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सनातनजैनग्रंथमाला
२२
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श्रीमदाचार्य गुरुदासविराचत प्रायश्चित्त-समुच्चय
चूलिका सहित
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अनुवादकपं० पन्नालालजी सोनी, मुरैना
प्रकाशिका
श्रीभारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनीसंस्था)
६ विश्वकोष लेन, वाघवाजार, कलकत्ता .
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भाद्रपद वीर सं० २४५३
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श्रीवीतरागाय नमः। सनातन जैनग्रंथमाला
२२ श्रीमद्-गुरुदासाचार्यविरचित
प्रायश्चित्त-समुच्चय . (हिंदीटीका सह)
- संयमामलसद्रनगभीरोदरसागरान् । . श्रीगुरूनादराद्वन्दे रत्नत्रयविशुद्धये ॥१॥
अर्थ-जो संयमरूप निर्मल और समीचीन रत्नोंके अगाध और उदार समुद्र हैं उन श्रीमहन्तादि पंच गुरुपोंको रत्नत्रयको विवदिके लिए भक्ति-भावसे नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ-जो जिस गुणका इच्छुक होता है वह उसी गुण. वालेकी सेवा शुश्रूषा करता है । जैसे धनुष चलानेकी विद्या. सीखनेवाला पुरुष उस धनुषविद्याको जानने और चलानेवाले
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. . . : ..... ख ... कुछ संभव है । अतः जिन महाशयोंको शब्द वा अर्यकी अशुद्धि ज्ञात हो सके वे अवश्य सूचित करनेकी कृपा करें।
आजसे लगभग दो साल पहिले हम श्रीमद्देवाधिदेव गोम्मटेश्वरके अभिषेक जलसे पवित्र होनेके, लिये श्रवणवेल गोला (जैनवदी) गये थे उस समय शोलापुर वासी श्रेष्टिवर्य रावजी सखाराम दोशीकी अनुमतिसे आलंद (शोलापुर ) वासी श्रीष्ठिवर्य माणिकचंद मोतीचन्दजीने इस ग्रंथके प्रकाशनार्थ पांचसौ रुपये इस शर्तपर देना स्वीकार किया था कि-ग्रंथ - प्रकाशित होकर न्योछावर आनेवाद संस्था उन्हें रुपये वापिस
भेजदे तदनुसार आपकी सहायता प्राप्तकर यह ग्रंथ प्रकाशित किया जाता है। उक्त दोनों सेठ साहबोंको कोटिशः धन्यवाद है जिससे मुनि और गृहस्थ दोनोंको अपनी अपनी शुद्धि होनेका आगमोक्त मार्ग मालूम हो जायगा और वे शुद्ध हो सकेंगे। : ... ... ... . पितो भाद्रपद शुक्ल पांचमी । निवेदकवृहस्पतिवार वीर सं० २४५३. ), श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ
मंत्रो-भा० जैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था ... विश्वकोषलेना बाघबाजार, कलकत्ता
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प्रायश्चित-समुच्चय ।
की उपासना करता है। ग्रन्थकर्ता भगवान् गरुदास आचार्य भी रत्नत्रयकी विशुद्धिके इच्छुक हैं। अतः वे रत्नत्रयस विशुद्ध पंच परमेष्ठीको नमस्कार करते हैं। श्रीगुरु नाय पंच परमेष्ठोका है। यह नाम इस व्युत्पत्तिसे लब्ध होता है । श्रीनाम सम्पूर्ण वस्तुओंकी स्थिति जैसी हैं वैसीको वैसी जाननेमें समर्थ ऐसी परिपर्ण और निर्मल केवलज्ञानादि लक्ष्मीका है उस लक्ष्यो कर जो संयुक्त हैं वे श्रीगुरु हैं। ऐसे श्रीगुरु तीनकालके विषयभूत पंच परमेष्ठी ही होते हैं। तथा वे श्रीगुरु रत्नत्रय कर विशुद्ध हैं। यदि वे स्वयं रलायसे विशुद्ध न हों तो औरोंकेलिए रत्नत्रयको विशुद्धिके कारण नहीं हो सकते । सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान और सम्यक्चारित्रका नाम रत्नत्रय है । संयम नाम सम्यक्चारित्रका है वह पचिपकारका है। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धिः सूक्ष्मसापराय और यथाख्यात । यह पांचों प्रकारका चारित्र सम्यग्ज्ञानपूर्वक होता है ओर सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। अतः संयम विशेषणकी सामर्थ्यसे वे रत्नत्रयके गंभीर और उदार समुद्र हैं यह अर्थ लब्ध होता है॥१॥. ... आगे शास्त्र-समुद्रको स्तुति करते हैं- . भावा यत्राभिधीयते हेयादेयविकल्पतः।.. . अप्यतीचारसंशुद्धिस्तं श्रुताब्धिमभिष्टुवे ॥२॥ .१। विकलिानः इत्यपि वा।
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• संज्ञाधिकार: अर्थ-हेय और आदेय भावोंका तथा प्रतीचारोंकी शुद्धि का जिसमें वर्णन पाया जाता है उस श्रुत-समुद्रकों नमस्कार करता हूँ। • भावार्थ-भाव शब्दका अर्थ पदार्थ और परिणाम दोनों हैं। प्रत्येकके दो दो भेद हैं। हेय और आदेय । यहां पर व्रतोंके अतीचार इय भाव हैं ओर मूतना, टट्टी करना आदि अवश्य करने योग्य आदेय भाव हैं। तथा कवाटोद्घाटन आदि अंती पर हैं इन सबका वर्णन श्रुत समुद्रमें पाया जाता है। उसी श्रुत समुद्रकी यहां स्तुति की गई है ॥२॥ __ आगे ग्रन्थका नाम निर्देश करते हैं:-. पारंपर्यक्रमायातं रत्नत्रयविशोधनं । . संक्षेपात् संप्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तसमुच्चयं ॥३॥ - अर्थ-जो परंपरा के क्रमसे चला आरहा हैं, जिसमें रलत्रयकी विशुद्धि पाई जाती है उस प्रायश्चित्त-समुच्चय नामके ग्रन्थको संक्षेपसे कहता हूं.. : . .. .. .. प्रायश्चित्तं तपः प्राज्यं येन पापं पुरातनं। ..... क्षिप्रं संक्षीयते तस्मात्तत्र यत्नो विधीयतां ॥४॥
अर्थ-यह प्रायश्चित्त बड़ा भारी तपश्चरण है जिससे पहले किये हुए पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इसलिए प्रायश्चित्तके करनमें अवश्य यत्न करना चाहिए ॥४॥
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प्रायश्चित्त-समुश्चय। .. आगे प्रायश्चित्के विना व्रतोंकी व्यर्थता बताते हैंप्रायश्चित्तेऽसति स्थान चारित्रं तद्विना पुनः। न तीर्थन विना तीर्थान्निर्वृत्तिस्तद् वृथा व्रतं ॥५॥
अर्थ-आपश्चित्तके प्रभावमें चारित्र नहीं है। चारित्रके अभावमें धर्म नहीं है और धर्मके प्रभावमें मोक्षकी प्राप्ति नहीं हैं इसलिए व्रत अर्याद दीक्षा धारण करना न्यर्ष है।
भावार्थ-प्रायश्चित् ग्रहण करनेसे ही व्रतोंकी सफलता है. अन्यथा नहीं ॥५॥
आगे प्रायश्चित्त के नाम बताते हैं:रहस्सं छैदनं दंडो मलापनयनं नयः। प्रायश्चित्ताभिधानानि व्यवहारो विशोधनं ॥६॥
अर्थ-रहस्य, छेदन, दंड, पलापनयन, नय-नीति-पर्यादाव्यवस्था-क्रम, व्यवहार और विशोधन ये सब प्रायश्चित्के नाम हैं।
आगे प्रायश्चित्तविधि न जाननेमें हानि बताते हैं:प्रायश्चित्तविधि सूरिरजानानः कलंकयेत् । आत्मानमथ शिष्यं च दोषजातान शोधयेत् ॥७॥ __ अर्थ-पायश्चित विधिको न जाननेवाला आचार्य प्रथम अपनेको अनन्तर शिष्यको भी कलंकित-मलिन कर देता है। अतः वह अपनेको और शिष्यों को दोषोंसे नहीं बचा सकता।
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संज्ञाधिकार।
भावार्थ-पायश्चित देनेकी विधि भी अवश्य जानना चाहिए॥७॥
प्रागे पंचकल्याणके नाम गिनाते हैं:खस्थानं मासिकं मूलगुणो मूलममी इति । पंचकल्याणपर्याया गुरुमासोऽथ पंचमः॥८॥
अर्थ-स्वस्थान, मासिक, मूलगुण, मूल और पांचवां गुरुमास ये पांच पंचकल्याणके विशेष नाम हैं।
भावार्थ-पंच आचाम्ल, पंच निर्विकृति, पंचगुरुमंडल, पंच एकस्थान और पंच उपवास इनके निरंतर अर्थाद व्यवधानरहित करनेको पंचकल्याण कहते हैं। कल्याणका लक्षण आगे कहेंगे। पांच कल्याण जहां पर हों वह पंचकल्याण है। जिसके ये ऊपर कहे गये पांच पर्याय नाम हैं ॥८॥ __आगे लघुपासका खरूप बताते हैं:नीरसेऽप्यथवाचाम्ले क्षमणे वा विशोधिते। ज्ञात्वा पुरुषसत्वादि लघुर्वा सान्तरो गुरुः ॥९॥ __ अर्थ-पुरुष, उसका सत्व-धैर्य, आदि शब्दसे बल, परिणाम आदि जानकर पूर्वोक्त पंचकल्याणमेंसे नीरस अर्थात निर्विकृति, अथवा भाचाम्ल या उपवासको कम कर देना लघुपास है। अथवा पूर्वोक्त पांचोंको निरंतर करना गुरुपास है उसी गुरु-मासको व्यवधानसहित करना लघुपास है।
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प्रायश्चित-समुच्चय । भावार्थ-रसरहित. आहारको निर्विकृति कहते हैं और कांजिक-सोवोरसे रहित भोजनको आचाम्ल कहते हैं। पांच प्राचाम्ल, पांच निर्विकृति, पांच गुरुमंडल, पांच एकस्थान और पांच उपवास इनमें से पांच निर्विकृति अथवा पांच आचाम्ल या. पांच उपवास कम कर देना अर्थात इन तीनमेंसे किसी एक कर रहित अवशिष्ट धारकी लघुमास संज्ञा है। तदुक्तंउबवासपंचए वा आयंविलपंचए व गुरुमासादो। निवियडिपंचए वा अवणीदे होदि लहुमांसं ।। ___ अर्थात-गुरुमास अर्थात् पंचकल्याणमसे पांच उपवासा अथवा पांच प्राचाम्ल अथवा पांच निर्विकृति कम कर देने पर लघुमास होता है।
छेदशास्त्रकी अपेक्षा आचाम्ल, निर्विकृति, गुरुमंडल और एकस्थान इनमेंसे किसी एकको कम कर देने पर लधुमासः होता है । यथाआदीदो चउमझे एकदरवणियम्मि लहमासं।
अर्थात्-छेद शास्त्रके पाठानुसार क्षमण-उपवासका पाठ सबके अन्तमें है उनमें से उपवासको छोड़कर अवशिष्ट चारमेंसे किसो एकको घटा देना लधुमास है। सबका सारांश, यह निकला कि इन पांचोंमेंसे किसी एक कर रहित अवशिष्टं चारकी लघुमास संज्ञा है। अथवा पंचकल्याणकको व्यवधानसहित 'रना भी लघुमास है॥६॥.
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. . संज्ञांधिकार । . . ७ • 'आगे भिन्नमासका लक्षण बताते हैं:पंचखथापनीतेषु भिन्नमासः स एव वा। उपवासैस्त्रिभिः षष्ठमपि कल्याणकं भवेत् ॥१०॥ ___ अर्थ-एक आचाम्ल, एक निर्विकृति, एक पुरुमंडल; एक एकस्थान ओर एक उपवास ये पांच कम कर देने पर वही ऊपर कहा हुआ गुरुमास भिन्नपास हो जाता है। तथा तीन उपवासोंका एक षष्ठ होता है और कल्याणक भी होता है।
भावार्थ-निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान और क्षमण इनको एक कल्याण कहते हैं ऐसे पांच कल्याणोंका एक पंचकल्याण होता है। यथा- . . . णिबियडी पुरिमंडलमायाम एयठाण खमणमिदि। कल्लाणमेगभेदेहि पंचहिं पंचकल्लाणं ॥ - इस गाथाका अर्थ ऊपर आ गया है। इन्हीं पंचकल्याणोंमेंसे एक कल्याण कम कर देने पर भिन्नमास हो जाता है अर्थात चार कल्याणकका एक भिन्नमास होता है अथवा चार प्राचाम्ल, चार निर्विकृति, चार पुरुमंडल, चार एकस्थान और चार क्षमण इनको मिन्नमास कहते हैं। छठी भोजनको वेलामें पारणा करना पष्ठ है। अर्थात् एक दिनमें दो भोजनकी वेला होती हैं।
-गाऊण पुरिससत्त चित्तं चयधिगाथरत्तच ! एकनिय कलाणं श्रवणोद भिण्णमाला से
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. प्राषित-समुच्चय।
एकका धारणेके दिन त्याग करना. दो दिनोंमें चारका त्याग करना और एकका पारणेके दिन त्याग करना इस तरहके तीन उपवास करना या छह भोजनकी वेलाका त्याग करना षष्ठ है। तया निरंतर, एक प्राचाम्ल, एक निर्विकृति, एक पुरुमंडल, . एक एकस्थान, और एक उपवास करना कल्याणक है ॥१०॥
आगे कायोत्सर्ग और उपवासका प्रमाण बताते हैं:कायोत्सर्मप्रमाणाय नमस्कारा नवोदिताः। उपवासस्तनूत्सर्गर्भवेद् द्वादशकैस्तकैः॥११॥
अर्थ-नौ पंच नपस्कारोंका एक कायोत्सर्ग होता है और बारह कायोत्सगोंका एक उपवास होता है।
भावार्थ-पो अरहताणं, णमो सिद्धार, णमो आइरियाणं, णमो उवमायाणं, गायोलोये सवसाहूपं यह एक पंचनमस्कार है ऐसे नो पंचनपस्कार एक कायोत्सर्गमें होते हैं और एक उपवासमें ऐसे हो बारह कायोत्सर्ग होते हैं। यथाणवपंचणमोक्कारा काउसग्गम्मि हाँति एगम्मि। एदेहि वारसेहिं उपवासो जायदे एको ॥ -छेदपिंड। .
तथा
एकम्मि विउस्संगे णव णवकारा हवंति बारसहि । सयमहोत्तरीदे हवंति उववासा जस्स फलं ॥
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संज्ञाधिकार। अर्थात्-एक व्युत्सर्गमें नौ पंचनमस्कार होते हैं। चारह व्युत्सर्गोंमें एक सौ आठ पंच नमस्कार होते हैं। इन एक सौ आठ पंच नमस्कारोंके जपनेका फल एक उपवास है। तथा कायोत्सर्गके और भी अनेक भेद हैं। तदुक्तंयदेवसियं अटै सयं पक्खियं च तिण्णि सया। चाउम्मासे चउरो सयाणि संवत्सरे य पंचसया ॥
भावार्थ-एक सौ आठ पंचनमस्कारोंका देवसिक कायोत्सर्ग होता है या देवसिक कायोत्सर्गमें एक सौ आठ पंच नपस्कार होते हैं। तथा पातिकमें तीन सौ, चातुर्मासिकमें चार सौ और सांवत्सरिकमें पांच सौ पंच नमस्कार होते हैं ॥११॥ आचाम्लेन सपादोनस्तत्पादः पुरुमंडलात् । एकस्थानात्तदर्धं स्यादेवं निर्विकृतेरपि ॥१२॥ ___ अर्थ-आचाम्ल अर्थात् कंजित भोजन करनेसे वह उपवास चतुर्थाश हीन हो जाता है अर्थात् चार हिस्सोंमेंसे एक हिस्सा प्रमाण कम होजाता है-तीन हिस्सामात्र ही अवशिष्ट रह जाता है। अनगारकी भोजन वेलाको पुरुमंडल कहते हैं। इस पुरुमंडलसे वह उपवास चतुर्थाश-चौथे हिस्से बराबर रह जाता है। तथा तीन मुहूर्त तकके भोजनके कालमें एक ही स्थानमें पैरोंका संचार न कर भोजन करना एकस्थान है। इस एकस्थानके करनेसे वह उपवास प्राधा ही रह जाता है। और
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । निर्विकृति आहारके करनेसे भी उपवास प्राधा हो रह जाता है। छेदपिंड और छेदशास्त्र में भी ऐसा हो कहा है। यथाआयंबिलम्हि पादूण खमण पुरिमंडले तहा पादो! एयहाणे अद्धं निन्नियंडीओ य एमेव ॥ . . ___ इसका अर्थ ऊपर आ गया है ॥१२॥ अष्टोत्तरशतं पूर्ण यो जपेदपराजितं । मनोवाकायगुप्तः सन् प्रोषधफलमश्नुते ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-जो पुरुष मनोगप्ति, वचनप्ति और कायगुप्तिको धारण कर अपराजित पवनमस्कार मंत्रको परिपूर्ण एक सौ आठ वार जपता है वह एक उपवासके फलको पाता है ।। १३ ।। षोडशाक्षरविद्यायां स्यात्तदेव शतद्वये।। त्रिशयां षड्वर्णेषु चतसृध्वपि चतुःशते ॥१४॥ .. अर्थ-सोलह अत्तर वाले मन्त्रको दो सौ जाप देने पर भी एक उपवासका फल होता है। तथा छह अक्षरवाले मंत्रको तीन सौ और चार अक्षर वाले मंत्रकी चार सौ जाप देन पर भो
१। आचाम्स पादानं समां. पुरुमंडल तथा पान:: . एकस्याने ध निर्विकृतोच एकमेव ॥.. २॥ प्रोडशातरविद्यायाः फलं ते शतद्वये! : . . , पड्वर्णविशते क्षान्तेश्चतुर्वर्णचतु:शते ॥ १॥
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संज्ञाधिकार । एक एक उपवासका फल होता है । 'अरहंत. सिद्ध, आयरिय, उवमाया साहु' यह सोलह अक्षरोंका 'अरहंत सि सा' यह छह अक्षरोंका और अरहत' यह चार अक्षरोंका मन्त्र है ॥१४॥ अकारं परमं वीजं जपेयः शतपंचकं । प्रोषधं प्राप्नुयात् सम्यक् शुद्धबुद्धिरतंद्रितः ॥१५॥
अर्थ-जो निर्मलबुद्धिवारी पुरुष प्रालसरहित होता हुआ परमोत्कृष्ट अकार वीजाक्षरको पांच सौ वार अच्छी तरह. जपता है यह एक उपवासका फल पाता है। तदुक्तंपणतीसं सोलसयं छच्च उपयं च वण्णवीयाई। एउत्तरमट्ठसयं साहिए पं (पं)च खमणटुं ।
अर्थ-एक सौ आठ वार जपा हुआ पैंतीस अक्षरोंका जाप, दोसौ बार जपा हुआ सोलह अक्षरोंका जाप, तीन सौ बार जपा हुआ छह अक्षरों का जाप, चार सो वार जपा हा चार वीजा-- सरोंका जाप और पांच सौ बार जपा हुआ पद-एक प्रकार या ओंकार वीजाक्षरका जाप एक उपवासके लिए हेता.
इति संझाधिकारः प्रथमः ॥१॥
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प्रतिसेवाधिकार। प्रथम ग्रन्थके अधिकारोंका कथन करते हैं:प्रतिसेवा, ततः कालः क्षेत्राहारोपलब्धयः । पुमांश्छेदो विपश्चिद्भिर्विधिः षोढात्र कीर्त्यते॥१६॥ ___ अर्थ-विद्वान् पुरुष इस प्रायश्चित्त-समुच्चय नामक अनादिनिधन शास्त्रमें छह अधिकारोंका वर्णन करते हैं । पहला प्रतिसेवा नायका अधिकार है जिसमें सचित्त, अचिच और मिश्रद्रव्यके आश्रयसे दोषोंके सेवन करनेका कथन है । उसके बाद दूसरा कालाधिकार है जिसमें शीतकाल, उष्णकाल
और वर्षाकालके आश्रयसे प्रायश्चित्त देनेका कथन है। उसके वाद क्षेत्राधिकार है जिसमें स्निग्ध, रूत, मिश्र आदि क्षेत्रोंके अनुसार प्रायश्चित्त देनेका वर्णन है। चौथा आहारोपलब्धि नामका अधिकार है जिसमें उत्कृष्ट, मध्यम और जयन्य आहार भाप्तिके अनुसार प्रायश्चित्त देनेका विधान है । उसके बाद पांचवां पुरुषाधिकार है जिसमें वह पुरुष धर्ममें स्थिर है या अस्थिर है, आगमज्ञ है या अनागमज्ञ है श्रद्धालु है या अश्रद्धालु है इत्यादि पुरुषाश्रित प्रायश्चित्तका कथन है । उसके बाद छठा प्रायश्चित्वाधिकार है जिसमें दशप्रकारके प्रायश्चित्तोंका वर्णन है ।। १६ ॥
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प्रतिसेवाधिकार। . उद्देशानुसार पहिले प्रतिसेवाका कथन करते हैं,-- निमित्तादनिमित्ताच प्रतिसेवा द्विधा मता। कारणात् षोडशोद्दिष्टा अष्टभंगास्तथेतरे ॥१७॥
अर्थ-निमित्तसे और अनियित्तसे प्रतिसेवा दो तरहकी मानी गई है। उनमें भो कारणसे सोलह तरहको कही गई है। इसी तरह अकारसमें पाठ भंग होते ह । भावार्थ-उपसर्ग व्याधि आदि निमिचोंको पाकर दोषोंका सेवन करना और इन निमिचोंके विना दोपोंका सेवन करना इस तरह प्रतिसेवाके । दो भेद हैं। उनमें भी प्रत्येकके अर्थात् निमित्त प्रतिसेवाके सोलह और अनिपिच प्रतिसेवाके पाठ भेद होते हैं। ___ सारांश कारणकृत प्रतिसेवाके सोलह भंग और प्रकारणकृत प्रतिसेवाके पाठ मंग होते हैं ॥१७॥ सहेतुकः सकृत्कारी सानुवीची प्रयत्नवान् । तद्विपक्षाद्विकाः संति षोडशाऽन्योऽन्यताडिताः॥ __ अर्थ-सहेतुक-उपसर्गादि निपिचोंको पा कर दोषोंको सेवन करने वाला १सकृतारी-जिसका एक वार दोष सेवन करनेका खभाव है। सानुवीची-अनुवीची नाप अनुकूलता का है जो अनुकूलताकर सहित है वह सानुवीची है अर्थात विचारपूर्वक आगयानुसार बोलने वाला ३ और प्रयत्नवान१. चिः इत्यपि पाठः
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१४ प्रायश्चित्त-समुच्चय । 'भयत्नपूर्वक दोष सेवन करनेवाला ४ इन चारोंको एक एक विरलनकर.ऊपर स्थापन करना। इन्हीं सहेतुकादिकोंके विपतो अहेतुक, असकृत्कारी, असानुवीची और अभयत्नवान् ये संख्यामें दो दो हैं इनको दो दोका पिंड बनाकर नोचे स्थापन करना पश्चात इनका परस्परमें गुणाकार करना इस तरह करने पर सोलह संख्या निकल आती है। ___ संदृष्टि-३ ३ ३ ३ - १६ इन भंगोंको निकालनेकी तरकीव बताने वालो दो गाथाएं मूलाचारमें हैं वे यहां दी जाती हैं। दोषगणाणं संखा पत्थारो अक्खसकमो चैव। . : णटुं तह उदिदं पंचवि वत्थूणि णेयाणि ॥ १॥. . .. दोपोंको संख्या, प्रस्तार,, अक्षसंक्रम, नष्ट और उद्दिष्ट ये 'पांच वस्तुके वर्णनमें जानना । दोषोंके भेदोंको गिनना संख्याः है। इनका स्थापन करना प्रस्तार हैं । भेदोंका परिवर्तन अनसंक्रम है। संख्या रखकर भेद निकालना. नष्ट है और भेद रखकर संख्या निकालना उद्दिष्ट है। . . . . सव्वें वि पुत्रभंगा उवरिमभंगेसु एकमेक्कसु। । मेंलंति त्ति यं कमसो गुणिए उपज्जये संखा ॥२॥ . . सभी पहले पहले के भंग ऊपर ऊपरके सभी एक एक भंगमें. १.। दोपगणानां संख्या प्रस्तारः अझसंक्रमश्चैध ।
नष्टं तथा उद्दिष्ट पंचापि वस्तुनि ज्ञेयानि ! : .
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प्रातसेवाधिकार पाये जाते हैं अतः उन सबको क्रमसेंचार जगह-२-२-२-२ रखकर परस्पर गुणा करने पर दोपोंकी सोलह संख्या निकल आतो इसीको बतलाते हैं-पूर्व भंग आगाढकारणकृत ओर अनागाढकारणकृत ये दोनों ऊपरके सकृत्कारी और असत्कारीमें पाये जाते हैं. अतः दोनोंको परस्परमें गुणने पर चार भेद हो जाते हैं। ये चारों अपने ऊपरके सानुवाची में पाये जाते हैं अतः चारसे दो को गुणने पर पाठ होते हैं । तथा ये आठ अपनेसे ऊपरक प्रयत्नमतिसेवी ओर अभयत्नमतिसेवीमें पाये जाते हैं इसलिए आठ को दोस गुणा करनेसे दोपोंको सोलह संख्या निकल आती है ॥१८॥ भंगायामप्रमाणेन लघुर्गुरुरिति क्रमांत् । प्रस्तारेऽत्राक्षनिक्षेपो द्विगुणो द्विगुणस्ततः॥१९॥
अर्थ- मस्ताररचनामें भंगोंके आयाम प्रमाणके अनुसार लघु और गुरु ये क्रमसे स्थापित किये जाते हैं। तथा द्वितोयादि. पंक्तियों में वे दूने दुने स्थापित किये जाते हैं । भावार्थ-लघु नाम एकका और गुरु नाम दोका है। भंगोंका प्रमाण सोलह और पंक्ति चार हैं। प्रथम पंक्तिमें सोलह जगह एक लघु और एक गुरु एकान्तरित स्थापित करे १२.१२, १२ १२ १२ १२,१२१२। दूसरी पंक्तिम दो लघु और दो गुरु एवं द्वयन्तरित ११२२, १.१.२२, ११२२,११२२, तीसरी पंक्तिमें चार लघु पार चार गुरु एवं चतुरंतरित ११११,२२
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प्रायशि-समुचय।
२२,११११,२२२२, और चौथी पंक्तिमें आठ लघु और पाठ गुरु एवं अष्टान्तरित स्थापित करे ११११, ११११, २२२२, २२२२ । इसी क्रमको लानेके लिए नीचे एक करण गाथा दी जाती हैपढमं दोसपमाणं कमेण णिक्खिविय उपरिमाणं च। पिंडं पडि एकेक्कं निक्खित्ते होइ पत्थारो ॥ ___ अर्थ-प्रथम दोषके प्रमाणको विरलन कर क्रमसे रख कर
और उन विरलन किये हुये एक एकके ऊपर, ऊपरका एक एक पिंड रखकर जोड़ देनेपर प्रस्तार होता है। सो हो कहते हैंआगादकारण और भनागाइकारणका प्रमाण दो इनको विरलन कर क्रमसे लिखे १ १, इनके ऊपर दूसरा सकृत्कारी और असत्कारी दोषके पिंड दोदो को रक्खे , इन दो दो को जोड़ने से चार हुए । फिर इन चारोंको कपसे चार जगह विरलन कर रक्खे ११११ इनके ऊपर सानुवीची और असानवीचीका एक एक पिंड रख कर FIFF जोड़ देनेसे आठ हुए पुनः इन आों को आठ जगह विरलन कर रक्खे ११११११११ इनके ऊपर प्रयत्नमतिसेवी और अप्रयत्नपतिसेवीका एक एक पिंड स्थापित कर जोड़ देनेसे सोलह हुए । इस तरह प्रस्ताररूप स्थापन किये सोलह भंगोंके कहनेका विधान कहते हैं-आगाढकारणकृत सकृत्कारी सानुवीची प्रयत्नवान ११११ यह इन सोलह दोषोंकी प्रथमो.
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प्रतिसेवाधिकार ।। १७ चारणा. है । अनागाढकारणकृत, सकृत्कारी, सानुवीची, प्रयत्नसेवो २१११ यह दूसरी उच्चारणा, गाउँकारणकृत असकृत्कारी सानुवोची प्रयत्नसेवी १२११ यह तीसरी उच्चारणा। अनागाढकारणकत असत्कारी, सानुवीची प्रयत्नसेवो २२११ यह चौथी उच्चारणा। आगाढकारणकृत सकृत्कारी असानुवीची प्रयत्नमतिसेवी ११२१ यह पांचवीं उच्चारणा। अनागाढकारणकृत, सकृत्कारी, असानुवोची, प्रयत्नपतिसेवो २१२१ यह छठी उच्चारणा । आगाढकारणकृत, असकृत्कारी असानुवीची, प्रयत्नपतिसेवी १२२१ यह सातवी उच्चारणा। अनागाढकारणकृत. असत्कारी, असानुवोचो प्रयत्नातिसेत्री २२२१ यह आठवी उच्चारणा । आगाढ कारणकृत, सकृत्कारी, सानवीची भप्रयत्नप्रतिसेवी १११२ यह नौवों उच्चारणा। अनागाहकारणकृत सत्कारी, सानुवोचो, अप्रयत्नप्रतिसेवो २११२ यह दशवी उच्चारणा। आगाढकारणकृत, असककारी, सानवीची अप्रयत्नप्रतिसेवी १२१२ यह ग्यारहवों उच्चारणा । अनागाढकारणकृत असहकारी, सानुवोचो, अप्रयत्नप्रतिसेवी २२१२ यह वारहवीं उच्चारणा। आगाढ कारणकृत, सकृत्कारो, असानुवोचो, अभयत्नपतिसेवी ११ २२ यह तेरहवा उच्चारणा। अनागाढकारणकृत, सत्कारो, असानुवीची, अप्रयत्नप्रतिसेवी २१२२ यह चादहवा उच्चा. रणा। आगाढकारणकृत असकृत्कारी असानुवीची अप्रयत्नप्रतिसेवी १२२२ यह पन्द्रहवीं उच्चारणा। अनागाढ कारणकृत .
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प्रायश्चित-समुच्चय । असकृत्कारो, असानुवीची अप्रयत्नप्रतिसेवी २२२.२ यह सोलहवीं उच्चारणा । ये सब मिलकर सोलह उच्चारणाएं. होती हैं। इनकी प्रस्तार संदृष्टि इस प्रकार है।
१२.१२, ११२२,११२२, ११११,२२२२, ११११११११,२२२२२२२२,
अब अक्षसंक्रपणार्थ गाथा कहते हैंपढमक्खे अंतगए आइगए संकमेइ वदिअक्खो। दोणि विगतुं गतं आइगए संकमेइ तइअक्खो॥ __ अर्थ-आगाढकारणकृत और अनागाढकारणकृत यह प्रथमात, सरकारी और असत्कारी यह द्वितीय अन, सानुवीची और असानुवीची यह तृतीय अक्ष और प्रयत्नप्रतिसेवी और अप्रयत्नप्रतिसेवो यह चतुर्थ अत है। इनमें से प्रथमाक्ष संचरण करता है अन्य अन उसी तरह रहते हैं। इस तरह संचरण करता हुआ प्रथमात अंतके अनागादकारणकृत दोषको प्राप्त होकर पुनः लौटकर पहले आगाढकारणकृतदोष पर जब माता है तब द्वितीयात सकृत्कारीको छोडकर असत्कारीमें संचरण करता है। फिर उस अतके वहीं पर स्थित रहते हुए प्रथमात संचरण करता हुआ अंतको पहुंच जाता है तब दोनों ही प्रथमान और द्वितोयान अंतको पहुंचकर ओर लौटकर जब आदिको
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प्रतिसेवाधिकार।
आते हैं तव तृतीयाक्ष सानुवीचीको छोडकर असानुवीचीमें संक्रमण करता है। फिर इस अनके यहीं स्थित रहते हुए प्रथमाक्ष भौर द्वितीयात दोनों संचरण करते हुए अंतको पहुंच जाते हैं तव तीनोंही अक्ष अंतको पहुंचकर और लौटकर जब आदिस्थानको आते हैं तव चतुर्थ अक्ष प्रयत्नमतिसेवोको छोडकर अयत्नमतिसेवीमें संक्रमण करता है। भावार्थ-भेदोंके 'परिवर्तनको अतसंचार कहते हैं, ये आगाढकारणादि भेद पलटते रहते हैं उन्होंका परिवर्तनका क्रम इस गाथा द्वारा बताया गया है। जिनकी कि उच्चारणा ऊपर बताई जा चुको है। फिर भी स्पष्टार्थ लिखते हैं१ आगाढ-कारणकृत, सकृत् सानुवीची, यत्नसेवी २अनागाढकारणकृत " " ३आगाढकारणकृत असकृत् " ४ अनागाढकारणकृत . " " ५आगाढकारणकृत सकृत् असानुवीची
११२१ '६ अनागाढकारणकृत " "
२१२१ '७ आगाढकारणकृत असकृत् ।
१२२१ ८अनागाढकारणकृत असकृत"
२२२१ “६ आगाढकारण कृत सकृत सानुवीची अयत्नसेवी १११२ '१० अनागाढकारणकृत सकृत " " . २११२ '११ आगाढकारणकृत असकृत "
१२१२ १२ अनागाढकारणकृत " "
२२१२
२१११ १२११ २२११
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प्रायश्चित्त-समुच्चय ।
११२२
१३ आगाढकारणकृत सकृत् असानुवोची १४ अनागाढकारणकृत, "
२१२२. १५ आगाढकारणकृत असकृत् ।
१२२२ १६ अनागाढकारणकृत , "
२२२२. आगे नष्ट विधि कहते हैंसगमाणेहि विहत्ते सेसं लक्खित्तु संखिवं रूवं । लक्खिजते सुद्धे एवं सव्वत्थ कायव्वं ।।
अर्थ-पृष्ट दोपको संख्या रखकर अपने अपने प्रमाणकाः भाग देवे । भागदेने पर जो संख्या वच रहे उसको अक्षस्थान. समझे। लब्यमें एक जोड कर फिर स्वप्रमाणका भाग दे जो. चाकी वच रहे उसको अक्षस्थान समझे । अगर वाको कुछ भी न बचे तो लब्ध संख्यामें एक न जोडे और अन्तका अन्न ग्रहणः 'करे। इस तरह सब जगह करें। भावार्थ-किसोने सोलह उचारणाओंमेंसे कोई सी उच्चारणा पूछी उस उच्चारणामें दोषोंका कोनसा भेद है यह मालूम न हो तो इस गाथा द्वारा मालूम. करलिया जाता है। जैसे किसोने पूछा कि नौवीं उच्चारणाम कौनसा अक्ष है तब ६ संख्या स्थापनकर उसमें आगाहः
और अनागाहका भाग दिया चार लंब्ध हुए और एक बाकी वचा । 'शेषं अक्षपदं जानीहि' इसके अनुसार प्रागाढ समझना चाहिये, क्योंकि आगाह और अनागाढमें पहला आगाह है। फिर जो चार लब्ध पाये हैं उसमें.
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'प्रतिसेवाधिकार । 'लब्धे रूपं प्रक्षिप' इसके अनुसार एक जोडे, पांच हुए, इनमें सकृत्कारी और असत्कारोका भाग दिया, दो लब्ध प्रायः और एक वचा। पूर्वोक्त नियमके अनुसार पहला सकृत्कारी समझना चाहिए । फिर लब्ध दोमें एक रूप जोडनेसे, तीन. हुए इनमें सानुवीची और असानुवीचीका भाग दिया एक लब्ध आया और एक हो वाकी बचा पुनः पूर्वोक्त नियमके अनुसार पहला सानुवीची समझना चाहिए, फिर लब्ध एकमें 'एक रूप जोडनेसे दो हुए, इनमें यत्नसेवी और अयनसेवीका भाग दिया लब्ध एक आया और वाकी कुछ नहीं वचा शुद्ध सति अतोऽन्ते तिष्ठति' इस नियमके अनुसार अन्तका अयत्नसेवी ग्रहण किया। इस तरह नवपी उच्चारणामें आगाढकारणकृत, सकृत्कारी, सानुवीची अयनसेवी नामका अन आया। इसी तरह अन्य उच्चारणाओंके अक्ष भो निकाल लेने चाहिए।
आगे उद्दिष्ट विधि कही जाती हैसठाविऊण रूवं उवरिओ संगुणिन्तु सयमाणे । अवणिज्ज अणंकिदयं कुज्जा पढमतिमं चैव ॥ ___ अर्थ-एक रूप रखकर उसको अपने ऊपरके प्रमाणसे गुणा करे और अनंकितको घटावे इस तरह प्रथप पर्यन्त करे।
भावार्थ-यहां जो भेद ग्रहण हो उसके प्रागेके स्थानोंकी जो संख्या हो वह अनंकित है । जैसे आगाढ और अनागाढमें
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२२. प्रायश्चित्त-समुञ्चय । से यदि आगाढका ग्रहण हो तो उसके आगेवाले अनागाढको अनंकित समझना । इसीतरह सकृत्कारी-असकृत्कारी. सानुवीची असानुवीची और यत्नसेवी अयत्नसेवीमें भी समझना । किसीने पूछा कि आगाढकारणकृत सककारी, सानुवीची अयत्नसवी यह कौनसी उच्चारणा है तब प्रथम एक रूप रखिये उसको अपरके यत्नसेवी
और प्रयत्नसेवीका प्रमाण दोसे गुणिये, दो हुए, अनं-- कितको घटाइये, यहां अनंकित कोई नहीं दोनों हो अंकित हैं अतः दो ही रहे। फिर इन दो को सानुवीची और असानुवीची का प्रमाण दो स गुणिये, चार हुए, यहां असानुवीची अनंकितः है अतः चारमेंसे एक घटाइये तव तीन रहे । इन तीनको सकृत्कारी और असककारीका प्रमाण दोसे गुणिये, छह हुए; अनंकित असल्कारीको घटाइये पांच रहे, पुनः पांचको आगाढ़ अनागाढ़की संख्या दोसे गुणिये, दश हुए अनंकितको घटाः दाजिये, नौ रहे। इस तरह आगाढकारणकृत सकृत्कारो सान-. . वीची अयत्नसेवी नामकी नौवी उच्चारणा सिद्ध होती है। यही विधि अन्य उच्चारणाओंके निकालनेमें करनी चाहिए॥१६॥ विशुद्धः प्रथमोऽन्योऽपि सर्वथा शुद्धिवर्जितः। भंगाश्चतुर्दशान्येतु सर्वे भाज्या भवन्त्यमी॥२०॥ __अर्थ-इन सोलह भंगोंमेंसे पहला भंग विशुद्ध है-- लघु. प्रायश्चिचके योग्य है। अन्तका सोलहवां भंग विलकुल अशुद्ध,
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प्रातसेवाधिकार। है-गुरु मायश्चितके योग्य है। वाकीके चौदह भग भाज्य हैंलघु-गुरु दोनों तरहके हैं अतः छोटे बड़े प्रायश्चितके योग्य हैं।
आगाढकारणे कश्चिच्छेषाशुद्धोऽपि शुद्धयति । विशुद्धोऽपि पदैः शेषैरनागाढे न शुद्धयति ॥२१॥ ___ अर्थ-देव, मनुष्य, तियञ्च या अचेतनकृत उपसर्ग वश या व्याधिवश दोप सेवन कर लेने पर, शेप असत्कारी, असानुवीची ओर अयनसेवी पदों कर अशुद्ध होते हुए भी, कोई पुरुष शुद्ध हो जाता है अर्थात् वह उस दोषयोग्य लघु प्रायश्चितका पात्र है। तथा कोई पुरुष विना कारण दोष सेवन कर लेने पर शेष सत्कारी, सानुवोची और प्रयत्नसेवी पदोंसे शुद्ध होते हुए भी शुद्ध नहीं होता-लघु प्रायश्चित्तका पात्र नहीं होता ॥२१॥
अव आठ अनिमित्त भंगोंको कहते हैंअकारणे सकृत्कारी सानुवीचिः प्रयत्नवान् । तद्विपक्षा द्विका एतेऽप्यष्टावन्योन्यसंगुणाः॥२२॥
अर्थ-अकारणभंगोंमें सकृत्कारी, सानुवीचि और प्रयत्नवान इन तीनोंको लघु संज्ञा है और इनके विपक्षी असत्कारी, असानवीची और अप्रयत्नमतिसेवीकी द्विक अर्थात गुरु संज्ञा है। ये भी परस्पर गुणा करने पर आठ. होते हैं। संदृष्टि
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । __ भावार्थ-जिस तरह सोलह निमित्तभंग संख्या, प्रस्तार, अक्षरक्रप, नष्ट और उद्दिष्ट ऐसे पांच तरहसे वर्णन किये गये हैं उसी तरह इन आठ भङ्गोंको भो समझना चाहिए। प्रथम संख्या निकालते हैं। पहले पहलेके भंग ऊपर ऊपरके सब भंगोंमें पाये जाते हैं अतः उनको परस्पर गुणा करने पर ई ३ ३-पाठ संख्या निकल भाती है। इति संख्या। अव प्रस्तार वतलाते हैं-प्रथम पंक्तिमें आठ जगह एकान्तरित लघु ओर गुरु स्थापन करे १२१२१२१२। द्वितीय पंक्तिमें द्वयन्तरित लघुगुरु स्थापन करे ११२२ ११२२ । तृतीय पंक्तिमें चतुरंतरित लघु-गुरु स्थापन करे ११११.२२२२ । इनकी उच्चारणा बताते हैंसकृत्कारी, सानुवीची यत्नसेवी यह प्रथम उच्चारणा १११ असकृकारोसानुवीची, यल्लसेवी यह द्वितीय उच्चारणा२११ सकृत्कारी असानवीची यत्नसेवी यह तृतीय उच्चारणा १२१ असकृत्कारीअसानुवीची यत्नसेवो यह चतुर्थ उच्चारणा २२१ सकृत्कारी सानुवीची अयत्नसेवी यह पंचम उच्चारणा ११२ असकृत्कारी सानुवीचो अयत्नसेवी यह छठो उच्चारणा २१२ सकृत्कारी मसानवीची अयत्नसेवी यह सप्तम उच्चारणा १२२ असत्कारी असानुवीची अयत्नसेवी यह अष्टम उच्चारणा २२२ संदृष्टि
१२ १२ १२ १२ ११ २२.११ २२ ११ ११ २२ २२
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२५
प्रतिसेवाधिकार। ____ अक्षसंक्रम, नष्ट और उद्दिष्ट भी पहलेकी तरह निकाल लेना
चाहिए। इस तरह इन आठ भागोंको संख्या, प्रस्तार, अक्षपरि-वर्तन, नष्ट और उद्दिष्ट जानना। पूर्वोक्त निमित्त दोप सोलह
और आठ ये अनिपित्त दोष कुल मिलाकर चौवोस दोष होते हैं॥२२॥ अष्टाप्यते न संशुद्धा आधः शुद्धतरस्ततः। अविशुद्धतरास्त्वन्ये भंगाः सप्तापि सर्वदा ॥२३॥
अर्थ-ये ऊपर बताये हुए आठों भंग संशुद्ध नहीं हैं अशुद्ध हैं-बहुत प्रायश्चितके योग्य हैं इनमेंका पहला भंग द्वितीय भंगकी अपेक्षा शुद्ध है-लघु प्रायश्चितके योग्य है । इसके अलावा वाकीके सातों भंग निरंतर अविशुद्धतर हैं-बहुत प्रायश्चितके योग्य है ॥ २३ ॥ प्रतिसेवाविकल्पानां त्रयोविंशतिमामृषन् । गुरुं लाघवमालोच्य च्छेदं दद्याद्यथायथं ॥२४॥ ___ अर्थ-अतिसेवाके कुल विकल्प चौवीस हुए । उनमें से (आगाढकारणकृत सत्कारो, सानुवोची, प्रयत्नप्रतिसेवी) 'पहले विकल्पको छोड़कर अवशिष्ट तेईस विकल्पोंमें छोटे और बडेका विचार कर यथायोग्य प्रायश्चित देना चाहिए ॥ २४ ॥ द्रव्ये क्षेत्रऽथ काले वा भावे विज्ञाय सेवनां। क्रमशः सम्यगालोच्य यथाप्राप्तं प्रयोजयेत्॥२५॥ . अर्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको जानकर और
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । सेवना-सचित्त, अचित्त ओर मिश्र द्रव्यके उपभोगका क्रमसे अच्छी तरह विचार कर यथायोग्य प्रायश्चित देना चाहिए। भावार्थ-जिसको प्रायश्चित दिया जाय उसके उत्कृष्ट, मध्यम जघन्य संहननयुक्त शरीरको और मंदज्ञानादिको, मगध, करुजांगल आदि निवास स्थानको. शीतकाल उष्णकाल वर्षाकाल श्रादि कालको, भोर तोत्र मंद आदि भावोंको जानलेना चाहिए और उसकी सचित्त, अचित्त और मिश्र पदार्थकी सेवना पर भी अच्छी तरह विचार करलेना चाहिए वाद यथायोग्य प्रायश्चित्त देना चाहिए अन्यथा लाभके बदले हानि होनेको संभावना है ।। २५॥ नीरसः पुरुमंडश्चाप्याचाम्लं चैकसंस्थितिः। क्षमणं च तपो देयमेकैकं व्यादिमिश्रकं ॥२६॥
अर्थ-निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकसंस्थान ओर उपवास इन पांचोंके प्रत्येक भंग द्विसंयोगो, त्रिसंयोगो, चतुः संयोगी और पंचसंयोगो भंग निकाल कर प्रायश्चित्त देना चाहिए । मंगोंके निकालनेकी विधि इस प्रकार है। निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान, और उपवास ये पांच प्रत्येक. भंग हैं। द्विसंयोगो भंग बताते हैं-निर्विकृति ओर पुरुमंडल यह प्रथम भग १निर्विकृति और आचाम्ल यह द्वितीय २। निर्विकृति और एकस्थान यह तृतीय भंग ३ । निर्विकृति और क्षमण यह चतुर्थ भंग ४.। पुरुमंडल आचाम्ल. यह पंचम भंगः
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प्रतिसवाधिकार ।
२७.
५। पुरुमंडल और एकस्थान यह छठा भंग६ । पुरुमंडल
और क्षमण यह सातवां भग ७। आचाम्ल और एकस्थान यह पाठवां भंग ८। आचाम्ल और तमण यह नौवां भंग ६।एक स्थान और क्षमण यह दशवां भंग १०। ये दश द्विसंयोगी भंग हुए। अब त्रिसंयोगो भंग बताते हैं -निर्विकृति पुरुमंडल और आचाम्ल यह प्रथम भंग १ । निर्विकृति, पुरु-. मंडल ओर एकस्थान यह द्वितीय भंग २। निर्विकृति, पुरुमंडल और तमण यह तृतीय भंग ३। निर्विकृति, आचाम्ल और एक स्थान यह चतुर्थ भंग ४। निविकृति, आचाम्ल और क्षमण यह पंचम भंग ५। निर्विकृति एकस्थान और क्षमण यह छठा भंग । पुरुमंडल, आचाम्ल और एकस्थान यह ससम भंग ७। पुरुमंडल, प्राचाम्ल और क्षमण यह आठवां भग। परुमंडल एकस्थान और क्षमण यह नौवा भंगई। आचाम्ल, एकस्थान ओर क्षमण यह दश भंग १०। ये दश त्रिसंयोगी भंग हए । अव चतुःसंगेगो भंग वताते हैं-निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल और एकस्थान यह प्रथमभग निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल और क्षमण यह द्वितीय भग२ । निर्विकृति. पुरुमंडल, एकस्थान और क्षमण यह तृतीय भंग ३। निर्विकृति, आचाम्ल, एकस्थान
और तमण यह चतुर्थ भग ४। पुरुमंडल, आचाम्ल, एक-. स्थान और तमण यह पंचम भंग ५। ये पांच चतुःसंयोगो भंग हुए। अब पंचसंयोगी भंग बताते हैं-निर्विकृति पुरु- .
