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रूप जोबदलानहीं जाता
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परम संरक्षक
श्री उम्मेदमल पाण्ड्या
श्री कवरीलाल बोहरा आनन्दपुर कालू (राजस्थान)
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ब्रह्मगुलाल के पिता का नाम था हल। महाराज की उन पर विशेष कृपा थी। उनका विवाह भी महाराज ने ही कराया था। अतः जब ब्रह्मगुलाल का जन्म हुआ तो महाराज के सहयोग से उनका जन्मोत्सव बड़े ठाठ-बाट से मनाया गया । किसी प्रकार की भी कोई कमी नहीं रही।
बालक ब्रह्मगुलाल बढ़ता गयापाठशाला जाने लगा खूब मन लगाकर पढ़ता। एक दिन
रूप..
जो बदला नहीं जाता
चित्रांकन: बनेसिंह
कितना होनहार है यह बालक ब्रह्मगुलाल | पाठशाला में आज इसने प्रथम स्थान प्राप्त किया है। बच्चों तुम भी इसी प्रकार मन लगाकर पढ़ा करो।
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और बेटा ब्रह्मगुलाल हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। तुम जीवन में फलो फूलो और इसी प्रकार अपने आत्म-कल्याण में भी सबसे आगे रहो ।
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दिन बीतते गये-बड़ा चतुर योग्य व विद्वान था ज्योतिषका भी अच्छा जानकार था । साहित्य का भी पंडित था। और सबसे बड़ी बात अध्यात्म का भी ज्ञान प्राप्त किया उसने। एक दिन विवाह-सूत्र में उसे बांध दिया गया।
बस ब्रह्मगुलाल बन गया बहरूपिया। साथ दिया मथुरामल ने। एक दिन बन कर आया 'अर्धनारीश्वरालोगों ने देखा और...
भरपूर जवानी, इकलौता पुत्र,घर में कमी नहीं, साथ में पूरी स्वतन्त्रता, राजा की भीकपा,जो चाहता करता,कोई मना नहीं करता। मथुरामल से उसकी मित्रता हो गई। एक दिन... भई, मेरा मन चाहता विचार तो बुरानहीं। है कि बहरूपिया बनूं। है। अपना मनोरंजन कभीकुछ,कभीकुछ भी होजायाकरेगा रूप बनाऊँ और लोग और लोगों की प्रशंसा देखें तो दंग रह जायें, भी मिलेगी। देखते ही रहजायें। तुम्हारी क्या राय है?
कमाल है! कैसा आकर्षक रूप-ब्रह्मगुलाल के क्या कहने । अदभुत कलाकार है यह। ऐसा रूप क्या कोई रख सकता है। कोई भी तो नहीं पहिचान सकता
इसे। VVVV
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एक दिन द्रोपदी बन कर आया- क्या अभिनय है द्रोपदी का | बस साक्षात दोपदी ही तो है। द्रोपदी का चीरहरणका दृश्य- वही मुख, वही मुद्रा,वही भय,वही लज्जा, कमाल है। लोगों ने देरवानदंग रह गये- कला भी धन्य हो गई।
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एक दिन लोगों ने देखा राम, सीता, लक्ष्मण वन को जा रहे हैं-देखते रह गये इस दृश्य
को
...
राम लक्ष्मण के बीच में कौन हैयह-सीता कमालका रूप-चेहरा-मोहरा बिल्कुलवही-पति भक्तिका साक्षात प्रदर्शन-वाहबलगुलाल, तेरी कला मामूली नहीं-सजीव है यह। जो
वेष धारण करता है उसी रूप होजाता है।
माता पिताको यह सब सुहाता तो था परन्तु सहन नहीं होता क्योंकि समाज में इसको जघन्य कार्य समझा जाताकुलीन घरों के योग्य नहीं। एक दिन पिता जी को कहना
हीपड़ा,
पिताजी, में मजबूर हूँ। कैसे छोडूं.। मेरी रंगरंग में यह समा गया है। मुझे इसके बिना चैन भी तो नहीं पड़ती। करूं तो क्या करूं?
