Book Title: Raghuvansh Mahakavyam
Author(s): Kalidas Mahakavi, Bramhashankar Mishr
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीः॥ काशी संस्कृत ग्रन्थमाला १. श्री४ ललितपुरमा ( काव्यविभागे ( १२) द्वादशं पुष्पम् ) महाकविकालिदासविरचितं रघवंशमहाकाव्यम् 'सञ्जीविनी' 'सुधा' 'इन्दु' व्याख्यात्रयोपेतम् टीकाकार:पण्डित श्रीब्रह्मशङ्करमिश्रः साहित्यशास्त्री 555555 LEHownmo.s. 155555 AO B.M• Mishara OAODI થા, મા વિજય પ્રેમસર જૈન જ્ઞાન ભંડાર प्रकाशक:चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस.वाराणसी-१ (सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकाधीनाः) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त कथासार प्रथम सर्ग भद्दाराज दिलोप ने एक नयनानन्दजनक पुत्र के बिना सारे जगत को ही समझ कर अपनी धर्मपत्नी सुदक्षिणा के साथ गुरु वसिष्ठ जी के पास जाकर क 'मगवन् ! आपकी दया से सब आनन्द है किन्तु आपकी पुत्रवधू इस सुदक्षि सन्तति-विहीन देखकर राज्यलक्ष्मी मी मुझे अच्छी नहीं लगती। इस संसार बाने पर मेरे पितर लोग पिण्टरहित होकर निराश हो जायेंगे। प्रभो! शोकाकुल देखकर आपको क्या दया नहीं आती ' वसिष्ठजी ने सन्तति-निरोध का रहस्य राजा से कहा-'पूर्व मन्म में इन्द्र का उपस्थान कर लौटते समय आपने अपनी ध के पास आने की त्वरा से मार्ग में सुरमि (गो) को पूजित नहीं कर अप किया। अतः उसने शाप दे दिया। इसीलिए आपको सन्तति नहीं होती। सुः अमी पाताल चली गई है किन्तु उसकी पुत्री नन्दिनी यहीं है। उसकी आरा भाप सफल-मनोरथ हो सकते है।' द्वितीय सर्ग .... . - गुरु वसिष्ठजी की आज्ञा से महाराज दिलीप नन्दिनी गौ की सेवा करने परिचर्या करते-करते महाराज दिलीप के इक्कीस दिन बीत गये। एक दिन दि माक्त का परीक्षा करने के लिए कैलास की गुफाओं में घुसकर मायानिर्मित (बनाव से आक्रान्त होकर नन्दिनी बहुत जोर से चिल्ला उठी। उसकी करुण आवाज सुन ही उसको मारने के लिए राजा दिलीप तरकस से बाण निकालने लगे, इतने 'बोला-'हे राजन् ! भगवान् शङ्कर की दया से आप मेरा एक भी बाल बाँका सकते।' इस बात को सुनकर बाजा ने कहा-'हे मृगेन्द्र ! मगवान् शङ्कर वसिष्ठजी दोनों ही मेरे पूज्य है। दोनों का आदर करना मेरा कर्तव्य है। इस नन्दिनी को छोड़कर मेरे ही शरीर से उन अपनी भूख मिटा लो।' यह नन्दिनी ने कहा-'भद्र ! गुरु की दया से मुझ में जो तेरी अटूट भक्ति है उस ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। बर माग' दिलीप ने कहा-'मातः ! मुझे वीर पुत्र 'तथास्तु' कहकर 'मेरा दूध पीओ' रेती उसने आज्ञा दी और गोदुग्ध पान दक्षिा गर्भवती दुई Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] तृतीय सर्ग रण कर सुदक्षिणा ने समय पूर्ण होने पर शुभ मुहूर्त में पुत्र को जन्म दिया । के जन्मकाल में सभी वस्तुएँ प्रसन्नतामय दीखने लगीं। दिलीप ने उसका 'रघु' । रघु चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगे और थोड़े ही दिनों में सभी कला-कौशल एवं पारंगत हो गये । जवान होने पर राजा दिलीप ने उनका विवाह कराकर उन्हें द पर नियुक्त कर सौवाँ अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ करके उसकी पूर्ति के लिए रघु को कर दिग्विजय के लिए अश्व छोड़ा । इन्द्र ने उसी अश्व को चुरा लिया। घोड़े के से राजकुमार रघु चकित हो उठे। उसी समय कहीं से चरती हुई नन्दिनी वहाँ [ उसके मूत्र से आँखों को पोंछ कर सामने से घोड़ा चुराकर ले जाते हुए इन्द्र को हो उठे और बाण प्रक्षेप से इन्द्र की बाँह को बेधकर इन्द्रध्वज को काट डाला । द्ध होकर इन्द्र ने रघु पर वज्र चलाया, परन्तु उससे आहत होकर भी रघु युद्ध नहीं हुए । उनकी इस बहादुरी पर प्रसन्न होकर इन्द्र बोले- 'इतने कठोर मेरे म्हारे सिवाय दूसरे किसी ने भी सहन नहीं किया था इसलिए घोड़े को छोड़कर ई वर माँगो ।' रघु ने कहा - 'यदि आप घोड़ा नहीं देना चाहते तो मेरे पिताजी मैध यज्ञ नहीं करके भी उसके फलभागी हों यह वर दें।' इन्द्र 'तथास्तु' कहकर गये। बाद में राजा दिलीप ने रघु जैसे वीर पुत्र को छाती से लगाकर प्यार : उन्हें राजगद्दी पर बैठा कर तपोवन चले गये । चतुर्थ सर्ग एक दिन दिग्वि ओर चल पड़े । की राज्यशासन-प्रणाली से अत्यन्त प्रभावित होकर थोड़े ही दिनों में सारी प्रजा भूल सी गई । न्यायपूर्वक प्रजापालन करते हुए उनके गुणों से आकृष्ट होकर र सरस्वती दोनों ही रूपान्तर ग्रहण कर उनके पास आ गयीं । की भावना से महाराज रघु सेनाओं को सजाकर पूर्व दिशा की राजाओं को धर्षित करते हुए वे कलिङ्ग देश की ओर चले कलिङ्गों से घोर आ । अन्त में रघु ने कलिङ्गराज को पकड़ कर उसकी प्राणदान की प्रार्थना मान छोड़ दिया । फिर समुद्र तट के रास्ते से दक्षिण की ओर जाकर पाण्ढयों को बीच के अत्यन्त बीहड़ पर्वतीय रास्तों को पार कर र पारसियों को जीतकर उत्तर दिशा की ओर जाते हुए । केरल देश की ओर चले । पहले हूण देश में पहुँचे । को भी लड़कर पराजित कर दिया। कम्बोजवासियों ने तो रघु का नाम सुनते ने आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में बड़ी सेना के साथ वे कैलास पर्वत पर चद T पर भी पर्वतीयों के साथ युद्ध करते बहुत से महत्त्वपूर्ण स्थानों को जीत कर पेश्वर की ओर बढ़ चले । परन्तु जब वह उनके तेज को नहीं सहन कर सका Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] तब कामरूप की ओरं जाकर उनसे सत्कृत होकर महाराज रघु अयोध्या वापस लौट आये और सब दिशाओं को जीतने के उपलक्ष्य में बहुत धूमधाम के साथ पुष्कल दक्षिणा देकर उन्होंने विश्वजित् नामक यह सम्पन्न किया । पश्चम सर्ग महात्मा रघु के समक्ष आकर कौत्स ने कहा- 'राजन् ! मेरी विद्या के अनुसार गुरुदक्षिणा में १४ कोटि सुवर्ण मुद्राएँ लाने के लिए गुरु वरुतन्तु ने आबा दी है लेकिन आपकी गरीबी देखकर मैं तो अत्यन्त निराश हो गया हूँ।' यह सुनकर रघु ने उनसे कहा'भगवन् ! कुछ काल मेरी यज्ञशाला में आप ठहरने की कृपा करें, मैं तब तक उसके लिए मरसक चेष्टा करता हूँ ।" इस तरह उनको आश्वासन देकर कुबेर से धन देने की कामना से महाराज रघु एक रथ पर शस्त्रों को सजाकर रात में उसी पर सो गये। सबेरे खजान्ची ने खजाने में अकस्मात् स्वर्णवर्षण की बात कही। यह सुनकर राजा ने कौत्स को बुलाकर सारो स्वर्णराशि दे दी । कौत्स ने बड़ी प्रसन्नता से गुरु को देने योग्य धन लेकर राजा रघु को आशीर्वाद देते हुए कहा - 'राजन् ! आपके लिए कोई भी वस्तु मलम्य नहीं है इसलिए आप अपने स्वरूप के अनुरूप पुत्र प्राप्त करें ।' यह कहकर कौत्स चले गये । बाद में राजमहिषी ने एक दिन ब्राह्ममुहूर्त में पुत्र उत्पन्न किया । उसी पुत्र का नाम 'अज' पड़ा। क्रमशः अज ने अपना बाल्यकाल बिताकर सब कला-कौशलों और विद्याओं को पढ़कर भोज राजा की बहन के स्वयंवर - वृत्तान्त को उसके भृत्य द्वारा जानकर रघु से प्रेरित होकर ' क्रथकैशिकों के प्रति सैनिकों के साथ प्रस्थान किया । मार्ग में वे नर्मदा तट पर तम्बू लगाकर ठहरे ही थे, कि एक जङ्गली हाथी उनके घोड़े - हाथियों को विद्रावित करता हुआ वहाँ आ पहुँचा। अज ने उसको एक बाण मारा। बाण लगते ही वह हाथी रूप बदलकर गन्धर्वरूप धारण कर अज के सामने खड़ा होकर बोला – 'राजकुमार ! मैं प्रियदर्शन का पुत्र प्रियंवद नाम का गन्ध हूँ। मैंने मतङ्गनाम मुनि को गर्व से अपमानित किया था जिस पर उन्होंने शाप दे दिया और प्रार्थना करने पर मुनि ने आपके बाण से ह विद्ध होकर उक्त हाथी के शरीर से छुटकारा पाने का वर दिया था। उसी वरदान का यह फल है। मैं प्रसन्नता से आपको गन्ध भखा देता हूँ। इसके प्रभाव से शत्रुओं पर शत्र प्रहार के बिना ही आप विजय प्राप्त करेंगे ।' यह सुनकर अब उस अस्त्र को ग्रहण कर आगे चले और थोड़े ही काल में भोज की राजधानी में पहुँचे। उनका मन इन्दुमती में ऐसा आसक्त हो गया था कि उसकी चिन्ता से रात में बहुत देर के बाद उन्हें नींद आई। सबेरे उठकर दैनिक कृत्य सम्पन्न करके वे सभा में जाने के लिये प्रस्तुत हुए । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् सञ्जीविनी-सुधा-इन्दु-टीकोपेतम् प्रथमः सर्गः मातापितृभ्यां जगतो नमो वामार्धजानये । सद्यो दक्षिणहक्पातसङ्कुचद्वामदृष्टये ॥१॥ अन्तरायतिमिरोपशान्तये शान्तपावनमचिन्त्यवैभवम् ।। तन्नरं वपुषि कुञ्जरं मुखे मन्महे किमपि तुन्दिलं महः ॥२॥३(' शरणं करवाणि शर्मदं ते चरणं वाणि ! चराचरोपजीव्यम् । करुणामसृणैः कटाक्षपातैः कुरु मामम्ब ! कृतार्थसार्थवाहमु ॥३॥ -n. वाणी काणभुजीमजीगणदवाशासीच्च वैयासिकी. min,' मन्तस्तन्त्रमरंस्त पन्नगगवीगुम्फेषु वाजागरीत् । aja) वाचामाकलयद्रहस्यमखिलं यश्चाक्षपादस्फुरां- लोकेऽभूद्यदुपज्ञमेव विदुषां सौजन्यजन्यं यशः ॥४॥ मल्लिनाथकविः सोऽयं मन्दारमानुजिघृक्षया। व्याचष्टे कालिदासीयं काव्यत्रयमनाकुलम् ॥५॥ कालिदासगिरां सारं कालिदासः सरस्वती। चतुर्मुखोऽथवा साक्षाद्विदुर्नान्ये तु. मादृशाः ॥ ६ ॥ तथापि दक्षिणावर्तनाथाद्यैः तुण्णवर्मसु । वयं च कालिदासोक्तिववकाशं लभेमहि ॥७॥ भारती कालिदासस्य दुर्व्याख्याविषमूर्छिता। एषा सञ्जीविनी टीका तामद्योजीवयिष्यति ॥८॥ इहान्वयमुखेनैव सर्व व्याख्यायते मया। नामूलं लिख्यते किञ्चिन्नानपेदितमुच्यते ॥९॥ इह खलु सकलकविशिरोमणिः कालिदासः। (काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरचतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे) इत्यायालङ्कारिकवचनप्रामाण्यात्काव्यस्यानेकश्रेयःसाधनता, (काव्यालापांश्च वर्जयेद्) इत्यस्य निषेध शास्त्रस्यासत्काव्यविषयतां च पश्यन् रघुवंशाख्यं महाकाव्यं चिकीर्षुः, चिकीर्षितार्थाविनपरिसमाप्तिसंप्रदायाविच्छेदलक्षणफलसाधनभूतविशिष्टदेवतानमस्कारस्य शिष्टा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम्-- [ प्रथमःचारपरिप्राप्तत्वाद्, (आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वाऽपि तन्मुखम्) इत्याशीर्वादाधन्यनमस्य प्रवन्धमुखलक्षणत्वात्, काव्यनिर्माणस्य विशिष्टशब्दार्थप्रतिपत्तिमूल. कत्वेन विशिष्टशव्दार्थयोश्च (शब्दजातमशेपं तु धत्ते शर्वस्य वल्लभा । अर्थरूपं यदखिलं धत्ते सुग्धेन्दुशेखरः) इति वायुपुराणसंहितावचनवलेन पार्वतीपरमेश्वरायत्तदर्शनात्तत्प्रतिपित्सया तावेवाभिवादयते वागर्थाविव संपत्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दै पावनीपरमश्वरौ ॥१॥ सञ्जी०-वागिति । वागर्थाविवेत्येकं पदम् । इवेन सह नित्यसमासो विभक्त्यलोपश्च पूर्वपदग्रकृतिस्वरत्वं चेति वक्तव्यम् । एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् । वागर्थाविव शब्दार्थाविव सम्पृक्तौ नित्यसम्बद्धावित्यर्थः। नित्यसम्बद्धयोरुपमानत्वेनोपादानात् 'नित्यः शब्दार्थसम्बन्धः' इति मीमांसकाः। जगतः लोकस्य पितरौं । माता च पिता च पितरौ । 'पिता मात्रा' इति द्वन्द्वैकशेषः । 'मातापितरौ पितरौ मातरपितरौ प्रसूजनयितारौ' इत्यमरः । एतेन शर्वशिवयोः सर्वजगजनकतया वैशिष्टयमिष्टार्थप्रदानशक्तिः परमकारुणिकत्वं च सूच्यते । पर्वतस्यापत्यं स्त्री पार्वती 'तस्यापत्यम्' इत्यण। 'टिड्ढाणजद्वयसजनज०' इत्यादिना डीप । पार्वती च परमेश्वरश्च पार्वतीपरमेश्वरी । परमशब्दः सर्वोत्तमत्वद्योतनार्थः । मातुरभ्यर्हितत्वादल्पाक्षरत्वाच्च पार्वतीशब्दस्य पूर्वनिपातः । वागर्थप्रतिपत्तये. शब्दार्थयोः सम्यग्ज्ञानार्थं वन्देऽभिवादये अनोपमाऽलङ्कारः स्फुट एव । तथोक्तं-(स्वतः सिद्धेन भिन्नेन सम्पन्नेन च धर्मतः । साध्यमन्येन वय॑स्य वाच्यं चेदेकगोपमा ॥) इति प्रायिकश्योपमाऽलङ्कारः कालिदासोक्तकाव्यादौ । भूदेवताकस्य सर्वगुरोर्मगणस्य प्रयोगाच्छुभलाभः सूच्यते । तदुक्तं 'शुभदो मो भूमिमयः' इति । वकारस्यामृतबीजत्वात्प्रचयगमनादिसिद्धिः ।। प्रेम्णा प्रेमनिधेः प्रणम्य चरणाम्भोजातयुग्मं गुरोस्तत्कारुण्यकणानवाप्य करुणापूर्णा विमूढात्मनि । कान्येऽस्मिन् रघुवंशनामनि ननु व्याख्यां सुधाख्यामिमां गुर्वज्ञानगरागंलां गुरुतरां कुर्मों यदप्यक्षमाः ॥ अ०–'अहं कालिदासः' वागविव, सम्पृक्तौ, जगतः, पितरौ, पार्वतीपरमेश्वरी, वागर्थप्रतिपत्तये, वन्दे ॥ वाच्यान्तम्-'मया' वागर्थाविव सम्पृक्तौ जगतः पितरौ पार्वतीपरमेश्वरी वागर्थप्रतिप्रत्तये वन्ते ॥ _ सुधा-'अहमित्यस्य कर्तृपदस्य क्रिययाऽऽक्षेपः कर्तव्यः' । वागर्थाविव= शब्दाभिधेयाविव, सम्पृक्तौ =सततमनुवाद्वौ, जगतःलोकस्य, पितरौ मातापितरौ, पार्वतीपरमेश्वरौ = गिरिजामहेश्वरी, वागर्थप्रतिपत्तये = शब्दार्थोभयसम्यगज्ञानार्थ, वन्दे प्रणमामि । यथा वागर्थी नित्यसम्बद्धौ तथैव लोकस्योत्पादकौ उमामहेश्वरी, अतः शब्दार्थयोः सम्यक्तरेण ज्ञानार्थ तौ स्तुव इति भावः॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | समासादिः - वाक् च अर्थश्च वागर्थौ वागर्थयोः प्रतिपत्तिर्वागर्थप्रतिपत्तिस्तस्यै वागर्थप्रतिपत्तये, ईशितुं शीलमस्येतीश्वरः परमश्चासावीश्वरः परमेश्वरः । ३ को० - 'ब्राह्मी तु भरती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती' इत्यमरः । ' अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु' इति चामरः । 'अथो जगती लोको, विष्टपं भुवनं जगद्' इत्यमरः । ता० - पार्वतीपरमेश्वरौ प्रसन्नौ भूत्वा मह्यं काव्यनिर्माणशक्तिं प्रदत्तामतोऽहं 'कालिदासनामा' कविः स्वकाव्यविषये विशिष्टशब्दार्थयोर्ज्ञानार्थं तयोरधीश्वरौ पार्वतीपरमेश्वरौ वन्दे | इन्दुः- शब्द और अर्थ की तरह नित्य मिले हुये, संसार के माता पिता, उमा और महेश्वर को 'मैं कालिदास नामक ग्रन्थकर्ता महाकवि' शब्द और अर्थ का भली भाँति ज्ञान होने के लिये नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ सम्प्रति कविः स्वाहङ्कारं परिहरति 'क्व सूर्य' - इत्यादिश्लोकद्वयेन क? सूयप्रभवो वशः क ? चाल्पविषया मतिः । तिन दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् || २ || सञ्जी० – केति । प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः कारणम् । 'ऋदोरप्' | 'अकर्तरि च करके संज्ञायाम्' इति साधुः । सूर्यः प्रभवो यस्य स सूर्यप्रभवो वंशः क ? अल्पो विषयो ज्ञेयोऽर्थो यस्याः सा मे मतिः प्रज्ञा च क ? हौ क्कशब्दौ महदन्तरं सूचयतः सूर्यवंशमाकलयितुं न शक्नोमीत्यर्थः । तथा च तद्विषयप्रबन्धनिरूपणं तु दूरापास्तमिति भावः । तथा हि । दुस्तरं तरितुमशक्यम् 'ईषदुः सुपु०' इत्यादिना खल्मत्ययः । सागरं मोहादज्ञानादुडुपेन प्लवेन । 'उडुपं तु प्लवः कोलः इत्यमरः । अथवा चर्मावनद्धेन यानपात्रेण । 'चर्मावनद्धमुडुपं प्लवः काष्ठं करण्डवत्' इति सज्जनः । तितीर्षुस्तरीतुमिच्छुरस्मि भवामि । तरतेः सन्नन्तादुप्रत्ययः । अल्पसाधनैरधिकारम्भो न सुकर इति भावः । इदं च वंशोत्कर्षकथनं स्वप्रबन्धमहत्त्वार्थमेव । तदुक्तम्'प्रतिपाद्यमहिना च प्रबन्धो हि महत्तरः ।' इति । 1 अ० ० - सूर्यप्रभवः, वंशः, कृ, अल्पविषया, 'मम' मतिश्च, क, 'अहम्' मोहाद्, उडुपेन, दुस्तरं, सागरं, तितीर्षुः अस्मि । वा० ० - सूर्यप्रभवेण वंशेन व 'भूयते' अल्पविषयया 'मम' मत्या चक्क 'भूयते' "मया' मोहादुडुपेन दुस्तरं सागरं तितीर्षुणा भूयते । सुधा० - सूर्यप्रभवः = दिवाकरोत्पन्नः, वंशः = कुलं ( सूर्यवंश इति भावः ) । छ= कुत्र, अल्पविषया = स्तोकज्ञेयार्था, (परिमित पदार्थग्रहणक्षमेति भावः ) । 'मम' मतिश्च = बुद्धिश्च, क= कुत्र, अनयोर्महदन्तरम् ( अतस्तद्वंश्य चरितानुकीर्तनमशक्यमिति भावः ) । ' अहम्' मोहाद् = अज्ञानाद्, उडुपेन=प्लवेन, चर्मावनद्धयानपात्रेण वा दुस्तरं=दुःखेनापि तरितुं शक्यं, सागरं = समुद्रं, तितीर्षुः = तरितुमिच्छुः, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ रघुवंश महाकाव्यम् - अस्मि = भवामि, अल्पसाधनैरधिकारम्भो न सुकर इति भावः । स० ― गरेण सहोत्पन्नः सगरः तेन निर्वृत्तः सागरस्तं सागरम् । - को० – 'बुद्धिर्मनीषा धिपणा धीः प्रज्ञा शेमुषी मतिः' इत्यमरः । सरस्वान् सागरोऽर्णवः' इत्यमरः । ता०-- सूर्यवंशस्याल्पविषयाया मन मतेश्च महत्यन्तरे सत्यपि सूर्यवंशवर्णने मदीया प्रवृत्तिश्चर्मावनद्वयानपात्रेण सागरतरणमिव हास्यविषयेति । [ प्रथमः इन्दुः- कहौं तो सूर्य से उत्पन्न हुआ वंश, और कहाँ थोड़े विषयों का ग्रहण करनेवाली मेरी बुद्धि, अतः असका वर्णन करने में मैं अज्ञान से पनसुहिया डोंगी द्वारा दुस्तर सागर पार करने की इच्छा करनेवाले की भाँति हूँ ॥ २ ॥ * मन्दः ( १ ) सन् महाकाव्यं चिकीर्षुः कविः स्वासामर्थ्यं कथयति— मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् । प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुरिव वामनः ॥ ३ ॥ सञ्जी० - मन्द इति । किं च मन्दो मूढः । ' मूढात्पापनिर्भाग्या मन्दाः स्युः" इत्यमरः । तथाऽपि कवियशःप्रार्थी । कवीनां यशः काव्यनिर्माणेन जातं तत्प्रार्थनाशीलोऽहं प्रांशुनोन्नतपुरुषेण लभ्ये प्राप्ये फले फलविषये लोभादुद्वाहुः फलग्रहणायोच्छ्रितहस्तो दामनः खर्व इव । 'सर्वो इस्वश्च वामनः' इत्यमरः । उपहास्यतामुप• हासविषयताम् । 'ऋहलोर्ण्यत्' इति ण्यत्प्रत्ययः । गमियामि प्राप्स्यामि । अ० - मन्दः 'तथाऽपि' कवियशःप्रार्थी, 'अहं' प्रांशुलभ्ये, फले, लोभाद्, उद्वाहुः, वामन, इव, उपहास्यतां गमिष्यामि । वा० - मन्देन कवियशः प्रार्थिना 'मया' प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुना वामनेनेवोपहास्यता गंस्यते । सुधा०--'किञ्च' मन्दः = मूढः, 'तथाऽपि' कवियशः प्रार्थी = काव्य कर्तृकीर्तिकाङ्क्षी, 'अहं' प्रांशुलभ्ये = उन्नतपुरुषप्राप्ये, फले = फलविषये, लोभात् = प्राप्तीच्छया, उद्वाहुः = उच्छ्रितहस्तः, वामनः = खर्वः, इव = यथा, उपहास्यताम् = उपहासवि षयतां, गमिष्यामि प्राप्स्यामि । स०—– कवयन्तीति कवयः तेषां यशः कवियशः तत् प्रार्थयितुं शीलमस्य स कवियशः प्रार्थी । लब्धुं योग्यं लभ्यं प्रकृष्टा अंशवो यस्यासौ प्रांशुः तेन लभ्यं प्रांशुलभ्यं तस्मिन् प्रांशुलभ्ये । उदुच्छ्रितौ बाहू यस्य स उद्वाहुः । को० - 'धीरो मनीपो ज्ञः प्राज्ञः सङ्ख्यावान् पण्डितः कविः' इत्यमरः । 'यशः कीर्तिः समज्ञा च' इत्यमरः । 'उच्चप्रांशुन्नतोदग्रोच्छ्रितास्तुङ्गे' इत्यमरः । ता०—उन्नतपुरुषप्राप्यफलस्य ग्रहणे वामनो यथोपहास्यो भवति, तथैव विशिटकविवर्णनीयचरितस्य रघुकुलस्य वर्णनेऽहमुपहास्यो भविष्यामीति । इन्दुः- कवियों के यश पाने की इच्छा करनेवाला, मन्दबुद्धि मैं हँसी को पाऊँ।। (१) यत्रावतरणम् एतच्चिद्देन तत् 'सुधा' काररचितं ज्ञेयम् । * Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । जैसे कि लम्बे पुरुषं के हाथ लगने योग्य फल की ओर लोभ से ऊपर हाथ किया हुआ बौना ॥३॥ मन्दश्चेत्तर्हि त्यज्यतामयमुद्योग इत्यत आह अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन्पूर्वसूरिभिः ।। मणौ वज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः ।। ४ ॥ सञ्जी०-अथवेति । अथवा पक्षान्तरे पूर्वैः सूरिभिः कविभिल्मीक्यादिभिः कृतवाग्द्वारे कृतं रामायणादिप्रवन्धरूपा या वाक्सव द्वारं प्रवेशो यस्य तस्मिन् । अस्मिन्सूर्यप्रभवे वंशे कुले । जन्मनेमलक्षणः सन्तानो वंशः । वज्रेण मणिवेधकसूचीविशेषेण । 'वज्र, स्वस्त्री कुलिशशस्त्रयोः । मणिवेधे रत्नभेदे' इति केशवः । समुत्कीर्णे विद्धे मणौ रत्ने सत्रस्येव मे मम गतिः सञ्चारोऽस्ति । वर्णनीये रघुवंशे मम वाक्प्र. सरोऽस्तीत्यर्थः।। अ०-अथवा, पूर्वसूरिभिः कृतवाग्द्वारे, अस्मिन्, वंशे, वज्रसमुत्कीर्णे, मणौ, सूत्रस्य, इव, मे, गतिः, अस्ति वा०-अथवा पूर्वसूरिभिः कृतवारद्वारेऽस्मिन् वंशे वज्रसमुत्कीर्णे मणौ सूत्रस्येव मे गत्या भूयते । सुधा-अथवा = पतान्तरे, पूर्वसूरिभिः = प्राचीनकविभिः 'वाल्मीक्यादिभिः इति यावत्, कृतवारद्वारे = रचितबन्धात्मकवचनप्रवेशे, अस्मिन् = एतस्मिन् 'सूर्यप्रभवे' इति यावद्, वंशे = कुले, वज्रसमुत्कीर्णे =मणिवेधकसूचीविशेषविद्ध, मणौ = रत्ने, सूत्रस्य तन्तोः, इव = यथा, मेमम, गतिः=सञ्चारः, अस्तिवर्तते । वर्णनीये रघुवंशे मम वाक्प्रसरोऽस्तीति भावः। स०-वक्तीति वाक सैव द्वारं वाग्द्वारं कृतं वाग्द्वारं यस्य स कृतवाग्द्वारस्तस्मिन् कृतवारद्वारे, वज्रेण समुत्कीर्णः वज्रससुत्कीर्णस्तस्मिन् वज्रसमुत्कीर्णे। को०-'गीर्वाग्वाणी सरस्वती' इत्यमरः । 'स्त्री द्वार प्रतीहारः स्याद्' इत्यमरः । 'वंशोऽन्ववायः सन्तानः' इत्यमरः । 'पूर्वोऽन्यलिङ्गः प्रागाह पुम्बहुत्वेऽपि पूर्वजान्' इत्यमरः । 'धीमान् सूरिः कृती कृष्टिलब्धवर्णो विचक्षणः' इत्यमरः। 'रत्नं मणिद्वयोरश्मजातौ मुक्ताऽऽदिकेऽपि च' इत्यमरः । 'सूत्राणि नरि तन्तवः' इत्यमरः।। __ ता०-यथा मणिवेधकसूचीविद्धे मणौ सूत्रस्य सञ्चरणं भवति, तथैव वाल्मीक्यादिकृतरामायणरूपप्रबन्धात्मकवचनप्रवेशेऽस्मिन् सूर्यवंशे ममापि सञ्चरणमस्तीति । ___इन्दुः-अथवा पहले के कवियों (वाल्मीकि आदिकों) के द्वारा वर्णन किये हुए रामायण प्रबान्धात्मक द्वारवाले, सूर्यवंशमे, मणिवेधनेवाले सूचीविशेष से वेध किये हुए मणि में सूत्र की भाँति मेरी गति है ॥ ४॥ ___एवं रवंघुशे लब्धप्रवेशस्तवर्णनां प्रतिजानानः 'सोऽहम्' इत्यादिभिः पञ्चभिः श्लोकः कुलकेनाह सोऽहमाजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणाम् | Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् । [प्रथम:आसमुद्रक्षितीशानामानाकरथवर्त्मनाम् ॥५॥ सञ्जी-स इति । सोऽहं 'रघूणामन्वयं वक्ष्ये' इत्युत्तरेण सम्बन्धः । किं विधानां रघूणामित्यत्रोत्तराणि विशेषणानि योज्यानि । आजन्मनः। जन्मारभ्येत्यर्थः । 'आङ् मर्यादाभिविध्योः' इत्यव्ययीभावः। शुद्धानाम् । सुप्सुपेति समासः । एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। आजन्मशुद्धानाम् । निषेकादिसर्वसंस्कारसम्पन्नानामित्यर्थः । आफलोदयमाफलसिद्धेः कर्म येपां ते तथोक्तास्तेषाम् । प्रारब्धान्तमिनामित्यर्थः । आसमुद्र क्षितेरीशानाम् । सार्वभौमाणमित्यर्थः। आनाकं रथवर्त्म येषां तेषाम् । इन्द्रसहचारिणामित्यर्थः। अत्र सर्वत्राङोऽभिविध्यर्थत्वं द्रष्टव्यम् । अन्यथा मर्यादाs र्थत्वे जन्मादिषु शुद्धयभावप्रसङ्गात् । ____अ०-सः, अहम्, आजन्मशुद्धानाम् आफलोदयकर्मणाम्, आसमुद्रक्षितीशानाम, आनाकरथवर्मनां, 'रधूणाम्, अन्वयं, वक्ष्ये' इत्युत्तरेण सम्बन्धः (१)। सुधा-सामन्दः, अहं ग्रन्थकर्ता, कालिदासकविरिति यावत् । 'रघूणामन्वयं वचये' इत्युत्तरेण सम्बन्धः । किंविधानां रघूणामित्यत्रोत्तराणि विशेषणानि योज्यानि कुलकत्वाद् । आजन्मशुद्धानां जन्मारभ्य, निषेकादिनिखिलसंस्कारसंस्कृतानाम्, आफलोदमकर्मणाम् फलसिद्धिपर्यन्तं व्यापारवताम्, आसमुद्रक्षितीशानाम् = अधिपर्यन्तं धराधीश्वराणां चक्रवर्तिनामिति यावद्, आनाकरथवर्त्मनां स्वर्गपर्यन्तं स्यन्दनसञ्चरणवताम् ।। स०-जन्मनः आ आरभ्येत्याजन्म आजन्मना शुद्धाआजन्मशुद्धास्तेषामाजन्मशुद्धानाम् फलस्योदय इति फलोदयः फलोदयमभिच्याप्येत्याफलोदयम् आफलोदयं कर्म येषान्ते आफलोदयकर्माणस्तेषामाफलोदयकर्मणाम् । क्षितेरीशाः क्षितीशाः समुद्रमभिव्याप्येत्यासमुद्रम् आसमुद्र क्षितीशाः, आसमुद्रक्षितीशास्तेषामासमुद्रक्षितीशानाम् । रथस्य वर्म रथवर्मन अकं दुःखं विद्यते यत्र स नाकः नाकमभिव्याप्य आनाकर आनाकं रथवर्म येषान्ते आनाकरथवानस्तेषाम् आनाकरथवर्मनाम् ॥ ___ को-'धरा धरित्री धरणिः क्षोणिा काश्यपी क्षितिः' इत्यमरः । 'स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः इत्यमरः। 'याने चक्रिणि युद्धार्थं शताङ्गः स्यन्दनी रथः' इत्यमरः । 'अयनं वर्ममार्गाध्वपन्थानः पदवी सृतिः' इत्यमरः।। ता०--सोऽहं निषेकादिसंस्कारशुद्धानां प्रारब्धान्तर्गामिनां सार्वभौमाणां सदेहस्वर्गगामिनां 'रघूणामन्वयं वक्ष्ये' इत्युत्तरत्रापि योज्यम् ।। इन्दुः-वह 'मन्दबुद्धि' में 'कालिदास' जन्म से निषेकादिसंस्कारों से शुद्ध, फल की सिद्धिपर्यन्त कर्म करनेवाले, समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का शासन करनेवाले स्वर्ग तक रथ के मार्गवाले 'रघु के वंश को कहता हूँ' यह आगे के तीन श्लोकों में (१) इत्यत आरभ्य चतुर्पु श्लोकेपु योग्यताविरहाद् वाच्यान्तरं न ज्ञातव्यम्, किन्वतः पञ्चमे ('रघूणामन्वयमिति) श्लोके द्रष्टव्यम् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | भी लगाना चाहिये। कुलक होने से यहाँ से पाँचवें श्लोक में से इस अर्थ का आक्षेप किया जाता है ॥५॥ यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामाचिताथिनाम | यथाऽपराधदण्डानां यथाकाल प्रबोधिनाम ॥६॥ सञ्जी०-यथेति । विधिमनतिक्रम्य यथाविधि । 'यथाऽसादृश्ये' इत्यव्ययीभावः । तथा हुतशब्देन सुप्सुपेति समासः। एवं 'यथाकामार्चित-इत्यादीनामपि द्रष्टव्यम् यथाविधि हुता अग्नयो यैस्तेषाम् । यथाकाममभिलाषमनतिक्रम्यार्चितार्थिनाम् । यथाऽपराधमपराधमनतिक्रम्य दण्डो येषां तेषाम् । यथाकालं कालमनतिक्रम्य प्रबोधिनां प्रबोधनशीलानाम् । चतभिर्विशेषणैर्देवतायजनार्थिसत्कारदण्डधरत्वप्रजापालनसमयजागरूकत्वादीनि विवक्षितानि । ___ अ०-यथाविधिहुतानीनां, यथाकामार्चितार्थिनां, यथाऽपराधदण्डानां, यथाकालप्रबोधिनाम् । सुधा-यथाविधिहुताग्नीनां विधिमनतिक्रम्य, शास्त्ररीत्येति यावत्, तर्पितपावकानां यथाकामार्चितार्थिनां अभिलाषमनतिक्रम्य पूजितयाचकानां, यथाऽपराधदण्डानाम् = अपराधमनतिक्रम्य 'अपराधानुसारेण' इति यावद्, दण्डप्रदानां, यथाकालप्रबोधिनां= कालमनतिक्रम्य 'उचितसमये' इति यावद्, जागरूकाणां, 'दत्तावधानानाम्' इति यावत् । स०-विधिमनतिक्रम्येति यथाविधि यथाविधि हुताः, यथाविधिहुताः यथा विधिहता अग्नयो यैस्ते यथाविधिहुताग्नयस्तेषां यथाविधिहुताग्नीनाम् । काममनतिक्रम्य यथाकामम् यथाकामम् अर्चिता यथाकामार्चिताः यथाकामार्चिता अर्थिनोयैस्ते यथाकामार्चितार्थिनस्तेषां यथाकासार्चितार्थिनाम् । अपराधमनतिक्रम्ययथाऽपराधं यथाऽपराधं दण्डो येषान्ते यथाऽपराधदण्डास्तेषां यथाऽपराधदण्डानाम्, यथाकालं प्रबोधिनो यथाकालप्रबोधिनस्तेषां यथाकालप्रवोधिनाम् । को-'विधिविधाने देवेऽपि' इत्यमरः। 'कामं प्रकामं प्रर्याप्त निकामेष्टं यथेप्सितम्' इति । 'इच्छामनोभवौ कामौ' इति चामरः। 'स्यादर्हिते नमस्थितनमसितमपचायितार्चितापचितम्' इत्यमरः। 'वनीयको याचनको मार्गणो याचकार्थिनौ' इत्यमरः । 'आगोऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः। 'कालो दिष्टोऽप्यनेहाऽपि समयोऽपि' इत्यमरः। ता०-शास्त्ररीत्या यज्ञकर्तृणाम् अतिथिसत्कारपरायणानां दुष्टनिग्रहकराणां प्रजापालनसमये जागरूकाणाम् । इन्दुः-विधिपूर्वक अग्नि में आहुति देनेवाले, इच्छानुसार याचकों का सम्मान करनेवाले, अपराध के अनुसार दण्ड देनेवाले, उचित समय पर सावधान रहनेवाले ॥६॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् । यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥ ७ ॥ सञ्जी० -- त्यागायेति । त्यागाय सत्पात्रे विनियोगस्त्यागस्तस्मै । ' त्यागो विहापितं दानम्' इत्यमरः । संभृतार्थानां सञ्चितधनानाम् । न तु दुर्व्यापाराय । सत्याय मितभाषिणां मितभाषणशीलानाम् । न तु पराभवाय । यशसे कीर्तये । 'यशः कीर्तिः समज्ञा च' इत्यमरः । विजिगीपूणां विजेतुमिच्छूनाम् । न त्वर्थसंग्रहाय । प्रजायै संतानाय गृहमेधिनां दारपरिग्रहाणाम् । न तु कामोपभोगाय । अत्र 'श्यागाय' इत्यादिषु 'चतुर्थी तदर्थार्थ०' इत्यादिना तादर्थे चतुर्थीसमासविधानज्ञापकाच्चतुर्थी । गृहैर्दारैर्मेधन्ते सङ्गच्छन्त इति गृहमेधिनः । ' दारेष्वपि गृहाः पुंसि' इत्यमरः । 'जाया च गृहिणी गृहम्' इति हलायुधः । 'मेष्ट संगमे' इति धातोर्णिनिः । एभिर्विशेषणेः परोपकारित्वं सत्यवचनत्वं पितॄणां शुद्धत्वं च विवक्षितानि । भ० - त्यागाय, सम्भृतार्थानां सत्याय, मितभाषिणां यशसे, विजिगीषूणाम्, प्रजायै, गृहमेधिनाम् । सुधा-त्यागाय =सत्पान्ने दानाय, सम्भृतार्थानां सञ्चितधनानां, न तु दुर्व्यापारायेति भावः । सत्याय = यथार्थाय मितभाषिणां नाधिकभाषणशीलानां न तु पराभवायेति भावः । यशसे = कीयै, विजिगीपूणां = विजयेच्छुकानां, नत्वर्थसङ्ग्रहायेति भावः । प्रजायै = सन्तत्यै, गृहमेधिनां कृतदारपरिग्रहाणां न तु कामोपभोगायेति भावः ॥ स० 10 - गर्हन्ते गृह्णन्ति वा धान्यादिकमिति गृहाः तैर्दारैर्मेधितुं शीलमेषां ते गृहमेधिनस्तेषां गृहमेधिनाम् ॥ ता०-ग्रहाणाम् ॥ कोप - 'अर्थी हेतौ प्रयोजने । निवृत्तौ विषये वाच्ये प्रकारद्रव्यवस्तुषु' इति हैमः। ‘सत्यं तथ्यमृतं सम्यग्' इत्यमरः । 'प्रजा स्यात् सन्ततौ जने' इत्यमरः । ० – परोपकारिणां सत्यभाषिणां यशोधनानां पूर्वपुरुपोद्धारार्थकृतदारपरिइन्दुः-- सत्पात्र में दान देने के अर्थ धन इकट्ठा करनेवाले यश के अर्थ विजय चाहनेवाले, सन्तान के अर्थ विवाह करनेवाले ॥ ७ ॥ शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवनं विषयैषिणाम् । is [ प्रथमः वार्धके मुनिवृत्तीन' योगनान्ते तनुत्यजाम् ॥ ८ ॥ सञ्जी० - शैशव इति । शिशोर्भावः शशवं बाल्यम् । 'प्राणभृज्जातिवयोवचनोद्वान्न०' इत्यन्प्रत्ययः । ‘शिशुत्वं शैशवं वाल्यम्' इत्यमरः । तस्मिन्वयस्यभ्यस्त विद्यानाम् । एतेन ब्रह्मचर्याश्रमो विवक्षितः । यूनो भावो यौवनं तारुण्यम् । युवादित्वादण्प्रत्ययः । ' तारुण्यं यौवनं समम्' इत्यमरः । तस्मिन्वयसि विषयैषिणां भोगाभिलाषिणाम् । एतेन गृहस्थाश्रमो विवचितः । वृद्धस्य भावो वार्द्धकं वृद्धत्वम् । 'द्वन्द्वम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | नोज्ञादिभ्यश्च' इति वुन्प्रत्ययः। 'वार्द्धकं वृद्धसंघाते वृद्धत्वे वृद्धकर्मणि' इति विश्वः । 'सङ्घातार्थेऽत्र वृद्धाच्च' इति वक्तव्यात्सामूहिको वुञ्। तस्मिन्वार्द्धके वयसि मुनीनां वृत्तिरिव वृत्तिर्येषां तेषाम् । एतेन वानप्रस्थाश्रमो विवक्षितः। अन्ते शरीरत्यागकाले योगेन परमात्मध्यानेन । 'योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु' इत्यमरः। तनुं देहं त्यजन्तीति तनुत्यजां देहत्यागिनाम् । 'कायो देहः क्लीवपुंसोः स्त्रियां मूर्तिस्तनुः स्तनूः' इत्यमरः । 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' इति क्विप्। एतेन भिच्वाश्रमो विवक्षितः॥ ___अ०-शैशवे, अभ्यस्तविद्यानां, यौवने, विषयैषिणाम्, वार्द्धके, मुनिवृत्तिनाम्, अन्ते, योगेन, तनुत्यजाम् ॥ सुधा-शैशवे = बाल्ये वयसि, अभ्यस्तविद्यानां = पठितशास्त्राणां, यौवने = तारुण्ये वयसि, विषयैषिणां=भोगकाङ्क्षिणाम, वार्द्धके = जरायां वयसि, मुनिवृत्तीनाम् = ऋषितुल्याचरणानाम्, अन्ते = तनुत्यागसमये, योगेन = चित्तवृत्तिनिरोधेन, तनुत्यजां= शरीरत्यागिनाम् ॥ स०-अभ्यस्ता विद्या यैस्तेऽभ्यस्तविद्यास्तेषाम् अभ्यस्तविद्यानाम् । मन्यन्ते वेदशास्त्रार्थतत्त्वानीति मुनयः तेषां वृत्तिरिव वृत्तिर्येषान्ते मुनिवृत्तयस्तेषां मुनिवृत्तीनाम् ॥ * को-'विषयो यस्य यो ज्ञातस्तत्र शब्दादिकेष्वपि' इत्यमरः ।'वाचंयमो मुनिः' इत्यमरः। 'आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने' इत्यमरः । 'अन्तो जघन्यं चरममन्त्यपाश्चात्यपश्चिमाः' इति, 'अन्तो नाशो द्वयोर्मृत्युर्मरणं निधनोऽस्त्रियाम्' इति चामरः। ता-बाल्ये ब्रह्मचर्याश्रमिणां, यौवने गृहस्थाश्रमिणां, वार्द्धकं वानप्रस्थाश्रमिणां, शरीरत्यागसमये भिवाश्रमिणाम् ।। इन्दुः-बालकपन में विद्या सीखनेवाले,युवावस्था में भोग की अभिलाषा रखने वाले, बुढ़ापे में मुनियों की तरह जीविका रखनेवाले, अन्त में (शरीर त्याग करने के समय) योग से (चित्तवृत्तिके निरोध से) शरीर त्याग करनेवाले ॥ ८ ॥ रघणामन्वय वक्ष्ये तनुवाग्विभवोऽपि सन् । तद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः ।। ६॥ सञ्जी०-रघूणामिति । सोऽहं लब्धप्रवेशः। तनुवाग्विभवोऽपि स्वल्पवाणीप्रसारोऽपि सन् । तेषां रघूणां गुणैस्तद्गुणैः। आजन्मशुद्धयादिभिः कर्तृभिः कर्णं मम श्रोत्रमागत्य चापलं चपलकर्माविमृश्यकरणरूपं कर्तुम् । युवादित्वात्कर्मण्यण । "क्रियाऽर्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः' इत्यनेन चतुर्थी। प्रचोदितः प्रेरितः सन् । रघूणामन्वयं तद्विषयप्रबन्धं वक्ष्ये ॥ कुलकम् ॥ . अ०-'सः, अहं' तनुवाग्विभवः, अपि तद्गुणैः कर्णम्, आगत्य, चापलाय, प्रचोदितः, सन्, रघूणाम्, अन्वयं वचये ॥ वा०-तेन मया तनुवाग्विभवेनाऽपि तद्गुणैः कर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितेन सता, आजन्मशुद्धानामाफलोदयकर्मणा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम:मासमुद्रक्षितीशानामानाकरथवर्मनां यथाविधिहुताग्नीनां यथाकामार्चितार्थिनां यथाऽपराधदण्डानां यथाकालप्रबोधिनां त्यागाय सम्भृतार्थानां सत्याय मितभाषिणां यशसे विजिगीषूणां प्रजाय गृहमेधिनां शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयषिणाम् वाईके सुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजां, रघूणामन्वयो वक्ष्यते ॥ सुधा-'सोऽहं लब्धप्रवेशः' सोऽहमिति पदद्वयं पञ्चमश्लोकस्थमत्राध्याहृत्य व्याख्येयः श्लोकः। तनुवाग्विभवोऽपि = स्वल्पवचनैश्वर्योऽपि, तद्गुणैः रघुगुणैराजन्मशुद्धयादिभिः कर्तृभिः, कर्ण श्रोत्रम्, ममेति शेषः। आगत्य = प्राप्य, चापला य-चकुराय, चपलकर्म विचारमन्तरेण करणरूपं कर्तुमिति यावत् । प्रचोदितः प्रेरितः, सन् = भवन्, रघूणां = रघुवंश्यानां राज्ञामिति यावत् । अन्वयं = वंशं, तद्विषयकप्रबन्धमिति यावत् । वक्ष्ये = अभिधास्ये ॥ स०-वक्तीति वाक्, सैव विभवो वाग्विभवः, तनुर्वाग्विभवो यस्यासौ तनुवाग्विभवः॥ ___का०-'वंशोऽन्ववायः सन्तानः' इत्यमरः । 'तनुः काये त्वचि स्त्री स्यास्त्रिज्वल्पे विरले कृशे' इति मेदिनी । 'गीर्वाग्वाणी सरस्वती' इत्यमरः । 'विभवो रैमोक्षश्वर्य' इति मेदिनी । 'कर्णशब्दग्रही श्रोत्रं श्रुतिः स्त्री श्रवणं श्रवः इति । 'चपलश्चिकुरः समौ' इति चामरः॥ _ता--नामल्पवचनप्रसारः स्वयं रघुवंशविषयकप्रवन्धं रचयितुमुद्यतः, किन्तु रघुकुलगुणानां प्रेरणयेति ॥ इन्दुः-ऐसे रघुवंशियों के वंश को, मैं वाणी का वैभव थोड़ा होता हुए भी कान से सुनाई पड़े हुये, उन्हीं के गुणों के द्वारा विना विचार किये ही वर्णन करने के लिये, प्रेरणा किया हुआ कह रहा हूँ॥९॥ सम्पति स्वप्रबन्धपरीक्षार्थ सतः प्रार्थयतें तं सन्तः श्रोतुमहान्त सदसद्वयाक्तहेतवः । हेम्न संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा ॥१०॥ सञ्जी०- मिति । तं रघुवंशाख्यं प्रवन्धं सदसतोगुणदोपयोय॑केतवः कर्तारः सन्तः श्रोतुमर्हन्ति । यथा हि । हेन्ना विशुद्धिनिर्दोषस्वरूपं श्यामिकाऽपि लोहान्तरसंसर्गात्मको दोषोऽपि वाइसौ संलच्यते। नान्यत्र । तद्वदत्रापि सन्त एव गुणदोषविवेकाधिकारिणः । नान्य इति भावः । अन्वयः-सदसद्वयक्तिहेतवः, सन्तः, तं श्रोतुम्, अर्हन्ति, हि, हेम्नः, विशुद्धिः, श्यामिका, अपि, वा, अग्नौ, संलक्ष्यते । वा०--सदसद्वयक्तिहेतुभिः सद्भिः स श्रोतु. मद्यते, हि हेम्नो विशुद्धिं श्यामिकामपि वाऽग्नौ (सन्तः) संलक्षयन्ति ॥ _सुधा--सदसव्यक्तिहेतवः = गुणदोषविवेकविधातारः, सन्तः सुधियः, तं-रघुवंशाभिधं प्रवन्धं, श्रोतुम् =आकर्णयितुम्, अर्हन्ति = योग्या भवन्ति, हि = यतः, हेम्नः = सुवर्णस्य, विशुद्धिः-निर्दोषस्वरूपं, श्यामिकाऽपि नीलिकाऽपि, द्रव्यान्तर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | ११ संसर्ग रूपो दोषोऽपीति यावत् । वा=अथवा, अग्नौ वहौ, संलच्यते = संदृश्यते, नान्यत्र । (स० - सच्चासच्च सदसती तयोर्व्यक्तिः सदसद्व्यक्तिः तस्या हेतवः सदसद्वयक्तिहेतवः ॥ sto - 'सत्ये साधौ विद्यमाने प्रशस्तेऽभ्यर्हिते च सत्' इत्यमरः । ' व्यक्तिस्तु पृथगात्मता' इत्यमरः । ' हेतुर्ना कारणं वीजम्' इत्यमरः । 'स्वर्णं सुवर्णं कनकं हिरण्यं हेम हाटकम इत्यमरः ॥ 'श्यामो वटे प्रयागस्य वारिदे वृद्धदारके । पिकेच कृष्णहरितोः पुंसि स्यात्तद्वति त्रिषु ॥ मरीचे सिन्धुलवणे क्लीबं स्त्री सारिवौषधौ । अप्रसूताङ्गनायाञ्च प्रियङ्गावपि चोच्यते ॥ यमुनायां त्रियामायां कृष्णत्रिवृतिकौ - धौ । नीलिकायाम्' इति मेदिनी ॥ I ता०—यथा वह्निमन्तरेण न कैश्चित् सुवर्णस्य गुणदोषौ द्रष्टुं शक्येते तथा सन्तमन्तरेणास्मद्रचितप्रबन्धगुणदोषावपि । इन्दुः -- भले और बुरे का विचार करनेवाले पण्डित लोग उसे सुनने के लिए योग्य हैं, क्योंकि सुवर्ण की शुद्धता और श्यामता अग्नि में ही देखी जाती है ॥१०॥ वर्ण्य वस्तूपक्षिपति श्लोकद्वयेन वैवस्वत मनुर्नाम माननीय मनीषिणाम् | आसोन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्छन्दसामिव ॥ ११ ॥ सञ्जी० - वैवस्वत इति । मनस ईषिणो मनीषिणो धीराः विद्वांस इति यावत् ॥ पृषोदरादित्वात्साधुः । तेषां माननीयः पूज्यः । छन्दसां वेदानाम् । 'छन्दः पचे च वेदे च' इति विश्वः । प्रणव ओंकार इव । महीं क्षियन्तीशत इति महीक्षितः क्षितीश्वराः । विधातोरेश्वर्यार्थाक्विप्तुगागमश्च । तेषामाद्य आदिभूतः । विवस्वतः सूर्यस्यापत्यं पुमान्वैवस्वतो नाम वैवस्वत इति प्रसिद्धो मनुरासीत् ॥ अ० - मनीषिणाम्, माननीयः, छन्दसाम्, प्रणवः, इव, महीक्षिताम्, आद्यः, वैवस्वतः, नाम, मनुः, आसीत् ॥ वा० - मनीषिणां माननीयेन छन्दसां प्रणवेनेव महीक्षितामाद्येन वैवस्वतेन मनुनाऽभूयत् ॥ सुधा -- मनीषिणाम् = पण्डितानाम्, माननीयः = पूज्यः, अग्रणीरिति यावत् छन्दसां = वेदानाम्, प्रणवः = ओङ्कारः, इव = यथा, महीक्षितां=धराधीश्वराणाम्, आद्यः = प्रथमः, वैवस्वतः = विवस्वत्पुत्रः, सूर्यपुत्र इति यावद्, नाम = : 'वैवस्वत' इति नाना प्रसिद्धः, मनुः = कश्चिन्मनुः, आसीद् = बभूव ॥ स० - प्रकृष्टो नवः (स्तुतिः ) प्रणवः । छन्दन्तीति छन्दांसि तेषां छन्दसाम् । को० -- ' नाम प्राकाश्य सम्भाव्य क्रोधो पगमकुत्सने' इत्यमरः । 'धीरो मनीषी ज्ञः प्राज्ञः संख्यावान् पण्डितः कविः' इत्यमरः । 'राजा राट् पार्थिवचमाभृन्नृपभूपमहीक्षितः' इत्यमरः । ‘ओङ्कारप्रणवौ समौ इत्यमरः । ता०-- यथा वेदानामादिः प्रणवस्तथा राज्ञामादिर्वैवस्वतो मनुरासीत् ॥ इन्दुः-- पण्डितों में पूज्य, वेदों में प्रणव (ओङ्कार) के समान राजाओं में प्रथम 'वैवस्वत' नाम से प्रसिद्ध मनु हुये ॥ ११ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम:श्वर्ये रघुवंशे प्रधानपुरुषस्य रघोः पितृनामकथनम् तदन्वये शुद्धिति प्रसूतः शुद्धिमत्तरः । दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव ।। १२ ॥ मञ्जी०--तदिति । शुद्धिरस्यास्तीति शुद्धिमान् । तस्मिशुद्धिमति सदन्वये नस्य मनोरन्वये वंशे । 'अन्ववायोऽन्वयो वंशो गोत्रं चाभिजनं कुलम्' इति हलायुधः। अतिशयेन शुद्धिमाशुद्धिमत्तरः 'द्विवचनविभज्योप०' इत्यादिना तरप् । दिलीप इति प्रसिद्धो राजा इन्दुरिव राजेन्दू राजश्रेष्ठः। 'उपमितं व्याघ्रादिभिः०' इत्यादिना समासः । क्षीरनिधाविन्दुरिव प्रसूतो जातः॥ अ०-शुद्धिमति, तदन्वये, शुद्धिमत्तरः, दिलीपः, इति, राजेन्दुः, क्षीरनिधी, इन्दुः, इव, प्रसूतः ।। वा०-शुद्धिमति तदन्वये शुद्धिमन्तरेण दिलीपेनेति राजेन्दुना क्षीरनिधाविन्दुनेव प्रसूतेनाभावि ।। . सुधा-शुद्धिमति = पवित्रताऽऽपन्ने, निष्कलङ्क इत्यर्थः। तदन्वये = मनुवंशे, शुद्धिमत्तरः = अतिपवित्रः, दिलीपः = दिलीपेत्याह्वः, इति = प्रसिद्धः,प्रकाशार्थकमा व्ययमेतद् । राजेन्दुः = भूपचन्द्रः, आन्दोः श्रेष्ठार्थबोधकतया राजश्रेष्ठ इत्यों वोध्यः । क्षीरनिधौ=दुग्धोदधौ, इन्दुः = चन्द्रः, इव = यथा, प्रसूतः जातः॥ सक-निधीयतेऽस्मिन्निति निधिः, क्षीरस्य निधिः क्षीरनिधिस्तस्मिन् क्षीरनिधौ। को०-'हिमांशुश्चन्द्रमाश्चन्द्र इन्दुः, कुमुदवान्धवः' इति । 'सिंहशार्दूलनागाद्याः पुंसि श्रेष्ठार्थवाचकाः' इति । (अत्रादिपदेनेन्दोरपि श्रेष्ठार्थबोधकत्वेन ग्रहणं बोध्यम्) 'दुग्धं क्षीरं समम्' इति । 'इति हेतुप्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिषु' इति । 'व वा यथा तथैवेवं सास्य' इति चामराः ॥ ता०-यथा क्षीरनिधाविन्दुर्जातस्तथा मनुवंशे दिलीपो जातः॥ इन्दुः-पवित्र उस 'वैवस्वत मनु के वंश में, अतिपवित्र, राजाओं में चन्द्र (अर्थात् श्रेष्ठ) 'दिलीप' इस नाम से प्रसिद्ध क्षीरसमुद्र में चन्द्रमा के समान उत्पन्न हुए ॥ १२॥ 'न्यूड' इत्यादित्रिभिः श्लोकैर्दिलीपं विशिनष्टि व्यूढोस्को वृषस्कन्धः शालांशुमहाभुजः। अन्मकर्मक्षमं देहं क्षात्री धम इवाश्रितः ।। १३ ।। सञ्जी-व्यूढेति । व्यूढं विपुलमुरो यस्य स व्यूढोरस्कः । 'उम्प्रभृतिभ्यः कप' इति कप्प्रत्ययः । 'व्यूढं विपुलं भद्रं स्फारं समं वरिष्ठं च' इति यादवः। वृषस्य स्कन्ध इव स्कन्धो यस्य स तथा। 'सप्तम्युपमान' इत्यादिनोत्तरपदलोपिबहुव्रीहिः । शालो वृक्ष इव प्रांशुरुन्नतः शालप्रांशुः । 'प्राकारवृक्षयोः शालः शालः सर्जतरुः स्मृतः' इति यादवः 'उच्चप्रांशून्नतोदग्रोच्छ्रितास्तुङ्गे' इत्यमरः । महाभुजो महाबाहुः । आत्मकर्मक्षम स्वव्यापारानुरूपं देहमाश्रितः प्राप्तः क्षात्रः क्षत्रसम्बन्धी धर्म इव स्थितः । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । मूर्तिमान्पराक्रम इव स्थित इत्युत्प्रेक्षा॥ ___ अ०-व्यूढोरस्कः, वृषस्कन्धः शालप्रांशुः, महाभुजः, आत्मकर्मक्षम, देहम्, आश्रितः, क्षात्रः, धर्मः, इव,(स्थितः)॥वा०-व्यूढोरस्केन वृपस्कन्धेन शालग्रांशुना महाभुजेनात्मकर्मक्षम देहमाश्रितेन क्षात्त्रेण धर्मेणास्थायि ॥ ___ सुधा-व्यूढोरस्कः = विपुलवक्षःस्थलः, वृषस्कन्धः = वृषभांसः, शालप्रांशुः = शालवृक्ष इव उन्नतः, महाभुजः = दीर्घबाहुः आजानुबाहुरिति यावत् । आत्मकर्मक्षमस्वकार्यसाधनसमर्थ, देहं = शरीरम, आश्रितः = अधिगतः, क्षात्रः क्षत्रसम्बन्धी, धर्मः = स्वभावः, इव= यथा, स्थितः, मूर्तिमान् क्षत्रियधर्मः पराक्रम इव स्थित इत्युत्प्रेक्षा॥ स-प्रकृष्टा अंशवोऽस्यासी प्रांशुः, शाल इव प्रांशुः शालप्रांशुः । अततीत्यात्मा तस्य कर्म, आत्मकर्म तस्मिन् क्षमं आत्मकर्मक्षमस्तम् आत्मकर्मक्षमम् । को०-स्कन्धो भुजशिरोऽसोऽस्त्री' इत्यमरः। 'भुजबाहू प्रवेष्टो दोः स्याद' इत्यमरः । 'कायो देहः क्लीवपुंसोः स्त्रियां मूर्तिस्तनुस्तनूः' इत्यमरः॥ ता०-मूर्तिमान् क्षात्रधर्मः पराक्रम इव दिलीपः स्थितः॥ इन्दुः-चौड़ी छातीवाले, बैल के कन्धे के समान कन्धेवाले, साल सरीखे ऊँचे लम्बी भुजावाले, अपने काम के करने में समर्थ देह को धारण किये हये, जैसे क्षत्रियों का धर्म पराक्रम हो, उसके समान दिलीप हुये ॥१३॥ सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोऽभिभाविना । स्थितः सर्वोन्नतेनोवीं क्रान्त्वा मेरुरिवात्मना ।। १४ ॥ सञ्जी०-सर्वेति । सर्वातिरिक्तलारेण सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽधिकबलेन 'सारो वले स्थिरांशे च' इत्यमरः सर्वाणि भूतानि तेजसाऽभिभवतीति सर्वतेजोऽभिभावी तेन । सर्वेश्य उन्नतेनात्मना शरीरेण 'आत्मा देहे धृतौ जीवे स्वभावे परमात्मनि' इति विश्वः । मेरुरिव । उर्वी क्रान्त्वाऽऽक्रम्य स्थितः। मेरावपि विशेषणानि तुल्यानि । 'अष्टाभिश्च सुरेन्द्राणां मात्राभिर्निर्मितो नृपः । तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा ॥' इति मनुवचनाद्राज्ञः सर्वतेजोऽभिभावित्वं ज्ञेयम् । ____ अ०-सर्वातिरिक्तसारेण, सर्वतेजोऽभिभाविना, सर्वोन्नतेन, आत्मना, मेरुः, इव उर्वी क्रान्त्वा (स्थितः)॥ वा०--सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोभिभाविना सर्वोन्नतेनात्मना मेरुणेव (तेन) उर्वी क्रान्त्वा स्थितेनाभावि ॥ सुधा--सर्वातिरिक्तसारेण = अशेषप्राणिसमधिकबलेन, सर्वतेजोऽभिभाविना = समस्तप्रभावाभिभवकारिणा, स्वप्रभावेण सकलजनाभिभवकारिणेति भावः । सर्वोनतेन=निःशेषोच्छूितेन, आत्मना=शरीरेण मेरुः सुमेरुः, इव-यथा, उर्वी = वसुन्धरां, क्रान्त्वा = आक्रम्य, स्थितः= स्थितवान् । स०-सर्वेभ्योतिरिक्तः सर्वातिरिक्त सर्वातिरिक्तः सारो यस्य स सर्वाति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमःरिक्तसारस्तेन सर्वातिरिकसारेण, सर्वेषां तेजांसि सर्वतेजांसि तान्यभिभवितुं शीलमस्य स सर्वतेजोऽभिभावी तेन सर्वतेजोऽभिभाविना। . __को०--'अतिरिक्तः समधिकः' इत्यमरः । 'तेजः प्रभावे दीप्तौ च बले शुक्रेऽपि' इत्यमरः । 'उच्चप्रांशून्नतोदग्रोच्छ्तिास्तुङ्गे' इत्यमरः । 'सर्वसहा वसुमती वसुधो: वसुन्धरा' इत्यमरः । 'मेरुः सुमेरुहेमाद्री रत्नसानुः सुरालयः' इत्यमरः । ता०-यथा सकलपर्वतापेक्षयाऽधिकसारः स्वतेजसाऽन्याभिभवकर्ता सकलपर्वतापेक्षयोन्नतो मेरुः पर्वतो भूमिमाक्रम्य स्थितस्तथव दिलीपोऽपीति । इन्दुः-सबसे अधिक बलवान् (मेरुपक्ष में सबसे अधिक स्थिर), सभी लोगों के तेज को अपने प्रभावसे ( मेरुपक्षमें कान्तिमे) नीचा दिखलानेवाले, सब से अधिक ऊँचे शरीर से मेरु पर्वत के समान पृथ्वी को दवाकर बैठे हुए ॥ १४ ॥ आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञया सदृशागमः। आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसहशोदयः ।। १५ ॥ सञ्जी०-आकारेति । आकारेण मूर्त्या सदृशी प्रजा यस्य सः । प्रज्ञया सहशागमः = प्रज्ञाऽनुरूपशास्त्रपरिश्रमः । आगमः सदृश आरम्भः कर्म यस्य स तथोक्तः । आरभ्यत इत्यारम्भः कर्म । तत्सदृश उदयः फलसिद्धिर्यस्य स तथोक्तः। अ०-आकारसदृशप्रज्ञः, प्रज्ञया, सदृशागमः, आगमः, सदृशारम्भः' आरम्भसदृशोदयः, ‘स दिलीप आसीदिति' शेपः । वा०-आकारसदृशप्रज्ञेन प्रज्ञया सहशा. गमेनागमैः सदृशारम्भसदृशोदयेन 'दिलीपेनाभावि'। सुधा-आकारसहशप्रज्ञः=आकृतितुल्यबुद्धिः, प्रज्ञया मत्या, सदृशागमा अनुरूपशास्त्रः, तस्य दिलीपस्य यादृशी तीचणा मतिरासीत् तादृशः शास्त्रेषु परिश्रमाऽ. पीति भावः। आगमैः शास्त्रैः, राजनीत्यादिभिरिति यावत ।,सदृशारम्भ समानोद्धातः, नीतिशास्त्राद्यनुकूलसकलकार्यारम्भ इति भावः। आरम्भसदृशोदयः = उपक्रमानुरूपफलसिद्धिः,प्रारब्धकर्मतुल्यफलसिद्धिरिति भावः। स दिलीप मासीदिति शेषः। स०-आकारेण सदृशी आकारसहशी आकारसहशी प्रज्ञा यस्यासौ आकारसदृशप्रज्ञः आरम्भेण सहशः आरम्भसदृशः, आरम्भसदृश उदयो यस्य स आरम्भसदृशोदयः। ___ को०-'आकाराविगिताकृती' इत्यमरः । 'वाच्यलिङ्गाः समस्तुल्यः सदृक्षः सदृशः सहग्' इत्यमरः । 'वुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञा शेमुषी मतिः' इत्यमरः । 'प्रक्रमः स्यादुपक्रमः । स्यादभ्यादानमुद्धात आरम्भ' इत्यमरः। ता०-तस्य राज्ञो दिलीपस्य यथाऽऽकारोत्युन्नतस्तथा बुद्धिरपि महती, यथा च बुद्धिस्तथा शास्त्रेषु परिश्रमः, यथा शास्त्रानुसारिणी क्रिया तथा क्रियाऽनुरूपा फलसिद्धिरासीत् । इन्दुः-आकार के सदृश बुद्धिवाले बुद्धि के सदृश शास्त्र का अभ्यास करनेवाले Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकोपेतम् । शास्त्र के अनुरूप कर्म प्रारम्भ करनेवाले, प्रारम्भ किए हुए कर्म के अनुरूप फल सिद्धि प्राप्त करनेवाले (दिलीप थे)॥ १५ ॥ छतस्य भयङ्करत्वं मनोरमत्वञ्च दर्शयति भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम् । अधृष्यश्चाभिगम्यश्च यादोरत्नैरिवार्णवः । १६ ॥ सञ्जी०-भीमेति । भीमैश्च कान्तैश्च नृपगुणैः राजगुणस्तेजःप्रतापादिभिः कुलशीलदाक्षिण्यादिभिश्च स दिलीप उपजीविनामाश्रितानाम् । यादोभिर्जलजीवैः 'यादांसि जलजन्तवः' इत्यमरः । रत्नेश्वार्णव इति । अध्ष्योऽनभिभवनीयः। अभिगम्य आश्रयणीयश्च बभूव ॥ अ०-भीमकान्तैः, नृपगुणैः, सः, उपजीविनो, यादोरत्नैः, अर्णवः इव अपृष्यश्च, अभिगम्यश्च, बभूव ॥ वा०-भीमकान्तैनूपगुणैरुपजीविनां तेनावृष्येण चाभिगम्येन च यादोरत्नैरणवेनेव बभूवे ॥ सुधा-भीमकान्तैः = भयङ्करमनोज्ञैः, नृपगुणैः राजगुणैः, तेज प्रतापदयादाक्षिण्यादिभिरिति यावत् । सः दिलीपः, उपजीविनाम् = आश्रितानां, यादोरत्नैः= जलजन्तुमणिभिः, अर्णवः समुद्रः, इव= यथा, अष्यश्च = अनभिभवनीयश्च, अभिगम्यश्च, सेवनीयश्च, बभूव = अभूत् ॥ . स०-भीमाश्च कान्ताश्च भीमकान्ताः तैर्भीमकान्तैः। यादांसि च रत्नानि च यादोरत्नानि तैर्यादोरत्नैः॥ को०-दारुणं भीषणं भीष्मं घोरं भीमं भयानकम्' इत्यमरः । 'कान्तं मनोरम रुच्यं मनोज्ञं मन्जु मन्जुलम्' इत्यमरः। 'मौया द्रव्याश्रिते सत्वशौर्यसन्ध्यादिके गुणः' इत्यमरः । 'राजा राट् पार्थिवच्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः' इत्यमरः । 'रत्नं मणियोरश्मजातौ मुक्ताऽऽदिकेपि च' इत्यमरः। 'सरस्वान् सागरोऽर्णवः' इत्यमरः । ___ ता०--स दिलीपो जलजन्तुरत्नादिभिः समुद्र इव तेज प्रतापादिभिः कुलशील. दाक्षिण्यादिभिश्च सर्वराजगुणैराश्रितानामनभिभवनीयः सेवनीयश्च बभूव । ___ इन्दुः--भयानक और मनोरम राजगुणों (तेज, प्रताप आदि और दया दाक्षिण्यादि) के कारण आश्रितों को वह राजा दिलीप, जलजन्तु और रनों के कारण से समुद्र के समान दूर रहने योग्य और सेवा करने योग्य हुए ॥ १६ ॥ तस्य प्रजा राजनिदेशवर्त्तिन्य इत्याह--- रेखामात्रमपि क्षुण्णादा मनावर्त्मनः परम् । न व्यतीयुःप्रजास्तस्य नियन्तुमिवृत्तयः ।। १७ ।। सञ्जी०-रेखेति । नियन्तुः शिक्षकस्य सारथेश्च तस्य दिलीपस्य सम्बन्धिन्यो नेमीनां चक्रधाराणां वृत्तिरिव वृत्तिापारो यासां ताः 'चक्रधारा प्रधिर्नेमिः' इति यादवः। 'चक्रं रथाङ्गं तस्यान्ते नेमिः स्त्री स्यात्प्रधिः पुमान्' इत्यमरः । प्रजाः। आ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम:मनोः, मनुमारभ्येत्यभिविधिः । पदद्वयं चैतत् । समासस्य विभाषितत्वात् । क्षुण्णादभ्यस्ताग्रहताच वर्मन आचारपद्धतेरध्वनश्च परमधिकम् । इतस्तत इत्यर्थः । रेखा प्रमाणमस्येति रेखामानं रेखाप्रमाणम् । ईषदपीत्यर्थः । 'प्रमाणे द्वयसज्दघ्नम्मावचः' इत्यनेन मात्रच्प्रत्ययः परशब्दविशेषणं चैतत् । न व्यतीयुर्नातिक्रान्तवत्यः । कुशलसारथिप्रेषिता रथनेमय इव यस्य प्रजाः पूर्वक्षुण्णमार्ग न जहुरिति भावः। ____अ०-नियन्तुः, तस्य, नेमिवृत्तयः, प्रजाः आ, मनोः क्षुण्णात्, वर्त्मनः, परं, रेखामात्रम्, अपि, न व्यतीयुः । वा०-नियन्तुस्तस्य नेमिवृत्तिभिः प्रजाभिरा मनोः क्षुण्णात् वर्मनः परं रेखामात्रमपि न व्यतीये। सुधा-नियन्तुः= शिक्षकस्य-सारथेच, तस्य = दिलीपस्य, नेमिवृत्तयः-चक्रधाराव्यापाराः, प्रजाः जनाः, आ मनोः मनुसारभ्य, क्षुण्णा अभ्यस्तात्-ग्रहताच, वर्मनःआचारपद्धतेः=मार्गाच, परम्-अधिकम्, इतस्तत इत्यर्थः। रेखामात्रंरेखाप्रमाणम्, अपि, न= नहि, व्यतीयुः=व्यतिक्रान्तवत्यः । कुशलसारथिप्रेरिता रथनेमय इव तस्य प्रजाः पूर्वक्षुण्णमार्ग न जहुरिति भावः। स०-नेमीनां वृत्तिरिव वृत्तिर्यासां ता नेमिवृत्तयः । को०-'नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः । अयनं वर्त्म मार्गावपन्धानः पदवी सृतिः' इत्यमरः । 