिन् वेदोऽभूदेक एव च । ऋतुर्वसन्त एवैकः कुसुमायुधबान्धवः ॥ १२॥ रूपश्रुतसुखैश्वर्यभाजस्ते निखिला अपि । समत्वान्नाभवत् तेषामुत्तमाधममध्यता ॥ १३ ॥ न खेटनगरग्रामपुरक्षेत्रखलादिकम् । न दंशमशकक्रव्याद्भयं वा न ग्रहादि च ॥ १४ ॥ कल्पद्रुमाप्तभोगानां न चैषां प्रभुरप्यभूत् । पुरास्मिन् भारते वर्षे तेषां निवसतामिति ॥ १५ ॥ जगाम सुबहुः कालः सुरैः सार्धं सुर(स्त्रि?श्रि)याम् । अज्ञाततत्मभावानां सहसंवाससंभवा ॥ १६ ॥ अथैषामभवद् देवादवज्ञा त्रिदशान् प्रति । अपूज्यमानास्ते पूज्याः सर्वेऽप्यखिलवेदिनः ॥ १७ ॥ आदाय तत्कल्पतरं निपेतुर्या दिवौकसः । दिवंगमनशक्तिश्च दिव्यो भावश्च तद्गतः ॥ १८ ॥ सरसः परमो भूमौ भूरसश्च न्यवर्तत । स्मृत्वा कल्पदुमांस्तांस्तान् क्रीडास्ताच सुरैः सह ॥ १९ ॥ व्यलपन् बहुधात्यर्थमनर्थकृतचेतसः । ततो विलपतां भूरि स्वैरमाहारहेतवे ॥ २० ॥ प्राणत्राणार्थमेतेषामभूत् पर्पटको भुवि । भूरसेनैव तेनैते कुर्वाणाः प्राणरक्षणम् ॥ २१ ॥ १. 'नर्थीकृ' ख. पा
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समरांगणसूत्रधारे विना कल्पद्रुमैर्वासमन्यवृक्षेषु चक्रिरे । अथैषां पश्यतामेव कदाचिद् भाग्यसंक्षयात् ।। २२ ॥ विपर्ययाच कालस्य भूमेः पर्पटकोऽप्यगात ।। ततः पपेटके नष्टे तुषशूककणोज्झिताः ॥ २३ ॥ अकृष्टपच्या मेदिन्यामभवञ् शालितण्डुलाः । शाल्योदनेन तेनाथ सुस्वादुव्यञ्जनेन ते ।। २४ ॥ परमां तृप्तिमासेदुः परितोषात्तचेतसः ।। तन्नाशशङ्कया शालितण्डुलानां द्रुमेष्वधः ॥ २५ ॥ ते व्यधुर्महतो राशीस्तक्षेत्राणि च चक्रिरे । अजायत ततो लोभो मात्सर्येष्योपुरस्सरः ॥ २६ ॥ तत्र तत्र शनैश्चक्रे पदन्यासं च मन्मथः । द्वन्द्वप्राप्त्या ततस्तेषां विभ्रतामुत्तमां गतिम् ॥ २७ ॥ धैर्यध्वंसादभूत स्त्रीषु भृशं रागतुरङ्गमः । दारक्षेत्रनिमित्तानि भूयास्येपामनन्तरम् ॥ २८ ॥ परिक्लेशैकमूलानि द्वन्द्वान्यासन पृथक्पृथक् । ततः स्वक्लुप्तमर्यादोच्छेदिष्वेष्वजितात्मसु ॥ २९ ॥ अविनीतेष्वभाग्येषु स शालिस्तुषतामगात् । प्रवृद्धरजसां तेषां सा पुण्यश्लोकता गता ॥ ३० ॥ मलप्रवृत्तिरभवत तुषधान्योपसेवया । तुषधान्ये ततो नष्टे परिमुक्ते च सञ्चये ॥ ३१ ॥ चीरवल्कलवस्त्राणां कन्दमूलफलाशिनाम् । ऋतवः कालपयोसात् षड् वसन्तादयोऽभवन् ॥ ३२ ॥ ततस्तेषामभूद दोषरोगशोकाकुलं वपुः । मनश्च कामक्रोधेादैन्याच्यादिदूषितम् ॥ ३३ ॥ आधिदैवकमुष्णाम्वुशीतादिजनितं महत् । आधिभौतिकमप्यासीद् दुःखं व्यालमृगादिनम् ॥ ३४ ॥ १. 'स्ततः क्षेत्राणि चक्रि' ख. ग. पाठः । २. 'दास्वनिष्टेष्व क. पाठः।
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वर्णाश्रमप्रविभागः सप्तमोऽध्यायः ।
२५ इत्थं दुःखनयास्तेि व्यवायाधभिगुप्तये । हिमनीहारशीताम्बुवाताद्यापच्छिदेऽपिच ।। ३४ ॥ अजातप्रीतयो वृक्षैः कुट्टिमानि गृहाणि (तेच)। व्यधुश्छित्वाश्मभिक्षानन्यान् दुःखातेचेतसः ॥ ३५ ॥ स्मृत्वा कल्पद्रुमाकारांस्तद्रूपाणि गृहाणि ते । एकद्वित्रिचतुःसप्तदशशालानि चक्रिरे ॥ ३६ ।। श(ब्दा? प)प्राकारपरिखेष्वाच्छन्नेषु तृणादिभिः । हृष्टास्तेष्वनयन् कालमाप्तेषु गृहमेधिनः ।। ३७ ॥ इत्यमीषु गृहिणो गृहेषु ते शीतवातजलतापनाशिषु । हर्षसंवलितमानसाश्चिरं सन्निरस्तविपदोऽवसन् सुखम् ॥ ३८ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
सहदेवाधिकारो नाम पष्ठोऽध्यायः ।।
अथ वर्णाश्रमप्रविभागः सप्तमोऽध्यायः ।
अथामरगणैः सार्धमाजगाम पितामहः । दुःखच्छेदाय मानामादाय नृपतिं पृथुम् ।। १ ।। स तानूचे प्रभुर्वोऽसौ मरुतामिव वासवः । दण्डधारी च दुष्टानां प्रभावे लोकपालवत् ॥ २ ॥ प्रतापतापितारांतिसिंहः सिंहपराक्रमः । युष्माकमाधिपत्येऽसावभिषिक्तो मया पृथुः ॥ ३ ॥ रक्षाकृत् सर्वशिष्टानामुच्छेत्ता दुष्टचेतसाम् । वृत्तितो भीतिहर्ता च भविष्यत्येष वो नृपः ॥ ४॥ १. 'कामानाते' ख, ग, पाठः । २. 'रातिः शश्वत् सि' क. पाठः।
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२६.
समराङ्गणसूत्रधारे
भवद्भिरेतदायत्तैर्भवितव्यं ममाज्ञया । करिष्यत्येष वो नीत्या चातुर्वर्ण्याश्रमस्थितीः ॥ ५ ॥ उक्त्वेति ब्रह्मणि गते नाथमासाद्य तेऽथ तम् । अवोचन् दुःखितां दुःखादस्मात् त्रायस्व नः प्रभो! ॥ ६ ॥
कल्पद्रुमामरत्यक्तान् द्वन्द्वार्तिक्लान्तचेतसः । व्यसनार्णवनिर्मान् पाहि नः पृथिवीपते! || ७ ||
यो पृथुरुवाचैतान् मा भैष्ट सुखमास्यताम् । दुःखान्यपहरिष्यामि करिष्ये च सुखानि वः ॥ ८ ॥ ततः स चतुरो वर्णानाश्रमांश्च व्यभाजयत् । तेषु ये वेदनिरताः स्वाचाराः संयतेन्द्रियाः ॥ ९ ॥
सूरश्वावदाताच ब्राह्मणास्तेऽभवंस्तदा । यजनाव्ययने दानं याजनाध्यापनार्थिताः ॥ १० ॥ धर्मास्तेषां विमुच्यन्त्यस्त्रींस्तुल्याः क्षत्रवैश्ययोः । ये तु शूरा महोत्साहाः शरण्या रक्षणक्षमाः ॥ ११ ॥
व्यायतदेहा क्षत्रियास्त इहाभवन् । विक्रमी लोकसंरक्षाविभागो व्यवसायिता ॥ १२ ॥ एतेषामयमयुक्तो धर्मः शुभफलोदयः । निसर्गाने पुर्ण येषां रतिर्विचार्जनं प्रति ॥ १३ ॥ श्रद्धादाक्ष्य दयावन्तो ? ता) वैश्यांस्तानकरोदसौ । चिकित्सा कृषिवाणिज्ये स्थापत्यं पशुपोषणम् ॥ १४ ॥ arrer feat arत् कर्म च तैजसम् | नातिमानभृतो नातिशुचयः पिशुनाश्च ये ।। १५ ।। ते शुजातयो जाता नातिधर्मरताच ये । कलारम्भोपजीवित्वं शिल्पिता पशुपोषणम् ॥ १६ ॥ वर्णश्रितशुश्रूषा धर्मस्तेषामुदाहृतः ।
चारी गृहस्थो वा वानप्रस्थस्तथा यतिः ॥ १७ ॥
१. 'नो', २. 'शुचय' ख, ग, पाठः ।
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वर्णाश्रमप्रविभागः सप्तमोऽध्यायः ।
इत्याश्रमाः पृथक् तेन चत्वारः प्रविभाजिताः । गुरुशुश्रूषणं भैक्षं व्रतचर्यानिकर्म च ॥ १८ ॥
स्वाध्याय चाभिषेक धर्मोऽयं ब्रह्मचारिणः । पूजाग्न्यतिथिदेवानां स्ववृत्या जीवनं दमः ॥ १९ ॥ असमान पिंगोत्रेषु विवाह ऋतुगामिता । परस्य स्त्रीषु वैमुख्यं परानुग्रहशीलता ।। २० ।। विनिवृत्तिरकार्येभ्यो धर्मोऽयं ग्रहिणां कृतः । देवतातिथिसत्कारो ब्रह्मचर्यं वने स्थितिः ॥ २१ ॥
वल्काजिनजटाचीरधारणं शयनं भुवि । उपोषणैर्वतैर्देहकर्शनं नियमैस्तथा ॥ २२ ॥
आहारोऽकृष्टपच्यैव धर्मोऽयं वनवासिषु । वैराग्यमिन्द्रियजयश्चिन्तात्यागः प्रशान्तता || २३ ॥ आकिञ्चन्यमनारम्भो यतिधर्मः सदा स्मृतः । क्षमत्वं गुर्वधीनत्वं शौचं स्वाध्यायनित्यता || २४ || विशुद्धिर्व्यवहारेषु शिष्यधर्मोऽयमीरितः । शुचित्वं वाङ्मनः कायैः पतिशुश्रूषणं क्षमा ।। २५ ।। पूजनं पतिपूज्यानां स्त्रीधर्मः शौचमेव च । एवं वर्णाश्रमान् सम्यक् कृत्वा वर्णास्तदुद्भवान् || २६ ॥ विभज्य तेषां वैन्येन ते ते धर्माः प्रकीर्तिताः । वृत्तिं कर्माणि चैतेषां पृथगुदिश्य सोऽभ्यधात् ॥ २७ ॥ स्वधर्मावस्थितानां वो भावि लोकद्वये सुखम् ।
एतां स्थितिमुल्लङ्घय मोहादन्यद् विधास्यति ॥ २८ ॥ तस्याहं यमवत् क्रुद्धः करिष्याम्यनुशासनम् । युक्तानां कर्मसु स्वेषु वृत्यर्थं भवतामहम् ।। २९ ।। खेटकग्रामवेश्मानि विधास्यामि पुराणि च । इत्युक्त्वा सानो कोट्या कार्मुकस्य पृथुर्नृपः ॥ ३० ॥ १. 'भूत्यर्थ' ख. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे विषमां साधयामास पृथिवीं पृथुविक्रमः । तत्सक्लेशेन गौ ल्वा नश्यन्ती तेन मेदिनी ॥ ३१ ॥ विधेर्नियोगाद् दुदुहे साधु सस्यानि भूतये । कल्पितास्तेन शैलानां सरितामन्तरेषु च ॥ ३२ ॥ समेषु चावकाशेषु पुरादीनां विभक्तयः । तेन सीरामकृष्टेयं धान्यैरुतैर्यथाविधि ॥ ३३ ॥ ससस्या क्रियते क्षोणी भगवत्यम्बुदागमे । इत्युद्भवो निगदितः प्रथमो नृपस्य
धर्मेण सार्धमपिचाश्रमवर्णभेदाः । प्रोक्ताः कृषिव्यतिकरोऽपिच दर्शितस्ते
कात्स्न्ये न वत्स! शृणु देशविभागभूमिम् ॥ ३४ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
वर्णाश्रमप्रविभागो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥
अथ भूमिपरीक्षा नामाष्टमोऽध्यायः ।
देशाश्च देशभूम्यश्च समासात् तव सम्प्रति । तत्सङ्ख्या तद्विभागाश्च प्रोच्यन्तेऽवहितः शृणु ॥ १ ॥ देशः स्याज्जाङ्गलानूपसाधारणतया त्रिधा। त्रिविधस्याप्यर्थतस्य यथावल्लक्ष्म कथ्यते ॥ २॥ दूराम्बुरिरिणप्रायो इस्वकण्टकिपादपः। रूक्षोष्णचण्डपवनः कृष्णमृत् तेषु जाङ्गलः ॥ ३ ॥ निम्नो भूरिजलः स्निग्धो वहुमत्स्यामिषों हिमः । स्यादनूपः सरित्प्रायः स्निग्धोच्छ्रितबहुद्रुमः ।। ४ ॥ यः पुनर्नातिशीतोष्णः स्याद् देशद्वयलक्षणः । स साधारण इत्युक्तो देशो देशविशारदैः ॥ ५ ॥
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भूमिपरीक्षा नामाष्टमोऽध्यायः । जालादिषु देशेषु त्रि(पुण्ये?ष्वप्ये)षु स्वलक्षणैः । युक्ताः षोडश विज्ञेया भूमयः प्रविभागतः ॥ ६॥ बालिशस्वामिनी भोग्या सीतागोचररक्षिणी । अपाश्रयवती कान्ता खनिमत्यात्मधारिणी ॥७॥ वणिक्प्रसाधिता द्रव्यसम्पन्नामित्रघातिनी । आश्रेणीपुरुषा शक्यसामन्ता देवमातृका ।। ८ ।। धान्या हस्तिवनोपेता सुरक्षा चेति षोडश । भुवः संज्ञाभिरुद्दिष्टा लक्ष्मासामथ कथ्यते ॥९॥ भूभुजा बालिशेनापि शक्यते या प्रशासितुम् । या च भद्रजना सा स्याद् बालिशस्वामिनी क्षितिः ॥ १० ॥ वितरन्त्यधिकं यस्यां भागभोगादिकान करान् । नरा भूरिश्रियः सात्र भोग्येति क्षितिरुच्यते ॥ ११ ॥ यस्यां नदाश्च नद्यश्च गिरिमध्येऽथवा बहिः । विभक्तक्षेत्रसीमा सा सीतागोचररक्षिणी ॥ १२ ॥ सरिदद्रिवनायेषु त्रासाद यस्यां विशेज्जनः । जनापाश्रययोग्यत्वादपाश्रयवतीति सा ।। १३ ।। वनौपवनवत्यद्रिसरित्कुञ्जमनोहरा । देहिनो रमयत्युर्वी या सा कान्तेति कीर्तिता ॥ १४ ॥ यस्यां सदैव जायन्ते कलधौतादिधातवः । लवणानि च भूयांसि पाहुः खनिमतीति ताम् ॥ १५ ॥ यात्यन्तं नानुगृह्येत दण्डकोशासनादिभिः । स्फीतलोकाश्रया या च सा स्याद् भूरात्मधारिणी ॥ १६ ॥ प्रसिध्यन्त्यसकृद् यत्र पण्योपक्रयविक्रयाः । वणिक्प्रसाधितेत्युक्ता सा भूणिगलङ्कृता ।। १७ ॥ शाकावकर्णखदिरश्रीपर्णीस्यन्दनासनैः । वेणुवेत्रशराद्यैश्च युक्ता द्रव्यवतीति भूः ॥ १८ ॥ यस्यां जनपदाः साधु विभक्तास्त्यक्तविक्रमाः । योगं यान्ति च मित्राणि स्याद् भूः सामित्रघातिनी ॥ १९ ।
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समराङ्गणसूत्रधारे न क्षुद्रा वन्दिनो यस्यां दर्गप्रत्यन्तसंश्रयाः । भूः साश्रेणीमनुष्यति विनीतैराश्रिता जनैः ॥ २० ॥ मन्त्रोत्साहादिवैमुख्यं यस्यां सामन्तभूभुजः । भजन्ते सा स्मृता शक्यसामन्ता भूः समन्ततः ॥ २१ ॥ जीवन्ति क्षेत्रिणो यस्यां न(दी? दोनद्यादिवारिभिः । तां देवमातृकेत्याहुरनपेक्षितवारिदाम् ।। २२ ।। निष्पद्यन्तेऽधिकं यस्यां बीजान्युप्तान्ययत्नतः । कृष्टानुपहृतक्षेत्रा धान्या सा धान्यशालिनी ॥ २३ ॥ पर्यन्तेष्वद्रयो यस्यां या च हस्तिवनाश्रिता । सा हस्तिवनवत्युर्वी भूभृतः सैन्यवर्धिनी ॥ २४ ॥ दुष्प्रधृष्यैव या नित्यं विषमत्वादरातिभिः । विषमाद्रिसरिद्गुप्ता सा सुरक्षेति भूः स्मृता ॥ २५ ॥ षोडशेत्युदिता भूम्यः प्रविभागाद् यथातथम् । अन्या जनपदादीनां ब्रूमः सम्मिश्रलक्षणाः ॥ २६ ॥ धातुस्यन्दोल्लसत्कुञ्जगुल्मद्रुमलताकृतैः । उत्सङ्गिताः पृथुशिलैः समन्तादवनीधरः ॥ २७ ॥ तीर्थावतारकान्ताभिः स्वादुतोयाभिरावृताः । नदीभिः पुलिनप्रान्तैर्विचित्रद्रुमशालिभिः ।। २८ ।। कोकिलालापसुभगैर्मधुमत्तालिशालिभिः । विचित्रफलपुष्पाढ्यैः काननरुपशोभिताः ॥ २९ ॥ दलत्कुवलयश्रेणीक्वणन्मधुपहारिभिः । सरसीदेवखाताद्यैर्भूषिताः प्राज्यवारिभिः ॥ ३० ॥ समैः सुगन्धिभिः स्वादुशीतैः कान्तैरभङ्गुरैः । क्षेत्ररक्षतसीमान्तैः सस्यनिष्पादिभिर्द्रताः॥ ३१ ॥ निष्कण्टकाश्मवल्मीकैः प्रभूतयवसेन्धनैः । विभक्तक्षेत्रसीमान्तैर्गोचरैरुपशोभिताः ।। ३२ ।। १. पूरुषेति विभीत' ख. ग. पाठः । २. 'नान्विता' ग. पाठः ।
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भूमिपरीक्षा नामाष्टमोऽध्यायः । स्थले तृणसमुद्राणामन्तरेषु वसुन्धराः । प्रशस्यन्ते समासन्नस्वादुशीतलवारयः ।। ३३ ॥ दुरात्मनामधृष्या यास्तथानेकाश्रयान्विताः। . संरम्भत्रासनिर्मुक्तं मनश्च रमयन्ति याः ॥ ३४ ॥ . तास्त्रेवंगुणयुक्तासु महीषु विनिवेशयेत् । यथास्थानं जनपदान खेटग्रामपुरादि च ॥ ३५ ॥ युता महीध्रमूला(स्व? म्बु)प्राकारस्तु पृथक्पृथक् । चतस्रः कीर्तिता धन्या भूमयो दुर्गहेतवः ॥ ३६ ॥ दुरागेहतया दुर्ग टङ्कच्छिन्न इवान्ततः । समपृष्ठेन्दु(?)युक्तेद्रौ गिरिदुर्गावनिर्भवेत् ॥ ३७ ।। कण्टकिमनीरन्ध्र(तद्देशानद्धे सा)म्भसि कानने । गृहप्रवेशमार्गे भूमूलदुर्गेति कीर्तिता ॥ ३८ ॥ द्वीपेषु स्वादुतोयेषु बहुगाधजला बहिः । रम्यावकाशदेशा स्थाजलदुर्गा च मंदिनी ॥ ३९ ॥ म्निग्धाः सारभूतः शुद्धाः प्रदक्षिणजलाशयाः । बहूदकास्तरुच्छन्ना निविडाः प्रागुदलवाः ॥ ४०॥ दुर्वास(स्त्वौ स्यौ)षधीमुञ्जकुरुन्दकुशवल्कलैः । परितः परिणद्धाश्च स्वादुस्वच्छस्थिरोदकाः ॥ ४ ॥ वास्तुयज्ञामरस्थानाधारामोद्यानसंभृताः । तटाकवापीस्थानेश्च याः समन्तादलङ्कृताः ॥ ४२ ॥ या वाहनानां सुखदा मिथुनानां रतिप्रदाः । पुरार्थ ताः प्रशस्यन्ते भूपयो जनितश्रियः ॥ ४३॥ कुङ्कुमागुरुकर्पूरस्पृक्कैलाचन्दनादिभिः । सुगन्धा मिश्रितेरेभिः पृथक्स्थैर्वा वसुन्धरा ॥ ४४ ।। कल्हारपाटलाम्भोजमालतीचम्पकोत्पलैः । स्थलाम्बुप्रभवैश्वान्यैः सुगन्धा कुसुमैस्तथा ॥ ४५ ॥ १. 'रन्यैः । ख. ग, पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे
गोमूत्रगोमय क्षीरदधिमध्वाज्यगन्धभाक् । समानगन्धा मदिरामाध्वीकेभमदासवैः || ४६ ॥ शालिपिष्टकगन्धैr धान्यगन्धैश्व या तथा । प्रशस्ताखिलवर्णानामीदृग्गन्धा वसुन्धरा ॥ ४७ ॥ सिता रक्ता च पीता च कृष्णी चैव क्रमान्मही । विप्रादीनां हि वर्णानां सर्वेषामथवा हिता ॥ ४८ ॥ स्वादुः कषाया तिक्ता च कटुका चेत्यनुक्रमात् । वर्णानां स्वादतः शस्ता सर्वेषां मधुराथवा ॥ ४९ ॥ ar feet या स्यादुष्णा हिमागमे । प्रावृष्युष्णहिमस्पर्शासा प्रशस्ता वसुन्धरा ॥ ५० ॥
मृदङ्गवल्लकीवेणुदुन्दुभीनां समा ध्वनौ ।
द्विपा(ब्दौप्य श्वाब्धि) समस्वाना चेति स्युर्भूमयः शुभाः ॥ ५१ ॥
इदानीमस्तानां वां लक्ष्माभिदध्महे । पुरादिसन्निवेशार्थं परित्याज्या भवन्ति याः ॥ ५२ ॥ भस्माङ्गारकपालास्थितुषकेशविषाश्मभिः । मूषकोत्करवल्मीकशर्कराभित्र निर्भरा ॥ ५३ ॥ रूक्षा प्ररोहिणी निम्ना भगुरा सुषिरोषरा । वामावर्तजलास्राविण्यसारा विषमोन्नता ॥ ५४ ॥ कटुकण्टकिनिःसारशुष्कनिष्फलपादपा । क्रव्यात्पक्षिसमाकीर्णा कृमिकीटवती च या ॥ ५५ ॥ सुकृतान्यपि भोज्यान्नभक्ष्यपानानि तत्क्षणात् । यस्यां विनाशमायान्ति सह तूर्यादिनिस्वनैः ॥ ५६ ॥ सरित् पूर्व वा यस्यां पुरार्थं तामपि त्यजेत् । बहुनापि यतस्तत्र कालेनायाति सा पुनः ॥ ५७ ॥ वसासृङ्मज्जविण्मूत्रमलको (थ ?श) पतत्रिणाम् । समगन्धां त्यजेदुव तैलस्य च शवस्य च ॥ ५८ ॥ १. चेति क ' २. 'मृगाकी' ख, ग, पाठः ।
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भूमिपरीक्षा नामाष्टमोऽध्यायः । सदैव धूम्रवर्णा या मिश्रवर्णाश्या मही। विवर्णा रूक्षवर्णा वा सा न स्यादिष्टदापिनी ॥ ५९ ॥ तिक्ताम्ललवणा चापि भूमिर्या स्वेदला भवेत् । तां लोकविद्वेषकरी त्यजेत् पुरनिकेशने ॥ ६० ॥ या रूशखर पर्शा सदमा विकासका । अनिष्टसुखसंस्पर्श वा स्यात् तामपि सन्त्यजेत् ॥ ६१ ॥ क्रोएश्वखरस्वाना याच निरनिध्वना । भिमभाण्डलमकूर दिलाविच ।। ६२ ।। इति गन्धादिभिभूमिः कथित्यं शुभाशुभा । हलेन कृष्यमाणायां सूमो काठे सयुद्धृते ॥ ६३ ।। विद्याद भयं वद्भिभवमिष्टकाया धनागम् । पापाणेषु तु कल्याणं जुलाध्नसमलिया ॥ ६४ ।। सरीसृपेषु सर्वेषु स्तेनेभ्यो नमानि । अनूपरा बदनाम लिया ।। ६५ ।। प्रागीशानप्लवा सर्वप्लवा वा दर्पणोदरा । शुभेजन्युपोपितः सातः शुचिः नुमसनम्बरः ।। ६६ ।। स्वस्ति विप्रान् वाचयित्वा वास्तुदेवान् समय॑ च । करप्रमाणं कुर्वीत खातं तमिमागम् ॥ ६७ ॥ ततस्तन्मृदभाकृप्य तत् तवेवासुदूरवेत् । खाताधिकमुदुस्ता भूः श्रेष्ठा मध्या च तत्समा ।। ६८ ॥ महीणखातमत् क्षोणी हाना नशा न सा गान् । खन्यगाने यदा सात सदोस्तविलोपो॥६५॥ मणिशङ्कवालादि सदातिश्रेयसी क्षितिः । सापि प्रशस्यते भूमिर्यस्यां स्युः सातपासवः ॥ ७० ॥ तुपकेशोपलाङ्गारभस्मास्थिलवनिताः भृत्वाद्भिः खातमापूर्णे तसिान पदनातं यजेत् ॥ ७१ ॥ १. ' स्वादतो म' स. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे तावच्चेदांगमेऽम्भः स्यात् तदा भूः सार्वकामिकी। मध्यमात्र प्रहीणे स्यात् ततो हीनतरेऽधमा ॥ ७२ ॥ खाते सितादिमाल्यानि यस्यां निम्युपितानि च । यद्वर्णानि न शुष्यन्ति सा तद्वर्णेष्टदा मही ॥ ७३ ॥ खातस्योदवप्रभृतिषु दिक्षु प्रज्वालयीत वा । दीपान् यस्यां चिरं तिष्ठेत् नद्रणेष्टप्रदा हि सा ।। ७४ ॥ इत्येवं कीर्तिताः कात्ाल्लक्ष्मभिः पुरभूमयः। खर्वटग्रामग्वेटानामेता एव स्मृता हिताः ॥ ७५ ॥ वर्णिनां वर्णधाम्नां च शिविराणां च सर्वदा।। प्रासादयज्ञवादानामेता एवेष्टदा भुवः ॥ ७६ ॥ इत्येवमादिभिरि(यं?माः ) शुभलक्ष्मयुक्ता भूम्यः शुभा निगदिता नगरादिहतोः । आभ्यः परेण बहुधा परिकल्प्यमानं
मस्त्रिधा स्थितवतोऽपि करस्य मानम् ॥ ७७ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
भूमिपरीक्षा नामाष्टमोऽध्यायः ॥
अथ हस्तलक्षणं नाम नवमोऽध्यायः ।
हेतुः समस्तवास्तूनामाधारः सर्वकर्मणाम् । मानोन्मानविभागादिनिर्णयकनिवन्धनम् ॥ १ ॥ परिध्युदयविस्ताराणां स्युरमी यतः । ज्येष्ठमध्याधमा भेदा यं च ज्ञात्वा न मुह्यति ॥ २ ॥ इदानीं तस्य हस्तस्य सम्यङ् निश्चयसंयुतम् । कथ्यते त्रिविधस्यापि लक्षणं शास्त्रदर्शितम् ॥ ३ ॥ रेण्वष्टकेन वालाग्रं लिक्षा स्यादष्टभिस्तु तैः । भवेद् यकाष्टभिस्ताभियचमध्यं तदएकात् ॥ ४ ॥ १. 'दागतभ्यः स्यात् ', २. विवि ' ख. ग. पात:।
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हस्तलक्षणं नाम नवमोऽध्यायः । अष्टाभिः सप्तभिः पद्भिरङगुलानि यवोदरैः। ज्येष्ठमध्यकनिष्ठानि तच्चतुर्विंशतिः करः ॥ ५ ॥ सोऽष्टभिः पर्वभिर्युक्तः करः कार्यों विजानता। करस्यार्धं चतुःपर्व शेष स्याद् भक्तमङ्गुलैः ।। ६ ॥ तत्राग्रे पर्वरेखाः स्युस्तिस्रः पुष्पकभूपिताः । शेषास्वङ्गुलरेखासु पुष्पाणि विदधीत न ॥ ७ ॥ अत्रार्धे मध्यतः कार्य द्वेषा पश्चममङ्गुलम् ।। मध्यं त्रिधाष्टमं कार्य चतुर्धा द्वादशं ततः ॥ ८ ॥ हस्तः स्वाङ्गुलमानेन विधेयाङ्गुल(मि?इ)ध्यते । तत् साधं द्विगुणं वापि बाहुल्यं तु तदर्धतः ।। ९ ।। कथितः करभेदोऽयमगुलानां विभेदतः ।। तस्य निर्माणदारूणि देवताश्च प्रचक्ष्महे ॥ १० ॥ खदिराञ्जनवंशादि श्लक्ष्णं हीरं मनोरमम् । सारवच भवेदिष्टं दारु हस्तप्रकल्पने ।। ११ ॥ ग्रन्थिलं लघु निर्दग्धं जीर्ण विस्फुटितं तथा ।। अदृढं कोटराकान्तं दारु हस्ताय नेष्यते ॥ १२ ॥ त्रिविधस्याप्यर्थतस्य पर्वरेखासु देवताः । + मध्यादारभ्य विज्ञेयाः क्रमेण नव वच्मि ताः ॥ १३ ॥ * ब्रह्मा वह्निर्यमो विश्वकर्मा नाथश्च पाथसाम् । वायुधेनाधिपो रुद्रो विष्णुश्चाग्रे जगत्पतिः ॥ १४ ॥ वास्तुद्रव्यविभागेषु यानेषु च विशेषतः । प्रारभेत यतो मानं कल्पयेद् देवतास्ततः ।। १५ ।। १. 'ध्यात्' ख. ग. पाठः ।
+ 'मध्यपर्वत एकस्मिन् पार्श्वगणनया प्रान्तसंयुक्तानि चत्वारि पर्वाणि भवन्ति । मध्यादेव परस्मिन् पार्ने समध्यमपर्वत्वात् पञ्च भवन्ति ।
* ' मध्ये ब्रह्मा । ततो वामे पर्वणि वह्निः दक्षिणे पर्वणि यमः, पुनर्वा में विश्वकर्मा दक्षिणे वरुणः, पुनवामे वायुः दक्षिणे धनदः, पुनामे रुद्रो दक्षिणे विष्णुः । ततस्तु क्रमेण गणनायां रुद्रो वायुर्विश्वकर्मा वहिर्विधाता कालस्तोयेशः कुवेरो विष्णुरिति पर्वदेवता भवन्ति' इति टिप्पणमिह दत्तमस्ति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे विद्धैश्च द्रव्यमध्यैश्च देवताभिश्च 'पीडिते । प्रत्येक विदशस्थाने यो फलमादिशेत् ॥ १६ ॥ शिरोतिरनलप्लोगो मरणं स्थपतेर्वधः । अतिसारो मख्याधिदर्थभ्रंशो भयं नृपात ॥ १७ ॥ कुलपीडा च महती गोरिति । यथाक्रममी दोषा ब्रह्मादीनां निपीटनात् ॥ १८ ॥ ब्रह्मानलकयोमध्ये या हम् तु धारयेत ! कर्मस्वधिगतस्तेषां पुलामी भविष्यति ।। १९. !! कर्मणः सुष्टुनिष्पति (स्तिष्टभोग स्थपतेर्भाग्य )मक्षयम् । ब्रह्मा यमस्तयोमध्ये पदा हस्तं तु धारयेत् ॥ २०॥ कर्ता सशिल्पिकश्चैव(जन)चिरेण विनश्यति । विश्वानलकयोग हम नमूनं यदा धृतम् ।। २१ ।। सु(ठु)कर्मणि मध्यान्तं निष्पन्ने पुरवृद्धिता ! यमजलदयोमणे ममा चनिनिर्दिशेद ॥ २२ ।। पवनो विश्वकर्मा चोभयोमध्ये च पारंगम् । यदा तु नत्र कर्मान्द सुभ तत्सर्वकामदम् ।। २३ ।। नीरधनदयोमध्ये मध्य विनिादेशत् । एषां मध्ये सदा वसमत लल यदा धृतम् (?) ॥ २४ ॥ अनावृष्टिमय लोके देशमङ्गो न संशयः। रुद्रपवनयोमध्ये सचिहस्तं तु धारयेत् ।। २५ ।। तत्र लक्ष्मीवतस्तस्य कार्यसिद्धिन संशयः ।। विष्णुधनदयोमध्ये या पाणिकरांयतः ।। २६ ॥ विविधास्तत्र भोगाश्च जायन्ते नरस्य हि । ज्येष्ठादीनामथेतेपां संज्ञाभेदो विधीयते ॥ २७ ॥ यच्च येन भवेद् द्रव्यं मेयं तदपि कीर्त्यते ।
यवाष्टकागुले: क्लुप्तः प्रकर्षणायतः किल ॥ २८ ॥ १. पीडितैः ।' ख. ग, पाठः । २. 'पि । ' क. ख. पाठः । ३. 'कार', ४. 'सुमतिर्मणिमध्यन्तं', ५. 'रयेत्' ६. 'शुभान्तं सर्व' ७. 'राग्रतः' ख. ग. पाटः । ८. 'सदा चैतस्य संभवेत् ख. ग. पाठः।
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हस्तलक्षणं नाम नवमोऽध्यायः । ज्येष्ठो हस्तः स विद्वद्भिः प्रोक्तः प्राशयसंज्ञितः ।। यः पुनः कल्पितः सप्तयवक्लुप्तैरिहागुलैः ॥ २९ ॥ तज्ज्ञैः स मध्यमो हस्तः साधारण इति स्मृतः । मात्रेपलां गतः पोतं हस्ताव शा उनले ॥ ३० ॥ तेन मात्राशयः स भगालो यः पड्याङ्गुलः । विभागागामविस्ताराः खेट्यायपुरादिषु ।। ३१ ।। प्रासादवेश्मपरिवाद्वाररथयायमादिए । मार्गाश्च निर्मा(?)पालीमभेवानराणि च ॥ ३२ ॥ वनोपवनभागाश्च देशान्तरविभक्तयः । योजनक्रोशगव्यतिप्रमाणपपि दाबनः ॥ ३३ ॥ प्राशयेन प्रणातव्याः खातक कचराशयः । तलोच्छ्यान् मूलपादान् जलोदेशानधः क्षितेः ॥ ३४ ॥ तथा दोलान् शस्त्रादि पातमानिनिर्णयम् । शैलखातनिकेतानि सुरूहामानवाना ॥ ३५॥ साधारणेन वाट्यवमानं च परिकल्पयेत् । आयुधानि धनुर्दण्डान वानं शगनमायनम् ।। ३६ ॥ प्रमाणं कूपयापीनां गजानां वाजिनी नृणाम् । अरघट्टेक्षुयन्त्राणि युगयुपहलानि च ।। ३७ ।। शिल्प्युपस्करनौछन वजातोद्यादि सानि च । वृसीधीपकरण बटवानादिकं च यत ॥ ३८ ॥ नेल्वदण्डांस्तथा मात्राशयहस्तेन मापयेत् । भेदत्रयान्वितमपि प्रोक्तं हस्तस्य लक्षणम् ॥ ३९ ॥ संज्ञाभेदोऽथ सामान्ययानानां प्रतिपाद्यते । स्यादेकमगुलं मात्रा कला प्रोक्ताङ्गुलद्वयम् ॥ ४० ॥ पर्व त्रीण्यङ्गुलान्याहुर्मुष्टिः स्याचतुरङ्गुला । तलं स्यात् पञ्चभिः पद्भिः करणादाङ्गुलभवेत् ॥ ४१ ॥
१. ' तयामाननि', २. ‘तनिवालानि ' ख. ग. पाठः। ३. “धाय॑ च मा' क. पाठः । ४. 'कीर्तयेत् ' ख. ग. पाठः । ५. 'भल्लद' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे सप्तभि(ई? दि)ष्टिरष्टाभिरङ्गुलैस्तूणिरिष्यते । • प्रादेशो नवभिस्तैः स्याच्छयतालो दशाङ्गुलः ॥ ४२ ॥ गोकर्ण एकादशभिर्वितस्तिदशाङ्गुला । चतुर्दशभिरुद्दिष्टः पादो नाम तथागुलैः ॥ ४३ ॥ रनिः स्यादेकविंशत्या स्यादरनिः करोन्मितः । द्वाचत्वारिंशता किष्कुरगुलैः परिकीर्तितः॥४४॥ चतुरुत्तरयाशीत्या व्यामः स्यात् पुरुषस्तथा । षण्णवत्यागुलैश्चापं भवेन्नाडीयुगं तथा ॥ ४५ ॥ शतं पडुत्तरं दण्डो नल्यस्त्रिंशद्धनुर्मितः । क्रोशो धनुःसहस्रं तु गव्यूतं तद्वयं विदुः ॥ ४६॥ चतुर्गव्यूतमिच्छन्ति योजनं मानवेदिनः ॥ एकं दश शतमस्मात् सहस्रमनु चायुतम् ॥ ४७ ॥ नियुतं प्रयुतं तस्मादबुदन्यर्बुदे अपि । वृन्दरक्वनिखवोणि शङ्कपद्माम्बुराशयः ॥ ४८ ॥ ततः स्यान्मध्यमन्त्यं च परं चापरमप्यतः । परार्ध चेति विज्ञेयं दशद्धयोत्तरोत्तरम् ॥ ४९ ।। सङ्खथास्थानानि कथितान्येवमेतानि विंशतिः । इदानीं कालसङ्ख्यायाः प्रमाणमभिधीयते ॥ ५॥ दृनिमेषो निमेपः स्यात् तैः पञ्चदशभिः स्मृता । काष्ठा ताभिः कला ताभिमुहूर्तस्तैरहर्निशम् ।। ५१ ।। त्रिंशतैतत् त्रिकं विद्यात् क्रमादित्युत्तरोत्तरम् । अहोरात्रैः पुनः पञ्चदशभिः पक्ष उच्यते ।। ५२ ।। पक्षद्वयेन मासः स्याद भवेन्मासद्वयातुः । ऋतुत्रयं स्यादयनं वत्सरस्त्वयनद्वयम् ॥ ५३॥
दशधायमिति प्रोक्तः कालः कालविदां वरैः । इत्युक्तमेतदखिलं करमानमत्र सम्यक्तया निगदितापि च कालसङ्खथा । अन्तःपुरं जनपदामरधाममार्गराचक्ष्महे नगरसंपविभागमत्र ॥ ५४॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
हस्तलक्षणं नाम नवमोऽध्यायः ॥ १. 'व्यूति त', २. 'ति' क. पाठः ।
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पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः । अथ पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः ।
पुरस्य त्रिविधस्यापि प्रमाणमथ कथ्यते । प्राकारपरिखाट्टालद्वाररथ्याध्वभिः सह ।। १ ॥ ज्येष्ठं तत्र चतुश्चापसहस्रं पुरमिष्यते । मध्यं द्वाभ्यां सहस्राभ्यामेऊन व्यासतोऽधमम् ॥ २॥ साष्टमांशं सपादं वा साध वा व्यासमायतम् । कुर्यादेककमायामं चतुर(सी?श्री कृतं शुभम् ।। ३॥ चतुःषष्टिपदाख्येन पुरं सर्व प्रकल्पयेत् । द्विरष्टकोष्ठं तत् कुर्यात् षट्पथं नवचत्वरम् ।। ४ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे प्रागुदीच्यन्तमागताः। चतुभोगान्तरा वंशाः कायोस्तस्य त्रयस्त्रयः ।। ५ ।। वंशपट्कविभक्तेऽस्मिन् पदषोडशकान्विते । राजमागेः शुभः कार्यो मध्यम वंशमाश्रितः ॥ ६ ॥ कार्यों ज्यायसि (च) ज्यायांश्चतुर्विंशतिकः करैः । विंशत्या मध्यमे मध्योऽधमे पोडशकोऽधमः ॥ ७ ॥ वलस्य चतुरङ्गस्य पौराणां पार्थिवस्य च ।। असम्बाधसमश्चैष कार्योऽयं काश्मशकरः ॥ ८॥ महारथ्याद्वयं कार्य तदुपान्तस्थवंशयोः । तद् द्वादश दशाष्टौ स्यात् करान् ज्येष्ठादिकं त्रिषु ॥९॥ पदमध्यगतं कार्य यानमार्गचतुष्टयम् । ज्येष्ठादिषु पुरेप्वेषु तत्पद्यं च चतुःकरम् ॥ १० ॥ उपरथ्या महामार्गस्या वा द्विशयाधिकम् । शेषा रथ्यास्तदर्धेन विधातव्याः प्रमाणतः ॥ ११ ॥ यानमागेचतुष्कस्य कार्यों पाश्चद्वयाश्रितो । पदाष्टकपदान्तस्थौ द्वौ द्वौ जवापथावपि ॥ १२ ॥
१. 'भासास्थं च ' ग. पाठः । २. 'शतिभिः क ' पारः । ३. 'तुःप्रान्त', ४. 'स्वार्धस्वादिसया' ख ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
पुरे ज्येष्ठे त्रिहस्तौ तौ मध्यमेरोज्झितौ । मध्यमादर्धहस्तेन होनौ स्यातां कनीयसि ॥ १३ ॥ पुरस्यान्तर्गत कार्यो ण्यामागी तथा । राजमार्गगुणोपेतौ प्रमाणेन च तद्विधौ ॥ १४ ॥ माप्रत्यगायताः सह गार्गी परिवार | याम्योत्तरायतास्तद्दन्ये सुस्तप्रमाणतः ॥ १५ ॥ aण्टामार्गप्रमाणेच चण्यवाश्व बाह्यतः । समन्ततो वयं स्थापनेद् विनचिन् ॥ १६ ॥
महारथ्याप्रमाणेन तदः । व्यासखातान्तरैः सार्धं विषेष परिखाश्रयम् ॥ १७ ॥
खातोत्पादवि कार्यप
व्यासः स्वादे
कुर्याद् वयं स्वभूमा परिवरखाना वृदा । सोत्सङ्ग गजपृष्ठ वा
॥ १८ ॥
खातो
कावः ।
भूप्रदेशान् पुरा विज्ञानापूर्य मां नयेत् ॥ २० ॥
॥ १९ ॥
एवं संशोध्य परिखाश्वियं परितोऽश्मभिः ।
विधेयमिष्टकाम सम्पन्न स्थिरम् ॥ २१ ॥
सिरावारिभिरापूर्ण पूर्ण बना।
विचित्राजमनोहारि ससंग्राहान्डुनिर्नयम् ॥ २२ ॥
ふ
सर्वपार्श्वेष्वथैतस्य गन्धान्धमधुपानान् ।
सुमनोविटपारामान् कुर्यादवालान् समुत्कान् ॥ २३॥
१. 'नवत्' स. पाठ. २
४. ' तलस्थितम् ' ख ग पाठ: । ५.
बाह्यभागं पुनस्तस्य विमात् सर्वतोदितम् ।
द्रुममूलैलता जालैः कण्टकशीट ॥ २४ ॥
वा ३ 'गोत्रीय क. पाठः
कानू (?) क. पाठः ।
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* गोत्रीयपदताडितं गोत्रा गोसमूहः तदीयैः पदैस्ताडितं प्रहतम् ।
ई 'समाहं साम्बुनिर्गमम्' इति पादः पाठ्यः |
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पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः ।
४१ वप्रो भागगं मध्यं स्थूलोपलंशिलाचितम् । कुर्यात् प्राकारमुद्दामं यद्वा पक्वेष्टकामयम् ।। २५ ॥ ज्यायान् करैदशभिर्दशभिर्मध्यमः स्थितः । . कनीयानष्टभिर्हस्तैर्विस्तारैः स्यात् विधेत्यसौ ॥ २६ ॥ उच्छ्रायः सप्तदशभिः करैायान् प्रशस्यते । मध्यमः पञ्चदशभित्रयोदशभिरन्तिमः ।। २७ ॥ ऊर्ध्वं न सप्तदशकान त्रयोदशकादधः । प्राकारोच्छ्यमिच्छन्ति नापि युग्मकरोन्मितम् ।। २८ ।। हस्तेहस्तेऽगुलद्वन्द्वमायतः सम्यगुच्छ्यात् । यस्य वा द्वादशकरा मूले भवति विस्तृतिः ॥ २९ ॥ चतु(रसोईस्तो)च्छ्रितिस्तस्य शिरः स्याद् दशविस्तृतम् । हस्तांचं कपिशीर्ष स्याद् द्विहस्ता काण्डवारिणी ॥ ३० ॥ कार्याः कर्णाश्रितारकर्णान्तस्यैश्च संयुताः । माकारेऽट्टालकास्तस्मिन् दिक्षुदिक्षु चतुर्दिशम् ।। ३१ ।। द्विभौमांश्चरिकोर्ध्वं च प्राकारोच्छ्रायविस्तृतीन् । तदर्थे निगेमान् कुयोत् ससालाहालकानथ ॥ ३२ ।। शतं शतं स्याद्धस्तानां मिथश्वाट्टालकान्तरम् ।। इत्थं पुरमगम्यं स्यात् पत्त्यश्वरथदन्तिनाम् ॥ ३३ ॥ चरिको संचरद्वारा सुखारोहां सवेदिकाम् । ससोपानां सनियूहां कुर्यात् सकपिशीर्षकाम् ॥ ३४ ॥ राजमार्गमहारथ्यासंश्रितानि चतुर्दिशम् । त्रीणि त्रीणि विधेयानि पुरे द्वाराणि तद्विदा ॥ ३५ ॥ राजमार्गमहाद्वारचतुष्कं विस्तरान्नव । अष्टौ सप्त करानोा द्विगुणं त्रिकरोज्झितम् (?) ॥ ३६ ।। महारथ्याश्रयं द्वारं तत् षट्पञ्चचतुष्करम् । उच्छ्रयात् सार्धसाधैंकहस्तोनं विस्तरेण तत् ।। ३७॥
१. 'ज्येष्ठः क' क. पाटः । २. रात् स्यात् ,' ३. 'हस्ता', ४. 'करोष्टितम् ' ख. ग, पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे कुर्यात् प्रतोलीः सर्वेषु महाद्वारप्वथा दृढाः । दृढागेलाश्वेन्द्रकीलाः कपाटपरिघान्विताः ॥ ३८ ॥ राजमार्गसमां शाला स्यात् प्रनोलीविनिर्गमा । तदध कोष्ठकान्तः स्याद् व्यासोऽथ्य तयोः स्मृतः ।। ३९ ॥ चतुरश्रागिति न्यस्य प्रनोली बदनायताम् । व्यासतस्त्र्यंशविन्यस्तमार्गा पाद्वयान्विताम् ॥ ४० ॥
अन्तभित्तौ चतुर्दार महाद्वारेण सम्गितम् । विकल्पकोष्ठकान्तेपु दारुभिस्तद् विभूपयेत् ।। ४१ ॥ द्वारे चोभयतःशाले द्वे द्वे द्वारे च मूपयोः । ते कार्ये सम्मुखे व्यासाद् द्विकरे द्विगुणोच्छूिते ॥ ४२ ॥ (प?त)हारुम्पयोः पट्टमव्यं पञ्चकरोचितम् । तद्वन् कार्या द्वितीया भूरिशेपोदयोच्छ्रिता ।। ४३ ॥ बहिारविनिमुक्तां पूर्ववत् तां प्रकल्पयेत् । पुरःसंरोधनसर्गवाक्षरगती युताम् ।। ४४ ॥ तलं ततो महाद्वारस्योर्वे वळा तृतीयकम् । राधनद्वारयुग्हयसंयुक्तं सपरिक्रमम् ॥ ४५ ॥ सन्न्यस्तस्तम्भवेद्यन्यदूर्ध्व तस्योपकल्पयेत् । व्यालजालशतघ्न्यस्त्रशस्त्रयन्त्रादिभियुतम् ।। ४६ ॥ वृदिशोभाभिगुप्त्यर्थं पुरस्य प्रविकल्पयेत् । • बृहवाणि परिलखिनलाभिः प्रतालिभिः ॥ ४७ ।। प्रतोल्या दक्षिणाद् भागादुच्छ्रिता वामतो गतः । यावद द्वितीयं तत्पा_मकः कार्यों बहिः स्थितः ॥ ४८॥ द्वितीयो वामभागात तु निमत्यास्यैव वष्टकः । कायः स्यादा तदुत्थानान् प्राकारस्तस्य वाह्यतः ॥ ४९ ॥ एतयोरन्तरालं च राजमार्गेण सम्मितम् । कर्तव्यं स्यादिदेवं तु वस्त्रद्वारकमुत्तमम् ॥ ५० ॥
१. 'मः' ख, ग. पाट: । २. 'म:'क, भात् ' ख. पाटः। ३. ' सो वृद्धं त' स्व. पाठः । ४, 'न्ते यद् दाख, ग, ill५. 'तु मू,६. वसा का 'ख, पाठः।
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पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः । दृष्टा दृष्वोपभोगार्हान् सरिगिरिजलाशयान् । पक्षद्वाराणि कुर्वीत स्वेच्छया तत्र तत्र च ।। ५१ ॥ जलभ्रमान् पुरे कुर्यान्छिलादारुतिरोहितान् । द्विकरान् करमानान् वा साम्भसोऽस्मिन् प्रदक्षिणान् ।। ५२ ॥ छिन्नकर्ण विकर्ण च वनं मूचीमुखं तथा । वर्तुलं व्यजनाकारं चापाकृतिधरं च यत् !! ५३ ॥ शकटद्विसमं यच्च विस्ताराद द्विगुणायतम् । विदिक्स्थं सर्पचक्रं च तत् पुरं निन्दितं भवेत् ॥ ५४ ॥ छिन्नकणे वसल्लोकः पुरे तस्करतो भयम् । व्याधिभ्यो वापरेभ्यो वा प्रामोतीति विनिर्दिशेत् ॥ ५५ ॥ विद्विष्टस्वामिता सर्वलोकमहीनपत्यता । जायते स्वल्पमायुष्यं विकणपुरवासिनाम् ।। ५६ ॥ स्त्रीजयं विषरोगांश्च भेदांश्च विविधांग्नथा। जनो वसन्नवाप्नोति वज्राकृतिधरे पुरे ।। ५७ ।। वजन्ति प्राणिनो नाशं क्षुद्व्याधिपरिपीडिताः । निवसन्तः सदा सूचीमुखाकारघरे पुरे ।। ५८ ।। स्वामिना सह हीयन्ते सर्वतः सञ्चयोज्झिताः । स्वल्पायुषश्च जायन्ते जना वृत्तपुराश्रयाः ॥ ५९ ।। असत्यवादिनः स्वल्पायुपः पवनपीडिताः । जनाः स्युश्चलचित्ताश्च नगरे व्यजनाकृती ॥ ६० ॥ दुश्चरित्राङ्गनायुक्तस्तथा वहुनपुंसकः ।। चापाकारे पुरे लोको निवसन् भवति ध्रुवम् ॥ ६१ ॥ रोगशोकानलस्तेनभयं तत्र प्रजायते । शकटद्विसमाकारं पुरं वद विनिवेश्यते ।। ६२ ।। आरम्भासिद्धिदं विप्रभयदं जातिभेदकत् । पौराणां स्वामिनश्च स्याद् गजवाजिक्षयावहम् ।। ६३॥ .. - 1. 'विस्तराद् द्विगुणायतः ।' (?) क. पाटः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे परैराक्रम्य भुज्येत तत् पुरं बलशालिभिः । द्विगुणायतसंस्थानं यत् क्वचिद् विनिवेश्यते ॥ ६४ ॥ जनक्षयोऽग्निदाहश्च स्वीकृतानि भयानि च । पुरे भवति दिङ्मूढे न च निर्योगमेति तत् ।। ६५ ।। शस्त्रानिलपिशाचाग्निभूतयक्षभयार्दिताः । रुक्पीडिताश्च नश्यन्ति भुजङ्गकुटिले जनाः ।। ६६ ॥ पुराणामप्रशस्तानि संस्थानानीहशानि यत् । एकस्मिन्नपि तेनैषां न पुरं विनिवेशयेत् ।। ६७ ।। संस्थानमेकमप्येषां प्रमादात क्रियते यदि। तदा राष्ट्रं निपीड्येत क्षुद्विषद्भीतिमृत्युभिः ।। ६८ ।। शास्त्रज्ञः स्थपतिस्तस्मात् प्रयत्नपरया धिया ! यथावत् कथितं चाँरु नगरं विनिवेशयेत् ॥ ६९ ॥ वेदीनिवेशयात्रायां देवागाराभिचारयोः । नदीकर्मणि मैत्रे च शान्ति कुर्याच्छमेषु च ॥ ७० ॥ यज्ञे पुरनिवेशे च स्थापने प्रयतः सुधीः । कुर्यात् तथाभ्युदयिकं यद्वान्यदपि किञ्चन ।। ७१ ॥ पुरे भीतिकरं शश्वदनायुष्यभपौष्टिकम् । कृतममयतैः कमें नृपतिनं च जायते ॥ ७२ ।। विहितं यदशास्त्रज्ञैर्यच निलेक्षणः कृतम् । कृतमप्रयतेयेच तदशस्तं फलोज्झितम् ।। ७३ ॥ शास्त्रज्ञः स्थपतिर्योतिर्विदा तद्वत् पुरोधसा । अधिष्ठितः पुरे कर्म विदध्याच्छान्तिकेषु च ॥ ७४ ।। पुरोहितोऽग्निं जुहुयाद दद्यान्महर्तिकः स्थिरम् । स्थपतिश्च बलिं दद्याद योजयेदिति शान्तिकम् ।। ७५ ॥ तदा तस्मिन् पुरे शान्तिर्यत्र मर्मस्थिताः सुराः । पूज्यन्ते सततं पोरेश्चत्वरस्थायिनस्तथा ॥ ७६ ॥
१. 'सस्वामिनः पि', २. 'रुकपीडाभिश्च' ख. ग. पाठः । ३. चात्र न' क. पाठः । ४. 'यां वेदागा' ग. पाठः । ५. 'यतैः कर्म त क. पाठः । ६. 'तम् ' ख. ग. पाठः।
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पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः । चतुःप्रकारं स्थापत्यमष्टधा च चिकित्सितम् । धनुर्वेदश्च सप्ताङ्गो ज्योति कमलालयात् ।। ७७ ॥ सामान्यलक्षणोत्पातनिमित्तानि च सर्वशः ।। ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च त्यजन्त्येते न तत् पुरम् ।। ७८ ।। नगरस्य विभागोऽयं यथावत् समुदीरितः ।। खेटं तदर्धविष्कम्भमाहुामं तदर्धतः ।। ७९ ॥ योजनेन पुरात खेट खेटाद ग्राम प्रचक्षते ।। गव्यतिपरिमाणेन ग्रामाद ग्राम प्रचक्षते ।। ८० ॥ द्विकोशाद विषये सीमा तदन पुरस्य सा ।
खेटके पुरसीमा ग्रामे खेटार्धतः स्मृता ।। ८१ ॥ त्रिंशद्धनूंषि विष्कम्भः पुरे दिग्वर्त्मसु स्मृतः । विंशतिः खेटके मार्गो ग्रामे दश च दर्शितः ॥ ८२ ।। नव ग्रामसहस्राणि नवति(श्च?ञ्च) प्रचक्षते ।। चतुःषष्टिमपि ग्रामान ज्यायो राष्ट्र विदुर्बुधाः ॥ ८३ ।। दशार्धं च सहस्राणि ग्रामाणां त्रिशती तथा । ग्रामाचतुरशीतिश्च मध्यमं राष्ट्रमीरितम् ॥ ८४ ॥ सहस्रमेकं ग्रामाणां तद्वच्च शतपञ्चकम् । यूना च ग्रामपञ्चाशत् कनीयो राष्ट्रमुच्यते ।। ८५ ॥ अध्यधेसययैतेषां ज्येष्ठमध्यकनीयसाम् । विधाय नवर्धकैकं विभजेद् विधिवत् सुधीः ॥ ८६ ।। राष्ट्रेष्वेवं विभक्तेषु यथाभागं विधानवित् । निवेशयेत् पुराण्येषु सप्त सप्त यथार्गमम् ॥ ८७ ॥ विभागश्च प्रमाणं च लक्षणं चादिमस्य यत् । जातिवणोधिवासश्च यथावत् तदिहोच्यते ।। ८८ ।। सुवर्णकारानाग्नेय्यां तथा वह्नयुपजीविनः । निवेशयेत् कर्मकरानन्यानपि विधानवित् ॥ ८९॥
१. 'तत्र ग्रा', २. 'दश द्वे च ', ३. 'न्यूनाच ग्रा' ख. म. पाठः 17. 'क्रम' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे वैश्यानामक्षधुर्तानां चक्रिकाणां च दक्षिणे । नटानां नर्तकानां च गृहाणि विनिवेशयेत् ॥ ९० ॥ निवेशयेत् सौकरिकान् मे(यी?षी)कारान् मृगच्छिदः । कैवर्तान् नैर्ऋताशायां दमनाधिकृतांस्तथा ॥ ९१ ॥ रथेषु कौशलं येषां येषां स्यादायुधेषु च । । वारुण्यां दिशि तान् सर्वान् पुरस्य विनिवेशयेत् ।। ९२ ।। कर्मस्वधिकृता ये च ये चापि परिकर्मिणः । शौण्डिका ये च तान् सर्वान् वायोर्दिशि निवेशयेत् ॥ ९३ ॥ यतीनामाश्रयान् ब्रह्मवत्सानां च तथा सभाम् । प्रपाश्च पुण्यशालाश्च कुर्याद् दिशि धनेशितुः ॥ ९४ ॥ घृतविक्रयिणो ये च फलविक्रयिणश्च ये । निवेशिताः प्रशस्यन्ते पुरस्येशानदिग्गताः ॥ ९५ ।। पूर्वभागे बलाध्यक्षान् राज्ञो मुख्यांस्तथा बले। निवेशयेत् तथाग्नेय्यां बलं नानाविधं सुधीः ॥ ९६ ।। श्रेष्ठिनो दक्षिणाशायां तथा देशमहत्तरान् ।। याम्येकहारान् (१) कुर्वीत तथा ककुभि नितेः ॥ ९७ ॥ कोशपालमहामात्रादेशिकान् कारुकानपि । नियामकांश्च कुर्वीत सलिलाधिपतेर्दिशि ।। ९८ ॥ वायोः ककुमि कुर्वीत दण्डनाथान् सनायकान् । पुरोहितज्योतिषिकानुत्तरस्यां निवेशयेत् ॥ ९९ ।। विप्राः सौम्या दिशो भागे क्षत्रियाः शक्रदिग्गताः। वैश्यशूद्रास्तु कर्तव्या दक्षिणापरयोः क्रमात् ॥ १०॥ निधेया वणिजो वैद्या मुख्याश्चापि चतुर्दिशम् । चतुर्दिशं विशेषेण स्थापयीत बलानि च ।। १०१ ।। नगरस्य बहिः प्राच्यां लिङ्गस्थान विनिवेशयेत् । श्मशानानि तथा तत्स्थान् याम्यायां स्थपतिः सुधीः ॥ १०२ ॥ १. 'म्य' क. पाठः।
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पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः। सर्वतोदिशमुद्दिष्टो विभागो नगरे यथा । तथा ग्रामेषु खेटेषु सेनायाश्च निवेशने ।। १०३ ।। नगराभिमुखो कार्यों संपूर्णाङ्गमहोदयौ । द्वारे द्वारे सौम्यमुखी लक्ष्मीवैश्रवणौ शुभौ ।। १०४ । राष्ट्रं खेटमथ ग्रामं पश्यन्तेतपुरं महत् (?) । तत्रारोग्याथेसंसिद्धी प्रजाविजयमादिशेत् ॥ १०५ ।। हंशवन्धवधैर्लोकाः स्युमिथः मूत्रहिंसकाः । ग्रामं रेखटं पुरं राष्ट्रं यदेतो नेव पश्यतः ॥ १०६ ॥ स्थाप्यन्ते ये यथा देवा नगरे सर्वतोदिशम् ।। वाह्यान्तरासु भूमीषु अ॑महे तानतःपरम् ॥ १०७ ॥ चतुर्दिशं समारभ्य प्राकारपरिखान्ततः । बहिः शते शते सार्धे धनुषां द्विशतेऽपिच ॥ १०८ ।। धनुःशतमितेः शुद्धरनिन्द्यैर्धरणीतलैः।। स्वस्वप्रासादयुक्तानि स्वस्त्रानुगगृहैः सह ।। १०९ ।। निवेशनानि कुर्वीत त्रिदशानां यथाक्रमम् । . नगराभिमुखं चित्रवनभाजि शुभानि च ।। ११० ॥ . याम्योत्तरायतं वंशं विकल्पपुरमध्यगम् । वहिरन्तश्च कुर्वीत देवानां विनिवेशनम् ॥ १११ ॥ प्राच्या प्रत्यङ्मुखान् कुर्यात् प्राङ्मुखांचाम्बुभृदिशि । याम्योदक्पार्श्वयोस्तस्य पादक्षिण्येन वंशगान् ॥ ११२॥ दक्षिणस्यां न कुर्वीत त्रिदशानप्युदङ्मुखान् । चैत्यशान्तिसभा यक्षमातप्रथमयान्विताः(१) * ॥ ११३ ।। इत्यमी कथिताः सम्यग ये यथादिङ्मुखाः सुराः । दिक्षु दिक्षु बहिर्ये स्युस्तानिदानी प्रचक्ष्महे ॥ ११४ ॥
१, सहोदरौ।', २. इयन्त्येते पु', ३. प्राग्द' ख. पाठः । ४. 'प्रमथया क. पाटः ।
'पश्यतस्तौ पुरं च यत् । इति पठनीयं भाति । * ' प्रमथपान्विताः' इति पठनीय भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे विष्णोदिनाधिनाथस्य सहस्रनयनस्य च । धर्मस्य च विधातव्यं दिशि प्राच्यां निकेतनम् ।। ११५ ॥ सनत्कुमारसावित्र्योर्मरुतां मारुतस्य च । पूर्वदक्षिणदिग्भागे विदर्भात निकेतनम् ॥ ११६ ॥ गणेशमातृभूतानां याम्ये प्रेतपतेहम् ।। भद्रकाल्याः पितॄणां स्याद् वेश्म चैत्यं च नैर्ऋते ॥ ११७ ॥ सागरस्य नदीनां च शिल्पिभर्तुः प्रजापतेः । निलयं पश्चिमाशायां विदध्याद् वरुणस्य च ॥ ११८ ॥ फणिनां भवनं कार्यमपरोत्तरदिग्गतम् । शनैश्चरस्य चात्रैव कात्यायन्याश्च मन्दिरम् ॥ ११९ ।। विशाखस्कन्दसोमानां तथा यक्षाधिपस्य च । पृथक्पृथग विधातव्याः प्रासादाः सौम्यदिग्गताः । ॥ १२० ॥ जगद्गरोमहेशस्य श्रियो वर्षोश्च मन्दिरम् । पूर्वोत्तरस्यां ककुभि प्रविधेयं मनोरमम् ।। १२१ ।। नदीनामम्बुधीनां च समन्तानगरस्य च । कान्तारेष्वद्रिषु स्थानं सर्वश्रेष्टमुमापतेः ।। १२२ ।। निवेश्यन्ते स्वदिग्भागेष्वेवं यस्मिन् सुरोत्तमाः । सम्यक्समृद्धिमासाद्य चिरं नन्दति तत्पुरम् ॥ १२३ ॥ . नगरस्य विदूरेऽपि ककुप्सु निखिलास्वपि । बाह्यतोऽभिमुखा देवाः शस्यन्ते न पराङ्मुखाः ।। १२४ ।। क्रियते यदि भूभागे वंशेन स पराङ्मुखः । विधिमेनं तदा तस्मिस्तज्ज्ञः शास्त्रोक्तमाचरेत् ॥ १२५ ॥ तद्वेषवर्णभूषास्त्रवाहनैरन्वितं सुरम् । तद्भित्तौ प्रकटाकारं नगराभिमुखं लिखेत् ॥ १२६ ॥ वैककृतशमीबिल्वैः क्षीरकण्टकिभिमः । उदपानाग्न्यगारेषु स्थान दोषोऽन्तरस्थितैः । ॥ १२७ ॥ अर्चाश्रितेष्वयं प्रोक्तो विधिर्नालेख्यवर्तिषु । कर्तव्याः सर्वतोवक्तास्तस्माचिलगनाः मुराः ॥ १२८ ॥
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पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः । विधानं यद् यथा प्रोक्तं सुरधाम्नां पुराद बहिः ।। तत् तथाभ्यन्तरेऽपि स्यात् कार्य स्वस्वदिगाश्रयम् ॥ १२९ ॥ मध्ये पुरस्य कर्तव्यं गृहमम्भोजजन्मनः । निवेशनं तथेन्द्रस्य तथैव हलिकृष्णयोः ॥ १३० ॥ मातृयक्षगणाधीशान् शिवकान् भूतसङ्घकान् । विनापि वेश्मभिः कुर्यात् पुरे चत्वरमार्गगान् ॥ १३१ ॥ राज्ञा वर्णाश्रमकलापण्यशिल्पोपजीविनः। स्वदिक्पदस्थाः कर्तव्यास्ते देवाचेच्छता श्रियम् ॥ १३२ ॥ प्रासादे सति भक्तीच्छाशक्तियुक्तो यदापरम् । मासादं कारयेत् पूर्वं न तदा पीडयेत् सुधीः ॥ १३३ ॥ प्रतिवेश्म प्रतिग्रामं प्रतिदेवकुलं तथा । कुर्यात् प्रतिपुरं चापि न प्राङ्मानगुणाधिकम् ॥ १३४ ॥ पूर्वमासादतो रुद्रसोमयोर्ब्रह्मणोऽथवा । प्रासादे विहितेऽन्यस्मिन् भवेत् पीडाग्रजन्मनाम् ॥ १३५॥ कृते धान्यधिकेऽन्यस्मिन् वद्रेर्वाचस्पतरुत । पुरोधसां भयं विद्याद् ध्रुवं ज्योतिर्विदां तथा ॥ १३६ ॥ धनाधिपामराधीशयमानां वरुणस्य वा। अधिक विहिते धान्नि भयं विद्यान्महीपतेः ॥ १३७ ॥ स्कन्दधान्नोऽधिकेऽन्यस्मिन् विहिते तस्य वेश्मनि । सेनापतेर्बलानां च पीडा सञ्जायते ध्रुवम् ॥ १३८ ॥ प्रजापतेरभ्यधिकं हरेान्यत् कृतं गृहम् । क: कारयितुश्च स्याद् बन्धाय च विनष्टये ॥ १३९ ।। गणेशयक्षफणिनामधिकोऽन्यः कृतो यदि । प्रासादः स्यात् तदा नित्यं सेनाङ्गानां महद्भयम् ॥ १४० ॥ स्त्रीनाम्न्यो देवतास्तासां पीड्यन्ते यदि वेश्मभिः। मुख्यानां पुरनारीणां तदा कुर्वन्त्युपद्रवम् ॥ १४१ ॥ १. 'संहकान्', २. 'याथ वि' ख, पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पूर्वामरेषु सर्वेषु पीडितेष्वमरालयैः । अन्यैस्तल्लिङ्गिनां पीडा चैत्यैर्वा चैत्यपीडितैः ॥ १४२ ॥ हीनाधिकप्रमाणेषु दुर्निविष्टेषु धामसु । कर्तुः कारयितुः पीडा स्याम्न पूजा तथास्य च ॥ १४३ ॥ नैवातिसंभृतं कुर्यात् स्वल्पमल्पामरालयम् । पुरं चानाश्रितं कुर्याद् वेधभागाश्रितं नच ।। १४४ ॥ ज्येष्ठमध्यकनिष्ठानि नवपत्रिपदान्तरे । सुरवेश्मानि कुर्वीत दोपायापरथा पुनः ।। १४५ ॥ कथितोऽयं विधिः स्वैः स्वस्त्रिदशानां निवेशने । बहिर्निवेशनात् स्वेच्छं विदध्यादमरालयम् ॥ १४६॥ नगरेपु समग्रेषु ग्रामेपु निखिलेषु च । खेटकेषु च सर्वेपु सामान्योऽयं विधिः स्मृतः ।। १४७ ॥ इत्युक्त एष नगरोपगतः सुराणां स्वस्वप्रभागविहितः पदसनिवेशः । मो विभागमधुना गृहदेवतानां सम्यक् शुभाशुभफलपविभागयुक्तम् ॥ १४८ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
पुरनिवेशो दशमोऽध्यायः ॥
अथ वास्तुत्रयविभागो नामैकादशोऽध्यायः ।
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे विभक्त नवधा ततः । मध्ये महाद्युतिर्ब्रह्मा विधेयो नवभिः पदैः ॥ १॥ तस्मादनन्तरं प्राच्यां षट्पदः कीर्तितोऽर्यमा । आग्नेयकणे सवितृसावित्री पदिकावुभौ ॥ २ ॥ १. 'धुरं दानानि' ख, पाठः !
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वास्तुत्रयविभागो नामैकादशोऽध्यायः । ब्रह्मणोऽनन्तरं याम्ये विवस्वान् षट्पदाश्रितः । नैर्ऋते पदिको कर्णे जयेन्द्रौ कथितावुभौ ॥ ३ ॥ पदपदः स्यात ततो मित्रः काष्ठायां पत्युरम्भसः । कर्णेऽपरोचरे यक्ष्मा रुद्रश्च पदिकावुभौ ॥४॥ पद्भिः पदैस्ततः सौम्ये निश्चलः पृथिवीधरः ।
आपस्तंथांपवत्सश्च पदिकावीशदिग्गतौ ॥ ५ ॥ इत्यन्तःसंश्रया देवाः प्रोक्ता ब्रूमो बहिःस्थितान् । ज्ञेयं प्रदक्षिणं तेषां स्थानं पूर्वोत्तरादितः ॥ ६॥ अग्निस्तदनु पर्जन्यो जयन्तश्चेन्द्र एव च । रविः सत्यो भृशश्चेति नभस्तस्मात् ततोऽनिलः ॥ ७ ॥ पूषाख्यो वितथाख्यश्च गृहक्षतयमावथ । गन्धर्वो भृङ्गराजश्च मृगः पितृमणस्ततः ॥ ८ ॥ दौवारिकोऽथ सुग्रीवः पुष्पदन्तो जलेश्वरः । असुरः शोषनामा च पापयक्ष्मा ततः परम् ॥ ९ ॥ रोगो नागश्च मुख्यश्च भल्लाटः सोम एव च । चरकोऽथादितिदैत्यमातति पददेवताः ॥१०॥ वह्नयोः पितृणां च व्याधेश्चैव क्रमाद् बहिः । चरकी च चिदारी च पूतना पापराक्षसी ॥ ११ ।। पदभोगोऽस्ति नैतासां स्थानमेव हि केवलम् । पदभोगमथ ब्रूमो वहिःस्थानां नभःसदाम् ॥ १२ ॥ तत्राष्टौ द्विपदाधीशा जयन्तो भृश एव च । वितथो भृङ्गसुग्रीवशोषमुख्यास्तथादिनिः ॥ १३ ॥ एभ्यः शेषा बहिर्ये तु ते स्युः पदमुजः सुराः । एकाशीतिपदे प्रोक्तो देवतानां पदक्रमः ॥ १४ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशधा प्रविभाजिते । भवेच्छतपदो वास्तुबूंमोऽत्राप्यमरस्थितिम् ॥ १५ ॥ १. 'ईशस्त ' ख. पाठः । २. (जलो द्विपः ?) जलाधिपः । क. पाटः।
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समराङ्गणसूत्रधारे
द्विरष्टगुणितं मध्ये पदमेकं पितामहः । भुङ्क्ते शतपदे वास्तौ चतुर्गुणितमर्थमा || १६ || faaradise मित्रस्य तद्वच्च पृथिवीभृतः । भोगमिच्छन्ति वै तेषामर्यम्ण इव सूरयः ॥ १७ ॥
सवित्राद्यापवत्सान्ता ये च नोक्ताः सुरोत्तमाः । यथैकाशीति तद्वत् तेषां भोगः पदाष्टकम् ॥ १८ ॥ अग्न्यन्तरिक्षपवना मृगश्च पितरोऽपिच । रोगोऽदितिस्तथाध्यर्धपदभाजो वहिः स्थिताः ॥ १९ ॥
चतुर्विंशतिरुक्ता ये पर्जन्याद्याः सुरोत्तमाः । अदित्यन्ता द्विपदिकास्ते शेषं प्राक् प्रसाधितम् ॥ २० ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे पूर्ववद भाजितेऽष्टभिः । चतुः षष्टिपदो वास्तुचतुःषष्ट्या पदैर्भवेत् ॥ २१ ॥ अस्मिन् पदानि चत्वारि भुनक्त्यन्तः पितामहः । अर्यमाद्याः सुरावात द्वे द्वे मध्यगताः पदे || २२ || Harsgadish ये स्थिताः कर्णेषु चाष्टसु । ये देवाः सर्व एवात्र ते पदार्थभुजः स्मृताः ॥ २३ ॥ पर्जन्योऽथ भृशः पूषा भृङ्गदौवारिकौ तथा । शोषनागादितिप्रान्ताः स्युरध्यर्धपदस्पृशः २४ || जयन्तादिषु । बाह्येषु चरकान्तेषु कीर्तिता । प्रत्येकं षोडशस्वत्र सुरेषु द्विपदस्थितिः ॥ २५ ॥ सिरां वपदादूर्ध्वं नयेत् पितृपदान्ततः । बाह्याशा निर्गतां चैनां रोगनामानमानयेत् || २६ || द्विनान्नः प्रापयेद् भृङ्गं भृङ्गात् सुग्रीवमानयेत् । ततोऽदितिं तां गमयेद् द्विनामानं प्रवेशयेत् ॥ २७ ॥ १. ‘रः क्षयः । ', २. 'स्तै: ' क. पाठ: । ३. 'द्विनामादि' ख. पाठः । 'द्विनामादिष्विति पाठे द्विनामशब्दो जयन्तपर्यायः ।
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नाड्यादिसिरादिविकल्पो नाम द्वादशोऽध्यायः । सौराद् याम्यं पदं नीत्वा वारुणं प्रापयेत् ततः । नयेत् पदं ततः सौम्यं तत आदित्यमानयेत् ।। २८ ।। भृशादानीय वितथं शोपाख्यं वितथादय । शोषान्मुख्य समानीय नयेत् तस्मात् पुनभृशम् ॥ २९ ॥ ये विभागाः समुद्दिष्टा यथासक्येन तैरिह ।
यज्ञामरनृणां वास्तुं समस्तं विभजेत् सुधीः ॥ ३० ॥ देवैः सर्वैरप्यमीभिर्विशोकः प्रीत्युत्कर्षादित्थमालोक्यतेऽसौ । कृत्लानेषोऽप्यब्जपत्रायताक्षः पश्यत्येतान् स्फारितेनेक्षणेन ।। ३१ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्ने
वास्तुत्रयविभागो नाम एकादशोऽध्यायः ॥
अथ नाड्यादिसिरादिविकल्पो नाम द्वादशोऽध्यायः।
अाभिधीयते वास्तुः कनीयान् षोडशास्पदः । पदैः षोडशभिः स स्यात् तत्र देवान् प्रचक्ष्महे ॥ १ ॥ भुङ्क्ते मध्ये स्थितो मुख्यः पदमेकं सुरोत्तमः । क्लृप्तं पदचतुर्भागेश्चतुर्भिश्चतुराननः ॥ २ ॥ पदार्धभागभोक्तारश्चत्वारोऽमी सुरोत्तमाः। अर्यमा च विवस्वांश्च मित्रश्च क्ष्माधरोपिच ॥३॥ सवित्राद्यापवत्सान्ता येऽष्टौ कोणेषु वेधसः । चतुर्भागभुजस्ते स्युस्त्रिदशास्तपनत्विषः ॥४॥ चतुर्थी?वी)शादिकोणेषु ये स्थिताः क्रमशः सुराः । अष्टभागभुजस्तेऽष्टौ विनिर्दिष्टा मनीषिभिः॥५॥ ये तथादितिपर्यन्ताः पर्जन्याद्याः सुरोत्तमाः । तेष्टौ चतुर्भागभुजो विद्वद्भिरिह कीर्तिताः ॥ ६ ॥ १ 'रुण्यां : क. पाठः । २ 'यो विधी', ३. 'तुषष्टीसादि' (१)ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
चरकान्ता जयन्ताद्या ये बाह्यस्थितयोऽमराः । भोगोsपदिकस्तेषां षोडशानामपि स्मृतः ॥ ७ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे त्रयस्त्रिंशद्विभाजिते । अन्त्यपङ्क्तिद्वयं सार्धं चरक्याद्यर्थमुत्सृजेत् ॥ ८ ॥ अन्तरे वीथिकामर्धपदिकामुत्सृजेत् ततः । मध्ये तु सप्तविंशत्या भागैर्वास्तु विभाजयेत् ॥ ९ ॥ एकोनत्रिंशता युक्तं पदानां शतसप्तकम् । यद् भवेत् तत्र गर्भे स्यादेकाशीतिपदः स्वभूः ॥ १० ॥ अष्टादशपदाचाष्टौ चापप्रभृतयः पृथक् । अर्यमाद्यं चतुःपञ्चाशत्पदं स्याच्चतुष्टयम् ॥ ११ ॥ fararस्त्वदित्या ह्या नवपदाः सुराः । देशानां सन्निवेशेऽसौ साहस्रो वास्तुरुच्यते ॥ १२ ॥ अथोच्यते वृत्तवास्तुर्वृत्तप्रासादहेतवे । एक चतुःषष्टिपदभागः शतपदोऽयैरः ॥ १३ ॥
अष्टधा भाजते वृत्तविष्कम्भे भागिकान्तरान् । चतुरः परिधीन् कुर्यान्मध्यवृत्तं द्विभागिकम् ॥ १४ ॥ स्याद्वहिर्वृत्तवलयमष्टाविंशतिभागिकम् । तदन्तर्वृत्तबलयमष्टाष्टांशोज्झितं क्रमात् ।। १५ ।
एवं कृते भवेन्मध्ये ब्रह्मणस्तच्चतुष्पदम् । इत्थं चतुःषष्टिपदो वृत्तवास्तुरुदाहृतः ।। १६ ।। दशधा भाजिते त्तविष्कम्भे भागिकान्तराः । कार्याः परिधयः पञ्च मध्ये वृत्तं द्विभागिकम् ॥ १७ ॥ बहिस्थं वलयं तस्य भजेत् षट्त्रिंशता ततः । शेषं चतुःषष्टिपदस्थित्या स्याच्छतवास्तुनि ॥ १८ ॥ देवतापसङ्क्षिप्तिरनयोश्चतुरश्रवत् ।
एवं कार्यवशात् कार्या वास्तवोऽन्येऽपि धीमता ॥
१९ ॥
१. ' न्ते पङ्क्तित्रयं क. पाठ: । २. 'स्तयोः श' ३ ' त्तरः ' ख. पाठः । ४. 'वृत्तविष्कम्भे विभक्त भा' ५. रात्, ६. ' स्याद्वृत्तवा' क, पाठः
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माड्यादिसिरादिविकल्पो नाम द्वादशोऽध्यायः । व्यश्रे षडश्रे चाष्टाश्रे षोडशा) च वृत्तवत् । वृत्तायतेऽधेचन्द्रे च वास्तो पदविभाजनम् ।। २० ॥ एक एव पुमानेषु बहुधा परिकल्पितः । सर्वस्मिन्नपि संस्थाने विभक्त लक्षयेत् ततः ॥ २१ ॥ शरीरं वास्तुपुंसोऽस्य गुणदोषा भवन्ति यत् । मुखं मूधो ततः श्रोते रक्ताल्चोष्टरदाः क्रमात् ॥ २२ ।। वक्षः कण्ठः स्तनौ नाभिर्मेद्रमुष्कावथो गुदम् । बाहू प्रवाहू पाणी स्फिगूरुज पदद्वयम् ।। २३ ।। कल्पयेदेवमेतेन स भवेत् पुरुषाकृतिः।। सिरावंशानुवंशाश्व सन्धयः सानुसन्धयः ॥ २४ ॥ मर्माण्यथ महावंशा लक्ष्या वास्तुशरीरगाः । सिराः कर्णगता याः स्युस्ता नाड्यः परिकीर्तिताः ॥ २५ ॥ पदस्य षोडशो भागस्तत्पमाणं प्रकीर्तितम् । महावंशी माक्मतीच्यौ याम्योदीच्यौ च मध्यगौ ॥ २६ ॥ प्रमाणं पञ्चमो भागः पदस्योदाहृतं तयोः । वंशास्तेऽस्मिन् समुदिष्टा रेखा याः स्युर्मुखायताः ॥ २७ ।। यास्तिर्यगायता रेखास्तेऽनुवंशाः प्रकीर्तिताः । सम्पाता ये स्युरेतेषां मर्म तत् संप्रचक्षते ।। २८ ॥ उपमर्माणि तान्याहुः पदमध्यानि यानि हि । भागोऽष्टमोऽथ दशमो द्वादशः पोडशोऽपिच ॥ २९ ॥ पदतो मानमिष्टं स्याद् वंशादीनामनुक्रमात् । वंशाष्टकस्य यः सन्धिः स सन्धिरिति कीर्तितः ॥ ३० ॥ ये पुनः स्युस्तदङ्गानां प्रोक्तास् चानुसन्धयः । वालाग्रतुल्यं सन्धीनां प्रमाणं परिचक्षते ॥ ३१ ।। तदर्धमनुसन्धीनां प्रमाणं समुदीरितम् । यत्नेनैतानि सन्त्यज्य वास्तुविद्याविशारदः ॥ ३२ ॥ १. ', २. *णा 'क. पाटः !
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समराङ्गणसूत्रधारे
द्रव्याणि प्रयतो नित्यं स्थपतिर्विनिवेशयेत् । महावंशस्य नाक्रान्ति कुयाद् द्रव्येण केनचित् ॥ ३३ ॥ इतरेषु पुनर्द्रव्यं मध्यवंशेषु सन्त्यजेत् । महावंशसमाक्रान्तौ भवेत् स्वामिवधो ध्रुवम् ॥ ३४ ॥ वर्षेण तपनाद भीतिं वंशानां पीडनाद् विदुः । उपमर्माणि रोगाय मर्माणि कुलहानये || ३५ ॥ उद्वेगायार्थनाशाय सिराश्च स्युः प्रपीडिताः । कलिः स्यात् सन्धिविद्धेषु पीडितेष्वनुसन्धिषु ॥ ३६॥ तस्मादेतानि सर्वाणि पीडितान्युपलक्षयेत् ॥ ३६ ॥ ज्ञात्वा सिराः सानुसिराच नाडीवंशानुवंशानपि वास्तु | यनेन मर्माणि फलानि चैषां वेधं त्यजेद् यस्तमुपैति नापत् ॥ ३० ॥ इति महाराजाधिराजश्री भोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे नाडीवंशानुवंशानां सिरानुसिरामर्मानुमर्मवेधविकल्पो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥
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अथ मर्मवेधस्त्रयोदशोऽध्यायः ।
एकाशीतिपदो यः स्यात् तथा शतपथ यः । चतुःषष्टिपदो यश्व वास्तुरत त्रिधोदितः ॥ १ ॥ यद् येन विभजेत् तेषु तदिदानीं मचक्ष्महे । यानि मर्माणि चैतेषां कथ्यन्त इह तान्यपि ॥ २ ॥ वर्णिनां भवनादीनि निवेशा राजवेश्मनाम् । एकाशीतिपदेनेन्द्रस्थानं च विभजेत् सुधीः ॥ ३ ॥ मासादा विविधास्तद्वद् विचित्राचात्र मण्डपाः । तान् मापयेच्छतपदप्रविभागेन बुद्धिमान् ॥ ४ ॥
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मर्मवेधस्त्रयोदशोऽध्यायः । यः पुनः स्याच्चतुःपष्टिपदस्तेन विभाजयेत् । नरेन्द्रशिविरग्रामखेटादि नगरादि च ॥ ५ ॥ अन्तस्त्रयोदश सुरा द्वात्रिंशद वाह्यतश्च ये । तेषां स्थानानि ममोणि सिरा वंशाश्च तेषु तु ॥ ६ ॥ भुख हृदि च नाभी च मूर्ति च स्तनयोस्तथा । मर्माणि वास्तुपुंसोऽस्य पमहान्ति प्रचक्षते ।। ७ ॥ वंशानुवंशसम्पाताः पदमध्यानि यानि च । .. देवस्थानानि तान्याये पदपोडशकान्विते ।। ।। देवस्थानानि सम्पाताश्चतुःषष्टिपद पुनः ।। तथैकाशीतिपदिक पदान्तशतिकेऽपिच ।। ९ ।। चतुष्वपि विभागेपु सिरा याः स्युश्चतुर्दिशम् । मर्माणि तानि चोक्तानि द्वारमध्यानि यानि च ॥ १० ॥ भित्तिविस्तृतमध्येन यद्वा मध्येन दारुणः । मर्म यत् पीड्यने येन गृहे सत्रोच्यने फलम् ।। ११ ॥ द्वारा भित्तिभिर्वापि मर्मणां परिपीडनात । दोर्गत्यं गृहिणः पाहुः कुलहानिमथापि वा ।। १२ ।। भवेत् स्वामिक्षयः स्तम्भस्तुलाभिः स्त्रीपरिक्षयः ।। स्नुषावधो जयन्तीभिवन्धुनाशश्च साहैः ।। १३ ।। मर्मस्थानगतेः कार्यमतुः कायो निपीड्यने । सुहृद्विश्लेपमिच्छन्ति सन्धिपालेश्च तद्विदः ॥ १४ ॥ नागपाशैर्धनोच्छेदो नागदन्तैः सुहृत्क्षयः । कपिच्छकैथ मर्मस्थैः प्रेमाण क्षयमादिशेत् ।। १५ ।। पदारुकाण्यनुसिरागवाक्षालोकनानि च । मर्ममध्योपनान्येतान्यावहन्ति धनक्षयम् ॥ १६ ।। द्वारद्रव्यतुलास्तम्भनागदन्नागवाक्षकः । द्वारमध्यादित रोगकुलपीडावनक्षया(?) ॥ १७ ॥ १. 'कार्य' 4 पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
पदण्डभयं पत्युः पीडनं च प्रचक्षते । द्वारमध्येषु पदारुमध्येष्वपि च सूरयः ॥ १८ ॥ कर्णद्रव्यादिभिर्विद्वेष्येतदेव फलं विदुः । शय्यानुवंशविहिता गृहिणां कुलनाशिनी ॥ १९ ॥ अयावहा नागदन्ता भर्तुः शय्यांवितानगाः । वातायनैरथ स्तम्भ विद्धा नागदन्तकाः ॥ २० ॥ ते शस्त्रभीतिदा भर्तुर्यद्वा चौरभयप्रदाः । द्रव्यवान्यविनाशाय शोकाय कलहाय च ॥ २१ ॥ गृहमध्यगतं द्वारं भवेत् स्त्रीदूषणाय च । द्रव्येणान्यतरेणापि महामर्म निपीडितम् ।। २२ ।। भवेत् सर्वस्वनाशाय गृहिणी मरणाय च । अंशुकाचोवंशाच तुम्विकाः सेन्द्रकीलकाः || २३ ॥ पुप्रासादगेहानां ते न दोषदाः ॥ २३ ॥ इत्थं सुरक्षितपवर्णगृहाश्रितोऽयं भेदः पदेष्वखिलमगतां व्यवव ।
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उकः पृथक्पृथगमुण्य फलं च सम्यग् मोऽथ वास्तुपुरुषाङ्गविभागमत्र || २४
इति महाराजाधिराजश्री भोजदेवविरचितं समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे मर्मवेध नाम योदशोऽध्यायः ॥
अथ पुरुषाद्गदेवतानिवण्यादिनिर्णयचतुर्दशोऽध्यायः ।
देवतानां परित्यं संविभक्तैः पृथग्विधैः ।
स्थपतिः प्रयतः कुर्याद वास्तु मित्थं पुमाकृतिम् ॥ १ ॥ शिरस्तस्याग्निरुद्दिष्टं दृष्टिदित्यम्वदाधिप ।
जयन्तश्चादितिश्चास्य कणी वायुर्मुखे स्थितः ॥ २ ॥
'मणि पीडित |
1. ‘नि', २. 'व्यावहान क. पाठः। ३. स. पाठ ५. 'बर्थशास् तुक. पाठः ।
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४.