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प्रायश्चित-समुच्चय
मंडल, आचाम्ल. एकस्थान और क्षमण यह पांचोंका मिलकर एक भंग । पांच प्रत्येक मंग, दश द्विसंयोगी भंग, दश निसंयोगी भंग, पांच चतुःसंयोगी भंग और एक पंच संयोगी भंग, कुल मिलकर ५+१०+१०+५+१-३१ इकत्तीस भंग हुए। इनको शलाका भी कहते हैं। पहले जो सोलह दोष कह आये हैं उनमें इन इकत्तीस शलाकाओंका विभाग कर प्रायश्चित्त देना चाहिए। प्रथम दोपका पहलो सलाकाका भायश्चित्त और शेषपंद्रह दोषोंका प्रत्येक और मिश्र ऐसो दो दो शलाकाओंका प्रायश्चित्त देना चाहिए। इन निर्विकृति आदि इकतीस शलाका रूप प्रायश्चित्तोंकी यह प्रस्तार संदृष्टि
है।
१२२२२२२२२२२२२२२२ १ २२५४४४४६६६६६६६६
इस संदृष्टिमें ऊपर शलाकाओंकी संख्या है और नोचे उन शलाकाओंके अन्तर्गत प्रायश्चित्तोंकी संख्या है। यद्यपि प्रथम दोषको छोडकर शेष पंद्रह दोषोंकी सलाकाएं समान दो दो हैं तथापि उनके प्रायश्चित्तोंको संख्या समान नहीं है दूसरे तोसरे दोषको शलाकाएं दो दो हैं और प्रायश्चित्त भी दो दो हैं। चौथेसे आठवां तक शलाकाएं दो दो और पायश्चित्त चार चार, नौंवेसे तेरहवें तक शलाकाएं दो दो और प्रायश्चित्त छह छह, चौदह- पद्हमें शलाकाए, दो दो और प्रायश्चित्त आठ आठ तथा सोलहवेमें शलाका दो और
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HWANA-..
प्रतिसेवाधिकार । प्रायश्चित्त नौ हैं । शलाकाओंका विमाग करनेवाला यहां. एक संग्रह श्लोक है उसे कहते हैं।
आद्यमाये तपोऽन्येषु प्रत्येकं तवयं ततः। आये तत्त्रयमष्टानां तचतुष्टयमन्यतः॥
अर्थ-सोलह दोपोंमेंसे प्रथम दोपका प्रायश्चित्त आद्य तप अर्थाद प्रथम शलाका है। शेप पंद्रह दोपोंका मायश्चित्त दो दो तपदो दो शलाकाएं हैं। तथा आठ दोपोंमेंसे प्रथम दोपका प्रायश्चित्त तीन तप-तीन शलाकाएं और शेष सात दोपोंका, मायश्चित चार चार तप-चार चार शलाकाएं हैं।
आगाहादि सोलह दोपोंका प्रायश्चित्त सामान्यसे कहा गया अब लघु दोप और गुरु दोपका विचार कर प्राचार्योंके उपदेशके अनुसार उत्तर सूत्रके अभिप्रायसे उक्त शलाकाओंमें. किसको कौनसा मायश्चित्त दिया जाता है यह निश्चय करते. हैं। आगाढकारणकृत, सत्कारी, सानुचीची, प्रयत्नसंसेवी. प्रथम दोपका प्रायश्चित्त मालोचनामात्र है। अनागाढकारणकृत, सकृत्कारी, सानुवीची, प्रयत्लसंसेवी द्वितीय दोपका बड़ा पायश्चित्त-छह शुद्धिवाली दो शलाकाए हैं जिनमें एक शलाका तो निर्विकृति और क्षमण नामकी नौवीं द्विसंयोगकी और दूसरी निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल और एकस्थान नामकी. छन्वीसी चतुःसंयोगकी है। इस तरह दोनों शलाकाओंके. छह प्रायश्चित्त द्वितीय दोपके हैं। आगाढकारणकृत, असक
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प्रायाश्चत्त-समुच्चय ।
कारों, सानुवीची प्रयत्नप्रतिसेवी तृतीय दोपका पहली निर्विकृति शलाका और दूसरो पुरुमंडल शलाकारूप छोटा प्रायश्चित्त है। अनागाढकारणकृत, असकृत्कारो, सानुवीची प्रयत्नमतिसेवी चौथे दोषका पंद्रहवीं और तीसवों शलाकारूप गुरु प्राय. श्चित्त है। पंद्रहवीं शलाका एकस्थान ओर क्षमण इस तरह :द्विसंयोगकी और तोसवीं शलाका पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान और क्षमण इस तरह चतुःसंयोगकी है। आगाढकारणकृत, सक्कारी, असानुवीची, प्रयत्नसंसेवी, पंचम दोषका प्रायश्चित्त छठो और तेरहवीं शलाका है। दोनों ही शलाकाएं "द्विसंयोगवाली हैं। छीमें निविकृति और पुरुमंडल और तेरहवीमें आचाम्ल और एक स्थान है । अनागाढकारणकृत, सककारी, असानुवीची प्रयत्नस सेवी छठे दोषका प्रायश्चित्त चौदहवीं और सताईसवीं शलाका है। चौदहवीं शलाका आचाम्ल और क्षमण ऐसे द्विसं यांगको और सत्ताईसवीं शलाका निर्विकृति, पुरुण्डल, आचाम्ल और क्षमण ऐसे चतुःसंयोगकी है। आगाढकारणकृत, असकृत्कारी असानुवीची प्रयत्लस सेवी सातवें दोषका प्रायश्चित्त सोलहवीं और वाईसवीं त्रिस योगी दो शलाकाएं हैं। सोलहवीं शलाका निर्विकृति, पुरुमंडल और आचाम्लकी और बाईसवीं शलाका, पुरुमंडल प्राचाम्ल और एकस्थानकी है। अनागाढकारणकृत, असकृत्कारी, असा१-णवी वीदिमा पढम दुइजाय पपणास तीता।
छट्टी तेरसमी विय चोहसी सत्तवीलदिना ॥
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प्रतिसेवाधिकार। नुवीची प्रयत्लस सेवी पाठवें दोपका प्रायश्चित्त वारहवीं और अठाईसवीं शलाका है। पारहवीं शलाका पुरुमंडल और क्षमण ऐसे द्विस योगा भंगको और भठाईसवीं शलाका निर्विकृति, पुरुमंडल एकस्थान और तमण ऐसे चतुःसंयोगी भंगकी है। भागाकारणकृत, सत्कारो, सानुवोचो, अयत्लस सेवी नौवें दोपका प्रायश्चित्त तीसरी और चौथी शलाका है। ये दोनों शलाकाए आचाम्ल और एकस्थान ऐसे एक एक संयोगी भंगकी हैं। अनागाहकारणकृत, सकृत्कारी, सानुवीची, अयलसंसेवी दशवें दोपका प्रायश्चिच तेवीसवीं और इकोसवीं त्रिसंयोगो शलाकाए हैं। तेवोसी शलाका पुरु-मंडल
आचाम्ल और क्षमणकी और इकोसों शलाका निर्विकृति एकस्थान और क्षमणको है भागाढकारणकृत, असकृत्कारी, सानुवाची, अमयलस सेवो ग्यारहवें दोपका प्रायश्चित्त आठवीं और ग्यारहवीं द्विसंयोगो शलाकाएं हैं। भाठवीं शलाका निर्विकृति और एकस्थान और ग्यारहवीं शलाका पुरुमडल और एक स्थानका है। अनागाढकारणकृत असकृरकारो, सानवीचो, भयलसेवो बारहवें दापका प्रायश्चित्त अठारहवों और वीसवों १-सोलस वावासादमा, पारस अडचीसिमा, तिय'चउत्थी।
चवीसिमा पणवीससा, अट्ठमि पयारसी चेव ॥ .
यहां थोड़ा आचार्यसंप्रदायका भेद है। वह यह कि दशवें दोपके ऊपर की संवी और तेईसवी शलाका बताई गई है और इस गाथामें चौवीसवीं और पचीसवीं।
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । त्रिसंयोगी शलाकाए हैं। अठारहवीं शलाका निर्विकृति पुरुमंडल और क्षमणकी ओर बीसवीं शलाका निर्विकृति आचाम्ल और क्षमणकी है। आगाढकारणकृत, सकृत्कारी, असानुवीची, अयत्नस सेवी तेरहवें दोषका प्रायश्चित्त सातवीं और दशर्वी द्विसंयोगीदो शलाकाएं हैं। सातवी शलाका निर्विकृति और आचराम्लको ओर दशवी शलाका पुरुमंडल और भाचाम्लकी है। अनागाढकारणकृत, सकृत्कारी, असानुवीची. अयत्नसेवी चौदहवें दोषका प्रायश्चित्त चौवीसों और पच्चीसवीं त्रिसंयोगी. दो शलाकाएं हैं। चौवीसवीं शलाका पुरुमंडल एकस्थान ओर क्षमणकी और पच्चीसवीं आचाम्ल एकस्थान और क्षमणकी है। आगाढकारणकृत, असकृत्कारी, असानुवीची अयत्नसेवी पंद्रहवें दोषका प्रायश्चित्त सतरहवों और उन्नीसवीं त्रिसंयोगी शलाकाएं हैं। सतरहवीं शलाका निर्विकृति, परु. मंडल और एकस्थानकी और उनीसवीं शलाका निर्विकृति , १- अट्ठारस वीसदिमा, सत्तम दसमीय, एकवीसदिमा।
तेवीसदिमा, सत्तारसी य एऊम वीसदिमा ।
चौदहवे दोषमें ऊपर चौवीसवीं और बच्चीसी शलाका बताई है और इस गाथा इक्कीसवीं और तेईसवीं। यह . आचार्य सम्प्रदायका भेद मालूम पड़ता है। अन्तर दोनों में इतना ही है कि दशवें दोषका प्रायश्चित्त चौदहवे में और चौदहवेंका दशवे में परस्पर वताया गया है। मंग दोनों ही स्थलों में त्रिसं. योगी हैं।
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प्रतिसेवाधिकार ।
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ज्ञाचाम्न और एकस्थानको है। अनागाढकारणकृत, असकृकत्कारी, असानवीची ओर अयत्नसेवो सोलहवें दोषका प्रायश्चित्त पांचवों, उनतीसवीं और इकतीसवीं ये तीन शलाकाए हैं। पांचवीं शलाका एकसंयोगी भगकी है जिसमें समण है। उनतीसवीं निर्षिकृति, आचाम्ल, एकस्थान और क्षमण एवं चतुःसंयोगो मंगकी है और इकतीसवीं शलाका निर्विकृति, एरुमंडल, प्राचाम्ल, एकस्थान और क्षमण एवं पंचसंयोगी भगकी है। इस तरह सोलह दोषोंमें छोटे वडे दोपका विचार कर प्रायश्चित्त बताया। पहला, तीसरा, पांचवां, सातवां, नौवां, ग्यारहवां, तेरहवां और पन्द्रहवां ये आठ दोप तो लघु प्रायश्चित्तके योग्य हैं और शेष दूसरा, चौथा, छठा, आठवां, दशवा बारहवां, चौदहवां और सोलहवां ये आट गुरु प्रायश्चित के योग्य हैं। संदृष्टि
१२२२२२२२२२२ २ २ २ २ ३ .६२६ ४६६६२६४६ ४६६ १०
इस संदृष्टिमें ऊपर प्रत्येक दोपकी शलाकाएं हैं और नीचे : प्रायश्चित्तोंकी संख्या है। यह इस विषयको स्पष्ट करनेवाला संग्रह श्लोक है
२-पंचम उगतीसदिमा इगत्रीसदिमा य होति सोजसमे ।
मिस्ससलागा गेयह इगितिचउपंचसंजोगे।
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । आये वालोचनान्येषु द्वे द्वे स्यातां शलाकिके। आचं मुक्त्वा यथायोग्यं प्राग्यदुद्दिष्टमष्टसु ।। __ अर्थ-प्रथमदोपमें आलोचना प्रायश्चित्त है अन्य दोषोंमें दो दो शलाकाएं हैं विशेष इतना है कि सोलहवें दोषमें तीन शलाकाएं हैं। तथा आठ दोषोंमें पहले दोषको छोड़कर शेष दोषोंमें पूर्ववत् प्रायश्चित्त समझना । भावार्थ-पहले दोपों में तीन शलाकाएं और शेष सात दोपोंमें चार चार शलाकाएं रूप प्रायश्चित्त है। __ जो निष्कारण आठ भंग हैं वे सर्वथा ही अशुद्ध हैं तो भी. उनमेंका पहला भंग अन्य भंगोंकी अपेक्षा विशुद्धतम है। अन्त.. का अविशुद्धतम अर्थात सबसे अधिक अविशुद्ध है। संकृत्कारी सानुनीची, यलसेवी प्रथम भंगका प्रायश्चित्त एक संयोगवाली निर्विकृति, पुरुमंडल और आचाम्स ऐसो पहली दूसरी तीसरी तीन शलाकाएं हैं। असकृत्कारी, सानुवीची, प्रयत्नसेवी दुसरे दोषका प्रायश्चित्त चार शलाकाएं हैं। दो शलाकाएं एकस्थान
और क्षमण ऐसे एकसंयोगकी और दो शलाकाएं निर्विकृति पुरुमंडल और आचाम्ल एकस्थान ऐसे द्विसंयोगकी। ये शशाकाएं चौथी, पांचवी, छठी और तेरहवी हैं। सकृत्कारी १-अहण्हं आदिपणे मिस्स सलागाउ तिरिण दायव्वा ।
सेलाण चत्तारिय पुध पुध ताणं सुण ठाण।
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प्रतिसेवाधिकार । । असानुवीची यत्नपतिसेवी तृतीयं दोषका प्रायश्चित्त द्विसंयोगको चार शलाकाएं अर्थात आठ शुद्धियां हैं । निर्विकृति-आचाम्स निर्विकृति एकस्थान, आचाम्ल तमण और एकस्थान क्षमण । ये शलाकाएं क्रमसे सातवीं, आठवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं हैं। असकृत्कारी, असानुवीची प्रयत्नसंसेवी चौथे दोपंका प्रायश्चित्त, द्विसंयोगवाली चार शलाकाएं अर्थात् आठ शुद्धियां हैं निर्विकृति क्षमण, पुरुमंडल आचाम्ल, पुरुमडल एकस्थान और पुरुमडल क्षपण । ये शलाकाए क्रपसे नौवों, दशवी, ग्यारह: और वारहवी हैं । सकृल्कारो, सानुवीची, अप्रयत्नसेवी पांचवें दोषका प्रायश्चित् तीन संयोगवाली चार शलाकाएं अर्थात वारह शुद्धियां है। निर्विकृति परुमंडल आचाम्ल, निर्विकृति पुरुमडल क्षमण, पुरुमंडल आचाम्ल तमण और आचाम्स एकस्थान क्षमण। ये शलाकाएं क्रमसे सोलहवीं अठारहवों, तेइसवीं और पच्चीसवीं हैं। असककारी, सानुवीची, अयत्नसेवो छठे दोषका प्रायश्चित्त तीन संयोगवाली चार शलाकाएं अर्थात् वारह शुद्धियां हैं । निर्विकृति पुरुमंडल एकस्थान, १ पढम दुरज ताजा, चड पंचमिया य छह सेरसमी ।
सत्तम अभ चौहसमी वि य परणारसीचेव ॥ २ शवदस एक्कारसमी य वारसमी, तह य चेव, सोजसमी।
अट्ठारसमी वावीसिमा य पणवीसिमा, चेव ॥ पांचवें दोषमें ऊपर तेईसवीं शजाका बताई गई है और इस गाथामें वाईसीं ।
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'प्रायश्चित्त-समुच्चय । निविकृति आचाम्ल एकस्थान, निर्विकृति आचाम्ल क्षमण, और पुख्य डल एकस्थान क्षमण । ये शलाकाएं क्रमसे सतरहीं, उन्नीसवीं वीसवीं और चोवीसवीं हैं। सरकारी असानुवीची अपनप्रतिसेवी सातवें दोपका प्रायश्चित: त्रिसंयोगवाली दो और चतुःसंयोगवाली दो अर्थात् चौदह शुद्धियों एवं चार शलाकाएं हैं । निर्विकृति-एकस्थान-क्षमण और पुरुमंडल आचाम्ल एकस्थान, तथा निर्विकृति पुरुमडल आचाम्ल एकस्थान और पुरुमंडल प्राचाम्ल एकस्थान क्षमण । ये शलाकाएं क्रमसे इक्कीसवीं, वाईसवों, छब्बीसवीं और तीसवीं हैं। असकृत्कारो, असानुवीची अप्रयत्नप्रतिसेवी आठवें दोषका प्रायश्चित्त चतुःसंयोगवाली शलाकाए' तीन और पांचसंयोगवाली शलाका एक एवं चार शलाकाएं अर्थाद सतरह शुद्धियां हैं, निर्विकृति पुरुमंडल आचाम्ल क्षमण, निर्विकृति पुरुमंडल एकस्थान क्षमण, और निर्विकृति आचाम्ल एकस्थान क्षमण तथा निर्विकृति पुरुमंडल आचाम्ल एकस्थान चपण। ये शलाकाएं क्रमसे सत्ताइसवी, अठाईसवीं, उनती१ सत्तारसमी एगूणवीसमा वीसमा य चवीलमा ! . इगिवीसदिमा तेवीसदिमा य छन्चील तीसदिमा सातवें दोषमें ऊपर वाइसर्वी शलाका बताई गई है और इस गाथामें तेईसवीं। २ सत्तावीसदिमावि य अट्ठावीसाय ऊणतीसदिमा।.. इगतीसदिमा य इमा मिस्ससलाया अटण्हं ॥
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प्रतिसेवाधिकार ।
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सवीं और इकतीसौं हैं। इस तरह आउदोषोंकी कुल शलाकाएं इकतीस और शुद्धियां अस्सी होती हैं। संदृष्टि
३ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ४ ३६८८१२ १२ १४ १७ यहां भी ऊपर शलाकाओंको संख्या और नीचे शुद्धियों की संख्या है ॥ २६॥ आलोचनादिकं योग्ये कायोत्सर्गोऽथ सर्वकं । तपः आदि कचिद्देयं यथा वक्ष्ये विधि तथा॥ __अर्थ-योग्य व्यक्तिक दोपोंको जानकर आलोचना, आदि शब्दसे प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक इनमेंसे एक या दो या तीन अथवा चारों प्रायश्चित्त देखें और कायोत्सर्ग भी देवे। अथवा सभी आलोचनादि दश तरहके प्रायश्चित्त देवे । तथा किसी व्यक्ति विशेषको तप, आदि शब्दसे छेद मूल, परिहार और श्रद्धा ये पांच प्रायश्चित्त देवे ।। २७ ॥
ये सब प्रायश्चित्त जिस विधिसे देने चाहिए, उसविधिको आगे कहते यदभीक्ष्णं निषेव्येत परिहर्तुं न याति यत् । । यदीपञ्च भवेत्तत्र कायोत्सगों विशोधनं ॥२८॥ __ अर्थ-जो निरंतर सेवन करनेमें आते हैं, जो त्यागने में नहीं आते हैं और जो स्तोक हैं ऐसे दोषोंका प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग है। भावार्थ-चलना-फिरना आदि भी दोप है जो निर
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । तर करने पड़ते हैं। भोजन पान करना भी दोप ही है। ये दोप दुस्त्याज्य हैं। सारांश-इन कर्तव्योंके करने पर कायोत्सर्ग नामका प्रायश्चित्त लेना चाहिए ॥२७॥ अपमृष्टपरामर्श कंडूत्याकुंचनादिषु । जलखेलादिकोत्सर्गे कायोत्सर्गः प्रकीर्तितः॥ __ अर्थ-अप्रतिलेखित शरीरादि वस्तुओंसे स्पर्श हो जानेपर, खाज खुजाने हाथ पैर प्रादिके फैलाने सिकोड़ने आदि क्रियाके करने पर, और मल, थूक, आदि शब्दसे खकार आदि . शारीरिक मल आदिके त्यागने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त कहा . गया है ॥२६॥ तंतुच्छेदादिक स्तोके संक्लिष्टे हस्तकर्मणि। मनोमासिकसेवायां कायोत्सर्गः प्रकीर्तितः॥ __ अर्थ-तंतु (धागा) तोड़नेका, आदिशब्दसे तृण वगैरहके तोडनेका, अल्प संक्लश उत्पन्न करनेका, पुस्तक आदिके संचय करनेरूप हस्तकर्मका और इस उपकरणको इतने दिनोंमें बनाकर तयार करूंगा इस प्रकार मनसे चितवन करनेका प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग है ॥ ३० ॥ मृदाथवा स्थिरैर्वीजैहरिद्भिस्त्रसकायकैः । संघट्टने विपश्चिद्धिः कायोत्सर्गः प्रकीर्तितः॥
अर्थ-मिट्टोसे, स्थिरचीजोंसे और हरे तृमा आदिसे तथ
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प्रतिसेवाधिकार त्रस कायके साथ हाथ पैरोंका संघर्पण हो जाय तो विद्वानोंने उसका प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग करना बताया है। जो गेहूं आदि को वीज कहते हैं। मर्दन करने (मसलने-कुचलने) पर भी जो बोज नष्ट न हों उन्हें स्थिर वोन कहते हैं ।। ३१ ॥ पांश्वालिप्तपदतोये विशेद् वा विपरीतकः। . पुरुमंडलमाप्नोति कल्याणं कर्दमापात् ॥ ३२॥
अर्थ-जिसके पैरोंपर धूल लिपट रही है वह यदि पानीमें धुस जाय अथवा जिसके पैर गोले हैं वह यदि अपने पैर धूलमें रख दे तो उसका प्रायश्चित्त पुरुमंडल है। तथा कीचड लिपटे पैरोंसे पानीमें चला जाय तो उसका प्रायश्चित्त एककल्याणक (पंचक) है ॥३२॥ हरितृणे सकृच्छिन्ने छिन्ने वानन्तके त्रसे । पुरुमंडलमाचाम्लमेकस्थानमनुक्रमात् ॥३३॥
अर्थ- हरे तृणोके एक वार छेदन-भेदनका प्रायश्चित्त पुरुमंडल है । सूरण गडूचो, स्नूही, मूल, आदा, आदि अनन्तकायिक चीजोंके छिन्न भिन्न करनेका प्रायश्चित्त आचाम्ल है (जिस वनस्पनिके मूलमें शाखाओंमें, पत्तोंमें असंख्याते शरीर हों, एक एक शरीरमें अनन्त २ जीव निवास करते हों. एक जीवके मरने पर अनन्तोंका मरण होता हो और एकके उत्पन्न : होने पर अनन्त उत्पन्न होते हों वे जीव अनन्त कायिक हैं) तथा दो इंद्रिय तीन इन्द्रिय मादि त्रस जीवोंके छदन-भेदन करनेका
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प्रायश्चित्त-समुच्चय ! प्रायश्चित्त एकस्थान है। छेदनका अर्थ जानसे मार देनेका नहीं है किन्तु उन चीजों के एक देशके खंडन करनेका है। जानसे मार देनेका मायश्चित्त जुदा है। यह प्रायश्चित्त उनके एक देश खंडनमें है ॥३३॥ प्रत्येकेऽनन्तकाये वा त्रसे वाथ प्रमादतः।
आचाम्लं चैकसंस्थानं क्षमणं च यथाक्रम ॥३४॥ ___ अर्थ-जो छिन्न-भिन्न करने पर न उगे और जिसके एक शरीरका स्वामो एक ही जीव हो ऐसे सुपारी नारियल आदि प्रत्येक कायिक हैं। इन प्रत्येकज्ञायिक वस्तुओंको प्रमाद-पूर्वक छिन्न भिन्न करनेका प्रायश्चित्त आचाम्ल-कांजिकाहार है । प्रत्येककायिकसे विपरीत अनन्तकायिक होते हैं जिनका स्वरूप ऊपरके श्लोकमें बता चुके हैं उन अनन्तकायिक वस्तुओं को प्रमाद-पूर्वक छिन्न-भिन्न करनेका प्रायश्चित्त एकसंस्थान है। तथा प्रमादसे दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवोंके छेदन-भेदनका. मायश्चिच उपवास है ॥३४॥ व्यापन्ने सन्निधौ देया निष्प्रमादप्रमादिनोः। पंच स्युनरिसाहाराश्चैक कल्याणकं बसे ॥३५॥ आभीक्ष्ण्ये पंचकल्याणं पंचाक्षे चापि दर्पतः। प्रमादेनैककल्याणं सकृदप्युपयोगतः ॥३६॥ . .अर्थ-कमंडलु भेषज आदि भाजनोंको सन्निधि कहते हैं
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प्रतिसेवाधिकार । जिसमें रक्खा जाय वह सन्निधि है। उसमें यदि प्रमाद या अप्र-- मादसे कोई जोव मर जाय तो अप्रमत्तको पांच निर्विकृति पायश्चित्त और प्रमादीको एक कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वार वार त्रस जीव मरे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना। 'चाहिए और दर्पसे अथवा सावधानी रखते हुए एक वार पंचेन्द्रिय जीव परणको प्राप्त हो जाय तो एक कल्याणक. प्रायश्चित्त देना चाहिए॥३५-३६ ॥ संस्तरे यदि पंचाक्षो व्यापयेताप्रमादतः । पंच निर्विकृतान्येककल्याणं सप्रमादतः ॥३७॥ __ अर्थ-सावधानी रखते हुए भी संस्तर-सोनेके आथरे पर यदि पचन्द्रिय जीव मर जाय तो उसका प्रायश्चित्त पांच निर्विकृतियां हैं और यदि असावधानीले मरे तो एक कल्याणक मायश्चित्त है ।।३७॥
आवासद्वारमूले चेत्पंचाक्षो विगतासुकः । तन्निष्क्रान्तप्रविष्टानामेककल्याणकं भवेत् ॥३८॥ ___ अर्थ-वसतिका (रहनेका स्थान ) के दरवाजेके अधःः प्रदेश (नीचेके हिस्से) में यदि पंचेन्द्रिय जीव मर जाय तो जितने बाहर निकले हों और भीतर गये हों उन सबके लिए एक एक कल्याणक प्रायश्चित्त है।॥३६॥
१-बसहियदुवारमूने रादो पंचेदियो मदे दिहो। 'जावदिया णीसरिदा पविसंवा एक कलाणं ॥
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प्रायश्चित्त-मुच्चय ।
MMC
विरतेभ्यो गृहस्थेभ्यो न यत्नकथिते हते। वृश्चिकादौ गृहस्थेन क्षमणं पंचकंक्रमात् ॥३९॥
अर्थ-संयतों और असंयतोंके निमित्त यलपूर्वक वा अयत्नपूर्वक कहने पर कोई असंयत्त गृहस्थ विच्छु, विल्लो आदि जन्तुओंको मार दे तो उसका प्रायश्चित्त क्रमसे क्षमण और पंचक है। भावार्थ-यत्नपूर्वक कहने पर मारे उसका प्रायश्चित्त क्षमण और अयत्नपूर्वक कहने पर मारे उसका एक कल्याणक है। पंचक यह कल्याणककी संज्ञा है। वह इसलिए है कि यह कल्याणक पांच दिनमें समाप्त किया जाता है ॥३६॥ विरतेभ्यो गृहस्थेभ्यो न यत्नाभिहिते हते।
सपादौतु गृहस्थेन कल्याणंमासिकं पृथक् ॥४०॥ . अर्थ-विरतों या गृहस्थोंके निमित्त यत्न अथवा प्रयत्न'पूर्वक कहनेपर कोई गृहस्थ सर्प गोनस (गोप) आदि प्राणियोंको मार दे तो उसका प्रायश्चित्त क्रमसे एककल्याणक और पंचकल्याणक है । भावार्थ-यत्नपूर्वक कहने पर मारनेका एक कल्याणक प्रयत्नपूर्वक कहने पर मारनेका पंचकल्याणक है। संयतेभ्यः प्रयत्नेन विषीति कथिते हते।। गृहस्थेनापि संशुद्धो वाक्समित्या युतो थतः॥४१॥
अर्थ-संयतोंके निमित्त प्रयत्नपूर्वक-ऋपिभापामें विपी (सर्प) है यह कहने पर कोई गृहस्थ उसे मार दे तो वह निर्दोष है क्योंकि वह भाषासमितिसे युक्त है। ५१॥
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प्रतिसेनाधिकार।
आगाढकारणाद्वन्हिर्निवात्यानीयमानकः। पंच स्यु रसाहाराः कल्याणं वा प्रमादिनि॥४२॥ ___ अर्थ-ऋपियोंको यदि उपसर्ग हो या रोग आदि हो इस हेतुसे लाई हुई अग्नि बुझा दे तो उसका प्रायश्चित्त पांच नीरस आहार (निर्विकृतियां) अथवा प्रमादवान पुरुषके लिए एक . कल्याणक प्रायश्चित्त है ॥ ४२ ॥ ग्लानाथ तापयन् द्रव्यं वन्हिज्वाला यदि स्पृशेत् । पंच स्यू रूक्षभक्तानि कल्याणंच मुहुर्मुहुः॥४३॥
अर्थ-बीमार पुरुषके निमित्त उसका शरीर या और कोई उपकरण तपाते हुए यदि एक वार अग्निको ज्वाला (लो)-का स्पर्शन करे तो उसकी शुद्धि पंच निर्विकृति आहार है और यदि बार वार सर्शन कर तो उसका प्रायश्चित्त एककल्याणक है। विभावसोः समारंभ वैद्यादेशाद्यदि स्वयं । अनापृच्छयातुरं कुर्यात् पंचकल्याणमश्नुते॥४४॥
अर्थ-यदि बीमारको न पूछकर केवल वैद्यके कहनेसे स्वयं अपने आप अग्नि जलानेका आरम्भ करे तो वह पंचकल्याणकको प्राप्त होता है। भावार्थ-इस तरहके आरम्भका प्रायश्चित्त पंचकल्याण है॥४४॥ . . . . .
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प्रायश्चित्त-समुच्चय ।
विदध्याद् ग्लानमापृच्छय वैयावृत्यकरोऽथवा। तस्य स्यादेककल्याणं पंचकल्याणमातुरे ॥४५॥ __ अर्थ-अथवा वह वैयाकृत्य करनेवाला रोगोको पूछकर अग्नि जलादे तो उसके लिए एककल्याणक और उस रोगीके लिए पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥ ४५ ॥ कारणादामलादीनि सेवमानो न दुष्यति । विलपेश्यादिचानातिशुद्धः कल्याणभागथ ॥४६॥
अर्थ-व्याधिके निमित्त आपले, हरड़ा, बहेरड़ा, आदि चोजोंका सेवन करनेवाला दोपो नहीं है-निर्दोष है और विल्वखंड, आय, करौंदे, वीजपर (विजौरा) आदि प्रासुक चीजोंको जो खाता है वह भी निर्दोप है परन्तु जो व्याधिरहित होते हुए यदि सेवन करता है तो कल्याणकप्रायश्चित्तका मागी
रसधान्यपुलाकं वा पलांडूसरणादिकं । कल्याणमश्नुतेऽनन्वा मासं कोलकादिकं॥४७॥ __ अथ-जो पुरुष च्याधिसहित होता हुआ यथालाम (लाभानुसार) बन करते हुए भी तिक्त, कटुक, कपाय, आम्ल, मधु लवण इन छह रसोंक और शालो, व्रीही अर्थाद भात आदिका परिमाणसे अधिक सेवन करता है अथवा, लसुन सूरण, कंद, गिलोय आदि अनंतकाय चीजों का सेवन करता है
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प्रतिसेवाधिकार । वह कल्याणकको प्रात होता है। तथा व्याधिरहित नोरोग होकर इलायची, लौंग, जातिफल, जातोपत्र, सुपारो आदिका सेवन करता है वह पंचकल्याणकको प्राप्त होता है। भावार्थरुग्ण अवस्था अत्यन्त लोलुपताके साथ छहों तरहके रस और आहार तथा लसुन आदि अनंतकाय चोजोंके सेवन करनेका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है। तथा नोरोग हालतमें इलायची, सुपारी आदि चीजोंके खालेनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। कान्दर्ये यन्मृषावादे मिथ्याकारेण शुद्धयति ।
अननुज्ञातसंशून्यखलादिकमलोज्झने ॥४९॥ ___ अर्थ-कामकी उन्मत्तताके कारण थोड़ा असत्य बोलने पर मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो' इस तरहके वचनमानसे शुद्ध निर्दोष हो जाता है। तथा आगमसे निषिद्ध और निर्जन ऐसे खलियान, खेत, तालाब, वृक्षोंकी जड़ आदि स्थान जहां मलोत्सर्ग करनेसे लोक नाराज होते हों वहां मलोत्सर्ग करने पर भी मिथ्याका वचनसे शुद्ध हो जाता है ॥ ४६॥ जघन्यं तुल्यमूल्येन गृह्वानोऽपि विशुद्धयति,। उत्कृष्टं मध्यमं वाथ गृलतो मासिकं भवेत् ॥५०॥ ___ अथ-जघन्य, अथवा मध्यम, अथवा उत्कृष्ट चीजोंको जो समान मूल्यमें खरीदता है वह विना प्रायश्चित्तके शुद्धिको प्राप्त होता है। और यदि चौर डाकू आदिसे लेता है तो उसका . प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। भावार्थ-यह मुनियोंके प्राय
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । श्चित्तका ग्रन्थ है अतः यहां उन्हों चोनोंका संबंध लगाना चाहिये जिनका मुनि धर्मसे कुछ संवन्ध है। यहां दवात, कलम, नेतृलता आदि लिखनेको चोजें जघन्य हैं। पत्रजाति, पट्टी, कमंडलु आदि मध्यम चीजें हैं। सिद्धान्त-पुस्तक आदि. उत्कृष्ट चीजें हैं। ऐसी जघन्य चीजें जघन्यमूल्यमें, मध्यम मध्यम मूल्यमें और उत्कृष्ट उत्कृष्ट मूल्यमें अथवा उत्कृष्ट और मध्यम चीजें जघन्यमूल्यमें और जघन्य चीजें कम मूल्यमें खरीद करे वहां तक विशुद्ध है। हां! यदि चौर डाकू आदिसे ये चीजें ले तो वह अवश्य दोषी है अतः इस दोषसे उन्मुक्त होनेका प्रायश्चिच पंचकल्याणक है ॥५०॥ तृणपंचकसेवायां स्थानिर्विकृतिपंचकं । दूष्याजिनासनानां च कल्याणं पंचकं सकृत् ।५१। __अर्थ-शालो, ब्रोही. कोद्रव, कगु और रवक इनको तृणपंचक कहते हैं इनके सेवन करनेका प्रायश्चित्त पांच निर्विक्रति आहार है। तथा वस्त्र पंचक, चर्मपंचक और आसन पंचकके एकवार उपभोग करनेका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है । दृष्य, प्रवार घरपट, तौम और वस्त्र ये पांच अथवा अण्डज, वोडजा वालज, वल्कलज, ओर शृङ्गज ये पांच पंचक होते हैं। व्याघ्रचर्म, भल्लुकचर्म, हरिणचर्म, मेषचर्म और अनाचर्म ये पांच अजिन या चर्म पंचक हैं। तथा लोहासन, दंडासन, मासंदक; आयाएहक, और पोतिक ये पांच प्रासनपंचक हैं ॥५१॥
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प्रतिसेवाधिकार।
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पंचकेऽप्रतिलेख्यस्य मासः स्यात् सेवने सकृत् । संदंशच्छेदसूच्यादिधारणे शुद्ध एव हि ॥५२॥ ___ अर्थ-पांच प्रकारके अप्रतिलेख्योंके एक वार सेवन करनेका प्रायश्चित्त चकल्याणक है। जो शोधनेमें न आवे उसे अप्रतिलेख्य कहते हैं। उसकी संख्या पांच है। तथा संदेश (संडसी) नखलु, सूई, आदि शब्दसे पत्रवेधनी सलाई आदि चीजें पास रखने पर शुद्ध ही है अर्थात इनके ग्रहण करनेका. कोई प्रायश्चित्त नहीं ॥५२॥ संस्तरस्य निषद्यायास्तदिकाया उपासने । घटीसंपुटपट्टस्य फलकस्य न दूषिका ॥ ५३॥
अर्थ-साथरा, बैठनेकी चटाई, कमंडलू, संपुट (कटोरे या दोनेके आकारकी वस्तु) आसन और फलक (लकड़ीकी फड़ या. तखत) इन चीजोंको काममें लेनेमें कोई दोष नहीं है ॥५३॥ उपधौ विस्मृतेऽप्युच्चैर्मध्यमेऽथ जघन्यके। 'क्षमणं कंजिकाहारं पुरुमंडलमेव च ॥ ५४॥
अर्थ-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य संयमोपकरणके विस्मृत कर देनेका प्रायश्चित्त क्रमसे उपवासप्राचाम्ल और पुरुमंडल है। दुःस्थापितोपधेनाशे सर्वत्रोत्कृष्टमध्यमे। . जघन्ये मासिकं षष्ठं चतुर्थ कंजिकाशनं ॥५५॥
अर्थ-अच्छी तरह नहीं रक्खा गया अतएव नष्ट हो गया.
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प्रायश्चित्त-समुच्चय।
mimmin ऐसे सब तरहके संयपोपकरण (के नाश ) का मायश्चित्त पंचकल्याणक है। तथा अच्छी तरह नहीं रक्खे हुए उत्कृष्ट संयमो'पकरणके नाशका प्रायश्चित्त एक पष्ठ (घेला) मध्यमका एक उपवास और जघन्यका आचाम्ल प्रायश्चित्त है। सिद्धान्त पुस्तकादि उत्कृष्ट संयमोपकरण पिच्छी आदि मध्यम संयमोपकरण और कमंडलु आदि जघन्य संयमोपकरण होते हैं। पुरुषान्न तदर्थं वा स्वल्पान्नं वा समुत्सृजन् । अभोजनमथाचाम्लं पुरुमंडलमश्नुते ॥५६॥
अर्थ-जितनेसे एक पुरुषका पेट भर सकता है उतना आहार छोड़ देनेवाला एक उपवास प्रायश्चित्तको भाप्त होता है। उससे आधा या तिहाई छोड़ देनेवाला आचाम्ल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। तथा स्वल्प थोडासा आहार छोड़ देनेवाला पुरुमंडल मायश्चित्तको प्राप्त होता है । ५६ ॥ आगंतुकगृहे सुप्तः सासोदकवन्हिके। .. सागारैरप्यवेलायां शुद्ध एव स चेत्सकृत् ॥५॥ ___ अर्थ-जो स्थान गीला है, जिसके निकट पानी है और
अग्नि जल रही है ऐसे; आनेजानेवाले रास्तागिरोंके लिए वनवाये हुए धर्मशालादि स्थानोंम; गृहस्थोंके साथ, सोनेके असमयमें यदि एक बार कोई साधु सो जाय तो वह शुद्ध ही है-उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।।५७॥
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प्रतिसेवाधिकार। वर्षास्वतुच्छकार्येण हिमे ग्रीष्मे लधीयसि । योजनानि दश द्वे च कार्ये गच्छन्न दोषभाक् ॥
अर्थ-वर्षा ऋतुमें देव ओर आर्षसंघ संबन्धी कोई बड़ा कार्य तथा शीतकाल और ग्रीष्मकालमें छोटा कार्य आ उपस्थित हुआ तो उस कार्यके निमित्त बारह योजन तक कोई साधु चला जाय तो वह दोषी नहीं है, वारह योजनसे ऊपर गमन करनेवाला प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥५५॥ ऋतुबंधमतिकामेन्मासेनाकारणाद्यदि । लघुमासोगुरुः स स्यात् सर्ववर्षाविभेदिनि॥५९॥
अर्थ-किसी कार्यके अर्थ कहीं अन्यत्र जाना पडे, वहां कार्य एक महोनेका ही है उससे अधिक समय बिना ही कारण व्यतीत कर दे तो उसका प्रायश्चित्त लघुमास हैं। यदि सारा वर्षाकाल विता दे तो उसका प्रायश्चित्त गुरुमास है ॥५६॥ दर्पतःपंचकल्याणं सारीनाब्यादिकेलिषु । हेतुवादे तु कल्याणं शुद्धो वा विजये सति ॥६॥
अर्थ-अहंकारवश सारी नाड़ी आदि क्रीड़ा करनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याण है। सारा नाम जुआ खेलनेके उपकरणका चौपड़का है। चार हाथकी पोली नालीको नाड़ा कहते हैं यह एक प्रकारका मंत्रका उपकरण है। अथवा राजाने कहा कि . श्रमण चौपड़ आदि जुएके खेल नहीं जानते उसके इस कहने ।
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प्रायश्चित्त-मुच्चय ।
पर अहंकारपूर्वक उन खेलोंके बादमें लग गये तो उसका पायश्चित्त एक कल्याणक है। तथा हेतुवाद अर्थात् न्याय प्रादिके वाद विवादमें लग जाये और पराजय हो जाय तो उसका मायश्चित्त कल्याणक है। अगर विजय हो जाय तो कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है ॥६॥ धूलिप्रहेलिकागाथाचक्कूलान्ताक्षरोक्तिषु । . . तृणपासविपाशेऽपिपुरुमंडलमीरितं ॥ ६१॥
अर्थ-पांशुक्रीड़ा (धूलिके खेल) परस्पर पहेलिया बोलना गाथाचतुष्टय बोलना, अन्त अत्तरका बोलकर उसका मतलक पूछना, पद चक्र, वचन-प्रति वचन कहना, तृणवंध छडाना इत्यादि अनेक बातें हैं उनमें लग जानेका प्रायश्चित्त पुरुमंडल. कहा गया है ।।६१॥ धातुवादेऽथ योगादिदर्शने द्रव्यनाशने। ... स्वपक्षीक्षिते देयं कल्याणं मासिकं परैः॥२॥
अर्थ-धातुवाद, योगादिदर्शन और द्रव्यनाशन इन विषयोंको यदि अपने पक्षके लोग देख लें तो उसका प्रायश्चित्त कल्याणक देना चाहिए और यदि परपक्षवाले मिथ्यादृष्टि लोग देख लें तो पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए। सोना चांदी आदि धातुओंमें क्रियाओं द्वारा वर्णकी उत्कर्षता आदि दिखाना धातुवाद है। कपूर, कस्तुरी, केशर, कुंकुमः
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प्रतिसेवाधिकार । । आदि सुगंधियुक्त कृत्रिपाद्रव्य बना देना योगादिदर्शन क्रिया है। दहा द्ध आदि नाना प्रकारकी चीजोंको नष्ट कर देना द्रव्यनाश है। इस तरहको क्रियाएं विशेष प्रयोगों तथा मन्त्र आदिक जरिये की जाती हैं ॥६॥ समासाद्यंगसंघर्षसूत्रकंदुककेलिषु। पणने नखपिच्छांहिजंघावीणादिवादने॥६३ ॥ स्वपीक्षिते देयाद्भूतक्रीडाप्रदर्शने । पुरुमंडलमुद्दिष्टं कल्याणंच परेक्षिते॥६४॥ युग्म __अर्थ-एक पध, आदि शन्दसे कान्य, पद्यका आधाभाग चौथाई भाग आदि समासादि हैं इनको रचना न जानते हुए भी. स्पर्धा करना कि मैंने यह एक श्रव्य (सुनने योग्य) काव्य: बनाया है ऐसा आप भी बनाइये, मैंने यह श्लोकका पूर्वाध बनाया है आप इसका उत्तरार्ध बनाइये, मैंने यह श्लोकका पादः ( चौथा हिस्सा ) बनाया है आप भी इससे मिलता जुलता. दूसरा पाद बनाइये इत्यादि समासादि क्रोडा है। परस्परमें एक दूसरेके शरीरका प्रपीडन करना अङ्गसंघर्ष कोड़ा है, सूत्रक्रीड़ा रस्सा खेचना, गेंद आदिके खेल कंदुकक्रीड़ा है। इत्यादि क्रोड़ाओंमें होढ़ करना (सरियद लगाना) तथा नख, पिच्छी पर और जंघा द्वारा वीणा आदि बाजे बजाना तथा किसो: चीजको भूतों द्वारा ग्राण करा कर प्रकाशन कराना इस
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प्रायश्चित-समुच्चय । तरहकी भूतकोड़ा दिखाना। इन सब क्रीडाभोंको करते हुए यदि स्वपक्ष अपने धर्मावलंबी देखलें तो पुरुमंडल प्रायश्चित्त देना चाहिए और यदि विधर्मी लोग देख लें तो कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ १३-१४॥ मनसा काममापन्ने निंदातीवाभिलाषिणि । मासो मैथुनमापन्ने चतुर्मासा गुरूकृताः॥६५॥
अर्थ-काम सेवन करूं' इस प्रकार प्रथम मनमें कामरूप परिणत होनेके पश्चाद हाय ! मुझ पापबुद्धि मंदभाग्यने बुरा चितवन किया इस प्रकार आत्मामें निन्दा कर अनन्तर उससे तीन अभिलाषी होने पर अर्थात मनसे चितवन करनेके अनन्तर कामोद्रक होनेसे तीव्र अभिलाषा युक्त होने पर पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए। तथा मैथुन सेवन कर लेने पर गुरुकृत अर्थात एकान्तरोपवासपूर्वक चार मास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६५॥ मासः सौंदर्यवीर्यार्थ रसायननिषेवणे । विशुद्धो द्विविधै हासे कल्याणं तु सकुत्कुचे॥६६॥
अर्थ-शरीरमें सुन्दरता लाने और बल बढानेके लिये. औषधि सेवन करनेका पंचकल्याण प्रायश्चित्त है। दो तरहकी हँसी (सनेका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। एक-हाथोंसे मुख बँक कर हंसना, दूसरी-ओगेको थोड़ा खोल कर हंसना, यह
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प्रतिसेवाधिकारें।
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संयतोंको दो तरहको हंसी है। तथा जिस सीके हँसनेमें सारा शरीर इलने लग जाय तो उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है ॥६६॥ मृद्धरित्रसगाम्बु परिहर्तुं विलंघने। मार्गे सत्यपि कल्याणं विशुद्धः पथिवर्जितः॥६॥ ___ अथे---मिट्टोका देर, हरी घास, दोइन्द्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रिय पंचेन्द्रिय त्रस जीव, खड्डा, और जल इन चीजोंको रास्ता होते हुए भी उनसे वचनेके लिए उन्हें लांघ कर जाय तो कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा मार्ग न होनेके कारण इन्हें लांघना पड़े तो कोई प्रायश्चित्त नहीं हैं॥६॥ मोद्यायनांगुलिस्फोटे पुरुमर्दोऽपवीक्षणे। कल्याणं पंचकल्याणं कटाक्षेऽसंज्ञिवीक्षते ॥६॥
अर्थ-मुखसे 'टच' करने और अंगुली चटकानेका पायश्चित्त पुरुमंडल है। टेढ़ी नजरसे देखनेका प्रायश्चित्त एक कल्याणक हैं। तथा कटाक्षभरी दृष्टिसे देखनेका जिसको कि मिथ्यादृष्टि देख लें तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥६॥ ज्ञानगर्वादिभिर्मत्तो रलिनो योऽपमन्यते। . तदर्पदोषघाताय पंचकल्याणमश्नुते ॥ ६९॥
अर्थ-जो ज्ञानमद, नातिपद, · कुलमद, आदि पदोंसे उन्मत्त होकर रनत्रयधारी साधुनोंका अपमान करता है वह
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प्रावधित सहाथय । अपने उस दर्पनन्य दोषके घात-विनाश करनेके लिए पंचकल्याणको प्राप्त होता है ।। ६६॥ . . समुत्पन्नक्षणोद्ध्वस्ते मिथ्याकारः कषायके । स्यात्कल्याणमहोरात्रे मासिकं च ततः परं ॥७॥ . अर्थ-कपाय उत्पन्न होकर अनन्तर क्षणमें नष्ट हो जाय तो 'मिछा मे दुकाई' मेरा दुष्कृत मिथ्या हो इस प्रकारका पायश्चित्त है। यदि अनन्तर क्षणमें मिथ्याकार न करे और एक दिन-रात बोत जाय तो उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है। इससे ऊपर पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ।। ७०॥ विकथासु पुरुमर्दः स्यादाभीक्षण्ये च पंचकं । तात्पर्ये दृक्छ्तो गर्दा कल्याणं निगते वहिः॥७॥ • अर्थ-एक वार स्त्रीकथा आदि विकथाओंके करनेका पायचित्त पुरुमंडल है। बार बार कर का पंचक है। ललित, लास्य, तांदव आदि नृत्य विशेषोंको उपयोग लगा कर देखनेका और पढन, ऋषभ, गांधार, पंचय, धैवत और निषाद इन छह खरोंको मन लगा कर सुननेका प्रायश्चित्त गर्दाआत्म-निंदा है। तथा वसतिकासे बाहर निकलकर इनके देखने सुननेका प्रायश्चित्त कल्याणक है ॥ ७॥ .
