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स्यणवाल
कहा
श्री चन्दन मुनि
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RAYANWAL KAHA
(RATNPAL KATHA)
स्यणवाल कहा
(रत्नपाल कथा)
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Chandan muni RAYANWAL KAHA
र य ण वा ल कहा [ रत्नपाल कथा ]
चन्दनमुनि
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लेखक : चन्दन मुनि
Author : Chandan Muni
प्रस्तावना : मुनि नथमल
Preface : Muni Nathmal
संस्कृत छाया : मुनि गुलाबचन्द
निर्मोही'
Translation. Sanskrit: Muni Gulabchand
"Nirmohi'
हिन्दी अनुवाद : मुनि बुलहराज
Hindi : Muni Dulebraj
प्रकाशक : भगवतप्रसाद रणछोड़वास | Publishers : Bhagwatprasad ४४ न्यू क्लोथ मार्केट
Ranchhordas अहमदाबाद-२
44. New cloth market
Ahmedabad-2 निवास : पटेल सोसाइटी (शाहीबाग) N. L. : Patel Socioty (Shahiअहमदाबाद
bagh) Ahmedabad
प्रथम संस्करण : ८ अप्रैल १९७१
महावीर-जयन्ती
| First Edition : 8th April, 1971
Mahavir Jayanti
मुद्रण-व्यवस्था निर्देशन : | Printing Supervision : श्रीचन्द सुराना 'सरस'
| Shrichand Surana 'Saras'
मुद्रक : श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस,
राजा की मण्डी, आगरा-२
| Printers : Shri Vishnu Printing
Press, Raja ki mandi Agra-2
मूल्य : १०. रुपए (भारत में)
१३. सिलिंग (विदेश में)
| Price : India Rs. 10 ..
Forign 13 S.
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प्राकृत
TO THE SCHOLARS OF PRAKRAT
संस्कृत भाषा
SANSKRIT LANGVAGE
अभ्यासियों को
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स्वतः
कभी-कभी एक छोटी-सी घटना भी विशेष प्रेरणा देने वाली हो जाती है । उससे सुप्त भावनाए जागृत हो उठती हैं और व्यक्ति उन भावनाओं को साकार करने के लिए उद्यत हो जाता है।
प्राकृत भाषा के प्रति मेरा पुरुषार्थ ऐसी ही एक सुप्रेरणा का परिणाम है।
उस समय मैं बम्बई में प्रवास कर रहा था । तीन वर्ष पूर्ण हो चुके थे। चौथे वर्ष का वर्षावास मैं 'विलेपारले' में बिता रहा था। साधनाश्रम का सुरम्यस्थल और नगीनभाई तथा सुशीलाबहन की भक्ति अपूर्व थी । एक बार मैं बाहर गया था। रास्ते में मुझे प्रोफेसर 'भियाणी' मिले। वे प्राकृत भाषा के गंभीर विद्वान एवं उसके अनन्य पक्षपाती थे । वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने कहा- “मुनिजी, मुझे अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि प्राकृत भाषा के प्रति सर्वत्र उदासीनता है । यह भाषा सभी भाषाओं की जननी, सहज और बुद्धिगम्य है, फिर भी इसके प्रति उपेक्षा वरती जा रही है । और तो क्या-भगवान महावीर के अनुयायी भी इस ओर इतने प्रयत्नशील नहीं देखे जाते । जैन मुनि भी इसे प्रायः नहीं जानते और जो जानते हैं वे भी इसकी गहराई में प्रवेश नहीं कर पाते । मैंने अनेक मुनियों को इस भाषा के अध्ययन के लिए प्रेरित किया, किन्तु रुचि के अभाव में वे इस और विकास नहीं कर सके ।"
प्रोफेसर भियाणी की यह कटूक्ति मुझे अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई । अपने आगमों की भाषा मधुर प्राकृत के प्रति अपनी उदासीनता अनुचित एवं असह्य लगी, जबकि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख आदि अपनी-अपनी भाषा का कितना गौरव अनुभव करते हुए उसके प्रति जागरूक हैं। प्राकृत का अध्ययन :
उस समय मेरी अवस्था ५१ वर्ष की थी। मैंने प्राकृत भाषाओं का मौलिक एवं गम्भीर अध्ययन किया। प्रारम्भ में मैंने कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित 'अष्टम अध्याय' को कण्ठस्थ किया । प्राकृत भाषा संबन्धी तथ्यों को जानकारी के बाद मैंने 'समराइच्च कहा,'पउमचरिअं' 'पासणाहचरिअं', 'गाहा सप्तसती' आदि ग्रन्थों का पारायण किया। अध्ययनकाल में प्राकृत में लिखने की प्रेरणा जगी। यद्यपि मैंने कुछेक वर्षों पूर्व
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संस्कृत भाषा में अनेक गद्य-पद्यात्मक काव्य लिखे थे, किन्तु प्राकृत में लिखने की भावना ही नहीं जगी थी। इस बार प्राकृत में लिखने की प्रेरणा प्रबल होती गई और प्रथम पुष्प के रूप में मैंने 'रयणवाल कहा' की रचना प्रारम्भ कर दी । 'समराइच्च कहा' की शैली का निर्वाह करते हुए मैंने इस रचना को आगे बढ़ाया । प्राकृत व्याकरण का ज्ञान सद्यस्क था ही, अतः व्याकरणगत अनेक शब्दों के प्रयोग स्वाभाविक थे । पाठकों की सुविधा के लिए शब्द सम्बन्धी सूत्रों को यथास्थान दे देने के कारण उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध बन गई है। प्राकृत शब्दों के साक्ष्य के लिए 'पाइयलच्छी नाममाला' का प्रयोग किया है और उसके पद्य टिप्पण में उद्धृत भी कर दिए हैं। मुझे सरल, सहज भाषा और छोटे-छोटे वाक्य बहुत पसन्द हैं । अतः मैंने इस काव्य में उस रुचिका निर्वाह किया है । समास की बहुलता और जटिलता तथा लम्बे वाक्य पाठक को भटका देते हैं, अत: उनका प्रायः वर्जन ही किया है ।
इसकी संस्कृत छाया मुनि गुलाबचन्द 'निर्मोही' ने अत्यन्त श्रम से तैयार की है । देशी शब्दों को उसी रूप में देकर, कोष्ठक ( ) में संस्कृत में भावार्थ दे दिया है ।
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इसका हिन्दी अनुवाद आगम संपादन कार्य में संलग्न मुनि दुलहराज जी ने संपन्न किया है | हिन्दी का अनुवाद इतना सरस एवं सरल हुआ है कि पढ़ने वाले को अनुवाद-सा नहीं किन्तु स्वतन्त्र ग्रन्थ-सा प्रतीत होता है ।
इसकी भूमिका मुनि नथमल जी ने लिखी है । वे स्वयं प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के गंभीर विद्वान हैं। अपने व्यस्त समय में इस ग्रन्थ का अवलोकन कर जो दो शब्द लिखे हैं, मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ।
अन्त में मैं लालमुनि, मूलमुनि तथा मोहनमुनि आदि सहयोगियों के प्रति हृदय से आभार प्रकट करता हूँ ।
आचार्य श्री तुलसी ने इस ग्रन्थ को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की और मुझे प्राकृत भाषा में 'जयचरिअं लिखने के लिए प्रेरित किया। मैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ ।
मैं आशा करता हूँ कि यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा के अध्ययनशील शिक्षार्थियों का पथ प्रशस्त करने में उपयोगी सिद्ध होगा और उनके विकास के लिए नए आलोक का सर्जन करेगा |
बीदासर ( राजस्थान )
वि० सं० २०२७ फाल्गुन कृष्णा २
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- मुनि चन्दन
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पत्थावणा
"अपारे कव्व-संसारे, कवी अस्थि पयावई। जहाभिरोयए विस्सं, तहेमं परिवट्टइ ॥"
अरिंस सिलोगे जहत्थमत्थि निरूविरं। रसमयस्स भुवणस्स निम्माणं कविणा चिअ कयमस्थि । खणभंगुरे एयम्मि लोए कुह को भवे सासओ रसो जइ तत्थ न सिया कव्वरसो। कवी सच्चं रसथालीए परिपागं विणीय उवहरइ, तेरण सो मोय-मेउरो पमोए इ अवरे वि।
कथावत्थु, भासा, गुफणं-एयाणि भवंति महग्याणि उवगरणाणि कव्वस्स । एएसु भासा नत्थि सासया। कयाचि पागय-भासा कव्वस्स रयणाए पमुहा आसी । जह लिहिअमथि आगम-सुत्ते
‘सक्कयं पागयं चेव पसत्थं इसि-भासिगं ।" इयाणि कालस्स परिवट्टणं जायं । सक्कयस्स पागयस्स य कालो अइक्कतो। अज्जकालीणा विचक्खणा भणंति-एया मया भासा संति । को अमओ मयासु भासासु कव्वं काउ उच्छाहमणुगच्छे ? अच्छेरगमिणं चंदणमुरिगणा एता किर भासा पाहण्णण कव्वरयणाए पउत्ता । किमथि कारणं?
मण्णेहं अणेगंतवायरस-पीगिएण मुणिणा वट्टमाणं अईअणिरवेक्खं णोवलद्धं । ण य वट्टमाण-णिरवेक्खं लद्धमईअं। जो अईए वट्टमाणं पासइ, पासइ तह वट्टमाणे अईअं सो भवइ सासयमग्गगामी।
सासयमग्गगामी पम्हुठेसु वि तच्चेसु पुणो सडू उप्पाएइ
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लोगाणं । लालिच्च-लावण्ण-गुणोववेया पागय-भासा उवेहिया ण कि दुक्खं जरणयइ महुर-रस-सिणायगाणं कवीणं ?
तं पागयं जस्स मउला पदावली पीणेइ मणं जणाणं, जस्सि सहस्स-सहस्स-वास-पज्जतं अणेगेसिं महच्चाणं महप्पाणं सत्थाणं जायं विरयणं । भगवया महावीरेण वद्धमाणेरण जस्सि उवएसा कया। महप्पणा बुद्धेण जस्सि निब्वाण-मग्गो पयासिओ। __ जत्थ अणेगंतवायस्स परिक्खा उवलब्भइ, जत्थ य उवलब्भइ मज्झिमपडिवयाए महत्थो सरो। जं पुरोकाउ' लिहियाणि विज्जते अणेगाणि कव्वनाडगादीणि ललियाणि सत्थाणि । जेण संखाइयाणि रहस्सारिण वहइ अज्जावि सा। किं तीसे सुत्तं अहुणा विलसिअं न जुत्तं ?
जइवि इयाणि पागयं नत्थि लोग-भासियं । तहवि पगाममत्थि पाढजोग्गं । जह सयाणि-सयाणि सत्थाणि पुरातणाणि पढिज्जंति, तह इयाणि विरइयाणि किं न अज्झयण-विसय-गयाणि भविस्संति ? तो पाइय-भासाए गंथ-रयणं नेवत्थि विचार-विरहियं । एयम्मि पओयणे अहं अभिणंदेमि चंदणमुरिंग । ___ संपुण्णे वि साहिच्चे कथा-गंथाणं अत्थि महं गोरवमयं ठाणं । कुवलयमाला कहा, उवमिति-भवपवंचकहा-पभितयो अणेगा कहा संति सुप्पसिद्धा । तप्परंपराए एसा वि भवइ निबद्धा। कहाकारेण मुणिणा को कहाए पबंधो सुललिओ। भासा-दिट्ठीए पओग-पहाणा इमा। मुणी एसो ललियाणं अभिणवाणं य पओगाणं पगरणे अस्थि सुप्पसिद्धो। कहा-पबंधे जत्थ तत्थ पागय-वागरणं उदाहडमिव दिस्सइ। मउला पगई जह मणं हरइ, तह कहाए वि मउला पओग-पवत्ती भवइ मणोहरा । लहूणि वक्काणि सरलाणि साहूणि । निदसण-रूवेण ४० पिट्ठस्स इमा पंतीओ संति पढिअव्वा__ "अइक्कतो गब्भकालो। सुहं सुहेण पसविणी जाया भाणुमई। सव्वलक्खणसंजुत्तं उप्पण्णं पुत्तरयणं । अव्वो ! सुण्णं घरं गिहमणिणा सोहिअं । अभूअपुटवो उत्थारो वट्टिओ सयणाणमणम्मि । धण्णण
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सेट्ठिणा लद्धो सभाणू । दाणाइ-णीर-सित्तो फलिओ पुप्फिओ धम्मकप्परुक्खो । णिभालिऊण अब्भग-मुहचंदं परमतुट्ठा भाणमई । चिरपरिकप्पिओ दोहलो पूरिओ विहिणा । अणेगेहिं आणदिएहिं वयंसेहिं गहिअं सेट्ठित्तो पुण्णवत्तं ।”
मण्णेहं सक्कय-पगइ-पहाणाओ पागयाओ भवइ अहियं लद्धपति? जण-गण-पउत्तं पागयं । किंतु पउत्तिहेउणा तं नत्थि अहुणा उवलद्धं, तहावि कहाकारेण जत्थ-तत्थ देसि-सद्दाणं पओगो कओ अत्थि । कुह-कुहचि देसिस(रेण सक्कय-समसद्द-संजोगो कण्णापियो वि जाओ। उदाहरण-रूवेण एत्थ--'तक्कुअ-जणेहि' (पृष्ठ २४) पत्थुअं भवइ । जइ एयस्स ठाणे 'सयण-जणेहि सिया, सिया बहु रमणीयं ।
जइ वि हरिभद्रसूरिणा एस पओगो को अत्थि। कहाकारेण पाईण-गंथाणं पओग-पद्धतिमणुस्सिय कया पओगा। तहवि अज्ज भासा-पबंध-सरणीए बहु परिवट्टणमवेक्खियमत्थि । ___ कथा-वत्थु अत्थि पाईणं । तहवि कहाकारेण अभिणवो परिवेसो पदत्तो, तेण एसा भाति नव्वा विव ।
एयम्मि कहा-पबंधे ठाणे-ठाणे धुव-तच्चाणं संगाणमवि अस्थि मुहरिअं । पढियव्वा एता पंतीओ___"अहो ! अलक्खिअं खु मोह-महारायस्स विडंबणं ! पुत्त-पोत्तेहि परिवारिआ वि खिज्जति विरहिआ वि । दुरहिगमा किर मोह-मइराए तणुवी अण्णाणरेहा। सुह-संकप्पिए वि दुहं, दुहाइएवि सुहं अभिडइ। वत्थुत्तो पोग्गलिअं आसत्ति-पल्हत्थं किं सुहं, किं दुहं ? इहगओ उत्थारो वि परिणइ पत्तो पच्चक्खं सोआलिद्धो । हंत ! तहवि कसाय-कलुसिओ जीवो णो जहातच्चं जिणदेसि धम्म सद्दहइ, पत्तिअइ, रोएइ य ।" (पृष्ठ १६)
जहमणी मुत्ताहारं सोभाहिअं करेइ, तह अंतो बद्धाणि नीइसुत्ताणि वद्धेति गंथ-माहप्पं । कहाकारेण अणेगेसु ठाणेसु एयमा
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चरिअं । 'आहारम्मि ववहारम्मि य चत्तलज्जेणं होअव्वं ।' (पृष्ठ ३२) एयं सुत्तं एयस्स सक्कय-सिलोगस्स सई जणयइ___ 'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।'
माणसकारेण संत तुलसीदासेण अणेगेसि सक्कय-सिलोगाणं माणसे कुसलाए पद्धतीए सण्णिवेसो कओ, तेण माणसस्स कव्वदिट्ठीए महामुल्लत्तं जायं । बहूणं पुराणाणं अणुभूईणं समवतारो पज्जोययइ गंथस्स अंगमंगं । विसयं उवसंहरमाणोहं एवं साहेउ लहेमि ओगासं-कहाकारेण एवं पत्थूयं कथागंथं लिहिऊरण--'पडिसोयमेव अप्पा दायन्वो होउकामेण'-इति आगम-निद्द सो सफलीकओ। अज्ज पाइअ गंथनिम्माणं पडिसोय-गमणतो नत्थि नूणं ।
महामणेण गुरुवरेण कालूगणिणा जो उज्जमो कओ, गुरुवरेण महप्पणा तुलसीगणिरणा जस्स धारा पवाहिआ, तीसे गुरुतरो एस जोगो कहा-पबंधो भविस्सइ'त्ति वोत्तु सक्कं ।
एयमढं साधुवादमरिहइ कहाकारो मुणी । एयस्स हिंदीअणुवादो कओ मुणिरणा दुलहराजेग्ण, संस्कृत-छाया कया मुरिगणा गुलाबचंदेण। एवं उभयमवि कज्ज कयमस्थि सस्समं । अणेरण गंथस्स महिमा परिवढिया, सारल्लमवि । सक्कय-हिंदो-पाढगा अवि पढिउ सुलहत्त लद्धा।
तेरापंथ-परंपराए एयारिसी गंथसंपदा निरंतरं वड्ढमाणा भवे इइ चिरमभिलसामि।
वि० सं० २०२७ माघवदिह
बोरावड़ (राजस्थान)
-मुनि नथमल
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प्रस्तावना
"इस अपार काव्य-संसार में कवि प्रजापति है। विश्व के निर्माण में उसकी जैसी अभिरुचि होती है, वह उसे उसी प्रकार में बदल देता है।"
कवि की इस उक्ति में यथार्थ का निरूपण हुआ है। कवि के द्वारा ही रसमय संसार का निर्माण होता है। यदि काव्यरस नहीं होता तो इस क्षणभंगुर संसार में शाश्वत रस क्या होता ? कवि सत्य को सरस बनाकर प्रस्तुत करता है । इससे वह स्वयं आनन्दित होता है और दूसरों को भी आनन्दित करता है।
काव्य में तीन मूल्यवान उपकरण होते हैं--कथावस्तु, भाषा और शैली। इस में भाषा शाश्वत नहीं होती। एक समय था जब काव्य-रचना में प्राकृत भाषा की प्रधानता थी । आगम में लिखा है- "संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएं प्रशस्त और ऋषिभाषित हैं।" आज समय बदल चुका है । संस्कृत
और प्राकृत भाषाओं का समय अतिक्रान्त हो गया है । आज के विद्वान् मानते हैं कि ये मृत भाषाएं हैं । कौन अमृत पुरुष इन-मृत-भाषाओं में काव्य-रचना करने के लिए उत्साहित होगा ?
यह एक आश्चर्य है कि चन्दनमुनि इन भाषाओं में काव्य-रचना करने के लिए प्रवृत्त हुए । इसका कारण क्या है ? मैं मानता हूँ कि अनेकान्तवाद के रस से प्रीणित चन्दन मुनि को अतीत-निरपेक्ष वर्तमान नहीं मिला और न वर्तमान-निरपेक्ष अतीत ही उन्हें प्राप्त हुआ। जो अतीत में वर्तमान और वर्तमान में अतीत को देखता है, वह शाश्वत मार्ग का अनुगामी होता है ।
जो शाश्वतमार्गगामी होता है, वह विस्मृत तथ्यों के प्रति भी लोगों की रुचि उत्पन्न कर देता है । प्राकृत भाषा ललित है और लावण्य से उपपेत है । वह प्राकृत भाषा ! जिसकी मृदु पदावली जन-मानस को आनन्दित करती है; जिसमें सहस्रों वर्ष पर्यन्त अनेक महान् शास्त्रों की रचना होती रही है;
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भगवान महावीर वर्धमान ने जिस भाषा में उपदेश दिया; महात्मा बुद्ध ने जिस भाषा में निर्वाण मार्ग का प्रकाशन किया, क्या उसकी उपेक्षा मधुररस में स्नात कवि-हृदयों को दुःखित नहीं करती? इस भाषा में अनेकान्तवाद की परीक्षा और मध्यमप्रतिपदा का महान् स्वर प्राप्त होता है । इस भाषा में अनेक काव्य, नाटक आदि ललित शास्त्र लिखे गए हैं । इसीलिए यह भाषा आज भी संख्यातीत रहस्यों का वहन करती है। ऐसी स्थिति में उस परम्परा का निर्वाह करना क्या युक्त नहीं है ?
यद्यपि प्राकृत भाषा आज जन-भाषा नहीं है, तब भी वह अत्यन्त पठनीय है । जैसे अपने-अपने प्राचीन शास्त्र पढ़े जाते हैं, वैसे ही वर्तमान में विरचित ग्रन्थ अध्ययन योग्य क्यों नहीं होंगे ? अतः प्राकृत भाषा में ग्रन्थ रचना करना विचार-शून्य नहीं है । इस उद्देश्यपूर्ति के संदर्भ में मैं चन्दनमुनि का अभिनन्दन करता हूँ।
सम्पूर्ण-साहित्य विधाओं में कथा-साहित्य का गौरवमय स्थान है। कुवलयमाला, उपमितिभवप्रपंच कथा आदि अनेक कथा-ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। उन्हीं की परम्परा में प्रस्तुत कथा-ग्रन्थ भी संबद्ध होगा। कथाकार चन्दनमूनि ने कथा का सुललित प्रबन्ध प्रस्तुत किया है । भाषा की दृष्टि से इसमें नएनए प्रयोग हैं । चन्दनमुनि ललित भाषा और नए-नए प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत कथा-प्रबन्ध मैं यत्र-तत्र प्राकृत व्याकरण के उदाहरण हगगोचर होते हैं । जिस प्रकार मृदु प्रकृति मन को हरती है, उसी प्रकार कथा में मृदु प्रयोगों का व्यवहरण मनोहर होता है । इसमें वाक्य-छोटे-छोटे सरल और सुन्दर हैं । उदाहरण के लिए चालीस पृष्ठ पर की ये पंक्तियाँ पठनीय हैं -
"अइक्कतो गब्भकालो। सुहंसुहेण पसविणी जाया भाणुमई । सव्वलक्खणसंजुत्तं उप्पण्णं पुत्तरयणं । अब्बो ! सुण्णं घरं गिहमणिणा सोहिअं । अभूअपुव्वो उत्थारो वट्टिओ सयणाण-मणम्मि। धण्णेण सेट्ठिणा लद्धो वंसभाणू । दाणाइणीर-सित्तो फलिओ पुप्फिओ धम्मकप्परुक्खो । रिणभालिऊण अब्भग-मुहचंदं परमतुट्ठा भाणुमई । चिरपरिकप्पिओ दोहलो पूरिओ विहिणा। अणेगेहिं आणदिएहि वयंसेहिं गहिअं सेठित्तो पुण्णवत्तं ।”
मैं मानता हूँ कि संस्कृत-प्रकृतिमय प्राकृतभाषाओं से जनता द्वारा-प्रयुक्त प्राकृत भाषा अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त करती है। किन्तु उस भाषा का व्यवहरण
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न रहने के कारण आज वह उपलब्ध नहीं है। तो भी कथाकार मुनि ने यत्रतत्र देशी शब्दों के प्रयोग प्रस्तुत किए हैं। कहीं-कहीं देशी शब्दों के साथ संस्कृत सम शब्दों का संयोग कर्ण-अप्रिय-सा बन गया है। उदाहरण के लिए पृष्ठ २४ पर एक संदर्भ में 'तक्कुअ जहि'--ऐसा लिखा है, यहाँ 'तक्कुअ' देशी शब्द है; इसका अर्थ है- 'स्वजन' इसके स्थान पर यदि 'सयणजहि' (स्वजन जनैः) होता तो सुन्दर होता ।
यद्यपि हरिभद्र सूरी ने यह प्रयोग किया है । कथाकार ने प्राचीन ग्रन्थों की प्रयोग-पद्धति का अनुसरण कर ऐसे प्रयोग प्रस्तुत किए हैं, किन्तु आज भाषा प्रबन्धों की दिशा में बहुत परिवर्तन अपेक्षित है।
प्रस्तुत निबन्ध की कथावस्तु प्राचीन है ; परन्तु कथाकार ने उसे नए परिवेश में प्रस्तुत किया है, अतः वह नई प्रतीत होती है । इस कथा प्रबन्ध में स्थान-स्थान पर शाश्वत तथ्यों का संगान हुआ है। निम्न पंक्तियाँ पठनीय हैं
"अहो ! अलक्खिअं खु मोह-महारायस्स विडंबणं ! पुत्तपोत्तेहि परिवारिआ वि खिज्जति विरहिआ वि । दुरहिगमा किर मोह-मइराए तणूवी अण्णाणरेहा। सुहसंकप्पिए वि दुहं, दुहाइएवि सुहं अभिडइ । वत्थुत्तो पोग्गलिअं आसत्ति-पल्हत्थं किं सुहं किं दुहं ? इहगओ उत्थारो वि परिण पत्तो पच्चक्खं सोआलिखो। हंत ! तहवि कसाय-कलुसिओ जीवो णो जहातच्चं जिण-देसि धम्म सदहइ, पत्तिअइ, रोएइ य ।" (पृष्ठ १६)
जिस प्रकार मणि मुक्ताहार की शोभा बढ़ाता है, उसी प्रकार ग्रन्थ के अन्त में निबद्ध नीति-सूत्र ग्रन्थ के माहात्म्य को बढ़ाने वाले हैं । कथाकार ने अनेक स्थानों पर इन नीति-सूत्रों का प्रयोग किया है। पृष्ठ ३२ में प्रयुक्त वह नीति-वाक्य मननीय है-'आहार और व्यवहार में लज्जा नहीं रखनी चाहिए, यह नीति-सूत्र इस संस्कृत श्लोक का उपजीवी है
'आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।' रामचरित मानस के प्रणेता संत तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ में अनेक संस्कृत श्लोकों का समावेश अत्यन्त कुशलता से किया है। इसलिए काव्य की दृष्टि से रामचरित मानस का मूल्य बढ़ जाता है । इस ग्रन्थ का प्रत्येक अंश प्राचीन अनुभूतियों के प्रयोगों का समावेश अभिव्यक्त करता है ।
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विषय का उपसंहार करते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि कथाकार ने इस कथा ग्रन्थ को प्रस्तुत कर 'पडिसोयमेव अप्पा, दायन्वो होउकामेण''जो विकास करना चाहता है; उसे प्रतिस्रोत में बहना चाहिए' की आगम उक्ति को चरितार्थ किया है। वर्तमान में प्राकृत भाषा में नन्थ रचना करना प्रतिस्रोत में बहने से कम नहीं है।
__ महामना गुरुवर्य कालूगणी ने जो प्रयत्न किया था और महामना तुलसीगणी ने जिसको आगे बढ़ाया, उसी दिशा में यह कथा-प्रबन्ध महान् योगदायी सिद्ध होगा-यह कहा जा सकता है ।
इसलिए कथाकार मुनि साधुवाद के पात्र हैं। इस कथा प्रबंध का हिन्दी अनुवाद मुनि दुलहराज ने तथा संस्कृत छाया मुनि गुलाबचन्द ने प्रस्तुत को है । यह दोनों कार्य पूर्ण श्रम से सम्पादित हुए हैं। इनसे ग्रन्थ का गौरव बढ़ा है और संस्कृत तथा हिन्दी पाठकों के लिए पठन-पाठन को सरलता भी
मैं यह चिर अभिलाषा करता हूँ कि तेरापंथ परंपरा में इस प्रकार की ग्रन्थ-सम्पदा निरन्तर बढ़ती रहे।
वि० सं० २०२७, माघ कृष्ण ६
बोरावड (राजस्थान)
--मुनि नथमल
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FOREWORD
One of the impressive features of Jainism is its saying power. It is generally assumed to have had its beginnings with the Tirthankara Pārsvanatha in the 8th century B. C. and, though today it has only a relatively small body of adherents, it maintains a healthy, lively, and productive existence in both of its two great divisions.
In the many contacts which I have had with both Jain munis and Jain laymen during the past forty-three years I have observed the zeal with which the Jain community, both monks and laymen, preserves, studies, publishes and preaches its literature and honors the Jain teachings in their living. The Jains are not only a gentle people, but also a devoted and industrious people in conserving their faith. Furthermore, in our own time as in the past, the Jain munis constantly produce new works of religious edification, which may be written in English, but much more often in Gujrati, Hindi, Kanarese and other modern spoken languages of India and in Sanskrit as well, which learned Jain monks, like learned Hindu scholars, use for intellectual communication. Most surprising in this diligence in producing
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works in ancient and modern languages is the use in new publications of the canonical Ardhamagadhi and in the commentarial Jaina Maharashtri Prakrita. I have met monks whose fluency with Jaina Maharashtri is such they can speak extemporaneously in it when addressing public meetings. And there are some monks who can write freely in it and compose verses in it, using the traditional metre specially the Arya. Such a product is Muni Chandanmal's 'Rayana välakahä'. From one point of view this work is a tour de force, an astonishing achievement, but it is also more than that. It is a work of devotion,a product of religious devotion, meant by the author to promulgate Eternal Truth, as the Jain faith conceives it, and by presenting those teachings in narrative form to make them more comprehensible to the world to stimulate zeal in spreading them. Whatever one's personal doctrines about cosmic order and religious belief, one must regard such a motive as a noble one, which should be listened to attentively, and a work so motivated must be respected.
W Norman Brown
President, American Institute of Indian Studies Professor Emeritus of Sanskrit, Pennsylvania University
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Sਹਿ
पढमो ऊसासो बिइओ ऊसासो तइओ ऊसासो चोत्थो ऊसासो पंचमो ऊसासो छट्ठो ऊसासो सत्तमो ऊसासो
२२६-२५६
हिन्दी अनुवाद
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Uানালা
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अह सिरिचंदणमुणि-विरइआ पाइअ-भासा-णिबद्धा-रयणवालकहा तत्थ कव्वकारगस्स परमेट्टि-पंचग-सइएवं
मंगलायरणं
आरिया-छंदाई विलसइ जत्थ अणंतं णाणाईणं चउक्कयं सहजं । तेसिं अरहंताणं कुणेमि सरणं सुभत्तीए ॥१॥ करिअ अट्टकम्माणं समूल-णासं सहाव-संलीणा । जम्मावसाण-रहिआ सिद्धा मे सिद्धिदा होतु ॥२॥ जेसिं महोवयारो वट्टइ सम्मत्त-नाण-दाणेहिं । तेसि आयरिआणं को ण कयण्णू थुई कुणइ ? ॥३॥
१ चतुष्ककम् २ स्मरणम् ।
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अथ श्रीचन्दनमुनि - विरचिता
प्राकृत भाषा निबद्धा रत्नपाल - कथा
तत्र काव्यकारकस्य परमेष्ठि- पञ्चक- स्मृतिरूपं
मंगलाचरणम्
आर्या-छन्दांसि
विलसति यत्रानन्तं ज्ञानादीनां चतुष्ककं सहजम् । तेषामर्हतां करोमि स्मरणं सुभक्त्या ॥१॥ कृत्वाऽष्टकर्मणां समूलनाशं स्वभाव-संलीनाः । जन्मावसान - रहिताः सिद्धा मे सिद्धिदा भवन्तु ॥२॥
येषां
सम्यक्त्व-ज्ञान-दानैः ।
महोपकारो वर्तते तेषामाचार्याणां को न कृतज्ञः स्तुतिं कुरुते ? ॥३॥
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विज्जाणं वित्थारो सुलहो जेसिं सगासओ हवइ । विज्झाविअ'-भव-तावा संतु सरण्णा' उवज्झाया ॥४॥ जेसिं दसण-मेत्तं खवेइ भब्वाण कट्ठ-कोडीओ। इह तेसिं साहूणं पय-कमलं को ण पणमेइ ? ॥५॥ एवं परमेट्ठीणं पंचण्हं भाव-पूअणं किच्चा । अहमप्पण्णू कव्वं काउं सहसा पयट्टोम्हि ॥६॥ पर-पुग्गल-सत्ताणं कहं करिज्जइ सुहाण परिहासा? दुक्खाणं पि तहेव य, हंत! विचित्तोत्थि संसारो ॥७॥ किं हसणं, किं रुअणं, को सोओ,एत्थ को णु आणंदो? पुग्गल-धम्माणं किर सव्वा खण-भंगुरा लीला ॥८॥ कहमेगम्मि वि जम्मे जीवो अणुहवइ कम्म-वेचित्ति । कहा रयणवालस्स य णिदंसणं सम्ममिह अस्थि ॥६॥ कव्वछडा-विरहिअमवि सहाव-सरसं कहाणयं महुरं। अणलंकिओ वि बालो णागरिसण-कारगो कि णु?॥१०॥
१ विध्यापितभवतापाः २ शरण्याः-शरणे साधवः ३ परिभाषा ४ काव्यच्छटाविरहितमपि ।
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विद्यानां विस्तारः सुलभो येषां सकाशाद् भवति ।
सन्तु शरण्या
उपाध्यायाः ॥४॥
कष्ट - कोटीः ।
विध्यापित - भव-तापाः येषां दर्शन मात्र क्षपयति भव्यानां इह तेषां साधूनां पद- कमलं को न प्रणमति ? ॥५॥ एवं परमेष्ठीनां पञ्चानां भाव- पूजनं कृत्वा । अहमल्पज्ञः काव्यं कर्तुं सहसा प्रवृत्तोऽस्मि ॥६॥ पर-पुद्गल सक्तानां कथं क्रियते सुखानां परिभाषा । दुःखानामपि तथैव च हन्त ! विचित्रोऽस्ति संसारः ॥७॥ किं हसनं, किं रोदनं कः शोकोऽत्र को नु आनन्दः ? पुद्गल-धर्माणां किल सर्वा क्षणभङ्गुरा लीला ||८|| कथमेकस्मिन्नपि जन्मनि जीवोऽनुभवति कर्म - वैचित्रीम् । कथा रत्नपालस्य च निदर्शनं सम्यगिहास्ति ॥ ६ ॥ काव्यच्छटा-विरहितमपि स्वभाव सरसं कथानकं मधुरम् । अनलंकृतोऽपि वालो नाकर्षण- कारकः किं नु ? ॥ १० ॥
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पढमो ऊसासो
इओ किर अईए काले अत्थि पाइअ-सुदेर-सोहिअं बहुविहुज्जाण-पव्वय-परिमंडिअं पुरिमतालपुरं नाम णयरं । तत्थ रज्ज-धम्म-गीइ-सुणिउणो तक्कर-पारदारिअ-पस्स
ओहराईसु कूरो वि परमसोमो भुअबल-परिकंपिअ-सत्तु - णिवहो अणलसो सूरसेणो णाम णिवई । अणेगे इब्भा सेट्ठिणो गाहावइणो अपरिहूअ-विहवा अमाण-मच्छरिणो तत्थ परिवसंति । तेसि मिअव्वयाण पि धणं सुसंप्पओगम्मि गईसोत्त पिव पवहइ । मायरं पिव पेच्छइ पर-जुवइजणं तेसिं लज्जालुइणी दिट्ठी। मणयमवि गरहिअं काऊण झत्ति पायच्छित्तं पडिवज्जिउकामा तेसि तत्त-परिपूआ मई ।
१ प्राकृत सौन्दर्य-शोभितम् २ मितव्ययानामपि ३ गौणादयः' इतिसूत्रेण साधु, लज्जालुरित्यर्थः
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प्रथमः उच्छ्वासः
इतः किल अतीते काले अस्ति प्राकृत-सौन्दर्य-शोभितं बहुविधोद्यान-पर्वत-परिमण्डितं पुरिमतालपुरं नाम नगरम् । तत्र राज्य-धर्मनीति-सुनिपुणः, तस्कर-पारदारिक-पश्यतोहरादिषु क्रू रोऽपि परमसोमः, भुजबल-परिकम्पित-शत्र -निवहः, अनलसः सूरसेनो नाम नृपतिः। अनेके इभ्याः श्रेष्ठिनः, गाथापतयः अपरिभूत-विभवाः अमान-मत्सरिणः तत्र परिवसन्ति । तेषां मितव्ययानामपि धनं सुसम्प्रयोगे नदीस्रोत इव प्रवहति । मातरमिव प्रक्षते पर-युवतिजनं तेषां लज्जालु ईष्टि: । मनागपि गहितं कृत्वा झगिति प्रायश्चित्त प्रतिपत्तुकामा तेषां तत्व-परिपूता मतिः । श्वः परेद्य : वा कर्तव्यं सुवि
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रयणवाल कहा सुवेप परज्जु वा कायव्वं सुविहिअं एत्ताहे कुणिमु 'त्ति तेसि विसिट्ठा जागरणा। पायं धणेसरा अवि ते परदुहम्मि दुक्खिया । दुस्सहो तेहिं खंतिखमेहि पि धम्मिओ पराहवो । आवडिए बहुकज्जभारे वि अबीअं मुणंति ते धम्मकज्जं । अहो ! अच्छरिअं !" तेसि सहलंध मणुअत्तं पेच्छिऊण देवा अवि पडिफद्वंति तारिसा होउ।
तेसु सयल-पुरजण-संमाणिओ मेढि-चक्खू-भूओ भद्दपयडी दयल्लहिअयोः जिणदत्तो णाम महेब्भो। सामाइअपडिक्कमण-पोसहोववासाई सम्मं पालेमाणो सुहंसुहेण विहरइ। सो अंतरप्पम्मि निरंतरं सावयाणं तिण्णि मणोरहे भावेमाणो दुरुत्तरं दुरवगाहं संसार-सायरं पारं णेउं पयासइ। धण-संपयाओ बहमण्णए सो धम्मसंपयं । सरिआजलं पिव गत्तरं जुव्वणं, विज्जू-पयास-निहं च जीविअं, पुरा पच्छा वा चइअव्वं सव्वमिणं 'ति सरेतो अप्पमाओ अच्छई। पाउसागमे मोरव्व भाविअप्पाणं मुणिदचंदाणं दसणं लहिआणं पंफुल्लमाणसो हवइ । तेसि धम्मोवएसं सद्धि वयंसेहिं तत्त-ग्गहणमईए सायरं एगग्गमणो कुपलीकय"-पाणिजुअलो आयण्णेइ ।
तस्स सेट्ठिणो मणुअ-सरीरं पत्ता विव अच्छरसा, पिंडीभूआ विव गुणसंतई, सक्खं विणयसंपया, वंस-परंपरालद्भुच्च-सक्कारा, लज्जा-णमिअ-दिट्ठी, महुरववहारा भाणुमई णाम भारिआ । जाए नेत्त-कमला णिच्चं उम्मिल्ला वि परजण-गयावगुणाई दट्ठ, मुद्दिअ-पम्हजुअला। जाए णव
१ श्वः २ परेद्य : ३ एत्ताहे-इदानीम् ४ अद्वितीयम् ५ आश्चर्यम् ६ सफलम् ७ प्रतिस्पर्धन्ते 5 दयाहृदयः ६ तिष्ठति १० कुड्मलीकृत० ११ वंशपरम्परा
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पढमो ऊसासो हितं 'इदानीं कुर्मः' इति तेषां विशिष्टा जागरणा । प्रायः धनेश्वरा अपि ते पर-दुःखे दुःखिताः । दुस्सहः तैः शान्ति-क्षमैरपि धार्मिकः पराभवः । आपतिते बहुकार्यभारेऽपि अद्वितीयं जानन्ति ते धर्मकार्यम् । अहो ! आश्चर्यम् ! तेषां सफल मनुजत्वं प्रेक्ष्य देवा अपि प्रतिस्पर्धन्ते तादृशाः भवितुम् ।
तेषु सकल-पुरजन-सम्मानितः मेधि-चक्ष भूतः भद्रप्रकृतिः दयाहृदयः जिनदत्तो नाम महेभ्यः । सामायिक-प्रतिक्रमण-पौषधोपवासान् सम्यक् पालयन् सुखं सुखेन विहरति । स अन्तरात्मनि निरन्तरं श्रावकाणां त्रीन् मनोरथान् भावयन् दुरुत्तरं दुरवगाहं संसार-सागरं पारं नेतु प्रयस्यति । धनसम्पत्त: बहुमन्यते स धर्मसम्पदम्। सरिज्जलमिव गत्वरं यौवनं, विद्य त्प्रकाशनिभं च जीवितं, पुरा पश्चाद् वा त्यक्तव्यं सर्वमिदमिति स्मरन् अप्रमादः तिष्ठति । प्रावृडागमे मयूरवद् भावितात्मनां मुनीन्द्रचन्द्राणां दर्शनं लब्ध्वा प्रफुल्लमानसो भवति । तेषां धर्मोपदेशं साधू वयस्यः तत्त्व-ग्रहणमत्या सादरं एकाग्रमनाः कुड्मलीकृत-पाणियुगलः आकर्णयति ।
तस्य श्रोष्ठिनः मनुजशरीरं प्राप्ता इव अप्सराः, पिण्डीभूता इव गुणसन्ततिः, साक्षाद् विनयसम्पद्, वंशपरम्परा-लब्धोच्च-संस्कारा, लज्जानमित-दृष्टिः, मधुर-व्यवहारा भानुमती नाम भार्या । यस्याः नेत्रकमलानि नित्यमुन्मीलितान्यपि परजनगतावगुणान् द्रष्टु मुद्रित
लब्धोच्चसंस्कारा १२ वाक्ष्यर्थवचनाद्याः (हे० १-३३) इति सूत्रेण कमलशब्दस्य पुस्त्वम् १३ 'गुणाद्याः क्लीबे वा' (हे० १-३४) इति सूत्रेण गुण-शब्दस्य नपुंसकत्वम् ।
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रयणवाल कहा णीअ-कोमलो वि उरो गहिअ-पइण्णा-संरक्खणटुं वज्जकढिणो। जास वयणाई सम्वेसि परमाल्हाय-जणगाइं । कुलमेरा च्चिय णाए परमा गरिमा । गुरूण-पुरओ विणयसीला सा कयंजली सव्वेहि दिट्ठा। केणावि किं पि साहिआ तह 'त्ति' जुत्तं 'ति' विकासर-वयणारविदाए पडिवज्जमाणाए रणाए सम्म भाविअं। सिरीस-कोमलंगी वि अवीसामं घर-कज्ज अखेरं कुणमाणा पाडिवेसिएहि पसंसिआ । तम्हा सव्वेहिं घर-ववहारेसु पुच्छिअब्बा सा पीइवीसंभ-भायणं जाया। पाडिप्फद्धिणो वि अण्णत्थालब्भ ताए णेसग्गिरं महुर-ववहारं पप्प विसुमरिअ-वेरभावा भूआ।
एवं सव्वओ दाहिणभावं पडिवण्णो वि जिणदत्तो एगेण चिंतासल्लेण किंचि उच्चेओ" वदृइ । जमेगेण कुलदीवेण विहूणं धरण-धण्ण-भिच्च-किंकर-पडिपुण्णं सुसज्जिअं सुमंडिअं पि धवलगिहं सुसाण-तुल्लं परिलक्खिज्जइ। हंदि ! केरिसो गिठ्ठरो किविणो विही !! जं केसिमवि ण सव्वंगिअं सुहं तितिक्खेइ। सव्व-काम-समप्पिओ वि पुरिसो ईसि अणणकूलत्तणं पायमणुहवइ चेव। सुहासोअंसि वि अहियाइ काइ सुण्हा" कालकूड-रेहा। मणुअस्स णिडालम्मि किं भद्दमभद्द लिहिअं 'ति किं णज्जई अप्पण्णुणा मणुएण । तहवि अज्झत्थ-तत्त-निउणो आपाय-बंधुरं पि पेरंत-दारुणं पोग्गलिअं परिणामं मुणेतो अंतग्गयं तं चिंता-सल्लं णाई बहु
१ वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्' (हे० १-३५) इति नित्य स्त्रीत्वम् २ कथिता ३ प्रातिवेश्मिकै: ४ प्रतिस्पर्धिनोऽपि ५ उद्विग्नः, यथा-आइग्गं उद्विग्गं उच्चेयं
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पढमो ऊसासो पक्ष्मयुगलानि । यस्याः नवनीत-कोमलमप्युरः गृहीतप्रतिज्ञा-संरक्षणार्थं वज्रकठिनम् । यस्याः वचनानि सर्वेषां परमाल्हादजनकानि । कुलमर्यादा एव तस्याः परमो गरिमा। गुरूणां पुरत: विनयशीला सा कृताञ्जलिः सर्वैः दृष्टा। केनापि कथिता 'तथेति' 'युक्तमिति' विकस्वरवदनारविन्दया प्रतिपद्यमानया यया सम्यग् भावितम् । शिरीष-कोमलाङ्गी अपि अविश्राम गृहकार्य अखेदं कुर्वाणा प्रातिवेश्मिकैः प्रशंसिता । तस्मात् सर्वैः गृह-व्यवहारेषु प्रष्टव्या सा प्रीतिविश्रम्भ-भाजनं जाता। प्रतिस्पद्धिनोऽपि अन्यत्रालभ्यं तस्याः नैसर्गिक मधुरव्यवहारं प्राप्य विस्मृत-वैरभावाः भूताः ।
एवं सर्वतः दक्षिणभाव प्रतिपन्नोऽपि जिनदत्तः एकेन चिन्ताशल्येन किञ्चिद् उच्चेताः वर्तते। यदेकेन कुलदीपेन विहीनं धन-धान्य-भृत्यकिङ्कर-प्रतिपूर्ण सुसज्जितं सुमण्डितमपि धवलगृहं श्मशान-तुल्यं परिलक्ष्यते । हन्दि ! (खेदे) कीदृशो निष्ठुरः कृपणो विधिः ? यत् केषामपि न सर्वाङ्गीणं सुखं तितिक्षते। सर्वकाम-समर्पितोऽपि पुरुष: ईषत् अननुकूलत्वं प्रायोऽनुभवत्येव । सुधास्रोतसि अपि अभियाति कापि सूक्ष्मा कालकूट-रेखा । मनुजस्य ललाटे किं भद्रमभद्र लिखितमिति किं ज्ञायते अल्पज्ञ न मनुजेन ? तथापि अध्यात्म-तत्व-निपुणः आपात-बन्धुरमपि पर्यन्त-दारुणं पौद्गलिकं परिणाम जानन् अन्त
वुन्नमुत्तत्थं (पाइयलच्छी० १३२) ६ अभियाति ७ सूक्ष्मा ८ ज्ञायते 'ज्ञो णव्वणज्जौ' (हे० ४-२५३) ।
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रयणवाल कहा
१२
गणइ । णमुक्कार-महामंतं पडिच्छणं सरमाणो सुहं जीवणं
जवेइ' ।
अह अण्णया समागओ कोमुई - महसओ । तेण बहवे पउरा परिहिअ - णाणाविह - सोहण - णेवत्था महग्घाऽऽभरणालंकिअ- सरीरा सहि-सएहिं परिवारेहिं परिवुडा उज्जाणाहिमुहं वाहणेहिं पायचारेण वा साणंदं निग्गच्छंति ।
इओ अ भाणुमई भोअणाइ सयल - गिह- कज्जाओ निअट्टा समाणा सयग - भवण-वायायणम्मि ट्ठिआ चउप्पहं पलोएउ लग्गा । अकम्हा ताए दिट्ठी थीणं समूहम्मि णिवडिया । जाओ विलयाओ' पुत्त-पोत्त-परिवारिआओ नाणाकीड्डा - संसत्त- माणसाओ परोप्परं मिलंति, हसंति, रमंति, विविह बालकहा वित्थारयंति अ । तासु काइ स - सिलंबं " अंगुलिआए गहिऊण महुरमुल्लावेंती सणि सणिअं चलावेइ । अण्णा रुतं डिभं विचित्तारिण कीलावणयाणि दावेऊण तुट्टिमुप्पावे | इअरा 'कोडे कुणसु" त्ति गहिअ ' - हेवायं पो उट्टावेऊण भद्द' तयस्स-कमलं चु बेमाणो सुहमणुहवइ । धण्णकण-भक्खणपरं पारेवअ " - संदोहं पेक्खि कोइ असण्णोभूओ बालो विचित्त पहे पुच्छि अम्मयं विम्हावे । काइ अग्गे वच्चतं कमवि झडिलं' दंसिऊण णित्रं अब्भयं सयरा ह पलाएउ साहेइ । अवरा णाणापगारं मिटुण्णं किणिअ" सिसु- मुहम्म सवच्छल्लं पक्खिवइ । परा डिभेहि समं मण - पल्हायजर्णाण कहूं वित्थारेमाणी विविह घर कज्ज-जणिश्रं मत्थयत्थं खेयं सिढिलयइ । एआरिसा " णाणा - बालकीला
.११
१ यापयति 'यापेर्जव:' ( है ० ४-४० ) २ स्वकभवनवातायने ३ वनिताः 'वनिताया विलया' ( हे० २ - १२८ ) ४ स्वशिशुं । यथा- - डहरो डिभो चुल्लो,
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पढमो ऊसासो
१३
र्गतं तत् चिन्ताशल्यं न बहु गणयति । नमस्कार - महामन्त्र प्रतिक्षणं स्मरन् सुखं जीवनं यापयति ।
अथ अन्यदा समागतः कौमुदी - महोत्सवः । तेन बहव: पौराः परिहित- नानाविध-शोभननेपथ्याः महार्थ्याभरणाऽलङ्कृत-शरीराः स्वकैः स्वकैः परिवारैः परिवृताः उद्यानाभिमुखं वाहनैः पादचारेण वासानन्दं निर्गच्छन्ति ।
इतश्च भानुमती भोजनादि - सकल-गृह-कार्यात् निवृत्ता सती स्वक-भवन-वातायने स्थिता चतुष्पथं प्रलोकितु लग्ना । अकस्मात् तस्याः दृष्टिः स्त्रीणां समूहे निपतिता । याः वनिताः पुत्र-पौत्र-परिवारिताः नाना-क्रीडा-संसक्त-मानसाः परस्परं मिलन्ति, हसन्ति, रमन्ते विविध - बालकथा : विस्तारयन्ति च । तासु कापि स्व-सिलिब ( स्वशिशु ) अंगुल्या गृहीत्वा मधुरमुल्लापयन्ती शनैः शनैः चालयति । अन्या रुदन्तं डिम्भ विचित्राणि क्रीडनकानि दापयित्वा तुष्टिमुत्पादयति । इतरा 'कोडे कुरु' इति गृहीत - हेवाकं पोतं उत्थाप्य भद्र ं तदास्य-कमलं चुम्बन्ती सुखमनुभवति । धान्यकण-भक्षणपरं पारापत सन्दोहं प्रेक्ष्य कोऽपि असंज्ञीभूतो बालो विचित्र प्रश्नान् पृष्ट्वा अम्बां विस्मापयति । कापि अग्रे व्रजन्तं कमपि जटिल दर्शयित्वा निजं अर्भकं शीघ्र पलायितुं कथयति । - अपरा नानाप्रकारं मिष्टान्न क्रीत्वा शिशु मुखे सवात्सल्यं प्रक्षिपति । परा डिम्भैः समं मनः प्रह्लादजननीं कथां विस्तारयन्ती विविध-गृहकार्यजनितं मस्तकस्थं खेदं शिथिलयति । एतादृश्यः नाना - बालक्रीडा
सिसू सिलंबो य अब्भओ पोओ ( पाइय० १५) ५ 'कोडे कुरु' 'गोद में ले' इतिभाषा | गृहीतवाकं कृताग्रहमित्यर्थः १० पारापत - संदोहम् ११ जटा
धारिणं १२ शीघ्रम् १३ कीला १४ बहुवचनमिदम् ।
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रयणवाल कहा निक्खित्त-चित्ता मायरा जाणु-कुप्पर-माऊए भाणुमईए दिट्टा। तक्खणं सा पुत्त-वंझं णिनं उच्छंगं निहालेमाणी अगाह-सोअ-सायरम्मि णिमग्गा। हद्धी' ! अफलो जाओ मे जम्मो ! ऊ ! किं मए लद्ध णिरटुग्रं माणुसीत्तणं ! थू ! णिल्लज्जेण विहिणा मोरउल्लाणे समप्पिआ अउला अत्थ-संपया ! ओ ! वीसु" गाढमंधयारं पत्थरि दोसइ ! हरे ! कस्स पुरओ दुहं पाउक्करेमि ! धण्णाओ कयपुण्णाओ णं एआओ अम्मयाओ जाहिं सक्खं-सुविहिअफलं पिव दुल्लहं पुत्त-मुह-हिमयर-दंसणं सुलद्ध। अहो ! केरिसं णिरुवमं अणुहव-गमणिज्जं सुहं संवेअयंति ता, जाणं कण्ण-जुअलं कोलारय-बाल-रोलेण पडिपुण्णं । अम्मो ! तुडिअखरा पयड-वागरण-णिअम-विसढा वि सावाण वाणी उच्छु-लद्वित्तो वि अहिअयरं माहुरिनं पावेइ। अहह ! कया एआरिसं सोवण्णिधे पच्चूहं पेसिछस्सं, जया मामगमुच्छंगमवि अवच्च-हलप्फलिग्रं भविस्सइ । हहा ! केवइआ अगणिआ जंत-मंत-तंताइआ उवरुवरि उवाया पुत्तट्ट कया, किणो ण केणावि किमवि पडिफलं दंसिग्रं? मणे'' भास-रासिम्मि हुग्रं विव ते वंझत्तणं गया। ओ ! केरिसं अववत्थिग्रं अविआरिअं जडाए पयडीए रज्ज, जत्थ ण किमवि जहारिहं दीसइ । अरे ! जत्थ य दरिदस्स निच्चलो वासो तत्थ अवारा परिवारस्स वुड्ढी । जत्थ पुण मुत्ताहलेहि भरिग्रं भंडायारं तत्थ एकल्लोवि' दुइआए नवल्लो चंदो ण दिट्ठीपहमोअरइ। एवं भाणुमई विविह
१ हद्धी-निर्वेदे (हे० २-२६२) २ ऊ-गर्हाक्षेपविस्मयसूचने (हे० २-२६६) ३ थू-कुत्सायाम् (हे० २-२००) ४ मोरउल्ल मुधा (हे० २-२१४) ५ ओ
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पढमो ऊसासो निक्षिप्त-चित्ताः मातरः जानु-कूपर-मात्रा भानुमत्या दृष्टाः । तत्क्षणं सा पुत्र-वन्ध्यं निजं उत्सङ्ग निभालयन्ती अगाध-शोक-सागरे निमग्ना। हद्धी ! (निवेदे) अफलं जातं मे जन्म ! ऊ (गर्हायाम्) किं मया लब्धं निरर्थकं मानुषीत्वम् ? थू ! (कुत्सायाम्) निर्लज्जेन विधिना मुधा अस्मभ्यं समर्पिता अतुला अर्थसंपत् ! ओ ! (पश्चात्तापे) विष्वग् गाढं अंधकारं प्रस्तृतं दृश्यते ! हरे (क्ष पे) कस्य पुरतो दुःखं प्रादुष्करोमि । धन्याः कृतपुण्याः णं (वाक्यालङ्कारे) एताः अम्बाः याभिः साक्षात् सुविहित-फलमिव दुर्लभं पुत्रमुख-हिमकर-दर्शनं सुलब्धम् । अहो ! कीदृशं निरुपम अनुभवगमनीयं सुखं संवेदयन्ति ताः; यासां कर्णयुगलं क्रीडारत-बाल-कोलाहलेन प्रतिपूर्णम् ! अम्मो ! (आश्चर्ये) त्र टिताक्षरा प्रकट-व्याकरण-नियम-विषमा अपि शावानां वाणी इक्ष - यष्टितोऽपि अधिकतर माधुर्य प्राप्नोति । अहह ! कदा एतादृशं सौवणिकं प्रत्यूषं प्रक्षिष्ये, यदा मामकमुत्सङ्गमपि अपत्यव्याकुलं भविष्यति ? हहा ! केवतिकाः अगणिताः यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रादिका उपर्युपरि उपायाः पुत्रार्थ कृतोः, किणो ! (प्रश्ने) न केनापि किमपि प्रतिफलं दर्शितम् । मणे (विमर्श) भस्मराशौ हुतं इव ते वन्ध्यत्वं गताः । ओ ! (पश्चात्तापे) कीदृशं अव्यवस्थितं अविचारितं जडायाः प्रकृत्याः राज्यं, यत्र न किमपि यथार्ह दृश्यते । अरे ! (संभाषणे) यत्र च दारिद्रयस्य निश्चलो वासः तत्र अपारा परिवारस्य वृद्धिः, यत्र पुनः मुक्ताफलैः भरितं भाण्डागार, तत्र एकोऽपि द्वितीयायाः नवश्चन्द्र न दृष्टिपथमवतरति । एवं भानुमती विविध-विकल्प-तापपरितप्ता एक्कसरिअं (झगिति) सशब्दं परिदेवितु आरब्धा ।
सूचनापश्चात्तापे ६ विष्वक् ७ हरे-क्षेपेच (हे० २-२०२) ८ क्रीडारतबालकोलाहलेन ६ बालाणं-बालानाम् १० प्रत्यूषं ११ किणो प्रश्ने (हे. २-२१६) १२ मणे-विमर्श (हे० २-२०७) १३ ‘ल्लोनवैकाद्वा' (हे० २-१६५) ।
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१६
रयणवाल कहाँ
विकप्प-ताव - परितत्ता एक्क-सरि ससद्द परिदेविउमादत्ता' । सकज्जल - बाहनीरेण उज्जलं गंडतलं मलिणं काउ लग्गा । अलाहि णेण मणोरह-सूण्णेण जीवणेणं' ति हिमाणी - दड्ढा भिसिणी' व्व विलीण सुसमा जाया । णीसासूसासमंता वि लोहार - चम्म कोसिअव्व पायड-५ अण- अणावि अणा - रहिआ निव्वुत्ता ।
अहो! अलक्खि खु मोह-महारायस्स विडंबणं । पुत्तपोत्तेहि परिवारिआ वि खिज्जति विरहिआ वि । दुरहिगमा किर मोह - महराए तणुवी' अण्णाणरेहा । सुह-संकप्पिए वि दुहं, दुहाइ सुहं, अभि । वत्थुत्तो पोग्गलि आसत्तिपल्हत्थं कि सुहं, कि दुहं ? इहगओ उत्थारो वि परिणईपत्तो पच्चक्खं सोआलिद्धो" । हंत ! तहवि कसाय - कलुसिओ जीवो णो जहातच्चं जिण - देसि धम्मं सद्दहइ, पत्तिअइ, रोएइ य ।
१२
93
इओ एगए तत्थ जिणदत्तो सेट्ठी पेयसी ससीममागओ । सुहायं ताए मिलाणं मुह-कमलं पेक्खिऊण किंपि असोहणं 'ति संकिओ अउलं वेयणमणुहवंतो सप्पणयं महुरमहुरयाए गिराए साहेउं पउत्तो - " दे१४ माणिणि !
--
कीस तुमं अज्ज विमणायमाणी लक्खिज्जसि ! को णु इर" एआरिसो मंदभग्गो जणो जेण भवईए मरणो पईविओ" । ज्झत्ति" भरणसु, तस्स दुदुक्खर घडियं गामधेयं, जहा हं तं णिगि हेमि । कय- दुस्साहसस्स कढोर - पायच्छित्त - दारणेण तस्स दप्पं ओसारेमि " । कोमल" - कव्वडेण अहर- द्विआई
१८
१ 'एक्कसरि झगिति संप्रति' (हे० २ - २१३) २ आरब्धा लग्ना ३ अलाहि निवारणे ( हे० २ - १८२) ४ बिसिनीव - कमलिनीव ६ प्रकटचेतनकेतनापि
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पढमो ऊसासो
सकज्जल-वाष्पनीरेण उज्ज्वलं गण्डतलं मलिनं कर्तु लग्ना । अलाहि (निवारण) अनेन मनोरथ-शून्येन जीवनेन, इति हिमानी-दग्धा बिसिनीव विलीन-सुषमा जाता । निःश्वासोच्छ्वासमती अपि लोहकारचर्मकौशिका इव प्रकट-चेतन-केतना अपि चेतना-रहिता निवृत्ता।
अहो अलक्षितं खु (निश्चये) मोहमहाराजस्य विडम्बनम् ! पुत्रपौत्र : परिवारिताः अपि खिद्यन्ते, विरहिता अपि । दुरधिगमा किल मोहमदिरायाः तन्वी अज्ञानरेखा । सुख-संकल्पितेऽपि दुःखं, दुःखायितेऽ पि सुखं संगच्छते । वस्तुतः पौद्गलिकं आसक्ति-पर्यस्तं किं सुखं, किं दुःखम् ? इहगतः उत्साहोऽपि परिणति प्राप्तः प्रत्यक्ष शोकाश्लिष्टः । हन्त ! तथापि कषाय-कलुषितो जीवः न यथातथ्यं जिन-दर्शितं धर्म श्रद्धत्ते, प्रत्येति, रोचते च ।
इतः एकपदे तत्र जिनदत्त: श्रेष्ठी प्रेयसी-ससीममागतः । अश्रुस्नातं तस्याः म्लानं मुख-कमल प्रक्ष्य किमपि अशोभन मिति शङ्कितः अतुलां वेदनां अनुभवन् सप्रणयं मधुर-मधुरया गिरा कथयितु प्रवृत्त:- "हे मानिनि ! कस्मात् त्वं अद्य विमनायमाना लक्ष्यसे ? को नु एतादृशः मन्दभाग्यो जनः, येन भवत्याः मनः प्रतीपितम् ? झगिति भण, तस्य दुष्टाक्षर-घटितं नामधेयं, यथा अहं तं निगृण्हामि । कृतदुस्साहसस्य कठोर-प्रायश्चित्त-दानेन तस्य दर्प अपसारयामि । कोमलकपटेन अधर-स्थितान् वाष्प-बिन्दून् मृजन
६ तन्वी 'तन्वीतुल्येषु' (हे० २-११३) ७ दुःखायिते ८ संगच्छते 'समा अभिड: (हे० ४-१६४) ६ आसक्ति-पर्यस्तं १० उत्साहः । वोत्साहे थो हश्चरः (हे० २-४५) ११ आश्लिष्टे ल धौ (हे० २-४६) १२ एकपदे-सहसा १३ प्रेयसीसमीपम् १४ 'दे' सम्बोधने १५ 'इर' किलार्थे १६ प्रतीपितं-प्रतिकूलतां-नीतम् १७ झगिति १८ अपसारयामि १६ कोमलकपटेन (रुमाल इतिभाषा)।
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रयणवाल कहाँ बाह-बिंदुई लुछमाणो भत्ता सोअ-कारणं मग्गिउं लग्गो। परंतु तुहिक्काए पणइणीए ण एगमवि अक्खरं वागरिग्रं, पच्चुल्लं' तुडिअ-मुत्ताहल-मालं पिव नेत्तंबुधारं वासेमाणी अईव दुक्खिआ जाया।
पाणसमे ! कहं मोणमालंबिअ दइग्रं दुहयसि ! अमुणि-तत्थेण मए कहं दुह-पडिआरो कायव्वो? धी ! धी ! तं गिहत्थासमं जत्थ पडिकूलयावण्णो इथिआ-जणो मणम्मि विसीअइ। णिवडिआ च्चिय मुणेअव्वा तत्थ घोरा विवया विज्जू जत्थ अवमण्णिज्जइ णारी-वग्गो पुरिसमत्तेण । परं णाहं चएमि सहेउं मे अद्ध गिणीए णिवारणारिहं दुहं, एवं भणमाणेण सेट्टिणा उवऊढा दइआ, पुणो पुणो अणुरुद्धा आयण्णिउं अयंड-समुट्ठिअं“ सोअ-कारणं।
पइणा परम-पेम्म-पोसिआ भज्जा किंचि पयडित्था५ जाया । पइदेवस्स अहिणंदणं कुणमाणीए तीए कहं कहमवि जाणाविओ णिअ-सोअ-वइअरो। अज्जउत्त ! अज्जाहं भोयणाईणं कसिणं घर-कज्जं संगोविअ गवक्खम्मि द्विआ। अतक्किआ मे दिट्ठी णिवडिआ चउप्पहम्मि आहिंडमाणे पुत्त-पोत्त-परिवारिए विलयाजणे । तं पेच्छिअ मे हिअयम्मि काइ पसुत्ता पुत्त-कामणा जागरूआ जाया। अहह ! धण्णाओ एआओ भामणीओ, जाणं पुरओ धूलि-धूसरिआ मम्मगुच्चारा जंपिच्छिा हसमाणा रुवेमाणा विथक्क - हेवागा पागा कीलंति, रमंति, पलोट्टति च । अहयं ।
१ प्रत्युत २ अज्ञाततथ्येन 'जो जाणमुणौ' (हे० ४-७) ३ चएमि-शक्नोमि यथा-सक्कइ चयइ 'य' तरेइ पारेइ (५६७ पाइ० नाममाला) ४ अकाण्ड-समुत्थं 'अयंडमणवसर' (पाइय० ८-३६) ५ प्रकृतिस्था ६ भागिन्यः । पुन्नागभा
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पढमो ऊसासो
१६
भर्ता शोक-कारणं मार्गयितु लग्नः । परन्तु तूष्णीकया प्रणयिन्या न एकमपि अक्षरं व्याकृतम्, प्रत्युत, त्रुटित मुक्ताफल- मालामिव नेत्राम्बुधारां वर्षयन्ती अतीव दुःखिता जाता ।
प्राणसमे ! कथं मौनमालम्ब्य दयितं दुःखयसि ? अज्ञाततथ्येन मया कथं दुःख प्रतीकारः कर्त्तव्यः । धिग् ! धिग ! गृहस्थाश्रमं यत्र प्रतिकूलतापन्नः स्त्रीजनो मनसि विषीदति । निपतिता एव ज्ञातव्या तत्र घोरा विपद् - विद्यत् यत्र अवमन्यते नारी - वर्ग: पुरुषमात्र ेण । परं नाहं शक्नोमि सोढुं मे अर्द्धाङ्गिन्याः निवारणार्ह दुःखम् । एवं भणता श्रेष्ठिना उपगूढा दयिता, पुनः पुनः अनुरुद्धा आकर्णयितु अकाण्डसमुत्थितं शोककारणम् ।
पत्या परम-प्रेम-पोषिता भार्या किञ्चित् प्रकृतिस्था जाता । पतिदेवस्य अभिनन्दनं कुर्वत्या तया कथं कथमपि ज्ञापितो निजशोकव्यतिकरः ! आर्यपुत्र ! अद्याहं भोजनादीनां कृत्स्नं गृह कार्य संगोप्य गवाक्ष े स्थिता ! अतर्किता मे दृष्टिः निपतिता चतुष्पदे आहिण्डमाने पुत्र-पौत्र-परिवारिते वनिताजने । तं प्र ेक्ष्य मे हृदये कापि प्रसुप्ता पुत्रकामना जागरूका जाता । अहह ! धन्याः एताः भागिन्यः यासां पुरतो धूलि - धूसरिताः मन्मनोच्चारा: जंपिच्छिआ: ( यत्किमपि मार्गणशीलाः ) हसन्तो रुदन्तो विष्ठित हेवाकाः पाकाः क्रीडन्ति, रमन्ते,
-
गिन्योर्गोम: ( है ० १ १६१) ७ जिसे देखता है उसे चाहने वाला । यथापिच्छइ तपिच्छ जो सो जंपिच्छिओ भणिओ (६५५ पाइ० ) ८ विरोध्याग्रहाः । ६ पाका १० अहमेव - अहयं ।
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२०
रयणवाल कहा
तु केरिसी अहण्णा अण्णा ऊसरधरणी- संकासा जीए णो एगमवि बी परिफुडिअ भूअ । इहई भुवणतले ओअरिअ' केवलमहं इत्थी - ओलीए बिदुद्वाणं पत्ता ।
४
पियवर ! ण कहं खेओ जायए मे वज्ज - कढोरम्मि हिअयम्म ? केत्तिओ कालो बोलीणो पयट्टे अम्हाणं पाणिग्गहणे तहवि ण अल्लिविअ देवेण कुलदीवगं एगमवि अवच्चं । णाऽऽयण्णिआ सुमिणे वि जाय - कहा । पत्थुआ अगे उवाया थोववेलाए" आसा पयासं दंसिअ अते फेणबुब्बुअ-संनिहा अदिट्ठा जाया । कुलभक्खरं विणा को एआरसीए महालच्छीए संरक्खिरो' भविस्सइ ? सयलपुरजण-पट्टि भवओ अहिआरणं किं ण णाम पम्हुट्ठ होहि आगामि- बंस परंपराए ? एवं सगग्गयक्खरं भणमाणी भाणुमई पुणरवि रोत्तुमाढत्ता ।
७
१
अतो संधुक्किअ'' सोअ - जलरणं कहकहमवि णिवाविऊण' सेट्टिणा कहिअ - "सुहवे ! तत्तविआणिरी भविआवि कहमुल्लंबिआई निरट्ठ- चिताविआणाई ? ण याणासि कि अणुल्लंघ णिज्जा हु दविगी रेहा ? वहणिज्जो चिय अणि - च्छिअव्वो वि पामरेण जंतुणा कय-कम्माण भारो । किण अणुचिट्ठामो अम्हे पइदिअहं पुत्तवडिआए कमवि कमवि उवायं, तहाविण होइ जइ फलीभूआ अम्हाणं आसा. तयाणि अंतराय - विअ भिअमेव मुणेअव्वं तं ।
अज्जवि ण विट्ठ किमवि । पणट्ठा होज्जा जइ
१ अवतीर्य २ स्त्रीपङ्क्तौ ३ व्यतीतः ४ अर्पितः (अर्पेरल्लिव - चच्चुप्प - पणामा: है० ४-३६) ५ स्तोकवेलायां ' स्तोकस्य थोक्क थोव-थेवा' (हे०
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पढमो ऊसासो प्रलुठन्ति च । अहं तु कीदृशी अधन्या अपुण्या ऊषर-धरणी-संकाशा यस्यां न एकमपि बीजं परिस्फुटितं भूतम् । इह भुवनतले अवतीर्य केवलमहं स्त्री-आल्यां बिन्दुस्थानं प्राप्ता।
प्रियवर ! . कथं खेदो जायते भवत: वज्रकठोरे हृदये ? कियान् कालो व्यतीतः प्रवृत्त अस्माकं पाणिग्रहणे; तथापि न अर्पितं देवेन कुलदीपकं एकमपि अपत्यम् । नाकर्णिता स्वप्नेऽ.प जात-कथा। प्रस्तुताः अनेके उपायाः स्तोकवेलायां आशा-प्रकाशं दर्शयित्वा अन्ते फेन-बुबुद्-सन्निभाः अदृष्टाः जाताः । कुलभास्करं विना को नु एतादृश्याः महालक्ष्म्याः संरक्षिता भविष्यति ? सकल-पुरजन-प्रतिष्ठितं भवतः अभिधानं किं न नाम विस्मृतं भविष्यति आगामि-वंशपरम्परायाम् ? एवं सगद्गदाक्षरं भणन्ती भानुमती पुनरपि रोदितु आरब्धा।
अन्त: संधुक्षितं शोकज्वलनं कथंकथमपि निर्वाप्य श्रेष्ठिना कथितम्- "सुभगे ! तत्व-विज्ञात्री भूत्वापि कथं उल्लम्बितानि निरर्थचिन्तावितानानि ? न जानासि किं अनुल्लंघनीया 'खु (खलु अर्थे) दैविकी रेखा । वहनीयः एव अनेष्टव्योऽपि पामरेण जन्तुना कृतकर्मणां भारः। किं न अनुतिष्ठामः वयं प्रतिदिनं पुत्र-प्रतिज्ञया कमपि कमपि उपायं, तथापि न भवति यदि फलीभूता अस्माकं आशा तदानीं अन्तराय-विजृम्भितमेव ज्ञातव्यं तत् ।
अद्यापि न विनष्टं किमपि ! प्रनष्टा भवेयुः यदि घनोत्करा इव पुण्य-प्रभञ्जन-स्फेटिताः प्रत्यूहाः । भवेत् शीघ्रमेव फलितः, पुष्पितो
२-१२५) ६ संरक्षिता, शीलाद्यर्थस्येरः (हे० २-१४७) ७ विस्मृतम् ८ जाज्वल्पमानम् ६ निर्वाप्य १० तत्वविज्ञात्री ११ दैविकी १२ अन्तरायविजृम्भितमेव ।
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रयणवाल कहा
घणक्केरा' इव पुण्ण-पहंजण-फेडिया पच्चूहा । हवेज्ज सयराहमेव' फलिओ पम्फिओ णे मणोरह-कप्परुक्खो। अस्थि आसा अमरधणं' ति पसिद्धा लोग्गुत्ती । तम्हा ण हयासेहिं होअव्वं अम्हेहिं ।"
तक्खणमे . तत्थ पाउन्भूअं जक्खजक्खिणी-जुअलं । रुप्रति भाणुमई-अणुकंपमाणीए जविखणीए अग्गे गच्छतं जक्खिदं अणुरुज्झिऊण दरिसरणं दिण्णं । जिण्णासि सहाणहइ-पुण्णेहिं महुरसहिं ताए चिंताए पओअणं । परुण्णवयणाए• भाणुमईए तं जुअलं पणमिअ पवेइअ सव्वमवि सोअ-कारणं । पुत्त वंझं सुण्णं जीविअ णाई" चिरं सहेउं सक्कं । अज्जतणं सुदिरणं अम्हेच्चयं, जम्मि दिव्वं दरिसणमणायासं लद्ध । नूणं णट्ठा पच्चूहा। उइण्णाइ मंगलाई। पवुड्ढं सुहोदक्केण । अणाचिक्खणीयप्पहावा' हवंति खलु बुदारया । कुव्वंतु अणुग्गहं । जओ हवंति अणुग्गहसीला महाणुभावा । इत्थं विणयमाणी भाणुमई णिवडिआ तेसिं चलणेसु।
एत्यंतरम्मि हिअयालु-जक्खाहिवइणा ओहिं पउंजिअ विलोइ तेसि भविस्सं । विमणायमाणेण जक्खेसेण पच्चुतरिग्रं तक्कालं-"इन्भवर ! विलिओ हं होमि वरं पणामे१२। सुण, होहिइ ते पुत्तो लच्छी-पणासेण सद्धि । चइअव्वं तुन्भेहिं पि इणं पुरगेहाइग्रं। पुत्तो वि वुड्ढिं लहिस्सइ पर-हत्थ-गओ; किं पणामेमि" वरं ?"
१ घनोत्करा:---मेघसमूहाः २ पुण्यप्रभजनस्पे टिताः ३ सयराह-तत्क्षण,
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पढमा ऊसासो
नः (अस्माकम्) मनोरथकल्पवृक्षः । 'अस्ति आशा अमरधनम्' इति प्रसिद्धा लोकोक्तिः । तस्मात् न हताशैः भवितव्यं अस्माभिः ।
तत्क्षणमेव तत्र प्रादुर्भूतं यक्ष-यक्षिणी-युगलगम् । रुदती भानुमती अनुकम्पमानया यक्षिण्या अग्रे गच्छन्तं यक्ष न्द्र अनुरुध्य दर्शनं दत्तम् । जिज्ञासितं सहानुभूतिपूर्णः मधुरशब्दैः तया चिन्तायाः प्रयोजनम् । प्ररुदितवदनया भानुमत्या तद् युगलं प्रणम्य प्रवेदितं सर्वमपि शोककारणम् । पुत्र-वन्ध्यं शून्यं जीवितं न चिरं सोढुं शक्यम् । अद्यतनं सुदिनं अस्मदीयं, यस्मिन् दिव्यं दर्शनं अनायासं लब्धम् । नूनं नष्टाः प्रत्यूहाः । उदीर्णानि मङ्गलानि । प्रवृद्ध शुभोदर्केण । अकथनीयप्रभावाः भवन्ति खलु वृन्दारकाः । कुर्वन्तु अनुग्रहम् । यत: भवन्ति अनुग्रहशीलाः महानुभावाः, इत्थं विनयमाना भानुमती निपतिता तेषां चरणयोः।
अत्रान्तरे हृदयालु-यक्षाधिपतिना अवधि प्रयुज्य विलोकितं तेषां भविष्यम्। विमनायमानेन यक्ष शेन प्रत्युत्तरितं तत्कालम् - "इभ्यवर ! वीडितोऽहं भवामि वरं अर्पयितुम् । शृणु, भविष्यति ते पुत्रो लक्ष्मीप्रणाशेन सार्धम् । त्यक्तव्यं युवाभ्यामपि इदं पुरगृहादिकम् । पुत्रोऽपि वृद्धि लप्स्यते पर-हस्तगतः । किं अर्पयामि वरम् ?'
यथा
सयराहं नवरि य दुत्ति झत्ति सहसत्ति इक्कसरिअं च । अविहाविअं इक्कवए अतक्किअं तक्खणं सहसा ।
-(पाइयलच्छी० १७) ४ प्ररुदितवदनया ५ नअण णाई नअर्थे (हे० २-१६१) ६ उदीर्णानि ७ वृद्ध ८ शुभोदण ६ अकथनीया १० वृन्दारका:--- देवाः ११ ब्रीडित:लज्जितः १२ अर्पयितुम् १३ अर्पयामि ।
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रयणवाल कहा हरिस'-वस-विसप्पमाणहिअया उम्मिसिअर-वयणारविदा भाणमई पइणो पुब्वमेव साहेउं पउत्ता-“अहिणंदणं, अहिणंदणं भे वरस्स । अणुग्गहउ जक्खणाह ! लच्छीविणिमयेण लब्भामो जइ अम्हे कुलभक्खरस्स दरिसणं । ण एत्थ वीमंसणिज्जं किंचि वि । पुत्तविहूणाणं विच्छुब्भइ3 पडिपलं हिअयं । पुत्तं दटूण सव्वं तं दरिद्द-जणिनं दुक्खं विम्हरिग्रं' भविस्सइ । तम्हा देव ! कुणउ किवं । तक्कालं किवालुणा जक्खेण तहत्थु 'त्ति पणामित्रं वरं । पंजलिउडेहि ठियं जंपईहिं । अंतद्धं पत्तं तक्खरणं जक्खजुअलं ।
वइक्कतो कोइ कालो । ससत्ता जाया भाणुमई । उब्वेलिओं जाओ हरिस-पारावारो । गुन्विणी सेद्विणि 'त्ति सव्वेहिं तक्कुअ-जणेहि णायं साणंदं । किंतु चिरसंचिआ विभूई अणु दिणं पलाएउं पउत्ता। एगओ आयणिज्जइज विविह-महग्य-विक्केज्ज-भरिआ तरणो मज्झेसमुद्दे बुड्डा । परओ संदेसो पत्तो जं कत्थइ गोहूमाईणं धण्णाणं महाभंडायारं अकम्हा अग्गिणा डझं । अण्णओदवि-देसाओ पउत्ती लद्धा जं अमुगो पमुहो बाणोत्तरो' गरुइ संपयं घेत्तूण पलाइओ। इओ वावारे वि सर्वेसि वत्थूणं भावा मंदत्तणं गया। छसु मासेसु सिट्ठी समंतओ दालिदेण पराहूओ। कम्मगरा भिच्चा वाणिज्जिआ१५ चिरपरिचिआ वि सेट्ठि मोत्तूण परसंतिआ२ भूआ। तहेव मित्ता' सयणा दायदा सहयरा वि विमुहीभूआ ।
१ हर्षवश-विसर्पदहृदयाः २ उन्मिषितवदनारविन्दा ३ विक्ष भ्यति ४ विस्मृतं । यथा---'पम्हुटुं विम्हरिय' (पाइयलच्छी ५५०) ५ अन्तर्धा ६ ससत्वा
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२५
पढमो ऊसासो
हर्षवश-विसर्पद्-हृदया उन्मिषित-वदनारविन्दा भानुमती पत्यु:पूर्वमेव कथयितु प्रवृत्ता- "अभिनन्दनम् ! अभिनन्दनम् ! भवतो वरस्य, अनुगृह्णातु ! अनुगृह्णातु ! यक्षनाथ ! लक्ष्मी विनिमयेन लभामहे यदि वयं कुल-भास्करस्यदर्शनम् । न अत्र विमर्शनीयं किञ्चिदपि । पुत्रविहीनानां विक्ष भ्यति प्रतिपलं हृदयम् । पुत्र दृष्ट्वा सर्व तद् दारिद्रय-जनितं दुःखं विस्मृतं भविष्यति । तस्माद् देव ! करोतु कृपाम् ।” तत्कालं कृपालुना यक्षेण 'तथास्तु' इति अर्पितं वरम् । प्राञ्जलिपुटाभ्यां स्थितं दम्पतीभ्याम् । अन्तर्धां प्राप्तं तत्क्षणं यक्षयुगलम् ।
व्यतिक्रान्तः कोऽपि कालः । ससत्त्वा जाता भानुमती। उद्वेलितो जातो हर्ष-पारावारः । 'गुर्विणी श्रेष्ठिनी' इति सर्वैः तक्कुअजनैः (स्वजनजनैः) ज्ञातं सानन्दम्। किन्तु चिरसंचिता विभूतिः अनुदिनं पलायितु प्रवृत्ता। एकतः आकर्ण्यते यत् विविध-महार्य-विक्रयभरिता तरणी मध्ये समुद्र ब्र डिता। परतः सन्देशः प्राप्तो यत् कुत्रापि गोधूमादीनां धान्यानां महाभाण्डागारं अकस्मात् अग्निना दग्धम् । अन्यतः दविष्ठ-देशतः प्रवृत्तिः लब्धा यत् अमुकः प्रमुखः बाणोत्तरो गुर्वी सम्पदं गृहीत्वा पलायितः । इतः व्यापारेष्वपि सर्वेषां वस्तूनां भावाः मन्दत्वं गताः । षट्षु मासेषु श्रेष्ठी समन्ततः द्रारिद्रयण पराभूतः । कर्मकराः भृत्याः वाणिजिकाः, चिरपरिचिता अपि श्रेष्ठिनं मुक्त्वा परसत्काःभूताः। तथैव मित्राणि, स्वजनाः, दायादाः, सहचराः अपि विमुखीभूताः । स्थावरा जङ्गमा अपि च
सगर्भा ७ उद्वेलितः ८ तक्कुअजनः-स्वजनः (देशीयः) ६ आकर्ण्यते १० बाणोतरः – देशीय-शब्दः ‘गुमास्ता' इतिभाषा ११ वाणिज्यकराः १२ परसत्काःपरकीया इत्यर्थः १३ पु० नं० यथा-मित्तो, सही, वयंसो (पाइयलच्छी १६१)
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रयणवाल कहा
थावरा जंगमा वि य तत्थगया संपया उत्तमण्णेहि अहिकया। भूमि-गयं दविणमवि अदिटु केणावि अवहडं। एत्ति एण जिणदत्तो थेवसमयम्मि वि णिस्सो जाओ। सेट्ठिणा चितिग्रंहरे ! किमेनं जायं ! केरिच्छा बंस-परंपरा-संचिआ सिरिआ अब्भविलायं विलोणा । विचित्तं विहिणो विल सिग्रं । सुमिणे वि अलक्खिआ वासरा पच्चखं समोइण्णा । अईव पच्चभिण्णाया' सिणेहिणो वि विगलिअ-सोहद्दा संवुत्ता ।
धो धी! सत्थपरा जगस्सपीई ! को कस्स' त्ति ण साहेउं सक्कं । तहावि केरिसं ममत्तं ? विचित्ता मुच्छा । अवागरणिज्जा आसत्ती । अहो वड्डखेड्डमेयं ! जे मज्झ सयासाओ अच्चंत-लहूभूआ तुच्छा अकिंचणा गुरुत्तणं गया, जावज्जीवं णो भे उवयारं पम्हुस्सामु' त्ति वयमाणा संता एत्ताहे सव्वे वि विमुहा विदूरगा जाया। नूणं ण कस्सइ दोसो, भविअन्वयाए चावल्लमिणमो। अहवा ण आइ8 किं पुव्वमेव जक्ख-पुगवेण ? ता अलमत्थ चिंताए। तितिक्खामो पत्तआलं. विवयं । कराकड्ढिनं कट्ट कहमण्णहा भविस्सइ !
समागओ सत्तमो मासो गुन्विणीए भज्जाए। पइदिणं लद्धाऽसुह-उअंतेण वुण्णावि सा गभगयं तेनं पेच्छमाणो अंतो सुहमणुहवइ । एगया समयण्णुआए भाणुमईए पइदेवं पइ णिवेइग्रं-अज्जउत्त ! पयट्टिज्जइ मे गब्मस्स सत्तमेण मासेण । किं णाई अहिगमिज्जई भवया पुत्तणिमित्तं किंपि अणुढाणं ? केरिसो अम्हकेरा' णयरम्मि पईट्ठा ? पढमिल्ले
१ उत्तमणः-दायकैः २ निःस्वः-निर्धन ३ प्रत्यभिज्ञाता: ४ महत्कौतुकमिदम्
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पढमो ऊसासो
२७
तत्रगता सम्पद् उत्तमणैः अधिकृता । भूमिगतं द्रविणमपि अदृष्टं केनापि अपहृतम् । एतावता जिनदत्तः स्तोक-समयेऽपि निस्वो जातः । श्रेष्ठिना चिन्तितम् -- "हरे ! किमेतद् जातम् ? कीदृक्षा वंशपरम्पराञ्चिता श्रीः अभ्रविलायं विलीना। विचित्र विविलसितम् । स्वप्नेऽपि अलक्षिताः वासराः प्रत्यक्षं समवतीर्णाः । अतीव प्रत्यभिज्ञाताः स्नेहिनोऽपि विगलित-सौहार्दाः संवृत्ताः ।'
धिग् । धिग् । स्वार्थपरा जगतः प्रीतिः । कः कस्य इति न कथयितु शक्यम् । तथापि कीदृशं ममत्वम् ? विचित्रा मूर्छा ! अव्याकर्त्तव्या आसक्तिः ! अहो ! वड्डखेड्डं (महत्कौतुकं) एतत् । ये मम सकाशात् अत्यन्तलधुभुताः, तुच्छाः, अकिंचना: गुरुत्वं गताः । “यावज्जीवं न भवत: उपकारं विस्मरिष्यामः” इति वदन्तः सन्तः अधुना सर्वेऽपि विमुखा विदूरगाः जाताः । नूनं न कस्यापि दोषः. भवितव्यतायाः चापल्यमिदम् । अथवा न आदिष्टं कि पूर्वमेव यक्षपुङ्गवेन ? तस्मात् अलमत्र चिन्तया । तितिक्षामहे प्राप्तकालं विपदम् । काराकृष्टं कष्टं कथं अन्यथा भविष्यति ?
समागतः सप्तमो मासो गुविण्याः भार्यायाः । प्रतिदिनं लब्धाऽशुभोदन्तेन उत्रस्तापि सा गर्भगतं तेजः प्रक्षमाणा अन्तः सुखमनुभवति । एकदा समयज्ञया भानुमत्या पतिदेवं प्रतिनिवेदितम् “आर्यपुत्र । प्रवर्त्यते मे गर्भस्य सप्तमेन मासेन, कि न अधिगम्यते भवता पुत्रनिमित्तं किमिपि अनुष्ठानम् ? कीदृशी अस्मदीया नगरे प्रतिष्ठा ?
वड्डखेड्डमिति, देशीयः शब्द : ५ प्राप्तकालं ६ कराकृष्टम् ७ लब्धाऽशुभोदन्तेन ८ बुन्ना-उत्त्रस्ता ६ प्रवर्त्यते १० अधिगम्यते ११ अस्मदीयः ।
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रयणवाल कहा
अवसरम्मि साहारणा अवि जणा जहारिहं किमवि काउं पयासेंति । भवं तु लद्धपइट्ठो राइणावि परमसम्माणणिज्जो वट्टइ, कहं णो परिलक्खिज्जइ सामइयं पइट्ठाणरूवं किच्चं ? ____ अज्झत्थचितामिलारोण सेट्टिणा भणियं-पिआ ! सामाइयं सत्तमासिगं 'आघरणि" त्ति णमगं किच्चं ण मए अलक्खिग्रं । पइट्ठाणुरूवं सव्वं साहं करेमि त्ति अहिलसइ मे उच्छुओ मणो। परं विहवेण विणा सव्वाओ दिसाओ सुण्णाओ। तव्वइरित्तो केरिसो महसवो ! हा ! सच्चा हु एसा जणस्सुइ जं "दरिद्दसमो पराभवो णत्थि" हन्त ! किं करेमि ? कत्थ वच्चेमि ? विहिए वि पयत्ते कस्स वि सगासाओ ण पत्तं हवइ उद्धाररूवंपि धणं । सयणा तु संकहमवि' ण कुणंति । चिरपरिचिआ खु मित्ता अच्छिमेलणमवि कुणेता वीलन्ति । किमिवि जायहिइत्ति संकता दूरओ पलायंति। ___ दारिद्द-दुक्खि ग्रं पइदेवं पेक्खिऊण समय-दक्खा ए भाणुमईए भणिग्रं-णाह ! ईइसो एस संसारो ! सत्थपरायणा एत्थ कसिणावि पउत्ती । अणुऊलम्मि दिव्वम्मि सव्वे पारेक्का णिआएंति । पडिऊलम्मि सगा अवि हवेज्जा पारकेरा। हद्धी ! विविरीयम्मि विहिम्मि अंगलग्गाणि वत्थाणि वि पडिवक्खत्तणं पडिवज्जति । तहवि ण णेअव्वा दीणभावणा, ण छिदणिज्जा आसा-रज्जू, ण हायवो य पयत्तो। हवेज्ज पयत्त-जल-अब्भुक्खिआ" कयाइ फलीहुआ आसावल्ली। तक्केमि अयं जहा मम्मणो णाम इन्भो
१ आघरणी-साधपुराई-गर्भवती के सातवें महीने का महोत्सव २ संकथा
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पढमा ऊसासो प्राथमिके अवसरे साधारणा अपि जनाः यथार्ह किमपि कत्त" प्रयस्यन्ति । भवान् तु लब्धप्रतिष्ठः राज्ञाऽपि परमसम्माननीयः वर्तते, कथं नो परिलक्ष्यते सामयिक प्रतिष्ठानुरूपं कृत्यम् ?
अध्यात्म-चिन्ताम्लानेन श्रेष्ठिना भणितम्-प्रिये ! सामयिक सप्तमासिकं 'आघरणी' इति नामकं कृत्यं न मया अलक्षितम् । 'प्रतिष्ठानुरूपं सर्वं साधु करोमि' इति अभिलषति मे उत्सुकं मनः । परं विभवेन विना सर्वाःदिशःशून्याः । तद्व्यतिरिक्तः कीदृशो महोत्सवः ? हा ! सत्या खलु एषा जनश्रुतिः यत् "दारिद्रयसमः पराभवो नास्ति' हन्त ! किं करोमि ? कुत्र व्रजामि ? विहितेऽपि प्रयत्ने कस्यापि सकाशात् न प्राप्तं भवति उद्धाररूपमपि धनम् । स्वजनाः तु संकथामपि न कुर्वन्ति ? चिरपरिचितानि खलु मित्राणि अक्षिमेलनमपि कुर्वन्तः ब्रीडन्ति । 'किमपि याचिष्यते' इति शङ्कमानाः दूरतः पलायन्ते।
दारिद्रय-दुःखितं पतिदेवं प्रेक्ष्य समय-दक्षया भानुमत्या भणितम्"नाथ ! ईदृशः एष संसारः । स्वार्थ-परायणा अत्र कृत्स्नापि प्रवृत्तिः । अनुकूले दैवे सर्वे परकीयाः निजायन्ते । प्रतिकूले स्वकाः अपि भवेयुः परकीयाः । हद्धी (हा धिक्) विपरीते विधौ अङ्गलग्नानि वस्त्राणि अपि प्रतिपक्षत्वं प्रतिपद्यन्ते । तथापि न नेतव्या हीनभावना, न छे दनीया आशारज्जुः, न हातव्यश्च प्रयत्नः । भवेत् प्रयत्न-जलाभ्युक्षिता कदापि फलीभूता आशावल्ली । तर्कयामि अहं यथा मन्मनो
मपि-'आपसी बातचीत' ३ निजायन्ते ४ स्वकाः ५ प्रतिपक्षत्वम् ६ प्रयत्नजलाभ्युक्षित-निषिक्ता इत्यर्थः।
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रयणवाल कहा
तुम्ह परम-पीइमंतो बाल-सहयरो। आवडिए एआरिसे विवया-समये भवेज्ज सहायगो कयाइ। एगहुत्तं' पुणो तस्स परिक्खा कायव्वा मह कहणेण ।
मम्मणस्स किलिट्ठ-किवणिमाए पच्चभिण्णाओ वि सेट्ठी वीसत्थभज्जाए पुणो पुणो पेरिओ तग्गेह-हुत्तं गंतुमणो जाओ । मग्गे गच्छंतो जहा-जहा समीवयइ तस्स दढमुट्ठिणो घरं तहा-तहा उव्विग्गं जायइ अंतोकरणं । छि छि ! जीवसि तुमं जिणदत्त ! अहमाहमं जायग-भावं उररीकुणमाणो ! कि ण जायणाओ-मरणं पवित्तं ? तुराए चलमाणा सेट्ठिणो चलणा तत्थेव थंभिआ जाया। धीरमालं-- बिऊरण पुणो विचितेइ-अलमलं गेण आउलत्तणेण । णणं पुरिसआर-जेयं सव्वदुक्खं'ति विभावेमाणो पुणो अग्गओ चलिओ । इत्थं विसाइअंतक्करणों कहकहमवि पत्तो मम्मण-सेट्ठिणो हम्मियं ।
विसण्ण-वयणं आगच्छंतं जिणदत्तं रिणभालिअ मम्मरणो विम्हिओ जाओ। तक्खणं उट्ठिऊण ससंभमं अहिमुहं गओ। सागयं' ति वयमाणो आसण-दाणेण संतोसिओ। 'कि मागमणकारणं' इअ णीसंकं पुच्छिओ । महुर-वयणेहि पुण समासासिओ।
विअलिअ-हिययेणावि जिणदत्तेण पाउक्कया मणोवेअणा। मित्तवर ! किं कहेमि अकहणिज्जं वइयरं । आवडिओम्हि भीसणे विवयाजाले । विहिआ विविहा पयत्ता विहलीहूआ । अंतम्मि बालसहयरं तुमं आसाए आलंबणं
१ एकवारम् २ मन्मनगृहाऽभिमुखम् ३ समीपयति ४ दृढमुष्टे:-कृपणस्य
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पढमो ऊसासो
३१
नाम इभ्यो युष्माकं परमप्रीतिमान् बालसहचरः । आपतिते एतादृशे विपत् समये भवेत् सहायकः कदाचित् । एकवारं पुनः तस्य परीक्षा कर्त्तव्या मम कथनेन ।"
मन्मनस्य क्लिष्ट - कृपणतया प्रत्यभिज्ञातोऽपि श्र ेष्ठी विश्वस्तभार्यया पुनः पुनः प्रेरितः तद्गृहाभिमुखं गन्तुमनाः जातः । मार्गे गच्छन् यथा यथा समीपयति तस्य दृढमुष्ठेः गृहं तथा तथा उद्विग्नं जायते अन्तःकरणम् । (छि ! छि 1 ) ( धिग् ! धिग ! ) जीवसि त्वं जिन - दत्तः ! अधमाधमं याचकभावं उररीकुर्वन् ? किं न याचनातः मरणं पवित्रम् ? त्वरया चलन्तौ श्र ेष्ठिनश्चलनौः तत्र व स्तम्भितौ जातौ । धैर्यमालम्ब्य पुनः विचिन्तयति - अलमलं अनेन आकुलत्वेन । नूनं पुरुषकारजेयं सर्वं दुःखम् इति विभावयन् पुनः अग्रत: चलितः । इत्थं विषादितान्तकरणः कथं कथमपि प्राप्तः मन्मनश्रेष्ठिनः हर्म्यम् ।
!
विषण्णवदनं आगच्छन्तं जिनदत्तं निभालय मन्मनो विस्मितो जातः । तत्क्षणं उत्थाय ससम्भ्रमं अभिमुखं गतः । ' स्वागतम्' इति वदन् आसनदानेन सन्तोषितः । किं आगमनकारणम्' इति निस्संकं पृष्टः । मधुरवचनैः पुनः समाश्वासितः ।
विचलित-हृदयेनापि जिनदत्त ेन प्रादुष्कृता मनोवेदना । मित्रवर ! किं कथयामि अकथनीयं व्यतिकरम् । आपतितोऽस्मि भीषणे विपज्जाले । विहिता विविधाः प्रयत्नाः विफलीभूताः । अन्ते बालसहचरं
|
५ धीरं धैर्यम् 'इद्धयें' (हे० १-१५५ ) ६ पुरुषकारजेयम् - पौरुषजेय मित्यर्थः ७ विषादितान्तकरणः ८ हम्मिअ-देशीयः - हर्म्यमित्यर्थः ।
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रयणवाल कहाँ
जाणिअ एत्थ आगओ। करीयउ' सामयिनं साहेज्जं किंचि । जहा मे आवण्णर-सत्ताए भज्जाए सत्तमासिओ गब्भ-महूसओ सुसंपन्नो हवेज्जा । तएजारिसाणं कए ण किमवि दुक्करं । सहि ! को पविसइ कस्स वि देहली-देसं गाढकारणं विणा जाएउ । एवं वयंतो सेट्ठी बाह-जलाउल-लोअणो जाओ। ___सुणिआण' जिणदत्तस्स पत्थरणं किविणमणो मम्मणो विआर-णिमग्गो जाओ। किं पडिवयणं दायव्वं 'ति वोमंसणपरो संवुत्तो। 'आहारम्मि ववहारम्मि य चत्तलज्जेणं होअब्बति चितिऊण मत्थग्रं धुणमाणो मम्मणो वयासोमित्त ! णिवडिओ हि अपेच्छिज्जमाण नीसरणमग्गे चिताजाले । एगओ मे अज्जपभिइ पालिअमदाणव्वयं, अण्णओ परमसहयरस्स सामइयं पत्थरणं : किं करेमि, कहि वच्चेमि त्ति ण णिण्णोई मे मुज्झमारणं माणसं । जाणामि अहमवि विवय-वसंवयारणं ठिइ, तहावि असमत्थोम्हि सिणिद्ध ! अस्सि विसयम्मि किपि काउ।
तवा-विणयकंधरो' जिणदत्तो पुणरवि भणइ-भायरं ! णाहं दाणरूवं धणं इच्छेमि, किंतु उद्धाररूवेण । जइ दाउमिच्छसि तरिहि दरिससु उआरभावणं ।
पगइ-महालुद्धो मम्मणो आयइ-पावणिज्जं धणं संकेतो पुणरवि साहेउ लग्गो-'बंधुवर ! किमवरं भणीयइ, वत्थुविणिमयेण विणा किमवि दाउंअक्खमो म्हि अहं । वत्थु
१ क्रियताम् २ आपन्नसत्त्वायाःगर्भवत्या: ३ त्वादृशानाम् ४ वाष्पजलाकुललोचनः । वाष्पे होऽश्रु णि (हे० २७०) ५ श्रुत्वा 'क्त्वस्तुमत्त णतुआणाः' (हे० २-१४६) एते क्त्वा प्रत्ययस्यादेशाः तुआणस्य रूपमिदम् १० अप्रेक्ष्यमाण
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पढमो ऊसासो त्वां आशायाः आलम्बनं ज्ञात्वा अत्र आगतः । क्रियतां सामयिक साहाय्यं किञ्चित् । यथा मे आपन्नसत्वायाः भार्यायाः सप्तमासिकः गर्भमहोत्सवः सुसम्पन्नः भवेत् । त्वादृशानां कृते न किमपि दुष्करम् । सखे ! कः प्रविशति कस्यापि देहलीदेशं गाढकारणं विना याचितुम् । एवं वदन श्रेष्ठी वाष्प-जलाकुल-लोचनो जातः।
श्रुत्वा जिनदत्तस्य प्रार्थनं कृपणमनाः मन्मनो विचार-निमग्नः जातः । 'किं प्रतिवचनं दातव्यं' इति विमर्शनपरः संवृत्तः । 'आहारे व्यवहारे च व्यक्तलज्जेन भवितव्यं' इति चिन्तयित्वा मस्तकं धुन्वन् मन्मनः अवादीत्-"मित्र ! निपतितोऽस्मि अप्रेक्ष्यमाण-निःसरणभार्गे चिन्ताजाले । एकतः मे अद्यप्रभृति पालितं अदानव्रतम्, अन्यतः परम-सहचरस्य सामयिकं प्रार्थनम् । 'किं करोमि ? कुत्र व्रजामि ?' इति न निर्णयति मे मुह्यत् मानसम् । जानामि अहमपि विपद्-वशंवदानां स्थिति, तथापि असमर्थोऽस्मि स्निग्ध ! अस्मिन् विषये किमपि कत्तम्।
अपा-विनत-कन्धरः जिनदत्तः पुनरपि भणति-"भ्रातः ! नाहं दानरूपं धनं इच्छामि, किन्तु उद्धार-रूपेण यदि दातुइच्छसि तहि दर्शय उदार-भावनाम् ।"
प्रकृति-महालुब्धो मन्मनः आयति-प्रापणीयं धनं शङ्कमानः पुनरपि कथयितु लग्नः-“बन्धुवर ! किमपरं भग्यते, वस्तुविनिमयेन विना किमपि दातु अक्षमोऽस्मि अहम् । वस्तु-परावर्तेन यद किमपि
-निःसरणमार्गे ७ निर्णयति ८ स्निग्ध ! मित्रमित्यर्थः ६ अपाविनतकन्धरः १० भ्रातः ! 'नाम्न्यरं वा (हे० ३-४०) इति सम्बोधने वाऽरम्, यथा-है पिअरं! हे पिअ ! ११ भण्यते ।
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रयणवाल कहा परावत्तेण जं किमवि जहारिहं गहेउ सक्केइ भवंतो। हंत ! एआरिसी विज्जइ मे जीवण-संगिणी पइण्णा।
मिलाणीहूअ-वयण-कमलेण जिणदत्तण भणिग्रं-"अरे ! रक्खणारिहं' जइ भवेज्ज वत्थुजायं तयाणि तव्विणिमयेण संति सयं दायारा इमीए णयरीए । इणमेव महाकटें जं णत्थि किमवि तारिसं वत्थु । भाय ! तओ किंचि पुणरवि दत्तावहाणो होहि ।"
"अणुवायो म्हि अहमेत्थ, किं बहुणा । हवइ मह पइण्णा-भंगो । ता वच्चउ अण्णत्थ जहासुह, संति अणेगे उआरमारणसा धणिणो गयरम्मि". फुडं वज्जरिअं वज्जकढोरेण मम्मणेण।
कत्थ परत्थ गंतव्वं ति चिंतापरो सेट्ठी अंतम्मि गब्भगय-पुत्त-विणिमयेण दविणं गिण्हेमि'त्ति कयविणिच्छ्यो जाओ। किंचि वीमंसिऊण जिरणदत्तेण दीह-गोसासेण सद्धि पयडीकयं-"सही ! जइ ण इच्छसि विणिमयेरण विणा किमवि दाउं, तया मम भारियाए गम्भं रक्खिऊण दायव्वं जहारिहं धणं ।" ____ आयण्णिअ जिणदत्तस्स भणिइ तत्कालं ससम्मयं संमओ मम्मणो। साहुं पिण्णीअं सहयरेण । अवच्चविणिमयेण जं किंपि इच्छेसि तं गहसु, अविलंबिग्रं दाउमणो म्हि। ___ तक्खणं जाओ एगो पइण्णा-लेहो । जहा "जम्मणंतरं पुत्तो मम्मणगिहम्मि पुत्तरूवेण वुड्ढि लहिस्सई । विणिवुत्त. बालभावो कय-सुठु-विज्जाज्झयणो जया हवेज्जा तयाणि मम्मण-सेटिणा सो धणमज्जेउ पवासम्मि पट्ठाविअव्वो ।
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पढमो ऊसासो यथाह गृहीतु शक्नोति भवान् । हन्त ! एतादृशी विद्यते मे जीवनसङ्गिनी प्रतिज्ञा।"
म्लानीभूत-वदन-कमलेन जिनदत्तेन भणितम् - "अरे ! रक्षणार्ह यदि भवेत् वस्तुजातं तदानीं तद्विनिमयेन सन्ति शतं दातारः अस्यां नगर्याम् । इदमेव महत्कष्टं यत् नास्ति किमपि तादृशं वस्तु । भ्रातः ! ततः किञ्चित् पुनरपि दत्तावधानो भव ।"
"अनुपायोऽस्मि अहमत्र, किंबहुना ! भवति मम प्रतिज्ञा-भङ्गः । तस्माद् व्रजतु अन्यत्र यथासुखम्, सन्ति अनेके उदारमानसाः धनिनो नगरे"-स्फुटं कथितं वज्रकठोरेण मन्मनेन ।
'कुत्र परत्र गन्तव्यं'-इति चिन्तापरः श्रेष्ठी अन्ते गर्भगतपुत्रविनिमयेन द्रविणं गृहामीति कृतनिश्चयो जातः । किञ्चिद् विमृश्य जिनदत्तेन दीर्घनिःश्वासेन साधं प्रकटीकृतम्- “सखे ! यदि न इच्छसि विनिमयेन विना किमपि दातु तदा मम भार्याया गर्भ रक्षित्वा दातव्यं यथाहं धनम् ।"
आकर्ण्य जिनदत्तस्य भणिति तत्कालं ससम्मदं सम्मतो मन्मनः । साधु निर्णीतं सहचरेण । अपत्य-विनिमयेन यत् किमपि इच्छसि तद् गृहाण, अविलम्बितं दातुमना अस्मि।
तत्क्षणं जातः एकः प्रतिज्ञालेखः, यथा ..."जन्मानन्तरं पुत्रो मन्मनगृहे पुत्ररूपेण वृद्धि लप्स्यते । विनिवृत्त-बालभावः कृतसुष्टु-विद्याध्ययनो यदा भवेत् तदानीं मन्मनश्रेष्ठिना स धनं अर्जयितु प्रवासे
१ रक्षणार्ह २ वज्जरिअं-कथितम्, यथा-वज्ज रिअ-सिद्ध-सूइय-उप्फालिय-पिसुणियाइं साहिअयं (पाइयलच्छी १४५) । ३ सखे ! ४ सहर्ष ५ प्रतिज्ञालेखः ६ प्रेषणीयः।
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रयणवाल कहा जया सो तत्थ धणमज्जेऊण णिग्रं पुरं पडिवलिओ संतो सवुड्ढिनं गहिरं धणं पच्चप्पिऊण' णि पेइअं२ गिह गंतुमरिहो भविस्सइ" एआरिसो उभयसंमओ लेहो पंचणयरप्पमुहाणं हत्थक्खरेहि सच्चविओं गहिओ जिणदत्तेण मम्मणेण य । तन्विणिमयेण पत्तं जिणदत्तेण दीनारसहस्सं ।
इओ य चिरं पडिवालेइ पइ-प्पवेसं अत्यचितासंतत्ता भाणुमई । कहं णाई समागया अज्जउत्ता दविणं गहेऊण ? किं फुण्णा दारिद्दण अम्हकए सव्वावि वसुंधरा ? कि सव्वेहिं विसंभरिआ कयण्णुआ ? समेहि सहयरेहि अवि पामुक्का अच्छि-लज्जावि ? .. तक्खणं मिलाण-वयणारविदा सणि सणियं भवणं पविसमाणा पइदेवा दिट्ठीपहमोइण्णा मग्गं पेच्छंतीए ताए । झत्ति संमुहमागच्छंतीए णाए कि भूति अदिहिमंताए" पुच्छिन् ।
विहिअ-अकरणिज्ज-कज्जेण बाहिज्जमाणो सेट्टी तुहिक्को १ जाओ । मह विहिरं किच्चं माइहिअया भज्जा अणुजाणहिइ ण व 'त्ति संकाउलो जाओ। एत्थंतरम्मि पइणा जहाकयं कज्जं पियाए पुरओ जहातहं पाउक्कयं, पच्चप्पिनं पुण दीणार-सहस्सं । अवसरण्णू विणयसहावा भाणुमई 'अज्जउत्ता पमाणं'ति वयमाणा मोणावलंबिणी जाया।
इअ सिरिचंदणमुणि-विरइआए-पुत्त-पत्थण-जक्खदंसणइड्ढिक्खयाइ-भावसंजुत्ताए रयणवालकहाए
पढमो ऊसासो समत्तो ॥१॥
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पढमो ऊसासो
प्रस्थापितव्यः । यदा स तत्र धनं अर्जयित्वा निजं पुरं प्रत्यावलितः सन् सवृद्धिकं गृहीतं धनं प्रत्यर्प्य निजं पैतृकं गृहं गन्तुमर्हो भविष्यति ।" एतादृशः उभय-सम्मतः लेखः पञ्च- नगर प्रमुखाणां हस्ताक्षरैः सत्यापितो गृहीतो जिनदत्त ेन मन्मनेन च । तद्-विनिमयेन प्राप्तं - जिनदत्त ेन दीनार - सहस्रम् ।
इतरच चिरं प्रतिपालयति पति-प्रवेशं अर्थ - चिन्ता - संतप्ता भानुमती । कथं न समागताः आर्यपुत्राः द्रविणं गृहीत्वा ? कि स्पृष्टा दारिद्रय ेण अस्मत्कृते सर्वापि वसुन्धरा ? किं सर्वे विस्मृता कृतज्ञता ? समैः सहचरैः अपि प्रमुक्ता अक्षिलज्जापि ?