' वा '
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पुरुषाङ्गदेवतानिघण्टादिनिर्णयश्चतुर्दशोऽध्यायः । अर्कः स्याद् दक्षिणे वामे भुने सोमः प्रतिष्ठितः । महेन्द्रचरको सापवत्सावस्योरसि स्थितौ ।। ३ ॥ स्तनेर्यमा दक्षिणे स्याद् वामे च पृथिवीधरः ।। यक्ष्मा रोगश्च नागश्च मुख्यो भल्लाट इत्यमी ।। ४ ।। दक्षिणेतरमेतस्य बाई देवाः समाश्रिताः ।। सत्यो भृशो नभो वायुः पूषा चेत्यथ दक्षिणम् ॥ ५ ॥ पञ्चापि बाहमेतस्य संश्रितास्त्रिदिवौकसः ।। सावित्रसवितागै च रुद्रशक्तिधरावपि ॥ ६ ॥ चत्वारोऽमी क(लाधि?फोणिस्थाः करयोर्हदि च स्वभूः । वितोकःक्षतौ पार्श्वे दक्षिणेऽस्य व्यवस्थितौ ।। ७ ॥ वामे पुनः स्थितावस्य देवी शोपासुराभियो । मित्राभिधो विवस्वांच द्वावप्युदरमाश्रितौ ॥ ८ ॥ मेदमध्यस्थितावस्य सुराविन्द्रजयाभिधौ । यमश्च वरुणश्चोर्वोः क्रमाद दक्षिणवामयोः ॥ ९ ॥ गन्धर्वभृङ्गो समृगौ जवां सव्यामथेतराम् । द्वास्थसुग्रीवपुष्पाख्याः संश्रिताः पितरोऽविगाः ॥ १० ॥ एकाशीतिपदस्येशदिग्विभागाश्रितं शिरः । माहेन्द्रीसंश्रितं विद्याचतुःपष्टिपदस्य तु ॥ ११ ॥ एकाशीतिपदाज्जातो वास्तुः शतपदाभिधः । यः पांडशपदः स स्याच्चतुष्पष्टिपदोद्भवः ॥ १२ ।। मध्ये य एव देवानां स्थितो ब्रह्माजसंभवः । स सहसाननोऽचिन्त्यविभवो जगतां प्रभुः ॥ १३ ।। योऽयं वहिरिहोक्तः स सर्वभूतहरो हरः । पर्जन्यनामा यश्चायं दृष्टिमानम्वुदाधिपः ।। १४ ॥ जयन्तस्तु द्विनामाख्यः कश्यपो भगवानृषिः । महेन्द्रस्तु सुराधीशो दनुजानां विमदेनः ॥ १५ ॥ आदित्यं पुनरिच्छन्ति विवस्वन्तगहस्करम् । सत्यो भूतहितो धर्मो भृशः कामोऽथ मन्मथः ॥ १६ ॥
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समराङ्गणमत्रभार योऽन्तरिक्षः स्मृता देवस्तनमः समुदाहतम् । मारुतो वायुरुगद्देष्टः पूषा माताणः स्मृतः ।। १७ ।। अधर्मो वितथाख्यः स्यात् कलरप्रतिमः सुतः । गृहक्षतः पुनर्योऽत्र स चन्द्रतनयो बुधः ॥ १८ ।। प्रेताधिपो पतः श्रीमान् यमो वैवम्जनश्च मः । गन्धवा भगवान् देवो नारा परिनितः ॥ १९ ।। भृङ्गराजमिच्छन्ति गक्षयं निते: सुनम् । यो मृगो स्मिन्ननन्तः स स्वयंभूधा दन्यपि ॥ २० ॥ पितरस्तु स्मृता देवाः पित्तलोकनिवासिनः । स्मृतो दौवारिको नन्दी प्रमथानामधीश्वरः ।। २१ ॥ आदिः प्रजापतिः स्रष्टा मनुः सुग्रीव इरिनः ।। पुष्पदन्तम्तु विननादनमः म्यान्माजवः ।। २२ ॥ वरुणः पाथसां नाथो लोकपालः स कीर्तितः । असुरो राहुरर्केन्दमर्दनः सिंहिकात्मजः ॥ २३ ॥ शोषस्तु भगवानप मूर्यपुत्रः शनश्चः ।। पाधयक्ष्मा क्षयः प्रोक्तो रोगस्तु कथितो ज्वरः ॥ २४ ॥ भुजङ्गमानामधिपः श्रीमान् नागम्तु वासुकिः । न्वष्टा स्यान्मुग्ख्यसंज्ञोऽत्र विश्वकर्याभिधश्च सः ।। २५ ।। चन्द्रो भल्वाट इन्युक्तः कुबेरः सोगसंज्ञितः । चरको व्यवसायाख्यः श्रीरिहादितिसंज्ञिका ।। २६ ॥ दितिरत्रोच्यते शर्वः शूलभृद् वृषभध्वजः । हिमवानाप इत्युक्त आपवत्स उमा स्मृता ॥ २७ ॥ आदित्यस्त्वर्यमा वेदमाता सावित्र उच्यते । * देवी गङ्गाव विद्वद्भिः सवितेति प्रकीर्तिता ॥ २८ ।। मृत्युः शरीरहर्तासौ विवस्वानिति स स्मृतः । जयाभिधस्तु वज्रीति स्यादिन्द्रो बलवान् हरिः ॥ २९ ॥ १. 'ब्रह्मा म' क. पाठः । 'भल्लाट' इति प्राक् पाठः । इत आरभ्यार्धपञ्चक ख. पुस्तके न पठ्यते।
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राजनिवेशः पञ्चदशोऽध्यायः । मित्रो हलवणे माली रुटून तो महेश्वरः ।
घरकी मन्दिा पान क्षती । रक्षोयाबिा देगा देवताजुचर्दिदुः ।। ।। ३१ ।। इत्येष कामदेवानां निशा पनिती लेना। क्षो मार को दो भाग रे पः ।। ३ ।। शः कः उदी र म्यानमो नाभिदेनाः । रेको वरमो माया में: * पायाभो । ३३ ।। नकार को भानु नका : विवाशित :
(डीङ योरन्त काना इनितले हतः ।। ३४ ॥ उक्तानि वाम्नुपुरुषस्य नशावदित एकाति वार पददैवतनापरवाः । वर्णाश्च वास् ववयोनिः गोडशव माऽथ देवनवन पुरे निवेशम् ॥ ३५ ॥ झति महाराजाधिराज गोजदेवनि को समरामजार परनानि बाटो पुरुषाङ्गदेनतानियक्ष पकाया नाग मुर्दशोऽध्यायः ।।
अथ शनिवेशोदशोऽध्यायः ।
कृते पुरनिवेशेऽथ चतुःपत्रिपदाथरी । नियुक्तपनि खालालगोपु हालक पिच ॥ १ ॥ विभक्तरथ्ये परितः प्रविभाजितचत्वरे । क्रमादन्तवहिःकरूपदेवतायलस्थिती !॥ २ ॥ प्रागुदक्को देशे पारद्वारा युनतेऽथवा । यशःश्रीविजयाधानिपत्र गनमाधिष्ठितम् ॥ ३॥ यथावर्णक्रमायातं च वयं शुभम् ।
पुरमध्यादपरतोदिहस्थं यार । १. 'म' क. पाटः . . . . .:.:::.: 5ध (?)' ख, पाठः । ३. 'निवासम् क. पाटः । ५. ५. पाठः।
* 'पुष्यकाविति क. पाठः, 'पुत्रकाविति ख, पाठश्वाशुद्धी । ग. पुस्तके तु पत्रं लुप्तम् ।
-- ..
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समराङ्गणसूत्रधारे दुर्गेषु भूवशात् कार्यं यद्वा विश्वपरास्वपि । विवस्वद्भूधरार्यम्णां कार्यमन्यतमे पदे ॥ ५ ॥ त्रिचत्वारिंशता युक्ते ज्येष्ठं स्याद् द्वे धनुःशते । मध्यं शतं तु द्वापष्टिः शतं साष्टकमन्तिमम् ॥ ६ ॥ ज्येष्ठे पुरे विधातव्यं ज्येष्ठं राजनिवेशनम् । मध्यमे मध्यमं कार्य कनिष्ठं च कनीयसि ॥ ७ ॥ प्राकारपरिखागुप्तं चारुकान्ति समन्ततः । तमङ्गभ्रमनियूहसुदृढाट्टालकान्वितम् ॥ ८॥ एकाशीत्या पदैर्भक्तं विधेयं नृपमन्दिरम् । राजमाग समाश्रित्य वास्तुद्वारमुदङ्मुखम् ।। १ ।। युक्त्यानयैव कर्तव्यमन्यदिक्संश्रयेऽपिच । भल्लाटपदवय॑स्य गोपुरद्वारमिष्यते ॥ १० ॥ तत्पुम्हारविस्तारोच्छायसम्मितमिष्टदम् । महन्द्रं द्वारमिच्छन्ति निविष्टस्य महीधरे ॥ ११ ॥ वैवस्वते पुष्पदन्नमर्यम्णि च गृहक्षतम् । अन्येष्वेषामपरतः प्रदक्षिणपदेष्वथ ।। १२ ॥ अन्यान्यपि स्वासु दिक्षु द्वाराण्येवं प्रकल्पयेत् । आभिमुग्न्ये च सर्वेषां शस्यन्ते गोपुराणि च ॥ १३ ॥ तटीयनगरद्वाराद विंशत्यंशोज्झितानि वा । पक्षद्वाराणि सुग्रीवे जयन्ते मुख्यनाम्नि च ॥ १४ ॥ वितथंथ भ्रमांस्तद्द विदधीत प्रदक्षिणान् । वास्ता विभक्त पुरवत् क्लोऽमरपदव्रजैः । १५ ।। तत्र मैत्रपदस्थाने निवेशायावनीपतेः । प्रासादः प्राङ्मुखः कार्यो यथावत् पृथिविजयः ।। १६ ।। श्रीवृक्षं सर्वतोभद्रं मुक्तकोणमथापरम् । यमिच्छेन्नृपतिः कुर्यात् प्रासादं शुभलक्षणम् ॥ १७ ॥ १. 'प्रजेत् ।' ख. पाठः। २, 'वीजयः - क. पाठः ।
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राजनिवेशः पञ्चदशोऽध्यायः ।
६३ शालापरिक्रमोपेतकर्मान्तरपिचान्वितम् । तत्र प्राच्यां भवेद् गेहमादित्यपदसंश्रितम् ।। १८ ॥ धर्माधिकरणं सत्य व्यवहारक्षणाय च । भृशे च कोष्ठागारं स्यादम्बरे मृगपक्षिणाम् ॥ ११ ॥ अग्नेः ककुभमाश्रित्य कार्य वायोमहानसम् । सभाजनाश्रयं पूष्णि विदध्याद भोजनास्पदम् ।। २० ।। सावित्रे वायशाला स्यात् सवितृस्थाश्च वन्दिनः । चर्माणि वितथे कुर्यात् नयोग्यान्यायुधानि च ॥ २१ ॥ स्वर्णरूप्यादिकर्मान्तान् विदधीत गृहक्षते । याम्ये दक्षिणतो गुप्ति कोष्टागारं च कल्पयेत् ।। २२ ।। प्रेक्षासङ्गीतकानि स्थुर्गन्धर्वे वासवेश्म च । कार्या वैवस्वते शाला रथानां दन्तिनां तथा ।। २३ ।। पश्चिमोत्तरभागस्थां वापीमपिच कारयेत् । वा(यौ?यु)मुग्रीवपदयोर्गन्धर्वस्य च वाह्यतः ।। २४ ।। कुर्यादन्तःपुरस्थानं प्राकारवलयातम् ।। कुयात् तद्दोपुरद्वारमुदगास्यं जयाभिध ।। २५ ॥ कार्यः स्थपतिना चैव प्रासादापराङ्मुग्वः । क्रीडादोलालयान् भृङ्गे कुमारीभवनं तथा ।। २६ ।। नृपान्तःपुरमिच्छन्ति मृगे पित्र्य त्ववस्करम् । नृपस्त्रीणामुपस्थानगृहमिन्द्रपदे विदुः ॥ २७ ॥ मुग्रीवपदसंसक्तमरिष्टागारमिष्टदम् । द्वास्थसुग्रीवपि(त्र्यंव्यांशपश्चाद्भाग मनाहग ।। २८ ।। विधेयाशोकवनिका स्नानधागगृहाणि च । लतामण्डपसंयुक्ताः म्युरत्रेव लतागृहाः ॥ २५ ॥ दारुशैलाथ वाप्यश्च पुष्पवीथ्यः सुकल्पिताः ।
पुष्पदन्ते भवेदं यत्तिन्त्र)कर्मान्तः पुष्पवेश्म च ॥३०॥ १, 'ण' ख. पाठः ! २. 'काय', ३. 'स्पा'. ४, लं, ५. 'दन्तः कक. पादः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे .. वरुणस्य पदे कुर्याद वापीनानगृहाणि च । स्वात् कोष्ठागारमसुर शाप वायुधमन्दिरम् ।। ३१ ।। भाण्डागारं तु रौद्राय विदध्यान स्थपतिः नि। उलू शिलायन्त्रभवन पापयक्षमणि ॥ ३२॥ दारूकान्तमप्यावसन आणि स्वादोपरांष्ठानं राग दिनः || ३३ ।। नागानां शस्यते स्थान पर नागम यूरिभिः। भवन्ति मुख्य व्यायामनायचित्राणि च ।। ३४ ॥ गवां स्थान तथा क्षीरगृह भल्लारनामनि । उदक्प्रदशे सौम्यस्थ पुरोधःस्थानमिष्यते ।। ३५ ।। राज्ञोऽभिपेचनं चान दानाध्यमातयः । चामरच्छनार स्थानमन्त्रं च भूधः ।। ३६ ।। कापियां चात्र कार्याणि स्थितः पश्यन्नराधिपः । विचमा मन्दुवानानुतरं
पाता ।। ३७ ।। महीयसदस्यैव यथावद् दक्षिणामुखी। कागो सर्वत्र चाचाना शाला राझो बथाम् ।। ३८ ॥ विशनो दक्षिणेल सपाट वामन च निपानिनाम् । वेशानि राजपुत्राणा विदयाचरकाभिध !। ३९ ।।
और विद्याधिभिशालापा नियत् । नृ भारदितिया ने मुमति ॥ ४० ॥ पृष र शिविकाशयामहं विदुः ।
वाला शस्त सदन ४१ अचिनक स्वामित्व स्मादविवामिनार । भासपढ़े हंसाचसालना । ४२ ।। स्ः मानवना मनात साललाया। पिषमातुलादीनां काय दिति गृहम् ॥ ४३ ।।
जामि' क. पाठः । २. 'न्त्रि' स. पाठः । ३. नमिह च 'क. पाठः
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वनप्रवेशः षोडशोऽध्यायः।
६५ अन्येषामपि चात्रैव सामन्तानां महीपतेः । ऐशान्यामनलस्थाने वोच्छ्रितस्तम्भवेदिकम् ।। ४४ ॥ कार्य देवकुलं चारु सुश्लिष्टमणिकुट्टिमम् । पर्जन्यस्य पदे होराज्योतिर्विद्गृहमिष्यते ॥ ४५ ॥ जये सेनापतेर्वेश्म विधेयं विजयप्रदम् । द्वारं प्राकारमाश्रित्य पदेयम्णः प्रशस्यते ।। ४६ ।। प्रारदक्षिणाश्रितं शस्त्रकर्मान्तं शस्त्रमन च । विमुश्चेद् ब्रह्मणः स्थानमिन्द्रध्वजयुतं नृणाम् ॥ ४७ ॥ तत्राशुभानि वेश्मानि निवेशाश्चासुखावहाः । गवाक्षस्तम्भशोभिन्यो विधेयाश्चानुकामतः ॥ ४८ ॥ सभा यथादिक्प्रभवा नृपवेश्माभिगुप्तये । सर्वत्र नृपतेः सौधान् नृपसोधस्य सम्मुखा ।। ४९ ॥ पश्चाद्भागाश्रिता यद्वा शाला कार्या विषाणिनाम् । इत्यास्पदं सुरपदास्पदकल्पमाद्यमेतद् यथावदनुतिष्ठति यः सदैव । स मामिमां भुजबलक्षपितारिपक्षः
सप्ताम्बुराशिरशनां नृपतिः प्रशास्ति ॥ ५० ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
राजनिवेशो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥
अथ वनप्रवेशो नाम षोडशोऽध्यायः ।
प्राग्वोदग्वापि गेहार्थे द्रव्यं विधिवदानयेत् । गन्तव्यमेव धिष्ण्येषु* मृदुक्षिप्रचरेषु च ॥ १॥ १. 'सु' क, पाठः। * धिष्ण्येषु नक्षत्रेषु ।
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समराङ्गणसूत्रधारे उपवास्यं च तेष्वेवच्छेचं भयं च दारुणैः । प्रवेशनं स्थिरैः कार्यभारम्भः शस्यते चरैः ॥ २ ॥ गत्वा शुभे शुचौ देशे निवेशं कारयेत् ततः । तस्मिन्निवेश्य कर्मान्तमनपानेन तर्पयेत् ॥ ३ ॥ पुष्टतुष्टपरीवारः क्षपायां समुपोपितः।। गृहयोग्यं परीक्षेत न्यस्तशस्त्रस्ततोऽधिपम् ॥ ४ ॥ पुरश्मशानग्रामाध्वहदत्याश्रमोद्भवान् । क्षेत्रोपवनसीमान्तर्विपमस्थलनिम्नजान् ॥ ५॥ क.म्लतिक्तलवणास्ववनीषु तथोद्गतान् । श्वभ्रातान् स्थिरोर्वीषु सम्भूतांश्च त्यजेद द्रुमान् ॥ ६ ॥ सम्यक संलक्ष्य वृक्षाणां वर्णनेहत्वमादिकम् । विजानीयाद् वयस्तेषां वान् वृद्धांश्च सन्त्यजेत् ॥ ७॥ शतानि त्रीणि वपांगां सारदुमययः स्मृतम् । गृहणीयात् पोडशाच साधेवपेशतावधेः ॥ ८ ॥ वयसः परिणामेन निर्यित्वं यथा नृणाम् । प्रोक्तं तद्वद् गुमाणां च स्यात् तथा छिद्रपत्रता ॥९॥ भगुराः मुघिरास्ते स्युः सकोलाक्षाः खरत्वचः। तस्मादिमांस्त्यजेद् वृक्षांस्तथा चवोध्वेशोषिणः ।। १० ।। वक्रान् रूक्षानवप्लुष्टान् दुःस्थितानपिच द्रुमान् । वर्जयेद् भग्नशाखांश्च येकशाखान्वितांस्तथा ॥ ११ ॥ अन्यैरधिष्ठितान् विद्युत्पातवातसरित्क्षतान् । ग्रन्थिनियुक्तदानांश्च भ्रमराहिकृताश्रयान् ॥ १२ ॥ संसृष्टानेकतो भ्रष्टान् मधुभिर्वलिभिट्टतान् । मांसामेथ्याशनैस्तद्वद् दूपितानपि पक्षिभिः ॥ १३ ॥ लूतातन्त्वाहतान् बन्यसोधृष्टान् गजक्षतान् । चुनतोऽतिबृहत्स्कन्धांश्चिदभूतांस्तथाध्वनः ॥ १४ ॥ १. ताशनिक्ष' ख. पाठः । २. 'भि क. पाठः ।
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वनप्रवेशः षोडशोऽध्यायः । अकाले पुष्पफलिनो रोगैरपि च पीडितान् । वासभूतानुलूकानां त्यजेदन्यानपीदृशान् ॥ १५ ॥ खदिरो बीजकः सालो मधुकः शाकशिंश (पौ?पे) । सर्जार्जुनाञ्जनाशोकाः कदरो रोहिणीतरुः ॥ १६ ।। विकङ्कतो देवदारुः श्रीपर्णीपादपस्तथा । कुटुम्विनाममी प्रोक्ताः पुष्टिदा जीवदास्तथा। १७ ॥ वृक्षाणां लक्ष्यते येषां भारवारिसहिष्णुता । ते यथायोग्यमन्येऽपि शस्यन्ते गृहक मणि ॥ १८ ॥ कर्णिकारधवप्लक्षकपित्थविषमच्छदाः । शिरीषोदुम्बराश्वत्थशेलुन्यग्रोधचम्पकाः ॥ १९ ॥ निम्बाम्रकोविदारांक्षव्याधिघाताश्च गर्हिताः । गृहकर्मणि नेष्टास्ते यतस्तेऽनिष्टदायिनः ।। २० ॥ नेष्टाः कण्टकिनः स्वादुफलाः क्षीरद्रमाश्च ये ।। सुगन्धयश्च ये तद् ध्रुवं तेषु पशुक्षयः ॥ २१ ॥ सच्चप्रमाणच्छाया तु नियतं दृश्यते यदा। द्रुमच्छाया तदा ग्राबा तामाणस्तु स द्रुमः ॥ २२ ॥ नक्षत्रं लक्षयेद वृक्षे पूर्वस्यां दिशि तरिक्षतेः । स्याद् भस्याद्यक्षरं यस्य तत्र जातं तमादिशेत् ॥ २३॥ क्षेम्यं तं स्वामिनो वृक्षं ज्ञात्वा साधकमेव च । अग्रन्थिकोटरं स्निग्धमजु सारसमन्वितम् ।। २४ ॥ पीनस्कन्धं हरित्पत्रं वृत्तं चांभ्यर्च पादपम् । द्विजान् सन्तयं च स्वस्ति वाच्यं च स्थपतिस्ततः ॥ २५ ॥ पक्कापक्वामिषैस्तद्वद् भूतभक्तैः सुरासवैः । गन्धैश्च धूपमाल्यैश्च बलिं दद्यानिशागमे ।। २६ ।। अपक्रामन्तु भूतानि यानि वृक्षाश्रितानि हि । कल्पनं वर्तयिष्यामि क्रियतां वासपर्ययः ॥ २७ ॥ १. 'राख्या विधेयास्ते च , २. ' मृशं सा', ३. 'वा' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे धन्यः शिवः पुष्टिकरः प्रजाद्धिकरो भव । स्वस्ति (ते?च)न्द्रानिलयमाः मूर्यरुद्रानलास्तथा ॥ २८ ॥ दिशो नयस्तथा शैलाः पान्तु त्वामृषिभिः सह । जल्पेद् यो मानुषगिरा कम्पते वाभिमन्त्रितः ॥ २९ ॥ स त्याज्यः स्यात् तथा म्लानप्रवालकुसुमश्च यः । ततो भास्करमालोक्य वृक्षं कृत्वा प्रदक्षिणम् ।। ३० ॥ स्वस्तिवाक्येन विप्राणां छत्ता स्थित्वोदगाननः । प्राङ्मुखो वा तरुं छिन्द्याच्छस्त्रैः क्षौद्रादिताननैः ॥ ३१ ॥ शाखिनश्छिद्यमानस्य जायते यद्यसक्युतिः । कम्पनं वा ध्वनिर्वापि मृत्युः स्याद् गृहिणस्तदा ॥ ३२ ॥ यद्वा दधिमधुक्षीरघृतानि स्रवति द्रमः। छिद्यमानस्तदा विद्याद बन्धव्याधीन कुटुम्बिनः ॥ ३३ ॥ अतीव यस्य सवति श्यामः स्नेहान्वितो रसः । सुगन्धिः स्वल्पमधुरः कपायः स प्रशस्यते ॥ ३४ ॥ प्राच्यां शुभस्तरोः पात उदीच्या कर्मसाधकः । याम्यप्रत्यङ्निपाते तु शान्ति कृत्वा द्रुमं त्यजेत् ।। ३५ ॥ ज्ञातितः स्यात् तदा भीतिर्यदान्यं मर्दयेत् पतन् । दूरं दलति यो मू(लं?ले) छिन्नो वा धरणीरुहः ।। ३६ ।। कूजत्यतीव वायुश्च स्मृतः सोऽथ शुभप्रदः । खरोष्टयोः शृगालानां दर्शनं भुजगस्य वा ।। ३७ ॥ छेदे स्यात् कर्मविघ्नाय निगडैइन्धनाय वा । हलचक्रपताकाजध्वजच्छत्रादिदर्शनम् ।। ३८ ॥ श्रीक्षवर्धमानादिदर्शनं वा शुभमदम् । उत्क्षिप्यते यदिच्छेदात् तदर्द्धिः स्यात् कुटुम्बिनः ॥ ३९ ॥ सर्वतः परिहानिः स्याच्छिन्नश्वाक्षिप्यते यदि । एकक्षे यथोदिष्टलक्षणोत्क्षेपदर्शने ॥ ४० ॥ शेषान् दोषविनिर्मुक्कान् पादपानुपलक्षयेत् । धीरस्तं कल्पयेत् सम्यगनुलोमार्जवं तरुम् ॥ ४१ ॥
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वनप्रवेशः षोडशोऽध्यायः । छिन्याच शुभभागांधदशभागाधिकं कृतम् । तुङ्गीसाधवमध्यश्च(?)सगर्भो धरणीरुहः ।। ४२ ।। ज्ञेयानि मण्डलान्यस्य तत्क्षणोच्छे?क्षणे छे)दनेऽपिच । मञ्जिष्ठाभे विदुर्भकं कपिलाभे च मूषकम् ॥ ४३ ॥ पीतभासि तथा गोधां सर्प दीर्घसितायते । गुडच्छाये मधु भवेत् कुकलासस्तथारुणे ॥ ४४ ॥ गृहगोधा कपोतामे गौधेरो घृतमण्डभे । • रसाञ्जनामे शस्त्राभे कमलोत्पलभासि च ॥४५॥ धौतासियष्टिवणे च मण्डले जलमादिशेत् । आकारो यस्य सर्पस्य वर्णो वा संप्रदृश्यते ॥ ४६॥ तं सर्पगर्भितं वृक्षमादिशेदविचारयन् । तस्करेभ्यो भयं क्षौद्रे सलिले सलिलाद भयम् ॥ ४७ ।। विद्यात् सर्प विषाद् भीति पाषाणे भयमग्नितः । अजाविगोमहिष्युष्ट्ररासभादिनिपीडितम् ॥ ४८ ।। गोधागौधेरमण्डूकककलासैश्च गर्भिते । मूषके पुनरिच्छन्ति मरणं वास्तुदेदिनः ॥४९॥ अमुनैव वदन्त्यन्ये गृहपीडां मनीषिणः । क्षेमेण यद्यविघ्नः स्यादसङ्गश्चागमो यदि ॥ ५० ॥ वनान्तरे तदा क्षेमं सुभिक्षं च समादिशेत् ॥ ५० ॥ अर्घदानविधिना विधानविद् द्रव्यमागतमिहाचयेद् गृही। प्रत्युपेतंकुलिशायुधध्वजं द्रव्यमुज्ज्वलमुतावनीपतिः ॥ ५१॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
वनप्रवेशो नाम षोडशोऽध्यायः ।।
.. १. 'तु' क. पाठः ! २. 'गार्धे', ३. 'नुनी स्याद्यधम(१)', ४. 'त्य ' ख. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे अथ इन्द्रध्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः।
सुराणामर्थसिद्धयर्थ वधाय च सुरगृहाम् । यथा शक्रध्वजोत्थानं प्राह ब्रह्मा तथोच्यते ॥ १ ॥ भगवन्तमथाम्भोजसंभवं वचसांपतिः। प्रोवाच कथमिन्द्रेण जेतव्यास्त्रिदशद्विषः ॥ २॥ सोऽब्रवीत् सर्वरत्नानां ध्वजं कुरुत सङ्गताः । तं चाभिचारिकैर्मन्त्रैरुद्वहन्तोऽभिमन्त्रितम् ॥ ३ ॥ स्थितं चोपरि यन्त्रस्य सम्यक् पक्षिशतान्वितम् । अग्रतो देवसैन्यस्य नयन्तो जेष्यथ द्विषः ॥४॥ सहस्रधारमप्येकमन्यं रिपुकुलान्तकम् । दिव्यरूपमयं प्रादाद ध्वजमिन्द्राय दुर्धरम् ।। ५ ।। वीर्यप्रवर्धनी चेष्टिरेतदर्थं विधीयते । कर्मणानेन निःशेपाञ् शक्रः शत्रू जयेदिति ॥ ६ ॥ जयपी तमथ क्षिप्रमहजच्चेतसा ध्वजम् । यन्त्रस्थितं स येनाजाबमोहयदरीन् हरिः ॥ ७ ॥ आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवास्तथाश्विनौ । अलश्चक्रस्तमालोक्य मरुतश्च विभूषणः ॥ ८॥ तेजो वीर्य वपुश्चेष्टां बलमप्येष पश्यताम् ।। अहरच्छत्रुसैन्यानां तेजस्वी तरसा ध्वजः ॥ ९ ॥ तमभ्यर्य सुराधीशः शत्रन् वलवतोऽप्यसौ । त्रिरात्रेणाजयद् युद्धे कुलिशेन बलाद् बली ॥ १० ॥ ततः प्रीतस्तमृक्षेऽसौ वैष्णवे द्वादशे तिथौ । त्रैलोक्यराज्यं प्राप्याभ्यपिञ्चद् वलनिषूदनः ॥ ११ ॥ स सर्वलोकमभ्यर्च्य सर्वलोकाभिपूजितः । ध्वजमभ्यर्च्य तुष्टाव वाक्यैवत्रनिषूदनः ॥ १२ ॥
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इन्द्रध्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः । ततस्तमन्तिके वीक्ष्य ध्वज प्रोवाच वासवः । इन्द्रध्वजांक्षया लोकाः करिष्यन्ति तवार्चनम् ॥ १३ ॥ वीक्षमाणा निमित्तानि भूमिपालाश्च शास्त्रतः । ततः प्रभृत्यसौ लोके सर्वलक्षणसंभृतः ॥ १४ ॥ वरप्रदानादिन्द्रस्य नृपः शक्रध्वजोऽर्च्यते ॥ दुर्गमायतनं वह्निशरणं वेदिकाः कृताः ॥ १५ ॥ विचित्राः स्थालिकापाका भक्षपानानि यानि च । एतान्यायतनात् प्राक् स्युयद्वान्यानि प्रकल्पयेत् ॥ १६ ॥ विजेतुं यदि वाञ्छास्ति दुर्धान पिणो रणे । तेजो वलं यशश्चाप्तुं तदैन्, कारयेद् ध्वजम् ।। १७ ॥ सेनायां वा पुरे वापि प्रतिष्ठाप्य पुरन्दरम् । विजयार्थं महीपालै भिप्रशमनाय च ॥ १८ ॥ यथा शक्रध्वजोत्थानविधानं जगतीभुजः। करिष्यन्ति तथा सम्यक् कात्स्न्येन प्रतिपाद्यते ॥ १९ ॥ बनादुपाहृतं द्रव्यमथ प्राविधिना सुधीः । पाद्याध्यादिभिरभ्यच्ये गन्धेमोल्यैरल ड्कृतम् ॥ २० ॥ द्विजान् संपूज्य च शुचौ देशे सम्यक्समाहितः। पूवोग्रमुत्तराग्रं वा प्रयत्नादवतारयेत् ॥ २१ ॥ प्रागुदग् वा पुरस्याथ स्थपतिः कर्मवानपि । कारयेत् सवेयन्त्राणि ध्वजपूर्वाणि शिल्पिभिः ॥२२॥ श्रेष्ठं द्वात्रिंशता हस्तैर्विशत्या युतयाष्टभिः । मानं स्यान्मध्यमं तस्य चतुरन्वितयाधमम् ।। २३ ।। मूलविस्तृतिरायामादगुलाध करेकरे । विष्कम्भोऽग्रे च मूलार्धात् तत्व्यंशाचे वाखिलेष्वपि ।। २४ ।। ध्वजमूलाष्टमांशोनं विस्तारात् कुष्यमिप्यते । विस्तारार्धेन च स्थूलं स्थूलत्वत्रिगुणायतम् ॥ २५॥ ... १. 'जाख्यया' स्व. पाठः । २. 'काक्षताः', ३. रेभिः', ४. 'खि' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
ध्वजविस्तारवहलं साङ्घ्रिबाहल्यविस्तृतम् । भ्रमपीठं विधातव्यं साधयामं शुभावहम् || २६ ॥ सम्मितो ध्वजकुष्येण वेधः स्याद् भ्रमपीठगः । कुष्यकोट्यधिकवृत्तावक्षौ कोटियायतों ॥। २७ ॥ कार्यावङ्गी भ्रमस्थूली भ्रमविस्तृतिविस्तृती । तद्युक्तवेधे तावेत (वि.द्वि) स्तुतेर्द्विगुणोच्छ्रितौ ॥ २८ ॥ ध्वजायतिचतुर्भागात् पीठमत्र प्रकल्पयेत् । मलप्रतिष्ठितं मध्ये मान्तयोः स्तम्भधारितम् ।। २९ ॥ तत्पस्तम्भनीयाभ्यां द्वाराभ्यामन्वितं दृढम् । याम्योत्तरप्रतिक्षोभं प्राङ्मुखं सुदृढार्गलम् || ३० || केतुव्यासार्धविस्तारं तदैर्घ्याष्टांशकोच्छ्रितम् । विस्तारसदृशायामं मध्ये स्याद् वज्रिणो गृहम् ॥ ३१ ॥
मलव पीठिकाघ्री च वाहू स्तम्भविनिर्गतौ । शक्रमाता कुमार्यश्च ध्वजविस्तृतिविस्तृताः || ३२ ॥ निम्नभागाश्च सर्वेषां स्ववस्तुतिचतुर्गुणाः ।
कार्या वा पञ्चगुणिताः सप्त (का?वा) मूलदेश (कतिः ) ॥ ३३ ॥ कन्यानामुदयः प्रोक्तो यः प (ष्ट्यो )ष्टांश स्त्रिसंगुणः । इन्द्रमाता तु सर्वाभ्यः स्यात् तदष्टांशतोऽधिका ॥ ३४ ॥
वेधः स्वविस्तरैः सप्तभागे स्यात् कन्यकोदयात् । निर्वेधचतुरश्र: स्यालकटस्य समाहितः || ३५ ॥ निर्वेधावस्य चोर्ध्वाधः सप्तांशान्तरवर्तिनी । कार्यौ सूचीव्यधावन्यो सूचीमानप्रमाणतः ३६ | कन्याव्यास विभागेन सूची विस्तारतो भवेत् । पादोनहला चारुदारुजा दृढसंहिता ॥ ३७ ॥ कुमारीव्याससंयुक्ता द्विगुणा लकटायतिः । एतद्वाह्यान्तरं ज्ञात्वा यन्त्रं संयोजयेत् ततः ॥ ३८ ॥
१, 'को वृत्ता कक्षौ', २. 'त्या या' ख. पाठः ।
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इन्द्रध्वज निरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः ।
तयोरधस्तदर्धेन मृगाल्यौ सूचिविस्तृतौ । क्षेत्रस्य लेखित कार्य सम्बन्धे सूचिकन्ययोः ॥ ३९ ॥ साङ्घ्रिकेतनमूलार्धं लकटे विस्तृतायती ।
योजयेत् सम्यग् दृढं बाहसंवेधयोः ॥ ४० ॥ पञ्चानामपि तुल्यैव कन्यानां स्यात् प्रकल्पना । कुत्वानुपूर्व्या यन्त्राणि स्थापयेदखिलान्यपि ॥ ४१ ॥ आश्विने मासि पक्षे च धवले प्रतिपत्तिथौ । स्थिरोदयैर्ग्रहैः सौम्यैत्रीक्षिते त्वाष्टृभेऽपिच ॥। ४२ ।।
पौरजानपदैः सर्ववादिवध्वनितेन च । यन्त्राण्युत्क्षिप्य यष्टिं च कर्मस्थानान्नयेज्जलम् ॥ ४३ ॥ चित्रप्रतिसराकीर्णां यष्टिं तवाज्यलेपिताम् । चूर्णैः सर्वोषधीभिश्च स्थपतिः स्त्रापयेत् स्वयम् ॥ ४४ ॥ जलाशयात् समुत्तार्थ नृणां कलकलस्वनैः । प्रागग्रां स्थापयेद् दारुहस्तिन्योः प्राक्समुन्नताम् ॥ ४५ ॥
अहतेप्सितवासोभिराच्छाद्यार्च्य सगादिभिः । विक्षिप्य च बलिं दिक्षु द्विजातीन् स्वस्ति वाचयेत् ॥ ४६ ॥
त्रिसन्ध्यं पूजितां तत्र सर्वप्रकृतिभिस्ततः । पञ्चाहं वासयेद यष्टिं गुप्तां चापधरैर्नरैः ॥ ४७ ॥ तस्मिन्नेवा यन्त्राणि सर्वाण्यपिच यष्टिवत् । स्नातान्याच्छादितानीन्द्रस्थानदेशं प्रवेशयेत् ॥ ४८ ॥ मूत्रितेऽथ ध्वजस्थाने यष्टेष्टांशदैर्ध्यतः । तदर्थविस्तृते दिक्स्थे समे प्रागायते शुभे ॥ ४९ ॥ विभक्तेsa विभागानामेकाशीत्या ततः क्रमात् । विन्यस्तास्वथ सर्वासु देवतासु यथातथम् ॥ ५० ॥ प्राचि मध्ये मैत्रपदे तन्मध्यान्मरुतो दिशि । मलं निम्नप्रमाणेन पादको निवेशयेत् ॥ ५१ ॥
१, 'क्षि' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे भृङ्गमुख्यपदद्वन्द्वमध्ययोर्वायुकोणयोः । न्यस्येत् स्तम्भो तयोः पीठी मल्ले च विनिवेशयेत् ।। ५२ ॥ पीठिका निर्गना बाहयुग्मात तत्राग्रयोगतः । स्तम्भिन्यौ रोययेद् ब्राह्मं पृथक्पदयुगं श्रिते ।। ५३ ।। प्रतिक्षोभाविह द्वौ द्वौ बाहद्वितयमाश्रितो। बाह्यतः प्रान्तपदयोमैत्रयोविनिवेशयेत् ।। ५४ ॥ प्राच्यां मल्लाग्रतो ज्ञात्वा शक्रस्योर्ध्वगति क्रमात् । योजयेद् भ्रमणोपेतो भ्रमपादावभङ्गुरो ।। ५५ ।। मल्लात् पश्चिमदिग्भागे वरुणस्याश्रितां पदम् । भद्रां निवेशयेन्निम्नमानतः शक्रमातरम् ॥ ५६ ।। स्युः पजेन्यान्तरिक्षद्वाये(क्ष्मा?क्ष्मणां पदमाश्रिताः । क्रमानन्दोपनन्दाख्यजयाख्यविजयाभिधाः ।। ५७ ।। विन्यस्तास्वथ सासु कुमारीपु विभागशः ।
यस्त्रयः प्रतिक्षोभा योज्या दायाय बाह्यतः ।। ५८ ॥ निक्षिपन्नखिलं द्रव्यं भावयेत् पददेवताः । पामोति तत्तदायां तद्र्व्यं पूजां च तद्गताम् ॥ ५९ ॥ पीठीपृष्ठसमं कन्यापार्ययोरुभयोरपि । कुर्यादनुसरद्वन्द्वं कीलकैद्धमायसैः ॥ ६० ।। संश्रित्यानुसरद्वन्द्वं पीठी चोपरि सङ्ग्रहात् ।। बनीयात् कीलकैलहियन्त्रनिश्चलताकृते ।। ६१ ॥ यन्त्रकर्मणि निवृत्त इति शास्त्रविधानतः । प्रवेशयीत स्वस्थाने त्रिदशाधिपमैन्द्रभे ॥ ६२ ॥ स्नातस्य विधिवद वस्त्रच्छन्नस्यालेपितस्य च ।। श्रीखण्डायैः सुरभिभिः कुसुमैरर्चितस्य च ॥ ६३ ।। रौहिणादिमुहूर्तेषु त्रिषु मैत्रेऽथ वत्रिणः । प्रवेशमभिनन्दन्ति करणेष्वचिंतेषु च ।। ६४ ।।
१. 'दं मध्याभ्यां वायु' व. पाठः । २. 'वाय', ३. 'तिक्रमः', ४. 'तः', ५. 'नादयेत्' क. राटः । ६. 'ख्यानां द्र' ख, पाठः । ७. 'तानु' क. पाठः। ८. '3' ख, पाटः ।
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इन्द्रध्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः । स्थपतिर्वा पुरोधा वा शुचिः स्नातः समाहितः । गन्धमाल्यार्चितान् विप्रांस्तर्पयेद् दक्षिणादिभिः ॥ ६५ ॥ ततो मङ्गलघोषेण वादिबनिनदेन च । पुण्याहजयशब्देस्तमुत्क्षिपेयुः समाहिताः ॥ ६६ ॥ अलङ्कारभृतः पौराः प्रहृष्टमनसोऽखिलाः ।। नीरुजो वलिनः शक्ताः प्रकृत्यभिमताच ये ॥ ६७ ।। स्तुवीरन् पुण्यमनसः स्तुतिभिः मूतमागधाः । वन्देरन् चन्दिनश्चेन सेवेरन् गणिका अपि ।। ६८ ।। प्रविशन्तं निजं स्थानमनुगच्छेन्नराधिपः ।। सुराधिपं बलामात्यपौरजानपदान्वितः ।। ६९ ।। प्रोद्यत्कलकलारावसुस्वराः पुरुषा यदि । उत्क्षिपेयुः प्रहृष्टा वा वहेयुवा सुराधिपम् ।। ७० ॥ तदा भवति भूपालो जयी नन्दन्ति च प्रजाः । राष्ट्रे सुखं पुरे हर्षो भवेन्नश्यन्ति चतयः ।। ७१ ॥ मुञ्चत्युत्थापितः कृच्छाद यदि शय्यां स गौरवात । तदा नृपतिरभ्येति महती विमनस्कताम् ।। ७२ ।। स्खलन्तो दुःखिता दीना निःश्वसन्तः पदे पदे । वैचित्यभाजो गच्छेयुर्देशहानिस्तदा ध्रुवम् ॥ ७३ ॥ भूमौ यदेकदेशेन हसितः(?)पतति ध्वजः । न सुभिक्षं न च क्षेमो न राज्ञो विजयस्तदा ॥ ७४ ॥ दीर्णे भन्नेऽथ पतिते कृत्स्ने चास्मिन् समुद्धृते । स्यान्नृपस्यावनिच्छेदः सुतध्वंसोऽथवा मृतिः ।। ७५ ।। वस्त्रालङ्कृतिमाल्यानां हरणात् पतनादुत । तादृशद्रव्यविध्वंसः पौराणां भवति ध्रुवम् ।। ७६ ॥ पुरं भवति निःशब्दं निष्प्रभ वा प्रवेशने । समुच्छ्ये वा शक्रस्य तदा तन्नाशमृच्छति ।। ७७ ।। १.'च' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे
शक्रं स्वस्थानमानीतं शीघ्रं सुखमविघ्नतः । प्राग्वत् प्रदक्षिणं न्यस्येत् प्रागग्रं शयने निजे ॥ ७८ ॥ कुर्यात् तत्रैव नक्षत्रे शय्यास्थस्यामरेशितुः । भ्रमे कुष्ये च संयोगं यथाभागविकल्पितम् || ७९ ॥ कुष्ये संयोज्यमानश्चेद् ध्वजो निपतति क्षितौ । तदा नरपतेः स्थानभ्रंशो भवति निश्चितः ॥ ८० ॥ कुष्ययोगे यदा शक्रो वामतः परिवर्तते । तदा स्यात् स्थपतेर्मृत्युर्भवेद् भङ्गश्च दक्षिणे ॥ ८१ ॥ स्ववेधं प्रतिपद्येत तद्यष्टिर्यदि कृच्छ्रतः । प्रमादिनस्तदा राज्ञो जायते व्यसनं महत् ॥ ८२ ॥ निष्कुष्य योजितः शक्रध्वजो विघटते यदि । विश्लिष्यति तदा सन्धिः सामन्तैः सह भूपतेः ॥ ८३ ॥ स्फुटेद् भज्येत वा कुष्ये योज्यमानोऽथ सर्वतः । तदा भङ्गे नृपव्याधिः स्फुटनादङ्गनावधः || ८४ ॥
अविदीर्णमपर्यस्तमव्यङ्गमैत्रिलम्बितम् । यथावन्न्यासमायाति योगं चेद् वासवध्वजः ।। ८५ ।। धनभृत्याङ्गनापत्यैः सामन्तवान्वितोऽनुगैः ।
निरातङ्को बलाज वृद्धिमेति तदा नृपः ॥ ८६ ॥ यत्नतो रक्ष्यमाणस्य शय्यास्थस्यैव वज्रिणः | तस्याङ्गान्यखिलान्येव कुंटन्यादीनि योजयेत् ॥ ८७ ॥ ऐन्द्रं वलोकं यक्षेशं सर्पमादं दिगाह्वयम् । मयूरं चेन्द्रशीर्षं च पिटकाष्टकमित्यदः ॥ ८८ ॥ स्वप्रमाणेन कर्तव्यं स्पष्टरूपसमन्त्रितम् । attoयाचान्तरेष्वेषां सन्धयो वस्त्रनिर्मिताः ॥ ८९ ॥ मूलादन्वग्रमायातैः स्ववंशेर्विद लेटेटेः । yuva agri घनैरशिथिलैर्ध्वजम् ॥ ९० ॥
१. 'कृष्ये' ख. पाठः । २ ' कुष्यायो', ३. ' मवल' क. पाठः । ४, 'कू' ख. पाठः । ५. ‘जा ’, ६. 'स्वेष्ट', ७. 'दाक्षाश्चा' क. पाठः । ८. ' तैस्तं वं ' ख. पाठः ।
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इन्द्रध्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः । साङ्घ्रिणा ध्वजनाहेन सव्यंशेनाथ विस्तृतिः । विधेया शक्रपिटकस्योच्छ्यस्तु तदर्धतः ॥ ९१ ।। अस्मिन्नष्टौ दिशः कृत्वा वंशव्यवहिते ततः । न्यस्येद् दिगीशांश्चतुरस्तस्योपरि यथादिशम् ॥ ९२ ॥ पञ्चमांशगते कुष्याद् वत्रिणः पिटके कृते ।। शेषाण्यप्यष्टभागोनान्यस्मिन् न्यस्यद् यथाक्रमम् ॥ ९३ ॥ बलाकादीनि विस्तृत्या चरणोनानि चोच्छ्रिती। स्ववर्णवन्ति वृत्तानि रामणीयकवन्ति च ।। ९४ ॥ भङ्गपातविपर्या (सो?स)सिद्धयः पिटकोद्भवाः । पीडार्तिमृत्यवेऽत्यथेमेकैकस्य प्रकीर्तिताः ॥ ९५ ।। शुद्धान्तामात्यचित्तानां बलस्य यशसोऽपि च ।। वसुमत्याश्च धाम्नां च नृपते राष्ट्र (म?प)स्य च ।। ९६ ॥ केतुषड्भागविस्तारा रजवोऽष्टौ सुवर्तिताः । विधेयाः स्युर्वजायामत्रिगुणायतयो दृढाः ॥ ९७ ॥ छादितं छ(वि?दि)भिः पूर्वं कुटनीसहितं शुभम् । यत्नेनासन्नदिवसे विदध्यादमरध्वजम् ।। ९८ ।। अर्केन्दग्रहतारात वेणुगुल्मेन्द्रशीर्षकम् । साष्टकण्ठगुणं दण्डमूत्रादशान्वितं शुभम् ॥ ९९ ॥ ससस्यफलपुष्पाढ्यं शुभवस्त्रमलकृतम् । दृढमन्वितमष्टाभिः सन्तताभिश्च रज्जुभिः ॥१०० ॥ ध्वजपट्ट विदध्याच चित्रं सुरचितं तथा । निमित्तार्थं च लोकानां शोभाहेतोध्वजस्य च ॥ १०१ ।। सपत्तनपुरारामगन्धर्वत्रिदशासुरम् ।। निखिलं जगदालेख्यमस्मिन्नद्रिद्रुमाकुलम् ॥ १०२॥ ध्वजाग्रे रश्मिभिर्नद्धं (स?सु)विन्यस्तं च भूतले । विन्यसेत् तमसम्मूढमधोभागसमाश्रितम् ।। १०३ ॥ १. 'वो' ख. पाठः । २. 'सात् ', ३. 'पूर्ण कुट्टिनी' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे प्रमोदगीतवादिननटनर्तकसंयुतः । तदने जागरः कार्यः समस्तामेव तां निशाम् ॥ १०४ ॥ पुरोहितस्ततो भास्वत्युदिते प्रयतेन्द्रियः । अग्नेः परिग्रहं कुर्यान्मूलस्य प्रागुदग्दिशि ॥ १०५ ॥ कृतोपलेपनं तस्मिन्नुल्लेखाभ्युक्षणैस्ततः । संस्कृत्यास्तीर्य दर्भाश्च ज्वालयेत् तत्र पावकम् ॥ १०६॥ तत्राज्यपात्राण्याज्यं च गन्धांश्च कुसुमानि च । द्रव्याणि वाचनीयानि समिधश्च पलाशजाः ॥ १०७॥ सौवर्णो स्रक्वाविन्द्रभक्तं च बलयोऽपिच । इत्येतत्सर्वमाहृत्य जुहुयात् पावकं ततः ॥ १०८ ॥ पुत्रदारपशुद्रव्यसैन्ययुक्तस्य भूपतेः । विजयावाप्तिजनकर्मन्त्रैः शान्तिविधायिभिः ॥ १०९ ॥ सुस्वनः सुमहार्चिश्च स्निग्धश्चेद्धोऽपिच स्वयम् । कान्तिमान् सुरभिर्जिघ्रन् होतारं शस्यतेऽनलः ॥ ११० ॥ तप्तकाञ्चनसच्छायो लाक्षाभः किंशुकच्छविः । प्रवालविद्रमाशोकसुरगोपसमद्युतिः ।। १११ ॥ ध्वजान्कुशगृहच्छत्रयपप्राकारतोरणैः ।। सदृशार्चिः प्रशस्तोऽग्निर्माङ्गल्यैरपरैस्तथा ॥ ११२ ॥ स्निग्धः प्रदक्षिणशिखो विधमो विपुलोऽनलः । सुभिक्षक्षेमदः प्रोक्तो दीप्यमानश्चिरं तथा ॥ ११३ ॥ धूम्रो विवर्णः परुषः पीतो वा नीलकोऽथवा । विच्छिन्नो भैरवरवो वामावर्तशिखोऽल्पकः ॥ ११४ ॥ मन्दार्चिद्युतियुक्तोऽसृग्वसागन्धः स्फुलिङ्गवान् । धूमातः सफेनश्च हुतभुग न जयावहः ॥ ११५ ॥ दर्भाणां संस्तरं वह्निोमाङ्गान्यपराणि वा । हूयमानो दहति चेद्धानिस्तदभिनिर्दिशेत् ॥ ११६ ॥ १. 'न्धिः' ख. पाठः।
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इन्द्रध्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः । होमे वोत्सर्पयेत् पीठं दह्यमानो(?)यदाग्निना । भूम्येकदेशनाशः स्याल्लाभः स्यादुपकर्पणात् ॥ ॥ ११७ ॥ सर्वतो वाप्यगाधो यः स वर्धयति पार्थिवान् । यां दिशं यान्ति च ज्वालास्तस्यां विजयमादिशेत् ॥ ११८ ।। दुर्वर्णाशुचि दुर्गन्धि मक्षिकाखुविडम्बितम् । आज्यं राज्यच्छिदे प्राहुहूयते यच्च भस्मनि ॥ ११९ ॥ हीनाधिकप्रमाणाश्च विदीर्णा धुणभक्षिताः । वातरुग्णद्रमोत्थाश्च समिधोऽर्थक्षयावहाः ॥ १२० ॥ सगर्भाश्च सपुष्पाश्च विच्छिन्नाग्रास्तृणान्विताः। कुवेन्त्युपद्रवं दभो दुष्पलूनाश्च ये तथा ॥ १२१ ।। दुष्टानि पांसुकीर्णानि कीटजर्जरितानि च । बीजानि बीजनाशाय स्युरपुष्टानि यानि च ॥ १२२ ॥ माल्यं विगन्धि अम्लानं न पीतं न सितं च यत् । कीटैः खण्डितपीतं च न जयाय न वृद्धये ॥ १२३ ॥ विस्रावीण्युद्धतान्युग्रखण्डितस्फुटितानि च । दुर्भिक्षरोगकारीणि प्राहुः पात्राणि सर्पिषः ॥ १२४ ॥ अशुचौ पतिते च स्यान्मक्षिकाकीटदूषिते । बलौ च शक्रभक्ते च झुन्मारः केशभाजि च ॥ १२५ ।। यथोदितान्यरूपाणि सर्पिरादीन्यनुक्रमात् । भवन्ति राष्ट्रपुरयोर्भयाय निखिलान्यपि ।। १२६ ।। वितीर्य गन्धमाल्यादीन् देवताभ्यों यथादिशम् । पुरोधाः स्थपतिर्वाथ प्रीतचित्तः क्षिपेद् बलिम् ॥ १२७ ॥ ध्वजनैर्ऋतदिग्भागे द्विजमुख्यानुपस्थितान् । शीलवृत्तयुतान् भूरिगन्धमाल्य: स्वलङ्कृतान् ॥ १२८ ॥ वृद्धान् षट्कर्मनिरतान् सुहृदो वेदपारगान् । मनःप्रियान पूर्णगात्रान् समर्थान् सर्वतः शुचीन् ।। १२९ ।। १. 'केशैश्चैव विदूषिते', २. 'ल्यैरल' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे शुक्लाम्बरान् दर्शनीयान् गौरप्रायान् बलान्वितान् । अमुण्डाजटिलाकीवा(न्?)दीक्षितान् व्याधिताकृशान् ॥ १३० ॥ यथेष्टं दक्षिणाभिस्तान् संयोज्याष्टशतेन वा । साक्षतैः प्रीतमनसः कुसुमैः स्वस्ति वाचयेत् ॥ १३१ ॥ शक्रं ते चाष्टभिः कुम्भः सुदृढैारिपूरितः । स्वर्चितैरभिषिञ्चेयुर्मूले चांकृष्टमण्डलैः ॥ १३२ ॥ स्तुते।जयिकमन्त्रैः स्तुतिभिश्च द्विजोत्तमैः । राज्यमाघोषयेदेतेरात्मना च महीपतिः ॥ १३३ ।। कुर्वीत सर्वबन्धानां मोक्षं हिंसां समुत्सृजेत् ।। दोषान् जनपदस्यापि दशाहं विपहेत वै ।। १६४ ॥ सुवासा भूषितः स्नातः सदाचारप्रयत्नवान् । ध्वजोच्छ्रायं शुचिर्भूपः सवलः प्रतिपालयेत् ।। १३५ ।। सोपवासः शुचिः स्नातः प्रयतो विजितेन्द्रियः । कृताञ्जलिपुटश्चमं मन्त्र स्थपतिरुचरेत् ।। १३६ ॥
ओं नमो भगवति वागले सर्वविटप्रमर्दनि स्वाहा । सुरासुराणां सङग्रामे प्रवृत्ते स्वं यथोत्थितः । तथा नृपस्य देवेन्द्र ! जयायोत्तिष्ठ पूजितः ।। १३७ ।। स्तुत्वेति स्थपतिस्तस्य कृत्वा चानुप्रदक्षिणम् ।। कारयेद् देवराजस्य ध्वजदण्डसमुच्छ्रयम् ।। १३८ ।। स्वलङ्कृतैः सितस्वच्छमाल्याम्बरविलेपनैः । पौरैर्जानपदैस्तद्वत् प्रयतैः परिचारकैः ॥ १३९ ॥ सालिङ्गझल्लरीशङ्खनन्दिडिण्डिमगोमुखैः । हृष्टैरन्यैश्च वादित्रैर्वाधमानैर्महास्वनैः ॥ १४० गायद्भिश्च नटद्भिश्च गायनैर्नटनर्तकैः । हृष्टोत्कृष्टोद्गतध्वानैर्गजस्यन्दनवाजिभिः ॥ १४१ ॥ १, 'ण्डान् ज', २. 'लान् क्ली', ३. 'घा', ४. 'अ' ख. पाठः ।
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इन्द्रध्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः । तैश्च वादित्रनिनदैस्तैश्च पुण्याहनिस्वनैः । दृढरज्जुभिराकृष्टं श्रवणे ध्वजमुच्छ्रयेत् ॥ १४२ ।। यत्नेनोत्थाप्यमानस्य तस्योच्छ्रायगतस्य च । नृपक्षिवाहनादीनां निमित्तान्यवलोकयेत् ॥ १४३ ॥ कुटनीनिहिताभोगं पताकादर्पणोज्ज्वलम् । चित्रपट्टस्फुटाटोपमर्केन्दुगुणभूपणम् ॥ १४४ ॥ अस्रस्तमाल्यालङ्कारमशीणच्छत्रमस्तकम् ।। अकम्पितमदीर्णाङ्गमदिग्भ्रष्टं सुरेश्वरम् ।। १४५ ॥ सममूर्ध्वसमश्लिष्टमनवक्षतमद्रुतम् । अविलम्बितविभ्रान्तमजुमार्गसमुद्गतम् ।। १४६ ॥ इत्थं शक्रध्वजोत्थानं कृतं राज्ञो जयावहम् । पौरजानपदानां च क्षेमारोग्यसुभिक्षकृत् ॥ १४७ ।। यदा शक्रध्वजः प्राचीमुच्छ्रितः प्रतिपद्यते । तदा मन्त्रिगणक्षत्रनृपप्राग्वासिद्धिदः ॥ १४८ ॥ भाग्नेयीं ककुभं याते वर्धन्ते वह्निजीविनः । प्रारब्धकार्यनिष्पत्तिरयत्नाचोपजायते ॥ १४९ ।। दक्षिणां दिशमायाते केतने नमुचिद्विपः । तदा स्युर्वेश्यलोकस्य पूजाधान्यधनद्धेयः ॥ १५० ॥ सर्वाशासंपदः श्रेष्ठा जायन्ते नैऋताश्रिते । न स्याद् गर्भो वृथा तद्वद् वधबन्धमयं न च ॥ १५१ ।। श्रिते प्राचेतसीमाशामस्मिञ् शूदजयो भवेत् । क्षुत्तृष्णाग्निभयं न स्याद् वृष्टिरिष्टा च जायते ।। १५२ ॥ द्रुमसस्यफलर्द्धिः स्यात् केतौ वायोः श्रिते दिशम् । चतुष्पदविवृद्धिश्च रोगोच्छित्तिश्च जायते ॥ १५३ ॥ चतुर्णामपि वर्णानां सम्पत स्यात सौम्यदिग्गते । विशेषात् सा द्विजेन्द्राणां तथा सिध्यन्ति चाध्वराः ।। १५४ ॥ १. 'नुमक्लिष्टमनवक्षतमद्भुतम् ' स्व. पाठः । २. 'न्तं नृपमा' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे ऐशीमाशां श्रिते धर्मपरो भवति पार्थिवः। वृद्धिर्जनपदस्य स्यात् तथा पापण्डिनामपि ॥ १५५ ।। यदि किञ्चिद् व्रजेत् पूर्व रज्ज्वाकृष्टः शतक्रतुः । विजिगीपोर्नरेन्द्रस्य तदा यात्रा प्रसिध्यति ॥ १५६ ॥ प्रतिष्ठां लभते भूमौ भ्रमं भिवा यदि वजः।। सशैलकाननामुर्वी तदा जयति पार्थिवः ॥ १५७ ॥ दिक्सर्पणे फलं प्रोक्तमित्यव्यङ्गस्य वत्रिणः । विपरीतं तदेवोक्तं व्यङ्गस्य निखिलं पुनः ॥ १५८ !! यदि स्वल कृतः पूर्व योज्यमानः शतक्रतुः । उत्क्षिप्तो रज्जुयन्त्रेण स्तोकमर्धे स्थितोऽपि वा ।। १५९ ॥ शय्यायां यदि वा भूमावुत्सङ्गे वा पतत्यसौ । तदा नृपं राजदारान् कुमार वा विनाशयेत् ।। १६० ॥ उत्थितोऽोत्थितो वापि यदि क्षुभ्यति कम्पते । स्थानान्तरं ब्रजेद् वापि सञ्चरेद् वा कथञ्चन ॥ १६१ ।। विगृह्यते तदा भूपो भ्रश्यति स्थानतोऽपि वा। भयाजनपदो वास्य चलत्येव न संशयः ॥ १६२ ॥ आकृष्टासु यदाष्टासुच्छिद्यते कापि रज्जुषु ।। अमात्यमरणं तत् स्यादेककांशेन निश्चितम् ॥ १६३ ॥ मूलमध्याग्रभागे वा प्रोच्छ्रितो यदि भैज्यते । पौरसेनापतिनृपान् क्रमशो हन्त्यसौ तदा ॥ १६४ ॥ छत्रार्कवेणुगुल्मेन्द्रशीर्षकण्ठगुणा यदि । पतन्ति भूमाविन्द्रो वा तदा हन्ति महीपतिम् ॥ १६५ ।। नृपो वधमवाभोति तैभन्नैः पतितधुतैः । अभग्नविधुतैरेतैः क्षयं व्रजति साधनम् ॥ १६६ ।। क्रमशो हन्युरादर्शवैजयन्तीन्दुतारकाः । पतन्त्यो दृश्चमूनाथपुरोधःस्त्रीमहीपतेः ॥ १६७ ॥ १. 'श्यते', २. 'भिद्यते', ३. 'ई' ४. ' द्रुतै' क. पाठः ।
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इन्द्रश्वजनिरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः । माल्यैर्विभूषणैर्यानैः शस्त्रवत्रफलाशनैः । यान्ति केतुच्युतैरेतै राज्ञस्तान्येव संक्षयम् ॥ १६८ ॥ शीर्यते शक्रपिटकं कूटेभ्यः शक्रवेश्म वा । यस्यां ककुभि तत्राहुहोनि पूर्वे विपश्चितः ॥ १६९ ॥ भङ्गे मृगालीलकटाक्षार्गलानामनुक्रमात् । पीडा सजायते वेश्यानृपतिश्रेष्ठिरक्षिणाम् ।। १७० ।। भन्ना भ्रमाक्षपादैर्वा मल्लमातृकुमारिकाः। राष्ट्रं हन्युनेरेन्द्रस्य प्रियामातृसुतान् क्रमात् ॥ १७१ ।। निर्घातोऽशनिरुल्का वा ध्वने यदि पतेत् तदा । अनादृष्टिभयं राज्ञः पराजयमथादिशेत् ॥ १७२ ।। कुर्वन्ति मक्षिकाः शक्रे मधुच्छवं समुच्छिते । यस्मिंस्तत्र द्विषद्रोधं षण्मासाचादिशेत् पुरे ॥ १७३ ॥ मक्षिका वा खगा वा चेद् भ्रमेयुः पार्थतो हरेः।। प्रदक्षिणा बहिस्थानमासाद्याहुस्तदा मृतिम् ॥ १७४ ॥ गृध्रश्येनकपोताश्चेल्लीयन्ते शक्रमूर्धनि । तदा कुर्वन्ति दुर्भिक्षविग्रहक्षितिपक्षयान् ॥ १७५ ॥ यदि केती निलीयन्ते कुररोलूकवायसाः । . राज्ञः क्रमात् तदा हन्युमन्त्रिपुत्रपुरोधसः ॥ १७६ ॥ मयूरो यदि वा हंसः समाश्रयति वासवम् । समस्तलक्षणोपेतस्तदा स्यान्नृपतेः सुतः ॥ १७७ ॥ चक्री बलाका हंसी वा यदि केतो निलीयते ।। तदा नरपति र्यामवाप्नोत्यतिसुन्दरीम् ॥ १७८ ।। खगैः सुवृष्टिर्जलजैः सुभिक्षं स्यात् कलाशिभिः । विष्ठाशिभिश्च दुर्भिक्षं भीतिः स्यात् पिशिताशिभिः ॥ १७९ ।। यदि चित्रपटन्यस्ताः सुरयक्षोरगोत्तमाः । विचित्राकृतिभिर्युक्ता वाहनायुधभूषणैः ॥ १८० ॥ १. 'नमासमाहुस्तदितिरा मृ' (?) ख. पाठः। २. 'स्तु' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अष्टौ च ककुभो मूर्ताः प्रवृत्ताश्चाप्सरोगणाः । सग्रहास्तारका मेघाः स्फीता नद्यस्तथाब्धयः ॥ १८१ ॥ वाप्यः पङ्केरुहच्छन्ना हंसवन्ति सरांसि च । फलपुष्पावतंसानि वनान्युपवनानि च ॥ १८२ ।। देवतायतना(न्याद्यन्यट्ट)गोपुराणि पुराणि च । भवनान्यतिशुभ्राणि शयनासनवन्ति च ।। १८३ ॥ प्रहृष्टाः पार्थिवा भृत्या बलवाहनशालिनः। पौरा जानपदा लोकाः क्रीडाभाजः कुमारकाः ।। १८४ ॥ चत्वारो मुदिता वर्णा नटनर्तकशिल्पिनः । सगोबजलतागुल्मद्रुमौषधिभृतो नगाः ॥ १८५ ॥ मृगपक्षिगणाः शस्ता मङ्गलान्यखिलानि च । विचित्रापानवसुधाः फलभक्षाश्च पक्षिणः ।। १८६ ।। यथानिवेशं शोभन्ते तदा देशे पुरेऽपि च । क्षेमारोग्यसुभिक्षाणि जयं राज्ञश्च निर्दिशेत् ॥ १८७ ॥ एतेषां कुट्टने पाते छेदे नाशेऽथवा हतौ । प्लोषे वाप्यशुभं वाच्यं यथायोनि यथादिशम् । १८८ ।। स्थिते वा पतिते वापि चित्रपट्टे भुवस्तले । उपप्लवो नरेन्द्रस्य भवेजनपदस्य च ॥ १८९ ॥ राजते यद्यलङ्कारः सकलो यावदुत्सवम् । अनस्तोऽविप्लुतश्चोर्वी तदा कृत्स्ना जयेन्नृपः ॥ १९० ॥ नटनर्तकसङ्ग्रेषु प्रनृत्यत्सु पठत्सु च । शुभे शुधं समादेश्यमितरस्मिन्नशोभनम् ॥ १९१ ।। ये वर्गाः सम्पदृष्यन्ति मङ्गल्या गजवाजिनः । सुवेषचेष्टालङ्काराः शुभं तेष्वादिशेद् ध्रुवम् ॥ १९२ ॥ अमडैलैषिणो ये स्युर्विकृता दीनचेतसः । पुरुषा योषितो वापि निर्दिशेत् तेषु वैशसम् ॥ १९३ ॥ १. 'राज्ये विनि', २. 'स्वपि ' क. पाठः । ३. 'ङ्गल्यैषि' ख. पाठः ।
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इन्द्रध्वज निरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः ।
प्रभिन्नकरटा नागा बृहन्तस्तोयदा इव । अदीनाथ स्वतन्त्राच नृपतेर्विजयावहाः ।। १९४ ।। आलिखन्तः खुरैः क्षोणीं दक्षिणैर्हष्टचेतसः । हेषमाणा हयाचापि शंसन्ति नृपतेर्जयम् ॥ १९५ ॥ सतडिद्गर्जिताम्भोदा दृष्टिज्जायते तदा । महीपतेर्जयं विद्यात् सुभिक्षं क्षेममेव च ।। १९६ ॥ अथार्धरात्रे सम्प्राप्ते रोहिण्यां दशमेऽहनि । शक्रस्य पातमिच्छन्ति मुनयः प्रतिवत्सरम् ॥ १९७ ॥ ततः समाजे निर्वृते शक केतौ प्रतिष्ठिते । गन्धतोयैव पुष्पैश्च विदधीताम्बुसेवनम् ।। १९८ ॥ अमेयैर्वखण्डैर्वा भस्मकेशास्थिकर्दमैः ।
यदा क्रीडन्ति मनुजा दुर्भिक्षं जायते तदा ॥ १९९ ॥ विमाः प्राच्यां विल(म्पे ? म्बे ) युः पतन्तं वासवध्वजम् | सुभिक्षं क्षेममारोग्यमन्यथा स्याद् विपर्ययः || २०० ।। अष्टाङ्गको ध्वजा यो विशेषः सोऽथ कथ्यते । पुरे ब्रह्मपुरात् प्रायामिन्द्रस्थानं विधीयते ॥ २०१ ।। मात्राशयेन हस्तेन प्रमाणं तस्य कीर्तितम् । चतुःषष्टिसमायामं चतुरश्रं समन्ततः ॥ २०२ ॥
एकाशीतिपदेनैव भजेत् क्षेत्र विभागतः । क्षेत्रस्यार्थेन कुर्वीत ध्वजायामं प्रमाणतः ॥ २०३ ॥
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ततो वृद्धिर्विधातव्या हस्ते हस्तेऽङ्गुलं बुधैः । अर्धागुलं वा वृद्धिः स्याद् ध्वजस्येन्द्रस्य कुत्रचित् ॥ २०४ ॥ तावद् वृद्धिर्विधातव्या यावत् क्षेत्रसमोऽङ्गुलैः । ततः प्रमाणमाद्यं यत् तत् पुनर्विनियोजयेत् ॥ २०५ ॥ प्रमाणमङ्गुलैः केतोः स्याच्चत्वारिंशता मितम् । तस्य संवत्सरे वृद्धिः कर्तव्या द्व्यङ्गुलैर्बुधैः ॥। २०६ ।।
१. 'शत ', २. 'म्बुसेचनम् ' ख. पाठः । ३. 'प्राक्तेर्विल' ख' प्राच्यां बिलुपे ' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
ब्रह्मस्थाने च कुर्वीत ब्रह्मावर्त्तं विचक्षणः । ब्रह्मणोऽनन्तरं प्राच्यां भवेद् दैवतमर्यमा ॥ २०७ ॥ na यन्त्रस्य पादौ स्तः समुच्छ्रायेण षटेप (मौ दौ ) । तस्यैव पश्चिमे भागे मित्रो भवति देवता ॥ २०८ ॥ ततः प्रभृति यन्त्रस्य + + वेधो नतो भवेत् । पूर्वापरं च निम्नं स्यादेष यन्त्रविधिः स्मृतः ॥ २०९ ॥ यन्त्रस्य पश्चिमे भागे वरुणो दैवतं भवेत् । वरुणस्य पदान्ते च वंशस्थे द्वे कुमारिके ।। २१० ।। खानिले(?)चतुरो हस्तान् दशहस्तोच्छ्रिते च ते । रुद्रस्थाने च कर्तव्या कुमारी सुप्रतिष्ठिता ।। २११ ॥ सोमयोगे चतुर्थी स्यादापभागे च पञ्चमी । षष्ठी च सवितुर्भागे यमभागे च सप्तमी ॥ २१२ ॥
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे इन्द्रध्वज निरूपणं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥
अथ नगरादिसंज्ञा नामाष्टादशोऽध्यायः ।
नगरं मन्दिरं दुर्गं पुष्करं साम्परायिकम् । निवासः सदनं सद्म क्षयः क्षितिलयस्तथा ॥ १ ॥ यत्रास्ते नगरे राजा राजधानीं तु तां विदुः । शाखानगरसंज्ञानि ततोऽन्यानि मचक्षते ॥ २ ॥ शाखानगरमेवाहुः कर्वटं नगरोपमम् । ऊनं कर्वटमेवेह गुणैर्निंगम उच्यते ॥ ३ ॥ ग्रामः स्यान्निगमादूनो ग्रामकैल्पो गृहस्त्वसौ । गोकुलावासमिच्छन्ति गोष्ठमल्पं तु गोष्ठकम् ॥ ४ ॥
१. 'ट्य ', २. ' न्द्रसंपदाध्या ', ३. कल्पग्रह ' ख. पाठः ।
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नगरादिसंज्ञा नामाष्टादशोऽध्यायः । उपस्थानं भवेद् राज्ञां यत्र तत् पत्तनं विदुः। बहुस्फीतवणिग्युक्तं तदुक्तं पुटभेदनम् ॥ ५ ॥ विधाय कुटिका यत्र पत्रशाखातृणोपलैः । पुलिन्दाः कुर्वते वासं पल्ली स्वल्पा तु पल्लिका ॥ ६ ॥ नगरं वर्जयित्वान्यत् सर्व जनपदः स्मृतः। नगरेण समं कृत्स्नं राष्ट्रं देशोऽथ मण्डलम् ॥ ७॥ . आवासः सदनं सम निकेतो मन्दिरं मतम् । संस्थानं निधनं धिष्ण्यं भवनं वसतिः क्षयः ॥ ८ ॥ अगारं संश्रयो नीडं गेहं शरणमालयः । निलयो लयनं वेश्म गृहमोकः प्रतिश्रयः ॥९॥ गृहस्योपरिभूमिर्या हयं तत् परिकीर्तितम् । तस्यारोहणमार्गो यः सोपानं तत् प्रचक्षते ॥ १० ॥ काष्ठकैर्यत्र रचितं स्थूणयोरधिरोहणम् । सा निःश्रेणिरिति प्रोक्ता सोपानैर्विपुलैः पदैः ॥ ११ ॥ स्मृतः काष्ठविटकोऽसौ यत् काष्टैः संवृतं गृहम् । सुधालिप्ततलं हर्म्य सौधं स्यात् कुटिमं च तत् ॥ १२ ॥ वर्षाभयेन या छन्ना तालशौकदलादिभिः। स्मृताभिगुप्तिरन्तस्था सर्वोपरि गृहस्य सा ॥ १३ ॥ वातायनं तु भित्तीनामवलोकनमुच्यते । लघुवातयनो यः स्यादवलोकनकं हि तत् ॥ १४ ॥ हय॑स्य मध्ये यच्छिद्रं स उलोक इति स्मृतः । हम्येमाकारकः स स्यात् कण्ठा हम्येतलस्य या ॥ १५ ॥ वितर्दिकाष्टमाला स्यात् सर्वतश्छेदमूलगा । तत्स्तम्भेषु मृगा ये तु ते स्युरीहामृगा इति ॥ १६ ॥ नियुहो हHदेशाद् यः काष्ठानामुपनिर्गमः ।
वलीकमिति विज्ञेयं काष्ठं छेदा विनिर्गतम् ॥ १७ ॥ १. 'दकम् ', २ 'को', ३. 'शालद' क. पाठः । ४. 'हार्यः प्रा' ख, पाठः ५. 'ठो', ६. 'यः', ७. 'श्छद', ८. 'शाप्रका' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे छन्नैश्चतुर्भिः पाधैर्यत् तच्चतुश्शालमुच्यते । त्रिभिस्त्रिशालं तत् प्राहुभ्यां तत् स्याद् द्विशालकम् ॥ १८ ॥ एकशालकमेकेनच्छन्नेन गृहमुच्यते । गृहमेकं तु यच्छन्नं सर्व शालेति सा स्मृता ॥ १९ ॥ शालानां यत पुनमध्यं वापी पुष्करिणी च सा। संछन्ना (चासा)पि यस्य स्यात् तद् गर्भगृहमुच्यते ॥ २० ॥ गृहे महाजनस्थानं त्रिकुड्यं यत् प्रकल्पितम् । उपस्थानं तदताहुः स्याचोपस्थानकं लघु ॥ २१ ॥ प्रासादस्तु स एव स्यादल्पा प्रासादिका स्मृता । दीर्घप्रासादिका यासौ वलभीत्यभिधीयते ॥ २२ ॥ शालाग्रे वलभी या स्यादलिन्देति वदन्ति ताम् । शाला विना तु वलभी वलभेति निगद्यते ॥ २३ ॥ अल्पाल्पास्तु चतुष्कुड्या ये तेऽपवरका मताः ।। गृहे चाभ्यन्तर्रस्थानं शुद्धान्त इति कीर्त्यते ॥ २४ ॥ प्रतोली तां विदुलोकः सुरगामिव यां वसेत् ।। सा कक्षेत्युदिता तज्ज्ञैर्यदवस्थान्तरं गृहे ॥ २५ ॥ यदुपस्थानकं नाम ये चापवरकास्तथा । ते कोष्ठका या तु कण्ठा कुड्यं भित्तिश्चयश्च सा ॥ २६ ॥ भेक्तशाला भवेद् या तु तन्महानसमुच्यते । यच्छन्नं द्वारदेशे तु तमाहुद्वारकोष्ठकम् ॥ २७ ॥ प्रवेशनमिति प्राहुरनिर्गमनं तथा । जलनिर्गमनस्थानं विज्ञेयमुदकभ्रमः ॥ २८ ॥ भवनस्याङ्गणं यत्तु तदाहुभेवनाजिरम् ।। वनाजिरं वनमही त्वाश्रमाजिरमाश्रमे ॥ २९ ॥ उत्तरोदुम्बरस्याधः श्लिष्टी मध्ये च कुंड्ययोः ।
तज्ज्ञास्तां देहलीत्याहुः कपाटाश्रयमेव च ।। ३० ॥ १. 'छि', २. 'सर्वशा' क. पाठः । ३. 'भ्येति विधीयते ' ख, पाट: । ४. २', ५. 'मुक्तिशा' क. पाठः । ६. 'य उद', ७. पिण्डयोः' ख. पाठः ।
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नगरादिसंज्ञा नामाष्टादशोऽध्यायः । कपाटं द्वारपक्षः स्यात् कपाटपुटमेव च । पक्षः पिधानो वरणो द्वारसंचरणं तथा ॥ ३१ ॥ कपाटं संपुटस्ते द्वे (?) कपाटयुगलं च तत् । कलिका द्वारवन्धार्था या स्यात् तामर्गलां विदुः ॥ ३२ ॥ सा स्यादर्गलनुचीति यदिनी प्रमागतः । पुराणां ला तु परिवः सालिको गनवारणम् ।। ३३ ॥ छिद्रगवाक्षप्रतिमश्छिद्रितं सर्वतस्तु यत् । फलकं तद् गवाक्षः स्थाजालमित्यपि कथ्यते ।। ६४॥ हHद्वारे गृहद्वारे तथा हावलोकने । प्राकारान्तरपृष्ठे तु या च प्रासादिका भवेत् ॥ ३५ ॥ पार्श्वयोरुभयोरेषां फलकद्वयमुच्छ्रितम् । उपयुपरि संक्षिप्तमधचन्द्रद्धयाकृति ।। ३६ ॥ आनने द्वे यथा चास्मिन सिष्टेरयमहाधरैः । तयोरुपरि सन्धौ च तारकाकृति मण्डलम् ॥ ३७॥ तत् तोरणमिति प्रोक्तं यच्च तेन परिष्कृतम् । सुवर्णतोरणं च स्यान्मणितारणमेव च ॥ ३८ ॥ पुष्पतोरणमप्येतत् क्रियते पुष्पकादिभिः । तोरणान ठकारी यः सिंहऋणः स उच्यते ।। ३९ ।। नाम्ना संयमनानीति गृहसञ्चरभूमयः। गृहस्य पाव यद्यस्मिस्तत् तत्संयमनं विदुः ॥ ४० ॥ भित्तेबद्वाथ दारूणां तरङ्गायवदानतम् । मरालपाली सा हया(त) प्रणाली निगमोऽम्भसः ॥ ४१ ॥ स च ग्राकार इत्युक्तः कण्ठः स्यादङ्गणस्य यः। द्वारस्य तु समीपं यत् प्रहारं तदिहोच्यते ॥ ४२ ॥
१. 'नावरणे द्रा क. पाठः। २. कश्यते', ३. 'वा' ख. पाठः। ४. 'यावन', ५ 'दाननम् ' क. पाटः । ६. 'भित्तिसामान्यं बाह्यं परिगरो मतः । विस्तीर्णमुच्छ्रिता यली । (१)ख, पाठ | सच समीप यत् का. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
यष्टिकचितं मूळे द्वारस्य भवति स्थलम् |
दीर्घ वा
तदास्थलकमिष्यते ॥ ४३ ॥
सूत्रभूमि रमेध्येति वर्चस्कोऽवस्करस्तथा । गृहाच भित्तिसामान्यं वाद्यं परिसरो मतः ॥ ४४ ॥ विस्तीर्णमुच्छ्रितं यत् स्याद् वेश्म सो उदाहृतः । संक्षिप्तमेतदेवोक्तं तज्ज्ञैरट्टालकाख्यया || ४५ ॥
तदेवात्यन्तसंक्षिप्तमट्टालीति निगद्यते ।
?