'प्रजा स्यात् सन्तती जने' इत्यमरः। ता०-यथा निपुणसारथिसञ्चालिता रथचक्रधाराः पूर्वक्षुण्णसरणिं न जहति, तथैव तस्य दिलीपस्य प्रजा अपि पूर्वाभ्यस्ता मनूपदिष्टामाचारपति न तस्यजुः । इन्दुः-शिक्षक अथवा सारथि के सदृश उस राजा दिलीप की रथ के पहिये की भौति चलनेवाली प्रजायें मनु के समय से बताये हुए ( रथचक्रधारापक्ष में खुदे. हुए) मार्ग से लकीर भी बाहर न गई ॥ १७ ॥ तस्य करग्रहणं प्रजानां सुखविधानार्थमित्याह प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् | सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ।। १८ ।। , सञ्जी०-प्रजानामिति । स राजा प्रजानां भूत्या अर्थाय भूत्यर्थ वृद्धयर्थमेव । (अर्थन सह नित्यसमासः सर्वलिडन्ता च वक्तव्या) ग्रहणक्रियाविशेषणं चैतत । ताभ्यः प्रजाभ्यो बलिं षष्ठांशरूपं करमग्रहीत् । 'भागधेयः करोः बलिः' इत्यमरः । तथा हि । रविः सहस्रं गुणा यस्मिन्कर्मणि तद्यथा तथा सहस्रगुणं सहस्रधोत्स्रष्टुं दातुम् । उत्सर्जनक्रियाविशेषणं चैतत् । रसमम्वादत्ते गृह्णाति । 'रसो गन्धे रसे स्वादे तिक्तादौ विषरोगयोः। शृङ्गारादौ द्रवे वीर्ये देहधात्वम्बुपारदे ॥' इति विश्वः । ___ अ०-सः, प्रजानां, भूत्यर्थम्, एव, ताभ्यः, बलिम्, अग्रहीत्, हि, रविः, सहस्रगुणम् उत्सष्टुं, रसम्, आदत्ते । वा०–तेन प्रजानां भूत्यर्थमेव ताभ्यो बलिरग्राहि, हि सहस्रगुणमुत्स्रष्टुं रविणा रस आदीयते । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सुधा-सः=राजा दिलीपः, जनानां प्रजानां, भूत्यर्थ = सम्पत्त्यर्थ, वृद्धयर्थमिति यावत्, एव= निश्चयेन, ताभ्यः = प्रजाभ्यः, बलिं =भागधेयं, षष्ठांशरूपमिति भावः । अग्रहीत् =जग्राह, हि = यतः, रविः=भानुः, सहस्रगुणं सहस्रगुणाधिकम्, उत्स्रष्टुं = दातुं, रसम् अम्बु, आदत्ते-गृह्णाति । राजा दिलीपो यत् करं षष्ठांशरूपं गृह्णाति ततोऽप्यधिकं प्रजानां सुखवृद्ध्यर्थं द्रव्यं यज्ञादावुत्सृजतीति भावः । स०-सहस्रं गुणा यस्मिन् कर्मणि तत् सहस्रगुणं क्रियाविशेषणमेतत् । को०-'प्रजा स्यात् सन्ततौ जने' इत्यमरः । 'भूतिभस्मनि सम्पदि' इत्यमरः। 'भानुहंसः सहस्रांशुस्तपनः सविता रविः' इत्यमरः।। ता०-यथा सूर्यः सहस्रगुणं वर्षाद्वारा दातुं जलं गृह्णाति तथैव दिलीपोऽपि प्रजानां सुखवृद्धचर्थमेव ताभ्यः करं गृहीत्वा ततोऽप्यधिकेन तेन यज्ञादिमार्गसेतुवापीकूपतडागादिनिर्माणं करोति । इन्दुः-प्रजा की भलाई ही के लिए वह राजा दिलीप उन सवों से (अर्थात् प्रजा से) कर लेता था, जैसे-कि सहस्रगुना बरसाने ही के लिये सूर्य जल लेता है। सम्प्रति बुद्धिशौर्यसम्पन्नस्य तस्यार्थसाधनेषु परानपेक्षत्वमाह सेना परिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनम् । शास्त्रेष्वनुण्ठिता बुद्धिौर्वी धनुषि चातता ।। १६ ।। सञ्जी०-सेनेति । तस्य राज्ञः सेना चतुरङ्गबलं परिच्छाद्यतेऽनेनेति परिच्छद उपकरणं बभूव । छत्रचामरादितुल्यमभूदित्यर्थः । 'पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण' इति घप्रत्ययः 'छादेर्धेऽद्वयुपसर्गस्य' इत्युपधाहस्वः। अर्थस्य प्रयोजनस्य तु साधनं द्वयमेव । शास्त्रेष्वकुण्ठिताऽव्याहता बुद्धिः 'व्यापृता' इत्यपि पाठः, धनुष्यातताऽsरोपिता मौर्वी ज्या च । 'मौर्वी ज्या शिञ्जिनी गुणः' इत्यमरः। नीतिपुरःसरमेव, तस्य शौर्यमभूदित्यर्थः। ___ अ०-तस्य, सेना, परिच्छदः, (बभूवेति शेषः, बुद्धयादिषु सर्वत्र योज्यम्) अर्थसाधनं, द्वयम्, एव, (एकम् ) शास्त्रेषु अकुण्ठिता, बुद्धिः, (अपरम्) धनुषि, आतता मौवीं, च । वा०-तस्य सेनया परिच्छदेनाभावि, शास्त्रेष्वकुण्ठितया बुद्धया धनुषि चाततया मौा च 'इति' द्वयेनैवार्थसाधनेनाभावि।। सुधा-तस्य = राज्ञो दिलीपस्य, सेना=सैन्यम्, परिच्छदः उपकरणम्, वभूवेति शेषः । बुद्धयादिषु सर्वत्र योज्यम् । छत्रचामरादितुल्यं शोभाऽर्थमेवाभूदिति भावः। अर्थसाधन प्रयोजननिर्वर्तनं, द्वयमेव = द्वितयमेव, (एकम् ) शास्त्रेषु = नीतिशास्त्रादिषु, अकुण्ठिता = अव्याहता, युद्धिः=मति, (अपरम्) धनुषि= कोदण्डे, आतता = आरोपिता, मौर्वी = शिञ्जिनी, गुण इति यावत् । च, नीतिशास्वादिसम्मतमेव तस्य शौर्यप्रदर्शनमभूदिति भावः ॥ स०-साध्यतेऽनेनेति साधनम्, अर्थस्य साधनम् अर्थसाधनम् । २. रघु० १ सर्ग Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः___ को०-'ध्वजिनी वाहिनी सेना पृतनाऽनीकिनी चमूः। वरूथिनी बलं सैन्यं चक्रं चानीकमस्त्रियाम्' इत्यमरः । 'अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु' इति । 'निर्वर्तनोपकरणानुव्रज्यासु च साधनम्' इत्यमरः। 'वुद्धिर्मनीषा धिपणा धीः प्रज्ञा शेमुपी मतिः' इत्यमरः । 'धनुश्चापौ धन्वशरासनकोदण्डकार्मुकम्' इत्यमरः। ता०-तस्य दिलीपस्य सेना प्रयोजनसम्पादिका नाभूत् केवलं तु शोभाऽर्थमेव । किन्तु राजनीतिविषया तदीया मतिः सज्यं शरासनञ्चेति द्वयेनैव सकलार्थसिद्धिरभूत्। इन्दुः-उस राजा दिलीप की सेना तो छत्र चामर के समान केवल शोभार्थ हुई। क्योंकि प्रयोजन सिद्ध दो ही से होते थे, एक तो शास्त्रों में पैनी बुद्धि से, और दूसरे धनुष पर चढ़ी हुई प्रत्यंचा से ॥ १९ ॥ राज्यमूलं मन्त्रसंरक्षणं तस्यासीदित्याह तस्य संवृतमन्त्रस्य गढाकारेङ्गितस्य च । फलानुमेयाः प्रारम्भाः सस्काराः प्राक्तना इव ।। २० ।। सञ्जी०-तस्येति । संवृतमन्त्रस्य गुप्तविचारस्य । 'वेदभेदे गुप्तवादे मन्त्रः' इत्यमरः। शोकहर्षादिसूचको भृकुटीमुखरागादिराकार इङ्गितं चेष्टितं हृदयगतविकारो वा। 'इङ्गिते हृद्तो भावो बहिराकार आकृतिः' इति सजनः। गूढे आकारेङ्गिते यस्य स्वभावचापलाद् भ्रमपरम्परया मुखरागादिलिङ्गैर्वाऽतृतीयगामिमन्त्रस्य तस्य प्रार• भ्यन्त इति प्रारम्भाः सामाधुपायप्रयोगाः । प्रागित्यव्ययेन पूर्वजन्मोच्यते तत्र भवाः प्राक्तनाः। 'सायंचिरंप्राहेप्रगेऽव्ययेभ्यष्टयुटयलौ तुट् च' इत्यनेन ट्यल्प्रत्ययः । संस्काराः पूर्वकर्मवासना इव । फलेन कार्यणानुमेया अनुमातुं योग्या आसन् । अत्र याज्ञवल्क्यः - मन्त्रमूलं यतो राज्यमतो मन्त्रं सुरक्षितम् । कुर्याद्यथा तन्न विदुः कर्मणामाफलोदयात् ॥' इति । अन्वयः-संवृतमन्त्रस्य, च, गूढाकारेगिन्तस्य, तस्य प्रारम्भाः,प्राक्तनाः, संस्काराः, इव, फलानुमेयाः, 'आसन्' इति शेषः। वा०-संवृतमन्त्रस्य च गूढाकारेगितस्य तस्य प्रारम्भैः प्राक्तनैः संस्कारैरिव फलानुमेयरभावि।। सुधा-संवृतमन्त्रस्य = गुप्तविचारस्य, च-पुनः, गूढाकारेभित्तस्य अप्रकटिताकृतिहृद्दतभावस्य, तस्य दिलीपस्य, प्रारम्भाः सामाधुपायप्रयोगाः, प्राक्तना= पूर्वजन्मोद्भवाः, संस्काराः = कर्मवासनाः, इव = यथा, फलानुमेयाः = कार्यज्ञेयाः, आसन्निति शेषः । तस्य दिलीपस्य मन्त्रोऽतीव गुप्ततम आसीदिति भावः। स-संवृतो मन्त्रो यस्य स संवृतमन्त्रस्तस्य संवृतमन्त्रस्य, आकारश्चेगिन्तञ्च आकारेगिन्ते । गृढे आकारेगिते यस्य स गृढाकारेगिन्तस्तस्य गढाकारेभित्तस्य । ___ को०-'फलं हेतुकृते जातीफले फलकसस्ययोः। त्रिफलायाञ्च कक्कोले शस्त्राने व्युष्टिलाभयोः' इति हैमः। ता०-शोकहादिसूचकैर्भृकुटीमुखरागादिलिङ्गैरप्यतृतीयगामिमन्त्रस्य तस्य दि Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् । १६ दिलीपस्य यथा लोके कार्येण पूर्वजन्मोद्भव संस्कारस्यानुमानं भवति तथैव सामाद्युपायप्रयोगाणामप्यनुमानमभूत् । इन्दुः- विचार को गुप्त रखने वाले, तथा बाहर - भीतर के हर्षशोकादि सूचक चिह्नों को छिपाने वाले, उस राजा दिलीप के कार्य 'सामदानाद्युपाय' फलों से अनुमान किये जाते थे, जैसे - कि पूर्व जन्म के संस्कार ॥ २० ॥ सम्प्रति सामाद्युपायान्विनैवात्मरक्षादिकं कृतवानित्याहजुगोपात्मानमत्रस्ती भेजे धर्ममनातुरः । अगृध्नुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्बभूत् ॥ २१ ॥ सञ्जी०-जुगोपेति । अत्रस्तोऽभीतः सन् । 'त्रातो, भीरुभीरुकभीलुकाः' इत्यमरः। त्रासोपाधिमन्तरेणैव त्रिवर्गसिद्धेः प्रथमसाधनत्वादेवात्मानं शरीरं जुगोप रक्षितवान् । अनातुरोऽरुग्ण एव धर्मं सुकृतं भेजे । अर्जितवानित्यर्थः । अगृध्नुर गर्धनशील एवार्थमाददे स्वीकृतवान् । 'गृध्नुस्तु गर्धनः । लुब्धोऽभिलाषुकस्तृष्णक्समौ लोलुपलोलुभौ' इत्यमरः । ' त्रसिगृधिष्टषिक्षिपेः क्नुः' इति क्नुप्रत्ययः । असक्त आसक्तिरहित एव सुखमन्वभूत् । 1 अ०–सः, अत्रस्तः, ‘सन्' आत्मानं, जुगोप, अनातुरः 'सन्' धर्मं, भेजे, अगृधनुः, 'सन्' अर्थम्, आददे, असक्तः 'सन्' सुखम्, अन्त्रभूत् । वा० - तेनात्रस्तेन सतात्मा जुगुपे, अनातुरेण धर्मो भेजे, अगृध्नुनाऽर्थ आददे, असक्तेन सुखमन्वभावि । सुधा - सः = दिलीपः, अत्रस्तः = अभीरुः, सन्निति शेषः, सर्वत्रानातुरादिषु योज्यम् । आत्मानं=कलेवरं, जुगोप = पालितवान् ( भयं विनैव पुरुषार्थं त्रयस्य सिद्धेरादिमसाधनत्वादेव शरीरं रक्षितवानिति भावः ) । अनातुरः = अरुग्णः, 'सन्' धर्म : = पुण्यम्, भेजे= सेवितवान्, अर्जितवानित्यर्थः । अगृध्नुः = अलोलुपः, 'सन्' अर्थ = द्रविणम्, आददे = गृहीतवान् ( स्व कृतवानित्यर्थः ) । असक्तः = आसक्तिरहितः 'सन्' सुखं = कल्याणम्, अन्वभूत् = अनुभूतवान् । स० - आतुतोर्तीत्यातुरः न आतुरोऽनातुरः । को० - 'आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मनि । चित्ते धृतौ च बुद्धौ च पर व्यावर्तनेऽपि च' इति धरणिः । 'स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः' इत्यमरः । ' आमयावी, विकृतो व्याधितोऽपटुः । आतुरोऽभ्यमितोऽभ्यान्तः' इत्यमरः । 'हिरण्यं द्रविणं द्युम्नमर्थरै विभवा अपि' इत्यमरः । 'शर्मशातसुखानि च' इत्यमरः । ता० - स दिलीपो भयादात्मानं न रचितवान्, रोगाद् धर्मं न सेवितवान्, लोभाद् धनं न गृहीतवान्, आसक्त्या सुखं नानुभूतवान् ॥ २१ ॥ इन्दुः- उस ( राजा दिलीप ) ने बिना डरे हुये अपने शरीर की रक्षा की, विना रोगी होते हुये धर्म का सेवन किया, विना लोभी होते हुये धन का ग्रहण किया, और बिना आसक्त होते हुये सुख का अनुभव किया ॥ २१ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् परस्परविरुद्धानामपि गुणानां तत्र साहचर्य्यमासी दित्याह ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्ययः । गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ॥ २२ ॥ सञ्जी० - ज्ञान इति । ज्ञाने परवृत्तान्तज्ञाने सत्यपि मौनं वाङ्नियमनम् । यथाऽऽह कामन्दकः–(नान्योपतापि वचनं मौनं व्रतचरिष्णुता ) इति । शक्तौ प्रतीकारसामर्थ्येऽपि क्षमा अपकारसहनम् । अत्र चाणक्यः - ( शक्तानां भूषणं क्षमा ) इति । त्यागे वितरणे सत्यपि श्लाघाया विकत्थनस्य विपर्ययोऽभावः । अत्राह मनुः - ( न दत्त्वा परिकीर्तयेद् ) इति । इत्थं तस्य गुणा ज्ञानादयो गुणैर्विरुद्धमौनादिभिरनुबन्धित्वात्सहचारित्वात् सह प्रसवो जन्म येषां ते सप्रसवाः सोदरा इवाभूवन् । विरुद्धा अपि गुणास्तस्मिन्नविरोधेनैव स्थिता इत्यर्थः । २० [ प्रथमः अ० ० - ज्ञाने, मौनं शक्तौ, क्षमा, त्यागे, श्लाघाविपर्ययः, 'इत्थं' तस्य, गुणाः गुणानुबन्धित्वात् सप्रसवाः, इव, 'अभूवन्' इति शेषः । , वा०-ज्ञाने मौनेन, शक्तौ क्षमया, त्यागे श्लाघाविपर्ययेण, तस्य गुणैर्गुणानुव न्धित्वात् सप्रसवैरिवाभावि । सुधा - ज्ञाने= परवृत्तान्तावगमे, 'सत्यपि' मौनं = वाणीनियमनं, शक्तौ = प्रतीका रसामर्थ्येऽपि, क्षमा = अपकार सहिष्णुता, त्यागे = दाने, 'सत्यपि' श्लाघाविपर्य यः=स्वप्रशंसनाभावः ‘इत्थं' तस्य = दिलीपस्य, गुणाः = ज्ञानप्रभृतयः, गुणानुवन्धि त्वाद् = विरुद्धमौनादिगुणसहचारित्वात्, सप्रसवाः = सोदर्य्याः, इव= यथा, अभूव न्निति शेषः । परस्परविरुद्धा अपि ज्ञानमौनादिप्रभृतयो गुणास्तत्राविरोधेनैवास न्निति भावः । स०- - गुणैरनुबन्धित्वं गुणानुबन्धित्वं तस्माद् गुणानुबन्धित्वात् । को० - 'क्षितिज्ञान्त्योः क्षमा' इत्यमरः । 'अस्त्री चाटु चटु श्लाघा प्रेम्ण मिथ्या विकत्थनम्' | 'मौन्य द्रव्याश्रिते सत्वशौर्य्यसन्ध्यादिके गुणः' इत्य मरः । 'स्यादुत्पादे फले पुष्पे प्रसवो गर्भमोचने' इत्यमरः । ता० - दिलीपः परवृत्तान्तज्ञानवानपि प्रयोजनं विना तन्न वदति, प्रतीकारक रणक्षमोऽप्यपकारकर्तुरुपेक्षणं करोति, दाता सन्नपि नात्मविकत्थनं करोतिस्म । इन्दुः- दूसरे के वृत्तान्त को जानते हुये भी उस विषय में चुप रहना, साम‍ रहने पर भी अपकार सहन करना, दान करने पर भी अपनी बड़ाई न करना इस प्रकार से उस राजा दिलीप के ज्ञानादिक गुण-विरुद्ध मौनादिक गुणों के साथ रहने से सहोदर के समान हुये ॥ २२ ॥ द्विविधं, वृद्धत्वं, ज्ञानेन वयसा च । तत्र तस्य ज्ञानेन वृद्धत्वमाहअनाकृष्टस्य विषयैर्विद्यानां पारदृश्वनः । तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरसा विना ॥ २३ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । २१ सञ्जी०–अनाकृष्टेति। विषयैः शब्दादिभिः रूपं शब्दो गन्धरसस्पर्शाश्च विषया अमी' इत्यमरः । अनाकृष्टस्यावशीकृतस्य विद्यानां वेदवेदाङ्गादीनां पारदृश्वनः पारमन्तं दृष्टवतः। दृशेः क्वनिप। धर्मे रतिर्यस्य तस्य राज्ञो जरसा जरया विना । 'विस्रसा जरा' इत्यमरः । 'षिद्भिदादिभ्योऽङ्' इत्यङ्प्रत्ययः, 'जराया जरसन्यतरस्याम्' इति जरसादेशः। वृद्धत्वं वार्धकमासीत् । तस्य यूनो विषयवैराग्यादिज्ञानगुणसम्पत्त्या ज्ञानतो वृद्धत्वमासीदित्यर्थः । नाथस्तु-चतुर्विधं वृद्धत्वमिति ज्ञात्वा 'अनाकृष्टस्य' इत्यादिना विशेषणत्रयेण वैराग्यज्ञानशीलवृद्धत्वान्युक्तानीत्यवोचत् । अ०-विषयः, अनाकृष्टस्य, विद्यानां, पारदृश्वनः, धर्मरतेः, तस्य, जरसा विना, वृद्धत्वम्, आसीत् । वा०-विषयैरनाकृष्टस्य विद्यानां पारदृश्वनो धर्मरतेस्तस्य जरसा विना वृद्धत्वेनाभावि । ___ सुधा-विषयैः = गन्धरसरूपस्पर्शशब्दैः, अनाकृष्टस्य अवशीकृतस्य, विद्यानां वेदवेदाङ्गादीनाम्, पारदृश्वनः = अन्तं दृष्टवतः, धर्मरतेः = पुण्यासक्तेः, तस्य =दिली. पस्य, जरसा विना=वृद्धावस्थामन्तरेण, वृद्धत्वम्-वाईकम्, आसीत् अभूत् । तस्य युवावस्थाऽऽपन्नस्य राज्ञो विषयविरक्त्यादिगुणशालितयैव ज्ञानतो वृद्धत्वमासीदिति । स०-न आकृष्टोऽनाकृष्टस्तस्यानाकृष्टस्य । पारं दृष्टवानिति पारदृश्वा तस्य पारदृश्वनः। को०-'स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः' इत्यमरः । 'स्यात् स्थाविरं तु वृद्धत्वं वृद्धसङ्घऽपि वा कम्' इत्यमरः । ___ता-विषयेभ्यो विरक्तोऽधीतवेदवेदाङ्गन्सकलविद्यो धर्माचरणतत्परो दिलीपो युवाऽपि सन् वृद्ध इवाभत्। * इन्दुः-विषयादिकों से नहीं खींचे जाते हुए (विषयों के वश में न होते हुये), विद्याओं के पार देखने वाले (अन्त करनेवाले), धर्म में रुचि रखने वाले उस राजा दिलीप को वृद्धावस्था (आये) बिना उक्त विशेषणों से वृद्धता प्रकट हुई ॥ २३ ॥ द्विविधं पितृत्वं रक्षणेनोत्पादनेन च । तत्र तस्य रक्षणेन पितृत्वमाह-- प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्भरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ॥ २४ ॥ सञ्जी०--प्रजानामिति । प्रजायन्त इति प्रजा जनाः 'उपसर्गे च संज्ञायाम्' इति डप्रत्ययः । 'प्रजा स्यात्संतती जने' इत्यमरः । तासां विनयस्य शिक्षाया आधानास्करणात् सन्मार्गप्रवर्तनादिति यावत् । रक्षणाद् भयहेतुभ्यस्त्राणाद् आपन्निवारणादिति यावत् । भरणादन्नपानादिभिः पोषणादपि । अपिः समुच्चये । स राजा पिताsभूत् । तासां पितरस्तु जन्महेतवो जन्ममात्रकर्तारः केवलमुत्पादका एवाभवन् । जननमात्र एव पितृणां व्यापारः। सदा शिक्षारक्षणादिकं तु स एव करोतीति तस्मिन्पितृत्वव्यपदेशः। आहुश्च--(स पिता यस्तु पोषकः) इति । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः__ अ०--प्रजानां, विनयाधानाद्, रक्षणाद्, भरणाद्, अपि, सः, पिता, 'अभूत् तासाम, पितरः, तु, केवलं, जन्महेतवः 'अभूवन्' । वा०-प्रजानां विनयाधानाद् रक्ष णादरणादपि तेन पित्राऽभूयत, तासां पितृभिः केवलं जन्महेतुभिरभयत ॥ २४ ॥ __ सुधा--प्रजानां जनानां स्वशासनाधीनानामिति भावः । विनयाधानात् नम्र तादिगुणशिक्षाकरणात् सन्मार्गनयनादिति यावत् । रक्षणात्=पालनात्, चीरादिभ यहेतुभ्य इति शेषः । भरणात्-पोपणाद्, अन्नपानादिभिरिति शेषः । अपि समुच्चये, सा-दिलीपः, पिता-रक्षिता, जनको वा, आसीदिति शेषः। तासांप्रजानाम्, पितरःजनकाः, तु= किन्तु, केवलं जन्महेतवः = उत्पत्तिमात्रकारणानि, अभूवनिति शेषः ॥ २४॥ स-विशेषेण नयः विनयः, तस्याधानं विनयाधानं तस्माद् विनयाधानात। को-'तातस्तु जनकः पिता' इत्यमरः । 'जनुर्जननजन्मानि जनिरुत्पत्तिरुद्भवः इत्यमरः । 'हेतुर्ना कारणं वीजम्' इत्यमरः । ता-दिलीपप्रजानां पितरस्तु केवलं जन्मदातार एवाभूवन्, किन्तु तासां विनयादिशिक्षको भयहेतुभ्यो रक्षकोऽन्नवस्त्रादिभिः पोषको दिलीप एवाभूत ॥ २४ ॥ ___ इन्दुः-नम्रता आदि की शिक्षा देने से, आपत्तियों से बचाने से और अन्नादिकों के द्वारा पोषण करने से, वे दिलीप ही प्रजाओं के पिता हुए, और उन प्रजाओं के पिता तो केवल जन्म देने ही में कारण हुए ॥ २४ ॥ तस्यार्थकामावपि धर्म एवास्तामित्याह स्थित्यै दण्डयतो दण्ड्यापारणेतः प्रसूतये । अध्यथकामौ तस्यास्तां धम एव मनीषिणः ।। २ ।। सञ्जी-स्थित्या इति । दण्डमर्हन्तीति दण्ड्याः 'दण्डादिभ्यो यः' इति यप्रत्ययः। (अदण्ड्यान्दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् । अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति ॥) इति शास्त्रवचनात् । तान्दण्ड्यानेव स्थित्ये लोकप्रतिष्ठायै दण्डयतः शिक्षयतः । प्रसूतये संतानायैव परिणेतुर्दारान्परिगृह्णतः। मनीषिणो विदुषः । दोष. ज्ञस्येति यावत्। 'विद्वान्विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुधीः कोविदो वुधः। धीरो मनीषी' इत्यमरः । तस्य दिलीपस्यार्थकामावपि धर्म एवास्तां जाती। अस्तेर्लङ । अर्थकामसाधनयोर्दण्डविवाहयोर्लोकस्थापनप्रजोत्पादनरूपधर्मार्थत्वेनानुष्ठानादर्थकामावपि धर्मशेषतामापादयन्स राजा धर्मोत्तरोऽभूदित्यर्थः । आह च गौतमः-'न पूर्वालमध्यन्दिना. पराल्लानफलान्कुर्याद् यथाशक्ति धर्मार्थकामेभ्यस्तेषु धर्मोत्तरः स्यात् । इति । __ अ०-दण्ड्यान्, 'एव' स्थित्यै, दण्डयतः, प्रसूतये, परिणेतुः, मनीषिणः, तस्य, अर्थकामो, अपि धर्मः, एव, आस्ताम् । वा०-स्थित्यै दण्ड्यान् दण्डयतः, प्रसूतये परिणेतुः, मनीषिणस्तस्यार्थकामाभ्यामपि धर्मेणैवाभूयत । सुधा-दण्ड्यान् दण्डयोग्यान्, अपराधिन इति यावत् एवेति शेषः। स्थित्यै Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः 1 विनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | २३ प्रतिष्ठायै, लोकस्येति शेषः । दण्डयतः = शिक्षयतः, प्रसूतये = सन्तानाय, एवेति शेषः । परिणेतुः = कृतदारपरिग्रहस्य, मे मनीषिणः = विदुषः, दोषाणामिति शेषः । तस्य = दिलीपस्य, अर्थकामावपि = अर्थकामाख्यौ, पुरुषार्थावपि, धर्म एव = सुकृतमेव, आस्ताम् = अभूताम् । सo - मनस ईषा मनीषा साऽस्त्यस्मिन्निति मनीपी मनीषिणः । को०-- 'अर्थों हेतौ प्रयोजने । निवृत्तौ विषये वाच्ये प्रकारद्रव्य वस्तुषु' इति 'हैमः । 'इच्छामनोभवौ कामौ ' इत्यमरः 'स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः' इत्यमरः । ता० - स दिलीपोऽपराधानुसारेण दण्डयोग्यानां दण्डदानात् तथा पुत्रेच्छया विवाहकरणात् परमधार्मिकोऽभूत् । इन्दुः-- 'लोकमर्यादा की स्थिति के लिये अपराधियों को दण्ड देने वाले, सन्तान के लिये विवाह करने वाले 'अत एव' बुद्धिमान् उस राजा दिलीप के अर्थ और काम भी धर्म ही हुए ॥ २५ ॥ तस्य दिलीपस्येन्द्रेण सह परस्परविनिमयेन सख्यमाह दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् । संपद्विनिमयेनो भौ टेघुतुर्भुवनद्वयम् ।। २६ ।। सञ्जी० - दुदोहेति । स राजा यज्ञाय यज्ञं कर्तुं गां भुवं दोह | करग्रहणेन रिक्तां चकारेत्यर्थः। मघवा देवेन्द्रः सस्याय सस्यं वर्धयितुं दिवं स्वर्गे दुदोह । धुलोकान्महीलोके वृष्टिमुत्पादयामासेत्यर्थः । ' क्रियार्थोपपद०' इत्यादिना यज्ञसस्याभ्यां चतुर्थी । एवमुभौ सम्पदो विनिमयेन परस्परमादानप्रतिदानाभ्यां भुवनद्वयं दधतुः पुपुपतुः । राजा यज्ञैरिन्द्रलोकमिन्द्रश्वोदकेन भूलोकं पुपोषेत्यर्थः । उक्तं च दण्डनीती -- 'राजा स्वर्थान्समाहृत्य कुर्यादिन्द्रमहोत्सवम् । प्रीणितो मेघवाहस्तु महतीं वृष्टिमावहेत्' ॥ इति ॥ अ० -- सः, यज्ञाय, गां, दुदोह, मघवा, सस्याय, दिवं, 'दुदोह' 'एवम्' उभौ, सम्पद्विनिमयेन, भुवनद्वयं दधतुः । वा०-- तेन यज्ञाय गौर्दुदुहे मघोना सस्याय द्यौः 'दुदुहे ' उभाभ्यां सम्पद्विनिमयेन भुवनद्वयं दधे । सुधा -- सः := राजा दिलीपः, यज्ञाय = यागाय, यज्ञं कर्तुमिति यावत् । गां= क्षमाम्, पृथ्वीमित्यर्थः । दुदोह = अदुहत्, षष्ठांशरूपकरादानेन पृथ्वीं रिक्तां चकारेत्यर्थः । मघवा=इन्द्रः, सस्याय =धान्याय, सस्यं वर्धयितुमिति यावत् । दिवं स्वर्गं दुदोह= स्वर्गाद् भूतले वृष्टिं कारयामासेत्यर्थः । 'एवम्' उभौ = इन्द्रदिलीपौ, सम्पद्विनिमयेन = परस्परं सस्यवृष्टिरूपसम्पदोरादानप्रतिदानाभ्याम् भुवनद्वयं = लोकद्वितयं स्वर्गलोकं मर्त्यलोकञ्चेत्यर्थः । दधतुः = पालयामासतुः, राजा दिलीपो यागैः स्वर्गलोकम् इन्द्रश्च वृष्ट्या मर्त्यलोकं ररक्षतुरिति भावः । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम:___ स०--सम्पदो विनिमयः सम्पद्विनिमयस्तेन सम्पद्विनिमयेन ॥ को०--'यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तु खः क्रतुः' इत्यमरः। 'वृक्षादीनां फलं सस्यम्' इत्यमरः । 'इन्द्रो मरुत्वान्मघवा विदौजाः पाकशासनः' इत्यमरः । 'सुरलोको धौदिवौ द्वे स्त्रियां क्लीबे त्रिविष्टपम्' इत्यमरः। 'सम्पदि। संपत्तिः श्रीश्च लक्ष्मीश्च' इत्यमरः । 'जगती लोको, विष्टपं भुवनं जगद्' इत्यमरः। ता०--सम्पादितसख्याविव इन्द्रदिलीपी वृष्टियज्ञाभ्यां मर्त्यस्वर्गलोकौ मिथो ररक्षतुः। इन्दुः-उस राजा दिलीप ने यज्ञ करने के लिये पृथ्वी को 'षष्ठांशरूप' कर ग्रहण द्वारा दुहा, और इन्द्र ने धान्य की वृद्धि होने के लिये स्वर्ग को वृष्टिद्वारा दुहा । इस प्रकार से' दोनों (इन्द्र और दिलीप) ने परस्पर 'धन और वृष्टिरूप' अपनी २ सम्पत्ति बदलने से दोनों 'स्वर्ग और मयं लोक की रक्षा की ॥ २६ ॥ तस्य राज्ये तस्करभयं नासीदित्याह न किलानुययुस्तस्य रामानो रक्षितर्यशः । व्यावृत्ता यत्परस्वभ्यः अतौ तस्करता स्थिता ॥ २७ ॥ सञ्जी०-नेति । राजानोऽन्ये नृपा राक्षतुर्भयेभ्यस्त्रातुस्तस्य राज्ञो यशो नानुययुः किल नानुचक्रः खलु । कुतः यद्यस्मात्कारणात्तस्करता चौर्य परस्वेभ्यः परधनेभ्यः स्वविषयभूतेभ्यो व्यावृत्ता सती श्रुतौ वाचकशब्दे स्थिता प्रवृत्ता, अपहार्यान्तराभावात्तस्करशब्द एवापहृत इत्यर्थः। अथवा (अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति हि) इति न्यायेन शब्दे स्थिता स्फुरिता न तु स्वरूपतोऽस्तीत्यर्थः। अ०-राजानः, रक्षितुः, तस्य, यशः, न, अनुययुः, किल, यत्, तस्करता, परस्वेभ्यः, व्यावृत्ता 'सती' श्रुतौ, स्थिता । वा०-'भन्यैः' राजभी रक्षितुस्तस्य यशो नानुयये किल, यत्, तस्फरतया परस्वेभ्यो व्यावृत्तया 'सत्या' श्रुतौ स्थितयाऽभावि । सुधा-राजानः= अन्ये नरपतयः, रक्षितः त्रातुः, 'भयेभ्यः' इति शेषः। तस्यराज्ञो दिलीपस्य, यशः कीर्ति, न= नहि, अनुययुः= अनुचक्रुः, किल= प्रसिद्धौ। यत् = यस्मात् कारणात्, तस्करता=चौर्यम्, परस्वेभ्यः= अन्यदीयधनेभ्यः, स्वविषयभूतेभ्य इति भावः । व्यावृत्तापराङ्मुखीभूता 'सती'। श्रुतौ श्रवणे, तस्करतेत्यर्थप्रतिपादके वाचकशब्द इति भावः। स्थिता=प्रवृत्ता, अपहार्यान्तराभावात्तस्करशब्द एवापहृत इत्यर्थः । अथवा श्रुतौ= ध्वनौ 'रवमात्रे' स्थिता=अस्थात् , तस्करता केवलं श्रयत एव नहि परधनार्थ प्रवर्तते। स०-परेषां स्वानि परस्वानि तेभ्यः परस्वेभ्यः। को०-'यशः कीर्तिः समज्ञा च' इत्यमरः । 'परः श्रेष्ठारिदूरान्योत्तरे क्लीवं तु केवले' इति मेदिनी। 'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने' इत्य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । २५ मरः । श्रुतिः श्रोत्रे तथाम्नाये वार्तायां श्रोत्रकर्मणि' इति विश्वः । ता--भयेभ्यस्त्रातुर्दिलीपस्य राज्ञो यशोऽन्ये नृपा नानुचक्रः, यतस्तद्राज्ये न वस्तुतश्चौर्यमभूत् किन्तु चौर्यशब्दः केवलं लोकानां श्रवणगोचर एवाभूत् । __ इन्दुः-अन्य राजा लोग 'भय से रक्षा करने वाले उस राजा दिलीप के यश का अनुकरण नहीं कर सके, क्योंकि उसके राज्य में चोरी 'यह शब्द' अपने विषयभूत दूसरे के द्रव्य से पृथक होती हुई केवल श्रवणगोचर हुई। अथवा-चोरी अर्थवाचक चोरी शब्द के ही चुराने में प्रवृत्त हुई ॥ २७ ॥ तस्य शिष्ट एव प्रियो दृष्ट एवाप्रिय आसादित्याह द्वेष्योऽपि संमतः शिष्टस्तस्यातस्य यथौषधम् । त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदङ्गलीबोरगक्षता ॥ २८ ॥ सञ्जी०--द्वेष्य इति । शिष्टो सजनो द्वेष्यः शत्रुरपि । आर्तस्य रोगिण औषधं यथौषधमिव । तस्य संमतोऽनुमत आसीत्। दुष्टो जनः प्रियोऽपि प्रेमास्पदीभूतोऽपि । उरगक्षता सर्पदृष्टाऽङ्गुलीव । ( छिन्याद् वाहुमपि दुष्टात्मनः) इति न्यायात् त्याज्य आसीत् तस्य शिष्ट एव बन्धुदुष्ट एव शत्रुरित्यर्थः। अ०-शिष्टः, द्वेष्यः, अपि, आर्त्तस्य, औषधं, यथा, तस्य, सम्मतः, 'आसीत्' दुष्टः, प्रियः, अपि, उरगक्षता, अङ्गुली, इव 'तस्य' त्याज्यः, आसीत्। __वा०--शिष्टेन द्वेष्येणाप्यौषधेन यथा तस्य सम्मतेनाभूयत, दुष्टेन प्रियेणाप्युरगक्षतयाऽङ्गुल्येव त्याज्येनाभूयत। सुधा-शिष्टः सज्जनः, द्वेष्योऽपि = अतिगतोऽपि, शत्ररपीति यावत् । आर्तस्यदुःखितस्य, रोगेणेति शेषः, रोगिण इति भावः । औषधम् = भेषजं, यथा-इव, तस्य-दिलीपस्य, सम्मतः = अभिमतः, प्रिय इति यावत्। आसीदिति शेषः । दुष्टामदुर्जनः, प्रियोऽपि वल्लभोऽपि, सुहृदपीति यावत् । उरगलता=सर्पदष्टा, अङ्गुली = करशाखा, इव = यथा, तस्येति शेषः । त्याज्यः = त्यागाहः, आसीत्= अभूत् । तस्य दिलीपस्य सुजनो बन्धुरसज्जनो रिपुरासीदिति भावः। __ ता०-यथा कटुभैषज्यं रोगग्रस्तस्य प्रियं भवति, तथैव तस्य दिलीपस्यापि सजनः शत्रुरपि सन् प्रियोऽभूद्, असजनः प्रियतमोऽपि सन् सर्पदष्टाङ्गुलीव त्याज्योऽभूत । इन्दुः-जिस प्रकार रोगी को कड़वी 'हितकर' औषधि भी प्यारी होती है, उसी प्रकार उस राजा दिलीप का द्वेष करने के योग्य 'वैरी' होता हुआ भी सजन प्यारा होता था और प्यारा होता हुआ भी दुर्जन साँप से काटी हुई अँगुली की भाँति छोड़ देने के योग्य होता था ॥ २८॥ तं घेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना। तथा हि सर्वे तस्यासन्परार्थेकफला गुणाः ॥ २६ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ रघुवंश महाकाव्यम् - [ प्रथमः सञ्जी० - तमिति । वेधाः स्रष्टा । 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधाः' इत्यमरः । तं दिलीपम् । समाधीयतेऽनेनेति समाधिः कारणसामग्री । महाभूतानां यः समाधिस्तेन महाभूतसमाधिना विदधे ससर्ज । नूनं ध्रुवम् । इत्युत्प्रेक्षा । तथाहि । तस्य राज्ञः सर्वे गुणा रूपरसादिमहाभूतगुणवदेव परार्थः परप्रयोजनमेवैकं मुख्यं फलं येषां ते तथोक्ता आसन् । महाभूतगुणोपमानेन कारणगुणाः कार्यं संक्रामन्तीति न्यायः सूचितः । अ० वेधाः, तं, महाभूतसमाधिना, विदधे नूनं, तथा हि, तस्य, सर्वे, गुणाः, परार्थैकफलाः आसन् । वा०-- वेधसा महाभूतसमाधिना स विदधे नृनं तथा हि तस्य सर्वैर्गुणैः परार्थेकफलैरभूयत । सुधा - वेधाः = विधिः, तं दिलीपम्, महाभूतसमाधिना = पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानां कारणसामग्रथा, विदधे = विरचितवान्, नूनं = ध्रुवम्, इत्युत्प्रेक्षा, तथा हि = तेन प्रकारेण हि, तस्य दिलीपस्य, सर्वे = निखिलाः, गुणाः = दयादानदाक्षिण्यादिगुणाः, रूपरसादिमहाभूतगुणवदेव, परार्थैकफलाः = अन्यप्रयोजनमुख्यफलकाः, आसन् = अभूवन् । स० - महाभूतानां समाधिः महाभूतसमाधिस्तेन महाभूतसमाधिना । परस्यार्थः परार्थः स एव एवं 'मुख्यं' फलं येषां ते परार्थेकफलाः । को०--' नूनं निश्चिततर्कयोः' इति विश्वः । 'भूतं चमाऽऽदौ पिशाचादौ न्याय्ये सत्योपमानयोः' इति विश्वः । 'अर्थों हेतौ प्रयोजने' इति हैमः । ता०—ब्रह्मा यथा यया कारणसामग्रथा महाभूतपञ्चकं निर्मितवांस्तया सामग्रथैव तथा दिलीपमपि निर्ममौ, अत एव पञ्चमहाभूतगुणवदस्यापि सर्वे शौर्य्यादयो गुणाः परप्रयोजन मुख्यफलका आसन् । इन्दुः-ब्रह्मा जी ने उस राजा दिलीप को महाभूतों (पृथ्वी - जल-तेज- वायुआकाश ) के कारण की सामग्री से बनाया था, निश्चय करके उस राजा दिलीप के सभी 'शौर्य्यादि' गुण 'पञ्चमहाभूतों के रूपरसादि गुणों के तुल्य' पराये प्रयोजन वाले ही थे ॥ २९ ॥ तस्य चक्रवर्त्तित्वमाह - सावप्रवलयां परिखीकृत सागराम् अनन्यशासनामुर्वी शशा सैकपुरीभित्र ॥ २० ॥ 1 सञ्जी० - स इति । स दिलीपः । वेलाः समुद्रकूलानि । 'वेला कूलेऽपि वारिधेः' इति विश्वः । ता एव । वप्रवलयाः प्राकारवेष्टनानि यस्यास्ताम् । 'स्याच्चयो वप्रमस्त्रियाम् । प्राकारो वरणः शालः प्राचीनं प्रान्ततो वृतिः' इत्यमरः । परितः खातं परिखा दुर्गवेष्टनम् । 'खातं खेयं तु परिखा' इत्यमरः । 'अन्येष्वपि दृश्यते' इत्यत्रापिशब्दाखनेर्डप्रत्ययः । अपरिखाः परिखाः सम्पद्यमानाः कृताः परिखीकृताः सागरा यस्या स्ताम् । अभूततद्भावेच्विः । अविद्यमानमन्यस्य राज्ञः शासनं यस्यास्तामनन्यशा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सनामुर्वीमेकपुरीमिवं शशास । अनायासेन शासितवानित्यर्थः । अ०-सः, वेलावप्रवलयाम् परिखीकृतसागराम्, अनन्यशासनाम्, 'उर्वीम्, एकपुरीम्, इव, शशास । वा०-तेन वेलावप्रवलया परिखीकृतसागराऽनन्यशासनोर्वी, एकपुरीव शशासे। सुधा-सा दिलीपः,वेलावप्रवलयां=समुद्रकूलप्राकारवेष्टनाम्, परिखीकृतसागरां दुर्गवेष्टनीकृतोदधिम्, अनन्यशासनां = स्वेतरशासनरहिताम्, उम्-िपृथ्वीम् एकपुरीम् = एकनगरीम्, इव = यथा, शशास=शासितवान्, प्रयासं विनवासमुद्र पृथ्वी ररक्षेति भावः। स०-वप्राण्येव वलया वप्रवलयाः वेला एव वप्रवलया यस्याः सा वेलावप्रवलया तां वेलावप्रवलयाम् । परितः खाताः परिखा न परिखा अपरिखाः अपरिखाः परिखाः सम्पद्यमानाः कृता इति परिखीकृताः, परिखीकृताः सागरा यस्याः सा परिखीकृतसागरा तां परिखीकृतसागराम् । अन्यस्य शासनम् अन्यशासनम् अविद्यमानमन्यशासनं यस्याः साऽनन्यशासना तामनन्यशासनाम् । को०-'उदन्वानुदधिः सिन्धुः सरस्वान् सागरोऽर्णवः' इत्यमरः । सर्वसहा वसुमती वसुधोर्वी वसुन्धरा' इत्यमरः । 'परः श्रेष्ठारिदूरान्योत्तरे क्लीबं तु केवले' इत्यमरः । 'पू: स्त्री पुरीनगय्यौँ वा पत्तनं पुटभेदनम्' इत्यमरः। ता०-स दिलीप आसमुद्रान्तभूमेः शासनमनायासेन सामान्याया एकनगर्या एवाकरोत् । इन्दुः-उस राजा दिलीप ने समुद्र का किनारा है कङ्कण की तरह चहारदी. वारी जिसकी, और समुद्र है खाई जिसकी, ऐसी अन्य किसी राजा से शासन नहीं की जाती हुई पृथ्वी का एक नगरी की भांति शासन किया ॥ ३०॥ तस्य पत्न्या नामाह तस्य दाक्षिण्यरूढेन नाम्ना मगधर्वशना । पत्नी सुदक्षिणत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा ।। ३१॥ सञ्जी-तस्येति । तस्य राज्ञो मगधवंशे जाता मगधवंशजा । 'सप्तम्यां जनेर्ड' इति डप्रत्ययः । एतेनाभिजात्यमुक्तम् । दाक्षिण्यं परच्छन्दानुवर्तनम् । 'दक्षिणः सरलोदारपरच्छन्दानुवर्तिषु इति शाश्वतः । तेन रूढं प्रसिद्धम् । तेन नाम्ना । अध्वरस्य यज्ञस्य दक्षिणा दक्षिणाख्या पत्नीव सुदक्षिणेति प्रसिद्धा पल्यासीत् । अन श्रुतिः-(यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणा अप्सरसः) इति । (दक्षिणाया दाक्षिण्यं नामविजो दक्षिणत्वप्रापकत्वम् । ते दक्षन्ते दक्षिणां प्रतिगृह्य) इति च ।। अ०-तस्य, मगधवंशजा, दाक्षिण्यरूढेन, नाम्ना, अध्वरस्य, दक्षिणा, पत्नी, इव, सुदक्षिणा, इति, 'पत्नी' आसीत् । वा०-तस्य मगधवंशजया दाक्षिण्यरूढेन नाम्नाऽध्वरस्य दक्षिणया परन्येव सुदक्षिणयेत्यभूयत । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमःसुधा-तस्य दिलीपस्य, मगधवंशजा-मगधदेशीयनृपकुलोत्पन्ना, दाक्षिण्यरू ढेन=परच्छन्दानुवर्तनप्रसिद्धेन, नाना=नामधेयेन, अध्वरस्य यज्ञस्य, दक्षिणा =तदाख्या, पत्नी भार्या, इव-यथा, सुदक्षिणा, इति-सुदक्षिणेति नाम्ना प्रसिद्धा, 'पत्नी' आसीद् =बभूव, तस्य दिलीपस्य नामतुल्यगुणशालिनी सुदक्षिणानाम्नी भार्याऽऽसीदिति भावः। स०-दक्षिणस्य भावो दाक्षिण्यं तेन रूढं दाक्षिण्यरूढं तेन दाक्षिण्यरूढेन । मगधानां वंशो मगधवंशः तत्र जाता मगधवंशजा। __ को०-'वंशोऽन्ववायः सन्तानः' इत्यमरः। 'पत्नी पाणिगृहीती च द्वितीया सहधम्मिणी' इत्यमरः।। ता-परच्छन्दानुवर्त्तित्वगुणवाहुल्यात् तस्य दिलीपस्य मनोवृत्तानुसारिणी, अन्वर्थनाम्नी यज्ञस्य पत्नी दक्षिणेव सुदक्षिणेत्याख्या मगधवंशनन्दिनी महिप्यासीत् । इन्दुः-उस राजा दिलीप की मगधवंश में उत्पन्न हुई दूसरेके मनोऽनुकूल चलने के कारण यज्ञ की पत्नी दक्षिणाकी तरह सुदक्षिणा इस नाम से प्रसिद्ध पटरानी थी। तस्यानेकासु पत्नीषु सतीष्वपि प्रिया सुदक्षिणवेत्याह कलत्रवन्तमात्मानमवरोधे महत्यपि । तया मेने मनस्विन्या लक्ष्म्या च वसुधाऽधिपः ।। ३२ ॥ सञ्जी०-कलत्रवन्तमिति । वसुधाऽधिपः, अवरोधेऽन्तःपुरवर्गे महति मनस्विन्या दृढचित्तया पतिचित्तानुवृत्त्यादिनिर्बन्धक्षमयेत्यर्थः, तया सुदक्षिणया लक्ष्म्या चात्मानं कलत्रवन्तं भार्यावन्तं मेने। 'कलनं श्रोणिभार्ययोः' इत्यमरः । वसुधाsधिप इत्यनेन वसुधया चेति गम्यते । अ०-वसुधाधिपः, अवरोधे, महति, अपि, मनस्विन्या, तदा लचम्या, चं आत्मानं, कलत्रवन्तं मेने। वा०-वसुधाऽधिपेनावरोधे महत्यपि मनस्विन्या तया लक्ष्म्या चात्मा कलत्रवान् मेने । सुधा-वसुधाऽधिपः = पृथ्वीपतिः, दिलीप इति भावः । अवरोधे = अन्तःपुरवर्गे महत्यपि = बाहुल्येन सत्यपि, मनस्विन्या=पतिचित्तानुवृत्त्यादिस्वधर्मे दृढचित्तया, तया= सुदक्षिणया, लचम्या=श्रिया, राज्यस्येति शेषः। च, आत्मानं स्वं, कलत्रवन्तम् =भार्यावन्तम्, मेने = अवगतवान् । स०-वसूनि दधातीति वसुधा तस्या अधिपो वसुधाऽधिपः । को०-'स्यगारं भूभुजामन्तःपुरं स्यादवरोधनम् । शुद्धान्तश्चावरोधश्च' इत्यमरः। 'संपत्तिः श्रीश्च लक्ष्मीश्च' इत्यमरः । 'वसुमती वसुधोर्वी वसुन्धरा' इत्यमरः । ____ ता०-तस्य दिलीपस्य बहुषु स्त्रीगणेषु सत्स्वपि स्वानुकूलाचरणतया स्ववशव. तितया च लक्ष्मीः सुदक्षिणा च द्वे एव प्रिये पल्यौ यथाऽर्थत आस्ताम् । इन्दुः-उस राजा दिलीपका रनिवास बहुत बड़ा होने पर भी (बहुत सी रानियां Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम | होने पर भी) दृढचित्त सुदक्षिणा और लक्ष्मी से ही वह अपने को स्त्रीवाला समझता था ॥ ३२ ॥ दिलीपः स्वपत्न्यां बहुदिनावधि पुनोत्पत्तिप्रतीक्षणं कृतवानित्याह तस्यामात्मानुरूपायामात्मजन्मसमुत्सुकः । विलम्बितफलैः कालं स निनाय मनोरथैः ।। ३३ ॥ सञ्जी०-तस्यामिति । स राजा। आत्मानुरूपायां तस्याम् । आत्मनो जन्म यस्यासावात्मजन्मा पुत्रः। तस्मिन्समुत्सुकः। यद्वा । आत्मनो जन्मनि पुत्ररूपेणोत्पत्ती समुत्सुकः सन् । (आत्मा वै पुत्रनामासि) इति श्रुतेः। विलम्बितं फलं पुत्रप्राप्तिरूपं येषां तेर्मनोरथैः कदा मे पुत्रो भवेदित्याशाभिः कालं निनाय यापयामास ।। अ०-सः, आत्मानुरूपायां, तस्याम, आत्मजन्मसमुत्सुकः, 'सन्'विलम्बितफलैं: मनोरथैः, कालं, निनाय । वा०-तेनात्मानुरूपायां तस्यामात्मजन्मसमुत्सुकेन 'सता' विलम्वितफलैर्मनोरथैः कालो निन्ये । सुधा-सः= राजा दिलीपः, आत्मानुरूपायां स्वसदृशि, तस्यां सुदक्षिणा. याम् । आत्मजन्मसमुत्सुकः पुत्रोत्पत्तीष्टार्थोद्युक्तः, पुत्रप्राप्तौ सोद्योग इति भावः । सन्निति शेषः। विलम्बितफलैः = चिरायितपुत्रप्राप्तिहेतुकृतैः, मनोरथैः = कासाभिः कदा मे पुत्रो भविष्यतीत्यात्मकैरिति भावः । कालं = समयं । निनाय = नीतवान् । स०-आत्मनो जन्म आत्मजन्म आत्मजन्मनि समुत्सुकः आत्मजन्मसमुत्सुकः । विलम्बितं फलं येषान्ते विलम्बितफलास्तैर्विलम्बितफलैः। ___ को०-'आत्मा वै पुत्रनामासि' इति श्रुतिः। 'जनुर्जननजन्मानि जनिरुत्पत्तिल, द्भवः' इत्यमरः । 'इष्टार्थोद्युक्त उत्सुकः' इत्यमरः । 'कालो मृत्यौ महाकाले समये यमकृष्णयोः' इति मेदिनी। ता०-स्वमनोऽनुकूलायां तस्यां सुदक्षिणायां पुत्रोत्पादनोत्सुको दिलीपो बहुदिवसानि व्यतीयाय। इन्दुः-उस 'राजा दिलीप' ने अपने मन के अनुरूप उस 'सुदक्षिणा' में पुत्र के जन्म के विषय में उत्सुक होते हुए, विलम्ब है जिसके फलमें ऐसी 'कब मुझे पुत्र होगा' आकाङ्क्षा से समय बिताया ॥ ३३ ॥ ®सन्तानार्थमुद्योक्तुं प्रवृत्तस्य राज्ञो मन्त्रिवर्गे राज्यभारसमर्पणमित्याह संतानार्थाय विधये स्वभुजादवतारिता । तेन धूर्जगतो गुर्वी सचिवेषु निचिक्षिपे ॥ ३४ ॥ सञ्जी०-संतानेति । तेन दिलीपेन । संतानोऽर्थः प्रयोजनं यस्य तस्मै संताना. र्थाय विधयेऽनुष्ठानाय । स्वभुजादवतारिताऽवरोपिता जगतो लोकस्य गुर्वी धूर्भारः सचिवेषु निचिक्षिपे निहिता। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमःअ०-तेन, सन्तानार्थाय, विधये, स्वभुजाद्, अवतारिता, जगतः, गुर्वी, धूः, सचिवेषु, निचिक्षिपे । वा०-स सन्तानार्थाय विधये स्वभुजादवतारितां जगतो गुवी, धुरं, सचिवेषु निचिक्षेप। सुधा-तेन = राज्ञा दिलीपेन, सन्तानार्थाय = वंशप्रयोजनाय, पुत्रायेति यावत् । विधये = विधानाय, अनुष्ठानायेति यावत् । स्वभुजाद् = आत्मवाहोः, अवतारिता = अवरोपिता, जगतः= लोकस्य, गुर्वी = दुर्भरा, धूः=भारः, कार्यस्येति शेषः । सचिवेषु = मन्त्रिषु, निचिक्षिपे-स्थापयामास। स०-सन्तानोऽर्थः प्रयोजनं यस्यासौ सन्तानार्थस्तस्मै सन्तानार्थाय । को०-'वंशोऽन्ववायः सन्तानः' इत्यमरः । 'अर्थो हेतौ प्रयोजने' इति हैमः । 'विधिविधाने देवेऽपि' इत्यमरः । 'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने' इत्यमरः । 'गुरुस्तु गीष्पती श्रेष्टे गुरौ पितरि दुर्भरे' इति विश्वः । 'मन्त्री सहायः सचिवा' इत्यमरः। ___ता०--पुत्रप्रयोजनकमनुष्ठानं कर्तुं समुत्सुको दिलीपो राज्यभारं मन्त्रिषु स्थापयामास। ___ इन्दुः-उस राजा दिलीप ने सन्तानप्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने के निमित्त अपने बाहु पर से उतारे हुए जगत् के बड़े भारी (प्रजापालनरूप कार्य-) भार को मन्त्रियों के ऊपर रख दिया ॥ ३४ ॥ पुत्रप्राप्तिकाम्यया दिलीपस्य स्वगुरोर्वसिष्ठत्याश्रमे गमनमित्याह अथाभ्यय विधातारं प्रयतौ पुत्रकाम्यया । तौ दम्पती वसिष्ठस्य गुरोजग्मतुराश्रमम् ॥ ३५ ॥ सञ्जी०-अथेति । अथ धुरोऽवतारानन्तरं पुत्रकाम्ययाऽऽत्मनः पुत्रेच्छया 'कास्यच्च'इति पुत्रशब्दारकाम्यच्प्रत्ययः। 'अप्रत्ययात्' इति पुत्रकाम्यतेरप्रत्ययः। ततष्टाप । तया तौ दम्पती जायापती । राजदन्तादिषु जायाशब्दस्य दमिति निपातनासाधुः । प्रयतौ पूतौ विधातारं ब्रह्माणमभ्यर्च्य ‘स खलु पुत्रार्थिभिरुपास्यते' इति मान्त्रिकाः । गुरोः कुलगुरोर्वसिष्ठस्याश्रमं जग्मतुः पुत्रप्राप्त्युपायापेक्षयेति शेषः । ___अ०-पुत्रकाम्यया,प्रयतौ,तो, दम्पती, विधातारम्, अभ्यर्य, गुरोः, वसिष्ठस्य, आश्रमं, जग्मतुः। सुधा-अथ =मन्त्रिषु राज्यधुरः स्थापनानन्तरम्, पुत्रकाम्यया = सुतेच्छया, प्रयतौ पवित्रौ, तौ-सुदक्षिणादिलीपौ, दम्पती जायापती, विधातारम्-विधिम्, अभ्यर्च्य सम्पूज्य, गुरोः कुलगुरोः, वसिष्ठस्य-तन्नामकस्य महर्षेः ब्रह्मणो मानसपुत्रस्येति यावत् । आश्रमं वासस्थानं, जग्मतुः = ययतुः, पुत्रप्राप्त्युपायजिज्ञासयेति शेपः। को०-'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकान्येष्वथो अथ'इत्यमरः । 'स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृड् विधिः' इत्यमरः । 'पवित्रः प्रयतः पूतः' इत्यमरः। 'आत्मजस्त Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | नयः सूनुः सुतः पुत्रः स्त्रियान्त्वमी' इत्यमरः । 'दम्पती जम्पती जायापती भार्यापती व तौ' इत्यमरः । 'गुरुस्तु गीप्पती श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे' इति विश्वः।। .. ता०-पुत्रप्राप्त्युपायजिज्ञासया सुदक्षिणादिलीपौ ब्रह्माणमभ्यय॑ स्वकुलगुरोदिव्यचक्षुषो वसिष्ठस्याश्रमं जग्मतुः। ___ इन्दुः-मन्त्रियों के ऊपर राज्यभार सौंपने के अनन्तर पुत्र की कामना से पवित्र हो, वे दोनों स्त्रीपुरुष सुदक्षिणा और दिलीप ब्रह्मा की पूजा करके गुरु वसिष्ठ के आश्रम को गये ॥ ३५॥ तयोरेकरथेन वसिष्ठाश्रमगमनमित्याह स्निग्धगम्भीरनिर्घोषमेक स्यन्दन मास्थितौ । प्रावृषेण्यं पयोवाह विधुदैरावताविव ।। ३६ ॥ सञ्जी०-स्निग्धेति। स्निग्धो मधुरो गम्भीरो निर्घोषो यस्य तमेकं स्यन्दनं रथम् । प्रावृषि भवः प्रावृपेण्यः। 'प्रावृष एण्यः' इत्येण्यप्रत्ययः। तं प्रावृषेण्यं पयोवाहं मेघं विद्युदैरावताविव । आस्थितावारूढी जग्मतुरिति पूर्वेण सम्बन्धः । इरा आपः। 'इरा भूवाक्सुराऽप्सु स्यात्' इत्यमरः। इरावान्समुद्रः। तत्र भव ऐरावतोऽभ्रमातङ्गः । 'ऐरावतोऽभ्रमातङ्गरावणाभ्रमुवल्लभाः' इत्यमरः। 'अभ्रमातङ्गत्वाच्चाभ्रस्थरूपत्वात्' इति क्षीरस्वामी। अत एव मेघारोहणं विद्यत्साहचर्यञ्च घटते। किञ्च विद्युत ऐरावतसाहचर्यादेवैरावती संज्ञा। ऐरावतस्य स्न्यैरावतीति क्षीरस्वामी । तस्मात्सुष्छूक्तं विद्युदैरावताविवेति । एकरथारोहणोक्त्या कार्यसिद्धिबीजं दम्पत्योरत्यन्तसौमनस्यं सूचयति ।। ___ अ०-स्निग्धगम्भीरनि?षम्, एकं, स्यन्दनम्, प्रावृषेण्यम्, पयोवाह, विद्यदैरावती, इव, आस्थिती, 'तो जग्मतुः । वा०-स्निग्धगम्भीरनि?षमेकं स्यन्दनं प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताभ्यामिवास्थिताभ्यां 'ताभ्यां जग्मे ।। सुधा-स्निग्धगम्भीरनिर्घोषम् =मधुरगम्भीरनिःस्वनम्, एकम् = अद्वितीयं, स्यन्दनं-रथं, प्रावृषेण्यं वर्षाकालिकम्, पयोवाहम् = मेघ, विद्युदैरावतीक्षगप्र. भाऽभ्रमातङ्गी, इवन्यथा, आस्थितौ आरूढी, 'तौ जग्मतुः' इति पूर्वश्लोकेन सम्वन्धः । एकरथारोहणोक्त्या कार्यसिद्धिकारणीभूता दम्पत्योमिथोऽत्यन्तमैत्री सूचिता । ___ को-'चिक्कणं महणं स्निग्धम्' इत्यमरः । 'स्वाननिर्घोपगिर्हादनादनिस्वाननिस्वनाः' इत्यमरः । 'एके मुख्यान्यकेवलाः' इत्यमरः । 'याने चक्रिणि युद्धार्थे शताङ्गः स्यन्दनो रथः' इत्यमरः। 'स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भून्नि, वर्पाः' इत्यमरः। 'सलिलं कमलं जलम् । पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम्' इत्यमरः। 'शम्पाशतहदा. हादिन्यैरावत्यः क्षणप्रभा । तडित्सौदामनी विद्यञ्चञ्चला चपला अपि' इत्यमरः। __ ता०-यथा मेघारूढौ विद्यदैरावती तथैव, एकरथमारूढौ तौ सुदक्षिणादिलीपौ प्रययतुः। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् । [प्रथमः ___इन्दुः-मधुर और गम्भीर शब्द करने वाले, एक ही रथ पर वर्षा काल के मेघ के ऊपर चढ़े हुये, विजली और ऐरावत हाथी की भाँति वे दोनों सुदक्षिणा और दिलीप चले ॥३६॥ लेनाविरहितयोस्तयोर्गमने कारणमाह मा भूदाश्रमपीडेति परिमेयपुरःसरौ। ___ अनुभावविशेषात्तु सेनापरिवृताविव ॥ ३७ ।। सञ्जी०-मा भूदिति । पुनः किंभूतौ दम्पती। आश्रमपीडा मा भून्मास्त्विति हेतोः । 'माङि लुङ्' इत्याशीरथै लुङ्। 'न मायोगे' इत्यडागमनिषेधः । परिमेयपुरःसरौ मितपरिचरौ । अनुभावविशेषात्तु तेजोविशेषात्सेनापरिवृताविव स्थितौ।। ___ अ०-'पुनः किम्भूतौ दम्पती' आश्रमपीडा, माभूद्, इति, परिमेयपुरःसरौ, अनुभावविशेषात्, तु, सेनापरिवृती, इव, 'तौ जग्मतुः'। वा०-आश्रमपीडया मा भावीति परिमेयपुरःसराभ्यामनुभावविशेषात्तु सेनापरिवृताभ्यामिव 'ताभ्यां जग्मे' । सुधा-'पुनः किम्भूतौ तौ दम्पती' आश्रमपीडा = वसिष्ठस्थानवाधा, मा भूद्= न ह्यस्तु, इति = अस्माद्, हेतोरिति शेषः । परिमेयपुरःसरौ=परिमिताप्रेसरौ स्वल्पसङ्ख्याकपरिचरपरिवृताविति यावत् । अनुभावविशेषात%प्रभावातिशयात्, तेजोऽतिशयादिति यावत् । तु = किन्तु, सेनापरिवृतौ = सैन्यसमन्वितो, इव-यथा, स्थितौ जग्मतुरिति शेषः ॥ ३७॥ स०-पुरः सरन्तीति पुरःसराः, राज्ञामने यायिनोऽनुचराः, परिमातुं शक्याः परिमेयाः, परिमेयाः पुरःसराः ययोस्तौ परिमेयपुर सरौ। को०-'पुरोगाग्रेसरप्रष्ठाग्रतःसरपुरःसराः' इत्यमरः। 'अनुभावः प्रभावे च सतां मतिविनिश्चये' इत्यमरः । 'ध्वजिनी वाहिनी सेना पृतनाऽनीकिनी नमूः। वरूथिनी वलं सैन्यं चक्रं चानीकमस्त्रियाम्' इत्यमरः। ता०-सैन्येन सह गमने जनसमुदायेन गुरोराश्रमपीडा भविष्यतीत्याशंक्याः ल्पपरिचरावपि सुदक्षिणादिलीपौ प्रभावाधिक्यादपरिमितपरिचरपरिवृताविव दृश्यमानी जग्मतुः। ___ इन्दुः-गुरु वसिष्ठ के आश्रम को पीडा न हो, इस कारण' से थोड़े 'इने-गिने' नौकरों (राजा के आगे-आगे चलने वालों) से युक्त होते हुये भी प्रभाव की अधिकता के कारण से सेना से घिरे हुये की भाँति 'दिखलाई पड़ते हुये' वे दोनो सुदक्षिणा और दिलीप चले जाते थे ॥ ३७॥ मार्गे तयोः सुखदवायुभिः सेव्यमानयोगमनमित्याह सेव्यमानौ सुखस्पर्शः शालनिर्यासगन्धिभिः ।। पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूतवनराजिभिः ॥३८॥ सञ्जी०-सेव्यमानाविति । पुनः कथंभूतौ ।सुखशीतलत्वात्प्रियः स्पर्शो येषां तैः। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दु टीकात्रयोपेतम् | ३३ शालनिर्यासगन्धिभिः सर्जतरुनिस्यन्दगन्धवद्भिः । ' शाल: सर्जतरुः स्मृतः' इति शाश्वतः । उत्किरन्ति विक्षिपन्तीत्युत्किराः । ' इगुपध० ' इत्यादिना किरतेः कप्रत्ययः । पुप्परेणूनामुत्किरास्तैराधूता मान्द्यादोषत्कम्पिता वनराजयो यैस्तैर्वातैः सेव्यमानौ । अ०—‘पुनः कथम्भूतौ' सुखस्पशैः, शालनिर्यासगन्धिभिः, पुष्प रेणूत्किरैः, आधूतवनराजिभिः, वातैः सेव्यमानौ, 'तौ जग्मतुः । वा० - सुखस्पर्शाच्छालनिर्यासगन्धिनः पुष्परेणूत्किरानाधूतवनराजीन् वातान् सेवमानाभ्यां 'ताभ्यां जग्मे' । सु० -- सुखस्पर्शैः = आनन्दप्रदस्पर्शैः, प्रियस्पशैरिति यावत् । शालनिर्यासगन्धिभिः=सर्जतरुनिस्यन्दगन्धवद्भिः, पुष्प रेणूत्किरैः = प्रसूनपरागविक्षेपकैः, आधूतवनराजिभिः = ईषत्कम्पितकाननपङ्क्तिभिः, वातैः = पवनैः सेव्यमानौ = परिचय्र्यमाण 'तौ दम्पती जग्मतुः । एतेन सुखकर वायुसञ्चारेणाभीष्टसिद्धिस्तयोः सूचिता । स०- - शालेभ्यो निर्यासाः, शालनिर्यासाः, शालनिर्यासाश्च ते गन्धाः शालनिर्यासगन्धाः, शालनिर्यासगन्धाः सन्त्येषु ते शालनिर्यासगन्धिनस्तैः शालनिर्यासगन्धिभिः । उत्किरन्तीत्युत्किराः पुष्पाणां रेणवः पुष्परेणवः तेषामुत्किराः पुष्परेणूक्कि - रास्तैः पुष्परेणूत्किरैः । आङ् = ईषद् धूता आधूताः वनस्य राजयो वनराजयः आधूता वनराजयो यैस्ते, आधूतघन राज्यस्तै राधूतवनराजिभिः । को० - 'परागः कौसुमेरेणौ धूलिस्नानीययोरपि । गिरिप्रभेदे विख्यातावुपरागे च चन्दने' इति कोशान्तरम् । 'परागः सुमनोरजः' इति चामरः । ' नभस्वद्वातपवनपवमानप्रभञ्जनाः' इत्यमरः । ' अटव्यरण्यं विपिनं गहनं काननं वनम्' इत्यमरः । 'वीथ्यालिरावलिः पङ्क्तिः श्रेणी लेखास्तु राजयः' इत्यमरः । ता-पुत्राप्त्युपायजिज्ञासया गच्छतोस्तयोर्यात्रायां मार्गेऽभीष्टफलप्राप्तिसूचकः सुखस्पर्शो वायुर्ववौ । इन्दुः- सुखकर स्पर्शवाली, शालवृक्षोंसे निकली हुई गन्ध से युक्त पुष्पों के परागों को उड़ानेवाली वायु का 'सुदक्षिणा और दिलीप' सेवन करते हुए जाने लगे । मार्गे मयूरवाणीः शृण्वतोस्तयोर्गमनमित्याह सनोऽभिरामाः शृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखैः । षड्जसंवादिनी: केका द्विधा भिन्ना शिखण्डिभिः ॥ ३६ ॥ 1 सञ्जी० – मनोऽभिरामा इति । रथनेमिस्वनोन्मुखैः । मेघध्वनिशङ्कयोन्नमितमुखैरित्यर्थः। शिखण्डिभिर्मयूरैर्द्विधा भिन्नाः शुद्धविकृतभेदेनाविष्कृतावस्थाद्वयाश्च्युताच्युतभेदेन वा षड्जो द्विविधः । तत्सादृश्यात्केका अपि द्विधा भिन्ना इत्युच्यते । अत एवाह - षड्जसंवादिनीरिति । षड्भ्यः स्थानेभ्यो जातः पड्जः । तदुक्तं ( नासाकण्ठमुरस्तालुजिह्वा न्ताँश्च संस्पृशन्। षड्भ्यः संजायते यस्मात्तस्मात्षड्ज इति स्मृतः । ) स च तन्त्रीकण्ठजन्मा स्वरविशेषः । 'निषादर्पभगान्धारषड्जमध्यमधैवताः । पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ।' इत्यमरः । षड्जेन संवादिनीः सदृशीः । ३ रघु० १ सर्ग Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः तदुक्तं मातङ्गेन-(षड्ज मयूरो वदति) इति । मनोऽभिरामाः, मनसः प्रियाः। के मूर्धनि कायन्ति ध्वनन्तीति केका मयूरवाण्यः 'केका वाणी मयूरस्य' इत्यमरः । ता केकाः शृण्वन्ती, इति श्लोकार्थः। ___ अ०-रथनेमिस्वनोन्मुखैः, शिखण्डिभिः, द्विधा, भिन्नाः,षड्जसंवादिनीः, मनोऽभिरामाः, केकाः, शृण्वन्तो, 'तौ दम्पती जग्मतुः' वा०-रथनेमिस्वनोन्मुखैः शिखण्डिभिद्विधा भिन्नाः षड्जसंवादिनीर्मनोऽभिरामाः केकाः 'शृण्वद्भयां' ताभ्यां जग्मे । सधा-रथनेमिस्वनोन्मुखः स्यन्दनचक्रप्रान्तनिनादोन्नमिताननेः, मेघध्वनिशकयोर्ध्वमुखैरिति यावत् । शिखण्डिभिः= मयूरैः, द्विधा-द्विप्रकाराः, शुद्धविकृतभेदेनेति शेपः । भिन्नाः=भेदमापन्नाः, द्वधीभूताः इत्यर्थः। पड्जसंवादिनीः तन्त्रीकण्ठ विनिःसृतस्वरविशेषानुसारिणीः, मनोऽभिरामाः हृदयप्रियाः, मानसानन्ददायिनी रित्यर्थः । केकाः मयूरवाणीः, शृण्वन्तौ=आकर्णयन्तौ 'तौ सुदक्षिणादिलीपो जग्मतुः' स०-अभिरमते मनो यासु ता अभिरामाः मनसोऽभिरामा मनोभिरामास्ता मनोऽभिरामाः । रथस्य नेमी रथनेमिः तयोः स्वनो रथनेमिस्वनः। उद् ऊर्ध्व मुखं येषान्ते, उन्मुखाः रथनेमिस्वनेनोन्मुखा रथनेमिस्वनोन्मुखास्तै रथनेसिस्वनो. न्मुखैः। षड्भ्यः स्थानेभ्यः संजातः पड्जः, संवदितुं शीलमस्त्यासामिति संवादिन्यः षड्जस्य संवादिन्यः षड्जसंवादिन्यस्ताः षड्जसंवादिनीः। को०-'पुंल्लिङ्गस्तिनिशे नेमिश्चक्रप्रान्ते स्त्रियामपि' इति रुद्रः । 'शब्दे निनादनिनदध्वनिध्वानरवस्वनाः' इत्यमरः । 'षड्ज मयूरो वदति' इति मातङ्गोक्तिः । 'शिखण्डस्तु, पिच्छबर्हे नपुंसके' इत्यमरः । ता०-रथचक्रप्रान्तोद्भूतशब्दं मेघध्वनि मन्यमानानामत एवोर्ध्वमुखानां मयूराणां वाणीः शृण्वन्तौ तौ जग्मतुः। इन्दुः-रथ के चक्रप्रान्त के शब्द को सुन कर ऊपर मुख किये हुये मयूरों द्वारा दो प्रकार की की हुई, षड्ज स्वर का अनुसरण करनेवाली तथा मन को प्रसन्न करने वाली वाणी को सुनते हुये वे दोनों चले ॥ ३९॥ मृगद्वन्द्व पश्यतोस्तयोर्गमनम्__परस्पराक्षिसादृश्यमदूरोज्झितवर्त्मसु ।। मृगद्वन्द्वेषु पश्यन्तौ स्यन्दनाबद्धदृष्टिषु ।। ४० ।। सञ्जी-परस्परेति। विश्रम्भाद् दूरं समीपं यथा भवति तथोज्झितंवर्त्म यैस्तेपु । स्यन्दनावद्धदृष्टिषु स्यन्दने रथे आबद्धाऽऽसञ्जिता दृष्टिनॆत्रं यस्तेषु । 