1
तत्क्षणं म्लान- वदनारविन्दा शनैः शनैः भवनं प्रविशन्तः पतिदेवाः दृष्टिपथमवतीर्णाः मार्ग प्रेक्षमाणायाः तस्याः । झगिति सम्मुखं आगच्छन्त्या तया 'किं भूतं' इति अधृतिमत्याः पृष्ठम् ।
३७
विहिताकरणीय कार्येण बाध्यमानः श्रेष्ठी तूष्णीको जातः । 'मम विहितं कृत्यं मातृहृदया भार्या अनुज्ञास्यति न वा' इति शङ्काकुलो जातः । अत्रान्तरे पत्या यथाकृतं कार्यं प्रियायाः पुरतः यथातथं प्रादुष्कृतं प्रत्यर्पितं पुनः दीनार - सहस्रम् । अवसरज्ञा विनयस्वभावा भानुमती 'आर्यपुत्राः प्रमाणम्' इति वदन्ती मौनावलम्बिनी जाता ।
इति श्रीचन्दनमुनि - विरचितायां पुत्रप्रार्थन - यक्षदर्शन ऋद्धिक्षयादिभावसंयुक्तायां रत्नपालकथायां
प्रथमः उच्छ् वासः समाप्तः ।
१ प्रत्यर्प्य २ पैतृकम् ३ सत्यापितः - प्रलोकितः ४ तद्विनिमयेन ५ प्रतिपालयति ६ स्पृष्टा ७ अस्मत्कृते ८ पामुक्का-परित्यक्ता, यथा-- पामुक्कं, विच्छड्रिढयं, अवहत्थियं, उज्झियं चत्तं ( पाइयलच्छी १३८ ) ६ अधुतिमत्याः धृतेहि: ( है ० २-१३१) १० बाध्यमानः ११ तूष्णीकः - मौनी १२ अनुज्ञास्यति ।
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२
बिइओ ऊसासो
पायसो गयाणुगइआ लोआ । अणणुकूले दइवम्मि । सव्वंगिअम्मि' विवयसमयम्मि वि सुहसमय- णिव्वहणिज्जं परंपरा-पट्ठाइअं खणिअगारव - दंसगं आडंबरिल्लं कज्जं ण परिचाएउमिच्छंति अहिमाणधणा जणा । सुवे कि हविस्सइ 'त्ति ण परामुसंति अज्जत - कालमपेच्छमाणाणि मारगंधलोअणाणि ।
जिणदत्तेणावि विहिनं पिइपिआमह - गारव - गज्जिअं सत्तमासिअं गभमहं । भोइआ नाणाविह असण- पाण- खाइमसाइमेहिं बंधुजणा । सम्माणिआ जहोचिअ सम्माण- दाणेण पुव्वजा पुज्जा | संतोसिआ पुण कुलाणुरूवं विअरणेण मंगलपाढका कुलगुरुणोवि ।
१ सर्वाङ्गीणे 'सर्वाङ्गादीनस्येक:' ( हे० २- १५१ ) २ वः 'एकस्वरे श्वः -
३८
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द्वितीयः उच्छवासः
प्रायशः गतानुगतिकाः लोकाः । अननुकूले दैवे सर्वाङ्गीणे विपत्समयेऽपि सुखसमयनिर्वहणीयं परम्परा-प्रतिष्ठापितं क्षणिक-गौरवदर्शक आडम्बरवत कार्य नं परित्यक्तु इच्छन्ति अभिमानधनाः जनाः । श्वः किं भविष्यति' इति न परामृशन्ति आयतिकालं अप्रक्षमाणानि मानान्धलोचनानि ।
जिनदत्तेनापि विहितः पितृ-पितामह-गौरव-गजितः सप्तमासिको गर्भमहोत्सवः । भोजिता: नानाविधअशन-पान-खादिम-स्वादिमैर्बन्धुजनाः । सम्मानिताः यथोचितसम्मान-दानेनः पूर्वजाः पूज्याः । सन्तोषिताः पुनः कुलानुरूपं वितरणेन मङ्गलपाठकाः कुलगुरवोऽपि ।
स्वे (हे० २-११४) ३ उत्तरकालं, यथा-'आयइ अज्जंतकालं च' (पाइयलच्छी ६३५) ४ पु. न. गर्भमहोत्सवः।
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४०
रयणवाल कहा अइक्कतो गब्भकालो । सुहंसुहेण पसविणी जाया भाणुमई । सव्वलक्खणसंजुत्तं उप्पण्णं पुत्तरयणं । अव्वो ! सुण्णं घरं गिहमणिणा सोहिअं। अभूअपुन्वो उत्थारो' वट्टिओ सयणाण-मणम्मि । धण्णेण सेट्रिणा लद्धो वंसभाण । दाणाइणीर-सित्तो फलिओ पुप्फिओ धम्म-कप्परुक्खो। णिभालिऊण अब्भग-मुहचंदं परमतुट्टा भाणुमई । चिरपरिकप्पिओ दोहलो' पूरिओ विहिणा । अणेगेहिं आणदिएहिं वयंसेहिं गहिरं सेट्टित्तो पुण्णवत्त ।
जाहे णाया मम्मणेण जिणदत्तस्स पुत्तुप्पत्ती, सयराहमेव पेसिआ तत्थ णिया किंकरा पुत्तं णेउं । आगयं तेहि जिणदत्तस्स हम्मिअम्मि, साहिनं च-"मम्मणसंतिआ अम्हे णवजायं सिलिंबं णिणेउं संपत्ता एत्थ तयादेसेण ।"
तम्मग्गणं निसमिआण सेट्ठी छिण्ण-हिअयो जाओ एगपए । हा हा ! अहुणेव मग्गणं! एआरिसो अवीसंभों ? तहवि णिअ-भावं संगोवेमाणेण तेण दीणमुहेण उईरिअ"भद्दा । अज्जेव जाओ पुत्तजम्मो । अहुणापेरंतं ण कओ को वि खणो। ण ठविअं पुत्त-णामधिज्ज। ण भूआ पीइ-भोअणाइ विही । पत्थेह ससामि-“भो ! जहा सो चिरावेई किंचि । तइयं वत्थु निच्चलं तस्स समप्पिस्सं णाई कोइ संदेहो । किंतु किवाए सत्तवीसं अहोरत्ते पडिवालेउ' सो उआरहिअयो महाणुहावो।"
-
१ उत्साहः (हे० २-४८) २ गभिण्याः मनोरथः ३ हीरइ जं आणंदे, तं
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बिइओ ऊसासो .. अतिक्रान्तो गर्भकालः । सुखंसुखेन प्रसविनी जाता भानुमती। सर्वलक्षणसंयुक्त उत्पन्न पुत्ररत्नम् । अब्बो (आनन्दे) शून्यं गृहं गृहमणिना शोभितम् । अभूतपूर्वः उत्साहो वर्तितः स्वजनानां मनसि । धन्येन श्रेष्ठिना लब्धो वंशभानुः । दानादि-नीर-सिक्तः फलितः पुष्पितो धर्मकल्पवृक्षः । निभालयित्वा अर्भकमुखचन्द्र परमतुष्टा भानुमती । चिरपरिकल्पितो दोहदः पूरितो विधिना । अनेकैः आनन्दितः वयस्यैः गृहीतं श्रेष्ठितः पूर्णपात्रम् ।
यदा ज्ञाता मन्मनेन जिनदत्तस्य पुत्रोत्पत्तिः, शीघ्रमेव प्रषिताः तत्र निजकाः किंकराः पुत्र नेतुम् । आगतं तैः जिनदत्तस्य हम्ये कथितं च-"मन्मनसत्काः वयं नवजातं सिलिंबं (बाल) नेतु सम्प्राप्ता अत्र तदादेशेन ।"
तन्मार्गणं निशम्य श्रेष्ठी छिन्नहृदयो जातः एकपदे । हा! हा ! अधुनैव मार्गणम् ? एतादृश अविश्रम्भः ? तथापि निजं भावं संगोपयता तेन दीनमुखेन उदीरितम्-“भद्राः ! अद्य व जातं पुत्र जन्म ! अधुनापर्यन्तं न कृतः कोऽपि क्षणः । न स्थापितं पुत्रनामधेयम् । न भूतः प्रीतिभोजनादिविधिः। प्रार्थयत स्वस्वामिनं भोः ! यथा स चिरायते किञ्चित् । तदीयं वस्तु निश्चलं तस्मै समर्पयिष्यामि न कोऽपि सन्देहः । किन्तु सप्तविंशति अहोरात्रान् प्रतिपालयतु स उदारहृदयो महानुभावः।”
वत्थं पुणवत्तंति (पाइय० ६-४२) ४ शिशु ५ तदादेशेन ६ निशम्य ७ अविश्रम्भःअविश्वासः ८ चिरायते ६ प्रतिपालयतु।
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रयणवाल कहा पच्चावलिआ' भिच्चा । कहिओ वइअरो जहावत्तं । अवीसत्थो मम्मणमणो चिताउलो जाओ। मा रणं गहिअ थएंधयं भारिया-बिइओ जिणदत्तो कत्थइ पलाएज्जा, तम्हा अहं पुव्वमेव संरक्खणं करेमि 'त्ति चितिअ तक्खरणं हक्कारिआ तेण णिअय-संतिआ सत्थपाणिणो पुरिसा। आणत्तं पुण तेसिं "सावहाणेहिं तुन्भेहिं जिणदत्त-भवणस्स पुरओ चिट्ठिअव्वं, पेच्छिअव्वं अहोणिसं जहा ण किमवि अणि? सावगासं हवेज्जा । अईए णिच्छिए काले अब्भगं" गहिअ मे समीवमागंतव्वं" ति ।
सत्थपाणिणो पुरिसा खिप्पामेव तत्थ आगया, आवासस्स अग्गओ सावहाणं ठिआ । को णीहरइ, पविसई' त्ति सलक्खं सोवयोगं जोएउं लग्गा।
विहिओ सेट्ठिणा अपुवो दारय-जम्म-महूसवो । अणेगाणं सुहसंदेसा पत्ता । अणेगे सुवे जणा तत्थ संमिलिआ। कयं पइट्टाणुरूवं पीइभोअणाइकिच्चं । दिण्णं जहोचिअं दाणं । ठविअं पिउच्छाए' दारयस्स रयणवालो 'त्ति सुहं रणामधिज्ज । परम-पेम्म-पोसिआ कोडुबिआ गया णिअयं णिअयं ठाणं छावं सुहासीसाहिं वद्धावेंता ।
खणा व्व अलक्खिआ सत्तावीसा राइंदिआ बोलीणा । परमपिय"-पुत्तदरिसण-पच्च ह-कारगो पच्च हो' उदयं पत्तो । पच्च द्विआ मम्मणसंतिआ पुरिसा दारगं हत्थेउं । हंत ! अज्ज अइउआरं पि जिणदत्त-हिअयं अईव
१ प्रत्यावलिताः २ भार्याद्वितीयः ३ आकारिताः ४ आज्ञप्तम् ५अर्भकम्-बालं ६ द्रष्टु लग्नाः ७ स्वेः-स्वकीयाः ८ पितृस्वस्त्रा ६ शावं-शिशु १० परम
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बिइओ ऊसासो
प्रत्यावलिताः भृत्याः । कथितो व्यतिकरो यथावृत्तम् । अविश्वस्तं मन्मनमन: चिन्ताकुलं जातम् । मा ‘णं गृहीत्वा स्तनन्धयं भार्याद्वितीयो जिनदत्तः कुत्रापि पलायेत, तस्मात् अहं पूर्वमेव संरक्षणं करोमि, इति चिन्तयित्वा तत्क्षणं आकारिताः तेन निजकसत्काः शस्त्रपाणयः पुरुषाः । आज्ञप्तं पुनस्तेभ्यः- "सावधानः युष्माभिर्जिनदत्तभवनस्य पुरतः स्थातव्यं, प्रक्षितव्यं अहर्निशं यथा न किमपि अनिष्टं सावकाशं भवेत् । अतीते निश्चिते काले अर्भकं गृहीत्वा मे समीपं आगन्तव्यं इति ।"
शस्त्रपाणयः पुरुषाः क्षिप्रमेव तत्र आगताः, आवासस्य अग्रतः सावधानं स्थिताः । क: निःसरति, प्रविशति इति सलक्ष्यं सोपयोगं पश्यन्ति । विहितः श्रेष्ठिना अपूर्वो दारकजन्ममहोत्सवः । अनेकेषां शुभसन्देशाः प्राप्ताः । अनेके स्वेजनाः तत्र सम्मिलिताः । कृतं प्रतिष्ठानुरूपं प्रोतिभोजनादि कृत्यम् । दत्तं यथोचितं दानम् । स्थापितं पितृस्वस्रा दारकस्य ‘रत्नपाल' इति शुभं नामधेयम् । परमप्रेमप्रोषिताः कौटुम्बिकाःगताः निजकं निजकं स्थानं शावं शुभाशीभिर्वर्धापयन्तः ।
क्षणवत् अलक्षितं सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवं व्यतिक्रान्तम् । परमप्रियपुत्रदर्शन-प्रत्यूहकारकः प्रत्यूषः उदयं प्राप्तः । प्रत्युत्थिताः मन्मनसत्काः पुरुषाः दारकं हस्तयितुम् । हन्त ! अद्य अति उदारमपि जिनदत्त
११ प्रत्यूषः-प्रभातसमय: १२ प्रत्युत्थिताः
प्रियपुत्रदर्शनप्रत्यूहकारक: १३ हस्तयितुम् ।
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रयणवाल बव्हा
किविणतणमणुहवइ पुत्तं पच्चप्पिणेउं । किमवि अघडिग्रं संपाडिज्जइ मए 'त्ति अलक्खिज्जमाणवेअणं आउल-वाउलं सेट्ठिणो चित्तं । विज्जू-णिवायओ वि दुरहिसहं दारयपच्चप्पणसह णवप्पसविणी भाणुमई कहं सहिस्सइ 'त्ति हवीअरे किंकायव्वमूढो सेट्ठी । मा अहिआहिरं ठिई अणुहवउ तीसे मुणालकोमलं हिअयं 'ति वीमंसमाणेण पइणा सत्ति-मिउवयणेण भज्जा संबोहिआ-'सत्तिमइ ! अविहाविओ" किर कालस्स निग्गमो। पल्ल सागराणमवि पत्तो होइ अंतिमो खणो, का वत्ता पुण संखा-संकेइअस्स ? समागओ सो अणिट्ठो अट्ठवीस इमो दिअहो जम्मि अम्हेच्चयो' रणंदणो पारको संवट्टिहिइ । धम्मिट्ठ ! इणमो चिअ धम्मपत्तीए पच्चक्खं इंधं जं पडिऊलम्मि समयम्मि वि ण धिज्ज छिज्जेइ ।
"कुओ समागओ अट्ठावीसइभो वासरो अज्जतणो अज्जउत्त ! कहं संखावयारणं तुम्हं संखा-विन्भमो जाओ ?" पच्चुत्तरिअं वुण्णहिअयाए भाणुमईए सच्छरिग्रं सखेयं च । __ण लक्खिज्जइ माइहिअयाए तुमए सत्तरो गत्तरो कालो। भद्दा ! ण सुमरेसि किं चंददरिसणजोग्गाए धवलाए बिइआए पुत्तजम्मो जाओ, अज्ज कण्हा रित्ता चउद्दसी तिही" वट्टइ। पाससु, उवट्ठिआ एए मम्मणसंतिआ मणुआ पुत्तं करगयं काउं।
अव्वो ! उवट्ठिआ एए मयहिअया* पुत्त हत्थेउं ।
१ आकुल-व्याकुलम् २ भूधातोर्यद् हवादेशस्तस्य भूतार्थस्य रूपमिदम् 'सी-ही हीअ भूतार्थस्य' 'व्यञ्जनादीअः (हे० २-१६२, १६३) हवीअ-अभवत्, अभूत्, बभूव, इत्यर्थः ३ अधिकाहितं-मरणादि ४ सात्विक-मृदुवचनेन ५ अविभावितः
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बिइआ ऊसासा हृदयं 'किमपि अघटितं सम्पाद्यते मया' इति अलक्ष्यमानवेदनं आकुलव्याकुलं श्रेष्ठिनः चित्तम् । विद्यु निपाततोऽपि दुरधिसहं दारकप्रत्यर्पणशब्दं नवप्रसविनी भानुमती कथं सहिष्यते' इति अभूत् किंकर्त्तव्यमूढः श्रेष्ठी ! मा अधिकाहितां 'स्थिति अनुभवतु तस्याः मृणालकोमल हृदयम्' इति विमृशता पत्या सात्विकमृदुवचनेन भार्या सम्बोधिता-"शक्तिमति ! अविभावितः किल कालस्य निर्गमः । पल्यसागराणां अपि प्राप्तो भवति अन्तिम: क्षणः, का वार्ता पुनः संख्यासंकेतितस्य ? समागत: स अनिष्ट: अष्टाविंशतितमो दिवसः, यस्मिन् आस्माकः नन्दनः परकीयः संवय॑ति । धर्मिष्ठे ! एतदेव धर्मप्राप्त्याः प्रत्यक्षं चिन्हं यत् प्रतिकूले समयेऽपि न धैर्यं छिद्यते ।"
"कुतः समागतः अष्टाविंशतितमो वासरः अद्यतनः आर्यपुत्र ! कथं संख्यावतां युष्माकं संख्याविभ्रमः जातः ?" प्रत्युत्तरितं त्रस्तहृदयया भानुमत्या साश्चर्यं सखेदं च।
न लक्ष्यते मातृहृदयया त्वया सत्वरः गत्वरः कालः । भद्रे ! न स्मरसि किं चन्द्रदर्शनयोग्यायां धवलायां द्वितीयायां पुत्रजन्म जातं अद्य कृष्णा रिक्ता चतुर्दशी तिथिः वर्तते । पश्य उपस्थिताः एते मन्मनसत्काः मनुजाः पुत्र करगतं कर्तुम् । “अव्वो ! उपस्थिताः एते मृतहृदयाः पुत्र हस्तयितुम् ! कथं अहं स्तनन्धयं परायत्त करोमि ?
६ संख्या-सङ्केतितस्य ७ आस्माक: ८ परकीयः ६ चिन्हं १० संख्यावताम् - दक्षाणाम् ११ तिथिः १२ मृतहृदया:
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रयणवाल कहा कहमहं थगंधयं परायत्त' कुणेमि ? धी धी ! कहमेआरिसमविआरियं वाया-संधाणं कयं भवया ? एवं विलवमाणी भाणुमई तक्खणं मोहमुवगया' । विवण्ण-वयणकमलेण भत्तुणा नाणाउइअ-उवयारेहि चेअणं पाविआ सा रोउं पउत्ता। हद्धी ! कहमयं न मया मुच्छा-परिगया ? पुत्तविहणं जीयं किं ण मरणाइरित्तं । धिय ! कयंतो वि ण कहमकयंतो ?
सत्था होहि भामिणी ! सव्वं भव्वं होहिइ । इहई पइण्णा-पालणं करणिज्ज अम्हेहिं । आणसु दारयं, जहा तं समप्पिऊण सवहीकयं सच्चं कुणेमो । कंपमाणकरा वहमाणबाहजला मिलायमाणहिअया दूअमाणमणा अंते भाणुमई पत्तं पच्चप्पिणंती साहेउं पउत्ता-"भव्वा ! अस्थि एसो पुत्तो अम्हाणं हिअयस्स खंड, नयणाण जोई, किविणस्स धणं, जीवणस्स य सव्वस्सं । संति अणेगाओ आसाओ अस्सुवरि । मणयमवि मणो ण इच्छेइ इमं खणमवि दूरेउं, परं कि भणीयइ, अणाचिक्खणीया" कहा खु भविअव्वयाए, अणुलंघणिज्जा रेहा किर देवस्स, ता एसो णिहिव्व सम्म सुरक्खिअव्वो, कप्पतरुव्व सययं सेविअब्वो, धम्मव्व पइपलं धारेअब्बो य । किं बहुणा साहिएण, जहा ण हवइ अस्स एगो वि बंको बालो तहा अणुचिट्ठिअव्वं 'ति । एवं बहुजंपमाणीए भाणुमईए रयणवालो बालो हिअयेण धणिअमालिंगिओ, ससिणेहं मुहेण परिचुबिओ,अंसुधाराहि सिंचिओ, अणेगाहिं सुहासीसाहिं परिपोसिओ य हत्थाहत्थि समप्पिओ।
१ मूर्छा २ जीवितं ३ न कृतोऽन्तो येन स अकृतान्तः ४ मनागपि 'मनाको
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बिइओ ऊसासो धिग् धिग् ! कथं एतादृशं अविचारितं वाचासंधानं कृतं भवता"-एवं विलपन्ती भानुमती तत्क्षणं मोहमुपगता। विवर्णवदनकमलेन भर्ना नाना-उचितोपचारैः चेतनं प्रापिता सा रोदितु प्रवृत्ता। हद्धी ! कथं अहं न मृता मूर्छापरिगता ? पुत्र-विहीनं जीवितं किं न मरणातिरिक्तम् ? धिक् कृतान्तोऽपि न कथं अकृतान्तः ?
स्वस्था भव भामिान ! सर्व भव्यं भविष्यति । इह प्रतिज्ञापालन करणीयं अस्माभिः । आनय दारकं, यथा तं समर्प्य शपथीकृतं सत्यं कुर्मः । कम्पमानकरा वहद्वाष्पजला म्लायद्हृदया दूयमानमनाः अन्ते भानुमती पुत्र प्रत्यर्पयन्ती कथयितु प्रवृत्ता-"भव्या ! अस्ति एष पुत्रः अस्माकं हृदयस्य खण्डम्, नयनयोः ज्योतिः, कृपणस्य धनम्, जीवनस्य च सर्वस्वम् । सन्ति अनेकाः आशाः अस्योपरि । मनागपि मनो न इच्छति इमं क्षणमपि दूरयितुम्, परं किं भण्यते, अकथनीया कथा खलु भवितव्यतायाः, अनुल्लंघनीयारेखा किल देवस्य । तस्मात् एष निधिवत् सम्यक् सुरक्षितव्यः, कल्पतरुवत् सततं सेवितव्यः,धर्मवत् प्रतिपलं धारयितव्यश्च । किं बहुना कथितेन, यथा न भवति अस्य एकोऽपि बङ्को बालः तथा अनुष्ठातव्यं इति ।” एवं बहु जल्पन्त्या भानुमत्या रत्नपालो बालो हृदयेन गाढमालिङ्गितः सस्नेह, मुखेन परिचुम्बितः, अश्रुधाराभिः सिक्तः, अनेकाभिः शुभाशीभिः परिपोषितश्च हस्ताहस्तिकं समर्पितः।
नवा डयं च' (हे० २-१६९) तेन मणयं, मणिसं, मणा ५ अकथनीया ६ कथितेन । ७ धणिअं-गाढम् ८ हस्ताहस्तिका ।
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रयणवाल कहा सुरपणामित्रं तं सोमावं बालं हसंतं संतं घेत्तण झत्ति गया ते मम्मणसमीवं । पयडीकुणमाणेहिं जहाकहिलं मायराहिप्पायं तेहिं दक्खयाए समप्पिओ सो सामिस्स ।
अणेग-सामुद्द-सुलक्खण-लक्खिग्रं पत्ताणुऊल-ग्गहबलं भविस्सुज्जलमब्भगं णिभालिऊण मम्मणो सेट्टी उप्फुल्लो जाओ। वंझाए गिआए भारिआए अंकम्मि देवल्लविसं पुत्त-पारिओसिअं' ठवमाणेण तेण पाउक्कयं-"पिया ! केण उत्तो सित्तो य कप्पतरू कहिं फलिओ ? केण विहाविमं जं अमुणा वंसभक्खरेण अम्हकेरं गिहं पज्जोइअं होहिइ ? केणावगमिज्जई अहवा सुहोदक्कं भागधेमं कया केरिसं अतक्किग्रं सुहं फलं देइ 'त्ति । निच्छिय मुणअव्वं जमेसो बालो अम्हेच्चयो च्चिअ; ण खलु जिणदत्तस्स दारिदाहिदुअस्स । कया सोलसवासाइं पुण्णाइं भविस्संति ? कया पुत्तो जुवाणो भुच्चा पचिट्टिहिइ ? कया पुण सवुड्ढिनं धणं विढविऊण पच्चप्पिणिहिइ ? सव्वमिणं कप्पणामणोहरं अब्भचित्त-संकासं विज्जइ। को जीविहिइ को मरिहिइ 'त्ति को गाउमरिहिई ? सहवे ! ओरसमवच्चमिण 'ति मण्णमाणी तुम इमं पालसु । मा णं किसमवि ऊणत्तणं अस्स लालण-पालणे अणुहवसु ।
चित्तं ! खुद्द चुच्छे किविणमवि य मम्मणस्स चित्तं बालगस्स पुण्ण-गुरुआए उआरं, पेमिल्लं, अणुऊलं च जायं ।
१ पुत्रपारितोषिकम् २ उप्तः ३ अवगम्यते ४ दारिद्र याभिद्रुतस्य ५ प्रस्थास्यति ६ अर्जयित्वा 'अर्जेविढवः' (हे० ४-१०८) ७ प्रत्यर्प
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बिइओ ऊसासो
सुरापितं तं सुकुमालं बालं हसन्तं सन्तं गृहीत्वा झगिति गताः ते मन्मनसमीपम् । प्रकटीकुर्वद्भिः यथाकथितं मात्रभिप्रायं तैः दक्षतया समर्पितः स स्वामिने।
अनेक-सामुद्र-सुलक्षणलक्षितं प्राप्तानुकूल-ग्रहबलं भविष्योज्ज्वलं अर्भकं निभालयित्वा मन्मनः श्रेष्ठी उत्फुल्लो जातः । वन्ध्यायाः निजायाः भार्यायाः अङ्क देवापितं पुत्रपारितोषिकं स्थापयता तेन प्रादुष्कृतम्"प्रिये ! केन उप्तः सिक्तश्च कल्पतरुः कुत्र फलितः ? केन विभावितं यत् अमुना वंशभास्करेण अस्मदीयं गृहं प्रद्योतितं भविष्यति ? केनावगम्यते अथवा शुभोदकं भागधेयं कदा कीदृशं अतर्कितं शुभं फलं ददातीति । निश्चितं ज्ञातव्यं यदेष बाल: आस्माकः एव, न खलु जिनदत्तस्य दारिद्र याभिद तस्य । कदा षोडषवर्षाणि पूर्णानि भविष्यन्ति ? कदा पुत्रो युवा भूत्वा प्रस्थास्यति ? कदा पुनः सवृद्धिक धनं अर्जयित्वा प्रत्यर्पयिष्यति ? सर्वमिदं कल्पना-मनोहरं अभ्र-चित्रसंकाशं विद्यते । क: जीविष्यति, कः मरिष्यति इति को ज्ञातु अर्हति । सुभगे ! 'औरसं अपत्यं इदम्' इति मन्वाना त्वं इमं पालय 'मा' 'ण' कृशमपि ऊनत्वं अस्य लालन-पालने अनुभव ।"
चित्रम् ! क्ष द्र तुच्छं कृपणमपि च मन्मनस्य चित्तं बालकस्य पुण्यगुरुतया उदारं प्रेमवत् अनुकूलं च जातम् । अङ्क कृत्वाउत्तानशयं
यिष्यति ८ अर्हति तुच्छे-'तुच्छे-तश्चच्छौवा' (हे० १-२०४) तेन छुच्छं, चुच्छं, तुच्छमपि।
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रयणवाल कहा
अंकम्मि काऊण उत्ताणसयं सेट्ठी णाणाविहं कीड्डं कुणेइ । जहा तहा जंपतो तं रमावेइ। विम्हुट्ठावर-गिहकज्जो तं खंधमारोविऊण जत्थ तत्थ भमाडेइ । धाईणं ववत्था वि जहोचिआ कया । गिरि-कंदर-लीणो चपंगपायवो विव मम्मण-गिहम्मि सुहं सुहेणं परिवड्ढए सो। हंत ! विचित्ताणि विहणो विलसिआणि।
इओ य परहत्थगयं पोअं काऊण गहिअ-रसा उच्छुलट्ठी विव, णिवडिअ-पत्त-पुप्फ-फला रुक्खावली विव, चेयणासुण्णा तणू विव भाणुमई होहिअ । अव्वो ! पच्चसम्मि वि सव्वओ गाढंधयारो पत्थरिओ । वाहिवज्जिए वि ताए सरीरम्मि काइ असहणिज्जा अउलवेअणा उप्पडिआ। गहिलचित्ता इव चितेइ सा-"किं जागरूआ वि अहं पच्चक्खं सुमिणं पेच्छेमि ? किं पायडजोगपावल्लावि अहं मया ? अम्मो ! कि मए एआरिसं महामोल्लं वत्थु हारिअं, जिणा -विणा सव्वं विज्जमाणमवि तहाविहं अविज्जमाणमिव पडिहाइ । हंदि ! केण पम्हुसिअं" मे हिअय-सयलं, जेण विणा सयलमवि पम्हसिग्रं जायं । हरे माउउच्छंग-वंचिओ सो वराओ सिलिंबो कि कुणमाणो हवेज्जा ? हंत ! यविहिणा थणंधयो बालो कीस माऊआ-विरहिओ कओ ? केरिसी परिवालणा तस्स हविस्सइ परगिहठिअस्स मंदभग्गस्स ?" एवं णाणाविकप्पजाल-परिअरिआ माया कयाइ मुच्छइ, गिलायइ, मिलायइ, अणवरय-पवहमाण-बाहजलेण भूअलं पल्ललीकरेई य। विक्खित्त-चित्ता पुण इओ तओ परिभमइ, खणमेत्तमवि ण कत्थइ सुहलवमणुहवइ । सेट्ठिणो वि तारिसी ठिई संवुत्ता, परं को सुणेइ विहि-दाव-दड्ढाणं पुक्कारं ?
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बिइओ ऊसासो श्रेष्ठी नानाविधां क्रीडां करोति । यथा तथा जल्पन् तं रमयति । विस्मृताऽपरगृहकार्यः स्कन्धं आरोपयित्वा यत्र तत्र भ्रामयति तम् । धात्रीणां व्यवस्थाऽपि यथोचिता कृता । गिरिकन्दरलीनः चम्पकपादप इव मन्मनगृहे सुखं सुखेन परिवर्धते सः । हन्त ! विचित्राणि विधेविलसितानि ।
इतश्च परहस्तगतं पोतं कृत्वा गृहीतरसा इक्ष यष्टिरिव, निपतितपत्रपुष्पफला वृक्षावलीव, चेतनाशून्या तनूरिव भानुमती अभूत् । अब्बो ! प्रत्यूषेऽपि सर्वत: गाढान्धकारः प्रसृतः । व्याधिवजितेऽपि तस्याः शरीरे कापि असहनीया अतुलवेदना उत्पतिता । ग्रथिलचित्ता इव चिन्तयति सा-“किं जागरूकाऽपि अहं प्रत्यक्ष स्वप्नं प्रेक्षे ? कि प्रकटयोगप्राबल्याऽपि अहं मृता? "अम्मो" ! किं मया एतादृशं महामूल्यं वस्तु हारितं, येन विना सर्व विद्यमानमपि तथाविधं अविद्यमानमिव प्रतिभाति । हन्दि ! केन प्रमुषितं मे हृदयशकलं, येन विना सकलमपि विस्मृतं जातम् । हरे ! मात्र त्सङ्ग-वञ्चितः स वराक: सिलिंबः किं कुर्वाणो भवेत् ? हन्त ! हतविधिना स्तनन्धयो बाल: कस्मात् मात्रा विरहितः कृतः ? कीदृशी परिपालना तस्य भविष्यति परगृहस्थितस्य मन्दभाग्यस्य ? एवं नानाविकल्पजालपरिकरिता माता कदापि मूर्ति, ग्लायति, म्लायति, अनवरत-प्रवहमाणबाष्पजलेन भूतलं पल्वलीकरोति च । विक्षिप्तचित्ता पुनः इतस्ततः परिभ्रमति ! क्षणमात्रमपि न कुत्रापि सुखलवमनुभवति । श्रेष्ठिनोऽपि तादृशी स्थितिः संवृत्ता। परं कः शृणोति विधिदावदग्धानां पुत्कारम् ?
१ उत्तानशयं-डिम्भम् २ उत्पन्ना ३ प्रकटयोगप्राबल्यापि ४ येन ५ प्रमुषितं-चोरितम् ६ विस्मृतम् ७ माऊआ-मात्रा ८ पल्वलीकरोति ।
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रयणवाल कहा विचित्तमवत्थं पत्तो जिणदत्तो संपइ कि कायव्वं' ति परामरिसइ' भज्जाए सद्धि । दविण-विणिमयेण रक्खिओ पुत्तो परगिहम्मि' त्ति जणाववाय-भीरुओ कहं मुहं दरिसणिज्ज' ति लज्जिओ । अंतम्मि अविण्णाय-वइअरे२ णायरजणे पच्छण्णयाए गिह-णयर-देस-परिचाओ कायव्वो, इअ उभयसम्मओ निच्छओ जाओ। उतत्थमणाए भाणुमईए सव्वं गिहभण्डं ववट्ठिअं कयं । आवस्सयवत्थूणं एगा लहुवी पोट्टलिआ सज्जीकया। अणेगदिण-भक्खणारिहं सूखडिआइयं किमवि पाहेयं पुण विणिम्मिअं । सव्वमिणं कज्जं मा परेहि लक्खिज्जउ' त्तिबद्धकवाडं ताए अणुट्ठिअं । पुत्तविओगविहुरो अईव पलंबो वि वासरो गिह-कज्ज-गुरुअयाए कहं कहमवि पुण्णत्तणं पत्तो। पगासपगरिस-वंझा संझा संमुहीणा संपण्णा । पेरंत-कालिमाए लालिमाए थोव-कालिओ अहरराओं दंसिओ । पाउक्कय -लद्धावसर-सिद्धतं धंत' वित्थरिउ लग्गं । किं करणि ज्ज अम्हेहि ति बिंदुआगारा तारा अणंतम्मि मंदमऊहेहि आलोए उपउत्ता । माया इव संतिप्पया राइ'त्ति जाया झडिति मउलिअ-झपंणिआ डिभा । अण्णुण्ण-संदिद्धाइं विउत्ताइं चक्कवायाणं जुम्माइं। सक्खं लद्धलक्खा संभूआ तक्कराणं मलिणा भावणा ! सव्वेवि सग्निहत्था सगिहत्था जाया जायाहि अणुणोयमाणमाणसा। एआरिसीए तमिस्साए अणुऊलो अवसरो पलायणस्स'त्ति मुणिऊण जिणदत्तेण एगा कयण्ण दक्खा
१ परामृशति २ अविज्ञातव्यतिकरे ३ व्यवस्थितम् ४ 'सूखडी' देशीयशब्दः गुर्जरदेशप्रसिद्धः ५ पाथेयम् ६ प्रकाशप्रकर्षवन्ध्या ७ अधररागः ८ प्रादुष्कृतलब्धावसरसिद्धान्तम् ६ ध्वान्तं-तिमिरम् १० मन्दमयूखैः ११ मुकुलित
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बिइओ ऊसासो
विचित्रामवस्थां प्राप्तो जिनदत्तः संप्रति किंकर्तव्यमिति परामृशति भार्यया सार्धम् । 'द्रविण-विनिमयेन रक्षितःपुत्रःपरगृहे' इति जनापवादभीरुकः कथं मुखं दर्शनीयमिति लज्जितः । अन्ते अविज्ञातव्यतिकरे नागरजने प्रच्छन्नतया गृह-नगर-देशपरित्यागः कर्त्तव्यः, इति उभय-सम्मतो निश्चयो जातः । उत्त्रस्तमनसा भानुमत्या सर्वगृहभाण्डं व्यवस्थितं कृतम् । आवश्यकवस्तूनामेका लघ्वी पोट्टलिका सज्जीकृता । अनेकदिनभक्षणार्ह 'सूखड़ी' आदिकं किमपि पाथेयं पुनः विनिर्मितम् । सर्वमिदं कार्य मा परैः लक्ष्यतामिति बद्धकपाटं तया अनुष्ठितम् । पुत्र-वियोगविधुरः अतीव प्रलम्बोऽपि वासरो गृहकार्यगुरुकतया कथंकथमपि पूर्णत्वं प्राप्तः। प्रकाश-प्रकर्षवन्ध्या सन्ध्या सम्मुखीना सम्पन्ना। पर्यन्तकालिम्ना लालिम्ना स्तोककालिक: अधररागो दर्शितः । प्रादुष्कृत-लब्धावसरसिद्धातं ध्वान्तं विस्तरितु लग्नम् । किं करणीयमस्माभिरिति बिन्दुकाकाराः ताराः अनन्ते मन्दमयूखैः आलोकितु प्रवृत्ताः। माता इव शान्तिप्रदा रात्रिरिति जाताः झटिति मुकुलितपक्ष्माणो डिम्भाः । अन्योन्यसन्दिग्धानि वियुक्तानि चक्रवाकाणां युग्मानि । साक्षात् लब्धलक्ष्या संभूता तस्कराणां मलिना भावना। सर्वेऽपि सद्गृहस्थाः स्वगृहस्थाः जाता जायाभिः अनुनीयमानमानसाः। एतादृश्यां तमिस्रायां अनुकूलोऽवसरः पलायनस्य' इति ज्ञात्वा जिनदत्तेन एका कृतज्ञा दक्षा पितामही-समाना
झम्पणिका :-निमीलितपक्ष्माण इत्यर्थः यथा-'झंपणीओ पम्हाइं (पाइयलच्छी ८४६) भांपण, इतिभाषा १२ सद्गृहस्थाः १३ स्व-गृहस्थाः ।
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५४
रयणवाल कहा
पियामही समाणा वीसत्था समोसिआ' थेरी सणियं वाहिता । साहिओ सव्वोवि जहातहं वृत्तंतो । परिचिआ कया सव्वेहिं अज्जंतकाल - कज्जेहिं । समप्पिओ सव्वओ णिअ- हम्मियस्स सुरक्खाभारो । दिण्णं पुण दारजंतुग्घाडणयं तालिआणं गुच्छगं । अंते णिवडिऊण ताए चलणेसुं गहिआ सोहदपुण्णा आसीसा । गहिऊण मत्थए पाहेय- पोट्टलियं भज्जा' बिइज्जओ 'मा कोइ णे पलोएउ "त्ति संकिओ सणिअंसणि सरमाणो रयणवालं बालं मणमि सरमाणो गाढंधयारम्मिविलीणो ।
किं किं कप्पेइ वराओ अप्पण्णू मणुओ, किंतु दिट्ठ किपि अदि घडे । विहि-पवण - पणुल्लिआणि' अब्भाणि विव द्वाणि हवंति जंतूण आसा - विआणाणि । हा ! दुरहिगमा भाविणी परिणई इह चम्मच क्खुधारिणा मच्चेण । पेच्छंतु पचक्खं जिणदत्तस्स विहि-पराहूई । काए काए ह -विसालाए आसाए पुत्त - पत्थणा कया, तत्थ केरिसो अणअहिलसणिज्जो समयो आवडिओ । जस्स पुरओ अणेगे भिच्चा पंजलिउडा ठिआ 'को आएसोत्ति वयणं पुप्फी कुणमाणा आसी, सो अहुणा अलक्खिओ मत्थयत्थ - पोट्टलिओ संगोविअ - णियत्थित्तो सहि सहोअर - सहाय - वज्जिओ पुत्तवियोग-संखुद्दो
हणीए सद्धि वाण - वेलविओ एगागी वच्चइ | कहं कहंपि तीरिआओ" तेहिं णयरवीहीओ पच्छण्णयाए । एयरप्पओली जया एहि पिट्टओ कया, तया णं काई अणाचिक्खणिज्जा
-
१ प्रातिवेश्मिकी २ व्याहृता ३ भार्याद्वितीयकः ४ अस्मात् ५ पश्यतु
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५५
बिइओ ऊसासो विश्वस्ता समोषिता (प्रातिवेश्मिकी) स्थविरा शनैः व्याहृता। कथितः सर्वोऽपि यथातथं वृत्तान्तः । परिचिता कृता सर्वैः आयतिकालकार्यैः । समर्पितः सर्वतः निजहर्म्यस्य सुरक्षाभारः । दत्त पुनः द्वारयन्त्रोद्घाटनकं तालिकानां गुच्छकम् । अन्ते निपत्य तस्याः चलनयोः गृहीता सौहार्दपूर्णा आशीः। गृहीत्वा मस्तके पाथेयपोट्टलिकां भार्याद्वितीयकः ‘मा कोऽपि नौ प्रलोकयतु' इति शङ्कित: शनैः शनैः सरन् रत्नपालं बालं मनसि स्मरन् गाढान्धकारे विलीनः ।
किं किं कल्पते वराकः अल्पज्ञो मनुजः, किन्तु दिष्टं किमपि अदृष्टं घटयति । विधिपवनप्रेरितानि अभ्राणि इव नष्टानि भवन्ति जन्तूनां आशावितानानि । हा! दुरधिगमा भाविनी परिणतिः इह चर्मचक्षुर्धारिणा मयेन । प्रेक्षन्तां प्रत्यक्ष जिनदत्तस्य विधि-पराभूतिम् । कया कया नभोविशालया आशया पुत्र-प्रार्थनाकृता, तत्र कीदृशः अनभिलषणीयः समयः आपतितः । यस्य पुरतः अनेके भृत्याः प्राञ्जलिपुटाः स्थिताः 'क: आदेशः' इति वचनं पुष्पीकुर्वाणाः आसन्, स अधुना अलक्षितः मस्तकस्थपोट्टलिक: संगोपित-निजास्तित्वः सखि-सहोदर-सहाय-वजितः पुत्र-वियोगसंक्षुब्धः गृहिण्या साधं वाहनवञ्चितः एकाकी व्रजति । कथं कथमपि तीरिताः ताभ्यां नगरवीथयः प्रच्छन्नतया । नगरप्रतोली यदा आभ्यां पृष्ठतः कृता, तदा 'ण' कापि
६ स्मरन् ७ विधि-पवन-प्रेरितानि ८ नभोविशालया ६ वञ्चितः १० तीरिता ।
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रयणवाल कहा
मणे लज्जा पारंचिआ । ति चउर गाउप्पमाणं पहं पत्ताणमेसि मत्तं उदयो जाओ । " थक्कियासि कोमलंगी ! किमु लंबमद्वाणं वच्चमाणी ? थक्कामो कि वीसमण- णिमित्तं कत्थइ ?" मुहं मुहं परिपुच्छ जिरणदत्तो रयणवाल - मायरं ।
"णूणं अज्जउत्ताणं मुहपंकजं जूरि दीसइ, ता तुम्हे महंतं पहखेनं अणुहवेज्जत्ति मए अणुहूअं" पच्चुत्तरिअं विणयवाहिणीए वायाए भाणुमईआ ।
पिये! णाहं किंचि विणिगम-गमणखे वहामि किंतु ---विर मिओ अग्गओ वोत्तु सेट्ठी |
५
किं किं खेअ - कारणं, कहं 'किंतु' वज्जरिऊण विरमिओ अग्गओ वाया - विण्णासो ? कि सई गओ जीवणाहारो पिओ पुत्तो ?" पुट्ठ बाहं लुछमाणीए पत्तीए । चुक्कि आसि रयणमाय ! पुच्छेती तुमं । कया सो विम्हरिओ ता संपइ सई गओ ? बाह्जलाउललोयणेण पइणा एगो दीह-णीसासो मुक्को । इत्थं दंपइणो परुप्परं पुत्त-विरहेण णिव्वरंता", पइसं हंपियं पुत्तं संभरेंता-पहच्छेनं कुणिरे ।
मग्गम्मि समागया एगा सरसी । मणोहरं विजणं ठाणं पप्प जंपइणो तत्थ वीसंता जाया । अणुचिट्ठियं तेहि सयलं पाहाइअं किच्चं । पारिश्रं सम्मं णमुक्कारसहि । गहिओ किंचि पायरासो | मज्झ सव्वरीए परितंता इहई णिब्विऊण" किंचि
पयट्टआ एए संता आसत्था हुआ । मा
९
१ पारं नीता २ श्रान्तासि ३ तिष्ठामः ४ खिन्नम्, यथा- - रिअं उत्तम्मिअं, नडिअं, ( पाइयलच्छी ५७५) ५ स्खलितासि ६ दुःखं निवेदयन्तः दुःखे
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बिइओ ऊसासा अकथनीया मन्ये लज्जा पारं नीता । त्रिचतुर्गव्यूतिप्रमाणं पन्थानं प्राप्तयोः एतयोः मार्तण्डोदयो जातः । "श्रान्तासि कोमलाङ्गि ! किम प्रलम्ब अध्वानं व्रजन्ती ? तिष्ठामः किं विश्रमण-निमित्त कुत्रापि ? महर्मुहुःपरिपृच्छति जिनदत्तो रत्नपालमातरम् । _ "नूनं आर्यपुत्राणां मुखपङ्कजं खिन्नं दृश्यते, तस्मात् यूयं महान्तं पथखेदं अनुभवथ, इति मया अनुभूतम्" प्रत्युत्तरितं विनयवाहिन्या वाचा भानुमत्या।
"प्रिये ! नाहं किञ्चिदपि निगम-गमन-खेदं वहामि, किन्तु..." विरमितः अग्रतः वक्तु श्रेष्ठी।
"किं किं खेदकारणं, कथं 'किन्तु' व्याहृत्य विरमितः अग्रतो वाग्विन्यासः ? किं स्मृतिगतः जीवनाधारः प्रियः पुत्रः ?" पृष्टं वाष्पं मजन्त्या पत्न्या।
"स्खलितासि रत्नमातः ! पृच्छन्ती त्वम् । कदा स विस्मृतः तस्मात् संप्रति स्मृतिं गतः ? वाष्पजलाकुललोचनेन पत्या एको दीर्घनिःश्वासो मुक्तः । इत्थं दम्पती परस्परं पुत्रविरहेण दुःखं प्रकटयन्ती प्रतिसंकथं प्रियं पुत्र स्मरन्तौ पथच्छेदं कुर्वाते।
मार्गे समागता एका सरसी। मनोहरं विजनं स्थानं प्राप्य जम्पती तत्र विश्रान्तौ जातौ । अनुष्ठितं ताभ्यां सकलं प्राभातिक कृत्यम् । पारितं सम्यक् नमस्कार-सहितम् । गृहीतः किञ्चित् प्रातराशः । मध्यशर्वर्यां चलितौ एतौ श्रान्तौ परितान्तौ इह विश्राम्य किञ्चित् आश्वस्तो भूतौ । ‘मा पृष्ठतः केऽपि श्रेष्ठिनं
णिव्वरः (हेम० ४-३) ७ नोकारसी ८ प्रातराशः 'जलपान-सिरावण' इतिभाषा ६ पयट्टआ-चलिआ १० विश्राम्य, विश्रमणिन्वा० ।
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५८
रयणवाल कहा
मग्गओ' केइ सेट्टिं मग्गमाणा' मग्गआ आगच्छिअ गमणविक्खेवं कुणिज्ज' त्ति पुणरवि अग्गओ चलिओ सेट्ठी । इयं पंडिअग्गेमाणी भज्जा चलणाणब्भत्थचलणा५ खलेइ उच्चावयम्मि हम्म । कयाइ तिक्ख पाहाण खंडेण अप्फलिआ अग्गगामि पई सखेअं सद्दइ । चलिश्रं रुहिरधारं तज्जुग्गुवाएण साहरइ ससाहसं सेट्री । मज्झ दिणयरस्स तावेण संतत्ता एग्गस्स सण्णिवेसस्स मज्झयारम्मिट गया एए । कस्सइ धवल मंदिरस्स बहित्ता सच्छायं सुघडं वेइयं' विलोइअ मज्झणि वेलं अइवाहे मत्थयगयं पोट्टलिअं रक्खिऊण एगओ ठि । अग्गे कत्थ वच्चणिज्जं कि करणिज्जं ति वीमंसणपरा संलविउ लग्गा ।
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50
तक्कालं चिअ वायायणेण एगाए वामलोअणाए णिअमंदिर - वेइआए केई अणुवलक्खि अद्धणीणा आलवमाणा ठिय' ति णिहालिआ । एक्कसरिअं " सा तहिं समागया । णयणेहि असिणेहं दरिसमाणी वज्जकक्कसाए गिराए वज्जरिउ उत्ता - " कहं भो ! ठिआ एत्थ अपच्चभिण्णाया अवि अम्हकेर - मंदिर - वेइआए ? अणुवलक्खिआणं ण वयं ठाणं दाउ समत्था तम्हा वच्चंतु, सिग्धं वच्चतु भो ! केसिचि तुम्ह उवलक्खिआणं गेहम्मि ।"
93
१४
"पहिआ " अम्हे मज्झह - कालम्मि वीसमण ठाणं पेक्खिअ किंचि - कालं ठिआ । भइणि ! मणुओ मणुअस्स आस पत्थर | वच्चिस्सामो अम्हे अवरहकाले अग्गओ
१ पृष्टतः २ गवेषयन्तः ३ मार्गका : 'मांगने वाले' इतिभाषा ४ अनुव्रजन्ती ५ चलनाऽनभ्यस्तचलना ६ आस्फालिताः ७ संवृणोति 'संवृगे: साहरसाहवौ'
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बिइओ ऊसासो
५६
मार्गयन्तः मार्गकाः आगत्य गमनविक्ष ेपं कुर्युः' इति पुनरपि अग्रत: चलितः श्रेष्ठी । दयितं अनुव्रजन्ती भार्या चलनानभ्यस्तचलना स्खलति उच्चावचे पथि । कदापि तीक्ष्ण-पाषाण खण्डेन आस्फालिता अग्रगामिनं पतिं सखेदं शब्दयति । चलितां रुधिरधारां तद्योग्योपायेन संवृणोति ससाहसं श्रेष्ठी । मध्यदिनकरस्य तापेन संतप्तौ एकस्य सन्निवेशस्य मध्ये गतौ एतौ । कस्यापि धवलमन्दिरस्य बहिस्तात् सच्छायां सुघटां वेदिकां विलोक्य माध्याह्निकी वेलां अतिवाहयितु मस्तकगतां पोट्टलिकां रक्षयित्वा एकतः स्थितौ । 'अग्रे कुत्र व्रजनीयं, किं करणीयं' इति विमर्शनपरौ संलपितु लग्नौ ।
तत्कालमेव वातायनेन एकया वामलोचनया निजमन्दिर - वेदिकायां aste अनुपलक्षिता अध्वनीना आलपन्तः स्थिताः इति निभालिताः । एक्कसरिअं (गिति ) सा तत्र समागता । नयनाभ्यां अस्नेहं दर्शयन्तीवज्रकर्कशया गिरा कथयितु प्रवृत्ता - ' कथं भोः स्थिताः अत्र अप्रत्यभिज्ञाताः अपि अस्मदीय- मन्दिर - वेदिकायाम् ? अनुपलक्षितेभ्यो न वयं स्थानं दातु समर्थाः । तस्माद् व्रजन्तु, शीघ्र ं व्रजन्तु भोः ! केषाञ्चिद् युष्माकं उपलक्षितानां गृहे । "
" पथिका वयं मध्याह्नकाले विश्रमणार्थं स्थानं प्रेक्ष्य किञ्चित्कालं स्थिताः । भगिनि ! मनुजः मनुजस्य आश्रयं प्रार्थयति । वजिष्यामो
( हे ० ४ ८३ ) ८ मध्ये ( देशीयः शब्दः ) ६ वेदिकां 'चबूतरा' इतिभाषा १० वातायनेन ११ झगिति १२ तहि तत्र १३ अप्रत्यभिज्ञाताः १४ पथिकाः 'पथो णस्येकट' (हे०२-१५२ ) इतिपहिओ - पान्थः ।
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६०
रयणवाल कहा
सयमेव । संपइ किवाए मणं उरालं किच्चा ण उट्ठाविअव्वा अम्हे" णिवेइयं सब्भावणाए सेट्टिणा ।
"अलाहि मणुअत्तणोवएसेण ? भमंति अणेगे पस्सओहरा महुरं जंपेमाणा वेस-परिवट्टणेण लोनं पम्हुसंता' । ता पस्संतु अवरं ठाणं ? ण एत्थ खणमवि चिट्टिअव्वं तुम्भेहि " सगरिहं फुडं पडिसिद्धं ताए ।
एवं हिसामिणीए अव माणिआ एए झत्ति पोट्टगं गहिअ अग्गओ सरिआ । हंत ! को पडिपुच्छे दरिद्द - मुद्दिअ-भागहेयाणं सुहं दुहं ? आवयाए णिआ अवि पारक्केरा, ता अपरिचिआणं तु का कहा ? णूगं ईइसो एस संसारो । एत्थ अब्भच्छा हिव्व सव्वावि चंचला लीला | गाढसिरहे वि इह अपीईए उग्गमो । दिव्वुज्जोए वि अस्सि अंतरहिआ तमिस्सरेहा । महुरालावम्मि वि एत्थ कडुत्तिप्पसंगो । धी धी ! तहवि कहं संसारीणं नाणलोयणा मुद्दिआ ? पराहवंति पइपयं सज्जुक्का " तारिच्छा अणुहवा, तहवि ण कहं परिष्फुरेइ अंतरंग वेरग्ग ? हरे ! गाढमावरणमण्णाणस्स । पच्चक्खमवि ण कहं घेप्पइ ' मोहधिट्ठा मईए ।
७
भाणुम संमुही कुणमारणेण सेट्टिणा साहित्रं - " भज्जे ! अणणुकूला अहा अम्हेच्चया संपइ । तम्हा एआरिसा पुवं अणणुहूआ पसंगा आवड॑ति । तहावि गाई विमणदुम्मेणेहिं होइअव्वं अम्हेहि । एत्थ हु परिक्खा रणे चिरपालिअस्स धम्मस्स । अओ उड्ढं अम्हे ण कस्सइ सरणं' वच्चिहामों ।
१ पश्यतोहराः २ प्रमुषन्तः - चोरयन्तः ३ चलिताः ४ अन्तर्हिता –छन्ना
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बिइओ ऊसासो वयं अपराहकाले अग्रतः स्वमेव, संप्रति कृपया मनः उदारं कृत्वा न उत्थापनीया वयम्" निवेदितं सद्भावनया श्रेष्ठिना ।
"अलं मनुजत्वोपदेशेन । भ्रमन्ति अनेके पश्यतोहराः मधुरं जल्पन्तो वेश-परिवर्तनेन लोकं प्रमुष्णन्तः । तस्मात् पश्यन्तु अपरं स्थानम् । न अत्र क्षणमपि स्थातव्यं युष्मामिः" सगह स्फुटं प्रतिषिद्ध तया।
एवं गृहस्वामिन्या अपमानितौ एतौ झटिति पोट्टकं गृहीत्वा अग्रतः सृतौ ! हन्त । कः प्रतिपृच्छति दारिद्र य-मुद्रित-भागधेयानां सुखं दुःखम् । आपदि निजाः अपि परकीया:; तदानीं अपरिचितानां तु का कथा ? नूनं ईदृश एष संसारः । अत्र अभ्रच्छाया इव सर्वापि चञ्चला लीला । गाढस्नेहेऽपि इह अप्रीतेः उद्गमः । दिव्योद्योतेऽपि अस्मिन् अन्तहिता तमिस्ररेखा। मधुरालापेऽपि अत्र कटूक्तिप्रसंगः । धिग् धिग् ! तथापि कथं संसारिणां ज्ञानलोचनानि मुद्रितानि । पराभवन्ति प्रतिपदं सद्यस्काः तादृक्षाः अनुभवास्तथापि न कथं परिस्फुरति अन्तरङ्ग वैराग्यम् । अरे ! गाढं आवरणं अज्ञानस्य । प्रत्यक्षमपि न कथं गह्यते मोहधृष्ट्या मत्या।
भानुमतींसम्मुखी कुर्वता श्रेष्ठिना कथितम्-"भायें ! अननुकूलानि अहानि आस्माकानि सम्प्रति । तस्मात् एतादृशाः पूर्व अननुभूताः प्रसङ्गा आपतन्ति । तथापि न विमनोदुर्मनोभ्यां भवितव्यं आवाभ्याम् । अत्र 'हु' परीक्षा आवयोः चिरपालितस्य धर्मस्य । अतः ऊर्ध्व आवां न कस्यापि शरणं व्रजिष्यावः। यत्र कुत्रापि स्वाधीनं
५ सद्यस्काः ६ गृह्यते ७ दिनानि ८ आश्रयम् । प्रजिष्यामः ।
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रयणवाल कहाँ
जत्थ कत्थइ साहीणं जीवणं जवेहामो ! पलाइग्रं रित्थं ण दुक्खमिणं, परं मा गच्छउ अप्पणियं धरणं साहिमाणं । किं तेण ताडिअ-सिरेण साण-जीवणेण जत्थ णत्थि गाममेत्तमवि मणुअ-गुण-मुल्लंकणं ।" अज्जउत्ता पमाणं'ति कहमाणीए भाणुमईए मोणमालंबिधे। ___ सरपालिगय-वडरुक्खस्स हेतु अइवाहिओ णेहि मज्झंदिण-तत्ति-समयो । अवरहम्मि पुणो पट्ठिआ एए दक्खिणाए दिसीए । बोलीणाए महत्तमेत्ताए रयणीए लद्धो दंपईहिं सुरक्खिओ एगो वणणिउंजो। तत्थ गहिआ णेहिं पहविस्संती। वण-फलेहिं कया उभरपुत्ती । पत्थरिआ कयलीदलाण सेज्जा। कयं सयणं तहिं । परंतु णागच्छइ पुत्तविरह-विदुआ णिद्दा । जाउ अच्छिणिमीलणं लहंता वि पच्चक्खं पुत्तं पेक्खेंता कहेंति-"पुत्त ! मा रुअसु, जणणीउच्छंग-सुह-वंचिओ तुमं । आसासमीविओ" ण सोवि समयो दविट्ठो जत्थ अम्हाणं चिरं विरमालिओ मेलो संभावी। दुन्विहोऽयं कालो वेलाविवागेण बुब्बुअ-विलायं विलीणो होहिइ । सयं णट्ठा भविस्संति सब्वेवि पडिवक्खा संजोगा" एवं कहेंता कप्पंता जाव जागरूआ हवंति ताव पुत्तमसक्खं करेंता सव्वमिणं सिविणरूवंति मण्णंता विहिं पच्चारेति । एवं पासाई परिवट्टमाणेहिं एएहिं जहा कहंचि रयणी उवप्पहायं णीआ। पच्चहियं पच्चूसकालिगं आवस्सयं सामाइआइ-किच्चं सद्धाए भत्तीए अणुचिद्विग्नं दंपईहिं । आवया
१धनम् २ आत्मीयम् ३ अधः 'अधसो हेटू (हेम० २-१४१) ४ मध्यन्दिनतप्तिसमय: ५ आशासमीपितः ६ प्रतीक्षितः । यथा-विरमालिअं विहीरिअं
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बिइओ ऊसासो जीवनं यापयिष्याव: । पलायितं रिक्थं न दुःखमिदं, परं मा गच्छतु आत्मीयं धनं स्वाभिमानम्। किं तेन तडितशिरसा श्वान-जीवनेन यत्र नास्ति नाममात्रमपि मनुज-गुण-मूल्याङ्कनम्" । 'आर्यपुत्राः प्रमाण' इति कथयन्त्या भानुमत्या मौनमालम्बितम् ।
सर: पालिगत-वटवृक्षस्य अधः अतिवाहितः आभ्यां मध्यन्दिनतप्तिसमयः । अपराह्न पुनः प्रस्थितौ एतौ दक्षिणस्यां दिशि । व्यतीतायां मुहूर्तमात्रायां रजन्यां लब्धः दम्पतीभ्यां सुरक्षितः एक: वननिकुञ्जः। तत्र गृहीता आभ्यां पथविश्रान्तिः । वनफलैः कृता उदरपूर्तिः । प्रस्तृता कदली-दलानां शय्या। कृतं शयनं तत्र । परन्तु नागच्छति पुत्र-विरह-विद् ता निद्रा । जातु अक्षिनिमीलनं लभमानी अपि प्रत्यक्षं पुत्र प्रेक्षमाणौ कथयत:-"पुत्र! मा रोदिहि जनन्युत्सङ्गसुख-वञ्चितः त्वम् । आशा-समीपितः न सोऽपि समयो दविष्ठः यत्र अस्माकं चिरप्रतीक्षितो मेलः सम्भावी। दुविधोऽयं कालः वेलाविपाकेन बुबुद्-विलायं विलीनो भविष्यति । स्वयं नष्टाः भविष्यन्ति सर्वेऽपि प्रतिपक्षाः संयोगाः' एवं कथयन्तौ कल्पयन्तौ यावत् जागरूको भवतः तावत् पुत्र असाक्षात् कुर्वन्तौ सर्वमिदं स्वप्नरूपमिति मन्वानौ विधि उपालभेते। एवं पार्वे परिवर्तमानाभ्यां आभ्यां यथा कथञ्चिद् रजनी उपप्रभातं नीता। प्रात्यहिकं प्रत्यूष-कालिकं आवश्यक सामयिकादि-कृत्यं श्रद्धया भक्त्या अनुष्ठितं दम्पतीभ्याम् । आपत्-कालेऽपि
(पाइयलच्छी-५७०) ७ उपालभन्ते 'उपालम्भेझङ्ख-पच्चारवेलवाः (हे० ४-१४६) ८ उपप्रभातम् : प्रात्यहिकम् ।
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रयणवाल कहा कालम्मि वि ण धम्मकज्जं विम्हरिअव्वं ति सप्पुरिसाणं लक्खणं, अहवा अग्गिपरिक्खुत्तिण्णं सुवण्णं किं ण हवइ देदिप्पमाणं?
उइअम्मि दिणयरे तओ चलिआ एए अग्गओ। एवं पडिदिअहं अविच्छिण्ण-पयाणेहि लंबं वत्तणि' अइक्कममाणा नाणाविहाणि कट्टाणि खमेमाणा विविह-भीसण-वणाडविपव्वयाखाय-सरिआइअं कहं कमवि उल्लंघेमाणा पुत्तविसयम्मि बहु विकप्पेमाणा य अंतम्मि दक्खिणापह-तिलयभूअं णाणाविह-वाणिज्ज-लद्ध-पइटु रम्मं सणिज्ज वसंतपुरं णामं णयरं पत्ता । कत्थ गंतव्वं, किं अणुचिद्विअव्वं, कहं पाणवित्ती कायव्वा य सम्म परिचिति वीमंसिअं एएहिं । ण परस्सयीहूनं जीवणं जीविअन्वं ति पुवणिच्छ्याणुसारेण ण णयरम्मि गया इमे । किंतु पुरस्स बाहिं सुरम्मथलम्मि एग उड णिम्माय मट्टिआ-गोमयेण लिपिअ सव्वं ववत्थिों काऊण सुहं तत्थ णिवसिआ दंपइणो। आजीविआ-णिमित्तं सेट्ठिणा आणिओ मोल्लेण एगो कुढारो। अडविऊण अडवि आणेइ कट्ठभारिअं, विक्किणेइ य णयरमज्झयारम्मि । ताए जं पत्तं हवइ तेण समयण्णू भाणुमई आयाणुरूवं ववंती संत गाहत्थं संचालेइ। देसंतरम्मि · केणइ अणुवलक्खिआ एए तारिसेण साहारणेग कम्मुणा वि अविलिआ वेलं अइवाहयंति ।
जाला' आयण्णिसं मम्मणेण जं जिणदत्तो भज्जा बिइओ केणावि अलक्खिओ जणरवेण लज्जिओ तुण्हिक्को
१ वर्तनी-मार्ग, यथा-मग्गो पंथो सरणी, अदाणं वत्तिणी पहो
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बिइओ ऊसासो
६५
न धर्मकार्यं विस्मर्तव्यम्' इति सत्पुरुषाणां लक्षणम् । अथवा अग्निपरीक्षोत्तीर्ण सुवर्णं किं न भवति देदीप्यमानम् ?
उदिते दिनकरे तत: चलित एतो अग्रतः । एवं प्रतिदिवसं अविच्छिन्न प्रयाणैः लम्बां वर्त्तनीं अतिक्रामन्तो नानाविधानि कष्टानि क्षममाणी विविध भीषण वनाटवि पर्वताखात - सरिदादिकं कथं कथमपि उल्लङ्घयन्तौ पुत्रविषये बहुविकल्पयन्तौ च अन्ते दक्षिणापथ-तिलकभूतं नानाविध वाणिज्य - लब्धप्रतिष्ठं रम्यं दर्शनीयं वसन्तपुरं नाम नगरं प्राप्ती । कुत्र गन्तव्यं किं अनुष्ठातव्यं कथं प्राणवृत्तिः कर्त्तव्या च सम्यक् परिचिन्तितं विसृष्टं एताभ्याम् । 'न पराश्रयीभूतं जीवनं जीवितव्यं' इति पूर्वनिश्चयानुसारेण न नगरे गतौ इमौ । किन्तु पुरस्य बहिः सुरम्यस्थले एकं उटजं निर्माय मृत्तिका - गोमयेन लिम्पयित्वा सर्वं व्यवस्थितं कृत्वा सुखं तत्र न्युषितौ दम्पती | आजीविकानिमित्त श्रेष्ठिना आनीतो मूल्येन एकः कुठारः । अटयित्वा अटवीं आनयति काष्ट - भारिकां, विक्रीणाति च नगरमध्ये । तया यत् प्राप्तं भवति तेन समयज्ञा भानुमती आयानुरूपं व्ययमाना सन्तुष्टं गार्हस्थ्यं सञ्चालयति । देशान्तरे केनाऽपि अनुपलक्षितौ एतौ तादृशेन साधारणेन कर्मणाऽपि अव्रीडितो वेलां अतिवाहयतः ।
यदा आकणितं मन्मनेन यद् जिनदत्तो भार्याद्वितीयः केनापि अलक्षितो जन- रवेण लज्जितः दुर्विधिना तर्जितः तूष्णीकः निशीथिन्यां
पयवी ( पाइयलच्छी० ८३) । २ उटजम्- 'कुटिया' इतिभाषा । ३ अव्रीडिताः
४ यदा ।
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६६
रयणवाल कहा
५
निसीहिणीए' सत्तरं पलाणो "त्ति' । ताला किविणस्स मणो पमोअ - मेउरो जाओ । अहह ! सुहं मे अइ सुहं ! अणायासं महं मणोभावणा फलवई हवीअ' । दायव्व-दविण वुड्ढीभार- विखुध्दो अहमण्णो ण कयाइ पच्चावलिहिइ एत्थ वराओ जिणदत्तो । आगास - कुसुमाइआ इमिआ कप्पणा जमेसो पच्चावलिओ संतो सकुसीअयं दव्वं उत्तमण्णाणं पच्छाकरिस्सर, तहेव पुत्तं पुण रोहिइ सो णित्रं गेहं 'ति तओ णीसंदेहं भूओ मे गिहप्पईवो रयणवालो बालो । asa - किवा कमवि अपूरणिज्जा खई पुण्णा । दुब्भरं अखायं विहिणा समतल भूयं । नूणं उप्पण्णो मे महाकट्ठसंचिआए विभूईए भविस्संतो सामी । एवं कप्पणा महुरं भविस्सं चितेंतो णिग्विणो वि मम्मणो करेइ अणेग- जयणाई डिभट्ट । णिणि बड्ढमाणो अंकाओ अंक साहरिज्जमाणो छावो अईव पिओ पडिभासेइ । आणिआणि अणेगाणि कीलणयाणि पोअ-मण-परितुट्ठकारयाणि । आगरिसणकारगेहि वत्थेहि चिचिल्लिओ, लहू-सोवण्णिअ- वलएहिं हत्थेसु समलंकिओ, मोत्तिअ - मालाए कंठम्मि मंडिओ, महग्घेहि ताकेहि कण्णेसु पसाहिओ य एसो | मा गं नयणोसो होउ 'त्ति कज्जल-बिदूहि णिडालम्मि बाहुजुअलम्मिय सामलिओ' । किं बहुणा, ण णाममेत्ता वि तुडी विज्जइ अस्स परिवालणम्मि |
♦
इअ सिरिचंद मुणि विरइआए पुत्त जम्म- देसचाअवसंतपुरागमणाइभावसंजुत्ताए रयणवालकहाए बीओ ऊसासो समत्तो ||२||
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बिइआ ऊसासो सत्वरं पलायितः इति । तदा कृपणस्य मनः प्रमोद-मेदुरं जातम् । अहह ! शुभं मे अति शुभम् ! अनायासं मम मनोभावना फलवती अभूत् । दातव्य-द्रविण-वृद्धिभार-विक्षुब्धः अधमर्णो न कदापि प्रत्याव लिष्यते अत्र वराको जिनदत्तः। आकाश-कुसुमायिता इयं कल्पना यत् एष प्रत्यावलितः सन् सकुसीदक द्रव्यं उत्तमणेभ्य: पश्चात् करिष्यति, तथैव पुत्र पुन: नेष्यति स निजं गृहम् इति । ततः निस्सन्देहं भूतो मे गृहप्रदीप: रत्नपालो बालः । देवकृपया कथमपि अपूरणीया क्षतिः पूर्णा । दुर्भरं अखातं विधिना समतलं भूतम् । नूनं उत्पन्नो मे महाकष्टसञ्चितायाः विभूत्याः भविष्यन् स्वामी । एवं कल्पना-मधुरं भविष्यं चिन्तयन् निघुणोऽपि मन्मनः करोति अनेकयत्नान् डिम्भार्थम् । अहन्यहनि वर्धमानः अङ्कात् अङ्क संहियमाण: शावोऽतीव प्रियः प्रतिभासते। आनीतानि अनेकानि कोडनकानि पोतमन:-परितुष्टि कारकाणि । आकर्षण-कारकैः वस्त्र: विभूषितः, लघुसौवणिकवलयाभ्यां हस्तयोः समलंकृतः, मौक्तिकमालया कण्ठे मण्डितः, महा
या॑भ्यां ताडङ्काभ्यां कर्णयोः प्रसाधितः एषः । मा 'ण' नयनदोषो भवतु इति कज्जल-बिन्दुभिः ललाटे बाहुयुगले च श्यामलितः । कि बहुना, न नाममात्राऽपि त्रुटि: विद्यते अस्य परिपालने ।
इति श्रीचन्दनमुनिविरचितायां पुत्र-जन्म-देशत्यागवसन्तपुरागमनादिभावसंयुक्तायां रत्नपाल
कथायां द्वितीयः उच्छ्वासः समाप्तः
१ निशिथिन्याम-रात्री २ पलायितः ३ मम ४ अभूत् ५ आकाश-कुसुमायिता ६ सकुसीदकम् ७ अहन्यहनि ८ विभूषितः ६ श्यामलितः ।
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३
अह तइओ ऊसासो
ma
समत्थ'- जीवलोअ-तत्तिणिवारगो, णाणाविह - तरु-लयापुप्फ-फल-गुम्म - विचित्त- तणोसहि उपायगो, णिज्जल-पएसेगजीवणाहारो, हालिएहिं अणिमिस-दिट्ठीए दिट्टिआ' चिरं विहीरिओ उन्भूओ पाउसिओ कालो । रोलंब - गवल - कालिआवि णयणाहिरामा, उट्टाविअ धूलि उक्केरा विणीरया, कयंधयारा वि उज्जोइअ - माणसा, चंचल - पयासावि लक्खिअ - अज्जंतुज्जलपयासा, कण्णजाह-भेचं थणंती वि अईव कण्णप्पिआ, पाईण-पवण- पेरिआ वि सज्जुक्का, उट्ठिआ अंबरम्मि कार्य - बिणी' | अज्जेव इयाणिमेव सव्वेसि संतुद्धिं करेमि त्ति वरिसिउ पउत्ता धारासारेण सा । जलजलाइ जायं सव्वओ सगयणं भूअलं । ण अम्हाणं संगहो रोअए इईव
१ समस्त जीवलोकत प्तिनिवारकः २ दृष्ट्या - सम्मदेनेत्यर्थः ३ प्रतीक्षित:
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अथ तृतीयः उच्छ्वासः
समस्त-जीवलोक-तप्ति-निवारकः नानाविध-तरु-लता-पुष्प-फलगुल्म-विचित्र-तृणौषध्युत्पादकः, निर्जलप्रदेशकजीवनाधारः हालिकैरनिमिषदृष्टया दिष्टया चिरं प्रतीक्षितः उद्भूतः प्रावृषिकः कालः । रोलम्ब-गवल-कलिकाऽपि नयनाभिरामा, उत्थापितधूल्युत्कराऽपि नीरजाः, कृतान्धकारापि उद्योतित-मानसा, चञ्चलप्रकाशापि लक्षिताऽऽयत्युज्ज्वल-प्रकाशा, कर्णजाहभेदं स्तनन्ती अपि अतीव कर्णप्रिया, प्राचीन-पवन-प्रेरिताऽपि सद्यस्का, उत्थिता अम्बरे कादम्बिनी। 'अद्य व इदानीमेव सर्वेषां सन्तुष्टि करोमि' इति वर्षितु प्रवृत्ता धारासारेण सा। जलजलायितं जातं सर्वतः सगगनं भूतलम् । न अस्मभ्यं संग्रहो रोचते इतीव मूसलधारं मन्ये पतितु लग्नाः प्रणालाः ।
४ लक्षित-भविष्यदुज्ज्वल-प्रकाशा ५ कादम्बिनी-मेघमाला।
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रयणवाल कहा मूसलधारं मणे पडिउ लग्गा पाणाला। अणग-णईरूवमुररीकयं णयरवीहीहिं । उण्णीरा संभूआ खणेण तलिमणीरा अवडा' । उप्पवाहा' जाया जलरासि धारेउमक्खमा तुच्छा तडागा। पडिपुण्णाओ निण्णगाओ विअड-तडाओ संजायाओ। णट्ठ तत्तीए णामहेयं । कण्णं गओ सव्वेसि सव्वओ समयमहुरो ददुराण रावो । विणिद्दा जाया चिरमुच्छिआ जीवणधणं पप्प वणराई । कया किसि-कारगेहि किसि-उवगरणेहिं सद्धि बलद्द-पूआ ! लक्खिअ-णक्खत्तबला गहिअ-सुह-सउणा केआराहिमुहं णिग्गया एए बीअववणहूँ । अहो ! सव्वंगिअं सुदेरं पत्थरिग्रं समंतओ।
इओ सुविहिअ पच्चस कालिअ-धम्म-कज्जो जिणदत्तो खंधारोविअ-कुढारो चलिओ कट्टहारगेहिं सद्धि कटुभारं णेउवणाहिमुहं, परंतु सुदुल्लहा जाया सुक्क-कट्ठ-संपत्ती तारिसे पाउस-कालम्मि । जत्थ पस्सई तत्थेव परिहरिअॅ. हरिअ-कुप्पासा छज्जए" पुढवी। सुक्का कुडिल्ला वि लद्धाऽहिणव-कुचला-ओवासए रुक्खाणं ओली। कुड्ड ! णस्थि ओआसो किर सुक्काणं रुक्खाणं । अत्थि णियमो जिणदत्तस्स हरिअ-रुक्खे छेउ गहिअ-दुआलस-सावग-वयेसु । बहुगविट्ठमवि ण पत्तं सुक्कं कट्ठ कत्थइ एएण। संपइ किं कायव्वं'ति चिंतापरो संवुत्तो सो। रक्खिए वयम्मि ण सुरक्खिआ चिट्टई आजीविआ । अण्णेहिं कट्टहारेगेहिं विसयं वज्जरिग्रं-"भद्दोसि तुमं ण जाणासि जं संपइ
१ अवटा:-कूपाः २ उत्प्रवाहाः ३ केदाराभिमुखम्-क्षेत्राभिमुखम् ४ परिधृत-हरितकुर्पासा ५ शोभते-यथा--अग्घइ, छज्जइ, रेहइ, विरायए, सोहए
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७१
तइओ ऊसासो अनेकनदीरूपं उररीकृतं नगरवीथिभिः । उन्नीरा: सम्भूता: क्षणेन तलिमनीराः अवटाः । उत्प्रवाहा जाताः जलराशि धारयितु अक्षमाः तुच्छास्तटाकाः । प्रतिपूर्णाः निम्नगा: विकटतटाः सञ्जाताः । नष्टं तप्तेनामधेयम् । कर्णं गतः सर्वेषां सर्वतः समय-मधुरो दर्दु राणां रावः । विनिद्रा जाता चिर-मूच्छिता जीवन-धनं प्राप्य वनराजी। कृता कृषिकारैः कृष्युपकरणैः सार्धं बलीवर्द-पूजा। लक्षित-नक्षत्रबलाः गृहीत-शुभशकुनाः केदाराभिमुखं निर्गताः एते बीज-वपनार्थम् । अहो ! सर्वाङ्गीणं सौन्दर्य प्रस्तृतं समन्ततः ।
इत: सुविहित-प्रत्यूष-कालिक-धर्मकार्यो जिनदत्तः स्कन्धारोपितकुठारश्चलितः काष्ठहारकैः सार्ध काष्ठभारं नेतु वनाभिमुखम्, परन्तु सुदुर्लभा जाता शुष्क-काष्ठ-सम्प्राप्तिः तादृशे प्रावृट्काले । यत्र पश्यति तत्र व परिधृत-हरित-कुर्पासा राजते पृथ्वी। शुष्का कुटिला अपि लब्धाभिनव-कुड्मला शोभते वृक्षाणां आली। कुड्डं (आश्चर्यम्) नास्ति अवकाशः किल शुष्काणां वृक्षाणाम् । अस्ति नियमो जिनदत्तस्य हरित-वृक्षान् छेत्तु गृहीत-द्वादश-श्रावक-व्रतेषु । बहु गवेषितमपि न प्राप्तं शुष्कं काष्ठं कुत्रापि एतेन । सम्प्रति किं कर्त्तव्यमिति चिन्त परः संवृत्तः सः । रक्षिते व्रते न सुरक्षिता तिष्ठति आजीविका । अन्यैः काष्ठहारकै विशदं कथितम्-"भद्रोऽसि त्वम्, न जानासि यत्
सहइ (पा० १५२) ६ कुडिल्ला-कुब्जा : (दे०) 'टेढा मेढा' इतिभाषा ७ शोभते + आश्चर्यम् (दे०) ६ विशदम् ।
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७२
रयणवाल कहा
वट्टए वरिसा-समयो। णियम-परिवालणत्तो आवस्सयं उइग्रं च कुच्छि-परिवालणं । पत्थि आवइ-काले मज्जाद'ति विइआ। लोगुत्ती। ता मुअसु, अण्णाण-पडिवण्णं सुहकालपालणिज्जं पइण्णं । णिवहंतु ते धम्म-णियमे जे संति धणड्ढा विउल-विभूइमंता जेसि ण काइ विढवण-चिताः । तएजारिसाणं: कए कत्थ धम्म-मंदिर-पवेसणावयासो। ता छिदसु, भो ! छिदसु, हरिअ-कट्ठाण णिउरंबं ।" ___ अणुइअमुईरणं४ तेसिं धम्मिट्ठ-से ट्ठिस्स ण रुइ। उदित्तणाण-गहिरिनं पचुत्तरियं सेट्टिणा-"ण मुणिअं भो ! तुब्भेहि धम्म-तत्तं । ण धम्मायरणम्मि लच्छी-पुत्ताणं धण-दरिदाणं वा परिविसेसो। लद्धतत्तो चुच्छोवि अचुच्छ धम्मकारगो। रहस्सवंझो ईसरो वि धम्म काउमणीसरो। णूणं आवयाए च्चिअ रेहइ" कसवट्ट-वट्टिअं-सुवण्णव धम्मो । उअरपरिवालणं तु साणो वि करेइ संमता भममाणो। तत्थ किं चोज्ज ? मणुअस्स एसो चिय माहप्पो जमेसो पाणेहिं पि माहप्पमप्पेइ अणुत्तरस्स धम्मस्स । सुक्किधणाणं पत्ती वि कहं ण हविस्सइ, जयाहं अवीसामं परिस्समं करिस्सं । विमग्गिनं किं ण अग्गओ आयाहिइ ? तोडिअ-वयाणं किं जीवणं जीवणं ? अक्खय-पइण्णाणं दुहंपि सुहंकरं। तम्हा मए ण कयावि जहणिज्ज वयं ।” एवं साहेऊण एगागी णिब्भओ सेट्टी सुक्क-कट्ठ-लद्धीए गहण-वणम्मि गओ । भिसमण्णेसणा कया णेण, परंतु ण एगावि अचित्त-कट्ठ-लट्ठी हत्थमागया इम्मस्स । तहवि अणुआसीणो रित्त-हत्थो पच्चावलिओ गिहमि विलंबेण सेट्ठी ?
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तइओ ऊसासो
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सम्प्रति वर्तते वर्षासमयः । नियम- परिपालनतः आवश्यकं उचितं च कुक्षि- परिपालनम् । नास्ति आपत्काले मर्यादा' इति विदिता लोकोक्तिः । तस्मात् मुञ्च, अज्ञान प्रतिपन्नां सुखकाल - पालनीयां प्रतिज्ञाम् । निर्वहन्तु ते धर्म-नियमान् ये सन्ति धनाढ्याः विपुल - विभूतिमन्तः येषां न कापि अर्जन चिन्ता । त्वादृशानां कृते कुत्र धर्म - मन्दिरप्रवेशनावकाशः । तस्मात् छिन्धि भोः ! छिन्धि हरित-काष्ठानां निकुरम्बम् ।"
अनुचितं उदीरणं तेषां धर्मिष्ठ श्रेष्ठिने न रुचितम् । उद्दिप्तज्ञानगाम्भीर्यं प्रत्युत्तरितं श्रेष्ठिना - " न ज्ञातं भोः ! युष्माभिर्धर्मतत्त्वम् । न धर्माचरणे लक्ष्मीपुत्राणां धन-दरिद्राणां वा परिविशेषः । लब्धतत्त्वः तुच्छोऽपि अतुच्छ- धर्मकारकः । रहस्यवन्ध्यः ईश्वरोऽपि धर्म कतु अनीश्वरः । नूनं आपदि एव राजते कषपट्टवतितं सुवर्णवद् धर्मम् । उदर-परिपालनं तु श्वानोऽपि करोति समन्तात् भ्रमन् । तत्र किं चोज्जं (आश्चर्यम् ) ? मनुजस्य एतदेव माहात्म्यं यत् एष प्राणैरपि माहात्म्यमर्पयति अनुत्तराय धर्माय । शुष्केन्धनानां प्राप्तिरपि कथं न भविष्यति यदाहं अविश्रामं परिश्रमं करिष्यामि । विमार्गितं किं न अग्रतः आयास्यति ? त्रोटित व्रतानां किं जीवनं जीवनम् ? अक्षत प्रतिज्ञानां दुःखमपि शुभंकरम् तस्मात् मया न कदापि हातव्यं व्रतम् । एवं कथयित्वा एकाकी निर्भयः श्रेष्ठी शुष्ककाष्ठ-लब्धये गहन वने गतः । भृशं अन्वेषणा कृता अनेन, परन्तु न एका पि अचित्तकाष्ठयष्टिः हस्तमागता अस्य । तथापि अनुदासीनो रिक्तहस्तः प्रत्यावलितः गृहे विलम्बेन श्रेष्ठी ।
१ विदिता २ अर्जन - चिन्ता ३ त्वादृशानाम् ४ अनुचितम् ५ राजते ६ आश्चर्यम् ७ हातव्यम् ८ अचित्तकाष्ठयष्टिः ।
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रणवाल कहा
इओ पडिक्खमाणा पइदेवं भाणुमई ट्ठिआ उडज दुवारम्मि | कहं णागया अणावहि अज्जउत्ता ? किं णवीणमरिट्ठ उप्पण्णं ? एवं चिरपडिवालेमाणीए ताए रायणपहमोइण्णो रयणवाल- पिआ । मोअ-मेउरा जाया जाया । रणरणयमावण्णाए' ताए उट्ट कि - " कहं चिराइयं अज्ज अज्जउत्तेहि ? कहमुव्वायं दीसइ भे अंगं ? कत्थ विच्छडिआ' सिरम्मि णिज्जंती इंधण भारिआ ।" एवं पेमिल्लाए सहम्मिणीए अणेगाओ पहाओ " पत्थुआओ ।
·
तत्त - गहिर - मुद्दा सेट्ठिणा पयडीकयं - " पिये ! अत्थि पाउस - कालो । दुल्लहं सुक्कं कट्ठे । तं दुं दुल्लमाोण मए एत्तिल्लो' समयो अइवाहिओ, परंतु ण लद्ध जहेच्छिअं वत्थु । वय-भंग-भीरुणा मए ण आणिअं सच्चित्तं ट्ठ | तो रित्तहत्थो किर पुरण आगओ म्हि । रयणमायरं ! निच्चलं रक्खियं वयं णिच्छियं रक्खा - कारगं हवइ ।"
“सम्मं चितणं अज्जउत्ताणं । ण तुच्छ भंगुर - पोग्गलिअसुहाणं कए णं अतुच्छामरज्झत्थ-सुहाणं हाणि करेइ सुण्णमणुओ । सुवे परज्जु वा जं पावणिज्जं तं पाविस्सामो, का चिता ।" रिगवेइयं पियधम्माए सहम्मिणीए रिब्भयं ।
ए खु सुधम्म- पत्तीए पच्चक्खं दिसणं । अहो ! एआरसीए आवयाए वि ण एएसि मणो चावल्लं पत्तो । बिइओ दिअहो वि अलद्ध-लक्खो णिग्गओ । तइअम्मि दिवसम्मि णीरंध वणविभागे बंभम्ममारोण सेट्टिणा एगाए
रणरणकं औत्सुक्यम् २ परिश्रान्तः ३ विच्छर्दिता त्यक्ता ४ नीयमाना ५ प्रश्नशब्द: प्राकृते स्त्रीलिङ्ग ेऽपि यथा - पण्हावागरणं ६ तत्त्वगम्भीर मुद्रया ।
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तइओ ऊसासो
७५
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इतः प्रतीक्षमाणा पतिदेवं भानुमती स्थिता उटज -द्वारे । कथं नागताः अधुनावधि आर्यपुत्राः ? किं नवीनं अरिष्टं उत्पन्नम् ? एवं चिर प्रतिपालयन्त्याः तस्याः नयनपथं अवतीर्णो रत्नपाल पिता । मोदमेदुरा जाता जाया । रणरणकं आपन्नया तया उद्दङ्कितम् - "कथं चिरायितं अद्य आर्यपुत्र : ? कथं उद्वातं दृश्यते युष्माकं अङ्गम् ? कुत्र विच्छदिता शिरसि नीयमाना इन्धनभारिका ।" एवं प्रेमवत्या समण्या अनेके प्रश्नाः प्रस्तुताः ।
तत्व- गम्भीर मुद्रया श्रेष्ठिना प्रकटीकृतम् - "प्रिये ! अस्ति प्रावृट्कालः । दुर्लभं शुष्कं काष्ठम् । तद् गवेषयता मया इयान् समयोऽतिवाहितः, परन्तु न लब्धं यथेष्टं वस्तु । व्रत भङ्ग भीरुणा मया न आनीतं सचित्तं काष्ठम् । ततः रिक्तहस्तः किल पुनः आगतोऽस्मि रत्नमातः ! निश्चलं रक्षितं व्रतं निश्चितं रक्षाकारकं भवति ।
" सम्यक् चिन्तनं आर्यपुत्राणाम् । न तुच्छ भङ, गुर- पौद्गलिकसुखानां कृते अतुच्छामराध्यात्मसुखानां हानि करोति सुज्ञमनुजः । श्वः परेद्यः वा यत् प्रापणीयं तत् प्राप्स्यामः का चिन्ता ?" निवेदितं प्रिय धर्मिण्या सधर्मिण्या निर्भयम् ।
एतत् खलु धर्म-प्राप्तेः प्रत्यक्षं निदर्शनम् । अहो ! एतादृश्यां आपदि अपि न एतयोः मनः चापल्यं प्राप्तम् । द्वितीयः दिवसोऽपि अलब्ध- लक्ष्यो निर्गतः । तृतीये दिवसे नीरन्ध्र-वन-विभागे बम्भ्रम्य
७ गवेषयता - 'गवेषेर्दण्दुल्ल - ढण्डोल - गमेस धत्ताः' ( हे० ४ १८६ ) ८ इयाद 'इदं किमश्चडेत्तिअ-डेत्तिल्ल - डेदहा : ' ( हे० २ - १५७ ) ६ सुज्ञमनुजः ।
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रयणवाल कहा गिरिकंदरीए दिव्व-णियम-प्पहावेण अमरचंदणस्स संघाओ दिट्ठो। णिभालिऊण जहेच्छि दव्वं पसण्णमणो सेडिओ जाओ, किंतु विहि-दोसेण दक्खेणावि एइणा' ण लक्खिग्रं हरिचंदणं'ति । धी धी धी ! विवरीए विहिम्मि चेअणावि चुक्किअ-केअणा संपज्जइ। संदाणिओ दढो तस्स भारो तक्कालं । मत्थयम्मि काऊणं णयर-दिसं पच्चावलिओ। णयर परिसरम्मि एज्जंतस्स धुत्त-सिरोमणी धणदत्तो उप्फुल्ल-वयण-कमलो वि कलुसिअंतक्करणो अकम्हा संमुहमागओ । महमहिग्रं कट्ठभारमवगंतूण अच्चंतं विक्खापण्णो' सो । अहो ! अस्स अयाणगस्स सिरंसि अमरचंदणं कुओ आगयं ? अहवा घुणक्खरोयणाओष एत्थ संगओ। किं वा ण लद्धो बालिस बंभोण चिंतामणी ? जाउ पयडी वि कोउहल्ल-तप्परा हवइ । गिण्हेमि किर अस्स मूढयाए अतुल्लं लाहं । पचक्खमवि गंधुग्गिरण जेण ण लक्खिज्जइ तेण मूढेण चंदण-सब्भावोवि णूणमलक्खिओ हवेज्जा । इअ विचितिऊण-उसलिअ-रोमकूओ धुत्तताए सप्पेमं जिणदत्तं वाहरिउं पउत्तो-"भायरं! किं विक्केअणिज्जमिंधणमिणमो ? जइ अत्थि ? तरिहि जहोचिअ-मुल्लमग्गणं कायव्वं । सप्पुरिसाण एसा चिय पणाली जं ते ण मुहेण मिच्छा जपणं कुव्वंति । एगहुत्तं कहियं ण उण परावत्तंति । मुहागिईए तुम पि 'भद्दपुरिस'त्ति लक्खिज्जसि । ता जहेच्छं मोल्लमाविक्करणिज्जं । अहम वि ण तं परावत्तिस्सं समुइअं।" आयण्णिअ
१ एतेन २ स्खलितकेतना 'चुक्कादेशः' ३ प्रस्फुटद्-गन्धम् ४ वीक्षापन्नः----
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तइओ ऊसासो माणेन श्रेष्ठिना एकस्यां गिरिकन्दरायां दिव्य-नियम-प्रभावेण अमरचन्दनस्य सङ्घातः दृष्टः । निभालयित्वा यथेष्टं द्रव्यं प्रसन्नमनाः श्रेष्ठिकः जातः किन्तु विधि-दोषेण दक्षणापि एतेन न लक्षितं हरिचन्दनम् इति । धिग् ! धिग् ! विपरीते विधौ चेतनापि स्खलितकेतना सम्पद्यते । सन्दानितो दृढस्तस्य भारः तत्कालम् । मस्तके कृत्वा नगरदिशं प्रत्यावलितः । नगरपरिसरे आयतः तस्य धूर्तशिरोमणिः धनदत्तः उत्फुल्लवदन-कमलोऽपि कलुषितान्तःकरणः अकस्मात् सम्मुखमागतः। महमहिअं (प्रस्फुटद्गन्धं) काष्ठभारं अवगम्य अत्यन्तं वीक्षापन्नः सः । अव्वो ! अस्य अज्ञानकस्य शिरसि अमरचन्दनं कुतः आगतम् ? अथवा घुणाक्षरीयन्यायोऽत्र सङ्गतः । किं वा न लब्धो बालिश-ब्राह्मणेन चिन्तामणिः ? जातु प्रकृतिरपि कुतूहल-तत्पराभवति । गृण्हामि किल अस्य मूढतायाः अतुल्यं लाभम् । प्रत्यक्षमपि गन्धोद्गीर्णं येन न लक्ष्यते तेन मूढेन चन्दन-सद्भावोऽपि नूनं अलक्षितः भवेत् । इति विचिन्त्य उल्लसित-रोमकूपः धूर्ततया सप्रेम जिनदत्तं व्याहतु-प्रवृत्तः- "भ्रातः । किं विक्रतव्यं इन्धनमिदम् ? यदि अस्ति तहि यथोचित-मूल्य-मार्गणं कर्त्तव्यम् । सत्पुरुषाणां एषा एव प्रणाली यत् ते न मुखेन मिथ्या जल्पनं कुर्वन्ति । एकवारं कथितं न पुनः परावर्तन्ते । मुखाकृत्या त्वमपि “भद्रपुरुषः' इति लक्ष्यसे । तस्माद् यथेष्टं मूल्यं आविष्करणीयम् । अहमपि न तत् परावर्त
विस्मयं गतः ५ घुणाक्षरीयन्यायः ६ मूर्खब्राह्मणेन ७ गन्धोगिरणम् ८ उल्लसितरोमकूपः।
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रयणवाल कहा मुणिज्जमाण-सब्भ-पुरिसस्स वग्गु-भणिइं उज्जुहिअयो अलद्ध-वंचणा-रहस्सो रिणआसयेण परासयमंकेमाणो सेट्ठी आणंदिओ जाओ, साहेउं च पउत्तो-“सुकई ! सुठ्ठ वागरणं भवओ, णाहं काहं मुहा पलावं। णूणं विक्केअणिज्जो मए कट्ठभारो। अण्णहा कहमम्हारिसाणं चलइ गिहत्थासमो ? णिच्चं णव-खणिअ-कूवस्स गीरं पिएमो अम्हे । णो भवारिसारणं पिव कोसपरिवडढणावसरो अम्हारिसाणं । भारिआए ताव मोल्लं केवलमड्ढीइज्जाणयमेतं । ण इओ अइरित्तं ण उण ऊणयं जइ घेतव्वं तरिहि......." __ अलक्खियामरचंदणेदंपज्जस्स रिजुमइणो जिणदत्तस्स भारहिं णिसमिऊण पयारण-कुसलो सो हट्ठतुट्ठो जाओ। "साहुं साहुं भो भद्द ! समुइअं मोल्लं तुमए मग्गिअं, मए वि एदहमेत्तमेवाणुमिग्रं । महाकढिणायासस्स तुम्हारिसाणं जहत्थं मुल्लंकणं कायव्वमम्हारिसेहिं ; इअरहा सेअ-बिंदु-सित्तो कओ परिस्समो अवमणिज्जइ। हंदि ! केरिसमंधयारं ! जे सययं परिस्समेंता, ससरीर-सुहमवि अवगणेता, सीआतवाइ-किलेसं सहेंता, दुहिआ पिवासिआ अलद्धावासा अणासाइअ-विज्जाब्भासावसरा लुक्का तहा णगिणा अवेखि - ज्जंति, दुगुच्छिज्जति य । तओ विवरीआ पर-परिस्सम-लाहलोलुहा णाणा-कुडिल-कला-कलाव-कोविआ हिअय-विहूणा मणुअ-धम्मवंझा धणकुबेरा विसालावासा वत्थालंकार-विहूसिआ णाणावाहण-परिइण्णा पिचंडिला अलसा चिट्ठति,
१ वल्गुभणितिम् २ करिष्ये ३ अढ़ाई आना ४ अलक्षितामरचन्दनैदम्प
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तइओ ऊसासो यिष्यामि समुचितम्" । आकर्ण्य ज्ञायमान-सभ्यपुरुषस्य वल्गुभणिति ऋजुहृदयोऽलब्ध-वञ्चना-रहस्यो निजाशयेन पराशयं अङ्कयन् श्रेष्ठी आनन्दितो जातः, कथयितु च प्रवृत्त:- “सुकृतिन् ! सुष्ठ व्याकरणं भवतः । नाहं करिष्ये मुधाप्रलापम् । नूनं विक्रतव्यः मया काष्ठभारः । अन्यथा कथं अस्मादृशानां चलति गृहस्थाश्रमः ? नित्यं नव-खनितकूपस्य नीरं पिबामोवयम् । नो भवादृशानामिव कोश-परिवर्धनावसरोऽस्मादृशानाम् । भारिकायास्तावत् मूल्यं केवलं सार्धद्वयाणकमात्रम् । न इतोऽतिरिक्त न पुनः ऊनकं, यदि गृहीतव्यं तर्हि ...... ।
अलक्षितामरचन्दनदम्पर्यस्य ऋजुमतेः जिनदत्तस्य भारती निशम्य प्रतारण-कुशलः सहृष्ट-तुष्टः जातः । साधु साधु भो भद्र ! समुचितं मूल्यं त्वया मागितम्, मयापि एतावन्मात्रमेव अनुमितम् । महाकठिनायासस्य त्वादृशानां यथेष्टं मूल्याङ्कनं कर्त्तव्यं अस्मादृशैः, इतरथा स्वेदबिन्दु-सिक्तः कृतः परिश्रमः अवमन्यते । हन्दि ! कीदृशं अन्धकारम् ? यत् सततं परिश्राम्यन्तः, स्वशरीरसुखमपि अवगणयन्तः, शीततापादिक्ले शं सहमानाः, क्षुधिताः पिपासिताः अलब्धावासाः अनासादितविद्याभ्यासावसराः रुग्णाः तथा नग्नाः उपेक्ष्यन्ते, जुगुप्स्यन्ते च । ततः विपरीताः पर-परिश्रम-लाभ-लोलुभाः नाना-कुटिल-कला-कलापकोविदाः हृदय-विहीनाः मनुज-धर्म-वन्ध्याः धनकुबेराः विशालावासाः वस्त्रालङ्कार-विभूषिताः नाना-वाहन-परिकीर्णाः पिचण्डिलाः अलसाः
र्यस्य-अज्ञातहरिचन्दन रहस्यस्य इत्यर्थः ५ एतावन्मात्रम् ६ सततम् ७ रुग्णाः ८ उपेक्ष्यन्ते ।
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रयणवाल कहा
मोयंति, कीलंति, जं किमवि जंपेमाणा य पगन्भंति" । पिसुणिग्रं धणदत्तेण। ___चित्तं ! धुत्तसेहराणं अलक्खणिज्जा वंचरणप्पणाली । वयणेसु अण्णं, अण्णं पुण विआरेसु । तेसिं महुरं जंपणमवि विस-मीसित्रं । तेसि हसिरा आगिई वि कसाय-कलसा विगिई। तेसिं सम्माण दाणं पि अलक्खिअ-मायाविआणं । खणं पि तेसिं संगई, पचक्खं दुग्गई। अहवा किमेआरिसं कज्जमकरणिज्जं जंण समायरेइ दुज्जणो जणो ? अलं तेसिं कहाहिं ।
पुणरवि वंचगेण महुलित्त-खग्ग-धारा-समाए सरस्सईएर पवंचिअं--"ता सोम्म ! एहि मए सद्धिं मह-गिहपेरंतं, देमि तिण्णि आणयाणि तुह । अत्थि मणुअ-दिट्ठीए तुममवि भायरो मे, किं बहु-प्पलावेण ?
केरिसो किवालु'त्ति कप्पेंतो भद्दो जिणदत्तो तमणुगओ। छूढो' कट्ठभारो। गहिआणि वारमाणेणावि तेण पसज्झं दिज्जमाणाणि तिण्णि आणयाणि । “ण अओ उड्ढं तुमए कत्थइ भमिअव्वं कट्ठभारं विक्केउं पइदिणं । अहमेव निच्छिअ-मोल्लेण गहिस्सं तं । किं किं ण जुज्जइ जेट्ठासमीणं गिहम्मि, कळं तु पुण णिच्चं वावारणिज्जं वत्यु" संतयंतेण साहिलं तेण । __एगो च्चिय थिरो गाहगो संवुत्तो'त्ति जिणदत्तो जत्थतत्थ भमण-संतत्थो मोमुइओ जाओ। किं रहस्सं ति तहवि
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तइओ ऊसासो तिष्ठन्ति, मोदन्ते, क्रीडन्ति, यत् किमपि-जल्पन्तश्च प्रगल्भन्ते ।" पिशुनितं धनदत्तेन ।
चित्रम् ! धूर्त-शेखराणां अलक्षणीया वञ्चन-प्रणाली। वचनेषु अन्यत्, अन्यत् पुनः विचारेषु । तेषां मधुरजल्पनमपि विष-मिश्रितम् ! तेषां हसित्री । हसनशीला) आकृतिरपि कषाय-कलुषा विकृतिः । तेषां सम्मान-दानमपि अलक्षित-मायावितानम् । क्षणमपि तेषां सङ्गतिः प्रत्यक्ष दुर्गतिः । अथवा किं एतादृशं कार्यं अकरणीयं यत् न समाचरति दुर्जनो जनः ? अलं तेषां कथाभिः ।
पुनरपि वञ्चकेन मधु-लिप्त-खड्गधारा-समया सरस्वत्या प्रपञ्चितम्- "तस्मात् सौम्य ! एहि मया साधू मम गृहपर्यन्तं, ददामि त्रीणि आणकानि तुभ्यम् । अस्ति मनुजदृष्ट्या त्वमपि भ्राता मे किं बहुप्रलापेन ?'