१ उभणेपि काय मिच्छाकारं न तपसणे कुजा । · परमहोरसग तेण परं मासियं वेदो.॥१॥
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प्रतिसेवाधिकार।
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रूसंभक्तं विजीवेऽपि सजीवे पुरुमंडलं।
आभीक्ष्ण्ये च निवृत्ते च घ्राते पंचकमुच्यते॥७२॥ ___ अर्थ-निर्जीव वस्तुको सूघनेका प्रायश्चित्त निर्विकृति, सचित्तको सूघनेका पुरुमंडल, और वार वार सूंघनेका और त्याग की हुई वस्तुको सूघनेका प्रायश्चित्त कल्याणक है॥७२॥ सेवमाने रसान् गृद्धया पंचक्र वा न दोषता। शीतवातातपानेवं सेवमानो विशुद्धयति ॥७३॥ ___ अर्थ-दूध, दहि, गुड़ आदि छह तरहके रसोंको लोलुपता पूर्वक सेवन करनेका प्रायश्चित्त. कल्याणक है। यदि ये रस यथालाम प्राप्त हों तो उनके सेवनमें कोई दोष नहीं है अर्थात् उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है। तथा अनासक्तिपूर्वक हवा, गर्मी ओर शीतको सेवन करने वाला भो शुद्ध है-प्रायश्चितका भागी नहीं है ॥७३॥ प्रावारसंस्तरासेवे संवाहे परिमर्दने। सर्वांगमर्दने चैवाहेतोः पंचकमंचति ॥ ७४॥
अर्थ-व्याधि आदि कारणोंके. विना, संयमी जनके अयोग्य और गृहस्थोंके योग्य वस्त्र ओढ़ने, शय्या. पर सोने, थपथपी लगवाने हाथ पैर दववाने और तैल मालिस.कराने पर कल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है । ७४॥ ::
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प्रायश्चित्त-समुच्चय।
उच्छीर्षस्य विधानेऽपि प्रतिलेखस्य हृच्छदे। मस्तकावरणांहेयं कल्याणं वा न दुष्यति ॥७॥ . अर्थ-तकिया लगाने, पिच्छोसे हदय हकने और सिर ढकनेका प्रायश्चित्त कल्याणकं देना चाहिए। यदि व्याधिवश ऐसा कर ले तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है । ७५ ॥ छत्रोपानहसंसेवी शरीरावारकारकः। मार्गधर्माद्धि कल्याणं लभते शुद्ध एव वा ॥७६।। __अर्थ-स्ते चलते समय नंगे पैर चलनेमें असमर्थ होनेके कारण पैरोंमें जूते पहन लेने और धूपके कारण पत्तोंका छत्ता बनाकर शिर पर तान लेने अथवा पत्तोंसे शरीरको ढक लेने वाला कल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। यदि व्याधि वश उक्त कर्तव्य करे तो शुद्ध हो है, उसका कोई प्रायश्चित्त, नहीं है ।। ७६ ॥ शयानः प्रथमे यामे काले शुद्धेऽपि पंचकात्। : शुद्धवदथ विसंशुद्धौ लभते पुरुमंडलं ॥७७॥ . . अर्थ-कालशुद्धि होने पर भी यदि शास्त्र पढ़े विना रात्रिके प्रथम पहरमें सो जाय तो कल्याणक प्रायश्चित्तासे शुद्ध होता है. और यदि कालशुद्धि रहित समयमें सो जाय तो पुरुमंडल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है॥७॥.
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प्रतिसेवाधिकार । शयालर्दिवसे शेते चेत्कल्याण समश्नुते । अतोऽन्यस्य भवेद्देयो भिन्नमासो विशुद्धये।७८३ ___ अर्थ-जिसका सोनेका स्वभाव पड़ा हुआ है वह यदि दिनमें सो जाय तो कल्याणको प्राप्त होता है अर्थात् उसे कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए। और जिसका स्वभाव सोनेका नहीं है वह यदि दिनमें सो जाय तो उसको उसकी शुद्धिके लिए भिन्नमास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥८॥ हस्तकमणि मासार्हे गुरौ लघुनि पंचकं । शुद्धश्च पंचकं मासश्चतुर्मास्यां लघौ गुरौ ॥७९॥
अर्थ-एक महीने भर में बनाकर तयार करनयोग्य पुस्तक. कमंडलु आदि चीजोंको निरंतर बनाता रहे अथवा अमासुक. द्रव्यसे वनांव तो कल्याणक प्रायश्चित्त है और यदि लघु. अर्थात् खाध्याय-व्याख्यानका न छोड़ कर अवकाशके समयमें मासुक वस्तुस तयार करे तो कोई प्रायश्चित्त नहीं है । तथा यदि चार महीने में हस्तकर्म अर्थात् पुस्तक कमंडलु आदि यथावसर प्रामुक द्रव्यसे तैयार करे तो कल्याणक प्रायश्चित्त है
और यदि गुरु अर्थात स्वाध्याय छोड़कर निरंतर प्रमासुक द्रव्यसे तैयार करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥ ७॥ . पार्श्वस्थानुचरे वाह्यश्रुतिशिक्षणकारणात् । .. करणीकाव्यशिक्षायै मिथ्याकारेऽथ पंचकं ॥८॥
अर्थ-न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार, कोष आदि वाह.
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । शास्त्रोंका तथा ज्योतिष गणित आदि करणशास्त्र और योग आदि संवन्यो काव्योंकी शिक्षा निमित्त यदि सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र और सम्यक्तपसे वहिभूत (रहित) पार्श्वस्थकी कोई मुनि सेवा या उपकार करे तो उस मुनिके लिए मिथ्याकार प्रायश्चित्त है। और यदि इन कारणों के विना पार्श्वस्थका उपकार करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है।। ८० ॥ व्याधौ सुदस्सहे यत्नाद्धेषजे प्रासुके कृते। मिथ्याकारोऽथ कल्याणमयत्नान्मासपंचके ॥१॥ ___ अर्थ-असह्य व्याधिक होने पर यत्नपूर्वक प्रासुक औषधि करनेमें मिथ्याकार मायश्चित्त और सह्य (सहन करने योग्य ) व्याधिक होने पर यत्नपूर्वक प्रासुक औषधि करनेमें कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा प्रयत्नपूर्वक अच्छी तरह सहन करनेयोग्य न्याधिके होने पर औषधोपचार करनका प्रायश्चित्त पंचकल्याएक और दुःसह व्याधिक हाने पर औषधोपचार करनेका कल्याणक प्रायश्चित्त है ।। ८१॥ समित्यासादने शोके मिथ्याकारश्चिरं धृते । अश्रुपाते च कल्याणं रसगृद्धे द्विलापिनि ॥८२॥ ' अर्थ-ईर्यापथ आदि पांच समितियोंका आसादान अर्थात् विस्मरण हो जाने और चातुर्वण्र्यका वियोग हो माने या
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प्रतिसेवाधिकार।
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पुस्तक आदिके फट जाने पर थोडा शोक करनेका प्रायश्चित्त मिध्याकार वचन है। तथा इस शोकको बहुत काल तक करते रहने, आंसु डाल डालकर रोने और दधि दुग्ध आदि रसोंमें प्रत्याशक्ति होने पर दूसरेको कहनेका कल्याणक प्रायश्चित्त है॥२॥ . सचित्ताशंकिते भग्ने स्यादकेस्थितिदंडनं । बह्वजीवे भवेनिन्दा सजीवे भक्तवर्जनं ॥३॥ __ अर्थ-क्या यह सचित्त है. या सचित्त नहीं है इस तरह आशंका हो जाने पर उस वस्तुके मर्दन कर देनेका एकस्थान दंड है। बहुतसी मासुक चीजोंको मर्दन करनेका प्रायश्चित आत्म-निंदा करना है तथा सजीव चोजोंको मर्दन करनेका उपवास प्रायश्चित्त है ॥३॥ शय्यायामुपधौ पिंडे शंकायामुद्गमैते । उत्पादैश्चतुर्मास्यां मासो मासेऽपि पंचकं ॥ ८४॥ ___ अर्थ-शव्या, उपकरण और आहारमें शंका हो गई हो कि क्या यह आहार सदोष है या निदोष। तथा उद्देशिकादि सोलह उद्गमदोप और धात्रीदत आदि सोलह उत्पाद दोष संयुक्त आहार ग्रहण कर लिया हो और चार माह बीत गये हों तो उसका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है और. एक महीना व्यतीत हुआ हो तो एक कल्याणक प्रायश्चित्त है॥४॥
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । कल्याणमेषणादोषे दायके पुरुमंडलं। ... मिश्रेऽपरिणते मासो भिन्नः समनुवर्णितः ॥८५॥
अर्थ-शंकितादि दश एपणादोषोंका प्रायश्चित्त कल्याणक, प्रसूति आदि अनेक प्रकारके दायकदोषका प्रायश्चित्त पुरुमंडल तथा प्राधे रंधे हुए, जल चांवल छोड़ देनारूप मिश्रदोष और प्राधासोझा हुआ आहाररूप अपरिणत दोषका प्रायश्चित्त भिन्नमास कहा गया हे॥८॥ निर्दोषोऽत्यंततात्पर्यादल्पानल्पे प्रलेपने । स्तोकेऽयत्नात्पुरुमदः कल्याणं बहुलेपने ॥८६॥ __ अर्थ-जिस शून्यस्थानमें वर्षाकालमें गड्ढ़े पड़ गये हों उसको यत्नपूर्वक प्रासुकं गोमय, जल आदिसे शल्प या बहुत लीपने पर निर्दोष है। और अयत्नपूर्वक थोडा लोपनेका पुरुमंडल प्रायश्चित्त और बहुत लोपनका कल्याणक प्रायश्चित्त है। अल्पलेपे च यत्नेन पश्चात्कर्मणि शुद्धयति। अल्पलेपेऽप्ययत्नेन दंडनं पुरुमंडलं ॥ ८७॥ . __अर्थ-रहनेके स्थानको पंश्चात्कर्म (अवश्य करने योग्य कम)में यत्नपूर्वक थोड़ा लीपे ता शुद्ध है-कोई प्रायश्चित्त नहीं। तथा प्रयत्नाचारपूर्वक थोड़ा भी लीपे तो उसका प्रायश्चित्त · पुरुमंडल है ॥८॥ .
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प्रतिसेवाधिकार ।
बहुलेपेऽप्ययत्नेन पंचकं वा न दोषयुक् । अयत्नेनोभयं (मे) वापि स्वस्थानेन विशुद्ध्यति ॥ __अर्थ-प्रसावधानीसे बहुतसा लोपनेका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है और सावधानीसे वहुतसा लीपनेका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। तथा पुराकर्म और पश्चात्कर्ममें प्रयत्नपूर्वक लीपने पर पंचकल्याणकसे शुद्ध होता है अर्थात इसका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥८॥ ददत्याः संप्रमान्ने प्रत्येकानन्तको त्रसं। पुरुमंडलमाचाम्लमेकस्थानं निषेवते ॥८९॥
अर्थ-प्रत्येककाय, अनन्तकाय और त्रसकायका मर्दन कर परिवेषिका-आहार देनेवालीस आहार ग्रहया करे तो क्रमसे पुरुमडल, आचाम्ल और एकस्थान प्रायश्चित्त है। भावार्थप्रत्येक वनस्पतिके मर्दनका पुरुमंडल, साधारण वनस्पतिके मर्दनका आचाम्ल और द्वौद्धियादि त्रस जीवोंके मर्दनका एकस्थान प्रायश्चित्त है ॥८॥ भीत्वोन्मार्ग प्रपद्येत तरुमारोहति क्षिपेत् । काष्ठादिकं विलद्वारपिधाने पंचकं न वा॥ ९०॥
अर्थ-डर कर उन्मार्ग-ऊजड़ मार्ग होकर चलने लग जाय, वृत्तपर चढ़ जाय या लकड़ो पत्थर ईट आदि फेंकने लग जाय तो उसका कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा विल मूंदनेका
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प्रायश्चित-समुच्चय । प्रायश्चित्त भी कल्याणक है अथवा रात्रिके समय विलोंवाले स्थानमें सर्प, चूहे आदिक त्राससे विलको पत्थर आदिसे मूंद कर सो गये और प्रातःकाल उसे उघाड़ कर चले गये तो कोई प्रायश्चित्त नहीं है। पुरुमर्दो यतोऽयत्नाद्विडालादिप्रवेशने । क्षमणं लघुमासोऽथ स्तेनस्य वृषसूदने ॥९१॥
अर्थ-जो असावधानोसे निवासस्थानका दरवाजा खोलकर चला जाय उसे पुरुमंडल प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि उसमें बिल्लो नौला सांप आदि घुस जाय ता उपवास प्रायश्चित्त तथा चोर घुस जाय और चूहोंका मरण हो जाय तो लघुपास पायश्चित देना चाहिये ॥१॥ मार्यमाणान विलोक्यानंश्चौरादीनेति पंचकं । भिन्नमासमथो निन्दां पंचकं म्रियमाणकान्॥ ___ अर्थ-यदि कोई व्याधिसे ग्रसित साधु दूसरों कर पारते हुए चौरोंको देखकर आहार ग्रहण कर ले तो वह कल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है और यदि व्याधिग्रसित नहीं है। नीरोग है तो भिन्न मास प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। तथा मरे हुए चौरोंको देखकर बीमारीवश आहार ग्रहण करे तो आत्मनिंदाको प्राप्त होता है अर्थाद अपने आप अपनी निंदा करना कि हाय मैं ने बुरा किया इत्यादि यही इस दोषको शुद्धिका मायश्चित्त है और यदि वीमार न होकर मरे हुए चोरों को देख
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कर आहार ग्रहण करे तो एककल्याणक मायश्रित्तका भागी. होता है॥२॥ शब्दाद्भयानकाद्रूपादुत्त्रस्येदंगमाक्षिपेत् । मिथ्याकारः स्वनिंदा वापंचकंवा पलायने॥९॥ ___ अर्थ-भयानक शब्द सुनकर या आकृति देखकर कंपने लग जाय और शरीर गिर पड़े तो उसका क्रमसे मिथ्याकार और आत्मनिंदा प्रायश्चित्त हैं। तथा डरक पारे भग जाय तो कल्याणक है। भावार्थ-भयानक शब्द सुनकर और आकृति देख कर शरीर कपकपाने लग जाय तो यध्या मे दुष्कृत मेरा दुष्कृत मिथ्या हो यह यिथ्याकार वचन उस दोपकी शुद्धिका प्रायश्चित्त है। और यदि उक्त कारणवश शरीर गिर पड़े तो उसकी शुद्धिका उपाय अपनी निंदा कर लेना है। तथा उक्त कारणोंको पाकर भग जाय तो उसका एक कल्याणक पायश्चित्त हैं। यहां पर दोनों वा शब्द विकल्पार्थक हैं जो कचित अवस्थाविशेषम व्यभिचारको सूचन करते हैं अर्थात् व्याधि आदिके वश उक्त दोप लग जाय तो प्रायश्चित्त नहीं भी हैं ॥शा कराधाकुंचने स्पर्धादायामे पुरुमंडलं।। उत्क्षेपे पंचकं मासः पाषाणस्य लघोगुरोः ॥१४॥ __ अर्थ-संघर्पणवश हाथ पैर आदिको सिकोड़ लेने और पसार देनेका प्रायश्चित्त पुरुषंटल है। तथा छोटे पत्थर फेंकने
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प्रायश्चिम-समुच्चय । का एक ब.ल्याणक और बड़े पत्थर फेंकनेका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त हैं ॥४॥ प्रधावयति धावेद्वा वषाद्वन्हेरभित्रसन्। स्वनिंदा वाथ कल्याणं मासोलाघवदार्शनि॥१५॥ . अर्थ-जो वर्षासे अथवा अग्निसे डर कर औरोंको भगाता है अथवा स्वयं भगता है वह यदि व्याधियुक्त है तो आत्मनिंदा प्रायश्चित्तको और व्याधिरहित है तो कल्याणक मायश्चित्तको माप्त होता है। तथा शीघ्रता दिखानेवालेके लिए पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है॥५॥ पिपीलिकादिभीमांसाधारणे स्यात्प्रतिक्रमः। चिरं क्रीडयतो देयं कल्याणं मलशोधनं ॥१६॥
अर्थ-चींटी, ज, खटमल, डांस, सर्प, मनुष्य प्रादिकी मंत्र तंत्र आदि शक्ति द्वारा चाल रोक देनेका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण है। तथा बहुत काल तक क्रीडा करते हुएको कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६॥ विद्यामीमांसने योगप्रयोगे प्रासुकैः कृते । शुद्धयेदवद्यसंयुक्तैर्ल घुमासं समश्नुते ॥ ९७ ॥
अर्थ-रोहिणो, प्रज्ञप्ति, वज्रशङ्खल आदि विद्याएं सिद्ध हुई या नहीं इस विषयकी परीक्षा करनेके लिए गंध, अक्षत,
धूप आदि प्रासुक पूजा द्रव्यों द्वारा औपधिप्रयोग करनेका
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प्रतिसेवाधिकार । कोई प्रायश्चित्त नहीं है और यदि अप्रासुक द्रव्यों द्वारा प्रौषधिप्रयोग करे तो उसका लघुमास प्रायश्चित्त है॥१७॥ युजानः संयते शुद्धो दिदृक्षुर्वीयमोषधेः । गृहस्थे मासमाप्नोति चार्यायांपंचकं नवा॥९॥
अर्थ-औषधिका सापर्थ्य देखनेके लिए यदि साधुमें उसका प्रयोग करे तो शुद्ध है-कोई प्रायश्चित्त नहीं । गृहस्थमें यदि प्रयोग करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्तका भागी होता. है। तथा आर्यिकामें प्रयोग करे तो कल्याणकको प्राप्त होता है। अथवा धर्म-पुष्पा अर्थात पुष्पवती आर्यिका प्रयोग करे तो भायश्चित्तको नहीं भी प्राप्त होता है ॥८॥ जिज्ञासुर्भेषजं वीर्य सादीनां प्रदर्शयेत्। . मिथ्याकारो विपन्ने स्युचतुर्मासा गुरुकृताः॥ __अर्थ-औषधिकी शक्ति जाननेका इच्छुक यदि सर्प, गोनस, चहे आदिमें उस भोषधिका प्रयोग करे तो मिथ्याकार प्रायश्चित्त है और यदि वे सर्पादि इस औषधिमयोगसे पर जांय तो उसका प्रायश्चित्त निरन्तर चार मास है अथवा निरन्तर चार पंचकल्याणक है। व्यवधानरहित एक दिनके अन्तरसे चार माह तक उपवास करना चतुर्मास है ॥ ६॥ साभोगे पादसंशुद्धा उद्वर्तादावभोजनं । पंचकं च यथासंख्यं श्रृंगारे मासिक विदुः॥१००॥
अर्थ-स्त्रीजन अथवा पिथ्याष्टियोंके देखते दुए यदि पर
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प्रायश्चित्त-समुचय । प्रक्षालन करे तो उपवास और उवटन, तैलसे मालिस आदि करे तो कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए । यहाँपर 'च' शब्द नः कही हुई वातका समुच्चय करता है। इससे यह समझना कि अगर बीमार हो तो कोई प्रायश्चित्त नहीं है तथा शृङ्गार करे तो उसका प्रायश्चित्त आचार्यगण पंचकल्याणक बताते हैं ।। १०० ॥ सर्वभूरिषु भांडेषु मध्यमेष्वमध्यमेषु च । षष्ठं चतुर्थमेवैकस्थितिःसौवीरभोजनं ॥१०१॥ ___ अर्थ-वैयारत्य करनेके लिए जितने भर पात्र लाये जाप उन सबके प्रक्षालन करनेका प्रायश्चित्त एक षष्ठ है। उनमेंसे थोडे पात्रोंके प्रक्षालनका उपवास प्रायश्चित्त है। उससे भी. घोडे अर्थात् मध्य दर्जे के पात्रोंके. प्रक्षालनका एकस्थान पायश्चित्त है और सबसे थोडे पात्रोंके प्रक्षालनका प्रायश्चित्त आचाम्ल है ।। १०१॥ शुद्धेष्वपि च संशुद्धौ कात्स्न्यनाथ पृथक्पृथक् । शोभायै मासिकं चैवमापन्नेष्वप्यशुद्धेषु ॥१०२॥ ___ अर्थ-शुद्ध होते हुए भी वर्तनोंको एक या जुदे जुदे. शोभाके लिये प्रक्षालन करनेका पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए और प्रक्षालन करने योग्य अशुद्ध वर्तनोंको प्रक्षालन. करनेका भी पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए। भावार्थ-- निमित्त जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिए क्योंकि इसके अति
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'प्रतिसेवाधिकार ।
६७ रिक्त यह भी प्रायश्चित्त संभव है कि प्रक्षालन, करनेयोग्य पात्रोंके प्रक्षालन करनेका उपवास और इसमें भी यदि अधिक सावद्यकी अपेक्षा हो तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ १०२।। अन्नपानविलिप्तं वा यावत्तावद्विशोधयन् । विशुद्धः कृत्स्नसंशुद्धौ मासिकं समुदाहृतं ।१०३।
अर्थ अथवा जितने वर्तनों पर दाल भात आदि अन्न-पान चिपटा हुआ है उतने वर्तनोंको प्रक्षालन करनेवाला विशुद्ध हैं प्रायश्चित्तका भागो नहीं है। और जिनपर अन्न पान चिपटा हुआ है और नहीं भी चिपटा हुआ है उन सबके प्रक्षालन करनेका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त कहा गया है । अथवा यह प्रायश्चित्त वैयावत्यके निमित्त पात्रोंको धोने और अपने वता, भिनाके पात्र आदि उपकरणोंके धोनेमें आर्यिकाके लिए समझना चाहिए ।। १०३ ॥ वृपादिवारणे शुद्धः स्याद्वर्षासुतु पंचकं ।., ... सागारवसतौ स्तेनप्रवेशे जोषमास्थितः ॥१०४॥ वीक्ष्यमाणहृतौ मासः कल्याणमहृतावृतोः। वसतावनले स्तेनप्रविष्टे शब्दकृच्छचिः ॥१०५॥
अर्थ-बैल, घोड़े, गधे, आदिको रोक देने-भीतर न.पाने देनेका प्रायश्चित्त कुछ नहीं है। वर्षाकालमें रोक देनेका कल्या
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प्रायश्चित-समुच्चय णक प्रायश्चित्त है। किसी गृहस्थके चैयालयमें सोते हुए भीतर चौर घुस आवे, आप चुपचाप बैठा रहे, उसके देखते देखते चौर चौरीकर माल ले जाय तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है। माल चुराकर न ले जाय तो कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा दो माससे ऊपर वहीं ठहरा रहे-अर्थात् वर्षाकाल बीत जाने पर भी गृहस्थके मकान पर निवास कर रहा हो उस समय मकानमें अग्नि लग जाय या चौर घुस आवे तो मकानमें आग लग गई, चौर घुस आये? इस प्रकार शब्द करे तो शुचि-निर्दोष हैउसका कोई प्रायश्चित्त नहीं ॥ १०४-१०५॥ पश्चात्कमभयात् सम्यग्भग्नमुत्पतितं स्वयं ।। संस्कुर्वन् प्रासुकैः शुद्धो वर्षाभ्यः पंचकं व्रजेत् ॥
अर्थ-यह अवश्य करना चाहिए इसको पश्चात्कर्म कहते हैं। इस पश्चात्कर्मके भयसे गिर पड़नेसे उत्पन्न हुए घावका स्वयं प्रासुकद्रन्योंसे संस्कार (इलाज) करनेवाला शुद्ध हैप्रायश्चित्तका भागी नहीं है। तथा वर्षाकालके अनन्तर संस्कार करनेवाला कल्याणक प्रायश्चित्तका भागी होता है । १०६ ॥ सम्यग्दृष्टिरिति स्नेह वात्सल्याद्विदधच्छुचिः। . शय्यागारादिकस्यापि वैयावृत्त्ये विजन्तुकैः॥ . अर्थ-"यह सम्यग्दृष्टि है" इस कारण वात्सल्यधर्मके अनुरागवश उस पर स्नेह करनेवाला साधु पवित्र है, प्रायश्चित्तका
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प्रतिसेवाधिकार ।' अधिकारी नहीं है। तथा गृह-पति, आदि शब्दसे दानपतिका प्रासुकद्रव्यसे वैयात्य करनेवाला भो निर्दोष है -अतः प्रायश्चित्तका भागी नहीं है। शय्यागार शब्दका अर्थ गृहपति है। गृहपति शब्दसे वह गृहपति समझना चाहिए जिसके कि मकानमें ठहरे हुए हैं ।। १०७॥ अन्यतीर्थिगृहस्थेषु श्रावकज्ञातिकादिषु । वैयावृत्त्ये कृते शुद्धोयदि संयमसन्मुखः ॥१०॥
अर्थ-कापालिक आदि गृहस्थोंका, सम्यग्दृष्टि श्रावकोंका; अपने खजनोंका, भादि शब्दसे औरोंका भी वैयावत्य करने पर यदि वह वैयारत्य करनेवाला संयम पालनेमें तत्पर है तो शुद्ध है-मायश्चित्तका भागी नहीं है ॥ १०८॥ अभ्युत्थास्यत्ययं हीति ज्ञात्वा पार्श्वस्थकादिकैः। समाचरन् शुचिः स्तोकं सर्वसंभोगभागपि ॥ .
अर्थ-यह आसनसे उठकर खडा होगा ऐसा समझ कर पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन, मृगचारी और संसक्त इन पांचोंके साथ उचित व्यवहार या समान भाचरण करनेवाला साधु पवित्र है, निर्दोष है-पायश्चित्तका भागी नहीं है तथा खल्पकाल पर्यंत विनय वंदना खाध्याय आदि करता हुआ भी. पवित्र है। अनन्तर यदि वे पार्व स्थादि अभ्युत्थान अर्थात् उठ कर खड़े न हों तो सर्वसंमोग विनयवंदना खाध्याय आदिन करें।
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प्रापत्रि-समुचंद।
शुद्धोऽभिवंदमानोऽपि पार्श्वस्थगणिनं गणी। शेषानपि च शेषाश्च संघे श्रुत्पथ मासिकं ॥११०॥
अर्य-सदाचारी प्राचार्य पार्श्वस्थ प्राचार्यको नमस्कार करता हुआ भी शुद्ध-निर्दोष है और प्राचार्यको छोड़कर अन्य मुनि भी पार्श्वस्थ मुनियोंको वंदना करते हुए पवित्र हैं । अथवा भारी जनसमुदायके जुड़ने पर शास्त्र ग्रहण करे या शास्त्र-श्रवणको छोड़कर यदि सब मुनि पार्श्वस्थ मुनिको नमस्कार करे तो उस सन्मुनिको मासिक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ ११०॥ स्नेहमुत्पादयन् कुर्यात् सुवाग्भिधर्मभाषणं । राजरक्षिकतत्साये संशुद्धोगणरक्षणात् ॥ १११॥ ___ अर्थ-संघको रक्षाके निमित्त, स्नेह उत्पन्न कराते हुए, राजा, कोट्टपाल, तत्माय शब्दसे तत्सदृश सेनापति, पुरोहिता मंत्री आदिको नर्म-सुपधुर भाषणों द्वारा यदि धर्मोपदेश दे तो निर्दोष है ।। १११॥ अभ्युत्थाने भिगंयादौ सागारेष्वन्यालिंगिषु। दीक्षादिकारणाच्छुद्धो गौरवान्मासमृच्छति॥ .. अर्थ-आसनसे उठ कर खड़ा होना, सामने आना, बैठनेको आसन देना, सन्मान करना, अपना "मुख प्रफुलित बनाना, मुखको मुसकराहट द्वारा अपना भान्तरंगिक भाव व्यक्त करना मधुर वचन बोलना इत्यादि उपचार विनय
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प्रतिसेवाधिकार। गृहस्थों और अन्य लिंगियोंके करने पर यह संयम सम्यक्त्व
आदि धारण करेगा इस अभिपायसे उनके साथ उचित प्रत्यु'पचार करे तो निर्दोष है-उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं। यदि अपनी मान वड़ाई-निमित्त प्रत्युपचार करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥ ११२॥ अभ्युत्थानेऽ थ वैद्यस्य ग्लानकारणसंश्रयात् । राजासन्नासनारोहे सूरिसूर्यो न दुष्यति ॥११३॥
अर्थ-रोगीके निमित्तको पाकर वैद्यके अर्थ आसनसे उठने और राजाके समीप सिंहासन पर बैठने पर प्राचार्य दोष युक्त नहीं होता। भावार्थ-संघका कोई मुनि बीमार हो जाय उसके इलाजके लिए वैद्य आवे तब उसे देख कर आचार्य अपने आसनसे उठ कर खड़ा हो जाय तथा राजसभामें राजाके पास सिंहासन पर बैठ जाय तो इसका कोई प्रायश्चित्त नहीं हैं ।। ११३॥ भूपालेश्वरमुख्याद्याः पूजयन्यभिगम्य चेत् । शुद्धभावो विशुद्धः स्यात् गौरवे मासिकं भवेत् ॥
अर्थ-राजा व अन्य प्रधान पुरुष, सेठ, सेनापति, पुरोहित मन्त्री श्रादि सापंत आकर यदि पूजा करें उस समय वह साधु मदरहित शुद्धमाव युक्त रहे तो. विशुद्ध है इसका कोई प्रायश्चित्त नहीं। किन्तु यदि वह इस सन्मानको पाकर मेरे इस तरहकी
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । विभूति है" इस प्रकार अखर्व गर्वके पर्वत पर आरूढ़ हो जाय तो उसे पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। ११४ ॥ रससातमदे वृष्यरसस्पार्थसेवने। च्युतेऽनात्मवशस्यापि पंचकल्याणमुच्यते ।११५॥ __ अर्थ-मुझे ऐसे ऐसे बढ़िया घो, शक्कर, दूध आदि रस प्राप्त होते हैं, मुझे इस प्रकारका उत्तम सुख है इस प्रकार रसों
और सुख के विषयमें गर्व करनेका तथा इन्द्रियरूप हाथीको यदोन्मत्त करनेवाले पौष्टिक रसों और स्पर्शन इन्द्रियके विषय. कठोर, न4, भारी, लघु आदि पदार्थोंके सेवन करनेका तथा कामको परवश ताके कारण वीर्यपात हो जानेका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त कहा गया है ।। ११५॥ उपसर्गे सगंधादेर्वस्वतांवूललेपने। प्रत्याख्यानस्य भुक्तौ च गुरुमासोऽथ पंचकं ॥ .
अर्थ-सगंध नाम खजनोंका है। आदि शब्दसे राजा, शत्रु प्रभृतिका ग्रहण है। इनके उपसर्गवश वस्त्र पहनने पड़ें, ताम्बूल भक्षण करना पड़े, चंदन, केशर, कपूर आदिका शरीरमें लेपन करना पड़े तथा साग को हुई भिक्षाकाः भोजन करना पड़े तो पंचकल्याणक और कल्याणक प्रायश्चित्त है। भावार्थ:-राजा, श, स्वजन आदिके उपसर्गवश ताम्बूल भन्नका करने विलेपन करने आदिका कल्याणक प्रायश्चित है और ना
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प्रतिसेवाविकार।. परिधारण करने आदिका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥११६॥ . मैथुने रात्रिभुक्तौ च स्वस्थानं परिकीर्तितं । स्त्रियोः संधी प्रसुप्तस्य मनोरोधान दूषणं ।११७॥
अथे--उपसर्गवश मैथुन सेवन करने आर रानिमें भोजन करनेका मायश्चित्त पंचकल्याणक कहा गया है। यह प्रायश्चित्त उसके परिणामोंकी जातिका विचार कर देना चाहिए। तथा. दो स्त्रियोंक वीचमें सोये हए साधुक लिए मनको रोकनेके. कारण कोई दूपण नहीं है। भावार्थ-ऐसा माका पाजाय कि दोनों तरफसे दो स्त्रियां सोई हुई हैं और वीचमं आप सोया हुआ हो, पर पनमें कोई तरहका विकार भाव उत्पन्न नहीं हुमा हो तो उस साधुके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है ॥१२॥ आवश्यकमकुर्वाणः स्वाध्यायान् लघुमासिकं । एकैकं वाप्रलेखायां कल्याणं दंडमश्नुते ॥११॥ __अर्थ-जो साधु सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियामोंको और दो स्वाध्याय दिनके और दो रातके एवं चार तरहके स्वाध्याओंको न करे तो वह लघुमास प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है तथा इन छह आवश्यक क्रियाओंमेंसे एक एककोन करे भोर.संस्तर उपकरबादिका प्रतिलेखन न करे तो कल्या एक प्रायश्चित्तको मात होता है.।।, ११।।
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७४ . प्रायश्चित समुच्चय । बंदनायास्तनूत्सर्गेऽप्येकादौ विस्मृते त्रिषु । . पुरुमंडलमाचाम्लं क्षमणं च यथाक्रम.॥ ११९ ॥
अर्थ-वंदना ओर कायोत्सर्गके एक वार, दोवार और तोन चार भूल जानेका क्रमसे पुरुमंडल, आचाम्ल और उपवास पायश्चित है। - भावार्थ-एक वार भूलनेका पुरुमंडल; दो वार भूलनेका आचाम्ल और तीन बार भूलनेका उपवास प्रायश्चित्त है॥१६॥ एकादिके गुरोरादौ कायोत्सर्गस्य पारणे। .. पुरुमंडलमाचाम्लं क्षमणं च यथाक्रमं ॥ १२०॥
अर्थ-यदि एक बार या दो बार या तीन वार आचार्यके पहले कायोत्सर्ग समाप्त करे तो उसका क्रयसे पुरुमंडल, आचाम्ल और क्षमण प्रायश्चित्त है ॥ १२० ॥ कारणादा गुरोः पश्चात् कायोत्सर्ग समापयेत् । सकृद्विस्त्रिः पुरुमर्दोऽप्याचाम्लं चैकसंस्थितिः॥ __ अर्थ-यदि किसी कारणवश एक बार, दो बार या तीन चार प्राचार्यके पश्चात कायोत्सर्ग समाप्त करे तो उसका क्रमसे पुरुमंडल प्राचाम्ल और एकस्थान प्रायश्चित्त है ॥ १२१ ।।. आसेधिकां निषद्यां वा न कुर्यात्यादिके निशि। भनाहारोऽम्लभुक्तिश्च पुरुमंडलमेव च ॥१२२॥ अर्थ-रात्रिके समय तीन बार दोबार था एक बार मासे:
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" प्रतिसेवाधिकार । धिका और निषेधिकान करे तो उसका क्रमसे उपवास, आचाम्ल
और पुरुमंडल प्रायश्चित्त है। भावार्थ-कंदरा पर्वतकी गुफा, गव्हर, मठ, जैसालय आदिसे निकलते समय वहां रहनेवाले नाग यक्ष प्रादिको 'असहि असहि असहि' इन वचनों द्वारा पूछ कर निकलना आसेधिका क्रिया है। तथा प्रवेश करते समय 'निसहि निसहि निसहि' इन बचनोंद्वारा पूछनानिषेधिका क्रिया है। इन क्रियामाको रात्रिके समय उक्त स्थानोंमें प्रवेश करते समय और निकलते समय तोन वार न करे तो उपवास, दो वार न करे तो आचाम्ल और एक वार न करे तो पुरुमंडल प्रायश्चित्तका भागी होता है ।। १२२ ॥ आसेधिकां निषद्यां च मिथ्याकारं निमंत्रणं । इच्छाकारं न यः कुर्यात्तदंडः पुरुमंडलं ॥१२३॥
अर्थ-जो साधु आसेधिका, निपेधिका, मिथ्याकार, नियंत्रण और इच्छाकार न करे तो उसका (न करनेका) पुरुमंडल प्रायश्चित्त है। प्रासेपिका और निषेधिकाका स्वरूप ऊपर कह चुके हैं। अपराध वन जाने पर मेरा अपराध मिथ्या हो' इसे मिथ्याकार कहते हैं। साधर्मी घर्गसे पुस्तक कमंडलु आदि उपकरणोंको विनयपूर्वक पांगना निमंत्रणा है। तथा आचार्य और उनके उपदेशादिकोंमें अनुकूलता रखना इच्छाकार है ॥१३॥
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प्रायश्चित-समुनयः।
उत्कृष्टं मध्यमं नीचमदत्तं स्वीकरोति यः। उपधि लघुमासोऽस्य पंचकं पुरुमंडलं ॥१२४॥ ___ अर्थ-जो यति विना दिये हुए पुस्तक आदि उत्कृष्ट उपकरण, पिच्छि आदि मध्यम उपकरण और कमंडलु आदि जघन्य उपकरण ग्रहण करता है उसके लिए क्रमसे लघुमास, कल्याणक
और पुरुमंडल प्रायश्चित्त है। भावार्थ - उत्कृष्टका लधुमास) मध्यपका कल्याणक और जघन्यका पुरुमंडल प्रायश्चित्त है ॥ . संज्ञाविहारभिक्षासु पुरुमडंलमीडित। कोशादिग्रामगतावप्यनापृच्छयगुरुंगते॥१२५॥
अर्थ-प्राचार्यको पुछे बिना संज्ञा-पलत्याग करने, दूसरी बसतीको जाने, भिताके लिए जाने, तथा एक कोश, दो कोश, तीन कोश आदि दूरवर्ती अन्य ग्रामको जानेका मायश्चित्त पुरुमंडल कहा गया है ॥ १२५॥ साधारणाशनासेवे स्थापनावश्मवेशने । ज्ञात्वा संज्ञिकुलादीनि पूर्ववेशिनि पंचकं ॥१२६।।
अर्थ-अपरिमित आहार ग्रहण करनेका, चार या पांच आदमी जिसमें निवास करते हों ऐसे मकानमें प्रवेश करनेका और श्रावकोंके घर आदि समझ कर पहले प्रवेश करनेका पंचक-कल्याणक प्रायश्चित्त है। १२६ ॥ अन्यदत्तोपधेः स्थानमन्यो गत्वा तमाददत् ।
‘लभते मूलं रूपव्यत्ययकारिणः ।।१२७॥
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प्रतिसेवाधिकार । अर्थ-अन्यके लिए दिये हुये उपकरणके स्थान पर जाकर यदि उस उपकरणको दूसरा दीक्षित मुनि ग्रहण करे तो वह पंचकल्याणक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है तथा लिंगको विपरीत करनेवाले-वेष वदलनेवाले यतिको मध्य दिनसे ले कर मूल अर्थाव पुनर्दीक्षा नामका प्रायश्चित्त देना चाहिये ॥ १२७॥ . अतिबालमलंवृद्धं दीक्षयन् मासमश्नुते । वसतिं च व्यवच्छिदन् छेदे मूले गणी तपः॥ ___ अर्थ अतिवालको और अतिदको दोता देनेवाला तथा वसति-दी हुई शय्यामें विघ्न पाइनेवाला आचार्य पंचकल्याणक मायश्चित्तको माप्त होता है। तथा छेद ओर मूल इन दो पायश्चित्तोंके प्राप्त होनेपर वह आचार्य उपवासादि तप प्रायश्चित्तको ही प्राप्त होता है ।। १२८॥ एवमादि तपो देयं शेषं चापि यथोचितं। प्रतिसेवासु सर्वासु सम्यगालोच्य सूरिणा।१२९॥
-इस प्रकार तप प्रायश्चित्त देना चाहिये तथा सर्गप्रकारकी प्रतिसेवाओं-दोषाचरणोंके होने पर उनका अच्छी तरह विचार कर प्राचार्य यथोचित शेष प्रायश्चित्त भी देवे॥
इति प्रतिसेवाधिकारो द्वितीयः ॥२॥ १-एवं भावोपयुक्तेषु मासिकं समुदाहत। छेदे मूले च संप्राप्ते तप एव गणेशिनः ।
यह.श्लोक मूल प्रतिमें है।
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३-कालाधिकार। .. अब कालका वर्णन करते हैं, शीतः साधारणो धर्मस्त्रेधा कालः प्रकीर्तितः। उत्कृष्टं मध्यमं नीचं तत्र भाज्यं तपो भवेत् ।१३०॥
अर्थ-काल तीन प्रकारका कहा गया है। शीतकाल, वर्षा-, काल और ग्रीष्मकाल । इन तीनों कालोंमें उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य उपवासादि तप देना चाहिये ॥ १३०॥
कौनसे कालमें कौनसा उत्कट तप देना चाहिये यह बताते हैंवर्षासु द्वादशं देयं दशमं च हिमागम।
अष्टमं ग्रीष्मकाले स्यादेतदुत्कर्षतस्तपः । १३१॥ ___ अर्थ-वर्षाकालमें द्वादश-पांच उपवास, शीतकालमें दशम'चार उपवास और ग्रीष्मकालमें अष्टम-तीन उपवास व्यवधानरहित देने चाहिये। यह उत्कर्ष तप है ॥ १३१॥ .
* आगे मध्यम तप कितना देना चाहिए यह बताते हैं. वर्षासु दशमं देय अष्टमं हिंमागमे । षष्ठं स्याद् ग्रीष्मकालेऽपि तप एतद्धि मध्यमं ॥
अर्थ-वर्षाका में दशम-चार उपवास शीतकालमें अष्टम
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'१९
कालाधिकार । तीन उपवास और ग्रीष्मकालमें षष्ठ-दो उपवास निरंतर देने चाहिए। यह तीनों कालोंमें देनेयोग्य मध्यम तप है ॥ १३२॥ ___ अब जघन्य तप कितना देना चाहिये यह बताया जाता हैवर्षाकालेऽष्टमं देयं षष्ठमेव हिमागमे । चतुर्थ ग्रीष्मकाले स्यात्तप एव जघन्यकं ।१३३॥ __ अर्थ-वर्षाकालमें अष्टम-तीन उपवास, शीतकालमें षष्ठ-दो उपवास और ग्रीष्मकालमें चतुर्थ-एक उपवास व्यवधानरहित. देने चाहिए। यह तीनों कालोंमें देने योग्य जघन्य तप है। . .
आगे दूसरी तरह कालका और तपका विभाग करते हैंअथवा द्विविधः कालो गुरुर्लघुरिति क्रमात् । शरद्वसन्ततापाः स्युर्मुरवो लघवः परे॥१३४ ।।
अर्य-अथवा गुरुकाल और लघुकाल इस क्रमसे काल दो प्रकारका है। शरद, वसंत और ग्रीष्म ये तीन गुरुकाल हैं। अवशिष्ट वर्षा शिशिर और हेमन्तं ये तीन लघुकाल हैं । भावार्थएक वर्षमें छह ऋतुएं होती हैं और बारह महीनेका एक वर्ष होता है तथा दो दो महीनेकी एक एक ऋतु होती है उनके नामः शरद, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शिशर ओरहेमन्त हैं। आसोज भोर कार्तिक ये दो महोंने शरद् ऋतुके, चैत्र और वैशाख ये दो वसंत ऋतुके, ज्येष्ठ और आषाढ़ ये दो ग्रीष्म ऋतुके, श्रावण और भाद्रपद ये दो वर्षाऋतुके, मगसिर और पूप ये दो हेमन्त.