बेटा, जो तुम करते हो कुछ ठीक नहीं। प्रशंसा मिलती है ठीक है, परन्तु हमारे घर के योग्य यह काम नहीं। छोड़ दो
इसे
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सभी कुछ मिला ब्रह्मगुलाल को-नाम, यश, अवसरकी टोह में रहने लगे मंत्रीजी। प्रशंसा,धन,दौलत। ज्यूंज्यूं नाम मिला कला एकदिन वह बैठे थे राजकुमार के पास निखरती गई। परन्तु उसका यश सब के गले कि...
|कि... मंत्रीजी देखा आपनेतले नहीं उतर सका। कुछ उससे जलने लगे, उनमें थे राजा के मंत्री जी। एक दिन...
ब्रह्मगुलाल कमाल कारूप
बनाता है।वहजो रूपबनाता ब्रह्मगुलाल,ब्रह्मगुलाल,जिधर देखो
है, उसी रूप वह उस समय उसी का नाम । महाराज भी तो उसी के गीत
बन जाता है।वह क्या है गाने लगे हैं हरदम-हरसमय इस ही की
इस बात को बिल्कुल प्रशंसा, उसीकी हीतारीफ
भूलजाता है ठीक है, इस तरह तो हमें कोई
परन्तु.. भी नहीं पूछेगा। कुछ न कुछ तो करनाही पड़ेगा अब तो।
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परन्तु
क्या , मंत्री जी
यह सब धोखा है कुंवरजी।हमतो तब जाने जब आप उससे शेर का वेष बनवायें, तब देखें क्या वह उस समयवास्तव में शेर ही बन जाता है, क्या उसमें शेरत्व आ जाता है,
क्या वह शेर जैसा हीर हो जाता है ?
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बात तो आपने ठीक बस अब काम बनगया। सांप भी मर कही मंत्रीजी। हम जायेगा और लाठी भी न टूटेगी। शेर कलही उसे शेर का का रूप वह बना न सकेगा और उसकी रूपधरने के लिये सारी कीर्ति मिट्टी में मिल जायेगी।
कहेंगे। ठीक है कुंवर साहब, जसाआप उचित समझें।
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अगले दिन-राजदरबार ब्रह्मगुलाल,तुमने तो कमाल कर में राजा, मंत्री,राजकुमार ररवा है। चारों ओर तुम्हारा हीनाम। आदि सभी बैठे हैं... बच्चे क्या,बडे, बूढ़े, स्त्री-पुरुष
सभी तो तुम्हारी कला पर मुग्ध है। हम तुमसे बहुत प्रसन्न है।)
राजन.मै किस योग्य हैं। आपकी ही तो कृपा है, आपका
ही तो आशीर्वाद है। जो कुछ भी आज मैं हूँ सब आपकी
बदौलत
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राजदरबार में ही..
पिताजी वाकईब्रह्मगुलाल की कला कमाल की है। आज तो मेरी इच्छा है कि हम ब्रह्मगुलाल को शेर के रूप में देखें
बेटा।
जैसी तुम्हारी इच्छा
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ब्रह्मगुलाल, हमारे कुंवर साहब की इच्छा है कि तुम कल शेर का रूप बनाकर दिखलाओ
राजन, आपकी आज्ञा तो शिरोधार्य है परन्तु इसके लिये मुझे आप यह आश्वासन अवश्य दे दीजियेगा कि उस समय यदि मुझ से कोई अपराध हो जाये तो आप मुझे क्षमा कर देंगे
ठीक है, ठीक है। लो हम लिखकर देते है कि आपके लिये एक खून माफ
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तो राजन् कल मैं दरबार में शेर बनकर आऊँगा।
अगले दिन - राजदरबार लगा है- सभी बैठे हैं। राजकुमार के पास ही एक बकरी बंधी है। शेर दहाड़ता हुआ आता है - उसकी दहाड़ सुनकर .....
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कमाल कर दिया ब्रह्मगुलाल | धन्य हो तुम-अगर शेर की निगाह पड़ीबकरी हमे पता न होता तो शायद हममें से एक दो के प्राण पर जो राजकुमार के पास 1 परवेल ही उड़ जाते। कैसी भयंकर गर्जना | बंधी थी। सोचा शेर ने... हमने ऐसा कलाकार आजतक नहीं
ओह यह धोखा, यहचाल अगर देखा
बकरी को छोड़ता हूँ तो मेरी बदनामी होती है,कला कलंकित होती है। यदि मारता हूँ तो संकल्पी हिंसा-पाप-महापाप-अपने
जैनत्व को, अपनीमान्यताको, अपनेधर्म को बरबाद करता है। करूँ तो क्या करूं?