'कीदृशः कृपालुः' इति कल्पयन् भद्रो जिनदत्तः तमनुगतः। क्षिप्तः काष्ठभारः। गृहीतानि वारयतापि तेन प्रसह्य दीयमानानि त्रीणि आणकानि । “न अतः ऊर्ध्वं त्वया कुत्रापि भ्रमितव्यं काष्ठभारं विक्रतु प्रतिदिनम् । अहमेव निश्चित-मूल्येन ग्रहीष्यामि तम् । किं किं न युज्यते ज्येष्ठाश्रमिणां गृहे, काष्ठं तु पुननित्यं व्यापारणीयं वस्तु" सान्त्वयता कथितं धनदत्तेन ।
'एकः एव स्थिरः ग्राहकः संवृत्तः' इति जिनदत्त: यत्र तत्र भ्रमण-सन्तप्तः मोमुदितः जातः । किं रहस्यमिति तथापि न लक्षितं
१ प्रगल्भन्ते २ सरस्वत्याः ३ क्षिप्तः 'वृक्ष-क्षिप्तयोः रुक्ख-छूढौ (हे० २-१२७) ४ प्रसह्य ५ सान्त्वयता।
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रयणवाल कहाँ ण लक्खि णेण पंजलेण'। इत्थं णिअयं सेट्ठी महामुल्लिल्लं हरिचंदणभारं साहारणकट्ठमोल्लेण अल्लिवइ धुत्तस्स धणदत्तस्स । सो वि अस्स रहस्सस्स मा कोवि कोविओ होउत्ति गुत्तरूवेण गहिऊण संगोवेइ । अणुऊलं वारं पप्प अण्णत्थ पट्ठविअ अउलो लाहो गहणिज्जो 'त्ति णिच्छिन्नं वंचगेण । किंतु पडिफलिअं कइअवं केरिसं पडिभयं कज्जलिअं परिणामं दक्खवेइ 'त्ति ण णायं तेण मायाविणा ।
जिणदत्तस्सेवं सुहेण उअर-णिवाहो हवइ । पत्तमुद्दाए संतुट्ठा भाणुमई साणंदं विवइ-कालमुल्लंघेइ । पुव्वावत्थासरणं जाहे जाहे हवेज्जा, ताहे ताहे णिअ. घडिअ-पाव परिणइं चितेमाणा इमे मणं पसाअंति । धम्मो चिअ एगं सरणं'ति सरेंता ण मिच्छा सोअपरा जायंति । परं ण एआरिसं दिणं, जामो, मुहत्तं वा वच्चइ जम्मि पिअ-पुत्तस्स सई ण सज्जुक्का होइ । तत्थगयं उअंतं पावेउं पडिपलं हिअयमुत्तम्मिअं चिट्ठइ, परं दविट्ठदेसंतरम्मि ण मणावि चिरंजीविणो पुत्तस्स पउत्ती पत्ता सिआ ।
१ प्राञ्जलेन २ कोविदः ३ उत्तान्तम्-खिन्नमित्यर्थः ४ मनागपि ।
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तइओ ऊसासो अनेन प्राञ्जलेन । इत्थं नियतं श्रेष्ठी महामूल्यवन्तं हरिचन्दनभारं साधारण-काष्ठ-मूल्येन अर्पयति धूर्ताय धनदत्ताय । सोऽपि 'अस्य रहस्यस्य मा कोऽपि कोविदः भवतु' इति गुप्तरूपेण गृहीत्वा संगोपयति, अनुकूलं वारं प्राप्य अन्यत्र प्रस्थाप्य अतुलो लाभो ग्रहणीयः' इति निश्चितं वञ्चकेन । किन्तु प्रतिफलितं कैतवं कीदृशं प्रतिभयं कज्जलित परिणामं दर्शयति इति न ज्ञातं तेन मायाविना।
जिनदत्तस्य एवं सुखेन उदर-निर्वाहो भवति । प्राप्त-मुद्रया सन्तुष्टा भानुमती सानन्दं विपत्कालं उल्लङ्घयति । पूर्वावस्थास्मरणं यदा कदा भवेत् तदा तदा निज-घटित-पाप-परिणति चिन्तयन्तौ इमौ मनः प्रसादयतः । 'धर्मः एव एकं शरणम्' इति स्मरन्तौ न मिथ्याशोककरौ जायते । परं न एतादृशं दिनं, यामः, मुहूर्त वा व्रजति यस्मिन् प्रियपुत्रस्य स्मृतिर्न सद्यस्का भवति । तत्रगतं उदन्तं प्राप्तु हृदयं उत्तान्तं तिष्ठति, परम् दविष्ठदेशान्तरे न मनागपि चिरञ्जीविनः पुत्रस्य प्रवृत्तिः प्राप्ता स्यात् ।
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इओ य अइसुहेण लालिओ पालिओ रयणवालो बालो चंकमणक्खमो जाओ। सवएहिं सद्धि अणेगाहिं डिभकीडाहिं कोलतो, खणेण रूसेतो, हसेतो, रुएंतो, भूअलम्मि आलोटेंतो सयज्झ'-छावेहि विथक्केतो', किविणस्स हिअयं कोआसावेइ, पसाहेइ, आणंदाणंदिग्रं च कुणइ। अणेगाहिं आहिवाहीहिं सुरक्खिओ संगोविओ पुत्तो अट्ठवासिओ जाओ। पढविओ मम्मणेणं पढणणिमित्तं पाढसालाए अणुहविणो गुरुणो समीवं । विणय-विवेग-संपण्णो एसो चवलमेहाए विज्जाज्झयणं कुणेतो णाणाविज्जा-पारं गओ जाओ। इंगि आगारमाराहेमाणो अज्झावयस्स परमं पसायं पत्तो । विज्जा-भार-गरुओ वि लाघव-गुणेहिं सव्वत्थ सिलाहणिज्जो मुणिओ। मम्मणेणावि गिह-कज्जम्मि, आयाणप्पयाणम्मि, आवण-वावारम्मि य परिचिओ, संसत्तो च कओ। दुआलस्सवासिओ वि परिणय-वयो इव कज्ज-कुसलो संवुत्तो । आवणम्मि चिट्ठमाणो, वावारं कुणमाणो, महुरं ववहरमाणो य सब्वेसिं अईव चक्खुस्सो लग्गइ। अणेगे गाहगा तु इमिणा वत्तालावेण संतुवा तत्थ चिन्ति । बालोवि केरिसो दक्खो'त्ति भिसं पसंसेमाणा उरेण उवळढ़ता पुलइआ हवंति ।
१ प्रातिवेश्मिकबालैः, यथा-'सयज्झो, समोसिओ' (पाइयलच्छी ७६९)
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इतश्च अति सुखेन लालितः पालितः रत्नपालः बालः चङ्क्रमणक्षमो जातः। सवयोभिः साधू अनेकाभिः डिम्भ-क्रीडाभिः क्रीडन् क्षणेन हृष्यन्, हसन्, रुदन् भूतले आलुण्ठन् सयज्झ-शावैः (प्रातिवेश्मिक-बालैः) वितिष्ठन् कृपणस्य हृदयं विकासयति, प्रसादयति, आनन्दानन्दितं च करोति । अनेकैः आधि-व्याधिभिः सुरक्षितः सङ्गोपितः पुत्रः अष्टवार्षिकः जातः । प्रस्थापितः मन्मनेन पठननिमित्तं पाठशालायां अनुभविनो गुरोः समीपम् । विनय-विवेकसम्पन्नः एष चपलमेधया विद्याध्ययनं कुर्वन् नानाविद्यापारङ्गतो जातः । इङ्गिताकारं आराधयन् अध्यापकस्य परमं प्रसादं प्राप्तः । विद्याभारगुरुकोऽपि लाघवगुणैः सर्वत्र श्लाघनीयः ज्ञातः। मन्मनेनापि गृहकार्ये आदान-प्रदाने आपण-व्यापरे च परिचितः संसक्तश्च कृतः । द्वादशवार्षिकोऽपि परिणतवयाः इव कार्यकुशलः संवृत्तः । आपणे तिष्ठन्, व्यापार कुर्वन्, मधुरं व्यवहरन् च सर्वेषां अतीव चक्ष ष्यः लगति । अनेके ग्राहकाः तु अनेन वार्तालापेन सन्तुष्टाः तत्र तिष्ठन्ति । 'बालोऽपि कीदृशो दक्षः' इति भृशं प्रशंसन्तः उरसा
२ वितिष्ठन् : आदानप्रदाने ४ चक्षुष्यः-सुभगः ।
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८६
रयणवाल कहा परं इत्तोप्पं' विविह-गिह-कज्ज-कुसलेणावि ण णायं 'कोह' इअ रहस्सं णेण । मम्मणेणावि वीसु एआरिसमणुऊलं वायावरणं जणि जेण मणयमवि ण अस्स कयावि अयम्मि विसयम्मि माणसं संदिद्धं हवइ । मम्मणो चिअ मे पिया, मम्मणभज्जा चिअ मह जम्मदायिगा जगणि'त्ति जाणाइ सो, ण दिट्रो कोइ कयाइ विवज्जासो । परं, परं णिगृहिअमवि तुसरासिम्मि छण्णं फुलिंगव्व रहस्सं जया कया बाहिरमागच्छइ। जमस्थि मत्थि चिय, तस्स गत्थित्तं कहं हवइ'त्ति णिच्छिअं तत्तं ।
गओ एगया रयणवालो अहमण्णस्स गिहम्मि वुढिं गयं धणं पूण आणेउ। रण पच्चप्पिउं खमो सो ठिइ-वसंवओ। बालत्तणओ' अविण्णाय-परत्थ-पारतंतो कय कयग्गहो तत्थेव ठिओ। णाहमज्ज अगहिअ-सवुड्ढिरित्थो रित्तहत्थो पच्चावलिस्सं । अणेगहुत्तं समागओहमिह धणमाणेउ, परंतु तुमं णिरंतरं किमवि किमवि मिसमायाय मं परावत्तेसि । हद्धी ! केरिसी जणाण णोई जाया ? जया गहणिज्जं धणं तयाणि तु महुरमहुर-वयणेहिं वयंति । 'तुम्हे किर अम्ह संरक्खया पालया जीवण-दाण-दायग'त्ति लालप्पमाणा अबीअं सोअण्णं पयडयंति । संपण्णे कज्जे, करायत्ते अत्थे यण कोइ संबंधो'त्ति दूरओ णीसरंति । दायगेण वाहित्ता" रत्तयणणा जं किमवि पच्चुत्तरंता उत्तेजिआ हवंति । हत ! आगओ केरिसो विचित्तो दूसमो! जणेहि गहिनं दायब्वंति विम्हट, परंतु णाहं विच्छड्ढिस्सं समप्पिअं ईसि वि ।
१ एतत्प्रभृति, यथा इत्तोप्पं एअप्पभिइ (पाइयलच्छी-४४८) २ विपर्यासः
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तइओ ऊसासो उपगृहन्तः पुल किताः भवन्ति । परं इत्तोप्पं (इतः प्रभृति) विविधगृहकार्यकुशलेनापि न ज्ञातं कोऽहम्' इति रहस्यं अनेन । मन्मनेनापि विष्वक् एतादृशं अनुकूलं वातावरणं जनितं येन मनागपि न अस्य कदापि अस्मिन् विषये मानसं संदिग्धं भवति । 'मन्मनः एव मे पिता, मन्मन-भार्या एव मम जन्मदायिका जननी' इति जानाति सः । न दृष्टः कोऽपि कदापि विपर्यासः । परं परमनिगृहितमपि तुषराशौ छन्नं स्फुलिङ्गवत् रहस्यं यदा कदा बहिः आगच्छति । यदस्ति तदस्ति एव, तस्य नास्तित्वं कथं भवति इति निश्चितं तत्त्वम् ।
गतः एकदा रत्नपालः अधमर्णस्य गृहे वृद्धि गतं धनं पुनः आनेतुम् । न प्रत्यर्पयितु क्षमः स स्थिति-वशंवदः । बालत्वात् अविज्ञातपरार्थपारतन्त्र्यः कृत-कदाग्रहः तत्र व स्थितः। नाहं अद्य अगृहीत-सवृद्धिरिक्थो रिक्तहस्तः प्रत्यावलिष्ये । अनेकवारं समागतोऽहं इह धननानेतुम्, परन्तु त्वं निरन्तरं किमपि किमपि मिषमादाय मां परावर्तयसे। हा ! धिक् ! कीदृशी जनानां नीतिर्जाता। यदा ग्रहणीयं धनं तदानीं तु मधुरमधुर-वचनैर्वदन्ति । 'यूयं किल अस्माकं संरक्षकाः, पालकाः, जीवनदानदायका' इति लालप्यमाना अद्वितीयं सौजन्यं प्रकटयन्ति । सम्पन्न कार्ये, करायत्ते अर्थे च न कोऽपि सम्बन्धः इति दूरतः निस्सरन्ति । दायकेन व्याहृता रक्तनयना यत् किमपि प्रत्युत्तरन्तः उत्तेजिताः भवन्ति । हन्त ! आगतः कीदृशः विचित्रो दुःषमः, जनैः गृहीतं दातव्यम्' इति विस्मृतम् । परन्तु नाहं त्यक्ष्यामि समर्पित
३ अधमर्णस्य-ग्राहकस्येत्यर्थः ४ बालत्वात् ५ अविज्ञातपरार्थ-पारतन्त्र्यः ६ कृतकदाग्रहः ७ व्याहृताः ।
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रयणवाल कहा अज्ज तु पडिण्णायं मए अगहिअ-धणेण ण जहिअव्वं ठाणमिणं । इअ साहेऊण तत्थेव निच्चलं ठिओ रयण वालो रइअ'-पल्हथिओ।
सगरिहं सुणिऊण तस्स थुडंकिअयं वयणं परोवि कोव-कंपिआहरो जाओ । हरे ! दुद्धगंधिअमुहो' वि जं किमवि अवलवइ जंबुल्लो । जाणामि अहमवि अस्स अवंजणिज्ज वईनं । पगब्भो ण जाणेइ चत्त-सगिहस्स ठिइं। जभणभणो कहं ण लज्जए णीइं उवदिसेतो। ता विसयं करेमि अस्स पुरओ मायरपिअराणं दुहदं वृत्तंतं । इस चितेऊण कोह-कासाइअ-नेत्तो सो सगरिहं वोत्तुमाढत्तो"अरे धट्ट ! तुण्हिक्को होहि तुण्हिक्को। मा मोरउल्ला पगभं दंससु । ण मुणेसि महामुक्ख ! मायर-पिअराणं पवास-कारणं तुह जम्मोत्ति । कीअ-दास ! कीस तुमं एआरिसं धिट्ठिमं दक्खवेसि, किमप्पिअं ते बप्पेण मे दव्वं ?
ओसर ओसर बप्पुडा" ! इओ आयण्णेउणि कज्जलियं अईअं। जम्मंध ! कहं गविल्लो हवि" भमसि ? णाहं तुझं किमवि दाहं । णत्थि णाम कोइ तुज्झ अहिआरो मग्गण8 इह ।” एवं समुह-विकूणिअं अहमण्णस्स कक्कसवयणतीरेहिं ताडिओ मम्माहओ 'अमुणिअ-तप्पच्चारण'२. हिअयो संकिओ कलुस-समावण्णो असमंजसं दसं च पत्तो । कहमेसो पच्चारेइ गरिहेइ य मं अवियारिअ-वक्कपाहाणपक्खेवेण ? कीस एएण 'कीअदासो त्ति सिओ
१ रचितपर्यस्तिकः पालथी मारके' इतिभाषा २ रोषतप्तवचनम्, यथा- रोसेण उण्हिक्कं वयणं जं थुडंकिअयं (पाइयलच्छी ६५१) ३ दुग्धगन्धिकमुख:-बालकः ४ बकवादी (दे०) ५ अव्यञ्जनीयम् ६ स्वच्छन्द
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तइओ ऊसासो इषदपि । अद्य तु प्रतिज्ञातं मया अगृहीतधनेन न हातव्यं स्थानमिदम् । इति कथयित्वा तत्र व निश्चलं स्थितः रत्नपाल: रचित-पर्यस्तिकः ।
सगर्ह श्रुत्वा तस्य थुडङ्किअयं (रोषयुक्त) वचनं परोऽपि कोपकम्पिताधरः जातः । अरे ! दुग्धगन्धिकमुखोऽपि यत् किमपि अपलपति 'जम्बुल्लः (वाचालः) । जानामि अहमपि अस्य अव्यञ्जनीयं व्यतीतम्। प्रगल्भो न जानाति व्यक्त-स्वगृहस्य स्थितिम् । 'जम्भणम्भणो' (स्वच्छन्दभाषी) कथं न लज्जते नीति उपदिशन् । तस्मात् विशदं करोमि अस्य पुरतो मातृ-पित्रोः दुःखदं वृत्तान्तम् । इति चिन्तयित्वा कोपकाषायितनेत्रः स सगर्ह वक्तु आरब्धः- "अरे ! धृष्ट ! तूष्णीको भव तूष्णीकः । मा मुधा प्रागल्भ्यं दर्शय । न जानासि महामूर्ख ! मातृ-पित्रोः प्रवासकारणं तव जन्म इति । क्रीतदास ! कस्मात् त्वं एतादृशं धृष्टत्वं दर्शयसि, किं अपितं ते बप्पेन (पित्रा) मह्य द्रव्यम् । अपसर ! अपसर ! वराक ! ('बापड़ा' इति भाषायाम्) इतः आकर्णयितु निजं कज्जलितं अतीतम् । जन्मान्ध ! कथं गर्वितो भूत्वा भ्रमसि ? नाहं तुभ्यं किमपि दास्यामि । नास्ति नाम कोऽपि तव अधिकारो मार्गणार्थं इह ।" इत्थं समुखविकूणितं अधमर्णस्य कर्कशवचनतीरैस्ताडितो मर्माहतः अज्ञात-तदुपालम्भ-हृदयः शङ्कितः कलुषसमापन्नश्च असमञ्जसां दशां प्राप्तः । कथं एष उपालभते गर्हते च मां अविचारित-वाक्य पाषाण-प्रक्ष पेण । कस्मात् एतेन 'क्रीतदासः'
भाषी ७ प्रागल्भ्यं ८ पित्रा 'बाप' इति भाषा (दे०) ६ अपसर १० 'बापडा' इतिभाषा (दे०) ११ हविअ-भूत्वा १२ अज्ञात-तदुपालम्भहृदयः ।
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रयणवाल कहा
कलंकिओऽहयं । किमण्णे मे जन्मदायगा मायर-पिअरा ? किं ण मम्मणो मे तत्तिओ' पिआ। अव्वो ! ण गुज्झं जाव विसयीकुणेमि ताव ण मए कि पि पच्चुत्तरिअव्वं । इअ णिच्छिआण सयराहमेव तओ उढिओ णाणा-विगप्प
खोलिअ-माणसो तुहिमासेवमाणो तत्त-गवेसण-तप्परो चलिओ । मग्गम्मि आवणिओ एगो थेरो आवणम्मि ठिओ दिट्ठि-पहं गओ। विमण-दुम्मणो सो अईयं रहस्सं पयडीकारे उकामो तस्स ससीममागओ।
हिम-पुलुटुमरविदं विव मिलायमाणमुहमिमं रयणवालं लक्खिअ किं कारणं'ति गवेसणापरो सो पुच्छेउ लग्गो"वच्छ ! कीस तमं दीससि अज्ज गहिर-चिता-विहलो ? णिच्चं पंफूल्लं तुह वयण-सयपत्तं कहमज्ज हित्थं विलिअं मे पडिहाइ ? भण, सिग्धं भण, जहा ते दुह-पडिआरं करेमि किंचि ।"
दीहं उसिणं नीससंतेण रयोण सूइओ सब्वो वि जहावत्तं वृत्तंतो। कहमहं तेण णिभंच्छिओ कीअदास'त्ति सद्दे ण । किं रहस्सं विज्जए एत्थ ? को एआरिसो गुज्झो वइअरो ? जिण्णासेमि ताय ! सव्वमिणं जहातहं ।
आयण्णिअ रयणवालस्स पुच्छणं सेराणणो जा। सो परिणयवयो । अणुहूअमईनं पच्चक्खं परिप्फुरिअं तस्स । अवत्तव्वं गुज्झमिणं दरफुडिआहरो वि मूअल्लिओ ठिओ।
१ तात्विकः २ आपणिकः---'दूकानदार' इतिभाषा ३ हिमप्लुष्टम्
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तइओ ऊसासो इति दूषितः कलङ्कितः अहम् ? किमन्यौ मे जन्मदायकौ मातरपितरौ ? किं न मन्मनो मे तात्विकः पिता? अन्वो ! न गुह्य यावद् विशदीकरोमि तावत् न मया किमपि प्रत्युत्तरितव्यम् । इति निश्चित्य शीघ्रमेव ततः उत्थितः नाना-विकल्प-प्रेङ खोलितमानसः तूष्णीमासेवमानस्तत्व-गवेषण-तत्पररचलितः । मार्गे आपणिक: एकः स्थविरः आपणे स्थितो दृष्टि-पथं गतः। विमनोदुर्मनाः स अतीतं रहस्यं प्रकटीकारयितुकामः तस्य ससीमं आगतः ।
हिम-प्लुष्टमरविन्दमिव म्लायन्मुखं इमं रत्नपालं लक्षयित्वा 'किं कारणम्' इति गवेषणापरः स प्रष्टु लग्नः- "वत्स ! कस्मात् त्वं दृश्यसे अद्य गभीर-चिन्ता-विह्वलः ? नित्य प्रफुल्लं तव वदन-शत पत्र कथं अद्य त्रस्तं वीडितं मम प्रतिभाति ? भण, शीघ्र भण, यथा तव दुःख-प्रतीकारं करोमि किञ्चित् ।”
दीर्घ उष्णं निःश्वसता रत्नेन सूचितः सर्वोऽपि यथावृत्तं वृत्तान्तः। कथं अहं तेन निर्भत्सितः 'क्रीतदास' इति शब्देन ? कि रहस्यं विद्यते अत्र ? कः एतादृशः गुह्यः व्यतिकरः । जिज्ञासामि तात ! सर्वमिदं यथातथम् ।
आकर्ण्य रत्नपालस्य पृच्छनं स्मेराननः जातः स परिणतवयाः । अनुभूतं अतीत प्रत्यक्ष परिस्फुरितं तस्य । अवक्तव्यं गुह्यमिदं ईषत्स्फुटिताधरोऽपि मूकायितः स्थितः ।
हिमदग्धमित्यर्थः । ४ वस्तम् 'त्रस्तस्य हित्थतट्ठौ (हे० २-१३६) ५ निभत्सित; ६ ईषत्स्फुटिताधर: 'दरार्धाऽल्पे' (हे० २-११५) ७ मूकः
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रयणवाल कहा
पडिवय-सुणणेगतप्परं विलंबासहं विलोइअ बालमुहं अंते थेरेण सदक्खिण्णं मणयं रहस्सुग्घाडणं कयं-"पुत्त ! विचित्तोऽयं महारण्णरूवो संसारो। किमघडिअं ण घडइ एत्थ जंतूणं । ताव चिअ मणुओ उत्तप्पो' हवइ जाव तिणा ण अईअं पच्चक्खं कीरइ। अज्ज ! सव्वावि दिट्ठिपहमागच्छन्ती जगस्स लीला ण मायहि आइरित्तार । केवलमासा णह-संकासा। भद्द ! अलाहि रहस्स-पप्फोडणेण । खलइ मे रसणा ते इइवुत्तं पयडोकाउ। तहा वि अत्थि ते तिव्वा जिण्णासा, तो कहेमि किंचि तवाऽविण्णायं पुव्वचरिअं । सुणसु, आसि णयर-जणमाणणिज्जो अड्ढो ते पिया जिणदत्तो। पियंवया दाणसीला भाणुमई सक्खं लच्छी ते जणणी । आसी जया तुमं गब्भम्मि तयाणि जाओ अकम्हा आवइतडी -णिवाओ तुह सामिद्धोए उवरि । सुमिणविलायं विलोणा सव्वावि वंस-परंपरा-संचिआ लच्छी। जाव दविणविणिमयेण मम्मण-गिहम्मि तुमं रक्खिऊण रयणीए अलक्खिआ अणत्थ पलाणा ते जणणी-जणया । एवं कहमाणो सो थेरो बाह-जलाउल-लोयणो संवुत्तो। आसी तुह पिआ मे परमो मित्तो। ण एआरिसो सुअणो मए दिट्ठो अण्ण जणो पुत्त ! संपई ण जाणेमि कत्थ ते जवेंति विवआ-कालं । तुज्झ विरह-दुब्बला । कुल भाणुआ ! अत्थि तुम्हकेरं परमं किच्चमिणं जं लिहिआणुसारं णिय-हत्थेण पहूअं धणं विढविअ, रिणमुत्तो हविअ, पिअराणं च गवेसणं काऊण, तेहिं सध्दिं णि घरं गच्छेज्जा । सोम्म ! सो च्चिअ आणंदणो
१ उद्धताः २ मृगतृष्णातिरिक्ता-यथा—मायण्हिआ, झला (पाइयलच्छी ५४२) ३ नभोतुल्या ४ आपत्तडिन्निपातः ।
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इओसी
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प्रतिवचः श्रवणैकतत्परं विलम्बासहं विलोक्य बालमुखं अन्ते स्थविरेण सदाक्षिण्यं मनाग् रहस्योद्घाटनं कृतम् — “पुत्र ! विचित्रोऽयं महार्णवरूपः संसारः । किं अघटितं न घटते अत्र जन्तूनाम् ? तावदेव मनुजः उद्धतो भवति यावत् तेन न अतीतं प्रत्यक्ष क्रियते । आर्य ! सर्वापि दृष्टिपथं आगच्छन्ती जगतो लीला न मृगतृष्णातिरिक्ता । केवलं आशा नभः-सङ्काशा । भद्र ! अलाहि रहस्य - प्रस्फोटनेन । स्खलति मे रसना तव इतिवृत्तं प्रकटीकर्तुम् । तथापि अस्ति ते तीव्रा जिज्ञासा तदा कथयामि किञ्चित् तव अविज्ञातं पूर्व-चरितम् । शृणु "आसीत् नगरजनमाननीयः आढ्यस्ते पिता जिनदत्तः । प्रियंवदा दानशीला भानुमती साक्षात् लक्ष्मीस्ते जननी । आसीत् यदा त्वं गर्भे तदानीं जातोऽकस्मात् आपत्तडिन्निपातस्तव समृद्धेः उपरि । स्वप्नविलायं विलीना सर्वापि वंश-परम्परा - सञ्चिता लक्ष्मीः । यावद् द्रविण - विनिमयेन मन्मन-गृहे त्वां रक्षित्वा रजन्यां अलक्षितौ अन्यत्र पलायितौ ते जननी जनकौ । एवं कथयन् स स्थविरः वाष्पजलाकुलनयनः संवृत्तः । आसीत् तव पिता मे परमं मित्रम् । न एतादृशः सुजन: मया दृष्टः अन्यजनः । पुत्र ! सम्प्रति न जानामि कुत्र तौ यापयतः विपत्कालं तव विरह- दुर्बलौ । कुलभानो ! अस्ति त्वदीयं परमं कृत्यं इदं यत् लिखितानुसारं निजहस्तेन प्रभूतं धनं अर्जयित्वा ऋणमुक्तो भूत्वा पित्रोः गवेषणां कृत्वा तैः सार्धं निजं गृहं गच्छेः ।
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रयणवाल कहा णंदणो जो वंसुद्धार-कारगो अम्मापिऊणं सुहजणओ पुव्वजाणं च विच्छोलिअ णामधेयो धिप्पइ। उ, ण खेएण किमवि भविस्सइ, भविस्सइ किर महंतेण पुरिसत्थेण सव्वं । अत्थि मे कप्पणा, तुमं अवस्सं सुण्णं गिहं हरिअ-भरिअं काहिसि, इअ साहेऊण सहिअयो वुड्ढो वीसत्थ-दिट्ठीए पुत्तं रयणं पलोएउंलग्गो।
असुअ-पुव्वं कण्णकंटगाइअं णिअमईअमुग्रंतं मुणिऊण रयणवालो चित्तलिहिअव्व मंतकोलिअव्व थद्धो, उव्विग्गो, विम्हिओ, रोमंचिओ य जाओ। हरे ! इत्तोप्पं ण विइआ मए अप्पणआ पउत्ती। हंदि ! (सत्यं !) पिसुणि तेण अहमण्णेण । वेवे ! (विषादे !) अहं कीअदासोम्हि । अव्वो ! (पश्चात्तापे !) दलइ मे हिअयं अम्मा-पिऊणं तारिसी ठिई । थू ! णिलज्जेण मे जीवणेण, जस्स जम्मो वि सव्व-विद्ध सकारगो ! खु ! किं मए एआरिसं कलुसमायरिअं ! ऊ ! केण ण विण्णायं मे कुलंगारचरिअं ! अम्मो ! कहमेआरिसं जायं ! अइ ! दुहिआ विज्जति मे परम-सिलाहणिज्जा पुज्जा पिअरा । अहह ! जइ हंगब्भाओ पडतो, ता पिअराण ण तारिसी ठिई हुंती । णवरिष कि कायव्वं मए ? अलाहि मोरउल्ला बहु-चितणेण इण्हि । अप्पणो सव्वं सुहं भावि पुरिसत्थेण, इच्चाइ-बहुविगप्पविलोडिअ-हिअय-सागरो थेरं पणमिऊण एक्कसरिनं तओ पचलिओ। कत्थइ रइमलभमाणो गिहमागओ । एगम्मि
१ धौतनामधेय:-यथा विच्छोलियं धोओ (पाइयलच्छी ६२१) २ दीव्यते
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अह तइओ ऊसासो
सौम्य ! स एव आनन्दनो नन्दनः यः वंशोद्धारकारकः मातापितॄणां सुखजनक: पूर्वजानां च विक्षालित - नामधेयः दीप्यते । पश्य, न खेदेन किमपि भविष्यति, भविष्यति किल महापुरुषार्थेन सर्वम् अस्ति मे कल्पना त्वं अवश्यं शून्यं गृहं हरित भरितं करिष्यसि इति कथयित्वा सहृदयो वृद्धो विश्वस्त दृष्ट्या पुत्र रत्नं प्रलोकितु
लग्नः ।
ू
2
अभूतपूर्व कर्णकण्टकायितं निजं अतीतं उदन्तं श्रुत्वा रत्नपालचित्रलिखितवत् मन्त्रकीलितवत् स्तब्धः, उद्विग्नः, विस्मितः, रोमा ञ्चितश्च जातः । हरे ! इतः प्रभृति न विदिता मया आत्मीया प्रवृत्तिः । हन्दि ! ( सत्यम् ) पिशुनितं तेन अधमर्णेन । वेव्वे (विषादे ) क्रीतदासोऽस्मि । अव्बो ! (पश्चात्तापे) दलयति में हृदयं मातापित्रोः तादृशी स्थितिः । थ ! निर्लज्जेन मे जीवनेन यस्य जन्मापि सर्वविध्वंसकारकम् । खु ! किं मया एतादृशं कलुषं आचरितम् ? ऊ ! केन न विज्ञातं मे कुलाङ्गारचरितम् । अम्मो ! कथं एतादृशं जातम् ? अइ ! (सम्भावने) दुःखितौ विद्यते मे परमश्लाघनीयौ पूज्यौ पितरौ । अहह ! यदि अहं गर्भात् अपतिष्यम् तर्हि पित्रोः न तादृशी स्थितिः अभविष्यत् । वरि (आनन्तर्ये ) किं कर्तव्यं मया ? अलाहि मुधा बहुचिन्तनेन इदानीम् । स्वयं सर्वं शुभं भावि पुरुषार्थेन, इत्यादि बहुविकल्प - विलोडित-हृदय- सागरः स्थविरं प्रणम्य झगिति ततः प्रचलितः ।
६५
३ उअ, पश्य इत्यर्थे ( ० २ - २११) ४ अइ संभावने ( हे० २- २०५ ) ५ आनन्तर्य ६ स्वयं ।
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रयणवाल कहाँ अणात्थुअम्मि' भूअलम्मि बाहुल्लकवोल-णिमिअ-वामहत्थो भूमि खणंतो पीरवं ठिओ।
इओ य मम्मणो वि मज्झण्ह-जम्मण-वेलं जाणिऊण मा बुभुक्खिओ चिरं चिट्ठउ रयणवालो पुत्तो'त्ति सत्तरं हम्मि-3 अमागओ। परंण णिअच्छिओ णयण-चंदो नंदो। किमेअप्पभिइ ण पच्चावलिओ रिणमाणेउं गओ सो ? "भज्जे ! किं णागओ अहुणावहि तुह कोड-कोड्डाकारगो ? कहं तुम पुत्त-चिंता-निरवेक्खा कज्जलग्गा चिट्ठसि ?" उटैंकिअं उच्च सरं मम्मणेण ।
"इआणिमेव आगच्छमाणो ईसि मे लोअण-पहं पत्तो, पच्छा कहिं ठिओ'त्ति ण लक्खिओ मए चवल-चरिओ सो" णिवेइग्रं सच्छरिग्रं भज्जाए। ____कत्थ लुक्किओ ऐसो'त्ति अह उरि अणुसंधाउ लग्गो मम्मणो झत्ति विम्हअ-खेअ-मिस्साए दिट्ठोए।
सुसिअ-मुहसरोजो बहमाण-बाहधारो अणुड्ढीकयकंधरो धरणि-वट्टम्मि ठिओ किवणेण पेक्खिओ पुत्तो। ___ अब्बो ! किमिणं, किमिणं ? केण वाम-विहिणा तुमं दूमिओ पुत्त ! रुअमाणो चिट्ठसि ? केण मयंधलेण ते अवराहो कओ ? कस्स अप्पियं जीविअं जो तं" अवमण्णइ ? णिच्चं हंसतमुहो तुमं किणो विमणदुम्मणो ? किं ण लद्धतए जहेच्छिअं वत्थु ? किमज्ज खप्पुर -सहावाए तुह माउआ अहरिओं ? किमहवा रिणमदाउकामेण थड्ढेण
१ अनास्तृते २ वाष्पार्द्र कपोल-न्यस्तवामहस्तः ३ (दे०)। ४ शुष्कमुखसरोजः ५ त्वाम् ६ रुक्षस्वाभावया ७ अधरितः-तिरस्कृतः ।
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तइओ ऊसासो कुत्रापि रति अलभमानः गृहं आगतः । एकस्मिन् अनास्तृते भूतले वाष्पा-कपोल-न्यस्त-वामहस्तः भूमि खनन नीरवं स्थितः ।
इतश्च मन्मनोऽपि मध्याह्नजेमनवेलां ज्ञात्वा मा बुभुक्षितः चिरं तिष्ठतु रत्नपालः पुत्रः इति सत्वरं हयं आगतः । परं न निरीक्षितो नयनचन्द्रो नन्दः। किं एतत्प्रभृति न प्रत्यावलितः ऋणं आनेतु गतः सः ? "भार्ये ! कि नागतः अधुनावधि तव कोड-क्रीडा-कारकः ? कथं त्वं पुत्र-चिन्ता-निरपेक्षा कार्यलग्ना तिष्ठसि ?" उट्टङ्कितं उच्चस्वरं मन्मनेन।
'इदानीमेव आगच्छन् ईषद् मे लोचनपथं प्राप्तः, पश्चात् कुत्र स्थितः इति न लक्षितो मया चपलचरितः सः' निवेदितं साश्चर्य भार्यया।
'कुत्र निलीनः एष' इति अधः उपरि अनुसन्धातु लग्नः मन्मनः झटिति विस्मय-खेद-मिश्रया दृष्ट्या ।
शुष्क-मुख-सरोजः वहद्वाष्पधारः अनुर्वीकृत-कन्धरः धरणिपृष्ठे स्थितः कृपणेन प्रेक्षितः पुत्रः।
अव्वो । किमिदं, किमिदम् ? केन वाम-विधिना त्वं दुनः पुत्र ! रुदन् तिष्ठसि ? केन मदान्धेन तव अपराधः कृतः ? कस्य अप्रियं जीवितं यस्त्वां अवमन्यते ? नित्यं हसन्मुखः त्वं किणो (प्रश्ने) विमनोदुर्मनाः?
किं न लब्धं त्वया यथेष्टं वस्तु ? किं अद्य खप्पुर-स्वभावया (रुक्षस्वभावया) तव मात्रा अधरितः ? किमथवा ऋणं अदातुकामेन
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रयणवाल कहा तुमं पराहूओ ? भणसु, वच्छ ! भणसु जहावित्तं' वृत्तंतं, पुच्छेइ ते वाउलो जणओ सय राहमेव तप्पडिआरं का उकामो । एवमस्सासमाणेण मम्मणेण बाहाहि साहरिअ उट्ठाविओ पुत्तो कोडीकओ। मत्थयं जिग्घेतो णयणजलुल्लं लवणं लुछिउ लग्गो।
___एवं मम्मणेण परिपुच्छिओ सग्गहं जहाभूअं वइअरं पयडीका पेरिओ सगग्गरक्खरं रयणवालो फुडमकासी जहाणायं रहस्सं-"अस्थि खु तत्थभवंता भवंता पिअरसमाणा मे सेट्टिप्पवरा, परंण मे जणगा जणगा वत्थुत्तो। बुज्झि मए अज्ज सव्वंपि गुज्झं । अत्थि सिणेहंकुरघणाघणो महामणो पयडसत्तो जिणदत्तो मे पुज्जो पिआ। पच्चक्खं पेम-णई भाणुमई मे जम्मदायिणी जगणी। हंत, हंत ! दरिद-दवदड्ढा मोत्तूण मं अत्थ-परावत्तेणं भे गिहम्मि, अण्णाया कत्थइ पवसिआ। संपइ जइ मे जणणी-जणया आगम्म कहेंति "आगच्छ पुत्त !" तक्खणं अविलंब तेहि सद्धि वच्चामि णीसंदेहं णिशं गिहं । हद्धी ! किं पर-गिहठिइसुहं सुहं ? तुडिअमुडजमवि णिसं णिअं, धवलगिहं पि पारक्कं पारक्केरं ।" एवं भंणतो सो तारस्सरं परिदेविउं पउत्तो।
अविहाविग्रं, अवितक्किग्रं, अपच्चासिअंच सुणिआण रवणवयणं मम्मणेण अणुहूआ काइ असहणिज्जा अउला विअणा । तिव्वगई पत्ता हिअयगई। विप्फारिअं जायं
१ यथावृत्त २ माष्टुं म् ३ अस्थिस्त्यादिना (१४८) इति सूत्रेण बहुवचनेपि 'अत्थि' आदेशः ४ प्रोषिता।
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तइओ ऊसासो स्तब्धेन त्वं पराभूतः ? भण वत्स ! भण यथावृत्तं वृत्तान्तम्, पृच्छति तव व्याकुलो जनकः शीघ्रमेव तत्प्रतीकारं कर्तुकामः । एवं आश्वसता मन्मनेन बाहुभ्यां संहृत्य उत्थापितः पुत्रः क्रोडीकृतः । मस्तकं जिघ्रन् नयनजलाई लपनं माष्टुं लग्नः ।
एवं मन्मनेन परिपृष्टः साग्रहं यथाभूतं व्यतिकरं प्रकटोक प्रेरितः सगद्गदाक्षरं रत्नपालः स्फुटं अकार्षीत् यथाज्ञातम् रहस्यम् - "सन्ति खलु तत्रभवन्तो भवन्तः पितृ-समानाः मे श्रेष्ठिप्रवराः, परं न मे जनकाः वस्तुतः। बुद्ध मया अद्य सर्वमपि गुह्यम् । अस्ति स्नेहाङ कुर-घनाघनः महामनाः प्रकटसत्त्वः जिनदत्तः मे पूज्यः पिता । प्रत्यक्ष प्रेमनदी भानुमती मे जन्म-दायिनी जननी। हन्त ! हन्त ! दारिद्रय-दवदग्धाः मुक्त्वा मां अर्थ-परावर्तनेन युष्माकं गृहे, अज्ञाताः कुत्रापि प्रोषिताः। सम्प्रति मे जननीजनको आगम्य कथयतः'आगच्छपुत्र' तत्क्षणं अविलम्ब तैः सार्धं व्रजामि निःसन्देहं निजं गृहम् । हद्धी ! किं परगृह-स्थिति-सुखं सुखम् ? त्रुटितं उटजमपि निजं निजम्, धवलगृहमपि परकीयं परकीयम् ।” एवं भणन् स तारस्वरं परिदेवितु प्रवृत्तः ।
अविभावितं, अवितर्कितं, अप्रत्याशितं च श्रुत्वा रत्नवचनम् मन्मनेन अनुभूता कापि असहनीया अतुला वेदना। तीव्रगति प्राप्ता हृदयगतिः। विस्फारितं जातं नेत्र-युगलम् । चिरसंस्त्याना आशा
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रयणवाल कहाँ नेत्त-जुअलं । चिर-संखाया' आसा हिम-पिंडलिया इव तरलिआ जाया ! ऊ ! को पोरच्छ-पुरच्छिमो अस्स मिनिओ मे जन्म-जम्मंतर-पडिवक्खो ? हा ! खु खलेण सुघडि नो सुमंडिओ बंस-पासाओ अणट्ठ भूमिसाकओ। पिसुण ! किं ते हत्थम्मि आगयं मे कप्पणा -कप्पतरु-कप्पणेण ? बत! विचित्तो मुहुमुहाणं सहावो जमकारणं ते पर-दुहेण सुहिआ, परणासेण य तुट्टा दुट्ठा । अरे ! निरट्ठया जाया सव्वावि अस्स लालणा पालणा। उअ, हवइ किं पर-पुत्तेण वासिग्रं गिहं ? एवं बहु विकप्पंतो सो मम्मणो कमवि उवायं गवेसंतो वोत्तपउत्तो-"पुत्त ! केण तुमं पर-सुह-दुब्बलेण खलेण मुहा भुल्लविओ", निरट्ठयमासंकं च पाविओ सि ? को जिणदत्तो ? का भाणुमई ? केण दुहिलेण घडिआणि कवोल-कप्पिआणि अमूई णामधिज्जाणि ? ता मा भुल्लिरो भवसु, सिग्धं चलसु, कुणसु य सहभोअणं । उअ, हवइ सीअला णाणावंजण-संजुआ सरसा रसवई । पडिक्खइ तुह माया जायमपासंती गहिल्लीभूआ।" ___ अलाहि सेट्टिप्पवर ! जहत्थवत्थूवरि कवड-पडाखेवेण बहुजायमिणमो जमज्जप्पभिइ रक्खिओहं संतमसम्मि । संपइ पज्जलिओ मे णाणप्पईवो । अहवा विभाया मे भंतिसामिणी अण्णाण-जामिणो। पुव्वं कायन्वा महं पवासगमण-ववत्था, पच्छा गहिस्समहं किंपि भोअणं । हंत ! जइ मए एसो वुत्तंतो पुव्वं जाणिओ हुँतो तो कितं सुदरं हृतं ?" णीसंकं वंजिअं बालेणावि रयणवालेण ।
१ चिरसंस्त्याना 'समः स्त्यः खेः (हे० ४-१५) २ पोरच्छ: खलः-तत्र पौरस्त्यः प्रथमः, धूर्तशेखर इत्यर्थः ३ कल्पना-कल्पतरु-कल्पनेन, कल्पनं
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तइओ ऊसासो
१०१ हिम-पिण्डलिका इव तरलिता जाता । ऊ ! क: पोरच्छ-पौरस्त्यः (धूर्तशेखरः)अस्य मिलितो मे जन्मजन्मान्तरप्रतिपक्षः? हा ! खलु खलेन सुघटितः सुमण्डितो वंश-प्रासादः अनर्थं भूमिसात् कृतः । पिशुन ! किं ते हस्ते आगतं मे कल्पना-कल्पतरु-कल्पनेन ? बत ! बत ! विचित्रो मधुमुखानां (पिशुनानां) स्वभावो यत् अकारणं ते परदुःखेन सुखिताः परनाशन च तुष्टाः दुष्टाः । अरे ! निरर्थका जाता सर्वापि अस्य लालना पालना। उत ! भवति किं पर-पुत्रण वासितं गृहम् ? एवं बहु विकल्पयन् स मन्मन: कमपि उपायं गवेषयन् वक्तं प्रवृत्तः"पुत्र ! केन त्वं परसुख-दुर्बलेन खलेन मुधा भ्र शितो निरर्थक आशङ्कां च प्रापितः असि ? को जिनदत्तः ? का भानुमती ? केन द्र हिलेन घटितानि कपोल-कल्पितानि अमूनि नामधेयानि ? ततः मा भ्रान्तिभाग भव, शीघ्र चल, कुरु च सहभोजनम् । पश्य, भवति शीतला नाना-व्यञ्जन-संयुक्ता सरसा रसवती । प्रतीक्षते तव माता जातं अपश्यन्ती ग्रथिलीभूता।
अलाहि श्रेष्ठिप्रवर ! यथार्थ-वस्तूपरि कपट-पटाक्ष पेण । बहु जातं इदं यत् अद्यप्रभृति रक्षितोऽहं सन्तमसे । सम्प्रति प्रज्वलितः मे ज्ञानप्रदीपः । अथवा विभाता मे भ्रान्ति-स्वामिनी अज्ञान-यामिनी । पूर्व कर्तव्या मम प्रवासगमन-व्यवस्था । श्चात् ग्रहीष्यामि अहं किमपि भोजनम् । हन्त ! यदि मया एष वृत्तान्तः पूर्वं ज्ञातः अभविष्यत् तदा कियत् सुन्दरं अभविष्यत् ।” निःशङ्ग व्यञ्जितं बालेनापि रत्नपालेन।
छेदनमित्यर्थः ४ मुहुमुहः-पिशुनः तेषाम् ५ भुल्लविओ भ्रशितः, 'भ्रशेः फिडफिट्ट फुड-फुट-चुक्क-भुल्लाः' (हे० ४-१७७) ६ विभाता-विभात-प्रभातं प्राप्तेत्यर्थः ७ भ्रान्ति-स्वामिनी-भ्रान्तिमयीत्यर्थः ।
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रयणवाल कहा
"हा ! केण सढण विवरीअं पाढिओ एसो दढयाए । चित्तं ! अस्स सहावम्मि केरिसी रुक्खिमा समागया । अच्चतं लज्जिरो अप्पभासी वि अज्ज केरिसो वायालो थूलवयो जाओ । धी धी धी ! उप्फालेण सव्वमवि णिष्फलं कयं । असज्झोयं रोओ । पच्चक्खं णिरासा इमस्स आसा" अवसि मम्मणेण ।
"काहं सव्वमवि पबंधं सयराहमेव पुत्त ! अहुणा तु भोअणं घेत्तव्वं ।” कहमाणेणमेवं सेट्टिणा उट्टाविओ पुत्तो भोअng | अणासाइअ - रसा सरसा वि रसवई कहं कहमवि आसाइआ एएहि । एत्थंतरम्मि आहूआ मम्मणेण णिअसंतिआ वाणिज्जकुसला पुरिसा | साहि सव्वंपि करणिज्जं । सज्जीकथं जाणवत्त' । एत्थ सुलभेण भंडेण भरिअ तं । पत्थ-तिह-करण जोग-संजुआ सुहमुहुत्ता पत्थाण- वेला णिच्छिआ । आगए तम्मि समये सव्वेसि सम्मुहं सविणयं जणय थाणीचं मम्मणं पणमंतेण रयरगेण सूइअं - मज्झ कएणं कथं पिउपायस्स रिगं मोयावेउं गच्छामि अहमज्ज दे संतरं । एवइअकालं अहमेत्थ परमाणंदेण ठिओ, ओरस- पोअव्व परम सिणेहेण लालिओ पालिओ सव्वंगिअं सुहं च पत्तो । एएस महाणुहावा अज्जवि तारिसी पीई । तहवि मए कत्तव्वं पालणिज्जं 'ति पवासेमि सं| इ | जाणवत्तम्मि जं भंडं विक्केअं तं सव्वं सेट्टिणो विज्जइ, ण किंचिवि महं । देसतरं गंतण भंडं विक्किअ जं लाहं लहिस्सं तेण पिउपायेण गहिअं सकुसीअं धरणं तहा जाणवत्तगयं पि दव्वं पच्चप्पिणिस्सं ।
१ उप्फालेण मच्छरणा यथा - पोरच्छो, पिसुणो, मच्छरी, खलो, मुहुमुहो
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सइओ ऊसासो __ "हा ! केन शठेन विपरीतं पाठितः एष दृढतया। चित्र ! अस्य स्वभावे कीदृशी रुक्षता समागता। अत्यन्तलज्जालुः अल्पभाषी अपि अद्य कीदृशो वाचालः स्थूलवचाश्च जातः। धिग् ! धिग ! उप्पालेन (मत्सरिणा) सर्वमपि निष्पलं कृतम् । असाध्योऽयं रोगः। प्रत्यक्ष निराशा अस्य आशा” अवसितं मन्मनेन ।
"करिष्यामि सर्वमेव प्रबन्धं शीघ्रमेव पुत्र ! अधुना तु भोजनं गृहीतव्यम् ।'' कथयता एवं श्रेष्ठिना उत्थापितः पुत्रो भोजनार्थम् । अनासादितरसा सरसा अपि रसवती कथं कथमपि आसादिता एताभ्याम् । अत्रान्तरे आहूताः मन्मनेन निजसत्काः वाणिज्य-कुशलाः पुरुषाः। कथितं सर्वमपि करणीयं कार्यम् । सज्जीकृतं यानपात्रम् । अत्र सुलभेन भण्डेन भरितं तत् । प्रशस्त-तिथि-करण-योग-संयुता शुभमुहूर्ता प्रस्थानवेला निश्चिता । आगते तस्मिन् समये सर्वेषां सम्मुखं सविनयं जनक-स्थानीयं मन्मनं प्रणमता रत्नेन सूचितम् - "मम कृते कृतं पितृपादस्य ऋणं मोचयितु गच्छामि अहं अद्य देशान्तरम् । एतावत्कालं अहमत्र परमानन्देन स्थितः, औरसपोतवत् परमस्नेहेन लालितः पालितः सर्वाङ्गीणं सुखं प्राप्तः । एतेषां महानुभावानां अद्यापि तादृशी प्रीतिः । तथापि 'मया कर्तव्यं पालनीयम्' इति प्रवसामि सम्प्रति । यानपात्र यत् भण्डं विक्र यं तत् सर्व श्रेष्ठिनः विद्यते, न किञ्चिदपि मम । देशान्तरं गत्वा भण्डं विक्रीय यल्लाभं लप्स्ये तेन पितृ-पादस्य गृहीत' सकुसीद धनं तथा यानपात्रगतमपि द्रव्य प्रत्यर्पयिष्यामि । प्रस्थानकालिकं पारितोषिकं यद्
य उप्पालो (पा० १२३) २ गृहीतव्यम् ३ यानपात्रम्-पोत इत्यर्थः । ४ सकुसीदम्-'ब्याज सहित' इति भाषा ।
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रयणवाल कहा
पहाण-कालिअं पारिओसिनं जं किंचिवि सेटि-सगासाओ पाविस्सं, तस्स लाहं गहिस्सं सयमेवाह, ण पच्छा करिस्सं तं से ट्ठिणो पुण । इअ आयण्णिअ कयज्ज -सेहरो मम्मणो किमप्पेमि'त्ति संसयं पत्तो । अंतम्मि अईव तुच्छत्तणं दक्खवेंतेण दढमुट्टिणा अप्पिया 'मेमुदी' णामिआ एगा तक्कालिआ खुद्दा मुद्दा पारिओसिअ-रूवेण । सर्वसिं पासगाणं मणेसु अईव हीणत्तं पत्तो सो किविणो इमिणा अइतुच्छदाणेण । धिअ ! दढ मुट्ठिणो णिग्घिणं हिअयं णिल्लज्ज दाणं, चिरपोसिअण पुत्तेणावि केरिसो ववहारो ? तहवि समयपणणा रयण साणंदं गहिआ सा, मत्थयत्थं काऊण सुरक्खिग्रं रक्खिआ । भवंताणं किवाओ बहुलाह-कारणं भव्विस्सइ मे गुणं दाणमिणं लघि8 लक्खिज्जमाणमवि । अहवा सहमवि णग्गोह-बीअं ण किं महावित्थार-कारगं होइ ?
इअ सिरिचंदणमुणि-विरइआए पाउसागमामरचंदणपत्तीधणदत्त-विप्पतारण-पुत्तपरिवड्ढण-रिणअपरिणाणाइभावेहिं भाविआए रयणवालकहाए
तइओ ऊसासो समत्तो
१ पारितोषिकम्-इनाम 'सीख' इतिभाषा २ कदर्यशेखर:- कृपणप्रमुखः ।
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तइओ ऊसासो
१०५ किञ्चिदपि श्रेष्टि-सकाशात् प्राप्स्यामि तस्य लाभं ग्रहीष्यामि स्वयमेव अहम्, न पश्चात् करिष्यामि तत् श्रेष्ठिनः पुनः । इति आकर्ण्य कदर्य-शेखरः मन्मनः 'किं अर्पयामि' इति संशयं प्राप्तः । अन्ते अतीव तुच्छत्व दर्शयता दृढमुष्टिना अर्पिता 'मेमुदी' नामिकी एका तात्कालिकी क्ष द्रा मुद्रा पारितोषिक-रूपेण । सर्वेषां दर्शकानां मनसि अतीव हीनत्वं प्राप्तः स कृपणः अनेन अतितुच्छ-दानेन । धिग् ! दृढमुष्टः निघृणं हृदयम्, निर्लज्जं दानम्, चिरपोषितेन पुत्र णापि कीदृशो व्यवहारः ? तथापि समयज्ञ न रत्नेन सानन्दं गृहीता साः । मस्तकस्थं कृत्वा सुरक्षित रक्षिता । भवतां कृपातः बहुलाभ-कारणं भविष्यति मे नूनं दानमिदं लघिष्ठं लक्ष्यमाणमपि । अथवा सूक्ष्ममपि न्यग्रोध-बीजं न कि महाविस्तार-कारकं भवति ?
इति श्री चन्दनमुनिविरचितायां प्रावृडागमामरचन्दनप्राप्ति-धनदत्तविप्रतारण-पुत्रपरिवर्धननिजपरिज्ञानादिभाव वितायां रत्नपालकथायां तृतीयः उच्छ्वासः समाप्तः
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चोत्थो ऊसासो
अस्थि एसो तेलुक्क-विइओ पयडीए णिअमो जं जारिसी सुहाऽसुहा जस्स भावणा तारिसो च्चिअ परिणामो पुरस्सरो होइ । णिच्चं आमं' सरेमाणा हवंति आमयाविणो तहा आरुग्गं कप्पंता अरोआ । ण तेहि कयाइ उच्चयं पयं पाविज्जइ जेसिं मणम्मि णिच्चं अणासा, दुब्बलं, अप्पणोवि अ अवोसासो परिप्फुरइ । “गयगया अम्हारिसाणं दिअहा । संपइ तु जहाकहंचि कालो जवणिज्जो अम्हेहिं । आगमिस्साइ अम्हाणमवि कोइ अणुलोमोऽवसरो तयाणि चिंतिस्सामो किमवि काउ' इत्थं जे पडिसमयं णिअयं वेअल्ल मणुहवंति ण ते पंचजणा कत्थइ कयत्था, फलिअ-मणोरहा, सागारसुमिणा य होउमरिहंति । वटंति जेसिमुआरा विआरा, सुह
१ रोगम् २ असामर्थ्यम् ।
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चतुर्थ उच्छ्वासः
अस्ति एष त्रैलोक्य-विदित: प्रकृत्याः नियमः यत् यादृशी शुभाशुभा यस्य भावना तादृशः एव परिणामः पुरस्सरो भवति । नित्यं आम स्मरन्तः भवन्ति आमयाविनः तथा आरोग्यं कल्पन्त: अरोगाः । न तैः कदापि उच्चैः पदं प्राप्यते येषां मनसि नित्यं अनाशा, दौर्बल्यं, आत्मनोऽपि च अविश्वास: परिस्फुरति । “गतगता अस्मादृशानां दिवसाः । सम्प्रति तु यथाकथञ्चित् कालः यापनीयः अस्माभिः । आगमिष्यति अस्माकमपि कोऽपि अनुलोमोऽवसरस्तदानीं चिन्तयिष्यामः किमपि कर्तुम्" इत्थं ये प्रतिसमयं निजकं वैकल्यं अनुभवन्ति, न ते पञ्चजनाः कुत्रापि कृतार्थाः, फलित-मनोरथाः, साकार-स्वप्नाश्च भवितु अर्हन्ति । वर्तन्ते येषां उदारा विचाराः, शुभङ्करा कल्पना,
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१०८
रयणवाल कहा करा कप्पणा, संव्वंगिग्रं हिनं, अकलुसं च चित्तं, तेसि सव्वत्थ सुहं सुहं संमुहीणं । आवइ-समयम्मि वि ण सुक्कइ' तेसि आसा-ओज्झरो । भयाणय-णिसीहम्मि वि य दिदि पहं गच्छइ दिणमुहं । मिलइ सयमेव विहिअ-सुहासयवित्थारो अचितिओ परेसिमत्थारो । तम्हा अत्थि उच्छाहो किर सव्व-सभलयाए मूलं, कप्पणाण कप्परुक्खो, कामाण कामकुभो, चितिआण चिंतामणी पुण।
वड्ढमाणंतरंग उच्छाहो अणेगवयंसेहिं परिवारिओ, गुरुजणासीसाहिं आसासिओ, मंगल-पाढगेहिं माघहेहि थुरिणओ, सम्मुहं सयमुवट्ठिएहि सुह-स उणेहि वड्ढाविओ, अणुऊल-बायावरणेहिं चोइओ य रयण वालो मम्मणगिहाओ णिग्गओ । मज्झेपहं मत्थय-ठविअ-पुप्फकरंडिआ अहिमुहमाच्छंती मिलिआ एगा पुप्फच्चि णिआ। बहु-सुहं पट्टिआणति रयणेण तक्कालं गहिआ पुष्फ करंडिआ" दाऊण तोसे मम्मणप्पि लहुमुद्दादाणं । ताए दाडिमस्त धायईए य सज्जुक्काणि सुरहिआणि पुष्पाणि आसी। सुहाणि'त्ति सुरक्खिआणि ताणि विवेगिणा रयणेण । परमेट्ठि-पंचगं सरेंतो अणेग बाणोत्तरेहिं सद्धिं गुरु-जणे पणमंतो जाव आरुहइ पवहणं ताव एगेण अणुहविणा थेरेण आगम्म सूइअं "पुत्त ! जहेच्छं वच्चसु, लहसु पुण्णं लाहं, परंतु मा वच्चसु कालकूड-णामगं दीवं । जओ तत्थ गंतारा विप्पलंभिज्जंति तत्थगय-धुत्तसेहरेहि।" 'हंता' इअ कहतेण रयणेण पडिवण्णं
१ सुक्कइ (अकर्मक०) २ आशानिर्झरः यथा--ओज्झरं निर्झरं जाण (पा० ६५७) ३ साहिज्ज अत्थारो (पाइय०) साहाय्य मित्यर्थः ४ 'मालण' इति
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चोत्थो ऊसासो सर्वाङ्गीणं हितं, अकलुषं च चित्तं, तेषां सर्वत्र सुखं सुखं सम्मुखीनम् । आपत्-समयेऽपि न शुष्यति तेषां आशा-निर्भरः । भयानकनिशीथेऽपि च दृष्टिपथं गच्छति दिनमुखम् । मिलति स्वयमेव विहित-शुभाशयविस्तारः अचिन्तितः परेषां अत्थारः (साहाय्यम्) । तस्मात् अस्ति उत्साहः किल सर्वसफलताया मूलम्, कल्पनानां कल्पवृक्षः, कामानां कामकुम्भः चिन्तितानां चिन्तामणिः पुनः ।
वर्धमानान्तरङ्गोत्साहः अनेकवयस्यैः परिवारितः, गुरुजनाशीभिः आश्वासितः, मङ्गलपाठकैर्मागधैः स्तुतः, सम्मुखं स्वयमुपस्थितैः शुभशकुनैः वर्धापिता, अनुकूलवातावरणैः चोदितः (प्रेरितः) च रत्नपालः मन्मनगृहात् निर्गतः । मध्येपथं मस्तकस्थापितपुष्पकरण्डिका अभिमुखं आगच्छन्ती मिलिता एका पुष्पचायिनी । 'बहु शुभं प्रस्थितानाम्' इति रत्नेन तत्कालं गृहीता पुष्प-करण्डिका दत्वा तस्यै मन्मनापितं लधुमुद्रादानम् । तस्यां दाडिमस्य धातक्याश्च सद्यस्कानि सुरभितानि पुष्पाणि आसन् । 'शुभानि' इति सुरक्षितानि तानि विवेकिना रत्नेन । परमेष्ठिपञ्चकं स्मरन् अनेक बाणोत्तरः ("मुनीम" इति भाषायाम्) सार्धं गुरुजनेभ्यः प्रणमन् यावद् आरोहति प्रवहणं तावदेकेन अनुभविना स्थविरेण आगम्य सूचितम्-'पुत्र ! यथेच्छं व्रज, लभस्व पूर्ण लाभम्, परन्तु मा व्रज कालकूटक-नामकं द्वीपम् । यतः तत्र गन्तारो विप्रलभ्यन्ते तत्रगतधूर्तशेखरैः' । 'हन्ता' (अभ्युपगमे) इति कथयता रत्नेन प्रतिपन्नं तस्य वचनम् । विमुक्ताः लङ्गरकाः ('लंगर'
भाषा । यथा-पुप्फच्चिणिआओ पुप्फलाईओ (पाइय० २१३) ५ फूलों की टोकरी ६ तीसे । ७ बाणोत्तरः 'गुमास्ता मुनीम' इतिभाषा (दे०) ।
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रयणवाल कहाँ तस्स वयणं । विमुत्ता गरआ। वायाणुऊलं पूरिओ सिअपडो । चालिअं बोहित्थं णिज्जामगेहिं । जहा-जहा तमग्गओ परिवढिग्रं तहा-तहा अथग्घ-जलरासि-मज्झगयं उवरि आगासं परिओ णीरं णीरमेव नयण-पहमोअरिग्रं। कि सव्वावि धरा जलमइया जलजलागारा संवुत्ता । अव्वो ! दंसणिज्जा ठिई तत्त-दंसगेहिं पारावारस्स । मा सोमुल्लंघणं होउ'त्ति मणे संकिआओ मिव अग्गओ सरमाणीओ वि वीईओ पुणो पच्छा ओसप्पंति' । ण महंतएहि सत्तिप्पदंसणं कायव्वं'त्ति मणे महासामत्थसाली खणेण जीवलोगं पव्वालेउ खमोवि समुद्दो समेरो चिट्ठइ । तम्हा 'सायरवरगंभीर'त्ति आगमिएहिं तित्थगराणं कए तारिसी उवमा उवढोइआ। विअरणेग ण दारण-सुडाणं धणहाणी भवेज्ज'त्ति सुण्णाई महापयोहरोअराणि सययं भरमाणो वि णरित्तिमं पत्तो म्हि'त्ति दक्खवेंतो मणे सो उल्लोल-कल्लोलेहि रेहइ । तेहिं खु पत्तवाणि महग्घ-रयणाणि मुत्ताहलाणि अजे अभीआ णिण्ण-जलमज्झप्पवेसणपरा हत्यगयप्पाणा सिया य धीवरा, ण उण दरिअ-हिअयेहिं णवर पुलिण-चंकमणप्पवणेहिति दंसेंतो इव विइण्ण-सण्ह-संख-सुत्ति-उक्केरवित्थिण्णण तडेण अग्घइ । एवं कव्व-कप्पणा-परो भणुमई-सुओ मज्झेसमुई सकुसलं वच्चइ ।
जं जं चितेइ अप्पण्णू मणुओ तं तं सव्वं तारिस होइ'त्ति ण णिच्छिओ णिअमो । अब्वो ! मणुअ-चिंति जइ
१ अवर्सपन्ति २ पव्वालेउ-प्लावयितुम् 'प्लावेरोम्वालपव्वाली (हे० ४-४१) ३ विकीर्णश्लक्ष्णशङ्खसूक्त्युत्तत्करविस्तीर्णेन ।
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चोत्थो ऊसासो इति भाषायाम्) वातानुकूलं पूरितः सितपटः । चालितं बोहित्थं (नौका इति भाषायाम्) निर्यामकैः । यथा यथा तद् अग्रतः परिवधितं तथा तथा अस्ताघ-जलराशि-मध्यगतं उपरि आकाशं परितो नी नीरमेव नयनपथं अवतरितम् । किं सर्वापि धरा जलमयी जलजलाकारा संवत्ता ? अव्वो ! दर्शनीया स्थितिः तत्त्वदर्शकैः पारावारस्य । 'मा सीमोल्लङघनं भवतु' इति मन्ये शङ्किताः इव अग्रतः सरन्त्योऽपि वीचयः पुनः पश्चात् अवसर्पन्ति । 'न महद्भिः शक्तिप्रदर्शनं कर्त्तव्यम्, इति मन्ये महासामर्थ्यशाली क्षणेन जीवलोकं प्लावयितु क्षमोऽपि समुद्रः समर्यादः तिष्ठति । तस्मात् 'सागरवरगम्भीराः' इति आगमिकैः तीर्थकराणां कृते तादृशी उपमा उपढौकिता। 'वितरेण न दान-शौण्डानां धनहानिर्भवेत्' इति शून्यानि महापयोधरोदराणि सततं बिभ्रद् अपि न रिक्ततां प्राप्तोऽस्मि' इतिदर्शयन् मन्ये उल्लोलकल्लोलैः राजते । तैः खलु प्राप्तव्यानि महार्घ्य-रत्नानि मुक्ताफलानि च ये अभीताः निम्न-जलमध्य-प्रवेशनपराः हस्तगतप्राणाास्युश्च धीवराः, न पुनः दरितहृदयैः केवलं पुलिन-चङ क्रमणप्रवणैः इति दर्शयन् इव विकीर्णश्लक्ष्ण-शङ्ख-शक्त्युत्कर-विस्तीर्णेन तटेन राजते । एवं काव्य-कल्पनापरः . भानुमतीसुतः मध्ये-समुद्र सकुशलं व्रजति ।
यद् यत् चिन्तयति अल्पज्ञः मनुजः तत् तत् सर्वं तादृशं भवतीति न निश्चितः नियमः। अव्वो! मनुजचिन्तितं यदि सर्वं साकारं सम्पद्यते, तदा एकेन खलु क्षणेन विसंस्थुलं जायते जगतीकार्यम्,
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रयणवाल कहाँ
सव्वं सागारं संपज्जइ तया एगेण खलु खरगेण विसंठुलं' जायइ जगई-कज्जं । अत्थवत्था होइ च अदिट्ठा ववत्था । विचित्तं रहस्सं विज्जए एत्थ । लक्खंति केइ अलक्खलक्खणसहा महामेहाविणो जणा ।
अयंडं सव्वरीए पज्जोइआ विज्जू । उद्विआ मुइरा । कण्णं गओ थणिअ-सद्दो। पज्झरिउ पउत्ता बहला जलधारा । पत्थरिअं गाढधयारं । वाओ सवेगं झंझा-पहंजणो। संगोविअमवि जाणवत्तं सततमिव अकलिअ-ककुहं विहिपेरिअं मणे धावेउ लग्गं इओ तओ। तत्था सव्वेवि जणा तत्था एजमाणंतक्करणा किंकायब्व-विमुहा सुमरिअ-णिअ-णिअइट्ठ-देवा संजाया । कण्णधारेहिं अईव पयट्टि पोग्रं रोद्ध, तहवि पडिऊल-पवणेण पणुल्लिनं भावि-वसंवयं तं एगं अलक्खिअं दीवं पत्तं । पहाया रयणो । संता वुढी । उवत्तडं संदाणिों जाणवत्तं । उग्गओ दिणयरो। कोऽयं दीवो'त्ति जागरिआ पबला जिण्णासा। पवहणाओ उत्तरिओ रयणवालो जाव पय-ण्णासं कुणइ पुलिणम्मि ताव सम्मुहमागच्छंतो एगो मण ओ लोअण-मग्गं गओ । वाहित्तो सो समीवमागओ। पुटु रयणवालेण को एसो पएसो'त्ति । जाणाविग्रं तेण तक्कालं । "कुमार ! अत्थि एसो कालकूडाऽहिआणो दीवो । एत्थ नाणा-णियडी-भेअ-कुसलो पइदिण मायरिअ-दंभचरिओ सव्व-धुत्तसेहरो 'कसिणायणो' णाम णिवई। एगेगओ अहिअयरा धुत्तप्पहाणा महुरालावा
१ अव्यवस्थितम् २ मुदिरा :--मेघाः ३ क्षरितुम् 'क्षरः खिर-कर-पज्झरपच्चड-णिच्चल-णिआः (हे० ४-१७३) ४ अकलितदिक् ५ प्रेरितम् (प्र०
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चौत्थो ऊसासो
११३
अस्तव्यस्ता भवति च अदृष्टा व्यवस्था। विचित्र रहस्यं विद्यते अत्र । लक्षयन्ति केऽपि अलक्ष्यलक्षणसहाः महामेधाविनो जनाः ।
अकाण्डं शर्वर्यां प्रद्योतिता विद्य त् । उत्थिताः मुदिराः । कर्णं गतः स्तनित-शब्दः । क्षरितु प्रवृत्ता बहला जलधारा । प्रस्तृतं गाढान्धकारम् । वातः सवेगं झंझा-प्रभञ्जनः । सङ्गोपितमपि यानपात्र स्वतन्त्रमिव अकलित-ककुब् विधि-प्रेरितं मन्ये धावितु लग्न. मितस्ततः । तत्स्थाः सर्वेऽपि जनाः त्रस्ताः एजमानान्तः करणाः किंकर्तव्य-विमुखाः स्मृत-निज-निजेष्टदेवाः संजाताः । कर्णधारैः अतीव प्रयतितं पोतं रोदुम्, तथापि प्रतिकूल-पवनेन प्रेरित भावि-वशंवदं तत् एकं अलक्षितं द्वीपं प्राप्तम् । प्रभाता रजनी । शान्ता वृष्टिः । उपतटं सन्दानितं यानपात्रम् । उद्गतः दिनकरः । 'कोऽयं द्वीपः' इति जागरिता प्रबला जिज्ञासा । प्रवहणात् उत्तरितो रत्नपालः यावत् पदन्यासं कुरुते पुलिने तावत् सम्मुखं आगच्छन् एको मनुजः लोचनमागं गतः । व्याहृतः स समीपं आगतः । पृष्टः रत्नपालेन-'कः एष प्रदेशः' इति । ज्ञापितं तेन तत्कालम्-"कुमार ! अस्ति एष कालकूटाभिधानः द्वीपः । अत्र नाना-निकृति-भेद-कुशलः प्रतिदिनं आचरितदम्मचरितः सर्व-धूर्त-शेखरः 'कृष्णायनः' नाम नृपतिः । एकैकतः अधिकतराः धूर्त-प्रधानाः मधुरालापाः सत्यापिताक्षुण-यथार्थ-व्यवहाराः
णुद् इत्यस्य रूपम् ६ सन्दानितम्-बद्धमित्यर्थः ७ नानानिकृतिभेदकुशलः (निकृतिर्दम्भचर्या)।
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रयणवाल कहां
सच्चविआऽखूण'-जहत्थ-ववहारा अत्तत्था सब्वेवि पउरा । विहि-वसओ कोइ भद्दो संजत्तिओ समागच्छइ एत्थ, सो गिद्धोहिं मय-कलेवरमिव खंडखंडिओ, विप्पलंभिओ, महादारिद्द पाविओ य होइ। मए सद्धि वि एआरिसी भिसं णिअडीमइआ घडणा घडिआ। ___जहा-भरिअ-भंडो जाणवत्तेण पारावारं पारं कुणमाणो पडिऊलपहंजण-पणुल्लिओ दुविहि-वसंवओ एत्थ कालकूडदीवम्मि समावडिओ। अमुणिअ-वंचण-प्पवंचेण मए विहाविअं जमत्थि मह पासे एगं महामुल्लिल्लं रयण-करंडगं णिच्चं कुसंका-कुलाए पलंबाए तरंगमालिणो जत्ताए तस्स समीवे रक्खणं ण खेमकरं, तम्हा वच्चेमि मज्झेणयरं पलोएमि अ कमवि पुण्णं णीइमंतं विक्खाय-सच्च-हरिअंदं तं ठावेउ थावण-रूवेण (णासरूवेण) तस्स समीवं, जहा पच्चावलेंतो जेण मग्गेण पुणो सुरक्खि पाएज्जा णिअं णिहिं । इअ विचितिअ गहिअ-रयण-करंडिओ पट्टणं पत्तो, को तारिसो सच्चवाइ-सेहरो'त्ति अणुसंधाउं लग्गो। णव्वं पवासुअं मं पलोइअ घय-धण्णाइ विक्कयकारगो कोइ आवणिओ पुव्वसंगओ मिव 'सागयं-सागयं' साहेंतो से राणणो सम्मुहमागओ, सबाहुक्खेवं मिलेंतो सो कुसलं च पुच्छेउ पउत्तो । कमवि भद्दपुरिसं णच्चाहं तयावणम्मि गओ, उत्तचासण म्मि णिवेसिओ य तेण सद्धि सप्पेमं संलविउमाढत्तो । सबं धवलं धवलं दद्धति विसासिरेण मए णिअवत्थुरक्खरगट्ठ सग्गहं पत्थिओ सो, दंसिअं महग्धं वत्थुमवि ।
मणसा तं रक्खिउं अईव तप्परोवि सो अलवलवसही सं
१ सत्यापिताक्षूण-यथार्थव्यवहाराः २ सांयान्त्रिक:-पोतवणिक् ।
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चोत्थो ऊसासो
११५
अवस्थाः सर्वेऽपि पौराः। विधिवशतः कोऽपि भद्रः सांयान्त्रिकः समागच्छति अत्र, स गृद्ध : मृतकलेवरमिव खण्डखण्डितः विप्रलब्धः, महादारिद्र यं प्रापितश्च भवति । मया साधु अपि एतादृशी भृशं निकृतिमयी घटना घटिता।
यथा-भरितभण्डो यानपात्रण पारावारं पारं कुर्वन् प्रतिकूलप्रभञ्जन-प्ररितः दुविधिवशंवदोऽत्र कालकूटद्वीपे समापतितः । अज्ञात-वञ्चना-प्रपञ्चेन मया विभावितं यद् अस्ति मम पार्वे एक महामूल्यवत् रत्न-करण्डकम् । नित्यं कुशङ्काकुलायां प्रलम्बायां तरङ्गमालिनः यात्रायां तस्य समीपे रक्षणं न क्षेमंकरम्, तस्माद् वजामि मध्येनगरं विलोके च कमपि पूर्ण नीतिमन्तं विख्यातं सत्यहरिश्चन्द्र तत् स्थापयितु स्थापनरूपेण (न्यासरूपेण) तस्य समीपम्, यथा प्रत्यावलमानः अनेन मार्गेण पुनः सुरक्षितं प्राप्नुयां निजं निधिम् । इति विचिन्त्य गृहीत-रत्नकरण्डिकः पत्तनं प्राप्तः, कस्तादृशः सत्यवादिशेखरः इति अनुसन्धातु लग्नः । नव्यं प्रवासिनं मां प्रलोक्य घृतधान्यादिविक्रयकारकः कोऽपि आपणिकः पूर्वसङ्गतः इव ‘स्वागत-स्वागतम्' कथयन् स्मेराननः सम्मुख मागतः सबाहुक्षेप मिलन् स कुशलं च प्रष्ट प्रवृत्तः। कमपि भद्र पुरुषं ज्ञात्वा अहं तदापणे गतः, उच्चासने निवेशितश्च तेन सार्धं स प्रेम संलपितु आरब्धः। 'सर्व धवलं धवलं दुग्धम्' इति विश्वसता मया निजवस्तुरक्षणार्थ साग्रहं प्रार्थितः सः, दर्शितं च महायं वस्त्वपि ।
मनसा तद् रक्षितु अतीव तत्परोऽपि स अलवलवसहः (धूर्त
३ अलवलवसहो-धूर्तवृषभः।
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रयणवाल कहा अणण्णं सच्चवाइं दक्खवेंतो सच्च-धवलिआए ललिआए गिराए वोत्तुमारद्धो-"बंधुप्पवर! किं कहि भवंतेण थावण-रक्खण?? रण उण उईरणिज्जमिणं। मए पुन्वमेव सवहीकयमुवहिरक्खणं । नूणं भद्द-सहावेण सव्वं जगं भद्दति मुणमाणेण मए रक्खिओ कस्सइ महाणुहावस्स णासो, परंतु अइ कडुओ तप्परिणामो जहा कहंचि पारं पाविओ। तओ पच्छा ण कयाइ तारिच्छं कच्चं कायव्वं ति परिण्णायं मए । तओ किवाए अण्णत्थ गंतव्वं णास-विण्णास-वडियाए, णाहं कहमवि सीकाहमिणं ।" ___ उक्किट्ठ तस्स सच्च-णि8 दिट्ठि अणुहविअ एत्थेव रित्थं रक्खेमि'त्ति अहं अणुरोहं काउं पउत्तो। तम्मि समयम्मि एगा बालिआ धयं किणे उमागया। वंचग-वसहेण तेण पुणरवि मं पभावेउ एगा णियडी फुडीकया। जहा गहि एगगुणं दव्वं, तविणिमए दिण्णं बिउणं घयं । सप्पि गहिअ गया कण्णा। विम्हिएण मए तक्कालमुड्डंकि"अहो ! वाणिओ सि तुमं जं जाणासि वाणिय-वित्तिमवि । हरे ! दव्वगहणाहितो अल्लविअं विगुणं अज्जं, कहमण वज्जमिणं कज्जं जं वणिअ-णाम-दूसगं मूढया-विअंभिअ च । णाए पणालीए कहं तुह विवणी णीवि सुरक्खि रक्खिउं. खमा।" __ "सम्मं वितक्कि तुमए । हीरणमणुहवइ मे मणो पड़त्तरं दाउं । परं किं कहेमि, अत्थि मे एआरिसो दाणसीलो सहावो, वावारेवि ण सो पम्हट्ठो हवइ। कहं कज्ज चलइ'त्ति ण मे रसणा वंजिउं पहुप्पइ । अज्ज ! णत्थि कि
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चोत्थो ऊसासो
११७ शिरोमणिः) स्वं अनन्य-सत्यवादिनं दर्शयन् सत्य-धवलितयाललितया गिरा वक्तु आरब्धः--"बन्धुप्रवर ! किं कथितं भवता स्थापनरक्षणार्थम् ? न पुनः उदीरणीयमिदम् । मया पूर्वमेव शपथीकृतं उपधि-रक्षणम् । नूनं भद्रस्वभावेन सर्वं जगत् भद्र इति जानानेन मया रक्षितः कस्यापि महानुभावस्य न्यासः, परन्तु अति कटुकः तत्परिणामः यथाकथञ्चित् पारं प्रापितः । ततः पश्चात् न कदापि तादृशं कृत्यं कर्त्तव्यमिति प्रतिज्ञातं मया । ततः कृपया अन्यत्र गन्तव्यं न्यास-विन्यास-प्रतिज्ञया, नाहं कथमपि स्वीकरिष्ये इदम् ।
उत्कृष्टां तस्य सत्यनिष्ठां दृष्टि अनुभूय 'अब व रिक्थं रक्षामि' इति अहं अनुरोधं कर्तु प्रवृत्तः ! तस्मिन् समये एका बालिका घृतं ऋतु आगता। वञ्चकवृषभेण तेन मां प्रभावयितु एका निकृतिः स्फुटीकृता। यथा गृहीतं एकगुणं द्रव्यं तद्विनिमये दत्त द्विगुणं घृतम् । सर्पिः गृहीत्वा गता कन्या । विस्मितेन मया तत्कालं उदृङ्कितम् - अहो ! वाणिजोऽसित्वं यद् न जानासि वाणिजवृत्तिमपि । अरे ! द्रव्यग्रहणात् अर्पितं द्विगुणं आज्य, कथं अनवद्यमिदं कार्य यद् वणिकनामदूषकं मूढताविजृम्भृितं च । अनया प्रणाल्या कथं तव विपणिः नीवीं सुरक्षितां रक्षितु क्षमा ?
"सत्यं वितर्कितं त्वया । हीरणां (लज्जां) अनुभवति मे मनः प्रत्युत्तरं दातुम् । परं किं कथयामि अस्ति मे एतादृशः दानशीलः स्वभावः, व्यापारेऽपि यो न विस्मृतो भवति । 'कथं कार्य चलति' इति न मे रसना व्यञ्जयितु प्रभवति । आर्य ! नास्ति किं सर्वक्षति
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रयणवाल कहा सव्वक्खइ-पूरगो सव्व-सत्तिमंतो सव्वेसिं जोग-वखेम-कूसलो पहू ?" पुण्ण-सद्धा-पुव्व णिवेइअ तेण ।
इओ घयं गहिऊण सा कण्णा णिभं ठाणं पत्ता ? ताए पिअरेण घयं विलोएऊण सच्छेरं पुढे-पुत्तिआ ! कहं मुल्लाणुसारेण दुउणं घयं दीसइ। ण तारिसो कोइ अण्णो धत्त-सिरोमणी विज्जए णयरम्म । तेण कहं एआरिसं कयं : एत्थ किमवि रहस्सं विज्जइ। किं कोइ पवासुओ तत्थ उवविट्ठो आसि ?"
पुत्तिआए भणि-"आम, एगो अणुवलक्खिओ कोइ णरो तत्थ किमवि वत्थु रक्खेउकामो असई अणुरोहं कुणमाणो आसि ।" सच्चं तव्वंचट्ठ किर तेण एसा णिअडी पयडीकया। कण्णे ! सत्तरं वच्चसु घयं पच्चप्पिणे, पुणरवि जहा हं कहेमि तहा पयडीकुणसु उच्चसरं । सप्पिं गहिऊण बालिआ झत्ति हट्ट पत्ता, मिलाणाणणीहूअ साहेउ च पउत्ता-"आवणिअ ! कहमे अणुइअ कयं? कहं विगुणं सप्पिं समप्पि? तं पेखिअ मह पिआ अईव कुविओ जाओ। अहमवि मुक्ख 'त्ति सण अक्कोसिआ, णिरणुक्कोसं ताडिआ य।" तत्तं सिक्खंतेण उईरिअं-"भद्दे ! अप्पधणा वयंति ण चिंतणिज्जं कि.मवि । णेआउप्रेण समजल-सित्तेण भोअणेण संतुद्वा सुहं जीवणं जवेमो। णायविढविआ एगा कवड्डिआवि कोडी-तुल्ला । अण्णायसंचिआ कुडिला कोडी वि ण णे कज्ज-साहणी, तम्हा पच्छा कुणसु तुह अहिग्रं अहिअं घयं” एवं कहतीए तीए घयभायणं पुरओ रविलयं, अइरित्तं पच्चप्पिऊण तक्खणं च पड़िवलिअंतीए । मए विमंसिग्रं-हंत ! बालिआए पिय
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११६ पूरकः सर्वशक्तिमान् सर्वेषां योगक्षेमकुशलः प्रभुः ?" पूर्णश्रद्धापूर्वक निवेदितं तेन।
__इतो घृतं गृहीत्वा सा कन्या निजं स्थान प्राप्ता । तस्याः पित्रा घृतं विलोक्य साश्चर्य पृष्ठम् - "पुत्रिके ! कथं मूल्यानुसारेण द्विगुणं घृतं दृश्यते ? न तादृशः कोऽपि अन्यः धूर्तशिरोमणिः विद्यते नगरे, तेन कथं एतादृशं कृतम् ? अत्र किमपि रहस्यं विद्यते । किं कोऽपि प्रवासी तत्र उपस्थितः आसीत् ?
पुत्रिकया भणितं-"आम्, एकः अनुपलक्षितः कोऽपि नरः तत्र किमपि वस्तु रक्षितुकामः असकृत् अनुरोधं कुर्वन् आसीत् ।” सत्यं तद्वञ्चनार्थं किल तेन एषा निकृतिः प्रकटीकृता। कन्ये ! सत्वरं व्रज घृतं प्रत्यर्पयितुम्, पुनरपि यथाहं कथयामि तथा प्रकटीकुरु उच्चस्वरम् । सपिः गृहीत्वा बालिका झगिति हट्ट प्राप्ता, म्लानाननोभूय कथयितु प्रवृत्ता-"आपणिक ! कथं एतद् अनुचितं कृतम् ? कथं द्विगुणं सपिः समर्पितम् ? तत् प्रक्ष्य मम पिता अतीव कुपितो जातः । अहमपि 'मूर्खा' इति शब्देन आक्रष्टा, निरनुक्रोशं ताडिता च । तत्त्वं शिक्षयता उदीरितम् “भद्र ! 'अल्पधना वयम्' इति न चिन्तनीयं किमपि । नैयायिकेन समजल-सिक्तेन भोजनेन संतुष्टाः सुखं जीवनं यापयामः । न्यायाजिता एका कपर्दिका अपि कोटितुल्या, अन्याय-सञ्चिता कुटिला कोटिरपि न अस्माकं कार्यसाधनी, तस्मात् पश्चात् कुरु त्वं अहितं अधिकं घृतम्।” एवं कथयन्त्या तया घृतभाजनं पुरतः रक्षितम्, अतिरिक्त प्रत्यर्प्य तत्क्षणं प्रतिवलितं तया। मया विमृष्टम् हन्त ! बालिकायाः पित्रा नूनं महासत्यवादिना भवितव्यम् । अतिरिक्तं आगतमपि घृतं येन न रक्षितम् । अहा ! कीदृशी विशुद्धा नीतिः, विमलं चिन्तनम्, धार्मिकी निष्ठा च ? यदि अस्याः पितुः समीप
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रयणवाल कहा रेण णणं महासच्चवाइणा हो अव्वं । अइरित्तं आगयं पि घयं जेण ण रक्खिअं, अहा ! केरिसी विसुद्धा णोई, विमलं चिंतणं, धम्मिआ णिट्ठा य ? जइ इमोसे पिउणो समीवं अहं रक्खेमि णिग्रं धणं, तया ण किंचिवि आयईए भयं संभावणिज्ज ‘ति णिच्छिअ तओ तक्खणं धणं गहिअ कण्णाए अणुपयं चलिओ। आवणिअस्स णावा मणे मज्झेसमुदं बुड्डा। पिट्टओ तेण बहु संबोहिग्रं, परंतु मए किमवि ण पडिवण्णं । अयं धुत्त-सेहर'त्ति फुडं अणुहवमाणो तग्गिह पत्तो। तेणावि ससंमाणं कुसलपण्हाओ पुट्ठाओ। अत्थि काइ मह जुग्गा सेव्व'त्ति साणुणयं जिण्णासि । मए वि दव्व-दंसणेण सद्धि णिआहिप्पाओ सूइओ। गुरुमुल्लिल्लं रित्थं पेक्खिअ सो तग्गहण8 अंतक्करणम्मि अईव आउरो जाओ, परं उवरिल्ल-भावेण पुव्व-वाणिअव्व पडिसेह-पंडिओ हओ। जहा-जहा तेण पडिसिद्ध तहा-तहा मए तत्थेव रक्खणट्ठ पसज्झं चिट्ठा विहिआ । तयंतराले एगो विप्पो भिक्खम.तो 'सत्थि कल्लाणंति उच्चारतो तस्स णिहलणं पविट्ठो । भूदेवस्स पत्थ-मियं तंदुलं देहित्ति गह-वइणा भज्जा आणत्ता । ससंमाणं भारिआए विप्पस्स दाणं दिण्णं । दाणं गहिअ चलिओ वाडवो चितेउ लग्गो-'चोज्ज ! किमिणं नवीणं जायं, एत्थ एआरिसी दाणसोलया ! मुट्ठिमिअं चुण्णमवि दुल्लहं जत्थ । किविणिमा-कक्कसा भज्जा ण उच्छि?ण हत्थेण साणं हक्कारेइ । पेसणं कुणंती वि धण्णाणकणे चव्वए, तत्थ सालीणं दाणं ! अत्थि कोइ बंचणा
१ गृहम् ।
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चोत्थो ऊसासो अहं रक्षामि निजं धनं तदा न किञ्चिदपि आयतौ भयं सम्भावनीयमिति निश्चित्य ततः तत्क्षणं धनं गृहीत्वा कन्यायाः अनुपदं चलितः । आपणिकस्य नौर्मन्ये मध्येसमुद्र ऋडिता । पृष्ठतः तेन बहु सम्बोधितम्, परन्तु मया किमपि न प्रतिपन्नम् । 'अयं धूर्तशेखरः' इति स्फुटं अनुभवन् तद्गृहं प्राप्तः । तेनापि ससम्मानं कुशल-प्रश्नाः पृष्टाः । 'अस्ति कापि मम योग्या सेवा' इति सानुनयं जिज्ञासितम् । मयाऽपि द्रव्य-दर्शनेन सार्धं निजाभिप्रायः सूचितः । गुरुमूल्यवत् रिक्त्थं प्रेक्ष्य स तद्ग्रहणार्थं अन्तःकरणे अतीव आतुरो जातः । परं उपरितनभावेन तु पूर्ववाणिजवत् प्रतिषेध-पण्डितो भूतः । यथा-यथा तेन प्रतिषिद्ध तथा तथा मया तत्र व रक्षणार्थं प्रसह्य चेष्टा विहिता। तदन्तरालेऽपि एको विप्रो भिक्षां अटन् 'स्वस्ति, कल्याणम्' इति उच्चरन् तस्य निहेलनं (सदन) प्रविष्टः । 'भुदेवाय प्रस्थमितं तन्दुलं देहि' इति गृहपतिना भार्या आज्ञप्ता । ससम्मानं भार्यया विप्राय दानं दत्तम् । दानं गृहीत्वा चलितो वाडवः चिन्तयितु लग्न:-"चोज्ज ! (आश्चर्यम्) किमिदं नवीनं जातम्, अत्र एतादृशी दानशीलता ! मुष्टि-मितं चूर्णमपि दुर्लभं यत्र । कृपणताकर्कशा भार्या न उच्छिष्टेन हस्तेन श्वानं निषेधति । पेषणं कुर्वती अपि धान्यकणान् चर्बति, तत्र शालीनां दानम् ! अस्ति कोऽपि वञ्चना-प्रपञ्चः । अनुसन्धान-तत्परस्य
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रयणवाल कहा पवंचो । अणुसंधाण-तप्परस्स तस्स पच्छा अवलोअमाणस्स अहं दिट्ठिमग्गमोइण्णो । हंत ! अस्स पवासुअस्स पतारणहूँ एसा वयण्णया। कहं ण घेतव्वो मएवि अस्स अवसरस्स लाहो ? इअ णिच्छिअ तक्खणं सो णिअमुद्धवेढणम्मि एगं लहुं तणं संणिवेसिअपच्छा बलिओ, दीणाणणो भुच्चा साहेउं पउत्तो"हद्धी ! महंतो अवराहो, अभूअपुवो मंत, अखमणिज्जा य मे तुडी जाया । भाय ! अच्चंतं दुहिओम्हि ! हा ! जाहे हैं दाणं गहेउणिण्णकंधरो भूओ तयाणि अणा भोगेण एगं छद्दिआए तणं मह उण्हीसम्मि संलग्गं । किंचि अग्गओ वच्चमाणस्स मह करो तण-संजुत्तो जाओ । तक्षणमह कंपिअ-कलेवरो संयुत्तो । हा हा ! अण्णाणयाए किमिणं अघडिअं घडिअं ! अज्जप्पभिइ ण मए कस्सइ अदिण्णादाणं गहिरं, अज्जपइण्णा-भंगो हवीअ। ण मुल्लिल्लं तणति किमदिण्णादाणमिअं एवं जइ लहुमवराहण किमवित्ति उवक्खेज्जा, तयाणिं अणग्गल-वित्तीओ हंतो सुवण्णावहरणमवि ण दोस-दुटु मणेज्जा । अन्वो ? बंभणस्स सवो वि किरिआ-कलाओ विलुत्तो हवेज्जा । अम्हाणं भिक्खागारणं कए णवरं भिक्खाए च्चिअ अहिआरो। भिक्खाए तुटा अम्हे परमाणंदिणो पइपलं । अम्हाकं संगहेण धणस्स किं पओअणं", इअ वाकुणंतो तणं हत्थोहत्थि पच्चप्पिणिअ पच्चावलिओ । तस्स अबीजं सच्च-णि? वागरणं सुणिअ अहं अईव पभाविओ जाओ। अहो ! केरिसो विप्पोऽयं अलोलुहो, णीइ-कुसलो, दढधम्मो य महप्पा विज्जए, जइह इमस्स धणं समप्पेमि, तया ण काइ अवहरण-संका समुट्ठिआ सिआ; एवं विमंसिअ एक्कवए तओ धणं गहिअ पचलिओ,
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चोत्था ऊसासो
१२३ तस्य पश्चात् अवलोकमानस्य अहं दृष्टिमार्गमवतीर्णः । हन्त ! अस्य प्रवासिनः प्रतारणार्थं एषा वन्दान्यता। कथं गृहीतव्यः मयाऽपि अवसरस्य लाभः ? इति निश्चित्य तत्क्षणं स निजमूर्धवेष्टने एक लघु तृणं संनिवेश्य पश्चाद् वलितः, दीनाननो भूत्वा कथयितु प्रवृत्तः- “हद्धी ! महान् अपराधः, अभूतपूर्वः मन्तुः, अक्षमणीया च मे अटिजर्जाता। भ्रातः ! अत्यन्त-दुःखितोऽस्मि । हा। यदा अहं दानं गृहीतु निम्नकन्धरो भूतः, तदानी अनाभोगेन एकं छदिकायाः तृणं मम उष्णीषे संलग्नम्। किञ्चिद् अग्रतो व्रजतो मम करः तृणसंयुक्तो जातः । तत्क्षणं अहं कम्पित-कलेवरः संवृत्तः । हा हा । अज्ञानतया किमिदं अघटितं घटितम् ? अद्यप्रभृति न मया कस्यापि अदत्तादानं गृहीतम् । अद्य प्रतिज्ञाभङ्गः अभूत् । 'न मूल्यवत् तृणम्' इति किमदत्तादानमिदम् ? एवं यदि लघु अपराधं न किमपि इति उपेक्षे तदानीं अनर्गलवृत्तिको भवन् सुवर्णावहरणमपि न दोषदुष्टं मन्येय । अव्वो ! ब्राह्मणस्य सर्वोऽपि क्रियाकलापः विलुप्तो भवेत् । अस्माकं भिक्षुकाणां कृते केवलं भिक्षाया एव अधिकारः । भिक्षासन्तुष्टा वयं परमानन्दिनः प्रतिपलम् । अस्माकं संग्रहेण धनस्य किं प्रयोजनम् ? इति व्याकुर्वन् तृणं हस्ताहस्ति प्रत्यर्प्य प्रत्यावलितः । तस्य अद्वितीयं सत्य-निष्ठं व्याकरणं श्रुत्वा अहं अतीव प्रभावितो जातः । अहो ! कीदृशः विप्रः अयं अलोलुभः, नीतिकुशलः, दृढधर्मश्च महात्मा विद्यते। यदि अहं अस्मै धनं समर्पयामि तदा न कापि अपहरणशङ्का समुत्थिता स्यात्, एवं विमृश्य एकपदे ततो धनं
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१२४
रयणवाल कहा पुव्व-धुत्तेणं वारिओ वि अहं ण तत्थ ट्ठिओ। तमणुवच्चंतो तस्स णिलयं पविट्ठो। तेणाह अइ महर-ववहारेण ववहरिओ । मएवि णिशं दव्वं दंसिअ रक्खण8 अग्गहो कओ; परंतु तेण धुत्तेण फुड अणिच्छा दक्वविआ। तयाणिमेव इक्को जोई भिक्ख?मागओ संखं पुरेउ लग्गो। तं पेविखअ सो अईव उप्फुलो जाओ। सभत्ति वंदणा कया। धण्णं भागहेयंति वएतेण पायसभिक्खाए तस्स झोलिआ पूरिआ । अण्णाई पि बहूई सुमहुर-भोज्जाइं समप्पिआई । गुरुझोलिओ मोमुइओ जोई गुरु-ससीमं पत्तो। कमवि णवीणं रसड्ढ भिक्खं णिहालिअ जरंडो' गुरू विम्हयं पत्तो। अज्ज को एरिसो सज्जुक्को दायारो णयरम्मि उप्पण्णो, जेण एरिच्छा पगाम-रसा रसवई भिक्खाए दिण्णा ! पडिदिअहं तु तुमं सुक्कं, रुक्खं, अंतं, पंतं च भोअणजायं आणिणेसि, ण कयाइ एआरिसं मणुण्णं भोअणं लब्भसि, किं तत्थ कोई णवीणो भद्दो धणड्ढो जणो ढिओ आसी ? अवस्सं रहस्सं विज्जए एत्थ किमवि । सीसेण 'हता' कहतेण पडिवण्णं । गुरुणा उप्पालिअं-'सीस ! झोलिअंगहिअ तत्थेव गंतु तुरसु । मह पवंचिअं पयडीकुणमाणो अचुच्छ-साहल्लं लहसु ।" गुरुणो पमारणं'ति वयंतो तुरंतो सीसो सझोलिओ तत्थेव पुणरागम्म सखेअं वोत्तुमाढत्तो-"भत्त ! अज्ज मए अणट्टो उवालंभो गुरुस्स पत्तो, जयाह भिक्खं णेऊण गुरूवकंठं गओ । तुह दिण्णं सरसं भिक्खं पेक्खिअ विरत्तो गुरू रत्तो जाओ। आविलिज्जाए वायाए पच्चारेउपउत्तो-"मूढ ! कप्पए कि
१ जरण्डो-वृद्धः।
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चोत्थो ऊसासो
१२५ गृहीत्वा प्रचलितः । पूर्वधूर्तेन वारितोऽपि अहं न तत्र स्थितः । तं अनुव्रजन् तस्य निलयं प्रविष्टः ।
तेन अह अतिमधुर-व्यवहारेण व्यवहृतः। मयापि निजं द्रव्यं दर्शयित्वा रक्षणार्थं आग्रहः कृतः, परन्तु तेन धूर्तेन स्फुटं अनिच्छा दशिता। तदानीमेव एको योगी भिक्षार्थं आगतः शङ्खं पूरयितु लग्नः । तं प्रेक्ष्य स अतीव उत्फुल्लो जातः । सभक्तिवन्दना कृता । धन्यं भागधेयं इति वदन् पायस-भिक्षया तस्य भोलिका पूरिता । अन्यानि अपि बहूनि सुमधुर-भोज्यानि समपितानि । गुरुझोलिको मोमुदितो योगी गुरु-ससीमं प्राप्तः । कामपि नवीनां रसाढ्यां भिक्षां निभाल्य जरण्ड: (वृद्धः) गुरु: विस्मयं प्राप्तः । अद्य कः एतादृशः सद्यस्कः दाता नगरे उत्पन्नः, येन ईदृक्षा प्रकामरसा रसवती भिक्षायां दत्ता ? प्रतिदिवसं तु त्वं शुष्कं रुक्षं अन्तं प्रान्तं च भोजनजातं आनयसि । न कदापि एतादृशं मनोज्ञ भोजनं लभसे । किं तत्र कोऽपि नवीनो भद्रो धनाढ्यो जनः स्थितः आसीत् ? अवश्यं रहस्यं विद्यते अत्र किमपि।
शिष्येण 'हन्ता' कथयता प्रतिपन्नम् । गुरुणां कथितम्-"शिष्य ! झोलिकां गृहीत्वा तत्र व गन्तु त्वरस्व । मम प्रपञ्चितं प्रकटीकुर्वन् अतुच्छसाफल्यं लभस्व । 'गुरवः प्रमाणम्' इति वदन् त्वरमाणः शिष्यः सझोलिकः तत्रैव पुनरागम्य सखेदं वक्तु आरब्धः- "भक्त ! अद्य मया अनर्थः उपालम्भो गुरोः प्राप्तः । यदाहं भिक्षा नीत्वा गुरूपकण्ठं गतः । तव दत्तां सरसां भिक्षां प्रेक्ष्य विरक्तो गुरुः रक्तो जातः । क्रु द्धया वाचा उपालब्धु प्रवृत्तः- "मूढ ! कल्पते किं साधूनां
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रयणवाल कहा
साहणं एआरिसो भिक्खा ? णवरं तणं भुजेतो वि बक्करो कामेण पगामं पराहूओ हवए तया सरसं भुजेतो जोई कद बंभचेरवसंवओ। मिच्छा कहणमिणं जं रस-लोलुहो त्रि जोइ'त्ति ? किं पओअणं अम्हाकं णाणा-रस-वंजण-जुएण भोअणेण ? अम्हेहिं तु सुक्खं रुक्खं भोअव्वं, विजणे वणे चिट्ठिअव्वं, तुह-जत्ता च कायव्वा । णूणं ण हवइ कयाइ तवस्साविहूणा सभला साहणा" एवं कहिअ तत्थेव पायसाइअं छड्डिअ पच्छावलिओ सो। तं सुणिअ अहं तु उत्तंभिओ, विम्हिओ, तग्गुण-रंजिओ य जाओ । अव्वो ? केरिसं वेरग्गं, अब्भुआ णिप्पिवासिआ, विचित्ता य विरत्तो ! णीसंकं मए तत्थेव दव्वं अप्पिअव्वं । अलाहि विकप्पेण । तक्कालं तं अणुसरंतो पुरस्स बहिआ मढम्मि महतस्स दंसणं कयं । विरत्ति-विगसिओ वत्तालाओ जाओ। मए वि णास-सुरक्खट्ट विणत्तो सो । अम्हाकं किं पओयणं ति बहु-णिसिद्ध तेण । अंते अइ अग्गहेण तेण सीकयं मह पत्थरणं । एत्थ ण किमवि भयंति णोचिंतो समुद्दम्मि अग्गओ चलिओ।
पिट्ठओ महादव्व-लोलुहेण महतेण सव्वे वि सीसा पुहत्तं पाविआ । मढ-पओलीए मुहमवि परावत्तिअं । सव्वेवि रुक्खा छेइआ। णिआ एगा अच्छी वि फोडिआ। सव्वावि लीला अण्णारिसी चिअ कया।
किंचि कालाणंतरं जयाह पच्छा सुरक्खियं णासं गहेउकामो तत्थ समागओ, तया ण किमवि उवलक्खिरं पत्तं, ण महंतेण वत्तावि विहिआ। “विम्हट्टोसि तुमं, ण एत्थ सुमिणेवि एआरिसी घडणा घडिआ।"
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चोत्थो ऊसासो एतादृशी भिक्षा ? केवलं तृणं भुजानः अपि बर्करः कामेन प्रकामं पराभूतो भवति, तदा सरसं भुजानो योगी कथं ब्रह्मचर्य-वशंवदः ? मिथ्या कथनमिदम् यत् रसलोलुपोऽपि योगी। किं प्रयोजनं अस्माकं नाना-रस-व्यञ्जन-युतेन भोजनेन ? अस्माभिस्तु शुष्कं रुक्षं भोक्तव्यं, विजने वने स्थातव्यं, तीर्थ यात्रा च कर्तव्या । नूनं न भवति कदापि तपस्याविहीना कापि र.फला साधना' एवं कथयित्वा तत्र व पायसादिकं मुक्त्वा पश्चात् वलितः । तत् श्रुत्वा अहं तु उत्थम्भितः विस्मितस्तद्गुणरञ्जितश्च जातः । अब्बो ! कीदृशं वैराग्यम् ? अदभुता निष्पिपासिता, विचित्रा च विरक्तिः । निस्सङ्क मया तत्र व द्रव्यं अर्पितव्यम् । अलं विकल्पेन । तत्कालं तं अनुसरन् पुरस्य बहिः मठे महन्तस्य दर्शनं कृतम् । विरक्ति-विकसितो वार्तालापो जातः । मयापि न्याससुरक्षणार्थं विज्ञप्तः सः । 'अस्माकं किं प्रयोजनम्' इति बहुनिषिद्ध तेन । अन्ते अति आग्रहेण तेन स्वीकृतं मम प्रार्थनम् । अत्र न किमपि भयमिति निश्चिन्तः समुद्र अग्रतश्चलितः ।
पृष्ठतः महाद्रव्य-लोलुभेन महन्तेन सर्वेऽपि शिष्याः पृथक्त्वं प्रापिताः । मठ-प्रतोल्याः मुखमपि परावर्तितम् । सर्वेऽपि वृक्षाः छिन्नाः । निजं एक अक्षिः अपि स्फोटितम् । सर्वाऽपि लीला अन्यादृशी एव कृता।
किञ्चित् कालानन्तरं यदा अहं पश्चात् सुरक्षितं न्यासं गृहीतुकामः तत्र समागतः, तदा न किमपि उपलक्षितं प्राप्तम् । न महन्तेन वार्ताऽपि विहिता । 'विस्मृतोऽसि त्वं न अत्र स्वप्नेऽपि एतादृशी घटना घटिता' स्फुटं निषिद्ध तेन ।
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रयणवाल कहा
___फुडं णिसिद्ध तेण । कुमार ! तओ प्पभिइ अहं जत्थ तत्थ भमेमि, परंतु ण कोइ मह पउत्ति सुणेइ । अत्थु, इण मेव कहणस्स तप्पज्ज', जं तए अईव कुसलत्तेण वट्टिअव्वं, अण्णहा ण कुसलं'ति मंतव्वं । संखेवेण एवं णिवेइऊण मा कोइ मं पासउत्ति तक्खणं पलाणो सो ।
संभरिआ रयणेण अणुहविणो थेरस्स सद्दा । हंत ! अमुणिअं विहि-विलसिअं अणहिलसिअं ठाणमागअं। संपइ कि कायव्वति चिताउरो जाओ कुमारो।
इअ सिरिचंदणमुणि-विरइआए ण यराओ पट्ठाणकालकूडदीवागमण-णियडीघडणासवणाइभावेहि रेहिआए रयणवालकहाए चउत्थो ऊसासो
समत्तो
१ तात्पर्यम् ।
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चोत्थो ऊसासो
१२६ कुमार ! ततः प्रभृति अहं यत्र तत्र भ्रमामि, परन्तु न कोऽपि मम प्रवृत्ति शृणोति । अस्तु, इदमेव कथनस्य तात्पर्य यत् त्वया अतोव कुशलत्वेन वर्तितव्यम् अन्यथा न कुशलमिति मन्तव्यम् । संक्षेपेण एवं निवेद्य ‘मा कोऽपि मां पश्यतु' इति तत्क्षणं पलायितः सः ।
संस्मृता रत्नेन अनुभविनः स्थविरस्य शब्दाः ? हन्त । अज्ञातं विधिविलसितं अनभिलषितं स्थानं आगतम् । सम्प्रति किं कत्र्तव्यमिति चिन्तातुरः जातः कुमारः।
इति श्री चन्दनमुनि-विरचितायां नगरात् प्रस्थानकालकूटद्वीपागमन-निकृतिघटनाश्रवणादिभावैः शोभितायां रत्नपाल-कथायां चतुर्थः
उच्छ्वासः समाप्तः
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१ महा रुग्णस्य
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अहो ! पोग्गलिआ सव्वावि भव्वा परिणई पुण्णकम्मपणुल्लिआ । पुण्णबंधोवि ण हवेज्ज विणा सुहजोगं । ' जत्थ सुहजोगो तत्थ णिअमेण णिज्जरे (त्ति पवेइअं आगमिएहि । णिज्जरा विण तवमंतरेण । तवो वि पयडं धम्मंगो । तम्हा धम्मो च्चि सव्व - सुहमूलं ति विणिच्छिअं तत्तं ।
५
अह पंचमी ऊसासो
इओ अ दुवे असारूढा रायकेरा पुरिसा णिअ ककुह धावेंता रयणेण लक्खिआ । 'के एए' इअ संकि जायं माणसं । केण पओअणेण इमे समीवयंति मं ति को उहल्लाउलो जाओ अप्पा । झडित्ति सविह पत्ता एए पुच्छेउं लग्गा सहिलासमित्थं - " कुमार सिट्ट ! संति किं तुह समीवं दाडि मस्स धायईए य पसूणाणि । जुज्जंति ताणि महालुक्कस्स'
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अथ पञ्चमः उच्छवासः
अहो ! पौद्गलिकी सर्वापि भव्या परिणतिः पुण्यकर्मप्रेरिता। पुण्य-बन्धोऽपि न भवेत् विना शुभयोगम् । 'यत्र शुभयोगः तत्र नियमेन निर्जरा' इति प्रवेदितं आगमिकैः । निर्जराऽपि न तपोऽन्तरेण । तपोऽपि प्रकटं धर्माङ्गम् । तस्माद् धर्म एव सर्व-सुख-मूलम्' इति विनिश्चितं तत्वम् ।
इतश्च द्वौ अश्वारूढी राजकीयौ पुरुषौ निजककुभं धावन्तौ रत्नेन लक्षितौ । 'कौ एतौ' इति शङ्कितं जातं मानसम् । केन प्रयोजनेन इमौ समीपयतः माम् इति कुतूहलाकुलः जातः आत्मा । झटिति सविधं प्राप्तौ एतौ प्रष्ट लग्नौ साभिलाषमित्थम् - "कुमार श्रेष्ठ ! सन्ति किं तव समीपं दाडिमस्य धातक्याश्च प्रसूनानि ? युज्यन्ते
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रयणवाल कहा णरणाहस्स तिगिच्छा-णिमित्तं । जइ संति ता अवस्सं दायव्वाणि तुमए । एसो महामुल्लोऽवसरो ण चुक्कणिज्जो समयण्णुणा" एवं कहेंता पच्चुत्तरं पडिक्खंता तुण्हिक्का ठिआ। ___ अहो ! धुत्ताणं अकलणिज्जा कला । अलक्खणिज्जा विज्जा । अणवगंतव्वं तत्तं । कहं णायं एहिं दाडिम-धायईपुप्फाणं गुझं ? विचित्तो किर परप्पयारण-विज्जाए पढमिल्लो पयासो 'ति ससंको जाओ कुमारो। अहवा हवेज्ज अंधवट्टकीयमिणं' । दक्खयाए देमि अस्स पच्चुत्तरं जहा ण विण? होइ सामइअं किच्चं । किंचि चितेऊण सूइअं रयणेण-"संभवेज्ज रोयाणं भीसणमक्कमो । पडिकिरिआ वि तेंसि गाणोसहोवयार-सज्झा । पुप्फाणं हेउणो तुम्हाणमुट्टकणावि णाणुइआ, तहावि अपरिचिआ अम्हे इहच्च -मणुएहिं । तो कहं पच्चेमो जं तुम्हकेरं मग्गणं जहत्थं 'ति । जइ अप्पणो रायमंती एत्थ आगंतूणं समीचीणआए पयडेइ वइअरं, कुणेइ य वीसत्थं णे मणं, णूणं जहच्छिअ-वत्थूवलध्दी भाविरिण 'त्ति संभावणिज्ज।
णिसमिऊण रयणवालस्स जुत्तिजुत्तं वयणं उप्फुल्ला संजाया ते दंडवासिआ। एक्कसरिग्रं महामच्चं पट्टवेमो तं घेत्तु 'ति कहमाणा सहसा धाविआ ते णयर-दिसं । णाणाविह-कप्पणापरो विहिप्पवरो कुमरों तत्थेव ठिओ अदिस्सं भविस्सं गवसंतो।
१ अन्धवर्तकीयम्-अतर्कितं किमपि यदा अदृष्टघटितं भवति तदाऽयं
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पंचमो ऊसासो तानि महारुग्णस्य नरनाथस्य चिकित्सा-निमित्तम् । यदि सन्ति तदा अवश्यं दातव्यानि त्वया। एष महामूल्यः अवसरो न भ्र शितव्यः समयज्ञन” एवं कथयन्तौ प्रत्युत्तरं प्रतीक्षमाणौ तूष्णीको स्थितौ ।
अहो ! धूर्तानां अकलनीया कला। अलक्षणीया विद्या। अनवगन्तव्यं तत्त्वम् । कथं ज्ञातं एताभ्यां दाडिम-धातकी-पुष्पाणां गुह्यम् ? विचित्रः किल पर-प्रतारण-विद्यायाः प्राथमिकः प्रयासः इति सशङ्को जातः कुमारः । अथवा भवेद् अन्धवर्तकीयमिदम् । दक्षतया ददामि अस्य प्रत्युत्तरं यथा न विनष्टं भवति सामयिकं कृत्यम् । किञ्चित् चिन्तयित्वा सूचितं रत्नेन-“सम्भवेत् रोगाणां भीषणमाक्रमः । प्रतिक्रियाऽपि तेषां नानौषधोपचार-साध्या। पुष्पाणां हेतोः युष्माकं उट्टङ्कनाऽपि नानुचिता। तथापि अपरिचिताः वयं इहत्य-मनुजैः । ततः कथं प्रतीमो यत् युष्माकं मार्गणं यथार्थमिति । यदि स्वयं राजमन्त्री अत्र आगत्य समीचीनतया प्रकटयति व्यतिकर, कुरुते च विश्वस्तं अस्माकं मनः । नूनं यथेप्सित-वस्तूपलब्धिः भाविनी इति सम्भावनीयम् ।
निशम्य रत्नपालस्य युक्तियुक्तं वचनं उत्फुल्लौ सञ्जातौ तौ दण्डपाशिकौ । शीघ्र महामात्यं प्रस्थापयावः तद् गृहीतुम् इति कथयन्तौ सहसा धावितो तो नगर-दिशम् । नाना-विध-कल्पनापरो विधिप्रवरः कुमारस्तत्र व स्थितः अदृश्यं भविष्यं गवेषयन् ।
न्याय: प्रवर्तते । यथाऽन्धेन करौ प्रलम्बायिती, सहसा वर्तकः पक्षी कराभ्यां गृहीतस्तेन । २ इहत्यमनुजैः । ३ दण्डपाशिकः 'सिपाई' (इतिभाषा) ४ कुमारः ।
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रयणवाल कहा
कइवाह' सब्भ-णयर- महंतएहि समं अचिरमागओ सविह मेअस्स सइवोर णयणेहिं अमयं वासेंतो । जाया जयजिणिदाइविही । पुट्ठे कुसलं । कुओ समागमणं 'ति पुच्छा पुरण | दिहि-पहाणेण पहाणेण परिचिओ कओ इमो विइणो दूसहच्छि - विअणाए । कया णाणोवयारा, परं ण भूओ आमोवसमो, पच्चुल्लं परिवढिआ पीला । आगओ कोइ एगो अणुहवि - तल्लजो अगयंकारो। कयं णियाणं । लद्धा जहत्था ठिई | पत्थु भेसजं, परंतु तं दाडिम-धायईसुमेहिं सद्धि जुइ 'त्ति तेसि मग्गणा कया । विहि-वसओ कत्थइ ण मिलिओ भिसं ढंढल्लमाणाणमवि णे तेसि संजोगो । आउरस्स खणमेत्तमवि दूसहं विसढं च, तहावि असक्के णिरुवाए कि काउं सक्कं । अतक्किथं सवण - कुहरमागचं जं कोइ संजत्तिओ समुद्द-तम्म उत्थं भओ । पीडिआणं मणेसु सव्वओ परिप्फुरइ काइ आसालहरी | संभवेज्ज आगंतुगस्स समीवं तं वत्थु । तम्हा आगया अम्हेच्चया मणुआ । अहमवि तयट्टमेव उवट्ठिओम्हि । गहउ जहैच्छि मुल्लं, दायव्वं जीवण-दायगं अमुल्लं तं । णत्थि मुल्लिल्लं वत्थू किंतु मुल्लिलो समयो । ता जइ अत्थि तं साणुग्गहमविलंबेण विअरउ भवतो । णीसंदेहं णीरोओ रिवो सुहाय - हेऊ भविस्सइ भवंतस्स । विगयकइअवं " आयण्णिअ अमच्च भारई पच्चइअं जायं रयणस्संतक्करणं । महतं कुड्डमिणं जमइ तुच्छमवि वत्थु अचुच्छ - लाह - कारणं हवेज्ज
१ कतिपयसभ्य - नगर महत्कैः २ सचिवः ३ प्राकृते विधिशब्दस्य स्त्रीलिङ्गे पि
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पंचमी ऊसासो
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कतिपय सभ्य - नगर - महत्कैः समं अचिरं आगतः सविधं एतस्य सचिव : नयनाभ्यां अमृतं वर्षयन् । जातो जयजिनेन्द्रादिविधिः । पृष्ठं कुशलम् । कुतः समागमनम् इति पृच्छा पुनः ? धृति प्रधानेन प्रधानेन परिचितः कृतोऽयं नृपतेः दुःसहाक्षिवेदनया । कृताः नानोपचाराः, परं न भूतः आमोपशमः, प्रत्युत परिवर्धिता पीडा । आगतः कोऽपि एक: अनुभवि तल्लजोऽगदङ्कारः । कृतं निदानम् । लब्धा यथार्था स्थितिः । प्रस्तुतं भैषजं, परन्तु तद् दाडिम धातकी -सुमैः सार्धं प्रयुज्यते इति तेषां मार्गणा कृता । विधिवशतः, कुत्रापि न मिलितः भृशं गवेषयतां अपि अस्माकं तेषां संयोगः । आतुरस्य क्षणमात्रमपि दुःसहं, विषमं च, तथापि अशक्ये निरुपाये किं कर्तुं शक्यम् ? अतर्कितं श्रवणकुहरमागतं यत् कोऽपि सांयान्त्रिकः समुद्रतटे उत्थम्भितः । पीडितानां मनःसु सर्वतः परिस्फुरति कापि आशा लहरी । सम्भवेत् आगन्तुकस्य समीपं तद् वस्तु । तस्माद् आगताः आस्माका: मनुजाः अहमपि तदर्थमेव उपस्थितोऽस्मि । गृहातु यथेप्सितं मूल्यं, दातव्यं जीवनदायकं अमूल्यं तत् । नास्ति मूल्यवत् वस्तु किन्तु मूल्यवान् समयः । तस्माद् यदि अस्ति तत् सानुग्रह अविलम्बेन वितरतु भवान् । निःसन्देहं नीरोगो नृपः शुभायति हेतुर्भविष्यति भवतः । विगत - कैतवं आकर्ण्य अमात्यभारती प्रत्ययितं जातं रत्नस्य अन्तःकरणम् । महद् आश्चर्यमिदं यत् अतितुच्छमपि वस्तु अतुच्छ लाभकारणं
I
प्रयोगः । यथा-सव्वाहि नयविहीहि ४ उत्थम्भितः - रुका हुआ (इतिभाषा ) ५ विगतकैतवम् ६ प्रत्ययितम् ।
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रयणवाल कहा
विहिणिओइअं । अहवा विमलं भागहेयं कह, कया, कत्थ पडिफलेइ 'त्ति अगम्मं गुज्झं । देमि अणायासमाणीआणि ताणि णिरट्ट परिविअव्वाणि मे सुमाणि । इअ वीमंसिअ कुमारेण सहोदज्ज' महुरमालविग्रं-"अस्थि मंतिप्पवर ! तुम्हे हिं अइ अण्णेसिग्रं तं वत्थु अणायासमागयं मे सद्धि । इओ किमहिअं भव्वं जं मामगं वत्थु णयरणाहस्स कज्जमेइ। कह जहच्छिनं मोल्लं गेज्मं ति साहि। मोल्लं त भवारिसाणं किवच्छि-विकूणिअमेव अम्हारिसाणं । पडिवालेंतु खरणं भवंता जहा अहमवि तुम्हेहि समं पुप्फोवढोअरग-णिहेण णिवइ-दसण-लाहं गिहिउं सक्केमि ।" ___बहुवरं, दुत्ति होह सज्जा तुम्हे । विरमालेइ रणरणयेण परवई तत्थ । अयमागच्छेमि 'त्ति भणंतो रयणवालो तक्कालं परिहिअ-णिव-सहोइअ-रोवत्थो, धारिअ-णाणाविहालंकारो, गहिअ-उवईकरणारिह-विसिट्ठ-वत्थुणिचओ', सुसज्जिअ-पुप्फकरंडिओ, अणेगेहिं गिअ-मणुओहिं परिवालिओ य अमच्चेण सागं णिवइ-दंसट्ठ णिग्गओ। रिण वेणावि लद्धा इमिआ पउत्ती जमेगो बालो पोअ-वाणिओ गहिअ तारिण पुप्फाणि मं सक्खं काउमागच्छेइ 'त्ति। अदिहिं पत्तो णिवो पेक्खइ तस्स मग्गं ताव मंतिणा सद्धि उसलिअ-रोमकूओ उवरणओ जिरणदत्त-सुओ । कयं सविणयं रिणवइणोऽहिणंदणं । जाया ओवयारिआवत्ता । पाहुडीकयं अण्णं महग्धं वत्थु पुप्फाणि पुण । हट्टो जाओ णिवो।
१ सहौदार्यम् २ कृपाक्षिविकूणितमेव । ३ पुष्पोपढौकन मिषेण ४ झगति
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पंचमो ऊसासो
१३७ भवेत् विधि-नियोजितम् । अथवा विमलं भागधेयं कथं, कदा, कुत्र, प्रतिफलति इति अगम्यं गुह्यम् । ददामि अनायासं आनीतानि तानि निरर्थ परिष्ठापितव्यानि मे सुमानि । इति विमृश्य कुमारेण सहौदार्य मधुरं आलपितम्-- "अस्ति मन्त्रिप्रवर ! युष्माभिः अति अन्वेषितं तद् वस्तु अनायासं आगतं मया सार्धम् । इतः किं अधिकं भव्यं यद् मामकं वस्तु नगरनाथस्य कार्यमेति । कथं यथेप्सितं मूल्यं ग्राह्यमिति कथितम् ? मूल्यं तु भवादृशानां कृपाक्षिविकूणितमेव अस्मादृशानां । प्रतिपालयन्तु क्षणं भवन्तः, यथा अहमपि युष्माभिः समं पुष्पोपढौकनमिषेण-नृपतिदर्शन-लाभं ग्रहीतु शक्नोमि ।"
बहुवरम्, झगिति भवत सज्जाः यूयम् । प्रतीक्षते रणरणकेन नरपतिः तत्र । 'अय आगच्छामि' इति भणन् रत्नपालः तत्कालं परिधृत-नृप-सभोचित-नेपथ्यः, धारित-नानाविधालङ्कारः, गृहीतउपदीकरणाह-विशिष्ट-वस्तु-निचयः, सुसज्जित-पुष्पकरण्डिकः, अनेकैः निजमनुजैः परिवारितश्च अमात्येन-साकं नृपतिदर्शनार्थं निर्गतः । तृपेणापि लब्धा इयं प्रवृत्तिः यत् एको बाल: पोतवणिग् गृहीत्वा तानि पुष्पाणि मां साक्षात्कर्तु मागच्छति इति । अधृति प्राप्तः नृपः प्रेक्षते तस्य मार्ग, तावद् मन्त्रिणा सार्धं उसलिअ-रोमकूपः (रोमाञ्चितः) उपनतः जिनदत्तसुतः। कृतं सविनयं नृपतेः अभिनन्दनम् । जाता औपचारिकी वार्ता । प्राभृतीकृतं अन्यद् महायं वस्तु, पुष्पाणि पुनः । हृष्टो जातो नृपः । विहितः कुशलवैद्यवरेण औषध-प्रयोगः । अस्ख
५ गृहीतोपदीकरणाहविशिष्टवस्तुनिचयः ६ रोमाञ्चितम् (देशीयशब्दः) ७ औपचारिकी
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रयणवाल कहा
विहिओ कुसल - वेज्जवरेण ओसह - प्पयोगो । अक्खलिया जाया तस्स सुहावहा पडिकिरिआ । अणणुहूअ-पुव्वं सायं वे रण्णा । अणेण मज्झ जीविअदाणं दिण्ां 'ति अईव तुट्ठो भूओ णिवो रयणवालस्सुवरि । कया उइआ ववत्था । दाविअं वसणारिहं विसालं ठाणं । सुट्ठियं कयं भंडं । दिण्णं रण्णा राय-सहाए आसणं । पेक्खड़ तं भूवइ किवा - दिट्ठीए । सणि-सणि परिचिओ जाओ तत्थ-गय-ट्ठिईए कुमारो | संचालिओ वावारो । विकीरणेउमाढत्तं अइलाहगर -भावेण भंडं । लद्धो अचितिओ लाहो । वक्कंतो छम्मासिओ कालो । गहिअं जुग्गेण भावेण पुणरवि णवीरणं तत्थसुलह भंड । सयराहमेव णिश्रं देसं गंतव्वं 'ति चेट्टि कुमारेण । परं विहो किमहिणवं घडे 'ति णिसमिअव्वं भव्वेहि ।
अत्थि एगा समय- कुसला विआर-दक्खा सुगहिअनाणाविह सिप्पकलासत्तस्सर साहणाए सुविइअ - गंधव्वविज्जा विचित्त-भासापरिण्णाण - विलसिअ - कव्वकलावा मुत्ता सरस्सई विव अदुदु वण्णरूवा अणुवमेयागिई अब्भुआगरिणा सव्वंग- सुदरी महुरमहुरालावा गुणवई रयणवईणाम विस्स धूआ । सा जोव्वरणं पत्ता पिअराण चिता - कारणं जाया । अणेगे कुमारा इमाए कएणं सह विलोइआ रण्णा, परं ण तत्थ कुल-रूव - सील - विज्जाईणं जहच्छिअ - गुणाणं उववत्ती जाया । अजोगस्स जस्स कस्सइ रिवो ण दाउमहिलसइ । जप्पभिइ सव्व-गुण-संजुओ सुरूवो विणयसीलो विवेगी रयणवालो णयणायणमागओ तप्पभिइ
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पंचमो ऊसासो लिता जाता तस्य सुखावहा प्रतिक्रिया। अननुभूतपूर्वं सातं वेदितं राज्ञा । अनेनं मह्य जीवितदानं दत्तमिति अतीव तुष्टो भूतो नृपो रत्नपालस्योपरि। कृता उचिता व्यवस्था । दापितं वसनाहं विशालं स्थानम् । सुस्थितं कृतं भाण्डम् । दत्तं राज्ञा राजसभायां आसनम्' प्रेक्षते तं भूपतिः कृपा-दृष्ट्या। शनैः शनैः परिचितः जातः तत्रगतस्थित्या कुमारः । सञ्चालितः व्यापारः । विक्रतु आरब्धं अतिलाभकरभावेन भाण्डम् । लब्धः अचिन्तितः लाभः । व्यतिक्रान्तः पाण्मासिकः कालः। गृहीतं योग्येन भावेन पुनरपि नवीनं तत्रसुलभं भाण्डम् । शीघ्रमेव निजं देशं गन्तव्यमिति चेष्टितं कुमारेण । परं विधिः किं अभिनवं घटयति इति निशामयितव्यं भव्यैः ।
अस्ति एका समय-कुशला विचार-दक्षा सुगृहीत-नानाविधशिल्पकला सप्तस्वरसाधनया सुविदित-गान्धर्व-विद्या विचित्र भाषापरिज्ञानविभूषित-काव्य-कलापा मूर्ता सरस्वती इव अदुष्टवर्णरूपा अनुपमेयाकृतिः अद्भुताकर्षणा सर्वाङ्गसुन्दरी मधुर-मधुरालापा गुणवती रत्नवती नाम नृपस्य दुहिता। सा यौवनं प्राप्ता पित्रोः चिन्ताकारणं जाता। अनेके कुमाराः तस्याः कृते सूक्ष्म विलोकिताः राज्ञा, परं न तत्र कुल-रूप-शील-विद्यादीनां यथेप्सित-गुणानां उपपत्तिः जाता। अयोग्याय यस्मै कस्मै नृपो न दातुमभिलषति । यत्प्रभृति सर्व-गुण-संयुतः सुरूपो विनयशीलो विवेकवान् रत्नपालो
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रयणवाल कहा णिवस्स हिअयम्मि णुमण्णो' सो धूआ-पच्चप्पिणट्ठ। गुणमस्थि मे पेमसुहा-हाविआए' सुआए जुग्गो रयणवालो कुमारो । ण मए एआरिसो रूव-गुण-सुंदरो परो वरो नरो दिट्ठो; परंतु पावासुओ3 एसो किं पडिवज्जिहिइ ताए सग्गहं पाणिग्गहणं 'ति चिताउलिओ णिवो तूल-सयणिज्जम्मि संविसंतोवि ण लहइ णिसीहम्मि णि । रायेण रक्खिआ णिआ भावणा सइवस्स समक्खं । तेणावि अणुमोइग्रं उइग्रं पहुस्स चिंतणं 'ति । कायवो पयत्तो, कयाइ लभेज्जा साहल्लं एत्थ । एगम्मि पसण्ण-वायावरणम्मि हक्कारिओ विजणम्मि कुमारो। कुसल-पुच्छणेण सद्धि दक्खयाए पुरओ रक्खिआ मणोभावणा । नहि णणु अम्हाणं भावणा णिप्फला होहि 'त्ति पयडिआ आसा। भोसणायंक-णिवारगं कुमारं पइ किं पडिकुणेमि इओ अण्णं ?