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प्रायश्चित्त समुधव । ऋतुके तथा माघ और फाल्गुन ये दो शिशिर ऋतुके हैं। उक्त छह ऋतुओंमें पहलेकी तीन ऋतुए तो गुरुकाल हैं और आगेको तीन ऋतुएं लघुकाल हैं ॥ १३४ ॥ लघुद्वंद्वो गुरुद्वंद्वो गुरुकालस्तपो गुरुः । गुरुरन्यतरःपंच भंगाः कालतपोदयात् ॥१३५॥ • अर्थ-लघुदद्व-काललघु और तप भी लघु, गुरुद्वंद्वकाल गुरु और तप भी गुरु, गुरुकाल-कालगुरु, तपो गुरुगुरु तप और अन्यतर गुरु-दोनोंमेंसे एक गुरु इस तरह काल
और तप दोनोंके पांच भंग होते हैं। भावार्थ-काल और तप दोनोंको लेकर भंग निकालना चाहिये। लघुकी संदृष्टि १ हैं
और गुरुकी २ है। लघु काल और लघु तप इन दोनोंको एक अंकके आकारमें ऊपर स्थापन करना चाहिये तथा गुरु काल
और गुरु तप इन दोनोंको दो अंकके आकारमें नीचे स्थापन .करना चाहिये। इनकी इस तरह ३ संदृष्टि स्थापन कर भंग लाना चाहिये । शिशिर, वर्षा और हेमन्त ये तीन काल लघु हैं इनमें तप भी लघु कहा गया है एवं लघु काल और लघु तप नामका पहला भंग होता है । काल गुरु और तप लघु, तपगुरु और काल.लघु एवं काल और तपमेंसे एक गुरु लघुका दूसरा १मंग होता है। काल गुरु और तप लघु अथवा गुरु यह तोसरा भंग होता है। तप गुरु और काल गुरु अथवा लघु यह
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क्षेत्राधिकार । चौथा भंग होता है। तथा काल गुरु और तप भी गुरु यह 'पांचवां भंग होता है। इनको पूर्ण प्रस्तार संदृष्टि
१, १-२०. ३, २, २, यह है ॥ १३५ ।। इति श्रीमंदिगुरुविरचिते प्रायश्चित्तसामुखये
कालाधिकारस्तृतीय: ॥३॥
-क्षेत्राधिकार। ... अब क्षेत्र अधिकारका कथन करते हैं - क्षेत्रं नानाविध ज्ञेयं गणेन्द्रेणाटता भुवं । अथवा दशधा क्षेत्र विज्ञेयं हि समासतः॥१३६॥ __ अर्थ-पृथ्वीतल पर विहार करनेवाले प्राचार्यको क्षेत्रले अनेक भेद जानने चाहिये। अथवा संक्षेपसे क्षेत्र दश प्रकारका समझना चाहिये। भावार्थ-क्षेत्र नाम देशका है। कोई देश ' . पासुक-जीवोंके अधिक संचारसे रहित होते हैं, कोई अमासुक-. जीवोंके अधिक संचारसे पूर्ण होते हैं। कहीं संयमी होते हैं, कहीं नहीं होते। कहीं भिना मिलना सुलभ होता है, कहीं दुर्लभ होता है। कहींके लोग भद्रपरिणामी होते हैं, कहोंके रौद्रपरि-णामी होते हैं इत्यादि देशके अनेक भेद हैं अयश संक्षेपतः देशके दश भेद हैं । १३६ ॥
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प्रायश्चित्त-समुच्चय। 'आगे दश प्रकारके क्षेत्रके नाम बताते हैंअनूपं जांगलं क्षेत्रं भक्तकल्माषशक्तुयुक् ।। रसधान्यपुलाकं च यवागूकंदमूलदं ॥ १३७॥ अर्थ-अनूप, जांगल; भक्तयुक्, कल्माषयुक्, शक्तुयुक, रसपुलाक, धान्यपुलाक, यवागू, कंद और मूल ऐसे क्षेत्रके दश भेद हैं। जहां पर पानो अधिक हो वह अनूप देश है जैसे-मगध; मलय, वानवास, कोंकण, सिंधु आदि। जहां दो इंद्रिय आदि उस जीवोंकी उत्पत्ति तो अधिक हो पर पानी कम हो वह जांगल. देश है। जहां तुष धान्य प्रचुरतासे पैदा होता हो, हमेशह ओदन (भात) खाया जाता हो वह भक्त-क्षेत्र है। जहां पर कुलया मूग, उड़द आदि कोशधान्य (फलीमें उत्पन्न होनेवाले धान्य) अधिक उत्पन्न होते हों वह कल्माष क्षेत्र है। जहां जो खूब पैदा होता हो, सत्तू खूब खाया जाता हो वह शक्तु क्षेत्र है। जहां दूध, दही घी आदि वल बढ़ानेवाले रस अधिक होते हों वह रसपुलाक क्षेत्र है। जहां कटुभांड ( )जौ, गेहूं, शालो. . वीही आदि तृणधान्य उत्पन्न होते हों वह धान्यपलाक क्षेत्र है। जहां यवागू (लपसी) विलेपिका ( ) आदि खूब खाये जाते हों वह यवागू क्षेत्र है। जहां सूरण, रक्ताल, पिंडालु आदि कंद बहुत होते हों वह कंद-क्षेत्र है और जहाँ नाना प्रकारके मूल-हल्दी, अदरख आदि उत्पन्न होते हों वह मूल क्षेत्र है ॥ १३७॥
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आहारलाभाधिकार। __किस क्षेत्रमें कितना प्रायश्चित्त देना चाहिये यह बताते हैंशीतलं यद्भवेद्यत्र रससंसृष्टभोजनं । तत्रोत्कृष्टं तपो देयमुष्णे रूक्षे तु हीनकं ॥१३०॥
अर्थ-जो क्षेत्र ठंडा हो जहां पर कि दूध, दही आदि रसोंके साथ प्रचुरतासे भोजन खाया जाता हो ऐसे मगध आदि देशोंमें उत्कृष्ट तप प्रायश्चित्त देना चाहिये। तथा मारवाड़, विषय, प्रानक, पारिपात्र, मालव आदि उष्ण क्षेत्रोंमें जहां पर कि रूत आहार अधिक मिलता हो वहां बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त देना चाहिये ॥ १३६ ॥
इति श्रीनंदिगुरुविरचिते प्रायश्चित्तसमुश्चये
. क्षेत्राधिकारश्चतुर्थः ॥ ४॥
५-आहारलाभाधिकार। यत्रोत्कृष्टो भवेल्लाभः तत्रोत्कृष्टं तपो भवेत् । मध्यमेऽपीषदूनं च रूक्षे क्षमणवर्जितं ॥ १३९॥ __ अर्थ-जिस क्षेत्रमें उत्कृष्ट आहारलाभ हो जहाँके संज्ञी अथवा मिथ्यादृष्टि लोग श्रद्धा आदि गुणांसे युक्त हों, स्निग्ध, मधुर नाना तरहके अच्छे अच्छे आहार देते हों वहाँ उत्कृष्ट प्रायश्चित्त देना चाहिये और जहां मध्यम दर्जेका लाभ होता हो
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प्रायश्चित्त-समुच्चय ।
वहां पूर्वोक्त प्रायश्चित्तसे होनं प्रायश्चित्त देना चाहिये तथा जिस देशमें कांजिक, कंगु, कोद्रव आदि रूखा भोजन मिलता हो वहां उपवासके विना आचाम्ल, निर्विकृति, पुरुमंडल, एकभक्त आदि प्रायश्चित्त देने चाहिये ॥ १३६॥
इति श्रीनंदिगुरुविरचिते प्रायश्चित्तसमुच्चये
आहारलाभाधिकारः पञ्चमः ॥५॥
६-पुरुषाधिकार । इति सेवां च कालं च क्षेत्रमौषधिलंभनं।। अनुसृज्य तपो देयं पुमांसं च गणेशिना ॥१४०॥
अर्थ-पूर्वोक्त प्रकारसे प्रतिसेवा, काल, क्षेत्र, आहारलाभ : तथा पुरुषका विचार कर.आचार्य प्रायश्चित्त देवें । भावार्थ-प्रतिसेवा नाम दोषाचरणका है वह दोषाचरण आगादकारणकृत सकृत्कारी सानुवीचो प्रयत्नप्रतिसेवी आदि अनेक प्रकार हैं। उसपर विचार कर प्रायश्चित्त देना चाहिए । इसी तरहं शीतकाल उष्णकाल और वर्षाकालका भी विचार करना चाहिए। अप्रासुक क्षेत्र जो समुद्रके नजदीक हो अथवा और कोई दूसरा क्षेत्र जिसमें त्रस-स्थावर जीव अधिक हों, जहां पर निवास करने से बहुत दोष उत्पन्न होते हों उसका भी विचार करना चाहिए। आहारके लाभ-अलाभको भी विचारना चाहिए । एवं
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पुरुषाधिकार । •पुरुष और उसको शक्ति धैर्य आदि पर भी विचार करना चाहिए इन सवका अच्छी तरह विचार कर प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। १४०॥ __ आगे पुरुषको बताते हैंअश्राद्धोऽथ मृदुर्ग: गीतार्थश्वेतरोऽल्पवित् । दुर्बलो नीचसंघातः सर्वपूर्णस्तथार्यिका ॥१४॥
अर्थ-श्रद्धा नाम अभिलाष-रुचिका है, वह जिसके हो वह श्राद अर्थात् श्रद्धावान् है । जो श्राद्ध नहीं श्रद्धारहित है वह अश्राद्ध है। मृदु नाम नम्रका है। गर्वी मानीको कहते हैं। जिसने जीवादि पदार्थ जाने हैं वह गीतार्थ है। इतर नाग अगीतार्थका है, जिसको जीवादि पदार्थोंका ज्ञान नहीं है जो अल्प शास्त्र जानता है वह अल्पवित है। दुर्बल नाम वलरहित निर्बलका है। जिसके जघन्य संहनन है वह नोचसंघातवाला कहा जाता है। जो सव गुणोंमें समान है वह सर्वपूर्ण है। तथा आर्यिका अर्थात् संयतिका ये दश पुरुप हैं इनका विचार कर प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ १४१॥ गर्वितो द्विविधो ज्ञेयो दीक्षया तपसा बली। छेदेन छेद्यमानोऽपि पर्यायी गर्वितो भवेत् ॥१४२॥ __अर्थ-अभिमानी दो तरहका जानना। एक दीक्षाभिमानी और दूसरा तपोभिमानी। जो छेद प्रायश्चित्त द्वारा दीक्षा छेद
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प्रायश्चित-समुच्चय । देने योग्य होते हुए भी छेद प्रायश्चित्तको नहीं चाहता है ओर. कहता है कि मैं तो बहुत कालका दीक्षित है मुझे छेद प्रायश्चित्त क्यों दिया जाता है या मेरी दीक्षा क्यों छेदी जाती है। इस तरह चिरदीक्षित होनेका अभिमान करता है वह दीक्षाभिमानी हे ॥१४२॥ तथातपोबली तपोदाने समर्थोऽ हमिति स्मयी। तस्मात्तदोषमोषार्थं विपरीतं तपो भवेत् ॥१४३॥
अर्थ-मैं उपवासादि प्रायश्चित्तके योग्य हूं अन्य प्रायश्चित्त के नहीं, इस तरह जो गर्व करता है वह तपोवलो अर्थात तपोभिमानी है। इसलिए छेद प्रायश्चित्त न चाहने और तप चाहने रूप दोषोंकी शुद्धिके अर्थ विपरीत प्रायश्चित्त देना चाहिए। भावार्थ-छेद प्रायश्चित्त चाहनेवालेको उपवासादि और उपबासादि चाहने वालेको छेद प्रायश्चित देना चाहिए ।।१४३ ।। मृदुश्च्छेदे च मूले च दीयमाने प्रहृष्यति । बंद्यो हि सर्वथा साधुस्तत्तस्मै दीयते तपः ॥१४४॥
अर्थ-जो छेद और मूल प्रायश्चित्त देने पर भी संतोष धारण करता है वह मृदु पुरुष है। वह कहता है कि साधु सर्वथा वंदना करने योग्य हैं अगर मैने साधुओंको पहले नमस्कार किया तो ...र किया यदि वादमें नमस्कार किया तौ नमस्कार किया।
-छेदादि प्रायश्चित्तके पहले, संघके पश्चावदीक्षित साधु
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पुरुषाधिकार । पूर्वदीक्षितको पहले नमस्कार करते हैं और वह पूर्वदीक्षित उन पश्चावदीक्षितोंको वादमें नमस्कार करता है । छेद आदि प्रायश्चित्तके देने पर वह पूर्वदीक्षित उन पश्चातदीक्षितोंको 'पहले नमस्कार करता है और पश्चावदीक्षित पूर्वदीक्षितको पीछे नमस्कार करते हैं। ऐसी दशामें वह मृदु परिणामी विचार करता है कि पश्चावदीक्षित साधुओंने आकर मुझे पहले नमस्कार किया और मैंने वादमें किया तो किया और यदि उनको मैंने पहले नमस्कार किया तो किया इसमें मेरो क्या. हानि है ? इस तरह जो अपने मृदु परिणामों द्वारा छेद प्रायश्चित्तसे अनिच्छा प्रकट नहीं करता है उसको उपवासादि मायश्चित्रा देना चाहिए। छेद और मूल प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए ॥ १४४॥ प्राज्यं तपो न कुर्वाणः किं शुद्धयेच्छेदमूलतः। गुवोंज्ञामात्रतोऽश्रद्दधाने देयं तपस्ततः ॥१४५॥
अर्थ-जो बडे बडे उपवासादि तपश्चरण नहीं करता है वह गुरुको आज्ञासे प्राप्त केवल छेद और मूलसे क्या निर्दोष होगा? इस तरह श्रद्धान न करनेवालेको उपवासादि प्रायश्चित्त देना चहिए ॥ १४५॥ गीतार्थे स्यात्तपः सर्वं स्थापनारहितोऽपरः । छेदो मूलं परीहारेमासश्चाल्पश्रुतेऽपि च ॥१४॥
अर्थ-गीतार्थ दो तरहका है। एक सापेक्ष और दूसरा निर
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । पेक्ष । उनमें से सापेक्ष गुरुके निकट जाकर अपनो निन्दा और गर्दा करता हुआ आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग
और तप इन छह मायश्चित्तों द्वारा अपनी शुद्धि करता है । छेद,.. मूल, अनुपस्थापन और पारंचिक ये चार प्रायश्चित्त उसके नहीं होते । निरपेक्ष दश प्रकारके आलोचनादि प्रायश्चित्तोंको गुरुसाक्षी पूर्वक अथवा आत्म-साती पूर्वक करके विशुद्ध होता है। अगोतार्थ, स्थापना प्रायश्चित्तरहित हे अर्थात् उस स्थापना-: छेद, मूल: परिहार ये प्रायश्चित्त नहीं देने चाहिए अथवा स्था. पना नाम परिहारका है वह उसे नहीं देना चाहिए, अवशिष्ट नव प्रकारका प्रायश्चित्त देना चाहिए। तथा अल्पश्रुतको. मास (पंच कल्याणक) प्रायश्चित्त देना चाहिए और परिहार प्रायश्चित्तके योग्य हो जाने पर उसीको छेद और मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ १४६ ॥ देहबल्यवलो धृत्या धृतिवल्यंगदुर्वलः ।। द्वाभ्यामपि वली कश्चित् कश्चिद् द्वितयदुर्बलः ॥ ___ अर्थ-कोई साधु देहमें तो वली होते हैं परंतु धैर्यहीन होते . हैं, कोई शरीरमें दुर्बल होते हैं परंतु धैर्यवाले होते हैं, कोई देह ..
और धैर्य दोनों में बलिष्ठ होते हैं और कोई देह और धैर्य दोनोंमें वलरहित होते हैं ॥ १४७ ॥ इसलिये. १ यह श्लोक टीका पुस्तकमें लेखकके प्रमादसे छूट गया है।
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पुरुषाधिकार। सर्वं तपो बलोपेते धृत्या हीने धृतिप्रदं । देहदुर्वलमाश्रित्य लघु देयं द्विवर्जिते ॥१४८॥ __ अर्थ-शरीर बलसे परिपूर्ण व्यक्तिको आलोचना आदि दशां प्रायश्चित्त देने चाहिए। धृतिरहितको धैर्य प्रदान करने वाला तप देना चाहिए अर्थात जिस किसी प्रायश्चित्तके देनेसे उसको धेय हो वहां प्रायश्चित्त से देना चाहिए। शरीरबल रहित पुरुषको जिस प्रायश्चित्तके देनसे उसका शरीर बल तदवस्थ रहे वही प्रायश्चित्त उसे देना चाहिए । तथा धृतिरहित और शरीर बल रहित फक्तको पहलेसे भी लघु प्रायश्चित देना चाहिए ॥१४८॥
अन्त्यसंहननोपेतो वलवानागमान्तगः। तस्य देयं तपः सर्व परिहारेऽपि मूलगः ॥१४९॥ ___ अर्थ-जो अर्धनाराच संहनन, कीलिकसंहनन और असंप्राप्त सुपाटिकासंहनन इन तीन अन्त्य संहननोंमें से किसी एक संहननस युक्त है बलवान है और परमागमरूप महा समुद्रका पारगामी हैं उसको उपवासादि परमास पर्यंतकं सभी मायवित्त देने चाहिए। तथा वह अन्त्य संहननवाला परिहार प्रायश्चित्तक प्राप्त होने पर भी मूल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है।
आदिसंहननः सर्वगुणो योऽजितनिद्रकः। देयं सर्व तपस्तस्य पारंचेऽप्यनुपस्थितिः॥१५॥
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प्रायश्चित्त-समुच्चय ।
अर्थ-जो वज्रषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराचसंहनन इन आदिके तीन संहननोंमेंसे किसी एक संहननवाला है, सर्वगुणसंपन्न है केवल निद्राविजयो नहीं है उस साधुको सब प्रायश्चित्त देने चाहिए। तथा पारंचिक प्रायश्चित्तके प्राप्त होने पर उसको अनुपस्थान प्रायश्चित्त देना चाहिए पाचिक नहो। वह अनुपस्थान प्रायश्चित्त अपने गणम ही करता है प्रायश्चित्त करलेने पर उसे फिर चिरंतन तपमें स्थापन करना चाहिए ॥ १५० ।। नवपूर्वधरो श्राद्धो वैराग्यधृतिमानजित्। . परिणामसमयोऽपि योऽनुपस्थानभागसौ १५१॥
अर्थ-जो यतिपति नवपूर्वका ज्ञाता है, श्रद्धावान् है, संसार शरीर और भोगोंमें रागभाव रहित है, संतोपो है, अकृतकृत्य है अर्थात् सर्वशास्त्रका ज्ञाता है किन्तु व्याख्याता नहीं है और विशुद्ध परिणामवाला है वह अनुपस्थान प्रायश्चित्तका भागी है ।
आप्रश्नालोचने तस्य सदैव गुरुसंनिधौ। . बंदनादिप्रकुर्वाणः प्रतिबंदनवर्जितः॥१५० ॥
अर्थ-उस अनुपस्थान प्रायश्चित्तवालेके, आचार्यके निकट आपृच्छा-अपने कार्यके लिए पूछना और आलोचना ये दो होते हैं। वह अन्य ऋषियोंको वंदना आदि करता है पर वे 'अन्य ऋषि उसे प्रतिवंदना नहीं करते ॥.१५०॥. . . . .
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पुरुषाधिकार। गुणैरेतैः समग्रोऽसौ जघन्योत्कृष्टमध्यमां । पौराणिकी गुणोणं निःशेषामभिपूरयेत् ॥
अर्थ-इन पूर्वोक्त गुणों से परिपूर्ण यह अनुपस्थान प्रायश्चित्त वाला जघन्य एध्यम और उत्कृष्ट चिरंतन गुणोंकी सब संततिको पूर्ण करे ॥ १५१॥ श्रद्धाद्या ये गुणाः पूर्वमनुपस्थानवर्णिताः। पारंचिकेऽपि ते किन्तु कृतकृत्योऽधिसंहतिः॥ ___ अर्थ-श्रद्धा, धृति, वैराग्य, परिणामविशुद्धि आदि गुण जो पहले अनुपस्थापना प्रायश्चित्तमें कई गये हैं वे सब पारंचिक प्रायश्चित्तमें भी होते हैं किन्तु इतना विशेप है कि यह पारंचिक प्रायश्चित्तवाला. कृतकृत्य अर्थात् सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञाता और व्याख्याता होता है, निद्राविजयी होता है और अनंत वलसंयुक्त होता है ॥ १५२ ॥ सर्वगुणसमग्रस्य देयं पारंचिकं भवेत् । व्युत्सृष्टस्यापि येनास्याशुद्धभावो न जायते॥ __ अर्थ-सव गुणोंसे परिपूर्ण पुरुपको पारंचिक प्रायश्चित्त देना चाहिये। जिससे कि संघसे बाहर कर देने पर भी जिसके अशुद्ध भाव न हो ॥ १५ ॥
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प्रायश्चित-समुच्चय।
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पंचदोषोपसृष्टस्य पारंचिकमनूदितं । ... व्युत्सृष्टो विहरेदेष सधर्मरहितक्षितौ ॥१५॥
अर्थ-तीर्थंकरासादनादि पांच दोपां कर संयुक्त पुरुपके लिए पारंचिक प्रायश्चित्त कहा गया है। तथा संघसे बाहर किया गया यह पापंचिक प्रायश्चित्तवाला पुरुष जिस देशमें. साधर्मी नहीं हैं उस देशमें विहार करे ॥ १५४॥
आदिसंहननो धीरो दशपूर्वकृतश्रमः। जितनिद्रो गुणाधारस्तस्य पारंचिकं विदुः।१५५।
अर्थ-जिसके वज्रपभनाराच नामका पहला संहनन है जो धैर्यवान् है, दशपूर्वका ज्ञाता और व्याख्याता है, निद्राविजयी है और सम्पूर्ण गुणोंका आधार है उसके पारंचिक प्रायश्चित्त कहा गया है ॥ १५५॥ आयायाः स्यात्तपः सर्वं स्थापनापरिवर्जित। सप्तमासमपि प्राज्यं न पिछच्छेदमूलगं ॥१५६॥ __अर्थ-आर्यिकाको स्थापनारहित सभी प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। तथा सप्तमास प्रायश्चित्त भी आर्यिकाको देवे । यद्यपि वर्ध:मान स्वामीके तीर्थामें छह माससे ऊपर उपवासादि प्रायश्चित्त । नहीं हैं तो भी सप्तमाससे अधिक प्रायश्चित्त आर्यिकाको देवे , तथा पिछ छेद और मूल ये तीन प्रायश्चित्त उसको नहीं देना चाहिए। भावार्थ-पिंछ नाम परिहार प्रायश्चित्तका है क्योंकिः
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१३ परिहार मायश्चित्त करनेवाला में परिहार प्रायश्चित्त करनेवाला हूं यह जतानेके लिए आगे पिच्छिका दिखाता है इसलिए परिहार प्रायश्चित्तको पिंछ प्रायश्चित्त कहते हैं। छेद नाम दीक्षा छेदनेका है और मूल नाम पुनः दोक्षा धारण करनेका है ।।१५६॥ प्रियधर्मा बहुज्ञानः कारणावृत्यसेवकः। ऋजुभावो विपक्षस्तकिर्द्वात्रिंशदाहताः॥१५॥
अर्थ-प्रियधर्म-धर्ममें प्रेम रखने वाला, बहुज्ञान-शास्त्रोंका ज्ञाता, बहुश्रुत, कारणी-व्याधि उपसर्ग आदि कारणोंवश दोषोंका सेवन करनेवाला-सहेतुक, आत्यसेवक- एक वार दोष सेवन करनेवाला अर्थात् सकृत्कारी, ऋजुभाव-- सरल स्वभावी इन पांचोंको पांच स्थानों में एक एक अङ्कके आकारमें स्थापना करें। तथा इनके विपक्षी अप्रियधर्म, अबहुश्रुत, अहेतुक, असकृत्कारी और अनुजुभाव इन पांचोंको दो दो अङ्कके आकारमें उनके नीचे स्थापन करें। इस तरह स्थापन कर परस्पर गुणनेस ३२ मन हो जाते हैं। यहां पर भी 'पहलेकी तरह संख्या, मस्तार, अक्षसंक्रमण, नष्ट और उद्दिष्ट ये पांच मकार समझाने चाहिये।
प्रथम संख्याविधि बताते हैं। सव्वेपि पुन्वभंगा उवरिमभंगसु एक्कमक्के । मेलंतित्तिय कमसो गुणिये उप्पज्जये संखा ॥
अर्थाद पहले पहलेके भंग ऊपर ऊपरके एक एक भंगमें पाये
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____प्रायश्चित-समुच्चय । जाते हैं इसलिए क्रमसे गुणा करने पर संख्या निकलती है। सो हो वताते हैं-धर्मप्रिय और अधर्मप्रिय ये ऊपरके बहुश्रुत और अबहुश्रुतमें पाये जाते हैं अतः दोनांको परस्परमें गुणनेसे चार भंग होजाते हैं। ये चारों ऊपरके सहेतुक ओर अहेतुकमें पाये जाते हैं इसलिए चारको दोस गुणन पर आठ भंग हो जाते हैं। ये पाठ ऊपरके सकृत्कारों और असकृत्कारीमें पाये जाते हैं इसलिए आठको दोसे गुणने पर सोलह भंग हो जाते हैं। तथा ये सोलह ऊपरके ऋजुभाव और अनुजुभावमें पाये जाते हैं इसलिए सोलहको दोसे गुणने पर दोपांकी बत्तीस संख्या निकल आती है। अब प्रस्तारविधि बताते हैंपढमं दोषपमाणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च । पिंडं पडि एक्ककं णिक्खित्ते होई पत्थारो॥ __ अर्थाद पहले दोक्के प्रमाणको क्रमसे एक एक विरलन कर
और अविरलन किये हुए एक एकके ऊपर ऊपरका एक एक पिंड रख कर जोड़ देने पर प्रस्तार होता है। सो ही कहते हैं। • धर्मप्रिय और अधर्मप्रियका प्रमाण दोको विरलन कर क्रमसे लिखे ११। इनके ऊपर दूसरा बहुश्रुत और अबहुश्रुतका पिंड दो दोको रक्खे २१। इनको जोड़नेसे चार होते हैं। फिर इन चारोंको विरलन कर चार जगह रक्खे ११११। इनके ऊपर सहेतुक और अहेतुकका पिंड दो दो रक्खे १३३३ । इनको जोड़नेसे आठ होते हैं । फिर इन आठोंको विरलन कर
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श्राठ जगह रक्खे १ १ १ १११११ । इनके ऊपर सकृत्कारी और असकृत्कारीका पिंड दो दो रक्खे ११११११११ । इनको जोड़नेसे सोलह होते हैं । पुनः इन सोलहको एक एक. विरलन कर रक्खे १११११११११११११११ । इनके ऊपर ऋजुभाव और अनृजुभावका पिंड दो दो रक्खे 33333333333 | इनको जोड़नेसे बत्तीस ११११ होते हैं । इस तरह प्रस्तार रूप स्थापन किये बत्तीस भङ्गोंके उच्चारण करनेकी विधि कहते हैं । प्रियधर्म, बहुश्रुत, सहेतुक सकृत्कारी, ऋजुभाव यह पहली उच्चारणा १११११ । अप्रियधर्म, बहुश्रुत, सहेतुक, सकृत्कारी, ऋजुभाव २११११ यह दूसरी उच्चारणा इसी तरह आगेकी सव उच्चारणा निकाल लेना चाहिए जिनका पूर्ण कोष्टक आगे दिया गया है । मस्तार संदृष्टि इस प्रकार है
१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२१२
११२२११२२११२२११२२११२२११२२११२२११२२
११११२२२२११११२२२२११११२ २२२२११११२२२२
१२२२२२२
२२२२२२२२२२२२२
११११११११२२ १११११११ यहां भेदोंका प्रमाण ३२ है और पंक्ति पांच हैं। "भंगायामप्रमाणेन" इस पूर्वोक्त श्लोक के अनुसार पहली पंक्ति में एकान्तरित, दूसरी पंक्ति में द्वय तरित, तीसरी पंक्ति में चतुरंतरित, चौथी पक्तिमें अष्टान्तरित और पांचमी पंक्तिमें षोडशान्तरित लघु
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । और गुरु बत्तीस जगह लिखे गये हैं। अब अतसंक्रमण विधि बताते हैं'पढमक्खे अंतगए आदिगए संकमैइ विदियक्खो। दोणि पि गतूर्णतं आइगए संकसैइ तइयक्खो ॥
अर्थात् प्रियधर्म और अप्रियधर्म यह प्रथमान, बहुश्रुत ओर अबहुश्रुत यह द्वितीयाक्ष, सहेतुक और अहेतुक यह तृतीय अक्ष: सकृत्कारी और असकृत्कारो यह चतुर्थ अक्ष तथा ऋजुभाव और अनुजुभाव यह पंचमाक्ष है। इनमेंस प्रथमाक्ष संचरण करता हुआ अपने अन्तके भेद अप्रियधर्मको प्राप्त होकर और वापिस लौट कर जब पहले प्रियधर्म पर आता है तब द्वितीय अक्ष बहुश्रुतको. छोड़कर अबहुश्रुतमें संचरण करता है फिर उस द्वितीयके वहीं पर स्थित रहते हुए जब प्रथमात अंतका पहुँच जाता है तब प्रथमाक्ष और द्वितीयान अंतको पहुँच कर और लौट कर जव आदिको आते हैं तब तृतीयाक्ष सहेतुकको छोडकर अहेतुकमें संचरण करता है फिर इस अनके यही स्थित रहते हुए प्रथमात
और द्वितीयाक्ष दोनों संचरण करते हुए अंतको पहुंच जाते हैं तव तीनों अक्ष अन्तको पहुंचकर और लौटकर जब आदि स्थानको आते हैं तव चतुर्यात सकृकारीको छोड़कर असक कारीमें संक्रमण करता है फिर उस अतके यही स्थित रहते दुए प्रथमात द्वितीयाक्ष ओर तृतीयाक्ष तोनों संचरण करते हुए अंतको पहुंच जाते हैं तब चारों अक्ष अन्तको पहुंच कर और
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पुरुषाधिकार । लौटकर जब आदि स्थानको पाते हैं तव पंचमाक्ष ऋजभावको छोड़कर अनुजुभावमें संचार करता है । सो इस प्रकार है१ प्रियधर्म, बहुश्रुत, सहेतुक, सऋकारी, ऋजुभाव ? ११११ २ अप्रियधम, " " " " २११११ ३ मियधर्म अबहुश्रुत " " " १२१११ ४ अप्रियधर्म " " " " २२१११ ५ प्रियधर्म बहुश्रुत अहेतुक , , ?१.२११ ६ अप्रियधर्म " , " " २१२११ ७ प्रियधर्म अबहुश्रुत .. . " १२२११ ८ अप्रियधम" " " " २२२११
प्रियधम बहुश्रुत महेतुक असकृत्कारी , १११२१ १० अप्रियधर्म,
" २११२१ ११ प्रियधर्य अबहुश्रुत " " " १२१२१ १२.अभियधर्म , " " " २२१२१ १३ मियधर्म बहुश्रुत अहेतुक " " ११२२१ १४ अप्रियधर्म ,
" २१२२१ १५ प्रियधर्म अबहुश्रुत , , १२२२१ '१६ अप्रियधर्म ,
" " २२२२१ १७ प्रियधर्म बहुश्रु त सहेतुक सकृत्कारी अनुजुभाव ११११२ १८ अप्रियधर्म " " " " २१११२ :१६ प्रियधर्म अबहुश्रत , १२११२ २० अभियधर्म .
" २२११२
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प्रायाश्चत्त-समुखय । २१ मियधर्म बहुश्रुत अहेतुक सकृत्कारो अनुजुभाव ११२१२ २२ अप्रियधर्म " " " . "' २.१२१२ २३ प्रियधर्म अबहुश्रुत " .. १२२१२ २४ अप्रियधर्म , , , , २२२१. २५ प्रियधर्म बहुश्रुत सहेतुक असकृल्कारी, १११२२ २६ अप्रियधर्म बहुश्रुत , " " २११२२ २७ प्रिवधर्म अबहुश्रुत " " ॥ १२१२२ २८ अप्रियधर्म , " " " २२१२२. २६ प्रियधर्म बहुश्रुत अहेतुक , , .११२२ . . ३० अप्रियधर्म " " " " २१२२ ३१ प्रियधर्म अवहुश्रु त , " " १२२२२ ३२ अप्रियधर्म ,
" २२२२.२. अब नष्ट विधि कहते हैंसगमाणेहिं विहत्ते सेसं लक्खितु संखिवं रूवं । लक्खिज्जते सुद्धे एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥....
अर्थात् पृष्ट दोषकी संख्या रखकर अपने अपने प्रमाणका भाग दे जो संख्या वच रहे उसे अक्षस्थान समझे, लब्धमें, एक जोड़कर फिर खपमाणका भाग दे जो बाकी बच रहे उसको अक्षस्थान समझे अंगर बाकी कुछ भी न बचे तो लब्ध संख्या में एक न जोडे और अंतका अन्त ग्रहण करे इसतरहका क्रमः सब स्थलोंमें करे। अर्थाद किसीने वचीस उच्चारणाओंमेसे
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पुरुषाधिकार। कोई भी उच्चारणा पूछी उसमें दोषोंका कौनसा भेद है यह मालूम न हो तो इस गाथा द्वारा मालूम कर लिया जाता है। जैसे किसोने पूछा-पच्चीसवीं उच्चारणामें कौनसा अक्ष है तब पच्चीस संख्या २५ स्थापनकर प्रियधर्म और अभियधर्म २ का भाग दिया बारह लब्ध हुए और एक वाको बचा। "शेषं अक्षपदं जानीहि" इसके अनुसार प्रियधर्म समझना चाहिए क्योंकि पियधम और अप्रियभर्ममें पहला प्रियधर्म है । बारह जो लब्ध आये हैं उसमें "लब्धे रूपं प्रतिप" इसके अनुसार एक मिलाया तेरह हुए इनमें बहुश्रुत और अबहुश्रुतके प्रमाण दोका भाग दिया छह लब्ध आये और एक वाकी वचा पूर्वोक्त निययके अनुसार पहला बहुश्रुत ग्रहण किया । फिर लब्ध छहमें एक मिलाया सात हुए इनमें सहेतुक और अहेतुकका भाग दिया तीन लप पाये और एक वाको बचा पर्वोक्त नियमके अनुसार पहला सहेतुक ग्रहण किया। फिर लन्ध तीनमें एक मिलाया चार हए इनमें सकृत्कारो ओर असत्कारीके प्रमाण दोका भाग दिया दो लब्ध आयेवाको कुछ नहीं बचा "शुद्ध सति प्रक्षोऽन्ते तिष्ठति" इसके अनुसार अंतका असककारी ग्रहण किया । "शुद्ध सति रूपमतेपोऽपि न कर्तव्यः" इसके अनुसार लब्ध दोमें एक भी नहीं मिलाया और ऋजुभाव और अनजुभावका प्रमाण दोका भाग दिया लब्ध एक आया वाको कुछ नहीं बचा पूर्वोक्त नियमके अनुसार अंतका अनुजुभाव ग्रहण किया। इस तरह पच्चीसवीं उच्चारणामें प्रियधर्म, बहुश्रुता
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प्रानश्चित-समुचना
सहेतुक, असकृत्कारी और अनुजुभाव नामका अक्ष पाया। इस तरह अन्य उच्चारणाओंके अक्ष भी निकाल लेने चाहिए। । आगे उद्दिष्ट विधि कहते हैंसंठाविऊण रूवं उर्वरिओ सगुणिन्तु सयमाणे । अवणिज्ज अणंकिदयं कुज्जा पढमंतियं चेव ॥ । अर्थात् एक रूप रखकर अपने ऊपरके प्रमाणसे गुणा करे
और अनंकितको घटावे इस तरह प्रथमपर्यंत करे। भावार्थयहां जो भेद ग्रहण हो उसके आगेकी संख्या अनंकित कही जाती है जैसे प्रियधर्म और अमियधर्ममेंसे यदि प्रियधर्मका ग्रहण हो तो उसके आगेवाले अप्रियधर्यको अनंकित समझना चाहिए । इसी तरह बहुश्रुत और अबहुश्रुत, सहेतुक और अहेतुक, सकृत्कारी और असत्कारी तथा ऋजुभाव और अनजुभावमें भी समझना चाहिए। जैसे किसीने पूछा प्रियधर्म, बहुश्रुत, अहेतुक, असकृत्कारी, ऋजुभाव यह कौनसी उच्चारणा है तव प्रथम एकरूप रक्खा उसको ऊपरके ऋजुभाव और अनूजुभावका प्रमाण दोसे गुणा किया दो हुए अनंकित अनजुभावको घटायां एक रहा इसको सकृल्कारी और असकृल्कारीका प्रमाण दोसे गुणा किया दो हुए, यहां अनंकित कोई नहीं दो ही रहे, इनको सहेतुक और अहेतुकका प्रमाण दोसे गुणा किया चार हुए अनंकित कोई नहीं, चार ही रहे इनको बहुत और अबहुश्र तका प्रमाण दो से गुणा किया आठ हुए अनंकित
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पुरुषाधिकार ।
अबहुश्रुतको घटाया सात रहे इनको भियधर्म ओर अभियधर्मका प्रमाण दोसे गुणा किया चौदह हुए अनंकित अभियधर्मको घटाया तेरह रहे। इस तरह पियधर्म, बहुश्र त, अहेतुक, असकृरकारी, ऋजुभाष नामकी तेरहवीं उच्चारणा सिद्ध होती है। यही विधि अन्य उच्चारणाओंके निकालनेमें भो करनी चाहिए। अक्ष रखकर संख्या निकालनेको उद्दिष्ट कहते हैं। पहले निर्विकृति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान और तमण इन पांचोंकी प्रत्येक शलाका ५, दिसंयोगी १०,त्रिसंयोगी १०, चतुःसंयोगो५, और पंचसंयोगी १ एवं ३१ शलाकाओंका वर्णन कर आये हैं। इकतीस शुद्धियां तो ये और एक आलोचना शुद्धि एवं बत्तीस शुद्धियां उक्त पत्तोस दोषों या पुरुषोंका क्रमसे प्रायश्चित्त है। प्रथम पुरुषको आलोचना, द्वितीयकी निर्विकृति, तृतीयकी पुरुमंडल, चतुर्थकी आचाम्ल, पंचमकी एकस्थान, छठेकी उपवास, सातवेंकी निर्विकृति और पुरुमंडल नामको दो संयोगवाली छठी शलाका शुद्धि। इस तरह प्रति पुरुपको गुरु और लघु दोषका विचार कर एक एक शलाका प्रायश्चित्तं देना चाहिए। द्वात्रिंशत्प्रियधर्माचा अष्टाचार्यादिकाः पुनः। गर्विताद्या दशोद्दिष्टास्तेभ्यो देयं यथोचितं ॥ .
अर्थ-प्रियधर्मादि वचीस पुरुष ऊपर बता चुके हैं। प्राचार्य आदि पाठ पुरुषोंको आगे बतायेंगे तथा गवित मृद्ध :.आदि दश पुरुषोंको भी ऊपर बता पाये हैं। एवं पत्तीस पाठ
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । और दश कुल मिलाकर पचास पुरुष होते हैं। इन पचास पुरुषोंको यथायोग्य प्रायश्चित्त वितरण करना चाहिए ।। १५६ ॥ तेऽथवा पंचधोद्दिष्टा स्थानेष्वेतेष्वनुक्रमात् ।
आत्मोभयतरावन्यतरशक्तश्च नोभयः ॥१६०॥ परतरोऽपि निर्दिष्टस्त एवं पंच पूरुषाः। यथान्यायं तथैतेऽपि सप्त भाज्या गणेशिना॥ __ अर्थ-ऊपर बताये हुए पचास पुरुष अथवा अन्य स्थानों में क्रमसे आत्मसमर्थ, उभयतरसमर्थ, अन्यतर समर्थ, अनुभय और परतर ये पंचमकारके पुरुष कहे गये हैं। ये सब प्राचार्य द्वारा यथायोग्य प्रायश्चित्तसे शुद्ध किये जाने योग्य हैं ॥१६०-१६॥ प्रायश्चित्तं गुरूद्दिष्टमग्लानः सन् करोति यः । वैयावृत्यं न रोचत स आत्मतर इरितः ॥१६२॥
अर्थ-जो आचार्य द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तको अन्तःकरणमें खेदखिन्न न होता हुआ करता है और यासत्य नहीं चाहता है वह आत्मतर कहा गया है ॥ १६२ ॥ प्रायश्चित्तं गुरूद्दिष्टं सुबह्वपिं करोति यः। वैयावृत्यं च शुद्धात्मा द्वितरोऽसौ प्रकीर्तितः ।।
अर्थ-जो पुरुष गुरु द्वारा दिये गये भारीसे भारी प्रायश्चित्रको करता है और वैयाहत्व भी चाहता है। वह शुद्धभारधारी उभयंतर कहा गया है ।।.१६३ ।। . .
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पुरुषाधिकार ।
१०३ सर्वांगजातरोमांचो वैयावृत्यं तपो महत् । लाभद्वयं सुमन्वानः श्रेष्ठित्वे पुत्रलाभवत्॥१६४॥ __ अर्थ-तथा जिसके सारे शरीरमें रोमांच उत्पन्न हो गये हैं,
और जो वैयात्य और गुरु तप दोनों की प्रासिको धनवानके पुत्र लाभकी तरह अच्छा मानता है वह उभयतर है।.
भावार्थ-धनवानके धन लाभ तो है हो, पुत्र उत्पत्ति हो जानेस उसे विशेष हपं होता है उसी तरह जो वैयासत्य और तप दोनोंकी प्राप्तिसे महा हर्पित होता है वह उभयत र है ॥१६४॥ वैयावृत्यं समाधत्स्व तपो वेति गणीरितः। तत एकतरं धत्ते खेच्छयान्यतरः स्मृतः ॥१५॥ ___ अर्थ-बैंयाटस करो अथवा तप करो इस प्रकार प्राचार्यने कहा। अनन्तर जो पुरुष एकको तो धारण करता है और दूसरेको अपनी इच्छानुसार धारण करता है वह अन्यतर माना गया है ॥ १६५॥ वैयावृत्यं न यो वोढुं प्रायश्चित्तमपि क्षमः। दुर्वलो धृतिदेहाभ्यामलब्धिनोंभयः सतु॥१६६॥
अर्थ-जो पुरुष वैयारस और उपवासादि प्रायश्चित्त धारण करनेमें समर्थ नहीं है और धैर्यवंल तथा देहवल से दुर्बल है और लाभवर्जित है वह अनुभय है। भावार्थ- जो यारस और
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । उपवासादि दोनों तरहके प्रायश्चित्तको करनेमें असमर्थ है वह अनुभय है इसलिये उसे आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, पुरु.. मंडल आदि देना चाहिए ॥ १६६॥ . दीयमानं तपः श्रुत्वा भयादुद्विजते मुहुः। प्रोवृत्तपांडुरक्षः सन् म्लाग्निमेति प्रकंपते ॥
वैमनस्यं समाधत्ते रोगमाप्नोति दुर्बलः । प्राणत्यागं विधत्ते वा श्रामण्याद्वा पलायते ॥१६८ प्रायश्चित्तं न शक्नोति कुर्याच्च व्यावृतिबहु । दुर्बलस्तनुधैर्याभ्यां लब्धिमान् परशक्तिकः ॥ __ अर्थ-जो दिये हुए प्रायश्चित्तको सुनकर भयसे वारवार उद्वेगको प्राप्त हो जाता है, जिसके नेत्र सफेद पड़ जातें हैं अतएव मलीनमुख हो जाता है जिसका शरीर थर थर कांपने. लगता है, जो वैमनस्य धारण कर लेता है; व्याधियुक्त हो जाता है, शरीरमें कृश होकर प्राणत्याग करता है, चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है, शरीर और धैर्यसे दुर्वल है, आहार औषध आदिके लामसे संपन्न है और उपवासादि प्रायश्चित्त धारण करनेमें समर्थ नहीं है किन्तु मुझे वैयाकृत्य प्रायश्चित्त देकर अनुगृहीत करो उपवासादि करनेको असमर्थ हूं इस तरह कहता डुआ वैयावत्य अंगीकार करता है वह परतर पुरुष है ॥१६७६वाः
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पुरुषाधिकार । द्विप्रकाराः पुमांसोऽथ सापेक्षा निरपेक्षकाः । नियंपेक्षाः समर्थाः स्युराचार्याचास्तथेतरे॥ __ अर्थ-पुरुष दो तरहके होते हैं एक सापेक्षा मो प्राचार्योंके अनुग्रहको आकांक्षा रखते हैं कि आचार्य हम पर अनुग्रह करें। दूसरे निरपेक्ष, जो आचार्योंके अनुग्रहकी आकांक्षा नहीं रखते। इनमें निरपेक्ष जो आचार्य आदि हैं वे पुरुप हैं जो समर्थमहाशक्तिशाली होते हैं। तथा इनके अलावा दूसरे सापेक्ष होते. हैं।। १७० ।। गीतार्थाः कृतकृत्याश्च नियंपेक्षा भवन्त्यमी।
आलोचनादिका, तेषामष्टधा शुद्धिरिष्यते ॥१७१ ___ अर्थ-ये निरपेक्ष पुरुष गोतार्थ और कृतकृत्य होते हैं। जो नौ और दश पूर्व धारो हैं उन्हें गीतार्थ कहते हैं और जिन्हों-- ने नौपूर्व और दशपूर्वको ग्रन्थ और रूप जानकर अनेक बार उनका व्याख्यान किया है वे कृतकृत्य कहे जाते हैं। अतः उनके लिए आलोचनापूर्वक आठ प्रकारकी शुद्धि कही गई है। तेऽप्रमत्ताः सदा संतो दोषं जातं. कथंचन । तत्क्षणादपकुर्वति नियमेनात्मसाक्षिकं ॥१७२।।
अर्थ-वे निरन्सपेत पुरुष सदाकाल प्रमादरहित होते हैं। यदि किसी कारसरश कोई दोप उत्पन्न हो जाता है-उनसे
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. १०६
- प्रायश्चित समुच्चय। कोई अपराध हो जाता है तो वे उसो समय आत्मसाक्षो पूर्वक उस दोपका निययसे प्रतीकार कर लेते हैं ॥ १७२ ॥ धैर्यसंहननोपेताः स्वातंत्र्यायोगधारिणः । तद्वपि समुत्पन्नं वहति निरनुग्रहं ।। १७३॥ ___ अर्थ-परम धैर्य और उत्तमसंहननकर सहित वे परम योगी- . श्वर खाधीन रहने के कारण भारोसे भारो भी उत्पन्न हुए दोपको औरोंके अनुग्रहकी अपेक्षा किये विना हो स्वयं दूर कर लेते हैं ।। १७३ ॥ आलोचनोपयुक्ता यच्छुभ्यन्त्यालोचनात्ततः। कृत्वाशेषं च मूलान्तंशुध्यन्ति स्वयमेव ते॥१७४
अर्थ-जो आलोचना-दोष दूर करनेमें उपयुक्त रहते हैं वे निरपेक्ष पुरुष आलोचना मात्रसे शुद्ध हो जाते हैं। तो भो चे दुसरे भी प्रतिक्रमणको आदि लेकर मूलपर्यंतके प्रायश्चित्त अपने आप ग्रहण कर शुद्ध हो लेते हैं ।। १७४॥
यहां तक निरपेक्ष पुरुषोंका वर्णन किया आगे सापेक्षोंका करते हैंआचार्यो वृषभो भिक्षुरिति सापेक्षास्त्रिधा । गीतार्थों वृषभः सूरिः कृत्यकृत्येतरौपुनः ॥१७५
अर्थ- सापेक्ष पुरुष तीन प्रकारके होते हैं। प्राचार्य, दृपभ
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पुरुमाधिकार।
१०७ प्रधान, और मितुसामान्य साधु । इनमेंसे आचार्य और प्रधान पुरुप गोतार्थ अर्थात् सकल शास्त्रोंक वेत्ता होते हैं तथा कृतकृत्य-सम्पूर्ण शास्त्रोंके व्याख्याता भी होते हैं और अकृतकृत्य भी होते हैं अर्थात् सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता तो होते हैं परन्तु व्याख्याता नहीं होते । भावार्थ-गीतार्थ. कृतकृत्य और अकृतकृत्य एस तीन तीन प्रकारके आचार्य और टपभ पुरुष होते हैं। गीतार्थश्चतरो भिक्षुः कृतकृत्येतरस्तयोः । आधः स्यादपरो वेधाधिगतश्चेतरोऽपि च ॥ ___ अर्थ-भिन्तु दो तरहका होता है-गोतार्थ ओर अगीतार्थ । उनसे पहला गीतार्थ दा तरहका है कृतकृत्य और अकृतकृत्य अगोतार्थ भी दो तरहका है-अधिगत आर अनधिगत । जो शास्त्रज्ञानसे तोशून्य है परन्तु स्वयं विचारक है उसे अधिगतार्थ कहते हैं और जो केवल गुरुके उपदेश पर ही निर्भर रहता है उसे अगीतार्थ कहते हैं । १७६ ॥ द्विधानधिगताभिख्यः स्यात्स्थिरास्थिरभेदतः।
अत्राप्टास्वनधिगते वांछैवाऽस्थिरनामनि ॥ ___ अर्थ-स्थिर और अस्थिरके भेदसे अनधिगत परमार्थ दो तरहका है। जो धर्ममें निश्चल है वह स्थिर कहा जाता है और जो चारित्रमें चलायमान है वह अस्थिर कहा जाता है। सापेतके इन आठ भेदोंमें अस्थिर नामक अनधिगत परमार्थमें वांजा ही
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१०८ प्रायश्चित्त-समुच्चय । प्रायश्चित्त है-अर्थात् उस समय रह जो चाई बहो प्रायश्चित्त उसे देना चाहिए ॥ १७७॥ कल्प्याकल्प्यं न जानाति नानिषेवितसेवितं । अल्पानल्पं न बुध्येत तेनेच्छाऽवोधनेऽस्थिरे ॥
अर्थ-यहानगत अस्थिर पुरुष योग्य और अयोग्यको. सेव्य और असेव्यको तथा अल्प दोषाचरणको और बहुत दोषाचरणको नहीं जानता इसलिए उसके लिए इच्छा हो प्रायश्चित्त है ॥ १७८॥ कर्मोदयवशादोषोऽधिगतेषु भवेद्यदि । तेषां स्याहशधाशुद्धिरागमाभ्यनुरागतः॥१७९॥ __ अर्थ-यदि अधिगत परमार्थ पुरुषोंको कर्मके उदयवश कोई दोष लग जाय तो उनको शुद्धि आगममें अनुराग होनेके कारण आलोचनाको आदि लेकर श्रद्धान पर्यंत दश तरहकी है ॥ १७६॥ इति श्रीनन्दिरुगुवरचिते प्रायश्चित्तसमुच्चये
पुरुषाधिकारः षष्ठः ॥६॥
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छेद-अधिकार ॥७॥
अव दश प्रकारका प्रायश्चित्त कहा जाता है। प्रथम प्रायश्चित्तका लक्षण और निरुक्ति कहते हैं- . प्रायश्चित्तं तपः श्लाघ्यं येन पापं विशुद्धयति । प्रायश्चित्तं समाप्नोति तेनोक्तं दशधेह तत् ॥ ___ अथ-प्रायश्चित्त नामका तपश्वरण अत्यंत ही श्लाघ्य तपश्वरण है जिसके कि अनुष्ठानसे इस जन्ममें और पूर्वजन्ममें उपाजन किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं तथा प्रायः-लोक अर्थाद साधीवर्गका चित्त-मन प्रसन्न होता है। इस कारण वह प्रायश्चित्त यहां दशप्रकारका कहा गया है। तदुक्तंप्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । तञ्चितग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतं ॥
प्रायोनाम लोक अर्थात् साधर्मीवर्गका है और चित्त नाम मनका है। साधमियाँक मनको ग्रहण करनेवाले अर्थात् उनके मनको प्रसन्न करनेवाले क्रिया-कर्मको पाश्चित्त कहते हैं। प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चयनं युतं । तपोनिश्चयसंयोगात् प्रायश्चित्तं निगद्यते ॥ पायो नाम तपका है और चित्त नाम निश्चययुक्तका है।
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प्रायश्चित्त-समुच्चय ! निश्चययुक्त तपको प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा प्राय नाम साधुलोकका है उनका चित्त जिस कर्मके करने में है वह प्रायश्चित्त है. अथवा प्राय नाम अपराधका है और चित्त नाम विशुद्धिका है. अपराधकी विशुद्धिको प्रार्या ___ यह प्रायश्चित्त प्रमादजनित दोषोंको दूर करनेके लिए, भावोंकी अर्थात् संक्लिष्ट परिणामोंकी निर्मलता के लिए, अन्तरंग परिणामोंको विचलित करनेवाले दोषोंको दूर करनेके लिए, अनवस्था अर्थात् अपराधोंकी परंपराका विनाश करनेके लिए, प्रतिज्ञात व्रतोंका उल्लंघन न हो इसलिए और संयमको दृढ़ताके लिए किया जाता है ॥ १८०॥
. . प्रायश्चित्त कौन है ? यह बताते हैं - प्रायश्चित्तविधावत्र यथानिष्पन्नमादितः। . दातव्यं बुद्धियुक्तेन तदेतदशधोच्यते ॥ १८१॥ अर्थ-प्रायश्चित्त देना साधारण मनुष्योंका कार्य नहीं है। उसको देनेमें बुद्धिमान पुरुष हो नियुक्त हैं अतःवे पूर्वोक्त विधिक अनुसार आगे कहा जानेवाला दश प्रकारका प्रायश्चित्त दें। __ आगे दशप्रकारके प्रायश्चित्त के नाम बताते हैंआलोचना प्रतिक्रान्तियं त्यागो विसर्जन। . तपः छेदोऽपि मूलं च परिहारोऽभिरोचनं ।। :
अर्थ-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, त्याग, व्युत्सग,
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छेदाधिकार : तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश प्रायश्चित्त के भेद हैं।
१-गुरुके समक्ष दशदोष रहित अपने दोष निवेदन करना आलोचना है। वे दश दोष ये हैंआकपिअ अणुमाणिअ जं दिटुं वादरं च सुहम च । छन्नं सहाउलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ __ प्राकंपित, अनुमापित, यदृष्ट, वादर, सूक्ष्प, छन, शब्दाकुलित, बहुजन; अव्यक्त और तत्सेवी ये दश आलोचना दोप हैं।
(१) महामायश्चित्तके भयसे, अल्पप्रायश्चित्तके निमित्त उपकरण आदि देकर प्राचार्यको अपने अनुकूल करना आकंपित नामका पहला पालोचना दोष है। __ (२) इस समय प्रार्थना की जायगी तो गुरुमहाराज मुक पर अनुग्रह कर बोड़ा मायश्चित्त देंगे ऐसा अनुमानसे भांपकर,
वे धन्य हैं जो वीर पुरुषों द्वारा आचरण किये गये उत्कृष्ट तपको करते हैं। इस प्रकार महातपखियोंको स्तुति करते हुए तपमें अपनी कमजोरी प्रकाशित करना अनुपापित नामका दसरा आलोचना दोष है।
(३) जो दोष दूसरोंने न देखा हो उसे छिपाकर जो दुसरोंने देखा है उसे कहना तोसरा यदृष्ट नामका पालोचनाः दोप है। .