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इतने में राजकुमार ने एक कंकड़ फेंक कर मारी शेर पर और उसे ललकारा...
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अरे तुम शेर होया गीदड़। बकरी सामने बंधी है और तुम शांत रखड़े हो-यही हैतुम्हारा शेरत्व-धिक्कार है तुम्हारी जिन्दगीको-व्यर्थही तुम्हारी माता ने तुम्हें जन्म दिया
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शेर तिलमिला उठा-निजत्व खो बैठा-ब्रह्मगुलाल भूल गया आपे को और अगले ही क्षण शेर झपटा राजकुमार पर और अपने पंजों से चीर डाला उसे...
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हैं, यह क्या? रवून-वह भी राजकुमार का-अनर्थमहाअनर्थ-अब क्या होगा?
मेरा लाल..
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राजदरबार में सन्नाटा.. राजा भी मुर्छित हो गिर पड़ा
होश आने पर...
में लुट गया, बरबाद हो गया। एक ही पुत्रथा वह भी चला गया और वह भी मेरी गलती से न में ब्रह्मगुलाल को शेरका ऊपबनाकर आने को कहता, न अपने लाइले कुंवर को खोता।
मेरा तो राज्यही सूना हो गया।
राजन, शांत होईये। जो होना था हो गया, रोने धोने से जाने वाला वापिस थोड़े ही आ जायेगा। क्या किया जाये कुछ समझ में नहीं
आता।
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मंत्री जी, क्या करूं, सब्र होता नहीं। मैं सब समझता हूँ, पर रोना रुकता नहीं। वही पुत्र,
मेरा प्यारा पुत्र, हर समय आंखों के सामने...
क्या किया जाये महाराज | जो हुआ बहुत ही बुरा हुआ, परन्तु ब्रह्मगुलाल ने यह अच्छा नहीं किया।
मंत्री जी, जो मेरे भाग्य में बंदा था, वही तो हुआ। इसमें उस बेचारे का क्या दोष ?. वह तो सच्चा कलाकार है। जो रूप धारण करता है, उस रूप ही हो जाता है वह तो बेचारा
क्या मतलब है तुम्हाराक्या उसने जान-बूझ कर ऐसा किया ?
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हहहहहह
राजन्, यह तो ठीक है, परन्तु क्या वह यह भी भूल गया कि वह क्या करने जा रहा है।
महाराज, मैं यह तो नहीं कहता, परन्तु यह सब अनजाने में हुआ हो, ऐसा भी मैं मानने को तैयार
नहीं ।
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कहना क्या चाहते हो तुम ?
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ठीक है मंत्री जी इससे हमारे दो काम बन जायेगें । वह हमे उपदेश भी देगा जिससे हमारे दुख दूर हो जायेगा, और उसकी परीक्षा भी हो जायेगी
अगले दिन राजदरबार में ब्रह्मगुलाल को बुलाया गया और...
अच्छा, तुमको समय दिया जाता है।
महाराज, एक परीक्षा उसकी और लेनी होगी उसे दिगम्बर मुनि का वेष बनाने के लिये कहा जाये, फिर देखते हैं कि वह कहां
तक हो
जाता
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ब्रह्मगुलाल, पुत्र शोक ने हमें परेशान कर रखा है, किसी तरह से भी चैन नहीं पड़ती। बहुत भूलना चाहते हैं पर भुलाया नहीं जाता। हमारी एक इच्छा है, तुम दिगम्बर मुनि का रूप धारण करके आओ, और हमें सम्बोधन दो, ताकि हम उस दुख को भूल सकें ।
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ठीक है, महाराज ।
उस रूप
राजन आपकी आज्ञा शिरोधार्य । परन्तु महाराज इसके लिये छः महीने का समय चाहिये।
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जो मैं बहुत दिनों से सोच रहा था वह अवसर अब आ गया। अब तक मैंने औरों के लिये वेष धारण किये। अब यह अन्तिम वेष अपने लिये बनाऊंगा। अब मैं वह वेष धारण करूंगा जिसके बाद और कोई वेष ही धारण नहीं करना पड़ेगा। अब हमारे बड़े पुण्य का उदय आ गया है। बस कर्मों को काट कर मुक्ति के पात्र बनने का सौभाग्य मिल जायेगा इसी वेष के द्वारा ।
तो बेटा इसमें हर्ज क्या
ब्रह्मगुलाल घर आये। माता पिता पत्नी सभी चिन्तातुर थे न मालूम राजा क्या दंड दे डाले ।
बेटा, राजा ने तुम्हें बुलाया था, क्या कहा उन्होंने ? वह क्या दंड देने जा रहे हैं? हम तो बहुत परेशान हैं ।
पिताजी, राजा की आज्ञा हुई है कि मैं दिगम्बर मुनि का रूप बनाऊं और उनको उपदेश देकर शांत करूं ।
हर्ज तो बिल्कुल नहीं पिता जी । परन्तु यह ऐसा रूप है जो एक बार रख कर बदला न जा सकेगा। आप फिर मुझे घर में रहने के लिए तो नहीं कहेंगे ?