सुमिणेवि अतक्किों , अदिटु, अवी मंसिग्रं च सुणिऊण णिवस्स मग्गणं अईव विम्हिओ चिंतिओ य जाओ कुमारो। किं करणिज्जं किमुत्तरं देयं 'ति विकप्पणा-वीई-आहओ हओ हिअय-वीईमाली । एगओ अपत्त-जणणीजणगेण मए ण दारपरिग्गहो कायब्वो 'त्ति णिच्छओ । अण्णओ परमसिलाहणिज्जो णयरणाहस्स अहक्किअन्वो' अणुरोहो । उवणओ एत्थ सप्प-छच्छंदरिआए णाओ।
किमवि अचवमाणं तुण्हीभावमागअं एयं विलोइअ पुणो णरिदेण साग्गहं पुटु-"कहं तुहिक्को त्थि कुमारो ?"
१ निषण्णः-- उपविष्ट इत्यर्थः 'द्धिन्योरुत्' 'उमो निषण्णे' (हे० ११७४) २ प्रेमसुधास्नपिताया: ३ प्रवासी 'प्रवासीक्षौ' (हे० १-२५) ४ शयानोऽपि
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पंचमो ऊसासो नयनायनमागतः तत्प्रभृति नृपस्य हृदये निषण्णः स दुहितृ-प्रत्यर्पणार्थम् । नूनं अस्ति मे प्रेमसुधा-स्नपितायाः सुतायाः योग्यो रत्नपाल: कुमारः । न मया एतादृशः रूप-गुण-सुन्दरः परो वरो नरो दृष्टः । परन्तु प्रवासी एष कि प्रतिपत्स्यते तया साग्रहं पाणिग्रहणमिति चिन्ताकुलितः नृपः तूलशयनीये संविशन्नपि न लभते निशीथे निद्राम् । राज्ञा रक्षिता निजा भावना सचिवस्य समक्षम् । तेनापि अनुमोदितं 'उचितं प्रभोःचिन्तनमिति, कर्त्तव्यः प्रयत्नः, कदापि लभेत साफल्यं अत्र । एकस्मिन् प्रसन्नवातावरणे आकारितः विजने कुमारः । कुशलपृच्छनेन साधू दक्षतया पुरतः रक्षिता मनोभावना। नहि ननु अस्माकं भावना निष्फला भविष्यति इति प्रकटिता आशा। भीषणान्तकनिवारकं कुमारं प्रति किं प्रतिकरोमि इतः अन्यत् ?
स्वप्नेऽपि अकितं अदृष्टं अविमृष्टं च श्रुत्वा नृपस्य मार्गणं अतीव विस्मितः चिन्तितश्च जातः कुमारः। किं करणीयं, कि उत्तरं देयमिति विकल्पना-वीच्याहतो भूतो हृदय-वीचिमाली । एकतः अप्राप्त-जननीजनकेन मया न दारपरिग्रहः कर्त्तव्यः इति निश्चयः, अन्यतः परमश्लाघनीय-नरनाथस्य अनिषेधनीयः अनुरोधः । उपनतः अत्र सर्प-छच्छन्दरिकायाः न्यायः ।
किमपि अजल्पन्तं तूष्णीभावमागतं एतं विलोक्य पुनः नरेन्द्रण साग्रहं पृष्टम्- "कथं तूष्णीकोऽस्ति कुमारः ?
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५ हृदयसमुद्रः ६ अनिषेधनीयः । 'निषेधे हक्कः (हे० ४-१३४) ७ अजल्पन्तम् ।
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रयणवाल कहाँ ___"महं मे भग्गं जं पुरप्पहणा सप्पसायमामंतिओहं दुहिआ-दाण?; किंतु कत्थ अम्हाणं धणेगलोलुहाणं वणिआणं कुलं ? कत्थ छिइ-पइट्टिओ वीररस-विसिट्ठो रायण्ण-वंसो ? कुह अम्हेच्चया सत्थपरायणा णिच्चभीआ मणोदसा ? कहि खत्तिआणं थिरसंकप्पा परत्थ-प्पवणा साहसिआ मणट्टिई ? सोहए सुवण्ण-खसिआ' महग्या मणी, ण उणाइ कय-चागचिग्गेवि काय-सयले । जओ जुग्गेण जुग्गस्स जोअणा जोअगस्स मेहामाहप्पं पयडीकरेइ । तो अण्णे अण्णयाणुरूवा महारूव-सत्ति-सालिणो रायकुमारा पेक्खिअव्वा" फुडं कोमलसरं सविणयं कयंजलिणा णिवेइ अंरयणेण ।
"ण एत्थ वंचग-सेहराणं णाहस्स पुरओ चलिस्सइ तुह वंचगा वित्ती। जं मण्णणिज्जं तं मण्णणिज्जमेव एत्ताहे, सायं, सुवे, परज्जु अवरज्जु वा । ण एत्थ कोइ अण्णो निग्गमण-मग्गो 'त्ति धुवं मुणिअव्वं । एत्थेव किर कुसलं, कि बहुवाया-वित्थरेण" पणुल्लिअं सव्वंगगिराए सगव्वं जणाहिवेण ।
आयण्णिऊण णिवस्स परिणाम-विसढं अंतिम सूइयं अणुहुनं हिअय-कंपणं कुमारेण । ण आणाप्पहाणाणं णिवाणं सुद्विआ पीइ 'त्ति सइमागयं णीई-वयणं । तक्खणं रयणेण परिवट्टिओ भासाए सरो। विणत्तं पडिवण्ण-भाव-संदभिआए गिराए-''णरणाह ! कया मया पडिसिद्ध भे कहणं ?
१ सुवर्णखचिता । 'खचितपिशाचयोश्च सल्लौ वा' (हे० १-२३)।
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पंचमो ऊसासो
१४३ "महद् मे भाग्यं यत् पुरप्रभुणा सप्रसादं आमन्त्रितः अहं दुहितदानार्थम् । किन्तु कुत्र अस्माकं धनकलोलुभानां वाणिजानां कुलम् ? कुत्र क्षितिप्रतिष्ठो वीररस-विशिष्टो राजन्यवंशः ? कुत्र आस्माका स्वार्थपरायणा नित्यभीता मनोदशा ? कुत्र क्षत्रियाणां स्थिरसङ्कल्पा परार्थप्रवणा साहसिकी मनःस्थिति ? शोभते सुवर्णखचिता महा मणिः' न पुनः कृतचाकचिक्येऽपि काचशकले । यतः योग्येन योग्यस्य योजना योजकस्य मेधामाहात्म्यं प्रकटीकरोति । ततः अन्ये अन्वयानुरूपाः महारूपशक्तिशालिनो राजकुमाराः प्रेक्षितव्याः” स्फुटं कोमलस्वरं सविनयं कृताञ्जलिना निवेदितं रत्नेन ।
"न अत्र वञ्चकशेखराणां नाथस्य पुरतः चलिष्यति तव वञ्चका वृत्तिः । यत् मन्तव्यं तद् मन्तव्यमेव इदानी, सायं,श्वः, परेद्य : अपरेद्य र्वा । न अत्र कोऽपि अन्यो निर्गमनमार्गः इति ध्र वं ज्ञातव्यम् । अत्रव किल कुशलं किं बहु वाचा-विस्तरेण" प्रेरितं सव्यङ्गगिरा सगर्व जनाधिपेन।
आकर्ण्य नृपस्य परिणाम-विषमं अन्तिमं सूचितं अनुभूतं हृदयकम्पनं कुमारेण । 'न आज्ञाप्रधानानां नृपाणां सुस्थिता प्रीतिः' इति स्मृतिम गतं नीतिवचनम् । तत्क्षणं रत्नेन परिवर्तितो भाषायाः स्वरः । विज्ञप्तं प्रतिपन्नभावसंदृब्धया गिरा। "नरनाथ ! कदा मया
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१४४
रयणवाल कहा
अलिस' मह भागहेयं जं सक्खं कप्पलयव्व रायण्णा कण्णा मे वंस - रुक्खमारुहइ । को खु एआरिसो मंदभग्गो जो अब्भागच्छमाणि लच्छि हक्केई ? णिआ जुग्गया तु फुडं रक्खअव्व "त्ति विवेगिणो धम्मो, जहा ण पच्छाताओ हवइ ।
कण्हायण- भूवणा तक्खणं आहूओ राउल मुहत्तिओ । पुट्ठ पुत्तिआए पाणिग्गहण सुलग्गं तक्कालिअं । पचंगणिहालण- पुरस्सरं किमवि अंगुलि - पव्वेसु संखायमा रोण चंदसूराइस्सरे गहमाणेण फुडीकयं तेण उवयमस्स पक्खमज्झगयं सुदिगं । एगच्चीकया सव्वावि तज्जुग्गा सामग्गी । आढत्तं तुरिआइ संणिणाएण समं सुहवी- सुस्सर - समुट्ठि मंगलगीआइ पढमिल्लं किच्चं । उच्छिईकया तोरणाईगं मोहरा रयणा । सज्जीकयाइं णाणामांगलिअ - पुप्फपत्ताण उक्रेण दाराई । सिरिरयणवालो रयणवई परिणैस्सइ 'त्ति सव्वेहिं णायरेहिं णायं । तेहि वि जहाठाणं विविह-कोउअमंगलाई विरइआई । समीवमागओ पाणिग्गहण - वासरो । गहिअ - उब्वट्टणेण रयणेण पहिरिओ' वरोइओ वग्गुवेसो । अईव धिप्परो सो हय - खंधमारूढो । पइचच्चरं वध्दाविआ वरजत्ता णिव मंदिरं पत्ता । जाओ सव्वोवि विवाह - विहिणिव्वाहो । सलज्ज - णयणेहिं दइअ - मुहचंद पलोअमाणीए रयणवईए चओरिव्व मरणंमि अणोवमिश्रं सुहमणुहूयं । दायं देतेण णिवेण अपरिमिआ सुवण्ण-रयणरासी णाण
१ अनीदृशं अनुपममित्यर्थः २ राजकुलमौहूर्तिकः ३ परिधृतः ४ वल्गुवेश: ( वल्गु - रुचिरम् )
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पंचमी ऊसासो
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प्रतिषिद्ध भवतः कथनम् ? अनीदृशं मम भागधेयं यत् साक्षात् कल्पलतावत् राजन्या कन्या मे वंशवृक्षं आरोहति । कः खलु एतादृशो मन्दभाग्यः योऽभ्यागच्छन्तीं लक्ष्मीं निषेधति ? निजा योग्यता तु स्फुटं रक्षितव्या इति विवेकिनो धर्मः, यथा न पश्चात्तापो भवति ।
कृष्णायनभूपतिना तत्क्षणं आहूतो राजकुल- मौहूर्तिकः । पृष्टं पुत्रिकायाः पाणिग्रहणार्थं सुलग्नं तात्कालिकम् । पञ्चाङ्ग निभालनपुरस्सरं किमपि अंगुलीपर्वेषु संख्यायता चन्द्रसूर्यादिस्वरान् गृह्णानेन स्फुटीकृतं तेन उपयमस्य पक्षमध्यगतं सुदिनम् । एकत्रीकृता सर्वापि तद्योग्या सामग्री । आरब्धं तूर्यादिसंनिनादेन समं सुभगी - सुस्वरसमुत्थितं मङ्गल-गीतादिकं प्राथमिक कृत्यम् । उच्छ्रितीकृता तोरणादीनां मनोहरा रचना | सज्जीकृतानि नानामाङ्गलिक - पुष्पपत्राणां उत्करेण द्वाराणि । श्रीरत्नपालः रत्नवतीं परिणेष्यति' इति सर्वेनगरैर्ज्ञातम् । तैः अपि यथास्थानं विविधकौतुकमङ्गलानि विरचितानि । समीपं आगतः पाणिग्रहणवासरः । गृहीतोद्वर्तनेन रत्नेनापि परिधृतः वरोचितः वल्गुवेशः । अतीव दीप्रः सः हयस्कन्धमारूढः । प्रतिचत्वरं वर्धापिता वरयात्रा नृपमन्दिरं प्राप्ता । जातः सर्वोऽपि विवाह - विधि-निर्वाह: । सलज्जनयनाभ्यां दयितमुखचन्द्र लोकमानया रत्नवत्या चकोरीवत् मनसि अनुपमितं सुखं अनुभूतम् । दायं ददता नृपेण अपरिमितः सुवर्णरत्नराशिः नानाविचित्र देशान्त
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रयणवाल कहा विचित्त-देसंतरोवलद्ध-वत्थूहि सद्धि ससिणेहं समप्पिआ। णवोढाए सद्धि समागओ भाणुमई-सुओ ससुर-समप्पिअम्मि पासायम्मि। पयट्टे वि पाणिग्गहण-महूसवे णाणुहबई अभंतरि संति रयणस्संतक्करणं । किं मे इमाए रायधूआए सममुव्वाहेण जाव ण दुहिआणं मायर-पिअराणं हिअयम्मि संति पामावेमि' । अलाहि तारिसीए सुहेल्लीए' जत्थ ण अवस्सं करणिज्ज कज्ज णिव्वाहिश्र होइ । तो जाव णाहं पुज्जाणं पिअराणं दंसणं काहं ताव ण पिंअयमाए सह गिहत्थासम-सुहं माणिस्सं 'ति निच्चला पइण्णा पडिवण्णा मणम्मि विवेगिणा सुपुत्तेण ।
"पिअयमे ! अत्थि अम्ह कुलस्स एआरिसी मज्जादा जं णव-परिणीओ णव-बहुआए समं जाव ण कुल-देवयाणं अच्चणं कुणइ ताव ण पचिदिअ-सुहेल्लिमणुहविउं पहुप्पइ 'त्ति जाणाविआ रयणेण णवपिअयम-संगम-समुक्कंठिआ णव-भज्जा। लज्जालुइणीए ताए 'अज्ज उत्ता पमाणं'ति' साहमाणीए पइ-वयणं साणंदं सीकयं । ण कत्थइ मंतभेओ कायब्वो'त्ति पडिस्सुअं दोहिं । एवं नाणाविहालाव-संलावसंसत्ताणं जंपईणं अइक्कता थेवा दिअहा। बहु अवसिद्ध कज्ज' ति संभरंतेण रयणेण सिग्घमेव णिअ-देस-गमणं णिच्छिों । सुअवसरं पप्प सविणयं ससुरपाया णिवेइआ। कय-पच्चा. वलणसमीहं मुणेऊण जामायरं, वुण्णं जायं णिवस्स चित्तं । अत्ता तु अईव अत्ता, दुहिआ-विरह-तत्ता, उत्तचेअत्तणं
१ प्रापयामि २ (दे०) सुखकेली ३ अणुह विस्सं । गुजराती भाषा में 'माणवु' ४ सासू ५ उच्चेतस्त्वम्-चिंतातुरत्वं ।
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पंचमो ऊसासो रोपलब्धवस्तुभिः सार्धं सस्नेहं समर्पितः । नवोढया साधू समागतः भानुमतीसुतः श्वसुरसमपिते प्रासादे । प्रवृत्तेऽपि पाणिग्रहणमहोत्सवे नानुभवति आभ्यन्तरी शान्ति रत्नस्य अन्तःकरणम् । कि मे अनया राजदुहित्रा समं उद्वाहेन यावत् न दुःखितयोः मातापित्रो: हृदये शान्ति प्रापयामि। अलं तादृश्या सुखकेल्या यत्र न अवश्यं करणीयं कार्य निर्वाहितं भवति । ततो यावन्नाहं पूज्यानां पितृणां दर्शनं करिष्यामि तावन्न प्रियतमया सह गृहस्थाश्रमसुखं अनुभविज्यामि, इति निश्चला प्रतिज्ञा प्रतिपन्ना मनसि विवेकिना सुपुत्रण ।
__"प्रियतमे ! अस्ति अस्मत्कुलस्य एतादृशी मर्यादा यत् नवपरिणोतः नववध्वा समं यावत् न कुलदेवतानां अर्चनां करोति तावत् न पञ्चेन्द्रिय-सुखकेलीं अनुभवितु प्रभवति" इति ज्ञापिता रत्नेन नवप्रियतम-सङ्ग-समुत्कण्ठिता नव-भार्या । लज्जावत्या तया 'आर्यपुत्राः प्रमाणम्' इति कथयन्त्या पति-वचनं सानन्दं स्वीकृतम् । 'न कुत्रापि मन्त्रभेदः कर्तव्यः' इति प्रतिश्रुतं द्वाभ्याम् । एवं नानाविधालापसंलापसंसक्तयोः जम्पत्योः अतिक्रान्ताः स्तोकाः दिवसाः । बहु अवशिष्टं कार्यमिति स्मरता रत्नेन शीघ्रमेव निज-देश-गमनं निश्चितम् । सुअवसरं प्राप्य सविनयं श्वसुरपादाः निवेदिताः । कृतप्रत्यावलनसमीहं ज्ञात्वा जामातरं वुन्न (उद्विग्न) जातं नृपस्य चित्तम् । अत्ता (श्वश्रूः) तु अतीव आर्ता दुहितृविरहतप्ता उच्चेतस्त्वं प्राप्ता।
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रयणवाल कही च पत्ता । हरे ! एआरिसी का तुरा ? किमेत्थ पईवं' ? कहमुव्विग्गो जामायर-मणो ? आहओ णिअ-पासायम्मि ससिणेहं अत्ताए पुत्तसमाणो जामाया। साणुरोहं कहेउमाढत्ता-“दे जामायरं! ण कहं जीहिआ होइ दे जीहा गच्छेमि'त्ति कहेंती ? एआरिसी हलिद्दा-राय-सरिच्छा तुह पीई ! संपइ च्चिअ विवाह-कज्ज समत्तं, ण तस्स खेओ अहुणावहि उत्तरिओ, कहं गमण-पउत्ती पयालिआ तुमए । धी ! धी ! कि पवासूण सोहदं ? को तेसिं वीसासो ? को तेसिं संबंधो ? एमेव उत्तम्मइ तेहिं सद्धि मेत्ति जोएंतो । णो, ण संपई गमण-संबंधियं एगक्खरमवि जंपिअव्वं, पच्छा जहा-समयं सयं वयं तम्मि विसयम्मि चितिस्सामु'त्ति साहेमाणी सासू अंसुजलाउल-लोअणा जाया।
"णाहं एत्थ संपइ चिराएर खमोम्हि । पुब्वमेव मे कालाइवट्टणं जायं कय-णिन्छयाऽणुसारेणं । अस्थि मे तत्थ अच्चंतमावस्सयं किच्चं । अपत्ते मई विणटुंहोई तं सयलं, तम्हा किवाए मे एगागिणो पच्चावलणमणुमोइअव्वं संपइ । पच्छा जहाकालं पुणरवि अहमेत्थ सयराहमेव आगमिस्सं" पयडिग्रं सदक्खिण्णं रयणेण ।
एगागिणो गमणं 'ति सुणिऊण राया अईव जूरिओ जाओ । को वीसंभो पवासिणो, कया पच्छा आगच्छेच्ज ? पउत्थस्स का भाव-परिणई होइ 'त्ति केण णज्जइ ?
१ प्रतीपम् २ लज्जिता । लस्जेर्जीहिः (हे० ४-१०३) ३ उत्ताम्यति-खिन्नो
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पंचमो ऊसासो
१४६ हरे ! एतादृशी का त्वरा ? किमत्र प्रतीपम् ? कथं उद्विग्नं जामातृमनः ? आहूतः निजप्रासादे सस्नेहं स्वश्र्वा पुत्रसमानः जामाता सानुरोधं कथयितु आरब्धा-“हे जामातः ! न कथं लज्जिता भवति तव जिह्वा गच्छामि इति कथयन्ती ? एतादृशी हरिद्राराग-सदृक्षा तव प्रीतिः ? सम्प्रति एव विवाह-कार्य समाप्तं, न तस्य खेदः अधुनावधि उत्तीर्णः, कथं गमनप्रवृत्तिः प्रचालिता त्वया ? धिग् ! धिग् ! किं प्रवासिनां सौहृदम् ? कस्तेषां विश्वासः ? कस्तेषां सम्बन्धः ? एवमेव उत्ताम्यति तैः सार्धं मैत्री योजयन् । नो, न सम्प्रति गमनसम्बन्धिकं एकाक्षरमपि जल्पितव्यं, पश्चात् यथासमयं स्वयं वयं तस्मिन् विषये चिन्तयिष्यामः' इति कथयन्ती स्वश्रूः अश्रुजलाकुललोचना जाता।
"नाहं अत्र सम्प्रति चिरायितुं क्षमोऽस्मि । पूर्वमेव मे कालातिवर्तनं जातं कृतनिश्चयानुसारेण । अस्ति मे तत्र अत्यन्त आवश्यक कृत्यम् । अप्राप्ते मयि विनष्टं भवति तत् सकलम् । तस्मात् कृपया मे एकाकिन: प्रत्यावलनं अनुमोदितव्यं सम्प्रति । पश्चाद् यथाकालं पुनरपि अहं अत्र शीघ्रमेव आगमिष्यामि" प्रकटितं सदाक्षिण्यं रत्नेन ।
'एकाकिनः गमनम्' इति श्रुत्वा राजा अतीव खिन्नो जातः । कः विश्रम्भः प्रवासिनः, कदा पश्चात् आगच्छेत् ? प्रोषितस्य का भावपरिणतिः भवति इति केन ज्ञायते ? प्रोषितपतिकायाः रत्नवत्याः का
भवतीत्यर्थः ४ योजयत् ५ मयि ६ खिन्न: ७ (दे०) प्रोषितस्य ।
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रयणवाल कहा पउत्थ-पइआए' रयणवईए का चिंतणिज्जा ठिई जायए पच्छा ? एवं भविस्स-दक्खेण भूवइणा पज्जरिअं-"जामायर! साहं णिच्छि गंतव्वं । तत्थ वि एगागिणा गंतव्वं 'ति बहुसाहं णिच्छिग्रं । सच्चं खु आभाणगमिणं जं "परे किर पराअंति णिआ जेव्व' णिआयंति" ण एत्थं संदेहो । जइ गंतव्वं ता गच्छउ सुहेण, को पडिसेहइ, परमीसिकालं जाव चिट्ठिअव्वं, इअ अम्हाणं समीहा। एगागिगमण-समीहा तु णिअंतं हस्सपयं५ । प उत्थ-पइआए जुवईए का अवत्था हवइ 'त्तिण विहाविग्रं तुमए। छज्जए किर घणाघणेण समं सोआमणी । तहा पइणा सद्धि रेहए णिच्चमेगपत्ती । खेत्तियं विणा खेत्त-भूमी इव, मालागारं विणा पुप्फवाडी व ण रायइ दइअ-विरहिआ अण्णासया विलया । अक्खिकंटगायति छोक्करीओ सच्छंदं पिउहरं चिरं चिट्ठमाणीओ। ता भज्जा-बिइएण च्चेव तुमए वच्चणिज्जं 'ति णे मयं । जहा अम्हाणं कत्तव्व-भारो लहुओ सिआ। इअरहा तुम्हे तत्थ, अम्हे एत्थ णिरंतरं चिंता-दूमिअ-हिअया चिट्ठिहामो । इत्थं सुठु बोहिओ वि रयणवालो ण कहमवि णिशं भज्ज सह णेउं तप्परो जाओ।
राय-राणीपभिइणो एस्थ अलद्धपडिआरा किमणुचिद्विअव्वं 'ति उत्तत्था जाया; ताव एगो कोइ विविह-जंत-मंततंत-विसारओ परिणयवयो झडिलो" अलक्खिओ कुओवि आवडिओ। सपत्तीएण रण्णा सविणयं वंदिओ,जहोइनं पूइओ
१ प्रोषितपतिकायाः २ कथितम् ३ आभाणकम्-- कहावत (इतिभाषा) ४ एव ५ हास्यपदम् ६ सौदामिनी-विद्युत् ७ एकपत्नी-सुचरित्रा ८ (दे०) कन्याः
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पंचमो ऊसासो
१५१ चिन्तनीया स्थितिः जायते पश्चात् ? एवं भविष्य-दक्षेण भूपतिना कथितम् – “जामातः ! साधु निश्चितं गन्तव्यम् । तत्रापि एकाकिना गन्तव्यमिति बहुसाधु निश्चितम् । सत्यं खलु आभाणकं इदं यत् 'परे किल परायन्ते निजाः एव निजायन्ते' न अत्र सन्देहः । यदि गन्तव्यं तदा गच्छतु सुखेन, कः प्रतिषेधति, परं ईषत्कालं यावत् स्थातव्यं इति अस्माकं समीहा । एकाकि-गमन-समीहा तु नितान्तं हास्यपदम् । प्रोषितपतिकायाः युवत्याः का अवस्था भवति इति न विभावितं त्वया ? शोभते किल धनाधनेन समं सौदामिनी। तथा पत्या सार्ध शोभते नित्यं एकपत्नो । क्षेत्रिकं विना क्षेत्रभूमिः इव, मालाकारं विना पुष्पवाटी इव न राजते दयित-विरहिता अन्याश्रया वनिता। अक्षिकण्टकायन्ते छोक्करीओ (कन्याः) स्वच्छन्दं पितृगृहं चिरं तिष्ठन्त्यः । ततः भार्या-द्वितीयेन एव त्वया वजनीयं इति अस्माकं मतम् । यथा अस्माकं कर्त्तव्यभारः लघुकः स्यात् । इतरथा यूयं तत्र, वयं अत्र निरन्तरं चिन्तादूनहृदयाः स्थास्यामः । इत्थं सुष्ठु बोधितोऽपि रत्नपालो न कथमपि निजां भार्यां सह नेतु तत्परो जातः ।
राज-राज्ञीप्रभृतयः अत्र अलब्ध-प्रतीकाराः कि अनुष्ठातव्यमिति उत्त्रस्ता जाताः तावत् एकः कोऽपि विविध-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र-विशारदः परिणतवयाः जटिलः अलक्षितः कुतोऽपि आपतितः । सपतीकेन राज्ञा सविनयं वन्दितः, यथोचितं पूजितः स निर्भरं प्रसन्नमनाः जातः।
६ णे-नः अस्माकम् १० मतम् ११ जटिलः । 'जटिले जोझो वा (हे० १-१२४)।
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१५२
रयणवाल कहा
सो णिन्भरं पसण्णमणो जाओ । आइग्गं मिलाणं मुहपंकजं णिवं णिहालिअ तेण तक्कालमणुजोइअं - " णरेस ! कहमज्ज हिमाणीहयं पिव लक्खिज्जइ ते वयण-कमलं ? किमेआरिसं अंतस्सलं विज्जए तुह मणोगयं ? जइ अत्थि पाउक्करणिज्जं ताकहसु, जहा कोई तज्जुग्गो पडिआरो गवेसिउं सक्किज्जइ अम्हारिसेहि" ।
" किं वागरणेण भंते ! नत्थि णूणमेत्थ कोइ उवाओ दिट्ठपोअर | हा ! अविहाविअं जायए" ! उइष्णं सखेअं रिदेण ।
" तहवि सुस्सूसा मे जइ ण विज्जए गुज्झं" पुणरवि जिण्णा सिअं झडिलेण ।
महप्पाणमभिमुहं किं गुज्झं गोवणिज्जं 'ति रिवेरण एग गिगमणुच्छु अस्स दुहिआपणो सव्वो वइअरो फुडीकओ । ण एत्थ बलप्पओगो उइओ । कहं पुत्ती णेण सद्धि पेस विज्जइ 'त्ति महई चिंता ।
" किमत्थि णिरुवायं जइ करिज्जइ कज्जं सदक्खिण्णं" पुणरुच्चारिअं जोगिणा ।
"होहिम अम्हे साणुग्गहा जइ कोइ मग्गो एत्थ णिदंसिज्जइ किवालुरणा भदंतेण " साहिअं उक्कंठिरेण खिइसक्के इक्कए ।
"इत्थिआ-रूवत्तो जइ पुरिसख्वम्मि परावट्टिज्जइ रयणवई तहाविहा पट्ठत्रिज्जइ णिअ-भत्तारेण सद्धि णिअं
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पंचमो ऊसासो
१५३ उद्विग्नं म्लानमुख-पङ्कजं नृपं निभाल्य तेन तत्कालं अनुयोजितम्"नरेश ! कथं अद्य हिमानी-हतं इव लक्ष्यते ते वदनकमलम् ? कि एतादृशं अन्तःशल्यं विद्यते तव मनोगतम् ? यदि अस्ति प्रादुष्करणीयं तदा कथय, यथा कोऽपि तद्योग्यः प्रतीकारः गवेषयितु शक्यते अस्मादृशैः ।”
"किं व्याकरणेन भदन्त ! नास्ति नूनं अत्र कोऽपि उपायः दृष्टिपथं अवतरति । हा ! अविभावितं जायते ।" उदीर्णं सखेदं नरेन्द्रण।
"तथापि सुश्रूषा मे यदि न विद्यते गुह्यम्" पुनरपि जिज्ञासितं जटिलेन ।
महात्मनां अभिमुखं किं गुह्य गोपनीयं इति नृपेण एकाकिगमनो त्सुकस्य दुहितृपतेः सर्वो व्यतिकरः स्फुटीकृतः। न अत्र बलप्रयोगः उचितः । 'कथं पुत्री अनेन सार्धं प्रेष्यते' इति महती चिन्ता ।
"किमस्ति निरुपायं यदि क्रियते कार्य सदाक्षिण्यम्'' पुनरुच्चारितं योगिना।
"भविष्यामः वयं सानुग्रहाः यदि कोऽपि मार्गः अत्र निर्दिश्यते कृपालुना भदन्तेन'कथितं उत्कण्ठितेन क्षिति-शक्रण एकपदे ।
"स्त्रो-रूपात् यदि पुरुषरूपे परावर्त्यते रत्नवती तथाविधा प्रस्थाप्यते निजभ; सार्ध निजं देशं, तदा न कि अस्म
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१५४
रयणवाल कहा देसं तया ण किं अम्हेकरं कज्जं साहिलं भवेज्ज ?" पवेदअं णिअ-सत्ति-णिग्रंसण-तप्परेण जोइणा।
किमण्णं जुप्पइ' जइ एवं भविउं सक्केज्ज ? दंसणिज्जो एआरिसो जोगिअ-विज्जा-चमक्कारो परोवगिइ-पंडिएण मुणिणा। णूणमम्हे कयत्था होस्सामुत्ति विण्णत्तं साकखं जडिल-मुहागिइं जोअमाणेण पयावइणा । ___ "कि मोरउल्ला गमिआणि एदहाणि वासाणि मए वणमडमाणेण , मोणमायरमाणेण य जइ हं ईइस खुल्लं कज्जपि ण साहिउ सक्केमि" सूइअं साहिमारणं तवोधणेण। ____ तक्खणं आहूआ णेण दुहिआ ससमोवं । णिक्कासिग्रं झोलिआओ जडिआजुअलं । ताए एगाए सविहिप्पओगेण विलया णरत्तणमावज्ज इ, बीआए पओगेण पुणरवि सब्भावमाराहेइ सा । कओ पढमिल्लाए पओगो तक्कालं । राउलजोइरूवम्मि रयणवई तक्खणं परिवट्टणं पत्ता। 'खलु मणिमंतोसहीणं अचिंतणिज्जो पहावो' त्ति जहत्था उत्ती सक्खं सच्चाविआ सव्वेहिं । धारिग्रं कासाइग्रं कोसेज्जं: धिप्पिरं उत्तरिज्जं राउलेण । आजाणुलंबायमाणी सिढिला खंधदेसमारोविआ मणोहरा कासाइया कंथा। उत्तमंगम्मि वि ठविआ राउलमयाणुरूवा फडाडोव-वज्जिआ टोपिआ। हत्थेसु गहिआ णाणामहुर-सरालाव-महुरा णवीणा वीणा । अण्णाहिं वि सव्वाहिं तज्जुग्गसामग्गीहि
१ युज्यते 'युजो जुञ्ज-जुज्ज-जुप्याः (हे० ४-१०६) पश्यता। २ साधयितुम् ३ कौशेयम् 'रेशमीवस्त्र' (इतिभाषा)। ४ देशीयः शब्दः ।
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पंचमो ऊसासो दीयं कार्य साधितं भवेत् ?" प्रवेदितं निजशक्ति-निदर्शन-तत्परेण योगिना।
"किं अन्यद् युज्यते यदि एवं भवितु शक्येत ? दर्शनीयः एतादृशः यौगिक-विद्या-चमत्कारः परोपकृति-पण्डितेन मुनिना । नूनं वयं कृतार्थाः भविष्यामः ।” इति विज्ञप्तं साकाङ्क्ष जटिल मुखाकृति पश्यता प्रजापतिना।
"किं मुधा गमितानि इयन्ति वर्षाणि मया वनं अटता, मौनमाचरता च यदि अहं ईदृशं क्ष द्र' कार्यमपि न साधयितुं शक्नोमि" सूचितं साभिमानं तपोधनेन।
तत्क्षणं आहूता अनेन दुहिता स्वसमीपम् । निष्कासितं झोलिकातः जटिकायुगलम् । तस्याः एकस्याः सविधिप्रयोगेण वनिता नरत्वं आपद्यते । द्वितीयायाः प्रयोगेण पुनरपि सद्भावं आराधयति सा। कृतः प्राथमिक्याः प्रयोगः तत्कालम् । राउलयोगिरूपे रत्नवती तत्क्षणं परिवर्तनं प्राप्ता। खलु मणिमन्त्रौषधीनां अचिन्तनीयः प्रभावः' इति यथार्था उक्तिः साक्षात् सत्यापिता सर्वैः । धारितं काषायं कौशेयं दीप्रं उत्तरीयं राउलेन । आजानुलम्बायमाना शिथिला स्कन्धदेशमारोपिता मनोहरा काषायी कन्था। उत्तमाङ्गऽपि स्थापिता राउलमतानुरूपा फटाटोप-वजिता टोपिका । हस्तयोः गृहीता नानामधुर-स्वरालाप-मधुरा नवीना वीणा । अन्याभिः अपि सर्वाभिः
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१५६
रणवाल कहा
विहसिओ सो अईव सुहवो सव्वेहिं सच्छ रिज्जं पुलइअन्वो
जाओ ।
पुणरवि समयण्णूणा णिवेण पासायम्मि णिमंतिओ जामाया, सूइयं पुण इत्थं - " जामाय ! कयेवि अग्ग हे ण एत्थ तुह ठाउं समीहा, ण उण णिअं भज्जं सह णेउ । किं बलं चलइ अम्ह जामायरस्सुवर । सिढिलिअ सिणेहाणं पउत्थाणं दीवंतरगयाण को वीसंभो पच्चावलणस्स । तस्स संभारणट्ठ एगी अम्हके महादक्खो बालजोई रयणवईए बाल - सहअरो तुम सद्धि पट्टविज्जइ अम्हेहि । सो जहा समयं ससुराल - यस्स सई' कारावेंतो पुणरागमणपेरणं च देतो चिट्ठिस्सइ । अम्हेच्चयं माणसमवि निब्भरं भरि आसा-विअंभिनं सिइ |
"आम, अइ सोहरणमिणं । साहुवी जोअणा घडिआ । ण एत्थ कस्सर काइ बाहा ।" साहित्रं पडिवण्ण-भावणापूरिएण सरेण रयणेण ।
इओ अ अभुअ-मुहच्छवी - मोहणी पच्चक्खं इंगिआगारलक्खिज्ज माणचाउज्जो बालो वि पसंत - णित्तणीलुप्पलो किमवि जवंतो व ईसिप्फुरिअ -अहरुट्टो गीवा-ठविअरुक्मालो तत्थेव आगओ राउलो । सव्र्व्वेसि ससम्माणं लद्धपणामो उइयासम्म अच्छिओ । तं णिरक्खिऊण रयणवालो रोमंच-कंचुइओ विम्हय-सेराणणो भूओ | अव्वो ! ललिए बालकावि कहमेसो लद्धवेरग्गो ? धण्णा अस्स
१ प्रेक्षितव्यः । यथा - सच्च विअ - दिट्ठ- पुल इअ - निअ च्छियाई
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पंचमो ऊसासो
१५७ तयोग्य-सामग्रीभिः विभूषितः स अतीव सुभगः सर्वैः साश्चर्य प्रेक्षितव्यः जातः ।
पुनरपि समयज्ञ न नृपेण प्रासादे निमन्त्रितः जामाता, सूचितं पुनरित्थं-"जामातः ! कृतेऽपि आग्रहे न अत्र तव स्थातु समीहा, न पुनः निजां भार्यां सह नेतुम् । किं बलं चलति अस्माकं जामातुः उपरि ! शिथिलित-स्नेहानां प्रोषितानां द्वीपान्तर-गतानां क: विश्रम्भः प्रत्यावलनस्य । तस्य स्मारणार्थं एकः अस्मदीयो महादक्षो बालयोगी रत्नवत्याः बालसहचरः त्वया सार्धं प्रस्थाप्यते अस्माभिः । स यथासमयं श्वसुरालयस्य स्मृति कारयन् पुनरागमन-प्रेरणां च ददत् स्थास्यति । अस्माकं मानसमपि निर्भरं भरितं आशा-विजृम्भितं वय॑ति ।"
"आम् अतिशोभनमिदम् । साध्वी योजना घटिता। न अत्र कस्यापि कापि बाधा ।" कथितं प्रतिपन्न-भावना-पूरितेन स्वरेण रत्नेन।
इतश्च अद्भुत-मुखच्छवि-मोहनः प्रत्यक्ष इङ्गिताकार-लक्ष्यमानचातुर्यः बालोऽपि प्रशान्त-नेत्रनीलोत्पलः किमपि जपन् इव ईषत्स्फुरिताधरौष्ठ: ग्रीवा-स्थापित-रुद्राक्षमालः तत्रैव आगतः राउलः । सर्वेषां ससम्मानं लब्धप्रणामः उचितासने आसितः । तं निरीक्ष्य रत्नपालो रोमाञ्चकञ्चुकितो विस्मय-स्मेराननो भूतः । अन्वो ! ललिते बालकालेऽपि कथं एष लब्ध-वैराग्यः ? धन्याः अस्य मातर
निहालिअऽस्थम्मि (पाइय० १३५) २ स्मृतिम् ३ इङ्गिताकारलक्ष्यमानचातुर्यः । ४ प्रशान्तनेत्रनीलोत्पलः ।
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१५८
रयणवाल कहा
मायरपिअरा जेसि कुलम्मि एआरिसो होंतजोइओ वंसुद्धारकारगो पुत्तो समुप्पण्णो।
"किं भे विरत्तिकारणं कीला-विलसिअम्मि अणणहअजगववहारम्मि बल्लम्मि' ? अच्छरिज्जमिणं कहं विच्छड्डिओ बंधूणं सिणेहो ? हरे ! लोगुत्तरं कज्जमिणं ?" जिण्णासिगं रयणवालेण। __ "पइपयं वेरग्गं समुजिभइ जइ जोअइ जणो जागरूआए दिट्ठीए । एत्थ-गयं किं थिरं 'ति ण कहं विहाविज्जइ जगजीवेहि ? गोसे' पवोसे वा धम्म करिस्सं 'ति कहणं मूढया-विलसिअं । किं णागमुग्घोसणा कण्णगया ? जहा
"जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणे ण मरिस्सामि, से हु कंखे सुवे सिआ।"
एवं भणमाणो राउलो णिमीलिअ-णयणो झाणं गओ। संदमाण-संतरसं अस्स सोम्म मुहमुई णिहालेतो रयणवालो पभाविओ जाओ। ___ एत्थंतरम्मि सज्जीकयं णेण बोहित्थं । सदेस-दुल्लहं एत्थ सुलहं भंडं किणिऊण तम्मि णिवेसिअं । पट्टाण-दिणं णिच्छिग्रं । ववहार-महुरिमाए अस्स अणेगे जणा संगया जाया । सव्वेसि णायराणं पीइभायणं जाओ एसो । मुणिऊण पच्चावलण-तप्परमेयं सव्वेवि ते सोहदं दक्खवेता अस्सुवकण्ठं समागच्छंति । विविह-पउत्तीहि एवं पसंसेंता, पच्छा कया सम्मेलणं होहि 'त्ति भरणेता, मुहागिईहिं खेअं सूअयंति ।
१ बाल्ये । २ गोसं-प्रभातम् (दे०) ३ प्रदोषः-सायम् ।
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पंचमी ऊसासो
१५६
पितरः येषां कुले एतादृशः भविष्यद्-योगिकः वंशोद्धारकारकः पुत्रः समुत्पन्नः।”
"किं भवतः विरक्तिकारणं क्रीडाविलसिते अननुभूतं जगद्व्यवहारे बाल्ये ? आश्चर्यमिदम् ! कथं त्यक्तः बन्धूनां स्नेहः ? हरे ! लोकोत्तरं कार्यमिदम् ?" जिज्ञासितं रत्नपालेन ।
प्रतिपदं वैराग्यं समुज्जृम्भते यदि पश्यति जनः जागरूकया दृष्ट्या | अवगतं किं स्थिरं इति न कथं विभाव्यते जगज्जीवः । ' गोसे (प्रभाते) प्रदोषे वा धर्मं करिष्यामि इति कथनं मूढ़ता - विलसितम् । किं न आगमोदघोषणा कर्णगता ? यथा
जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणे ण मरिस्सामि से हु कंखे सुवे सिआ ||
एवं भणन् राउलो निमोलितनयनो ध्यानं गतः । स्यन्दमानशान्तरसां अस्य सोम्यां मुखमुद्रां निभालयन रत्नपालः प्रभावितो
जातः ।
अत्रान्तरे सज्जीकृतं अनेन बोहित्थम् । स्वदेशदुर्लभं अत्र सुलभं भण्ड क्रीत्वा तस्मिन् निवेशितम् । प्रस्थानदिनं निश्चितम् । व्यवहारमधुरिम्णा अस्य अनेके जनाः सङ्गताः जाताः । सर्वेषां नागराणां प्रीतिभाजनं जातः एषः । ज्ञात्वा प्रत्यावलन - तत्परं एतं सर्वेऽपि ते सौहृदं दर्शयन्तः अस्योपकण्ठ समागच्छन्ति । विविध प्रवृत्तिभिः एतं प्रशंसन्तः ‘पश्चात् कदा सम्मेलनं भविष्यति' इति भणन्तः मुखाकृतिभिः
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१६०
रयणवाल कहां तत्थ गएणावि भवया कयाइ अम्ह संभरणं कायव्वं 'ति पुणो पुणो उईरयंति च । रयणवालो वि सव्वेसि तेसिमाभारमंगीकरेंतो कयंजली उवचिइ । सन्वेसि जायगाणं तत्थगय-भिच्चाणं पुण जहोचिअ-विअरणेण एसो तुट्टि मुप्पावे।
आगयं रयणवालस्स पच्चावलण-दिणं । इओ य सज्जाहवइ पट्ठाउं राउलरूवा रयणवई। आइग्गं जायं अम्मापिअराण हिअयं । बाहुल्लणयणा जायए वारं वारं परम-पेम्मपोसिआ दारिआ। परिचिअं संसारं जहाय गंतव्वमपरिचिअ-पुव्वं ससुरालयं । केरिसो कडुमहुरो ववहारो तत्थ होहि 'त्ति णाणा-संकप्पपरो मणो । जम्मसंगयाणं सव्वाणं विरहो उव्वेलेइ हिमय-समुद्दताए । उच्छंगीकाऊण पुत्तिअं माया अंसूहि इमं सिणावेमाणी सिक्खेउं पउत्ता"पिअदुहिआ ! दुहिआ अम्हे सव्वेवि अज्ज ते विरहेण । किमवि महामुल्लं वत्थुजायं अम्हत्तो दुरि हवइ 'त्ति खिण्णं मरणे चित्तं । किं बलं ! परगेह-गामणीओ दुहिआओ 'त्ति फुडा किंवदंती । सुहं वच्चसु तणुआ ! धुवं सोहग्गं तुह हवउ । णिच्चं णिरामया चिट्ठउ जुअलस्स तणू । खारसमुह वच्चंतु तुम्ह सव्वपीलाओ। दारिआ ! णव्वो पएसो। सब्वेवि अलक्खिअ-सहावा जणा तत्थ । अणणुहुआ सज्जुक्का कज्जप्पणाली । तत्थ बहु-दक्खयाए तुमए होअव्वं । राय पुत्तिया हं कहं कज्जं करेमि 'त्ति रण चिंतणिज्ज । कज्ज
. १ पुं० न० २ दुःखिताः
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१६१
खेदं सूचयन्ति 'तत्रगतेनाऽपि भवता कदापि अस्माकं स्मरणं कर्त्तव्यं' इति पुनः पुनः उदीरयन्ति च । रत्नपालोऽपि सर्वेषां तेषां आभारं अङ्गीकुर्वन् कृताञ्जलिः उपतिष्ठते । सर्वेषां याचकानां तत्रगतभृत्यानां पुनः यथोचित वितरणेन एष तुष्टि उत्पादयति ।
आगतं रत्नपालस्य प्रत्यावलन - दिनम् । इतश्च सज्जा भवति प्रस्थातु ं राउलरूपा रत्नवतो । उद्विग्नं जातं मातरपित्रोः हृदयम् । वाष्पा नयना जायते वारं वारं परम-प्रेम- पोषिता दारिका । परिचितं संसारं हित्वा गन्तव्यं अपरिचितपूर्वं श्वसुरालयम् । कीदृशः कटु-मधुरो व्यवहारः तत्र भविष्यति इति नाना सङ्कल्पपरं मनः । जन्मसङ्गतानां सर्वेषां विरहः उद्वलयति हृदय- समुद्र तस्याः । उत्सङ्गीकृत्य पुत्रिकां माता अश्रुभिः इमां स्नपयन्ती शिक्षयितुं प्रवृत्ता - "प्रियदुहितः ! दुःखिताः वयं सर्वेऽपि अद्य तव विरहेण । किमपि महामूल्यं वस्तुजातं अस्मत्तः दूरितं भवतीति खिन्नं मन्ये चित्तम् । किं बलम् ? 'परगेहगामिन्यो दुहितरः' इति स्फुटा किंवदन्ती । सुखं व्रज तनुजे ! ध्रुवं सौभाग्यं तव भवतु । नित्यं निरामया तिष्ठतु युगलस्य तनूः । क्षार - समुद्र व्रजन्तु तव सर्वपीडाः ! दारिके ! नव्यः प्रदेशः । सर्वेऽपि अलक्षित-स्वभावाः जनाः तत्र । अननुभूता सद्यस्का कार्यप्रणाली । तत्र बहुदक्षतया त्वया भवितव्यम् । 'राजपुत्रिकाऽहं कथं कार्यं करोमि '
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१६२
रयणवाल कहां
प्पहाणा पिअया सव्वत्थ ण केवलं कुल-रूव-प्पहाणा । परेहि अणदुमक्कोसिआ वि तुमं सहिरी' भवेज्जा । रेहंति खु सहिरिआओ कुलबहुआओ कामं । कायव्वा सविणयं सासूससूराण सुस्सूसा। जारिसा अम्हे तारिसा तप्पक्खिआ तुहकए तेवि । अणुऊलिअन्वं पिअयमस्स दक्खयाए चित्तं । फरुसो सरुसो वि सद्दो पणइणो समये सहिअन्वो सधिज्ज । अण्णहा ण चलइ जेट्टासमो तितिणि-सहावाणं । अंगआ ! परमण-विजयिरी ताहे तुमं होहिसि जाहे सयं मणंसिणी भाविणी। वत्थालंकार-रूव-लाअण्णाईणं आगरिसणं तु एगया दिद्वि-पह-पडिग्रं खणिअं होइ, परंतु णिच्छल-महुरववहारस्स णिच्चं परिवढिअ-प्पहावमागरिसणं सव्वाणमुवरि सरिच्छे होइ । सुआ ! अत्थि अयं जीवण-संगामो । निवडंति अणेगे अणुऊल-पडिऊला पक्कमा। तत्थ भिसं भाविआ, पत्तिआ, रोइआ, धम्मिआ भावणा च्चिअ सामइग्रं संति पयाउं खमा । ता दुहिएण विव सुहिएणावि धुवं धम्मो आराहिअव्वो, तेण सित्ता पंफुल्लिआ जायइ समया-लया । फलेइ सा णिच्चं सुहंकराणि फलाणि । ता सासय सुहिओ धम्मिट्ठो।" एवं सुवयणेहि भिसं सिक्खिआ, णाणा-णिआणुहवेहि बोहिआ, उरसा गाढमालिंगिआ, सयं रुवेती अण्णे रुवावेती, रयणवई पवसिउं तप्परा जाया ।
इओ सज्जीहूअ आगओ जामाया ससुरपक्खिआणंआसीसं णेउ । अत्ताए दत्ता जामायरस्स सुहाऽऽसीसा ।
१ सहिष्णुः २ तितिणिअ-स्वाभावानाम् (दे०) बड़बड़ाने वाले स्वभाव वाला (इतिभाषा)।
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पंचमो ऊसासो
१६३ इति न चिन्तनीयम् । कार्यप्रधाना प्रियता सर्वत्र न केवलं कुल-रूपप्रधाना। परैः अनर्थ आक्रष्टाऽपि त्वं सहिष्णुः भवेः । शोभन्ते किल सहिष्णूतया कुलवध्वः कामम् । कर्त्तव्या सविनयं स्वथ -श्वसुराणां सुश्रूषा। यादृशा वयं तादृशाः तत्पक्षिकाः तव कृते तेऽपि । अनुकूलयितव्यं प्रियतमस्य दक्षतया चित्तम् । परुषः सरोषोऽपि शब्दः प्रणयिनः समये सोढव्यः सधैर्यम् । अन्यथा न चलति ज्येष्ठाश्रमः तिन्तिनिक-स्वभावानाम् । अङ्गजे ! परमनोविजेत्री तदा त्वं भविष्यसि यदा स्वयं मनस्विनी भाविनी। वस्त्रालङ्कार-रूप-लावण्यादीनां आकर्षणं तु एकदा दृष्टिपथ-पतितं क्षणिकं भवति, परन्तु निश्चलमधुरव्यवहारस्य नित्यं परिवर्धितप्रभावं आकर्षणं सर्वेषां उपरि सदृक्ष भवति । सुते ! अस्ति अयं जीवनसंग्रामः । निपतन्ति अनेके अनुकूलप्रतिकूलाः प्रक्रमाः। तत्र भृशं भाविता प्रत्ययिता रोचिता धामिकी भावना एव सामयिकी शान्ति प्रदातु क्षमा। तस्माद् दुःखितेन इव सुखितेनापि ध्रुवं धर्मः आराधयितव्यः । तेन सिक्ता प्रफुल्ला जायते समतालता। फलति सा नित्यं शुभङ्कराणि फलानि । तस्मात् शाश्वत सुखितो धर्मिष्ठः ।" एवं सुवचनैः भृशं शिक्षिता नानानिजानुभवैः बोधिता उरसा गाढं आलिङ्गिता स्वयं रुदती अन्यान् रोदयन्ती रत्नवती प्रवस्तु तत्परा जाता।
इतः सज्जीभूय आगतः जामाता श्वसुर-पाक्षिकाणां आशिर्ष नेतुम् । अत्तया (श्वश्र्वा) दत्ता जामात्र शुभाऽऽशीः । सिद्ध कुर्वन्तु, शिवाः
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रयणवाल कहाँ सिद्ध कुणंतु, सिवा भे पहा संतु 'त्ति सहरिसं सरोमुग्गमं सव्वेहि साहिग्रं । राउलोवि तत्थेव आगओ। विगय-संकोचं अंतरंगम्मि होंतविरहेण विसण्णोवि उवरिम-भावेण साणंद णिसण्णो रयणवालस्स समकक्खं । सासूए साणुसयं साहिनं -'जामायरं ! अत्थि राउलो अम्ह पुत्तिआए अबिइज्जओ सहयरो। रयणवई विव एसो तुम्हेहिं सुरक्खिअव्वो किं बहुकहणेण । अम्हेच्चयो अइप्पिओऽयं 'ति कमाणी राणी रोत्तुमाढत्ता।
ण एत्थ मणयमवि चिता । इमं सवओ अणुऊलयिस्सं 'ति मे सच्चा पइण्णा । कि तुम्हकेरो एसो संपइ अम्हकेरो वि, इअ बुवारणेण रयणवालेण सहयरो इव आसिलिट्ठो राउलो अणाउलं । उप्पेहडा' निवखंता तेसि हत्थि-खंधगयाणं पुरस्स मज्झं मज्झेणं पवासजत्ता । समुद्दतडपेरंतं रायप्पभिइणो सब्वेवि आगया जामायरं पडिवालित्तए। रण्णा दिण्णा अउल-संपया पोअम्मि णिवेसिआ। राउलेणा वि रूवपरावत्तण-जडिआ-जुअलेण सहिझं आवस्सय-वत्थुजाय-पूरिअं णवरमेगं पेडगं सह णीअं । रायाईणं कयप्पणामो मणम्मि परमेट्रिपंचगं सरेंतो राउलसहिओ जिणदत्तपुत्तो बोहित्थ म्मि* णिविट्ठो । सव्वेसिं सुहमंगल-सद्देहिं सद्धि सुमहत्तम्मि पडिचालिअंपवहणं । अणुलोम-पहंजण-पणुल्लिअं तुरिअ-तुरिअं वच्चमाणं तं णयणाऽगोअरं जायं । रायप्पमुहा
१ साडम्बरा । यथा- उप्पेहउं, उड्डामरं, उन्भडं, आडम्बरिल्लं च (पाइ० ६०), २ पोते ।
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पंचमो ऊसासो युष्माकं पन्थानः सन्तु, इति सहर्ष सरोमोद्गम सर्वेः कथितम् । राउलोऽपि तत्र आगतः । विगत-सङ्कोचं अन्तरङ्ग भवद्विरहेण विषण्णोऽपि उपरितनभावेन सानन्दं निषण्णः रत्नपालस्य समकक्षम् । श्वश्र्वा सानुशयं कथितम्–“जामातः ! अस्ति राउलः अस्माकं पुत्रिकायाः अद्वितीयः सहचरः। रत्नवती इव एष युष्माभिः सुरक्षितव्यः किं बहुकथनेन ? आस्माकः अतिप्रियः अयं इति कथयन्ती राज्ञी रोदितु आरब्धा।
"न अत्र मनागपि चिन्ता । इमं सर्वतः अनुकूलयिष्यामि इति मे सत्या प्रतिज्ञा। किं युष्मदीयः एषः सम्प्रति अस्मदीयोऽपि", इति ब्र बता रत्नपालेन सहचरः इव आश्लिष्ट: राउलः अनाकुलम् । साडम्बरा निष्क्रान्ता तयोः हस्तिस्कन्धगतयोः पुरस्य मध्यं मध्येन प्रवास-यात्रा । समुद्रतटपर्यन्तं राजप्रभृतयः सर्वेऽपि आगताः जामातरं प्रतिवालयितुम् । राज्ञा दत्ता अतुला सम्पत् पोते निवेशिता। राउलेनाऽपि रूपपरावर्तन-जटिकायुगलेन सहितं आवश्यकवस्तुजात-पूरितं केवलं एक पेटकं सह नीतम् । राजादिभ्यः कृतप्रणामः मनसि परमेष्ठि-पञ्चकं स्मरन् राउलसहित: जिनदत्तपुत्रो बोहित्थे निविष्टः । सर्वेषां शुभ-मङ्गल-शब्दैः सार्धं सुमुहूर्ते प्रतिचालितं प्रवहणम् । अनुलोम-प्रभञ्जन-प्रेरितं त्वरितं त्वरितं व्रजत् तत् नयनागोचरं जातम् । राजप्रमुखाः सर्वेऽपि परिजनाः सुता
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१६६
रयणवाल कहा
सव्वेवि परिक्षणा सुआ - विरहवण्णा वि जहच्छिय कज्जसंपाडणेण पसत्तिमणुहवंता णिअं णिअं ठाणं पत्ता ।
इओ पेइ पक्ख-विरह-विहरो हिअयम्मि अउल - बाउल तणं वर्हतो विभत्तिगाण मिसेण बाह-बिंदूई मुचतो कहूं कमवि भावसंगोवणं कुणमाणो, अगसूत्ति पज्ज - गाहाहिं विरह - रस- गहिरिमं च णिदंसेंतो, सव्वेसि मणाई गग्गराई विरअयइ वाणत्थों राउलो ।
इअ सिरिचंदणमुणि- विरइआए राउल रूवेण सहागमण - सखेमं रयणवईवरण-पच्चा
वलरणाइभावेहि रयणवालकहाए पंचमो ऊसासो समत्तो
सोहिआए
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पंचमो ऊसासो
१६७ विरहोद्विग्नाः अपि यथेप्सित-कार्य-सम्पादनेन प्रसत्ति अनुभवन्तः निजं निजं स्थान प्राप्ताः।
इतः पैतृकपक्ष-विरह-विधुरः हृदये अतुलं आकुल-व्याकुलत्वं वहन् अपि भक्तिगान-मिषेण वाष्पबिन्दून मुञ्चन्, कथं कथमपि भावसङ्गोपनं कुर्वन्, अनेक-सूक्ति-पद्य-गाथाभिः विरह-रस-गाम्भीर्यच निदर्शयन् सर्वेषां मनांसि गद्गदानि विरचयति वाहनस्थो राउलः ।
इति श्री चन्दनमुनिविरचितायां राउलरूपेण सहागमन
सक्षेमं रत्नवतीवरण -प्रत्यावलनादिभावः ___ शोभितायां रत्नपालकथायां
पञ्चमः उच्छवासः
समाप्तः
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छट्टो ऊसासो
वण्णणाईआ विस्स-वेचित्ती । अविहावणिज्जा भवस्स भावणा । एत्थ कि सुहं, किं दुहं ? किं पिनं, किमप्पिय ? के रिणअया, के पारक्का ? अवाहित्तोवि एगत्तीहवइ मच्छिआ-णिउरंबो जत्थेव दिद्वि-पहं णिवडिआ गुडपिंडलइया, तोअ-पडिपुण्णम्मि तडागम्मि सव्व-दिसासुतो सयमोअरंति सउता। अव्वो ! सत्थप्पहारण जगं, ण उण परमत्थप्पहाणं । हरे ! धवल मवि मुणिज्जमाणं किच्चं किचि अंतरहिलास-कज्जलिअं । धण्णा ते तिचउरा पत्ता माणवा जगईए जेहिं कीरइ णिक्काम सेव्वा ।
विढविऊण अउलं सामिद्धि पलोट्टिओ' जिणदत्त-सुओ तरंगमालि-तीरम्मि 'त्ति आयण्णिकण पउरा, णयर-महंतया,
१ सकुन्ताः-पक्षिणः २ प्रन्यागतः 'प्रत्याङा पलोट्टः (हे० ४-१६६)
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1
वर्णनातीता विश्व - वैचित्री । अविभावनीया भवस्य भावना । अत्र किं सुखं किं दुःखम् ? किं प्रियं किमप्रियम् ? के निजकाः, के परकीया: ? अव्याहृतोऽपि एकत्रीभवति मक्षिका - निकुरम्बो यत्र व दृष्टिपथं निपतिता गुडपिण्डलिका । तोयप्रतिपूर्ण तडागे सर्व दिग्भ्यः स्वयमवतरन्ति शकुन्ताः । अब्वो! (आश्चर्य) स्वार्थ प्रधानं जगत् न पुनः परमार्थ- प्रधानम् । हरे ! धवलमपि ज्ञायमानं कृत्यं किञ्चित् अन्तरभिलाष- कज्जलितम् । धन्यास्ते त्रिचतुराः प्राप्तार्था मानवाः जगत्यां यैः क्रियते निष्कामं सेवा ।
१६६
६
षष्ठः उच्छ्वासः
अर्जयित्वा अतुलां समृद्धि प्रत्यागतो जिनदत्तसुतस्तरङ्गमालितीरे इति आकर्ण्य प्रचुरा: नगर महत्काः बन्धवश्च रणरणकं प्राप्ताः
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१७०
रयणवाल कहा
बंधुणोय. रणरण पत्ता । सव्वेवि ते संमिलित्ता बोसट्टवयण-कमला वद्धावेउं रयणवालं उवपवहणं अहिपच्चुइआ । जय-विजय- सद्दहिं वद्धावेमाणा गुललिउं पउत्ता - 'पुत्त ! वारिवाहं पित्र चिरं विरमालेमाणा तुमं पइदिणं अम्हेत्थ ट्टि । अइजाओ' सुओसि तुमं जिणदत्तस्स । उज्जलं कथं तुम णामहे पिउपायस्स ।" अंतरदूमिओवि ववहारट्ठ मम्मणोवि सपरिअरं समागओ । रयणवालेणावि सव्वेवि सम्मुहमागया सुअणा साणंदं पणमिआ । तुम्हाणं आसीसा हिं सव्वं भव्वं जायं । णिविग्धा मयरहर" - जत्ता संपण्णा । उत्तारि वाहणाओ कसिणमवि भंडं, वत्थुजायं च । आडंबरिल्ला णयरम्मि णिग्गया अस्स पडिणिग्गमण जत्ता | समेहिं णायरेहिं पेम- पलोअणेहिं संभाविओ सम्माणिओ य राउल - बीओ रयणवालो पुव्वं मम्मण- गिहम्मि आगओ । जायं भोअणाइ - किच्चं । पच्छा णयर- महंतयाणमहिमुहं तल्लिहिआणुसारेण सवुदिअं पेइअं रिणं, तहेव भंड-मुल्लं च जहद्विअं समप्पि | संपयं ण सेट्ठिस्स ईसि पि मज्झम्मि गहिअव्वं, दायव्वं वा । एवं भणमाणेण णेण सव्व - समक्ख फाडिअं लिहिअ - पत्तं । गहि मम्मण हत्थाओ अणरिणस्स' लिहि । मम्मणप्पि पारिओसिअ - पइप्फलं जं विउलं मए लदं तं सव्वं मईअमेव, ण सेट्टिणो किंचि । इण्हि सेट्ठि -- गिहम्मि जइ चिट्ठे मि तहाविण हाणी, मामगं घरमेयं । परंतु झंखई' मह माणसं णिअमालयं विणा । तम्हा
1
१ औत्सुक्यम् २ आगताः 'आङा अहिपच्चुअ: ( हे० ४-१६२ ) ३ चाटुकारितां कर्तु लग्नाः 'चाटी गुलल: ( हे० ४-७३) ४ अतिजातः पितुरधिक इत्यर्थः
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C
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छट्ठो ऊसासो सर्वेऽपि ते सम्मील्य विकसितवदनकमलाः वर्धापयितु रत्नपालं उपप्रवहणमागताः । जयविजयशब्दैः वर्धापयन्तश्चाटुकारितां कर्तु प्रवृत्ताः- "पुत्र ! वारिवाहमिव चिरं प्रतीक्षमाणास्त्वां प्रतिदिनं वयमत्र स्थिताः । अतिजातः सुतोऽसि त्वं जिनदत्तस्य । उज्ज्वलं कृतं त्वया नामधेयं पितृपादस्य ।” अन्तर्दू नोऽपि व्यवहारार्थ मन्मनोऽपि सपरिक समागतः । रत्नपालेनाऽपि सर्वेऽपि सम्मुखमागताः सुजनाः सानन्दं प्रणमिताः । युष्माकमाशीभिः सर्वं भव्यं जातम् । निर्विघ्ना मकरगृह-यात्रा सम्पन्ना। उत्तारितं वाहनात् कृत्स्नमपि भाण्डं वस्तुजातं च । आडम्बरवती नगरे निर्गता अस्य प्रतिनिर्गमन-यात्रा। समै गरैः प्रेमलोचनैः संभावितः सम्मानितश्च राउल-द्वितीयो रत्नपाल: पूर्व मन्मन-गृहे आगतः। जातं भोजनादिकृत्यम् । पश्चाद् नगरमहत्कानामभिमुखं तल्लिखितानुसारेण सवृद्धिकं पैतृकमृणं तथैव भाण्डमूल्यं च यथास्थितं समर्पितम्। साम्प्रतं न श्रेष्ठिन: ईषदपि मयि ग्रहीतव्यं दातव्यं वा । एवं भणता अनेन सर्व-समक्ष पाटितं लिखित-पत्रम् । गृहीतं मन्मन-हस्ताद् आनृण्यस्य लिखितम् । मन्मनापित-पारितोषिक-प्रतिफलं यद् विपुलं मया लब्धं तत् सर्व मदोयमेव, न श्रेष्ठिनः किञ्चित् । इदानीं श्रेष्ठि-गृहे यदि तिष्ठामि तथापि न हानिः, मामकं गृहमेतत् । परं संतपति मम मानसं निजमालयं विना। तस्माद्
५ मकरगृहयात्रा-समुद्रयात्रा ६ निर्गताः ७ अणरिणस्स-ऋणातीतस्य ८ संतपति, 'संतपे झङ खः (हे० ४-१४०)।
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१७२
रयणवाल कहा जिगमिसेमि रिण घरं एत्ताहे चिअ । एवं साहेऊण उडिओ रयणवालो मम्मणं सविणयं पणमिऊण कयंजली बोत्तुमाढत्तो"सेट्ठिप्पवर ! इच्छेमि तुब्भेहिं अब्भणुणाओ णिशं भवणं वच्चेउं । सोलस-वास-पेरंतं अहमेत्थ वुड्ढेि पत्तो, पुत्तव्व लालिओ, सिक्खिओ य पएसे पट्टविओ। संभरिस्समहं अणुत्तरमुत्रयारं भवयाणं । आवडिए कम्मिवि कज्जम्मि उवढिओ होस्सं अणालसमेत्थ । संपइ जणय-भवणं गंत समुच्छु मं अणुजाणंतु किवाए सेट्ठिवरा।"
निरद्वया परवत्थुणो लालस 'त्ति विउरेण अंतरदूमिएणावि ववहार-कुसलेण “साणंदं वच्चसु वच्छ ! णिग्रं भयणं, वड्ढमाण'-विच्छड्डेण वढिओ होहि पुण" इअ बुवंतेण मम्मणेण रयणवालो गंतुमणुजाणिओ। ___सोलस-वासाणंतरं बंधुजणेहिं परिवारिओ मंगल-सद्देहि माघहेहिं च वद्धाविओ हम्मियाहिमुहं पत्तो पुत्तो । लद्धवद्धावणिआ कोआसमुही सयज्झा तक्कालं तत्थ समागया। समप्पिआ बद्ध-मंदिर-तालगस्स तालिआ । उग्घाडिग्रं कवाड-जुअलं । कत्थ कत्थ पिइपायस्स आसिआ सायिआ आसि 'त्ति परिजणेहिं पवेइआ । तरुणा जाया तेसि तक्खणं सई । रोत्तु पउत्तो बालव्व रयणवालो। हद्धी ! कहि कट्ठमणुहवंति ते मज्झकारणा । किं मे विउलाए इमीए सिरिआए जाव ण जायइ अम्मापिऊणं दंसगं ? ___"सत्थो होहि सुपुत्त! लहं संभविज्जइ तेसि सम्मेलणं । कारावेइस्सामो ताणं अणुसंधाणं । विहिणोऽणुऊलयाए लद्धा
१ वर्धमानवैभवेन २ लब्धवर्धापनिका 'वधावणी' इतिभाषा ३ विकस्वरमुखी
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१७३
छट्ठो ऊसासो जिगमिषामि निजं गृहमिदानीमेव । एवं कथयित्वा उत्थितो रत्नपालो मन्मनं सविनयं प्रणम्य कृताञ्जलिर्वक्तुमारब्धः-"श्रेष्ठिप्रवर ! इच्छामि युष्माभिरभ्यनुज्ञातो निजं भवनं वजितुम् । षोडशवर्षपर्यन्तमहमत्र वृद्धि प्राप्तः, पुत्रवत् लालितः, शिक्षितश्च प्रवासे प्रस्थापितः । स्मरिष्याम्यहं अनुत्तरमुपकारं भवताम् । आपतिते कस्मिन्नपि कार्ये उपस्थितो भविष्यामि अनालसमत्र । सम्प्रति जनक-भवनं गन्तु समुत्सुकं मां अनुजानन्तु कृपया श्रेष्ठिवराः।"
'निरर्थका परवस्तुनो लालसा' इति विदुरेण अन्तर्दू नेनाऽपि व्यवहार-कुशलेन-“सानन्दं व्रज वत्स ! निजं भवनम्, वर्धमानविच्छड्डेन (वर्धमान-वैभवेन) वधितो भव पुनः" इति ब्रुवता मन्मनेन रत्नपालो गन्तुमनुज्ञातः ।
षोडश-वर्षानन्तरं बन्धुजनैः परिवारितो मङ्गलशब्दैः गिधैश्च वर्धापितो हाभिमुखं प्राप्तः पुत्रः । लब्ध-वर्धापनिका विकसितमुखी सयज्झा (प्रातिवेश्मिकी) तत्कालं तत्र समागता । समर्पिता बद्धमन्दिरतालकस्य तालिका। उद्घाटितं कपाटयुगलम् । कुत्र-कुत्र पितृपादस्य आसिका शायिका आसीदिति परिजनैः प्रवेदिता । तरुणा जाता तेषां तत्क्षणं स्मृतिः। रोदितु प्रवृत्तो बालवद् रत्नपालः। हद्धी ! (निवेदे) कुत्र कष्टमनुभवन्ति ते मत्कारणात् ? किं मे विपुलया अनया श्रिया यावत् न जायते मातृपित्रोः दर्शनम् ?
स्वस्थो भव सुपुत्र ! लघु संभाव्यते तेषां सम्मेलनम्, कारापयिप्यामस्तेषामनुसन्धानम् । विधेरनुकूलतया लब्धा भविष्यति तेषां
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रयणवाल कहाँ हविस्सइ तेसि पउत्ती। संपइ तुम पुव्वं एत्थ-गयं विसंठुलं कज्जं सुट्ठियं कुणसु, जहा तुह पिअयरस्स णामं समुज्जलं होइ 'त्ति सूइअ बंधुवग्गेण । पडिस्सुग्रं तं कहणं रयणेण । जायं सव्व-बंधुजणेहि सहयरेहि य सद्धि पीइ-भोअणं । अणेगे जिणदत्त-संतिआ भिच्चा, कम्मगरा, आवणप्पमुहा, सहिणो संभूअ समागया। णिअं-णिग्रं पच्चहिजाणं करावेउ पउत्ता-"सेट्टिकुमर ! ण? महापायवे कुलाय-संठिआणं सउण-पोआणं जारिसी गई तारिसी जिणदत्त-से द्वि-सरणविहणाणं अम्हकेरा ठिई वट्टए । संपइ आसासिमोर तुम पियव्व अम्ह सरणदाया होहिसि 'त्ति। रयणवालेणावि सव्वेसि पत्थणा सुणिआ, मुणिआ, जहारिह-कज्ज-समप्प णेण ते संतोसिआ, पोसिआ य । केइ परिणयवया मए कि पुव्वं करणिज्जं 'ति पुच्छिआ । तक्कहणमणुवट्टमाणेण सम्माणिआ य ।
एत्थंतरम्मि यर-प्पमुहेहिं सद्धि रयणवालेग पाहुडीकओ णरवई, विण्णत्तो पुण-"णरदेव ! जेसि केसि वि मणुआणं अत्थि जिणदत्त-सेट्ठिम्मि अवसिट्ठ अणं (ऋण) ते सव्वेवि ममाहितो सवुढिअं णि अं-णिधे धणं सत्तरं गिण्हेंतु, तहेव जे अहमण्णा सेद्विणो ते सव्वेवि सत्तरं पच्चप्पिणंतु मे जहारिहं धणं ।"
रण्णा तयाणि मेव “दायगा गिण्हेंतु गाहगा य पच्चप्पिणंतु, जिणदत्तसेवि-संबंधिअं दविणं 'ति" उग्घोसणा कारिआ णयरम्मि।
१ सखायः
२ आशास्महे ।
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छट्ठो ऊसासो
१७५ प्रवृत्तिः । सम्प्रति त्वं पूर्व अत्रगतं विसंस्थुलं कार्य सुस्थितं कुरु, यथा तव पितुर्नाम समुज्ज्वलं भवतीति सूचितं बन्धुवर्गेण । प्रतिश्रुतं तत्कथनं रत्नेन । जातं सर्वबन्धुजनैः सहचरैश्च सार्धं प्रीतिभोजनम् । अनेके जिनदत्तसत्का भृत्याः कर्मकराः आपण-प्रमुखाः सखायः संभूय समागताः । निजं निजं प्रत्यभिज्ञानं कारयितु प्रवृत्ताः"श्रेष्ठिकुमार ! नष्टे महापादपे कुलाय-संस्थितानां शकुन-पोतानां यादृशी गतिस्तादृशी जिनदत्त-श्रेष्ठिशरण-विहीनानां अस्मदीया स्थितिवर्तते । सम्प्रति आशास्महे त्वं पितृवद् अस्माकं शरणदाता भविष्यसीति रत्नपालेनाऽपि सर्वेषां प्रार्थना श्रुता, ज्ञाता, यथार्हकार्यसमर्पणेन ते सन्तोषिता, पोषिताश्च । केऽपि परिणत-वयसो ‘मया कि पूर्व करणीयम्' इति पृष्टाः तत्कथनमनुवर्तमानेन सम्मानिताश्च ।
अत्रान्तरे नगरप्रमुखैः सार्धं रत्नपालेन प्राभृतीकृतो नरपतिः विज्ञप्तः पुन:-"नरदेव ! येषां केषामपि मनुजानां अस्ति जिनदत्तश्रेष्ठिनि अवशिष्टमृणं ते सर्वेऽपि मत्त: सवृद्धिकं निजं निजं धनं सत्वरं गृह्णन्तु, तथैव ये अधमर्णाः श्रेष्ठिनस्ते सर्वेऽपि सत्वरं प्रत्यर्पयन्तु मह्य यथार्ह धनम् ।”
राज्ञा तदानीमेव-“दायका गृह्णन्तु, ग्राहकाश्च प्रत्यर्पयन्तु जिनदत्तथैष्ठिसम्बन्धिकं द्रविणमिति" उद्घोषणा कारिता नगरे ।
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१७६
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रयणवाल कहां
तक्खणं जाया जहोइआ ववत्था । दायगेहिं जहारिहं गहिअं, गाहगेहिं च दिव्यां । सव्वाणि पर- हत्थ - गयाणि खेत्तवथु-विवणि पासायाईणि अप्प-वसाणि संजायाणि । णयरीए अस्स कित्ति - कोई पत्थरिआ । अहो ! बालोवि रयणवालो केरसो बुध्दिमंतो अस्थि ? जेण सव्वमवि अववद्विअं कज्जं सुट्ठियं कयं । राउलेणावि सब्वा तत्थगया ठिई सम्म मुणिआ । अग्गे किं करणिज्जं 'ति अणुवेलं' चितेइ सो । परंतु रयणेण राउल - रूवंतरिआ रयणवइ 'त्तिण संकिअं कयावि, केवलं बालजोई णूणमेस 'त्ति णिस्संकं णायमिमेण । सव्व - सुह- समपिओ वि रयणवालो ण खणमवि रई लब्भइ पिअर -विरह - दुव्वलो | कहं तेसि अणुसंधारणं कायव्वं ! कहि ते पउसिआ पुत्त - विरह - विरगडिआ उयासीणा संता जीवणं जवेंति ? कहमेगागी अहं गच्छेमि पवासं ? मं विणा कहमेगगो राउलो अणुवलक्खि-प्पएसम्म चिट्ठिहिइ !