'दृग्दृष्टिनेत्रलो. चनचक्षुर्नयनाम्बकेक्षणाक्षीणि' इति हलायुधः। कौतुकवशाद्रथासकदृष्टिवित्यर्थः । मृग्यश्च मृगाश्च मृगाः 'पुमान् स्त्रिया' इत्येकशेषः । तेषां द्वन्द्वषु। मिथुनेपु । 'स्त्रीपुंसौ मिथुनं द्वन्द्वम्' इत्यमरः । परस्पराणां सादृश्यं पश्यन्तौ । द्वन्द्वशब्दसामर्थ्यान्मृगीषु सदक्षिणाक्षिसादृश्यं दिलीपो, दिलीपाक्षिसादृश्यं च मृगेषु सदक्षिणेत्येवं विवेकव्यम्। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सखीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । अ०--'पुनः कथम्भूतौ' अदूरोज्झितवमसु, स्यन्दनाऽऽवद्धदृष्टिषु, मृगद्वन्द्वेषु, परस्पराचिसादृश्यं, पश्यन्ती, 'तो, जग्मतुः' ॥ वा०-अदूरोज्झितवम॑सु स्यन्दनावदृष्टिषु मृगद्वन्द्वेषु परस्पराक्षिसादृश्यं पश्यद्भयां 'ताभ्यां जग्मे'। सुधा-'पुनः कथम्भूतौ' अदूरोज्झितवम॑सुसन्निकटत्यक्तमार्गेषु, विश्वासात् पलायनविरहितेष्विति भावः । अत एव-स्यन्दनाबद्धदृष्टिषु-रथसंलग्ननेत्रेषु, कौतु. कवशादिति शेषः । मृगद्वन्द्वेषु-हरिणमिथुनेषु, परस्पराचिसादृश्यम्-मिथो नयनसरूपताम्, पश्यन्तौ-विलोकयन्ती, 'तो जग्मतुः' । 'अत्र मृगद्वन्द्वेष्विति पदे द्वन्द्वशब्दसामर्थ्याद् मृगीषु सुदक्षिणानेत्रसरूपतां दिलीपः, मृगेषु दिलीपनेत्रसरूपतां सुदक्षिणा च पश्यन्तौ इति बोद्धव्यम् । _. स-सदृशस्य भावः सादृश्यम्, अदणां सादृश्यमक्षिसादृश्यम्, परस्परं च तदक्षिसादृश्यं परस्परातिसादृश्यम् । न दूरमदूरम्, अदूरं यथा स्यात्तथोज्झितं वर्म यस्तान्यदूरोज्झितवानि तेषु, अदूरोज्झितवर्मसु । मृग्यश्च मृगाश्चेति मृगा. स्ते द्वन्द्वानि मृगद्वन्द्वानि तेषु मृगद्वन्द्वेषु । स्यन्दते यातीति स्यन्दनः तस्मिन्ना. समन्ताददा दृष्टयो यैस्तानि स्यन्दनावद्धदृष्टीनि तेषु स्यन्दनाबदृष्टिषु । कोशः-'मृगे कुरङ्गवातायुहरिणाजिनयोनयः' इत्यमरः । 'याने चक्रिणि युद्धार्थे शताङ्गः स्यन्दनो रथः' इत्यमरः। ता०-रथमार्ग परित्यज्य विश्वासात् समीपे तिष्ठत्सु हरिणमिथुनेपु दिलीपो हरिगीषु सुदक्षिणानयनसारूप्यं पश्यन् सुदक्षिणा हरिणेषु दिलीपनयनसारूप्यं पश्यन्ती सती च तो जग्मतुः।। इन्दु-समीपमें रथ के मार्गको छोड़े हुए, रथ की ओर दृष्टि लगाये हुए, मृग के जोड़ों में परस्पर (एक दूसरों के) आँखों की समानता को देखते हुए (वे दोनों चले)॥ मार्गे कचित् सारसान् पश्यन्तौ जग्मतुरित्याह श्रेणीवन्धाद्वितन्वद्भिरस्तम्भां तोरणस्रजम् । सारसैः कलनि दैः कचिदुन्नमिताननौ ।। ४१ ॥ सनी०--श्रेणीबन्धादिति। श्रेणीबन्धात्पङ्क्तिबन्धाद्धेतोरस्तम्भामाधास्तम्भरहिताम् । तोरणं बहिरिम् । 'तोरणोऽस्त्री बहिरम्' इत्यमरः। तत्र या स्रग्विरध्यते तां तोरणस्रजं वितन्वद्भिः। कुर्वद्भिरिवेत्यर्थः। उत्प्रेक्षाग्यञ्जकेवशब्दप्रयोगाभावेऽपि गम्योप्रेक्षयम् । कलनिर्हादैरव्यक्तमधुरध्वनिभिः सारसैः पक्षिविशेषैः। करणैः । कचिदुन्नमिताननौ । 'सारसो मैथुनी कामी गोनर्दःपुष्कराह्वयः इति यादवः। ___ अ०-श्रेणीवन्धाद्, अस्तम्भी, तोरणस्नजं, वितन्वद्भिः, कलनिर्हादैः, सारसैः कचिद, उन्नमिताननौ, 'तौ जग्मतुः । वा०--श्रेणीवन्धादस्तम्भां तोरणस्रजं वितन्वद्भिः कलनिर्दिः सारसः कचिदुनमिताननाभ्यां 'ताभ्यां जग्मे'। सुधा-श्रेणीबन्धात्म्पटिकबन्धनाद्, अस्तम्भाम् आधारस्तम्भरहितां, तोरण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः स्त्रजम् वहिरिमालां, वितन्वद्भिः विरचयद्भिः, इवेति शेषः। उत्प्रेक्षाबोधकेर शब्दप्रयोगाभावऽपि गम्योत्प्रेक्षाऽत्र ज्ञेया । कलनिर्बादै मधुरास्फुटध्वनिमि सारसैः पक्षिविशेषः, 'करणैः' क्वचित् कस्मिंश्चित् , स्थल इति शेषः । उन्नमितान नौ ऊर्ध्वमुखी, 'तो जग्मतुः। ___स-तोरणस्य स्त्रक् तोरणस्रक् तां तोरणस्त्रजम् । कलो निर्हादः येषान्ते कल निर्वादास्तैः कलनिर्हादैः । उन्नसिते आनने ययोस्तो, उन्नमिताननौ । को०--'वीथ्यालिरावलिः, पङ्क्तिश्रेणीलेखास्तु राजयः' इत्यमरः । 'ध्वनौ मधुरास्फुटे । कलः' इत्यमर । 'स्वाननि?पनि दनादनिस्वाननिस्वनाः' इत्यमरः 'वक्त्रास्ये वदनं तुण्डमाननं लपनं सुखम्' इत्यमरः। ता०-पङ्क्तिबन्धनं कृत्वाऽऽकाशे मधुराव्यक्तभाषिणः सारसान् स्तम्भरहिता बहिरिमाल्यसदृशान् क्वचिदूर्ध्वमुखौ पश्यन्तौ तौ जग्मतुः। __इन्दुः-पडित बाँधने से (पङ्क्ति बाँध कर चलने से) विना खम्भे के बन्दनवा (की तरह शोभा) को करते हुए, स्पष्ट मधुर शब्द वाले सारस पक्षियों कारण वे कभी कभी ऊपर की ओर मुख किये हुए (वे दोनों चले)॥४१॥ गच्छतोस्तयोः पथ्यनुकूलवायुवहनमित्याह पवनस्यानुकूलत्वात्प्रार्थनासिद्धिशंसिनः । रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालकवेष्टनौ ॥४२॥ सञ्जी०-पवनस्येति । प्रार्थनासिद्धिशंसिनोऽनुकूलत्वादेव मनोरथसिद्धिसूच कस्य पवनस्यानुकूलत्वाद् गन्तव्यदिगभिमुखत्वात् । तुरगोत्कीर्णं रजोभिरस्पृष्ट अलका देव्याः वेष्टनमुप्णीषं च राज्ञो ययोस्तौ तथोक्तौ । 'शिरसा वेष्टनशोभिन सतः' इति वक्ष्यति। स-प्रार्थनासिद्धिशंसिनः, पवनस्य, अनुकूलत्वात्, तुरगोत्कीर्णैः, रजोभि. अस्पृष्टालकवेष्टनौ' 'तौ जग्मतुः । वा०-प्रार्थनासिद्धिशंसिनः पवनस्यानुकूलत्वार तुरगोत्कीर्णे रजोभिरस्पृष्टालकवेष्टनाभ्यां ताभ्यां जग्मे । _ सुधा-प्रार्थनासिद्धिशंसिन = याच्यापूर्तिविज्ञापकस्य, मनोरथसिद्धिसूचक स्येति भावः। पवनस्य वातस्य, अनुकूलत्वाद् = गन्तव्यदिगभिमुखत्वाद्, शकुन शास्त्रेऽभिसुखपवनस्य कार्यसिद्धिकरत्वमुक्तम् । तुरगोत्कीर्णैः =अश्वोत्क्षिप्तैः, अश्व खुरोत्क्षिप्तैरित्यर्थः । रजोभिः=धूलिमिः, अस्पृष्टालकवेष्टनौ = असम्पृक्तचूर्णकुन्तलो ष्णीषौ, 'शिरसा वेष्टनशोभिना सुत' इति वचयमाणप्रयोगवशाद्वेष्टनपदेन शिरो वेष्टनं गृह्यते । 'तौ दम्पती जग्मतुः ।। ___ स०-प्रार्थनायाः सिद्धिः प्रार्थनासिद्धिः तां शंसितुं शीलमस्येति प्रार्थनासिद्धि शंसी तस्य प्रार्थनासिद्धिशंशिनः। तुतोर्तीतितुरः तुरो गच्छन्तीति तुरगाः तैरुत्कीर्णानि तुरगोत्कीर्णानि तैस्तुरगोत्कीर्णैः। न स्पृष्टानि अस्पृष्टानि अलकाश्च वेष्टनञ्चेति अलक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । वेष्टनानि अस्पृष्टानि अलकवेष्टनानि ययोस्तो, अस्पृष्टालकवेष्टनी। को-'याच्जाऽभिशस्तिर्याचनार्थना' इत्यमरः। 'रेणुद्वयोः स्त्रियां धूलिः पांशुर्ना न द्वयो रजः' इत्यमरः । 'घोटके वीतितुरगतुरङ्गाश्वतुरङ्गमाः' इत्यमरः। - ता-मनोरथसिद्धिसूचकस्य वायोरनुकूलत्वात् तुरगखुरोत्था धूलयो राज्ञो दिलीपस्योष्णीषं राज्ञयाः सुदक्षिणायाश्च कुटिलकेशान् नास्पृशन् । ___ इन्दुः-मनोरथ की सिद्धि को सूचित करने वाली वायु की अनुकूलता (सम्मुख दिशा की तरफ बहने) के कारण, घोड़ा के खुरों से उठी हुई धूलि से 'सुदक्षिणा' के घुघराले बाल और 'दिलीप' के सिरपंच नहीं छुये गये 'ऐसे वे दोनों चले ॥४२॥ मार्गे कमलानां गन्धं जिघ्रतोस्तयोर्गमनमित्याह सरसीध्वरविन्दानां वोचिविक्षोभशीतलम् । ___ आमोदमुपजिघ्रन्तौ स्वनिःश्वासानुकारिणम् ।। ४३ ।। सञ्जी०-सरसीविति । सरसीषु वीचिविक्षोभशीतलं भूमिसंघटनेन शीतलं स्वनिःश्वासमनुकतुं शीलमस्येति स्वनिःश्वासानुकारिणम् । एतेन तयोरुत्कृष्टस्त्रीपुंसजातीयत्वमुक्तम् । अरविन्दानामामोदमुपजिघ्रन्तौ घ्राणेन गृह्णन्तौ। ___ अ०-सरसोषु, वीचिविक्षोभशीतलं, स्वनिःश्वासानुकारिणम्, अरविन्दानाम्, आमोदम्, उपजिघन्तौ, 'तौ जग्मतुः । वा०-सरसीषु वीचिविक्षोभशीतलं स्वनिःश्वासानुकारिणमरविन्दानामामोदमुपजिघ्रद्यां 'ताभ्यां जग्मे'। __ सुधा-सरसीषु-सरःसु, वीचिविक्षोभशीतलं तरङ्गसङ्घनशीतं, स्वनिःश्वासानुकारिणम् आत्मनिःश्वासानुकरणशीलम्, एतेन तयोः स्त्रीपुंसयोः पद्मिनीशशजातीयत्वमुक्तम् । अरविन्दानां= कमलानाम्, आमोदम् = अतिनिहारिणं, सुगन्धिमित्यर्थः । उपजिघ्रन्तौ = नासया गृहन्तौ, 'तौ जग्मतुः। स०-वीचीनां विक्षोभो वीचिविक्षोभः, तेन शीतलः वीचिविक्षोभशीतलस्तं वीचिविक्षोभशीतलम् । निःश्वसनं निश्वासः स्वस्य निःश्वासः स्वनिःश्वासः, अनुकतुं शीलमस्येति अनुकारी, स्वनिःश्वासस्यानुकारी स्वनिःश्वासानुकारी तं स्वनिःश्वासानुकारिणम् । को०-'कासारः सरसी सरः' इत्यमरः । 'भङ्गस्तरङ्ग उम्मिर्वा स्त्रियां वीचिः' इत्यमरः । 'सुषीमः शिशिरो जडः । तुषारः शीतलः शीतो हिमः सप्तान्यलिङ्गका' इत्यमरः । 'आमोदः सोऽतिनिर्हारी' इत्यमरः । 'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने' इत्यमरः। __ ता०-स्वकीयमुखवातसुगन्धेरनुकारिणं कासारतरङ्गसम्पर्कशीतलमेवंभूतं कमलसौरभ घ्राणेन गृह्णन्तौ तौ जग्मतुः। ___ इन्दुः-तालाबों में लहरों के झकोरों से शीतल, अत एव अपने 'मुखकी वायु' निःश्वास की नकल करनेवाले,कमलोंके मनोहर सुगन्धको सूंघते हुए वे दोनों चले॥३॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ रघुवंश महाकाव्यम् - *यज्ञे ब्राह्मणेभ्यः प्रदत्तेषु ग्रामेषु तेषामाशीर्वादग्रहणमित्याहग्रामेष्वात्मविसृष्टेषु यूपचिह्नषु यज्वनाम् । अमोघाः प्रतिगृह्णन्ता वर्ध्यानुपदमाशिषः ॥ ४४ ॥ 1 सञ्जी० – ग्रामेष्विति । आत्मविसृष्टेषु स्वदत्तेषु । यूपो नाम संस्कृतः पशुबन्धा दारुविशेषः । यूपा एव चिह्नानि येषां तेषु ग्रामेध्वमोघाः सफला यज्वनां विधिनेष्टव ताम् । ‘यज्वा तु विधिनेष्टवान्' इत्यमरः । 'सुयजोर्ध्वनिप्' इति ङ्वनिपूप्रत्ययः आशिष आशीर्वादान् । अर्वः पूजाविधिः । तदर्थं द्रव्यमर्घ्यम् | 'पादार्घाभ्यां च' इति यत्प्रत्ययः । ' षट् तु त्रिष्वर्ध्य मर्वार्थ पाद्यं पादाय वारिणि' इत्यमरः । अर्घ्यस्यानुपप मन्वक्। अर्घ्यस्वीकारानन्तरमित्यर्थः । प्रतिगृह्णन्तौ स्वीकुर्वन्तौ । पदस्य पश्चादनु पदम् । पश्चादर्थाव्ययीभावः । 'अन्दगन्वक्षमनुगेऽऽनुपदं क्लीवमव्ययम्' इत्यमरः अ० - आत्मविसृष्टेषु, यूपचिह्नेपु, ग्रामेषु, यज्वनाम्, अमोघाः, आशिपः, अर्ध्या नुपदम्, प्रतिगृहन्तौ 'तौ जग्मतुः ' । वा - आत्मविसृष्टेषु यूपचिह्नेषु यज्वना ममोघा आशिषोऽर्ध्यानुपदं प्रतिगृहद्भयां जग्मे । [ प्रथमः सुधा - आत्मविसृष्टेषु = स्वदत्तषु, यूपचिह्नेषु = यज्ञसम्बन्धिपशुबन्धार्थकसंस्कृत दारुविशेषलक्षणेषु, ग्रामेषु = संवसथेषु, यज्वनां = विधिनेष्टावतां याज्ञिकानामित्यर्थः आशिपः = आशीर्वादान्, अर्ध्यानुपदम् = अर्ध्या व्यवहितोत्तरम्, प्रतिगृहन्तौ स्वी कुर्वन्तौ तौ जग्मतुः । स०-- अततीत्यात्मा तेन विसृष्टा आत्मविसृष्टास्तेषु आत्मविसृष्टेषु । को० -- 'समौ संवसथग्रामौ' इति । 'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽ स्त्रियां धने' इति चामरः । 'कलङ्काङ्कौ लान्छनञ्च चिह्नं लच्म च लक्षणम्' इत्यमरः । 'मोघं निरर्थकम्' इत्यमरः । देवद्विजननृपादिनां पूजाऽर्थान्युपकरणानि - 'आपः क्षीरं कुशाग्राणि दधि सर्पिश्च तण्डुलाः । यवः सिद्धार्थकश्चैव ह्यष्टाङ्गाः प्रकीर्तितः ॥ ता०- - पथि प्रयान्तौ सुदक्षिणा दिलीपौ विधिनेष्टवद्भयो विप्रेभ्यो विसृष्टेषु यूपलक्षणेषु ग्रामेषु तत्रत्यानां तेषामाशीर्वादानर्घ्य स्वीकारानन्तरं प्रतिगृह्णन्तौ जग्मतुः । इन्दुः- स्वयं 'दान में' दिये हुए यज्ञके स्तम्भों से चिह्नित ग्रामों में विधिपूर्वक यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणों के अव्यर्थ 'कभी निष्फल न जाने वाले' आशीर्वादों को अर्ध्य स्वीकार करने के अनन्तर ग्रहण करते हुए वे दोनों चले ' ॥ ४४ ॥ *मार्गे वन्यवृक्षाणां नामानि पृच्छतोस्तयोर्गमनमित्याह - हैयङ्गवीन मादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । नामधेयानि पृच्छन्तौ बन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥ ४४ ॥ सञ्जी० - हैयङ्गवीनमिति । ह्यस्तनगो दोहोद्भवं घृतं हैयङ्गवीनम् । 'तत्तु हैयङ्गवीनं स्याद् ह्योगोदोहोद्भवं घृतम्' इत्यमरः । 'हैयङ्गवीनं संज्ञायाम्' इति निपातः । तत्सद्यो धृतमादायोपस्थितान्घोपवृद्धान् । 'घोष आभीरपल्ली स्याद्' इत्यमरः । वन्यानां Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ३६ मार्गशाखिनां नामधेयानि पृच्छन्तौ । दुह्याच्–' इत्यादिना पृच्छतेर्द्विकर्मत्वम् । कुलकम् । __ अ०-हैयङ्गवीनम्, आदाय, उपस्थितान् , घोषवृद्धान् , वन्यानां, मार्गशाखिनां नामधेयानि, पृच्छन्तौ, 'तौ जग्मतुः' । वा०-हैयङ्गवीनमादायोपस्थितान् घोषवृद्धान् वन्यानां मार्गशाखिनां नामधेयानि पृच्छनयां 'ताभ्यां जग्मे । सुधा-हैयङ्गवीनं-ह्योगोदोहोद्भवं, सद्योघृतमिति यावद् । आदाय = गृहीत्वा 'राज्ञे निवेदयितुमि ति शेषः । उपस्थितान् = समीप आगतान् , घोषवृद्धान् = आभीरपल्लीस्थविरान् । वन्यानांकाननोत्पन्नानाम्, मार्गशाखिना=वर्त्मवृक्षाणां, नामधेयानि नामानि, पृच्छन्तौ = जिज्ञासमानौ, 'तौ जग्मतुः । इति कुलकं समाप्तम् । स०-घोषे वृद्धा घोषवृद्धास्तान् घोषवृद्धान् । शाखाः सन्त्येषामिति शाखिनः, मार्ग्यत इति मार्गः तत्र शाखिनो मार्गशाखिनः तेषां मार्गशाखिनाम् । को०-'आख्याह्वे अभिधानञ्च नामधेयञ्च नाम च' इत्यमरः। 'अटव्यरण्य विपिनं गहनं काननं वनम्' इत्यमरः । 'अयनं वर्त्ममार्गाध्वपन्थानः पदवी सृतिः' इत्यमरः । 'वृक्षो महीरुहः शाखी विटपी पादपस्तरुः' इत्यमरः। ता०-सुदक्षिणादिलीपौ स्वसविधे पूर्वदिनोद्भवं घृतमेवोपहारमादाय संमुपस्थितानाभीरपल्लीनिवासिन आभीरवृद्धान् किन्नामकोऽसौ मार्गप्ररूढस्तरुः किन्नामकश्च स इत्येवंरूपेण जिज्ञासां कुर्वाणौ जग्मतुः।। इन्दु-गाय के ताजा दूध का मक्खन लेकर उपस्थित हुये घोष (अहीरों के ग्राम) में (रहने वाले) वृद्धों से जंगली रास्ते के वृक्षों के नामों को पूछते हुये 'वे दोनों चले' ॥४५॥ तयोर्गच्छतोश्चित्राचन्द्रमसोरिव शोभाऽभूदित्याह काऽप्यभिख्या तयोरासाद् बजताः शुद्धवेषयोः हिनिमुक्तयोर्योगे चित्राचन्द्रमसारिव ।। ४६ ।। सञ्जी०–काऽपीति । व्रजतोर्गच्छतोः शुद्धवेषयोरुज्ज्वलनेपथ्ययोस्तयोः सुदक्षिणादिलीपयोश्चित्राचन्द्रमसोरिव योगे सति काऽप्यनिर्वाच्याऽभिख्या शोभाऽऽसीद् । 'अभिरुया नामशोभयोः' इत्यमरः । 'आतश्चोपसर्गे' इत्यङ्प्रत्ययः। चित्रा नक्षत्रविशेषः । शिशिरापगमे चंच्या चित्रापूर्णचन्द्रमसोरिवेत्यर्थः । ___ अ०-व्रजतोः, शुद्धवेषयोः, तयोः, हिमनिर्मुक्तयोः, चित्राचन्द्रमसोः, इव योगे, 'सति' कापि, अभिख्या, आसीत् । वा०-व्रजतोः शुद्धवेषयोस्तयोहिमनिर्मुक्तयोश्चित्राचन्द्रमसोरिव योगे 'सति' कयाऽप्यभिख्ययाऽभूयत । सुधा-व्रजतोः गच्छतोः, मार्ग इति शेषः । शुद्धवेषयोः निर्मलनेपथ्ययोः, तयोः सुदक्षिणादिलीपयोः, हिमनिर्मुक्तयोः तुषारत्यक्तयोः, चित्राचन्द्रमसोः= Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् [ प्रथमः चित्राऽऽख्यताराचन्द्रयोः, इव = यथा, योगे = सङ्गतौ, सतीति शेषः । काऽपि = अनिर्वाच्या, अभिख्या = शोभा, आसीद्=अभवत् । स० - चित्रा च चन्द्रमाश्चेति चित्राचन्द्रमसौ तयोश्चित्राचन्द्रमसोः । ४० को० - 'आकल्पवेषौ नेपथ्यम् प्रतिकर्म प्रसाधनम्' इत्यमरः । 'अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् । प्रालेयं मिहिका च' इत्यमरः । 'योगोऽपूर्वार्थसम्प्राप्तां सङ्गतिध्यानयुक्तिषु' इति मेदिनी । ता० - यथा शिशिरान्ते चैत्र पूर्णिमायां चित्राचन्द्रमसोः सङ्गतौ सत्यां शोभाऽ लौकिकी भवति, तथैव निर्मलवेषयोः सुदक्षिणा दिलीपयोरपि शोभाऽभूदिति । इन्दुः-जाते हुये उज्ज्वल वेष वाले उन दोनों (सुदक्षिणा और दिलीप ) की तुषार से निर्मुक्त हुये चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा के समान योग होने पर अनिर्वच नीय शोभा हुई ॥ ४६ ॥ पत्न्यै मार्गेऽद्भुतवस्तुजातं दर्शयतो दिलीपस्य गमनमित्याहतत्तद् भूमिपतिः पत्न्यै दर्शयन्प्रियदर्शनः । अपि लङ्घितमध्वानं बुबुधे न बुधोपमः || ४७ ॥ सञ्जी० - तत्तदिति । प्रियं दर्शनं स्वकर्मकं यस्यासौ प्रियदर्शनः । योगदर्शनीय इत्यर्थः । भूमिपतिः पत्न्यै तत्तदद्भुतं वस्तु दर्शयँलङ्घितमतिवाहितमप्यध्वानं न बुबुधे न ज्ञातवान् । बुधः सौम्य उपमोपमानं यस्येति विग्रहः । इदं विशेषणं तत्तदर्शयन्नित्युपयोगितयैवास्य ज्ञातृत्वसूचनार्थम् । अ० - प्रियदर्शनः, बुधोपमः, भूमिपतिः, तत्तत्, परन्यै, दर्शयन्, लङ्घितम्, अपि, अध्वानं न, बुबुधे । वा० - प्रियदर्शनेन बुधोपमेन भूमिपतिना तत्तद् 'वस्तु' पत्न्यै दर्शयता लङ्घितोऽप्यध्वा न बुबुधे । सुधा – प्रियदर्शनः = हृद्यावलोकनः, बुधोपमः = चन्द्रपुत्रोपमानः, भूमिपतिः = धराधिपः, दिलीप इति शेषः । तत्तद् = अद्भुतं वस्तु, पत्न्यै = भार्यायै, दर्शयन् = अवलोकयन्, लङ्घितमपि = अतिवाहितमपि, अध्वानम् = पन्थानं, न = = नहि, बुबुधे=अबोधिष्ट | स०- - पातीति पतिः भवन्ति भूतान्यस्यामिति भूमिः तस्याः पतिर्भूमिपतिः । को० - वुधवृद्धौ पण्डितेऽपि' 'अपिशब्दात् सौम्येऽपि' इति । ' उपमोपमानं स्याद्' इति सर्वत्राप्यमरः । ता - 'सौम्यवपुर्दिलीपः सुदक्षिणायै मार्गेऽद्भुतवस्तूनि प्रदर्शयन् 'कियद्दूरंमागतोऽस्मीति' न ज्ञातवानिति । इन्दुः – देखने में सुन्दर, 'अत एव' चन्द्रपुत्र बुध के समान, राजा 'दिलीप' अद्भुत वस्तुओं को रानी 'सुदक्षिणा' को दिखलाते हुये लांघे हुये ( पीछे छोड़े हुये) मार्ग को भी न जान सके ॥ ४७ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी -सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | सुदक्षिणादिलीप योर्वशिष्ठाश्रमप्रापणमित्याह स दुष्प्रापयशाः प्रापदाश्रमं श्रान्तवाहनः । सायं संयमिनस्तस्य महर्षेर्महिषीसखः ॥ ४८ ॥ सञ्जी०- - स इति । दुष्प्रापयशा दुष्प्रापमन्यदुर्लभं यशो यस्य स तथोक्तः । श्रान्तवाहनो दूरोपगमनात्क्कान्तयुग्यः । महिष्याः सखा महिषीसखः 'राजाह :सखिभ्यष्टच्' इति टच् प्रत्ययः । सहायान्तरनिरपेक्ष इति भावः । स राजा सायं सायं काले संयमिनो नियमवतस्तस्य महर्षेर्वशिष्टस्याश्रमं प्रापत्प्राप । पुषादित्वादङ् । अ० - दुष्प्रापयशाः श्रान्तवाहनः, महिषीसखः, सः, सायं, संयमिनः, तस्य, महर्षेः, आश्रमम्, प्रापत् । वा० - दुष्प्रापयशसा श्रान्तवाहनेन महिषीसखेन तेन सायं संयमिनस्तस्य महर्षेराश्रमः प्रापि । ४१ सुधा - दुष्प्रापयशाः = अन्यदुर्लभकीर्तिः, श्रान्तवाहनः = = परिक्लान्तयुग्यः दूरमार्गगमनजनितायासेन परिक्षान्ततुरङ्गम इति भावः । महिषीसखः = कृताभिषेकपत्नीसहायः, सुदक्षिणासहित इत्यर्थः । सः = दिलीपः सायं = सायंकाले, संयमिनः = इन्द्रियनिग्रहवतः, तस्य = पूर्वोक्तस्य, निजकुलगुरोरिति भावः । महर्षेः =, अतिसत्यवचसः वशिष्ठस्येति यावद् । आश्रमम् = पर्णकुटीम्, प्रापत् = प्राप । स० - दुःखेन प्राप्तुं शक्यं दुष्प्रापम्, दुष्प्रापं यशो यस्य स दुष्प्रापयशाः । माते पूज्यत इति महिषी, तस्याः सखा महिषीसखः । को० - ' शरीरसाधनापेक्षं नित्यं यत्कर्म तद्यमः' इति । 'ऋषयः सत्यवचसः' इति । ' कृताभिषेका महिषी' इति । 'अथ मित्रं सखा सुहृद्' इति सर्वत्राप्यमरः । दा० - अन्यदुर्लभ कीर्तिः सुदक्षिणासहितो दिलीपः सन्ध्यासमये वशिष्ठाश्रमं प्रापत् इन्दुः - 'दूसरों के लिवे, दुर्लभ यश वाले, थके हुए हैं वाहन जिसके, ऐसे पटरानी सुदक्षिणा के सहित वे राजा दिलीप, सायंकाल के समय संयम रखने वाले उन पूर्वोक्त कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे ॥ ४८ ॥ तमाश्रमं विशिनष्टि वनान्तरादुपावृत्तै समित्कुशफलाहरैः । पूर्यमाणमदृश्याग्निप्रत्युद्यातैस्तपस्विभिः ॥ ४६ ॥ सञ्जी॰—वनान्तरादिति । वनान्तरादन्यस्माद्वनादुपावृत्तैः प्रत्यावृत्तैः । समिधश्च कुशांश्च फलानि चाहर्तुं शीलं येषामिति समित्कुशफलाहरास्तैः 'आङि ताच्छील्ये' इति हरतेराङ्पूर्वादप्रत्ययः । अदृश्यैर्दर्शनायोग्यैरग्निभिर्वैतानिकैः । प्रत्युद्याताः प्रत्युद्गतास्तैः तपस्विभिः पूर्यमाणम् । 'प्रोष्यागच्छतामाहिताग्नीनामग्नयः प्रत्युद्यान्ति' इति श्रुतेः । यथाsse - 'कामं पितरं प्रोपितवन्तं प्रत्याधावन्ति एवमेतमग्नयः प्रत्याधावन्ति सशकलान्दारुनिवाहरन्' इति । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः ___ अ०-वनान्तराद्, उपावृत्तः, समित्कुशफलाहरैः, अदृश्याग्निप्रत्युद्यातैः, ता स्विभिः, पूर्यमाणम्, 'आश्रमं प्रापद्' इति कुलकत्वात् पूर्वश्लोकादाक्षिप्यते । वा०-वनान्तरादुपावृत्तैः समित्कुशफलाहरैरदृश्याग्निप्रत्युद्यातैस्तपस्त्रिभिः पूर माण आश्रमः प्रापि । सुधा-वनान्तराद् = विपिनान्तराद्, अन्यस्माद्वनादित्यर्थः। उपावृत्तैः प्रति निवृत्तः, समित्कुशफलाहरैः दाल्दर्भफलाहरणशीलः, अदृश्याग्निप्रत्युद्यातैः अरू लच्यवैतानिकवह्निप्रत्युद्धतः, तपस्विभिः-तापसैः, पूर्यमाणं व्याप्तम् , 'आश्रमर प्रापद्, इति पूर्वश्लोकेन सह सम्वन्धः कुलकत्वात् । स०-समिधश्च कुशाश्च फलानि चेति समित्कुशफलानि तान्याहतुं शीलमेपान् समित्कुशफलाहराः तैः समित्कुशफलाहरैः। अदृश्याश्च तेऽनय इत्यदृश्याग्नयः तैर दृश्याग्निभिः प्रत्युद्याता इत्यदृश्याग्निप्रत्युद्यातास्तैस्तथोक्तैः।। ___को०-'काष्ट दाविन्धनन्त्वेध इध्ममेधः समिात्स्त्रयाम्' इति । 'तपस्वी तापस पारिकाजी' इति चासरः।। ता०-सन्ध्यासमये सर्वे तापसा विपिनान्तरात् समित्कुशफलान्यादाय स्ट स्वमाश्रमं समागच्छन्ति । वाला यथा प्रवासादायातान् स्वकीयपित्रादीन् दूरादेवा वलोक्य मिष्टान्नादीनां लोभेन वर्मन्येव प्रत्युद्यान्ति, तथैव तेपां साग्निकानां ताप सानां पुत्रस्वरूपा होमाग्नयोऽप्यन्यैरदृष्टाः सन्तो यज्ञकाष्ठादिभोज्यलोभात्तान प्रत्युद्यान्तीति। इन्दुः-दूसरे जंगल से लौटे हुए, समिधा, कुश और फल के लानेवाले, दूसरों से नहीं दिखाई पड़ते हुए अग्नि के द्वारा अगवानी किये गये तपस्वियों से भरे हुए 'आश्रम में पहुंचे' ॥४९॥ आश्रमस्थमृगवर्णनमित्याह आकीर्णमृषिपत्नीनामुटजद्वाररोधिभिः । __ अपत्यारव नीबारभागधेयावितैर्मृगैः ।। १० ।। सञ्जी०-आकीर्णमिति | नीवाराणां भाग एव भागधेयोऽशः 'भागरूपनामभ्यो धेयः' इति वक्तव्यसूत्रात्स्वामिधेये धेयप्रत्ययः तस्योचितैः। अत एवोटजानां पर्णशालानां द्वाररोधिभिस॒गैर्ऋषिपत्नीनामपत्यैरिव । आकीण व्याप्तम् । अ०-नीवारभागधेयोचितैः, उटजद्वाररोधिभिः, मृगैः, ऋषिपत्नीनाम्, अपत्यः, इव. आकीर्णम्, (आश्रमम् प्रापत्) वा०-नीवारभागधेयोचितैरुटजद्वाररोधिभिर्मुगऋषिपत्नीनामपत्यैरिवाकीर्ण आश्रमः प्रापि।। सुधा-नीवारभागधेयोचितैः तृणधान्यांशयोग्यः, उटजद्वाररोधिभिः पर्णशालाद्वारावरोधकारिभिः, मृगें: हरिणैः, ऋषिपत्नीनां सत्यवचोभार्याणाम्, अपत्यै-पुत्रैः, इव-यथा, आकीर्ण-व्याप्तम्, 'आश्रमम् प्रापद्' इति । स०-उटजानां द्वाराणि, उटजद्वाराणि तानि रोद्धं शीलमेषान्ते, उटजद्वाररोधि Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] MEM M सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | नस्तैरुटजद्वाररोधिभिः। भाग एव भागधेयः नीवाराणां भागधेयो नीवारभागधेयः तस्योचिताः नीवारभागधेयोचिताः, तैर्नीवारभागधेयोचितैः। ___ को-मुनीनां तु पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इति । 'स्त्री द्वारिं प्रतीहार' इति । 'आत्मजस्तनयः सूनुः सुतः पुत्रः स्त्रियान्त्वमी । आहुर्दुहितरं सर्वेऽपत्यं तोकं तयोः समे' इति । 'तृणधान्यानि नीवाराः' इति । 'अंशभागौ तु वण्टके' इति सर्वत्राप्यसरः । 'उचितं प्रोक्तमभ्यस्ते मिते ज्ञाते समक्षसे' इति विश्वप्रकाशः। ता०-ऋषिपत्नीनामपत्यानि यथा तृणधान्यभागग्रहणार्थं पर्णशालाद्वारं रुद्भवा। तिष्ठन्ति, तथैव मृगा अपि सर्वत्रासन् । इन्दुः-तृणधान्य के भाग को पाने वाले, 'तथा' पर्णशाला 'कुटी के द्वार को रोकने वाले, ऋषिपत्नियों की सन्तानों की तरह मृगों से भरे हुये, 'आश्रम में पहुँचे ॥५०॥ आश्रमस्थ पक्षिणां सद्यः सेचिततरुमूलजलपानमित्याह पसेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् । विश्वासाय विहङ्गानामालवालाम्बुपायना ।। ५१ ।। सञ्जी०-सेकान्ते वृक्षमूलसेचनावसाने सुनिकन्याभिः सेक्त्रीभिः । आलवालेषु जलावापप्रदेशेषु यदम्बु तत्पायिनाम् । 'स्यादालवालमावालसावापः' इत्यमरः। विहङ्गानां पक्षिणां विश्वासाय विश्रम्भाय । 'समौ विश्रम्भविश्वासौ' इत्यमरः । तत्क्षणे सेकक्षण उज्झिता वृक्षका ह्रस्ववृक्षा यस्मिस्तम् । ह्रस्वार्थे कप्रत्ययः। __ अ०-सेकान्ते, मुनिकन्याभिः, आलवालाम्बुपायिनां, विहङ्गाना, विश्वासाय, तत्क्षणोज्झितवृक्षकम्, 'आश्रमं प्रापत्' वा०-आलवालाम्बुपायिनां विहङ्गानां विश्वासाय मुनिकन्याभिः सेकान्ते तत्क्षणोज्झितवृक्षकः आश्रमः प्रापि। सुधा-सेकान्ते वृक्षकमूलसेचनावसाने, मुनिकन्याभिः= वाचंयमकुमारीभिः (कीभिः) सेक्त्रीभिरिति शेषः । आलवालाम्बुपायिनां जलावापप्रदेशजलपानशीलानां, विहङ्गानाम् = पक्षिणां, विश्वासाय = विश्रम्भाय, तत्क्षणोज्झितवृक्षकं तत्समयपरित्यक्तहस्वतरम्, 'आश्रमं प्रापत्' । स-तञ्च तत् क्षणं तत्क्षणं तस्मिन्नुज्झितास्तत्क्षणोज्झिताः ह्रस्वा वृक्षा वृक्षकाः तत्क्षणोज्झिता वृक्षका यस्मिन् स तत्क्षणोज्झितवृक्षकस्तं तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् । आलवालेष्वम्बु आलवालाम्बु तत्पातुं शीलमेषान्ते आलवालाम्वुपायिनः तेषामालवालाम्बुपायिनाम् । __को-'अन्तं स्वरूपे नाशे ना न स्त्री शेषेऽन्तिके त्रिषु' इति मेदिनी। 'वृत्तो महीरुहः शाखी विटपी पादपस्तरुः' इति । 'खगे विहङ्गविहगविहङ्गमविहायसः। शकुन्तिपक्षिशकुनिशकुन्तशकुनद्विजाः' इति । 'अम्भोऽर्णस्तोयपानीयनीरक्षीराम्बुशम्बरम्' इति चामराः। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ रघुवंश महाकाव्यम् - [ प्रथमः ता० - यत्राश्रमे मुनिकुमारिका ह्रस्ववृक्षमूलसेचनं कृत्वा तत्क्षणे वृक्षमूलं परि त्यजन्ति, यतो विश्वस्ताः सन्तः पक्षिणस्तत्रत्यं जलं पिबन्तु, इति बुद्धया, एवंभूत माश्रमं प्रापत् । इन्दुः-- वृक्षों की क्यारियों का जल पीना जिनका स्वभाव है, ऐसे पक्षियं के विश्वास के लिये (अर्थात् - कोई भय नहीं है ऐसा विश्वास दिलाने के लिये सुनिकन्याओं के द्वारा सीचे जाने के उपरान्त तत्काल ही छोड़े गये हैं छोटे वृद जिसमें 'ऐसे आश्रम में पहुँचे ' ॥ ५१ ॥ yay+ afaar ... 34 CEPETS. प्रतिव तत्रत्यानां मृगाणां रोमन्थवर्त्तनमित्याह आतपात्ययसंक्षिप्त नीवारासु निषादिभिः । मृगवततरो मृत्यमुटुजासेनभूमिषु A ॥ सञ्जी० 10- स्यात्ययप सति संक्षिप्ता राशीकृता नोवारस्तृिणधान्यानि यासु तासु । 'नीवारास्तृणधान्यानि ' इत्यमरः । उटजानां पर्णशालानामङ्गनभूमिषु चत्वरभागेषु 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इति । 'अङ्गनं चत्वराजिरे' इति चामरः निषादिभिरुपविष्टैर्मृगैर्वर्तितो निष्पादितो रोमन्धश्चर्वितचर्वणं यस्मिन्नाश्रमे तम् । अ० - आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु, उटजाङ्गनभूमिषु, निपादिभिः, मृगेः वर्तितरोमन्थम् ' आश्रमं प्रापत्' । वा० - आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासूटजाङ्गनभूमिषु निपादिभिर्मृगैर्वर्त्तितरोमन्धः 'आश्रमः प्रापि' | सुधा -- आतपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु = सूर्यप्रभान्ते राशीकृततृणधान्यासु, उटजा ङ्गनभूमिषु = पर्णशालाचत्वरभूभागेपु, निपादिभिः = उपवेशिभिः, मृगैः = हरिणैः वर्तितरो मन्थं = कृतचर्वितचर्वणम्, 'आश्रमं प्रापत्' । こ स०—आ समन्तात् तापयतीत्यातपः तस्यात्ययः आतपात्ययः तस्मिन् सति संक्षिप्ता आतपात्ययसंक्षिप्ताः ते नीवारा यासु ता आतपात्ययसंक्षिप्तनीवाराः तास्वा तपात्ययसंक्षिप्तनीवारासु । वर्त्तितो रोमन्थो यत्र स वर्तितरोमन्थस्तं वर्त्तितरो मन्थम् । भवन्ति भूतान्यास्विति भूमयः अङ्गनस्य भूमयोऽङ्गनभूमयः उटजानाम ङ्गनभूमय उटजाङ्गनभूमयस्तासूटजाङ्गनभूमिषु । ● को०- 'प्रकाशो द्योत आतपः' इति । 'स्यात्पञ्चता कालधर्मो दिष्टान्तः प्रलयो' ऽत्ययः' इति । 'तृणधान्यानि नीवाराः' इति । 'पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्' इति चानरः । ता०—यन्त्र दिनान्ते, एकत्रराशीकृततृणधान्येषु पर्णशालाचत्वरभूभागेषु सुखो पविष्टा मृगाश्चर्वितचर्वणं कुर्वन्ति तमाश्रमं प्रापत् । इन्दुः- घाम के न रहने पर इकट्ठे किये गये हैं नीवार नामक धान्य जिसमें, ऐसी पर्णशाला के आँगन की भूमि में बैठने वाले, हरिण जहाँ पागुर कर रहे हैं 'ऐसे आश्रम में पहुँचे ' ॥ ५२ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | छतत्रत्यो हुतहवनीयद्द्रव्यगन्धयुक्तो धूम इत्याहअभ्युत्थिताग्निपिशुनैरतिथीनाश्र मोन्मुखान् । पुनानं पवनोद्भूतैर्धूमैराहुतिगन्धिभिः ।। ४३ ।। सञ्जी० - अभ्युत्थितेति । अभ्युत्थिताः प्रज्वलिताः । होमयोग्या इत्यर्थः । समिद्धेऽग्नावाहुतीर्जुहोति ) इति वचनात् । तेषामग्नीनां पिशुनैः सूचकैः, पवनोदूधूतैः । आहुतिगन्धो येषामस्तीत्याहुतिगन्धिनस्तैर्धूमैराश्रमोन्मुखानतिथीन् पुनानं पवित्रीकुर्वाणम् ॥ कुलकम् ॥ - अ० – अभ्युत्थिताग्निपिशुनैः, पवनोद्धूतैः, आहुतिगन्धिभिः, धूमैः, आश्रमोन्मुखान्, अतिथीन्, पुनानम् ' आश्रमं प्रापत्' । वा० - अभ्युत्थिताग्निपिशुनैः पवनोद्धूतैराहुतिगन्धिभिर्धूमैराश्रमोन्मुखानतिथीन् पुनानः 'आश्रमः प्रापि' । = सुधा - अभ्युत्थिताग्निपिशुनैः प्रज्वलितवह्निसूचकैः, पवनोद्धूतैः वातोत्क्षिप्तैः, आहुतिगन्धिभिः = हवनीयद्रव्यगन्धवद्भिः, धूमैः = धूम्रः, आश्रमोन्मुखान् = वशिष्ठस्थानमभिलक्ष्यीकृत्यागन्तुमुत्सुकान्, अतिथीन् = अभ्यागतान् । पुनानम् = पवित्रीकुर्वाणम्, 'आश्रमं प्रापत्' । ४५ स॰—अङ्गन्तीत्यग्नयः अभ्युत्थिताश्च तेऽग्नयोऽभ्युत्थिताग्नयः तेषां पिशुना अभ्युस्थितान्निपिशुनाः तैरभ्युत्थिताग्निपिशुनैः आश्रम उन्मुखा आश्रमोन्मुखास्तानाश्रमोन्मुखान् । पुनातीति पवनः तेनोद्भूताः पवनोद्भूतास्तैः पवनोद्भूतैः । आहवनमाहुतिस्तस्या गन्ध आहुतिगन्धः सोऽस्त्येषामित्याहुतिगन्धिनः तैराहुतिगन्धिभिः । को० - 'पिशुनं कुङ्कुमेऽपि च । कपिवक्त्रे च काके ना सूचककरयोस्त्रिषु' इति मेदिनी । ' स्युरावेशिक आगन्तुरतिथिर्ना गृहागते' इत्यमरः । ' आश्रमो ब्रह्मचर्यादौ वानप्रस्थे मठे वने' इति मेदिनी । 'नभस्वद्वातपवनपवमानप्रभञ्जनाः' इत्यमरः । 'गन्धो गन्धक आमोदे लेशे सम्बन्धगर्वयोः' इति विश्वः । ता० - वशिष्ठादिमुनिकृत होमगन्धमिश्रितैः पवनोत्क्षिप्तैर्धूमैरतिथीन् पवित्रीकुर्वाणमाश्रमं प्रापद् । इति कुलकं समाप्तम् । इन्दुः - प्रज्वलित अग्नि को सूचित करने वाली ' तथा 'वायुसे फैले हुए आहुति गन्ध से मिले हुए धूएँ से आश्रम की ओर आने के लिए उन्मुख अतिथियों को पवित्र करने वाले 'आश्रम' में पहुँचे ॥ ५३ ॥ ༢༤༠༨ अथ प्रेशी आश्रमप्राप्त्यनन्तरं रथादवतरणमित्याह अथ यन्तारमादिश्य धुर्यान्विश्रामयेति सः . तामवारोहयत्पत्नीं रथादवततार च ॥ ५४ ॥ सञ्जी० - अथेति । अथाश्रमप्राप्त्यनन्तरं स राजा यन्तारं सारथिं, धुरं, वहन्तीति धुर्या युग्याः । 'धुरो यड्ढकौ' इति यत्प्रत्ययः । 'धूर्वहे धुर्यधौरेय धुरीणाः सधुर युग = घोसरशन कद्‌यसा 91 , Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः न्धराः' इत्यमरः। धुर्यान् रथाश्वान्विश्रामय विनीतश्रमान्कुर्वित्यादिश्याज्ञाप्य तां पत्नी रथादवारोहयदवतारितवान्स्वयं चावततार । 'विश्रमय'इति हस्वपाठे 'जनी जव०' इति मित्त्वं 'मितां ह्रस्वः' इति सूत्रे 'वा चित्तविरागे' इत्यतो 'वा' इत्यनुवर्त्य ज्यवस्थितविभापाऽऽश्रयणास्वाभाव इति वृत्तिकारः। __ अ०-अथ, सः, यन्तारं, धुव्न् , विश्रामय, इति, आदिश्य, ताम्, पत्नी रथाद्, अवारोहयद्, च, 'स्वयम्' अवततार । वा०-अथ तेन यन्तारं 'स्वय धुर्या विश्राम्यन्ताम्' इत्यादिश्य सा पत्नी रथादवारोह्यत स्वयं चावतेरे । सुधा-अथ = आश्रमप्राप्त्यनन्तरं, सा-राजा दिलीपः, यन्तारं = सारथिं, धुर्या धूर्वहान् , रथस्येति शेषः। अश्वानिति यावद् । विश्रामय = अपगताध्वश्रमान् कुरु । इति = इत्याकारकम् , आदिश्य= आदेशकृत्वा, ताम् = पूर्वोत्कार, पत्नी % सहधर्मिणी, सुदक्षिणामिति भावः, रथात्म्स्य न्दनाद्, अवारोहय अवतारितवान् च, 'स्वयम्' अवततार = अवारुरोह । स०-यच्छताति यन्ता तं यन्तारम् । धुरं वहन्तीति धुर्यास्तान् धुर्यान् । को०-'नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः । सव्येष्ठदक्षिणस्थौ च संज्ञा रथकुटुम्बिनः' इति । 'धूर्वहे धुर्यधौरेयधुरीणाः सधुरन्धराः' इति । 'याने चक्रिणि युद्धार्थ शताङ्गः स्यन्दनो रथः' इति सर्वत्राप्यमरः। ____ता०--आश्रमप्राप्तयनन्तरं स राजा दिलीपोऽश्वानां मार्गश्रमं दूरीकत्तु, सारथिमाज्ञाप्य सपत्नीको रथादवततार । ___इन्दुः-उसके बाद वह 'राजा दिलीप' सारथि को 'घोड़ों को विश्राम कराओ, यह आज्ञा देकर उस 'अपनी' स्त्री 'सुदक्षिणा' को रथसे उतारे और स्वयम् भी उतरे ॥५४॥ मुनयो दिलीपार्हणां चक्रुरित्याह तस्में सभ्याः सभार्याय गोप्ने गुप्ततमेन्द्रियाः । ___ अहणामहते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे ।। ५४ ।। सञ्जी०-सभायां साधवः सभ्याः। 'सभाया यः' इति यप्रत्ययः । गुप्ततमेन्द्रिया अत्यन्तनियमितेन्द्रिया मुनयः सभार्याय गोप्ने रक्षकाय । नयः शास्त्रमेव चतुस्तत्त्वावेदकं प्रमाणं यस्य तस्मै नयचक्षुषे । अत एवाहते । प्रशस्ताय । पूज्यायेत्यर्थः । 'अर्हः प्रशंसायाम्' इति शतृप्रत्ययः। तस्मै राज्ञेऽर्हणां पूजां चक्रुः । 'पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्यार्चाऽहणाः समाः' इत्यमरः। ___ अ०-सभ्याः, गुप्ततमेन्द्रियाः, सुनयः सभार्याय, गोप्ने, नयचक्षुषे, अर्हते, तस्मै, अर्हणां चक्रः । वा०-सभ्यैर्गुप्ततमेन्द्रियैर्मुनिभिः सभार्याय गोप्ने नयचक्षुषेऽहते तस्मै, अहणां चक्रे। सुधा-सभ्याः सभासदः, गुप्ततमेन्द्रियाः अतिशयरक्षितहृषीकाः, मुनयः = वाचं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् ।। यमाः, वेदशास्त्रार्थतत्त्वावगन्तार इति यावत् । सभार्याय सपत्नीकाय, गोप्ने = पालकाय, नयचक्षुषे = नीतिशास्त्रनेत्राय, अर्हते= पूजाहा, तस्मै राज्ञे दिलीपाय, अर्हणां पूजां, चक्रुः = विदधुः।। स०-अतिशयेन गुप्तानि गुप्ततमानि तानीन्द्रियाणि येषान्ते गुप्ततमेन्द्रियाः। को०-'सभासदः सभास्ताराः सभ्याः सामाजिकाश्च ते' इति । 'वाचंयमो सुनिः' इति चामरः। ता०-वशिष्ठाज्ञया सुनयो नीतिमते रक्षकाय सपत्नीकाय राज्ञे दिलीपाय पूजां विदधुः। इन्दुः-सभ्य जितेन्द्रिय मुनियों ने, रानी के सहित, रक्षा करने वाले, नीतिशास्त्ररूपी नेत्रवाले, 'अत एवं' पूज्य उन राजा दिलीप की पूजा की ॥ ५५॥ सायङ्कालीनक्रियान्तेऽरुन्धतीसहितस्य गुरोर्दर्शनमित्याह alth विधेः सायन्तनस्यान्त स ददर्श तपोनिधिम् । म अन्वासितमरुन्धत्या स्वाहयेव हविर्भुजम् ।। ६६ ।। सञ्जी०-विधेरिति । स राजा सायन्तनस्य सायम्भुवस्य । 'सायं चिरम्'० इत्यादिना ट्युत्प्रत्ययः। विधेजेपहोमाचनुष्ठानस्यान्तंऽवसानेऽरुन्धत्याऽन्वासितं पश्चादुपवेशनेनोपसेवितम् । कर्मणि क्तः । उपसर्गवशात्सकर्मकत्वम् 'अन्वात्यानाम्' इत्यादिवदुपपद्यते । तपोनिधिं वशिष्ठस् । स्वाहया स्वाहादेव्या । 'अथाग्नायी स्वाहा च हुतभुक्प्रिया' इत्यमरः। अन्वासितं हविर्भुजमिव ददर्श । (समित्पुष्पकुशाग्न्यम्बुमृदन्नाक्षतपाणिकः । जपं होमं च कुर्वाणो नाभिवाद्यो द्विजो भवेद् ।) इत्यनुष्ठा. नस्य मध्येऽभिवादननिषेधाद्विधेरन्ते ददशेत्युक्तम् । अन्वासनं चात्र पतिव्रताधर्मत्वेनोक्तं न तु कर्माङ्गत्वेन । विधेरन्त इति कर्मणः । समाप्त्यभिधानाद् । ___ अ०--सः, सायन्तनस्य, विधेः, अन्ते, अरुन्धत्या, अन्वासितं तपोनिधि, स्वाहया, अन्वासितं, हविर्भुजम्, इव, ददर्श। वा०-तेन सायन्तनस्य विधेरन्तेऽरुन्धत्याऽन्वासितस्तपोनिधिः स्वाहयाऽन्वासितो हविर्भुगिव ददृशे । सुधा-सा राजा दिलीपः, सायन्तनस्य सन्ध्याकालीनस्य, विधेः जपहोमाद्यनुष्ठानस्य, अन्ते=अवसाने, समाप्तावित्यर्थः अरुन्धत्या = अरुन्धतीनाम्न्या स्वपल्या, अन्वासितम्-उपासितम्, पश्चादुपवेशनेनेति शेषः। तपोनिधि =धर्मशेवधि, वशिष्ठमिति यावद् । स्वाहयातदाख्ययाऽग्निपरन्या, 'अन्वासितं' हविर्भुजम् = अग्निम्, इव: यथा, ददर्शविलोकयामास ।। स०-नि निश्चयेन धीयतेऽस्मिन्निति निधिस्तपसां निधिस्तपोनिधिस्तं तपो. निधिम् । को०-'विधिविधाने दैवेऽपि' इत्यमरः । 'अन्तं स्वरूपे नाशेऽन्तो न स्त्री शेषे. ऽन्तिके त्रिषु' इति मेदिनी। 'तपश्चान्द्रायणादौ स्याद्धर्मे लोकान्तरेऽपि च' इति Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् । [प्रथमः विश्वः । 'निधिर्ना शेवधिः' इत्यमरः । 'हवि:तव्यमानं च सर्पिष्यपि नपुंसकम्' इति मेदिनी। ता०--सन्ध्याकालीनकृत्यसमाप्तौ, अरुन्धत्योपसेवितं वशिष्टं स्वाहादेव्योपसेवितमग्निमिव स दिलीपो ददर्श। इन्दुः--उस 'राजा दिलीप'ने सायङ्कालीन अनुष्ठानके समाप्त होने पर अरुंधती से सेवित तपोनिधि 'वशिष्ट' को स्वाहादेवी से सेवित अग्नि की भाँति देखा ॥५६॥ सुदक्षिणादिलीपयोः सपत्नीकस्य गुरोः पादाभिवन्दनमित्याह तयोजगृहतुः पादानराजा राज्ञी च मागधी। तौ गुरुगुरुपत्नी च प्रीत्या प्रतिननन्दतुः ।। ५७ ॥ सञ्जी०--तयोरिति । मागधी मगधराजपुत्री राज्ञी सुदक्षिणा राजा च तयोररु न्धतीवशिष्ठयोः पादाञ्जगृहतुः । पादः पदनिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः । पादग्रहणमभिवादनम् । गुरुपत्नी गुरुश्च कर्तारौ, सा च स च तौ सुदक्षिणादिलीपौ कर्म भूतौ । प्रीत्या हर्षण प्रतिननन्दतुः। आशीर्वादादिभिः संभावयाञ्चक्रतुरित्यर्थः। अ०--मागधी, राज्ञी, राजा, च, तयोःपादान्, जगृहतुः, गुरुपत्नी, गुरू, च नौ.प्रीत्या, प्रतिननन्दतुः । वा०-मागध्या राश्या राज्ञा च तयोः पादा जगृहिरे, लणा, गुरुपत्न्या च प्रीत्या तो प्रतिननन्दाते। सुधा--मागधी=मगधराजसुता, राज्ञी राजपत्नी, सुदक्षिणेत्यर्थः । राजा-नृपः, दिलीप इत्यर्थः। च=समुच्चयेऽर्थे, तयोः अरुन्धतीवशिष्ठयोः, पादान्-चरणान् जगृहतुः-आददतुः, सपत्नीको राजा सपत्नीकं गुरुं नमस्कृतवानिति भावः । गुरुपत्नी वसिष्ठभार्या, अरुन्धतीत्यर्थः। गुरुश्च = वशिष्ठोऽपि, 'कर्तृभूतौ' तौ-सुदक्षिणादिलीपौ 'कर्मभूतो' प्रीत्या = हर्षेण, प्रतिननन्दतुः= अभिनन्दनं चक्रतुः, आशीर्वादादिभिरिति शेषः। सपत्नीको गुरुरपि सपत्नीकाय राज्ञे, आशीर्वादान ददाविति भावः। स०-मगधानां राजा मागधस्तस्यापत्यं स्त्री मागधी।। को०--'गुरुस्तु गीष्पतौ श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे' इति विश्वः । 'मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसम्मदाः' इति चामरः। ____ ताo-सुदक्षिणादिलीपौ सपत्नीकं गुरुं प्रणेमतुस्ततोऽरुन्धतीवशिष्ठावपि तास्यामाशिषो ददतुः। ____ इन्दुः-मगध देश के राजा की लड़की रानी 'सुदक्षिणा' और राजा 'दिलीप उन दोनों 'अरुन्धती और वसिष्ठ' के चरणों को पकड़े 'प्रणाम किये तथा गुरु 'वशिष्ठ' और गुरुपत्नी 'अरुन्धती ने प्रेम से उन दोनों 'सुदक्षिणा और दिलीप को आशीर्वाद दिया॥ ५७॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । वशिष्ठो दिलीपं राज्यविषयककुशलं पृष्टवानित्याहतमातिथ्य क्रियाशान्तरथक्षोभ परिश्रमम् । पप्रच्छ कुशलं राज्ये राज्याश्रममुनिं सुनिः ॥ ५८ ॥ सञ्जी० - तमिति । मुनिः अतिथ्यर्थमातिथ्यम् । 'अतिथेर्न्यः' इति न्यप्रत्ययः । आतिथ्यस्य क्रिया तया शान्तो रथक्षोभेण यः परिश्रमः स यस्य स तं तथोक्तम् । राज्यमेवाश्रमस्तत्र मुनिं मुनितुल्यमित्यर्थः । तं दिलीपं राज्ये कुशलं पप्रच्छ पृच्छतेस्तु द्विकर्मकत्वमित्युक्तम् । यद्यपि राज्यशब्दः पुरोहितादिष्वन्तर्गतत्वाद्वाजकर्मवचनः । तथाऽप्यन्र ‘सप्ताङ्गवचनः' । 'उपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वङ्गेषु' इत्युत्तर विरोधात् । तथाऽऽह मनुः ‘स्वाम्यमात्यपुरं राष्ट्र कोशदण्डौ तथा सुहृत् । सप्तैतानि समस्तानि लोकेऽस्मिन्राज्यमुच्यते ॥' इति । तत्र 'ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्तत्र बन्धुमनामयम् । वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ॥' इति मनुवचने सत्यपि तस्य राज्ञो महानुभावत्वाद् ब्राह्मणोचितः कुशलप्रश्न एव कृत इत्यनुसंधेयम् । अत एवोक्तं- 'राज्या• श्रममुनिम्' इति । अ० - मुनिः, आतिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमं राज्याश्रममुनिं तं राज्ये, कुशलम् पप्रच्छ । राज्याश्रममुनी राज्ये कु वा० – मुनिनाऽऽतिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमो शलं पप्रच्छे। ४६ सुधा - मुनिः = वाचंयमः, वशिष्ठ इत्यर्थः । आतिथ्य क्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमं= गृहागतसत्कार व्यापारविगतस्यन्दनसञ्चलनखेदं, राज्याश्रममुनिं = राज्यरूपाश्रमे मुनितुल्यं, तं = दिलीपं, राज्ये राज्यविषये, स्वाम्यमात्य सुहृत्को शराष्ट्रदुर्ग बलात्मकइत्यर्थः । कुशलं = क्षेमम्, पप्रच्छ = पृष्टवान् । स० --- अतति निरन्तरं गच्छतीत्यतिथिः, अविद्यमाना तिथिर्यस्यागमने सोडतिथिः अतिथ्यर्थमातिथ्यम् तस्य क्रिया, आतिथ्यक्रिया तथा शान्तः, आतिथ्यक्रियाशान्तः, रमन्तेऽस्मिन्निति रथः तस्य क्षोभो रथक्षोभः तेन परिश्रमो रथक्षोभपरिश्रमः आतिथ्यक्रियाशान्तो रथक्षोभपरिश्रमो यस्य स आतिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभपरिश्रमस्तमातिथ्यक्रियाशान्तरथक्षोभ परिश्रमम् राज्ञः कर्म भावो वा राज्यम्, राज्यमेवाश्रमो राज्याश्रमः तस्मिन् मुनी राज्याश्रममुनिस्तं राज्याश्रममुनिम् । को०- 'क्रिया, कर्मणि चेष्टायां करणे सम्प्रधारणे । आरम्भोपायशिक्षाऽर्थचिकि त्सानिष्कृतिष्वपि' इति विश्वः । ' याने चक्रिणि युद्धार्थे शताङ्गः स्यन्दनो रथः' इति । 'वाचंयमो मुनिः' इति चामरः ॥ ता० - वशिष्ठानुज्ञया मुनिकृतातिथिसत्कारव्यापारेणापनीतमार्गश्रमं दिलीपं मुनिर्वशिष्ठो राज्ये स्वाम्यमात्यपुर राष्ट्रकोशबल सुहृदात्मके कुशलं पृष्टवान् ॥ इन्दुः – मुनि 'वशिष्ठ' ने अतिथिसत्कार के द्वारा रथ के हिलने से उत्पन्न हुई ४ रघु० १ सर्ग Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० रघुवंश महाकाव्यम् - [ प्रथा थकावट जिसकी दूर हो गयी है, ऐसे राज्यरूपी आश्रम के विषय में मुनितुल्य उन 'राजा दिलीप' से राज्य 'स्वामी - मन्त्री - नगर - देश - खजाना - सेना - मित्र' विषयक कुशल पूछा ॥ ५८ ॥ वशिष्ठस्य कुशलप्रश्नानन्तरं दिलीपस्यो चरदानोपक्रमः - अथाथर्वनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरः । अर्ध्यापतिर्वाचमाददे वदतां वरः ॥ ६॥ सञ्जी० - अथेति । अथ प्रश्नानन्तरं विजितारिपुरो विजितशत्रुनगरो वदतां वक्तॄणां वरः श्रेष्ठः 'यत्तश्च निर्धारणम्' इति षष्ठी । अर्थपती राजाऽथर्वणोऽथर्ववेदस्य निधेस्तस्य मुनेः पुरोऽग्रेऽर्थ्यामर्थादनपेताम् | 'धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते' इति यत्प्रत्ययः। वाचमाददे। वक्तुमुपक्रान्तवानियर्थः । अथर्वं निधेरित्यनेन पुरोहित कृत्याभिज्ञत्वात्तत्कर्मनिर्वाहकत्वं मुनेरस्तीति सूच्यते । यथाऽऽह कामन्दकः - 'त्रय्या च दण्डनीत्यां च कुशलः स्यात्पुरोहितः । अथर्वविहितं कुर्यान्नित्यं शान्तिकपौष्टिकम् ॥' इति ॥ अ० - अथ, विजितारिपुरः, वदतां वरः, अर्थपतिः, अथर्वनिधेः तस्य, पुरः, अर्थ्यां, वाचम्, आददे ॥ वा० - अथ विजितारिपुरेण वदतां वरेणार्थपतिनाऽथर्व - निधेस्तस्य पुरोऽर्थ्या वागाददे ॥ सुधा - अथ = वशिष्ठस्य कुशलप्रश्नानन्तरं विजितारिपुरः = कृतस्वाधीनारि - नगरः, वदतां = जल्पताम् 'मध्ये' वरः, = श्रेष्ठः, अर्थपतिः = विभवेश्वरः, राजा दिलीप इति भावः । अथर्वनिधेः- अथर्ववेदशेवधेः, अथर्ववेदविदुप इति यावत् । तस्य वशिष्ठमहर्षेः पुरः = अग्रतः, अर्थ्याम् = भर्थोपेतां वाचं = गिरम्, आदद्दे = जगृहे, वक्तुमारम्भं कृतवानित्यर्थः ॥ स० 10- नि निश्चयेन धीयतेऽस्मिन्निति निधिः, अथर्वणो निधिरथर्वनिधिः, तस्याथर्वनिधेः । अरीणां पुराण्यरिपुराणि विजितान्यरिपुराणि येन स विजितारिपुरः । को० - 'निधिर्ना शेवधिः' इति । ' अगारे नगरे पुरम्' इति चामरः । 'स्यात्पुरः पुरतोऽग्रतः' इति । 'आत्मवाननपेतोऽर्थादय' इति चामरः । 'अयं शिलाजतुन्यर्थ्यो बुधे न्याय्ये च वाच्यवद्' इति मेदिनी । ता० - सुनेर्वशिष्टस्य कुशलप्रश्नमाकर्ण्य दिलीपस्तं स्वाभिलषितपुत्रप्राप्त्युपायाभिज्ञं विज्ञाय प्रयोजनयुतां वाणीं वक्तुमारब्धवान् ॥ इन्दुः- 'गुरु वशिष्ठ के कुशल प्रश्न पूछ चुकने के बाद, वैरियों के नगरों के जीतने वाले, बोलने वालों में श्रेष्ठ, विभव के पति 'राजा दिलीप' ने, अथर्ववेद के खजाना 'अथर्ववेद के विद्वान्' उन 'वशिष्ठ ऋषि' के आगे प्रयोजन से युक्त बात चलायी ॥ ५९ ॥ *यस्य त्वं गुरुरसि तस्य राज्ये सर्वं कुशलमस्त्येवेत्याहउपपन्नं ननु शिवं सप्तस्वङ्गेषु यस्य मे । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । दैवीनां मानुषीणां च प्रतिहर्ता त्वमापदाम् ॥ ६०॥ सञ्जी०-उपपन्नमिति । हे गुरो ? सप्तस्वङ्गेषु स्वाम्यमात्यादिषु । 'स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च । सप्ताङ्गानि' इत्यमरः। शिवं कुशलमुपपन्नं ननु युक्तमेव । नन्ववधारणे । 'प्रश्नावधारणानुज्ञाऽनुनयामन्त्रणे ननु' इत्यमरः। कथमित्यत्राह-यस्य ने दैवीनां देवेभ्य आगतानां दुर्भिक्षादीनाम् मानुषीणां मनुष्येभ्य आगतानां चौरभयादीनाम् । उभयत्रापि 'तत आगतः' इत्यण। 'टिड्ढाणञ्' इत्यादिना डीपआपदां व्यसनानां त्वं प्रतिहर्ता वारयिताऽसि । अत्राह कामन्दक:-'हुताशनो जलं व्याधिर्दुभिक्षं मरणं तथा । इति पञ्चविधं दैवं मानुपं व्यसनं ततः ॥ आयुक्तक्षेभ्यश्चौ. रेभ्यः परेभ्यो राजवल्लभात् । पृथिवीपतिलोभाच्च नराणां पञ्चधा मतम् ॥' इति । अ०-'हे गुरो !' सप्तसु, अङ्गेषु, मे शिवम्, उपपन्नं, ननु यस्य, मे देवीनाम्, मानुषीणाम्, आपदां, त्वम्, प्रतिहर्ता, 'असि' । वा०-मे सप्तस्वङ्गेषु शिवमुपपन्नं ननु यस्य देवीनाम् मानुषीणामापदाम् त्वया प्रतिहा भूयते ॥ सुता-'हे गुरो !' सप्तसुस्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गवलेतिसप्तसङ्ख्याकेषु, अंगेषु = राज्याङ्गेषु, मे= मम, शिवं कल्याणम्, उपपन्न युक्तम्, अस्त्येवेति शेपः । ननु = इत्यवधारणे, यस्य भवदीयशिप्यस्य, मेन्मम 'दिलीपस्य' इत्यर्थः । दैवीनां = देवेभ्य आगतानां, दुर्भिक्षादीनामिति यावद् । मानुषीणाम् = मनुष्येभ्य आगतानां, चौरभयादीनामिति यावद् । आपदां= विपत्तीना, त्वम् = भवान् ‘एव' इति शेषः । प्रतिहत = निवारणकर्ता, असीति शेषः॥ स०-मनुष्येभ्य आगता मानुष्यः तासां मानुषीणाम् । को०-'श्वःश्रेयसं शिवम्भद्रं कल्याणं मङ्गलं शुभम्' इत्यमरः । 'विपच्यां विपदापदौ' इत्यमरः। ता०-मम राज्ये स्वाम्यमात्यादिषु सप्तस्वंगेपु कुतो न कुशलं स्यात् ? यस्य मे देवीमानुषीप्रभृतिविपत्तिनिवारणाय प्रभुस्त्वम् मद्गुरुर्विद्यमानोऽस्यतः सर्वत्र कुशलमेव। - इन्दुः-'हे गुरो' ! मेरे 'राज्य के सात अङ्ग 'स्वामी, सन्त्री, मित्र, खजाना, राष्ट्र (पुर), किला, सेना', में कुशल क्यों न हो जिस के दैवी 'अग्नि, जल, रोग, दुर्भिक्ष, मरण' इन पाँच' और मानुपी 'ठग, चौर, शत्रु, राजा का कृपापात्र, राजा का लोभ' इन पाँच आपत्तियों के नाश करने वाले आप स्वयं विद्यमान हैं॥६०॥ तत्र मानुपापप्रतीकारमाह तव मन्त्रकृतो मन्त्रैदूरात्पर्शमितारिभिः। प्रत्यादिश्यन्त इव मे दृष्टलक्ष्याभदः शराः ।। ६१ ।। सञ्जी०-तवेति । दूरात्परोक्ष एव प्रशमितारिभिः। मन्त्रान् कृतवान्मन्त्रकृत् । 'सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृनः' इति क्विम्। तस्य मन्त्रकृतो मन्त्राणां स्रष्टुः प्रयोक्तुर्वा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम:तव मन्त्रैः कर्तृभिः । दृष्टं प्रत्यक्षं यल्लच्यं तन्मानं भिन्दन्तीति दृष्टलक्ष्यभिदो मे शराः प्रत्यादिश्यन्त इव । वयमेव समर्थाः किमेभिः पिष्टपेषकैरिति निराक्रियन्त इवेत्युत्प्रेक्षा। 'प्रत्यादेशो निराकृतिः' इत्यमरः । त्वन्मन्त्रसामर्थ्यादेव न पौरुषं फल तीति भावः। अ०-दूरात् , प्रशमितारिभिः, मन्त्रकृतः, तव मन्त्रैः दृष्टलक्ष्यभिदः, मे, शराः, प्रत्यादिश्यन्ते, इव ॥ वा०-दूरात् प्रशमितारयो मन्त्रकृतस्तव मन्त्रा दृष्टलक्ष्यभिदो मे शरान् प्रत्यादिशन्तीव ॥ सुधा-दूरात्=परोक्ष एव प्रशमितारिभिः= शान्तरिपुभिः, मन्त्रकृतः=मन्त्रप्रयोक्तुः, तव भवतः वशिष्टस्येत्यर्थः । मन्त्रैः= वेदमन्त्रैः 'कर्तृभिः' दृष्टलक्ष्यभिदादृष्टिगोचरलक्षभेदनकर्तारः, मे= मम, शराः=बाणाः, प्रत्यादिश्यन्त इव = निरा क्रियन्त इव । मानुषीणामापदां विनाशस्तु त्वन्मन्त्रवलसामर्थ्यान्मद्वाणैरेव भवति । स०-प्रकर्पण शमिता अरयो यैस्ते प्रशमितारयस्तैः प्रशमितारिभिः । दृष्टञ्च तल्लच्यं दृष्टलक्ष्यं दृष्टलक्ष्यं भिन्दन्तीति दृष्टलक्ष्यभिदः॥ ___को-दूरं विप्रकृष्टकम्' इत्यमरः। 'रिपी वैरिसपत्नारिद्विषवेषणदुहृदः' इति च। 'लक्षं लच्यं शरव्यं च' इति । 'पृषत्कबाणविशिखा अजिह्मगखगाशुगाः । कलम्बमार्गणशराः पत्री रोप इषुर्द्वयोः' इति चामरः॥ ता०-परोक्ष एव वैरिणो विनाशयन्ति, त्वत्प्रयुक्ता मन्त्रा अतस्तदपेक्षया प्रत्यक्षलक्ष्यभेदिनो मे बाणा व्यर्था एव, अर्थाद-दूरादेव वैरिविनाशिनां त्वत्प्रयुक्तमन्त्राणां सामर्थ्यादेव मबाणाः प्रत्यक्षलक्ष्यं भिन्दन्ति, अतस्तदपेक्षया व्यर्थाः पिष्टपेषका इव । सर्व तव मन्त्रवलादेव सिद्धयति न तु माहुबलादिति भावः॥ इन्दुः-मन्त्र के प्रयोग करने वाले आप के जो दूर ही से (परोक्ष ही से) वैरियोंके नाश करनेवाले मन्त्र हैं, वे प्रत्यक्ष ही में वेधनेवाले मेरे वाणोंको व्यर्थसे करते हैं। सम्प्रति दैविकापत्प्रतीकारमाह हविरावर्जितं होतस्त्वया विधिवदग्निषु ।। वृष्टिभवति सस्यानामवग्रहविशोषिणाम् ।। ६२ ॥ समी०-हविरिति । हे होतः! त्वया विधिवदग्निज्वावर्जितं प्रक्षिप्तं हविराज्यादिकं कर्तृ । अवग्रहो वर्षप्रतिवन्धः । 'अवे ग्रहो वर्षप्रतिवन्धे' इत्यप् प्रत्ययः । 'वृष्टिवर्ष तद्विधातेऽवग्राहावग्रही समौ' इत्यमरः । तेन विशोषिणां विशुष्यतां सस्यानां वृष्टिर्भवति वृष्टिरूपेण सस्यान्युपजीवयतीति भावः । अत्र मनुः-'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याजायते दृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः। इति । ___ अ०–'हे होतः! त्वया, विधिवद्, अग्निषु आवर्जितं हविः, अवग्रहविशोषिणां सस्यानां, वृष्टिः, भवति । वा०-होतस्त्वया विधिवदग्निवावजितन हविषाऽवग्रहविशोषिणां सस्यानां वृष्टया भूयते ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सुधा-हे होतः ! हवनकर्तः !, त्वया भवता, विधिवद् यथाविधि, अग्निषु = वहिषु, आवर्जितं- हुतं, हविः सर्पिःप्रभृतिहवनद्रव्यं, (कर्तृ) अवग्रहविशोषिणांवृष्टिविघातेन शोषणशीलानां, सस्यानां धान्यानां 'वृक्षादीनाम् फलानाम्'। वृष्टिःवर्षणम्, भवति-जायते, वृष्टिरूपेण सस्यानि समुत्पादयन्तीति भावः ॥ स०-अवग्रहणमवग्रहः तेन विशेषेण शोष्टुं शीलमेघान्तेऽवग्रहविशोषिणस्तेपामवग्रहविशोषिणाम् ॥ को०-'हविः सर्पिषि होतव्ये' इति हैमः। 'विधिविधाने देवेऽपि' इति । 'वृक्षादीनां फलं सस्यम्' इति चामरः। ता०-हे यज्ञकर्त्तः ! त्वमाज्यादिकं यदग्नौ मत्कल्याणार्थं जुहोषि, तदेव वृष्टिभूत्वा सस्यानामुपजीवकम् भवति–अतोऽस्मद्राज्ये कुतो दैवीनाम् मानुषीणाञ्चा. पदा सम्भवः स्यात्। इन्दुः हे हवन करनेवाले ! 'गुरो! आपसे विधिपूर्वक अग्नि में दी हुई आहुति अकाल से सूखते हुए धानों 'वृक्षादिकों के फलों के सम्बन्ध में वृष्टि रूप होती है। स्वप्रजानां सर्वतोभावेन सुखित्वे त्वद्ब्रह्मवर्चसं हेतुरित्याह पुरुषायुषजीविन्यो निरातङ्का निरीतयः । यन्मदीयाः प्रजास्तस्य हेतुम्त्वद्ब्रह्मवर्चसम् ।। ६३ ॥ सञ्जी-पुरुषायुषेति । आयुर्जीवितकालः। पुरुषस्यायुः पुरुषायुषम् । वर्षशतमित्यर्थः । 'शतायुर्वै पुरुषः' इति श्रुतेः । 'अचतुरविचतुरसुचतुर०' इत्यादिसूत्रेणा प्रत्ययान्तो निपाताः । मदीयाः प्रजाः पुरुषायुषं जीवन्तीति पुरुषायुषजीविन्यः । निरातङ्का निर्भयाः। 'आतङ्को भयमाशङ्का' इति हलायुधः। निरीतयोऽतिवृष्टयादि. रहिता इति यत्तस्य सर्वस्य त्वद्ब्रह्मवर्चसं तव बताध्ययनसंपत्तिरेव हेतुः। 'व्रताध्ययनसंपत्तिरित्येतद् ब्रह्मवर्चसम्' इति हलायुधः। ब्रह्मणो वर्ची ब्रह्मवर्चसम् । 'ब्रह्महस्तिभ्यां वर्चसः' इत्यप्रत्ययः। 'अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषिकाः शलभाः शुकाः। अत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः इति कामन्दकः। ___ अ०-मदीयाः, प्रजाः, पुरुषायुषजीविन्यः, निरातङ्काः, निरीतयः, 'सन्तीति' यत्, तस्य, त्वद्वह्मवर्चसम् एव, हेतुः । वा-मदीयाभिः प्रजाभिः पुरुषायुषजीविनीभिनिरातङ्काभिर्निरीतिभिः 'भूयत इति' तस्य त्वद्ब्रह्मवर्चसेनैव हेतुना 'भूयते'। सुधा-मदीया मत्सम्बन्धिन्यः, प्रजाः जनाः, पुरुषायुषजीविन्यावर्षशतजीवनशीलाः, 'शतायुर्वं पुरुषः' इति श्रुतेः। निरातङ्काः=निर्भयाः, निरीतयः अतिवृष्टयादि षड्बाधारहिताः, 'सन्तीति' शेषः । यत्, तस्य सर्वस्य, त्वद्ब्रह्मवर्चसम् भवबताध्ययनसम्पत्तिः, एव-निश्चयेन, हेतुः कारणं, 'वर्तते' इति शेषः।। जीविन्यः। ...स०-पुरुषस्यायुः, पुरुषायुषं पुरुषायुषं जीवितुं शीलं यासान्ताः पुरुषायुष को-'आयुर्जीवितकालः' इत्यमरः । 'रुक्तापशङ्कास्वातङ्क' इति । 'ईतिर्डिम्ब Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम:प्रवासयोः' इत्यमरः । डिम्वो विप्लवः स च सप्तविधस्तद्यथा-'अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिकाः शुकाः । स्वचक्रं परचक्रञ्च सप्तैता ईतयः स्मृताः' इति चामरः। ता०-मदीयाः प्रजास्त्वदनुष्ठितव्रतवेदवेदाङ्गाध्ययनसम्पत्त्यैव दीर्घजीविन्यो निर्भयाः सप्तविधोपद्रवेणातिवृष्ट्यादिकेन रहिताः सन्ति नान्येन हेतुना। ___ इन्दुः-जो मेरी प्रजायें, पुरुष की आयु 'सौ वर्ष तक जीने वाली, निर्भय, और ईति, अतिवर्पा, सूखा, चूहा, टिड्डी, सुग्गा, 'विपक्षी' राजाओं की चढ़ाई से बची हुई हैं सो इन सबों का कारण आपका ब्रह्मतेज 'सदाचार वेदवेदाङ्गाध्ययन से उत्पन्न पुण्य' ही है ॥ ३ ॥ भवादृशेन मद्गुरुणा सर्वं मे सुखं भवतीत्याह त्वयैवं चिन्त्यमानस्य गुरुणा ब्रह्मयोनिना। सानुबन्धाः कथं न स्यु संपदो मे निरापदः ।। ६४॥ सञ्जी०-त्वयैवमिति । ब्रह्मा योनिः कारणं यस्य तेन ब्रह्मपुत्रेण गुरुणा त्वयैवमुक्तप्रकारेण चिन्त्यमानस्यानुध्यायमानस्य । अत एव निरापदो व्यसनहीनस्य मे सम्पदः सानुबन्धाः सानुस्यूतयोऽविच्छिन्ना इति यावत् । कथं न स्युः । स्युरेवेत्यर्थः। अ०-ब्रह्मयोनिना, गुरुणा, त्वया, एवं, चिन्त्यमानस्य, 'अत एव' निरापदः, मे सम्पदः, सानुबन्धाः, कथं, न, स्युः। वा०-ब्रह्मयोनिना त्वया गुरुणैवं चिन्त्यमानस्य निरापदो मे सानुबन्धाभिः कथं न भूयते । सुधा-ब्रह्मयोनिना=परमेष्ठिपुत्रेण, वशिष्ठेनेत्यर्थः । गुरुणा-पूज्येन, आचार्यत्यर्थः। त्वया भवता, एवम् = उक्तप्रकारेण, चिन्त्यमानस्य = स्मर्यमाणस्य, निरापदः%= विपद्रहितस्य, मेमम, सम्पदा-लम्पत्तयः, सानुबन्धाः=अविच्छिन्ना, कथं =केन प्रकारेण, न= नहि, स्युः =भवेयुः, अपि तु स्युरेवेति भावः । स०-ब्रह्मा योनिः कारणं यस्य स तेन ब्रह्मयोनिना।। को-अनुवन्धस्तु वन्धे स्याद्दोषोत्पादे विनश्वरे । मुख्यानुयायिवाले च प्रकृतस्यानुवर्त्तने' इति मेदिनी । 'सम्पद् भूतौ गुणोत्कर्षे हारभेदेऽपि च स्त्रिया' इति । 'सम्पदि, सम्पत्तिः श्रीश्च लक्ष्मीश्च' इति मेदिन्यमरश्च । __ ता०-ब्रह्मपुत्रेण भवता गुरुणा स्मर्यमाणस्य मे कुतो दुःखं स्यात् ? कुतश्च न स्थिरा सम्पत्तिः स्यात् अपि तु केवलं सम्पत्तिरेव स्यात् । इन्दुः-'जब' ब्रह्मपुत्र आप 'मेरे' गुरु हैं और 'सर्वदा' उक्त प्रकार से 'मेरे कल्याण को' चिन्ता किया करते हैं। तो फिर' आपत्ति से रहित मेरी सम्पत्ति 'निरन्तर' अविच्छिन्न 'स्थिर' क्यों न रहे ॥ ६ ॥ संप्रत्यागमनप्रयोजनमाह किन्तु वहां तवैतस्यामसदृशप्रजम् । न मामवात सद्वीपा रत्नसूराप मेदिनी ।। ६५ ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सञ्जी०-किन्विति । किन्तु तवैतस्यां वध्वां स्नुषायाम् । 'वधूर्जाया स्नुषा चैव' इत्यमरः । अदृष्टा सदृश्यनुरूपा प्रजा येन तं मां सद्वीपाऽपि । रत्नानि सूयत इति रत्नसूरपि । 'सत्सूद्विष०' इत्यादिना क्विप। मेदिनी नावति न प्रीणाति । अवधातू रक्षणगतिप्रीत्याद्यर्थेषूपदेशादत्र प्रीणने । रत्नसूरपीत्यनेन सर्वरत्नेभ्यः पुत्ररत्नमेव श्लायमिति सूचितम् । अ०-किन्तु, तव, एतस्यां, वध्वाम्, अदृष्टसदृशप्रजम्, मां, सद्वीपा, रत्नसुः, अपि, मेदिनी, न अवति । वा०-किन्तु तवतस्यां वध्वामदृष्टसदृशप्रजोऽहं सदीपया रत्नसुवाऽपि मेदिन्या न अव्ये। __ सुधा-किन्तु, तब=भवतः, एतस्याम् = अस्याम्, 'पुरोवर्तिन्याम्' इत्यर्थः । वध्वां स्नुषायां सुदक्षिणायामिति यावद् । अदृष्टसध्शप्रजम्-अनवलोकितानुरूपसन्ततिम्, मांदिलीपं, सद्वीपासप्तद्वीपसहिता, रत्नसूः हीरकादिमहामणिप्रसविनी, अपि मेदिनी=मही, न= नहि, अवति=प्रीणाति । पुत्ररत्नाभावतो रत्नसूरियं वसुधा मां न प्रीणातीति भावः । स०-प्रकर्षेण जायत इति प्रजा, न दृष्टेत्यदृष्टा, अदृष्टा सदृशी प्रजा येन सोऽदृष्टसदृशप्रजः तमदृष्टसदृशप्रजम् । रमयन्तीति रत्नानि तानि सूयत इति रत्नसूः। को०-'गोत्रा कुः पृथिवी पृथ्वी चमाऽवनिर्मेदिनी मही' इत्यमरः। ता०-यद्यपि मच्छासनाधीनानां मह्यां महारत्नानि समुत्पद्यन्ते, परन्तु सुदक्षिणायां सर्वरत्नेषु श्रेष्ठस्य पुत्ररत्नस्याभावात् तानि महारत्नानि सन्तोषाय न प्रभवन्तीति। इन्दुः-परन्तु आपकी इस शिष्य-वधू में अपने सदृश सन्तान होती हुई न देखनेवाले मुझको द्वीपों के सहित रत्नों को पैदा करनेवाली पृथ्वी भी नहीं भाती ॥६५॥ तदेव प्रतिपादयतिपुत्राभावेन पितृणां दुःखेन पिण्डग्रहणं भविष्यतीत्याह नूनं मत्तः पर वंश्याः पिण्डविच्छेददर्शिनः। न प्रकासमुजः श्राद्धे स्वधासंग्रहतत्पराः ।। ६६ ।। सञ्जी०-नूनमिति। मत्तः परं मदनन्तरम् ‘पञ्चम्यास्तसिल' पिण्डविच्छेददर्शिनः पिण्डदानविच्छेदसुत्प्रेक्षमाणाः। वंशोद्भवा वंश्याः पितरः । स्वधेत्यव्ययं पितृभोज्ये वर्तते । तस्याः संग्रह तत्परा आसकाः सन्तः श्राद्ध पितृकर्मणि । 'पितृदानं निवापः स्याच्छ्राद्धं तत्कर्म शास्वतः' इत्यमरः। प्रकामभुजः पर्याप्तभोजिनो न भवन्ति नूनं सत्यम् । 'कामं प्रकामं पर्याप्तम्' इत्यमरः। निर्धना ह्यापद्धनं कियदपि संन्दगृतीति भावः। अ०-मत्तः परम् पिण्डविच्छेददर्शिनः, वंश्याः, स्वधासंग्रहतत्पराः, 'सन्तः' श्राद्धे, प्रकामभुजः, नूनं, न, भवन्ति ॥ वा०-मत्तः परं पिण्डविच्छेददर्शिभिः स्वधासङ्ग्रहतत्परैर्वश्यैः श्राद्धे प्रकामभुग्भिनं भूयते ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमः __सुधा-मत्तः =मत्, परम् = अनन्तरम्, पिण्डविच्छेददर्शिनः पिण्डदानविश्ले पदर्शनशीलाः, वंश्याः= वंशोद्भवाः, पितरः इति यावत् । स्वधासङ्ग्रहतत्पराः= पितृभोज्यसंग्रहणासकाः, 'सन्तः' इति शेषः । श्राद्ध =पितृकर्मणि, प्रकामभुजः= प्रर्याप्तभोजिनः, नूनं निश्चितंन = नहि, 'भवन्ति' इति शेषः । स०-पिण्डस्य विच्छेदः पिण्ढविच्छेदः तं द्रष्टुं शीलं येषान्ते पिण्डविच्छेदद शिनः । स्वधायाः संग्रहः स्वधासंग्रहः तत्र तत्पराः स्वधासंग्रहतत्पराः ॥ को-'पिण्डो बोले वले सान्द्रे देहागारैकदेशयोः । देहमाने निवापे च गोल सिहकयोरपि' इति मेदिनी । 'संग्रहो बृहत्युत्तङ्गे ग्रहसंक्षेपयोरपि' इति मेदिनी । ता-पुत्ररहितं मामवलोक्यातः परं न पिण्डप्राप्तिसम्भव इति विचारयन्तो मत्पितरः सम्यक्तरेण तृप्तिक्षमं श्राद्ध पिण्डं भोक्तुं नोत्सहन्ते । इन्दुः-मेरे बाद पिण्ड का लोप देखने वाले, स्वधा इकट्ठी करने में लगे हुए मेरे पूर्वज श्राद्ध में इच्छापूर्वक भोजन करने के लिए निश्चय उत्साह नहीं कर छपुत्राभावेन पितृणां दुःखेन जलग्रहणं भविष्यतीत्याह मत्परं दुर्लभं मत्वा नूनमावजितं मया । पयः पूर्वे: स्वनिःश्वासैः कवोष्णमुपभुज्यते ।। ६७ ॥ सञ्जी०-मत्परमिति। मत्परं मदनन्तरम्, 'अन्यारादितरर्तेदिक्शब्दाचूत्तरपदाजाहियुक्ते' इत्यनेन पञ्चमी । दुर्लभं दुर्लभ्यं मत्वा मयाऽऽवर्जितं महत्तं पयः पूर्वैः पितृभिः स्वनिःश्वासैर्दुःखजः कवोणमीषदुष्णं यथा तथोपभुज्यते । नूनमिति वितर्के। कवोणमिति कुशब्दस्य कवादेशः 'कोष्णं कवोणं मन्दोषणं कदुष्णं त्रिषु तद्वति' इत्यमरः। __ अ०-मत्परं, दलभम् , मत्वा, इदानीम् , मया आवर्जितम्, पयः, पूर्वः, स्व निःश्वासैः, कवोणं, 'यथा स्यात्तथा' उपभुज्यते, नूनम् ॥ वा०-मत्परं दुर्लभं मत्वा मयाऽऽवर्जितम् पयः पूर्वे 'पितरः स्वनिःश्वासः कवोष्णमुपभुञ्जते ननम् । सुधा--मत्परम् मदनन्तरं, दुर्लभं दरापम, मत्वा =ज्ञात्वा, 'इदानीम्' मया = दिलीपेन, आवर्जितं दत्तम्, पयः-वारि, पूर्वैः प्राचीनः 'पितृभिः' इत्यर्थः । स्वनिःश्वासैः= आत्ममुखवायुभिः 'दुःखजे.' इति शेषः । 'कारणभूतैः' । कवोणम् = ईषदुष्णं, 'यथा स्यात्तथा' उपभुज्यते = पीयते, ननम् = इति वितर्के॥ स०-निःश्वसनानि निःश्वासाः स्वरय निःश्वासाः स्वनिःश्वासास्तैः स्वनिःश्वासैः। को०-'स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं विष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने' इति चामरः।। ता०-मदनन्तरं जलदातुः पुत्रस्याभावं पश्यन्तोऽत एव दुःखजन्यैर्निजनिःश्वासैः कोष्णीभूतमिदानी मदत्तं पयो मस्पितरः पिबन्ति ॥ इन्दुः-मेरे बाद 'जल को दुर्लभ समझकर 'इस समय' मुझसे दिए हुए Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् ।। जल को 'मेरे पूर्वज 'पितृगण' अपने 'दुःखजन्य' निःश्वासों से थोड़ा गरम 'जैसे हो से पीते हैं । ऐसा मैं' अनुमान 'करता हूँ' ॥ ६ ॥ पितॄणामुतौ दिलीपस्य दुःखप्रकाशनमित्याह सोऽहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलितः। प्रकाशश्वा प्रकाशश्च लोकालोक इवाचलः ॥ ६॥ सञ्जी०-स इति । इज्या यागः 'बजयजो वे क्यप' इति 'क्यप्प्रत्ययः । तथा विशुद्धात्मा विशुद्धचेतनः प्रजालोपेन सन्तत्यभावेन निमीलितः कृतनिमीलनः सोऽहम् । लोक्यत इति लोकः। न लोक्यत इत्यलोकः, लोकश्चालोकश्चात्र स्त इति, लोकश्वासावलोकश्चेति वा, लोकालोकश्चक्रवालोऽचल इव । 'लोकालोकश्चक्रवालः' इत्यमरः । प्रकाशत इति प्रकाशश्च देवर्णविमोचनाद् । न प्रकाशत इत्यप्रकाशश्च पितणाविमोचनात् । पचायच। अस्मीति शेषः। लोकालोकोऽप्यन्तःसूर्यसंपर्काद्धहिस्तमोज्याप्त्या च प्रकाशश्चाप्रकाशश्चेति मन्तव्यम् ॥ ___ अ०-इज्याविशुद्धात्मा, प्रजालोपनिमीलितः, अहं, लोकालोकः, अचलः, इव, प्रकाशः, च, अप्रकाशः, च,'अस्मि' ॥ वा०-इज्याविशुद्धात्मना प्रजालोपनिमीलितेन तेन मया लोकालोकेनाचलेनेव प्रकाशेन चाप्रकाशेन च भूयते ॥ सुधा-इज्याविशुद्धामा यज्ञपवित्रान्तःकरणः, प्रजालोपनिमीलित सन्तत्यदर्शनकृतनयनपचमसङ्कोचा, साएवम्भूतः, अहं दिलीपः, लोकालोका-चक्रवालः, 'सप्तद्वीपवत्या भूमेः प्राकारभूतो गिरिरित्यर्थः । अचला= शैलः, इव= यथा, प्रकाशश्च =देवर्णविमोचनाद् द्योतश्च, दीप्त इत्यर्थः । पर्वतपक्षे-द्योत आतप इत्यर्थः अप्रकाशश्च =पितृणाविमोचना दीप्तश्च, म्लान इत्यर्थः, पर्वतपक्षेऽन्धकार इत्यर्थः । अस्मीति शेषः॥ स०-अततीत्यात्मा, यजनमिज्या तया विशुद्धः इज्याविशुद्धः इज्याविशुद्ध आत्मा यस्य स इज्याविशुद्धात्मा। प्रकर्षण जायत इति प्रजा तस्या लोपः प्रजालोपः तेन निमीलितः प्रजालोपनिमीलितः। को०-'इज्या दानेऽध्वरेऽर्चायां सङ्गमे स्त्री गुरौ त्रिषु' इति मेदिनी । 'प्रकाशोद्योत आतपः' इति चामरः । 'अद्रिगोत्रगिरिग्रावाचलशैलशिलोच्चयाः' इति चामरः ॥ ___ ता०-अहं दिलीपो यज्ञकरणेन देवर्णविमोचनात् प्रसन्नो विकसितनेत्रोस्मि, किन्तु सन्ततेरभावादत एव पितॄणाविमोचनादप्रसन्नोऽत एव निमीलितनयनश्चास्मीत्यतो लोकालोकाचलस्येव मे स्थितिः सम्प्रत्यस्ति ।। इन्दुः-यज्ञ करने के कारण शुद्ध चित्तवाला तथा पुत्रके न दिखाई पड़ने (न होने) से आँख मूंदे हुये 'अन्धा' जैसा मैं 'दिलीप' लोकालोक पर्वतकी भाँति प्रकाशवान् 'दीप्तिमान' और अप्रकाशवान् 'मलिन' हो रहा हूँ ॥ ६८॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमःननु तपोदानादिसम्पन्नस्य किमपत्यरित्यत्राह लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदानसमुद्भवम् । ___ सन्ततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे ॥ ६ ॥ सञ्जी०-लोकान्तरेति । समुद्भवत्यस्मादिति 'समुद्भवः कारणम् । तपोदाने समुद्भवो यस्य तत्तपोदानसमुद्भवं यत्पुण्यं तल्लोकान्तरे परलोके सुखं सुखकरम् । शुद्धवंशे भवा शुद्धवंश्या सन्ततिहि परत्र परलोके, इह च लोके शर्मणे सुखाय । 'शर्मशातसुखानि च' इत्यमरः। भवतीति शेषः॥ अ०-तपोदानसमुद्भवं 'यत्' पुण्यं 'तत्' लोकान्तरसुखं, शुद्धवंश्या, 'सन्ततिः हि, इह, परन्न, च शर्मणे, 'भवति' ॥ वा०-तपोदानसमुद्भवेन 'येन' पुण्येन 'तेन' लोकान्तरसुखेन 'भूयते' शुद्धवंश्यया सन्तत्या हि इह परत्र च 'शर्मणे भूयते'। सुधा-तपोदानसमुद्भवं कृच्छ्रचान्द्रायणादिवतदानकारणकं, 'यत्' पुण्यं = सुकृतं, 'तद्' लोकान्तरसुखम् = परलोकसुखकारकम्, 'अस्ति' इति शेषः । शुद्धवंश्या पवित्रवंशोगवा, सन्ततिःप्रजा, पुत्र इति यावद् । हि= यतः, इह % अस्मिन् लोक इति यावत् । परत्र-परस्मिन् , परलोक इत्यर्थः । च, शर्मणे सुखाय 'भवति' इति शेषः। ___ स-लोक्यतेऽस्मिन्निति लोकः सुखयतीति सुखम्, अन्यो लोको लोकान्तरम् तत्र सुखं लोकान्तरसुखम् । समुद्भवत्यस्मादिति समुद्भवः कारणं तपश्च दानश्चेति तपोदाने, तपोदाने समुद्भवो यस्य तत् तपोदानसमुद्भवम् । ता०-पुण्यं केवलं परलोके सुखावहम्, परन्तु सन्ततिस्तूभयलोकमध्ये सुखकरी, अतः पुण्यापेक्षया सन्ततेरेवाधिकसुखास्पदत्वम् ॥ __इन्दुः-तप और दान है कारण जिसका ऐसा जो पुण्य वह परलोक में सुख देने वाला होता है । परन्तु पवित्र वंश में उत्पन्न हुई सन्तति इस लोक और परलोक दोनों ही में सुख के लिये होती है ॥ ६९॥ समर्थोऽपि कथमनपत्यं मांज्ञात्वा भवान्न दूयत इत्याह तया हीन विधातमा कथं पश्यन्न दूयसे । सिक्त स्वयमिव स्नेहाद्वन्ध्यमाश्रमवृक्षकम ॥ ७० ॥ सञ्जी०-तयेति । 'हे' विधातः ! स्रष्टः!, तया संतत्या हीनमनपत्यं मास् । स्नेहात्प्रेरणा स्वयमेव सिक्तं जलसेकेन वर्धितं वन्ध्यमफलम् 'वन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः आश्रमस्य वृक्षकं वृक्षपोतमिव । पश्यन्कथं न दूयसे न परितप्यसे। विधातरित्यनेन समर्थोऽप्युपेक्षस इति गम्यते ॥ अ०-'हे' विधातः!, तया, होनम्, मां, स्नेहाद, स्वयम्, एव, सिक्तम्, बन्ध्यम, आश्रमवृक्षकम्, इव पश्यन् कथं, न, दूयसे । बा०-हे विधातः ! तया Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ५६ हीनं मां स्नेहात् स्वयमेव सिक्तमाश्रमवृक्षकमिव पश्यता 'त्वया' कथं न दूयते ॥ सुधा-'हे' विधातः !हे स्रष्टः! प्रजापते ! इति भावः। तया=सन्तत्या, हीनं = रहितम्, अपुत्रमिति भावः। मां-दिलीपं, स्नेहात-प्रेरणा, स्वयम् आत्मना, एव= निश्चयेन, सिक्तं जलदानेन संवर्धितम्, वन्ध्यम् = फलरहितम्, आश्रमवृक्षकम् = मठहस्वपादपम्, इव = यथा, पश्यन् = विलोकयन्, कथंकेन प्रकारेण, नम्नहि, दूयसे= परितप्यसे । स०-आश्रमस्य वृक्षकः आश्रमवृक्षकः तमाश्रमवृक्षकम् ॥ कोशः-'वष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृड् विधिः' इत्यमरः। 'आश्रमो ब्रह्मचर्यादौ वानप्रस्थे मठे वने' इति मेदिनी। ता०-यथाऽऽत्मना जलदानेन संवर्धितमपि फलरहितमाश्रमवृक्षशिशुं विलोक्य भवान् दुःखी भवति तथैव पुत्ररहितं मां दृष्ट्वा कथं न परितापो भवतां हृदि भवति ॥ इन्दुः-हे विधातः ! सन्तान से हीन मुझे, स्नेह से स्वयम् सींचे हुए फल से रहित आश्रम के छोटे वृक्ष की भाँति, देखते हुए किस कारण से आप दुःखी नहीं होते हो ॥७॥ दिलीपस्य स्वकीयापुत्रत्वस्यासह्यपीडत्वकथनमित्याह असह्यपीडं भगवन्नृणमन्त्यमवेहि मे। अरुन्तुदमिवालानमनिर्वाणस्य दन्तिनः ।। ७१ ॥ सञ्जी०-असह्यपीडमिति । हे भगवन् ! मे ममान्त्यमृणं पैतृकमृणम् । भनिर्वाणस्य मजनरहितस्य । निर्वाणं निर्वृतौ मोक्षे विनाशे गजमजने'इति यादवः । दन्तिनो गजस्य । अरुमम तुदतीत्यरुन्तुदं मर्मस्पृक् 'व्रणोऽस्त्रियामीर्ममरुः' इति । 'अरुन्तुदस्तु मर्मस्पृक्' इति चामरः । 'विध्वरुषोस्तुदः' इति खश्प्रत्ययः । 'अरुर्द्विषद्' इत्यादिना मुमागमः। मालानं बन्धनस्तम्भमिव । 'आलानं बन्धनस्तम्भे' इत्यमरः । असह्या सोढुमशक्या पीडा दुःखं यस्मिंस्तदवेहि । दुःसहदुःखजनकं विद्धीत्यर्थः । 'निर्वाणोत्थानशयनानि त्रीणि गजकर्माणि' इति पालकाप्ये (ऋणं देवस्य यागेन ऋषीणां दानकर्मणा । सन्तत्या पितृलोकानां शोधयित्वा परिव्रजेत् ॥ अ०-हे भगवन् !, मे, अन्त्यम्, ऋणम्, अनिर्वाणस्य, दन्तिनः, अरुन्तुदम्, आलानम् , इव, असह्यपीडम, अवेहि ॥ वा०-हे भगवन् ! मेऽन्त्यमृणमनिर्वाणस्य दन्तिनोऽरुन्तुदमालानमिवासहपीडं त्वयाऽवेयताम् ॥ सुधा-हे भगवन = षडैश्वर्यशालिन् ! मेमम 'दिलीपस्य' इत्यर्थः । अन्त्यं देवर्षिपितृसम्बन्धि ऋणस्य चरमम, ऋणम् =पित्रुद्धारम्, अनिर्वाणस्यनिर्वाणसंज्ञक गजस्य, मजनकर्मरहितस्येत्यर्थः। दन्तिनः हस्तिनः । अरुन्तुदम् = मर्मस्पृशम्, आलानम् = बन्धनस्तम्भम्, इव= यथा असह्यपीडं-दुःसहव्यथाकरम्, अवेहि =जानीहि ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमस०-सोढुं योग्या सह्या न सोत्यसह्या असह्या पीडा यस्मिस्तदसहपीडम्॥ __ को-पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्य प्रसूतिजम् । 'स्यात्कष्टं कृच्छ्रमाभील त्रिवेषां भेद्यगामि यत्' इत्यमरः । 'स्यादृणं पर्युदञ्चनम् । उद्धारः' इति । 'अन्तो जघन्यं चरममन्त्यपाश्चात्त्यपश्चिमाः' इति । 'व्रणोऽस्त्रियामीर्ममरुः' इति । 'अरुन्तुदस्तु मर्मस्पृग' इति । 'दन्ती दन्तावलो हस्ती द्विरदोऽनेकपो द्विपः' इति चामरः। ता०-हे भगवन् ! मम सम्प्रति पैतृकमृणं तथा दुःसहदुःखकरं भवति यथा स्नानकर्मरहितस्य गजस्य मर्मस्पृग बन्धनस्तम्भोऽसह्यदुःखो भवति ॥ ७१ ॥ ___इन्दः-हे भगवन् ! मेरे अन्तिम 'पैतृक ऋण को, विना स्नान किये हुए हाथी के मर्म को दुःख देने वाले वांधने के खम्भे की तरह असह्य पीड़ा 'पहुँचाने वाला 'आप' समझें ॥७१॥ दिलीपस्य पुत्रप्राप्तौ प्रयत्नं कर्तुं वशिष्ठं प्रति कथनमित्याह तस्मान्मुच्ये यथा तात ! संविधातुं तथाऽहमि । ___ इक्ष्गकूणां दुरापेऽर्थे त्वदधोना हि सिद्धयः ।। ७२ ।। सञ्जी०–तस्मादिति । हे तात! तस्मात्पैतृकाहणाद्यथा मुच्ये मुक्को भवामि । कर्मणि लट् । तथा संविधातुं कर्तुमर्हसि। हि यस्मात्कारणादिवाकूणामित्वाकु - वंश्यानाम् तद्राजत्वाद्वहुप्वणो लुक् । दुरापे दुष्प्राप्येऽर्थे । सिद्धयस्त्वदधीनास्त्वदायत्ताः । इच्चाकूणामिति शेषे पष्ठी 'न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्' इत्यनेन कृद्योगे षष्ठीनिषेधात् ॥ __ अ०–'हे' तात!; तस्मात् , यथा, मुच्ये, तथा संविधातुं, 'त्वम्' अर्हसि, हि इच्वाकूणां, दुरापे, अर्थ, सिद्धयः, स्वदधीनाः। वा०-हे तात ! तस्माद् यथा मया मुच्यते तथा संविधातुं त्वया अद्यते हि, इचवाकूगां दुरापेऽर्थे सिद्धिमिस्त्वदधीनाभिभूयते। सुधा-हे तात ! हे पितः! तस्मात् = पैतृकारणात् 'पुत्रोत्पत्तिकरणाद् इति यावद् । यथायेन प्रकारेण, मुच्ये मुक्तो भवामि, तथा तेन प्रकारेण, संविधातु कर्तुं, 'स्वम्' अर्हसि = योग्योऽसि, हि= यस्मारकारणाद्, 'इच्वाकूणाम् = इच्वाकुवंशोद्भवानां, दुरापे =दुष्प्राप्ये, अर्थ प्रयोजने, सिद्धयः कार्यसिद्धयः, त्वदधीना= त्वदायत्ताः, 'सन्ति' इति शेषः । स०-अधि उपरि-इनो यासां ता अधीनाः तव-अधीनास्त्वदधीनाः॥ ___ को०-'तातस्तु जनकः पिता' इत्यमरः । 'अर्थों हेतौ'प्रयोजने। निवृत्तौ विषये वाच्ये प्रकारद्रव्यवस्तुषु' इति हैमः। । ता०-हे तात ! इक्ष्वाकुकुलजातानां राज्ञां दुष्करकार्यसिद्धयस्त्वदधीनाः, अत: पैतृकाहणाद् यथा मुक्तो भवामि तथा कर्तुं त्वं योग्यो भव, अर्थादुद्धरेति भावः॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् ।। ६१ इन्दुः हे तात ! उस 'पैतृक ऋण' किस प्रकार से मैं छुटकारा पाऊँ उस प्रकार से 'उसे' करने के लिये आप योग्य हो। क्योंकि इचवाकुकुल के राजाओं के कठिन कार्य के विषय में सिद्धियाँ आप के अधीन हैं ॥ ७२ ॥ * दिलीपप्रश्नं श्रुत्वा वशिष्ठस्य तदुपरि विचार इत्याह इति विज्ञापितो राज्ञा ध्यानस्तिमितलोचनः । क्षणमात्रमृषिस्तस्थौ सुप्तमीन इव हृदः ।। ७३ ॥ सञ्जी०-इतीति । इति राजा विज्ञापित ऋषिर्ध्यानेन स्तिमिते लोचने यस्य स ध्यानस्तिमितलोचनो निश्चलाक्षः सन्क्षणमात्रं सुप्तसीनो हृद इव तस्थौ ॥ अ०-इति, राज्ञा, विज्ञापितः, ऋषिः, ध्यानस्तिमितलोचनः, 'सन्' क्षणमात्रं, सुप्तमीनः, हृदः, इव तस्थौ ॥ का०-इति राज्ञा :विज्ञापितेन ऋषिणा ध्यानस्तिमितलोचनेन 'सता' क्षणमात्रं सुप्तमीनेन हृदेनेव तस्थे । सुधा-इति = इत्थं, राज्ञानृपेण 'दिलीपेन' इत्यर्थः । विज्ञापितः = निवेदितः, ऋषिः=सत्यवचाः 'महर्षिर्वशिष्टः' इति यावद्, ध्यानस्तिमितलोचनः=चिन्तननिश्चलाक्षः, 'सन्' इति शेषः। क्षणमात्रं = त्रिंशत्कलाप्रमाणं, क्रियाविशेषणमिदम् । सुप्तमीनःनिद्रितमत्स्यः, हृदः =सरः, इव= यथा, तस्थौ = स्थितवान् ॥ __ स०-लोच्येते आभ्यामिति लोचने, ध्यानेन स्तिमिते ध्यानस्तिमिते ध्यानस्तिमिते लोचने यस्यासौ ध्यानस्तिमितलोचनः । को०-'क्षणः कालविशेषे स्यात् पर्वण्यवसरे मुदे । व्यापारविकलत्वे च वरतन्त्रत्वमन्ययोः' इति हैमः। 'पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः। विसारः शकली' इति । 'तत्रागाधजलो हृदः' इति चामरः ॥ ता-दिलीपस्य प्रार्थनाश्रवणानन्तरम् ऋषिर्वशिष्ठो नेने निमील्य समाधिस्थः सन् ध्यानचक्षुषा पुत्राभावकारणं विचारयामास ॥ इन्दुः-इस प्रकार से राजा 'दिलीप' से निवेदन किये गये 'वशिष्ठ' ऋषि ध्यान से दोनों आँखें मूंदे हुये क्षणमात्र, सोई मछलियाँ हैं जिसमें ऐसे अगाध जलाशय की भांति स्थित रहे ॥७३॥ वशिष्ठस्य ध्यानचक्षुषा पुत्रप्रतिबन्धकारणं विज्ञाय दिलीपं प्रति कथनमित्याह सोऽपश्यत्प्रणिधानेन संततेः स्तम्भकारणम् । भावितात्मा भुवो भतुरथैनं प्रत्यबोधयत् ।। ७४ ॥ सञ्जी०-स इति । स मुनिः प्रणिधानेन चित्तैकाग्रयेण भावितात्मा शुद्धान्तःकरणो भुवो भर्तुर्नृपस्य संततेः स्तम्भकारणं संतानप्रतिवन्धकारणमपश्यन् । अथानन्तरमेनं नृपं प्रत्यबोधयत् । स्वदृष्टं ज्ञापितवानित्यर्थः । एनमिति 'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ' इत्यादिनाऽणि कर्तुः कर्मस्वम् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम___ अ०-प्रणिधानेन, भावितात्मा, भुवः, भर्तुः, सन्ततेः स्तम्भकारणम् , अपश्यत् , अथ, एनम्, प्रत्यवोधयत् ॥ वा०-प्रणिधानेन भावितात्मना तेन भुवो भर्तुः सन्ततेः स्तम्भकारणमदृश्यत, अथैष प्रत्यबोध्यत॥ सुधा-प्रणिधानेन = समाधिना, चित्तस्य समाहित्येत्यर्थः। भावितात्मा-पवित्रान्तःकरणः, सः=महर्षिर्वशिष्ठः, भूमेः मयाः, भर्तुः-स्वामिनः, 'दिलीपस्य' इति भावः। सन्ततः पुत्रस्य, स्तम्भकारणम् = प्रतिबन्धहेतुम्, अपश्यद् = दृष्टवान् , अथ पश्चात् , सन्तानप्रतिवन्धकारणदर्शनानन्तरमिति यावद् । एवं = दिलीपम् प्रत्यवोधयत्-प्रतिज्ञापितवान् । स०-स्तम्भस्य कारणं तत्स्तम्भकारणम् । को-हेतुर्ना कारणं वीजम्' इत्यमरः। भर्ता स्वामिनि पुंसि स्यात् त्रिषु धातरि पोष्टर' इति मेदिनी। ता०-समाधिस्थः सन् ऋपिर्वशिष्ठो ध्यानचक्षुषा राज्ञो दिलीपस्य सन्तानप्रतिवन्धकारणं स्वयं निरीचय तदनन्तरं तं बोधितवान् ॥ इन्दुः-चित्त की एकाग्रता द्वारा शुद्ध अन्तःकरण वाले उन 'वशिष्ठ ऋषि' ने पृथ्वी के पालन करनेवाले 'राजा दिलीप' की सन्तति के प्रतिबन्ध 'न होने के कारण को देखा, उसके बाद इन 'राजा दिलीप' को भी बतलाया ॥ ७४ ॥ वशिष्ठस्य राज्ञः सन्तानप्रतिबन्धकारणकथनमित्यत्राह पुरा शक्रमुपस्थाय तवोवी प्रति यास्यतः। आसीत्कल्पतरुच्छायामाश्रिता सुरभिः पथि ।। ७५ ॥ सञ्जी-पुरेति । पुरा पूर्व शक्रमिन्द्रमुपस्थाय संसेव्योर्वी प्रति भुवमुद्दिश्य यास्यतो गमिण्यतस्तव पथि वर्मनि कल्पतरुच्छायामाश्रिता सुरभिः कामधेनुरासीत् । तत्र स्थितेत्यर्थः।। अ०-पुरा, शक्रम्, उपस्थाय, उर्वीम्, प्रति, यास्यतः, तव, पथि, कल्पतरुच्छायाम, आश्रिता, सुरभिः, आसीत्। वा०-पुरा शक्रमुपस्थायोवी प्रति यास्यतस्तव पथि कल्पतरुच्छायामाश्रितया सुरभ्याऽभूयत ।। ___ सुधा-पुरा = आदौ, शक्रंदिवस्पतिम्, इन्द्रमिति यावद् । उपस्थाय-उपस्थानं कृत्वा, 'संसेव्य' इत्यर्थः। उर्वीम् प्रतिवसुन्धरामुद्दिश्य, यास्यतः = गमिप्यतः 'भूलोकमुद्दिश्य स्वर्गतः परावर्तमानस्य' इति भावः । तव = भवतः, 'दिलीपस्य' इत्यर्थः । पथि = अध्वनि, 'स्वर्गलोकमण्डलमार्गे' इति भावः। कल्पतरुच्छायां= देवतरोरधोभागे, मन्दारपारिजातकसन्तानकल्पतरुवृक्षहरिचन्दनकतरदेवतरोश्छायाम्' इति भावः। आश्रिता = सेविता, तत्र स्थितेति भावः। सुरभि कामधेनुः, आसीत् = अभवत् । स०-कल्पतरोः छाया कल्पतरुच्छाया तां कल्पतरुच्छायाम् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीवनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | ६३ को०- 'जिष्णुलैखर्षभः शक्रः शतमन्युर्दिवस्पतिः' इति । 'सर्वसहा वसुमती वसुधोर्वी वसुन्धरा' इति । 'सुगन्धे च मनोज्ञे च वाच्यवत् सुरभिः स्मृतः' इति विश्वः । ता० – स्वर्गाद् भूलोकमागच्छता त्वया वर्त्मनि सुरतरुच्छायायां निषण्णा कामधेनुर्दृष्टा । इन्दु: - ' पहले किसी समय में' इन्द्र का दर्बार करके पृथ्वी की ओर लौटते हुए तुम्हारे मार्ग में कल्पवृक्ष की छाया का सेवन करती हुई कामधेनु थी ॥ ७५ ॥ ततः किमित्याह - कामधेनोः प्रदक्षिणा करणे हेतुं प्रदर्शयन्नाह - धर्मलोप भयाद्राज्ञी मृतुस्नातामिमां स्मरन् । प्रदक्षिणक्रियायां तस्यां त्वं साधु नाचरः ॥ ७६ ॥ सञ्जी० - धर्मेति । ऋतुः पुष्पं रज इति यावत् । 'ऋतुः स्त्री कुसुमेऽपि च' इत्यमरः । ऋतुना निमित्तेन स्नातामिमां राज्ञीं सुदक्षिणां धर्मस्यत्वंभिगमनलक्षणस्य लोपाद् भ्रंशाद्यद् भयं तस्मात्स्भरन्ध्यायन् । ( मृदं गां दैवतं विप्रं घृतं मधु चतुष्पथम् । प्रदक्षिणानि कुर्वीत विज्ञातांश्च वनस्पतीन् ॥ ) इति शास्त्रात्प्रदक्षिणक्रियाऽर्हायां प्रदक्षिणकरणयोग्यायां तस्यां धेन्वां त्वं साधु प्रदक्षिणादिसत्कारं नाचरो नाचरितवानसि व्यासक्ता हि विस्मरन्तीति भावः । ऋतुकालाभिगमने मनुः - ( ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा ) इति । अकरणे दोषमाद पराशरः - ( ऋतुस्नातो तु यो भार्यां स्वस्थः सन्नावगच्छति । बालगोघ्नापराधेन विध्यते नात्र संशयः ॥ ) इति । तथा च- (ऋतुस्नातां तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति । घोरायां भ्रूणहत्यायां युज्यते नात्र संशयः ) इति । अ— ऋतुस्नाताम्, इमां राज्ञीं, धर्मलोपभयात्, स्मरन्, प्रदक्षिणक्रियाऽर्हायां, तस्यां, त्वं, साधु, न, आचरः । वा० - ऋतुस्नातामिमां राज्ञीं धर्मलोपभयात् स्मरता 'सता' त्वया प्रदक्षिणक्रियायां तस्यां साधु नाचय्र्यत । सुधा — ऋतुस्नातां = रजोदर्शननिमित्तककृतस्नानाम्, इमाम् = अग्रे स्थितां, राज्ञीं = पत्नीं, सुदक्षिणामित्यर्थः । धर्मलोपभयाद् = ऋतुकालाभिगमनरूपाचारभ्रंशभीत्या, स्मरन् = अनुचिन्तयन्, प्रदक्षिणक्रियायाम् = प्रदक्षिणकरणयोग्यायां, शास्त्रादिति शेषः । तस्याम् = पूर्वोक्तायां, धेन्वामिति यावत् त्वम् = भवान्, दिलीपः इति भावः । साधु = चारु, प्रदक्षिणादिसत्कारमित्यर्थः । न = = नहि, आचरः = विहितवानसि । स० - धर्मस्य लोपो धर्मलोपः धर्मलोपाद् भयं धर्मलोपभयं तस्माद् धर्मलोपभयात् । प्रगतं दक्षिणं प्रदक्षिणं तस्य क्रिया प्रदक्षणक्रिया, अर्हति या सा अर्का प्रदक्षिणक्रियायाम प्रदक्षिणक्रियाऽर्हा तस्यां प्रदक्षिणक्रियायाम् । को० - 'ऋतुर्वर्षाऽऽदिषट्सु च । आर्तवे मासि च पुमान्' इति मेदिनी । ता०—पथि तां कामधेनुं दृष्ट्वाऽपि ऋतुकालाभिगमनधर्म नाशभीत्या राज्ञीं चि - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ रघुवंशमहाकाव्यम् - [ प्रथमः न्तयन् सन् त्वं तस्यां, प्रदक्षिणादिसत्कारविधिं न विहितवान् ॥ इन्दुः — ऋतुकाल (रजोदर्शन ) - निमित्तक स्नान की हुई, इस रानी सुदक्षिण को धर्म के लोप के भय से स्मरण करते हुए तुमने प्रदक्षिणक्रिया के योग्य उ कामधेनु के विषय में उचित 'प्रदक्षिणादि सत्कार' नहीं किया ॥ ७६ ॥ अनादृतायाः सुरभेर्दिलीपाय शापप्रदानमित्याह- प्रसूति {" marietal ge 12 अवजानासि मां यस्मादतस्ते न भविष्यति । मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा || ॐ | सञ्जी० – अवजानासीति । यस्मात्कारणान्मामवजानासि तिरस्करोषि । अतः कारणान्मत्प्रसूतिं मम संततिमनाराध्यासेवयित्वा ते तव प्रजा न भविष्यतीति सा सुरभिस्त्वां शशाप | 'शप आक्रोशे' । अ० यस्माद्, माम्, अवजानासि, अतः, मत्प्रसूतिम्, अनाराध्य, ते, प्रजा, न, भविष्यति, इति, सा, त्वां शशाप । वा० - यस्मात् 'त्वया' अहमवज्ञाये तो मत्प्रसूतिमनाराध्य ते प्रजया न भविष्यत इति तया त्वं शेपे ॥ सुधा - यस्मात्=यतः कारणादिति यावद् । माम् = प्रदक्षिणक्रियाऽहां, सुरभिम्, इति यावत् । अवजानासि = तिरस्करोषि । अतः = एतस्मात् कारणादिति यावद् । भत्प्रसूतिम्: (= मम संतति, सौरभेयीं नन्दिनीमिति भावः । अनाराध्य = : असेवयित्वा, ते=तव, प्रजा=सन्ततिः, न = नहि, भविष्यति = उत्पत्स्यते इति इत्थं सा= कामधेनुः, त्वां = भवन्तं दिलीपमिति भावः । शशाप = शप्तवती । मदवज्ञारूपापराधेन मदारमजासेवनं विना न ते प्रजा भविष्यतीति सा त्वां शशापेति भावः ॥ स० - मम प्रसूतिर्मत्प्रसूतिस्ताम् मत्प्रसूतिम् । को० - 'प्रसूतिरुद्भवेऽपि स्यात्तनये दुहितर्यपि ' इति मेदिनी । ता०—– यस्मात्प्रदक्षिणक्रियाऽहमपि मामवजानास्यतो यावन्मद्दुहितरं न सेविष्यसे तावत् ते प्रजाऽपि न भविष्यतीति सा कामधेनुस्त्वामशपत् ॥ इन्दुः-तूने मेरा अनादर किया इस कारण से मेरी सन्तति की आराधना किए बिना तुझे संतान नहीं होगा ऐसा उस 'कामधेनु' ने तुम्हें शाप दिया ॥ ७७ ॥ कथं तदस्माभिर्न श्रुतमित्याह स शापो न त्वया राजन्न च सारथिना श्रुतः 1 नदत्याकाशगङ्गायाः स्नोतस्युद्दाम दिग्गजे ॥ ७८ ॥ सञ्जी० - स इति । हे राजन् ! स शापस्त्वया न श्रुतः सारथिना च न श्रुतः । अश्रवणे हेतुमाह- क्रीडार्थमागता उद्दामानो दाम्न उद्द्वता दिग्गजा यस्मिंस्तथोक्ते । आकाशगङ्गाया मन्दाकिन्याः स्त्रोतसि प्रवाहे नदति सति ॥ अ०- - हे राजन् !, सः, शापः त्वया न श्रुतः, च, सारथिना, न 'श्रुतः' उद्दाम Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् ।। दिग्गजे, आकाशगङ्गायाः स्रोतसि, नदति, 'सति' ॥ वा०--हे राजन् ! तं शापं त्वं नाश्रौषीः सारथिश्च नाौषीत् , उद्दामदिग्गज आकाशगङ्गायाः स्रोतसि नदति सति। सुधा--हे राजन् ! =हे नृप ! हे दिलीप ! इति यावत् । सः= पूर्वोक्तः, शाप आक्रोशः, 'प्रजा ते न भविष्यति' इत्यात्मकः। त्वया=भवता, नम्नहि, श्रुतः= शुश्रुवे । च= पुनः, सारथिना-सूतेन, न= नहि, 'श्रुतः' इति शेषः । उद्दामदिग्गजेउच्छृङ्खलदिङ्नागे, आकाशगङ्गायाः= वियद्गङ्गायाः 'मन्दाकिन्याः' इति यावत् । स्रोतसि%प्रवाहे, नदति = शब्दायमाने, अव्यक्तं हरहरेतिशब्दं कुवंतीति भावः। 'सति' इति शेषः। सुरनदीप्रवाहशब्दतुमुले कामधेनुशब्दस्य विलीनत्वात् त्वया न श्रुत इत्यर्थः॥ __ स०--दाम्न उद्गता उद्दामानः, दिशां गजा दिग्गजाः 'ऐरावतादयः' उद्दामानो दिग्गजा यत्र तदुद्दामदिग्गजं तस्मिन्नद्दामदिग्गजे। को'नियन्ता प्राजिता, यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः। सव्येष्ठदक्षिणस्थौ च संज्ञा रथकुटुम्बिनः' इत्यमरः । ता०-हे राजन् ! त्वं तं शापं न श्रुतवान्, तथा सारथिरपि न श्रुतवान्, यतो मन्दाकिन्याः प्रवाहेऽवगाहमानानामुद्तवन्धनानामैरावतप्रभृतीनां दिग्गजानां महानव्यक्तः शब्द आसीत् । इन्दुः-हे राजन् ! उस शाप को तुमने और सारथि ने भी नहीं सुना। क्योंकि 'स्नान करने के लिये आये हुये अत एव बन्धन से छूटे हुये ऐरावत आदि' दिग्गजों का आकाशगङ्गा (मन्दाकिनी) के प्रवाह में अव्यक्त शब्द हो रहा था ॥ ७८॥ अस्तु प्रस्तुते किमायातमित्यत्राह ईप्सितं तदवज्ञानाद्विद्धि सार्गलमात्मनः । प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ॥ ७६ ॥ सञ्जी०-ईप्सितमिति । तदवज्ञानात्तस्या धेनोरवज्ञानादपमानादात्मनः स्वस्याप्तुमिष्टमीप्सितं मनोरथम् । आप्नोतेः सन्नन्ताक्त ईकारश्च । सार्गलं सप्रतिबन्धं विद्धि जानीहि । तथाहि पूज्यपूजाया व्यतिक्रमोऽतिक्रमणं श्रेयः प्रतिबध्नाति ॥ ___ अ०-तदवज्ञानाद्, आत्मनः, ईप्सितं, सार्गलं, विद्धि, हि, पूज्यपूजान्यतिक्रमः, श्रेयः, प्रतिबध्नाति ॥ वा०-तदवज्ञानादीप्सितं सार्गलं त्वया' विद्यतां, हि पूज्यपूजाव्यतिक्रमेण श्रेयः प्रतिबध्यते ॥ ___ सुधा-तदवज्ञानात्म्सुरभेस्तिरस्क्रियायाः, अपमानादिति यावद् । आत्मनः= स्वस्य, दिलीपस्येत्यर्थः। ईप्सितम् = अभीष्टं 'सन्ततिरूपम्' इति यावत् । सार्गलम् = प्रतिबन्धसहितं, विद्धि= अवेहि, त्वमिति शेषः। हि= यतः, पूज्यपूजाव्यतिक्रमः= पूजाऽर्चािऽतिक्रमणं, श्रेयः= शुभम, प्रतिबध्नाति =निरुणद्धि ॥ ५ रघु० १ सर्ग Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ रघुवंश महाकाव्यम् - [ प्रथम स० - पूजितुं योग्याः पूज्याः तेपां पूजा पूज्यपूजा तस्या व्यतिक्रमः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । को० - ' अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया । रीढाऽवमाननावज्ञाऽबहेलन मसूर्क्षणम्' इति चामरः । ता० - तस्य धेनोरनादरतस्ते सन्तानरूपस्य मनोरथस्य प्रतिबन्धो जातो यतः पूज्यानां पूजालङ्घनं कल्याणम् प्रतिबध्नात्येव । I इन्दुः-- उस कामधेनु का अनादर करने से अपने 'सन्तानरूप' मनोरथ को तुम रुका हुआ समझो । क्योंकि पूज्यों की पूजा का उल्लङ्घन करना कल्याण को रोकता है । तर्हि गत्वा तामाराधयामि । सा वा कथंचिदागमिष्यतीत्याशा न कर्त्तव्येत्याहहविषे दीर्घसत्रस्य सा चेदानीं प्रचेतसः 198ca, भुजङ्गपिहितद्वारं पातालमधितिष्ठति ॥ ८० ॥ सञ्जी० - हविष इति । सा च सुरभिरिदानीं सनं चिरकालसाध्यो यागविशेषो यस्य तस्य प्रचेतसो हविषे दध्याज्यादिहविरर्थं भुजङ्गावरुद्धद्वारं ततो दुष्प्रवेशं पाता लमधितिष्ठति । पाताले तिष्ठतीत्यर्थः । 'अधिशीस्थाssसां कर्म' इति कर्मत्वम् ॥ अ० - सा, च, इदानीं, दीर्घसत्रस्य, प्रचेतसः, हविपे, भुजङ्गपिहितद्वारम्, पाता लम्, अधितिष्ठति ॥ वा० - तया चेदानीं दीर्घसत्रस्य प्रचेतसो हविषे भुजङ्ग पिहितद्वारं पातालमधिष्ठीयते ॥ बगल = सुधा-सा = सुरभिः, च = पुनः, इदानीम् = अस्मिन् काले, दीर्घसत्रस्य = बहुसमयसाध्ययज्ञविशेषकारिणः, प्रचेतसः = पाशिनः वरुणस्येति यावद् । हविषे : दध्याज्यादिहविःसामग्रीसम्पादनार्थम् भुजङ्गपिहितद्वारम् भुजगावरुद्ध प्रतीहारम्, 'अत एव दुष्प्रवेशस्' पातालम् = पाताललोकम् अधितिष्ठति = अध्यास्ते 'पाताले वर्त्तते' इति भावः ॥ स०- --भुजाभ्यां गच्छन्तीति भुजङ्गाः तैः पिहितं भुजङ्गपिहितं भुजङ्गपिहितं द्वारं यस्य तद् भुजङ्गपिहितद्वारम् । को० --- ' हविर्होतव्यमात्रे च सर्पिण्यपि नपुंसकम्' इति । 'सत्नं यज्ञे सदादानाच्छादारण्यकैतवे' इति च मेदिनी । 'सर्पः पृदाकुर्भुजगो भुजङ्गोऽहिर्भुजङ्गमः' इति चामरः । ता० - सा च कामधेनुः सम्प्रति बहुसमयसाध्ययज्ञकर्तुर्वरुणस्य यज्ञे दध्याज्यादिहविःसामग्री सम्पादनार्थम् भुजङ्गावरुद्ध प्रवेशमार्गे पाताले तिष्ठतीत्यतस्तत्र गन्तुमशक्यम् । इन्दु - और वह कामधेनु इस समय बहुत समय में पूर्ण होने वाले यज्ञ के कर्त्ता वरुण के हवि 'दधि, घृत आदि' के लिये साँपों से रुके हुए द्वारवाले पाताल लोक में रहती है ॥ ८० ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । तहिं का गतिरित्याह ___ सुतां तदीयां सुरभेः कृत्वा प्रतिनिधिं शुचिः। __ आराधय सपत्नीकः प्रीता कामदुधा हि सा ।। ८१॥ सञ्जी०-सुतामिति । तस्याः सुरभेरियं तदीया तां, सुतां सुरभेः प्रतिनिधि कृत्वा शुचिः शुद्धः। सह पन्या वर्तत इति सपत्नीकः सन्। 'नद्यतश्च' इति कप्प्रत्ययः । आराधय । हि यस्मात्कारणात्सा प्रीता तुष्टा सती । कामांन्दोग्धीति कामदुघा भवति । 'दुहः कव्घश्व' इति कप्प्रत्ययो घादेशश्च । __ अ०-तदीयां, सुतां, सुरभेः, प्रतिनिधि, कृत्वा, शुचिः, 'भूत्वा' सपत्नीकः, 'सन्' आराधय, हि सा, प्रीता, 'सती' कामदुघा, 'भवति' । वा०-तदीयां सुतां सुरभेः प्रतिनिधिं कृत्वा शुचिना सपत्नीकेन त्वयाऽऽराध्यतां हि तया प्रीतया सत्या कामदुघया भूयते । सुधा-तदीयां सुरभिसम्बन्धिनी, सुताम् = आत्मजां, नन्दिनीमिति यावत् । सुरभेः = कामधेनोः, प्रतिनिधिम् = प्रतिच्छायां, स्थानापन्नामिति यावत् । कृत्वा = विधाय, शुचिः=शुद्धः, 'भूत्वा' इति शेषः । सपत्नीकः=भार्यासहितः, 'सन्' इति शेषः । आराधय = आराधनां कुरु, हि= यतः, सा= नन्दिनी, प्रीता प्रसन्ना, 'सती' इति शेषः । कामदुघा = अभीष्टफलप्रसविनी, 'भवति' इति शेषः । कामधेनोरभावे तदीयां सुतां सेवस्व सेव तवाभीष्टदायिनी भविष्यति । स०-पत्न्या सह वर्तते यः स सपत्नीकः। को०-'शुचिर्दीष्माग्निशृङ्गारेवाषाढे शुद्ध मन्त्रिणि । ज्येष्ठे च पुंसि धवले शुद्धे. ऽनुपहते त्रिषु' इति मेदिनी। ता०-तस्याः पातललोकस्थितायाः कामधेनोः सुतां नन्दिनीनाम्नी तत्स्थानापन्नां कृत्वा पवित्रमनाः सुदक्षिणासहितस्त्वं शुषस्व यतस्त्वत्सेवया सा प्रसन्ना सती तवाभीष्टफलदायिनी भविष्यति । इन्दुः-उस कामधेनु की लड़की को उसी के 'स्थान पर' प्रतिनिधि करके तुम शुद्ध मन होकर रानी के सहित उसकी सेवा करो, क्योंकि वह 'नन्दिनी' प्रसन्न होती हुई मनोरथ को पूरा करने वाली होती है ॥ ८१ ॥ कामधेनुसुताया नन्दिन्या वनादागमनमित्यत्राह इति वादिन एवास्य होतुराहुतिसाधनम् । अनिन्द्या नन्दिनो नाम धेनुराववृते वनात् ।। ८२॥ सञ्जी०-इतीति । इति वादिनो वदत एव होतुर्हवनशीलस्य । 'तृन्' इति तृन्प्रत्ययः। अस्य मुनेराहतीनां साधनं कारणम् । नन्दयतीति व्युत्पत्त्या नन्दिनी नामानिन्द्याऽगा प्रशस्ता धेनुर्वनादाववृते प्रत्यागता। 'अध्याक्षेषो भविष्यन्त्याः कार्यसिद्धेहि लक्षणम्' इति भावः। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम अ०-इति वादिनः, एव, होतुः, अस्य, आहुतिसाधन' नन्दिनी, नाम, अनिन्ध धेनुः, वनाद्, आववृते । वा०-इति वादिन एव होतुराहुतिसाधनेन नन्दिन्या नामानिन्धया धेन्वा वनादाववृते । सुधा-इति वादिनः = एवं कथयतः, एव, होतुः = हवनकर्तुः, हवनशीलस्य, इति यावद् । अस्यम्मुनेः 'वशिष्ठस्य' इत्यर्थः। आहुतिसाधनं हवनसामग्रीकारण नन्दिनी-नन्दिनीत्याता, नाम प्रसिद्धावव्ययमेतद्, अनिन्द्या, अगा, प्रशस्तेति यावद् । धेनुः= नवसूतिका 'कामधेनुसुता' इत्यर्थः। वनाद् = विपिनाद्, आव वृते प्रत्याजगाम । स०-साध्यतेऽनेनेति साधनम् आहुतीनां साधनमाहुतिसाधनम् । को०-'इति स्वरूपे सान्निध्ये विवक्षानियमेऽपि च । हेतौ प्रकारप्रत्यक्षमप्रकर्षेष्ववधारणे । एवमर्थे समाप्तौ स्याद्' इति हैमः । 'एवौपम्येऽवधारणे' इति विश्वः।। ___ ता०-इत्थं दिलीपं प्रति कामधेनुस्थानापन्नायास्तत्सुताया नन्दिनीनाम्न्याः सेवां कर्तुं कथयतस्तस्य वशिष्ठस्य यज्ञ आहुतिसामग्रीदध्याज्यादिसाधनं नन्दिन नाम धेनुर्वनात् प्रत्याजगाम । तद्वर्णनक्षण एव नन्दिनीदर्शनेन तत्कार्यसिद्धिरविलम्बेन भविष्यतीति सूचिता। ___ इन्दुः-इस प्रकार से कहते हुए ही उन बशिष्ठमहर्षि की आहुति का साधन 'नन्दिनी' नाम से प्रसिद्ध 'नई ब्याई हुई' धेनु वन से लौटकर आई ॥ ८२ ॥ सम्प्रति धेनुं विशिनष्टि ललाटोदयमाभुग्नं पल्लवस्निग्धपाटला | बिभ्रती श्वेतरोमात सन्ध्येव शशिनं नवम् ॥ ८॥ सञ्जी०-ललाटेति । पल्लववस्निग्धा चासौ पाटला च । संध्यायामप्येतद्विशेषणं योज्यम् । ललाट उदयो यस्य स ललाटोदयः तमाभुग्रमीषटकम् । 'आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वक्रमित्यपि' इत्यमरः । 'ओदितश्च' इति निष्ठा तस्य नरवम् । श्वेतरो. माण्येवाङ्कस्तं बिभ्रती । नवं शशिनं विभ्रती संध्येव स्थिता। ___ अ०-पल्लवस्निग्धपाटला, ललाटोदयम्, आभुग्नं, श्वेतरोमाई, बिभ्रती, नवं, शशिनम् 'विभ्रती' सन्ध्या, इव 'स्थिता'। वा०-पल्लवस्निग्धपाटलया ललाटोदयमाभुग्नं श्वेतरोमाकं विभ्रत्या नवं शशिनं बिभ्रत्या सन्ध्ययेव स्थितया 'नन्दिन्या वनादाववृते' . सुधा-पल्लवस्निग्धपाटला=किसलयमसणश्वेतमिश्ररक्तवर्णा, सन्ध्यापेक्षेपीदमेव विशेषणम् । ललाटोदयम्भालस्थलोन्नतिकम् 'भालोद्भूतम्' इति यावद् । आभुग्नम् = ईषत्कुटिलं, श्वेतरोमाईधवललोमलक्षणम्, बिभ्रती= दधाना, नवं% नूतनं, 'द्वितीयातिथावुदितम्' इति भावः। शशिनं चन्द्रम, 'बिभ्रती' सन्ध्या= पितृप्रसूः, सन्ध्याकाल इति यावद् । इव= यथा, 'स्थिता' इति शेषः । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ६६ स०-श्वेतानि च तानि रोमाणि श्वेतरोमाणि श्वेतरोमाण्येवाङ्कः श्वेतरोमाङ्कः तं श्वेतरोमाङ्कम् । सम्यग ध्यायन्त्यस्यामिति सन्ध्या। को०-'आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वक्रमित्यपि' इति । 'पल्लवोऽस्त्री किसलयम्' इति । 'चिक्कणम् मसृणं स्निग्धम्' इति । 'श्वेतरक्तस्तु पाटलः' इति । 'शुक्लशुभ्रशुचिश्वेतविशदश्येतपाण्डुराः। अवदातः सितो गोरो वलक्षो धवलोऽर्जुनः' इति चामरः। ___ ता०-नूतनपल्लववत् चिक्कणश्वेतमिश्ररक्तवर्णा यथा सन्ध्या द्वितीयाचन्द्र धारयन्ती स्थिता तथैव नन्दिन्यपि ललाटोद्भूतमीषद्वकं श्वेतरोमाकं धारयन्ती मुनिसमीपे वनात्परावृत्य स्थिता ॥ ___ इन्दुः-पल्लव की तरह चिक्कण श्वेतयुक्त लाल रगवाली, ललाट में उत्पन्न नये, कुछ टेढ़े सफेद रोयें रूपी चिह्न को धारण करती हुई, अत एव द्वितीया के चन्द्रमा को धारण करती हुई सन्ध्या के समान वह नन्दिनी (वन से लौट कर आई)॥८३॥ पुनरपि धेनुवर्णनप्रसङ्गेनाह भुवं कोष्णेन कुण्डोनी मेध्येनावभृथादपि । प्रस्नवेनाभिवषेन्ती वत्सालोकप्रवर्तिना ॥ २४ ॥ सञ्जी०-भुवमिति । कोष्णेन किंचिदुष्णेन । 'कवं चोष्णे' इति चकारात्कादेशः। अवभृथादप्यवभृथस्नानादपि मेध्येन पवित्रेण । 'पूतं पवित्रं मेध्यं च' इत्यमरः। वत्सस्यालोकेन प्रदर्शनेन प्रवर्तिना प्रवहता । प्रस्त्रवेन क्षीराभिष्यन्दनेन भुवमभिव. पन्ती सिञ्चन्ती। कुण्डमिवोध आपीनं यस्याः सा कुण्डोध्नी । 'ऊधस्तु क्लीबमापीनम्' इत्यमरः । 'ऊधसोऽनङ' इत्यनङादेशः । 'बहुव्रीहेरूधसो ङीष् ॥ ___ अ०-कोपणेन, अवभृथाद्, अपि मेध्येन, वत्सालोकप्रवर्तिना, प्रसवेन, भुवम्, अभिवर्षन्ती, कुण्डोध्नी, 'नन्दिनी, वनाद् , आववृते'। वा०-कोष्णेनावभृथादपि मेध्येन वत्सालोकप्रवर्तिना प्रस्त्रवेन भुवमभिवर्षन्त्या कुण्डोन्या 'वनादाववृते' ॥ सुधा-कोप्णेन = ईषदुष्णेन, अवभृथाद् =दीक्षाऽन्ताद्, यज्ञे दीक्षायाः समापकादिष्टिपूर्वकस्नानविशेषादित्यर्थः। अपिसमुच्चये, मेध्येन= पूतेन, वत्सालोकप्रवर्त्तिनाशकृत्करिपुत्रदर्शनप्रवहता, प्रस्रवेन =अभिव्यन्देन, क्षीरस्येति शेषः । भुवं भूमिम्, अभिवर्षन्ती = सिञ्चन्ती, कुण्डोध्नी = स्याल्युपमापीनवती, 'सा नन्दिनी वनादाववृते' पूर्वश्लोकेनान्वीयते ॥ अ०-आ समन्ताल्लोकनमालोकः, प्रकर्षेण वर्तितुं शीलमस्येति प्रवर्ती, बत्सस्यालोको वत्सालोकः तेन प्रवर्ती वत्सालोकप्रवर्ती तेन वत्सालोकप्रवर्तिना ॥ को०-'कोष्णं कवोष्णं मन्दोष्णम्' इति । 'पिठरः स्थाल्युखा कुण्डम्' इति । 'ऊधस्तु क्लीवमापीनम्' इति । 'दीक्षान्तोऽवभृथो यज्ञे' इति । 'शकृत्करिस्तु वत्सः स्वाद' इति सर्वत्राप्यमरः॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथम ___ ता-ईषदुष्णेन यज्ञान्तस्नानार्थकजलादपि पवित्रेण वत्सदर्शनेन प्रवहता क्षीरा भिप्यन्दनेन पृथ्वी सिञ्चन्ती, अतएव-स्थालीसदृशपीनस्तनीनन्दिनी वनादाववृते॥ इन्दुः-कुछ गरम, यज्ञ के अन्त में इष्टिपूर्वक स्नानार्थ जल से भी पवित्र बछड़े के देखने से बहते हुये दूध के टपकने से पृथिवी को सींचती हुई, अत एव वटलोई की भाँति मोटे थनोंवाली 'नन्दिनी वन से लौटी' ॥ ८४ ॥ अनन्दिन्याः खुरोद्धृतरजसां पूतत्ववर्णनपूर्वकं तां विशिनष्टि रजःकणैः खुराधूतैः स्पृद्भिगोत्रमन्तिकात् । तीर्थाभिषेकजां शुद्धिमादधाना महीक्षितः ।। ८५ ॥ सञ्जी०-रज इति । खुरोधूतैरन्तिकात्समीपे गात्रं स्पृशद्भिः । 'दूरान्तिकार्थ भ्यो द्वितीया च' इति चकारात्पञ्चमी। रजसां कणैः । महीं क्षियत ईष्ट इति महीं वित्तस्य । तीर्थाभिषेकेण जातां तीर्थाभिषेकजाम् । शुद्धिमादधाना कुर्वाणा । एतेन वायव्यं स्नानमुक्तम् । उक्तं च मनुना-आग्नेयं भस्मना स्नानमवगाह्यं तु वारू. णम् । आपो हिष्ठेति च ब्राह्मं वायव्यं गोरजः स्मृतम् ॥ इति ॥ अ०-खुरोधूतैः, अन्तिकाद्, गात्रं, स्पृशद्भिः, रजःकणैः, महीक्षितः, तीर्थाभि षेकजां, शुद्धिम्, आदधाना, 'वनादाववृते' ॥ वा०-खुरोधूतैरन्तिकाद् गात्रं स्पृशद्धी रजःकणैर्महीक्षितस्तीर्थाभिपेकजां शुद्धिमादधानया 'वनादाववृते॥ सुधा खुरोधूतैः = शफोत्थैः, अन्तिकात् =समीपे, गात्रं वपुः, स्पृशद्भिःस्पर्श कुर्वद्भिः, रजःकणैः रेण्वतिसूचमांशेः, महीक्षितः नृपस्य, दिलीपस्येति यावत्। तीर्थाभिषेकजां= अध्वराभिपेचनसम्भवां, शुद्धिं = पवित्रताम्, आदधाना=कुर्वाणा, एतेन वायव्यं स्नानमुक्तं, 'वनादाववृते' इति पूर्वेणान्वयः॥ स०-खुरन्ति विलिखन्ति चमामिति खुराः तैरुद्धृताः खुरोधूतास्तैः खुरोद् धूतः, अभिषेचनमभिषेकः, तीर्थस्याभिषेकस्तीर्थाभिषेकः, तस्माजाता तीर्थाभिपे कजा तां तीर्थाभिषेकजाम् (स्त्री०) को–'रेणुद्वयोः स्त्रियां धूलिः पांसुर्ना न द्वयो रजः' इति । 'शर्फ क्लीवे खुरः पुमान्' इति । चामरः। ___ ता-खुरोत्थैरत एव समीपवर्तित्वाद् राज्ञो दिलीपस्थ गात्रं स्पृशद्भिः पांसुभिः पवित्रजलाभिपेकजनितां शुद्धिं विदधती 'नन्दिनी वनादाववृते । __ इन्दुः-खुरों से उठी हुई, अत एव समीप होने के कारण शरीर को स्पर्श करती हुई, धूलि के कणों से राजा दिलीप की, ऋषियों से सेवित तीर्थसम्बन्धी जल में स्नान करने से उत्पन्न शुद्धि को करती हुई 'नन्दिनी वन से लौटी' ॥८॥ तां दृष्ट्वा वशिष्ठः पुनर्दिलीपं प्रत्याह तां पुण्यदर्शनां दृष्ट्वा निमित्त ज्ञस्तपोनिधिः । याज्यमाशंसिताबन्ध्यप्रार्थनं पुनरब्रवीत् ॥८६॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सञ्जी०-तामिति । निमित्तज्ञः शकुनज्ञस्तपोनिधिर्वशिष्ठः पुण्यं दर्शनं यस्यास्तां धेनुं दृष्ट्वा । आशंसितं मनोरथः। नपुंसके भावे क्तः। तत्राबन्ध्यं सफलं प्रार्थन यस्य स तम् । अबन्ध्यमनोरथमित्यर्थः। याजयितुं योग्यं याज्यं पार्थिवं पुनरब्रवीत् ॥ ___अ०-निमित्तज्ञः, तपोनिधिः, पुण्यदर्शनां, तां दृष्ट्वा, आशंसिताबन्ध्यप्रार्थनं, याज्यम्, पुनः, अब्रवीत् ॥ वा०-निमित्तज्ञेन तपोनिधिना पुण्यदर्शनां तां दृष्ट्वाऽऽशंसिताबन्ध्यप्रार्थनो याज्यः पुनरोच्यत ॥ सुधा-निमित्तज्ञः = लक्ष्मविद्,शुभाशुभलक्षणज्ञ इति भावः । 'शकुनज्ञः' इति यावत् । तपोनिधिः =धर्मशेवधिः, वशिष्ठ इत्यर्थः। पुण्यदर्शनाम् = पवित्रावलोकनां, तांनन्दिनी, दृष्ट्वा=वीचय, आशंसिताबन्ध्यप्रार्थनम् मनोरथसफलावेदनकं, सफलाभिलाषमिति भावः। याज्यं याजनयोग्यं 'यजमानं दिलीपम्' इति भावः। पुनः= भूयः, अब्रवीत् = उवाच । नन्दिनीसेवावर्णनसमये तदागमनरूपशकुनेन दिलीपस्य सफलीभबिष्यन्तम् मनोरथं ज्ञात्वा, आहेति भावः॥ स०-निधीयतेऽस्मिन्निति निधिः तपसांनिधिस्तपोनिधिः। अफलम्बध्नातीति बन्ध्या न बन्ध्येत्यबन्ध्या आशंसितेऽबन्ध्या आशंसिताबन्ध्या आशंसितावन्ध्या प्रार्थना यस्य स आशंसितावन्ध्यप्रार्थनः तमाशंसितावन्ध्यप्रार्थनम् ॥ ___ को०-पुण्यं मनोज्ञेऽभिहितं तथा सुकृतधर्मयोः' इति विश्वः । 'निमित्तं हेतुलक्मणोः' इत्यमरः । 'तपश्चान्द्रायणादौ स्याद्धर्मे लोकान्तरेऽपि च' इति विश्वः । ____ ता०-शकुनशास्त्रवेत्ता वशिष्ठो मुनिस्तां नन्दिनीमवलोक्यात एव सफलमनोरथं दिलीपं सम्भाव्य सम्प्रति पुनरुवाच ॥ इन्दुः-शकुनशास्त्र के जाननेवाले, तपोनिधि 'वशिष्ठजी' पवित्र (सुन्दर) दर्शनवाली, 'उस नन्दिनी' को देखकर 'पुत्रप्राप्तिरूप' मनोरथ के विषय में सफल है प्रार्थना जिसकी, ऐसे, यज्ञ कराने के योग्य (यजमान) 'राजा दिलीप' से फिर बोले ॥८६॥ किमब्रवीदित्यालायां सफलमनोरथत्वे हेतुं प्रदर्शयन्नाह अदूरवर्तिनी सिद्धि राजान्वगणयात्मनः । उपस्थितेयं कल्याणी नाम्नि कीर्तित एव यत् ।। ८७ ॥ सञ्जी०-अदूरवर्तिनीमिति । हे राजन् ! भात्मनः कार्यस्य सिद्धिमदूरवर्तिनी शीघ्रभाविनी विगणय विद्धि । यद्यस्मात्कारणात्कल्याणी मङ्गलमूर्तिः। 'बह्वादिभ्यश्च' इति डीप । इयं धेनुर्नाम्नि कीर्तिते कथिते सत्येवोपस्थिता ॥ अ०-राजन् ! आत्मनः, सिद्धिम्, अदूरवर्तिनी, विगणय, यत्, कल्याणी, इयं नाम्नि, कीर्तिते, 'सति' एव, उपस्थिता ॥ वा०-हे राजन् ! (त्वया) आत्मनः सिद्धिरदूरवर्तिनी विगण्यतां, यत् कल्याण्याऽनया नाग्नि कीर्तित एवोपस्थितयाऽभूयत॥ सुधा हे राजन् ! हे नृप ! हे दिलीप ! इति यावद् । आत्मनःप्रयत्नस्य, पुत्रः Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ रघुवंश महाकाव्यम् - [ प्रथम प्राप्तिरूपस्येति यावत् । सिद्धिं = निष्पत्तिं फलस्येति शेषः । अदूरवर्त्तिनीं = समीप - स्थायिनों, स्वल्पकालभाविनीमिति यावद् । विगणय = अवेहि, यद् = यस्मात्करणात्, कल्याणी=मङ्गलमूर्तिः, कल्याणकारिणीति भावः । इयं = पुरोवर्त्तिनी, नन्दि नीति यावद् | नाग्नि = स्वकीयनन्दिनीत्यभिधाने, कीर्त्तिते= उच्चारिते, सति' इति शेषः । एव = अवधारणे, तत्काल एव न तु विलम्वादिति भावः । उपस्थिता = उपागता । सन दूरमदूरं तस्मिन्नदूरे भदूरे वर्त्तितुं शीलमस्याः साऽदूरवर्त्तिनी तामदूरबत्र्त्तिनीम् । नम्यतेऽभिधीयतेऽर्थोऽनेनेति नाम तस्मिन् नाम्नि | को०- 'राजा राट् पार्थिवचमाभृन्नृपभूपमहीक्षितः' इत्यमरः । ' आख्यान अभिधानं च नामधेयं चे नाम च' इत्यमरः । 