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क्या कहा?
हाँ पिताजी, मुनि का रूप धारण करने के बाद उसमें दूषण न लगा सकुंगा । इस रुप को तो इन्द्र अहमिन्द भी तरसते हैं फिर क्या ऐसे रूप को ररवकर छोड़ा जा सकता है नहीं
कदापि नहीं
अच्छा बेटा कल बतायेंगे
क्या कहता है मेरा लाल कहता है, मुनि का वेष बनाऊंगा
और फिर कभी घर में न रहूंगा
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नहीं नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूंगी। मैं कभी भी उसे मुनि नहीं बनने दूंगी
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जरा ठंडे दिल से सोचो,ऐसा कहना उसका बचपना ही तो है। मुनि बननाकोई हंसी खेल तो है नहीं। बड़ा कठिन मार्ग
है यह। मुनिबन जाने दो,दो चार दिन बाद ही लौट कर घर आ जायेगा चिन्ता न करो
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माताजी ठीक ही तो है। बन जाने दो उसे मुनि हम लौटा लायेंगे उसे। आप रंच भी चिन्ता न
करो।
जैसा आप ठीक समझो
अगले दिन...
पिता जी, अब मेरे लिये क्या
आज्ञा है?
जैसी
तुम्हारी
इच्छा ।
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ब्रह्मगुलाल पहुंचे अपनी पत्नी के पास और...
प्रिये हमने मुनि बनने का निश्चय कर लिया है तुम्हारी क्या राय है?
आपके पिताजी माताजी की क्या राय है?
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उन्होंने तो आज्ञा दे दी
मुझे ये छोड़ के जायेंगे भी कैसे। लौट कर अवश्य चले आयेंगे। वेष ही तो बना रहे हैं, कोई सचमुच के मुनि
थोड़े ही बन रहे जैसा आप उचित समझे
रात्रि में... ब्रह्मगुलाल लेटे हैं, सोच रहे हैं... यह संसार, शरीर,भोग सब क्षणभंगुर है, विनाशीक है। जीव अकेला आता है। अकेला जाता है,अकेला ही सुख दुख भोगता है। कोई किसी का संगी साथीं नहीं। मुनि दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करने में अब देरकरने से कोई लाभ नहीं। सोच विचार कैसा । अवसर भी अच्छा मिल गया है, क्यों न इसका पूरा-पूरा लाभ उठाऊं। बस अब
यह मेरा अन्तिम रूप ही होगा| अब
देर क्यों?
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प्रात:काल स्नान आदि करके ब्रह्मगुलाल मन्दिर जी गये, भगवान को नमस्कार किया, पूजा की स्तुति की...
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मन्दिर जी में ही जिनेन्द्र यहां पर साक्षात गुरू तो है नहीं, अत: मैं जिनेन्द्र देव के सामने देवकी प्रतिमा के सामने ही जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करता हूँ। मेरे अब तक के अपराधों को आप सब लोग खड़े है-माता क्षमा कर दें। आपके अपराधों का मैं क्षमा करता हूँ। पिता,परिजन, पुरजन... हम क्षमा
हमक्षमा करते हैं।
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जिनेन्द्र देव के सामने ब्रह्मगुलाल ने दिगम्बरी दीक्षा ली-केश लांच किया और...