अली या तु नात्युचा तामत्राट्टालिकां विदुः ॥ ४६ ॥ एकनाडीगतच्छिद्रैः काटना: परिश्रितम् । rs agoणालीत पृष्ठे धावति ॥ ४७ ॥ स्तम्भशीर्षकरूपाणि काष्ठमूलाश्रितानि च । सुषिराणि प्रयत्नेन काष्ठनाडीमुखान्तरैः (१) ॥ ४८ ॥ रूपाणामथ तेषां तु स्तननासामुखाक्षिभिः । नानास्थानस्थितानां च नृपवानरदंष्ट्रिणाम् ॥ ४९ ॥ कृतसूक्ष्मान्तरच्छदैः प्रवर्षति समन्ततः । तद्धारागृहमित्युक्तं धारागारादिनामभृत् ॥ ५० ॥ कांस्यैलोहेस्तथा परैर्निर्मृष्टादर्श निर्मलः ।
निचिता यस्य भित्तिः स्यात् तद् दर्पणगृहं विदुः ॥ ५१ ॥ पक्षद्वारं तदत्राहुर्यन्महाद्वारतोऽपरम् ।
यत् प्राकाराश्रितं द्वारं पुरे तद् गोपुरं विदुः ॥ ५२ ॥ निर्गताश्रच्छ्रिताचैव प्राकारस्यान्तरान्तरा ।
उपका (ल्या?) इति प्रोक्ताः क्षमाश्राहालका मताः ॥ ५३ ॥ चयप्राकारशालाः स्युः पुरीसंवरणाभिधाः । माकारादनुपालास्तु माकार उपनिष्कला : (१) ॥ ५४ ॥
क्रीडागृहं यदारामे तदुद्यानं प्रचक्षते । नीरेऽम्भसो जलोद्यानं जलवेश्माम्बुमध्यगम् ॥ ५५ ॥
१. ' मौत्रभूमिरमे श्रान्तो व ', २. 'स्कृतम्' ख. पाठः । ३. 'भिः 'क. पाठः । ४. 'बावपि ', ५. 'जगुः' ख. पाठः ।
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यामः । क्रीडागृहं यदत्रोक्तं क्रीडागारं तदुच्यते । विहारभूमिराक्रीडभूमिरित्यभिधीयते ।। ५६ ॥ देवधिष्ण्यं सुरस्थानं चैत्यमर्चागृहं च तत् ।। देवतायतनं प्राहुर्विबुधागारमित्यपि ॥ ५७ ॥ छन्नं भवेद् यत्तु महाजनस्य स्थानं सभा सा कथिता च शाला । गवां पुनर्मन्दिरमत्र गोष्ठमाचक्षते वास्तुनिवेशविज्ञाः ॥ ५८ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशाने ___ नगरकटग्रामगृहायननसंज्ञा नामाष्टादशोऽध्यायः ।।
यः ॥
अथ चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः ।
बेमो नृपचमूनाथवर्णिनां भवनान्यथ । प्रशस्तान्यप्रशस्तानि कृत्स्नान्यपि यथाक्रमम् ॥ १॥ वेश्मनामेकशालानां शेतमशाधिकं स्मृतम् । द्वापश्चाशद् द्विशालानां त्रिशालानां द्विसप्ततिः ॥२॥ : चतुःशालानि वेश्मानि यानि तेषां शतद्वयम् । पञ्चाशञ्चाधिका षभिर्विज्ञातव्या मनीषिभिः ॥ ३ ॥ सहस्रं पञ्चशालानां स्यात् तथा पञ्चविंशतिः । षट्शालानां षण्णवतिः स्यात् सहस्रचतुष्टयम् ॥ ४ ॥ अष्टाने त्वेकशालस्य भेदाः पञ्चाशदीरिताः । द्विशालानां तु सर्वेषां प्रभेदाः शनपञ्चकम् ॥ ५॥ शतं शतं च प्रत्येकं त्रिशालानामुदाहृतम् । द्विचत्वारिंशदधिकं चतुःशालेशताष्टकम् ॥ ६ ॥ द्विनवत्युत्तराण्येवं शतानि दश सप्त च ।
पोडशैव सहस्राणि पोडशोना चतुःशती ॥ ७ ॥ १. 'तु' ख. पाठः । २. 'प्रोक्तमष्टाधिकं शतम् ' क. पाठः। ३. 'ला' ख, पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे वेश्मानि सप्तशालानि भवन्ति परिसङ्ख्यया । पञ्चषष्टिसहस्राणि तथा पञ्चशतानि च ॥ ८ ॥ गृहाणामष्टशालानां पर्तिशदपरा भवेत् । लक्षद्वयं सहस्राणि द्विपष्टिः शतमेव च ॥९॥ गृहाणां नवशालानां चत्वारिंशचतुर्युता । दशलक्षसहस्राणि चत्वारिंशत् तथाष्ट च ।। १० ।। शतानि दशशालानां पञ्च पट्सप्ततिस्तथा । गृहद्वितययोगेन संयुक्ताख्यानि विंशतिः ॥ ११ ॥ गृहद्वितययोगेन द्वात्रिंशदिह वेश्मनाम् ।। दशपञ्च तथान्यानि भवन्ति हलकान्यपि ॥ १२ ॥ गृहमालाथ सट्टो गृहनाभिगृहाङ्गणम् । उद्भिन्नं भिन्न कक्षं च निलीनं प्रतिपादितम् ।। १३ ॥ अन्यानि चाष्टभेदानि भवन्त्युत्तमवर्णिनाम् । लक्षणं नाम संस्थानं चैतेषां प्रतिपाद्यते ।। १४ ॥ वर्णिनां स्याच्चतुःशालं मितं द्वात्रिंशता करैः । सेनापतेश्चतुःषष्टिस्तद्वदेव पुरोधसः !! १५ ॥ श्रेष्ठमष्टशतं राज्ञामेतानि तुं यथाक्रमम् । चतुःषडष्टहान्या स्युः पञ्चमं च पृथक् पृथक ॥ १६ ॥ विशोधयेत कनीयोभिमथ्यमानि यथाक्रमम् । नरेन्द्रपुरुषाणां स्युर्वेश्मान्येतानि वृद्धये ॥ १७ ॥ गृहाणि शोधयेत प्राग्वज्ज्यायांस्यपि च मध्यमः । भवन्त्येतानि भूपानां रतिकोशप्रतिश्रयाः ।। १८ ॥ दशांशयुक्तो विस्तारादायामो त्रिप्रवेश्मनाम् । अष्टषट्चतुरंशाढ्यः क्षत्रादित्रयवेश्मनाम् ।। १९ ॥ यो विस्तारः स एव स्यादाथामोऽस्मिन् यथाक्रमम् । विदशूद्रयोः स्यादाधिक्यं मध्ये ज्येष्ठे च समनि ।। २० ॥ १. 'च' क. पाठः।
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः । कर्णमूत्राद बहिः स्तम्मान न्यसेत सर्वान् प्रयत्नतः । धाम्नां षोडशहस्तानां पश्चानां चतुरुत्तरा ॥ २१ ॥ वृद्धिः शालास्तु तेषां स्युश्चतुरंशेन विस्तृताः । शालाव्यासार्धतोलिन्दः सर्वेषामपि वेश्मनाम् ॥ २२ ॥ तस्याः षोडशहस्ते स्यात् पश्चमांशद्वयेन वा। . सप्तमांशत्रयेण स्याद् द्वयोरपरवेश्मनोः ॥ २३॥ अन्त्ययोर्हस्तयोः स स्याच्चतुर्भिर्नवमांशकैः । पञ्चभिः पदाभिरेभिश्च साधैः साध्रिनगैः करैः ॥ २४ ॥ दैर्ध्य स्याद् दशभिः सार्धेः शालायाः षोडशादिषु । निवेशदशमांशो यः स युतः सप्तभिः करैः ॥ २५ ।। शालाया विस्तरः प्रोक्तः श्रेष्ठानामिह वेश्मनाम् । अलिन्दमानं प्रागेव प्रोक्तं निखिलवेश्मनाम् ॥ २६ ॥ यच्छालालिन्दयोः शेपं भवेद् गर्भगृहं हि तत । मूपावच्छिन्नमिच्छन्ति शालादेश्य विपथितः ॥ २७॥ शालाव्यासप्रमाणा स्यात् सर्वेपामवकोसिमा ।। दिशासु भवने शाला विदिशाकर्णसामयः(१) ॥ २८ ॥ कर्णशाला (त?तु) था प्रोक्ता सा च ज्ञेयावकोमिमा ।
अलिन्दशालयोर्मध्ये या स्थान्मपति सा स्मृता ।। २१ ॥ * पूर्वद्वारं नियम्यादावादिमूषा तदुत्तरा । मूषा भद्रा इति माहुस्तत्संख्यामवधारयेत् !॥ ३० ॥ यावन्सूपं भवेद् वेश्म तावद् भद्रं तदुच्यते ।। भद्राभद्र शऋदिक्स्थे सोम्यासोम्ये यमाश्रिते ॥ ३१ ॥ शान्ताशान्ते प्रतीचीस्थे सौम्यदिक्स्थे शिवाशिवे । अलिन्दा इति के प्याहुमूपा इत्यपरे विदुः ।। ३२ ।।
१. 'स्यां' क. पाठः । २. 'साडमि' व. पाटः। ३. विच्छि', ४. 'मा'. ५. 'भूखेति', ६. 'खा' क.पाटः। ७. सव. पाठः।।
* 'पूर्वदारमियं यावदादिमूषा' इति पाठः स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे भद्रा इति जगुः केचिदन्ये परिसरा इति । एकद्वित्रिचतुःपञ्चपदसप्ता(टोट)क्रमेण याः ॥ ३३ ॥ मूपास्तासां प्रवहणांसंज्ञाः स्युर्वेश्मनामिह । तासामाद्याः प्रशस्ताः स्युरप्रशस्तास्ततः पराः ॥ ३४ ॥ नामतो गुणसश्चैव शुभाशुभफलोदयात् । अष्टावादी गुरून् न्यस्येत् ततश्चायगुरोरथः ॥ ३५ ॥ लघु न्यस्येत् ततः शेषान विदधीत यथोपरि । गुरुभिः पूरयेदादि यावत् म्युर्लघवोऽखिलाः ॥ ३६ ॥ $ आद्यपक्तौ गुरुश्चैको लघुश्चैको यथाक्रमम् । अतः परं तु द्विगुणाः प्रतिपति भवन्त्यमी ।। १७ ॥ मूपाभेदाश्चतुःशले पदपश्चानच्छतद्वयम् । अलिन्दवीथीपग्रीवनियूहकगवाक्षकः ॥ ३८ ॥ तमनभद्रविन्यासरचनाभिरनेकधा । अपरस्परसंवाधात् संवतैर्वितैरपि ॥ ३९ ॥ गृहभेदाः प्रमुयन्ते येषां संख्या न विद्यते । यत्संबंद्धचतुश्शालममूपालिन्दकं हि तत् ।। ४० ॥ एकमद्रादिगेहानां ब्रूमो नामान्यतः परम् । यान्येकलधुलक्षाणि प्रस्तारे तानि तद्विदः ।। ४१ ।। कथयन्त्येकभद्राणि क्रमसंख्याविभागतः । प्रागायतं प्राग्विलग्नं जयं संयमनप्रियम् ॥ ४२ ॥ प्रतीच्यं प्रासविन्यासं सुभद्रं कलहोत्तरम् । अष्टौ तान्येकभद्राणि द्विभद्राण्यभिदध्महे ।। ४३ ।।
१. 'गाः सं', २. 'यः' क. पाठः । ३. अध्धादौ' ख. पाठः । ५. 'बद्धं च ' क. पाटः ।
आद्यपतौ प्रथमायामावलौ एको गुरुः, तस्याधस्तादपरो लघुः कर्तव्यः । एवं यथाक्रम प्रस्तारस पाकमित्वालिम्वेत् । तद्यथा ---- चतुर्गुरुप्रस्तारे षोडश गुरुलघवः । ततस्तदग्रतो द्रौ गुरू द्वौ लपू इति एकैकस्यायो न्यसेत् । तदअतोऽपि चत्वारो गुरवश्चत्वारो लपवः । तोऽपि अष्टौ गुरवः अष्टौ लवत्रः । एवं प्रतिपक्ति द्विगुणान गुरुलधून न्य. सेतू । भयमपरः प्रस्तारः।' इति विप्पणमस्ति ।
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चतुःशालविधानं नामैकोमनिशोऽध्यायः । पूर्वोत्तरोत्तरं पूर्वाद् भद्रादिह विधानतः । स्यातां प्राग्मेलकाद्यद्वत् पूर्वाद्या दक्षिणा परे(?) ॥ ४४ ॥ ईरं सुनीथमाग्नेयं द्वीपमाप्यं सुसंयमम् । अर्थचमैभं व्याकोशं नैर्ऋतं दृषमं विनम् ॥ ४५ ॥ काव्यं विपासमानीरं कान्तं सौभं विपश्चिमम् । गवयं श्रीवहं श्लिष्टं गणं भीममयोगमम् ।। ४६ ॥ वर्त चलं सठं क्रान्तमित्यष्टाविंशको गणः । द्विभद्राणां समाख्यातखिभद्राणामतः परम् ॥ ४७ ।। ऐन्द्र विलोममायाम वधमेकाक्षमंन्तिकम् । प्रकाशं पेत्रमायस्तं भद्रं प्रान्तं प्रसाधकम् ॥ ४८ ॥ क्षेमं विघातमायातं कान्तं चित्रं द्विमन्दिरम् । सुदक्षिणं भयं श्लिष्टं प्रमोदं व्यायतं वियत् ॥ ४९ ॥ आप्यं सुनागं नागेन्द्रमीरितं शोभनं धनम् । शस्तोत्तरं कर्फ कर्ण क्रुष्टं कान्तं क्रमागतम् ।। ५० ।। द्विशस्तं द्विभयं प्रोक्तं चक्रं मलयमायतम् । वनं भारं सुगाराख्यमागारं वीरमेव च ॥ ५१ ॥ व्यायाममायुतं तद्वद् व्याहृतं च ततः परम् । दुर्गम क्षोभेसंज्ञं च कृत्रिमं क्षोभणं तथा ।। ५२ ।। चारुरुच्याभिधानं च ध्रुषं कथमिति क्रमात् । पदपञ्चाशत् त्रिभद्राणि चतुर्भद्राध्यतः परम् ।। ५३ ॥ कृतमर्चायनं पौष्णमुद्गतं मिश्रमुत्सुकम् । विन्नं विपक्षमाहूतं रूचक बधेनं पृथु ॥ ५४॥ * कलह छलमायास्यं त्रिनाभं स्वस्तिकं स्थिरम् ॥ ५५ ॥
१. 'प्राक्षेलिका' ख. पाठः । २. 'तमा' क. पाठः । ३. 'दीयं वाप्यसु', ४. 'कव्यं विकाशमा', ५ 'तम्', ६. 'मान्तकम् ख. पाठः । ७. 'क्षेम', ८. 'मयं', ९. 'मसं', १८. 'थुक् ' क, पाठः ।। 1. 'चल' ख. पाठ: 1
क्यमाण लक्षणश्लोक तु कलभमिति पश्यते ।
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समराङ्गणसूत्रधार शरलं द्विगुणं नाधं चित्रं भ्रान्तं विधारणम् । साधारणं नतं व्यंशभृपं रोग विशेषणम् ।। ५६ ॥ प्रतीच्यं त्रिसमं स्वरं सुप्रतीकं नलं क्षयम् ।। व्याप्तमाक्रीडनं व्यर्थमीशानं सुखमव्ययम् ॥ ७ ॥ मगधं क्षिप्रमागस्त्यमेको द्विति लिहः ।। पके विलोममुद्दण्डं मुण्डं मातङ्गमाखिलम् ॥ ५८ ।। खर्च पिनाकमुधन्तं विशिरवं प्रसभं रजम् । (चुरुरुच)कं (ससे)फलं यामं वर्धनं धावनं सहम् ।। ५९ ॥ चयं सेव्यं कलं तीणं चतुर्भद्राणि सप्ततिः।। पञ्चभद्राण्यथोच्यन्ते पटपञ्चाशदनुक्रमात् ॥ ६० ॥ कानलं लोलुपं जिह्म प्रहाल सालिक जिनम् । सुजयं विजयं यावं जसा जपं तपम् ।। ६१ ॥ जमं वरं चरं धैरं विशिप भुप्रभं प्रभम् । प्रतीक्षं क्षमिणं युक्तं शान्तं तं विनोदनम् ॥ ६२ ।। सन्दोहं विप्रदोहं च विद्रुतं सततं ततम् । व्याकुलं लीनमालीनं विचित्रं लम्बनं खरम् ।। ६३ ।। शेखरं विबुधं चैत्रं व्यासक्तं संपदं पदम् । त्रिशिखं चतुरं प्रातं सुस्थितं दुःस्थितं स्थितम् ।। ६४ ॥ चक्रं चक्रं लघं लाभं संपर्क मूलमव्ययम् । अष्टाविंशतिरन्यानि पड्भद्राणि निबोधत ॥ ६ ॥ किन्नरं कौस्तुभं हयं धार्मिक निषचं वसु । सारीकं वामनं गौरमस्थिर ऋषिणं खलम् ॥ ६६ ।। पिवर वोलिशं धाम त्रियुध मन्दिरं भवन् । अशोकं भास्वरं चौपं लातव्यं सुस्वनं भवम् ।। ६७ ॥
१. 'क्षि' क. पाटः। २. 'न' स. पाठः। ३. 'निषिधं : क. पाठः । ४. 'खरम्', ५. 'वास' ख. Piz:
लक्षणे तु विशोषणमिति पठ्यो। म. पुस्तकेऽर्थमिदं लुमम् । + ख, पुस्तकहपलक्षणपाठरीत्या तु विरोपमिति पाव्यम्।
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः ।
वाजि नेत्रं भ्रमं घोषं सप्तभद्राण्यतः परम् । भाण्डीरं *वैसंहं प्रस्थं प्रतानं वासुलं कटम् || ६८ ॥ लक्ष्मीवासं सुगन्धान्तमष्टधैतानि नामतः । अन्यच्च सर्वतोभद्रमेकं भद्राभिरष्टभिः ।। ६९ ।। संप्रकल्प्यं चतुःशालं ब्रूमचैषां शुभाशुभम् । प्रदक्षिणा शुभा मूषा विपरीता विपर्यये ॥ ७० ॥ समवाये यथा भूयो जानीयात् साध्वसाधु च । तथाष्टावे भद्राणि सप्तभद्राणि च क्रमात् ॥ ७१ ॥ द्विभद्राण्यभिर्युक्ता पद्मद्राणि च विंशतिः । षट्पञ्चाशत् त्रिभद्राणि पञ्चभद्राणि चोन्नयेत् ॥ ७२ ॥ सप्ततिश्च चतुर्भद्राण्येकं भद्राभिरष्टभिः । एवं शतद्वयं पिण्डः षट्पञ्चाशच्च वेश्मनाम् ॥ ७३ ॥ भद्रैः पूर्वविधानेन चतुःशालाक्रियादिषु । मूपा स्यात् कुड्यस्तेषु चतुरशालेषु वेश्मसु ॥ ७४ ॥ अनुवंशाश्रिते मृषे स्वस्तिके तत्पराङ्मुखे । मुखायते च पुरतो द्वे स्यातामवकोशिमे ।। ७५ । नोदङ्मुखः स कर्तव्यः कार्यः प्रारजीव संयुतः ( 2 ) । वर्धमाने तथा का(?र्यो) यथा प्रारग्रीवसंयुतः ॥ ७६ ॥ वर्धमाने तथा कार्य द्वारमूपे मुखायते । मूषाया दक्षिणे स्यातां दीर्घवामेऽवकोसिमे ॥ ७७ ॥ नन्द्यावर्त सर्वा नन्द्यावर्ता भवन्ति ताः । द्वे (स्तरुम् ) षे रुचके स्यातामायते त्ववकोसिमे ॥ ७८ ॥ सर्वद्वारवहा मूषाः सर्वतोभद्रवेश्मनि ।
आदिषा भवेदेका गृहं प्रागायतं हि तत् ॥ ७९ ॥ द्वितीयया प्राविलग्नमेकया तदनन्तरम् । प्रदक्षिणेन वेश्मानि जयादीन्येकयैकया ॥ ८० ॥
1. 'सर्भ क. पाठः
* लक्षणानुसाराद् वैसनमिति पाठ्यम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे मूषया स्युः क्रमादेवं कथ्यन्ते तत्फलान्यथ । धनमर्थविनाशश्च जयश्चैवाशुभं सदा ।। ८१ ॥ प्रीतिरुद्वेगकल्याणकलहाश्चाप्यनुक्रमात् । यत्र पूर्वे उभे मूषे तदीरं परिकीर्तितम् ॥ ८२ ॥ यत्र पूर्वा तृतीया च तत् । सुनीतं गृहं विदुः। आग्नेये द्वितृतीये स्तो द्वीपे चाद्यचतुर्थके ॥ ८३ ।। द्विचतुर्यों तथाचाप्ये त्रिचतुर्यो सुसंयमे । अर्धचें त्वाद्यपञ्चम्यौ द्वितीयभे सपञ्चमी ।। ८४ ॥ व्याकोशे च त्रिपञ्चम्यौ नैऋते द्विशराभिधे । वृषभे प्रथमाषष्ठयौ द्विषष्ठ्यौ च तथा विने ॥ ८५ ॥ काव्ये तृतीया पष्ठी च विपासेऽब्धिरसाभिधे । आनीरे पञ्चमीषष्ठयो साया कान्ते च सप्तमी ॥ ८६ ॥ सौभे द्वितीयासप्तम्यो त्रिसप्तम्यो विपश्चिमे । गवये सप्तमीतुर्ये श्रीवहे पञ्चसप्तमी ।। ८७ ।। सपष्ठी सप्तमी श्लिष्टे गणे पूर्वाष्टमी तथा । भीमेऽष्टमी द्वितीया च व्यष्टम्यौ चाप्ययोगमे ॥ ८८ ॥ वर्ते चतुर्थी षष्ठी च पञ्चमी चाष्टमी चले। षष्ठयष्टम्यौ शठे क्रान्ते सप्तमी चाष्टमीति च ॥ ८९ ॥ इत्यष्टाविंशतिः प्रोक्ता द्विभद्राणामिहौकसाम् । अथ मस्त्रिभद्राणि तत्रैन्द्रं पुष्टिवर्धनम् ॥ ९० ॥ स्याद् याम्यपश्चिमद्वारमाधमूपात्रयान्वितम् ।
आद्या द्वितीया तुयो च यस्य द्वारं विपश्चिमम् ॥ ९१ ॥ विलोमं नाम तद् वेश्म शूद्राणां पुष्टिवर्धनम् । आया तृतीया तुयो स्यादायाम सर्वतोमुखे ॥ ९२ ॥ वधे द्वित्रिचतुर्थ्यः स्युरिं च स्यादुदग्दिशि । यत्र साद्ये द्विपञ्चम्यावेकाक्षं तदुदाहृतम् ॥ ९३ ॥ १. 'शोभे' क. पाठः। २. 'ते' ख. पाठः । + लक्ष्यानुसारात् तु सुनीथमिति पाध्यम् ।
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः । साये यत्र द्विपञ्चम्यौ तत् प्रोक्तं गृहमन्तिकम् । यत्र स्युर्द्वित्रिपञ्चम्यः प्रकाशं सर्वदृद्धिकृत् ॥ ९४ ॥ पूर्वा चतुर्थीपञ्चम्यौ यत्र तत् पैत्रमुच्यते । पञ्चमी द्विचतुथ्यौँ च यत्रायस्तं तदीरितम् ।। ९५ ॥ त्रिचतुःपञ्चमीयुक्तं भद्रमाहुर्मनीषिणः । आद्या द्वितीया षष्ठी च यत्र तत् प्रान्तशब्दितम् ।। ९६ ॥ आद्या तृतीया षष्ठी च स्यात् प्रसाधकवेश्मनि । तद् भवेत् सर्वतोद्वारं तथा सर्वार्थसाधकम् ।। ९७ ।। द्वितीया च तृतीया च षष्ठी च क्षमनामनि । तस्य प्रत्यग्दिशि द्वारं शूद्रवर्गस्य चेष्टदम् ॥ ९८ ॥ षष्ठी चतुर्थी चाद्या च स्युर्विधाताख्यवेश्मनि । षष्ठी द्वितुर्ये यस्मिंस्तदायातं दक्षिणामुखम् ॥ ९९ ।। षट्चतुस्त्रियुतं कान्तं तत् स्यात् सर्वार्थसाधकम् । षट्पञ्चाधान्वितं चित्रं तच्च स्याद् याम्यदिङ्मुखम् ।। १००॥ द्वितीयापञ्चमीषष्ठयो यस्मिन् स्युस्तद् द्विमन्दिरम् । यत्र त्रिपञ्चमीषष्ठ्यस्तद् वदन्ति सुदक्षिणम् ।। १०१ ॥ चतुर्थीपञ्चमीषष्ठ्यो भये स्युस्तन्न वृद्धिकृत ।। पूर्वाद्वितीयासप्तम्यो यत्र तच्छ्रिष्टसंज्ञितम् ॥ १०२ ॥ याम्यास्यमिदमिच्छन्ति शुभं सर्वार्थदं नृणाम् । साये तृतीयासप्तम्यौ प्रमोदे परिकीर्तिते ॥ १०३ ॥ यत्र स्युवित्रिसप्तम्यस्तद् वेश्म व्यायतं स्मृतम् ।। यत्राद्या च चतुर्थी च सप्तम्यपि च तद् वियत् ।। १०४ ।। द्विचतुःसप्तमीमूषमाप्यं स्याद् दक्षिणामुखम् । त्रिचतुस्सप्तमीभिस्तु सुनागं वेश्म कीर्त्यते ॥ १०५ ॥ तच्च याम्यापरमुखं धनधान्यसुखप्रदम् । सप्तमी पञ्चमी पूर्वो मूषा नागेन्द्रसंज्ञिते ।। १०६ ॥ १. 'तृती', २. 'वे', ३. 'द्योच्छ्रितं' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
भूषा द्विपञ्चसप्तम्यो याम्यं च मुखमीरिते । त्रिपञ्चसप्तमीभूषाशोभितं शोभनं भवेत् ॥ १०७ ॥ चतुर्थी पञ्चमी यत्र सप्तम्यपि च तद् घनम् । पूर्वा षष्ठी सप्तमी च स्मृता शस्तोत्तरे गृहे ॥ १०८ ॥ द्वितीयासप्तमीषष्ठयो यस्मिंस्तत् कफसंज्ञितम् । द्वारं वारुणमेतस्य हितं च स्याद् द्विजन्मनाम् ॥ १०९ ॥
कर्ण स्यात् पश्चिमद्वारं त्रिषष्ठीसप्तमीयुतम् । चतुर्थी सप्तमीषष्ठयो मूषाः स्युः क्रुष्टसंज्ञिते ॥ ११० ॥
सप्तमीपञ्चमषष्ठीयुक्तं क्रान्तं यशस्करम् । आद्याष्टमी द्वितीया च मृषा प्रोक्ता क्रमागते ॥ १११ ॥ आद्याष्टमी तृतीया च द्विशस्ते भवने स्मृताः । यत्राष्टमी द्वितीयेद्विभयं तदुदाहृतम् ॥ ११२ ॥ आद्याष्टमी चतुर्थी च यत्र तचक्रसंज्ञितम् । तुर्याष्टमी द्वितीयां च यत्र तन्मलयं विदुः ॥ ११३ ॥
तुर्याष्टमी तृतीया च यत्र तत् प्रोक्तमायतम् । आद्याष्टमी पञ्चमी च स्याद् यस्मिंस्तद् वनं स्मृतम् ॥ ११४ ॥
द्वितीया पञ्चमी मूषा यत्र स्यादष्टमी तथा । तद् भाराख्यमुदग्वक्त्रं शुभं विघ्नकृदन्यथा ॥ ११५ ॥ त्रिपञ्चम्यष्टमीभिस्तु सुगारं परिकीर्त्तितम् । यत्राष्टमी तदागारं चतुर्थी पञ्चमी तथा ॥ ११६ ॥ यस्मिन्नाद्याष्टमषष्ठो वीरं तदिह कीर्त्तितम् । षष्ठ्यष्टमी द्वितीया च गृहे व्यायामनामनि ॥ ११७ ॥ षष्ठ्यष्टमी तृतीयाभिर्मूपाभिः प्रोक्तमायुतम् । षष्ठ्यष्टमीचतुर्थ्यः स्युर्यत्र तद् व्याहृतं विदुः ॥ ११८ ॥ षष्ठ्यष्टमीपञ्चमीभिदुर्गमं व्याधिकृन्मतम् | आद्याष्टमी सप्तमीभिः संयुक्तं क्षोभमुच्यते ॥ ११९ ॥
द्विसप्तम्यष्टमीयुक्तं गृहं कृत्रिमसंज्ञितम् । त्रिसप्तम्यष्टमीभिस्तु मृषाभिः क्षोभणं भवेत् ॥ १२० ॥
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः । चारुरुच्यं चतुःसप्तम्यष्टमीभिः समन्वितम् ।। सप्तपञ्चम्यष्टमीभिर्युक्तं ध्रुवमिति स्मृतम् ॥ १२१ ॥ षट्सप्तम्यष्टमीयुक्तं कथं सर्वार्थसिद्धिदम् । इत्युक्तानि त्रिभद्राणि शस्तान्येतेषु यानि च ॥ १२२ ॥ तानि नित्यं प्रयोज्यानि वर्णानां च मनीषिभिः । आद्याश्चतस्रो मृषाः स्युर्यत्र तत् कृतसंज्ञितम् ।। १२३ ॥ सर्वद्विगुणकृत् पूर्वप्रत्यग्द्वारं नचान्यथा । आद्यास्तिस्रः पञ्चमी च यस्मिन्नर्चायनं हि तत् ।। १२४ ॥ तद् भवेत् पश्चिमद्वारं गृहं सर्वगुणान्वितम् । यस्मिन्नाद्या द्वितीया च चतुर्थी पञ्चमी तथा ॥ १२५ ।। तत् पौष्णं दक्षिणद्वारं सर्ववृद्धिकरं नृणाम् । (आया)द्यास्तिस्रस्तथाद्या च यस्मिंस्तद् गृहमुद्तम् ।। १२६ ।। द्वारेण पश्चिमेनैतच्छस्यते दक्षिणेन वा । द्वयाद्याश्चतस्रो यत्र स्युस्तन्मिश्रं प्रीतिवर्धनम् ।। १२७ ॥ प्रशस्तं क्षत्रियादीनां तस्य द्वाः प्राच्यपाचि वा । आधास्तिस्रस्तथा पष्ठी यस्मिन् मूषास्तदुत्सुकम् ।। १२८ ॥ तच्छस्तं पश्चिमद्वारं विप्रादीनां जयावहम् । आद्या द्वितीया तुर्या च मूषा षष्ठी च यत्र तत् ॥ १२९ ॥ याम्याप्रत्यङ्मुखं शस्तं विघ्नं नाम कुलर्दिकृत् ।। आद्या तृतीया तुर्या च यस्मिन् षष्ठी च तच्छुभम् ।। १३० ॥ विपक्षं नाम धाम स्याद् द्वारमस्य च पश्चिमम् । द्याद्यास्तिस्रो गृहे यस्मिन् मूषा षष्ठी च तच्छुभम् ॥ १३१ ॥ स्याद् याम्यपश्चिमद्वारमाहूतं नाम तद् गृहम् । आधाद्वितीयापञ्चम्यो यत्र षष्ठी च तद् भवेत् ॥ १३२ ॥ रुचकं नाम याम्यप्रागद्वारं सकलकामदम् । एकत्रिपञ्चषष्ठयः स्युर्यत्र तःमानकम् ॥ १३३ ॥ १. 'म्यप्र' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे प्राक्पश्चिमोत्तरद्वारं चातुर्वर्ण्यस्य वृद्धिदम् । यत्र स्युर्द्वित्रिपञ्चम्यो मूषाः षष्ठी च तद् गृहम् ॥ १३४ ॥ स्यात् पूर्वदक्षिणद्वारं प्रथितं पृथुसंज्ञया । यस्मिन्नाद्याचतुःपञ्चषष्ठयस्तत् कलभं विदुः ।। १३५ ।। गुणैरुपेतं सकलैरुदग्द्वारं निकेतनम् । द्विचतुःपञ्चमीषष्ठयो यस्मिंस्तच्छलमुच्यते ।। १३६ ॥ दक्षिणं मुखमेतस्य पश्चिम वा प्रशस्यते । . चतस्रस्न्यादयो यस्मिन्नायास्यं तदुदीरितम् ॥ १३७ ॥ अप्रशस्तं वदन्त्येतत् तद्विदो भवनाधमम् । आद्यास्तिस्रः सप्तमी च मूषाः स्युर्यत्र तद् गृहम् ॥ १३८ । त्रिनाभमुत्तरद्वारं शस्तं सर्वगुणान्वितम् । आद्याद्वितुर्यासप्तम्यो यत्र तत् स्वस्तिकं स्मृतम् ॥ १३९ ॥ प्राक्पश्चिमोत्तरद्वारं चातुर्वर्येऽपि शस्यते । आद्याचतुर्थीसप्तम्यो मूषाः स्युर्यत्र वेश्मनि ॥ १४० ॥ तदिह स्थिरमित्युक्तं द्वारं चैतस्य दक्षिणम् । द्यावास्तिस्रः सप्तमी च यत्र तत् सरलं विदुः ॥ १४१ ॥ तद् भवेत् पश्चिमद्वारं सर्वदोषोज्झितं गृहम् । यत्राद्या च द्वितीया च पञ्चमी सप्तमी तथा ॥ १४२ ॥ द्विगुणं नाम तद् वेश्म द्वारं चास्य यथेप्सितम् । आघातृतीयापञ्चम्यः सप्तम्यपि च यत्र तत् ।। १४३ ॥ नाद्यं नामातिशीलाद्य(?)प्रशस्तं सर्वदेहिनाम् । द्वितीया च तृतीया च पञ्चमी सप्तमी गृहे ॥ १४४ ।। यत्र तचित्रनामेष्टद्वारं चित्रगुणैर्वृतम् । आवाचतुर्थीपञ्चम्यो यत्र स्युः सप्तमी तथा ।। १४५ ॥ तद् भ्रान्तं नाम पूर्वोदग्द्वारं भवनमृद्धिकृत् । यत्र द्वितीया तुर्या च स्यात् षष्ठी सप्तमी तथा ॥ १४६ ।। १. 'म' क. पाठः । २. 'चल', ३. 'द्यात्रिर्यास ' ख. पाठः।
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः । विधारणं गृहं तत् स्यात् सर्वकामविवर्धनम् । तृतीया यत्र तुर्या च पञ्चमी सप्तमी तथा ।। १४७ ।। तत् साधारणमित्याहुः सर्वद्वारं सुखावहम् । आद्या द्वितीया षष्ठी च सप्तमी यत्र तन्नतम् ॥ १४८ ॥ आद्या द्वितीया षष्ठी चे त्र्यंशे स्यात् सप्तमी तथा।। द्वितीया च तृतीया च ऋषे षष्ठी च सप्तमी ॥ १४९ ।। आद्या तुर्या च षष्ठी च रोगे स्यात् सप्तमी तथा ।। यत्र द्वितीया तुयर्या च स्यात् षष्ठी सप्तमी च तत् ।। १५० ॥ विशोषणं नाम गृहं दक्षिणोत्तरदिङ्मुखम् । तृतीया यत्र तुर्या च स्यात् षष्ठी सप्तमी गृहे ॥ १५१ ॥ मतीच्यमीप्सितद्वारं तद् गृहं सर्वकामदम् । यत्राद्यापञ्चमीषष्ठीसप्तम्यस्त्रिसमं हि तत् ॥ १५२ ॥ प्रभूतद्धिदं वेश्म समस्तैरन्वितं गुणैः । द्वितीयापञ्चमीषष्ठीसप्तम्यो यत्र वेश्मनि ॥ १५३ ।। तदिह स्वैरमित्याहुर्धनधान्यसुखावहम् । तृतीयापञ्चमीषष्ठीसप्तम्यो द्वारमुत्तरम् ।। १५४ ॥ पश्चिमं वा भवेद् यत्र सुप्रतीकं च वृद्धिकृत् । तुर्याद्याभिश्चतसृभिनेलमुत्तरदिङ्मुखम् ॥ १५५ ॥ आधाद्विव्यष्टमीभिः स्यात् सर्वरुग्भीतिकृत क्षयम् + । व्याप्ते पूर्वा द्वितीया च स्थाचतुर्थी तथाष्टमी ॥ १५६ ॥ आद्यातृतीयातुर्याः स्युराक्रीडे तद्वदष्टमी। याद्यास्तिस्रः क्रमाद् व्यर्थे मूषाः स्यादष्टमी तथा ॥ १५७ ।। ईशानाख्ये स्युराधाद्वित्रिपञ्चम्योऽष्टमी तथा। पूर्वोष्टमीत्रिपञ्चम्यो यस्मिंस्तत् सुखसंज्ञितम् ।। १५८ ॥ तत् पूर्वोदड्मुखं वृद्धये जायते हानयेऽन्यथा । यत्र स्युरष्टमीद्वित्रिपञ्चम्यस्तदिहाव्ययम् ॥ १५९ ।। १. ' च सप्तमी यत्र तन्नतम् । क. पाठः ।
पमिति लश्ये पठितम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
द्वारं यथेष्टमेतस्य वास्तुविद्याविदो जगुः । यस्मिन् पूर्वाष्टमीतुर्यापञ्चम्यो मगधं हि तत् ॥ १६० ॥ प्रागुद पश्चिमद्वारमिदं शंसन्ति सूरयः । यत्र द्वितुर्यापञ्चम्यो मृषाः स्युस्तद्वदष्टमी || १६१ ॥ तत् क्षिप्रं नाम सुखद् यथेष्टं द्वारमिष्यते । त्रिपञ्चम्यष्टमीतुर्या आगस्त्ये पश्चिमामुखे ।। १६२ ॥ द्वितीयायाष्टमीपष्ठ्यो यत्रैकोजं तदुच्यते । तृतीयाeाष्टमी षष्ठो यत्र तद् द्विर्गतं गृहम् ॥ १६३ ॥ द्वित्रिषष्ठोऽष्टमी चापि यस्मिंस्तल्लिहमुच्यते । आयातुर्याष्टमीषष्ठयो यत्र तत् पर्कमुच्यते ॥ १६४ ॥ षष्ठयष्टृमीद्विर्तुर्याभिः(?) स्याद् विलोमाभिर्धं गृहम् | षष्ठ्यष्टमीद्वितुर्याभिरुद्दण्डमिति कीर्तितम् ॥ १६५ ॥ यस्मिन्नाद्याष्टमीपष्ठीपञ्चम्यो मुण्डमेव तत् ।
द्विपञ्चम्यष्टमी षष्ठयो गुषा मातङ्गसंज्ञिते ॥ १६६ ॥ त्रिपञ्चम्यष्टमीषष्ठ्यो भवन्त्यस्खलनामनि । S तत् खर्वनाम तुर्याद्यास्तिस्रो यस्मिंस्तथाष्टमी || १६७ ॥ आद्याद्वितीयासप्तम्यः पिनाके स्युस्तथाष्टमी | त्रिसप्तम्यष्टमीपूर्वा यत्रोद्यन्तं तदुच्यते ॥ १६८ ॥ अष्टमीद्वित्रिपञ्चम्यो यस्मिंस्तद् विशिखं गृहम् । आद्याचतुर्थी सप्तम्यः प्रसभे स्युस्तथाष्टमी ॥ १६९ ॥ रजेद्विसप्तम्यो भूषाः स्युस्तद्वदष्टमी ।
सप्तम्यमतुर्या यत्र तद् रुचकं विदुः ॥ १७० ॥ प्राक्प्रत्यग्द्वारमेतस्य शूद्राणामतिवृद्धिदम् ।
सप्तम्याधाष्टमी भूषा पञ्चम्यपि च सैफले ॥ १७१ ॥ वामे द्विपञ्चसप्तम्यो भूषा ज्ञेयास्तथाष्टमी । त्रिपञ्चसप्तम्यष्टम्यो यस्मिंस्तद् वर्धमानकम् ।। १७२ ।।
S इदमक पुस्तके लुप्तम्। लक्षणवाक्यपाठानुसारेण पूर्वत्र लक्ष्यनिर्देशे अस्खलमिति पाठ्यम् ।
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चतुःशालविधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः । विशेषतो वृद्धिकरं वैश्यानामिति तद्विदः । चतुःपञ्चाष्टसप्तम्यो यस्मिस्तद् धावनं भवेत् ॥ १७३ ॥ सप्तम्याद्याष्टमीषष्ठ्यो यत्र तत् सहमुच्यते । द्विसप्तपष्ट्यष्टमीभिमूषाभिश्चयनं भवेत् ॥ १७४ ॥ षष्ठ्यष्टमीद्विसप्तम्यो (?) यस्मिंस्तत् सेव्यमीरितम् । यत्र तुर्याष्टमी षष्ठी सप्तमी चेति तत् कलम् ॥ १७५ ॥ तीर्णे षष्ठयष्टमीपञ्चसप्तभ्यः सर्वकामदे । यत्रायाः पञ्च तत् प्रोक्तं कानलं सर्वकामदम् ।। १७६ ॥ एकद्वित्रिचतुःषष्ठयो यत्र तल्लोलुपं स्मृतम् । आद्यास्तिस्रः पञ्चपष्ठयो यस्मिस्तजिह्ममुच्यते ।। १७७ ।। प्रगाले पञ्चमीषष्ठीतुर्यापूर्वाद्वितीयकाः । त्रितुर्यापञ्चमीषष्ठयः साद्याः स्युः सालिनाभिधे ॥ १७८ ।। यत्र द्वित्रिचतुःपञ्चपष्टयस्तजिनमुच्यते । एकद्वित्रिचतुर्थ्यः स्युः सुजये सप्तमीयुताः ॥ १७९ ॥ पञ्चमीसप्तमीद्वित्रिपूर्वाः स्युर्विजयाभिधे । यत्रैकद्विचतुःपञ्चसप्तम्यो यामनाम तत् ।। १८० ॥ यत्रैकत्रिचतुःपञ्चसप्तम्यस्तज्जयं विदुः।। मूषा द्वित्रिचतुःपञ्चसप्तम्यो (जाज्ञा)तसंज्ञिते ।। १८१ ॥ आद्यास्तिस्रस्तथा षष्ठीसप्तम्यो यत्र तज्जपम् । आधाद्वितुर्याषष्ठीभिः सप्तम्या च तपं विदुः ॥ १८२ ।। पष्ठीवितुर्यासप्तम्यो जाये?मे)पूर्वान्विता मताः । द्वित्रितुर्यास्तथा षष्ठीसप्तम्यौ वरसंज्ञिते ।। १८३ ॥ चरं तद् यत्र पूर्वे द्वे पञ्चपट्सप्तमीयुते । *चैत्ये स्यात् सप्तमी षष्ठी पञ्चम्याद्या तृतीयका ॥ १८४ ॥ विरोपे द्वित्रिपञ्चम्यः स्यात् पष्ठी सप्तमी तथा । चतुर्थी पञ्चमी पष्ठी सप्तम्याद्या च सुप्रभे ॥ १८५ ।। १. 'लुभं', २. 'पर' स्व. पातः । क. पुस्तकदृष्टलक्ष्योद्देशरीत्या च 'वैरे' इति पाठ्यम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे प्रभाख्ये द्विचतुःपञ्चपप्ठ्यः स्युः सप्तमी तथा । त्रिचतुःपञ्चसप्तभ्यः षष्टी च स्यात् प्रतीक्षके ।। १८६ ॥ आद्याश्चतस्रो यत्र स्युः साटम्यः श्रमिणं हि तत् । स(प्त?)पूर्वा द्वित्रिपञ्चम्यो युक्तनानि तथाष्टमी ।। १८७ ।। शान्ते द्वितुर्यापञ्चम्यः पूर्वा स्यादष्टमी तथा । पूवोत्रितुयोपञ्चभ्यः साटन्यत्रतसंज्ञिले ।। १८ ॥ विनोदे द्वित्रिपञ्चम्पश्चतुर्थी चाष्टमी तथा। सन्दोहे त्वष्टमीषष्टयौ तिखः पूर्वादिकास्तथा ।। १८० ।। आधाद्वितुर्याषष्ठीभिरष्टम्या विश्रदोहनम् । पष्ठयष्टमीत्रितुर्याद्या यस्मिंस्तद् विद्रुतं विदुः ।। १९० ।। द्वित्रितुर्याष्टमीपष्ठ्यो यत्र तत् सततं मतम् । आधाद्विपञ्चमीषष्टयस्ततनाम्नि तथाष्टमी ।। १९१ ।। आद्यात्रिपञ्चमीषष्ठ्यो व्याकुले स्युस्तथाष्टमी। द्वित्रिपञ्चचतुष्पष्ठ्यो विज्ञेया लीनसंज्ञके ।। १९२ ।। तुर्याद्यापञ्चभीषष्ठ्य आलीने स्युस्तथाष्टमी । द्वितुर्यापञ्चमीषष्ट्यो विचित्रे तद्वदष्टमी ।। १९३ ॥ आद्याश्चतस्रो मूषाः स्युः साष्टम्यो लम्बनाइये । आद्यास्तिस्रोऽष्टमी तद्वत् सप्तभ्यपि भवेत् खरे ।। १९४ ॥ शेखरे सप्तमीतुर्याद्वितीयाद्यास्तथाष्टमी। विबुधे त्वष्टमी तुया तृतीयाद्याथ सप्तमी ।। १९५ ।। चैत्राख्ये यष्टमीतुर्यासप्तम्यः सतृतीयकाः । आधाद्विपञ्चसप्तम्यो व्यासक्ताख्थे तथाष्टमी ।। १९६ ॥ आधात्रिपञ्चसप्तम्यः साष्टभ्यः सम्पदाभिधे । यत्र द्विव्यष्टमीपञ्चसप्तम्यस्तत् पदं विदुः॥ १९७ ॥ तुर्याद्यापञ्चमी(पष्टी)सप्तम्यस्त्रिशिखे तथा। द्विपञ्चम्यष्टमीतुर्यासप्तभ्यश्चतुराभिधे ।। १९८ ॥ त्रिसप्तम्यष्टमीतुर्यापञ्चम्यः प्रान्तनामनि । आधाद्वितीयासप्तभ्यः पप्ठ्ययम्यौ च सुस्थिते ।। १९९ ॥
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चतुःशाल विधानं नामैकोनविंशोऽध्यायः ।
दुः स्थितं यत्र षष्ट्या चतुर्थी सप्तमी तथा । स्थितेऽष्टमीद्विसप्तम्यस्त्रिषयावपि च स्मृते ॥ २०० ॥ चक्रे षष्ट्यष्टमीतुर्या सप्तम्याद्याः प्रकीर्तिताः । के द्वितीयासप्तम् पष्ट्घटम्यौ चतुर्थिका । २०१ ॥ लघेऽष्टमीत्रि सप्तम्यस्तुपष्ठयौ च कीर्तिते । पञ्चमीसप्तमपिष्टच लाभे पूर्वाष्टमी तथा ॥ २०२ ॥ द्विपञ्चसप्तम्यभ्यः षष्ठी संपर्क संज्ञिते । त्रिपञ्चपलम्यो सूलनान्त्रि तथाष्टमी ॥ २०३ ॥ स्युरष्टसप्तपदपञ्चचतुर्थ्यस्त्वव्ययामित्रे |
पूर्वाद्य यत्र किन्न नाम त गृहम् ॥ २०४ ॥ यत्राद्याः मञ्च सप्तम्या सह तत् कौस्तुभं विदुः । पूर्वाद्वित्रिचतुःषष्ठीसप्तम्यो हर्म्यसंज्ञिते । २०५ || सप्तमी पञ्चमी पष्ठद्विविपूर्वाश्च धार्मिके । निपधे द्विचतुःपञ्चपट्याद्याः सप्तमी तथा ॥ २०६ ॥ त्रिचतुःपञ्चषट्सप्तम्याद्याः स्युर्यत्र तद् वसु । साटी के त्रिचतुःपञ्चद्विषष्ठयः स्युस्तथाष्टमी || २०७ ॥ पञ्चम्यो वामनं नाम तद विदुः । आद्याद्वित्रिचतुःपयः साष्ट्रस्यो गॉरनामनि ॥ २०८ ॥ आद्याहित्यष्टमीपयः पञ्चमी चास्थिराभिधे । क्रमिणे त्रिचतुःपञ्चपूर्वाः षष्ठयष्टमी तथा ।। २०९ ॥ खले पूर्वाष्टषष्टीर्याः पञ्चमीयुताः । विवरे त्रिचतुःपञ्चषयः स्युस्तथामी || २१० ॥ आद्याद्वित्रिचतुःसप्तम्यष्टम्यो बालिशाभिषे । पूर्वाष्टद्वित्रितपञ्चम्योधनानि ॥ २११ ॥ त्रिपुष्टे द्विचतुःपञ्चसप्तम्याद्यास्तथाष्टमी । मन्दिरे त्रिचतुःपञ्चसप्तम्याद्यास्तथाष्टमी ॥ २१२ ॥
१. 'नक्रे' ख. पाठ:
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समराङ्गणसूत्रधारे
भवे द्वित्रिचतुःपञ्चम्यष्टम्यः सप्तमी तथा । अशोके द्वित्रिषट्सप्तम्यष्टभ्यः पूर्वया सह || २१३ | भास्वरे द्विचतुःषष्ट्यः सप्तम्याद्याष्टमीयुता । त्रिसप्तम्यष्टमी षष्ठीतुर्याद्याश्रौष्यसंज्ञिते || २१४ ॥ द्वित्रितुर्याष्टमीपष्ट लातव्ये सप्तमी तथा । द्विसप्तम्यष्टमीषष्ठीपञ्चम्याद्याच सुस्वने || २१५ ।। त्रिपञ्चम्यष्टमी षष्ठी सप्तम्याद्यास्तथा मखे | द्वित्रिसप्ताष्टमी षष्ठीपञ्चम्यो वाजिसंज्ञिते ।। २१६ ॥ नेत्रे पूर्वाचतुःपञ्चषट्सप्तम्योऽष्टमी तथा । भ्रमेयुर्द्विचतुःपञ्चषट्सप्तम्योऽष्टमी तथा || २१७ ॥ घोषे च त्रिचतुःपञ्चषट्सप्तम्योऽष्टमी तथा । एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्तम्यो भवन्ति चेत् || २१८ ॥ मूषास्तदानीं भाण्डीरमिति प्राहुर्निवेशनम् । एकद्वित्रिचतुः पञ्चषष्ठ्यो यत्र तथाष्टमी || २१९ ॥ तद्वैसनमिति प्राहुर्वास्तुविद्याविदो गृहम् । एकद्वित्रिचतुः पञ्चसप्ताष्टम्यो गृहे यदि ।। २२० ॥ मूषा भवन्ति तद् विद्यात् प्रस्थमित्यभिधानतः । एकद्वित्रिचतुर्भ्यः स्युः पष्ठी सप्तम्यथाष्टमी || २२१ ॥ यस्मिन् भूषास्तत्राहुः प्रतानमिति मन्दिरम् | चतुर्थीवर्जिताभिः स्यान्मूपाभिर्वेश्म वासुलम् || २२२ ।। कटं तृतीयाहीनाभिर्विज्ञातव्यं निवेशनम् । मूषाभिरद्वितीयाभिर्लक्ष्मीवासमुदाहृतम् || २२३ || सुगन्धान्तमनाद्याभिरष्टाभिः सर्वभद्रकम् । इत्येकभद्रप्रभृतीनि वेश्मान्युक्तानि यावगृहमष्टभद्रम् । एतांश्चतुश्शालगृहप्रभेदान् यो वोत्ते पूजां स लभेत लोके ॥ २२४ ॥
१
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे चतुश्शालविधानं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥
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अथ निनोचादिफलानि नाम विंशोऽध्यायः ।
अग्रतःपृष्ठतःशब्दौ द्वारेण नियती गृहे । यतो द्वारं तदनं स्यात् पृष्ठं पृष्ठमुदाहृतम् ॥ १॥ द्रव्यायामोदयव्यासैः शाला यत्राधिका भवेत् । वामा वा दक्षिणा वापि अग्रतः पृष्ठतोऽपि वा ॥ २ ॥ हन्ति द्रव्याधिका द्रव्यमायामाभ्यधिका कुलम् ।। उच्छ्रायाभ्यधिका पूजां सन्ततिं विस्तराधिका ॥ ३ ॥ येस्य निन्ना भवेद् भूमिर्वामा दक्षिणकार्थला । बहुदोषं हि तद् वास्तु पुत्रपौत्रविनाशकम् ॥ ४ ॥ यस्य दक्षिणका निम्ना भूमिर्वामास्थला भवेत् । यत्नेनापि कृतं तत् स्याद् भतुरल्पफलोदयम् ॥ ५॥ पश्चिमेन भवेनिम्ना भूमिः स्थूलतराग्रतः । यत्र तत् सर्ववर्णेषु सर्वकामप्रदं गृहम् ।। ६ । अग्रतश्च यदा हीनं पृष्ठतोचि तं भवेत् । भवनं स्वामिनो ह्याशु विरागव्यसनाय तत् ॥ ७ ॥ सच्छत्रं च सकक्षं च तथैव सपरिक्रमम् । सप्रभं च समाख्यातं गृहमत्र चतुर्विधम् ॥ ८ ॥ बाह्योदकं च सच्छत्रं सकक्षमुभयोदकम् । सावश्यायं तु यद् वेश्म तद् विद्यात् सपरिक्रमम् ॥ ९ ॥ एकेनाप्यत्र मुखतः पृष्ठतः पार्थतोऽपि वा। समभं स्यादलिन्देन लक्षणं तु पृथक्पृथक् ॥ १० ॥ एकोलिन्दस्तु कर्तव्यो मुखतो दक्षिणेन वा। मुखे राजप्रसादाय दक्षिणेऽर्थविवर्धनः ॥ ११ ॥
१. 'सा', २. 'द्वारे ' ख. पाठः । ३. 'वृ' क. पाठः । ४. 'या' ख. पाठः । ५. 'प्रायो नि ख. पाठः ! ६. 'स्तु क. पाठः । ७. 'स्याइक्षिणिका' ख. पाठः । ८. 'स्थ' क. पाठः । ९. 'स', १० 'ह्या', ११. 'स्याभ्यं' ख, पाठः । १२. 'एका', पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे वामतस्तु न कर्तव्य एकोऽलिन्दो न पृष्ठतः । वामतोऽर्थविनाशाय पृष्ठतो म्रियते गृही ॥ १२ ॥ यस्य स्यातामलिन्दो द्वौ गृहस्योभयपार्श्वयोः । धनलाभं विजानीयात् तत्प्रवेशे कुटुम्बिनः ॥ १३ ॥ यस्य स्यातामलिन्दी द्वावग्रतः पृष्ठतस्तथा । धनधान्यमवामोति सौभाग्यं चापि तद्गृही ॥ १४ ॥ यस्य वा हलकालिन्दो मुखतो दक्षिणेन वा। राजप्रसादेस्तत्स्वामी धनधान्यश्च वधते ।। १५ ।। वामतो हलकालिन्दो मुखतश्च कृतो यदि । राजदण्डभयं विद्यात् पत्नी चास्य विनश्यति ।। १६ ।। दक्षिणो हलकालिन्दः पश्चिमश्च कृतो यदि । ततः परापि वृद्धिः स्यात् सौभाग्यं च परं भवेत् ।। १७ ।। पृष्ठतो हलकालिन्दो वामतश्च कृतो यदि । कलत्रमरणं तत्र भवेद् दुर्भगतापि च ।। १८ ।। पृष्ठतो वामतश्चैव पुरतो दक्षिणेन वा ! अलिन्दस्य कृतस्याथ वक्ष्यामोऽनुक्रमात् फलम् ॥ १९ ॥ पृष्ठतो दारनाशाय धनलाभाय दक्षिणे । अग्रे राजप्रसादाय वामतोऽर्थविनाशनः ॥ २० ॥ समापितं तु यद् वास्तु सर्वतः परिशोधितम् । स्वामिनस्तद् भवेद धन्यं स्थपतेश्च यशस्करम् ॥ २१ ॥ अर्जितं वर्धते तस्य वृद्धिश्च स्यान्नृपश्रिया । धर्मकामाश्च वर्धन्ते कीर्तिरायुयशो बलम् ।। २२ ।। नित्यं प्रक्रीडितजनं नित्यं सन्निहितथि तत् ।। नृत्यवादित्रगीतेश्च नित्यामोदं निरामयम् ॥ २३ ॥ सत्र नैकप्रकाराणि त्रिशालान्युपलक्षयेत् । प्रकारेषु च सर्वेषु निन्द्यौ याम्यापरोज्झितौ ॥ २४ ॥ 1. 'नाशाय', २. 'र्चि', ३. 'न', ४. 'हितं स ' ख. पाठः ।
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निम्नाच्चादिफलानि नाम विशोऽध्यायः । एकस्मिन् स्वामिनो मृत्युरपरस्मिन् धनक्षयः । पूर्वोत्तरोज्झिती धन्यो संज्ञाश्चैषां प्रकारतः ।। २५ ।। स्युरुदक्पूर्वयाम्याप्यशालाहीनान्यनुक्रमात् । हिरण्यनाभसुक्षेत्रचुल्लीपक्षघ्ननामभिः ॥ २६ ॥ विनियोगो यथालिन्दमलिन्दव्युटिरिच्छया । वेश्मान्यथ द्विशालानि कीर्त्यन्ते पट् यथाक्रमम् ॥ २७ ॥ दिकर्णेषु द्विशालानि तत्कान्येषु निर्दिशेत् । संमुखे द्वे समेतानि पढेतान्युपलक्षयेत् ॥ २८ ।। सिद्धार्थ दक्षिणाप्रत्यगे भवन्त्यत्रार्थसिद्धयः । यममूयेमुदक्प्रत्यक् तत्र मृत्युभयं सदा ॥ २९ ॥ प्रागुदीच्योस्तु दण्डः स्याद् दण्डस्तत्र सदा भवेत् । प्राग्याम्ययोस्तु वाताव्यं वास्तु तत् कलहोत्तरम् ॥ ३० ।। उदग्दक्षिणसाम्मुख्ये द्विशालं काचवास्त्विति । तत्र ज्ञातिविरोधः स्यान्न तत् कुयोत् कदाचन ।। ३१ ॥ प्राक्प्रतीच्योस्तु साम्मुख्ये चुल्लीवास्तु विनिर्दिशेत् । तत्र वित्तक्षयो घोरः कदाध्येतन कारयेत् ।। ३२ ॥ चतुश्शालं त्रिशालेन प्रान्तं प्राकारवर्तिना। पूर्वेण सप्तशालेषु मणिच्छन्द इति स्मृतम् ।। ३३ ॥ अन्यानि च त्रीण्याहुः प्रान्तमेव प्रदक्षिणम् । अपरं परिधानं च सपक्षमिति तानि च ॥ ३४ ॥ एकभित्ती तु शाले द्वे गृहसंघट्ट उच्यते । न तं कुर्यात् स हि सदा बन्धदोपवधप्रदः ॥ ३५ ॥
१. 'स्थि', २. '' ख. पाठः । ३. 'व', ४. 'स' क. पाठः । ५. 'क्यस्तित्रा', ६. 'व' . पा। ७. 'सि' क. पाठः। .
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११२.
समराङ्गणसूत्रधारे इत्युच्चनीचगृहभागफलं प्रदिष्ट
मस्मिन्नलिन्दफलमप्यशुभं शुभं च । यद् द्वित्रिशालगृहलक्ष्म तदप्यमुष्मिन्
सामान्यतो द्वितययोगभवं च सम्यक् ॥ ३६ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे निम्नोच्चफलच्छवादिसंज्ञालिन्दफलसद्वास्तुफलद्विशालत्रिशा
लगृहसङ्ग्रष्टलक्षणफलानि नाम विंशोऽध्यायः ।।
अथ दासप्ततित्रिशाललक्षणं नामैकविंशोऽध्यायः ।
अथ द्वासप्तते—मस्त्रिशालानां यथाक्रमम् । अभिधानानि कात्स्न्येन लक्षणानि पृथक्पृथक् ॥ १॥ मुख्यानि तेषु चत्वारि कथ्यन्ते तानि नामतः । हिरण्यनाभं सुक्षेत्रं चुल्ली पक्षन्नमेव च ॥ २ ॥ हिरण्यनाभमुत्कृष्टं हीनमुत्तरशालया। तत् स्याद् धनप्रदं भर्तुः सुक्षेत्रं पूर्वया विना ॥ ३ ॥ मुक्षेत्रं लक्षणोपेतमृद्धिद्धिप्रदं विभोः । चुल्ली दक्षिणया हीना शालया वित्तनाशिनी ॥४॥ पक्षघ्नं पश्चिमाहीनं वैरकृत् कुलनाशनम् । अलिन्दयोगादेतेषां लघुप्रस्तारयोगतः ॥ ५॥ मूषायोगाच्च भेदाः स्युरष्टादश पृथक्पृथक् । जाम्बूनदं हिरण्याख्यं रुक्माख्यं हेमसंज्ञितम् ॥ ६ ॥ कनकं काञ्चनं स्वर्ण सुवर्ण च ततः परम् । सन्तापसंझं सारं च तथा चामीकराह्वयम् ॥ ७॥ तपनं तापनीयं च शातकुम्भमथापि च । हिरण्यनाभं कल्याणं भूषणं भूतिभूषणम् ॥ ८ ॥ १. 'भं', २. 'भूमिभू' ख. पाठः।
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द्वासप्तत्रिशाललक्षणं नामैकविंशोऽध्यायः । ११३ भेदा हिरण्यनाभस्येत्यष्टादश भवन्त्यमी । नागं सूर्यप्रभाख्यं च मत्तवारणकं तथा ॥ ९ ॥ चतुर्थ केसरीत्युक्तं वासवं चन्द्रमेव च । हरिहंसं सारसा(ण्डं?ख्यं) कुञ्जरं तोयदं तथा ॥ १० ॥ मेघमालाभिधानं च धारासारं महोदरम् । कर्दमं नामतश्चान्यत् सुक्षेत्र प्रकरं तथा ॥ ११ ॥ सुक्षेत्रानुगतान्याहुस्तथान्यद धान्यपूरकम् । चुल्लीभेदानथ मस्तषामाद्यं भुजङ्गमम् ॥ १२ ॥ निर्जीवाख्यं विहङ्गं च नकुलं पन्नगाह्वयम् । शतच्छिद्रं च सर्प च कोपसंझं भगन्दरम् ॥ १३ ॥ उद्वेजनाख्यं सन्न्यासं निस्तोपं करुणाननम् । वारणं दारणं चुल्ली ककुदं केन्दरं तथा ॥ १४ ॥ इति चुल्लीप्रभेदेषु मन्दिराणि दशाट च । ब्रूमः पक्षनसंबद्धगृहनामानि सम्प्रति ॥ १५ ॥ राक्षसं * ध्वान्तसंहारं देवारि सुरदारुणम् । घोषणं व्याघ्रशार्दूले शोषणाख्यं विशोषणम् ।। १६ ॥ मत्तदं च निरानन्दं शाकुनं विघ्ननिणे । रिपुसंहदपक्षन्ने सुतघ्नं वैरिपूरणम् ॥ १७ ॥ इत्यष्टादश पक्षनभेदाः प्रोक्ता यथाक्रमम् । हिरण्यनामभेदेषु धन्यं जाम्बूनदं गृहम् ॥ १७ ॥ आद्याद्याभिश्चतसृभिर्मूपाभिरुपलक्षितम् । यत्राद्याद्वित्रिपञ्चम्यो हिरण्यं नाम तच्छुभम् ॥ १९ ॥ पञ्चम्याद्याद्वितुर्याभिः स्याद् रुक्मं रुक्मदं गृहम् । आयात्रिर्यापश्चम्यो यत्र तद्धेमसंज्ञितम् ॥ २० ॥
1. 'च', २. 'च्छत्रं' ३. 'ना', ४. 'त', ५. 'कु', ६. 'ह', ७. मात् परि' ख. पाठः । ८. 'अ' क. पाठः ।
लक्षणे तु ध्वान्तसंघातमिति ख. पुस्तके पश्यते ।
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समरामणसूत्रधारे द्वित्रितुर्यापञ्चमीभिः कनकं कनकावहम् । सायाभिर्द्वित्रिषष्ठीभिः काञ्चनं काश्चनप्रदम् ॥ २१ ॥ आद्याद्वितुयोषष्ठीभिः स्वर्ण स्वर्णविद्धये। सुवणेमाद्यात्रिचतुःषष्ठीभिः स्यात् सुवणेदम् ॥ २२ ॥ स्याद् द्वित्रितुर्याषष्ठीभिः सन्मार तापशान्तिऋत् । आधाद्विपञ्चमीषष्ठयो यत्र तत् सारमुत्तमम् ।। २३ ।। चामीकरं त्रिषष्ठ्याद्यापञ्चमीभिहोत्तमम् । द्वित्रिषट्पञ्चमीभिः स्यात् तपनं नाम मन्दिरम् ।। २४ ॥ पट्तुर्याद्यापञ्चमीभिस्तापनीयमुदाहृतम् । शातकुम्भं द्विषट्पञ्चचतुर्थीभिर्भवेद् गृहम् ।। २५ ।। हिरण्यनाभं त्रिचतुःपञ्चपष्ठीभिरीरितम् । कल्याणमाद्यात्रिचतुःपञ्चषष्ठीभिरुच्यते ।। २६ ॥ पटपञ्चद्वित्रितुर्याभिभवेद भूषणसंज्ञितम् । आधाद्वित्रिचतुःपञ्चषष्ठीभिभूतभूपणम् ॥ २७ ॥ अथ सुक्षेत्रभेदानां लक्षणान्यभिदध्महे । यत्राद्याद्वित्रितुर्याभिस्तनाग नाम मन्दिरम् ।। २८ ।। यत्रायाद्वित्रिपञ्चम्यस्तत् भूर्यप्रभमुच्यते । आधाद्वितुयोपञ्चम्यो यत्र तन्मनवारणम् ।। २९ ॥ आद्यात्रितुर्यापञ्चम्यो यत्र तत् केसरी विदुः । वासवं पञ्चमीतुर्याद्वितीयाभिस्तदुच्यते ॥ ३० ।। षष्ठयाद्यात्रिद्वितीयाभिरिन्द्रमन्दिरमीरितम् । आधाद्वितुर्यापष्ठीभिहाशिमंशमुदाइलम् ॥ ३१ ॥ आधावितुर्यापष्ठीभिहंससंज्ञं निवेशनम् । षष्ठीद्वित्रिचतुर्थीभिः सारसं नामतो भवेत् ।। ३२ ॥ आधाद्विपश्चषष्ठीभिः कथयन्तीह कुञ्जरम् । आयात्रिपञ्चषष्ठीभिर्विज्ञेयं तोयदं गृहम् ॥ ३३ ॥ लक्ष्ये तु भूतिभूषणमिति पठ्यते ।
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द्वासप्तत्रिशाललक्षणं नामेकविंशोऽध्यायः ।
मेघमालं त्रिपदपञ्चद्वितीयाभिरुदाहृतम् । धारासारं चतुःपञ्चपडायाभिर्भवेद् गृहम् || ३४ || द्विचतुःपञ्चषष्ठीभिर्महोदरमिति स्मृतम् । कर्दमं नाम पञ्चभिर्जयावहम् ।। ३५ ।। पट्पञ्चतुर्याच्याद्याभिः सुक्षेत्रं स्याद् धनप्रदम् । द्वित्रिपदपञ्चतुभिर्भवेत् प्रकरमृद्धिदम् || ३६ || आद्यामिश्र पताभि (?) र्विज्ञेयं धान्यपूरकम् । अष्टादशैते क्षेत्रभेदाः प्रकीर्तिताः ॥ ३७ ॥ आद्याद्वित्रिचतुर्थीभिर्मृपाभिः स्याद् भुजङ्गमम् । निर्जीवमात्रापञ्चत्रिद्वितीयाभिनिवेशनम् || ३८ ॥
i
आद्याद्विपञ्चतुर्याभिर्व (हन्तीभिर्विदन्तीह विहङ्गमम् । पञ्चाद्यात्रिचतुर्थीभिर्मृपाभिर्नकुलं विदुः ।। ३९ ।। पञ्चद्वित्रिचतुर्थीभिः पचगं नासो भवेत् । शतच्छिद्र पडायात्रिद्वितीयाभिर्भवेद् गृहम् ॥ ४० ॥ आग्राद्वितुर्यापष्ठीभिः सर्वमित्यभिधीयते । आद्यात्रिषट्चतुर्थीभिः कोपमित्यभिशब्दितम् ॥ ४१ ॥ षट्चतुस्त्रिद्वितीयाभिर्भवेद् वेश्म भगन्दरम् । आद्याद्विपञ्चषष्ठीभिरुद्वे जनमुदाहृतम् ।। ४२ ।। सन्न्यासमाद्यापञ्चत्रिषष्ठीभिर्भवनाधमम् ।
द्विपदपञ्चमीभिस्तु निस्तोयमभिधीयते ॥ ४३ ॥ तुर्याद्यापञ्चपष्ठीभिः करुणावते । द्विचतुः पञ्चषष्ठीभिर्वारणं मुखारणम् ॥ ४४ ॥ त्रिचतुःपञ्चषष्ठीभिर्दारणं श्रीविदारणम् । चुल्लयाद्यात्रिचतुःपञ्चषष्ठीभिर्वित्तनाशनम् ॥ ४५ ॥
१. ' वि ख. पाटः | २. ' भवेत् क. पाठ: । ३. 'द्याभिर्द्विती', ४. 'ना', ५. 'तुल्याया ख. पाठ: ।
+ कश्यपाठानुरोधेन निम्तोषमिति पाठयम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पदपश्चद्वित्रितुभिः ककुदं नाम मन्दिरम् । कन्दरं षट्चतुःपञ्चत्रियाधाभिगृहाधमम् ॥ ४६ ॥ अथाष्टादश कथ्यन्ते भेदाः पक्षघ्नसंश्रयाः । तेषु राक्षसमाद्याद्वित्रिचतुर्थीभिरुच्यते ।। ४७ ॥ पञ्चाद्याद्वितृतीयाभिर्धान्तसंघातमीरितम् । पञ्चाद्याद्विचतुर्थीभिर्देवारीति निगद्यते ।। ४८ ॥ आद्यात्रिपञ्चतुर्याभिर्विज्ञेयं देवदारुणम् । पञ्चत्रिद्विचतुर्थीभिर्घोषणं दुःखघोषणम् ॥ ४९ ॥ षडाद्याद्वितृतीयाभिर्व्याघ्रमित्यभिधीयते । आधाद्वितुर्याषष्ठीभिः शार्दूलं स्यान्निवेशनम् ॥ ५० ॥ आद्यात्रितुर्याषष्ठीभिः शोषणं पुत्रशोषणम् । पतुर्याद्वितृतीर्याभिर्विजानीयाद् विशोषणम् ।। ५१ ॥ आधाद्विपञ्चषष्ठीभिमत्तदं नाम मन्दिरम् । निरानन्दाख्यमाद्यात्रिपञ्चषष्ठीभिरुच्यते ॥ ५२ ।। पञ्चषद्वितृतीयाभिः शाकुनं नामतो भवेत् । विघ्नमाद्याचतुःपञ्चषष्ठीभिर्विघ्नवर्धनम् ।। ५३ ॥ निणं षट्चतुःपञ्चद्वितीयाभिरसौख्यकृत् । त्रिचतुःपञ्चषष्ठीभिर्वदन्ति रिपुसंहदम् ॥ ५४ ॥ षट्पञ्चतुर्याच्या(घा)भिः पक्षनं सुतनाशनम् । षट्पञ्चद्वित्रितुर्याभिः सुतघ्नं सुतसूदनम् ॥ ५५ ॥ षट्पञ्चद्वित्रितुर्याद्या यत्र तद् वैरिपूरणम् । पक्षघ्नस्यानुगान्येवं गृहाण्यष्टादश क्रमात् ॥ ५६ ।। चतुराद्यास्त्रिशालेषु मूषा बाह्या न चान्तरा । स्याद् विनाद्यां द्वितीयां च त्रिशालं पञ्चभद्रकम् ॥ ५७ ॥ बाह्यतः क्रममुत्सृज्य त्रिशालविधिरीरितः। 9. 'पो' क. पाठः । २. 'के', ३. 'विधाले वि' ख. पाठः ।
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द्विशालगृहलक्षणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः । हिरण्यनाभादिनिकेतनानां चतुष्टयस्यैवममी प्रकाराः। द्विसप्ततिः कृत्स्नतयोपदिष्टाः प्रत्येकमष्टादशभेदक्लृप्ताः ॥ ५८॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवावरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
द्वासप्ततित्रिशाललक्षणं नामकविंशोध्यायः ।।
अथ द्विशालगृहलक्षणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ।
द्विशालानि द्विपञ्चाशत् स्युः शुभान्यशुभानि च । लक्षणानि क्रमात् तेपामिदानी सम्प्रचक्ष्महे ॥१॥ सिद्धार्थ यममूर्य च दण्डाख्यं वातसंज्ञितम् । चुल्ली काचं च मुख्यानि द्विशालानि षडेव हि ॥ २॥ अनेकभेदभिन्नानि लघुप्रस्तारयोगतः । मूषाभेदक्रमेण स्युर्भेदाभेदक्रमेण तु ॥ ३ ॥ तथा निलीनकरणाद् वीथिकालिन्दमार्गतः । प्राग्नीवादिविधानेन द्वैशाल्यादिविपर्ययात् ॥ ४ ॥ यथासम्भवमेतानि कथयामः समासतः । निर्वाहतश्च मूषाणामनिर्वाहाच्च नामतः ॥ ५ ॥ छन्दतो गुणतो रूपादशुभानि शुभानि च।। हितार्थाय नरेन्द्राणां वर्णिनां लिगिनामपि ॥ ६ ॥ हस्तिनी महिषी चेति द्वे शाले यत्र वेश्मनि । तत् सिद्धार्थमिति ज्ञेयं वित्तसम्पत्तिकारकम् ॥ ७॥ मृत्युदं महिषीगावीभ्यां भवेद् यमसूर्यकम् । दण्डं स्याच्छगलीगावीशालाभ्यां दण्डभीतिदम् ॥ ८ ॥ वातं करेणुच्छगलीयुक्तमुद्वेगकारकम् । महिष्यजाभ्यामुद्वेगकरी चुल्ली धनापहा ॥९॥
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समराङ्गणसूत्रधारे काचं करेणुगावीम्यां सुहृत्पीतिविनाशनम् । एकमूषममूपं च न द्विशालेषु कारयेत् ॥ १० ॥ व्यत्यासात काचचुल्ल्योश्च सर्वाभिस्तिमृभिस्तथा । चत्वार्याद्यानि भिद्यन्ते लघुप्रस्तारयोगतः ॥ ११ ॥ प्रत्येकमेकादशधा मन्दिराण्यभिधानतः । अन्ये चतुधो भिद्यते प्रत्येकं द्वे निवेशने ॥ १२ ॥ एषां मूषा भिदाभेदात् तद्वाद्यावाहहेतुकाः। वसुधारं भवेत् तेषामाद्यं सिद्धार्थकं ततः ॥ १३ ॥ कल्याणकं शाश्वतं च शिवं कामप्रदं तथा । स्त्रीदं शान्तं निष्कलङ्कं धनाधीशं कुबेरकम् ॥ १४ ॥ सिद्धार्थमनुजान्येवमेतान्येकादश क्रमात । संहारं यमसूर्ये च कालं वैवस्वतं यमम् ॥ १५ ॥ करालं विकरालं च कवन्धं मृतकं शैवम् । यमसूर्यस्य भेदाः स्युः सानो महिषं तथा ॥ १६ ॥ प्रचण्डचण्डे दण्डाख्यमुद्दण्डं काण्डकोटरे । विग्रहं निग्रहं धूम्र निर्धूमं दन्तिदारुणम् ॥ १७ ॥ एकादशामी दण्डस्य भेदा दण्डभयप्रदाः । मरुत्पवनवाताख्यान्यनिलं सप्रभञ्जनम् ॥ १८ ॥ धनौर्यम्बुदविध्वंसि * प्रलयं कलहं कलिः । कलिचुल्ली च वातस्य भेदा उद्वेगदायकाः ॥१९॥ रोगं चुल्ल्यनलं भस्म चुल्ल्या भेदचतुष्टयम् । काचस्य तु च्छलं काचं कुलघ्नं । च विरोधि च ॥ २० ॥ द्वापञ्चाशद् द्विशालानाममी भेदाः प्रकीर्तिताः । ब्रूमः साम्प्रतमेतेषां लक्षणानि पृथक्पृथक् ॥ २१ ॥
१. 'दत', २. 'कः । ', ३. 'शिवम् ', ४. 'म', ५. 'नार्या ' क. पाठः । ६. 'लं' ख. पाठः ।
लक्षणश्लोके एतत्स्थाने रोगमिति पठयने । + लक्षणपाठरीत्या तु कुलहमिति पाठयम् ।
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द्विशालगृहलक्षणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः । आद्याद्वितीये वहतो यत्र मूपे धनप्रदे । वसुधाराभिधानं तद् गृहं सर्वार्थकानुगम् ।। २२ ।। आद्यावृतीये वहतो यत्र सिद्धार्थकं हि तत् । सर्वोपद्रवनिर्मुक्तं सिद्धिकृञ्चिन्तितार्थकृत् ।। २३ ॥ द्वितृतीयं वहन्मूषं भवेत् कल्याणमृद्धिकृत् । वहदाद्यचतुर्थीकं शाश्वतं गृहमुत्तमम् ॥ २४ ॥ शिवं द्वितीयातुर्याभ्यां वहन्तीभ्यां सुखपदम् । कामदं त्रिचतुर्थीभ्यां भवेच्चिन्तितकामदम् ॥ २५ ॥ आधाद्यामि(सुस्तु) तिसृभिः स्त्रीप्रदं संप्रदं (१) प्रभोः । आधाद्वितीयातुर्याभिः शान्तं शान्तिप्रदायकम् ॥ २६ ॥ आद्यातृतीयातुर्याभिनिष्कलङ्क समृद्धिकृत । द्वितृतीयाचतुर्थीभिधेनेशं धनवर्द्धनम् ।। २७॥ आद्याद्याभिश्चतसृभिः कुबेरं वित्तवृद्धिकृत् ।। यमसूर्यप्रभेदेषु ब्रूमो लक्ष्म फलानि च ॥ २८ ॥ आधाद्वितीयामृषाभ्यां संहारं स्वामिनाशनम् । गृहमाद्यातृतीयाभ्यां मृत्युदं यमसूर्यकम् ।। २९ ॥ द्वितृतीयं वहन्मृपं कालं योपिद्विनाशनम् ।। वैवस्वतं वहत्तुयेप्रथमं रोगकारकम् ।। ३० ॥ यमालयं द्वितुर्याभ्यां स्वामिनो यमदर्शनम् । करालं त्रिचतुर्थीभ्यां भर्तुः प्राणविनाशनम् ॥ ३१ ॥ आद्याभिस्तिमृभिः स्वामिनाशनं विकरालकम् । आधाद्वितीयातुर्याभिः कबन्धं भर्तृनाशनम् ॥ ३२ ॥ आद्यातीयातुर्याभिर्भर्तनं मृतकालयम् । शबं द्वित्रिचतुर्थीभिः स्वामिनो मरणप्रदम् ॥ ३३ ॥ आद्यायाभिश्चतसृभिः स्वामिघ्नं महिषं विदुः । प्रचण्डं दण्डभेदेषु पूर्वया सद्वितीयया ॥ ३४ ॥
१. 'सिद्धार्थ' क. पाठः । २. 'दम्', ३. 'मितिस', ४..'क' ख. - माठः। ५. द्वि' क. पाठः । ६. 'श', ७. 'तुर्याभिः' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे गृहमादौ विजानीयाद् भर्तुपभयप्रदम् । चण्डमाद्यातृतीयाभ्यां चण्डदण्डभयप्रदम् ।। ३५ ।। दण्डं स्याद् द्वितृतीयाभ्यां राजदण्डाय दारुणम् । उद्दण्डमाद्यातुयोभ्यां स्वामिनो दण्डभीतिदम् ॥ ३६ ।। काण्डं द्वितीयातुर्याभ्यां काण्डवद्भेदकारकम् । कोटरं त्रिचतुर्थीभ्यां स्वामिनो विग्रहावहम् ।। ३७ ॥ प्रथमा(द्वि)तृतीयाभिर्विग्रहं वधर्वन्धकृत् । आद्याद्वितीयातुर्याभिर्निग्रहं विग्रहावहम् ॥ ३८ ॥ आघातृतीयातुर्याभिधूनं सर्वधनापहम् । द्वितृतीयाचतुर्थीभिर्निधूमं धननाशनम् ।। ६९ ॥ आद्याद्याभिश्चतसृभिर्दन्तिदारुणमर्थहृत् । आद्याद्वितीयामूषाभ्यां वातभेदेषु मन्दिरम् ।। ४० ॥ मरुत्संज्ञं भवेत् तत्र वसतां कलहः सदा । उद्वेगकारि पवनं तृतीयाद्योपलक्षितम् ॥ ४१ ॥ वाताख्यं द्वितृतीयाभ्यां सदा सन्तापकारकम् । सन्तापोद्वासकायोद्यातुयोभ्यामनिलं भवेत् ॥ ४२ ॥ प्रभञ्जनं द्वितुर्याभ्यां शोकसन्तापकारकम् । तृतीयया चतुथ्यो च घनायुद्वेगकारकम् ॥ ४३ ॥ आद्यया द्वितृतीयाभ्यां रोग कार्यार्थनाशनम् । आद्याद्वितीयातुर्याभिः प्रलयं चित्ततापकृत् ॥ ४४ ।। आधाद्वितीयातुभिः कलह कलहावहम् । द्वितृतीयाचतुर्थीभिः कलि : सन्तापकारकम् ॥ ४५ ॥ आद्याद्याभिश्चतसृभिः कलिचुल्ली धनापहा । रोगमाद्याद्वितीयाभ्यां चुल्लीभेदेषु शोकदम् ॥ ४६ ॥
१. 'बाध' ख. पाठः । २. 'घ(न)मु' क. पाठः । ३. 'मूषाभिः' ख, पाठः । ४. 'लिस' का पाठः।
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एकशाललक्षणफलादि नाम त्रयोविंशोऽध्यायः । स्याद् द्वितीयातृतीयाभ्यां चुल्ली वित्तविनाशनी । वसुन्नमनलं नाम त्रितुर्याभ्यां निवेशनम् ।। ४७ ।। वित्तनमाद्यातुर्याभ्यां भस्माख्यं स्वामिनः सदा । उदङ्मुखाभ्यां मूषाभ्यां काचभेदेषु मन्दिरम् ।। ४८ ॥ छलं नाम भवेन्नित्यं बन्धुवर्गापमानकृत । दक्षिणोत्तरमूषाणां पौरस्त्ये वहतो यदि ॥ ४९ ।। + काञ्चं नाम तदा वेश्म सज्जनानन्दकारकम् । मूषाभ्यां दक्षिणाभ्यां स्यात् कुलह त्रिकुलक्षयम् ॥ ५० ॥ दक्षिणोत्तरमूपाणां पाश्चात्ये वहतो यदि । 1 विरोध नाम तद्वेश्म सर्वलोकविरोधकृत् ॥५१॥ उक्तान्येवं द्विपञ्चाशद् द्विशालानां समासतः।। एनानि मूपावहनप्रभेदात् फलप्रभेदाच निदर्शितानि । द्विशालवेश्मान्यधुनैकशालान्युदाहियन्ते भवनानि सम्यक् ॥५२॥ शति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
द्विशालगृहलक्षणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥
अथ एकशाललक्षणफलादि नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।
गृहाणामेकशालानां वक्ष्यामो लक्षणान्यथ । शस्तानां निन्दितानां च यथावदनुपूर्वशः ॥ १॥ विन्यसेचतुरः पूर्व गुरूँन् वर्णान् यथाविधि । एभ्य एवं प्रसूयन्ते भेदाः षोडश वेश्मनाम् ॥ २॥
१. 'नि', २. ‘खी' क. पाठः। ३. 'लं हन्ति कु' ख. पाठः। ४. 'स्व' क. पाठः।
+ लक्ष्यपाठानुरोधात् काचमिति पाठ्यम् । लक्ष्ये विरोधीति पठ्यते।
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समराङ्गणसूत्रधारे गुरोरधो लघु न्यस्येत् पूर्व शेपं यथोपरि । गुरुभिः पूरयेत् पश्चाद् यावत् स्युर्लघवोऽखिलाः ॥ ३ ॥ विद्यादलिन्दान् सर्वेषु लघुस्थानेषु पण्डितः । सव्यावर्ते गृहमुखादेतांश्च विनियोजयेत् ।। ४ ।। एषामलिन्दसंयोगाद् भवनानां पृथक् पृथक ।। नामानि गुणदोषाश्च वक्ष्यन्तेऽनुक्रमादतः ।। ५ ।। ध्रुवं धन्यं जयं नन्दं खरं कान्तं मनोरमम् । सुमुखं दुर्मुखं क्रूर सुपक्षं धनदं क्षयम् ।। ६ ।। आक्रन्दं विपुलं चैव विजयं गृहमुत्तमम् । घुवे जयमवामोति धन्ये धान्यागमो भवेत् ॥ ७ ॥ जये सपत्नाञ् जयति नन्दे सर्वाः समृद्धयः । खरमायासदं वेश्म कान्ते च लभते श्रियम् ॥ ८ ॥ आयुरारोग्यमैश्वर्य तथा वित्तस्य सम्पदः । मनोरमे मनस्तुष्टिहभर्तुः प्रकीर्तिता ॥ ९ ॥ सुमुखे राज्यसन्मानं दुर्मुखे कलहः सदा ।। क्रूरव्याधिभयं क्रूरे सुपक्षं गात्रद्धिकृत् ॥ १० ।। धनदे हेमरत्नादि गाश्चैव लभते पुमान् । क्षयं सर्वक्षयं गेहमाक्रन्दं ज्ञातिमृत्युदम् ॥ ११ ।। आरोग्यं विपुले ख्यातिर्विजये सर्वसम्पदः । यदि धन्ये द्वितीयोऽपि मुखालिन्दः प्रयुज्यते ॥ १२ ॥ तद् गृहं रम्यनामेह भर्तुः सौभाग्यकारकम् । मुखालिन्देन नन्दाख्यं द्वितीयेन सुयोजितम् ॥ १३ ॥ तच्छ्रीधरमिति ख्यातं तस्मिन् श्रीनित्यमाविशेत् । अलिन्दश्चेद् द्वितीयोऽपि कान्तस्यास्ये निवेश्यते ॥ १४ ॥ मुदितं तद् भवेद् भर्तुभूतिकृद् भवनोत्तमम् । सुमुखस्य यदालिन्दो वक्त्रेऽन्यो विनिवेश्यते ॥ १५ ॥ १. 'व, २. 'ध्रुवम् ' ख. पाठः ।
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एकशाललक्षणफलादि नाम त्रयोविंशोऽध्यायः । १२३ वर्धमानं तदा तत् स्यात् स्वामिलक्ष्मीविवर्धनम् । क्रूरं युक्तं द्वितीयेन मुखालिन्देन मन्दिरम् ॥ १६ ॥ करालं तद विजानीयाद भर्ता तस्य विनश्यति ।। अलिन्देन द्वितीयेन धनदं योजितं पुनः ॥१७॥ सुनाभं तद् भवेत् तस्मिन् पशून् पुत्रानवाप्नुयात् । आक्रन्दस्य पुरोभागे यद्यलिन्दः कृतोऽपरः ॥ १८ ॥ ध्वाङ्क्षसंज्ञं गृहं तज्ज्ञा निन्दितं प्रवदन्ति तत् । द्वितीयालिन्दघटना विजयस्य मुखे यदि ॥ १९ ॥ तत् समृद्धमिति ख्यातं गृहं स्यात् पुण्यकर्मणाम् । यान्युक्तानि ध्रुवादीनि पूर्ववेश्मानि षोडश ॥ २० ॥ शालाविभागं ज्ञात्वैपां तिर्यक् पड् दारु विन्यसेत् । षोडशान्ये च भेदाः स्युः संज्ञाश्चैषामनुक्रमात् ॥ २१ ॥ सुन्दरं वरदं भद्रं प्रमोदं विमुखं शिवम् । सर्वलामं विशालं च विलक्षमशुभं वजम् ॥ २२ ॥ उद्द्योतं भीषणं शून्यमजितं कुलनन्दनम् । नामभिर्वेश्मनामेषां गुणदोषान् प्रकल्पयेत् ॥ २३ ॥ यथार्थनामान्येतानि यस्मात् प्रोक्तान्यविस्तरात् । एभ्य एवापराणि स्युर्वेश्मान्यन्यानि पोडश ॥ २४ ॥ शालापुरोविनियुक्ततिर्यक्षदारुकारणात् । हंसं सुलक्षणं सोम्यं जयन्तं भव्यमुत्तमम् ।। २५ ॥ रुचिरं सम्भृतं क्षेममाक्षेमं सुकृतं दृषम् । उच्छन्नं व्ययमानन्दं सुनन्दं चेति कीर्तितम् ॥ २६ ॥ एषामपि यथार्थत्वाद् गुणदोषान् निरूपयेत् । शालामध्ये च तिर्यक्स्थं षड्दारू विनिवेशयेत् ॥ २७ ।। विहाय मर्मणां वेधानमीषामेव वेश्मनाम् । पोडशैव परेऽपि स्युभेदास्तांश्च यथाक्रमम् ॥ २८ ॥
१. 'द्वेश्म प', २. 'बहून् ' स्त्र. पाठः। ३. 'द्धि' क. स्त्र. पाठः । ४. 'गभद्रं निवेशयेत् ।', ५. 'पुनःष', ६. 'भा', ७. 'ति', ८. 'व समनाम् ' ख. पाठः ।
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१२४
समराङ्गणसूत्रधारे
कथयामः समासेन यथार्थैरेव नामभिः | अलङ्कृतमलङ्कारं रमणं पूर्णमम्वरम् ॥ २९ ॥ पुण्यं सुगर्भ कलशं दुर्गतं रिक्तमीप्सितम् । सुभद्रं वन्दितं दीनं विभवं सर्वकामदम् || ३० || शालान्तः स्थितषड्दारुपश्चादपवरैः कृतैः । एभ्योऽपरेsपि निर्दिष्टा भेदाः षोडश वेश्मनाम् ॥ ३१ ॥
प्रभवं भाविकं क्रीडं तिलकं क्रीडनं सुखम् । यशोदं कुमुदं कालं भासुरं सर्वभूषणम् || ३२ ||
वसुधारं धनहरं कुपितं वित्तवृद्धिदम् । कुलोदयं च विज्ञेयं गुणदोषास्तु पूर्ववत् || ३३ ॥ अनन्तरमिहोक्तानि यानि वेश्मानि षोडश । प्रत्येकं तान्यलिन्देन परि ( कु कु )र्याच्चतुर्दिशम् || ३४ ॥
तद्भेदेभ्यः प्रसूतानि कथयामो विधानतः । चूडामणि प्रभद्रं च क्षेमं शेखरमद्भुतम् || ३५ ||
विकाशं भूतिदं हृष्टं विरोधं कालपाशकम् । निरामयं सुशालं च रौद्रं मोघं मनोरथम् || ३६ || सुभद्रं चेति सदनं संज्ञाभिरुपलक्षयेत् । वेश्मनामेकशालानां शतं स्याच्चतुरुत्तरम् || ३७ ॥ कथितं तच्च संस्थानैर्नामभिश्च यथाक्रमम् । हस्तिनी महषी गावी छागंली च यथाक्रमम् ॥ ३८ ॥ तद्वयेन द्विपूर्वाणि ब्रूमो नामानि वेश्मनाम् । द्विहंसकं द्विचक्रा द्विसारसमथापरम् || ३९ ।। द्विकोकिलं बुधैः ख्यातं हस्तिन्यादेः क्रमाद् गृहम् । attery: पशुधान्यानां क्रमादाद्यानि वृद्धये ॥ ४० ॥ एतेषामेव नाशाय भवेद् वेश्म द्विकोकिलम् ।
१. 'चि', २. 'मे', ३, 'छ' ख. पाठः ।
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द्वारपीठभितिमानादिकं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः । इत्येकशालभवनान्युदितान्यलिन्दषडदारुकापवरकावरणादिभेदैः । संज्ञा च लक्षणफलैः करिणीमुखाभिः शालाभिरेवमपराणि च युग्मजानि ॥४१॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे एकशाललक्षणफलद्विहंसकादिलक्षणफलानि नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।
अथ द्वारपीठभित्तिमानादिकं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ।
कर्णशालानिबद्धानि मण्डपैरन्तरस्थितैः । असम्बाधाजिराणि स्युहेलानि दश पञ्च च ॥१॥ ईश्वरं वृषभं चन्द्रं रोगं पापं भयप्रदम् । नन्दनं खादकं वाक्षं विकृतं विलयं क्षयम् ॥ २ ॥ याम्यं च विपरीतं च भद्रकं चेति नामतः । एतानि हलकाख्यानि विद्याद् गेहानि यत्नतः ।। ३ ।। अग्निरक्षोनिलेशानकोणगानां यथाक्रमम् । एकद्वित्रिचतुर्थाख्या हलकानां प्रकल्पयेत् ॥ ४ ॥ अनेन क्रमयोगेन च्छन्दोभेदा भवन्ति च । तत्राद्येनेश्वरं नाम हलकेन गृहं भवेत् ।। ५ ।। सर्वलक्षणसंयुक्तं सर्ववृद्धिफलप्रदम् । वृषभं तु द्वितीयेन पुत्रदारविवर्धनम् ॥ ६ ॥ प्रथमं च द्वितीयं च गृहे तु हलकं यदि। चन्द्रं वृद्धिकरं नृणां सर्वलक्षणसंयुतम् ।। ७ ।। वायव्यं हलकं यत्र रोग रोगविवर्धनम् । प्रथमं च तृतीयं च गृहे तु हलकं यदि ॥ ८ ॥
१. ग्मलाभिः' क, 'मितानि', ख. पाठः । २. 'गणे भागां य', ३. 'रादिव', ४. 'भयप्रदम् ' ख. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे पापं तन्नामतो वास्तु सर्वपापप्रयोजकम् । पितृरोगोक्तकोणाभ्यां भयदं रोगमृत्यवे ॥ ९ ॥ पितृरोगाग्निकोणेषु नन्दनं गृहमादिशेत । सुखमर्थप्रदं शान्तं हलकं परिकीर्तितम् ॥ १० ॥ ईशान्यां तु चतुर्थेन खादकं खादकं गृहम् । लाङ्गलाद्या यदा शाला ईशान्यां च यदापरा ॥ ११ ॥ ध्वाक्षं तन्नामतो वास्तु दरिद्राणां विधीयते । द्वितीया च चतुर्थी च शाला लागलके यदि ॥ १२ ॥ विकृतं विकृतावासं प्रवासोऽत्र कुटुम्बिनः । आद्या शाला द्वितीया च चतुर्थी च यदा पुनः ।। १३ ॥ विलयं हानिदं नित्यं गृहं तद् वित्तनाशनम् । वायव्यं हलकं यस्मिन्नशान्यां च यदा पुनः ॥ १४ ॥ क्षयं क्षयकरं नित्यं हलकेषु गृहं भवेत् ।। अग्निवायुमहेशानां शाला लाङ्गलके यदि ॥ १५ ॥ याम्यं मृत्युकरं नृणां न तत् कुर्यात् कदाचन । मारुते नैर्ऋतेशान्योः शालाकणेपु लाङ्गलम् ।। १८ ॥ विपरीतं व्याधिकरं नृणां नाशकरं तथा । चतस्रो हलके यत्र प्रादक्षिण्यमुखाः स्थिताः ॥ १७ ॥ भद्रकं नाम तद् वास्तु सर्वभद्रप्रयोजकम् । द्वारोच्छ्रायं सविस्तारं तलोच्छायं च वेश्मनाम् ॥ १८ ॥ पीठस्य च समुत्सेधं भित्तिविस्तारमेव च । तथा दारुक(लां?ला)चैव या प्रोक्ता गृहकमणि ॥ १९ ॥ एकशालाविधानं च तेषां नामानि यानि च । तत् सम्प्रति प्रवक्ष्यामो यथावदनुपूर्वशः ।। २० ।। पोडशानां समुदयो विंशतेरपि चापरः । विंशतेः सचतुष्कायास्तथाष्टाविंशतेरपि ॥ २१ ॥
१. 'पापकं नाम', २. 'तु', ३. नी' ४. 'ज्ञेयं', ५. 'खास्तथा' ६. 'नः।' क. पाठः । ७. 'दा', ८. 'तेरपि चतुः कायां तथा' ख. पाठः ।
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द्वारपीठभित्तिमानादिकं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः । द्वात्रिंशतोऽपरश्चेति । पञ्च वर्गाधिपा मताः । शालाचतुर्थभागेन भित्तिविस्तार इष्यते ॥ २२ ॥ वर्गेपु भित्तिलक्ष्मोक्तं षोडशादिषु पञ्चसु । मर्मपीडा भवेद् यत्र भित्तिस्तम्भतुलादिभिः ॥ २३ ॥ कुर्वीत हांसं वृद्धि वा तत्र मर्मव्यथां त्यजन् । अतिसंवृतविस्तारं कार्यमुद्दिश्य बुद्धिमान् ।। २४ ।। शालाप्रविष्टं कुर्वीत ' हीनवास्तुष्वलिन्दकम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भूमिभागे समीकृते ।। २५ ॥ उपरिष्टाद् भवेत् पीटं * तलादर्धसमुच्छ्रितम् । नियुक्त तु ततः पीठे वास्तुविस्तारतोऽङ्गुलम् ॥ २६ ॥ प्रतिहस्तं समुद्धृत्य सप्तत्या सह योजयेत् । द्वारोरन्छ्रायाः समाख्याता वर्गेषूक्तेषु पञ्चसु ॥ २७ ॥ उच्छायार्थेन वैपुल्यमष्टांशेन विवर्जितम् । द्वारविस्तारपादांशे पट्टविस्तार इष्यते ॥ २८ ॥ विस्तारार्धेन बाहुल्यं साँध वेद्या(त?स्त)लोपरि । उत्तरोत्तरवैपुल्यं कुर्याच्छाखावशाद् बुधः ॥ २९ ॥ वेद्या विस्तारबाहुल्ये विधेये शाखयोरपि । द्वारविस्तारपादेन मूले स्तम्भस्य विस्तृतिः ॥ ३० ॥ दशभागविहीनाग्रे पट्टः स्तम्भन सम्मितः।। स्तम्भाग्रस्य त्रिभागेने पट्टकोटिर्विधीयते ।। ३१ ।। हीरग्रहणमायाम स्तम्भाग्रात् तु चतुर्गुणम् । पट्टीन्योन्युद्भवेत् (?) तत्र व्यासवाहल्ययोस्तथा ॥ ३२॥
१. ' हास', २. 'जेत् ', ३. 'त' क. पाठः । ४. 'पेद्यातलोम्बरे' (१) ५. 'गोना' ख. पाठः । ६. 'दा' क. पाठः । ७. 'नान्याद्भ' ख. पाठः ।
+'ते पञ्चसमुदायाः विनादीनां व्युत्क्रमेण यथा (यथं) योज्याः । व्यासस्येदं चेष्टमानम् ' इति, + 'पञ्च++++हीनयास्तुप्रमाणं तद्गृहं शालाख्यं तदन्तर्गतं षड्दारुकं कुर्यात्' इति, * 'तलशब्देन प्रथमभूम्युच्छायः' इति च टिप्पणानि सन्ति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
पट्टको व्यर्थमुत्सेधादुत्सेधार्धेन निर्गतम् ।
तन्त्रकस्य प्रमाणं स्यादिति शास्त्रविदो विदुः ॥ ३३ ॥
द्रव्याण्युपर्युपर्यस्य परापरविभागतः । पोट्या चतुर्थेन प्रविभागेन ह्रासयेत् || ३४ ||
पूर्वामुखं गृहं यत्तु द्वारं माहेन्द्रसंयुतम् । हस्तिनी च भवेच्छाला तद् गृहं भद्रसंज्ञितम् ॥ ३५ ॥ भद्रं भद्रकरं भर्तुर्यशीलविवर्धनम् ।
सिध्यन्ति चास्य कार्याणि भद्राख्ये बसतो गृहे ॥ ३६ ॥
दक्षिणाभिमुखं वेश्म द्वारं चास्य गृहक्षतम् । महिषी च भवेच्छाला तद् गृहं नन्दपीठकम् || ३७ ॥ नन्दपीठगृहं पुंसां नित्यानन्दकरं स्मृतम् । सर्वसम्पद्गुणोपेतं धनधान्यविवर्धनम् ॥ ३८ ॥
वारुण्यभिमुखं स द्वारं च कुसुमाइयम् । गावी चैव भवेच्छाला सौरभं तद्विदुर्बुधाः || ३९ ॥ सौरभे नित्यहृष्टत्वं वसतां गृहमेधिनाम् । सफलं कृषिवाणिज्यं पुत्राश्च वशवर्तिनः ॥ ४० ॥
उत्तराभिमुखं धिष्ण्यं द्वारं भल्लाटसंयुतम् । छागली च भवेच्छाला पुष्कराख्यं तदुच्यते ॥ ४१ ॥
शीलवान् नित्यसैन्तुष्टः सुहृत्सुजनवत्सलः । सुभगः पुष्कराख्ये च बहुपुत्रधनान्वितः ॥ ४२ ॥ भद्रं च नन्दपीठं च सौरभं पुष्करं तथा । प्रथमार्धे तु वर्गस्य प्रथमस्य प्रयोजयेत् ॥ ४३ ॥
सर्वभद्रादिकाः सर्वे निवेशा ये प्रकीर्तिताः । उत्पन्नास्ते विमानेभ्यः पञ्चभ्यः पञ्चपञ्चके ॥ ४४ ॥
५. ‘मुखम्’,
२. 'चेद्भुते शा', ३. संहृष्टसुहृत्स्वज', ४. 'तु' ख. पाठः ।
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः । १२९
द्वारस्य पीठस्य च मन्दिरेषु भित्तेश्च मानं कथितं क्रमेण । तथोदिता दारुकलास्तु सम्यक् प्रहीणवास्तोः सकलं च लक्ष्म ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे द्वारपीठभित्तिमानदारुकलाहीनवास्तुलक्षणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
अथ समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ।
वेश्मनां पञ्चशालानां कथ्यन्ते लक्षणान्यथ । चतुर्विंशतिसंयुक्तं सहस्रं तानि सङ्ख्ययां ॥ १ ॥ गुरूणां दशसङ्ख्यानां प्रस्तारस्य च कल्पनात् । गृहाणां पञ्चशालानां भेदा लघुविभगतः || २ || पञ्चशालं भवेद् योगाद् गृहयोर्द्वित्रिशालयोः । यद्वायोगाद्भवेदेतच्चतुःशाल कशालयोः ॥ ३ ॥ चतुर्णामपि वर्णानामिदं सद्म प्रशस्यते । हिरण्यनाभवभूति वर्णानामिह वेश्मनाम् || ४ || सिद्धार्थादिसमायोगान्निष्पद्येत गृहाष्टकम् | योगाद्धिरण्यनाभस्य सिद्धार्थेन गृहं भवेत् ॥ ५ ॥ हेमकूटाख्यमस्यैव वातेन स्वर्णशेखरम् । सुक्षेत्रस्य च सिद्धार्थसंयोगेन श्रियावहम् || ६ || तस्यैव यमसूर्येण भवेद् वेश्म महानिधिः । चुलयास्तु यममूर्येण सदादीप्तं प्रजायते ॥ ७ ॥ दण्डसंयोगतस्तस्य चित्रभान्वभिधं भवेत् । पक्षघ्नस्य तु दण्डेन सदोदोषं विनिर्दिशेत् ॥ ८ ॥ पक्षघ्नस्यैव वातेन योगान्निर्विघ्नमुच्यते । न काचचुली संयोगस्त्रिशालादिषु शस्यते ॥ ९ ॥
1.