'यत्तद्यतस्ततो हेतौ' इत्यमरः । ता०-हे राजन् ! त्वमात्मनोऽभीष्टसिद्धिं शीघ्रभाविनीं विद्धि यतो नामसङ्की तन क्षण एव तव मङ्गलमूर्त्तिरियं धेनुरकस्मादुपागता ॥ इन्दुः- हे महाराज ! आप अपने पुत्रप्राप्ति रूप कार्य की सिद्धि को निकट आई समझें। क्योंकि यह ( सामने आती हुई ) कल्याणमूर्त्ति नन्दिनी नाम लेते ही उपस्थित हुई ॥ ८७ ॥ *पुत्रप्राप्त्यर्थं नन्दिनी परिचर्यामुपदिशन्नाह वन्यवृत्तिरिमां शश्वदात्मानुगमनेन गाम् । विद्यामभ्यवनेनेव प्रसादयितुमर्हसि ॥ ८८ ॥ सञ्जी० - वन्यवृत्तिरिति । वने भवं वन्यं कन्दमूलादिकं वृत्तिराहारो यस्य तथा भूतः सन् । इमां शश्वत्सदा । आ प्रसादादविच्छेदेनेत्यर्थः । आत्मनस्तव कर्तुः । अनुगमनेनानुसरणेन । अभ्यसनेनानुष्ठातुरभ्यासेनं विद्यामिव प्रसादयितुं प्रसन्नां कर्तुं मर्हसि । अ० - वन्यवृत्तिः, (सन् ) इमां, गां, शश्वद्, आत्मानुगमनेन, अभ्यसनेन, विद्याम्, इव, प्रसादयितुम् अर्हसि ॥ वा० - ( त्वया ) वन्यवृत्तिना ( सता ) शश्वदात्मानुगमनेनेयं गौरभ्यसनेन विद्येव प्रसादयितुमते ॥ 3 सुधा - वन्यवृत्तिः = अरण्योद्भवाजीवः, कन्दमूलादिभक्षणेन प्राणधारणं कुर्वाणः सन्नित्यर्थः । इमाम् = एनां सम्मुखस्थामित्यर्थः । गां-धेनुं नन्दिनीमिति यावद् । शश्वद्=अभीक्ष्णं तत्प्रसादावधि प्रत्यहमविच्छेदेनेत्यर्थः । आत्मानुगमनेन = स्वकर्तृ कानुसरणेन, अभ्यसनेन = पुनः पुनरुपस्थितिक्ररणेन, अनुष्ठातुरिति शेषः । विद्यां : न्यायादिशाखज्ञानम् इव = यथा, प्रसादयितुं = सन्तोषयितुं, सन्तुष्टां कर्तुमिति यावद् | अर्हसि = योग्योऽसि ॥ ८८ ॥ - स०--वने साधु वन्यं वनोद्भवं कन्दमूलादिकं वृत्तिर्भोजनं यस्य स वन्यवृत्तिः ( ब० बी० ) । आत्मनोऽनुगमनमात्मानुगमनं तेन आत्मानुगमनेन ( त० पु० ) । गच्छतीति गौस्तां गाम् (स्त्री० ) । विदन्त्यनया विद्या तां विद्याम् (स्त्री० ) ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । __क्रो०-'मुहुः पुनःपुनः शश्वदभीचणमसकृत् समाः' इत्यमरः। 'आत्मा चित्ते धृतौ यत्ने धिषणायां कलेवरे । परमात्मनि जीवेऽक हुताशनसमीरयोः। स्वभावे' इत्यनेकार्थसङ्ग्रहः। ___ता०-प्रतिदिनमभ्यसनेन यथा जनो विद्यां तोषयितुं समर्थो भवति तथैव बमपि कन्दमूलादिकं वनोद्भूतं मक्षयित्वा मुनिवृत्तिः सन् यावन्न प्रसन्ना भवति तावदात्मानुसरणेनेमा नन्दिनी कामधेनुसुतां प्रसादयितुमुघतो भव ॥ इन्दुः-तुम वन में उत्पन्न हुये कन्दमूलादि खाकर निरन्तर इस गायके पीछे. पीछे चल करके, जैसे निरन्तर अभ्यास से विद्या प्रसन्न की जाती है उसी तरह से इसे प्रसन्न करने के लिये योग्य हो ॥ ८८ ॥ गवानुसरणप्रकारमाह प्रस्थितायां प्रतिष्ठेथाः स्थितायां स्थितिमाचरेः। निषण्णायां निषीदास्यां पीताम्भसि पिबेरपः ॥ ८ ॥ सञ्जी०-प्रस्थितायामिति । अस्यां नन्दिन्यां प्रस्थितायां प्रतिष्ठेथाः प्रयाहि । 'समवप्रविभ्यः स्थः' इत्यात्मनेपदम् । स्थितायां निवृत्तगतिकायां स्थितिमाचरेः स्थितिं कुरु । तिष्ठेत्यर्थः। निषण्णायामुपविष्टायां निषीदोषविश । विध्यर्थे लोट । पीतमम्भो यया तस्यां पीताम्भसि सत्यामपः पिवेः पिव ॥ अ०-अस्यां, प्रस्थितायां, (त्वम् ) प्रतिष्ठेयाः, स्थितायां, स्थितिम् आचरेः, निषण्णायां निषीद, पीताम्भसि (सत्याम्) भापः, पिबेः । - वा०-अस्यां प्रस्थितायां (त्वया) प्रतिष्ठीयेत, स्थितायां स्थितिराचर्येत, निषण्णायां निघद्यतां, पीताम्भसि (सत्याम् ) भपः पीयेरन् । सुधा-अस्याम् एतस्यां, पुरःस्थितायां नन्दिन्यामिति यावत् । प्रस्थितायां = प्रयातायां, वन इति शेषः । सत्यामिति सर्वत्र योज्यम् । प्रतिष्ठेथाम्प्रयाहि, तदनुप्रस्थितो भवेति भावः अत्र सर्वत्र क्रियायाः कर्तुराक्षेपेण त्वमिति पदं योज्यम् । स्थितायां प्रयाणमकुर्वाणायां, सत्यां, स्थितिमाचरेः=गमननिरोधं कुरु, तिष्ठेत्यर्थः । स्वस्येति शेषः । निषण्णायाम् उपविष्टायां, सत्यां, भूमाधिति शेपः। निपीद-उप. विश, पीताम्भसि-आधमितजलायां, कृतजलपानायामित्यर्थः । सत्याम, अपा-जलं पिबेः= आचम, पानं कुरुष्वेत्यर्थः । त्वमस्याश्छायावदनुसरणं कुरुष्वेति भावः ॥ . स०-आप्नोति आप्यते वा अम्भः पीतमम्भो यया सा पीताम्भस्तस्यां पीताम्भसि । आप्नुवन्ति, आप्यन्ते वेति, आपस्ता अपः। को०-भम्भोऽर्णस्तोयपानीयनीरक्षीराम्बुशम्बरम्' इति । 'आपः स्त्री भूम्नि वारि सलिलं कमलं जलम्' इति चामरः। ता०-हे राजन् ! त्वमस्याश्छायावत् परिचर्या कुरु, तद् यथा-एषा यदा गन्तुमुद्यता सती प्रयाणं करोतु तदैव त्वमपि तदनु प्रयाणं कुरु। यदा च क्वचित् स्थिता Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रयम:भवतु चेत् तदा त्वमपि तावत् स्थितो भव । यदा च क्वचिदुपविष्टा स्यात् तदा त्वमपि तत्रैव समुपविश। यदा च तृषाऽऽर्ता क्वचित् सलिलं पिबतु तदेव त्वमपि सलिलं पिब । न तु, तृषाऽऽत्तॊऽपि कदाचित् ततः प्राग जलं पिव ॥ ___ इन्दुः-हे राजन् ! इस (नन्दिनी) के चलने पर तुम (इसके पीछे २) चलो, ठहरने पर ठहरो, बैठने पर बैठो और पानी पीने पर पानी पीओ ॥ ८९॥ ®साम्प्रतं नन्दिनीपरिचर्यायां सुदक्षिणयाऽनुष्ठास्यमानं कर्म ब्रवन्नाह वधूभक्तिमती चैनामचितामा तपावनात् । प्रयता प्रातरन्वेतु सायं प्रत्युबजेदपि ।। ६०॥ सञ्जी०-वधूर्जाया च भक्तिमती गन्धादिभिरर्चितामेनां प्रातरा तपोवनात् । आङ्मर्यादायाम् । पदद्वयं चैतत् । अन्वेत्वनुगच्छतु । सायमपि प्रत्युद्वजेत्प्रत्युद्गरछेत् । विध्यर्थे लिङ॥ अ०-वधूः भक्तिमती, प्रयता च, (सती), अर्चिताम्, एनाम्, प्रातः, आ, तपोवनाद्, अन्वेतु, सायम्, अपि, प्रत्युद्वजेद् । वा०-वध्वा च भक्तिमत्या प्रयतया 'सत्या' अर्चितया प्रातरा तपोवनादन्वीयतां सायमपि प्रत्युव्रज्येत ॥ सुधा-वधूः स्नुषा, शिष्यपन्यां पुत्रवधूवद्वयवहारात् सुदक्षिणेत्यर्थों बोध्यः भक्तिमती श्रद्धावती । प्रयता पवित्रा, बाह्याभ्यन्तरशुद्धियुक्तेत्यर्थः । चअपि, समुच्चयार्थकश्चशब्दोऽत्र बोध्यः । सतीति शेषः । अर्चिताम् = पूजितां, गन्धपुष्पादिभिरिति शेषः। एनां पूर्वोक्तां, नन्दिनीमिति यावत् । प्रातःप्रभाते, काल इति शेषः। आ तपोवनात् आ तपोवनम्, मर्यादायामाङो योगे पञ्चमीविधानाद् वशिष्ठमहर्षेस्तपोवनसीमापर्यन्तमित्यर्थो ज्ञेयः। अन्वेतु अनुयातु । नन्दिन्याः पश्चाद्गमनं करोत्विति भावः। सायं-सन्ध्यासमये । अपि-अन्वाचयार्थकोऽपिः प्रत्युव्रजेत् = प्रत्युद्यायात् , प्रातर्वनगमनसमये नन्दिन्या अनुगमनं तपोवनसीमाप्रदेशपर्यन्तं करोतु, सायमागमनसमये तपोवनसीमाप्रदेशं गत्वा तदीयं स्वागतं करोत्विति "स-तपनं, तप्यतेऽनेन वेति तपः, वनतीति वनं तपसे वनं तपोवनं तस्मात् तपोवनात् ॥ को०-'वधूर्जाया स्नुषा स्त्री च' इत्यमरः । 'भक्तिः सेवागौणवृत्त्योर्भङ्गयां श्रद्धाविभागयोः' इत्यनेकार्थसंग्रहः । 'आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमायें धातुयोगजे' इत्यमरः। ता०-वधूः सुदक्षिणाऽपि श्रद्धासमन्विता, बाह्याभ्यन्तरशुद्धिमती सती प्रथाs. धिगतगन्धादिभिः पूजोपकरणैः पूजितामेनां नन्दिनीं प्रातःकाले तपोवनसीमापर्यन्तमन्वेतु, सायकालेऽपि वनात् तदागमनसमय तपोवनसीमाप्रदेशे स्वागतार्थ स्थिता सती चैनामभिनन्द्य स्वाश्रममानयतु । भावः॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | इन्दूः-और वधू 'सुदक्षिणा' भक्ति 'श्रद्धा' से युक्त पवित्र मन होकर 'गन्धादिकों से 'पूजित इस नन्दिनी के पीछे-पीछे प्रातःकाल तपोवन की सीमा तक 'वन में पहुँचाने के लिए' जावे, और सायङ्काल भी तपोवन की सीमा पर जाकर इसका स्वागत करे ॥ ९०॥ नन्दिनीपरिचर्याऽवधिं निर्दिशन्नाह इत्या प्रसादादल्यास्त्वं परिचर्यापरो भव । अविघ्नमस्तु ते स्थेयाः पितेव धुरि पुत्रिणाम् ।। ६१ ॥ सञ्जी०-इतीति । इत्यनेन प्रकारेण त्वमा प्रसादात्प्रसादपर्यन्तम् । 'आमर्यादाभिविध्योः' इत्यस्य वैभाषिकत्वादसमासत्वम् । अस्या धेनोः परिचर्यापरः शुश्रषापरो भव । ते तवाविध्न विध्नस्याभावोऽस्तु । 'अव्ययं विभक्तिसमीषसमृद्धिवृद्धयर्याभाव०' इत्यादिनाऽर्थाभावेऽव्ययीभावः । पितेव पुत्रिणां सत्पुत्रवताम् । प्रशंसा. यामिनिप्रत्ययः । धुर्यग्रे स्थेयास्तिप्ठः। आशीरर्थे लिङ। 'एलिङि' इत्याकारस्यैकारादेशः । त्वत्सदृशो भवत्पुत्रोऽस्त्विति भावः ॥ अ०-इति, त्वम्, आ, प्रसादाद्, अस्याः, परिचर्यापरः, भव, ते, अविध्नम्, अस्तु, पिता, इव, पुत्रिणां, धुरि, स्थेयाः। वा०-इति त्वया, आ प्रसादादस्याः परिचर्यापरेण भूयतां तेऽविध्नेन भूयताम, पुत्रिणां धुरि पित्रेव स्थीयताम् ।। सुधा-इति-इत्थम् अमुना प्रकारेणेत्यर्थः । त्वम् भवान्, आ प्रसादाप्रसा दपर्यन्तं, यावन्न प्रसन्ना भूत्वा पुत्राप्तिरूपं वरं प्रयच्छेत् तावदिति भावः । अस्याः= नन्दिन्याः, कामधेनुसुताया इति यावत् । परिचर्यापरः= उपासनातत्परः, भव-भवः, ते तव, अविन-विघ्नाभावः, अस्तु = स्यात्, पिताजनकः, इव = यथा, पुत्रिणां= सत्सुतवतां, धुरि = यानमुखे, अग्र, इति भावः। स्थेयाः तिष्ठताद्, अस्याः प्रसादाप्तिपर्यन्तं त्वं पूर्वोक्तप्रकारेणेमां प्रेमतः परिचर, तथा तव धेनुपरिचर्याऽवसरे विघ्ना. नामनुत्पत्तिरस्तु, अपि च, यथा तव पिता स्वादृशं सुतमवाष्य सत्पुत्रवतां श्लाघ्योऽभूत् तथैव त्वमषि, स्वसदृशं सूनुमवाप्नुहि-इति मदीया आशिषः सन्तीति भावः। स०-पुनन्ति पूयन्ते वा पुत्राः। प्रशस्ताः पुत्राः सन्त्येषामिति पुत्रिणस्तेषां पुत्रिणाम्। को०–'प्रसादस्तु प्रसन्नता' इति । 'आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमाऽर्थे धातुयोगजे' इति । 'वरिवस्या तु शुश्रूषा परिचर्याऽप्युपासना' इति चामरः। __ ता०-इत्युक्तप्रकारेण त्वमस्या नन्दिन्याः प्रसन्नतावाप्तिपर्यन्तं शुश्रषां कुरु, तव परिचर्याकरणकाले विघ्ननाशो भवतु, आत्मतुल्यसत्पुत्रशाली भव । इन्दुः-इस प्रकार से तुमसे जब तक यह नन्दिनी प्रसन्न न होवे, तब तक इसकी सेवा करने में तत्पर रहो, 'तुम्हारे विघ्नों का अभाव रहे (अर्थात् तुम्हें विघ्नों का सामना न करना पड़े), पिता के समान तुम भी अच्छे पुत्रवालों में मुख्य होओ (अर्थात् तुम्हे अपने समान पुत्र प्राप्त हो)॥ ११ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ रघुवंशमहाकाव्यम् - * राज्ञो दिलीपस्य सप्रेम गुरोराज्ञाग्रहणमाह [ प्रथमः तथेति प्रतिजग्राह प्रीतिमान्सपरिग्रहः । आदेशं देशकालज्ञः शिष्यः शास्त्रितुरानतः ॥ ६२ ॥ (स० - तथैतीति । देशकालज्ञः । देशोऽग्निसन्निधिः, कालोऽग्निहोत्रावसानसमयः । विशिष्टदेशकालोत्पन्नमार्पज्ञानमव्याहतमिति जानन् अत एव प्रीतिमाशिष्योऽन्तेवासी राजा सपरिग्रहः सपत्नीकः । 'पत्नीपरिजनादानमूलशापाः परिग्रहाः' इत्यमरः । आनतो विनयनम्रः सन् शासितुर्गुरोरादेशमाज्ञां तथेति प्रतिजग्राह स्वीचकार । अ० -- देशकालज्ञः, 'अत एव' प्रीतिमान्, शिष्यः सपरिग्रहः आनतः, 'सन्' शासितुः, आदेशं, तथा, इति, प्रतिजग्राह । वा०- देशकालज्ञेन 'अत एव' प्रीतिमता शिष्येण सपरिग्रहेणानतेन 'सता' शासितुरादेशस्तथेति प्रतिजगृहे । सुधा – देशकालज्ञः=वह्निसन्निध्यग्निहोत्रान्तसमयाभिज्ञः; अग्निसन्निधौ तथाs ग्निहोत्रावसानसमये ब्रह्मपुत्रेण महर्षिणा वशिष्ठेन प्रोक्तं 'तव पुत्रो भविष्यति' इत्याकारकं वचनं श्रुत्वा जातविश्वास इति भावः । 'अत एव' प्रीतिमान् = हर्षयुक्तः अवश्यं भाविपुत्रोत्पत्त्या प्रहृष्टचित्त इति भावः । शिष्यः = छात्रः, दिलीप इति यावत् । सपरिग्रहः = सपत्नीकः, सुदक्षिणासहित इत्यर्थः । आनतः=विनयावनतः, सन्निति शेषः । शासितुः = शासनकर्तुः, गुरोर्वशिष्टस्येति यावद् । आदेशम् = आज्ञां, 'नन्दिनीपरिचय सपत्नीकस्त्वं सादरं कुरु' इत्यात्मकमिति भावः । तथेति तेन प्रकारेणैवास्तु तवा देशपालनमिति, उक्त्वेति शेषः । प्रतिजग्राह = अङ्गीचकार, स्वीकृत - चानित्यर्थः । स० - देशश्च कालश्चेति देशकालौ तौ जानातीति देशकालज्ञः । को० - 'मुरप्रीतिः प्रमदो हर्पः प्रमोदामोदसम्मदाः' इति । 'पत्नीपरिजनादानमूलशापाः परिग्रहाः' इति । 'छात्रान्तेवासिनौ शिष्ये' इत्यमरः । ता० - भग्निसन्निधिरिति देशस्य तथाऽग्निहोत्रावसानमिति समयस्य च ज्ञाता, अर्थादित्थंभूते देशे काले च महर्पिणोक्तं वचनं पुत्रप्राप्तिर्भविष्यतीत्याकारकं कदापि मृषा न भविष्यत्यत एव प्रसन्नः सुदक्षिणासहितो दिलीपो विनयावनतकन्धरः सन् निजगुरोर्नन्दिनीपरिचर्या करणरूपामाज्ञां 'यथा भवदीयाऽऽज्ञा तथैव करिष्ये' इत्युक्त्वा स्वीचकार । इन्दुः- देश और काल के जाननेवाले अत एव प्रसन्न शिष्य राजा दिलीप ने पत्नी 'सुदक्षिणा' के सहित विनय से नम्र होते हुए' उपदेश करने वाले गुरु की आज्ञा को 'वैसा ही हो' यह कह कर स्वीकार किया ॥ ९२ ॥ अथ रात्रिकालं विज्ञाय दिलीपशयनार्थं वशिष्ठानुशासनमाह अथ प्रदोपे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम् । सूनुः सूनृतवाक्त्रष्टुर्विससर्जोजितश्रियम् ॥ ६३ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । __ सञ्जी०-अथेति । अथ प्रदोपे रात्री दोषज्ञो विद्वान्। 'विद्वान्विपश्चिद्दोषज्ञः' इत्यमरः । सूनृतवाक् सत्यप्रियवाक्। 'प्रियं सत्यं च सूनृतम्' इति हलायुधः। स्रष्टुः सूनुर्ब्रह्मपुत्रो मुनिः। अनेन प्रकृतकार्यनिर्वाहकत्वं सूचयति । ऊर्जितश्रियं । विशांपतिं मनुजेश्वरम् । 'द्वौ विशौ वैश्यमनुजौ' इत्यमरः। संवेशाय निद्रायै । 'स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नः संवेश इत्यपि' इत्यमरः । विससर्जाज्ञापयामास । ___ अ०-अथ, प्रदोषे, दोषज्ञः, सूनृतवाक्, स्रष्टुः, सूनुः, ऊर्जितश्रियं, विशांपतिं, संवेशाय विससर्ज। वा०-अथ प्रदोपे दोषज्ञेन सूनृतवाचा स्रष्टुः सूनुनोर्जितश्रीविशांपतिः संवेशाय विससृजे । सुधा-अथ = अनन्तरं, तथाऽस्त्वित्युक्त्या गुरोराज्ञाग्रहणानन्तरमिति भावः। ज्ञानवान् सर्वज्ञ इति यावत् । सूनृतवाक्-प्रियसत्यवचनः, स्रष्टुः प्रजापतेः, ब्रह्मण इति यावत् । सूनुः पुत्रः, मानसपुत्रो वशिष्ठ इत्यर्थः। ऊर्जितश्रियंप्रवृद्धशोभ, पुत्रप्राप्त्युपायाकर्णनेन प्रसन्नवदनमिति भावः । विशापतिं = मनुजानां स्वामिनं, राजानं दिलीपमित्यर्थः । संवेशाय-स्वापार्थ, विससर्ज = व्यसृजत् , निद्रायै समादिशदित्यर्थः। स-सूनृता वाग्यस्य स सूनृतवाक् , अर्जिता श्रीर्यस्य स ऊर्जितश्रीस्तमूर्जित___ को-'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकास्न्येष्वथो अथ' इति । 'प्रदोषो रजनीमुखम्' इति । 'स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नः संवेश इत्यपि' इति । 'आत्मजस्तनयः सूनुः सुतः पुत्रः स्त्रियान्त्वमी' इति सर्वत्राप्यमरः। ___ ता०-तथाऽस्त्वित्युक्त्वा पुत्राप्तिकामनया नन्दिनीपरिचर्याऽऽत्मकवशिष्ठमुनिनिर्देशग्रहणानन्तरं रात्रेः प्रथमप्रहरे सर्वज्ञः सत्यप्रियभाषणशीलो ब्रह्मणो मानसपुत्रो वशिष्ठो राजानं दिलीपं शयनार्थमादिदेश ॥ ___ इन्दुः-उसके (गुरु वशिष्ठ की आज्ञा ग्रहण करने के) वाद रात्रि के प्रथम प्रहर होने पर (प्रत्येक विषय के) दोषों को जाननेवाले (सर्वज्ञ) तथा सत्य और प्रियभाषी ब्रह्मा के (मानस) पुन (वशिष्ठ ऋषि) ने राजा दिलीप को सोने के लिए आज्ञा दी ॥ ९३ ॥ महार्वशिष्ठस्य दिलीपाय मुनिजनाहंसामग्रीसम्पादनमाह सत्यामपि तपःसिद्धी नियमापेक्षया मुनिः। _कल्पवित्कल्पयामास वन्यामेवास्य संविधाम् ॥ ४॥ सञ्जी०-सत्यामिति । कल्पविद्वतप्रयोगाभिज्ञो मुनिः । तपःसिद्धौ सत्यामपि। तपसैव राजयोग्याहारसंपादनसामर्थ्य सत्यपीत्यर्थः । नियमापेक्षया तदाप्रभृत्येव व्रतचर्यापेक्षया । अस्य राज्ञो वन्यामेव । संविधीयतेऽनयेति संविधाम् । कुशादिशयनसामग्रीम् । 'आतश्योपसर्गे' इति कप्रत्ययः। 'अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्' इति श्रियम्। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [ प्रथम:कर्माद्यर्थत्वम् । कल्पयामास संपादयामास ॥ अ०-कल्पविद्, मुनिः, तपःसिद्धी, सत्याम्, अपि, नियमापेक्षया, अस्य, व. न्याम, एव, मंविधां, कल्पयामास ॥' वा०-कल्पविदा मुनिना तपःसिद्धी सस्यामपि नियमापेक्षयाऽस्य वन्यैव संविधा कल्पयाजके ॥ सुधा-कल्पविद्व्रतप्रयोगविज्ञः, मुनिः वाचंयमः, बशिष्ठ इति यावत् । तपः मिद्वी कच्छादिकर्मजन्याणिमाद्यैश्वर्य, सत्यामपि-विद्यमानायामपि, कृच्छ्चान्द्रायणादिव्रताचरणेन राजोचितभोजनसामग्रीसम्पादनसामध्ये सत्यपीत्यर्थः। नियमापेक्षया वतचर्यापेक्षया, तदाप्रभृत्येव नन्दिनीपरिचर्याऽऽत्मकवतचर्यापेक्षयेत्यर्थः। अस्य-राज्ञः, दिलीपस्येति भावः । वन्यांवनोद्भवाम् , एवअवधारणे, संविधां कुशादिशयनसामग्री, कल्पयामास-सम्पादयामास । अस्मिन् सर्गे प्रारम्भत एतावच्छलोकावधि सर्वत्रानुष्टुप्छन्द इव, तल्लक्षणं यथा-'श्लोके पष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् । द्विचतुप्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः' इति ॥ स०-नियमनं नियमः तस्यापेक्षा नियमापेक्षा तया नियमापेक्षया । सम्यक प्रकारेण विधीयतेऽनयेति संविधाम् ॥ __को०-सन् साधौ धीरशस्तयोः। मान्ये सत्ये विद्यमाने त्रिपु साध्व्युमयाः स्त्रियाम्' इति मेदिनी। 'तपः कृच्छ्रादि कर्म च' इत्यमरः । 'सिद्धिस्तु, मोक्षे निप्पत्तियोगयोः' इति हैमः। ता०-व्रतप्रयोगकुशलो महपिर्वशिष्ठस्तपश्चर्योपात्तसिद्धया राजोचिताहारादिसामग्रीसम्पादनसामध्ये सत्यपि नन्दिनीपरिचर्याऽऽत्मकवतचर्यापेक्षयाऽस्य दिली. पस्य वनवासिजनसुलभकुशादिशयनसामग्रीमेव सम्पादयामास ॥ ____ इन्दुः-व्रत के प्रयोग के जाननेवाले मुनि 'वशिष्ठजी' ने तप की सिद्धि 'राजाओंके उपभोगयोग्य सामग्री सम्पादन करने का सामर्थ' रहते हुए भी नन्दिनी की सेवारूप व्रत का विचार कर के इन 'राजा दिलीप' के लिये वन में उत्पन्न हुए 'वनवासियों के उपभोग करने के योग्य' सामग्री का प्रवन्ध किया ॥ ९४ ॥ वशिष्टाज्ञया पर्णशालायां पत्न्या सह प्रसुप्तस्य दिलीपस्य ब्राह्ममुहूर्त निद्रात्यागमाह निदिष्टां कुलपतिना स पर्णशाला मध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयः । तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानां संविष्टः कुशशयने निशां निनाय || ६५॥ सञ्जी०-निर्दिष्टमिति । स राजा कुलपतिना मुनिकुलेश्वरेण वशिष्ठेन निर्दिष्टां पर्णशालामध्यास्याधिष्ठाय । तस्यामधिष्ठानं कृरवेत्यर्थः । 'अधिशीस्याऽऽसां कर्म Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | ७६ इत्यनेनाधारस्य कर्मत्वम् । कर्मणि द्वितीया । प्रयतो नियतः परिग्रहः पत्नी द्वितीयो यस्येति स तथोक्तः । कुशानां शयने संविष्टः सुप्तः सन् । तस्य वशिष्ठस्य शिष्याणामध्ययनेनापरराने वेदपाठेन निवेदितमवसानं यस्यास्तां निशां निनाय गमयामास । अपररात्रेऽध्ययने मनु:-'निशान्ते न परिश्रान्तो ब्रह्माधीत्य पुनः स्वपेत् । 'न चापररात्रमधीत्य पुनः स्वपेद्' इति गौतमश्च । प्रहर्पिणीवृत्तमेतत् । तदुक्तम्-'नौ जो गस्त्रिदशयतिः प्रहर्षिणीयम् ॥' इति महामहोपाध्यायकोलाचलमल्लिनाथसूरिविरचितया सञ्जीविनीलमाख्यया व्याख्यया ससेतो महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये वशिष्ठाश्रमाभिगमनो नाम प्रथमः सर्गः। अ०-सः, कुलपतिना, निर्दिष्टां, पर्णशालाम्, अध्यास्य, प्रयतपरिग्रहद्वितीयः, कुशशयने, संविष्टः, 'सन्' तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानां निशां निनाय ॥ वा०-तेन कुलपतिना निर्दिष्टां पर्गशालामध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयेन कुशशयने निविष्टेन 'सता' तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसाना निशा निन्ये ॥ सुधा-सः= पूर्वोक्तः, राजा दिलीप इति यावत् । कुलपतिना=मुनिकुलप्रभुणा, बशिष्ठेनेत्यर्थः । निर्दिष्टाम् = आज्ञप्तां, पर्णशालाम् = पर्णकुटी, पत्रादिनिर्मितगृहम्, अध्यास्य = अध्युष्य, तस्यामधिवासं कृत्वेत्यर्थः । प्रयतपरिग्रहद्वितीयः पवि. पत्नीसहायः, वंशादिना विशुद्धया भार्यया सुदक्षिणयाऽनुगम्यमान इति भावः । कुशशयनेदर्भशय्यायां, संविष्टः = सुप्तः 'सन्' इति शेषः। तच्छिण्याध्ययननिवेदितावसानां वशिष्ठछात्रवेदपाठज्ञापितान्तां, वशिष्ठमहर्षेरछात्राणां वेदाध्ययनेन सूचितावसानामित्यर्थः । निशां रजनी, निनाय-यापयामास । अस्मिन् पद्ये प्रहर्षिणी वृत्तं तल्लक्षणं यथा श्रुतबोधे-'आद्यं चेत् त्रितयमथाष्टमं नवान्त्यं सोपान्त्यं गुरु विरतौ सुभाषिते स्यात् । विश्रामो भवति महेशनेत्रदिग्भिर्विज्ञेया ननु सुभगे प्रहर्षिगी सा' इति ॥ स०-प्रयतः परिग्रहो द्वितीयो यस्य स प्रयतपरिग्रहद्वितीयः। शासितुं योग्याः शिष्याः तस्य शिष्यास्तच्छिष्याः तेषामध्ययनं तच्छिष्याध्ययनम् तच्छिण्याध्ययनेन निवेदितं तच्छिण्याध्ययननिवेदितम् तच्छिण्याध्ययननिवेदितमवसानं यस्याः सा तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसाना तां तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानाम्, शेते. स्मिन्निति शयनं कुशानां शयनं कुशशयनं तस्मिन् कुशशयने।। ___ को०-'कुलं जनपदे गोत्रे सजातीयगणेऽपि च । भवने च तनौ क्लीवम्' इति मेदिनी । 'सजातीयैः कुलम्' इति चामरः । 'स्वामी, त्वीश्वरः पतिरीशिता । अधिभूर्नायको नेता प्रभुः परिवृढोऽधिपः' इत्यमरः। ता०-स राजा दिलीपः कुलपतिना 'सजातीयमुनिगणस्वामिना वशिष्ठेनादि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० रघुवंशमहाकाव्यम् [प्रथमःष्टायां पर्णशालायामधिवासं कृत्वा वंशचरित्रादिना शुद्धया पत्न्या सुदक्षिणया सह कुशनिर्मितशय्यायां सुप्तो वशिष्ठछात्राणां श्रुतेरध्ययनेन संसूचिततुर्ययामां रात्रि यापयामास। __इन्दु-उन राजा दिलीप ने कुलपति 'दश सहस्र मुनियों को अन्नादि देकर वेद पढ़ाने वाले ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी' की बताई हुई पर्णकुटी 'पत्तों से बनी हुई कुटी' में निवास करके 'वंश आदि से' शुद्ध धर्मपत्नी सुदक्षिणा के साथ कुशों से बनी हुई शय्या पर सोये हुए, वशिष्ठजी के विद्यार्थियों के वेदाध्ययन करने से ज्ञात हो गया है प्रातःकाल का होना जिसका ऐसी रात को बिताया ॥ ९५ ॥ इत्थं श्रीब्रजमोहनात्मजनुषा गोस्वामिविद्वद्वरश्रीदामोदरशास्त्रिशिप्यपदवीभाजाऽच्युतानुग्रहाद् । श्रीब्रह्मान्वितशङ्करेण विहिता व्याख्या सुधाऽऽख्या नवा पूर्ति श्रीरघुवंशनामकमहाकाव्याद्यसर्गेऽध्यगात् ॥१॥ इति श्रीब्रह्मशङ्करशर्मणा कृतया सुधाव्याख्ययाऽन्वितः; श्रीमहाकविकालिदासकृतौ श्रीरघुवंशमहाकाव्ये दिलीपस्य वशिष्ठा श्रमाभिगमनो नाम प्रथमः सर्गः समाप्तः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ रघुवंशमहाकाव्यम् द्वितीयः सर्गः आशासु राशीभवदगावल्लीमासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम् । मन्दस्मितैनिन्दितशारदेन्दं वन्देऽरविन्दासनसुन्दरि ! त्वाम् ॥ अथ प्रजानामधिपः प्रमाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् । वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेमुमोच ॥ १ ॥ सञ्जीविनी-अथेति । अथ निशानयनानन्तरं यशोधनः प्रजानामधिपः प्रजेश्वरः भाते प्रातःकाले जायया सुदक्षिणया प्रतिग्राहयिच्या प्रतिग्राहिते स्वीकारिते गन्ध. ल्ये यया सा जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्या, तां तथोकाम् । पोतं पानमस्यास्तीति तः पीतवानित्यर्थः। 'अर्श आदिभ्योऽच' इत्यच्प्रत्ययः। 'पीता गावो भुक्का राह्मणाः' इति महाभाष्ये दर्शनात् । पीतः प्रतिवद्धो वत्सो यस्यास्तामृषेर्धेनं वनाय 'नं गन्तुम् । 'क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः' इत्यनेन चतुर्थी । मुमोच मुक्त न् । जायापदसामर्थ्यात्सुदक्षिणायाः पुत्रजननयोग्यत्वमनुसन्धेयम् । तथा हि इतिः-(पतिर्जायां प्रविशति गर्मो भूत्वेह मातरम् । तस्यां पुनर्नवो भूत्वा दशमे सि जायते । तज्जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः॥) इति । यशोधन त्यनेन पुत्रवत्ताकीर्तिलोभाद्राजानहें गोरक्षणे प्रवृत्त इति गम्यते । अस्मिन्सर्ये वृत्तउपजातिः-(अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः)। अन्वयः-अथ, यशोधनः, प्रजानाम्, अधिपः, प्रभाते, जायाप्रतिग्राहितगन्धल्याम, पीतप्रतिवद्धवत्साम्, ऋषेः, धेनु, वनाय, मुमोच । वा०-यशोधनेन जानामधिपेन जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्या पीतप्रतिवद्धवत्सा ऋषेधेनुर्ममुचे । __ सुधा-अथराज्यपगमानन्तरं, यशोधना=कीर्तिवित्तः, प्रजानां जनानाम्, नधिपः प्रभुः, दिलीप इत्यर्थः। प्रभाते-प्रत्यूपे, जायाप्रतिग्राहिवगन्धमाल्यामपार्यासुदक्षिणास्वीकारितचन्दनपुष्पमालाम् , पीतप्रतिवद्धवत्सां पयःपानानन्तर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् - [ द्वितीयः निबद्धतर्णकाम्, ऋषेः = सत्यवचसः, वशिष्ठस्येत्यर्थः । धेनुं = नवसूतिकां गां नन्दि नीम्, वनाय = वनं गन्तुं, मुमोच = मुक्तवान् । समासादि - यश एव धनं यस्यासौ यशोधनः । प्रकर्षेण जायन्त इति प्रजा स्तासां प्रजानाम् । अध्यधिकं पातीत्यधिपः । भातुं प्रवृत्तम् प्रभासं तस्मिन् प्रभाते । गन्धश्च माल्यञ्च गन्धमाल्ये, जायतेऽस्यामिति जाया तया प्रतिग्राहिते जायाप्रति ग्राहिते, जाताप्रतिग्राहिते गन्धमाल्ये यया सा जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्या तां जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् । पीतं पानमस्यास्तीति पीतः पूर्वं पीतः पश्चात् प्रतिवद्धः पीतप्रतिबद्धः पीतप्रतिबद्धो वत्सो यस्याः सा पीतप्रतिवद्धवत्सा तां पीतप्रतिबद्धवत्साम् । धीयते सुतैरिति धेनुस्तां धेनुम् । कोपः—‘मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येय्वथो अथ' इति । 'प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यमुषः प्रत्युपसी अपि । प्रभातच' इति । 'प्रजा स्यात् सन्ततौ जने' इति । 'प्रभुः परि वृढोऽधिपः' इति । 'भार्या जायाऽथ पुम्भूम्नि दाराः स्याद्' इति । 'माल्यं मालाखजौ मूर्ध्नि' इति । 'यशः कीत्तिः समझा च' इति । 'धेनुः स्यान्नवसूतिका' इति चामरः । तात्पर्यार्थः:- अथ प्रभाते राजा दिलीपो राज्ञ्या सुदक्षिणया गन्धादिभिः स पूज्य वत्समपि यथेच्छं चीरं पाययित्वा ततस्तं वद्ध्वा च वने विचरणार्थं वशिष्ठस्य धेनुं नन्दिनीनाम्नीममुचत् । इन्दु :- रात के बीत जाने पर प्रातःकाल प्रजाओं के पालन करने वाले, यश को ही धन समझने वाले राजा दिलीप ने रानी सुदक्षिणा के द्वारा पूजन में प्राप्त चन्दन और पुष्पों की माला को धारण की हुई, दूध पी चुकने के बाद जिसका बछड़ा बांध दिया गया है, ऐसी ऋषि वशिष्ठ की नई व्याई हुई नन्दिनी नाम की गौ को जङ्गल में चरने के लिये खोल दिया ॥ १ ॥ तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां घुरि कीर्तनीया । मार्ग मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रतेरिवाथ स्मृतिरन्वगच्छत् ॥ २ ॥ सञ्जी० - तस्या इति । पांसवो दोषा आसां सन्तीति पांसुलाः स्वैरिण्यः । 'स्वैरिणी पांसुला' इत्यमरः । 'सिध्मादिभ्यश्च' इति लच्प्रत्ययः । अपांसुलानां पतिव्रतानां धुर्यग्रे कीर्त्तनीया परिगणनीया | मनुष्येश्वरधर्मपत्नी । खुरन्यासैः पवित्राः पांसवो यस्य तम् । 'रेणुर्द्वयोः स्त्रियां धूलिः पांसुर्ना न द्वयो रजः' इत्यमरः । तस्या धेनोर्मार्गम्। स्मृतिर्मन्वादिवाक्यं श्रुतेर्वेदवाक्यस्यार्थमभिधेयमिव अन्वगच्छदनु सृतवती च । यथा स्मृतिः श्रुतिक्षुण्णमेवार्थमनुसरति तथा सीऽपि गोखुरतुण्णमेव मार्गमनुससारेत्यर्थः । धर्मपत्नीत्यत्राश्ववासादिवत्तादर्थे षष्ठीसमासः प्रकृतिविकारा भावात् । पांसुलपथवृत्तावप्यपांसुलानामिति विरोधालङ्कारो ध्वन्यते । अ० - अपांसुलानां धुरि, कीर्त्तनीया, मनुष्येश्वरधर्मपत्नी, खुरन्यासपवित्रपांसुं, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | ३ तस्याः, मार्ग, स्मृतिः, श्रुतेः, अर्थम्, इव, अन्वगच्छत् । वा० - कीर्तनीयया मनुप्येश्वरधर्मपत्न्या खुरन्यासपवित्रपांसुर्मार्गः स्मृत्यार्थः इवान्दगम्यत । सुधा० - भपांसुलानाम् = अस्वंरिणीनाम् । धुरि = अग्रे, कीर्त्तनीया = परिसङ्ख्यानीया, मनुष्येश्वरधर्मपत्नी = नरपतिपाणिगृहीती, दिलीपपत्नी सुदक्षिणेत्यर्थः । खुरन्यासपवित्रपांसुम् = शफ विक्षेपपूतरेणुं, तस्याः वनं गच्छन्त्याः, मन्दिन्याः, मार्ग= पन्थानं, स्मृतिः = धर्मसंहिता, मन्वादिस्मृतिरिति यावद् । श्रुतेः = वेदस्य, अर्थम् = अभिधेयम्, हब = यथा, अन्वगच्छद्र = अनुययौ । स०—खुराणां न्यासाः खुरन्यासास्तैः पवित्राः खुरन्यासपवित्राः खुरन्यासपवित्राः पांसवो यस्य स खुरन्यासपवित्र पांसुस्तम् खुरन्यासपवित्रपांशुम् । पांसवः पापानि - सन्त्यासामिति पांसुलाः, न पांसुला इत्यपांसुलास्तासामपांशुकानाम् । धर्मस्य पत्नी धर्मपत्नी, मनुष्येष्वीश्वरो मनुष्येश्वरः तस्य धर्मपत्नी मनुष्येश्वरधर्मपत्नी । को० - 'शफं क्लीबे खुरः पुमान्' इति । 'पवित्रः प्रयतः पूतः' इति । 'स्वरिणी घांसुला च स्यादु' इति । 'श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायः' इति । 'अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु' इति । 'स्मृतिस्तु धर्मसंहिता' इति सर्वत्राप्यमरः । ता० -- सकलपतिव्रताग्रगण्या दिलीपपत्नी सुदक्षिणा यथा मन्वादिस्मृतिर्वेदचाक्यस्यार्थमनुसरति तथैव नन्दिनीखुरक्षुण्णमार्गमनुसृतवतीति भावः । इन्दुः- पतिव्रताओं में सर्वप्रथम राजा दिलीप की पत्नी सुदक्षिणा ने नन्दिनी के खुरों के रखने से पवित्र धूलि वाले सार्ग का उसी भाँति अनुसरण किया जैसे सन्वादि स्मृतियाँ ब्रेद के अर्थों का अनुसरण करती हैं ॥ २ ॥ निव राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्मशोभिः । पयाघरीभूतचतुः समुद्रां जुगोप गारूपधरासवोम् ॥ ३ ॥ सञ्जी० - निवर्त्येति । दयालुः कारुणिकः । 'स्यादयालुः कारुणिकः' इत्यमरः । स्पृहिगृहि०' इत्यादिनाऽऽलुच्प्रत्ययः । यशोभिः सुरभिर्भनोश: । 'सुरभिः स्यान्मनोज्ञेऽपि' इति विश्वः । राजा तां दयितां निवर्त्य सौरभेयों कामधेनुसुतां नन्दिनीम् । धरन्तीति धराः । पचाद्यच् । पयसां धराः पयोधराः स्वनाः । 'स्त्री स्तनान्दौ पयोधरौ' ह 'इत्यमरः । अपयोधराः पयोधराः सम्पद्यमानाः पयोधरोभूताः । अभूततद्भावे च्विः । 'कुगतिप्रादयः' इति समासः । पयोधरीभूताश्चत्वारः समुद्रा यस्यास्ताम् । 'अनेकमन्य पदार्थे' इत्यनेकदार्थग्रहणसामर्थ्यात्त्रिपदो बहुब्रीहिः । गोरूपधरामुर्वीमिव जुगोप ररक्ष | भूरक्षणप्रयत्नेनेव ररक्षेति भावः । धेनुपक्षे - पयसा दुग्धेमाघरीभूताश्चत्वारः समुद्रा यस्याः सा तथोक्ताम् । दुग्ध तिरस्कृतसागरामित्यर्थः । अ० - दयालुः, यशोभिः, सुरभिः, राजा, तां, दयितां निवर्त्य, सौरभेयीं, पीयो. धरीभूतचतुःसमुद्र, गोरूपधराम्, उर्वीम्, इत्र, जुगोप । वा० - दयालुना सुरभिणा राज्ञा सा सौरभेयी पयोधरीभूत चतुःसमुद्रा गोरूपधरोवींव जुगुपे । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशहाकाव्यम्- [द्वितीयः सुधा-दयानुः = कारुणिकः, दीनजनरक्षकः। यशोभिः = कीर्तिभिः, सुरभिः= मनोशा, राजा गृपः, दिलीपः । ता= पूर्वोक्ताम्, अनुगामिनीमिति भावः। दयितां वक्षमा, सुदक्षिणामित्यर्थः । निवर्त्य = परावर्त्य, सौरभेयी = कामधेनुसुतां नन्दि नीस्, पयोधरीसूसचसुलसुद्राम%ऊधोभूतोदधिचतुष्टयां, 'धेनुपक्षे दुग्धतिरस्कृत चतुःखागदां, गोरूपधरां गोमूत्तिं दधानाम् । उर्वी = पृथ्वीम्, इव= यथा, जुगोप% पालयाास, पृथ्धीपालनसमेन प्रयत्नेन रक्षणतत्परोऽभूदिति भावः।। __ स०-निपतयिस्वे स निवर्त्य । दयाशीलो दयालुः । सुरभेरपत्यं स्त्री सौरभेयी तां सौरमेयीम् । शूमिपक्षे' धरन्तीति धराः पयसां धराः पयोधराः अपयोधराः पयोधराः सम्पयमामाः पयोधरीभूताः पयोधरीभूताश्चत्वारः लमुद्रा यस्याः सा पयोधरीभूतचतुःससुद्धा तां पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां 'गोप' अनधराः अधराः सम्पधमाना अधरीभूताः पयसाऽधरीभूता. पयोऽधरीभूताः पयोऽधरीभूताश्वत्वारः समुमा यस्याः सा तां तथोक्तास् । धरति या सा धरा, गोः रूपं गोरूपं गोरूपस्य धरा चोरूपधरा सांगोल्पधराम् । __ को०-'दपिसं नसभं प्रियम्' इति । 'माहेयी सौरभेयी गौः' इति । 'वसुधोर्वी वसुन्धरा' इति वासरः। ता०-नृपो दिलीपः सुदक्षिणां तपोवनसीमाप्रदेशात्परावय क्षितेरिव ऋपि धेनोः पालने तत्परोऽभूत् । इन्दुः-दया से युक्त कीर्ति से सुशोभित राजा दिलीप प्यारी पटरानी सुदक्षिणा को लौटा फर जिसके दूध से चारो समुद्र तिरस्कृत हैं ऐसी उस नन्दिनी को, थार समुद्रों को चार स्तनों के रूप में धारण की हुई गौ के रूप में उपस्थित पृथ्वी की भांति रक्षा करने लगे ॥३॥ व्रताय तेनानुचरेण धेनोन्यषेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्गः। न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्य गुप्ता हि मनोः प्रसूतिः ।। ४॥ सजी०-प्रतायेति । व्रताय धेनोरनुचरेण न तु जीवनायेति भावः। तेन दिली पेन शेषोऽवशिष्टोऽप्यनुयायिवर्गोऽनुचरवर्गो न्यषेधि निवर्तितः। शेपत्वं सुदक्षिणा ऽपेक्षया। कथं तास्मरक्षणमत आह-न चेति । तस्य दिलीपस्य शरीररक्षा चान्यतः पुरुषान्तराच्च । कुतः। हि यस्मात्कारणान्मनाः प्रसूयत इति प्रसूतिः सन्त तिः स्ववीर्यगुप्ता स्ववीर्येणेव रक्षिता । न हि स्वनिर्वाहकस्य परापेक्षेति भावः। ____ अ०-व्रताप, थेनोः, अनुचरेण, तेन, शेषः अपि, अनुयायिवर्गः, न्यपेधि, तस्य शरीररक्षा, च अन्य सः, न, हि, मनोः, प्रसूतिः स्ववीर्यगुप्ता, भवति । वा०-अनु घर स शेषमप्यनुयायिवर्ग न्यपेधीत् शरीरक्षया प्रसूस्या स्ववीर्यगुप्तया 'भयते। सुधा-घताय -नियमाय, धेनोः गो, नन्दिन्याः। अनुचरेण सेवकेन, तेनः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् । दिलीपेन, शेषः अवशिष्टः, अपि = समुच्चये, अनुयायिवर्गः अनुचरसङ्घः, न्यषेधि= निवर्त्तितः । तस्य = पूर्वोक्तस्य, दिलीपस्येति यावत् । शरीररचा = गात्ररसणं, च= अन्वाचये, अन्यतः = अन्यस्मात् पुरुषान्तरादिति यावत् । न = नहि, अद्यतीति शेषः । हि = यतः, मनोः = वैवस्वताख्यमनोः, प्रसूतिः = सन्ततिः, सनुषंशोद्धवराजवृन्दमिति भावः । स्ववीर्यगुप्ता = आत्मपराक्रमरक्षिता, भवतीति क्षेषः । " स० - अनु पश्चाच्चरतीत्यनुचरः तेनानुचरेण । अनु पश्चाद् यातुं शीलं येषान्ते ऽनुयायिनः, तेषां वर्गोऽनुयायिवर्गः । शरीरस्य रक्षा शरीररता । प्रसूयत इति प्रसूतिः । स्वस्य वीर्यं स्ववीर्यं तेन गुप्ता स्ववीर्यगुप्ता । को० – 'नियमो व्रतमस्त्री' इति । 'अनुप्लवः सहायश्चानुचरोऽभिसरः समाः' इति चामरः । "धेनुगमात्र के दोग्धाम्' इति । 'वीर्यं प्रभावे शुक्रे च तेजःसामर्थ्य - योरपि' इति मे० । 'प्रसूतिः प्रसवोत्पत्तिपुत्रेषु दुहितर्यपि' इत्यनेका० । ता० - स्वयमेव कर्त्तव्यमुचितमिति कृत्वा राजा दिलीपः स्नानुचरवृन्दं न्यषेवीत् । अपि च मनुवंश्यानां राज्ञां स्वशरीररक्षणे नान्यस्य साहाय्यमपेक्षितं भवति सामर्थ्यात् । इन्दुः ० - गोसेवाव्रत पालन करने के लिये सेवक की भाँति पीछे-पीछे चलने वाले उन 'राजा दिलीप' ने 'सुदक्षिणा' लौटाने के बाद बचे हुए अनुचर वर्गको भी पीछे-पीछे आने से रोका। उनको शरीर की रक्षा करने के लिये भी दूसरे पुरुष की आवश्यकता नहीं थी । क्योंकि 'वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न राजा लोग अपने ही पराक्रम से आत्मरक्षा कर लेते थे ॥ ४ ॥ आस्त्राद्द्दर्द्धिः कबलैस्तृणानां कण्डूयनं दशनिवारणैश्च । अव्याहतैः स्वैरगतैः स तस्याः सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् ॥२॥ सञ्जी० - आस्वादवद्भिरिति । सम्राण्मण्डलेश्वः । 'येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्ये • श्वरश्व यः । शास्ति यश्चाज्ञय राज्ञः स सम्राट्' इत्यमरः । स राजा आस्वादवद्भिः रसवद्भिः स्वादयुक्तैरित्यर्थः । तृणानां कवलैग्रसिः 'ग्रासस्तु कवलः पुमान्' इत्यमरः । कण्डूयनैः खर्जनैः । दंशानां वनमक्षिकाणां निवारणैः । 'दंशस्तु वनमक्षिका' इत्यमरः । अव्याहतैरप्रतिहतः स्वैरगतैः स्वच्छन्दगमनैश्च । तस्था धेन्वाः समारावनतत्परः शुश्रूषाऽऽसक्तोऽभूत् । तदेव परं प्रधानं यस्येति तत्परः । 'तत्परे प्रसितासक्ती' इत्यमरः । अ० – सम्राट्, सः, आस्वादवद्भिः, तृणानां कवलैः कण्डूयनैः दंशनिवारणैः, अव्याहतैः, स्वैरगतैः च, तस्याः, समाराधनतत्परः, अभूत् । वा० - सम्राजा तेन समाराधनतत्परेणाभावि । सुधा - सम्राट् = मण्डलेश्वरः, सः = 1 = दिलीपः । आस्वादवद्भिः = रसवद्भिः स्वादहयर्थः । तृणानाम् = घासानाम् । कवलैः = ग्रासैः कण्डूयनैः = सर्जनैः, : Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीयः गात्रस्येति शेषः । दंशनिवारणैः = वनमक्षिकाऽपसारणैः, अव्याहतैः = अप्रतिहतैः, स्वैरगतैः स्वच्छन्दगमनैः, च = समुच्चयार्थे, तस्याः नन्दिन्याः, समाराधनतत्परः = सन्तोपणासत्ता, मसूत् = बभूव।। स०-आरवादनसास्वादः, स विद्यते येषु, ते आस्वादवन्तस्तैरास्वादवद्भिः। कण्ड्यन्त इति कण्हुयनानि तेंः कण्डयनेः। दंशानां निवारणानि दंशनिवारणानि तैः देशनिवारणः। न व्याहनानीत्यव्याहतानि तैरव्याहतैः। स्वैरेण गतानि स्वैरंगतानि तैः स्वरगतः। सम्यक प्रकारेण राजतीति सम्राट । सग्यगाराधनं समाराधनं तत्र तत्परः समाराधनतत्परः । ____ को०-'वैरः स्वान्दमन्दयोः' इति । 'आराधनं साधने स्यादवाप्तौ तोषणेऽपि च' इति चामरः। ___ता०-चक्रवर्ती राजा दिलीपः स्वहस्तोपनीतानां सुस्वादुकोमलतृणानां ग्रासप्र. दानेन, गानखर्जनैवनमक्षिकाऽपवारणेन, निरर्गलस्वच्छन्दगमनेन च तस्यास्तोष. णासत्तो बभूव। इन्दुः-चक्रवर्ती वे राजा दिलीप स्वादयुक्त कोमल तृणों के ग्रासों से, शरीर के खुजलाने से, वन के मच्छड़ों के 'बैठने पर उन्हें' उढ़ाने से और विना रुकावट के स्वच्छन्द फिरने देने से उस 'नन्दिनी' को प्रसन्न करने में तत्पर हुए ॥५॥ स्थितः स्थिवामुञ्चलितः प्रयातां निषेदुषीमासनबन्धधीरः। जलाभिलागी जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ।। ६॥ समी०-भूपतिस्तां गां स्थितां सती स्थितः सन् । स्थितिरूर्वावस्थानम् । प्रयातां प्रस्थितामुश्चलितः प्रस्थितः। निपेदुषी निषण्णाम् । उपविष्टामित्यर्थः । 'भाषायां सदवसश्रुषः' इति कसुप्रत्यः। 'उगितश्च' इति ङीप्। आसनवन्ध उप. वेशने धीरः। स्थित उपविष्टः सन्नित्यर्थः। जलमाददानां जलं पिवती जलाभिलाषी जलं पियनित्यर्थः । इत्थं छायेवान्वगच्छदनुसृतवान् । ___अ०-भूपतिः, ता, स्थितां (सतीम् ), स्थितः (सन् ), प्रयातां (सतीम् ), उच्चलितः (सन् ), निषेदुषी (सतीम् ), आसनबन्धधीरः (सन्), जलम् , आदंदानां (सतीम् ), जलाभिलाषी (सन् , इत्थम् ), छाया, इव, अन्वगच्छत् । वा-भूपतिना सा स्थिता सती स्थितेन सता प्रयातोचलितेन निपेदुषी आसनपन्धधीरेण जलमाददाना जलाभिलाषिणा छाययेवान्वगम्यत। ___ सुधा-भूपतिः पृथ्वीश्वरः, तां धेनुम् । स्थिताम् ऊर्ध्वमवतिष्ठमानाम् 'क्वचित् सतीमिति शेषः, सर्वत्रानेऽपि योजनीयः। स्थितः ऊर्ध्वमवतिष्ठमानः, सन्निति शेषः । सर्वत्राग्रेऽपि ज्ञेयः । प्रजाता=पुनः प्रस्थानं विदधानाम् । उच्चलिता प्रस्थानं कुर्वाणः, निषेदुषीम् = उपविधाम, आसनवन्धधीरः वीरासनविरचनस्वच्छन्दोऽर्थादुपविष्ट इति भावः । जलं सलिलम् , आददानां पिबन्तीम्, जलाभिलाषी वारि पिवन् । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | इत्थमित्यस्याक्षेपः कर्त्तव्यः । छाया = प्रतिबिम्बं धेनोरिति शेषः । इव = यथा, अन्वगच्छत् = अनुससार । स०-- निषासादेति निषेदुषी तां तथोक्तम् । आसनस्य बन्ध आसानबन्धः तत्र वीरः आसनबन्धधीरः । जलमभिलषितुं शीलमस्यासौ जलाभिलाषी । आदत्त इत्याददाना तामाददानाम् । भुवः पतिर्भूपतिः । को० - ' छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः' इति । 'भूर्भूमिरचostन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा' इति चामरः । 0 ता० - नन्दिनीसे वापरायणो राजा दिलीपो धेनोश्छायासदृशस्तदीयानुसरणं कृतवान् ॥ इन्दुः- पृथ्वीपति 'राजा दिलीप' ने उस नन्दिनी की ठहरती हुई की ठहरते हुए, चलती हुई की चलते हुए, बैठती हुई की बैठते हुए, जल पीती हुई की जल पीते हुए, इस प्रकार से छाया की भाँति अनुसरण किया ॥ ६ ॥ सन्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मीं तेजोविशेषानुमियां दधानः । आसीदनाविष्कृतदानराजिरन्तर्मदावस्थ इव द्विपेन्द्रः ॥ ७ ॥ सञ्जी०o - स इति । न्यस्तानि परिहृतानि चिह्नानि छत्रचामरादीनि यस्यास्तां, तथाभूतामपि, तेजोविशेषेण प्रभावातिशयेनानुमिताम्, 'सर्वथा राजैवायं भवेदि' त्यूहितां राजलक्ष्मीं दधानः स राजा, अनाविष्कृतदानराजिर्बं हिरप्रकटितमदरेखः । अन्तर्गता मदावस्था यस्य सोऽन्तर्मदाघस्थः, तथाभूतो द्विपेन्द्र इव आसीत् । अ० - न्यस्तचिह्नाम् अपि, तेजोविशेषानुमितां, राजलक्ष्मीं, दधानः, सः, अनाविष्कृतदानराजिः, अन्तर्मदावस्थः, इव, आसीत् । वा० - दधानेन तेनानाविष्कृतदानराजिनाऽन्तर्मदावस्थाने द्विपेन्द्रेणेवाभूयत । सुधा० – न्यस्तचिह्नाम् = परित्यक्तच्छत्रचामरादिलक्षणाम्, अपि = समुच्चये, तेजोविशेषानुमितां = दीप्त्यतिशयतर्कितां, राजलक्ष्मीं = नृपश्रियं दधानः = विभ्राणः, सः राजा दिलीपः । अनाविष्कृतदानराजिः = बहिर प्रकटितमदलेखः अन्तर्मंदावस्थः = अभ्यन्तरगतदानदशः, द्विपेन्द्रः = गजेन्द्रः इव = यथा, आसीत् = अभवत् । सo - न्यस्तानि चिह्नानि यस्याः सा न्यस्तचिह्ना तां न्यस्तचिह्नाम् । राज्ञो लक्ष्मी राजलक्ष्मीस्तां राजलक्ष्मीम् । तेजसो विशेषस्तेजो विशेषः, तेनानुमिता तेजोविशेषानुमिता तां तथोक्ताम् । न आविष्कृता अनाविष्कृता, दानस्य राजिर्दानराजिः, अनाविष्कृता दानराजिर्यस्यासावनाविष्कृतदानराजिः । मदस्यावस्था मदावस्था, अन्तरन्तर्गता मदावस्था यस्यासावन्तर्मदावस्थः । द्वाभ्यां पिबन्तीति द्विपा: स्तेष्विन्द्रो द्विपेन्द्रः। को० - 'कलङ्काङ्कौ लान्छनं च चिह्नं लक्ष्म च लक्षणम्' इति । 'मदो दानम्' Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम्- द्वितीयःइति । 'लेखास्तु राजयः' इति । 'द्विरदोऽनेकपो द्विपः। मतगजो गजो नागः इति । 'न वा यथा तथेवेवं साम्ये' इति चामरः। ___ता०-यथा कश्चिद् गजेन्द्रो दानलेखा अप्रकटयन्नपि स्वतेनोविशेषेण निजान्तः गतां मदावस्थां सर्वान् बोधयति तथैवासावपि राजा दिलीपश्छत्रचामरादिजचिह्न रात्मनो राजश्रियमदर्शयन्नपि प्रभावातिशयेनैकं स्वकीयं चक्रवर्तित्वमनुमापयतिस्म । ___ इन्दुः-यधपि वे छत्र-चामरादि चिह्नों से भूषित नहीं थे, तथापि अपने तेज की अधिकता से ही जानी जाती हुई राजलक्ष्मी को धारण करते हुये, प्रकट रूपः से नहीं दिखाई पड़ रही है मद की रेखा जिसकी, अत एव भीतर में स्थित है मद! की अवस्था जिसकी, ऐसे गजराज की भाँति मालूम पड़ते थे ॥ ७ ॥ लताप्रतानोग्रथितै स केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम् । रक्षाऽपदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यान्विनेष्यन्निव दुष्टसत्त्वान् ।। ८॥ समी०-लतेति । लतानां वल्लीनां प्रतानैः कुटिलतन्तुभिरुग्रथिता उन्नमय्य अथिता ये केशासौरुपलक्षितः। 'इत्यम्भूतलक्षणे' इति तृतीया। स राजा। अधिज्यमारोपितमौर्वीकं धनुर्यस्य सोऽधिज्यधन्वा सन् । 'धनुषश्च' इत्यनङादेशः। मुनिहो मधेनो रक्षापदेशाद्रक्षणव्याजात् । वन्यान् वनेभवान् दुष्टसत्वान् दुष्टजन्तून् 'द्रव्यासुव्यवसायेषु सत्त्वमस्त्री तु जन्तुषु' इत्यमरः । विनेष्यन् शिक्षयिष्यन्निव दावं वनम् । 'वने च वनवह्नौ च दावो दव इहेष्यते' इति यादवः। विचचार वने चचारेत्यर्थः । 'देशकालाध्यगन्तव्याः कर्मसंज्ञा ह्यकर्मणाम्' इति दावस्य कर्मत्वम् ।। ___ अ०-लताप्रतानोद्ग्रथितैः, केशैः, (उपलक्षितः) सः अधिज्यधन्वा (सन् ), मुनिहोमधेनोः, रक्षाऽपदेशात्, वन्यान् , दुष्टसत्वान् , विनेष्यन् , इव, दावं, विच. चार । वा०-तेनाधिज्यमन्वना सता विनेष्यतेव दावो विचेरे। ___ सुधा०-लताप्रतानोद्ग्रथितैः वल्लीकुटिलतन्तुसदृशंशाखादिभिरुन्नमय्य गुम्फितः, केशैः बालो, उपलक्षितः। सः= राजा दिलीपः, अधिज्यधन्वा=आरोपितमौर्वीक. धनुष्मान । सन्निति शेषः । मुनिहोमधेनोः= वसिष्ठहवनगन्याः, नन्दिन्याः, रक्षाऽपदेशात् रक्षणन्याजात्, वन्यान् = काननसमुद्भवान् , दुष्टसत्वान् =सिंधादिहिंस्त्र. जन्तून् , विनेष्यन् शिक्षयिष्यन् , इव = यथा, दावं वनं, विचचार = व्यचरत् । स०-लतानां प्रताना लताप्रतानाः, तैरुग्रथिता लताप्रतानोद्ग्रथितास्तैस्तथोक्तः । अधिरोपिता ज्या यत्र तदधिज्यम् अधिज्यं धनुर्यस्यासावधिज्यधन्वा । रचाया अपदेशो रक्षाऽपदेशस्तस्माद्रक्षाऽपदेशात् । होमस्य धेनु)मधेनुः, मुने)मधेनुर्मुनिहोमधेनुस्तस्या मुनिहोमधेनोः । बने भवा वन्यास्तान्वन्यान् । विनेष्यतीति विनेष्यन् । दुष्टाश्च ते सवास्तान् दुष्टसत्वान् । को०-'वल्ली तु व्रततिलता' इति । 'चिकुरः कुन्तलो वालः कचः केशः शिरो. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जोविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । रुहः' इति । 'मौर्वी ज्या शिलिनी गुणः' इति । 'धनुश्चापौ धन्वशससनकोदण्डकामुकम् । इप्वासोऽपि' इति चामरः । ___ ता०–स राजा दिलीपश्छायेव नन्दिनीपदानुसरणेन कुटिलतन्तुनिभशाखाऽऽ. घुग्रथितकेशो धनुष्पाणिः सन् वने विचरणं कृतवांस्तद् गोरक्षणव्याजेन दुष्टपशूना सिहादीनां शिक्षणार्थमेव। ___ इन्दु-लताओं के टेढ़े टेढ़े सूत के समान शाखादिकोंसे उलझे हुए सिरके बालों से सुशोभि न वे राजा दिलीप प्रत्यञ्चा चढ़े हुए धनुष को धारण किए वसिष्ठ महर्षि के होम की सामग्री घृतादि देनेवाली नन्दिनी की रक्षा करने के व्याज से वनैले दुष्ट 'व्याघ्रादि' जीवों का शासन करने के लिये मानो जङ्गल में घूम रहे थे ॥८॥ ' 'विसृष्ट'-इत्यादिभिः पड्भिः श्लोकैस्तस्य महामहिमतया द्रुमादयोऽपि राजोपचारं चक्रुरित्याह विसृष्टपार्वानुचरस्य तस्य पाश्वद्रुमाः पाशभृता समस्य | उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं वयसा विरावैः ।। ६ ।। सी० = विन्मृप्टेति । विसृष्टाः पार्वानुचराः पार्श्ववर्तिनो जना येन तस्य । पाश. भृता वरुणेन समस्य तुल्यस्य । 'प्रचेता वरुणः पाशी' इत्यमरः । अनुभावोऽनेन सुचितः । तस्य राज्ञः पार्श्वयोर्दुमाः। उन्मदानामुत्कटमदानां वयसां खगानाम् । 'खगवाल्यादिनोर्वयः' इत्यमरः । विरावैः शब्दैः । आलोकस्य शब्द वाचकमालोकयेति शब्दं जयशब्दमित्यर्थः । 'आलोको जयशब्दः स्याद्' इति विश्वः । उदीरयामासुरिवावदनिव, इत्युत्प्रेक्षा। ____ अ०-विसृष्टपाश्र्वानुचरस्य, पाशभृता, समस्य, तस्य, पार्श्वद्रुमाः, उन्मदानां, वयसां, विरावं आलोकशब्दम्, उदीरयामासुः, इव ।। वा०-पाश्चंद्रुमरालोकशब्दः, उदीरयाञ्चक्रे ।। सुधा-विसृष्टपार्धानुचरस्य-त्यक्तान्तिकवर्तिसेवकस्य, पाशभृता-वरुणेन, समस्य-सदृशस्य, तस्य दिलीपस्य, पार्श्वद्रुमाः= अन्तिकवर्त्तिवृक्षाः, उन्मदानाम् = उन्मदिष्णूनाम्, वयसां-खगाना, विरावैः शब्दः, आलोकशब्द-जयशब्द, नृपतिमालोकयेतिसूचकशब्दमित्यर्थः । उदीरयामासुः कथयामासुः, इव= यथा । अत्रोत्प्रेक्षा । ___स-पार्श्वयोरनुचराः पार्थानुचराः, विसृष्टाः पार्थानुचरा येन स विसृष्टपार्थानुचरस्तस्य तथोक्तस्य । पार्श्वयोर्दुमाः पार्श्वद्रुमाः। पाशं विभीति पाशमृत्तेन पारामृता। उगतो मदो येपान्ते उन्मदास्तेषामुन्मदानाम् । आलोकस्य शब्द आलोकशब्दस्तमालोकशब्दम् । को०-'पार्श्वमन्तिके। कवाग्धोऽवयवे चक्रोपान्तपशुर्समूहयोः' इत्यने । 'वृक्षो महीरुहः शाखी विपटी पादपस्तरुः। अनोकहः कुटः शालः पलाशी द्रुमा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीयगमाः' इति । 'उन्मदस्तून्मदिष्णुः स्याद्' इति । 'शब्दे, आरवारावसंरावविरावाः' इति चामरः। ___ ता०–विसर्जितानुचरवर्गस्यापि तेजसा वरुणसदृशस्य तस्य दिलीपस्योभयपा वस्थितेषु वृक्षेषु संस्थितानामुन्मादशीलानां पक्षिणां-कूजितं वन्दिजनभाषितजय शब्द इव बभूष। इन्दुः-पार्श्ववर्ती अनुचरवृन्द के छोड़ देने पर भी वरुण के समान 'प्रभाव शाली' उन राजा :दिलीप के आसपास के वृक्षों ने उन्मत्त पक्षियों के शब्दों द्वारा जयशब्द उच्चारण किया ऐसा मालूम पड़ता था ॥९॥ मरुत्प्रयुक्ताश्च मकत्सखामं तमच्यमारादभिवत्तमानम् । अवाकिरन् बाललताः प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः ॥ १० ॥ सञ्जी०-मरुत्प्रयुक्ताश्चेति । मरुत्प्रयुक्ताः वायुना प्रेरिताः, वाललताः, आरात्स मीपेऽभिवर्तमानम् 'आराद् दूरसमीपयोः' इत्यमरः। मरुतो वायोः सखा मरुल्स खोऽग्निः । स इवाभातीति मरुत्सखाभम् । 'आतश्योपसर्गे' इति कप्रत्ययः। अy पूज्यं तं दिलीपं प्रसूनैः पुष्पैः। पौरकन्याः पौराश्च ताः कन्या आचारार्था लाजास्ते राचारलाजैरिव । अवाकिरन् तस्योपरि निक्षिप्तवत्य इत्यर्थः। सखा हि सखायमा गतमुपचरतीति भावः। __ अ०-मरुत्प्रयुक्ताः, बाललताः आराद, अभिवर्तमानम्, मरुत्सखाभम्, अच्य, तं, प्रसूनैः, पौरकन्याः आचारलाजैः, इव, अवाकिरन् । वा०-मरुत्प्रयुक्ताभिर्वाललताभिरभिवर्तमानो मरुत्सखाभोऽयःस प्रसूनैः पौरकन्याभिरवाकीर्यत । सुधा-मरुत्प्रयुक्ताः समीरनुन्नाः, बाललताः नातिचिरोत्पन्ना लतिकाः, आरात् समीपे, अभिवर्तमानं विद्यमानम्, मरुत्सखाभम् = तेजसाऽग्निसमम् । 'अत एवं' अय॑म् = पूज्यं, तं- दिलीपम्, प्रसूनैः = कुसुमैः, पौरकन्याः पुरनिवासिनां कन्यका नार्यो वा, आचारलाजैः मङ्गलाचारार्थकभृष्टधान्यैः, राजोपरि पौरकन्यानाम् मङ्ग.. लार्थ भृष्टधान्यनिक्षेप इति लोकाचारः। इव = यथा, अवाकिरन्स्यचिक्षिपुः।। समा० = मरुता प्रयुक्ता मरुत्प्रयुक्ताः । मरुतः सखा मरुत्सखा, मरुत्सखस्याभा इव आभा यस्य स मरुत्सखाभस्तं मरुत्सखाभम् । बालाश्च ता लता बाललताः । आचारार्था लाजा आचारलाजास्तैराचारलाजैः। पुरे भवाः पौराः, पौराणां कन्या: पौरकन्याः । को०-'समीरमारुतमरुज्जगत्प्राणसमीरणाः' इति । 'अथ मित्रं सखा सुहृत्' इति । 'प्रसूनं कुसुमं सुमम्' इति । 'लाजाः पुम्भूम्नि चाक्षताः' इति चामरः। ___ ता०-स्वमित्रेण वह्निना तुल्यं दीप्तिमन्तं दिलीपमागतं वीक्ष्य कोमललतासमीपे स्थितस्य तस्योपरि पुष्पवर्षणं कृतवत्यो यथा पौरकन्या मङ्गलार्थकलाजवर्षणं कुर्वन्ति । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | इन्दुः-वायु से प्रेरित (हिलाई गई) कोमल २ लताओं ने अग्नितुल्य (तेजस्वी), समीप में स्थित, पूज्य उन (राजा दिलीप) के ऊपर फूलों की वर्षा की, जैसे किनगरवासियों की कन्यायें मङ्गलार्थक धान के लावों की वर्षा करती थीं ॥१॥ धनुभृतोऽप्यस्य दयाऽऽर्द्रभावमाख्यातमन्तःकरणैविंशत्रैः। विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तार फल हरियः ॥ ११ ।। सजी०-धनुर्भूत इति । धनु तोऽप्यस्य राज्ञः । एतेन अयसम्भावना दर्शिता। तथापि विशङ्कनिर्भीकैरन्तःकरणैः कर्तृभिः। दयया कृपारसेनाो भावोऽभिप्रायो यस्य तयाऽभावं तदाख्यातम् । दयाऽऽर्द्रभावमेतदित्याख्यातमित्यर्थः । 'भावः सत्तास्वभावाभिप्रायचेष्टाऽऽत्मजन्मसु' इत्यमरः। तथाविधं वपुर्विलोकयन्त्यो हरिण्योऽणां प्रकामविस्तारस्यात्यन्तविशालतायाः फलमापुः (विमलं कलुषीभवच्च चेतः कथयत्येव हितैषिणं रिपुं च) इति न्यायेन स्वान्तःकरणवृत्तिप्रामाण्यादेव विश्रब्धं ददृशुरित्यर्थः। ___ अ०-धनभृतः, अपि, अस्य, विशङ्कः, अन्तकरणैः, दयाभावम्, आख्यातं वपुः, विलोकयन्त्यः, हरिण्यः, अदणां प्रकामविस्तारफलम्, आपुः । वा०-विलोकयन्तीभिर्हरिणीभिरक्षणां प्रक्रामविस्तारफलमापे । सुधा-धनुभृतः= शरासनधारिणः, अपि =सम्भावनायाम्, अस्य =राज्ञः, दिलीपस्येति यावत् । 'तपापि' विशंकः= शंकारहितः, अन्तकरणः चितैः; दयाऽऽभावम् = कृपारसाोभिप्रायम्, एतद् वपुर्विशेषणम् । आख्यातम् प्रकर्थितं, दयाऽऽर्द्रभावमिदमिति कथितमित्यर्थः । तथाविधं वपुः= शरीरं, विलोकयन्त्या= पश्यन्स्यः, हरिण्यः = मृग्यः, अचणां = चनुषां, प्रकामविस्तारफलम् = अत्यन्तदेय: फलम्, आपुः भधिजग्मुः।। ___ समा०-धनुर्विमति धनु त् तस्य धनुर्भूतः । दयया आो दयाऽऽः, दयाऽऽो भावो यस्य तद्दयाऽऽर्द्रभावं तत्तथोक्तम् । आख्यायते स्म यत्तदाख्यातम् । अन्तरन्तःस्थानि च तानि करणानि अन्तःकरणानि तैरन्तःकरणैः। विगता शङ्का येभ्यस्तानि विशङ्कानि विशंकः। विलोकयन्तीति विलोकयन्त्यः। प्रकामं विस्तारः प्रकामविस्तारस्तस्य फलं तत्तथोकम् ।। कोश:०-'दया कृपाऽनुकम्पा स्यादनुक्रोशोऽपि' इति । 'शंका भये संशये च' इत्यने । 'लोचनं नयनं नेत्रमीक्षणं चक्षुरक्षिणी । दृग्दृष्टीच' इति । 'कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम् इति । 'भृगे कुरङ्गवातायुहरिणाजिनयोनय' इति चामरः । ता०-यद्यपि राजा दिलीपो धनुर्दधानः सन् वेषतो भयप्रद आसीद, परन्तु स्व. स्वान्तःकरणैस्तदीयं दयाभावं ज्ञात्वा, अत एव भयरहिता हरिण्यो दिलीपशरीर विस्फारितनयनाः सत्यः पश्यन्त्यः स्वस्वनयनानां विशालतायाः सफलतामधिजग्मुः। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम्- [द्वितीय___ इन्दुः-धनुष को धारण किये हुए भी राजा दिलीप का शङ्का से शून्य अपने अन्तःकरणों के द्वारा दया से आई अभिप्राय मालूम होने से उनके शरीर को विशेष रूप से देखती हुई हारिणियों ने अपनी आंखों का अत्यन्त बड़े होने का फल प्राप्त किया ॥११॥ स कोचकर्मारुतपूर्णरन्धैः कूजद्भिरापादितवंशकृत्यम् | शुश्राव कुब्जेषु यशः स्वमुच्चैरुद्गीयमानं वनदेवताभिः ।। १२ ।। सजी०-स इति । स दिलीपो मारुतपूर्णरन्धैः अत एव कूजद्भिः स्वनद्भिः कीच कर्वेणुविशेपैः । 'वेणवः कीचकास्ते स्युर्ये स्वनन्यनिलोद्धताः' इत्यमरः । वंशः सुषिर। वाद्यविशेषः। 'वंशादिकं तु सुपिरम्' इत्यमरः । आपादितं सम्पादितं वंशस्य कृत्य कार्य यस्मिन्कर्मणि तत्तथा । कुलेषु लतागृहेषु 'निकुञ्जकुजौ वा क्लीबे लताऽऽदि. पिहितोदरे' इत्यमरः । वनदेवताभिरुदयमानमुच्चैर्गीयमानं स्वंयशःशुश्राव श्रुतवान् । अ०-स: मारुतपूर्णरन्धैः, कूजद्भिः, कीचकैः, आपादितवंशकृत्यं, कुओषु, वन. देवताभिः, उच्चैः, उद्गीयमानं, स्वः, यशः, शुश्राव । वा०-तेन स्वं यशः शुश्रुवे ।। सुधा०-सः = राजा मारुतपूर्णरन्धेः वायुपूरितच्छिद्रेः 'अत एव', कूजद्भिः शब्दं कुर्वद्भिः, कीचकैः = वंशविशेपैः, आपादितवंशकृल्यं परिपूरितवेणुवाद्यकार्यम् । वनदेवताकर्तृकगानक्रियाविशेषणमेतद् । कुलेषु = लतागृहेषु, वनदेवताभिः% काननाधिष्ठातृदेवीभिः, उच्चैः = तारस्वरेण, उद्गोयमानं स्तूयमानम् । स्वम् = आत्मीयं, यशः कीर्ति, शुश्राव-आकर्णयामास ।। । स०-मारुतेन पूर्णानि मारुतपूर्णानि तानि रन्ध्राणि येषान्ते मारुतपूर्णरन्ध्रा. स्तैस्तथोक्तैः । वंशस्य कृत्यं वंशकृत्यम् । आपादितं वंशकृत्यं यस्मिन् कर्मगि तदा. पादितवंशकृत्यम् ।। ऊद्दीयत इत्युद्गीयमानन्तदुद्गीयमानम् । वनानां देवता वनदे. चातास्ताभिर्वनदेवताभिः। ___ कोशः-'वंशो वेणौ कुले वर्गे पृष्ठाद्यवयवेऽपि च' इति विश्वः । 'कृत्या क्रियादेवतयोस्त्रिषु भेद्ये धनादिभिः' इति । 'महत्युच्चैः' इति चामरः। ता-राजा दिलीपो लतादिनिर्मितगृहेषु वनाधिष्ठातृदेवताभिरुच्चैवीयमानं निजयशः श्रुतवान्। इन्दुः-उन राजा दिलीप ने वायु से भरे हुए छिद्रों के होने से शब्द करते हुये कीचकसंज्ञक बांसों से वंशी का कार्यसम्पादन जिसमें हो रहा है, ऐसे लतागृहों में वन की अधिष्ठात्री देषियों से ऊँचे स्वरों में गाया जाता अपना यश सुना ॥१२॥ पृक्तस्तुषारैगिरिनिराणामनोकहाऽऽकम्पितपुष्पगन्धी। तमातपक्लान्तमनातपत्रमाचारपूतं पवनः सिषेवे ।। १३ ॥ सजी०-पृक्त इति । गिरिषु निराणां वारिप्रवाहाणाम् । 'वारिप्रवाहो Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | १३ निर्झरो झरः' इत्यमरः । तुषारैः सीकरैः । ' तुषारौ हिमसीकरौ' इति शाश्वतः । पृकः सम्पृक्कोsनोकहानां वृक्षाणामाकम्पितानीषत्कम्पितानि पुष्पाणि तेषां यो गन्धः सोऽस्यास्तीत्याकम्पितपुष्पगन्धी ईषत्कम्पितपुष्पगन्धवान्, अत एव शीतो मन्दः सुरभिः पवनो वायुरनातपत्रं व्रतार्थं परिहृतच्छत्रम् । अत एवात पक्लान्तमाचारेण पूतं शुद्धं तं नृपं सिषेवे । आचारपूतत्वात्स राजा जगत्पावनस्यापि सेव्य आसीदिति भावः । अ० – गिरिनिर्झराणां, तुषारैः, पृक्तः, अनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी, पवनः, अनातपन्नम् आतपक्लान्तम्, आचारपूतं तं सिपेवे । वा० - पृक्तेनानोऽकहा कम्पितपुपगन्धिना पवनेनानातपत्र आतपङ्कान्त आचारपूतः स सिषेवे । सुधा - गिरिनिर्झराणां = शैलवारिप्रवाहाणां तुषारैः = सीकरैः, शीतजलकणिकाभिरिति यावत् । पृक्तः = सम्पृक्तः, अनोऽकहाकम्पितपुष्पगन्धी = पादपेषञ्चलि तप्रसुनामोदवान्, पवनः = वातः, अनातपत्रं = छत्ररहितं, व्रतार्थमस्वीकृतच्छुत्रमिति भावः । 'अत एव' आतपक्कान्तं = धर्मम्लानम्, आचारपूतम् = सदाचारशुद्धम् । तं = दिलीपम्, सिषेवे = असेविष्ट | समा० - गिरिषु निर्झरा गिरिनिर्झरास्तेषां गिरिनिर्झराणाम् । 'अनसः शकटस्याकं गतिं नन्तीत्यनोऽकहाः, आकम्पितानि च तानि पुष्पाण्याकम्पितपुष्पाणि, अनोकहानामाकम्पितपुष्पाण्यनोऽकहा कम्पितपुष्पाणि तेषां गन्धोऽनोऽकहाकम्पितपुष्पगन्धः सोऽस्यास्तीत्यनोऽकहाकम्पितपुष्पगन्धी । आतपात् त्रायत इत्यातपत्रम्, न विद्यत आतपन्नं यस्यासावनातपत्रस्त मनातपत्रम् । आचारेण पूत आचारपूतस्तमाचारपूतम् । को० – 'अद्विगोत्रगिरिप्रावाचलशैलशिलोच्चयाः' इत्यमरः । 'गन्धो गन्धक आमोदे लेशे सम्बन्धगर्वयोः' इति विश्वः । 'घर्मः स्यादातपे ग्रीष्मेऽष्यून्मस्वेदाम्भसोरपि' इति मेदिनी । 'छत्रन्त्वातपत्रम्' इत्यमरः । ता० - शीतलो मन्दः सुरभिश्च पवनश्छत्ररहितं घर्मग्लानं सदाचारपविनं दिलीपमसेविष्ट | इन्दुः- पहाड़ी झरनों के जलबिन्दुओं से युक्त, अत एव शीतल तथा वृक्षों के कुछ २ हिले हुये फूलों के गन्ध को लेता हुआ 'मन्द २ सुगन्धित वायु, व्रत करने छत्र से रहित अत एव घाम से मुरझाये हुये सदाचार से पवित्र उन राजा दिलीप की सेवा करने लगा ॥ १३ ॥ शशाम वृष्टाऽपि विना दवाग्निरासीद्विशेषा फलपुष्पवृद्धिः । ऊनं न सत्वेष्वधिको बबाधे तस्मिन् वनं गोप्तरि गाहमाने || १४ || सञ्जी० - शशामेति । गोप्तरि तस्मिन् वनं गाहमाने प्रविशति सति वृष्ट्या विनाऽपि दवाग्निर्वनाग्निः 'दवदावौ वनानले' इति हैमः । शशाम । फलानां पुष्पाण वृद्धिः । विशेष्यत इति विशेषा अतिशयिताऽऽसीत् । कर्मार्थे धन्प्रत्ययः । सत्त्वेषु Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ रघुवंशमहाकाव्यम्-- [द्वितीयः जन्तुषु मध्ये । 'यतश्च निर्धारणम्' इति सप्तमी । अधिकः प्रवलो व्याघ्रादिरूपो दुर्वलं हिरणादिकं न घबाधे।। - अ०-गोप्तरि, तस्मिन्, वनं, गाहमाने (सति), वृष्ट्या, विना, अपि दवाग्निः, शशाम, फलपुष्पवृद्धिः, विशेषा, आसीत, सरवेषु (मध्ये), अधिकः, ऊनं, न बवाधे। वा०-दवाग्निना, शेमे, फलपुष्पवृद्धया विशेषयाऽभूयत, अधिकेनोनो न बबाधे। सुधा-गोप्तरि= रक्षितरि, तस्मिन् = राज्ञि, दिलीपे । वनं = विपिनं, गाहमाने प्रविशति, सतीति शेषः। वृष्टया वर्षणेन, विना = अन्तरेण, अपि =समुच्चये, दवाग्निः = वनवतिः, शशाम = अशमत्, फलपुष्पवृद्धिः सत्यप्रसूनसमृद्धिः, विशेषा= अतिशयिता, आसीत् अभवत्, सत्त्वेषु-जन्तृषु मध्ये, अधिका-प्रवलो व्याघ्रादिः, ऊनंम्हीनं, मृगादिकम् । न = नहि, वबाधे = पीडयामास। समा०-दवस्याग्निर्दवाग्निः। विशिष्यतेऽसौ विशेषा। फलानि च पुष्पाणि च फलपुष्पाणि फलपुष्पाणां वृद्धिः फलपुष्पवृद्धिः। गोपायतीति गोप्ता तस्मिन् गोप्तरि। गाहत इति गाहमानस्तस्मिन् गाहमाने । कोशः-गर्दासमुच्चयप्रश्रशङ्कासम्भावनास्वपि' इति । 'पृथग्विनाऽन्तरेणर्ते हिरुड नाना च वर्जने' इति 'हीनन्यूनावूनगौँ' इति चामरः। ता०-जगद्रक्षकस्य दिलीपस्य प्रभावाद् वनप्रवेशक्षण एवं दवाग्निशान्तिः फलपुष्पवृद्धिर्वन्यजीवेषु निरुपद्रवता च सविशेषमभूत्। ____ इन्दुः-जगत् की रक्षा करने वाले उन राजा दिलीप के वन में प्रवेश करने पर वृष्टि के विना ही वन की अग्नि शान्त हुई, फल और पुष्पों की वृद्धि अधिक हुई, तथा बनैले जोवों के बीच में कोई, बलवान् 'व्याघ्रादि' अपने से निर्वल किसी 'मृगादि' को नहीं सताने लगा ॥१४॥ सञ्चारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा दिनान्ते निलयाय गन्तुम् । प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा पतङ्गस्य 'मुनेश्च धेनुः ।। १२ ।। सजी०-सञ्चारेति । पल्लवस्य रागो वर्णः पल्लवरागः। 'रागोऽनुरक्तौ मात्सर्ये क्लेशादौ लोहितादिषु'। इति शाश्वतः। स इव ताम्रा पल्लवरागताम्रा । पतङ्गस्य सूर्यस्य प्रभा कान्तिः 'पतमः पक्षिसूर्ययोः' इति शाश्वतः। मुनेर्धेनुश्च । दिगन्तराणि दिशामवकाशान् । 'अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तर्धिभेदतादर्खे' इत्यमरः। सञ्चारेण पूतानि शुद्धानि कृत्वा दिनान्ते सायंकाले निलयायास्तमयाय । धेनुपक्षे आलयाय च गन्तुं प्रचक्रमे।। अ०-पल्लवरागताम्रा, पतङ्गस्य, प्रभा, मुनेः, धेनुः, च, दिगन्तराणि, सञ्चार पूतानि, कृत्वा, दिनान्ते, निलयाय, गन्तुं, प्रचक्रमे ।। वा०-पल्लवरागताम्रया पतङ्गस्य प्रभया मुनेर्धेन्वा च प्रचक्रमे । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दु कात्रयोपेतम् | __ सुधा-पन्नवरागताम्रा= किसलयवर्णारुणा, पतङ्गस्य = सूर्यस्य, प्रभा = कान्तिः; मुनेः = महर्वसिष्ठस्य । धेनुः = नन्दिनी, च = समुच्चये, दिगन्तराणि = आशावकाशान्, सञ्चारपूतानि सञ्चरणपवित्राणि, कृत्वा = सम्पाद्य, दिनान्ते=दिवसाव. साने, निलयाय =(प्रभापक्षे) अस्तमयाय, (धेनुपक्षे) गृहाय, गन्तुं = याहूँ, प्रचक्रमे = उपक्रमं कृतवती।। ___समा०-सञ्चारेण पूतानि सञ्चारपूतानि तानि सञ्चारपूतानि । दिशामन्तराणि दिगन्तराणि तानि दिगन्तराणि । दिनस्यान्तो दिनान्तस्तस्मिन् दिनान्ते । कोशः–'निलयोऽस्तमये गृहे । गोपनस्य प्रदेशेऽपि' इति हैमः। 'पल्लवोऽस्त्री किसलयम्' इत्यमरः। 'तानं शुल्बेऽरुणेऽपि च' इति मेदिनी। ___ता:०-सूर्यकान्तिर्यथा सायङ्कालेऽस्तमयाय गन्तुमुपक्रमं कृतवती तथैव सुनिहोमधेनुरपि स्वाश्रमाय गन्तुमुद्यताऽसूत् । इन्दुः-पल्लव के वर्ण की तरह लाल वर्णवाली सूर्य की प्रभा और मुनि वसिष्ठ की धेनु ये दोनों, दिशाओं के मध्यभाग को अपने-अपने सञ्चार से पवित्र करके दिन के अन्त (सन्ध्याकाल) में अस्त होने के लिये तथा अपने आश्रम में पहुंचने के लिये उपक्रम करने लगीं ॥ १५॥ तां देवतापित्रतिक्रियाऽर्थामन्वग्ययौ मध्यमलोकपालः | बभौ च सा तेन सतां मतेन श्रद्धेव साक्षाद्विपिनोपपन्ना ।। १६ ।। सजी०--तामिति । मध्यमलोकपालो भूपालः । देवतापित्रतिथीनां क्रिया यागश्राद्धदानानि ता एवार्थः यस्यास्तां धेनुमन्वगनुपदं ययौ । 'अन्वगन्वक्षमनुगेऽनुपदं क्लीवमव्ययम्' इत्यमरः । सतां मतेन सद्भिर्मान्येन । 'गतिवुद्धि' इत्यादिना वर्तमाने क्तः। तस्य च वर्तमाने' इति षष्ठी। तेन राज्ञोपपन्ना युक्ता सा धेनुः सतां मतेए विधिनाऽनुष्ठानेनोपपन्ना युक्ता साक्षात्प्रत्ययक्षा श्रद्धाऽऽस्तिक्यबुद्धिरिव बभौ च। ___ अ०--मध्ममलोकपालः, देवतापित्रतिथिक्रियाऽर्था, ताम्, अन्वग, ययौ, सतां मतेन, तेन, उपपन्ना, सा, (सतारमतेन), विधिना, (उपपना) साक्षात्, श्रद्धा, इव, वभौ च । वा०--मध्यमलोकपालेन देवतापित्रतिथिक्रियाऽर्था साऽन्वग् यये उपपन्नया तया साक्षाच्छूद्धयेव वभे च । सुधा--मध्यमलोकपालः = भूपो दिलीपः, देवतापित्रतिथिक्रियाऽर्थां = सुरपित्रप्राधुणिककृत्यप्रयोजनका, यज्ञश्राद्धदानादिसाधिकामिति यावत् । तां वनात्परावर्त्तमानां नन्दिनीम्, अन्वग= अन्वक्षम् । ययौ जगाम, सतांसाधूनां, विदुषां वा, मतेन= पूजितेन, तेन-राज्ञा, दिलीपेन, उपपन्ना= युक्ता, साधेनुः, सताम्मतेन% साधुजनाचरितेन, विधिना= विधानेन, उपपन्ना-युक्ता, सहितेति यावत् । साक्षात् Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ रघुवंश महाकाव्यम् [ द्वितीय प्रत्यक्षा, श्रद्धा = आस्तिक्यबुद्धिः, इव = यथा, बभौ = शुशुभे, च = पुनः, अन्वाease चकारो बोध्यः । तमा० -- देवताश्च पितरश्चातिथयश्चेति देवतापित्रतिथयः, तासां क्रिया देवतापित्रतिथिक्रियाः ता एवार्थः प्रयोजनं यस्याः सा देवतापित्रतिथिक्रियाऽर्था तां तथोकाम् | अन्वञ्चतीत्यन्वग् । मध्ये भवो मध्यमः, मध्यमभासौ लोको मध्यमलोकः, तम्पालयतीति मध्य मलोकपालः । कोशः -- 'लोकस्तु भवने जने' इति । 'साक्षात् प्रत्यक्ष तुल्ययोः' इति । 'विधिवि धाने देवेऽपि' इति चामरः । ता०- -- पृथ्वीपतिर्दिलीपो देवादिनिमित्तकयागादिसाधिकां तां धेनुमनुगच्छन् सन् ययौ, साधुजनपूजितेन तेन युक्ता सती साऽपि साक्षादनुष्ठानेन युक्ताऽऽस्तिक्यबुद्धिरिव शुशुभे । इन्दुः -- भूलोक के पालन करने वाले राजा दिलीप देवता, पितर और अतिथि लोगों के कार्य (यज्ञ, श्राद्ध भोजनादि ) को साधने वाली, उस धेनु के पीछे-पीछे चले, और सज्जनों के द्वारा पूजित उनसे युक्त, वह ( नन्दिनी ) भी सज्जनों से किये गये अनुष्ठान से युक्त श्रद्धा जैसी सुशोभित होती है वैसी सुशोभित होने लगी ॥१६॥ पल्बलोत्तीर्णवराहायूथान्यावास वृक्षोन्मुख बहिणानि । स मृगाध्यासनशाद्वलानि श्या मायमानानि वनानि पश्यन् ॥ १७ ॥ सञ्जी० -- स इति । स राजा । पल्वलेभ्योऽल्पजलाशयेभ्य उत्तीर्णानि निर्गतानि वराहाणां यूथानि कुलानि येषु तानि । वर्गाण्येषां सन्तीति वर्हिणा मयूराः । 'मयू रो वहिणो पर्ही' इत्यमरः । 'फलबर्हाभ्यामिनच्प्रत्ययो वक्तव्यः' आवासवृक्षणामु न्मुखा वर्हिणा येषु तानि श्यामायमानानि वराहबर्हिणादिमलिनिम्ना, अश्यामानि श्यामानि भवन्तीति श्यामायमानानि । 'लोहितादिढाऽभ्यः क्यप्' इति क्यप् प्रत्ययः । ' वा क्यषः' इत्यात्मनेपदे शानच् । मृगैरध्यासिता अधिष्ठिताः शाद्वलो येषु तानि । शादाः शप्पाण्येषु देशेषु सन्तीति शाद्वलाः शप्पश्यामदेशाः । 'शाद्वलः शादहरिते' इत्यमरः । ‘शादः कर्दुमशष्पयोः' इति विश्वः । 'नडशादाड्ड्वलच्' इति ड्वलच्प्रत्ययः । वनानि पश्यन्ययौ । अ० -- सः, पल्वलोत्तीर्णवराहयूथानि, आवासवृक्षोन्मुखवर्हिणानि, मृगाध्यासितशाद्वलानि, श्यामायमानानि वनानि, पश्यन्, सन् ययौ । वा०-- तेन पश्यता सता यये । सुधा -- सः = राजा दिलीपः, पल्वलोत्तोर्णवराहयूथानि = अल्पसरो निर्यात शूकरसमूहानि, आवासवृक्षोन्मुख वर्हिणानि = निवासार्थपादपाभिमुखशिखावलानि, मृगाध्यासितशाद्वलानि = हरिणाधिष्ठित शादहरितानि, 'अत एव शूकरमयूरशष्पादीनां श्यामतया' श्यामायमानानि = कृष्णीभूतानि वनानि = अरयानि, पश्यन् = कयन्, 'सन्' ययौ = जगाम । • अवलो Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुघेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सुधा-पल्वलेभ्यः उत्तीर्णानि पल्वलोत्तीर्णानि वराहाणां यूथानि वराहयूथानि पक्वलोत्तीर्णानि वराहयूथानि येषु तानि पत्वलोत्तीर्णवराहयूथानि तानि पूर्वोक्तानि । आवासस्य वृक्षा आवासवृक्षाः, आवासवृक्षाणामुन्मुखा आवासवृक्षोन्मुखाः, आवासवृक्षोन्मुखा बर्हिणाः सन्ति येषु तान्यावासवृक्षोन्मुखबर्हिणानि तानि पूर्वोकानि । मृगैरध्यासिता मृगाध्यासिताः; मृगाध्यासिताः शाहलाः सन्ति येषु तानि मृगाध्यासितशाद्वलानि तानि पूर्वोक्तानि । अश्यामानि श्यामानि भवन्तीति श्यामायन्ते, श्यामायन्त इति श्यामायमानानि तानि पूर्वोक्तानि । ___ कोशः–'वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरः' इति । 'वराहः सूकरो घृष्टिः' इति । 'मयूरो बर्हिणो वहीं नीलकण्ठो भुजङ्गभुक्।' इति चामरः । ___ ता.- स राजा दिलीपः स्वल्पजलाशयेभ्यो विनिर्गतानां सूकरयूथानां, निजनिजनिवासार्थवृक्षान् प्रति गन्तुमुत्सुकानां मयूराणां मृगैरधिश्रितः शष्पहरितानां वनप्रदेशानां च श्यामतया सर्वत्र कृष्णवर्णानि विलोकयन् वसिष्ठाश्रमं प्रति जगाम । इन्दुः-वह राजा दिलीप छोटे छोटे तालाबों से निकले हुए बनैले सूअरों के झुण्डवाले, अपने अपने आवासयोग्य वृक्षों की तरफ 'जाने के लिए' उन्मुख मयूरों वाले तथा हरिण जिन पर बैठे हुए हैं ऐसे घासों से हरे प्रदेशवाले 'अत एव सर्वत्र' श्याम ही श्याम वनों को देखते हुए जाने लगे ॥ १७ ॥ आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद् गृष्टिगुरुत्वाद्वपुषो नरेन्द्रः। उभावलञ्चक्रतुरञ्चिताभ्यां तपोवनावृत्तिपथं गताभ्याम् ॥ १८ ॥ सजी०-आपीनेति । गृष्टिः सकृत्प्रसूता गौः। 'गृष्टिः सकृत्प्रसूता गौः' इति हलायुधः। नरेन्द्रश्न । उभौ यथाक्रमम् । आपीनमूधः। “ऊधस्तु क्लीबमापीनम्' इत्यमरः। आपीनस्य भारोद्वहने प्रयत्नात् प्रयासाद् वपुषो गुरुत्वादाधिक्याच । अञ्चिताभ्यां चारुभ्यां गताभ्यां गमनाभ्यां तपोवनादावृत्तेः पन्थास्तं तपोवनावृत्तिपथम् 'ऋक्पूरब्धूःपयामानक्षे' इत्यनेन समासान्तोऽप्रत्ययः। अलञ्चक्रतुभूषितवन्तौ । ___अ०-गृष्टिः, नरेन्द्रः, (च), उभौ, आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद्, वपुषः, गुरुत्वाद् (च), अञ्चिताभ्यां,गताभ्यां तपोवनावृत्तिपथम, अलञ्चक्रतुः। वा०-गृष्टया नरेन्द्रेण चोभाभ्यां तपोवनावृत्तिपथोऽलञ्चके। ___ सुधा-गृष्टिः सकृत्प्रसूता नन्दिनी, नरेन्द्रः = राजा दिलीपः, चेति शेषः । उभौत्र नन्दिनीदिलीपौ, यथाक्रममिति शेषः। आपीनभारोद्वहनप्रयत्नात् ऊधोभारधारणप्रयासाद्, वपुषा देहस्य, गुरुत्वाद्-दुर्भरत्वात् , चेति शेषः। अञ्चिताभ्यां पूजिताभ्यां, गताभ्यां गमनाभ्यां, तपोवनावृत्तिपथम् = तपोयोग्यविपिनावर्त्तमार्गम्अलचक्रतुः शोभितवन्तौ। समा०-आपीनस्य भार आपीनभारः, आपीनभारस्योद्वहनमापीनभारोदहनम् २ रघु० महा० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ रघुवंश महाकाव्यम् - [ द्वितीय तस्मिन् प्रयत्न आपीनभारोद्वहनप्रयत्नस्तस्मादापीनभारोद्वहनप्रयत्नाद् । गुरोर्भावो गुरुत्वं तस्माद् गुरुश्वात् । नरेष्विन्द्रो नरेन्द्रः, तपसो वनं तपोवनं तपोवनादावृत्तिस्तपोवनावृत्तिः; तस्याः पन्थास्तपोवनावृत्तिपथस्तं पूर्वोक्तम् । कोशः–‘गुरुस्तु गीष्पतौ श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे' इति विश्वः । 'पूजितेऽञ्चितः ' इत्यमरः । ता०- - नन्दिनी बृहदूधो भारवहनप्रयासाद्दिलीपश्च स्वशरीरस्य स्थौल्यादुभावपि मनोहरगमनाभ्यां तपोवनपरावर्त्तनमार्ग शोभितवन्तौ । इन्दुः-- पहली बार की ब्याई हुई नन्दिनी और राजा दिलीप इन दोनों के क्रम से ( नन्दिनी ने ) स्तनों के भार के धारण करने में प्रयास करने तथा ( राजा दिलीप ने ) शरीर की स्थूलता के कारण अपने २ सुन्दर गमन से तपोवन से लौटने के मार्ग को सुशोभित किया ॥ १८ ॥ वसिष्ठधेनोरनुयायिनं समावर्त्तमानं वनिता वनान्तात् | पपौ निमेषालखपदमपतिरुपोषिताभ्यामिव लोचनाभ्याम् ॥ १६ ॥ सञ्जी० - वसिष्ठेति । वसिष्ठधेनोरनुयायिनमनुचरं वनान्तादावर्त्तमानं प्रत्यागतं तं दिलीपं बनिता सुदक्षिणा निमेषेष्वलसा मन्दा पचमणां पङिक्तिर्यस्याः सा निर्नि मेषा सतीत्यर्थः । लोचनाभ्यां करणाभ्याम् उपोषिताभ्यामिव उपवासो भोजननिवृत्तिस्तद्वद्भयामिव । वसतेः कर्त्तरि क्तः । पपौ । यथोपोषितोऽतितृष्णया जलमधिकं पिवति तद्वदतितृष्णयाऽधिकं व्यलोकयदित्यर्थः । अ० - वसिष्ठधेनोः अनुयायिनं, वनान्ताद्, आवर्त्तमानं तं वनिता निमेषालसपचमपक्तिः (सती), लोचनाभ्याम्, इव, पपौ । वा० - अनुयायी वनान्तादावर्तमानः स वनितया निमेषालसपचमपक्तधा (सत्या) पपे । सुधा - वसिष्ठधेनोः = नन्दिन्याः, अनुयायिनम् = अनुचरम् वनान्तात् = विपि नप्रान्ताद्, आवर्त्तमानम् = प्रत्यायान्तं तं = दिलीपं, वनिता = महिला, सुदक्षिणा । निमेषालसपचमपङ्क्तिः = निमीलन निष्क्रिय नेत्र लोमावलिः, 'सती' लोचनाम्यां नय नाभ्याम् 'करणाभ्याम्' । उपोषितांभ्यां गृहीतोपवासाभ्याम्, इव = यथा, पपौ= पीतवती, ददर्शेति भावः । = समा० – अयमनयोरतिशयेन वसुमानिति वसिष्ठस्तस्य धेनुर्वसिष्ठधेनुस्तमात्त थोक्तायाः । वनस्यान्तो वनान्तः, तस्माद्वनान्तत् । निमेषेष्वलसा निमेषालला पचम णां पङ्क्तिः पचमपतिः निमेषालसा पचमपङ्क्तिर्यस्याः सा निमेषालसपचमपङ्क्तिः को० - 'वनिता महिला तथा' इति । 'वीथ्यालिरावलिः पङ्क्तिः श्रेणी' इति चामरः ता० - यथा गृहीतोपवासाऽतितृष्णया काचिज्जलमत्यर्थं पिवति तथव सुद क्षिणा वनान्निवर्तमानं दिलीपं नेत्राभ्यां सतृष्णमधिकं निनिमेषं ददर्श । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | इन्दुः-वसिष्ठ महर्षि की नई व्याई हुई नन्दिनी नाम की धेनु के पीछे पीछे चलनेवाले तपोवन के प्रान्त भाग से लौटते हुए उन राजा दिलीप को स्नेह करने वाली रानी सुदक्षिणा ने नेत्र के बन्द करने में आलसी बरौनियों वाली होती हुई अर्थात् एक टक से) प्यासे की भाँति आंखों से पिया अर्थात् देखा ॥ १९॥ पुरस्कृता वमनि पार्थिवेन प्रत्युद्गता पाथिवधर्मपत्न्या । तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या ॥२०॥ सञ्जीविनी–पुरस्कृतेति । वम॑नि पार्थिवेन पृथिव्या ईश्वरेण । 'तस्येश्वरः' इत्यअत्ययः। पुरस्कृताऽग्रतः कृता धर्मस्य पत्नी धर्मपत्नी धर्मार्थपत्नीत्यर्थः । अश्वधासादिवत्तादर्थे षष्ठीसमासः। पार्थिवस्य धर्मपत्न्या प्रत्युद्धता सा धेनुस्तदन्तरे तयोर्दम्पत्योर्मध्ये । दिनक्षपयोदिनराज्योर्मध्यगता सन्ध्येव विरराज। __ अ०-वर्मनि, पार्थिवेन, पुरस्कृता, पार्थिवधर्मपत्न्या, प्रत्युद्गता, सा, धेनुः, तदन्तरे दिनक्षपामध्यगता, सन्ध्या, इव, विरराज । वा०-पुरस्कृतया प्रत्युद्गतया तया धेन्वा दिनक्षपामध्यगतया सन्ध्ययेव विरेजे । सुधा-वस्मनिमार्गे, पार्थिवेन-पृथ्वीश्वरेण, दिलीपेन । पुरस्कृता-अग्रतः कृता, पार्थिवधर्मपत्न्या = पृथ्वीश्वरसुकृतार्थजायया, सुदक्षिणया । प्रत्युद्गता= स्वागतार्थमभ्युद्गता, सा= पूर्वोक्ता, धेनु:= गौः, नन्दिनीति यावत् । तदन्तरं तयोर्मध्यो, सुदक्षिणादिलीपयोरन्तरालभागे स्थिता। दिनक्षपामध्यगता= दिवसरजन्यन्तास्थिता, सन्ध्या सायङ्कालः, इव = यथा, विरराज% शुशुभे। ___ समा०-पृथिव्या ईश्वरः पार्थिवस्तेन पार्थिवेन । धर्मस्य पत्नी, धर्मपत्नी, पार्थिवस्य धर्मपत्नी पार्थिवधर्मपत्नी तया तथोक्तया। तयोरन्तरं तदन्तरं तस्मिंस्तदन्तरे । दिनञ्च क्षपा चेति दिनक्षपे, तयोर्मध्यं दिनक्षपामध्यं, दिनक्षपामध्यङ्गता दिनक्ष. पामध्यगता। ___ को०-'घस्रो दिनाहनी वा तु क्लीबे दिवसवासरौ' इति । 'निशा निशीथिनी रात्रिस्त्रियामा क्षणदा क्षपा' इति चामरः। ___ ता०-यस्मिन् समयेऽग्रेकृत्य नन्दिनीं दिलीपो वसिष्ठाश्रमं प्रापत् तदा दिलीपानुगम्यमानां तामानेतुं सुदक्षिणा तपोवनात्प्रत्युधयो, तस्मिन् क्षणे, सुदक्षिणादिलीपयोर्मध्यगता नन्दिनी पाटलवर्णतया दिनक्षपयोर्मध्यगता सन्ध्येव शुशुभे । ___ इन्दुः-मार्ग में राजा दिलीप द्वारा आगे की गई और उनकी पटरानी सुदक्षिणा से आगे जाकर ली हुई (अगवानी की गई) वह नन्दिनी सुदक्षिणा और दिलीप के बीच में दिन-रात के मध्य में स्थित सन्ध्याकाल की भांति शोभित हुई ॥२०॥ प्रदक्षिणाकृत्य पर्यास्वनी तां सुदक्षिणा साक्षतपात्रहस्ता। प्रणम्य पान विशालमस्याः शृङ्गान्तरं द्वारमिवार्थसिद्धेः ।। २१ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम्-- [द्वितीयः___ सजी०-प्रदक्षिणीकृत्येति । अक्षतानां पात्रेण सह वर्त्तते इति साक्षतपात्री हस्तौ यस्याः सा सुदक्षिणा पयस्विनी प्रशस्तक्षीरां तां धेनुं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य छ । अस्या धेन्वा विशालं शृङ्गमध्यम् । अर्थसिद्धेः कार्यसिद्धारं प्रवेशमार्गमिव, आनर्चाचयामास। ____ अ०-साक्षतपात्रहस्ता, सुदक्षिणा, पयस्विनी, तां, प्रदक्षिणीकृत्य, प्रणम्य, च, अस्याः , विशालं, शृङ्गान्तरम्, अर्थसिद्धेः, द्वारम्, इव, आनर्च। वा०-साक्षतपात्रहस्तया सुदक्षिणया आनर्चे । सुधा-साक्षतपात्रहस्ता=अखण्डतण्डुलभाण्डकरा, सुदक्षिणा दिलीपत्नी, पयस्विनी प्रशस्तक्षीरां, तांन्नन्दिनीम् । प्रदक्षिणीकृत्य = अपसव्येन परितो भ्रमणं कृत्वा, प्रणम्य-प्रणासं कृत्वा, चम्समुच्चयेऽर्थे, अस्याः धेन्वाः, विशालं विस्तीर्णम्, शृङ्गान्तरं विषाणमध्यम्, अर्थसिद्धेः प्रयोजननिष्पत्तेः, पुत्ररूपफलप्राप्तेरिति भावः। द्वारम- अभ्युपायं, कारणमिति भावः । इव= यथा, आनर्च = पूजयामास । __समा०-प्रदक्षिणं कृत्वेति प्रदक्षिणीकृत्य । प्रशस्तं पयोऽस्त्यस्या इति पयस्विनी तां तथोक्ताम् । अक्षतानां पात्रमततपात्रं, तेन सह वर्तेते याविति साक्षतपात्री साक्षतपात्री हस्तौ यस्याः सा साक्षतपात्रहस्ता। शृङ्गयोरन्तरं शृङ्गान्तरं तत्तथो. कम् । अर्थस्य सिद्धिरर्थसिद्धिस्तस्या अर्थसिद्धेः। को०-'विशङ्कटं पृथु बृहद्विशालं पृथुलं महत्' इत्यमरः । 'द्वारं निर्गमेऽभ्युपाये' इति हैमः। ता०-सुदक्षिणा तां-नन्दिनी प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च, अक्षतः पुष्पादिभिश्व तस्याः शृङ्गान्तरप्रदेशं निजाभीएसिद्धेः कारणं मत्वा पूजयामास। इन्दुः-अक्षतों से युक्त पात्र को हाथमें लिये रानी सुदक्षिणा ने उत्तम दूध वाली उस नन्दिनी की प्रदक्षिणा तथा वन्दना करके उसके चौड़े, दोनों सींगों के मध्यभाग का, पुत्रप्राप्तिरूप प्रयोजन सिद्ध होने के द्वार की भांति जानकर पूजन किया ॥ २१ ॥ वत्सोत्सुकाऽपि स्तिमिता सपर्या प्रत्यग्रहीत्सेति ननन्दतुस्तौ । भक्त्योपपन्नेषु हि तद्विधानां प्रसादचिह्नानि पुर फलानि ॥ २२ ॥ ___ सजी०-वत्सोत्सुकाऽपीति । सा धेनुर्वसोत्सुकापि वत्सोत्कण्ठितापि स्तिमिता निश्चला सती सपयां पूजां प्रत्यग्रहीदिति हेतोस्तौ दम्पती ननन्दतुः। पूजास्वीकार स्यानन्दहेतुमाह-भक्त्येति । पूज्येष्वनुरागो भक्तिस्तयोपपन्नेषु युक्तेषु विषये तद्विः धानां तस्या धेन्वा विधेव विधा प्रकारो येषां तेषाम् महतामित्यर्थः । प्रसादस्य चि. द्वानि लिङ्गानि पूजास्वीकारादीनि पुरम्फलानि पुरोगतांनि प्रत्यासन्नानि येषां तानि हि । अविलम्बितफलसूचकलिङ्गदर्शनादानन्दो युज्यत इत्यर्थः। अ०-सा वत्सोत्सुका, अपि, स्तिमिता 'सती' सपयाँ, प्रत्यग्रहीत् इति तो, ननन्दतुः, भवस्या, उपपन्नेषु, तद्विधानां, प्रसादचिह्वानि, पुरस्फलानि, हि। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | वा०–तया वत्सोत्सुकया स्तिमितया सपर्या प्रत्यग्राहीति ताभ्यां ननन्दे, प्रसादचिह्नः पुरःफलर्हि भूयते । ___सुधा--साधेनुः, वत्सोत्सुकातर्णकोत्सुका, अपि सम्भावनायां, स्तिमितानिश्चला, सती । सपर्याम् = अर्चा, प्रत्यग्रहीत् = प्रतिजग्राह, इति-हेतोः, तौ-सुदक्षिणादिलीपो, ननन्दतुः= मुमुदाते, भक्त्या श्रद्धया, उपपन्नेषु-समन्वितेषु, तद्विधानां तत्प्रकाराणां, प्रसादचिह्नानि =प्रसन्नतालचमाणि, स्थिरतया पूजास्वीकरणादीनीति भावः। पुरःफलानि = आसन्नलाभवन्ति । हि = अवधारणे, सन्तीति शेषः । समा०--वत्से उत्सुका वत्सोत्सुका । सा च स च तौ। तस्या विधेव विधा प्रकारो येषान्ते तद्विधास्तेषां तद्विधानाम् ।। . को०-'स्तिमितौ क्लिन्ननिश्चलौ' इत्यने । 'पूजा नमस्याऽपचितिः सपर्याऽर्चाऽहणाः समाः' इत्यमरः। ___ ता०--स्वीयवत्सदर्शनोत्कण्ठाऽन्वितायाः कामधेनुसुताया नन्दिन्याः सुस्थिरतया पूजाग्रहणेन तौ स्वकीयाभीष्टसिद्धिं झटित्येव भाविनी मत्वा मुसुदाते । ___ इन्दुः--नन्दिनी ने उस अपने बछड़े को देखने के लिए उत्कण्ठायुक्त होने पर भी स्थिर होते हुए 'सुदक्षिणा द्वारा किए गये' पूजन को स्वीकार किया। वे दोनों सुदक्षिणा और दिलीप प्रसन्न हुए। क्योंकि-अपने में अनुराग रखनेवाले जनों के विषय में नन्दिनी के समान बड़े लोगों की प्रसन्नता का चित, निश्चय से शीघ्र अभीष्ट सिद्धि करने वाला होता है ॥ २२॥ गुरोः सदारस्य निपीड्य पादौ समाप्य सान्ध्यश्च विधि दिलीपः । दोहावसाने पुनरेव दोग्ध्रीं भेजे भुजोच्छिन्नरिपुनिषण्णाम् ॥ २३ ॥ ___ सजी०-गुरोरिति । भुजोच्छिन्नरिपुर्दिलीपः सदारस्य दारैररुन्धत्या सदा वत मानस्य गुरोः। उभयोरपीत्यर्थः। 'भार्या जायाऽथ पुम्भूम्नि दाराः' इत्यमरः । पादौ निपीड्याभिवन्द्य । सान्ध्यं सन्ध्यायां विहितं विधिमनुष्ठानं च समाप्य । दोहावसाने निषण्णामासीनां दोग्धीं दोहनशीलाम् । 'तृन्' इति तृन्प्रत्ययः। धेनुमेव पुनर्भेजे सेवितवान् । दोग्ध्रीमिति निरुपपदप्रयोगात्कामधेनुत्वं गम्यते । __ अ०-भुजोच्छिन्नरिपुः, दिलीपः, सदारस्य, गुरोः, पादौ, निपीड्य, सान्ध्यं, विधि, च समाप्य, दोहावसाने, निषण्णां, दोग्ध्रीम्, एव, पुनर् , भेजे । वा०-भुजोच्छिन्नरिपुणा दिलीपेन निषण्णा दोग्ध्रयेव पुनर्भेजे।। सुधा०-भुजोच्छिन्नरिपुः = बाहुविनाशितशत्रुः, दिलीपातदाख्योऽयोध्याऽधिपतिः, सदारस्य-पत्नीसहितस्य, गुरोः-निषेकादिकृतः, वसिष्ठस्येति यावत् । पादौचरणौ, निपीड्य-संवाह्य, सान्ध्यं सन्ध्याकालिकं, विधिं ब्रह्मचिन्तनादिकं विधानं, चा अन्वाचये,समाप्य-विधाय,दोहावसाने दुग्धदोहनान्ते, निषण्णाम् उपविष्टाम्, दोग्ध्रीं धेनु, नन्दिनीम् । एव=अवधारणे, पुनः द्वितीयवारम्, भेजेसिषेवे । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् [ द्वितीय:समा०- - दारैः सहितः सदारस्तस्य सदारस्य । सन्ध्यायां भवः सान्ध्यस्त सान्ध्यम् । दोहस्यावसानं दोहावसानं तस्मिंस्तथोक्ते । दोग्धीति दोग्ध्री तां दोग्ध्रीम् । भुजाभ्यामुच्छिन्ना भुजोच्छिन्नास्ते रिपवो येन स भुजोच्छिन्नरिपुः । को० – ‘पदङ्घ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इति 'भुजबाहू प्रवेष्टो दो:' इति चामरः । ता० - सपत्नीको दिलीपः सपत्नीकस्य वसिष्ठमहर्षेश्वरण संवाहनं कृत्वा कृतसा• यन्तनकृत्यः पुनरेव नन्दिन्याः परिचर्यां कृतवान् कण्डूयनादिभिः । इन्दुः- बाहुओं से शत्रुओं को नष्ट करने वाले राजा दिलीप पत्नीसहित गुरु का चरण दबाकर, अपने सायङ्कालिक नित्यकृत्य समाप्त करने के पश्चात्, दूध दुह चुकने के बाद सुखपूर्वक बैठी हुई नन्दिनी की फिर सेवा करने लगे ॥ २३ ॥ तामन्तिकन्यस्त बलिप्रदीपामन्वास्य गोप्ता गृहिणीसहायः । क्रमेण सुतामनुसंविवेश सुप्तोत्थितां प्रातरनूदतिष्ठत् ।। २४ ।। सञ्जी० - तामिति । गोप्ता रक्षको गृहिणीसहायः । पत्नी द्वितीयः सन् । उभाव पीत्यर्थः । अन्तिके न्यस्ता बलयः प्रदीपाश्च यस्यास्तां तथोक्तां पूर्वोक्तां निषण्णां धेनु' मन्दास्यानूपविश्य क्रमेण सुप्तामन्वनन्तरं संविवेश सुष्वाप । प्रातः सुप्तोत्थितामनुः दतिष्ठदुत्थितवान् । अन्नानुशब्देन धेनुराजव्यापारयोः पौर्वापर्यमुच्यते, क्रमशब्देन धेनुव्यापाराणामेवेत्य पौनरुक्त्यम् । 'कर्मप्रवचनीययुक्ते' इति द्वितीया । अ० -- गोप्ता, गृहिणीसहायः ( सन् ), अन्तिकन्यस्तवलिप्रदीपां, ताम्, अन्वास्य, क्रमेण, सुप्ताम्र, अनुसंविवेश, प्रातः, सुप्तोत्थिताम्, अनु, उदतिष्ठत् । वा०—गोपना गृहिणीसहायेन सुप्ताऽनुसंविविशे, उदस्थीयत । 0 सुधा - गोप्ता = रक्षिता दिलीपः, गृहिणीसहायः = भार्याऽनुचरः । अन्तिकन्यस्तवलिप्रदीपां = समीपस्थापितोपहारदीपां, ताम् = निषण्णां नन्दिनीम् । अन्वास्य = पश्चादुपविश्य, क्रमेण = अनुक्रमेण, सुप्तां= निद्रिताम्, अनु = पश्चात्, संविवेश = शिश्ये, प्रातः=प्रभाते, सुप्तोत्थितां = शयितविनिद्विताम्, अनु पश्चाद्, उदतिष्ठत् = उत्तस्थौ । समा० – अन्तिके न्यस्ता अन्तिकन्यस्ताः, बलेः प्रदीपा बलिप्रदीपा अन्तिकन्यबलिप्रदीपा यस्याः साऽन्तिकन्यस्तबलिप्रदीपा तां तथोक्ताम् । गृहिणी सहायो यस्यासौ गृहिणीसहायः 'आदौ ' सुप्ता 'पश्चाद्' उत्थिता सुप्तोत्थिता तां तथोक्ताम् । - को० - ' उपकण्ठान्तिकाभ्यर्णाभ्यग्रा अप्यभितोऽव्ययम्' इति । 'दीपः प्रदीप' इति । 'स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नः संवेश इत्यपि' इति चामरः । ता०-- सपत्नीको राजा दिलीपः समीपस्थापितपूजा दीपायास्तस्याः पश्चाद्भागे, सुपविश्य ततः सुप्तायां नन्दिन्यां सत्यां तदनु स्वयं सपत्नीकोऽपि सुष्वाप, ततः प्रातःकाल उत्थितायां तस्यां तदनुदतिष्ठत् । २२ इन्दुः- रक्षा करनेवाले, सुदक्षिणा के सहित राजा दिलीप, जिसके समीप में उप हारसम्बन्धी दीप रखे गये हैं ऐसी उस बैठी हुई नन्दिनी के पश्चात् बैठकर क्रम से Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | उस (नन्दिनी) के सोने के अनन्तर सोये और प्रातःकाल उसके सोकर उठ जाने के बाद उठे ॥ २४॥ इत्थं व्रतं धारयतः प्रजाऽथ समं महिष्या महनीयकोतः। सप्त व्यतीयुत्रिगुणानि तस्या दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य ।। २५ ॥ सञ्जी०-इत्थमिति । इत्थमनेन प्रकारेण प्रजाऽर्थ सन्तानाय महिण्या सममभिषिक्तपरन्या सह । 'कृताभिषेका महिषी' इत्यमरः । व्रतं धारयतः, महनीया पूज्या कीर्तिर्यस्य तस्य, दीनानामुद्धरणं दैन्यविमोचनं तत्रोचितस्य परिचितस्य तस्य नृपस्य, यो गुणा आवृत्तयो येषां तानि त्रिगुणानि त्रिरावृत्तानि सप्त दिनान्येकदिशतिदिनानि व्यतीयुः। अ०-इत्थं प्रजार्थं महिण्या, समं, व्रतं, धारयतः महनीयकीर्तेः, दीनोद्धरणोवितस्य, तस्य, त्रिगुणानि, सप्तदिनानि, व्यतीयुः । वा०-सप्तभिस्त्रिगुणैर्दिनयंतीये। ___ सुधा-इत्थम् = अनेन प्रकारेण, प्रजार्थ सन्ततिप्रयोजनकम्, महिण्या-कृताभिषेकया परन्या सुदक्षिणया, समं = साधं, व्रतं = नियम, धाग्यतः दधतः, महनीयकीर्तेः प्रशस्ययशसः, दीनोद्धरणोचितस्य दीनजनरक्षणतत्परस्य, तस्य दिली. पस्य, त्रिगुणानि = त्रिरावृत्तानि, सप्त = सप्तसङ्ग्यकानि, दिनानि =दिवसानि, एकविंशतिदिनानीति भावः । व्यतीयुः = व्यतिचक्रमुः।। ___स-प्रजैवार्थः प्रयोजनं यस्य तत् प्रजाऽर्थं तत्तथोक्तम् । महनीया कीर्तिर्यस्यासौ महनीयकीर्तिस्तस्य महनीयकीर्तेः। दीनानामुद्धरणं दीनोद्धरणं तत्रोचितो दीनोद्धरणोचितस्तस्य तथोक्तस्य । ___ को०-'साकं साधं समं सह' इत्यमरः । 'उचितं तु भवे न्यस्ते मिते ज्ञाते समञ्जसे' इति मे। ता०–एवं महिष्या साधं नन्दिनीपरिचर्यात्मकं नियमं कुर्वतस्तस्य दिलीपस्यैकविंशतिदिनानि व्यतीतानि ।। __इन्दुः-इस प्रकार पुत्र के लिए महारानी सुदक्षिणा के साथ नियम को धारण करते हुए प्रशंसनीय कीर्तिवाले दीनों के उद्धार करने में लगे हुए महाराज दिलीप के निगुने सात (इक्कीस) दिन बीत गये ॥ २५ ॥ अन्येद्यरात्मानुचरस्य भावं जिज्ञासमाना मुनिहोमधेनुः । गङ्गाप्रपातान्तविरूढशष्पं गौरीगुरोर्गह्वरमाविवेश ।। ६ ।। स०-अन्येद्यरिति। अन्येधुरन्यस्मिन्दिने द्वाविंशे दिने । 'सद्यापरुत्परा' इत्यादिना निपातनादव्ययत्वम् । 'अद्यात्रायथ पूर्वेऽहीत्यादौ पूर्वोत्तरापरात् । तथाऽधरान्यान्यतरेतरात्पूर्वद्युरादयः' इत्यमरः। मुनिहोमधेनुः। आत्मानुचरस्य भावमभिप्रायं दृढभक्तिस्वम् । 'भावोऽभिप्राय आशयः' इति यादवः। जिज्ञासमाना ज्ञातुमिच्छन्ती। 'ज्ञाश्रुस्मृहशां,सनः' इत्यात्मनेपदे शानच । प्रपतनस्यस्मिन्निति प्रपातः पतनप्रदेशः गङ्गायाः प्रपातस्तस्यान्ते समीपे विरूढानि जातानि शष्पाणि बाल Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ रघुवंशहाकाव्यम् [ द्वितीय तृणानि यस्मिंस्तत् । 'शष्पं वालतृणं घासः' इत्यमरः । गौरीगुरोः पार्वतीपितुर्गह्वर गुहामाविवेश । अ० -- अन्येद्युः, मुनिहोमधेनुः, आत्मानुचरस्य, भावं, जिज्ञासमाना, गङ्गाप्रपा तान्तविरूढशष्पं, गौरीगुरोः, गह्वरम्, आविवेश । वा० - सुनिहोमधेन्वा जिज्ञासमानया गौरीगुरोर्गह्वरमा विविशे । सुधा - अन्येद्युः = अन्यस्मिन् दिने, द्वाविंशे दिवस इति भावः । मुनिहोमधेनुः = वसिष्ठमहर्षेर्हवन सामग्रीसम्पादिका नन्दिनी, आत्मानुचरस्य = स्वपश्चाद्यायिनः, दिलीपस्य | भावम् = आशयं भक्तिम् । जिज्ञासमाना = ज्ञातुमिच्छन्ती, गङ्गाप्रपा तान्तविरूढशप्पं = सुरनिम्नगाप्रवाहपतननिकटोत्पन्नबालतृणं, गौरीगुरोः = हिमाल याख्यपर्वतस्य, गह्वरं = देवखातबिलम्, आविवेश = आविशत् । स० – आत्मनोऽनुचर आत्मानुचरस्तस्य तथोक्तस्य । ज्ञातुमिच्छतीति जिज्ञा सत इति जिज्ञासमाना । होमस्य धेनुहोंमधेनुः मुनेर्होमधेनुर्मुनिहो मधेनुः गङ्गायाः प्रपातो गङ्गाप्रपातः, तस्यान्तो गङ्गाप्रपातान्तः, तत्र विरूढानि गङ्गा प्रपातान्तविरूढानि शष्पाणि यत्र तद् गङ्गाप्रपातान्तविरूढशष्पं तत्तथोक्तम् । गौर्या गुरुगौरीगुरुस्तस्य गौरीगुरोः । को० - 'प्रपातो निर्झरे भृगौ । अवटे पतने कच्छे' इति हैमः, 'देवखातबिले. गुहा, गह्वरम्' इत्यमरः । ता०- - द्वाविंशे दिवसे धेनुर्दिलीपस्य दृढभक्तिपरीक्षार्थं हिमालयस्य गुहाप्रवेश. मकरोत् । इन्दु: - दूसरे (बाइसवें ) दिन वसिष्ठ की होमसम्बन्धी धेनु (नन्दिनी) अपने सेवक राजा दिलीप के 'मुझ में दृढ भक्ति है या नहीं" इस भाव को जानने की इच्छा रखती हुई गङ्गा के वारिप्रवाह के समीप उगी हुई है छोटी-छोटी घास जिसमें ऐसे पार्वती के पिता ( हिमालय ) की गुफा में घुसी ॥ २६ ॥ सा दुष्प्रधर्षा मनसाऽपि हिंस्त्रैरित्यद्रिशोभा प्रहितेक्षणेन । अलक्षिताभ्युत्पतनो नृपेण प्रसह्य सिंहः किल तां चकर्ष ।। २७ ।। सञ्जी॰—सेति । सा धेनुः हिंस्त्रैर्व्याघ्रादिभिर्मनसाऽपि दुष्प्रधर्षा दुर्धर्षेति हेतोरनशोभायां प्रहितेक्षणेन दत्तदृष्टिना नृपेणालक्षिताभ्युत्पतनमाभिमुख्येनोत्पतनं यस्य स सिंहस्तां धेनुं प्रसह्य हठात् । 'प्रसह्य तु हठार्थकम्' इत्यमरः । चकर्ष । किलेत्यलीके । अ० - सा, हिंखैः, मनसा, अपि, दुष्प्रधर्षा, इति, अद्विशोभाप्रहितेक्षणेन, नृपेण, अलक्षिताभ्युत्पतनः, सिंहः, प्रसह्य, चकर्ष, किल । वा०—तया दुष्प्रधर्षया 'भूयते ' अलक्षिताभ्युत्पतनेन सिंहेन सा चकृषे । सुधा - सा = नन्दिनी । हिंस्त्रैः = घातुकैः, व्याघ्रादिभिः, मनसा = मानसेन, अपि = सम्भावनायां, दुष्प्रधर्षा = दुर्धषो, इति हेतोः, अद्विशोभाप्रहितेक्षणेन = शैलच्छवि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् | समर्पितनयनेन, नृपेणं=राज्ञा, दिलीपेन । अलक्षिताभ्युत्पतनः = मदृष्टाभिमुखाक्रमणः, सिंहः = केसरी, तां= धेनुम् । प्रसह्य=हठात् चकर्ष = कृष्टवान्, किल= अलीके | समा० - अद्रेः शोभाऽद्विशोभा तत्र प्रहिते अद्विशोभाप्रहिते अद्विशोभाप्रहिते ईक्षणे येन सोऽद्विशोभामहितेक्षणस्तेन तथोक्तेन । न लक्षित मभ्युत्पतनं यस्य सोऽलक्षिताभ्युत्पतनः । को० — 'शोभा कान्तिर्द्युतिश्छविः' इति । 'सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्यो हर्यक्षः केसरी हरिः' इति सर्वत्राप्यमरः । 'वार्तायामरुचौ किल' इति त्रिकाण्डकोषः । हिमालयशोभादर्शनासक्तमनसि सति नन्दिनीमायारचितः ता० - दिलीपे सिंहस्तां धेनुमनाक्षीत् । २५ इन्दुः - 'वह नन्दिनी हिंसक व्याघ्रादि दुष्ट जीवों द्वारा मन से भी बड़ी कठि नाई से कष्ट पहुँचाने के योग्य है' इस कारण निश्चिन्त हो हिमालय की शोभा देखने में दृष्टि को लगाये हुए राजा दिलीप के द्वारा जिसका आक्रमण करना नहीं देखा गया ऐसा मायाकृत सिंह हठात् उस नन्दिनी को बनावटी ढङ्ग से फाड़ने लगा ॥ २७ ॥ तदीयमाक्रन्दितमार्त साघोर्गुहा निबद्ध प्रतिशब्द दीर्घप | रश्मिष्विवादाय नगेन्द्रसक्तां निवर्त्तयामास नृस्य दृष्टिम् || २८ ॥ सजी० - तदीयमिति । गुहानिबद्धेन प्रतिशब्देन प्रतिध्वनिना दीर्घम् । तस्या इदं तदीयम् । आक्रन्दितमार्तघोषणम् आर्तेषु विपन्नेषु साधोर्हितकारिणो नृपस्य नगेन्द्रसतां दृष्टिम् । रश्मिषु प्रग्रहेषु 'करणप्रग्रहौ रश्मी' इत्यमरः । आदायेव, गृहीत्वेव निवर्तयामास । अ० - गुहानिबद्धप्रतिशब्ददीर्घं, तदीयम्, आक्रन्दितम्, आर्त्तसाधोः, नृपस्य नगेन्द्रसक्तां दृष्टिं, रश्मिषु, आदाय, इव, निवर्तयामास । वा० - गुहानिबद्धप्रतिशब्द दीर्घेण तदीयेन क्रन्दितेन नगेन्द्रसक्ता दृष्टिर्निवर्तयाञ्चक्रे । सुधा०—गुहानिबद्धप्रतिशब्ददीर्घं = गह्वरप्रतिहतप्रतिनिनादायतं, तदीयं = तत्स म्वन्धि, नन्दिन्याः । आक्रन्दितम् = उच्चैरुदितम्, आर्त्तसाधोः = विपन्नविपन्निवा रकस्य, नृपस्य = राज्ञो दिलीपस्य । नगेन्द्रसक्तां = शैलराजशोभादर्शनलग्नां, दृष्टि = नेत्रं, रश्मिषु =प्रग्रहेषु, आदाय = गृहीत्वा, इव = यथा, निवर्त्तयामास = न्यवर्त्तयत् । समा०- - आर्त्तषु साधुरार्त्तसाधुस्तस्यार्त्तसाधोः । गुहायां निबद्धो गुहानिबद्धः, गुहानिवद्धश्चासौ प्रतिशब्दः गुहानिबद्ध प्रतिशब्दस्तेन दीर्घं गुहानिबद्धप्रतिशब्ददीर्घम् । नगेष्विन्द्रो नगेन्द्रस्तत्र सक्ता तां तथोक्तास् । को० – 'शब्दे निनादनिनदध्वनिध्वानरवस्वनाः' इति । 'शैलवृक्षौ नगावगौ' इति चामरः । ता० - सिंहाक्रमणेन गुहायां प्रतिहतेन प्रतिध्वनिना दीर्घ नन्दिन्या आक्रन्दनं Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ रघुवशमहाकाव्यम् [द्वितीय शैलशोभादर्शनसतां दिलीपदृष्टिं यथा हयादीन् रश्मिषु गृहीत्वा सारथिर्निवर्तयति तथैव निवर्तयामास । ___इन्दुः-गुफा में टकराई हुई प्रतिध्वनि से ऊँचे हुए उस (नन्दिनी) के आतंनाद ने दुःखियों के विषय में सज्जन (रक्षक) राजा दिलीप की हिमालय पर्वत (की शोभा देखने) में लगी हुई दृष्टि को लगाम पकड़कर जैसे कोई घोड़े आदि को फेरता है वैसे ही अपनी ओर फेर लिया ॥ २८॥ स पाटलायां गांव तस्थिवांसं धनुधरः केसरिणं ददर्श।। अधित्यकायामिव धातुमय्यां लाद्रुमं सानुमतः प्रफुल्लम् ।। २६ ।। सक्षी०-स इति । धनुर्धरः स नृपः पाटलायां रक्तवर्णायां गवि तस्थिवांसं स्थितम् , 'वसुश्च' इति वसुप्रत्ययः। केसरिणं सिंहम् । सानुमतोऽद्रः। धातोर्गेरिकस्य विकारो धातुमयी तस्यामधित्यकायामूर्ध्वभूमौ 'उपत्यकानेरासन्ना भूमिरूद्धमधित्यका' इत्यमरः। 'उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयोः' इति त्यकन्प्रत्ययः। प्रफुल्लो विकसितस्तम् । 'फुल्ल विकसने' इति धातोः पचायच। 'प्रफुल्तम्' इति तकारपाठे 'जिफला विशरणे' इति धातोः कर्तरि कः 'ति च' इत्युदादेशः । लोध्राख्यं द्रुममिव ददर्श। ___अ०-धनुर्धरः, सः, पाटलायां, गवि, तस्थिवांसं, केसरिणं, सानुमतः, धातुम य्याम , अधित्यकायाम् , प्रफुल्लं, लोध्रदुमम्, इव, ददर्श । वा०-धनुर्धरेण तेन तस्थिवान् केसरी प्रफुल्लो लोध्रद्रुम इव ददृशे। सुधा-धनुर्धरः =धानुष्कः, सः राजा दिलीपः। पाटलायां श्वेतरकायां, गवि सौरभेय्याम् , तस्थिवांसं = स्थितम् । केसरिणं = सिंह, सानुमतः पर्वतस्य, धातुमय्यां = गैरिकवत्याम् , अधित्यकायाम् ऊर्ध्वभूमौ, प्रफुल्लं-स्फुटं, लोध्रद्रुमं%= तिल्ववृक्षम् , इव = यथा, ददर्श = अपश्यत् । ___ समा०-धनुषो धरो धनुर्धरः । धातोगैरिकस्य विकारो धातुमयी तस्यां धातुमय्याम् । लोध्रश्चासौ द्रुमस्तं लोध्रद्रुमम् । सानूनि सन्त्यस्येति सानुमांस्तस्य सानुमतः। को०-'श्वेतरक्तस्तु पाटलः' इति । 'धन्वी धनुष्मान् धानुष्को निषङ्गयस्त्री धनुर्धरः' इति । 'स्नुः प्रस्थः सानुरस्त्रियाम्' इति । 'प्रफुल्लोत्फुल्लसम्फुल्लव्याकोशविकचस्फुटाः । फुल्लश्चैते विकसिते' इति चामरः। ___ ता०-दिलीपः श्वेतरक्तवर्णायां नन्दिन्यामाक्रम्य स्थितं सिंह पर्वतस्य गैरिक. मय्यामूर्ध्वभूमौ विकसितं लोध्रवृक्षमिवापश्यत् ।। ___ इन्दुः-धनुष को धारण करनेवाले उन राजा दिलीप ने श्वेतयुक्त लालवर्ण वाली नन्दिनी के ऊपर बैठे हुए सिंह को पर्वत की गैरिक धातुमयी ऊँची भूमि में उगे हुए लोध्रवृक्ष को भांति देखा ॥ २९ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ततो मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रगामी वधाय वध्यस्य शरं शरण्यः । जाताभिषङ्गो नृपतिनिषङ्गादुद्धर्तुमैच्छत् प्रसभोद्धृतारिः ॥ ३० ॥ सजी०-तत इति । ततः सिंहदर्शनानन्तरं मृगेन्द्रगामी सिंहगामी 'शरणं गृहरक्षित्रोः इत्यमरः । 'शरणं रक्षणे गृहे' इति यादवः । शरणे साधुः शरण्यः । 'तत्र साधुः' इति यत्प्रत्ययः। प्रसभेन बलात्कारेणोद्धता अरयो येन स नृपती राजा जाताभिषङ्गो जातपराभवः सन् । 'अभिषङ्गः पराभवः' इत्यमरः। वध्यस्य वधार्हस्य । 'दण्डादिभ्यो यः' इति यप्रत्ययः। मृगेन्द्रस्य वधाय निषङ्गात्तणीरात् । 'तुणोपासङ्गतूणीरनिषगा इषुधियोः इत्यमरः । शरमुद्धत्तमैच्छत् ।। अ०-ततः, मृगेन्द्रगामी, शरण्यः, प्रसभोद्धतारिः, नृपतिः, जाताभिषङ्गः, 'सन्' वध्यस्य, मृगेन्द्रस्य, वधाय, निषङ्गात्, शरम्, उद्धत्तम्, ऐच्छत् । . वा०-मृगेन्दगामिना शरण्येन प्रसभोद्धृतारिणा नृपतिना जाताभिषङ्गेण 'सता' शर उद्धर्तमप्यत। __सुधा-ततः= सिंहदर्शनानन्तरम्, मृगेन्द्रगामी= केसरिगमनशीलः, शरण्यः= रक्षणसाधुः, प्रसभोद्धृतारिम् हठोस्तिप्तशत्रुः, नृपति नराधिपः, दिलीपः। जाताभिषङ्गः = उत्पन्नपराभवः, 'सन्' वध्यस्य-शीर्षच्छेद्यस्य, मृगेन्द्रस्थ =सिंहस्य, वधाय% घाताय, निषङ्गात् = इषुधेः, शरं = बाणम्, उद्धतम् = उत्क्षेप्तुम्, ऐच्छत् = इयेष । समा०-मृगेष्विन्द्रो मृगेन्द्रस्तस्य मृगेन्द्रस्य । मृगेन्द्र इव गच्छतीति मृगेन्द्रगामी । वधमहतीति वध्यस्तस्य वध्यस्य । जातोऽभिषङ्गो यस्य स जाताभिषङ्गः। प्रसभेनोद्धताः प्रसभोद्धताः, प्रसभोद्धताः, अरयो येन सः प्रसभोतारिः। कोशः-'पृषत्कबाणविशिखा अजिह्मगखगाशुगाः। कलम्बमार्गणशराः पत्त्री रोप इषुर्द्वयोः' इति । 'प्रसभं तु बलात्कारो, हठः' इति चामरः। ता०-राजा दिलीपः सिंहाक्रान्तनन्दिनीं दृष्ट्वा तद्रक्षितुः स्वस्य च पराभवं मत्वा तत्क्षण एव सिंहवधार्थं तूणीराद् बाणमुद्धर्तुमैच्छत् । ___ इन्दुः-सिंह के दर्शन के बाद मृगेन्द्र की तरह चलनेवाले, रक्षा करने में निपुण, शत्रुओं को बलपूर्वक उखाड़ने वाले, अपमान पाये हुए, राजा दिलीप ने सिंह को मारने के लिये तरकस से बाण निकालने की इच्छा की ॥३०॥ वामेतरस्तस्य कर प्रहत्तुनख पभाभूषितकङ्कपत्रे सक्ताङ्गुलिः सायकपुड एव चित्रापितारम्भ इवावतस्थे ॥ ३१ ।। सजी०-चामेतर इति । प्रहर्तस्तस्य वामेतरो दक्षिणः करः । नखप्रभाभिर्भूषितानि विच्छुरितानि कङ्कस्य पक्षिविशेषस्य पत्राणि यस्य तस्मिन् । 'कङ्कः पक्षिविशेषे स्याद् गुप्ताकारे युधिष्ठिरे" इति विश्वः। 'कङ्कस्तु कर्कट' इति यादवः । सायकस्य पुङ्ख एव कर्तर्याख्ये मूलप्रदेशे। 'कर्त्तरिः पुढे' इति यादवः। सक्काङ्गुलिः सन् । चित्रार्पितारम्भश्चित्रलिखितशरोद्धरणोद्योग इव अवतस्थे । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ रघुवंशमहाकाव्यम्- [द्वितीयः ०–प्रहर्तुः, तस्य, वामेतरः, करः, नखप्रभाभूषितककपत्रे, सायकपुछे, एव सक्ताङ्गुलिः, 'सन्' चित्रार्पितारम्भः, इव, अवतस्थे। वा०-वामेतरेण करेण सक्ताङ्गुलिना चिन्नार्पितारम्भेणेवावतस्थे। सुधा०-प्रहर्तः=ताडयितुः, तस्य दिलीपस्य, बामेतरा दक्षिणः, कर हस्तः, नखप्रभाभूषितकङ्कपत्रे नखरविण्मण्डितलोहपृष्ठपक्षे, सायकपुखे = शरमूले, एव= अवधारणे, सक्ताङ्गुलि:प्रसक्तकरशाखः, 'सन्' चित्रार्पितारम्भः = आलेख्यलिखि तशरनिष्कासनोद्योगः, इव= यथा, अवतस्थे = स्थितोऽभूत् । स०-वामादितरो वामेतरः । नखानां प्रभा नखप्रभाः, ताभिर्भूषितानि, नखप्रभाभूषितानि, कङ्कस्य पत्राणि कङ्कपत्राणि नखप्रभाभूषितानि कङ्कपत्राणि यस्य स नखप्रभाभूषितकङ्कपत्रस्तथोक्ते। सक्ता अङ्गुलयो यस्य स सक्ताङ्गुलिः । सायकस्य पुङ्खः सायकपुङ्खस्तस्मिंस्तथोक्के। चित्रेऽर्पितश्चित्रार्पितः, चित्रार्पित आरम्भो यस्य स चित्रापितारम्भः। ___ को०-'वामः सव्ये प्रतीपे च द्रविणे चातिसुन्दरे' इति विश्वः। 'इतरस्त्वन्य नीचयोः' इति । 'बलिहस्तांशवः कराः' इति चामरः। ता०–प्रजिहीर्पया निषङ्गाद्वाणमुद्धर्तकामस्य दिलीपस्य वाणमूलसक्ताङ्गुलिः सन् दक्षिणहस्तश्चित्रलिखितशरोद्धरणोघम इव तस्थौ । इन्दुः-प्रहार करने वाले उन राजा दिलीप का दाहिना हाथ, अपने नख की कान्ति से भूपित, कङ्क पक्षी के पङ्घ जिसमें लगे हुए हैं ऐसे बाण के मूलप्रदेश में ही लगी हुई है अङ्गुलियाँ जिसकी ऐसा होता हुआ, चित्र में लिखे हुए बाण निकालने के उद्योग में लगे हुए की भाँति हो गया ॥३१॥ बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्युरभ्यर्णभागस्कृतमस्पृशद्भिः । राजा स्वतेजोभिरदह्यतान्तभोगीव सन्त्रौषधिरुद्धधीयः ॥ ३२॥ सजी०-वाहुप्रतिष्टम्भेति । वाह्वोः प्रतिष्टम्भेन प्रतिबन्धेन । 'प्रतिवन्धः प्रतिप्टम्भः' इत्यमरः । विवृद्धमन्युःप्रवृद्धरोषो राजा। मन्त्रौषधिभ्यां रुद्धवीर्यः प्रतिबद्धशक्तिोगी सर्प इव 'भोगी राजभुजङ्गयोः' इति शाश्वतः । अभ्यर्णमन्तिकम् । 'उपकण्ठान्तिकाभ्यर्णाभ्यग्रा अप्यभितोऽव्ययम्'इत्यमरः। आगस्कृतमपराधकारिणमस्पृ. शद्भिः स्वतेजोभिरन्तरदह्यत । 'अधिक्षेपाचसहनतेजः प्राणात्ययेष्वपि' इति यादवः । ___ अ०-बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्युः, राजा, मन्त्रौषधिरुद्धवीर्यः, भोगी, इव, अभ्यर्णम्, भागस्कृतम्, अस्पृशद्भिः, स्वतेजोभिः, अन्तर , अदह्यत । वा०-बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्यु राजानम् मन्त्रौषधिरुद्धवीर्य भोगिनमिवाभ्यर्णमागस्कृतमस्पृशन्ति स्वतेजांस्यन्तरदहन् । ___सुधा०-बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्युः भुजप्रतिवन्धरुद्धक्रोधः, राजा-दिलीपः, मन्त्रीपधिरुद्धवीर्यः सर्पविषशामकमन्त्रभैषज्यसंवीतपराक्रमः, भौगी-भुजङ्गः, इव-यथा, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सर्गः] सखीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् | अभ्यर्णम् = उपकण्ठम्, आगस्कृतम् = अपराधकारिणम्, अस्पृशद्भिः = अनामृशद्भिः, स्वतेजोभिः = आत्मप्रभावः, अन्तःमध्ये, अदात = अतप्यत। समा०-बाह्वोः प्रतिष्टम्भो बाहुप्रतिष्टम्भः तेन विवृद्धो बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धः, बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धो मन्युर्यस्यासौ बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्युः । आगः करोतीत्यागस्कृत् तमागस्कृतम् । स्वस्य तेजांसि स्वतेजांसि तैः स्वतेजोभिः। मन्त्रश्चौषधिश्वेति मन्त्रौषधी ताभ्यां रुद्धम् मन्त्रौषधिरुद्धम्, मन्त्रौषधिरुद्धं वीर्य यस्यासौ मन्त्रीषधिरुद्धवीर्यः। ___ कोशः-'मन्युर्दैन्ये क्रतौ क्रुधि' इति । 