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प्रायश्चित्त-समुच्चय।
(४) आलस्य या प्रमादक्श अपने सब दोपोंको न जानते हुए सिर्फ स्थूल दोष कहना, अथवा स्थूल दोष कहना और सूक्ष्म दोप छिपा लेना चौथा वाद नामका पालोचना दोष है।
(५) महादुश्वर प्रायश्चित्तके भयसे स्थूल दोपको छिपाकर मूक्ष्म दोष कहना सूक्ष्म नामका पांचवां आलोचना दोष है।
(६) व्रतोंमें इस प्रकारका प्रतीचर लग जाय तो उसका प्रायश्चित्त क्या होना चाहिए इस दंगसे गुरुसे पूछकर उसके बताये हुए प्रायश्चित्तको करना छटा छन्न नामका आलोचना दोष है।
(७) पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक अतीचारोंकी शुद्धिके समय जव भारी मुनिसमुदाय एकत्रित हो और उस समय उनके द्वारा निवेदित आलोचनाओंके कथनका प्रचुर कोलाहल हो रहा हो तब अपने पूर्वदोष कहना सातवां शब्दाकुल नामका आलोचना दोष है।
(८) गुरुने जो प्रायश्चित्त बताया है वह आगमानुकूल है या नहीं इस तरह सशंकित होकर अन्य साधुओंसे पूछना अथवा अपने गुरुने पहले किसीको प्रायश्चित्त दिया हो पश्चात उन्होंने उस प्रायश्चित्तको किया हो उसीको अपन भी कर लेना बहुजन नामका अठवां आलोचना दोष है।
(६) कुछ भो प्रयोजन रखकर, अपनेसे ज्ञान अथवा संयम
नीच साधुको "वडेसे बडा भी लिया हुआ पाश्चित्त विशेष ‘फल देनेवाला नहीं होता" इस प्रकार अपने दोष निवेदन कर
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छेदाधिकार। ११३ उससे प्रायश्चित्त लेना अव्यक्त नामका नौवां आलोचना दोष है।
(१०) इसके अपराधके वरावर ही मेरा अपराध है इसका प्रायश्चित्त तो यही जानता है अतः इसको जो प्रायश्चित्त दिया गया है वही मेरे लिए भी युक्त है इस तरह उस अपनी बराबरी वालेसे ही मायश्चित्त ले लेना दशव तत्सेवी नामका आलोचना दोष है।
२-कर्मवश प्रमादके उदयसे जो अपराध मुझसे हुआ है वह मेरा अपराध शान्त हो इस तरहके शब्दोच्चारणों द्वारा अपने अपराधका व्यक्त प्रतीकार करना प्रतिक्रमण नामका: दूसरा प्रायश्चित्त है।
३-कोई दोष आलोचनामात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं और कोई प्रतिक्रमणसे शुद्ध होते हैं परन्तु कोई दोष ऐसे हैं जो आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोंके मिलने पर शुद्ध होते हैं इसीको तदुभय कहते हैं।
४-संसक्त (मिले हुए) अन्न, पान, उपकरण भादिको छोड़ देना विवेक पायश्चित्त है। अथवा शुद्ध आहारमें भी अशुद्धपनेका संदेह और विपर्यय हो जाय, अथवा अशुद्ध शुद्धका निश्चय हो जाय, अथवा त्याग को हुई वस्तु पात्र या मुखमें
आजाय, अथवा जिस वस्तुके ग्रहण करनेमें कपाय आदि भाव उत्पन्न हों उन सबको त्याग देना विवेक प्रायश्चित्त है।
५-अन्तर्मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास आदि कालका नियम कर कायोल्सर्ग आदि करना ब्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है।.
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प्रायश्चित-समुच्चय ।
६-अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, आदि तप करना अथवा उपवास. आचाम्ल; एकमुक्ति आदि तप करना तप प्रायश्चित्त है। ___७-चिर दीक्षत सापराध साधुकी दिवस, पक्ष मास आदि के विभागसे दीक्षाछेद देना छेद प्रायश्चित्त है।
८-अपरिमित अपराध वन जाने पर उस दिनसे लेकर । सम्पूर्ण दीक्षाको नष्ट कर फिर दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है।
-पक्ष, मास आदिको अवधि तक संघसे बाहर कर देना परिहार प्रायश्चित्त है।
१०-सौगत आदि मिथ्यामतोंको प्राप्त होकर स्थित हुए. साधुको पुनः नवीन तौरसे दीक्षा देना श्रद्धान-उपस्थापना पायश्चित्त है ।। १८२॥ । करणीयेषु योगेषु छमस्थत्वेन सन्मुनेः। उपयुक्तस्य दोषेषु शुद्धिरालोचना भवेत् ॥१८॥ ___ अथ अवश्य करने योग्य तपोविशेषमें अथवा मन, वचन
ओर कायकी प्रवृत्तियोंके विषयमें सावधान होते हुए भी छद्मस्थताके कारण दोष लगने पर आलोचना प्रायश्चित्त होता है ।।.. संज्ञोदभ्रान्तविहारादावीर्यासमितिसंयतः। यो गुप्तिष्वप्रमत्तश्च निर्दोषोऽपि च संयमे ॥१८४॥
आलोचनापरीणामो यावदायाति नो गुरुं। .. तावदेव स नो शुद्धः समालोच्य विशुद्धयति ॥
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दाधिकार।
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अर्थ-संज्ञा कायमलके त्यागनेमें, उदभ्रान्त-दूसरे ग्रामको सिर्फ जानेम, आदि शब्दसे और भी गमन-आगमन (इधर-उधर जाने आने) आदि क्रियाओंके करनेमें ईर्यासमितिसे युक्त होते हुए, तीनों गुप्तियों के पालनमें कोई तरहका प्रमाद न करते हुए, प्राणिसंयम और इंद्रियसंयमके पालन करनेमें भी दोप न लगाते हुए तथा दोषोंके निवेदन करनेमें भाव होते हुए भी जब तक वह साधु संज्ञा, उद्घान्त, विहार आदि क्रियाओं को करके गुरुके पास न आवे तब तक शुद्ध नहीं है-अशुद्ध है सदोष है। बाद गुरुके पास आकर आलोचना करके शुद्धनिर्दोष होता है ।। १८४-१८५॥ ये विहाँ विनिष्क्रान्ता गणाचरणसंयताः।
आगतानां पुनस्तेषां शुद्धिरालोचना भवेत् ॥ ___ अर्थ-जो कोई मुनि किसी प्रयोजन वश अपने गणसे निकलकर युक्ताचारपूर्वक विहार करनेके लिए चले जाय वे जव लौटकर वापिस पावें तब उनके लिए उसका आलोचना प्रायश्चित्त है ।। १८६॥ अन्यसंघगतानां च विशुद्धाचारधारिणां । उप्संपत्समेतानां शुद्धिरालोचना भवेत् ॥१८७॥
अर्थ-जो कोई मुनि अपने आचरणमें कोई तरहका दोष न लगाते हुए दूसरे संघको जाकर अपने संघमें वापिस आ तो उनके लिए उसका.मालोचना प्रायश्चित्त है ॥१८७॥
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प्रायश्चित-समुच्चय । आगे प्रतिक्रयण-मायश्चित्त कब देना चाहिए यह बताते हैंमनसावद्यमापन्नो वाचाऽऽसाय गुरुनथ। उपयुक्तो वधे चापि द्वाग्भवेत्तनिवर्तनं ।।१८८।। ___ अर्थ-जो मनके द्वारा दुश्चितवनरूप दोषको प्राप्त हुआ हो जिसने वचनोंसे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर
आदिको अवज्ञा की हो और जो कायद्वारा लात थप्पड़ आदि मारनेमें प्रवृत्त हुआ हो उसके लिए इस अपराधका प्रायश्चिच शीघ्र प्रतिक्रमण कर लेना है ॥ १८८॥ तत्क्षणोद्वेगयुक्तस्य पश्चात्तापसुपेयुषः। स्वयमेवात्मसाक्षि स्यात्प्रायश्चित्तं विशोधनं ॥
अर्थ-जिस क्षणमें दोषरूप परिणत हो उसके अनन्तर हो उद्वेग अर्थाद चतुर्गति संसाररूप अंधकूपमें पतनके भयसे युक्त होते हुए तथा पश्चात्ताप करते हुए उस साधुके लिए स्वयं ही आत्मसाक्षीपूर्वक प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है अर्थात वह स्वयं इस प्रकार प्रतिक्रमण करे कि हा ! मुझे धिक्कार है, मैं ने बड़ा बुरा किया, मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१८॥ वैयावृत्यक्रियाघ्रशे छेदधोवातजूंभणे । दुःस्वप्ने विस्मृते वापि प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमः॥
अर्थ-३यासत्य करना भूलजाने पर, छींक, अधोवायु, (पाद) और जंभाई लेने पर, दुःस्वप्न होने पर तथा साधुओंको
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दाधिकार।
११७ प्रतिदिन औषध प्रादि देना भूल जाने पर भी अतिक्रमण प्रायः श्चित्त होता है ॥१०॥ आभोगे वाप्यनाभोगे भिक्षाचांदिके कचित् । कथंचिदुत्थिते दंडे प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमः॥१९॥ ___अर्थ-भिक्षार्थ जाना आदि कोई एक क्रियाविशेषके समय लोगोंने देखा हो या न देखा हो कदाचित किसी कारणवश दंडोत्थान (लिंगके खडे) हो जाने पर प्रतिक्रमण प्रायश्चित होता है। तदुक्तगोयरगयस लिंगुष्ठाणे अण्णस्स संकिलेसे य । णिंदणगरहणजुत्तो णियमो वि य होदि पडिकमणं ॥ __ अर्थात् मिक्षाके लिए प्रवृत्त हुए साधुका लिंगोत्थान होजाने 'घर और अपने द्वारा अन्यको संक्लेश होने पर अपनी निंदा
और गर्दासे युक्त नियण नामका प्रतिक्रमण होता है ॥ १६१॥ सूक्ष्मे दोषे न विज्ञाते छद्मस्थत्वेन चागसां। अनाभोगकृतानां च विशुद्धिस्तवयं भवेत् ॥
अर्थ-अत्यन्त सूक्ष्म दोष जो कि छ्यस्थताके कारण जानने न पाया कि यह दोष है, ऐसे दोषकी तथा अनाभोग १ गोवरगतस्य लिंगोत्थानेऽन्यस्व संक्शे च । । निन्दनगईणयुको नियमोऽपि च भवति प्रतिक्रमः ।
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प्रायश्चित्त-समुच्चयं ।
कृत अर्थात् दोष तो लगे पर जाने नहीं गये ऐसे दोपोंकी विशुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों हैं ।। १६२॥ . दिवसे निशि पक्षेऽब्दे चतुर्मासोत्तमार्थके। शैन्यानाभोगकार्येषु पदं यो युक्तयोगिनः ।। आलोचनोपयुक्तोपि विप्रमादो न वेत्त्यघं। अनिगूहितभावश्च विशुद्धिस्तस्य तवयं ॥१९४॥ __ अर्थ--जो साधु अपना आचरण उचित रीतिसे पालन कर रहा है, आलोचना करनेमें तत्पर है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें सावधान है किन्तु अपने दोपोंको नहीं जानता है तथा अपने भावोंको भी नहीं छिपाता है उसके-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्यासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थक प्रतिक्रमणोंको सहसा करनेका और दोष तो लगा पर उसका ज्ञान न हुआ ऐसे अदृष्ट दोष विशेषके करनेका आलोचना और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ॥ १६३-१६४॥ शय्यामथोपधिं पिंडमादायैषणदूषणं । प्रागविज्ञाय विज्ञाते प्रायश्चित्तं विवेचनं ॥१९५॥ __ अर्थ-वसतिका, उपकरण और आहार, पहले ग्रहण करते समय शंकित प्रादि एषणाके दश दोषोंसे दूषित न जान कर ग्रहण किये गये हों पश्चात उनका ज्ञान होने पर उनको छोड़ । देना ही भार्याश्चत्त है ।। १६५॥ .
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छदाधिकार।
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भक्तपानं विशुद्धं च समादायैषणाहतं। . तन्मानं वाथ सर्व वा विशुद्धः संपरित्यजन् । ___ अथ-एषणादोषोंसे दुषित प्रासुक भी आहार पानको ग्रहण कर, जितना दषित है उतनेको या सबके सब सदोष
और निर्दोष आहार-पानको छोड़ देने वाला विशुद्ध हैप्रायश्चित्तरहित है। भावार्थ-आहार तो प्रासुक-शुद्ध बना हुआ हो पर वह एपणा दोपोंसे दुषित हो गया हो ऐसे आहार पानके ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त उसको छोड़ देना ही है और कोई जुदा प्रायश्चित्त नहीं ॥ १६॥ . भक्तपानं विशुद्धं च कोटिजुष्टमशुद्धियुक् । तन्मात्रं वाथ सर्व वा विशुद्धः संपरित्यजन् ॥
अर्थ-पासुक भी अन्न पान, क्या यह अन्न, पान मेरे ग्रहण करने योग्य है या नहीं ? ऐसी आशंका से युक्त हो गया हो तो वह अशुद्ध है अतः उतने ही-जितनेमें कि आशंका उत्पन्न हुई है अथवा सबके सव सदोष और निर्दोष आहारको भी साग देनेवाला विशुद्ध है मायश्चित्तरहित है। भावार्थप्रासुक भी आहारमें यह योग्य है या अयोग्य ऐसो आशंका होने पर उस आहारको छोड़ देना हो उसका प्रायश्चित्त है अन्य नहीं ॥१७॥
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१२० प्रायश्चित्त-समुच्चय। भक्तपानं विशुद्धं च भावदुष्टमशुद्धिमत् । । सर्वमेवाथ तज्जुष्टं विशुद्धः संपरित्यजन्॥
अर्थ-शुद भी अन्न-पान यदि परिणामोंसे दूषित हो .जाय अर्थात् उसमें बुरे परिणाम हो जाय तो वह शुद्ध भी भोजन अशुद्ध हो जाता है। अतः उस सारे ही सदोष और अदोष भोजनकोया जितना परिणामोंसे दूषित हुआ है उतनेको छोड़ देने वाला शुद्ध है-उस भोजनको छोड़ देना ही उसके लिए विवेक नामका प्रायश्चित्त है और कोई जुदा प्रायश्चित्त नहीं ॥ १८॥ भक्तपाने विशुद्धेऽपि क्षेत्रकालसमाश्रयात् । द्रव्यतः स्वीकृते रात्रौ विशुद्धस्तत्परित्यजन् ।।
अर्थ-देश और कालके आश्रयसे कि इस देशमें दुर्भिक्ष. है या यह समय दुर्भिक्षका है न जाने फिर आहार मिलेगा या नहीं इस प्रकार दुर्मिक्ष आदि किसी भी कारणका मनमें संकल्प कर अथवा शरीरमें कोई रोग नगैरह होनेके कारण निर्दोष रीतिसे तैयार किये गये शुद्ध भी अन्न-पानको रात्रिमें लेना स्वीकार करने पर विवेक (उस भोजनको साग देना हो) प्रायश्चित्त होता है ॥ १६॥ प्रत्याख्यातं निषिद्धं यद्भक्तपानादिकं भवेत् । तत्पाणिपात्रास्यसंस्थं विशुद्धः परिवर्जयेत् ॥
अर्थ-जो अन्न, पान, स्वाय, लेख आदि भोजन त्यागः
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पदाधिकार । किया हुआ है अथवा पिंडशुदिमें देश कालको अपेक्षा जिसका लेना निपिद्ध है वह भोजन यदि हाथमें रक्खा गया हो, या पात्रमें परोसा गया हो या मुखमें लिया गया हो तो उसका विवेक प्रायश्चित्त है ॥२०॥ उत्पथेन प्रयातस्य सर्वत्रामावतः पथः । स्निग्धेन च निशीथा ववद्यस्वप्नदर्शने ॥२०॥ ___ अर्थ-चारों दिशाओंमें मार्ग न मिलने पर उन्मार्ग होकर चलनेका, गीले श्रमासुक मार्ग होकर चलनेका या हरो घास वगैरह पर होकर गमन करनेका ओर आधीरात बीत जानेके. वाद बुरे सपने देखनेका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है ॥ २०१॥ स्रस्तरस्य वहिदशेऽ चक्षुषो विषये सृते। रात्रौ प्रमृष्टशय्यायां यत्नसुप्तोपवेशले ॥२०२॥
अर्थ-उजेलेमें शयन स्थानका प्रतिलेखन कर रात्रिमें. यत्नपूर्वक सोये ओर बैट हों, पश्चात सूर्योदय होने पर संथारेके इधर उधर जहाँ नजर नहीं पहुचतो ऐसे पास ही के चलने. फिरनेके स्थानमें कोई जोव मरा हुआ देखने में आवे तो उसका प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग है । २०२॥ व्यापन्ने च से दृष्टे नद्याथागाढकारणात् । नावा निदोषयोत्तारे कायोत्सर्गो विशोधनं ।। : अर्थ-मरे हुये त्रस जीवोंके देखनेका और दूसरोंके लिए
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प्रायश्चित्त-समुच्चय। तयार की गई नाव आदिके द्वारा विना मूल्य नदी, समुद्र तालाब आदि पार करनेका कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है ।। २०३ ॥ क्रम्यादौ निर्गते देहादेहासक्तमृते त्रसे। महिकायां महावाते त्रसोत्थाने गतावपि ॥ लोचानध्यासने रात्रावदृष्टे मलवर्जने। जीर्णोपधिपरित्यागे कायोत्सर्गो विशोधनं ॥ . ___ अर्थ-शरीरसे कृमि (लट) आदिके निकलने पर, अपने शरीरका स्पर्श पाकर अपने ही आप दो इंद्रिय आदि त्रस जीवोंके प्राण दे देने पर, जिनमें चींटी, डांस मच्छर आदि त्रस जीवोंका अधिक संचार हो ऐसी पृथिवी और प्रचंडवायुमें हो कर गमन करने पर, केशलोचको वाधा न सह सकने पर; रात्रिमें और दिनमें अशोधित स्थानमें मल-मूत्र करने पर, और पुराने तृण, चटाई आदि उपकरणों के छोड़ने पर, कायोत्सग प्रायश्चित्त होता है । २०४-२०५॥ श्रुतस्कंधपरीवर्तस्वाध्यायस्य विसर्जने।' कालाद्युल्लंघनं स्याचत्कायोत्सर्गो विशोधनं ॥ __अर्थ-पूर्ण श्रुतस्कंधका या उसके किसी भागका पाठ और मंत्रपदका जाप अथवा द्वादशांगका व्याख्यान और खाध्यायके 'पूर्ण होने पर और वाचना, वंदना, स्वाध्याय आदिके समयका
. होने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। भावार्थ-पूण
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छेदाधिकार।
द्वादशांग शास्त्रका या उसके किसी एक भागका पार करते समय, तथा मंत्रपदका जाप करते समय अथवा द्वादशांग शास्त्रका व्याख्यान और स्वाध्याय करते समय केवल प्रथम केवल व्यंजनमें ओर अर्थ-व्यंजन दोनोंमें अत्यंत जल्दी • बोलना, धीरे धीरे बोलना, अतर, पदार्थ, हीन या अधिक बोलना इत्यादि दोष लगा करते हैं। अतः उन दोपोंकी शुद्धिके निमित्त इन सिद्धान्त शास्त्रोंका व्याख्यान और खाध्याय पूरा होने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। तथा इनका समय चकने पर भी यही प्रायश्चित्त होता है ।। २०६ ॥ दिवसे निशि पक्षेऽन्दे चतुर्मासोत्तमार्थके। मासे च द्रागनाभोगे कायोत्सर्गों विशोधनं ॥
अर्थ-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थक (अंत्य ) अतिक्रमणक्रियाओंको जल्दी जल्दी करने पर, तथा अपरिज्ञात दोष विशेपके लगने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है ।। २०७॥ एवमादितनूत्सर्गविधिमुल्लंघते यदा। अप्राप्तश्छेदभूमि च तपोभूमि तदा श्रयेत् ॥
अर्थ-जिस समय जो मुनि ऊपर बताई हुई कायोत्सर्गविधिका उल्लंघन करता है वह उस समय छेद प्रायश्चित्तको भात न होता हुआ उपवासादि तप मायश्चित्तको प्राप्त होता है । .
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१२० प्रायश्चित्त-समुच्चय । नीरसः पुरुमंडश्चाप्याचाम्ल चैकसंस्थितिः । क्षमणं च तपो देयमेकैक द्वयादिमिश्रकं ॥२०९।।
अर्थ-निर्विकृति; :पुरुमंडल, आचाम्ल, एकस्थान, और उपवास यह पांच प्रकारका तप एक एक, दो दो, तीन तोन, चार चार और पांच पांच भंगोंमें विभक्त कर आलोचना कायोत्सग आदि ओर और प्रायश्चित्तोंके साथ साथ देना चाहिए। भाराय-निस्क्रिति, पुरुमंडल, आचाम्ल, एकासन और उपवास इनके प्रत्येक भंग; द्विसंयोगो भंग, त्रिसंयोगो भंग: चतुः. संयोगो भंग और पंचसंयोगो भंग पहले परिच्छेदमें कह आये. हैं ये सब भंग तप प्रायश्चित्तके भेद हैं अतः कहीं एक एक, कहीं दो दो, कहीं तीन तोन, कहाँ चार चार और कहीं पांच पांच भंगयुक्त तप प्रायश्चित्त बालोचना आदि प्रायश्चित्तों के साथ साथः देना चाहिए।॥ २० ॥
आषण्मासमिदं सर्व सान्तरं च निरन्तरम् । अन्त्यतीर्थे न विद्यत तत ऊर्ध्वं तपोऽधिकम् ॥
अर्थ-यह ऊपर कहा हुआ सर्व प्रकारका तप प्रायश्चित्तः सान्तर और निरन्तर छह महीने तक करना चाहिये, अधिक नहीं। क्योंकि वर्धमान खापीके तोर्थ में छह मासस ऊपर अधिक तप नहीं है। भावार्थ-अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामीके तीर्थमें मनुष्योंकी आयु, काल और शक्ति बहुत न्यूनताको लिए. 3. है अतः उनकी शक्ति के अनुसार हो तप प्रायश्चित्त दोना
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छेदाधिकार। . १२५ चाहिए। यद्यपि प्रायश्चित्त पापोंकी शुद्धि करनेवाला है पर तो भी शक्तिके अनुसार किया हुआ हो पापोंका नाश करता है। शक्तिके बाहर करनेसे आर्तध्यान आदि अशुभ परिणाम उत्पन्न हो पाते है जिनका फल अशुभ हो बताया गया है। उपयुक्त सान्तर तथा निरन्तर तप करनेका विधान इस प्रकार है। प्रथम प्रत्येक भंगकी अपक्षासे बताते हैं। एक दिन छेड़ कर निर्विकृति
आदि करनको सान्तर कहते हैं तथा एक दिन न छोडकर दो दो दिन तोन तीन दिन आदिदिनों तक लगातार करनको निरंतर कहते हैं। सोही करते हैं। एक दिन निर्विकृति दूसरे दिन सामान्य आहार, फिर निर्विकृति फिर दूसरे दिन सामान्य आहार इस तरह एकान्तरसे पूर्ण छह महीने तक निर्विकृति की जाती है। दो दो निर्विकृति एक सामान्य आहार फिर दो दो निर्विकृति एक सामान्य आहार इस तरह निरन्तर छह महीने तक निविकृति समभाना चाहिए। इसी तरह तीन तीन निर्विकृति एक सामान्य प्राहार तथा चार चार निर्विकृति एक सामान्य आहार, तथा पांच पांच निविकृति एक सामान्य प्राहार इत्यादि विधिके अनुसार निरन्तर छह महीने तक निर्विकृतिका क्रम समझना चाहिए। जिस तरह सान्तर और निरन्तर निर्विकृतिक करनेका क्रम है उसी तरह पुरु 'डल, आचाम्ल, एकस्थान और उपवासका समझना चाहिए यह हुआ एक एक भंगकी अपेक्षा। द्विसंयोगी भंगोंकी अपेक्षा निविकृति और पुरु मंडल में दो करके सामान्य प्राहार करना इस तरह छह महीने
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmminen.
तक करना। इसी तरह निर्विकृति और आचाम्ल, निर्विकृति और एकस्थान, निर्विकृति आर उपवास आदि द्विसंयोगी. शलाकारोंका सान्तर और निरन्तर क्रम समझना चाहिए। दो दो, तोन तीन, चार चार, पांच पांच, छह छह आदि द्विसंयोगी. शलाकाओंको करके सामान्य आहार करना निरन्तर दिसंयोगी शलाकाओंके करनेका क्रम है। इसो तरह त्रिसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगो शलाकाओंको सान्तर और निरन्तर छह महीने तक करना चाहिए। एवं षष्ठोपवास, (बैला) अष्टमोपवास (तेला) दशमोपवास (चौला) द्वादशोपवास (पचौला) पक्षोपवास, मासोपवास आदि तथा एककल्याण पंचकल्याणक आदि विशेष तपोंका संग्रह भी यहां पर समझना चाहिए। इस तरह यह कल्पव्यवहार प्रायश्चित्तका अभिप्राय है ।। २१० ॥ अपमृष्टे परामर्श कंडूत्याकुंचनादिषु । जल्लखलादिकोत्सर्गे पंचकं परिकीर्तितम् ।।.. __ अर्थ-विना प्रतिलेखन की हुई वस्तुओंको स्पर्श करनेका खाज सुजानेका हाथ पैर आदिके संकोचने, पसारने, आदि शब्दसे उद्वर्तन परावर्तन आदि क्रियाविशेषकें करनेका, तथा अप्रतिलेखित स्थानमें मल-मूत्र करने कफ डालने आदिका. कल्याणक प्रायश्चित्त कहा गया है ॥२११ ॥ दंडस्य च करोद्वर्ते अंधासंपुटवेशने। - ६ तमंगादाने च पंचकं ॥ २१२ ॥
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छेदाधिकार।
१२७ __ अर्थ-लिंगका हाथसे परिमर्दन करने पर, उसे दोनों जंघाओंके मध्यमें रखने पर तथा कांटे, ईट, काष्ठ, खपरे, भस्म गोमय आदि विना दी हुई चीजोंको तोड़ने-फोड़ने और ग्रहण करने पर, कल्याणक प्रायश्चित्त होता है ॥२१२॥ तंतुच्छेददिके स्तोके दन्ताङ्गुल्यादिभिस्तथा। इत्यादिकं दिवाऽणीयो गुरुः स्याद्रात्रिसेवने ॥ ___ अर्थ-मूक्ष्य तंतु, तृण, काष्ठ आदि वस्तुओंको दान्त, उंगलो आदिस तोड़ने-फोड़नेका पंचक प्रायश्चित्त है। इन तंतु. च्छेदन आदि कृत्योंको दिनमें करे तो लघुतर प्रायश्चित्त और रात्रिमें करे तो गुरुतर प्रायश्चित्त होता है ॥ २१३ ॥ प्रायश्चित्तं चरन् ग्लानो रोगादातंकतो भवेत् । नीरोगस्य पुनस्तस्य दातव्यं पंचकं भवेत् ॥ __ अर्थ-दिये हुए प्रायश्चित्तका आचरण करता हुआ मुनि यदि किसी रोगसे या जठरशूल शिरः शूल आदिके निमित्तसे पीड़ित हो जाय तो उसको नीरोग होने पर कल्याणक पाय-- श्चित्त देना चाहिए ॥२१४॥ प्रायश्चित्तं वहन् सूरेः कार्य संसाधयेत् सुधीः। परदेशे स्वदेशे वा दातव्यं तस्य पंचकं ॥२१५॥
अर्थ-उपवास आदि प्रायश्चित्त करता हुआ बुद्धिमान मुनि देशान्तरोंको नाकर या स्वदेशमें ही नाकर आचार्य (गुरु:)
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१२८ प्रायश्चित-समुच्चय । का कोई कार्य साधन करे तो उसको कार्यसाधन कर वापिस आने पर कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ २१५॥ .. सालंबो यत्नतोऽध्वानं योऽभिन्नजति संयतः। निस्तीर्णस्य सतस्तस्य दातव्यं पंचकं भवेत् ॥
अर्थ-जो कोई संयत, किसी देव ऋषिके कार्यके निमित्त यत्नपूर्वक मार्ग गमन करे-कहीं जाय तो उसको लौटकर वापिस आने पर कल्याणक मायश्चित्त देना चाहिए ।। २१६ ॥ नखच्छेदादिशस्त्रादि वास्यादैडकादिके। लघुगुर्वेकचत्वारः परश्वायैश्च कर्तने ॥ २१७॥ ___ अथ-नखच्छेदादि नहीं, छुरा, कॅची श्रादिसे लकड़ी . वगैरह को छलने पर लघुमास, शस्त्रादि छुरी खुरपा आदि से छीलने पर गुरुमास, वास्यादि वसूला आदिसे छीलने पर लघुचतुर्मास और परश्चादि कुल्हाड़ी आदिसे टुकडे करने पर . गुरुचतुर्मास प्रायश्चित्त होता है ।। २१७ ॥ एकहस्तोपलाभ्यां च दोया मौद्रमासलात्। . लघुगुर्वेकचत्वारः प्रभेदादिष्टकादितः॥२१॥
अर्थ-सिर्फ हाथसे ईंट लकड़ी आदि चीजोंको तोड़नेफोड़ने पर एक लघुमास, एक हाथ और पत्थर दोनोंसे अर्वाद • हाथमें पत्थर लेकर तोड़ने-फोड़ने पर एक गुरुमाल, दोनों
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छेदाधिकार। हाथोंमें मुद्दर पकड़ कर तोड़ने-फोडने पर लघुरतुर्मास ओर दोनों हाथोंमें मूसल पकड़कर तोड़ने-फोड़ने पर गुरुचतुर्मास प्रायश्चित्त होता है ॥ २१८॥ लघु गुरुं तनुत्सास्त्रीनू मासतोऽश्नुते ।
आवश्यकमकुवाणश्चतुर्मासांस्तथाविधान् ॥ ___ अर्थ-रोग आदिसे पीड़ित होकर एक माह तक वंदना अतिक्रमण और कायोत्सर्ग इन तान आवश्यकोंको न करे तो इस अपराधका प्रायश्चित्त एक लघुपास है। और यदि दर्प (अहंकार) से न करे तो उस अपराधका प्रायश्चित्त एक गुरुमास है। तथा यदि व्याधिवश सभी आवश्यकोंको न करे तो लघुचतुर्यास प्रायश्चित्त है आर नोरोग हाकर भो परवशताके कारण याद इन सभी आवश्यक क्रियाको न करे तो गुरुचतुमसि प्रायश्चित्त है ।। २१६॥ आधाकर्मणि राजान्धस्यार्याभ्युत्थानतस्तथा । असंयातभिवादे च मासस्याधश्चतुर्गुरुः ॥२२०॥ __अर्थ-छहों जीवनिकायोंको वाधा पहुंचानेवालो निकृष्ट क्रियाओं द्वारा उत्पन्न हुआ आहार लेने पर, राजर्पिड ग्रहण करने पर, आर्यिकाको आती देखकर उसका विनय करनेके' . निमित्त सन्मुख जाने पर और असंयतजनोंको वंदना कर लेने पर एक माह पूर्ण न होने तक चार गहमास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥२२॥
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१३० प्रायश्चित्त-समुच्चय । नपुंसकस्ये कुत्स्यस्य क्लीवाद्यस्य च दीक्षण। वर्णापरस्य दीक्षायां षण्मासागुरवः स्मृताः॥ ___ अर्थ-नपुंसकको, कुष्ठ (कोढ़) ब्रह्महत्या आदि दोषोंसे दूषित पुरुषको, क्लीव-दीनको आदि शब्दसे अत्यन्त बालक और अत्यन्त वृद्धको तथा वर्णापर-दासीपुत्रको दीक्षा देने पर दीक्षादाताको छह गुरुमास प्रायश्चित्त देने चाहिए सो ही छेदपिंडमें कहा हैअइबालवुड्ढदासेरगब्भिणीसंढकारुगादीणं । पवजा दितस्स हु छग्गुरुमासा हवदि छेदो ॥ १ ॥ अतिवालवृद्धदासेरगर्भिणीषंढकारुकादीनां । प्रवज्यां ददतः हि षड्गुरुमासाः भवति च्छेदः ॥ ___ अर्थात् अत्यन्त बालक, अत्यन्तद्ध, दासीपुत्र, गर्भिणी स्त्री, नपुंसक, शुद्र आदिको दीक्षा देनेवालेके लिए छह गुरुमास मायश्चित्त है ॥ २२१ ॥ तपोभूमिमतिक्रान्तो न प्राप्तो मूलभूमिकां। छेदाहाँ तपसो भूमि संप्रपद्येत भावतः॥२२२॥ __ अर्थ-जो तपकी योग्यताको उल्लंघन कर चुका हो और मूलभूपिको प्राप्त न हुआ हो वह परमार्थसे छेद योग्य तपो भूमिको प्राप्त होता है। भावार्थ-जो तप प्रायश्चित्तकी योग्यता
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छेदाधिकार। से तो बाहर निकल गया हो और मूलपायश्चित्तके योग्य न हो तो उसे दे प्रायश्चित्त देना चाहिए। तदक्ततेवभूमिमादिकंतो मूलढाणं जो न संपत्तो । से परियायच्छेदो पायच्छित्तं समुद्दिढ ॥ १ ॥ योऽतिचारो न शोध्येत तपसा भूरिणापि च । पर्यायश्च्छिद्यते तेन क्लिन्नतांबूलपत्रवत् ॥२२३॥ __ अर्थ-जो कोई मुनि प्रचुर उपवास आदिके द्वारा भी अपने दोपोंको दूर न कर सकता हो तो सड़े हुए ताम्बूलपत्रके अंशच्छेदको तरह उसको दीक्षाका अंश छेद देना चाहिए। भावार्थ-जैसे तावूलपत्रका जितना भाग पानीसे सड़ गल जाता है उतना कैची वगैरहसे कतर कर फंक दिया जाता है और शेष भाग रख लिया जाता है उसी तरह बहुतसे उपवास आदि करने पर भी जिसके अपराधोंकी शुद्धि न हो सकती हो उसकी दोनामेसे दिवस, पत, मास आदिको अवधि तकको दीक्षा छेद देना चाहिए ।। २२३ ॥ प्रव्रज्याकालतः कालच्छेदेन न्यूनतावहः। मानापहारकश्छदे एकरात्रादिकः स तु ॥२२४॥
अर्थ-जिस समयसे वह साधु दीक्षा लेता है उस समयसे १ तपोभूमिमतिकान्तो मूलस्थान चयन संप्राप्तः। तस्य पर्यायच्छेदः प्रायश्चित्त समुद्दिष्ट।
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प्रायश्चित्त-समुच्चय।
लेकर जितना समय दीक्षाका हो चुकता है उसमेंसे कालके विभागसे जितनी दीक्षा छेद दी जाती है उतनी कम हो जाती है अतः उस छेदसे उसका उतना दोक्षाभियान नष्ट हो जाना है। वह छेद एक दिन दो दिन, तीन दिन, पत, मास आदिको अवधि पर्यंत होता है ।। २२४ ॥ साधुसंघ समुत्सृज्य यो भ्रमत्येक एव हि।' तावत्कालोऽस्य पयोयश्च्छिद्यते समुपेयुषः॥
अर्थ-जा काई साधु मुनिसंघको छोड़कर अकेला परिभ्रमण करता रहे तो लौटकर वापिस आने पर उसकी उतनी दीक्षा-जितने काल तक कि वह अकेला घूमता रहा है छेद देना चाहिए ।। २२५ ॥ सन् यथोक्तविधिः पूर्वमवसन्नः कुशीलवान्।' पार्श्वस्थो वाथ संसक्तो भूत्वा यो विरहत्यभीः॥ यावत्कालं भ्रमत्येष मुक्तमार्गों निरुत्सुकः । तावत्कालोऽस्य पर्यायच्छिद्यते समुपेयुषः॥. __ अर्थ-जो पहले शास्त्रोक्त आचरणको पालता हुआ बाद अवसन्न, कुशील, पार्श्वस्थ और संसक्त होकर यथेष्ट निर्भीकतासे पर्यटन करता रहे। पर्यटन करते करते जब वह लौटकर वापिस आवे. तव जितने काल तक वह रत्नत्रयसे रहित और धर्ममें निरुत्सुक होता हुआ भ्रमण करता रहा है उतने कालतक : की उसकी दीक्षा छेद दी जाती है ॥२२६-२२७॥ . . .
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दाधिकार।
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पावस्थै विहरन् साधु सकृदोषनिषेवकः।
आषण्मासं तपस्तस्य भवेच्छेदस्ततः परं॥ ___ अर्थ-एक वार दोप सेवन करनेवाला जो कोई साधु छह महीने तक पार्श्वस्थ साधुओंके साथ पर्यटन करता हुआ जब लौट कर संघमें वापिस आये तब उसे तप प्रायश्चित्त और छह महीने बाद आनेसे छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २२८॥ कृताधिकरणो गच्छऽ नुपशान्तः प्रयाति यः। तस्य च्छेदो भवेदेष खगणेऽन्यगणेऽपि च ॥ __अर्थ-जो कोई मुनि संघमें कलह करके क्षमा मांगे विना चला जाय यासंघहीमें निवास करता रहे तो उसके लिए वसंघमें और परसंघमें नीचे लिखा छेद प्रायश्चित्त है ॥२६॥ प्रत्यहं छेदनं भिक्षोः पंचहानि खके गणे। वृषभस्य दशोक्तानि गणिनो दशपंच च ॥२३०॥ __अर्थ-सामान्य साधुके लिए स्व.गणमें प्रतिदिन पांचदिनका, प्रधानमुनिके लिए प्रतिदिन दश दिनका और आचार्यके लिए प्रतिदिन पंद्रह दिनका दोताच्छेद है। भावार्थ-सामान्य मुनि या प्रधान मुनि या प्राचार्य कलह करके संवमें बने रहें
और एक दिन क्षमा न मांगे तो सामान्य मुनिको पांचदिनकी, प्रधानमुनिको दश दिनकी और आचार्यको पंद्रह दिनकी दीक्षा छद देनी चाहिए। इस हिसावसे. जितने दिनों तक वे क्षमा न
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प्रायश्चित-समुच्चय। मांगे उतने दिनों तक प्रतिदिन पांच पांच, दश दश और पंद्रह पंद्रह गुणी दीक्षा छेद देनी चाहिए ।। २३० ॥ प्रत्यहं छेदन भिक्षोर्दशाहानि परे गणे। दशपंच वृषस्यापि विंशतिर्गणिनः पुनः॥ __ अर्थ-परगणमें सामान्य साधुके लिए प्रतिदिन दशदिनका प्रधानमुनिके लिए पंद्रह दिनका और आचार्यके लिए वीस दिन का दीक्षा छेद मायश्चित्त है । भावार्थ-कोई सामान्य साधु कलह करके विना क्षमा कराये परगणमें चला जाय वह यदि एक दिन क्षमा न मांगे तो दश दिन, दो दिन न मांगे तो वीस दिन एवं प्रतिदिन दश दश दिनके हिसावसे उसकी दीताका छेद कर देना चाहिए। तथा प्रधान मुनि कलह करके विना क्षमा कराये परगणमें चला जाय वह यदि एक दिन तमा न मांगे तो पंद्रह दिन, दो दिन न मांगे तो तीस दिन, एवं प्रतिदिन पंद्रह पंद्रह दिनके हिसावसे उसकी दीक्षाका छेद कर देना चाहिए और आचार्य कलह करके विना क्षमा मांगे परगणमें चला जाय वह यदि एक दिन क्षमा न मांगे तो वीस दिन, दो दिन क्षमा न मांगे तो चालीस दिन एवं प्रतिदिन तीस तीस दिनके हिसाबसे उसकी दीक्षा छेद देनी चाहिए ।। २३१॥ . इत्यादिप्रतिसेवासु च्छेदः स्यादेवमादिकः। छेदेनापि च संछिंद्याद्यावन्मूलं निरन्तरम् ॥ . . .
अर्थ-इसादि दोषोंके सेवन करने पर इस तरहका छेद
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छेदाधिकार। प्रायश्चित्त होत है छेद करके भी फिर छेद करे, फिर छेद करे, फिर केट करे, सो निरन्तर केदते छेदते तब तक केट करे जब तक कि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त न हो। भावार्थ-कौन कौनसे दोषोंके लगने पर कितने कितने दिनकी दीक्षा छेद देना चाहिए यह ऊपर वर्णन कर आये हैं। यह दोक्षा दोषोंके अनुसार एक दिनको आदि लेकर एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चारदिन, पांच दिन, दश दिन, पत, मास. चतुर्मास, छहमास, वर्ष, दीक्षाका आधा भाग, पोना भागको इस तरह छेदते छेदते तब तक छेदो जाय जब तक कि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता ॥२३२॥ . छेदभूमिमतिक्रान्तः परिहारमनापिवान् । प्रायश्चित्तं तदा मूलं संप्रपद्येत भावतः ॥२३३॥
अर्थ-जो छेद प्रायश्चित्तको योग्यताको तो उल्लंघन कर चुका हो और परिहार प्रायश्चिच दिये जाने की योग्यताको न पहुंचा हो उस समय वह परमार्थसे मूल-पुनः दीक्षा देना रूप प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। भावार्थ-ऐसा अपराध जो छेद प्रायश्चित्तसे शुद्ध न हो सकता हो और परिहार प्रायश्चित्तके योग्य न हो ऐसो दशामें मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥२३३ ॥ श्रामण्यैकगुणा यस्मादोषानश्यन्ति कात्य॑तः । भ्रष्टव्रतस्य तत्तस्य मूलं स्याद् व्रतरोपणं ॥२३४॥ ' अर्थ-जिस दोषके सेवनसे महाव्रत बिलकुल नष्ट हो गये हों
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प्रायश्चित-समुच्चय । ऐसी अवस्थामें महाव्रतोंसे भ्रष्ट उस मुनिको पुनः महाव्रतोंको दीक्षा देना यह मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥२३४॥ . . दृक्चारित्रव्रतभ्रष्टे त्यक्तावश्यककर्मणि । अन्तर्वत्नीभुकुंसोपदीक्षणे मूलमुच्यते ॥२३५॥ ___ अर्थ-दर्शन, चारित्र और महावतोंसे भ्रष्ट हो जाने पर, छह आवश्यक क्रियाएं छोड़ देने पर तथा गर्भिणी और नपु. सकको दीक्षा देनेपर मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ २३५॥ उत्सूत्रं वर्णयेत् कामं जिनेन्द्रोक्तमिति ब्रुवन् । यथाच्छंदो भवत्येष तस्य मूलं वितीर्यते ॥२३६॥ __ अर्थ-जो आगम विरुद्ध बोलता हो उसे मूल मायश्चित्त देना चाहिए। तथा जो सर्वज्ञ प्रणीत वचनोंको अपनी इच्छानुसार लोगोंको कहता फिरता हो वह स्वेच्छाचारी है अतः उस स्वेच्छाचारीको भी मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। भावार्थभागमा विरुद्ध बोलनेवाले और सर्वज्ञ प्रणीत वचनोंका मनमाना अर्थ करनेवाले पुरुषोंके इन अपराधोंकी शुद्धि मूल प्रायश्चित्तसे होती है ।।२३६॥ पार्श्वस्थादिचतुर्णां च तेषु प्रबजिताश्च ये। . तेषां मूलं प्रदातव्यं यद्ब्रतादि न तिष्ठति ॥ .