हाथ में पीछी कमण्डल लिये हुए...
मुनि ब्रह्मगुलालचल दिये जंगलकी ओरसब लोग देखते रह गये
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छः महीने बाद... पीछी कमण्डल लिये, नीची निगाह किये, भूमि को निरखते एक मुनिराज राजदरबार में पधार रहे हैं। राजा आदि उठकर नमस्कार करते हैं। और मुनिराज को उच्चासन पर बैठाते हैं।
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महाराज मैं आपके दर्शन पाकर आज धन्य हो गया। मैं पुत्र शोक से संतप्त हैं। कृपया मुझे शातिका उपदेश दीजिये
राजन , यहां कोई किसी का नहीं। कौन किसका पिता, कौन किसको पुत्र। सब आकर यहां मिलजाते हैं और अपने-अपने समय पर सब जहां-जहां जिसे जाना होता है चले जाते है। फिर किसी के चले जाने पर शोक क्यों? शान्त हो जाओ राजन जो आया है नियम से जायेगा। जो मिला है अवश्य बिछुडेगा जब वस्तु स्वरूप ही एसा है फिर दुख क्यों? अब तो आत्मकल्याण में लगो। सुना नहीं आपने "राजा राणा छत्रपति,हाथिन के असतार।
मरना सबकेा एक दिन,अपनी-अपनी
बार।।
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और मुनि ब्रह्मगुलाल लौट चले जंगल को ...
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महाराज, आपने मेरी V राजन , मुझे वह ऑरवे रवोल दी। मेरा | मिल गया जिसे हृदय अब शांत हो गया। पाकर अब किसी मैं आपसे अति प्रसन्न हूँ। चीज की भी इच्छा आपकी कला की जितनी नहीं रही। अब प्रशंसा की जाये थोड़ी है। तो में बंधन मुक्त जो चाहो मेरे से मांगलो हूँ और रहूंगा,क्या और यहां प्रसन्नता से रवा है इनसब रहो।
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और इधर ब्रह्मगुलाल के घर में...
यह क्या गजब हो गयामेरे पुत्र ने यह क्या कर डाला, अब हमारा क्या
होगा
बड़ा निष्ठुर निकला मेरा लाल। मैं क्या करूं, मैं तो लुट गई। आपही करो न कुछ। चलो उसे समझा बुझाकर वापिस
लौटा लायें
पिता जी, मेरी तो सारी जिन्दगी पड़ी है, कैसे कटेगी यह। पति होते हुए भी मैं तो विधवा हो गई। आप ही उन्हें समझा कर वापिस ला सकते हैं। चलो ना।
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है तो बहुत कठिन । वह है भी तो बड़ा जिद्दी । फिर भी चलो सब चलते हैं। पूरा प्रयत्न करेंगे
उसे लौटा लाने का ।
अब तो आत्म
हम समझायेंगे तो वह जरूर मान जायेगा । हमारी बात कभी उसने टाली है भला ।
और मैं तो उनके चरणों में लिपट जाऊंगी - रोऊंगी, घोऊंगी - देखूंगी कैसे नहीं. वापिस आते
वह
और तीनों पहुंच गये जंगल में... मुनिराज ब्रह्मगुलाल शिला पर बैठे हैं... बेटा तूने यह क्या किया- कहां तेरी यह जवानी, कहां यह कठिन तपस्या । छोड़ दे इस वेष को और चल हमारे साथ
"यह वह वेष हैं जो धारण करके छोड़ा
नहीं जाता। और मैं तो बहुत दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा में ही था। बड़े भाग्य से मिला है यह
अवसर
कल्याण ही करूंगा।
ऐसा मेरा निश्चय है।
हंसी हंसी में वेष रखा था न तूने । अब यह हंसी छोड़ दे ।
और नरूला मुझे और
चल अपने घर
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किसका घर - कैसा घर ? अब तो हम जा रहे हैं अपने घर । हमने राह पकड़ ली है अपने घर की । मोक्ष ही हमारा घर है। वहीं हमें अब जाना है ।
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तूतो मेरे जिगर का टुकड़ा है। कितने लाइप्यार बेटा, तेरी भरी जवानी से मैंने तुझे पाला। अब क्यों मुझे छोड़कर जाता हैकुछ दिन और रहले है?
