Book Title: Ravindra Katha Kunj
Author(s): Nathuram Premi, Ramchandra Varma
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथा-कुञ्ज Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकरका ६० वाँ ग्रन्थ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज [ साहित्य-महारथी श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी नौ श्रेष्ठ कहानियाँ अनुवादकर्तानाथूराम प्रेमी और रामचन्द्र वर्मा । -2000 प्रकाशक हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक नाथूराम प्रेमी, मालिक, हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई द्वितीय संशोधित संस्करण मूल्य एक रुपया दो आने नवम्बर, १९३८ मुद्रकःरघुनाथ दिपाजी देसाई, न्यू भारत प्रिं. प्रेस, ६ केळेवाडी, मुं. ४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन लगभग छह वर्ष पहले मैंने रवि बाबूके पाँचों गल्प-गुच्छोंका आद्यन्त पाठ किया था। उस समय मुझे जो जो आख्यायिकायें बहुत ही अच्छी मालूम हुई थीं, जो बहुत ही भावपूर्ण, मार्मिक, और मनोमुग्धकर जान पड़ी थीं, उनपर मैंने निशान लगा दिये थे। इस कथाकुञ्जमें उन्हीं चुनी हुई कथाओं से नौ कथाओंका अनुवाद प्रकाशित किया जाता है । जहाँ तक मैं जानता हूँ, अभी तक ये कथायें हिन्दीमें प्रकाशित नहीं हुई हैं। ___ इनमें से प्रारम्भकी छह कथाओंका अनुवाद स्वयं मैंने किया है और शेष तीनका मेरे सहृदय और सुलेखक मित्र बाबू रामचन्द्र वर्माने । इस बातका पूरा पूरा प्रयत्न किया गया है कि अनुवाद मूलके सर्वथा अनुरूप हो और मूलके भाव अविकृत रूपमें प्रकाशित हों। ___ इन कथाओंका चुनाव एक विशेष दृष्टिसे किया गया है । सहृदय और काव्यमर्मज्ञ पाठक देखेंगे कि इसमेंकी प्रत्येक कथा एक एक छोटा-सा गद्य-काव्य है जो काव्यके उत्तमोत्तम गुणोंसे परिपूर्ण है। इन गद्य-काव्योंमें न उपमा उत्प्रेक्षादि अर्थालङ्कारोंकी कमी है और न शब्द-सौन्दर्यका ही अभाव है। शृङ्गार, हास्य, करुणादि रसोंका भी इनमें स्थान स्थानपर यथेष्ट परिपाक हुआ है। मुझे आशा है कि हिन्दी संसारमें इन कथाओंका अच्छा आदर होगा और इनमें साहित्यसेवी सुजनोंको अपनी प्रतिभा विकसित करनेके लिए यथेष्ट सामग्री मिलेगी। २०-१२ -१९२५ नाथूराम प्रेमी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय संस्करण कोई तेरह वर्षके बाद इस पुस्तकका दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है । ये कहानियाँ अब भी मुझे इतनी प्यारी लगती हैं कि विक्रीकी विशेष आशा न होनेपर भी में इनके प्रकाशनके लोभको संवरण न कर सका । १.-१.१-१.९३८ -प्रकाशक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-सूची पृष्ठसंख्या or १ जय-पराजय २ पड़ोसिन ३ राजतिलक ४ समाप्ति ५ जासूस ६ दुर्बुद्धि ७ अतिथि ८ अध्यापक ९ दृष्टिदान mr 9 " Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज जय और पराजय राजा उदयनारायणकी कन्या अपराजिताको उनके सभा-कवि शेखरने कभी अपनी आखोंसे नहीं देखा। किन्तु जब कभी वे किसी नवीन कान्यकी रचना करके सभासदों को सुनाते, तब इतनी ऊँची आवाजसे पढ़ते, कि वह रचना उस ऊँचे महलके ऊपर झरोंखोंमें बैठी हुई अदृश्य श्रोत्रियों के कानों तक पहुँचे बिना नहीं रहती। मानो वे किसी एक ऐसे अगम्य नक्षत्र-लोकके उद्देश्य से अपना संगीतोच्छ्वास प्रेरित करते, जहाँ तारागणों के बीच उनके जीवनका एक अपरिचित शुभग्रह अपनी अदृश्य महिमा विस्तृत करता हुआ सुशोभित था। कभी वे छायाके समान कुछ देखते, कभी बिछुअोंकी झन्कारके समान कुछ सुनते, और तब बैठे-बैठे मन ही मन सोचते कि वे दोनों चरण कैसे सुन्दर होंगे जिनमें वे सोनेके बिछुए बंधे हैं, और ताल देकर गाते हैं । वे दोनों लाल और शुभ्र कोमल चरण-तल प्रत्येक डग पर न जाने Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज कितने सौभाग्य, कितने अनुग्रह और कितनी करुणाके साथ पृथ्वीका स्पर्श करते हैं। मन में उन्हीं दोनों चरणों की प्रतिष्ठा करके कविवर शेखर ज्यों ही अवकाश पाते, त्यों ही उस जगह आकर लोट जाते और उन बिछुओंकी झन्कारके सुरमें अपना सुर बाँध देते । किन्तु उन्होंने जो छाया देखी, वह किसकी छाया है और किस के बिछुत्रोंकी झन्कार है, इस प्रकारका तर्क और संशय उनके भक्त हृदयमें कभी उठा ही नहीं। राजकन्याकी दासी मञ्जरो जब घाटपर जाती तब शेखरके घरके आगेसे जाती और आते-जाते समय कविके साथ उसकी दो-चार बातें हुए बिना न रहतीं । बल्कि सुबह-शाम जब कभी सूना पाती वह शेखरके घर भी जा बैठती । हम यह नहीं कह सकते कि वह जितने बार घाटपर जाती, उतने बार जानेकी उसे कोई खास आवश्यकता ही थी और यदि थी भी, तो भी इस बातका पता लगाना तो कठिन ही था कि घाटको जाते समय वह सजधजकर, रंगीन कपड़े पहनकर और कानों में दो आम्र-मुकुल धारण करके क्यों जाती थो! ___ लोग देखकर हँसते और कानाफूसी करते ; परन्तु इसपर उन्हें कोई दोष नहीं दिया जा सकता । मञ्जरीको देखते ही कविराज बहुत प्रसन्न हो उठते और उस प्रसन्नताको छिपानेका वे कोई प्रयत्न भी न करते। विचारपूर्वक देखा जाय तो साधारण लोगोंके लिए 'मञ्जरी', नाम ही यथेष्ट था , परन्तु शेखर अपने कवित्वका प्रयोग करके उसे 'वसन्तमञ्जरी' कहकर बुलाते और इससे लोगोंका सन्देह और भी बढ़ जाता । इसके सिवा कविके वसन्त-वर्णनमें जहाँ तहाँ-'मन्जुल वजुल मञ्जरी' इस तरहके अनुप्रास भी पाये जाते । आखिर यह बात राजाके कानों तक भी पहुंच गई। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय और पराजय ३ राजा साहब अपने कविके इस रसाधिक्यका परिचय पाकर बहुत ही खुश होते, और इस विषयको लेकर खूब हास परिहास करते । शेखरसे भी उसमें योग दिये बिना न रहा जाता । राजा हँसकर पूछते"भ्रमर क्या केवल वसन्तकी राज-सभामें गाया ही करता है ?" कविराज उत्तर देते, "नहीं, पुष्प-मञ्जरीका मधु भी चखा करता है।" इस तरह सभी हँसते और आनन्द लाभ करते। उधर अंतःपुरमें राजकन्या अपराजिता भी मञ्जरीके साथ छेड़छाड़ करती और उसकी दिल्लगी उड़ाती । परन्तु मञ्जरी भी उससे असन्तुष्ट न होती। मनुप्यका जीवन यों ही सत्यको मिथ्याके साथ मिलाकर किसी तरह कट जाता है। उसे कुछ विधाता गढ़ते हैं, कुछ मनुष्य पाप गढ़ लेता है और कुछ चार आदमी गढ़ देते हैं। गरज यह कि जीवन प्रकृत और अप्रकृत, काल्पनिक और वास्तविक आदि तरह तरहके मालमसालोंसे तैयार होता है। __ अवश्य ही कविराज जो गीत गाते वे सत्य और सम्पूर्ण होते । उनके विषय वही राधा और कृष्ण-वही चिरन्तन नर और चिरन्तन नारी ; वही अनादि दुःख और अनन्त सुख । उन्हीं गीतोंमें उनकी वास्तविक मर्म-कथा रहती, और उन्हींकी यथार्थता अमरापुरके राजाले लेकर दीन दुःखी प्रजा तक सभी अपने अपने हृदयमें जाँच करके देखते। उनके गाने सभीके मुंहपर चढ़े हुए थे। ज्यों ही चाँदनी खिलती और दक्षिणकी हवा बहने लगती, त्यों ही देशके चारों ओर न जाने कितने वनों, पथों, नौकाओं, झरोखों और आँगनों में उनके बनाये हुए गानोंका समा वध जाता। उनकी प्रसिद्धिकी कोई सीमा नहीं रही। इसी तरह बहुत समय बीत गया। कविराज कविता-रचना करते, राजा सुनते, राज-सभाके लोग 'वाह-वा' करते, मञ्जरी घाटपर आती Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज और अंतःपुरके झरोखेसे कभी कभी किसीकी छाया पाकर पड़ जाती । कभी कभी नूपुरोंकी झनकार भी कानों तक आ पहुँचती । इसी समय राजसभामें दक्षिण देशके एक दिग्विजयी कविका शुभागमन हुा । उसने आते ही शार्दूलविक्रीडित छन्दमें राजाका स्तव-गान किया। वह अपने मार्गके समस्त राजकवियोंको परास्त करता हुआ अन्तमें इस अमरापुरमें आकर उपस्थित हुआ था। राजाने बहुत ही आदरके साथ कहा-एहि एहि । कवि पुण्डरीकने दम्भके साथ कहा-युद्धं देहि । शेखर नहीं जानते थे कि काव्य-युद्ध कैसा होता है। परन्तु राजाकी बात तो टाली नहीं जा सकती-युद्ध किये बिना गुज़र नहीं। वे अन्यन्त चिन्तित और शंकित हो उठे, रातको नींद नहीं आई, उन्हें सब तरफ यशस्वी पुण्डरीकका दीर्घ बलिष्ठ शरीर, सुतीक्ष्ण वक्र-नासिका और दर्पोद्धत उन्नत मस्तक दिखाई देने लगा। __प्रातःकाल होते ही कम्पित-हृदय कविने रणक्षेत्रमें आकर प्रवेश किया। सभामण्डप लोगोंसे खचाखच भर गया, कलरवकी सीमा नहीं, नगरके सारे काम-काज बंद हो गये । ___ कवि शेखरका चेहरा उतरा हुआ था। उन्होंने बड़े कष्टसे प्रफुल्लताका आयोजन करके अपने प्रतिद्वंदी कवि पुण्डरीकको नमस्कार किया। पुण्डरीकने बड़ी लापरवाहीके साथ केवल इशारेसे नमस्कारका जवाब दिया और अपने अनुयायी भक्तवृन्दोंकी ओर देखकर हँस दिया । __शेखरने एक बार अन्तःपुरके झरोखोंकी ओर अपनी नजर दौड़ाई। देखा कि आज वहाँसे सैकड़ों कुतूहलपूर्ण काले नेत्रोंकी व्यय दृष्टियाँ इस जनतापर लगातार गिर रही हैं । उन्होंने अतिशय एकात्र Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय और पराजय होकर अपने चित्तको उस ऊद्धर्व लोककी ओर फेंका जो अपनी जयलक्ष्मीकी वन्दना करके लौट आया और तब मन ही मन कहा, “हे देवि, हे अपराजिते, यदि आज मेरी जय हुई तो तुम्हारा नाम सार्थक हो जायगा।" ___ तुरही और भेरी बज उठीं । सारी सभा जय ध्वनि करके उठ खड़ी हुई । सफेद वस्त्र पहने हुए राजा उदयनारायणने शरत्कालके प्रभातकी शुभ मेघ-राशिके समान धीरे धीरे सभामण्डपमें प्रवेश किया। उनके सिंहासनपर बैठते ही पुण्डरीक सम्मुख आकर खड़े हो गये । सभामें सन्नाटा छा गया ; विराट-मूर्ति पुण्डरीकने छाती फुलाकर और गर्दनको कुछ ऊपर उठा कर गम्भीर स्वरसे उदयनारायणका स्तव-पाठ करना शुरू किया । उनकी आवाज बहुत ही तेज थी । वह उस बड़े भारी सभा-मण्डपकी दीवारों, खम्भों, और छतोंपर समुद्र की तरंगों के समान गम्भीर गर्जनसे आघातप्रतिघात करने लगी और उसके वेगसे सारी जनताके वक्षकपाट थरथर काँपने लगे । उस रचनामें कितना कौशल, कितनी कारीगरी, उदयनारायणके नामकी कितनी तरहकी व्याख्याएँ, उनके नामके अक्षरोंका कितने प्रकारका विन्यास, कितने तरहके छन्द और कितने यमक तथा अनुप्रासोंकी भरमार थी, इसका वर्णन नहीं हो सकता। पुण्डरीक जब अपना गान समाप्त करके बैठ गये, तब कुछ देरके लिए वह निस्तब्ध सभा-गृह उनके कण्ठकी प्रतिध्वनि और हजारों हृदयोंके निर्वाक विस्मयसे भर गया। दूर दूरले आये हुए पण्डितगण अपने अपने दाहिने हाथ उठाकर उच्छ्वसित स्वरसे 'साधु साधु' कहने लगे। तब राजाने शेखरके मुंहकी ओर देखा। शेखर भी भक्ति, प्रणय, अभिमान और एक प्रकारको सकरण संकोचपूर्ण दृष्टि से राजाकी अोर देखकर धीरेसे उठ खड़े हुए। रामने जब लोक रंजनके लिए दूसरी बार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज अग्नि-परीक्षा करनी चाही थी, तब सीता इसी भावसे देखती हुई अपने स्वामीके सिंहासनके सम्मुख खड़ी हुई थी। कविकी दृष्टिने चुपचाप राजाको समझाया कि मैं तुम्हारा हूँ। यदि तुम मुझे विश्वके सामने खड़ा करके परीक्षा करना चाहते हो तो करो, किन्तु- इसके बाद उन्होंने अपनी आँखें नीची कर ली। पुण्डरीक सिंहके समान और शेखर चारों ओरसे व्याधवेष्टित हरिणके समान खड़े थे। इस तरुण युवकका रमणीके समान लजालु तथा स्नेहकोमल मुख, पाण्डुवर्ण कपोल और नितान्त स्वल्प शरीरांश देखकर ऐसा मालूम होता था कि भावके स्पर्श मानसे ही इसका सारा शरीर वीणाके तारों की तरह काँपकर बज उठेगा। शेखरने नीचा मुँह किये हुए बहुत ही मृदु स्वरमें अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया। उनका पहला श्लोक तो शायद किसीने अच्छी तरह सुना भी नहीं । इसके बाद उन्होंने धीरे धीरे अपना मुँह ऊँचा किया और जिस पोर दृष्टि डाली, उधरही से मानो सारी जनता और राज-सभाकी पाषाण-प्राचीर विगलित होकर बहुदूरवर्ती अतीतमें विलीन हो गई। उनका सुमिष्ट परिष्कार कंठस्वर काँपते काँपते उज्वल अग्नि-शिखाके समान ऊपर उठने लगा। पहले राजाके चंद्रवंशीय आदि पुरुषोंका गुणानुवाद किया गया और फिर क्रमशः अनेकानेक युद्ध, विग्रह, शौर्य, वीर्य, यज्ञ, दान और बड़े बड़े अनुष्ठानों से होकर उनकी राजकहानी वर्तमान काल में लाकर उपस्थित की गई। अन्तमें कविवर शेखरने वह दूरस्मृतिबद्ध दृष्टि लौटाकर राजाके मुखपर स्थापित की और राज्यकी सती प्रजाके हृदयकी एक बहुत बड़ी अव्यक्त प्रीति भाषा और छन्दोंमें मूर्तिमान करके सभाके बीच खड़ी कर दी । मानो दुरदूरसे हजारों लाखों प्रजाके हृदय-स्रोतोंने दौड़कर राजपूर्वजोंके इस अतिशय प्राचीन प्रासादको एक महासंगीतसे परिपूर्ण कर दिया। इसकी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय और पराजय प्रत्येक ईंटको मानो उन्होंने ( हृदय - स्रोतोंने ) स्पर्श किया, आलिंगन किया ; चुम्बन किया ; ऊपर अन्तःपुरके झरोखों तक पहुँचकर राजलक्ष्मीस्वरूप प्रासाद-लक्ष्मियों के चरणों में स्नेहार्द्र भक्ति भावसे नमस्कार किया ; और वहाँ से लौटकर राजा और राज-सिंहासन की बड़े भारी उल्लासके साथ सैकड़ों बार प्रदक्षिणा की। अन्तमें कविने कहा – महाराज, वाक्योंसे तो हार मान सकता हूँ; परन्तु भक्ति में मुझे कौन हरा सकता है ? यह कहकर वे काँपते हुए बैठ गये । उस समय आँसुओं के जलसे नहाई हुई प्रजा जयजयकारसे श्राकाशको कम्पित करने लगी । साधारण जनताकी इस उन्मत्तताको धिक्कारपूर्ण हँसी में उड़ाकर पुण्डरीकजी फिर उठ खड़े हुए। उन्होंने गरजकर पूछा- वाक्यकी अपेक्षा और कौन श्रेष्ठ हो सकता है ? यह सुनकर सब लोग घड़ीभर के लिए मानो स्तब्ध हो रहे । पुण्डरीकजी नाना छन्दों में श्रद्भुत पाण्डित्य प्रकाशित करके वेद वेदान्त, आगम निगम आदि प्रमाणित करने लगे कि विश्वमें वाक्य ही सर्वश्रेष्ठ है । वाक्य ही सत्य और वाक्य ही ब्रह्म है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी वाक्यके वशवर्ती हैं, अतएव वाक्य उनसे भी बढ़ा चढ़ा है। ब्रह्माजी अपने चारों मुखोंसे वाक्यका अन्त न पाकर आखिर चुपचाप ध्यान-परायण होकर वाक्य हूँढ रहे हैं । इस तरह पाण्डित्यपर पाण्डित्य और शास्त्रपर शास्त्र के ढेर लगाकर वाक्यके लिए एक अभ्रभेदी सिंहासन निर्माण कर दिया गया । उन्होंने वाक्यको मर्त्यलोक और सुरलोकके मस्तकपर बैठा दिया और फिर बिजली के समान कड़ककर पूछा- तो अब बतलाइए कि वाक्यकी पेक्षा श्रेष्ठ कौन है ? इसके बाद पुण्डरीकजीने बड़े दर्प के साथ चारों श्रर देखा; और जब किसीने कुछ उत्तर नहीं दिया, तब धीरे धीरे अपना आसन ग्रहण कर लिया । पण्डितगण 'धन्य धन्य' और 'साधु Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुल साधु' कहने लगे । राजा विस्मित हो रहे और कवि शेखरने इस विपुल पाण्डित्यके सामने अपनेको बहुत ही शुद्र समझा। इसके बाद श्राजकी सभा विसर्जित की गई। दूसरे दिन शेखरका गान इस प्रकार प्रारम्भ हुआवंशी सबसे पहले वृन्दावनमें बजी। उस समय गोपिकाओंने नहीं जाना कि वह किसने बजाई और कहाँ बनी । उन्हें भ्रम हुआ कि दक्षिण पवन बह रहा है। फिर मालूम हुआ कि उत्तरमें गोवर्धनगिरिके शिखरसे आवाज़ आ रही है । फिर जान पड़ा कि उदयाचलके ऊपर खड़ा होकर कोई मिलने के लिए बुला रहा है। जान पड़ा कि अस्ताचलके प्रान्त भागपर बैठकर कोई विरह-शोकमें रो रहा है ; जान पड़ा कि यमुनाकी प्रत्येक लहरसे वंशीकी ध्वनि उठ रही है; जान पड़ा कि आकाशके सारे तारे मानो उस वंशीके छिद्र हैं । अन्तमें कुज-कुञ्जमें, पथ-घाटमें, फूल-फलमें, जल-स्थलमें, ऊपर नीचे, अन्दर बाहर सब जगह वंशी बजने लगी। कोई यह न समझ सका कि वंशी क्या कह रही है ; और यह भी कोई स्थिर न कर सका कि वंशीके उत्तरमें हृदय क्या कहना चाहता है। केवल दोनों आँखों में जल भर आया और एक अलोक-सुन्दर, श्याम स्निग्ध मरणकी आकांक्षासे मानो समस्त प्राण उत्कण्ठित हो उठे। ___ सभाको भूलकर, राजाको भूलकर, आत्म-पक्ष प्रतिपक्षको भूलकर, यश अपयश, जय पराजय, उत्तर प्रत्युत्तर सब कुछ भूलकर शेखरने अपने निर्जन हृदयकुञ्जके बीच मानो अकेले ही खड़े होकर वंशीका यह गान गाया। उनके मनमें केवल एक ज्योतिर्मयी मानसी मूर्ति स्थापित थी और कानोंमें दो कमल-चरणोंकी नूपुर-ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। कवि जिस समय गान समाप्त करके हतज्ञान होकर बैठ गये तब एक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय और पराजय अनिर्वचनीय माधुर्य और एक बृहद् व्याप्त विरहव्याकुलतासे सभा-मन्दिर परिपूर्ण हो गया । कोई साधुवाद भी न दे सका। ___ जब इस भावकी प्रबलता कुछ कम हुई, तब पुण्डरीकजी सिंहासनके सम्मुख आये । राधा कौन है और कृष्ण ही कौन है ? यह पूछकर उन्होंने चारों ओर नजर डाली और शिष्यों की ओर देखकर कुछ हँसकर फिर प्रश्न किया-राधा कौन है और कृष्ण ही कौन है ? इसके बाद असामान्य पाण्डित्यका विस्तार करते हुए उन्होंने स्वयं ही उत्तर देना प्रारम्भ किया राधा प्रणव ओंकार, कृष्ण ध्यान योग, और वृन्दावन दोनों भौंहोंके बीचका बिन्दु है । ईडा, सुषुम्ना, पिङ्गला, नाभि-पद्म, हृत्पद्म, ब्रह्मरंध्र श्रादि सभीको ला पटका । इसके बाद राधा और कृष्ण शब्दके 'क' से मूर्द्धन्य 'ण' पर्यन्त प्रत्येक अक्षरके जितने भिन्न भिन्न अर्थ हो सकते हैं, उन सबकी खूब विस्तारके साथ मीमांसा की । एक बार समझाया कि कृष्ण यज्ञ और राधिका अग्नि है। फिर बतलाया कि कृष्ण वेद और राधिका षड्दर्शन है । फिर समझाया कि कृष्ण शिक्षा राधिका दीक्षा ; राधिका तर्क कृष्ण मीमांसा ; राधिका उत्तर प्रत्युत्तर और कृष्ण जय-लाभ है। __ यह कहकर राजाकी ओर, पण्डितों की ओर और अन्तमें तीव्र हास्यके साथ शेखरकी ओर देखकर पुण्डरीकजी बैठ गये । राजा पुण्डरीककी आश्चर्यकारिणी शक्ति देखकर मुग्ध हो गये, पण्डितोंके विस्मयकी सीमा न रही और राधाकृष्णकी नई नई व्याख्या ओंसे वंशीका गान, यमुनाकी कल्लोलें और प्रेमका मोह बिलकुल दूर हो गया। मानो किसी मनुष्यने पृथ्वीपरसे वसंतका हरा रंग पोंछकर उसके बदले शुरूसे अखीर तक पवित्र गोमय लीप दिया ! Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र- कथाकुञ्ज शेखरने भी अपने इतने दिनों के समस्त गीतोंको व्यर्थ समझा। इसके बाद उनमें शक्ति न रही कि कुछ गावें । उस दिनकी सभा भी भंग हो गई । १० ४ दूसरे दिन पुण्डरीकने व्यस्त और समस्त, द्विव्यस्त और द्विसमस्तक, वृत्त, तार्क्स, सौत्र, चक्र, पद्म, काकपद, श्राद्युत्तर, मध्योत्तर, अन्त्योत्तर, वाक्योत्तर, वचनगुप्त, मात्राच्युतक, च्युतदत्ताक्षर, अर्थगूढ, स्तुति, निन्दा, अपहनुति, शुद्धापभ्रंश, शाब्दी, कालसार, प्रहेलिका श्रादिका अद्भुत शब्द-चातुर्य दिखाया जिसे सुनकर सारी सभा के लोग विस्मित हो रहे । ; शेखरकी वाक्यरचना बहुत ही सरल थी । उसे सर्वसाधारण सुख दुःखमें और उत्सव ग्रानन्दमें निरन्तर पढ़ा करते थे । श्राज उन्होंने साफ समझा कि उसमें कोई खास खूबी नहीं है । मानो यदि वे चाहते तो स्वयं भी वैसी रचना कर सकते केवल अभ्यास, अनिच्छा, और अनवसर यदि कारणोंसे ही नहीं कर सके; नहीं तो उसमें कुछ ऐसी विशेष नूतनता नहीं है । वह दुरूह भी नहीं है; उससे पृथ्वीके लोगोंको कोई नूतन शिक्षा भी नहीं मिलती और न कोई लाभ ही होता है । किन्तु श्राज जो कुछ सुना, वह अद्भुत था और कल जो कुछ सुना था, उसमें भी बहुत गहरे विचार और सीखने समझने की बातें थीं। पुण्डरीकके पारित्य और चातुर्य के सामने उन्हें अपना afa faतान्त बालक और साधारण मनुष्य प्रतीत होने लगा । ; मगरमच्छ के पूँछ फटकारने से पानी में जो भीषण आन्दोलन हुआ करता है, उसके प्रत्येक प्राघातको जिस तरह सरोवरका कमल अनुभव कर सकता है, उसी तरह शेखर ने अपने हृदय में चारों ओर बैठे हुए सभा-जनों के मनका भाव अनुभव किया । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय और पराजय ११ आज अन्तिम दिन है। आज जय-पराजयका निर्णय होगा । राजाने अपने कविकी ओर देखा। उसका अर्थ था कि आज निरुत्तर रहनेसे काम न चलेगा, तुम्हें अपनी शक्ति-भर प्रयत्न करना चाहिए। शेखर एक अोर खड़े हो गये और उन्होंने ये थोड़ेसे वाक्य कहेहे वीणापाणि श्वेतभुजा, यदि तुम अपने कमल-वनको सूना छोड़कर मल्लभूमिमें आ खड़ी होोगी, तो तुम्हारे चरणों में आसक्ति रखनेवाले अमृत-पिपासी भक्तजनोंकी क्या दशा होगी? इन वाक्योंको उन्होंने अपने मुँहको कुछ ऊँचा उठाकर बहुत ही करुण स्वरमें कहा। मानो श्वेतभुजा वीणा-पाणि नीचे नेत्र किये हुए राजान्तःपुरके झरोखेके सामने ही खड़ी हो। ___ तब पुण्डरीकने उठकर बड़े जोरसे हँस दिया और 'शेखर' शब्दके अन्तिम दो अक्षर ग्रहण करके अनर्गल श्लोक-रचना कर डाली। कहा कि पद्मवनके साथ खरका क्या सम्पर्क ? और संगीतकी चाहे जितनी चर्चा हो, फिर भी उक्त प्राणी क्या लाभ उठा सकता है ? सरस्वतीका अधिष्ठान तो पुण्डरीक ही है ; महाराजके राज्यमें उसने ऐसा क्या अपराध किया है जो इस देशमें वह खर-वाहन बनाकर अपमानित की जा यह प्रत्युत्तर सुनकर पण्डितगण बड़े जोरोंसे हँस पड़े। सभासदोंने भी उसमें योग दिया और उनकी देखादेखी सभी लोग जिन्होंने समझा या न समझा, हँसने लगे। इसका ठीक उत्तर देनेकी अाशासे राजा अपने कवि-सखाको बार वार अंकुशके समान तीक्ष्ण दृष्टिसे विद्ध करने लगे। परन्तु शेखरने उसकी ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया, वे अटल भावसे बैठे रहे । ___ तब राजा मन ही मन शेखरसे अत्यन्त रुष्ट होकर सिंहासनसे उतर पड़े और अपने गलेसे मोतियोंकी माला उतारकर उन्होंने पुण्डरीकके Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज गलेमें पहना दी। सभामें बैठे हुए सभी लोग धन्य धन्य कहने लगे। इसी समय अन्तःपुरसे एक साथ वलय, कंकण और नूपुरोंका शब्द सुनाई दिया। उसे सुनकर शेखर श्रासनसे उठ बैठे और धीरे धीरे सभा-मन्दिरसे बाहर हो गये। कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रि है। चारों ओर सघन अन्धकार है। दक्षिण पवन फूलोंकी गन्ध लेकर उदार विश्व-बन्धुके समान खुले हुए झरोखोंमेंसे घर घरमें प्रवेश कर रहा है। शेखरने अपने सामने, अपनी समस्त पोथियोंका ढेर लगा लिया और उनमेंसे चुन चुनकर अपने रचे हुए ग्रन्थ जुदा कर लिये। बहुत दिनोंकी बहुत-सी रचनाएँ थीं। उनमेंसे बहुत-सी रचनाओंको तो वे स्वयं ही भूल गये थे। उन सबको उलट पलटकर यहाँ वहाँसे पढ़कर देखने लगे। आज उन्हें वह समस्त रचना अकिञ्चित्कर-सी जान पड़ी। उन्होंने लम्बी साँस लेकर कहा-सारे जीवनकी क्या यही कमाई है ? इसमें कुछ उक्तियों, छन्दों और तुकबन्दियोंके सिवाय और है ही क्या ? आज वे यह नहीं देख सके कि उसमें कोई सौन्दर्य, मानवजातिका कोई स्थायी आनन्द, विश्व-संगीतकी कोई प्रतिध्वनि, या उनके हृदयका कोई गम्भीर आत्म-प्रकाश निबद्ध है । रोगीको जिस तरह कोई खाद्य रुचिकर नहीं होता, उसी तरह अाज उनके हाथके निकट जो कुछ अाया, उस सभीको उन्होंने ठुकराकर फेंक दिया। उन्हें इस अँधेरी रातमें राजाकी मित्रता, लोगोंकी प्रशंसा, हृदयकी दुराशा, कल्पनाकी कुहुक आदि सारी बात शून्य विडम्बना-सी लगने लगीं । तब वे प्रत्येक पोथीको फाड़ फाड़कर अपने सामने जलते हुए अग्नि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय और पराजय कुण्डमें डालने लगे । एकाएक उन्हें एक दिल्लगी सूझी। उन्होंने हँसतेहँसते कहा-जिस तरह बड़े बड़े राजा अश्वमेध किया करते हैं उसी तरह आज मैं यह काव्य-मेध-यज्ञ कर रहा हूँ। किन्तु तत्काल ही सोचा कि यह उपमा ठीक नहीं बैठी। अश्वमेध तो उस समय होता है, जब अश्वमेधका अश्व सर्वत्र विजय प्राप्त करके आता है । परन्तु मैं तो उस समय यह काव्य मेध करने बैठा हूँ, जिस समय मेरा कवित्व पराजित हुआ है। अच्छा होता, यदि यह यज्ञ बहुत दिन पहले किया जाता। ___ धीरे धीरे उन्होंने अपने सभी ग्रन्थ अग्निदेवको समर्पित कर दिये । अग्नि धाय धाय करके जलने लगी और वे विवेकके साथ अपने दोनों खाली हाथ आकाशकी ओर करके कहने लगे-हे सुन्दरि अग्नि-शिखा ! यह सब तुम्हींको दिया, तुम्हींको दिया, तुम्हींको दिया। इतने दिन तुम्हींको समस्त आहुतियाँ देता आ रहा था। आज एक साथ शेष कर दिया । बहुत दिनोंसे तुम मेरे हृदय में जल रही थीं। हे मोहिनी वहिरूपिणि ! यदि सोना होता तो चमक उठता। किन्तु देवि ! मैं एक तुच्छ तृण हूँ, इसीलिए आज भस्म हो गया। ____रात्रि बहुत बीत गई । शेखरने अपने घरकी सारी खिड़कियाँ खोल दीं। वे जिन जिन फूलोंको पसन्द करते थे, सन्ध्याको बगीचेसे संग्रह करके ले आये थे । वे सब श्वेत थे-जूही, बेला और गन्धराज । उन्होंने उन सबको मुट्ठी मुट्ठी लेकर अपने निर्मल बिछौनेपर फैला लिया। घरके चारों ओर दीपक जला दिये। ___ इसके बाद एक वनस्पतिका विषरस मधुके साथ मिलाकर निश्चिन्तताके साथ पी लिया और धीरे धीरे अपनी शय्या पर जाकर शयन किया। शरीर अवश हो गया और नेत्र हुँदने लगे। नूपुर बजे । दक्षिण पवनके साथ केश-गुच्छोंकी सुगन्धिने भी घरमें प्रवेश किया। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज कविने आँखें बंद किये हुए कहा- देवि, क्या भक्तके प्रति दया की ? क्या इतने दिनों के बाद आज दर्शन देने आई ? १४ एक सुमधुर कण्ठसे उत्तर मिला - कवि, हाँ मैं आई। शेखरने चौंककर आँखें खोल दीं। देखा कि शय्याके समीप एक सुन्दरी रमणी खड़ी है। वे मृत्युसमाच्छन्न डबडबाई हुई आँखोंसे साफ नहीं देख सके । उन्हें मालूम हुआ कि मेरे हृदय की वही छायामयी प्रतिमा अन्दर से बाहर आकर मृत्युके समय मेरे मुँहकी ओर स्थिर नेत्रों से देख रही है । रमणीने कहा- मैं राजकन्या अपराजिता हूँ । कवि सारी शक्ति लगाकर उठ बैठे । राजकन्या ने कहा --- राजाने तुम्हारा उचित निर्णय नहीं किया । वास्तवमें तुम्हारी ही जीत हुई है। इसीलिए, कविवर, मैं आज तुम्हें जयमाला पहनाने आई हूँ । यह कहकर अपराजिताने अपने गले से अपने हाथों गूँथी हुई पुष्पमाला उतार कर कविके गले में पहना दी । मरणासन्न after शरीर शय्यापर गिर गया । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ोसिन मेरी पड़ोसिन बाल विधवा है। वह मानो शिशिरके श्राँसे भीगी हुई कुन्द कली के समान डंठल से अलग हो गई है और किसीकी सुहाग-रात के लिए नहीं, बल्कि केवल देव पूजा के लिए ही उत्सर्ग की गई है। मैं मन ही मन उसकी पूजा करता हूँ। उसके प्रति मेरे हृदयका जो भाव हैं, उसे 'पूजा' को छोड़कर मैं और किसी सहज शब्द के द्वारा प्रकाशित नहीं करना चाहता । इस विषय में मेरे अन्तरङ्ग मित्र नवीन भी कुछ नहीं जानते और इस तरह मैंने जो अपने गहरे थावेगको छिपा कर निर्मल रख छोड़ा था, इसका मुझे गर्व था । किन्तु हृदयका आवेग पहाड़ी नदीके समान, अपने जन्म- शिखर में Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज रुक कर नहीं रहना चाहता। वह किसी न किसी उपाय से बाहर निकलनेकी चेष्टा करता है और यदि इस चेष्टामें सफल नहीं होता तो छातीमें वेदना उत्पन्न करता है। इसीसे मैं सोचता था कि अपने आवेगके भावको कवितामें प्रकाशित करूँ। परन्तु क्या कहूँ, कुण्ठिता लेखनीने आगे बढ़नेकी इच्छा ही नहीं की। ___ठीक इसी समय एक आश्चर्यकी बात यह हुई कि मेरा मित्र नवीन माधव जिस तरह एकाएक भूकम्प श्रा जाता है उस तरह तेजीके साथ कविता करनेमें प्रवृत्त हो गया। इसके पहले उस बेचारेपर ऐसी दैवी विपत्ति कभी न आई थी ; और इसलिए वह इस अभिनव आन्दोलनके लिए जरा भी तैयार न था। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि न उसे छन्दका ज्ञान है और न तुकबन्दीका ; फिर भी उसे हिचकिचाहट नहीं हुई । कविता मानो बुढ़ापेकी दूसरे ब्याहकी स्त्रीके समान उसके सिर चढ़ बैठी । आखिर वह सहायता और संशोधन के लिए मेरी सेवामें उपस्थित हुआ। ___ उसकी कविताके विषय नये नहीं थे, पर पुराने भी नहीं थे । अर्थात् उन्हें चिरनूतन भी कह सकते हैं और चिरपुरातन कहनेमें भी कोई हानि नहीं है। जब मैंने देखा कि वह एक प्रियतमाके प्रति लिखी हुई प्रेमकी कविता है, तब मैंने उसे एक धक्का दे हँसकर पूछा-बतलाओ तो कि वह है कौन ? नवीनने हँसकर कहा-अब तक तो कुछ पता नहीं चला है । नवीनको सहायता देनेके कार्य में मुझे बहुत ही आराम मिला। उसकी काल्पनिक प्रियतमाके प्रति मैं अपने रुके हुए आवेगका प्रयोग करने लगा । जिस तरह बिना बच्चेवाली मुर्गी हंसके अंडे पाकर छाती फैलाकर उन्हें सेने लगती है, उसी तरह मैं भी नवीन माधवके भावोंको Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ोसिन अपने हृदयका सारा उत्ताप देकर विकसित करने लगा। उस अनाड़ीकी रचनाको मैं ऐसी खूबीके साथ संशोधित करने लगा कि उसका प्रायः पन्द्रह पाना भाग मेरी रचना बन जाने लगा। नवीनने विस्मित होकर कहा-ठीक यही बात तो मैं भी कहना चाहता हूँ, परन्तु कह नहीं सकता। भला तुम्हें ये सब भाव कहाँसे सूझ जाते हैं ! मैंने कविके समान उत्तर दिया-कल्पनासे । कारण, सत्य नीरव है, कल्पना ही वाचाल है । सत्य घटना भावों के झरनेको पत्थरके समान दबा रखती है, परन्तु कल्पना उसका मार्ग खोल देती है । नवीनने अपना मुँह गंभीर बनाकर और कुछ सोचकर कहा-यही तो जान पड़ता है। ठीक है। - इसके बाद और भी कुछ समय तक सोचकर कहा-ठीक ! ठीक ! ___ मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मेरे प्यार में एक प्रकारका कातर संकोच था, इसीलिए मैं अब तक अपनी तरफसे कुछ भी नहीं लिख सका था। परन्तु जब नवीनको परदेके भीतर बीच में बैठा लिया, तब मेरी लेखनीने भी मुख खोल दिया । वे रचनाएँ मानो रस से लबालब भरकर उत्तापसे उफनने लगीं। ___ नवीनने कहा-ये तुम्हारी रचनाएँ हैं। अतएव इन्हें मैं तुम्हारे ही नामसे प्रकाशित कराऊँगा। मैंने कहा-खूब ! लिखी हुई तो तुम्हारी ही हैं न ? मैंने तो थोड़ा-सा रद्दोबदल ही किया है। धीरे धीरे नवीनका भी यही विश्वास हो गया। मैं इस बातसे इंकार नहीं कर सकता कि जिस तरह ज्योतिषी नक्षत्रों के उदयकी अपेक्षा करता हुआ आकाशकी ओर देखा करता है, मैं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भी उसी तरह बीच बीचमें अपने पड़ोसके घरकी खिड़कीकी श्रोर ताका करता और कभी कभी भक्तका वह व्याकुल दृष्टिक्षेप सार्थक भी हो जाया करता । उस कर्मयोगनिरता ब्रह्मचारिणीकी सौम्य मुखश्रीसे शान्त और स्निग्ध ज्योति प्रतिबिम्बित होकर मुहूर्त मात्रमें मेरे सारे चित्तक्षोभको मिटा देती। किन्तु उस दिन एकाएक मैंने क्या देखा ! हमारे चन्द्रलोकमें भी क्या इस समय अग्न्युत्पात मौजूद है ? क्या वहाँकी जनशून्य समाधिमन गिरिगुहाओंका सारा वह्निदाह अब भी शान्त नहीं हुआ है ? ___ उस दिन वैसाख महीनेके तीसरे प्रहर ईशान कोणमें मेघ सघन हो रहे थे । आँधी आनेको थी और बीच बीचमें बिजली चमक जाती थी। मेरी पड़ोसिन खिड़कीके पास अकेली खड़ी थी। उस दिन मैंने उसकी आकाशकी ओर लगी हुई दृष्टिमें, दूर तक फैली हुई सघन वेदनाका दर्शन किया। मुझे निश्चय हो गया कि मेरे चन्द्रलोकमें इस समय भी उत्ताप है । इस समय भी वहाँ उष्ण निःश्वास समीरित है। देवताके लिए मनुष्य नहीं है, मनुष्यके लिए ही देवता है। उसके उन दोनों नेत्रोंकी विशाल व्याकुलता उस दिनकी आँधीसे घबराये हुए पक्षीकी तरह उड़ी जा रही है। किधर ? स्वर्गकी अोर नहीं, मनुष्य के हृदयरूपी घोंसलेकी ओर। उत्सुक और आकांक्षासे उद्दीप्त वह दृष्टिपात देखने के बाद मेरे लिए अपने अशान्त चित्तको सुस्थिर रख सकना कठिन हो गया। उस समय केवल दूसरेकी कच्ची कविताका संशोधन करनेसे तृप्ति नहीं मिली, किसी न किसी तरहका कोई काम करनेको जी चाहा । तब मैंने संकल्प किया कि अपने देशमें विधवाविवाह प्रचलित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ोसिन करनेके लिए मैं अपनी सारी शक्तियाँ लगा दूंगा । केवल व्याख्यान झाड़कर और लेख ही लिखकर नहीं, बल्कि आर्थिक सहायता देनेके लिए भी मैंने अपना हाथ बढ़ाया। नवीन मेरे साथ तर्क करने लगा। उसने कहा-चिर वैधव्यके भीतर एक पवित्र शान्ति है और एकादशीकी क्षीण ज्योत्स्नालोकित समाधि-भूमिके समान एक विराट रमणीयता है । विवाहकी संभावना मात्रसे ही क्या वह शान्ति नष्ट नहीं हो जायगी ? इस प्रकारकी कवित्वपूर्ण बातें सुनकर मुझे गुस्सा आ जाता है। जो लोग दुर्भिक्षके मारे मर रहे हैं, उनके आगे यदि कोई आहारपुष्ट श्रादमी खाद्यकी स्थूलताके प्रति घृणा प्रकाशित करके फूलोंकी गन्ध और पक्षियोंके गानसे उनका पेट भर देना चाहे, तो बतलाइए वह कैसा मालूम होगा? ____ मैंने क्रुद्ध होकर कहा- देखो नवीन, आर्टिस्ट (चित्रकार ) लोग कहा करते हैं कि दृश्यके हिसाबसे जले हुए मकानमें बड़ा भारी सौन्दर्य है। किन्तु घरको केवल चित्रकी दृष्टिसे नहीं देखा जा सकता, उसमें निवास करना पड़ता है-श्रतएव आर्टिस्ट चाहे जो कहें, परन्तु उसकी मरम्मत करना आवश्यक है । तुम तो वैधव्यपर दूरसे ही दिव्य कविता करना चाहते हो, परन्तु तुम्हें यह ख़याल नहीं पाता कि उसके भीतर एक आकांक्षापूर्ण मानव हृदय अपनी विचित्र वेदनाओंको लिये हुए निवास कर रहा है। ___ मैंने समझा था कि नवीन माधव किसी तरह मेरे दलमें नहीं था सकेगा और इसी कारण मैंने उस दिन कुछ अधिक तपाकके साथ बातचीत की। किन्तु एकाएक देखा कि मेरे व्याख्यानके अन्तमें नवीन माधव परास्त हो गया, उसने केवल एक ही गहरी साँस लेकर मेरी सारी बातें Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मान लीं ; और मेरे मस्तकमें उनके सिवाय जो अनेक अच्छी अच्छी युक्तियाँ इकट्ठी हो रही थीं उनके प्रकट करनेका उसने अवकाश ही नहीं दिया ! कोई एक सप्ताह बाद नवीनने आकर कहा - यदि तुम सहायता दो, तो मैं स्वयं विधवाविवाह करनेके लिए तैयार हूँ । यह सुनकर मैं उछल पड़ा और नवीनको गले लगाकर बोलाइस कार्य में जो कुछ खर्च होगा, मैं अपने पाससे दूँगा । तब नवीनने अपना सारा इतिहास सुनाया । मालूम हुआ कि उसकी प्रियतमा काल्पनिक नहीं है । कुछ दिनोंसे वह एक विधवाको दूरसे ही चाहने लगा है । यह बात उसने अब तक किसीपर प्रकट नहीं होने दी है। जिन मासिक-पत्रों में नवीनकी - अर्थात् मेरी — कविता प्रकाशित होती है, वे सब जहाँ चाहिए, वहाँ जाकर पहुँच जाते हैं। वे कविताएँ व्यर्थ भी नहीं गई । बिना मिले - जुले चित्त आकर्षित करने का यह एक नया उपाय मेरे मित्रने आविष्कृत कर डाला है । I किन्तु नवीनका कथन है कि उसने षड्यंत्र रचकर यह चालाकी नहीं की। बल्कि उसका विश्वास था कि उक्त विधवा लिखना पढ़ना भी नहीं जानती । विधवा के भाईके नाम बिना मूल्य और बिना अपनी सहीके जो मासिक पत्र भेजे जाते थे सो केवल अपने मनको सान्त्वना देनेके लिए ! इसे एक तरहका पागलपन ही समझना चाहिए। उन्हें भेजते समय नवीन सोच लेता कि देवताके उद्देश्यसे पुष्पाञ्जलि छोड़ दी गई, अब वे चाहे जानें चाहे न जानें, और चाहे ग्रहण करें चाहे न करें । विधवा के भाई के साथ किसी न किसी बहानेसे नवीनने जो मित्रता Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ोसिन २१ कर ली, उसमें भी वह कहता है कि मेरा कोई उद्देश्य न था। यह कौन नहीं जानता कि जिसको प्यार किया जाता है उसके निकटवर्तीका संग-साथ भी अच्छा ही मालूम होता है ? ___अाखिर भाईकी कठिन बीमारीके उपलक्षसे उसकी बहन के साथ नवीनकी किस प्रकार मुलाकात हुई, यह कहने की आवश्यकता नहीं । कविके साथ कविताके अवलम्बित विषयका प्रत्यक्ष परिचय हो गया और तब कविताके संबंधमें बहुत कुछ आलोचना भी हो गई ; परन्तु वह पालोचना केवल छपी हुई कविताओं में ही आबद्ध न रही। ___ सम्प्रति मेरे साथ तर्कमें परास्त होकर नवीन उस विधवाके समक्ष विवाहका प्रस्ताव कर बैठा है। पहले तो वह किसी तरह राजी नहीं हुई ; परन्तु जब नवीनने मुझसे सुनी हुई सारी युक्तियों का प्रयोग किया और उनके साथ अपनी आँखोंकी दो चार बूंदें भी मिला दी, तब उसे हार माननी पड़ी। अब विधवाके अभिभावक खर्चके लिए कुछ रुपये चाहते हैं। मैंने कहा-रुपयोंकी क्या चिन्ता है ! अभी ले जाओ। 'नवीनने कहा-इसके सिवाय पिताजी मुझे जो मासिक खर्च दिया करते हैं विवाह के बाद चार छः महीने तक उसे भी वे बन्द कर देंगे। सो उतने समय तक हम दोनोंके खर्चका भी प्रबन्ध तुम्हें कर देना होगा। मैंने बिना कुछ कहे सुने एक चेक काट दिया। फिर कहाअब उसका नाम बतला दो। जब मेरे साथ कोई प्रतियोगिता नहीं है, तब तुम्हें उसका परिचय देनेमें डर ही क्या है ! मैं तुम्हारी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं उसके नाम कविता भी नहीं लिखूगा और यदि कभी लिखूगा भी, तो उसके भाई के पास न भेजकर तुम्हारे पास भेज दूंगा! नवीनने कहा---अजी, मैं इससे नहीं डरता। विधवा विवाहकी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm लज्जासे बहुत ही कातर है, इसलिए उसने बहुत बहुत निषेध कर दिया है कि मैं तुमसे उसकी चर्चा न करूँ । किन्तु अब ढक रखना व्यर्थ है। वह तुम्हारी ही पड़ोसिन है और १६ नंबरके मकानमें रहती है। . यदि मेरा हृत्पिण्ड लोहेका बायलर होता तो इस धक्केसे तत्काल ही फट जाता । थोड़ी देरमें कुछ प्रकृतिस्थ होकर मैंने पूछा-विधवाविवाहको वह पसन्द करती है ? । नवीनने हँसकर कहा-इस समय तो करती है ! मैंने कहा- केवल कविता पढ़कर ही वह तुमपर मुग्ध हो गई ? नवीनने कहा-क्यों, मेरी वे कविताएँ क्या कुछ कम प्रभावशालिनी थीं? मैंने मन ही मन कहा-धिक ! परन्तु वह धिक्कार किसको ? उसे, या मुझे, या विधाताको ? - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक जिस समय नवेन्दुशेखरके साथ अरुणलेखाका विवाह हुआ, उस समय होम-धूमके बीचमेंसे भगवान प्रजापति जरा-सा मुसकरा दिये । परन्तु प्रजापतिके लिए जो एक मामूली खिलवाड़ है, वह हमारे लिए सदा कौतुककी ही बात नहीं हो सकती। ___नवेन्दुशेखरके पिता पूर्णेन्दुशेखर अँगरेज़ी अमलदारीके बहुत ही विख्यात पुरुष थे। वे इस भव-समुद्र में केवल फर्शी सलामका डाँड़ चलाकर 'राय बहादुर' उपाधिके उत्तुङ्ग मरुतट तक पहुँच गये थे । यद्यपि उनके पास और भी दुर्गमतर सम्मान-पथका पाथेय था ; किन्तु पचपन वर्षकी उमरमें बिलकुल समीपवर्ती उपाधिके कुहरेसे ढके हुए गिरिशिखरकी अोर करुण-लोलुप दृष्टि लगाये हुए यह राजकृपापात्र व्यक्ति एकाएक खिताब-वर्जित लोकको चल दिया और उसकी बहु-सलामशिथिल ग्रीवा श्मशान-शय्यापर विश्राम करने लगी। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज किन्तु विज्ञान कहता है कि शक्तिका नाश नहीं होता, केवल स्थानान्तर और रूपान्तर होता है। चंचला लक्ष्मीकी अचंचला सखी 'सलाम-शक्ति' पिताके कंधेसे उतरकर पुत्रके कंधेपर श्रारूढ़ हो गई और नवेन्दुका नवीन मस्तक लहरोंसे टकराते हुए कहके समान अँगरेज़ कर्मचारियोंके द्वारपर बिना विश्राम लिये उठने और गिरने लगा। पहली स्त्रीके निस्संतान अवस्थामें मर जानेपर जिस परिवारमें इन्होंने दूसरा विवाह किया, उसका इतिहास एक नये ही ढंगका है। उस परिवारके बड़े भाई प्रमथनाथ परिचित जनोंकी प्रीति और कुटुम्बी जनोंके श्रादरके स्थल थे। घरके और अड़ोस-पड़ोसके लोग उनको सब विषयों में अनुकरणीय समझते थे। प्रमथनाथ विद्यामें बी० ए० और बुद्धिमें विचक्षण थे, किन्तु बड़ी तनख्वाह और कलमके जोरकी कोई परवा न करते थे। उनके पास बड़प्पनका बल भी अधिक नहीं था ; क्योंकि अँगरेज लोग उन्हें जितना दूर रखते थे, वे भी उनसे उतनी ही दूर रहकर चलते थे । अतएव अपने घरके कोने और परिचित जनोंमें ही वे जगमगाते थे। दूरके लोगोंकी दृष्टि आकर्षित करनेकी कोई शक्ति उनमें नहीं थी। __ यही प्रमथनाथ एक बार विलायत गये, वहाँ लगभग तीन वर्ष तक घूमघाम कर लौट आये और अँगरेजोंके सौजन्यपर मुग्ध होकर भारतवर्षके सारे अपमानों और दुःखोंको भूलकर अँगरेजी ठाट-वाटसे रहने लगे। ___ पहले पहल उनके इस ठाटसे भाई बहन कुछ कुण्ठितसे हुए, परन्तु कुछ ही दिनोंके बाद वे भी कहने लगे-भैयाको अँगरेजी कपड़े जितने अच्छे मालूम होते हैं, उतने और किसीको नहीं मालूम होते । इस तरह धीरे धीरे अँगरेजी वस्त्रोंका गौरव-गर्व उस परिवारमें स्थायी हो गया । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक प्रमथनाथ विलायतसे यह सोचकर पाये कि मैं लोगोंको इस बातका अपूर्व दृष्टान्त दिखाऊँगा कि अँगरेजोंके साथ, बराबरीकी रक्षा करते हुए, किस तरहका व्यवहार किया जा सकता है। जो लोग यह कहा करते हैं, कि नत हुए बिना अँगरेजोंके साथ मेल-मिलाप नहीं होता, वे अपनी हीनता प्रकाशित करते हैं और अँगरेजोंको व्यर्थ ही दोषी बनाते हैं। प्रमथनाथने विलायतके बड़े बड़े लोगोंसे अनेक परिचयपत्र और प्रशंसापत्र लाकर भारतवर्ष के अंगरेजोंमें थोड़ी-सी प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर ली । यहाँ तक कि बीच बीचमें वे अपनी स्त्रीके सहित अँगरेजोंकी चा, डिनर, और हँसी-मजाकका भी कुछ हिस्सा पाने लगे। इस सौभाग्यमदकी मत्ततासे उनकी रगोंमें रक्तका प्रबाह कुछ तेजीके साथ होने लगा। इसी समय एक नई रेलवे लाइन खोलने के लिए रेलवे कम्पनीका निमंत्रण पाकर छोटे लाटके साथ देशके अनेक राज-प्रसाद-गर्वित बड़े आदमियों ने गाड़ीपर लदकर उस नये लोह-पथकी यात्रा की । प्रमथनाथ भी उनमेंसे एक थे। लौटने के समय एक अँगरेज इन्स्पेक्टरने उक्त देशी बड़े आदमियोंको बहुत ही अपमानके साथ एक विशेष गाड़ी परसे उतार दिया । अँगरेजवेषधारी प्रमथनाथको भी गाड़ीसे उतरनेको तैयार देखकर इन्स्पेक्टरने कहा-आप क्यों उतरते हैं ? बैठिए न । प्रमथनाथ पहले तो इस विशेष सम्मानसे फूल उठे ; परन्तु जब गाड़ी चल दी और तृण-हीन कर्षण-धूसर पश्चिम प्रान्तकी सीमासे ग्लान सूर्यास्तकी श्राभा सकरुण रक्तिम लजाके समान समस्त देशके ऊपर फैल गई और जब वे अकेले बैठे बैठे खिड़कियोंमेंसे अनिमेष नेत्रोंसे वनोंकी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुक्ष 12 ओटमें छिपी हुई कुण्ठिता भारत-भूमिका निरीक्षण करने लगे, तब धिक्कारके मारे उनका हृदय फटने लगा और दोनों नेत्रोंसे अग्नि-ज्वालामयी अश्रुधारा बहने लगी। ___ उन्हें एक कहानी याद आ गई । एक गधा राजपथसे होकर देवप्रतिमाका रथ खींच रहा था और पथिकवर्ग उसके सामने धूलमें लोट कर प्रतिमाको प्रणाम करता था। मूर्ख गधा अपने मनमें सोचता था कि सब लोग मेरा ही आदर कर रहे हैं। प्रमथनाथने मन ही मन कहा कि उस गधेमें और मुझमें इतना ही अन्तर है कि मैंने आज समझ लिया है कि सम्मान मेरा नहीं, मेरे शरीरके बोझका किया जाता है। प्रमथनाथने घर आकर सब बालबच्चोंको इकट्ठा किया और अग्नि जलाकर विलायती कपड़े-लत्तोंको उसमें एक एक करके डालना शुरू किया । अग्नि-शिखा जितनी ही ऊँची उठने लगी, बच्चे उतने ही आनन्दके साथ नृत्य करने लगे। ___ तबसे प्रमथनाथ तो अंगरेजोंकी चायका चम्मच और रोटीका टुकड़ा छोड़कर फिरसे घरके कोने के दुर्गमें दुर्गम होकर बैठ रहे ; परन्तु पूर्वोक्त अपमानित उपाधिधारी लोग पहलेके ही समान फिर अँगरेजोंके द्वारपर सलाम बजाते नजर आने लगे। दैवदुर्योगसे अभागे नवेन्दुशेखरको इसी परिवारकी मँझली बहनके साथ शादी करनी पड़ी। इस घरकी लड़कियाँ जिस तरह लिखना पढ़ना जानती थीं, उसी तरह देखने सुनने में भी सुन्दरी थीं। नवेन्दुने सोचा कि मैंने बहुत बड़ी विजय पाई। किन्तु यह बात प्रमाणित करने में उन्होंने देरी नहीं की कि मुझे पाकर तुम लोगोंको भी कम विजय प्राप्त नहीं हुई है । समय समय पर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक कई साहब बहादुरोंने उनके पिताको जो जो चिट्टियाँ लिखी थीं, वही अब मानो बिलकुल भूलसे आप ही आप उनकी जेब मेंसे गिरने लगीं और सालियों के हाथ तक पहुँचने लगीं । जब सालियोंके सुकोमल बिम्बोष्ठों के भीतरसे तीक्ष्ण हँसी भड़कदार मखमली स्थानके भीतरके चमचमाते हुए छुरेके समान दिखलाई देने लगी, तब भागे नवेन्दुको होश आया कि स्थान, काल और पात्र ठीक नहीं हैं। समझा कि मैंने बहुत बड़ी भूल की। २७ सालियों में जो सबसे ज्येष्ठा और रूप- गुण में श्रेष्ठा थी, उसने एक दिन शुभ मुहूर्त्त देखकर नवेन्दुके सोनेके कमरे के एक ताकमें दो जोड़े विलायती बूट सिन्दूर - मण्डित करके स्थापित कर दिये और उनके सामने फूल चन्दन और दो जलते हुए दीपक रखकर धूप जला दी । ज्यों ही नवेन्दुने घरमें प्रवेश किया, त्यों ही दो सालियोंने उनके कान पकड़कर कहा कि आप अपने इष्ट देवको प्रणाम कीजिए। इनकी कृपा से आपकी पद-वृद्धि होगी । तीसरी साली किरणरेखाने बहुत दिन परिश्रम करके एक ऐसी चादर तैयार की थी जिसमें जॉन्स, स्मिथ, ब्राऊन, टाम्सन आदि एक सौ प्रचलित अँगरेजी नाम लाल सूतसे काढ़े गये थे और एक दिन बड़े समारोह के साथ उसने यह नामावलीयुक्त चादर नवेन्दु बाबूको भेंट कर दी । मैं चौथी साली शशांक रेखाने, जो उमरमें छोटी थी, कहा-जीजाजी, एक जपमाला तैयार कर दूँगी। आपको साहबका नाम जपने में सुभीता हो जायगा । इसपर उसकी बड़ी बहनोंने डाँटकर कहा- चल ! तुझे इस तरह छोटे मुँह बड़ी बात न करनी चाहिए। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज mamaraan नवेन्दुको मन ही मन क्रोध भी श्राता था और लज्जा भी होती थी। किन्तु वे सालियोंको छोड़ नहीं सकते थे। खासकर उनकी बड़ी साली बहुत ही सुन्दरी थी। उसमें मधु भी था और काँटा भी। उसकी मादकता और जलन दोनों ही मनको पागल कर देती थीं । जले हुए पंखोंवाला पतंग क्रोधसे भनभनाता भी है और अन्ध अबोधके समान चारों ओर घूमता भी है। ____ अन्तमें सालियोंके संसर्गके प्रबल मोहमें पड़कर नवेन्दु बाबू इस बातसे बिलकुल इन्कार करने लगे कि वे साहब लोगोंके परम भक्त हैं । वे जिस दिन बड़े साहबको सलाम करने जाते, उस दिन सालियोंसे कह जाते कि सुरेन्द्रनाथ बनर्जीका व्याख्यान सुनने जा रहे हैं और जब दारजिलिंगसे लौटे हुए मेजो साहबके स्वागत के लिए स्टेशनपर जाते, तब कह जाते कि मेजो ( मँझले ) मामासे मिलने जा रहा हूँ। साहब और साली, इन दो नौकानोंपर पैर रखकर हतभागे नवेन्दुबाबू बहुत ही मुश्किल में पड़ गये। सालियोंने मन ही मन कहा कि तुम्हारी दूसरी नौकाको नष्ट किये बिना हम चैन नहीं लेनेकी । ___ यह खबर बड़ी तेजीके साथ फैल गई कि महारानीके अागासी जन्म दिनके अवसरपर नवेन्दुबाबू खिताब-स्वर्ग-लोककी पहली सोढ़ी 'रायबहादुर' पदवीपर पदार्पण करेंगे। किन्तु वह वे बारे इतने बड़े सम्मानलाभका आनन्दपूर्ण समाचार अपनी सालियोंके सामने प्रकट नहीं कर लके । केवल एक दिन शरत्-शुक्ल पक्षकी सन्ध्याको सर्वनाशो चन्द्रमाके प्रकाशमें उनसे अपने चित्तका आवेग नहीं रोका गया और उन्होंने अपनी स्त्री को यह शुभ संवाद सुना ही डाला । दूसरे दिन उनकी स्त्री अपनी बड़ी बहनके यहाँ गई और आँसू भरकर अपना असन्तोष प्रकट करने लगी। लावण्यलेखाने कहा-यह तो बहुत अच्छा हुआ ! राय Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक बहादुर हो जानेसे तेरे पतिको कुछ दुम तो निकल ही न आवेगी। फिर लजित होनेका कारण ? अरुणलेखा बार बार कहने लगी-नहीं बहन, और चाहे जो हो, मैं रायबहादुरनी तो न बनूंगी। बात यह थी कि अरुणलेखाके परिचित भूतनाथ बाबू रायबहादुर थे और यही कारण था जो वह रायबहादुरनी बनना नापसन्द करती थी ! ___ लावण्यने बहुत कुछ ढाढस बँधाकर कहा--अच्छा, इस विषयमें तू जरा भी चिन्ता न कर, हम सब ठीक कर लेंगी। लावण्यके पति नीलरतन बक्सरमें काम करते थे। शरदऋतु के अन्तमें नवेन्दुबाबूको लावण्यने अपने यहाँ निमंत्रित किया। नवेन्दुबाबू बड़ी खुशीके साथ तत्काल बक्सर चल दिये । यद्यपि रेलपर पैर रखते समय उनकी बाई अाँख नहीं फड़की, परन्तु इससे केवल यही सिद्ध हुआ कि आसन्न विपत्ति के समय बाई आँखका फड़कना केवल एक बिना सिर-पैरका बहम है। लावण्यलेखाके शरीरसे नवीतागमसम्भूत स्वास्थ्य और सौन्दर्यकी लालिमा फूटी पड़ती थी। जिस तरह शरत्-कालमें काँसके खेत फूलकर लहराते हुए शोभा विस्तार करते हैं, उसी तरह लावण्यलेखाकी सुन्दरता हँसीकी हिलोरोंसे झलमल झलमल करती थी। नवेन्दुबाबूकी मुन्ध दृष्टिके ऊपर मानो एक पूर्णपुरिपता मालतीलता नये प्रभातकी शीतल ओसकी बूंदें बरसाने लगी। मनकी प्रसन्नता और बक्सरके जल-वायुसे नवेन्दुका अजीर्ण रोग दूर हो गया । स्वास्थ्यके नशेसे, सौन्दर्यके मोहसे और सालीकी सेवा शुश्रूषासे वे मानो धरती छोड़कर आकाशसे बातें करने लगे। उनके बगीचेके सामने से होकर भरी-पूरी गंगा मानो उन्हींके मनके दुरन्त पाग-- Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० रवीन्द्र-कथाकुन लपनको आकार देकर बड़ी भारी गड़बड़ मचाती हुई प्रबल आवेगके साथ बिना किसी उद्देश्य के बही जाती थी। बड़े तड़के नदीके किनारे टहलते समय शीत-प्रभातकी स्निग्ध धूप मानो प्रिय-मिलनके उत्तापके समान उनके सारे शरीरको चरितार्थ कर देती । इसके बाद वापस लौट आनेपर सालीके रसोई बनानेके कार्य में सहायता देनेका भार लेकर नवेन्दुबाबू अपनी अज्ञता और अनिपुणता पद पद पर प्रकाशित किया करते । परन्तु इस मूढ़ अनभिज्ञका इस विषयमें जरा भी आग्रह नहीं देखा गया कि अभ्यास और मनोयोगके द्वारा अपनी त्रुटियोंका संशोधन किया जाय । प्रतिदिन अपनेको दोषी बनाकर वे जो झिड़कियाँ और ताड़नाएँ प्राप्त करते थे, उनसे उनको जरा भी तृप्ति नहीं होती। जितना चाहिए उतना मसाला डालने, चूल्हेपरसे बरतन उतारने चढ़ाने, ज्यादा आँचसे भोजन जल न जाय इसकी सावधानी रखने आदि कामों में वे अपनेको जान बूझकर छोटेसे बच्चे के समान अपटु, अक्षम और निरुपाय सिद्ध करते ; और इससे अपनी सालीकी कृपामिश्रित हँसी और हँसीमिश्रित झिड़कियोंका सुख भोगते । __दोपहरको, एक अोर भूखकी ताड़ना, दूसरी ओर सालीकी जबदस्ती, अपना अाग्रह और प्रियजनका औत्सुक्य, रसोईकी विशेषताएँ और रसोई बनानेवालीकी सेवा-मधुरता ; इन सबके संयोगसे भोजनका परिमाण ठीक बनाये रखना उनके लिए कठिन हो जाता । अाहारके बाद मामूली ताश खेलने में भी नवेन्दुबाबू अपनी प्रतिभाका परिचय नहीं दे सकते । उसमें भी वे चोरी करते, हाथके पत्ते देख लेते, खींचातानी और बकझक करते ; तो भी जीत नहीं सकते । न जीतने पर भी जबर्दस्ती अपनी हार अस्वीकार करते और इसके लिए प्रति दिन उनकी बड़ी ही भद्द होती । तो भी वे अपनी भूल सुधारनेकी जरा भी कोशिश न करते। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक केवल एक बात में उन्होंने पूरा पूरा सुधार कर लिया। इस समय वे यह बात प्रायः भूल ही गये कि साहब लोगोंका कृपा प्रसाद ही जीवनका परम लक्ष्य है और अपने संबंधी जनोंकी श्रद्धा और प्रीति कितने सुख और गौरवकी चीज है, इसका वे सारे अन्तःकरण से अनुभव करने लगे । ३१ इसके सिवा, वे मानो एक नई परिस्थितिमें जा पड़े। लावण्यके पति नीलरतनबाबू अदालत के सबसे बड़े वकील होनेपर भी कभी साहब atrina मुलाकात के लिए नहीं जाते थे । जब कभी इस बातकी चर्चा उठती, तब वे कहते – इसकी जरूरत ही क्या है ? यदि बदले में उचित शिष्टाचार न मिला, तो हम जो कुछ देते हैं, वह तो किसी तरह वापस मिल ही नहीं सकता । मरुभूमिकी रेत स्वच्छ और सफेद होती है; पर क्या केवल इसी कारण उसमें बीज बोने से कोई लाभ हो सकता है ? यदि फसल वापस मिले तो काली जमीनमें भी बीज बोना अच्छा है । नवेन्दुबाबू भी खिंचाव में पड़कर इसी दलमें या मिले। इसका परिणाम क्या होगा, इसकी चिन्ता उन्होंने छोड़ दी । उनके स्वर्गवासी पिताने और स्वयं उन्होंने जो जमीन तैयार पहले से कर रक्खी थी, केवल उसीमें 'रायबहादुरी' की उपजकी संभावना बढ़ने लगी; उसमें नई सिंचाई की जरूरत नहीं समझी गई । नवेन्दुबाबूने साहब लोगों के एक अतिशय प्यारे स्थान में उनके लिए घुड़दौड़का एक मैदान तैयार करा दिया था । इसी समय कांग्रेसका समय समीप आ गया । नीलरतन बाबूसे अनुरोध किया गया कि श्राप चन्दा इकट्ठा करनेका प्रयत्न करने की कृपा करें | नवेन्दुबाबू लावण्यके साथ प्रसन्नतापूर्वक ताश खेल रहे थे । इतनेमें नीलरतन चन्द्रेकी फेहरिस्त लिये हुए आ पहुँचे और बोले कि इसपर सही करनी होगी । पूर्व संस्कार के कारण नवेन्दुका मुख सूख गया । लावण्यने ताना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मारते हुए कहा-खबरदार ऐसा काम न करना, नहीं तो तुम्हारा घुड़दौड़का मैदान मिट्टी हो जायगा ! ___ नवेन्दुने फड़ककर कहा-इसी चिन्ताके कारण आज रातको मुझे नींद नहीं आई! नीलरतनने आश्वासन देकर कहा-आपका नाम किसी अखबारमें प्रकाशित नहीं होगा। लावण्यने अतिशय गंभीरताके साथ कहा-तो भी जरूरत ही क्या है ? यदि कहीं किसी तरह... ___नवेन्दुने तीव्र स्वरस्से कहा-अखबारों में नाम प्रकाशित होनेसे क्या मैं डरता हूँ ? यह कहकर नीलरतनके हाथसे फेहरिस्त लेकर उन्होंने चटसे एक दम एक हजार रुपया लिख दिया । पर उन्हें यह विश्वास बना ही रहा कि यह बात अखबारों में प्रकाशित न होगी।। लावण्यने मस्तकपर हाथ रखकर कहा-यह आपने क्या किया ? नवेन्दुने घमण्डके साथ कहां-क्यों, क्या कोई अनुचित काम हो गया ? ___ लावण्यने कहा-यदि सियालदह स्टेशनका गार्ड, ह्वाइट वे कम्पनीकी दूकानका असिस्टेण्ट, हार्ट ब्रदर्सका साईस आदि सब तुमसे नाराज होकर कहीं रूठ बैठे, यदि तुम्हारे निमंत्रण में शराब पीने न आये और यदि मुलाकात होनेपर तुम्हारी पीठ न ठोंकी, तो____ नवेन्दुने उद्धृतताके साथ कहा—यदि ऐसा हुआ तो मैं घर जाकर जान दे दूंगा! कुछ दिनोंके बाद नवेन्दुबाबूने चाय पीते हुए एक अखबार में एक x नामधारी लेखकका पत्र पढ़ा जिसमें उसने इन्हें अनेक धन्यवाद देकर कांग्रेसके चन्देकी बात प्रकाशित कर दी थी और लिखा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक था कि नवेन्दुबाबू जैसे गण्य मान्य व्यक्तिकी प्राप्तिसे कांग्रेसकी कितनी बल वृद्धि हुई है, इसका अन्दाज नहीं किया जा सकता। ___ कांग्रेसकी बलवृद्धि ? हाय स्वर्गीय तात पूर्णेन्दुशेखर ! क्या तुमने इस हतभागेको कांग्रेसकी बल-वृद्धि करनेके लिए ही भारत-भूमिमें जन्म दिया था? किन्तु दुःखके साथ सुख भी है। नवेन्दु जैसे आदमी साधारण श्रादमी नहीं समझे जा सकते। यह बात छिपाई नहीं जा सकी कि उन्हें अपनी अपनी ओर खींच लानेके लिए, एक अोर भारतवर्षीय अँगरेज लोग और दूसरी ओर कांग्रेसके भक्तजन, बड़ी उत्सुकताके साथ अपनी अपनी बंसी डाले हुए एकटक देख रहे हैं । अतएव नवेन्दुने हँसते हँसते वह अखबार लावण्यको दिखलाया । जैसे वह कुछ जानती ही न हो, इस तरह आश्चर्ययुक्त होकर बोली-अरे बापरे ! इस भले श्रादमीने तो बिलकुल भंडा-फोड़ कर दिया। हाय हाय ! तुमने इसका क्या बिगाड़ा था ! इसकी कलमको घुन लग जाय, इसकी स्याहीमें धूल पड़ जाय, इसके कागजों में दीमक लग जाय नवेन्दुने हँसकर कहा-अब आप मेरे शत्रुपर अधिक शापोंकी वर्षा मत कीजिए। मैं अपने शत्रुको क्षमा करके आशीर्वाद देता हूँ कि उसकी कलम-दावात सोनेको हो जाय । दो दिनके बाद नवेन्दुबाबूके हाथमें अँगरेज़-सम्पादित एक अँगरेज़ी अखबार आ पड़ा जिसमें एक जानकार की सहीसे पूर्वोक्त संवादका प्रतिवाद प्रकाशित हुअा था । लेखकने लिखा था-जो लोग नवेन्दुवाबूको जानते हैं वे इस बातपर कभी विश्वास नहीं करेंगे कि वे इस प्रकारकी बदनामीका काम कर सकते हैं। चीतेके लिए जिस तरह अपने चमड़ेपरकी काली धारियोंका परिवर्तन करना संभव है, उसी प्रकार नवेन्दुके लिए भी कांग्रेसमें शामिल होना संभव है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज बाबू नवेन्दुशेखरमें काफी योग्यता और मौलिकता है, वे बेकार उम्मेदवार और मवक्किलशून्य वकील नहीं हैं। वे उस ढंगके आदमी भी नहीं हैं जो कुछ दिनों विलायतकी हवाखोरी करके, और उसके प्रभावसे अपनी वेशभूषा और प्राचार-व्यवहारमें अद्भुत कपिवृत्तिको स्थान देकर स्पर्धाके साथ अँगरेज़ समाजमें प्रवेशोद्यत होते हैं और अन्तमें धक्के खाकर हताश हो बैठते हैं। ऐसी दशामें वे ऐसा क्यों करेंगे ?...इत्यादि इत्यादि। ___ हाय परलोकगत पिता पूर्णेन्दुशेखर ! तुमने अँगरेजोंके निकट इतना अधिक नाम और विश्वास कमाकर परलोकगमन किया था ! ___ यह चिट्ठी भी मयूरपुच्छके समान फैलाकर सालीके सामने उपस्थित करने योग्य थी। इसमें एक बहुत ही महत्त्वकी बात लिखी थी कि नवेन्दुवाबू कोई अप्रसिद्ध अकिञ्चन अभागे आदमी नहीं हैं, वे एक सारवान् और पदार्थवान् सज्जन हैं ! ___ लावण्यने मानो आसमानसे जमीनपर गिरकर कहा-अबकी बार यह तुम्हारे किस परम मित्रने लिखनेकी कृपा की ? किसी टिकट कलेक्टरने ? किसी चमड़ेके दलालने या किसी बैंडबाजेके मैनेजरने ? । __नीलरतनने कहा-आपको उचित है कि इस चिट्ठीका एक प्रतिवाद प्रकाशित कर दें। ___ नवेन्दुने कहा-जरूरत ही क्या है ! क्या मैंने ठेका ले रक्खा है कि जो कुछ मेरे विषय में लिखा जाय, उस सबका मैं प्रतिवाद करता फिरूँ ? लावण्यने बड़े जोरसे हँसीका एक फुहारा छोड़ दिया । नवेन्दुने अप्रतिभ होकर कहा-इसमें हँसीकी क्या बात है ? उत्तरमें लावण्य फिर बड़े जोरसे हँसी और हँसते हँसते उसकी पुष्पित-यौवना देहलता जमीनपर लोटने लगी। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक ३९ - - इस प्रचुर परिहासकी पिचकारीसे नवेन्दुबाबूके नाक, मुख और नेत्र सब शराबोर हो गये। उन्होंने कुछ चुण्ण होकर कहा-क्या आप यह समझ रही हैं।कि मैं प्रतिवाद करनेसे डरता हूँ? __ लावण्यने कहा-सो क्यों समदूंगी ! मैं सोचती हूँ कि तुम अपनी बड़ी बड़ी आशाओं और भरोसेके स्थल उस घुड़दौड़के मैदानको बचानेकी चेष्टा अब भी नहीं छोड़ रहे हो ; और यह ठीक भी है-जब तक स्वासा तब तक आशा ! ___नवेन्दुने कहा-मैं शायद इसी लिए नहीं लिख रहा हूँ ! इसके बाद बहुत गरम होकर वे दावात कलम लेकर बैठ गये । परन्तु उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें क्रोधकी ललाई फीकी ही रह गई, इस कारण उसके संशोधनका भार लावण्य और नीलरतनको लेना पड़ा । पूरी बनानेकी बारी आनेपर नवेन्दुबाबू जिन पूरियोंको जल और घृतमें ठंडी ठंडी और नरम नरम करके और दबाकर यथासाध्य चपटी करके बेल देते थे, उनको उनके दोनों सहकारी तत्काल ही तलकर कड़ी और गरम करके फुला देते थे। ठीक यही दशा उनके लेखकी भी हुई । उसमें लिखा गया कि आत्मीय जन जब शत्रु हो जाते हैं, तब वे बहिःशत्रुकी अपेक्षा अधिक भयंकर होते हैं। पठान और रूसी लोग भारत-सरकारके वैसे शत्रु नहीं हैं जैसे गर्वोद्धत एंग्लो-इंडियन । सरकार और प्रजाके बीच निरापद मित्रता होने देनेमें ये ही सबसे बड़े अन्तराय हैं। कांग्रेसने राजा और प्रजाके बीच स्थायी सद्भाव-साधनका जो प्रशस्त राज-पथ खोल रक्खा है, एंग्लोइंडियन पेपर उसके बीच काँटे बिखेर रहे हैं । इत्यादि । नवेन्दु भीतर ही भीतर कुछ भयभीत हुए, परन्तु यह सोचकर कि लेख बहुत अच्छा लिखा गया है, रह रहकर उन्हें कुछ अानन्द भी आने लगा । यह बात उनकी शक्तिसे बाहर थी कि वे ऐसी सुन्दर रचना कर सकते। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र - कथाकुञ्ज इसके बाद कुछ दिनों तक वाद- विसंवाद, वाद-प्रतिवाद से पत्रों के कालमके कालम रँगे गये और नवेन्दुके चन्देकी तथा कांग्रेस में योग देनेकी चर्चा दशों दिशाओं में व्याप्त हो गई । T इस समय नवेन्दु बाबूने मानो अपना चोला बदल लिया और वे अपनी सालियों के बीच अत्यन्त देशहितैषीके रूपमें दर्शन देने लगे । लावण्यने मन ही मन हँसकर कहा - किन्तु, अभी तुम्हारी श्रमि परीक्षा तो बाकी ही है ! एक दिन सबेरे नवेन्दु स्नान करने के पहले तेल मल रहे थे । छातीके बाद पीठके दुर्गम स्थानों तक तेल पहुँचानेकी कोशिश में लगे थे कि इतने में नौकरने आकर उनके हाथमें एक विजिटिंग कार्ड लाकर दिया जिसमें स्वयं मजिस्ट्रेट साहबका नाम था । लावण्य आड़ में खड़ी हुई सहास्य नेत्रोंसे यह कुतूहलपूर्ण घटना देख रही थी । तैललित अवस्था में मजिस्ट्रेट के साथ कैसे मुलाकात की जाय ? नवेदुबाबू इस तरह छटपटाने लगे जिस तरह तले जाने के पहले मसाले से भरी मछली छटपटाती है। जल्दी जल्दी बातकी बातमें स्नान करके और किसी तरह कपड़े पहनकर वे दौड़ते हुए बाहरके बैठकखाने में पहुँचे । बैराने कहा – साहब बहुत समय तक बैठे बैठे चले गये । इस श्राद्यन्त मिथ्याचरणके पापमें कितना अंश बैराका था और कितना लावण्यका, यह नैतिक गणित शास्त्रकी एक सूक्ष्म समस्या है । छिपकलीकी कटी हुई पूँछ जिस तरह अन्धभावसे छटपटाती रहती है, उसी तरह नवेन्दुका क्षुब्ध हृदय भीतर ही भीतर छटपटाने लगा । सारे दिन खाते पीते सोते बैठते उन्हें बेचैनीने चैन नहीं लेने दिया । लावण्य भीतरी हँसीके सारे ग्राभासको मुँहपरसे बिलकुल दूर करके बड़ी उद्विग्नता से ठहर-ठहर कर पूछने लगी- भला आज तुम्हें क्या हो गया है ! तबीयत तो खराब नहीं है ? Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक नवेन्दुने सूखी हँसी हँसकर किसी तरह एक देशकालपात्रोचित उत्तर निकालकर बाहर किया। कहा-तुम्हारे इलाकेमें तबीयत खराब कैसे हो सकती है ! तुम तो मेरी धन्वन्तरिनी हो! किन्तु तत्काल ही उनकी वह हँसी विलीन हो गई। वे सोचने लगे --एक तो मैंने कांग्रेसके लिए चन्दा दियां, अखबार में कड़ी चिट्ठी प्रकाशित कराई और उसके ऊपर आज मजिस्ट्रेट साहबके खुद आनेपर भी मैं उनसे मुलाकात न कर सका। मालूम नहीं, वे क्या सोचते होंगे! हाय पिता ! हाय पूर्णेन्दुशेखर ! यह सब भाग्यकी ही विचित्रता है कि इस झगड़ेमें पड़कर मैं जो नहीं था, वही बना जा रहा हूँ। ___ दूसरे दिन सज-धजकर, घड़ी-चैन लटकाकर और मस्तकपर एक बड़ा-सा साफा बाँधकर नवेन्दुबाबू घरसे बाहर हुए । लावण्यने पूछाकहाँ जाते हैं ? नवेन्दुने कहा-एक जरूरी कामसे जा रहा हूँ। लावण्यने कुछ नहीं कहा। साहबके द्वारके निकट कार्ड निकालते ही अर्दलीने कहा-इस समय मुलाकात नहीं हो सकती। नवेन्दुने पाकेटमेंसे दो रुपये निकाले । अर्दलीने संक्षिप्त सलाम करके कहा-हम लोग पाँच आदमी हैं। नवेन्दुने तत्काल ही दस रुपयेका नोट दे दिया। ___ साहबके यहाँसे तलबी हुई ! साहब उस समय स्लीपर और मानिङ्ग गौन पहने हुए लिख-पढ़ रहे थे। नवेन्दुने जाकर सलाम किया । मजिस्ट्रेटने उँगलीसे बैठनेका इशारा करके कागजकी अोरसे दृष्टि न हटाकर कहा-बाबू , क्या कहना चाहते हो ? नवेन्दुने घड़ीकी चैन हिलाते हिलाते विनीत और कम्पित स्वरसे Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज कलकत्ते में पदार्पण करते ही कांग्रेसके लोगोंने नवेन्दुको चारों ओरसे घेरकर एक बड़ा भारी ताण्डव शुरू कर दिया । सम्मान समादर और स्तुति-वादकी सीमा न रही। सभीने कहा कि आप जैसे प्रतिष्ठित पुरुष जबतक देशके काममें योग न देंगे, तब तक देशका उद्धार नहीं हो सकता । इस बातकी यथार्थताको नवेन्दु अस्वीकार नहीं कर सके और इस गोलमालमें वे एकाएक देशके नेता बन बैठे । जब उन्होंने कांग्रेसके सभामण्डपमें प्रवेश किया, तब सब लोगोंने एक साथ उठकर विजातीय विलायती स्वरमें 'हिप हिप हुरे' शब्दसे उनका उत्कट अभिवादन किया। मातृभूमिके कर्ण-मूल लज्जाके मारे लाल हो गये ! यथासमय महारानीका जन्मदिवस आ पहुँचा। नवेन्दुका 'रायबहादुर' खिताब निकट-समागत मरीचिकाके समान अन्तर्धान हो गया। उसी दिन सन्ध्याको लावण्यलेखाने बड़े समारोहके साथ नवेन्दु बाबूको निमंत्रण दिया और उन्हें नवीन वस्त्रोंसे भूषित करके अपने हाथसे रक्तचन्दनका तिलक लगाया। इसके बाद उनकी प्रत्येक सालीने अपने अपने हाथोंकी गूंथी हुई एक एक पुष्पमाला उनके गले में पहना दी। बाड़में खड़ी हुई अरुणाम्बरभूषिता अरुणलेखा हास्य, लज्जा और अलंकारोंसे झलमल झलमल कर रही थी । उसके स्वेदाञ्चित और लज्जा-शीतल हाथों में एक सुन्दर माला देकर बहनोंने बहुत कुछ खींचतान की ; परन्तु उसने किसी तरह न माना और इस तरह वह प्रधान माला नवेन्दुके कण्ठकी कामना करती हुई चुपचाप जनहीन रात्रिकी प्रतीक्षा करने लगी। सालियोंने कहा-अाज हमने तुम्हें राजा बना दिया। भारतवर्षमें ऐसा सम्मान तुम्हें छोड़कर और किसीको नहीं मिला। इससे नवेन्दुबाबूको सम्पूर्ण सान्त्वना मिली या नहीं, इसे उनका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतिलक अन्तःकरण और अन्तर्यामी ही जान सकते हैं। किन्तु हमें इस विषयमें पूरा पूरा सन्देह है। हमारा तो यही विश्वास है और वह बहुत ही पक्का है कि मरनेके पहले वे रायबहादुर अवश्य होंगे और उनकी मृत्यु होनेपर इंग्लिशमेन और पायोनियर एक स्वरसे शोक किये बिना न रहेंगे। अतएव इस बीचमें Three cheers for Babu पूर्णेन्दुशेखर ! हिप हिप हुरै ! हिप हिप् हुएँ ! हिप हिप हुरै ! Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति अपूर्वकृष्ण बी० ए० की परीक्षामें उत्तीर्ण होकर कलकत्तेसे अपने घर आ रहे हैं। उनके ग्रामके पासकी नदी यद्यपि बहुत ही छोटी है और इस कारण वर्षाके अन्तमें प्रायः सूख जाया करती है ; परन्तु इस समय, श्रावणका महीना है इससे, जलसे परिपूर्ण होकर ग्रामकी सीमा और बाँसोंकी झाड़ीके तलदेशको चूमती हुई बह रही है । ___ बहुत दिनोंकी लगातार वर्षा के बाद अाज अाकाश निर्मल हो गया है और धूप निकल आई है। ___ नावपर बैठे हुए अपूर्वकृष्णका अंतरंग यदि किसी तरह देखा जा सकता तो वहाँ भी हम देखते कि इस युवककी मानस-नदी नव वर्षासे दोनों तटोंको चूमती हुई प्रकाशसे झलमल झलमल और हवासे छलछल करती हुई बह रही है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति ४३ नाव घाटपर आकर लग गई । वहाँसे वृक्षों की घोटमेंसे पूर्व के घरकी पक्की छत दिखलाई देती थी । अपूर्वने अपने श्रनेका समाचार नहीं दिया था, इस कारण उन्हें लेने के लिए कोई घाटपर नहीं आया । नावका मल्लाह उनका 'बेग' लेकर चलनेको उद्यत हुआ; परन्तु उन्होंने उसे रोक कर स्वयं ही बेग उठा लिया और वे आनन्दके आवेश में झट से नीचे उतर पड़े | उनका नीचे पैर रखना था कि किनारेकी फिसलनेवाली भूमिके कारण वे बेगसमेत कीचड़ में गिर पड़े। वे ज्यों ही गिरे त्यों ही कोई बड़े मीठे स्वरमें खूब जोरसे हँसा जिससे निकटवर्ती बड़पर बैठे हुए पक्षी चौंक उठे । पूर्व अत्यन्त लज्जित होकर जल्दीसे उठ बैठे और चारों ओर देखने लगे । देखा कि पास ही ईंटोंका एक ढेर लगा हुआ है और उसीपर बैठी हुई एक लड़की हँसती हँसती लोट पोट हुई जा रही है । पूर्वने पहचान लिया कि वह उनकी नई पड़ोसिनकी लड़की मृमयी है । कोई दो ही तीन वर्ष हुए हैं कि यह पड़ोसिन इस गाँव में श्राकर बसी है। पहले उसका घर यहाँसे बहुत दूर एक बड़ी नदीके किनारे था । नदीकी बाढ़ में घर बह जानेके कारण उसे अपना ग्राम छोड़कर यहाँ आना पड़ा है । गाँव में इस लड़की की इतनी निन्दा की जाती है कि उसका वर्णन नहीं हो सकता । वहाँ के पुरुष तो उसे स्नेहपूर्वक 'पगली' कहकर पुकारते हैं, पर स्त्रियाँ उसकी उच्छृङ्खलताके कारण सदा ही भीत चिन्तित और शंकान्वित रहती हैं। वह केवल लड़कों के साथ खेलती है, लड़कियोंसे उसे बड़ी ही घृणा है, कभी उनके पास भी नहीं फटकती । शिशु- राज्य उसके उवद्रवोंके मारे मराठा घुड़सवारोंके उपद्रवों के समान तंग है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज वह अपने बापकी बहुत ही लाड़ली लड़की है, इसी कारण उसका इतना दुर्दान्त प्रताप है । यद्यपि उसकी माता इस विषयमें सर्वदा अपने पतिकी शिकायत ही किया करती है ; परन्तु यह सोचकर कि बाप उसे बहुत ही चाहता है और जब कभी वह पास रहता है तब मृण्मयीके आँसू उसे बहुत ही कष्टकर होते हैं, वह अपने प्रवासी पतिका स्मरण करती हुई उसके परोक्षमें भी मृण्मयीको कभी सताती नहीं है। मृण्मयी देखने में काली है। उसके छोटे छोटे धुंघराले बाल पीठ तक बिखरे रहते हैं । उसके मुखका भाव ठीक लड़कोंके सदृश है । उसके बड़े बड़े काले नेत्रों में न लज्जा है, न भय है और न हाव-भाव-लीलाका लेश । शरीर दीर्घ, परिपुष्ट, स्वस्थ और सबल है, परन्तु उसे देखकर किसीके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि उसकी उमर कम है या ज्यादा। यदि उठता तो लोग उसके माता-पिताकी अवश्य निन्दा करते । यदि किसी दिन इस ग्रामके विदेशी जमींदारकी नाव घाटपर श्राकर लग जाती है तो लोग घबराकर श्रादरके साथ उठ खड़े होते हैं और स्त्रियोंकी मुख-रंगभूमिके नासाग्रभाग तक यवनिका पड़ जाती है; परन्तु मृण्मयी किसीके नंगे बच्चेको गोद में लिये हुए न जाने कहाँसे आ जाती है और अदब-कायदेकी जरा भी परवा न करती हुई बिलकुल सामने जाकर खड़ी हो जाती है। इसके बाद वह व्याधाओं से रहित देशके हरिणशिशुओं की तरह निडर होकर बड़े ही कुतूहलसे टकटकी लगाकर देखती और अन्तमें अपने बालक संगियों के पास जाकर इस नवागत प्राणीके श्राचार-विचारोंका खूब विस्तारके साथ वर्णन करती है । ____ हमारे अपूर्व बाबू इससे पहले और भी दो चार बार इस बन्धन विहीन बालिकाको देख चुके हैं और उसके विषयमें बहुत कुछ विचार भी कर चुके हैं। पृथ्वीमें ऐसे मुख तो अनेक हैं जो आँखोंपर चढ़ जाते हैं ; परन्तु कोई कोई ऐसे भी हैं कि बिना कुछ कहे सुने ही आँखोंको Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति पार करके एकाएक मानस-तटपर श्रा विराजते हैं। परन्तु ऐसा केवल उनके सौन्दर्य के कारण नहीं बल्कि एक और गुण के कारण होता है ; और हमारी समझमें वह गुण शायद सुस्पष्टता है। अधिकांश मुखोंमें मनुष्य-प्रकृति अच्छी तरह स्पष्टताके साथ प्रकाशित नहीं हो पाती; परन्तु जिस मुखमें वह अन्तर्गुहानिवासी रहस्यमय मनुष्य बिना रुकावटके बाहरसे दिखाई पड़ जाता है वह हजारोंके बीचमें भी आँखोंपर चढ़ जाता है और बातकी बात में मनपर मुद्रित हो जाता है । इस बालिकाके मुखपर और नेत्रोंपर भी एक दुरन्त और अबाध्य नारी-प्रकृति सर्वदा उन्मुक्त और वेगवान् अरण्य-मृगके समान दिखलाई देती है- खेलती है; इसीलिए इसका जानदार चेहरा यदि एक बार देख लिया जाय तो फिर भुलाये नहीं भूलता। पाठकोंसे यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि मृण्मयीकी कौतुकमयी हँसी चाहे कितनी ही मीठी क्यों न हो; परन्तु अभागे अपूर्वको वह उतनी अच्छी नहीं लगी । वे अपना बेग मल्लाहके हाथमें देकर बड़ी तेजीके साथ घरकी ओर चल दिये । उस समय उनका मुँह लाल हो रहा था । _तैयारी बहुत ही बढ़िया हुई थी – नदीका किनारा, वृक्षोंकी छाया, सबेरेकी धूप और बीस वर्षकी उम्र । यद्यपि वह ईटोंका ढेर उतना उल्लेखयोग्य नहीं था ; परन्तु जो व्यक्ति उसपर बैठी थी, उसने उस सूखे कठिन आसनको एक मनौहारिणी सुन्दरतासे अवश्य मढ़ दिया। इतने पर भी यह कैसे दुःखकी बात है और भाग्यदेवताकी यह कैसी निष्ठुरता है कि इस सुन्दर दृश्यके भीतर पैर रखते ही सारा कवित्व एक प्रहसनमें परिणत हो गया! आखिर ईंटोंके उस ढेरकी चोटीसे निकली हुई हास्य-गंगाका कलनिनाद सुनते-सुनते अपूर्व बाबू अपने घर पहुँच गये। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज पुत्रके एकाएक आजानेसे माता पुलकित हो गई और अड़ोस पड़ोसमें भी एक प्रकारकी हलचल-सी मच गई। भोजनोपरान्त माताने अपूर्व के विवाहकी बात उठाई । अपूर्व बाबू अबकी बार इसके लिए तैयार होकर ही आये थे। उन्हें नये जमानेकी हवा लगी थी, इस कारण वे प्रतिज्ञा कर बैठे थे कि मैं बी० ए० हुए बिना विवाह न करूँगा और इसीलिए अबतक उनका विवाह नहीं हुआ था। उनकी माता भी इसी कारण अबतक चुप थी। उन्होंने सोचा कि अब टालमटोलसे काम नहीं चल सकता और कहा-विवाह तो तब होगा, जब पहले कोई कन्या ठीक कर ली जायगी । माँने उत्तर दियाकन्या देख ली गई है और बातचीत भी तै हो गई है । तुझे इसकी चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं । परन्तु अपूर्वने इस चिन्ताको अपने सिरपर ही लेना उचित समझा और कह दिया-कन्याको जब तक मैं स्वयं न देख लूँगा ; तब तक विवाह नहीं होगा । माँने देखा कि लड़का बड़ा ही निर्लज्ज हो गया है और अब घोर कलियुग आ गया है ; परन्तु उसे अन्तमें पुत्रके ही इच्छानुसार चलना पड़ा। उस रातको अपूर्व बिछौनेपर लेटे हुए थे। दीपक बुझ गया था । उनकी आँखोंमें नींद नहीं थीं। चारों ओर सन्नाटा था। उनके कानों में वही उच्चकण्ठसे निकली हुई मधुर हँसी प्रतिध्वनित होने लगी और उनका मन बार बार यह कह कर कष्ट देने लगा कि सबेरेकी वह पैर फिसल जानेकी गलती किसी न किसी तरह सुधार लेनी चाहिए। उस लड़कीको यह नहीं मालूम कि मैं बी० ए० तक पढ़ा हूँ और कलकत्तेमें बहुत समय तक रहकर आया हूँ, अतएव यदि दैवात् पैर फिसल जानेसे गिर भी पड़ा, तो केवल इतने से ही उपहास्य या उपेक्षणीय कैसे हो गया ! क्या मैं कोई देहाती गँवार हूँ ? दूसरे दिन अपूर्व बाबू कन्या-निरीक्षण के लिए जाने को तैयार हो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति ४७. गये । बहुत दूर नहीं, उनके ही महल्ले में उसका घर था। उन्होंने धोती दुपट्टेको अलग रखकर रेशमी चपकन पहनी, पैण्ट कसा, बढ़िया फेल्ट कैप लगाई, बार्निश किया हुआ नया बूट पहना और इमीटेशन सिल्कका सुन्दर छाता हाथमें लिया। इस तरह बड़े ठाटबाटके साथ वे घरसे बाहर निकले। भावी ससुराल में पैर रखते ही आदर-सत्कारकी धूम मच गई। थोड़ी ही देरके बाद कम्पितहृदया कन्या झाड़-पोंछकर, रंग-रँगाकर, माँगनें सिन्दूर भरकर और एक, पतले रंगीन कपड़ेमें लपेटकर वरके सामने उपस्थित की गई। वह अपने मस्तकको घुटनोंके बीचमें डाले हुए एक ओर चुपचाप बैठ गई और एक प्रौढ़ा दासी साहस दिलानेके लिए उसके पीछे खड़ी हो गई। कन्याका छोटा भाई अपने परिवारमें अनधिकार-प्रवेशोद्यत इस युवककी टोपी, घड़ीकी चैन और उगती हुई मूंछोंको टकटकी लगाकर देखने लगा। अपूर्व बाबूने कुछ समय तक मूंछोंको ऐंठते ऐंठते बड़ी ही गम्भीरतासे प्रश्न किया कि तुम क्या पढ़ती हो ? परन्तु वसनाभूषणोंसे ढके हुए उस लज्जा-स्तूपने कोई उत्तर न दिया। आखिर दो तीन बार प्रश्न किये जाने और दासीके द्वारा बारबार उत्साहजनक कर-ताड़न पानेपर उसने बहुत ही धीरे एक ही साँसमें बड़ी तेजीके साथ कह डाला-बालबोध द्वितीय भाग, व्याकरणसार, हिन्दुस्तानका भूगोल, पाटीगणित और भारतवर्षका इतिहास । इसी समय बाहरसे किसीके आनेकी आहट मिली और तत्काल ही दौड़ती हाँफती और पीठ परके बालोंको हिलाती हुई मृण्मयी श्रा पहुँची। उसने अपूर्वकृष्णकी ओर देखा तक नहीं और कन्याके छोटे भाई राखालका हाथ पकड़कर खींचातानी शुरू कर दी। उस समय राखाल पर्यवेक्षणके काममें तन्मय था, इसलिए वह किसी तरह वहाँसे जानेको राजी न हुआ। दासी इस बातका खयाल रखते हुए कि मेरे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज संयत कण्ठ-स्वरकी कोमलता कम न हो जाय, यथासाध्य तीव्रताके साथ मृण्मयीको डाँटने डपटने लगी । अपूर्व बाबू अपनी सारी गंभीरता और गुरुताको एकत्र करके चुपचाप पेटके पास लटकती हुई घड़ीकी चैन हिलाने लगे। मृण्मयीने देखा कि राखाल टससे मस नहीं होता, तब वह उसकी पीठपर तड़ाकसे एक धौल जमाकर और कन्याका घूघट खोलकर आँधीके समान तेजीके साथ बाहर हो गई । इसपर दासी क्रुद्ध होकर गरजने लगी और राखाल बहनका घूघट खुल जानेके कारण खिलखिलाकर हँसने लगा। उसकी पीठपर जो जोरकी धौल पड़ी थी, उसे उसने बेजा नहीं समझा ; क्योंकि वह एक मामूली घटना थी। इस प्रकारका लेन-देन उन दोनोंके बीच बराबर चला ही करता था । पहले मृण्मयीके बाल इतने बड़े हो गये थे कि पीठके बीचोंबीच तक आ जाते थे। एक दिन राखालने चुपचाप पीछेकी अोरसे पहुँचकर उनपर कैंची चला दी। इस पर मृण्मयीको बड़ा क्रोध आया। उसने राखालके हाथसे कैंची छीन ली और अपने शेष बालोंको भी स्वयं ही बड़ी निर्दयताके साथ काट डाला। उसके काले धुंघराले बालोंके गुच्छे डालसे गिरे हुए काले अंगूरोंकी तरह पृथ्वीपर बिखर गये । उन दोनों के बीच इसी प्रकारकी शासनप्रणाली प्रचलित थी। ___पूर्वोक्त घटनाके उपरान्त वह नीरव परीक्षा-सभा अधिक समय तक न टिक सकी। पिण्डाकार कन्या किसी तरह फिरसे दीर्घाकार होकर दासीके साथ अन्दर चली गई। अपूर्व बाबू भी बड़ी ही गंभीरताके साथ अपनी विरल और सूक्ष्म मूंछोंपर ताव देते हुए उठ खड़े हुए। द्वारके निकट पहुँचकर उन्होंने देखा कि वानिश किये हुए नये जूते गायब हैं । बहुत कुछ ढूँढ खोज करने पर भी उनका पता न लगा। इस पर घरके सभी आदमी चिढ़ उठे और अपराधीके नामपर लगातार निन्दा और गालियोंकी वर्षा करने लगे। जब जूतोंके पानेकी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति कोई आशा न रही, तब अपूर्वं बाबू गृहस्वामीकी फटी-पुरानी और ढीली डाली चटी पहनकर अपनी सजावट निरखते हुए त्यन्त सावधानीके साथ उस कीचड़ भरे रास्ते से अपने घरकी ओर चले । ४६ वे ज्यों ही तालाब के किनारे के निर्जन मार्गपर पहुँचे, त्यों ही उन्हें फिर वही जोरकी हँसी सुनाई दी । उस समय ऐसा मालूम हुआ कि कौतुकप्रिया वनलक्ष्मी ही तरु-पल्लवोंकी प्रोटमेंसे अपूर्वबाबूकी यह बे-मेल चटी देखकर हँस रही है । पूर्वबाबू लज्जित से होकर ठिठक रहे और इधर उधर देखने लगे । इतनेमें ही वह निर्लज्ज अपराधिनी सघन वनमेंसे निकल आई और खोये हुए जूते उनके सामने रखकर भागने लगी। अब अपूर्व से न रहा गया, उन्होंने बड़ी फुर्ती के साथ आगे बढ़कर उसे कैद कर लिया 1 मृण्मयीने टेढ़ी मेढ़ी होकर और भरसक जोर लगाकर हाथ छुड़ाने और भागनेकी चेष्टा की; परन्तु वह सब व्यर्थ हुई । उसके घुँघराले बालोंसे ढँके, भरे और हँसते हुए चेहरेपर डालियों के बीचमेंसे छनकर आती हुई सूर्य किरणें आ पड़ीं। जिस तरह कौतुकी पथिक धूपसे चमकती हुई, निर्मल और चञ्चल नदीकी तलीको उसकी ओर झुककर देखता है, ठीक उसी तरह पूर्वने मृणमयी के ऊपर उठे हुए मुखपर झुककर उसकी बिजली के समान चंचल आँखों के भीतर गहरी नजर गड़ाकर देखा और तब बहुत ही धीरे धीरे मुट्ठी ढीली करके उसे छोड़ दिया । यदि अपूर्व ने पकड़कर मार दिया होता, तो उससे मृण्मयीको कुछ भी आश्चर्य न होता - वह एक मामूली बात होती । परन्तु वह इस गुपचुप दण्डका तो कुछ अर्थ ही न समझ सकी जो उसे उस सुनसान रास्ते पर इतनी खूबसूरती के Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज साथ दिया गया । इसके बाद ही सारे श्राकाशको व्याप्त करती हुई फिर वही चंचल हास्यध्वनि सुनाई पड़ी । ऐसा जान पड़ा कि मानो नृत्यमयी प्रकृति देवीके बिछुयोंकी झन्कार गूंज रही है । चिन्ता-निमग्न पूर्वकृष्ण बहुत धीरे धीरे पैर बढ़ाते हुए वहाँसे चल दिये और अपने घर पहुँचे । ५० ३ उस दिन पूर्व बाबू अपनी मातासे बिलकुल नहीं मिले । तरह तरहके बहाने बनाकर उन्होंने वह सारा दिन यों ही व्यतीत कर दिया । भोजन के समय मिलना पड़ता, सो उस दिन कहीं निमंत्रण था । समझ में नहीं आता कि पूर्व के समान पढ़ा लिखा और गंभीर आदमी एक मामूली बिना पढ़ी लिखी लड़की से अपना लुप्त गौरव उद्धार करने और उसे अपनी महत्ताका परिचय देनेके लिए इतना safar उत्कण्ठित क्यों हो रहा है । यदि एक देहाती लड़कीने उसे मामूली आदमी समझ ही लिया तो क्या हुआ और यदि उसने थोड़ी देर के लिए उसकी परवा न करके निर्बोध राखाल के साथ खेलने के लिए धूम मचा दी, तो इसमें भी उसका क्या बिगड़ गया ! यदि वह 'विश्वदीप' में समालोचना लिखा करता है तो लिखा करे, और उसके ट्रमेंसे एसेन्स, जूते, कपूर, चिट्टी लिखनेके रंगीन कागज और हार्मोनियमशिक्षा आदि चीजें रात्रि के गर्भ मेंसे भावी उषाकी तरह बाहर निकालने की प्रतीक्षा किया करती हैं, तो किया करें । मृण्मयीके सामने इन बातोंका सुबूत पेश करनेकी तो कोई श्रावश्यकता प्रतीत नहीं होती । परन्तु एक तो मनको समझाना कठिन काम है, और दूसरे श्रीयुत अपूर्वं कृष्णराय बी० ए० इसके लिए किसी तरह तैयार नहीं हैं कि वे एक देहाती लड़की के सामने हार मानकर चुप बैठ जाये ! Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति जब संध्या के समय अपूर्व बाबू घरके भीतर गये, तब माँने पूछा- क्यों रे अपू, लड़की देख आया ? कैसी है ? पसन्द श्रई ? ५१ पूर्वने कुछ अप्रतिभ होकर कहा – हाँ, देख आया माँ, और उनमें से एक लड़की को पसन्द भी कर श्राया । माँने आश्चर्य के साथ पूछा- लड़की तो एक ही थी, बहुतसीकहाँ गई ? अन्तमें बहुत कुछ इधर उधर करनेके बाद मालूम हुआ कि अपूर्वने पड़ोसिन की लड़की मृणमयीको पसन्द किया है । हाय ! हाय ! इतना पढ़ना लिखना सीखने पर भी लड़केकी यह पसन्द ! पहले पूर्व बहुत कुछ लज्जालु थे; परन्तु जब माताने उनकी पसन्दगी का प्रबल विरोध किया, तब वह लज्जाका प्रबल बाँध टूट गया और वे जिदमें आकर यहाँ तक कह बैठे कि यदि मैं विवाह करूँगा तो मृणमयी के ही साथ, अन्यथा करूँगा ही नहीं । ज्यों ज्यों वे अन्य मिट्टी की पुतलियों जैसी कन्याओंकी कल्पना करने लगे, त्यों त्यों विवाहसे उनकी अरुचि बढ़ने लगी । दो तीन दिन दोनों ओरसे मान अभिमान, आहार और अनिद्राकी चोटें चलने के बाद अन्त में जीत अपूर्वकी ही हुई । माँने अपने मनको समझाया कि एक तो मृण्मयी अभी निरी बच्ची है और दूसरे उसकी माँ इतनी योग्यता नहीं है कि वह अपनी लड़कीको अच्छी शिक्षा दे सके । यदि वह मेरे पास रहेगी तो मैं उसका स्वभाव अवश्य सुधार लूँगी । धीरे धीरे उन्हें यह सोचकर भी प्रसन्नता होने लगी कि उसका मुख सुन्दर है; परन्तु तत्काल ही उन्हें यह खयाल आ गया कि उसके सिरके बाल बहुत ही छोटे हैं । इससे उन्हें बड़ी ही निराशा हुई; परन्तु उन्होंने इस आशासे फिर अपने मनको समझा लिया कि यदि मैं उसका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज सिर अच्छी तरहसे गूंथ दिया करूँगी और नित्य बढ़िया तेल लगाऊँगी तो धीरे धीरे यह दोष भी दूर हो जायगा। अपूर्वकी इस पसन्दका नामकरण भी हो गया । पास-पड़ौसके लोग इसे 'अपूर्व पसन्द' कहने लगे। उस गाँवमें यद्यपि ऐसे लोगोंकी कमी नहीं थी जो मृण्मयीको प्यार करते थे, परन्तु ऐसा एक भी नहीं दिखलाई दिया जो उसके साथ अपने लड़केका विवाह कर देना पसन्द करता हो। यथासमय मृण्मयीके पिता ईशान मजूमदारको इस बातकी खबर दे दी गई । वह नदीके किनारेके एक छोटेसे स्टेशनपर एक स्टीमरकंपनीका क्लार्क था और माल लादने-उतारने और टिकट बेचनेका काम करता था। मृण्मयीके विवाहकी खबर पाकर उसके दोनों नेत्रोंसे टपटप आँसू गिरने लगे। परन्तु यह कहना कठिन है कि उनके भीतर कितना दुःख था और कितना प्रानन्द । ईशानने कम्पनीके बड़े साहबके यहाँ कन्याके विवाहके लिए छुट्टीकी दरखास्त दी, परन्तु साहबने इसे एक बहुत ही मामूली कारण समझकर छुट्टी नामंजूर कर दी ! तब ईशानने अपने घर चिट्ठी लिखी कि मुझे दशहरेके मौकेपर एक सप्ताहकी छुट्टी मिलेगी, इस लिए विवाहकी मिती तब तकके लिए टाल देनी चाहिए; परन्तु अपूर्वकी माताने कह दिया कि इस महीनेका मूहूर्त बहुत ही अच्छा है, इस कारण अब मिती नहीं हटाई जा सकती। ____जब ईशानकी उक्त दोनों ही दरख्वास्तें नामंजूर हो गईं, तब वह चुप हो गया और व्यथितहृदय होकर पहलेके ही समान मालकी तौलाई और टिकट-बिक्री करने लगा। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति अब मृण्मयीकी माता तथा अड़ोस-पड़ोसकी सब बड़ी बूढ़ी स्त्रियोंने उसे उसके भावी कर्तव्यके सम्बन्धमें लगातार उपदेश देनेका सिलसिला बाँध दिया। खेलना, कूदना, जल्दी जल्दी चलना, जोर जोरसे हँसना, लड़कोंके साथ मिलना जुलना और भूख लगते ही भोजन करने बैठ जाना, आदि सभी बातें न करनेकी सलाह देकर उन्होंने बड़ी सफलताके साथ यह सिद्ध कर दिया विवाह होना कोई ऐसी वैसी बात नहीं है—वह बड़ी ही भयंकर चीज है। इससे मृण्मयीको भी विश्वास हो गया कि मानो मुझे यह हुक्म सुना दिया गया है कि तुझे जीवन-भर जेलमें रहना पड़ेगा और अन्तमें फाँसी दे दी जायगी। आखिर उस दुष्टने अड़ियल टट्टके समान गर्दन टेढ़ी करके और पीछे हटकर कह दिया कि मैं विवाह नहीं करूँगी। तो भी उसे विवाह करना पड़ा। इसके बाद शिक्षाका प्रारंभ हुा । एक ही रातमें मृण्मयीकी सारी स्वतंत्र पृथ्वी अपूर्वकी माँके घरके अन्दर कैद हो गई। ___ सासने संशोधन-कार्य जारी कर दिया। उसने बड़ी ही कठोरतासे कहा-देखो बेटी, अब तुम छोटी बच्ची नहीं हो। हमारे घरमें अब तुम्हारा यह बेहयापन न चलेगा। पर सासने यह बात जिस भावसे कही, बहूने उसे उस भावसे ग्रहण नहीं किया। उसने सोचा, यदि इस घरमें न चलेगा, तो शायद कहीं दूसरी जगह चले जाना पड़ेगा । आखिर दोपहरको वह लापता हो गई। ढूँढ़ खोज होने लगी कि वह कहाँ गई। अन्तमें विश्वासघातक राखालने किसी गुप्त स्थानसे उसको पकड़वा दिया । वह एक बड़के तले राधाकान्त ठाकुरके टूटे हुए रथमें छिपकर बैठी थी। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज इसपर सास, माता और अड़ोस-पड़ोसकी सभी हितैषिणियोंने उसका खूब ही तिरस्कार किया। रातको बादल घिर आये और रिमझिम रिमझिम वर्षा होने लगी । अपूर्वकृष्ण धीरे धीरे अपने बिछौनेपरसे मृण्मयीके पास खिसककर बहुत ही कोमल स्वर में बोले-मृण्मयी, क्या तुम मुझे प्यार नहीं करती? मृण्मयीने तेजीके साथ उत्तर दिया-ना, मैं तुम्हें कभी प्यार न करूँगी । उसका सारा क्रोध एकत्र होकर अपूर्वके मस्तकपर वज्रके समान आ गिरा। ___अपूर्वने उसकी चोटसे दुःखी होकर कहा-क्यों, मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? मृण्मयीने कहा-तुमने मेरे साथ व्याह क्यों किया ? इस अपराधकी कोई संतोषजनक कैफियत नहीं दी जा सकी । फिर भी अपूर्वने मन ही मन निश्चय कर लिया कि मैं इस दुर्बाध्य मनको, जैसे बनेगा वैसे, वशीभूत करके ही छोड़ेगा। __दूसरे दिन सासने बहूको एक कोठरीमें बन्द कर दिया; क्योंकि उसने समझ लिया था कि अब यह कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य करेगी। पहले तो वह पिंजड़ेमें बन्द किये गये नये पक्षीकी तरह फड़फड़ाती हुई इधर उधर फिरने लगी, उसके बाद जब कहींसे निकल भागनेका कोई रास्ता न मिला, तब उसने बिछौनेकी चादर दाँतोंसे चीथकर टुकड़े टुकड़े कर डाली और इसके बाद वह जमीनपर श्रौंधी पड़कर मन-ही-मन पिताको पुकारती हुई रोने और सिसकने लगी। ___इस समय कोई धीरे धीरे पास आया और बड़े प्रेमसे धूल में लोटते हुए उसके बालोंको कपोलों परसे एक ओर हटा देनेकी चेष्टा करने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लगा। इस पर मृण्मयीने मस्तक हिलाकर बड़े जोरसे उसका हाथ झटकेसे अलग कर दिया । तब अपूर्वने अपना मुँह उसके कानोंके पास ले जाकर बहुत ही कोमल स्वरसे कहा-मैं चुपचाप दरवाजा खोले देता हूँ । चलो, हम लोग यहाँसे भाग चलें। मृण्मयीने तेजीसे सिर हिलाकर रोते रोते कहा-ना । तब अपूर्वने उसकी ठोढ़ी पकड़ कर मुँह ऊपर उठानेकी चेष्टा करते हुए कहा-एक बार देखो तो सही, कौन अाया है ! इस समय राखालकी अक्ल चकरा रही थी। वह पृथ्वीपर पड़ी हुई मृण्मयीकी ओर देखता हुआ द्वारके समीप ही खड़ा था। मृण्मयीने मुख न उठाकर अपूर्वका हाथ झटक दिया । फिर भी अपूर्वने प्रेमपूर्वक कहा-देखो, राखाल तुम्हारे साथ खेलनेके लिए आया है। तुम उसके साथ खेलने नहीं जाअोगी? उसने गुस्सेसे भरे हुए स्वरमें कहा-ना । राखालने भी देखा कि आज मेरी दाल न गलेगी, इस लिए वह किसी तरह जान बचाकर भाग गया । परन्तु अपूर्व चुपचाप वहीं बैठे रहे । जब मृण्मयी रोते रोते थककर सो गई, तब वे धीरेसे उठे और बाहरकी साँकल चढ़ाकर चल दिये। इसके दूसरे दिन ईशान मजूमदारका पत्र आया । उसमें उन्होंने पहले अपनी प्राणप्यारी बेटी मृण्मयीके विवाहमें उपस्थित न हो सकनेके कारण दुःख प्रकट किया था और अन्तमें अपनी बेटी और दामादके कल्याणके लिए ईश्वरसे प्रार्थना करके आन्तरिक आशीर्वाद दिया था। पिताका पत्र पढ़कर मृण्मयी अपनी सासके पास गई और बोलीमैं अपने पिताके पास जाऊँगी, मुझे भेज दो। सास यह असंभव प्रार्थना सुनकर जल उठी और झिड़ककर बोली-बापका कुछ ठीक ठिकाना भी हो कि कहाँ रहता है ! कहती है कि बापके पास जाऊँगी । इसका यह ढंग तो देखो ! बहू इसका कुछ भी उत्तर न देकर चली गई और अपने Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ..... ~~~~~~~~~ ~ कमरेमें जाकर भीतरसे द्वार बन्द करके बिलकुल निराश श्रादमी जिस तरह ईश्वरसे प्रार्थना करता है, उस तरह कहने लगी-बाबूजी, मुझे ले जाओ, यहाँ मेरा कोई नहीं है, मैं यहाँ नहीं बनूंगी।। ' जब रात बहुत बीत गई और अपूर्वकृष्ण सो गये, तब मृण्मयी धीरेसे द्वार खोलकर घरसे बाहर हो गई। यद्यपि बादल घिर घिर आते थे, फिर भी चाँदनी रात थी, इस कारण मार्ग सूझ पड़ने योग्य कानी उजेला था । मृण्मयीको यह ज्ञात नहीं था कि पिताके यहाँ जानेके लिए किस रास्तेसे जाना चाहिए । उसे यह विश्वास हो रहा था कि डाकका हरकारा जिस रास्तेसे जाता है, उस रास्तेसे चाहे जहाँ जाया जा सकता है, इसलिए उसने वही रास्ता पकड़ लिया। चलते चलते शरीर थक गया और रात भी प्रायः समाप्त हो गई । वनके भीतर जब दो चार पक्षियोंने पंख फड़फड़ाकर अनिश्चित सुरसे बोलना प्रारंभ किया और समयका अच्छी तरह निर्णय न कर सकनेके कारण वे चुप हो गये, तब वह उस रास्तेके छोर पर जा पहुँची जिसके आगे एक नदी बह रही थी ; और जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ बाजारकी-सी लंबी चौड़ी जगह थी। वह सोचने लगी कि अब आगे किस ओरको जाना चाहिए । इतने में ही उसे अनेक बारका सुना हुआ 'झमझम' शब्द सुनाई पड़ा और थोड़ी ही देर में कंधेपर चिट्ठियोंका थैला लटकाये हुए डाकका हरकारा श्रा पहुँचा। वह बड़ी तेजीके साथ आ रहा था । मृण्मयी जल्दीसे उसके पास गई और कातर होकर बोली-मैं अपने बाबूजीके पास कुशीगंज जाती हूँ, तुम मुझे अपने साथ ले चलो। वह बोला-कुशीगंज कहाँ है, यह मैं नहीं जानता और फुर्तीसे घाटपर चला गया। वहाँ डाँककी नाव बंधी हुई थी। उसने जल्दीसे मल्लाहको जगाकर नाव खुलवा दी । उसे न दया करने का समय था और न कुछ पूछताछ करनेका । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति -- - देखते देखते सोये हुए घाट और बाजार लाग उठे । मृण्मयीने घाटपर जाकर माँझीसे कहा-तुम मुझे कुशीगंज ले चलोगे ? माँझीके उत्तर देनेके पहले ही पासकी नाव परसे एक आदमी बोल उठा-अरे कौन मिनू ! बेटी, तू यहाँ कैसे ? मृण्मयीने बड़ी व्यग्रतासे कहा-बनमाली, मैं अपने बाबूजीके यहाँ जाऊँगी, कुशीगंज । तू मुझे अपनी नावपर ले चल । बनमाली मृण्मयीके गाँवका ही माँझी था। वह इस उच्छृखल बालिकाको अच्छी तरह जानता था । उसने कहा-बाबूजीके यहाँ जायगी? यह तो बहुत अच्छी बात है ! चल, मैं पहुँचा दूंगा। मृण्मयी नावपर चढ़ गई। नाव छोड़ दी गई। बादल घिर आये और मूसलधार वर्षा होने लगी । भादोंकी चढ़ी हुई नदी नावको थपेड़े दे देकर हिलाने डुलाने लगी। मृण्मयीकी आँखें झपने लगीं। वह आँचल बिछाकर लेट गई और नदीके हिंडोलेमें प्रकृतिके स्नेहपालित शान्त शिशुके समान तत्काल ही सो गई। ____ बहुत देरके बाद जब आँख खुली, तब उसने देखा कि मैं अपनी ससुराल में एक खाटपर पड़ी हुई हूँ । घरकी मजदूरनीने बहूको जागते हुए देखकर बड़बड़ाना शुरू कर दिया और उसीके सुरमें सुर मिलाकर सास भी तरह तरहकी खरी खोटी बातें कहने लगी। अन्तमें जब उन दोनोंने उसके पिताको बुरा भला कहना शुरू किया, तब वह जल्दीसे उठकर पासहीके कमरेमें, भीतरसे अर्गल लगाकर जा पड़ी। . अपूर्वने लजाको ताकपर रखकर मातासे कहा-माँ, बहूको दो चार दिनके लिए उसके पिताके घर भेज देने में क्या हानि है? इसपर माताने अपूर्वकी खूब ही खबर ली। उसे इस अपराधमें Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज भी फटकार खानी पड़ी कि हजारों अच्छीसे अच्छी लड़कियोंके होते हुए भी उसने इस जी जलानेवाली चुडै जको पसन्द करके अपनी खराबी की। ५. उस दिन प्रायः दिन-भर घरके बाहर और अन्दर दोनों ही जगह घोर जल-वर्षा और अश्रु-वर्षा होती रही। दूसरे दिन जब कोई एक पहर रात बीत गई, तब अपूर्वने मृण्मयीको जगाकर कहा-तुम अपने बाबूजीके पास जाओगी? मृण्मयीने जल्दीसे अपूर्वका हाथ पकड़ लिया और चौंककर कहा -हाँ, जाऊँगी। अपूर्वने कहा-तो चलो, हम दोनों चुपचाप भाग चलें । मैं एक नाव ठीक कर पाया हूँ। मृण्मयीने पहले बहुत ही कृतज्ञताके साथ पतिके मुँहकी ओर देखा और फिर जल्दीसे उठकर कहा-चलो। अपूर्वने एक पत्र लिखकर रख दिया, जिससे माँको विशेष चिन्ता न हो और तब दोनों घरसे बाहर हो गये। मृण्मयीके लिए पहला ही अवसर था कि जब उसने उस अंधेरी रातमें एक निस्तब्ध निर्जन मार्गपर स्वेच्छापूर्वक अान्तरिक विश्वासके साथ अपने पतिका हाथ पकड़ा । उसके हृदयके आनन्दकी लहरें उस सुकोमल स्पर्शके योगसे अपूर्वकृष्ण की रग-रगमें तेजीके साथ पहुंचने लगीं। नाव उसी रातको चल दी । हर्षकी अतिशय प्रबलता होनेपर भी मृण्मयीको बहुत जल्दी नींद आ गई । दूसरे दिन उसे जिस स्वाधीनता और सुखका अनुभव हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता । नदीके दोनों Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • समाप्ति अोर न जाने कितने ग्राम, बाजार, खेत और वन पर्वत आदि और इधर उधर न जाने कितनी नावें आती जाती दिखाई पड़ी । मृण्मयी जरा जरा-सी बातपर अपने पतिसे हजारों प्रश्न करने लगी । उस नावपर कौन हैं, वे लोग कहाँसे आये हैं, कहाँ जायँगे, इस जगहको क्या कहते हैं, इत्यादि । इन सब प्रश्नोंका उत्तर देना सहज न था; क्योंकि अपूर्वने उन्हें न तो अपने किसी पाठ्य-ग्रन्थमें पढ़ा था और न उनकी कलकत्तेकी अभिज्ञता ही उनका समाधान कर सकती थी। अपूर्वके मित्रोंको सुनकर लजा होगी कि उन्होंने उक्त सभी प्रश्नोंके जो उत्तर दिये, उनमेंसे अधिकांश उत्तर सत्यतासे बहुत कम सम्बन्ध रखते थे। उन्हें तिलोंसे भरी हुई नावको अलसीकी नाव, कंगाल गाँवको रायनगर और मुन्सिफकी अदालतको जमींदारकी कचहरी बतलाने में जरा भी संकोच न हुा । परन्तु उनके ऐसे उत्तरोंसे विश्वासवती प्रश्नकारिणीके सन्तोष तिलभर भी बाधा न पड़ी। दूसरे दिन शामको यह नाव कुशीगंज पहुँच गई । ईशानबाबू टीनके एक छप्परके नीचे, स्टूलपर बैठे हुए हिसाब लिख रहे थे। उनके सामने एक छोटा-सा टेबुल था और उसपर एक मैली कुचैली लालटेनमें मिट्टीका तेल जल रहा था। धोतीके सिवा उनके शरीरपर और कोई वस्त्र न था। इसी समय इस नवदम्पतिने ईशानबाबूके आफिसमें प्रवेश किया। मृण्मयीने कहा-बाबूजी ! इसके पहले उस स्थानपर ऐसी कण्ठध्वनि कभी नहीं सुनी गई थी। ईशानकी आँखोंसे टपाटप आँसू गिरने लगे। उस समय वे निश्चय न कर सके कि मुझे क्या करना चाहिए । साम्राज्यके युवराजके समान दामाद और युवराज्ञीके समान बेटीके लिए, वहाँ पड़े हुए पाटके गट्ठोंके बीचमें सोनेका सिंहासन कैसे बनाया जाय, इसका उत्तर उनकी कुण्ठित बुद्धि न दे सकी। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र- कथाकुञ्ज इसके बाद ही आहारकी चिन्ताने श्रा घेरा । दरिद्र कुर्क अपने हाथसे दाल भात पकाकर खा लिया करता था | आज इस श्रानन्दके अवसरपर वह क्या करे और क्या खिलावे ! मृण्मयी बोली - श्राज हम सब लोग मिलकर रसोई बनावेंगे । श्रपूर्वको भी यह प्रस्ताव अच्छा जान पड़ा और उन्होंने इस कामके लिए बहुत अधिक उत्साह प्रकट किया । ६० उस घर के भीतर स्थानाभाव था, लोकाभाव था और अन्नाभाव भी था; परन्तु जिस तरह फुहारा छोटेसे छिद्रमेंसे चौगुने बेगके साथ छूटता है, उसी तरह दरिद्रताके संकीर्ण मुखमेंसे श्रानन्दकी धारा पूरी तेजीके साथ उच्छ्वसित होने लगी । इसी तरह तीन दिन बीत गये । दोनों वक्त नियमित रूप से स्टीमर श्रता और तब सैकड़ों यात्रियोंके कोलाहल से वह स्थान भर जाता; परन्तु सन्ध्याको नदीका किनारा बिल्कुल निर्जन हो जाता और उस समय वहाँ अबाध स्वाधीनताके दर्शन होते । तब तीनों आदमी मिलकर रसोईकी तरह तरहकी तैयारियाँ करते, भूलें करते और कुछ करते हुए कुछ कर बैठते । इसके बाद मृण्मयी अपने बलय-कंकृत स्नेहसिक्त हाथों से परोसती, ससुर दामाद एक साथ आहार करते और दोनों मिलकर मृण्मयीकी सैकड़ों त्रुटियों की आलोचना करते हुए प्रसन्न होते । इससे मृण्मयी खीती, अभिमान करती और इस प्रकार आनन्द - कलहका वह दृश्य समाप्त हो जाता । आखिर अपूर्व ने कहा- - अब यहाँ और अधिक ठहरना ठीक नहीं । मृण्मयीने करुणस्वरसे और कुछ दिन रहनेकी प्रार्थना की । पूर्वने कहा- नहीं, कोई काम नहीं है । बिदाई के दिन ईशानचन्द्रने कन्याको छाती से लगाकर और उसके मस्तक पर हाथ रखकर अश्रु-गद्गद कण्ठसे कहा- बेटी, तुम ससुरालको Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति उज्ज्वल करके लघमी बनकर रहना । कोई मेरी बेटीमें कुछ दोष न निकाल सके। मृण्मयी रोते रोते अपने पतिके साथ बिदा हो गई और ईशान उसी द्विगुण निरानन्द संकीर्ण घरमें लौटकर दिनके बाद दिन और मासके बाद मास बिताने और नियमित रूपसे माल तौलने लगे। जब दोनों अपराधी घर लौटकर आये, तब माता अत्यन्त गंभीर होकर रह गई, बोली तक नहीं । किसीको कोई दोष भी नहीं लगाया, जिसको दूर करनेकी वे चेष्टा करें। यह नीरव अभियोग और निस्तब्ध अभिमान सारी गृहस्थीके ऊपर लोहेके बोझके समान अटल भावसे लद गया। जब यह बोझ असह्य हो गया, तब अपूर्वने आकर कहा-माँ, कालेज खुल गये हैं । अब मुझे कानून पढ़ने के लिए जाना होगा। माँने उदासीनताके साथ कहा-बहूका क्या करोगे ? अपूर्वने कहा-उसे यहीं रहने दो। माँने कहा-नहीं बेटा, ऐसा मत करो। तुम उसे अपने साथ ही ले जाओ । माताने आज ही अपूर्वको 'तुम' कहा था ; नहीं तो पहले बराबर वह 'तू' कहा करती थी। अपूर्वने अभिमानसे टूटे हुए स्वर में कहा-अच्छी बात है । कलकत्ते जानेकी तैयारी होने लगी । जानेके दिनसे पहलेवाली रातको अपूर्वने अपनी शय्यापर आकर देखा कि मृण्मयी रो रही है । एकाएक अपूर्व के हृदयपर चोट लगी। उन्होंने विषाद-युक्त कण्ठसे पूछा-मृण्मयी, क्या तुम मेरे साथ कलकत्ते नहीं चलना चाहतीं ? Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मृण्मयीने कहा- नहीं। अपूर्वने पूछा-तुम मुझे प्यार नहीं करती ? पर इस प्रश्नका उन्हें कोई उत्तर न मिला । यों तो इस प्रश्नका उत्तर बहुत ही सहज है; परन्तु कभी कभी इसके अन्दर मनस्तत्व-घटित इतनी अधिक जटिलता भरी रहती है कि एक बालिकाके द्वारा उसके उत्तरकी आशा नहीं की जा सकती। अपूर्वने पूछा-शायद तुम राखालका साथ नहीं छोड़ सकती ! तुम्हारा जी न जाने कैसा होता है ! क्यों ? मृण्मयीने अनायास ही उत्तर दे दिया-हाँ । इस बी० ए० परीक्षोत्तीर्ण कृतविद्य युवकके हृदय में उस अपढ़ बालक राखालके प्रति सुईके समान अति सूक्ष्म पर साथ ही अति सुदीर्घ, ईर्ष्याका उदय हुआ । उसने कहा-परन्तु मैं बहुत समय तक घर नहीं आ सकूँगा। इस संवादके सम्बन्धमें मृण्मयीको कुछ भी नहीं कहना था । थोड़ी देर बाद अपूर्वने फिर कहा-जान पड़ता है, दो वर्ष तक नहीं श्रा सकूँगा, बल्कि इससे ज्यादा ही समय लग जायगा। इसपर मृण्मयीने श्राज्ञा दी कि जब तुम वापस आना तब राखालके लिए तीन फलवाला एक राजस चाकू लेते श्राना। अपूर्व लेटे हुए थे ; उन्होंने किञ्चित् उठकर कहा-तो फिर तुम यहीं रहोगी? मृण्मयीने कहा-हाँ, मैं अपनी माँके पास जाकर रहूँगी। अपूर्वने साँस लेकर कहा-अच्छा वहीं रहना ! परन्तु जब तक तुम मुझे पाने के लिए चिट्ठी नहीं लिखोगी, तब तक मैं नहीं पाऊँगा । क्यों, इससे तो तुम्हें खूब खुशी हुई होगी? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति मृण्मयी इस प्रश्नका उत्तर देने की जरूरत न समझकर सोने लगी। परन्तु अपूर्वको नींद नहीं आई। वे तकियेके सहारे बैठ रहे । रात बहुत बीत गई। एकाएक बिछौनेपर चन्द्रमाका प्रकाश आं पड़ा । अपूर्वने उसो प्रकाश में मृण्मयीकी ओर दृष्टि डाली । देखते देखते उन्हें खयाल आया कि यह कहानी की राजकन्या है। इसे कोई रूपेकी छड़ी छुअआकर अचेत कर गया है । यदि कहींसे सोनेकी छड़ी मिल जाय तो यह निद्रित आत्मा जगा दी जाय और इससे माला बदल ली जाय । रूपेकी छड़ी हँसी और सोनेकी छड़ी आँसू हैं । भोर होनेपर अपूर्वने मृण्मयीको जगा दिया और कहा-मेरे जानेका समय हो गया । चलो, तुम्हें तुम्हारी माताके यहाँ पहुँचा पाऊँ । मृण्मयी शय्या छोड़कर उठ खड़ी हुई। अपूर्वने उसके दोनों हाथ पकड़कर कहा-इस समय तुमसे मेरी एक प्रार्थना है। मैंने कई बार तुम्हारी सहायता की है। आज जाने के समय उसके बदलेमें मुझे कुछ पुरस्कार दोगी? मृण्मयीने विस्मित होकर पूछा-क्या ? अपूर्वने कहा--तुम अपनी इच्छासे प्रेमपूर्वक मुझे एक चुम्बन दे दो। अपूर्वकी यह अद्भुत प्रार्थना और गंभीर मुख देखकर मृण्मयी हँस पड़ी। बड़ी मुश्किलसे हँसी रोककर उसने मुख आगे बढ़ाकर चुम्बन देनेका प्रयत्न किया ; परन्तु पास पहुँचने पर उससे नहीं बन पड़ा और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। इस तरह दो बार चेष्टा करके और अन्तमें निरस्त होकर वह मुँहपर कपड़ा रखकर हँसने लगी। अपूर्वने शासनके छलसे उसका कान मल दिया । अपूर्वकी प्रतिज्ञा बहुत कड़ी है। डकैती करके छीन झपट लेनेको वे अपनी श्रात्माका अपमान समझते हैं। वे देवताके समान गौरवयुक्त Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज रहकर स्वेच्छापूर्वक दिया हुआ उपहार पसन्द करते हैं। चाहे कुछ हो, अपने हाथसे उठाकर नहीं लेना चाहते । जो संयोग अत्यधिक हृदयरसकी लालसासे होता है, उसके सिवाय और कोई चीज़ उन्हें नहीं रुचती। मृण्मयी और अधिक नहीं हँसी। अपूर्व उसे प्रत्यूषके अल्प प्रकाशमें निर्जनपथसे उसकी माँके घर पहुँचा आये और अपनी माँसे बोले -मैंने सोचकर देखा कि यदि मैं उसे साथ ले जाऊँगा, तो मेरे पढ़ने लिखनेमें हर्ज होगा और वहाँ उसके पास रहनेवाला भी कोई नहीं है। तुम तो उसे इस घरमें रखना ही नहीं चाहतीं, इस कारण मैं उसे उसकी माँके यहाँ पहुँचा आया हूँ। सुगंभीर अभिमानके बीच माता और पुत्रका विच्छेद हो गया। माताके घर आकर मृण्मयीने देखा कि किसी काममें उसका मन नहीं लगता। इस घरका मानो सभी कुछ आदिसे अन्त तक बदल गया है। वह यह निश्चित न कर सकी कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किसके साथ मिलूँ जुलूँ । ____ उसे ऐसा मालूम होने लगा कि सारे घर और गाँवमें कोई आदमी ही नहीं है । मानो दोपहरके समय सूर्यको ग्रहण लग गया है। वह किसी तरह न समझ सकी कि आज कलकत्ते जानेके लिए जो इतनी इच्छा हो रही है, वह कल रातको कहाँ चली गई थी ! कल वह नहीं जानती थी कि जीवनके जिस अंशका परिहार करनेके लिए मन इतना छटपटा रहा था, अाज ही उसका सारा स्वाद क्योंकर इतना बदल गया । वृक्षके पके हुए पत्तोंके समान आज उसने उसी अतीत जीवनको इच्छापूर्वक अनायास तोड़ कर दूर फक दिया। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति कहा जाता है कि चतुर कारीगर ऐसी सूक्ष्म तलवार बना सकता है कि उसके द्वारा किसी मनुष्य के दो टुकड़े कर देने पर भी वह नहीं जान सकता कि मेरे दो टुकड़े हो गये हैं और अन्तमें उसके हिलने डुलने पर वे दोनों खण्ड अलग अलग हो जाते हैं । विधाताकी तलवार भी ऐसी ही सूक्ष्म है। उसने मृण्मयीके बाल्य और यौवनके बीच में श्राघात किया । परन्तु वह जान नहीं सकी और आज जरा-सी ठेस लगने पर उसका बाल्य अंश यौवनसे जुदा हो गया और मृण्मयी विस्मित और व्यथित होकर देखती रह गई। ___ माताके घरका उसके सोनेका कमरा उसे अपना नहीं मालूम हुआ । वहाँ जो रहता था, वह एकाएक नहीं रहा । अब हृदयकी सारी स्मृति उस एक नये घर, नये कमरे, और नई शय्याके आसपास गुन गुन करती हुई धूमने लगी। मृण्मयीको अब कोई बाहर नहीं देख पाता। उसका खिलखिलाकर हँसना भी अब किसीको नहीं सुन पड़ता । राखाल अब उसे देखकर डरता है। खेलने कूदनेकी बात अब उसके मनमें भी नहीं आती। मृण्मयीने माँसे कहा-माँ, मुझे ससुराल पहुँचा दे। इधर बिदाके समयका पुत्रका विषादयुक्त मुख स्मरण करके अपूर्वकी माताका हृदय विदीर्ण होने लगा। उसके मन में यह बात काँटेके समान चुभने लगी कि वह क्रुद्ध होकर बहूको समधिनके घर रख गया है । ऐसी अवस्थामें एक दिन मृण्मयी सिर ढककर मलीन मुख किये हुए सासके पास आई और उसने उसके पैरोंके पास झुककर प्रणाम किया । सासने तत्काल ही उसे छातीसे लगा लिया। उसकी आँखें डबडबा आई । बातकी बातमें दोनोंका मिलन हो गया। सास अपनी बहूक मुँहकी ओर देखकर विस्मित हो रही। उसने देखा कि यह तो मृण्मयी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज नहीं है । साधारणतः ऐसा परिवर्तन सर्वत्र नहीं देखा जाता । बड़े भारी परिवर्तनके लिए बल भी बहुत बड़ा चाहिए । सासने निश्चय किया था कि मृण्मयीके सारे दोष एक एक करके सुधारूँगी ; परन्तु उसके सुधारने के पहले ही न जाने किस संशोधनकर्ताने न जाने किस संक्षिप्त उपायका अवलम्बन करके मृण्मयीको मानो एक नया ही जन्म ग्रहण करा दिया। ___ इस समय सासको मृण्मयीने समझा और मृण्मयीने सासको पहचाना । जिस तरह वृक्षके साथ उसकी सारी शाखा-प्रशाखाओं का मेल रहता है, उसी प्रकार सारी गृहस्थी आपसमें अखण्डरूपसे सम्मिलित हो गई। ___एक गंभीर स्निग्ध और विशाल रमणी-प्रकृति मृण्मयीके सारे शरीर और सारे अंतःकरणकी रग रगमें भर उठी, और इससे मानो उसे एक तरहकी वेदना होने लगी। प्रथम आषाढ़के श्याम सजल मेघोंके समान उसके हृदयमें एक अश्रुजलपूर्ण विस्तीर्ण अभिमानका संचार होने लगा । उस अभिमानने नेत्रोंकी छायामय सुदीर्घ पलकोंके ऊपर एक और गहरी छाया डाल दी । वह मन ही मन कहने लगी कि मैं तो मूर्ख थी, इस कारण मैं अपने आपको नहीं जान सकी; परन्तु तुमने मुझे क्यों नहीं पहचाना ? तुमने मुझे दण्ड क्यों न दिया ? तुमने मुझे अपने इच्छानुसार क्यों नहीं चलाया ? जब यह राक्षसी तुम्हारे साथ कलकत्ते जानेको राजी नहीं हुई, तब तुम इसे जबर्दस्ती पकड़कर क्यों नहीं ले गये ? तुमने मेरी बात क्यों सुनी, मेरा अनुरोध क्यों माना, मेरे वेकहेपनको क्यों सहन किया ? इसके बाद, वह दृश्य उसकी आँखोंके सामने घूम गया जब अपूर्वने तालाबके किनारे निर्जन मार्गमें उसे गिरफ्तार कर लिया था और बिना कुछ कहे सुने केवल उसके मुँहकी ओर टकटकी लगा दी थी। एका Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति एक उसे वही तालाब, वही रास्ता, वही तरुतल, वही प्रभातकी धूप और वही हृदयके बोझेसे ढकी हुई गंभीर दृष्टि याद आ गई और उसका सारा अभिप्राय उसकी समझमें श्रा गया। इसके बाद, उस बिदाईके दिनका वह असम्पूर्ण चुम्बन-जो अपूर्वके मुँहकी ओर अग्रसर होकर लौट आया था-इस समय मरुमरीचिकाभिमुख प्यासे पक्षीकी तरह उसी बीते हुए अवसरकी अोर दौड़ने लगा, किसी तरह उसकी प्यास नहीं मिटी। अब रह रहकर केवल यही मनमें आने लगा कि हाय यदि अमुक समयपर मैं ऐसा करती, अमुक प्रश्नका यदि यह उत्तर देती, उस समय यदि ऐसा होता, श्रादि । अपूर्वके मनमें इस कारण क्षोभ हुआ था कि मृण्मयीने मुझे अच्छी तरह नहीं पहचाना । मृण्मयी भी आज बैठी बैठी सोचती है कि उन्होंने मुझे क्या समझा और क्या समझकर वे चले गये। अपूर्वने उसे दुरन्त चपल, अविवेकिनी और निर्बोध बालिका समझा, परिपूर्ण हृदयामृतधारासे प्रेमकी प्यास बुझाने में समर्थ रमणी नहीं जाना । इसीसे वह परिताप, लज्जा और धिक्कारसे पीड़ित होने लगी । चुम्बन और सुहागके उन ऋणोंको वह अपूर्व के सिरहानेके तकियोंके ऊपर चुकाने लगी। इस तरह कितने ही दिन बीत गये। ___ अपूर्व कह गये थे कि जब तक तुम चिट्ठी नहीं लिखोगी, मैं घर नहीं आऊँगा। इसी बातको स्मरण करके मृण्मयी एक दिन घरके किवाड़ लगाकर चिट्ठी लिखने बैठी। अपूर्व उसे जो सुनहली कोरके रंगीन कागज दे गये थे, उन्हींको निकालकर वह सोचने लगी कि क्या लिखू और कैसे लिखू । कागज और कलमको खूब जोरसे पकड़कर, टेढ़ी लाइनें खींचकर, उँगलियोंमें स्याही पोतकर, अक्षरोंको छोटा बड़ा बनाकर, ऊपर कोई भी सम्बोधन न लिखकर उसने लिखा, "तुम मुझे चिट्ठी क्यों नहीं लिखते ? तुम्हारी तबीयत कैसी है ? और तुम घर पाओ।" इसके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज श्रागे और क्या लिखा जाय सो कुछ नहीं सोच सकी । यद्यपि मतलबकी बातें सभी लिखी जा चुकी थीं ; परन्तु मनुष्य-समाजमें मनका भाव कुछ और विस्तारके साथ प्रकाश करनेकी आवश्यकता होती है। यह बात मृण्मयीकी समझमें भी आ गई, इस लिए उसने और भी कुछ समय तक सोच साचकर कितनी ही नई बातें और जोड़ दीं"अबकी बार तुम मुझे चिट्ठी लिखो, और कैसे हो सो भी लिखो, और घर आयो । माँ अच्छी हैं । विशू अच्छी है । कल हमारी काली गैयाको बछड़ा हुआ है।" इतना लिखकर चिट्ठी समाप्त कर दी। चिट्ठीको मोड़कर लिफाफेमें रक्खा और प्रत्येक अक्षरके ऊपर हार्दिक प्यारका एक एक बिन्दु डालकर लिखा-"श्रीयुक्त बाबू अपूर्वकृष्ण राय ।" प्यार चाहे जितना दिया हो, तो भी लाइनें सीधी, अक्षर साफ और हिज्जे शुद्ध नहीं हुई। मृण्मयीको यह मालूम न था कि लिफाफेके ऊपर नामके सिवा और भी कुछ लिखा जाता है। कहीं सास या और किसीकी नजर न पड़ जाय, इस लज्जासे उसने एक विश्वस्त दासीके हाथ चिट्ठी डाकमें डलवा दी। कहने की जरूरत नहीं कि इस पत्रका कोई फल नहीं हुआ, अपूर्वकृष्ण घर नहीं आये। छुट्टियाँ हो गईं, फिर भी अपूर्व घर नहीं आये । इससे माताने समझा कि वह अभी तक मुझसे नाराज है। मृण्मयीने भी यही निश्चय किया कि वे मुझपर नाराज हैं। तब अपनी चिट्ठीका स्मरण करके वह लाजसे गड़ी जाने लगी। वह चिट्ठी कितनी छोटी थी, उसमें कुछ भी नहीं लिखा गया, उसमें मेरे मनका Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति भाव कुछ भी प्रकाशित न हो सका, उसे पढ़कर वे मुझे और भी मूर्ख समझ रहे होंगे, इन सब बातोंको सोचकर मृण्मयी शर-बिद्धकी नाई भीतर ही भीतर छटपटाने लगी। उसने दासीसे बार बार पूछा-उस चिट्ठीको क्या तू डाकमें डाल आई थी? दासीने उसको हजार बार विश्वास दिलाकर कहा-बहूजी, मैं खुद अपने हाथसे बक्समें डाल आई थी। बाबूजीको तो वह कभीकी मिल गई होगी। ____ आखिर अपूर्वकी माताने एक दिन मृण्मयीको पुकार कर कहाबेटी, अपूर्व बहुत दिनोंसे घर नहीं आया है, इससे सोचती हूँ कि कलकत्ते जाकर उसे देख पाऊँ । तुम साथ चलोगी ? मृण्मयीने सम्मतिसूचक गर्दन हिला दी और अपने कमरेमें जाकर उसने भीतरसे साँकल लगा ली। इसके बाद उसने बिछौनेपर पड़कर, तकियेको छातीके ऊपर दबाकर, हँसकर और हिल-डुलकर मनके आवेगको उन्मुक्त कर दिया। इसके बाद वह क्रमसे गंभीर होकर, विषण्ण होकर, आशंकासे परिपूर्ण होकर, बैठकर रोने लगी। अपूर्वको बिना कोई खबर दिये ही ये दोनों अनुतप्ता स्त्रियाँ उसकी प्रसन्नताकी भिक्षा पाने के लिए कलकत्ते चल दी । अपूर्वकी माता वहाँ अपने दामादके घर जाकर ठहरी । _____ उस दिन मृण्मयीके पत्रकी प्राशासे निराश होकर अपूर्व अपनी प्रतिज्ञा भंग कर के स्वयं ही उसे पत्र लिखनेके लिए बैठे थे । परन्तु उन्हें कोई बात रुचिके अनुकूल न मिलती थी। वे एक ऐसा सम्बोधन ढूँढ़ते थे, जिससे प्रेम भी प्रकट हो और अभिमान भी व्यक्त हो जाय । परन्तु ऐसा सम्बोधन न मिलनेसे मातृभाषाके ऊपर उनकी अश्रद्धा बढ़ रही थी। इसी समय उन्हें बहनोईका पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि आपकी माता आई हैं, शीघ्र पाइए और रातको यहींपर भोजनादि कीजिए । और सब कुशल है। अन्तिम कुशल-वाक्यके रहते हुए भी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज अपूर्व किसी अमंगलकी आशंकासे चिन्तित हो गये । बिना विलम्ब किये वे बहनके घर जा पहुंचे। ___ मातासे मिलते ही उन्होंने पूछा--माँ, सब कुशल तो है ? माँने कहा-बेटा, सब कुशल है । तू छुट्टीमें घर नहीं गया, इस कारण मैं तुझे लेने आई हूँ। अपूर्वने कहा-इसके लिए इतना कष्ट उठाकर आनेकी क्या प्रावश्यकता थी ? कानूनकी परीक्षा थी, पढ़ना बहुत पड़ता है, इत्यादि इत्यादि। भोजनके समय बहनने पूछा-भैया, अबकी बार तुम भाभीको साथ क्यों नहीं ले आये ? भैया गंभीर भावसे कहने लगे-कानूनकी परीक्षा थी, पढ़ना बहुत पड़ता है, इत्यादि इत्यादि। बहनोईने कहा-इस दलीलमें कुछ दम नहीं है । वास्तवमें हम लोगोंके भयसे लानेका साहस नहीं हुआ ! बहनने कहा--तुम्हारे भयंकर होने में क्या सन्देह है ! कच्ची उमरके आदमी तुम्हें देखकर यों ही चौंक उठते हैं ! इस तरह हास्य-परिहास होने लगा ; परन्तु अपूर्व बहुत ही चिन्तित हो रहे थे। उन्हें कोई बात अच्छी ही नहीं लगती थी । वे सोचते थे कि जब माँ कलकत्ते आईं, तब यदि मृण्मयी चाहती तो उनके साथ अनायास ही आ सकती । जान पड़ता है, माँने उसे लानेकी चेष्टा भी की होगी ; परन्तु वह राजी नहीं हुई। इस विषयमें संकोचके कारण वे माँसे कोई प्रश्न भी न कर सके-उन्हें शुरूसे अखीर तक सारा मानव-जीवन और सारी विश्व-रचना भ्रान्ति-संकुल जान पड़ने लगी। ना Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप्ति भोजन समाप्त हो चुकने पर बड़ी तेज हवा चली और मूसलधार पानी बरसने लगा। बहनने कहा-भैया, आज यहीं रह जाओ। भैयाने कहा-नहीं, घर जाऊँगा ; काम है । बहनोईने कहा-रातको तुम्हें ऐसा कौन-सा काम करना है। यदि यहाँ एक रात ठहर जानोगे तो ऐसा वहाँ कौन है जिसके आगे तुम्हें कैफियत देनी पड़ेगी ! तुम्हें चिन्ता ही किस बातकी है ? बहुत कुछ दबाव पड़ने पर, इच्छा न रहने पर भी, अपूर्व बाबू रातको वहीं रहनेके लिए राजी हो गये। बहनने कहा-भैया, तुम बहुत थके हुए दिखाई देते हो। इसलिए अब देर मत करो, सोनेके लिए चलो। अपूर्व भी यही चाहते थे। उन्हें उत्तर प्रत्युत्तर देना अच्छा नहीं लग रहा था । वे सोचते थे कि अन्धकारमें शय्यातलपर अकेले जा पड़नेसे सारी झंझटोंसे छुट्टी मिल जायगी । सोनेके कमरेके द्वारपर आकर देखा कि भीतर अन्धकार हो रहा है । बहनने कहा-हवासे चिराग बुझ गया है। क्या दूसरा चिराग जला लाऊँ ? अपूर्वने कहा नहीं जरूरत नहीं है । मैं रातको चिराग बुझाकर ही सोता हूँ। बहनके चले जानेपर अपूर्व अन्धकारमें सावधानीके साथ पलंगकी ओर बढ़े। उन्होंने पलंगपर चढ़नेके लिए पैर बढ़ाया ही था कि इतनेमें जेवरकी झन्कार सुन पड़ी और एक अतिशय कोमल बाहुपाशने उन्हें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ रबीन्द्र-कथाकुन्ज सुकठिन बन्धनमें बाँध लिया, तथा एक पुष्पपुटतुल्य श्रोष्ठाधरने डाकूके समान अाक्रमण करके लगातार आँसुत्रोंसे भीगे हुए आवेगपूर्ण चुम्बनोंसे उन्हें विस्मय प्रकाशित करनेका भी अवसर न दिया। अपूर्व पहले तो चौंक उठे, उसके बाद वे समझ गये कि हास्य-बाधाके कारण असम्पन्न रही हुई बहुत दिनोंकी एक चेष्टा आज अश्रु-जलधारामें समाप्त हो गई। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जासूस मैं खुफिया पुलिसमें काम करता हूँ। मेरे जीवन के केवल दो ही लक्ष्य हैं-एक मेरी स्त्री और दूसरा मेरा व्यवसाय । पहले मैं एकान्नवर्ती परिवार या सम्मिलित कुटुम्बमें था । पर वहाँ मेरी स्त्रीकी कोई पूछताछ नहीं थी, इसलिए मैं अपने बड़े भाईके साथ लड़ झगड़कर अलग हो गया । भाई साहब ही कमाई करके हम लोगोंका पालन करते थे, इसलिए उनका सहारा छोड़कर जुदा हो जाना मेरे लिए एक तरहका दुःसाहस ही था । किन्तु मुझे अपने श्राप पर बहुत बड़ा भरोसा था । मैं अच्छी तरह जानता था कि जिस तरह सुन्दरी स्त्री मेरी वशतिनी है, उसी तरह भाग्यलक्ष्मीको भी मैं अनायाश ही वश कर लूँगा । इस संसारमें मैं किसीसे पीछे नहीं रहूँगा। पुलिसके महकमे में मैं एक मामूली सिपाहीकी हैसियतसे प्रविष्ट Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज हुआ था; परन्तु थोड़े ही समय में अपनी कारगुजारीसे मैं डिटेक्टिव पुलिसका इन्स्पेक्टर बन गया । ७४ जिस तरह उज्ज्वल दीप शिखामेंसे काला काजल निकलता है, उसी तरह मेरी स्त्रीके प्रेममेंसे भी ईर्ष्या और सन्देहकी कालिमा निकलती रहती और यह मेरे काम में बाधक बनती; क्योंकि पुलिस के काम में स्थानास्थानका, कालाकालका विचार नहीं किया जा सकता | बल्कि उसमें तो स्थानकी अपेक्षा अस्थान और कालकी अपेक्षा श्रकालकी ओर ही अधिक ध्यान देना पड़ता है; और इससे मेरी स्त्रीका स्वभावसिद्ध सन्देह और भी दुर्निवार हो जाता। जब वह मुझे भय दिखाने के लिए कहती- तुम जब चाहे तब, जहाँ चाहे वहाँ, रह जाते हो; मेरे पास बहुत ही कम आते हो। क्या इससे तुम्हें मेरे विषय में सन्देह नहीं होता ? तब मैं उससे कहता - सन्देह करना मेरा व्यवसाय है; इसलिए मैं उसे अपने घरमें लाने की जरूरत नहीं समझता । स्त्री कहती — सन्देह करना मेरा व्यवसाय नहीं; मेरा स्वभाव है । मुझे तुम सन्देहका जरा-सा भी मौका दो, तो मैं सब कुछ कर सकती हूँ ! मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जासूस विभाग में मैं सबका शिरोभूषण बनूँगा और दुनियाँ में अपना नाम अमर कर जाऊँगा । जासूसोंके सम्बन्ध में जितनी रिपोर्टें और उपन्यास आदि मिल सकते थे, मैंने उन सबको पढ़ डाला । परन्तु उनसे मेरे मनका सन्तोष और धैर्य और भी बढ़ गया । इसका एक कारण था । हमारे देश के अपराधी डरपोक और निर्बंध होते हैं और यहाँ अपराध भी निर्जीव एवं सरल होते हैं । उनमें न दुरूहता होती है और न दुर्गमता । हमारे देश के हत्यारे हत्या करनेकी उत्कट उत्तेजनाको संवरण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ जासूस करके अपने अन्दर किसी तरह नहीं रख सकते । मकड़ी जो जाल बुनती है, उसमें जल्दी से स्वयं ही सिरसे पैर तक उलझ जाती है । अपराधव्यूहसे बाहर निकलनेका कूट कौशल वे नहीं जानते । श्रतः ऐसे निर्जीव देशमें जासूसीके काम में न तो कोई सुख है और न कोई गौरव । बड़े बाजार के मारवाड़ी जुना - चोरोंको अनायस ही गिरफ़्तार करके मैं मन ही मन कहा करता - अरे अपराधीकुलकलङ्को, दूसरोंका सर्वनाश कर डालना हर किसीका काम नहीं है । इसे चालाक उस्ताद ही कर सकते हैं । तुम जैसे अनाड़ी निर्बोधोंको तो साधु तपस्वी होकर जन्म लेना था ! इसी तरह और अनेक हत्यारोंको पकड़कर उनके प्रति भी मैं कहा करता - गवर्नमेण्टका फाँसीका ऊँचा तख्ता क्या तुम जैसे गौरवहीन प्राणियों के लिए निर्मित हुआ है ? तुम लोगों में न तो किसी प्रकारकी उदार कल्पनाशक्ति है और न कठोर आत्म-संयम । तब समझ में नहीं आता कि तुम लोग किस बिरते पर हत्यारे बनने का साहस करते हो ! जब कभी मैं अपनी कल्पनाकी घाँखोंसे लन्दन और पेरिसके जनाकीर्ण मार्गों के दोनों श्रोरके कुहरेसे ढके हुए गगनचुम्बी महलोंको देखता, तब मेरे शरीर में रोमान्च हो आता । उस समय मैं मन-ही-मन सोचता कि इन महलों की श्रेणियों और पथ उपपथों के बीचसे जिस तरह रात दिन जनस्रोत, कर्मस्रोत, उत्सवस्रोत और सौन्दर्यस्त्रोत बहते हैं, उसी तरह वहाँ सर्वत्र ही एक हिंस्रकुटिल कृष्णकुञ्चित भयंकर अपराध - प्रबाह भी अपना मार्ग बनाकर बहता है; और उसीकी समीपतासे यूरोपीय सामाजिकताकी हँसी-मसखरी और शिष्टाचार ने ऐसी विराट् भीषण रमणीयता प्राप्त की है । परन्तु इधर हमारे कलकत्तेके पथ-पार्श्व के खुली हुई खिड़कियोंवाले मकानोंमें राँधना पकाना, गृह-कार्य, सबक याद करना, ताश खेलना, दाम्पत्य कलह, और बहुत हुआ तो भ्रातृ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज विच्छेद और मुकद्दमोंके सलाह मशविरे छोड़कर और कुछ नजर ही नहीं आता। यहाँके किसी मकानकी ओर देखकर यह खयाल तो कभी आता ही नहीं है कि शायद इस समय भी इस मकान के किसी कोनेमें शैतान छिपा हुआ बैठा है और अपने काले काले अंडे से रहा है ! मैं बहुधा रास्तों पर निकलकर पथिकोंके मुखकी चेष्टाएँ और चलनेके ढंग बहुत ही बारीकीके साथ देखा करता। उस समय भावभङ्गीसे जिन लोगोंपर जरा-सा भी सन्देह हुआ है, उनका पीछा किया है ; उनके नाम धाम और इतिहासका पता लगाया है और अन्तमें बड़ी ही निराशाके साथ यह अाविष्कार किया है कि वे निष्कलङ्क भले श्रादमी हैं। यहाँ तक कि उनके नाते-रिश्तेके लोग भी उनके विषयमें किसी प्रकारका गुरुतर अपवाद प्रकाशित नहीं करते । पथिकों में जो सबसे अधिक पाखण्डी मालूम हुआ है, यहाँ तक कि जिसे देखकर यह अच्छी तरह निश्चित-सा हो गया है कि यह अभी अभी कोई बड़ा भारी दुष्कार्य करके आया है, उसके विषयमें भी अनुसन्धान करनेसे यही पता चला है कि वह एक मामूली स्कूल का असिस्टेण्ट मास्टर है और लड़कोंको छुट्टी देकर घर जा रहा है। यदि ये सब लोग अन्य किसी देशमें उत्पन्न हुए होते, तो इसमें सन्देह नहीं कि विख्यात चोर या डाकू बन सकते । परन्तु यथोचित जीवनी शक्ति और यथेष्ट पौरुषके अभावसे ये बेचारे इस अभागे देश में केवल मास्टरी करके और बुढापेमें पेन्शन लेकर ही मर जाते हैं। बहुत बड़ी चेष्टा और अनुसन्धानके उपरान्त उस मास्टरकी निरीहताके प्रति मुझे जैसी गहरी अश्रद्धा उत्पन्न हुई, वैसी किसी अतिशय क्षुद्र कटोरे लोटेके चुरानेवालेपर भी कभी नहीं हुई ! अन्तमें एक दिन सन्ध्याके समय मैंने अपने मकान के निकटवर्ती गैसपोस्टके नीचे एक ऐसा श्रादमी देखा जो बिना जरूरत उत्सुकताके Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ जासूस साथ एक ही जगह घूम फिर रहा था । उसे देखकर मुझे जरा भी सन्देह न रहा कि यह किसी गुप्त षड्यन्त्रकी तैयारी कर रहा है । मैंने अन्धेरे में छिपकर अच्छी तरह उसका चेहरा देख लिया । वह जवान था और देखने में सुन्दर भी । मैंने मन-ही-मन कहा - दुष्कर्म करने के लिए ऐसा ही चेहरा तो उपयोगी होता है । जिन लोगोंका चेहरा स्वयं उनके ही विरुद्ध गवाही दिया करता है, उन्हें तो मानो हर तरह सब प्रकारके अपराधों से बचकर ही चलना पड़ता है । वे सत्कार्यों में तो सफल होंगे ही कैसे, दुष्कर्मों में सफलता प्राप्त करना भी उनके लिए कठिन होता है । देखा कि इस छोकरेका चेहरा ही उसका सबसे बड़ा हथियार है । इसके लिए मैंने उसकी मन ही मन खूब प्रशंसा की और कहाभैया, तुम्हारे लिए भगवानने जो दुर्लभ सुभीता कर दिया है, उससे तुम्हें पूरा पूरा फायदा उठाना चाहिए; वास्तविक प्रशंसा के पात्र तुम तभी होगे । aaree froलकर उसके सामने आ गया और उसकी पीठ पर हाथ रखकर बोला- कहो, अच्छे तो हो ? वह एकाएक चौंक उठा और उसका चेहरा फीका पड़ गया । मैंने कहा- माफ कीजिए, भूल हो गई, मैंने आपको भूलसे कुछ और समझा था ! पर मन ही मन कहा - भूल जरा भी नहीं हुई है, तुम्हें जो समझा था, तुम वही निकले हो ! किन्तु इस तरह बहुत अधिक चौंक उठना उसके लिए ठीक नहीं हुआ। अपने शरीरपर उसका और भी अधिक काबू होना चाहिए था, किन्तु श्रेष्ठताका सम्पूर्ण आदर्श अपराधी श्रेणी में भी विरल होता है । कर देखा कि वह त्रस्त होकर वहाँ से चल दिया है । मैंने भी उसका पीछा किया । देखा कि वह गोलदिग्धीके भीतर जाकर पुष्करिणी के किनारे तृणशय्यापर चित लेट गया है। विचार किया कि उपाय सोचने के लिए सचमुच ही यह उपयुक्त स्थान है। गैस पोस्ट के नीचेकी जगह से तो यह कहीं अच्छा है । यहाँ यदि लोग कुछ सन्देह करेंगे भी, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज तो अधिक अधिक यही करेंगे कि यह युवक नील आकाशमें अपनी प्रियतमाका मुखचन्द्र अंकित करके काली रातकी कमी पूरी कर रहा है । इस तरह इस युवक के प्रति मेरा चित्त उत्तरोत्तर आकर्षित होने लगा । ७८ मैंने उसके निवासस्थानका पता लगा लिया । यह भी जान लिया कि उसका नाम मन्मथ है और वह किसी कालेज में पढ़ता है । इस. वर्ष परीक्षा में फेल हो जाने के कारण गर्मी की छुट्टियों में घर नहीं गया है । उसके साथ और सब विद्यार्थी अपने अपने घर चले गये हैं । मैंने इस बात की जाँच करनेका पक्का निश्चय कर लिया कि जब सभी विद्यार्थी इन लम्बी छुट्टियों में कलकत्ता छोड़कर भाग जाते हैं, तब इस भले मानसको किस दुष्ट ग्रहने पकड़ रखा है । safar मैं भी विद्यार्थी बन गया और उसीके कमरे के एक हिस्से में जाकर रहने लगा । पहले ही दिन जब उसने तब वह कुछ ऐसे ढंग से मेरे मुँहकी ओर निहार कर रह उसका भाव अच्छी तरह न समझ सका । ऐसा जान पड़ा, हुश्रा है और वह मेरा मतलब समझ गया है । मुझे निश्चय हो गया कि यह एक अच्छे शिकारीके योग्य शिकार है । इसपर कोई सरलता से हाथ साफ नहीं कर सकता । मुझे देखा, गया कि मैं मानो उसे कुछ आश्चर्य परन्तु जब मैंने उसके साथ मित्रता करनेकी चेष्टा की, तब वह सहज ही हाथ आ गया । उसने ज़रा भी आनाकानी नहीं की । पर यह जरूर मालूम हो गया कि वह भी मुझे गहरी नजर से देखता है -- वह भी मुके पहचानना चाहता है । उस्तादोंका यही तो लक्षण है कि वे मनुष्यचरित्रकी ओर इसी तरह सदा सतर्क और सजग रहते हैं । इतनी छोटी उमरमें उसकी इतनी चतुराई देखकर मैं बहुत ही खुश हुआ । मैंने सोचा कि जब तक बीचमें एक सुन्दरी रमणी न लाई जायगी, तब तक इस अकाल-धूर्त छोकरेके हृदयका द्वार खुलना कठिन है I Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जासूस एक दिन मैंने गद्गद कण्ठसे कहा-भाई मन्मथ, मैं एक स्त्रीको बहुत ही चाहता हूँ ; परन्तु वह मेरी ओर अाँख उठाकर भी नहीं देखती। पहले तो उसने चकित होकर मेरे मुंहकी ओर देखा । इसके बाद कुछ हँसकर कहा-इस प्रकारके दुर्योग विरल नहीं हैं । कौतुकी विधाताने ऐसे तमाशे करने के लिए ही तो नर-नारीका भेद किया है। ___मैंने कहा- इस विषयमें मैं तुम्हारी सलाह और सहायता चाहता हूँ। वह दोनों देने के लिए राजी हो गया । ___ तब मैंने एक लम्बा इतिहास गढ़कर उसे सुनाया । यद्यपि उसने उसे बड़े अाग्रह और कुतूहलके लाथ सुना; परन्तु स्वयं ज्यादा बातचीत नहीं की। मेरा खयाल था कि यदि स्यारकी-विशेषतः गहित प्यारकी-बात किसीके आगे खुलकर कह दी जाय, तो उससे बहुत जल्दी मित्रता बढ़ जाती है । परन्तु वर्तमान क्षेत्रमें इसका कोई लक्षण नहीं दिखलाई दिया । छोकरा पहलेसे भी गहरी चुप्पी साधकर रह गया और उसने सारी बातें सुनकर हृदयमें रख ली। इससे उसके प्रति मेरी भक्ति और भी बढ़ गई। इधर मन्मथ प्रति दिन द्वार बन्द करके क्या किया करता है और उसका गुप्त षड्यन्त्र किस तरह कितनी दूर आगे बढ़ा है, इसका कुछ भी पता मैं न लगा सका । परन्तु इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं कि वह आगे बढ़ रहा है। इस नवयुवकका मुख देखते ही यह मालूम हो जाता था कि वह किसी गूढ काममें लगा हुआ है और इस समय यह काम बहुत ही परिपक्क हो गया है । मैंने एक दूसरी चाबीसे उसका डेक्स खोलकर देखा, तो उसमें एक अत्यन्त दुर्बोध कविताकी पुस्तक, कालेजकी स्पीचोंके नोट्स, और घरके लोगोंकी दस पाँच महत्त्वहीन चिटियोंको छोड़कर और कुछ भी न मिला और उन चिट्टियोंसे केवल यही साबित हुआ कि घर अानेके लिए उससे बार बार प्रबल अनुरोध किया Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज गया है, तो भी वह घर नहीं गया । मैंने सोचा कि इसका कोई संगत कारण अवश्य है । परन्तु यदि वह न्यायसंगत होता, तो यह निश्चय है कि अब तक बातचीतमें खुल जाता । परन्तु वह बात नहीं हुई, इस कारण मन्मथका चालचलन और इतिहास मेरे निकट बहुत ही औत्सुक्यजनक बन गया। जिस असामाजिक मनुष्यसम्प्रदायने अपने आपको पाताल तलमें सर्वथा छिपाकर इस बृहत् मनुष्यसमाजको सर्वदा ही नीचेकी ओर दोलायमान कर रक्खा है, यह बालक उसी विश्वव्यापी बहुत पुरानी बड़ी भारी जातिका एक अंग है । यह किसी विद्यालयका एक मामूली विद्यार्थी नहीं है, बल्कि जगद्वक्षविहारिणी सर्वनाशिनीका एक प्रलय सहचर है जो आधुनिक समयके चश्माधारी निरीह भारतीय छात्रके वेशमें कालेजमें पढ़ रहा है। आखिर मुझे एक सशरीर रमणीकी अवतारणा करनी पड़ी। पुलिससे वेतन पानेवाली हरिमति इस विषयमें मेरी सहायिका हुई । मैंने मन्मथसे कहा-मैं इसी हरमतिका हतभागा प्रणयाकांक्षी हूँ । इसको लक्ष्य करके मैं कुछ दिनों तक गोलदिग्धीमें मन्मथका पार्श्वचर बन कर "एरे मतिमंद चंद आवत न लाज तोहि, हैके द्विजराज काज करते कसाईके" आदि कविताएँ बार बार पढ़ता रहा, और हरिमतिने भी कुछ हृदयके साथ तथा कुछ लीलापूर्वक प्रकट किया कि मैं अपना चित्त मन्मथको सौंप चुकी हूँ। परन्तु इन सब बातोंसे कोई आशानुरूप फल नहीं हुआ । मन्मथ सुदूर निर्लिप्त अविचलित कुतूहलके साथ सब कुछ पर्यवेक्षण करता रहा। इसी समय एक दिन दो पहरको मुझे मन्मथकी मेजपर एक चिट्ठीके कितने ही टुकड़े पड़े दिखाई दिये । मैंने उन सबको एक एक करके उठा लिया और जोड़ जाड़कर उसमेंका यह एक अपूर्ण वाक्य पढ़ पाया"आज सन्ध्याको सात बजे छिपकर मैं तुम्हारे डेरेपर-" बहुत Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ८३ जासूस कुछ परिश्रम करने पर भी इससे अधिक और कोई बात मालूम न कर सका । परन्तु इतने वाक्यांशसे ही मेरा अन्तःकरण पुलकित हो उठा । जमीन के भीतर किसी विलुप्त वंश प्राचीन प्राणीकी कोई हड्डी मिल जानेसे जिस तरह प्रनतत्त्ववेत्ताओं की कल्पना आनन्दके आवेश में नाच उठती है उसी तरह मैं भी नाच उठा । मैं जानता था कि याज रातको दस बजे हमारे डेरेपर हरिमति आनेवाली है । तब, उसके पहले ही शामको सात बजे यह क्या होनेवाला है ? सचमुच ही इस युवकमें जैसा साहस है, बुद्धि भी वैसी ही ती है । यदि कोई गुप्त अपराधका काम करना हो, तो घरपर जिस दिन किसी दूसरे कामकी धूमधाम हो, उसी दिन मौका देखकर कर डालना चाहिए | क्योंकि ऐसे अवसरपर एक तो लोगोंकी दृष्टि प्रधान काकी ओर ही श्रकृष्ट रहती है और दूसरे इस बातका किसीको विश्वास ही नहीं होता कि जहाँपर कोई विशेष समागम होता है, वहाँ उस दिन जान-बूझकर कोई गुप्त अपराधका भी काम किया जा सकता है । एकाएक मुझे सन्देह हुआ कि हमारे साथ जो नई मित्रता हुई है उसे, और हरिमति के साथ जो प्रेमाभिनय चल रहा है उसे भी, मन्मथने अपनी कार्य-सिद्धिका एक उपाय बना लिया है । यही कारण है कि वह न तो स्वयं पकड़ाई देता है और न अपनेको छुड़ाकर अलग ही हो जाता है । वह इस भ्रमको भी दूर नहीं करना चाहता कि हम लोग उसके गुप्त कार्य में बाधा-स्वरूप बन रहे हैं; और सभी समझते हैं कि वह हम लोगों के कारण ही व्यापृत रहता है 1 इन सब तर्कोंपर एक बार विचार करके देख लेना चाहिए। इस विषय में किसीको सन्देह नहीं हो सकता कि जो विदेशी विद्यार्थी छुट्टी के दिनों में अपने नाते-रिश्तेदारोंकी विनय अनुनयकी परवा न करके एक ६ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज निर्जन कमरेमें अकेला रहता है, उसके लिए एकान्त स्थानकी बहुत बड़ी जरूरत है। हम लोगोंने उसके कमरेमें अपना अड्डा जमाकर उसकी निर्जनताका भङ्ग कर दिया है और एक रमणीकी अवतारणा करके एक नया उपद्रव खड़ा कर दिया है। इतना होनेपर भी वह नाराज नहीं होता, कमरा नहीं छोड़ता, हम लोगोंकी संगतिसे दूर नहीं भागता । साथ ही यह भी निश्चय है कि हरिमति अथवा मेरे प्रति उसके हृदयमें तिल-भर भी आसक्ति उत्पन्न नहीं हुई है, यहाँ तक कि उसकी असावधानीके समय मैंने बारबार लक्ष्य करके देखा है कि हम दोनोंके प्रति उसकी आन्तरिक घृणा बढ़ती ही जाती है। यह सब क्या है ? इसका एक मात्र तात्पर्य यही है कि यदि स-जनताकी सफाई पेश करके निर्जनताके सुभीतेसे लाभ उठाना हो, तो इसका सबसे अच्छा उपाय यही है कि मेरे जैसे नवपरिचित श्रादमीको पास रख लिया जाय । और फिर किसी विषयमें जी-जानसे लग जानेके लिए रमणीके समान सहज बहाना और कोई नहीं है। अभी तक मन्मथका आचरण जैसा निरर्थक और सन्देहजनक था, हम लोगोंके आगमनके बाद वह वैसा नहीं रहा । निरर्थकता और सन्देहका अंश उसमेंसे सर्वथा लुप्त हो गया । परन्तु यह सोचकर मेरा हृदय उत्साहसे भर गया कि हमारे देशमें भी इतना बड़ा चुस्त चालाक और प्रत्युत्पन्नमति श्रादमी जन्म ले सकता है, जो इतनी दूरकी बात पलक मारते ही सोच लेता है। इस उत्साहके आवेशमें मैं भन्मथको गले लगाये बिना न रहता, यदि मुझे यह खयाल न होता कि वह न जाने क्या सोचेगा। ___उस दिन मन्मथसे मुलाकात होते ही मैंने कहा-मैंने निश्चय किया है कि आज शामको सात बजे तुम्हें होटलमें ले चलकर खाना खिलाऊँ । यह सुनते ही वह चौंक-सा पड़ा, परन्तु तत्काल ही आत्म-संवरण करके Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जासूस ८३ बोला-भाई माफ करो, आज मेरे पाक-यंत्रकी अवस्था बहुत ही शोचनीय है । परन्तु इसके पहले मैंने कभी किसी कारणसे मन्मथको होटलके भोजनसे इनकार करते नहीं देखा था-तब श्राज निश्चय ही उसकी अन्तरिन्द्रिय नितान्त दुरूह अवस्थाको प्राप्त हो गई है। ____ उस दिन यह निश्चय हो चुका था कि मैं सन्ध्याके समय डेरे पर न रहूँगा ; किन्तु मैंने गले पड़कर इस तरहकी बातोंका सिलसिला जारी कर दिया कि शाम हो आई, तो भी वे समाप्त न हुई; समय टलने लगा। तो भी जब मैंने वहाँसे खिसकनेका कोई लक्षण प्रकट नहीं किया, तब मन्मथ मन ही मन अस्थिर हो उठा । मेरी सभी बातोंमें वह सम्मतिसूचक रूपसे. गर्दन हिलाता गया-किसी बातका उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया । आखिर घड़ीकी श्रोर दृष्टिपात करके वह व्याकुल हो उठा और उठकर बोला- क्या आज श्राप हरिमतिको लेने नहीं जायँगे ? मैंने तत्काल ही चौंककर कहा-हाँ हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था । अच्छा तो मैं जाता हूँ। तब तक तुम आहारादि तैयार कर रखना । मैं उसे यहाँ ठीक साढ़े दस बजे लाकर उपस्थित कर दूंगा। यह कहकर मैं वहाँसे चल दिया। आनन्दका नशा मेरे सारे शरीरके रक्तमें संचरण करने लगा। संध्याको सात बजेके प्रति मन्मथकी जितनी उत्सुकता हो रही थी, मेरी उत्सुकता भी उससे कम नहीं थी। में अपने डेरेके करीब ही एक जगह छिपकर रह गया और प्रेयसी-समागमोत्कण्ठित प्रणयीके समान बार-बार अपनी घड़ीकी ओर देखने लगा । जब गोधूलिका अन्धकार सघन होने लगा और सड़कोंके लैम्प जलनेका समय हो गया, तब एक परदेदार पालकीने हमारे डेरेमें प्रवेश किया । यह कल्पना करके मेरे सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया कि इस आच्छन्न पालकीके भीतर आँसुओंसे भीगा हुआ एक अवगुण्ठित पाप, एक मूर्तिमती ट्रेजिडी, विराज Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मान है और वह कालेजके छात्र-निवासके बीच कितने ही धीवरोंके कंधों पर चढ़कर हा हू हा हू शब्द करती हुई अनायास ही प्रवेश कर रही है। अब मुझसे और अधिक विलम्ब सहन नहीं हुआ। थोड़ी ही देरके बाद मैं धीरे धीरे जीने परसे ऊपरकी मंजिल पर चढ़ गया। इच्छा थी कि गुपचुप रहकर ही सब कुछ देख सुन लूँगा ; परन्तु ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि ज़ीनेके सामनेके कमरेमें ही मन्मथ जीनेकी ओर मुँह किये बैठा था और कमरेकी दूसरी ओर पीठ किये हुए एक अवगुण्ठिता नारी बैठी हुई मृदु स्वरसे बात कर रही थी । जब देखा कि मन्मथने मुझे देख लिया है, तब जल्दीसे कमरेमें प्रवेश करते ही मैंने कहा-भाई, मेरी घड़ी कमरेमें ही रह गई है, उसे लेने आया हूँ । मन्मथ इस तरह घबरा गया कि मानो वह अभी जमीन चूमने लगेगा। मैं कौतुक और पानन्दसे बहुत ही व्यग्र हो उठा ओर बोला-भाई, क्या तुम्हें कोई तकलीफ है ? परन्तु वह इस प्रश्नका कुछ भी उत्तर न दे सका । तब मैंने उस कठपुतलीके समान निश्चल बूंघटवाली नारीकी ओर घूमकर पूछाआप मन्मथकी कौन होती हैं ? उसने यद्यपि कोई उत्तर नहीं दिया, तथापि देखा कि वह मन्मथकी कोई नहीं है, मेरी स्त्री है ! इसके बाद क्या हया सो कहनेकी जरूरत नहीं । ___ लीजिए पाठक ! मेरे जासूसी व्यवसायका 'श्रीगणेश' इसी गहरी सफलताके साथ होता है। कुछ समय बाद मैंने (लेखकने ) डिटेक्टिव इन्स्पेक्टर बाबू महिमचन्द्रसे कहा-हो सकता है कि मन्मथके साथ तुम्हारी स्वीका सम्बन्ध समाज-विरुद्ध न हो। __ महिमचन्द्र ने कहा-न होनेकी सम्भावना ही अधिक है । क्योंकि मेरी स्त्रीके सन्दूकसे मन्मथकी एक चिट्ठी बरामद हुई है। यह कहकर उसमे वह चिट्ठी मेरे हाथमें रख दो । वह इस प्रकार थी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जासूस __ "श्रीमती... "जान पड़ता है, इतने दिनोंमें तुम मन्मथको भूल गई होगी। बालकपनमें जब मैं अपने मामाके घर जाता था, तब वहाँ सर्वदा ही तुम्हारे साथ खेला करता था। हम लोगोंके वे खेल और खेलनेके सम्बन्ध अब नहीं रहे हैं। मालूम नहीं तुम जानती हो या नहीं कि एक बार मैंने धैर्यका बाँध तोड़कर और लज्जाको ताकमें रखकर तुम्हारे साथ विवाह-सम्बन्ध करने का भी प्रस्ताव किया था ; किन्तु हम दोनोंकी अवस्था लगभग बराबर थी, इस कारण दोनों ही पक्षके लोगोंने उसे अनुचित ठहरा दिया था। ___"उसके बाद तुम्हारा विवाह हो गया। चार पाँच वर्षतक तुम्हारा कोई कुशल-संवाद नहीं मिला । कोई पाँच महीने हुए होंगे, मुझे समाचार मिला कि तुम्हारे पति तबदील होकर कलकत्ते आ गये हैं। तब मैंने यहाँ तुम्हारे घरका पता लगाया । ___"मैं तुमसे मुलाकात करनेकी दुराशा नहीं रखता और अन्तर्यामी जानते हैं कि तुम्हारे गार्हस्थ्य सुखके भीतर एक उपद्रवके समान प्रवेश करनेकी मेरी इच्छा भी नहीं है । सन्ध्याके समय तुम्हारे घरके सामनेके एक गैस-पोष्टके नीचे मैं सूर्योपासकके समान खड़ा रहता हूँ। तुम प्रति दिन ठीक साढ़े सात बजे अपनी अटारीकी दाहिनी ओरके कमरेकी काँचकी खिड़कीके सामने एक लैम्प जलाकर रखा करती हो और उस समय थोड़ी देरके लिए तुम्हारी दीपालोकित प्रतिमा मेरी आँखोंमें आकर बस जाती है- यदि मैंने तुम्हारा कोई अपराध किया है तो बस यही एक। ___"इस बीचमें मेरा तुम्हारे पतिके साथ परिचय और धीरे धीरे मैत्रीबन्धन भी हो गया है। उनके चरित्रका मुझे अब तक जो कुछ पता लगा है, उससे मेरा विश्वास हो गया है कि तुम्हारा जीवन सुखी नहीं Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज है । यद्यपि तुम्हारे ऊपर मेरा कोई सामाजिक अधिकार नहीं है, किन्तु जिस विधाताने तुम्हारे दुःखको मेरे दुःखमें परिणत कर दिया है, उसीने उस दुःखको दूर करनेके प्रयत्न करनेका भार भी मेरे कन्धोंपर डाला है। ___"अतएव मेरी गुस्ताखी माफ करके, शुक्रवारकी सन्ध्याको ठीक सात बजे, चुपचाप पालकीमें बैठकर, यदि तुम केवल बीस मिनटके लिए मेरे डेरेपर आ जाओगी, तो मैं तुम्हारे पतिके संबंधमें बहुत ही गुप्त बातें बतलाऊँगा। यदि तुम उनपर विश्वास न करोगी और सहन कर सकोगी, तो मैं तत्सम्बन्धी प्रमाण भी तुम्हारे सामने पेश कर सकूँगा और साथ ही कुछ परामर्श भी दूंगा। मैं भगवानको साक्षी देकर अाशा करता हूँ कि उन परामर्शों के अनुसार चलनेसे तुम एक दिन अवश्य सुखी हो सकोगी। ___ "मेरा यह प्रयत्न सर्वथा निःस्वार्थ नहीं है । थोड़ी देरके लिए मैं तुम्हें अपने सम्मुख देख सकूँगा, तुम्हारी बातें सुनूँगा और तुम्हारे चरणोंके स्पर्श से अपने कमरेको चिरकालके लिए सुख-स्वममंडित बना लूँगा, यह आकांक्षा भी मेरे हृदयमें है। यदि तुम मेरा विश्वास न कर सकती हो और यदि इस सुखसे भी मुझे वंचित करना चाहती हो, तो मुझे वैसा लिख देना । मैं उसके उत्तरमें सब बातें पत्रके द्वारा ही लिख भेजूंगा। यदि पत्र लिखनेका विश्वास भी न हो, तो मेरा यह पत्र अपने पतिको दिखला देना, तब मुझे जो कुछ कहना है, वह उनसे ही कह दूंगा।" Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि -- - मुझे अपना पैतृक मकान छोड़ देना पड़ा। क्यों और कैसे, सो खुलासा करके न बतलाऊँगा - केवल आभास ही दूंगा । मैं एक कसबेकी सरकारी अस्पतालका डाक्टर हूँ। पुलिसके थानेके सामने मेरा मकान है। यमराजके साथ मेरी जितनी मित्रता है दारोगा साहबके साथ भी उससे कम नहीं । जिस तरह मणिसे वलयकी (कड़ेकी) और वलयसे मणिकी शोभा बढ़ती है उसी तरह मेरी मध्यस्थतासे दारोगा साहबकी और दारोगा साहबकी मध्यस्थतासे मेरी आर्थिक श्रीवृद्धि होती थी। . इन सब कारणोंसे वर्तमान नियमोंके जानकार दारोगा ललितचक्रवर्तीके साथ मेरी गहरी मित्रता थी। उनके किसी सम्बन्धीकी एक सयानी कन्या थी। दारोगा साहब उसके साथ विवाह करने के लिए मुझसे सदा ही अनुरोध किया करते और इस तरह उन्होंने मुझे तंग ॐ मणिना वलयं वलयेन मणिमणिना वलयेन विभाति करः । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज कर रक्खा था। किन्तु मैंने अपनी एकमात्र मातृहीना कन्या सावित्रीको विमाताके हाथ सोंपना उचित न समझा । प्रतिवर्ष ही नये पंचांगके अनुसार विवाहके न जाने कितने मुहूर्त निकले और व्यर्थ चले गये । न जाने कितने योग्य और अयोग्य पात्र मेरी आँखोंके सामनेसे वर बनकर गृहस्थ बन गये; परन्तु मैं केवल उनके ब्याहोंकी मिठाइयाँ खाकर और लम्बे-लम्बे साँस खींचकर ही रह गया। सावित्रीने बारह पूरे करके तेरहवें वर्षमें पैर रक्खा । मैं विचार कर रहा था कि कुछ रुपयोंका इन्तजाम हो जाय तो लड़कीको किसी अच्छे घरमें ब्याह दूं और उसके बाद ही अपने ब्याहकी चिन्ता करूँ। इसी समय हरनाथ मजूमदार आया और मेरे पैरोंपर पड़कर रोने लगा। बात यह थी कि उसकी विधवा लड़की रातको एकाएक मर गई और इस मौकेको व्यर्थ खो देना अच्छा न समझकर उसके शत्रुओंने दारोगा साहबको एक बेनामका पत्र लिखकर सूचना दे दी कि विधवा गर्भवती थी। गर्भपात करनेका जो प्रयत्न किया गया, उसीमें उसकी जान चली गई । बस यह संवाद पाते ही पुलिसने हरनाथका घर घेर लिया और विधवाकी लाशका संस्कार करनेमें रुकावट डाल दी। . एक तो लड़कीका शोक व्याकुल कर रहा था और उसपर यह असह्य अपवादकी चोट ! बेचारा बूढ़ा अस्थिर हो उठा। बोला-आप डाक्टर भी हैं और दारोगा साहबके मित्र भी हैं, किसी तरह मुझे बचाइए। लक्ष्मीजीकी लीला विचित्र है। जब वे चाहती हैं तब इस तरह बिना ही बुलाई छप्पर फाड़कर आ जाती हैं । मैंने गर्दन हिलाकर कहामामला तो बड़ा बेढब है ! और अपनी बातको प्रमाणित करने के .लिए दो-चार कल्पित उदाहरण भी दे दिये। बूढ़ा हरनाथ काँप उठा और बच्चेकी नाई रोने लगा। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि अन्तमें मामला ठीक हो गया और हरनाथको अपने लड़कीके शवसंस्कार करनेकी आज्ञा मिल गई ; परन्तु इसमें वह बिल्कुल बरबाद हो गया। उसी दिन शामको सावित्रीने मेरे पास आकर करुणापूर्ण स्वरसे पूछा-पिताजी, आज वह बूढ़ा ब्राह्मण तुम्हारे पैरों पड़कर क्यों रोता था ? मैंने उसे धमकाकर कहा-तुझे इन बातोंसे मतलब! चल अपना काम कर ! ___ इस मामलेसे कन्या-दान करनेका मार्ग साफ हो गया । लक्ष्मीजी बड़े अच्छे मौकेपर प्रसन्न हुई। विवाहका दिन निश्चित हो गया। एक ही कन्या थी, इसलिए खूब तैयारियां की गई। घरमें कोई स्त्री नहीं थी, इसलिए पड़ोसियोंसे सहायता लेनी पड़ी। हरनाथ अपना सर्वस्व -खो चुका था, तो भी मेरा उपकार मानता था और इसलिए इस काममें मुझे जीजानसे सहायता देने लगा। विवाह-समारंभ पूरा नहीं हो पाया । जिस दिन हल्दी चढ़ाई गई उसी दिन रात्रिको तीन बजे सावित्रीको हैजा हो गया। बहुत उपाय किये गये, परन्तु लाभ कुछ भी नहीं हुआ । अन्तमें दवाइयोंकी शीशियाँ जमीनपर पटककर मैं भागा और हरनाथके पैरों पड़कर गिड़गिड़ाकर कहने लगा-बाबा, क्षमा करो, इस पापीको क्षमा करो, सावित्री मेरी एकमात्र कन्या है । संसारमें इसे छोड़कर मेरा और कोई नहीं है। __हरनाथ मेरे कथनका कुछ भी मतलब नहीं समझा; वह घबड़ाकर बोला-डाक्टर साहब, आप यह क्या करते हैं ! मैं आपके उपकारसे दबा हुआ हूँ; मेरे पैरोंको मत छुप्रो ! _ मैंने कहा-बाबा, तुम निरपराध थे, तो भी मैंने तुम्हारा सर्वनाश किया है। मेरी कन्या उसी पापसे मर रही है। यह कहकर मैं सब लोगोंके सामने चिल्लाचिल्लाकर कहने लगा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज भाइयो, मैंने मनमाने रुपया लूटाकर इस वृद्ध ब्राह्मणका सर्वनाश कर डाला है, अब मैं उसका फल भोग रहा हूँ। भगवान्, मेरी सावित्रीकी रक्षा करो। इसके बाद मैं हरनाथके जूते उठाकर अपने सिरमें तडातड़ मारने लगा! वृद्ध घबड़ा गया, उसने मेरे हाथसे जूते छीन लिये। दूसरे दिन १० बजे हरिद्रा-रंग-रंजित सावित्री इस लोकसे विदा हो गई। इसके दूसरे ही दिन दारोगा साहबने कहा-डाक्टर साहब, क्या सोच रहे हो ? घर-गिरस्तीकी सार-संभालके लिए एक आदमी तो चाहिए ही; फिर अब विवाह क्यों नहीं कर डालते ? ___ मनुष्यके मर्मान्तिक दुःख-शोकके प्रति इस तरहकी निष्ठुर अश्रद्धा किसी शैतानको भी शोभा नहीं दे सकती । इच्छा तो हुई कि दारोगा साहबको दो चार सुना दूं; परन्तु समय समयपर मैं उनके सामने जिस मनुष्यत्वका परिचय दे चुका था उसकी याद आ जानेसे इस समय मेरा मुँह उत्तर देनेको नहीं खुल सका । उस दिन ऐसा मालूम हुआ कि दारोगाकी मित्रताने चाबुक मारकर मेरा अपमान किया है ! हृदय चाहे जितना व्यथित हो–कष्ट चाहे जितना अाकर पड़े ; परन्तु कर्मचक्र चलता ही रहता है-संसारके काम-काज बन्द नहीं होते । सदाकी नाई भूखके लिए आहार, पहरनेको कपड़े, और तो क्या चूल्हेके लिए इंधन और जूतोंके लिए फीते तक, पूरे उद्योगके साथ संग्रह किये बिना काम नहीं चलता। ___ यदि कभी काम-काजसे फुरसत पाकर मैं घरमें अकेला पाकर बैठता तो बीचबीचमें वही करुण-कण्ठका प्रश्न कानके पास आकर Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्बुद्धि marne ध्वनित होने लगता-"वह बूढ़ा तुम्हारे पैरों पड़कर क्यों रोता था ?" और उस समय मेरे हृदयमें शूलकी-सी वेदना होने लगती । मैंने दरिद्र हरनाथके जीर्ण। घरकी मरम्मत अपने खर्चसे करा दी । एक दुधारू गाय उसे दे दी और उसकी जो जमीन महाजनके यहाँ गिरवी रक्खी गई थी उसका भी उद्धार करा दिया। ___ मैं कन्या-शोककी दुःसह वेदनासे कभी कभी रात-रातभर करवटें बदलता पड़ा रहता-घड़ी-भरको भी नींद न आती। उस समय सोचता कि यद्यपि मेरी कोमलहृदया कन्या संसार-लीलाको शेष करके चली गई है, तो भी उसे अपने बापके निष्ठुर दुष्कर्मों के कारण परलोकमें भी शान्ति नहीं मिल रही है - वह मानो व्यथित होकर बार बार यही प्रश्न करती है कि-पिताजी, तुमने ऐसा क्यों किया? कुछ दिन तक मेरा यह हाल रहा कि मैं गरीबोंका इलाज करके उनसे फ़ीसके लिए तकाजा न कर सकता । यदि किसी लड़कीको कोई बीमारी हो जाती तो ऐसा मालूम होता कि मेरी सावित्री ही सारे गाँवकी बीमार लड़कियों के बीचमें रोग भोग रही है। एक दिन मूसलधार पानी बरसा । सारी रात बीत गई, पर वर्षा बन्द न हुई । जहाँ तहाँ पानी ही पानी दिखाई देने लगा । घरसे बाहर जानेके लिए भी नावकी जरूरत पड़ने लगी। उस दिन मेरे लिए मालगुजार साहबके यहाँसे बुलावा आया । मालगुजारकी नावके मल्लाहोंको मेरा जरा भी विलम्ब सह्य नहीं हो रहा था; वे तकाजेपर तकाजा कर रहे थे । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ....mmrani.marwr.aaraaman. .... ...... पहले जब कभी ऐसे मौकेपर मुझे कहीं बाहर जाना पड़ता, तब सावित्री मेरे पुराने छातेको खोलकर देखती कि उसमें कहीं छिद्र तो नहीं है और फिर कोमल कण्ठसे सावधान कर देती कि पिताजी, हवा बहुत तेजीसे चल रही है और पानी भी खूब बरस रहा है, कहीं ऐसा न हो कि सर्दी लग जाय । उस दिन अपने शून्य शब्दहीन घरमें अपना छाता स्वयं खोजते समय मुझे उस स्नेहपूर्ण मुखकी याद आ गई और मैं सावित्रीके बन्द कमरेकी ओर देखकर सोचने लगा कि जो मनुष्य दूसरेके दुःखोंकी परवा नहीं करता है, भगवान् उसे सुखी करनेके लिए उसके घरमें सावित्री जैसी स्नेहकी चीज कैसे रख सकता है ? यह सोचते सोचते मेरी छाती फटने लगी । उसी समय बाहरसे मालगुजार साहबके नौकरों के तकाजेका शब्द सुन पड़ा और मैं किसी तरह शोक संवरण करके बाहर निकल पड़ा। नावपर चढ़ते समय मैंने देखा कि थानेके घाटपर एक किसान लँगोटी लगाये हुए बैठा है और पानीमें भीग रहा है। पास ही एक छोटी-सी डोंगी बँध रही है । मैंने पूछा-क्यों रे, यहाँ पानीमें क्यों भीग रहा है ? उत्तरसे मालूम हुआ कि कल रातको उसकी कन्याको साँपने काट खाया है, इसलिए पुलिस उसे रिपोर्ट लिखानेके लिए थानेमें घसीट लाई है। देखा कि उसने अपने शरीरके एक मात्र वस्त्रसे कन्याका मृत शरीर ढक रक्खा है। इसी समय मालगुजारीके जल्दबाज़ मल्लाहोंने नाव खोल दी। कोई एक बजे मैं वापस पा गया। देखा कि तब भी वह किसान हाथ पैरोंको सिकोड़कर छातीसे चिपटाये बैठा है और पानीमें भीग रहा है । दारोगा साहबके दर्शनोंका सौभाग्य उसे तब भी प्राप्त नहीं हुआ था। मैंने घर जाकर रसोई बनाई और उसका कुछ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुबुद्धि भाग किसानके पास भेज दिया ; परन्तु उसने उसका स्पर्श भी न किया । ____ जल्दी जल्दी आहारसे छुट्टी पाकर मैं मालगुजारके रोगीको देखने के लिए फिर घरसे बाहर हुआ। संध्याको वापस आकर देखा तो उस किसानकी दशा खराब हो रही है। वह बातका उत्तर नहीं दे सकता,. मुँहकी ओर टकटकी लगाकर देखता है। उस समय नदी, गाँव, थाना, मेघाच्छन्न आकाश और कीचड़मय पृथ्वी श्रादि सब चीजें उसे स्वमके जैसी मालूम होती थीं । बारबार पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उससे एक सिपाहीने पाकर पूछा कि 'तेरे पास कुछ रुपये हैं या नहीं' और इसके उत्तरमें उसने कह दिया कि 'मैं बहुत ही गरीब हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है ।' सिपाही तब यह कहकर चला गया, तो कुछ नहीं हो सकता, यहीं पड़े रहना पड़ेगा।' ___ मैंने इस प्रकारके दृश्य सैकड़ों ही बार देखे थे, पर उनका मेरे चित्तपर कुछ भी असर नहीं पड़ा था ; मगर उस दिन उस किसानकी दशा मुझसे नहीं देखी गई-मेरा हृदय विदीर्ण होने लगा। सावित्रीके करु. णा-गद्गद कण्ठका स्वर जहाँ तहाँसे सुनाई पड़ने लगा और उस कन्यावियोगी वाक्यहीन किसानका अपरिमित दुःख मेरी छातीको चीरकर बाहर होने लगा। दारोगा साहब बेतकी कुर्सीपर बैठे हुए आनन्दसे हुक्का पी रहे थे। उनके पूर्वोक्त सम्बन्धी महाशय भी वहीं बैठे हुए गप्पें हाँक रहे थे जो कि अपनी कन्याका विवाह मेरे साथ करना चाहते थे। वे इस समय इसी कामके लिए वहाँ पधारे थे। मैं झपटता हुआ पहुँचा और दारोगा साहबसे चिल्लाकर बोला-"आप मनुय्य हैं या राक्षस ?" इसके साथ ही मैंने अपने सारे दिनकी कमाईके रुपये उनके सामने फेंक दिये और कहा- "रुपया चाहिए तो ये ले लो, जब मरोगे तब इन्हें साथ ले Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज जाना ; परन्तु इस समय इस गरीब को छुट्टी दे दो, जिससे यह अपनी कन्याका अन्तिम संस्कार कर सके !" दारोगा साहबका जो प्रेम-मैत्री-विटप अनेक दुखियोंके आँसुओंके सेचनसे लहलहा रहा था, वह इस अाकस्मिक आँधीसे गिरकर जमीनमें मिल गया! ___ इसके थोड़े ही दिन बाद मैंने दारोगा साहबसे क्षमा-प्रार्थना की, उनकी महदाशयताकी स्तुति की और अपनी मूर्खताको बारबार धिक्कारा ; परन्तु आखिर मुझे अपना घर छोड़ना ही पड़ा। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि काँगलके जमीन्दार बाबू मोतीलाल नाव किराए करके अपने परिवारसहित स्वदेश जा रहे थे। रास्तेमें दोपहर के समय उन्होंने नदीतटके एक बाजारके पास नाव बँधवा दी और वहीं रसोई आदि बनानेका आयोजन करने लगे। इतने में एक ब्राह्मण बालकने उनके पास आकर पूछा-बाबूजी, आप लोग कहाँ जायँगे? बालककी अवस्था पन्द्रह सोलह वर्षसे अधिक न होगी। मोती बाबूने उत्तर दिया-हम लोग काँठाल जायेंगे । ब्राह्मण बालकने पूछा-क्या आप मुझे रास्तेमें नन्दीगाँवमें उतार देंगे? मोती बाबूने उसे रास्तेमें उतार देना मंजूर कर लिया और पूछातुम्हारा नाम क्या है ? Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ब्राह्मण बालकने उत्तर दिया-मेरा नाम तारापद है। गोरे रंगका वह बालक देखने में बहुत सुन्दर था। उसकी बड़ी बड़ी आँखों और हँसते हुए होठोंसे बहुत ही ललित सुकुमारता प्रकट होती थी । वह केवल एक मैली धोती पहने था। उसका शेष सारा शरीर नंगा था। उसके सब अङ्ग बहुत ही सुडौल थे । ऐसा जान पड़ता था कि किसी बहुत अच्छे कारीगरने बहुत यनसे उसके सब अङ्ग बहुत ध्यानपूर्वक गढ़े हैं । मानो वह पूर्वजन्ममें तापस-बालक था और निर्मल तपस्याके प्रभावसे उसके शरीर मेंसे सारे शारीरिक विकार बहुत अधिक परिमाणमें निकल जानेसे एक सम्मार्जित ब्रह्मण्यश्री उसमेंसे प्रस्फुटित हो उठी है। मोती बाबूने बहुत ही स्नेहपूर्वक कहा-बेटा, तुम जाकर स्नान कर आयो । तुम्हारा भोजन यहीं होगा ! तारापदने कहा-अच्छा आप भोजन बनाइए। इतना कहकर वह बालक बिना किसी प्रकारके संकोचके रसोई बनाने में सहायता देने लगा। बाबू मोतीलालका नौकर हिन्दुस्तानी था । मछली चीरने और काटने आदिके काममें वह उतना अधिक निपुण नहीं था। तारापदने वह काम उसके हाथसे ले लिया और थोड़ी ही देरमें उसे अच्छी तरह सम्पन्न भी कर दिया । इसके सिवा उसने एक दो तरकारियाँ भी ऐसी अच्छी तरह पका दी जिससे जान पड़ा कि वह इन कामों में अच्छा अभ्यस्त है । जब रसोई पक चुकी, तब तारापदने नदीमें स्नान करके अपनी छोटी-सी गठरी खोलकर उसमेंसे एक सफेद धोती निकालकर पहनी, काठकी एक छोटी कंघी निकालकर अपने सिरके बड़े बड़े बाल माथे परसे हटाकर पीछे गर्दनकी ओर डाल दिये और स्वच्छ यज्ञोपवीत धारण किये हुए वह नावमें बाबू मोतीलालके पास जा पहुंचा। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि मोती बाबू उसे नावके अन्दर ले गये । वहाँ मोती बाबूकी स्त्री और नौ वर्षकी उनकी कन्या दोनों बैठी हुई थीं। इस सुन्दर बालकको देखकर मोती बाबूकी स्त्री अन्नपूर्णाका हृदय प्रेमसे भर गया । वह मन ही मन सोचने लगी-आहा! यह किसका बालक है, कहाँसे पा रहा है-इसे छोड़कर भला इसकी मा कैसे सुखसे रहती होगी-उससे कैसे रहा जाता होगा ! थोड़ी देर में मोती बाबू और इस छोटे बालकके लिए पास ही पास दो आसन बिछ गये। बालक बहुत ही कम भोजन कर रहा है, यह देखकर अन्नपूर्णाने मनमें सोचा कि यह कुछ संकोच कर रहा है। उसने उससे बहुत अनुरोध किया कि थोड़ा यह खा लो, थोड़ा वह खा लो । पर जब उसका पेट भर गया, तब फिर उसने कोई अनुरोध नहीं माना। सब लोगोंने देखा कि यह बालक सब काम अपनी ही इच्छासे करता है और ऐसे सहज करता है कि किसीको यह नहीं जान पड़ता कि वह जिद करता है या अपनी ही बात रखना चाहता है। उसके व्यवहारमें कहीं लज्जाका नाम भी नहीं दिखाई देता । ___ जब सब लोग भोजन कर चुके, तब अन्नपूर्णाने उसे अपने पास बैठाकर बहुत-सी बातें पूछी और उसका विस्तृत इतिहास जानना चाहा ; पर कुछ बहुत अधिक पता नहीं चला। बस यही पता चला कि यह बालक सात आठ वर्षकी अवस्थामें ही अपनी इच्छासे घर छोड़कर भाग पाया है। अन्नपूर्णाने पूछा-तुम्हारी माँ नहीं हैं ? तारापदने कहा-हैं। अन्नपूर्णा ने फिर पूछा-क्या वे तुम्हें नहीं चाहती ? तारापदको मानो उसका यह प्रश्न बहुत ही अद्भुत जान पड़ा। वह जोरसे हँस पड़ा और बोला-क्यों, चाहती क्यों नहीं ! Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज अन्नपूर्णाने फिर पूछा- तो फिर तुम उसे छोड़कर चले कैसे आये ? तारापद ने कहा- उसके और भी चार लड़के और तीन लड़कियाँ हैं । ६८ बालकका यह अद्भुत उत्तर सुनकर अन्नपूर्णा बहुत ही दुःखी हुई || उसने कहा- वाह, भला यह भी कोई बात है ! हाथमें पाँच उँगलियाँ हैं, तो क्या इसलिए एक उँगली काट डाली जाय ? तारापदकी अवस्था कम थी और इसी लिए उसका इतिहास भी बहुत ही संक्षिप्त था । पर फिर भी उसमें बहुत ही विलक्षणता और नवीनता थी । वह अपने पिता-माताका चौथा पुत्र था और छोटी अवस्था में ही पितृहीन हो गया था । यद्यपि उसकी माताकी कई सन्तानें थीं, तथापि घरमें उसका बहुत श्रादर था । माँ, भाई, बहनें और पास पड़ोस के लोग सभी उसके साथ बहुत अधिक प्रेम करते थे । यहाँ तक कि गुरुजी भी कभी उसे मारते पीटते नहीं थे । यदि कभी वे उसे कुछ मार भी बैठते तो उसके अपने पराए सभी लोगोंको बहुत अधिक दुःख होता । ऐसी दशामें उसके लिए घर छोड़कर भागनेका कोई कारण नहीं था । जो लड़का उपेक्षित और रोगी - सा था, सदा ही चुरा चुराकर पेड़ों के फल और उन पेड़ोंके मालिकोंसे प्रतिफलस्वरूप चौगुनी मार खाकर इधर उधर घूमा करता था, वह तो अपनी परिचित ग्रामसीमा में मारपीट करनेवाली माँके पास पड़ा रह गया; और सारे गाँवका प्यारा यह बालक विदेशी रासधारियोंके दलके साथ प्रसन्नतापूर्वक गाँव छोड़कर भाग आया । I सब लोग उसे ढूँढ़कर फिर गाँव में ले आये । माताने उसे कलेजेसे लगाकर लगातार रोते रोते उसका सारा शरीर आँसुओं से भिगो दिया । उसकी बहनें भी रोने लगीं। उसके बड़े भाईने पुरुष अभिभावकका कठिन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि 88 कर्तव्य पालन करनेके लिए उसे पहले तो बहुत ही साधारण रूपसे कुछ डाँटने डपनेकी चेष्टा की और अन्तमें बहुत ही अनुतप्त हृदयसे बहुत अश्वासन और पुरस्कार दिया। पास-पड़ोसकी स्त्रियाँ उसे अपने अपने घर बुलाकर उसका बहुत आदर करतीं और उसे बहुत कुछ प्रलोभन देकर बाँधना चाहतीं। पर इन बन्धनोंको, यहाँ तक कि स्नेहबन्धनको भी उसने कुछ न समझा । उसके जन्मकालके नक्षत्रोंने ही उसे गृहहीन बना दिया था। वह जब देखता कि विदेशी मल्लाह लोग गून खींचकर नदीमेंसे नावें ले जा रहे हैं, अथवा गाँवके बड़े बड़के वृक्षके नीचे किसी दूर देशसे आकर कोई संन्यासी ठहरा है, अथवा कंजड़ लोग नदी-किनारेके पड़े हुए मैदानमें छोटी-छोटी झोपड़ियाँ बाँधकर बाँस छील छील कर टोकनियाँ और डालियाँ तयार कर रहे हैं, तब बाहरी अज्ञात पृथ्वीको स्नेहहीन स्वाधीनताके लिए उसका चित्त अशान्त हो उठता । जब वह लगातार दो तीन बार घर छोड़ छोड़कर भागा, तब उसके घरके लोगों तथा गाँववालोंने उसकी प्राशा छोड़ दी। पहले वह रासधारियोंके एक दलके साथ हो गया। उस दलका प्रधान उसे पुत्र के समान चाहता और वह दलके सभी छोटे बड़े श्रादमियोंका प्रेमपात्र बन गया—यहाँ तक कि जिस घरमें रासलीला होती उस घरके मालिक और विशेषतः स्त्रियाँ भी उसे बहुत मानतीं और विशेष रूपसे उसे अपने पास बुलाकर उसका बहुत आदर किया करतीं। इतना सब कुछ होने पर भी वह एक दिन बिना किसीसे कुछ कहे सुने, न जाने कहाँ, चला गया और फिर किसीको उसका पता नहीं लगा। तारापदको बन्धनसे उतना ही डर लगता, जितना हिरनके बच्चेको लगता है ; और हिरनके ही समान वह संगीतका भी प्रेमी था। रासधारियों के संगीतने ही पहले पहल घरसे उसका मन उचाट किया था। संगीतका स्वर सुनते ही उसके शरीरकी नसें काँपने लगतीं । और गाने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज के ताल पर उसका सारा शरीर हिलने लगता । जिस समय वह बहुत छोटा था, उस समय भी संगीत-सभामें वह इस प्रकार संयत और गम्भीर वयस्कके समान प्रात्म-विस्मृत होकर बैठा बैठा हिला करता कि उसे देखकर बूढ़े लोगोंको अपनी हँसी रोकना कठिन हो जाता। केवल संगीत ही क्यों, जिस समय वृक्षोंके घने पत्तोंपर श्रावणकी वृष्टिकी धारा पड़ती, आकाशमें मेघ गरजता, जंगल में मातृहीन दैत्य-शिशुके रोनेके समान हवाकी सनसनाहट होती, उस समय भी उसका चित्त मानो बहुत ही उच्छृङ्खल हो उठता । जब निस्तब्ध दोपहरके समय बहुत दूर श्राकाशमें चील चिल्लाती, वर्षा ऋतुमें सन्ध्याके समय मेंढक बोलते, गम्भीर रात्रिमें गीदड़ चिल्लाते, तब भी वह मानो उतावला-सा होकर बहक उठता । इसी संगीतके मोहसे आकृष्ट होकर वह शीघ्र ही भजनीकोंके एक दलमें आकर सम्मिलित हो गया। भजनीकोंके उस दलका अध्यक्ष बहुत ही यत्नपूर्वक उसे गाना सिखलाया करता और उसे अपने भजन तथा गीत आदि कंठ कराया करता । वह उसे अपने हृदयरूपी पिंजरेके पक्षीके समान प्रिय समझता और उसके साथ स्नेह करता। परन्तु पक्षीने कुछ कुछ गाना सीखा और एक दिन प्रातःकाल वह वहाँसे उड़कर चला गया! अन्तिम बार वह एक जिम्नास्टिक-वालोंके दल में जा मिला । उस प्रान्तमें ज्येष्ठ मासके अन्तसे लेकर आषाढ़ मासके अन्त तक स्थान स्थानपर एकके बाद एक, अनेक मेले हुआ करते हैं । उन्हीं मेलों में जाकर कमाने खानेके लिए कई रासधारी, गाने बजानेवाले भजनीक, कवि, नाचनेवाली स्त्रियाँ और तरह तरहकी चीजें बेचनेवाले दूकानदार श्रादि नावोंपर चढ़कर छोटी छोटी नदियों जौर उपनदियों आदिमेंसे होते हुए एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाया करते हैं । पिछले वर्षसे कलकत्तेके जिम्नास्टिक-वालोंका भी एक छोटा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि सा दल इन मेलों के आमोद-चक्रमें योग दिया करता था। तारापदने पहले तो नाववाले एक दूकानदारके साथ मिलकर पान बीड़े बेचनेका भार लिया। इसके उपरान्त अपने स्वभाविक कुतूहलके कारण वह जिम्नास्टिक-वाले बालकोंका व्यायाम-नैपुण्य देखकर उनकी ओर आकृष्ट हुआ और उन्हींके दल में जा मिला। तारापदने स्वयं ही अभ्यास करके बहुत अच्छी तरह वंशी बजाना सीख लिया था। जिस समय जिम्नास्टिक होता, उस समय वह द्रुत तालमें वंशीमें लखनऊकी ठुमरी बजाया करता । बस यही उसका एक काम था। अन्तिम बार वह इसी दल मेंसे भागा था। उसने सुना कि नन्दीग्रामके जमींदार लोग मिलकर यात्रा या रास-धारियोंकी एक बहुत बड़ी मंडली खड़ी कर रहे हैं। यही सुनकर वह अपनी छोटी-सी गठरी लेकर नन्दीग्राम जानेका आयोजन करने लगा और इसी बीचमें मोती बाबूके साथ उसकी भेट हो गई। यद्यपि तारापद कई दलोंमें रह चुका था, पर अपनी प्रकृतिके कारण उसने किसो दलकी कोई विशेषता नहीं प्राप्त की थी। अपने अन्तरमें वह सदा पूर्णरूपसे निर्लिप्त और मुक्त था। वह संसारकी अनेकों कुत्सित बातें सदा सुना करता और अनेक कदर्य दृश्य उसकी आँखोंके सामने से गुजरते; परन्तु उन सब बातोंको उसके मनमें संचित होनेका तिलमात्र भी अवसर नहीं मिला। इस लड़केका उन सब बातोंमेंसे किसीपर भी ध्यान नहीं । जिस प्रकार और किसी तरहका कोई बन्धन उसे नहीं बाँध सकता था, उसी प्रकार अभ्यास-बन्धन भी उसके मनको बद्ध नहीं कर सका। वह इस संसारके गँदले जलके ऊपर शुभ्र-पक्ष राजहंसकी भाँति सदा अलग ही घूमा करता । वह अपने कुतूहलके कारण उस गैंदले जलमें चाहे जितने बार डुबकी लगाता, पर फिर भी उसके पंख गीले या मलिन नहीं हुए। इसी लिए इस गृह Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज त्यागी बालकके मुखपर एक शुभ्र स्वाभाविक तारुण्य अम्लान भावसे प्रकाशित हो रहा था । उसके मुखकी वही श्री देखकर वृद्ध अनुभवी मोतीलाल बाबूने उससे बिना कुछ पूछे ही और उसपर बिना किसी प्रकारका सन्देह किये ही उसे परम आदरपूर्वक अपने साथ ले लिया। . जब सब लोग भोजन आदि कर चुके, तब नाव खोल दी गई। अन्नपूर्णा बहुत ही स्नेहपूर्वक इस ब्राह्मण बालकसे उसके घर तथा आत्मीय परिजनों आदिकी बातें पूछने लगी। तारापदने उसके सब प्रश्नोंका बहुत ही संक्षेपमें उत्तर देकर किसी प्रकार अपनी जान छुड़ाई और वह बाहर आकर खड़ा हो गया। बाहर वर्षाकी नदी परिपूर्णताकी अन्तिम रेखा तक भर उठी और उसने अपनी चंचलतासे प्रकृति माताको मानो उद्विग्न कर दिया। आकाशमें बादल न होने के कारण धूप बहुत तेज हो रही थी। उस धूपमें नदीके तटपर काँस तथा दूसरे अनेक प्रकारके तृण आदि आधे पानी में डूबे हुए थे और आधे बाहर निकले हुए । उनके ऊपर सरस सघन ऊखके खेत और उनकी दूसरी ओर बहुत दूर दूर तक नीलांजन वर्णकी वन-रेखा थी। मानो ये सब पुरानी कहानीकी सोनेकी छड़ीके स्पशंसे सद्य-जाग्रत नवीन सौन्दर्यके समान निर्वाक नीलाकाशकी मुग्ध दृष्टि के सामने प्रस्फुटित हो उठे थे। सभी मानो सजीव, स्पन्दित, प्रगल्भ, आलोकके द्वारा उद्भासित, नवीनतासे चिकने, चमकते हुए तथा प्रचुरतासे परिपूर्ण थे । तारापदने नावकी छतपर पहुंचकर पालकी छायामें आश्रय लिया। धीरे धीरे डालुए हरे भरे किनारे, पानीसे भरे हुए पटसनके खेत, गाढ़ श्यामल धानोंका लहराना, घाटसे गाँवकी ओर जानेवाली संकीर्ण Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि १०३ पगडंडियाँ, घने वनोंसे घिरे हुए छायामय ग्राम, उसकी आँखों के सामने आने लगे । यही जल, स्थल और आकाश, यही चारों ओरकी सचलता, सजीवता और मुखरता, यही ऊर्ध्व अधोदेशकी व्याप्ति और वैचित्र्य तथा निर्लिप्त सुदूरता, यही सुबृहत् चिरस्थायी निनिमेष वाक्यविहीन विश्व जगत् उस तरुण बालकका सबसे बड़ा आत्मीय (अपना) था । फिर भी वह इस चंचल मानव-कटिको एक क्षण के लिए भी स्नेहबाहुसे पकड़ रखने की चेष्टा नहीं करता था। बछड़े अपनी रस्सी तुड़ा.. कर नदीके तटपर दौड़ रहे थे । गाँवोंके टट्टू रस्सीसे बँधे हुए अगले दोनों पैरोंसे उछलते हुए घास खाते फिरते थे । मच्छीखोर (पक्षी) मछुओंके जाल बाँधनेके बाँसों के ऊपरसे बहुत वेगके साथ धपसे जलमें कूदकर मछलियाँ पकड़ रहे थे । लड़के जल में उतरकर अनेक प्रकारकी क्रीड़ाएँ कर रहे थे । स्त्रियाँ जोर जोरसे हँसती हुई आपसमें बातें करती जाती थीं और छाती तक जलमें उतरकर अपनी धोतियोंके आँचल फैलाकर दोनों हाथोंसे उन्हें मलमलकर साफ कर रही थीं। मछली बेचनेवाली स्त्रियाँ, कमर बाँधे हुए, मछुओंसे मछलियाँ खरीद रही थीं। तारापद बैठा बैठा सदा नवीन बने रहनेवाले प्रश्रान्त कुतूहलसे यह सब देख रहा था- उसकी दृष्टिकी प्यास किसी तरह बुझती ही न थी। नावकी छतपर पहुँचकर तारापदने पालकी रस्सी थामनेवाले मल्लाहसे बात करना प्रारम्भ कर दिया। बीच बीचमें आवश्यकता पड़नेपर वह मल्लाहके हाथसे लग्गी लेकर आप भी दस पाँच हाथ लगा दिया करता था । जब मल्लाहको तमाखू पीने की आवश्यकता हुई, तब उसने उसके हाथसे पतवार ले ली ; और जब जिधर पाल घुमानेकी आवश्यकता हुई, तब बहुत ही दक्षतापूर्वक उसे भी उधर घुमा दिया । जब सन्ध्या होनेको पाई, तब अन्नपूर्णाने उसे बुलाकर पूछारातके समय तुम क्या खाया करते हो ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज तरापढ़ने कहा- जो कुछ मिल जाय, वही खा लेता हूँ । और फिर मैं नित्य तो रातको खाता भी नहीं । १०४ आतिथ्य ग्रहण में इस सुन्दर वालककी उदासीनता अन्नपूर्णाको कुछ कुछ कष्ट देने लगी । वह बहुत चाहती थी कि मैं अच्छी तरह खिला पहनाकर इस गृहच्युत बालकको भली भाँति तृप्ति कर दूँ । पर उसे किसी प्रकार इस बातका पता ही न चला कि आखिर किस बात से तारापदका परितोष होता है । अन्नपूर्णाने नौकर को बुलाकर गाँव से दूध और मिठाई आदि खरीद लाने के लिए कहा। तारापदने यथापरिमाण आहार तो कर लिया; परन्तु दूध नहीं पीया । मौन स्वभाव मोतीलाल बाबूने भी उससे दूध पी लेने के लिए अनुरोध किया । पर उसने संक्षेप में यही कह दिया कि मुझे दूध अच्छा नहीं लगता । इसी प्रकार नदी में नावपर ही दो तीन दिन बीत गये । तारापद रसोई बनाने और परोसने तथा बाजारसे सौदा सुलफ लानेसे लेकर नाव चलाने तक के सभी कामों में अपनी इच्छा और बहुत ही तत्परता से योग दिया करता था । जो दृश्य उसकी आँखोंके सामने आता था, उसी ओर उसकी कुतूहलपूर्ण दृष्टि दौड़ जाती थी । जो काम उसके हाथके आगे आ जाता था, उसमें वह ग्राप ही आप श्राकुष्ट होकर लग जाता था । उसकी दृष्टि, उसके हाथ, उसका मन सभी सदा सचल रहा करते थे और इसी लिए वह नित्य सचला प्रकृतिके समान सदा निश्चिन्त, उदासीन और सदा क्रियासक्त रहता था । प्रत्येक मनुष्यकी एक निजकी स्वतंत्र अधिष्ठान-भूमि हुआ करती है । परन्तु तारापद इस अनन्त नीलाम्बरवाही विश्वप्रवाह में एक आनन्दोज्ज्वल तरंगके समान था । भूत या भविष्य के साथ उसका किसी प्रकारका कोई बन्धन नहीं था । सामनेकी ओर बढ़े चलना ही उसका एक मात्र कार्य था । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रतिथि इधर बहुत दिनों से वह अनेक प्रकारकी मण्डलियों और सम्प्रदायों आदिके साथ रहता आया था, इसलिए अनेक प्रकारकी मनोरंजन करनेकी विद्याएँ उसे अच्छी तरह आ गई थीं । कभी किसी प्रकारकी चिन्तासे श्राच्छन्न न रहने के कारण उसके निर्मल स्मृति- पटपर सभी चीजें बहुत ही सहज भावसे मुद्रित हो जाती थीं । अनेक प्रकार के भजन, कीर्तन, कथाएँ और अभिनय यादि उसे कण्ठ थे । बाबू मोतीलाल अपनी बहुत दिनोंकी प्रथाके अनुसार एक दिन संध्या समय अपनी स्त्री और कन्याको रामायण पढ़कर सुना रहे थे । कुश और लवका प्रकरण था । उस समय तारापद अपने उत्साहको न रोक सका और नावकी छतपरसे नीचे उतरकर बोला- आप पुस्तक रख दीजिए। मैं कुश और लवसम्बन्धी कुछ गीत थाप लोगोंको सुनाता हूँ । आप लोग जरा ध्यानपूर्वक सुनिए । १०५ 1 इतना कहकर उसने लव और कुशके सम्बन्धकी कथाके गीत प्रारम्भ कर दिये । वंशीके समान अपने मीठे स्वरसे वह धाराप्रवाहकी भाँति अनेक प्रकारके गीत सुनाने लगा । सब मल्लाह आदि भी द्वारके पास गीत सुनने के लिए था खड़े हुए। उस नदी तटके संध्या समयके आकाशमें हास्य, करुणा और संगीतसे एक अपूर्व स्रोत प्रवाहित होने लगा । दोनों ओर के निस्तब्ध तदोंकी भूमि कुतूहलपूर्ण हो उठी । वहाँ पाससे होकर जो नावें जा रही थीं, उनके आरोही भी थोड़ी देर के लिए उत्कण्ठित होकर उसी श्रोर कान लगाकर सुनने लगे । जब गीत और कथा समाप्त हो गई, तब सब लोग व्यथित चित्तसे ठण्डी सांस लेकर सोचने लगे कि यह कथा और यह गीत इतनी जल्दी क्यों समाप्त हो गया ! सजलनयना अन्नपूर्णा की यह इच्छा होने लगी कि इस बालकको मैं अपनी गोद में बैठाकर और कलेजेसे लगाकर उसका मस्तक सूँघूँ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज बाबू मोतीलाल सोचने लगे कि यदि इस बालकको मैं अपने पास रख सकूँ, तो मेरे पुत्रवाले अभावकी पूर्ति हो जाय । केवल छोटी बालिका चारुशशिका अन्तःकरण ईर्ष्या और विद्वेषसे परिपूर्ण हो उठा। चारुशशि अपने माता-पिताकी एक मात्र सन्तान और उनके स्नेहकी एक मात्र अधिकारिणी थी। उसके हठ और जिद आदिका कोई ठिकाना नहीं था । खाने पहनने और सिरके बाल गूंथने आदिके सम्बन्धमें उसका मत बिलकुल स्वतंत्र और निजका था; पर उस मतमें कभी किसी प्रकारकी स्थिरता नहीं दिखाई देती थी। जिस दिन कहीं किसी प्रकारका निमंत्रण आदि होता था, उस दिन उसकी माताको इस बातका डर ही लगा रहता था कि कहीं मेरी लड़की अपने बनाव-सिंगारके सम्बन्धमें कोई असम्भव जिद न ठान बैठे । यदि संयोगवश किसी दिन उसके सिरके बाल उसके मनके मुताबिक नहीं बँधते थे, तो उस दिन फिर उसके बाल चाहे जितनी बार खोलकर क्यों न बाँधे जाते, वह किसी तरह मानती ही न थी और अन्तमें खूब रोना चिल्लाना हुआ करता था। सभी बातों में उसकी यही दशा थी । और जब किसी समय उसका चित्त प्रसन्न रहता था, तब वह कभी किसी बातपर कोई आपत्ति ही नहीं करती थी। उस समय वह बहुत अधिक प्रेम प्रकट करती हुई जोरसे अपनी माँके गलेसे लिपट जाती थी और उसे चूमकर हँसती हँसती लोट-पोट हो जाती थी। यह छोटी लड़की एक ऐसी पहेली थी, जो किसी प्रकार समझमें ही नहीं पाती थी। यह बालिका अपने दुर्बाध्य हृदयके सारे वेगका उपयोग करके मन Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि ही मन तारापदसे बहुत अधिक विद्वेष करने लगी । माता पिताको भी उसने पूरी तरह से उद्विग्न कर दिया । भोजनके समय वह रोना - सा मुँह बनाकर थाली अपने श्रागेसे खिसका देती थी । उसे भोजन अच्छा ही नहीं लगता था । कभी कभी वह दासीको भी मार बैठती थी । तात्पर्य यह कि सभी बातों में वह बिना कारण ही झगड़ा बखेड़ा किया करती थी । तारापदकी विद्या उसका तथा और सब लोगोंका जितना ही अधिक मनोरंजन करने लगी, उसका क्रोध भी उतना ही अधिक बढ़ने लगा । उसका मन यह बात स्वीकृत करनेके लिए तैयार ही नहीं था कि तारापदमें किसी प्रकारका कोई गुण है । और जब इस बात के • अधिकाधिक प्रमाण मिलने लगे कि उसमें कुछ गुण हैं, तब उसके सन्तोषकी मात्रा और भी अधिक बढ़ गई। जिस दिन तारापदने लव और कुशके भजन सुनाये थे, उस दिन अन्नपूर्णाने मनमें सोचा था कि संगीत से वनके पशु भी वश में हो जाते हैं; इस लिए आज कढ़ाचित् मेरी कन्याका मन भी कुछ शान्त हो गया होगा । इस लिए उसने उससे पूछा भी था - चारु, तुम्हें ये गीत कैसे लगे ? पर चारुशशिने उसके इस प्रश्नका कोई उत्तर नहीं दिया और बहुत जोरसे सिर हिला दिया । यदि उसकी इस भंगीका भाषामें अनुवाद किया जाय, तो उसका यही अर्थ होगा कि मुझे यह सब जरा भी अच्छी नहीं लगा और न कभी अच्छा लगेगा । १० अन्नपूर्णाने समझ लिया कि चारुके मनमें इर्ष्याका उदय हुआ है, इसलिए उसने चारुके सामने तारापदके प्रति अपना स्नेह प्रकट करना बन्द कर दिया । सन्ध्याके समय जब चारु जल्दी ही भोजन करके सो जाती थी, तब अन्नपूर्णा नावकी कोठरीके दरवाजेपर आ बैठती थी । मोती बाबू और तारापद दोनों दरवाजेके बाहर बैठते थे और अन्नपूर्णाके अनुरोधसे तारापद गीत और भजन आदि आरम्भ करता था । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उसके गीतसे जब नदी-तटकी विश्राम करती हुई ग्रामश्री सन्ध्याके विपुल अन्धकारमें मुग्ध तथा निस्तब्ध हो जाती थी और अन्नपूर्णाका कोमल हृदय स्नेह तथा सौन्दर्य-रससे परिपूर्ण हो जाता था, उस समय चारु सहसा बिछौनेपरसे उठ बैठती थी और जल्ही जल्दी वहाँ पहुँचकर क्रोधपूर्वक रोती हुई कहती थी-माँ, तुम लोगोंने यह क्या बखेड़ा लगा रक्खा है। मुझे नींद नहीं आती। माता पिता उसे अकेली सोनेके लिए भेज देते हैं और तारापदको घेरकर संगीतका आनन्द लेते हैं, यह बात उसे बहुत ही असह्य होतो थी। दीप्त कृष्ण नयनोंवाली इस बालिकाकी स्वाभाविक सुतीव्रता तारापदको बहुत ही अधिक कौतुक-जनक जान पड़ती थी। उसने कथाएँ सुनाकर, गीत गाकर, वंशी बजाकर इस बालिकाको वश करनेकी बहुत चेष्टा की , पर वह किसी प्रकार कृतकार्य न हो सका । हाँ, केवल दोपहरके समय जब तारापद नदीमें स्नान करनेके लिए उतरता था और परिपूर्ण जलराशिमें अपने गौर-वर्ण शरीरसे तरह तरहसे तैरकर तरुण जलदेवताके समान शोभा पाता था, उस समय उस बालिकाका कुतूहल अाकृष्ट हुए बिना नहीं रहता था। वह सदा उसी समयकी प्रतीक्षा किया करती थी। पर फिर भी वह अपना यह अान्तरिक आग्रह किसीपर प्रकट नहीं होने देती थी और मन लगाकर ऊनी गुलूबन्द बुननेका अभ्यास करते करते बीच बीचमें मानो बहुत ही उपेक्षापूर्वक तारापदका तैरना देख लिया करती थी। नन्दीग्राम कब पीछे छूट गया, इस बातकी तारापदने कुछ भी खोज खबर नहीं ली । अत्यन्त मृदु मन्द गतिसे वह बड़ी नाव कभी पाल उड़ाकर, कभी गूनसे खिंचकर नदीकी शाखा प्रशाखाओं से होकर चलने लगी। नावकी सवारियों के दिन भी इन सब नदी और Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि १०३ ........... - - - .. . . . उपनदियों के समान शान्ति और सौन्दर्य से पूर्ण वैचित्र्यमेंसे होकर सहज और सौम्य भावसे गमन करते हुए मृदु और मिष्ट कलस्वरसे प्रवाहित होने लगे। किसीको कोई जल्दी तो थी ही नहीं । दोपहरके समय स्नान और भोजन प्रादिमें ही बहुत अधिक बिलम्ब हो जाया करता था। उधर सन्ध्या होते न होते कोई बड़ा-सा वटवृक्ष देखकर किसी गाँवके किनारे घाट के निकट किसी झिल्लीझंकृत और खद्योतखचित वनके पास नाव बाँध दी जाया करती थी। ___ इस प्रकार कोई दस दिनोंमें नाव काँठाल पहुँची । जमींदार आ रहे थे, इसलिए घरसे पालकी और घोड़ा आया था; और हाथ में बाँस की लाठियाँ लिये हुए बरकन्दाजोंके दलने बन्दूकोंकी खाली आवाजोंसे गाँवके उत्कण्ठित कौनोंको इतना अधिक मुखर बना दिया था जिसका कोई ठिकाना ही नहीं था। __ इस समारोहमें कुछ विलम्ब हो रहा था। इस बीचमें तारापद नावपरसे जल्दी उतर कर सारे गाँवका एक चक्कर लगा आया। उसने किसीको भाई, किसीको चचा, किसीको बहिन और किसीको मौसी कहकर दो तीन घंटेके अन्दर ही गाँव भरके साथ सौहार्द-बन्धन स्थापित कर लिया । उसके लिए कहीं कोई प्रकृत बन्धन तो था ही नहीं, इसलिए वह बहुत ही जल्दी और बहुत ही सहजमें सबके साथ परिचय कर लेता था। थोड़े ही दिनोंमें देखते देखते तारापदने गाँवके सभी लोगोंके हृदयोंपर अधिकार कर लिया। ___इतने सहजमें हृदय हरण करनेका कारण यही था कि तारापद सब लोगोंके साथ बिलकुल आपसदारोंकी तरह मिल जुल सकता था। वह किसी प्रकारके विशेष संस्कारके द्वारा तो बद्ध था ही नहीं, पर सभी अवस्थानों में सभी कार्यों के प्रति उसकी एक प्रकारकी सहज प्रवृत्ति हुआ करती थी । बालकों में वह पूर्ण रूपसे स्वभाविक बालक था; परन्तु Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उनकी अपेक्षा श्रेष्ठ और स्वतंत्र वृद्धोंके निकट वह बालक नहीं था, साथ ही वृद्ध भी नहीं था । ग्वालोंके साथ वह ग्वाला, साथ ही ब्राह्मण भी था। सभी लोगोंके समस्त कामोंमें वह पुराने सहयोगीकी भाँति अभ्यस्त भावसे हस्तक्षेप किया करता था। जब वह हलवाईकी दूकानपर बैठकर उससे बातें किया करता था, तब हलवाई कहता थाभइया, जरा बैठे रहना, मैं अभी आता हूँ। उस समय तारापद भी प्रसन्नतापूर्वक दूकानपर बैठा बैठा एक बड़ा-सा पत्ता लेकर मिठाईपरकी मक्खियाँ उड़ाने लगता था । मिठाई बनानेमें भी वह बहुत होशियार था । ताँतीका काम भी कुछ कुछ जानता था और कुम्हारका चाक चलानेसे भी बिलकुल अनभिज्ञ नहीं था । इस तरह तारापदने गाँवके सभी लोगोंको अपना बना लिया था, केवल ग्रामवासिनी एक बालिकाकी ईर्ष्यापर वह अब तक भी विजय नहीं प्राप्त कर सका था । जान पड़ता था कि तारापद इस गाँवमें केवल इसी लिए इतने दिनों तक रह गया था कि वह जानता था कि यह बालिका मुझे किसी दूर देशमें निर्वासित करने की बहुत ही तीन भावसे कामना कर रही है। परन्तु चारुशशिने इस बातका प्रमाण दे दिया कि बाल्यावस्था में भी नारीके हृदयके अन्दरका रहस्य समझना बहुत ही कठिन है। सोनामणि नामकी एक ब्राह्मण-कन्या-जो पाँच वर्षकी अवस्थामें विधवा हो गई थी-चारुकी समवयसी सखी थी। उस समय सोनामणि शरीरसे कुछ अस्वस्थ थी; इसलिए जब चारु लौटकर घर आई थी, तब कुछ दिनों तक वह उससे भेंट करने के लिए न आ सकी थी। जब वह अच्छी हो गई और एक दिन उससे भेंट करनेके लिए आई, तब उसी दिन प्रायः बिना कारण ही दोनों सखियोंमें कुछ मनोमालिन्य होनेका उपक्रम हो गया। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि चारुने बहुत विस्तारसे बातें करना प्रारम्भ किया । उसने सोचा था कि मैं तारापद नामक अपने नवीन अर्जित किये हुए परम रत्नके श्राहरणकी बातें बहुत ही विस्तारपूर्वक वर्णन करके अपनी सखीका कुतूहल और विस्मय सप्तमपर चढ़ा दूंगी। पर जब उसने सुना कि तारापद सोनामणि के लिए कुछ भी अपरिचित नहीं है; सोनाकी माँको वह मौसी कहता है और सोनामणि उसे भइया कहती है; जब उसने सुना कि तारापदने केवल वंशी बजाकर ही माता और कन्याका मनोरंजन नहीं किया है, बल्कि सोनामणिके अनुरोधसे उसने अपने हाथसे उसके लिए बाँसकी वंशी भी बना दी है; उसने कई बार उसके लिए ऊँची शाखाओंसे फल और कँटीली शाखाओंसे फूल तोड़ दिये हैं, तब चारुके अन्तःकरणमें जलता हुआ तीर-सा विंधने लगा। चारु समझती थी कि तारापद विशेष रूपसे मेरा ही तारापद है । वह समझती थी कि तारापद बहुत ही गुत रूपसे संरक्षित रखनेकी चीज है। दूसरे लोगोंको उसका थोड़ा बहुत आभास मात्र मिलेगा-उसके पास तक किसीकी भी पहुँच नहीं होगी। सब लोग दूरसे ही उसके रूप और गुणपर मुग्ध होंगे और उसके लिए हम लोगोंको धन्यवाद दिया करेंगे। पर अब वह सोचने लगी कि यह आश्चर्यदुर्लभ दैव-लब्ध ब्राह्मण बालक सोनामणिके लिए क्यों कर सहज-गम्य हो गया ? यदि हम लोग इतने यत्नसे उसे यहाँ न लाते, इतने यत्नसे उसे अपने यहाँ न रखते, तो सोनामणिको उसके दर्शन कहाँसे मिलते ? वह सोनामणिका भाई है ! सुनकर उसका सारा शरीर जल उठा! चारु जिस तारापदको मन ही मन विद्वेषके शरसे जर्जर करनेकी चेष्टा किया करती थी, उसीके एकाधिकार के लिए उसके मनमें इस प्रकारका प्रबल उद्वेग क्यों हुआ?--भला किसकी मजाल है कि यह बात समझ सके ! Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुन्ज उसी दिन एक और तुच्छ बातपर सोनामणि और चारुशशिमें भीतरी गाँठ पड़ गई और उसने तारापदकी कोठरीमें जाकर, उसकी वंशी निकालकर, उसपर कूदकूदकर निर्दयतापूर्वक उसे तोड़ना शुरू कर दिया। चार जिस समय बहुत ही क्रोध आकर उस वंशीको तोड़-फोड़ रही थी, उसी समय तारापद वहाँ आ पहुँचा । बालिकाकी यह प्रलयमूर्ति देखकर वह चकित हो गया। उसने पूछा-चारु, तुम मेरी वंशा क्यों तोड़ रही हो ? तुमने यह क्या किया ! चारुने लाल आँखें और लाल मुँह करके कहा-मैंने अच्छा किया ! बहुत अच्छा किया ! इतना कहकर उसने उस टूटी हुई वंशीपर और दो चार बार अनावश्यक पदाघात करके उसका कचूमर निकाल डाला और तब उच्छ्वसित कंठसे रोती हुई वह उस कोठरीसे बाहर निकल गई। तारापदने वह वंशी उठाकर उलट पुलटकर देखी; उसमें कुछ भी दम नहीं रह गया था । अकारण अपनी पुरानी निरपराध वंशीकी यह आकस्मिक दुर्दशा देखकर वह अपनी हँसी न रोक सका । चारुशशि दिनपर दिन उसके लिए परम कुतूहलकी चीज होती जाती थी। उसके लिए कुतूहल का एक और भी क्षेत्र था। मोतीलाल बाबूकी लाइब्रेरीमें अँगरेजीकी बहुत-सी तसवीरदार किताब थीं । बाहरी संसारके साथ तो उसका यथेष्ट परिचय हो चुका था, पर इन तसवीरोंके जगतमें वह किसी प्रकार अच्छी तरह प्रवेश नहीं कर सकता था । वह अपने मनसे कल्पनाके द्वारा उसकी बहुत कुछ पूर्ति कर लिया करता था, पर उससे उसके मनकी कुछ भी तृप्ति नहीं होती थी। तसबीरोंवाली पुस्तकों के प्रति तारापदका इतना अधिक अाग्रह देखकर एक दिन मोतीलाल बाबूने कहा-तुम अँगरेजी पढ़ोगे ? यदि पढ़ लोगे, तो इन सब चित्रोंका मतलब समझने लगोगे । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि तारापदने तुरन्त उत्तर दिया-हाँ, मैं अँगरेजी पढू गा । मोतीलाल बाबूने बहुत प्रसन्नतासे गाँवके स्कूलके हेडमास्टर बाबू रामरतनको नित्य सन्ध्या समय आकर उस बालकको पढ़ाने के कामपर नियुक्त कर दिया तारापद अपनी प्रखर स्मरणशक्ति और अखंड मनोयोगसे अँगरेजी सीखने लगा । वह मानो एक नवीन और दुर्गम राज्यमें भ्रमण करनेके लिए बाहर निकल पड़ा । उसने अपने पुराने संसारके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रक्खा । अब वह गाँवके लोगोंको पहलेकी भाँति जहाँ तहाँ घूमता दिखाई नहीं देता। जब वह सन्ध्याके समय निर्जन नदी-तटपर जल्दी जल्दी चलता हुआ अपना पाठ कण्ठ किया करता, तब उसका उपासक बालक-सम्प्रदाय दूरहीसे कुछ दुःखी चित्तसे आदरपूर्वक उसे देखा करता ; उसके पाठमें बाधा देनेका उसे साहस नहीं होता। ___ चारुको भी आजकल वह बहुत अधिक नहीं दिखाई देता। पहले तारापद अन्तःपुरमें जाकर अन्नपूर्णाकी स्नेहपूर्ण दृष्टिके सामने बैठकर भोजन किया करता था । पर इससे बीच बीचमें उसे कुछ विलम्ब हो जाया करता था; इसलिए उसने मोतीलाल बाबूसे अनुरोध करके अपने लिए बाहर ही भोजन मँगानेकी व्यवस्था कर ली। इसपर अन्नपूर्णाने दुःखी होकर विरोध भी किया। परन्तु मोतीलाल बाबू पढ़ने लिखनेमें बालकका उत्साह देखकर बहुत सन्तुष्ट थे ; इसलिए उन्होंने इस व्यवस्थाका अनुमोदन कर दिया । ___ उसी समय चारु भी सहसा जिद कर बैठी कि मैं भी अँगरेजी पद् गी। उसके माता-पिताने पहले अपनी अल्हड़ लड़कीके इस प्रस्ताव Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज को परिहासका विषय समझा और वे स्नेहपूर्वक हँस पड़े; परन्तु कन्याने उस प्रस्तावके परिहास्य अंशको प्रचुर अश्रुजलकी धारासे बहुत ही जल्दी धोकर दूर कर दिया। अन्तमें इन स्नेहदुर्बल निरुपाय अभिभावकोंने बालिकाका वह प्रस्ताव गम्भीर भावसे स्वीकार कर लिया। अब चारु भी तारापदके साथ ही मास्टर साहबसे अँगरेजी पढ़ने लगी। परन्तु पढ़ना लिखना इस अस्थिर-चित्त बालिकाके स्वभावके अनुकूल नहीं था । वह स्वयं तो कुछ भी न सीखती ; हाँ, तारापदके सीखने में बाधा अवश्य डालने लगी। वह पिछड़ जाती और अपना पाठ कण्ठ नहीं करती ; पर फिर भी किसी प्रकार सारापदसे पीछे नहीं रहना चाहती। जब तारापद उससे आगे बढ़कर नया पाठ सीखने लगता, तब वह बहुत नाराज होती; यहाँ तक कि रोने-धोनेसे भी बाज नहीं आती। जब तारापद एक पुरानी पुस्तक समाप्त करके दूसरी नई पुस्तक खरीदने लगता, तब उसके लिए भी एक नई पुस्तक खरीदनी पड़ती । तारापद फुरसतके समय अपनी कोठरीमें बैठकर लिखा करता और अपना पाठ कण्ठ किया करता । पर उस ईर्ष्या-परायणा बालिकाको यह बात सह्य नहीं होती । वह छिपकर उसकी लिखनेकी कापीपर स्याही गिरा देती; कलमको ही कहीं छिपाकर रख दिया करती ; यहाँ तक कि पुस्तकका जो पृष्ठ वह पढ़ता, उस पृष्ठको ही फाड़ दिया करती। तारापद बहुत ही कौतुकपूर्वक इस बालिकाका यह सब दौरात्म्य सहन किया करता । पर जब उसे बहुत असह्य हो जाता, तब वह कभी कभी उसे थोड़ा बहुत मार भी बैठता ; पर फिर भी किसी प्रकार उसका शासन नहीं कर सकता। संयोगसे एक उपाय निकल आया। तारापद एक दिन बहुत ही विरक्त होकर स्याही गिरी हुई अपनी लिखनेकी कापी फाड़कर बहुत Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि ही दुःखी पर गम्भीर भावसे बैठा हुआ था। इतने में चारु दरवाजे पर श्राकर खड़ी हो गई । वह मन ही मन सोचती थी कि आज मुझे जरूर मार पड़ेगी। परन्तु उसकी वह आशा पूरी नहीं हुई । तारापदने उससे बात न की और वह चुपचाप बैठा रहा । बालिका कभी कोठरीके अन्दर आती और कभी बाहर चली जाती। वह बार बार उसके बहुत पास पहुँच जाती। यदि तारापद चाहता, तो सहज में ही उसकी पीठपर धौल जमा सकता था। परन्तु उसने ऐसा नहीं किया और वह चुपचाप गम्भीर भाव धारण किये हुए बैठा रहा । बालिका बहुत मुश्किल में पड़ गई। क्षमा-प्रार्थना किस प्रकार की जाती है, इस विद्याका तो उसने आज तक कभी कोई अभ्यास किया ही नहीं था ; पर उसका अनुतप्त तुद्र हृदय अपने सहपाठीसे क्षमा प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक कातर हो रहा था। अन्तमें कोई उपाय न देखकर उसने उस फटी हुई कापीका एक टुकड़ा उठा लिया और तारापदके पास बैठकर उसपर बहुत बड़े बड़े अक्षरों में लिखा-अब मैं कभी कापीपर स्याही न गिराऊँगी । जब वह लिख चुकी, तब उस लेखकी ओर तारापदका ध्यान आकर्षित करनेके लिए वह अनेक प्रकारकी चंचलताएँ करने लगी। यह देखकर तारापद अपनी हँसी न रोक सका। वह ठठाकर हँस पड़ा । उस समय बालिका लज्जा और क्रोधसे पागल हो गई और जल्दीसे दौड़कर कोठरीके बाहर चली गई। उसके हृदयका वह निदारुण क्षोभ तभी मिट सकता था जब कि वह कागजके उस टुकड़ेको, जिसपर उसने अपने हाथसे लिखकर दीनता प्रकट की थी, अनन्त काल और अनन्त जगतसे पूर्ण रूपसे विनष्ट कर सकती। उधर संकुचित-चित्त सोनामणि दो एक दिन श्राकर उस कमरेमें बाहरहीसे ताक झाँककर चली गई थी, जिस कमरेमें तारापद के साथ चारु पढ़ा करती थी । सखी चारुशशिके साथ सभी बातों में उसको Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रबीन्द्र-कथाकुञ्ज . ... . .... . . . . बहुत अधिक घनिष्टता थी ; परन्तु तारापदके सम्बन्धमें वह चारुको बहुत अधिक भय और सन्देहकी दृष्टिसे देखा करती थी। चारु जिस समय अन्तःपुरमें होती थी, ठीक उसी समय सोनामणि संकोचपूर्वक तारापदके दरवाजे के पास आकर खड़ी हो जाती। तारापद पढ़ना छोड़. कर सिर उठाकर स्नेहपूर्वक पूछता-क्यों सोना, क्या हाल चाल है ? मौसी कैसी हैं ? सोनामणि कहती-तुम तो उधर बहुत दिनोंसे आते ही नहीं हो। माँने तुमको जरा बुलाया है। माँकी कमरमें दर्द है ; इसी लिए वह तुम्हें देखनेके लिए यहाँ नहीं आ सकती। ऐसे ही समयमें यदि सहसा चारु वहाँ आ पहुँचती तो सोनामणि हक्की-बक्की-सी होकर रह जाती। मानो वह छिपकर अपनी सखीकी सम्पत्ति चुराने के लिए आई हो । चारु अपना स्वर सप्तमपर चढ़ाकर कहती--क्यों सोना, तुम पढ़नेके समय दिक करने के लिए आई हो ? मैं अभी जाकर बाबूजीसे कह दूंगी। चारु मानो स्वयं ही तारापदकी प्रवीण अभिभाविका हो । मानो दिन रात उसका ध्यान केवल इसी बासपर रहता हो कि तारापदके पढ़ने लिखने में लेश मात्र भी बाधा न पड़े । परन्तु वह स्वयं किस अभिप्रायसे इस असमयमें तारापदके पढ़नेके कमरेमें आ पहुँचती, यह अन्तर्यामीके लिए अगोचर नहीं था और तारापद भी अच्छी तरह जानता था । परन्तु बेचारी सोनामणि बहुत ही भयभीत होकर तुरन्त ही एक बिलकुल झूठी कैफियत गढ़ लेती । अन्तमें चारु जब घृणापूर्वक उसे मिथ्यावादी ठहराती, तब वह लजित, शंकित और पराजित होकर व्यथित हृदयसे वहाँसे चली जाती । दयाई तारापद उसे बुलाकर कहतासोना; आज सन्ध्या समय मैं तुम्हारे घर आऊँगा । चारु नागिनकी तरह फुफकारकर गरज बैठती-हाँ, हाँ, जाओगे क्यों नहीं ! Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि पढ़ो लिखोगे कुछ नहीं न ? अच्छा देखो, श्राज मास्टर साहबसे कहूँगी। ___ चारुके इस शासनसे तारापद कुछ भी भयभीत नहीं होता और वह दो एक दिन सन्ध्याके समय उस ब्राह्मणीके घर गया भी। तीसरी या चौथी बार तारापदपर चारु केवल बिगड़कर ही नहीं रह गई, बल्कि उसने एक बार धीरेसे तारापदकी कोठरीका दरवाजा बाहरसे बन्द करके सिकड़ी लगा दी और माँके बक्समेंसे ताली ताला लाकर उसे बाहरसे बन्द भी कर दिया । सन्ध्या तक तारापदको इस प्रकार तालेमें बन्द रखकर भोजन के समय उसने द्वार खोल दिया । तारापदको क्रोध तो पाया, पर उसने कुछ कहा नहीं; और वह बिना भोजन किये ही वहाँसे चलनेका उपक्रम करने लगा। उस समय वह अनुतप्तहृदय और व्याकुल बालिका हाथ जोड़कर बहुत ही विनयपूर्वक बार बार कहने लगी-मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अब कभी ऐसा काम नहीं करूँगी। मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, तुम खाकर जायो । लेकिन जब इतने पर भी तारापदने नहीं माना, तब वह अधोर होकर रोने लगी । लाचार होकर तारापद लौटाया और भोजन करने लगा। चारुने कई बार बहुत ही दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा की कि मैं अब तारापदके साथ सद्व्यवहार किया करूँगी और कभी क्षण-भरके लिए भी उसे दुःखी न किया करूँगी । पर जब सोनामणि जैसी और भो दो-चार लड़कियाँ सामने आ जाती, तब उसका मिजाज न जाने क्यों बिगड़ जाया करता और वह किसी भी प्रकारसे अपने आपको न सँभाल सकती । जब वह लगातार कई दिनों तक भलमनसाहतका व्यवहार करती रहती, तब तारापद सतर्क हो जाता और किसी बहुत बड़े उपद्रवकी सम्भावना समझकर उसके लिए तैयार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज हो रहता । कोई कह नहीं सकता था कि सहसा किस लिए और किस ओरसे आक्रमण होगा । इसके उपरान्त प्रबल आँधी आती; के उपरान्त प्रचुर अश्रु-जलकी वर्षा होती; और उसके उपरान्त स्निग्ध शान्ति आ विराजती । ११८ ६ इसी प्रकार प्रायः दो वर्ष बीत गये । इतने लम्बे समय तक arrपदको कभी कोई पकड़कर नहीं रख सका था । जान पड़ता है कि पढ़ने लिखने में उसका मन एक अपूर्व श्राकर्षण से बद्ध हो चुका था । जान पड़ता है कि अवस्था बढ़ने के साथ ही साथ उसकी प्रकृतिमें भी परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया था, स्थायी रूपसे बैठकर संसारकी सुख- स्वच्छन्दताका भोग करनेकी ओर उसका मन लग गया था । जान पड़ता है, उसकी सहपाठिका बालिकाका हमेशा के उपद्रवोंसे चंचल रहनेवाला सौन्दर्य अलक्षित भावसे उसके हृदयपर अपना बन्धन दृढ़ कर रहा था । उधर चारु भी अब ग्यारह बरससे ऊपरकी हो गई । मोती बाबूने ढूँढ़ ढाँढ़कर अपनी लड़कीके विवाह के लिए दो तीन अच्छे अच्छे वर देखे । और जब देखा कि कन्या के विवाहका समय समीप आ रहा है, तब उन्होंने उसका पढ़ना लिखना और बाहर आना जाना बन्द कर दिया । यह आकस्मिक अवरोध देखकर चारुने घरमें बहुत बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया । इसपर एक दिन अन्नपूर्णाने मोती बाबूको बुलाकर कहा- तुम arके लिए इतनी अधिक चिन्ता और ढूँढ खोज क्यों कर रहे हो ? तारापद तो बहुत अच्छा लड़का है और तुम्हारी लड़कीको भी वह पसन्द है । अन्नपूर्णाकी यह बात सुनकर मोती बाबूने बहुत अधिक आश्चर्य Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि प्रकट किया । उन्होंने कहा-भला यह कैसे हो सकता है ? तारापदके. कुल-शीलका कुछ भी पता नहीं। मेरी एक ही एक लड़की ठहरी । मैं उसे किसी अच्छे घरमें देना चाहता हूँ। एक दिन रायडाँगाके बाबूके यहाँसे कुछ लोग लड़कीको देखनेके लिए आये । चारुको कपड़े लत्ते पहनाकर बाहर लानेकी चेष्टा की गई ; परन्तु वह जाकर अपने सोनेके कमरे में दरवाजा बन्द करके चुपचाप बैठ गई, किसी प्रकार बाहर निकली ही नहीं ! मोती बाबूने कमरेके बाहरसे बहुत अनुनय विनय करके डाँट डपटकर बाहर निकालना चाहा ; पर फल कुछ भी नहीं हुआ। अन्तमें उन्हें बाहर आकर रायडाँगेसे आये हुए आदमियोंसे झूठ बोलना पड़ा। उन्हें कहना पड़ा कि अचानक लड़कीकी तबीयत बहुत खराब हो गई है, इसलिए आज हम लड़की नहीं दिखला सकते । उन लोगोंने सोचा कि लड़कीमें शायद कोई दोष है ; इसी लिए यह चालाकी खेली है और यह बहाना किया है। तब मोती बाबू सोचने लगे कि तारापद देखने सुननेमें सभी बातोंमें बहुत अच्छा लड़का है। इसे मैं अपने घरमें भी रख सकूँगा। उस दशामें मुझे अपनी एक मात्र लड़की पराए घर न भेजनी पड़ेगी। उन्होंने यह भी सोचा कि इस अशान्त अबाध्य लड़कीकी यह उद्दण्डता हमारी स्नेहपूर्ण दृष्टि में चाहे कितनी ही क्षम्य क्यों न जान पड़ती हो, पर ससुराल में इसकी ये सब बातें कोई न सहेगा। तब पति-पत्नीने बहुत कुछ सोच विचारकर तारापदके घर उसके कुलके सम्बन्धकी सब बातों का पता लगानेके लिए एक आदमी भेजा। वहाँसे समाचार आया कि वंश तो अच्छा है, पर गरीब है । तब मोती बाबूने लड़केकी माँ और भाइयोंके पास विवाहका प्रस्ताव भेजा । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ran.nanaaaaamrrrrrrrrr.murniwww. amannam...vara.. उन्होंने बहुत ही प्रसन्न होकर सम्मति देने में क्षण-भरका भी बिलम्ब नहीं किया। ___ अब मोती बाबू और अन्नपूर्णा दोनों मिलकर यह सोचने लगे कि विवाह कब हो । परन्तु मोती बाबू स्वभावसे ही गोपनताप्रिय और सावधान रहनेवाले श्रादमी थे। उन्होंने सब बातें बहुत ही गुप्त रक्खीं । ___ चारु किसी प्रकार रोककर रक्खी ही नहीं जा सकती थी । वह बीच बीचमें मराठोंकी घुड़सवार सेनाकी तरह तारापदके पढ़नेके कमरेमें जा पहुँचती। वह कभी राग, कभी अनुराग और कभी विराग-द्वारा उसकी पाठचर्याकी एकान्त शान्ति सहसा भंग कर दिया करती। इसी लिए आजकल इस निर्लिप्त और मुक्तस्वभाव ब्राह्मण बालकके चित्तमें बीच बीचमें क्षण भरके लिए विद्युत्के स्पन्दनकी भांति एक अपूर्व चंचलताका संचार हो जाया करता । जिस व्यक्तिका लघु-भार चित्त सदा अटूट अव्याहत भावसे काल-स्रोतकी तरंगोंमें उत. राता हुश्रा केवल सामनेकी ओर ही बहा चला जाता था, वह आजकल रह रहकर अन्यमनस्क हो उठता और विचित्र दिवा-स्वप्नके जालमें जकड़ जाता । वह दिन दिन भर पढ़ना लिखना छोड़कर मोती बाबूकी लाइब्रेरीमें पहुंचकर तसवीरोंवाली पुस्तकोंके पन्ने उलटा करता। उन चित्रोंके संयोगसे जिस कल्पित जगतकी सृष्टि होती, वह उसके पहलेवाले जगतसे बिलकुल अलग और रंगीन होता। चारुका अद्भुत पाचरण देखकर अब वह पहलेकी तरह हँस नहीं सकता। वह जब कभी किसी प्रकारकी दुष्टता करती, तब उसे मारने पीटनेका विचार अब उसके मनमें उठता ही नहीं। अपना यह निगूढ परिवर्तन और श्राबद्ध आसक्त भाव उसे एक नवीन स्वप्नके समान जान पड़ने लगा। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि ___ श्रावण मासमें विवाहके लिए एक शुभ दिन स्थिर करके बाबू मोतीलालने तारापदकी माता और भाइयोंको लाने के लिए आदमी भेजा, पर तारापदको इस बातकी कोई खबर न होने दी। अपने कलकत्तेवाले गुमाश्तेको उन्होंने बढ़िया बाजों आदिका बयाना देनेका श्रादेश लिख भेजा और साथ ही दूसरी अनेक अावश्यक चीजोंकी फेहिरिस्त भी तैयार करके भेज दी। श्राकाशमें नवीन वर्षा के बादल उठे । गाँवकी नदी इतने दिनोंमें प्रायः बिलकुल सूख गई थी। बीच बीचमें कहीं कहीं किसी कुण्ड या गड्ढे में पानी दिखलाई देता था। छोटी छोटी नावें उसी कीचड़-भरे पानीमें पड़ी हुई थीं; और जिस स्थान पर नदीका पाट बिलकुल सूख गया था, उस स्थानपर बैलगाड़ियों आदिके श्राने जानेसे पहियोंके कारण गहरी लकीरें पड़ गई थीं । ऐसे समयमें एक दिन पितृगृहसे लौटकर आनेवाली पार्वतीके समान कहींसे द्रुतगामिनी जलधारा कलकलहास्य करती हुई गाँवके शून्य वक्षपर आ पहुँची। नंगे बालक और बालिकाएँ नदी-तटपर श्रा-आकर जोर जोरसे चिल्लाते हुए नाचने लगे। वे सब अतृप्त आनन्दसे बार बार जल में कूदकर नदीको मानो प्रालिंगन करते हुए तैरने लगे। कुटीरोंमें रहनेवाली स्त्रियाँ अपनी परिचित संगिनीको देखने के लिए बाहर निकल आई। मानो शुष्क और निर्जीव ग्राममें न जाने कहाँसे प्राण की एक विपुल तरंगने आकर प्रवेश किया। बोझसे लदी हुई छोटी बड़ी अनेक नावें देश विदेश से आने लगीं । सन्ध्या समय घाटपर विदेशी मल्लाहोंके संगीतकी ध्वनि उठने लगी। नदीके दोनों तटोंकी गाँवरूपी कन्याएँ साल-भर अपने एकान्त कोनों में अपनी छोटी-सी गृहस्थी लेकर अकेली दिन बिताया करती हैं । वर्षा के समय बाहरकी विशाल पृथ्वी अनेक प्रकारके विचित्र पण्यरूपी उपहार लेकर और गैरिक रंगके जलरथ पर चढ़कर इन ग्राम-कन्याओंकी खबर लेने के Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज लिए आती है । उस समय जगतके साथ इनकी जो आत्मीयता हो जाती है, उसके गर्वसे कुछ दिनोंके लिए इनकी क्षुद्रता मानो नष्ट हो जाती है। सभी मानो सचल, सजग और सजीव हो उठती हैं और मौन-निस्तब्ध देशमें सुदूरके राज्योंकी कलालाप ध्वनि आकर चारों पोरके आकाशको आन्दोलित कर देती है। ___ इसी समय कुडुलकाँटाके नाग बाबूके इलाकेमें रथ-यात्राका प्रसिद्ध मेला था । चाँदनीवाली सन्ध्यामें तारापदने घाटपर जाकर देखा कि कोई नाव हिंडोला या चरखी लिए, कोई बिक्रीका सौदा सुलुफ लिये प्रबल नवीन स्रोतोमें होती हुई मेलेकी ओर जा रही है । कलकत्तेके कन्सर्ट दलने जोर जोरसे अपने बाजे बजाने प्रारम्भ कर दिये हैं । रासधारी हारमोनियम और बेला बजाकर गीत गा रहे हैं और सम आने पर हा हा करते हुए चिल्ला उठते हैं। पश्चिमकी नावोंके मल्लाह केवल ढोल और करताल लेकर ही उन्मत्त उत्साहसे बिना संगीतके ही चिल्ला कर आकाश गुंजा रहे हैं। उनके उद्दीपनकी कोई सीमा ही नहीं है। देखते देखते पूर्व दिशासे घने बादल काले पाल उड़ाते हुए आकाशके मध्यमें श्रा पहुंचे। चन्द्रमा उन बादलोंमें छिप गया। पुरवा हवा जोरोंसे बहने लगी। बादलके पीछे बादल बढ़ते हुए चलने लगे। नदीतटकी हिलती हुई वन-श्रेणीमें घोर अन्धकार छा गया। मेंढक बोलने लगे। झिल्लियोंकी ध्वनि मानो करोंतसे उस अन्धकारको चीरने लगी । सामने आज मानो सारे जगतकी रथयात्रा थी। चक्र घूम रहे थे, ध्वजाएँ उड़ रही थीं, पृथ्वी काँप रही थी, बादल मँडरा रहे थे, हवा जोरोंसे चल रही थी, नदी बह रही थी, नावें चली जा रही थीं, संगीत हो रहा था। देखते देखते बादल जोरोंसे गरजने लगे। बिजली आकाशको काटकाटकर चमकने लगी । बहुत दूरसे अन्धकारमेंसे मूसलधार वृष्टि होनेकी सूचना मिलने लगी। केवल नदीके एक तटपर एक कोने में पड़ा हुआ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि १२३. काँठाल गाँव अपनी कुटीका द्वार बन्द करके और दीपक बुझाकर चुपचाप सोने लगा। ___ दूसरे दिन तारापदकी माता और सब भाई आकर काँठालमें नाव परसे उतरे । उसके दूसरे दिन अनेक प्रकारकी सामग्रीसे लदी हुई तीन ना भी कलकत्तेसे पाकर काँठालके जमींदारकी छावनीके सामने घाट पर श्रा लगीं । इसके तीसरे दिन बहुत सबेरे सोनामणि एक कागजपर कुछ अाम्रसत्व (सुखाया हुअा अामका रस) और दोने में थोड़ा-सा अचार लिये हुए डरती डरती तारापदके पढ़नेके कमरेके दरवाजेपर चुपचाप आकर खड़ी हो गई । पर उस दिन तारापद कहीं किसीको दिखलाई नहीं दिया। इससे पहले ही कि स्नेह, प्रेम और बन्धुत्वके षड्यन्त्रका बन्धन उसे चारों ओरसे पूरी तरहसे घेर लेता, समस्त गाँवका हृदय चुराकर वर्षाऋतुकी अंधेरी रातमें वह ब्राह्मण बालक. श्रासक्ति-विहीन और उदासीन जननी विश्वपृथ्वीके पास चला गया। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक कालिजमें अपने सहपाठियों में मेरा कुछ विशेष सम्मान था। सभी लोग सभी विषयोंमें मुझे कुछ अधिक समझदार समझा करते थे । इसका प्रधान कारण यह था कि चाहे सही हो और चाहे गलत, पर सभी विषयों में मेरा कुछ न कुछ मत हुया करता था। 'अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं जो किसी विषयमें जोर देकर हाँ या नहीं नहीं कह सकते । पर मैं हाँ या नहीं करना बहुत अच्छी तरह जानता था । केवल यही बात नहीं थी कि प्रत्येक विषयमें मेरी कुछ न कुछ सम्मति या असम्मति हुआ करती थी; बल्कि मैं स्वयं कुछ रचना भी किया करता था; वक्तृता दिया करता था ; कविता लिखा करता Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १२६ AAMANA था; समालोचना करता था ; और सब प्रकारसे अपने सहपाठियोंकी ईर्ष्या और श्रद्धाका पात्र हो गया था। ___ मैं इसी प्रकार अन्ततक अपनी महिमा बनाये रखकर कालिजसे बाहर निकल सकता था। परन्तु इसी बीचमें मेरे ख्यातिस्थानका शनि एक नये अध्यापककी मूर्ति धारण करके कालिजमें उदित हो गया। __हम लोगोंके उस समय के वे नये अध्यापक अाजकलके एक बहुत प्रसिद्ध आदमी हैं । इसलिए यदि मैं अपने इस जीवन-वृत्तान्तमें उनका नाम छिपा भी रक्खू तो उनके उज्ज्वल नामकी कोई विशेष क्षति न होगी । मेरे प्रति उनका जो कुछ अाचरण था उसका ध्यान रखते हुए इस इतिहासमें उनका नाम वामाचरण बाबू रहेगा। उनकी अवस्था हम लोगोंकी अवस्थासे कुछ बहुत अधिक नहीं थी। अभी थोड़े ही दिन हुए, वे एम० ए० की परीक्षामें प्रथम हुए थे; और टानी साहबसे विशेष प्रशंसा प्राप्त करके कालिजसे बाहर निकले थे। परन्तु वे ब्रह्मसमाजी थे, इसलिए हम लोगोंसे बिलकुल अलग और स्वतंत्र रहते थे। वे हम लोगोंके समकालीन और समवयस्क नहीं जान पड़ते थे। हम सब हिन्दू नवयुवक आपसमें उन्हें ब्रह्म-दैत्य कहा करते थे। हम लोगोंकी एक सभा थी, जिसमें हम सब मिलकर किसी विषयपर तर्क-वितर्क और वाद-विवाद किया करते थे। उस सभाका मैं ही विक्रमादित्य था और मैं ही नवरत्न था। सब मिलाकर हम छत्तीस आदमी उस सभाके सभ्य थे। यदि इनमें से पैंतीस आदमियोंको गिनतीमें न भी लिया जाता, तो भी कोई विशेष हानि नहीं थी। और इस एक बचे हुए आदमीकी योग्यताके सम्बन्धमें जो कुछ, मेरी धारणा थी, वही धारणा शेष पैंतीस श्रादमियोंकी भी थी। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ~~~~.... ~~~~- ... इस सभाके वार्षिक अधिवेशनके लिए मैंने एक प्रोजस्वी प्रबन्ध तैयार किया था, जिसमें कार्लाइलकी रचनाकी समालोचना थी। मेरे मनमें इस बातका दृढ़ विश्वास था कि उसकी असाधारणता देखकर सभी श्रोता चमत्कृत और चकित हो जायेंगे। कारण यह था कि मैंने अपने प्रबन्धमें श्रादिसे अन्त तक कार्लाइलकी निन्दा ही निन्दा की थी। उस अधिवेशनके सभापति थे वही वामाचरण बाबू । जब मैं अपना प्रबन्ध पढ़ चुका, तब मेरे सहपाठी भक्त लोग मेरे मतकी असमसाहसिकता और अँगरेजी भाषाकी विशुद्ध तेजस्वितासे विमुग्ध हो गये और निरुत्तर होकर चुपचाप बैठे रहे । जब वामाचरण बाबूने जान लिया कि किसीको कुछ भी वक्तव्य नहीं है, तब उन्होंने उठकर शान्त गम्भीर स्वरसे संक्षेपमें सब लोगोंको यह बात समझा दी कि अमेरिकाके सुविख्यात सुलेखक लावेल साहबके प्रबन्धसे जो अंश चुराकर मैंने अपने प्रबन्धमें रक्खा है, वह बहुत ही चमत्कारपूर्ण है; और जो अंश मेरा बिलकुल अपना ही है, वह अंश यदि मैं छोड़ देता, तो -बहुत अच्छा होता। यदि वे यह कहते कि नवीन प्रबन्ध-लेखकका मत और यहाँ तक कि भाषा भी लावेल साहबके मत और भाषासे बहुत अधिक मिलती जुलती है, तो उनकी यह बात ठीक भी होती और अप्रिय भी न होती । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । ___ इस घटनाके उपरान्त मेरे प्रति सहपाठियोंका जो अखंड विश्वास था, उसमें एक विदारण रेखा पड़ गई। केवल मेरे पुराने अनुरक्त और भक्तोंमें अग्रगण्य अमूल्यचरण के हृदयमें लेशमात्र भी विकार उत्पन्न न हुश्रा । वह मुझसे बार बार कहने लगा कि तुम अपना वह 'विद्यापति Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक नाटक' तो ब्रह्म-दैत्यको सुना दो। देखें, उसके सम्बन्धमें वह निन्दक क्या कहता है । राजा शिवसिंहकी म हषी लछिमा देवीको कवि विद्यापति बहुत चाहते थे और उसे देखे बिना वे कविता नहीं कर सकते थे। इसी मर्मका अवलम्बन करके मैंने एक परम शोकावह और बहुत ही उच्च श्रेणीका पद्य-नाटक लिखा था। मेरे श्रोताओंमेंसे जो लोग पुरातत्त्वकी मर्यादा लंघन करना नहीं चाहते थे, वे कहा करते थे कि इतिहासमें ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं। मैं कहा करता था कि यह इतिहासका दुर्भाग्य है । यदि सचमुच ऐसी घटना हुई होती, तो इतिहास बहुत अधिक सरस और सत्य हो जाता। यह तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उक्त नाटक उच्चश्रेणीका था; परन्तु अमूल्य कहा करता कि नहीं, वह सर्वोच्च श्रेणीका है । मैं अपने आपको जैसा समझता था, वह मुझे उससे भी कुछ और अधिक समझा करता था। इसलिए उसके चित्त पटपर मेरा जो विराट रूप प्रतिफलित था, मैं भी उसकी इयत्ता नहीं कर सकता था। उसने वामाचरण बाबूको नाटक सुनाने का जो परामर्श दिया था, वह मुझे भी बुरा नहीं लगा । क्योंकि मेरा यह बहुत ही दृढ़ विश्वास था कि उस नाटकमें निन्दा करने योग्य नामको भी कोई छिद्र नहीं है। इसलिए फिर एक दिन हम लोगोंकी तर्क-सभाका विशेष अधिवेशन किया गया और उस अधिवेशनमें मैंने छात्रोंके सामने अपना नाटक पढ़ सुनाया और वामाचरण बाबूने उसकी समालोचना की। उस समालोचनाको मैं विस्तारपूर्वक यहाँ नहीं लिखना चाहता । सारांश यह है कि वह मेरे अनुकूल नहीं थी। वामाचरण बाबूने कहा कि नाटकगत पात्रोंके चरित्रों और मनोभावोंको निर्दिष्ट विशेषता नहीं प्राप्त हुई । उसमें साधारण भावोंकी बड़ी बड़ी बातें हैं; पर वे सब Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज वाष्पके समान अनिश्चित हैं । वे लेखक के हृदयमें आकर और जीवन प्राप्त करके सृजित नहीं हुई हैं। बिच्छूकी दुममें ही डंक होता है । वामाचरण बाबूकी समालोचनाके उपसंहारमें ही तीव्रतम विष संचित था । बैठनेसे पहले उन्होंने कहा-इस नाटकके बहुतसे दृश्य और मूल भाव गेटे-रचित 'टासो' नाटकका अनुकरण हैं ; यहाँ तक कि अनेक स्थानोंमें तो केवल अनुवाद ही करके रख दिया गया है।। इस बातका एक बहुत अच्छा उत्तर था। मैं कह सकता था कि अनुकरण हुआ करे, यह कोई निन्दाकी बात नहीं है । साहित्य-राज्यमें चोरीकी विद्या बहुत बड़ी विद्या है। यहाँ तक कि यदि आदमी पकड़ भी लिया जाय, तो भी वह भारी विद्या है । साहित्य-क्षेत्रमें काम करनेवाले बहुतसे बड़े बड़े आदमी सदासे इस प्रकारकी चोरी करते आये हैं। यहाँ तक कि शेक्सपियर भी इससे नहीं बचे हैं। साहित्य-क्षेत्रमें जो लोग सबसे अधिक मौलिक लेखक कहलाते हैं, वही चोरी करनेका भी साहस कर सकते हैं । और इसका कारण यही है कि वे दूसरोंकी चीजें बिलकुल अपनी बना सकते हैं। इस प्रकारकी और भी कई अच्छी अच्छी बातें थीं ; पर उस दिन मैंने कुछ भी नहीं कहा । इसका यह कारण नहीं था कि मुझमें उस समय विनय आ गई थी। असल बात यह है कि उस दिन मुझे इन सबमेंसे एक भी बात याद नहीं आई । प्रायः पाँच सात दिन बाद एक एक करके ये सब उत्तर दैवागत ब्रह्मास्त्रकी भाँति मेरे मनमें उदित होने लगे । लेकिन उस समय शत्रु मेरे सामने नहीं था: इसलिए वे अस्त्र उलटे मुझको ही बेधने लगे। मैं सोचने लगा कि ये बातें कमसे कम अपने क्लासके छात्रोंको तो अवश्य बतला दूँ । परन्तु ये सब उत्तर मेरे सहपाठी. गधोंकी बुद्धि के लिए बहुत ही सूक्ष्म थे । वे तो केवल यही Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १२९ समझते थे कि चोरी अाखिर चोरी ही है। मेरी चोरी और दूसरोंकी चोरीमें कितना अन्तर है, यह समझनेकी शक्ति यदि उन लोगोंमें होती, तो मुझमें और उनमें कुछ विशेष अन्तर न रह जाता। ___ मैंने बी० ए० की परीक्षा दी । मुझे इस बातमें कोई सन्देह नहीं था कि मैं परीक्षामें उत्तीर्ण हो जाऊँगा । परन्तु मनमें कुछ प्रानन्द नहीं रहा । वामाचरणकी इन कई बातोंके प्राघातसे मेरी ख्याति और आशाका गगनभेदी मन्दिर बिलकुल ढह गया । हाँ, अबोध अमूल्यचरणके मनमें मेरे प्रति जो श्रद्धा थी, केवल उसमें ही कोई कमी नहीं हुई। प्रभातके समय जब यशःसूर्य मेरे सन्मुख उदित हुआ था, तब भी वह श्रद्धा बहुत लम्बी छायाकी भाँति मेरे पैरों के साथ साथ लगी चलती थी और अब सन्ध्या समय जब मेरा यशःसूर्य अस्त होने लगा, तब भी वह उसी प्रकार दीर्घ और विस्तृत होकर मेरे पैरोंके साथ ही साथ लगी फिरती थी-उनका परित्याग नहीं करती थी। पर इस श्रद्धा कोई परितृप्ति नहीं थी। यह शून्य छायामात्र थी। यह मूढ़ भक्त-हृदयका मोहान्धकार था–बुद्धिका उज्ज्वल रश्मिपात नहीं था। पिताजीने मेरा विवाह कर देने के लिए मुझे देशसे बुला भेजा । मैंने उनसे विवाहके लिए और कुछ दिनोंका समय माँगा। वामाचरण बाबूने मेरी जो समालोचना की थी, उसके कारण स्वयं मेरे ही मनमें एक प्रकारका प्रात्म-विरोध-अपने ही प्रति अपना एक विद्रोहभाव-उत्पन्न हो गया था। मेरा समालोचक अंश गुप्त रूपसे मेरे लेखक अंशपर आघात किया करता था। मेरा लेखक अंश कहता था कि मैं इसका बदला लूंगा। मैं फिर एक बार लिखूगा और तब देखूगा कि मैं बड़ा हूँ या मेरा समालोचक बड़ा है । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज मैंने मन ही मन स्थिर किया कि विश्व-प्रेम, दूसरोंके लिए आत्म-विसर्जन और शत्रुको क्षमा करनेका भाव लेकर, चाहे गद्यमें हो और चाहे पद्यमें, बहुत ही सूक्ष्म भावोंसे पूर्ण कुछ लिखूगा और समालोचकोंके लिए एक बहुत बड़ी समालोचनाकी खुराक जुटाऊँगा। मैंने स्थिर किया कि एक सुन्दर निर्जन स्थानमें बैठकर मैं अपने जीवनकी इस सर्वप्रधान कीर्तिकी सृष्टिका कार्य सम्पन्न करूँगा। मैंने प्रतिज्ञा कर ली कि कमसे कम एक मास तक मैं अपने किसी बन्धुबान्धव या परिचित-अपरिचितके साथ भेटतक न करूंगा। मैंने अमूल्यको बुलाकर अपना यह सब विचार बतलाया। वह बिलकुल स्तम्भित हो गया-मानो उसने उसी समय मेरे ललाटपर स्वदेशकी समीपवर्तिनी भावी महिमाकी प्रथम अरुण ज्योति देख ली। उसने बहुत ही गम्भीर भावसे मेरा हाथ पकड़कर जोरसे दबा लिया और आँखें फाड़ फाड़कर मेरे मुँहकी ओर देखते हुए कोमल स्वरमें कहा-हाँ भाई, तुम जानो और अमर कीर्ति, अक्षय गौरव उपार्जित करके आओ। मेरे शरीरमें रोमांच हो पाया। मुझे ऐसा जान पड़ा कि भावी गौरवसे गर्वित और भक्तिसे विह्वल मेरे देशका प्रतिनिधि बनकर ही अमूल्य मुझसे ये सब बातें कह रहा है। ___ अमूल्यने भी कुछ कम त्याग नहीं स्वीकृत किया। उसने स्वदेशके हितके विचारसे सुदीर्घ पूरे एक मास तक मेरे संग साथकी प्रत्याशा पूर्ण रूपसे विसर्जित कर दी। गम्भीर दीर्घ निश्वास लेकर मेरा मित्र ट्रामपर चढ़ कर कार्नवालिस स्ट्रीटवाले अपने निवासस्थानकी ओर चला गया ; और मैं अपने गंगा-किनारेके फरासडाँगेवाले बागमें अमर कीति तथा अक्षय गौरव उपार्जित करने के लिए आ रहा । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक ___ गंगाके तटपर एक निर्जन कमरेमें मैं चित्त होकर लेट जाता, दोपहरके समय विश्व-प्रेमकी बातें सोचता सोचता गहरी नींदमें सो जाता ; और एकदम अपराह्नको पाँच बजे जाग उठता । उसके उपरान्त शरीर और मन कुछ शिथिल हो जाया करता । किसी प्रकार अपना चित्त बहलाने और समय बितानेके लिए मैं बागके पिछवाड़ेवाला सड़क के किनारे लकड़ीकी एक बेंचपर चुपचाप बैठकर बैलगाड़ियों और आते जाते लोगोंको देखा करता । जब बहुत ही असह्य हो जाता, तब स्टेशन चला जाता । वहाँ टेलिग्राफका काँटा कट कट शब्द किया करता ; टिकटके लिए घंटा बजा करता ; बहुतसे लोग अाकर एकत्र हो जाते । तब वह हजार पैरोंवाला और लाल लाल आँखोंवाला लोहेका सरीसृप फुफकारता हुअा अाया करता और जोर जोरसे चिल्लाकर चल दिया करता । आदमियोंकी धकापेल होती । मुझे थोड़ी देरके लिए कुछ कौतुक-सा जान पड़ता। लौटकर घर चला आता और भोजन करता । कोई संगी साथी तो था ही नहीं, इसलिए फिर जल्दी ही सो जाया करता । उधर सबेरे उठनेकी भी कोई जल्दी नहीं रहती ; इसलिए प्रायः आठ नौ बजे तक बिछौने पर ही पड़ा रहा करता। शरीर मिट्टी हो गया ; परन्तु ढूँढ़ने पर भी विश्व-प्रेमका कोई पता ठिकाना नहीं मिला। कभी अकेला रहा नहीं था, इसलिए बिना संगी साथीके गंगाका किनारा भी शून्य श्मशानके समान जान पड़ने लगा। अमूल्य भी ऐसा गधा निकला कि उसने एक दिनके लिए भी कभी अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। ____ इससे पहले जब मैं कलकत्ते में रहता था, तब सोचा करता था कि मैं वट-वृत्तकी विपुल छायामें पैर पसारकर बैठा करूँगा ! मेरे पैरों के पाससे होकर कलनादिनी स्रोतस्विनी अपने इच्छानुसार बहा करेगी । बीचमें Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज यह स्वप्नाविष्ट कवि होगा और चारों ओर भावोंका राज्य तथा बहिःप्रकृति होगी। काननमें पुष्प होंगे ; शाखाओंपर पक्षी होंगे ; आकाशमें तारे होंगे ; मनमें विश्वजनीन प्रेम होगा ; और लेखनीके मुखसे अश्रान्त अजस्त्र भावोंका स्रोत विचित्र छन्दोंमें प्रवाहित हुश्रा करेगा । परन्तु अब कहाँ प्रकृति और कहाँ प्रकृतिका कवि, कहाँ विश्व और कहाँ विश्वप्रेमिक, एक दिनके लिए भी मैं बागसे बाहर नहीं निकला । काननके फूल काननमें ही खिलते ; आकाशके तारे श्राकाशमें ही उगते ; वट वृक्षकी छाया उसके नीचे ही रहती ; और घरका दुलारा मैं घरमें ही पड़ा रहा करता। जब मेरा क्रोध और क्षोभ किसी प्रकार अपना माहात्म्य प्रमाणित न कर सका, तब वामाचरणके प्रति वह और भी अधिकाधिक बढ़ने लगा। उस समय देशके शिक्षित समाजमें बाल्यविवाहके सम्बन्धमें वाग्युद्ध छिड़ा हुआ था । वामाचरण बाल्यविवाहके विरुद्ध पक्षमें थे। उसी समय मैंने लोगोंसे यह भी सुना कि वे एक युवती कुमारीके प्रेमपाशमें बंधे हुए हैं और शीघ्र ही परिणय-पाशमें बद्ध होनेकी प्रत्याशा कर रहे हैं। मुझे यह विषय बहुत ही कौतुकजनक जान पड़ता ; और उधर विश्वप्रेमका महाकाव्य भी किसी प्रकार मेरे हाथ न लगता । इसलिए मैंने बैठे-बैठे वामाचरणको तो नायक बनाया और कदम्बकली मजूमदार नामकी एक कल्पित नायिका खड़ी करके एक बहुत तीव्र प्रहसन लिख डाला । जब मेरी लेखनी यह अमर कीर्ति प्रसव कर चुकी, तब मैं कलकत्ते लौट चलनेका उद्योग करने लगा। परन्तु इसी समय एक बाधा आ पड़ी। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक ~~~~~ ~~~~~ ~ एक दिन तीसरे पहर कुछ प्रालस्य आ गया था ; इसलिए मैं स्टेशन नहीं गया और बागमें बने हुए मकानोंके कमरे आदि ही देखने लगा। कोई आवश्यकता नहीं पड़ी थी, इसलिए इससे पहले मैं इनमेंसे अधिकांश कमरों में कभी गया भी नहीं था । बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धमें मुझमें लेश मात्र भी कुतूहल या अभिनिवेश नहीं था । उस दिन केवल समय बितानेके उद्देश्यसे ही मैं उसी प्रकार इधर उधर घूम रहा था, जिस प्रकार हवाके झोंकेसे गिरे हुए पत्ते इधर उधर उड़ा करते हैं । ___ उत्तर ओरके कमरेका दरवाजा खोलते ही मैं एक छोटे बरामदेमें जा पहुँचा । बरामदेके सामने ही बागके उत्तरकी सीमाकी दीवारसे सटे हुए जामुन के दो वृक्ष आमने सामने खड़े हुए थे। उन्हीं दोनों वृक्षोंके बीचसे एक दूसरे बागकी लम्बी वकुल-वीथीका कुछ अंश दिखाई पड़ता था। परन्तु इन सब बातोंपर मेरा ध्यान बादमें गया । उस समय तो मुझे और कुछ देखने का अवसर ही नहीं मिला। उस समय मैंने केवल यही देखा कि प्रायः सोलह वर्षकी एक युवती हाथमें एक पुस्तक लिये हुए है और सिर झुकाए टहलती हुई कुछ पढ़ रही है। _यद्यपि उस समय किसी प्रकारकी तत्त्वालोचना करनेकी शक्ति मुझमें नहीं थी, पर कुछ दिनों के उपरान्त मैंने सोचा कि जब दुप्यन्त बड़े बड़े वाण और शरासन लेकर और रथपर चढ़कर याखेट करनेके लिए वनमें गया था, तब उसके हाथसे कोई मृग तो नहीं मरा था ; परन्तु हाँ, बीचमें दैवात् दस मिनट तक एक वृक्षकी बाड़में खड़े होकर उसने जो कुछ देखा और सुना, वही उसके समस्त जीवनकी देखी और सुनी हुई बातोंसे बढ़ गया । मैं भी पेन्सिल, कलम और कागज लेकर काव्य-मृगयाके लिए बाहर निकला था । बेचारा विश्व-प्रेम तो भागकर Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज १३४ बच गया; और जो कुछ देखना था, वह मैंने जामुनके उन दो वृक्षोंकी आड़ में खड़े होकर देख लिया । मनुष्य के जीवन में इस प्रकारका दृश्य केवल एक ही बार दिखाई देता है; दोबारा नहीं दिखाई देता । मैंने संसार में आकर बहुत-सी चीजें नहीं देखी थीं। आज तक मैं कभी जहाजपर नहीं चढ़ा था, कभी बेलूनपर भी नहीं चढ़ा था । कोयलेकी खान में भी कभी नहीं उतरा था । परन्तु स्वयं अपने मानसी आदर्शके सम्बन्धमें अब तक जो मैं बिलकुल भ्रान्त और अनभिज्ञ था, उसका इस उत्तर ओरवाले बरामदे में आने से पहले कभी मुझे सन्देह भी नहीं हुआ था | मेरी अवस्था इक्कीस वर्षसे ऊपर हो चुकी है । मैं यह तो नहीं कह सकता कि इससे पहले मैंने अपने अन्तःकरण में कल्पनाके बलसे स्त्रियों के सौन्दर्यकी एक ध्यान-मूर्त्तिका सृजन नहीं किया था - उस मूर्त्तिको मैंने अनेक वेश-भूषाओं से सज्जित और अनेक अवस्थाओं के मध्य में स्थापित किया था; परन्तु हाँ, कभी स्वप्न में भी इस बातकी आशा नहीं की थी कि उसके पैरों में जूते, शरीरपर कोट और हाथमें पुस्तक देखूँगा । इस प्रकारका वेश देखनेकी मैंने कभी इच्छा भी नहीं की थी । परन्तु मेरी लक्ष्मीने फाल्गुन मासके अन्त में, तीसरे पहरके समय, बड़े बड़े वृक्षोंके हिलते हुए घने पत्तोंके वितान के नीचे, दूर तक फैली हुई छाया और प्रकाशकी रेखासे अंकित पुष्पवन के पथमें, पैरों में जूते और शरीरपर कोट पहनकर, हाथमें पुस्तक लिये हुए जामुनके दो वृक्षोंकी से अकस्मात् मुझे दर्शन दिए । मैंने कोई बात नहीं कही । दो मिनट से अधिक और दर्शन नहीं हुए । मैंने अनेक छिद्रों में से देखने की अनेक चेष्टाएँ कीं, पर कुछ भी फल न हुआ । उसी दिन सन्ध्यासे कुछ पहले मैं वट वृत्तके नीचे पैर पसारकर बैठा । मेरी श्राँखों के सामने उस पारके घने वृक्षोंकी श्रेणीके ऊपर सन्ध्या-तारा प्रशान्त स्मितहास्य करता हुआ उदित हुआ; और देखते देखते Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १३१ सन्ध्याश्री अपने नाथहीन विपुल निर्जन वासरगृहका द्वार खोलकर चुपचाप खड़ी हो गई । मैंने उसके हाथमें जो पुस्तक देखी, वह मेरे लिए एक नवीन रहस्यका निकेतन हो गई। मैं सोचने लगा कि वह कौन-सी पुस्तक थी ? उपन्यास था या काव्य ? उसमें किस प्रकारकी बातें थीं ? उस समय उस पुस्तकका जो पृष्ट खुला हुआ था और जिसपर वह तीसरे पहरकी छाया और सूर्य की किरणें, उस वकुल वनके पत्तों की मरमराहट और दोनों आँखों औत्सुक्यपूर्ण स्थिर दृष्टि पड़ रही थी, उस पृष्ठ में कथाका कौन-सा अंश, काव्यका कौन-सा रस प्रकाशित हो रहा था ? साथ ही मैं यह भी सोचने लगा कि उन घने खुले हुए बालोंकी अन्धकारपूर्ण छायाके नीचे, सुकुमार ललाट-मंडप के अन्दर, विचित्र भावोंका आवेश किस प्रकार अपनी लीला दिखला रहा था। उस कुमारी हृदयी निभृत निर्जनतापर नई नई काव्य- माया कैसे अपूर्व सौन्दर्य के आलोकका सृजन कर रही थी। इस समय मेरे लिए स्पष्ट शब्दों में यह प्रकट करना सम्भव है कि उस आधी रात तक मैं इस प्रकारकी कितनी और क्या क्या बातें सोचता रहा । पर आखिर मुझसे यह किसने कहा कि वह कुमारी ही थी ? मैंने समझ लिया कि मुझसे बहुत पहले होनेवाले प्रेमी दुष्यन्तको जिसने शकुन्तलाका परिचय होनेसे पहले ही उसके सम्बन्ध में आश्वासन दिया था, उसीने मुझे भी यह बतलाया कि वह कुमारी है । वह मनकी वासना थी । वह मनुष्यको सच्ची झूठी बहुत-सी बातें बतलाया करती है । उनमें से कोई बात ठीक उतरती है और कोई बात ठीक नहीं उतरती । दुष्यन्तसे और मुझसे जो बात कही गई थी, वह ठीक थी। * जिस घर में वर-वधूका प्रथम शयन होता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ~~rrrrr मेरे लिए इस बातका पता लगाना कुछ भी कठिन नहीं था कि मेरी वह अपरिचित पड़ोसिन विवाहिता है या कुमारी, ब्राह्मण है या शूद्र । पर मैंने इस बातका पता नहीं लगाया । मैंने केवल नीरव चकोरके समान हजारों योजनकी दूरीसे अपने चन्द्र-मंडलको घेर घेर कर ऊँचा मुँह किये देखने की चेष्टा की। दूसरे दिन दोपहरके समय एक छोटी नाव किराए करके किनारेकी ओर देखता हुश्रा मैं ज्वारमें बह चला । मल्लाहों को मैंने मना कर दिया कि वे डाँड़ न चलावें, नाव खेई न जाय । मेरी शकुन्तलाकी तपोवनवाली कुटी गंगाके किनारे ही थी। वह कुटी बिलकुल कण्वकी कुटीके समान नहीं थी। गंगासे घाटकी सीढ़ियाँ ऊपरके विशाल भवनके बरामदे तक चली गई थीं और वह बरामदा काठकी ढालू छतसे छाया हुआ था। जिस समय मेरी नाव चुपचाप बहती हुई घाटके सामने पहुँची, उस समय मैंने देखा कि मेरी नवयुगवाली शकुन्तला बरामदेमें जमीनपर बैठी हुई है। उसकी पीठकी ओर एक चौकी है, जिसपर कुछ किताबें रक्खी हुई हैं। उन्हीं पुस्तकोंके ऊपर उसके बाल स्तूपाकार खुले पड़े हैं। मेरी वह शकुन्तला चौकीके सहारे ऊपर मुँह किए हुए, उठे हुए बाएँ हाथपर सिर रक्खे बैठी है। नाव परसे उसका मुँह नहीं दिखाई देता है ; केवल कोमल कंठकी एक सुकुमार वक्र रेखा दिखाई देती है। उसके खुले हुए दोनों पद-पल्लवों में से एक तो घाटके ऊपरकी सीढ़ीपर और दूसरा उसके नीचेकी सीढ़ीपर फैला हुआ है। साड़ीका काला किनारा कुछ तिरछा होकर उन दोनों पैरोंको घेरे हुए है। उसके मनोयोग-हीन शिथिल दाहिने हाथसे एक पुस्तक खिसककर जमीन पर आ पड़ी है। मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो वह मूर्तिमती मध्याह्न लक्ष्मी है। सहसा दिनके कार्य के मध्यमें एक निष्पन्द Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक सुन्दरी अवकाश-प्रतिमा पाकर बैठ गई है। पैरोंके नीचे गंगा है ; सामने दूरका दूसरा किनारा और ऊपर तीव्र रूपसे तपता हुआ नीला आकाश है। ये सव अपनी उस अन्तरात्मारूपिणीकी श्रोर~उन्हीं दोनों खुले हुए पैरों, उसी अलसविन्यस्त बायें हाथ और उसी उत्क्षिप्त बंकिम कण्ठ-रेखाकी अोर---पूर्ण निस्तब्ध और एकाग्र होकर चुपचाप देख रहे हैं। जितनी देर तक वह दृश्य दिखलाई दिया, उतनी देर तक मैं देखता रहा और अपने दो सजल नेत्ररूपी पल्लवोंसे उन दोनों चरणकमलोंको बार बार माँजता-पोंछता रहा । अन्तमें जब नाव वहाँसे कुछ दूर चली गई और किनारेके एक वृक्षकी आड़में हो गई, तब सहसा मानो मुझे यह याद पाया कि मुझसे कोई भूल हो गई। मैंने चौंककर मल्लाहसे कहा-देखो जी, अब अाज हमारा हुगली जाना नहीं हो सका। अब तुम यहींसे नाव लौटाकर घरकी पोर ले चलो। पर जब नाव लौटने लगी, तब चढ़ाव होने के कारण मल्लाहोंको डाँड खेना पड़ा। उसके शब्दसे मैं कुछ संकुचित हो गया । मानो डाँड़का वह शब्द किसी ऐसे पदार्थपर आघात करने लगा, जो सचेतन, सुन्दर और सुकुमार है, जो अत्यन्त आकाशव्यापी है और जो हिरनके बच्चे के समान भीरु है। नाव जब फिर उस घाटके पास पहुंची, तब डाँडका शब्द सुनकर मेरी पड़ोसिनने धीरे ले सिर उठाकर बहुत ही कोमल कुतूहलपूर्वक मेरी नावकी ओर देखा। पर क्षण ही भर बाद वह मेरी व्यग्र और व्याकुल दृष्टि देखकर चकित हो गई और घरके अन्दर चली गई। उस समय मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो मैंने उसे कोई आघात पहुँचाया है--मानो मेरे कारण उसे कहीं चोट लगी है। जब वह जल्दी जल्दी उठने लगी, तब उसकी गोदमेंसे प्राधा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज काटकर खाया हुआ एक अधपका अमरुद गिर पड़ा और लुढ़कता हुआ नीचेकी सीढ़ीपर ा पड़ा। उस अमरूदपर उसके दाँतोंके चिह्न थे और उसने उसे होठोंसे लगाया था, इसलिए उसके वास्ते मेरा सारा अन्तःकरण उत्सुक हो उठा। परन्तु उस समय मल्लाहोंकी लज्जाके कारण मैं उसे दूरहीसे देखता चला गया । मैंने देखा कि उत्तरोत्तर लोलुप होनेवाले ज्वारका जल छल छल करता हुअा अपनी लोल रसनाके द्वारा वह फल प्राप्त करने के लिए बार बार आगे बढ़ रहा है। मैंने समझ लिया कि आध घण्टेमें उसका यह निर्लज्ज अध्यवसाय चरितार्थ हो जायगा। उस समय मैं बहुत ही कष्टपूर्ण चित्तसे अपने मकान के पासवाले घाटपर पहुँचकर नावसे उतर पड़ा। अब मैं फिर उसी वट वृक्षकी छायामें पैर पसारकर दिन-भर स्वप्न देखने लगा। मैं देखता कि दो कोमल पद-पल्लवोंके नीचे विश्वप्रकृति सिर झुकाकर पड़ी हुई है। मैंने देखा कि आकाश प्रकाशमान हो रहा है, पृथ्वी पुलकित हो रही है और वायु चञ्चल हो रहा है । उन सबके बीचमें वे दोनों खुले हुए पैर बिलकुल स्थिर, शान्त और बहुत ही सुन्दर जान पड़ते हैं । वे यह नहीं जानते कि हमारी ही धूलकी मादकतासे तप्त-यौवन नव-वसन्त दिशा-विदिशाओं में रोमाञ्चित हो उठा है । __ अब तक प्रकृति मेरे लिए विक्षिप्त और विच्छिन्न थी। नदी, वन और अाकाश सभी मेरे लिए स्वतंत्र थे। आज उसी विशाल, विपुल विकीर्णतामें जब मुझे एक सुन्दरी प्रतिमूर्ति दिखाई दी तब.मानो वे सभी अवयव धारण करके एक हो गये । अाज प्रकृति मेरे लिए एक और सुन्दर दीख पड़ी । वह मुझसे भूक भावसे विनय कर रही है कि मैं मौन हूँ, तुम मुझे भाषा दो । मेरे अन्तःकरणमें जो एक अव्यक्त स्तव उठ रहा है, उसे तुम छन्द, लय और तानमें अपनी सुन्दर मानवभाषामें ध्वनित कर दो। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक प्रकृति की उस नीरव प्रार्थनासे मेरे हृदयकी तन्त्री बज रही है। बार बार मैं केवल यही गान सुन रहा हूँ, "हे सुन्दरी, हे मनोहारिणी, हे विश्व-विजयिनी, हे मन और प्राणरूपी पतंगकी एक मात्र दीप-शिखा, हे अपरिसीम जीवन, हे अनन्त मधुर मृत्यु ।" मैं इस गानको समाप्त नहीं कर सकता, इसे संलग्न नहीं कर सकता, इसे श्राकारमें परिस्फुटित नहीं कर सकता । इसे छन्दों में बाँधकर व्यक्त करके मुंहसे कह नहीं सकता। ऐसा जान पड़ता है कि मानो मेरे अन्तरमै ज्वारके. जलके समान एक अनिर्वचनीय अपरिमेय शक्तिका संचार हो रहा है। इस समय मैं उसे अपने काबूमें नहीं कर सकता । जिस समय कर सकूँगा, उस समय मेरा कंठ अकस्मात् दिव्य संगीतसे धनित हो उठेगा-मेरा ललाट अलौकिक आभासे प्रकाशमान हो उठेगा । ऐसे समयमें उस पारके नईहाटी स्टेशनसे एक नाव अाकर मेरे बागके सामने घाटपर लगी। दोनों कन्धों पर पड़ी हुई चादर मुलाता हुआ, बगल में छाता दबाए, हँसता हुअा अमूल्य उस परसे उतर पड़ा। अकस्मात् अपने उस मित्रको देखकर मेरे मनमें जिस प्रकारका भाव उठा, उस प्रकारका भाव, मैं आशा करता हूँ, किसीके मनमें शत्रुके प्रति भी न उठता होगा । दोपहरके प्रायः दो बजे के समय मुझे उसी वटकी छायामें बिलकुल पागलोंकी तरह बैठा हुआ देखकर अमूल्यके मनमें एक बहुत बड़ी प्राशाका संचार हुया । कदाचित् उसे इस बातका भय हुआ होगा कि देशके भावी सर्वश्रेष्ठ काव्यका कोई अंश मेरे पैरोंकी आहट सुनकर जंगली राजहंसकी तरह कृदकर जलमें न जा पड़े, इसलिए वह बहुत ही संकुचित भावसे धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा। उसे इस दशामें देखकर मुझे और भी क्रोध आया। कुछ अधीर होकर मैंने पूछा-क्यों जी अमूल्य, यह बात क्या है ! तुम्हारे पैर में कोई काँटा तो नहीं गड़ गया ? अमूल्यने सोचा कि मैंने कोई बहुत मजेदार Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. रवीन्द्र-कथाकुञ्ज बात कही है। वह हँसता हुआ मेरे पास आ गया और आँचलसे वृक्षके नीचेकी भूमि बहुत अच्छी तरह झाड़ पोछकर उसने जेबसे एक रूमाल निकाला । तहें खोलकर उसे बिछाया और तब उसके ऊपर सावधानतापूर्वक बैठकर कहा--जो प्रहसन तुमने लिख भेजा है, उसे पढ़ते पढ़ते तो मारे हँसीके जान निकलने लगती है। इतना कहकर वह स्थान स्थानसे उसकी आवृत्ति करने लगा और इतना अधिक हँसने लगा कि उसका साँस रुकनेकी नौबत आ गई। पर मुझे उस समय यह जान पड़ने लगा कि जिस कलमसे मैंने वह ग्रहसन लिखा था, वह कलम जिस वृक्षकी लकड़ीसे बनी थी, यदि इस समय मुझे वह वृक्ष मिल जाता और मैं उसे जड़समेत उखाड़ डालता तथा ढेर-सी श्राग जलाकर उस ग्रहसनको उसीमें रखकर राख कर देता, तो भी मेरा खेद न मिटता। अमूल्यने संकोचपूर्वक पूछा--तुम्हारा वह काव्य कहाँ तक पहुँचा? उसका यह प्रश्न सुनकर मेरा शरीर और भी जलने लगा। मैंने मन ही मन कहा-जैसा मेरा काव्य है, वैसी ही तुम्हारी बुद्धि भी है ! फिर उससे कहा-भाई, ये सब बातें फिर हुआ करेंगी। तुम इस समय मुझे व्यर्थ तंग मत करो। ____अमूल्य बहुत कुतूहली आदमी था। बिना चारों ओर देखे वह रह ही न सकता था। उसके भयसे मैंने उत्तर अोरका दरवाजा बन्द कर दिया । उसने मुझसे पूछा- क्यों जी, उधर क्या है ? मैंने कहा - कुछ भी नहीं ! आज तक मैंने अपने जीवन में कभी इतना बड़ा झूठ नहीं बोला था। दो दिनों तक मुझे अनेक प्रकारसे तंग करने और अच्छी तरह जलाने के उपरान्त तीसरे दिन सन्ध्याकी गाड़ीसे अमूल्य चला गया। इन दो दिनोंमें मैं बागके उत्तरकी ओर नहीं गया। यहाँ तक कि Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १४१ मैंने उधर देखा भी नहीं । जिस प्रकार कृपण अपना रत्न- भाण्डार छिपाता फिरता है, उसी प्रकार मैं भी अपने उस उत्तर प्रोरवाले बागकी हिफाजत करता फिरता था । ज्यों ही अमूल्य वहाँसे रवाना हुआ त्यों ही मैं दौड़कर दरवाजा खोलता हुआ उत्तर चोरवाले बरामदे में जा पहुँचा। ऊपर खुले हुए आकाश में प्रथम कृष्ण पक्षकी अपर्याप्त चाँदनी थी और नीचे शाखा जाल - निबद्ध तरुश्रेणी के नीचे खंड किरणों से खचित, एक गम्भीर और एकान्त प्रदोषान्धकार था जो मर्मर शब्द करते हुए सघन पत्तोंके दीर्घ निश्वास में, वृक्षोंसे गिरे हुए बकुलके फूलों के सघन सौरभमें और सन्ध्यारूपी जंगलकी स्तम्भित और संयत निःशब्दतामें रोम रोम परिपूर्ण हो रहा था । इसी अन्धकार में मेरी कुमारी पड़ोसिन सफेद मूछोंवाले अपने वृद्ध पिताका दाहिना हाथ पकड़े हुए धीरे धीरे टहल रही थी और कुछ बातें कर रही थी । वृद्ध पिता स्नेह तथा श्रद्धापूर्वक कुछ झुककर चुपचाप मन लगाये उसकी बातें सुन रहे थे । इस पवित्र और स्निग्ध विश्रम्भालापमें बाधा देनेवाली कोई चीज नहीं थी । केवलसन्ध्या समयकी शान्त नदीमें कहीं कहीं होनेवाला डाँड़का शब्द बहुत दूरीपर विलीन हो जाता था और वृक्षोंकी घनी शाखाओं के असंख्य घोंसलोंमेंसे कभी कभी बीच बीच में दो एक पक्षी मृदु शब्द करते हुए जाग उठते थे। मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो मेरा हृदय श्रानन्द अथवा वेदनासे विदीर्ण हो जायगा । मेरा अस्तित्व मानो फैलकर उस छाया -लोकविचित्र पृथ्वी के साथ मिलकर एक हो गया । मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो मेरे वक्षःस्थल पर कोई धीरे धीरे चल रहा है; मानो मैं वृक्षों के पत्तोंके साथ संलग्न हो गया हूँ और मेरे कानों के पास कोमल गुंजारकी ध्वनि हो रही है । इस विशाल मूढ़ प्रकृतिकी अन्तर्वेदना मानो मेरे सारे शरीरकी हड्डियों तक में पैठ गई है। मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि पृथ्वी मेरे पैरोंके नीचे पड़ रही है; परन्तु पैर उसपर जमकर नहीं बैठ सकता और इसीलिए अन्दर ही अन्दर मनमें न Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१४२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज जाने क्या हो रहा है । ऐसा जान पड़ता था कि झुकी हुई शाखाएँ वनस्पतियोंकी बातें सुन सकती हैं ; पर कुछ समझ नहीं सकतीं और इसी लिए सब शाखाएँ पत्तोंके साथ मिलकर पागलोंकी भाँति उद्ध श्वास लेती हई हाहाकार करना चाहती हैं। मैं भी अपने समस्त अंगों और समस्त अन्तःकरणसे वह पदविक्षेप और वह विश्रम्भालाप अव्य. वहित भावसे अनुभव करने लगा ; परन्तु किसी भी प्रकार उसे पकड़ नहीं सका ; इसी लिए भूर झूर कर मरने लगा। दूसरे दिन मुझसे नहीं रहा गया। प्रातःकाल ही मैं अपने पड़ोसीसे भेट करने चला गया। उस समय भवनाथ बाबू अपने पास चायका एक बहुत बड़ा प्याला रक्खे हुए आँखोंपर चश्मा लगाये नीली पेन्सिलसे दाग की हुई हैमिल्टनकी एक बहुत पुरानी पुस्तक बहुत ही ध्यान' पूर्वक पढ़ रहे थे। जब मैंने उनके कमरे में प्रवेश किया, तब वे चश्मेके ऊपरी भागमेंसे कुछ देर तक अन्यमनस्क भावसे मुझे देखते रहे ; पर पुस्तकपरसे तत्काल ही अपना मन न हटा सके। अन्तमें वे चकित होकर कुछ त्रस्त भावसे श्रातिथ्यके लिए सहसा उठ खड़े हुए। मैंने संक्षेपमें उनको अपना परिचय दिया । वे इतने घबरा-से गये कि चश्मेका खाना ढूँढ़नेपर भी न पा सके। वे आप ही आप बोले-आप चाय पीएँगे ? यद्यपि मैं कभी चाय नहीं पीता था; तथापि मैंने कहा - मुझे कोई आपत्ति नहीं है । भवनाथ बाबू कुछ घबराकर 'किरण' 'किरण कहकर पुकारने लगे। दरवाजेके पाससे बहुत ही मधुर शब्द सुनाई दिया- हाँ बाबूजी। इसके उपरान्त मैंने देखा कि तपस्वी कण्वकी कन्या मुझे देखते ही सहमी हुई हरिनीकी भाँति वहाँसे भागना चाहती है । भवनाथ बाबूने उसे अपने पास बुलाया और मेरा परिचय देते हुए कहा-ये हमारे पड़ोसी बाबू महीन्द्रकुमार हैं । और मुझसे कहा-यह मेरी कन्या किरणवाला है। लाख सोचने पर भी मेरी समझमें न पाया Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १४३ कि मुझे क्या करना चाहिए । इतनेमें किरणने बहुत ही नम्रतापूर्वक और बहुत ही अच्छे ढंगसे नमस्कार किया। मैंने भी जल्दी अपनी गलती सुधारते हुए उसके नमस्कारका बदला चुकाया । भवनाथ बाबूने कहा-बेटी, महीन्द्र बाबूके लिए एक प्याला चायका ला देना होगा। मैं मन ही मन बहुत ही संकुचित हुा। पर मेरे मुँहसे कुछ शब्द निकलनेसे पहले ही किरण कमरेसे बाहर निकल गई । मुझे ऐसा जान पड़ा कि कैलासवासी सनातन भोलानाथने अपनी कन्या लक्ष्मीको ही अतिथिके लिए एक प्याला चाय लानेके लिए कहा है। अतिथिके लिए तो वह निश्चय ही शुद्ध अमृत होगा। परन्तु फिर भी, पासमें कोई नन्दी भृगी उपस्थित नहीं था ! अब मैं भवनाथ बाबूके यहाँ नित्य अतिथि बनकर पहुंचने लगा। पहले मैं चायसे बहुत डरा करता था । पर अब सबेरे सन्ध्या दोनों समय मुझे चाय पीनेका नशा-सा हो गया। हम लोगोंकी बी० ए० की परीक्षाके लिए एक जर्मन विद्वानका बनाया हुआ दर्शनशास्त्रका एक नया इतिहास था, जो मैंने हालमें ही पढ़ा था । कुछ दिनों तक तो मैंने यही प्रकट किया कि मैं उसी दर्शनशास्त्रकी आलोचना करनेके लिए भवनाश बाबूके पास आया करता हूँ। वे अभी तक हैमिल्टन आदि पुराने लेखकोंकी ही कुछ भ्रान्त पुस्तके पढ़ा करते थे ; इसलिए मैं उन्हें कृपापात्र समझा करता और अपनी नई विद्या बहुत ही आडम्बरके साथ उनपर प्रकट किया करता । भवनाथ बाबू इतने बड़े भले आदमी और सभी विषयोंमें इतने अधिक संकोची थे कि मेरे जैसे अल्पवयस्कके मुंहसे निकली हुई भी सब बातें मान लेते ! यदि उन्हें मेरी किसी बातका तनिक भी प्रतिवाद करना Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज होता, तो वे अस्थिर हो जाते । उन्हें यही डर लगा रहता कि कहीं मैं उनकी बातोंसे नाराज न हो जाऊँ। जब हम लोग इस प्रकारके तत्त्वालोचनमें लग जाते, तब किरण किसी बहानेसे वहाँसे उठकर चली जाती । उस समय मेरे मनमें कुछ क्षोभ उत्पन्न होता; पर साथ ही मैं कुछ गर्व भी अनुभव करता । क्योंकि मेरी समझमें हम लोगोंके पालोच्य विषयका दुरूह पाण्डित्य किरणके लिए दुःसह था । वह जब मन ही मन हम लोगों के विद्यारूपी पर्वतका परिमाप करती होगी तब मेरी समझमें उसे बहुत ही ऊँचेकी ओर सिर उठाना पड़ता होगा! जब मैं किरणको दूरसे देखता था, तब मैं उसे शकुन्तला और दमयन्ती आदि विचित्र नामों और विचित्र भावोंसे समझा करता था। पर जब मैं उसके घर आने जाने लगा, तब मैंने यह समझना श्रारम्भ किया कि वह किरण है। अब वह संसारकी विचित्र नायिकाओंकी छायारूपिणी नहीं रह गई । अब वह केवल किरण ही है । अब वह सैकड़ों शताब्दियोंके काव्य-लोकसे अवतीर्ण होकर. अनन्त काल के युवकचित्तके स्वप्न स्वर्गका परिहार करके एक निर्दिष्ट बंगालीके घरमें कुमारी कन्याके रूपमें विराज रही है। वह मेरे साथ मेरी ही मातृभाषामें घरकी बहुत ही साधारण बातें किया करती है । साधारण बातोंमें वह सरल भावसे हँस पड़ती है । वह हम ही लोगोंके घरकी लड़कियों की भांति दोनों हाथों में सोनेके दो कड़े पहिनती है । उसके गलेके हारमें भी कोई विशेषता नहीं है, पर फिर भी वह बहुत सुमिष्ट है। साड़ीका आँचल कभी तो जूड़ेके ऊपरी भाग परसे तिरछा होकर आता है और कभी पितृ. गृहके अनभ्यासके कारण खिसककर नीचे गिर जाता है। मेरे लिए यह बहुत ही आनन्दकी बात होती है । वह काल्पनिक नहीं है, वह सत्य है ; वह किरण है ; वह इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ; और Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक न इससे कुछ अधिक ही है ; और यद्यपि वह मेरी नहीं है, पर फिर भी हम लोगोंकी तो