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पत्या० सारस्वतविभ्रमः,दानपटुिंशिका, विशेषणवती, विंशतिका च
आद्यं मूलमात्रं द्वितीयं सवृत्तिकं तृतीयं सावतारं मूलमात्रं चान्त्यद्वयं.
श्री यशोदेव चारित्रसिंहराजशेखरैः कृतमाद्यत्रयं श्रीमजिनभद्रसूरिवर्यहरिभद्राचार्यैः कृतं चान्त्यद्वयं. प्रसिद्धकर्ता - रतलाम श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी संस्था. बुहारिवास्तव्यश्रेष्ठिसुरचन्द्र पुत्रीसणिवाइविहितद्रव्यसहायार्ध भागेन मुद्रणकृत् - इंदौर पीपलीबाजार श्रीजैनबन्धुमन्त्रायाधिपः शा. जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा.
विक्रमसंवत् १९८४
इष्ट १९२७
मतयः ५००
क
वीरसंवत् २४५४ फलकल
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पण्यम्. १-४-०
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अनुक्रमणिका. मुद्रितप्रायाः
मुद्रयिष्यमाणाः विषयः
पृष्ठांकः १ पंचाशक-धर्मसंग्रहणी-उपदेशमाला- १ नन्दीसूत्रस्य चूर्णिः हारिभद्रीया वृत्तिश्च. १ श्रीमद्यशोदेवमूरिसूत्रितं ।
उपदेशपद-कर्मप्रकृति-पंचसंग्रह-जीव- २ आवश्यकचूर्णिः प्रत्याख्यानस्वरूपं. १-२६ समास-ज्योतिष्करण्डक रूपं ग्रन्थाष्टकं
। ३ दशवकालिकचूर्णिः २ कातंत्र (सारस्वत) विभ्रमः
मूलमात्रं स्वाध्यायधारणोपयोगि. ३-०-०
. ४ उत्तराध्ययनचूर्णिः सवृत्तिकः चारित्रसिंहकृतः २७-५२
| २ अनुयोगद्वाराणां चूर्णिः हारिभद्रीया वृत्तिश्च ५ आचारांगचूर्णिः ३ दानपटुिंशिका सावतारा
.२-०.० ६ सूत्रकृतांगचूर्णिः श्रीराजशेखराचार्यकृता. ५३-६६ ३ ज्योतिष्करण्डकः श्रीमन्मलयगिर्याचार्यकृत४ श्रीमजिनभद्राचार्यकृता शास्त्रशंका- । वृत्तियुक्तः ३-८-०
समीहा चेत् मुद्रितप्रायमुद्रयिष्यमाणेषु निवारणात्मिका विशेषणवती २८ ४ पयरणसंदोहो-अष्टाविंशतिग्रन्थमयः१-०-०
स्वनाम्ना मुद्रणे एतेषामेकादेवों स ज्ञापयतु. ५ श्रीमद्धरिभद्राचार्यकृता
मुद्रितपूर्वाः-प्रकरणसमुच्चयः विंशतिविशिकाः
२४ अहिंसाष्टकसर्वज्ञसिद्धिएन्द्रस्तुतयः ॥
श संस्थामेताम्.
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।। ॐ नमो जिनाय ॥
धिद्वा
श्रीयशोदे वीये प्रत्या
ख्यान स्वरूप
श्रीमद्यशोदेवसूरिसूत्रितं प्रत्याख्यानस्वरूपम् ।
॥१॥
तवझाणानलनिवदुहकम्भिधणं जिणं नमिडं । पच्चक्खाणसरूवं भणामि सुत्ताणुसारेण ॥ १ ॥ पइदिवओगाओ लेसेणाहारगोयरं पायं । अद्धापच्चक्खाणं वोच्छं नवकारमाईयं ॥२॥ पच्चक्खाणं नियमो अभिलाहो | विरमणं वयं विरई । आसवदारनिरोहो निवित्ति एगट्टिया सदा ॥३॥ पडिकूलमविरईए विरईभावस्स आभिमु खणं । खाणं कहण सम्म पच्चक्खाणं विणिद्दिढें ॥४॥ अद्धा कालो भण्णइ तप्परिमाणादभेदबुद्धीए । कीर मेवमद्धापच्चक्खाणं मुणेयव्वं ॥ ५॥ अद्धापच्चक्खाणपुरस्सरमेगासणाइ पाएणं । पडिवन्जिज्जइ तेणं अद्वाखा | तयंपि मयं ॥ ६॥ गहणे विहिं १ विसुद्धिं २ सुत्तवियारं च ३ पारणंविहिं च ४ । सयपालणं फलं चिय ६ऐयस्ता भणामि ऽहाकमसो ॥ ७॥ नवकाराई सुत्तं सव्वं पयवंजणेहि जाणतो । अत्थं च तस्स सम्मं आहारागारमाईयं
॥८॥ सूरे अणुट्टिएच्चिय गुरुणो चरणुज्जयस्स गीयस्स । काऊण सुत्तविहिणा विणयं किइकम्ममाईयं ॥९॥ रागिण्हइ पच्चक्खाणं उवउत्तो सावगो व साह वा । अणुभासंतो वयणं गुरुणो लहुतरसरेणं च ॥ १० ॥गुरुविरहे
स
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वीये
श्रीयशोदे-पडिवज्जइ वियप्पमेत्तेण उस्सुगो संतो। अहवा सुत्तं भणिउं ससक्खिगंचेव थिरचित्तो ॥११॥ जिणबिंबसक्खिगाविधिद्वार
वा ठवणायरियस्स अहव पच्चक्खं । गिण्हइ पञ्चक्रवाणं जं करणिज्जं तहिं काले ॥१२॥ पच्छा गुरुसंजोगे विशुद्धिद्वारं प्रत्या
सयंगिहीयं पुणोऽवि तप्पुरओ। गुरुसक्विगत्तहेर्ड पडिवज्जइ पुवनीतीए ॥ १३ ॥ गुरुसामग्गीअभावे सम्म ख्यान स्वरूपे.