घर में कहां यह तेरा कोमल शरीर और कहां यह कठिन तपस्या। और ग़जब तोयह हो. गया कि तू अपनी कोई निशानी भी तो नहीं छोड़कर जा रहा है, मेरा कोई पोता भी तो नहीं है जिसको देखकर मैं तेरा दुख भूला
सकू।
जवानी में ही तो आत्मकल्याण किया जा सकता है। बुढ़ापा तो अर्ध मृतक के. समान है।धर्म में चित्त को लगाओ। येसंग साथी सब स्वारथ के हैं, इनका मोह छोड़ो औरसुरखी होलो।
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कौन किसका पुत्र कौन किसकी माता। अनन्तों बार नजाने में किस | किसका पुत्रबना-परन्तुहरनार ही उन्हें छोड़कर जाना पड़ा। मिलना बिछड़ना यह इसजग कीरीति है,फिरदुख क्यों
प्राण नाथ,यह क्या? आपने तो कसम खाई थी कि जीवन भर मेरा साथ निभाओगे, फिर मंझधार में छोड़कर कहां चले। अब मुझे किसका सहारा
है?
यहां कोई किसी को शरण दे ही नहीं सकता। अपनी ही शरण लो। सुख मिलेगा। स्त्री पर्याय बड़ी निन्दनीय है, इसको काटने का उपाये करो। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।
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तुम पुरुष हो, परन्तु मैं नारी हूँ। नारी
कौन किसका पति, कौन किसकी पत्नी । यह सब झूठी कहानी है। धैर्य रखो। अपने को जानो, अपनी शक्ति को पहिचानो, फिर परेशानी ही नहीं होगी।
अधूरी होती है। उसका सहारा तो उसका पति ही होता है। अब मेरा क्या होगा ?
बहू, ये हमसे मानने वाले नहीं। इनका एक मित्र है मथुरामल तुम उसकी पत्नी के पास जाओ और उससे कहकर मथुरामल को यहां लिवा लाओ, वही इन्हें समझा सकता है और कोई नहीं
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अच्छा पिता जी
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ब्रह्मगुलाल की पत्नी पहुँची मथुरामला की पत्नी के पास और... बहिन सुना तुमने,वे तो घर छोड कर चले गये।
मैं क्या करूं। इसबुरे समय में तुम ही मेरी सहायता कर सकती
हो।
बहिन, मुझे सब कुछ मालूम है। मुझे तुमसे पूरी मददी। है। बोलो मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूँ?
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ठीक है, मैं इनसे कहकर इन्हें तुम्हारे पति के पास अवश्य ही भेजूंगी.
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यह तो तुम्हें मालूम ही है कि तुम्हारे पति उनके बचपन के दोस्त हैं। तुम उन्हें उनके पास भेज दो। वह उन्हें समझा बुझाकर अवश्य ही घर लौटा लायेंगे।
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मथुरामल की पत्नी पहुँची अपने पति के || ठीक है, परन्तु कुछ न कुछ तो करना ही पास और...
होगा,वरना ठीक है,वह मेरा मित्र है सुनो जी,कल
तुमकहती हो तो चला उनकी पत्नी ब्रह्मगुलाल की पत्नी परन्तु क्या तुम नहीं
जाता हूँ। और हाँ यह तड़फ-तड़फ आई थी।बहुत दुखी
जानती कि जो वेष वह प्रतिज्ञा भी करता हूँ कि कर जान दे देगी है बेचारी कही थी
धारण करता है उस उसको लेकर ही घर एकबार कोशिश तुम्हीं उसके पति को
रूप ही वह हो जाता लौटुंगा वरना नहीं करके देखो तो समझा सकते हो।
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अबमुनि उसका वेषही नहीं है,.. अब तो वह भावसेभीमुनिबनगया है। वास्तव में वह मुनि बन गया है।
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मथुरामल पहुँच गये मुनि ब्रह्मगुलाल के पास.. यह तुमने क्या
भोग...हः हः हः किया मेरे दोस्त!