अकिओ आगओ तत्थ एगो अट्ठग- रिगमित्त - विष्णू जोइसिओ । पुच्छिओ एसो सविरणयं रयणेण । विउसवर' ! कमहं पच्चलो होमि पिअर - पायस्स पउति णाउ । काए दिसीए तेसि णिवासो 'त्ति कहं पच्चेयं मए ? किवाए णाणबलेण ककुहा- सूअरणं कायव्वं, जहाहं तेसिमणुसंधारणे सफलो हवेज्जा | गणएण झत्ति गणिअं फलिश्रं च पेक्खमाणेण उप्पल ४ - अणो रयणवालो उप्पालिओ - " दाहिण -दिसिभाए कुसलिणो ते जणणी - जणया णिस्संदेहं । छमास - भंत रम्मि सुलहं तेसि दरिसणं । कुमार ! वईआ आवइदिअहा संपइ सव्वं सुहं सुहं 'ति निच्छित्रं मे वयणं । एवं साहेमाणो दाणेण तोसिओ गओ सो णित्रं ठाणं ।
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छट्ठो ऊसासा
१७७ ___ तत्क्षणं जाता यथोचिता व्यवस्था। दायकैर्यथाह गृहोतं ग्राहकैश्च दत्तं । सर्वाणि परहस्तगतानि क्षेत्र-वस्तु-विपणि-प्रासादादीनि आत्मवशानि संजातानि । नगर्यामस्य कीति-कौमुदी प्रस्तृता । अहो ! बालोऽपि रत्नपाल कीदृशो बुद्धिमानस्ति येन सर्वमपि अव्यवस्थितं कार्य सुस्थितं कृतम् । राउलेनाऽपि सर्वा तत्रगता स्थितिः सम्यग् ज्ञाता। अग्रे किं करणीयमिति अनुवेलं चिन्तयति सः । परन्तु रत्नेन राउलरूपान्तरिता रत्नवतीति न शङ्कितं कदापि, केवलं बालयोगी नूनमेष' इति निःशङ्कज्ञातमनेन । सर्वसुखसमर्पितोऽपि रत्नपालो न क्षणमपि रति लभते पितृविरह-दुर्बलः । कथं तेषामनुसंधानं कर्त्तव्यम् ? कुत्र ते प्रोषिताः पुत्रविरह-विनटिताः उदासीनाः सन्तो जीवनं यापयन्ति । कथमेकाकी अहं गच्छामि प्रवासम् ? मां विना कथमेकाकी राउलोऽनुपलक्षित-प्रदेशे स्थास्यति ।
अतर्कितः आगतस्तत्र एकोऽष्टाङ्गनिमित्तविज्ञो ज्योतिषिकः । पृष्टः एष सविनयं रत्नेन-"विद्वद्वर ! कथमहं प्रत्यलो भवामि पितृपादस्य प्रवृत्ति ज्ञातुम् ? कस्यां दिशि तेषां निवासः इति कथं प्रत्येयं मया ? कृपया ज्ञानबलेन ककुप्-सूचनं कर्त्तव्यम्, यथाऽहं तेषामनुसंधाने सफलो भवेयम् ।" गणकेन झटिति गणितं, फलितं च प्रेक्षमाणेन उत्पिञ्जलचेतनो रत्नपालः कथितः-"दक्षिणदिग्भागे कुशलिनस्ते जननीजनका निस्संदेहम् । षण्मासाभ्यन्तरे सुलभं तेषां दर्शनम् । कुमार ! व्यतीता आपद्-दिवसाः सम्प्रति सर्व सुखं सुखमिति निश्चितं मे वचनम् । एवं कथयन् दानेन तोषितो गतः स निजं स्थानम् ।
१ निरन्तरम् २ विद्वद्वर ! ३ समर्थः ४ उत्पिञ्जलचेतनः व्याकुलचेताः ।
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१७८
रयणवाल कहाँ
अवसरं पप्प रयणवालेण सूइओ राउलो सखेअं"जोइप्पवर ! णाहमिच्छमि तुमं विरहिऊण कत्थइ गंतुमेगागी, परंतु अत्थि एआरिसी समय-मग्गणा जहा मए अवस्सगंतव्वं पिअराणमणुसंधाण-णिमित्तं। तुमए एत्थ ठिच्चा गिह-पच्चुवेक्खणा कायव्वा । सयराहमेव पिअराणं मग्गणं काऊरण, ते' एत्थ णेऊण पच्छा तुमए सद्धि गमिस्समहं रयणवइं णेउ ससुर-गेहं । इयाणि तु समय-पडिवालणा करणिज्जा चिअ ।"
ईसिं-हसिअ-दंसिअ-धवलदंतपंतिणा राउलेण वाहरिअं"ण एत्थ कोइ खेअस्स विसओ । अस्थि किमुक्किट्ठ जणणी-जणयाइरित्तं । तेसि सेवा खु देव-सेवा । तेसि दंसरणं खु देव-दंसणं । तेसिं आणा किर देव-आणा । किं तेण किमि-कोडि गएण कुलिंगालेण जाएण, जो ण हवइ पिअराण सुहहेऊ। परंतु ण एवं कज्जं तएजारिसाणं गिहत्थाणं । अत्थि मएजारिसाणं तु वाम-हत्थ-लीला अणुसंधाण-कज्जं । सोमाल-सेहर ! ण अणुऊलो गिहत्थाण हेमंत-उऊ। जाला पवहइ अइ सीअलो जगं कंपावेमाणो जडो उईणो पवणो, ताला को सुहिओ गिहत्थो गिहाओ णीहरइ ? पहिरिअ-णाणुण्णिअ-वासो' आरोग्गिअ-विसिट्ठसत्ति-दायगोसह-मीसिअ-मिट्ठण्णो दारा-पुत्त-परिवारिओ उवानलं टिओ वासराई गमेइ, तत्थ णि प्पिहो झडिलो समणो तावसो गलिअ-चीवरो दिअंबरो वा साणंदं रुक्ख
१ तान २ त्वादृशानाम् ३ उदीचीन: ४ परिहितनानौणिकवासाः ।
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छट्ठो ऊसासो
१७६ __ अवसरं प्राप्य रत्नपालेन सूचितो राउलः सखेदं-“योगिप्रवर ! नाहमिच्छामि त्वां विरहय्य कुत्रापि गन्तुमेकाकी, परन्तु अस्ति एतादृशी समय-मार्गणा यथा मया अवश्यं गन्तव्यं पित्रोरनुसन्धाननिमित्तम् । त्वया अत्र स्थित्वा गृहप्रत्युपेक्षणा कर्तव्या। शीघ्रमेव पित्रोः मार्गणां कृत्वा तौ अत्र नीत्वा पश्चात् त्वया सार्धं गमयिष्याम्यहं रत्नवतीं नेतु श्वसुर-गृहम् । इदानीं तु समय-प्रतिपालना करणीयैव ।”
ईषद्-हसित-दर्शित-धवल-दन्त-पङ क्तिना राउलेन व्याहृतं नात्र कोऽपि खेदस्य विषयः । अस्ति किमुत्कृष्टं जननी-जनकातिरिक्तम् ? तेषां सेवा खलु देव-सेवा, तेषां दर्शनं खलु देव दर्शनम् ; तेषां आज्ञा किल देवाज्ञा। किं तेन कृमिकोटिगतेन कुलाङ्गारेण जातेन यो न भवति पितृणां सुखहेतुः, परन्तु नैतत् कार्यं त्वादृशानां गृहस्थानाम् । अस्ति मादृशानां तु वामहस्त-लीला अनुसन्धानकार्यम् । सुकुमारशेखर ! नानुकूलो गृहस्थानां हेमन्त : । यस्मिन् प्रवहति अतिशीतलो जगत् कम्पायमानो जड: उदीचीनः पवनस्तस्मिन् क: सुखितो गृहस्थो गृहानिस्सरति ? परिहित-नानौणिक-बासाः भुक्त-विशिष्टशक्तिदायकोषध-मिश्रित-मिष्ठान्नः दारा-पुत्र-परिवारितः उपानलं स्थितो वासराणि गमयति, तत्र निःस्पृहो जटिलः श्रमणस्तापसो गलितचीवरो दिगम्बरो वा सानन्दं वृक्षाले स्थितो ध्यानं
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१ परिप्रोञ्चितम् ।
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१५०
रयणवाल कहा
मूलम्मि ठिओ झाणं झायइ, परमिट्ठ सुमिरइ, छुहं अहिआसेइ, सुहं सुहेण सीअकालं च जवेइ । तहेव उण्हालो विण भोईण मणुलोमो | जाहे पतवइ अइ तिग्ग-रस्सीहि अंसूमाली । वहि- सरिच्छा हवइ धरणो । सव्वंपि वायावरणं तातप्पामाण पवई असहणिज्जो मारुओ । वारं वारं परिफुसिअं' पण सुक्कत्तणमुवेइ सेअ - जलं । सुपीअपि उदयं ण कयाइ पीअं पिव अणुहवंति तम्हालुआई ओट्ट-तालुकंठ-विवराई । ताहे पत्त- समग्ग-भोग - सामग्गीओ णाणाविहं सीअ-पेज्जं पिबेंतो वायाणुकूलिअ - गिम्मि अल्लीणो सुकई को हम्मिअं
एउ चयइ ? तत्थवि मुणी जत्थ कत्थइ ठिओ, जं किमवि सीउण्हं भुजेंतो, उसिणं जलं पिबेंतो, तत्तभूमीअले वि अणत्थुअं सुतो, परममुइओ लक्खिज्जइ । केण अणुहविज्जइ गिम्ह-काल-तत्ती जो अणुवेलं सरेइ परमं पयं । जस्स सव्वंपि बाहिरं वत्थुजायं बाहिरं तस्स का सुहस्स दुहस्स वा कप्पणा ? अहो विचित्तो मुणीणमद्धाणो । तहेव पाउससमयो वि ण जेट्ठासमीहिं सुसहो, जया वासेंति पयोवाहा जया तया । हवंति पच्छण - रविबिबाणि दुद्दिणाणि । हिअयं कंपि कुणेमाणी विज्जोअइ विज्जू | गडगडायमाणो कण्णमूलं भिदेइ पुण थणिअ-सहो । पिच्छिला हवंति वत्तणीओ । सवेआओ वहति णिण्णआओ । अब्भंतरिओ वि अक्को अईव अंतरंग-गिम्मिं अणुहवावेइ जाउ, तम्मि को सुही जुवइजणविरहिओ चिट्टिउ खमो ? विहि-परतंतो पउत्थो वि कोइ गिहं संभरेइ रत्तिदिअहं । उक्किट्ठमंतव्वेअरणं माणेइ काइ
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छट्ठो ऊसासो
१८१
ध्यायति, परमेष्ठिनं स्मरति, क्षुधमध्यास्ते, सुखं सुखेन शीतकालं च यापयति । तथैव उष्णकालोऽपि न भोगिनामनुलोमः । यस्मिन् प्रतपति अति तिग्मरश्मिभिः अंशुमाली । वह्नि सदृशी भवति धरणी । सर्वमपि वातावरणं तातपयमानः प्रवहति असहनीयो मारुतः । वारं वारं परिप्रोतिमपि न शुष्कत्वमुपैति स्वेदजलम् । सुपीतमपि उदकं न कदापि पीतमिवानुभवति तृष्णालुकानि ओष्ठ-तालु-कण्ठविवराणि । तस्मिन् प्राप्त समग्र भोग सामग्रीको नानाविधं शीतपेयं पिबन् वातानुकूलित- गृहे आलीनः सुकृती को हर्म्यं त्यक्तुं शक्नोति ? तत्रापि मुनिर्यत्रकुत्रापि स्थितः यत् किमपि शीतोष्णं भुञ्जानः, उष्णं जलं पिबन् तप्त-भूमितलेऽपि अनास्तृतं स्वपन्, परममुदितो लक्ष्यते । केनानुभूयते ग्रीष्मकाल -तप्तिर्योऽनुवेलं स्मरति परमं पदम् । यस्य सर्वमपि बाह्य वस्तुजातं बाह्यम्, तस्य का सुखस्य दुःखस्य वा कल्पना ? अहो ! विचित्रो मुनीनामध्वा । तथैव प्रावृट्समयोऽपि न ज्येष्ठाश्रमीभिः सुसहः । यदा वर्षन्ति पयोवाहा, यदातदा भवन्ति प्रच्छन्न- रवि विम्बाणि दुर्दिनानि । हृदयं कम्पितं कुर्वती विद्योतते विद्युत् | गडगडायमानः कर्णमूलं भिनत्ति पुनः स्तनितशब्दः । पिच्छिलाः भवन्ति वर्तन्यः । सवेगा वहन्ति निम्नगाः । अभ्रान्तरितोऽप्यर्कोऽतीवान्तरङ्ग - ग्रीष्मतामनुभावयति जातु तस्मिन् कः सुखी युवतिजन-विरहितः स्थातु क्षमः ? विधि- परतन्त्रः पउत्थोऽपि ( प्रोषितोऽपि ) कोऽपि गृहं स्मरति रात्रिदिवम् । उत्कृष्टामन्तर्वेदनां
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१८२
रयणवाल कहा पवसिअ-भत्तिआ 'पिउ पिउ 'त्ति' बप्पीह-सण पित्रं संसरेमाणी माणिणी। तहि पाउसम्मि वि पच्चक्खायपाणभोअणा गिरिकंदरासु समल्लीणा ववगय-सव्व-सरीरमाणस-चिंता अक्खय-बंभचेर-परिवढिअ-लेस्सा झाणकोट्टोवगया अलक्खिअं तक्कणा-रहिअं सुहं बेलमइवाहयंति, अओ संति सब्वेवि उउणो' मुणीणं दाहिणावट्टा । तो मए किर गंतव्वं पिअराण ढुढल्लणट्ठ। ण तुम्हारिसारणं तत्थावयासो। 'संपइ चिअ बच्चेमि कि गहिअव्वं मए' एवं भणेतो राउलो केवलं हत्थ-गहिअ-वोणो तओ समुदिओ। 'अजुत्तमिणं अजुत्तमिणं 'ति बोल्लमाणेण रयणेण सहसत्ति णिअंतिओ राउलस्स करपल्लवो, साहिरं च-"जोइंद ! किमसामइयं गमणमाढत्तं ? चिंतणिज्जं किंचि । पढमजणणी-जणगाणं कएणं पुत्तस्स चिअ पएसगमणं णीइसंगअं। वीइज्जअं-अतिहिरूवैरण समागओसि एत्थ दूरदेसंतराओ तुमं, सेवारिहस्स तस्स णिअ-कज्जट्ट संपेसणं अणुइयं । तइयं-विरत्तेहिं गिहि-कम्मस्स कारावणं ण सोहापयं । एत्तो सविणयं पत्थणं मईयं, जं इह च्चिअ ठिच्चा तुमए जोग-साहणा कायव्वा । रण अस्सि विसयम्मि भागिल्लेण भव्वं ।”
णिअंगमणं समुइअं 'ति पायडतेण राउलेण सगज्ज वज्जरिअं-"सेट्ठि-पुत्त ! णत्थि अमुणिआ णीई राउलजोइणा। वसुहेब कुडुबं 'ति भावमाणाणं मुणीणं कत्थ णिअ-परतक्कणा ? तुम्हकेरा जणणीजणया किं ण
१ ऋतवः ।
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छट्टो ऊसासो
१८३
मानयति ( अनुभवति) कापि प्रोषितभर्तृ' का 'पिउपिउ' इति बप्पीहशब्देन प्रियं संस्मरन्ती मानिनी । तस्मिन् प्रावृषि अपि प्रत्याख्यातपानभोजनाः गिरिकन्दरासु समालीनाः व्यपगत सर्वशरीर-मानस चिन्ता अक्षत-ब्रह्मचर्य - परिवर्धित - लेश्याः ध्यान - कोष्ठोपगताः अलक्षितां तर्कणार हितां सुखं वेलामतिवाहयन्ति, अतः सन्ति सर्वेऽपि ऋतवो मुनीनां दक्षिणावर्ताः । तस्माद् मया किल गन्तव्यं पित्रोः गवेषणार्थम् ! न युष्मादृशां तत्रावकाशः। 'सम्प्रत्येव व्रजामि किं ग्रहीतव्यं मया' एवं भगन् राउल : केवलं हस्तगृहीत - वीणस्ततः समुत्थितः । अयुक्तमिदं अयुक्तमिदमिति कथयता रत्नेन झटिति नियन्त्रितो राउलस्य करपल्लवः कथितं च – “योगीन्द्र ! किमसामयिकगमनमारब्धम् ? चिन्तनीयं किञ्चित् ! प्रथमम् जननीजनकानां कृते पुत्रस्यैव प्रदेशगमनं नीति संगतम् । द्वितीयम् - अतिथिरूपेण समागतोऽसि अत्र दूरदेशान्तरात् त्वम्, सेवार्हस्य तस्य निजकार्यार्थं सम्प्रेषणमनुचितम् । तृतीयम् - विरक्तैः गृहि कर्मणः कारापणं न शोभास्पदम् । एतस्मात् सविनयं प्रार्थनं मदीयं यदिहैव स्थित्वा त्वया योगसाधना कर्त्तव्या । नाऽस्मिन् विषये भागवता भाव्यम्" ।
-
निजं गमनं समुचितमिति प्रकटयता राउलेन सगजं कथितम्" श्रेष्ठपुत्र ! नास्ति अज्ञाता नीति: राउल योगिना । वसुधैव कुटुम्ब - मिति भावयतां मुनीनां कुत्र निज पर तर्कणा ? युष्मदीया जननी
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१८४
रयणवाल कहा
अम्हेच्चया ? 'ण तिही काइ जस्स विज्जइ 'त्ति अतिही' णिरुत्तीए पायडमिणमो, ता सो ण अब्भागओ । सेवा किर जेसि जीवण-वयं स किं पर-सेवणमहिलसेइ ? परोवयारकरणम्मि ण गिहत्थ-संथव - दोस- दुट्ठत्तमुवेंति सुसीला तवोहणा । किणो तुमं निरट्ठअं आग्गहं कुरणेसि ? सहयर ! सुण, ण जइ हं आगेउ सक्केज्जा भाणुमई-जुत्तं जिणदत्तं छम्मासमज्झयारम्मि इह, तो पविसस्समहमगणिकु डम्मि 'त्ति पडिण्णाय वीअभयो एगल्लो चलिउं पयट्टो राउलो तक्खणं । अलद्ध-तग्गमण- णिरोह - मग्गो अच्चतं वृण्णो वि रयणवालो कहंकहमवि पडिवेसणट्ठ" संमओ जाओ । चलिओ सो तेण सद्धि पुर परिसर- पेरंतं सिक्खा-रूवेण किमवि सातो । जहा - " सावहाणेण वट्टिअव्वं दे संत रम्मि राउल ! पर- पयारण- तप्परा अरोगे धुत्त - सेहरा पइपयं वंचयंति अणवहिअ - माणवे । जाव ण तुमं पच्चावलिहिसि ताव ण मे मणो कत्थइ समल्लिस्सइ । पइदिणं तुह पहं पेच्छं तम्हा तुरिअ-तुरिअं पच्चावलणस्स चिट्ठा कायव्वा" 'आम' 'तहत्ति' भणेंतो पिअ-विरहेण अंतायल्लयं अणुहवंतो वि उवरि जोगिजुग्गं णीममत्तणं दक्खवेंतो अग्गओ सरिओ । एवं बहुदूरपहं आगया ते दोणि वि । विरहवेअण- रुद्धकंठेण अंतम्मि रुयंतेण रयणेण धणिअमुवगूहिओ राउलो । विरह संतत्थ-णयणेहिं पीइज्जमाणो चित्त लिहिएण इव तत्थ-ट्टिएण पहम्मि तुरिअ - पायपायं वड्ढमाणो दिट्ठो सो खतरम्मि रुक्खांतरिओ अदिट्ठो संवृत्त ।
१ प्रति प्रेषणार्थम् २ आयल्लया० स्त्री० (दे०) बेचनी । अन्तायल्लयंअन्तर्षीडा ।
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छट्ठो ऊसासो जनकाः किं नास्मदीयाः ? 'न तिथिः कापि यस्य विद्यते इति अतिथिः' निरुक्त्या प्रकटमिदम् । तस्मात् स न अभ्यागतः । सेवा किल येषां जीवन-व्रतं स किं परसेवनमभिलषते ? परोपकारकरणे न गृहस्थसंस्तव-दोषदुष्टत्वमुपयन्ति सुशीलास्तपोधनाः । किणो (प्रश्ने) त्वं निरर्थकमाग्रहं करोषि ? सहचर ! शृणु, 'न यदि अहं आनेतु शक्नुयां भानुमतीयुक्तं जिनदत्तं षण्मासमध्ये इह, तदा प्रविशाम्यहमग्निकुण्डे' इति प्रतिज्ञाय वीतभयः एकाकी चलितु प्रवृत्तो राउलस्तत्क्षणम् । अलब्ध-तद्गमन-निरोध-मार्गः अत्यन्तं खिन्नोऽपि रत्नपालः कथं कथमपि प्रतिप्रेषणार्थं सम्मतो जातः । चलितः स तेन साधं पुर-परिसर-पर्यन्तं शिक्षारूपेण किमपि कथयन् । यथा
"सावधानेन वर्तितव्यं देशान्तरे राउल ! पर-प्रतारण-तत्परा अनेके - धूर्त-शेखराः प्रतिपदं वञ्चयन्ति अनवहित-मानवान् । यावन्न त्वं प्रत्यावलिष्यसे तावन्न मे मनः कुत्रापि समालेष्यते । प्रतिदिनं तव पथं प्रेक्षिष्ये, तस्मात् त्वरित-त्वरितं प्रत्यावलनस्य चेष्टा कर्तव्या । 'आम्' 'तथेति' इति भणन् प्रिय-विरहेण अन्तायल्लयं (अन्तःपीडां) अनुभवन्नपि उपरि योगि-योग्यं निर्ममत्वं दर्शयन् अग्रतः सृतः । एवं बहुदूर-पथं आगतो तौ द्वावपि । विरहवेदन-रुद्धकण्ठेन अन्ते रुदता रत्नेन धणियं (गाढं) उपगूढः राउलः । विरह-संत्रस्त-नयनाभ्यां पीयमानः चित्रलिखितेनेव तत्रस्थितेन पथि त्वरित-पाद-पातं वर्धमानो दृष्टः सः । क्षणान्तरे वृक्षान्तरितः अदृष्टः संवृत्तः ।
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रयणवाल कहा
सुमिणेवि अकप्पि किमेअं जायं ? हंत ! बालस्सवि अस्स केरिसं लोगुत्तमं सोअण्णं ? केरिसो अब्भुआ णिन्भयया ? केरिसं बुद्धिचावल्लं ? केरिसी परोवयारणिट्ठा ? अहो अणण्णो उच्छाहो ! अणेलिसो माहप्पो । महुरो सहावो । णिच्च हसिअं वयणारविंदं । अव्वो ! कस्स इमिआ पसूई | मणे महाकुलीणोऽमू बालमुणी । धी ! धी ! मं, एआरिसो सुहोइओ सोमाल - सरोरो मज्झ कारणं पइग्गामं भमिस्सर, जहापत्तं भुजिस्सर, जहि कहि वीसंतो द्वाणं गहिस्सइ, अत्तण्णेसणवयो' तम्मणो, तल्लेसो, तप्परो य अणेगाई कट्ठाई खमिस्सइ । अण्णाणीहिं अवहीरिओ वि समभाव- भाविओ होहिस्सइ पुण । एवं बहु विगप्पेमाणो सोएमाणो गुम्मइअ' - हिअयो य रयणवालो गिहमागओ । पडिकज्जं, पडिभोअणं, पडिपलं च राउलं सरेंतो एक्कमेक्कं दिणं अंगुलिपव्वेसु गतो जहाकहं कालक्खेवं करेइ |
इओ पहम्मि सत्तरगईए उवसप्पंतो जे केइ मज्झेमग्गं गामा गयराई खेड-कवडाई आगच्छेज्जा, तत्थ सुहमेक्खणिआए' अण्णेसणं कुणमाणो पुच्छेइ, तक्केइ, णाम- कीत्तणं करेइ, संकेअं च जणावेइ । अणमिलिअम्मि संकेए अग्गओ वच्च । अणलसो सो ण कहिवि समयं मुहा गमेइ, वीसमेइ, णिच्चितं च सुवइ । एगंतमणुवलक्खिसु गामणयराईसुवि वीणा - णाएण कण्णामय-महुर- वेरग्गमय गीअ-गाणेण जणसमूहं आकड्ढइ । बालावत्थं अब्भुअ-रूवसंपयं तं विलोएऊण
१ अत्तान्वेषण व्रत:- गृहीतान्वेषणव्रत इत्यर्थः २ गुम्मइय- हृदयः संमूढहृदयः । यथा- गुम्मइअं संमूढं ( पाइय० ५८०) ३ सूक्ष्मेक्षणिकया ।
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छट्ठो ऊसासो
१८७ स्वप्नेऽपि अकल्पितं किमेतत् जातम् । हन्त ! बालस्याप्यस्य कीदृशं लोकोत्तमं सौजन्यम् ? कीदृशी अद्भुता निर्भयता ? कीदृशं बुद्धिचापल्यम् ? कीदृशी परोपकार-निष्ठा ? अहो ! अनन्यः उत्साहः। अनीदृशं महात्म्यम् ! मधुरः स्वभावः ! नित्यं हसितं च वदनारविन्दम् । अहो ! कस्य इमा प्रसूतिः ? मन्ये महाकुलीनोऽसौ बालमुनिः। धिग् ! धिग् ! माम्, एतादृशः सुखोचितः सुकुमार-शरीरो मम कारणं प्रतिग्राम भ्रमिष्यति, यथा प्राप्तं भोक्ष्यते, यत्र कुत्र विश्राम्यन् स्थानं ग्रहीष्यति, आत्तान्वेषणव्रतः तन्मना: तल्लेश्यः तत्परश्च अनेकानि कष्टानि क्षमिष्यते । अज्ञानिभिरवधीरितोऽपि समभावभावितो भविष्यति पुनः । एवं बहुविकल्पयन् शोचयन् गुम्मइयहृदयः (संमूढहृदयः) च रत्नपालो गृहमागतः। प्रतिकार्य, प्रतिभोजनं, प्रतिपलं च राउलं स्मरन् एकैकं दिनं अंगुलि-पर्वसु गणयन् यथा कथंचित् कालक्षेपं करोति।
__इतः पथि सत्वरगत्या उपसर्पन ये केऽपि मध्येमार्ग ग्रामाः नगराणि खेट-कर्वटानि आगच्छेयुः, तत्र सूक्ष्मेक्षणिकया अन्वेषणां कुर्वन् पृच्छति, तर्कयति, नामकीर्तनं करोति, संकेलं च ज्ञापयति ! अमीलिते संकेते अग्रतो व्रजति । अनलसः स न कुत्रापि समयं मुधा गमयति, विश्राम्यति, निश्चिन्तं च स्वपिति । एकान्तमनुपलक्षितेषु ग्राम-नगरादिष्वपि वीणा-नादेन कर्णामृत-मधुर-वैराग्यमय-गीतगानेन जनसमूहमाकर्षति । बाल्यावस्थमद्भुतरूपसम्पदं तं विलोक्य
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१८८
रयणवाल कहा जोईसरं जणया संमोहिआ होइ, सक्कारेइ, सम्माणेइ, अणेग-वहिं पुण उवणीमतेइ परं णिप्पिवासो राउलो ण किमवि गिण्हेइ, णवरं भिक्खायरिआए समिआइयं' दव्वं गहिअ णिअ-हत्थेहिं पागं करिअ एगहुत्तं भुजेइ । पच्छा लद्ध-परिचयेहिं तत्थगय-जणेहिं जिणदत्तस्स टिइं आगमणगमणाइयं गवेसइ । अपत्त-वृत्तंतो इक्कवए तओ णिप्फिडइ । तत्थ ठाउ बहुमणुरुद्धो वि णायरेहिं 'अलाहि अलाहि णिवासेरणं' ति कहेंतो अद्धणीणो हवइ । एवं पलंबा वत्तणी उल्लंघिआ णेण। अणेगाणि णयराणि मग्गिआणि । वणाणि तद्दिट्टीए दिट्ठाणि । णाणा मढा आसमा पंतग्गामा ढंढल्लिआ । परं ण जिणदत्तस्स णामपि आयण्णिअं । ण काइ पउत्ती वि पत्ता । सुहमो संकेओवि ण लखो। तहावि अखेइरो राउलो दक्खिणाए दिसाए परिवड्ढइ । लक्खेगदिट्टी केत्तिल्लमिणं 'ति मण्णंतो सवेगमग्गओ सरइ । उज्जमिल्लाणं किमलब्भं, किमसक्कं, किं दूरं वा ? जे असाहहल्लं मुणेति साहल्लस्स उवायाणं । चलणाणमुवरि चलंति जत्थ चलणा तत्थ किं दूरं गम्मपयं ? कमसो अणेग-दिअहेहि पत्तं राउलेण जिणदत्त-सणाहं वसंतपुरं णाम णयरं । मग्गसंगएहिं तत्थगय-जणेहिं पुव्वमेव जिणदत्तणामो कोइ वुड्ढो कट्ठहारगो सभज्जो पुरस्स बाहिरं एगम्मि उडजम्मि णिवसइ 'त्ति मुणिों। सुणिऊण स-ससुरस्स चिरचितिरं कण्णप्पिअं णामहेअं हरिस-वसुभिण्ण-रोमंचो संजाओ
१ समितादिकम्-'आटा आदि' इतिभाषा २ निस्फिटति 'बाहर निकलना' इतिभाषा।
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छट्ठो ऊसासो
१८६ योगीश्वरं जनता सम्मोहिता भवति, सत्कारयति, सम्मानयति, अनेकवस्तुभिः पुनरुपनिमन्त्रयति परं निष्पिपासो राउलो न किमपि गृह्णाति, केवलं भिक्षाचर्यया समितादिकं द्रव्यं गृहीत्वा निजहस्ताभ्यां पाकं कृत्वा एकवारं भङ क्ते । पश्चाद् लब्ध-परिचयैस्तत्रगतजनैजिनदत्तस्य स्थितिम् आगमन-गमनादिकं गवेषयति। अप्राप्तवृत्तान्तः एकपदे ततो निष्फिटति । तत्र स्थातुबनुरुद्धोऽपि नागरैः 'अलमल निवासेनेति कथयन् अध्वनीनो भवति । एवं प्रलम्बा वर्तनी उल्लंघिता तेन । अनेकानि नगराणि मागितानि । वनानि तदृष्ट्या दृष्टानि । नाना मठा: आश्रमाः प्रान्तग्रामाः गवेषिताः। परं न जिनदत्तस्य नामाप्याकणितम् । न कापि प्रवृत्तिरपि प्राप्ता । सूक्ष्मः संकेतोऽपि न लब्धः । तथापि अखेदवान् राउलो दक्षिणस्यां दिशि परिवर्धते । लक्ष्यकदृष्टि: कियदिदमिति मन्यमानः सवेगं अग्रतः सरति । उद्यमवतां किमलभ्यं, किमशक्यं, किं दूरं वा-ये असाफल्यं जानन्ति साफल्यस्य उपादानम् । चलनानामुपरि चलन्ति यत्र चलनाः तत्र किं दूरं गम्यपदम् ? क्रमशोऽनेकदिवसः प्राप्तं राउलेन जिनदत्तसनाथं वसन्तपुरं नाम नगरम् । मार्ग-संगतस्तत्रगतजनैः पूर्वमेव जिनदत्तनामा कोऽपि वृद्धः काष्ठ-हारकः सभार्यः पुरस्य बहिरेकस्मिन् उटजे निवसतीति ज्ञातम् । श्रुत्वा स्वश्वसुरस्य चिरचिन्तितं कर्णप्रियं नामधेयं हर्षवशोभिन्नरोमाञ्चः संजातो राउलः । मनोरथ
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रयणवाल कहीं
राउलो । मणोरह-घणसंचिआ परिवढिआ पंफुल्लिआ आसावल्ली । सोच्चिअ सोमो जिणदत्तो ससुरो, सा च अत्ता मे भद्द-सहावा भाणुमई । धण्णा अज्जाऽहं तेसिं चिरदुल्लहं दसणं करिस्सं । पिअ-पुत्तस्स अलध्दपुव्व.सुह-समायारेण तेसि माणसं तोसइस्सं' । अहा ! केरिसो होहिइ सो आणंदमइयो समयो ? एवं विकप्पंतो आगओ पुर-परिसरम्मि राउलो । दिट्ठि-पहमावडिअं तमुडजं । कट्ठ-भारं णेउ गओ वणम्मि जिणदत्तो । कज्ज-लग्गहत्था उडजमज्झम्मि ठिआ भाणुमई । तखणं तत्थ समोइण्णो पसण्णमणो वीणाहत्थो सो । उडजस्साहिमुहं दिट्ठा जेण समअला गोमय-लिपिआ पवित्ता वेइआ। परिओ पाइयं पसण्णं वायावरणं । तत्थ वेइआए वीणा-वायण-तप्परो णिमीलिअच्छी अयाणंतो विव अच्छिओ राउलो । सुणिऊण सवणामयं महुरसरं वीणं को एत्थ गायइ 'त्ति तक्कणपरा भूआ भाणुमई । ईसिं गीवं लंबायमाणीए बाहिं पेक्खिअंताए। भत्ति-रस-णिब्भरं गायतो वीणाए समं दिट्ठो ताए एगो बालजोई। अहो ! धण्णं अम्हकेरं दिव्वं दिअहं अज्जतणं, जं अणाहूओ अचिंतिओ एसो बालमुणी अमुणिों दंसणं दाउ कय-पयप्पणो । णूणं अज्ज किमवि महाभव्वं संभाविज्जइ । पुण्णाणं तुच्छाणं च उरि जेसिं समा मई तेसिं मणम्मि कत्थ गंतव्वं, कत्थ ण गंतव्वं, कत्थ चिट्ठिअव्वं, कत्थ ण चिट्ठिअव्वं, ण एआरिसा विगप्पा संभवंति, ता उवणिमंतेमि माहुअरिअट्ठ बालमुणिमिमं । इअ विचिंतिअ किमवि भोअणारिहं दव्वं सप्पेमं
१ तोषयिष्यामि ।
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छट्ठो ऊसासो घन-सिक्ता परिवर्षिता प्रफुल्ला आशावल्ली। स चैव सौम्यो जिनदत्तः श्वसुरः, सा च अत्ता (श्वश्रूः) मे भद्र स्वभावा भानुमती । धन्या अद्याऽहं तेषां चिरदुर्लभं दर्शनं करिष्यामि । प्रियपुत्रस्य अलब्धपूर्वसुखसमाचारेण तेषां मानसं तोषयिष्यामि । अहा ! कीदृशो भविष्यति स आनन्दमयः समयः ? एवं विकल्पयन् आगतः पुरपरिसरे राउलः । दृष्टिपथमापतितं तदृटजम् । काष्ठ-भारं नेतु गतो वने जिनदत्तः । कार्यलग्न-हस्ता उटजमध्ये स्थिता भानुमती । तत्क्षणं तत्र समवतीर्णः प्रसन्नमनाः वीणाहस्तः सः। उटजस्याभिमुखं दृष्टा तेन समतला गोमय-लिप्ता पवित्रा वेदिका । परितः प्राकृतं प्रसन्न वातावरणम् । तत्र वेदिकायां वीणावादन-तत्परो निमीलिताक्षिः अजानन्निव आसितो राउलः । श्रुत्वा श्रवणामृतां मधुरस्वरां वीणां कोऽत्र गायतीति तर्कणपरा भूता भानुमती। ईषद ग्रीवां लम्बायमानया बहिः प्रेक्षितं तया। भक्तिरस-निर्भरं गायन् वीणया समं दृष्टस्तया एको बालयोगी। अहो ! धन्यमस्मदीयं दिव्यं दिवसमद्यतनम्, यत् अनाहूतः अचिन्तितः एष बालमुनिः अज्ञातं दर्शनं दातुं कृत-पदार्पणः । नूनमद्य किमपि महाभव्यं संभाव्यते । पूर्णानां तुच्छानां चोपरि येषां समा म तिः तेषां मनसि कुत्र गन्तव्यं, कुत्र न गन्तव्य, कुत्र स्थातव्यं, कुत्र न स्थातव्यं, नेतादृशाः विकल्पाः संभवन्ति, तस्माद् उपनिमन्त्रयामि माधुकरिकार्थ बालमुनिमिमम् । इति विचिन्त्य किमपि भोजनार्ह द्रव्यं सप्रेम दातुमपराउलं उपनता सा । कृतो विनयप्रणामः । महती
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रणवाल कहा
१६२
दाउ उवराउलं उवणया सा । कओ विणयप्पणामो । महई किवा कया बालजोईसर ! समुद्धारिआ अम्हारिसा मंदभग्गा पावण - दंसणेण । जइवि ण अत्थि तुह सागय-जुग्गं किमवि विसिद्ध, तहविभत्ति - विसिट्ठ विसिद्ध मुणीणं 'ति आणिअं किमवि लुक्खं सुक्खं साणुग्गहं गहिअव्वं । मुणी ! जइ हंतो अम्हणिवासो पुरिमतालम्मि, तया कावि अण्णा सेव्वा, भत्ती, सुस्सूसा य कया हुंता । परं किं संपइ बट्ट 'त्ति साहेमाणी ईसिमुल्लाई नेत्ताइं चीवरेण पुंछंती तुहिक्का
जाया ।
पेम्मस्स पिंडलइआ, वच्छल्लस्स रिछोली, सारल्लस्स मुत्ती, किवाए य पत्तं पयडीए सोम्मा, राउलेण अत्ता विलोइआ । पुत्त-विरह- दुब्बलावि जा कत्तव्व - पालण - पीवरा, दरिद्द-दाव- दड्ढा वि मणसा दाणुच्छुआ, सहाव-महुरा धम्मिट्ठाय तेण सा अणुहूआ । अहो ! धरणं गयं, ण गया दाणसीलया । विलीगा सामिद्धी, परंतु ण बोलीणा माणवया | अहवा धूलिधूसरांपि रयणं जहाइ किं महग्धिमं ? भूमिअल - णिवडिअपि घणजलं हवइ किं कडु ? पत्त - पुप्फफल-विहूणो वि अंबो किं जायइ जिंबो ? खलु गुण रयणखाणी इमिआ तो उववण्णं एत्थ रयणं । नूणं होइ अग्गिणा उद्दीवि दीविप्रं सुवण्णं । जायए महमहिअं णिघट्ट चारुचंदणं । एवं वीमंसेमाणो राउलो पुव्वमिव वीणं वाएमाणो मुअल्लिओ ठिओ ।
१ रिछोली - स्त्री० (दे०) पङक्तिः ।
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छट्ठो ऊसासो कृपा कृता बालयोगीश्वर ! समुद्धारिता अस्मादृशा मन्दभाग्याः पावनदर्शनेन । यद्यपि नास्ति तव स्वागत-योग्यं किमपि विशिष्ट, तथापि 'भक्ति-विशिष्टं विशिष्टं मुनीनाम्' इति आनीतं किमपि रुक्षं शुष्क सानुग्रहं गृहीतव्यम् । मुने ! यदि अभविष्यत् अस्माकं निवासः पुरिमतालपुरे तदा काप्यनन्या सेवा, भक्तिः, सुश्रूषा च कृता अभविप्यत् । परं किं सम्प्रति यद् वर्तते इति कथयन्ती ईषद् आर्द्र नेत्र चीवरेण प्रोच्छन्ती तूष्णीका जाता।
प्रेम्णः पिण्डलिका (पिण्डीकृता ) वात्सल्यस्य रिञ्छाला, (पङ क्तिः) सारल्यस्य . मूर्तिः, कृपायाश्च पात्र, प्रकृत्या सौम्या राउलेन अत्ता (श्वश्रूः) विलोकिता। पुत्र-विरह-दुर्बलाऽपि या कर्तव्य. पालन-पीवरा, दारिद्र य-दाव-दग्धाऽपि मनसा दानोत्सुका, स्वभावमधुरा धर्मिष्ठा च तेन साऽनुभूता। अहो ! धनं गतं न गता दानशीलता। विलीना समृद्धिः परन्तु न व्यतिक्रान्ता मानवता। अथवा धूलि-धूसरमपि रत्नं जहाति किं महाय॒ताम् ? भूमितल-निपतितमपि धनजलं भवति किं कटकम् ? पत्र-पुष्प-फल-विहीनोऽप्याम्रो कि जायते निम्बः ? खलु गुणरत्नखानिः इमा तस्मादुत्पन्नमत्र रत्नम् । नूनं भवति अग्निनोद्दीपितं दीपितं सुवर्णम् । जायते महमहिअं (प्रसृत-सौरभं) निघृष्टं चारु चन्दनम् । एवं विमर्शयन् राउलः पूर्वमिव वीणां वादयन मूकः स्थितः ।
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रयणवाल कहाँ ___"ण कहं उत्तरिज्जइ भयंतेण । कहं ण घेप्पइ भत्तिभरिआ भिक्खा । लुक्खावि पेम्म-सिणिद्धा इद्धा । णिगिट्ठावि भत्ति विसिट्टा मिट्टा" पच्चुत्तरं विरमालेमाणीए भाणुमईए तक्किअं ।
__ "ण जुज्जइ, दे मायरं ! इयारिणं माहुअरी । असाहारणं तुह भत्तिं पेक्खमाणेण मए अवस्सं घेतव्वा सा। परंतु पहु'भत्ति-रस-पाण-थिंपिअ-मरणस्स मे णत्थि सहावि बुभुक्खा, पिवासा पुण। का चिंता मुणीणं भोअणस्स, जत्थ वच्चइ तत्थ अणेगे दायरा हत्थ-गय-भिक्खा पडिक्खंति । अम्मया ! रणीहरिओऽहं पुरिमतालाओ किंचि काल-पुव्वं अणेग-गामगयर-पुर-पट्टणाणि हिंडेंतो एत्थ समागओ। सुरम्म थलं रिणहालिऊण वीसमण8 तुह उडज.वेइआए ठिओ । पहुस्स गुण गाणेण लद्धा अज्झत्थ-वीसंती। भत्ति जुत्तेण तुह आमंतणेण पुण अईव संतुट्ठोम्हि" पयडिअं राउलेण णि रवे खभावेणं ।
सुरिणआण पुरिमतालस्स णामहेअं अचितणिज्जाए काए आसा-रेहाए छिविआ भाणुमई तक्खणं पुच्छिउमाढत्ता"किं पुरिमतालत्तो आगमणं भे?"
राउलो-"आम, तत्तो च्चिअ"
उच्छुईभूआ भाणुमई-"उवलक्खिज्जति किं भदंतेण तत्थगया विसिट्ठा णयरमहंतया” ?
राउलो-“कहं ण ? चिरठिईए अईव परिचिआ मे तत्थगया पमुहा ।"
१ प्रभुभक्ति-रसपान-तृप्तमनसः २ प्रतीक्षन्ते ३ स्पृष्टा ।
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छ8ो ऊसासो
१९५ 'न कथमुत्तीर्यते भदन्तेन ? कथं न गृह्यते भक्तिभरिता भिक्षा ? रुक्षाऽपि प्रेम-स्निग्धा इध्दा । निकृष्टाऽपि भक्ति-विशिष्टा मिष्टा" प्रत्युत्तरं प्रतीक्षमाणया भानुमत्या तर्कितम् ।
"न युज्यते हे मातः ! इदानीं माधुकरी । 'असाधारणां तव भक्ति प्रेक्षमाणेन मया अवश्यं गृहीतव्या सा। परन्तु प्रभुभक्ति-रसपानतृप्त मनसः मे नास्ति सूक्ष्माऽपि बुभुक्षा, पिपासा पुनः । का चिन्ता मुनीनां भोजनस्य ? यत्र व्रजति तत्रानेके दातारो हस्तगत-भिक्षा: प्रतीक्षन्ते। अम्ब ! निसृतोऽहं पुरिमतालात् किञ्चित्कालपूर्वम् । अनेक-ग्राम-नगर-पुर-पत्तनानि हिण्डन्नत्र समागतः । सुरम्य स्थलं निभाल्य विश्रमणार्थं तवोटजवेदिकायां स्थितः । प्रभोगुणगानेन लब्धाऽध्यात्म-विश्रान्तिः । भक्ति-युक्तेन तवामन्त्रणेन पुनः अतीव सन्तुष्टोऽस्मि'' प्रकटितं राउलेन निरपेक्ष-भावेन ।
श्रुत्वा पुरिमतालस्य नामधेयं अचिन्तनीयया कया आशा-रेखया स्पृष्टा भानुमती तत्क्षणं प्रष्टमारब्धा-"किं पुरिमतालादागमनं भवत: ?"
राउल--"आम् ! ततः एव"।
उत्सुकीभूता भानुमती-"उपलक्ष्यन्ते किं भदन्तेन तत्रगताः विशिष्टाः नगरमहत्काः ?"
राउल:-"कथं न, चिरस्थित्याऽतीव परिचिताः मे तत्रगताः
प्रमुखाः ।"
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१६६
रयणवाल कहा
ससंभम भाणुमई-"तया तु अवस्सं णज्जइ तुमए मम्मणसेट्ठिणो गुत्त'।" ___ राउलो-"णूणं अत्थि सो दढमुट्ठी णयर-लक्खिओ महेन्भो"।
हरिस-वसुभिण्ण-हिअय-कमला भाणुमई-"किं मुरिणज्जइ मुणिणा तस्स पुत्ताइओ रयणवालो ?"
नव्वं भावभंगिमं नाडेमाणो राउलो-"अम्मो ! कहं मुरणेइ अम्मा तं रयरणं ? सो चिअ अत्थि मे परमपीइपत्तं अबीओ मित्तो । छमास-पेरंतं ठिओऽहं तेण सद्धि अम्मो !"
रणरणयं भयंती भाणुमई-"किं सच्चं ! तं जाणइ राउलो ?" एवं भणमाणी समीवमागम्म ठिआ । ___"अम्हारिसेहिं किममुणियं रहस्सं, जाणेमि तस्स सव्वं पि जहाजायं घडणा-चक्कं । माय ! रणत्थि सो मम्मणपुत्तो, किंतु अत्थि सो जिणदत्तसेट्ठिणो कुलदीवो, भाणुमईए य अंगओ । दुविहिणा पीलिआ अम्मापिउणो तं सत्तवीसवासरिनं थावण-रूवेण मम्मरण-गिहम्मि ठविअ अलक्खिअमग्गा पवासं गया" पाउक्कयं सलक्खं राउलेण ।
धारेउमसक्कं चिरालद्ध-पुत्त-पउत्ति-उच्छुक्कर वहमाणी भाणुमई-"तओ किं ? तओ किं ? राउल !"
पुत्त-विरहग्गि-ताव-उम्हाइयं मायर-हिअयं सुअस्स कुसल-कहा-सलिल-धाराहिं सलीलमोल्हवेमाणो' राउलो
१ गोत्रम्-नामधेयम् २ औत्सुक्यम् ३ पुत्रविरहाग्नितापोष्मायितम्, ४ विध्यापयत् ।
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छट्ठो ऊसासो
१६७ ___ ससंभ्रम भानुमती-'तदा तु अवश्यं ज्ञायते त्वया मन्मन-श्रेष्ठिनो गोत्रम् ?'
राउल:-'नूनमस्ति स दृढमुष्टिर्नगर-लक्षितो महेभ्यः ।' हर्षवशोद्भिन्न-हृदय-कमला भानुमती-'किं ज्ञायते मुनिना तस्य पुत्रायितो रत्नपाल: ?'
नव्यं भावभङ्गिमानं नाटयन् राउलः- "अम्मो ! (आश्चर्ये) कथं जानाति माता तं रत्नम् ? स एवास्ति मम परमप्रीतिपात्रमद्वितीयं मित्रम् । षण्मास-पर्यन्तं स्थितोऽहं तेन सार्धं अम्ब !"
रणरणकं भजन्ती भानुमती-"किं सत्यम् ? तं जानाति राउलः?" एवं भणन्ती समीपमागम्य स्थिता ।
"अस्मादृशैः किमज्ञातं रहस्यम् ? जानामि तस्य सर्वमपि यथाजातं घटनाचक्रम् । मातः ! नास्ति स मन्मन-पुत्रः, किन्तु अस्ति स जिनदत्त-श्रेष्ठिनः कुलदीपो भानुमत्याश्च अङ्गजः ! दुविधिना पीडितौ मातापितरौ तं सप्तविंशति-वासरिकं स्थापनरूपेण मन्मनगृहे स्थापयित्वा अलक्षित-मागौं प्रवासं गतो" प्रादुष्कृतं सलक्ष्यं राउलेन ।
धतु मशक्यं चिरालब्ध-पुत्र-प्रवृत्त्यौत्सुक्यं वहन्ती भानुमती"ततः किम्, ततः किं राउल !"
पुत्र-विरहाग्नि-तापोष्मायितं मातृहृदयं सुतस्य कुशल-कथासलिल-धाराभिः सलीलं विध्यापयन् राउल:-“मन्मनेन पुत्रवत्
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रयणवाल कहा
"मम्मणेण पुत्तव्व पालिओ, पाढिओ य जया दुवालसवासिओ होहीअ' सो, तया अहमण्णस्स मम्मिग-सहिं ताडिओ णिअ-वृत्तंतवेइरो जाओ।" - अणिमिसणयणा माया-"पच्छा, पच्छा किं ?"
राउलो-"हरिपोअव्व णिसग्गं पत्तो तक्खणं पवासगमणतप्परो संभूओ। मम्मणेण भिसमणुरुद्धोऽवि ण रुद्धो सो । अंतम्मि भरिअ भंडं बोहित्थम्मिर णिब्भयं संजत्तिओ जाओ।"
(सगयं) एआरिसं साहसं कयं तेण दुद्धमुहेण ! आरेइय-' रोमराइआ भाणुमई-"एवं दुक्करमायरिग्रं तेण ! अस्थि अग्गेवि विण्णाणं तस्स ?"
राउलो-"कहं ण ? सुणसु, अज्जपज्जतं वुत्तंतं । गओ सो कालकूडणामगं दीवं । पुप्फाण संजोएण णीरोओ जाओ णिवई । विक्कएणावि भंडस्स लद्धो अउलो लाहो । तत्थ परणीआ तेण राय-पुत्तिआ रयणवई ।" __सच्छरिज्जं अंबा-"किं भणसि राउल ! किं सो जाओ जणेसरस्स जामायरो ? एआरिसो भग्गमंतो !"
राउलो--"सच्चं सच्चं खु मायरं ! पयडिओ सो महाभागिल्लो । किं ण सुव्वइ जणकहणं जं पुरिसभग्गं केण णज्जइ ?
हरिसंसुजलुल्ल-लोयणा भाणुमई--"किं तत्थेव चिट्ठइ सो, वा आगओ पुणरवि णिग्रं पुरं ?"
१ अभूत् २ यानपात्र ३ आरेइयं (दे०) पुलकितमित्यर्थः ४ श्र यते ।
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छट्ठो ऊसासो पालितः पाठितश्च यदा द्वादश-वार्षिकोऽभूत् सः, तदा अधमर्णस्य मार्मिकशब्दस्ताडितो निज-वृत्तान्त-वेदिरो जातः।'
अनिमिषनयना माता-"पश्चात्, पश्चात् किम् ?"
राउल:--"हरिपोतवत् निसर्ग प्राप्तस्तत्क्षणं प्रवासगमन-तत्परः संभूतः । मन्मनेन भृशमनुरुद्धोऽपि न रुद्धः सः । अन्ते भूत्वा भाण्डं बोहित्थे निर्भयं सांयान्त्रिको जातः ।"
(स्वगतम्) एतादृशं साहसं कृतं तेन दुग्धमुखेन ? पुलकितरोमराजिका भानुमती- "एवं ! दुष्करमाचरितं तेन, अस्ति अग्रेऽपि विज्ञानं
तस्य ?"
राउलः -- "कथं न ? शृणु, अद्यपर्यन्तं वृत्तान्तम्, गतः स कालकूटनामक द्वीपम् । पुष्पाणां संयोगेन नीरोगो जातो नृपतिः । विक्रयेणाऽपि भाण्डस्य लब्धोऽतुलो लाभः । तत्र परिणीता तेन राजपुत्रिका रत्नवती।"
साश्चर्यमम्बा - "किं भणति राउल ! किं स जातो जनेश्वरस्य जामाता ? एतादृशो भाग्यवान् !"
राउलः- "सत्यं सत्यं खलु मातः ! प्रकटितः स महाभाग्यवान् । किं न श्रूयते जन-कथनं यत् 'पुरुषभाग्यं केन ज्ञायते ?'
हर्षाश्रुजलार्द्रलोचना भानुमती-"किं तत्र व तिष्ठति सः, वा आगतः पुनरपि निजं पुरम् ?"
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२००
रयणवाल कहा राउलो-किं पुच्छेसि माय ! कहं सो अम्मा-पिउ-विहूणो तत्थ ठाएउ खमो ! सिग्धं पच्चावलिओ तओ आगओ सखेमं णिअं पुरं । पच्चप्पिअं सव्वं अणं'। मम्मण-गिहत्तो तक्खणं समागओ णिअं हम्मिग्रं महया चडयरेण । संपइ अणवेलं विरमालेइ स अम्मा पिऊरणं दरिसणं ।"
वहंतबाहणीरा भाणुमई-"अहमेवाम्हि पुत्त-विरहिआ मंदभग्गा भाणुमई रयणवाल-जणणो। धण्णं अज्जतरणं दिणं जम्मि कण्ण-सुहाइआ जहातहं पिअ-पुत्त-पउत्ती पत्ता। जोइद ! को जाणेइ काई काई कट्ठाइं सहिआइं पुत्तविरहम्मि । अम्हेवि पच्छा णिग्रं पुरं गंतुमुच्छुआ आसी, किंतु अलद्ध-वृत्तंत्ता किंचि संकिआ । संपइ अणायासं तुह आगमणं जायं एत्थ । मिलिआ सव्वावि सुअस्स वत्ता । अहुणा तुरेस्सामो तत्थ गमित्तए, पुत्तं च पेक्खित्तए सुल्लासं ।" ।
तत्थ णिवडियं एगं कट्टखंडं विलोइअ करेण गहिरं, चाउज्जेण जिग्घियं, पुटुच-"किमिणं! किमिणं ! अम्मो !" सारल्लमृत्तीए भाणुमईए चविग्रं-"णत्थि किमवि एयं । एमेव कट्ठभाराओ णिवडियं किमवि, जओ रयणवाल-पिआ आणेइ पइदिणं सुक्कं इंधण-भारं, मणे तस्स चिअ इणमो सयलं ।" ... रहस्सममुणंतेण इव राउलेण तं झोलिआए संगोविअं, जंपियं पुरण-"को गिण्हेइ अणुदिअहं तमिंधणभारं णयरम्म ?"
भाणुमई-"अत्थि एगो णयरम्म हालओ महेन्भो
१ ऋणम् २ आडम्बरेण ३ स्नेहवान् ।
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छट्ठो ऊसासो
राउल :- " किं पृच्छसि मातः ! कथं स मातृपितृविहीनस्तत्र स्थातुक्षमः ? शीघ्रं प्रत्यावर्तितस्ततः आगतः सक्षेमं निजं पुरम् । प्रत्यर्पितं सर्वमृणम् । मन्मन- गृहात् तत्क्षणं समागतो निजं हर्म्य महता चडयरेण (आडम्बरेण सम्प्रत्यनुवेलं प्रतीक्षते स मातापित्रोः दर्शनम् ।"
२०१
वहृद्वाणपनीरा भानुमती - "अहमेवास्मि पुत्र-विरहिता मन्दभाग्या भानुमती रत्नपाल जननी । धन्यमद्यतनं दिनं यस्मिन् कर्ण - सुखायिता यथातथं प्रियपुत्र-प्रवृत्तिः प्राप्ता । योगीन्द्र ! को जानाति कानि कानि कष्टानि सोढानि पुत्रविरहे । वयमपि निजं पुरं गन्तुमुत्सुका आस्म:, किन्तु अलब्धवृत्तान्ताः किञ्चित् शङ्किताः । सम्प्रत्यनायासं तवागमनं जातमत्र । मिलिता सर्वाऽपि सुतस्य वार्ता । अधुना वरिष्यामस्तत्र गन्तु पुत्र' च प्रेक्षितु सोल्लासम् ।
7
-
तत्र निपतितमेकं काष्ट खण्डं विलोक्य करेण गृहीतं, चातुर्येण घातं पृष्टं च किमिदम् - किमिदम् ? अम्ब !' सारल्यमूर्त्या भानुमत्या कथितम् - " नास्ति किमपि एतत् । एवमेव काष्टभारान्निपतितं किमपि । यतो रत्नपाल - पिता आनयति प्रतिदिनं शुष्क मिन्धनभारं मन्ये तस्यैव इदं शकलम् ।"
रहस्यमजानतेव राउलेन तत् झोलिकायां संगोपितं, जल्पितं पुनः - "को गृह्णाति अनुदिवसं तमिन्धन भारं नगरे ? "
भानुमती - " अस्त्येको नगरे स्नेहवान् महेभ्यो धनदत्तः । स
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२०२
रयणवाल कहा धणदत्तो । सो अणुदिहं गहइ एगेणेव मुल्लेण तं । अणेगे वासा बोलीणा णण्णत्थ गमणपयोअणं ।"
(सगयं राउलो) धो धी धी ! धुत्तसेहरं, जो विप्पयारेइ कट्ठमुल्लेण चंदणं गिण्हंतो भद्दे जिणदत्तं । __एत्तो विक्किऊण भारियं आगओ जिणदत्तोवि । उप्फुल्लणयणारविंदा धावेमाणी भाणुमई सम्मुहं गया पइदेवस्स । साहिओ राउल-भणिओ पिय-पुत्त-वृत्तंतो। हरिसवसविसप्पमाणहिअयो सवित्थारं पुत्त-वृत्तंतं सोउं उवराउलं ठिओ सेट्ठी। पुच्छिआ सब्वावि पउत्ती। सद्धि पण्हुत्तरेहिं सणिग्रं-सणिग्रं सव्वापि पयडिआ तेण पिअपुत्तकहा । उच्छुअं जायं हिअयं तं दद्रु । अबीभो आणंदो समुप्पण्णो । ___ "थेव-दिणाणंतरं अहमवि पच्छा पुरिमतालं गंतुकामोम्हि । भविस्सइ गुणं संगयं गमणं अम्हाणं।" पडिवेइग्रं उवेक्खि रेण इव राउलेण।
"साहं साहं, सद्धि चिअ गमिस्सामो । तुह संगमेण अम्हे अईव आणंदिआ होस्सामो" सेटिणा भणि ।।
भिक्खायरिआए सेट्टिणा वि बहुणिमंतिओ अणंगीकाऊण तेसि वयणं तओ उढिओ सो । 'मायं पायं इहागमिस्समहं पुणरवि' एवं जंपिऊण गोसीस-वंचनं धणदत्तं गवेसि अंतोउरं पविट्ठो। चउप्पहम्मि ठिएण तेण एआरिसी महुरसरं वीणा वाइआ जेण पुरजणया सयमाकड्ढिआ । मय-णिउरंबब्व णाय-मोहिओ जणाण संघाओ राउलं परिआलिअ ठिओ। अणेगवहि उवणिमंतिओवि
१ गोशीर्षवञ्चकम्-चन्दनवञ्चकम् २ पुरमध्ये ३ परिवृत्य ।
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२०३
छट्ठो ऊसासो अनुदिवसं गृह्णाति एकेनैव मूल्येन तम् । अनेकानि वर्षाणि व्यतिक्रान्तानि नान्यत्र गमन-प्रयोजनम् ।"
स्वगतं राउल:--"धिग् ! धिग् ! धिग ! धूर्तशेखरं; यो विप्रतारयति काष्ठमूल्येन चन्दनं गृह्णन् भद्र जिनदत्तम् ।"
इतो विक्रीय भारिकामागतो जिनदत्तोऽपि । उत्फुल्ल-वदनारविन्दा धावन्ती भानुमती सम्मुखं गता पतिदेवस्य । कथितो राउलभणितः प्रियपुत्रवृत्तान्तः । हर्षवंश-विसर्पहृदयः सविस्तारं पुत्रवृत्तान्तं श्रोतु उपराउलं स्थितः श्रेष्ठी। पृष्टा सर्वाऽपि प्रवृत्तिः । साधू प्रश्नोत्तरैः शनैः शनैः सर्वाऽपि प्रकटिता तेन प्रिय-पुत्र-कथा । उत्सुकं जातं हृदयं तं द्रष्टुम् । अद्वितीयः आनन्दः समुत्पन्नः ।
"स्तोकदिनानन्तरं अहमपि पश्चात् पुरिमतालं गन्तुकामोऽस्मि । भविष्यति नूनं संगतं गमनमस्माकम्" प्रतिवेदितमुपेक्षिणेव राउलेन ।
“साधु ! साधु ! सार्धमेव गमिष्यामः। तव संगमेन वयमतीवानन्दिता भविष्यामः' श्रेष्ठिना भणितम् ।
भिक्षाचर्याय श्रेष्ठिनाऽपि बहुनिमन्त्रितोऽनङ्गीकृत्य तेषां वचनं तत उत्थितः सः । 'सायं प्रातरिहागमिष्याम्यहं पुनरपि' एवं जल्पित्वा गोशीर्ष-वञ्चकं धनदत्तं गवेषितु अन्तःपुरं प्रविष्टः । चतुष्पथे स्थितेन तेनैतादृशी मधुरस्वरं वीणा वादिता, येन पुर-जनता स्वयमाकृष्टा । मृग-निकुरम्बवत् नाद-मोहितो जनानां संघातो राउलं परिवृत्य स्थितः। अनेकवस्तुभिरुपनिमन्त्रितोऽपि एष न गृह्णाति विशेषतः किञ्चित् ।
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२०४
रयणवाल कहा एसो ण गिण्हेइ विसेसओ किंचि । ताए णिप्पीहयाए' बहुगारवं पत्तो सो जणाण मणेसु। णवरं णिअ-हत्थणिम्मिअ-सत्तिअ-भोअणेण तित्तो जहिं तहिं एगंतम्मि रत्तीए सुवेमाणो सो दक्खयाए धुत्त-धणदत्तस्स गिहेण परिचिओ जाओ। ___ इओ विहि-वसओ णिवस्स अंगम्मि दाहज्जरो समुप्पण्णो । कया सब्वेवि उवाया णीफला गया। विअणाए पीलिओ णिवो अईव असायमणुहवइ । ताला केणावि सड्ढिणा पुरिसेण णिवस्स भणिग्रं-"कीस तुम्हे एआरिसं वेयणमणुहवेज्जा ? एत्थ एगो जंत-मंत-तंतोसह-विसारओ राउलो जोई समागओ अस्थि । तस्सासीसाए देवस्स गओ गओं होहिइ, ण संका । तो आमंतिअन्वो सो इहई । अवस्सं किवालुहिअयो सो किवं काहिइ" ।
दुहिएण णरवइणा तक्खणं सइव -सगासाओ ससम्मारणं दंसणं दाउ पत्थिओ सो रायमंदिरम्मि। "का णाम हाणी ! दाहमहं दंसणं रिणवस्स । पहुकिवाए सव्वं भव्वं हवेज्जा" एवं सातो तक्खणं तओ उप्पडिओ" । जणेहिं परिवारिओ, णिअ-लयम्मि रमेंतो, अहरपुडेहिं उवंसुजावं च कुणमाणो राय-पासायं पत्तो । णिवेण विणयप्पणामो कओ, दत्तं च आसणं । "कयत्थोम्हि अज्ज तुह दंसणेण जोईसर ! अणहवामि तिब्वं दाहज्जरं । सव्वेवि अगयंकारा हारिआ ओसहं कुणता । संपइ तुह सरणं गहिअं । कुणउ अणुग्गहं ।"
-
१ निःस्पृहतया २ गद: ३ गतः ४ सचिव-सकाशात ५ उत्थितः, गुजराती में 'उपडवू" ६ 'उपांशुजापम्।
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छट्ठो ऊसासा
२०५ तया निस्पृहतया बहु गौरवं प्राप्तः स जनानां मनस्सु । केवलं निजहस्त-निर्मित-सात्विक भोजनेन तृप्तो यत्र तत्र एकान्ते रात्रौ स्वपन् स दक्षतया धूर्त धनदत्तस्य गृहेण परिचितो जातः ।
इतो विधिवशतो नृपस्याङ्ग दाघज्वरः समुत्पन्नः। कृताः सर्वेऽपि उपायाः निष्फलाः गताः । वेदनया पीडितो नृपोऽतीवासातमनुभवति । तदा केनाऽपि श्रद्धिना पुरुषेण नृपाय भणितम्-“कस्माद् यूयं एतादृशीं वेदनामनुभवथ । अत्र को यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रौषध-विशारदो राउलो योगी समागतोऽस्ति । तस्याशिषा देवस्य गदो गतो भविष्यति, न शङ्का । तस्मादामन्त्रितव्यः स इह । अवश्यं कृपालुहृदयः स कृपां करिष्यति ।"
दुःखितेन नरपतिना तत्क्षणं सचिव-सकाशात् ससम्मानं दर्शनं दातुं प्रार्थितः स राजमन्दिरे । 'का नाम हानिः? दास्याम्यहं दर्शनं नृपाय। प्रभु-कृपया सर्वं भव्यं भवेत् ।' एवं कथयन् तत्क्षणं ततः उत्थितः । जनैः परिवारितो निजलये रममाणः, अधर-पुटाभ्यां उपांशुजापं च कुर्वन् राज-प्रासादं प्राप्तः । नृपेण विनय-प्रणामः कृतः, दत्तं चासनम् । "कृतार्थोऽस्मि अद्य तव दर्शनेन योगीश्वर ! अनुभवामि तीवं दाघज्वरम् । सर्वेऽपि अगदंकाराः हारिताः औषधं कुर्वन्तः, सम्प्रति तव शरणं गृहीतम् । करोतु अनुग्रहम् ।"
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रयणवाल कहा "पह पहप्पइ सव्वं भव्वं काउं । जस्स सरगण अब्भंतरिआ गया वि विगया हवेज्जा, तत्थ बाहिरामयाणं का कलणा ? णणं होइ मणुओ रोई अण्णाणेण णि ण । पाइअणियमाणं खंडणं चिअ आमाणमामंतणं । परमत्थओ इदि आरणमासत्ती किर णाणा-रोआण जणणी । जइ सा णिन्वुई पत्ता, सयं जम्मइ आरुग्ग-संपया" एवं सूअमाणेण राउलेण गरदेवस्स धमणी विलोइआ । कयं णिआणं । विचिंतिग्रं किंचि । "इसिकरमेयं सुकय-णिआणस्स वेज्जवरस्स। णवरं गोसीसचंदणं जुप्पइ जइ पावीअई। तेण तक्खणं रोगोवससणं हवे, इअ मे कप्पणा" सुल्लासमुप्पालि जोइणा ।
सयराहमेव किंकरा तं गवेसिउं गया णयरम्म । चंदणववहारिणो सब्वेवि आपुच्छिआ परंण कत्थइ पत्तं एगमवि सयलममरचंदणस्स। उआसीण-मुहा सव्वेवि गवेसया पुणरागआ। "रण गोसीसं एत्थ कोई जाणइ, उवलक्खइ, रक्खई य । अण्णं साहारणं चंदणं जइ जुज्जइ तो सुलहं विज्जई" साहियं तेहिं । हयासो जाओ णिओ। "अरे ! ण मिलिअममरचंदणमेत्थ ? हा ! हा ! अणुलंघणिज्जा भविअव्वया ! जोइवर ! संपइ तुममेव सरणं मे ।"
___ "किमत्थि एआरिसं वत्थु जं ण मिलइ पहुस्स महारज्जे । मणुअस्स अजुग्गया चिअ मणुअं असाहल्लं णिदंसेज्जा । किं णयरम्म ण मिलिग्रं हरिअंदणं ? अज्जेव मिलइ, अहुणेव मिलइ, इह एव मिलइ" एवं भणमारणेण
१ प्रभवति २ ईषत्करम् ३ प्राप्यते ४ हरिचन्दम् ।
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छट्ठी ऊसासो
"प्रभुः प्रभवति सर्वं भव्यं कर्तुम् । यस्य स्मरणेनाभ्यन्तरिका गदा अपि विगता भवेयुः तत्र बहिरामयानां का कलना ? नूनं भवति मनुजो रोगी अज्ञानेन निर्जन । प्राकृत नियमानां खण्डनमेव आमानामामन्त्रणम् । परमार्थतः इन्द्रियाणामासक्तिः किल नानारोगाणां जननी । यदि सा निवृति प्राप्ता स्वयं जायते आरोग्य - सम्पद् ।" एवं सूचयता राउलेन नरदेवस्य धमनी विलोकिता । कृतं निदानम् । विचिन्तितं किञ्चित् । " ईषत्करमेतत् सुकृतनिदानस्य वेद्यवरस्य । केवलं गोशीर्ष - चन्दनं युज्यते यदि प्राप्यते, तेन तत्क्षणं रोगोपशमनं भवेत् इति मे कल्पना ।" सोल्लासं कथितं योगिना ।
२०७
शीघ्रमेव किङ्करास्तद् गवेषितुं गता नगरे । चन्दन- व्यवहारिणः सर्वेऽपि पृष्टाः परं न कुत्रापि प्राप्तं एकमपि शकलं अमरचन्दनस्य । उदासीन - मुखाः सर्वेऽपि गवेषकाः पुनरागताः । "न गोशीर्षं अत्र कोऽपि जानाति, उपलक्षयते, रक्षति च । अन्यत् साधारणं चन्दनं यदि युज्यते तदा सुलभं विद्यते" कथितं तेः । हताशी जातो नृपः । " अरे ! न मिलितममरचन्दनमत्र हा हा ! अनुल्लंघनीया भवि ! तव्यता । योगिवर ! सम्प्रति त्वमेव शरणं मे ।"
“किमस्ति एतादृशं वस्तु यन मिलति प्रभोः महाराज्ये ? मनुजस्यायोग्यतैव मनुजं असाफल्यं निदर्शयेत् । किं नगरे न मिलितं हरिचन्दनम् । अव मिलति, अधुनैव मिलति इहैव मिलति " एवं
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रयणवाल कहा
२०८
राउलेण तक्खणं पवेसि णि हत्थं झोलियाए मज्झयारम्मि | निमीलिअ - णयण-जुअलं उच्चयं कहिअं, जहा - "आगच्छउ ! हरिअंदणं, सयराहमागच्छउ हरिनंदणं ! अत्थि पहुस्स आणा, अfor गुरुस्स आणा, अत्थि राउलजोइणो पुण आणा ।" तक्कालमायाउ अमरचंदणं 'ति भणमाणस्स राउलस्स झोलिआओ गोसीस सयलं हत्थ - गहिअं बाहिरमागां । विभिणो विम्यं गया । "अव्वो ! अचितणिज्जा जोइणो सत्ती ! कुओ आग अम्हा हरिचंदणं झोलिआए ? णू दाहज्जरो सत्तरं गत्तरो होहिइ ।" घिट्ट णिहत्थेहि राउलेण चंदणं । काई मंतक्खराई उच्चारमारणेण लित्तं तं णिवस्स गत्तम्मि । जायमेत्ते लेवम्मि तक्खणमणुवमा सीअलया पसरिआ । विगय- दाहो संजाओ णरणाहो । मरणे, णवजीवणं पत्तं तेण । णिवो राउलस्स चरणेसु णिवडिओ, कयण्णुआए विण्णत्तं च - "हंत ! णिक्कारणमुवयारिणो ईइसा हवंति मुणिणो ! अस्थि अज्जावि मुणिकु जरेसु वण्णणाईआ सत्ती । तो लोया सत्ति अंति, सक्कारेंति, सम्मार्णेति य साहुपुंगवे । णिपिह ! केण पच्चुवयारेण लाहवं एमि अप्पारगं ? सच्चमिगं जंण जुप्पइ किमवि लोगुत्तर- चरिआणं लोयम्मि, तहवि मज्झम्मि पसायं काऊण किमवि अंगीकरणिज्जं । परमत्थओ महप्पेसु दारणं खित्तेसु मिव अचुच्छमायारणं । मुणिपुंगवाण देता दायारो पच्चुलं अणुग्ग हीया सिआ, तम्हा किंचि गणप्पसाओ कायव्वो कारुण्णपुण्गेण भदंतेण ।"
विस्स विणयस्सुवर झाणमदेतेण इव राउलेण उव'एस - सरस्सईए वृत्तं - "भूमिद ! किं जुज्जइ मुणिंद- चंदाणं ?
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छट्ठी ऊसासो
२०६
I
1
I
भणता राउलेन तत्क्षणं प्रवेशितं निजं हस्तं भोलिकायाः मध्ये । निमीलितनयनयुगलं उच्चैः कथितम्, यथा- "आगच्छतु हरिचन्दनम् । शीघ्रमागच्छतु हरिचन्दनम् । अस्ति प्रभोराज्ञा, अस्ति गुरोराज्ञा, अस्ति राउलयोगिनः पुनराज्ञा " तत्कालमायातु अमरचन्दनमिति भणतो राउलस्य भोलिका तो गोशीर्ष - शकलं हस्त- गृहीतं बहिरागतम् । नृप-प्रभृतयो विस्मयं गताः । " अब्वो ! ( आश्चर्ये ) अचिन्तनीया योगिनः शक्तिः । कुतः आगतं अकस्माद्धरिचन्दनं भोलिकायाम् । नूनं मे दाघज्वरः सत्वरं गत्वरो भविष्यति । " घृष्टं निजहस्ताभ्यां राउलेन चन्दनम् । कानि मन्त्राक्षराणि उच्चारयता लिप्तं तद्नृपस्य गात्र े । जातमात्र लेपे तत्क्षणमनपमा शीतलता प्रसृता । विगतदाहः संजातो नरनाथः । मन्ये नवजीवनं प्राप्तं तेन । नृपो राउलस्य चरणयोनिपतितः, कृतज्ञतया विज्ञप्तं च - "हन्त ! निष्कारणमुपकारिणः ईदृशा भवन्ति मुनयः । अस्ति अद्यापि मुनि कुञ्जरेषु वर्णनातीता शक्तिः । तस्माल्लोकाः सभक्ति पूजयन्ति सत्कारयन्ति, सम्मानयन्ति च साधु-पुङ्गवान् । निस्पृह ! केन प्रत्युपकारेण लाघवं नयामि आत्मानम् ? सत्यमिदं यन्नयुज्यते किमपि लोकोत्तर- चरितानां लोके, तथापि मयि प्रसादं कृत्वा किमपि अङ्गीकरणीयम् । परमार्थतो महात्मसु दानं क्षेत्र ष्विव अतुच्छमादानम् । मुनिपुङ्गवेभ्यो ददतो दातारः प्रत्युत अनुगृहीताः स्यु । तस्माद् किञ्चित् ग्रहण- प्रसादः कर्त्तव्यः कारुण्य- पुण्येन भदन्तेन । "
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1
1
नृपस्य विनयोपरि ध्यानमददतेव राउलेनोपदेश- सरस्वत्या उक्तम् - "भूमीन्द्र ! किं युज्यते मुनीन्द्रचन्द्र ेभ्यः ? येषां निराशैव
१ उपदेश सरस्वत्या - उपदेशमय्या वाण्या इत्यर्थः ।
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२१०
रयणवाल कहो
जेसि णिरासा चिअ आसा । अकिंचणत्तमेव धरणं । अहो ! जायणा-सीलोवि जोई किं जायए जगम्मि ? भिक्खेण सुलहमण्णं पुण पाणिग्रं। धरणिअलं जाणं ठाणं । रुक्खमूलं किर पडिणिम्मिअं हम्मि। सव्वेवि लोआ परिअणा । उववासा जास अगयंकारा। भूणाह ! बहुं पत्तं हवइ अप्पचाएण । एगं आसाजालं छिदेतो जोई तेलुक्क-सामिद्धि हत्थेइ, ण किं एसो अइलाहो वावारो । तहवि अत्थि भत्तिपुण्णा पत्थणा तो रक्खेम्मि णिवस्स वयणं भंडागारम्मि । आवडिए कज्जे किमवि मग्गहिस्सं 'ति जंपमाणो राउलो तओ उढिओ । अस्स णिप्पिह-वित्तिं पेक्खिऊण सव्वेवि विम्हय-सेराणणा संजाया । समग्गपुरम्मि अब्भुआ एसा कहा वित्थरिआ । विचित्त-सत्तिल्लोऽयं राउलो। खणेण गमिआ इमेण णिवस्स तिव्वा वेअणा । अहुणा सव्व-विइअ-माहप्पो जाओ इमो।
एगया संझाकालम्मि एगागी राउलो धणदत्तस्स गिहस्स अग्गओ आगम्म सणि वीणं वाएउमाढत्तो । दिणावसाणसमयम्मि आयण्णिअ वीणस्सरं, पेक्खिऊण अग्गओ ठिअ च राउलं धणदत्तस्स भज्जा भयभीआ जाया । वेविरी' सा तक्कालं बाहिरमागया साहेउं पउत्ता-"राउल ! कहं विआल-वेलाए एत्थ समागया तुम्हे ? जं जुज्जइ तं सिग्धं गहिअ इओ अण्णत्थ वइअव्वं । जओ भदंता णिवघरसम्माणिआ पूइया य संति, अहं एगागिणी अबला इत्थिा संपइ । ण भे ट्ठिई सोहणत्तणमंचइ किंचि वि । तम्हा जया
१ वेपनशीला।
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छट्ठो ऊसासो
२११ आशा। अकिञ्चनत्वमेव धनम् । अहो ! याचनाशीलोऽपि योगी किं याचते जगति ? भिक्षया सुलभमन्न पुन: पानीयम् । धरणितलं येषां स्थानम् । वृक्षमूलं किल प्रतिनिर्मितं हर्म्यम् । सर्वेऽपि लोकाः परिजनाः । उपवासाः येषां अगदङ्काराः । भूनाथ ! बहु प्राप्तं भवति अल्पत्यागेन । एकमाशाजालं छिन्दन् योगो त्रैलोक्य-समृद्धि हस्तयति, न किम् एष अतिलाभो व्यापारः ? तथापि अस्ति भक्तिपूर्णा प्रार्थना, तस्माद् रक्षामि नृपस्य (भवतः) वचनं भाण्डागारे । आपतिते कार्ये किमपि मार्गयिष्ये” इति जल्पन राउलस्ततः उत्थितः । अस्य निस्पृहवृत्ति प्रेक्ष्य सर्वेऽपि विस्मय-स्मेराननाः संजाताः । समग्रपुरेऽद्भुता एषा कथा विस्तृता। विचित्रशक्तिवानयं राउलः । क्षणेन गमिताऽ नेन नृपस्य तीव्रा वेदना । अधुना सर्व-विदित-माहात्म्यो जातोऽयम् ।
एकदा सन्ध्याकाले एकाकी राउलो धनदत्तस्य गृहस्य अग्रतः आगम्य शनैर्वीणां वादयितुमारब्धः । दिनावसान-समये आकर्ण्य वीणास्वरं, प्रेक्ष्याग्रतः स्थितं राउलं धनदत्तस्य भार्या भयभीता जाता। वेपनशीला सा तत्कालं बहिरागता कथयितु प्रवृत्ता"राउल ! कथं विकालवेलायामत्र समागता यूयम् ? यद् युज्यते तच्छीघ्र गृहीत्वा इतोऽन्यत्र जितव्यम् । यतो भदन्ताः नृपगृहसम्मानिताः पूजिताः सन्ति, अहमेकाकिनी अबला स्त्री सम्प्रति । न भवतः स्थितिः शोभनत्वमञ्चति किञ्चिदपि । तस्माद् यदा अस्य बालकस्य
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२१२
रयणवाल कहा
अस्स बालगस्स जणओ गिहम्मि समागज्छेज्जा तयाणि पुणरागंतव्वं, उइआ सेव्वा होहिइ राउल-जोइणो।" __णिअ-कज्जदक्खेण राउलेण गहिरीहोऊण' वुत्तं"बहिणि ! पत्थि मे धम्मो ऐगागिणीए गिहम्मि आगमणस्स । किंतु किमवि भावि-अभद्द संकमाणेण परोवयारमईए मए एत्थागमण-साहसं कयं । हा ! बहुं असुहं !!"
सोऊण राउलस्साउलं वयणं वराई धणदत्त-गेहिणी सीअ-कंपं कंपिउं लग्गा। किं कि 'ति सणि जंपेमाणी समीवमागम्म तस्स उवमुहं णि कण्णं णिवेसिअ वइअरं गाउं अदिहिमंता संवुत्ता। ___णत्थि अविण्णायं तुन्भेहिं जमत्थि णिवइ-तणू दाहज्जरपीलिआ। णिवेण हरिचंदणटुमईव गवेसणा काराविआ। तहावि ण लद्धं एगमवि तस्स खण्डं । उऑ, मए सा खई पूरिआ। णिवो अरोओ जाओ। तम्मि समयम्मि एगेण पिसुणेण णिवस्स पिसुणिअं-"सामी ! लद्धबहुत्तामरचंदणो धणदत्तो सेट्ठी, तहवि लुद्ध ण तेण ण दत्तं णिवट्ठपि चंदणस्स खंडं एगमवि । केरिसो सत्थ-परायणो परमत्थविहूणो सो।" रिगसम्म एवं कोव-करालिओ जाओ णिवो। संभावयेमि अज्ज सुवे वा सव्वं संगहिनं चंदणं, अईअम्मि तं विक्किणिअ जमज्जिअंधणं च णिवो हत्थगं काहिइ, दंडरूवेण पुण किमहियाहिमं जणिस्सइ 'त्ति विआरणिज्ज रहस्सं । हंत ! हंत ! मच्छरिणा पोरच्छेण सव्वं कज्जमण8 विणासिअं। इअ जणावेउमिह आगओम्हि अहयं । अहुणा
१ गभीरीभूय २ अधृतिमती ३ पश्य ४ सूचितम् ५ अधिकाहितम् ।
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छट्ठो ऊसासो
२१३ जनको गृहे समागच्छेत् तदानीं पुनरागन्तव्यं उचिता सेवा भविष्यति राउलयोगिनः ।"
निजकार्यदक्षण राउलेन गभीरोभूयोक्तम्-"भगिनि ! नास्ति मे धर्मः एकाकिन्या: गृहे आगमनस्य, किन्तु किमपि भावि-अभद्र शङ्कमानेन परोपकारमत्या मयाऽत्रागमन-साहसं कृतम्। हा ! बहु अशुभम् ।”
श्रुत्वा राउलस्याकुलं वचनं वराकी धनदत्तस्य गृहिणी शीतकम्प कम्पित लग्ना। किं किमिति शनैर्जल्पन्ती समीपमागम्य तस्योपमुखं निजं कर्णं निवेश्य व्यतिकरं ज्ञातुमधृतिमती संवृत्ता।
नास्ति अविज्ञातं 'युष्माभिर्यद् आसीद् नृपति-तनुर्दाघज्वरपीडिता। नृपेण हरिचन्दनार्थमतीव गवेषणा कारापिता । तथापि न लब्धमेकमपि तस्य खण्डम् । पश्य, मया सा क्षतिः पूरिता। नृपः अरोगः जातः । तस्मिन् समये एकेन पिशुनेन नृपाय सूचितम्"स्वामिन् ! लब्ध-प्रभूतामरचन्दनो धनदत्तः श्रेष्ठी। तथापि लुब्धेन तेन न दत्तं नृपार्थमपि चन्दनस्य खण्डमेकमपि । कीदृशः स्वार्थपरायणः परमार्थ-विहीनः सः।" निशम्यैवं कोप-करालितो जातो नृपः। संभावयामि अद्य श्वो वा सर्वं संगृहीतं चन्दनम्, अतीते तद् विक्रीय यजितं धनं च नृपो हस्तगं करिष्यति, दण्डरूपेण पुनः किमधिकाहितं जनिष्यति इति विचारणीयं रहस्यम् । हन्त ! हन्त ! मत्सरिणा पोरच्छेन (खलेन) सर्व कार्यमनर्थं विनाशितम् । इति ज्ञापयितुमिह
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२१४
रयणवाल कहा किमणुचिट्ठिअव्वं 'ति वीमंसणिज्जं किंचि । इत्थं कहिऊण राउलो तओ पलाणो।
एमेव राउलेण बीहविआ' सा हित्था किंकायब्वमूढा गुम्मिअ-माणसा अचुच्छमायल्लं वेइउं पउत्ता-"हा ! किमिणं जायं ? कुविओ णरणाहो किमभद्द काहिइ ? हरे ! पउरा हरिअंदणरासी विज्जए अम्ह गिहम्मि । कहं ण दिण्णं णिवट्ठ गवेसियपि महालुद्ध ण मह पइणा ! संपइ कि होहिइ ?" खणमवि घरम्मि ठाउमसक्का तक्खणं धावेमाणी विसंठुलवत्थाभरणा एगागिणी पइसमीवं आवणम्मि आगआ । अयंडमागयं विवण्णमुहिं भज्ज विलोइअ धुत्तो खेअ-विम्हयमीसालिअं चितेउमाढत्तो-"कहमणक्कमि-देहलिदेसा एसा पण्णविहीए एककला समोइण्णा ? गुणं किमवि अरिटु दीसइ अण्णहा कहमेवं भवइ ?" एवं तक्कतेण दइएण ससंभमं पुट-"दइने ! कहमप्पणो इह आगया ? अत्थि अणेगे किंकरा भिच्चा तुह पुरओ, कहं ण ते पट्टविआ अज्ज मे समीवं ? कह हिमाणी-हयं मुणालपत्तं पिव पडिभासइ ते मुह-पोम्मं ? का अमंगला मंगुला पउत्ती ते कण्णातिहीभूआ ?" ____दीहरणीसासं मुचंतीए ताए तुडिअ-सरं अइसणिग्रं पई एगओ किच्चा कहिनं-"सिग्धं गिहं वच्चंतु अज्जउत्ता, नच्चइ काइ विवइघणाघणघडा अम्ह सिरंमि। अत्थि परेहिमलक्खणिज्जं किमवि गुज्झं ण एत्थ पयडिउं सक्कं ।
१ भीषिता २ अनतिक्रान्तदेहलिदेशा ३ पण्यवोथ्याम्- 'बाजार' (इतिभाषा) ४ मंगुला (दे०) अनिष्टा इत्यर्थः ।
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छट्ठो ऊसासो
२१५ आगतोऽस्मि अहम् । अधुना किमनुष्ठातव्यमिति विमर्शनीयं किञ्चित् । इत्थं कथयित्वा राउलस्ततः पलायितः ।
एवमेव राउलेन भीषिता सा त्रस्ता किंकर्तव्यमूढा संमूढमानसा अतुच्छं आयल्लं (चित्तोडे गं) वेदयितु प्रवृत्ता -हा ! किमिदं जातम् ? कुपितो नरनाथः किमभद्र करिष्यति ? हरे ! प्रचुरो हरिचन्दनराशिः विद्यतेऽस्माकं गृहे । कथं न दत्तं नृपार्थं गवेषितमपि महालुब्धेन मम पत्या ? सम्प्रति किं भविष्यति ? क्षणमपि गृहे स्थातुमशक्ता तत्क्षणं धावन्ती विसंस्थुल-वस्त्राभरणा एकाकिनी पतिसमीपं आपणे आगताः । अकाण्डमागतां विवर्णमुखीं भार्यां विलोक्य धूर्तो धनदत्तः खेद-विस्मय-मिश्रं चिन्तयितुमारब्धः-"कथमनतिक्रान्तदेहलिदेशा एषा पण्यवीथ्यामेकाकिनी समवतीर्णा ? किमप्यरिष्टं दृश्यतेऽन्यथा कथमेवं भवति ?" एवं तर्कयता दयितेन ससंभ्रमं पृष्टम्-‘दयिते ! कथं स्वयं इहागता ? सन्त्यनेके किंकराः भृत्यास्तव पुरतः, कथं न ते प्रस्थापिता अद्य मे समीपम् ? कथं हिमानी-हतं मृणालपत्रमिव प्रतिभासते ते मुख-पद्मम् ? का अमङ्गला मङ गुला (अनिष्टा) प्रवृत्तिस्ते कर्णातिथीभूता?'
दीर्घनिःश्वासं मुञ्चन्त्या तया त्रुटितस्वरमतिशनैः पतिमेकतः कृत्वा कथितम्-"शीघ्र गृहं व्रजन्तु आर्यपुत्राः, नृत्यति काऽपि विपद्घनाघनघटा अस्माकं शिरसि । अस्ति परैरलक्षणीयं किमपि गुह्य नात्र
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२१६
रयणवाल कहा भिसमदिहिं वहमाणो सेट्ठी तक्खणं तत्तो चलिओ जायाए सद्धि । णाणा-संकप्प-विगप्पपरो धावेतो गिहम्मि पविट्रो । दढमउलीकयदाराए' ताए अतइ-वेज्जं राउल-साहिग्रं जहातहं सूइयं । पइदेव ! कह णिव-मग्गिरं चंदणं विज्जमाणं पि अप्पणोप्पणिज्ज कह ण अप्पिअं ? अइलोहो सब्वत्थ वज्जणिज्जो 'त्ति सच्चुत्ती ।
णिसम्म घरणी-मुहेण राउल-पिसुणिअं अच्चत्थमुत्तत्थो जाओ लुद्धो । गोसग्गम्मि' जइ णिव-संतिआ दंडवासिआ पुरिसा आगम्म गिहगवेसणं काहिति, अचुच्छं चंदणभंडायारं च पेक्खिहिंति, तया मे का दुद्दसा होहिइ ? हद्धी! अच्चंतगिद्धीए सव्वं विद्धंसिघ्रं ! हा हा ! मुहा वंचिओ मए भद्दो वराओ जिणदत्तो ! मुहा गहिनं मुहा गमिस्सइ मम सव्वस्सेण समं सव्वं संगहि चंदणं । अव्वो ! अप्पो समओ, किं करणिज्जं मए अहुणा ? अंते दंपइणो भयभीआ णिअ-करेहि सव्वं महामोल्लं मलयजं रत्तीए गिहस्स पिट्ठओ एगंतठाणम्मि गरहिअ-वत्थुव्व परिदृविनं। ण एगमवि खंडं चंडभय-खंडिअ-माणसेण रक्खिों णिअगेहम्मि । पुव्वं तं विक्किऊण जमज्जिआ धणमुद्दा सावि भय-हित्थेण तत्थेव छड्डिआ तेण। चंदणसंगहठाणं गब्भगिहं पि गोव्वरेण लित्तं जहा तत्थ ण सिरिखंड-सोरह महमहइ सुएहं पि । पुणो पच्छिमरयणीए णिगडिअ गिहदुवारो सदारो णिप्फिडिओ णयरत्तोवि उविग्गो धणदत्तो। हा !
१ दृढमुकुलीकृतद्वारया २ अतृतीयवेद्यम् ३ अप्पणो-स्वयम् । अर्पणीयम् ४ गोसर्ग-प्रभाते (दे०)।
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छट्ठो ऊसासो प्रकटयितु शक्यम् । भृशं अधृति वहन श्रेष्ठी तत्क्षणं ततश्चलितो जायया सार्धम् । नाना-संकल्प-विकल्पपरो धावन् गृहे प्रविष्टः । दृढमुकुलीकृत-द्वारया तया अतृतीयवेद्य राउल-कथितं यथातथं सूचितम् । पतिदेव ! कथं नृपमागितं तं चन्दनं विद्यमानमपि स्वयं अर्पणीयं कथं नार्पितम् ? 'अतिलोभः सर्वत्र वर्जनीयः' इति सत्योक्तिः ।
निशम्य गृहिणी-मुखेन राउल-पिशुनितं अत्यर्थमुत्रस्तो जातो लुब्धः । गोसर्गे (प्रभाते) यदि नृपसत्काः दण्डपाशिकाः पुरुषाः आगम्य गृह-गवेषणां करिष्यन्ति, अतुच्छं चन्दन-भाण्डागारं च प्रेक्षिष्यन्ते, तदा मे का दुर्दशा भविष्यति ? हद्धी ! अत्यन्त-गृद्धया सर्व विध्वंसितम् । हा । हा ! मुधा वञ्चितो मया भद्रो वराको जिनदत्तः । मुधा गृहीतं मुधा गमिष्यति मम सर्वस्वेन समं सर्वं संगृहीतं चन्दनम् । अव्वो ! अल्पः समयः किं करणीयं मयाऽधुना ? अन्ते भीतौ दम्पती निजकरैः सर्वं महामूल्यं मलयजं रात्री गृहस्य पृष्टतः एकान्त-स्थाने गहित वस्तुवत् परिष्ठापितम् । नैकमपि खण्डं चण्डभय-खण्डित-मानसेन रक्षितं निजगृहे । पूर्व त विक्रीय यजिता धनमुद्रा साऽपि भयग्रस्तेन तत्र व क्षिप्ता तेन । चन्दनसंग्रहस्थानं गर्भगृहमपि गोमयेन लिप्तं, यथा तत्र न श्रीखण्ड-सौरभं प्रसरति सूक्ष्ममपि । पुनः पश्चिमरजन्यां निगडित-गृहद्वारः सदारो निस्फिटितो (निर्गतो) नगरादपि
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२१८
रयणवाल कहा
विचित्ता किर कवडकलाए परिणई ! तम्हा 'माया भयं' ति सच्चमुग्घुटुणीइविउरेहिं ।
नत्तविरामे' पच्छण्णं संपत्तो तत्थ राउलो। परित्तो भममाणो पिट्ठओ परिठ्ठविग्रं चंदणरासि विलोइऊण हट्ठो तुट्ठो जाओ । अहो ! फलवई जाया मे संचालिआ णिअडी। कंटगो कंटगेण णीहरिओ। पावेण पावि णिअ उइयं पडिफलं । धणमुद्दा तक्खणं संगोविआ तेण समयण्णुणा । पच्छा णिवसमीवं अवसरं पप्प गओ। सम्मारिणओ लद्धासरगो कि जुज्जइ 'त्ति जया णिवेण सागह पुट्ठो तया णेण कहि-"णरिंद ! इच्छेमि हं इओ पच्चावलिउं । ण संकुले पुरग्मि मुणीणं मणो लग्गइ। भावावेसेरण गिहिणो मूणिजणे वि आगरिसंति गिहपवंचेसू । संसग्गोचाओ परमावस्सओ मुणिंद-चंदाणं । जहा गिहिणो मुणिसंसग्गेण लद्धवेरग्गा जायंते, तहेव मुणिणो अईव गिहि-संथवेण सिढिल-संजमा हवंति । तम्हा विवित्त-गहण-वरण म्मि मुणिणिवासारिहो मढो संठाविअब्बो 'त्ति मए णिच्छिों । दाणसीलेहिं णायरेहिं तज्जुग्गाणि विसिट्ठ-कट्ठाणि समप्पिआणि, ताणि रासीभूयाणि चिट्ठति । तो सगडाणि जुष्पंति ताई णेउं जहाठाणं । अण्णे णायरा सगडाई दाउमईव अग्गह कुणंति, परंतु वायाबद्धेण मए णिवो चिअ जाइअव्वो 'त्ति चितिअ एत्थागओम्हि ।
णिग्गमणतप्परं जाणिऊण राउलं भूवई खिण्णो जाओ। मम परमोवयारी वच्चइ 'त्ति ण रुइ, साहिअं च--
१ रात्रिविरामे २ निकृतिः ३ समयज्ञन ।
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छट्ठो ऊसासो
२१९ उद्विग्नो धनदत्तः। हा ! विचित्रा किल कपट-कलायाः परिणतिः ! तस्माद् 'माया भयम्' इति सत्यमुद्देष्ट नीतिविदुरैः ।
नक्तविरामे प्रच्छन्नं सम्प्राप्तस्तत्र राउलः । परितो भ्रमन् पृष्टतः परिष्ठापितं चन्दनराशि विलोक्य हृष्टस्तुष्टो जातः । अहो ! फलवती जाता मे संचालिता निकृतिः । कण्टकः कण्टकेन निःसृतः । पापेन प्राप्तं निजमुचितं प्रतिफलम् ! धनमुद्रा तत्क्षणं संगोपिता तेन समयज्ञन । पश्चात् नृपसमीपमवसरं प्राप्य गतः । सम्मानितो लब्धासन: 'किं युज्यते' इति यदा नृपेण साग्रहं पृष्टस्तदा तेन कथितम्-'नरेन्द्र ! इच्छाम्यहं इतः प्रत्यावलितुम् । न सङ कुले पुरे मुनीनां मनो लगति । भावावेशेन गृहिणो मुनिजनानपि आकर्षन्ति गृह-प्रपञ्चेषु । संसर्गत्यागः परमावश्यकः मुनीन्द्रचन्द्राणाम् । यथा गृहिणो मुनिसंसर्गेण लब्ध-वैराग्या जायन्ते, तथैव मुनयोऽतीव गृहि-संस्तवेन शिथिल-संयमाः भवन्ति । तस्माद् विविक्तगहनवने मुनिनिर्वासार्हो मठः संस्थापितव्यः इति मया निश्चितम् । दानशीलै गरैस्तद्योग्यानि विशिष्टकाष्टानि समर्पितानि, तानि राशीभूतानि तिष्ठन्ति । तस्माद् शकटानि युज्यन्ते तानि नेतु यथास्थानम् । अन्ये नागराः शकटानि दातुमतीवाग्रहं कुर्वन्ति, परन्तु वाचा-बद्धेन मया नृपः एव याचितव्यः इति चिन्तयित्वा अत्रागतोऽस्मि ।"
निर्गमन-तत्परं ज्ञात्वा राउलं भूपति: खिन्नो जातः । मम परमोपकारी व्रजतीति न रुचितं, कथितं च- "योगीश्वर ! कैतादृशी
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२२०
रयणवाल कहा जोईसर ! का एआरिसी गमण-तुरा ? थोक्काणि दिणाणि वइक्कताणि इहागयस्स भे। णिस्संगमाणसाणं का संगदोससंका ? पुणेति अप्पाणं तुहसंगमेण अम्हारिसा पावा मंदा वि । तम्हा जंगम -तुहाणि मुणिणो। का मग्गणा सगडाणं, जेत्तिलाई जुज्जति तेत्तिलाइ गिण्हंतु किर। किमेत्थदाणगारवं ? अण्णं किमवि गहिअव्वं महापसाएण भदंतेण, परंतु ण संपइअंगमणं भविस्सइ ।
इच्छापहाणा मुणिणो हु ण अग्गहप्पहाणा। पवणस्स किं गमणमागमणं च । अम्हके रोवएस-पडिवालणमेव अम्ह दंसणं । जहाकालं पच्छावि आगमणं ण कि संभावणिज्जं ? एवं कहिअ तक्खणं राउलो णिवं आसीसाए तोसेमाणो' तओ चलिओ। णिवेण अरणेगाणि जच्च-बसह-जुत्ताणि सगडाणि उवईकयाणि । णिवसमीवत्तो गहिऊण ताणि चंदणरासि-ससीममागओ । भरियं हरिअंदणं तेसु । पुराओं किंचि दूरं भरिअ-सगडाणं सेढी ठाविआ पुरिमताल-पुरपहम्मि । एवं सव्वं कज्जं जहटिअं काऊण जिणदत्त-भाणुमईसमीवमागम्म भणिग्रं-“गम्मइ” मए अज्ज पुरिमतालं भो ! बहुदिणाणि अईआणि एत्थ । का समीहा भवयाणं णणु ? पुटु मग्ग-पत्थिएण इव राउलेण ।
___ "जम्मि वासरम्मि आयण्णिआ तुह मुहेण पुत्तस्स मंगलपउत्ती (तओ पभिइ) जागरिआ अक्खमा उक्कंठा पुत्तदंसणट्ठ। ण रइं लब्भेमो खणमवि कत्थइ। पडिपलं
१ जङ्गमतीर्थानि २ तोषयन् ३ जात्यवृषभयुक्तानि ४ उपदीकृतानि ५ गम्यते ।
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छट्ठो ऊसासो गमन-स्वरा ? स्तोकानि दिनानि व्यतिक्रान्तानि इहागतस्य भवतः । निस्संगमानसानां का सङ्ग-दोष-शङ्का ? पुनन्त्यात्मानं तव संगमेन अस्मादृशाः पापाः मन्दा अपि । तस्माद् जङ्गम-तीर्थानि मुनयः । का मार्गणा शकटानाम्, यावन्ति युज्यन्ते तावन्ति गृह्णन्तु किल । किमत्रदान-गौरवम् ? अन्यत् किमपि गृहीतव्यं महाप्रसादेन भदन्तेन, परन्तु न साम्प्रतिकं गमनं भविष्यति।
इच्छा-प्रधानाः मुनयो हु (निश्चये) नाग्रहप्रधानाः । पवनस्य कि गमनमागमनं च । अस्मदीयोपदेश-प्रतिपालनमेव अस्माकं दर्शनम् । यथाकालं पश्चादपि आगमनं किं न संभावनीयम् ? एवं कथयित्वा तत्क्षणं राउलो नृपमाशिषा तोषयन् ततश्चलितः । तृपेणानेकानि शकटानि जात्य-वृषभ-युक्तानि उपदीकृतानि । नृप-समीपाद् गृहीत्वा तानि चन्दनराशि-ससीममागतः । भरितं हरिचन्दनं तेषु । पुरात् किञ्चिद् दूरं भरित-शकटानां श्रेणिः स्थापिता पुरिमतालपुर-पथे। एवं सर्व कार्य यथास्थितं कृत्वा जिनदत्त-भानुमती-समीपमागम्य भणितम्- “गम्यते मयाद्य पुरिमतालं भोः । बहुदिनानि अतीतानि अत्र । का समीहा भवतां ननु ?" पृष्टं मार्गप्रस्थितेन इव राउलेन ।
यस्मिन् वासरे आणिता तव मुखेन पुत्रस्य मंगल-प्रवृत्तिस्ततः प्रभृति जागरिता अक्षमा उत्कण्ठा पुत्र-दर्शनार्थम् । न रतिं लभावहे क्षणमपि कुत्रापि । प्रतिपलं प्रतीक्षावहे त्वां सङ्गोपितभण्डोपकरणौ
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२२२
रयणवाल कहा विरमालेमो तुमं, संगोविअ-भंडोवगरणा विहिअ-करणिज्जकज्जा वयं सहगमण?" झडिति उत्तरिअं जिणदत्तेण ।
"तुरीअउ ता, कस्स पडिक्खा विज्जइ विरत्तचित्ताणं ? गच्छेमि इआणिमेवाहं तु ।" अग्गओ पयण्णासं कुणंतेण इव राउलेण उईरिअं।
भाणमईए अणुगमिज्जमाणमग्गो खंधारोविअ-णिअ-भारो सेट्ठी फुरंताहरपुड-फुडणमुक्कारो' अणुपयं राउलस्स गंतुमाढत्तो । तुरंतमागया एए सगडसेढीए समीवं । सावि संचालिआ राउलेण।
__ "कहं मुहा भारो वहिज्जइ परिणयवएण भवया ? सगडेसु का गणणा अस्स ? किवाए ठाविअव्वो णीसंक" चोइअं राउलेण अणाउलं । ___णत्थि दुव्वहो भारो राउल ! सुहं तं वहामि अहयं' कहिलं रिउमइणा सेट्ठिणा।
तहवि सइ संजोगम्मि भारणिव्वहणं ण सोहणं 'ति लवंतेण राउलेण सेट्ठिखंधाओ णिअ-हत्थेण भारपोट्टलिआ उत्तारिआ, सुरक्खियं रक्खिआ य सगडमज्झयारम्मि । भाणुमई-हत्थगयं किमवि लहुं वत्थु तहेव ठविअं सग्गहं । उल्लंघिए पुण थेवमेत्ते पहम्मि पुणो राउलेण उल्लविअं-- "अत्थि एगंमि सगडम्मि रित्तं ठाणं, कहं ण अच्छिज्जइ' तुब्भेहिं तत्थ ? ण थेरेहिं पायगमणं सुसक्कं 'ति किवाए आसिआ कायव्वा ।"
१ स्फुरदधरपुटस्फुटनमस्कारः २ आस्यते ।
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छट्ठी ऊसासो
२२३
विहित करणीय कार्यों आवां सहगमनार्थम् " झटिति उत्तरितं जिनदत्तेन ।
"त्वर्यतां ततः कस्य प्रतीक्षा विद्यते विरक्त-चित्तानाम् । गच्छामीदानीमेवाहं तु " - अग्रतः पदन्यासं कुर्वतेव राउलेन उदीरितम् ।
भानुमत्याऽनुगम्यमानमार्गः
स्कन्धारोपितनिजभारः
श्रेष्ठी
स्फुरदधरपुट- स्फुट - नमस्कारोऽनुपदं राउलस्य गन्तुमारब्धः । त्वरितमागता एते शकटश्रेण्याः समीपम् । साऽपि सञ्चालिता राउलेन ।
"कथं मुधा भारः उद्यते परिणतवयसा भवता ? शकटेषु का गणनाऽस्य ? कृपया स्थापयितव्यो निस्संकम्" चोदितं राउलेनानाकुलम् ।
"नास्ति दुर्वहो भारो राउल ! सुखं तं वहामि अहम्' कथितमृजुमतिना श्रेष्ठिना ।
तथापि सति संयोगे भारनिर्वहणं न शोभनम् इति लपता राउलेन श्रेष्ठि-स्कन्धाद् निजहस्तेन भारपोट्टलिका अवतारिता, सुरक्षितं रक्षिता च शकटमध्ये | भानुमती - हस्तगतं किमपि लघुवस्तु तथैव स्थापितं साग्रहम् । उल्लंङ्घिते पुनः स्तोकमात्र पथि पुनः राउले - नोल्लपितम् - "अस्ति एकस्मिन् शकटे रिक्त स्थानम् कथं नास्यते युष्माभिस्तत्र ? न स्थविरैः पादगमनं सुशक्यमिति कृपया आसिका कर्त्तव्या ।"
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२२४
रयणवाल कहा "विलिआ भवेमु अम्हे तुह सेवाए जोगिंद ! अस्थि अम्हारिच्छाणं कत्तव्वं साहूणं सेवाए, तत्थ पच्चुल्लं घेप्पइ तुह सेवा अम्हेहिं । ण जुग्गमिणं, तो ण चिट्ठिहामो सगडम्मि अम्हे" साहिअं साभारं सेट्ठिणा । ___ 'पढ़मं किर थेराणं वेयावच्चं कायव्वं, ण अम्हारिसाणं बालगाणं । णूणमासिअव्वं तुन्भेहि' एवं 'मा मा' कहेंतावि दंपइणो साणुरोहमारोहाविआ सच्छायम्मि सगडंतरालम्मि राउलेण।
केरिसो महाणुभावोऽयं णिक्कारणमुवयारी राउलो ! कहमुवचरइ गुरुजणे इव णे ! अहवा पयडि-सिद्धमिणं मणंसीणं। अहो ! कहं पिवासाहारगं णीरं ? कहं छुहासामगं वा कूरं? कहं पयासयरो भाणू ? कहं सीअलो वा चंदो ? ___ अत्थु, इमेहिं बहु अणुरुद्धो वि ण सयमारुहए कयावि सगडं । भिक्खायरिआए भत्तमाणेऊण सहत्थेण रंधेऊण अमुणो भोएऊण पच्छा सयं एगहुत्तं भोअणं कुणइ । इत्थं बहुसुहेण एए णेतो अविच्छिण्णं पहं कप्पंतो अहिपुरिमतालं सत्तरं वच्चइ राउलो । अहो केरिसं पोरिसं !
इअ सिरिचंदणमुणि-विरइआए णिअगिहगमण-राउलपट्टवण-जिणदत्त मेलण-चंदणग्गहण-पच्चाव
लणाइवण्णणेहिं सोहिआए रयणवालकहाए छट्ठो ऊसासो समत्तो
॥६॥
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छट्ठो ऊसासो
२२५ "वीडिता भवामो वयं तव सेवया योगीन्द्र ! अस्ति अस्मादृक्षाणां कर्तव्यं साधूनां सेवायाः तत्र प्रत्युत गृह्यते तव सेवाऽस्माभिः । न योग्यमिदम्, तस्मात् न स्थास्यामः शकटे वयम्' कथितं साभारं श्रेष्ठिना।
'प्रथमं किल स्थविराणां वैयावृत्यं कर्त्तव्यं, नास्मादृशानां बालकानाम् । नूनमासितव्यं युष्माभिः' एवं मा ! मा! कथयन्तावपि जम्पती सानुरोधमारोहितौ सच्छाये शकटान्तराले राउलेन ।
कीदृशो महानुभावोऽयं निष्कारणमुपकारी राउलः ! कथमुपचरति गुरुजनान् इव अस्मान् ! अथवा प्रकृतिसिद्धमिदं मनस्विनाम् । अहो ! कथं पिपासाहारकं नीरम् ? कथं क्षुधाशामकं वा कूरम् ? कथं प्रकाशकरो भानुः ? कथं शीतलो वा चन्द्रः ?
अस्तु, एताभ्यां बहु अनुरुद्धोऽपि न स्वयमारोहति कदापि शकटम् । भिक्षाचर्यया भक्तमानीय स्वहस्तेन रन्ध्वा, इमौ भोजयित्वा, पश्चात् स्वयमेकवारं भोजनं करोति । इत्थं बहुसुखेन एतौ नयन् अविच्छिन्नं पन्थानं कल्पयमानोऽभिपुरिमतालं सत्वरं व्रजति राउलः । अहो कीदृशं पौरुषम् !