है ; आदि श्रादि बातोंका अनुभव करके मेरा अन्त:करण सदा उसके प्रति कृतज्ञताके रससे अभिषिक्त रहा करता है। एक दिन ज्ञान मात्रकी अपेक्षिकताकी चर्चा चली । मैं इस विषयमें भवनाथ बाबूके सामने बहुत अधिक उत्साहके साथ अपनी वाचालता प्रकट करने लगा । ज्यों हो आलोचना कुछ और आगे बढ़ी, त्यों ही किरण वहाँसे उठकर चली गई । पर थोड़ी ही देर बाद वह एक चूल्हा और भोजन बनानेकी सामग्री लेकर सामनेवाले बरामदे में श्रा पहुँची और भवनाथ बाबूपर कुछ बिगड़ती हुई बोली-बाबूजी, क्यों तुम इतना कठिन विषय उठाकर महीन्द्र बाबूको व्यर्थ बकवा रहे हो! आइए महीन्द्र बाबू, इससे अच्छा तो यह है कि आप मुझे भोजन बनाने में कुछ सहायता दें, जिससे कुछ काम भी निकले । ___इसमें भवनाथ बाबूका कोई दोष नहीं था; और किरण यह बात जानती भी थी। परन्तु भवनाथ बाबूने अपराधीकी भाँति अनुतप्त होकर कुछ हँसते हुए कहा- अच्छा जी, जाने दो। ये सब बातें फिर किसी दिन होंगी। इतना कहकर वे निरुद्विग्न भावसे अपने नित्य नियमित अध्ययनमें लग गये । __एक और दिनकी बात है कि मैं तीसरे पहरके समय एक और गम्भीर विषय छेड़कर भवनाथ बाबूको चकित कर रहा था कि उसी समय किरणने बीचमें पहुँचकर कहा-महीन्द्र बाबू, आपको अबलाकी सहायता करनी पड़ेगी। मैं उस दीवारपर लता चढ़ाऊँगी, पर मेरा हाथ उतने ऊँचे तक नहीं पहुँचता । वहाँ आपको जरा यह खूटी गाड़ देनी होगी। मैं बहुत अधिक प्रसन्नतासे उठकर चला गया। भवनाथ बाबू भी प्रसन्नतापूर्वक फिर अपने अध्ययनमें लग गये । इस प्रकार जब जब मैं भवनाथ बाबूके साथ बातचीत करते समय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " रवीन्द्र कथाकुल कोई भारी विषय छेड़ता था; तब तब किरण किसी न किसी बहानेसे आकर उस चर्चाको बीचमें ही तोड़ देती थी। इससे मैं, मन ही मन पुलकित हो उठता था। मैं समझता था कि किरणने मेरा अभि. प्राय समझ लिया है । उसे किसी प्रकार यह मालूम हो गया है कि भवनाथ बाबूके साथ तत्त्वालोचना करने में ही मेरे जीवनका चरम सुख नहीं है । जिस समय मैं बाह्य वस्तुओंके साथ अपने इन्द्रिय-बोधका सम्बन्ध निश्चित करने के लिए दुरूह रहस्य-रसातलके मध्य भागमें पहुँचता था, उस समय किरण आकर कहती थी-आइए महीन्द्र बाबू , चलिए रसोई घरके पास ही मेरा बैंगनका खेत है, आपको दिखला लाऊँ। एक दिन मैं अपना यह मन्तव्य प्रकट कर रहा था कि 'आकाशको असीम समझना हम लोगोंका अनुमान मात्र है ; हम लोगोंकी अभिज्ञता और कल्पना शक्तिके बाहर कहीं किसी ऐसी सीमाका होना असम्भव नहीं है कि इतने में किरण श्राकर कहने लगी-'महीन्द्र बाबू , दो श्राम पक गये हैं। श्राप चलकर डाल झुकाकर वह ग्राम तोड़ दीजिए।' कैसा अच्छा उद्धार था! कैसी अच्छी मुक्ति थी ! अनन्त समुद्रके' मध्यमेंसे क्षण ही भरमें मैं कैसे सुन्दर किनारेपर था पहुँचता था । अनन्त आकाश और बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धमें संशय-जाल कितना ही अधिक दुश्छेद्य और जटिल क्यों न हो, परन्तु बैंगनके खेत अथवा आमोंके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी दुरूहता अथवा सन्देहका नाम भी नं था । वह काव्य या उपन्यासमें उल्लेख करनेके योग्य तो नहीं है, पर फिर भी जीवनमें वह समुद्रसे घिरे हुए द्वीपके समान मनोहर है । जमीनपर पैर टिकनेसे कैसा आराम मिलता है, यह वही जानता है जो बहुत देर तक पानीमें गोता खा चुकता है। मैंने इतने दिनों Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १४७ तक कल्पनाके द्वारा जिस प्रेम-समुद्रकी सृष्टि की थी, वह यदि वास्तविक होता, तो मैं बहुत दिनों तक किस प्रकार उसमें डूबता उतराता फिरता, यह मैं नहीं कह सकता । वहाँ श्राकाश भी असीम होता और समुद्र भी असीम होता । उस स्थानसे हम लोगोंकी नित्य प्रतिकी जीवन-यात्राका सीमाबद्ध व्यापार बिलकुल निर्वासित रहता । वहाँ तुच्छताका लेश मान भी नहीं होता। वहाँ केवल छन्द, लय और संगीतमें ही भाव व्यक्त करना होता । उसके तल तक पहुँच जानेपर फिर और कहीं ठिकाना नहीं मिलता । जब किरण डूबे हुए मुझ हतभाग्यको सिरके बाल पकड़कर उस जगहसे खींचकर अपनी श्रामकी बारी या बैंगनके खेतमें ले गई, तब अपने पैरों के नीचे जमीन पाकर मानो मेरी जानमें जान पा गई। उस समय मैंने देखा कि बरामदेमें बैठकर खिचड़ी पकानेमें, काठकी सीढ़ीपर चढ़कर दीवारपर खूटी ठोंकने में और नीबूके पेड़के घने हरे पत्तों से हरा नीबू ढूँढनेमें सहायता करने में अभावनीय आनन्द मिलता है और फिर मजा यह कि वह आनन्द प्राप्त करने में जरा भी प्रयास नहीं करना पड़ता । आपसे आप जो बात मुँह तक आ जाय, आपसे आप जो हँसी निकल पड़े, श्राकाशसे जितना प्रकाश प्रावे और वृक्षसे जितनी छाया पड़े, बह सब यथेष्ट ही होती है । इसके सिवा मेरे पास सोनेकी एक लकड़ी थी-मेरा नवयौवन , एक पारस पत्यर था- मेरा प्रेम; एक अक्षय कल्पतरु था—स्वयं अपने प्रति अपना पूरा और दृढ़ विश्वास । मैं विजयी था ; मैं इन्द्र था; मैं अपने उच्चैःश्रवाके मार्गमें कोई बाधा नहीं देखता था । किरण मेरी किरण है, इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं था। यह बात मैंने इतनी देर तक स्पष्ट रूपसे नहीं कही थी ; परन्तु हृदयको एक कोनेसे दूसरे कोने तक बातकी बातमें बड़े सुखसे विदीर्ण करती हुई वह बात विद्युतकी तरह मेरे समस्त अन्तःकरणमें चकाचोंध डालकर क्षण-क्षणपर नाच उठती थी । किरण मेरी किरण है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज इससे पहले किसी गैर स्त्रीके साथ मेरा कोई सम्पर्क नहीं हुआ था। आजकल की जो स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करके परदेके बाहर निकलकर घूमा फिरा करती हैं, उनकी रीति नीति से मैं कुछ भी परिचित नहीं था; इसी लिए मैं यह भी नहीं जानता था कि उन लोगोंके आचरण में किस जगह शिष्टताकी सीमा और किस जगह प्रेमका अधिकार है । पर साथ ही मैं यह भी नहीं जानता था कि वे क्यों मुझसे प्रेम न करेंगी। भला मैं किस बात में कम हूँ ! १४८ समय किरण जिस समय मेरे हाथ में चायका प्याला दिया करती थी, उस मैं चाय के साथ साथ किरणके प्रेमसे भरा हुआ पात्र भी ग्रहण किया करता था । जिस समय मैं चाय पीया करता था, उस समय मैं सोचता था कि मेरा ग्रहण करना सार्थक हुआ और यह भी सोचता था कि किरणका दान भी सार्थक हुआ। किरण यदि सहज स्वर में भी कहतीमहीन्द्र बाबू, कल सवेरे आइएगा न ? उस समय उसमें से छन्द और लयके साथ झङ्कत हो उठता थाः " कि मोहिनी जान बन्धु कि मोहिनी जान ! अबलार प्राण निते नाहि तोमा हेन !" ( प्यारे, तुम कैसी मोहनी जानते हो ! तुम्हें एक अबलाकेप्राण इस तरह न लेना चाहिए ! ) मैं सहज भाव से उत्तर दिया करता था - हाँ, कल आठ बजे तक. आऊँगा । क्या मेरे इस कहने में किरण यह नहीं सुनती थी कि - " पराण पुतलि तुमि हिये मणिहार, सरवस-धन मोर सकल संसार ।" ( तुम मेरे प्राणोंकी पुतली हो, हृदयके हार हो, सर्वस्व हो और सकल संसार हो । ) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १४६ । मेरे समस्त दिन और समस्त रात्रियाँ अमृत से परिपूर्ण हो गईं। मेरे सारे विचार और सारी कल्पनाएँ क्षण क्षण में नई नई शाखाओं और प्रशाखाका विस्तार करके किरणको लताकी भाँति मेरे चारों ओर लपेटकर मु बाँधने लगीं। जिस समय वह शुभ अवसर श्रावेगा, उस समय मैं किरणको क्या पढ़ाऊँगा, क्या सिखाऊँगा, क्या सुनाऊँगा, क्या दिखाऊँगा, इत्यादि इत्यादि अनेक प्रकारकी कल्पनाओं और संकल्पोंसे मेरा मन मानो श्राच्छन्न हो गया यहाँ तक कि मैंने निश्चय किया कि मैं उसे ऐसी शिक्षा दूँगा, जिसमें उसके मनमें जर्मन विद्वानके बनाये हुए दर्शन - शास्त्र के नवीन इतिहास के प्रति भी उत्सुकता उत्पन्न हो । क्योंकि यदि मैं ऐसा न करूँगा, तो वह मुझे पूरी तरह न समझ सकेगी । अँगरेजी काव्य - साहित्य के सौन्दर्य के प्रकाशमें मैं उसे मार्ग दिखलाकर ले चलूँगा। मैं मन ही मन हँसा और बोला -- किरण, तुम्हारी आमकी बारी और बैंगनका खेत मेरे लिए नवीन राज्य है । मैं कभी स्वप्नमें भी यह बात नहीं जानता था कि वहाँ बैंगन और गिरे पड़े कच्चे आमों के सिवा दुर्लभ अमृत फल भी इतने सहज में मिल सकता है । किन्तु जब समय थावेगा, तब मैं भी तुम्हें एक ऐसे राज्य में ले चलूँगा, जहाँ बैंगन तो नहीं फलते, परन्तु फिर भी बैंगनोंका अभाव क्षण-भर के लिए भी अनुभव नहीं किया जा सकता । वह ज्ञानका राज्य और भावोंका स्वर्ग है । जिस प्रकार सूर्यास्त के समय दिगन्त में विलीन होनेवाला पाण्डु वर्णका सन्ध्या-तारा धनी होनेवाली सन्ध्या में धीरे धीरे परिस्फुट दीप्ति प्राप्त करता है, उसी प्रकार किरण भी कुछ दिनों में अन्दर ही अन्दर श्रानन्द, लावण्य और नारीत्वकी पूर्णतासे मानो प्रस्फुटित हो उठी । वह मानो अपने घर में, अपने संसारके ठीक मध्य आकाश में, अधिरोहण करके चारों धोर आनन्दकी मंगल ज्योति विकीर्ण करने लगी । उसी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ज्योतिसे उसके वृद्ध पिताके सफेद बालोंपर पवित्रताकी उज्ज्वल भाभा पड़ी और उसी ज्योतिने मेरे लहराते हुए हृदय-समुद्रकी प्रत्येक तरंगपर एक एक करके किरणके मधुर नामके ज्योतिर्मय अक्षर मुद्रित कर दिये। ___ इधर मेरी छुट्टी समाप्त होनेको आई । पहले विवाहके लिए घर आनेका पिताजीका जो स्नेहपूर्ण अनुरोध था, वह अब धीरे धीरे कठोर आज्ञाके रूपमें परिणत होता हुआ जान पड़ने लगा। उधर अमूल्य भी अब अधिक दिनों तक रोका नहीं जा सकता था। मेरे मनमें इस बातके कारण भी धीरे धीरे प्रबल उद्वेग होने लगा कि कहीं किसी दिन उन्मत्त जंगली हाथीकी भाँति वह मेरे इस पद्मवनमें न आ पहुँचे और अपने बड़े बड़े चारों पैर उसमें न रख दे। अब मैं यही सोचने लगा कि मैं किस प्रकार जल्दीसे अपने मनकी आकांक्षा प्रकट करके अपने प्रणयको परिणयमें विकसित कर लूँ । एक दिन दोपहरके समय मैंने भवनाथ बाबूके घर में जाकर देखा कि वे ग्रीष्मकी धूपमें एक चौकीपर पड़े हुए सो रहे हैं और सामने गंगातटवाले बरामदेमें निर्जन घाटकी सीढ़ियोंपर बैठी हुई किरण कोई पुस्तक पढ़ रही है। मैंने चुपचाप पीछेसे जाकर देखा कि वह कविताओंका एक नवीन संग्रह है। उसका जो पृष्ट खुला हुआ था, उसमें अँगरेज कवि शेलीकी एक कविता उद्धत थी और उसके बगलमें लाल स्याहीसे एक लकीर खींची हुई थी। उस कविताको पढ़कर किरणने एक ठंडा साँस लिया और स्वप्नके भारसे आकुल दृष्टि से अाकाशके दूरतम प्रान्तकी ओर देखा। ऐसा जान पड़ता था कि उस एक कविताको किरण आज एक घंटेमें दस बार पढ़ चुकी है और वही कविता उसने अनन्त नीले Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक आकाशमें अपनी हृदय-तरणीके पालको केवल एक ही उत्तप्त दीर्घ निश्वाससे भरकर बहुत दूरके नक्षत्र लोकमें भेजी है। मैं यह तो नहीं जानता कि शेलीने वह कविता किसके लिए बनाई थी ; पर हाँ, इसमें सन्देह नहीं कि महीन्द्रनाथ नामक किसी बंगाली युवकके लिए नहीं बनाई थी। फिर भी मैं जोर देकर यह बात कह सकता हूँ कि आज इस स्तवगानपर मेरे सिवा और किसीका अधिकार नहीं हो सकता। किरणने उस कविताके पास ही अपनी अन्तरतम हृदय-पेन्सिलसे एक लाल निशान लगा दिया था। उस स्नेह-वेष्टनीके मोह मन्त्रसे वह कविता अाज उसीकी थी और उसके साथ ही साथ मेरी भी थी। मैंने अपने पुलकित चित्तको रोककर सहज स्वरमें पूछा-क्या पढ़ रही हैं ? पालके जोरसे चलती हुई नाव मानो एकाएक किसी चरमें जाकर फंस गई । किरण चौंक पड़ी और उसने वह किताब जल्दीसे बन्द करके अपने आँचलमें छिपा ली। मैंने हँसते हुए पूछा-जरा मैं आपकी पुस्तक देख सकता हूँ ? मानो किरणको कोई बात खटकी । उसने आग्रहपूर्वक कहा-नहीं नहीं, वह किताब रहने दीजिए। मैं कुछ दूर पर एक सीढ़ी नीचे बैठकर काव्य-साहित्यकी बातें कहने लगा । मैंने इस प्रकार बात उठाई कि जिसमें किरणको भी साहित्यकी कुछ शिक्षा मिले और मेरे मनकी बात अँगरेज कविकी जबानी व्यक्त भी हो जाय । उस तेज धूप और गहरी निस्तब्धतामें जल और स्थलके छोटे छोटे कल-कल-शब्द निद्रा-कातर माताकी लोरियोंके समान बहुत ही मृदु और सकरुण हो गये। किरण मानो अधोर हो गई । वह बोली-बाबूजी अकेले बैठे हुए हैं । क्या आप अनन्त आकाशके सम्बन्धका अपना यह तर्क समाप्त न करेंगे? मैंने मन ही मन सोचा कि अनन्त आकाश तो बहुत दिनों तक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र कथाकुञ्ज रहेगा और उसके सम्बन्धका तर्क भी कभी समाप्त न होगा; परन्तु जीवन बहुत ही थोड़ा है और उसमें मिलनेवाला शुभ अवसर दुर्लभ और क्षणस्थायी है । मैंने किरणकी बातका कोई उत्तर नहीं दिया और कहा-मैं आज आपको कुछ कविताएँ सुनाऊँगा। किरणने कहा-कल सुनूँगी। इतना कहकर वह चटपट उठ खड़ी हुई और कमरेकी ओर देखकर बोली-बाबूजी, महीन्द्र बाबू आये हैं । नींद टूट जाने से भवनाथ बाबू बालकोंकी भाँति अपने सरल नेत्र खोलकर मानो कुछ व्यस्त हो गये। मेरे कलेजेपर मानों धकसे बहुत तेज चोट लगी। मैं भवनाथ बाबूके कमरेमें जाकर अनन्त आकाशके सम्बन्धमें तर्क करने लगा और किरण वह किताब हाथमें लेकर शायद उसे निर्विघ्न रूपसे पढ़ने के लिए दूसरी मंजिलके अपने निर्जन सोनेके कमरेमें चली गई। दूसरे दिन सबेरे डाकसे स्टेट्समैन अखबारकी एक प्रति मिली, जिसपर लाल पेन्सिलसे निशान किया हुआ था और जिसमें बी० ए० की परीक्षाका फल प्रकाशित हुआ था । सबसे पहले मेरी दृष्टि पहले डिविजनके खाने में किरणबाला चन्द्योपाध्यायके नामपर पड़ी । पर स्वयं मेरा नाम पहले, दूसरे या तीसरे, किसी भी डिवीजनमें, नहीं मिला। ___ परीक्षामें अकृतार्थ होनेकी जो वेदना थी, वह तो थी ही ; उसके साथ ही साथ वज्राग्निकी भाँति एक और सन्देह मुझे जलाने लगा । वह सन्देह यह था कि वह किरणबाला वन्द्योपाध्याय, हो न हो, मेरी ही किरणबाला है । यद्यपि उसने मुझसे यह बात कभी नहीं कही थी कि मैंने कालिजमें शिक्षा पाई है, परन्तु फिर भी मेरा यह सन्देह धीरे धीरे प्रबल होने लगा। कुछ देर तक सोचनेपर मैंने उसका कारण समझ लिया । बात यह थी कि वृद्ध पिता और उनकी कन्याने कभी अपने सम्बन्धमें कोई भी बात न कही थी। और मैं भी सदा अपनी ही कहानी कहने और अपना ही विद्या-बल दिखलानेमें इतना अधिक नियुक्त रहता Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १५३ था कि मैंने उनके सम्बन्धकी बातें कभी उनसे अच्छी तरह पूछी ही नहीं थीं। अभी हाल में मैंने जर्मन विद्वानका लिखा हुआ दर्शन-शास्त्रका जो इतिहास पढ़ा था, उसके सम्बन्धके तर्क मुझे याद आने लगे। यह भी याद आया कि मैंने एक दिन किरणसे कहा था कि यदि मुझे कुछ दिनों तक आपको कुछ पुस्तकें पढ़ानेका सुयोग मिले, तो अँगरेजी काव्य-साहित्यके सम्बन्धमें मैं आपमें एक बहुत अच्छी धारणा उत्पन्न कर सकूँगा। किरणबालाने दर्शन-शास्त्रमें 'पानर' प्राप्त किया था और वह साहित्यमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी। यदि वह यही किरण हो तो? अन्तमें मैंने बहुत खोदकर अपने भस्माच्छन्न अहंकारको उद्दीप्त किया और कहा है, तो हुआ करे । मेरी रचनावली ही मेरी विजयका स्तम्भ है । इतना कहकर मैं पहलेकी अपेक्षा और भी अधिक ऊँचा सिर करके जल्दी जल्दी पैर बढ़ाता हुआ भवनाथ बाबूके बागमें जा पहुंचा। उस समय वहाँ कमरेमें कोई नहीं था। मैं एक बार अच्छी तरह उस वृद्धकी पुस्तकोंका निरीक्षण करने लगा। मैंने देखा कि एक कोनेमें मेरा वही जर्मन विद्वानका लिखा हुआ दर्शनशास्त्रका इतिहास अनादरसे पड़ा हुआ है। खोलकर मैंने देखा कि उस पुस्तकके 'प्रायः सभी किनारे स्वयं भवनाथ बाबूके हाथके लिखे हुए नोटोंसे भरे पड़े हैं । वृद्धने स्वयं ही अपनी कन्याको पढ़ाया है, अब मुझे और कोई सन्देह नहीं रह गया । थोड़ी देरमें भवनाथ बाबू भी उस कमरेमें आ पहुंचे। उस समय उनके चेहरेपर और दिनोंकी अपेक्षा कुछ अधिक प्रसन्नताकी ज्योति दिखलाई देती थी। ऐसा जान पड़ता था कि मानो किसी शुभ समाचारकी निर्भर-धारामें उन्होंने अभी अभी प्रातःस्नान किया है। मैं अक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज स्मात् कुछ दम्भपूर्वक रूखी हँसी हँसकर बोला-भवनाथ बाबू , मैं परीक्षामें फेल हो गया । जो बड़े बड़े लोग विद्यालयोंकी परीक्षाओं में फेल होकर जीवनकी परीक्षामें पहली श्रेणीमें उत्तीर्ण हुए थे, अाज मानो मैं भी उन्हींमें गिने जानेके योग्य हो गया ! परीक्षा, वाणिज्य, व्यवसाय, नौकरी आदिमें कृतकार्य होना साधारण (कोटिके लोगोंका लक्षण है । अकृतकार्य होनेकी आश्चर्यजनक शक्ति या तो निम्नतम श्रेणीके लोगोंमें होती है और या उच्चतम श्रेणीके ही लोगोंमें पाई जाती है। भवनाथ बाबूका चेहरा स्नेहपूर्ण करुण हो गया। वे अपनी कन्याके परीक्षा उत्तीर्ण होनेका समाचार मुझे न सुना सके। पर हाँ, मेरी असंगत उग्र प्रसन्नता देखकर वे कुछ विस्मित अवश्य हो रहे । वे अपनी सरल बुद्धिसे मेरे अभिमानका कारण न समझ सके । ___ इतनेमें मेरे कालिजके नवीन अध्यापक वामाचरण बाबूके साथ किरण सलज्ज सरसोज्वल मुखसे वर्षासे धोई हुई लताके समान छलछल करती हुई कमरेमें आ पहुँची। अब मेरे लिए और कुछ भी समझना बाकी नहीं रह गया । रातको घर आकर मैंने अपनी सारी रचनाएँ जला डाली और अपने ग्राम में जाकर विवाह कर डाला। ___ गंगाके तटपर जिस वृहत् काव्य के लिखने की बात थी, वह लिखा तो नहीं गया ; पर हाँ, मैंने अपने जीवनमें उसे प्राप्त कर लिया। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान सुना है कि आजकल बहुत-सी बंगाली कन्याओंको स्वयं चेष्टा करके अपने लिए पति ढूँढना पड़ता है। मैंने भी यही बात की है, पर देवताकी सहायतासे । बाल्यावस्थासे ही मैं अनेक प्रकारके व्रत और शिवपूजा किया करती थी। ___ मैं पूरे पाठ बरसकी भी नहीं हुई थी कि मेरा विवाह हो गया। परन्तु पूर्व जन्मके पापके कारण मैं अच्छा पत्ति पाकर भी उसे सम्पूर्ण रूपसे न पा सकी। माता त्रिनयनीने मेरी दोनों आँखें ले ली। जीवनके अन्तिम मुहूर्त तक उन्होंने मुझे पतिको देख लेनेका सुख न दिया। बाल्यावस्थासे ही मेरी अग्नि-परीक्षाका प्रारम्भ हुआ । मैं चौदह बरसकी भी नहीं हुई थी कि मैंने एक मृत शिशुको जन्म दिया। उस Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज • समय मैं स्वयं भी मृत्युके बहुत कुछ समीप पहुंच गई थी। परन्तु जिसके भाग्यमें दुःख भोगना बदा है, वह यदि मर जाय, तो फिर काम कैसे चले ? वह दुःख कौन भोगे ? जो दीपक जलनेके लिए तैयार किया जाता है. उसका तेल नहीं घटता । रात-भर जल कर ही वह बुझता है। ___मैं बच तो गई, पर चाहे शरीरकी दुर्बलतासे हो, चाहे मनके - खेदसे हो अथवा और किसी कारणसे हो, मेरी आँखोंमें पीड़ा उत्पन्न हो गई। उस समय मेरे पति डाक्टरी पढ़ रहे थे । नई नई शिक्षाके उत्साहके कारण चिकित्सा करनेका सुयोग पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने स्वयं ही मेरी चिकित्सा करना प्रारम्भ किया। भइया उस समय कालिजमें पढ़ रहे थे और बी० एल० की परीक्षा देनेवाले थे । एक दिन उन्होंने आकर मेरे स्वामीसे कहा-भला यह तुम क्या कर रहे हो! तुम तो कुसुम की दोनों आँखें नष्ट किये डालते हो। किसी अच्छे डाक्टरको बुलाकर दिखलायो । ___ मेरे स्वामी ने कहा-भला अच्छा डाक्टर आकर और कौन-सी नई चिकित्सा करेगा ? जो दवाएँ आदि हैं, वह तो सब मुझे मालूम ही हैं। भइयाने कुछ बिगड़कर कहा-तब तो फिर तुममें और तुम्हारे कालिजके बड़े साहबमें कोई भेद ही न रह गया। ___ मेरे स्वामीने कहा-तुम कानून पढ़ते हो; डाक्टरीका हाल क्या जानो ! जब तुम अपना विवाह करोगे और तुम्हारी स्त्रीकी सम्पत्तिके सम्बन्धमें कोई मुकद्दमा खड़ा होगा, तब क्या तुम मेरे परामर्श के अनुसार चलोगे? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान मैं मन ही मन सोच रही थी कि जब राजा राजामें युद्ध होता है,. तब सबसे अधिक विपत्ति धासके लिए ही होती है । स्वामीके साथ झगड़ा हुआ भइयाका, और दोनों ओरसे आघात होने लगे केवल मुझपर । मैंने यह भी सोचा कि जब भइया मुझे दान ही कर चुके . हैं, तो फिर मेरे सम्बन्धके कर्तव्यके लिए इतना झगड़ा बखेड़ा क्यों करते हैं । मेरा सुख-दुःख और रोग-आरोग्य सभी कुछ तो मेरे स्वामीका ही है। ___ उस दिन मेरी आँखोंकी चिकित्साकी सामान्य बात पर ही मेरे भइया और स्वामीमें कुछ मनमुटाव हो गया। एक तो यों ही पहलेसे ही मेरी आँखोंसे पानी गिरा करता था, उस दिनसे मेरी आँखोंसे और भी अधिक पानी जाने लगा। पर उसका वास्तविक कारण : उस समय न तो मेरे स्वामीकी ही समझमें आया और न भइयाकी ही समझमें। ___ जब मेरे स्वामी कालिज चले गये, तब तीसरे पहर के समय भइया अचानक अपने साथ एक डाक्टरको लिये हुए आ पहुँचे । डाक्टरने अच्छी तरह आँखोंकी परीक्षा करके कहा-यदि अभीसे पूरी पूरी सावधानी न की जायगी, तो आगे चलकर इस पीड़ाके बहुत अधिक बढ़ जानेकी सम्भावना है। इतना कहकर डाक्टरने कुछ दवाएं लिख दी और भइयाने आदमीको वह दवाएँ लाने के लिए भेन दिया। जब डाक्टर चले गये, तब मैंने भइयासे कहा-भइया, मैं आपके . पैरों पड़ती हूँ, इस समय मेरी जो चिकित्सा हो रही है, उसमें श्राफ किसी प्रकारकी बाधा मत दीजिए। ___ मैं बाल्यावस्थासे ही भइयासे बहुत डरा करती थी। मैं जो अपने मुँहसे उनसे यह बात कह सकी, यह मेरे लिए एक बहुत ही आश्चर्यकी घटना थी । पर मैं बहुत अच्छी तरह समझती थी कि मेरे स्वामीकी चोरी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज से भइया मेरी जो यह चिकित्सा कर रहे हैं, इसमें मेरे लिए अशुभ छोड़कर शुभ नहीं है। जान पड़ता है कि मेरी उस प्रगल्भतासे भइयाको भी कुछ आश्चर्य हुआ । कुछ देर तक चुपचाप सोचने के उपरान्त उन्होंने मुझसे कहाअच्छा, अब मैं डाक्टर तो फिर नहीं लाऊँगा। पर हाँ, जो दवा आवेगी, उसका एक बार अच्छी तरह सेवन अवश्य कर देखना। जब दवा आ गई, तब भइयाने मुझे उसके व्यवहारके नियम आदि बतला दिये और आप चले गये। अपने स्वामीके कालिजसे आने के पहले ही मैंने वह शीशी, उसका खाना, सलाई और विधि-विधान आदि सबको उठाकर अपने आँगनके कतवारखानेमें फेंक दिया । __ मानो भइयाके साथ कुछ जिद पड़ जाने के कारण ही मेरे स्वामी और भी दूनी चेष्टासे मेरी आँखोंकी चिकित्सा प्रवृत्त हुए । सबेरे सन्ध्या दोनों समय दवा बदली जाने लगी। मैंने आँखोंपर पट्टी बाँधी, चश्मा लगाया, बूंद बूंद करके दवा डाली, पुल्टिश बाँधी और जब मछलीका बदबूदार तेल पीनेपर अन्दरका पाकयंत्र तक बाहर निकलनेका उद्योग करने लगा, तब भी मैं अपने आपको दमन किये रही। जब स्वामी पूछते थे--अब कैसा मालूम होता है ? तब मैं कह दिया करती थीअब तो बहुत कुछ अच्छी हो चली हूँ। मैं अपने मनसे भी यही चेष्टा करती थी कि मानो मैं अच्छी हो रही हूँ। जब आँखोंसे अधिक जल जाने लगता था, तब मैं सोचती थी कि इस जलका कटकर निकल जाना भी अच्छा ही लक्षण है । और जब जल निकलना बन्द हो जाता था, तब सोचती थी कि अब मैं आरोग्यके पथपर पहुँच गई हूँ। पर कुछ दिनोंके उपरान्त यंत्रणा असह्य हो उठी। अब सब चीजें बहुत ही धुंधली दिखाई पड़ने लग गईं और सिरकी पीड़ाके कारण तो मैं परेशान रहने लगी। मैंने देखा कि मेरे स्वामी भी अब कुछ अप्रति Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि दान भसे हो रहे हैं । मानो वे बहुत कुछ सोचनेपर भी यह नहीं समझ सकते हैं कि इतने दिनोंके उपरान्त अब मैं किस बहानेसे किसी डाक्टरको बुलाऊँ। ___ मैंने उनसे कहा-यदि भइयाका मन रखने के लिए तुम एक बार किसी डाक्टरको बुलाकर दिखला दो, तो इसमें हर्ज ही क्या है ! वे इसी बातके लिए व्यर्थ ही मनमें नाराज होते हैं, जिससे मुझे भी अन्दर ही अन्दर कष्ट होता है। चिकित्सा तो तुम्ही करोगे। एक डाक्टरका उपसर्गके रूपमें रहना अच्छा ही है । स्वामीने कहा-तुम ठीक कहती हो। इतना कहकर वे उसी दिन एक अँगरेज डाक्टरको ले आये। उन लोगों में क्या बातचीत हुई, यह तो मैं नहीं जानती, पर मेरी समझमें इतना जरूर पाया कि डाक्टरने मेरे स्वामीको कुछ फटकार बतलाई और वे चुपचाप सिर झुकाये हुए उसके सामने खड़े रहे। ___ जब डाक्टर चला गया, तब मैंने अपने स्वामीका हाथ पकड़कर कहा-तुम कहाँसे यह गवाँर गोरा पकड़ लाये थे ! कोई देशी डाक्टर ले आते । भला क्या वह मेरी आँखोंका रोग तुमसे अधिक समझ सकेगा? __ स्वामीने कुछ कुण्ठित होकर कहा- तुम्हारी आँखों में नश्तर देने की आवश्यकता हुई है। मैंने कुछ क्रोधका आभास दिखलाते हुए कहा-यह तो तुम पहलेसे ही जानते थे कि नश्तर लगाना पड़ेगा ; पर प्रारम्भसे ही तुमने यह बात मुझसे छिपा रक्खी थी। क्या तुम यह समझते हो कि मैं नश्तरसे डरती हूँ ? . . स्वामीकी लज्जा दूर हो गई। उन्होंने कहा-भला तुम्हीं बतलायो Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र- कथाकुञ्ज कि स्वयं पुरुषों में ही इतने अधिक वीर कितने होंगे जो आँखों में नश्तर लगाने की बात सुनकर डर न जायँ ? १६० मैंने हँसी में कहा- पुरुषोंकी वीरता केवल स्त्रियोंके ही सामने होती है । स्वामीने तुरन्त म्लान गम्भीर होकर कहा - यह बात ठीक है । पुरुषोंका केवल अहंकार ही सार है। मैंने उनकी गम्भीरता उड़ाते हुए कहा - अहंकार में भी तुम लोग कहीं स्त्रियोंका मुकाबला कर सकते हो ? उसमें भी हम लोगोंकी ही जीत है । सार इसी बीच में भइया आ पहुँचे । मैंने उन्हें अलग ले जाकर कहाभइया, आप जो डाक्टर लाये थे, उसीकी बतलाई हुई व्यवस्थाके अनुमैं इतने दिनों तक चलती थी; और उससे मेरी आँखें भी बहुत अच्छी हो गई थीं । पर एक दिन मैंने भूलसे खानेकी दवा आँखों में लगा ली, जिससे अब मेरी आँखें इतनी खराब हो गई हैं कि मानो जाना ही चाहती हैं। लोग कहते हैं कि आँखों में नश्तर देना होगा । भइया ने कहा- मैं समझता था कि अभी तक तुम्हारे स्वामीकी ही चिकित्सा चल रही है । इसी लिए मुझे और भी गुस्सा आ गया था और मैं इतने दिनोंतक इधर नहीं आया था । मैंने कहा- नहीं, मैं चोरीसे उसी डाक्टरकी आदि करती थी; मैंने इसलिए नहीं बतलाया कि हो जायँ । बतलाई हुई दवा कहीं वे नाराज न स्त्रीका जन्म ग्रहण करके इतना बड़ा झूठ भी बोलना पड़ता है । मैं अपने भइया को भी दुःखी नहीं कर सकती थी और स्वामीके यशमें भी बट्टा नहीं लगा सकती थी । माता होकर गोदके बालकको भुलाए Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान रखना पड़ता है और स्त्री होकर बालकके पिताको भुलाए रखना पड़ता है । स्त्रियों के लिए इतनी अधिक छलनाकी आवश्यकता होती है ! १६ १ इस छलनाका फल यही हुआ कि मैंने धन्धी होनेसे पहले अपने भइया और स्वामीका मिलन देख लिया । भइयाने समझा कि चोरीसे चिकित्सा करने के कारण यह दुर्घटना हुई और स्वामीने समझा कि यदि शुरू मेरे भइया के परामर्श के अनुसार काम किया जाता तो अच्छा होता । यही सोचकर दोनों अन्दर ही अन्दर क्षमाप्रार्थी होकर एक दूसरे के बहुत निकटवर्ती हो गये। मेरे स्वामी अब भइया से परामर्श लेने लग गये और भइया भी विनीत भावसे सभी विषयों में मेरे स्वामीको ही सम्मतिपर निर्भर रहने लगे । अन्तमें दोनोंही के परामर्शसे एक दिन एक अँगरेज डाक्टरने कर मेरी बाई आँख में नश्तर लगाया | दुर्बल आँख यह आघात न सह सकी और उसमें जो कुछ थोड़ी बहुत दीप्ति बच रही थी, वह भी ज.ती रही । इसके उपरान्त दाहिनी आँख भी थोड़े दिनों में धीरे धीरे अन्धकारमें आवृत हो गई । बाल्यावस्था में शुभ दृष्टि के X दिन जो चन्दनचर्चित तरुण मूर्ति मेरी घाँखों के सामने पहले पहल प्रकाशित हुई थी, उसके ऊपर मानो सदाके लिए परदा पड़ गया | २ एक दिन स्वामीने मेरी शय्याके पास आकर कहा- - अब मैं तुम्हारे सामने व्यर्थ अपनी बड़ाई नहीं करना चाहता । वास्तवमें तुम्हारी आँखें मैं ही नष्ट की हैं। मैंने देखा कि उनका गला रुँध गया है । मैंने दोनों हामी X बंगालकी एक विवाहकी रस्म | 99 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उनका दाहिना हाथ पकड़कर दबाते हुए कहा-चलो यह भी तुमने बहुत अच्छा किया। वह तुम्हारी चीज थी, तुमने ही ले ली। भला तुम्हीं सोचो कि यदि किसी दूसरे डाक्टरके हाथसे मेरी आँख खराब हुई होती, तो उसमें मेरे लिए कौन-सी सान्त्वना रह जाती ? जो कुछ होनेको होता है, वह तो होकर ही रहता है। मेरी आँखोंको तो कोई बचा ही नहीं सकता था। ये आँखें तुम्हारे हाथसे गई, बस मेरे अन्धे होनेका यही एक सुख है । जब पूजनमें फूल कम पड़ गये थे, तब रामचन्द्र अपनी दोनों आँखें निकालकर देवतापर चढ़ाने चले थे। मैंने भी अपने देवताको अपनी दृष्टि दे दी। तुम अपनी आँखोंसे जब कोई अच्छी और देखने योग्य चीज देखना, तब मुँहसे मुझसे भी कह देना। वह मैं तुम्हारी आँखोंका देखा हुआ प्रसाद समझकर ग्रहण करूँगी। मैं सहसा इतनी अधिक बातें नहीं कह सकती थी और न सम्मुख इस प्रकार कहा ही जा सकता है। मैं ये सब बातें बहुत दिनों तक सोचती रही हूँ। बीच बीचमें जब कभी अवसाद श्राता था, निष्ठाका तेज कुछ मन्द पड़ जाता था, अपने आपको वंचित, दुःखित और दुर्भाग्य-दग्ध समझने लगती थी, तब मैं इसी प्रकारकी बातें सोच सोचकर अपना मन बहलाया करती थी। इसी शान्ति और इसी भक्तिका अवलम्बन करके मैं अपने आपको अपने दुःखसे भी अधिक ऊपर उठानेकी चेष्टा करती थी। जान पड़ता है कि उस दिन मैं अपने मनके कुछ भाव जबानी कहकर और कुछ भाव केवल चुप रहकर ही उन्हें एक प्रकारसे अच्छी तरह समझा सकी थी। उन्होंने कहा-कुसुम, मैंने मूढ़ता करके तुम्हारा जो कुछ नष्ट किया है, वह तो अब मैं किसी प्रकार तुम्हें लौटा नहीं सकता; परन्तु जहाँ तक मुझसे हो सकेगा, मैं तुम्हारा आँखोंका अभाव दूर करके तुम्हारे साथ साथ रहा करूँगा । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान : मैंने कहा-नहीं, यह कोई अच्छी बात नहीं है। तुम तो अपनी गृहस्थीको अन्धोंका अस्पताल बना रखना चाहते हो। पर मैं यह बात कभी होने नहीं दूंगी । तुम्हें और एक विवाह करना होगा। ___ यह विवाह करना किस लिए नितान्त आवश्यक है, यह बात विस्तारपूर्वक बतलानेसे पहले मेरा गला कुछ अँधने-सा लगा। कुछ खाँसकर और कुछ अपने आपको सँभालकर मैं कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने में मेरे स्वामी श्रावेगपूर्वक बोल उठे-मैं मूढ़ हूँ, मैं अहं. कारी हूँ, परन्तु पाखंडी नहीं हूँ। मैंने अपने हाथोंसे तुम्हारी आँखें नष्ट की हैं । यदि मैं अन्तमें इसी दोष के कारण तुम्हारा परित्याग कर दूं और कोई दूसरी स्त्री ग्रहण कर लूँ , तो मैं अपने इष्टदेव गोपीनाथ. की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैं ब्रह्म-हत्या और पितृ-हत्याका पातकी होऊँ। __ मैं उन्हें इतनी बड़ी शपथ न खाने देती, बीचमें ही रोक देती, परन्तु उस समय आँसू मेरे कलेजेको बहाकर, गलेको दबाकर और आँखोंको पूरी तरहसे भरकर जबर्दस्ती निकल पड़नेका उद्योग कर रहे थे ; और उन पासुनोंको रोककर मैं मुँहसे कुछ कह ही नहीं सकती थी। उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे सुनकर मैं विपुल प्रानन्दके उद्वेगमें तकिएमें मुंह छिपाकर रोने लगी। मैंने सोचा कि मैं अन्धी हो गई हूँ, फिर भी ये मुझे नहीं छोड़ेंगे । दुःखी जिस प्रकार दुःखको अपने हृदयमें रखता है, उसी प्रकार ये भी मुझे अपने हृदयमें रक्खेंगे । मैं इतना सौभाग्य नहीं चाहती थी ; पर मन तो स्वार्थी होता है। ___अन्तमें जब बहुत जोरसे बरसने के कारण आँसुत्रोंका पहला जोर कुछ कम हो गया, तब मैंने उनका मुँह अपनी छातीके पास खींचकर कहा-भला तुमने ऐसी भयंकर शपथ क्यों खाई ? मैंने क्या तुम्हारे सुखके लिए तुमसे विवाह करने के लिए कहा था ? मैं तो सौतसे अपना Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज .......... स्वार्थ-साधन करती । आँखोंके अभावके कारण तुम्हारा जो काम मैं स्वयं न कर सकती, वह काम मैं उससे कराती । ___ स्वामीने कहा-काम तो दासी भी कर सकती है। पर मैं किस सुभीतेके लिए एक दासीसे विवाह करूँगा ? और फिर मैं किस प्रकार उसे लाकर अपनी इस देवीके साथ एक ही प्रासनपर बैठा सकूँगा ? इतना कहकर स्वामीने मेरा मुँह पकड़कर ऊपर उठाया और मेरे ललाटपर एक निर्मल चुम्बन अंकित कर दिया। उस चुम्बनसे मानो मेरा तीसरा नेत्र खुल गया, मानो उसी समय देवी-पदपर मेरा अभिषेक हो गया। मैंने मन ही मन कहा--चलो यही ठीक है । जब मैं अन्धी हो गई हूँ, तब इस बाहरी संसार में मैं गृहिणी बनकर नहीं रह सकती । अब मैं इस संसारके ऊपर उठकर, देवी बनकर, अपने स्वामीका मंगल करूँगी । अब झूठ और छल आदि बिलकुल नहीं रह गया । गृहिणी स्त्रियों में जो कुछ बुद्रता और कपटता होती है, वह सब मैंने दूर कर दी। ___ उस दिन, दिन-भर अपने मनके साथ मेरा एक विशेष प्रकारका विरोध चलता रहा। इतनी भारी शपथसे बाध्य होकर स्वामी अब किसी प्रकार दूसरा विवाह नहीं कर सकेंगे, यह अानन्द मेरे मनको मानो डसने लगा और मैं किसी प्रकार उससे अपना पीछा न छुड़ा सकी । इस समय मेरे अन्दर जिस नवीन देवीका आविर्भाव हुआ था, उसने कहा--कभी कोई ऐसा दिन भी आ सकता है, जब इस शपथका पालन करने की अपेक्षा विवाह करने में ही तुम्हारे स्वामीका अधिक मंगल होगा । पर मेरे अन्दर जो पुरानी नारी थी , उसने कहा-हुआ करे; जब उन्होंने शपथ कर ली है, तब वे दूसरा विवाह तो कर ही नहीं सकेंगे । देवीने कहा- न करें ; पर इसमें तुम्हारे प्रसन्न होनेकी कोई बात नहीं है । मानवीने कहा-मैं सब समझती हूँ : पर जब उन्होंने शपथ कर ली है तब, इत्यादि । बार बार वही एक बात । देवी उस समय Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १६५ बिलकुल चुपचाप होकर देखने लगी और एक भयंकर आशंकाके अन्धकारमें मेरा समस्त अन्तःकरण आच्छन्न हो गया। मेरे अनुतप्त स्वामीने मजदूरनीको मना कर दिया और मेरे सब काम वे श्राप ही करने के लिए उद्यत हो गए । पहले तो छोटे छोटे कामोंके लिए भी इस प्रकार निरुपाय होनेके कारण निर्भर रहना बहुत अच्छा जान पड़ता था। इसका कारण यह था कि इस प्रकार वे सदा मेरे पास ही रहते थे। मैं उन्हें आँखों नहीं देख सकती थी, इसलिए उन्हें सदा अपने पास रखनेकी इच्छा बहुत अधिक बढ़ गई। स्वामीके मुखका जो अंश मेरी आँखोंके हिस्से पड़ा था, अब और इन्द्रियाँ उसी अंशको अापसमें बाँटकर अपना अपना अंश बढ़ानेकी चेष्टा करने लगीं। अब जब किसी कामसे स्वामी अधिक समय तक बाहर रहते, तब मुझे ऐसा जान पड़ता कि मानों मैं शून्यमें हूँ । ऐसा जान पड़ता कि मैं कहीं कुछ भी नहीं पाती हूँ। मानो मेरा सब कुछ खो गया है। पहले जब स्वामी कालिज जाया करते थे और उन्हें आनेमें देर होती थी, तब मैं सड़कवाले जंगलेकी बाड़मेंसे उनका रास्ता देखा करती थी। जिस जगतमें वे घूमा करते थे, उस जगतको मैंने अपनी आँखोंके द्वारा अपने पल्लेमें बाँध रक्खा था । पर आज मेरा दृष्टिहीन समस्त शरीर उन्हें ढूँढ़नेकी चेष्टा करने लगा । उनकी पृथ्वीके साथ मेरी पृथ्वीको बाँधनेवाली जो जंजीर थी, वह अाज टूट गई। आज उनके और मेरे मध्यमें एक दुरन्त अन्धता है । अब मुझे केवल निरुपाय होकर व्यग्र भावसे बैठे रहना पड़ता है। मैं यही सोचा करती कि वे कब अपने उस पारसे मेरे पास इस पार श्रावेंगे। इसी लिए अब जब वे क्षण-भरके लिए भी मुझे छोड़कर चले जाते, तब मेग समस्त अन्धा शरीर उद्यत होकर उन्हें पकड़ने दौड़ता और हाहाकार करता हुआ उन्हें पुकारता । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज परन्तु इतनी आकांक्षा, इतना अधिक निर्भर होना तो अच्छा नहीं। एक तो स्वामीके ऊपर स्त्रीका भार ही यथेष्ट है; उसके ऊपरसे यह अन्धताका भारी बोझ मैं नहीं लाद सकती। मैंने सोचा कि यह विश्वव्यापी अन्धकार मैं स्वयं ही अपने ऊपर लूँगी । मैंने एकाग्र मनसे प्रतिज्ञा की कि अपनी इस अन्धताके द्वारा मैं अपने स्वामीको अपने साथ बाँधकर नहीं रक्तूंगी। __थोड़े ही दिनोंमें मैं केवल शब्द, गन्ध और स्पर्शके द्वारा अपने सभी अभ्यस्त कार्य सम्पन्न करने लगी। यहाँ तक कि मैं अपने अनेक गृह-कार्य पहलेसे भी अधिक निपुणताके साथ करने लगी । अब मुझे ऐसा जान पड़ने लगा कि दृष्टि मेरे कामों में जितनी सहायता दिया करती थी, उससे अधिक वह मुझे विक्षिप्त कर दिया करती थी। अब मैं यह सोचने लग गई कि जितना कुछ देखनेसे काम अच्छी तरह हो सकता है, आँखें उससे कहीं अधिक देखती हैं । और जब आँखें पहरेका काम करती हैं, तब कान बिलकुल आलसी हो जाते हैं । जितना कुछ उन्हें सुनना चाहिए, उसकी अपेक्षा वे बहुत कम सुनते हैं । चंचल आँखोंकी अनुपस्थितिमें अब मेरी और सब इन्द्रियाँ अपना अपना कर्तव्य शान्त और सम्पूर्ण भावसे करने लग गई। .. अब मैं अपने स्वामीको अपना कोई काम नहीं करने देती और उनके सब काम भी पहलेकी ही भाँति स्वयं मैं ही करने लग गई। स्वामीने मुझसे कहा-तुमने तो मुझे मेरे प्रायश्चित्तसे भी वंचित कर दिया। ... मैंने कहा- मैं तो यह जानती ही नहीं कि तुम्हारा प्रायश्चित्त कैसा और किस बातका है । पर स्वयं अपने पापका भार मैं आप ही क्यों बढ़ाऊँ ? Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १६७ ___ चाहे जो कुछ कहा जाय, पर जब मैंने उन्हें मुक्ति दे दी, तब वे भी एक निःश्वास डालकर एक बड़ी भारी झंझटसे छुट्टी पा गये । जन्म-भरके लिए अपनी अन्धी स्त्रीकी सेवा करनेका व्रत लेना पुरुषका काम नहीं। मेरे स्वामी डाक्टरी पास करके मुझे अपने साथ लेकर' मुफस्सिल में चले गये। उस गाँवमें पहुँचनेपर मुझे ऐसा जान पड़ा कि मानो मैं अपनी माताकी गोदमें आ गई हूँ। मैं अपनी आठ वर्षकी अवस्थामें गाँव छोड़कर शहरमें गई थी। इधर दस वर्षोंमें मेरे मनमें जन्म-भूमिकी धारणा छायाके समान अस्पष्ट हो गई थी। जब तक आँखें थीं, तब तक कलकत्ता शहर चारों ओरसे मेरी समस्त स्मृतिको घेरे हुए खड़ा था। जब मेरी आँखें जाती रहों, तब मैंने समझा कि कलकत्ता केवल आँखोंको ही भुला रखनेवाला शहर है। इस शहरसे मनका सन्तोष नहीं होता। आँखोंके नष्ट होते ही मेरा वही बाल्यावस्थावाला गाँव सन्ध्याके नक्षत्रों के प्रकाशके समान मेरे मन में उज्ज्वल हो उठा। अगहनके अन्त में हम लोग हाशिमपुर गधे । नया स्थान था, इसलिए मेरी समझमें नहीं आया कि वह देखने में चारों ओर कैसा है । परन्तु फिर भी बाल्यावस्थाके उसी गन्ध और अनुभवके द्वारा उसने मेरे सभी अंगोंको घेर लिया। शिशिरसे भीगे हुए नए जोते हुए खेतोंकी वह प्रभातके समयकी हवा, वही सोनेमें ढले हुए अरहर और सरसोंके खेतोंकी सारे आकाशमें छाई हुई कोमल मीठी गन्ध, वही ग्वालोंका गान, यहाँ तक कि टूटे फूटे रास्ते से जानेवाली बैलगाड़ियोंके चलनेका शब्द भी मुझे पुलकित करने लगा। जीवनके आरम्भकी मेरी वही अतीत स्मृति अपनी अनिर्वाचनीय ध्वनि और गन्धके साथ, प्रत्यक्ष वर्तमान के समान मुझे चारों ओर से घेरकर बैठ गई। अन्धी आँखें Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज उसका किसी प्रकारका प्रतिवाद न कर सकीं। मैं फिर मानो लौटकर अपनी उसी बाल्यावस्थामें चली गई। हाँ, केवल अपनी माँको मैं नहीं पा सकी। मैंने मन ही मन देखा कि मेरी बड़ी बहन बाल खोले हुए धूपकी ओर पीठ किये आँगनमें बैठी बड़ियाँ दे रही है ; पर उसके मृदु कम्पित प्राचीन दुर्बल कण्ठसे हमारे गाँवके साधु भजनदासका देह-तत्त्वसम्बन्धी गान मुझे नहीं सुनाई पड़ा। ___ वही नवान्नका उत्सव शीतकालके शिशिर-स्नात श्राकाशमें सजीव होकर जाग उठा; परन्तु ढेकीमें नया धान कूटने के लिए होनेवाली भीड़में मेरे गाँवकी छोटी छोटी सहेलियोंका जो समागम होता था वह कहाँ चला गया ? सन्ध्याके समय कहीं पासहीसे गौओंके रँभानेकी आवाज सुनाई देती थी। उस समय मुझे ऐसा जान पड़ता था कि मानो माँ हाथमें सन्ध्याका दीपक लेकर ग्वालेको दिखलानेके लिए जा रही है। साथ ही मानो भीगी हुई सानी और जलती हुई घासके धूएँकी गन्ध हृदयमें प्रवेश कर रही है। मानो ऐसा सुनाई पड़ता था कि पोखरीके उस पार विद्यालंकार महाशयके मन्दिरमेंसे घडियाल और घण्टाका शब्द आ रहा है । मुझे ऐसा जान पड़ता था कि मानो किसीने मेरी बाल्यावस्थाके आठ वर्षों से उसका समस्त वस्तु-अंश नितराकर केवल रस तथा गन्धका ही मेरे चारों ओर ढेर लगा दिया है। साथ ही मुझे यह भी याद आया कि मैं बाल्यावस्थामें व्रत रखा करती थी और प्रातःकाल के समय फूल तोड़कर शिवकी पूजा किया करती थी। यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि कलकत्तेकी बातचीत और रहन-सहनके झगड़े से बुद्धि में कुछ न कुछ विकार आ ही जाता है। धर्म, कर्म, भक्ति और श्रद्धा आदिमें वह निर्मल सरलता नहीं रह जाती। उस दिनकी बात मुझे याद आती है, जिस दिन मेरे अन्धे होनेके उपरान्त कलकत्ते में हमारे महल्लेकी रहनेवाली एक सखीने श्रा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि दान कर मुझसे कहा था-देखो कुमु, तुम नाराज न होना। अगर तुम्हारी जगह मैं होती तो अपने स्वामीका कभी मुँह भी न देग्वती । मैंने कहा था-अब मुँह देखना तो बन्द हो ही गया है। इसके लिए, तो इन कम्बख्त आँखोंपर गुस्सा आता है। पर मैं अपने स्वामीके ऊपर क्यों क्रोध करूँ ? मेरे स्वामीने ठीक समयपर डाक्टरको नहीं बुलवाया था इसी लिए लावण्य मेरे स्वामीमे बहुत नाराज थी और वह इस बातकी चेष्टा करती थी कि मैं भी उनके ऊपर नाराज हो जाऊँ। मैंने उसे समझाया कि संसाग्में रहने पर इच्छामे, अनिच्छाले, जान-बूझकर. अनजानमें, भूलमे, भ्रान्तिग्ने अनेक प्रकारके सुख और दुःख हुअा ही करते हैं । परन्तु यदि मनमें भक्ति स्थिर रक्खी जा सके. तो दुःखमें भी एक प्रकारकी शान्ति रहती है । और नहीं तो फिर केवल लड़ाई झगड़े और बकबक झक-झकमें ही सारी जिन्दगी बीत जाती है । मैं अन्धी हो गई हूँ, यह तो बहुत बड़ा दुःख है ही, अब इसके उपरान्त मैं स्वामीके प्रति विद्वेष करके दुःखका वह बोझ और अधिक क्यों बढ़ाऊँ ? मेरी जैसी बालिकाके मुखसे इस प्रकारकी बात सुनकर लावण्यने नाराज होकर अवज्ञापूर्वक सिर हिला दिया और वह उठकर चली गई। चाहे जो कहा जाय, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि बातोंमें विष होता ही है । ऐसी बातें बिलकुल व्यर्थ नहीं जातीं। लावण्यके मुखसे क्रोधकी जो बातें निकली थीं, उन्होंने मेरे मनमें भी दो एक चिनगारियाँ फेक ही दी। उन चिनगारियोंको मैंने पैरोंसे मसलकर बुझा तो दिया था ; पर फिर भी उसके दो एक दाग रह ही गये। इसी लिए मैं कहती थी कि कलकत्तेमें बहुतसे तर्क होते हैं, बहुत तरहकी बातें होती हैं । वहाँ देखते देखते अकालमें ही बुद्धि पककर कठिन हो जाती है । गाँवमें आनेपर मेरी उसी शिवपूजाके शीतल शेफालिकाके फूलोंकी गन्धसे हृदयकी समस्त आशाएँ और विश्वास, उसी बाल्यावस्थाके Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज समान नवीन और उज्ज्वल हो उठे । मेरा हृदय और मेरा संसार देवतासे परिपूर्ण हो गया। मैं सिर नीचे करके लोटने लगी । मैंने कहा-हे देव, मेरी आँखें चली गईं, यह बहुत ही अच्छा हुा । तुम तो मेरे हो । हाय, मुझसे भूल हो गई । तुम मेरे हो, यह भी स्पर्धाकी बात है। मुझे तो केवल यही कहनेका अधिकार है कि मैं तुम्हारी हूँ । एक दिन गला दबाकर मेरे देवता यह बात मुझसे कहला ही लेंगे। कुछ भी न रह जाय, पर मुझे तो रहना ही पड़ेगा। और किसीके ऊपर तो मेरा कोई जोर है नहीं , केवल अपने ऊपर ही जोर है । ___ कुछ दिन बहुत ही सुखसे कट गये । डाक्टरीमें मेरे स्वामीकी प्रसिद्धि होने लगी। हाथमें कुछ रुपए भी आ गये । परन्तु रुपया कोई अच्छी चीज नहीं है। उससे मन श्रावृत हो जाता है । मन जिस समय राजत्व करता है, उस समय वह अपने सुखकी श्राप ही सृष्टि कर सकता है । पर जब सुख-संचयका भार धन ले लेता है, तब फिर मनके लिए और कोई काम नहीं रह जाता । पहले जिस जगहपर मनका सुख रहा करता था, उस जगहपर माल अस. बाब पाकर अपना अधिकार कर लेता है। उस समय सुखके बदले केवल सामग्री ही मिलने लगती है। ___मैं किसी विशेष बात अथवा किसी विशेष घटनाका उल्लेख नहीं कर सकती ; परन्तु या तो इस कारण कि अन्धोंमें अनुभवकी शक्ति अधिक होती है और अथवा किसी ऐसे कारणसे जिसे मैं नहीं जानती, मैं बहुत अच्छी तरह समझने लग गई कि धनके बढ़ने के साथ ही साथ मेरे स्वामीमें भी परिवर्तन होने लगा है। यौवनके प्रारम्भमें मेरे स्वामीमें न्याय-अन्याय और धर्म-अधर्मके सम्बन्धमें जो एक प्रकारका वेदना-बोध था ; वह दिनपर दिन बधिर-सा होता जाता है। मुझे अच्छी तरह याद है कि वे पहले कभी कभी कहा करते थे कि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १७. . . ... ..~~~~~~~~~~~ ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ मैं केवल जीविका-निर्वाह करनेके लिए डाक्टरी नहीं सीख रहा हूँ, बल्कि इसलिए सीख रहा हूँ कि इसके द्वारा मैं बहुतसे गरीबोंका उपकार भी कर सकूँगा । जो डाक्टर किसी दरिद्र मुमूर्षके या मरणासन्नके द्वारपर पहुंचकर बिना पेशगी फीस लिये नाड़ी नहीं देखना चाहते, उनका जिक्र आने पर घृणाके मारे मेरे स्वामीके मुँहले बात नहीं निकलती थी । पर मैं समझती हूँ कि अब वे दिन नहीं रह गये। अपने एक मात्र लड़केके प्राणों की रक्षाके लिए एक दरिद्र स्त्रीने आकर उनके पैर पकड़ लिये, पर वे उसकी उपेक्षा कर गये । अन्तमें मैंने उन्हें अपने सिरकी सौगन्द देकर भेजा, फिर भी उन्होंने मन लगाकर उसका काम नहीं किया । जब हम लोगोंके पास रुपया कम था, तब मैं अच्छी तरह जानती हूँ, अन्यायपूर्वक रुपया कमानेको मेरे स्वामी कैसी दृष्टिसे देखते थे। पर अब बैंकमें बहुतसे रुपए जमा हो गये थे। एक दिन किसी धनवानका नौकर श्राकर दो दिनों तक एकान्तमें गुप्त रूपसे उनसे बहुत-सी बातें कर गया । मैं यह तो नहीं जानती कि क्या क्या बातें हुई, पर जब उसके चले जानेके उपरान्त वे मेरे पास आये, तब उन्होंने बहुत ही प्रसन्नताके साथ भिन्न भिन्न अनेक विषयोंकी बहुत-सी बातें की। उस समय मैंने अपने अन्तःकरणकी स्पर्शशक्तिके द्वारा समझ लिया कि आज वे अपने ऊपर कालिमा पोतकर ही आये हैं। आँखें खोनेसे पहले मैंने अन्तिम बार जिन स्वामीको देखा था, मेरे वे स्वामी अब कहाँ हैं ? जिन्होंने मेरी दोनों दृष्टिहीन आँखोंके मध्यमें चुम्बन अंकित करके मुझे एक दिन देवीके पदपर अभिषिक्त किया था, मैं उनका क्या कर सकी ? काम क्रोध आदिमेंसे किसी शत्रुकी प्रबलता होनेपर किसी दिन अकस्मात् जिनका पतन होता है, वे हृदयके किसी दूसरे आवेगके कारण फिर ऊपर उठ सकते हैं ; परन्तु यह तो दिन Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज दिन, बल्कि पल पलपर मज्जाके अन्दरसे कठिन होते जाना, बाहरकी ओर बढ़ते बढ़ते अन्तरको तिल तिल करके दबा डालना था। मैं इसका प्रतिकार सोचने लगी ; पर मुझे कोई रास्ता दिखलाई नहीं दिया। स्वामीको मैं अपनी आँखोंसे नहीं देख सकती थी, यह तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं । पर जिस समय मुझे इस बातका ध्यान आता कि जिस स्थानपर मैं हूँ, उस स्थानपर स्वामी नहीं हैं, तब अन्दरसे मेरा कलेजा फटने लगता । मैं अन्धी थी, संसारके श्रालोकसे वर्जित अन्तर प्रदेशमें मैं अपने जीवनके प्रारम्भिक कालका नवीन प्रेम, अक्षुण्ण भक्ति और अखंड विश्वास लिये हुए बैठी थी। बाल्यावस्थामें अपने जीवन के प्रारम्भमें मैंने अपने हाथोंकी अँजुलीसे अपने देवमन्दिर में शेफालिकाका जो अर्घ्य दिया था, उसकी नमी अभी तक सूखी नहीं थी और मेरे स्वामी यह छाया-शीतल और चिर-नवीनताका देश छोड़कर रुपये पैदा करने के पीछे संसारकी मरु भूमिमें न जाने कहाँ अदृश्य होते चले जा रहे थे। मैं जिस बातपर विश्वास करती थी, जिसे धर्म कहती थी, जिसे समस्त सुख सम्पत्तिसे बढ़कर समझती थी, मेरे स्वामी बहुत दूरसे उसी बातके प्रति हँसते हुए देखा करते थे। परन्तु एक दिन ऐसा भी था जब कि यह विच्छेद नहीं था। उस समय हम लोगोंने जीवन के प्रारंभमें एक ही मार्गपर साथ साथ यात्रा आरम्भ की थी। उसके उपरान्त हम लोगों के मार्गमें कब अन्तर पड़ना प्रारम्भ हुआ, यह न तो वही जान सके और न मैं ही जान सकी। अब अन्तमें श्राज वह दिन आ पहुँचा, जब कि मैं उन्हें पुकारती हूँ और मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता है । कभी कभी मैं सोचा करती कि अन्धी होनेके कारण मैं किसी बातको बहुत बढ़ाकर देखती हूँ। यदि मेरी आँखें रहतीं, तो बहुत Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १७३ सम्भव था कि मैं संसारको ठीक उसी रूपमें समझती और पहचानती जिस रूपमें वह वास्तवमें है। एक दिन मेरे स्वामीने भी मुझसे यही बात समझाकर कही। उस दिन सबेरे एक वृद्ध मुसलमान अपनी पोतीके हैजेकी चिकित्सा कराने के लिए उन्हें बुलाने आया । मैंने उसे कहते हुए सुना - डाक्टर साहब, मैं बहुत गरीब हूँ, पर खुदा आपका भला करेगा ! मेरे स्वामीने उत्तर दिया-खुदा जो कुछ करेगा, सिर्फ उसीसे तो हमारा काम चल नहीं सकता । इसलिए पहले यह बतलाओ कि तुम क्या करोगे ? सुननेके साथ ही मैं सोचने लगी कि ईश्वरने मुझे अन्धा तो कर दिया, पर बहरा क्यों न किया ? वृद्धने गहरी साँस लेकर कहा-या खुदा ! केवल यही कहकर वह चला गया। मैंने उसी समय मजदूरनीके द्वारा उसे अन्तःपुरकी खिड़कीके पास बुलवाया और कहा-बाबा, तुम्हारी पोतीके इलाजके लिए मैं तुम्हें ये रुपये देती हूँ। तुम मेरे स्वामीके लिए मंगल-प्रार्थना करो और इसी महल्लेके हरीश बाबू डाक्टरको ले जाकर दिखलाओ। परन्तु दिन-भर मुझे खाना पीना कुछ भी अच्छा न लगा। तीसरे पहर सोकर उठने के उपरान्त स्वामीने पूछा-आज तुम कुछ खिन्न क्यों दिखलाई देती हो ? पहलेका अभ्यस्त उत्तर मुँहपर आ रहा था। मैं कहना चाहती थी—नहीं, कुछ भी नहीं हुआ। पर अब छल-कपटके दिन चले गये थे। मैंने स्पष्ट कह दिया- मैं कई दिनोंसे तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ । पर जब मैं कहने लगती हूँ, तब मेरे समझमें ही नहीं आता कि मुझे क्या कहना है । मैं यह तो नहीं जानती कि मैं अपने हृदयकी बात ठीक तरहसे समझाकर तुमसे कह सकूँगी या नहीं, पर इसमें सन्देह नहीं कि तुम अपने मनमें समझ सकते हो कि. हम दोनों आदमियोंने जिस प्रकार जीवन प्रारम्भ किया था, एक होकर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज भी अाज हम लोग उस प्रकार एक नहीं हैं-अलग हो गये हैं। स्वामीने हँसकर कहा-बस, परिवर्तन ही तो संसारका धर्म है । मैंने कहा-रुपये-पैसे, रूप-यौवन सभी में परिवर्तन होता है। पर क्या कोई ऐसी चीज नहीं है जो नित्य हो ? इस पर उन्होंने कुछ गम्भीर होकर कहा-देखो, और और स्त्रियाँ अनेक प्रकारके प्रभावोंके कारण दुःख करती हैं-किसीका स्वामी कुछ कमाता नहीं है-किसीका स्वामी प्रेम नहीं करता है। पर तुम बैठे बिठाये दुःखको अाकाशसे खींचकर ले आती हो। उसी समय मैंने समझ लिया कि अन्धता मेरी आँखों में एक नया अंजन लगाकर मुझे इस परिवर्तमान संसारसे बाहर ले गई है। मैं और स्त्रियोंके समान नहीं हूँ, मेरे स्वामी मुझे न पहचान सकेंगे। इसी बीचमें देशसे मेरी एक बुआ सास अपने भतीजेका हाल चाल देखनेके लिए आई । ज्यों ही हम दोनों उसे प्रणाम करने के लिए उठकर खड़े हुए, त्यों ही पहली बात उसने यही कही- बहू, भला तुम तो अभाग्यसे अपनी दोनों आँखें खो बैठी हो, पर अब मेरा अविनाश अन्धी स्त्री लेकर किस प्रकार घर गृहस्थी चलावेगा ? उसका एक और ब्याह करा दो । यदि उस समय स्वामी हँसकर केवल यही कह देते कि बुआ, यह तो बहुत अच्छी बात है। तुम्हीं कोई अच्छी लड़की देख सुनकर ठीक कर दो, तो सारी बात साफ हो जाती। पर उन्होंने कुछ कुण्ठित होकर कहा-बुधाजी, तुम ये कैसी बातें कर रही हो ! बुझाने उत्तर दिया-वाह ! भला मैं इसमें अन्यायकी कौन-सी बात कर रही हूँ ? भला बहू, तुम्हीं बतलाश्रो कि मैंने क्या बुरा कहा ? मैंने हँसकर. कहा-बुधाजी, तुम भी अच्छे आदमीसे सलाह ले रही हो। जिसकी गाँठ काटनी होती है, क्या उससे भी कभी कोई सम्मति लेता है ? बुझाने उत्तर दिया-हाँ भाई, यह बात तो तुम Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १७५ ठीक कहती हो । अच्छा तो अब हम तुम छिपकर सलाह करेंगे । क्यों अविनाश, ठीक है न ? पर बहू, फिर भी मैं तुमसे एक बात कहती हूँ । कुलीनकी लड़की की जितनी ही ज्यादा सौतिनें हों, उसके स्वामीका गौरव उतना ही अधिक बढ़ता है । हमारा लड़का यदि डाक्टरी न करके खाली ब्याह ही करता, तो उसे रोजगारकी चिंता ही न करनी पड़ती ! रोगी डाक्टर के हाथमें पड़ते ही मर जाता है और जब वह मर जाता है, तब फीस नहीं देता । परन्तु विधाता के शाप से कुलीनकी स्त्रीको मृत्यु ही नहीं श्राती और वह जितना ही अधिक जीती रहे, उसके स्वामीका उतना ही अधिक लाभ है । दो दिन बाद मेरे स्वामीने मेरे सामने ही अपनी बुझसे पूछाबुजी, क्या तुम भले घरकी कोई ऐसी लड़की ढूँढ़ सकती हो जो घर के आदमीकी तरह तुम्हारी बहूकी सहायता कर सके ? अब इन्हें खोंसे तो दिखलाई देता नहीं । यदि कोई ऐसी स्त्री मिल जाय नो सदा इनके साथ रहा करे, तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ। जब मैं अन्धी हुई थी, यदि उस समय शुरू शुरू में यह बात कही जाती, तो खप जाती । पर मेरी समझ में नहीं आता था कि अब मेरी आँखोंके अभाव के कारण घर गृहस्थी के काम में क्या बाधा पड़ती है । तो भी मैंने किसी प्रकारका प्रतिवाद नहीं किया और मैं चुप बैठी रही । बुझने कहा - लड़कियों की क्या कमी है ? मेरे ही जेठकी एक लड़की है । वह देखने में जैसी सुन्दर है, वैसी ही लक्ष्मी भी है। हो भी सयानी गई है। बस हम लोग यही देख रहे हैं कि कोई अच्छा वर मिल जाय तो उसका ब्याह कर दिया जाय । यदि तुम्हारे ऐसा कुलीन मिले, तो अभी व्याह हो सकता है। स्वामी चकित होकर कहा—यहाँ व्याह करनेके लिए कौन कहता है ! तुमने कहा – यदि तुम ब्याह न करोगे, तो क्या किसी भले घरकी लड़की यों ही तुम्हारे यहाँ आकर रह जायगी ? बात बहुत ठीक थी । स्वामी उसका कोई समुचित उत्तर न दे सके । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथा कुञ्ज अपनी अन्धी आँखोंके अनन्त अन्धकारमें मैं अकेली खड़ी होकर ऊपरकी ओर मुंह करके पुकारने लगी-हे भगवान्, मेरे स्वामीकी रक्षा करो। इसके कई दिनों बाद एक दिन जब मैं प्रातःकाल के समय पूजासेवा करके बाहर पा रही थी, तब बुझाने कहा-बहू, मैंने अपने जेठकी जिस लड़कीकी बात उस दिन कही थी, वह हेमांगिनी आज देशसे यहाँ आ गई है। हिमू, देखो यह तुम्हारी बहन है । इनको प्रणाम करो। इसी बीचमें मेरे स्वामी भी हठात् वहाँ आ पहुँचे और मानो एक अपरिचित स्त्रीको देखकर लौट जाने लगे । बुअाने पूछा-अविनाश, कहाँ जा रहे हो ? स्वामीने पूछा-यह कौन है ? बुझाने कहा-यह वही मेरे जेठकी लड़की हेमांगिनी है । यह कब आई, इसे कौन लाया, यह किस लिए आई, आदि अनेक प्रकारके प्रश्न करके मेरे स्वामी बार बार अनावश्यक आश्चर्य प्रकट करने लगे। मैंने मन ही मन कहा कि जो कुछ हो रहा है, वह सब तो मैं अच्छी तरह समझ ही रही हूँ। लेकिन उसके ऊपर अब यह छल कपट आरम्भ हो गया है-लुक्का-चोरी, बातें गढ़ना, झूठ बोलना आदि। यदि अपनी अशान्त प्रवृत्तिके लिए अधर्म करना चाहते हो, तो करो। पर मेरे लिए यह हीनता क्यों करते हो ? मुझे छलनेके लिए यह कपटपूर्ण आचरण क्यों करते हो? ____ मैं हेमांगिनीका हाथ पकड़कर उसे अपने सोनेके कमरेमें ले गई । उसके मुंह और शरीरपर हाथ फेरकर मैंने देखा कि उसका मुँह सुन्दर होगा और अवस्था भी चौदह पन्द्रह बरससे कम न होगी । बालिका सहसा जोरसे हँसती हुई बोली-हैं यह क्या कर रही हो ! क्या तुम मेरा भूत झाड़ रही हो ? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान उस उन्मुक्त सरल हास्य-ध्वनिसे मेरे अन्तरका अन्धकारपूर्ण मेघ मानो क्षण-भरके लिए हट गया। मैंने अपनी दाहिनी बाँह उसके गलेमें डालकर कहा-मैं तुमको देख रही हूँ। यह कहकर मैंने फिर एक बार उसके कोमल मुखपर हाथ फेरा । . ___"देख रही हो?" यह कहकर वह फिर एक बार जोरसे हँस पड़ी । वह बोली-- क्या मैं तुम्हारे बागकी सेम या बैंगन हूँ, जो तुम हाथ फेरकर देख रही हो कि कितना बड़ा हुआ है ? उस समय. सहसा मुझे यह ध्यान आया कि कदाचित् हेमांगिनी यह बात नहीं जानती कि मैं अन्धी हूँ। मैंने कहा-बहन, मैं अन्धी हूँ। यह सुनकर उसे कुछ आश्चर्य हुश्रा और थोड़ी देर बाद वह गम्भीर हो गई । मैंने बहुत अच्छी तरह समझ लिया कि वह अपने कुतूहलपूर्ण नेत्रोंसे मेरी दृष्टिहीन आँखों और मुँहका भाव बहुत ही ध्यानपूर्वक देख रही है। अन्तमें उसने कहा-श्रोह, तो शायद इसी लिए तुमने चाचीको यहाँ बुलवाया है ? ___ मैंने कहा-नहीं, मैंने उन्हें नहीं बुलवाया है। वह आप ही यहाँ आई हैं। बालिका फिर हँस पड़ी। उसने कहा-तो क्या वे दया करके यहाँ आई हैं ? तब तो फिर दयामयी जल्दी यहाँसे टलेंगी भी नहीं । लेकिन बाबूजीने आखिर मुझे यहाँ क्यों भेजा ? इसी समय बुझाने घरमें प्रवेश किया । अब तक वे मेरे स्वामीके साथ बातचीत कर रही थीं। उनके कमरे में प्रवेश करते ही हेमांगिनीने पूछा-चाची, हम लोग घर कब चलेंगे? बुभाने कहा-वाह ! अभी यहाँ आते देर नहीं हुई और चलने की ૧૨ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र- कथाकुञ्ज फिर लग गई ? ऐसी चंचल लड़की तो मैंने कहीं देखी ही नहीं । जल्दी टलने के ठहरा अपना सकती हो । हेमांगिनीने कहा- चाची, मुझे तो तुम्हारे यहाँसे लक्षण नहीं दिखाई देते । पर तुम्हारे लिए घर | तुम्हारी जितने दिनों तक खुशी हो, तुम पर मैं तुमसे कहे देती हूँ कि अब मैं यहाँसे चली जाऊँगी। इसके उपरान्त हेमांगिनी मेरा हाथ पकड़कर बोली- क्यों बहन, मैं ठीक कहती हूँ न ? आखिर तुम लोग कोई हमारे अपने तो हो ही नहीं ! हेमांगिनीके इस सरल प्रश्नका मैंने कोई उत्तर नहीं दिया । केवल उसे खींचकर गले से लगा लिया । मैंने समझ लिया कि बुआ चाहे कितनी ही प्रबला क्यो न हों, पर इस कन्याको सँभालना उनके लिए सम्भव नहीं है । बुझाने ऊपरसे कुछ भी क्रोध न प्रकट करके हेमांगिनी के प्रति कुछ आदर प्रकट करने की चेष्टा की । पर हेमांगिनीने मानो वह आदर अपने शरीरपरसे झिड़ककर गिरा दिया । बुधाने इन सब बातोंको उसी प्रकार उड़ा देनेकी चेष्टा की, जिस प्रकार किसी दुलारी लड़की की बातें उड़ाई जाती हैं; और वह हँसती हुई वहाँसे चलने के लिए उद्यत हुईं। पर फिर न जाने क्या सोचकर वे लौट आईं और हेमांगिनीसे बोलीं- हेमांगिनी, चलो तुम्हारे नहानेका समय हो गया । हेमांगिनीने मेरे पास आकर कहा - पने दोनों घाटपर नहाने जायँगीं । क्यों जी, ठीक है न ? इच्छा न होनेपर भी बुआ उस समय चुप रह गईं । उन्होंने सोचा कि यदि इस समय मैं बात बढ़ाऊँगी, तो अन्तमें हेमांfrotat ही जीत होगी और उन लोगोंका आपसका झगड़ा अशोभन रूपसे मेरे सामने प्रकट हो पड़ेगा । १७८ तो यह यहाँ रह खिड़कीके घाटकी तरफ जाते जाते हेमांगिनीने मुझसे पूछा- क्यों जी, तुम्हें कोई लड़का बाला क्यों नहीं हुआ ? मैंने कुछ हँसते हुए उत्तर दिया- भला मैं यह क्या जानूँ कि क्यों नहीं हुआ । ईश्वरने D Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि दान दिया ही नहीं । हेमांगिनीने कहा-अवश्य ही तुममें कुछ पाप है। मैंने कहा-यह भी वही अन्तर्यामी जानते हैं ! बालिकाने प्रमाणस्वरूप कहा- देखो न, चाचीमें कितनी कुटिलता है। इसीसे उनको आज तक कोई लड़का बाला नहीं हुआ । पाप-पुण्य, सुख-दुःख, दंड-पुरस्कार आदिका तत्त्व मैं स्वयं ही नहीं जानती थी, इसलिए मैंने उस बालिकाको भी नहीं समझाया। केवल एक ठंडा साँस लेकर मैंने मन ही मन उससे कहा- तुम्हीं जानो ! हेमांगिनीने तुरन्त मुझे जोरसे पकड़कर लिपटा लिया और हँसते हुए कहा- क्यों जी, मेरी बात सुनकर भी तुम ठंडी साँस लेती हो ? भला मेरी बात पर भी कभी कोई ध्यान देता है ? मैंने देखा कि अब मेरे स्वामीके डाक्टरी व्यवसायमें रुकावट होने लगी। यदि कहीं दूरसे कोई बुलाने आता है, तो वे जाते ही नहीं हैं और यदि कहीं आसपास जाते हैं, तो जल्दीसे काम निपटाकर चले आते हैं। पहले जब कामसे छुट्टी मिलनेपर घरमें रहते थे, तब केवल दोपहरके समय भोजन करने और सोनेके लिए घरमें आते थे। अब बीच बीचमें बुधा भी उन्हें बुला भेजा करतीं और वे स्वयं भी "अनावश्यक रूपसे बुआकी खबर लेनेके लिए घरमें श्रा जाया करते । बुना जब जोरसे पुकारती–हेमांगिनी, जरा मेरा पानका डिब्बा ले श्रा, तो मैं समझ लेती कि बुअाके कमरेमें मेरे स्वामी आये हैं। प्रारम्भमें तो दो तीन दिन तक हेमांगिनी पानका डिब्बा, तेलकी कटोरी, सिन्दूरकी डिबिया आदि जो चीज माँगी जाती, ले जाया करती । पर दो तीन दिन बाद ऐसा होने लगा कि यदि कभी उसे आवाज दी जाती, तो वह किसी प्रकार अपनी जगहसे हिलती ही नहीं। हाँ जो चीज माँगी जाती, वह मजदूरनीके हाथ भेज देती । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुल उधर बुना उसे आवाजपर आवाज दिया करतीं और बालिका मानो मेरे प्रति करुणाके आवेगसे मुझे जोरसे लिपटा लेती । उस समय मानो उसे कोई आशंका और विषाद घेर लेता । अबसे वह कभी भूलकर भी मेरे सामने मेरे स्वामीका कोई जिक्र नहीं करती। बीचमें मेरे भाई मुझे देखनेके लिए आये। मैं जानती थी कि भइयाकी दृष्टि बहुत ही तीव्र है। यहाँ इस समय क्या क्या बातें हो रही हैं, उनसे यह छिपाना कदाचित् असम्भव ही होगा। मेरे भइया बहुत कठिन विचारक (न्यायाधीश) थे। वे लेश मात्र अन्यायको भी क्षमा करना नहीं जानते थे। मुझे सबसे अधिक भय केवल इसी बातका था कि भइयाके सामने केवल मेरे स्वामी ही अपराधी ठहरेंगे । मैंने आवश्यकतासे बहुत अधिक प्रसन्न होकर इन सब बातोंको छिपा रक्खा । मैंने खूब बातें करके, खूब इधर दौड़ धूप करके, खूब धूमधाम करके मानो चारों ओर धूल उड़ाए रखनेकी चेष्टा की। पर मेरे लिए ये सब बातें इतनी अधिक अस्वाभाविक थीं कि केवल उन्हींके कारण मैं और भी अधिक पकड़ी गई। पर भइया अधिक दिनों तक नहीं ठहर सके । मेरे स्वामी इतनी अस्थिरता प्रकट करने लगे कि वह प्रकाश्य अप्रियताका रूप धारण करने लगी। भइया चले गये। विदा होनेसे पहले उन्होंने परिपूर्ण स्नेहके साथ बहुत देर तक मेरे माथेपर काँपता हुअा हाथ फेरा । मैं नहीं समझ सकी कि उन्होंने मन ही मन एकाग्र चित्तसे क्या आशीर्वाद दिया। हाँ मेरे, आँसुओंसे भीगे हुए गालोंपर उनके आँसू आ पड़े ! मुझे स्मरण पाता है कि उस दिन चैत्र मासकी सन्ध्याका समय और हाटका दिन था । लोग अपने अपने घर लौट रहे थे। दूरसे वृष्टि Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १८१ लिये हुए एक आँधी आ रही थी। उसीके कारण भीगी मिट्टीकी गन्ध और ठंडी ठंडी हवासे श्राकाश व्याप्त हो रहा था। अँधेरे रास्तेमें लोग व्याकुल होकर अपने अपने बिछड़े हुए साथियोंको पुकार रहे थे। मेरे सोनेके कमरेमें जब तक मैं अकेली रहती थी, तब तक दीया नहीं जलता था । डर था कि कहीं दीएकी लौसे मेरी धोती न जल उठे, अथवा और कोई दुर्घटना न हो जाय । मैं उसी अंधेरे निर्जन कमरेमें जमीनपर बैठी हुई दोनों हाथ जोड़कर अपने अनन्त अन्धजगतके जगदीश्वरको पुकार रही थी । कह रही थी-प्रभु, जब मैं तुम्हारी दयाका अनुभव नहीं करती, जब तुम्हारा अभिप्राय नहीं समझती, तब अपने इस अनाथ भग्न हृदयके डाँडको दोनों हाथोंसे जोरोंसे पकड़कर कलेजेमें दबाए रखती हूँ। मेरे कलेजेमेंसे लहू निकलकर बहने लगता है, फिर भी तूफानको नहीं सँभाल सकती । अब तुम और कहाँ तक मेरी परीक्षा लोगे ! और भला मुझमें बल ही कितना है ! इतना कहते कहते मेरी आँखों में आँसू भर आये। मैं पलंगपर सिर रखकर रोने लगी। दिन-भर मुझे घरका सब काम करना पड़ता था। हेमांगिनी छायाकी तरह बराबर मेरे साथ लगी रहा करती थी। अन्दरसे मुझे रुलाई आती थी, पर आँसू बहानेके लिए मुझे अवसर ही न मिलता था । आज बहुत दिनोंके उपरान्त आँखोंका जल बाहर निकला था। इतनेमें मैंने देखा कि मेरा पलंग कुछ हिला और आदमीके चलनेकी कुछ आहट सुनाई पड़ी। क्षण ही भरमें हेमांगिनी पाकर मेरे गलेसे लग गई और चुपचाप अपने आँचलसे मेरी आँख पोंछने लगी। मैं नहीं समझ सकी कि वह सन्ध्याके समय ही क्या सोचकर और कब मेरे पलंगपर पा सोई है। उसने मुझसे कोई प्रश्न नहीं किया। मैंने भी उससे कोई बात नहीं कही। वह धीरे धीरे मेरे ललाटपर अपना शीतल हाथ फेरने लगी। इस बीचमें कब बादल गरज गया और कब मूसलधार पानी बरस गया, इसका कुछ पता ही न लगा। बहुत दिनोंके उपरान्त एक सुस्निग्ध शान्तिने आकर ज्वरके दाहसे दग्ध मेरे हृदयको ठंडा कर दिया । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज ___ दूसरे दिन हेमांगिनीने कहा-चाची, यदि तुम्हें घर न जाना हो तो न जाओ, पर मैं तुमसे यह कहे देती हूँ कि मैं कल अपने माँझी भइयाके साथ घर चली जाऊँगी। बुआने कहा-भला इसकी क्या जरूरत है, मैं भी कल ही चलूँगी। मेरे साथ ही चली चलना । यह देखो, मेरे अविनाशने तुम्हारे लिए कैसी बढ़िया मोतीकी अंगूठी खरीद दी है। यह कहकर बुलाने बड़े अभिमानसे वह अँगूठी हेमांगिनीके हाथमें दे दी। हेमांगिनीने कहा-देखो चाची, मैं कैसा अच्छा निशाना लगाती हूँ। यह कहकर उसने जंगलेमेंसे ताककर वह अँगूठी पोखरीके बीचमें फेंक दी। उस समय क्रोध, दुःख और आश्चर्य के मारे बुआकी बुरी दशा थी। बुआने मेरा हाथ पकड़कर कई बार मुझसे कहा- देखो बहू, खबरदार, इसकी यह लड़कपनकी बात अविनाशसे न कहना। नहीं तो मेरे बच्चे के मनमें दुःख होगा। तुम मेरे सिरकी सौगन्द खायो कि यह बात अविनाशसे नहीं कहोगी। मैंने कहा-नहीं बुअाजी, तुम्हारे कहनेकी आवश्यकता नहीं । मैं उनसे कोई बात नहीं कहूँगी। दूसरे दिन चलने से थोड़ी देर पहले हेमांगिनीने मुझे जोरसे लिपटाकर कहा - बहन, मुझे भूल न जाना, याद रखना। मैंने अपने दोनों हाथ उसके मुँहपर फेरते हुए कहा-बहन, अन्धे कभी कोई बात नहीं भूलते। मेरे लिए जगत तो है ही नहीं। मैं तो केवल एक मनके ही सहारे हूँ। इतना कहकर मैंने उसका माथा खींचकर सूंघा और चूमा । मेरी आँखों से आँसू निकल निकलकर उसके बालोंमें बहने लगे। __हेमांगिनीके बिदा हो जानेपर मानो मेरी सारी पृथ्वी सूख गई। वह मेरे प्राणों में जो सुगन्ध, सौन्दर्य और गीत, जो उज्ज्वल प्रकाश और जो कोमल तरुणता लाई थी, वह सब चली गई। उसके चले Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १८३ जाने पर मैं अपने दोनों हाथ फैलाकर अपने चारों ओर अपने समस्त संसार में देखने लगी कि कहाँ मेरा कौन है। मेरे स्वामीने श्राकर बहुत प्रसन्नता दिखलाते हुए कहा- ये लोग चली गईं, किसी तरह जान बची । अब कुछ काम धन्धा करनेके लिए समय मिला करेगा | हाय, धिक्कार है | भला मेरे लिए इतनी अधिक चतुराई क्यों ? भला क्या मैं सत्य से डरती हूँ ? क्या मुझे आघात से कभी कोई भय हुआ है ? क्या मेरे स्वामी यह बात नहीं जानते कि जिस समय मैंने अपनी दोनों खोई थीं, उस समय मैंने शान्त मनसे ही सदाके लिए अन्धकार ग्रहण किया था ? इतने दिनों तक मेरे और मेरे स्वामीके बीच केवल अन्धताका ही परदा था; पर आजसे एक और नए व्यवधानकी सृष्टि हो गईं। मेरे स्वामी कभी भूलकर भी मेरे सामने हेमांगिनीका नाम नहीं लेते। मानो उनके सम्पर्क संसार से हेमांगिनी बिलकुल लुप्त ही हो गई हो । मानो उसने उसमें कभी लेश मात्र भी रेखा पात नहीं किया । परन्तु मैं इस बातका अनायास ही अनुभव कर सकती थी कि वे पत्रद्वारा बराबर उसका समाचार जाना करते हैं । जिस दिन तालाब में बादका जल प्रवेश करता है, उसी दिन पद्मके डंठलों पर खिंचाव पड़ता है । ठीक इसी प्रकार जिस दिन मेरे स्वामीके मनमें जरा सा भी स्फीतिका संचार होता था, उसी दिन मैं अपने हृदय के मूलमेंसे उसका अनुभव कर सकती थी । मुझसे यह बात कभी छिपी नहीं रहती थी कि कब उनको हेमांगिनीका समाचार मिलता है और कब नहीं मिलता । परन्तु मैं भी उन्हें उसका स्मरण नहीं करा सकती थी । मेरे अन्धकारमय हृदमें वह जो उन्मत्त, उद्दाम, उज्ज्वल, सुन्दर तारा क्षण-भर के लिए उदित हुआ था, उसका समाचार पाने और उसके सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए मेरे प्राण तृषित रहा करते थे । परन्तु अपने स्वामी के सामने 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुअ . पल-भर के लिए उसका नाम लेनेका भी मुझे कोई अधिकार नहीं था । हम दोनों आदमियों के बीच में वेदनासे परिपूर्ण एक नीरवता अटल भावसे विराज रही थी ! १८४ वैशाख मासके प्रायः मध्य में एक दिन दासीने श्राकर मुझसे पूछाबहूजी, वाटपर बड़े ठाठके साथ एक नाव तैयार हो रही है । बाबूजी कहाँ जायँगे ? मैं जानती थी कि चुपचाप कुछ उद्योग हो रहा है । मेरे भाग्य के श्राकाशमें पहले ही कुछ दिनों से वह निस्तब्धता थी, जो aar से पहले हुआ करती है और उसके उपरान्त प्रलयके छिन्न विछिन्न मेघ श्रा श्राकर एकत्र हो रहे थे । संहारकारी शंकर नीरव उँगली संकेतसे अपनी समस्त प्रलय शक्तिको मेरे सिरकी ओर भेज रहे थे । यह सब बातें मैं पहले से ही अच्छी तरह समझ मैंने दासीसे कहा – हैं ! मुझे तो अभी तक कोई खबर ही दासीका मुझसे और कोई प्रश्न करनेका साहस नहीं हुआ ठंडी साँस लेकर वहाँ से चली गई । ------ रही थी । नहीं है । और वह बहुत रात बीतने पर स्वामीने मेरे पास आकर कहा - एक बहुत दूरकी जगह से मेरी बुलाहट आई है । कल सवेरे ही मुझे वहाँ जाना होगा । मैं समझता हूँ कि मुझे वहाँसे लौटनेमें दो तीन दिन लग जायँगे । मैं पलंग परसे उठकर खड़ी हो गई और बोली - मुझसे झूठ मूठ बातें क्यों बना रहे हो ? मेरे स्वामीने काँपते हुए और अस्फुट स्वर से कहा- मैंने इसमें झूठ क्या कहा ? मैंने कहा- तुम ब्याह करने जा रहे हो । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १८२ . वे चुप रह गये। मैं भी स्थिर भावसे खड़ी रही। बहुत देर तक घरमें कोई शब्द नहीं हुआ। अन्तमें मैंने कहा-मुझे एक बातका उत्तर दो । कहो कि हाँ, मैं ब्याह करनेके लिए जा रहा हूँ। उन्होंने प्रतिध्वनिके समान उत्तर दिया-हाँ, मैं ब्याह करनेके लिए जा रहा हूँ। ___मैंने कहा-नहीं, तुम नहीं जाने पाओगे। इस महाविपत्ति, इस महापापसे मैं तुम्हें बचाऊँगी। यदि मैं इतना भी न कर सकी, तो फिर मैं तुम्हारी स्त्री ही किस बातकी ठहरी ! मेरी शिव-पूजा और किस काम प्रायगी ! फिर बहुत देर तक घरमें सन्नाटा रहा। मैंने जमीनपर गिरकर और स्वामीके पैर पकड़कर कहा-मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? मुझसे किस बातमें भूल हुई है ? तुम्हें किस लिए दूसरी स्त्रीकी पावश्यकता है ? तुम्हें मेरे सिरकी सौगन्ध, सच सच बतलाना। __ इसपर मेरे स्वामीने धीरे धीरे कहा-मैं सच कहता हूँ, मुझे तुमसे भय लगता है। तुम्हारी अन्धताने तुम्हें एक अनन्त श्रावरणमें डॅक रक्खा है। मैं उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता। तुम मेरे लिए देवता हो; और देवताके ही समान मेरे लिए भयानक हो। तुम्हारे साथ रहकर मैं नित्य अपना गृहकार्य नहीं कर सकता। मुझे एक ऐसी साधारण स्त्री चाहिए जिसे मैं ब', मर्चे, बिगहू, बनूँ , लाड़ प्यार करूँ, गहने कपड़े पहनाऊँ और इस प्रकारके और सब काम करूँ। मैंने कहा-जरा मेरा कलेजा चीरकर देखो। मैं भी बहुत ही सामान्य स्त्री हूँ। मेरे मनमें नये विवाहकी उस बालिकाके सिवा और कुछ भी नहीं है। मैं विश्वास करना चाहती हू, निर्भर करना Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज चाहती हूँ, पूजा करना चाहती हूँ। तुम अपने आपको अपमानित करके और मुझे दुस्सह दुःख देकर अपने आपसे मुझे बड़ी मत बनायो । सब बातोंमें मुझे अपने पैरोंके नीचे ही रक्खो। भला क्या मुझे इस समय याद है कि उस समय मैंने उनसे और क्या क्या बातें कही थीं ! क्या क्षुब्ध समुद्र कभी अपना गर्जन आप ही सुन सकता है ! केवल यही याद आता है-मैंने कहा था कि यदि मैं सती हूँ, तो मैं भगवानको साक्षी करके कहती हूँ कि तुम कभी किसी प्रकार अपनी धर्म-शपथ न तोड़ सकोगे। उस महापापसे पहले ही या तो मैं विधवा हो जाऊँगी और या हेमांगिनी ही इस संसार में न रह जायगी । बस इतना कहकर मैं मूछित होकर गिर पड़ी। जिस समय मेरी मूर्छा भंग हुई, उस समय न तो रात ही समाप्त हुई थी और न प्रभात समयके पक्षी ही बोलने लग गये थे। मेरे स्वामी चले गये थे। ____ मैं ठाकुरजीवाली कोठरीमें चली गई और अन्दरसे दरवाजा बन्द करके पूजा करने बैठ गई। दिन-भर मैं उस कोठरीके बाहर नहीं निकली। सन्ध्याके समय वैशाखके भीषण अन्धड़से दालान हिलने लगे। मैंने. यह नहीं कहा कि हे ठाकुरजी, मेरे स्वामी अभी तक नदीमें ही नावपर होंगे, उनकी रक्षा करो। मैं एकान्त मनसे केवल यही कहने लगी कि हे ठाकुरजी, मेरे भाग्यमें जो कुछ बदा है, वह हुआ करे । परन्तु मेरे स्वामीको इस महापातकसे बचायो । सारी रात बीत गई । दूसरे दिन भी मैं अपनी जगहसे नहीं उठी । मैं नहीं जानती कि उस अनिद्रा और उस अनाहारमें मुझे कौन आकर बल दे गया था, जो मैं उस पत्थरकी मूर्तिके सामने पत्थरकी मूर्तिकी ही भाँति बैठो रही! सन्ध्या समय कोई बाहरसे दरवाजेको धक्का देने लगा। जिस Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापक १८७ समय लोग दरवाजा तोड़कर उस कोठरी में आये, उस समय मैं बेहोश पड़ी थी। जब मेरी मूर्छा टूटी, तब मैंने सुना - 'बहन !' मैंने देखा कि मैं हेमांगिनीकी गोदीमें सोई हुई हूँ। सिर हिलाते ही उसकी नई रेशमी साड़ी खस खस शब्द करने लगी। मैंने समझ लिया कि उसका विवाह हो गया । मैंने मन ही मन कहा – हे परमेश्वर ! तुमने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी, मेरे स्वामीका पतन हो गया । हेमांगीने सिर काकर धीरेसे कहा- बहन, मैं तुमसे आशीर्वाद लेनेके लिए आई हूँ । पहले तो क्षण-भर के लिए मानो मैं काठ हो गई; पर फिर तुरन्त ही सँभलकर उठ बैठी और बोली- भला बहन, मैं तुम्हें आशीर्वाद क्यों न दूँगी ! इसमें तुम्हारा अपराध ही क्या है ! हेमांगिनी अपने सुमिष्ट उच्च स्वरमें हँस पड़ी और बोली--अपराध ! क्यों जी, जब तुमने ब्याह किया, तब तो कोई अपराध नहीं हुआ और मैंने किया, तो अपराध हो गया ! -- हेमांगिनीको जोर से गलेसे लगाकर मैं भी हँस पड़ी। मैंने मन ही मन कहा- - क्या संसार में मेरी प्रार्थना ही सबसे बढ़कर है ? क्या उनकी इच्छा उससे भी बढ़कर नहीं है ? जो श्राघात पड़ रहा है, वह मेरे ही सिरपर पड़े । पर मैं उस श्राघातको अपने हृदय के उस स्थानपर नहीं पड़ने दूँगी, जहाँ मेरा धर्म और मेरा विश्वास है । मैं जैसी थी, वैसी ही रहूँगी । हेमांगिनीने मेरे पैरोंपर गिरकर मेरी पद- धूलि ली । मैंने कहा -- तुम सदा सौभाग्यवती रहो, सदा सुखी रहो ! हेमांगिनी ने कहा - केवल इस आशीर्वादसे ही काम नहीं चलेगा । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र-कथाकुञ्ज तुम सती हो । तुम अपने हाथोंसे मेरा और अपने बहनोई का हाथ पकड़कर हम दोनोंको आशीर्वाद दो । उनसे लज्जा करनेसे काम नहीं • चलेगा। यदि तुम आज्ञा दो, तो मैं उन्हें यहाँ ले आऊँ । मैंने कहा-ले आओ। थोड़ी देर बाद मुझे फिर अपने कमरेमें किसीके आनेकी आहट "सुनाई पड़ी । किसीने स्नेहपूर्वक मुझसे पूछा-कुम्, अच्छी तरह हो ? ___मैं घबराकर उठ खड़ी हुई और पैरोंके पास प्रणाम करती हुई - बोली-हाँ भइया। हेमांगिनीने कहा-भइया किस बातके ? ये तो तुम्हारे छोटे बहनोई न हैं ! अब सब बातें मेरी समझमें भा गईं । मैं जानती थी कि मेरे भइयाने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं कभी विवाह न करूँगा । मेरी माँ तो थी ही नहीं; तब अनुनय और अनुरोध करके कौन उनका ब्याह कराता ! इसलिए इस समय मैंने ही उनका ब्याह करा दिया। मेरी दोनों आँखोंसे झर झर आँसू बहने लगे। वे किसी प्रकार रोके रुकते ही न थे । भइया धीरे धीरे मेरे सिरपर हाथ फेरने लगे। हेमांगिनी मुझसे लिपटकर केवल हँस रही थी। रातके समय मुझे नींद नहीं पा रही थी। मैं बहुत ही उत्कण्ठित चित्तसे अपना स्वामीके लौटनेकी प्रतीक्षा कर रही थी। मैं कुछ भी स्थिर नहीं कर सकती थी कि वे इस लज्जा और निराशासे अपने आपको किस प्रकार सँभाल सकेंगे। बहुत रात बीतने पर धीरे धीरे किवाड़ खुले । मैं चौंककर उठ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि-दान १८६. बैठी। वह मेरे स्वामीके पैरोंकी आहट थी। मेरा कलेजा अन्दरसे धड़.. कने लगा। स्वामी मेरे बिछोनेपर आ बैठे और मेरा हाथ पकड़कर बोलेतुम्हारे भइयाने मेरी रक्षा कर ली। मैं क्षण-भरके मोहमें पड़कर मरने जा रहा था। उस दिन जब मैं नावपर सवार हुआ था, तब मेरे हृदयपर जितना भारी बोझ था, उसे अन्तर्यामी ही जानते हैं । जिस समय मैं नदीके बीच आँधीमें पड़ गया, उस समय मुझे प्राणोंका भी भय हुआ । पर साथ ही मैं यह भी सोचने लगा कि यदि मैं इस समय नदीमें डूब जाऊँ, तो मेरा उद्धार हो जाय। मथुरगंज पहुँचकर मैंने सुना कि उससे एक दिन पहले ही तुम्हारे भाईके साथ हेमांगिनीका ब्याह हो गया है । मैं नहीं कह सकता कि उस समय मैं कैसी लज्जा और कैसे अानन्दसे लौटकर नावपर आया । इन दो ही चार दिनोंमें मैंने यह बात बहुत ही अच्छी तरह समझ ली है कि तुम्हें छोड़कर मुझे कोई सुख नहीं मिल सकता । तुम मेरी देवी हो। ___ मैंने हँसकर कहा-नहीं, मुझे देवी बनानेकी जरूरत नहीं। मैं तुम्हारे घरकी स्त्री हूँ मैं एक साधारण नारी मात्र हूँ। स्वामीने कहा-तुम्हें भी मेरा एक अनुरोध मानना पड़ेगा । अब आगे तुम मुझे कभी देवता कहकर अप्रतिभ न करना । __ दूसरे दिन हमारे यहाँ खूब धूमधामसे जलसा हुआ। अब हेमांगिनी मेरे स्वामीके साथ खाते-पीते, उठते-बैठते, सबेरे-सन्ध्या अनेक. प्रकारके उपहास करने लगी। उसके हँसी-मजाककी कोई सीमा ही न रह गई । पर किसीने कभी इस बातका कोई जिक्र तक नहीं किया कि मेरे स्वामी कहाँ गये थे और वहाँ क्या हुआ था। समात Page #196 --------------------------------------------------------------------------  Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - रवीन्द्र बाबूके अन्य ग्रंथ समpan Andekad a अाँखकी किरकिरी ( उपन्यास) चिरकुमारसभा साहित्य (निबन्ध) प्राचीन साहित्य ,, शिक्षा स्वदेश राजा और प्रजा ,, समाज , मुक्तधारा (नाटक) mIEDERA-KIRALALANAKINLARitamine संचालकहिन्दी-ग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय, हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई। Page #198 --------------------------------------------------------------------------  Page #199 -------------------------------------------------------------------------- _