"भोग बुरे भव रोगबदावें,बैटरी है जगजीके। क्या यह अवस्था
बेरसहाय विपाक समयअति,सेवतलागेनीके।) जोग धारण करने की थी। अभी तो
वज अगिनि विषसे विषधरसे, तुमने भोग भोगे
ये अधिके दरवदाई। भी नहीं और उन्हें
धर्म रतन के चोर चपल अति,
दगति पन्थ सहाई॥" छोड़ने की ठान ली। जरा अपनी पत्नी का तो ख्याल किया होता
ILL
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भेया, गृहस्थ में रहते हुए भी तो तुम आत्मकल्याण के मार्ग पर चल सकते थे। अणुव्रतों का पालन करके, गुणव्रतों को अपनाते, और शिक्षाव्रतों का अभ्यास करके अन्त में समाधि मरण करते तो क्यासुख का मार्ग न मिलता
ठीक है भैया, परन्तु गृहस्थ में रहकर पूर्ण सुख कहां। पूर्ण सुरव तो निराकुलता में
है और पूर्ण निराकुलता है मोक्ष में, और मोक्ष की प्रान्ति बिना निर्गन्थ लिंग
धारण किये होतीनहीं'
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परन्तु इस पंचम
MERAPHद६५ काल में मोक्ष कहां? न तो शरीर ही ऐसा और न मन ही इतना हद। कहीं वह मसल नबन जायेदविधा में दोनों गये, ममता मिली न राम ।
कौन कहता है कि पंचम काल में मोक्ष नहीं। विदेह क्षेत्र में पहुँच कर मुनिवत धारण करके मोक्ष नहीं जा सकते क्या ?
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तो यार, नहीं लौटेगा घर
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हरगिज नहीं, हद निश्चय है यह मेरा 23
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तो फिर मुझे भी। इसी पथ का पथिक बना लो ना अब मैं भी घर नहीं लौटुंगा । फिलहाल तो मुझे क्षुल्लक दीक्षा दे दीजियेगा।
भली विचारी तुमने-जगत
में धर्म हीसार है, और सब
असार है
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और मथुरामल भी बन गये क्षुल्लक और रहने लगे मेनि ब्रह्मगुलाल के 'पासही....
हर एक की जुबान पर ये ही शब्द थे.
"कलाकार हो तो ब्रह्मगलाल जैसा। जो रूप बनाया उस रूप ही हो गया। उसको पाकर तो कला भी धन्य हो गई।
हंसी-हँसी में बनाये दिगम्बर मुनि के रूपको भी जिसने राजा के द्वारा दिये गये प्रलोभन को ठुकराकर कलंकित न होने
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दिया"
वह वास्तव में ही मुनि बनकर अपना आत्म कल्याण कर गया।
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सम्पादकीय : रूप जो बदला नहीं फिरोजाबाद के समीप चन्द्रवार नामक स्थान की घटना है, कि पद्मावती जाति में ब्रह्मगुलाल नामक प्रसिद्ध व्यक्ति ने १६ वी १७ वीं शताब्दी में जन्म लिया। माता पिता का दलार, परिवार एवं मित्रों का स्नेह प्राप्त कर आनंद से रहते थे। आपने ग्वालियर के भट्टारक स्वस्ति श्री जगभूषण जी के समीप में रह कर धर्मशास्त्र, गणित, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छन्द अलंकार एवं संगीत की शिक्षा अल्प काल में प्राप्त की। विद्या के साथ विनयगुण, पात्रता, धार्मिक वृत्ति आदि सद्गुणों का समावेश लघु उम्र में प्राप्त कर लिया। संगीत में विशेष रुचि होने से लावनी, शेर चौपाई,दोहे आदि सनने सनाने का चाव था। आपने यवा अवस्था में ही वीर, श्रृंगार हास्य रस से युक्त रचनाओं के साथ रामलीला, रासलीला नाटक एवं स्वांग भरने, नृत्य कला तथा तद्रूप आचरण दिखाने की प्रवृत्ति से माता पिता तथा परिवार के सभी सदस्य बहुत दुखी थे। अनेक हितैषियों