अर्थ-पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न और मृगचारो इन पार्श्वस्थादि चारोंको और जो इनके पास दीक्षित हुए हैं उमको मूल पायश्चित्त देना चाहिए क्योंकि ये सव महावन आदिसे भ्रष्ट हैं ।
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छेदाधिकार।
अन्यतीर्थगृहस्थानां कांदपोलिंगकारिणः।। मूलमेव प्रदातव्यमप्रमाणापराधिनः॥२३८ ।
अर्थ-अन्यलिंगियोंको, गृहस्थोंको, उपहास पूर्वक लिंगधारण करनेवालोंको और अपरिमित अपराधियोंको मूल प्रायश्चित्त हो देना चाहिए। भावार्थ-जो अन्य लिंगी हो गये हों ओर गृहस्थ हो गये हों वे लौटकर पुनः संघमें आयें तो उन्हें मूल प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। तथा जिन्होंने परमार्थसे मुनिवेष धारण न कर उपहाससे धारण किया हो और जिनका अपराध अपरिमित हो उनको भी मूल प्रायश्चित्त ही देना चाहिए ।। २३८॥ इत्यादिप्रतिसेवासु मूलनिर्घातिनीष्वपि । हरिवंश्यादिदीक्षायां मूलं मूलाधिरोहणात् ।। ___ अर्थ-मूलगुणोंको घात करनेवाले उपर्युक्त दोषोंके सेवन करने पर तथा चांडाल आदिको दीक्षा देने पर मूल पायश्चित्तकी योग्यता प्रा उपस्थित होती है अतः मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए । भावार्थ-महावत आदि अट्ठाइस मूलगुणोंके घातक दोषोंके सेवन करने पर मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए और चांडालोंको मुनिदीक्षा देनेवाले आचार्यको भी मूलमायश्चित्त देना चाहिए और जिसको दीक्षा दी जाय उसको संघसे निकाल देना चाहिए ॥२३६॥
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१३८ प्रायश्चित्त-मुच्चय । मूलभूमिमतिकान्तः संप्राप्तः परिहारकं । परिहारविधि प्राज्ञः संप्रपद्येत भावतः ॥ २४०॥ ___ अर्थ-मूलमायश्चित्तको योग्यताको उल्लंघन कर चुका हो अर्थाव ऐसा अपराध जो मूल प्रायश्चित्तसे शुद्ध न हो सकता हो । तो वह परिहार प्रायश्चित्तके योग्य होता है अतः वह बुद्धिमान 'परमार्थसे परिहार प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ।। २४० ॥ परिहार्यः स संघस्य स वा संघ परित्यजन् । परिहारो द्विधा सोऽपि पारंच्यप्यनुपस्थिति॥
अर्थ-वह प्रायश्चित्तभागी पुरुष संघका परिहार्य होता है अथवा वह संघका परिहार करता है। परिहार प्रायश्चित्तके दो भेद हैं एक अनुपस्थान और दूसरा पार चिक। भावार्थकिसी नियत अवधिको लिए हुए वह प्रायश्चित्तभागी पुरुष संघसे बाहर कर दिया जाता है अथवा वह संघसे वाहर रहता है इसोका नाम परिहार प्रायश्चित है। अनुपस्थान और पार चिक ये दो उसके भेद हैं ॥ २४ ॥ शिक्षकैरपि नो यस्य सुश्रूषावंदनादिकम् । . अभ्युत्थानं विधीयेत कुर्वतः सोऽनुपस्थितिः॥
अर्थ-वह साधु जो अनुपस्थान-प्रायश्चित्तके योग्य होता है । पश्चात् दोक्षित हुए साधुओंकी सेवा-सुश्रूषा करता है, उन्हें वंदना करता है और उन्हें आते देखकर विनयके अर्थ
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छेदाधिकार। सन्मुख जाता है परन्तु वे पश्चात दीक्षित साधु उसकी सेवा सुश्रूषा नहीं करते, उसे नमस्कार नहीं करते और न उसे आते देखकर विनयके निमित्त सन्मुख ही जाते हैं। भावार्थ-जिस साधुको अनुपस्थान-प्रायश्चित्त दिया जाता है वह मुनि-परिषदसे बत्तीस धनुष-प्रमाण दूर बैठकर गुरुद्वारा दिये हुए प्रायश्चित्तका अनुष्ठान करता है। पश्चात दीक्षित साधुओंको भी स्वयं वन्दना आदि करता है पर वे पश्चात दीक्षित साधु उसे वंदना आदि नहीं करते। इस अनुपस्थान-प्रायश्चित्तके दो भेद हैं। एक खगण-अनुपस्थान दूसरा परगण-अनुपस्थान। खगणानुपस्थान प्रायश्चित्तमे वह सापराध साधू अपने दोषोंकी आलो. चना अपने संघके आचार्यके समीप ही करता है। और परगणानुपस्थान-पायश्चित्तमें परसंघके आचार्योंके समीप जा जा कर करता है। वह इस तरह कि-जिस गणमें जिस साधुको दर्प
आदि हेतुओंसे दोष लगते हैं उस गणके आचार्य उस सापराध साधको किसी दूसरे संघके आचार्यके समीप भेजते हैं। वहां जाकर वह उस संघके प्राचार्य के समक्ष अपने दोषोंकी आलोचना करता है। वे आचार्य भी उसके दोष सुनकर और पायश्चित्त न देकर किसी अन्य संघके आचार्यके समीपभेज देते हैं। वहां भी वह अपने दोषोंको आलोचना करता है। पश्चाव वहांसे भी वह उसी तरह और और प्राचार्योंके पास भेज दिया जाता है। इस तरह तीन, चार, पांच, छह, सात संघके आचार्योंके. पास तक अपराधके अनुसार भेजा जाता है। आखिर, अंतिम
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१४० प्रायश्चित्त-समुच्चय । । गणके आचार्य उसकी आलोचना सुनकर और प्रायश्चित्त न देकर जिस आचार्यने उसे अपने पास भेजा है उन्हींके पास उसे वापिस भेज देते हैं। वे अपने पास भेजनेवालेके पास भेज देते हैं एवं जिस क्रपसे जाता है उसी क्रमसे लौटकर अपने संघके प्राचार्य के सपोप आता है। वहां आकर वह गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्रको पालता है ॥२४॥ अन्यतीर्थ्यं गृहस्थं स्त्री सचितं वा सकर्मणः। चोरयन बालकं भिक्षु ताडयन्ननुपस्थितिः॥ __ अर्थ-अन्य लिंगीको, गृहस्थीको, स्त्रीको और चालकको चुरानेवाला तथा अपने साधर्मो ऋषिके छात्रोंको भी चुराने वाला और साधुको दंड आदिसे मारनेवाला अनुपस्थान मायश्चित्तका भागी होता है। भावार्थ-इस तरहके कर्तव्य करने वालेको अनुपस्थान प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २४३ ॥ द्वादशेन जघन्येन षण्मास्या व प्रकर्षतः। चरेद् द्वादश वर्षाणि गण एवानुपस्थितिः॥
अर्थ-वह अनुपस्थान प्रायश्चित्तवाला मुनि अपने संघमें ही जघन्यसे पांच पांच उपवास और उत्कृष्टपनेसे छह छह महीने के उपवास बारह वर्षपर्यंत करे। भावार्थ-कमसे कम निरंतर पांच उपवास करके पारणा करे फिर पांच उपवास करके फिर पारणा करे एवं बारह वर्ष तक करे तथा अधिकसे अधिक छह. महीनेके उपवास करके.पारणा करे फिर छह महीनेके उपवास
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छेदाधिकार ।
१४१ करके पारणा करे एवं बारह वर्ष तक करे। और मध्यम छह छह उपवास कर पारणा करते हुए सात सात उपवास कर पारणा करते हुए बारह वर्ष तक करे ॥२४४॥ एवमाद्यनुपस्थानप्रतिसेवाविलंधितः। प्रायश्चित्तं तु पारंचं प्रतिपद्येत भावतः ॥२४॥ ___ अर्थ-इसादि अनुपस्थान परिहारके योग्य दोपाचरणोंका जो उल्लंघन कर चुका है वह परमार्थसे पाचक मायश्चित्तको प्रास होता है। भावार-ऐसा दोषाचरण जो अनुपस्थान-परिद्वार नामके प्रायश्चित्तसे दूर न हो सकता हो ऐसी दशामें इससे ऊंचा पार चिक मायश्चित्त दिया जाता है।॥ २४॥ . अपूज्यश्चाप्यसंभोगो दोषानुद्देष्य गच्छतः। बहिष्कृतोऽपि तद्देशात् पारंचो तेन स स्मृतः॥
अर्थ-यह अपूज्य है और अवंदनीय है इस तरह दापोंकी उढोपणा पूर्वक वह देशसे भी निकाल दिया जाता है इसलिए वह साधु पार चिक कहलाता है। भावार्थ-ऋपि, यति, मुनि और अनगार इस चातुर्वण्य संघको बुलाकर कि यह अपूज्य है अवंदनीय है, भापण करने योग्य नहीं है, महा पातकी है, इम लोगोंसे बहिर्भूत है इस तरह उसके तयाय दोपोंको कहकर वह गणसे और उस देशसे भी निकाल दिया जाता है और जहां पर कि लोग धर्म-कर्मको नहीं पहचानते वहां जाकर पाय
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । श्चित्तका आचरण करता है इसलिए उसे पारंचिक कहते हैं। पारंची शब्दकी व्युत्तचि भो ऐसा है कि "धर्मस्य पारं तीरं अंचति गच्छतीति पारंची" अर्थाद जो धर्मको पार-तोरको पहुंच गया है वह पारंची है। अथवा पार अचति परदेशं एति गच्छतीति पारची' अर्थात् जो गुरुद्वारा दिये गये प्रायश्चित्तका आचरण करनेके लिए परदेशको जाता है वह पारंची है ॥२४॥ आसादनं वितन्वानस्तीर्थकृत्प्रभृतेरिह । सेवमानोऽपि दुष्टादीन पारंचिकमुपांचति ॥ __ अर्थ-तोयकर आदिकी प्रासादना करनेवाला तथा राजाके प्रतिकूल दुष्ट पुरुषोंका आश्रय लेनेवाला साधु पारंचिक प्रायः श्चित्तको प्राप्त होता हैं। भावार्थ-जो साधु तार्थङ्करोंकी अवज्ञा करे और राजासे विरुद्ध उसके शघुओंका आश्रय लेकर रहे उसे पार चिक प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २४७॥ आचायश्चि महद्धींश्च तीर्थकृद्गणनायकान् । श्रुतं जैन मतं भूयः पारं व्यासादयन् भवेत् ॥
अथे-प्राचार्य, महद्धिक-प्राचार्य, तीर्थडुर, गणवरदेव जनागम और जन-मत इन सबको अवज्ञा करनेवाला साधु पार। चिक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥ २४८॥ द्वादशेन जघन्येन षण्मास्या च प्रकर्षतः। चरेद् द्वादशवर्षाणि पारंची गणवर्जितः ॥२४॥ अर्थ-वह पार चिक प्रायश्चित्तवाला मुनि संघसे बाहिर
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दाधिकार।
रहकर कमसे कम पांच पांच उपवास और अधिकसे अधिक छह छह महीने के उपवास वारह वर्ष तक करे। भावार्थ-जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद पार चिक प्रायश्चित्तके हैं। तीनों ही प्रकारका प्रायश्चित्त बारह वर्ष तक करना पड़ता है। कमसे कम पांच उपवास कर पारणा करे फिर पांच उपवास कर पारणा करे एवं बारह वर्ष तक करे और अधिकसे अधिक छह महीने उपवास कर पारणा करे फिर छह महीने उपवास. कर पारणा करे एवं बारह वर्ष तक करे। तथा मध्यम भी छह छह सात सात भादि उपवास कर पारणा करते हुए बारह वप तक करे।। २४६॥ राजापकारको राज्ञामुपकारकदीक्षणः। राजाप्रमहिषी सेवी पारंची संप्रकीर्तितः॥
अर्थ-राजाका अहित चितवन करनेवाला, राजाके उपकारक मंत्री पुरोहित आदिको दीक्षा देनेवाला और पटरानोका सेवन करनेवाला साधु भी पार चिक प्रायश्चित्तके योग्य कहा. गया है।॥२५॥ अनाभोगेन मिथ्यात्वं संक्रान्तः पुनरागतः। तदेवच्छेदनं तस्य यत्सम्यगभिरोचते ॥२५१ ॥
अर्थ-मिथ्यावरूप परिणामोंको प्राप्त होकर पुनः अपनी निन्दा और गर्दा करता हुमा सम्यक्त्व-परिणामोंको प्राप्त हो तथा उसके इन परिणामोंको कोई जान न सके तो उसके लिए.
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प्रायश्चित्त-समुच्चय । जो उसे रुचे वहीं प्रायश्चित्त है। भावार्थ-कारणवश सम्यक्त्व परिणामोंसे च्युत होकर मिथ्यात्व परिणामों को प्राप्त हो जाय अनन्तर वह अपने इन परिणामोंकी निन्दा और गर्दा करता . हुआ पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो और उसकी इस परिणतिको कोई न जान सके तो उसके लिए वही प्रायश्चित्त है जो कि उसे रुचे, अन्य नहीं ॥२५॥ यः सामोगेन मिथ्यात्वं संक्रान्तः पुनरागतः । जिनाचार्याज्ञया तस्य मूलमेव विधीयते ॥२५२॥ ___ अर्थ- जो मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो तथा उसको इस परिणतिको कोई जान ले तो सर्वत्रदेव और प्राचार्यों के उपदेशानुसार उसे मूल प्रायश्चित्त ही देना चाहिए ॥ २५२॥ प्रायश्चित्तं जिनेन्द्रोक्तं रत्नत्रयविशोधनं । प्रोक्तं संक्षेपतः किंचिच्छोधयन्तु विपश्चितः ॥
अर्थ-जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया, रत्नत्रयकी शुद्धि करने वाला यह छोटासा प्रायश्चित्त-संग्रह नामका शास्त्र संवेपसे मैंने (गुरुदास-प्राचार्यने) बनाया है उसको प्रायश्चित्तादि नाना शास्त्रोंके ज्ञाता विद्वान् शुद्ध करें ॥ २५३ ॥ .. ॥ इति प्रायश्चित्ताधिकारः सक्षमः ॥ . .
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Rasin
प्रायश्चित्त-चूलिका।
ग्रन्यके आरंभमें ग्रन्धकर्ता निर्विघ्न शास्त्र समाप्तिके लिए और शिष्टाचारके परिपालनके लिए प्रथम इष्ट देवताको नमस्कार करते हैं:योगिभियोगगम्याय केवलायाविनाशिने। ज्ञानदर्शनरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥. । अथे जो योगियों द्वारा ध्यानसे जाने जाते हैं, केवलशुद्ध हैं, अविनाशी हैं, केवलज्ञान ओर केवलदर्शन तथा इनके अविनामावी अनन्तवीर्य और अनन्तसुख-स्वरूप हैं ऐसे परमात्मा को नमस्कार हो॥१॥
इसतरह अतीत अनागत और वर्तमानके विषय, सामान्यकी अपेक्षासे एक सिद्ध परमेष्ठीको प्रथम नमस्कार कर उसके अनन्तर प्रायश्चित्त चूलिकाका प्रारंभ किया जाना हैमूलोत्तरगुणेष्वीषद्विशेषव्यवहारतः। साधूपासकसंशुद्धिं वक्ष्ये संक्षिप्य तद्यथा ॥२॥
अर्थ-मूलगुण और उत्तरगुणोंके विषयमें विशेष प्रायश्चित्त शास्त्रके अनुसार यति और श्रावकोंको शुद्धि संक्षेपसे कही जाती है, वह इस प्रकार है। भावार्थ-मूलगण और उत्तर
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प्रायश्चित्तगुण दो दो तरहके हैं-यतियोंके ओर श्रावकोंके । यतियोंके मूलगुण अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग इत्यादि. अठाईस हैं। श्रावकोंके मूलगुण मद्यत्याग, मांसल्याग, मधुत्याग पंच उदुवरफलोंका त्याग ऐसे अनेक प्रकारके आठ हैं। तथा यतियोंके उत्तरगुण-आतापन, तोरण, स्थान, मौन आदि. अनेक हैं और श्रावकों के उत्तर गण सामायिक, प्रोषधोपवास आदि हैं। इनमें लगे हुए दोषोंकी शुद्धि संक्षेपसे कही जाती है। एकेन्द्रियादिजन्तूनां हृषीकगणनाद्वधे । चतुरिन्द्रियकुद्धानां प्रत्येकं तनुसजनं ॥३॥ __ अर्थ-एकेन्द्रिय जीव पांचमकारके हैं, पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पति कायिक। वनस्पति कायिकके दो भेद हैं-प्रत्येक वनस्पति और अनन्तकाय वनस्पति । एक जीवके एक शरीर हो वह प्रत्येककायिक जीव हैं जैसे सुपारी नारियल आदि। अनन्त जीवोंके एक शरीर हो वे अनन्तकायिक जीव है जैसे गुडूची, सूरण आदि । आदि शब्दसे द्वीन्द्रियादि जीवोंका ग्रहण है। शंख, सीप आदि दो इंद्रिय जीव, कुंथु, चींटी आदि तेइंद्रिय जीव, भौंरा मक्खां आदि चौइ द्रिय जीव, और मनुष्य, मत्स्य, मकर आदि. पंचेंद्रियजीव होते हैं। इनमें से एकेन्द्रिय जीवोंको आदि लेकर
चौइन्द्रिय पर्यंतके जीवोंका वध हो जाने पर उन प्रत्येकको - इन्द्रियसंख्याके अनुसार कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है।
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चुलिका। भावार्य-प्रौदारिक, वैक्रियक, पाहारक, तैजस और कामण इन पांच शरीरों ममत्व-भावके सागको कायोत्सर्ग कहते हैं। , एकेन्द्रियके घातका एक कायोत्सर्ग, दो इन्द्रियके घातका दो कायोत्सर्ग, तेइन्द्रियके घातका तीन कायोत्सर्ग पार चौइन्द्रियके घातका चार कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। पंचेन्द्रियजीवके घातका प्रायश्चित्त आगे कहेंगे॥३॥ उत्तरमूलसंस्थेष्वप्रमादादर्पतश्छिदा । कायोत्सगोंपवासाः स्युरिंद्रियमाणसंख्यया ॥४॥
अय-उत्तरगुणधारो मार मूलगुणधारो साधुझे अपवादबन और प्रमादयश जाववध हो जाने पर इंद्रियसंख्या और प्राण संख्याके अनुसार कायोत्सर्ग आर उपपास प्रायश्चित होने हैं। भावार्थ-पूर्वोक्त पांचों प्रकारके प्रत्येक एकेन्द्रियजीवोंक एक एक स्पर्शन इंद्रिय होता है। दो इंद्रिय जीवोंके स्पर्शन ओर रसना ये दा. तेई दिय जीवोंके. स्पर्शन, रसना और घाण ये तीन, चौइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, प्राण और चतु ये चार, ओर पंचेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, घाण, चतु और श्रोत्र ये पांच द्रियां होतो हैं। स्पर्शन, रसना, प्राण, चतु भोर श्रान ये पांच तो इन्द्रियां, मनोवल, वचनवल ओर कायवल ये तीनवल, उच्छवास निश्वास और आयु ये दश प्राण हैं । तदुक्तं
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प्रायश्चित्त
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पंचन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च - सोच्छ्वासनिश्वासयुतास्तथायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता
स्तेषां वियोगकिरणं तु हिंसा ॥१॥ इन दश प्राणोंमेंसे एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शन इंद्रिय, कायवल, उछ्वास निश्वास और आयु ये चार प्राण होते हैं। दो इंद्रिय जीवके स्पर्शन और रसना ये दो तो इंद्रियां कायवल
और बचनवल ये दो वल, उच्छ्वासनिश्वास और आयु ये छह.. प्राण होते हैं। तेइंद्रियजीवके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन. तो इंद्रियां, कायवल और वचनवल येदो वल, उच्छ्वास.. निश्वास और आयु ये सात प्राण होते हैं। चौइंद्रियजीवके स्पर्शन, रसना, घाण, चतु, कायवल, वचनवल, उवासनिश्वास
और आयु ये आठ प्राण होते हैं। असंज्ञिपंचेंद्रियके पांचों इंद्रियां, कायवल, वचनवल, उछ्वास निश्वास और आयु ये नो प्राण होते हैं। तथा संज्ञिपंचेन्द्रियके पूर्वोक्तः दशों प्राण. होते हैं। इन इंद्रिय और प्राणोंकी गणनाके अनुसार उत्तर गुणधारी प्रयत्नवान् स्थिर अस्थिर, उत्तर गुणधारी अप्रयत्न बान स्थिर अस्थिर, मूलगुणधारी प्रयत्नवान् स्थिर अस्थिर और मूलगुणधारी अप्रयत्नवान् स्थिर अस्थिर साधुके कायोसर्ग.और उपवास प्रार्याश्चत्तोंकी योजना कर लेना चाहिए। सोही कहते हैं। उत्तरगुणधारी प्रयत्नवान् स्थिरके
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चूलिका ।
गणनाके अनुसार कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होते हैं-एक इंद्रियका वध होने पर एक कायोत्सर्ग, दो इंद्रियका वध होने पर दो कायोत्सर्ग, तीन इंद्रियका वध होने पर तीन कायोत्सर्ग, चौ इंद्रियका वध होने पर चार कायोत्सर्ग ओर पंचेन्द्रियका वध होने पर पांच कायोत्सर्ग होते हैं। उत्तर गुणवारी प्रयत्नवान् अस्थिरके माण गणनाके अनुसार कायोत्सर्ग हाते हैं। एकेन्द्रियका वध होने पर चार कायोत्सर्ग, दोइंद्रियका वध होने पर छह कायोत्सर्ग, तेइंद्रियका वध होने पर सात कायोत्सर्ग, चौइंद्रियका वध होने पर आठ कायोत्सर्ग, असंज्ञि पंचेन्द्रियका वध होने पर नौ कायोत्सर्ग और संज्ञिपंचेन्द्रियका वध होने पर दश कायोत्सर्ग होते हैं। उत्तरगणधारी अप्रयत्नवान् स्थिरके इंद्रियगणना अनुसार कायोत्सर्ग और उपवास होते है ओर उत्तरगणधारो अपपलवान् अस्थिरके प्राण गणनाके अनुसार कायोत्सर्ग शोर उपवास होते हैं । ये हुए प्रयत्नवान् स्थिर, अस्थिर और अपयत्नवान् स्थिर अस्थिर एवं चार प्रकारके उत्तरगणधारीके अब चार प्रकारके मूलगुणधारीके बताते हैं-मूनगणधारी प्रयत्नचारो स्थिरके इंद्रिय गणनाके अनुसार कायोत्सर्ग होते हैं। मूलगुणधारी प्रयत्नचारी अस्थिरके माणगणनाके अनुसार कायोत्सर्ग होते हैं। मूलगणधारी अप्रयत्नचारी स्थिरके इंद्रियगणनाक अनुसार कायोत्सर्ग और उपवास होते हैं। तथा मूलगुणधारी अप्रयत्नचारी अस्थिर के प्राणगणनाके अनुसार कायोत्सर्ग और उपवास होते हैं ॥४॥
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प्रायश्चित्त
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अथवा यत्न्ययत्नेषु हृषीकपाणसंख्यया। कायोत्सर्गा भवन्तीह क्षमणं द्वादशादिभिः॥५॥ ' अर्थ-अथवा इस शास्त्रमें यत्नचारों और अयलचारी इन दोनों पुरुषांके इंन्द्रियसंख्या और प्राणसंख्याके अनुसार कायोत्सर्ग होते हैं और बारह ाद एकेन्द्रियादि जीवोंके घातसे उपनास प्रायश्चित्त होता है। भावार्थ-प्रयत्नचारीके इंद्रिय गणनाके अनुसार और अप्रयत्नचारीके प्राणगणनाके अनुसार कायोत्सर्ग होते हैं। और बारह एकेन्द्रिय, छह दो इंद्रिय, चार तेइ द्रिय और तोन चौइंद्रियके घात करनेका प्रायश्चित्त एक एक उपवास होता है ॥५॥ .... षत्रिंशन्मिश्रभावार्कग्रहैकेषु प्रतिक्रमः। .. एकद्वित्रिचतुःपंचहृषीकेषु सषष्ठभुक् ॥६॥
अर्थ-छत्तोस एकेंद्रियजीव, अठारह दोइंद्रिय जीव, वारह तेइंद्रियजीव, नौ चौइंद्रिय जोव, और एक पंचेन्द्रियजीवके यारनेका प्रायश्चित्त दो निरन्तर उपवास और प्रतिक्रमण है। भावार्थ-छत्तीस एकेन्द्रिय जीवोंके मारनेका प्रायश्चित्त दो उपवास और एक प्रतिक्रमण है। इसी तरह अठारह दोइंद्रिय वारह तेइंद्रिय, नौ चौइंद्रिय और एक पंचेन्द्रियके मारनेका प्रायश्चित्त समझना चाहिए। यहां मिश्रभाव शब्दसे अठारह संख्याका ग्रहण है क्योंकि मिश्रभाव ज्ञान दर्शन आदि अठारह
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चूलिका। हैं। तथा अर्कशब्दसे बारह और ग्रह शब्दसे नौ संख्याका ग्रहण है क्योंकि सूर्य बारह और ग्रह नौ होते हैं॥६॥ निष्प्रमादः प्रमादी च प्रत्येकं सस्थिरोऽस्थिरः। मूलधार्युत्तराधारस्तस्यासंज्ञिविघातिनः ॥७॥
अर्थ-संज्वलनकपायके तीनोदयको प्रमाद कहते हैं इस भमादसे रहितका नाम निपमाद है। और जिसके प्रमाद विद्यमान है वह प्रमादी है। निष्पमाद और प्रमादी दोनोंके स्थिर और अस्थिर ऐसे दो दो भेद हैं। इसमकार मूलगुणधारीके निष्पमाद प्रमादी, स्थिर, और अस्थिर ऐसे चार भेद हैं। उत्तरगुणधारीके भी इसी तरह चार भेद हैं। इन चार चार भेदोंसे युक्त मूलगुणधारी और उत्तरगुणधारीके प्रसंज्ञो नीवके वधका प्रायश्चित्त नीचेके श्लोक द्वारा बताते हैं ॥७॥ उपवासास्त्रयः षष्ठं षष्ठं मासोलघुः सकृत् । कल्याणं त्रिचतुर्थानि कल्याणं षष्ठकंक्रमात् ॥
अर्थ-उपर्युक्त पाठ पुरुपोंके एकवार असंक्षि घातका प्रायश्चित्त क्रमसे तीन उपवास, दो उपवास, पुनः दो उपवास, लघुमास, कल्याण, तीन उपवास, कल्याण और पष्ट है। भावार्थ-मूलगुणधारी स्थिर प्रयलचारीको एकवार असंबीके घातका तीन उपवास, स्थिर अप्रयत्नचारीको दो उपवास, अस्थिर भयत्नचारीको दो उपवास, अस्थिर अप्रयत्नचारीको लघुमास-कल्याण प्रायश्चित्त और उत्तरगुणधारी स्थिर
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प्रायश्चित
प्रयत्नचारीको कल्याण, स्थिर अप्रयलचारीको तीन उपवास, अस्थिर प्रयत्नचारीको कल्याण और अस्थिर अप्रयत्नचारीको दो उपवास मायश्चित्त देना चाहिए ॥ ८॥.... षष्ठं मासो लधुर्मूलं मूलच्छेदोऽसकृत्पुनः। उपवासास्त्रयः षष्ठं लघुमासोऽथ मासिकं ॥९॥ .. __ अर्थ-इन्हीं उपर्युक्त आठ पुरुषोंके वारवार असंज्ञी जीवके. घातका प्रायश्चित्त दो उपवास, लघुमास, मासिक, मूलच्छेद, तीन उपवास, दो उपवास, लघुमास और मासिक है। भावार्थमूलगुणधारो प्रयत्नचारो स्थिरको वारवार असंज्ञीजीवके मारने . का प्रायश्चित्त दो उपवास, अप्रयत्नचारी स्थिरको कल्याण, प्रयत्नचारी अस्थिरको पंचकल्याण, अभयलचारी अस्थिरको मूलच्छेद देना चाहिए । तथा उन्तरगुणधारी प्रयत्नचारी स्थिरको तीन उपवास, अप्रयत्नचारी स्थिरको पट-दो उपवास, प्रयत्नचारी अस्थिरको कल्याण, और अयलचारी अस्थिरको मासिक-पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६॥ एतत्सान्तरमाम्नातं संज्ञिनि स्यानिरंतरं । तीव्रमंदादिकात् भावानवगम्य प्रयोजयेत् ॥१०॥ __ अर्थ यह ऊपर कहा हुआ प्रायश्चित्त एकवार और वारवार असंज्ञीजीवको मारनेवाले साधुके लिए सांतर माना गया है। घि आदि कारणोंका समागम मिल जाने पर जो आचार्यको ..
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मायाश्चत्तप्रयत्नचारीको कल्याण, स्थिर अमयलचारीको तीन उपवास, अस्थिर प्रयत्नचारीको कल्याण और अस्थिर अमयलचारीको दो उपवास पायश्चित्त देना चाहिए ॥८॥ मासो लघुर्मूलं मूलच्छेदोऽसकृत्पुनः। सास्त्रयः षष्ठं लघुमासोऽथ मासिकं ॥९॥ ही उपर्युक्त आठ पुरुषोंके वारवार असंज्ञी जीवके
दो उपवास, लघुमास, मासिक, मूलच्छेद,
उपवास, लघुमास और मासिक है। भावार्थधारो प्रयत्नचारो स्थिरको वारवार असंज्ञीजीवके पारने का प्रायश्चित्त दो उपवास, अप्रयत्नचारी स्थिरको कल्याण, प्रयत्नचारी अस्थिरको पंचकल्याण, अप्रयत्नचारी अस्थिरको मूलच्छेद देना चाहिए। तथा उत्तरगुणधारी प्रयत्नचारी स्थिर
उपवास, अप्रयत्नचारी स्थिरको षष्ठ-दो उपवास,
अस्थिरको कल्याण, और अयत्नचारी अस्थिरको -पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६॥ एतत्सान्तरमाम्नातं संज्ञिनि स्यान्निरंतरं । तीव्रमंदादिकात् भावानवगम्य प्रयोजयेत् ॥१०॥
अर्थ-यह ऊपर कहा हुआ पायश्चित्त एकवार और वारवार असंज्ञीजीवको मारनेवाले साधुके लिए सांतर माना गया है। व्याधि आदि कारणोंका समागम मिल जाने पर जो प्राचार्यको
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प्रायश्चित्त
असंख्यात प्रदेशी असंख्यात लोक हैं इन सव भावोंको जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥१०॥ साधूपासकबालस्त्रीधेनूनां घातने क्रमात् । याववादशमासाः स्यात् षष्ठमर्धिहानियुक् ॥. __ अर्थ-साधू. उपासक, बालक, स्त्री और गौ इनके वधका प्रायश्चित्त क्रमसे आधी आधी हानिकर सहित बारह मास तकके षष्ठोपवास (वेला) हैं। भावार्थ-रत्नत्रयधारी साधुकी हत्या करने पर एक वेला कर पारणा करे फिर वेला कर पारणा करे एवं वारह मास तक षष्ठोपवास करे। श्रावककी हसा करने पर छह मास पर्यंत, बालकको हत्या करने पर तीन मास पर्यंत, स्त्रीको हत्या करने पर डेढ़ मास पर्यंत और गायकी हत्या करने पर तेइस दिन पर्यंत षष्ठोपवास करे ॥१५॥ पापंडिनों च तद्भक्ततधोनीनां विधातने। आषण्मासे भवेत् षष्ठं तदर्धाधं ततः परं ॥ १२ ॥
अर्थ-पाखंडो, उनके भक्त और भक्तोंके कुटुम्बीवर्गकी "हत्या करने पर क्रमसे छह महोने पर्यंत, उससे आधे, उससे आधे षष्ठोपवास प्रायश्चित्त हैं। भावार्थ-भौतिक, मितु, पारिबानक, कापालिक आदि अन्यलिंगियोंको पारखंडी कहते हैं उनके मारने- . का प्रायश्चित्त छह मास पर्यंत पूर्वोक्त तरह षष्ठोपवास करना है माहेश्वर आदि उन पाखंडियोंके भक्त हैं उनके विघातका पाय
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चूलिका।
श्चित्त पहले आधा अर्थात् तीनमास पर्यंत पष्ठोपवास कर करके पारणा करना है। तथा उन माहेश्वरादिकके आत्माय बंधुओंके विघातका प्रायश्चित्त उससे आधा अर्थात् डेढ़ मास तकके षष्ठोपवास हैं ॥१२॥ ब्राह्मणक्षत्रविदच्छूद्रचतुष्पदविघातिनः। एकान्तरष्टमासाः स्युःषष्ठायन्ताश्च पूर्ववत्॥
अर्थ-लौकिक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ओर चोपाये इनका घात करनेवाले साधुके लिए पहलेकी तरह आधे आधे दीन आदि और अन्तमें षष्ठोपवासपूर्वक आठमास पर्यन्त के एकान्तरोपवास हैं। भावार्थ-लोकिक ब्राह्मणके घातका प्रायश्चित्त आठ मास पर्यन्त एकान्तरोपवास करना है। प्रथम वेला कर पारणा करे उसके बाद उपवास कर फिर पारणा कर उपवास करे एवं आठ महीने तक करे और अन्तमें भी वेला करे। सारांश आदि और अन्तमें वेला करे और मध्यमें एक एक दिन छोड़कर उपवास करे। इसी तरह क्षत्रियके घातका पायश्चित चार महीने तकके एकान्तरोपवास वैश्यके घातका दो मासपर्यन्तके एकान्तरोपवास, सुतार (खाती) आभीर (गोपाल ) कुम्हार आदि शूद्रोंके विघातका एक माह तकके एकान्तरोपवास, और चौपायोंके घातका प्रायश्चित्त पंद्रह दिन तकके एकान्तरोपवास हैं। तथा आदि और अन्तमें सर्वत्र वेला करना भी है ॥ १३ ॥
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१५६ प्रायश्चिततृणमांसात्पतत्सर्पपरिसर्पजलौकसां। चतुर्दशनवाद्यन्तक्षमणानि वधे छिदा ॥ १४॥ __ अर्थ-मृग, खरगोश, रोझ आदि तृणचर जीवोंके विघातका मायश्चित चौदह उपवास है। सिंह, व्याघ, चीता प्रादि मांस. भतो जीवोंके मारनेका तेरह उपवास, तीतर, मयूर, मुर्गा, कवून तर आदि पक्षियोंके वधका बारह उपवास, सर्प गोनस आदि सर्प जातिके मारनेका ग्यारह उपवास, गोधा, सरट आदि परिस सों के विनाशका दश उपवास और मकर, शिशुमार, मत्स्य, . कच्छप आदि जलपर जीवोंके मारनेका प्रायश्चित्त नो उपवास है ॥१४॥
इस तरह प्रथम अहिंसावतसंवन्धो प्रायश्चित्त कथन किया आगे सत्यव्रतसंवन्धी प्रायश्चित्त बताते हैंप्रत्यक्षे च परोक्षे च द्वयेऽपि च त्रिधानृते।। कायोत्सर्गोपवासाः स्युः सकृदेकैकवर्धनात् ॥
अर्थ-प्रत्यक्षपरोक्ष और उभय (प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों . अवस्थाओंमें) एक बार झूठ बोलने तथा मनसे, वचनले ओर कायसे झूठ बोलने पर एक एक बढ़ते हुए कायोत्सर्ग, उपवास
और चकारसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त हैं। भावार्थ-प्रत्यक्ष झूठ बोलनेका एक कायोत्सर्ग, एक उपवास और एक प्रतिक्रमण 4 है। परोत झूठ बोलनेका दो कायोत्सर्ग, दो उप
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चूलिका। वास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों हालतोंमें झूठ बोलनेका तीन कायोत्सर्ग तीन उपवास ओर अतिक्रमण है और मन, वचन, कायसे झूठ बोलनेका चार कायोत्सर्ग, चार उपवास और अतिक्रमण मायश्चित्त है ॥१५॥ असकृन्मासिकं साधोरसदोषाभिलाषिणः।। कषायादभियुक्तस्य परैवा द्विगुणादि तत् ॥१६॥ __ अर्थ-कपायवश बार बार झूठ बोलनेवाले साधुको पंचकल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए। तथा दूसरेसे मोरित होकर झूठ बोलनेवालेको पूर्वोक्त कायोत्सर्गको आदि लेकर मासिक पर्यन्त जो प्रायश्चित कहा गया है वह दूना तिगुना चागुना अथवा इससे भी अधिक गुना देना चाहिए ॥ १६ ॥ नीचः पैशून्यपुष्टस्य गच्छाद्देशाद्वहिष्कृतिः। तच्छ्रुत्वा मन्यमानोऽपि दोषपादांशमश्नुते ॥
अर्थ-पैशून्य भावयुक्त निकृष्ट साधुको तो गच्छसे और देशसे वाहर निकाल देना चाहिए। जो साधु इस निकृष्ट साधुके उन वचनोंको मान देता है वह भी उसके उस दोषके चतुर्थाशका मागो होता है।॥ १७॥ ___ इस तरह सत्यव्रतके प्रायश्चित्तोंका कथन किया अव अचौर्यव्रतके प्रायश्चित्तोंका कथन करते हैंसकृच्छ्न्ये समक्षं चानाभोगेऽदत्तसंग्रहे। कायोत्सगोपवासाः स्युःप्राग्वेन्मूलगुणोऽसकृत् ॥
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प्रायश्चित ___ अर्थ-शून्य स्थानमें और प्रत्यक्षमें बिना दिये हुए पदार्थके एकवार ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त पूर्ववद एक बढ़ते हुए कायोत्सर्ग और उपवास हैं। चकारसे प्रतिक्रमण भी है। वार वार विना दिये हुए पदार्थके ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। भावार्थ-निर्जन स्थानमें बिना दिये हुए पदार्थक एकवार ग्रहण करनेका पतिक्रमण सहित एक कायोत्सर्ग और एक उपवास है। मिथ्याष्टियोंके न देखते हुए अपने साथियांके सामने एकवार अदत्त ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक दो कायोत्सर्ग और दो उपवास है। अगर मिथ्यादृष्टियोंके देखते हुए एकवार अदत्त ग्रहण करे तो प्रतिक्रमण सहित तीन कायोत्सर्ग और तीन उपवास प्रायश्चित्त है तथा सोना चांदी आदि अदत्तपदायों के ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है इतना विशेष समझना चाहिए। वारवार अदत्त ग्रहण करने का पंचकल्याणक मायश्चित्त है ॥१८॥ आचार्यस्योपधेरहीं विनेयास्तान् विना पुनः। सधर्माणोऽथ गच्छश्च शेषसंघोऽपि व क्रमात् ॥ . __ अर्थ---आचार्य के पुस्तक आदि उपकरणोंको ग्रहण करनेके योग्य उनके शिष्य हैं। शिष्य न हों तो उनके गुरुभाई हैं। गुरुभाई भी न हों तो गच्छ है। तीन पुरुषों के अन्वयको गच्छ कहते हैं। गच्छ मो न हो तो शेष संघ योग्य है। सप्त पुरुषोंके अन्त्रयको संघ कहते हैं ।। १६॥ . .. .. . ..
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चलिका। सर्वे खामिवितीर्णस्य योग्यो ज्ञानोपधेरपि । स्वामिना वा वितीर्यते यस्मै सोऽपि तमर्हति ॥
अर्थ-जिस उपकरणका जो स्वामी है उसके द्वारा वितीण किये गये उस उपकरणको ग्रहण करनेको सभी साधु योग्य हैं चाहे वे अन्य आचागेकं भी शिष्य क्यों न हों। परन्तु ज्ञानोपधि-पुस्तकके योग्य तो वही है जो ज्ञानो है। अथवा पुस्तकका स्वामी साधु जिस साधुको वह अपनो पुस्तक दे वही उसके योग्य है ।। २० ॥ एवं विधिं समुलंध्य यः प्रवर्तेत मूढधीः । बलवन्तं समासृत्य यो वादत्ते प्रदोषतः॥२१॥ सर्वस्वहरणं तस्य षण्मासः क्षमणं भवेत् । योऽन्यथापि तमादत्ते तस्य तन्यौनसंयुतं ॥२२॥
अर्थ-इस उपर्युक्त व्यवस्थाका उल्लंघनकर जो मूर्ख-बुद्धि साधु मनमानी प्रति करता है अथवा जो बलवान् राजा आदिके पास जाकर कैप का उपकरणको ग्रहण करता है उसके लिए उसका सर्वस्वहरण -- सम्पूर्ण पुस्तक आदि छीन लेना और छह मास पर्यन्त एकान्तरोपवास करना प्रायश्चित्त है। तथा जो कोई साधु और भी किन्हीं उपायोंसे उस उपकरणको ग्रहण करता है उसके लिए भी बही-मोनयुक्त छह मास तक एकान्तरोपवास दंड है ।। २१-२२॥
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प्रायश्चित्तअब चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रतके विषयमें कहते हैं- .. क्रियात्रये कृते दृष्टे दुःस्वप्ने रजनीमुखे । सोपस्थानं चतुर्थं नियमाभुक्तिः प्रतिक्रमः॥ ___ अर्थ-स्वाध्याय, नियम और वंदना इन तीन क्रिया- . को करनेके अनन्तर रात्रिके प्रथम पहरमें दुःखप्न देखने पर क्रमसे सपतिक्रमण उपवास, नियमोपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भावार्थ-जो कोई साधु रात्रिके प्रथम पहरमें खाध्याय, नियम प्रतिक्रयण, देववंदना इन तीनों से कोई सी एक क्रिया कर सो जाय पश्चात दुःस्वप्न देखे अर्थात वीर्यपात हो जाय तो उसके लिए समतिक्रमण उपवास प्रायश्चित्त है। उक्त तीनों क्रियाओंमें कोई सी दो क्रियाएं करके सोने पर दुःखप्न देखे तो लघु प्रतिक्रमण और उपवास प्रायश्चित्त है। यदि तीनों क्रियाएं करके सोनेपर दुःस्वप्न देखे तो केवर प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ॥२३॥ नियमक्षमणे स्यातामुपवासप्रतिक्रमौ । रजन्या विरहे तु स्तः क्रमात् षष्ठप्रतिक्रमौ॥
अर्थ-त्रिके पश्चिम पहरमें एक क्रिया करके सोनेवाले साधुको दुःस्वप्न देखने पर नियम और उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए। दो क्रियाएं करके सोये हुएको दुःखप्न देखने पर उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त देना चाहिए । तथा तीनों क्रियाएं करके सोये हुएको दुःखप्न देखने पर प्रतिक्रमण और षष्ठोपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ २४॥
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चूलिका।
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NAA
मद्यमांसमधु स्वप्ने मैथुनं वा निषेवते । उपवासोऽस्य दातव्यः सोपस्थानश्च चेद्वहु ॥
अर्थ-यदि स्वप्नेमें मद्य, मांस, मधु और मैथुन सेवन करे तो उसको उ:वास प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि बार बार सेवन करे तो पतिक्रमण और उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए । तरुण्या तरुणः कुर्यात् कथालापं सकृयदि । उपवासोऽस्य दातव्योऽसकृत् षण्मासपश्चिमः ।।
अर्थ-तरुण मुनि तरुण स्त्रोके साथ यदि एकबार वार्तालाप करे तो उसको उपचास प्रायश्चित्त दना चाहिए। तथा वारवार वार्तालाप करे तो छह महीने तकका एकान्तरोपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए ।। २६ ॥ स्त्रीजनेन कथालापं गुरूनुलंध्य कुर्वतः। स्यादेकादि प्रदातव्यं षष्ठं षण्मासपश्चिमं ॥२७॥
अर्थ-प्राचार्य, उपाध्याय आदि गुरुओंके मना करनेपर भी यदि स्त्री-समूहके साथ गुप्त बात करे तो उसको एक 'पष्ठोपवासको आदि लेकर छह मास तकके षष्ठोपवास देने चाहिए ॥२७॥ स्त्रीजनेन कथालापं गुरुनुलंध्य कुर्वतः। त्याग एवास्य कर्तव्यो जिनशासनदूषिणः॥ .. अर्थ-(अथवा ) गुरुओंकी आज्ञा न मान कर स्त्रीसमूहके
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प्रायश्चितसाथ गुप्त बातें करने वाले साधुको सिंघसे निकाल हो देना चाहिए, क्योंकि वह सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको कलंकित करने : चाला है ।। २८॥ स्थातुकाम सः चेद्भूयस्तिष्ठेत् क्षमणमौनतः। ... आषण्मासमयः कालो गुरूद्दिष्टावधिर्भवेत् ॥ ___ अर्थ-यदि वह साधु संघमें रहनेका इच्छुक हो तो छह महीने तक अथवा गुरु जितना काल चाहे उतने काल तक। प्रतिक्रमण करता हुआ मौनपूर्वक रहे ॥ २६ ॥ दृष्टा योषामुखाद्यगं यस्यः कामः प्रकुप्यति। .. आलोचना तनूत्सर्गस्तस्य च्छेदो भवेदयम् ॥ .
अर्थ-स्त्रियोंके सुख आदि अंगोंको देखकर जिस मंदभाग्य साधुकी कामाग्नि प्रचंड हो जाय उसके लिए आलोचनाः । और कायोत्सर्ग यह प्रायश्चित्त है॥३०॥ स्त्रीगुह्यालोकिनो वृष्यरससंसेविनो भवेत् । रसानां हि परित्यागः स्वाध्यायोचित्तरोधिनः॥ .