इति श्री चन्दनमुनि-विरचितायां निजगृहगमन-राउलप्रस्थापन-जिनदत्तमेलन-चन्दनग्रहण-प्रत्यावर्तनादिवर्णनैः शोभितायां रत्नपाल-कथायां
षष्ठः उच्छवासः समाप्तः ।
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सत्तमो ऊसासो
वईअपाया छम्मासा | ण कहमागओ अज्जप्पभिइ राउलो ? किंण मिलिआ मे पिअरा तस्स ? वच्चंतो सो किं पहभट्ठो जाओ ? कम्मि पुरम्मि अच्चंत - जणभत्तीमोहिओ वा किं तत्थेव ठिओ ? पाइअ-सोहा-मंडिए कम्मि वि गिरि-कंदरम्मि झाणत्थो वा भूओ ? हा ! चुक्किअं म जाणगेणावि, कहमजाणगो राउलो पट्ठविओ संतरम्मि ? णो णो, अत्थि सो अईव कज्ज- कुसलो महप्पा इंगिआगार संपण्णो समयण्णू उज्जमसीलो पवड्ढमाणुच्छाहो सच्चसंधो अ जोई । ता वच्चेमि दक्खिणापहं पडिवालेमि आगच्छमारणे पहिए । संभावेमि काइ राउल -पउत्ती पत्ता हवेज्जा । एवं विचितेंतो रयणवालो उच्छुअयाए गच्छइ पच्चहं दाहिणं दिसिभायं । दूरेण आगंतुअ-जणे पलोएइ, विरमालेइ, णिरिक्खइ य तस्स मिलणासाए । तद्दिसिभायत्तो
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सप्तमः उच्छवासः
व्यतीत-प्रायाः षण्मासाः। न कथमागतोऽद्यप्रभृति राउल: ? किं न मिलितौ मे पितरौ तस्मै ? वजन् स कि पथभ्रष्टो जातः ? कस्मिन् पुरेऽत्यन्त-जनभक्ति-मोहितो वा किं तत्र व स्थितः ? प्राकृतशोभा-मण्डिते कस्मिन्नपि गिरिकन्दरे ध्यानस्थो वा भूतः ? हा ! स्खलितं मया ज्ञायकेनापि, कथमज्ञायको राउलः प्रस्थापितो देशान्तरे ? नो, नो, अस्ति सोऽतीव कार्य-कुशलो महात्मा इङ्गिताकार-सम्पन्नः समयज्ञः उद्यमशीलः प्रवर्धमानोत्साहः सत्यसन्धश्च योगी । तस्मात् व्रजामि दक्षिणापथं प्रतिपालयामि आगच्छतः पथिकान् । संभावयामि काऽपि राउल-प्रवृत्तिः प्राप्ता भवेत् ! एवं विचिन्तयन् रत्नपालः उत्सुकतया गच्छति प्रत्यहं दक्षिण-दिग्भागम् । दूरेण आगन्तुक-जनान् प्रलोकते, प्रतीक्षते, निरीक्षते च तस्य मिलना ऽऽशया। तदिग्भागात् आगतान् आध्विकान् रुन्ध्वा-रुन्ध्वा राउलस्य
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२२८
रयणवाल कहा
आगए अद्धाणिए' रोहिअ - रोहिअ राउलस्स वेसभूसं
आगि, वयण-माहुरिअं च वण्णिअ जोई केणावि दिट्टो पलोइओ 'त्ति
एआरिसो कोई बालपडिपुच्छेइ, तक्केइ मिलिओ, संगओ 'त्ति
च सउक्कंठं । परं ण तारिस दिट्ठो, जणावेंति केइ | अंते हयासो भविअ पुण गिहमागच्छेइ, संकष्पविगप्पेण अहोरत्तं गमेइ, ण खणंपि रई लब्भइ ।
एगया सुमिण-संकेएण पुणरवि मच्चूस - समयम्मि गओ रणवालो तस्स पहं णिभालेउं । गिद्ध दिट्टीए पहं पलोएमाणस्स राउल - सरिच्छो कोइ आगच्छंतो णयणायणं गओ । अहह ! काइ अणहुअ-पुब्वा सुहाणुहूई हिअएण अणुहूआ । पुणो पुणो सुह-दिट्ठीए पेच्छमाणेण राउलोऽयं 'ति विण्णायं णेण । सो च्चिअ सो चिचअ कहें तो तद्दिसाए तक्खणं धाविओ | अणुअं विरह - विअणं विम्हरेंतो अहो 'सागयंसागयं' आमेडतो सम्मुहीणो जाओ। अंते दोणि वि परोप्परं बाहुणिप्पीडं मिलिआ, अण्णुण्ण - बाहजलेण ण्हाया, कुसल - समायारेहिं य अवगया जाया । कत्थ मे पडिच्छणिज्जा जणणी - जग 'त्ति पुच्छा - परम्मि रयणवालम्मि राउलेण साहिअं - " समीवम्मि णयरुज्जाणम्मि चिट्ठति तुह दंसणरणरणाइया ते । संपइ सपरिअरं गंतव्वं तुमए तत्थ सयराहं ।" इअ आयण्णिअ अइउच्छुओ जाओ रयणवालो । तत्तो तक्खणं णयरमागओ । पुरम्मि वित्थरिआ जिरणदत्तागणपती । सव्वेवि कुडु बिणो, मित्ता, णयरप्पमुहा, समाणवयाय रयणवाण सद्धि जिणदत्ताहिमुहं गंतु समुच्छुआ
१ आध्विका २ रुध्वा रुध्वा ।
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सत्तमो ऊसासो
२२६ वेषभूषामाकृति, वचनमाधुर्यं च वर्णयित्वा 'एतादृशः कोऽपि बालयोगो केनाऽपि दृष्टः, प्रलोकितः' इति प्रतिपृच्छति, तर्कयति च सोत्कण्ठम्, परं तादृशो दृष्टो, मिलितः, संगतः इति न ज्ञापयन्ति केऽपि । अन्ते हताशो भूत्वा पुनर्गृहमागच्छति, संकल्प-विकल्पेन अहोरात्र गमयति, न क्षणमपि रति लभते ।
एकदा स्वप्न-सङ्कतेन पुनरपि प्रत्यूष-समये गतो रत्नपाल. स्तस्य पथं निभालयितुम् । गृध्र-दृष्ट्या प्रलोकमानस्य राउल-सदृक्षः कोऽपि आगच्छन् नयनायनं गतः। अहह ! काप्यननुभूतपूर्वा सुखानुभूतिर्ह दयेनानुभूता । पुन: पुन: सूक्ष्मदृष्ट्या प्रेक्षमाणेन राउलो ऽयमिति विज्ञातं तेन । स एव स एव कथयन् तद् दिशि तत्क्षणं धावितः । अनुभूतां विरह-वेदनां विस्मरन् अहो ! ‘स्वागत-स्वागत' आम्रडयन् सम्मुखीनो जातः । अन्ते द्वावपि परस्परं बाहुनिष्पीडं मिलितो, अन्योन्य-वाष्पजलेन स्नातो, कुशलसमाचारैश्च अवगतौ जातौ । 'कुत्र मे प्रतीक्षणीयौ जननीजनको' इति पृच्छापरे रत्नपाले राउलेन कथितम्- "समीपे नगरोद्याने तिष्ठतः तवदर्शन-रणरणायितौ तौ। सम्प्रति सपरिकरं गन्तव्यं त्वया तत्र शीघ्रम् ।'' इति आकर्ण्य अत्युत्सुको जातो रत्नपालः। ततस्तत्क्षणं नगरमागतः । पुरे विस्तृता जिनदत्तागमन-प्रवृत्तिः । सर्वेऽपि कुटुम्बिनो, मित्राणि, नगर-प्रमुखाः, समानवयसश्च रत्नपालेन साधं जिनदत्ताभिमुखं गन्तु
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२३०
रयणवाल कहा जाया। राउलेण पुन्वमेव तत्थ गंतूण भाणुमईए जिणदत्तस्स य दिप्पिरा वेस-भूसा कया । नाणालंकारेहिं मंडिआ समुण्णयासणम्मि णिवेसिआ एए । सव्वावि उब्भडा ववत्था जाया।
इओ सपरिवारं महया विड्डिरेण णिग्गओ रयणवालो जणणी-जणय-दंसट्ठ। जयजय-रवेण सद्धि संपत्तो तत्थ सो। चक्खुपहे पिअराणं कयंजली ऊसलिअ-रोमकूवो संसूपायं तेसिं चरणकमलेसु णिवडिओ। आणंदाइरेगेण पिअरेहिं पिअपुत्तो बाहाहिं पगिज्झ उट्ठाविओ, उरसा गाढमालिगिओ, मत्थयम्मि ओसिंघिओ', सुहपण्हेहि ससिणेहं च पुच्छिओ। भाणुमई तु कमवि अवत्तव्वं ठिई पत्ता । णयणेहिं पेमंसुधारं वाहेती अणिमिसं पुत्तं पलोअंती अज्जाहं पुत्तवंती, सोहग्गवंती, अणण्णपुण्णा, धण्णा य संवुत्त 'त्ति अणुहवीय । संमिलिआ सव्वेवि कुडुबिणो सुहदुहकहाणयं कुणेमाणा। सुण्णं तुह ठाणं अणहूअं 'ति णयरमहंतएहिं सेट्टि सम्माणमाणेहिं साहिरं । वायाणमगोअरो तत्थ आणंदो वट्टिओ। अंते सव्वेहिं सद्धि जिणदत्तसेद्विणो आडंबरिल्ला णयरप्पवेस-जत्ता णिग्गया। अणच्छाइअ-जाणम्मि पुत्तं अग्गओ णिवेसिअ दंपइणो णाणावाइत्तेहि, जय-जय-सद्देहि, परसहस्सणायरेहिं च समं पुरं पविट्ठा । साणंदमागयया णिशं गिहं सोलस-वासाणंतरं पुणो एए। अभूअपुव्वो सेट्ठि-हम्मम्मि जणाणं मेलो लग्गो। उप्पेहडं'
१ विड्डिरेण-आडम्बरेण २ साश्रुपातम् ३ ओसिंघिओ (दे०) घात इत्यर्थः ४ उप्पेहडं (४) साडम्बरम्।
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सत्तमो ऊसासो
२३१
समुत्सुकाः जाताः । राउलेन पूर्वमेव तत्र गत्वा भानुमत्या जिनदत्तस्य दीप्रा वेशभूषा कृता । नानालङ्कारैर्मण्डितौ समुन्नतासने निवेशितौ एतौ । सर्वाऽपि उद्भटा व्यवस्था जाता ।
इतः सपरिवारं महता विड्डिरेण (आडम्बरेण ) निर्गतो रत्नपालो जननी - जनक - दर्शनार्थम् । जयजयरवेण सार्धं सम्प्राप्तस्तत्र सः । चक्षुष्पथे पित्रोः कृताञ्जलिरुल्लसित रोमकूपः साश्रुपातं तयोः चरणेषु निपतितः । आनन्दातिरेकेण पितृभ्यां प्रियपुत्रो बाहुभिः प्रगृह्य उत्थापितः उरसा गाढमालिङ्गितः, मस्तके ओसिंघिओ (घ्रातः ) सुखप्रश्नैः सस्नेहं च पृष्टः । भानुमती तु कामपि अवक्तव्यां स्थिति प्राप्ता । नयनाभ्यां प्रेमाश्रुधारां वाहयन्ती अनिमिषं पुत्र प्रलोकमाना अद्याहं पुत्रवती, सौभाग्यवती, अनन्य-पुण्या, धन्या च संवृत्ता इति अन्वभवत् । सम्मिलिताः सर्वेऽपि कुटुम्बिनः सुख-दुःख- कथानकं कुर्वन्तः । शून्यं तव स्थानमनुभूतमिति नगरमहत्कैः श्रेष्ठिनं सम्मानयद्भिः कथितम् । वाचामगोचरस्तत्रानन्दो वर्तितः । अन्ते सर्वैः सार्धं जिनदत्त श्रेष्ठिनः आडम्बरवती नगर-प्रवेश-यात्रा निर्गता । अनाच्छादिते याने पुत्रमग्रतो निवेश्य दम्पती नानावादित्र: जयजयशब्दः, परःसहस्रनागरैश्च समं पुरं प्रविष्टौ । सानन्दमागतो निजगृहं षोडशवर्षानन्तरं पुनरेतौ । अभूतपूर्वः श्रेष्ठिहयें जनानां मेलो लग्नः ।
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रयणवाल कहा
२३२
पोइ -भोयगं जाय मेएस | पुव्व - परिचिआ कम्मगरा भिच्चा चेडीओ बाणोत्तरा य सयमागम्म मिलिआ । सव्वं कज्जं सुट्ठिअं जायं । अधणो धणं, गयक्खो लोअणं, बुभुक्खिओ भोअरणं च पप्प जहासुहमणुहवइ, तहा एए पुत्तं पप्प नियंतसुहिआ जाया । खणमवि ण पुत्तं परोक्खं काउमिच्छति । सयण-भोअण-पाणाइसु जुवाणं पि पुत्तं सिलिंबायइ' माया भाणुमई ।
इओ हरिचंदणं विविकणिअ, अमिश्रं धरणं मुत्ताहलाइअं च गहिअ राउलो तत्थ समागओ । सेट्टिणो समक्खं रयणवालमहिमुहं कुणमारणेण तेण वृत्तं - "सेट्ठिरगंदण ! गिण्हसु, तुह पिउपाय - विढविप्रं अमिअं धरणं" एवं कहिअ अग्गओ रक्खियं वित्थिष्णं दविणजायं । तं विलोइअ सच्छरिज्जं सहासं जिणदत्तेण भणिअं - " राउल ! कुओ आणि इमिआ धणरासी ? कट्ठहारग-कम्मकारगेण मए कहमेत्तिल्लं धणं संचिणि सक्किज्जइ । ण मोरउल्ला मे गारव - गाहा गेआ। ण आणि विसिद्ध किमवि पएसंतराओ ।"
हसमाणेण राउलेण पुणो वज्जरिअं सगज्जं - "अत्थि सव्वं भवईयं, णत्थि अण्णस्स किमवि । ण मए जोइणा मुहा पलावो कायव्वो । सिट्टिवर ! जं सुक्कं कट्ठे तुमए दुवालसवरिस-पेतं विक्कि तं सव्वममरचंदणं । तेण धुत्तेण जाणमागेणाविण गुज्झं पयडीकयं, किंतु मए परिलक्खिअं तं । पच्छा केणवि छलेण विक्कीअ मोल्लेण समं पुणरावट्टिअं समं चंदणं, जाव सव्वोवि जहाभूअं साविओ वृत्तंत्तो ।"
1
१ पोतमिवाचरति २ सार्धं ३ समस्तं ।
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सत्तमो ऊसासो
२३३ उप्पेहडं (साडम्बरं) प्रीति-भोजनं जातमेतेषाम् । पूर्वपरिचिताः कर्मकराः भृत्याश्चेट्यो बाणोत्तराश्च स्वयमागम्य मिलिताः । सर्व कार्य सुस्थितं जातम् । अधनो धन, गताक्षो लोचनं, बुभुक्षितो भोजनं च प्राप्य यथा सुखमनुभवति तथा एतौ पुत्र प्राप्य नितान्तं सुखितौ जाती। क्षणमपि न पुत्र परोक्षं कर्तुमिच्छतः । शयन-भोजनपानादिषु युवानमपि पुत्र सिलिंबायति (पोतमिवाचरति) माता भानुमती।
इतः हरिचन्दनं विक्रीय अमितं धनं मुक्ताफलादिकं च गृहीत्वा राउलस्तत्र समागतः । श्रेष्ठिनः समक्ष रत्नपालमभिमुखी कुर्वता तेनोक्तम्---श्रेष्ठिनन्दन ! गृहाण तव पितृपादाजितममितं धनम्' एवं कथयित्वा अग्रतो रक्षितं विस्तीर्णं द्रविणजातम् । तद् विलोक्य साश्चर्यं सहासं जिनदत्तेन भणितम्- “राउल ! कुतः आनीतोऽयं धनराशिः ? काष्ठहारककर्मकारेण मया कथमियद् धनं संचेतु शक्यते ? न मुधा मे गौरव-गाथा गेया। नानीतं विशिष्टं किमपि प्रदेशान्तरात् ।
हसता राउलेन कथितं सगर्जम्—"अस्ति सर्वं भवदीयम्, नास्ति अन्यस्य किमपि । न मया योगिना मुधा प्रलापः कर्त्तव्यः । श्रेष्ठिप्रवर ! यच्छुष्कं काष्ठं त्वया द्वादशवर्षपर्यन्तं विक्रीतं तत् सर्वममरचन्दनम् । तेन धूर्तेन ज्ञायमानेनाऽपि न गुह्य प्रकटीकृतम्, किन्तु मया परिलक्षितं तत् । पश्चात् केनाऽपि छलेन विक्रीत-मूल्येन समं पुनरावर्तितं समं चन्दनम्, यावत् सर्वोऽपि यथाभूतं श्रावितो वृत्तान्तः ।
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२३४
रयणवाल कहा
.अचुच्छे बुद्धिकोसलमवगंतूण सव्वेवि विम्यसेराणणा जाया । अव्वो ! धण्णोऽयं राउलो केरिसो दक्खो ! एगकज्जम्मि अणेगकज्ज-साहगो। कहं विप्पतारिअं धरणं पुणो हत्थगयं कयं ? सव्वेसि मुहकमलेसु राउलस्स जयसोरहं महम हिग्रं । पवुड्ढ-धणेसु अईव धणवुड्ढी जाया पुण । अच्चाणंदेण खणा इव दिअहा अइक्कमंति एएसि ।
एकसिधे रयणवालेण राउलं पइ सखेयं साहिग्रं"राउल ! णिवडिओम्हि चिंता सायरम्मि, जओ गंतव्वमवस्सं अस्थि मए ससुरालए सहम्मिणिमाणेउं, परंतु चिरविरह-पीलिआ मे अम्मापिउणो खणमवि णयण-वत्तणीओ ण मं दूरेउमिच्छंति । दुद्धदड्ढा जहा तक्कमवि सफुक्कारं पि.ति, तहा मे विरहग्गि-संधुक्किआ दूरगमणक्खरमवि ण ते सहेउं सक्का। संपइ किं कायव्वं मए 'त्ति ण णज्जइ दुविहा-गएण माणसेण ।" ___ सेराणणेणावि गहिरीहोतेण' राउलेण पाउक्कयं'ण विम्हरिज्जइ किं तं अणुहविणो ससुरस्स सिक्खा तुमए। जहा-अत्थि लंबो पवासो, दुल्लहं पुणरागमणं, सद्धि चिअ णेअव्वा सहम्मिणी। ण चत्तव्वा एगागिणी एत्थ । परं ण तुम्हेहिं आदेज्ज-वयणस्स गारवं लक्खिj, मुणि, चितिअं पुण। संपइ चिंताए कि संपज्जइ ? भज्जा-णयणं आवस्सगं विज्जइ. जइ कहेइ भवं, तया अहं गच्छमि एगागी तं णेउं । को अत्थि अण्णो उवाओ ?"
१ गभीरीभवता २ विस्मयते ३ भवान् ।
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सत्तमो ऊसासो
२३५ ___ अतुच्छं बुद्धिकौशलमवगत्य सर्वेऽपि विस्मय-स्मेराननाः जाताः । अव्वो ! धन्योऽयं राउलः कीदृशो दक्षः ! एककार्ये अनेक-कार्य-साधकः । कथं विप्रतारितं धनं पुनर्हस्तगतं कृतम् । सर्वेषां मुखकमलेषु राउलस्य जय-सौरभं प्रसृतम् । प्रवृद्धधनेषु अतीव धनवृद्धिर्जाता पुनः। अत्यानन्देन क्षणा: इव दिवसाः अतिक्रमन्ति एतेषाम् ।
एकदा रत्नपालेन राउलं प्रति सखेदं कथितम् - "राउल ! निपतितोऽस्मि चिन्तासागरे, यतो गन्तव्यमवश्यमस्ति मया श्वसुरालये समिणीमानेतुम्, परन्तु चिरविरहपीडितो मे माता पितरौ क्षणमपि नयन-वर्तनीतो न मां दूरयितुमिच्छतः । दुग्धदग्धाः यथा तक्रमपि सफुत्कारं पिबन्ति, तथा मे चिरविरहाग्नि-संधुक्षितौ दूरगमनाक्षरमपि न तो सोढ़ शक्तौ । 'सम्प्रति किं कर्त्तव्यं मया' इति न ज्ञायते दुवि धागतेन मानसेन ।"
स्मेराननेनाऽपि गभीरीभवता राउलेण प्रादुष्कृतम्-"न स्मर्यते कि अनुभविनः श्वसुरस्य शिक्षा त्वया ? यथा-अस्ति लम्बः प्रवासः, दुर्लभं पुनरागमनम्, सार्धमेव नेतव्या सर्मिणी, न त्यक्तव्या एकाकिनी अत्र । परं न युष्माभिरादेयवचनस्य गौरवं लक्षितं, ज्ञातं, चिन्तितं पुनः । सम्प्रति चिन्तया किं सम्पद्यते ? भार्यानयनमावश्यक विद्यते, यदि कथयति भवांस्तदाऽहं गच्छाम्येकाकी तां नेतुम् । कोऽस्ति अन्यः उपायः?
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रयणवाल कहा - सुणिऊण राउलस्स भणिई हित्थो जाओ रयणवालो । कहमेवं भणसि राउल ! जत्थ मए च्चिअ गंतव्वं तत्थ तुहं संपेसणं लज्जापयं । दत्तं मए ससुरस्स सम्मुहं वयणं जं पच्चावलिस्सामि सिग्यमेव सहयरिं' णेउं । वयण-पालणं अस्थि सप्पुरिसाणं कत्तव्वं । पुणो जाए करो गहिओ, जा मे अखंगिणी जाया, अहमेव जाए एगाहारो, ताए हे उणो मे तत्थ गमणं समुइअं । पिअरे विणविअ सिग्याइसिग्धं गंतुकामोम्हि अहयं । णत्थि अण्णो विगप्पो। इइ पइदेवस्स कत्तब्व-पालण-तप्परत्तिमं परिलक्खिअ अईव आणंदिआ जाया राउलरूवा रयणवई । संपइ अहमवि मूलरूवा होमि 'त्ति णिच्छिनं णाए। तक्खणं पविट्ठा मज्जण-घरम्मि । उत्तारिओ राउल-वेसो । सद्धिमुव्वट्टरोण विसुद्धणोरेण व्हाया । कओ झडिल-पदत्ताए जडिआए पओगो। विलुत्तं णरत्तणं । पयडिओ' पयडिजो' णारीभावो । उग्घाडिअं पेडगं परिहिआई चोणंसुअ-वत्थाई । धारिआणि महग्याणि अलंकाराणि। एवं सज्जिअ-सोलस-सिंगारा सक्खं मणुअरूवा देवीव संभूआ । अब्भपडलओ चंदलेहा विव ण्हाणगिहत्तो इक्कवए गिहचत्तरम्मि पाउन्भूआ सा । आसी तम्मि समयम्मि रयणवालो चंदसालाए। कलहंसीव चलणविण्णासं कुणेमाणी सोवाण-मग्गेण झडिति तत्थ ओइण्णा । सेराणणपोम्मा५ पयडा पोम्मावईव सा जाहे रयणस्स णयणपहमागया तया सो अच्चतं विम्हिओ जाओ। 'कासि तुम
१ सहचरीम् २ पितॄन् ३ प्रकटितः ४ प्रकृतिजः ५ स्मेराननपद्मा।
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सत्तमो ऊसासो
२३७
श्रुत्वा राउलस्य भणिति हित्थो ( लज्जितः ) जातो रत्नपालः । कथमेवं भणसि राउल ! यत्र मयैव गन्तव्यं तत्र तव सम्प्रेषणं लज्जापदम् । दत्तं मया श्वसुरस्य सम्मुखं वचनं यत् प्रत्यावलिष्ये शीघ्रमेव सहचरीं नेतुम् । वचनपालनमस्ति सत्पुरुषाणां कर्तव्यम् । पुनर्यस्या: करो गृहीतः, या मे अर्धाङ्गिनी जाता, अहमेव यस्याः एकाधारः, तस्याः हेतोः मे तत्र गमनं समुचितम् । पितरौ विज्ञप्य शीघ्रातिशीघ्र गन्तुकामोऽस्मि अहम् | नास्त्यन्यो विकल्पः । इति पतिदेवस्य कर्तव्य पालन-तत्परतां परिलक्ष्य अतीवानन्दिता जाता राउलरूपा रत्नवती । सम्प्रत्यहमपि मूलरूपा भवामीति निश्चितं तथा । तत्क्षणं प्रविष्टा मज्जनगृहे । उत्तारितो राउल-वेषः । सार्धमुद्वर्तनेन विशुद्धनीरेण स्नाता । कृतो जटिलप्रदत्ताया जटिकायाः प्रयोगः । विलुप्तं नरत्वम् । प्रकटितः प्रकृतिजो नारीभावः । उद्घाटितं पेटकम् | परिहितानि चीनांशुकवस्त्राणि । धारितानि महार्घ्यारिण अलङ्काराणि । एवं सज्ज-षोडश-शृङ्गारा साक्षात् मनुजरूपा देवी इव संभूता, अभ्रपटलाच्चन्द्रलेखेव स्नानगृहात् एकपदे गृहचत्वरे प्रादुर्भूता सा। आसीत् तस्मिन् समये रत्नपालः चन्द्रशालायाम् । कलहंसीव चरण विन्यासं कुर्वती सोपानमार्गेण झटिति तत्रावतीर्णा । स्मेराननपद्मा प्रकटा पद्मावतीव सा यदा रत्नस्य नयनपथमागता, तदा
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२३८
रयणवाल कहो बिबोट्ठी ? कुओ पयडीभूआ सुअणु ! किमच्छं पयोअरणं ममाहि' मयच्छि ?' ससंभमं पुटु रयणेण ।।
ईसिहसिएण उज्जलदंतपंति दंसेमाणी पइदेवस्स चलणेसुणिवडिआ। किं पाणिग्गहिई वि ण उवलक्खिज्जइ अज्जउत्तेण ? अहमेव राउलरूवम्मि लुक्किआ रयणवई पइदेवेण सहसमागया। किं णम्हि हं दिटुपुत्वा ? तक्किसं तीए। - तमसि रयणवई राउलरूव-पडिच्छण्णा ? हो! ण तक्किआ, ण लक्खिआ, ण चितिआ य मए णाममेत्तमवि । खणं रयणवालोवि विम्हय-भरिओ जाओ। अहह ! केरिसी कला कलिआ तुह जणएण ? कहमलक्खिआ तुमं पट्टविआ मए सद्धि । णूणं तओ चिअ धुत्ताणं आहेवच्चं करेइ सो महाणुहावो। पइदेवस्स चरणकमलं छिवंती सविब्भमं सा विहुमुही हरिसभरुभिण्ण-रोमंचेण रयणवालेण कोडीकया, अहरामयं पिबंतेण समासणम्मि य णिवेसिआ। वायाणमगोअरं अतुल्लं पइमेलणसुहं अणुहवंती रयणवई सोवालम्भं किमवि वोत्तुमाढत्ता-"दयिअवर ! कहमेगागिणी अबला णिराहारा पेइहरम्मि चत्ता ? किं ण याणह तुम्हे पउत्थपइआए रणवोढाए ठिई। अजाय-संबंधबंधा इव ण तस्थ तुन्भेहिं कयाइ संलाविआ, ण पेम्ममइअ-वयणेहि पोसिआ, ण उण जहत्थ-ठिईए बोहिआ, हरे ! रणीरसीहूअ हिअयेण एमेव उज्झिआ । किं उइओ आसी अज्जउत्तारणं
१ मत्सकाशात् २ पाणिगृहीती भार्या ३ आधिपत्यम् ४ स्पृशन्ती ५ विधुमुखी ६ पितृगृहे।
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सत्तमो ऊसासो
२३६
सोऽत्यन्तं विस्मितो जातः । 'काऽसि त्वं विम्बौष्ठि ! कुतः प्रकटीभूता सुतनु ! किमच्छं प्रयोजनं मत्तो मृगाक्षि !' ससंभ्रमं पृष्टं रत्नेन ।
ईषद्धसितेन उज्ज्वलदन्तपङक्ति दर्शयन्ती पतिदेवस्य चरणयोः निपतिता । किं पाणिगृहीती अपि नोपलक्ष्यते आर्यपुत्र ेणः ? अहमेव राउलरूपे निलीना रत्नवती पतिदेवेन सह समागता । किं नास्म्यहं हृष्टपूर्वा ? तर्कितं तथा ।
I
त्वमसि रत्नवती राउलरूप - प्रतिच्छन्ना !! हो ! न तर्किता, न लक्षिता, न चिन्तिता च मया नाममात्रमपि । क्षणं रत्नपालोऽपि विस्मय-भरितो जातः । अहह ! कीदृशी कला कलिता तव जनकेन ? कथमलक्षिता त्वं प्रस्थापिता मया सार्धम् । नूनं ततः एव धूर्तानामाधिपत्यं करोति स महानुभावः । पतिदेवस्य चरणकमलं स्पृशन्तो सविभ्रमं सा विधुमुखी हर्षभरो द्भिन्नरोमाञ्चेन रत्नपालेन क्रोडी - कृता, अधरामृतं पिबता समासने च निवेशिता । वाचामगोचरमतुल्यं पतिमेलनसुखमनुभवन्ती रत्नवती सोपालम्भं किमपि वक्तुमारब्धा - "दयितवर ! कथमेकाकिनी अबला निराधारा पितृगृहे त्यक्ता ? किं न जानीथ यूयं प्रोषित - पतिकायाः नवोढायाः स्थितिम् ? अजात-सम्बन्धबन्धा इव न तत्र युष्माभिः कदापि संलापिता, न प्रेममय-वचनैः पोषिता, न पुनर्यथार्थ स्थित्या बोधिता, हरे ! नीरसीभूत-हृदयेन एवमेवोज्झिता । किमुचितः आसीदार्य पुत्राणामेष
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रयणवाल कहा एसो ववहारो ? किं कोइ साइज्जइ१ तारिसं किच्चं धीधणो जणो। मह पिउपाया वि अईव चितिआ संजाया किंतु कस्सइ महप्पणो पसाएण एवं कज्जं संपण्णं । राउलरूवम्मि अहमेत्थ समागया। जणणीजणय-गवेसणटुंगया। पइग्गामणयरं भमंतीए मए किं किं णाणुहूयं । सव्वं मए णि अकत्तव्वं मुणि अ कयं । अज्जाहं मूलरूवेण कयकज्जा अज्जउत्ताण सम्मुहं उवट्ठिआ" एवं भणमाणी सा चंदमंडलं चकोरोव पिअ-मुहं पेक्खंती आणंद-मग्गा जाया ।
सच्चं भणसि तुमं सुहासिणि ! खलिअं मए पेअसि छड्ढमाणेण तत्थ । अपरिपक्क-बुद्धीए ण किं हवंति ईइसा हु परिणामा, किंतु तुह अणुहविणो जणगस्स अणुग्गहेण सव्वं समुइअं चउरंसं च जायं । इयाणि तत्थ गमणं ण सुसगमत्थि । जणणी-जणयाण गवेसण? तु तए जो साहसो कओ सो अबला-बलाइरित्तो । तत्थ जेदहा धण्णवाया दिझंति तेदहा थेवा । पिअरा अवि फुडमुहेहिं पसंसंति राउलस्स सेवाभावं । एव मुल्लवंता जंपइणो जुम्मयाए पिइचरणाणं दंसणचलिआ । जत्थ जणणीजणआ विरायमाणा आसी, तत्थ एए पसण्णवयणारविंदा समागया । रईए सह पज्जुण्णमिव तीए सद्धि रयणं विलोइअ पिअरा अच्छेरगं पत्ता, झत्ति पुच्छिउं लग्गा-"का इमिआ दिव्वरूवधारिआ रमणी तुह सद्धि अतक्किआ समोइण्णा ? कि काइ आराहिआ देवया पयडं माणुसि तणुमस्सिआ ? को संबंधो इमिआए अम्हकेरो ?" एवं तक्कणा-परेसु तेसु
१ साइज्जइ-अनुजानाति इत्यर्थः ।
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सत्तमो ऊसासो
२४१
व्यवहारः ? कि कोऽपि साइज्जइ । ( अनुजानाति ) तादृशं कृत्यं धीधनः जनः । मम पितृपादाः अपि अतीव चिन्तिताः संजाताः, किन्तु कस्यापि महात्मनः प्रसादेन एतत् कार्यं सम्पन्नम् । राउलरूपे अहमत्र समागता । जननीजनक - गवेषणार्थं गता । प्रतिग्रामनगरं भ्रमन्त्या मया किं किं नानुभूतम् । सर्वं मया निजकर्त्तव्यं ज्ञात्वा कृतम् । अद्याहं मूलरूपेण कृतकार्या आर्यपुत्राणां सम्मुखमुपस्थिता " एवं भणन्ती सा चन्द्रमण्डलं चकोरीव प्रियमुखं प्रेक्षमाणा आनन्द - मग्ना जाता ।
सत्यं भणसि त्वं सुहासिनि ! स्खलितं मया प्रेयसीं मुञ्चता तत्र । अपरिपक्वबुद्ध्या न किं भवन्ति ईदृशाः खलु परिणामाः, किंतु तव अनुभविनो जनकस्यानुग्रहेण सर्वं समुचितं, चतुरस्र च जातम् । इदानीं तत्र गमनं न सुशकमस्ति । जननी जनकानां गवेषणार्थं तु त्वया यः साहसः कृतः सोऽबलाबलातिरिक्तः । तत्र यावन्तो धन्यवादाः दीयन्ते तावन्तः स्तोकाः । पितरोऽपि स्फुट - मुखेन प्रशंसन्ति राउलस्य सेवाभावम् । एवमुल्लपन्तौ दम्पती युग्मतया पितृचरणानां दर्शनार्थं चलितौ । यत्र जननीजनको विराजमानौ आस्ताम्, तत्र एतौ प्रसन्नवदनारविन्द समागतौ । रत्या सह प्रद्य ुम्नमिव तया सार्धं रत्नं विलोक्य पितरौ आश्चर्यं प्राप्तौ भगिति प्रष्टु लग्नौ - "केयं दिव्यरूपधारिका रमणी त्वया सार्धमतर्किता समवतीर्णा ? किं कापि आराधिता देवता प्रकटं मानुषीं तनुमाश्रिता ? कः सम्बन्धः अनया अस्मदीयः ?" एवं तर्कणापरेषु तेषु सलज्जं रत्नवती
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२४२
रयणवाल कहां सलज्ज रयणवई सासू-ससुराण चलणेसु पणमिआ । मउलिअ-पाणिपल्लवा वोत्तु पउत्ता-"अहं म्हि किर तत्थभवयारणं सुण्हा । तुम्ह पियपुत्तस्स सहम्मिणी रयणवई णाम । विज्जावलेण राउलरूवम्मि गुत्ता पइणा सह समागया । तो तुम्हकेरा हं पुत्तबहू णण्णा' ।” एवं कहिअ अत्ताए चरणकमलम्मि सहरिसं णिवडिआ । इअ जाणिऊण भाणुमईए जिणदत्तस्स य अच्छरिज्जेण सह उक्कडो आणंदो जाओ।
बहआए मत्थयं करेण छीवंती अत्ता साहेउं पउत्ता"अहो ! एसा णिवधूआ पुत्तबहूडी रयणवई ! ण लक्खिआ अम्हेहि मणसा वि राउलरूव-गोवाइआ । अबला भुच्चावि दंसिअं णाए असाहारणं पउरिसं । अब्भुआ इमिआए समयसूअयआ। अणेगहुत्तं अम्हेहिं चिंतिअं जमेसो असंथुओ अपत्त-सयण-संबंधो वि कहं अम्हे अईव सुस्सूसइ. परिअरइ, अणण्णभत्तिभावेण पुण संरक्खेइ 'त्ति । पुत्तबहु ! तुह मईए धिईए केवइअं पसंसणं कुरणेमो जमम्हाणं आणयणे अणेगाई कट्ठाई सहिआई, विवइ-णिण्णगाओ य तीरिआओ । एआरिसिं सेवाहिमुहि सुण्हं पप्प धण्णा जाया अम्हे' एवं भण. माणीए ताए रयणवई पिट्ठभायम्मि ससिणेहमाहया, मत्थयमि ओसिंघिआ, पुत्त-पोत्तवई होहित्ति सुहाए आसीसाए य वड्ढाविआ । जया परिअणम्मि एसा पउत्ती वित्थारं गया तया सच्चोज्ज सब्वेवि ते आगया सुण्हं द? सुच्छाहं । रयणाणुरूवं रयणवई पेक्खिअ सव्वेवि आणंदिआ जाया । सेट्ठिणोऽईव सोहग्गं पसंसंता सयणा णिग्रं-णिअं गिहं
१ नान्या २ पुत्रवधूटी ३ समयसूचकता ४ साश्चर्यम् ।
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सत्तमो ऊसासो
२४३ श्रश्रूश्वसुरयोः चरणेषु प्रणमिता। मुकुलित-पाणिपल्लवा वक्तु प्रवृत्ता-“अहमस्मि किल तत्रभवतां स्नुषा युष्माकं प्रियपुत्रस्य सहधर्मिणी रत्नवती नाम । विद्याबलेन राउलरूपे गुप्ता पत्या सह समागता । तस्माद् युष्मदीयाऽहं पुत्रवधूः नान्या" एवं कथयित्वा अत्तायाः (श्वश्र्वाः) चरणकमले सहर्ष निपतिता । इति ज्ञात्वा भानुमत्या जिनदत्तस्य च आश्चर्येण सहोत्कटः आनन्दो जातः । वध्वाः मस्तकं करेण स्पृशन्ती अत्ता (श्वश्रूः) कथयितु प्रवृत्ता"अहो ! एषा नृपदुहिता पुत्रवधूटी रत्नवती ? न लक्षिता अस्माभिः मनसाऽपि राउलरूप-गोपायिता । अबला भूत्वाऽपि दर्शितमनया असाधारणं पौरुषम् । अद्भुताऽस्या: समय-सूचकता। अनेककृत्वो ऽस्माभिश्चिन्तितं यदेष असंस्तुत: अप्राप्त-स्वजन-सम्बन्धोऽपि कथमस्मान् अतीव शुश्रूषते, परिचरति, अनन्यभक्तिभावेन पुनः संरक्षतीति । पुत्रवधु ! तव मतेः धृतेः कियत् प्रशंसनं कुर्मः यदस्माकं आनयने अनेकानि कष्टानि सोढानि, विपनिम्नगाश्च तीरिताः । एतादृशीं सेवाभिमुखां स्नुषां प्राप्य धन्याः जाता वयम् । एवं भणन्त्या तया रत्नवती पृष्ठभागे सस्नेहमाहता मस्तके च ओसिंघिता घ्राता) पुत्र-पौत्रवती भव इति शुभया आशिषा च वर्धापिता । यदा परिजने एषा प्रवृत्तिविस्तारं गता तदा सचोज्ज (साश्चर्यम्) सर्वेऽपि ते आगताः स्नुषां द्रष्टु सोत्साहम् । रत्नानुरूपां रत्नवती प्रक्ष्य सर्वेऽपि आनन्दिताः जाताः। श्रेष्ठिनोऽतीव सौभाग्यं प्रशंसन्तः स्वजनाः
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२४४
रयणवाल कहो
पडिगया । विणयेण, विवेगेण, चाउज्जेण, दक्खयाए य सव्वेवि परिअणा गुरुअणा मंतमुद्धा, संमोहिआ, कीलिआ, वसगा इव य कया णाए । पिअरा पुत्तस्स पुत्तबहूए य महुरववहारेण, सव्वकज्ज-गणेउण्णण य ओहरिअ-भारार भारवाहा इव जाया। रयणवालोवि रयणवईए सद्धि पंचिदिअ-विसय-सुहाई अणुहवंतो जहासमयं धम्मिग्रं वावहारिअं च कज्जमणुचिट्ठतो सुहं सुहेण कालं जवेइ ।
अह एगया पुव्वरत्तावरत्तकाले धम्मजागरणं जागरमाणेण जिणदत्त-सेट्टिणा एआरिसी भावणा भाविआ-"अहो णं मए एगम्मि वि भवम्मि विचित्ता सुहदुहपरंपरा दिट्ठा, अणुहूआ, कायेरण फुसिआ य । तहवि कहं ण मे मणो विरत्तो जाओ ? ण कहं इंदिय-विसय-परंमुहया संपत्ता ? ण कहं सिणेह-सिढिलया जाया परिअणेसु ? ण कहं धणाईसु मुत्तिभावणा परिवढिआ ? हा ! हा ! ण पुणो पच्चावलंति वइक्कंता खणा । ण उणाइ बोलीणं जुब्वणं, लाअण्णं, सरीरबलं च आवट्टइ पच्छा । अरे ! तुच्छजीवण-हेउआ एरिसी चिंता ! केरिसं धावणं ? केदहा छल-कवड-पवंचा ! कि ण छड्ढिअव्वं रंकव्व राइणावि एअं सव्वं ? एत्थ का विइगिच्छा ? सव्व-साहारणो कयंतस्स णिच्छिओ णिअमो। ण तस्स पुरओ कस्सइ सफलो विणय-प्पओगो बल-प्पओगो वा। ता किणो हं ण अप्पणो हिरं चितेमि, आयरेमि य । अव्वो ! ग आउसस्स महग्धं भायतिगं । किं अवसिट्ठ संपइ । तुरिअव्वं मए अप्प-हिअम्मि धम्म-कज्जम्मि पेच्च
१ चातुर्येण २ अवहृतभारा: ३ न पुनः ।
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सत्तमो ऊसासो
२४५
निजं निजं गृहं प्रतिगताः । विनयेन, विवेकेन, चातुर्येण, दक्षतया च सर्वेऽपि परिजनाः गुरुजनाः मन्त्रमुग्धाः, सम्मोहिताः, कीलिताः, वशगाः इव च कृता अनया । पितरौ पुत्रस्य पुत्रवध्वाश्च मधुर व्यवहारेण सर्वकार्य नैपुण्येन च अवहृतभारी भारवाहौ इव जातौ । रत्नपालोऽपि रत्नवत्या सार्धं पञ्चेन्द्रियविषयसुखानि अनुभवन् यथासमयं धार्मिक व्यावहारिकं च कार्यमनुतिष्ठन् सुखं सुखेन कालं यापयति ।
अथैकदा पूर्वारात्रापररात्रकाले धर्मजागरणां जाग्रता जिनदत्तश्रेष्ठिना एतादृशी भावना भाविता - अहो णं' मया एकस्मिन्नपि भवे विचित्रा सुखदुःखपरम्परा दृष्टा, अनुभूता, कायेन स्पृष्टा च ; तथापि कथं न मे मनो विरक्तं जातम् ? न कथमिन्द्रय-विषय-पराङमुखता सम्प्राप्ता ? न कथं स्नेह शिथिलता जाता परिजनेषु ? न कथं धनादिषु मुक्तिभावना परिवर्धिता ? हा ! हा ! न पुनः प्रत्यावर्तन्ते व्यतिक्रान्ताः क्षणाः । न पुनरतिक्रान्तं यौवनं लावण्य, शरीरबलं च आवर्तते पश्चात् । अरे ! तुच्छजीवनहेतुकी ईदृशी चिन्ता ? कीदृशं धावनम् ? कियन्तश्छल कपट - प्रपञ्चाः ? किन मोक्तव्यं रङ्कवद् राज्ञाऽपि एतत् सर्वम् ? अत्र का विचिकित्सा ? सर्वसाधारणः कृतान्तस्य निश्चितो नियमः । न तस्य पुरतः कस्यापि सफल विनय प्रयोगो बल प्रयोगो वा । ततः कस्मादहं नात्मनो हितं चिन्तयामि, आचरामि न । अब्बो ! गतं आयुषो महार्घ्यं भागत्रिकम् ।
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रयणवाल कहा
हिआए, सुहाए, खेमाए य ।" एवं भावेमाणो सेट्ठी विरति पत्तो, वेरग्गं लद्धो, भव-बंधणं छेत्तु तप्परो य जाओ । भाई पुरओ सेट्ठिणा णिआ भावणा रक्खि । सावि इणं सुहं किच्चं साइज्जमाणा पई अणुगंतु उच्छुआ जाया । आपुच्छिऊण पुत्ताइ - परिअरणं च धम्मघोसस्स आयरिअपायस्स समीवं सभज्जं पव्वज्जमुवगओ । विविघोरतवेहि सरोरं तावयंता सज्झाय-झारोहि अप्पाणं भावेंता, अंते ससंलेहणमणसणमा राहिअ कप्पविमाणवासिणो देवा जाया ।
अहण्णया रयणवई आवण्णसत्ता जाया । पसूअं णाए पुत्तरयणं । सुहं सुहेण परिवढिओ सो । कराविअं विज्जाज्झयरणं जाव कयपाणिग्गहणो विणयी, विवेगी, सव्वकज्जकुसलो, गिहत्थासम-धुरंधरो य जाओ ।
इओ य समागया अमिअगइ - णामाणो महातवस्सिणो चउणाणिणो आयरिअ-वसहा । मुणिअ मुणीणमागमणं संतुट्ठा जाया णयरी | णिग्गया अरगे सेट्ठि - महावइ- सेणावइरायाणो वंदिउ सुणिद-पायकमलं । रयणवई -सहिओ रयणवालोवि गओ मुणिंद- दंसणट्ठ । वागरिआ गुरुवरेण धम्मदेसणा । जाणाविआ मणुसभवस्स दुल्लहा पत्ती। एस खलु दारं चउग्गइमयस्त संसार दुग्गस्स । एत्थ खलिएहि, णरयणिगोआईसु पडिअहिं, संसारचक्कवालम्मि डिएहि, चउसी लक्खजीवजोणीणं कहमंतो अव्वो ? हंत ! सत्तरकोडाकोडीसायरमिआ मोहणिज्ज-कम्मस्स ठिई । तेण मोहिआ जीवा ण परिलक्खति पच्चक्खमवि सरूवं ।
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सतमो ऊसासो
२४७
किमवशिष्टं सम्प्रति त्वरितव्यं मया आत्महिते धर्मकायें प्रत्यहिताय, सुखाय, क्षेमाय च । एवं भावयन् श्रेष्ठी विरक्ति प्राप्तः, वैराग्यं लब्धः, भवबंधनं छेत्तु तत्परश्चजातः । भानुमत्याः पुरतः श्रष्ठिना निजा भावना रक्षिता । साऽपि इदं शुभं कृत्यं अनुमोदयन्ती पतिमनुगन्तु उत्सुका जाता। आपृच्छ्य पुत्रादि-परिजन जिनदत्तो धर्मघोषस्य आचार्यपादस्य समीपं सभार्यः प्रव्रज्यामुपगतः । विविधघोरतपोभिः शरीरं तापयन्तौ स्वाध्याय - ध्यानैरात्मानं भावयन्तौ अन्ते ससंलेखन मनशन माराध्य कल्पविमान-वासिनौ देवौ जातौ ।
अथान्यदा रत्नवती आपन्न - सत्वा जाता । प्रसूतं तया पुत्ररत्नम् । सुखं सुखेन परिवर्धितः सः । कारायितं विद्याध्ययनं यावत् कृतपाणिग्रहणो विनयी, विवेकी, सवकार्यकुशलो, गृहस्थाश्रमधुरन्धरश्च जातः ।
इतश्च समागता अमितगतिनामानो महातपस्विनश्चतुर्ज्ञानिनः आचार्य - वृषभाः । ज्ञात्वामुनीनामागमनं संतुष्टा जाता नगरी । निर्गता अनेके श्रेष्ठि-गाथापति-सेनापति राजानो वन्दितुं मुनीन्द्र-पादकमलम् । रत्नवती - सहितो रत्नपालोऽपि गतो मुनीन्द्र-दर्शनार्थम् । व्याकृता गुरुवरेण धर्म-देशना । ज्ञापिता मनुष्यभवस्य दुर्लभा प्राप्तिः । एतत् खलु द्वारं चतुर्गतिमयस्य संसार - दुर्गस्य । अत्र स्खलितैर्नरकनिगोदादिषु पतितैः संसार-चक्रवाले नटितैश्चतुरशीति-लक्ष- जीवयोनीनां कथमन्तः नेतव्यः ? हन्त ! सप्तति-कोटी-कोटी - सागरमिता मोहनीय कर्मणः स्थितिः । तेन मोहिता जीवा न परिलक्षन्ते
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२४८
रयणवाल कहा
मज्जवा इव विवेगविगला जत्थ तत्थ भमंति, अडंति, पवडंति हसंति. रूवेंति, पलवंति गायंति, मिलायंति पुणो पुणो । हो ! सुहमिच्छृणमविकहं सुहप्पत्ती जाव परवत्थुम्मि तेसि सुह-गवेसणा, मग्गणा य । अत्थि अणंतसुहसरूवो अत्ता। तत्थ परवत्थुणो संगमो च्चिअ दुक्खकारणं, भंतिकारणं, भमण-कारणं च । तम्हा पढमं जहत्थ-णाणं कायब्बं । णाणविहणा किरिआवि अंधबाणपरंपरा विव ण समीचीणं लक्खं भिदेउखमा । अहह ! अप्पारामम्मि रमंता मुणिणो केरिसमाणंदाणुहवं कुणेति । अणुऊल-पडिऊलेसु सुहदुहाईसु सम्मं भावेमाणा वीअरागा ण कत्थइ खिज्जति, कीसंति, परितवंति, विमणा दुमणा य हवंति । हंदि ! मुणीणं सव्वओ उव्वेलिओ आणंद-समुद्दो । समंता पसरिल्ला संतिलहरी । भव्वा ! सइ' अणुहवंतु अप्पुल्लं' सुहलवं । लद्धासाया तुम्हे ण तं परिजहिउ सत्ता । खलु अणुहवगम्मो अयं मग्गो।
सक्खं अमिअ-पाणमिव महुरं मुणिकुजराणं वयणं सोऊण पंफुल्लिआ जाया परिसा, उब्बुद्ध जायं माणसमइअर।
देसणाणंतरं पुट्ठो रयणवालेण णिअ-पुन्वभव-वृत्तंतो जहा किंमए एआरिसं दुक्कडं कयं, जेण सोलस-वास-पेरंतं पिउविओगो, धणणासो य जाओ। णाण-बलेण मुणिणा भणिअं-"अण्णाण-वसंवएण तुह जीवेण माइप्पदत्तस्स सुपत्त-दाणस्स सकोहं गरिहा कया, सुमिणणो णिदिआ,
१ सकृत् २ आत्मीयम् ३ अतित राम् ।
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सत्तमो ऊसासो
२४६
प्रत्यक्षमपि स्वरूपम् । मद्यपा इव विवेक - विकला यत्र तत्र भ्रमन्ति अटन्ति, प्रपतन्ति, हसन्ति, रुदन्ति, प्रलपन्ति गायन्ति, म्लायन्ति पुनः पुन: । अहो ! सुखमिच्छूनामपि कथं सुखप्राप्तिः यावत् परवस्तुनि तेषां सुखगवेषणा, मार्गणा च । अस्ति अनन्त सुख स्वरूपः आत्मा । तत्र परवस्तुनः संगमः एव दुःखकारणं, भ्रान्तिकारणं, भ्रमणकारणं च । तस्मात् प्रथमं यथार्थ ज्ञानं कर्तव्यम् । ज्ञान-विहीना क्रियाऽपि अन्धबाण-परम्परेव न समीचीनं लक्ष्यं भेत्तु क्षमा । अहह ! आत्मारामे रममाणा मुनयः कीदृशमानन्दानुभवं कुर्वन्ति ! अनुकूल - प्रतिकूलेषु सुख-दुःखादिषु सम्यग् भावयन्तो वीतरागा न कुत्रापि विद्यन्ते, क्लिश्यन्ते, परितपन्ति, विमनसो दुर्मनसश्च भवन्ति । हन्दि ! मुनीनां सर्वतः उद्व ेलितः आनन्दसमुद्रः । समन्तात् प्रसृमरा शान्तिलहरी । भव्याः सकृदनुभवन्तु आत्मीयं सुखलवम् । लब्धास्वादाः यूयं न तत् परिहातु शक्ता: । खलु अनुभवगम्योऽयं मार्गः ।
साक्षात् अमृतपानमिव मधुरं मुनिकुञ्जराणां वचनं श्रुत्वा प्रफुल्लिता जाता परिपत्, उद्बुद्धं जातं मानसमतितराम् । देशनानन्तरं पृष्टो रत्नपालेन निज- पूर्वभव - वृत्तान्तः -- यथा किं मया एतादृशं दुष्कृतं कृतं येन षोडशवर्षपर्यन्तं पितृवियोगो, धननाशश्च जातः । ज्ञानबलेन मुनिना भणितम् - " अज्ञानवशंवदेन तव जीवन मातृ-प्रदत्तस्य सुपात्रदानस्य सक्रोधं गर्हा कृता, सुमुनयो निन्दिताः
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२५०
रयणवाल कहा
तस्स कडुअं फलं तुमए एत्थ भीसणयरं भुत्तं । पच्छा माईए. बोहिएण दाणमाहप्पं पत्तेण तुमए सुसाहुदाणस्स अणुमोअणा कया। धम्मे वि रुई समुप्पण्णा । तप्पभावेण पुणरवि सव्वं पत्तं । आयण्णिअ पुवभववृत्तंतं विसेसओ वेरगं पत्तो रयणवालो सभज्जो । आलित्त'-पलित्त-संसाराओ णिक्कासेमि णिअं अप्पाणं सत्तरं । इणमेव पायडं मेहाए फलं जं णिउध्दारम्मि तप्परो होमि 'त्ति विचितमाणो णि व्वुइं गओ। समप्पिअ पुत्तम्मि गिहभारं. अप्पणो रयणवई सहिओ भागवई दिक्खं पवण्णो । कया विमला किरिआ, अमलं झाणं, उज्जलो सज्जाओ, तिब्वो तवो, अप्पमत्तो विहारो य । अणेग-वासाइं संजमपज्जायं पालिऊण बंभदेवलोअं गया एए। तओ चइऊण महाविदेहे वासे सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति जाव सव्वदुक्खाग मंतं करिस्संति य।
इअ सिरिचंदणमुणि-विरइआए पिउमिलण-चंदणमुद्दाग्गहण-गउलरूवपरिवट्टण-पिउदिक्खादाण-गिहचायप्पभिइवण्णणेहिं वण्णिआए रयणवालकहाए सत्तमो ऊसासो समत्तो
॥७॥
१ आदीप्त-प्रदीप्त संसारात् ।
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२५१
सत्तमो ऊसासो तस्य कटकं फलं त्वया अत्र भीषणतरं भुक्तम् । पश्चात् मात्रा बोधितेन दान-माहात्म्यं प्राप्तेन त्वया सुसाधुदानस्य अनुमोदना कृता धर्मेऽपि रुचिः समुत्पन्ना। तत्प्रभावेण पुनरपि सर्वं प्राप्तम् । आकर्ण्य पूर्वभववृत्तान्तं विशेषतो वैराग्यं प्राप्तो रत्नपाल: सभार्यः । आदीप्तप्रदीप्त-संसारात् निष्कासयामि निजमात्मानं सत्वरम् । इदमेव प्रकटं मेधायाः फलं यद् निजोद्धारे तत्परो भवामीति विचिन्तयन् निवृति गतः । समर्प्य पुत्र गृहभारं स्वयं रत्नवती-सहितो भागवतीं दीक्षां प्रपन्नः । कृता विमला क्रिया, अमलं ध्यानं, उज्ज्वलः स्वाध्यायः तीव्र तपः, अप्रमत्तो विहारश्च । अनेकवर्षाणि संयमपर्याय पालयित्वा ब्रह्मदेवलोकं गतौ एतौ। ततश्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यते, भोत्स्येते, मोक्ष्यतः यावत् सर्वदुःखानामन्तंकरिष्यतश्च ।
इति श्रीचन्दनमुनिविरचितायां पितृमिलन-चन्दनमुद्राग्रहण-राउलरूपपरिवर्तन-पितृदीक्षादानगृहत्याग-प्रभृतिवर्णनैः वणितायां रत्नपाल-कथायां सप्तमः उच्छवासः समाप्तः
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१ सहक्षः ।
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कव्वकारगस्स पसत्थी
सोऊण चरिअमेअं, जगवेचित्ती विआणिआ होज्जा । चावल्लं लच्छीए सत्यपरो बन्धु-पेम्मो य ॥१॥ तओ धम्मज्जम्मि अ भव्वाणं भावणा थिरा हवइ । धम्माओ सव्वाणं सुक्खाणं सोहणा पत्ती ॥२॥ किं बहुना धम्मो चिअ भव्वेहिं सव्वया सयं सेवो । अज्झत्थसुहणिआणं, तेलुक्के सारभूओ जो ॥३॥ तेरापहस्स पढमो आयरिओ भिक्खणामगो जाओ । धीरो जल हिगहीरो अक्खलिआयारसंजुत्तो ॥४॥ पिहं पहो मोक्खस्स य संसारस्स य तहा पुहं मग्गो । एगीहवंति ण कया इअ वागरणं कथं जेण ||५|| पावकारणं राओ मूलं धम्माणमत्थि जीवदया । कहं णु मीसीभावं लहंति ते, साहिअं जेण ||६|| णाणाविहाण पुणरवि दारुणकट्ठाणि जेण सहिआणि । तहविण सम्मं मग्गो परिचत्तो जेण दढदिहिणा ||७|| भारमलो से सीसो गणवो जाओ बिइज्जओ धीरो । रिसिराओ तइओ पुण भूओ चोत्थो जयायरिओ || ८ || जाओ पंचमपट्टे मघवर्गाणिदो महाविमलहिअओ । छट्टो माणकलालो, डालमचंदो उ सत्तमिओ || ६ || सिद्धिपयासीणो पुण, महाकिवालू अ कालुगणणा हो । जस्स सासणे वुड्ढि - अउलं पत्तो गणो एसो ॥ १० ॥ मंदो मह सारिच्छो' जस्साणुग्गहसुहा - सुसंसित्तो । पत्तो सक्खरअं हो ! गुरुमाहप्पो अवत्तव्त्रो ||११||
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काव्य कारकस्य प्रशस्तिः
श्रुत्वा चरितमेतद् जगद्वैचित्री विज्ञाता भवेत् । चापल्यं लक्ष्म्याः स्वार्थपरं बन्धु-प्रेम च ॥ १ ॥ ततो धर्मकार्ये च भव्यानां भावना स्थिरा भवति । धर्मात् सर्वेषां सुखानां शोभना प्राप्तिः ।। २॥ कि बहुना धर्म एव भव्यैः सर्वदा स्वयं सेव्यः । अध्यात्म-सुख-निदानं त्रैलोक्ये सारभूतो यः ॥ ३॥ तेरापथस्य प्रथम आचार्यो भिक्ष नामको जातः । धीरो जलधि-गभीरोऽस्खलिताचार-संयुक्तः ॥४।। पृथक् पन्थाः मोक्षस्य च संसारस्य च तथा पृथग् मार्गः। एकीभवन्ति न कदा, इति व्याकरणं कृतं येन ।। ५ ।। पाप-कारणं रागो, मूलं धर्माणामस्ति जीव-दया। कथं नु मिश्रीभावं लभेते ते, कथितं येन ।। ६ ।। नाना-विधानि पुनरपि दारुण-कष्टानि येन सोढानि। तथापि न सम्यगमार्गः परित्यक्तो येन दृढधृतिना ॥ ७ ॥ भारमलस्तस्य शिष्यो गणपो जातो द्वितीयको धीरो। . ऋषिरायस्तृतीयः पुनर्भूतश्चतुर्थो जयाचार्यः ॥ ८ ॥ जातः पञ्चमपट्ट मघवगणेन्द्रो महाविमलहृदयः । षष्ठो माणकलालो डालमचन्द्रस्तु साप्तमिकः ॥ ६ ॥ सिद्धिपदासीनः पुनर्महाकृपालुश्च कालुगणनाथः । यस्य शासने वृद्धिमतुलां प्राप्तो गण एषः ॥१०॥ मन्दो मम सदृक्षो यस्यानुग्रहसुधा-सुसंसिक्तः। प्राप्तः साक्षरतामहो ! गुरुमाहात्म्यमवक्तव्यम् ।।११।।
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२५४
रयणवाल कहां
णवमासणस्स णाहो संपइ तुलसी पहाविआयरिओ। उज्जमसीलो सुअरं, जुगाणुऊलं उवइसंतो ॥१२॥ अणुव्वयंदोलणओ आहुणिआ जेण संगया विहिआ। काउ वत्तालावं उति णाणाविहा लोआ ॥१३॥ तेसि गुरुचरणाणं अणुओ मुणिकेवलस्स जो पुत्तो। धणमुणिणो दीवाए अज्जाए अवरजो भाया ॥१४॥ मुणिचंदणाभिहाणो वट्टइ जो कव्व-कप्पणा-रसिओ। एगावण्णमवरिसे पढिआ पाइअ-गिरा जेण ॥१५॥ बालेहि पि सुगेझं अप्प-समासं, तहा कहामहुरं । लिहिअं गज्ज कव्वं पाइअ-भासा-पवेस? ॥१६॥ गुज्जरभासागेया मोहणविजयेण जा कया रयणा । कहाणयं तत्तो च्चिअ साभारं गहिअमेअम्मि ॥१७॥ पढमिल्लेत्थ, पयासे दोसाणं संभवो हवे कोइ । संखावंता पुरिसा, दोस-विसुद्धि करिस्संति ॥१८॥ कर कर णह कर वरिसे जयपुरणयरे कया चउम्मासी। लाल-मूलमुणि - जुग्गं कुणेइ सेव्वं सुभावेणं ॥१६॥ अक्कमणे साणाणं जा जायाऽतक्किया करे पीला। तम्मि विरइअं कव्वं, कल्लारणं सव्वओ हवउ ॥२०॥
इअ कव्वकारगस्स पसत्थी समत्ति पत्तोऽयं गंथो।
१ सं० २०२२, २ श्वानानाम्-मृगयाश्वानानां अतकिते आक्रमणे जाते चन्दनमुनेः करपीडा जाता, बद्धःपक्वपट्टः । तस्मिन्-तत्रान्तराले काले इदं काव्यं विरचितम् ।
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कव्व कारगस्स पसत्थी
२५५ नवमासनस्य नाथः सम्प्रति तुलसी प्रभाविकाचार्यः । उद्यमशीलः सुतरां युगानुकूलमुपदिशन् ॥१२॥ अणुव्रतान्दोलनतः आधुनिका येन संगता विहिताः । वर्तुं वार्तालापं उपयन्ति नानाविधा लोकाः ॥१३।। तेषां गुरुचरणानामनुगो मुनि केवलस्य यः पुत्रः । धनमुनेर्दीपाया आर्याया अवरजो भ्राता ॥१४॥ मुनिचन्दनाभिधानो वर्तते यः काव्यकल्पनारसिकः । एकपञ्चाशद्वर्षे पठिता प्राकृतगिरा येन ॥१५॥ बालैरपि सुग्राह्य अल्प-समासं तथा कथामधुरम् । लिखितं गद्य काव्यं प्राकृतभाषा-प्रवेशार्थम् ।।१६।। गुर्जरभाषागेया मोहनविजयेन या कृता रचना। कथानकं तस्मादेव साभारं गृहीतमेतस्मिन् ।।१।। प्राथमिकेऽत्र प्रयासे दोषारणां संभवो भवेत् कोऽपि । संख्यावन्तः पुरुषा दोष-विशुद्धि करिष्यन्ति ॥१८।। कर-कर-नभ-कर-वर्षे जयपुर नगरे कृता चतुर्मासी। लाल-मूल-मुनियुग्मं करोति सेवां सुभावेन ॥१६॥ आक्रमणे श्वानानां या जाताऽकिता करे पीडा। . तस्मिन् विरचितं काव्यं कल्याणं सर्वतो भवतु ।।२०।।
इति काव्यकारकस्य प्रशस्तिः ।
समाप्तिं प्राप्तोऽयं ग्रन्थः ।
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श्री चन्दनमुनि विरचित प्राकृतभाषा-निबद्ध रत्नपाल-कथा
(हिन्दी रूपान्तर)
मंगलाचरण
(१) मैं भक्तिपूर्वक अर्हन्तदेव का स्मरण करता हूँ। । उनमें सहज ही अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र और
अनंतबल प्रस्फुटित होते हैं। (२) आठों ही कर्मों का समूल नाश कर स्वभाव में लीन तथा जन्म
मरण से रहित सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें-मुझे मेरा
लक्ष्य प्राप्त कराए। (३) आचार्य समस्त प्राणियों को सम्यक्त्व और ज्ञान की संप्राप्ति
कराकर उनका महान् उपकार करते हैं। कौन उनकी स्तुति नहीं
करेगा? (४) जिनके सान्निध्य से विद्या का विस्तार सुलभ होता है, वे भवतप्ति
को उपशान्त करने वाले उपाध्याय मेरे शरणभूत हों। (५) उन साधुओं के पद-पंकज में कौन प्रणत नहीं होता, जिनके दर्शन
मात्र से कोटि-कोटि भव परंपराओं का नाश होता है ।
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रयणवाल कहाँ
(६) इस प्रकार इन पाँच परमेष्ठियों की भावपूजा कर मैं अल्पज्ञ
काव्य-कलना में सहज प्रवृत्त होता हूँ। (७) जो व्यक्ति पर-पुद्गलों में आसक्त रहते हैं, उनके सुख-दुःख की
परिभाषा क्या हो सकती है ? ओह ! संसार बड़ा विचित्र है । (८) पुद्गलमय संसार की सारी लीला क्षणभंगुर है। यहाँ क्या
हँसना ? क्या रोना ? क्या शोक ? और कौन-सा आनन्द है ? (6) एक ही जीव अपने एक ही जन्म में किस प्रकार कर्मों को विचित्रता
का अनुभव करता है, (किस प्रकार उत्थान और पतन के चक्र से
गुजरता है) इसका सम्यग् निदर्शन यह 'रत्नपाल कथा' है । (१०) यद्यपि यह मेरी काव्य रचना, काव्य की छटा से रहित है, फिर
भी यह कथा मधुर और स्वभावतः सरस है। क्या अनलंकृत बालक भी मनुष्यों के मन को आकर्षित नहीं करता ?
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पहला उच्छ्वास
प्राचीन काल में पुरिमताल नामक नगर था। वह प्राकृतिक सौन्दर्य से शोभित और अनेक उद्यानों तथा पर्वतों से परिमंडित था। वहां शूरसेन नाम का राजा राज्य करता था। वह राजनीति और धर्म-नीति में अत्यन्त निपुण, चोर, लंपट और लुटेरों के लिए क्रूर होते हुए भी अत्यधिक सौम्य था। उस उद्यमी राजा ने अपने भुजबल से शत्रुओं को भयभीत कर दिया था।
वहां अनेक इभ्य, श्रेष्ठी तथा गाथापति रहते थे। वे बहुत धनाढ्य, मान और मात्सर्य से रहित थे। वे मितव्ययी थे, किन्तु उनका धन अच्छे कामों में नदी के स्रोत की तरह बहता था। उनकी लज्जालुदृष्टि परस्त्रियों को माता की दृष्टि से देखती थी। वे तत्त्वज्ञ थे। कभी अपराध हो जाने पर तत्काल प्रायश्चित्त स्वीकार करने के लिए उद्यत रहते थे। कल या परसों करने वाला शुभ कार्य हम अभी करलें इस प्रकार वे विशेष जागृत रहते थे। प्रायः वहाँ के धनाढय व्यक्ति भी दूसरों के दुःख में स्वयं दुःखित होते थे। वे क्षमाशील होते हुए भी धार्मिक पराभव को कभी सहन नहीं करते थे। दूसरे-दूसरे कार्यों का भार आ जाने पर भी वे धर्म-कार्य को प्रधान मानते थे। अहो आश्चर्य ! मनुष्य जन्म की उनकी सफलता देखकर देव भी वैसा बनने के लिए स्पर्धा करते रहते थे।
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रयणवाल कहा
वहाँ जिनदत्त नाम का धनाढ्य सेठ रहता था। उसकी प्रकृति भद्र और हृदय दया था। नगर के सभी नागरिक उसको सम्मान देते थे। वह मेढ़ी (खेत में धान्य के खलिहान के मध्य में काष्ट रोपा जाता है, जिसकी परिक्रमा करते हुए बैल घूमते हैं उसे मेढ़ी कहते हैं) और चक्षुभूत व्यक्ति था । वह सामायिक, प्रति क्रमण और पौषध का यथासमय आचरण करता हुआ अपना समय बिताता था। वह निरन्तर अपनी आत्मा में श्रावकों के तीन मनोरथों का चिन्तन करता हुआ दुस्तर और दुरवगाह संसार सागर को पार पाने का प्रयास करता था। वह धन संपदा से अधिक धर्म संपदा को बहुमान देता था। 'यौवन नदी के जल की तरह प्रवहमान है, जीवन बिजली के प्रकाश की भाँति क्षणिक है, आगे या पीछे सब कुछ छोड़ना होगा'-इस प्रकार चिन्तन करते हुए वह सदा अप्रमत्त रहता था। वर्षारंभ होने पर मयूर की तरह भावितात्मा मुनियों के दर्शन प्राप्त कर वह प्रफुल्लित हो उठता था और आदर-पूर्वक अपने साथियों के साथ तत्वग्रहण की उत्सुकता से हाथ जोड़कर एकाग्र मन उन मुनियों का धर्मोपदेश सुनता था ।
उसकी पत्नी का नाम भानुमती था। वह मनुष्य शरीर में अप्सरा की भांति अत्यन्त सुन्दर और गुणों की साकारमूर्ति थी । वंश-परम्परा से लब्ध, उच्च संस्कारों से युक्त साक्षात् विनय संपदा की भाँति थी। उसकी दृष्टि लज्जा से सदा नत रहती थी और उसका व्यवहार मधुर था। उसके नेत्र रूपी कमल सदा खुले रहते थे, किन्तु, परदोष-दर्शन के लिए उसकी दोनों पलकें बन्द रहती थीं। यद्यपि उसका हृदय नवनीत की भांति कोमल था, फिर भी गृहीत प्रतिज्ञाओं के संरक्षण में वह वन की तरह कठोर था। उसके वचन सब के लिए आह्लादकारी थे। कुल मर्यादा ही उसकी परम गरिमा थी। गुरुजनों के प्रति वह सदा विनयशील और हाथ जोड़े रहती थी। कोई व्यक्ति कुछ कहता तो वह मुस्कराती हुई 'ठीक है'-ऐसा कहकर स्वीकार करती थी। सिरीष के फूल की भाँति उसका शरीर कोमल था, किन्तु वह घर के कामों में अखिन्नभाव से निरन्तर लगी रहती थी। इस कठोर श्रम के लिए उसके पड़ौसी उसकी प्रशंसा करते थे। “गृहस्थ के सभी व्यवहारों के लिए इसे पूछना चाहिये"--इस प्रकार वह सभी व्यक्तियों के लिए प्रिय और विश्वासयोग्य बन गई थी। उसके प्रतिस्पर्धी भी अन्यत्र अलभ्य उसके स्वाभाविक मधुर व्यवहार को देख अपना वैरभाव भूल उसके मित्र बन गए थे।
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पहला उच्छ्वास
इस प्रकार सेठ जिनदत्त के सारी अनुकूलताएँ थीं, किन्तु वह एक चिंताशल्य से उद्विग्न रहता था। कुलदीपक पुत्र के बिना सारा धन-धान्य भृत्य और नौकरों से परिपूर्ण सुसज्जित और सुमंडित घर भी श्मशान की भांति परिलक्षित होता था। हा ! विधि कितनी निष्ठुर और कृपण है । वह किसी का सर्दा ग सुख सह नहीं सकती । सभी प्रकार से सुखी होते हुए भी मनुष्य प्रायः कुछ प्रतिकूलता का अनुभव करता ही है। यह ठीक ही है कि अमत के स्रोत में कहीं न कहीं कालकूट जहर की कोई सूक्ष्म रेखा रहती है। मनुष्य अल्पज्ञ है, मनुष्य के भाग्य में क्या शुभ-अशुभ लिखा है, वह जान नहीं सकता। जिनदत्त अध्यात्मतत्व का वेत्ता था । वह जानता था कि पुद्गलों की परिणति आपात-भद्र और परिणाम-दारुण होती है। इसलिए वह अन्तर्गत चिन्ताशल्य को बहुत नहीं मानता था। वह प्रतिक्षण नमस्कार महामंत्र का स्मरण करता हुआ, सुख से जीवन बिताता था। ___एक बार कौमुदी महोत्सव का समय आया। बहुत सारे पौरजन अनेक प्रकार के वस्त्र और मूल्यवान आभूषणों को धारणकर, अपने-अपने परिवार से परिवृत हो सानन्द यान में या पैदल ही उद्यान की ओर चल पड़े।
भानुमती भी भोजन आदि सभी गृहकार्यों से निवृत्त हो, अपने भवन के वातायन में जा बैठी और चौराहे को देखने लगी । अकस्मात् उसकी दृष्टि स्त्रियों के समूह पर जा पड़ी। वे सब अपने पुत्र-पौत्रों से परिवत हो अनेक क्रीड़ाओं में संसक्त थीं। वे परस्पर मिलती थीं, हंसती थीं और खेलती थीं तथा बालकों के सम्बन्ध में नाना प्रकार की बातें करती थीं। कई स्त्रियां अपने बच्चों की अंगुली पकड़ कर मधुरालाप करती हुई, उनको धीरे-धीरे चला रही थीं। कई स्त्रियाँ अपने रोते बच्चों को अनेक प्रकार खिलौने देकर उनको सन्तुष्ट कर रही थीं। हमें गोद में उठाओ-इस प्रकार कई बच्चे हठ कर रहे थे। उनकी माताएं उन्हें गोद में उठाकर, उनके मुखकमल का चुम्बन ले सुख का अनुभव करती थीं। कहीं पर धान्यकण भक्षण में संलग्न कबूतरों के समूह को देखकर कोई अजान बालक माता को विचित्र प्रश्नों से विस्मित बना रहा था। कई माताएं आगे चलनेवाले किसी जटाधारी को दिखाते हुए अपने बच्चों को शीघ्र ही दौड़ने के लिए कह रही थीं । अनेक स्त्रियाँ नाना प्रकार की मिठाइयाँ खरीद कर बड़े प्रेम से अपने बच्चों के मुह में दे रही थीं। कई स्त्रियाँ बच्चों के साथ, मन को आह्लाद देने वाली बातें करती हई अनेक प्रकार के गृह-कार्यों से उत्पन्न मानसिक खेद को कमकर रही थीं। इस प्रकार अनेक बाल-क्रीड़ाओं में रत माताओं को
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रयणवाल कहा
बांझ भानुमती ने देखा। तत्क्षण वह बाल-शून्य अपनी गोद को निहारकर अगाध शोक-सागर में डब गई। उसने सोचा-'हाय ! मेरा जन्म निरर्थक है। मैंने व्यर्थ ही स्त्रीत्व प्राप्त किया है । हाय ! निर्लज्ज विधि ने हमें व्यर्थ ही अतुल संपत्ति दी। ओह ! चारों ओर अंधकार दीख रहा है । हाय ! किसके आगे अपना दुःख प्रस्तुत करूँ ? धन्य हैं ये माताएँ, कृतपुण्य हैं ये माताए जिन्होंने साक्षात् पुण्यफल की तरह सुदुर्लभ पुत्र के मुख को देखा है । ओह ! वे माताएं किस निरुपम अनुभवगम्य सुख का संवेदन करती होंगी, जिनके कानों में क्रीडारत बालकों का कोलाहल पड़ता रहता है । ओह ! बालकों की व्याकरण के नियमों से रहित तुतली बोली भी इक्षुखण्ड से भी अधिक मधुर होती है। ओह ! मैं वह स्वर्णिम दिन कब देखू गी जबकि मेरी गोद बच्चों से भरी होगी। हाय ! मैंने पुत्र-प्राप्ति के लिए कितने अगणित यंत्र-मंत्र और तंत्र के उपाय किए हैं, किन्तु किसी ने भी कोई प्रतिफल नहीं दिया। मैं मानती हैं कि अग्नि में डाली हुई आहुति की भाँति वे सारे प्रयत्न निष्फल होगये । ओह ! जड़प्रकृति का राज्य कितना अव्यवस्थित और अविचारित है कि इस राज्य में कुछ भी यथार्थ नहीं होता। जहाँ दारिद्रय का निश्चल निवास है, वहाँ अपार परिवार की वृद्धि होती है। किन्तु जहाँ के भंडार मोतियों से परिपूर्ण है वहाँ द्वितीया के चन्द्र की तरह एक भी बालक नहीं दीखता।' इस प्रकार भानुमती विविध प्रकार के विकल्पों के ताप से उत्तप्त होकर शीघ्र ही जोरजोर से रोने लगी। आँखों का अञ्जन आंसुओं के साथ बहकर उसके गोरे गालों को मलिन करने लगा। 'बस इस मनोरथ शून्य जीवन से बहुत हो चूका'-- इस प्रकार सोचती हुई वह हिमशीत से दग्ध कमलिनी की भाँति शोभा-विहीन हो गई। सचेतन वह भानुमती उच्छ्वास और निःश्वास लेती हई भी लहार की धमनी की भाँति चेतना रहित होगई।
आश्चर्य ! मोह की विडम्बना अलक्षित होती है। पुत्र-पौत्रों से युक्त व्यक्ति भी खेद-खिन्न होते हैं और उनसे रहित भी खिन्न होते हैं। मोह-रूपी मदिरा की सूक्ष्म अशान रेखा दुरधिगम होती है। सुख के संकल्प में दुःख
और दुःख में सुख हो जाता है। वस्तुत: पौद्गलिक पदार्थों से प्राप्त क्या सुख और क्या दुःख ? इस संसार में उत्साह का परिणाम भी शोक से आविष्ट होता है। खेद है कि इतना होने पर भी कषाय से कलुषित जीव, तीर्थकर द्वारा कथित धर्म पर न श्रद्धा करता है, न विश्वास और न उसमें रुचि रखता है।
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पहला उच्छ्वास
___इतने में जिनदत्त श्रेष्ठी उसके पास आ पहुँचा । उमने भानुमती के म्लान
और अश्रुस्नात मुखकमल को देखकर सोचा कि अवश्य ही कुछ अशुभ घटना घटी है । वह अतुल वेदना का अनुभव करता हुआ प्रेमयुक्त मधुरवाणी में बोला-"प्रिये ! आज तू विमनायमान क्यों है ? कौन ऐसा मंदभाग्य व्यक्ति था जिसने तुम्हारा मन दुखाया है। उस दुष्ट का नाम तू मुझे शीघ्र ही बता ताकि मैं उसे पकड़ सकू और उस दुःसाहसी को मैं कठोर प्रायश्चित्त देकर उसके दर्प का नाश कर सकू।" कोमल रूमाल से उसके अधरस्थ आँसुओं को पोंछते हुए उसे अपनी चिन्ता का कारण बताने के लिए कहा, किन्तु वह मौन थी। उसने एक अक्षर भी नहीं कहा । प्रत्युत टूटे हुए मोतियों की माला की तरह उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे और वह अधिक दुःख में डूब गई।
जिनदत्त ने कहा-"प्राणप्रिये ! तू मौन रहकर मुझे क्यों दुःखित कर रही है ? तेरी उदासी का कारण मुझे ज्ञात नहीं है ऐसी दशा में मैं उसका प्रतिकार कैसे करू ?' उम गृहस्थाश्रम को धिक्कार है जहाँ प्रतिकूलता को प्राप्त स्त्रीजन मन में विषाद का अनुभव करती है। जहाँ पुरुष नारी का अपमान करते हैं, वहाँ विपत्ति रूप बिजली गिरने वाली है। मैं अपनी अर्धाङ्गिनी के दुःख को सहने में असमर्थ हूँ। वह दुःख दूर किया जा सकता है। इस प्रकार कहते हुए जिनदत्त ने अपनी पत्नी का आलिंगन कर बिना कारण ही उत्पन्न शोक के कारण को प्रकट करने के लिए उससे अनुरोध किया।
पति के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार से पत्नी ने अपने आपको आश्वस्त किया। उसने पतिदेव का अभिनन्दन किया और उसे ज्यों-त्यों अपनी चिन्ता का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसने कहा - "आर्यपुत्र ! आज मैं भोजनादि गृहकार्यों को सम्पूर्ण रूप से संपन्नकर गवाक्ष में बैठी थी। अचानक ही मेरी दृष्टि चौराहे पर जा पड़ी जहाँ पुत्र-पुत्रों के परिवार से घिरी हुई स्त्रियाँ घूम रही थीं। उन्हें देखकर मेरे हृदय में पुत्र-प्राप्ति की प्रसुप्त भावना जाग उठी । मैंने सोचा-धन्य और भाग्यशाली हैं ये स्त्रियाँ, जिनके समक्ष धूलिधूसरित बालक कभी कुछ मांगते हुए, तुतली बोली में बोलते हुए, कभी हँसते हुए, कभी रोते हुए, कभी विशिष्ट वस्तु को लेने की हठ पकड़ते हुए क्रीड़ा करते हैं, खेलते हैं और पृथ्वी पर लोटते हैं। मैं कैसी अधन्या और अपुण्या हूँ कि जिसमें बंजर भूमि की भाँति एक भी बीज प्रस्फुटित नहीं हुआ। इस
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रयणवाल कहा
भूमि पर अवतरित होकर मैं ही एक ऐसी हूँ कि जिसे स्त्रियों की पंक्ति में नगण्य स्थान प्राप्त है।" ____“प्रियवर ! आपके इस वज्र जैसे कठोर हृदय में खेद क्यों नहीं होता? अपना विवाह हुए कितना काल बीत चुका परन्तु भाग्य ने हमें एक भी कुलदीपक सतान की प्राप्ति नहीं कराई। मैंने कभी स्वप्न में भी संतान की बात नहीं सूनी । अनेक उपाय किये। थोड़े समय तक उनसे आशा का प्रकाश दीखा, किन्तु अन्त में वे भी फेन के बुदबुदों की तरह विलीन हो गए । कुल सूर्य के समान पुत्र बिना अपनी अतुलसंपत्ति की रक्षा कैसे होगी ? संपूर्ण पुरजनों में प्रतिष्ठित आपका नाम क्या आगामी वंश-परम्परा में विस्मृत नहीं हो जाएगा ?" इस प्रकार गद्गद् स्वर में बोलती हुई भानुमती पुनः रोने लगी। ___भानुमती के हृदय में प्रज्वलित शोकाग्नि को ज्यों-त्यों बुझाकर जिनदत्त ने कहा- "सुभगे ! तू तत्त्वों को जानती है, फिर भी तू निरर्थक चिन्ता के वितान को क्यों पकड़े हुए है ? क्या तू नहीं जानती कि भाग्य रेखा अनुल्लंघनीय होती है ? प्रत्येक पामर प्राणी को अपने किए हुए कर्मों का भार चाहेअनचाहे वहन करना ही पड़ता है। हम प्रतिदिन पुत्र-प्राप्ति के लिए कोई न कोई उपाय करते ही रहते हैं फिर भी यदि हमारी आशा फलीभूत नहीं होती है तो इसे अन्तराय कर्म कृत ही जानना चाहिए।" ____ "अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा है यदि अपने कष्टों के बादल समूह पुण्य की वायु से प्रताड़ित होकर नष्ट हो जाय तो शीघ्र ही अपना मनोरथों का कल्पवृक्ष फलित और पुष्पित हो सकता है।"
"आशा अमर धन है"--यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है। इसलिए हमें हताश नहीं होना चाहिए।
उसी क्षण वहाँ यक्ष और यक्षिणी का युगल प्रादुर्भूत हुआ । रुदन करती हुई भानुमती की अनुकम्पा से प्रेरित होकर यक्षिणी ने आगे चलने वाले यक्ष को अनुरोध कर उसे दर्शन दिए । यक्षिणी ने सहानुभूति पूर्ण मधुर शब्दों से चिन्ता के प्रयोजन की जिज्ञासा की। भानुमती रुदन करते हुए युगल को प्रणाम कर चिन्ता का सम्पूर्ण कारण बताते हुए कहा- "मैं इस पुत्रवन्ध्य शून्यजीवन को चिरकाल नहीं ढो सकती। हमारा यह शुभ दिन है कि हमें अनायास ही आपके दिव्य-दर्शन प्राप्त हुए हैं। निश्चित ही हमारे कष्ट नष्ट हो जाएंगे। मंगलों का आगमन होगा और शुभ भविष्य का उदय होगा।
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पहला उच्छ्वास
देव अकथनीय प्रभाव वाले होते हैं । हम पर आप अनुग्रह करें । महानुभाव अनुग्रहशील होते हैं ।" इस प्रकार भानुमती विनय - पूर्वक कहती हुई उनके चरणों में गिर पड़ी ।
तत्काल कृपालु यक्षाधिपति ने अवधिज्ञान से उनका भविष्य देखा और कुछ म्लान से बनते हुए प्रत्युत्तर में कहा - "श्रेष्ठिवर ! मैं वर देते हुए लज्जित होता हूँ ! सुनो, यदि पुत्र होगा तो लक्ष्मी का नाश होगा। तुम्हें घरवार छोड़ना होगा, पुत्र भी औरों के हाथों में वृद्धि पाएगा। बोलो, क्या वरदान दूं ? भानुमती का हृदय हर्ष से प्रफुल्लित और मुख - कमल विकसित हो गया। पति के बोलने के पहले ही वह कहने लगी -- " आपके वरदान का मैं अभिनन्दन करती हूँ- आप अनुग्रह करें, अनुग्रह करें । यक्षनाथ ! यदि ऐश्वर्य के विनिमय से कुल सूर्य (पुत्र) के दर्शन होते हैं तो कुछ भी चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है । पुत्र से विहीन व्यक्तियों का हृदय प्रतिपल विक्षुब्ध रहता है । उस दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को पुत्र का मुख देखकर विस्मृत हो जायेंगे । इसलिए देव ! कृपा करें । "
कृपालु यक्ष ने उसी क्षण 'तथास्तु' कहा । दंपति हाथ जोड़े खड़े रहे । यक्ष युगल तत्क्षण अन्तर्ध्यान हो गया ।
कुछ काल बीता ! भानुमती गर्भवती हुई । हर्ष का सागर उमड़ पड़ा । सभी स्वजनों ने यह जाना कि सेठानी भानुमती गर्भवती हुई है। उन्हें आनन्द हुआ। किन्तु अब चिरसंचित ऐश्वर्य प्रतिदिन नष्ट होने लगा । एक ओर से यह समाचार प्राप्त हुआ कि विविध बहुमूल्य पदार्थों से भरे हुए जहाज समुद्र में डूब गए हैं। एक ओर से यह संदेश आया कि कहीं गेहूँ आदि धान्यों के भंडार अकस्मात् अग्नि से जल गए हैं। दूसरे स्थान से यह वृत्तान्त प्राप्त हुआ कि अमुक प्रमुख मुनीम बहुत सम्पत्ति लेकर भाग गया है । इधर व्यापार में सभी वस्तुओं के भाव मन्द हो गए । छः महीनों में सेठ जिनदत्त चारों ओर दरिद्रता से घिर गया। सभी कर्मचारी, भृत्य, व्यापारी और चिर-परिचित व्यक्ति सेठ को छोड़कर दूसरों के अधीन चले गए । इसी प्रकार मित्र, स्वजन, भागीदार और सहचर भी विमुख होगए । ऋण माँगने वाले लोगों ने सेठ की तत्रस्थित स्थावर और जंगम सारी संपत्ति पर अधिकार कर लिया । अदृष्ट भूमिगत धन भी कोई चुरा लेगया। इस प्रकार जिनदत्त निर्धन हो गया । सेठ ने सोचा- "अरे !, यह क्या हुआ ? वंश परंपरा से संचित लक्ष्मी बादलों की तरह कैसे नष्ट हो गई ? विधि का कार्य विचित्र
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रयणवाल कहा
होता है। स्वपन में भी जिन दिवसों की कल्पना भी नहीं करता था, वे दिन प्रत्यक्ष सामने आगए हैं । जो स्नेहीजन मुझ से अत्यन्त परिचित थे, वे भी स्नेहहीन होगए हैं।"
'धिग् धिग ! जगत की प्रीति स्वार्थपरक होती है । कौन किसका है-- यह नहीं कहा जा सकता है। तो भी कैसा ममत्व है ? विचित्र प्रकार की मूर्छा होती है । अव्याकृत आसक्ति होती है। ओह ! यह महान कौतूक है । जो व्यक्ति अत्यन्तहीन अवस्था में थे, तुच्छ और अकिंचन थे, वे मेरे प्रयत्नों से बड़े बने और जो यह कहते थे कि हम आपका उपकार जीवन भर नहीं भूलेंगे वे आज विमुख और दूर हो रहे हैं । निश्चित ही किसी का दोष नहीं है । यह सारी भाग्य की चपलता है। क्या यक्षपुंगव ने यह पहले ही नहीं कह दिया था ? इसलिए हमें चिन्ता नहीं करनी चाहिए। प्राप्त विपदा को हम सहन करेंगे, स्वयं अपने हाथों से लिया हुआ कष्ट अन्यथा कैसे होगा ?"
गर्भवती भानुमती का सातवां महीना प्रारम्भ हुआ। प्रतिदिन प्राप्त होने वाले अशुभ समाचारों से वह उत्त्रस्त होती, किन्तु गर्भगत तेज को देख कर सुख का अनुभव करती थी। एक बार समयज्ञ भानुमती ने पतिदेव से कहा--"आर्यपुत्र ! मेरे गर्भ का सातवां महीना चल रहा है। क्या आप पुत्र के निमित्त कोई भी अनुष्ठान नहीं करेंगे ? नगर में अपनी प्रतिष्ठा कैसी है। प्रथम अवसर पर साधारण लोग भी अपने सामर्थ्य के अनुमार कुछ न कुछ करने के लिए प्रयत्न करते हैं। आप तो लब्धप्रतिष्ठ हैं। राजा के द्वारा भी आप सम्मानित हैं। ऐसी स्थिति में आप अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्य करने की क्यों नहीं सोचते ?"
___ अपनी ही चिन्ता से म्लान सेठ ने कहा--"प्रिये ! सातवें महीने में प्राप्त 'साध पुराई' का कृत्य मुझे याद है। अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सब कुछ करू-ऐसा मेरा उत्सुक मन चाहता है। किन्तु धन के अभाव में सारी दिशाएं शून्य हैं। उसके बिना कैसा महोत्सव ? हा ! यह जनश्रुत सत्य है कि दरिद्रता के समान कोई पराभव नहीं है । हाय ! क्या करू ? कहाँ जाऊँ ? प्रयत्न करने पर भी किसी से उधार के रूप में भी धन नहीं मिल रहा है। स्वजन तो मेरे से बातचीत भी नहीं करते । चिर परिचित मित्र मुझे आँख से देखने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं। यह कुछ याचना करेगा इस शंका से वे दूर से ही भाग जाते हैं।"
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पहला उच्छ्वास
दरिद्रता से दुःखित अपने पति को देखकर समयज्ञा भानुमती ने कहा"नाथ ! यह संसार ऐसा ही है । यहाँ की संपूर्ण प्रवृत्ति स्वार्थ- परायण होती है । भाग्य की अनुकूलता में सभी परकीय लोग स्वकीय बन जाते हैं । और प्रतिकूलता में अपने भी पराये बन जाते हैं, और तो क्या, विपरीत परिस्थिति में वस्त्र भी प्रतिकूल हो जाते हैं, तो भी हीन भावना नहीं लानी चाहिए, आशा रूपी रज्जु को नहीं तोड़ना चाहिए, प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए | कभी प्रयत्न रूपी जल से सिंचित आशावल्ली फलीभूत हो सकती है । मैं सोचती हूँ कि मन्मन नाम का सेठ आपका परमप्रिय बाल साथी है । कदाचित् वह ऐसी विपत्ति में आपका सहायक हो सके। मेरे कहने से उसकी एक बार पुनः परीक्षा करनी चाहिए ।"
११
सेठ जिनदत्त मन्मन की क्लिष्ट कृपणता को जानता था, किन्तु विश्वस्त भार्या से बारबार प्रेरित होकर वह उसके घर की ओर जाने के लिए उत्कंठित हुआ । मार्ग में जाते हुए, ज्यों-ज्यों कृपण मन्मन का घर नजदीक हो रहा था त्यों-त्यों जिनदत्त का अन्तःकरण उद्विग्न बनता जा रहा था । उसने सोचा--" धिक्कार है, धिक्कार है, 'जिनदत्त !' तू जी रहा है। तू अधम से अधम याचना के कार्यों को स्वीकार कर रहा है। क्या याचना से मरण पवित्र नहीं है, अच्छा नहीं है ? वेग से चलते हुए सेठ के चरण वहीं स्तम्भित हो गए । धैर्य का आलम्बन ले उसने पुनः सोचा- 'इस आकुलता से बस !! पुरुष पुरुषार्थ के द्वारा निश्चित ही सभी दुःखों पर विजय पा सकता हैइस प्रकार वह सोचता हुआ आगे चला । विषाद से ज्यों-त्यों मन्मन सेठ के घर पहुँचा ।
भरे अन्तःकरण से वह
खेदखिन्न जिनदत्त को आते देखकर मन्मन विस्मित हुआ । वह तत्काल उठा और संसंभ्रम उसके सामने गया और 'स्वागत' है ऐसा कहता हुआ उसको आसन देकर संतुष्ट किया । उसने उसके आगमन का कारण पूछा और मधुर वचनों से उसे आश्वासन दिया ।
जिनदत्त ने विचलित हृदय से अपनी मनोवेदना कह सुनाई । उसने कहा - " मित्रवर ! मेरा वृत्तान्त अकथनीय है । उसे मैं क्या कहूँ ? मैं विपत्ति के भयंकर जाल में गिर पड़ा हूँ । मेरे किए हुए सारे प्रयत्न विफल हो चुके हैं । अन्त में तुम मेरे बालसाथी और मेरी आशा के आलम्बन हो । ऐसा सोचकर तुम्हारे पास आया हूँ । तुम कुछ सामयिक सहायता दो जिससे कि मेरी गर्भवती पत्नी का सप्त- मासिक महोत्सव सुसम्पन्न हो सके । तुम्हारे
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जैसे व्यक्तियों के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । मित्र ! गाढ़ कारण के बिना कौन किसकी देहली पर याचना करने के लिए आता है ?" इस प्रकार कहते हुए सेठ जिनदत्त की आंखें डबडबा आई।
जिनदत्त की प्रार्थना को सुनकर कृपण मन्मन विचारों में डूब गया । वह सोचने लगा कि इसे क्या जबाब देना चाहिए ? 'आहार और व्यवहार में लज्जा नहीं रखनी चाहिए'- ऐसा सोचकर मन्मन ने सिर धुनते हुए कहा--- "मित्र ! मैं ऐसे चिन्ता जाल में फंस गया है कि उससे निकलने का मार्ग दीख नहीं पड़ता । एक ओर आज तक पालन किया हुआ मेरा अदानव्रत है और दूसरी ओर मेरे परम मित्र की सामयिक प्रार्थना है। मैं क्या करू और कहाँ जाऊँ ? इसका निर्णय मेरा मूढ़ मन नहीं कर पा रहा है । मैं विपत्ति के वशवर्ती व्यक्तियों की स्थिति जानता हूँ, किन्तु मित्र ! मैं इस विषय में कुछ भी करने में असमर्थ हूँ।"
लज्जा से नीचे देखते हए जिनदत्त ने पुनः कहा--"भ्रात ! मैं दान रूप में धन नहीं चाहता, किन्तु उधार चाहता हूँ। यदि तू देना चाहे तो अपनी उदार भावना का परिचय दे।"
मन्मन स्वभावतः महान लोभी था। उसे इस बात की आशंका थी क्या भविष्य में वह मेरा धन मझे लौटा देगा? उसने कहा.----."बन्धूवर ! मैं और क्या कहूँ ? मैं वस्तु के विनिमय के बिना कुछ भी देने में असमर्थ हूँ। तुम वस्तु के परावर्तन के द्वारा जो कुछ चाहो प्राप्त कर सकते हो। खेद है कि मेरी जीवन पर्यन्त की ऐसी ही प्रतिज्ञा है।" ___ जिनदत्त का मुख कमल मुरझा गया। उसने कहा--- "अरे ! यदि रखने योग्य कोई वस्तु होती तो उसके विनिमय से धन देने वाले सैकड़ों व्यक्ति इस नगर में मिल सकते हैं । यही महान कष्ट की बात है कि वैसी वस्तु मेरे पास नहीं है । भ्रात ! पुनः कुछ ध्यान दो।" ।
वज्र की तरह कठोर हृदय वाले मन्मन ने स्पष्ट कहा--"मेरे पास उसका कोई उपाय नहीं है। ज्यादा क्या कहूँ ? मेरी प्रतिज्ञा भंग होती है। इसलिए तुम सुख से अन्यत्र जाओ। अनेक उदार धनी लोग इस नगर में है ।" ___'अन्यत्र कहाँ जाऊँ"--इस प्रकार चिन्ता करते हए सेठ जिनदत्त ने अन्त में निश्चय किया कि-"मैं गर्भस्थ पुत्र के विनिमय के द्वारा धन प्राप्त करू।" कुछ विमर्श कर जिनदत्त ने दीर्घ निःश्वास के साथ मन्मन से कहा
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पहला उच्छ्वास
सखे ! यदि तुम विनिमय के बिना कुछ भी देना नहीं चाहते तो मेरी पत्नी का गर्भ (गर्भ में रहे बालक को) रखकर मुझे यथायोग्य धन दो।" __जिनदत्त की बात सुनकर मन्मन तत्काल ही सहर्ष सहमत हो गया। उसने कहा-- "मित्र ! तमने अच्छा निर्णय किया है। पुत्र के विनिमय से जो कुछ तुम चाहो वह शीघ्र ही लो, मैं देने के लिए तैयार हूं।"
उसी समय एक प्रतिज्ञा पत्र लिखा गया। उसमें लिखा था-जन्म के अनन्तर मेरा पुत्र मन्मन के घर पर पुत्र रूप में बड़ा होगा। जब वह युवा अवस्था को प्राप्त हो, अच्छी तरह से विद्या का अध्ययन करले, तब सेठ मन्मन उसे धन कमाने के लिए देशान्तर में भेजे । जब वह धन कमाकर अपने घर में लौटे और व्याज सहित सारा ऋण मन्मन को अर्पित करे तब ही वह अपने पिता के घर जा सकेगा।' इस प्रकार दोनों ने सम्मत होकर यह लेख लिखा। इस पर नगर के पाँच प्रमुख व्यक्तियों के साक्षी रूप हस्ताक्षर हुए और उसकी एक प्रति मन्मन ने और दूसरी जिनदत्त ने ली। उसके विनिमय से जिनदत्त ने हजार दीनार (सोने का सिक्का) प्राप्त किए। ___ इधर धन की चिन्ता से संतप्त भानुमती पति की चिर प्रतीक्षा कर रही थी। "आर्यपुत्र धन लेकर क्यों नहीं आए ? क्या सारी पृथ्वी हमारे लिए दरिद्रता से स्पृष्ट होगई है ? क्या सभी ने कृतज्ञता भुलादी है ? क्या सभी सहचरों ने आँखों को शर्म भी छोड़ दी है ?"
इतने में ही उसने देखा कि म्लान मुख लिए पतिदेव धीरे-धीरे भवन में प्रवेश कर रहे हैं। वह शीघ्र ही उनके सम्मुख गई और अधैर्य से उसने पूछा-"क्या हुआ ?"
अपने अकरणीय कार्य से बाधित होता हुआ, सेठ जिनदत्त मौन रहा। 'मेरे द्वारा विहित कार्य का, यह मातृ हृदया मेरी पत्नी, अनुमोदन करेगी या नहीं' इस आशंका से वह व्याकुल हो उठा। थोड़े समय के पश्चात् उसने अपनी पत्नी के सामने सारा वृत्तान्त ज्यों का त्यों कह डाला और उसे हजार दीनार दे दिए। अवसरज्ञ और विनीत भानुमती 'आप ही प्रमाण हैं'-इस प्रकार कहती हुई मौन हो गई ।
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दूसरा उच्छ्वास
प्राय: मनुष्य गतानुगतिक होते हैं । जो मुखिया लोग हैं जिनका नाम विख्यात है, वे प्रतिकूल भाग्य और सर्वाङ्गीण विपत्ति के समय में भी उस
आडम्बर युक्त कार्य (रूढ़ि) को छोड़ना नहीं चाहते जो कि अनुकूल समय में निर्वहनीय, परंपरा से प्रतिष्ठित और क्षणिक गौरव को बढ़ाने वाला है। वे लोग ‘कल क्या होगा' - इसका विमर्श नहीं करते। उनकी गर्वीली आँखें भविष्य में होने वाले परिणाम को नहीं देख पातीं।
जिनदत्त ने भी अपने पिता-पितामह के गौरव को बढ़ाने वाले सप्तमासिक गर्भ महोत्सव को संपन्न किया। उसने अपने स्वजनों को विविध प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थ खिलाए। अपने पूर्वपूज्यों को यथोचित सम्मान देकर उनका आदर किया। मंगल पाठक और कुल-गुरुओं को अपने कुलानुरूप दान देकर संतुष्ट किया।
गर्भ का समय बीता। भानुमती ने सुख-पूर्वक पुत्र का प्रसव किया। सर्व लक्षण युक्त पुत्ररत्न पैदा हुआ। अहो ! उसका सूना घर गृहमणि से शोभित हुआ। स्वजनों के मन में अपूर्व उत्सव जगा । सेठ ने पुत्र रूप में वंशसूर्य को प्राप्त कर अपने को धन्य माना। धर्म-रूपी कल्पवृक्ष दानादि जल से सिंचित होकर फलित और पुष्पित हुआ। भानुमती अपने बालक के
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दूसरा उच्छ्वास मुखचन्द्र को देखकर परम प्रसन्न हुई। भाग्य ने उसके चिरपरिकल्पित दोहद की पूर्ति की। अनेक मित्र आनन्दित हुए और उन्होंने सेठ से उपहार प्राप्त किया।
जब मन्मन ने जिनदत्त के पुत्रोत्पत्ति की बात सुनी तब उसने पुत्र को लाने के लिए शीघ्र ही अपने सेवक भेजे। वे जिनदत्त के घर आए और बोले-'हम मन्मन के यहाँ से इस नवजात शिशु को लेने के लिए आए हैं।'
उनकी याचना सुनकर सेठ का हृदय सहसा टूट गया। उसने सोचा'हा ! हा ! अभी लेने आ गए ? इतना अविश्वास ? तो भी अपने भाव को छिपाता हुआ उदास मुख से वह बोला- "भद्र ! आज ही पुत्र जन्मा है । अभी तक कोई उत्सव नहीं किया है । पुत्र का नाम भी नहीं रखा है । अभी प्रीतिभोज आदि भी नहीं किए हैं । आप अपने स्वामी से कुछ प्रतीक्षा करने की प्रार्थना करें। मैं उनकी वस्तु उनको निश्चित रूप से समर्पित करूँगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। किन्तु उस उदारमना महानुभाव को सत्ताईस दिनरात तक ठहरना होगा।"
सेवक लौट गए । सारी घटित बातें मन्मन को कह सुनाई। मन्मन का अविश्वस्त मन चिन्ता से व्याकुल हो गया। 'जिनदत्त अपनी भार्या के साथ बालक को लेकर भाग न जाय, इसलिए मैं पहले ही संरक्षण करू'-ऐसा सोचकर मन्मन ने तत्काल अपने सशस्त्र पुरुषों को बुला भेजा। उन्हें आज्ञा देते हुए कहा---- 'तुम्हें जिनदत्त के भवन के सामने जागरूकता से रहना है और रात-दिन यह देखना है कि कुछ अनिष्ट घटना घटित न हो जाए और अतीत में निश्चित किए हुए काल के अनुसार बच्चे को लेकर मेरे पास आ जाना है।'
सशस्त्र पुरुष शीघ्र ही वहां आ गए और भवन के आगे जागरूकता से बैठ गए। 'कौन बाहर आ रहा है, कौन अन्दर प्रवेश कर रहा है- इस बात को वे सलक्ष्य और सावधानी से देख रहे थे। सेठ ने बालक का अपूर्व जन्ममहोत्सव सम्पन्न किया । इस अवसर पर उसे अनेक शुभसंदेश प्राप्त हुए। अनेक स्वजन वहाँ सम्मिलित हुए। अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सेठ ने प्रीतिभोज आदि कार्य किए और यथोचित दान दिया। बालक की भुआ ने बालक का शुभनाम 'रत्नपाल' रखा । परम प्रेम से पोषित कौटुम्बिक जन बालक को शुभ आशीर्वाद देते हुए अपने-अपने स्थान पर लौट गए।
क्षणों की तरह अलक्षित ही सत्ताईस रात-दिन बीत गए। अपने परम प्रिय पुत्र के दर्शन में बाधा उपस्थित करने वाला प्रातःकाल उदित हुआ।
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१६
रणवाल कहाँ
बालक को लेने के लिए मन्मन के पुरुष आए । हाय ! जिनदत्त का अति उदार हृदय भी आज पुत्र को समर्पित करने में अतीव कृपणताका अनुभव कर रहा था । 'आज मेरे द्वारा कुछ अघटित घटना घटित हो रही है, इस प्रकार सेठ के आकुल व्याकुल चित्त की वेदना देखी नहीं जा सकती थी । 'नव प्रसविनी भानुमती विद्युतू-निपात से भी अधिक दुःसह 'पुत्र प्रत्यर्पण' के शब्द को कैसे सहन करेगी' - यह सोचकर सेठ - किंकर्त्तव्यविमूढ हो गया । 'उसका मृणाल - सा कोमल हृदय किसी अप्रत्याशित स्थिति का अनुभव न करे' - ऐसा चिन्तन कर उसने सात्विक और कोमल वचनों से संबोधित करते हुए भार्या से कहा - 'शक्तिमति ! समय का बीतना अकल्पित है । पल्य और सागर -- इनका भी अन्त होता है, तो फिर संख्या से संकेतित काल का तो कहना ही क्या ? आज वह अनिष्ट अठाईसवां दिन आ गया है, जिसमें की हमारा यह नन्दन दूसरे का हो जाएगा । धर्मिष्ठे ! धर्म प्राप्ति की यह प्रत्यक्ष पहचान है कि प्रतिकूल समय में भी धैर्य को नहीं खोना चाहिए ।
भयभीत हृदयवाली भानुमती ने आश्चर्य और सखेद उत्तर देते हुए कहा - 'आर्यपुत्र ! आज ही वह अठाईसवां दिन कहां से आ गया ? आप बुद्धिमान हैं, आपको संख्या का विभ्रम कैसे हो गया ?"
'भद्र ! तेरा मातृहृदय शीघ्र ही बीत जानेवाले समय को नहीं जान पाता । क्या तुझे याद नहीं है कि चन्द्रदर्शन के लिए योग्य शुक्ल पक्ष की द्वितीया को पुत्र जन्म हुआ था । और आज कृष्ण पक्ष की रिक्ता तिथि चतुर्दशी है । देख, ये मन्मन के व्यक्ति पुत्र को हथियाने के लिए उपस्थित हो गए हैं ।
'ओह ! ये मृतहृदय व्यक्ति पुत्र को हथियाने के लिए आ गए हैं ? मैं दुधमुंहे बच्चे को दूसरों को कैसे सौप दूँ ? धिक्कार है, धिक्कार है, आपने ऐसे अविचारित वाणी का अनुबंध क्यों किया ?" - इस प्रकार विलाप करती हुई भानुमती तत्काल मूर्च्छित हो गई। जिनदत्त का मुख- कमल विवर्ण हो गया । उसने अनेक प्रकार के उचित उपचार किए और भानुमती को सचेत किया । भानुमती ने रोते-रोते कहा- 'मैं मूच्छित अवस्था में ही क्यों नहीं मर गई ? क्या पुत्र-विहीन जीवन से मरण अच्छा नहीं है ? धिक्कार है, कृतान्तयमराज भी अकृतान्त हो रहा है । मेरा अन्त नहीं कर रहा है ।"
जिनदत्त ने कहा - ' भामिनि ! स्वस्थ हो ! सब कुछ अच्छा ही होगा | हमें अब प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। बच्चे को ला, जिससे कि उसे समर्पित कर हम अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करें - पूर्ण करें । कांपते हुए हाथों
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दुसरा उच्छ्वास
से तथा आंसुओं को बहाती हुई भानुमती म्लानहृदय और दुःखित मन से अन्त में पुत्र को समर्पित करती हुई बोली--'भव्य ! यह पुत्र हमारे हृदय का टुकड़ा, नयन को ज्योति, कृपण का धन और जीवन का सर्वस्व है । इस पर अनेक आशाएं हैं । एक क्षण के लिए भी इसे दूर करने के लिए मन नहीं होता, किन्तु भवितव्यता की बात अकथनीय होती है । भाग्य की रेखा अनुल्लंघनीय होती है। इसलिए विधिवत् इसकी सम्यक् सुरक्षा करें, कल्पवृक्ष की तरह इसकी सतत सेवा करें और धर्म की भांति इसका प्रतिपल पालन करें । और अधिक क्या कहूं, इसका एक भी बाल बांका न हो-ऐसा आप प्रयत्न करें। इस प्रकार बहुत कुछ बोलती हुई भानुमती ने बालक रत्नपाल को जोर से छाती से लगाया और सस्नेह उसके मुख का चुम्बन लिया। उस बालक को आंसुओं से सींचती हुई, अनेक शुभ आशीर्वादों से परितुष्ट करती हुई उसने अपने हाथों से उन भृत्यों के हाथों में उसे समर्पित कर दिया।
देव द्वारा प्रदत्त उस हँसते हुए सुकुमार बालक को लेकर वे पुरुष शीघ्र ही मन्मन के पास आए। उन्होंने बालक की माँ भानुमती के अभिप्राय को ज्यों का त्यों निपुणता से प्रकट करते हुए अपने स्वामी मन्मन के हाथों में बालक को सौंप दिया।
अनेक सामुद्रिक लक्षणों से युक्त तथा अनुकूल ग्रहबल को प्राप्त, उज्ज्वल भविष्य वाले उस बालक को देखकर मन्मन श्रेष्ठी बहुत प्रसन्न हुआ । उसने अपनी बांझ भार्या की गोद में उस देवार्पित पुत्र रूपी भेंट को रखते हुए कहा - 'किसने इस कल्पवृक्ष को बोया और सींचा है और कहां आकर यह फलित हुआ है ? यह किसने जाना था कि यह वंशभास्कर अपने घर को प्रकाशित करेगा ? कौन जानता था कि शुभ फल देने वाला भाग्य कब कैसे अकित रूप से शुभ फल दे देता है ! निश्चित रूप से यह जान लेना चाहिए कि यह बालक हमारा ही है, दरिद्रता से अभिभूत जिनदत्त का नहीं है । कब सोलह वर्ष पूरे होंगे ? कब यह पुत्र युवा होकर प्रस्थान करेगा ? कब यह ब्याज सहित धन कमाकर मुझे देगा? यह सारी बातें बादलों के चित्र की तरह कल्पना से ही मनोहर है । कौन जिएगा, कौन मरेगा---यह कौन जान सकता है ? सुभगे ! इसको अपना औरस पुत्र समझकर इसका तू पालन कर। इसके लालन-पालन में तनिक भी न्यूनता का अनुभव मतकर ।
आश्चर्य है कि मन्मन का क्षुद्र, तुच्छ और कृपण मन भी बालक के प्रबल पुण्य से उदार, प्रेम युक्त और अनुकूल हो गया। बालक को गोद में उठाकर
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रणवाल कहाँ
सेठ मन्मन अनेक प्रकार की क्रीड़ा करने लगा । ऐसे-वैसे बोलता हुआ वह उसको खिलाने लगा । अपने घर के कार्य को विस्मृत कर सेठ उस बच्चे को अपने कंधों पर बिठाकर इधर-उधर घुमाने लगा और उसकी देखभाल के लिए धायों की भी उचित व्यवस्था करदी । वह बालक गिरिकन्दरा में लीन चम्पक वृक्ष की भांति मन्मन के घर में सुखपूर्वक बढ़ने लगा । खेद ! विधि के कार्य विचित्र होते हैं ।
इधर भानुमती अपने बच्चे को दूसरे के हाथ में सौंप कर रस निकाले हुए ईख की तरह तथा पत्र, पुष्प, और फल से हीन वृक्षावली की तरह चेतनाहोन हो गई । अहो ! प्रातः काल में भी सर्वत्र घना अन्धकार छा गया। उसके नीरोग शरीर में भी कोई असह्य और अतुल वेदना उत्पन्न हो गई । वह पागल की तरह सोचने लगी---" क्या मैं जागती हुई भी प्रत्यक्ष रूप से स्वप्न देख रही हूँ ? मेरे सारे योग ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) प्रकट और तीव्र हैं, फिर भी क्या मैं मृत हूँ ? अहो ! मैंने ऐसी कौनसी बहुमूल्य वस्तु गवादी है, जिसके बिना सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं की भांति दीख रहा है । किसने मेरे हृदय के टुकड़े को चुरा लिया है कि जिसके बिना सारा विस्मृत हो गया है। मां की गोद से वंचित वह बेचारा बालक क्या कर रहा होगा ? हाय ! विधाता ! स्तनपान करने वाले बालक को माता से अलग क्यों कर डाला ? पराए घर में रहे हुए उस मन्द भाग्य बालक की कैसी परिपालना होगी ?" इस प्रकार अनेक विकल्पों का जाल बुनती हुई भानुमती कभी मूच्छित होती है, कभी म्लान होती है और कभी ग्लान हो जाती है। उसके अनवरत बहने वाले आंसुओं से सारा भूतल कीचड़मय हो गया । पागल की तरह वह इधर उधर घूमने लगी । क्षण मात्र के लिए भी उसे सुख का अनुभव नहीं हो रहा था । सेठ जिनदत्त की भी वही दशा हो गई, किन्तु भाग्य की दावाग्नि में जले व्यक्ति की पुकार कौन सुनता है ?