'या ।। पश्चशालं', २. 'भेदतः ॥', ३. 'चतुर्णामि', ५. 'दातो' ख. पाठः ।
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४. ' स्व ',
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समराङ्गणसूत्रधारे
अन्योन्यवीक्ष्यमाणानां भेदास्तेनेह नोदिताः । एकशालयु(ते?ते)भदाः स्युश्चतुश्शालवेश्मनि ॥ १० ॥ चत्वारः पञ्चशालानां मस्तेषां च विंशतिः । यदा भवत्यजा शाला सर्वतोभद्रवेश्मना ।। ११ ।। सुदर्शनमिति प्राहुः पञ्चशालं तदा गृहम् । तदेव करिणीयोगात् सुरूपमिति कथ्यते ॥ १२ ॥ सुन्दरं महिषीयोगाद् गावीयोगात्तु शोभनम् । वर्धमानस्य चैतासां शालानां योगतः क्रमात् ।। १३ ॥ सुनाभं सुप्रभं योग्यं विनोदं च भवेद् गृहम् । नन्द्यावर्तेऽप्येवमेव शालायोगेन जायते ।। १४ ।। सुखंदं नन्दनं नन्दं पुण्डरीकं च मन्दिरम् । रुचकस्याप्यजादीनां योगेन स्युरनुक्रमात् ।। १५ ।। नामतो भद्ररुचिररोचिष्णूनि प्रहर्षणम् । स्वस्तिकेऽप्यनया युक्त्या भवेद् गृहचतुष्टयम् ॥ १६ ॥ घोषं सुघोषणं निन्दिघोषं श्रीपद्ममेव च । विंशतिः सर्वतोभद्रप्रभृत्यालययोगतः ।। १७ ।। जातानि पञ्चशालानि योग्यानि पृथिवीभुजाम् । पूर्वोक्तैरष्टभिः सार्धं स्यादष्टाविंशतिगृहैः ॥ १८ ॥ + कथ्यते पञ्चशालानां मूषाभेदक्रमोऽधुना । विभद्रमेकं तत्रैकभद्राणि दशसङ्ख्यया ॥ १९ ।। द्विभद्राणि पुनः पञ्चचत्वारिंशत् प्रचक्षते । त्रिभद्राणां शतं विंशत्युत्तरं द्वे दशोत्तरे ॥ २० ॥ चतुर्भद्रगृहाणां तु द्विपञ्चाशच्छतद्वयम् । गृहाणां पञ्चभद्राणां षड्भद्राणां दशोत्तरे ।। २१ ॥ १. 'नाम् ', २. 'नन्दं', ३. 'न्ते' ख. पाठः । ४. 'व' क. पाठः ।
+' अमीषामष्टाविंशतीना(?)मध्ये एकतमस्य भूपाभेदे कृते एतावन्ति रूपाणि भव. न्ति' इति टिपणमस्ति ।
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः । १३१ द्वे शते सप्तभद्राणां स्याद् विंशत्युत्तरं शतम् । गृहाणामष्टभद्राणां चत्वारिंशच पञ्च च ॥ २२ ॥ . दश स्युर्नवभद्राणि तथैकं दशभद्रकम् । एवं सहस्रमेकं स्याद विंशतिश्च चतुर्युता ।। २३ ॥ गृहाणां पञ्चशालानां मूषावहनसङ्ख्यया । अथ लक्ष्म च संख्यां च ब्रूमः पदशालवेश्मनाम् ।। २४ ।। एकद्वित्रिचतुश्शालगृहाणां योजनान्मिथः । द्विशालस्यैकशालस्य त्रिशालस्य च योगतः ॥ २५ ॥ षदशालं जायते वेश्म भेदास्तस्य तु षोडश । पक्षनवातयोर्यो देकशालगृहस्य च ।। २६ ॥ स्यात् पङ्कजान्कुरं नाम गृहं षट्शालमुत्तमम् ।। हिरण्यनाभं सिद्धार्थ चैकशालेन वेश्मना ।। २७ ॥ संयोज्यं तु यंदा गेहं तदा स्याच्छीगृहं शुभम् । संयोगादेकशालेन सुक्षेत्रयममूर्ययोः ।। २८ ॥ धनेश्वरं नाम गृहं जायते धनद्धये। दण्डाख्यचुल्लयोः संयोगादेकशालगृहस्य च ॥ २९ ॥ प्रभूतकाञ्चनकरं गृहं स्यात् काञ्चनप्रभम् । द्वादशान्यानि जानीयाद् भवनान्यनया दिशा ॥ ३० ॥ एतेषामेव भेदेषु शुभान्यखिलवर्णिनाम् । तुल्यात् त्रिशालद्वितयात् षट्शालकचतुष्टयम् ॥ ३१ ॥ स्याद द्विशालचतुःशालयोगादन्यच्चतुष्टयम् । सिद्धार्थेन चतुःशालं वेश्म(नाना)संयु(तिर्य?तं य)दा ॥ ३२ ॥ गृहं तदा स्यात् पदशालं त्रैलोक्यानन्दकं शुभम् । यममूर्येण संयुक्तं विलासचयमुच्यते ।। ३३ ॥ दण्डयुक्तं चतुःशालं सुखदं नामतो भवेत् । वातेन च चतुःशालं संयुक्तं श्रीप्रदं भवेत् ॥ ३४ ॥ १. 'ले सुयोजितम् । सं', २. 'स', ३. 'युक्तं तु वि' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे चतुर्विंशतिरन्यानि षट्शालान्यन्ययोगतः । पञ्च यानि चतुश्शालान्युचितानि महीभृताम् ।। ३५ ॥ तेषां द्विशालयोगेन पद्शालान्यभिदध्महे । सिद्धार्थे सर्वतोभद्रयुक्त स्याच्ट्रीपुरं गृहम् ।। ३६ ॥ श्रीवासं सर्वतोभद्रे यमसूर्यान्विते भवेत् । दण्डाख्ये भद्रयुक्त श्रीभूषणं जायते गृहम् ॥ ३७॥ वाताख्यं सर्वतोभद्रयोगाच्छ्रीभाजनं विदुः । सिद्धार्थे वर्धमानेने युक्ते स्याद् भूतिमण्डनम् ।। ३८ ॥ यमसूर्ये तु तेनैव संयुक्ते भूतिभाजनम् । भूतिमानं तु दण्डाख्ये वाताख्ये भूतिभूषणम् ।। ३९ ।। नन्यावर्तस्य योगेन सिद्धार्थादिचतुष्टयम् ।। श्रीमुखं श्रीधरं श्रीकृच्छ्री(ध?क)रं चेति जायते ॥ ४० ॥ सिद्धार्थादिचतुष्कस्य भवेद रुचकयोगतः । श्रियाकारं श्रियोवासं श्रीयानं श्रीमुखं तथा ।। ४१ ॥ सिद्धार्थादिचतुष्कस्य भवेत् स्वस्तिकयोगतः । धनपालधनानन्तधनप्रदधनाढयम् ।। ४२ ।। भवन्त्येवं राजवेश्मयोगतो विंशतिहाः । प्राक् चतुर्विंशतिथेति चत्वारिंशचतुर्युता ।। ४३ ।। मूपाव्यूढिवशादेकभद्रादीन्यभिदध्महे । भिदाभिरेक(?)मूषाभिरभद्रं द्वादशैकया ।। ४४ ॥ द्वाभ्यां षट्पष्टिरुद्दिष्टा विशे द्वे तिमृभिः शत?ते) । स्याद् व्युढाभिश्चतसृभिः पञ्चोनं शतपञ्चकम् ।। ४५ ।। शतानि पञ्चभद्राणां सप्त द्वानवतिस्तथा । चतुर्विंशा नवशती षभद्राणामुदाहृता ।। ४६ ।। जानीयात् सप्तभद्राणि संख्यया पञ्चभद्रवत् । गृहाणामष्टभद्राणां पञ्चोनं शतपश्चकम् ।। ४७ ।।
१. रेतानि', २. 'स्त्री', ३. 'न संयुक्ते भू', ४. 'स्वस्तिकालययो', ५. 'तुदाभिरेकम्', ६. 'तैः । क. पाठः ।
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः। द्वे विशे नवभद्राणां भवनानां शते विदुः पदषष्टिदशभद्राणि तथा द्वादशसख्यया ॥ ४८ । स्युरेकादशभद्राख्यान्येकं द्वादशभद्रकम् । एवं षट्शालगेहानां स्थात् साहस्रचतुष्टयम् ।। ४९ ॥ पण्णवत्यधिकं चूमः सप्तशालानि साम्पतम् । तुल्यं त्रिशालद्वितयमेकशालेन युज्यते ।। ५० ॥ यदा स्युः सप्तशालानि तदा द्वादशसङ्ख्यया । एकशालं द्विशालं च चतुःशालेन युज्यते ।। ५१ ।। यदा तदा सप्तशालमपरं वेश्म जायते । सेकशालं चतुःशालं यममूर्येण संयुतम् ॥ ५२ ।। तदा भवेद विभेदः (१) स्यात् तद्गृहं श्रीप्रदायकम् । वातेन श्रीपदं तद्वद् दण्डेन श्रीप्रदं भवेत् ।। ५३ ।। सिद्धार्थकेन श्रीमालं तद्वदेव प्रजायते । पञ्चानां राजयोग्यानां स्युश्चतुश्शालवेश्मनाम् ॥ ५४॥ सप्तशालानि संयोगादेकशालद्विशालयोः । युज्यते सर्वतोभद्रं सिद्धार्थं च यदा गृहम् ।। ५५ ॥ एकशालेन जायेत श्रीपदं श्रीपंदं तथा?दा)। सर्वतोभद्रगेहस्य यममूर्यकशालयोः ।। ५६ ॥ योगेन श्रीफलं नाम स्याद् गृहं श्रीफलावहम् । सर्वतोभद्रदण्डाभ्यामेकशालं युतं यदा ।। ५७ ॥ श्रीस्थलं नाम भवनं तदा स्यादास्पदं श्रियः । स्यादेकशाले मिलिते सर्वतोभद्रवातयोः ।। ५८ ।। लक्ष्मीनिवासभवनं गृहं श्रीतनुसंज्ञितम् । यदैकशालं सिद्धार्थ वर्धमानं च युज्यते ।। ५९ ॥ श्रीपर्वताभिधानं स्यात् तदानीं भवनोत्तमम् यममूर्यस्य योगेन वर्धमानैकशालयोः ॥ ६० ।। १. 'वा', २. 'य', ३, ४, ५. 'प्र' ख. पाठः ।
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१३४
समराङ्गणसूत्रधारे
श्रीवर्धनं नाम गृहं श्रीयो वृद्धिकरं भवेत् ।
दण्डं च वर्धमानं च सैकशालं यदा भवेत् ।। ६१ ॥
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तदा श्रीसङ्गमं नाम भवेद् भवनमुत्तमम् । यदैकशालं वाताख्यं वर्धमानं च युज्यते ।। ६२ । भवनं श्रीप्रसङ्गाख्यं नृपयोग्यं तदा भवेत् । सिद्धार्थमेकालेन नन्द्यावर्तेन चान्वितम् ॥ ६३ ॥ श्रीभारं नाम भवनं भवेद् भूषालसेवितम् । नन्द्यावर्तस्य योगेन यममूर्यैकशलयोः ॥ ६४ ॥ राज्ञां सुखावहं वेश्म श्रीभारमिति च स्मृतम् । श्रीशैलमेकशाळेन स्यान्नन्यावर्तदण्डयोः || ६५ ॥ योगाद् भोगावहं राज्ञां सप्तशालं गृहोत्तमम् । एकशालस्य योगेन स्यान्नन्द्यावर्तवातयोः ॥ ६६ ॥
श्रीखण्डं नाम भवनं भूभृतां भूतिकृद् भवेत् । सिद्धार्थस्यैकालेन संयोगाद् रुचकस्य च ।। ६७ ।। श्रीपण्डं नामतो वेश्म भवेद् योग्यं महीभृताम् । रुचकस्यैव योगेन यमसूर्यैकशालयोः || ६८ ।। स्याच्छ्रीनिधानं श्रीकुण्डं तस्य दण्डैकशालयोः । वातैकशालरुचकैर्युक्तः श्रीनाममुच्यते ।। ६९ ।। भवनं भूमिपालानां तद् भवेद् भूतिदायकम् । एकशालेन युज्येते सिद्धार्थस्वस्तिके यदा ।। ७० ।। श्री प्रियं स्यात् तदा वेश्म सन्ततं बल्लभं श्रियः । यमसूर्यैकशालाभ्यां स्वस्तिकं युज्यते यदा ॥ ७१ ॥ तदा श्रीकान्तमित्याहुर्भवनं भूभृतां हितम् । एकशालेन संयोगो दण्डस्वस्तिकयोर्यदा ।। ७२ ।। श्रीमतं नामतो वे तदा स्याद् विजयावहम् | वातस्वस्तिकसंयोगमेकशालं यदा व्रजेत् ॥ ७३ ॥
१. 'तु', २, ३. 'स्त्री', ४. 'द्या (१) ', ५. 'घण्टं ना', ६. 'ख' क. पाठः ।
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः । १३५ श्रीप्रदत्तमिति प्राहुस्तदा वेश्म महीभृताम् । एकैकस्य द्विभेदत्वाचत्वारिंशदियं भवेत् ।। ७४i . . एवमत्र प्रकाराः स्युश्चत्वारिंशद युताष्टभिः । यदा त्रिशालं भवनं चतुश्शालेन युज्यते ॥ ७५ ॥ तदापि सप्तशालं स्याचतुर्धेदं समासतः । पञ्चानां राजगेहानां मिलत्येकतमस्य चेत् !! ७६ ।। त्रिशालं स्यात् तदा सप्तशालं विंशतिभेदवत् । हिरण्यनाभ(भो?यो )गेन सर्वतोभद्रमन्दिरम् ।। ७७ ।। श्रीवत्सं जनयेद् वेश्म नरेन्द्राणां हितावहम् । श्रीवृक्षं सर्वतोभद्रे सुक्षेत्रे मिलिते भवेत् ॥ ७८ ॥ चुल्लीयुक्त पुनस्तस्मिन् श्रीपालं नाम जायते । पक्षन्ने सर्वतोभद्रयुक्ते श्रीकण्ठमुच्यते ॥ ७९ ॥ हिरण्यनाभे श्रीवासं वर्धमानयुते भवेत् । श्रीनिवासं तु सुक्षेत्रे वर्धमानेन मिश्रिते ॥ ८ ॥ वर्धमानेन चुल्ल्या च गृहं श्रीभूषणं विदुः ।। पक्षघ्नं वर्धमानेन यदा संयोगमृच्छति ।। ८१ ॥ तदा श्रीमण्डनं नाम जायते भवनोत्तमम् । जाते हिरण्यनाभस्य नन्यावर्तेन सङ्गमे ।। ८२ ।। स्याद् वेश्म श्रीकुलं नाम श्रियः कुलनिकेतनम् । नन्द्यावर्तेन सुक्षेत्रे युक्ते श्रीगोकुलं भवेत् ॥ ८३ ॥ नन्द्यावर्तस्य चुल्ल्याश्च योगे श्रीस्थावरं गृहम् । नन्धावतेस्य पक्षघ्नयोगे कुम्भं प्रजायते ।। ८४ ॥ हिरण्यनाभरुचकयोगे स्याच्छ्रीसमुद्नकम् । श्रीनन्दं नाम सुक्षेत्रे रुचकाख्येन संयुते ॥ ८५ ॥ चुल्ल्यां रुचकयुक्तायां श्रीह्रदं नाम जायते । श्रीधरं नाम पक्षघ्ने भवेद् रुचकसंयुते ॥ ८६ ॥
१. "मा' क, ख, पाउः ।
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समराङ्गणमूत्रधारे हिरण्यनाभेन युते स्वस्तिके श्रीकरण्डकम् । सुक्षेत्रेण युते तस्मिन् श्रीभाण्डागारसंज्ञितम् ॥ ८७ ॥ चुल्लीयुते श्रीनिलयं भवेन्नरपतिप्रियम् । स्वस्तिकस्य यदा योगः पक्षनेन प्रजायते ।। ८८ ।। श्रीनिकेतनसंज्ञं स्यात् तदा नृपतिमन्दिरम् । उक्तानि सप्तशालानि नामलक्षणयोगतः ।। ८९ ॥ सर्वाणि सार्वभौमानां नृपाणां मन्त्रिणामपि । भवन्ति च सतां वित्तयशोविजयवृद्धये ॥ ९० ।। एकादिमूपावहनप्रभेदादथ वेश्मनाम् । एतेषां सप्तशालानां ब्रूमः संख्यामनुक्रमात् ॥ ९१ ॥
वहत्येकापि नो यत्र मूषैकं तद भवेद् गृहम् । विभद्रमेकभद्राणि विजानीयाचतुर्दश ।। ९२ ।। द्विभवेश्मनां सैका नवतिः परिकीर्तिता । भवनानां त्रिभद्राणां चतुःषष्टिः शतत्रयम् ।। ९३ ॥ सहस्रमेकाभ्यधिकं स्थाचतुर्भद्रवेश्मनाम् । भवतः पञ्चभद्राणां वे सहस्ते द्विसंयुते ।। ९४ ।। षड्भद्राणां सहस्राणि त्रीणि त्रीणि गृहाणि च । द्वात्रिंशतां चतुस्त्रिंशत् सप्तभद्रशतानि च ॥ ९५ ।। अष्टभद्राणि षड्भद्रसह्यातुल्यानि जायते(?)। गृहाणां नवभद्राणां द्वे सहसे तथा द्वयम् ॥ ९६ ॥ सहस्रं दशभद्राणामेकोत्तरमुदाहृतम् । तथैकादशभद्राणां चतुष्षष्टया शतत्रयम् ।। ९७ ॥ सैका द्वादशभद्राणां नवतिर्वेश्मनां भवेत् ।
स्युस्त्रयोदशभद्राणि गृहाणीह चतुर्दश ॥ ९८ ॥ .. 'शानि' ख. पाठः ।
'यत्र यस्यां सप्तशालजातौ एकापि मूषा यद् गृहं न वहति न प्राप्नोति, तदेकं गृह विभद्रे भवेत् ' इति टिप्पणमस्ति ।
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः । १३७ यचतुर्दशभिर्भट्टैरेकमेव हि वेश्म तत् । इत्येषां सप्तशालानां सहस्राण्यत्र पोडश ॥ ९९ ॥ एकोनत्रिशती तद्वदशीतिश्चतुरुत्तरा । इदानीमष्टशालानि भवनान्यभिदध्महे ॥ १०॥ बहिरन्तश्चतुःशालद्वयादेकं समासतः । अन्यानि सर्वभद्रादिद्वयसंयोगतो दश ॥ १०१॥ एकोनत्रिंशता क्षेत्रं चतुरश्रं विभाजयेत् । भागद्वयेन मूषा स्याच्छाला भागचतुष्टयात् ।। १०२ ॥ कुर्वीत पञ्चभिर्भागैस्तन्मध्येऽङ्गणवापिकाम । चतस्रश्च प्रतिदिशं मूषाः स्युस्तत्र वास्तुनि ।। १०३ ॥ शालयोनं सप्तशालं पट्शालं द्वितयोज्झितम् । त्रिहीनं पञ्चशालं स्यादष्टशालमिदं कचित् ॥ १०४ ॥ तुल्यविशालद्वितयं द्विशालेन युतं यदा । अष्टौ तदाष्टशालानि गृहाण्यन्यानि निर्दिशेत् ।। १०५ ।। मूपाव्यूढिवशादष्टशालानामथ कथ्यते । सख्या तत्र विभद्रं स्यादवहन्मूषसंज्ञितम् ॥ १०६॥ पोडशैवैकभद्राणि द्विभद्राणां शतं विदुः । विशं षष्टयाँ त्रिभद्राणां विज्ञेयं शतपञ्चकम् ॥ १०७॥ अष्टादशाहुर्विंशानि चतुर्भद्रशतानि च । पञ्चभद्रसहस्राणि चत्वारि स्युः शतत्रयम् ॥ १०८ ॥ अष्टपष्टिश्च गेहानि तानि सम्यग् विभावयेत् । सहस्राष्टकमष्टौ च षड्भद्राणि प्रचक्षते ॥१०९ ॥ एकादशसहस्राणि तथा शतचतुष्टयम् ।। जानीयात् सप्तभद्राणि चत्वारिंशद् गृहाणि च ॥ ११० ॥ द्वादशैवाष्टभद्राणां सहस्राणि शताष्टकम् । सप्तत्याभ्यधिकं प्राहुर्वास्तुविद्याविशारदाः ॥ १११ ॥
१. 'एकात्र त्रि', २. ‘त्र चतु' क. पाठः । ३. 'टयं' क., 'टं । ख. पाठः। ४. । ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे एकादशसहस्राणि तथा शतचतुष्टयम् । चत्वारिंशच्च गेहानि नवभद्राणि सख्यया ।। ११२ ॥ अष्टौ स्युर्दशभद्राणां सहस्राण्यष्टभिः सह । तथैकादशभद्राणां सङ्ख्या स्यात् पञ्चभद्रवत् ।। ११३ ॥ अष्टादशशतानि स्युर्विंशतिर्भवनानि च । इति द्वादशभद्राणां सङ्ख्या भवति वेमनाम् ॥ ११४ ॥ स्यात् त्रयोदशभद्राणां षष्टयग्रं शतपञ्चकम् । स्याच्चतुर्दशभद्राणां विंशत्यभ्यधिकं शतम् ।। ११५ ॥ वेश्मानि स्युस्तथा पञ्चदशभद्राणि षोडश । एकमेव हि विज्ञेयं गृहं पोडशभद्रकम् ।। ११६ ।।
पञ्चषष्टिसहस्राणि पत्रिंशं शतपञ्चकम् । गृहाणामष्टशालानां भवत्येकत्र सङ्ख्यया ॥ ११७ ॥ स्यात् समानचतुश्शालद्वययोगात् समासतः । एफैकशालयोगाच नवशालचतुष्टयम् ॥ ११८ ॥ सर्वतोभद्रमुख्यानां मिथो द्वितययोगतः । एकेकशालयोगाच्च चत्वारिंशत् तथापरा ॥ ११९ ।। तुल्यत्रिशालत्रितययोगेन च चतुष्टयम् । गृहाणां नवशालानामन्यदुक्तं पुरातनः ।। १२० ।। संस्थानमुक्तं गेहानां नवशालात्मनामिदम् । मूषावहनभेदेन तत्सङ्ख्या कथ्यतेऽधुना ॥ १२१ ।। अवहन्मूपमेकं स्याद् वहन्त्याष्टादशैकया । द्वाभ्यां शतं त्रिपञ्चाशदधिकं वेश्मनां भवेत् ॥ १२२॥ १. 'सहस्राणि विश', २. भद्राणां भ', ३. त्य' ख. पाठः ।
। अष्टशालगृहा- गृह १ : १६१२०५६०१८२० ४३६८८००८/११४४०१२८७० णामैक्यं६५५३६ भद्र० १ २ ३ ४ ५ ६ ७ भद्र ८ षोडशगुरूमा
भद्र १६, १५ १४ १३ १२. १११० ९ भद्र . प्रस्तारे
इति टिप्पणं दत्तमस्ति ।
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः । तिसृभिः स्युः शतान्यष्टौ सह पोडशभिगृहैः । षष्ट्या सहस्रत्रितयं ताभिश्वतसभिभवेत् ।। १२३ ।। पञ्चाशीतिशतान्यष्टषष्टियुक्तानि पञ्चभिः । वहन्तीभिः प्रजायन्ते मूषाभिरिह वेश्मनाम् ।। १२४ ॥ अष्टादशसहस्राणि तथा पञ्चशतानि च । चतुःपष्टिं च गेहानि मूषाभिः पभिरादिशेत् ॥ १२५ ।। एकत्रिंशत्सहस्राणि सहितान्यष्टभिः शतैः । चतुर्विंशतियुक्तानि मूपाभिः सप्तभिर्विदुः ॥ १२६ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि त्रिसहस्री च वेश्मनाम् । शतानि चाष्टपञ्चाशत् सप्त मूषाभिरष्टभिः ॥ १२७ ।। चत्वारिंशत्सहस्राणि सहस्राण्यष्ट पदशती । विंशतिं चैव मूपाभिहाणां नवभिर्विदुः ॥ १२८ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि सहस्रत्रयमोकसाम् । मूषाभिदेशभिः साष्टपञ्चाशच्छतसप्तकम् ॥ १२९ ॥ एकत्रिंशत्सहस्राणि चतुर्विंशच्छताष्टकम् । मृपाभिरेकादशभिग्रहाणां मुनयो जगुः ॥ १३० ॥ अष्टादशसहस्राणि तथा पञ्चशतानि च । धाम्नां द्वादशमूषाणां चतुःषष्टिश्च जायते ॥ १३१ ॥ भवन्त्यष्टौ सहस्राणि तथा पञ्चशतानि च । स्यात् त्रयोदशमृषाणामष्टषष्टिश्च वेश्मनाम् ।। १३२ ॥ स्याच्चतुर्दशमूपाणां त्रिसहस्री सपष्टिका । मूपाभिः पञ्चदशभिः पोडशाष्टशती तथा ॥ १३३ ॥ धाम्नां षोडशमूपाणां त्रिपञ्चाशच्छतं भवेत् । स्युः सप्तदशमूपाणि वेश्मान्यष्टादश स्फुटम् ।। १३४ ॥ मूषाभिरष्टादशभिर्वेश्मैकं तद्विदो विदुः । लक्षद्वयं सहस्राणि द्वापष्टिश्च शतान्विता ॥ १३५॥ ९. 'ष्टं' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
वेश्मनां नवशालानां चत्वारिंशच्चतुर्युता । स्यात् समानचतुःशालद्वययोगात् समासतः ॥ १३६ ॥ एकेन च द्विशालेन दशशालचतुष्टयम् । सर्वतोभद्रमुख्यानां मिथो द्वितययोगतः || १३७ ॥ एकद्विशाल योगाच्च चत्वारिंशत् तथापरा । तुल्यत्रिशा लत्रितयमे कशालयुतं यदा ।। १३८ || साधारणं तदान्यत् स्याद् दशशालचतुष्टयम् । तुल्ये त्रिशाले युज्येते सर्वभद्रादिभिर्यदा ।। १३९ ॥ तदान्या दशशालानां समुत्पद्येत विंशतिः । तेष्वेकमवहन्मृषं विंशतिपयैकया ॥ १४० ॥ वहन्त्या स्यादुभाभ्यां तु नवत्यभ्यधिकं शतम् | चत्वारिंशानि तिसृभिः शतान्येकादश ध्रुवम् ॥ १४१ ॥ चत्वारि स्युचतसृभिः सहस्राणि शताष्टकम् । चत्वारिंशच्च गेहानि जायन्ते पञ्चभिः सह ॥ १४२ ॥ पञ्चभिस्तु सहस्राणि भूषाभिर्दशपञ्च च । जायन्ते सचतुष्काणि तथा पञ्चशतानि च ।। १४३ ॥ अष्टात्रिंशत्सहस्राणि षड्भिः सप्त शतानि च । षष्टयुत्तराणि जायन्ते वेश्मनां परिसङ्ख्यया || १४४ ॥ गृहाणां स्युः सहस्राणि सप्तभिः सप्तसप्ततिः । शतपञ्चकमन्यच्च भवेद् विंशतिसंयुतम् ॥ १४५ ॥ लक्षमेकं सहस्राणि पञ्चविंशतिरष्टभिः । शतानि नव जायन्ते सप्तत्यभ्यधिकानि च ॥ १४६ ॥ लक्षमेकं सहस्राणि सप्तषष्टिः शतानि च । नव स्युः षष्टियुक्तानि नवमूषाप्रचारतः ॥ १४७ ॥ लक्षं चतुरशीतिश्च सहस्राणि शतानि च । सप्त स्युर्दशभिस्तद्वत् पञ्चाशच्च षडुत्तरा ॥ १४८ ॥ लक्षमेकं सहस्राणि सप्तषष्टिश्च वेश्मनाम् । शतानि चैकादशभिः षष्ट्यानि नव निर्दिशेत् ॥ १४९ ॥
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समस्तगृहाणां सङ्ख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः। १११ लक्षं तथा सहस्राणि जायन्ते पञ्चविंशतिः । शतानि च द्वादशभिनेव तद्वन सप्ततिः ॥ १५० ॥ सहस्राणि निकेतानां सख्यया सप्तसप्ततिः । सविंशतिः पञ्चशती त्रयोदशभिरीरिता ॥ १५१॥ अष्टात्रिंशत्सहस्राणि तथा सप्तशतानि च । स्युश्चतुदेशभिः षष्टया वेश्मनामन्वितानि च ।। १५२ ॥ स्यात् पञ्चदशसाहस्री शतैः पञ्चभिरन्विता मूपाभिः पञ्चदशभिश्चत्वारि भवनानि च ॥ १५३ ।। स्युः सहस्राणि चत्वारि तद्वदष्टौ शतानि च । तथा पोडशमूपाणां चत्वारिंशञ्च पञ्च च ।। १५४ ॥ सहस्रं सप्तदशभिः शतमेकं च वेश्मनाम् । चत्वारिंशञ्च वेश्मानि भवन्ति परिसङ्ख्यया ।। १५५ ॥ शतं नवत्यभ्यधिकमष्टादशभिरुच्यते । भवत्येकोनविंशत्या भूपाणां वेग्मविंशतिः ।। १५६ ।। एकमेव गृहं मूषाविंशतेर्वहनाद् भवेत् । सङ्ग्येयं दशशालानां मूपाभेदग्रचारतः ॥ १५७ ॥ प्रयुतं चत्वार्ययुतान्यटसहस्राणि पञ्च च शतानि ।। षट्सप्ततिहाणि च दशशालेचेकसङख्येयम् ॥ १५८ ॥ चतुःशालादिगेहानि यावन्त्यादशशालतः । चतुर्गुणानि प्रत्याशं नान्यलिन्देन निर्दिशेत् ।। १५९ ॥ एकद्वित्रिचतुःशालवेश्मनां सद्धमान्मिथः । गृहाणि दशशालान्तान्येवमुक्तानि विस्तरात् ॥ १६० ॥ समारभ्य चतुःशा(ललं) दशशालान्तवेश्मनाम् । सख्यामिदानीमैक्येन सर्वेपामभिदध्महे ॥ १६१ ॥ मूषाभेदेन लक्षाणि स्स्त्रयोदश वेश्मनाम् । सहस्राण्यष्टनवतिस्तथा वेश्मानि षोडश ।। १६२ ।। मृषासंस्थानभेदेन भिन्नानां वेश्मनां पुनः । जायन्ते कोटिशो भेदा यस्मानोक्तानि तान्यतः ॥ १६३ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे इत्थं चतुःशालमुखानि वेश्मान्युक्तानि यावद्दशशालमत्र । शालाप्रभेदेन मिथो भिषङ्गात् सङ्ख्या च तेपामुदिता यथावत् ॥ १६४ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
समस्तगृहागां सख्याकथनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥
अथ आयादिनिर्णयो नाम पड्विंशोऽध्यायः ।
इदानीमभिधास्यामः सूत्रपातविधेः क्रमम् । शस्ते मासि सिते पक्षे विदध्यात् तं शुभेऽहनि ॥ १ ॥ चैत्रे शोकाकुलो भर्ता वैशाखे च धनान्वितः। ज्येष्ठे गृही विपद्येत नश्यन्ति पशवः शुचौं ॥ २ ॥ श्रावणे धनवृद्धिः स्यान्नभस्ये न वसेद गृहे । कलहश्चाश्विने मासि भृत्या नश्यन्ति कार्तिके ।। ३ ।। मार्गशीर्षे धनप्राप्तिः सहस्ये कामसम्पदः । माघे वह्निभयं चैव फाल्गुने श्रीरनुत्तमा ॥ ४ ॥ द्वितीया पञ्चमी मुख्या सप्तमी नवमी तथा । एकादशीत्रयोद(श्यस्तिश्यो तिथयः स्युः शुभावहाः ।। ५ ॥ चन्द्रताराबलं भर्तुरनुकूलं च शस्यते | श्यं हि सूत्रपाताख्या क्रिया प्रासादकर्मणि ॥ ६ ॥ कार्या पुरनिवेशे च प्रारम्भे भवनस्य च । शिलानिवेशने द्वारस्तम्भोच्छायादिकेषु च ।। ७ ।। आद्रियेत सिते पक्षे शोभने लग्न एव हि । रवी कन्यातुलालिस्थे गृहं वरुणदिङ्मुखम् ।। ८ ।। १. 'विक्र', २. 'र्ता स्याद् वैशाने ध', ३. 'भयं विद्यात् फा, ख. पाठः ।
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आयादिनिर्णयो नाम पड्विंशोऽध्यायः । न कुर्यात तद्धि शून्यं स्यान्न च वृद्धिर्भवेत प्रभोः । न दक्षिणमुखं कुम्भमृगधन्विस्थिते रवो ॥ ९॥ कुर्वीत निष्फलं तत् स्यान्नृपदण्डवधादिकृत् । न मीनऋषमेपस्थे कुर्वीत प्राङ्मुखं रवौ ॥ १० ॥ तद् धनन्नं कलिक्षुद्रराजचौरार्तिकृद् यतः। रवौ मिथुनसिंहस्थे न कर्किस्थेऽप्युदङमुखम् ॥ ११ ॥ कुर्यात् तद्धि दरिद्रत्वं दद्याच्चरणदासताम् । आयव्ययांशकाणि प्रवक्ष्यामोऽथ वेश्मनाम् ।। १२ ।। गृहमानवशात् सम्यक् कर्तुः स्थानवलावलम् । नगरे वा पुरादौ वा दण्डैर्यानं विधीयते ॥ १३ ॥ तदलाभे करैः कार्य सम्यगायविशुद्धये । यत्र हस्तैर्मितिः क्षेत्रे तत्रायो हस्तसंश्रितः ॥ १४ ॥ क्षेत्रालामे तु तत्रैव ग्राह्यः स स्यादिदाङ्गुले (?)। अगुलेस्तु मिते क्षेत्रे सोऽगुलैस्तदलाभतः ॥ १५ ॥ पादैर्वाथ यवैर्वापि ग्राह्यः क्षेत्रानुसारतः । गृहेषु कर्महस्तेन मानं स्वामिकरेण वा ।। १६ ॥ देवतानां तु धिष्ण्येषु कर्महस्तेन केवलम् । देयं हन्यात् पृथुत्वेन हरेद् भागं ततोऽटभिः ॥ १७ ॥ यच्छेषमायं तं विद्याच्छास्त्रदृष्टं ध्वजादिकम् । ध्वजो धृमोऽथ सिंहश्च श्वा वृपः खरकुञ्जरी ॥ १८ ॥ ध्वाक्षश्चेति त उद्दिष्टाः प्राच्याद्यासु प्रदक्षिणम् । अन्योन्याभिमुखास्ते च कामं स्वच्छन्दचारिणः ॥ १९ ॥ प्राचार्यः समुदिष्टा आयद्धिविधायकाः ।। वृषसिंहगजाः शस्ताः प्रासादपुरवेश्मसु ॥ २० ॥ ध्वजेऽर्थलाभः सन्तापो धूमे भोगो मृगाधिपे । कलिः शुनि धनं धान्यं वृषे स्त्रीदूपणं खरे ॥ २१॥
1. 'दक्षिणाभिमु', २. 'चापस्थि' ख. पाठः । ३. 'रामिकृ' क. पाठः । ४. 'च' ख. पादः।
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समराङ्गणसूत्रधार गजे भद्राणि दृश्यन्ते वाले नु मरणं ध्रुवम् । वृषस्थाने गजं कुर्यात् सिंहं कृपभहस्तिनीः ।। २२ ॥ न कुर्याद् वृषमन्यत्र शस्यते सर्वतो ध्वजः । कल्याणं कुरुते सिंहो ब्राह्मणस्य विशेषतः ॥ २३ ॥ क्षत्रियस्य गजः शस्तो पणः शस्यते विदाः । शूद्रस्य ध्वज एवैकः शस्यतेऽर्थप्रदः सदा ॥ २४ ॥ एवमेते गृहादीनामायाः सर्वे प्रकीर्तिताः । प्रदद्यादासने सिंहमातपत्रेपु तु ध्वजम् ।। २५ ॥ चिह्नेष्वपि च सर्वेषु चामरव्यजनादिपु । सिंहं गजं वा शस्त्रेषु रथेषु कवचेषु च ॥ २६ ।। सार्यश्वेगजपयाणेष्चिमं वृषभमेव च ।। अर्थधारणपात्रेषु शयनेषु मतङ्गजम् ।। २७॥ याने च वाहने चव मतिमान योजयेद् गजम् । प्रासादप्रतिमालिङ्गपीठमण्डपवेदिषु ।। २८ ।। कुण्डेषु च ध्वजं दद्याद् देवोपकरणेषु च । आयो गृहवदुद्वाहवेदीमण्डपयोर्भवेत् ।। २९ ॥ महानसे वृषं दद्याजलाधारे जलाशये । स्थाल्यां भोजनपात्रे च कोष्ठागारेऽन्नधारणे ॥ ३० ॥ एतद्गृहे तथा दद्याद गृहोपकरणेषु च । वृषभं गजशालायां प्रदद्याद् गजमेव वा ।। ३१ ।। वर्ष तुरगशालासु गोशालागोकुलेषु च । गजाश्वपशालासु सिंहं यत्नेन वजेयेत् ॥ ३२॥ अपमानां खरध्वाङ्क्षधूमश्वानः शुभावहाः । धूमोऽग्निजीविनां शस्तो ध्वाक्षः सन्यासिनां हितः ॥ ३३ ॥ स्वगगानां श्वयाकानां स्ववेश्मानां खर: शुभः। नटनर्तकवेश्मेषु पण्यस्त्रीणां खरः शुभः ॥ ३४ ॥ कुलालरजकादीनां तथा गदेभ जीविनाम् । गृहादिषु क्षेत्रफलं गणयदष्टभिर्भजेत् ।। ३५ ।। १. 'शाम', २. 'स्व' क, पाठः। ३. 'गु ख. पाठः !
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आयादिनिर्णयो नाम पडिशोऽध्यायः । त्रिघनेन भजेच्छेपं नक्षत्रेऽष्टहते व्ययः । पिशाचो राक्षसो यक्ष इति त्रेधा व्ययो मतः ॥ ३६ ॥ साम्याधिक्यन्यूनताभिरायतः स्याद् यथाक्रमम् ।। व्ययं क्षेत्रफले क्षिप्त्वा गृहनामाक्षराणि च ॥ ३७ ॥ भागं त्रिभिहरेत तत्र यच्छेषं सोऽशको भवेत् । चतुरङ्गो यथा मन्त्रो मुख्यो लग्ने नवांशकः ॥ ३८ ॥ तथा गृहादिषु प्रोक्तं मुख्यत्वेनांशकत्रयम् । इन्द्रो यमश्च राजा च त्रयो नामभिरंशकाः ॥ ३९ ॥ स्वनामतुल्यफलदा विज्ञातव्यास्त्रयोऽपि च । गणयेत् स्वामिनक्षत्राद् यावत् स्याद् भवनस्य भम् ॥ ४० ॥ नवभि जिते तस्मिञ् शेषं तारा प्रकीर्तिता । जन्मसम्पद्विपत्क्षेमपापसाधक धनीः ।। ४१ ।। मैत्रीपरममैत्र्यौ च पाहुः संज्ञाः समाः फले । त्रिसप्तपञ्चमीभतुग्रहतारा विवजेयेत् ४२ ॥ आद्याद्वितीयाप्टम्यस्तु ताराः स्युरिह मध्यमाः । तथा ऋक्षेऽपि चानिष्टे चन्द्रेऽष्टमगतेऽपि च ॥ ४३ ॥ नयते दुरितं तारा चतुःपण्णवनी(?)नृणाम् । सुरराक्षसमयाख्या कक्षाणां स्थुर्गणास्त्रयः ॥ ४४ ॥ यद्गणर्यो भवेद् भर्ता तद्गणसं गृहं शुभम् । मृगाश्विरेवतीस्वात्यो मेत्रं पुष्यपुनर्वम् ।। ४५ ।। हस्तः श्रवण इत्येष देवाख्यो नवको गणः । विशाखा कृत्तिकाश्लेषा नैर्ऋतं वारुणं मघा ॥ ४६ ।। चित्रा ज्येष्ठा धनिष्ठेति नवको राक्षसो गणः । आद्राभरण्यो रोहिण्यो?ण्या) तिस्रः पूर्यास्तथोत्तराः ॥ ४७ ॥ इति नक्षत्रनवकं विज्ञेयं मानुपे गणे । गणसाम्यं शुभा तारा यस्याया तृ?च)व्ययोऽल्पकः ।। ४८ ।।
१. 'स्माच्छेप', २.
'. ३.
यस्तिस्नः' ख. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे
हितोऽशकश्च तद्वेश्म भर्तुः शुभफलप्रदम् ।
आयो व्ययश्च योनित्वं ताराय भवनांशकाः ॥ ४९ ॥ गृहनामेति चिन्त्यानि करणानि गृहस्य पत्। त्रिभिः शुभैः शुभं वेश्म द्वाभ्यामेकेन चाशुभम् ।। ५० । करणैश्चतुराद्यैस्तु शुभैरविशुभं भवेत् ।
न समायव्ययं वेश्म नाव्ययं नाधिकव्ययम् ॥ ५१ ॥ न द्वितीयांशमसदृज्योनिभं च न कारयेत् । भर्तृतुल्याभिधानं च गृहं दूरात् परित्यजेत् ।। ५२ ।।
समसप्तकमेक तृतीयैकादशं तथा । चतुर्थदशकं चेति कर्तव्यं मन्दिरं सदा ॥ ५३ ॥ षट्कोष्ठकं त्रिकोणं च वद्विदर्श तथा । षट्कोष्ठके मृर्तिदैन्यं त्रियोगश्च भवेद् गृहे || ५४ || त्रिकोणे वसतां दुःखं वैधव्यं च प्रजायते । fairs पुत्रपौत्रगुरुः ।। ५५ ।। हृतेsभिः क्षेत्रफले नेत्रशिभाजिते । शेषं जीवितमेतस्मिन् पञ्च भवेन्मृतिः ॥ ५६ ॥ सभुजं सहनदास खण्ड संयुतम् । आयामतः पृथुत्वाचमानं कृत्वा विभाजयेत् ॥ ५७ ॥ सर्वतः शोधितं वास्तु यच सम्यहमितं भवेत् । स्वामिनस्तद् भवेद् धन्यं स्थपतेव यशस्करम् ॥ ५८ ॥ अर्चितं वर्धते वास्तु नारीभिः पशुभिर्नरैः । कर्धनधान्यैव मदेस्तु महोत्सवः ॥ ५९ ॥ मेरु खण्डमेरुश्च पताका सूचिका तथा । उद्दिष्टं नष्टमिति पद् छन्दांसीह प्रचक्षते ॥ ६० ॥ एकाकोत्तरान् कोष्ठान् विन्यसेदिच्छयात्मनः । आद्यादारभ्य तदवृद्धिर्यथा स्यात् पार्श्वयोः समम् ॥ ६१ ॥
१. 'नव्यांश', २. 'तू', ३. 'शे', ४. 'र्यशसोत्स' ख. पाठः ।
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आयादिनिर्णयो नाम षड्विंशोऽध्यायः ।
मेरेकाधिक सङ्ख्या शरावस्येव चाकृतिः । प्रथमे कोष्टके रूपमन्तं यावच्च पार्श्वयोः ॥ ६२ ॥ आसनोर्ध्वस्थयोर्न्यस्येन्मध्ये सङ्कलितं पृथक् । तस्मिन्निष्टत्रिकल्पानां सख्या स्यादन्त्यवक्तिगा ॥ ६३ ॥ खण्डमेरुं तु विन्यस्थेत् तद्वदेवैकपार्श्वतः । वृद्धैः कोष्ठकैस्तत्राप्यङ्काः प्राग्वत् फलं तथा ।। ६४ । अथापरः खण्डमेरुः कोष्ठांस्तत्रेष्टसङख्यया । कृत्वैकापचितान् वामविभगापचितानयः ॥ ६५ ॥
एकाद्येकोत्तरानङ्कानाद्यपङ्क्तौ निवेशयेत् । अन्यासु पङ्क्तित्रामान्तं शून्या (न्याना) द्येषु कल्पयेत् ।। ६६ ।।
द्वितीयेषु च कोष्ठेषु तासामेकैकमावयेत् ( 2 ) | द्वितीयायां तृतीयादिकोष्ठकेषु यथाक्रमम् || ६७ ॥
विकर्णयोगजानन्यान्वधोयोगसंभवान् ।
फलं विकर्णयोगोत्थमेकस्मिन् परिकल्पयेत् ॥ ६८ ॥ एकाधिकानभीष्टायाः सङ्ख्यायास्तिर्यगालिखेत् । कोठा (कांच air) रूपादींस्तन्मध्ये द्विगुणोत्तरान् ॥ ६९ ॥ एकोनं पृष्ठतस्तेषामेकं द्विगुणमग्रतः । नातिक्रामेत् परां सङ्ख्यां पताकाछन्द उच्यते ॥ ७० ॥ तद्विनेष्टाद्यगा सङ्ख्येत्येकाद्यैस्तैस्ततो गृहे । न्यस्ताङ्कसङ्ख्याः सङ्ख्याः स्युरलिन्दाद्यैः प्रकल्पिताः ॥ ७१ ॥ एकैकमिष्टस्थानेषु लिखेत् सैकेष्वतः परम् । अन्त्या (?) ने पूर्वपूर्वयुक्तेनायोजयेत् परम् || ७२ ||
अन्त्यादारभ्य तद्वनावेकायेषु ( ? ) च पर्ययात् । अलिन्दादिषु यत्र स्यात् सङ्ख्या सूचीं तु तां विदुः ॥ उद्दिष्टे स्थापयेत् सङ्ख्यामुद्दिष्टां सम्भ (वे? जे )च्च ताम् । दलयेद् रूपयुक्तां तु दलयेन्नाम सम्भवेत् (१) ॥ ७४ ॥
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१. ‘सा’, २, ‘म्', ३. 'द्वातपूर्व पू', ४. 'भ' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे लघुस्वरूपदलने सैकार्थे करणे गुरुः । यावदिष्टपदाप्तिः स्याल्लघवोऽलिन्दकोदयः ।। ७५ ॥ कृत्वा छन्दःसमुद्दिष्टं तदन्ते लघुनि द्विकम् ।। न्यसेदेकं गुरूणां च द्विगुणं द्विगुणं ततः ।। ७६ ॥ व्यत्ययाल्लधुनः स्थाने द्विगुणादेककं गुरोः । कुर्यात् तमाद्यस्थानाङ्कसङ्ख्यं नष्टे गृहं भवेत् ।। ७७ ।। प्राप्तस्यैकं कोष्ठमेकैकद्धया न्यस्थेदूवं पङ्क्तयो यावदिष्टाः ।
इष्टानेकादीलिखेदानुपूा कर्णेनाधः शून्यरूये च दद्यात् ।। ७८ ॥ कर्णस्थाङ्कश्लेषतोऽङ्के भवेद् यस्तं विन्यस्येत् कोष्ठकेषु क्रमेण । उद्दिष्टाङ्को भद्रसङ्ख्यानि मध्ये याभ्यः कर्णश्लेपतो मूषिकास्ताः ॥७९॥ एकादिपु द्विगुणितेष्विह यावदिष्टमूपाक्रमव्युपहितेष्वथ तेषु विद्यात् । उद्दिष्टवेश्मकृतनिर्गममार्गमूपासत्काङ्कसैकयुतिनिर्मितसङ्ख्यमोकः ।। ८० ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवनिरचिने समाराङ्गणमूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे आयव्ययनक्षत्रराशिफलतद्योगताराङ्कयोनितच्छन्दोगनिर्णयो नाम
पड्विंशोऽध्यायः॥
अथ सभाष्टकं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ।
नन्दा भद्रा जया पूणा सभा स्याद् भाविता तथा । दक्षा च प्रवरा तद्वद् विदुरा चाष्टमी मता ॥१॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे ततः षोढा विभाजिते । मध्ये पदचतुष्कं स्यात् सीमालिन्दस्तु भागिकः ॥ २ ॥ तद्वाद्योऽलिन्दकस्तद्वद् भवेत् प्रतिसराभिधः । माग्ग्रीवाख्यस्तृतीयश्च बहिः क्षेत्राच्चतुर्दिशम् ॥ ३ ॥
१. 'भि' ख, पाठ
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गृहद्रव्यप्रमाणानि नामाष्टाविंशोऽध्यायः । १४९ निसृष्टसौधयैर्वा(?) स्यादेकस्यां वा यदा दिशि । नन्दा भद्रा जया पूर्णा क्रमेण स्युः सभास्तदा ।। ४ ।। पड्भागभाजिते क्षेत्रे कर्णभित्तिं निवेशयेत् । सभा स्याद् भाविता नाम सप्राग्नीवात्र पश्चमी ॥ ५ ॥ स्तम्भान् पट्त्रिंशदेतासु पञ्चस्वपि निवेशयेत् । स्तम्भान् प्राग्नीवसंवद्धान् पृथगेभ्यो विनिर्दिशेत् ।। ६ ॥ दक्षेति षष्ठी परितस्तृतीयालिन्दवेष्टिता । प्रवरा सप्तमी द्वारयुक्तैया परिकीर्तिता ।। ७॥ प्राग्नीवद्वारसंयुक्ता विदुरेत्यष्टमी सभा । सभानामिदमष्टानां लक्षणं समुदाहृतम् ॥ ८ ॥ इत्यष्टानां लक्ष्म सम्यक् सभाना
मेतत् प्रोक्तं दि भवालिन्दभेदात् । तद्वद् द्वारालिन्दसंयोगतश्च
ज्ञातेऽत्र स्याद् भूभृतां स्थानयोगः ॥९॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारपिरनागिन वास्तुशास्त्रे
समाष्टकं नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥
अथ गृहद्रव्यप्रमाणानि नामाष्टाविंशोऽध्यायः ।
उपादेयानि यान्यत्र परित्याज्यानि यानि च । गृहद्रव्यप्रमाणानि तानीदानी प्रचक्ष्महे ॥ १ ।। द्वारस्य गृहविस्तारैईस्ततुल्यामुलैभवेत् । उच्छ्रायः सप्तभियुक्तेर्विस्तृतिस्तु तदर्धतः ॥२॥ प्रकल्पयेद् गृहद्वारं क्रमेणैव कनीयसा(म्) । त्रैराशिकेन मध्यानां द्वादशांशं परित्यजेत् ।। ३ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे
इत्युच्छ्रितिस्तदर्धेन सर्वेषामपि । उच्छ्रायमुत्तमानां तु कुर्यादष्टांशवर्जितम् ॥ ४ ॥ विस्ताराङगुलसंयु (क्तां? कं) कुर्यादतिकीय पा चतुःषष्टिगृहद्वारमुदयेनार्वेस्ति ॥ ५ ॥
विस्तारहस्ततुल्यानि पष्टचा पञ्चाशताथवा । संयुतान्यङ्गुलानि स्यादुच्छ्रायोऽर्थेन विस्तृतिः ॥ ६ ॥
गृहोत्सेवेन वा त्र्यंशहीनेन स्यात् समुच्छ्रितः । तदर्धेन तु विस्तारो द्वारस्येत्यपरे विधिः ॥ ७ ॥ द्वारोच्छ्रायकरैस्तुल्येष्वङ्गुलेषु विनिक्षिपेत् । चत्वारि पेद्यापिण्डः स्यात् सपादं विदधीत तम् ॥ ८ ॥ सार्धं वा सत्रिभागं वा द्विगुणं चाषिक ने तु । एवं कृते भवेद् द्वारपेद्याया विस्तृतिः स्फुटा ॥ ९ ॥ सार्धेन पेद्यापिण्डेन पि(ण्डं स्याण्डस्यो ) दम्बरो भवेत् । सास्तु पेद्याविस्तारः स्वादुदुम्बरविस्तृतिः ॥ १० ॥ पेद्यापिण्डेन तुल्या स्याच्छाखाया विस्तृतिः शुभा । सार्धया वैतया रूपशाखाया अपि विस्तृतिः ॥ ११ ॥ विस्तारार्धेन पेद्यायाः खल्वशाखा विधीयते । रूपशाखासमा वा स्यात् सार्धा वा वाह्यमण्डला ॥ १२ ॥ पादोना व्यंशहीना वा विस्तारादर्थमेव वा । मासादेषु च तुल्यः स्याद् भारशाखाविनिर्गमः || १३ ॥ आवा शाखा भवेद् देवी द्वितीया नन्दिनीति च । तृतीया सुन्दरी नाम चतुर्थी स्वात् मियाना ॥ १४ ॥ भद्रेति पञ्चमी शाखा प्रशस्ताः पञ्च वेश्मनि । अतोऽधिकास्तु याः शाखा गृहद्वारि न ताः शुभाः ॥ १५ ॥ विस्तारात् षोडशो भागचतुर्हस्तसमन्वितः । तलोच्छ्रयः प्रशस्तोऽयं भवेद् विदितवेश्मनाम् ॥ १६ ॥ १. ' ततः ', २. 'तु', ३. 'तेषां कनिष्ठश्मना ।' ख. पाठः ।
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गृहद्रव्यप्रमाणानि नामाष्टाविंशोऽध्यायः । सप्तहस्तो भवेज्ज्येष्ठ मध्यमे पढ़करोन्मितः । पञ्चहस्तः कनिष्ट तु विधानन्यस्त पोदयः ॥१७॥ ज्येष्ठे भवेत् सप्तदशहस्तानछाला विस्तृता । मध्यमे दशहस्ता तु पञ्चहस्तात् कनीयसि ॥ १८ ॥ उदुन्ध (पारस्य) बा (कोल्यात ) तलन्यासं लु कारयेत् । नलन्याससम प लिन्दस्व परिग्रह ॥ १९ ।।। द्वारविस्तारपादे भकोटिर्विधीयते । साष्टांशेनाधिकेनाथ मनिभागेन वा पुनः ॥ २० ॥ कुर्यादेकादशांशेन तथास्यैव प्र(या?णा)लिनीम् । स्तम्भान कुर्याहतेऽष्टांशान्नव द्वादशधाथवा ॥ २१ ॥ भागैस्ततः स्वार्धसमैरर्धभागसमन्वितैः । अधस्तादष्टभागा स्यात् स्तम्भस्य प्रतिपालना ॥ २२ ॥ स्तम्भमूलस्य विस्तारादर्धेन स्थलनिर्गमः । तदर्धन विधातको सरकविमिर्गवः ॥ २३ ॥ उत्कालकसमुद्रायः स्तम्भपिण्डसमः शुभः । कुम्भिकोल्कालका पिण्डे विस्तारेऽष्टांशसम्मिता ॥ २४ ॥ प्रागुक्तस्तम्भमागेन सपादेन विधीयते । दीर्घत्वमाद्यपत्राणां शेषाणां पादहानितः ॥ २५ ॥ पादः पादो भवेन्यूनः पत्राणां सनोच्छ्यात् । साधंभागोच्छ्रिता काया रसना कण्टकोपमा ॥ २६ ॥ साधपादोच्छ्रिता या जङ्गा शेषं यथोदितम् । इत्थं स्पाइ पनजस्तम्भो युक्या गुक्तस्वरूपकः ।। २७ ।।
अष्टाश्री दा विधातव्यः स्तम्भमत्रपरिक्रमात् । तद्विस्तारसमं स्पलोत्सेधं पागान् विभाजयेत् ।। २८ ॥ अष्टाश्रच्छेदमानेन वाह्यसूत्रानुपलान् । विदध्यान्मध्यभागे तु कोणांच पलिकाकुलान् (?) ॥ २९ ।। १. 'म्ब++वाहभ्य त ' (?), २. 'नप' ख, पाटः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे घटिका पुष्पमालाभिः पल्लवश्वोपशोभिता । छेदभागः समः कार्यो वहिर्भागविवर्जितः ॥ ३०॥ घटपल्लवको नाम स्तम्भोऽयं परिकीर्तितः । विहितो वेश्मनामेष स्वामिनः श्रेयसे भवेत् ॥ ३१ ॥ कुबेरो वा विधातव्यः पोडशाश्रक्रियान्वितः । ऊर्ध्वतः पल्लवाकीर्णो जङ्घास्य चतुरश्रिका ।। ३२ ॥ श्रीधरश्च भवेद् वृत्तः कल्पनास्य कुबेरवत् । एवं गृहाणां चत्वारः स्तम्भा लक्ष्मभिरीरिताः ॥ ३३ ॥ स्तम्भमूलस्य विस्तृत्या तलप(द)स्य विस्तृतिः । सपादया विधातव्या बाहुल्यं पादहीनया ॥ ३४ ॥ स्तम्भेन तुल्यं विस्तारे वाहल्ये पदसम्मितम् । हीरग्रहणमायामे स्तम्भायात् त्रिगुणं भवेत् ॥ ३५ ॥ हीरग्रहणविस्तार भागात् सप्त प्रकल्पयेत्(?) । तत् स्यात् सृष्टोत्तरं भागं भागेनेष्टं प्रवेशनम् ॥ ३६ ॥ तस्याधस्तात् त्रिकण्टेन त्रिभागं लम्बितेन च । लिखेदुभावर्धचन्द्रौ पार्श्वयोरुभयोरपि ।। ३७ ॥ खल्वं कृत्वा ततो मध्यं भागद्वयमधोगतम् । कुर्यात् त्रिकण्टकं कान्तं तुम्बिकामथ लम्बिकाम् ।। ३८ ।। द्वयोर्मध्येऽपरं भूयो द्विभागस्थं च कण्टकम् । तुम्बिको लम्बमानां वा पत्रजातिविभूषिताम् ।। ३९ ।। तस्याश्चापरतीरं स्यात् पद्मपच्या विभूषितम् । तलपट्टसमः पेद्रो विस्तारात् पिण्डतोऽपि च ॥ ४० ॥ पट्टव्यंशेन तीरे स्यात् पट्टपिण्डानिर्गमः । स्तम्भाग्रेण समा कार्यो विस्तारस्थौल्यतस्तुला ।। ४१ ॥ तदर्धेन जयन्तीनां कर्तव्ये पिण्डविस्तृती। ताभ्यो विधेयाः पादोनाः सन्धिपाला यदृच्छया ॥ ४२ ॥ नियृहेषु च ये पट्टाः पादौनांस्तांस्तु कारयेत् । तुलापट्टाश्च पादोनास्तदर्धन जयन्तिकाः ॥ ४३ ॥
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गृहद्रव्यप्रमाणानि नामाष्टाविंशोऽध्यायः । १५३ तुलान विधातव्या प्रतिमोकस्य विस्तृतिः । पट्टस्योपरि कण्ठः स्याद भूपितो रूपकर्मणा ॥ ४४ ॥ वेदिका(जीजा)लरूपाद्या नियूहे संप्रशस्यते । विधातव्या च सच्छत्रा निवद्धार्णवापिका ॥ ४५ ॥ स्तम्भपट्टा(शुस्तु) विस्तीणीन् सपादास्तत्र कल्पयेत् । तुलापिण्डाः समाः कायाः सङ्ग्रहः सुदृढेयुताः ॥ ४६॥ वेदिकाजालसम्पन्नं तलं कार्य मनोरमम् । भूमीभूमी भवेत् तच्च द्वादशांशविवर्जितम् ।। ४७ ।। प्रणाल्यः सर्वतः कार्या मूलग्राहाग्रनिर्गमाः । दण्डाद्यं गृहेषु स्याज्ज्ञेयं तच्च चतुर्विधम् ॥ ४८ ।। भूताख्यं तिलकं तद्वन्मण्डलं कुमुदं तथा । गृहच्छाधेषु तेषु स्यादुच्छ्रायोऽपि चतुर्विधः ॥ ४९ ॥ क्षेत्रतर्यांशतः कार्यो दैर्येणच्छाद्यदण्डकः । तदर्ध मुष्टिकायामो दण्डव्यंशेन लम्बना !! ५० ॥ चतुरश्रं समं कान्तं मधुरं सुदृढं धनम् ।। वेश्मनां छाद्यकं कार्य भूतं नाम्ना सुपूजितम् ॥ ५१ ॥ तस्यैवाष्टादशो भागो यदा स्यादुच्छ्येऽधिकः । उदयस्तिलको नाम शस्तः स गृहकर्मणि ॥ ५२ ॥ द्वाभ्यामुच्चतरः पूर्वो मण्डलः कुमुदस्त्रिभिः । अभित्ति(स्थेस्थं) भवेच्छा(येय) चन्द्ररेखाविभूषितम् ॥ ५३ ॥ गुणरागान्विता भित्तिर्यद्वा धनचयात्मिका । तत्रच्छाद्यं भवेचान्यदवधारणसंज्ञितम् ।। ५४ ॥ सिंहकर्णकपोतालीघण्टाकर्णार्धपक्षगाः । ध्वजच्छत्रकुमारांश्च गृहेषु परिवर्जयेत् ॥ ५५ ॥
१. 'का' ख. ग. पाठः। २. 'णकवा' ग. पाटः। ३. 'ला' ख. ग. पाठः। ४. 'च्छाद्यगृ' ग. पाठः । ५. 'ण्डं', ६. 'इमसुच्छा', ७. 'रतः', ८. न्द्रे', ९.'अ' ख, ग, पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे न पक्षराजिवसिंहकर्णकुमारघण्टाः समरालपल्लीः । न प्रस्खलांधानि नचैव पत्राण्यायोजयेद् वेश्मसु मङ्गलार्थी ।। ५६॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
गृहद्रव्यप्रमाणानि नामाष्टाविंशोऽध्यायः ॥
अथ शयनासनलक्षणं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
इदानीमभिधास्यामः शयनासनलक्षणम् । शुभाशुभपरिज्ञानं येन सम्यक् प्रजायते ॥ १ ॥ मैत्रे मुहूर्ते पुष्यस्थे शीतरश्मी शुभेऽहनि । सम्पूज्य देवताः सम्यक् कारम्भ समाचरेत् ॥ २ ॥ वृक्षास्तत्र प्रशस्यन्ते चन्दनस्तिनिशोऽर्जुनः । तिन्दुकः सालशाकी च शिरीषासनधन्वनाः ॥३॥ हरिदुर्देवदारुश्च स्यन्दनोको सपनको । श्रीपर्णी दधिपर्णश्च शिंशपान्येऽपि ये शुभाः ॥ ४ ॥ गृहकर्मणि ये नेष्टा वृक्षास्तेऽत्रापि निन्दिताः । हेम्ना रूप्येण चानद्धा गजदन्लेन वा शुभा ॥५॥ आरकूटेन वा नद्धा शय्या कार्या विचक्षणः । पूर्वच्छिन्नं यदा दारु शयनासनहेतवे ॥ ६ ॥ आदीयते तदारम्भे निमित्तान्युपलक्षयेत् । दध्यक्षतान् पूर्णकुम्भ रत्नानि कुसुमानि वा ॥ ७ ॥ सुगन्धद्रव्यवस्त्राद्यान् मत्स्याश्वयुगलं तथा । मत्तवारणमन्यांश्च शुभान् वीक्ष्यादिशेच्छुभम् ॥ ८ ॥
१. 'रा', २. 'नरैव' ख, ग, पाठः। ३. 'शा' का. पाठः । ४. 'भाः । सर्वदन्तमयी शय्या हेमरत्नान्विता शुभा । गृ' क. ख. ग. पाठः।
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शयनासनलक्षणं नामकोनत्रिंशोऽध्यायः । कर्मागुलं समुद्दिष्टं वितुपैरष्टभिर्यवैः । अष्टोत्तरशतं तेषां शय्या ज्येष्ठा महीभुजाम् ।। ९ ।। मध्या महीभुजां शय्या शतं स्याच्चतुरुत्तरम् । शतं कनीयसी प्रोक्ता नृपाणां विजयावहा ॥ १० ॥ नवतिर्नुपपुत्रस्य मन्त्रिणः सा पडुज्झिता । द्वादशोना बलपतेत्रिपदकोना पुरोधसः ।।११।। आयामार्धेन विस्तारं सर्व शय्यासु कल्पयेत् । यहा निजाष्टभागेन पहभागेनाथवाधिकम् ।। १२ ॥ विप्राणां शस्यते शय्या देयेणाङ्गुलसप्ततिः ।। द्वाभ्यां द्वाभ्यामगुलाभ्यां हीना स्याच्छेषवर्णिनाम् ॥१३॥ बाहल्यमुत्पलस्य स्यादुत्तमस्यागुलत्रयम् । अगुलद्वितयं साधं मध्यस्य द्वे कनीयसः ॥ १४ ॥ वाहल्यमीशादण्डस्य कुर्यादुत्पलसम्मितम् । साधं सपादं सव्यंशं तस्य विस्तारमुत्पलात् ।। १५ ।। विस्तारार्धन शय्यायाः स कुष्यस्य विधीयते । तत्पादस्योद(यो?यो) मध्यहीनो द्विचतुरुज्झितों ॥ १६ ॥ अर्धेन मध्यविस्तारान्मध्ये वाहल्यमिष्यते । त्रिभागहीनमिच्छन्ति पादोनमपि केचन ॥ १७ ॥ स्थौल्येन पादोऽधः शीर्यादुत्पलेन समो भवेत् । मध्ये सपादः साधेश्च तले वृद्धिः क्रमेण सा ॥ १८ ॥ षड्भागोऽस्याधिको यद्वा मध्ये त्र्यंशाधिकस्तले । तत्कुष्यमुत्पलव्यंशो मूले तस्यार्धमग्रतः ॥ १९ ॥ उत्सेधतुल्यो विस्तारः कार्यो वा भ्यङ्गुलाधिकः । सपत्रकलिकापत्रपुटग्रासविभूषितः ।। २० ।। कुर्यात् प्रदक्षिणाग्राणि शत्राकानि समन्ततः । ऊध्वाग्रा निखिलाः पादाः स्वामिनो वृद्धिहेतवे ॥ २१ ।।
१. 'ध्यमा नृपतेः श' ख. ग. पाटः। २. विख. पाठः। ३., ४. 'ना' क. पाठः । १. सः' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे श्रेष्ठकद्रव्यजा शय्या मिश्रद्रव्या न शस्यते । एकदारुं प्रशंसन्ति द्विदारुभयमावहेत् ॥ २२ ॥ त्रिदारुघटितायां तु स्वामिनो नियतो वधः । शय्यायां जायते यस्मात् तस्मात् ता परिवर्जयेत् ॥ २३ ।। मूलमग्रेण संयुक्तमपसव्यं विगर्हितम् । मूलं मूलेन वा विद्धमेकाग्रे द्वे च दारुणी ॥ २४ ॥ मध्ये व्रणो मृत्युकरस्त्रिभागे व्याधिकारकः । केशावहश्चतुर्भागे शिरस्थो द्रव्यहानिकृत् ॥ २५ ॥ निर्दोषगाने पर्यङ्के पापस्वप्नो न दृश्यते । ग्रन्थिकोटरवत् कुर्यात् तस्मान्न शयनासनम् ॥ २६ ॥ आसनं शयनीयं च ग्रन्थिकोटरवर्जितम् । बहुपुत्रकरं प्राहुधेमकामार्थसाधनम् ॥ २७ ॥ आरोहणे प्रचलति शयने कम्पते तथा । विदेशयानकलहौ ते क्रमेण प्रयच्छतः ॥ २८ ॥ सुश्लिष्टां तामतः कुर्यान्निर्दोषां वर्णशालिनीम् । दृढां स्थिरां च स्थपतिः पत्युः कामविऋद्धये ।। २९ ।। निष्कुट कोलहक क्रोडनयनं वत्सनाभकम् । कालकं बन्धकं चेति छिद्रसंक्षेप इंरितः ॥ ३० ।। घटवत् सुषिरं मध्ये सङ्कटास्यं च निष्कुटम् । कोलाक्षं नीडमिच्छन्ति माषनिष्पावमात्रकम् ।। ३१ ।। अध्यर्धपर्वदीर्घ च विवर्ण विपमं तथा । तदिह क्रोडनयनं छिद्रमाहुमहर्षयः ॥ ३२ ।। भिन्नं पर्वमितं वामावर्त स्याद् वत्सनामकम् । कालकं कृष्णकान्ति स्याद् विनिर्भिन्नं तु वन्धकम् ॥ ३३ ॥ छिद्रं दारुसवर्णं यत् तनो शुभकरं तथा । निष्कुटेऽर्थक्षयः कोललोचने कुलविद्रवः ॥ ३४ ॥ १. 'मा' क. पाठः । २. 'क', ३. 'व्यायां कम्पतेऽथवा ।', ४. 'न्धु' ख. पाठः ।
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शयनासनलक्षण नाम कोनत्रिंशोऽध्यायः । शस्त्राद् भीः कोडनयने वत्सनाभ रुजी भयम् । कालके बन्धकारज्ये व कीटको शुभम् ॥ ३५ ॥ सर्वत्र प्रचुरग्रन्थि दारु लवमगि । शय्यार्थ कथितः कलमं दाभिः समासनम् ॥ ३६॥ उपवेशसुखं मानं प्रशस्तान का पाम् । पुष्करः मदहस्तश्च वृत्तोऽगलचतुष्टयात् ॥ ३७ ।। आरभ्य विस्तरात् कार्याला वाचनबाङ्गुलम् । पुष्करन्यासना दगदर भ नुगमः ।। ३८ ।। फलकः पुष्कराधेन तत्तुल्यदास्य मूलकः । स्थूलः स्याचतुरंशेन दण्डपुष्करविस्तरात् ।। ३९ ।। खातं च पुष्करस्यान्तस्तावर गाम्भीर्य मिष्यते । प्रशस्तसारदारूत्थः कर्तव्योऽस्य प्रयोजनम् (?) ॥ ४० ॥ परिवेपणमन्यन पच्यमानानपट्टकम् (?) । कार्यः कङ्कतकः शम्ताबुदाकजः ।। ४१ ॥ आरभ्य देणाष्टभ्यः स्याद् वायद द्वादशाङ्गुलम् । सार्धाङ्गुलं चतुर्भाग विस्तारेण च देयतः ॥ ४२ ।। मध्ये च तस्य बाहल्य विस्ताराष्टांशतो भवेत् ।। एकतः स्थूलविस्तारा भवेयुस्तस्य दन्तकाः ॥ ४३ ।। अन्यतस्तु घनाः भूक्ष्मास्तीक्षणा पोस्तथाग्रतः ।। मध्ये त्रिभागभुराज्य दन्तका भागबोईयोः ।। ४४ ॥ त्रिभिर्भागे हृते तेपां न शेपस्तान लिवर्जयेत् (?) । गजदन्तमयः श्रेष्ठस्तथा शाश्वोक्षजः ॥ ४५ ॥ मध्यमो दारुभिः शेप बन्योऽसारदारुजः । रूपकैः स्वस्तिकाद्यैर्वा स मध्ये स्याइलङ्कृतः ॥ ४६ ॥ यकाद्यपनये केशविवेके शोषयुच्यते । अगुलेनाधिके पादात् कायें ये पादके ।। ४७ ॥
१. 'र:' ख. पाठः । २. 'स्य यावद गा', ३. 'नघण्ट' क. पाठः ४. 'हे', ५. 'सयगुलं', ६. 'ताम् ' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
कृतायां पञ्चधा तस्यां कुर्याद् भागत्रयं पुरः | पश्चाद् भागद्वयं तत्र सङ्ग्रहोsस्या विधीयते ॥ ४८ ॥ अगुलत्रयमुत्सेधो विस्तारोऽङ्घयेनुसारतः । अङ्गुल्य गुष्टयोर्मध्येमागे मत्स्याद्यलङ्कृतौ ॥ ४९ ॥ कर्तव्यों कीant काष्ठन्तशृङ्गादिसम्भवा । गजेन्द्रदन्तः श्रीखण्ड श्रीपयों मेपशृङ्गिका ॥ ५० ॥ शस्ताः पादुकयोः शाकक्षीरिणीचिरविल्विकाः । इदमिह शयनानामासनानां च लक्ष्म प्रकटितमनु यः कङ्कतस्यापि सम्यक् । शुभमथ विपरीतं पादुकानां च विद्वान् सकलमिति विदित्वा पूज्यतामेति लोके ॥ ५१ ॥
इति महाराजाधिराजश्री भोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्र शयनासनलक्षणं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥
अथ राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः ।
अष्टोत्तरशतं ज्येष्ठं मध्यं स्यान्नवतिं करान् । जघन्यं सप्ततिकरान् राजवेश्म प्रशस्यते || १ | अतो हीनं न कर्तव्यं महतीं श्रियमिच्छता । चतुरश्रीकृते क्षेत्र दशधा प्रविभाजिते || २ || भागार्थं शस्यते भित्तिरादिकोणसमाश्रिता । चतुष्को" भागिको मध्ये चतुः स्तम्भसमन्वितः ॥ ३ ॥
अलिन्दस्तद्बहिः कार्यः स्तम्भैर्द्वादशभिर्वृतः । विंशत्या स्याद् वरैर्युक्तो द्वितीयोऽलिन्दकस्ततः ॥ ४॥
१. 'ह्य क. पाठ: । २. 'ध्ये ', ३, 'र्णी' ख. पाठः । ४. 'के' क पाठः ।
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राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः । स्यादष्टाविंशतिस्तम्भस्तृतीयश्चाप्यलिन्दकः । पत्रिंशता चतुर्थश्च स्तम्भानां परिकीर्तितः ।। ५ ।।। एवं स्तम्भशतं मध्ये प्रोक्तं पृथ्वीजये बुधैः । द्वाराणि चास्य चत्वारि पञ्चशाखानि जायते(?) ॥ ६ ॥ चत्वारो निर्गमास्तस्य प्रोक्ताः सर्वे विभागिकाः । दिक्षु सर्वासु कर्तव्यमेवं भद्रनिवेशनम् ।। ७ ।। अर्धेन मध्यभित्तेस्तु भित्तिर्भद्र(वत्र ये भवेत् । भद्रेभद्रे धराणां स्याद् विंशतिश्चाष्टभिर्युता ॥ ८ ॥ मुखभद्रं भवेद् युक्तं वेदिकामत्तवारणैः । क्षेत्रभागोदयाद्या भूराभूमिफलकान्तरम् ॥ ९॥ आदिभूम्युदयार्थेन पीठं चास्य प्रकल्पयेत् । भागान नवोदयं कृत्वा भागेनैकेन कुम्भिका ॥ १० ॥ कर्तव्याष्टांशयुक्तेन स्तम्भो भागचतुष्टये । पादयुक्तं विधातव्यो भागेनोत्कलकं तथा ॥ ११ ॥ हीरग्रहणकं कार्य भाँग पादविवर्जि(तः?तम् ) । सपादभागिकः पट्टः स्तम्भकेन समन्वितः ।। १२ ।। पट्टार्धेन जयन्त्यः स्युर्भूमौभूमावयं क्रमः ।। क्लृप्तभागोदयादधं भूमिष्वन्यासु हीयते ॥ १३ ॥ पञ्चभागप्रमाणं तु सच्छायं नवमं तलम् । २९ वेदिकाया अधश्छाद्यं सौर्धभागत्रयोन्मितम् ॥ कण्ठेन युक्तं कर्तव्यं वेदिका पिहिता यथावत् ॥ तस्याः करण्ठे?ण्ठो) विधातव्यस्तन्मध्ये तिद्वया गिकः ॥ १५ ॥ वेदिकाविस्तरः कार्यों भागांस्तत्रार्थ । वेदिकोपरि घण्टा च सार्धभागाश्चतुति ॥ ६ ॥
ते। १. 'त्ति', २. 'भ', ३., ४. 'यो', ५. कीरिपाठः। ६. 'या' ख. पाठः । ७. 'ग' क, 'भः' ख, पाठः । ८. 'स्थाप्यं धू' क. पाठः । १०, 'था शोभमुदयावती(2) तस्याः, ११. 'ग' खना
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सुमराशा सूत्रधारे भागद्वयं सवाई तुकासमाधिः । चतुर्भिश्च द्वितीयं चीन विमिततः ।। १७ ॥ सद्मशीर्पश्च दातव्यो बधाशोथ मारुचि ।। क्षेत्रभागसमः कार्यः कलशश्चूलिकावधेः ॥ १८ ॥ उदयान भूमेः स्युरन्तगण सलानि च । यथाशोभं तु कर्तव्यं पीटं तस्य सुशोभितम् ॥ १९ ॥ सार्धभागद्वयं चास्य कार्या खुरघरण्डिका । जङ्घा भागचतुर्क च ततश्छाद्य प्रयोजयेत् ॥ २० ॥ भागद्वयं च पादान छापिण्डः प्रकीर्तितः । निर्गमोऽस्य चतुर्भागो हंसाख्यस्तस्य चोपरि ॥ २१ ॥ पादोनभागं कर्तव्यं ततश्छायं द्वितीयकम् ।। जङ्घा भूमिचतुष्कण मासादस्य प्रकल्पयेत् ।। २२ ॥ चतुर्थभूमिकामूर्ति नतो बुण्डा(न) निवेशयेत । क्षणक्षणप्रवेशेन कायोः शेपास्तु भूमिकाः॥ २३ ॥ वेदिका च यथोक्ता स्थान सघण्टा कलशान्विता । रेखाशुद्धया च कतव्या भुश्य सर्वे यथायथम् ।। २४ ॥ अर्थोदयं विधा कृत्वा स मी भजेत् । वामनश्च. 'गनश्च कुवेरो ॥ २५ ॥ हंसपृष्ठो म भोगी नारदः का जयः । अनन्तो दस्तेपां विधानकरशादमी ।। २६ ।। विधातव्याः - तिभिर्भुण्डरखाप्रसिद्धये । तमङ्गवेदिका नवारणशोभितम् ॥ २७ ॥ वितर्दिनिर्वृहयुवालाविभूषितम् । काव्यं वहुचिमातीत पृथिवीजयम् ॥ २८ ॥
यास्त समादयाः ।। अर्थोदयेन लघवी कार्यः कोणादयं क्रमः ॥ २९ ॥
र्युक्तो द्वि १. 'त' क, पाठः ! २. ख,
पाध्ये', ३.