'भागोऽपराधो मन्तुश्च' इति । वीर्य बलेप्रभावे च' इति चामरः ता०-बाहुस्तम्भेन प्रवृद्धरोषो दिलीपः समीपस्थमप्यपराधकारिणं सिंहं हन्तुम. समर्थो मन्त्रौषधिसंरुद्धपराक्रमः सर्प इव स्वतेजोभिरतप्यत । ___ इन्दुः-हाथके रुक जानेसे बढ़े हुए क्रोधवाले, राजा दिलीप, मन्त्र और औषधि से बाँध दिया गया है पराक्रम जिसका ऐसे सांप की भांति समीप में (स्थित) अपराधों को करने वाले का नहीं स्पर्श करते हुए अपने तेजसे भीतर जलने लगे। तमार्यगृह्यं निगृहीतधेनुर्मनुष्यवाचा मनुवंशकेतुम् । विस्माययन्विस्मितमात्मवृत्तौ सिंहोरुसत्त्वं निजगाद सिंहः ॥३३॥ सजी०-तमिति । निगृहीता पीडिता धेनुर्येन स सिंहः। आर्याणां सतां गृहं पचयम् ‘पदास्वैरिबाह्यापक्ष्येषु च' इति क्विप्। मनुवंशस्य केतुं चिह्नं केतुवद्वयावर्तकम् । सिंह इवोल्सत्त्वो महाबलस्तम् । आत्मनो वृत्तौ बाहुस्तम्भरूपे व्यापारेऽभूतपूर्वत्वाद्विस्मितम् । कर्तरि क्तः। तं दिलीपं मनुष्यबाचा कारणेन पुनर्विमाययन्विस्मयमाश्चर्य प्रापयन्निजगाद । 'स्मिङ ईषद्धसने' इति धातोर्णिचि वृद्धावायादेशे शतृप्रत्यये च सति विस्माययन्निति रूपं सिद्धम् 'विस्मापयन्' इति पाठे पुगागममात्रं वक्तव्यम् । तच्च 'नित्यं स्मयतेः' इति हेतुभयविवक्षायामेवेति 'भीस्योहेतुभये' इत्यात्मनेपदे 'विस्मापयमान' इति स्यात् । तस्मान्मनुष्यवाचा विस्माययन्निति शुद्धम् । करणविवक्षायां न कश्चिदोषः। अ०-निगृहीतधेनुः, सिंहः, आर्यगृह्यं, मनुवंशक्रेतुं, सिंहोरुसत्वम्, आत्मवृत्ती, विस्मितं, तं, मनुष्यवाचा, विस्माययन् निजगाद । वा०-निगृहीतधेनुना, र्सिहेनार्यगृह्यो मनुवंशकेतुः सिंहोरुसत्त्वो विस्मितः स विस्माययता निजगदे। ___ सुधा-निगृहीतधेनुः = पीडितनन्दिनीकः, सिंहः =केसरी, आर्यगृह्य-सज्जनपक्ष पातशीलम्, मनुवंशकेतुं वैवस्वतमनुकुललक्षणं, मनुकुलशेखरम्, सिंहोरुसरवं= केसरिविपुलबलम्, आत्मवृत्तौ निजबाहुस्तम्भरूपव्यापारे, विस्मितम् = आश्चर्यितं, तं=दिलीपं, मनुष्यवाचा= नरवचसा, करणे तृतीया बोध्या । पुनरिति शेषः । विस्माययन् = विस्मितं सम्पादयन्, निजगाद = अवोचत् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् - [ द्वितीय समा०--आर्याणां गृह्य आर्यगृह्यस्तं तथोक्तम् । निगृहीता धेनुर्येन स निगृहीतः धेनुः, मनुष्यस्य वाग्, मनुष्यवाक् तया मनुष्यवाचा । मनोवंशो मनुवंशस्तस्य केतुर्मनुवंशकेतुस्तं मनुवंशकेतुम् । आत्मनो वृत्तिरात्मवृत्तिस्तस्यां तथोक्तायाम् । सिंहस्येष उरु सत्त्वं यस्य स सिंहोरुसत्त्वस्तं तथोक्तम् । ३० कोशः–'गृह्यं गुदे ग्रन्थभेदे क्लीवं शाखापुरे स्त्रियाम् । गृहासक्तमृगादौ ना, त्रिषु चास्वैरिपच्ययोः' इति मेदिनी । 'बड्रोरुविपुलम्' इत्यमरः । ता० - सिंहो बाहुस्तम्भरूपे व्यापारे परमाश्चर्यितं दिलीपं मनुष्यवाचा पुनरपि ततोऽधिकं विस्मय मापयन्नुवाच । इन्दुः- नन्दिनी को पीडित किया हुआ सिंह सज्जनों के पक्ष में रहनेवाले मनु वंश के द्योतक सिंह के समान महान् बलवान् अपने वाहुस्तम्भरूप व्यापार के विषय में चकित हुए उन राजा दिलीप को मनुष्यवाणी से पुनः चकित कराता हुआ बोला ॥ ३३ ॥ अलं महीपाल ! तब श्रमेण प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात् । 1 न पादपोन्मूलनशक्ति रंह: शिलोच्चये मूर्च्छति सारुनस्य || ३४ ।। सञ्जी० - अलमिति । हे महीपाल ! तव श्रमेणालम् । साध्याभावाच्छूमो न कर्त्तव्य इत्यर्थः । अत्र गम्यमानसाधन क्रियापेक्षया श्रमस्य कारणत्वात् तृतीया । उक्त च न्यासोद्द्योते ( न केवलं श्रूयमाणैव क्रिया निमित्तं करणभावस्य । अपि तर्हि गम्यमानाऽपि ) इति । 'अथ भूषणपर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्' इत्यमरः । इतोऽस्मिन्मयि । सार्वविभक्तिकस्तसिः । प्रयुक्तमप्यस्त्रं वृथा स्यात् । तथाहिपादपोन्मूलने शक्तिर्यस्य तत्तथोक्तं, मारुतस्य रंहो वेगः, शिलोच्चये पर्वते न मूर्च्छति न प्रसरति । अ० – सहीपाल !, तव, श्रमेण, अलम्, इतः, प्रयुक्तम् अपि, अस्त्रं, वृथा, स्यात्, पादपोन्मूलनशक्ति, मारुतस्य, रंहः, शिलोच्चये न, मूच्छति । वा०—प्रयुक्तेनाप्यस्त्रेण वृथा भूयेत, पादपोन्मूलन शक्तिना रंहसा न मूर्च्छयते । सुवा - महीपाल ! = पृथ्वीपते, तव = भवतः, श्रमेण= प्रयासेन, अलं= वारणार्थकोऽयम् तवाखमोचनं भ्रमेण साध्यं नास्तीत्यर्थः । 'कुतः' इतः = अस्मिन् मयि । प्रयुक्तम् = प्रहृतम्, अपि = सम्भावनायाम्, अस्त्रम् = आयुधं, वृथा = निरर्थकं स्यात् = भवेत्, तथाहीति शेषः । पादपोन्मूलनशक्ति = वृक्षोत्पाटनसमर्थम्, मारुतस्य = पवनस्य, रंहः = वेगः, शिलोच्चये = शैले, न=नहि, मूच्छेति = वर्धते । समा०- - महीं पालयतीति महीपालस्तत्सम्बुद्धौ हे महीपाल ! पादपानामुन्मूलनं पादपोन्मूलनं तत्र शक्तिर्यस्य तत् पादपोन्मूलनशक्ति | शिलाभिरुच्चीयत इति शिलोच्चय स्तस्मिंस्तथोक्ते । कोशः – 'रंहस्तरसी तु रयः स्यदः' इति चामरः । ता० 2- हे पृथ्वीपते ! मयि रुद्रानुचरे वाणमोचनं प्रयासेन ते साध्यं नास्ति किल्ल प्रयुक्तोऽपि शरस्तथैव वृथा भविष्यति यथा पर्वते वायुवेगो विफलो भवति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ सर्गः] सखीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । इन्दुः हे पृथ्वी के पालन करनेवाले महाराज दिलीप ! आपका श्रम करना वृथा है, अतः रहने दीजिये क्योंकि-मेरे ऊपर चलाया हुआ अस्त्र भी वैसा ही व्यर्थ होगा जैसा कि पेड़ों को उखाड़ने की शक्ति रखने वाले वायु को वेग पर्वतके विषय में व्यर्थ होता है ॥३४॥ कैलासगौरं वृषमारुरुक्षोः पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् | अवेहि मां किरमष्टमूर्तेः कुम्भोदरं नाम निकुम्भमित्रम् ॥ ३५ ॥ सञ्जी०-कैलासेति । कैलास इव गौरः शुभ्रस्तम् । 'चामीकरं च शुभ्रं च गौरमाहर्मनीषिणः' इति शाश्वतः । वृष वृषभमारुरुक्षोरारोदुमिच्छोः । स्वस्योपरि पदं. निक्षिप्य वृषमारोहतीत्यर्थः । भष्टौ मूर्तयो यस्य सः, तस्याष्टमूर्तेः शिवस्य पादार्पणं पादन्यासस्तदेवानुग्रहः प्रसादस्तेन पूतं पृष्ठं यस्य तं तथोक्तम् । निकुम्भमित्रं कुम्भो. दरं नाम किक्कर मामवेहि विद्धि । 'पृथिवी सलिलं तेजो वायुराकाशमेव च । सूर्याचन्द्रमसौ सोमयाजी चेत्यष्टमूर्तयः' इति यादवः।। . अ०-कैलासगौरं वृषम्, आरुरुक्षोः, अष्टमूर्तेः, पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठं, निकुम्भमित्रं कुम्भोदरं नाम, किङ्करम्, माम्, अवेहि। वा०-पादार्पणनुग्रहपूतपृष्ठो निकुम्भमित्रं कुम्भोदरः किङ्करोऽहमवेये 'त्वया'। सुधा०-कैलासगौरं = रजतादिश्वेतं, वृषभम् = ऋषभम्, आरुरुक्षोः = आरोहणं कर्तुमिच्छोः, अष्टमूर्तेः = उमापतेः, पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् = अघिदानाभ्युपपत्ति पवित्रपृष्ठदेशम्, निकुम्भमित्रं = निकुम्भाख्यशिवानुचरसुहृदं, कुम्भोदरं,=कुम्भोदरेत्याख्यं, नाम = प्रसिद्धौ, 'कुम्भोदर' इति नाम्ना प्रसिद्धमिति भावः । किङ्करम् परिचारकं, मां= सिंहम्, अवेहि =विद्धि । समा०–कैलास इव गौर इति कैलासगौरस्तं कैलासगौरम् । आरोढुमिच्छतीत्यारुरुचुस्तस्यारुरुक्षोः। पादयोरर्पणं पादार्पणं तदेवानुग्रहः पादार्पणानुग्रहस्तेन पूतं पादार्पणानुग्रहपूतं तत् पृष्ठं यस्य स पादाणानुग्रहस्तं पूर्वोक्तम् । निकुम्भस्य मित्रं निकुम्भमित्रं तत्तथोक्तम् । अष्टौ मूर्तयो यस्यासावष्टमूर्तिस्तस्याष्टमूर्तेः। ___ कोशः–'नियोज्यकिङ्करप्रेष्यभुजिष्यपरिचारकाः' इति । 'नाम प्राकाश्यसम्माव्यक्रोधोपगमकुत्सने' इति चामरः । । ___ ता०-श्वेतवृषभोपरि सर्वदाऽऽरोहणं कर्तुमिच्छोः शिवस्य पादस्थापनेन पवित्रपृष्ठभागं निकुम्भमित्रं कुम्भोदरं नाम रुद्रानुचरं मां विद्धि । ___ इन्दुः-हे राजन् ! कैलासपर्वत के तुल्य श्वेत बैल पर चढ़ने की इच्छा करने वाली आठ (पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश-सूर्य-चन्द्र-सोमयाजी) हैं मूर्तियां जिनकी ऐसे शिवजी के चरण रखने रूप अनुग्रह से पवित्र पीठवाला, निकुम्भ (शिवजी का प्रसिद्ध गण) का मित्र, 'कुम्भोदर' नाम से प्रसिद्ध 'शिवजी का' नौकर मुझे तुम जानो ॥३५॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय अमु पुरः पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन । यो हेमुकुम्भस्तननिःमृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः ।। ३६ । स०-अमुमिति। 'पुरोऽग्रतोऽमं देवदारु पश्यसि' इति काकुः । असौ देव दारुः । वृषभो ध्वजो यस्य स तेन शिवेन पुत्रीकृतः पुत्रत्वेन स्वीकृतः । अभूततद्भावे विः । यो देवदारुः स्कन्दस्य मातुर्गोर्या हेम्नः कुम्भ एव स्तनस्तस्मान्निःसृतानां पयसामम्बूनां रसज्ञः, स्कन्दपक्षे-हेमकुम्भ इव स्तन इति विग्रहः । पयसां क्षीरा णाम् । 'पयः क्षीरं पयोऽम्बु च' इत्यमरः । स्कन्दसमानप्रेमास्पदमिति भावः। __ अ०-पुरः, अमं देवदारु, पश्यसि, असो, वृषभध्वजेन, पुत्रीकृतः, यः, स्कन्दस्य मातुः, हेमकुम्भस्तननिःसृतानां पयसां, रसज्ञः 'अस्ति' । वा०-असौ देवदारु स्त्वया दृश्यते, अमु वृषभध्वजः पुत्रीकृतवान् , येन रसज्ञेन भूयते।। सुधा-पुर:= अग्रे, अमुम् = एतं, देवदारु= पारिभद्रं, पश्यसि = आलोकसें, असौ एषः, देवदारुः । वृषभध्वजेन = रुद्रेण, पुत्रीकृतः पुत्रतयाऽङ्गीकृतः । यः= देवदारुतहा, स्कन्दस्य = षडाननस्य, मातुः = जनन्याः, हेमकुम्भस्तननिःसृतानां: स्वर्णघटकुचनिर्गतानां, देवदारुपक्षे-पयसाम् अम्बूनां, स्कन्दपक्षे-पयसां= क्षीराणां, रसज्ञा=स्वादविद् , अस्तीति शेषः। स०-अपुत्रः पुत्रः कृत इति पुत्रीकृतः, वृषभो ध्वजश्चिह्नमस्येति वृषभध्वजस्तन वृषभध्वजेन । हेम्नः कुम्भो हेमकुम्भः, देवदारुपक्ष-हेमकुम्भ एव स्तनः, स्कन्दप-हेमकुम्भौ इव स्तनौ हेमकुम्भस्तनौ, तस्मानिःसृतानि हेमकुम्भस्तननिःसंतीनि तेषां तथोक्तानाम् । रस जानातीति रसज्ञः। * कोशः-'स्वर्ण सुवर्ण कनकं हिरण्यं हेम हाटकम्' इत्यमरः । 'रसो गन्धरसे स्वादे तितादौ विषरागयोः।' इति विश्वः । ता. हे राजन् ! असौ देवदारुः पार्वत्या स्वपयसा सेचितोऽस्मादेष पार्वतीशिवयोः स्कन्दतुल्यप्रेमभाजनमस्ति । ___ इन्दुः-हे राजन् ! तुम जो आगे स्थित इस देवदारु के वृक्षको देख रहे हो इसे शङ्करजी ने पुत्रभाव से माना है और जो कार्तिकेय की मां पार्वती जी के सोने के घटरूपी स्तनों से निकले हुए दूधरूपी जल के स्वाद का जाननेवाला है, स्कन्दपक्ष में सोने के घड़े के समान स्तनों से निकले हुए दूध के स्वाद का जाननेवाला है॥३६॥ कण्डूयमानेन कटं कदाचिद्वन्यद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य । अथैनमद्रेस्तनया शुशोच सेनान्यमालीढमिवासुराचैः ॥ ३७॥ सजी०-कण्डूयेति । कदाचित्कटं कपोलं कण्डूयमानेन घर्षयता। 'कण्ड्वा . दिभ्यो यक्' इति यक, ततः शानच । वन्यद्विपेनास्य देवदारोस्त्वगुन्मथिता । अथादेस्तनया गौरी, असुरास्वैरालीढं क्षतम् । सेनां नयतीति सेनानीः स्कन्दः । 'पार्वती Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीवनी-सुधेदुटी कात्रयोपेतम् | ३३ तीनन्दनः स्कन्दः सेनानीः' इत्यमरः । 'सत्सूद्विष०' इत्यादिना क्विप् । तमिव, एनं देवदारुं शुशोच | ० - कदाचित्, कटं, कण्डूयमानेन, वन्यद्विपेन, अस्य त्वग्, उन्मथिता, अथ, अद्रेः, तनया, असुरास्त्रैः, आलीढं, सेनान्यम्, इव, एनं शुशोच । ) वा०-- कण्डूयमानो बन्याद्विपोऽस्य स्वचमुन्मथितवानथाद्वेस्तनययाऽसुरास्त्ररा लीढः सेनानीपि शुशुचे । सुधा— कदाचित् =जातु, कटं = गण्डं, कण्डूयमानेन = घर्षणं कुर्वता, वन्यद्विपेन = वनोद्भवगजेन, अस्य = एतस्य, देवदारुतरोः त्वग्= वल्कलम्, उन्मथिता = उत्पा डिता, अय = पाश्चाद्, अद्रेः = हिमाचलस्य, तनया = सुता, पार्वती, असुरास्त्रे, C दैत्यायुधैः, आलीढम् = क्षतम्, सेनान्यं = स्कन्दम् इव = यथा, एनं देवदारुतरुम्, शुशोच = विषसाद | समा० - वन्यश्चासौ द्विपो वन्यद्विपस्तेन वन्यद्विपेन । असुराणामखाण्यसुरास्त्राणि तैरसुरास्त्रैः । अ० कोशः - ' गण्डः कटः' इत्यमरः । ता० - कस्मिंश्चित्समये केनापि वन्यगजेनास्य देवदारुतरो रक्षकाभावाद्वल्कलमुत्पाटितं तदुपश्रुत्य दैत्यानामस्त्रैः क्षते स्कन्दे स्वतनये यथा विषादमाप पार्वती तथैवातिशयमेनं शुशोच । इन्दुः- किसी सयय गण्डस्थल को रगड़ते हुए किसी जङ्गली हाथी ने इस देवदारुवृक्ष की छाल उधेड़ डाली, इसके बाद पार्वतीजी ने दैत्यों के अस्त्रों से चोट खाये हुए अपने पुत्र स्कन्द के समान इसके सम्बन्ध में भी शोक किया ॥ ३७ ॥ तदाप्रभृत्येव वनद्विपानां त्रासार्थमस्मिन्नहमद्रिकुक्षौ । व्यापारितः शूलभृता विधाय सिहत्वमागतसत्त्ववृत्ति ।। १८ ।। सञ्जी० -तदेति । तदा तत्कालः प्रभृतिरादिर्यस्मिन्कर्मणि तत्तथा तदाप्रमृत्येव वनद्विपानां नासार्थं भयार्थं शूलभृता शिवेन, अङ्कं समीपमागताः प्राप्ताः सत्त्वाः प्राणिनो वृत्तिर्यस्मिंस्तत् 'अङ्कः समाप उत्सङ्गे चिह्न स्थानापराधयोः' इति केशवः । सिहत्वं विधाय । अस्मिन्नद्विकुक्षौ गुहायामहं व्यापारितो नियुक्तः । अ० - तदाप्रभृति, एव, वनद्विपानां, नासाऽधं, शूलभृता, अङ्कागतसत्त्ववृत्ति, सिहत्वं, विधाय, अस्मिन् अद्विकुक्षौ, अहं, व्यापारितः । वा० - शूलभृद् मां व्यापारितवान् । = सुधा - तदाप्रभृति: [= तदानींतनकालादारभ्य एव = अवधारणे, वनद्विपानां काननगजानां, त्रासार्थं भयप्रयोजनकं, शूलभृता = शिवेन । अङ्कागतसत्ववृत्ति = समीपप्राप्तजन्तुजीवनं सिंहत्वं केसरित्वं विधाय = कृत्वा, अस्मिन् = एतस्मिन्, अद्विकुक्षौ = अचलोदरे, गुहायाम् । अहं = सिंहः, व्यापारितः = स्थापितः । = ३ रघु० महा० = Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय समा०-वनस्य द्विपा वनद्विपास्तेषां वनद्विपानाम् । अद्रेः कुक्षिरित्यद्रिकुक्षि स्तस्मिन्नद्रिकुक्षौ, अङ्कमागताः, अङ्कागताः, अङ्कागताश्च ते सत्वा अङ्कागतसरवाः, अागतसत्वा वृत्तिर्यस्मिस्तदकागतसत्ववृत्ति तत्तथोक्तम् । कोशः-'वृत्तिर्वर्तनजीदने' इत्यमरः । ता०–तत्कालादारभ्यैव शिवेन वन्यगजानां भयदर्शनार्थमस्यां गिरिगुहायां नियोजितोऽहं तदादेशात्समीपागतानेव जन्तून् भक्षयन् कालं यापयामि। इन्दुः-उसी समय से जङ्गली हाथियों को डराने के लिये, शूल के धारण करने वाले श्रीशिवजी ने समीप में आये हुए प्राणियों पर निर्वाह करानेवाली सिंहवृति देकर मुझे इस पहाड़ की गुफा में नियुक्त किया है ॥ ३८॥ तख्यालमेषा क्षुषितस्य तृप्त्यै प्रदिष्टकाला परमेश्वरेण | उपस्थिता शोणितपारणा से सुरद्विषश्चान्द्रमसी सुधेव ।। २६ ।। सजी०-तस्येति । परमेश्वरेण प्रदिष्टो निर्दिष्टकालो भोजनवेला यस्याः सोप स्थिता प्राप्तैषा गोल्पा शोणितपारणा रुधिरस्य व्रतान्तभोजनं, सुरद्विषो राहो:, चन्द्रमस इयं चान्द्रमसी सुधेव, क्षुधितस्य बुभुक्षितस्य तस्याङ्कागतसत्ववृत्ते मम सिंहस्य तृप्त्यै अलं पर्याप्ता । 'नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च' इत्य नेन चतुर्थी। अ०-परमेश्वरेण, प्रदिष्टकाला, उपस्थिता, एषा, शोणितपारणा, सुरद्विषः, चान्द्रमसी, सुधा, इव, क्षुधितस्य, मे तृप्त्यै, अलम् अस्ति। वा०-प्रदिष्टकालयोपस्थितयतया शोणितपारणया सुरद्विषश्चान्द्रमस्या सुध घेव क्षुधितस्य मे तृप्त्यै अलं 'भूयते। ___ सुधा०-परमेश्वरेण महादेवेन, प्रदिष्टकला=निर्दिष्टसमया, उपस्थिताप्राप्ता, एषा असो, धेनुरूपा, शोणितपारणा रक्तवतान्ताशनं, सुरद्विषा दैत्यस्य, राहोः। चान्द्रमसी-ऐन्दवी, सुधा अमृतम्, इव यथा, धितस्यम्बुभुक्षायुक्तस्य तस्य समीपागतप्राणिमात्रजीविकावतः, मेन्मम, सिंहस्य । तृप्त्यै सौहित्याय, अलम्=पर्याप्ता। समा०-प्रदिष्टः कालो यस्याः सा प्रदिष्टकाला। शोणितस्य पारणा शोणितपारणा । सुरान् द्वेष्टीति सुरद्विट् तस्य सुरद्विषः। ___को०-'ईश्वरः स्वामिनी शिवे मन्मथेऽपीश्वराऽद्रिजा' इति । 'रुधिरेऽसग्लोहि वास्नरक्तक्षतजशोणितम्' इति चानेकार्थसंग्रहामरौ। ___ ता०-चिरकाला बुभुक्षितस्याङ्कागतप्राणिवृत्त्या जीवनं यापयतो मे सम्यग बुभुक्षानिवृत्तये स्वयमत्र प्राप्ता एषा गोरूपा शोणितपारणा राहोश्चन्द्रसम्बन्धि पीयू षमिव पर्याप्ता भविष्यति। इन्दुः-शिवजी के बताये हुये भोजन के समय पर उपस्थित यह गोरूप रुधिर सम्बन्धी व्रत के समाप्तिसमय का भोजन दैत्य राहु के लिए चन्द्रसम्बन्धी अमृत की Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जोविनो-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । भांति, उसको अर्थात् समीप में आये हुए प्राणियों को खाकर जीवननिर्वाह करनेवाले भूखे हुए मुझ सिंह की तृप्ति के लिए पर्याप्त (पूरा ) होगा ॥ ३९ ॥ स त्वं निवत्स्व विहाय लज्जां गुरोभवान्दर्शितशिष्यभातः।। शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्षं न तद्यशः शहामृतां क्षिणाति ।। ४०॥ सजी०-स त्वमिति । स एवमुपायशून्यस्त्वं लजां विहाय निवर्तस्व । भवांस्त्वं गुरोर्दर्शिता प्रकाशिता शिष्यस्य कर्तव्या भक्तियन स तथोक्तोऽस्ति । ननु गुरुधनं विनाश्य कथं तत्समीपं गच्छेयमत आहशस्त्रेणेति । यद्रयं धनं शस्त्रेणायुधेन । 'शस्त्रमायुधलोहयो' इत्यमरः । भशक्या रक्षा यस्थ तदशश्यरक्षम् । रक्षितुमशक्यमित्यर्थः। तद्यं नष्टमपि शस्त्रभृतां यशो न तिगोति न हिनस्ति । अशल्यार्थद. प्रतिविधानं न दोषायेति भावः ___ अ०-सः, त्वं, लजा, विहाय, निवर्तस्व, भवान् गुरोः, दर्शितशिष्यभकिः अस्ति, यद्, रचय, शस्नेग, अशक्यरक्ष, तद्, शस्त्रभृतां, यशः, न क्षिणोति । __ वा०-तेन त्वया निवृत्त्यतां, भवता गुरोर्दर्शितशिष्यभक्तिना 'भूयते' येन रचयेण शस्त्रेणाशक्यरक्षेण 'भूयते' तेन शस्त्रभृतां यशो न क्षीयते।। सुधा-सः= बाहुस्तम्भतया किङ्कर्त्तव्यविमूढः, त्वं भवान्, लजांपां , विहाय = त्यक्त्वा, निवर्तस्व-निवृतो भव, भवान् = त्वं, गुरोः वसिष्ठस्य । दर्शितशिष्यभक्तिःप्रकाशीकृतच्छात्रश्रद्धः, अस्तीति शेषः। यत् = किञ्चित्, अनिर्दिष्ट वस्त्विति भावः। रचयं पाल्यं, धनादिकमिति भावः। शस्त्रेण = बाणादिना, अशक्यरक्षम् = अपारणीयरक्षणं, तत् = रक्ष्यं, धनादिकम् । शस्त्रभृताम् = आयुधधारिणां, यशः कीति, न = नहि, क्षिणोति-हिनस्ति । स०-शिष्यस्य भक्तिः शिष्यभक्तिः, दर्शिता शिष्यभक्तियन स तथोक्तः । न शक्येत्यशक्या रक्षा यस्य तदशक्यरक्षम् । को०-भक्ति सेवागौणवृत्योभङ्गयां श्रद्धाविभागयोः' इत्यनेकार्थसंग्रहः। ता०-हे राजन् बाहुस्तम्भतया मद्वधे निरुपायस्त्वं लजां विहाय स्वाश्रम याहि, अपि च यद्क्षणीयं वस्तु शस्त्रेण रक्षणाहं न भवति, तदरचयं वस्तु नष्टं सदपि शस्त्रधारिणां यशोन माशयति, अतस्तव निजाश्रमगमनेनन कोऽपि दोष इति,मावः। ___ इन्दुः-उपाय से शून्य पूर्वोक्त तुम लजा को छोड़कर लौट जाशा । तुमने गुरु के सम्बन्ध में शिष्यों के योग्य भक्ति दिखला दी। जो रक्षा करने योग्य वस्तु शास्त्र से रक्षा करने के योग्य नहीं होती वह नष्ट होती हुई भी शस्त्रधारी की कीर्ति को नष्ट नहीं करती ॥४०॥ इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो मृगाधिराजस्य बचो निशम्य | प्रत्याहताना गिरिशप्रभावादात्मन्यवज्ञां शिथिलीचकार ।। ४१ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय समी०-इतीति । पुरुषाणामधिराजो नृप इति प्रगल्भं मृगाधिराजस्य वचो निशम्य श्रुत्वा गिरिशस्येश्वरस्य प्रभावात्प्रत्याहतास्त्रः कुण्ठितास्त्रः सन्नात्मनि विषये, ऽवज्ञामपमान शिथिलीचकार । तत्याजेत्यर्थः। अवज्ञातोऽहमिति निर्वेदं न प्रापे त्यर्थः । समानेषु हि क्षत्रियाणामभिमानो न सर्वेश्वरं प्रतीति भावः। अ०-पुरुषाधिराजः, इति, प्रगल्भ, मृगाधिराजस्य, वचः, निशम्य, गिरिश. प्रभावात् , प्रत्याहतास्त्रः, 'सन्' आत्मनि, अवज्ञा शिथिलीचकार । वा०-पुरुषाधिराजेन प्रत्याहतास्त्रेण 'सता' आत्मन्यवज्ञा शिथिलीचके। सुधा-पुरुषाधिराजः = पुरुपाधिपः, दिलीपः। इति = स्वरूपेऽथऽव्ययम्, उक्त प्रकारकमिति भावः । प्रगल्भं धृष्टं, मृगाधिराजस्थ=सिंहस्य, वचः = वचनं निशम्य = आलये, गिरिशप्रभावात् शङ्करतेजसः, प्रत्याहतास्त्रः = रुद्धशस्त्रः सन्निति शेपः। आत्मनि = स्वस्मिन्, अवज्ञाम् = अवहेलनं शिथिलीचकार-जहाँ ___स०-अधिको राजाधिराजः, पुरुषाणामधिराजः पुरुषाधिराजः। मृगाणामा धिराजो मृगाधिराजस्तस्य मृगाधिराजस्य । प्रत्याहतमस्त्रं यस्यासौ प्रत्याहतास्त्रः। गिरिशस्य प्रभावो गिरिशप्रभावस्तस्माद् गिरिशप्रभावात् । को०-'रीढाऽवमाननावज्ञाऽवहेलनमसूक्षणम्' इत्यमरः। ता०-सिंहस्य वचः श्रुत्वा दिलीपो भगवतः शङ्करस्य प्रभावात् स्ववाहोः स्तम्भ ज्ञात्वा, तज्जन्यमपानं तत्याज। ___ इन्दुः०-नराधिप दिलीप ने इस प्रकार से ढीठ सिंह के वचन को सुनकर शङ्कर के प्रभाव से अपने अस्त्र की गति रुकी हुई जानकर अपने विषय में अपमान के भाव को शिथिल कर दिया अपना अपमान नहीं समझा ॥ ४ ॥ प्रत्यवत्रीच्चैनमिघुग्रयोगे तत्पूर्वभङ्गे वितथप्रयत्नः। जडीकृतल्यम्स कवीक्षणन वज्रं मुमुक्षन्निव वजपाणिः ।। ४२ ॥ सञ्जी०-प्रतीति । स एव पूर्वः प्रथमो भङ्गः प्रतिवन्धो यस्य तस्मिस्तपूर्वभङ्गे इषुप्रयोगे वितथप्रयत्नो विफलप्रयासः । अतएव वनं कुलिशं सुमुक्षन्मोतुमिच्छन् । अम्बकं लोचनम् । 'दृष्टिनेत्रलोचनचक्षुर्नयनाम्बकेहीणि' इति हलायुधः । त्रीण्यकम्बकानि यस्य स त्र्यम्बको हरः, तस्य वीक्षणेन जडीकृतः निष्पन्दीकृतः । वनं पाणौ यस्य स वज्रपाणिरिन्द्रः। 'प्रहणार्थेभ्यः परे निष्ठासप्तम्यौ भवत इति वक्तव्यम्' इति पाणेः सप्तम्यन्तस्योत्तरनिपातः । स इव स्थितो नृप एनं सिंह प्रत्यबवीच (बाहुं सवनं शक्रस्य ऋद्धास्यास्तम्भयत्प्रभुः) इति सहाभारते । म०-तरपूर्वभङ्गे, इषुप्रयोगे, वितथप्रयत्नः, 'अत एव' वज्र, मुमुक्षन्, त्र्यम्बकदीक्षणेन, जडीकृता, वज्रपाणिः, इव, 'स्थितो नृप एनं, प्रत्यब्रवीत् , च । वा०-वितथप्रयत्नेन वनं मुमुक्षता जडीकृतेन वज्रपाणिनेव एष प्रत्यौच्यत । सुधा-तत्पूर्वभङ्ग तत्प्रथमबाहुस्तम्भरूपपराजये, इषुप्रयोगे बाणप्रयुक्तो, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । वितथप्रत्नः = निष्फलप्रयासः 'अत एव' वज्र = कुलिशं, मुमुक्षन् = उस्सिसक्षन् , न्यम्बकवीक्षणेन = त्रिनयनविलोकनेन, जडीकृतः, निश्चेष्टीकृतः, वज्रपाणिः = इन्द्रः, इव = यथा, स्थितो नृप इति शेपः । एनं =सिंहम्, प्रत्यब्रवीत्=प्रत्यवोचत् । ___ समा०-इषोः प्रयोग इषुप्रयोगस्तस्मिनिषुप्रोगे। विगतं तथा सत्वं यस्मास वितथः प्रयत्नो यस्य स वितथप्रयत्नः । न जडोऽजडः, अजडो जडः सम्पद्यमान इति जडीकृतः । व्यम्बकस्य वीक्षणं त्र्यम्बकवीक्षणं तेन तथोक्तेन। को-'हादिनी वज्रसस्त्री स्यात् कुलिशं भिदुरं पविः' इत्यमरः । ___ता-वाणमोक्षणे निष्फलप्रयत्नो महेश्वरवीक्षणेन निश्चेष्टीकृतो वज्रं प्रहर्त्तमिच्छन् सुरराडिव स्थितो दिलीप एनं सिंह प्रत्युवाच।। इन्दुः-पहले पहल यही है रुकावट जिसकी ऐसे बाण के चलाने में निष्फल प्रयत्न वाले अत एव शंकर भगवान् के देखने से हो निश्चेष्ट किये हुए नज्र का प्रहार करने की इच्छा करने वाले वज्र है हाथ में जिसने ऐसे इन्द्र के समान स्थित राजा दिलीप इस सिंह के प्रत्युत्तर में बोले ॥ ४२ ॥ संरुद्धचेष्टस्य मृगेन्द्र ! कामं हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षुः । अन्तर्गतं प्राणभृतां हि वेद सर्व अवान्भावमतोऽभिधास्ये ॥ ४६॥ सी०-संरुद्धचेष्टस्येति । मृगेन्द्र ! संरुद्धचेष्टस्य प्रतिबद्धव्यापारस्य मम तहचो वाक्यं कामं हास्यं परिहसनीयं, यद्वचः 'स त्वं मदीयेन' (२१४५) इत्यादिकमहं विवतुर्वक्तुमिच्छुरस्मि । तर्हि तूणी स्थीयतामित्याशयेश्वरकिङ्करस्वात्सर्वशं त्वां प्रति न हास्यमित्याह% अन्तरिति । हि यतो भवान्प्राणभृतामन्तर्गतं हृदतं वा. ग्वृत्या बहिरप्रकाशितमेव सर्व भावं वेद वेत्ति । 'विदो लटो वा' इति णलादेशः। अतोऽमभिधास्ये वच्यामि । वच इति प्रकृतं कर्म सम्बद्धयते। अन्ये त्वीहरवचनमाकासम्भाषितार्थमेतदित्युपहसन्ति, अतस्तु मौनमेव भूषणम् त्वं तु वाङ्मन सयोरेकविध एवायमिति जानासि । अतोऽभिधास्ये यदचोऽहं विवचरित्यर्थः। ___ अ०-'हे मृगेन्द्र ! 'संरुद्धचेष्टस्य, मम' तत्, वचः, कामं हास्यम्, 'अस्ति' यद् 'वचः' अहं, विवतुः, 'अस्मि' हि, भवान्, प्राणभृताम, अन्तर्गतं, सर्व, भावं, वेद, अतः, अभिधास्ये । वा०-तेन वचसा हास्येन 'भूयते' मया विवक्षुणा 'भूयते' अन्तर्गतः सर्वोभावो भवता विद्यतेऽतोऽभिधास्यते। ___ सुधा-मृगेन्द्र-हे सिंह ! संरुद्धचेष्टस्य = करसन्चलनादिचेष्टाशून्यस्य, मम । तद् = अग्रे उच्यमानं, वचः= वचनं, कामप्रकामम्, हास्य-परिहासार्हम् । अस्तीति शेषः । यद्वचः, अहं-दिलीपः, विवशुःवक्तुमिच्छुः, अस्मीति शेषः। हियतः, भवान् = त्वं, प्राणभृताम् =जीवानाम्, अन्तर्गतं हृद्गतम्, सर्व सम्पूर्ण, भा चम् = अभिप्रायं, वेद-जानाति, अता-अस्मात् कारणाद् अभिधास्य कथयिष्यामि । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय समा०–संसद्धा चेष्टा यस्य स संरुद्धचेष्टस्तस्य । हसितुं योग्यं हास्यम् । वक्तु मच्छुर्विवतुः । प्राणान् विभ्रतीति प्राणभृतस्तेषां प्राणभृताम् ।। को-'हामं प्रकास पर्याप्तम्' इत्यमरः। ता०-हे सिंह ! निरुधुकरचलनादिव्यापारस्य सम वचो यद्यपि परिपूर्णतयोप हासयोग्यमस्ति तथापि अवतो जन्तूनां हृदतसकलभावाभिज्ञतया सम्प्रति वक्ष्ये। इन्दुः-हे सिंह ! यधपि रुकी हुई है चेष्टा जिसकी, ऐसे मुझ दिलीप का वह चचन अत्यन्त परिहास करने के योग्य है, जिसे मैं कहने की इच्छा करनेवाला हो रहा हुँ तथापि आप सभी जीवों के हृदय के भाव जानते हैं, इससे कहूँगा ॥ ४३॥ मान्यः स मे स्थावरजङ्गमानां सस्थितिप्रत्यवहारहेतुः। गुरोरपीदं धनमाहिताग्नेनश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम् ॥ ५४॥ सजी०-मान्य इति । प्रत्यवहारः प्रलयः। स्थावराणां तरुशेलादीनां जङ्गमाना मनुष्यादीनां सर्गस्थितिप्रत्यवहारेषु हेतुः स ईश्वरो मे मम मान्यः पूज्यः । अलवयः शासन इत्यर्थः। शासनं च 'सिंहत्वमङ्कागतसत्त्ववृत्ति' (२०२८) इत्युक्तरूपम् । तर्हि विसृज्य गस्यताम् । नेत्याह-गुरोरपीति । पुरस्तादग्रे नश्यदिदमाहिताग्ने - रोर्धनमपि गोरूपमनुपेक्षणीयम् । आहिताग्नेरिति विशेषणेनानुपेक्षाकारणं हविः सा. धकत्वं सूचयति। ____ अ०-स्थावरजङ्गमानां, सर्वस्थितिप्रत्यवहारहेतुः, सः, मे, मान्यः, पुरस्तात् । नश्यत, इदम्, आहिताग्नेः, धनम्, अपि, अनुपेक्षणीयम् । वा०-सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतुना तेन मे मान्येन 'भूयते' पुरस्ताद् नश्यताऽनेन धनेनाप्युपेक्षणीयेन 'भूयते' सुधा-स्थावरजङ्गमाना जङ्गमेतरचराणाम्, पादपपर्वतादिनरप्रभृतीनामिति भावः, सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतु: उत्पत्तिपालननाशकारणम्, सः ईश्वरः, मे मम, दिलीपस्य । सान्या पूज्यः, अस्तीति शेषः। पुरस्तात्-भग्रे, नश्यत्-नाशं गच्छत् इदम् = एतत् , अग्रे दृश्यमानमिति भावः। आहिताग्नेः कृताग्निहोत्रस्य, गुरोः= वसिष्ठस्य, धनम् = गोधनम्, अषि समुच्चये' अनुपेक्षणीयम् = उपेक्षाऽनहम् । समा०-स्थावराश्च जङ्गमाश्चेति स्थावरजङ्गमास्तेषां स्थावरलङ्गमानाम् । प्रत्यपहियन्तेऽन्न प्रत्यवहारः, सर्गश्च स्थितिश्च प्रत्यवहारश्चेति सर्गस्थितिप्रत्यवहाराः, तेषु हेतु सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतुः । आहितोऽग्निर्येन स आहिताग्निस्तस्थाहितानेः। उपेक्षितुं योग्यमुपेक्षणीयं न उपेक्षणीयमनुपेक्षणीयम् । . को०- 'सर्गः स्वभावनिर्मोक्षनिश्चयाध्यायसृष्टिषु' इति । धनं वित्ते च गोधने इति चामरसेदिन्यो। ता०-सकलजगदुद्भवस्थित्यन्तकारणं स भगवान् शिवो मे पूज्योऽत एव तदी. यानुशासनस्य सर्वथाऽनुल्लङ्घनीयत्वमस्ति, तथा च गुरोरपि नश्यदिदं गोरूपं धनं नोपेक्षणाहमस्ति। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीवनी - सुवेन्दुटी कात्रयोपेतम् | ३६ इन्दुः-स्थावर ( वृक्ष-पर्वत - आदि) और जङ्गमों (मनुष्यादिकों) की उत्पत्ति, पालन और संहार करने में कारण वे श्रीशिवजी मेरे पूज्य हैं (अर्थात् उनकी आज्ञा माननीय है ) और आगे नष्ट होता हुआ यह अग्निहोत्र करने वाले गुरु वसिष्ठ महाराज का गोरूप धन भी उपेक्षा करनेके योग्य नहीं है ( अर्थात् इसकी रक्षा करनी चाहिये ॥ ४४ ॥ स त्वं मदीयेन शरीरवृत्ति देहेन निवर्त्तयितुं प्रसीद । दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षेः ॥ ४५ ॥ तजी० - स इति । सोऽङ्का गतसत्त्ववृत्तिस्त्वं मदीयेन देहेन शरीरस्य वृत्तिं जीवनं निर्वर्त्तयितुं सम्पादयितुं प्रसीद । दिनावसाने उत्सुको 'माता समागमिष्यती' युस्कण्ठितो बालवत्सो यस्याः सा महर्षेरियं धेनुर्बिसृज्यताम् । अ० – सः, त्वं, मदीयेन, देहेन, शरीरवृत्ति, निर्वर्तयितुं, प्रसीद, दिनावसानोत्सु कबालबत्सा, महर्षेः, इयं धेनुः, विसृज्यताम् । वा० - तेन त्वया मदीयेन देहेन शरीरवृत्तिं निर्वर्त्तयितुं प्रसद्यतां, दिनावसानोत्सुकबालवत्सां महर्षेरिमां धेनुं विसृज । सुधा०—सः = अङ्कागतप्राणिवृत्तिः, त्वं = भवान्, मदीयेन = मामकेन, देहेन = शरीरेण, शरीरवृत्तिं = देहजीवनं निर्वर्त्तयितुं = निष्पादयितुं, प्रसीद = अनुगृहाण, दिना वसानोत्सुकबालवत्सा = दिवससमाप्त्युत्कण्ठित शिशुतरणका, महर्षेः = वसि - ष्ठस्य, इयम् = एषा, धेनुः = गौर्नन्दिनी, विसृज्य ताम् । समा० - ममायं मदीयस्तेन मदीयेन । शरीरस्य वृत्तिः शरीरवृत्तिस्तां शरीरवृत्तिम् । दिनस्यावसानं दिनावसानं तत्रोत्सुको दिनावसानोत्सुकः, बालश्चासौ वत्सो बालवत्सः, दिनावसानोत्सुको वालवत्सो यस्याः सा दिनावसानोत्सुकबालवत्सा | को० - ' वृत्तिर्वर्त्तनजीवने' इति । 'सातिस्ववसाने स्यात्' इति चामरः । ता० - त्वं मदीयेन देहेन बुभुक्षाशान्ति कृत्वा मह्यं प्रसीद इमां धेनुं मुख, यतोsस्या उत्कण्ठितो बालवत्स आश्रमे बद्धो बुभुक्षित आस्ते । इन्दुः- समीप में आये हुए प्राणियों पर अपना जीवन निर्वाह करनेवाले (ऐसे) तुम मेरे शरीर से अपने शरीर का जीवन रखने के लिये अनुग्रह करो, ( गौके बदले मुझे खा लो ) और दिन के समाप्त होने पर 'हमारी माँ आती होगी' इससे उत्कं ण्ठित छोटे बछड़े वाली महर्षि वसिष्ठ की इस धेनु 'नन्दिनी' को छोड़ो ॥ ४५ ॥ श्रथान्धकारं गिरिगह्वराणां दंष्ट्रा म्यूखैः शकलानि कुर्वन् । भूयः स भूतेश्वरपार्श्ववर्ती विद्विहस्यार्थपति बभाषे ॥ ४६ ॥ सञ्जी० - अथेति । अथ भूतेश्वरस्य पार्श्ववर्त्यनुचरः स सिंहो गिरेर्गह्वराणां 0 गुहानाम् । 'देवखातबिले गुहा । गह्वरम्' इत्यमरः । अन्धकारं ध्वान्तं दंष्ट्रामयूखैः, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय शकलानि खण्डानि कर्वन् । निरस्यनित्यर्थः । किञ्चिद्विहस्यार्थपतिं नृपं भूयो बभाषे । हस्यकारणम् 'अल्पस्य हेतोर्वहु हातुमिच्छन्' इति वक्ष्यमाणं द्रष्टव्यम् । भ०-अथ, भूतेश्वरपार्थवी, सः, गिरिगह्वराणाम्, अन्धकार, दंष्ट्रामयूखै शकलानि, कुर्वन्, किञ्चिद्, विहस्य, अर्थपति, भूयः, वभाषे। वा०-अथ भूतेश्वरपार्श्ववत्तिना तेन कुर्वताऽर्थपतिर्भूयो बभाषे। सुधा०-अथ = अनन्तरं, भूतेश्वरपार्श्ववत्ती-गिरीशसमीपस्थायी, साम्कुम्भोदर नामा सिंहः, गिरिहराणां-पर्वतगुहानां, हिमालयपर्वतस्याकृत्रिने बिल इति भावः अन्धकारं तिमिरं, दंष्ट्रामयूखैः = निशितदन्तकिरणैः, शकलानि-खण्डानि, कुर्वन्: विदधत्, दूरीकुर्वन्निति यावत् । किञ्चित् = स्वल्पं, विहस्य =स्मितं कृत्वा, अर्थपतिः द्रविणस्वासिनं, राजानं दिलीपमिति यावत् । भूयः = पुना, बभापे = उवाच ।। ___ समा०-निरर्गह्वराणि गिरिगह्वराणि तेषां निरिगह्वराणाम् । दशन्त्येभिरिति दंष्टास्तासां मयूखा दंष्टामयूखास्तेष्टामयूखैः। भूतानामीश्वरो भूतेश्वरः, पार्श्वयो. वर्तितुं शीलमस्येति पार्श्ववर्ती भूतेश्वरस्य पार्श्ववर्ती भूतेश्वरपार्श्ववर्ती । __ कोशः–'अन्धकारोऽस्त्रियां ध्वान्तम्' इत्यमरः। 'भूयाँस्त्रिषु बहुतरे पुनरर्थे त्वदोऽव्ययम्' इति मेदिनी। ता०–गवार्थे स्वतनुं परित्यक्तुमुद्यतं नृपं दृष्ट्वा सिंहः पुनरपि किञ्चिद् विहस्य तं प्रत्युवाच। ___इन्दुः०--दिलीप के कह चुकने के बाद भगवान् शङ्कर के पास का रहने वाला वह सिंह हिमालय पर्वत की गुफाओं के अन्धकार को दाँतों की कान्ति से टुकड़े. टुकड़े करता हुआ कुछ हँसकर दिलीप से फिर बोला ॥ ४६॥ एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च । अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन्विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम् ।। ४७ ॥ ___ सजी०-एकातपत्रमिति । एकातपत्रमेकच्छत्रं जगतः प्रभुत्वं स्वामित्वम् । नवं वयो यौवनम् । इदं कान्तं रम्यं वपुश्च । इत्येव बहु अल्पस्य हेतोरल्पेन कारगेन, अल्पफलायेत्यर्थः । 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' इति षष्ठी । हातुं त्यक्तुमिच्छंस्त्वं विचारे कार्यकार्यविमर्शे मूढो मूों मे मम प्रतिभासि। अ०-एकातपत्रं, जगतः, प्रभुत्वं, नवं, वया, इदं, कान्तं वपुः, च एतत्सर्व बहु अल्पस्य हेतोः हातुम्, इच्छन्, त्वं, विचारमूढः, मे प्रतिभासि। ___ वा०-हातुमिच्छता त्वया विचारमूढेन मे प्रातिभायते। सुधा-एकातपत्रम् = अद्वितीयच्छन्नम्, जगतः = लोकस्य प्रभुत्वं = स्वमित्वं, नवं = नवीनं, वया= अवस्था, इदम् = एतद्, कान्तं मनोरम, वपुः= शरीरं च = समच्चयेऽर्थे, 'एतत्सर्व' वहु-बहुलम्, अल्पस्य = स्तोकस्य, हेतोः कारणात्, हातुम् Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ४१ उत्स्रष्टुम्, इच्छन् = कामयमानः, त्वं भवान्, विचारमूढ़ा = कार्याकार्यविचारे मूर्खः, मे= मम, प्रतिभासि= प्रतिभालसे। समा०-एकमातपनं यस्मिस्तदेकातपत्रम् । प्रभोर्भावः प्रभुत्वम् । इच्छतीतीस्छन् । विचारे मूढो विचारमूढः। को०-'एके मुख्यान्यकेवलाः इति' 'छन्न त्वातपत्रम्' इति चामरः । ता०-हे राजन् ! एकस्य धेनोहेंतोश्चक्रवर्त्तिवनवयौवनप्रभृतिसुखं त्यक्तुं यत्वः मिच्छसि तन्मे नितान्तमूढ एव प्रतिभालसे। ____ इन्दुः-एकच्छत्र, संसार की प्रभुता, नवीन युवावस्था और यह सुन्दर शरीर इन सब बहुतों को थोड़े से नन्दिनीरूप फल के लाभ के कारण से छोड़ने की इच्छा करते हुए तुम क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये' इसके विचार फरने में मुझे मूर्ख मालूम पड़ते हो ॥ ४७ ॥ भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते । जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः प्रजानाथ ! पितेव पासि ॥ ४८ ।। सजी०-भूतानुकम्पेति । तब भूतेष्वनुकम्पा कृपा चेत् । 'कृपा दयाऽनुकम्पा स्यात्' इत्यमरः । कृपैव वर्तते चेदित्यर्थः। तर्हि त्वदन्ते तव नाशे सतीयमेका गौः । स्वस्ति क्षेममस्या अस्तीति स्वस्तिमती भवेत् जीवेदित्यर्थः। 'स्वस्त्याशीः क्षेमपुण्यादौ' इत्यमरः। हे प्रजानाथ ! जीवन् पुनः पितेव प्रजा उपप्लवेभ्यः विध्नेभ्यः शश्वत्सदा। 'पुनःसदार्थयोः शश्वत्' इत्यमरः । पासि रक्षसि । स्वप्राणव्ययेनैकधेनुरक्षणाद्वरं जीवितेनैव शश्वदखिलजगत्त्राणमित्यर्थः। ___ अ०-तव भूतानुकम्पा चेत् 'तर्हि' त्वदन्ते 'सति' इयम्, एका, गौः, स्वस्तिमती, भवेत्, प्रजानाथ ! जीवन्, पुनः, पिता, इव, प्रजाः, उपल्लवेभ्यः, शश्वत्, पासि । वा०-तव भूतानुकम्पा चेद् 'भूयते तर्हि' अनयैकया गवा स्वस्तिमत्या भूयेत 'स्वया' जीवता पुनः पित्रेव प्रजाः पायन्ते । सुधा०-तव-भवतः, भूतानुकम्पा-प्राणिदया, चेद्, 'भस्तीति तर्हि' इति शेषः । स्वदन्ते = भवत्ताशे, सतीति शेषः। इयम् = एषा, एका केवला, गौः धेनुः, स्वस्तिमती = क्षेमवती, भवेत् = विद्येत, प्रजानाथ ! =जनेश्वर ! जीवन् = श्वसन्, पुनः= अवधारणेऽर्थे, पिताजनकः, इव, प्रजाः = जनान, पितृपक्ष-पुत्रान् । उपप्लचेभ्यः = उत्पातेभ्यः, चौरादिभयेभ्य इति भावः। शश्वत्-अनारतम्, पासिनायसे । समा०-भूतेष्वनुकम्पा भूतानुकम्पा। तवान्त इति त्वदन्तस्तल्मिस्त्वदन्ते । जीवतीति जीवन् । प्रजानां नाथ इति प्रजानाथस्तत्सम्बुद्धौ हे प्रजानाथ !। ___को०-'उपप्लवः सैंहिकेये विप्लवोत्पातयोरपि' इति मेदिनी। ता०-हे राजन् ! त्वयि जीवति सति सकललोकस्थजीवपालनं भविष्यति स्वन्नाशे तु धेनोरेव रक्षणं भविष्यत्यतः स्वशरीररक्षणं ते श्रेष्टं न तु धेनुरक्षणम् । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ रघुवंशमहाकाव्यम्- [द्वितीयःइन्दुः-हे राजन् ! यदि तुम्हारी प्राणियों पर दया है, तो तुम्हारे मर जाने पर केवल यही एक गौ कल्याण से युक्त हो सकती है। हे प्रजाओं के स्वामी महाराज दिलीप ! आप जीते हुए निश्चय ही पिता के समान प्रजाओं की विधनों से निरन्तर रक्षा कर सकते हैं ॥४८॥ न धर्मलोपादियं प्रवृत्तिः किन्तु गुरुभयादित्यत आहअथैकधेनोरपराधचण्डाद् गुरोः कृशानुप्रतिमा विभेषि । शक्योऽस्य मन्युभवता विनेतुं गाः कोटिशः स्पर्शयता घटोनीः ॥४६॥ सजी०-अथेति । अथ पक्षान्तरे, अथवा। एक्व धेनुर्यस्य तस्मात् । अयं कोपकारणोपन्यास इति ज्ञेयम्, अत एवापराधे गवोपेक्षालक्षणे सति चण्डादतिकोपनात, 'चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः' इत्यमरः। अत एव कृशानुः प्रतिमोपमा यस्य तस्मादग्निकल्पाद् गुरोर्विभेषि। इति काकु: 'भीत्रार्थानां भयहेतुः' इत्यपादानात्पञ्चमी । अल्पवित्तस्य धनहानिरतिदुःसहेति भावः । अस्य गुरोर्मन्युः क्रोधः 'मन्यु. देन्ये क्रती अधि'इत्यमरः। घटा इवोधांसि यासां ता धटोनीः । 'ऊघसोऽनङ् इत्यनादेशः 'बहुवीहेरूधसो डीप' इति डीप। कोटिशो गाः स्पर्शयता प्रतिपादयता। 'विश्राणनं वितरणं स्पर्शनं प्रतिपादनम्' इत्यमरः। भवता विनेतुमपनेतुं शक्यः । अ०-अथ, एकधेनोः, अपराधचण्डाद, कृशानुप्रतिमात्, गुरोः विभेषि, 'त्वम् अस्य, मन्युः, घटोनीः कोटिशः, गाः, स्पर्शयता भवता विनेतुं शक्यः। वा०-त्वया भीयते अस्य मन्युं गाः स्पर्शयन् भवान् विनेतुं शक्नुयात् । सुधा-अथ = पक्षान्तरे, एकधेनो केवलसुरभेः, 'अत एव' इति शेषः । अपराधचण्डात् = आगोऽत्यन्तकोपनात्, अत एव' कृशानुपतिमात्=पावकप्रतिमानात्, गुरोः= वसिष्ठात्, विभेषित्रस्यसि, अस्य = एतस्य मन्युः क्रोधः, घटोनी कलशापीनवतीः, कोटशः =कोटिसङ्ख्यकाः, गाः-सौरभेयीः, स्पर्शयता = ददता, भवता स्वया, विनेतुं दूरीकर्तुम् । शक्यः = क्षमः, अस्तीति शेषः । ___ तमा०–एकैव धेनुर्यस्य स एकधेनुस्तस्मादेकधेनोः अपराधे चण्डोऽपराधचण्डस्तस्मादपराधचण्डात् । कृशानुः प्रतिमा यस्य स कृशानुप्रतिमस्तस्मात्कृशानुप्रति मात् । घटा इवोधांसि यासां ता घटोन्यस्ता घटोनीः। __ को०-'आगोऽपराधो मन्तुश्च' इति । 'प्रतिमानं प्रतिविम्वं प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाया। प्रतिकृतिरर्चा प्रतिनिधिः' इति चामरः । ___ ता०-हे राजन् यदि नन्दिनीनाशरूपापराधेनातिक्रुद्धस्य गुरोर्भयं करोपि, तहि पयस्विनीः कोटिशो गाः ददत् त्वं तस्य क्रोधशान्ति कत्त क्षमोऽस्यतो धेनुरक्षाऽर्थमनुनयस्ते वृथैव ।। इन्दुः-अथवा हे राजन् ! एक ही है धेनु जिसके अत एव गौ की रक्षा न करने रूप अपराध होने से अत्यन्त क्रुद्ध हुए, अग्नि के तुल्य अपने गुरु वसिष्ठजी से यदि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ४३ तुम डरते हो तो, उनके क्रोध को घड़े के समान बड़े बड़े स्तनों वाली करोड़ों गायों को देते हुए दूर करने में समर्थ हो ॥ ४९ ॥ तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां भोक्तारमूर्जस्वलमात्सदेहम् । महीतलस्पर्शनमात्रमिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः ॥४०॥ सजी०-तद्रक्षेति । तत्तस्मात्कल्याणपरम्पराणां भोक्तारम् । कर्मणि षष्ठी। ऊजों चलमस्यास्तीत्यूर्जस्वलम् । 'ज्योत्स्नातमिस्त्रेत्यादिना वलच्प्रत्ययान्तो निपातः। आत्मदेहं रक्ष । ननु गामुपेचयात्मदेहरक्षणे स्वर्गहानिः स्यात् । नेत्याहमहीतलेति, ऋद्धं समृद्धं राज्यं महीतलस्पर्शनमात्रेण भूतलसम्बन्धमात्रेण भिन्नमैन्द्रमिन्द्रसम्बन्धि पदं स्थानमाहुः । स्वर्गान्न भिधत इत्यर्थ। __ अ०-तत्, कल्याणपरम्पराणाम्, भोक्तारम् ऊर्जस्वलम्, आत्मदेह, रक्ष, हि, ऋद्धं, राज्यं, महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नम्, ऐन्द्रम्, पदम् आहुः। वा०-भोकोर्जस्वल आत्मदेहस्त्वया रक्ष्यतां राज्यमन्द्रं पदमुच्यते । सुधा०-तत् तस्मात्कारणात् , कल्याणपरम्पराणाम् भद्रपरिपाटीनाम्, भोक्तारम् = अनुभवितारम्, उर्जस्वलं = बलवन्तम्, आत्मदेहं स्वशरीरं, रक्ष%D पालय, हि= यतः, ऋद्धं सुसमृद्धं, राज्य-राजभावं राजकर्म वा । महीतलस्पर्शन. मात्रभिन्नम् = पृथ्वीतलस्पशेनैव पृथक्कृतम्, ऐन्द्रम् = इन्द्रसन्बन्धि पद-स्थानम्, आहुः = अवन्ति, विद्वांस इति शेषः । समा०--कल्याणानां परम्पराः कल्याणपरम्परास्तासां तथोक्तानाम् । ऊर्जा वलमस्यास्तीत्यूर्जस्वलस्तमूर्जस्वलम् । आत्मनो देहः आत्मदेहस्तमात्मदेहम् । मद्यास्तलं महीतलं तस्य स्पर्शनं महीतलस्पर्शनम् तदेव प्रमाणमस्येति महीतलस्पर्शनमात्र, तेन भिन्नम् महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नं तत्तथोक्तम् । ____ कोशः-वःश्रेयसं शिवं भद्र कल्याणं मङ्गलं शुभम्' इत्यमरः । 'ऊर्जस्तु कार्तिकोत्साहवलेषु प्राणनेऽपि च' इति मेदिनी। 'ऋद्धं सम्पन्नधान्ये च सुसमृद्धौ च वाच्यवत्' इति मेदिनी। ता०-हे राजन् ! त्वमुत्तरोत्तरसुखानां भोक्तारं स्वशरीरं रक्ष, यतो विद्वांसः स्वर्गात्पृथग्भूतं भवदीयं समृद्धं राज्यमिन्द्रराज्यं कथयन्ति । इन्दुः-इस कारण हे राजन् ! तुम उत्तरोत्तर सुखों का भोग करनेवाले अस्थन्त वल से युक्त अपने शरीर की रक्षा करो, क्योंकि विद्वान् लोग समृद्धिशाली राज्य को केवल पृथ्वीतल का सम्बन्ध होने से अलग हुआ इन्द्रसम्बन्धी स्थान (स्वर्ग) कहते हैं ॥५०॥ एतावदुक्त्वा विरते सृगेन्द्रे प्रतिस्वनेनास्य गुहागतेन । शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालमुच्चैःप्रीत्या तमेवार्थमभाषतेष ।। ५१ ।। सजी०-एतावदिति । मृगेन्द्र एतावदुक्त्वा विरते सति गुहागतेनास्य सिंहस्या Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ रघुवंश महाकाव्यम् [ द्वितीयः प्रतिस्वनेन शिलोच्चयः शैलोऽपि प्रीत्या तमेवार्थं चितिपालमुच्चैरभाषतेव । इत्यु स्प्रेक्षा । भाषिरयं ब्रुविसमानार्थकत्वाद् द्विकफः बुविस्तु द्विकर्मकेषु पठितः । तद् क्कम = ( दुहियाचिरुधिप्रच्छ्रिभित्तिचित्रा सुप्योगनिमित्तम पूर्वविधौ । ब्रु विशा सिगणेन च यत्सचते तदकीर्त्तितमाचरितं कविना ॥ ) इति । अ० -मृगेन्द्रे, एतावत् उक्त्वा, विरते, 'सिति' गुहागतेन, अस्य, प्रतिस्वनेन, शिलोच्चयः, अपि, प्रीत्या, तम, एव अर्थ, चितिपालम्, उच्चैः, अभाषत इव । वा० - शिलोच्चयेनापि प्रीत्या स एवार्थः, क्षितिपाळ मुच्चैरभाप्यतेव । सुधा -- मृगेन्द्र = सिंहे, एतावत् = इत्येतत्पर्यन्तम, उक्त्वा = कथयित्वा विरते= निवृत्ते सतीति शेषः । गुहागतेन = गह्वरप्राप्तेन, अस्य = सिंहस्य, प्रतिस्वनेन = प्रति शब्देन, शिलोच्चयः = हिमाचलः, अपि समुच्चये, प्रीत्या हर्षेण, तम् = पूर्वोक्तम्, एव = अवधारणे, अर्थम् = अभिधेयं, क्षितिपालं-महीपतिम् उच्चैः = तारस्वरेण, अभाषत = अकथयत्, इव = यथा । स - एतत्परिमाणमस्येत्येतावत् । गुहां गतो गुहागतस्तेन गुहागतेन । क्षितिं पालयतीति क्षितिपालस्तं चितिपालम् । कोशः - 'मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः' इत्यमरः । aro - एतावत् कथयित्वा सिंहे तूष्णीम्भूते सति तस्य हिमालयगुहागतप्रति ध्वनिना पर्वतोऽपि सहवासकृतसौहार्देन तमेवार्थं नृपमुच्चैरभाषतेव । इन्दुः- सिंह के इतना कहकर चुप हो जानेपर गुफा में पहुँची हुई इसकी प्रति वन द्वारा पर्वत भी प्रेमले मानो उसी वातको राजा दिलीपसे जोरसे कहने लगा ॥ निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः पुनरप्युवाच । धेन्वा तदध्यासितकातराच्या निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः ॥ ५२ ॥ सञ्जी० - निशम्येति । देवानुचरस्येश्वर किङ्करस्य सिंहस्य वाचं निशम्य मनुष्यदेवो राजा पुनरप्युवाच । किम्भूतः सन् । तेन सिंहेन यदध्यासितं व्याक्रमणम् । 'नपुंसके भावे क्तः' । तेन कातरे अक्षिणी यस्यास्तया । 'बहुव्रीहौ सक्थ्यचणोः स्वाङ्गात्षच्' इति षच्। ‘षिद्वौरादिभ्यश्च' इति ङीष् । किं वा वच्यतीति भोत्यैवं स्थितयेत्यर्थः । धेन्वा निरीचयमाणः । अतएव सुतरां दयालुः सन् । सुतरामित्यत्र " द्विवचनविभज्यो०' इत्यादिना सुशब्दात्तरप् । 'किमेत्तिङव्ययवाद । स्वद्रव्यप्रकर्पे ' इत्यनेनाम्प्रत्ययः । 'तद्धितश्चासर्वविभक्तिः' इत्यन्ययसंज्ञा । अ० - देवानुचरस्य, वाचं, निशम्य, मनुष्यदेवः, पुनः, अपि उवाच, 'किम्भूतः सन्' तदध्यासितकातराच्या, धेन्वा, निरीक्ष्यमाणः, 'अत एव' सुतरां, दयालुः, 'सन्' । वा० - मनुष्यदेवेन पुनरप्यूचे, धेन्वा निरीक्ष्यमाणेन दयालुना सता । सुधा – देवानुचरस्य = महादेव किङ्करस्य, वाचं वाणीं, 'किम्भूतः सन्' निशम्य = श्रुत्वा, मनुष्यदेवः = महाराजः, पुनः = भूयः, अपि समुच्चये, उवाच =जगाद, तदध्या Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ४५ सितकातराच्या = तदधिष्ठानाधीरनयनया, धेन्वा = नन्दिन्या, निरीक्ष्यमाणः दृश्य. मानः, 'अत एवं' इति शेषः । सुतरां नितराम, दयालुः कारुणिकः सन्निति शेषः । ___ समा०-देवस्यानुचरो देवानुचरस्तस्य देवानुचरस्य । मनुष्याणां मनुष्येषु वा देवो मनुष्यदेवः। तेनाध्यासितं तदध्यासितं तदध्यासितेन कातेर तदध्यासितका. तरे, तदध्यासितकातरे अक्षिणी यस्याः सा तदध्यासितकातराक्षी तया तथोक्तया । निरीच्यत इति निरीक्ष्यमाणः । को-'देवंहृषीके देवस्तु नृपतौ तोयदे सुरे।' इत्यनेका० । 'अधोरे कातर' इत्यमरः। ता०-सिंहाक्रान्तयाऽधीरलोचनया नन्दिन्याऽऽलोक्यमानो राजा सिंहं प्रति पुनरप्युवाच । ___ इन्दुः-शंकर भगवान् के नौकर (सिंह) की वाणी सुनकर मनुष्यों के राजा (वे दिलीप) फिर भी (उससे) बोले, जो कि-उस सिंह के द्वारा आक्रान्त होने से आकुल नेत्रों वाली नन्दिनी से देखे जाते हुए अत एव अत्यन्त दयालु हो रहे थे॥५२॥ किमुवाचेत्याह क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः। राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरूपक्रोशमलीमसैर्वा ।। ५३ ।। सजी०-क्षतादिति । 'क्षणु हिंसायाम्' इति धातोः सम्पदादित्वारिकप । 'गमादीनाम्' इति वक्तव्यादनुनासिकलोपे तुगागमे च क्षदिति रूपं सिद्धम् । इताद् नाशत् त्रायत इति क्षत्रः। सुपीति योगविभागात्कः। तामेतां व्युत्पत्ति कबिरर्थतोऽनुक्रामति-क्षतादित्यादिना । उदग्र उन्नतः । क्षत्रस्य क्षत्रवर्णस्य शब्दो वाचकः क्षत्रशब्द इत्यर्थः । क्षतास्त्रायत इति व्युत्पत्त्या भुवनेषु रूढः किल प्रसिद्धः खलु । नाश्वकर्णादिवत्केवलरूढः किन्तु पंकजादिवद्योगरूढ इत्यर्थः । ततः किमित्यत आह-तस्य क्षत्रशब्दस्य विपरीतवृत्तेविरुद्धव्यापारस्य क्षतस्त्राणमकुर्वतः पुंसो राज्येन किम् । उपक्रोशमलीमसैनिन्दासलिनैः । 'उपक्रोशो जुगुप्सा च कुत्सा निन्दा च गहंगे' इत्यमरः । 'ज्योत्स्नातमिस्त्रा०' इत्यादिना मलीमसशब्दो निपातितः। 'मलीमसंतु मलिनं कच्चरं मलदूषितम्' इत्यमरः। तेः प्राणैर्वा किम् । निन्दितस्य सवं व्यर्थमित्यर्थः । एतेन 'एकातपत्रम्' (२०४७) इत्यादिना श्लोकशयेनोवतं प्रयुक्तमिति वेदितव्यम् । __म०-उदग्रः, शस्त्रस्य, शब्दः । तात्, त्रायते, इति, 'व्युत्पत्या' भवनेषु' रूढः किल, तद्विपरीतवृत्तेः, राज्येन, किज, उपकोशमलीमसैः प्राणैः, वा 'किम् । वा०-उदग्रेन क्षत्रस्य शब्देन 'भूयते'। सुधा०-उदप्रः= उच्छितः, वस्त्रस्य-वस्त्रवर्णस्य, शब्दः = वाचका, क्षतात नाशात्, त्रायते-रक्षति, इति हेतोः, भुवनेषु-झोकेषु, रूढः योगरूढः, किल = Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ रघुवंश महाकाव्यम् [ द्वितीयः प्रसिद्धौ तद्विपरीतवृत्तेः = पूर्वोक्त क्षत्त्रशब्द विरुह्वर्त्तनस्य, राज्येन = राजभावेन, किम् = किम्प्रयोजनम्, न किमपि प्रयोजनमस्तीति भावः । उपक्रोशमलीमसै= निन्दाम लिनैः, प्राणैः =असुभिः, वा= अथवा, किम् = प्रयोजनम्, न किमपीति भावः । समा०-- तस्य विपरीता तद्विपरीता तद्विपरीता वृत्तिर्यस्य स द्विपरीतवृत्ति स्तस्य तद्विपरीतवृत्तेः । मलाः सन्ध्येषामिति मलीमसाः, उपक्रोशेन मलीमसा उपक्रोशमलीमसास्तैस्तथोकैः । कोश:-'किम् कुत्सायां वितर्के च निषेधप्रश्नयोरपि' इति मेदिनी । ता:०- - लोके विपत्तिमग्नस्य रक्षक एव यथार्थः तस्त्रियः अतः स्वधर्माचरणरहि तस्य तस्य जीवनं राज्यादिकं च धिक्कारभाजनतया व्यर्थं भवति । इन्दुः- नत जो क्षत्रियवर्ण का वाचक क्षत्र शब्द है सो 'तत् अर्थात् नाश से जो बचावे वह क्षत्रिय कहलाता है' इस व्युत्पत्ति से संसार में 'पङ्कज' की तरह योगरूढि से प्रसिद्ध है, अतः उस क्षत्त्र शब्द से विपरीत व्यापार करने वा अर्थात् नाश से नहीं रक्षा करने वाले पुरुष के राज्य और अपकीर्ति से मलिन हुए प्राण (जीवन) ये दोनों व्यर्थ हैं ॥ ५३ ॥ 'अथैकधेनोः' (२-४९) इत्यत्रोत्तरमाह - कथं नु शक्योऽनुनयो महर्षेर्विश्राणनाच्चान्यपयस्विनीनाम् । इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु प्रहृतं त्वयाऽस्याम् ॥ ५४ ॥ सञ्जी० - कथमिति । अनुनयः क्रोधापनयः । चकारो वाकारार्थः । महर्षेरनुनयो चाsन्यासां पयस्विनीनां दोग्ध्रीणां गवां विश्राणनाद्दानात्, 'त्यागो विहापितं दानमुत्सर्जन विसर्जने । विश्राणनं वितरणम्' इत्यमरः । कथं नु शक्यः । न शक्य -इत्यर्थः । अत्र हेतुमाह - इमां गां सुरभेः कामधेनोः 'पञ्चमी विभक्ते' इति पञ्चमी । अनूनामन्यूनामवेहि जानीहि । तर्हि कथमस्याः परिभवो भूयादित्याह - रुद्रौजसेति । अस्यां गवि त्वया कर्त्रा प्रहृतं तु प्रहारस्तु । नपुंसके भावे क्तः । रुद्रौजसेश्वरसामर्थ्येन न तु स्वयमित्यर्थः । 'सप्तम्यधिकरणे च' इति सप्तमी । अ० - महर्षेः अनुनयः, 'च' अन्यपयस्विनीनां, विश्राणनात्, कथं, नु, शक्यः, इमां सुरभेः, अनूनाम, अवेहि, अस्यां त्वया, प्रहृतं, तु, रुद्रौजसा । वा०- -अनुनयेन शक्येन 'भूपतेः' इयमनूना 'स्वया' अवेयताम्, प्रहृतेन, 'भभूयत' । सुवा० - महर्षेः = वसिष्ठस्य | अनुनयः = सान्त्वनं, चन्वा, अन्यपयस्विनीनाम् = इतरक्षीरवतीनाम्, गवाम् । विश्राणनात् =दानात्, कथं= केन प्रकारेण, नु = चिकपार्थे, शक्यः = शक्तुमर्हः, शक्य इत्यर्थः । इमां = नन्दिनीम्, सुरभेः = कामधेनोः, अनूनाम् = अन्यानां तत्कल्पाम् । भवेहि जानीहि त्वमिति शेषः । अस्याम् = एतस्यां, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ४७ रवया= भवता, प्रहृतम् आक्रमणं, तु= विशेषेऽर्थे समुच्चये घा, रुद्रौजसा= शंकरबलेन, अवेहीति शेषः। समा०-अन्याश्च ताः पयस्विन्य इत्यन्यपयस्विन्यस्तालामन्यपयस्विनीनाम् । न ऊनेत्यनूना तामनूनाम । रुद्रस्यौज इति रुद्रौजस्तेन रुद्रौजसा । कोशः-'ओजो दीतिप्रकाशयोः । अवष्टम्भे बले धातुतेजसी'त्यनेकार्थः । ता०-अन्यासां द्रोग्ध्रीणां गर्वा प्रदानान्महर्षेः क्रोधशान्तिनं भवितुमर्हति यत इयं कामधेनुकल्पा, अस्यां यदाक्रमणं कृतं तत्त शङ्करतेजसा, न तु स्वसामर्थेनेति त्वं विद्धि। इन्दुः-और महर्षि वसिष्ठजी के क्रोध की शान्ति दूसरी दूध देने वाली गायों के देने से किस प्रकार हो सकती है ' 'अर्थात् कभी नहीं हो सकती है क्योंकिइसे कामधेनु से कम नहीं समझना चाहिये 'अर्थात् तुल्य ही समझना चाहिये' और इसके ऊपर जो तुम्हारा आक्रमण हुभा है, उसे भी शङ्कर भगवान् की सामर्थ्य से ही समझना चाहिये न कि अपनी सामर्थ्य से ॥ ५४॥ तर्हि किं चिकीर्षितमित्याहसेय स्वदेहापेणनिष्क्रयेण न्याय्या मया मोचयितुं भवत्तः । न पारणा स्याद्विहता तवैवं भवेदलुमश्च मुनेः क्रियाऽर्थः ।। ५५ ॥ सजी०-सेयमिति । सेयं गौर्मया निष्क्रीयते प्रत्याहियतेऽनेन परिगृहीतमिति निष्क्रयः प्रतिशीर्षकम् । 'एरच' इत्यच्प्रत्ययः । स्वदेहार्पणमेव निष्क्रयस्तेन भवत्तस्त्वत्तः। पञ्चम्यास्तसिल। मोचयितुं न्याय्या न्यायादनपेता । युक्तत्यर्थः । 'धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते' इत्यनेन यत्प्रत्ययः । एवं सति तव पारणा भोजनं विहता न स्यात्, मुनेः क्रिया होमादिः स एवार्थः प्रयोजनम् । स चालुप्तो भवेत् । स्वप्राणम्ययेनापि स्वामिगुरुधनं संरचयमिति भावः। __ अ०-सा, इयं, मया, स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण, भवत्तः, मोचयितुं, न्याय्या, एवं, 'सति' तव, पारणा, विहता, न, स्याद्, मुनेः, क्रियाऽर्थः च, अलुप्तः, भवेत् । वा०-तयाऽनया न्याय्यया 'भूयते' पारणया विहतया न भूयेत क्रियाऽर्थेनचालुप्तेन भूयेत। __ सुधा-सा= पूर्वोक्का, इयम् = एषा, धेनुः । मया=दिलीपेन, स्वदेहार्पणनिष्क्रयेणआत्मशरीरत्यागमूल्येन, स्वशरीरार्पणरूपनिष्क्रयेणेति भावः। भवत्तः= त्वत्तः, मोचयितुं,-हापयितुं, न्याय्या-न्याययुक्ता, एवम् = इत्थं 'सति' तबम्भवतः, पारणाव्रतान्तभोजनं, विहता=नष्टा, न= नहि, स्याद्-भवेद्, मुनेः = वसिष्ठस्य, क्रियाऽर्थः कृत्यप्रयोजनं, च-अन्वाचयेऽर्थे । भलुप्तः अनष्टः, भवेत् स्यात् ।। - समा०-स्वस्य देहः स्वदेहः तस्यार्पणं, घदेहार्पणं, तदेव निष्कया स्वदेहार्पणनिष्क्रयस्तेन तथोकेन । न लुप्तोऽलुप्तः। क्रिपैवार्थः क्रियाऽर्थः। . कोशः–'एवं प्रकारे स्यादङ्गीकारेऽवधारणे । अनुप्रश्ने परकृतावुपमापृच्छयोरपि' इति मेदिनी। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम्- [ द्वितीय: ता० - सेयं मया स्वशरीरदान विनिमयेन भवतो मोचयितुं योग्याऽस्ति, एवं कृते सति तव चिरकालाद बुभुक्षितस्य व्रतान्तभोजनं नष्टं न भवेत्, तथा वसिष्ठ - महर्षेहमादिक्रिया रूपं प्रयोजनमपि लुप्तं न स्यात् । इन्दुः- कामधेनु के तुल्य इस नन्दिनी को मेरा अपने शरीरार्पण रूप निष्क्रय के द्वारा आप से छुड़ाना न्यायसङ्गत है, ऐसा करने पर आपके व्रत के अन्त का भोजन (पारणा ) भी नष्ट नहीं होगा और वसिष्ठ महर्षि का होमादि रूप प्रयोजनभी नष्ट नहीं होगा ॥ ५५ ॥ ४८ अत्र भवानेव प्रमाणमित्याह - भवान पीदं परवानवैति महान् हि यत्नस्तव देवदारौ । स्थां नियोक्तर्न हि शक्य मत्रे विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन ॥ ५६ ॥ सञ्जी० - भवानीति । परवान्स्वामिपरतन्त्रो भवानपि । 'परतन्त्रः पराधीनः परवान्नाथवानपि' इत्यमरः । इदं वाच्यमाणमवैति । भवताऽनुभूयत एवेत्यर्थः । ' शेषे प्रथमः' इति प्रथमपुरुषः । किमित्यत आह- हि यस्माद्धेतोः । 'हि हेताववधारणे' इत्यमरः । तव देवदारौ विषये महान् यत्नः । महता यत्नेन रचयत इत्यर्थः । इदं शब्दोक्तमर्थं दर्शयति- स्थातुमिति । रच्यं वस्तु विनाश्य विनाशं गमयित्वा स्वयते नात्रणेन, नियुक्तेनेति शेषः । नियोक्तुः स्वामिनोऽग्रे स्थातुं शक्यं न हि । अ०- परवान्, भवान् अपि इदम्, अवैति, हि तव, देवदारौ, महान् चत्नः, रच्यं, विनाश्य, अक्षतेन नियोक्तुः, अग्रे, 'स्थातुं शक्यं न हि । वा० – परवता=भवताऽवेयते महता यत्नेन 'भूयते' नहि स्ववमक्षतः शक्नुयात् । सुधा०-- परवान् = पराधीनः भवान् =त्वम् अपि =समुच्चयेऽर्थे, इदम् = एतद्, वच्यमाणमिति यावद् । अवैति = जानाति, हि = यतः, तव = भवतः, देवदारौ=देव, दारुवृचे, महान् = अतिशयः, यतः = प्रयासः, अस्तीति शेषः । रच्यं =पाल्यं, वस्तु । विनाश्य = अभावं गमयित्वा स्वयम् = आत्मना, नियुक्तेनेति शेषः । अक्षतेन: व्रणरहितेन, नियोक्तुः = आदेष्टुः, अग्रे = पुरतः, स्थातुं = वस्तुम्, शक्यं = शक्तुमईं नहि = = न । = समा०—परः स्वाम्यस्यास्तीति परवान् । नियुनक्कीति नियोक्ता तस्य नियोक्तुः । न चतोऽक्षतस्तेनाक्षतेन । वा० - 'स्वयमात्मना' इत्यमरः । । ता० - किन्न निजभर्त्तुरधीनस्थो भवानपि जानात्येव यतो भवतोऽप्यस्य देवदारुतरोः रक्षणे महान् प्रयत्नो लच्यतेऽत एव स्वयमेव चतरहितेन सदा रक्षणाह वस्तु विनाश्य स्वामिनोऽग्रे स्थातुं नोचितम् । इन्दुः- पराधीन होते हुये आप भी इस ( आगे कही जाने वाली ) बात को जानते हैं, क्योंकि आपका देवदारु के विषय में 'रक्षा करने के लिये' बहुत भारी प्रयत्न है । 'अत एव' रक्षा करने के योग्य वस्तु का नाश करके स्वयम् विना नष्ट Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । १६ हुए नौकर स्वामी के आगे उपस्थित होने के लिये समर्थ नहीं हो सकता ॥५६॥ सर्वथा चैतदप्रतिहार्यमित्याहकिमप्यहिल्यस्तव चेन्मतोऽहं यशःशरीरे भव मे दयालुः । एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु भौति केषु ॥ ५७ ।। सजी०-किमिति । किमपि कि वाऽहं तवाहिंस्योऽवध्यो मतश्चेत्तर्हि मे यश एव शरीरं तस्मिन्डयालुः कारुणिको भव । 'स्यायालुः कारुणिकः' इत्यमरः । ननु सुख्यमुपेच्यासुख्यशरीरे कोऽभिनिवेशोऽत माह-एकान्तेति । मविधानां माहशानां विवेकिनामेकान्तविध्वंसिष्ववश्यविनाशिषु भौतिकेषु पृथिव्यादिभूतविकारेषु पिण्डेषु शरीरेवनास्था खल्वनपेक्षवा अस्था त्वालम्बनास्थानयत्नापेक्षासु कथ्यते' इति विश्वः । अ०-किमपि, अहं, तव, अहिंस्यः, मतः, चेत्, तर्हि', मे, यशःशरीरे, दयालुः, भव, मद्विधानाम्, एकान्तविध्वंसिषु, भौतिकेषु, पिण्डेषु, अनास्था, खलु। ___ वा०-मया तवाहिंस्येन मतेन, 'भूयते' अनास्थया खलु 'भूयते' । 'स्वया' दयालुना भूयताम् । . सुधा-किमपि -किञ्च, अहं दिलीपः, तवम्भवतः, सिंहस्य, अहिंस्या सिंहाs. नहीं, मतः=अभीष्टः, चेद् = यदि, 'तर्हि' इति शेषः । मे = मम, दिलीपस्य । यश:शरीरे कीर्तितनौ, दयालुः = कृपालुः, भव = स्याः त्वमिति शेषः। मद्विधानां = राज्ञाम्, एकान्तविध्वंसिषु-नितान्तनश्वरेषु, भौतिकेषु =क्षित्यप्तेजोवारवाकाशेतिपञ्चभूतरचितेषु, पिण्डेषु, अनास्था% अनपेक्षा, खलु%एव। समा०-हिंसितुं योग्यो हिंस्यः, न हिंस्थोऽहिंस्यः ! यश एव शरीरं यशःशरीरं तस्मिन् यशःशरीरे । विशेषेण ध्वंसितुं शीलमेषामिति विध्वंसिनः, एकान्तं विध्वंसिन इत्येकान्तविध्वंसिनस्तेषु तथोक्तेषु । मम विधेव विधा प्रकारो येषान्ते मद्विधा. स्तेषां मद्विधानाम् । न भास्थेत्यनास्था। भूतानां विकारा भौतिकास्तेषु भौतिकेषु । - कोशः-'तीव्रकान्तनितान्तानि गाढबाढढानि च' इत्यमरः। "पिण्डो गोले बले सान्द्रे देहागारैकदेशयोः। देहभावे निकाये चेति मेदिनी। ता-किञ्च यद्यहं केनचित् कारणेन भवतामवध्यः स्यां तर्हि भवान् मम यशोरूपशरीरे दयालुर्भूत्वा नश्वरस्य पञ्चभूननिर्मितस्य शरीरस्य भक्षणेन शाश्वतिकी कीर्ति रक्षतुः। . इन्दुः-और यदि मैं तुम्हारे समक्ष में अवध्य हूँ तो मेरे यश रूप शरीर के विषय में तुम दयायुक्त होओ, क्योंकि हमारे ऐसे लोगों की अवश्य नष्ट होनेवाले पृथ्वी-जल तेज वायु-अकाश इन पांच महाभूतों से बने हुए शरीर में अपेक्षा नहीं रहती है ।। ५७ ॥ सौहार्दादहमनुसरणीयोऽस्मीत्याहसम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहुर्वृत्तः स नौ सङ्गतयोवनान्ते । तद् भूतनाथानुग ! नार्हसि त्वं सम्बन्धिनो मे प्रणयं विहन्तुम् ॥८॥ सजी०-सम्बन्धमिति । सम्बन्धं लख्यम् । आभाषणमालापः पूर्व कारणं यस्य ४ रघु० महा० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंश महाकाव्यम् - [ द्वितीयः तमाहुः | 'स्यादाभाषणमालापः' इत्यमरः । स ताडक्सम्बन्धो वनान्ते सङ्गतयोनी वावयोर्वृत्तो जातः । तत्ततो हेतोर्हे भूतनाथानुग ! शिवानुचर! एतेन तस्य महत्व सूचयति । अत एव सम्बन्धिनो मित्रस्य से प्रणयं याच्ञाम् । 'प्रणयास्त्वमी । विश्रम्भयाच्चाप्रेमाणः' इत्यमरः । विहन्तुं नार्हसि । ૦ अ० – सम्बन्धम्, आभाषणपूर्वम्, आहुः, सः वनान्ते, सङ्गतयोः, नौ, वृत्तः, तद्, भूतनाथनुग !, त्वं सम्बन्धिनः, मे, प्रणयं, विहन्तुं न अर्हसि । वा० - सम्वन्ध आभाषणपूर्व उच्यते 'विद्वद्भिः' तेन वृत्तेन 'अभूयत' स्वया प्रणयो नार्ह्यते । सुधा – सम्बन्धं = मित्रत्वम्, आभाषगपूर्वम् = आलाप प्रथमम् आहुः = ब्रुवन्ति 'विद्वांसः' इति शेषः । स आलापजन्यः सम्बन्धः, वनान्ते = काननप्रान्ते, सङ्ग तयोः = मिलितयः, नौ = आवयोः, वृत्तः = भूतः, तद् = तस्मात् कारणात्, भूत नाथानुग ! = महेश्वरानुचर! हे सिंह ! त्वम् ' अत एव' सम्बधिनः = मित्रतारूप सम्बन्धवतः, मे = मम, दिलीपस्य । प्रणयं = याच्ञां विहन्तुं, = नाशयितुं, न = नहि, अर्हसि = योग्योऽसि । समा० - आभाषणं पूर्वं यस्य स आभाषणपूर्वस्तमाभाषाणपूर्वम् । वनस्यान्तं वनान्तस्तस्मिन् वनान्तेः। भूतानां नाथो भूतनाथः, अनु पश्चाद् गच्छतीत्यनुगः भूतनाथस्यानुगो भूतनाथानुगस्तत्सम्बुद्धौ हे भूतनाथनुग ! | सम्बन्धोऽस्त्यस्येतिं सम्बन्धी तस्य सम्बन्धिनः । को० - पूर्वन्तु पूर्वजे । प्रागग्रे श्रुतिभेदे चे 'त्यने० 'अन्तः स्वरूपे निकटे प्रान्ते निश्चयनाशयोः' इति हैमः । ता० - यत् परस्परालापजन्यं सख्यं भवति, तदावयोर्वनमध्ये मिलितयोर्जात मत एव हि शिवानुचर सिंह ! मित्रस्य मे प्रार्थनां विफलीकत्तुं त्वं योग्यो नासि इन्दुः० – सम्बन्ध (मैत्री) को जो बातचीत से उत्पन्न हुआ लोग कहते हैं, वह वन के बीच में मिले हुए हम दोनों का हो चुका है, इस कारण से है शिवजी के अनुचर सिंह ! तुम सम्बन्धी 'हाकर मुझ दिलीप की प्रार्थना को विफल करने के लिये योग्य नहीं हो ॥ ५८ ॥ तथेति गामुक्तत्रते दिलीपः सद्यः प्रतिप्रम्भविमुक्तबाहुः । स न्यस्तशस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य ॥ ५६ ॥ सञ्जी०–तथेतीति । तथेति गामुक्तवते हरये सिंहाय | 'कपो सिंहे सुवर्णे च बर्णे विष्णौ हरिं विदुः' इति शाश्वतः । सद्यस्तत्क्षणे प्रतिष्टम्भात् प्रतिबन्धाद्विसुको वाहु यस्य स दिलीपः । न्यस्तशस्त्रस्त्यक्तायुधः सन् स्वदेहम् | आमिषस्य मांसस्य । 'पल्लं क्रव्यसामिषम्' इत्यमरः । पिण्डं कवलमिव । उपानयत्समर्पितवान् । एतेन निर्ममत्वमुक्तम् । अ० – तथा, इति, गाम्, उक्तवते, हरये, सद्यः, प्रतिष्टम्भषिमुक्तबाहुः, सः न्यस्तशखः, 'सन्' स्वदेहम्, आमिषस्य, पिण्डम्, इव, उपानयत् । वा० - प्रतिष्टम्भविमुक्तबाहुना तेन न्यस्तशस्त्रेण स्वदेहः पिण्ड इवोपानीयत । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् ।। सुधा०-तथा-तेन प्रकारेण, यथा भवान् ब्रवीति तथैव करिष्यामीति भावः। इति= इति, स्वरूपां, गां=गिरम्, उक्तवते कथितवते, हरये-सिंहाय, सद्यः तत्क्षणे, प्रतिष्टम्भविमुक्तवाहुः स्तम्भनत्यक्तभुजः, सःदिलीपः, न्यस्तशस्त्रः परित्यक्षायुधः, सन्निति शेषः । स्वदेहम् = आत्मशरीरम्, आमिषस्य = पललस्य, मालस्य, पिण्डं = कवलम्, इव% यथा, उपानयत्-उपाहरत् । समा०-प्रतिष्टम्भाद्विमुक्तः, प्रतिष्टम्भविमुक्तः, स वाहुर्यस्य स तथोक्तः । न्यस्तं शस्त्रं येन स तथोकः । स्वस्य देहः स्वदेहस्तं स्वदेहम् । ___ को०-'गौरुदके दृशि । स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ बजे भूमाविषौ गिरि' इत्यनेकार्थसंग्रहः । 'पिशितं तरसं मांसं पललं क्रव्यमामिपम्' इत्यमरः। ता०-यथा भवान् ब्रवीति तथैव भवस्विति कथयित्वा प्रार्थनामङ्गीकुर्वते सिंहाय दिलीपः परित्यक्तायुधः सन् निजदेहं मांसग्रासमिव कृत्वा समर्पितवान् । ___इन्दुः०--'वैसा ही हो' इस वचन को कहते हुए सिंह के लिए उसी क्षण में वन्धन से खुली बाहु वाले उन राजा दिलीप ने शस्त्र के त्यागने वाले होते हुए अपने शरीर को मांस के पिण्ड (ग्रास) के समान समर्पण कर दिया ॥ ५९॥ तस्मिन् क्षणे पालयितुः प्रजानामुत्पश्यतः सिंहनिपातमुग्रम् । अवा मुखस्योपरि पुष्पवृष्टिः पपान विद्याधरहस्तमुक्ता ।। ६०॥ सजी०-तस्मिन्निति । तस्मिन्क्षणे उग्रं सिंहनिपातमुत्पश्यत उत्प्रेक्षमाणस्य तर्कयतोऽवाङ्मुखस्याधोमुखस्य 'स्यादवाङप्यधोमुखः इत्यमरः'। प्रजानां पालयितू राज्ञः उपर्युपरिष्टात 'उपर्युपरिष्टात्' इति निपातः। विद्याधराणां देवयोनिविशेषाणां हस्तैर्मुका पुष्पवृष्टिः पपात । अ०-तस्मिन् क्षणे, उग्र', सिंहनिपातम्, उत्पश्यतः, अवाङ्मुखस्य, प्रजानां पालयितुः, उपरि, विद्याधरहस्तमुक्ता, पुष्पवृष्टिः, पपात । वा०-विद्याधरहस्तमुनया पुष्पवृष्टया पेते। सुधा-तस्मिन् पूर्वोक्त, क्षणे-मुहूर्ते, सिंहाय स्वशरीरार्पणसमये । उग्रम्-उत्कटं सिंहनिपातम् = मृगेन्द्रनिपतनम् , उत्पश्यतः-वितर्कयतः, भवाङमुखस्य-अधोमुखस्य, प्रजानां जनानां, पालयितुः-रक्षितुः दिलीपस्य । उपरि-उपरिष्टाद्, विद्याधरहस्तमुक्ता विद्याधरदेवयोनिविशेषकरविसृष्टा, पुष्पवृष्टिः कुसुमवर्षणं, पपात अपतत् । ___समा०--सिंहस्य निपातःसिंहनिपातस्तथोक्तन् । अवाङमुखं यस्य लोऽवाङमु. खस्तस्यावामुखस्य । पुष्पाणां वृष्टिः पुष्पवृष्टिः । विद्यावा गुटिकाऽञ्जनादिविषयिण्या धरा धारका इति विद्याधरास्तेषां हस्ता विद्याधरहस्तास्तैर्मका विद्याधरहस्तमुक्ता । ___ को०-'क्षणं व्यापारशून्यत्वमुहूर्तोत्सवपर्वसु' इति रुद्रः। 'उग्रः क्षत्रियतः शूदासूनावुरकटरुद्रयोः' इत्यनेकार्थसंग्रहः । त०-तस्मिन् मुहूर्ते रौद्रं सिंहपतनं मनसि विचारयतोऽधोमुखस्य दिलीपस्यो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीयःः परि विद्याधराणां हस्तैर्मुका पुष्पवृष्टिरपतत् । इन्दुः-उल क्षण में उत्कट सिंह के आक्रमण के विषय में विचार करते हुये नीचे को सुख किये प्रजाओं के पालन करने वाले राजा दिलीप के ऊपर विद्याधर नासक देवयोनिषिशेपों के हाथों से छोड़ी गई फूलों की वर्षा हुई ॥ ६०॥ उत्तिष्ठ बल्लेत्यमृतायमानं वचो निशम्योस्थितमुत्थितः सन् | ददर्श राजा जननीमिव शं गामग्रतः प्रत्रविणों न सिंहम् ।। ६१ ॥ सञ्जी०-उत्तिष्ठेति । राजा अमृतमिदाचरतीत्यमृतायमानं तत् 'उपमानादा, चारे' इति क्यच । ततः शानच। उस्थितमुत्पन्नं 'हे वत्स! उत्तिष्ठ' इति वचो निशम्य श्रुत्वा । उस्थितः सन् । अस्तेः शतृप्रत्ययः। अग्रतोऽग्रे प्रस्रवः क्षीरखावोs स्ति यस्याः सा तां प्रस्नविणीं गां स्वां जननीमिव ददर्श सिंह न ददर्श। ___wo--राला, अमृतायमानम्, उत्थितं, 'वत्स' !' उत्तिष्ठ, इति वचः, निशम्य, उत्थितः, सन् , अग्रतः, अन्नविणी, गां, स्वां, जननीम्, इव, ददर्श, सिंहं न 'ददर्श'। वा०-राज्ञा उस्थितेन सता प्रस्रविणी गौः ग्वा जननीव ददृशे, सिंहो न ददृशे। सुधा-राजा-नृपः, अमृतायमानं पीयूषायमाणम्, उत्थितम् = उद्भूतं, 'वत्स !-पुत्र ! उत्तिष्ठ = उत्थितो भव', इति-हत्याकारकं वचः वचनं, निशम्य = श्रुत्वा, उस्वितः = ऊर्ध्वमवस्थानं कृतवान् , सन् = वर्त्तमानः, अग्रतः = अग्रे, प्रत्र, विर्णी = हीरनाववतीम्, गां= नन्दिनीम्, 'स्वाम् आत्मीयां जननी =मातरम् इव यथा, ददर्श अपश्यत्, सिंह मृगेन्द्र, न% नहि, 'ददर्श। समा०-जनयति या सा जननी तां जननीम् । प्रस्रवोऽस्या अस्तीति प्रस्त्रविणी तां प्रस्त्रविणीम् । को०-'पीयूषममृतं सुधा' इत्यसरः। ___ता०-'हे पुन ! उत्तिष्ठ' इत्यमृततुल्यं धेनोर्वचो निशम्य यावदिलीप उत्थितः सन् पश्यति तावदग्रे स्थितां दुग्धस्त्राविर्णी स्वीयां जननीमिव नन्दिनीसेव दृष्टवान् न तु सिंहस् । इन्दुः राजा दिलीप ने अमृत के समान (नंदिनी के मुख से) निकले हए 'हे पुत्र ! उठो' इस वचन को सुनकर उठते हुए आगे 'स्थित' जिसके स्तनों से दूध बह रहा है, ऐसी गौ (नन्दिनी) को अपनी माँ के समान देखा 'किन्तु' सिंह को नहीं देखा ॥ ६॥ तं विस्मितं धेनुभवाच साधो ! मायां मयोद्भाव्य परीक्षितोऽसि | ऋषिप्रभावान्मयि नान्तकोऽपि प्रभुः प्रहर्तुं किमुतान्यहिस्राः ॥ ६२ ॥ सजी०-तमिति । विस्मितमाश्चय गतम् । कतरि का। दिलीपं धेनुरुवाच । किसित्यम्राह-हे साधो ! मया मायामुन्नान्य कल्पयित्वा परीक्षितोऽसि । ऋषिप्रभावान्सयसन्सको यसोऽपि प्रष्ठत न प्रभुन समर्थः अन्ये हिना घातुकाः 'शरारुर्षातुको हिंसः' इत्यमरः । 'ममिकस्पिस्स्यजसकमहिंसदीपो र इत्यादि. रप्रत्ययः । किमुत Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी- सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । सुष्टुन प्रभव इति योज्यम् । 'बलवत्सुष्टु किमुत स्वत्यतीव च निर्भरे' इत्यमरः । ___ अ०-विस्मितं, तं, धेनुः, उवाच, साधो!, मया, मायाम्, उद्भाव्य, 'त्वम्' परीसिता, असि, ऋषिप्रभावाद्, मयि, अन्तकः अपि, प्रह, न प्रभुः, अन्यहिंसाः, किमुत । वा०-विस्मितः स धेन्वोचे अहं त्वाम् परीक्षितपत्यस्मि, अन्तकेनापि प्रभुणा 'भूयते' अन्यहिनैः ॥ ___ सुधा०-विस्मितं = साश्चर्य, तं= दिलीपम् । धेनुः= नन्दिनी, उवाचजगाद, साधो ! = सजन ! मया धेन्वा, मायां-शाम्बरी, सिंहरूपाम् । उद्भाव्य-उत्पाद्य, त्वमिति शेषः । परीक्षित परीक्षाविषयीकृता, असि= भवति, ऋषिप्रसापात्म्वसिष्ठमहर्षिसामर्थ्यात् । मयि धेनौ, अन्तकः = यमः, अपिम्सनुषयेऽर्थे, सम्भावनायां वा । प्रहर्त, = हन्तुं, न= नहि, प्रभुः= समर्थः, अन्यहिंसाः = इतरघातुझाः व्याघ्रादयः। किमुत=बलवद्, 'न प्रभवः न समर्थाः' । समा०-विश्वं माति यस्यामिति मायां तां मायाम् । ऋः प्रभावा अषिप्रभा. वस्तस्मात्तथोक्तात् । अन्ये च ते हिंस्रा अन्यहिंस्राः।। कोशः–'स्यान्माया शाम्बरी' इत्य० । 'प्रभावस्तेजसि शकौ' इत्यने । ता०-हे साधो! मायामुत्पाद्य मया परीक्षा कृता, वसिष्टमहर्तिप्रभाषा यमोऽपि मयि प्रहारं कर्तुं न समर्थो व्याघ्रादयस्तु नितरामसमर्थाः सस्तीति नृपं धेनुरुवाच । ___ इन्दुः-भाश्चर्य से युक्त उन राजा दिलीप से धेनु बोली फि-हे सनन महाराज दिलीप! मैंने माया को उत्पन्न कर तुम्हारी परीक्षा की थी, महर्षि पशिष्टजी के प्रभाव से यमराज भी मुझ पर प्रहार करने के लिये समर्थ नहीं हैं, दूसरे हिंस्र व्याघ्रादि तो और भी समर्थ नहीं हैं ॥२॥ भक्त्या गुरौ मय्यनुकम्पया च प्रीताऽस्मि ते पुत्र ! वरं वृणीष्व ! न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुधां प्रसन्नाम् ॥६॥ सजी०-भक्त्येति । हे पुत्र ! गुरौ भक्त्या मय्यनुकम्पया प ते तुभ्यं प्रीवाऽस्मि । क्रियाग्रहणमपि फर्त्तव्यम्' इति चतुर्थी । वरं देवेभ्यो वरणीयमर्थम् । 'देवाद् वृते वरः श्रेष्ठे त्रिषु क्लीवं मनाक प्रिये' इत्यमरः । वृणीष्व स्वीकुरु । तथाहि-मां केवलानां पयसां प्रसूतिं कारणं नावेहि न विद्धि। किन्तु प्रसन्नां मां कामान्दोग्धोति कामदुधा तामवेहि । 'दुहः कन्धश्च' इति कष्प्रत्ययः। ___ अ०-पुत्र ! गुरौ, भक्त्या , मयि, अनुकम्पया, च, ते, प्रीता, अस्मि, बरं, वृणीष्व, मां, केवलानां, पयसाम्, प्रसूति, न, अवेहि, प्रसन्नां, 'मां' कामदुधाम्, 'अहि'। ___ वा०-प्रीतया मया भूयते त्वया वरो वियतां, त्वयाऽहं प्रसूति वेय प्रसन्नाऽहं कामदुधाऽवेयै। सुधा-पुत्र ! वत्स!' गुरौ वसिष्ठे, भक्त्या = श्रद्धया, मयि = नन्दिन्याम्, अनुकम्पया-दयया, च= समुच्चयेऽर्थे, ते तुभ्यं, प्रीता प्रसना, अस्मि =भवामि, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय अहमिति शेषः। वरं वरणीयमर्थ, वृणीष्व = अङ्गीकुरु, त्वमिति शेषः । तथाहीति शेषः मां नन्दिनीं, केवलानाम् = एकेषाम्, पयसांक्षीराणाम्, प्रसूति-प्रस वित्री, न= नहि, अवेहि =जानीहि, किन्विति शेषः । प्रसन्नां प्रीतां, मामिति शेषः । कामदुघा = काश्यप्रपूरयित्रीम्, अवेहीति शेषः । समा०-कासान् दोग्धीति कामदुधा तां कामदुधाम् । कोशः–'भक्तिः सेवागीणवृत्त्योर्सङ्गयां श्रद्धाविभागयोः' इति । 'कामः स्मरेच्छा काम्येषु' इति चाने। ता०-हे पुत्र ! तेऽहं प्रसन्नाऽस्मि, अतस्त्वं वृणीप्व, तथाहि मां केवलाना दुग्धानां दात्रीं न जानीहि किन्तु कामधेनुदुहितृतया सकलाभीष्टदायिनीमपि जानीहि । इन्दुः-हे पुन्न ! वलिष्ठ महर्षि के विषय में भक्ति रहने से और मेरे विषय में दया रखने से मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। इसलिए तू वर माँग, और मुझे निरी दूध देने वाली गाय मत समझ किन्तु प्रसन्न होने पर अभिलाषों को पूरी करनेवाली भी जान ॥३॥ ततः समानीय स मानितार्थी हस्तौ स्वहस्तार्जितवीरशब्दः । वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्ति सुदक्षिणायां तनय ययाचे ।। ६४ ॥ सजी०-तत इति । ततो मानितार्थी । स्वहस्तार्जितो वीर इति शब्दो येन, एते. नास्य दातृत्वं दैन्यराहित्यं चोकम् । स राजा हस्तौ समानीय सन्धाय । अञ्जलि बद्ध्वेत्यर्थः। वंशस्य कर्तारं प्रवर्तयितारम् । अत एव रघुकुलमिति प्रसिद्धिः। अनन्तकीति स्थिरयशसं तनयं सुदक्षिणायां ययाचे। अ०-ततः, मानितार्थी, स्वहस्तार्जितवीरशब्दः, सः, हस्तौ, समानीय,वंशस्य, कर्तारम् , अनन्तकीर्ति, तनयं, सुदक्षिणायां ययाचे। वा०-मानितार्थिना स्वहस्ता. र्जितवीरशब्देन तेन कर्ताऽनन्तकीर्तिस्तनयो ययाचे ।। ___ सुधा-ततः अनन्तरं, मानितार्थी संमानितयाचकः, स्वहस्तार्जितवीरशब्दनिजबाहुवललब्धवीरपदवीकः, सः = राजा दलीपः, हस्तौ फरौ, समानीय एकत्र निधाय, वंशस्थ = कुलस्य, कर्तारं विधातारम्, अनन्तकीर्ति निरवधियशसं, सनयं पुत्रं, सुदक्षिणायांतदाख्यस्वमहिण्याम, ययाचे=याचितवान् ।। ___समा०-मानिता अर्थिनो येन स मानितार्थी। स्वस्य हस्तौ स्वहस्तौ ताभ्यामर्जितः, स्वहस्तार्जितः बीर इत्याख्यः शब्दो वीरशब्दः, स्वहस्तार्जितो वीरशब्दो येन स तथोक्तः। अविद्यमानोऽन्तोऽस्या इत्यनन्ता, अनन्ता कीर्तिर्यस्य लोऽनन्तकीतित्तं तथोकम् । कोशः–'अनन्तः केशवे शेषे पुमान् निरवधौ त्रिषु' इत्यमरः। ता-राजा दिलीपोऽञ्जलिं बद्ध्वा कुलप्रवर्तकं यशस्विनं पुत्रं प्रार्थितवान् । इन्दुः-उसके बाद याचकों को सन्तुष्ट करनेवाले अपने हाथों से 'वीर' इस शब्द को प्राप्त करनेवाले उन राजा दिलीप ने दोनों हाथों को जोड़कर वंश को चलाने Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सलीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् ।। वाले स्थिरकीर्तिशाली पुत्र 'अपनी रानी' सुदक्षिणा में होने की प्रार्थना की ॥ ६४ ॥ सन्तानकामाय तथेति कामं राज्ञे प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा | दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदोयं पुत्रोपभुब्दवेति तमादिदेश ।। ६५ ॥ सजी०-सन्तानेति । पयस्विनी गौः। सन्तानं कामयत इति सन्तानकामः, 'कर्मण्यण' तस्मै राज्ञे तथेति । काम्यत इति कामो वरः । कर्मार्थे घन्प्रत्ययः । तं प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञाय हे पुत्र ! मदीयं पयः पत्रपुटे पत्रनिर्मिते पात्रे दुग्ध्वोपभुव । 'उपयुव' इति वा पाठः । 'पिब' इति तमादिदेशाज्ञापितवती। अ०-सा, पयस्विनी, सन्तानकामाय, तस्मै, तथा, इति, कामं, प्रतिश्रुत्य, पुत्र ! मदीयं' पयः, पत्रपुटे दुग्ध्वा, उपभुव, इति, तम्, आदिदेश। वा०-तया पयस्विन्या 'स्वया' उपभुज्यतामिति स आदिदिशे। सुधा०-सा-पूर्वोक्ता, पयस्विनी प्रशस्तक्षीरवती, नन्दिनी। सन्तानकामायअपत्यार्थिने, तस्मै-राज्ञे, तथा = तेन प्रकारेण, यथाऽभिलपति भवांस्तथैव भवस्विति भावः । इति = उक्तस्वरूपं, काम काम्यं वरं, प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञाय, 'पुत्र ! -वत्स !, मदीयं-मामकं, पयः क्षीरं, पत्रपुटे = पर्णनिर्मितपात्रे, दुग्ध्वा-दोहनं कृत्वा, उप. भुच्च = पिब', इति इत्याकारक, तम् = दिलीपम्, आदिदेश आज्ञापयामास । समा०-प्रशस्तं पयोऽस्या अस्तीति पयस्विनी तां तथोक्ताम् । पत्राणां पुटः पत्रपुटस्तस्मिंस्तथोक्ते ममेदं मदीयं तत्तथोक्तम् ।। को०-'सन्तानोऽपत्यगोत्रयोः, सन्ततौ' इत्यनेकार्थसंग्रहः । ता०-सा नन्दिनी दिलीपाय तथास्त्विति वरं प्रतिज्ञाय 'हे पुत्र ! मदीयं दुग्धं पत्रनिर्मितपात्रे दुग्ध्वा पिबेत्यादिदेश। इन्दुः-उस उत्तम दूधवाली नन्दिनी ने पुत्र चाहनेवाले राजा दिलीप से 'वैसा ही हो' ऐसी वरदान की प्रतिज्ञा करके 'हे पुत्र ! मेरे दूध को पत्ते के दोने में दुह कर पी लो' ऐसी उन्हें आज्ञा दी ॥ ६५॥ वत्सस्य होमाविधेश्च शेषमृषेरनुज्ञामधिगम्य मातः!। औधस्यमिच्छामि तवोपभोक्तं पशमुा इत्र रक्षितायाः ।। ६६ ।। सजी०-वस्सस्येति । हे मातः! वत्सस्य वत्सपीतस्य शेषम्, बसपीतावशिष्टमित्यर्थः। होम एवार्थः, तस्य विधिरनुष्ठानं, तस्य च शेषम् । होमावशिष्टमित्यर्थः । तव, ऊधसि भवमूधस्यं तदेव औधस्यं क्षोरम् । 'शरीरावयवाच' इति यत्प्रत्ययः। रक्षिताया उाः षष्ठांश षष्ठभागमिव । ऋषेरनुज्ञामधिगग्य उपभोक्तुमिच्छामि। अ०-मातः! वत्सस्य, शेष, हामार्थविधेः, च, 'शेष' तब, औधस्य, रक्षितायाः, उाः, षष्ठांशम्, इव, ऋषः, अनुज्ञाम् अधिगम्य, उपभोक्तुम्, इच्छामि । वा०-हे मातः उाः षष्ठांश इव भोक्तुं मयेष्यते । सुधा-मातः! =जननि ! वत्सस्य =तर्णकस्य, शेषम् = अवशिष्ट, होमार्थ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीयःविधेः = हवनरूपप्रयोजनविधानस्य, च=समुच्चयेऽर्थे, शेषम् = अवशिष्टं, तव = भवत्याः, औधस्यम् = अधोभवं क्षोरम् । रक्षितायाः = पालितायाः, उाम्पृथिव्याः पष्ठांशं षटसंख्यापूरकभागम्, इवम्यया, ऋपेः वसिष्ठस्य, अनुज्ञाम्-आदेशन, अधिगम्यम्प्राप्य, उपभोक्तुम् % उपभोगं कत्तुम्, इच्छामि = कामथे। ममा-होम एवार्थो होमार्थः, तस्य विधिोमार्थविधिः, नस्य तथोक्तस्य। ऊघसि भवसूधस्यं तदेवीघल्यम् । षण्णां पूरणः षष्ठः स चासावंशः षष्ठांशस्तं पष्ठांशम् । को०-ऊधस्तु क्लीवमापीनम्' इति । 'अंशभागौ तु वण्टके' इति चामरः । ता०-हे मातः! वत्सपीतादवशिष्टमग्निहोत्राद्यवशिष्टञ्च ते क्षीरं निजभुजबलपालितायाः पृथिव्याः षष्ठांशरूपं करमिव गुरोर्वसिष्ठमहराज्ञां प्राप्य पातुमिच्छामि । ____ इन्दुः-हे मां! मैं बछड़े के पीने से तथा होमरूप प्रयोजन के अनुष्ठान (अग्नि होत्रादि) से बचे हुये तुम्हारे स्तनों से निकले हुए दूध को पालन की गई पृथ्वी के षष्ठांश (छठे भागरूप) की तरह ऋषि वसिष्ठ की आज्ञा प्राप्त करके पीना चाहता हूँ ।। ६६॥ इत्थं क्षितीशेन वसिष्टधेनुर्विज्ञापिना प्रीवतरा बभूव । तदन्विता हैमवताच्च छुक्षेः प्रत्याययावाश्रममश्रमेण ॥ ६ ॥ सजी०-इत्थमिति । इत्थं क्षितीशेन विज्ञापिता वसिष्ठस्य धेनुःप्रीततरा पूर्वशुश्रूषया प्रीता सम्प्रत्यन्या विज्ञापनया प्रीतवरातिसन्तुष्टा बभूव । तदन्विता तेन दिलीपेनान्विता हैमवताद्धिमवत्सम्बन्धिनः कुक्षेर्गुहायाः सकाशादश्रमेणानायासेनाश्रमं प्रत्याययावागता च । . अ०-इत्थं, क्षितीशेन, विज्ञापिता, वसिष्ठधेनुः, प्रीततरा, बभूव, तदन्विता, हैमवतात्, कुक्षेः, अश्रमेण, माश्रमम्, प्रत्याययौ, च । बा-विज्ञापितया वसिष्ठधेन्वा प्रीततरया बभूवे । तदन्वितयाऽऽश्रमः प्रत्यायये । सुधा--इत्यम् अनेन प्रकारेण, क्षितीशेन-राज्ञा दिलीपेन, विज्ञापिता-निवेदिता वसिष्ठधेनुः = वसिष्ठमहर्षिगवी, प्रीततरा-प्रसनतरा, वभूव= आसीत्, तदन्विता दिलीपयुक्ता, हैमवताद् - हिमवत्सम्बन्धिनः, कुते गुहायाः सकाशात् । अश्रमेण= अनायासेन, आश्रमवासस्थानं, प्रत्याययो-प्रत्याजगाम, च% अन्धाचयेऽर्थे । ___ स०-वसिष्ठस्य धेनुर्वसिष्ठधेनुः । इयमनयोरतिशयेन प्रीतेति प्रीततरा । तेनान्विता तदन्धिता। हिमोऽस्त्यस्मिन्निति हिमवान् , तस्यायं हैमवतस्तस्माद्धमवतात् ।। न श्रम इत्यश्रमस्तेनाश्रमेण । को०-'आश्रमो व्रतिनां मठे। ब्रह्मचर्यादिचतुपकेऽपि' इत्येन। या-इत्थं दिलीपेन निवेदिता नन्दिनी पूर्वापेक्षयाऽधिकतरं प्रसन्ना सती वसिष्ठाश्रमं प्रत्याजयाम । इन्दुः-इस प्रकार से राजा दिलीप के प्रार्थना करने से वसिष्ठ महर्षि की धेनु नन्दिनी अत्यन्त प्रसन्न हुई और दिलीप से युक्त होती हुई हिमालय की गुफा से बिना परिश्रम के आश्रम की तरफ लौटी ॥ ६७ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखः प्रसाद गुरुर्नृपाणां गुरवे निवेद्य । प्रहर्षचिह्नानुमितं प्रियायै शशंस पाचा पुनरुक्तयेव ॥ ६८॥ सो०-तस्या इति । प्रसन्नेन्दुरिव मुखं यस्य स नृपाणां गुरुर्दिलीपः प्रहर्षचिह्न, मुखरागादिभिरनुमितमूहितं तस्या धेनोः प्रसादानुग्रहं प्रहर्षचिरेव ज्ञातत्वात्पुनरुक्तयेव वाचा गुरवे निनेध विज्ञाप्य पश्चाप्रियायै शशंस । कथितस्यैव कथनं पुनरुक्तिः । न चेह तदस्ति । किन्तु चिह्नः कथितप्रायत्वात्पुनरुक्तयेव स्थितयेत्युप्रेक्षा। अ०-प्रसबेन्दुमुखैः, नृपाणां, गुरुः, प्रहपचिह्नानुमितं, तस्याः, प्रपाद, षुनरुक्कया, इव, वाचा, गुरवे, निषेध, 'पश्चात्' प्रियाये, शशंस । वा०-प्रसन्नेन्दुमुखेन गुरुणा प्रहपंचिह्नानुमितः प्रसादः शशंसे। सुधा-प्रसन्नेन्दुमुखः = स्वच्छन्द्रवदनः, नृपाणां राज्ञां, मध्य इति शेषः । गुरुः = श्वष्ठः, दिलीपः, प्रहर्षेचिह्नानुमितम् - उत्कटप्रमोदलक्षणतर्कितम् । तस्याः= नन्दिन्याः, प्रसादम् = भनुग्रहम, प्रहर्षचिढेरेव ज्ञाततया पुनरुक्तया = भूयः कथि. तया, इव= यथा, वाचावनेन, गुरुवे = वसिष्ठाय, निवेद्य विज्ञाप्य 'पश्चात्' प्रियायै=भार्याय, शशंभ-कथयामास । . समा०-प्रसन्नश्वासाविन्दुः प्रसन्नेन्दुः स इव मुखं यस्य स तथोक्तः। प्रकृष्टा होः प्रहर्षास्तेषां चिह्नानि तैरनुमितः प्रहर्षचिह्नानुमितस्तं तथोक्तम् । __ कोश:-'प्रसन्ना स्त्री सुरायां स्यात् स्वच्छसन्तुष्टयोनिषु' इति मे० । 'प्रसादस्तु प्रसन्नता' इत्यमरः। ___ ता०-अतिप्रसन्नो दिलीपः स्वकीयमुखरागादिभिः प्रसन्नतायोतकचिह्नः कथितप्रायं नन्दिन्या वरप्रदानरूपानुग्रहं पुनरुकमिव प्रथमं गुरवे पश्चात् सुदक्षिणायै निवेदयामाल। इन्दुः-निर्मल चन्द्रमा की भाँति स्वच्छ मुखवाले राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप ने अधिक प्रसन्नता के घोतक मुख की लालिमा आदि चिह्नों से जिसका अनुमान हो रहा था, ऐसे उस नन्दिनी के वरदानरूपी अनुप्रह को हर्ष के जाननेवाले चिह्नों से कहने से पहिले ही मालूम हो जाने से दुबारा कही जाती हुई वाणी की भौति गुरुजी से निवेदन किया पश्चात् प्यारी पटरानी सुदक्षिणा से भी कहा ॥ ६८ ॥ स नन्दिनीस्तन्यमनिन्दितात्मा सद्वत्सलो वत्सहुतावशेषम् । पपौ वसिष्ठेन कृताभ्यनुशः शुभ्र यशो मूमिवातितृष्णः।। ६६ ।। सजी०-स इति । अनिन्दितात्माऽगर्हितस्वभावः सत्सु वत्सलः प्रेमवान्सदरसलः । 'वरसांसाभ्यां कामबले' इति लच्प्रत्ययः। वसिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः कृतानुमतिः स राजा वरसस्य हुतस्य घावशेषं पीतेहुतावशिष्ट नन्दिन्याः स्तन्यं क्षीरं शुभ्रं मूर्त परिच्छिन्नं यश इव । अतिवृष्णः सन् पपौ। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् पपौ। रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय ___ अ०-अनिन्दितात्मा, सद्वत्सलः, वसिष्ठेन, कृताभ्यनुज्ञः, स, वरसहुतावशेष, नन्दिनीस्तन्यं, शुभं, मूर्त, यशः, इव, अतितृष्णः, 'सन्' पपौ। वा०-अनिन्दितात्मना सद्वत्सलेन कृताभ्यनुज्ञेन तेनातितृष्णेन पपे। सुधा-अनिन्दितात्मा = अजुगुप्सितस्वभावः, सद्वत्सलः = साधुस्निग्धः, वसि प्ठेन = तदाख्यमहर्षिणा, कृताभ्यनुज्ञः विहितनिर्देशः, सः- दिलीपः, वत्सहुताव शे = तशंकहवनयोरवशिष्टम्, नन्दिनीस्तन्यं = वसिष्ठधेनुक्षीरम् । शुभ्र = श्वेतं मूनं मूर्तिमत्, यशः = कीर्तिम्, इव - यथा, अतितृष्णा अतिशयपिपासितः, 'सन्' इति शेषः । पपौ= अपिवत् । ___ समा०-स्तने भवं स्तन्यं, नन्दिन्याः स्तन्यं नन्दिनीस्तन्यं तत्तोथोक्तम् । अनि न्दिन आत्मा यस्य सोऽनिन्दितात्मा। वत्से पुत्रादिस्नेहपात्रेऽभिलाषोऽस्यास्तीति वत्सलः सत्सु वत्सलः सद्वत्सलः । वसश्च हुतन्चेति वत्सहुते तयोरवशेषो वत्स. हुतावशेषस्तं तथोक्तम् । कृताऽभ्यनुज्ञा यस्य स कृताभ्यनुज्ञः । अतिशयिता तृष्णा यस्य सोऽतितृष्णः। कोशः-'स्निग्धस्तु वत्सलः मूर्तःस्यास्त्रिषु मूर्छाले काठिन्ये मूर्तिमत्यपी'त्यमरमे० ___ता-दिलीपो गुरोराज्ञया नन्दिनीदुग्धं मूर्ति दधद् धवलं यश इव सतृष्णः इन्दुः-प्रशंसनीथ स्वभाववाले, सजनों से प्रेम रखने वाले, वसिष्ठ महर्षि की आज्ञा को प्राप्त किये हुए, उन राजा दिलीप ने बछड़े के पीने से तथा अग्निहोत्र से बचे हुए नन्दिनी के दूध को सफेद मूर्तिको धारण किये हुये यश की भाँति अधिक तृष्णा से युक्त होते हुए पिया ।। ६९॥ । प्रातर्यथोक्तव्रतपारणाऽन्ते प्रास्थानिक स्वस्त्ययनं प्रयुज्य । तो दरूपती स्वां प्रति राजधानी प्रस्थापयामास वशी वसिष्ठः ॥७०॥ सो०-प्रातरिति । वशी वसिष्ठः प्रातः यथोक्तस्य व्रतस्य गोसे वारूपस्यान्न भूना या पारणा तस्या अन्ते प्रास्थानिकं प्रस्थानकाले भवं तत्कालोचितमित्यर्थः । 'काला' इति ठन्प्रत्ययः । 'यथा कथंचिद् गुणवृत्त्याऽपि काले वर्तमानत्वात् प्रन्यय इष्यते' इति वृत्तिकारः । ईयते प्राप्यतेऽनेनेत्ययनं स्वस्त्ययन शुभावहमा. शीर्वाद प्रयुज्य तौ दम्पती स्वां राजधानी प्रति, प्रस्थापयामास।। अ०-वशी, वशिष्ठः, प्रातः, यथोक्तवतपारणाऽन्ते, प्रास्थानिक स्वस्त्ययनं, प्रयुज्य, तौ, दम्पती, स्वां, राजधानी, प्रति, प्रस्थापयामास । वा-वशिना वसिष्ठेन प्रस्थापयाञ्चक्राते । सुधा०-वशी, जितेन्द्रियः, वसिष्ठः =तदाख्यमहर्षिः, प्रातः प्रभाते, यथोक्त. व्रतपारणाऽन्ते यथाकथितनियमान्तभोजनावसाने, प्रास्थानिक यात्राकालिक, स्वस्त्ययन शुभदमाशीर्वादम्, प्रयुज्य-दत्वा, तौ सुदक्षिणादिलीपो, दम्पती Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः] सञ्जीविनी-सुधेन्दुटीकात्रयोपेतम् । ५६ जायापती, स्वाम् = आत्मीयां, राजधानी प्रति = अयोध्यामुद्दिश्य, प्रस्थापयामास= प्रेषयामास। ___ समा०-उक्तमनतिक्रम्येति यथोक्तं, यथोक्तंच तद् व्रतं यथोक्तव्रतं तस्य पारणा यथोक्तवतपारणा, तस्या अन्तो यथोक्तव्रतपारणाऽन्तस्तस्मिस्तथोक्ते । प्रस्थाने भवं प्रास्थानिकम् । स्वस्ति क्षेमस्य अयनं तत्स्वस्त्ययनम् । धीयन्तेऽस्यामिति धानी, राज्ञां धानी राजधानी तां तथोक्ताम् । बशमिन्द्रियोपरि प्रभुत्वमस्यास्तीति वशी। कोशः-'यात्रा व्रज्याभिनिर्याणं प्रस्थानं गमनं गमः' इति । 'दम्पती जम्पती जायापती भार्यापती च त तौ' इति चामरः। ता०-वसिष्ठः प्रातःकाले आशीर्वादं दत्वा सुदक्षिणादिलीपो अयोध्यां प्रति प्रस्थापयामास। इन्दुः-इन्द्रियों के ऊपर अपनी प्रभुता रखनेवाले (जितेन्द्रिय) वसिष्ठ महर्षि ने प्रातःकाल में पूर्वोक्त गोसेवा रूप व्रत की पारणा कर चुकने के बाद प्रस्थानकालोचित स्वस्त्ययन करके उन दोनों स्त्री पुरुष सुदक्षिणा और दिलीप को उनकी राजधानी अयोध्या की तरफ भेजा ॥७॥ प्रदक्षिणीकृत्य हुतं हुताशमनन्तरं भनुररुन्धतीं च । धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावः ।। ७१ ।। __ सजी०-प्रदक्षिणीकृत्येति । नृपो हुतं तर्पितं, हुतमश्नातीति हुताशोऽग्निः। कर्मण्यम्। तं भत्तु मुनेरनन्तरम् प्रदक्षिणान्तरमित्यर्थः। अरुन्धती च सवत्सां धेनुं च प्रदक्षिणीकृत्य प्रगतो दक्षिणं 'तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च' इत्यव्ययीभावः ततश्च्विः । अप्रदक्षिणं सम्पद्यमानं कृत्वा प्रदक्षिणीकृत्य सद्भिर्मङ्गलाचारैरुदग्रतरप्रभावः सन्प्रतस्थे। ___ अ०-नृपः, हुतं, हुताशं, भर्तः अनन्तरम्, अरुन्धतीं, च, सवरसां, धेनुं च, प्रदक्षिणीकृत्य, सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावः 'सन्' प्रतस्थे । वा०-तृपेण सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावेण 'सता' प्रतस्थे। ___ सुधा-नृपः राजा, हुतं प्राप्तहविष, हुताशमू-अग्निम् भत्तः = स्वामिनः, वसिष्ठस्येत्यर्थः, अनन्तरम् = पश्चात्, अरुन्धती = वसिष्ठभायाँ, च = समुच्चयेऽर्थे, सवत्सां तर्णकसहितां, धेनुं गां, च = समुच्चयेऽर्थे, प्रदक्षिणीकृत्य = परिक्रम्य, सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावः-श्रेष्ठभद्रोपिकृततरतेजाः, 'लन्' प्रतस्थे%प्रस्थानं कृतवान् । ___समाव-भविद्यमानसन्तरं यत्र तदनन्तरम् । बिभर्तीति भर्त्ता तस्य भत्तः । वत्सेन सहिता सवत्सा तां सवत्साम् । सन्ति च ताति मङ्गालानि सन्मङ्गलानि अयमनयोरतिशयेनोदय इत्युदग्रतरः, सन्मङ्गलैरूदग्रतरः सन्मङ्गलोदग्रतरः स प्रभावो यस्य स तथोक्तः। कोशः–'भग पोष्टरि धारके' इत्यने । 'सन्साधौ धीरशस्तयोः' इति मे०। ___ ता०-दिलीपो हुतमग्नि पत्नीसहित वसिष्ठञ्च तथा सवत्सां धेनुमपि परिक्रम्य प्रदक्षिणादिभिः सन्मङ्गलाचारैः प्रवृद्धतेजाः 'सन्' राजधानी प्रति जगाम । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम् [द्वितीय इन्दुः-राजा दिलीप ने आहुती दिये हुये अग्नि की और रक्षा करनेवाले वसिष्ठ जी की प्रदक्षिणा कर चुकने के बाद उनकी पत्नी अरुन्धती तथा बछड़े के महित नन्दिनी की भी प्रदक्षिणा करके अच्छे मङ्गलमय प्रदक्षिणा आदि करने से बढ़े हुए तेज वाले होते हुये प्रस्थान किया॥ ७॥ श्रोत्राभिरामध्नानना रथेन स धर्मपत्नीसहितः उहिष्णुः । ययावतुद्धातसुखेन मार्ग स्वेने पूर्णेन मनोरथेन ।। ७२ ॥ सजी०-श्रोत्रेति । धर्मपत्नीसहितः सहिष्णुतादिदुःखसहनशीलः स नृपः श्रोत्राभिरामध्वनिना कर्णालादकरस्वनेनानुद्धातः, पाषाणादिप्रतिधातरहितः, अत एव सुखयतीति सुखः, तेन रथेन स्वेन पूर्णेन सफलेन मनोरथेनेव मार्गमध्वानं ययौ । मनोरथपक्षे-ध्वनिः श्रुतिः । अनुद्धातः प्रतिवन्धनिवृत्तिः । अ०-धर्मपत्नीसहितः, सहिष्णुः, सः, श्रोत्राभिरामध्वनिना, अनुद्धातसुखेन, रथेन, स्वेन, पूर्णेन, मनोरथेन, इव, मार्ग, ययौ। वा०-धर्मपत्नीसहितेन सहिष्णुना तेन मार्गो यये। सुधा-धर्मपत्नीसहितः = सुदक्षिणायुतः, सहिष्णु तितिक्षुः, सा-दिलीपः, श्रोत्राभिरामध्वनिना = कर्णानन्दप्रद निनादेन, 'मनोरथपक्षे कर्णानन्दप्रदाकर्णनेन । अनुद्धातसुखेन =स्खलनरहितशर्मकरण, मनोरथपक्षे प्रतिबन्धनिवृत्त्याऽत एवं सुखकरेण रथेन स्यन्दनेन, स्वेन = आत्मीयेन, पूर्णेन सफलेन, मनोरथेन-अभिलाषेण, इव= यथा, मार्ग= पन्थान, ययौ जगाम । ___ स०-श्रोत्रयोरभिरामः श्रोत्राभिरामः श्रोत्राभिरामोध्वनिर्यस्य सः श्रोत्राभिरा. मध्वनिस्तेन तथोक्तेन धर्माय पत्नी धर्मपत्नीतया सहितो धर्मपत्नीसहितः । सहनशीलः सहिष्णुः सुखयतीति सुखः उद्धननमुद्रातः न उदातोऽनुद्धातस्तेन सुखोऽनुद्धातसुखस्तेनातथोक्तेन । मन एव रथोऽत्रेति मनोरथस्तेन तथोक्तेन । को०-'उद्धातस्तु पुमान् पादल्खलने समुपक्रमे' इति मेदिनी। ___ ता०-पत्नीसहितो दिलीपः सुखप्रदेन रथेन निजेन सफलमनोरथेनेव मार्गमु. लचितवान् । इन्दु-धर्मपत्नी सुदक्षिणा के सहित व्रतादि सम्बन्धी दुःखों के सहन करनेवाले उन राजा दिलीप के कानों को सुख देनेवाली है ध्वनि जिसकी तथा नीचे ऊचे पत्थरों की ठोकर से जिसमें से नहीं गिर सकता, अतएव सुखप्रद रथ से जो सुनने से कानों को सुख देनेवाला हे तथा प्रतिवन्ध के दूर हो जाने ले आनन्दप्रद है ऐसे अपने सफल हुये मनोरथ के समान रास्ता को तय करने लगे ॥ ७२ ॥ तमाहितीत्सुक्बमदर्शनेन प्रजाः प्रजार्थप्रतकशिताङ्गम् । नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भिर्नवोदयं नाथमिवौषधीनाम् ।। ७ ।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीवनी - सुधेन्दु टीकात्रयोपेतम् | सभी - तमिति । श्रदर्शनेन प्रवासनिमित्तेनाहितौत्सुक्यं जनितदर्शनोत्कण्ठम प्रजाऽर्थेन सन्तानार्थेन व्रतेन नियमेन कर्शितं कृशीकृतमङ्गं यस्य तम् । नदोदयं नवाभ्युदयं प्रजास्तृप्तिमनाप्नुवद्भिरतिगुष्नुभिर्नेनैः । ओषधीनां ना सोममिव तं राजानं पपुः, अत्यास्थया दहशुरित्यर्थः । चन्द्रपक्षे = अदर्शनं कलाक्षयनिमित्तम् प्रजार्थं लोकहितार्ह व्रतं देवताभ्यः कलादाननियमः ( तं च सोमं पपुर्देवाः पर्याये णानुपूर्वशः ) इति व्यासः । उदय आविर्भावः । अन्यत्समानम् । ६१ अ० - अदर्शनेन, आहितौत्सुक्यं, प्रजाऽर्थव्रतकर्शितानं, नवोदयं प्रजाः, तृप्तिम्, अनाप्नुवद्भिः, नेत्रैः, ओषधीनां नाथं, सोमम्, इव, तं पपुः । - वा० – आहितौत्सुक्यः प्रजार्थंव्रत कर्शिताङ्गो नवोदयः प्रजाभिर्नाथ इव स पपे । सुधा० - आदर्शनेन = अनवलोकनेन चन्द्रपते कलाचजन्येनादर्शनेनेति यावद् । आहितौत्सुक्यम् = आस्थापितौत्कण्ठ्य, प्रजाऽर्थत्रत कर्शिताङ्ग= सन्ततिप्रयोजन कनियमहसितगात्रं, चन्द्रपक्षे = लोकहितार्थ देवसम्बन्धिकलादानरूप नियम कृशीकृतगात्रं, नवोदयं = नवीनसमुन्नतिं, 'चन्द्रपत्ते' नवीनाविर्भावम् । प्रजाः जनाः, तृप्तिं तर्पणम्, अनाप्नुवद्भिः = अनधिगच्छद्भिः, अतिशयगर्धनैरिति भावः । नेत्रैः = नयनैः, ओष• धीनां = फलपाकान्तव्रीहियवादीनां नाथं = स्वामिनं, चन्द्रम् । इव = यथा, |तं = राजानं, पपुः पिबन्ति स्म, सापेक्षमवलोकयामासुरिति भावः । - समा० - उत्सुकस्य भाव औत्सुक्यम्, आहितमौत्सुक्यं प्रनासु स्वदर्शनसम्बन्धि येन स आहितौत्सुक्यस्तं तथोक्तम् । न दर्शनमदर्शनम् तेनादर्शनेन । प्रजा एवार्थः प्रयोजनं यस्य तत्प्रजाऽर्थं तच्च तद् व्रतं प्रजाऽर्थव्रतं तेन कर्शितं प्रजार्थव्रतकशितं तद् अङ्गं यस्य स प्रजाऽर्थत्रतकर्शिताङ्गस्तं तथोक्तम् । नव उदयो यस्य स नवोद• यस्तं नवोदयम् । कोशः -- ' प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः । नूत्नश्च' इत्यमरः । ता०:- - प्रजार्थं गोसेवारूपव्रतेन कृशीकृतशरीरं तं दिलीपं सतृष्णैर्नेत्रैश्चन्द्रमिव दशुः । इन्दुः- प्रवास होने के कारण नहीं देख पढ़ने से 'चन्द्रपक्ष में' कला के तय हो जाने से नहीं दीख पड़ने से लोगों से देखने की उत्कण्ठा जिसने उत्पन्न करा दी है तथा पुत्र के लिए गोसेवारूप व्रत करने से जिनका शरीर कृश हो गया है, 'चन्द्रपक्ष में' लोक के हित के लिए देवताओं को अमृतरूपी कलाओं के दानरूपी नियम से जिनका नवीन आविर्भाव हुआ है, ऐसे ओषधियों के स्वामी चन्द्रमा की भाँति उन राजा दिलीप को प्रजाओं ने अतृप्त नेत्रों से देखा ॥ ७३ ॥ पुरन्दरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरैरभिनन्द्यमानः । भुजे भुजङ्गेन्द्रसमानसारे भूयः स भूमेषु रमाससञ्ज ॥ ७४ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ रघुवंश महाकाव्यम् - [ द्वितीय सञ्जी० - पुरन्दरेति । पुरः पुरीरसुराणां दारयतीति पुरन्दरः शक्रः । 'पूः सर्वयोर्दा रिसहोः' इति खष्प्रत्ययः । ' वाचंयमपुरन्दरौ च' इति मुमागमो निपातितः । तस्य श्रीरिव श्रीर्यस्य स नृपः पौरैरभिनन्द्यमानः । उत्पताकमुच्छ्रितध्वजम् | 'पताका वैजयन्ती स्यात् केतनं ध्वजमखियाम्' इत्यमरः । पुरं प्रविश्य भुजङ्गेन्द्रेण समान सारे तुल्यवले | 'सारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीवं वरे त्रिषु' इत्यमरः । भुजे भूयो भूमेर्धुरमाससञ्ज स्थापितवान् । अ० - पुरन्दरश्रीः, सः, पौरः, अभिनन्द्यमानः, उत्पताकम्, पुरं प्रविश्य, भुजं ङ्गेन्द्रसमानसारे, भुजे, 'भूयः, भूमेः, धुरम्, आससञ्ज । वा०- - पुरन्दरश्रिया तेन पौरैरभिनन्द्यमानेन धूरासस । सुधा० -- पुरन्दरश्रीः = इन्द्रशोभः, स राजा दिलीपः, पौरैः = अयोध्यावासिजनै अभिनन्द्यमानः अभितुष्यमाणः, सन्निति शेषः । उत्पताकम् = उच्छ्रितकेतनम्, पुरं = नगरम्, प्रविश्य= प्रवेशं कृत्वा, भुजङ्गेन्द्रसमानसारे= सर्पराजतुल्यबले, भुजे = बाहौ भूयः = पुनः, भूमेः = पृथिव्याः, धुरं=भारम्, आससञ्ज = आलम्बनं कृतवान् । अस्मिन सर्गे प्रारम्भत एतावच्छ्रलोकावधि सर्वत्रोपजातिनामकं वृत्तं बोध्यं तल्लक्षणं यथा वृत्तरत्नाकरे – 'अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादी यदीयावुपजातयस्ता ' इति । तथा च क्वचित कचित् उपेन्द्रवज्रे स्याख्ये वृत्त अपि दृग्गोचरीभवतस्तलक्षणे क्रमत ऊह नीये यथा-उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ' इति । 'स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः' इति च । समा० - पुरन्दरस्य श्रोरिव श्रीर्यस्य पुरन्दरश्रीः । उच्छ्रिता पताका यस्मि स्तदुक्तिपताकं तत्तथोक्तम् । अभिनन्द्यतेऽसावित्यभिनन्द्यमानः । भुजाभ्यां गच्छ न्तीति भुजङ्गास्तेष्विन्द्रो भुजङ्गेन्द्रस्तेन समानो भुजङ्गेन्द्रसमानः स सारो यत्व स भुजङ्गेन्द्रसमानसारस्तस्मिंस्तथोक्ते । को० - 'श्रीर्लचम्यां सरलद्रुमे । वेषोपकरण वेषरचनायां सतौ गिरि । शोभा त्रिवर्गसम्पत्योः' इत्यने० । ता० पुरवासिप्रजाजनैः स्तूयमानः सन् स पुनः पृथिव्याः पालनरूपभारं घृतवान् । इन्दुः- इन्द्र के समान कान्ति बाले उन राजा दिलीप ने पुरवासियों से अभिनन्दन किये जाते दुए, जिसमें पताकायें फहरा रही थीं, ऐसे 'अयोध्या' नामक नगर में प्रवेश करके सर्पशन वालुकि के समान बल रखने वाले बाहु पर फिर पृथिवी के पालन रूप भार को धारण किया ॥ ७४ ॥ अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव यौः सुरसरिदिव तेजो बहिनिष्टतमैशम् नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राशी गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः ॥ सञ्जी० - अथेति । अथ द्यौः सुरवर्त्म 'द्यौः स्वर्गसुरवर्त्मनोः' इति विश्वः | अत्रेर्मह धैर्नयनयोः समुत्थमुत्पन्नं नयनसमुत्थम् । 'आतश्चोपसर्गे' इति कप्रत्ययः । ज्योति रिव चन्द्रमिवेत्यर्थः । 'ऋक्षेशः स्यादत्रिनेत्रप्रसूतः' इति हलायुधः। चन्द्रस्यात्रिनेत्रोद्भ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः ] सञ्जीविनी - सुधेन्दुटी कात्रयोपेतम् । ६३ तत्वमुक्तं हरिवंशे- 'नेत्राभ्यां वारि सुस्राव दशधा द्योतयद् दिशः । तद्गर्भ विधिना हृष्टा दिशो देव्यो दधुस्तदा ॥ समेत्य धारयामासुर्न च ताः समशक्नुवन् । स ताभ्यः सहसैबाथ दिग्भ्यो गर्भः प्रभान्वितः । पपात भासयँल्लो कान्छीतांशुः सर्वभावनः ॥ इति । सुरसरिद् गङ्गा वह्निना निष्ठयूतं निक्षिप्तं 'च्वोः शूडनुनासिके च' इत्यनेन निपूर्वाष्ठी वतेर्वकारस्य ऊठ् । 'नुत्तनुन्नास्तनिष्ठ्यूताविक्षिप्ते छरिता समाः' इत्यमरः । ऐशं तेजः स्कन्दमिव । अत्र रामायणं- ( ते गत्वा पर्वतं राम कैलासं धातुमण्डितम् | अग्नि नियोजयामासुः पुत्रार्थं सर्वदेवताः ॥ देवकार्यमिदं देव ! समाधत्स्व हुताशन ! शैल: पुत्र्यां महातेजी गङ्गायां तेज उत्सृज ॥ देवतायां प्रतिज्ञाय गङ्गामभ्येत्य पावकः । गर्भ धारय वै देवि ! देवतानामिदं प्रियम् ॥ इत्येतद्वचनं श्रुत्वा दिव्यं रूपमधारयत् । सा तस्या महिमां दृष्ट्वा समन्तादवकीर्य च ॥ समन्ततस्तु तां देवीमभ्यषिञ्चत पावकः । सर्वखोतांसि पूर्णानि गङ्गाया रघुनन्दन ! ॥ इति ) राज्ञो सुदक्षिणा नरपतेर्दिलीपस्य कुलभूत्यै संततिलक्षणाय गुरुभिर्महद्धिर्लोकपालानामनुभावैस्तेजोभिरभिनिविष्टम्, अनुप्रविष्टं गर्भमाधत्त दधावित्यर्थः । अत्र मनुः - ( अष्टानां लोकपालानां वपुधारयते नृपः इति । 'आधत्त' इत्यनेन स्त्रीकर्तृकधारणमात्रसुच्यते । तथा मन्त्रे च दृश्यते - ( यथेयं पृथिवी मह्यमुत्ताना गर्भमादधे । एवं तं गर्भमाधेहि दशमे मासि सूतवे ॥ ) इत्याश्वलायनानां सीमन्तमन्त्रं स्त्रीव्यापारधारण आधानशब्दप्रयोगदर्शनादिति । मालिनी वृत्तमेतत् । तदुक्तम्- 'ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः' इति लक्षणात् । इति महामहोपाध्यायको लाचलमल्लिनाथ सूरिविरचितया सञ्जीवनीसमाख्यया व्याख्यया समेते महाकविश्रीकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये नन्दिनीवरप्रदानो नाम द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥ अ० - अथ द्यौः, अत्रेः, नयनसमुत्थं, ज्योतिः, इव, सुरसरिद्, वह्निनिष्ट्यूतम्, ऐशं, तेजः, इव, राज्ञी, नरपतिकुलभूत्यै, गुरुभिः, लोकपालानुभावः, अभिनिविष्टं गर्भम, आधत्त । वा० - अथ दिवा सुरसरिता, राज्ञा अभिनिविष्टो गर्भ आधीयत । सुधा-अथ = अनन्तरम्, द्यौः = व्योम, अत्रेः = तदाख्यमहर्षेः, नयनमसुत्थं = नेत्रोत्पन्नं, ज्योतिः = प्रकाशम्, चन्द्रम् । इव = यथा, सुरसरिद् = गङ्गा, वह्निनिट्यूतम् = अग्निक्षिप्तम्, ऐशम् = शङ्करसम्बन्धि, तेजः = रेतः, स्कन्दम । हृद = यथा राज्ञी = राजपत्नी, नरपतिकुलभूत्यै = मनुष्येश्वरान्वयसम्पत्त्यै, गुरुभिः श्रेष्ठः, लोकपालानुभावैः = अष्टदिगीशांशैः, अभिनिविष्टम् = अनुप्रविष्टम्, गर्भ = भ्रूणम्, आ धत्त = दधार । अस्मिन् पद्ये 'मालिनी' नाम वृत्तं, तल्लक्षणं यथा श्रुतबोधे- -प्रथनमगुरुपट्कं विद्यते यत्र कान्ते ! तदनु च दशमं चेदक्षरं द्वादशान्त्यम् । करिभिरथ तुरङ्गेयंत्र Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुवंशमहाकाव्यम्-- [द्वितीयःकान्ने ! विरामः, सुकविजनमनोज्ञा मालिनी सा प्रसिद्धा' इति । अन्यच्चापि वृत्तरत्ना. करोक्तं लक्षणतज्ज्ञेयं तद्यथा-'ननमयययुतेयं मालिनी मोगिलौकैः, इति तदुदा हरणं यथात्रैव। 111 111 SSS SS SS अथन यनस सुत्थंज्यो तिरत्रे विद्यौः समा०-नयनयोः समुत्थं नयनसमुत्थं तत्तथोक्तम् । सुराणां सरित् सुरसरित् वह्निना नियूतं वह्निनिष्ठयूतं तत्तथोक्तम् । ईशस्येदमैशं तदैशम् । नराणाम्पतिर्नर पतिस्तस्य कुलं नरपतिकुलं तस्य भूतिर्नरपतिकुलभूतिस्तस्य तथोक्तायै । लोकं पालयन्तीति लोकपालास्तेपामनुभावा लोकपालानुभावास्तैस्तथोक्त। ___ को०-'ज्योतिरग्नौ दिवाकरे । पुमान् नपुंसकं दृष्टौ स्यानक्षत्रप्रकाशयोः' इति मे । 'भूतिर्भस्मनि सम्पदि' इति । 'गर्भो भ्रूण इमो समौ' इति चामरः। ___ ता०-यथा व्योम चन्द्रं यथा गङ्गा शिवसम्बन्धि वीर्य च दधार तथैव सुद क्षिणाऽपि दिलीपकुलस्थापनार्थ गौ तवती। ____हन्दुः-इसके बाद आकाश ने जैसे अनि मुनि के नेत्रों से उत्पन्न ज्योतिः स्व. रूप चन्द्रमा की और देवनदी गङ्गाजी ने जैसे अग्नि से फेंके हुये शंकरसम्बन्धी (स्कन्द को पैदा करने वाले) वीर्य को धारण किया, उसी भाँति रानि सुदक्षिणा ने भी राजा दिलीप के कुल की 'सन्तान रूप' सम्पत्ति के लिये श्रष्ठ लोकपालों के तेज से गर्भ को धारण किया ॥ ७५ ॥ इत्थं श्रीव्रजमोहनात्मजनुषा गोस्वामिविद्वद्वरश्रीदामोदरशास्थिशिष्यपदवीभाजाऽच्युतानुग्रहात् । श्रीब्रह्मान्वितशङ्करेण विहिता व्याख्या सुधाऽऽल्या नवा पूर्ति श्रीरघुवंशकाव्यसुभगे सर्गे द्वितीयेऽध्यगात् ॥ इति श्रीलश्रीरामचरित्रमणित्रिपाठिपोण्यपुत्र-श्रीवाजमोहनि-पङक्तिपावनब्रह्मशङ्करमिश्रेण कृतया सुधाव्याख्ययाऽन्विते रघुवंशे सहाकाव्ये नन्दिनीवरप्रदानो नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥ -of-to Page #149 -------------------------------------------------------------------------- _