के समझाने एवं मना करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथा मना करने पर वे त्योहारों, बसंतोत्सव, एवं मेलों आदि में बढ़चढ़ के भाग ले कर लोगों का मनोरंजन करतें। नृत्य कला की प्रसिद्धि से चारों ओर सम्मान के साथ आपकी प्रतिष्ठा बढ़ी तथा आपकी ख्याति राज दरबार तक पहुंची किंतु प्रधान मंत्री को ईर्ष्या हुई। कीर्ति को कम करने की दृष्टि से गंभीर षड्यंत्र रचा तथा राजकुमार को उकसाकर कहा कि ब्रह्मगुलाल से कहो कि वह सिंह का स्वांग करें। ब्रह्मगलाल ने स्वीकार तो किया किंत विनय पूर्वक महाराज से निवेदन किया कि इस स्वांग में कोई भूल-चूक हो जाये तो मुझे क्षमा किया जाए। राजा ने स्वीकृति दे दी। राजनीति के चतर खिलाड़ी की चाल सफल हो रही थी वह सोच रहा था कि यह श्रावक कल में जन्मा है तथा . अहिंसा, दया, जीव रक्षा की शिक्षा बाल्य काल से दी गई है सिंह स्वांग के अभिनय में उसके लिए ऐसा अवसर आना चाहिए जिससे इसकी परीक्षा जीव बध से की जाये यदि जीव बध करेगा तो यह श्रावक पद से रहित हो जायेगा और जीव हिंसा नहीं करेगा तो अपयश होगा। कलाकार ब्रह्मगुलाल ने सिंह का रूप बनाया तथा दहाड़ते हुए राजसभा में पहुंचे। वहां पर बकरी देखी तो स्वांगवृत्ति धारक ब्रह्मगुलाल कुछ सोच ही रहे थे कि राजकुमार ने कहा :
"सिंह नहीं तू स्यार है, मारत नाहि शिकार। बृथा जनम जननी दियो जीवन को धिक्कार।।" अपमान के शब्द सुनते ही ब्रह्मगुलाल की आत्मा विक्षुब्ध हो गई। बकरी पर से ध्यान हटा। क्रोधावेश में उछाल मारी तथा राजकमार के गाल पर जोरदार झप्पटा मारा। राजकमार घायल होकर बेसुध गिर पड़ा। घातक हमले से राजकुमार के प्राण पखेरू उड़ गये।
राजा को पुत्र वियोग का दःख बैचेन कर रहा था। मंत्री ने राजा को पुनः सलाह दी कि ब्रह्मगलाल को आदेश दें कि दिगम्बर मुनि बन कर शोकाकुल परिवार को शान्ति का उपदेश दें। ब्रह्मगुलाल ने दिगम्बर मनि का रूप धारण कर संसार की असारता का उपदेश दिया राजा को आत्म शान्ति की दिशा दिखाई तथा राजा ने मनि भेष धारी ब्रह्मगलाल से कहा कि आप जो भी मांगना चाहो मांगो परंतु दिगम्बर मुनि ने कुछ नहीं मांगा तथा अपनी पिच्छी कमंडलु ले कर चार हाथ भूमि शोधन करते हुए बन में चले गये। ब्रह्मगलाल के मित्र मथुरा मल जी उनको समझाने गये तब मुनि श्री ने मथुरा मल से कहा कि यह जो स्वांग भरा है यह एक ही बार धारण किया जाता है संसार की असारता को समझ कर मित्र मथुरा मल ने भी दीक्षा ले ली। यही दिगम्बर मनि का सही रूप है।
ब्र. धर्म चंद शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य ज्योतिषाचार्य
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सम्पादक: लेखक: चित्रकार: दिल्ली कार्यालय :
आचार्य धर्मश्रत ग्रन्थमाला गोधा सदन अलसीसर हाउस संसार चंद रोड, जयपुर धर्म चंद शास्त्री डा. मूलचंद जैन मुजफ्फरनगर संसार चंद रोड बनेसिंह श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर क्ष. राजमति आश्रम गुलाब वाटिका-दिल्ली सहारनपुर रोड-दिल्ली
प्रकाशन वर्ष-१९८९-अप्रैल वर्ष २ अंक १६ मल्य ६.००रु.. स्वत्वाधिकारी/मद्क/प्रकाशक तथा सम्पादक धर्मचंद शास्त्री द्वारा जुबली प्रेस से छपकर धर्मचंद शास्त्री ने गोधा सदन अलसीसर हाउस संसार चंद रोड जयपुर से प्रकाशित की।
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