प्रासा
'म' ख. पाठः। ४. 'ण' क. पाठः।
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राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः । भूम्यष्टकादभ्युदयः क्षेत्रविस्तारसम्मितः । यतस्तव वधे प्रोक्तः प्रासादोऽन्यद् विभूपणम् (१) ॥ ३०॥ बहवो निकरा येषु प्राङ्गणं तेषु दीयते । रेखायां प्रथमायां वा द्वितीयायामथापि वा ॥ ३१॥ तृतीयायां वा रेखायां तत्र संवरणाः स्मृताः । अयं भूम्युदयः कायेः क्षेत्रे दशविभागिके ॥ ३२ ॥ न्यूनाधिकविभक्त तु कार्यः स्यादनुसारतः । मुक्तकोणस्य लक्ष्माथ प्रक्रमागतमुच्यते ।। ३३ ।। चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भागद्वादशकाङ्किते। भागश्चतु(ष्टोको) मध्येऽस्य चतु(द्वा) रविभूषितः ॥ ३४ ॥ भागेन च ततोऽलिन्दो धरद्वादशकान्वितः । तद्वद् द्वितीयालिन्दोऽपि विंशत्या धारितो धरैः ॥ ३५ ॥ तृतीयश्च धरैरष्टाविंशत्यालिन्दको भवेत् । पत्रिंशता धरैर्युक्तः कार्योऽलिन्दश्चतुर्थकः ॥ ३६ ॥ चतुश्चत्वारिंशता स्यात् धरैर्युक्तश्च पञ्चमः। भागाधं कारयेद् भित्तिं साधं भागं विमुच्य तु ॥ ३७॥ भागत्रयं ततः कुर्यात् प्राग्ग्रीवं दैर्ध्यविस्तृतौ । विस्तृतौ निर्गमे चैषां भद्रं भागेन कल्पयेत् ।। ३८ ॥ भागिकं निर्गतं तस्मान्मध्येऽन्यद् भद्रमस्य हि । भागनिर्गमविस्तारं दिक्षु सर्वास्वयं विधिः ॥ ३९ ॥ चतुःपञ्चाशता स्तम्भैरेकै भद्रमन्वितम् । मध्ये वास्य चतुश्चत्वारिंशं स्तम्भशतं भवेत् ॥ ४० ॥ षोडशाभ्यधिका च स्याद् भद्रस्तम्भशतद्वयी । एवं धराणां सर्वेषां भवेत् षष्ठं शतत्रयम् ।। ४१ ॥ पृथ्वीजयवदत्रापि शेपनिर्माणमिष्यते । तृतीयभूमिकामूर्ध्नि निर्गमेष्वखिलेष्वपि ॥ ४२ ॥ मानणानि विधेयानि विशेषोऽवेष कीर्तितः ।। सर्वतोभद्रसंज्ञेऽथ शत्रुमर्दननाम(पिनि) ॥ ४३ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे अयमेव विधिः कार्यो मुण्डरेखाप्रसिद्धये । श्रीवत्सस्यापि मध्ये स्थात् स्तम्भाय मुक्तकोणवत् ॥ ४४ ॥ सार्ध भागं परित्यज्य भागत्रितयविस्तृतम् ।। कर्णप्राग्नीवमेतस्य भागेन च विनिर्गतम् ॥ ४५ ॥ भद्र तस्यापि कर्तव्यं भागविस्तारनिर्गमम् । मुक्तकोणवदस्यापि मध्यभद्रं विधीयते ॥ ४६॥ अयं विधिः समग्रासु दिक्षु शेषं तु पूर्ववत् । प्रतिभद्रं धरास्त्रिंशद् भवन्त्यस्य दृढाः शुभाः ।। ४७ ॥ शतं विंशमिदं (सर्व)धराणामिह कीर्तितम् । एवं समस्तस्तम्भानां चतुःषष्ठं शतद्वयम् ।। ४८ ।। सर्वतोभद्रसंज्ञस्य लक्ष्मेदानी प्रचल्यो । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे चतुदेशविभाजिते ॥ ४९ ॥ भागिकः स्याचतुष्कोऽस्य चतुःस्तम्भविभूपितः । स्तम्भैादशभियुक्तः प्रथमः स्यादलिन्दकः ।। ५० ।। स्तम्भविंशतिसंयुक्तो द्वितीयः स्यादलिन्दकः । स्यादष्टाविंशतिस्तम्भस्तृतीयः स्या(प्याद)लिन्दकः ।। ५१ ।। पत्रिंशता चतुर्थः स्यादलिन्दो भूपितो धरैः ।। पञ्चमः स्याचतुश्चत्वारिंशाता भूपितो धेरैः ।। ५२ ।। द्वापञ्चाशद्धरः पाठः सर्वेऽप्यते ऽस्य भागिकाः । भागाध शस्यते भित्तिः सर्वतः सुदृढा बना ॥ ५३ ॥ सार्धमागं परित्यज्य भागत्रितयविस्तृतः । कर्णप्राग्ग्रीवकश्च स्याद् भागमकं च निर्गमः ॥ ५४ ॥ भद्रमस्यापि कर्तव्यं भागनिगमविस्तृतम् ।। मध्ये भद्रं विधातव्यं भागद्वयविनिर्गतम् ।। ५५ ॥ अस्यापि भद्रं मध्ये स्याद् भागत्रितयविस्तृतम् । भागिको निर्गमश्चास्य तदन्तर्भागनिर्गतम् ।। ५६ ॥ १. 'यस्या', २. 'त', ख. पाठः । ३. 'द्र' क, ख, पाठः।
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राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः । भागविस्तारसंयुक्तं भद्रमन्यत् प्रकल्पयेत् । दिक्षु सर्वास्वयं प्रोक्तो विधिर्भद्रप्रकल्पने ॥ ५७ ।। स्तम्भानामस्य कर्तव्यं मध्ये षण्णवतं शतम् । भद्रेष्वेषु च सर्वेषु भवेत् षष्ठ्यधिकं शतम् ॥ ५८ ॥ समेन प्रविभागेन स्तम्भानामेकसङ्ख्यया ।। इत्थं समस्तस्तम्भानां पट्पञ्चाशं शतत्रयम् ॥ ५९ ॥ किन्तु जङ्घा भवेदस्य भूमिकात्रितयोन्मिता । शत्रुमर्दनसंज्ञस्य धाम्नो लक्ष्माथ कथ्यते ॥ ६० ॥ पृथ्वीजयसमं मध्ये भित्तिश्चापि तथाविधा। सार्धं भागं परित्यज्य भागेनायतविस्तृतम् ॥ ६१॥ भद्रं विदध्यात् तन्मध्ये भागत्रितयविस्तृतम् । भद्रमेवं विधातव्यं भागत्रितयनिर्गतम् ॥ ६२ ।। पार्श्वयोर्भागिकं भद्रमाय(त्यां?त्या) विस्तरेण च । भागत्रितयविस्तारं भागेन केन निगेमम् ॥ ६३ ।। मध्यभद्रं ततोऽपि स्याद् भागेनायतविस्तृतम् । क्रमोऽयं दिक्षु सर्वासु विधातव्योऽस्य सिद्धये ॥ ६४ ।। ऊर्ध्व पृथ्वीजयस्येव कार्यमस्यापरं पुनः ।। प्रतिभद्रं चतुश्चत्वारिंशत्स्तम्भसमन्वितम् ।। ६५ ।। मध्ये स्तम्भशतं चास्य विधेयं सुदृहं शुभम् । षट्सप्ततिस्तम्भशनद्वयमस्य भवेदिति ।। ६६ ।। पश्चानामपि चैतेषां हस्ताएशनमुत्तमम् । मानमुत्सेधविस्तारान् कर्तव्यं श्रियमिच्छता ॥ ६७ ।। मध्यमाधमयोर्मानं कीर्तितं पृथिवीजये । राज्ञः क्रीडार्थमन्यच्च कथ्यते गृहपञ्चकम् ॥ ६८ ॥ क्षोणीविभूषणं त्वाद्यं पृथिवीनिलयं पाम् । प्रतापवर्धनं चान्यच्छीनिवासं ततोपि च ।। ६९ ।।
१. 'वं
क. पाठः । २. 'भद्रंभ' ख, पाटः।
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समराङ्गणसूत्रधारे लक्ष्मीविलाससंशं च पञ्चमं परिकीर्तितम् । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागैर्विभाजिते ॥ ७० ॥ चतुष्को भागविस्तीर्णो मध्ये कार्यश्चतुर्धरः । बहिश्च भागिकोऽलिन्दस्तदन्तेऽशत्रयायताः ॥ ७१ ॥ कर्णप्रासादकाः कार्या भागत्रितयविस्तृताः। तेषां पड्दारुकं मध्ये भित्तिर्भागार्धसम्मिता ॥ ७२ ॥ तबहिर्भागनिष्क्रान्तो भद्रे भागं च विस्तृतः । प्राग्नीवत्रयसंयुक्तो भागिकालिन्दवेष्टितः ॥ ७३ ॥ अर्धभागिकाभित्या च चतुष्को वेष्टितो भवेत । प्रासादोऽयं मनोहारी भवेदवनिशेखरः ॥ ७४ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भागद्वादशभाजिते । चतुष्को भागिको मध्ये बाह्यालिन्दौ च भागिको ॥ ७५ ॥ नवकोष्ठांश्च कर्णेषु प्रासादान् विनिवेशयेत् । षड्दारुकं च कतेव्यं तेषामन्तरसंश्रयम् ॥ ७६ ॥ ततोऽर्धभागिकी भित्तिः कर्तव्या सर्वतो वहिः । भद्रे भागायतो भागविनिष्क्रान्तश्चतुर्दिशम् ।। ७७ ॥ चतुष्को भागिकॉलिन्दवेष्टितश्च विधीयते । अस्य भद्रत्रयं कार्य भागविस्तारनिर्गमम् ।। ७८ ।। अर्धभागिकभित्या च वेष्टितं तद विधीयते । कर्णेकर्णे (स?स्य)विस्तीर्णे द्वे भद्रे भागनिर्गते ॥ ७९ ॥ प्रासादमेवं भुवनतिलकं परिचक्षते । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे भागद्वादशभाजिते ।। ८० ॥ चतुष्को भागिको मध्ये चतुःस्तम्भो विधीयते । तदहि गिकोऽलिन्दो द्वितीयोऽपिच भागिकः ॥ ८१ ॥ नवकोष्ठांश्च कर्णेषु मासादान् विनिवेशयेत् । षड्दारुकं च कर्तव्यं तेषामन्तरसंश्रयम् ॥ ८२ ॥ १.'' क, पाठः । २. 'दि, ३. 'ता. ' ख. ४. 'को' क. पाठः।
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राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः । ततोऽर्धभागिकी भित्तिः कर्तव्या सर्वतो बहिः । भद्रे भागायतो भद्रविनिष्क्रान्तश्चतुर्धरः ।। ८३ !! चतुष्को भागिकालिन्दद्वयेन परिवेष्टितः । त्रिभागविस्तृतं भद्रं तदहि गनिर्गतम् ॥ ८४ ॥ भागिकं प्रतिभद्रं च कुर्यादुभयतः समम् । भागाध बाह्यतो भित्तिर्भद्रस्य परितो भवेत् ॥ ८५॥ विधिरेष विधातव्यो दिक्ष्वेवं चतसृष्वपि । विलासस्तबको नाम प्रासादोऽयं प्रकीर्तितः ।। ८६ ।। कर्णप्राग्नीवको द्वौ द्वौ शालाप्राग्नीवको यदा । स्यातामस्य तदा कीर्तिपताकः परिकीर्तितः ॥ ८७॥ अस्यैव पीठे निर्मुक्तशालाभिः परितोऽष्टभिः । अन्योन्यशालासंबद्ध यदासावेव दीयते ।। ८८ ।। कर्णप्रासादकोपेतः कोणैः शालोज्झितैयुतः । प्रासादसुन्दरो ज्ञेयस्तदा भुवनमण्डनः ॥ ८९ ।। एते प्रोक्तास्तलच्छन्दा जङ्गासंवरणादिकम् । भूमिमानादिकं यच्च तत् पृथ्वीजयवद् भवेत् ॥ ९ ॥ इदानीं कथ्यते लक्ष्म क्षोणीभूषणवेश्मनः । पञ्चपञ्चाशता हस्तैः कल्पिते चतुरश्रके ॥ ९१ ॥ विभक्त चाष्टभिर्भागैश्चतुष्को भागिकः स्मृतः । चतुर्भिरन्वितः स्तम्भैरलिन्दश्वास्य भागिकः ॥ ९२ ॥ युक्तो द्वादशभिः स्तम्भैर्विंशत्या च द्वितीयकः । स्यादष्टाविंशतिधरस्तृतीयश्चाप्यलिन्दकः ॥ ९३ ।। भित्तेरप्यर्धभागेन साधु भागं विमुच्यते । भागपञ्चकविस्तीर्ण भद्रं भागेन निर्गतम् ॥ ९४ ॥ तन्मध्यभद्रमन्यच भागत्रितयविस्तृतम् ।
भागेन निर्गतं कार्य भद्रमन्यत् ततोऽपिच ॥९५॥ १. 'के', २. 'वृते', ३. 'कावल' ख. पाठः । ४. 'स्तम्भे ज' क. पाठः
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समराङ्गणसूत्रधारे भामेन विस्तृत कार्य भागेनापि च निर्गतम् । दिक्षु सर्वासु कर्तव्यो विधिरेपोऽस्य सिद्धये ॥ ९६ ॥ मध्यस्तम्भश्रतुःषष्ट्या संयुक्तं सारदारुजैः । पतिभद्रं धरैः कार्यमष्टादशभिरन्वितम् ।। ९७ ॥ षत्रिशं शतमेवं स्यात् स्तम्भानामिह सर्वतः। चतुर्दारमिदं कार्य यशःश्रीकीर्तिवर्धनम् ॥ ९८ ॥ पृथिवीतिलकस्याथ लक्षणं परिकीर्त्यते । चत्वारिंशत्करे क्षेत्रे भागैर्भक्तेऽर्धषष्ठकैः ॥ ९९ ॥ भागिकः स्याच्चतुष्कोऽन्तश्चतुःस्तम्भविभूषितः । अलिन्दोऽपिच भागेन स्तम्भ-दशभिर्युतः ॥ १० ॥ विंशत्या चै द्वितीयोऽपि भित्तिः स्यादस्य पादिका । कर्णे प्रासादको भागेस्त्रिभिः स्यान्निगतायतः ॥ १०१।। अस्य भद्र_यं कार्य भागनिर्गतविस्तृतम् । कर्णप्रासादयोमध्ये भागपञ्चकविस्तृतम् ॥ १०२ ॥ भागेन निर्गतं कार्य भद्रं तस्यापि मध्यतः । भागत्रितयविस्तीर्ण भागेनैकेन निगेतम् ॥ १०३ ॥ भद्रमस्यापि मध्येऽन्यद् भागेनायतनिर्गतम् । स्तम्भाः पत्रिंशदन्तः स्युभद्रेप्यष्टी शतद्वयम् ॥ १०४ ।। अथातः श्रीनिवासस्य लक्षणं सम्प्रचक्ष्महे । पृथ्वीतिलकवन्मध्यमेतस्य परिकीत्यते ॥ १०५ ।। सपादं भागमुत्सृज्य भागत्रितयविस्तृतम् । भागेन निगेतं चास्य भद्रमायं प्रकल्पयेत् ॥ १०६ ॥ तस्यापि मध्यवर्तन्यद् भागनिर्गतविस्तृतम् । अन्वितं दशभिः स्तम्भैः सुदृद्वैस्तद् विधीयते ।। १०७ ॥ सर्वास्वपि च दिक्ष्वेवं विधेया भद्रकल्पना । अस्य षट्सप्ततिः स्तम्भाः भवन्त्येकत्र सङ्ख्यया ॥ १०८ ।।
१. 'शःकीतिविव', २. 'वि' क. पाटः। ३. 'थ', ४. 'द्रंच यत्का' ख. पाठः। ५. 'कल्पते', ६. '' क. पाठः।
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राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः । प्रतापवर्धनस्याथ लक्ष्म साम्प्रतमुच्यते । पञ्चविंशतिहस्ताङ्क सार्धभागत्रयाङ्किते ॥ १०९ ॥ मध्ये चतुष्को भागेन चतुर्भिः सम्भृतो धरैः । अलिन्दो भागिकश्चास्य स्तम्भद्वादशकान्वितः ॥ ११० ॥ पादिका भित्तिरेतस्य भद्रं चास्य प्रकल्पयेत् । भागनिर्गमविस्तारं चतुःस्तम्भविभूषितम् ॥ १११ ॥ विधिरेप समग्रासु दिक्ष कार्योऽस्य सिद्धये ।। स्तम्भैात्रिंशता युक्ती वहिरन्तरयं भवेत् ।। ११२ ॥ धराणां चैव सर्वेषां चतुःपष्टिः प्रकल्पना । अर्थ लक्ष्मीविलासस्य सम्यग् लक्ष्माधुनोच्यते ॥ ११३ ॥ प्रतापवर्धनस्येव मध्यमस्य प्रकल्पयेत् । प्रतापवर्धनसमं सर्वतोऽप्येतदीरितम् ॥ ११४॥ किन्त्वस्य पार्श्वभद्राणि भद्राणामेव कारयेत् । कोणेष्वपिच भद्राणि पार्श्वयोरुभयोस्तथा ।। ११५ ॥ भार्ग(स्यश्च) निर्गमोऽप्येषां विशेपोऽस्मादयं मतः । भद्रमस्य दशस्तम्भैर्मध्यं पोडशभिधेरैः ॥ ११६ ॥ चतुर्दारं भवेदेतदिच्छया क्षणमध्यगम् । द्वारमन्यद् विधातव्यं स्वपदे स्यात् सुशोभितम् ।। ११७ ।। भूमिभिः सार्धषष्ठीभिर्विधेयः क्षोणिभूपणः । अर्धाष्टमीभिश्च भवेत् पृथ्वीतिलकसंज्ञकः ॥ ११८ ॥ स्यात् सार्धपञ्चमीभिस्तु श्रीनिवासोत्र भूमिभिः । लक्ष्मीविलाससंज्ञोऽर्धपञ्चमीभिर्विधीयते ॥ ११९ ॥ प्रतापवर्धनाख्योऽर्धचतुर्थीभिर्विधीयते । राज्ञां पृथ्वीजयादीनि निवासभवनानि च ।। १२० ॥ क्षोणीविभूषणादीनि विलासभवनानि च । यान्युक्तानि निवासाय विलासाय च भूभृताम् ॥ १२१ ॥ १. 'तो' क. पाठः । २. 'गास्या नि', ३, ‘म्भं म', ४. 'म' ख. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे तेषां पृथ्वीजयादीनां द्वारमानमयोच्यते । चतुःपञ्चाशदंशो यो विस्तृतः सकरत्रयः ॥ १२२ ॥ स द्वारस्योदयः प्रोक्तस्तदर्धेनास्य विस्तृतिः । स्वोदयस्य त्रिभागेन पिण्डः स्तम्भेषु शस्यते ॥ १२३ ।। स्यात् सप्तविंशतितमः सपादः सचतुष्करः । गृहभागो भवेद् भूमिः प्रथमा राजवेश्मनाम् ।। १२४ ।। भूच्छाये नवधा भक्ते तदंशकचतुष्टयम् । निर्गमश्छाधकस्यांशद्वयं पादोनमुच्छ्रयः ॥ १२५ ।। तथान्तरावणी कार्या छाद्यकोच्छ्रायनिर्गता । हीरग्रहणपिण्डार्धवाहल्या सा प्रशस्यते ॥ १२६ ॥ तस्याः स्वमेव बाहल्यं पादोनं विस्तृतिः स्मृता । अन्तरावणिकातुल्यो मदलाया विनिर्गमः ॥ १२७ ॥ स्वनिर्गमात् तथा चास्याः सपादः स्यात् समुच्छ्रयः । भूम्युच्छ्रयनवांशस्य पादोऽस्याः पिण्डमिष्यते ॥ १२८॥ भूनवांशस्त्रिभागोनो मदलायाश्च विस्तृतिः। * लुमामूलस्य स्तम्भाधे विस्तारः परिकीर्तितः ॥ १२९॥ ततव्यंशादग्रविस्तीर्णा मूले साष्टांशयुग् भवेत। तुम्बिनी लम्बिनी हेला शान्ता कोला मनोरमा ।। १३० ।। आध्माता चैत्यमूः प्रोक्ता लुमाः सप्त मनीषिभिः । ऋजुः सा लम्बिनी तासामाध्माता कर्णगा स्मृता । १३१ ॥ अन्तराले क्रमेण स्युः पञ्चान्याः परिकीर्तिताः।। स्तम्भे निदध्यान्मदलो छायं धतु दृढां शुभाम् ।। १३२ ॥ स्तम्भाभावे पुनन्यस्येत् कुड्यपट्टेऽपि तां सुधीः । सप्त पश्चाथवा तिस्रो मल्लच्छाये लुमाः स्मृताः ॥ १३३ ।। कोणेष्वेता इमाभ्योऽन्याः कर्तव्याः प्राञ्जलाः समाः । छाये कणोत् कचित् कायों मकराननभूषिताः ॥ १३४ ॥ १. 'मतःस' ख. पाठः । २. 'स्यां', ३. 'ध' ख. पाठः। * 'लुपा' इति शिल्पशास्त्रे प्रसिद्धिः ।
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ।
तेsपि विद्याधरोपेताः कचित् सगजतुण्डिकाः । सकुम्भस्य स्तम्भस्य प्रविभज्योदयं त्रिधा ॥ १३५ ॥ तत्र भागद्वयं कुर्याद् भागान चतुर्थकान् । तत्र पादोनभागेन राजितासनकं भवेत् ॥ १३६ ॥ ततः सोल्कलका वेदी साङ्घ्रिभागा विधीयते । कूटागारसमांशार्धं कार्योऽनपट्टः || १३७ || सस्यादभी(टोट) विस्तारो भागोच्चं मत्तवारणम् । स्वोदयस्य त्रिभागेन तिर्यक कार्योस्य निर्गमः ॥ १३८ ॥ रूपकैः करणायाभिः (?) सुपत्रैरपि शोभितम् । वेदिकादिकमप्यस्य रूपपत्राचितं शुभम् ॥ १३९ ॥ आयसीभिः शलाकाभिः कीलकैव दृढीकृतम् । एतानि पञ्चदशराजनिवेशनानि पृथ्वीजयप्रभृति यानि निरूपितानि । यो लक्षणेन सहितं परिमाणमेपां
जानाति तस्य नृपतिः परितोपमेति ।। १४० १
॥
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचितं समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे राजगृहं नाम त्रिंशोऽध्यायः ।
अथ यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ।
भ्राम्यदिनेशशशिमण्डलचक्रण (संस्त)मेतज्जगत्त्रिययन्त्रमुलक्ष्यमध्यम् i भूतानि वीजमखिलान्यपि सम्प्रकल्पय
यः सन्ततं भ्रमयति स्मरजित् सवोऽय्यात् ॥ १ ॥
1
यत्राध्ययमथ ब्रूमो यथावत् समागतम् । धर्मार्थकाममोक्षाणां यदेकमिह कारणम् || २ ||
१. 'मा' पाठ: । २. क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधार
यदृच्छया प्रवृत्तानि भूतानि स्वेन वर्त्मना । नियम्यास्मिन् नयति यत् तद् यन्त्रमिति कीर्तितम् || ३ || स्वरसेन प्रवृत्तानि भूतानि स्वमनीषया । कृतं यस्माद् यमयति तद्वा यन्त्रमिति स्मृतम् ॥ ४ ॥ नस्य वीजं चतुर्था स्यात् क्षितिरापोऽनलोऽनिलः । आश्रयत्वेन चैतेषां वियदप्युपयुज्यते || ५ || भिन्नः मूर्तचं (कै? यै) रुक्तस्ते च सम्यङ् न जानते । प्रकृत्या पार्थिवः मूत (स्नास्त्र) यात् । तत्र क्रिया भवेत् ॥ ६ ॥ पार्थिवत्वादयमता न कदाचिदू विभिद्यते
I
द्रव्यत्वादनिजत्वं हि यद्यस्य परिकल्प्यते ॥ ७ ॥ तदा विरोध नैवास्य पावकेनोपपद्यते । गन्धाद् वविरोधाच स्थिता पार्थिवता वलात् ॥ ८ ॥ आत्मैव बीजं सर्वेषां प्रत्येकमपराण्यपि । एवं भेदा भवन्त्येषां भूयांसः सङ्करान्मिथः ॥ ९ ॥ स्वयंवाहक मेकं स्यात् सकुत्र्य तथापरम् | अन्यदन्तरितं वयं वह्यमन्यत् त्वदूरतः ॥ १० ॥ स्वयंवाह्यमिहोत्कृष्टं हीनं स्यादितरत् त्रयम् । तेषु शंसन्ति दूरस्थमलक्ष्यं निकटस्थितम् ॥ ११ ॥ (?) त्पन्नक्ष्यं यदेकं बहु साधकम् । तदन्यदपि शंसन्ति यस्माद विस्मयन्नृणाम् ॥ १२ ॥ एका स्वीया गतिश्चित्रे वाह्येऽन्या वाहकाश्रिता । अट्टा की दृश्यते द्वयमप्यदः ॥ १३ ॥ इत्थं गतिद्वयवशाद् वैचित्र्यं कल्पयेत् स्वयम् । अक्षता विचित्रत्वं यस्माद् यन्त्रेषु शस्यते ॥ १४ ॥
१. ' ते क, पाठ: । २. श्व' क.. पाठः । ३. 'य' ख. पाठ: । ४. 'वस्त'भव्यतेक. पाठः । ६०, ७. 'बा', ८. त्र दूख. ग. पाठः ।
प्रापां च तत्र
२. ' क्षं' कपाठः ।
S' प्रकृत्या स्वभावेन पार्थिवो भागः बहुल:' इति + ' तत्र उदकतेजोवायूनां क्रिया का भवेत्' इति च टिप्पणमस्ति ।
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यन्त्रविधानं नामकत्रिंशोऽध्यायः । अन्यत् स्यादन्तरा(?) यं द्वितीयं मध्यमं त्विदम् । द्वयत्रयादियोगेन चतुर्णामपि योगतः ।। १५ ।। अंशांशिभावाद भूतानां सङ्ख्येपामतिरिच्यते । यः सम्यगेतज्जानाति स पुमान् भवति प्रियः ॥ १६ ॥ प्रमदानां नृपाणां च प्रज्ञानां च मतस्य च । लाभं ख्याति च पूजां च यशो मानं धनानि च ॥ १७ ॥ प्रामोति किं किं न पुमान य इदं वेत्ति तत्त्वतः । गृहमेकं विलासानामाश्चर्यस्य परं पदम् ।। १८ ।। रतेरावासभवनं विस्मयस्येकमास्पदम् । यथावद् देवतादीनां रूपचेष्टादिदर्शनात् ॥ १९ ॥ तास्तुष्यन्त्यथ तत्तुष्टि' पूर्वधर्मः प्रकीर्तितः ।। नृपादितोपादर्थः स्यादर्थे कामः प्रतिष्ठितः ।। २० ॥ वित्तैक्यादस्य निष्पत्तिर्मोक्षश्चास्मान्न दुर्लभः । पार्थिवं पार्थिवीजैः पार्थिवं जलजन्मभिः ॥ २१ ॥ तदेव तेजोजनितैस्तदेव मरुदद्भवः । आप्यमाप्यस्तथा वीजेगनलैरानिलरपि ।। २२ ॥ वहिजैश्च मरुज्जातः पार्थिवेर्वारुणैरपि । मारुतं मारुतेराप्यः पार्थिवरानलेम्तथा ।। २३ ॥ वगिजातेऽपि वीज स्यात् मृतः सोऽपिच वा(न?नि)ले । पार्थिवानां भवेद् वीजमायानामपि वा(रणे?रुणम् ) ॥ २४ ॥ इति वीजानि सर्वेषां कीर्तितान्यखिलान्यपि ! कुंड्यंकरणमूत्राणि भारगोलकपीडनम् ॥ २५ ॥ लम्बनं लम्बकारे च चक्राणि विविधान्यपि । अयस्तानं च तारं च त्रपु संवित्प्रमर्दने ।। २६ ॥ काष्ठं च चर्म वस्त्रं च स्वबीजेपु प्रयुज्यते । उदेकः कतरो यष्टिश्चक्रं भ्रमरकस्तथा ।। २७ ।।
१. 'टेः', २. 'चि , ३. 'मातोश, ४. नि. के. पाठः । ५. 'घु ६. 'भा', ७. 'उएंव्यक' ख. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
शृङ्गावली च नाराचः स्ववीजान्योर्वरे विदुः । ताप उत्तेजनं स्तोभः क्षोभश्व जलसङ्गजः ॥ २८ ॥ एवमायग्निवीजानि पार्थिवस्य प्रचक्षते । धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमणं तथा ॥ २९ ॥ एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षते । यथोच्छायो यथाधिक्यं यथा नीरन्ध्रतापि च ॥ ३० ॥ अत्यन्तमूर्ध्वगामित्वं स्वर्वाजान्ययसस्तथा । मरुत् स्वभावजो गाग्राहकच प्रतीप्सितः ॥ ३१ ॥ इत्याद्य-जनाद्यैश्च गजकर्णादिभिः कृतः । (छाचा)णितो गालितश्चायं बीजं भवति भूभवे ॥ ३२ ॥ काष्ठं (भृ?क)त्तिश्च लोहं च जलपार्थिवं भवेत् । अन्यदभस्तदप्यस्तु तियध्वमधस्तथा ॥ ३३ ॥ बीज स्वकीयं भवति यन्त्रेषु जलजन्मसु । तापाद्यं पूर्वकथितं वदि जलजे भवतु ॥ ३४ ॥ सगृहीतश्च दत्तश्च पूरितः प्रतिनोदितः । मरुद् वीजत्वमायानि यन्त्रेषु जलजन्मसु ॥ ३५ ॥ वह्रिजातषु मृत्ताम्रलोहरुक्मादि तद्ग्रहे । पार्थिवं कथयन्तीह बीजं वीजविचक्षणाः ॥ ३६ ।। वह्नतिर्भवेद् बीजमाप आपस्तथा भवेत् । आईत्यादिभिः प्रोक्तमरुद् गच्छति बीजताम् ।। ३७ ॥ प्रत्येषकं च जनकं प्रेरकं ग्राहकं तथा । सङ्ग्राहकं च भूजातं वीज म्यादनिलोद्भवः ॥ ३८ ॥ प्रेरणं चाभिघातश्च विवर्ती भ्रमणं तथा जलजं मारतोत्थपु वीजं स्यादिति सम्मतम् ।। ३९ ॥ सङ्ग्रहीतस्य तापायर्यानि पावकजन्मनि । प्रकीर्तितानि तान्येव भवन्ति पवनोद्भवैः ॥ ४० ॥
१. 'डी', २. 'स्थिता', क. पाटः । ३. 'तले', ४. '४', ५. 'तं', ६. 'स्वादपाच ति', ७. 'ना' ख. पाठः। ८. 'इ' क. पाठः ।
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यन्त्रविधानं नामकांत्रशोऽध्यायः । प्रेरितः सगृहीतश्च जनितश्च समीरणः । आत्मनो वीजतां गच्छत्येवमन्यत् प्रकल्पयेत् ॥ ४१ ॥ भूतमेकमिहोद्रिक्तमन्यद्धीनं ततोऽधिकम् । अन्यद्धीनतरं चान्यदेवप्रायविकल्पितः ॥ ४२ ॥ नाना भेदा भवन्त्येषां कस्तान कात्स्न्येन वक्ष्यति। निष्क्रिया भूः क्रिया त्वंशे शेपेषु सहजा त्रिषु ॥ ४३ ।। अतः प्रायेण सा जन्या क्षितावेव प्रयत्नतः । साध्यस्य रूपवशतः सन्निवेशो यतो भवेत ।। ४४ ॥ यन्त्राणामाकृतिस्तेन निर्णतुं नैव शक्यते । यथावद्वीजसंयोगः सौश्लिष्ट्यं श्लक्ष्णतापि च ॥ ४५ ॥ अलक्षता निर्वहणं लधुत्वं शब्दहीनता । शब्दे साध्ये तदाधिक्यमशैथिल्यमगाढता ॥ ४६॥ वहनीपु समस्तासु सौश्लिष्ट्यं चाम्बलदति ।। यथाभीष्टार्थकारित्वं लयतालानुगामिता ॥ ४७ ।। इष्टकालेऽर्थदर्शित्वं पुनः सम्यक्त्वसंवृतिः ।
अनुल्वणत्वं ताप्यं दाढये मसृणना तथा ।। ४८ ॥ चिरकालसहलं च यन्त्रस्येते गुणाः स्मृताः । एकं बहूनि चलयेद् बहुभिश्वाल्यतेऽपरम् ।। ४९ ॥ सुश्लिष्टत्वमलक्षत्वं यन्त्राणां परमो गुणः । अथ कर्माणि यन्त्राणां विचित्राणि यथाविधि ॥ ५० ॥ नविस्तरान्नसक्षेपात साम्प्रतं संप्रचक्ष्महे । कस्यचित् सा क्रिया साध्या कालः कस्यापि कस्यचित् ॥५१॥ शब्दः कस्यापि चोच्छ्रायो रूपस्पशौं च कस्यचित् । क्रियास्तु कार्यस्य वशादनन्ताः परिकीर्तिताः ।। ५२ ।। तिर्यगृह्ममधः पृष्ठे पुरतः पार्श्वयोरपि । गमनं सरणं पात इति भेदाः क्रियोद्भवाः ॥ ५३॥
१. 'यो विक' क. पाटः । २. 'जात्या वि' ख. ग. पाटः। ३. तत्प्रय' ४. 'न' क. पाठः । ५. 'त', ६. 'त्रिः' ख. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे कालो मुहूर्तकाष्ठाद्यर्भिन्नो भेदरनेकधा । शब्दो विचित्रः सुखदो रतिकृद् भीषणस्तथा ।। ५४ ॥ उच्छायस्तु जलस्य स्यात् कचिद् भूजेऽपि शस्यते । गीतं नृत्यं च वाद्यं च पटहो वंश एव च ॥ ५५ ॥ वीणा च कांस्यतालश्च तृमिला करटापि च । यत्किश्चिदन्यदप्यत्र वादित्रादि विभाव्यते ।। ५६ ॥ समस्तमपि तद् यन्त्राज्जायते कल्पनावशात् । नृत्ये तु नाटकं चोक्षस्ताण्डवं लास्यमेव च ॥ ५७ ॥ राजमार्गश्च देशी च यन्त्रात सर्व प्रसिध्यति । तथा जात्यनुगाश्चेष्टा विरुद्धा यास्तुं जातितः ॥ ५८ ॥ ताः सर्वा अपि सिध्यन्ति सम्यग्यन्त्रस्य साधनात् । भूचराणां गतियोम्नि भूमौ व्योमचरागमः ॥ ५९ ॥ चेष्टितान्यपि मानां तथा भूमिस्पृशामिव । जायन्ते यन्त्रनिर्माणाद् विविधानीप्सितानि च ॥ ६० ।। यथासुरा जिता देवैर्यथा निर्मथितोऽम्बुधिः । हिरण्यकशिपुदैत्यो नृसिंहेन हतो यथा ।। ६१ ॥ धावनं हस्तियुद्धं च गजानामगडोऽपि च । नानाप्रका(र?रा) या चेष्टा नानाधारागृहाणि च ।। ६२ ॥ दोलाकेल्यो विचित्राश्च तथा रतिगृहाणि च । चित्रों से(न?ना) च कुट्यश्च स्वयंवाहकसेवकाः ॥ ६३ ॥ सभाश्च विविधाकाराः सत्या मायाः प्रकल्पिताः। एवंप्रायाणि चान्यानि यन्त्रात् सिध्यन्ति कल्पनात् ॥ ६४ ॥ विधाय भूमिकाः पञ्च शय्यां त्वादिभुवि स्थिता । प्रतिप्रहरमन्यासु सर्पन्ती याति पञ्चमीम् ॥ ६५ ॥ एवंप्रायाणि चित्राणि सम्यक् सिध्यन्ति यन्त्रतः । क्रमेण त्रिशतावते स्थाले दन्ता भ्रमन्त्यसो ॥ ६६ ॥ १. 'ध्य', क. २. 'श्व' ख, ग. पाठः । ३. 'राजना' ख. पाठः । ४. 'त्रासने च', ५. 'स्याकृत्वा', ६. ‘ता एवं' क, पाटः । ७. 'त्रिंशते व ख. ग पाठः ।
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः । तन्मध्ये पुत्रिका क्लुप्ता प्रति नाडिं प्रबोधयेत् । वतेश्च दर्शनं तोये वह्निमध्याज्जलोद्गतिः ॥ ६७ ॥ अवस्तुतोऽपि वस्तुत्वं वस्तुतोऽपि तथान्यथा । निःश्वासेन वियद् याति श्वासेनायाति मेदिनीम् ।। ६८ ।। क्षीरोदमध्यगा शय्या प्रतीष्टाधः फणाभृता । गोलश्च मू(ति?चि)विहितः मूर्यादीनां प्रदक्षिणम् ॥ ६९ ॥ परिभ्राम्यत्यहोरात्रं ग्रहाणां दर्शयन् गतिम् । गजादिरूपे रथिकरूपतां गमितः पुमान् ॥ ७० ॥ भ्रान्त्वा नाडिकया तस्याः पर्यन्ते हन्ति (भोल्यो)जनम् । दीपिकापुत्रिका क्लप्सा क्षीणं क्षीणं प्रयच्छति ॥ ७१ ॥ दीपे तैलं प्रत्यन्ती तालगत्या प्रदक्षिणम् । यावत् प्रदीयते वारि तावत् पिवति सन्ततम् ॥ ७२ ।। यन्त्रेण कल्पितो हस्ती न तद गच्छत प्रतीयते । शुकाद्याः पक्षिणः क्लुप्तास्ताउस्यानुगमान्मुहुः ॥ ७३ ।। जनस्य विस्मयकृतो नृत्यन्ति च पठन्ति च । पुत्रिका वा गजेन्द्रो वा तुरगो मर्कटोऽपि वा ॥ ७४ ।। वलनैर्वर्तनैर्नृत्यस्तालेन हरते मनः । येनैव वत्मेना क्षेत्रं धियते तेन तत्पय: ।। ७५ ।। यात्यायाति पुनस्तद्वद् गर्तात् पुष्करिणीष्वपि । फलके कानि (2) तिष्ठन्ति धावन्त्यनुमतानि च ॥ ७६ ।। या(ता?तं) ददति युध्यन्ते निर्यान्त्यश्रमनावृतम् । नृत्यन्ति गायन्ति तथा वंशादीन वादयन्ति च ॥ ७७ ।। निरुद्धमुक्तस्य वशान्मरुतो यन्त्रभङ्गिभिः । याश्चेष्टा दिव्यमानुष्यस्ता एवात्र न केवलम् ॥ ७८ ! दुष्करं यद्यदन्यच्च तत्तद यन्त्रात् प्रसिध्यति । यन्त्राणां घटना नोक्ता गुप्त्यर्थ नाज्ञतावशात् ।। ७९ ।।
१., २. 'ति' क. पाठः। ३. 'ले' ख. ग. पाठः ४. 'मृज्यन्ती', ५. '' क. पाट।
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समराङ्गणसूत्रधारे तत्र हेतुरयं ज्ञेयो व्यना नैते फलप्रदाः। कथितान्यत्र वीजानि यन्त्राणां घटना न यत् ॥ ८० ।। तस्माद् व्यक्तीकृतेष्वेषु न स्थात् स्वार्थो न कौतुकम् । वस्तुतः कथितं सर्व वीजानामिह कीर्तनात् ॥ ८१ ।। অপু বিশ্বা এম কাম য বৃথা। यन्त्राणि यानि दृष्टानि कीर्तितान्यत्र तान्यपि ॥ ८२ ॥ नन्धानि यस्मात् तान्यातो विज्ञेयान्युपदेशतः। पतन् बबुद्धवास्माभिः समग्रमपि कल्पितम् ।। ८३ ॥ अग्रतच पुनमः कथितं यत् पुरातनैः । बीजं चतुर्विधमिह प्रवदन्ति यन्त्रेवम्भोग्निभूमिपवनैर्निहितयथावत् । प्रत्येकना बहुविध हि विभागतः स्यान्मित्रैर्गुणः पुनरिदं गणनामपास्येत् ।। ८४ ॥ किमतस्मादन्यद् भवति भुवने चित्रमपरं
किमन्यद् वा तुष्टयं भवति किमु वा कौतुककरम् । किमन्यद्वा कीर्तेर्भवनमपरं कामसदनं
किमस्मात् पुण्यं वा किमिव च परीतापशमनम् ।। ८५॥ एतेऽत्यर्थं प्रीतिदा वीजयोगाः संजायन्त योजिताः मूत्रधारः। भ्रान्त्या नान्यश्चित्रंकृद् दारुक्तं चक्र दोलायं पुनः पञ्चमं तत् ॥ ८६ ॥ पारम्पर्य कौशलं सांपदेशं शास्त्राभ्यासा वास्तुकर्माद्यमो धीः । सामग्रीयं निर्मला यत्य सास्मिश्चित्राण्यवं वत्ति यन्त्राणि कर्तुम् ॥ ८७ ॥ चित्रैर्युक्तं ये गुणः पञ्चरूपं जानन्त्येनं यन्त्रशास्त्राधिकारम् । ये वा कृत्स्नं योजयन्तेऽत्र सम्यक् तेषां कीर्तिर्या भुवं चाणोति ॥ ८८॥ भङ्गुलेन मितमगुलपादनाचितं द्विपुटकं तनुत्तम् । संविधयमूजु मध्यगरन्धं श्लिटसन्धि दृढतानमयं तत् ॥ ८९ ॥
1. नुक, ख, बादः । २. द्वितोऽस्मा', ३. 'ह', ४. 'क' *. पारः।
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यन्त्रविधानं नागैकत्रिंशोऽध्यायः । दारवेषु विहगेषु तदन्तः क्षिप्तमुद्गतसमीरवशेन । आतनोति विचलन्मृदशब्दं शृण्वतां भवति चित्रकरं च ।। ९० ॥ सुश्लिष्टखण्डद्वितयेन कृत्वा सरन्ध्रमन्तर्मुर जानुकारम् । ग्रस्तं तथा कुण्डलयोयुगेन मध्ये पुटं तस्य मृदु प्रदेयम् ॥ ९१ ॥ पूर्वोक्तयन्त्रे विधिनोदरेऽस्य क्षिप्तेऽथ शय्यातलसंस्थमेतत् । ध्वनि ततः सञ्चलनादनङ्गक्रीडारसोल्लासकरं करोति ॥ ९२ ॥ अस्मिञ् शय्यातलविनिहिते मुञ्चति व्यक्तरागं
चित्राञ् शब्दान्. मृगशिशुदृशां या(न्ति?ति) भीत्येव मानः । किञ्चैतासां दयितमभितो निर्भरप्रेमभाजां
प्रोहिं गच्छन्त्यधिकमधिकं मन्मथक्रीडितानि ।। ९३ ।। पटहमुरजे वेणुः शङ्खो विपश्चयथ काहला __ डमरुटिविले वायातोद्यान्यमून्यखिलान्यपि । मधुरमधिकं यञ्चित्रं च अनि विदधात्यलं
तदिह विधिना रुद्रोन्मुक्तानिलस्य विजृम्भितम् ।। ९४ ।। लघुदारुमयं महाविहङ्गं दृढसुश्लिष्टतनुं विधाय तस्य । उदरे रसयन्त्रमादधीत चलनाधारमधोऽस्य चा(ति?ग्नि) पूर्णम् ॥ तत्रारूढः पूरुषस्तस्य पक्षद्वन्द्वोचालपोज्झितेनानिलेन । सुप्तस्यान्तः पारदस्यास्य शक्त्या चित्रं कुवेन्नम्बरे याति दूरम् ।। इत्थमेव सुरमन्दिरतुल्यं सञ्चलत्यलघु दारुविमानम् । आदधीत विधिना चतुरोऽन्तस्तस्य पारदभृतान् दृढकुम्भान् ॥९७॥ अयःकपालाहितमन्दवनिप्रततनत्कुम्भभुवा गुणेन । व्योम्नो झगित्या परगत्यति सन्तप्तगर्जद्रसराजशक्त्या ॥ ९८ ॥ वृत्तसन्धितमथायसमन्त्रं तद विधाय रसपूरितमन्तः । उच्चदेशविनिधापितन सिंहनादमुरजं विदधाति ।। ९९ ।।
1. 'प्र', २. 'खहि ख. ग. पाट: । ३. ' 'पु', ४. 'भे' क. पारः । ५. 'बि' ख. पाट:1६. 'म' ख, ग, पाठः ।
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भमराङ्गणसूत्रधारे स कोऽप्यस्य स्फारः स्फुरति नरसिंहस्य महिमा
पुरस्ताद् यस्यैता मदजलमुचोऽपि द्विपघटाः । मुहुः श्रुत्वा श्रुत्वा निनदमपि गम्भीरविषमं __ पलायन्ते भीतास्त्वरितमवधूयाङ्कुशमपि ॥ १० ॥ दृग्ग्रीवातलहस्तप्रकोष्ठबाहरुहस्तशाखादि । सच्छिद्रं वपुरखिलं तत्सन्धिषु खण्डशो घटयेत् ॥ १०१ ॥ श्लिष्टं कीलकविधिना दारुमयं सृष्टचर्मणा गुप्तम् । पुंसोऽथवा युवत्या रूपं कृत्वातिरमणीयम् ।। १०२ ॥ रन्ध्रगतैः प्रत्यङ्गं विधिना नाराचसङ्गतैः सूत्रैः । ग्रीवाचलनप्रसरणविकुञ्चनादीनि विदधाति ॥ १०३ ॥ करग्रहणताम्बूलप्रदानजलसेचनप्र(माणा?णामा)दि । आदर्शप्रतिलोकनवीणावाद्यादि च करोति ॥ १०४ ॥ एवमन्यदपि चेदृशमेतत् कर्म विस्मयविधायि विधत्ते । जृम्भितेन विधिना निजबुद्धेः कृष्टमुक्तगुणचक्रवशेन ॥ १०५ ॥ पुंसो दारुजर्मूचं रूपं कृत्वा निकेतनद्वारि । तत्करयोजितदण्डं निरुणद्धि प्रविशतां वत्मे ।। १०६ ।। खड्गहस्तमथ मुद्गरहस्तं कुन्तहस्तमथवा यदि तत् स्यात् । तन्निहन्ति विशतो निशि चौरान द्वारि संतमुखं प्रसभेन ॥१०७॥ ये चापाद्या ये शतघ्न्यादयोऽस्मिन्नुग्रीवाद्याश्च दुर्गस्य गुप्त्यै । ये क्रीडाद्याः क्रीडनार्थं च राज्ञां सर्वेऽपि स्युर्योगतस्ते गुणानाम् ।। इदानी प्रक्रमायातं वारियन्त्रं प्रचक्ष्महे ।। क्रीडाथै कार्यसिद्धय च चतुओं तद्गतिं विदुः ।। १०९ ॥ निम्नगं भवति द्रोणीदेशालस्थिताजलम् । यत्र तत् पतियन्त्रः स्याद् वाटिकादिप्रयोजनम् ॥ ११० ।।
१. '' क. पाटः । २. 'बाहुबा' ख. ग. पाठः । ३. 'शोऽद्य घ', ४, 'नि', ५. 'ध', ६. 'मूर्ध' क. पाठः । ७. 'ये च शक्त्याद', ८. 'रूणाम्', ९. ‘ण्या' ख. पाठः । १०. 'द' क, पाटः। ११. 'या' ख, ग, पाठः ।
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः । उच्छ्रायसमपाताख्यं यत्रोर्वा नाडिका पयः । जलाधारगुणान्मुश्चेदधस्तात् समनाडि( काकम् ) ॥ १११ ।। यत्र पातसमुच्छ्रायं पतित्वोच्छ्रायतो जलम् । तिर्यग् गत्वा प्रयात्यूर्व सच्छिद्रस्तम्भयोगतः ॥ ११२ ।। पतित्वोच्छ्रायतस्तोयं तिर्यग्रोयमेत्यथ । सच्छिद्रस्तम्भयोगेन तत् स्यात् पातसमोच्छ्रयम् । ११३ ॥ वाप्यां वापि च कूपे विधानतो दीर्घिकादिका विहिता । यत्रो मम्बु गमयति तदिहोच्छ्रयसंज्ञितं कथितम् ।। ११४ ।। दारुजमिभस्य रूपं यत् सलिलं पात्रसंस्थितं पिबति । तन्माहात्म्यं निगदितमेतस्योच्छ्रायतुल्यस्य ।। ११५ ॥ सलिलं सुरङ्गदेशानीतं निम्नेन वमना दरे । अद्भुतसम्भस्थानं तदिह समोच्छ्रायतः कुरुते ॥ ११६ ॥ धारागृहमेकं स्यात् प्रवर्षणाख्यं ततो द्वितीयं च । प्राणालं जलमग्नं नन्द्यावते तथान्यदपि ॥ ११७ ।। प्राकृतजनार्थमेतन्न विधेयं योग्यमेतदवनिभुजाम् । मङ्गल्यानां सदनं दिव्यमिदं तुष्टिपुष्टिकरम् ॥ ११८ ॥ सलिलाशयस्य सविधे कस्याप्याश्रित्य शोभनं देशम् । यन्त्रोत्सेधाद् द्विगुणा त्रिगुणा वा नाडिका कार्या ॥ ११९ ॥ जलनिर्वाहसहासावन्तर्मसणा बहिश्च नीरन्ध्रा । नियूढाम्भसि तस्यां शुभे मुहूर्ते गृहं कार्यम् ॥ १२० ।। सर्वाभिरोषधीभिर्युक्तं सहिरण्यपूर्णकुम्भैश्च । सुविचित्रगन्धमाल्यं विनादितं ब्रह्मघोषेण ॥ १२१ ॥ रत्नोद्भवैर्विचित्रैः स्तम्भैर्युक्तं हिरण्यघटितर्वा । रजतोद्भवैः कदाचित् सुरदारुसमुद्भवैरथवा ॥ १२२ ॥ श्रीखण्डोत्थैरथवा सालकमुख्यप्रशस्तक्षोत्थैः । शतसङ्ख्यात्रिंशत्सङ्ख्यैर्यदि वापि षोडशभिः ॥ १२३ ॥
१. 'ब' ख. ग. पाठः । २. 'तं', ३. 'वं', ४. 'लनिमग्नं' क. पाठः । ५. 'द्यथान्य' ख. ग. पाठः । ६. 'रॉ' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अथवा चतुस्समन्वितविंशतिसङ्ख्यैर्दिनेशसङ्ख्यैर्वा । भूषितमतिरमणीयश्चतुर्भिरपि वा विधातव्यम् ।। १२४ ।। प्राग्नीवरतिचित्रैः शालेर्जालेविभूषितं विविधैः । वेदीभिः परिकरितं कंपोतपालीभिरभिरामम् ॥ १२५ ॥ रमणीयसालभञ्जिकमनेकविधयन्त्रशकुनिकृतशोभम् । मिथुनैश्च वानराणां जम्भकनिव हैश्च नेकविधैः ॥ १२६ ॥ विद्याधरसिद्धभुजङ्गकिन्नरैश्चारणैश्च रमणीयम् । नृत्यद्भिः परम(गगुणः शिखण्डिभिमण्डितोद्देशम् ।। १२७ ॥ कल्पतरुभिर्विचित्रश्चित्रलतावल्लिगुल्मसंछन्नम् । परपुष्टषट्पदालीमरालमालामनोहारि ॥ १२८ ।। प्रवहत्सकलस्रोतःसुश्लिष्टनिविष्टनाडिकं मध्ये । सच्छिद्रनाडिकयुत नानाविधरूपरमणीयम् ।। १२९ ।। सुश्लिष्टनाडिकाग्रे स्तम्भतुलाभित्तिसंश्रिते परितः । सम्यक् कृत्वा दृढतरविलेपनं वज्रलेपायः ॥ १३० ॥ लाक्षासर्जरसदृपन्नपविषाणोत्थचूर्णसंमिश्रम् । अतसीकरञ्जतैलपविगाढो वज्रलेपः स्यात् ॥ १३१ ॥ दृढसन्धिबन्धहेतोः स तत्र देयो द्विशः कदाचिद् वा । शणवल्कश्लेष्मातकसिक्थकतेले: प्रलेपश्च ।। १३२ ॥ उच्छ्ययन्त्रेणेतद् भ्रान्तजलेनाथ तदभितः कृत्वा । चित्रानुपातयुक्तं प्रदशेयेन्नृपतये स्थपतिः ।। १३३ ॥ कार्याण्यस्मिन् करिणां मिथुनान्यभितोऽम्बुकेलियुक्तानि । अन्योन्यपुष्करोतिसीकरभयपिहितनयनानि ।। १३४ ॥ वर्षानुकृतं चास्मिन् प्रीतिमति प्रतिमतङ्गजो वीक्ष्य । दृक्कटमेहनहस्तैमेदमिव मुञ्चञ् जलं कार्यः ॥ १३५॥
१. 'मगलया' ख. ग. पाठः। २. 'धम् ' क. पाठः ! ३. 'गहनतरतस्यरसपि' ख, पाठः । ४. 'एक:- क. ग. पाटः । ५. 'यतदुच्छ्य सतत्रयन्त्रिण' (?) क. पाठः । ६. 'च्छूि' क, 'ष्टि' ख. ग, पाटः ।
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः । स्तनयोयुगेन सृजती जलधारे तत्र कापि कार्या स्त्री । आनन्दाथुलवानिव सलिलकणान् पक्ष्मभिः काचित् ॥ १३६ ॥ नाभिदनदिकामिव विनिर्गतां कापि विभ्रती धाराम् । काप्यङ्गुलीनखांशुभिरिव योपित् सिञ्चती कार्या ।। १३७ ।। एवम्पायांश्चित्रान स्वभावचेष्टान् वहूंश्च रमणीयान् । क्षोभान् विधाय कुयोदाश्चर्य नरपतेः स्थपतिः ॥ १३८ ॥ मध्ये तस्य विधेयं सिंहासनममलहेममणिघटितम् । तत्रासीदेनरपतिरवनिपतिः श्रीपतिर्देवः ।। १३९ ।। स्नायात कदाचिदस्मिन् मङ्गलगीतैर्विवर्धितानन्दः । वादितनाट्यनिपुणैर्निषेव्यमाणः सुरेन्द्र इव ।। १४० ॥ य एतस्मिन् गाढग्लपितधनधर्मव्यतिकरे शुचौ धाराधाम्नि स्फुटसलिलधारे नरपतिः । सुखेनास्ते पश्यन् विविधजलेशिल्पानि स भवेन मर्त्यः किन्त्वेष क्षितिकृतनिवासः सुरपतिः ॥ १४१ ।। जलदकुलाष्टकयुक्तं पूर्ववदन्यद् गृहं समारचयेत् । वर्षद्धारानिकरैः प्रवर्षणाख्यां सदामोति ॥ १४२ ॥ प्रतिकुलमस्मिन् कार्या दिव्यालङ्कारधारिणः पुरुषाः । विधिना त्रयः सुरूपाश्चत्वारः सप्त वा सुदृढाः ।। १४३ ।। यन्त्रेण समोच्छ्रायेण तांश्चतुर्थेन वा ततः पुरुषान् । कृत्वा सवक्रनालानम्भोभिः पूरयेद् विमलैः ॥ १४४ ॥ सलिलप्रवेशरन्धाण्यखिलानि पिधाय तत्र पुरुषाणाम् । अनानि वारिमोक्षाण्यखिलान्यथ मोचयेत् तेषाम् ॥ १४५ ॥ सलिलं सबक्रनालं द्वारप्रतिरोधमोचनैः पुरुषाः । मुञ्चन्ति स्वेच्छममी विचित्रपालेन चित्रकरम् ।। १४६ ।। इत्थमिमान् वारिधरान् साम(स्या?स्त्याद् यन्तरेण वा सलिलम् ।
व्यन्तरतो वा स्वेच्छं प्रवर्षयेदतिमहच्चित्रम् ॥ १४७ ॥ १. 'यश्चित्रात् ', २. 'टा बहूच', ३. 'तू', ४. 'न' ५. 'धा' क, पाठः ।
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१८२
समराङ्गणसूत्रधार इदं नानाकारं कुलभवनमाद्यं रतिपतेनिवासश्चित्राणामनुकरणमेकं जलगुचाम् । पयःपातैग्रीष्मे रविकरपरीतापशमनं न केषामत्यर्थं भवति नयनानन्दजननम् ।। १४८ ॥ एकनाथ चतुर्भिः स्तम्भैरष्टभिरथासङ्ख्यैर्वा । षोडशभिर्वा कुर्यान्मनोहरं गृहमिह द्वितलम् ॥ १४९ ॥ भद्रेयुतं चतुर्भिश्चतुरश्रं सर्वभित्तिसंयुक्तम् । ईलीतोरणयुक्तं कर्तव्यं पुष्पकाकारम् ॥ १५० ॥ तस्योपरि मध्यगता प्राङ्गणवापी दृढा विधातव्या। शतपत्रविहितभूषा तन्मध्ये कर्णिका कार्या ॥ १५१ ॥ तत्कोणेषु चतुर्वपि रमणीया दारुदारिकाः कार्याः । मध्याम्बुजनिहितदशः सालङ्काराः सशृङ्गाराः ।। १५२ ॥ पूर्वोक्तयन्त्रयोगात् पद्मासीने वसुन्धराधिपतौ । भृङ्गारामलवारिभिरङ्गणवापी भ्रियाच ततः ॥ १५३ ॥ तामिति भृत्वा वापी तत्सलिलं तदनुपट्टगर्भगतम् । छाद्यस्तु गन्धरोफ्रेष्वति रोहति(?)सर्वतो नियतम् ॥ १५४ ॥ मुखपट्टसमुत्कीर्णं रूपैश्चित्रैमनोरमैरखिलैः । अङ्गारि विमुञ्चति नासास्यश्रवणनेत्रायैः ।। १५५ ।। प्रणालाख्यं धाराभवनमिदमत्यद्भुततरं स्थितिं धत्ते यस्य क्षितिपतिलकस्याङ्गणभुवि । करोत्येतद् वेत्थं स्थपतिरपि बुध्या चतुरया जगत्येतौ द्वावप्यधिकमहनीयौ कृतधियाम् ॥१५६ ।। चतुरश्रातिगभीरा वापी कार्या मनोरमा सुदृढा । गर्भगतं गृहमस्याः कर्तव्यं लिप्तसन्धि ततः ॥ १५७ ॥ विहितप्रवेशनिर्गति सुरङ्गयाधो निवेशितद्वारम् । विदधीत चारुरूपैः प्रवर्षकैर्व्याप्तमुपरिष्टात् ।। १५८ ॥ 1. 'ई', २. पी भूयेच' ख. पाठः । ३. 'म' क. पाठः ।
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः । १८३ चित्राध्यायोदितवर्मना ततोऽलङ्कृतं च चित्रेण । तस्य विधेयं मध्यं सलिलाधिपवाससङ्काशम् ॥ १५९ ।। ऊर्ध्वविनिर्गमिताजैर्नालस्तत्पट्टकन्दकोद्भूतैः । सच्छिद्रकर्णिकागतदिनकरकरनिर्मितोद्योतम् ॥ १६० ॥ आपूरयेत् ततोऽनु च पाताम्बुभिरमलकमलपर्यन्तम् । विधिनामुनैव सम्यक् प्रविधाय मनोरमं भवनम् ॥ १६१ ॥ नानारूपकयुक्त्या (उ?व्यु)परचिततमङ्गतोरणद्वारम् ।। शालाभिरायताभिश्चतसृष्वपि दिक्षु कृतशोभम् ॥ १६२ ॥ कृत्रिमशफरीमकरीपक्षिभिरपि चाम्बुसम्भवैर्युक्ताम् । कुयोदम्भोजवती वापीमाहायेयोगेन ॥ १६३ ॥ सायन्तमुख्यपुरुषा राजाज्ञालब्धसंश्रयास्तत्र । परराष्ट्रागतदूतास्तिष्ठेयुर्निहितमिह निभृताः ॥ १६४ ।। अथ स यथाविधि सलिलक्रीडां पूर्वोक्तमार्गरूपाणाम् । दृष्टा मुदितः कुर्यात् पर्यारोहणं नृपतिः ॥ १६५ ।। तत्र स्थितस्य नृपतेः परिवारितस्य वाराङ्गनाभिरभितो जलमग्नधानि । पातालसमनि यथा भुजगेश्वरस्य निस्सीमसम्भृतरतिर्भवति प्रमोदः ॥ १६६ ।। पूर्वोक्तवापिकायां मध्ये स्तम्भश्चतुर्भिरुपरचितम् । मुक्ताप्रवालयुक्तं पुष्पकमथ कारयेल्लटभम् ॥ १६७ ।। वापी परितः पुष्पकमापूर्य सुनिर्गमाभिरथ सुदृढम् । गर्भस्वस्तिकभित्तिभिरुपहितशोभं समन्ततः कुर्यात् ॥ १६८ ॥ पूर्वोक्तवारियोगात् पूर्णामाकर्णतो विधायैताम् । जलकेलिषु सोत्कण्ठो महीपतिः पुष्पकं यायात् ॥ १६९ ॥ कुर्वीत नर्मसचिवैर्विलासिनीभिश्च सार्धमवनिपतिः । तद्भित्यन्तरवर्ती निमज्जनोन्मज्जनैः क्रीडाम् ।। १७० ॥ १. 'ह' ग. पाठः । २. 'म भित्त्य' क. पाठः।
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१८४
समराङ्गणसूत्रधारे एकत्र मनरपत्र दृष्टैरन्यत्र हत्वा सलिलेन नष्टैः । क्रीडत्यलं केलिकरैः सहायैर्नृपः सुखं मज्जनपुष्करिण्याम् ॥१७१॥ वापीतलस्थितमथ त्रपयावनम्रमाच्छादितस्तनभरं करपल्लवेन । गाढावसक्तवसनं जलरोधमुक्तावालोकते प्रणयिनीजनमत्र धन्यः ॥ १७२ ॥ रथदोलादिविधानं दारवमभिदध्महे वयं सम्यक् । यन्त्रभ्रमणककमे प्रकीर्तितं पञ्चमं यत् तत् ॥ १७३ ॥ तत्र वसन्तः प्रथमो मदननिवासो वसन्ततिलकश्च । विभ्रमकस्त्रिपुराख्यः पश्चैते दोलकाः कथिताः ॥ १७४ ।। निखनेच्चतुरः स्तम्भान् समैकसूत्रोपगान् ऋजून् सुदृढान् । सदृशान्तरान् धरित्रीवशतः सुश्लि(क्ष्णीष्ट)पीठगतान् ।। १७५ ।। प्रासादस्योक्तदिशि प्रविदध्याद विरचिताष्टकरदैर्घ्यम्। भूमिगृहं रमणीयं तदर्धतो विहितगाम्भीर्यम् ॥ १७६ ॥ तदर्भतले स्तम्भो लोहमयाधारसंस्थितः कार्यः। भ्रमसहितः पीठयुतो ग्रस्तश्चच्छादकतुलाभिः ॥ १७७ ॥ संस्थाप्योपरि पीठस्य कुम्भिकामतिहढां विभक्तां च । धनुरुच्छ्रितैस्ततोऽमूमष्टभिरावेष्टयेद् भट्टैः ।। १७८ ॥ स्वेच्छमथ भूमिकोच्छ्यमस्योर्चे कल्पयेन्नितान्तमृजुम् । निदधीत वेष्टनोर्चे पट्टयुतं स्तम्भशीष च ।। १७९ ॥ हरिग्रह (ण?)पर्यन्तं मंदला गजशीपिका विधातव्या । सुदृढा प्रयत्नरँचिता मनोभिरामा यथाशोभम् ॥ १८० ॥ पट्टस्योपरि कार्या चतुष्किका क्षेत्रमानतोऽभीष्टात् । तस्यामुपरि विधेयस्तलबन्धो दृढतरन्यासः ॥ १८१ ॥ स्तम्भैादशभिरथ क्षेत्रे युक्त्या समुच्छ्रितैर्भव्यैः । रूपवतीकोणस्थितिरधिका भूः प्रथमिका कार्या ॥ १८२ ॥
1. 'य मुष्ठिभि' क. पाठः । २. 'स', ३. 'चरिता', ४. 'थि' क. पाठः। ५. 'तमि ' ख, ग, पाठः !
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ।
१८५ मध्ये भ्रमच तस्या गर्भस्तम्भप्रतिष्ठितः कार्यः। क्षेत्रप्रमाणवशतस्तां पश्चाच्छादयेत् पट्टेः ॥ १८३॥ रथिकाशिवाय च फलकाम? चरणस्य नवदुपरिष्टान् । भ्रमचाणि न्यस्येन्मध्ये स्तम्भे च पश्चैव ॥ १८४ ॥ अत उपरि यथाशोमं हि भूमिका दुधका कार्या ! मयरनम्भाचारः कृतकलशविभूपणा शिरसि ।।१८५ ।। स्तम्मेऽ(वश्वस्ताद लिने भी मान्यधिका सत्र । रविकाभ्रमरकपुक्ता परस्परं चक्रपोण ।। १८६ ।। वसन्तरथिकाभ्रमे समधिरूढवाराङ्गना
परिभ्रमणसम्भृताभ्यधिकविन भूपतिः । करोति नयनोत्सवस्त्रिी त्रिदशधाग्नि यस्कीतनं
बसन्तसमये भवत्यमलकीर्तिधामन सः ।। १८७ ॥ आरोप्य स्थिरमकं सम्ध भूमीग्रादिक्षितमश्र । हस्तचतुष्कोच्छाया झायापरि भूमिका चाप ॥ १८८ ।। पारकयुक्तं हेपं पूर्ववदिहाचरेदखिलम् । पुकमपि च समनिकट मोछिद्र कुवात् ।। १८५ ।। तस्योपरि च ग्रीवा चतुरासनसंधुता विधानव्या । घण्यास्तम्भी काम नभन महावी नत्र ।। १९ ।। एवं पुष्पक भूमिकान्तम्त प्रस्थायी निगूडा जना
यावद भ्रामकयन्त्रचक्रनिकरं सम्यक् क्रमाचालयेत् । तावत् ना रथिकासना मृगशम्नत्र स्थिताः पुष्पक
कामावासकुतूहलार्षितहसो नान्यन्तिा अपि ॥ १९१ ॥ अथ कोणगतान स्तन्मांधतुरो शिनिवेशवेद ऋजन मुहहान् । सुटिपीठसंस्थान समन्तात् मेडिशनः ॥ १९.२ ।। तेमापरि (लताला) सरलता सूमि विधानदया। रथिकास्वा चतम्रो जायन्ते पूर्व दिशरथाः ॥ १९३ ॥ १. 'म्भः', २. ' का तर' के, पाठः । ३. 'मयं च ' ग. पाठः । ४. 'लक्ष्णपी' क- पाठः- 'पूर्वयुक्ताभिः ।' क, 'बदिसंस्थाः ' ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
तदुपरि तथार्धभूमिः कार्या सुश्लिष्टदारुन्धाना | मध्यभ्रमरयुक्ता सरूपका मत्तवारणयुता च ॥ १९४ ॥ Satara वसन्ततो बाह्यरेखा स्यात् । अन्योन्ययन्त्रपरिघट्टनदोल्यमाननिश्शेपचक्ररथिकाभ्रमणाभिरामम् । दृष्ट्वा वसन्ततिलकं सुरमन्दिराणां
भूषायमाणमुपयाति न विस्मयत्वं यं कः) ॥ १९५ ॥ प्रविधाय रङ्गभूमिं प्रथम शास्त्रान्तरावरस्यार्थे ( ( ) 1 चतुरश्रा रूपवती चतुर्भद्रा विवेवा भूः ॥ १९६ ॥
१८६
प्रतिको माग (d) या भद्रेषु भवन्ति संयता अमराः । अत उपरिष्टाद भूम्या अवसानाः कार्याः ॥ १९७ ॥ रेखाः शुद्धः कार्या वहिरन्तविधवायान्याः ।
पीटे मध्य (?) स्थास्ततोऽपस भूमिकाः कार्याः ॥ १९८ ॥
पीठस्य मध्यसंस्थेरन्योन्यायिनः ।
सर्वे वेगाद् भ्राम्यन्ति सान्त (ना) विभ्रमे भ्रमराः ॥ १९९ ॥ दोलासनो विहितवार (क्र.यू) ताति
चित्रेण यस्त्रिदशधामसु विभ्रमेण । पृथ्वीपतिर्बुदमुपैति समुल्लसन्ती
कीर्त्तिर्न मति तस्य ॥ २०० ॥ चतुरश्रम क्षेत्रं कृत्वाशभाजितं क्वष्टानिः । कोणैः शेषस्तस्मिवतुरथं कल्पयेद् भद्रम् || २०१ | द्विगुणमूर्ध्वतस्य भूमिकाभागसख्यया कार्यम् । तत्राद्यंशचतुष्केण भूमिका स्वाद समुन्द्रतः ॥ २०२ ॥ तत्राष्टषट्चतुर्भागवर्जिता भूमिका उपर्युपरि । क्रमशो भवत्यथैवं ताः स्पस्तिस्रोऽर्श्वसंयुक्ताः ॥ २०३ ॥
१. 'रिभ्य भू' क. पाटः | २. 'सातनावितमे भ्रम ( ? ) ' ख. पाठ: । ३. 'नाविव भ्रम' ग. पाठ: । ४. धूतानि चिक. पाठ: ।
5 se किञ्चिद मातृकासु गणितमिव भाति ।
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यन्त्रविधानं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ।
शेषांशोच्छ्रययुक्ता घण्टा चतुरश्रकायता कार्या । त्रिचतुर्भूम्यौ कार्ये सषट्चतुर्भागविस्तारे || २०४ | रजः स्यादाद्यभुविद्वितीयभुवि कोणगास्तथा रथिकाः । स्युर्भद्राकृतियुक्ता दोला अपि तत्र रमणीयाः ॥ २०५ ॥ afraredient कार्या भद्रेषु चातिरमणीयाः । कोणेष्वथासनान्यर्धवास्तुकेपि भ्रमः कार्यः ॥ २०६ ॥ दोलारथिके चतुरासने भ्रमोऽष्टासनो भवेत् तत्र । आसनमिह तत् कथितं युवतेः स्थानं यदेकं स्यात् ॥ २०७ ॥ निखिलान्यपि भ्रमणसंमुखं तानि विनति भ्रमणम् (?) । यत्रासनानि स इह भ्रम इत्युक्तोऽपराधिका ( 2 ) ।। २०८ ॥ यष्टेरूर्ध्वमधस्ताद् भ्रमस्य चक्रं (नि) योजयेदेकम् । लघुचक्राणि च तद्वन्नियोजयेदासनेष्वत्र ॥ २०९ ॥ लघुचक्रारकत्ते संलग्नाः कीलका दृढाः कार्याः । तुल्यान्तराः समस्ताः प्रलघु (क) चक्रारवृन्तर्गताः ॥ २१० ॥ रथिकाशिखाग्रचक्रं भ्रमचकारक (वि.) नियोजितं कार्यम् । यष्टिचतुष्टयमस्मिस्तिर्यक् चक्रद्वयोपेतम् || २११ ॥ ऊर्ध्वं द्वितीयभूमेस्तृतीयभूमेरथान्तरे कुर्यात् । नियतं रथिकायष्टिभ्रम संलग्नानि यन्त्राणि ॥ २१२ ॥ आसनाधारयष्टीनां रथिकाचक्रयोजितान् । अधः समान्तरान् कुर्याच्चतुरः परिवर्तकान् ॥ २१३ ॥ त (द्व) द् द्वितीयभूमीदो लागर्भे समान्तरे यष्टी । लग्ने तथैकचक्रे याम्योत्तरचक्रयोर्न्यस्येत् || २१४ ॥ धो भूको गरथिका चूडाग्रचक्रसंसक्ताः । यष्टीस्ततश्वतम्रो द्विचक्रका इतरचक्रयोर्न्यस्येत् ॥ २१५ ॥ प्रान्तचक्रद्वये कोणरथिकाचऋयोजिता । दोलागर्भगता यष्टिस्तिर्यक् कार्यापरापरा || २१६ ॥
१. 'यु' ग, पाठ: । २ ' चक्रभ्रमरच ' ख. पाटः । ३. 'क्रम' ग. पाठः ।
४. ' म' ख. ग. पाठः । ५. 'ला' ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
पूर्वे भद्रे द्वारं कुर्यात् सोपानराजितमस्वात् । गर्भात् पत्रिममा निवेशयेद् देववादीसाम् || २१७ ॥ अन्योन्यं मम विधानतः सम्यक् | ज्ञात्वा प्रयोजनीयं शीघ्र पन्दहनं वा ।। २१८ ।। प समासेन यथा भ्रममार्गः कीर्तिः स्फुटोस्माभिः । अन्येष्वपि कर्तव्येन ॥ २१९ ॥ स्तम्भादिद्रयाणां विम्याः कल्पितः । सुसितिं तथा दीर्घः ॥ २२० ॥ परिवारिमयतिः समन्ततः सिंहकर्णसंयुक्तम् । त्रिपुरं सम्यक कुपद विचित्ररूपं (स्व) कैश्चित्रैः || २२१ ।। बुद्ध्याः पूर्वयत्रैश्व युक्तं यन्त्राध्यायं वेत्ति यः सम्यगतम् । ग्रानोत्यर्थानातान कीर्त्तियुक्तान स क्ष्मापालेरन्वहं पूज्यते च ।। एतद् द्वादशराजचश्रमखिलं क्ष्मापाळचूडामणेदः स्तम्भप्रतिवद्धति परितो यस्येच्छया भ्राम्यति । स श्रीमान् भुवनैकरामनृपतिर्देयो व्यक्त
१
यत्राध्यायमिमं स्वबुद्धिरचितैः सह ॥ २२३ ॥
इति गहाराजाधिराजश्रीगोज देवविरचिने समाशि नागविशोध्यायः ॥
अथ गजशाला नाम वात्रिंशोऽध्यायः ।
लक्षणं गजशालानामिदानीमभिदम । चतुरश्री क्षेत्रे माते ततोऽभिः ॥ १ ॥
मध्ये द्विभागविस्तारं स्थानं कुर्वीत हस्तिनः । कल्प्याः प्रासादवद् भागा ज्येष्ठमव्याधमाः क्रमात् ॥ २ ॥
१. 'न्त्रैः ' क,
'' ख. पाठः ।
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अश्वशाला नाम त्रयस्त्रिशोऽध्यायः । तदहिभागिकोलिन्द्रो वहिस्तस्यापि चापरः । भागेनैकेन मित्तिः स्याद द्वितीयालिन्दकाद पदिः ॥ ३ ॥ तस्या द्वारप्रदेश तुंब्यौ कृपराभौ । कर्णप्रासादिका काया दिनीयालिन्दसंश्रिता ॥ ४॥ द्वे. हे वातायने कृयाद भिती दिश विमृप्वपि । प्राग्नीवाऽग्रे भान रायता !! .i अस्था एव यदा पक्षप्राशीवो भवतो मुखे । नन्दिनी नामः: शाकाहा म्वाइ गजये ।। ६ ।। अस्था एवं यदा स्थानांमाग्रीचा पायोदयोः । तदा सुभोगरा नाम तृतीया परिकीर्तिता ।। ७ ।। अस्या एवं यदा पृष्ट प्राग्ग्रीवः क्रियतेऽपरः । भद्रिका नाम शाला स्यात् तदा द्विरदपुटिदा ।। ८ ॥ पञ्चमी चतुरश्रा म्याद वर्णः नाम पूजिता । प्राग्नीवालिन्द्रनिदाहीना प नयापश ।। १. !! शाला प्रभारिका शानवता भी। नतां बने येत् कुर्यादन्याः सथिसिद्धये ॥ १० ।। प्रमारिकनि शिवह शामा सामागसम्बद्रविणच्छिदे स्यात् ।। कुर्यादतस्तां न वादिनास्तुशायाः पम जीविनविनय ।।११।। इति महाराजाधिरात्री वकिचिन माया कारन
गजझाला नामहागाऽध्यायः ।।
अथाशाला नाम वनिो यायः ।
अथ लक्ष्मावशालायाः प्रोच्यते विरादिह । स्ववेमवास्तोः कतना पड़ेगा । १. 'पु', २. : ' क. पाट: । ३.... : . पाटः । 5 इह सर्वत्र 'प्रग्रीच' इति पाध्वं भाति ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
अथवा पुष्पदन्ताख्ये स्थानं वासाय वाजिनाम् । अरविशतमात्रं यज्ज्येष्ठं तत् परिकीर्तितम् ॥ २ ॥ अशीत्यरनिकं मध्यं षष्ट्यरत्न्यधमं भवेत् । स्थलप्रदेशे विपुले गुप्ते रम्ये शुचौ तथा ॥ ३ ॥ समे च चतुरश्रे च स्थि(तेरे) मङ्गल्यमेव च । स्थानं हयानां कर्तव्यं प्रदेशे सुपरिक्रमे ।। ४ ।। निम्नगुल्मद्रमस्थाणुचैत्यायतनवेश्मभिः । वल्मीकशर्कराभिश्च वर्जिते तत् समाचरेत् ॥ ५ ॥ निःसङ्गे शल्यहीने च प्रागुदक्प्रवणे तथा । प्रदेशे तद् विधातव्यमालोक्य सुसमाहितैः ॥ ६ ॥ ब्राह्मणानुमते शस्ते' दिने स्थपतिभिः सह । भूमेर्विभागमालोक्य सुभगानानयेद् द्रमान् ॥ ७॥ न जाता ये श्मशानेपु देवतायतनेषु वा । अन्येष्वपि निषिद्धेषु जातान् वृक्षान् विवर्जयेत् ॥ ८ ॥ वृक्षान् प्रशस्तानानीय समीपे भर्तृवेश्मनः । ततो भूमि परीक्षेत प्रशस्तीमथ निन्दिताम् ॥ ९॥ चितायतनवल्मीकग्रामधान्यखलेषु च । विहारेषु च कर्तव्यमश्वानां न निवेशनम् ॥ १० ॥ भवन्ति स्वामिनः पीडा ग्रामधान्यखलेषु च।। श्मशाने वेश्मकरन्नराणां मृत्युमादिशेत् ॥ ११ ॥ स्थानं विहारवल्मीकविहितं स्यादनर्थकम् । तन्नित्यसन्तापकरं क्षयकृच तपस्विनाम् ।। १२ ।। दैवोपघातजननं स्त्रीणां च क्षयकारकम् । विहितं पादपैश्चैत्यैहं स्याद् भूतभीतिदम् १३ ॥ भवेद् रोगकरं भर्तुविहितं कण्टकिंद्रमैः । दीर्णायामुन्नतायां च कृतं भूमौ क्षयावहम् ।। १४ ॥ १. 'स्त' क. पाठः । २. 'शुभानानीय सद्रु' क, 'स्तुभागाना' ख. पाठः । ३. 'स्तां वाथ', ४. 'नाखि' ख. पाठः । ५. 'न', ६. 'णात् तुरगाणां',७. 'क' क. पाठः।
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अश्वशाला नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।
नतायां क्षुद्भयकरं कृतं भवति मन्दिरम् । तस्मात् कार्यं प्रशस्तायां भूमौ तद् वाजिवृद्धये ॥ १५ ॥ मङ्गल्यरमणीये च चतुरश्रे मनोनुगे ।
अन्तः
शुभे च विहितं समवेत् कल्याणकारकम् ॥ १६ ॥ निर्गच्छतो यथा वा पार्श्वे भर्तुस्तुरङ्गमाः । भवन्ति कुर्यात् स्थपतिस्तथा वाजिनिवेशनम् ॥ १७ ॥ : पुरप्रदेशस्य कार्य दक्षिणतश्च तत् । प्रवेशे दक्षिणं तेषां हेषितं जायते यथा ।। १८ ।। तथा भर्तुर्हितार्थाय कर्तव्यं सम वाजिनाम् । प्रागुदग् वा मुखं तस्य विधातव्यं संतोरणम् ॥ १९ ॥ प्राग्ग्रीवकेण संयुक्तं चतुःशालमसङ्कटम् । दशारत्नसमुच्छ्रायमष्टारनिप्रविस्तृतम् || २० || नागदन्तकसंशोभि पुरः कुड्यार्धसंयुतम् । पृष्ठे समग्रकुड्यं वा तत्र स्थानानि कल्पयेत् ॥ २१ ॥ तानि तु प्राङ्मुखानि स्युस्तथैवोदङ्मुखानि च । आयामे किष्कुमात्राणि त्रिकिष्कृणि च विस्तरात् ॥ २२ ॥ प्रांशुन्नतोर्ध्वभागानि चतुरश्राणि कारयेत् । अग्रोच्च सुखसञ्चारां तेषु भूमिं प्रकल्पयेत् ॥ २३ ॥ स्थानं सूत्रस्य मध्ये तु हस्तमात्रं समन्ततः । आस्तीर्ण व समश्लक्ष्णनीरन्ध्रः फलकैर्दृहैः || २४ ॥ धातक्यर्जुनपुन्नागककुभादिविनिर्मितैः । अष्टाङ्गुलसमुच्छ्रायैरध्यर्धारविविस्तृतैः ॥ २५ ॥ अच्छिद्रैः संहतैर्वद्धैस्यैसा पार्श्वयोर्द्वयोः । अजन्तुसङ्कुलैः काष्ठै रुचकाभि (?)र्भिपमतैः || २६ ॥ यवसस्य भवेत् स्थानं निर्यूहैः स्वास्तृतं शुभैः । किष्कुत्रयोच्छ्रितं तत् स्यादेकान्ते सुसमाहितम् ॥ २७ ॥
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१. 'ये' क. पाठः । २. 'दे' . पाठः । ३. सुक. पाठः । ४. 'सहितै ' ख. पाठ: । ५. 'ज' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे हनाणं च कुर्यात स्वादनकोटकम् । म्पत्तिामदुर्गन्धि विमारोहयो असम् ।। २८ ।।
बम की अधिकारी काः । पनाशीनियार्थ न न !! २० ॥ पाद बनानुगुस परिकल्पयेत् । चतुर्हस्तायतं या शाला मनुष्टना ॥ ३० ॥ स्थानेले तुला मी किमयेन् ।
र शुयोद्गालहान स्थानकावरक जयन् ।। ३१ ।। ग्रीष्मे कार्य भुसंमृष्टं सिक्तं नत्र महीनलम् । वर्षास्वनम्बुपईच शिशिरे संवनं शुमम् ।। ३२ ।।
पन्ना मिथः का सवायापनिवजितः ।। ३३ ।। स्थानं दक्षिणपूनस्मा दिमिक परन् ।
ब्राहम्यां दिशि अथाले पथ : बाम। वायव्यां तु प्रकवचं स्थानमा विशि।। ॥ ३५ ॥ निःश्रेयः शाः सा कामांश्च फलकाताः । कुदालाबालमुहाः शुग युगमनका ।। ३ ।।
नायाः (१) प्रदीपांच भवन्त्ययागारापयागिनः ॥ ३७ ॥ मङ्ग्रहः सुखसञ्चारवस्तमा न भवेत् । अग्न्युपदार्थ को निः । ३८॥ पदाधान् सभिषा शुलदीपादेिकान युधः । भाग्याच था जन पनपनेच्छया ।। ३९ ।। हस्तवासी शिलां दोषी मानहा। पिटकानि विचित्राणि वस्तीन् नानाविधानपि ॥ ४०॥ १. 'याँच्छाद क, 'दिाद ख. पाठः । ७. 'ख', ३. 'दा प्र', ४. 'प' क, पाठः । ५. 'व', ६. “भाण्डायन', ७, 'वि' क. पाठः ।
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अश्वशाला नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः । एवंविधानि चान्यानि संनिदध्यात् प्रयत्नतः । पुरःस्तम्भाश्रितं भाण्डं सन्नाहादेर्विधीयते ॥ ४१॥ प्राङ्मुखे तुरगं गेहे वारुण्यां स्थापयेद् दिशि । पूर्वामुखे पदे वापि मित्रस्य वरुणस्य च ॥ ४२ ॥ भवन्ति तेन बहवः पुष्टिं च प्राप्नुवन्ति ले । सा हि दिक पूजनीया च स्तोतव्या च प्रकीर्तिता ॥ ४३ ।। होमशान्तिकंदानेपु धा याश्च पराः क्रियाः । तासु प्रशस्यते पूर्वा शक्रेणाधिष्ठिता स्वयम् ।। ४४ ॥ तस्यादेति दिनकृदनुलोमं ततः पुनः । अश्वानां पृष्ठतो याति स प्रतीचीमनुक्रमात् ।। ४५ ।। स्नानाधिवासने पूजा माङ्गल्यानि पराणि च । प्राङ्मुखानां तुरगाणां कर्तव्यानि शुभार्थिभिः ॥ ४६॥ एवं कृते भूमिबलमित्राणां यशसोऽपि च । वृद्धिर्भवति भूपस्य तस्मात् प्राची प्रशस्यते ॥ ४७ ।। भतद्धिप्रदं स्थानमनासस्य तद् भवेत् । दक्षिणाभिमुखायां तु शालायां वाञ्छितार्थदम् ।। ४८ ॥ स्थानं भवति वाहानां पदे क्लुप्तं विभावसोः। वहिनाध्यासिता सा दिर्ग आत्मा वह्निश्च वाजिनाम् ।। ४९ ॥ अजरो बहुभोक्ता च तत्र बद्धो भवेद्धयः । उदङ्मुखेऽपि भवने प्राप्नुवन्ति शुभं हयाः ॥ ५० ॥ तथास्थितानामश्वानां दक्षिणेन दिवाकरः। उदेत्यनन्तरं याति तान् विधाय प्रदाक्षणम् ॥ ५१ ॥ प्रयाति वामतोऽ(श्वं च?श्वानां) स्थाप्यास्तेनोत्तरामुखाः। चन्द्रार्को प्रति(हपीहेष)न्ते तथा बधीत वाजिनः ।। ५२ ॥ नृपतिश्च जयं सिद्धिं पुत्रानायुश्च विन्दति ।।
अंरोगाश्च भवन्त्यश्वा वधेयन्ति च सन्ततिम् ॥ ५३॥ १. 'ताः' क. ख. पाहः । २. 'षु'; ३. 'यगोकस्य' क. पाठः । ४. 'गदीप्तो वहिस्तु वा', ५. 'आरोग्याश्च' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे दक्षिणाभिमुखान् कुर्यान्न सन्नाद्यान् न चाग्रगान् । पितृकार्याद्यतोऽन्यत्र दक्षिणा अर्जितंव दिल ।। ५४ ॥ अस्यामेव दिशि प्रेता यतः सर्वे प्रतिष्ठिताः । उदेति वामतो याति चास्तं दक्षिणतो रविः ।। ५५ ।। सोमश्च पृष्ठे भवनि तेनाश्वा देवपीडिताः । ग्रहेर्विकारर्विविधैः पीड्यन्ते रातिविहलाः ।। ५६ ।। भयेन व्याधिभिश्चार्ता ग्रामं नेच्छन्ति खादितुम् । पराजयमतुष्टिं च स्वामिनोऽनथसङ्गतिम् ।। ५७ ।। कुर्वन्त्यतो न बत्रीयात् कथञ्चिद दक्षिणामुखान् । पश्चिमाभिमुखानां च बद्धानां वाजिनां सदा ।। ५८ ।। उदेति पृष्ठतो भानुः पुरतोऽस्तं प्रयानि च । न भवेद् विजयस्तेन भतुस्तत्पृष्टयतिनः ।। ५९ ।। शक्रस्य पृष्ठवर्तित्वात प्रातिलोम्याच भास्वतः । कुप्यन्ति व्याध्यस्तेषां तूर्ण देलनिनाशनाः ।। ६० ।। तैस्ते ध्यायन्ति वेपन्हें जले त्रासं प्रयान्ति च । यवसं नाभिनन्दन्ति क्षमा मुञ्चन्ति सर्वथा ।। ६१ ॥ दिशोऽभिमुखमानेच्या वध्यन्ते यदि वाजिनः । व्यथन्ते रक्तपित्तोत्थैस्तदा रोगैरनेकधा ।। ६२ ॥ जायन्ते स्वामिनो वववधहृच्छोपदायिनः । वाजिनां च भवेत् तत्र वहिदाहकृतं भयम् ।। ६३॥ भतुंः पराजयो विन्नः स्याच देहस्य संशयः । नेत्याः ककुभो वाहा वध्यन्ते संमुखं यदि ।। ६४ ।। तदा न तेऽभिनन्दन्ति खादनं पानभोजने । यथा यथा क्षिति पादैारयन्ति पुनः पुनः ।। ६५ ॥ हेषन्ते वीक्ष्य बहुशो मनुष्यान् पक्षिणः पशून् । भ्रमयन्ति च गात्राणि नैर्ऋती चाभितः स्थिताः ॥ ६६ ॥
१. 'य' क, पाठः । २. 'क' ख. पाठः।
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মহালা নাম সুতিহাস: तथा तथैपां कुपिता नाशं कुर्वन्ति राक्षसाः । वध्यन्ते यदि वाज्ञानाद वायव्याभिमुख हयाः ॥ ६७ ॥ तदा ते बातिक गोगः पीड्यन्ने प्रतिवासरम् । चलः कायो भवेद् भतुः केशश्चाश्वोपनीविनाम् ।। ६८ ॥ नराणां च भवेन्मृत्युदुर्भिक्षप्रभवं भयम् । ऐशान्यभिमुखं बद्धाः प्रणश्यन्ति तुरङ्गमाः ।। ६९ ॥ मूर्योदयस्याभिमुखं बद्धानां चइमादिशेत । निध्यन्ते यदा वाडा वाली दिशमुपाश्रिताः ॥ ७० ॥ वध्यन्ते ते ग्रहर्दिव्याधिभिश्च विचिन्तनाः । कव्यहव्यक्रियास्तत्र भर्तुर्न विजयावहाः ॥ ७१ ॥ द्विजानामुपतापाय नायन्ते तत्र वाजिनः । अनुवंश च मालायां स्थानमवस्य नेष्यने ।। ७२ ।। म्यामिनभ्नः मीनाय पानाशाय नाजिनाम् । स्थान प्राने तुरगान सर्वथा वासयदतः ॥ ७३ ॥ नच धायाः क्षणमपि रागिणः कल्यसन्निधौ । कल्यानामपि शेगाः स्युर्यतो रोगिसमाश्रयात् ॥ ७४ ॥ हयागारस्य पूर्वण कार्य भपजपन्दिरम् । तस्यैव वामनः सवसंभागन् परिकल्पयेत् ।। ७५ ।। वाजिना भपनार्थाय भाण्टानि च विनिक्षिपेत् । अगदानोपधीः स्नेहान् वीच लवणानि च ॥ ७६ ॥ भेपनागारसविध कुर्याचारिष्टमन्दिरम् । भवनं व्याधितानां च कार्य वासाय वाजिनाम् ।। ७७ ॥ सुगुप्तं तच्च कर्तव्यं पूर्वनिर्दिष्टवेश्मत्रत् । संबद्धं च विधातव्यमेतद् वेश्म चतुष्टयम् ।। ७८ ॥ १. 'ना' क. पाठः । २. 'गे', ३. 'नि' ख. ग, पाठः !