यह
उस समय जिनदत्त की विचित्र अवस्था थी । वह अपनी भार्या के साथ सोच रहा था कि - 'अब क्या करना चाहिए ? ' द्रव्य के विनिमय से पुत्र को परगृह में रखा है - इस जनापवाद का उसे भय था, इसलिए वह अपना मुँह दिखाने में भी लज्जा का अनुभव करने लगा। अन्त में दोनों ने यह निश्चय किया कि नगर के लोगो को यह वृत्तान्त ज्ञात हो इससे पूर्व ही हमें गुप्त रूप से गृह नगर और देश का परित्याग कर देना चाहिए ।' उत्त्रस्त मन वाली भानुमती ने सारे गृहभाण्डों को व्यवस्थित किया और आवश्यक
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दूसरा उच्छ्वास
१६
I
वस्तुओं की एक छोटी पोटली बांधली । अनेक दिनों तक खाने में काम आने वाली ''खड़ी' आदि कुछ पाथेय बनाया । ' यह दूसरे जान न लें' इसलिए उसने अपने घर के कपाट बंद करके सारा कार्य किया । पुत्र के वियोग से विधुर बहुत लम्बा दिन भी घर के काम की अधिकता से ज्यों-त्यों बीत गया । मन्द प्रकाश वाली संध्या का आगमन हुआ । पर्यंत कालिमा वाली लालिमा ने अल्प समय के लिए अपना अधर राग दिखाया । 'अवसर का लाभ उठाना चाहिए' मानो इस सिद्धान्त को प्रकट करता हुआ अंधकार बढ़ने लगा । हमसे क्या होना है, मानो ऐसा विचार करते हुए बिन्दु के आकार वाले तारे आकाश में मन्द किरणों से चमकने लगे । 'रात्रि माता की तरह शान्तिप्रद होती है' ऐसा मानकर बच्चों की आँखें निद्रामुद्रित होने लगी । एक दूसरे के प्रति संसक्त चक्रवाक के युगल वियुक्त हो गए। चोरों की मलिन भावना अपने लक्ष्य के प्रति साक्षात् जागरूक हो उठीं। अपनी पत्नियों से संतुष्ट मानस वाले सद्गृहस्थ अपने घरों में प्रविष्ट हुए । 'ऐसी रात में पलायन करने का अनुकूल अवसर है ।' ऐसा जानकर जिनदत्त ने धीरे से अपनी बूढ़ी पड़ोसिन को बुला भेजा । वह कृतज्ञ, दक्ष, अपनी दादी के समान, विश्वस्त थी । जिनदत्त ने उसे सारी बात ज्यों की त्यों कह सुनाई । भविष्य में किए जाने वाले सभी कार्यों से उसे परिचित कराया और अपने घर की सुरक्षा का सारा भार उसे सौंपते हुए घर के तालों की चाबियों का गुच्छा भी उसे दे दिया । अन्त में उसके चरणों में गिरकर सौहार्द पूर्ण आशीष ली और माथे पर पाथेय की पोटली रखकर अपनी भार्या के साथ जिनदत्त कोई हमें देख न लें' - इस प्रकार शंकित होकर धीरे-धीरे पैर रखता हुआ, रत्नपाल का बारबार स्मरण करता हुआ घने अंधकार में विलीन हो गया ।
बेचारा अल्पज्ञ मनुष्य क्या क्या कल्पनाएं करता है, किन्तु भाग्य कुछ अदृष्ट घटनाएं घटित कर देता है । पवन से प्रेरित बादलों के समूह की भांति भाग्य से प्रेरित प्राणियों की आशाएं नष्ट हो जाती हैं। हाय ! चर्म-चक्षु के धारक मनुष्य के लिए भाग्य की परिणति को जानना दुष्कर होता है । देखिये, जिनदत्त का प्रत्यक्ष विधि पराभव ! आकाश-सी विशाल किस-किस आशा से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की थी, वहाँ कैसा अनभिलषणीय समय आ पड़ा। जिसके सामने अनेक भृत्य हाथ जोड़े "क्या आज्ञा है ?" ऐसा बोलते हुए हाजिर रहते थे, वह जिनदत्त आज अपने मस्तक पर पोटली रखे, अपने अस्तित्व को छुपाते हुए, मित्र और सहोदरों की सहायता से रहित, पुत्र 'के वियोग से संक्षुब्ध, वाहनों से वंचित अपनी भार्या के साथ अकेला ही चला जा
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रयणवाल कहां
रहा है । ज्यों त्यों उन्होंने गुप्त रूप से नगर की गलियों को पार किया। जब नगर का द्वार पीछे रह गया तब अनिर्वचनीय लज्जा का पार पा लिया ऐसा उन्हें महसूस होने लगा। तीन चार कोस चल चुके थे, फिर सूर्य उदित हुआ। “कोमलांगी? क्या तू लम्बी दूर तक चलने के कारण थक गई है ? क्या विश्राम के निमित्त कहीं बैठे"--इस प्रकार जिनदत्त रत्नपाल की माता भानुमती को बार-बार पूछ रहा था ।
यह सुनकर विनम्र वचनों से भानुमती बोली-"आर्यपुत्र ! आपका मुखकमल खिन्न दीख रहा है, अतः आप मार्ग में चलने का महान खेद अनुभव कर रहे हैं। ऐसा मैं अनुभव करती हूँ।"
प्रिये ! चलने से मुझे तनिक भी खेद नहीं हैं, किन्तु..................।" आगे बोलने से सेठ रुक गया।
'पत्नी ने आंसू पोंछते हुए पूछा- 'खेद का कारण क्या है ? आपने 'किन्तु' कहकर आगे बोलना बंद क्यों कर डाला ? क्या जीवन के आधार प्रिय पुत्र की स्मृति हो आई ? डबडबाई आंखों से एक दीर्घनिःश्वास छोड़ते जिनदत्त ने कहा---'रत्नमात ! तू पूछने में स्खलित हो गई ! मैंने प्रिय पुत्र की कब विस्मृति की थी कि आज स्मृति करू” इस प्रकार दोनों, पुत्र विरह से उत्पन्न दुःख की बातें करते हुए, बात-बात में पुत्र को याद करते हुए मार्ग काट रहे थे।
मार्ग में एक तालाब आया। सुन्दर एकान्त स्थान पाकर दोनों वहाँ विश्राम करने के लिए बैठ गए। उन्होंने सारा प्राभातिक कार्य संपन्न किया। 'नवकारसी' को पारित कर कुछ कलेवा किया । वे दोनों मध्यरात्रि में चले थे, अत: वे श्रांत और परितप्त हो गए थे। यहां विश्राम कर वे कुछ आश्वस्त हुए । 'कोई पीछे से हमको पूछते हुए आकर हमारे गमन में बाधा न डाल दे'- ऐसा सोचकर सेठ पुनः आगे बढ़ा। भानुमती पति के पीछे-पीछे चल रही थी। उसे पैदल चलने का अभ्यास नहीं था। अत: ऊंची-नीची भमि में बह लडखड़ाती थी। कभी तीखे पत्थर के टुकड़े से ठोकर खाकर वह आगे चलते हुए अपने पति को सखेद बुलाती थी। सेठ धैर्य के साथ उसके पैर से बहरही रुधिर धारा को रोकने के लिए योग्य उपाय करते थे। मध्याह्न के सूर्य के ताप से संतप्त वे दोनों एक सन्निवेश [ग्राम विशेष] के बीच गए । खड़ी से पुते हुए सफेद मकान के बाहर सुघड़ और छायादार वेदिका को देखा । मध्यान्ह वेला को बिताने के लिए वे उस पर बैठ गए और मस्तक
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दूसरा उच्छ्वास
पर रखी हुई पोटली को एक ओर रख दिया। 'आगे कहां जाना है, क्या करना है'----इस प्रकार वे दोनों विचार करने लगे।
इतने में ही एक स्त्री ने अपने झरोखे से देखा कि कोई अपरिचित पथिक घर की वेदिका पर बैठे बातचीत कर रहे हैं। तत्काल वह वहाँ आई और
आंखों से अस्नेह दिखाती हई वज्र की भांति कठोर वाणी में बोली 'आप बिना जान पहचान के इस घर की वेदिका पर कैसे बैठे हैं ? जो परिचित नहीं है, उन्हें हम स्थान नहीं दे सकते । इसलिए आप अपने किसी परिचित व्यक्ति के घर शीघ्र ही चले जाइए।' __ जिनदत्त ने सद्भावना से कहा-'बहन ! हम पथिक हैं । मध्याह्न वेला में विश्राम का यह उपयुक्त स्थान देखकर हम थोड़े समय के लिए यहाँ ठहरें हैं । क्योंकि मनुष्य मनुष्य का ही आश्रय चाहता है। हम स्वयं अपराह्न में आगे चले जायेंगे । अभी तुम अपने मन को उदार कर हमें न उठाओ।'
उस स्त्री ने अपने अहंकार से उसका प्रतिरोध करते हुए कहा'मानवता का उपदेश बहत हो चुका । अनेक चोर अपना वेश बदलकर, मीठे बोलते हुए लोगों को लूटने के लिए यहाँ घूमते रहते हैं। इसलिए आप कोई दूसरा स्थान देखें, यहाँ एक क्षण भर के लिए भी न ठहरें ।' ___इस प्रकार गृहस्वामिनी द्वारा अपमानित होकर उन दोनों ने झट से अपनी पोटली उठाई और आगे चल पड़े । हाय ! जिनका भाग्य-दरिद्रता के कारण मंद हो चुका है, उन व्यक्तियों के दुःख को कौन पूछता है ? आपत्ति में अपने भी पराये हो जाते हैं, तब अपरिचित व्यक्तियों की बात ही क्या ? संसार ऐसा हो है । यहां की सारी लीला बादलों की छाया की तरह चंचल है । यहाँ गाढ स्नेह में भी अप्रीति का प्रादुर्भाव होता है, दिव्य आलोक में भी अन्धकार की रेखा अन्तहित रहती हैं और मधुर आलाप में भी कटु उक्ति का प्रसंग रहता है । धिक्कार है, धिक्कार है, तब भी संसारी व्यक्तियों की आखें क्यों बंद रहती हैं ? मनुष्य को पग-पग पर ऐसे सद्यस्क अनुभव पराभूत करते रहते हैं फिर भी उममें आन्तरिक वैराग्य परिस्फुरित क्यों नहीं होता ? ओह : अज्ञान का आवरण घना होता हैं । यह सब कुछ प्रत्यक्ष है फिर भी मोह से धृष्ट मति उसे ग्रहण नहीं करती।
भानुमती को संबोधित करते हुए सेठ जिनदत्त ने कहा-'भायें ! अपने दिन अभी अनुकूल नहीं हैं। इसलिए इस प्रकार के, पहले कभी अनुभव में न आने वाले प्रसंग आ रहे हैं । फिर भी हमें विमन या दुर्मन नहीं होना है ।
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रयणवाल कहा
यहां हमारे चिरपालित धर्म की परीक्षा हो रही है । आज से आगे हम किसी की शरण नहीं लेंगे। जहां-कहीं हम स्वतंत्र जीवन यापित करेंगे। धन चला गया, इसका दु:ख नहीं है, किन्तु स्वाभिमान रूप अपना धन न खो जायइसकी चिन्ता है। उस ताड़ित, तिरस्कृत कृत के जीवन से क्या ? जहां मनुष्यों के गुणों का नाम मात्र भी मूल्यांकन नहीं है !' 'आर्यपुत्र' ! आप ही मेरे लिए प्रमाण हैं'- यों कहती हुई भानुमती मौन हो गई।
उन दोनों ने मध्याह्न दिन का आतप तालाब की पाल पर रहे एक वटवृक्ष के नीचे बिताया । अपराह्न में वे पुनः दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े । एक मुहूर्त रात बीत जाने पर उन्हें एक सुरक्षित वननिकुज मिला । वहाँ वे विश्राम के लिए बैठ गए। उन्होंने वन के फलों को खाकर अपना पेट भरा
और कदलीदल की शय्या बिछाकर सो गए। पुत्र के विरह के कारण उनकी नींद नष्ट हो चुकी थी। कदाचित् आंखें बंद होती तो भी वे प्रत्यक्षतः पुत्र को देखते हुए बड़बड़ाते ?- 'पुत्र ! माता की गोद के सुख से वंचित तू मत रो ! आशा से समीप वह समय भी दूर नहीं हैं जब कि हमारा चिरप्रतीक्षित मिलाप होगा। यह क्रूर काल समय के विपाक से बुबुदे की तरह विलीन हो जाएगा । सभी प्रतिकूल संयोग स्वयं नष्ट हो जायेंगे' इस प्रकार कहते हुए, कल्पना करते हुए जब जागते थे तब पुत्र को सामने न देखते हुए, 'यह सारा स्वप्न था'-ऐसा मानकर विधि को उपालंभ देते । इस प्रकार वे करवट बदलते हुए ज्यों-त्यों रात बिताई। प्रभात हुआ। उन दोनों ने प्रतिदिन किए जाने वाले प्रातःकालीन सामायिक आदि आवश्यक अनुष्ठान श्रद्धा और भक्ति से संपन्न किए । सत्पुरुषों का यही लक्षण है कि वे आपत्काल में भी धार्मिक कृत्यों को नहीं छोड़ते । क्या अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण स्वर्ण देदीप्यमान नहीं होता?
सूर्य के उदित होने पर वे आगे चले । इस प्रकार वे निरन्तर प्रयाण करते हए लम्बे मार्ग को लांघ गए। मार्ग में अनेक कष्टों को सहते हुए अनेक भीषण वन, अटवी, पर्वत, खाई और नदियों को ज्यों-त्यों पार करते हुए अपने पुत्र के विषय में अनेक कल्पना करते हुए वसन्तपुर नगर में आए । वह दक्षिणापथ का प्रमुख नगर था। वह अनेक प्रकार के व्यापारों के लिए प्रसिद्ध, रम्य और दर्शनीय था। दोनों ने यह भली-भांति परामर्श कर लिया कि उन्हें कहां जाना है ? क्या करना है और आजीविका कैसे चलानी है ? 'किसी दूसरे के आश्रय से जीवन नहीं बिताना है'- इस पूर्व निश्चय के अनुसार वे नगर में
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दूसरा उच्छ्वास
नहीं गए । नगर के बाहिर भाग में एक सुरम्य स्थान को देखकर उन्होंने वहां एक झोंपड़ी बनाई । उसे मिट्टी और गोबर से लीप कर सब कुछ व्यवस्थित किया और सुखपूर्वक वहीं रहने लगें। आजीविका के निमित्त सेठ ने एक कुठार खरीदा । वह जंगल में जाकर लकड़ियों का गट्ठर लाता और नगर में उसे बेच आता। उससे जो कुछ (धन) मिलता, समयज्ञ भानुमती आय के अनुरूप व्यय करती हुई गार्हस्थ्य का पूर्ण संतोष के साथ संचालन करने लगी। देशान्तर में उन्हें कोई नहीं पहिचानता था। वे ऐसे कार्य को बिना लाज-शर्म के करते हुए अपना समय बिता रहे थे।
सेठ मन्मन ने जब यह सुना कि जिनदत्त अपनी भार्या के साथ किसी अलक्षित जनापवाद से लज्जित होकर दुर्भाग्य से प्रताडित, बिना कुछ कहे ही सहसा रात्रि में भाग गया है, तब उसका कृपण मन प्रमुदित हो उठा । 'ओह ! अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। अनायास ही मेरी मनोभावना फलवती हो गई । अब बेचारा कर्जदार जिनदत्त दातव्य धन और उसके ब्याज के भार से विक्षब्ध होकर पुनः नहीं लौटेगा। अब यह कल्पना केवल आकाश-कुसुम की भांति है कि यह जिनदत्त लौटकर अपने साहूकारों का ऋण ब्याज सहित चुकायेगा और अपने पुत्र को अपने घर ले जायेगा । अतः अब यह निस्सन्देह हो गया है कि रत्नपाल मेरे घर का दीपक है। भाग्य की कृपा से अपूरणीय क्षति पूरी हो गई। भाग्य की दुर्भर खाई समतल हो गई। निश्चित हो महान् कष्टों से संचित मेरे ऐश्वर्य का यही भविष्य में स्वामी होगा।' इस प्रकार कल्पना-मधुर भविष्य का चिन्तन करता हुआ निर्दय मन्मन बालक की रक्षा के लिए अनेक यत्न कर रहा था। प्रतिदिन बढ़ता हुआ, एक गोद से दूसरी गोद में जाता हुआ वह बालक बहुत प्रिय प्रतिभासित होने लगा। मन्मन ने बालक को संतुष्ट करने के लिए अनेक खिलौने मंगाये । उसे आकर्षक वस्त्रों से अलंकृत किया । उसने उसके हाथों में बलय गले में मोतियों की माला और कानों में बहुमूल्य कुण्डल पहनाकर उसे सज्जित किया। 'इसे नजर न लग जाए'--इसलिए ललाट और बांहों पर कज्जल की टीकियां लगाई। और अधिक क्या कहें उस बच्चे के पालन में नाम मात्र को भी कमी नहीं रहने दी।
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तीसरा उच्छ्वास
समस्त प्राणीलोक के ताप का निवारक, अनेक प्रकार के वृक्ष, लता, पुष्प, फल और गुल्म तथा विचित्र प्रकार के तण और वनस्पतियों का उत्पादक, निर्जल प्रदेश का एक मात्र आधार और कृषिकों द्वारा अनिमिष दृष्टि से देखा जाने वाला तथा चिर-प्रतीक्षित वर्षा-काल का आगमन हुआ। उस समय आकाश में मेघमाला उठीं । वह भ्रमर और महिष की तरह कृष्ण होती हुई भी नयनाभिराम थी; धूलि के ढेरों को उठाती हुई भी नीरज थी; अन्धकार फैलाती हई भी मन को प्रकाशित करती थो; चञ्चल प्रकाश वाली होती हुई भी भविष्य के उज्ज्वल प्रकाश को लक्षित करती थी; कर्णभेदी गर्जना करती हुई भी कर्णप्रिय थी; प्राचीन पवन से प्रेरित होती हुई भी वह नवीन थी। 'मैं अभी सबको संतुष्ट कर द्' मानो ऐसा सोचकर धाराप्रवाह से वर्षने लगी। चारों ओर आकाश और भूतल जल से प्लावित हो गया । हमें संग्रह रुचिकर नहीं है- इस प्रकार सोचते हुए मानो पनाले मूसलाधार रूप से नीचे गिरने लगे । नगर की गलियों ने विविध नदियों का रूप धारण कर लिया था। सूखे कुओं में भी ऊपर तक पानी भर गया। जलराशि धारण करने में असमर्थ तुच्छ तालाबों से पानी छलक कर आगे बहने लगा । जल से आप्लावित नदियों ने अपने तट को विशाल बना लिया। ताप का नामोनिशान मिट
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तीसरा उच्छ्वास
गया ! चारों ओर से उस समय मधुर लगने वाली मेंढकों की टर-टर सुनाई देने लगी। अपने जीवन-धन पानी को पाकर चिरमूच्छित वनराजी खिल उठी । कृषकों ने अपने बैलों के साथ कृषि के उपकरणों की पूजा की ! वे नक्षत्रों के बलाबल को जानकर, शुभ-शकुनों को पाकर, बीजों का वपन करने के लिए अपने-अपने खेतों की ओर चल पड़े । अहो ! चारों ओर सर्वाङ्गीण सौन्दर्य फैल गया। ___ इधर जिनदत्त प्रातःकालिक धर्मानुष्ठान से निवृत्त होकर अपने कन्धे पर कुठार ले काठ का भारा लाने के लिए कठियारों के साथ वन की ओर चल पड़ा ! किन्तु ऐसे वर्षाकाल में सूखा काष्ठ मिलना सुलभ नहीं था ! जिनदत्त जहां देखता था वहां सारी पृथ्वी हरियाली से अंकुरित दीख पड़ती थी ! सूखे और टेढ़े वृक्षों पर भी नए अंकुर शोभित हो रहे थे । आश्चर्य ! सूखे वृक्षों के लिए कोई अवकाश नहीं था। जिनदत्त बारहवती श्रावक था, अत: हरे वृक्षों के छेदन का उसे त्याग था ! उसने बहुत गवेषणा की, किन्तु उसे सूखा काष्ठ कहीं नहीं मिला। 'अब मुझे क्या करना चाहिए'- इस प्रकार वह चिन्तित हो गया। उसने सोचा 'यदि मैं व्रतों की रक्षा करता है तो आजीविका सुरक्षित नहीं रहती' । दूसरे कठियारों ने उससे स्पष्ट कहा.-.-"तू भोला है, क्या तु यह नहीं जानता कि अब वर्षाकाल है। नियम के परिपालन से पेट का परिपालन आवश्यक और उचित होता है । 'आपत्काल में कोई मर्यादा नहीं होती।' यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है। इसलिए अज्ञान अवस्था में स्वीकृत
और सुखी अवस्था में पालनीय तू अपनी प्रतिज्ञा को छोड़। वे लोग धार्मिक नियमों का पालन करें, जो धनाढ्य और विपुल ऐश्वर्य संपन्न हैं और जिन्हें कोई धनार्जन की चिन्ता नहीं है। तेरे जैसे व्यक्तियों के लिए धर्म-स्थान में प्रविष्ट होने का अवकाश ही कहां है ? इसलिए तू काट, हरित काष्ठ समूह को काट ।"
धर्म-निष्ठ सेठ जिनदत्त को उनका अनुचित कथन नहीं रुचा । विवेक-पूर्ण और गम्भीर उत्तर देते हुए उसने कहा—'तुमने धर्म का तत्व नहीं जाना है । धर्म के आचरण में धनवान और गरीब का कोई पक्षपात नहीं है । तत्त्वज्ञ गरीब व्यक्ति भी बहुत बड़ा धार्मिक हो सकता है, और अतत्त्वज्ञ, धनी भी धर्म करने में समर्थ नहीं हो पाता । कसौटी पर कसे गए सुवर्ण की तरह धर्म भी आपत्ति में ही परखा जाता है । चारों ओर घूमता हुआ कुत्ता भी अपना पेट भरता है । वहां आश्चर्य ही क्या है ? मनुष्य की यही महानता है कि वह प्राणों से भी ज्यादा माहात्म्य अनुत्तर श्रेष्ठ धर्म को देता है। जब मैं कठोर
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रयणवाल कहा
परिश्रम करूंगा तो मुझे काष्ठ की प्राप्ति नहीं होगी ? जिसे मैं खोजता हूँ क्या वह मेरे आगे आकर उपस्थित नहीं होगा ? जो अपने व्रतों का भंग करते हैं उनका जीवन भी क्या जीवन है ? जो अपनी प्रतिज्ञा को अखंडित रखते हैं, उनके लिए दु:ख भी सुख है। इसलिए मुझे अपना व्रत नहीं छोड़ना चाहिये'-ऐसा कहकर सेठ निर्भय रूप से अकेला ही सूखे (अचित्त) काष्ठ की टोह में गहन वन में चला गया। उसने बहुत गवेषणा की किंतु एक भी सूखे काष्ठ की लकड़ी उसके हाथ नहीं लगी। तो भी सेठ उदासीन नहीं हुआ और खाली हाथ देर से घर लौट गया। ___ इधर भानुमती पतिदेव की प्रतीक्षा में झोंपड़ी के द्वार पर बैठी थी। पतिदेव अभी तक क्यों नहीं आए ? कौन-सी नई आपत्ति उत्पन्न हुई है ? इस प्रकार चिर-प्रतीक्षा करती हुई भानुमती ने रत्नपाल के पिता को आते हुए देखा तो वह आनन्द से हर्षित हो उठी। उत्सुकता से उसने पूछा- "आर्यपुत्र ! आज इतनी देर कैसे की ? आपका शरीर परिश्रान्त क्यों है ? शिर पर ढोए जाने वाले इंधन-भार को कहां डाल दिया ?" इस प्रकार प्रेमवती सह-धामणी ने अनेक प्रश्न पूछ डाले।।
तत्त्वगंभीर-मुद्रा में सेठ ने कहा-'प्रिये ! अभी वर्षा काल है । सूखा काष्ठ दुर्लभ है। उसकी गवेषणा में मुझे इतना समय लगा, फिर भी मुझे यथेष्ट वस्तु नहीं मिली। रत्नमात ! मैं इसीलिए खाली हाथ लौटा हूँ। जो निश्चल रूप से व्रत को निभाता है, व्रत उसकी रक्षा करता है ।"
सेठ की सहधर्मिणी मिष्ठा भानुमती ने निर्भयता से कहा-"आर्यपुत्र का चिंतन सही है ! ज्ञानी मनुष्य तुच्छ और क्षणिक पौद्गलिक सुखों के लिए महान् अध्यात्म सुखों को नहीं गंवाता । जो हमें प्राप्तव्य है वह कल या परसों तक मिल जाएगा, चिंता क्या है ?"
धर्म प्राप्ति का यह प्रत्यक्ष निदर्शन है। ओह ! ऐसी आपत्ति में भी इनका मन चपल नहीं हुआ। दूसरे दिन भी जिनदत्त का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ । और वह यों ही लौट आया। तीसरे दिन सेठ गहन वन में घूम रहा था ! उसने वहां पर्वत की एक कंदरा में अपने नियम के दिव्य प्रभाव से अमर चंदन (बावना-चंदन) का समूह देखा । यथेष्ठ पदार्थ (काष्ठ) देखकर सेठ का मन प्रसन्न हो उठा । किंतु निपुण सेठ अपने भाग्य के दोष से उस हरि चंदन को नहीं पहचान पाया। धिग-धिग भाग्य की विपरीतता में चेतना भी स्खलित हो जाती है । सेठ ने तत्काल उसका एक गट्ठर बांधा और उसे शिर पर रखकर नगर की दिशा की ओर लौटा ! नगर के समीप धूतों का सरदार
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तीसरा उच्छ्वास
२७
धनदत्त अकस्मात् सामने मिला। उसका मुख कमल विकसित था । किंतु उसका अन्तःकरण अत्यंत कलुषित था ! काष्ठ-भार से सुगन्धि फूट रही थी । धनदत्त को यह देखकर अत्यंत विस्मय हुआ । उसने सोचा- 'ओह ! इस अज्ञानी व्यक्ति के सिर पर यह अमरचंदन कहां से आया ? क्या घुणाक्षर के न्याय से ही तो इसे प्राप्त नहीं हुआ है ? क्या मूर्ख ब्राह्मण को कभी चिंतामणि प्राप्त नहीं हुआ था ? कभी-कभी प्रकृति भी कुतूहल तत्परा बन जाती है । मैं इसकी मूर्खता का अतुल्य लाभ लूँ । जो व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से फूटती हुई सुगंध को भी नहीं पहचानता उस मूढ़ को, 'यह चंदन है' इसका ज्ञान कहां से हो सकता है' ऐसा सोचकर वह रोमाञ्चित हो उठा ! वह धूर्त प्रेमपूर्वक जिनदत्त से कहने लगा - " -- "भाई ! क्या यह ईंधन बेचना है ? अगर बेचना है तो उचित मूल्य बता । सज्जन की यह प्रणाली है कि वे अपने मुँह से मिथ्या बात नहीं कहते। एक बार कहकर पुन: नहीं नकारते । मुख की आकृति से तु भी भद्र पुरुष दीख रहा है । इसलिए यथेष्ट मूल्य को बता, मैं भी उसे नहीं बदलूंगा ।" सभ्य पुरुष की भांति दीखने वाले धनदत्त की सुन्दर बातों को सुनकर ऋजुहृदय और वञ्चना के रहस्य से अज्ञात, अपने आशय से दूसरे के आशय को आंकने वाला सेठ जिनदत्त आनंदित हुआ और कहने लगा'सेठ जी ! आपका कहना ठीक है । मैं निरर्थक बात नहीं करूँगा । निश्चित ही मुझे यह काष्ठ भार बेचना है ! अन्यथा हम जैसे व्यक्तियों का गृहस्थाश्रम कैसे चल सकता है ? हम प्रतिदिन नया कुआं खोद कर पानी पीते हैं ? आप जैसे व्यक्तियों की भांति हमें अपना खजाना भरने का अवसर नहीं आता । इस काष्ठ भार का मूल्य केवल ढाई आने मात्र है । इससे ज्यादा या कम नहीं होगा, यदि आपको लेना है तो ........"
अमरचंदन की पहचान से अज्ञात सरलमतिवाले जिनदत्त की बात सुनकर वह कुशल ठग धनदत्त बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कहा-अच्छा, अच्छा भाई ! तू ने उचित मूल्य मांगा है। मैंने भी इतना ही अनुमान किया था । हमें भी तेरे जैसे कठिन परिश्रम करने वालों का यथार्थ मूल्यांकन करना चाहिए, अन्यथा अपने पसीने की बूंदों से सिक्त परिश्रम की अवमानना होती है | हाय ! कितना अन्धकार है ? जो व्यक्ति सतत परिश्रम करते हैं, अपने शारीरिक सुख की अवगणना करते हुए शीत और ताप आदि के क्लेश सहते हैं वे भूखे प्यासे और बेघरबार रहते हैं तथा उन्हें विद्याभ्यास का अवसर ही प्राप्त नहीं होता, वे रोगी और नग्न रहते हैं, वे उपेक्षित होते हैं । वे घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं। इससे विपरीत जो व्यक्ति दूसरों के श्रम का लाभ
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२८
रयणवाल कहा
उठाने में प्रवीण हैं, जो अनेक विधि कुटिल कला में निपुण हैं, जो हृदयविहीन हैं, जो मनुष्य धर्म से रहित हैं, वे धन कुबेर व्यक्ति विशाल आवासों में वस्त्र और अलंकारों से विभूषित होकर अनेक प्रकार के वाहनों से आकीर्ण, बड़ी तोंद वाले, आलस्य में दिन बिताते हुए भी प्रसन्न रहते हैं, खेलते-कूदते हैं और जो कुछ कहते हुए भी गर्वोन्मत्त होते हैं ।"
आश्चर्य है ! धूर्तों की वचन प्रणाली को कोई नहीं जान पाता ! उनके कथन में कुछ और, विचारों में कुछ और ही रहता है। उनका मधुर भाषण भी विषमिश्रित होता है । उनकी हंसमुख आकृति भी कषाय से कलुषित और विकृत होती है । उनका किसी को सम्मान भी अप्रत्यक्षतः माया का प्रपंच भाव होता है । उनकी क्षणमात्र की संगति भी प्रत्यक्ष दुर्गति है । अथवा ऐसा कौन-सा अकरणीय कार्य है जिसका दुर्जन व्यक्ति समाचरण नहीं करता | ज्यादा उनके विषय में क्या कहें ?
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पुनः वह वञ्चक धनदत्त मधु से लिप्त खङ्गधारा के समान वाणी में बोला -- ' इसलिए सौम्य ! मेरे साथ मेरे घर तक चल ! मैं तुझे तीन आना दूँगा ! मनुष्य की दृष्टि से तू भी मेरा भाई है । ज्यादा क्या कहूँ ।'
'यह कैसा कृपालु है' - ऐसा सोचता हुआ वह भद्र जिनदत्त उसके पीछे चला । काष्ठ भार नीचे डाला ! तीन आने लेने से इन्कार करते हुए भी धनदत्त ने उसे हठपूर्वक तीन आने ही दिए और उसे सांत्वना देते हुए कहा - 'आज के पश्चात् प्रतिदिन तुझे काष्ठ भार को बेचने के लिए अन्यत्र नहीं घूमना पड़ेगा, मैं ही उसे निश्चित मूल्य में ले लूंगा । गृहस्थों के घर में क्या क्या नहीं चाहिए, काष्ठ की तो नित्य आवश्यकता होती ही है ।'
'एक ही स्थिर ग्राहक हो गया ऐसा सोचकर यत्र-तत्र भ्रमण से संतप्त जिनदत्त प्रसन्न हो उठा । इस भद्र व्यक्ति को रहस्य का पता भी नहीं चला । इस प्रकार जिनदत्त उस धूर्त धनदत्त को प्रतिदिन महामूल्यवान हरिचन्दन का भारा साधारण काष्ठ के मूल्य में देने लगा । वह भी 'इस रहस्य को कोई जान न ले' ऐसा सोचकर उसको गुप्त रूप से लेकर छुपा देता था । उसने यह निश्चित किया कि अनुकूल अवसर को पाकर उस चन्दन को अन्यत्र भेजकर अतुल लाभ कमाना चाहिए । 'किन्तु जब कपट फलता है तब कैसा कलुषित परिणाम देता है ' -- वह उस मायावी धनदत्त ने नहीं जाना ।
इस प्रकार जिनदत्त का उदर निर्वाह सुखपूर्वक होने लगा ! प्राप्त धन से संतुष्ट भानुमती अपने विपत्तिकाल को आनन्दपूर्वक बिताने लगी। जब-जब
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तीसरा उच्छ्वास
उन्हें अपनी पूर्व अवस्था का स्मरण होता तब-तब अपने किए हुए पापों के परिणामों का चिन्तन कर वे अपने मन को प्रसन्न करते थे। धर्म ही एकमात्र शरण है- ऐसा जानकर वे मिथ्या चिन्ता नहीं करते थे ! परन्तु एक भी ऐसा दिन, प्रहर या महत्तं नहीं बीतता था जिसमें कि उनको अपने प्रिय पुत्र की स्मृति ताजी नहीं होती। वहां के समाचार पाने के लिए उनका हृदय प्रतिपल उत्सुक रहता था। परन्तु दूर देशान्तर में अपने चिरंजीवी पुत्र के तनिक भी समाचार प्राप्त नहीं होते थे।
इधर अत्यन्त सुख में लालित-पालित बालक रत्नपाल चलने में क्षम हुआ। वह अपने साथियों के साथ बाल-क्रीड़ाओं से खेलता हुआ क्षण में रूठता था, हंसता था, रोता हुआ भूमि पर लोट जाता था, वह अपने पड़ौसी बालकों के साथ मिलता-झगड़ता हुआ उस कृपण मन्मन के हृदय को विकसित, प्रसन्न, एवं आनन्दित करता था। अनेक आधि-व्याधियों से संरक्षित एवं संगोपित वह आठ वर्ष का हुआ । तब मन्मन ने उसको अनुभवी गुरु के समीप पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजा। वह बालक विनय और विवेक से संपन्न था । अपनी चपलमेधा से विद्या अध्ययन करता हुआ वह अनेक विद्याओं में पारंगत होगया । वह अध्यापक महोदय के इगित आकार के अनुरूप वर्तन करता हुआ उनका विशेष कृपापात्र बना। वह विद्या के भार से भारी था, किन्तु नम्रता आदि गुणों से उसकी सर्वत्र प्रशंसा होने लगी । मन्मन ने भी उसको गृहकार्य, लेनदेन तथा दुकान के व्यापार से परिचित कराया और उसको उसमें संलग्न कर दिया ! बारह वर्ष का होता हुआ भी वह बालक बड़े व्यक्तियों की तरह कार्य में निपुण हो गया। दुकान में बैठा व्यापार करता हुआ सबके साथ मधुर व्यवहार करता था, इसलिए वह सबको बहुत भाता था। अनेक ग्राहक उसके वार्तालाप से संतुष्ट होकर वहीं बैठे रहते थे। 'बालक होता हुआ भी कितना दक्ष है, इस प्रकार उसकी प्रशंसा करते हुए उसे छाती से लगाकर पुलकित हो जाते थे । किन्तु विविध गृह-कार्य में कुशल होने पर भी उसे अभी तक 'मैं कौन हूँ'-यह ज्ञात नहीं हुआ । मन्मन ने भी चारों ओर ऐसा अनुकूल वातावरण पैदा किया कि जिससे इस विषय में उसका मन तनिक भी संदेह-युक्त नहीं हुआ। वह जानता था कि मन्मन ही मेरा पिता है और उसकी पत्नी ही मेरी जन्मदात्री मां है । उसने कभी कोई विपरीतता नहीं देखी। किन्तु अत्यन्त गोपित रहस्य भी तुष राशि (घास) से आच्छन्न स्फुलिंग की भांति जब तब प्रगट होता ही है। यह निश्चित तत्त्व है कि जो है, वह है ही, उसका नास्तित्त्व कैसे हो सकता है ?
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रयणवाल कहाँ
एक बार रत्नपाल अपने ग्राहक से ब्याज सहित धन लाने के लिए गया । किन्तु ग्राहक अपनी स्थिति के कारण धन लौटाने में समर्थ नहीं था । रत्नपाल बालक था । वह दूसरे व्यक्ति के अर्थ - पारतंत्र्य से अजान था । उसने कदाग्रह किया और वहीं बैठ गया ! उसने कहा 'आज मैं ब्याज सहित धन लिए बिना खाली हाथ नहीं लौटूंगा ! मैं अनेक बार यहां धन लेने के लिए आया हूँ, किन्तु तू कुछ न कुछ बहाना लेकर मुझे लौटा देता है । हाय ! धिक्कार है, मनुष्यों की नीति कैसी हो गई ? जब धन लेना होता है तब मीठे-मीठे बोलते हैं और कहते हैं आप ही हमारे संरक्षक हैं, पालक हैं और जीवनदान देने वाले हैं ! इस प्रकार वे बार-बार कहते हुए अद्वितीय सौजन्य प्रकट करते हैं। जब कार्य बन जाता है, हाथ में धन आ जाता है, तब वे दूर से निकलते हैं, मानो कि कोई सम्बन्ध ही न हो ! जब दाता उनसे धन लौटाने की बात करता है तब वे आंखें लालकर जो कुछ भी कहते हुए उत्तेजित हो जाते हैं । खेद ! कैसा विचित्र समय आया है कि लोग लिया हुआ धन लौटाना भी भूल जाते हैं । किन्तु मैं अपने दिये धन को थोड़ा भी नहीं छोड़ गा । आज तो मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि धन लिए बिना इस स्थान से नहीं हटू गा” ऐसा कहकर रत्नपाल वहीं पालथी लगाकर बैठ गया ।
रत्नपाल के सगर्व और रोषयुक्त वचन को सुनकर उसके ( प्रतिदाता के ) होठ क्रोध से कांप उठे ! उसने मन ही मन कहा 'अरे । यह दुधमुँहा वाचाल बच्चा कुछ का कुछ बक रहा है। मैं भी इसके अकथनीय अतीत को जानता हूँ । यह धृष्ट अपने त्यक्तगृह की स्थिति को नहीं जानता ! अरे ! यह स्वच्छंद भाषी ! नीति का उपदेश देते नहीं लजाता ! अतः मैं इसके समक्ष इसके माता-पिता का दुःखद वृत्तान्त प्रकट करूँ ।' ऐसा सोचकर क्रोध से अपनी आँखें लाल कर उसने गर्हा करते हुए कहा – 'अरे ! मौन रह ! व्यर्थ ही अपनी धृष्टता मत दिखा ! अरे महामूर्ख ! तू नहीं जानता कि तेरे T-पिता के प्रवास का कारण तेरा जन्म ही है । अरे क्रीतदास ! तू इतनी धृष्टता क्यों दिखा रहा क्या तेरे बाप ने मुझे धन दिया था। मेरे से अपना कलुषित अतीत सुनने के लिए यहां मत रह, यहाँ से निकल जा । जन्मांध ! क्या ऊँचा शिर किए घूम रहा है ? मैं तुझे कुछ भी नहीं दूँगा ! यहां तुझे मांगने का कोई अधिकार नहीं है ।" इस प्रकार रत्नपाल विकृत मुखाकृति वाले अपने ग्राहक के कर्कश वचन रूपी तीरों से ताड़ित और मर्माहित हो गया ! उसे उपालंभ का रहस्य ज्ञात नहीं हुआ । उसका मन शंकित और कलुषित हो गया और वह असमंजसता में पड़ गया ! उसने
माता
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तीसरा उच्छ्वास
सोचा-यह अविचारित वाक्य रूपी पाषाणों को फेंककर मुझे क्यों उपालंभ दे रहा है और क्यों मेरा तिरस्कार कर रहा है ? इसने 'क्रोतदास' कहकर मुझे क्यों दूषित और कंलकित किया ? क्या मुझे जन्म देने वाले माता-पिता दूसरे हैं ? क्या वस्तुतः मन्मन मेरे पिता नहीं है ? अच्छा जब तक मैं रहस्य को स्पष्ट रूप से जान न लू तब तक मुझे इसे कुछ भी उत्तर नहीं देना चाहिए। ऐसा सोचकर रत्नपाल तत्काल हीं वहां से उठा । उसके मन में अनेक विकल्प झलने लगे। वह मौन रहा और रहस्य की गवेषणा में तत्पर होकर वहां से चला । मार्ग में एक बूढ़ा व्यापारी दूकान पर बैठा दीखा । विमनस्क रत्नपाल अतीत के रहस्य को प्रकट कराने के लिए अत्यन्त उत्सुक होकर उस बूढ़े के समीप आया।
हिम से दग्ध कमल की तरह रत्नपाल के म्लान मुख को देखकर, उसके कारण की गवेषणा करते हुए बूढ़े ने पूछा- 'वत्स ! आज तू गंभीर चिंता से विह्वल क्यों दीख रहा है ? प्रतिदिन प्रफुल्लित रहने वाला तेरा मुख-कमल
आज मुझे भयभीत और लज्जित क्यों प्रतीत हो रहा है ? तु मुझे बता शीघ्र बता, ताकि मैं तेरे दुःख का कुछ प्रतिकार कर सकू।"
दीर्घ और उष्ण निःश्वास छोड़ते हुए रत्नपाल ने सारा वृत्तान्त सहीसही सुनाया, और किस प्रकार उस ग्राहक ने 'क्रीतदास' शब्द से उसकी भर्त्सना की-यह भी कह डाला। "यहां क्या रहस्य हैं ? ऐसी कौन-सी गुप्त बात है ? हे तात । मैं ये सारी बातें यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ !"
रत्नपाल का प्रश्न सुनकर वह वृद्ध कुछ मुस्कराया, सारा अनुभूत अतीत उसके प्रत्यक्ष परिस्फुरित हो उठा । यह गोपनीय बात अवक्तव्य है इस प्रकार कुछ कह कर वह मूक की तरह बैठ गया । प्रत्युत्तर को सुनने के लिए उत्सुक
और विलम्ब को सहने में असमर्थ बालक के मुख को देखकर उस स्थविर ने निपुणता से थोड़ा रहस्योद्घाटन करते हुए कहा---'पुत्र ! यह संसार रूप महा समुद्र विचित्र है । यहाँ प्राणियों के लिए कौन-सा अघटित घटित नहीं होता ? तब तक ही मनुष्य उद्धत होता है, जब तक कि वह अतीत को प्रत्यक्ष नहीं कर लेता । आर्य ! जगत की दीखने वाली सारी लीला मृग-तृष्णा के अतिरिक्त कुछ नहीं है । यहाँ आशा केवल आकाश तुल्य ही है। भद्र ! रहस्योद्घाटन मत करो! तेरा वृत्तान्त कहने में मेरी जीभ लड़खड़ाती है तो भी यदि तेरी तीव्र जिज्ञासा है तो में तुझसे अज्ञात तेरे चरित्र की बात थोड़ी-सी बता दूं। सुन, तेरा पिता जिनदत्त नागरिकों से माननीय और बहुत धनाढ्य था। तेरी माता
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रयणवाल कहा
प्रियवादिनी और दानशीला भानुमती साक्षात् लक्ष्मी के समान थी । जब तू गर्भ में था तब अकस्मात् तेरी समृद्धि पर आपत्ति आ पड़ी। वंश-परम्परा से संचित सारी लक्ष्मी स्वप्न की तरह विलीन हो गई । धन के विनिमय से तुझे मन्मन के घर में रखकर तेरे माता-पिता रात में बिना किसी को कुछ कहे, यहाँ से अन्यत्र चले गए।" इस प्रकार कहते हुए उस वृद्ध की आंखें डबडबा आई । "तेरा पिता मेरा परम मित्र था। दूसरा ऐसा सज्जन व्यक्ति मैंने नहीं देखा ! पुत्र वे तेरे विरह से दुर्बल होकर अपने विपत्ति के समय को अब कहाँ बिता रहे हैं -- यह मैं नहीं जानता। कुल सूर्य ! यह तेरा परम कर्तव्य है कि तू अपने पिता द्वारा लिखित प्रतिज्ञा पत्र के अनुसार अपने हाथ से खूब धन कमाकर, ऋण मुक्त होकर अपने माता-पिता की गवेषणा कर उनके साथ अपने घर चला जा। सौम्य ! वही पुत्र आनन्ददायी होता है जो अपने वंश का उद्धार कर्ता, माता-पिता को सुख देने वाला तथा अपने पूर्वजों के नाम को उज्ज्वल करनेवाला होता है। देख, खेद करने से कुछ नहीं होगा । जो कुछ होगा वह बड़े पुरुषार्थ से ही होगा ! मेरी कल्पना है कि तू अपने शून्य घर को अवश्य हराभरा करेगा'-- इस प्रकार कहकर वह वृद्ध पुरुष रत्नपाल को विश्वास की दृष्टि से देखने लगा !
कानों को कांटों की भांति चुभने वाले अश्रुतपूर्व अपने अतीत के वृत्तान्त को सुनकर रत्नपाल लिखित चित्र की भांति, मंत्र से कीलित (सर्प) की भांति स्तब्ध, उद्विग्न, विस्मित और रोमाञ्चित हो गया । “अरे ! आज तक मैंने अपना वृत्तान्त नहीं जाना। ओह ! उस ग्राहक ने ठीक ही कहा था । खेद ! मैं क्रीतदास हूँ । माता-पिता की वैसी प्रवृत्ति मेरे हृदय को पीड़ित कर रही है ! मेरे निर्लज्ज जीवन को धिक्कार है, जिसका जन्म भी सब कुछ विध्वंस करने वाला हुआ है । मैंने ऐसा कौन-सा कलुषित आचरण किया है ? हा ! मैं कुलांगार हूँ, मेरा वृत्तान्त कौन नहीं जानता । ओह । ऐसा क्यों हुआ ? मैं मानता हूँ कि मेरे परम श्लाघनीय पूज्य माता-पिता दुखित हैं । अहा ! यदि मैं गर्भ से गिर जाता तो मेरे माता-पिता की ऐसी दशा नहीं होती ! अब मुझे क्या करना चाहिए ? ज्यादा चिन्तन करने से क्या होगा ? पुरुषार्थ से सब कुछ अच्छा होगा" इस प्रकार उसका हृदयसागर अनेक विकल्पों से विलोड़ित हुआ, वह उस स्थविर को प्रणाम कर शीघ्र ही वहां से लौट पड़ा और कहीं भी आनन्द न पाता हुआ सीधा घर चला आया। घर आकर वह आँसुओं से गीले कपोल पर हाथ रख कर भूमि को कुरेदता हुआ एक ओर खुली जमीन पर चुपचाप बैठ गया !
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तीसरा उच्छ्वास
इधर मन्मन भी मध्यान्ह की भोजन वेला जानकर 'पुत्र रत्नपाल बहुत देर तक भूखा न रह जाए' - ऐसा सोचकर शीघ्र ही घर आ गया । किन्तु उसे अपने नयनों का चन्द्र पुत्र रत्नपाल नहीं दीखा । ' क्या ऋण लेने के लिए गया हुआ वह अभी तक नहीं लौटा ? भायें ! तेरी गोद में क्रीड़ा करने वाला पुत्र अभी क्यों नहीं आया ? तू पुत्र की चिता से निरपेक्ष होकर दूसरे कार्यों में कैसे रत हैं ?' इस प्रकार मन्मन ने उच्च स्वर से अपनी पत्नी को पूछा ।
पत्नी ने साश्चर्य कहा - 'अभी-अभी मैंने उसे आते हुए देखा था । परन्तु बाद में वह चपल कहा गया—- इसका मैंने ध्यान नहीं दिया ।"
'वह कहाँ छुप गया है' — ऐसा सोचकर मन्मन विस्मय और खेद की दृष्टि से उसे ऊपर नीचे हूँढ़ने लगा । कृपण मन्मन ने शुष्क मुखकमल वाले रोते हुए, कंधे को नीचे किए हुए भूमि पर बैठे अपने पुत्र को देखा ।
उसने कहा—'अरे ! यह क्या ? यह क्या ? पुत्र ! किस दुर्भाग्य ने तुझे पीड़ित किया है जिसके कारण रो रहा है ? किस मदान्ध ने तेरा अपराध किया है ? जो तेरी अवमानना करता है, क्या उसे अपना जीवन अप्रिय है ? तू प्रतिदिन हँसमुख रहता है, आज विमन और दुर्मन क्यों है ? क्या तुझे इच्छित वस्तु नहीं मिली ? क्या आज रूखे स्वभाववाली तेरी मां ने तुझे डांटा है ? अथवा ऋण चुकाने वाले ग्राहक ने तेरा पराभव किया है ? बोल वत्स, बोल ! तेरा व्याकुल पिता तुझसे यथार्थवृत्तान्त पूछ रहा है । मैं उसका शीघ्र ही प्रतीकार करूंगा।' इस प्रकार आश्वासन देते हुए मन्मन ने भुजाओं से पकड़ कर अपने पुत्र को उठाया और गोद में ले लिया ! उसके मस्तक को घता हुआ आंसुओं से गीले उसके मुख को पोंछने लगा ।
इस प्रकार मन्मन ने रत्नपाल से साग्रह पूछा । तब वह यथार्थ बात प्रकट करने के लिए प्रेरित हुआ और उसने गद्गद् भाषा में यथा ज्ञात रहस्य स्पष्ट रूप से कह सुनाया । उसने कहा - 'श्रेष्ठी प्रवर ! आप मेरे पिता के समान पूजनीय है, किन्तु मुझे पैदा करने वाले वास्तविक पिता नहीं है । सारा रहस्य आज मैंने जान लिया है । स्नेह रूपी अंकुर के लिए मेघ के समान महामना तथा सात्त्विक वृत्ति वाले जिनदत्त मेरे पिता हैं ! प्रेम की नदी भानुमती प्रत्यक्ष रूप में मुझे जन्म देने वाली मेरी माता है । हाय ! हाय ! दरिद्रता रूपी दावानल से दग्ध व धन के बदले में मुझे तुम्हारे घर में छोड़ कर अज्ञात रूप से कहीं चले गए हैं ! आज यदि मेरे माता-पिता आकर मुझे कहे 'चलो पुत्र' -- तो मैं
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रयणवाल कहाँ
तत्क्षण बिना कुछ देर किए निःसन्देह रूप से उनके साथ अपने घर चला जाऊँ । ओह ! दूसरे के घर में रहने का सुख भी क्या सुख है ? अपनी झोंपड़ी चाहे वह टूटी-फूटी हो, फिर भी वह अपनी है और दूसरे का घर बाहे वह कितना ही भव्य प्रासाद क्यों न हो, आखिर दूसरे का ही है । इस प्रकार कहता हुआ रत्नपाल जोर से रोने लगा ।
रत्नपाल की अकल्पित, अतर्कित और अप्रत्याशित बातों को सुनकर मन्मन ने किसी असहनीय और अतुल बेदना का अनुभव किया । उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई । आँखें विस्फारित हो गई। इसकी लम्बी और दृढ़ आशा हिमखण्ड की तरह पिघल गई । उसने सोचा- अरे ! इसे कौन नागरिक धूर्त मिल गया जो कि मेरा जन्म जन्मान्तर का शत्रु वा ? हाय । उस दुष्ट ने सुघटित और सुमंडित मेरे वंश - प्रासाद को भूमिसात् कर दिया ! हे पिशुन ! मेरे कल्पना के कल्पतरु को उखाड़ कर तेरे हाथ क्या लगा ? हाय ! हाय ! चुगलखोरों का स्वभाव विचित्र होता है । वे दुष्ट अकारण ही दूसरों के दुःख से स्वयं सुख का अनुभव करते हैं और दूसरों के नाम से सन्तुष्ट होते है ! अरे ! इसका लालन पालन निरर्थक हो गया । ओह ! क्या पराये पुत्र से बर बसाया जा सकता है ? इस प्रकार बहुत विकल्प करता हुआ वह मन्मन कोई उपाय ढूँढ़ते हुए बोला- पुत्र ! किस पर सुख दुर्बल दुष्ट ने तुझे व्यर्थ ही भ्रान्त कर निरर्थक आशंकाओं में डाल दिया है ? जिनदत्त कौन है ? भानुमती' कौन है ? किस द्रोही ने ये कपोल कल्पित नाम प्रस्तुत किए हैं। भ्रान्त मत हो, शीघ्र चल और मेरे साथ भोजन कर ! देख अनेक व्यंजनों से संयुक्त यह सरस भोजन शीतल हो रहा है ! तेरी माता तेरी प्रतीक्षा कर रही है । वह तुझे न देख कर पागल सी हो रही है ।"
'श्रेष्ठिप्रवर ! यथार्थ वस्तु पर कपट का आवरण न डालें। अब तक बहुत हो चुका कि मुझे अन्धकार में रखा। अब मेरा ज्ञान प्रदीप प्रज्वलित हो गया है अथवा भ्रान्ति - शालिनी मेरी अज्ञान रूपी भामिनी विभासुर हो चुकी है । पहले मेरे प्रवास गमन की व्यवस्था करें। मैं बाद में ही कुछ भोजन करूंगा । खैर ! यदि यह वृत्तान्त मुझे पहले ज्ञात हो गया होता तो कितना सुन्दर होता ' बालक रत्नपाल ने यह बात निःशंक रूप से कही ।
मन्मन ने सोचा किस धूर्त ने इसे दृढ़ता से यह विपरीत पाठ पढ़ाया है ? आश्चर्य ! इसके स्वभाव में कैसी रूक्षता आ गई है । यह अत्यन्त लज्जालु और अल्पभाषी था, परन्तु आज कितना वाचाल और उद्दण्ड हो गया है । धिक्कार है, किसी मत्सरी व्यक्ति ने सारा निष्फल कर डाला । अब यह
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तीसरा उच्छ्वास
रोग असाध्य हो गया है । इसकी आशा अब प्रत्यक्ष रूप से निराशा में बदल गई है।
'पुत्र ! मैं शीघ्र ही सारा प्रबन्ध करूंगा ! अभी तुझे भोजन करना चाहिए'-ऐसा कहते हुए मन्मन ने पुत्र को भोजन करने के लिए उठाया ! उन दोनों ने ज्यों त्यों सरस और ताजा भोजन भी बिना स्वाद खाया। बाद में मन्मन ने अपने वाणिज्य-कुशल पुरुषों को बुलाकर उन्हें क्या करना हैसारा कह सुनाया ! जहाज तैयार किया और उसे तत्र सुलभ विक्रयणीय पदार्थों से भरा गया ! शुभ तिथि, करण और योग से संयुक्त शुभ मुहूर्त में प्रस्थान करने का निश्चय किया ! निश्चित समय आने पर सबके सामने जनक-स्थानीय मन्मन को विनय सहित प्रणाम करते हुए रत्नपाल ने कहा'मेरे लिए किया हुआ पूज्य पिताजी का ऋण चुकाने के लिए आज मैं देशान्तर जा रहा हूँ ! आज तक मैं यहां बहुत आनन्द से रहा और यहां मेरा लालन-पालन अपने पुत्र की भांति बहुत ही स्नेह से हुआ और मुझे सर्वाङ्गीण सुख मिला ! इन महानुभावों का आज भी वैसा ही प्रेम है तो भी मुझे अपना कर्तव्य करना चाहिए। मैं अब प्रवास में जा रहा है। जहाज पर जितना भी माल बेचने के लिए रखा गया है, वह सारा सेठ जी का है, मेरा कुछ भी नहीं है । देशान्तर में जाकर माल बेचने पर जो भी लाभ होगा, उससे पूज्य पिताजी द्वारा लिए गए ऋण को ब्याज सहित दूंगा और साथ-साथ जहाज में रखे गए सामान का मूल्य भी अर्पित करूगा ! प्रस्थान काल में जो कुछ भी मुझे सेठ से पारितोषिक रूप में प्राप्त होगा, उसका लाभ मैं स्वयं लूगा, सेठ को वह नहीं लौटाऊँगा," यह सुनकर महान कंजूस मन्मन ने सोचा-इसे मैं क्या हूँ? अन्त में अति तुच्छता दिखाते हुए उस कंजस ने उस समय में प्रचलित एक छोटा सिक्का 'मुदी' रत्नपाल को भेंट स्वरूप दिया ! इस अति तुच्छ दान के कारण सभी दर्शकों के मन में सेठ के प्रति हीनता के भाव आए ! धिक्कार है, कंजूस के निर्दय हृदय और निर्लज्ज दान को ! चिरकाल तक पोषित अपने पुत्र के साथ भी उसका कैसा व्यवहार है ? तो भी समयज्ञ रत्नपाल ने उस भेंट को आनन्द से स्वीकार किया, उसे माथे पर चढ़ाया और सुरक्षित रख दिया । उसने कहा-"आपकी कृपा से यह लघु दीखने वाला दान भी मेरे बहुत लाभ का हेतु बनेगा ! क्या वट वृक्ष का छोटा बीज विस्तार को नहीं पाता ?"
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चौथा उच्छ्वास
प्रकृति का यह नियम त्रैलोक्य-विदित है कि जिस व्यक्ति की जैसी शुभअशुभ भावना होती है, वैसा ही उसे परिणाम मिलता है । जो प्रतिदिन रोग का चिन्तन करते रहते हैं, वे रोगी हो जाते हैं और जो आरोग्य की कल्पना करते हैं, वे स्वस्थ बन जाते हैं। वे मनुष्य कभी ऊँचे पद को प्राप्त नहीं कर सकते जिनके मन में सदा निराशा, दौर्बल्य और अपने आप में अविश्वास परिस्फुरित होता रहता है । 'हमारे जैसे व्यक्तियों के दिन बीत गए, अब तो हमें ज्यों-त्यों समय बिताना है । भविष्य में जब कोई अनुकूल अवसर प्राप्त होगा, तब कुछ करने की सोचेंगे'-इस प्रकार जो व्यक्ति निरंतर अपनी असमर्थता का अनुभव करते हैं वे कभी अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर पाते, उनका मनोरथ कभी फलित नहीं होता और उनके स्वप्न कभी साकार नहीं होते । जिनके विचार उदार हैं, कल्पनाएं कल्याणकारी हैं, जो सर्वाङ्गीण हित सोचते हैं और जिनका चित्त निर्मल है, वे सर्वत्र सुखी होते हैं, सुख उनके सम्मुख रहता है। आपत्ति में भी उनका आशारूपी निर्झर नहीं सूखता । भयानक रात्रि में भी उन्हें प्रभात दीखता है । उन्हें स्वतः दूसरों की अकल्पित सहायता प्राप्त होती हैं। इसलिए उत्साह सभी सफलताओं का मूल, कल्प
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चौथा उच्छ्वास
नाओं की क्रियान्विति के लिए कल्पवृक्ष, कामनाओं की पूर्ति के लिए कामकुभ
और इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए चिन्तामणि के समान है। ___ अनुकूल वातावरणों से प्रेरित होकर रत्नपाल ने मन्मन के घर से देशान्तर के लिए प्रस्थान किया। उस समय उसका आन्तरिक उत्साह बढ़ रहा था। अनेक साथी उसे घेरे हुए थे। गुरुजनों के आशीर्वाद को पा वह आश्वस्त था । स्तुतिकार मंगलमय वचनों से उसकी स्तुति कर रहे थे। उस समय वह स्वतः समुपस्थित शुभ शकुनों से वर्धापित हो रहा था। रास्ते में एक मालिन माथे पर फूलों की टोकरी लिए सामने मिली। 'देशान्तर जाने वालों के लिए यह अति शुभ शकुन है-ऐसा सोचकर रत्नपाल ने मन्मन द्वारा अर्पित लघु-मुद्रा को देकर तत्काल फूलों की टोकरी ले ली । उसमें दाडिम और धातकी के ताजे सुगन्धित फूल थे। ये शुभ हैं—ऐसा सोचकर विवेकी रत्नपाल ने उन्हें सुरक्षित रख लिया। परमेष्ठिपंचक का स्मरण करता हुआ अनेक मुनीमों के साथ गुरुजनों को प्रणाम करता हुआ जब वह नौका पर चढ़ने लगा तब एक अनुभवी स्थविर ने आकर कहा-'पुत्र ! जहां इच्छा हो वहाँ जाना । पूरे लाभ को प्राप्त करना । परन्तु 'कालकूट' द्वीप में कभी मत जाना, क्योंकि वहाँ जाने वाले वहाँ के धूर्त-शिरोमणियों से ठगे जाते हैं ।' अच्छा ! कहकर रत्नपाल ने उसकी बात स्वीकार की । नाविकों ने नौका चलाई । ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ी त्यों-त्यों वह गहरे पानी में चलती गई । ऊपर आकाश था, चारों ओर पानी पानी दीख रहा था। क्या सारी भूमि जल-जलाकार हो गई है ? ओह ! तत्वज्ञों के लिए सागर की स्थिति दर्शनीय होती है । 'सीमा का उल्लंघन न हो जाए'-इस प्रकार शंकित होकर आगे बढ़ने वाली लहरें मानों पुन: पीछे सरक जाती थीं। 'महान व्यक्तियों को शक्ति का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए'-- इस बात को व्यक्त करता हआ महान सामर्थ्यशाली और क्षण भर में सारे संसार को जलमग्न कर देने में समर्थ समुद्र मर्यादा में रहता है। इसीलिए आगमकारों ने तीर्थंकरों के लिए 'सागर की तरह गम्भीर' ऐसी उपमा दी है । 'दान देने से दानवीरों के धन में न्यूनता नहीं आती । समुद्र बड़े-बड़े बादलों के शून्य उदर को सतत भरता हआ भी कभी रिक्त नहीं होता' यह दिखाते हुए मानो वह ऊँची उछलती हई लहरों से शोभित होता है । समुद्र इस बात का साक्षी है कि वे ही व्यक्ति महामूल्य रत्नों और मुक्ताओं को पा सकते हैं जो निडर हो गहरे जल में जाने में समर्थ होते हैं और अपने प्राणों को हाथ में लेकर चलते हैं । जो व्यक्ति डरपोक हृदय वाले हैं और जो केवल सतह पर ही चलने वाले हैं वे इन रत्नों
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रयणवाल कहा
को कभी नहीं पा सकते हैं-इस तथ्य को बताते हुए समुद्र चिकने शंख, शुक्ति और कौड़िओं के ढेरों से युक्त तटों से शोभित होता है । इस प्रकार काव्य कल्पना में निपुण भानुमती का पुत्र रत्नपाल समुद्र में सकुशल यात्रा कर रहा था । अल्पज्ञ मनुष्य जो-जो सोचता है, वह सारा वैसे ही हो, यह कोई निश्चित नियम नहीं है । अरे मनुष्य जो सोचता है यदि वह सारा साकार हो जाए तो जगत् का सारा कार्य एक ही क्षण में अस्त-व्यस्त हो जाए और अदृष्ट की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाए । यहाँ का रहस्य विचित्र है । अलक्षित लक्ष्य को लक्षित करने वाले कुछ एक महामेधावी जन ही इसे जान सकते हैं।
। रात्रि में अचानक ही बिजली चमकने लगी। बादल उठे। बादलों की गर्जना सुनाई दी । भारी वृष्टि होने लगी। घना अंधकार छा गया । वेग से झंझावात चलने लगा। पूर्ण नियन्त्रण करने पर भी स्वच्छंद व्यक्ति की तरह, भाग्य से प्रेरित दिग्भ्रान्त नौका इधर-उधर दौड़ने लगी। उसमें बैठे हुए सभी व्यक्ति शंकित हो गए, उनका हृदय कांप उठा, वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अपने-अपने इष्टदेव की स्मृति करने लगे। नाविकों ने नौका रोकने के लिए बहुत प्रयत्न किया, परन्तु प्रतिकूल पवन से प्रेरित, भावी के वशवर्ती, वह नौका एक अलक्षित द्वीप पर जा लगी। प्रभात हुआ । वृष्टि शान्त हुई । तट के पास नौका को बांध दिया, सूर्योदय हुआ। 'यह कौन सा द्वीप है ?'सबके मन में प्रबल जिज्ञासा जगी। रत्नपाल नौका से नीचे उतरा और तट पर इधर-उधर घूमने लगा। इतने में ही उसने एक आदमी को अपनी ओर आते देखा । बुलाने पर वह समीप आया। रत्नपाल ने पूछा-'यह प्रदेश कौनसा है ? उसने तत्काल कहा- 'कुमार ! यह कालकूट नाम का द्वीप है। यहाँ कृष्णायन नाम का राजा रहता है। वह अनेक माया करने में कुशल, प्रतिदिन दंभ का आचरण करने वाला और सभी धूर्त व्यक्तियों का शिरोमणि है । यहाँ के सभी नागरिक एक-एक से अधिक धूर्त, मीठे बोलने वाले सदा यथार्थ व्यवहार का दिखावा करते हैं। भद्र ! कोई सामुद्रिक व्यापारी भाग्यवश यहां आ जाता है तो, जिस प्रकार गीध मृत कलेवर को खण्ड खण्डित कर देते हैं, उसी प्रकार वे भी उसको ठग लेते हैं, और उसे महादारिद्रय अवस्था को प्राप्त करा देते हैं। मेरे साथ भी ऐसी ही माया प्रधान घटना घटित हुई है, वह घटना इस प्रकार है-एक बार मैं विक्रय वस्तुओं से नौका को भर कर समुद्र को पार कर रहा था। प्रतिकूल पवन से प्रेरित
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चौथा उच्छ्वास होकर दुर्भाग्यवश मैं कालकूट द्वीप में आ पहुंचा । वंचना के जाल से अजान मैंने यह सोचा कि-'मेरे पास एक महा मूल्यवान रत्नकरण्डक है । यह सामुद्रिक यात्रा बहुत लम्बी और सदा कुशंकाओं से व्याप्त है । अतः उस रत्नकरण्डक को साथ में रखना अच्छा नहीं है। इसलिए नगर में जाऊँ और ऐसे प्रख्यात सत्य हरिश्चन्द्र और पूर्ण नीतिमान् मनुष्य की गवेषणा करूं, जिसके पास इस रत्नकरण्डक को धरोहर के रूप में रख सकू और पुनः लौटते समय अपनी निधि को सुरक्षित पा सकूँ ऐसा सोचकर मैं अपने रत्नकरण्डक को लेकर नगर में गया और वैसे सत्यवादी हरिश्चन्द्र की खोज करने लगा। मुझे नया प्रवासी जानकर एक किराने के व्यापारी ने, पूर्व परिचित की भाँति, 'स्वागत-स्वागत' कहा, मुस्कराता हुआ सामने आया, गले मिला और मेरा कुशल पूछने लगा। उसे भद्र पुरुष समझकर मैं उसकी दुकान पर गया उसने मुझे ऊचे आसन पर बिठाया और मैं उसके साथ सप्रेम बातचीत करने लगा। 'सारा सफेद-सफेद दूध होता है'--ऐसा विश्वास कर मैंने उससे अपनी बहुमूल्य वस्तु रखने के लिए प्रार्थना की और उसे वह दिखलाई । वह धूर्त शिरोमणि मेरी वस्तु रखने के लिए मन से तत्पर था किन्तु अपने आपको अनन्यसत्यवादी सिद्ध करते हुए सत्य से धवलित ललित वाणी से कहा-'बन्धुवर ! क्या आपने निधि रखने के लिए कहा ? ऐसी बात आप पुन: न कहें। किसी की वस्तु अपने पास रखने की मैंने पहले ही सौगन्ध कर रखी है। एकबार मैंने अपने समान सारे जगत को भद्र स्वभाव वाला समझकर किसी एक महानुभाव की धरोहर रखी, परन्तु उसके अति कट परिणाम से ज्यों-त्यों पार पाया है। उसके बाद इस प्रकार के कार्य को न करने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली है। अतः आप कृपा कर अन्यत्र जाइए । धरोहर न रखने की प्रतिज्ञा के कारण मैं इसे किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं कर सकता। उसकी उत्कृष्ट सत्यनिष्ठ दृष्टि का अनुभव कर मैंने अपना धन वहीं रखने के लिए उससे अनुरोध किया। उस समय एक बालिका घी खरीदने के लिए वहां आई। उस वंचक शिरोमणि ने मुझे प्रभावित करने के लिए एक मायापूर्ण व्यवहार प्रगट किया। उसने एक गूना पैसा लेकर उस लड़की को दुगुना घी दिया। घी लेकर कन्या चली गई। आश्चर्य से मैंने उससे कहा 'ओह ! तुम व्यापारी हो ? क्या तुम व्यापार वृत्ति को जानते हो ? अरे ! एक गुना पैसा लेकर तुमने दुगना घी दिया, यह कार्य कैसे अच्छा हो सकता है ? इससे व्यापारी नाम भी दूषित होता है और
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४०
रयणवाल कहा
यह काम मूर्खता का द्योतक भी है । इस प्रणाली से तुम्हारी मूल पूजी सुरक्षित कैसे रह सकती है ? ____ उसने पूर्ण श्रद्धापूर्वक कहा--'तुमने ठीक प्रश्न किया है । उसका उत्तर देने के लिए मेरा मन लज्जा का अनुभव कर रहा है । परन्तु क्या कहूँ, मेरा दानशोल स्वभाव ही ऐसा है, कि मैं उसे व्यापार में भी नहीं भूल सकता । कार्य कैसे चलता है'--इसको मैं अभिव्यक्त नहीं कर सकता। सर्वक्षतिपुरक, सर्वशक्तिमान् और सबके योग-क्षेम को करने वाला क्या कोई ईश्वर नहीं है ?
इधर घी लेकर वह कन्या अपने स्थान पर गई। घी को देखकर उसके पिता ने आश्चर्य से पूछा-'पुत्री ! मुल्य की अपेक्षा से घी दुगुना दीख रहा है।' जिसके यहाँ से तू घो लाई है उस जैसा धूर्त शिरोमणि इस नगर में दूसरा कोई नहीं है। उसने ऐसा क्यों किया? इसमें कोई रहस्य है । क्या वहाँ कोई प्रवासी उपस्थित था ? पुत्री ने कहा-' हां, एक अपरिचित मनुष्य वहां कोई वस्तु रखने के लिए बार-बार उससे अनुरोध कर रहा था ।'
पिता ने कहा- 'सत्य है, उसको ठगने के लिए उस धूर्त ने यह माया रची है । कन्ये ! उसे घी पुनः लौटाने के लिए शीघ्र जा और जैसा मैं कहूँ उसे जोर से कह आ।' घी लेकर कन्या शीघ्र ही उसकी दुकान पर आ पहुंची और म्लान मुख से बोली-'दुकानदार ! तुमने यह अनुचित क्यों किया ? इसे देखकर मेरे पिता बहुत कुपित हुए। और मुझे मूर्ख कहकर तिरस्कृत किया, निर्दयता से डांटा । मुझे शिक्षा देते हुए उन्होंने कहा- 'भद्रे । हम निर्धन हैं; इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। न्याय-युक्त श्रमजल से सिक्त भोजन से हम संतुष्ट हैं और सुख से अपना जीवन बिता रहे हैं । न्याय से उपाजित एक कौड़ी भी करोड़ के बराबर है और अन्याय से संचित कुटिल करोड़ भी हमारे लिए कार्य साधक नहीं है । इसलिए तू इस अहितकारी अधिक घी को लौटा आ'-इस प्रकार कहती हुई उस कन्या ने घृत-पात्र को उसके समक्ष रखा और जो अतिरिक्त घी था उसे लौटाकर तत्काल वहां से मुड़ गई । तब मैंने सौचा-'हन्त ! बालिका का पिता निश्चित ही महान् सत्यवादी होना चाहिए, जिसने आगत अतिरिक्त घृत को नहीं रखा । ओह ! कैसी विशुद्ध नीति, कितना विमल चिन्तन और धार्मिक निष्ठा है । यदि मैं उसके पास अपना धन रखू तो भविष्य में कोई भी भय सम्भव नहीं है' ऐसा निश्चय कर मैं तत्क्षण धन लेकर वहाँ से कन्या के पीछे-पीछे चला । ऐसा देखकर उस
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चौथा उच्छ्वास
दुकानदार की नैया मानो समुद्र के बीच डूब गई। पीछे से उसने बहुत पुकारा किन्तु मैंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया । 'यह धूर्त शिरोमणि है' ऐसा स्पष्ट अनुभव करता हुआ उसके (लड़की के) घर पहुंचा। उसने भी सम्मान-पूर्वक कुशल प्रश्न पूछे और सानुनय अपनी जिज्ञासा प्रगट करते हुए कहा-'क्या मेरे योग्य कोई सेवा है ?' मैंने भी धन दिखाते हुए अपना अभिप्राय उसे बताया। यद्यपि बहुमूल्यवान द्रव्य को देखकर उसे पाने के लिए उसका अन्तःकरण बहुत आतुर हो उठा, फिर भी उपरितन भाव से वह पूर्व व्यापारी की तरह निपुणता पूर्वक लेने से इन्कार करता रहा । जैसे-जैसे वह प्रतिषेध करता रहा वैसे-वैसे ही मैं धन को वहीं रखने की भरसक चेष्टा करता रहा । उसी बीच एक ब्राह्मण भिक्षाटन करता--'स्वस्ति कल्याणम्'इस प्रकार बोलता हुआ उसके मकान में आया । गृहस्वामी ने अपनी पत्नी से कहा -- ब्राह्मण को एक सेर चावल दो'-भार्या ने सम्मान सहित विप्र को दान दिया। ___ दान लेकर चलते हुए ब्राह्मण ने सोचा–आश्चर्य ! यह नई बात कैसे हुई जहाँ मुट्ठी भर आटा भी दुर्लभ है, वहाँ ऐसी दानशीलता ! कृपणता से कर्कश यह पत्नी झूठे हाथ से कुत्ते को भी नहीं दुत्कारती, पीसती हुई भी धान्य के कणों को चबाती रहती है, वहाँ चावलों का दान ? कोई ठगी का जाल है---ऐसा अनुसंधान करते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा । उसे मैं दिखाई दिया। उसने सोचा---'इस प्रवासी को ठगने के लिए यह दानशीलता दिखाई है । मैं भी अवसर का लाभ क्यों न उठा लू'--यह निश्चय कर उसने अपनी पगड़ी में एक छोटा सा तृण डाला और तत्क्षण वहाँ से मुड़ गया । उदास मुख से वह कहने लगा 'ओह । महान् अपराध, अभूतपूर्व दोष, अक्षम्य त्रुटि हो गई। भ्राता ? मैं अत्यन्त दुःखी हूँ । हाय ! जब मैं दान लेने के लिए झुका तब छ पर का एक तृण आपकी बिना आज्ञा से मेरी पगड़ी में लग गया। कुछ आगे जाने के बाद मेरा हाथ उस तृण पर पड़ा । उस समय मेरा हृदय कांप उठा । मैंने सोचा-हा ! हा! मैंने अज्ञान अवस्था में यह क्या अनर्थ कर डाला ? आज तक मैंने किसी का बिना दिया हुआ नहीं लिया। आज प्रतिज्ञा का भंग हो गया ।' यह तृण तुच्छ है, क्या यह भी चोरी है ? छोटा अपराध कुछ भी नहीं है ।'- ऐसा सोचकर यदि मैं उसकी उपेक्षा करूँ तो मेरी वृत्ति अर्नगल हो जाए और तब मैं दूसरों के सोने के अपहरण को भी दोष-रहित मानने लग जाऊँ । ओह ! ब्राह्मण का सारा क्रिया-कलाप विलुप्त हो जाए । हम भिक्षुकों का केवल भिक्षा लेना ही अधिकार है । भिक्षा से
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४२
रणवाल कहा
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संतुष्ट हम प्रतिपल परम आनन्द का अनुभव करते हैं। धन के संग्रह से हमारा क्या प्रयोजन ? - इस प्रकार कहते दूए उसने वह तृण गृहस्वामी को दे दिया और वहां से चल पड़ा । उसके अद्वितीय सत्यनिष्ठ कथन को सुनकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मैंने सोचा - 'ओह । यह ब्राह्मण कितना अलोभी, नीति कुशल और धर्म में दृढ़ है । यह महात्मा है । यदि मैं अपना धन इसे सौंप दूँ तो उसके अपहरण की शंका उठती ही नहीं ।' ऐसा सोचकर वहां से धन लेकर चल पड़ा । पहले के धुर्त ने मुझे रोका, किन्तु मैं वहां नहीं ठहरा । उस भिक्षु के पीछे-पीछे चलते हुए मैंने उसके घर में प्रवेश किया। उसने मेरे साथ बहुत मधुर व्यवहार किया। मैंने भी अपना धन दिखलाकर उसे अपने पास रखने के लिए आग्रह किया परन्तु उस धूर्त ने स्पष्ट रूप से अपनी अनिच्छा दिखाई। उसी समय एक योगी भिक्षा के लिए आया और शंख बजाने लगा । उसे देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने सभक्ति उसे वंदना की । 'धन्य है मेरा भाग्य' - ऐसा कहते हुए उसने योगी की झोली परमान्न (खीर) से भर दी और दूसरे बहुत सारे सुमधुर भोजन भी दिए। भारी झोली लेकर योगी गुरु के समीप आया। नवीन सरस भिक्षा को देखकर वृद्ध गुरु को आश्चर्य हुआ। आज कौन ऐसा नया दानी नगर में उत्पन्न हुआ है जिसने ऐसे रसों से भरपूर भोजन भिक्षा में दिया है ? गुरु ने कहा - अरे ।
―
भोजन लाता है। ऐसा मनोश भोजन कभी कोई नया धनी भद्र पुरुष बैठा था ? इसमें
तू प्रतिदिन रूखा-सूखा, बचा खुचा तुझे प्राप्त नहीं हुआ। क्या वहां कोई रहस्य अवश्य है । शिष्य ने कहा- हां ।
गुरु ने कहा- शिष्य ! झोली लेकर वहां जाने की शीघ्रता कर । वहां जाकर मैं जो कुछ कहूँ उसे कहकर अतुल सफलता प्राप्त कर । 'जैसी आपकी आज्ञा' ऐसा करता हुआ शिष्य झोली लेकर शीघ्र ही वहां आया और सखेद कहने लगा- 'भाई ! आज मैंने गुरु का बिना कारण ही उपालंभ पा लिया । जब मैं भिक्षा लेकर गुरु के पास गया, तब वे तुम्हारे द्वारा दी गई सरस भिक्षा को देखकर विरक्त गुरु मेरे ऊपर लाल हो गए और कुपित वाणी से उपालंभ देते हुए बोले – 'मूर्ख ! क्या साधु के लिए ऐसी भिक्षा योग्य है ? केवल तृण को खाता हुआ बकरा कामवासना से बहुत पराजित हो जाता है, तब यह भोजन करता हुआ योगी ब्रह्मचारी कैसे रह सकता है ? रस का लोलुपी और योगी भी ऐसा कभी नहीं हो सकता । अनेक प्रकार के रस और व्यंजनों से युक्त भोजन से हमें क्या प्रयोजन है ? हमें तो रूखा- सुखा भोजन करना चाहिए । एकान्त वन में रहना चाहिए और तीर्थयात्रा करनी
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चौथा उच्छ्वास
चाहिए । तपस्या से विहीन कोई भी साधना सफल नहीं होती ऐसा कहकर वह खीर आदि पदार्थों को वहीं छोड़कर चला गया। यह सुनकर मैं स्तंभित, विस्मित और उसके गुण से रंजित हो गया। मैंने सोचा- 'ऐसा वैराग्य ! विचित्र अनासक्ति, अद्भुत विरक्ति ! मुझे अपना द्रव्य निःसंशय इसे ही सौंपना चाहिए । तत्काल उसके पीछे-पीछे चलते हुए मैंने नगर के बहिर्भाग में स्थित मठ में महन्तजी के दर्शन किए। वैराग्यमय वार्तालाप चला । मैंने अपने धरोहर रखने के लिए उनसे प्रार्थना की। 'हमारा इनसे क्या प्रयोजन'-ऐसा कहकर उसने निषेध किया । अन्त में बहुत आग्रह करने पर उसने मेरी प्रार्थना स्वीकार की। 'यहां कोई भय नहीं है'-इस प्रकार मैं निश्चिन्त होकर समुद्र में आगे चला।
पीछे से धन के महान् लोभी महन्त ने सभी शिष्यों को अलग कर दिया। मठ के मुख्य द्वार को भी बदल दिया। सभी वक्षों को काट डाला। अपनी एक आंख फोड़ डाली। सारी लीला ही बदल दी। ___कुछ समय के बाद जब मैं अपनी धरोहर लेने की इच्छा से यहाँ आया तब कुछ भी परिचित नहीं मिला। महन्त ने मेरे साथ बात भी नहीं की। उसने कहा-'तू भूल गया है, यहाँ स्वप्न में भी ऐसी घटना घटित नहीं हुई।' इस प्रकार वह अपनी यथार्थ घटना सुनाता हुआ रत्नपाल से कहने लगा
कुमार ! उसके बाद से मैं यहां-वहां घूमता हूं, परन्तु कोई भी मेरी बात नहीं सुनता। 'अस्तु' मेरा कहने का यही तात्पर्य है कि तुम्हें यहां बहुत दक्षता से बर्ताव करना चाहिए, अन्यथा तुम्हारा कुशल नहीं है-ऐसा मानना चाहिए । संक्षेप में ऐसा निवेदन कर-'मुझें कोई देख न ले'-ऐसा सोचकर वह तत्काल वहां से चला गया। ___रत्नपाल ने स्थविर के अनुभवी शब्दों को याद किया । हाय ! विधि का विधान अज्ञात होता है । मैं अनिच्छित स्थान पर आ गया । 'अब क्या करना चाहिए ?' यह सोचकर कुमार चिन्तित हो उठा।
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पांचवाँ उच्छ्वास
अहो ! पुद्गलजन्य सभी अच्छी परिणतियां पुण्यकर्म से प्रेरित होती हैं । पुण्य-बंध भी बिना शुभयोग के नहीं होता। जहां शुभ योग है वहां निश्चित ही निर्जरा है, ऐसा आगमिकों का कथन है । निर्जरा भी तप के बिना नहीं हो सकती । तप भी स्पष्ट धर्म का अंग है । अतः धर्म ही सभी सुखों का मूल है यह सुनिश्चित तस्व है। ___इधर दो राजपुरुष घोड़े पर बैठे हुए अपनी ओर शीघ्रता से आते दिखाई दिए । रत्नपाल ने शंकित होकर उन्हें देखा। ये कौन हैं ? मेरे समीप क्यों आ रहे हैं ? उसके मन में ऐसा कुतूहल उत्पन्न हुआ । शीघ्र ही वे इसके पास आए और अभिलाषा से पूछने लगे - "कुमारश्रेष्ठ ! क्या तुम्हारे पास दाडिम और धातकी (धाय) पुष्प हैं ? हमारे रुग्ण राजा की चिकित्सा के लिए उनकी आवश्यकता है । यदि तुम्हारे पास हो तो हमें अवश्य दो । यह महान मूल्यवान् अवसर है । समयज्ञ व्यक्ति को इसे नहीं खोना चाहिए" इस प्रकार कहकर दोनों उत्तर की प्रतीक्षा में मौन हो गए।
"अहो ! धूर्त व्यक्तियों की कला अकल्पनीय होती है । उनकी विद्या को कोई नहीं जान सकता। उनके तत्व को कोई नहीं समझ पाता। इन्होंने दाडिम और धातकी के पुष्पों की गुप्त बात कैसे जान ली ? दूसरों को ठगने
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पांचवाँ उच्छ्वास
का प्रथम प्रयास विचित्र होता है"-इस प्रकार कुमार शंकित हो गया। अथवा क्या यह सारा रहस्य 'अन्धवर्तकीयन्याय' से घटित हो रहा हो ? मुझे इसका उत्तर दक्षता से देना चाहिए, ताकि मेरा सामयिक कृत्य विनष्ट न हो । कुछ सोचकर रत्नपाल ने कहा-“रोगों का आक्रमण भीषण हो सकता है । उनका प्रतिकार अनेक औषधोपचार से हो सकता है । पुष्पों के लिए आपका प्रश्न भी उचित है । किन्तु हम यहाँ के मनुष्यों से अपरिचित हैं। इसलिए हम कैसे जानें कि आपकी याचना यथार्थ है ? यदि स्वयं राजमन्त्री यहाँ आकर सारा वृत्तान्त उचित रूप से बताएं और हमारा मन विश्वस्त करें तो संभव हैं कि यथेप्सित वस्तु प्राप्त हो सकती है। ___ रत्नपाल की युक्ति-युक्त बात सुनकर दोनों राजपुरुष प्रसन्न हो गए। शीघ्र ही हम महामात्य को पुष्प लेने भेजेंगे-इस प्रकार कहते हुए दोनों नगर दिशा की ओर सहसा दौड़ पड़े। ___ भाग्यशाली कुमार रत्नपाल अनेक विध कल्पना करता हुआ, अपने अदृष्ट भविष्य की गवेषणा करता हुआ वहीं ठहर गया।
इधर मन्त्री कई सभ्य नागरिकों के साथ उसके पास आया। उसकी आँखों में अमृत बरस रहा था। आपस में 'जयजिनेन्द्र' की विधि सम्पन्न हुई। कुशलपृच्छा के पश्चात कहां से आना हुआ-आदि परिचयात्मक प्रश्नोत्तर हुए । धृतिशील प्रधान ने कुमार को राजा की दुःसह अक्षि-वेदना से परिचित कराया। उसने कहा-हमने अनेक उपचार किए, परन्तु रोग का उपशमन नहीं हुआ, पीड़ा बढ़ती ही गई । एक कोई अनुभवी वैद्य आया । उसने निदान किया और वह यथार्थ स्थिति पर पहुंचा । उसने औषध प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह दाडिम और धातकी पुष्पों के साथ प्रयुक्त होती है । संयोगवश बहुत ढंढने पर भी कहीं नहीं मिले । रोगी के लिए वेदना को क्षणमात्र तक सहना भी कठिन था, परन्तु अशक्य और निरुपाय अनुष्ठान के लिए क्या किया जा सकता था ? अचानक ही हमने यह सुना कि कोई सामुद्रिक व्यापारी समुद्र तट पर रुका हुआ है। पीड़ित व्यक्तियों के मन में चारों ओर से आशा की लहरें उमड़ती ही रहती हैं । अतः उन्होंने सोचा संभव है कि आगन्तुक व्यक्ति के पास वह वस्तु हो ? इसलिए हमारे आदमी आपके पास आए । मैं भी उन्हें प्राप्त करने आपके पास आया हूँ। आप इच्छानुसार मूल्य लें और हमें वह जीवनदायक अमूल्य वस्तु दें । वस्तु मूल्यवान् नहीं होती, मूल्यवान होता है समय । यदि आपके पास वह वस्तु हो तो
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रयणवाल कहाँ
कृपाकर शीघ्र ही हमें प्रदान करें। निःसन्देह ही रोग से मुक्त होकर राजा आपके शुभ भविष्य का हेतु बनेगा!" मंत्री की निश्छल वाणी सुनकर रत्नपाल का अन्तःकरण विश्वस्त हुआ। उसने सोचा-"आश्चर्य है कि इतनी तुच्छ वस्तु भी भाग्यवश अतुल लाभदायक सिद्ध हो रही है । अथवा विमल भाग्य कैसे, कब, कहां प्रतिफलित होता है-यह अगम्य और रहस्यमय है । मेरे पास व्यर्थ ही पड़े हुए वे फूल मैं इन्हें दे दू"-ऐसा सोचकर कुमार ने उदारता दिखाते हुए मधुर वचनों में कहा-"मंत्रीप्रवर ! आपने जिस वस्तु की बहुत खोज की है, वह भनायास ही मेरे साथ है। इससे अधिक अच्छा और क्या हो सकता है कि मेरी वस्तु नृपति के काम आए । आपने कैसे कहा कि इच्छानुसार मूल्य ले लें? हमारे जैसों के लिए तो आपके कृपा-कटाक्ष में ही मूल्य निहित है । आप क्षण भर ठहरें, मुझे भी आपके साथ फूलों के उपहार के मिष से राजा के दर्शनों का लाभ मिल सकेगा। ___ मंत्री ने कहा-बहुत अच्छा, आप शीघ्र ही तैयार हो जाए । राजा बहुत आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं । 'अभी भाया' कहकर रत्नपाल वहाँ से चला गया । तत्काल उसने राजसभा-योग्य वेश धारण किया और अनेक अलंकार पहनें । उसने राजा को भेंट करने के लिए अनेक विशिष्ट वस्तुएं अपने साथ लीं और पुष्पकरण्डक को सज्जित किया । वह अपने अनेक व्यक्तियों को साथ ले अमात्य के साथ राजा को देखने के लिए चल पड़ा। राजा को भी यह वृत्तान्त प्राप्त हुआ कि एक सामुद्रिक बाल व्यापारी उन फलों को लेकर मुझे देखने आ रहा है । राजा उससे मिलने के लिए आतुर हो उठा और वह उसके आगमन का मार्ग देखने लगा। इतने में ही उसने देखा कि जिनदत्त का पुत्र रत्नपाल प्रसन्नता से मन्त्री के साथ आ रहा है । उसने राजा को सविनय प्रणाम किया। औपचारिक वार्तालाप हुआ। कुमार ने दूसरी महामूल्यवान वस्तुओं के साथ-साथ पुष्प भेंट किए। राजा प्रसन्न हआ। वैद्य ने औषधि का प्रयोग किया । उसकी अस्खलित और सुखद प्रतिक्रिया हुई । राजा को अभूत-पूर्व सुख का अनुभव हुआ । 'इसने मुझे जीवन दान दिया है'-ऐसा सोचकर राजा रत्नपाल पर प्रसन्न हुआ। उसने रत्नपाल के लिए उचित व्यवस्था की और रहने के लिए विशाल भवन दिया। उसकी सारी वस्तुओं को ठीक स्थान पर रखवा दिया । और उसे राजसभा में स्थान दे दिया। राजा उसे कृपा दृष्टि से देखने लगा। धीरेधीरे कुमार वहां की स्थिति से परिचित हो गया। उसने वहां व्यापार प्रारंभ
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पांचवां उच्छ्वास किया और अपनी वस्तुओं को बहुत लाभ में बेचने लगा। उसे अकल्पित लाभ हुआ। छह महीने बीते। उसने वहां से उचित भावों में सुलभता से प्राप्त नई वस्तुएँ खरीदीं। और शीघ्र ही अपने देश की ओर जाने की चेष्टा की, किन्तु विधि क्या क्या नई घटनाएं घटित करती हैं, यह भव्य लोग सुनें।
उस राजा के एक लड़की थी उसका नाम रत्नवती था। वह बड़ी समयशा और विचार-दक्षा थी। वह भनेक प्रकार के शिल्प और कलाओं की ज्ञाता, सप्तस्वरों से साधने योग्य गान्धर्व विद्या में निपुण, अनेक भाषा विज्ञान में जिसकी काव्य-कला विकसित थी। साक्षात् सरस्वती, सुन्दर वर्ण
और रूप से युक्त, अनुपमेय आकृति और अद्भुत आकर्षणों वाली, सर्वाङ्ग सुन्दरी, मधुर आलाप करने में दक्ष एवं सभी गुणों से युक्त थी । जब वह यौवन को प्राप्त हुई तब वह माता पिता के चिन्ता का कारण बन गई। राजा ने उसके लिए बहुत बारीकी से अनेक कुमारों को देखा किन्तु उसे कुल, रूप, शील, विद्या और यथेष्ट गुणों की प्राप्ति उनमें नहीं मिली। जिस किसी अयोग्य व्यक्ति को राजा अपनी पुत्री देना नहीं चाहता था। जब से राजा ने सर्वगुण-संपन्न सरूप, विनयशील और विवेकी रत्नपाल को देखा तब उसके हृदय में रत्नपाल ने राजकुमारी के वर के रूप में स्थान प्राप्त कर लिया था। उसने सोचा-प्रेम के अमृत से स्नात मेरी पुत्री के योग्य यह रत्नपाल है। मैंने रूप और गुण में सुन्दर ऐसा दूसरा व्यक्ति नहीं देखा है । परन्तु यह प्रवासी है । क्या यह इसके साथ विवाह करना स्वीकार कर लेगा ? इस चिन्ता से आकुल तूल की शय्या पर सोते हुए भी राजा को रात भर नींद नहीं आती थी। राजा ने अपनी भावना मंत्री के समक्ष रखी। उसने भी 'आपका चिंतन उचित है'-यह कहकर राजा का अनुमोदन किया। उसने आगे कहा-हमें प्रयत्न करना चाहिए, संभव है सफलता मिल जाए। एक बार राजा ने प्रसन्न वातावरण में कुमार को एकान्त में बुला भेजा । कुशल पृच्छा के पश्चात् राजा ने बहुत दक्षता से अपनी मनोभावना उसके समक्ष रखी और यह आशा व्यक्त की कि हमारी भावना निष्फल नहीं जाएगी। राजा ने कहा-भीषण रोग से मुक्ति दिलाने वाले कुमार के प्रति हम क्या प्रत्युपकार कर सकते हैं ?
स्वप्न में भी अकल्पित, अदृष्ट और अविमृष्ट राजा की प्रार्थना को सुनकर कुमार अत्यन्त विस्मित और चिन्तित हो गया। उसका हृदय-समुद्र
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रयणवाल कहा
क्या करना चाहिए' ? 'क्या उत्तर देना चाहिए ?' इन विकल्पों की लहरों से आहत होने लगा। उसने सोचा-- एक और मेरा यह निश्चय है कि जब तक मझे अपने माता-पिता न मिल जाए तब तक मुझे विवाह नहीं करना है। दूसरी ओर परम प्रशंसनीय राजा का अनिषेधनीय अनुरोध है। मेरे सामने सर्प और छुछुन्दरी की सी स्थिति उपस्थित हो गई है ।
कुमार को मौन देखकर राजा ने साग्रह पूछा कुमार ! तुम मौन क्यों हो?
रत्नपाल ने हाथ जोड़कर स्फुट और कोमल स्वरों में विनय सहित राजा से निवेदन किया--- "मेरा परम सौभाग्य है आपने मुझे अपनी पुत्री देने के लिए कहा। किन्तु कहाँ तो धन के लोलुप हम व्यापारियों का कुल और कहाँ वीर रस से विशिष्ट जगत् विख्यात राजवंश ! कहाँ तो हमारी स्वार्थपरायण डरपोक मनोदशा और कहाँ क्षत्रियों की स्थिर संकल्प-वाली परार्थप्रवणा साहसिकी मनःस्थिति । महाऱ्या मणि स्वर्ण में शोभित होता है, केवल चमक, दमक दिखाने वाले कांच के टुकड़े में नहीं। योग्य के साथ योग्य की योजना करने पर ही योजक की मेधा का माहात्म्य प्रगट हो सकता है । इसलिए अपने कुल के अनुरूप महानरूप और शक्तिशाली दूसरे राजकुमारों को खोजें ।'
राजा ने सगर्व व्यंग कसते हुए कहा--"यहां धूर्त शिरोमणियों के सरदार के समक्ष तुम्हारी वंचकवृत्ति नहीं चलेगी। जो मानना है उसे अभी, सांय, कल, परसों या तरसों मानना ही पड़ेगा। यह अच्छी तरह से जान लो कि इसके सिवाय यहां से निकलने का कोई मार्ग नहीं है। इसी में कुशल है, ज्यादा बोलने से क्या लाभ ?"
राजा की परिणाम-विषम अन्तिम सूचना सुनकर कुमार का हृदय कांपने लगा और उसे यह नीति वाक्य याद हो आया कि आज्ञा प्रधान राजाओं को प्रीति सुस्थिर नहीं होती। तत्क्षण रत्नपाल ने अपनी भाषा का स्वर बदल डाला । स्वीकृति देते हुए 'उसने कहा'-नरनाथ ! मैंने आपके कथन को कब नकारा था? मेरा यह परम सौभाग्य है कि साक्षात् कल्पलता की भांति यह राजकुमारी मेरे वंश-वृक्ष पर चढ़ रही है । ऐसा मन्दभाग्य कौन होगा जो आती हुई लक्ष्मी का निषेध करे? अपनी योग्यता को प्रगट करना विवेकी व्यक्तियों का धर्म है, जिससे कोई वाद में पश्चात्ताप न हो।'
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૪૨
पांचवाँ उच्छ्वास
भेजा और पुत्री
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राजा कृष्णायन ने तत्काल राजकुल के ज्योतिषी को बुला afare के लिए तात्कालिक शुभलग्न पूछा ! ज्योतिषी ने पंचांग देखकर, अंगुलियों के पर्वो पर कुछ गिनते हुए तथा चन्द्र-सूर्य आदि स्वरों को ग्रहण करते हुए पक्ष के मध्य का एक शुभ दिन विवाह के लिए बताया। राजा ने विवाह के योग्य सारी सामग्री एकत्रित की। बाजे बजने लगे । सौभाग्यवती स्त्रियों ने मधुर स्वरों से मंगलगीत गाए । विवाह का प्राथमिक कृत्य प्रारम्भ हुआ । तोरण आदि की मनोहर रचना हुई, द्वारों पर अनेक मांगलिक पुष्पों के ढेर किए गए। सभी नागरिकों को यह ज्ञात हो गया कि रत्नपाल रत्नवती से विवाह करेगा । उन्होंने भी यथास्थान विविध प्रकार के कौतुक, मंगल आदि किए । विवाह का समय समीप आ गया । रत्नपाल के शरीर का उबटन किया गया । उसने वर के योग्य वस्त्र धारण किए। वह घोड़े पर चढ़ा हुआ अत्यन्त दीप्त हो रहा था । प्रत्येक चौराहे पर लोग वरयात्रा को बधाइयां दे रहे थे । वरयात्रा राजा के महलों में पहुँची । विवाह की सभी विधियों का निर्वाह हुआ । अपने सलज्ज नयनों से पति के मुख-चन्द्र को देखती हुई रत्नवती चकोरी की भांति मनमें अनुपमित सुख का अनुभव कर रही थी । राजा ने दहेज में अपरिमित सुवर्ण और रत्नराशि तथा अनेक विचित्र देशों से प्राप्त वस्तुएँ दी । तदन्तर अपनी पुत्री को उसे समर्पित किया । भानुमती का पुत्र रत्नपाल अपने श्वसुर द्वारा प्रदत्त प्रासाद में अपनी नवोढ़ा के साथ आया | विवाह हो जाने पर भी रत्नपाल के अन्तःकरण में आन्तरिक शांति का अनुभव नहीं हो रहा था । उसने सोचा -- 'जब तक मैं अपने दुःखी माता-पिता के हृदय को शान्त न कर दूँ तब तक राजकुमारी के साथ मेरे विवाह से क्या प्रयोजन ? जहाँ आवश्यक कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं; वहां सुख-क्रीड़ा से क्या करना है ?' ऐसा सोचकर उस विवेकी सुपुत्र ने उपने मन में यह निश्चित प्रतिज्ञा की, कि जब तक मैं अपने पूज्य माता-पिता को न देख लूँ तब तक अपनी प्रियतमा के साथ गृहस्थाश्रम के सुख का भोग नहीं करूँगा । "
नव प्रियतम का संगम पाने को उत्कंठित अपनी नवभार्या रत्नवती से रत्नपाल ने कहा - 'प्रियतमे । हमारे कुल की यह मर्यादा है कि जब तक नव विवाहित पति अपनी वधू के साथ कुलदेवता की पूजा नहीं कर लेता तब तक वह पंचेन्द्रियजन्य सुख-क्रीड़ा में प्रवृत्त नहीं हो सकता । लज्जावती रत्नवती ने 'आर्यपुत्र ही प्रमाण हैं -- ऐसा कहकर प्रसन्नता से पति के
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रयणवाल कहाँ
वचनों को स्वीकार कर लिया। दोनों ने यह प्रतिज्ञा की कि इस रहस्य का भेद खुलने न पाए। इस प्रकार नाना प्रकार के आलाप-संलाप करते हुए दम्पती के कुछ दिन बीते । 'बहुत कार्य शेष है' --ऐसा स्मरण कर रत्नपाल ने शीघ्र ही अपने देश जाने का निश्चय किया । अवसर देखकर रत्नपाल ने अपने ससुर को सविनय निवेदन किया । अपने जामाता की देश लौटने की इच्छा जानकर राजा का चित्त उद्विग्न हो गया। पुत्री के विरह से उत्तप्त सास बहुत दुःखी एवं चिन्तातुर हो उठी। उसने कहा- "अरे ! ऐसी क्या जल्दी है ? यहाँ क्या दुःल है ? दामाद का मन उद्विग्न क्यों है ? सास ने अपने पुत्र के समान दामाद को अपने महलों में बुला भेजा और अनुरोधपूर्वक कहा-'जामात ! 'जाता हूँ' ऐसा कहते हुए आपकी जीभ लज्जित क्यों नहीं होती ? हल्दी के रंग की तरह शीघ्र ही मिट जाने वाली आपकी यह प्रीति ? अभी-अभी तो विवाह का कार्य संपन्न हुआ है । उसका श्रम (भार) भी अभी तक नहीं उतरा है और उसी बीच जाने की बात कह रहे हो ? धिक्कार है, धिवकार है ! प्रवासी व्यक्तियों का कैसा सौहार्द ? उनका क्या विश्वास ? उनका क्या संबंध ? उनके साथ मित्रता कर ऐसे ही संतप्त होना पड़ता है। अभी गमन सम्बन्धी एक भी अक्षर हमारे सामने नहीं बोलना है। यथा समय हम स्वयं उस विषय में सोचेंगे"-यह कहते हुए सास की आँखें डबडबा आई।
रत्नपाल ने निपुणता से कहा-'मैं अभी यहाँ और अधिक ठहरने के लिए समर्थ नहीं हूँ। अपने निश्चय के अनुसार पहले ही यहां समय अधिक हो चुका है। वहाँ मेरा अत्यन्त आवश्यक कार्य है । मेरे गए बिना वह सारा नष्ट हो जाएगा; इसलिए कृपा कर मुझे अकेले जाने की अनुमति दें। बाद में मैं यथाकाल शीघ्र ही आ जाऊंगा।'
एकाकी जाने की बात सुनकर राजा बहुत खिन्न हुआ । प्रवासी का क्या विश्वास ? वह पुनः लौट कर कब आए ? प्रवासी पति की क्या भाव परिणति होती है-यह कौन जानता है ? पति के प्रवास चले जाने पर रत्नवती की क्या स्थिति होगी ? इस प्रकार भविष्य के विषय में सोचने में दक्ष राजा ने कहा'जामात ! तुमने अच्छा निश्चय किया है । जाना है, वहाँ भी एकाकी जाना है'—यह बहुत अच्छा निश्चय है । यह बहुत ही सत्य उक्ति है कि-दूसरे दूसरे होते हैं और अपने-अपने ।' इसमें कोई संदेह नहीं है। यदि जाना है तो सुख से जाओ, कौन रोकता है। किन्तु कुछ समय तक यहां रहो । यह
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पांचवाँ उच्छ्वास
हमारी इच्छा है। एकाकी जाने की इच्छा तो नितान्त हास्यास्पद है। तुमने यह नहीं सोचा कि प्रोसित पतिका युवती पत्नी की क्या दशा होती है ? मेघ के साथ हो बिजली की शोभा है । पति के साथ ही सच्चरित्रा पत्नी की शोभा होती है। कृषक के बिना खेती और माली के बिना पुष्प-वाटिका की तरह पति के बिना दूसरों के आश्रित स्त्री की शोभा नहीं होती । स्वच्छन्द रूप से पिता के घर बहुत काल तक रहने वाली कन्याएँ आँखों में कांटों की भांति चुभने लगती हैं। इसलिए तुम्हें अपनी भार्या के साथ ही जाना है, ऐसा हमारा अभिमत है । इससे हमारे कर्तव्य का भार भी हल्का हो जायेगा। अन्यथा निरन्तर चिन्तातुर हृदय से आप वहाँ और हम यहाँ रहेंगे।' इस प्रकार अच्छी तरह से कहने पर भी रत्नपाल अपनी पत्नी को साथ ले जाने को तैयार नहीं हुआ।
राजा और रानी उसे रोकने में असमर्थ रहे । समस्या का प्रतिकार नहीं हुआ। अब हमें क्या करना चाहिए ? यह सोच दोनों चिन्तित हो गए। इतने में ही कोई एक अपरिचित प्रौढ़ जटाधारी व्यक्ति जो विविध यंत्र, मंत्र और तंत्र का ज्ञाता था, वहां आया। राजा और रानी ने सविनय वन्दन किया
और उसकी यथोचित पूजा की। वह बहुत प्रसन्न हुआ। राजा के उद्विग्न और म्लान मुख कमल को देखकर तत्काल उसने कहा-नरेश ! आज आपका मुख हिम से आहत कमल की भांति (म्लान) दिख रहा है ? क्या आपके मन में कोई ऐसा अन्तःशल्य विद्यमान है ? यदि कहने योग्य हो तो आप उसे प्रगट करें, जिससे कि मेरे जैसा व्यक्ति उसका कोई प्रतिकार
ढूंढ सके।"
राजा ने सखेद कहा- 'भगवन् ! कहने से क्या होगा ? कोई उपाय नहीं दीख रहा है । हाय ! असंगत हो रहा है।'
जटाधारी योगी ने पुनः जिज्ञासा की कि-यदि गुप्त न हो तो मेरी सुनने की इच्छा है ।'
'महात्माओं के समक्ष क्या गोपनीय हैं'---ऐसा सोचकर राजा ने अपने जामाता के एकाकीगमन की उत्सुकता बताते हुए सारा वृत्तान्त कह सुनाया। 'यहां बल प्रयोग उचित नहीं है। इसके साथ मैं अपनी पुत्री को कैसे भेज सकता हूँ—यह बड़ी चिन्ता है ।'
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रयणवाल कहा
योगी ने कहा-'यदि निपुणता से कार्य किया जाय तो निरुपाय क्या हो सकता है ?