अर्थ-जिसका स्वभाव स्त्रियोंके योनि आदि गुप्त अंगोंके . देखनेका भौर कामवर्धक पौष्टिक रसोंके सेवन करनेका है. उसको दही, दूध, शाल्योदन, अपूपा आदि वलवर्धक रसोंका लाग रूप प्रायश्चित्त देना चाहिए। तथा जिसका मन काबूमें
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चूलिका। नहीं रहता उसको स्वाध्याय अर्थात अपराजित परम मंत्रका
जाप और परमात्माका अध्ययनरूप प्रायश्चित्त देना चाहिए । ' अब पचप परिग्रह साग व्रतके विषयमें कहते हैं
उपधेः स्थापनालोभादैन्यादानप्ररूढितः। संग्रहात् क्षमणं पष्ठमष्टमं मासमूलके ॥३२॥ __ प्रध-जा मुनि गृहस्थोंके उपकरण अपने पास रक्खे तो उपवास प्रायश्चित्त है। सोना, चांदो आदि परिग्रहमें लोभ करे तो पष्ठोपवास प्रायश्चित्त है । मांग कर सोना, चांदी आदि परिग्रह ग्रहगा करे तो अहम-तीन उपवास प्रायश्चित्त है। प्रसिद्ध ग्रहण संक्रान्ति आदिमें सोना, चांदो आदिका संग्रह करे तो मासिक प्रायश्चित्त है और अपनी इच्छानुकूल सोना चांदो, मणि, मुक्ताफल आदि परिग्रहका संचय करे तो मूल-पुनीता प्रायश्चित्त है ॥२॥
अब रात्रिभुक्तिविरति नायके अणुव्रतके विषयमें कहा जाता है:-- रात्रौ ग्लानेन भुक्ते स्यादेकसिंश्च चतुर्विधे । उपवासः प्रदातव्यः षष्ठमेव यथाक्रमं ॥३३॥
अर्थ-व्याधि विशेप, परिश्रम, नानामकारके महोपवास पादिस पीडित हुना साधु कोदय-वश प्राण वचना कठिन मालूम पड़ने पर रात्रिमें कोईसा एक आहार और चारों प्रकार
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प्रायश्चित्तके आहार ग्रहण करे तो क्रमसे उपवास और षष्ठ मायश्चित्त है। भावार्थ-रात्रिमें उक्त कारण वश एक प्रकारका आहार ग्रहण करे तो उपवास और चारों प्रकारका आहार ग्रहण करे तो षष्ठ प्रायश्चित्त है ॥३३॥ व्यायामगमनेऽमार्गेपासुकेऽप्रासुकेमतेः। .. कायोत्सर्गोपवासौ स्तोऽपूर्णक्रोशे यथाक्रमम् ॥
अर्थ-व्यायामनिमित्त जन्तुरहित-पासुक उन्मार्ग (पगडंडी)होकर और जन्तुसहित अप्रासुक उन्मार्ग हो कर जो यति अधूरे कोशतक गमन करे तो उसके लिए क्रमसे कायोत्सर्ग और उपवास प्रायश्चित्त है। भावार्थ-पासक उन्मार्ग हो कर गमन करनेका कायोत्सर्ग और अमासुक उन्मार्ग होकर गमन करनेका उपवास प्रायश्चित्त है ॥ ३४॥ घननीहारतापेषु क्रोशैर्वन्हि स्वरग्रहै। क्षमणं प्रासुके मार्गे द्विचतुःषड्भिरन्यथा ॥३५॥ __ अथ-वर्षाकाल, शीतकाल, और उष्णकालमें प्रासुक मार्ग होकर क्रमसे तीन कोश, छंह कोश और नौ कोश गमन करे और अमासुक मार्ग होकर क्रमसे दो, चार, छह कोश गमन करे तो एक उपवास प्रायश्चित्त है। भावार्थ-वरसातमें मासुक मार्ग होकर तीन कोश, और मासुक मार्ग होकर दो कोश, शीमें प्रासुक मार्ग, होकर छह कोश और और अप्रामुक मार्ग
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चलिका। हो कर चारकोश, गर्मीमें मासुक मार्ग हो कर नो कोश और अमासुक मार्ग होकर छह कोश गमन करे तो सबका प्रायश्चित्त एक एक उपवास है। यह प्रायश्चित्त दिनमें गमन करनेका है रातमें गपन करनेका आगेके श्लोकोंसे बताते हैं। यहां वन्हि से तीन, स्वरसे छह और ग्रहसे नौ संख्याका ग्रहण है ॥ ३५॥ दशमादष्टमाच्छुद्धोरात्रिगामी सजन्तुके । विजंतौ च त्रिभिः क्रोशैर्मार्गे प्रावृषि संयतः॥
अर्थ-वरसातमें अमासुक और प्रासुक यागे होकर तीन कोश रात्रिमें गमन करनेवाला संयत क्रमसे दशम-लगातार चार उपवास और अष्टम-लगातार तीन उपवास करनेसे शुद्ध होता है। भावार्थ-बरसातके दिनोंमें अपासुक मार्ग होकर तीन कोश रातमें गमन करनेका चार निरंतर उपवास और पासुक मार्ग होकर गमन करनेका तीन निरन्तर उपवास प्रायश्चित्त है ॥ ३६॥ हिमे कोशचतुष्केणाप्यष्टमं षष्ठमीयते । ग्रीष्मे कोशेषु षट्सु स्यात् षष्ठमन्यत्र च क्षमा॥' . अर्थ-शीतकालमें अप्रासुक मार्ग होकर ओर पासुक मार्ग हो कर रातमें चार कोश गमन करनेका प्रायश्चित्त क्रमसे निरन्तर तीन उपवास और निरन्तर दो उपवास है। तथा गर्मीकी मौसिममें अमासुक मार्ग होकर और प्रासुक मार्ग होकर छह,
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प्रायश्चित्तकोश रातमें गमन करनेका प्रायश्चित्त क्रमसे षष्ठ और उपवास प्रायश्चित्त है ।। ३७॥ सप्रतिक्रमणं मूलं तावंति क्षमणानि च । स्याल्लघुः प्रथमे पक्षेमध्येऽन्त्ये योगभंजने ॥३८॥ ___ अर्थ-देशभंग, महामारी आदि कारणों वश पक्षक शुरूमें योगभंग हो तो प्रतिक्रमणसहित पंचकल्याण प्रायश्चित्त है। पक्षके मध्य भागमें योगभंग हो तो पतके जितने दिन वाकी रहें उतने उपवास प्रायश्चित्त हैं और पक्षके अन्तमें योगभंग हो तो लघुमास प्रायश्चित्त है ॥३८॥ जानुदन्ने तनूत्सर्गः क्षमणं चतुरंगुले । द्विगुणा दिगुणास्तस्मादुपवासाः स्युरंभसि ॥ ___ अर्थ-घुटनेपर्यंत पानीमें होकर जावे तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है । घुटनेसे चार अंगुल ऊपर पानीमें होकर जानेका का एक उपवास प्रायश्चित्त है। इससे चार चार अंगुल अपर पानोंमें होकर जानेका दूने दुने उपवास मायश्चित्त हैं ॥३६॥ दंडैः षोडशभिर्मेये भवन्त्येते जलेंजसा। कायोत्सगोपवासास्तु जन्तुकीर्णे ततोऽधिकाः॥
अर्थ-ये जो कायोत्सर्ग और उपवास कडे गये हैं वे सोलह धनुष (चौसठ बाथ) पर्यंत लंबे फैले हुए जल-जन्तनोंसे रहित | जलमें होकर जानेके हैं। न्यूनके नहीं। तथा जलजन्तुसे भरे
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· चूलिंका । हुए पानी में होकर जानेका मायश्चित्त पहले कहे हुए कायोत्सर्ग और उपवाससे अधिक कायोत्सर्ग और उपवास हैं ।। ४० ॥ स्वपरार्थप्रयुक्तैश्च नावाचैस्तरणे सति । स्वल्पं वा वह वा दद्याज्ज्ञातकालांदिको गणी॥
अर्थ-अपने निमित्त या परके निमित्त प्रयुक्त नाव आदिके द्वारा नदी आदि पार करने पर काल आदिको जाननेवाला
आचार्य थोड़ा या बहुत (कालको जानकर) प्रायश्चित्त दे। ___ इस विषयमें छेदपिंडमें यह लिखा हैकाउस्सग्गो आलोयणा य णावादिणाणदीतरणे। णावाए जलहितरणे मोही खवणादिपणयंता ॥१॥ सपरणिमिन्चपउंजिद दोणीणावादिणा णदीतरणे। अण्णे भणति एगो उपवासो तह विउस्सग्गो ॥२॥
अर्थात्-नाव आदिके द्वारा नदी पार करनेका प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग और मालोचना है। और समुद्र पार करनेका उपवासको आदि लेकर कल्याणपर्यंत हैं। तथा कोई कोई आचाय कहते हैं कि अपने निमित्त या परके निमित्त प्रयुक्त द्रोणो (डोंगी) नाव आदिके द्वारा नदी पार करे तो एक उपवास और कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है॥४१॥ दक्षेण गणिना देयं जलयाने विशोधनं । साधूनामपि.चार्याणां जलकेलिमहासृणिः॥
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प्रायश्चित्त' अर्थ-प्रायश्चित्त देनमें कुशल आचार्य, साधुओंको और आर्यिकाओंको जलमें हो कर गमन करनेका जलकेलि महासृणि* नामका प्रायश्चित्त दे॥४२॥ युग्यादिगमने शुद्धिं द्विगुणां पथि शुद्धितः । ज्ञात्वा नृजातं वाचार्यों दद्यात्तदोषघातिनी॥ ___ अर्थ-प्राचार्य डोलो आदिमें बैठकर गमन करने पर मंद, रोगी आदि पुरुषको जानकर उसके दोषका दूर करनेवाली मागशुद्धिसे दूनी शुद्धि दें। भावार्थ-पहले जो मान गमनका प्रायश्चित्त कह पाये हैं उससे दूना प्रायश्चित्त डोली आदिमें बैठकर गमन करनेवाले साधुको देवें ।। ४३ । .. सप्तपादेषु निष्पिछः कायोत्सर्गाद्विशुद्धयति । गव्यूतिगमने शुद्धिमुपवासं समश्नुते ॥४४॥ - अर्थ-कोई साधु विना पिच्छीके सात पंड गमन करे तो बह एक कायोत्सर्गसे शुद्ध होता है। और एक कोश विना पिच्छीके गमन करे तो एक उपवासको प्राप्त होता है। भावार्थपिच्छो हाथमें लिये विना सात गमन करनेका एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है और एक कोश गमन करे तो एक उपवास प्रायश्चित्त है। ऊपरके सूत्रमें द्विगुण पद है उसका अधिकार इस श्लोकमें भी है अतः ऐसा समझना कि कोशसे ऊपर प्रति कोश दुना दूना उपवास प्रायश्चित्त है ॥४४॥ .. महामृणिका अर्थ समझमें नहीं पाया।
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M
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चुलिका ।
चलिका। १६९ भाषासमितिमुन्मुच्य मौनं कलहकारिणः । क्षमणं च गुरूद्दिष्टमपि षट्कर्मदेशिनः ॥४५॥ ___ अर्थ-जो मुनि भाषा समितिको छोड़कर कलह-लड़ाई करे उसको मौन प्रायश्चित्त देना चाहिए और गृहस्थोंके जिससे छह निकायके जीवोंको वाधा पहुचे ऐसे वाणिज्य आदि छह कर्मोंका उपदेश करनेवालेके लिए उपवास प्रायश्चित्त है बाजो कुछ गुरु बतावे वह मायश्चित्त भो उसके लिए है॥४४॥ असंयमजनज्ञातं कलहं विदधाति यः। बहूपवाससंयुक्तं मौनं तस्य वितीर्यते ॥४६॥
अर्थ-जो साधु, जिसे मिथ्यादृष्टि लोग जान जाय-ऐसी कलह करे तो उसको बहुतसे उपवास और शैन मायश्चित्त देना चाहिए ।। ४६ ॥ कलहेन परीतापकारिणः मौनसंयुताः। उपवासा मुनेः पंच भवंति नृविशेषतः॥४७॥
अर्थ-जो लड़ाई-झगड़ा करके संताप उत्पन्न करता हो उस मुनिको मंदग्लान (रोगी) आदि जानकर मौन संयुक्त पांच उपवास देने चाहिए ॥ ४७ ॥ जनज्ञातस्य लोचश्च बहुभिः क्षमणैः सह । . आषण्मासं जघन्येन गुरुद्दिष्टं प्रकर्षतः ॥४८॥ अर्थ-जिस कलहको सव लोग जाने उसका प्रायश्चित्त
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प्रायश्चित्त
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लोच है और कई उपवासोंके साथ साथ कमसे कम एकोपवास
को आदि लेकर छह मास पर्यंतके उपवास और अधिकसे 'अधिक आचार्योपदिष्ट प्रायश्चित्त है ॥४८॥ . हस्तेन हंति पादेन दंडेनाथ प्रताडयेत् । एकाधनेकधा देयं क्षमणं नृविशेषतः ॥ ४९ ॥ ___ अर्थ-जो साधु हाथसे, पैरसे अथवा दंडेसे मारता-पोटता है उसको मनुष्य विशेषके अनुसार एकको आदि लेकर अनेक प्रकारके उपवास देने चाहिए ॥ ४६॥ यश्च प्रोत्साह्यहस्तेन कलहयेत् परस्परं। असंभाष्योऽस्य षष्ठं स्यादाषण्मासं सुपायिनः ।। ___ अर्थ-जो मुनि हाथोंके इसारेसे उत्साह दिलाकर परस्पर में कलह कराता है वह भाषण करने योग्य नहीं है और उस पापीको छह महीने तकका षष्ठ प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ ५० ॥ छिन्नापराधभाषायायाप्यंसयतबोधने । नृत्यगायेति चालापेऽप्यष्टमं दंडनं मतं ॥५१॥
अर्थ-जिस दोषका पहले प्रायश्चित्त किया गया है उसोको फिर करने पर, सोये हुए अविरतको जगाने पर और नाची गाओ इसादि कहने पर तीन निरंतर उपवास प्रायश्चित्त माने गये हैं॥५१॥ . . .
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चूलिका । १७१ चतुर्वर्णापराधाभिभाषिणः स्यादबन्दनः। असंभाष्यश्च कर्तव्यः स गाणं गणिकोऽपि च ॥
अर्थ-ऋषि, मुनि, यति, अनगार अथवा साधु, आर्या, श्रावक, श्राविका इनको चतुर्वर्ण कहते हैं। इस. चतुर्वर्णके अपराधको कहनेवाला साधु अवंदनीय और असंभाष्य है अर्थात् उसको न तो वन्दना करना चाहिए और न उसके साथ भाषण करना चाहिए। तथा गणसे निकाल देना चाहिए। फिर यदि वह खेदखिन्न होकर इस तरह कई कि हे भगवन् ! मुझे उचित मायश्चित्त- दीजिये तब चतुर्वर्ण श्रमण के बीच उसकी शुद्धि करना चाहिए ।। ५२॥
अब एषणासमितिके दोषोंको शुद्धि बताते हैं, अज्ञानाद्व्याधितो दात् सकृत्कंदाशनेऽसकृत् । कायोत्सर्गः क्षमा शान्तिः पंचकं मासमूलके॥ __ अर्थ-अज्ञानवश, व्याधिवश और अहंकारवश एक बार
और अनेक बार कंदादिके खानेका क्रमस, कायोत्सर्ग, उपवास, उपवास, कल्याणक, पंचकल्याण और मूल प्रायश्चित्त है। भावार्थ- यहां पर कंद शब्द उपलक्षणार्थ है अथवा आदि शब्द लुप्त है इस लिए कन्द, फल, वीज, मूल आदि अप्रासुक चीजोंका संग्रह है। सूरण, पिंडालु, रतालु आदि चीज कंद कह'लाती हैं। प्राम, विजौरा प्रादि चीजोंको फल कहते हैं। गेह,
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rani.raniwaravarmermainmmmmmmmm.arma
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प्रायश्चित्तमूग, उड़द, राजमाप आदि चीजें वोज कही जाती हैं सोंभाजन ( ), कैरेंड ( ), मूला आदिको मूल कहते हैं। अज्ञानवश अर्थात् आगमको न जानता हुआ अथवा ये चीजें अप्रासुक हैं ऐसा न जानता हुआ यदि इन कन्द मूल, फल वीज, आदिको एक बार खाय तो कायोत्सर्ग और वार वार खाय तो उपवास प्रायश्चित्त है। आगम अथवा अप्रासुक जानता हुआ भी व्याधिविशेष पीड़ित होकर एक बार खाय तो उपवास
और बार बार खाय तो कल्याण प्रायश्चित्त है। और अहंकार वश-निःशंक होकर छोलकर रसायन आदिके निमित्त एक वार खाय ता पंचकल्याण और बार बार खाय तो मूल-पुनदीक्षा प्रायचित्त है॥५३॥ कुड्याद्यालंव्य निष्ठूय चतुरंगुलसंस्थितिम् । त्यक्त्वोक्त्वा क्षमणं ग्लाने मुक्ते षष्ठं तथा परे ।
अर्थ-दोवाल, स्तंभ आदिका सहारा लेकर, खकार थूक कर, चार अंगुल प्रमाण पैरोंके अंतरको सागकर और कुछ कह कर यदि उपवास आदिसे पीडित हुआ कोई मुनि भोजन करे तो उपवास प्रायश्चित्त है। और यदि उपवासादिसे पीडित न होकर साधारण अवस्थामें उक्त प्रकारसे भोजन करे तो षष्ठ मायश्चित्त है॥५४॥ काकादिकान्तरायेऽपि भग्ने क्षमणमुच्यते। .. गृहीतावग्रहे त्यागः सर्वं भुक्तवतः क्षमा ॥५५॥
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चुलिका।
१७३ अर्थ-काक, अमेध्य, वमन, रोध, रुधिर देखना, अश्रुपात आदि जो जो मुनि भोजनके अंतराय हैं उनको न टालकर अथवा इन अंतरायोंके जाने पर भी भोजन करे तो उपवास प्रायश्चित्त है। साग की हुई वस्तुको भक्षण करते हुए फिर उसका स्मरण हो जाय तो स्मरण आतेही उसको साग देना फिर न खाना ही प्रायश्चित्त है और यदि वह सागकी हुई वस्तु सबकी सब खानी गई हो तो उपवास प्रायश्चित्त है ।। ५५॥ महान्तरायसंभूतौ क्षमणेन प्रतिक्रमः। भुज्यमाने क्षते शल्ये षष्ठेनाष्टमतो मुखे ॥५६॥
अर्थ-भारी अंतरायका संभव होने पर उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भोजन करते हुए हड्डी वगैरह दीख पडे तो पष्ठ और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है और मुखमें हड्डो वगैरह मालूम पडे तो तीन उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भावार्थ-भोजन करते समय हड्डी आदिसे मिला हुआ भोजन रूप भारी अंतराय आगया हो और भोजन करलेनेके अनन्तर सुननेमें आया हो तो उस अपराधका उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भोजन करते हुए खुद अपने हाथमें हड्डी वगैरह देख ले तो पष्ठ और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है तथा भोजन करते करते अपने मुखमै हड्डी वगैरह समुपलब्ध हो तो. निरंतर तीन उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। यहां पर शल्य ग्रहण उपलक्षणार्थ है इसलिए गोला चर्म, रुधिर आदि
ग्रहणका भी यही प्रायश्चित्त है ।। ५६ ॥..
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प्रायश्चित्त
आधाकर्मणि सव्याधेनिधेिः सकृदन्यतः। . उपवासोऽथ षष्ठं च मासिकं मूलमेव च ॥ ५७॥ __ अर्थ-कोई रोगो मुनि, आधाकर्मद्वारा उत्पन्न हुआ भोजन एक वार खाय तो उपवास और बार बार खाय तो पष्ठ प्रायश्चित्त है। तथा नीरोग मुनि आधाक द्वारा उत्पन्न भोजनको. एकवार खाय तो पंचकल्याण और वारवार खाय तो मूल: प्रायश्चित्त है। जो भोजन छह निकायके जीवोंकी बाधा-हिंसासे. . उत्पन्न हुआ हो वह आधाकर्म द्वारा उत्पन्न हुआ भोजन कहः .. लाता है ॥ ५७॥ स्वाध्यायसिद्धये साधुर्याद्देशादि सेवते। प्रायश्चित्तं तदा तस्य सर्वदेव प्रतिक्रमः॥५८॥ __ अर्थ-खाध्यायसिद्धिके निमित्त यदि साधु उद्देशक आदि । दोषोंसे उत्पन्न हुआ भोजन सेवन करे तो उसके लिए सर्व काल . प्रतिक्रम प्रायश्चित्त है। यहां पर भी प्रतिक्रम शब्दका अर्थ नियम है॥५८॥ एकं ग्राम चरेद्भिक्षुर्गन्तुमन्योन कल्पते। द्वितीयं चरतो ग्रामं सोपस्थानं भवेत्क्षमा ॥५९॥
अर्थ-एक ग्राममें चर्याके लिए पर्यटन कर उसी दिन भिताके लिए दूसरे ग्रामको जाना उचित नहीं है। यदि कोई मुनि एक गांवमें भोजन के लिए पर्यटन कर उसी दिन दूसरे .
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चूलिका ।
१७५ ग्राममें जाकर भिक्षाके लिये पर्यटन करे तो उसके लिए प्रतिक्रमण सहित उपवास प्रायश्चित्त है ॥५६॥ खाध्यायरहिते काले ग्रामगोचरगामिनः। कायोत्सर्गोपवासौ हि यथाक्रममनूदितौ ॥ ६॥
अर्थ-जो साधु स्वाध्यायके समयमें स्वाध्याय क्रिया अथवा भागमाध्ययन न कर नामान्तरको चला जाय या भिक्षाके लिए चला जाय तो उसको क्रमस अर्थात् ग्रामान्तर गये हुएको कायोत्सर्ग और भिक्षाके लिए गये हुएको उपवास मायश्चित्त देना चाहिए ॥६॥ ___ आगे आदाननिक्षेपण समितिके विषयमें कहा जाता हैकाष्ठादि चलयेत् स्थानात क्षिपेद्वापि ततोऽन्यतः। कायोत्सर्गमवाप्नोति विचक्षुविषये क्षमा ॥६१॥ __ अर्थ-जो मुनि काष्ठ, पत्थर, तृण, खपरे आदि वस्तुओंको उनके स्थानसे हृदावे-हिलावे अथवा एक स्थानसे उठाकर दूसरे स्थानमें ले जाय तो वह एक कायोत्सर्गको प्राप्त होता है। और यदि अंधेरेमें ऐसा करे तो उपवास प्रायश्चित्तको प्रास होता है ॥६॥ ... अब पंचम प्रतिष्ठापना समिति संबंधी प्रायश्चित्त कहते हैं:ऊर्ध्वं हरिततृणादीनामुच्चारादिविसर्जने। कायोत्सर्गों भवेत्स्तोके क्षमणं बहुशोऽपि च ॥ .
अर्थ-सचित्त घास आदि शब्दसे बीज, अकुर, शिला--
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प्रायश्चित्तविशेष, पृथ्वीविशेषके ऊपर एकवार मल-मूत्र विसर्जन करे तो. कायोत्सर्ग और बार बार करे तो उपवास प्रायश्चित्त हैं ॥१२॥ ___ आगे पंचेन्द्रियनिरोधके दोषोंका प्रायश्चित्त बताते हैंस्पर्शादीनामतीचारे निःप्रमादप्रमादिनाम् ।। कायोत्सर्गोपवासाः स्युरेकैकपरिवर्धिताः ॥६३॥ ___ अ-स्पर्शन आदि पांचों इंद्रियोंको अपने अपने विषयोंसे न रोकनेका अप्रमत्त और प्रमत्त पुरुषके लिए एक एक वढते हुए कायोत्सर्ग और उपवास प्रायश्चित्त हैं। भावार्थ-कठोर, नर्म, भारी, हलका, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखाके भेदसे
आठ प्रकारका स्पर्श हैं जो स्पर्शन इन्द्रियका विषय है। चिर्परा, कडुआ, कषायला, खट्टा, मीठा और खारा ये छह रस हैं जो रसना इन्द्रियके विषय हैं। गन्ध दो प्रकारका है सुगन्ध और दुर्गन्ध, जो प्राणइन्द्रियका विषय है। काला, नीला, पीला, सफेद और लाल इस तरह छह प्रकारका रूप है जो नेत्र इन्द्रियका विषय है। तथा षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत
और निषाद यह छह प्रकारका शब्द है जो श्रोत्रेन्द्रियका विषय है। इन विषयोंसे पांचों इंद्रियोंको न रोकनेका इस प्रकार ' प्रायश्चित्त है। अप्रमत्त के लिए तो एक एक बढ़ते हुए कायोत्सर्ग
है जसे-स्पर्शन इंद्रियका एक कायोत्सर्ग, रसनाके दोप्राणके तीन, चतुके चार और श्रोत्रके पांच कायोत्सर्ग। प्रपत्तके लिए एक एक वढते. हुए उपवास हैं जैसे-स्पर्शन इंद्रियको
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चूलिकां ।
१७७ अपने विषयसे न रोकनेका एक उपवास, रसनाके दो उपास, घ्राणके तीन उपवास, चतुके चार उपवास और श्रोत्रके पांच उपवास हैं ॥३॥
आगे षडावश्यकके संबंधमें कहा जाता हैवंदनानियमध्वंसे कालच्छेदे विशोषणं ।
खाध्यायस्य चतुष्केऽपि कायोत्सर्गो विकालतः। __अथे-वंदना आवश्यक और नियम आवश्यकको न करने
और उनके कालको अतिक्रमण करनेका उपवाप प्रायश्चित्त है तथा चार प्रकारके खाध्यायको न करने और उनके कालको अतिक्रमण करनेका कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। भावार्थ-अहंत प्रतिमा, सिद्धमतिमा, तपोगुरु, श्रुतगुरु और दीक्षागुरुकी स्तुति प्रणाम करना बंदना क्रिया है और देवसिक रात्रिक आदिमें व्रतोंमें लगे हुए दोषोंका निराकरण करना नियम क्रिया है। तथा बंदनाका काल संध्याकाल है और सूर्यविवके आधे छिप जानेसे पूर्व देवसिक नियमका प्रारम्भ है तथा प्रभास्फोट-भाग'फाटनेसे पहले रात्रि नियमकी समाप्ति है। उक्त वंदना क्रिया और नियपक्रियाके न करनेका तथा उनके उक्त कालके उल्लं. घन करनेका उपवास प्रायश्चित्त है। तथा खाध्यायका काल भी दिनके समय पूर्वाह्नमें तीन घड़ी दिन चढ़ जाने पर है। अपराहमें तीन घड़ी दिन अवशिष्ट रह जानेसे पूर्व है। रात्रिके समय प्रथपभागमें है जो तीन घड़ी रात बीत जाने पर है और
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प्रायश्चित्तदसरी रात्रिके चरमभागमें है जो तोन घड़ी रात बाकी रह जाने से पहले पहले है। इस प्रकार स्वाध्यायका काल है इस कालके भेदसे स्वाध्याय भी चार प्रकारका है। इस चार प्रकार के स्वाध्यायको न करने और उसके कालका अतिक्रमण करनेका. प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग है ॥ ६॥ प्रतिमासमुपोषः स्याचतुर्मास्यां पयोधयः । .: अष्टमासेष्वथाष्टौ चद्वादशाव्देप्रकीर्तिताः॥६५॥ __ अर्थ-प्रतिमास-पहीने महीने में एक उपवास, चार महीने बीतने पर चार उपवास, आठ महीने बीतने पर आठ उपवास वारह यहोने बीतने पर बारह उपवास अवश्य करने चाहिए ॥ . पक्षे मासे कृतेः षष्ठं लंघने सप्रतिक्रमः। .. अन्यस्या द्विगुणं देयं प्रागुक्तं निर्जरार्थिनः ॥६६॥
अर्थ-पाक्षिक क्रिया और मासिक क्रियाके उल्लंघन करने पर कोंकी निर्जराके अभिलाषी साधुको प्रतिक्रमण सहित दो उपवास देने चाहिए। और चातुर्मासिक क्रिया तथा सांवत्सरिक क्रियाके अतिक्रमणका प्रायश्चित्त पूर्वोतसे दना देना चाहिए अर्थात् चातुर्मासिक क्रियाके उल्लंघनका आठ उपवास और सांवत्सरिक क्रियाके उल्लंघनका चौवोस उपवास पतिपण सहित प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६६॥ . . . . ..
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चूलिका।
१७९ आगे केशलोचके विषयमें कहते हैंचतुर्मासानथो वर्ष युगं लोचं विलंघयेत् । क्षमा षष्ठं च मासोऽपि ग्लानेऽन्यत्र निरंतरः॥
अर्थ-लोच किये चार माहसे ऊपर विता दे तो उपवास प्रायश्चित्त, वर्ष विता दे तो षष्ठोपवास प्रायश्चित्त और युग-पांच वर्ष वितादे तो पंचकल्याण प्रायश्चित है। यह विधान रोगप्रसित मुनिके लिए है ओर जो नोरोग है उसके लिए निरन्तर पंचकल्याण प्रायश्चित्त है।६७ ॥ . __ आगे अचेलव्रतमें लगे हुए अपराधोंका प्रायश्चित्त बताते हैं:उपसांदुजो हेतोःणाचेलभंजने। क्षमणं षष्ठमासौ स्तो मूलमेव ततः परं ॥ ६८॥ ___ अर्थ--उपसर्गवश, व्याधिवश और अहंकारवश यदि अचेलवतका भंग करे तो क्रमसे उपवास, षष्ठोपवास, और पंचकल्याण प्रायश्चित्त है। इससे ऊपर मूल प्रायश्चित्त है। भावार्थ-खजन, राजा आदि द्वारा सताये जाने पर अत्यंत संकटावस्थाको प्राप्त होकर यदि कोई मुनि अचेलव्रतका भंग करे-वस्त्र पहन ले तो एक उपवास, व्याधिविशेषके कारण पहन ले तो दो उपवास, अहंकारवश पहन ले तो पंचकल्याण प्रायश्चित्त है। इसके अनन्तर मूल-पुनर्दीचा नामका प्रायश्चित्त है और प्रायश्चित्त नहीं ॥६॥
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प्रायश्चित्त___ अब, अस्नान, क्षितिशयन और अदंतधावन मूलगुणोंमें लगे अपराधोंका मायश्चित्त कहते हैं। दंतकाष्ठे गृहस्थाहंशय्यासंस्नानसेवने । कल्याण सकृदाख्यातं पंचकल्याणमन्यथा ॥६॥ __ अर्थ-एकवार, दंतधावन करने, गृहस्थोंके योग्य शय्याः पर सोने और स्नान करनेका कल्याण प्रायश्चित्त है और वार बार इन्ही कामोंके करनेका पंच कल्याण प्रायश्चित्त है ॥६६॥. अब स्थिति भोजन और एक भक्त के विषयमें कहा जाता हैअस्थित्यनेव संरतेऽद द सकृन्मुहुः। .. कल्याण मासिकं छेदः ऋमान्मूलं प्रकाशतः॥
अर्थ-व्याधिश, एक बार बैठकर भोजन करने और अनेक बार भोजन करनेश कल्याण प्रायश्चित्त और बार बार . बैठकर भोजन करने, अनेक बार भोजन करनेका पंचकल्याण प्रायश्चित्त है तथा लोगोंकि देखते हुए अहंकारमें चर होकर एक वार बैठकर भोजन करने और अनेक बार भोजन करनेका प्रव्रज्याच्छेद प्रायश्चित्त और बार बार ऐसा करनेका मूल-पुनीक्षा प्रायश्चित्ता है। भावार्थ-रोगवश और अहंकारवश एक : बार और अनेक वार, स्थिति भोजन व्रत और एक भक्त व्रतका भंग करने पर उक्त प्रायश्चित्त है ॥ ७० ॥ . समितीन्द्रियलोकेषु भूशयेऽदंतघर्षणे। कायोत्सर्गः सत्यःक्षमणं मूलमन्यतः॥
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चूलिका । अर्थ-पांच समिति, इंद्रियनिरोध, केशलोच, भूशयन, अदंतधावन इन मूलगुणोंके एक बार भंग होनेपर कायोत्सर्ग . और वार बार भंग होनेपर उपवास प्रायश्चित्त है तथा पंच महाव्रत, छह आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, स्थिति भोजन
और एक भक्त इन मूलगुणोंके एक वार भंग होनेपर पतिक्रयण सहित उपवास ओर वार वार भंग होनेपर पुनःक्षा प्रायश्चित्त है। भावार्थ-व्रतोंका भंग जघन्य दजैसे लेकर उत्कृष्ट दर्जतक अनेक प्रकारका है-जैसे जैसे अधिक दोष संभव हो वैस वैसे बढ़ता हुआ प्रायश्चित्त है। जैसे समिति आदि प्रत्येक व्रतोंका अति-स्तोक भंग होनेर मिथ्याकार, उससे अधिक भंग होनेपर आत्मनिन्दा, उससे भी अधिक भंग होनेपर गर्दा बससे भी अधिक भंग होने पर आलोचना, उससे भी अधिक भंग होनेपर लघुकायोत्सर्ग, उससे भो अधिक भंग होनेपर मध्यम कायोत्सर्ग उससे भी अधिक भंग होने पर बढ़ते बढ़ते एक सौ आठ उछ्वास प्रमाण महाकायोत्सर्ग पर्यंत प्रायश्चित्त है। यह एक बार भंग होनेका प्रायश्चित्त है। चार वार मंगविशेप होनेका पुरुमंडल, निर्विकृति, एकस्थान और प्राचाम्ल मायश्चित्त वहां तक है जहां सर्वोत्कृष्ट भंग हाने पर प्रतिक्रमणं सहित उपवास प्रायश्चित्त है। तथा अहिंसादि व्रतोंके एक पार भंग होनेपर प्रतिक्रमण सहित उपवास प्रायश्चित्त है और वार वार भंग होनेपर वहो प्रायश्चित्त अहंकार युक्त, अभयनचारी, अस्थिर भादि पुरुषषिशेपके अपेक्षासे बढ़ता हुआ षष्ठोपवास.
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प्रायश्चित्त
अष्टम (तीन उपवास ) दशम (चार उपवास ). द्वादश (पांच उपवास) अर्धमासोपवास, मासोपवास: परमासोपवास, संवत्सरोपवास आदि है उसके अनन्तर दिवसादिको क्रमसे दीक्षाच्छेद हैं उसके अनन्तर सर्वोत्कृष्ट मूलप्रायश्चित्त हैं ।।७१॥
इस प्रकार मूलगुणोंमें संभव दोपोंका प्रायश्चित्त कहा गया अब उत्तर गुणोंमें संभव दोपोंका प्रायश्चित्त बताते हैं - द्रुमूलातोरणौ स्थास्नू आतापस्तद्वयात्मकः । चलयोगा भवंत्यन्ये योगाः सर्वेऽथवा स्थिराः॥
अर्थ-वृक्षमूल और अतोरण ये दो योग स्थिर योग हैं। आतापन योग चल और स्थिर दोनों तरहका है। और शेष अभ्रावकाश, स्थान, मोन और वीरासन ये चार योग चल योग हैं। अथवा सभी योग स्थिर योग हैं ।। ७२ ॥ भंजने स्थिरयोगानामपस्कारादिकारणात (?)। दिनमानोपवासाः स्युरन्येषामुपवासना ॥७३॥ _ अर्थ-नेत्र दर्द, पेट दर्द, शिरः शूल, विश्चिका, सर्वोपसग डॉस: मच्छर आदि कारणोंसे स्थिर योगोंका भंग हो जाय तो योग धृतिक जितने दिन अवशिष्ट रह गये हों उतने उपवास प्रायश्चित्तं हैं। तथा अन्य स्थान, मौन अवग्रह आदि योगोंका भंग होनेपर आलोचनाको आदि लेकर प्रतिक्रमण सहित उपवास पर्यंत प्रायश्चित्त है ।। ७३ ॥
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चलिका। तत्प्रतिष्ठा च कर्तव्याघ्रावकाशे पुनर्भवेत् । चतुर्विधं तपश्चापि पंचकल्याणमन्तिमं ॥ ७४॥
अर्थ-उन स्थान, मोन अवग्रह आदि योगांकी पुनर्व्यवस्थापना भी करनी चाहिए अर्थात् मायश्चित्त देकर फिर भी उन्ही योगोंमें स्थापित करना चाहिए । तथा प्रभावकाश योग के भंग होनेपर आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय ओर स्थानविवेक और गणविवेक एवं दोनों तरहका विवेक प्रायश्चित्त है । और पुरुमंडल, निर्विकृति: एकस्थान, आचाम्ल, उपवास, कल्याण, वेला, तेला, चौला, पचौलाको आदि लेकर अंतिम पंच कल्याण पर्यंतका तप मायश्चित्त भी है ।। ७४ ।। सकृदप्रासुकासेवेऽसकृन्मोहादहंकृतेः। क्षमणं पंचकं मासः सोपस्थानं च मूलकं ॥
अर्थ-प्रज्ञानवश त्रस स्थावर आदि जोवोंसे व्याप्त वसतिका आदि प्रदेशोंमें एक बार निवास करने पर उपवास और पार वार निवास करने पर कल्याण प्रायश्चित्त है। तथा अहंकार वश एक वार निवास करनेपर प्रतिक्रमण और पंचकल्याण प्रायश्चित्त और बार वार निवास करने पर मूलप्रायश्चित्त है ।। ग्रामादीनामजानानो यः कुर्यादुपदेशनं । । जानन धर्माय कल्याणं मासिकं मूलगः स्मये॥
अर्थ-जो मुनि, ग्राम, पुर, घर, वसति आदिके वनवानेमें
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प्रायश्चितदोषोंको न जानता हुआ उनके बनानेका उपदेश करता है वह कल्याण प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है । दोषोंको जानता हुआ उनके प्रारंभका उपदेश करता है वह पंचकल्याण प्रायश्चित्तका भागी है तथा गर्व-अहंकारमें र होकर जो ग्राम आदिका उपदेश करता है वह मूल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ आलोचना तनूत्सर्गः पूजोद्देशेऽप्रबोधने। सोपस्थाना सकृद्देया क्षमा कल्याणकं मुहः॥ __ अर्थ-पूजा संबंधी प्रारंभके दोषोंको न जाननेवाले मुनिको एकबार पूजाका उपदेश देने पर आरंभका परिमाण जान कर आलोचना अथवा कायोत्सर्गप्रायश्चित्त प्रतिक्रपण सहित उपवास पर्यंत दे तथा बार बार पूजोपदेश दे तो कल्याणक पायश्चित्त दे। भावार्थ-जो मुनि पूजाके आरंभसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको नहीं जानता है वह यदि एकवार गृहस्थोंसे पूजाका आरंभ करावे तो उसे प्रारंभके अनुसार आलोचना अथवा कायोत्सर्ग प्रायश्चित्तको आदि लेकर उपवास पर्यंत प्रायश्चिच दे और वारवार प्रारंभ करावे तो कल्याणक प्रायश्चित्त दे॥ जाननस्यापि संशुद्धिः सकृचासकृदेव च।। पस्थानं हि कल्याणं मासिकं मूलमावधे॥ अर्थ-जो मुनि पूजारम्भसे जन्य दोपोंको जानता हो वह पूजाके प्रारम्भका एक बार उपदेश दे तो उसके उस अप- .
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चूलिका।
१८५ राधकी शुद्धि भतिक्रमण सहित कल्याण है और बारबार उपदेश दे तो उसकी मासिक-पंचकल्याण शुद्धि है तथा जिस पूजोपदेशके देनेसे छह निकायके जीवोंका वध होता हो तो उसका प्रायश्चित्त पुनर्दीक्षा है ॥७॥ सल्लेखनेतरे ग्लाने सोपस्थाना विशोषणा। अनाभोगेऽथ साभोगे प्रभुक्ते मासिकं स्मृतं ॥
अर्थ-तुधा और तृषा परीषहसे पीडित हुआ सल्लेखना करनेवाला मुनि तथा अष्टोपवास, पत्तोपवास, मासोपवास आदि उपवासों द्वारा पोड़ित हुआ सल्लेखनान करनेवाला अनि यदि लोगोंके नहीं देखते हुए भोजन कर ले तो उन दोनोंके लिए उस दोषका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणसहित उपवास कहा गया है और जो उक्त दोनों प्रकारके ग्लान मुनि लोगोंके देखते हुए भोजन कर लें तो उनके लिए पंचकल्याण प्रायश्चित्त कहा गया है। स्यात्सम्यक्त्वव्रतभ्रष्टैर्विहारे मासिकं क्षमा। जिनादीनामवर्णादौ सोपस्थानांगसंस्कृतिः)। __ अर्थ-सम्यक्त्वसे भ्रष्ट अर्थात् मिथ्यादृष्टि पुरुषोंके साथ. और व्रतोंसे भ्रष्ट अर्थात दुःशीलता, क्रोध, मान, माया, लोभ अविनय, संघकी निंदा करना आदि दोषोंसे दृषित अवती पुरुपोंके साथ विहार करने पर अर्थात् मिथ्यादृष्टि और अवतो.
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प्रायश्चित्तपुरुषोंकी संगति करने पर पंचकल्याणक प्रायश्चित्त दे और अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुमें अवर्णवाद लगाने पर प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग सहित उपवास प्रायश्चित्त दे॥२०॥ निमित्तादिकसेवायां सोपस्थानोपवासनं । ... सूत्रार्थाविनयाद्येष्वंगोत्सर्गालोचने स्मृते ॥८१॥ __ अर्थ-व्यंजन, अङ्ग, स्वर, छिन्न, भौम, अंतरिक्ष, लक्षण, स्वप्न इन आठ निमित्तों द्वारा आदि शब्दसे, वैद्यकविद्या और मंत्रों द्वारा आजीविका करने पर प्रतिक्रमण और उपवास पायश्चित्त है । तथा सूत्र (शास्त्र) और अर्थका अविनय, निन्हव . आदि करने पर कायोत्सर्ग और आलोचना ये दो प्रायश्चित्त माने गये हैं ॥८॥ सूत्रार्थदर्शने शैक्ष्येऽसमाधानं वितन्वतः। चतुर्थं निन्हवेऽप्येवमाचार्यस्यागमस्य च ॥ ८२॥ __ अर्थ-सूत्र और अर्थका उपदेश करते समय श्रोताओंका समाधान न कर सके तो उसको उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा आचार्य और आगमका निन्हव करने पर भी उपवास पायश्चित्त देना चाहिए ॥२॥ संस्तराशोधने देये कायोत्सर्गविशोषणे। शुद्धेऽशुद्धे क्षमा पंचाहोऽप्रमादप्रमादिनोः॥.
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AAA
चुलिका । .................... ......
अथ-जीव-जन्तु रहित प्रदेशमें संथारेको न शोधकर सोये हए अप्रपा मुनिको कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त ओर प्रमत्त मुनिको उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा जीव-जन्तुओंसे युक्त प्रदेशमं संथारेको न शोधकर सोये हुए अप्रमत्त मुनिको उपवास
और प्रमत्तको कल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥३॥ लोहोपकरणे नष्टे स्यात् क्षमांगुलमानतः। केचिद्धनांगुलैरूचुः कायोत्सर्गः परोपधौ ॥८॥ __ अर्थ-मूई, नहनी, छुरा प्रादि लोहकी चीजें नष्ट कर देने पर जितनी अंगुलको व चोजें हों उतने उपवास प्रायश्चित्तमें इन चाहिए। कोई कोई प्राचार्य घनांगुलके हिसावसे उक्त चीनांक नाशका मायश्चित्त बताते हैं अर्थात वे कहते हैं कि उस नाश किये गये लोहांपकरणके जितने घनांगुल हों उतन उपवास प्रायश्चित्त देने चाहिए । तथा संथारा, पिच्छी, कमंडलु
आदि दसरकी चीज नाश कर देने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥४॥ रूपाभिघातने चित्तदूपणे तनुसर्जनं। खाध्यायस्य क्रियाहानावेवमेव निरुच्यते ॥८॥
अर्थ-मिति कागज आदि पर लिखित मनुष्य आदिके मतिथियोंका नाश करने पर, विपयाभिलाप आदि दुष्ट परिगामोंक करने पर, और खाध्याय क्रियाकी हानि करने पर कायोत्सर्ग मायश्चित्त कहा गया है॥५॥ ।
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प्रायश्चित्त
योऽप्रियकरणं कुर्यादनुमोदेत चाथवा। .. दूरस्थोऽसौ जिनाज्ञायाः षष्ठं सोपस्थितिं ब्रजेत् ॥
अर्थ-जो साधु अप्रियकरण --स्वाध्याय, नियम, बन्दना । आदि क्रिया में कमी करता है अथवा उसकी अनुमोदना करता है वह जिन भगवानको आज्ञासे वहिर्भूत है और प्रतिक्रमण सहित षष्ठ प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥८६॥ तृणकाष्ठकवाटानामुद्घाटनविघट्टने । चातुर्मास्याश्चतुर्थं स्यात् सोपस्थानमवस्थितं ॥. • अर्थ-तृण और काष्ठके बने हुए कपाट आदि चीजोंके : खोलने और बंद करनेका चार मासके अनन्तर अतिक्रमण सहित उपवास प्रायश्चित्त निश्चित है॥८७॥ . शश्वद्विशोधयेत् साधुः पक्षे पक्षे कमंडलु।। तदशोधयतो देयं सोपस्थानोपवासनं ।। ८८॥ __ अर्थ-साधु पंद्रह पंद्रह दिनके बाद संमूर्छन जोवोंके निराकरणके अर्थ कमंडलुको भीतरसे धोवे-साफ करे। जो साधु उस ‘कमंडलुको पंद्रह पंद्रह दिन वाद न धोवे तो उसको प्रतिक्रमण
ओर उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥८॥ मुखं क्षालयतो भिक्षोरुदविंदुर्विशेन्मुखे। आलोचना तनूत्सर्गः सोपस्थानोपवासनं ।।.
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ORA
चलिका। __ अर्थ-मुख धोते हुए साधुके मुखमें यदि जलकी चूद चली नाय तो उसको पालोचना, कायोत्सर्ग, और प्रतिक्रमण सहित उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥८॥ आगंतुकाच वास्तव्या भिक्षाशय्यौषधादिभिः । अन्योन्यागमनाद्यैश्व प्रवर्तते खशक्तितः ॥१०॥
अर्थ-मागंतुक परगणसं आये हुए मुनि, और वास्तव्यअपने गणमें रहनेवाल मुनि, दोनों परस्परमें चर्या, शयन, ओपध, प्राछा, मालोचना, व्याख्यान, वात्सल्य, संभाषण इयादि द्वारा तथा परस्पर एक दूसरेको देखकर जाना-आना, विनय करना, खड़े होना इत्यादि द्वारा अपनी अपनी शक्तिके अनुसार प्रति करें ॥१०॥ विधिमेवमतिक्रम्य प्रमादाद्यः प्रवर्तते । तस्मात् क्षेत्रादसौ वर्षमपनेयः प्रदुष्टधीः ॥ ९१ ॥
अर्थ-जो मुनि प्रमादके वशीभूत होकर उक्त विधानका उन्नड़न कर अपनी प्रवृत्ति करे उस दुष्टबुद्धि मुनिको उस क्षेत्रसे वर्ष भरकं लिए निकाल देना चाहिए ॥१॥ शिलोदरादिके सूत्रमधीते प्रविलिख्य यः। चतुर्थालोचने तस्य प्रत्येकं दंडनं मतं ॥ ९२॥ अर्थ-पत्यरकी शिला, उदर, आदि शब्दसे भूमि, भुजा, जंघा भादिक ऊपर शास्त्र लिखकर जो कोई मुनि अभ्यास करे तो
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प्रायश्चित
उसके लिए क्रमले उपवास और आलोचना ये दो प्रायश्चित्ता माने गये हैं। भावार्थ-शिला पृथिवी आदि पर लिखकर शास्त्र पढे तो उपवास प्रायश्चित्त और उदर, जांघ, घुटना, भुजा आदि पर लिखकर भागमका अध्ययन करे तो आलोचना मायश्चित्त माना गया है ।। ६२ ॥ जातिवर्णकुलोनेषु भुक्तेऽजानन् प्रमादतः । सोपस्थानं चतुर्थं स्यान्मासोऽनाभोगतो मुहुः॥ ___ अर्थ-पाताकी वंश परम्पराको जाति और पिताकी वंश परम्पराको कुल कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। वेश्या आदि जाति और कुलस रहित हैं क्योंकि उनके माता-पिताकी वंश परम्पराका कोई निश्चय नहीं है। ब्राह्मणो क्षत्रियसे पैक्षा हुआ मूत, ब्राह्मणीमें वैश्यसे उत्पन्न हुआवैदेहिक आदि वर्णरहित हैं। यदि कोई मुनि स्वयं न जानता हुआ इन जाति, वर्ण और कुलसे रहित पुरुषोंके घरपर औरोंके न देखते हुए एवबार भोजन करे तो उसके लिए प्रति- : क्रमण-पूर्वक उपवास और वारवार भोजन करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ।। ६३॥ जातिवर्णकुलोनेषु भुंजानोऽपि मुहुर्मुहुः।। साभोगेन मुनिनूनं मूलभूमि समश्नुते ॥ ९४॥
अर्थ-जिनको जाति; वर्ण और कुल उक्त प्रकारसे निंद्य हैं
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चूलिका।
१९१ उनके घर पर औरोंके देखते हुए वारवार भोजन करनेवाला मुनि निश्चयसे पुनर्दीता पायश्चित्तको प्राप्त होता है ।। ६४ ॥ चतुर्विधमथाहारं देयं यः प्रतिषेधयेत् । प्रमादादृष्टभावाच क्षमोपस्थानमासिके ॥१५॥
अर्थ-जो मुनि, देनेयोग्य, अशन, पान, खाद्य, खाद्यके भेदसे चार प्रकारके आहारका भूलसे निपेय करे तो उसके लिए उपवास प्रायश्चित्त और द्वे पवश निषेध गरे तो प्रतिक्रमणपूर्वक पंचकल्याण प्रायश्चित्त है॥६५॥ ज्ञानोपध्यौपधं वाथ देयं यः प्रतिषेधयेत् । प्रमादेनापि मासः स्यात् साध्यावासमथो बहुः ।।
अर्थ-जो कोई मुनि, ज्ञानोपकरण पुस्तक अथवा औषध जो कि देनेयोग्य हैं उनका एक बार भी निषेध करे तो उसके लिए पंचकल्याण प्रायश्चित्त है और यदि साधुओंको देने योग्य वसति आदिका भी निषेध करे तो यही प्रायश्चित्त है। चतुर्विधं कदाहारं तैलाम्लादि न वल्भते । आलोचना तनूत्सगें उपवासोऽस्य दंडनं ।। ९७॥
अर्थ-जो व्याधि आदि कारणों के विना भी देनेयोग्य चार प्रकारक कुत्सित आहारको अथवा तेल कांजिक आदिको नहीं खाता है उसके लिए आलोचना कायोत्सर्ग और उपवास वे प्रायश्चित्त हैं ॥१७॥
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१९२ प्रायश्चित्तवैयावृत्यानुमोदेऽपि तद्व्यस्थापनादिके। पथ्यस्यानयने सम्यक् सप्ताहादुपसंस्थितिः॥
अर्थ शरीरका आहार औषध आदिके द्वारा उपकार करनारूप वैयाटसकी मंद ग्लान आदि कारणोंको लेकर अनुमोदन करने पर, वैयाटस संवन्धी भाजनोंको रखना, धोना, बांधना आदि क्रिया करने पर तथा रोगी मुनिके लिए प्रयत्नपूर्वक योग्य आहारविशेष लाने पर सप्त दिनके अनन्तर प्रतिक्रमणपूर्वक उपवास प्रायश्चित्त है। उपवास यद्यपि श्लोकमें नहीं कहा गया है तो भी उसका ग्रहण है क्योंकि प्रतिक्रमण उपवासके विना नहीं होता ॥८॥ स्वच्छंदशयनाहारः प्रसाधन करणे व्रते। द्वयोरप्यविशुद्धित्वाद्वारणीयस्त्रिरात्रतः ॥ ९९ ॥ __ अर्थ-अपनी इच्छानुसार सोनेवाला और आहार करने बाला, तथा पांच नमस्कार क्रिया छह आवश्यक क्रिया, आसेंधिका और निषेधिका एवं तेरह क्रिया और पांचमहाव्रतोंमें अनादर करनेवाला ये दोनों-इच्छानुकूल करनेवाले औरः । अनादर करनेवाले दोषी हैं इसकारण तीन दिन देखकर गाद निषेध कर देनेके योग्य है ।। ६॥ . भूरिमृजलतः शाचं यो वा साधुः समाचरेत् । . सोपस्थापनोपवासोऽस्य वस्तिवण्यादिकेष्वपि ॥.