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समराङ्गणसूत्रधारे सुधाबन्धद्वैः कुड्यैः सप्राग्ग्रीवोच्चतोरणम् । चत्वार्यपि विशालानि सुगमानि च कारयेत् ॥ ७९ ॥ वेश्मस्वेवंविधेष्वश्वान् स्थापितान् परिपालयेत् ।। ७९ ।। इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
अश्वशाला नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥
अथाप्रयोज्यप्रयोज्यं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।
राज्ञां सेनापतीनां च वर्णिनामपि वेश्मसु । यदि वा वास्तुकक्षासु सभादेवकुलेषु च ।। १ ।। शयनासनयानेषु भाजनाभरणेषु च । छत्रध्वजपताकासु सर्वोपकरणेषु च ।। २ ॥ अप्रयोज्यानि यानि स्युः प्रयोक्तव्यानि यानि च । विस्तरात् तानि कथ्यन्ते हितार्थमथ देहिनाम् ॥ ३ ॥ पूर्वोक्तानां नृपादीनां यानि देश्मसु केवलम् । अप्रयोज्यानि तान्येव पूर्वमत्राभिदध्महे ॥ ४ ॥ तेषु नैव प्रयोक्तव्याः समस्ता अपि देवताः । दैत्या ग्रहास्तथा तारा यक्षगन्धर्वराक्षसाः ॥ ५ ॥ पिशाचाः पितरः प्रेताः सिद्धविद्याधरोरगाः। चारणा भूतसङ्काश्च तेषां योषाः सुतास्तथा ॥६॥ प्रतीहाराः प्रतीहार्यस्तेषामधिकृताश्च ये । आयुधानि तदीयानि सर्वे चाप्सरसां गणाः ॥ ७॥ दीक्षितव्रतिपापण्डिनास्तिकाः क्षुत्प्रपीडिताः। व्याधिबन्धनशस्त्राग्नितेलामृक्पङ्कपांसुभिः ॥ ८ ॥ शूलज्वरादिभिश्चार्ता येऽन्येऽप्येवंविधा नराः । मत्तोन्मत्तजडक्लीवनग्नान्धवाधिरादयः ।। ९॥ 1. 'बायक' ख. ग. पाठः । २. 'त' क. पाठः ।
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अप्रयोज्यप्रयोज्यं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः । दोलाक्रीडाश्च नेष्यन्ते ग्रहणानि च दन्तिनाम् । देवासुराद्याः सङ्ग्रामा विग्रहाश्च महीक्षिताम् ॥ १० ॥ प्राणियुद्धविमर्दाश्च मृगया च न शस्यते । रोद्दीनाद्भुतत्रासबीभत्सकरुणा रसाः ॥ ११ ॥ न प्राणिपु प्रयोक्तव्या हास्यशृङ्गारवर्जिताः । हस्त्यश्वरथयानानि विमानायतनानि च ॥ १२ ॥ चण्डानलप्रदीप्तानि भवनानि वनानि च । वृक्षाः पुष्पफलेहींना विहावामपिताः ॥ १३ ॥ एकद्विशाखा रूक्षाश्च भन्नाः शुष्काः सकोटराः । कदम्बशाल्मलीशेलुनारंक्षारलुकादय:(?) ॥ १४ ॥ भूतालयत्वानेष्यन्ते कटुकण्टकिनश्च ये । गृध्रोलूका विहङ्गेषु कपोतश्येनवायसाः ॥ १५ ॥ कश्चति न शस्यन्ते खगा रात्रिचराश्च ये। गजाश्वमहिपाश्चामा माजोरवरवानराः ।।१६ ॥ सिंहो व्याघ्रस्तरक्षुश्च वराहमृगजम्बुकाः। तथा वनचरा ये च क्रव्यादा मृगपक्षिणः ॥ १७ ॥ गृहेष्वेते न कर्तव्याः शैलाटव्याश्रिताश्च ये अमीपां करणादर्थराचार्यों विग्रमुच्यते ।। १८ ।। व्याधि घोरमवामोति व्यसनं वन्धमेव च । यत्र तत्र गृहस्वामी धनहानि पराजयम् ॥ १९ ॥ प्रवासं बन्धनं नाशं मृत्यु वा क्षिप्रमाप्नुयात् । इत्युक्तान्यप्रशस्तानि गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥ २० ।। तत्र यानि प्रयोज्यानि कथ्यन्ते तान्यतः परम् । यस्य यत्र भवेद् भक्तिर्या चास्य कुलदेवता ॥ २१ ॥ हस्तक्लुप्तप्रमाणेन तान् कुर्वन् स्यान्न दोषभाक् ! तवारपार्श्वयोः कार्यों प्रतीहारौ स्वलकृतौ ॥ २२ ॥ १. 'रा', २. 'श्येना न' क. पाठः । ३. 'भवम् । ख. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
वेत्रदण्डव्यग्रकरों खङ्गकोशपरिच्छदौ । रूपयौवनसम्पन्नौ विचित्राम्बरभूषणौ ।। २३ ।। धात्री वामनिका कुना सखीभिः परिवारिता । विदूषकैः कञ्चुकिभिस्तुटैरनुगतास्तथा || २४ || द्वारस्योभयतः कार्याः प्रतीहार्यो मनोरमाः । निधयश्वानुरूपाश्च शङ्खान्नोज्ज्वललक्षणाः ॥ २५ ॥ tatarria तो वदनोगतान | पद्मस्था पूर्णकुम्भा वा विभूषिता ॥ २६ ॥ वरूध्वंस्थितः पुष्पफलपलवसम्भृतैः । पूर्णकुम्भाङ्कुशच्छत्रीदादर्शचारैः ॥ २७ ॥ कार्याष्टमङ्गला द्वारे मभिः शङ्खत्स्ययोः | द्वारमण्डलव्यस्था खाप्यमाना गजोत्तमः ॥ २८ ॥ पद्मासना पद्महस्ता श्री कार्या स्वता । वृषः सवत्स धेनुर्वा सच्छत्रविभूषणा ।। २९ ।। फलभक्त बहुविधैराहारार्थं निवेदितः । नानापुष्पफलै नम्रः शास्तिर्यगवस्थितः ॥ ३० ॥ चित्रा पत्रलता लेख्या बाह्याभ्यन्तरभित्तिषु | हंसकारण्डचक्राद्वैर्विभितीपत्रवतिभिः || ३१ ॥ कुमारकै क्रीडद्भिर्युक्ता ललितवाहुभिः । वासघात निवेश्यन्ते विचित्राभरणाम्बः ॥ ३२ ॥ रतिक्रीडापरा नार्यो नायकस्तु यदृच्छया । आपाण्डु देहच्छवयः स्वल्पचारुविभूषणाः || ३३ ॥ किञ्चित्प्रतनुभिः कार्याः सुरतलालसाः । वृद्धशाखाविटपैः प्रचलारुणपल्लवैः || ३४ ॥
चम्पकाशोकपुन्नागनानाम्रतिलकादिभिः । छायापुष्पफलोपेतैः वृक्षैरन्यैश्च भूषिताः || ३५ ||
१. 'रैर्दा' ख, ग, पाठः | २. 'वसुभिः ' ३ 'स्था' कपादः ।
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अप्रयोज्यप्रयोज्यं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ! उद्यानभूमयः कार्याः कूजपिकमधुव्रताः । ऋतवः फलपुष्पायः स्वः स्वेचिद्वैरलकृताः ।। ३६ ॥ मनोरमविशेषैश्च वगैश्च समयोचितः ।। कादम्बकुररक्रौञ्चहंससारसमेखलाः ।। ३७ ॥ नीरान्तोद्गतवानीरकेतकीपण्डमण्डिताः। जलान्तलीनमन्स्यत्र सन्ना नलिनीवनः ॥ ३८ ॥ लेग्न्याश्च गृहभित्तीनामधोभागेषु दीर्घिकाः । फलेः समं सभक्षेक्षुपणिकाञ्चनभाजनाः ॥ ३९ ॥ विन्यस्तपद्मिनीपत्राः सोत्पलाः पानभूमयः । विचित्रातोयहस्ताच नृत्य गीनविनक्षणाः ॥ ४० ॥ मुदिता ललना लेख्याः प्रेक्षासङ्गीतभूमिग । प्रकल्प्याः पञ्जरस्थाश्च चकोरशुकसारिकाः ॥ ४१ ।। प्रहृष्टाः परपुष्टाश्च मनराश्च सकुक्कुंटाः । इति यानि प्रविष्टानि प्रयोक्तव्यानि वेश्मनि ॥ ४२ ॥ तानि सर्वाणि शस्तानि नापकरणेष्वपि । देव योनिगणास्तद्वत पुरुषाश्च विनिन्दिताः ॥४३॥ साक्रन्दाश्च न शस्यन्ते पीठशव्यासनादिए । पुरस्तात कीर्तितान्यत्र प्रयोक्तव्यानि यानि च ॥ ४४ ॥ नानि शस्तानि कक्षासु सभादेवकुलेषु च । दिव्यमानुपलम्बद्धान्पाख्यानाख्यायिकादिषु ॥ ४५ ॥ प्रोक्तानि तानि नाचन्ति शुभान्यालेख्यकादिषु । इति कथितमयोज्यं योजनीयं च बुध्या भवनशयनकक्षादेवधिष्ण्यादिकेषु । विरचयति यथोक्तं निन्दितं वर्जयेद् यः स भवति नृपतीनां शिल्पिनां चाननीयः ।। ४६ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोज देवविरचिते ममराङ्गणमूत्रधार पर नाम्नि वास्तुशास्त्रे
___ अप्रयोज्यप्रयोज्यं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। १. 'नी', २. '' क. पाठः । ३. 'सु' व. ग. पाठः । ५. 'घु' क, पाठः । ५. 'कुं', ६. 'धानाख्या ' स्व. ग. पाटः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
अथ शिलान्यासविधिर्नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
अथ ब्रूमः शिलान्यासविधिमत्र यथागमम् । तोदगयने पुण्ये शुक्लपक्षे शुभेऽहनि ॥ १ ॥ स्थिरग्रहस्य दिवसे करणे च गुणान्विते । तिष्येऽश्विनी रोहिण्यामुत्तरेष्वपि च त्रिषु ॥ २ ॥ tarai हस्ते शिलाविन्यासमाचरेत् । स्थिरस्य राये साम्यमित्रावलोकिते || ३ || सम्यङनिमित्तशकुनम्वस्तिपुण्याहवाचिते । हर्षोदये च मनसः कुर्याद् वास्तोर्निवेशनम् || ४ || भद्रः प्रकृत्या शास्त्रजः शुचिः स्नातः समाहितः । कर्मारभेत स्थपतिः कृतदेवार्चनक्रियः ॥ ५ ॥ पूर्ण समामविकलां चतुरश्रामनिन्दिताम् । शिलमायां चये साध्वीं परीक्षेत विचक्षणः ॥ ६ ॥ कुम्भाङकुशध्वजच्छत्र मत्स्य चामरतोरणैः । दूर्वानागफलोष्णीषपुष्पस्वस्तिकवेदिभिः || ७ || नन्द्यावर्तः समरैः कूर्मपद्मनिशाकरः । वः प्रशस्तैः माकारैर्भूषिताः कर्मणो हिताः ॥ ८ ॥ दीर्घा स्वापविमाछाभाध्मातापरीक्षितां । दिङ्मूढा चाङ्गहीना व सास्थ्यङ्गारा सशर्करां ॥ ९ ॥
aust दुःकनिभिन्ना कृष्णा दोषभयावहा । नृणां पशुतुरङ्गाणां पाङ्काः स्वस्तिद्धये ॥ १० ॥ hotoमृगविहङ्गानां पादैः स्पृष्टास्तु वर्जयेत् । नन्द्रा भद्राजया पूर्णाश्चतस्रः स्युरिमाः शिलाः ॥ ११ ॥ वासिष्ठी काश्यपी द भार्गव्याङ्गिरसीति ताः । तत्र मागुत्तरे देशे संनिवेशस्य वास्तुनः ॥ १२ ॥
१.
' स्थापनाध्मा ’(?) क, 'हायमा' ग. पाठ: । २. 'ता:' स. ग. पाठः । 'रा: ' क. पाठः । ४. ' क्षपनि ' क, 'पक्षाने ' ग. पाठ: । ५. 'हा: ' ख. पाठ: ।
३.
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शिलान्यासविधिर्नाम पश्चत्रिंशोऽध्यायः । नैर्ऋत्यां वा सकुसुमां समां गोचर्मसम्मिताम् । वेदी सगन्धकलशां चतुरश्रां प्रकल्पयेत् ॥ १३ ।। आग्नेय्यामादितो नन्दां स्थापयेत् क्रमशः शिलाम् । अकालमूलरव्यङ्गैः सपद्मोत्पलपल्लवैः ।। १४ ॥ सर्वोपधिहिरण्याथैहेमराजतमन्मयः । कुम्भैस्ताम्रमयैश्चापि मन्त्रैस्तामभिषेचयेत् ॥ १५ ॥ तीर्थप्रस्रवणाम्भोभिः सरनाक्षतपङ्कजैः । सुगन्धिभिः संपुण्याहमभिषेकं प्रयोजयेत् ॥ १६ ॥ जाह्नवीयमुनारेवासरस्वत्यादिसम्भवैःचम)। महानदीजलं शस्तं शुभतीर्थभवं तथा ॥ १७ ॥ तथाद्रिवनवेशन्तदेवायतनजानि च । अभिषेकार्थमम्भांसि यथालाभमुपाहरेत् ॥ १८ ॥ मन्त्रेणानेन चैतासामभिषेकं समाचरेत् । हिरण्यवर्णाः पार्वन्यः शुचयो दुरितच्छिदः ॥ १९ ।। पुनन्तु शान्ता:श्रीमत्य आपो युष्मान्मधुच्युतः। मन्त्रपूतेन पयसा स्त्रापयित्वा ततः शिलाम् ।। २० ॥ स्थपतिर्गन्धकल्केन मङ्गल्येनानुलेपयेत् । हिमचन्दनपूर्णेन व्यवकीर्य सुगन्धिना ॥ २१ ॥ तरसा छादयेदेनां सलाजैः पुष्पदामभिः । धूपमाल्योपहारैश्च दधिमांसाक्षतादिभिः ॥ २२ ॥ पूर्जयेदिष्टकां देवीं वस्त्रयुग्मैश्च पुष्कलैः । निवेशनान्ते नैऋत्यां तदा विमानवस्थितान् ॥ २३ ॥ समसङ्ख्याञ् शुचीन् प्राज्ञानचयेद् दक्षिणाफलैः । ओङ्कारस्वस्तिपुण्याहगीतवादितनिस्वनैः ॥ २४ ॥ कर्ता जनितरोमाञ्चस्तेभ्यः कुर्यान्नमस्क्रियाम् ।
निवेद्य वास्तोष्पतये भूतेभ्यश्च ततो वलिम् ॥ २५ ॥ ___.. 'सु' ग. पाठः। २. 'वमान्यः' क. पाठः । ३. 'चन्द्रेण पू' ख. ग. पाठः। ४, रग, पाठ:
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समराङ्गणसूत्रधारे
तासां चतसृणामन्याः कुर्यादुपशिलाः पृथक् । प्राकारस्वस्तिका द्वे तथा श्रीवत्सलक्षणा ॥ २६ ॥ नन्द्यावर्तस्तु पूर्णायां भवे (देको दङ्को) यथाक्रमम् । कर्णे प्राग्दक्षिणे नन्दां वास्तुनः स्थापयेदः ॥ २७ ॥ अन्याः क्रमेण भद्राद्याः कोणेष्वन्येषु च त्रिषु । प्रतिष्ठापन मन्त्राच तासां चतसृणामपि ॥ २८ ॥ चत्वार ऋषिभिर्गीताः शाश्वतारम्भदर्शनाः । aणादिवराहस्य वेदार्थैस्त्वाभिमन्त्रिताः ? ताम् ) || २९ ॥ सिनन्दिनी नन्दां प्राक् प्रतिष्ठापयाम्यहम् | सुमुहूर्ते सुदिवसे सा त्वं नन्दे ! निवेशिता ॥ ३० ॥ आयुः कारयितुदीर्घं श्रियं चायामिहावह | भद्रासि सर्वतोभद्रा भद्रे ! भद्रं विधीयताम् ॥ ३१ ॥
arrrrr प्रियसुते ! श्रीरस्तु गृहमेविनः । जये ! विजयतां स्वामी गृहस्यास्य महात्मनः ॥ ३२ ॥
आचन्द्रार्क यशश्रास्यं भूम्यामिह विरोहतु । त्वयि सम्पूर्णचन्द्रामे ! न्यस्तायां वास्तुनस्तले ॥ ३३ ॥
भवत्येष गृहस्वामी पूर्णे ! पूर्णमनोरथः ।
इति' मूलचं (यो?यं) मन्त्रैः कुर्यात् स्वस्तिकवाचनैः || ३४ ॥ ताभिर्हिरण्यवर्णाभिः शिलाभिः सममद्भुतम् । प्रागुदक्प्लवना धन्या न प्रत्यग्दक्षिणावा ॥ ३५ ॥ इष्टकाञ्चैत्यभवनप्राकारपुरकर्मसु ।
विताने चितिविन्यासे चतुर्मुखनिकेतने || ३६ || पुरोधाः शान्तिवेदीषु प्रतिमास्थापनेषु च । याज्ञिकेन विधानेन क्रमशः स्थापयेच्छिलाः ॥ ३७ ॥
१. 'रं च स्व', २. ' ज्ञेया श्री', ३. 'थ' ग. पाठ: । ४. डुं 3 ५. 'स्यां', ६. 'में' क. पाठ: । ७. 'भ' ख. ग. पाठः । ८. 'भिः सशिलाभिः समं द्रुतम् ', ९. 'के', क. पाठः ।
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शिलान्यासविधिर्नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ।
$ त्रैशोकौणसभा (सै ? रूयै ) स्ताः सामभिः से महात्रतैः । गायत्र्ष्णगनुष्टुभहत्या च यथाक्रमम् || ३८ ॥ चयान् समस्तांश्चिनुयाच्चतुरो विरमेत् ततः । ज्ञात्वा भित्तिप्रमाणं च चितेश्रयचतुष्टयम् || ३९ || समाप्यमादिकमैवं कनिष्ठं च यथोत्तरम् । प्रतिष्ठितास्ताः प्रथमं भूतले सुस्थिताः समाः ॥ ४० ॥ न चालयेच्चालने स्याद् गृहभर्तुर्महद् भयम् । कम्पने च भयं विद्यादेतासां स्थिरतां पुनः ॥ ४१ ॥ स्थपतेर्गृहभर्तुश्च मङ्गलं परमं विदुः । प्राग्दक्षिणायां चलने गृहभर्तुर्महद् भयम् ॥ ४२ ॥ भार्याविनाशनैर्ऋत्यां शून्यं (?) भीतिर्मरुद्दिशि । गुरो भयमैशान्यामपचारेऽपि तद् भवेत् ॥ ४३ ॥ • प्रथमं स्थापि (ते ? ताने) वं स्तम्भानपि न चालयेत् । नोद्धरेत मद्या विधिस्तुल्यो यतोऽनयोः ॥ ४४ ॥ विन्यासं प्रथमं तस्मात् कुर्यात् सम्यक् समाहितः । शिलानां स्थपतिस्तद्वत् स्तम्भानामपि सर्वथा ॥ ४५ ॥ द्वारप्राकारशालानां नगराणां च वेश्मनाम् । तत्प्रमाणो विधिर्यस्मात् तस्मात् तत्रादृतो भवेत् ॥ ४६ ॥ एवं शिलान्यासविधानमेतद् यथावदस्माभिरिहोपदिष्टम् । अस्मिन् कृते वेश्मसुरालयादि निष्पत्तिमभ्येति विनैव विघ्नम् ॥ इति महाराजाधिराज श्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे शिलान्यासविधिर्नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥
१. 'सु' ख. ग. पाठः | २. 'स्म' ३ 'जयोचाल',
स्मात्तत्रा' क पाठ:
'' इति मातृकासु दृश्यते ।
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४. 'न्यां',
५.
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'तत्रा
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समराङ्गणसूत्रधारे अथ वलिदानविधिर्नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ।
इदानीमभिधास्यामो बलिरूपविधेः क्रमम् । येन येनार्चिता देवास्तुष्यन्ति समहेश्वराः ॥१॥ मण्डलं वास्तुनो मध्ये गोमयेन प्रकल्पयेत् । कलशं तत्र विन्यस्येत् सप्रसून सकाञ्चनम् ॥ २ ॥ वास्तुदेवास्ततः कल्प्या यथास्थाननियोगतः । सधूपैर्विविधैर्माल्यैरयं पश्वानिवेदयेत् ॥ ३ ॥ अर्चयेद् विश्वकर्माणं माल्यै पविलेपनैः । भक्षैः फलैबहुविधैः पूजयेत् सुसमाहितः ॥ ४ ॥ आज्येन पयसा दना पूजयेच्छिखिनं पुनः । शालिगोधूममुद्गाद्यैर्धान्यैः पय॑न्यमर्चयेत् ॥ ५ ॥ जयन्तं पूजयेदाम्रद्राक्षाखजूरिकादिभिः । मालतीमल्लिकाभिश्च पूजयेत् त्रिदशाधिपम् ॥ ६ ॥ पुष्पै रक्तैस्तथा धूपै रक्तचन्दनलेपनैः । ततः सूर्य जगन्नाथं पूजयेल्लोकचक्षुपम् ॥ ७ ॥ जम्बीरैर्वीजपूरैश्च नारङ्गैः पीतकैः फलैः । पूजयेत् सत्यनामानं देवं तेन स तुष्यति ॥ ८ ॥ मत्स्यमांसैश्च तुष्यन्ति सर्वे रक्षःपुरोगमाः । सितैः फलैर्नारिकेलै शथ परितुष्यति ॥ ९ ॥ गन्धधूपप्रयोगैश्च नभोनामानमर्चयेत । पुष्पैः सुगन्धिभिः शुक्लारुतः पारतुष्यति ॥ १० ॥ कुसरं मधुसंयुक्तं पूष्णे भक्त्या निवेदयेत् । वितथं तु शुभैरन्यैर्मद्यमांसविवर्जितैः ॥११॥ पूजितस्तुष्टिमायाति विवस्वाच महामुनिः । पुष्पः सपुष्पकैस्तुष्टिमवामोति गृहक्षतः ॥ १२ ॥ १. 'यै विता', २. 'सर्व' ख. ग. पाठः । ३. 'म' क. पारः।
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बलिदानविधिर्नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः । मत्स्यमांसयुतैर्भव्यैर्यमतुष्टिः सदा भवेत् । पुन्नागागरुधुपेन गन्धवोनचेयेद बुधः ॥ १३ ॥ मृगमांसयुतैर्भक्षैभृङ्गराजं च तर्पयेत् । राजजम्बूफलविल्वैर्देवमभ्यर्चयेन्मृगम् ॥ १४ ॥ पायसैमधुसंयुक्तैर्मासर्भक्तैश्च शोभनैः । कर्पूरसुरभिद्रव्यगर्भः संपूजयेत् पितॄन् ॥ १५ ॥ सपुष्पर्मोदकैलाजैः पललेश्च विमिश्रितैः । दौवारिकं प्रयत्नेन पूजयेद् विघ्नकारकम् ॥ १६ ॥ अपूर्वः शोभनैर्गन्धैधूपैर्माल्यैरनुत्तमैः । पुष्पैः कण्टकजातीनां सुग्रीवं पूजयेत् सदा ॥ १७ ॥ सपुष्पा (पं?ज)कैर्भक्ष्यर्दधियुक्तानपायसः ।। अर्चयेत् पुष्पदन्तं तु यशोवीर्यान्वितं सुरम् ।। १८ ।। मांसैश्च सूकरादीनां वैनतेयं सदार्चयेत् । वरुणं च महासत्त्वं पूजयेद् धूपचन्दनः ।। १९ ।। राहुं च मांससंयुक्तैस्तर्पयेद् भक्ष्यभोजनैः । रुधिरेण प्रदत्तेन तुष्टिमेति शनेश्वरः ॥ २० ॥ मांसेन तु क्षयस्तुष्टिं रोगाणामधिपो व्रजेत् । मेदसा पूजयेद् रोगं सर्वलोकभयङ्करम् ॥ २१ ॥ वासुकि क्षीरदानेन पूजयेत् सततं नरः । पूर्ववत् पूजयेद् देवं विश्वकर्माणमीश्वरम् ॥ २२ ॥ सितप्रमूनविन्यासभेल्लाटं पूजयेद बुधः । दधियुक्तेन चान्नेन सोमं सर्वत्र पूजयेत् ॥ २३ ॥ कुवेरं धूपदानेन पूजयेत् सततं नरः । अदितिं च सुवर्णेन पौरपि च पूजयेत् ॥ २४ ॥ अर्कमन्दारमालाभिषभं च समर्चयेत् । अन्येषामपि देवानामर्चनं धूपसाम्प्रतैः(१) ॥ २५ ॥ १. 'पुप्पैर्लोप' ख, ग. पाठः । २. 'घ' क. पाठः ।
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कीलकसूत्रपातो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः । एवं संसाधयेल्लग्नं यदीच्छेत् सिद्धिमात्मनः । पूजया तुष्टिकारिण्या पूजयेच्च पुरोहितम् ॥ ३२ ॥ अभ्यर्चिते यतस्तस्मिन् ब्रह्मा भवति पूजितः । सांवत्सरस्य कर्तव्या ततः पूजा यथाविधि ।। ३३ ।। सांवत्सरेऽर्चिते यस्मात् पूजितः स्याद् बृहस्पतिः । स्थपतिं पूजयेत् पश्चात् त्वष्टतुष्टिचिकीर्षया ॥ ३४ ॥ तदधीनं यतः कर्म शुभं वा यदि वाशुभम् । श्वेतचन्दनदिग्धांस्ताञ् श्वेतपुष्पैश्च पूजितान् ॥ ३५ ॥ सदशैरहतैर्वस्त्रैरङ्गुलीयैः प्रपूजयेत् । परिकर्मकरा ये च तान् यथाशक्ति पूजयेत् ॥ ३६॥ हेम्ना वस्त्रादिदानेश्च वाग्मिर्वा परितोषयेत् । यथा सुमनसस्ते स्युस्तथा कर्तव्यमादरात् ।। ३७ ॥ ततः स्थपतिराचम्य बलिकर्म समाचरेत् । सूत्रपाते बलिं धीमान सार्वभौतिकमाचरेत् ॥३८॥ तस्यालाभे बलिः कार्यो यो भवेत् सोभिधीयते । विदधीत चरूञ् श्वेतरक्तपीतासितान् पृथक् ॥ ३९ ॥ पायसं कसरं क्षीरं निष्पावाञ् श्वेतमोदनम् । पाविकादधिरूपांश्च पललोल्लापिकाघृतम् ॥ ४० ॥ दध्योदनं च संमिश्रं देवताभ्यो निवेदयेत् । तिलेघृतेन सहितैर्देवमग्निं च पूजयेत् ।। ४१ ॥ ततश्च पायसं दना ब्रह्मस्थाने निवेदयेत् । ततश्चानुक्रमेणैव देवताभ्यो बलिं हरेत् ॥ ४२ ॥ बलिकर्म यथान्यायं कृत्वा च द्विजराचनम् । स्वशाखीयाञ् शुचीन् प्राज्ञान् पूजयेद् दक्षिणाफलैः ॥ ४३ ॥ ओङ्कारस्वस्तिपुण्याहीतवादित्रनिस्वनैः । ततो विप्रैः सह स्वामी कुर्यात् तस्य प्रदक्षिणम् ॥ ४४ ॥ १. 'ये' व. ग. पाठः । २. 'त्रि' ख. पारः। ३. 'दध्यरू' ख. ग. पाठः । ४. 'भू' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे सर्वपुष्पफलैश्चैषां कार्य बुद्धिमता सदा । इत्येते बलयः सर्वे शान्त्यर्थं परिकल्पिताः ॥ २६ ॥ शोधने कर्षणे भूमेः साधने रूपकल्पने । गृहे प्रवेशने रम्ये तिथिमभ्युदयेषु च(?) ॥ २७ ॥ स्कन्धावारनिवेशेषु पुरग्रामनिवेशने । देवालयक्षितिपवेश्मनिवेशनेषु प्रोक्तान् बलीन प्रवितरेत प्रयतः सुरेभ्यः । प्रारम्भमन्यमपि वास्तुगतं चिकीर्षुः कुर्वनिमं विधिमभीप्सितभाजनं स्यात् ।। २८॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
बलिदानविधिनाम पत्रिंशोऽध्यायः ॥
अथ कीलकसूत्रपातो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः।
वर्णानां यानि दारूणि कीलकार्थ नियोजयेत् । इदानीं तानि वक्ष्यामि श्रेयःकीर्तिहिताय च ।। १ ।। खदिरोदुम्बराश्वत्थशालशाकधवार्जुनाः । अञ्जनः कदराशोकतिनिशारुणचन्दनाः ॥ २ ॥ शिरीषसर्जन्यग्रोधवेणवः कीलकर्मणि । पुन्नामानो द्रुमाः शस्ताः स्त्रीनामानो विगर्हिताः ॥३॥ अश्वत्थः खदिरश्चैतौ विप्राणां वृद्धिकारको । रक्तचन्दनवेणूत्थकीलो क्षत्रस्य पूजितो ।। ४ ।। शाकच खदिरश्चेति सामन्तानां हिताविमौ । कीलौ शालशिरीपोत्यौ वैश्यानां कीर्तितौ शुभौ ।। ५ ।। शूद्रजातस्तु तिनिशधवार्जुनसमुद्भवाः ।।
वैश्यवेश्मसु सौभाग्यकार्ये च स्युरशोकजाः ॥ ६ ॥ 1. 'न' क. पाठः । २. 'राश्च ते', ३. 'ल', ४. 'त:' ख. पाठः।
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कीलकसूत्रपातो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।
न्यग्रोधो वणिजां धाम्नि भूमिकर्मण्युदुम्बरः । महामा(?) वैद्यानां कीलाः सर्जार्जुना गृहे ॥ ७ ॥ विप्राणां सर्ववर्णोत्थाः क्षत्रियाणां त्रिवर्णजाः । वर्णद्वयोक्ता वैश्यानां शूद्राणां स्वानुलोमतः ॥ ८ ॥ प्रतिलोमा न कर्तव्याः कीलका भूतिमिच्छता । प्रमाणान्यथ कीलानां निगद्यन्ते पृथक् पृथक् ।। ९ ।। द्वात्रिंशदङ्गुलाः कीला विप्राणां स्युः शुभावहाः । क्षत्रियाणां पुनश्चाष्टाविंशत्य गुलसम्मिताः ॥ १० ॥ चतुर्विंशत्यगुलाच वैश्यानां शुभदायिनः | विंशत्याद्यङ्गुलैः कीलाः शूद्रजातेस्तु ते हिताः ॥ ११ ॥ षडङ्गुलपरीणाहाः सर्वेष्वेते शुभावहाः । ब्राह्मणक्षत्रियविशां वेदाष्टाश्रषश्रयः ।। १२ । पडश्रयस्तु शूद्रस्य प्रकृतेस्तु यदृच्छया । दार्भमौर्णकार्पासं विप्रादीनां यथाक्रमम् ॥ १३ ॥ अर्धपर्वपरीणाहं दृढं सूत्रं तु वर्तितम् । अलाभे स्वस्य सूत्रस्य प्रोक्तादन्यतमं बुधः ॥ १४ ॥ गृह्णीयात् सूत्रमन्ये तु गृहणीयुः स्वेच्छयैव ते । इत्थं संभृत्य सम्भारान् गृहभर्ता शुभेऽहनि ।। १५ ।। शुक्लपक्षे शुचिः स्नातः स्थपतिश्च सिताम्बरः । गृहस्थानेनिमित्तत् तु देवस्थानानि लक्षयेत् ॥ १६ ॥ कुसुमाक्षतमय्यैश्च कर्तव्या गृहदेवताः ।
आदौ स्थानानि शकूनां परीक्षेत समन्ततः ॥ १७ ॥ तेषु सर्वेषु कर्तव्यमर्चनं तु यथाविधि ।
गृहस्य मध्ये सिक्त्वा तु निरूप्य ब्रह्मणः पदे ॥ १८ ॥ गोमयेन समालिप्तां कुर्याद् वेदीं सुलक्षणाम् ।
चतुरश्रां चतुर्द्वारामक्षतैः सुप्रतिष्ठिताम् ॥ १९ ॥
1.
'स्वविविद्यानां ख., 'स्ववैविद्यानां ग पाठः । ३. ' क्षिपेस्तु', ४. 'ना', ५. 'त्ता तु', ६. 'व्यश्वक' ख. ग. पाठः ।
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२. दशास्त्रप 7
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समराङ्गणसूत्रधारे
तस्या मध्ये प्रतिष्ठाप्यः कुम्भो हैमोऽथ राजतः । ताम्रको मृन्मयो वापि पूर्वालाभे परः परः || २० || अकालमूलः सोऽव्यङ्गो जलपूर्णः स्वलङ्कृतः । मणिरत्नप्रवालैश्च स्वर्णरूप्येण गर्भितः ॥ २१ ॥ प्रतिष्ठा (प्या ?योs) क्षतै: पुष्पफलवीजसमन्वितः । श्वेतेन चन्दनेनैनं चर्चयित्वा समन्ततः ।। २२ ।। तस्योपरिष्टाद् विन्यस्येत् क्षीरवृक्षस्य पल्लवम् । सुगन्धिनार्थ धूपेन धूपयित्वा चतुर्दिशम् || २३ || वेष्टयेदहतेनैनं शुक्रवस्त्रेण सर्वतः । वास्तुमध्ये यतो ब्रह्मा कुम्भरू (पं पः ) स तिष्ठति ॥ २४ ॥ कुम्भस्योत्तरभागे तु कीलकान् स्थापयेद् बुधः । ataragr परीक्षेत स्थापयेच्च यथाविधि ॥ २५ ॥ श्वेतचन्दनलिप्तास्ताञ् श्वेतपुष्पैविभूषयेत् । सालक्तकान् सुरभिणा धूपेन च सुधूपितान् || २६ ॥ ऊर्णामयेन सूत्रेण त्रिवर्णेनाभिवेष्टयेत् । मधुसर्पिर्दधिक्षीरैर्मूलभागेषु लेपयेत् ॥ २७ ॥ अर्चयेत् परशुं सूत्रमष्ठीलादीनि सर्वतः । अथोपकरणान्यत्र धूपपुष्पाक्षतादिभिः || २८ || ततः पूर्वोत्तरे वास्तोर्भागे सप्तार्चिषः पदे । गोमयेन समालिसे कुशास्तरणमास्थितः ॥ २९ ॥ अग्निकार्यं प्रकुर्वीत पुरोधाः शान्तिमेव च । सांवत्सरः शुचिः स्नातः कृतस्नानः (?) समाहितः ॥ ३० ॥
शङ्कुना साधयेल्लग्नं सम्यक् टिकाथवा (१) । - रात्रिलग्नं तु नक्षत्रैर्मध्यास्तोदयसंश्रितैः ॥ ३१ ॥
१. 'च', २. ' यवीश्वेत ' ( १ ) ख. ग. पाठः । ३. ' तास्ते वे', ४. 'का:', ५. 'ताः क. पाठः । ६. 'ष्टीलावानि स्व. ग. पाठः । ७. 'रशुचिः ८. 'कुतसा ', ९. 'तं खादि' ख, ग, पाटः !
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समराङ्गणसूत्रधारे अक्षतान् प्रथमं कुम्भे दापयित्वा द्विजोत्तमैः। ततो दक्षिणपूर्वेण गत्वा पुण्याहवाचकैः ॥ ४५ ॥ अहताम्बरसंवीतः शुचिः स्थपतिरासने । निषद्य प्राङ्मुखः शंकुं धृत्वा दक्षिणपाणिना ॥ ४६॥ पश्चादादाय वामेन प्रतिष्ठाप्य च भूतले । मन्त्रानमू जपन् वीरो हन्यात् परशुना ततः ॥ ४७॥ विशन्तु ते तलं नागा लोकपालास्तथैव च । प्रतिष्ठन्तु गृहं चास्मिन्नायुबलकरं भवेत् ॥ ४८ ॥ प्रहारान् सुस्थिरानष्टौ दद्यात कीलस्य मूर्धनि । हन्यमाने ततः कीले निमित्तान्युपलक्षयेत् ।। ४९ ।। गोविप्ररथनागाढ्याः कन्या नृपवरॅस्त्रियः । शङ्खदुन्दुभिवंशानां तथा गीतस्य च ध्वनिः ॥ ५० ॥ आविर्भवति यद्यस्मिन् हन्यमाने प्रभुस्तदा । सततं सुखमामोति शान्त्यैश्वर्यैश्च वर्धते ॥ ५१ ॥ हतं तं विपन्नं वा निषेधः सूत्रकीलयोः। पाषण्डिनां च सर्वेषां दर्शनं न सुखावहम् ॥ ५२ ॥ दृष्ट्वा शुभनिमित्तानि ततः शकुं निवेशयेत् । हन्यमानो यदा कीलो विशेद भूमौ शनैः शनैः ।। ५३ ।। कर्मसिद्धिर्भवेत् तत्र गृहं रत्नपरिच्छदम् । हन्यमानोऽपि न विशेद् धरित्री कीलको यदा ॥ ५४ ॥ न तत्र कर्मसिद्धिः स्यादनिमित्तं च लक्षयेत् । एकेनापि प्रहारेण यत्र कीलो विशेन्महीम् ॥ ५५ ॥ ने सिद्धिं याति तत्रौकः कृतं वा नोपभुज्यते । आयस्याष्ठीलया हन्यान काष्ठेन कथञ्चन ॥ ५६ ॥ काष्ठेन ताडितः कीलो वह्निदोषकरो भवेत् ।
अश्मना यदि ताड्येत तदा व्याधि प्रयच्छति ॥ ५७ ॥ १. 'कुम्भं' क. पाठः । २. 'ज्व' ख., 'ज्ञ' ग. पाठः। ३. 'र:' क. पारः। ४. 'शान्तैश्व' क, शान्त्यर्थेश्च', ख, ग. पाठः । ५. 'स' ख, ग, पाठः।
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कीलकसूत्रपातो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः । २११ ऐन्द्री प्रतिनतः कीलो धनसम्मानकारकः । आग्नेय्यां प्रणते कीले भवत्यग्निभयं महत् ।। ५८ ॥ याम्यायां मरणं राज्ञां दिशि राक्षसतो भयम् । धननाशस्तु वारुण्यां वायव्यां रोगतो भयम् ।। ५९ ॥ सौम्यं सौम्यानते राजप्रसादायेशतो गतः । कीलके कूर्चके जाते पुत्रपौत्रान्वयगृहे ।। ६० ।। परमामृद्धिमाप्नोति धनधान्यैश्च वर्धते । हन्यमानो यदा यत्नात् कीलः कश्चिदपि स्फुटेत् ॥ ६१॥ नाशं विद्यात् तस्य पल्ल्या ज्येष्ठस्य तनयस्य वा ।। यदि भज्येत कीलः स्वात् स्वामिनो जायते वधः ॥ ६२ ॥ यदा कीलः पतेद्धस्ताद भ्रंशः स्यात् स्थपतेस्तदा । हस्तभ्रष्टच(?) स भवेदष्ठीले हस्तविच्युते ।। ६३ ।। सुखेन हन्यमानश्चेत् कीलः स्वस्थो न जायते । अष्टौ प्रहारानपरांस्तस्य दद्यात् तदा पुनः॥ ६४ ॥ स्रग्गन्धधूपोपहारैः कुर्याच्च परिषेचनम् । इदं साम महापुण्यं परिचिन्त्य समासतः ॥६५॥ त्रैशोकं तु जपेद विद्वान् यावच्छङ्कभिषेचनम् । गत्वाथ नैतीमाशां ततः शकुं निवेशयेत् ॥६६॥ ऊर्णायवेन साम्नास्य सम्यक् स्नपनमाचरेत् । वायोर्दिशं ततो गत्वा तत्र शकुं निवेशयेत् ।। ६७ ।। . अभिषेकं महारत्नसाम्ना तस्य समाचरेत् । अर्थशानी दिशं गत्वा शकुं तस्यां निवेशयेत् ॥ ६८ !! भाग्रेण साम्ना कुर्वीत प्राग्वत् तस्याभिषेचनम् । ततोऽनु मूत्रं बनीयात् सव्यं द्विगुणवेष्टितम् ॥ ६९ ॥ प्रदक्षिणं प्रसायैतदुक्तः शकुक्रमो यथा। (मब)ध्यमानं यदा सूत्रं शङ्कुः किमपि मुञ्चति ॥ ७० ॥
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१.'च गते' ख. ग. पाटः । २. 'च' ख. गठः। ३, 'लस्यात्', ४. 'स्य', ५. 'लतुस्यो', ६. 'वर्त्य स' क. पाठः । ७. 'यवेशन' क, 'ययेन' ख. पाठः। ८. 'प्राग्वत् (स्नानं समाच' क. पाठः । ९. 'कु' ख, ना, पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे तदा पुत्रवधं विद्याच्छिन्नं स्वस्वामिमृत्यवे । तस्माद् यत्नः प्रकर्तव्यो यावत् मुत्रं प्रसार्यते ॥ ७१ ॥ चतुर्णामपि बाहूनां पोषं(?)छिन्नं न दुष्यति । मूत्रं प्रसार्य वितरेचरून् पूर्व प्रकल्पितान् ।। ७२ ॥ स्वेषु स्वेषु ततः स्थानेष्वनेन विधिना बुधः । शङ्कुस्थानेषु दातव्याः सिताद्याथरवः क्रमात् ॥ ७३ ।। प्रारदक्षिणस्या विदिशा मन्त्रं चमं हृदा जपेत् । मारुतानां च सर्वेषां मानवानां तथैव च ॥ ७४ ।। बलिं तेषु प्रयच्छामि मन्त्रेण परिमन्त्रितम् । रक्तं बलिमुपादाय नेऋत्यभिमुखस्तथा ।। ७५ ॥ नैर्ऋत्यधिपतिश्चैव नैर्ऋत्यां ये च राक्षसाः। वलिं तेषु प्रयच्छामि रक्तमोदनमुत्तमम् ।। ७६ ।। कृष्णं वलिमुपादाय गत्वा च दिशमानिलीम् । नमस्ते नागराजाय ये चान्ये तं समाश्रिताः ।। ७७ ।। बलिं तेषु प्रयच्छामि कृष्णमोदनमुत्तमम् । बलिमुदधृत्य हारिद्रमैशानीमाश्रयन् दिशम् ।। ७८ ।। नमो रुद्रेषु सर्वेषु ये चान्ये तान् समाश्रिताः। प्रयच्छामि बलिं तेषां हारिद्रौदनमुत्तमम् ।। ७९ ॥ एवमेतान् बलीन् सर्वान् यथावत् प्रतिपादयेत् । ततः कुम्भोदकं पुण्यं साम्ना दिव्येन मन्त्रयेत् ॥ ८० ॥ वामदेव्येन कुर्वीत मोक्षणं तेन वास्तुनः । दुमा विप्रादीनामिति निगदिताः शन्कुघटने फलं यच्छङ्कोच स्फुटमिह निमित्तानि बहुशः । तथा सूत्राताने विधिरनु च मन्त्रैः प्रतिदिशं वलिः कीलेषूक्तस्त्रिदशपरितोषाय विधिवत् ।। ८१ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
कीलकसूत्रपातो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥
निक. पाहा ।
१. 'रयेत् ' क पाठः। २. 'नून. ग. पात दिपा. पाता।
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वास्तुसंस्थानमातृका नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः । २१३ अथ वास्तुसंस्थानमातृका नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः ।
इदानीमभिधास्यामो वास्तुसंस्थानमातृकाम् । निवासहेतवे सम्यक सर्वकोपजीविनाम् ॥ १।। चतुरश्रं समं * साचि दीर्घ तृत्तं च शम्बुकम् । शकटाक्षभगादर्शवत्रकन्याकृतीनि च(?) ।। २ ।। छिन्नकण विकर्ण च शहामं क्षुरसन्निभम् । शक्त्याननं कूर्मपृष्ठं सदंशं व्यजनाकृति ॥३॥ शरावस्वस्तिकाकार मृदङ्गपणवोपमम् । विशर्कर कवन्धाभ यवमध्यसमाकृति ।। ४ ।। उत्सङ्ग(राग)जदन्ताभे तथा परशुसन्निभम् । विस्रावितं च श्वनं च । प्रलम्बं च विवाहिकम् ॥ ५ ॥ त्रिकुष्टं पञ्चकुष्टं च परिच्छिन्ने तथापरम् । दिकस्वस्तिकाभं श्रीवृक्ष वर्धमानसमाननम् ।। ६ ॥ एणीपदं नरपदं चत्वारिंशत् समासतः । क्षेत्राण्युक्तान्यथाhषां विनियोगो विधीयते ॥ ७॥ चतुझे समे राजा शय्याकारे पुरोहिताः । दीर्षे कुमारकाः सेनापतिदेतायते वसेत् ॥ ८॥ वसे युः शम्बुकाकारे सर्वे वाहाः सुखार्थिनः । अन्तःपुरं सब समे वाणिजाः शकटाकृती ॥ ९ ॥ वेश्यास्तु भगसंस्थाने दर्पणाभे सुवर्णकृत। संस्थानतो वज्रसमे जना नगरगोष्ठिकाः ॥ १० ॥ वसेयुः। शकसंस्थाने क्षेत्रे पुत्राभिलाषिणः ।। छिन्नकणे महामात्रा विकणे मृगलुब्धकाः ॥ ११ ॥ शङ्खामे चैकदृश्यानो गणाचार्याः क्षुरोपमे । व्र(ताजा)ध्यक्षः शक्तिमुखे कूर्मपृष्ठे तु मालिकाः ॥ १२ ॥ ५. संथातं, २. संक्षामनं', ३. 'व' ख. ग. पाठः । * पूर्वाभ्यायोपान्तिमश्लोकादारभ्या चत्वारिंशाध्यायावसानात् क. पाठो लुसः, ख, गयोबलिनिपोमेसिनमा विनियोग प्रमानिक समस्यने । पपी विणिका
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२१.
समराङ्गणसूत्रधारे सदंशे सोचिका वाजिपोषका व्यजनोपमे । तक्षाणश्च शरावामे स्वस्तिके वन्दिमागधाः ॥ १३ ॥ पणवाभे मृदङ्गाभे वेणुतूर्यादिवादकाः । विशर्करे तु रथिनः कबन्धप्रतिमे पुनः ॥ १४ ॥ नीचाः श्वपाकाश्च यवप्रतिमे धान्यजीविनः । उत्सङ्गे श्रमणा हस्त्यारोहिणो (राग)जदन्तके ॥ १५ ॥ परशुपति क्षेत्रे बन्धनागारिणो जनाः । विस्राविणि सुराकाराः श्वभ्राभे कर्मकारिणः ॥ १६ ॥ युगले नापिताः स्वाविवाहव्ये(?)कोशरक्षिणः । त्रिकुष्टे पञ्चकुष्टे च वसेयुर्वह्निजीविनः ॥ १७ ॥ समन्ततः परिच्छन्ने सर्वे मानोपजीविनः । दिस्वस्तिके तु चैत्यानि कुर्याद् वासांच सर्वशः ॥ १८ ॥ श्रीवृक्षप्रतिमे वृक्षान् यज्ञवाटांश्च कारयेत् । वर्धमानाकृतिमुखेऽप्येतानेव प्रकल्पयेत् ॥ १९ ॥ एणीपदे तु गणिकाचौरान् नरपदोपमे । इत्युक्ताः शुभदा वासाः सर्वकर्मोपजीविनाम् ॥२०॥ कर्मोपजीविजनवासनिमित्तमेताः क्षेत्राकृतीरभिहिताः प्रविमृश्य तेषाम् । वेश्मानि कारयति यः स्थपतियथावन्मान्यः स कस्य न भवेदिह भूमिपृष्ठे ॥ २१ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
वास्तुसंस्था(प?)नमातृकानामाष्टात्रिंशोऽध्यायः॥
१. 'क्षणाश्च', २. 'भे' ख. ग. पाठः। ३. ' स्वाधि वा' ग. पाठः।
परिच्छिन्नमिति लक्ष्ये पठितम् ।
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द्वारगुणदोषो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः २१५ अथ द्वारगुणदोषो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।
गृहाण्युक्तानि सर्वेषामेवं कर्मोपजीविनाम् । वर्णिनां च गृहस्थानां कथ्यन्तेऽतः परं यथा ॥ १ ॥ भल्लाटे धनदे यद्वा चरके पृथिवीधरे । ब्राह्मणस्य भवेद वेश्म माहेन्द्रद्वारमुत्तमम् ॥ २॥ माहेन्द्रेऽ।ऽथ सत्ये वा आर्यके' वा निकेतनम् । कार्य गृहक्षतद्वारं क्षत्रियस्य शुभावहम् ॥ ३॥ याम्ये वैवस्वते वापि गान्धर्वेऽथ गृहक्षते । वैश्यस्य भवनं कार्य द्वारं पुष्पाहये शुभम् ॥ ४ ॥ वारुणे पौष्पदन्ते वा यद्वा मैत्रेऽथवासुरे । शूद्रस्य सदनं काये भल्लादद्वारमुत्तमम् ॥ ५॥ विप्राणां प्राङ्मुखं वास्तु गृहं स्याद् दक्षिणामुखम् । वर्धते धनधान्येन पुत्रपौत्रैश्च नित्यशः ॥ ६ ॥ दक्षिणाभिमुखं वास्तु भवनं पश्चिमामुखम् । क्षत्रियस्य धनं धान्यं विक्रमश्चेह वर्धते ।। ७ ॥ वास्तुनः पश्चिमं द्वारं भवनस्योत्तरामुखम् । तत्रैधते धनैर्धान्यैः पुत्रपश्वादिभिश्च विट् ॥ ८ ॥ वास्तु स्यादुत्तरद्वारं गृहं पूर्वामुखं तथा । शूदस्य कर्मवृत्तिस्तु धनधान्यैर्विवर्धते ॥९॥ एकस्यामपि शालायां चत्वारः संप्रकीर्तिताः। निवेश्येद्वारभागाश्च कथ्यन्ते च शुभाशुभाः॥ १० ॥ उत्सङ्गो हीनबाहुश्च पूर्णबाहुस्तथापरः । प्रत्यक्षायश्चतुर्थश्च निवेशः परिकीर्तितः ॥ ११ ॥ उत्सङ्ग + एवदीक्षाभ्यां(?) द्वाराणां वास्तुवेश्मनोः । स सौभाग्यप्रजाद्धिधनधान्यजयप्रदः ॥ १२ ॥ १. 'स्ते' ख, ग. पाठः । २. 'श्यगृहद्वाराश्च', ३. 'क्षो' ख, पाठः । "एकदिकाभ्यां द्वाराभ्याम् । इति पाठः स्यात् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे यत्र प्रवेशतो वास्तु(?)गृहं भवति वामतः तद्धीनबाहुकं वास्तु निन्दितं वास्तुचिन्तकः ॥ १३ ॥ तस्मिन् वसन्नल्पवित्तः स्वल्पमित्रोऽल्पवान्धवः । स्वीजितश्च भवेन्नित्यं विविधव्याधिपीडितः ।। १४ ॥ वास्तुप्रवेशतो यत् तु गृहं दक्षिणतो भवेत् । प्रदक्षिणप्रवेशत्वात् तद विद्यात् पूर्णवाहुकम् ।। १५ ।। तत्र पुत्रांश्च पौत्रांश्च धनधान्यसुखानि च । प्राप्नुवन्ति नरा निलं वसन्तो वास्तुनि ध्रुवम् ॥ १६ ॥ गृहपृष्ठं समाश्रित्य वास्तुद्वारं यदा भवेत् । प्रत्यक्षायस्त्वसौ निन्द्यो वामावर्तप्रवेशवत् ॥ १७ ॥ ब्राह्मणो निवसेन्मुख्ये द्विनाम्नि क्षत्रियो वसेत् । वितथे निवसेद वैश्यः शूद्रः सुग्रीवनामनि ।। १८ ।। एते वैशेषिकाः सर्वे वर्णानामनुपूर्वशः । वास्तुद्वारनिवेशाश्च वासैः सह निरूपिताः ॥ १९ ।। यथोत्तरमथोच्यन्ते वर्णानां गृहकल्पनाः । 'शूद्रविद्रक्षत्रियाणां च राज्ञां च जयकाक्षिणाम् ॥ २० ॥ सार्धत्रिभूमि शूद्राणां वेश्म कुर्याद विभूतये । अतोऽधिकतरं यत् स्यात् तत् करोति कुलक्षयम् ॥ २१ ॥ वैश्यस्य वर्धयेद गेहमपञ्चमभूमिकम् । अतिप्रमाणे लत्रास्य धनवन्धुपरिक्षयः ॥ २२ ॥ क्षत्रियस्य हं कुर्यादर्धषष्ठतलं परम् । सम्पदलसमृद्धये तदतिरिक्तं तु तच्छिदे ॥ २३ ॥ परं विप्रस्य भवनमर्धसप्तमभूमिकम् । स्वाध्यायाचारभोगार्थमत्युचं तु भयावहम् ॥ २४ ॥ यजन्ते राजसूयायैः क्रतुभिर्येऽवनीश्वराः । तलैरर्धाष्टमैस्तेषां कारयेद् भवनोत्तमम् ।। २५ ॥ १. 'शि' २. 'ई', ३. 'द्रेण वे' ख. ग. पाटः । 'शूद्रविटक्षत्रावप्राणां राज्ञाम् ' इति पाठः स्यात् ।
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द्वारगुणदोषो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः। २१७ आहर्तानेकयज्ञानां राजा राजाधिपश्च यः । तस्याप्यर्धाष्टमतलं भवनं सनिवेशयेत् ॥ २६ ॥ वाजोयेन वा यष्टा यो द्विजः स्यात् समाहितः । गवां कोटिप्रदो यो वा सोऽपि तस्मिन् भवे(युदभीः ॥ २७ ॥ यथाप्रमाणनिर्दिष्टे वसन्तस्ते नृपादयः । प्राप्नुवन्ति परामृद्धिमवृद्धिं तु विपर्यये ।। २८ ॥ सपीठतलकं वेश्म मानतः संप्रकीर्तितम् । साधारणेन हस्तेन परं शूद्रस्य विंशतिः ॥ २९ ॥ चत्वारिंशद् विशः षष्टिः क्षत्रियस्य प्रशस्यते। अशीतिर्द्विजमुख्यस्य शतहस्ता महीपतेः ॥ ३० ॥ नातः परं नृणामूर्ध्वप्रमाणं शस्तगुच्यते। देवदानवदैत्यानां पिशाचोरगरक्षसाम् ॥ ३१ ॥ सिद्धगन्धर्वयक्षाणां विधातव्यमतोऽधिकम् ।। एकभौमादधो नैव गृहं शूद्रस्य विद्यते ॥ ३२ ॥ वैश्यस्य भवनं कार्यमधो ना(न्यौथ्य)धभूमिकात् । द्विभूमिकादधः कार्य क्षत्रियस्य न मन्दिरम् ।। ३३ ॥ सार्धद्विभौमाद विमस्य त्रितलादपि भूपतेः । हीनप्रमाणादमुतो गृहं यत् कुशिल्पिना स्याद् विहितं कथञ्चित् । भर्तुर्भिये सिद्धिविनाशनं तत् प्रशस्तीलादिविपर्ययाय ॥ ३४ ॥ गुणदोषान् प्रवक्ष्यामि द्वाराणां सर्ववास्तुषु । सुस्थितं चतुरश्रं च कान्तं स्वद्रव्ययोजितम् ॥ ३५ ॥ ऋजु स्वकीयदिग्भागे नहूस्वं नतथोच्चकैः । नाल्पं नकुब्जं नाप्यनि(१)पिण्डितं नवहिर्गतम् ॥ ३६ ।। नाध्मातं नकृशं मध्ये गतं नान्तरकुक्षिषु ।। नविद्रुतं नसंक्षिप्तं यत् तत् स्याद् द्वारमृद्धिदम् ॥ ३७॥
१. 'टिःप्रदेया वा', २. 'भवेदुभी।', ३. 'तिर्द्वयम्', ४. 'द्वित्रिवि' (१), ५. 'जू', ६. 'स्वे' ख, ग, पाउः ।
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२१८
समराङ्गणसूत्रधारे पदस्य द्वादशे भागे पदमध्यात् प्रदक्षिणम् । स्थापितं वृद्धिमायाति द्वारं पुष्टिं करोति च ॥ ३८ ॥ रथ्याचत्वरशृङ्गाटवापीकूपाह(१)कुम्भकैः । कुड्यकोणतरुस्तम्भभवनस्यन्दनादिभिः ॥ ३९ ॥ यद् विद्धं भवनद्वारं तच्छुभाय न जायते । द्वारं द्वारे प्रविष्टं च कर्तव्यं वितनेतन(?) ॥ ४० ॥ पैद्यां प्रवेशयेन्नैकामन्यद्वारे कदाचन । द्वारं प्रवेशयेत् पेद्यां नारोहणगवाक्षयोः ॥ ४१ ॥ . पक्षद्वारस्य वा नैकां कथञ्चिदपि बुद्धिमान् ।। न बाह्यगान्तरे द्वारे प्रविष्टं कारयेत् कचित् ॥ ४२ ॥ विहितं हि तथा तत् स्याद् वहुदोषकरं सदा । तोरणं गोपुरद्वारमट्टो येषां गृहे भवेत् ॥ ४३ ।। गृहाणां मौलिकद्वारं श्रोत्रे चैतान प्रवेशयेत् । द्वारं द्वारस्य कर्तव्यमुपर्युपरि भूमिपु ॥ ४४ ॥ प्रदक्षिणेन वा कार्य कार्य नापरथा पुनः ॥ ४५ ॥ उपर्युपरिभूमीनां मुखं कुर्यात् प्रदक्षिणम् । नापसव्येन कुर्वीत द्वारमारोहणानि च ॥ ४६ ॥ यस्यां भित्तौ कृतं पूर्व तस्यामुपरि कारयेत् । तथान्यभित्तौ तदद्वारं विधातव्यं प्रदक्षिणम् ॥ ४७ ॥ न मध्ये सद्मनो द्वारं कुर्यादेव पदस्य च । न स्थूले(?) न पदे नापि सिरापाते तदिष्यते ॥ ४८ ॥ निरंशावस्थितैर्द्रव्यस्तियन(काका)न्तैश्च मन्दिरे । ममवेधो न दोषाय द्वारवेधोऽथवा कचित् ।। ४९ ॥ यवनाट्टालकच्छाया पुरंदैवकुलस्य च ।
न प्रवेश्या गृहद्वारे रश्मयः सोमसूर्ययोः ॥ ५० ॥ १. 'नो' ख. ग. पाठः । २. 'ऐन्यां प्र ग. 3: ! ३. नै', ४. 'रं पट्टो' ख. ग. पाठः । ५. 'य', ६. 'हा' ग. पालः। 3. 'रा दे ख. पाठः ।
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द्वारगुणदोषो नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः । म प्राकारेण कुड्येन न विटङ्केन वा पुनः । अन्तर्हितानि दुष्यन्ति द्वारमाणि कुत्रचित् ॥ ५१ ॥ अत्युच्चे स्याद् भयं राज्ञो निभ्ने तस्करतो भयम् । कुलपीडा भवेत् कुब्जे वहिर्याते पराभवः ।। ५२ ॥ आध्मातेऽत्यन्तदारियं कृशमध्ये क्षयो नृणाम् । रथ्याविद्धे भवेद रोगो मरणं चत्वरेण च ।। ५३ ।। शृङ्गाटकेन वैधव्यं दुहितृणां प्रजायते । वाप्या कूपेन वा विद्धे स्यादतीसारतो भयम् ॥ ५४॥ कोणान्मृत्युभयं दद्याद् वृक्ष रोगभयं भवेत् । स्तम्भेन म्रियते स्वामी भ्रमेणार्थो न तिष्ठति ।। ५५ ।। प्रणालेन महद् दुःखं महाभीतिमहाकलिः। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन द्वारवेधं विवर्जयेत् ॥ ५६ ॥ यस्याग्रतः पृष्टतश्च द्वारे भित्त्योर्द्वयोरपि । अन्योन्यं भिद्यते यस्मिन्नकगत्याश्रिते उभे ॥ ५७ ।। वास्तु तद् भिन्नदेहाख्यं भिन्नस्वामिविधायकम् । न तत्र जायते वृद्धिः स्थापितस्य न कस्यचित् ।। ५८ ॥ गृहकुक्षौ कृतं द्वारं सर्वरोगभयङ्करम् । पूर्वद्वारं तु माहेन्द्रं प्रशस्तं सर्वकामदम् ॥ ५९॥ गृहक्षतं तु विहितं दक्षिणेन शुभावहम् । गन्धर्वमथवा तत्र कर्तव्यं श्रेयसे (त?स)दा ॥ ६० ॥ पश्चमेन प्रशस्तं स्यात् पुष्पदन्तं जयावहम् । भल्लाटमुत्तरे द्वारं प्रशस्तं स्याद् गृहेशितुः ॥६१ ॥ एकाशीतिपदे तस्मिश्चतुरश्रपदेऽपि वा। द्वारोऽप्य(प)दगास्तासां ब्रूमो वन्यादितः फलम् ॥ ६२ ॥ हुताशभीतिः स्त्रीजन्य भूत्यर्थः प्रियतां नृपे । क्रोधे चाँनृतता(?) पुंसः क्रौर्य स्यात् पूर्ववत् क्रमात् ।। ६३ ।। १. 'स्मिन्नेक', २. 'वा' ख. ग. पाठः । ३. 'या' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे सुता(पिप्ति) प्रेष्यनीचत्वे भक्षयानसुतर्द्धिकृत् । रौद्रं कृतघ्नमवसं याम्यतः सुतवीर्यहृत्(2) ॥ ६४ ॥ सुतोपपीडा रिपुद्धिरर्थसुतानवाप्तिस्तनयार्थसम्पत् । स्वाप्तिनृशंसाद् भयमर्थनाश उक्तः क्रमादित्यपरोन्मुखेषु ।। ६५ ॥ वन्धव्यसत्वे(?) रिपुद्धिरर्थसुताप्तिरग्या गुणसम्पदश्च ।
सुतार्थलब्धिषियात्मजेन दोषास्त्रिया नैऋतदिङ्मुखेषु ॥६६॥ गुणाश्च दोषाश्च यथावदेते निरूपिता द्वारसमाश्रिता ये। ताञ् शिल्पविच्छास्त्रविदां वरिष्ठो विज्ञाय पूज्यत्वमुपैति लोके ।। ६७ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
द्वारगुणदोषो नाम एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ।।
अथ पीठमानं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ।
देवानां मनुजानां च पीठमानमथोच्यते । पीठं कनीयो भागं च सार्धभागं तु मध्यमम् ।। १ ।। द्विभागमुत्तमं तत् स्यादेषा पीठसमुच्छ्रितिः । महेश्वरस्य विष्णोश्व ब्रह्मणश्चोत्तमं भवेत् ।। २ ॥ इतरेषां च देवानां कर्तव्यं तन्न धीमता। ईश्वरस्य यथाकामं पीठं कार्य विचक्षणः ॥ ३ ॥ यस्मिन् स्थाने विधातव्यो ब्रह्मा विष्णुस्तथैव च । ईश्वरः सवेतः कार्यो न दोषस्तत्र विद्यते ॥ ४ ॥ इतरेषां तु देवानां पीठं भागं समुच्छ्रितम् । यस्य येन विभागेन वास्तुमानं विधीयते ॥ ५ ।। तस्य तेनैव भागेन पीठोच्छ्रायो विधीयते । मनुजानां च पीठानि वेश्मनां देवपीठकैः ॥ ६॥
१. 'पा' ग. पाठः । २. 'रथ', ३. 'र्थि', ४. 'तश्चङ', ५. 'ठके ख. ग. पाठः।
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चयविधि मैकचत्वारिंशोऽध्यायः। २२१ तुल्यानि कुर्यादुपरि कृता वृद्धिकराः सुराः । पुरमध्ये तु कर्तव्यं ब्रह्मणो गृहमुत्तमम् ॥ ७॥ चतुर्मुखं च तत् कार्य यथा पश्यति तत् पुरम् । अधिकं सवेवेश्मभ्यस्तथा राजगृहादपि ॥ ८ ॥ राजवेश्माधिकमपि शस्यतेऽन्यसुरालयात् । पञ्चमो लोकपालनां राजा श्रेष्ठतमो यतः ॥९॥ एवमेतानि देवानां पीठान्युक्तान्यशेषतः । चातुवण्यस्य पीठानि ब्रूमो विप्राद्यनुक्रमात् ॥१०॥ पत्रिंशदङ्गुलोत्से, पीठं विप्रस्य शस्यते । इतरेषां तु वर्णानां ह्रस्वं स्याच्चतुरङ्गुलम् ॥ ११ ॥ चातुर्वर्ण्यस्य पीठानि भुङ्क्ते विप्रो गृहाणि च । प्रयाणां क्षत्रियो वैश्यो द्वयोः शूद्रः क्रमात् स्वकम् ॥१२॥ एवं विभागं पीठानां स्थपतिः परिकल्पयेत् । हितं कारयितुर्वाञ्छन् नृपतेश्च समृद्धये ॥ १३ ॥ प्रमाणे स्थापिता देवाः पूजाहीश्च भवन्ति हि । प्रमाणं पीठानामिदमभिहितं ब्रह्ममुरजिपुरारीणामत्रापरदिविषदां यच नियतम् । ततो विप्रादीनामपि निगदितं यत् तदखिलं यथौचित्यायोज्यं श्रियमभिलपद्भिः स्थपतिभिः ॥१४॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
पीठमानं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ।।
अथ चयविधिर्नामेकचत्वारिंशोऽध्यायः।
इदानीमभिधीयन्ते चयस्येह गुणागुणाः । सुविभक्तः समश्चारुश्चतुरश्रश्चयः शुभः ॥१॥
१. 'सु पी', २. 'णामन्यजातीनां गृहं शूद्रकमाशकम्', ३. 'यद्यो', ४, 'त्याद्योज्यं' ख, ग, पाठः। ५. 'शुभश्चयः।' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे असंभ्रान्तमसन्दिग्धमविनाश्यन्यबर्हितम् । अनुत्तममनुवृत्तमकुन्जं नच पीडितम् ॥ २॥ समानखण्डमृज्वन्तमन्तरङ्ग तथैव च । सुपार्श्व सन्धिसुश्लिष्टं सुप्रतिष्ठं सुसन्धि च ।। ३ ॥ अजिी चेति चेयस्य गुणा विंशतिरित्यमी।। एतेषां वैपरीत्येन दोषाणामपि विंशतिः ॥ ४ ॥ दक्षिणं तु यदा कुड्यं विचिनोति बहिर्मुखम् । तदा व्याधिभयं विद्यान्मृत्युदण्डं च निदिशेत् ।। ५ ।। पश्चिमं तु यदा कुड्यं विचिन्वन्ति बहिर्मुखम् । धनहानि तदा विद्याद् दस्युभ्येश्च भयं भवेत् ॥ ६ ॥ उत्तरं तु यदा कुड्यं विचिनोति वहिर्मुखम् । कारं स्वामिनं वापि व्यसनं प्रापयेत् तदा ॥ ७ ॥ प्राच्यं वहिर्मुखं कुड्यं चिनोति स्थपतियंदा । राजदण्डभयं तत्र निर्देष्टव्यं विचक्षणैः ॥ ८ ॥ एतदेव फलं ब्रूयात् पतिते दलिते तां । यस्य प्रारदक्षिणः कर्णः प्रवर्तेत वहिर्मुखः ॥ ९॥ स्यात् तत्राग्निभयं घोरं गृहभर्तुश्च संशयः । गच्छेद बहिर्मुखः कर्णो यदा दक्षिणपश्चिमः ॥१०॥ कलहोपद्रवस्तत्र स्याद् भार्यायाश्च संशयः । पश्चिमोत्तरकर्णे तु सम्प्रयाते बहिर्मुखे ॥ ११ ॥ पशुवाहनपुत्राणां संशयस्तत्र जायते । प्रागुत्तरो यदा कर्णः प्रचीयेत बहिर्मुखः ॥ १२ ॥ गुरूणां संशयस्तत्र गोपादेश्च जायते । विशालं यदि जायेत सर्वबाहुषु चिन्वतः॥ १३ ॥ कर्णिकासमसंस्थानं तद् भवेन्मल्लिकाकृति । न तादृशो भवेदायस्तत्र यादृग् व्ययो भवेत् ।। १४ ।।
१. 'श्यं च ग ख, 'शं च ग' ग. पाठः । २. 'मत्तम' ख, ग, पादः । ३. 'पु', ४. 'नि', ५. 'मि', ६. 'दा', ७. 'य' क. पाठः ।
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चयविधि मैकचत्वारिंशोऽध्यायः । चयस्य तस्य दोषेण गृ(ह?ही)क्षीणः पलायते। चिन्वतो यदि संक्षिप्तमत्यर्थं तत्र जायते ।। १५ ॥ ब्रह्मसंज्ञं तदुद्दिष्टं तत्र राजभयं भवेत् । विस्तृतं यदि बाह्येषु संक्षिप्तं चैव मध्यतः ॥ १६ ॥ तनुमध्यं तदुद्दिष्टं तत्र विद्यात् क्षुधो भयम् ।। उच्छ्रितं यदि कर्णेषु परिहीणं च मध्यतः ॥ १७ ॥ निर्णत नाम तद विद्यात् तत्र चौरभयं भवेत् ।। कर्णेषु परिहीणं चेदुच्छ्रितं चापि मध्यतः ।। १८ ।। कूर्मोनतमिति ज्ञेयं सर्वदोषभयावहम् । विपमोन्नतकर्णेषु निर्दिशेद् द्रविगक्षयम् ॥ १९ ।। प्राज्यानपानं तद् विद्यात सभेषु विहितेषु च । इत्येते चीयमानस्य गुणदोषाः प्रकीर्तिताः ॥ २० ॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन चयकर्म प्रयोजयेत् । उदकेन समं नीत्वा सम्यनिश्चय कारणम् ।। २१ ॥ त(त्रा?स्मा)दृते न चान्यत् स्यानिश्चयार्थ चयस्य च । तस्माजलेन वलयं गृह्णीयात् पूर्वमादृतः ॥ २२ ॥ ततः सुताडिते सूत्रे चयं कुर्याद् विचक्षणः । द्विगुणां क्षेत्रमानस्य रज्जुं कृत्वा तदन्तयोः ॥ २३ ॥ योऽसौ(?) कार्यों ततस्तस्यां पादोनक्षेत्रमानतः । दद्यानिरिञ्छनं कीलो क्षेत्रगर्भान्तगामिनौ ॥ २४ ॥ निधाया(याः?य)सकौ तस्याः प्रान्तस्थौ योजयेत् तयोः । निरञ्छनाभिकृष्टायां पादोनक्षेत्रसंमितम् ॥ २५ ॥ भुजगत्या भवेद रज्जुस्तस्यामिष्टानुमानतः । चिह्न दद्यात् स कर्णः स्यादेवं दोषान् प्रसाधयेत् ॥ २६ ॥
१. 'णे', २. 'वा तेषु', ३. 'न' क. ख. ग. पाठः । ४. 'या' ख. ग. पाठः । ५. 'र', ६. 'यामको', ७. 'हा' क. पाठः । ८. 'तः', ९. 'ग', ११, ख, ग, पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे भूरि नाच्छादनं दद्यान्न भिन्यात् तत्र चेष्टकाः । विषमस्थाः कुठारेणच्छित्वा ताः कल्पयेत् समाः ॥ २७ ॥ यथा नच स्पृशेत् मूत्रं विचिन्वीत तथा बुधः । कुड्ये च सादिमध्यान्ते देष्टिमेकां निपातयेत् ॥ २८ ॥ यदा सर्वपरिक्रान्तं तलं चोद्घाटितं भवेत् ।। तदा नैकत्र कुर्वीत पयायेण विचक्षणः ॥ २९ ॥ उद्घाटनं स्तराणां(?) तु यदीच्छेत सिद्धिमात्मनः । तत्र तत्र चयं कुर्याद् यदि संविद्धकं हितम् ॥ ३० ॥ दुर्वहं हि भवेत् तेन तस्मात् तत् परिवर्जयेत् । उपरिष्टात् समं पार्थे भुजं कुर्याद् विचक्षणः ॥ ३१ ॥ समन्तादं रुचकच्छिन्नश्चयो भित्तिषु पूजितः ।। तस्मात् प्रयत्नः कर्तव्यश्चयकर्मणि नित्यशः ॥ ३२ ॥ इति भाषितरूपितमाचरतश्चयकर्म यथाविधि शिल्पिकृतम् ।
भवतीह यशो भुवने विततं गृहभर्तुरपि प्रचुरो विभवः ।। ३३ ॥ . इति महाराजाधिराजश्रीभोज देवविरचिते समराङ्गण पूत्रधारापर नाम्नि वास्तुशास्त्रे
चयविधिर्नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
अथ शान्तिकर्मविधिनाम दिचत्वारिंशोऽध्यायः ।
इदानीमभिधास्यामो विधान शान्तिकर्मणः । यथावदिष्ट्वा दिक्पालान् हुत्वा शान्तीयथाक्रमम् ॥ १ ।। स्नपयेत् कर्णिका कुम्भैः सहिरण्यैर्विचक्षणः । सर्वगन्धानुलिप्सां च माल्यदामविभूषिताम् ॥२॥ कृतमाल्यानिवसिता(?) मूले च मधुलेपिताम् ।
दोषप्रशमनाथोय तां मूलेषु निखातयेत् ॥ ३॥ १. 'मा' ख. पाठः । २. 'द्विष्टमे', ३. 'योजये', स्व. ग. पाठः। ४. 'न' स्त्र, 'त' में. पाठः। ५. 'दुर्बलं हि', ६. 'भयं कु' ख, ग, पाठः । ७. 'दु+क' क, 'हूचक' ग. पाठः । ८. 'का' स्व. ग. पाठः । ९. 'स' क. पाठः ।
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शान्तिकर्मविधिर्नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः । मधुकुम्भमरिष्टं च शेवालं च विधानवित । वाचयित्वा तु विप्रेन्द्रान् कृतपुण्याहमङ्गलान् ॥ ४ ॥ स्थापयेत् कर्णिकाः सर्वाः स्थपतिः प्रयतः शुचिः । एतेन विधिना कर्म चातुर्वर्ण्यस्य कारयेत् ॥ ५ ॥ कर्णिका रोपिता यत्र पुनरुत्पाट्य रोप्यते । न तन्निष्पद्यते वेश्म स्वामी चात्र विनश्यति ॥ ६ ॥ निखातं तु यदा दारुच्छिधते ताड्यते पुनः ।। तन्नाशो धनधान्यस्य स्वामिनश्चात्र सर्वथा ॥ ७॥ वल्लीनिपीडितं दारु प्रवेशे चेन्निखन्यते । आशीविषभयं घोरं तस्मिन्नुत्पातलक्षणम् ॥ ८ ॥ उत्थाने कर्णिका रक्ष्या सर्वसत्त्वाभिधर्षणात् । नवे कमेण्यशकुना मृगव्यालसरीसृपाः ॥ ९ ॥ कर्णिकामधिरोहन्ति दोषांस्तत्र वदेदमून् । कृतापीडां परिहृतां यद्यारोहन्ति वायसाः ॥ १० ॥ गृहिणस्तत् प्रवासः स्यादन्नं पानं च हीयते ।। मयुरे तद्गृहं राजा हरेत् पञ्चाब्दतः परम् ॥ ११ ॥ वराने जायते व्याधिः कोकिलैयब्दतः परम् । काकोलेस्त्रीणि वर्षाणि जायते सुमहद् भयम् ॥ १२ ॥ शुके स्युः कलहाधानि नच निष्पद्यते गृहम् ।। कुक्कुटेऽग्निभयं विद्याद राजतो वा महद् भयम् ॥ १३ ॥ सारिकायां तु दौःशील्यं स्त्रीणां गृहपतेस्तथा । संपेरूप(ततु)विघ्नेन गृहं निष्ठां न गच्छति ॥ १४ ॥ स्त्रीपुंसयोः कुलिङ्गे तु जायते पापकारिता । पारावते तु जायेते स्त्रीपुंसौ गुरुतल्पगों ॥ १५ ॥ विडाले तु कुलं दासैः सह रोगैर्निपीड्यते । ज्वलनो वा जलं वापि हस्ती वा हन्ति तद्गहम् ॥ १६ ॥
१. 'च'. २. 'वी' ख. ग. पाठः । ३. 'ज्यानि' ख. पाठः । ४. 'सर्प', ५. 'न' क. पाठः ।
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२२६