राजा ने उत्कंठित होकर कहा---'यदि आप कृपा कर कोई मार्ग बताएंगे तो हम अनुगृहीत होंगे।'
योगी ने अपनी शक्ति का निदर्शन करते हुए कहा-'यदि रत्नवती को स्त्री रूप से पुरुष रूप में परिवर्तित कर अपने पति के साथ उसी रूप में अपने देश में जाया जाए तो हमारा कार्य नहीं सध जाएगा?' __राजा ने जटाधारी योगी की मुखाकृति को देखते हुए कहा-'यदि ऐसा हो सकता है तो दूसरा क्या चाहिए? आप परोपकार करने में निपुण योगी हैं । आप ऐसा यौगिकचमत्कार दिखाए। हम निश्चित ही कृतार्थ होंगे।'
तपस्वी योगी ने सगर्व कहा- 'यदि मैं इतना छोटा-सा कार्य करने में भी असमर्थ हूँ तो क्या मैंने इतने वर्ष जंगल में व्यर्थ ही बिताए और क्या मैंने व्यर्थ ही इतने वर्षों तक मौनव्रत का आचरण किया है ?' तत्काल योगी ने राजकुमारी को अपने पास बुलवाया। उसने झोली से दो जड़ियाँ निकाली। एक के विधि युक्त प्रयोग से स्त्री पुरुष बन जाती है और दूसरे के प्रयोग से पुनः अपने स्वरूप में आ जाती है। तत्काल पहली जड़ी का प्रयोग किया । रत्नवती तत्क्षण राउल योगी के रूप में परिवति हो गई। 'मणि मंत्र और
औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है'- इस उक्ति की यथार्थता का साक्षात्कार सबने किया । राउल ने रेशमी गेरुआ उत्तरीय पहना और घुटनों तक लटकने वाली शिथिल सुन्दर गेरु रंग की कथा को अपने कंधों पर धारण किया। शिर पर राउल योगी की परम्परा के अनुकूल आडम्बर रहित टोपी पहनी। हाथों में अनेक मधुर स्वरों के आलाप से मधुर नई वीणा को धारण किया । इसी प्रकार दूसरी सारी तद्योग्य सामग्री से युक्त वह राजयोगी बहुत सुन्दर और सबके लिए आश्चर्य से देखने योग्य हो गया।
पश्चात् समयज्ञ राजा ने जामाता को पुनः प्रासाद में निमंत्रित किया और कहा- 'जामात ! बहुत आग्रह करने पर भी तुम न यहां ठहरना चाहते हो और न अपनी भार्या को साथ ले जाना चाहते हो । जामाता पर हमारा क्या जोर चल सकता है ? जो प्रवासी स्नेह को शिथिल कर द्वीपान्तर में चले जाते हैं उनका पुनः लौट आने का क्या विश्वास है ? पुनः लौटने का स्मरण
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पांचवां उच्छ्वास
५३
दिलाने के लिए हम तुम्हारे साथ एक महान् दक्ष बालयोगी को भेजेंगे । वह रत्नवती का बालसाथी है । वह तुम्हें समय-समय पर ससुराल की स्मृति और पुन: आने की प्रेरणा देता रहेगा। इससे हमारा मन भी पूरा भरा हुआ और आश्वस्त रहेगा।' ___ स्वीकारात्मक स्वर से बोलते हुए रत्नपाल ने कहा-'हां यह बहुत अच्छा है । आपने अच्छी योजना बनाई है। इसमें किसी को कोई बाधा नहीं हो सकती।' ___ इधर वह योगी वहां आया । उसकी मुखच्छवि अद्भुत और विमोहक थी । उसके इगित और आकार (शारीरिक चेष्टाओं और हावभावों) से उसका चातुर्य साक्षात् परिलक्षित हो रहा था । बालक होते हुए भी उसके नेत्र-कमल प्रशान्त थे और उसके होंठ कुछ हिल रहे थे । मानों कि वह कुछ जप रहा हो उसके गले में रुद्राक्ष की माला थी। सबने उसे ससम्मान वन्दन किया और उसे उचित आसन पर बिठाया । उसे देखकर रत्नपाल रोमाञ्चित हो उठा और उसका मुंह विस्मय से प्रफुल्लित हो गया । अरे ! इस कोमल बाल-काल में भी इसे वैराग्य कैसे हो गया ? धन्य है इसके माता-पिता, कुल में ऐसे वंशोद्धारक और भविष्यद् योगी पुत्र का जन्म हुआ।' ___ रत्नपाल ने पूछा-'भदन्त ! क्रीड़ा योग्य और जगत् के व्यवहार से अजान इस बाल्यकाल में आपकी विरक्ति का कारण क्या है ? यह आश्चर्य होता है कि-आपने बन्धुजनों का स्नेह कैसे तोड़ दिया ? अहा ! यह लोकोतर कार्य है ! __ यदि मनुष्य जागरूक होकर देखता है तो इस संसार में पग-पग पर वैराग्य है । क्या संसारी प्राणी यह नहीं जानता कि ---'यहां की कौनसी वस्तु स्थिर है ?' जो व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि-प्रभात में या सांयकाल धर्म का आचरण करेंगे'- उनका कथन मूर्खतापूर्ण है । क्या आगम का उद्घोष नहीं सुना है ? ___-जिस व्यक्ति की मृत्यु के साथ मित्रता है, जो यह मानता है कि मृत्यु आने पर मैं पलायन कर जाऊँगा और जो यह जानता है कि मैं नहीं मरूंगा'--वही व्यक्ति धर्म को भविष्य के लिए छोड़ सकता है ---- इस प्रकार कहता हुआ योगी आँखें बन्दकर ध्यान में लीन हो गया । शान्त रस को बहाने वाली उसकी मुख मुद्रा को देखकर रत्नपाल प्रभावित हुआ।
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रयणवाल कहा
इसी बीच नौका सज्जित की गई और उसमें अपने देश में दुर्लभ किन्तु
वहां सुलभ, वस्तुओं को खरीद कर रखा गया। प्रस्थान का दिन निश्चित किया । इसके मधुर व्यवहार से अनेक व्यक्ति इसके मित्र बन गए। सभी नागरिकों का यह प्रीतिपात्र बन गया । रत्नपाल के देश लौटने की बात सुनकर सभी व्यक्ति अपना-अपना सौहार्द दिखाने के लिए उसके पास आने लगे । अनेक बातों से उसकी प्रशंसा करते हुए 'फिर कब मिलना होगा' ऐसा कहते हुए अपनी मुखाकृतियों से खिन्नता सूचित कर रहे थे । 'वहां जाकर आप कभी-कभी हमें याद करते रहें यह बार-बार कह रहे थे । रत्नपाल भी सबका आभार स्वीकृत करता हुआ हाथ जोड़े बैठा रहा। वहां के सभी याचक और नौकरों को उचित दान देकर उसने सबको संतुष्ट किया
1
I
रत्नपाल के लौटने का दिन भाया । इधर राउल के रूप में रत्नवती को प्रस्थान कराने के लिए तैयारी की गई। माता-पिता का हृदय उद्विग्न हो गया । परम प्रेम से पोषित पुत्री रत्नवती की आँखें बार-बार आँसुओं से भर आती थीं । उसने सोचा परिचित संसार को छोड़कर अपरिचित ससुरालय में जाना पड़ेगा | 'वहां का व्यवहार कटु होगा या मधुर' - इस प्रकार उसका मन अनेक संकल्पों में फँस गया । जन्म से जो व्यक्ति साथ में रहे हैं, उनका विरह उसके हृदय समुद्र को उद्वेलित कर रहा था । अपनी पुत्री को गोद में बिठाकर आंसुओं से उसको स्नान कराती हुई उसकी मां ने शिक्षा देते हुए कहा - "प्रिय बेटी ! तेरे विरह से आज हम सब दुःखी हैं। मानो कि कोई महामूल्यवान् वस्तु हमारे से दूर हो रही है । इससे हमारा चित्त खिन्न हो रहा है । यह स्पष्ट किवदन्ती है कि माता-पिता का क्या जोर चलता है ? कन्याएँ दूसरों के घर जाने वाली ही होती हैं ।' बेटी ! तू सुख पूर्वक जा ! तेरा सौभाग्य स्थिर हो । तुम दोनों का स्वास्थ्य सदा स्वस्थ रहे । तेरी सारी पीड़ाएँ क्षार समुद्र में विलीन हो जाएँ। बेटी ! नया प्रदेश है । वहाँ के सभी लोगों के स्वभाव अपरिचित हैं। वहां की कार्य-प्रणाली का भी हमें अनुभव नहीं है । वहां तुझे बहुत दक्षता से रहना है। मैं राजपुत्री हूँ,' इसलिए मैं कार्य कैसे करू" - ऐसा तुझे चिन्तन नहीं करना है। प्रियता केवल कुल और रूप से प्राप्त नहीं होती है, वह प्राप्त होती है कार्य करने से । दूसरे यदि तुझ पर निरर्थक ही क्रोध करें तो भी तुझे सहिष्णु रहना है । सहिष्णुता से ही कुलवधुओं की बहुत ही शोभा होती है । ससुर और सास की सविनय सेवा करना । तेरे लिए जैसे हम हैं, वैसे ही वे हैं । अपने पति
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पांचवाँ उच्छ्वास
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के चित्त को निपुणता से अपने अनुकूल करना । अपने पति का कठोर और सरोष शब्द भी समय पर धैर्य से सहन करना । अन्यथा चिड़चिड़े स्वभाव वाले व्यक्तियों का गृहस्थाश्रम नहीं चल सकता । पुत्री ! तू दूसरों के मन को तब ही जीत सकेगी, जबकि तू अपने मन पर विजय पा लेगी। वस्त्र अलंकार युक्त रूप और लावण्य का दीखने वाला आकर्षण तो एकबार
और क्षणिक होता है। परन्तु मधुर व्यवहार का प्रभाव अटल और नित्य परिवद्धित होता रहता है और सबको वह समान रूप से आकृष्ट करता है । बेटो ! यह जीवन संग्राम है । यहाँ अनेक अनुकूल और प्रतिकूल उपक्रम होते रहते हैं । उसमें शुभ भावनाओं से भावित और रोचित धार्मिक भावना ही सामयिक शांति देने में क्षम है। इसलिए दुःखी व्यक्ति की तरह सुखी व्यक्ति को भी धर्म की आराधना करनी चाहिए । धर्म से सिक्त समता की लता विकसित होती है और वह नित्य कल्याणकारी फल देती है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति सदा सुखी रहता है। इस प्रकार भनेक सुवचनों से रत्नवती को बहुत शिक्षा देती हुई उसे अपने अनुभवों से बोधित किया और छाती से चिपका लिया स्वयं रोती हुई, दूसरों को रुलाती हुई रत्नवती प्रस्थान के लिए तत्पर हो गई। इधर जामाता रत्नपाल सज-धजकर श्वसुर पक्षवालों का आशीर्वाद लेने के लिए उपस्थित हुआ । सास ने जामाता को आशीर्वाद दिया । 'आपका कार्य सिद्ध हो आपका पथ निविघ्न हो'- सभी ने रोमांचित होकर सप्रेम कहा । राउल भी वहां आगया। अन्तरंग में वह विरह से खिन्न हो रहा था, किन्तु बाह्यभाव से आनन्दित होता हुआ, निस्संकोच वह रत्नपाल के समकक्ष बैठ गया । सास ने कहा- 'जामात ! राउल हमारी पुत्री का अनन्य सहचर है। रत्नवती की भांति इसकी सुरक्षा आपको करनी है, ज्यादा क्या कहें । यह हमें बहुत प्रिय है'- यह कहती हुई रानी रोने लगी।
‘आप तनिक भी चिन्ता न करें ! यह मेरी सही प्रतिज्ञा है कि मैं इसको सभी अनुकूलताएँ दूंगा। यह अब आपका ही क्या हमारा भी है'- ऐसा कहते हुए रत्नपाल ने मित्र की तरह राउल का सहजभाव से आलिंगन किया। हाथी पर आरूढ़ हुए । नगर के बीचों-बीच होती हुई, बहुत आडम्बर के साथ उनकी प्रवास-यात्रा निकली। समुद्र तट तक राजा आदि सभी राजवर्गीय लोग उन्हें पहुँचाने आए। राजा ने अतूल संपत्ति दी। उसे नाव पर रखा गया । राउल ने भी रूप परिवर्तन करने वाली दो जडिया तथा अन्य
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रयणवाल कहा
आवश्यक वस्तुओं से भरी एक पेटी साथ में ली। राजा आदि को रत्नपाल ने प्रणाम किया। वह पंच नमस्कारमंत्र का स्मरण करता हुआ, राउल के साथ नौका में बैठ गया। सभी ने शुभ मंगल शब्द कहे और शुभ मुहुर्त में नौका वहां से चल पड़ी। अनुकूल हवा से प्रेरित होकर नौका त्वरित गति से चली और अदृश्य हो गई राजा आदि सभी परिजन अपनी पुत्री के विरह से उद्विग्न होते हुए भी इच्छित कार्य के सम्पादन से प्रसन्नता का अनुभव करते हुए अपने-अपने स्थान पर चले गए।
इधर नौका में बैठा हुआ राउल पैतृकपक्ष के विरह से क्षुब्ध हो गया और वह अतुल आकुलता का अनुभव करता हुआ भक्तिगान के मिष से आँसू बहाने लगा । ज्यों-त्यों अपने भावों का गोपन करते हुए उसने अनेक सूक्ति, पद्य और गाथाओं के द्वारा विरह रस की गंभीरता को दिखाते हुए सबके मन को गद्-गद् कर दिया।
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छठा उच्छ्वास
विश्व की विचित्रता का वर्णन नहीं किया जा सकता। भव की भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां क्या सुख है, क्या दुःख है ? क्या प्रिय है, क्या अप्रिय है ? कौन अपना है, कौन पराया है ? जहां भी गुड़ की डली दीख पड़ती है, वहां मक्खियों का समूह बिना निमंत्रण दिए ही एकत्रित हो जाता है । पानी से भरे तालाब में सभी दिशाओं से पक्षी स्वयं आ जाते हैं । अहो ! संसार स्वार्थप्रधान है, परमार्थ प्रधान नहीं । अरे, धवल दीखने वाला कार्य भी अन्तर की अभिलाषा से कुछ मलिन बना रहता है । धन्य हैं वे कुछ एक व्यक्ति जो परमार्थ भाव से जगत् की निष्काम सेवा करते हैं।
'अतुल समृद्धि का अर्जन कर रत्नपाल समुद्र तट पर आया है। यह सूनकर नागरिक तथा उसके बन्धू-जन वे सभी एकत्रित होकर प्रसन्न मुद्रा में रत्नपाल की अगवानी के लिए समुद्र तट पर जहाज के निकट आ पहुँचे । जय-विजय शब्दों में उसे बधाईयां देते हुए वे प्रिय वचनों से सम्बोधित करते हए कहने लगे- 'पुत्र ! प्रतिदिन मेघ की तरह हम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे । तुम जिनदत्त के कुलीन पुत्र हो । पिताजी का नाम तुमने उज्ज्वल किया है। मन्मन अन्दर से दुःखी था-किन्तु व्यवहार के लिए वह भी वहां आया । रत्नपाल ने भी सम्मुख आए हुए सभी व्यक्तियों को प्रसन्नता से
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रयणवाल कहा प्रणाम किया और बोला-'आपके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हुआ । समुद्र की यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हुई' जहाज से सभी विक्रणीय और इतर वस्तुओं को उतारा गया।
रत्नपाल के नगरागमन के उपलक्ष में शोभा यात्रा बड़ी धूमधाम से निकली। सभी नागरिकों की प्रेम भरी आँखों से सम्भावित एवं सम्मानित रत्नपाल राउल के साथ पहले मन्मन सेठ के घर आया। भोजन आदि से निवृत्त हो उसने नगर के गण्यमान्य व्यक्तियों के सामने लेख के अनुसार अपने पिता का ऋण, ब्याज सहित चुकाया और किरियाने का यथोचित मूल्य दिया 'अब सेठ जी (मन्मन) का मेरे में कुछ लेना देना नहीं है।' यह कहकर उसने सबके सामने लेखपत्र फाड़ डाला। मन्मन के हाथ से ऋण भुगतान की रसीद लिखाई और उसने कहा - 'मन्मन द्वारा दिए गए पारितोषिक का जो विपुल फल मुझे प्राप्त हुआ वह सब मेरा है, सेठ का कुछ भी नहीं है । यदि मैं अब सेठ के घर में रहता हूँ तो भी कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि यह मेरा घर है । किन्तु अपने घर के बिना मेरा मन संतप्त हो रहा है । इसलिए मैं अभी अपने घर जाना चाहता हूँ।' इस प्रकार कह कर रत्नपाल उठा
और मन्मन को प्रणाम कर, हाथ जोड़कर बोला-'श्रेष्ठिप्रवर ! मैं अपने घर जाने के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूँ। सोलह वर्ष तक मैं यहां बड़ा हुआ पुत्र की भांति आपने मेरा लालन-पालन किया और मुझे शिक्षित कर प्रवास में भेजा । मैं आपके इस परम उपकार को याद रखूगा । कोई कार्य आने पर मैं शीघ्र ही आपके पास उपस्थित होऊँगा । मेरा मन अपने पिता के घर जाने के लिए बहुत उत्कंठित हो रहा है । आप कृपा कर मुझे आज्ञा दें।'
'पर वस्तु की लालसा करना व्यर्थ है'-ऐसा जानकर, अन्तर से खिन्न केवल व्यवहार कुशलता का निर्वाह करते हुए मन्मन ने रत्नपाल को घर जाने के लिए आज्ञा देते हुए कहा-'आनन्द से अपने घर जाओ और तुम्हारा वैभव दिन प्रतिदिन बढ़ता जाए।' ___ सोलह वर्ष के बाद अपने बन्धुजनों से परिवेष्टित और मंगल पाठकों के मंगल शब्दों द्वारा वर्धापित होता हुआ रत्नपाल अपनी हवेली के पास आया । रत्नपाल के आने की सूचना पाकर वह बूढ़ी पडौसिन तत्काल वहां आई और रत्नपाल को घर की चाबियाँ दे दी। रत्नपाल ने दोनों कपाट खोले । पूज्य पिताजी कहां बैठते थे, कहां सोते थे-ये सब बातें परिजनों ने बताई । तत्काल उनकी स्मृति सद्यस्क हो गई । रत्नपाल बालक की भांति रोने लगा।
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छठा उच्छ्वास
उसने सोचा-'हाय । वे मेरे कारण कहां कष्ट भोग रहे हैं ? मेरी इस विपुल सम्पत्ति से क्या लाभ ? जब तक कि मैं अपने माता पिता के दर्शन नहीं कर लू ।' ___बन्धुओं ने कहा--'सुपुत्र ! तू अपने आपको संभाल ! शीघ्र ही वे तुझे मिल जायेंगे । हम उनकी खोज करवायेंगे । भाग्य की अनुकूलता से उनका वृत्तान्त हमें प्राप्त होगा। अब तू यहा के अस्त-व्यस्त कार्य को ठीक कर जिससे तेरे पिता का नाम उज्ज्वल हो सके ।' रत्नपाल ने उनका कथन स्वीकार किया। सभी बन्धूजनों और मित्रों के साथ प्रीतिभोजन संपन्न हुआ। जिनदत्त के पास रहने वाले अनेक भत्य कर्मकर, गुमास्ते और मित्रजन मिल जुल कर आए और अपना-अपना परिचय देते हुए बोले-'श्रेष्ठिकुमार ! महावृक्ष के नष्ट हो जाने पर घोंसलों में संस्थित पक्षियों के बच्चों की जो दशा होती है, वही दशा, जिनदत्त श्रेष्ठि का आश्रय न रहने से हमारी हो रही है। अब हम आशा करते हैं कि तुम अपने पिता की भांति हमें आश्रय देने वाले होगे ।' रत्नपाल ने सबकी प्रार्थनाएं सुनी, उनकी मांग को जानकर उन्हें यथायोग्य कार्य देकर उनको संतुष्ट और हर्षित किया। अब मेरा प्राथमिक क्या कर्तव्य है ? इस प्रकार कतिपय प्रौढजनों से रत्नपाल ने पूछा, और उनके कथनानुसार कार्य करते हुए उनका सम्मान किया।
इसके बाद नगर के प्रमुख व्यक्तियों के साथ रत्नपाल राजा के पास गया और उपहार प्रस्तुत करते हुए कहा-'नरदेव ! जिनदत्त श्रेष्ठि से जो कोई लोग ऋण मांगते हैं वे मुझसे व्याज सहित अपना-अपना धन शीघ्र ले जाए और जो लोग सेठ के कर्जदार हैं वे सब शीघ्र ही मुझे धन लाकर समर्पित करें।
राजा ने तत्काल ही नगर में यह घोषणा कर दी कि--'जिनदत्त सेट से सम्बन्धित जो धन लोग मांगते हैं, वे अपना धन ले जाएँ और जिन्हें अपनी रकम वापस लौटानी है वे रत्नपाल को सारी रकम दे जाएं।'
तत्काल उचित व्यवस्था हो गई । कर्ज मांगने वालों को सारा धन मिल गया और जो कर्जदार थे उन्होंने अपनी-अपनी रकम रत्नपाल को लौटा दी। जो क्षेत्र, वस्तु, दुकान, मकान आदि दूसरों के हाथ चले गए थे, वे सब पूनः रत्नपाल ने अपने आधीन कर लिए । नगर में इसकी कीति फैल गई।' अहो ! रत्नपाल बालक होता हुआ भी कितना बुद्धिमान् है जिसने सारे अव्यवस्थित कार्य को सुव्यवस्थित कर दिया। राउल ने भी वहां की सारी
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रयणवाल कहा
स्थिति अच्छी तरह से जान ली । ' आगे क्या करना चाहिए वह हर समय यह सोचने लगा । परन्तु रत्नपाल ने यह कभी आशंका नहीं कि राउल रत्नवती का ही रूपान्तर है। उसने निःशंक रूप से यह जाना था कि यह बालयोगी है । सभी सुख प्रस्तुत होने पर भी रत्नपाल माता-पिता के विरह से दुर्बल होता हुआ क्षणभर के लिए भी आनन्द नहीं पाता था । वह सोचता था - उन्हें कैसे खोजू ? वे अपने पुत्र के विरह के प्रताड़ित और उदासीन होते हुए कहां अपना जीवन बिता रहे हैं ? मैं अकेला प्रवास में कैसे जाऊँ ? मेरे बिना अकेला राउल इस अपरिचित प्रदेश में कैसे रहेगा ?'
इतने में ही अचानक अष्टांगनिमित्त को जानने वाला एक ज्योतिषी वहां आया । रत्नपाल ने सविनय उससे पूछा - 'विद्ववर्य ! मैं अपने पिता का वृत्तान्त कैसे जान सकता हूँ ? वे किस दिशा में रहते हैं ? – यह मुझे कैसे मालूम हो ? कृपाकर आप अपने ज्ञानबल से दिशा की सूचना दें जिससे कि मैं उनकी खोज करने में सफल हो सकूँ । रत्नपाल को अत्यन्त आकुल देखकर ज्योतिषी ने शीघ्र ही गणित किया और कहा - 'निस्सन्देह तुम्हारे मातापिता दक्षिण दिशा में हैं और वे सकुशल हैं। छह महीने के भीतर उनके दर्शन सुलभ हो सकेंगे । कुमार ! विपत्ति के दिन बीत गए । अब सारा सुख ही सुख है । यह मेरी निश्चित वाणी है ।' रत्नपाल ने उसे दान देकर संतुष्ट किया और वह अपने घर चला गया ।
अवसर पाकर रत्नपाल ने राउल से सखेद कहा - योगीप्रवर ! मैं तुम्हें छोड़कर अकेला कहीं जाना नहीं चाहता, किन्तु अभी समय की मांग ऐसी है कि मुझे माता-पिता की खोज के लिए अवश्य जाना चाहिए। तुम यहाँ रह कर घर की देखभाल करते रहो । शीघ्र ही मैं माता-पिता को खोजकर उन्हें यहां ले आऊँगा और तत्पश्चात् रत्नवती को लाने के लिए तेरे साथ ससुरालय जाऊँगा । अभी तो समय की बाट देखनी ही चाहिए ।'
कुछ मुस्कराकर राउल ने कहा- 'इसमें कोई खेद नहीं है। माता-पिता से बढ़कर और बड़ा क्या है ? उनकी सेवा देव-सेवा है। उनका दर्शन देव दर्शन के समान है । उनकी आज्ञा देव आज्ञा के बराबर है । उस कृमितुल्य कुलांगार पुत्र से क्या लाभ, जो अपने माता-पिता के लिए सुख का हेतु नहीं बनता । परंतु यह कार्य तुम्हारे जैसे गृहस्थों का नहीं है, बल्कि मेरे जैसे योगियों का है । तुम्हारे जैसों के लिए हेमन्तऋतु अनुकूल नहीं है । इस ऋतु में जगत् को कंपित करने वाली उत्तरदिशा से शीतल वायु प्रवाहित होती है । ऐसे समय में कौन
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छठा उच्छ्वसि
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।
सुखी गृहस्थ घर से निकलता है ? गृहस्थ अनेक ऊनी वस्त्र पहनकर विशिष्ट शक्तिदायक औषधों से मिश्रित मिष्ठान्न खाकर, स्त्री और पुत्र से परिवारित होकर, अग्नि के पास बैठकर हेमन्त ऋतु के दिनों को बिताता है, वहां निस्पृह जी, श्रमण और तापस, फटे वस्त्र पहनने वाला या नग्न व्यक्ति सानन्द वृक्षमूल में रहकर ध्यान करता है, परमेष्ठी का स्मरण करता है, क्षुधा को सहता है और सुखपूर्वक शीतकाल को व्यतीत करता है । इसी प्रकार उष्णकाल भी भोगियों के लिए अनुकूल नहीं है ग्रीष्मऋतु में सूर्य बहुत तेज किरणों से तपता है । सारी धरती अग्नि के समान हो जाती है । उस समय सारा वातावरण तप्त हो जाता है और असहनीय वायु चलती है। बार-बार पोंछने पर भी पसीना नहीं सूखता । प्यास से आकुल होठ, तालु और कंठ पानी पीने पर भी, कभी पानी पिया ही नहीं, 'ऐसा अनुभव करते हैं । उस ऋतु में जिस पुण्यवान् व्यक्ति के पास समग्र भोग सामग्री है, जो अनेक प्रकार के शीतल पेय पीता है और वातानुकूलित गृह में रहता है, वह घर को क्यों छोड़ेगा ? ऐसे समय में भी मुनि जहां कहीं स्थित होकर, जो कुछ ठंडा या गरम भोजन खाता हुआ, ऊष्ण जल पीता हुआ, बिना बिछौने भूमि पर सोता हुआ भी परम प्रसन्न दीखता है। जो योगी प्रतिपल परमपद का स्मरण करता है वह ग्रीष्मकाल की तप्ति का अनुभव कैसे करेगा ? जिसके लिए सभी बाहरी पदार्थ बाह्य हैं, उसके लिए सुख दुःख की क्या कल्पना हो सकती है ? अहो ! मुनि का मार्ग विचित्र होता है । इसी प्रकार वर्षाकाल भी गृहस्थों के लिए सुखावह नहीं होता । जब मेघ बरसते हैं तब सूर्य प्रच्छन्न हो जाता है और घना अंधकार छा जाता है। हृदय को कम्पित करती हुई बिजली चमकती है । मेघ का गर्जन कर्ण विवर को भेद डालता है । रास्ते कीचड़मय हो जाते हैं। नदियां वेग से बहने लगती हैं । मेघ में छिपा हुआ सूर्य भी कदाचिगु आन्तरिक घाम का अनुभव करता है । ऐसे समय में पत्नी से विरहित कौन व्यक्ति सुख से रह सकता है ? भाग्य से परवश प्रवासी होने वाला कोई भी व्यक्ति अपने घर का रात-दिन स्मरण करता रहता है । प्रवासी पति की मानिनी पत्नी पपीहा के 'पिउ पिउ ' शब्द से अपने पति का स्मरण करती हुई उत्कृष्ट अन्तर्वेदना का अनुभव करती है । उस पावस काल में भी पानी भोजन का प्रत्याख्यान कर गिरि कन्दराओं में रहने वाले, शरीर और मन की समस्त चिन्ताओं से रहित, अक्षुण्ण ब्रह्मचर्य से परिवर्धित तेज वाले, ध्यान में लीन मुनि अलक्षित और अतर्क्यं सुख का अनुभव करते हुए समय बिताते हैं । अत: मुनियों के लिए सभी ऋतुएं अनुकूल होती हैं ।
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रेयणवाल कहां
इसलिए माता-पिता की खोज में मुझे जाना चाहिए। आप जैसों के लिए वहां कोई अवकाश नहीं है । मैं अभी जाता हूँ, मुझे साथ क्या लेना है !''---ऐसा कहता हुआ राउल हाथ में केवल वीणा लेकर उठा। 'यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है'-ऐसे कहते हुए रत्नपाल ने झट से राउल का हाथ पकड़ा
और बोला-'योगेन्द्र ! असमय में ही गमन कैसे कर रहे हो ? थोड़ा सोचो सर्व प्रथम माता पिता के लिए पुत्र का परदेश , जाना ही नीति-संगत है। दूसरे में-- तुम अतिथिरूप में दूर देश से यहां आए हुए हो। तुम सेवा कराने योग्य हो । ऐसी स्थिति में अपने काम के लिए तुमको भेजना उचित नहीं है । तीसरे में विरक्त व्यक्तियों से गृहकार्य कराना शोभास्पद नहीं होता। इसलिए मेरी सविनय प्रार्थना है कि तुम यहीं रहकर योग साधना करो। इस विषय में तुमको मेरा भागी नहीं बनना है। 'मेरा जाना उचित है'--यह बताते हुए राउल ने गर्जते हुए कहा- 'श्रेष्ठिपुत्र ! राउल से कोई नीति अज्ञात नहीं है । 'वसुधैव कुटुम्बकम्' ऐसी भावना करने वाले मुनियों के लिए निज और पर का विचार ही कहां है ? तुम्हारे माता-पिता क्या मेरे मातापिता नहीं है ? अतिथि का अर्थ है-जिसके आगमन की कोई तिथि न हो। यह निरुक्त स्पष्ट है । इसलिए वह अभ्यागत-मेहमान नहीं है । सेवा करना ही जिसका जीवन व्रत है, वह भला दूसरे की सेवा की अभिलाषा कैसे करेगा? जो शीलसंपन्न तपस्वी मुनि परोपकार करते हैं, वे गृहस्थ के संसर्गजन्य दोष से दूषित नहीं होते । अरे, तुम निरर्थक ही आग्रह कर रहे हो ? मित्र ! सुनो, 'यदि छह महीनों के भीतर भानुमती और जिनदत्त को लाने में समर्थ न होऊँ तो मैं अग्निकुण्ड में प्रविष्ट हो जाऊँगा 'ऐसी प्रतिज्ञा कर निडर राउल तत्काल एकाकी चलने के लिए तत्पर हो गया। रत्नपाल को उसके निरोध का मार्ग नहीं मिला । वह अत्यन्त खिन्न होता हुआ, ज्यों त्यों भेजने के लिए सम्मत हो गया। रत्नपाल राउल के साथ गांव की सीमा तक गया और शिक्षा देते हुए कहा-'राउल ! देशान्तर में पूर्ण सावधानी रखना । दूसरों को ठगने में तत्पर अनेक धूर्तशिरोमणि वहां पग-पग पर दूसरे अपरिचित मनुष्यों को ठगते हैं । जब तक तुम लौटकर नहीं आजाआगे तब तक मेरा मन कहीं भी नहीं लगेगा। मैं प्रतिदिन तुम्हारी बाट देखू गा इसलिए शीघ्र ही पुन: लौट आने की चेष्टा करना ।' राउल ने कहा'ठीक है !' वह अपने प्रिय के विरह से अन्तीड़ा का अनुभव करता हुआ भी, ऊपर से योगी की तरह निर्ममत्व दिखाता हुआ, आगे बढ़ गया। दोनों बहुत दूर मार्ग तक आगए रत्नपाल का गला विरह की वेदना से रुद्ध हो गया।
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छैठा उच्छ्वास
उसने भीतर ही भीतर रोते हुए राउल का गाढ़ आलिंगन किया। और विरह व्यथित नेत्रों से उसे देखता हुआ लिखित चित्र की भांति वहां स्थिर हो गया। उसने राउल को त्वरित गति से जाते हुए देखा और क्षण भर के बाद राउल एक वृक्ष की ओट में अन्तर्धान हो गया।
रत्नपाल ने सोचा-'जिसकी मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी, वह कैसे घटित हआ ? ओह ! बालक होते हुए भी इसका सौजन्य कितना उत्तम है ? इसकी कैसी अद्भुत निर्भयता है ? इसकी बुद्धि की स्फुरणा और परोपकारनिष्ठा कैसी है । ओह ! इसका उत्साह और महात्म्य अनन्य है । इसका स्वभाव मधुर है और सदा मुस्कराता रहता है । ओह ! यह किसकी संतान है ? मानता हूँ कि यह बालकमुनि महान कुलीन है। मुझे धिक्कार है, मुझे धिक्कार है ! इस प्रकार के सुखोचित और सुकुमार शरीर वाला यह मेरे लिए गांव-गांव में भटकेगा, जो कुछ मिलेगा उसे खाएगा, जहां कहीं स्थान मिलने पर विश्राम करेगा, उसी काम में वह तन्मय होकर अनेक कष्टों को सहन करेगा । अज्ञानी व्यक्तियों द्वारा तिरस्कृत होने पर भी समभाव से भावित होगा।' इस प्रकार अनेक विकल्प करता हुआ, चिता करता हुआ, संमूढ हृदय से रत्नपाल घर आया । प्रत्येक कार्य में तथा भोजन के सयय में राउल का प्रतिपल स्मरण करता हुआ रत्नपाल एक-एक दिन को अंगुली के पैरवों पर गिनता हुआ ज्यों-त्यों समय बिताने लगा।
इधर राउल तेज गति से मार्ग चला जा रहा था। बीच में जो भी गांव, नगर, खेट आदि आते, वह वहां सूक्ष्मरूप से खोज करता, लोगों से पूछता, तर्क करता और रत्नपाल के माता-पिता के नाम बताता, उनका संकेत देता । कुछ भी संकेत न मिलने पर आगे बढ़ जाता । आलस्य से वह कहीं भी समय को व्यर्थ नहीं गवांता था, न विश्राम करता और न निश्चिन्तता से सोता ही था। वह अपरिचित गांवों और नगरों में एकान्त में बैठकर वीणा बजाता हुआ कर्ण के लिए अमृत तुल्य और मधुर वैराग्यमय गीतों से जनता को आकृष्ट करता था। उस बालयोगी की अद्भुत रूप संपदा को देखकर जनता सम्मोहित हो जाती और अनेक वस्तुओं का दान कर उसे सम्मानित करती, उसका सत्कार करती और घर पर आने के लिए निमंत्रित करती। किन्तु राउल के मन में कोई पिपासा नहीं थी। वह कुछ भी स्वीकार नहीं करता । वह भिक्षाचर्या से आटा दाल आदि द्रव्य लाता और अपने हाथों से रसोई बनाकर एक बार भोजन करता था। फिर जब लोगों से परिचय हो
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६४
रयणवाल कहा
के
जाता तब जिनदत्त के रहने जाने-आने के सम्बन्ध में पूछताछ करता । कुछ भी समाचार न मिलने पर अकस्मात् वह वहां से चल पड़ता । नागरिक वहां रहने का बहुत अनुरोध करते परन्तु 'बहुत रह चुका बहुत रह चुका' - ऐसा कहकर वह वहां से प्रस्थान कर देता। इस प्रकार बहुत वह लम्बे मार्ग को तय कर गया । उसने अपने मार्ग में आए हुए अनेक नगर और वन देखे । अनेक मठ, आश्रम, और सीमावर्ती गांवों में गवेषणा की। परन्तु जिनदत्त का नाम भी कहीं नहीं सुना । कोई समाचार नहीं मिले, संकेत भी नहीं मिला । तो भी राउल अखिन्नभाव से दक्षिण दिशा की ओर आगे बढ़ा जा रहा था । उसकी दृष्टि लक्ष्य पर लगी हुई थी । जो व्यक्ति असफलता को सफलता का उपादान कारण मानते हैं उन उद्यमी व्यक्तियों के लिए अप्राप्य, अशक्य और दूर क्या है ? जहाँ चरणों पर चरण आगे बढ़े जाते हैं, क्या उनके लिए मंजिल दूर है ? अनेक दिनों के बाद राउल जहाँ जिनदत्त रहता था उस बसन्तपुर नगर में आया। उस नगर कई लोग रास्ते में उसके साथ थे। उन्होंने उसे बताया कि जिनदत्त नाम का एक वृद्ध कठियारा अपनी पत्नी के साथ यहाँ गांव के बाहिर एक झोंपड़ी में रहता है । अपने ससुर का चिर चिन्तित और कर्णप्रिय नाम सुनकर हर्षातिरेक से राउल रोमांचित हो उठा । मनोरथ रूपी बादलों से सिंचित उसकी आशा वल्ली विकसित हो गई । उसने सोचा- वह मेरा ससुर सौम्य जिनदत्त और भद्र स्वभाव वाली मेरी सास भानुमती ! धन्य हूँ मैं कि आज मुझे उनके चिर दुर्लभ दर्शन प्राप्त होंगे। मैं उनको प्रिय पुत्र के अलब्धपूर्वं सुख समाचार सुनाकर उनके मन को सन्तुष्ट करूँगा । ओह ! वह आनन्दमय समय कैसा होगा ?' ऐसा सोचता हुआ राउल नगर के समीप आया । उसने झोंपड़ी देखी। जिनदत्त काठ का भार लाने वन में गया हुआ था । भानुमती झोंपड़ी में कार्यरत थी । तत्काल वह राउल, हाथ में वीणा लिए, हँसता हुआ वहां आ पहुँचा । झोंपड़ी के सामने उसने समतल, गोबर से लिपी पवित्र वेदिका देखी। चारों ओर का वातावरण प्रसन्न था । वह राउल उस वेदिका पर जा बैठा और अनजान की भांति आंखें मूदकर वीणा बजाने लगा । कानों के लिए अमृत तुल्य वीणा के मधुर स्वरों को सुनकर भानुमती ने सोचा 'यह कौन गा रहा है ? गर्दन को कुछ ऊँची कर उसने बाहर झांका उसने वीणा के साथ भक्ति रस में लीन एक बालयोगी को देखा । भानुमती ने सोचा- 'अहो ! आज हमारा दिन धन्य है कि बिना बुलाए, अचिन्तित रूप से इस बाल मुनि ने अज्ञात दर्शन देने के लिए यहां पदार्पण किया है । निश्चित ही आज कुछ महान शुभ कार्य होगा |
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छठा उच्छ्वास
योगीजन बड़े या छोटे-सब पर समान दृष्टि वाले होते हैं । उनके मन में कहां जाना चाहिए, कहां नहीं, कहां रहना चाहिए, कहां नहीं इस प्रकार के विकल्प नहीं उठते अत: मैं इस बालमुनि को भिक्षा के लिए निमंत्रित करूं'-ऐसा सोचकर यह राउल के भोजन योग्य कुछ पदार्थ लेकर उसके पास गई और विनय से प्रणाम करती हुई बोली --- 'बालयोगीश्वर ! आपने बड़ी कृपा की। हम जैसे मन्दभाग्य आपके पवित्र दर्शनों से कृतकृत्य हुए हैं। यद्यपि आपका स्वागत करने योग्य कोई विशिष्ट वस्तु नहीं है, तो भी मुनियों के लिए भक्ति ही विशिष्ट वस्तु है'--यह सोचकर मैं कुछ रूखी-सूखी वस्तु लाई हूँ, आप कृपा कर उसे ग्रहण करें। मुने ! यदि हम पुरिमतालपुर में होते तो आपकी असाधारण भक्ति-शुश्रुषा करते । परन्तु क्या, अभी जो है' - इस प्रकार कहती हुई भानुमतो की आँखें डबडबा आई, और अपनी गीली आँखें पोंछती हुई मौन हो गई।
प्रेम की पिंडलिका, वात्सल्य की पंक्ति, सरलता की प्रतिमूर्ति, कृपा की पात्र और प्रकृति से सौम्य सास भानुमती को राउल ने देखा । राउल ने उसे देखकर अनुभव किया कि वह पुत्र के वियोग से कृश होने पर भी कर्तव्य के पालन में पुष्ट, दारिद्रय रूपी दावानल से दग्ध होने पर भी भावना से दान देने में उत्सुक, स्वभाव से मधुर और मिष्ठ है। उसने सोचा-'ओह ! धन चला गया परन्तु दानशीलता नहीं गई, मानवता नष्ट नहीं हुई। धूल से मटमैला हो जाने पर भी क्या रत्न की महामूल्यवत्ता कम होती है ? भूमि पर गिरजाने पर क्या मेघ का पानी कडुवा हो जाता है ? पत्र, पुष्प फल से विहीन होकर भी क्या आम नीम हो जाता है ? निश्चित ही यह गुणरूपी रत्नों की खान है, इसलिए यहां रत्न उत्पन्न हुआ है । निश्चित ही अग्नि से तप कर सोना दीप्त होता है । घिसे जाने पर ही चन्दन की महक फूटती है।' इस प्रकार सोचता हुआ राउल पहले की तरह वीणा बजाता हुआ मौन हो गया। __प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा करते हुए भानुमती ने पूछा - 'आप जबाब क्यों नहीं दे रहे हैं ? आप इस भक्ति भरी भिक्षा को क्यों नहीं ले रहे हैं ? यह भिक्षा सुखी होने पर भी प्रेम से स्निग्ध है, निकृष्ट होने पर भी भक्ति विशिष्ट होने से मिष्ट है।
माता जी ! भिक्षा अभी मुझे नहीं चाहिए। तुम्हारी असाधारण भक्ति को देखकर मुझे वह अवश्य ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु प्रभु की भक्ति के रसपान से मेरा मन तृप्त है, थोड़ी भी भूख प्यास नहीं है । मुनियों के लिए
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६६
रयणवाल कहीं
भोजन की क्या चिन्ता है ? जहां वे जाते हैं वहां अनेक दाता भिक्षा लिए उनकी प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं। मां, मैं कुछ समय पूर्व ही पुरिमतालपुर से प्रस्थान कर अनेक गांव, नगर, पुर और पत्तनों में घूमता हुआ यहां आया
| सुन्दर स्थान देखकर मैं तुम्हारी झोंपड़ी की वेदिका पर विश्राम करने बैठा हूँ । प्रभु के गुणगान से मुझे आध्यात्मिक विश्रान्ति प्राप्त हुई है । तेरे भक्ति भरे निमंत्रण से बहुत संतुष्ट हुआ हूँ- राउल ने निरपेक्ष भाव से कहा ।
2
पुरिमताल का नाम सुनकर भानुमती का हृदय किसी अचिन्त्य आशा की रेखा से स्पृष्ट हुआ । उसने तत्क्षण पूछा - 'क्या आप पुरिमताल से आए हैं ?
राउल ने कहा- 'हां वहीं से ।'
भानुमती ने उत्सुकता से पूछा- 'क्या आप वहां के विशिष्ट व्यक्तियों को जानते हैं ?' .
राउल - 'क्यों नहीं, वहां मैं बहुत काल रह चुका हूँ अतः वहाँ के प्रमुख व्यक्तियों से परिचित हूँ ।'
भानुमती - 'तब तो आप मन्मन सेठ को अवश्य जानते होंगे ?"
राउल -- 'हां, वह नगरप्रसिद्ध धनाढ्य कृपण है । भानुमती का हृदय - कमल हर्ष से विकसित हो गया । उसने पूछा- क्या आप उसके पुत्र - स्थानीय रत्नपाल को जानते हैं ? नई भाव-भंगिमा दिखाते हुए राउल ने कहा'ओह ! आप उस रत्न को कैसे जानती हैं ? वही मेरा परम प्रिय अनन्य मित्र है। मां ! मैं उसके साथ छह महीने तक रहा हूँ ।'
--
अत्यन्त उत्सुकता से भानुमती ने पूछा- क्या यह सही है ? आप उसे जानते हैं ? इस प्रकार कहती हुई वह उसके पास आकर बैठ गई ।
राउल ने कहा- 'हमारे जैसे योगियों के लिए कौनसा रहस्य अज्ञात रहता है ? उसका सारा घटित घटनाचक्र मुझे ज्ञात है । वह मन्मन का पुत्र नहीं है, किन्तु वह सेठ जिनदत्त का कुलदीप और भानुमती का अंगज है । दुर्भाग्य से पीड़ित उसके माता-पिता सतावीस दिन का होने पर उसे मन्मन के घर धरोहर के रूप में रख कर किसी अज्ञात दिशा की ओर चले गए हैं ।' चिरकाल के बाद पुत्र के वृत्तान्त को सुनकर बहुत उत्सुकता से भानुमती ने पूछा- राउल, उसके आगे क्या हुआ ?
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छठा उच्छ्वास
६७
पुत्र की विरहाग्नि से तप्त माता के हृदय को पुत्र के कुशल क्षेम के समाचार रूपी जलधारा से शांत करते हुए राउल ने कहा - 'मन्मन ने रत्नपाल का पुत्र की तरह पालन किया और पढ़ाया। जब वह बारह वर्ष का हुआ तब अपने एक कर्जदार के मार्मिक शब्दों से आहत होता हुआ वह अपने वृत्तान्त से अवगत हुआ।
एकटक देखती हुई र्मा ने कहा - बाद में, बादमें क्या हुआ ?
राउल - जैसे सिंह के बच्चे की तरह वह अपने स्वरूप को जानकर तत्क्षण विदेश जाने के लिए तत्पर हो गया । मन्मन के बहुत अनुरोध करने पर भी वह नहीं रुका। अन्त में वह नौका को विक्रेय वस्तुओं से भरकर समुद्र यात्रा के लिए निकल पड़ा ।
( मन ही मन में ) ओह ! उस दूध मुहे बच्चे ने ऐसा साहस किया ? भानुमती का शरीर रोमांचित हो उठा। वह बोली- 'अच्छा, ऐसा दुष्कर कार्य उसने किया? उसके आगे भी कोई समाचार है ?
राउल - 'क्यों नहीं ? सुनो ! आज तक का वृत्तान्त | वह कालकूट नामक द्वीप में गया। पुष्पों के संयोग से राजा निरोग हो गया । माल के बिकने पर उसे अतुल लाभ हुआ । उसकी राजपुत्री रत्नवती से विवाह हुआ ।
आश्चर्य से भानुमती ने कहा - ' राउल क्या कह रहे हो ? क्या वह इतना भाग्यशाली है कि राजा का जमाई हो गया ?"
राउल - हां मां, यह सत्य है । वह महान् भाग्यवान प्रगट हुआ है । क्या तुम यह जनश्रुति नहीं जानती कि पुरुष का भाग्य कौन जान सकता है।
भानुमती की आंखें हर्ष से गीली हो गई । उसने पूछा- 'क्या वह वहीं रह रहा है या अपने नगर को लौट आया है ?
राउल - 'मां क्या पूछ रही हो ? वह माता-पिता के बिना वहां कैसे रह सकता है ? वह वहां से शीघ्र ही लौट कर सकुशल अपने नगर में आ गया उसने अपना सारा ऋण चुका डाला और तत्काल मन्मन के घर से निकला और पूर्ण ठाट-बाट के साथ अपने घर आ गया । अब वह प्रतिपल माता-पिता के दर्शनों के लिए उत्सुक है ।'
रोते-रोते भानुमती ने कहा- 'मैं ही पुत्र विरहिणी और अभागिनी भानुमती रत्नपाल की जननी हूँ । आज का दिन धन्य है कि मुझे प्रिय पुत्र के यथार्थ समाचार सुनने को मिले । योगीन्द्र ! मैंने पुत्र के वियोग में कौन-कौन
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६८
रणबाल कहाँ
से कष्ट नहीं सहे हैं ? हम भी अपने नगर जाने के लिए उत्सुक थे, किन्तु समाचार न मिलने पर कुछ सन्देह था । आज अनायास ही आपका यहां हुआ । पुत्र के समाचार प्राप्त हुए। अब हम वहां जाने की शीघ्रता करेंगे आगमन और पुत्र को उल्लास से देखेंगे ।
राउल ने वहां पड़े हुए एक काठ के टुकड़े को हाथ में लिया और चतुराई से उसे सूंघकर पूछा- 'मां यह क्या है ? यह क्या है ?
सरलता की प्रतिमूर्ति भानुमती ने कहा - 'यह कुछ नहीं है । काठ के भारे से गिरा हुआ एक टुकड़ा है । रत्नपाल के पिता जी प्रतिदिन जो सुखे काठ का भार लाते हैं, उसी का यह टुकड़ा है ।'
रहस्य को न जानने वाले की भांति राउल ने उस टुकड़े को झोली में डाल लिया और बोला- 'नगर में प्रतिदिन इस इन्धनभार को कौन लेता है ?"
भानुमती - 'नगर में महान् धनाढ्य धनदत्त नाम का एक स्नेही सेठ रहता है । वह प्रतिदिन एक ही मूल्य में उसे खरीद लेता है। कई वर्ष बीत गए। दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यकता ही नहीं हुई ।'
राउल - ( मन ही मन में) धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है उस धूर्तशिरोमणि को, जो काठ के मूल्य में चन्दन लेकर सरल जिनदत्त को ठगता है ।
इतने में काठ का भारा बेचकर जिनदत्त भी वहां आ गया। हँसती हुई भानुमती दौड़कर अपने पति के सम्मुख गई और राउल द्वारा कथित प्रिय पुत्र का वृत्तान्त कह सुनाया । जिनदत्त का हृदय हर्ष विभोर हो उठा और वह विस्तार से पुत्र का वृत्तान्त सुनने के लिए राउल के पास आ बैठा । सारे समाचार पूछे। प्रश्नों के साथ-साथ धीरे-धीरे उसने प्रियपुत्र के समाचार कह डाले । जिनदत्त का हृदय पुत्र को देखने के लिए उत्सुक हो उठा। उसे अनुपम आनन्द की अनुभूति हुई ।
उपेक्षित भाव से राउल ने कहा - 'थोड़े दिनों के बाद ही मैं पुनः पुरिमताल जाने का इच्छुक हूँ । आपका गमन मेरे साथ ही हो जाएगा ।'
जिनदत्त ने कहा- 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा । साथ ही जाएंगे।' आपके साथ हम बहुत आनन्द का अनुभव करेंगे ।
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छठा उच्छ्वास
जिनदत्त ने राउल को भिक्षा लेने के लिए बहुत निमंत्रण किया परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया। वहां से उठकर जाते हुए उसने कहा--'सायं या प्रातःकाल मैं यहां पुनः आऊँगा। वहां से चन्दन को ठगने वाले धनदत्त को ढूढ़ने के लिए नगर में गया। वह एक चौराहे पर बैठा और इतने मधुर स्वरों से वीणा बजाई कि नगरवासी लोग स्वयं आकृष्ट हुए और मग-समूह की भांति नाद से मोहित होकर बहुत सारे लोग राउल के चारों ओर एकत्रित हो गए । उन्होंने उसे अनेक चीजें स्वीकार करने के लिए कहा, किन्तु राउल ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया । अपनी निस्पृहता के कारण उसने जनता के मन में बहुत बड़ा स्थान पा लिया । वह अपने हाथ से सात्विक भोजन बनाता और उसी में संतुष्ट रहता । जहां कहीं एकान्त में रात बिताता और चतुराई से धूर्त धनदत्त के घर से परिचित हो गया। ___इधर भवितव्यतावश राजा के शरीर में दाघज्वर का रोग उत्पन्न हो गया । किए गए सारे उपाय निष्फल हुए । वेदना से पीडित राजा बहुत पीड़ा का अनुभव कर रहा था। तब एक श्रद्धालु व्यक्ति ने राजा से निवेदन किया--'आप ऐसी वेदना का अनुभव क्यों कर रहे हैं ? यहां एक योगी आया है । उसका नाम राउल है । वह यंत्र, मंत्र, तंत्र और औषधियों में निपुण है । उसके आशीर्वाद से आपका रोग मिट जाएगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसलिए उसे यहां निमंत्रित करना चाहिए। वह कृपालु है, अवश्य कृपा करेगा । उसी समय दुःखी राजा ने मंत्री के साथ ससम्मान यह प्रार्थना भेजी कि योगिराज दर्शन देने के लिए राजमन्दिर में आयें। राउल ने कहा'क्या हानि है ? राजा को मैं अवश्य दर्शन दूंगा। प्रभु की कृपा से सब ठीक होगा।' इतना कहकर तत्काल वह वहां से उठा और लोगों से घिर। हुआ वह अपने लय में लीन, होठों से उपांशु जाप करता हुआ राजमहल में आ पहुंचा । राजा ने योगी को सविनय प्रणाम किया और आसन दिया। राजा ने कहा'योगीश्वर ! आपके दर्शन से आज मैं कृतार्थ हुआ है। दाघज्वर की तीव्र अनुभूति हो रही है । चिकित्सा करते-करते सभी चिकित्सक हार गए । अब मैं आपकी शरण में हूँ। अनुगृह करें ।'
योगिराज राउल ने प्रसन्नता से कहा-'राजन्! सब कुछ कल्याण करने में ईश्वर समर्थ है जिसके स्मरण मात्र से आन्तरिक रोग भी नष्ट हो जाते हैं, वहां बाहरी रोगों की बात ही क्या है ? मनुष्य अपने ही अज्ञान से रोगी होता है । प्राकृतिक नियनों का खण्डन करना ही रोगों को आमंत्रण देना है। वास्तव में इन्द्रियों की आसक्ति ही अनेक रोगों की जननी है। यदि वह आसक्ति
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रयणवाल कहा
मिट जाए तो आरोग्य संपत् स्वतः प्राप्त हो जाती है। इतना कहकर राउल ने राजा की धमनी का निरीक्षण किया और रोग का निदान कर लिया। कुछ सोचकर उसने कहा---'सही निदान करने वाले वैद्य के लिए रोग को शांत करने में गौशीर्ष चन्दन की आवश्यकता है, यदि वह प्राप्त हो जाय तो रोग तत्काल शान्त हो सकता है।'
शीघ्र ही राजा के नौकर चन्दन की खोज करने नगर में गए और चन्दन के सभी व्यापारियों से पूछा, किन्तु गोशीर्ष चन्दन का एक भी टुकड़ा नहीं मिला। सभी गवेषक उदास होकर लौट आए। उहोंने कहा-'यहां कोई भी व्यक्ति गोशीर्ष चन्दन को न जानता है, न पहचानता है और न उसे रखता है। यदि कोई दूसरे सामान्य जाति के चन्दन की आवश्यकता हो तो यहां सुलभ है।' नृप हताश हो गया। उसने कहा---'अरे ! यहाँ गोशीर्ष चन्दन नहीं मिला? हा! हा! भावी की रेखा अनुल्लंघनीय होती है। योगीश्वर ! अब आप ही मेरे पारणदाता हैं। योगी ने कहा - 'महाराज ! ईश्वर के साम्राज्य में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो न मिले ? मनुष्य की अयोग्यता ही मनुष्य की असफलता है। क्या नगर में गोशीर्ष चन्दन नहीं मिलता ? आज ही मिलता है, अभी मिलता है, यहीं मिलता है'-ऐसे कहते हुए-उसने तत्काल अपना हाथ झोले में डाला और दोनों आँखें मूद कर जोर से बोला- 'गोशीर्ष चन्दन जल्दी भाओ, गोशीर्ष चन्दन जल्दी आओ। प्रभु की आज्ञा है, गुरु की आज्ञा है, योगी राउल की आज्ञा है । गोशीर्ष चन्दन जल्दी आओ।' इतना कहकर उसने गोशीर्ष चन्दन के टुकड़े सहित अपना हाथ झोली से निकाला। राजा आदि सभी चकित रह गए।
ओह ! योगी की शक्ति अचिन्तनीय है । अकस्मात् झोलिका में यह गोशीर्ष चंदन कहां से आया ? निश्चित ही मेरा यह दाधज्वर शोघ्र ही नष्ट हो जाएगा।' राउल ने अपने हाथ से चन्दन घिसा और कुछ मंत्राक्षरों का उच्चारण करते हुए उसने राजा के शरीर पर उसका लेप किया। लेप होते ही सारे शरीर में अनुपम शीतलता छा गई। दाघज्वर नष्ट हो गया। राजा स्वस्थ हुआ। उसने नया जीवन पाया। राजा राउल के चरणों में गिर पड़ा और कृतज्ञतापूर्वक बोला-अहो ! निष्कारण उपकारो ऐसे होते हैं ! मुनियों में आज भी वर्णनातीत शक्ति विद्यमान है। इसीलिए लोग उनकी सभक्ति पूजा करते हैं और लोग उनका सत्कार तथा सम्मान करते हैं। निस्पृह ! किस प्रत्यूपकार के द्वारा में अपने आपको हल्का करू ? यह सत्य है कि लोकोत्तर चरित्र वाले व्यक्तियों को इस लोक में कुछ भी नहीं चाहिए तथापि आप
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छठा उच्छ्वास
मेरे पर कृपाकर कुछ ग्रहण करें। क्योंकि वास्तव में महान व्यक्तियों को दिया गया दान, खेतों में बीज की भांति, शत-सहस्र गुणित-फलित होता है । मुनियों को दान देने वाले दाता स्वयं अनुगृहीत होते हैं। इसलिए आप करुणा कर कुछ लेने की कृपा करें।
राजा के विनय पर ध्यान न देते हुए राउल ने उपदेश की भाषा में कहा-'राजन् ! मुनियों को क्या चाहिए ? जिनकी निराशा ही आशा है और अकिंचनता ही धन है। अहो ! याचनाशील योगी भी जगत् में क्या मांगे ? उसे अन्न और पानी भिक्षा से प्राप्त हो जाते हैं। उनका शयन स्थान भूमि है । उनका मकान वृक्ष का मूल है । उनके परिजन सारे मनुष्य हैं । उपवास उनके चिकित्सक हैं। राजन् ! थोड़े से त्याग से भी बहुत प्राप्त होता है। योगी आशा रूपी एक जाल को तोड़कर तीन लोकों की समद्धि को पा लेता है। क्या यह अतिलाभ का व्यापार नहीं है ? तो भी तुम्हारी भक्ति पूर्ण प्रार्थना को अपने खजाने में जमा रखता हूं। जब आवश्यकता होगी तब तुमसे कुछ माँगूगा।" इतना कहकर राउल वहां से उठ खड़ा हुआ । राउल की निस्पृह वृत्ति को देखकर सभी विस्मित हुए। सारे नगर में यह आश्चर्य चर्चा फैल गई कि-'राउल विचित्र शक्तियों से संपन्न है।' इसने क्षण भर में राजा की तीव्र वेदना को नष्ट कर दिया। अब राउल का माहात्म्य सर्व विदित हो गया। ____ एकबार संध्या की बेला में अकेला राउल धनदत्त के घर के सामने आया
और धीरे-धीरे वीणा बजाने लगा। संध्या की बेला में वीणा की ध्वनि सुन कर आंखों के आगे राउल को खड़े देखकर धनदत्त जी भार्या भयभीत होगई। वह कांपती हुई तत्काल बाहर आई और राउल से बोली- 'राउल ! तुम यहां विकाल बेला में क्यों आए ? जो चाहे वह ले लो और यहां से आगे अन्यत्र चले जाओ। तुम राजा के द्वारा सम्मानित और पूजित हो । मैं अबला स्त्री अभी अकेली हूँ। तुम्हारा यहां ठहरना बिल्कुल उचित नहीं है। जब इस बालक के पिता घर पर आएं तब तुम यहाँ पुन: लौट आना। तब तुम्हारी उचित सेवा भक्ति हो सकेगी।'
अपने कार्य में दक्ष राउल ने गंभीर होकर कहा–बहिन ! अकेली स्त्री के घर पर आने का मेरा परम धर्म नहीं है, किन्तु भविष्य में होने वाले अशुभ की आशंका से तथा परोपकार-बुद्धि से मैंने यहां आने का साहस किया है । ओह ! बहुत अनिष्ट होने वाला है ।
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७२
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रयणवाल कहा
राउल के आकुल वचन सुनकर धनदत्त की पत्नी बहुत कांपने लगी । 'क्या - क्या' - ऐसे धीरे बोलती हुई राउल के पास आई और उसके मुंह के पास अपने कान लेजाकर बात जानने के लिए अत्यन्त आतुर हो गई ।
"यह सभी जानते ही हैं कि राजा का शरीर दाहज्वर से पीड़ित था । उसने गोशीर्ष चन्दन को पाने के लिए बहुत खोज कराई। किन्तु उसका एक टुकड़ा भी नहीं मिला। देख मैंने उस क्षति की पूर्ति की है। नृप स्वस्थ हुआ । उस समय में एक चुगलखोर ने राजा को यह सूचना दी कि - स्वामिन् ! धनदत्त सेठ के पास गोशीर्ष चन्दन प्रचुर मात्रा में है । तो भी उस लोभी सेठ ने राजा के प्रयोजन के लिये भी चन्दन का एक टुकड़ा नहीं
I
यह सुनकर राजा
कल में वह सारा
धन प्राप्त हुआ है
दिया | वह कितना स्वार्थ और परमार्थ से विकल है ।' अत्यन्त क्रुद्ध हो गया । मैं संभावना करता हूँ कि आज चन्दन ले लेगा और इससे पूर्व चन्दन के विक्रय से जो उसे भी ले लेगा। यही नहीं, दंड रूप में वह और अधिक क्या अहित करेगा - यह विचारणीय रहस्य है । खेद ! खेद ! उस चुगलखोर ने सारा काम खराब कर डाला' -- यही बात आप लोगों को कहने के लिए आज मैं यहां आया हूँ । अब क्या करना है-इसका थोड़ा विचार करना चाहिए ।
इतना कहकर राउल वहां से चला गया। इस प्रकार राउल के कथन से भयत्रस्त होकर वह किंकर्त्तव्यमूढ, पागल की तरह बेचैन होकर सोचने लगी - 'हा ! यह क्या हो गया ? कुपित राजा क्या अनर्थ कर डालेगा ? अरे ! अरे ! हमारे घर गोशीर्ष चन्दन की प्रचुर मात्रा है । मेरे लोभी पति ने राजा के प्रयोजन के लिए भी उसे क्यों नहीं दिया ? अब क्या होगा ? वह क्षणभर के लिए भी घर में रहने के लिए समर्थ न थी । वह दौड़ती हुई, बिखरे हुए कपड़ों और आभूषणों सहित एकाकी बाजार में अपने पति धनदत्त के पास आई | असमय में आई हुई उदासीन पत्नी को देखकर धूर्त धनदत्त को खेद और विस्मय हुआ । उसने सोचा- 'ओह ! घर की देहली का भी उल्लंघन न करने वाली यह बाजार में अकेली कैसे आ गई ? निश्चित ही कुछ अनिष्ट जान पड़ता है, अन्यथा यह ऐसे क्यों आती ? इस प्रकार सोचते हुए पति धनदत्त ने पूछा -- प्रिये ! तू यहाँ स्वयं कैसे आगई ? तेरे सामने अनेक नौकर चाकर हैं । आज उनको तूने मेरे पास क्यों नहीं भेजा ? तेरा मुख-कमल हिम से प्रताड़ित मृणाल की भांति क्यों विवर्ण हो रहा है । क्या तूने कोई अनिष्ट वृत्तान्त सुना है ?
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छठा उच्छ्वास
७३
दीर्घ निश्वास छोड़ती हुई पति को एक ओर लेजाकर टूटे-फूटे शब्दों में बोली- 'आर्य पुत्र ! आप शीघ्र ही घर चलें। अपने सिर पर विपत्ति की घटा नाच रही है दूसरों को ज्ञात न हो, गुप्त बात है। यहाँ मैं उसे प्रकट नहीं कर सकती। ___ सेठ का धैर्य विचलित हो गया, वह तत्क्षण अपनी पत्नी के साथ चल पड़ा । अनेक संकल्प-विकल्पों को संजोता हुआ, वह दौड़कर घर पहुंचा । पत्नी ने घर के द्वार दृढ़ता से बंद कर डाले और राउल द्वारा कथित बात कहते हुए बोली--- 'पतिदेव ! चन्दन अपने पास विद्यमान था। राजा के द्वारा मांगे जाने पर भी आपने उसे क्यों नहीं दिया? ऐसे समय में तो वह चीज स्वयं देने योग्य थी । यह सच है कि अति लोभ का सर्वत्र वर्जन करना चाहिए।
पत्नी के मुह से राउल द्वारा कथित सारी बात सुनकर वह सेठ अत्यन्त उत्रस्त हो गया। उसने सोचा - 'यदि प्रातःकाल होते ही राजपुरुष आकर घर की छानबीन करेंगे और प्रचुर चन्दन का खजाना देखेंगे तो मेरी क्या दुर्दशा होगी ? हाय ! अति लोभ ने सारा नाश कर डाला । मैंने व्यर्थ ही भद्र गरीब जिनदत्त को धोखा दिया । व्यर्थ में संपादित धन व्यर्थ ही चला जाएगा और वह भी मेरी सारी संपत्ति के साथ । ओह ! समय थोड़ा है। मुझे अब क्या करना चाहिए ? ___अन्त में दोनों भयभीत पति-पत्नी ने रात में अपने हाथों से सारा बहमूल्य चन्दन लेकर घर के पीछे एकान्त स्थान में गहित वस्तु की तरह फेंक दिया। उसका मन प्रचण्ड भय से खण्डित हो चुका था। उसने चन्दन का एक भी टुकड़ा घर में नहीं रखा और भय से त्रस्त होकर उसने अतीत में उस चन्दन के बेचने से जो धन प्राप्त हुआ था, उसे भी वहीं फेंक दिया। जहां चन्दन पड़ा था, उस स्थान को गोबर से लीप दिया ताकि गोशीर्ष चन्दन की तनिक भी सुगन्ध न आए। पश्चात् धनदत्त पश्चिम रात्रि में, घर के द्वार बन्द कर अपनी पत्नी को साथ ले उद्विग्न होता हुआ अन्यत्र दौड़ गया। कपट कला की परिणति विचित्र होती है । इसलिए नीतिकारों ने यह ठीक ही कहा है कि 'माया भय है।' ___ सूर्योदय से पूर्व राउल वहां गुप्त रूप से आया। चारों ओर घूमते हुए उसने घर के पीछे फेंकी हुई चन्दन राशि को देखा और बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-'ओह ! मेरी माया सफल हुई। कांटे से कांटा निकल गया । पापी को उचित प्रतिफल मिला। उसने तत्काल सारा धन बटोकर छुपा लिया ।
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७४
रयणवाल कहां
पश्चात वह अवसर को पाकर राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका सम्मान किया और आसन दिया। राजा ने बहुत बहुत आग्रह पूर्वक पूछा--'आपको क्या चाहिए ?' राउल ने कहा-'राजन् ! मैं यहां से लौट जाना चाहता हूँ। ऐसे संकुल नगर में मुनियों का मन नहीं लगता। भावावेश से गृहस्थ लोग मुनियों को भी गृहस्थी के प्रपंच में घसीट लेते हैं । मुनियों के लिए संसर्ग का त्याग बहुत आवश्यक है। जैसे गृहस्थ मुनियों के संसर्ग से वैराग्य को प्राप्त करते हैं, वैसे ही मुनि गृहस्थों के अधिक संसर्ग से संयम में शिथिल हो जाते हैं। इसलिए मैंने यह निश्चय किया है कि घने जंगल के किसी एकान्त स्थान में मुनियों के निवास योग्य मठ की स्थापना करनी चाहिए । दानशील नागरिकों ने मठ के योग्य काठ दिया है और वह काठ एकत्रित पड़ा है । इसलिए उनको ले जाने के लिए गाड़ियां चाहिए । दूसरे नागरिक गाड़ियां देने के लिए अत्यंत आग्रह कर रहे हैं किन्तु मैं आपसे वचन बद्ध हूँ कि राजा से ही याचना करनी है' यही चिन्तन कर यहां आया हूँ।
राउल को जाने के लिए तत्पर देखकर राजा खिन्न हो गया । मेरा परम उपकारी जारहा है, यह उचित नहीं, यह सोचकर राजा ने कहा-योगीश्वर ! जाने की यह कैसी शीघ्रता ? आपको यहां आए थोड़े ही दिन हुए हैं । जो नि:संग हैं, उनको आसंग की कैसे शंका ? हमारे जैसे पापी और मन्दभाग्य व्यक्ति भी आपकी संगति से अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं, इसलिए मुनि जंगम तीर्थ होते हैं । गाड़ियों के लिए क्या मांगना ? आपको जितनी जितनी गाड़ियों की आवश्यकता हो ले जाइए। यह कौनसा बड़ा दान है ? आप कृपा कर दूसरी कोई चीज लें । अभी आपका जाना उचित नहीं है।' __राउल ने कहा-'मुनि इच्छा-प्रधान होते हैं। आग्रह-प्रधान नहीं । पवन का क्या आना और क्या जाना ? हमारे उपदेश का प्रतिपालन ही हमारे दर्शन हैं । बाद में भी क्या पुनः आने की संभावना नहीं है ? यह कहकर तत्काल राउल वहां से उठा, राजा को आशीर्वाद से संतुष्ट कर वहां से चल पड़ा। राजा ने उत्तम बैलों से युक्त अनेक शकट राउल को भेंट दिए । राउल ने नृप से शकट लेकर जहां चन्दन का ढेर था, वहां आ पहुंचा । गाड़ियों में गोशीर्ष चन्दन भरा और नगर से कुछ दूर जाकर उन सभी गाड़ियों को पुरिमताल के मार्ग पर लगा दिया। इस प्रकार सारा कार्य व्यवस्थित कर राउल जिनदत्त-भानुमती के पास आकर बोला---'मैं आज पुरिमतालपुर जा रहा हूँ । यहां रहते बहुत दिन बीत गए । आपकी क्या इच्छा है ?'
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छठा उच्छ्वास
७५
जिनदत्त ने तत्काल ही उत्तर देते हुए कहा-'जिस दिन से तुम्हारे मुख से पुत्र का मंगल संवाद सुना है, उसी दिन से पुत्र को देखने की प्रबल उत्कण्ठा उत्पन्न हो गई है । और उसके बिना कहीं भी चैन नहीं पड़ता रहा है । हम प्रतिपल तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, तुम्हारे साथ जाने के लिए हमने सारा सामान बांध रखा है, और सभी कार्य सम्पन्न कर लिए हैं।'
राउल ने कहा---'शीघ्रता करें। विरक्त चित्तवाले योगी किसकी प्रतीक्षा करते हैं ? मैं तो अभी जा रहा हूँ--यह कहकर राउल ने अपने पैर आगे बढ़ाए।
सेठ जिनदत्त ने अपने कन्धों पर भार उठाया। नमस्कार मंत्र स्मरण किया और राउल के पीछे-पोछे चलने लगा। भानुमती सेठ के पीछे चलने लगी। सभी शीघ्र ही गाड़ियों के पास आ गए। और शकट संचालित किये ।
राउल ने सहज भाव से कहा— 'सेठ ! आप यह व्यर्थ ही इतना भार क्यों ढो रहे हैं ? आप बूढ़े हैं। गाडियो में इस भार की क्या गणना है ? आप निःशंक रूप से यह भार गाड़ी में रखदें ।'
सरलमति सेठ ने कहा-'राउल ! यह भार दुर्वह नहीं है। यह मैं सुखपूर्वक ढो सकता हूँ।'
तो भी शकट का संयोग होने पर भार को ढोते जाना अच्छा नहीं है' --यह कहते हुए राउल ने सेठ के कंधों पर से अपने हाथ से भार की पोटली उतारी और गाड़ी में सुरक्षित रख दी।
भानुमती के हाथ में भी कोई हल्की वस्तु थी। आग्रह होने पर उसने भी उसको गाड़ी में रख दिया ।' थोड़ी दूर जाने पर राउल ने पुन: कहा- 'एक गाड़ी में खाली स्थान है । आप उसमें क्यों नहीं बैठ जाते ? बूढ़े व्यक्तियों के लिए पद यात्रा सुशक्य नहीं है, इसलिए कृपाकर आप बैठे।'
सेठ ने आभार प्रदर्शित करते हुए कहा-'योगीन्द्र ! आपकी सेवा से हम लज्जित हो रहे हैं । हम जैसे गृहस्थों का यह कर्तव्य है कि वे साधुओं की सेवा करें । वहां प्रत्युत हम आपकी सेवा ले रहे हैं । यह उचित नहीं है । इस लिए हम गाड़ी में नहीं बैठेगे।
सबसे पहला कार्य यह है कि आप जैसे वृद्ध व्यक्तियों की सेवा की जाए। हम जैसे बालकों की नहीं । आपको गाड़ी में बैठना ही पड़ेगा। नही, नहीं करते हुए भी राउल ने उनको पूर्ण आग्रह से छायायुक्त गाड़ी में बिठा दिया ।
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रयणवाल कहा
उन्होंने सोचा-'यह राउल कैसा महानुभाव है कि निष्कारण ही हम पर उपकार कर रहा है । यह गुरुजनों की तरह हमारी सेवा कैसे कर रहा है ? अथवा मनस्वी व्यक्तियों का यह प्रकृति सिद्ध स्वभाव है । आश्चर्य है नीर क्यों पिपासा शांत करता है ? अन्न क्यों भूख शांत करता है ? सूर्य क्यों प्रकाश फैलाता है ? चन्द्रमा क्यों शीतलता प्रदान करता है ? अर्थात् यह उनका प्रकृति-जन्य स्वभाव है ।'
उन्होंने राउल को गाड़ी पर चढ़ने का बहुत अनुरोध किया। तो भी वह गाड़ी पर नहीं बैठा । वह भिक्षाचर्या से स्वयं भोजन लाता अपने हाथ से पकाता और दोनों को पहले भोजन कराकर फिर स्वयं एकबार भोजन करता। इस प्रकार सुखपूर्वक रास्ता कटता गया और वे पुरिमताल की ओर शीघ्र गति से बढ़ने लगे । अहो ! कैसा पौरुष है !
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सातवां उच्छ्वास
रत्नपाल ने सोचा-'प्राय: छह महीने बीत चुके हैं। आज तक राउल क्यों नहीं आया ? क्या मेरे माता-पिता नहीं मिले ? क्या जाते-जाते वह कहीं रास्ते में भटक तो नहीं गया ? क्या वह किसी नगर की जनता की अत्यन्त भक्ति से मोहित होकर वहीं ठहर गया ? या वह कहीं प्राकृतिक शोभा से संपन्न किसी पहाड़ की गुफा में ध्यान करने लग गया ? हां ! जानते हुए भी मैंने भूल कर डाली । मैंने अजान राउल को देशान्तर क्यों भेज दिया ?
नहीं, नहीं, वह अत्यन्त कार्य-कुशल, इंगित और आकार को जानने वाला समयज्ञ, उद्यमी, उत्साही, सत्यप्रतिज्ञ, योगी और महात्मा है। इसलिए मैं दक्षिणपथ की ओर जाऊं और आने वाले पथिकों की प्रतीक्षा करू । संभव है कि उनसे राउल के समाचार प्राप्त हो जाए।' ऐसा चिन्तन कर रत्नपाल अत्यन्त उत्सुकता से प्रतिदिन दक्षिण दिशा की ओर जाने लगा। वह राउल के मिलने की आशा से दूर से आने वाले पथिकों को देखता, प्रतीक्षा करता, और निरीक्षण करता। वह उस दिशा से आने वाले पथिकों को रोक-रोककर राउल की वेशभूषा, आकृति और वचन माधुर्य का वर्णन कर पूछता कि क्या किसी ने इस प्रकार के बालयोगी को देखा है ? वह उनसे
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७८
रयणवाल कहाँ
पुनः पुनः पूछता और उत्कंठा से तर्क-वितर्क करता था। परन्तु किसी ने भी यह नहीं बताया कि ऐसा कोई व्यक्ति उन्हें दीखा या मिला है। अन्त में हताश होकर वह घर आता और संकल्प-विकल्पों में रात बिताता था। उसे क्षण भर के लिए भी सुख नहीं मिलता था। ___ एक बार रत्नपाल अपने स्वप्न के संकेत से प्रातःकाल पुनः उसके आने के मार्ग को देखने गया। वह गिद्ध-दृष्टि से देख रहा था। उसने राउल जैसे एक किसी व्यक्ति को आते हुए देखा । ओह ! उसके हृदय में अभूतपूर्व सुखानुभूति हुई । बार-बार सूक्ष्मता से देखने पर उसने जान लिया कि यह राउल है, वही है, वही है, ऐसा कहता हुआ वह उस दिशा में भागा। अनुभूत विरह-वेदना को भूल कर स्वागतम्-स्वागतम्' ऐसा कहता हुआ वह उसके सम्मुख गया। दोनों परस्पर गले मिले । एक दूसरे के आसुओं से दोनों ने स्नान किया और परस्पर कुशल समाचारों से अवगत हुए । रत्नपाल ने पूछा-'मैं जिनकी प्रतीक्षा कर रहा था, वे मेरे माता-पिता कहां हैं ?' राउल ने कहा- 'वे नगर के समीप वाले उद्यान में बैठे हैं और तुझे देखने के लिए आतुर हो रहे हैं। अब तुझे शीघ्र ही वहां सपरिकर जाना चाहिए।' यह सुनकर रत्नपाल अत्यन्त उत्सुक हुआ । पश्चात् वे दोनों शीघ्र ही नगर में आ गए। नगर में जिनदत्त के आगमन का समाचार फैल गया। सारे कौटुम्बिक, मित्र, नगर के प्रमुख व्यक्ति, समानवय वाले व्यक्ति जिनदत्त की अगवानी करने के लिए रत्नपाल के साथ जाने को उत्सुक हो गए। राउल ने पहले जाकर, जिनदत्त और भानुमती को अच्छे सुन्दर कपड़े पहनाए और विभिन्न अलंकारों से अलंकृत कर उन्हें ऊंचे आसन पर बिठा दिया। सारी व्यवस्था अच्छी तरह हो गई। ___ इधर रत्नपाल माता-पिता को देखने बहुत आडम्बर के साथ निकला। जय-जयकार के नारे के साथ वहां पहुंचा। माता-पिता को देखते ही उसने हाथ जोड़ लिए। उसका रोम-रोम उल्लसित हो उठा। आंखें डब-डबा आई । वह उनके चरणों में गिर पड़ा। माता-पिता को बहुत आनन्द हआ। उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को बांह पकड़ कर ऊपर उठाया, छाती से लगाया, और उसके मस्तक को सूघा । पश्चात् उन्होंने स्नेह से कुशल पूछा । भानुमती की स्थिति अवक्तव्य थी। उसकी आंखों में प्रेम के आंसू थे और वह अनिमेष दृष्टि से अपने पुत्र को देख रही थी। उसने मन ही मन सोचा-आज मैं पुत्रवती, सौभाग्यवती, अत्यन्त पुण्यशालिनी और धन्य हुई हूँ । सारे कौटुम्बिक लोग मिले और सुख-दुःख की बातें करने लगे। नगर के संभ्रात व्यक्तियों ने
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सातवाँ उच्छ्वास
७६ सेठ जिनदत्त का सम्मान करते हुए कहा-'आपके बिना सारा स्थान शून्य सा लग रहा था।' सारे वातावरण में वर्णनातीत आनन्द व्याप्त था । अन्त में सभी व्यक्तियों के साथ जिनदत्त को नगर-प्रवेश यात्रा बहुत धूमधाम से निकली। एक खुले हुए यान में तीनों बैठ गए। सबसे आगे पुत्र बैठा था, उसके पीछे माता-पिता बैठे थे। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे । जय-जयकार के नारों से आकाश गूंज उठा। हजारों नागरिक साथ थे। जिनदत्त ने नगर में प्रवेश किया। वे सोलह वर्ष बाद सकुशल अपने घर लौट आए। सेठ के घर में अभूतपूर्व मेला लग गया। बहत आडम्बर से प्रीतिभोज संपन्न हुआ । पूर्व परिचित नौकर, दास, दासियां, गुमास्ते आदि स्वयं आकर मिले । सारा कार्य सुव्यवस्थित हो गया। जैसे निर्धन व्यक्ति धन को, अंधा व्यक्ति
आंख को और भूखा व्यक्ति भोजन को प्राप्त कर सुख का अनुभव करता है वैसे ही पुत्र को पाकर दोनों नितान्त सुखी हो गए। वे क्षणभर के लिए भी पुत्र को अलग करना नहीं चाहते थे। शयन, भोजन और पान आदि के विषय में माता भानुमती अपने युवा पुत्र को भी छोटे शिशु की भांति मानती
और उसी प्रकार उसके साथ व्यवहार करती थी। - इधर गोशीर्ष चन्दन को बेचकर राउल अतुल धन और मोती आदि लेकर आया। सेठ के समक्ष रत्नपाल की ओर देखते हुए राउल ने कहा'श्रेष्ठि नन्दन ! अपने पूज्य पिता द्वारा अजित यह अतुल धन लीजिए'ऐसे कहते हुए राउल ने उसके आगे सारा धन रख दिया। उसको देखकर आश्चर्य से हँसते हुए जिनदत्त ने कहा-'राउल ! यह धन राशि कहां से लाए ? कठिहारे का काम करने वाला मैं इतना धन कैसे संचित कर सकता था? व्यर्थ ही मेरी गौरवगाथा मत गाओ, मैं परदेश से कुछ भी नई वस्तु नहीं लाया हूँ।'
हंसते हुए उस राउल ने जोर से गर्जते हुए कहा-'यह सारा आपका है, दूसरे का कुछ भी नहीं है। मैं योगी हैं। मैं व्यर्थ ही प्रलाप नहीं करता। श्रेष्ठिप्रवर ! आपने बारह वर्ष तक जो सूखा काठ बेचा था, वह सारा गोशीर्ष चन्दन था । वह धूर्त सब जानता था, किन्तु उसने रहस्य प्रकट नहीं किया। मैंने वह जान लिया । पश्चात् किसी छल के द्वारा मैंने विक्रीत मूल्य के साथ सारा चन्दन वापिस ले लिया। इस प्रकार राउल ने सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से कह सुनाया। राउल विपुल बुद्धि-कौशल का धनी है'—यह देख सब विस्मित हो गए । ओह ! धन्य है राउल; यह कितना दक्ष है ! यह एक कार्य के साथ-साथ अनेक कार्य करता है । कैसे इसने ठगे हुए धन को पुनः ले लिया ?
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रयणवाल कहाँ
सभी के मुंह पर राउल का जय-सौरभ महकने लगा। इस प्रकार बढ़ते हुए धन में पुनः अधिक वृद्धि हुई। अत्यन्त आनन्द से इनके दिन क्षण की तरह बीतने लगे।
एक दिन रत्नपाल ने राउल से सखेद कहा---'राउल ! मैं चिन्ता के सागर में गिर पड़ा है। मुझे अपनी पत्नी को लाने के लिए ससुरालय अवश्य ही जाना चाहिए, परन्तु चिर-विरह से पीड़ित मेरे माता-पिता मुझे क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल करना नहीं चाहते ! दूध से जले जैसे छाछ को भी फूंक-फूक कर पीते हैं, उसी प्रकार मेरे विरहाग्नि से दग्ध मेरे मातापिता मेरे दूर जाने की बात भी नहीं सह सकते । 'मुझे अब क्या करना चाहिए ?'-यह महान् दुविधा में पड़ा मेरा मन नहीं जान सकता ।
प्रसन्न वदन राउल ने गंभीर होकर कहा-'क्या आपको अपने अनुभवी श्वसुर की शिक्षा याद नहीं है ? उन्होंने कहा था-प्रवास लम्बा है । पुनः यहां लौट आना दुर्लभ है। अपनी पत्नी को साथ में ही ले जाओ। उसे अकेली यहां मत छोड़ो, किन्तु आपने उनके आदेय वचनों की गुरुता नहीं जानी और न चिन्तन ही किया । अब चिन्ता करने से क्या होगा ? पत्नी को लाना आवश्यक है । यदि आप कहें तो मैं उसको लाने के लिए अकेला जाऊँ। दूसरा क्या उपाय हो सकता है ?' .
राउल की बात सुनकर रत्नपाल लज्जित हुआ और बोला-'राउल ! यह कैसे कह रहे हो ? जहां मुझे जाना चाहिए, वहां तुमको भेजना लज्जास्पद है। मैंने अपने श्वसुर के सम्मुख यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं शीघ्र ही अपनी सहचरी को लेने वापिस आऊँगा। अपने वचन का पालन करना सत्पुरुषों का कर्तव्य है । पुनः जिसका हाथ मैंने पकड़ा है, जो मेरी अर्धांगिनी बनी है और जिसका आधार एक मात्र मैं ही हूँ, उसके लिए मेरा वहां जाना समुचित है। माता-पिता से विनयपूर्वक आज्ञा-प्राप्त कर मैं शीघ्रातिशीघ्र जाने का इच्छुक हूँ। दूसरा कोई विकल्प नहीं है ।"
राउल के रूप में रत्नवती अपने पतिदेव की कर्तव्यपालन की तत्परता को देखकर बहुत आनन्दित हुई । 'मैं भी अब अपने मूल रूप में आजाऊँ-ऐसा उसने निश्चित किया और तत्काल वह स्नान घर में चली गई। उसने राउल का वेष उतार डाला। शरीर का उबटन कर साफ पानी से स्नान किया। और उस योगी द्वारा प्रदत्त जड़ी का प्रयोग किया । नरत्व विलीन होगया और नारी रूप प्रगट हो गया। उसने पेटी खोली, रेशमी कपड़े पहने और बहुमूल्य
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सातवां उच्छ्वास
आभूषण धारण किए। इस प्रकार उसने सोलह शृंगार किए और वह साक्षात् मनुष्य रूप में देवी की तरह दीखने लगी । जैसे बादलों से चन्द्र की रेखा प्रगट होती है, वैसे ही वह स्नानागार से सहसा घर के आंगन में प्रकट हुई। उस समय रत्नपाल ऊपर के कमरे में था। वह रत्नवती कलहँसी की भांति चरण न्यास करती हुई, सोपान मार्ग से शीघ्र ही ऊपर चली गई । जब वह लक्ष्मी की तरह विकसित मुखारविन्द वाली रत्नपाल को दीखी, तब वह अत्यन्त विस्मित हुआ । उसने पूछा-'अरे बिम्बोष्ठी ! तू कौन है ? सुतनु ! तू कहां से प्रकट हो गई ? मृगाक्षी ! मेरे से तेरा क्या प्रयोजन है ?' ___ मुस्कराहट से अपनी उज्ज्वल दंत-पंक्ति को दिखाती हुई वह रत्नवती पतिदेव के चरणों में गिर पड़ी । और बोली -"आर्यपुत्र ! आपने अपनी परिणेता को भी नहीं पहचाना ? मैं ही आपके साथ राउल रूप में आई हुई रत्नवती हूँ। क्या मैं वही नहीं हूँ जिसको आपने वहां देखा था ?" ___तू राउल के रूप में छिपी हुई रत्नवती है ? अहो ! मैंने यह कभी नहीं सोचा, पहचाना और चिन्तन किया कि ऐसे हो सकता है ?" क्षणभर के लिए रत्नपाल भी विस्मय से भर गया । "ओह ! तुम्हारे पिता ने कैसी कला रची है ? बिना कुछ परिचित कराए मेरे साथ उसने तुमको कैसे भेज दिया ? इसीलिए वह महानुभाव धूर्तों का आधिपत्य कर रहा है।" रत्नवती ने पतिदेव के चरण छुए। वह चन्द्रमुखी हर्ष से रोमांचित हो उठी। रत्नपाल ने उसे गोद में उठा लिया और अधरामत का पान करते हुए अपने पास बिठा लिया। रत्नवती अपने पति के मिलन से अवर्णनीय सुख का अनुभव करती हुई उपालंभ की भाषा में बोली- पतिदेव ! आपने मुझे अबला और निराधार को अकेली ही पिता के घर क्यों छोड़ दिया ? क्या आप नई वधू. जिसका पति प्रवासी हो चुका है की स्थिति नहीं जानते ? आपने मेरे साथ वहां कभी भी संलाप नहीं किया, मानो कि कोई संबंध हआ ही न हो। आपने न मुझे प्रेममय वचनों से पुष्ट ही किया और न यथार्थ की जानकारी ही दी। अरे ! नीरस हृदय ! आपने मुझे यों ही छोड़ दिया ! क्या आर्यपुत्र का यह व्यवहार उचित था? क्या कोई भी बुद्धिमान ऐसे कृत्य का अनुमोदन करेगा ? मेरे पिता भी बहुत चिन्तित हुए किन्तु किसी महात्मा की कृपा से यह कार्य सम्पन्न हुआ । मैं यहां राउल के रूप में आई, माता-पिता की खोज में गई। प्रत्येक गांव और नगर में घूमते हुए मैंने क्या-क्या अनुभव नहीं किया ? सब कुछ मैंने अपना कर्त्तव्य समझकर किया है । आज मैं कृतकार्य होकर मूल रूप में आर्यपुत्र के सम्मुख उपस्थित हुई हूं।' इस प्रकार कहती हुई रत्नवती,
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रयणवाल कहां
चन्द्रमंडल को निहारती हुई चकोरी की भांति, प्रिय पति के मुख को देखती हुई आनन्द में लीन हो गई।
रत्नपाल ने कहा---'हां ! तुम सत्य कह रही हो, मैंने तुमको वहां रख कर भूल की है। अपरिपक्व बुद्धि के कारण क्या ऐसे परिणाम नहीं आते ? किन्तु तुम्हारे अनुभवी पिता के अनुग्रह से सब कुछ सुन्दर, समुचित और अच्छा हो गया। वहां जाना अभी संभव नहीं होता। मेरे माता-पिता की खोज में तुमने जो साहस दिखाया है, वह अबला के बल से अतिरिक्त है। उसके लिए जितने धन्यवाद दिए जाए, वे सभी थोड़े हैं। माता-पिता भी राउल के सेवा-भाव की प्रशंसा करते हैं'--'इस प्रकार बात-चीत करते हुए दोनों माता-पिता के दर्शन करने के लिए चल पड़े। ये दोनों प्रसन्न वदन से, जहां माता-पिता बैठे थे, वहां आए । रति के साथ कामदेव की तरह रत्नवती के साथ रत्नपाल को देखकर माता-पिता को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा"यह रूपवती स्त्री कौन है, जो तुम्हारे साथ सहसा अवतीर्ण हुई ? क्या कोई आराधिता देवी मनुष्य शरीर धारण कर प्रकट हुई है ? इसके साथ हमारा क्या संबंध है ?' इस प्रकार वे तर्क-वितर्क कर रहे थे । इतने में ही रत्नवती ने अपने सासु-श्वसुर के चरण छुए। हाथ जोड़कर वह बोली- 'मैं आपकी पुत्र-वधू आपके प्रिय पुत्र की पत्नी रत्नवती हूँ । विद्याबल से राउल के रूप में, मैं पति के साथ आई। मैं ही आपकी पुत्रवधू हूँ, दूसरी नहीं !' इस प्रकार कहकर वह सासु के चरणों में गिर पड़ी। यह जानकर भानुमती और जिनदत्त को आश्चर्य के साथ महान् आनन्द हुआ।
वधू के मस्तक पर हाथ रखती हुई सास बोली- 'यह राजकुमारी रत्नवती मेरी पुत्र वधू है ? जब यह राउल के रूप में प्रच्छन्न थी, हमने इसको पहचाना तक नहीं था । अबला होते हुए भी इसने असाधारण पौरुष प्रदर्शित किया है । इसकी समयज्ञता अद्भुत है। अनेक बार हमने यह सोचा था कि अपना निकट का सम्बन्धी न होते हुए भी, तथा बिना प्रार्थना किए यह हमारी इतनी सेवा, परिचर्या करता है, अनन्य भक्तिभाव से हमारा संरक्षण करता है, यह क्यों ? पुत्र-वधू ! तेरी बुद्धि और धैर्य की कितनी प्रशंसा करें । तूने हमको यहां लाने के लिए कितने कष्ट सहे और विपद रूपी नदियों को पार किया है ? ऐसी सेवापरायण वधू को पाकर हम धन्य हो गए।' इस प्रकार कहती हुई उसने स्नेह से पुत्रवधू की पीठ थपथपाई, मस्तक को सूघा, तू पुत्र-पौत्रवती हो, ऐसे शुभ आशीर्वाद से उसे बधाई दी। जब यह बात नगर में फैली,
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सातवां उच्छ्वास
८३
तब वधू को देखने के लिए सभी बन्धु-बांधव आश्चर्य से वहां आए । रत्नपाल के अनुरूप रत्नवती को देखकर सब आनन्दित हए । सेठ के परम सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए स्वजन अपने-अपने घर की ओर चले गए । रत्नवती ने अपने विनय, विवेक, चातुर्य और दक्षता से परिजनों तथा गुरुजनों को मंत्रमुग्ध, सम्मोहित, कीलित और वशीभूत कर लिया। पुत्र और पुत्रवधू के मधुर व्यवहार और कार्यों की निपुणता के कारण माता-पिता ने अपने आपको भार उतरे हुए भार-वाहक की भांति हल्का अनुभव किया। रत्नपाल भी रत्नवती के साथ पंचेन्द्रिय जन्य विषय-सूखों का अनुभव करता हुआ यथा समय धार्मिक और व्यावहारिक कार्यों में संलग्न सुख से समय व्यतीत करने लगा। ___ एक बार जिनदत ने पूर्व रात्रि और अपररात्रि में धर्म-जागरण करते हुए सोचा-'अहो ! मैंने एक ही जन्म में सुख-दुःख की विचित्र शृखला देखी है और उसका अनुभव भी किया है, तो भी मेरा मन विरक्त क्यों नहीं हुआ ? मैं इन्द्रिय-विषयों के भोग से पराङ मुख क्यों नहीं हुआ ? बन्धुजनों में मेरा स्नेह शिथिल क्यों नहीं हुआ ? धन आदि के प्रति त्याग की भावना क्यों नहीं बढ़ी ? हा ! हा ! जो क्षण बीत जाते हैं, वे पुनः लौटकर नहीं आते । जो यौवन लावण्य और शारीरिक बल क्षीण हो जाता है, वह पुन: प्राप्त नहीं होता । अरे ! तुच्छ जीवन के लिए ऐसी चिन्ता ? कितनी दौड़-धूप ! कितना छल-कपट ! क्या रंक की तरह राजा को भी यह सब नहीं छोड़ना पड़ता इसमें क्या शंका है ? मृत्यु का नियम सर्वसाधारण और निश्चित है । उसके आगे किसी का विनय या बल प्रयोग सफल नहीं होता । इसलिए मैं अपना हित का चिन्तन और आचरण क्यों नहीं करूँ ? अहो ! आयुष्य के मूल्यवान् तीन भाग बीत गए । अब जो कुछ बचा है उसमें मुझे आत्म-कल्याणकारी धर्म कार्य, भवांतर में हित, सुख और क्षेम के लिए करना चाहिए।' इस प्रकार भावना करता हुआ विरक्त हुआ, वैराग्य को प्राप्त हुआ और बन्धन को तोड़ने के लिए तत्पर हुआ। उसने भानुमती के समक्ष अपनी भावना रखी । भानुमती ने भी पति के इस शुभ कार्य का अनुमोदन किया । और पति का अनुगमन करने के लिए उत्सुक हुई। अपने पुत्र आदि बन्धुजनों की आज्ञा लेकर जिनदत्त अपनी पत्नी के साथ, धर्मघोष आचार्य के पास प्रबजित हो गया। वे दोनों अनेक प्रकार की घोर तपस्या से शरीर को तपाते हुए, स्वाध्याय ध्यान से आत्मा को भावित करते हुए, अन्त में संलेखना सहित अनशन कर कल्प विमानवासी देव हुए।
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EX
रयणवाल कहा
एक बार रत्नवती गर्भवती हुई। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। वह सुखपूर्वक बढ़ने लगा। उसे विद्या अध्ययन कराया, यथा समय उसका विवाह किया गया। वह विनीत, विवेकी और सभी कामों में कुशल था । वह गृहस्थाश्रम की धुरा को वहन करने में समर्थ हुआ ।
इधर चार ज्ञान के धनी महातपस्वी आचार्य अमितगति वहां आए । आचार्य के आगमन से नगरी बहुत संतुष्ट हुई । आचार्य को वंदन करने सेठ, गाथापति सेनापति, राजा आदि अनेक व्यक्ति गए। रत्नवती को साथ ले रत्नपाल भी दर्शन करने के लिए गया। आचार्य ने धर्म-देशना दी। मनुष्य जन्म-प्राप्ति की दुर्लभता बताई। उन्होंने कहा मनुष्य भव चार गतिमय संसार दुर्ग का द्वार है, जो इसको यों ही गंवा देते हैं वे नरक-निगोद आदि में पड कर, संसार चक्रवाल में भ्रमण कर, चौरासी लाख जीव-योनियों का पार कैसे पा सकते हैं ? मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर कोटि-कोटि सागर की है। उससे मूढ़ हुए प्राणी. प्रत्यक्ष स्वरूप को भी नहीं पहचान पाते । वे मद्यपान करने वाले व्यक्ति की तरह विवेक से विकल होकर जहां तहां भ्रमण करते हैं, घूमते हैं, गिर पड़ते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, प्रलाप करते हैं, गाते हैं, और बाबार म्लान होते हैं । सुख को प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति भी सुख कैसे पा सकते हैं, जब तक वे सुख की गवेषणा और मार्गणा पर-वस्तुओं में करते रहेंगे । आत्मा का स्वरूप है अनन्त सुख । पर वस्तुओं का संयोग ही दुःख, भ्रांति या भ्रमण का कारण है। इसलिए सबसे पहले यथार्थ ज्ञान करना चाहिए । ज्ञान रहित क्रिया अन्धे व्यक्ति के बाण की तरह निरर्थक है, वह अपने लक्ष्य को भेदने में सफल नहीं होती । ओह ! जो मुनि आत्म-वाटिका में रमण करते हैं वे किस प्रकार के आनन्द का अनुभव करते हैं ? अनुकूल और प्रतिकूल सूख और दुःख में समता का भाव रखते हुए वीतराग व्यक्ति कहीं भी खिन्न, क्लिष्ट, परितप्त, विमनस्क और दुर्मना नहीं होते । ओर ! ओह ! मुनियों के लिए सभी जगह आनन्द का समुद्र उद्वेलित रहता है । चारों ओर शान्ति की लहर फैली रहती है । भव्यो ! आत्मीय सुख के क्षण का एकबार अनुभव करो। जो एकबार इस स्वाद को पा लेता है, वह कभी इसे नहीं छोड़ सकता । यह मार्ग अनुभव-गम्य है ।
साक्षान् अमृतपान की तरह आचार्य के इन मधुर वचनों को सुनकर सारी परिषद् प्रफुल्लित हुई और उसका मानस अत्यन्त उद्बुद्ध हुआ। धर्मदेशना के पश्चात् रत्नपाल ने अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त पूछते हुए आचार्य श्री से
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सातवां उच्छ्वास
कहा---'प्रभो । मैंने ऐसा कौनसा पाप किया था कि जिससे मुझे सीलह वर्षों तक माता-पिता का वियोग सहना पड़ा और धन-नाश का सामना करना पड़ा ?' आचार्य ने ज्ञान बल से कहा- 'एकबार अज्ञान के वशीभूत होकर तेरी आत्मा ने अपनी माता द्वारा दिए गए सुपात्रदान की क्रोध के आवेश में गर्दा की और उन मुनियों की निन्दा की, उसका फल यहां भीषण रूप से तुमने भोगा है। पश्चात् तुम्हारी मां ने यथार्थज्ञान कराया और दान का महात्म्य बताया, तब तुमने उस सुपात्र दान की अनुमोदना की । धर्म के प्रति तुम्हारी रुचि उत्पन्न हुई । उसके प्रभाव से तुमने पुनः सब कुछ प्राप्त कर लिया। ___ अपने पूर्व वृत्तान्त को सुनकर-रत्नपाल और उसकी पत्नी रत्नवती को परम वैराग्य हुआ । रत्नपाल ने सोचा--'इस जाज्वल्यमान संसार से मेरी आत्मा को शीघ्र ही निकालू। बुद्धि का यही परम फल है कि मैं अपनी आत्मा का उद्धार करूं।' यह सोचकर रत्नपाल विरक्त होगया । उसने घर का सारा भार पूत्र को देकर स्वयं रत्नवती के साथ भगवती दीक्षा स्वीकार कर दीक्षित हो गया। उसने पवित्र क्रिया की, निर्मल ध्यान किया, उज्ज्वल स्वाध्याय किया, तीव्र तप तपा और अप्रमत्त विहार किया। अनेक वर्षों तक संयम पर्याय का पालन कर दोनों ब्रह्मदेव लोक में देवरूप में उत्पन्न हुए । वहाँ से च्युत होकर वे महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे तथा समस्त दुःखों का अन्त करेंगे।
रयणवाल कहा का हिन्दी-रूपान्तर
समाप्त
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काव्यकर्ता को प्रशस्ति
(१) इस (रत्नपाल की कथा) चरित्र को सुनकर जगत को विचित्रता,
लक्ष्मी की चंचलता एवं बंधुजनों के स्वार्थपरक प्रेम को समझना
चाहिए। (२) इससे भव्यजनों की भावना धर्म प्रवृत्ति में सुस्थिर होती है । धर्म
से ही सब सुखों की सुन्दर प्राप्ति होती है । (३) अधिक क्या, अध्यात्म-सुख का एकमात्र कारण, तीन लोक में
सारभूत धर्म ही है, भव्यों को धर्म की रादा आराधना करनी
चाहिए। (४) वर्तमान कलिकाल में समुद्र के समान धीर-गंभीर अखण्ड उज्ज्वल ___आचार से युक्त तेरापंथ के प्रथम आचार्य श्री भिक्षस्वामी हुए। (५) भिक्ष स्वामी ने संसार और मोक्ष का पृथक्-पृथक् मार्ग बताया।
दोनों कभी भी एक नहीं हो सकते । (६) राग पाप का कारण है और जीव दया (अहिंसा) धर्म का मूल
है । फिर वे दोनों साथ (एकत्र मिश्र) कैसे हो सकते हैं ? (७) श्रीभिक्षु स्वामी ने अनेक प्रकार के भयंकर कष्टों को सहन कर
धर्म की जागृति की । उस दृढ मनस्वी ने संकटों से घबराकर
अपना सत्य मार्ग नहीं छोड़ा। (८) उनके द्वितीय पट्टधर धीर श्री भारमलजी स्वामी, तृतीय
रायचन्द्र जी एवं चतुर्थ श्री जयाचार्य हुए। (९) विमल हृदय श्री मघवा गणी पांचवे पट्ट पर, श्री माणकचन्द्रजी
महाराज छठे एवं श्री डालचन्द्र जी महाराज सातवें पट्ट पर
सुशोभित हुए। (१०) मोक्ष मार्ग के पथिक महान् कृपापरायण श्री कालुगणी आठवें
पट्ट पर हुए। जिनके शासन में भिक्षुगण की अतुल वृद्धिसमृद्धि हुई।
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(११) जिनके अनुग्नह सुधा से सिंचित होकर मुझ जैसा मंदबुद्धि भी
साक्षर बन गया । अहो ! गुरु का माहात्म्य सचमुच अवर्णनीय है। (१२-१३) भिक्ष गण के नवम आसन पर, वर्तमान में महान् प्रभावी आचार्य
श्री तुलसी हैं। निरन्तर श्रमरत एवं धर्म प्रचार में दक्ष आचार्य श्री आज के युग के अनुकूल उपदेश देते हुए अणुव्रत आन्दोलन का प्रचार कर रहे हैं । आधुनिक लोग प्रायः उनसे परिचित हैं। प्रभाव से आकृष्ट होकर अनेक प्रकार के लोग आचार्य श्री से
वार्तालाप करने आते रहते हैं। (१४-१५) उन गुरु चरणों का अनुगामी मुनि श्री केवलचन्द्र जी का पुत्र,
श्रो धन मुनि एवं आर्या दीपां जी का लघुभ्राता, चन्दनमुनि ने (काव्यकर्ता) जो काव्य कल्पना का रसिक है, एकावनवें वर्ष में
प्राकृत भाषा का अध्ययन किया। (१६) बालकों के लिए भी सुग्राह्य, ऐसा अल्प समास वाला तथा मधुर
कथानक युक्त प्राकृत भाषा में प्रवेश के लिए इस गद्य काव्य की
रचना की। (१७) श्री मोहनविजय ने गुजराती भाषा को गीतिका में इस कथानक
का प्रणयन किया है । उसी से यह कथासूत्र साभार लिया गया है। (१८) मेरे इस प्रथम प्रयास में अनेक दोषों की संभावना हो सकती है।
आशा है विज्ञजन उनका विशोधन कर देंगे। (१६-२०) विक्रम संवत् २००२ में जयपुर में चतुर्मास किया। श्री लाल
मुनि एवं श्री मूल मुनि दोनों ही भक्तिभाव के साथ सेवा करते हैं। यहां एकदिन अचानक शिकारी कुत्तों के आक्रमण से हाथ जख्मी हो गया । पक्का पाटा बंधा । इस समय में इस काव्य की मैंने रचना की। यह कृति सबको कल्याणकारी हो।
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