अर्थ-जो साधु प्रचुर मिट्टी और जलसे शौच करता हो.
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उसके लिए प्रतिक्रपणसहित उपवास प्रायश्चित्त है और वमन
विरेचन आदि चिकित्सा करने पर भी यही प्रायश्चित्त है ॥१०॥ ' चंडालसंकरे स्पृष्टे पृष्टे देहेऽपि मासिकं । तदेव द्विगुणं भुक्ते सोपस्थानं निगद्यते ॥१०॥
अर्थ-चांदाल आदिसे मिलने पर तथा उनसे परस्पर देह भिड़ने पर भी पंचकल्याण प्रायश्चित्त है। तथा विना जाने चांडाल आदिके हाथसे दिया हुआ भोजन लेने पर अथवा चांडालोंको देख लेने पर भी भोजन करने पर वही पूर्वोक्त मायश्चित्त प्रतिक्रमणसहित दना कहा गया है अर्थात् पतिक्रमण सहित दो पंच कल्याणक प्रायश्चित्त हैं ।। १०१॥ असंतं वाथ संतं वा छायाघातमवाप्नुयात् । यत्र देशे स मोक्तव्यः प्रायश्चित्तं भवेदपि ॥
अर्थ-जिस देश में अवास्तविक अथवा वास्तविक अपमानको प्राप्त हो वह देश छोड़ देना चाहिए, यही प्रायश्चित्त है। भावार्थ-जिस देशमें अपमान हो वह अपमान चाहे तो गैरठीक हो या ठीक हो अतः उस देशको छोड़ देना ही उसका प्रायश्चित्त है।।१०२॥ दोषानालोचितान पापो यः साधुः संप्रकाशयेत् । मासिकं तस्य दातव्यं निश्चयोइंडदंडनं ॥१०३॥
अर्थ-जो पापात्मा साधु गुरुसे निवेदन किये दोषोंको
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प्रायश्चित्त-:
अन्यके प्रति प्रकट करता है उसे मासिक-पंचकल्याण प्रायभित्त देना चाहिए ॥ १०३ ॥ खकं गच्छं विनिर्मुच्य परं गच्छमुपाददत् । अर्धनासौ समाछेद्यः प्रव्रज्याया विशंसयं ॥१०॥ __ अर्थ-जो साधु जिस गच्छमें कि उसने दीक्षा ली है वह यदि अपने उस गच्छको छोड़ कर दूसरे गछमें चला जाय तो उसकी निःसंदेह आधी दीक्षा छेद देनी चाहिए ॥ १०४॥ यः परेषां समादत्ते शिष्यं सम्यक्प्रतिष्ठितं । मासिकं तस्य दातव्यं मार्गमूढस्य दंडनं ॥१०॥
अर्थ-जो प्राचार्य, अच्छी तरहसे रत्नत्रयमें व्यवस्थित . किये गये अन्य आचार्यके शिष्यको स्वीकार करता है उस मार्गमूढ़ (ब्यवस्था न जानने वाले) रशिष्यग्राहीको मासिक पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥१०॥ ब्राह्मणः क्षत्रियाः वैश्या योग्याः सर्वज्ञदीक्षणे । कुलहीने न दीक्षाऽस्ति जिनेन्द्रोद्दिष्टशासने ॥
अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तोन ही सर्वज्ञ दीक्षा अर्थात् निम्रन्थ लिंगको धारण करनेके योग्य हैं। इन तीनोंसे भिन्न शुद्ध आदि कुलहीन हैं अतः उनके लिए जिनशासनमें निर्गन्ध (नम) लिंग नहीं है-वे निम्रन्थ लिंगको पारण. करनेके योग्य नहीं हैं। तदुक्तं
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चूलिका। त्रिषु वर्णेष्वेकतमः कल्याणांगः तपःसहो वयसा। सुमुखः कुत्सारहितः दीक्षाग्रहणे पुमान् योग्यः॥
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनोंमेंसे कोईसा भी एक मोतका अधिकारी है, वही वयके अनुसार तपश्चरण करने वाला सुन्दर और ग्लानिरहित दीक्षा ग्रहणके योग्य है ॥ १०६॥ न्यक्कुलानामचेलैकदीक्षादायी दिगम्बरः। जिनाज्ञाकोपनोऽनन्तसंसारः समुदाहृतः ।१०७॥
अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य इन तीनों वणोंसे बहिर्भूत नीच कुलो-शूद्र भादिको सम्पूर्ण जगतमें प्रधानभूत निर्ग्रन्थ-दीक्षा देनेवाला दिगम्बर साधु सर्वज्ञके वचनोंके पतिकूल है और अनन्तसंसारी है ॥१०७॥ दीक्षां नीचकुलं जानन् गौरवाच्छिध्यमोहतः । यो ददात्यथ गृह्णाति धर्मोद्दाहो द्वयोरपि ॥ ___ अर्थ-जो प्राचार्य, नोचकुल वाला जानकर भी उस नीच कुलीको ऋद्धिके गर्वसे अथवा-शिष्य बनानेकी अभिलाषासे दीक्षा देता हैं और जो नीचकुली निन थ दीक्षा लेता है उन दोनोंहीका धर्म दूषित है ॥ १०८॥ अज़ानाने न दोषोऽस्ति ज्ञाते सति विवर्जयेत् । आचार्योऽपि स मोक्तव्यःसाधुवगैरतोऽन्यथा ॥ अर्थ-जो कोई प्राचार्य नीच कुलीको नीच कुलो न जान
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प्रायश्चित्तकर दीक्षा देदे तो दोष नहीं परंतु जान लेने पर उसे छोड़ देना चाहिए यदि वह आचार्य उस नीच कुलीको न छोड़े तो अन्य साधुओंको चाहिए कि वे उस नीच कुलीको दीवा देनेवाले प्राचार्यको भी छोड़ दें॥१०६॥ . शिष्ये तस्मिन् परित्यक्ते देयोमासोऽस्य दंडनं। चांडालाभोज्यकारूणां दीक्षणे द्विगुणं च तत् ।। __ अर्थ-उस अकुलीन शिष्यके छोड़ देने पर इस भाचार्य- . को पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा भंगी चमार आदिको और अभोज्य कारों-धोबी, बहना, कलाल मादि को दीक्षा देने पर वह पूर्वोक्त पंचकल्याण प्रायश्चित्त दना देना . चाहिए ॥११॥ अनाभोगेन चेत्सरिदोंपमाप्नोति कुत्रचित्।। अनाभोगेन तच्छेदो वैपरीत्याद्विपर्ययः॥१११॥ __ अर्थ-यदि आचार्य कहीं भी अप्रकाश रूपसे दोषको प्राप्त . हो तो उसको अप्रकाशरूपसे ही प्रायश्चित्त देना चहिए और बदि प्रकाशरूपसे दोषको प्राप्त हो तो उसको प्रकाशरूपसे हो प्रायश्रित देना चाहिए ॥११॥ क्षुल्लकानां च शेषाणां लिंगप्रभंशने संति। . . तत्सकाशे पुनदीक्षा मूलात्पाषंडिचेलिनाम् ॥ . अर्थ-बुधक-सर्वोत्कृष्ट आवकोंको भी किसी कारणवश उनकी दीक्षाका भंग हो जाने पर जिसको पास पहले,दीवाली
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चलिका
१९७ दो उसीके पास फिर भी दीक्षा लेना चाहिए, अन्य आचार्यके पास नहीं। नियन्य लिंगसे रहित अन्यलिंगी, पिथ्याष्टि गृहस्थ और श्रावक इनको मूल (मारंभ) से हो दीक्षा है अतः ये चाहे जहां दीक्षा ले सकते हैं। ११३ ॥ कुलीनक्षुल्लकेष्वेव सदा देयं महाव्रतं । सल्लेखनोपरूटेषु गणेंद्रेण गणेच्छुना ॥११३॥ __ अर्थ-सज्जाति विवाहिता ब्राह्मणीमें ब्राह्मणसे, क्षत्रियाणीमें क्षत्रियस ओर वैश्य वीमें वैश्यसे उत्पन्न हुए पुरुषके ही मातृपक्ष और पितृपक्ष ये दोनोंकुल विशुद्ध हैं अतः इन विशुद्ध उभय कुलोंमें उत्पन्न हुआ तुल्लक जिसने कि व्यंग
आदि कारणों के वश तुल्लक व्रत धारण कर रक्खा हो वह समाधिमरण करने में तत्पर हो तब उसे निग्रंथ दोक्षा देना चाहिए। परंतु जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यके विशुद्ध उभयकुलमें उत्पन्न नहीं हुआ है उस तुल्लकको कभी भी निन्य दोक्षा नहीं देना चाहिए ॥ ११ ॥ ___ इस तरह ऋषि प्रायश्चित्त पूर्ण हुआ अब आर्थिकाओंका प्रायश्चित्त बताते हैंसाधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च । दिनस्थानत्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते ॥
अर्थ-जैसा प्रायश्चित्त साधुओंके लिए कहा गया है वैसा हो आर्यिकामोंके लिए कहा गया है, विशेष इतना है कि दिन
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प्रायश्चित्त
प्रतिमा, त्रिकालयोग चकारसे अथवा ग्रन्थान्तरोंके अनुसार पर्यायच्छेद, मूलस्थान, तथा परिहार ये प्रायश्चित्त भी आर्यि-: कामोंके लिए नहीं हैं ॥ ११४॥ समाचारसमुद्दिष्टविशेषभ्रंशने पुनः। . स्थैयोस्थैर्यप्रमादेषु दर्पतः सकृन्मुहुः ।। ११५॥
अर्थ-विना प्रयोजन पर घर जाना, अपने स्थानमें या पर स्थानमें रोना, वालकोंको स्नान कराना, उन्हें भोजन-पान कराना, भोजन बनाना, छह प्रकारका आरंभ करना आदि जो विशेष कथन समाचार क्रिया में आर्यिकाओंके लिए किया गया है उसका स्थिर, अस्थिर, प्रमाद और अहंकारवश एक बार
और बहु वार भंग करने पर नीचे लिखा प्रायश्चित्त है। भावार्थ-स्थिर और अस्थिर आर्यिकाओं के प्रमादक्श और अहंकारवश एक बार और वार बार समाचार क्रिया दोष लगने पर क्रमसे नीचे लिखा प्रायश्चित्त है ।। ११५॥ . कायोत्सर्गः क्षमा क्षांतिः पंचकं पंचकं क्रमात् । षष्ठं षष्ठं ततो मूलं देयं दक्षगणेशिना ॥ ११६॥ ___ अर्थ प्रायश्चित्त देनेमें चतुर आचार्य, स्थिर आर्यिकाको मयादवश एक वार समाचार क्रियामें दोष लगाने पर कायोसर्ग और वार वार दोष लगाने पर उपवास प्रायश्चित्त दे, दर्गवश एक बार दोष लगाने पर उपवास और बार बार दोष लगाने पर कल्याण प्रायश्चित्त दे, और अस्थिर आर्यिकाको
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चूलिका।
प्रमादवश समाचार क्रियामें एक वार दोष लगाने पर षष्ठ और बार बार दोष लगाने पर कल्याण दे, तथा दर्गवश एक बार दोष लगाने पर षष्ठ और बार बार दोष लगाने पर पंचकल्याण प्रायश्चित्त दे ॥ ११६ ॥ मृजलादिप्रमां ज्ञात्वा कुड्यादीनां प्रलेपने । कायोत्सर्गादिमूलान्तमार्याणां प्रवितीर्यते ॥
अर्थ-आर्यिकाओंको दोवाल लीपना, भूमि लीपना, औषधिपात्रोंको धोना, अग्निजलाना आदि कार्यों के करने पर मिट्टी, जल, आदि शब्दसे अग्नि, वायु, वनस्पति आदिका प्रमाण जानकर उसके अनुसार कायोत्सर्गको आदि लेकर पंचकल्याण पयत प्रायश्चित्त देना चाहिए। भावार्थ-मिट्टो जल, आदिके परिमाणके अनुसार जघन्य प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग है, उत्कृष्ट पंच कल्याण है और मध्यम प्रायश्चित्तके अनेक विकल्प हैं। सो इस परिमाणके अनुसार समझना चाहिए कि बिल्लीके पर जितनी मिट्टी खोदनेका, अंजलि प्रमाण जल खर्च करनेकां दीपककी लौ प्रमाण अग्निके बुझानेका हाथसे एक बार, दो वार अथवा तीन बार हवा करनेका एक एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। इस प्रमाणसे ज्यों बढ़ता बढ़ता मिट्टी जल आदिका प्रमाण हो यों त्यों बढ़ता बढ़ता प्रायश्चित्त समझना चाहिए ॥ १५७ ॥
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प्रायश्चित्त
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Aasam
वस्त्रस्य क्षालने घाते विशोषस्तनुसर्जनं। प्रासुकतोयेन पात्रस्य धावने प्रणिगद्यते ॥११॥ ___ अर्थ-वस्त्रके धोने में जलकायके जीवोंकी विराधना होने. पर एक उपवास और मासुक जलसे भिक्षाके पात्रों को धोनेका : एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है ॥ ११ ॥ वस्त्रयुग्मं सुवीभत्सलिंगप्रच्छादनाय च । आर्याणां संकल्पेन तृतीये मूलमिष्यते ॥११९॥ ..
अर्थ-आयिकाओंको गुप्त अंगको ढकनेके लिए दो वस्त्र. रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के अलावा तीसरा वस्त्र धारण... करने पर उसके लिए पंचकल्याण प्रायश्चित्त कहा गया है ।.. याचितायाचितं वस्त्रं भक्ष्यं च न निषिद्ध्यते। दोषाकीर्णतयाणामप्रासुकविवर्जितं ॥१२०॥ __ अर्थ-आर्यिकाएं हमेशा अनेक दोषांसे लिप्त रहती ही हैं इस कारण मांगनेसे प्राप्त हुआ किंवा विना ही मांगे स्वयमेव प्राप्त हुए निर्दोष वस्त्रोंको और भिक्षा-पात्रों को पास रखनेका अथवा स्वस्थान पर भिक्षा लानेका उनके लिए निषेध नहीं है । तरुणी तरुणेनामा शयनं गमनं स्थिति । .. विदधाति ध्रुवं तस्याः क्षमाणां त्रिंशदुदाहृता ॥
अर्थ-जो तरुण आर्यिका तरुण मुनिके साथ शयन करती हो, गमन करती और साथही रहती हो या कायोत्सर्ग करती हो .लिए तीस उपवास प्रायश्चित्त कहे गये हैं ॥ १२१॥ ::
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चलिका।
तारुण्यं च पुनः स्त्रीणां षष्टिवर्षाण्यनूदितं । तावंतमपि ताः कालं रक्षणीयाः प्रयत्नतः॥ __ अर्थ-स्त्रियोंकी यौवनावस्था साठ वर्ष तक की कहो गई है इसलिए साठ वर्ष तक प्रयत्नपूर्वक आर्यिकानोंको रक्षा करना चाहिए। १२२॥ दर्पण संयुताथार्या विधत्ते दंतधावनं । रसानां स्यात् परित्यागश्चतुर्मासानसंशयं ॥ __ अर्थ-यदि जो कोई भी आर्यिका अहंकारके वशीभूत होकर दंतधावन करे तो उसके लिए चार महीने तक रसोंका परित्याग प्रायश्चित्त है ॥ १२ ॥ अब्रह्मसंयुता क्षिप्रमपनेयापि देशतः। सा विशुद्धिर्वहिर्भूता कुलधर्मविनाशिका ॥
अर्थ-युनाचरण कर संयुक्त आर्यिकाको शीघ्रहो देशके. बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसी मार्यिका प्रायश्चित्तसे रहित है अर्थाद उसके लिए कोई भी शुद्धिका उपाय नहीं है और वह गुरुकुल तथा जिनशासनका विनाश करनेवालो है ॥ १२४॥ तदोषभेदवादोऽपि पंडितानां न कल्पते । अन्योक्तं लक्षणीयं न तत्प्रहेयं प्रयत्नतः॥१२५॥
अर्थ-सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंको चाहिए कि वे पूर्वोक्त संयमसंबंधी दोषोंको किसीके सामने न कहें और दूसरे लोग कह रहे
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प्रामश्चित्तहों तो उसपर लक्ष्य न दें। तथा ऐसे दोपोंके कहनेका प्रयत्नपूर्वक लाग करें ॥ १२५॥ यतिरूपेण वाच्याप्ता चेदानामधारिका। हा! हा! कष्टं महापापं न श्रोतुमपि युज्यते ॥ __ अर्थ-आर्या नामधरानेवाली स्त्री यदि यति नाप धरानेवाले पुरुषके साथ वदनामको प्राप्त हो जाय तो उन दोनोंको धिक्कार है, उनका यह कर्तव्य अत्यंत निकृष्ट है और महापाप है इसलिए इस पापको औरोंसे कहना और पूछना तो दूर रहो कानोंसे -सुनना भी नहीं चाहिए ॥ १२६ ॥ उभयोरपि नो नाम ग्राह्य धिमीचकर्मणोः।
अन्यश्चेत्कोऽपि तद्ब्रूयात् पिधातव्ये ततःश्रुती॥ ___ अर्थ-निकृष्ट नोचकर्म करनेवाले उन दोनों लिंगधारियोंका नाम भी नहीं लेना चाहिए। यदि कोई दूसरा उन दोनों के उक्त दूषणको कह रहा हो तो अपने कान मूंद लेना चाहिए। स नीचोऽप्यश्नुते शुद्धिं शुद्धबुद्धिः प्रयत्नतः। देशकालान्तरात्तत्र लोकभावमवेत्य च ॥१२८॥ __ अर्थ-वह नोचकर्म करनेवाला साधु भी विरक्त परिणाम धारण कर लेने पर देशान्तरमें ओर कालान्तरमें सम्यग्विधान"गर्वक शुद्धिको माप्त हो सकता है। शुद्धिका विधान यह है कि प्रायश्चित्त प्रदान करनेवाला गणधर, प्रथम, जिस देशमें उसे प्रायश्चित्त दे वहां के लोगोंके परिणामोंको कि इस देशमें
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चूलिका । भी इसके दोष नहीं ग्रहण करता है इस प्रकार अच्छी तरह जान ले ॥१८॥ शपथं कारयित्वाथ क्रियामपि विशेषतः । बहूनि क्षमणान्यस्य देयानि गणधारिणा ॥१२९॥
अर्थ-भनन्तर उससे शपथ कराकर और विशेष विशेष मतिक्रमण कराकर उसको बहुतसे उपवास प्रायश्चित्त दे॥ द्रव्यं चेद्धस्तगं किंचिद्वंधुभ्यो विनिवेदयेत् । तदास्याः षष्ठमुद्दिष्टं सोपस्थानं विशोधनं ॥
अर्थ-यदि पार्यिकाके पास सोना, चांदी आदि कुछ भी द्रव्य हो और वह उस द्रव्यको अपने बंधुओंको देवे तो उस वक्त उसके लिए प्रतिक्रमण सहित पठोपवास प्रायश्चित्त है। येन केनापि तल्लब्धं पुनद्रव्यं च किंचन। वैयावृत्यं प्रकर्तव्यं भवेत्तेन प्रयत्नतः ॥१३१ ॥ . अर्थ-जिस किसी भी उपायसे कुछ भी द्रव्य आर्यिकाको मिले तो उस द्रव्यसे धर्मप्राणियोंका प्रयत्नपूर्वक उपकार करना चाहिए। यहो उसके लिए प्रायश्चित्त है ॥ १३१॥ भ्रातरं पितरं मुक्त्वा चान्येनापि सधर्मणा । स्थानगत्यादिकं कुर्यात् सधर्मा छेदभागपि ॥
अर्थ-पिता और भाईको छोड़कर) यदि आर्यिका अन्य पुरुपको जाने दीजिये साधर्मी गुरुभाईके साथ भी कायोत्सर्ग,
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प्रायश्चित्तमार्गगमनागमन, सहवास आदि करे तो वह साधर्मी भी प्रायश्रितका भागी होता है। वह आर्यिका प्रायश्चित्तभागिनी हो । इसका तो कहना हो क्या है। भावार्थ-पिता और भाईके साथ यदि आर्यिका कायोत्सर्गादि क्रिया करे तो उनमेंसे कोई भी प्रायश्चित्तके भागी नहीं है। इसके अलावा किसीके साथ भी मार्यिका कायोत्सर्गादि क्रिया करे तो जिसके साथ करे वह भो.. और नो करे वह भो सभी प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ॥ १३२ ।। बहून् पक्षांश्च मासांश्च तस्या देया क्षमा भवेत् । बलं भावं वयो ज्ञात्वा तथा सापि समाचरेत्॥ - अर्थ-उस प्रायिकाकी शक्ति, उसका भाव भौर अवस्था जानकर उसे बहुतले पक्षोपवास और मासोपवास प्रायश्चित्त देने चाहिए। उसी तरह वह आर्या भो उस दिये हुए प्रायश्चित्तः . को आदर बुद्धिके साथ करे ॥ १३३ ॥ क्षांत्या पुष्पं प्रवश्यंत्या तदिनात् स्याचतुर्दिनं । आचाम्लं नीरसाहारः कतव्या चाथवा क्षमा ॥. __ अर्थ-प्रायिका जब रजःस्वला हो जाय तव उस दिनसे लेकर चार दिन तक या तो कांजिक भोजन करे या नोरस भोजन करे या उपवास करे ॥ १३४॥ . तदा तस्याः समुद्दिष्टा मौनेनावश्यकक्रिया। व्रतारोपः प्रकर्तव्यः पश्चाच गुरुसन्निधौ ॥१३५॥
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चूलिका। अर्थ-रजस्वलाके समय आर्यिका समता, स्तव, वन्दना, भतिक्रमण, प्रसाख्यान और कायोत्सग इन छह आवश्यक क्रियानोको मौनपूर्वक करे और शुद्ध हो जानेके पश्चात गुरुके समीप जाकर व्रत ग्रहण करे ॥१३५॥ स्नानं हि त्रिविधं प्रोक्तं तोयतो व्रतमंत्रतः । तोयेन स्याद् गृहस्थानां साधूनां व्रतमंत्रतः॥
अर्थ-स्नान तीन प्रकारका कहा गया है-जलस्नान, व्रतस्नान और मन्त्रस्नान । जलस्नान गृहस्थ करते हैं तथा व्रतस्नान
और मंत्रस्नान साधु करते हैं। व्रतस्नान और मंत्रस्नान यह साधुओंकी परमार्थ शुद्धि है । परन्तु चांडाल आदिका स्पर्श हो जाने पर व्रतपालते हुए उनको जलसे भी व्यवहार शुद्धि करना चाहिए ॥ १६ ॥ __ इस प्रकार आर्याभोंका प्रायश्चित्त कहकर श्रावकोंका प्रायः । श्चित्त कहते हैंश्रमणच्छेदनं यच्च श्रावकाणां तदेव हि। द्वयोरपि त्रयाणां च षण्णामाहानितः॥१३७॥ ___ अर्थ-जो मायश्चित्त साधुओंके लिए कह आये हैं वही क्रमसे दो, तीन और छह श्रावकोंके लिए आधा आधा है। भावार्थ-श्रावक ग्यारह तरहके होते हैं। उनमेंसे उद्दिष्ट सागी । और अनुतिसागी इन दो उत्कृष्ट श्रावकोंके लिये मुनिमायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त है। परिग्रहत्यागी, आरंभयागी और ब्रह्मचारी इन तीन मध्यम श्रावकोंके लिए उत्कृष्ट श्रावकके
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प्रायश्चित्त
२०६ प्रायश्चित्तस आधा प्रायश्चित्त है और दिवामैथुनत्यागो, सचित्त खागी, मोषधोपवास करनेवाला, सामायिक करनेवाला, प्रतिक और दार्शनिक इन छह जघन्य श्रावकोंके लिए उन मध्यम तीन श्रावकोंके प्रायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त है ॥ १३७ ॥ केचिदाहर्विशेषेण त्रिष्वप्यतेषु शोधनं। द्विभागोऽपि त्रिभागश्च चतुर्भागो यथाक्रम ॥
अर्थ-कोई आचार्य इन तीनों तरहके श्रावकोंका प्रायश्चित्त दूसरीही तरहसे कहते हैं। वे कहते हैं कि साधु प्रायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त तो उत्कृष्ट श्रावकोंके लिए है। साधुके प्रायश्चित्तका ही तीसरा हिस्सा प्रायश्चित्त मध्यम श्रावकों के लिए हैं और साधुके प्रायश्चित्तका ही चौथा हिस्सा प्रायश्चित्त जघन्य श्रावकोंके लिए है ॥ १९॥ षण्णां स्याच्सवकाणां तु पंचपातकसंनिधौ। . महामहो जिनेन्द्राणां विशेषेण विशोधनम् ॥ ___ अर्थ-यद्यपि सभी श्रावकोंका प्रायश्चित्त ऊपर कह चुके हैं. तो भी छह जघन्य श्रावकोंका प्रायश्चित्त और भी विशेष है सोही कहते हैं । गोबंध, स्त्रीहसा, बालघात, श्रावकविनाश और ऋषिविघात ऐसे पांच पापोंके बन जाने पर जघन्य श्रावकोंके लिए जिन भगवान्का महामह करना यह विशेष प्रायश्चित्त है ॥१३८
आदावंते च षष्ठं स्यात् क्षमणान्येकविंशतिः। ३. प्रमादागोवधे शुद्धिः कर्तव्या शल्यवर्जितैः॥ ..
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चूलिका।
२०७. अर्थ-माया, मिथ्या और निदान इन तीनों शल्योंसे रहित. उक्त छह श्रावकोंको किसी भी तरह गौका वध होनाने पर आदिमें और अंतमें एक एक षष्ठोपवास और मध्यमें इक्कीस. उपवास करना चाहिए ।।१४०॥ सौवीरं पानमाम्नातं पाणिपात्रेच पारणे। प्रत्याख्यानं समादाय कर्तव्यो नियमः पुनः॥
अर्थ और पारणेके दिन पाणिपात्रमें कांजिक-पान करना चाहिए तथा चार प्रकारके आहारका सागकर फिर श्रावक प्रतिक्रमण करना चाहिए ।। १४१ ॥ त्रिसंध्यं नियमस्यांते कुर्यात् प्राणशतत्रयं । रात्रौ च प्रतिमां तिष्ठन्निजितेंद्रियसंहतिः ॥१४२
अर्थ-पूर्वाण्ड, मध्यान्ह और अपराएह इन तीनों संध्या समयोंमें नियम (प्रतिक्रमण) करे। नियमके अंतमें तीन सौ उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करे और इंद्रियसमूहको वशमें करता हुआ रात्रिमें भी कायोत्सर्ग करे। १४२ ॥ द्विगुणं द्विगुणं तस्मात् स्त्रीवालपुरुषे हतौ। सद्दृष्टिश्रावकषीणां द्विगुणं द्विगुणं ततः॥१४३:
अर्थ-स्त्री, बालक और मनुष्य के मारने पर गोवध प्रायश्चित्से दूना दूना प्रायश्चित्त है और सम्यग्दृष्टि श्रावक और ऋषिघातका प्रायश्चित्त उससे भी दना दना है। भावार्थ-जो प्रायश्चित्त गोवधका कह पाये हैं उससे दूना मायश्चिच स्त्रीवध
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मायश्चित का है। स्त्रीवधसे दूना वालकके वधका है। बालकके वधसे दुना सामान्य मनुष्यके वधका है। एवं उससे दुना पाखंडोके वधका, उससे दूना लौकिक ब्राह्मणके वधका, उससे दूना संयतासंयतके वधका और उससे दूना निर्गन्य साधुके वधका है॥१४३ ॥ कृत्वा पूजां जिनेन्द्राणां स्नपनं तेन च स्वयं । स्नात्वोपध्यंवराद्यं च दानं देयं चतुर्विधं ॥१४४॥ __ अर्थ-उक्त प्रायश्चित्त कर लेने अनन्तर अहंतोंकी पूजा
और अभिषेक करे और उस अभिषेक जलसे स्वयं-आप स्नान · करे तथा पुस्तक, कमंडलु, पिच्छी, वस्त्र, पात्र आदिका यथा
योग्य दान दे और अभयदान, आहारदान, शास्त्रदान औषध। दान यह चार प्रकारका दान भी दे ।। १४४॥ . . सुवर्णाद्यपि दातव्यं तदिच्छूनां यथोचितं ।
शिरः क्षोरं च कर्तव्यं लोकचित्तजिघृक्षया॥. ... .. अर्थ-तथा सोना, चांदी, वस्त्र आदि चाहनेवालोंको :
यथोचित सोना, चांदी, वस्त्र आदि दे और सम्पूर्ण मनुष्योंका • मन उसकी ओर अनुरक्त हो इस इच्छासे शिरके बाल भी . . मुंडावे। इतना प्रायश्चित्त कर अनन्तर घरमें प्रवेश करे ॥१५॥
क्षुद्रजंतुवधे क्षांतिः षष्ठमन्यव्रतच्युतौ । ..... ..गुणशिक्षाक्षतौ क्षान्तिईग्ज्ञाने जिनपूजनं ॥१४६ .
अर्थ-दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, और चौइंद्रिय इन क्षुद्र जंतुओं
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चूलिका.
२०६ का विघात करने पर उपवास, सत्य अचोर्य, स्वदारसंतोप और परिग्रह परिमाणवतका भंग होने पर पष्ठ प्रायश्चित्त, गुणवत
और शिक्षात्रतमें क्षति पहुंचने पर उपवास प्रायश्चित्त तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें दोष लगने पर जिनपूजन पायश्चित्त होता है। भावार्थ-सब बाँके सब दाप पैंसठ हैं सो हो कहते हैं। अतिक्रम, व्यतिकम असोचार, अनाचार भोर अभोग . ये पांच मूलदोष हैं इनका अर्थ जरद्वन्यायसे कहते हैं। जरदव नाम बढे गेलका है। जैसे कोई एक वढा गेल अच्छा हराभरा धान्यका खेत देख कर उस खेतको ति (वाड़) के पास खड़ा हुआ उस धान्यके खानेको इच्छा करता है सो अतिक्रम है। फिर वाड़के छेदमें मुख डालकर एक ग्रास लू यह जो उसकी इच्छा है सो व्यक्तिक्रम है फिर खेको बाड़ को उल्लंघ जाना अतीचार है फिर खेतमें जाकर एक ग्रास लेकर पुनः वापिस निकल पाना अनाचार है तया फिर भी खेत में घुस कर निःशंक यथेष्ट भक्षण करना, खेतके मालिक द्वारा दंडसे पिटना मादि अभोग है। इसी प्रकार व्रतादिकोंमें समझना चाहिए। प्रत्येक व्रतमें ये पांच पांच दोप पाये जा सकते हैं। ऊपर वारहवत पोर नीचे भतिक्रप, व्यतिक्रम, अतोचार, अनाचार और प्रभोग इन पांच दोपोंको रखना चाहिए। इनकी. संदृष्टि यह है-. .
११११११११११११ . ५५५५५५५५५५५५ स्यून वृत्त प्राणातिपातके अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतीचार, अनाचार और प्रभोग इस तरह प्रथम अणुव्रतकी पंच उच्चारणा
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२१०
'प्रायश्चित्तहैं। इसी तरह बाकीके ग्यारह व्रतोंकी पांच पांच उचारणा होती हैं। सव व्रतों संबन्धी सम्पूर्ण उच्चारणा मिलकर साठ होती हैं। पांच मूल उच्चारणाओंको पिला देने पर सब उच्चारणा पेंसठ हो जाती हैं सो ये पैंसठ इन बारह व्रतोंके दोष हैं। इन दोषोंके लगने पर उक्त प्रायश्चित्त यथायोग्य समझना चाहिए ॥१४॥' रेतोमूत्रपुरीषाणि मद्यमांसमधूनि च।। अभक्ष्यं भक्षयेत् षष्ठं दर्पतश्चेद् द्विषदक्षमा॥१४७
अर्थ-वीर्य, मूत्र, पुरीष (ही) मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्य-रुधिर, चर्म, हड्डी आदि यदि जघन्य श्रावक प्रमाद वश खाय तो षष्ठपायश्चित्त है। यदि अहंकारमें तन्मग्न होकर उक्त चीजोंको खाय तो बारह उपवास प्रायश्चित्त है ॥१४७॥ . . पंचोदुंबरसेवायां प्रमादेन विशोषणं ।
चांडालकारकाणां षडन्नपाननिषेवणे ॥१४॥ .. अर्थ-अहंकार वंश पांच उदुम्बर फलोंके खानेका प्रायश्चित्त बारह उपवास है और प्रयादवश खाय तो उपवास प्रायश्चित्त है तथा चांडाल आदिके यहां और धोवी आदि कारू शद्रोंके यहां अन्न-पान सेवन करे तो छह उपवास प्रायश्चित्त है। सद्योलंघि (वि)तगोधात बन्दीगृहसमाहतान् । कृमिदष्टं च संस्पृश्य क्षमणानि षडश्नुते ॥१४॥ अर्थ-रम्सी आदिसे बंधकर मरे हुए, गायके सींगोंके
काराग्रह (जेलखाने ) में बन्द कर देनेसे
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चूलिका!
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परे एएको तथा जिसमें कृषि-जंतु पड़ गये हों, पोप बह रही हो ऐसे शरीरके पानको पदि छवे तो वह जघन्य श्रावक छह उप. बासोंको प्राप्त होता है। भावार्थ-उक्त प्रकारसे परे हुएको और कृमिक्षतको छनेका छह उपवास प्रायश्चित्ल है ॥१४६॥ सुतामातृभगिन्यादिचांडालीरभिगम्य च । अश्नुवीतोपवासानां द्वात्रिंशतमसंशयं ॥१८०॥
अर्थ-अपनी पुत्री, माता, वहन, आदि शब्दसे मासो, सास, पुत्रभार्या आदिको और चांडाल भङ्गो आदिकी स्त्रियोंको सेवन करनेवाला संदेहरहित बत्तीस उपवासोंको प्राप्त होता है भावार्थ-पुत्री आदिके साथ व्यभिचार सेवनका बत्तीस उपवास मायश्चित्त हैं। कारूणां भाजने भुक्ते पीतेऽथ मलशोधनं। . विशोषा पंच निर्दिष्टा छेददक्षैर्गणाधिपैः॥ . __ अर्थ-प्रायश्चित्त शास्त्रोंके वेत्ता प्राचार्यों ने अभोज्यकारुभोंके वर्तनों में खाने और पीनेका प्रायश्चित्त पांच उपवास कहा है। भावार्थ-अभोज कारोंका अर्थ आगे १५४ ३ श्लोकमें कहा जायगा। उनके वर्तनोंमें खाने-पीनेका पांच उपचास प्रायश्चित्त ह ॥ १५ ॥ जलानलप्रवेशेन भृगुपाताच्छिशावपि। बालसंन्यासतः प्रेते सद्यःशाचं गृहिवते ॥ .
अर्थ-जलमें इवकर, अग्निमें जलकर कहींसे भी गिरकर
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प्रायश्चित्तमरने पर, बालकके मरने पर, और मिध्यादृष्टि संन्याससे मरने पर गृहस्थ व्रतमें तत्काल शुद्धि है। भावार्थ--उक्त प्रकारसे यदि कोई वजन मर जाय तो गृहस्थोंको उसका सूतक नहीं है॥१५२॥ ब्राह्मण क्षत्रविदछद्रा दिनैः शुद्धयंति पंचभिः। दशद्वादशभिः पक्षायथासंख्यप्रयोगतः ॥१५३।।
अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध ये अपने किसी खजनके मर जाने पर क्रमसे पांच दिन, दश दिन, वारह दिन और पंद्रह दिन बीत जानेसे शुद्ध होते हैं। भावार्थ-ब्राह्मण पांचदिनसे, क्षत्रिय दश दिनसे, वैश्य बारह दिनसे और शूद्र पंद्रह दिनसे शुद्ध सूतकरहित होते हैं। यहां प्राचार्य संप्रदायका.. ' भेद मालूप पडता है-अन्य शास्त्रोंमें ब्राह्मणके लिए दशदिन : और क्षत्रियों के लिए पांच दिनका सूतक बताया गया है। अथवा उक्त पाठके स्थानमें ब्राह्मणविदछद्राः” ऐसा पाठ हो तो ठोक समानता पैठ जाती है। अस्तु, कई वि आचार्योंका मतभेद पाया जाता ह संभव है यहां भी वह हो ॥ . कारिणो दिविधा सिद्धा भोज्याभोज्यप्रभेदतः। भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकव्रतं ॥१५४॥ ..
अर्थ-शूद्र भोज्य और अभोण्यके भेदसे दो तरहके ह । - जिनके यहांका आहार-पानो ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ,
है वे भोज्य कारु होते हैं इनसे विपरीत अर्थात् जिनका : आहारपानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद नहीं खाते पीते थे.
कडे विषयोंमें ।
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चूलिका ।
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अभोज्य कारु हैं। इनमें से भोज्य कारुओं ( भोज्य शूद्रों) को ही तुनक दीक्षा देनी चाहिए, अभोज्य शूद्रोंको नहीं ॥२५॥ क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनं ।
आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वनिषिध्यते॥ ___ अर्थ-तुल्लकोंके एक ही वस्त्र होता है, दूसरा नहीं। खडे -रहकर भोजन लेना भी उनके नहीं है । तथा आतापन, उत्तमूल पार अभावकाश इन योगोंका भी तुल्लकोंके लिए निषेध हैं ।। क्षौरं कुर्याच लोचं वा पाणौ भुंक्तेऽथ भाजने। कौपीनमात्रतंत्रोऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः॥ ___ अर्थ-तुल्लक छुरेसे मुंडन करे अथवा हाथोंसे वाल उपाड, वह हाथमैं भोजन करे, अथवा पात्रमें, ऐसा कौपीनपात्रके
अधीन तुल्लक कहा गया है। भावार्थ-तुल्लकके दो भेद हैं। ' उनमें पहला तुलक छुरेस या कैचीसे शिरका मुडन वारता है। बैठकर पात्रमें भोजन करता है, कमरमें कौपिन पहनता है। दूसरा तुल्लक हाथास सिरके बाल उपाड़ता है, हाथमें ही बैठ कर भोजन करता है, शास्त्रान्तरोंके अनुसार वह खड़ा रहकर भी भोजन कर सकता है और कमरमें सिर्फ कोपीन पहनता है। इसका दूसरा नाम आये है जिसको बोलचालमें ऐलक कहते हैं। दोनों ही तरहकी तुल्लक दीक्षा भोज्य शूद्रोंको दो जाती है।। १५६॥ सदुदृष्टिपुरुषाः शखद्धाँदाहाद्धि बिभ्यति। लोभमोहादिभिर्धर्मदूषणं चिंतयंति न ॥१५॥
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प्रायश्चित्त
अर्थ-सम्यग्दृष्टि पुरुष हमेशह धर्मके उदाह-विनाशसे डरते रहते हैं इसलिए वे लोभ, मोह, द्वेष आदिके वश होकर कभी भी धर्ममें कलंक लगनेको वांछा नहीं करते हैं ।। १५७ ॥ प्रायश्चित्तं न यत्रोक्तं भावकालक्रियादिकं। . . . गुरुद्दिष्टं विजानीयात् तत्प्रनालिकपानया ॥ .
अर्थ-भाव-परिणाम, काल-शीतकाल, उष्णकाल और साधारणकाल, क्रिया-सचिल्त, अचित्त और मिश्रद्रव्यका. प्रतिसेवन इत्यादि प्रायश्चित्त जो यहां नहीं कहा गया है उसको गुरु उपदेशके अनुसार इसी पद्धतिसे समझ लेना चाहिए ॥१५८ उपयोगावतारोपात् पश्चात्तापात् प्रकाशनात् । पादांशार्धतया सर्वं पापं नश्यद्विरागतः ॥१५९॥
अर्थ-किसी अपराधके वन जानेपर उपयोग (सावधानो) रखनेसे, कोई न कोई व्रत लेलेनेसे, पश्चात्ताप करनेसें तथा. अपना दोष दूसरेको कहनेसे वह अपराव चौथे हिस्से प्रमाणं और आधा नष्ट हो जाता है। और विरक्त परिणामोंसे नों सबका सब नष्ट हो जाता है। भावार्य किया हुआ अपराधं उक्त कारणोंसे चतुर्थ हिस्से प्रमाण, आधा अथवा सवका सब नष्ट हो जाता है ॥ १५६॥ अवद्ययोगविरतिपरिणामो विनिश्चयात् ।... प्रायश्चित्तं समुद्दिष्टमेतत्तु व्यवहारतः ॥ १६० ।।
अर्थ-निश्चयनयकी अपेक्षासे. संपूर्ण सावधयोगः-पाप
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An.
चलिका
२१५ कों के संबंधसे विरक्त परिणाम हो प्रायश्चित्त है और यह जो भायश्चित्त कहा गया है वह सब व्यवहारनयकी अपेक्षासे है। भावार्य-निश्चयनय और व्यवहारनय ये दोनों नप अनादिसंबद्ध हैं और दोनों ही एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं तभी सुनय कहलाते हैं अन्यथा वे कुनय हैं। इसी तरह निश्चय प्रायचित्त और व्यवहार प्रायश्चित्त ये दोनों भी अनादिसंबद्ध हैं
और एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं तभी मागियोंके अपराधोंको शुद्ध कर सकते हैं भन्यथा नहीं। अतः व्यवहारमायश्चित्तके समय निश्चयमायश्चित्त और निश्चयप्रायश्चित्तके समय व्यवहारमायश्चित्त अवश्य होना चाहिए। पापकर्मा से विरक्त परिणामोंका होना निश्चयमायश्चित हैं और निविकृति आचाम्ल आदि व्यवहारमायश्चित्त हैं एवं प्रायश्चित्त दो प्रकारका हैं ॥१६० प्रायश्चित्तं प्रमादेऽदः प्रदातव्यं मुनीश्वरैः। अपि मूलं प्रकर्तव्यं बहुशोबहुशो भवेत्॥१६१॥
अर्थ-प्रायश्चित्त देनेवाले प्राचाय, काँचत्-एकवार दोप लगने पर प्रागमोक्त प्रायश्चित्त देखें और वारवार दोपोंका पाचरण करनेवाल साधुके लिए मूल-पुनर्दीक्षा प्रायश्चित्तका विधान भी करें ॥ १६१॥. . गृहीतव्यं त्रयाणां न हित स्वस्म समीप्सुभिः। नरेन्द्रस्यापि वैद्यस्य गुरोहित विधायिनः॥ - अर्थ-अपना हित चाहनेवाले :पुरुषोंको हितकारी राजा, वैद्य और गुरु इन तीनोंको कभी नहीं छिपाना चाहिए ॥१६॥
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प्रायश्चित्त-चूलिका । यावंतः स्युः परीणामास्तावंतिच्छेदनान्यपि । प्रायश्चितं समर्थः को दातुं कर्तुमहोमते॥१६३१
अर्थ-जितने परिणाम में उतने ही प्रायश्चित्त हैं। इसमकार उतना प्रायश्चित्त न तो कोई देनको समर्थ है और न काई करने. का समर्थ हैं ॥१३॥ प्रायश्चित्तमिदं सम्यग्युजानाः पुरुषाः परं। लभंते निर्मलां कीर्तिं सौख्यं स्वर्गापवर्गजं ॥ .. ___ अर्थ-इस प्रायश्चित्तको अच्छी तरह करनेवाले पुरुष अग्रगण्य होते हैं, निर्मल कीर्तिको प्राप्त करते हैं और स्वर्ग और मोत्तसंबन्धी सुख भोगते ह ॥१६॥ चूलिकासहितो लेशात् प्रायश्चित्तसमुच्चयः। नानाचायमतानकैयाद्वोद्भुकायेन वर्णितः॥
अर्थ-यह चलिका सहित प्रायश्चित्त-समुच्चय नामका ग्रंथ अनेक आचार्यों के अनेक मतोंको एक रूपसे जाननेकी इच्छासे मैंने संक्षेपसे कहा है ॥ १६॥ अज्ञानाद्यन्मया बद्धमागमस्य विरोधिकृत् । तत्सर्वमागमाभिज्ञा शोधयंतु विमत्सराः॥१६६।
अर्थ-अज्ञानवश जो मैंने परमागम, शन्दागम और:: गपसे विरुद्ध कहा हो उस सबको आगमके वेत्ता आचार्य म. दव मत्सरभावोंसे रहित होते हुए शुद्ध करें। इस तरह गुरुदास आचार्यकृत प्रायश्चित्त-समुच्चय और उसकी चूलिकाका नवीन हिन्दी-अनुवांद पूर्ण हुआ।
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