समराङ्गणसूत्रधारे आरण्यैः शकुनैरेतत् स्यद् वर्षाद् धर्षणे फलम् । यूनां च जायते मृत्युमेध्वासङ्गे धनक्षयः ॥ १७॥ दुःस्वप्नदर्शनं घूके बालानां मरणं तथा । त्रस्तभीते निलीने तु राजा शून्यं हरेद् गृहम् ।। १८ ॥ यदा त्वग्रे प्रदृश्येत धूम्रः कर्णगतोऽपि वा । अग्निर्दहति तत् क्षिप्रं विद्युद् वा हन्ति मन्दिरम् ॥ १९ ।। यत्रारोहति गृध्रस्तद् द्विजाघिस्पृष्टमाचरेत् । कृत्वा हलशतैः कृष्टं ततो बीजानि वापयेत् ॥ २० ॥ गावश्चात्र प्रदुधेरञ् शान्तिकानि च कारयेत् । मेघेऽभिदृष्टे भूयोऽपि तत्र कुर्वीत मन्दिरम् ।। २१ ॥ येषु येषु गृहाङ्गेषु मधुनः सञ्चयो भवेत् । तस्याङ्गस्य वधं ब्रूयात् प्रेपिण्यां चाप्युपद्रवम् ॥ २२ ।। तस्माद्धेतोः शिखाग्रेषु मुकुटान् प्रणिधापयेत् । यावन्न रोपयेत् सौम्यं तावद् रक्षेत् समन्ततः ।। २३ ।। अभिलीनं तु शकुनैनहि किञ्चित् प्रशस्यते । तस्मात् प्रयत्नतो रक्षेदुत्पातात् प्रागुदीरितात् ।। २४ ॥ भने गृहाणां दारूणां शान्तिहोमोऽथ कथ्यते । इन्द्रकीलो महाकूटः पृष्ठवंशोत्तरौ धेरौ ।। २५ ॥ प्रग्रहो(?)ऽलिन्दपादों वा स्वामिन घ्नन्त्युपद्रवाः । तुलास्थपत्यः(१) कूटं वा वेदिका कर्णपालिका ।। २६ ॥ नेत्रं कपोतपालिश्च हनप्रविष्टं कुम्बिनी(?) । अन्वग्राः पक्षि?क्ष)वंशाश्च मल्लकाः सकुमारकाः ।। २७ ॥ गोपानस्यो मृगाल्यश्च स्थपिताः स्वकुमारिकाः(?) । परिघा द्वारपक्षाश्च भ्रातरं नन्त्युपद्रवाः ।। २८ ।।
१. 'नृणां च ग. पाठः। २. 'ह्नि' क. पाठः । ३. 'क्षेत् प्रातान्', ४. 'दाहृतात् ।' ख. ग. पाठः । ५. 'व', ६. 'काः', ७. 'रि' व. ग. पाठः । ८. 'ट' क. पाठः । ९. 'यय' म्व, ग. पात।
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शान्तिकर्मविधिर्नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः । २२७ संयुक्तं सङ्ग्रहो हन्ति निकृष्टांश्चाधरो धरः । स्थाण्यानि प्रतिमोको वा हन्युरिष्टान् परिच्छदान् ।। २९ ।। उ(द?पोधिभगिनी हन्यादथवा परिचारकान् । पुंसां पुन्नामभिर्द्रव्यैः स्त्रीणां स्त्रीनभिर्भवेत् ।। ३० ॥ उपघातो हतैर्नित्यं द्रव्याणां तु नपुंसकैः । भूलिका स्त्रीविनाशाय गृहनाशाय वेधनम् ॥ ३१ ॥ कीला वा सन्धिपालिर्वा मित्रनाशाय दुष्यति ।। नवे गृहे नवं दारु क्रियमाणमथो कृतम् ॥ ३२ ।। आयोज्यमानं युक्तं वा न्यूनसंवत्सरं स्थितम् । भज्यते देहनाशाय स्फुटत्य॑थ विभज्यते ।। ३३ ।। गृहं ब्राह्मणसात् कृत्वा रत्नैरालिख्य चापरम् । नवैवस्त्रैः परिच्छायं पुनर्भिद्यानि(?)कारयेत् ॥ ३४ ॥ दग्धे भिन्ने प्रचलिते विनते विद्युता हते । विरूढे दलिते सन्ने सर्वत्रौषधिभिः स्मृताः ॥ ३५ ॥ शान्तयो विविधं हुत्वा ब्राह्मणान् स्वस्ति वाच्य वा। स्थूणिका भज्यते यस्य कीर्तिस्तस्योपहन्यते ॥ ३६॥ चन्द्रमूर्यो यजेत् तत्र ततः शाम्यति पातकम् । तद्विधं वृक्षमानीय पुनस्तां प्रति कारयेत् ॥ ३७॥ एवं कृते सुखी स स्यात् कीर्तिश्चायुर्बुवा भवेत् । मल्लको भज्यते यस्य पौरुषं तस्य हन्यते ।। ३८ ॥ इष्टानभसनक्षत्रं(?) प्रायश्चित्तं समाचरेत् । तद्विधं वृक्षमानीय प्रति कुर्वीत मल्लकम् ।। ३९ ॥ एवं कृत्वा सुखी स स्याद बैलं चास्याभिवर्धते । पृष्ठवंशस्य भङ्गेन गृही बन्धमवाप्नुयात् ॥ ४० ॥
१. 'धिर्भगिना' क, 'भग्नि ह' ख. ग. पाठः । २. 'चू', ३. 'स्यान्यू' ख पाठः । ४. 'न्त्य', ५. 'ध भेद्यतितु कार', ६. 'कनै' ख. ग. पाठः । ७. 'भु' क, पाठः। ८. 'स्य तस्य पुरुषोऽपहन्य', ९. 'धनं चाख. ग. पाटः ।
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३२८
समराङ्गणसूत्रधारे राजराज यजेत् तत्र प्रायश्चित्तं तथाचरेत् । सुखी भवति तत् कृत्वा सर्वतश्चाभिवर्धते ।। ४१ ॥ सर्वेषु स्वस्ति वाच्याच ब्राह्मणा दक्षिणाक्षतैः । वारणो भज्यते यस्तु ज्येष्ठं पुत्रं स (वाज्याबाध)ते ॥ ४२ ॥ पृथ्वीधरं यजेत् तत्र प्रायश्चित्तं तथाचरेत् । तद्विधं वृक्षमानीय पुनस्तं प्रति कारयेत् ।। ४३ ॥ सुखी भवति कृत्वैवं पुत्रैश्चापि विवर्धते । संग्रहो भज्यते यस्तु कुलज्येष्ठं स (वार्धवाघ)ते ॥ ४४ ॥ पितृन देवान् यजेत् तत्र प्रायश्चित्तं तथाचरेत् । सुखी भवति कृत्वैवं प्रीयन्ते पितरस्तथा ॥ ४५ ॥ स्थूण्यं तु भज्यते यस्य तनयस्तस्य बाध्यते । देवानेव यजेत् तत्र प्रायश्चित्तं तथाचरेत् ॥ ४६ ॥ तद्विधं वृक्षमानीय तत् स्थौण्यं प्रति कारयेत् । सुखी भवति कृत्वेवं पुत्रैश्चापि विवधेने ॥ ४७ ।। उपधी व्यथते यत्र तत्रामात्यो विनश्यति । यजेत वासवं तत्र प्रायश्चित्तं तथाचरेत् ॥४८॥ आनीय तद्विधं वृक्षमुपथिं प्रति कारयेत् । एवं कृते भवेत् सौख्यममात्यैश्च विवर्धते ।। ४९ ।। कायस्तु व्यथते यस्य प्रेष्यस्तस्योपहन्यते । यक्षं तत्र यजेद् देवं प्रायश्चित्तं तथाचरेत् ।। ५० ॥ तद्विधं काष्ठमानीय कायं तं प्रति कारयेत् । एवं कृते सुखी स स्यात् प्रेष्यैरपि विवर्धते ॥ ५१ ॥ तुला तु व्यथते यस्य व्यथतेऽस्य कुटुम्बिनी । यजेत मेदिनी तत्र प्रायश्चित्तं तथाचरेत् ।। ५२ ॥
.. 'ता' ख. ग. पादः । २, 'चाल्यते' ख., 'पाल्यते' ग. पाठः । ३. 'समाच', ४. विर्भयेत् । क. पाठः । ५, ‘स्मा प्रेषस्त' ख, ग, पाकः ।
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शान्तिःकर्मविधिर्नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ।
२२९ तद्विधं क्षमानीय स्थापयेत् तां स्वलकृताम् । ततस्त्वन्याः क्रियाः पश्यन् कारयेन्मतिमान् नरः ॥ ५३॥ वधूभिव नवैर्वस्त्रैः प्रनिच्छाद्य स्वलकृताम् । ब्राह्मणान् वाचयेत् स्वस्ति ततस्तां प्रति कारयेत् ॥ ५४ ।। सुखी भवति कृत्वैवं धनैनित्यं विवर्धते । कर्णिकास्वान्तरस्थूणामालापादोऽथ भज्यते ॥ ५५ ॥ तदगृही दुःखमानोति तस्मिन्नुत्पातलक्षणे । आनीय स्थपतिं तत्र प्रज्ञावन्तं बहुश्रुतम् ॥ ५६ ॥ तत्र वास्तुविभागेन यो देवः स्याद् विनिश्चितः । तस्मै देवाय जुहुयात् प्रायश्चित्तं चे कारयेत् ॥ ५७ ।। सुखी भवति कृत्वैवं सर्वतश्चाभिवर्धते । युगं तु व्यथते यत्र तत्र स्यात् पशुपीडनम् ।। ५८ ॥ यजेत तस्मिन्नीशानं प्रायश्चित्तं च कारयेत् । तद्विधं वृक्षमानीय युगं तत् प्रति कारयेत् ॥ ५९ ॥ एवं कृते सुम्वं तस्य पशुद्धिश्च जायते । तुलया अंगयोवापि(?) पादो यस्य प्रभज्यते ॥ ६० ॥ आर्युहानिर्भवेत् तत्र वलदेवं प्रपूजयेत् । प्रायश्चित्तं ततः कृत्वा पुनस्तं प्रति कारयेत् ।। ६१ ॥ सुखी भवति कृत्वैवं कुटुम्बी शान्तिकं च तत् ।। द्वारा यस्य माहेन्द्रं हिंस्यने नवकर्मणि ॥ ६२॥ इन्द्रं तत्र यजेद् देवं प्रायश्चित्तं तथाचरेत् । गृहक्षतस्य द्वाराङ्गे पूजयेद् यममेव त(?म् ) ॥ ६३ ॥ पुष्पदन्तस्य द्वाराङ्गे वरुणं नत्र पूजयेत् । द्वाराङ्गं यस्य भल्लोटं हिंस्यते नवकर्मणि ।। ६४ ॥
- - - - - - १. 'स्त्विमा: कि', ख. ग. पाठः । २. प्रतिमान', क. पाठः । ३. धान्यैश्च व' ख. ग. पाठः । ४. 'तथाचरेत क.ग, पाठः । ५. 'आ' ख. पाठः ।६. यहानिः , ७, 'कर्म तत्' ख. ग, पाठः । ८. 'दे' क. पाठः ९, 'या' ख. ग. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे सोमं तत्र यजेद् देवं प्रायश्चित्तं समाचरेत् । सुखी भवति कृत्वैवं कुटुम्बी शान्तिकं च तत् ।। ६५ ॥ स्थूणाराजस्य यस्याग्रं वक्रं दक्षिणतो भवेत् । शरीरं व्यथते तत्र प्रतिसंवत्सरं स्थिरम् ॥ ६६ ॥ पृष्ठतो दीर्घशोकः स्यादुत्तरेण धनक्षयः । पूर्वतो राजदण्डः स्यात् तस्मात् तद् ऋजु शस्यते ।। ६७ ॥ चत्वार्यङ्गानि हिंस्यन्ते शरीरा ये च वेश्मनः । तुला वा पृष्ठवंशो वा धार(ण्यां?णी)चोत्तराम्बरः ॥ ६८ ॥ उक्तांस्तत्र वलीन् कुर्यात प्रायश्चित्तं तथाचरेत् । एवं धन्यं शिवं पुष्टिप्रजावृद्धिकरं भवेत् ॥ ६९ ॥
इत्थं निमित्तानि गृहाश्रितानि ___ ज्ञात्वा प्रष्टाञ् शकुनांश्च सर्वान् । शान्ति प्रकुर्वन पृथगुक्तरूपां
प्राप्नोति कीर्तिं सुखमर्थमायुः ।। ७० ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरवनि वास्तुशास्त्रे
शान्तिकर्मविधिनाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ।।
अथ द्वारभङ्गफलं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।
यदत्र नवकर्मोक्तं तद् यज्ञेषु गृहेषु च । ज्ञेयं ग्रामे पुरे वापि नगरे पत्तने तथा ॥ १ ॥ संस्थानमाकृतिर्मानं हासंवृद्धी च बाहुषु । एकमेव विजानीयात् सर्वत्रैव विचक्षणः ॥ २ ॥ यूपस्यैव निमित्तानि दारुकर्मणि निर्दिशेत् । पातं पते विजानीयात तक्षणं तक्षणेन च ॥ ३ ॥
१. 'कर्म त' स्त्र, 'कर्मवित्' ग. पाठः । २. 'ते!' क. पाठः। ३. 'थोत्त' स्व. ग. पाटः । ४. 'ह' क. पाठः । ५. 'सं' ब, ग, पाट: ।
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द्वारभङ्गफलं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।
२३१ यूपोच्छ्रायमिव ब्रूयाद् दारूणामपि चोच्छ्रयम् । भङ्गेन भङ्गो नि(दि?)श्यः समाधिश्च समाधिना ।। ४ ।। नवकर्मणि यत् स्निग्धं सुगन्धि प्रियदर्शनम् । गम्येहरं(?) मनुष्याणां धन्यं तदभिनिर्दिशेत् ॥ ५ ॥ पुरं वा यदि वा ग्रामो गृहं वा यदि निष्प्रभम् । आयासबहुलं तद्धि तादृशैलक्षणैभवेत् ॥ ६ ॥ परिध्वस्तोपमं रूक्षं नवकर्मणि यद् भवेत् ।। भ्रमं रोगं च शोकं च तस्मिन् वेश्मनि निर्दिशेत् ।। ७ ।। जनेन च यदाकीर्ण निश्छायमिव ल(क्ष?क्ष्य)ते । कुटुम्बी तत्र पण्मासान् नात्र जीवेन्न संशयः ॥ ८ ॥ यच्छ्न्य मप्यशून्याभं वेश्म वा यदि वा पुरम् । सवेकामगुणयुक्तं ध(न?न्यं) तदभिनिर्दिशेत् ॥ ९ ॥ पूर्वो नगरभागश्चेद रम्यः स्यात् प्रियदर्शनः ।। प्रियभार्या मनःस्वास्थ्यं धनं धान्यं च भूपतेः ॥ १० ॥ प्रर्वदक्षिणभागश्त पुरस्य प्रियदर्शनः । महद् यशस्तदाप्नोति राजा हेम च पुष्कलम् ॥ ११ ॥ पुरस्य दक्षिणो भागो यदा रम्यस्तदा भवेत् ।। राज्ञः सेनापतिप्राप्तिधनं धान्यं च पुष्कलम् ।। १२ ।। रमणीयो यदा भागः पुरदक्षिणपश्चिमः । अर्थसंपत् तदा राज्ञः प्रजाद्धिश्च जायते ॥ १३ ॥ पुरपश्चिममागेन रमणीयेन पार्थिवः । पुत्रवान्धवधान्याव्यः संग्रामोन्युन्नतिं पराम् ॥ १४ ॥ पश्चिमोत्तरभागे तु रमणीये नराधिपः । प्रेष्यैः पुत्रैवाइनैश्च वृद्धिमत्युत्तरोत्तराम् ॥ १५ ॥ उत्तरे रमणीये तु पुरभागे नरेश्वरः । शत्रून् विजयते सर्वान् वर्धते च पुरोहितः ।। १६ ।।
१. 'य', २. 'वान् धनवानाम्यः: ख. ग. पाठः । ३. 'ति नरोत्तमः ।' क, 'न्युत्तरोत्तरः' ख. पाट ।
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२३२
समराङ्गणसूत्रधारे
यदि पूर्वोत्तरी भागः पुरस्य प्रियदर्शनः । तत्राभ्युत्तरमानन्दं क्षिप्रं राज्ञो विनिर्दिशेत् ॥ १७ ॥ निष्पन्नस्य पुरादेर्यो भागो न स्यान्मनोरमः । तस्य तस्यैव भागस्य परिहाणि विनिर्दिशेत् ।। १८ ।। नवे यदि पुरद्वारे कपाटं प्रविशीर्यते । स्त्रीनामधेयमन्यद् वा स्त्रीनाशं तद् विनिर्दिशेत् ॥ १९ ॥ देवागारे पुरद्वारे प्राकाराष्ट्रालकेषु च । हस्तिशालाश्वशालासु रथशाला (स्त स्व )थापि वा ॥ २० ॥ कोष्ठागारायुधागारे निमित्तं तु शुभाशुभम् । यदि किञ्चित् प्रदृश्येत राज्ञस्तदभिनिर्दिशेत् ॥ २१ ॥ भङ्गो यत्रोर्ध्ववंशस्य तत्र राजा विनश्यति । अर्गलापीलिका कुश्चीमने च नवकर्मणि ॥ २२ ॥ ग्रामे नश्यन्ति चैतानि तदा ग्रामो विनश्यति । दिगुत्थितं तु राष्ट्राणां ग्रहार्थेषु कुटुम्बिनाम् ॥ २३ ॥ नवकर्मणि यत्किञ्चिद् भज्यते यदि वा नमेत् । विध्वस्ते वा स्फुटे वापि कुटुम्विमरणं ध्रुवम् ॥ २४ ॥ फलं सर्वनिमित्तेषु शुभं वा यदि वाशुभम् । संवत्सरं परं ग्राह्यं नवकर्मकृते गृहे || २५ ||
परिसंवत्सरान्ते च पुराणमिति निर्दिशेत् । तुम्बिका भज्यते यत्र नवकर्मणि निष्ठिते ॥ २६ ॥ श्रेष्ठा तु महिला तत्र पदभिर्मासैर्विनश्यति । एवमेव नवं यस्य सदनं तु विनश्यति ॥। २७ ॥ प्रेदासादिविश्वासात् तद् विनाशयति ध्रुवम् । पृष्ठवंशो नवो यस्य नवकर्माणि भिद्यते ॥ २८ ॥
१. ' त् ॥ देवागारे पुरद्वारे पुनाम यदि भज्यते । तत्र राजा विनश्येत स्त्रीनाम यदि
तत् स्त्रियः || देवा', ख. ग. पाठः | २. 'पिक. ३. 'शुचीभ ख, 'शुञ्ची' ग. पाठ: । ४. 'विथज्ञे वा' ख. ग. पाटः । ५.' गुह्यका', ६. 'क्ष' क. पाठः । ७. 'सिविश्वास्यास्तद् विभासय ' ख. ग. पाठ: । ८. ' तं वि' क. पाटः । ९५ भज्य - ते' ख. ग. पाठः ।
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द्वारभङ्गफलं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः । २३३ कुटुम्बी म्रियते तत्र गृहं संवत्सरात् परम् । प्रेष्याश्चात्र विनश्यन्ति दीर्यमाणे विशेषतः ॥ २९ ॥ लुमासु मिद्यमानासु कन्यामरणमादिशेत । मुण्डकेषु विनष्टेषु सुहृदस्य विनश्यति ॥ ३० ॥ अनुपूर्वेषु भिन्नेषु पुत्राणां मरणं ध्रुवम् । विपत्तौ मुण्डगोधानां माता तस्य विनश्यति ।। ३१ ।। नागपाशकमङ्गे तु भृत्यानां मरणं भवेत् ।। कपाटे भ्रातृमरणमर्गलायां स्त्रिया वधः ॥३२॥ सुतस्य चार्गलापाचे विनष्टे मरणं भवेत् । द्वारबन्धे विनष्टे तु शीघ्रं कुर्यात् कुलक्षयम् ।। ३३ ॥ इन्द्रकीलो दृढो यस्य भङ्गमायाति मूलतः । सपुत्रपशुवगेस्य तस्य ब्रूयात् कुलक्षतिम् ॥ ३४ ॥ तोरणं भज्यते यस्य द्रव्यं तस्य विनश्यति । गृहमतुश्च मरणं त्रिदशैरवधारयेत् ।। ३५ ॥ वास्तुमध्ये विनष्टे तु कुलवृद्धो विनश्यति । सोपानं भियते यत्र नवकमणि निष्ठिते ।। ३६ ।। तस्य प्रेष्याश्च गावश्च हिरण्यं च विनश्यति । वेदिका भज्यते यस्य भार्या तस्य विनश्यति ।। ३७ ॥ गवाक्षस्तु विनश्येत पट्टस्तम्भोऽपि वा दृढः । गजशुण्डाथ भिन्नोऽश्वः कपोताल्यथवा नवा ॥ ३८ ॥ स्थपनीपट्टिकाचैव स्त्रीविनाशं तदादिशेत् । विटङ्कस्य तुलाया वा भङ्गे जाते कथञ्चन ।। ३९ ॥ शीलास्तम्भस्य वा नाशे भायो तस्य विनश्यति । स्तम्भशीर्ष यदि भ्रश्येत् स्फुटेत स्तम्भोऽपि वा दृढः ॥ ४०॥
१. 'वी ख. ग. पाठः । २. 'प्यमानो वि' क. पाठः । ३. 'भज्यमा', ४. 'त्त' ख. ग. पाठः । ५. षु', ६. 'व्य' क, पाठः । ७. 'यात् ', ८. 'यम्, १. 'भन्यते', १०,'पुटस्त' ख. ग. पाठः । ११. स्वंद्राथ' ख 'स्वड्यथ' ग. पाठः । १२. 'नश्च', १३. ' ' ख. ग. पाठः। १४. 'भवेत् ' क. पाठः । १५. 'मा' ख. पाठः । १६. 'र्षे', १७. 'टे', ख. ग. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे भज्यते प्रतिमोको वा स्वामिनस्तु क्धो भवेत् । भङ्गे तु भङ्गवाहिन्याः कुलवृद्धवधो भवेत् ।। ४१ ।। आकाशेतलके पुत्राः प्रतिच्छिन्ने कुटुम्बिनः । विनष्टे च विनश्यन्ति षड्भिर्मासैन संशयः ॥ ४२ ॥ प्रासादमण्डले भने भग्नासु वलभीषु च । भार्या कुटुम्बिनस्तस्य नाशमायात्यसंशयः ॥ ४३ ॥ प्रलीनो चा विलीनो वा प्रासादो यस्य भज्यते । प्रलीने भृत्यमृत्युः स्याद् विलीने तु धनक्षयः ॥ ४४ ॥ मिश्रे विनष्टे प्रासादे हीयन्ते सर्वद्धयः ।। मरणं वा भवेत् तत्र कुष्ठव्याधि च निर्दिशेत् ।। ४५ ॥ येषु स्थानेषु भो वा विनतिवा प्रकीर्तिता। उपतिर्विघातो वा तेषां फलमपीरितम् ॥ ४६॥ स्निग्धानि यदि दृश्यन्ते तानि दाव्यान्वितानि च । धनमायुश्च हर्षे च पूर्वोक्तानां तदादिशेत् ॥ ४७।। कर्णिकाभ्यन्तरी स्थूणा शालापादोऽथ हीयते ।। यदि तद् दुःखमामोति गृहभो न संशयः ॥ ४८ ॥ संपधार्य च मेधावी बलाबलमतन्द्रितः । निर्दिशन् बलमामोति धनमायुर्यशस्तथा ।। ४९ ॥ एवमादिकनिमित्तमूचितं संप्रधार्य मतिमान् बलाबलम् । स्पष्टमादिशति योऽत्र शास्त्रवित् कीर्तिवित्त(+ध?भव)नानि सोऽश्नुते ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
द्वारभङ्गफलं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ अथ स्थपतिलक्षणं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।
स्थापत्यमुच्यतेऽस्माभिरिदानी प्रक्रमागतम् ।
ज्ञातेन येन ज्ञायन्ते स्थपतीनां गुणागुणाः ॥ १॥ १. 'शे' क. पाठः । २. 'यते', ३. वृद्धिदः ' ख. ग. पाठः। ४. 'वि' क. पाठः । ५. 'त:' क, ख, ग. पाठः । ६. 'ये' ख. ग. पाठः । ७. श्यनय', ८. 'ननानि' क. पाठः ।
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स्थपतिलक्षणं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः । २३५ शास्त्रं कर्म तथा प्रज्ञा शीलं च क्रिययान्वितम् । लक्ष्यलक्षणयुक्तार्थशास्त्रनिष्ठो नरो भवेत् ॥ २ ॥ सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिष छन्द, एव च । सिराज्ञान तथा शिल्पं यन्त्रकर्मविधिस्तथा ॥ ३ ॥ एतान्यजानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥ ४ ॥ प्रसिद्धशास्त्रदृष्टान्तर्वास्तुज्ञानं प्रसाधयेत् । वास्तुनः ससिरावंशैमेमेवेधैः सुनिश्चितैः ॥५॥ वास्तुद्वारक्षणान् भूयः सर्वान् जानाति शास्त्रतः । यस्तु शास्त्रमविज्ञाय प्रयोक्ता स्थपतिर्भवेत् ॥ ६ ॥ हन्तव्यः स स्वयं राज्ञा मृत्युवद राजहिंसकः । मिथ्याज्ञानादहङ्कारी शास्त्रे चैवाकृतश्रमः ॥ ७॥ अकालमृत्युलॊकस्य विचरेद् वसुधातले ।। यस्तु केवलशास्त्रज्ञः कर्मस्वपरिनिष्ठितः ॥ ८ ॥ स मुह्यति क्रियाकाले दृष्टा भीरुरिवाहवम् । केवलं कर्म यो वेत्ति शास्त्रार्थ नाधिगच्छति ॥९॥ सोऽचक्षुरिव नीयेत विवशोऽन्येन वर्मसु । को वास्तुविधेः स्थानं मानमुन्मानमेव च ॥ १० ॥ क्षेत्रजा(ति?नि) च कर्माणि लुमालेखा(च?श्चातुर्दश । च(त्वा'तु)रो गर्डिंकाच्छेदान् वृत्तच्छेदेषु सप्तसु ॥ ११ ।। सुश्लिष्टं सन्धिसन्धानेरधरोत्तरसंयुतम् । बाह्यरेखान्वितं शुद्धं यो जानाति स कर्मवित् ॥ १२ ॥ शास्त्रकर्मसमर्थोऽपि स्थपतिः प्रजया विना । फलेयुः कर्मभिरन्याभिः (१) स्यान्निर्मद इव द्विपः ॥ १३ ॥
१. 'वित्तो न', २. 'शल्यं य', ३. 'णेन च', ४. 'वे' ख. ग. पाठः । ५. 'ल्पे' ख. पाठः। ६. 'डि' क. पाटः । ७. 'दा वृ' ख. ग. पाठः । ८, ‘च्छा' क, ख, ग, पाठः । ९. 'ज्य' ख, ग, पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे
प्रत्युत्पन्नमतिर्यः स्याद् वाहे (त: ? कः ) स्थपतिस्तथा । कर्मकाले न मुह्येत् स प्रज्ञानेनोपबृंहितः ॥ १४ ॥ अप्रज्ञेयं दुरालोकं गूढार्थ बहुविस्तरम् । प्रज्ञापोतं समारुह्य प्राज्ञो वास्तुनिरं (?) तरेत् ॥ १५ ॥ ज्ञानair तथा वाग्मी कर्मस्वपि च निष्ठितः । एवं युक्तोऽपि न श्रेयान् यदि शीलविवर्जितः ॥ १६ ॥ रोषाद् द्वेषात् तथा लोभान्मोहाद् रागात् तथैव च । अन्यचिन्त्यत्वमायाति दुःशीलानामविक्षयात् (१) ॥ १७ ॥ शीलवान् पूजितो लोके शीलवान् साधुसम्मतः । शीलवान् सर्वकर्माः शीलवान् प्रियदर्शनः ॥ १८ ॥ शीर्लाघाने परं यत्नमा(धिति)ष्ठेत् स्थपतिः सदा । ततः कर्माणि सिध्यन्ति जनयन्ति शुभानि च ॥ १९ ॥ तथाचाष्टविधं कर्म ज्ञेयं स्थपतिना सदा । आलेख्यं लेख्यजातं च दारुकर्म चयस्तथा || २० | पाषाणसिद्धहेन्नां च शिल्पं कर्म तथैव च । एभिर्गुणैः समायुक्तः स्थपतिर्याति पूज्यताम् ॥ २१ ॥ स्थापत्यमङ्गैरिदमष्टभिर्यश्चतुर्विधं वेत्ति विशुद्धबुद्धिः ।
स शिल्पिनां संसदि लब्धपूजः परां प्रतिष्ठां लभते चिरायुः ॥ २२ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रवारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे स्थपतिलक्षणं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
२३६
१. ' ह्य' ख. पाठः । २. 'स्तुर्ननाचरे' ख. ग. पाठः । ३. 'बी' क. पाठः । ४. 'ल' ख. ग. पाठः । ५. 'घेष्वे स्थ' ग. 915: 1 ६. 'त्त', क. पाठः । ७. ' कल्पे धर्म ' ख. ग. पाठः । ८. 'य' ग. पाठः ।
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अष्टाङ्गलक्षणं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः । २३७ अथ अष्टाङ्गलक्षणं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ।
प्रोक्तं चतुर्धा स्थापत्यं वास्तुतत्वस्य सिद्धये । मस्तदेव चेदानीमङ्गे: संयुक्तमाभिः ॥ १ ॥ तेष्वङ्गं प्रथमं प्रोक्तं वास्तुपुंसो विकल्पना । पुरस्य विनिवेशस्तु द्वितीयं द्वारकम च ॥ २ ॥ रथ्याविभागः प्राकारनिवेशोऽहालकस्य च । विनिवेशः प्रतोलीनां विभागस्थानकानि च ॥ ३ ॥ प्रासादश्च तृतीयं स्याच्चतुर्थ तु ध्वजोच्छूितिः । पञ्चमं नृपतेर्वेश्म स्थानान्तरविभक्ति च ॥ ४॥ चातुर्वण्य विभागश्व गृहभागश्च षष्ठकम् । सप्तमं यजमानस्य शालायां मानमीरितम् ।। ५ ।। यज्ञवेदीप्रमाणं च कोटिहोमविधिस्तथा । अष्टमं राजशिविरनिवेशो दुर्गकर्म च ॥ ६ ॥ यो वेत्त्यङ्गान्यमून्यष्टो सोऽत्र स्थपतिसत्तमः । यशो मानं स लभते पूज्यते च नराधिपः ॥ ७ ॥ अशास्त्रज्ञमकमेझं स्थपति यः प्रयोजयेत् । न तस्य वास्तु सिध्येत सिद्धानुखावहम् ॥ ८ ॥ तस्मात् कर्म च शास्त्रं च यो वेत्ति द्वितयं नरः । अष्टाङ्गमपि यो वेति स राज्ञः स्थपतिर्भवेत् ।। ९ ॥ अङ्गानि पूर्वमुक्तानि वास्तुशास्त्रोक्तविस्तरात् । तेषु प्रासादिकं यत् तद् वक्ष्यामोग्रे सविस्तरम् ॥ १० ॥ अथाङ्गं सप्तमं ब्रूमो यत् तद् यज्ञेषु युज्यते । विनिविष्टे पुरे पूर्व क्लोषु सुरधामसु ।। ११ ।। दिशि दक्षिणपूर्वस्यां यज्ञार्थ भापयेद् भुवम् । निवेशं तत्र कुर्वीत चतुरश्रं समन्ततः ॥ १२ ॥ १. 'येतान्य' ख, ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
आयामेन विधातव्यो हस्ताष्टादशविस्तृतः । पूर्वद्वारं विधातव्यमादित्यस्य पदे बुधैः ।। १३ ॥ तस्य पश्चिमभागे तु यजमानकुटी भवेत् । षोडशायामविस्तारा प्राङ्मुखी सा प्रशस्यते ॥ १४ ॥ यजमानकुटीद्वारे देवता या च कीर्तिता। ततः प्रभृति पूर्वेण प्राग्वंशं परिकल्पयेत् ॥ १५ ॥ वेदिमध्ये स्थितं तत् स्यान्मानं वेद्याश्च शस्यते । पूर्वोपरेण षट्त्रिंशत् कतेव्याः प्रक्रमा बुधैः ॥ १६ ॥ एकत्रिंशत् कुटीभागे मध्येऽष्टादश कल्पयेत् । प्रक्रमाः स्युः शिरस्थाने विंशतिश्चतुरुत्तरी ॥ १७ ॥ पुरुषस्य शिरस्तत्र प्राग्वंशे तु प्रतिष्ठितम् । तस्मात् पूर्वोत्तरं ज्ञेयं सर्वयज्ञेषु पूजितम् ।। १८ ।। वेद्यन्तरं तु कर्तव्यं शकटं येन गच्छति । तस्मादुत्तरवेदी या कार्या प्रत्युत्तरेण तु ॥ १९ ॥ द्विहस्तायामविस्तारो होमश्चेष्टः कृतोऽत्र हि ।। प्रारदक्षिणेन संस्थानं यजमानस्य शस्यते ॥ २० ॥ कटिमात्रं सदा कार्य नाभिमात्रमथापि वा। ततोऽधिकेन दुर्भिक्षमनादृष्टिश्च जायते ॥ २१ ॥ एषा यज्ञक्रिया प्रोक्ता कोटिहोमोऽथ वक्ष्यते । पुरस्याभ्यन्तरे भागे हुताशस्य पदे तथा ॥ २२॥ तस्मिन् स्थाने विधातव्यः कोटिहोमः सदा पुरे।। लक्षहोमश्च कर्तव्यो नित्यो नैमित्तिकोऽपि वा ॥ २३ ॥ अथ भूमिवशात् स्थानं कदाचिन्नैव लभ्यते । सवेतो ब्रह्मणः स्थानाद्धोमस्थानं निवेशयेत् ॥ २४ ।। ऐशानी दिशमाश्रित्य ब्राह्मणेर्वेदपारगैः । पुरश्चरणतत्त्वज्ञैः पदकर्मनिरतैः सदा ॥ २५ ॥
१. 'प्रतिक' क. पाठः । २. कथ्यते', ३. ।' क. स. ग. गटः । ४. 'राः' क, ग, पाठः ।
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अष्टाङ्गलक्षणं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ।
नित्यं शान्तिपरैर्वि राजा तु विजयी भवेत् । नोपसर्गास्तु जायन्ते नच लक्ष्मीः पुरं त्यजेत् ॥ २६ ॥
अनावृष्टिभयं नास्ति सुभिक्षं जायते सदा । उक्तं याज्ञिकम तु सर्वाङ्गेभ्यः प्रशस्यते ॥ २७ ॥ सर्व स्थपतिना ज्ञेयं तत्वज्ञैर्ब्राह्मणैः सह । एकाशीतिपदेनैव यज्ञभूमिं तु मापयेत् ।। २८ ।।
निवेशं शिविरस्याथ कथयामोऽङ्गमष्टमम् | यदा तु नृपतिः स्थानात् स्वाद यात्राभिमुखो भवेत् ॥ २९ ॥ शिविरस्य निवेशं च तत्त्ववेत्ता परीक्षयेत् । अर्थशास्त्रविधिज्ञो वा स्थपतिर्वा प्रकल्पयेत् ॥ ३० ॥
शिविरं चतुरश्रं स्याद् वृत्तं वृत्तायतं कचित् । चतुरश्रायतं वापि विषमं वा कचिद् भवेत् ॥ ३१ ॥ भूमिभागवशात् क (पल्यं) महारथ्योभयान्वितम् । शिविरस्य तु चत्वारि कुर्याद् द्वाराणि यत्नतः ॥ ३२ ॥ रथ्या सार्धातु सेनायाः पुररथ्याप्रमाणतः । मित्रे स्थानं नरपतेः कार्यं पृथ्वीवरेऽपि वा ॥ ३३ ॥
३५ ॥
आर्य वा विधातव्यं पदे वैवस्व (तोते ) थवा । निवेश मन्त्रिणां कार्यः पश्चि (मो? मे ) राजवेश्मनः ॥ ३४ ॥ पुरोहितस्योत्तरतो बलाध्यक्षस्य पूर्वतः । अन्तःपुरं दक्षिणतो भाण्डागारं तथैव च गृहं प्रविशेतो राज्ञो न्यस्येद् दक्षिणतो हयान् । वामे च दन्तिनो न्यस्येदेवं सैन्यं निवेशयेत् ॥ ३६ ॥ वाह्यतः परिखां तस्य कारयेद् राजवेश्मनः । हस्तांस्त्रचतुरो वापि पञ्चहस्तानथापि वा ॥ ३७ ॥ चतुष्षष्टिपदाख्येन विभाज्यं शिविरं बुधैः । निवेशः शिविरस्योक्तो दुर्गकथ कथ्यते ॥ ३८ ॥
१. ' वे' क. ख. ग. पाठ: । २. 'शि', ३. 'व्यं क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
दुर्गं तु षड़िधं प्रोक्तं राज्ञां तु विजिगीषताम् । अब्दुर्गं पङ्कदुर्गं वा वनदुर्गेरिने तथा ॥ ३९ ॥ पार्वतीयं महादुर्गमिति कल्प्यानि पार्थिवैः । सर्वेषामेव दुर्गाणां पार्वतीयं प्रशस्यते ।। ४० ।। दुर्गस्थानविभागोऽत्र पोशाख्येन कीर्तितः । मध्ये तु ब्रह्मणः स्थानमसम्वायं विधीयते ॥ ४१ ॥ ब्रह्मस्थानं समारभ्य हर्म्यं पञ्चशयाः स्मृताः । उपरध्या त्रिस्ता तु शेषास्तु द्विशयाः स्मृताः ॥ ४२ ॥ सन्निकृष्टा विधातव्या दुर्गार्ग) रथ्या समन्ततः । द्वारं रथ्याप्रमाणेन कार्य नात्यन्तमुच्छ्रितम् ॥ ४३ ॥ परचक्रसमं वाधं (?) सुरक्षं तत् सदा भवेत् । दुर्गेश्वरगृहस्थानं ब्रह्मणः परितो भवेत् ॥ ४४ ॥ वैवस्वतेऽथवार्यम्णे मैत्रे पृथ्वीधरेऽपि वा । यथा पुरे पुरा प्रोक्तं स्थानं दुर्गेऽपि तत् तथा ॥ ४५ ॥ वीराः शुभा हादोषाश्च भूमिपालस्य संगताः । धनुर्वेदविधिज्ञाश्च कृतास्त्राः शास्त्रपारगाः ।। ४६ ।। दुर्गे स्थाप्याः सुरूपाश्च बहवच वरस्त्रियः । अन्तःपुरं च कोशं च कुमारांचात्र वासयेत् ॥ ४७ ॥ एवं दुर्गविधानस्य समासोऽयमुदाहृतः ।
इत्यष्टाङ्गो वास्तुशास्त्रस्य सारः संक्षेपेण स्पष्टमस्माभिरुक्तः । यत्र ज्ञाते शिल्पिनंद वास्तुविद्यापाथोनार्थं सन्तरन्त्यप्रयासात् ॥ ४८
२
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे अष्टाङ्गलक्षणं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
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१. ' णो ग, पाठः । ५. वृद्धास्तु वि' के. पाठः ।
२. '५', ३. 'गु',
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'स्व. ग. पाठः ।
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अथ तोरणभङ्गादिशान्तिको नाम
षट्चत्वारिंशोऽध्यायः पुरातनं नवं वापि कृतं वाथार्धनिर्मितम् । देवतानां नृपाणां च तोरणं निपतेद् यदि ॥ १ ॥ भज्यते दह्यते वाथ नमते सज्जतेऽथवा।। दवविद्युजलायेवों हन्यते तत् कदाचन ।। २ ॥ तत्र दोपान् प्रवक्ष्यामो दोषप्रशमनानि च । तोरणं निपतेत् सर्व शिरो वास्य कथश्चन ॥ ३ ॥ राज्ञां सेनापतीनां च प्रतीहारपुरोधसाम् ।। प्रधानांश्वगजानां च विप्रपौरजनस्य च ।। ४ ।। तत्र मृत्युभयं विद्याद् दुर्भिक्षं चापि निर्दिशेत् । तस्मात् प्रशमहेत्वर्थ विधिं कुर्यादिमं बुधः ।। ५ ।। ऋविग्भिाह्मणेधीर : स्थपतिः सपुरोहितैः । रात्रौ होमवलिं कुर्यान्नगरे तु चतुर्दिशम् ।। ६ ॥ कर्णचत्वरशृङ्गाटेष्ववनीपालवेश्मनि । स्थानेष्वेतेषु विप्राद्यर्वेदि निष्पाद्य साक्षताम् ॥ ॥ ७ ॥ कलशैव्यगन्धैश्च श्वेतमाल्याम्बरैष्टताम् । तत्र होमं प्रकुर्वीत शान्तिकं वलिमेव च ॥ ८ ॥ एवं प्रशमयेत् सर्वं यत्किश्चिद् दुरितोत्थितम् । तोरणं भज्यते चेत् तद्राष्ट्रभङ्गं विनिर्दिशेत् ।। ९॥ अस्य प्रशमहेत्वर्थ पूर्वोक्तं कारयेद् विधिम् । तदेवैकं प्रदह्येत तोरणं नगरे(य?य)दि ।। १० ।। तदा वह्निभयं याद राष्ट्रस्य नगरस्थ च ।।
सवाह्याभ्यन्तरं विविधिमेनं प्रयोजयेत् ॥ ११ ॥ १. 'ऋषीणां च : ख. ग. पाठः । २. 'पत्यते य' क, नृपतर्यदि' ग. पाठः । ३. 'नानां ग ' 'व. ग. पाठः । ४. वी. ५. 'तदा चैक' क. पाठः । ६. 'रै'. ग. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे
नते वा शीर्णभने वा व्याधिपीडां विनिर्दिशेत् । होमं वलिं च कुर्वीत पुनः संस्कारमस्य च ॥ १२ ॥ वातेन विद्युता वापि तोरणं यदि भज्यते । तस्मिन् रोगाः प्रवर्तन्ते कुलपीडाधनक्षयः ।। १३ ॥ शान्तिकर्म प्रकुर्वीत ततः शान्तिकरं भवेत् । एवमादौ ते पश्चात् पुनः संस्कारयेद् चुधः || १४॥ पूर्वावयवनिर्माणाद् विशिष्टं रचयेत् पुनः ।
सन्नगूढं च द्रव्यसमन्वितम् ॥ १५ ॥ विविधं रूपकर्माढ्यं सुसंस्थानं मनोरमम् । अकुब्जमनतं चैत्र पूर्वोत्कृष्टतरं तथा ।। १६ ।। नियुक्ते तु पुनः शान्ति ब्राह्मणान् वाचयेत् ततः । पुराणे वा नवे वाथ कृते वा ।। १७ ।। प्रासादे वा गृहे वापि कपोतः प्रविशेद्यदि । तत्र दोषाः प्रपद्यन्ते शान्तिकर्म तथैव च ॥ १८ ॥ कालमूर्तिः कपोतव पापमूलकरण्डकम् । विज्ञापशदो हीनः कृष्णचारी विहङ्गमः ॥ १९ ॥ चतुर्विधः समाख्यातो मुनिभिः स तपोधनैः । Pant विचित्र विचित्रोऽन्योऽथ कृष्णकः ।। २० ।। कपोतो भवने यस्य श्वेतवर्णो विशेत् कचित् । कीर्त्तिविद्याधनं पुण्यं शीघ्रं च नवते क्षयम् ॥ २१ ॥ नित्यं रोगाः प्रवर्धन्ते शिशुपीडा च जायते । चित्रकण्ठो हरेज्जायां पुत्रान् सर्वान् विचित्रकः ॥ २२ ॥ सर्वाः सिद्धीच कृष्णाङ्गः प्रदुष्ये च कुलं हरेत् । रोगाः सर्वेऽपि वर्धन्ते विपदो व्यसनानि च ॥ २३ ॥ बन्धनानि च जायन्ते प्रविष्टे तु कपोतके । तस्मद् यत्नपरो भूत्वा प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ २४ ॥
१. 'य:' क. ग. पाठः | २. 'दृढ' ख. ग. पाट: । ३. 'न' ग. पाठ: । ४. ' कलि
सूत्रे क' क. पाल: । ५. 'छु' क. पाठः । ६. 'ध्यं' ग. पाठः ।
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तोरणभङ्गादिशान्तिको नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः । २४३ . स्नातत्रिकालशुद्धात्मा सोपवासो जितेन्द्रियः। देवपूजार्चनरतो नित्यं दानपरः शुचिः ।। २५ ॥ यवानमायभोजी च नित्यं होमपरायणः । गुरुविप्ररतश्चैव श्वेतमाल्याम्बरस्तथा ॥ २६ ॥ गृही सगृहिणीकस्तु व्रतमेतत् समाचरेत् । श्वेतके पञ्चरात्रं च चित्रकण्ठे दशैव तत् ॥ २७ ॥ चित्रे पञ्चदशाहानि कृष्णे दिवसविंशतिः । व्रतस्थेन तु कतेव्यमग्निकार्य मनोरमम् ॥ २८ ॥ यथालाभं समादाय तस्य देहं सपिच्छकम् । निकृन्तेत् खण्डखण्डानि विभागाष्टशतानि तेम् ॥ २९ ॥ घृतप्लुतानि पुण्यानि मधुलाजान्वितानि च । पञ्चवारुणसंज्ञेन वह्निकार्ये कृतेऽक्षतैः ।। ३० ।। ततश्च मांसं जुहयाद्धव्यमात्रेण मन्त्रवित । हुते क्रव्ये ततः क्षीरं दधि मध्वाज्यमेव च ।। ३१ ।। संपूजयेद ग्रहान् सर्वान् ब्राह्मणान् वाचयेत् ततः। स्ववित्तपादं श्वेते तु विप्रेभ्यः प्रतिपादयेत् ।। ३२ ।। वित्ताध चित्रकण्ठे तु पाटोनं सर्वचित्रके कृष्णे सर्वेधनत्यागः कर्तव्यो ब्राह्मणांत पुनः ॥ ३३ ॥ एवं शान्तिर्भवेद् गेहे सर्वदोषक्षयाहा । महतीं श्रियमामोति धनलाभश्च जायते ।। ३४ ।। पुत्रैः पौद्धिमानोप्यनन्तामायुर्वीर्य प्राप्नुयात् संयंतात्मा ।
एतत् कृत्वा मुच्यते सर्वपापैौघैर्यद्वच्छारदः शीतरश्मिः ॥ ३५ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समगङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे तोरणभङ्गकपोतप्रवेशशान्तिको नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
१. 'था' ग. पाठः । २. 'तत् ' क, 'ते' ग. पाठः । ३. 'ताक्षतानि पुष्पाणि म' ख.ग. पाठः। ४. 'शान् पु', ५. '
शि६. 'पहः' क. पाठः। ७. 'यु' क. ग. पाठः।
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२४४
समराङ्गणसूत्रधारे अथ वेदीलक्षणं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ।
वेद्यश्चतस्रो विज्ञेया याः पुरा ब्रह्मणोदिताः। वयं ताः संप्रवक्ष्यामो नामसंस्थानमानतः ॥१॥ प्रथमा चतुरश्रा स्यात् सभद्रा च द्वितीयका । तृतीया श्रीधरी नाम चतुर्थी पद्मिनी स्मृता ॥२॥ यज्ञकाले तथोद्वाहे देवतास्थापनेषु च। नीराजनेषु सर्वेषु वह्निहोमे च नित्यशः ॥ ३॥ नृपाभिषेचने चैव शक्रध्वजनिवेशने । नृपयोग्या भवन्त्येता वर्णानामनुपूर्वशः ॥ ४ ॥ चतुरश्रा तु या वेदी नवहस्ता समन्ततः । अष्टहस्ता प्रमाणेन सर्वभद्रा प्रकीर्तिता ॥ ५ ॥ श्रीधरी सप्त विज्ञेया हस्तान् मानेन वेदिका । षडस्ता चैत्र शास्त्रज्ञैर्नलिनीह विधीयते ॥ ६ ॥ चतुरश्रा तु कर्तव्या चतुरश्रा समन्ततः । भद्रैस्तु सर्वतोभद्रा भूषणीया चतुर्दिशम् ।। ७ ।। श्रीधरी चापि विज्ञेया कोणविंशतिसंयुता नलिनीति च विज्ञेया पद्मसंस्थानधारिणी ॥ ८ ॥ कर्तव्याः स्वस्वविस्तारादुच्छ्रयेण त्रिभागिकाः। कुर्यान्मन्त्रवतीभिस्ता इष्टकाभिस्तु चा(य?यि)ताः ॥ ९ ॥ चतुरश्रा यज्ञकाले विवाहे श्रीधरी स्मृता । देवतास्थापने वेदी सवेभद्रां निवेशयेत् ॥ १० ॥ नीराजने साग्निकार्ये तथा राजाभिषेचने । वेदी पद्मावती या च तथा शक्रध्वजोच्छ्रये ।। ११ ।। चतुर्मुखा तु कर्तव्या सोपानश्च चतुर्दिशम् । प्रतीहारसमायुक्ता चार्धचन्द्रोपशोभिता ।। १२ ।।
१. 'तासां प्र', २. स्तोन्मा' , ३. 'व्या स्व', ४, 'का' क. पाठः । ५. 'काः म. ग, पाठः।
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गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः । चतुःस्तम्भसमायुक्ता चतुष्कुम्भविराजिता । काश्चनै राजतैस्ताम्रर्धन्यैः कलशैस्तथा ॥ १३ ॥ कोणकोणे तु विन्यस्तैल्शिवानरभूपितः । स्तम्भप्रमाणं वेदीना का लायनशेन च ॥ १४ ॥ एकेन द्वित्रिभिषिच्छायः सामलसारिकैः । स्तम्भमूलानि चाभ्यज्य गुडेन मधुसर्पिषा ॥ १५ ॥ परमानेन वाभ्यज्य तान् विन्यस्येद् यथातथम् । देवताः पूजयित्वा तु ब्राह्मणान् स्वस्ति वाचयेत् ॥ १६ ॥ चतुर्विधमितीरितं यदिह वेदिकालक्षणं समग्रमपि वतेते मनसि यस्य तच्छिल्पिनः । स याति भुचि पूज्यतामबनिभोक्तुशनोति च श्रियं स्थपतिसंसदि स्फुरति चास्य शुभं यशः ।। १७ ॥ इति महाराजाधिराज श्रीभोजदेवविरचित मारणासनधारापरनाग्नि वास्तुशास्त्रे
वेदीलक्षणं ला सप्तमत्वारिंशोऽध्यायः ॥
अथ गृहदोपनिरूपणं नामानवारिंशोऽध्यायः ।
अतः परं गृहादीनामप्रशस्तसमुचितम् । क्रियते कथितं यस्मादेकत्र मुसलं भवेत् ॥ १॥ रक्षोम्बुनाथकीनाशमरुदहनदिकावा। मध्यप्लवा च भूव्योधिदारिद्यमरकावहा ।। २ ।। वहिलवा वहिभिये भतये दक्षिणपुवा । रुजे रक्षाप्लवा प्रत्यक्लवा धान्यधनच्छिदे ॥ ३ ।। कलहाय प्रवासाय रोगाय च परुत्प्लवा। मध्यप्लवा तु भूमियो सधेनाशाय सा भवेत् ॥ ४ ॥ १. 'र' ख. ग. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे तुषास्थिकेशकीटत्व(क)शङ्खभस्मोपरान्विताम् । कर्पराङ्गारिणी दुष्टसत्त्वानार्यजनां त्यजेत् ॥ ५ ॥ चैत्रे शोककरं वेश्म ज्येष्ठे मृत्युप्रदायकम् । पशुनाशनमाषाढे शून्यं भाद्रपदे कृतम् ॥ ६ ॥
आश्विने कलहाय स्यात् कार्तिके भृत्यनाशनम् । माघे चाग्निभयाय स्यान्मासेष्वेषु न कारयेत् ।। ७ ।। पावकस्य पदे पृष्ठवंशस्यापि च पश्चिमे । पुरमासादकर्णे च कीलादि प्राक् प्रयोजयेत् ॥ ८॥ पूर्वपश्चिमदिङ्मूढं वास्तु स्त्रीनाशकृद भवेत् । उदङ्मूढे न निष्पत्तिं याति सर्वे च नाशयेत् ।। ९॥ यत्तु दक्षिणदिङ्मूढं जायते मरणाय तत् । प्राग्वास्तुनि (तु) कुर्वीत प्रासादं मन्दिरं पुरे ।। १० ॥ वलितं चलितं भ्रान्तं विसूत्रं च समुत्सृजेत् । यत् स्यान्मुखविनिष्क्रान्तं वलितं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ११ ॥ चलितं पृष्ठनिष्क्रान्तं दिङ्मूढं भ्रान्तमुच्यते । विमूत्रं कर्णहीनं स्यात् फलमेषां प्रचक्ष्महे ॥ १२ ।। वलिते चलति स्थानं चलिते विग्रहो भवेत् । भ्रान्तं योषिद्विनाशाय विसूत्रं भूरिशत्रुकृत् ॥ १३ ॥ मूषकोत्करवल्मीकप्रान्ता वक्रा भुजङ्गवत् । छिन्ना भिन्ना विकर्णा च न वास्तुनि शुभा क्षितिः ॥ १४ ॥ मुषकोत्करवत्यर्थ हन्ति वल्मीकिनी सुतम् । विकर्णा कुरुते कर्ण रोग छिन्ना विनाशिनी । भिन्ना भेदं करोत्युर्वी कुटिला मतिवक्रताम् ॥ १५ ॥ सपादं सत्रिभागं वा सार्धं द्विगुणमेव च । यत् स्यान्मुखायतं वेश्म तदनिष्टफलप्रदम् ॥ १६ ॥
१. 'सी', २. 'त्वप्लषभ' ख. ग. पाठः ३. 'अश्विन्ये क',४. 'शुभम्' क. पाठः । ५. 'हूं' क. ग. पाठः । ६. 'गान्' क. पाठः ।
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गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः । यद् द्विशालं त्रिशालं वा चतुःशालमथापि वा । मूषया रहितं वेश्य तदनिष्टफलप्रदम् ॥ १७ ॥ पुरतः पृष्ठतः पार्थं यदि वालिन्दवर्जिता । गृहे न शस्यते शाला देवागारे तु शस्यते ॥ १८ ॥ अन्यपृष्ठस्थितद्वारं वेश्म खादकमुच्यते । परस्परविरोधाय तद वेश्म गृहिणीस्तयोः ॥ १९ ॥ सशल्यं पादहीनं च समसन्धि शिरोगुरु । वेश्मनामिदमुद्दिष्टं मर्मदोपचतुष्टयम् ।। २० ॥ वास्तुक्षेत्रस्य यत्राङ्गे यस्य वर्त्म प्रवर्तते । तेदङ्गं वास्तुनस्तस्यच्छिन्नं तेनेति निर्दिशेत ॥ २१ ॥ छिन्नाझं विकलं तत् स्याद् भीतिदं सर्वदोषकृत् । तद्भतुभेज्यतेऽङ्गं तद् वेधस्तस्याफलोऽन्यथा ॥ २२ ॥ स्वगृहद्वयमध्येन निर्वाहो यदि वर्त्मनः । द्वारवेधोदितान् दोषांस्तदा प्रामोति निश्चितम् ॥ २३ ॥ मार्गश्चैको यदा गच्छेदुभयोBहपार्श्वयोः । मागेवेधस्तदा स स्याच्छोकसन्तापकारकः ॥ २४ ॥ उत्सङ्गः पूर्णबाहुश्च हीनबाहुस्तथापरः।। प्रत्यक्षाय इति प्रोक्तं प्रवेशानां चतुष्टयम् ।। २५ ॥ गृहस्य सम्मुखं यत्र द्वारं भवति वास्तुनः । उत्सङ्ग इति स प्रोक्तः पूर्णवादुः प्रदक्षिणः ॥ २६ ॥ वामतो हीनबाहुः स्यात् प्रत्य(क्षो वाक्षाय)स्तु पृष्ठतः । चतुर्थोऽयं समुद्दिष्टः प्रवेशो वास्तुनो बुधैः ॥ २७ ॥ उत्सङ्गाख्ये प्रवेशे स्यात् प्रजाहानिः कुटुम्बिनः । धनधान्यक्षयो वास्य मरणं वा ध्रुवं भवेत् ॥ २८ ॥ पूणेबाहौ पुत्रपौत्रा धनधान्यसुखानि च । भवन्ति वसतो नित्यं गृहिणस्तत्र वास्तुनि ॥ २९ ॥
१. 'स:' ख. ग. पाठः । २. 'य' क. पाठः । ३. 'सं', ४. 'सु', ५. 'त्युक्तो वा' ख. पाठः।
पूर्णबाहुस्तु ' दक्षिणे इति तु पाठो युक्तः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
वासवत्यल्पवान्यवः ।
अल्पमत्रो गृही स्याद् वाल्पवित्तो जीयेत स्त्रीभिः पीडयेत वामयैः ॥ ३० ॥ sarasvatतु विदिता पत्र वै । तस्मिन् निवसतां पुंसां निचितः स्पा धनक्षयः ॥ ३१ ॥
मूषास्वस्थानयुक्तायु में इति स्मृतः । प्राोति तत्र निवसत् मृत्युं दुःखं सरोगताम् ॥ ३२ ॥ उदग्दक्षिणशालासु पुर्वागतासु च । अन्यथा वा स्थितं द्वारं नवन्धनकारकम् ॥ ३३ ॥ भूपागतान् भ्रमान् कुर्यान शालां प्रतिभेदयेत् । भ्रममा शालासु विषयन्ते कुनिः ॥ ३४ ॥ शालादो भवेद् यत्र पृष्ठ पार्श्वो वा । धनधान्यक्षयस्तत्र गृहिणो जायते ध्रुवम् || ३५ || यत्र प्रत्यङ्मुखे शाले गृहे तत् स्वाद विकोकिलम् । आयुचतुष्पदं धान्यं वसतां तत्र नश्यति || ३६ || सीमाशालाप्रभिन्नस्त्र वासादस्य गुहस्य च । अस्थिरा जायते ऋद्धिः स्थितित्र न भवेचिरम् || ३७ ॥ सर्वदोषकरी ज्ञेया गर्भे चन्द्रावलोकिता | मूषां विना विनाशाय कायच्छियै गवाक्षकः || ३८ ॥ या गण्डोऽथवा कुक्षिः पृष्ठं कक्षाथ भिद्यते । दारिद्र्यं जायते भर्तुस्तदानीमतिदुस्सहम् ॥ ३९ ॥ गर्भादुभयतो गण्डौ कक्षे स्तः कर्णभित्तिगे । दक्षिणोत्तरयोः कुक्षी पृष्ठतः पृमादिशेत् ॥ ४० ॥ स्थापितद्वारसंरोधे गृहिणो जायतेरी । द्वारे तु विहिते तस्मिन्नर्थस्तस्य जायते ॥ ४१ ॥ पूर्वद्वारनिरोधं तु नवमान कदाचन (2) श्रोत्ररोधेऽश्मरीदोषः कृतोत्रे म्यता (?) ।। ४२ ।।
१. 'थ' ग. पाठः । ९. 'कना' व. रा. पालः । ३.
४. 'न्य' रा. पाठ: । 'पता' स. पाठ: )
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C
" क्षा क. पाठः ।
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गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः । कृत्तानि यत्र चीयन्ते गवाक्षालोकनानि च । तत्र प्रसूतिर्न भवेनिष्पन्नापि विनश्यति ॥ ४३ ॥ चीयमाना यदा भित्तिर्दक्षिणा स्याद् बहिर्मुखी । तदा व्याधिमयं विद्यान्नृपदण्डभयं तथा ।। ४४॥ यदा तु पश्चिमं कुड्यं प्रयाति बहिरग्रतः । धनहानि विजानीयाचौरेभ्यश्च भयं तदा ॥४५॥ उत्तरं तु यदा कुड्यं चीयमानं बहिर्बजेत् । गृहमतुश्च कतुश्च व्यसनं स्यात् तदा महत् ।। ४६ ।। यदानं चीयमानायाः पूर्वभित्तेर्वहिजेत् । तदा गृहपतेस्तीनं राजदण्डमयं भवेत् ॥ ४७॥ प्राग्दक्षिणो यदा कर्णश्चीयमानो बहिजेत् । तत्राग्निभीतिरतुला संशयश्च प्रभोभवेत् ॥ ४८ ॥ बहिर्मुखो यदा गच्छेत् कर्णो दक्षिणपश्चिमः । कलहोपद्रवस्तत्र स्याद् भायायाश्च संशयः ॥ ४९ ॥ यत्रोत्तरापरः कर्णश्चीयमानो बजेद बहिः । पुत्रवाहनभृत्यानां भवेत् तस्मिन्नुपद्रवः ॥ ५० ॥ यदा प्रागुत्तरः कर्णो बहिर्गच्छति वेश्मनः । तदा गवां वृषाणां च गुरूणां च क्षयो भवेत् ।। ५१ ॥ चतस्रो भित्तयो यस्य बहिर्निन्ति वेश्मनः । चीयमानास्तदत्रोक्तं मन्दिरं मल्लिकाकृति ॥ ५२ ॥ ताग गृहे न तवायो व्ययो भवति यादृशः। कर्शितोऽस्यैव दोषेण तस्य भर्ता पलायते ॥ ५३ ॥ संक्षिप्यते तु यद वेश्म चीयमानं समन्ततः । संक्षिप्तमिति तज्ज्ञेयं तत्र राजभयं भवेत् ।। ५४ ॥ यत् स्यादन्तेषु संक्षिप्त विस्तृतं चापि मध्यतः । मृदङ्गाकृतिसंस्थानं तत्र व्याधिभयं भवेत् ॥ ५५ ॥
१. 'ता' ख. पाठः । २. 'यो' क, 'वी' ख, पाठः। ३. 'खा' क, पाठः। ४. 'सा' शठ1
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समराङ्गणसूत्रधारे
आद्यन्तविस्तृतं यत् स्यात् संक्षिप्तं चापि मध्यतः । मृदुमध्यं तदुद्दिष्टं क्षुद्भयं तत्र जायते ॥ ५६ ॥ विषमैरुन्नतैः कर्णैर्धनक्षयकरं गृहम् । भित्तिचापि कर्णेषु प्रागुक्तं फलमादिशेत् ॥ ५७ ॥ मध्ये द्वारं न कर्तव्यं मनुजानां कथञ्चन । मध्ये द्वारे कृते तत्र कुलनाशः प्रजायते ॥ ५८ ॥ द्वारं द्वारेण वा विद्धमशुभायोपपद्यते । अनिष्टद्रव्यसंयुक्तं धनधान्यविनाशनम् ॥ ५९ ॥ नवं पुराणसंयुक्तमन्यं स्वामिनमिच्छति । अधोग्रं राजदण्डाय विद्धं द्वारं विगर्हितम् ॥ ६० ॥
नवं पुराणसंयुक्तं द्रव्यं तु कलिकारकम् । न मिश्रजातिद्रव्योत्थं द्वारं वा वेश्म वा शुभम् ॥ ६१ ॥ गृहस्थानेषु यद् द्रव्यमधिवास्य प्रतिष्ठितम् । तश्वालनेन चलनं गृहभर्तुः प्रजायते ॥ ६२ ॥ अन्यवास्तुच्युतं द्रव्यमन्यवास्तौ न योजयेत् । प्रासादे न भवेत् पूजा गृहे च न वसेद् गृही ॥ ६३॥ द्रव्येण देवदग्धेन भवनं यद् विधीयते । न तत्र वसति स्वामी वसन्नपि विनश्यति ॥ ६४ ॥ सूर्योद्भवा द्रुमच्छाया ध्वजच्छाया च गर्हिता । द्वारातिक्रमणादेताः क्षुदव्याधिकलिकारकाः || ६५ ॥ प्रासादशिखरच्छाया ध्वजच्छायेति कीर्तिता । त्रिपञ्चसप्तमी भर्तुर्गृहतारा न शोभना ॥ ६६ ॥ निम्नोन्नतं करालं च सम्मुखं पृष्ठदेशगम् । वामावर्त च न शुभं द्वारमग्रतरं गृहे ॥ ६७ ॥ निम्ने स्यात् स्त्रीजितो भर्ता दुर्जन स्थितिरुन्नते । सम्मुखे सुतपीडा स्यात् पृष्ठगे चपलाः स्त्रियः ।। ६८ ।। वामे वित्तक्षयो द्वा (रि१रे) भवत्यग्रतरे प्रभोः । द्वारं तस्मान्न कर्तव्यमीदृग्रूपं विचक्षणैः ॥ ६९ ॥
१.
ख. म. गकः । २ 'सुनियो 'क, ख
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गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ।
नागदन्ततुलास्तम्भभित्तिमूषागवाक्षकाः । द्वारमध्ये न दातव्या न चैते विषमस्थिताः ॥ ७० ॥ इतिहासपुराणोक्तं वृत्तान्तमतिरूपकम् । निन्दितं च गृहे नेष्टं शस्तं देवकुलेषु तत् ॥ ७१ ॥ यानीन्द्रजालतुल्यानि यानि मिथ्याकृतानि च । भीषणानि च यानि स्युर्न कुर्यात् तानि वेश्मसु ॥ ७२ ॥ स्वयमुद्धाटितं द्वारमुच्चाटनकरं भवेत् । धनहृद् बन्धुवैरं स्यादथवा कलिकारकम् || ७३ || स्वयं यत् पिहितं द्वारं तद् भवेद् बहुदुःखदम् । सशब्दं भयकृत् पादशीतलं गर्भपातनम् ॥ ७४ ॥ द्रव्यं नाधोमुखं कार्य प्रत्यग्याम्याननं नच | पश्चिमाग्रे परिक्लेशो दक्षिणाग्रे तु शून्यता ॥ ७५ ॥ स्तम्भद्वारं च भित्तिं च विपरीतं न कारयेत् । अमीषां वैपरीत्येन दोषाः स्युर्बहवो नृणाम् ॥ ७६ ॥ मूलसूत्रानुसारेण कर्तव्या भूमिकोपरि । उपर्युपरि यद वेश्मसमं संतापकारकम् ७७ ॥ अधोभूमौ क्षणा ये स्युस्तत्समांश्रोर्श्वभूमिषु । परित्यजन्नपहितों (?) न कुर्वीत यथोत्तरम् ॥ ७८ ॥ शाला निम्ना भवेद् यस्मिन्नलिन्दस्त्वधिको भवेत् । निधनं जायते तत्र सदा शोकभयानि च ॥ ७९ ॥ मूलद्वारानुसारेण द्वाराण्युपरिभूमिषु । कुर्याद् भयप्रदानि स्युर्विहितान्यन्यथा पुनः || ८० || क्षुद्भयप्रदमाध्मा (नं? तं) कुब्जं कुलविनाशनम् । अत्यर्थ पीडितं पीडां करोत्यन्तनतं क्षयम् ॥ ८१ ॥ प्रवास बाह्यविनते दिग्भ्रान्ते दस्युतो भयम् । मूलद्वारं क्षयं कुर्याद विद्धं द्वारान्तरेण यत् ॥ ८२ ॥
१. 'तां' क पाठः । २. 'समस्तं ता' ख. ग. पाठः । ३. 'तू' ग. पाठः ।
४. ' ताः ' ख, ग, पाठः । ५. 'न' क, पाठः । ६. 'न्तं क. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे प्रवासो भृत्यजो द्वेषो विद्ध चत्वररथ्यया । नाशं द्रव्यं ध्वजाविद्धं वृक्षेण शिशुदूपकम् ।। ८३ ।। पङ्कविहे भवेच्छोकः सलिलस्राविणि व्ययः । कूपेन विद्धेऽपस्मारो विनाशो दैवतेन च ॥ ८४ ॥ स्तम्भन दूषणं स्त्रीणां ब्रह्मणा तु कुलक्षयः । मानादभ्यधिके द्वारे राजतो जायते भयम् ।। ८५ ।। व्यसनं मानतो हीने चौरेभ्यश्च भयं भवेत् ।। व्याधयः श्वभ्रविद्धन धनस्य च परिक्षयः ।। ८६ ।। देवध्वजेन बन्धः स्यात् सभयैश्वर्यसंक्षयः । सन्निपातभयं वाप्या तुल्या दृष्टत्वमाकृते(?) ।। ८७ ॥ हृद्रुक् कुलालचक्रेण दारियं वारिणा भवेत् । व्याधिरु किचकूटेन आपाकेन (१) सुतक्षयः॥ ८८ ॥ निश्च?स्स्व)तोदूखलेन स्याच्छिलया चाश्मरी भवेत् । तोयभाण्डेन दुर्मन्त्री भस्मना चार्शसो गृही ॥ ८९ ॥ दारिय छायया विद्धे भवेद् द्वारे कुटुम्बिनः । स्थलस्यन्दनवल्मीकैर्विदेशगमनं भवेत् ।। ९० ।। कृशं विकृतमत्युचं करालं शिथिलं पृथु । वर्क विशालमुत्तानं (शूरस्थूलाग्रं हैस्वकुक्षिकम् ।। ९१ ।। स्वपादचलितं इस्वं हीनकर्ण मुखानतम् । पाश्वगं सूत्रमार्गाच्च भ्रष्टं द्वारं न शोभनम् ॥ ९२ ।। तत् करोति क्षयं घोरं विनाशं स्वामिसम्पदः । वसतां कलहं नित्यमतस्तत् परिवर्जयेत् ॥ ९३ ॥ अन्ताराद् बहिरं नोच्चं कुर्यान्न सङ्कटम् । उच्चं विसङ्कटं वापि तच्छिवाय न जायते ।। ९४ ।। पट्टसन्धिर्यदा मध्ये द्वारस्य स्यात् कथञ्चन ।
कतुस्तदा विनाशः स्यात् कुलस्य च परिक्षयः ॥ ९५॥ १. 'जा दोषा वि', २. 'श' ख, ग. पाठः । ३. 'द्र' ख, 'द्रष्टत्व' ग. पाठः। ४. 'क्तर', ५. 'श्चि' क. पाठः । ६. 'लम्बकुः' ख. पाठः ।
कन्दकूटकमिति उपरि बक्ष्यते ।
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गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ।
तुला उपतुला वास्युर्द्वारि तिर्यग् यदा कृताः । दारिद्र्यव्याधिसन्तापा भवन्ति स्वामिनस्तदा ॥ ९६ ॥ अनुवंशमनुप्राप्ता जयन्त्यो यदि मन्दिरे । वित्तायुषस्तदाल्पत्वमनारोग्यं च जायते ॥ ९७ ॥ उदुम्बरे (वि) निहिता (नि) ललाटी नाम सा तुला | दूषणं मरणं वापि कन्यानां विदधाति सा ।। ९८ ॥ उत्तराङ्गोदरे न्यस्ता ललाटेन समा यदि । तुला ललाटिका सापि कुलक्षयकरी भवेत् ॥ ९९ ॥ तुलापिण्डेन विन्यस्ता ज्ञेया यज्ञोपवीतिनी । वसतो व्यसनं कुर्यात् कुटुम्बस्यासुखं च सा ॥ १०० ॥ यदि भारतुलैकाप मध्ये विद्धा कथञ्चन । तदा वराङ्गं भज्येत धनं चं परिहीयते ।। १०१ ॥ भित्तिभेदो न कर्तव्यस्तुला ग्रैरखिलैरपि । कुर्याद् ब्रह्मपदन्यस्तो भारपट्टः कुलक्षयम् ।। १०२ ।। अयुक्तयोर्युक्तयोर्वा सन्धिश्वे भारपट्ट । सन्धौ स्यात् तत् सुतो ज्येष्ठः कर्तुश्चापि विनश्यति ॥ १०३ ॥ अनुवंशं न भुञ्जीत न शयीत कदाचन । भुञ्जानस्यार्थनाशः स्याच्छयानस्य महारुजः ।। १०४ ।। नाशोऽनुवंशं रोगाः स्युस्तिर्यक्स्थे रक्षसो भयम् । शयनागारविन्यस्ते मरणं नागदन्तके ।। १०५ ॥ कर्णौवात् (१) पक्षिराङ्घण्टाध्वजच्छत्र कुमारकान् । सिंहकर्णकपोतालिं गृहेषु परिवर्जयेत् ॥ १०६ ॥ इन्द्रकील शुकं तुम्बीर्धवंशं च वेश्मनि । न कुर्यात् तत्र विहिताः सर्वदोषावहा यतः ॥ १०७ ॥ अतिक्षिप्रचिरोत्पन्नं कृशद्रव्यमपोहितम् । अप्रतिष्ठित संस्थानं गृहं नमति पञ्चधा ॥ १०८ ॥
३'र्साख पाठः ।
$
गाः क. पाठ
१. 'भल्ला' ख. पाठः । २. ४. 'मूर्ख', ५. पाह ख. ग. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे अतिस्थूलेन इस्वेन शरीरेण यथा नरः । विरूपो दुर्बलश्चैव तथा द्रव्येण मन्दिरम् ॥ १०९॥ जीर्ण घुण(कृ?क्ष)तं मिश्रं हीनं वर्क विधिच्युतम् । चण्डं तुण्डं वक्रकोणं सन्धिविद्धाल्पमूलके ॥ ११० ।। बज्रमध्यं स्थूलमूलं कुक्षिभिन्नं च दारु यत् । भिन्नमूलं कूर्मपृष्ठं पक्षहीनं च वर्जयेत् ॥ १११ ॥ पातितान् वर्जयेद् वृक्षान् द्विपाश्वाग्निजलानिलैः। प्रभूतपक्षिनिलयान् काककौशिकसेवितान् ।। ११२ ।। मधुग्रहपिशाचाहिदुष्टांश्चैत्यश्मशानजान् ।। चतुष्पत्रिकमहानदीसङ्गममार्गजान् ॥ ११३ ॥ देवतायतनेजातानूवंशुष्कानं क्षतच्छदान् । वल्लीपिनद्धान् सुषिरकोटरग्रन्थिसङ्कुलान् ।। ११४ ।। याम्यापराशापतितांस्त्यजेत् कण्टकिनोऽपिच । कपित्थोदुम्बराश्वत्थशिरीषवटचम्पकान् ॥ ११५ ।। कोविदारधवारिष्टश्लेष्मातकविभीतकान् । किञ्च सप्तच्छदक्षीरिफलदांश्च द्रुमांस्त्यजेत् ।। ११६ ।। मर्माणि यत्र पीड्यन्ते द्वारैभित्तिभिरेव वा ।। दारियं कुलहानि वा गृहिणस्तत्र निर्दिशेत् ॥ ११७ ॥ स्तम्भैर्विनश्यति स्वामी तुलाभिः स्त्रीवधो ध्रुवम् । साहेबन्धुनाशः स्याज्जयन्तीभिः स्नुषावधः ॥११८॥ मर्मस्थानस्थितैः कायैर्भर्तुः कायो निपीड्यते । मर्मस्थैः सन्धिपालैस्तु सुहृद्विश्लेषमादिशेत् ॥ ११९ ॥ गृहपीडा नागदन्तैर्नागपाशैर्धनक्षयः । कापिच्छकैस्तु प्रेष्याणां क्षयं मर्मस्थितैर्वदेत् ।। १२० ॥ षडदारुकान्यनुसरागवाक्षालोकनानि च । मर्मस्थाननिविष्टानि जनयन्ति महाभयम् ॥ १२१ ॥ स्तम्भैर्वा द्वारमध्यैर्वा तुलाभिर्नागपाशकैः । वातायनै गदन्तैौरमध्ये निपीडिते ॥ १२२ ॥ ., 'गु' क. पाठः । २. 'ञ्छदावृतान्' ख. ग. पाठः।
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गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः । व्याधयः संप्रवर्धन्ते धननाशः कुलक्षयः । राजदण्डभयं च स्यादपत्यानां च पीडनम् ।। १२३ ॥ षड्दारुकाणां मध्येधुं द्वारमध्येषु वा पुनः । कर्णद्रव्यादिभिर्विद्वेष्वेतदेवादिशेत् फलम् ॥ १२४ ॥ संविद्धा नागदन्तैर्या स्तम्भैर्वातायनैस्तथा । शय्या शस्त्राद् भयं भर्तुः कुर्यात् तस्करतोऽपि वा ॥ १२५ ॥ गृहमध्ये कृतं द्वारं द्रव्यकोशविनाशनम् ।
आवहेत कलहं भतुभोयाँ वास्य प्रदूषयेत् ॥ १२६ ।। द्रव्येणैकोत्तरेणापि महाममणि पीडिते । सर्वस्वनाशो गृहिणो मरणं वा ध्रुवं भवेत् ॥ १२७ ॥ द्वारस्तम्भतुलालिन्दै(चीच)यदोषैः सेमीरितैः । विसूत्रे नागदन्तेऽपि तच्छ्न्यं जायते गृहम् ॥ १२८ ।। विभागपदहीनेषु रूपस्थानेषु वास्तुएं । यक्षमातृक्रियायेषु रोगान्मृत्युने संशयः ॥ १२९ ॥ कटुकण्टकिदुर्गन्धिगुह्यकाद्याश्रयान् दुमान् । न धारयेत् समीपस्थान् पुरप्रासादवेश्मनाम् ॥ १३० ॥ बदरी कदली चैव दाडिमी बीजपूरिका । प्ररोहन्ति गृहे यत्र तद्गृहं न प्ररोहति ॥ १३१॥ द्रव्यं द्रव्याधिकं हन्ति कुलमायामतोऽत्रिकम् । उच्छ्याभ्यधिक पूजां सन्तति विस्तराधिकम् ।। १३२ ॥ स्तम्भाभित्तिभिः पट्टैः शीर्षकैर्भवनैस्तथा । आलोकनातोरणाद्यैश्छाद्यकैः कन्दकूटकैः ॥ १३३ ॥ हीरशाखोत्तमाफ़ैश्च तुलाभिः सन्धिपालकैः । भर्गलार्वेदिकाभिालैर्जालेश्च नूतनः ॥ १३४ ॥ घातितः पातितैन(टै?ष्टि)जायते गृहिणो ध्रुवम् ।
व्याधिदारिखदुःखार्तिनिर्धनत्वं च जायते ॥ १३५ ।। 1. 'तु', २. 'वृक, ख. पाठः । ३. 'न्दै' क. पाठः। ४, 'स्व'... ना .. 'कि' क... सरः। 8. 'नः', .. .
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__ समराङ्गणसूत्रधारे उञ्चच्छाद्यं छिद्रगर्भ भ्रमितं वमितं मुखे । हीनमध्यं नष्टसूत्रं शल्यविद्धं शिरोगुरु ॥ १३६ ॥ भ्रष्टालिन्दकशोभं च विषमस्थं तुलातलम् । अन्योन्यद्रव्यविद्धं च कुंपदप्रविभाजितम् ।। १३७ ।। हीनभित्युतमाङ्गं च विनष्टं स्तम्भभित्तिकम् । भिन्नशालं त्यक्तकण्ठं निष्कन्दं मानवर्जितम् ॥ १३८ ॥ विकृतं च गृहं भर्तुरनिष्टफलदायकम् ।
तस्माद् दोषानिमांस्त्यक्त्वा गृहं कुर्याच्छुभावहम् ॥ १३९ ॥ एवंविधं दोषकरं गृहं स्याद् भर्तुत्र कर्तुश्च यतस्तदेते । ज्ञेयाः सदा शिल्पिभिरप्रमत्तैस्त्याज्याश्च दोषाः शुभकीर्तिकामैः ॥ १४०॥
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे
गृहदोषनिरूपणं नामाष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
अथ रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपश्चाशोऽध्यायः।
त्रिदशानां नृपाणां च वर्णिनां च विशेषतः । उत्पत्तिप्रसूतिं ब्रूमः प्रासादा यस्य ये मताः ॥१॥ पुरा ब्रह्मासजत् पञ्च विमानान्यसुरद्विषाम् । वियद्वनविचारीणि श्रीमन्ति च महान्ति च ॥ २ ॥ तानि वैराजकैलासे पुष्पकं मणिकाभिधम् । हैमानि मणिचित्राणि पञ्चमं च त्रिविष्टपम् ॥ ३ ॥ .: 'नि' ख. ग. पाठः। २. स्वय', ३. 'सि', ४. 'त' क. पाठः।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपश्चाशोऽध्यायः ।
२५७ आत्मनः शूलहस्तस्य धनाध्यक्षस्य पाशिनः । सुरोशिने च विश्वेशो विमानानि यथाक्रमम् ॥४॥ बहन्यन्यानि चैवं स सूर्यादीनामकल्पयत् ।। विशेषाय यथोक्तैस्तान्याकारैः प्रतिदैवतम् ॥ ५ ॥ प्रासादांश्च तदाकाराञ् शिलापक्केष्टकादिभिः । नगराणामलङ्कारहेतवे समकल्पयत् ।। ६ ।। . वैराज चतुरश्रं स्याद् वृत्तं कैलाससंज्ञितम् । चतुरश्रायताकारं विमान पुष्पकं भवेत् ॥ ७॥ वृत्तायतं च मणिकमष्टाभि स्यात त्रिविष्टपम् । तद्भेदाञ् श्रीमतोऽन्यांश्च विविधानसृजत् प्रभुः ॥ ८ ॥ ये यत्र विहिता भेदाः पूर्व कमलयोनिना । सर्वांस्तानभिधास्यामो नामसंस्थानमानतः ॥ ९ ॥ रुचकश्चित्रकूटश्च तृतीयः सिंहपञ्जरः । भद्रः श्रीकूट उष्णीपः शालाक्षो गजयूथपः ॥१०॥ नन्धावर्तोऽवतंसाहः स्वस्तिकः क्षितिभूपणः । भूजयो विजयो । नन्दी श्रीतरुः प्रमदाप्रियः ।। ११ ।। व्यामिश्री हस्तिजातीयः कुवेरो वसुधाधरः। सर्वभद्रो विमानाख्यो मुक्तकोणश्च नामतः ॥ १२ ॥ चतुर्विंशतिरुद्दिष्टा चतुरश्राः समासतः। वृत्तांस्तथाभिधास्यामः प्रासादानपरानपि ॥ १३ ॥ वलयो दुन्दुभिः प्रान्तः पद्मः कान्तश्चतुर्मुखः । माण्डूकाख्योऽथ कूर्मश्च तालीगृह उलूपिकः ।। १४ ॥ इति वृत्ताः समासेन प्रासादा दश कीर्तिताः । चतुरश्रायता ये स्युः कथ्यन्ते तेऽपि नामतः ॥ १५ ॥
१. 'पाकेर्यय' क, षायद्यथो' ख. ग. पाटः 1 २. 'ष्ट दारुभिः ' ख. ग. पाठः । ३. 'शोऽथ ग' क, पाठः । ४. 'या' क. ख, ग, पाठः । ५. 'मत्त: प्र' ग. पाटः । ६. 'नाको' क. स्त्र. ग. पाठः । ७. 'मान्द्रका' क, 'मदूका ख. ग. पाठः।
शालाख्य इति लक्षणे पाट: लक्षणे तु नन्द इति पठ्यते ।
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समराङ्गणसूत्रधारे भवो विशालः साम्मुख्यः प्रभवः शिविरागृहः । मुखशालो द्विशालश्च गृहराजोऽमलो. विभुः ॥१६॥ एवमेते समुद्दिष्टाश्चतुरश्रायता दश । अथ वृत्तायतान् ब्रूमः प्रासादानभिधानतः ॥ १७ ॥ आमोदो रैतिकस्तुङ्गश्चारुर्भूतिनिषेवकः । सदा(?)निषेधः सिंहाख्यः सुप्रभो लोचनोत्सवः ।। १८ ॥ एते वृत्तायताः प्रोक्ताः प्रासादा नामतो दश । अष्टाश्रीणां चं नामानि कथयामि समासतः ॥ १९ ॥ वज्रको नन्दनः शङ्कुर्मेखलो वामनो लयः । महापद्मश्च हंसश्च व्योमचन्द्रोदयाविति ॥ २० ॥ अष्टाश्रय इमे प्रोक्ताः प्रासादा दश संख्यया । भवन्त्येवं चतुष्पष्टिलेक्ष्मैषामधुनोच्यते ।। २१ ॥ संस्थानमानविन्यासैभद्रस्तम्भादिसङ्ख्यया। एषां विशेषा वक्ष्यन्ते पृथक पृथगनुक्रमात् ॥ २२ ॥ ज्येष्ठो भागश्चतुर्हस्तः सार्धहस्तत्रयोऽपरः । कल्पनीयः कनीयांस्तु हस्तत्रितयसम्मितः ॥ २३ ॥ ज्येष्ठमध्यकनीयोभिरेवं भागैर्विभाजिताः । भवन्ति सवेप्रासादा ज्येष्ठमध्याधमक्रमात् ॥ २४ ॥ चतरश्रीकृते क्षेत्रे चतुर्भागविभाजिते ।। कुर्यात् स्वारोहकावासं पीठमंशसमुवृतम् ॥ २५ ॥ तथा तस्योपरि स्थाप्या हंसपृष्ठी समन्ततः । हस्तमात्रोच्छ्रिता वृत्ता जलनिर्गमभूषिता ॥ २६ ॥ ततः पीठस्य तस्यान्तर्द्विभागा(य?या)मविस्तृतिः । प्रासादो रुचकः कार्यो भागत्रितयमुच्छ्रितः ॥२७॥ सार्धभागेन संछा स्यात् सार्धभागस्तु योऽपरः(?) ।
छा(योध)त्रयं सकण्ठं स्यात् तेन सामलसारकम् ॥ २८ ॥ 7. 'री' ख. ग. पाठः । २. 'तु', ३. 'छा' क. पाठः । ४. 'स्त' ख. ग. पाठः। ५. 'वृत्तसमु', ६. 'स्तम्भा स्यात् ' ख, पाठः । ७, 'धु' क. पाठः।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः । २५९ द्वारं भागोच्छ्रितं तस्य कार्य भागाविस्तृतम् । समाग्रीवः स कर्तव्यश्चतुर्दशधरातः ।। २९ ।। ससौधालिन्दकचारुरूच्छाद्योपकर्षवान् । क्रियतेऽत्रं यदा स्त(म्भी?म्भैः)द्वाविंशत्या समावृतः ॥ ३० ॥ सप्राग्रीवपरिष्कारो भागिकालिन्दशोभितः । मध्यप्रदेशे रुचकः प्रासादः परिकीर्तितः ॥ ३१ ॥
रुचकः । कर्णप्राग्रीवकैश्चित्रैः सप्राग्रीवश्च यो वृतः । द्वाभ्यां द्वाभ्यां गवाक्षाभ्यां चतुर्दिशमलङ्कृतः ॥ ३२॥ कपोतालीपरिक्षिप्तः शोभितो द्वारसम्पदा । तदानीं चित्रकूटाख्यः प्रासादः सोऽभिधीयते ॥ ३३ ॥
चित्रकूटः । अयमेव पुनः षड्भिः स्तम्भैरपि चितो यदा । पाग्रीवकविहीनश्च स भवेजालरूपकः ॥ ३४ ॥ सिंहपञ्जर इत्युक्तः प्रासादः स तदा शुभः ।
सिंहपञ्जरः । कर्णप्राग्रीवको द्वौद्वावस्यैव भवतो यदा ॥ ३५ ॥ अलिन्दकगतिस्थित्या तदा भद्रः प्रकीर्तितः ।
भद्रः । स्याचित्रकूटः प्राग्रीवैश्चतुर्भिर्दिकचतुष्टये ।। ३६ ॥ बहिरन्तश्चतुर्दारः श्रीकूट इति नामतः ।
श्रीकूटः । पडदारुकसमायुक्तप्रागद्वारस्त्वयमेवं चेत् ॥ ३७ ॥ प्रासादस्तम्भगर्भःस्यात् तदोष्णीषोऽभिधीयते ।
उष्णीषः । चतुरंशकविस्तीर्ण षडंशविहितायति ॥ ३८ ॥
१. 'व', २. 'या', ३. 'न' ख. ग. पाठः । ४. 'म्भ', ५. 'के' क. पाठः । ६.'पख. य. पाठः। ७. 'त' क, ख, ग, पाठः। ८. 'वचक. पाठः। ९. 'भस्य' ख, ग, पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे पीठं शालागृहस्योक्तं सशालानिर्गमं शुभम् ।। मध्यादपरतस्तस्य द्विभागायतविस्तृतम् ॥ ३९ ॥ विधेयं गर्भभवनमलिन्दकपरिष्कृतम् । काया तस्याग्रतः सीमा भागद्वितयमायता ॥ ४० ।। भागमेकं च विस्तीर्णा चतुःस्तम्भोपशोभिता । तदनतोऽपरा सीमा कार्या भागान् पडायता ॥ ४१ ॥ तिर्यक स्था भागविस्तीर्णा प्रवेशद्वयशोभितां । एवं शालागृहः(?) स्तम्भैाविंशत्या समावृतः ।। ४२ ।। प्राग्रीववेदिकाजालपक्षसोपानकैः शुभैः।
शालाख्यः । पश्चभागोन्मितव्यासे क्षेत्रे भागाष्टकायते ।। ४३ ।। पीठं कुर्यादुभयतः ससोपानं शिलाचितम् । मध्यादपरभागेऽस्य देवागारं निवेशयेत् ।। ४४॥ (विद्वि)भागायामविस्तारं चतुरश्रं सुसंहितम् । पादोनभागविस्तारमध्य भागमुच्छ्रितम् ।। ४५ ॥ तयं कार्य मुखं मध्ये पार्वतश्चयशोभितम् । सचया निर्गता सीमा द्वौ भागौ त्रींस्तथाय(था?ता) ॥ ४६॥ चतुरश्रा चतुःस्तम्भा तदने भागविस्तृता ।। पञ्चभागायता तिर्यक् कार्या सीमा तथापरा ॥ ४७ ॥ द्वात्रिंशदत्र कर्तव्याः स्तम्भाः सर्वैक्यसङ्ख्यया । वहिःपरिसरो गर्भात् ससीनो भागविस्तृतः ॥ ४८ ।। एवं स्याद् वेदिकाजालरूपादिभिरलंङ्कृतः । बहि(वेश्च)योच्छ्रितश्चैप प्रासादो गजयूथपः ॥ ४९ ।।
गजयूथपः । षड्भागभाजित क्षेत्रे चतुरश्रे समन्ततः । गर्भो द्विभागिकः कार्यों द्वारं भागसमुच्छ्रितम् ।। ५० ॥ १. 'यस्त' क. ख. ग. पाठः । २. 'ताः' ख. ग. पाठः । ३. 'पा' क. ख ग. पाठः । १. 'ता',५. 'ह' ख. ग. पाठः। ६. 'स्य मध्ये मुखं काय पा' ख. पाठः। 9. 'सर्वे व्यसं' ख. ग, पाटः । ८. दिशा' ख. पाठः ।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः ।
भागा द्वार विस्तारः प्रासादस्योच्छ्रितं पुनः । कुर्वीत चतुरो भागाञ् छादयेच्चित्रकूटवत् ॥ ५१ ॥ कार्या द्विभागिकाः शालाः सालिन्दास्तस्य बाह्यतः । बहिर्भित्तिपरिक्षिप्ताश्चतुर्भागायताः शुभाः ॥ ५२ ॥
द्वौ गवाक्षको स्तम्भाः प्रतिशालं भवन्ति पद् । चतुः स्तम्भभृतैर्युक्तः कार्या वा धार्मिकालयैः ॥ ५३ ॥
नद्यार्तोऽयमेवं स्यात् सप्राग्रीव चतुष्टयः । प्रागु (?) द्वारक्षणोपेतः प्रासादः शुभलक्षणः || ५४ ॥ नन्द्यावर्तः ।
क्षेत्र त्रे) षड्भागविस्तारे दशमागकृतायतौ । मध्यादभागे'ser देवकोष्ठं निवेशयेत् ॥ ५५ ॥ चतुरंशप्रतिन्यासं चतुरश्रं समन्ततः । द्वारं तस्य विधातव्यं भागमध्यर्धमुच्छ्रितम् ॥ ५६ ॥ पादोनं भागविस्तारं सिंहवक्त्रविभूषितम् । सीमा तस्याग्रतः कार्या देवकोष्ठेन सम्मिता ॥ ५७ ॥ स्तम्भैः षोडशभिर्युक्ता भागद्विज्ञयमुच्छ्रितैः । eetar देवकोष्ठस्य समन्ताद् भित्तिवेष्टितः ॥ ५८ ॥ अलिन्दो भागिक: कार्यो गवाक्षैरुपशोभितः । (तत्) सीम्नोग्रतः पार्श्वे षड्दारुकता बेहिः ॥ ५९ ॥ कार्या द्विरंशाः प्राग्रीवा भागिकालिन्दवेष्टिताः । द्विद्विस्तम्भभृताः सर्वे पार्श्वतश्च यशोभिताः ॥ ६० ॥ अलिन्दास्तु चतुःस्तम्भाः कार्याः प्राग्रीवकाग्रतः । rain इत्येष सर्वलक्षणसंयुतः ॥ ६१ ॥ प्रासादः कथितः सम्यक्
अवतंसः ।
स्वस्तिकः प्रोच्यतेऽधुना ।
चतुरश्रीकृते क्षेत्रे षड्भागप्रविभाजिवे ।। ६२ ।।
१. 'क्ता का ' ख. ग. पाठः । २. 'गस्थादे', 'गस्थदै' ख. ग. पाठः ।
३. 'व्या', ४. ' श्रायतः ' ख. ग. पाठः । ५. ' ' . पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
प्रासादं कल्पयेन्मध्ये द्विभागायामविस्तृतम् | arturist भागविस्तृतो भागिकोदयः ॥ ६३ ॥ गर्भवेश्म चतुःस्तम्भमलिन्दो भागिको बहिः । तस्य स्युर्द्वादश स्तम्भा भागिको लिन्कोऽपरः ॥ ६४ ॥ विंशतिस्तम्भसंयुक्तो विधातव्यः समन्ततः । चयावृतेश्च पुरतो भागो वाष्टधरान्वितः ।। ६५ ।। भागमुत्सृज्य कर्णाभ्यां भागविस्तृतौ । भागिकोच्छ्रायनिष्कासौ कार्यों प्राग्रीवकौ पुनः ॥ ६६ ॥ बाह्यतो भित्तिसंश्लिष्टौ त्रिदिशं सगवाक्षकौ । स्वस्तिकोऽयं समाख्यातः प्रासादचित्रलक्षणः ॥ ६७ ॥ स्वस्तिकः । अथाभिधीयतेऽधुना प्रासादः । शुभलक्षणः । $ षड्भागभाजिते क्षेत्रे चतुरश्रे समन्ततः ॥ ६८ ॥ द्विभागायामविस्तारं मध्ये गर्भगृहं भवेत् । भागद्वयेोच्छ्रितैः स्तम्भैर्युतं व्यक्तैः सलक्षणैः ॥ ६९ ॥ निष्क्रान्तेषु बहिर्भागे गर्भपादेषु योजयेत् । तोरणानि मनोज्ञानि ककुप्सु चतसृष्वपि ॥ ७० ॥ गर्भस्तम्भप्रमाणेन तानि स्तम्भद्वयेन वा । समुत्क्षिप्तानि युक्तानि कलशै रविमण्डलैः ॥ ७१ ॥ पल्लवैः पत्र जात्यादिविन्यासैश्वाप्यनेकशः । भूषितास्ये पुनर्मूर्ध्नि मकराणां मुखैरपि ॥ ७२ ॥ स्तम्भयोरन्तरे दद्यादुभौ मकरपूरिमौ । अन्योन्याभिमुखे" श्लिष्टे कुर्यान्मकरयोर्मुखे ॥ ७३ ॥ चतुर्णामपि निर्दिष्टस्तोरणानां मया विधिः ।
अलिन्दो भागिकचान्यो बहिर्भागे प्रकीर्तितः ॥ ७४ ॥
१. 'र्धे', २. 'त्त 'क. पाठः | ३. 'दं' क, 'द' ख. ग. पाठः । ४. ' श्रि ' ख. ग. पाठः। ५. 'खौ ' ख. पाठः ।
'क्षितिभूषण' इति पाठः । स्यात् ।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः । २६३
स्युर्भागिकान्यलिन्दान्ते धार्मिकायतनानि च । वेष्टितानि बहिर्मिच्या सम्मुखानि परस्परम् ॥७५॥ धार्मिकालयभित्तीनां भूमिर्या वाह्यतो भवेत् । तस्याः षड्दाकाणि स्युर्भागमात्रोच्छ्रितानि च ॥ ७६ ॥ प्राग्रीवकैः ससोपानैर्दिक्चकैस्वानि भूषयेत् । अपरस्याः पुनर्भित्तेर्भागद्वयविनिस्सृतम् ॥ ७७ ॥ मध्ये द्विभागविस्तीर्ण देवकोष्ठं निवेशयेत् । द्वारपाशं च कुर्वीत तस्यो(कुं? र्ध्व) भागमुच्छ्रितम् ॥ ७८ ॥ तथा भागार्धविस्तारमित्येष क्षितिभूषणः ।
प्रासादः कीर्तितः सम्यक् सर्वलक्षणलक्षितः ॥ ७९ ॥ क्षितिभूषणः ।
क्षेत्रस्य चतुरश्रस्य भागान् द्वादश कल्पयेत् ।
मध्ये गर्भं चतुःस्तम्भं तस्य कुर्याद् द्विभागिकम् ॥ ८० ॥ हिर्भागिको लिन्दो द्वादशस्वम्भवान् भवेत् । मध्येsपरस्यां यौ स्तम्भौ ताभ्यां कुर्वीत तोरणम् ॥ ८१ ॥ अलिन्दो भागिक: कार्यो भिच्या भागिकया वृतः । प्राच्यां षड्रदारुकं मध्ये गर्भेव्यासोन्मितायति ॥ ८२ ॥ तृतीयो भागिको लिन्द्रः स्याद् भित्या परिवेष्टितः । चतुर्भागायतं भूयस्तत्र पड्दारुकं भवेत् ॥ ८३ ॥ प्राग्रीवं भागविष्कम्भं कुर्याद् भागद्वयायतम् । अग्रतः स्वोभितं स्तम्भैर्भागान्वस्थचयाहृतम् ॥ ८४ ॥ यथा प्राच्यां तथोदीच्यां याम्यायामपि कीर्तितम् । दिशि प्रतीच्यां तु पुनर्द्वितीयालिन्दकाद् बहिः || ८५ ॥ द्विभागायामविष्कम्भं देवकोष्ठं निवेशयेत् । सपक्षद्वारकं श्रीमद् द्वारपाशोपशोभितम् ॥ ८६ ॥ भागिकोऽलिन्दकस्तस्माद् बहिर्भिच्याभिवेष्टितः । बहिश्चयाद्वतो वा स्याद् गवाक्षैर्वा विभूषितः ॥ ८७ ॥
१ 'क', पाठः । २. '' क. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे पृथ्वी विजयते यस्मात् तेनासौ पृथिवीजयः ।
भूजयः । यदा पृथ्वीजयस्यैव कर्णप्राग्रीवकावुभौ ।। ८८ ॥ कोणेषु भागिको स्यातां विज्ञेयो विजयस्तदा ।
विजयः। अयं समन्तादुत्क्षिप्तो बाह्यालिन्दं विना यदा ॥ ८९ ।। मध्यमालिन्दसौध(स्थं?स्थ)कर्णप्रासादकैश्चितः । प्रथमालिन्दगी च समुत्क्षिप्ततरौ ततः ॥ ९० ॥ स्याता छाद्यद्वयच्छन्नौ तदा नन्दोभिधीयते ।
नन्दः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे दशभागविभाजिते ॥ ९१ ॥ चतुरश्रो भवेन्मध्ये देवकोष्ठा द्विभागिकः । द्वारबन्धोऽस्य भागोचः कार्यो भागार्धविस्तृतः ॥ ९२ ॥ स्याद् बहिर्वादशधरोऽलिन्दको देवकोष्ठतः । भागिकः स च विज्ञेयो भित्तियुक्तस्ततोऽपरः ॥ ९३ ॥ अयं द्विभागियुक्तः प्राग्रीवैर्भागनिर्गमैः । तथा तृतीयोऽलिन्दः स्यात् समन्ताद् भित्तिवेष्टितः ।। ९४ ।। प्राग्रीवकैश्चतुःस्तम्भैः सप्रवेशैविभूषितः । भागिकी स्याद् बहिभित्तिरितरा तु धरैः समा ॥ ९५ ॥ इत्येष श्रीतरुर्नाम प्रासादः परिकीर्तितः ।
श्रीतसः ।। अस्यैव स्तम्भगर्भस्थ द्वितीयालिन्दभित्तिषु ॥ ९६ ।। षडदारूणि विधेयानि पूर्वरूपव्यवस्थितेः । द्वौ द्वौ प्राग्रीवको कार्यो तृतीयालिन्दका बहिः ॥९७ ॥ तौ च द्वि(भागान्तरितौ सर्वतो भागनिर्गतौ । एवं पञ्चांशता(?) स्तम्भैाभ्यां च परिवेष्टितः ॥ ९८ ॥ १. 'तो' क. ग. पाठः । २. 'ते' क, 'तैः' ख. पाठः ।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः । २६५ चतुःस्तम्भैः सप्रवेशैः समन्तादुपनिर्गमैः । प्रासादोऽयं समाख्यातो नामतः प्रमदाप्रियः ॥ ९९ ।।
प्रमदाप्रियः । भागविस्तारविष्कम्भमस्य प्राग्रीवकं यदा । भिन्नालिन्दाग्रतस्तिर्यग् द्वे शाले तन्मुखं शुभम्(?) ॥ १० ॥ द्वितीयालिन्दकस्थाने कर्णप्रासादकैर्युतः । एवं व्यामिश्रसंज्ञोऽयं प्रासादः परिकीर्तितः ॥ १०१ ।।
व्यामिश्रः । विजयस्यास्य च यदा कर्णलाङ्गलकैर्युता । भवेद् भित्तिस्तदा हस्तिजातीय इति कथ्यते ॥ १०२ ।।
हस्तिजातीयः । सीमामाग्रीवभूमीषु यदा स्युः पृथिवीजये । द्विभागाश्चाभितोऽलिन्दास्तिर्यशालामुखेषु च ॥ १०३ ॥
अलिन्दे पश्चिमा शाला सर्वा)शालोकना शुभा । षड्दारुकं तथैवात्र चतुर्भागायतं भवेत् ॥ १०४ ॥ पूर्ववत् सर्वमन्यच्च कुवेरः स तदा भवेत् ।
कुबेरः । प्रासादः कथ्यतेऽन्यश्च सम्प्रतीह धराधरः ॥ १०५ ॥ कुबेरोपत्तरोक्षिप्तः (१) कर्णप्रासादभूषितः । मध्यद्वारान्वितः श्रीमान् धराधर इति स्मृतः ॥ १०६ ॥
वसुधाधरः। यत्रोग्रतश्चित्रकूटस्तस्माद यः सर्वतोदिशम् । धराधरतदम्भास:(१) सर्वतोभद्र उच्यते ।। १०७ ।।
सर्वतोभद्रः । । कर्णप्राग्रीवको द्वौ द्वौ शालाप्राग्रीवका(अव)पि । स्यातां यदास्य प्रोक्तोऽसौ विमानाख्यस्तदा शुभः ॥१०८ ॥
विमानाख्यः। विमानपीठे निर्मुक्तः शालाभिः सर्वतो वृतः।
अन्योन्यशालासम्बन्धे विमानो न्यस्यते यदा ॥ १०९ ॥ १. वेदस्तितदा' ख. पाठः । २. 'तालम्' क. पाठः । ३. 'भा' क, ख, ग. पाठः ४. 'न्दो' ख. ग. पाठः । ५. 'थाप्रभश्चि', ६. 'नं', ७. 'कशा' क. पाठः।
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समराङ्गणसूत्रधारे कर्णप्रासादकोपेतः कोणैः शालोज्झितैर्युतः । तदा विमुक्तकोणः स्यात् प्रासादोऽत्यर्थशोमितः ।। ११० ॥
___ मुक्तकोणः । प्रासादाश्चतुरश्राः स्वैर्विशेषैर्वर्णिताः पृथक् । इदानीमभिधीयन्ते वृत्ताः स्वैः स्वैर्विशेषणैः ।। १११॥ तत्रादौ वलयाकारो वलयः स च कथ्यते । समन्ताद् वर्तिते क्षेत्रे चतुर्भागविभाजिते ।। ११२ ॥ कुर्यात् सारोहणं पीठं सार्धभागोच्छ्रितं शुभम् । परिक्षिप्तं गजमुखैर्मक(र?रा)स्याम्बुनिर्गतम् ।। ११३ ।। बहिर्भागसमोपेतस्तस्मिन् कार्यः सुरालयः । पादोनविस्तृतिनिद्वारोच्छ्रायविभूषितः ॥ ११४ ॥ तस्याष्टस्तम्भकोऽलिन्दो वहिर्वलय इत्यसौ । वृत्तच्छाधः सिंहकणस्तथा जालकरूपवान् ॥ ११५ ॥
। भूक्लयः । प्राग्रीवका(वृतः) स स्याद् यद्वा स्तम्भोच्छ्रयानतः। तेदेष * दुन्दुभिः प्रोक्तस्त्रिभिस्तैःप्रान्त उच्यते ॥ ११६ ॥ अयमेव चतुर्भिः स्यात् पद्मः प्राग्रीवकैः शुभैः। स्तम्भैश्चतुर्भिस्तस्यैव यदा पश्चान्निवेश्यते ॥ ११७ ॥ मध्यवृत्तो गर्भकोष्ठो भित्तिश्चोभयतः स्थिता । स कान्त इति विख्यातः प्रासादो वर्तुलाकृतिः ॥ ११८ ॥ चत्वारि वलयस्यैव यत्र द्वाराण्यलिन्दकः । स्याच्चतुर्विंशतिस्तम्भैद्धितीयो भागसम्मितः ॥ ११९ ।। प्राग्रीवकाश्च स्तम्भाभ्यां द्वाभ्यां द्वाभ्यां समन्विताः। चत्वारो यत्र स प्रोक्तः प्रासादोऽत्र चतुमुखः ॥ १२० ॥ अस्यैवैकं यदा द्वारं प्राग्रीवोलिन्दवेष्टितः। एक एव तथाचान्यः प्राग्रीवस्तस्य चौग्रतः ।। १२१ ॥ १. “ग्रीवको' ख. पाटः। २. 'तिद्विघ्न', ३. तदीयजा' क. पाठः । ४. च्छ्रयदयान्वितः', ५. 'तदेव दुख. पष्ठः। ६.'शयेत् 'क.ख.पाटः .. 'वा' क. पाठः।
लक्ष्ये लक्षणे च वलय इत्ययं पठितः । स्तम्भवयान्वितः इति पाठ: स्यात् । * इत आरभ्य तत्तत्प्रासादनामानि पृथक्तया मातृकायां न लिग्वितानि ।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः । २६७ ख्यातो माण्डूंक इत्येष वृत्तप्रासादसत्तमः (वृत्तः?)। दिकोणेषु यदास्यैव भवेत् प्राग्रीवकल्पना ॥ १२२ ॥ प्रासादोऽयं तदा कूर्मसंज्ञः स्यादपराजितः ।। कूर्मस्यैव यदा दिक्षु स्तम्भैरष्टाभिरष्टभिः ॥ १२३ ॥ प्राग्रीवकाः प्रकल्प्यन्ते चत्वारोऽलिन्दवेष्टिताः । प्राग्रीवकास्तियंगग्रे भवन्त्यन्ये तदतः ॥ १२४ ।। षोडशस्तम्भयुक्तस्य मध्यभागे यदा भवेत् ।। +जानीयादोषविज्ञेयाः प्राग्रीवहरितोत्तमः (१) ।। १२५ ।। इति वृत्ताः समाख्याताः प्रासादा नामलक्षणेः । चतुरश्रायतान् ब्रूमः प्रासादानिह साम्प्रतम् ॥ १२६ ॥ अष्टभागायते क्षेत्रे चतुरंशकविस्तृते । द्विभागसार्धभागैकभागोऽयं पीटें इष्यते ॥ १२७ ॥ पश्चिमं भागमुत्सृज्य देवकोष्ठं द्विभागिकम् । तस्मिन् निवेशयेत् सीमा स्यादस्याग्रेष्टभिधेरैः ।। १२८ ।। ससीनो देवकोष्ठस्य भागिकालिन्दको बहिः। युक्तो धराणां विंशत्या वेदिकाजालवेष्टितः ॥ १२९ ।। प्राग्रीवकस्य तस्याग्रे स्तम्भद्वितयभूषितः । द्विच्छाच्छादितः श्रीमान् सिंहकर्णैरलङ्कृतः ॥ १३० ॥ प्रासादोऽयं भवो नाम विशालः कथ्यतेऽधुना । यदास्यैव सनिष्क्रान्ते सीमायोमे च व(ध?धि)ते ॥ १३१ ॥ बलभ्यौ पार्श्वयो: स्यातां विशालाख्यस्तदा भवेत् । विशालस्य यदा गर्भे भित्तिर्भवति दिक्त्रये ।। १३२ ॥ १. 'न्द्र' क. ख. पाठः । २. 'कत्तः', ३. 'गैः । वृत्तपासादः । च' क. पाठः । ४. 'टमिथ्य' ख. पाठः । ५. 'योगे च' क. ख, पाठः । ६. 'त' क. पाठः।
इह कियांश्चिद् अन्धो गलित इस भाति, यतो वृत्तप्रासाद देषु लक्ष्ये परिगणितयोरुपान्त्ययोः तालीगृहोलूपीनामकयोर्लक्षणं न दर्शितम् , अत्र दृश्यमानस्य च श्लोकार्धस्य नार्थसामन्जस्यम् ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
द्वौ द्वौ गवाक्षौ चापि साम्मुख्यः स भवेत् तदा । प्राग्रीवास्त्रिदिशं तस्य गर्भकोष्ठायता यदा ॥ १३३ ॥ हित्वा वलभ्यt प्राग्री विधीयेते तथापरौ । कर्णेषु भागमेकैकं त्यक्त्वा स्यात् प्रभवस्तदा ॥ १३४ ॥ एतस्यैव मुखे स्यातां यदा माग्रीवकावुभौ । पार्श्वयोरपरौ द्वौ द्वौ प्राग्रीवौ भवतो यदा ॥ १३५ ॥ कर्णेषु भित्तयश्च स्युस्तदा स्याच्छिविरागृहः । यदास्यैव मुखे शाला भाग द्वितयविस्तृता ।। १३६ ॥ आयामेन च षड्भागा प्राग्रीरौ द्वौ तदग्रतः । द्वौ द्वौ गवाक्षकौ स्यातां तद्भिच्योरुभयोरपि ॥ १३७ ॥ सीमायां द्वादश स्तम्भा मुखशालस्तदा भवेत् । अलिन्दो भागिकः कार्यो विशालस्यैव बाह्यतः ॥ १३८ ॥ प्राग्रीवभूमिषु वृतो भिरया च सगवाक्षकः ।
अग्रतः सहितः स्तम्भैः षड्भिव क्रियते यदा ।। १३९ ॥ द्विशाल इति विख्यातः प्रासादो जायते तदा । यदास्यैव विधीयन्ते स्तम्भाः सर्वे समन्ततः ॥ १४० ॥
प्राग्रीवौ चोभयतो गृहराजस्तदा भवेत् । सर्वस्यैव (?) यदालिन्दः स्यादन्यो भागविस्तृतः ॥ १४१ ॥ सीमान्तविस्तृते स्यातां वलभ्य भागनिस्सृते । भित्तिर्विधीयते शेषा गवाक्षैरुपशोभिता ।। १४२ ॥ मुखे पड़दारुकं च स्यात् तदा स्यादमलाभिधः । एकादशायते क्षेत्रे तथा षड्भागविस्तृते || १४३ ॥ मुक्त्वा भागद्वयं पश्चाद् देवकोष्ठं निवेशयेत् । भागं मुक्त्वाग्रतः कुर्यात् सीमां भागचतुष्टयम् ॥ १४४ ॥ अष्टस्तम्भास्ततोऽलिन्दविंशतिस्तम्भभागिकाः ।
भागिकः परितोऽलिन्दोऽष्टाविंशतिधरोऽपरः ।। १४५ ॥
१. ‘ख्यात् स' २. ‘लाख्ये च बा', ३. 'चौ', ४. 'वि', ५. ' विस्तृते ' क. पाठः ।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः। २६९ द्विद्विस्तम्भयुताः कार्याः प्राग्रीवाः कोष्ठजास्त्रयः। सीमासमे वलभ्यौ च प्राग्रीवो मध्यतस्तयोः॥ १४६ ॥ द्विद्विस्तम्भौ पुरश्चान्यौ वेदिकाजालशोभितौ । वेदिकाजालरूपाठ्यः सिंहकोपशोभितः ॥ १४७ ॥ प्रासादोऽयं विभुर्नाम कथितो भर्तृनन्दनः । एवमेते समाख्याताश्चतुरश्रायता दश ॥ १४८ ॥ चतुरश्रायतांस्तिर्यगायत्याथापरानपि । प्रासादानभिधास्यामो नवसंस्थानलक्षणैः ।। १४९ ॥ द्वौ भागौ विस्तृतिर्गर्भे द्विगुणा तिर्यगायतिः। मध्ये भागोच्छ्रितं द्वारं तदर्धेन तु विस्तृतम् ।। १५० ।। स्तम्भैश्चतुर्भिः संयुक्ता सीमा द्वारस्य चाग्रतः । द्विभागायामविस्तारा तावन्मात्रसमुच्छ्रितिः ॥ १५१ ।। तां सीमां गर्भसहितां भागेनान्येन वेष्टयेत् । भित्तिस्तत्र विधातव्या सगवाक्षा चतुर्दिशम् ॥ १५२ ।। षड्दारुकयुतो ह्येष प्रासादो भव उच्यते । अस्येव भागनिष्कासा शाला मुखचतुष्टये ॥ १५३ ।। यदी षड्दारुकोपेता विशालः स तदोच्यते ।। स्तम्भैर्मुखेमुखे पभिर्वहिः साम्मुख्य इत्यसौ ।। १५४ ॥ अस्यैव सीमा कर्णस्था द्विद्विस्तम्भयुता यदा । प्राग्रीवैर्भागनिष्क्रान्ता बहिस्था प्रभवस्तदा ।। १५५ ॥ सीम्नोऽग्रतो यदास्यैव स्तम्भद्वययुतो भवेत् । प्राग्रीवो भागनिष्क्रान्तस्तदा स्याच्छिविरागृहः ॥ १५६ ॥ विशालसन्निवेशस्य मुखे शाला भवेद् यदा । पार्श्वयोश्चोभयोः शाले प्राग्रीवाश्च त्रयो यदा ॥ १५७ ॥ निष्क्रान्तभाग एकैकः स्तम्भद्वितयसंयुतः। 'प्रासादः स तदा ज्ञेयो मुखशालोऽभिधानतः ॥ १५८॥
१. 'त', २. 'न्ययप' क. पाठः ! ३. 'भाग', ४. 'ते', ५. 'हा', १. 'वभाग' ख. पाठः ।
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समराङ्गणसूत्रधारे
मुखशालाग्रशालाया यदा स्तम्भाश्चतुर्दश । प्राग्रीवो द्विविधवा द्विशालः स तदा भवेत् ॥ १५९ ॥ ६ भित्तिस्तदार्नी (१) प्रासादो गृहराजः प्रजायते । गर्भायामसमावग्रपृष्ठयोर्भागविस्तृतौ ॥ १६० ॥ ageतुर्धरौ यत्र प्राग्री द्वौ च पार्श्वयोः । aौ तु द्विद्विधरौ गर्भविस्तारेण तु सम्मितौ ॥ १६१ ॥ अमलो नाम स प्रोक्तः प्रासादः शुभलक्षणः । अस्यैव चाग्रे पृष्ठे च द्विद्विस्तम्भयुतौ यदा ।। ६२ ।।
प्राग्रीवौ स तदा प्रोक्तः प्रासादो दशमो विभुः । प्रासादान् कथयामोऽन्यान् दश वृत्तायतान् पुनः ॥ १६३ ॥ अष्टभागमुखायत्या विस्तृत्या चतुरश्रकम् । वृत्तायतं प्रकुर्वीत सबाह्याभ्यन्तरं ततः ।। १६४ ॥ गर्भ पश्चिमभागेऽस्य चतुर्भागं समन्ततः । कुर्यात् तस्याग्रतः सीमां भागद्वितयविस्तृताम् ॥ १६५ ॥ भागत्रयमितां भागेनैकेनान्तरितां च ताम् । संयुक्तामष्टभिः स्तम्भैः सुदृढैश्चारुदर्शनैः ॥ १६६ ॥ अलिन्देन परिक्षिप्तां ससीमां देवकोष्ठकम् । षोडशस्तम्भयुक्तेन कुर्यात् प्राग्रीवमग्रतः ।। १६७ ।। छन्नाश्छायद्वयेनायमामोद इति कीर्तितः ।
वृत्तायतेषु प्रथमः प्रासादः स्वामिनो हितः ।। १६८ ।। समाहितौ यदास्यैव प्राग्रीवौ भागमिश्रितौ । चतुःस्तम्भै रैतिस्तु वृत्ताभ्यां तुङ्ग उच्यते ॥ १६९ ॥ यदा सीमावधिर्भित्तिर्गवाक्षैरुपशोभिता ।
वृत्तमाग्रीव एकोऽन्ये (?) तदा चारूरुदाहृतः ॥ १७० ॥ सीमामध्ये विधातव्यौ प्राग्रीवौ भागविस्तृतौ । विस्तारसदृशायामौ दक्षिणेति (?) त्रिषु त्रयः ॥ १७१ ॥
हापि कियचिद् ग्रन्थो गलित इव । इतः श्लोकयात् प्रागेष क. पुस्तके पत्राणि आचतुष्पञ्चाशाध्यायैकदेशं लुप्तानि । ग. ग्रन्थस्तु पुरैवावसितः ।
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रुचकादिप्रासादलक्षणं नामैकोमपञ्चाशोऽध्यायः । २७१ कार्याः प्राग्रीवकास्ते च गर्भकोष्ठेन सम्मिताः । भूतिरित्येष (सं)पोक्तः प्रासादः शुभलक्षणः ॥ १७२ ।। मुखायता स्याच्चतुरो भागान्यत्तिर्यगायतान् (१)। क्षेत्रवृत्तं ततः कुर्यात् तन्मध्ये गर्भवेश्म च ॥ १७३ ॥ चतुर्भागायतं तत् स्याद् भागद्वितयविस्तृतम् । अलिन्दो वाहतस्तस्य द्वादशस्तम्भसंयुतः ।। १७४ ।। भागद्वितयविस्तारः प्राग्रीवश्चशिनिर्गतः। निषे(ध इति विश्वक इति) ख्यातः प्रासादोऽयं पुरातनैः।। १७५ ॥ यदा(१) निषेधः स्यादस्य पुरः प्राग्रीवको यदि । चतुरिपरिक्षिप्तोऽलिन्देनाष्टधरेण वा ॥ १७६ ॥ अयमेवांशकेन स्याद् यदालिन्देन वेष्टितः । मुखभागत्रयं मुक्त्वा भित्त्या च परिवेष्टितः ।। १७७ ।। यदा च कर्णप्राग्रीवौ प्राग्रीवश्चाग्रतो भवेत् । विशेषरचना या च द्वाविंशतिधरान्विता(?) ॥ १७८ ! गवाक्षः शोभनैर्युक्तस्तदा सिंहः प्रकीर्तितः।। द्वादशांशायते क्षेत्रे तथा षड्भागविस्तृते ॥ १७९ ॥ पश्चादंशद्वयं त्यक्त्वा द्विभागायामविस्तुतः । देवकोष्ठो विधातव्यस्तद्वारं भागमुच्छ्रितम् ॥ १८० ॥ सीमाग्रे सान्तरा यंशविस्तृता चतुरायता । अष्टस्तम्भोऽस्य गर्भो वै षोडशस्तम्भको बहिः ॥ १८१ ।। अलिन्दस्तस्य पुरतो वृत्तप्राग्रीवकोऽपिच सीमाप्राग्रीवकालिन्दकोष्ठान् वृत्तान् प्रकल्पयेत् ॥ १८२ ॥ माग्रीवौ पार्श्वयोः सीमासमा भागविनिर्गतौ । द्वाभ्यां द्वाभ्यां युतौ ज्ञेयो स्तम्भाभ्यां वर्तुलाकृती ॥ १८३ ॥ एतत्सर्वं विधातव्यमलिन्देनाभिवेष्टितम् । चतुर्विंशधरोऽयं च भागिकोस्य प्रशस्यते ॥ १८४ ॥ द्विस्तम्भयुक्तान् प्राग्रीवान् कुर्याद गर्भस्य दिक्त्रये । एवमेष समाख्यातः प्रासादः सुप्रभः शुभः ॥ १८५ ।।
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समराङ्गणसूत्रधारे भागद्वितयविस्ताराः प्राग्रीवा येऽस्य कीर्तिताः । चतुरश्रास्त एव स्युद्विाद्वस्तम्भयुता यदि ॥ १८६ ॥ शेपा भवति भित्तिश्च गवाक्षरुपशोभिता । प्रासादोऽयं तदा शेषो दशमा लोचनोत्सवः ॥ १८७ ॥ अष्टाधानथ वक्ष्यामः प्रासादाल्लक्षणः सह । चतुभांगान्विते क्षेत्रे तथाष्टाश्रीकृते पुनः ॥ १८८ ।। द्वौ भागो गर्भकोष्ठः स्यादलिन्दा भागिकस्तदा। . स्तम्माष्टकमलिन्दे स्यात् प्राग्रीवस्तस्य चाग्रतः ॥ १८९ ॥ द्विच्छाद्य(श्छा१च्छा)दितः श्रीमान् प्रासादो वज्रको भवेत् । अस्यैवाग्रे यदा सीमा चतुरश्रा चतुर्धरा ॥ १९ ॥ स्थाबतुनिभतिस्तम्भश्वालिन्दो भागिकोऽपरः । नन्दनोऽयं समाख्यातः शकुः प्राग्रीवकैत्रिभिः ।। १९१ ।। तम्ण भितिर्विधातव्या क्षेत्रेष्टाश्रियुते बुधैः । वामन(च?स्य) पुनद्वद्विौ गवाक्षा दिक्त्रये मतौ ॥ १९२ ॥ अस्यैवाने यदा सीमाभागाद् भागत्रयायता। द्विभागं विस्तृता यंशसमुच्छेदाप्टभिधेरैः(१) ॥ १९३ ॥ अलिन्दावेष्टिता युक्ता प्राग्रीवैर्मेखला तदा । भित्तिक्षेत्र यदास्यैव प्राग्रीवाः परिवेष्टिताः ॥ १९४ ॥ अलिन्देन धरैः पभिः षडभियुक्तास्तदा लयः। अष्टभागमिते क्षेत्रे कृतेऽष्टाश्रिणि सर्वतः ॥ १९५ ॥ भागद्वयमितं कुर्याद् देवकोष्ठं मनोरमम् । चतुर्भिः शोभितं द्वारैर्भागिका(लिन्दवेष्टितम्) ॥ १९६ ।। अलिन्दस्य विधातव्याः स्तम्भाश्चाष्टौ ततोऽपरः। स्याच्चतुर्विंशतिस्तम्भो भागिकोलिन्दकः पुनः ।। १९७ ॥ तथाविधस्तृतीयोऽपि प्राग्रीवाश्च चतुर्दिशम् । प्रासादोऽयं महापमो ब्रह्मणः शङ्करस्य च ॥ १९८ ॥ $ इहानुक्रमो व्यत्यस्तः । लक्ष्ये तु मेखल इति पठितः ।
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प्रासादशुभाशुभलक्षणं नाम पञ्चाशोऽध्यायः। २७३ द्विती(यो?ये)ऽलिन्द(कीके)ऽस्यैव प्राग्रीवाः स्युश्चतुर्दिशम् । अलिन्देन परिक्षिप्तो हंस एष प्रकीर्तितः ॥ १९९ ॥ प्राग्रीवोऽस्य महापद्यस्यालिन्देनावृतो यदा।। कर्णमाग्रीवको द्वौ द्वौ व्योमसंज्ञस्तदा भवेत् ॥ २०॥ हंसस्यैव वलभ्यः स्युः प्राग्रीवाणां पदे यदा । चतुःस्तम्भाः परिक्षिप्ता अलिन्देन चतुर्दिशम् ॥ २०१॥ तदा चन्द्रोदयो नाम प्रासादो जायते शुभः। एवमेषां चतुष्पष्टिः प्रासादानामुदाहृता ।। २०२ ॥ इति सुरभवनानां सप्ततिदोरवाणामिह सदनचतुष्केणान्वितेयं प्रदिष्टा । जनमयमवकोशानन्दशुभ्रांशुलेखा (१) भवति सुविदितैषा शिल्पिना कामधेनुः ॥ २०३ ॥ इति महागजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे रुचकादिचतुष्षष्टिप्रासादलक्षणं नामैकोनपञ्चाशोऽध्यायः।
अथ प्रासादशुभाशुभलक्षणं नाम पञ्चाशोऽध्यायः।
प्रासादानामथ ब्रूमो लक्षणानि भवन्ति ये । प्रशस्तावाप्रशस्ताश्च तस्मिन्नवनिमण्डले ॥१॥ ये समाः समकर्णाश्च समस्तम्भाः समक्षणाः । नैवोच्चा नातिहस्वाश्च कर्णायामादविहलाः ॥२॥ असंमृदा विभागेन प्रमाणेन सुसंस्थिताः ।। ऊर्धाधः कर्णपादीभिरुपेताः सलिलान्तरैः ॥३॥ असङ्कीर्णोदयैश्छायैः स्वमानपरिकल्पितैः। सुविभक्ताः सुसंस्थाश्च रम्यैरविकलैः कृताः ॥ ४॥ समभागविभक्तैश्च युक्ताश्चालिन्दकैः समैः। स्वजातिपरिवेषाद्या नान्यजातिप्रदूषिताः ॥ ५ ॥ असङ्कीर्णाः शरीरेण संस्थानेन सुसंस्थिताः ।। केवला जातिशुद्धाच प्रासादा। शुभदा नृणाम् ॥ ६॥
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२७४
समराङ्गणसूत्रधारे सुदृढेमूलपादश्च दृढाश्चामूलमस्तकम् । नाघरोत्तरयुक्ताश्च सुश्लिष्टद्रव्यसन्धिभिः ॥ ७॥ दे(व?श)जातिप्रसिद्धश्च भूषणः सुविभूषिताः । प्रासादाः शुभदा नित्यं पूजासंस्कारवर्धनाः ॥ ८ ॥ कर्ता कारयिता चैषां परां वृद्धिमवाप्नुयात् । अधमानपि वक्ष्यामः प्रासादानवलक्षणः ।। ९ ॥ विषमाः कर्णहीनाश्च क्लेशवन्धभयावहाः । स्तम्भैः क्षणैश्च विषमैः स्वामिनो मृत्युहेतवः ॥ १० ॥ अत्युच्चैः स्याद भयं राज्ञो ह्रस्वः सेना च मथ्यते । कर्णायामेन विकलाः प्रासादाः स्युभेयङ्कराः ॥ ११ ॥ विभागेन विहीनास्तु दारिद्मभयदाः स्मृताः। नष्टाभिः कणेपादीभिरुद्वेगजनना तृणाम् ।। १२ ।। छायैः सङ्कीर्णकैहीनेः कुलक्षयकराः स्मृताः ।। दुर्विभक्ताः कुसंस्थाश्च व्यर्विकलसंयुतैः ।। १३ ॥ रोगं क्लेशं च मृत्युं च क्रमशो वितरन्ति ते । विषमैर्भागहीनेश्चाप्यलिन्देव्याधितो भयम् ॥ १४ ॥ पराजयं परिवृतैरन्यजातिप्रदूषितः । ये परातयो येऽन्यसङ्कीणा येऽज्यविग्रहाः ॥ १५ ॥ कर्तुः कारयितु ते नन्दका वापि चात्मनः ।। दुर्बला मूलपादेन विश्लिष्टैः पीठसन्धिभिः ॥ १६ ॥ अल्पायुषस्ते प्रासादा भवन्ति च भयावहाः । अधरोत्तरगैः श्लिष्टेविज्ञेया व्याधिकारिणः ॥ १७ ॥
अदेशैभूषणैर्युक्ताः प्रासादा न सुखावहाः । ये कीर्तिमिच्छन्ति जयन्ति भूतान् कुर्युः शुभैलक्ष्मभिरन्वितांस्ते। प्रासादमुख्यानितरे तु वास्तेजोयशःश्रीविजयादिकामैः ॥ १८ ॥ इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनानि वास्तुशास्त्रे
प्रासादशुभाशुभलक्षणं नाम पञ्चाशोऽध्यायः ॥
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२७५
आयतननिवेशो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः । अथायतननिवेशो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः ।
एवं नृपस्य प्रासादे कृते क्लुप्तेऽथवा भुवि । तस्यानुजीविनः कुर्युः प्रासादान् परिधौ यदि ॥१॥ तदा दिग्भागविन्यासस्थानमानान्यनुक्रमात् । तेषामिहाभिधीयन्ते सर्वेषां वृद्धिहेतवे ॥२॥ दशाष्टौ पद च धनुषां शतानि क्ष्माभृतां क्रमात् । मानमायतनस्योक्तं त्रेधा श्रेष्ठादिभेदतः ॥३॥ क्षेत्रमायतनस्यैवं चतुरश्रं समन्ततः। तत्र भक्ताः प्रकुर्वी स्त्रिधा स्वे स्वामिवत्सलाः ॥४॥ ये चास्य सम्मताः केचित् कुले जाता हितैषिणः । द्वादशांशेन हीनानि क्रमात् तान्यनुजन्मनाम् ॥ ५ ॥ तस्यैव वामतः कुर्यादुत्सेधाद् द्विगुणान्तरे । कुर्याद दशांशहीनानि नेऋत्यां दिशि भूपतेः ॥ ६ ॥ प्रासादान्नृपपत्नीनां सर्वासामपि शास्त्रवित् । अष्टभागेन हीनानि प्रतीच्यां दिशि कारयेत् ॥ ७॥ देवधिष्ण्यानि तन्त्रैः स्यात् स्वसुराणां विधानतः(?) । सौम्याया मारुती यावनवांशापचिताः क्रमात् ।। ८ ॥ प्रासादा मन्त्रिसेनानीप्रतीहारपुरोधसाम् । एतेषां पूर्वभागस्थं राजमातुर्निवेशनम् ॥ ९॥ हीनमेकादशांशेन तत् कार्य राजकारिता(?)। ऐशीमाश्रित्य देवानां तुल्यमैन्द्रपदावधि ॥ १० ॥ स्वसृणां मातुलानां च कुमाराणां तथा क्रमात् ।
आग्नेय्यां द्विजमुख्यानां विधातव्यं निवेशनम् ।। ११॥ कार्यः पुरोधःप्रासादः तुल्यतत्पुनरेव वा(?)। याम्यायां कुयुरष्टांशहीनान्युर्वीशमन्दिरात् ।। १२ ।। सामन्तकुञ्जरारोहभटपौरजनाः क्रमाद ।। एतान्यायतनान्येषां यथाभागं प्रकल्पयेत् ॥ १३ ॥
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२७६
समराङ्गणसूत्रधारे
मर्मवेधप्रदेशस्थान् द्वारवेधगवानपि ।
स्वस्थानान्तरितचैतान् न कुर्याद्धितकाम्यया ॥ १४ ॥
अलिन्दैर्गर्भकोष्ठैव सीमास्तम्भगवाक्षकैः । द्वारद्रव्यतलोच्छ्रायैः प्राग्रीवैः सिंहकर्णकैः ॥ १५ ॥ न कुर्याद् भूषणैस्तुल्यं समं वास्थंदरूपतः (१) । समरूपं भवद्धर्म्यं निर्युक्तं च न नन्दति ॥ १६ ॥ राजपीडा भवेत् तस्मिन्नाधिक्ये च कुलक्षयः । प्रासादाद् भूमिपालस्य निवेशं परिधौ स्थितम् ॥ १७ ॥ द्रव्येण कतरेणापि नोत्कृष्टं कारयेद् बुधः । संस्थानान्मानवश्वापि विस्तारेणोच्छ्रयेण वा ॥ १८ ॥ पूर्वोक्तेभ्यो विभागेभ्यः किञ्चिद्धीनतमः शुभः । अन्योन्यं द्विगुणच्छाद्यैरे कैकस्यान्तरं शुभम् ॥ १९ ॥ सुभोग्यं तं च कुर्वीत बहुभिर्भवनान्तरैः । कोष्ठिका भोजनागरैर्भाण्डोपस्करधामभिः ॥ २० ॥ शिलालूषात (?) शालाभिः शेषं तु परिपूरयेत् । प्रशस्तान् कारयेत् सर्वाम् शुभरूपान् मनोरमान् ॥ २१ ॥ प्रायशः स्वालयांश्चान्यान् सर्वस्यान्यगृहाणि च । नरेन्द्रायतनस्यैव निवेशात् परिकल्पयेत् ॥ २२ ॥ अन्यथात्वे महादोषा वैपरीत्ये कुलक्षयः । इति कथितदिगादिभेदयोगैः
सुरभवनानि भवन्ति यस्य राज्ञः । अविरतमुदितोदितप्रतापः
१
स्वजजितां स चिरं प्रशास्ति पृथ्वीम् ॥ २३ ॥
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे आयतननिवेशो नामैकपञ्चाशोऽध्यायः ॥
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प्रासादजातिर्नाम द्विपञ्चाशोऽध्यायः ।
अथ प्रासादजातिर्नाम दिपञ्चाशोऽध्यायः ।
२ ॥
अवतारो निवेशानां विधानं वास्तुनो यतः । कात्स्न्येन ततो ब्रूमः सभ्यस्य प्रसवोत्तमः (१) ॥ १ ॥ कुलजातिक्रमाणां च क्रमं दीर्घाल्पजीविनाम् । संस्थानमभिधास्यामो लक्ष्यलक्षणमेव च शुभाशुभानां वैराजमादिं तेषां प्रचक्षते । पूर्वोक्तस्य विमानस्य तस्यातो लक्ष्म कथ्यते ॥ ३॥ वैराजस्य यथाकारव्यवस्थानमशेषतः । चतुरश्रं समं क्षेत्रमशीत्यंशैर्विभाजयेत् ॥ ४ ॥ संयुक्तमष्टभिर्भागैः कुर्याद् गर्भगृहं शुभम् । द्विपञ्चाशद्धरैः सीमा गर्भकोष्ठसमन्विताः || ५ | द्वात्रिंशता देवकोष्ठैः सर्वैरेकान्तरैश्च तैः । बाह्यस्थाने ततः स्थानाद् द्वादशक्षोभणैर्धरैः ॥ ६ ॥ हेमरत्नमयैः स्तम्भैः शुक्रूपट्टेश्च भूषितैः । शुक्लालङ्कारखचितैर्वितानैश्च विभूषणैः ॥ ७ ॥ स्फाटिकैर्विविधैर्जालैः सहरिन्मणिवेदिकैः । हंसकर्णकपोतालीतिर्यक्स्थाल्यर्धकर्णिकैः ॥ ८ ॥
पर्यन्तदेशधृतया गर्भस्योपरि घण्टया । लोकनाथेन तत् सृष्टमाद्यं वैराजसंज्ञितम् ॥ ९ ॥ तस्मात् स्वस्तिकसंज्ञः माग गृहच्छन्दो विजायते । : चतुश्शालस्त्रिशालच हिरण्यौकस्त्वतोऽपिच ॥ १० ॥ सिद्धार्थको द्विशालः स्यादेकशालस्तु कुम्भकः । सृष्टमन्यद् विमानं च वरं वीरं चतुर्मुखम् ॥ ११ ॥ गणानां देवतानां च स्कन्दस्य च यथाक्रमम् । मासादा द्वादशैतेऽन्ये जज्ञिरे शुभलक्षणाः ॥ १२ ॥ स्वस्तिकः श्रीरुचैव तृतीयः क्षितिभूषणः । भ्रूजयो विजयो भद्रः श्रीकूटोष्णीषसंज्ञितौ ॥ १३ ॥
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समराङ्गणसूत्रधारे नन्द्यावर्तो विमानश्च सर्वतोभद्र एव च । विमुक्तकोणप्रासाद इति वैराजसंभवाः ॥ १४ ॥ एकैकस्मात् क्रमेणैवमेकैकः समजायत । स्वस्तिकाद् रुचको ज्ञेयः श्रीतरोः सिंहपञ्जरः ॥ १५ ॥ क्ष्माभूषणात् तु शाला स्याद भूजयाद् गजयूथपः । विजयादवतंसश्च भद्रान्नन्दी विनिर्गतः ।। १६ ।। श्रीकूटाचित्रकूटाख्य उष्णीपात् प्रमदाप्रियः । व्यामिश्रो नन्दिकावर्ताद विमानाद्धस्तिजा(व?ति)कः ॥१७॥ कुबेरः सर्वतोभद्रान्मुक्तकोणाद् धराधरः। एतेभ्योऽपि च संभूताः कनीयांसोऽभिधानतः ॥ १८ ॥ तद्भेदास्ते तदाकारैर्लक्ष्याः स्वैः स्वैः पृथग्विधैः । भागैस्तेषूत्तमैः पूर्वान् मध्यमान् मध्यमैस्तथा ॥ १९ ॥ कनीयसः कनीयोभिः प्रासादानुपकल्पयेत् । शिखरैरपरैः श्लिष्टाः प्रासादा जज्ञिरे ततः ॥ २० ॥ प्रथमो रुचकस्तेषु द्वितीयो वर्धमानकः । अवतंसस्तृतीयस्तु चतुर्थो भद्र उच्यते ॥ २१ ॥ पञ्चमः सर्वतोभद्रः षष्ठः स्यान्मुक्तकोणकः । मेरुमेन्दर इत्यष्टौ विज्ञेयाः शिखरोत्तमाः ॥ २२ ॥ चतुरश्राः समाख्याता देवानामालयाः शुभाः । एते ते वंशजाः सर्वे निवेश्या ब्रह्मजातयः ।। २३ ॥ वैराजकुलसंभूताः प्रासादाः परमोत्तमाः। एतेभ्योऽन्येऽपि संभूताः पुत्रपौत्रप्रपौत्र(य?जा): ॥ २४ ॥ स्ववंशाः सुपरीवाराः परवंशविवर्जिताः। . कर्तव्या भूतिकामेन तेजसा शुभलक्षणाः ॥ २५ ॥ नन्दका वर्धनाश्चैव सर्वकामफलप्रदाः । हृष्टपुष्टजनाकीर्णाः पूजासंस्कारवर्धनाः ।। २६ ॥ यदि हीना भवन्त्येते परवंशेन दूषिताः । तदुद्वेगं नृणां नित्यमर्थनाशं कुलक्षयम् ॥ २७ ॥
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जघन्यवास्तुद्वारं नाम त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ।
पीडां च स्वामिनः कुर्युर्यदन्यदपि गर्हितम् । तस्मादेते विधातव्या दूषिता नान्यजातिभिः ॥ २८ ॥ इति वैराजजातानामुत्पत्तिः परिकीर्तिता । वैराजजन्मनुरसद्मपरम्परेय
मुक्तैवमत्र शुभलक्ष्मवती समासात् । आनन्दकीर्त्तिधनधान्यकरी कुता स्यादन्यादृशी पुनरनर्धफलैव कर्तुः
॥ २९
इति महाराजाधिराजश्री भोजदेवविरचिते समगङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्र
प्रासादजातिर्नाम द्विपञ्चाशोऽध्यायः ॥
२९॥
२७९
अथ जघन्यवास्तुद्वारं नाम त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ।
मो जघन्यवास्तूनां द्वारमानमतः परम् । विस्तारं सतलोच्छ्रायं द्रव्यव्यासविधिं तथा ॥ १ ॥ कथिता ये निराधाराः प्रासादास्तिर्यगायताः । तेषां भागचतुष्केण गर्भवासं विभाजयेत् || २ || द्वारं सार्धेन भागेन कुर्वीत स्वार्थविस्तृतम् । द्वारविस्तारपादेन पेद्याया विस्तृतिर्भवेत् || ३ || विस्तारार्थेन पिण्डः स्यात् तत्समः स्यादुदुम्बरः । सार्धमूलादुम्बरकः (?) शाखा व्यासवशाद् भवेत् ॥ ४ ॥ चतुर्विधव कर्तव्यः पेद्यापिण्डः प्रमाणतः । शाखा तु पेद्यापिण्ड (अस्य) विस्तारेण विधीयते ॥ ५ ॥ शाखाविस्तारतो रूपशाखा स्यात् सार्थविस्तृतिः । अर्धे पेद्यापिण्डस्य खल्वशाखा विधीयते ॥ ६ ॥ रूपशाखासमाः कार्या विस्तारात् तुङ्गशाखिकाः । तुमाया वाह्यतः शाखाः क्रियन्ते यास्तु काश्चन ॥ ७ ॥ अशाभ्यधिकाः सर्वाः कर्तव्या विस्तरेण ताः । द्वारस्यायामविस्तारयोगात् सङ्ख्या भवेत् तु या ॥ ८ ॥
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२८०
समराङ्गणसूत्रधारे
तलोदयस्य तन्मानं गर्भमण्डपयोः समम् । यदि भिनलं कर्तुं मण्डप : कवि हीयते ( ९ ) ॥ ९ ॥ द्वारोच्छ्रिते तद्गुणानां मण्डपे स्यात् तलोच्छ्रितिः । प्रासादेषु कनीयस्सु तलमानमुदाहृतम् ॥ १० ॥ षड्भागाभ्यधिकं ज्येष्ठे मध्येऽष्टांशाधिकं ततः ।
विधि: ( 3 ) समपदः प्रासादस्य विधीयते ॥ ११ ॥ नाधस्तात् स प्रयोक्तव्यो नोर्ध्वतश्राप्युदुम्बरात् । कुम्भिका भरणपट्टजयन्तीशीर्षकायफलकेषु तुला (नाम्) । उक्त(मान)मिह यत् प्रथमं तन्नाधिकं प्रविदधीत न हीनम् ॥१२२॥
इति महाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गणसूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे जघन्यवास्तुद्वारं नाम त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ॥
अथ प्रासादद्वारमानादि नाम चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः ।
इदानीमभिधास्यामः प्रासादानां यथाक्रमम् । द्रव्येषूदयविस्तारं बाहल्यं परिधिं तथा ॥ १ ॥ प्रासाद भागिकोत्सेधं प्रासादद्वारमिष्यते । स(त्र्यं त्रियं) शोच्छ्रितं वापि साधशोच्छ्रयमेव वा ॥ २ ॥ स्वीयस्वीयोदयादर्धविस्तारं च तदिष्यते । विस्तृतिर्भागतुर्यांशात् पेद्यायाः स्थौल्यमर्धतः ॥ ३ ॥ पेद्याबाहल्यविस्तीर्णा शाखा भवति मानतः । उत्तराङ्गानि कुर्वीत पेद्याशाखासमानि तु ॥ ४ ॥ सपादपेद्याविस्तारा रूपशाखा विधीयते । रूपशाखान्वितः कार्यः पीठबन्धस्तथोपरि ॥ ५ ॥ वृत्तं कार्यमधोवृत्ते पत्रकै निरन्तरम् । स्तम्भाचं द्विगुणव्यासं भरणं भूषणान्वितम् ॥ ६ ॥
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प्रासादद्वारमानादि नाम चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः । २८१
रूपशाखासमं तच्च कर्तव्यमतिसुन्दरम् । ऊर्ध्व समन्ताचाष्टांशमात्रे तच्चतुरश्रकम् ॥ ७॥ तदूर्ध्व भरणोच्छ्रायः स्यात् पादोनसमुच्छ्रितिः । surentresशीर्षगर्भः : स च विधीयते ॥ ८ ॥ सरथालयपत्रो वा स्वोदयार्धविनिर्गमः । तस्योपरिष्टात् कर्तव्यं स्यादुच्छालयपत्रकम् (१) ॥ ९ ॥ रथिका (तु) विधातव्या द्वयोरप्युच्छ्रितिस्तयोः । सार्धप्रमाणभरणाद् भूषा स्यात् पुष्पकादिभिः ॥ १० ॥ रूपकैर्वा यथाशोभं स्तम्भिकाभिश्च सर्वतः । कण्टको त्रिभागोन (१) कूटाकारं भवेदतः ॥ ११ ॥ विभूषितं सिंहचक्रैर्हस्तितुण्डैरथापि वा । कपोतादि विधातव्यमन्तरे रूपशाखयोः ॥ १२ ॥ कार्यं विषमसंख्यं च सर्वमेतद् विचक्षणैः । तस्माद वहिर्विधातव्या सर्वतः परिमण्डली ॥ १३ ॥ अन्त्यशाखासमा सा च प्रमाणेन विधीयते । तस्यां सद्वारशाखायां (प्रा) यशः पद्मपत्रिकाः ॥ १४ ॥ कार्या(or afar द्वार) शाखायास्तद्विस्तारसमुच्छ्रिताः । भवेदधस्तादर्थेन ग्रीवाया रसना तथा ।। १५ । ग्रीवया साया तुल्यमन्तरं पत्रकाण्यधः । भागद्वयं प्रकुर्वीत जङ्घा त्र्यंशा ततोऽप्यधः ॥ १६ ॥ पेद्यापिण्डप्रमाणेन खल्वशाखा विधीयते । पेद्यापिण्डसम बाह्यशाखान्यासः प्रकीर्तितः ॥ १७ ॥ क्रमेणानेन कर्तव्याः शाखीः स्वल्पा यदृच्छया । न नवभ्यः परं कार्या द्वारशाखाः कथञ्चन ॥ १८ ॥
निर्गमो वा प्रवेशो वा विस्तारेण समन्वितः । पेद्याया यदि वार्धेन शाखानां स विधीयते ॥ १९ ॥ १. 'वि', २. खास्तत्रय', ३, 'वा सवि', ४. ' संमितः ' ख. पाठः ।
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२८२
समराङ्गणसूत्रधारे सार्धपेद्यापिण्डसमः पिण्डस्योदुम्बरो भवेत् । तलन्यासस्तदर्धेन भूमिर(ङ्गा च?ङ्गाश्च) तत्समाः ॥ २० ॥ उदुम्बरकपिण्डस्य मानात् सिंहमुखानि च । उदुम्बरात् पादहीनस्तुल्यो वाभ्यधिकोऽथवा ॥ २१ ॥ पटैस्य पिण्डस्त्रिविधो विस्तारात् स्तम्भतोऽधिकः । भागपादसमस्तम्भो द्वादशांशं प्रपीडितः ॥ २२ ॥ भागद्वये च कर्तव्यो रूपलक्षणसंयुतः । चतुष्पष्टिप्रकारोऽयं नानारूपप्रपञ्चतः ।। २३ ॥ स्तम्भविस्तारविस्तीर्ण पिण्डे तत्पादवर्जितम् ।। विस्तारात् त्रिगुणं दैाद्धीरग्रहणमिष्यते ॥ २४ ॥ प्रविष्टौ स्तम्भमाने स्तः कुम्भिकोत्कालको सदा । तलपट्टसमं पट्टमुत्तरं परिकल्पयेत् ।। २५ ॥ (ती?ही)रं तस्य त्रिभागेन समुत्सेधाद विधीयते । किञ्चिद् विनिगेतं पट्टाद् यथाशोभं प्रकल्पयेत् ॥ २६ ॥ अत ऊर्ध्वं यथाशोभं कण्ठकेंनासनेन च । रथकैश्चित्ररूपैश्च कूटागारैः सतोरणः ॥ २७ ।।
अलिन्दे मण्डपे वापि चतुष्के वलभीपु वा । वितानानि विचित्राणि समुक्षिप्ततलानि च ।। २८ ।। लक्षणेन च युक्तानि विदधीत यथोचितम् । लुमाः फलकवर्तीभिः कृताः समभिदध्महे ॥ २९ ॥ उत्क्षिप्तानां च ये भेदा जायन्ते सर्ववास्तुपु । तुम्बिनी लम्बिनी हेला शान्ता कोला मनोरमी ॥ ३० ॥ आध्माता चेति सप्तैता नामतः कथिता लुमाः । चतुरश्रीकृते क्षेत्रे कान्ते भूमितले शुभे ॥ ३१ ॥ मूत्रं क्षेत्रसमं कृत्वा कर्णात कर्ण विभाजयेत् । विन्यस्येद् गर्भमूत्राणि तयोमध्यगतानि च ॥ ३२ ॥ १. 'र्धा' ख. पाठः। २. 'मा', ३. 'ह' क. पाटः । ४. 'रस्त, .. 'दः' इत्र, पाठः । ६. 'नी', ७. 'को' क. पाठः । ८. 'न' ख. पाठः । १. 'माफ', ५०. 'ता स' क. ख. पाठः । ११. सचिनी', १२. 'मा:', १३. 'पूर्व का' ख. पाठः।
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प्रासादद्वारमानादि नाम चतुप्पञ्चाशोऽध्यायः । २८३ भूयश्वान्यानि मध्येषु सूत्राणि विनिवेशयेत् । मध्ये वृत्तं समालिख्य तुम्बिका कमलोपमा ।। ३३ ॥ कार्या भागीकृतं तत्र वृत्तं क्षेत्रे प्रवर्तयेत् । मूत्रे मूत्रे तु पिण्डस्थां लुमी मूत्रेण वालिखेत् ।। ३४ ॥ लुमान्तरेषु सर्वेषु वैकंट्येन घुषीकृतम् । तयोरन्तरयोर्मध्ये लुमामूले विकर्करम् ॥ ३५॥ द्विगुणं त्रिगुणं वा स्यात् ततश्च वलिनी लिखेत् । व्यासानोदयश्चेह कर्तव्यस्तत्र मण्डले ।। ३६ ।। सम्पातात् तलसूत्राणां तुम्बिका चोर्ध्वमूत्रिता । उदयस्तलमूत्रस्य तुम्बिकायास्तथान्तरम् ।। ३७ ॥ पूर्वसूत्रे लुमाग्रेषु कण्टकान् कल्पयेद् ऋजून् । बहिस्थानेषु चान्तेषु लक्षं कुर्यात् सुनिश्चितम् ।। ३८ ।। लक्षं गृहीत्वाधःसूत्र ऊर्ध्वमूत्राणि लक्षयेत् । उदये कण्टकस्यान्ते तद्वदेवानुसन्ततम् ॥ ३९ ॥ दापयेदुत्तरं मूत्रं लुमानां खल्वकानि च । पिण्डव्यासं वलीनां चाप्येषु क्षोभणविस्तृती ॥ ४० ॥ लुमा कर्णगता या स्यादाध्माता सा प्रकीर्तिता । छेदे प्रवर्तितान्या स्यात् किश्चिदूना मनोरमा ॥ ४१ ॥ कोला तृतीया शान्तेति चतुर्थी परिकीर्तिता । हेलाख्या पञ्चमी पष्ठी लम्बिनी नामतो लुमा ॥ ४२ ॥ सप्तमी तुम्बिनीत्येता मार्गमूत्रविनिर्गताः । एताभिः कारयेत् कोलं वितानं नयनोत्सवम् ।। ४३ ।। कोलाविलं हस्तितालु चाष्टपत्रं शरावकम् । नागवीथीवितानं च पुष्पकं भ्रमरावली ॥ ४४ ॥ १. 'रुचिका' ख. पाठः। २. '', ३. 'ण', ४. 'मासू' क.ख. पाठः। ५. 'काछैन', ६. 'रुचिका', ७. 'मू' ख. पाठः । क. पाठः । ८. 'त्रेषुमान' क. पाठः। ९. 'बलं ग', १०. 'ल्वि', ११. "तिन्य+स्याः', १२. 'तस्तुला', १३. 'का' ख. पाठः ।
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२८४
समराङ्गणसूत्रधारे हंसपक्षं करालं च विकटं शङ्खकुट्टिमम् । शङ्खनाभिः सपुष्पं च शुक्ति(?)त्तकमेव च ॥ ४५ ॥ मन्दारं कुमुदं पद्म विकासं गरुडप्रभम् । पुरोहतं पुरारोहं विद्युन्मन्दारकं तथा ।। ४६ ॥ एतान्येवं वितानानि सङ्ख्यया पञ्चविंशतिः । एतेषां रूपनिमोणमधुना संप्रचक्ष्महे ।। ४७॥ समन्ताच्चतुरश्रे च चतुरश्रायतेऽथवा । क्षेत्रे वृत्तीकृते नाभ्यैकया तत् कोलमुच्यते ॥ ४८ ॥ चतुरश्रे यदा क्षेत्रे कर्णस्थानेषु कृत्लशः । चतुरश्रनिबन्धेन चतुरश्रनिबन्धने ।। ४९ ॥ वैलिनी विकटाकारा पूर्व वृत्तान्यधस्तथा । भ्रमवृत्तं च यन्मध्ये परं तत्रापरा लुमाः ॥ ५० ॥ क्रियन्ते तुम्बिकाः पञ्च यत्र सुस्थाः सुसंवृताः । माग्रे(?)स्तलेऽधःसूत्रस्य तद् भवेन्नयनोत्सवम् ।। ५१ ।। कोलाविलं समे क्षेत्रे भागाष्टकविभाजिते । मध्ये द्विभागे विलिखेद वृत्तं तुम्बिकयान्विते ॥ ५२ ।। तत्र भ्रमान्ते च सूत्रे भ्रमान् षोडश कारयेत् । ऋजूनि यानि सूत्राणि लुमास्ताः परिकल्पयेत् ॥ ५३ ।। यानि शेषाणि मूत्राणि वलिनीस्ताः प्रकल्पयेत् ।। तुम्बिन्यां कारयेद् वृत्तं गजतालुकमुच्यते ॥ ५४ ।। अष्टपत्रे चतुषष्टिभागं क्षेत्र प्रकल्पयेत् । लुमास्थानेषु पत्राणि खण्डितान्यन्तरैस्तथा ॥ ५५ ॥ सम्पातेषु समस्तेषु तुम्बिकाः सनिवेशयेत् । वृत्ताकारं शरावं स्याद् विन्यासं च धरैश्च तत् ॥ ५६ ॥ चतुरश्रेऽथवा वृत्ते भागत्रयविभाजिते । निवेशयेन्नागबन्ध + सम्पाते वलिसूत्रयोः ।। ५७ ।। १. 'मु', २. 'भै', ३. 'ब', ४. 'वी' क. पाठः ! ५. 'स्व', ६. 'स्थिता ।', ७. 'स्व' ख. पाठः ।
नागवीथीति लक्ष्ये पठितम् ।
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प्रासादद्वारमानादि नाम चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः । २८५ वितानमेतत् कथितं यश्चिकीर्षति मानवः । ऊर्वतिर्यग्गतै लैः क्रियते यनिरन्तरम् ॥ ५८॥ पुष्पमालाकुलं श्रीमत् पुष्पकं तदुदाहृतम् । अशोकपल्लवाकीर्णलुमाभ्रमनिवन्धनम् ॥ ५९॥ चतुरश्रक्रियायुक्तं सा प्रोक्ता भ्रमरावली । आध्माता कर्णमायाता तुम्बिकास्थानसंश्रया ।। ६०॥ तुम्बिनी यत्र मध्ये तु हंसपक्षं तदुच्यते । अस्यैव पक्षे तु यदा सम्बध्येत मनोरमा ।। ६१ ॥ तुम्बिनी च विपक्षेषु करालं तदुदाहृतम् । कोला लुमा स्याद् विकटे शङ्के शान्ता प्रकीर्तिता ॥ ६२ ॥ शङ्कानाभिसमं मूत्रं तुम्बिकायाः प्रवर्तते ।। सर्वेष्वपि लुमास्थानेष्वेकरेखान्वितं भवेत् ।। ६३ ॥ शङनाभिरिति प्रोक्तं वितानमिदमुत्तमम् । एतस्येव लुमास्थाने तुम्बिका पद्मकाता ॥ ६४ ।। वलयैर्भूषिता यत् स्यात् सपुष्पमिति तद् विदुः । क्षेत्रे वृत्तायताकारे कारयेच्छुक्तिसंज्ञकम् ॥ ६५ ।। वृत्ताकारे भवेत् क्षेत्रे वृत्तं वलयकर्मणा । चतुरश्रे समे क्षेत्रे यल्लुमालुमर्ध(ते?तः) ॥६६॥ वृत्तक्षोभणभङ्गानि तन्मन्दारकमुच्यते । कुमुदं कुमुदस्येव लुमाक्षेपादिहार्धतः ।। ६७ ॥ पद्मके स्यादधःक्षिप्ता विकासे मध्यमा लुमा । गरुडे' गरुडो मध्ये नागाभरणशोभितः ॥ ६८ ॥
पुरोगतं तद् यदधो गत्वा स्यादैर्ध्वगं पुनः । अधो गत्वा पुरारोहमूर्ध्वमूर्ध्वं ततोऽप्यधः ।। ६९ ॥ विचित्रक्षोभणाकीर्णमन्ते वृत्तं मुहुर्मुहुः । अष्टभिश्वाश्रिभिर्मध्ये विद्युन्मन्दारकं भवेत् ।। ७० ॥
१. 'नामतः' ख. पाठः। २. 'स' क. पाठः । ३. 'त्रा', ४. 'दर्धगतं पु' ख. पाठः।
पुरोहतमिति तु लक्ष्ये पठितम्!
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समराङ्गणसूत्रधारे मानोन्मानमथ ब्रूमः प्रासादच्छाद्यसंश्रयम् । अर्धेनच्छाद्यविस्तारस्योर्चे वंशं प्रकल्पयेत् ॥ ७१ ।। अयमोदयः प्रोक्त आवन्त्यो नामतः परः । व्यंशेनच्छाद्यविस्तारस्योदयो वामनो भवेत् ॥ ७२ ॥ वामनावन्त्ययोर्मध्ये नवधा प्रविभाजयेत् । भागोत्तरोदयात् तेऽष्टौ वामनादुदयाः स्मृताः ॥ ७३ ॥ (वा?आ)तपत्रोऽथ कोवेरः (स?श)मनाख्यस्तथावली । हंसपृष्ठो महाभोगी नारदः शम्बुकस्तथा ।। ७४ ॥ वामनः प्रथमस्तेपामाव(न्त्योते?न्त्येन) दशेत्यमी । छाद्यानामथ वृत्तानामुदयः प्रोच्यतेऽधुना ।। ७५ ॥ तलमूत्रसमं कृत्वा कुर्याद् द्वादशधोदयम् । षष्ठादारभ्य भागांत् स्युः सप्त भागोत्तरोदयाः ।। ७६ ।। कुबेरशेखरी चन्द्री नागश्चा(तुथ) गणाधिपः । मुख्यश्चाछः सुभद्रश्च वृत्ते सप्तोदयाः स्मृताः ॥ ७७ ॥ कृत्वा त्रिकर्करपदं लुमापृष्ठं लिखेत् ततः । भागाधमधिकं क्षेत्रे भवेच्छाद्यकवर्तना ॥ ७८ ॥ भागार्धवर्धिते क्षेत्रे तलमूत्रक्रमान्विते । लुमामाद्यां लिखेद् भूयः षट् क्रमेणानुसन्ततम् ॥ ७९ ॥ रिक्षा यथाद्विहस्ताय(?) लुमायाः स्यादनन्तरम् । लुमा त्रिभागहीनेन परिवृद्धाङ्गुलेन सा ।। ८० ॥ तस्याश्चानन्तरा लक्ष्म्या साध वृद्धाङ्गुलत्रयम् (१) । व्यंशोनैः षभिरपरा त्र्यंशोनैदेशभिः परा ॥ ८१ ॥ चतुर्दशभिरन्या स्यात् सार्धवृद्धा ततोऽगुलैः। विंशत्यङ्गुलवृद्धा तु सप्तमी कोणसंश्रिता ॥ ८२ ॥ क्रमेणानेनै मानानि लुमानां वृद्धिहासयोः । अनुपातेन कायोणिच्छाद्यक्षेत्रानुसारतः ॥ ८३ ॥
१. 'स्योदयस्यव्यसनो' (?) क. पाठः । २. 'मा' ख. पाठः । ३. 'न्यौते ' क. पाठः । ४. 'गाः' ख, पाठः । ५. 'इछायः', ६. 'बाद भ', ७. 'श्चामभरायक्ष्म्या सा' क. पाठः । ८. 'लंद्वयम्', ९. 'द्धां' ख. पाठः। १०. 'ता:', ११. 'न नामानि' क. पाठः।
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८.
प्रासादद्वारमानादि नाम चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः ।
+ कुबेरवल्लरीचन्द्रपन्नगा गणनायकः । * मुग्धा सुभद्रेत्येताः स्युर्लुमाकर्मार्थमादितः ॥ ८४ ॥ tarai गण्डिकाछेदाचत्वारः परिकीर्तिताः । ऊर्ध्वस्तिर्य (गॅ?ग्ग) तिस्त्र्यंशस्तथार्धत्र्यंश एव च ॥ ८५ ॥ छाद्य कोदयविस्तारं तन्निर्गमसमायति ।
कृत्वा षोढा भजेत् क्षेत्रं विस्तारायामतः समम् ॥ ८६ ॥ तत्रोर्ध्वद्रव्यमानेनच्छिन्द्यात् प्रागेव गण्डिकाम् । तस्यां छेदानुसारेण दापयेदेव लम्वकम् ॥ ८७ ॥ अधस्ताद् गण्डिकायाश्च कण्टकानि प्रकल्पयेत् । अवपातोच्छ्रयौ ज्ञात्वा त्रीणि स्थानानि चिह्नयेत् ॥ ८८ ॥ गर्भे तथा प्रान्ते च तृतीयं मध्यतस्तयोः । यत्र स्थाने स्थितं सूत्रं स्पृशति स्थानकत्रये ॥ ८९ ॥ तस्मात् प्रसार्य तत्सूत्रं भ्रमयेत् कर्कटं ततः । लुमार्धस्यैवमुपरिसंस्थानमुपजायते ॥ ९० ॥ उपरे स्थितेन सूत्रेण तत्तुल्येनैव कर्कटम् । प्रान्तावलम्बकस्थाने भ्रमयेत् खल्वसिद्धये ॥ ९१ ॥ प्रक्षे भागयुगलावच्छिन्नं फलके पुनः । कल्पयेत् सममेवैषा मापाणिर्निगद्यते ।। ९२ ।। शेषां मां तु दीर्घाशैश्चतुर्भिः प्रविभाजयेत् । चतुर्थातः परं तस्याः कर्तव्यं वृत्तवर्तनम् ॥ ९३ ॥ अदये लुमोच्छ्रायो विस्तारांशद्वयोन्मितः । मूलेऽग्रतश्च भागार्धमुदयोऽस्या विधीयते ॥ ९४ ॥ अधःक्षेत्रे स विस्तारात् सूत्रमालम्ब्य तद्यथा । विस्तारात् सदृशे क्षेत्रे सार्धतद्भागमाश्रितः ।। ९५ ॥
२८७
१. ' न्द्रा' ख. पाठः | २. 'स' क. पाठः । ३. 'गा', ४. 'प्राकूक्षेत्रे भा',
C
मायता ।' ख. पाठः ।
८
+ 'कुबेरशेखरी 'ति पूर्वे पठितम् । * 'मुख्य ' इति पूर्व पठ्यते । तदनन्तरं च 'अच्छा' इति नामान्तरमपि सत्र दृश्यते ।
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२८८
समराङ्गणसूत्रधारे लुमाग्रंभागव्यंशं च तयोर्मध्यं च यत् स्थितम् । सूत्रं स्पृशेत् तत्र धृत्वा कर्कटं भ्रमयेद् बुधः ॥ ९६ ॥ भागभागोत्तरक्षेत्रापेक्षया चतसृष्वपि । गण्डिकासु विधातव्यं विधिवद् वृत्तवर्तनम् ।। ९७ ॥ मूलाल्लुमायाः क्षेत्रस्य पञ्चमांशत्रयेऽथवा । पृथुत्वार्धे लुमापृष्ठलेखावृत्तद्वयं यथा ॥ ९८ ॥ संपतत्येवमालिख्य शेषं पूर्ववदाचरेत् । लुमाया मूलतः क्षेत्रसप्तमांशचतुष्टये ॥ ९९ ॥ पृथुत्वार्धे लुमापृष्ठलेखावृत्तद्वयं यथा । संपतत्येवमालिख्य पड्भागैः शेषमाचरेत् १.०० ॥ नवांशपञ्चके यद्वा क्षेत्रस्यैव लुमादितः । पृथुत्वार्धे लुमापृष्ठद्वयलेखां निवेशयेत् ।। १०१।। शेषैः पभिस्ततो भागैरन्यत् तु प्राग्वदाचरेत् । भागाध निर्गमः कार्यः प्रासादानां कनीयसाम् ॥ १०२॥ छाधकस्यैव भांगैस्तु ज्यायसां निर्गमो यतः। तदन्तरे ये प्रासादास्तेषां क्षेत्रानुसारतः १०३ ।। छाद्यस्य निर्गमः कार्यो विद्वद्भिरनुपाततः। निर्गमस्य त्रिभागेन कनीयाञ् छाद्यकोदयः ॥ १०४ ।। अर्धभागेन परमो भाज्यं षड्भिस्तदन्तरम् । अन्ये भागोत्तराः पञ्च सप्तैवमुदया मताः ॥ १०५॥ इदानीमभिधास्यामः सिंहकर्णस्य लक्षणम् । छाद्योदयोदयः स स्याद् दशभिस्तं विभाजयेत् ॥ १०६ ॥ तैः स्यात् षोडशभिर्भागैस्तस्यैव तलविस्तृतिः । ऊर्ध्वतश्चतुरो भागांस्त्यक्त्वा शकुं निवेशयेत् ॥ १०७ ॥ चतुरश्रीकृते क्षेत्रे कर्णेनारभ्य शकुतः । ततो वृत्तं लिखेत् पश्चाच्छङ्कु समधिरोपयेत् ॥ १०८ ॥
१. '', २. 'ध्यं यतः स्थितम् ', ३. 'लानुमा' ख. पाठः । ४. 'गाः स्यु निर्गमोक्षायसां मतम् (१) क. पाठः । ५. 'श्रांशिकक्षे ख. पाठः।
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प्रासादद्वारमानादि नाम चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः। २८९ ऊर्ध्वदेशात् तु भागेन स स्याद् भागचतुष्टये । लिखेट् वृत्तं त्रिभागोनयंशकर्कटकोद्भवम् ।। १०९ ॥ तस्योपरिष्टात् तदनु ग्रीवा कार्यकभागिनी । गर्भे शृङ्गाग्रयोर्मध्ये तिर्यग् भागद्वयं भवेत् ।। ११० ॥ मध्ये कर्णाग्रयोस्तिर्यक कार्य भागत्रयं बुधैः । ग्रीवाया उपरिष्टाच्च भागमेकं शिखा भवेत् ।। १११ ॥ शिखाग्रमुपरिष्टाच कर्तव्यं गर्भसङ्गतम् । शिरखाग्रंमूर्ध्वतस्तद्वदर्धभागावलम्बितम् ।। ११२ ॥ भागावलम्बि कर्णाग्रं स्कन्धाग्रं तावदेव तु । स्यात् कर्णखण्डयोर्मूलं स्कन्धदेशस्य सङ्गतम् ।। ११३ ॥ स्वस्तिको व्यंशविस्तारायामः प्राग्वृत्तमध्यतः।। एवं शकुमधास्त्राचं भा(गोगे) निवेशयेत् ॥ ११४ ।। भागे निवेशितं कुर्यात् पूर्ववृत्तीचशेषतः।। स्वस्तिकान्तं च पूर्वोक्तं पूर्ववत् सर्वमाचरेत् ।। ११५ ।। तलमूत्रादुपर्यशैश्चतुर्मिर्गर्भतः स(मः१मम्) । द्वाभ्यां द्वाभ्यामुभयतो भागाभ्यां तिर्यगेव च ॥ ११६ ॥ भागेन तद्वदेवाधःसूत्रादुपरि गर्भतः । चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च भागैरुभयतः समम् ॥ ११७ ॥ वृत्तार्धानि लिखेदेककर्णयुक्तानि पूर्ववत् । । एकशृङ्गाणि च ग्रीवास्वस्तिकायुतानि च ॥ ११८ ॥ तलमूत्रबहिर्देशाद् बाह्यवृत्तसमुद्भवः। पदत्रयप्रविष्टः स्यात् पाणिरत्र परिस्फुटः ॥ ११९ ।। त्रिवलीललितो नाम सिंहकर्णोऽयमीरितः । दशभागीकृते प्राग्वदुदये तत्प्रमाणतः ॥ १२० ॥
... 'शौ त्रिभागोनैः स', २. 'य', ३. 'कैः', ४. 'ध्यं ', ५. '' ६. 'ग', ७. 'कस्कन्धवि', ८. 'मः', ९. 'गर्भ नि' ख. पाठः । १०. 'त्या' क. पाठः। ११. 'तु', १२. 'मुपाच' ख. पाठः । १३. 'द्वे', १४. 'टा' १५. 'पुरः स्फु' क. पाठः ।
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२९०
समराङ्गणसूत्रधारे
चतुर्दशांशविस्तीर्णे कर्णे सार्धे वलिर्भवेत् । दशमागोच्छ्रिते प्राग्वत् स्यात् त्रयोदशविस्तृतः || १२१ | क्षेत्र एकवलिर्नाम सिंहकर्णस्तथापरः । एते शोभान्विताः कार्यस्त्र्यसंवरणास्त्रयः ॥ १२२ ॥ प्रासादानामिति निगदितं द्वारमानं निवेशः स्तम्भानां च स्फुटमिह वितानानि तेषां लुमाच । वृत्तच्छाद्यो च्छ्रितिरभिहिता छाद्यसंस्था लुमाव प्रोक्ताः सप्त प्रथितमपरं सिंहकर्णप्रमाणम् ॥ १२३ ॥
इति मद्दाराजाधिराजश्रीभोजदेवविरचिते समराङ्गण सूत्रधारापरनाम्नि वास्तुशास्त्रे प्रासाद द्वारस्तम्भनिवेशवितानलुमालक्षणवृत्त च्छाद्य लुमासिंहकर्णप्रमाणं नाम
चतुष्पञ्चाशोऽध्यायः ॥
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शुभं भूयात् ॥
Bipi'S S
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???