पालेइ जं सयंविहियं । परमुस्सुगत्तगहियं सयमेव पुणो कुणइ विहिणा ॥ १४ ॥ केवलमिह चउभंगो जाणतो
जाणगस्स पासम्मि । बीओ अयाणमाणो गिराहा जागतगसमीवे ॥१५॥ तइयम्मि जाणमाणे गिण्हइ पासे ॥ २॥ अयाणमाणस्स । चरिमे अयाणप्राणो अयाणमाणात मूलम्ति ।। १६ ।। एत्य य पढमो सुद्धो सम्मन्नाणस्स तत्थ
भावाओ । विरईए नाणं चिय सुद्धीए कारणं जेणं ॥१७ ।। बीए जाणावेउं ओहेगाहारविगइमाईयं । देज्जा पच्चक्खाणं इहरा दोपहवि मुसावाओ ॥ १८॥ तइए गुरू अजाणं जेहो भाया व माउलाई वा। गुरुपूइउत्ति काउं तस्स उ पूया कया होउ ।। १९ ।। अप्पत्तियं च एयरस वज्जियं होउ कारणेणेवं । गिण्हइ पच्चक्खाणं इहरा दोसो अगीयम्मि ॥२०॥ जो पुण सयं न याणइ गिवहइ पासे अयाणमाणस्स । सो सयमंधो लग्गइ मग्गे अन्नस्स अंधस्स ॥ २१ ।। इय नाऊणं सम्मं जाणंतो जाणगस्स पासम्मि । कुज्जा पच्चक्रवाणं मोक्खफलं जेण त होइ ॥ २२॥ भणियं गहणविहाणं संखेवेणं सुयाणुसारेणं । इहि छब्बिहसुद्धिं तह चेव भणामि एयस्स ॥ २३ ॥ दा. १ ।
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द्वारं
OS
श्रीयशोदे
सा पुण सहहणे जाणणे य विणएऽणुभासणे तह य । अणुपालगम्मि भावे छव्विहसुद्धी मुणेयव्वा ॥ २४ ॥ विशुद्धिद्वाज बीये
पच्चक्वाणवियारं सयलं सद्दहइ तह य जो मुणइ । तस्स उ पच्चग्वाणं सहहणाजाणणासुद्धं ॥ २५॥ जं काउं सूत्रविचार प्रत्याख्यान
किइकम्मं दरोणओ पंजलीऽभिमुहवयणो । गिण्हइ पच्चक्खाणं तं भण्णइ विणयसुद्धं तु ॥ २६ ॥ अणुभासइ स्वरूप.
गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । गुरुसद्दलहुयसद्दो तं जाणऽणुभासणासुद्धं ॥ २७ ।। पच्चक्वइ वोसिरई
जाएयं नवरं गुरू समुच्चरइ । सीसो पच्चक्वामित्ति वोसिरामित्ति भासेइ ॥ २८॥ तथा-पच्चरवाया सूरी ॥३ ॥ लिपंचविहायारधारगो गीओ । सीसं पडुच्च जम्हा आहारनिसेहणं कुणइ ॥ २९ ॥ पच्चक्खाविंतो पुण सीसो
समुवडिओ सयं चेव । नियगाहारनिसेहे पउंजई गुरुजणं जेण । दा ॥ ३० ॥ अणुपालणाविसुद्धं आवइपत्तोऽवि जमणुपालेइ । सम्मं अचलियचित्तो तयय उवओगओ चेव । दा ॥३१॥ जं नो कोहा माणा माया लोभा भया व सोगा वा । नो जसकित्तिनिमित्तं नो पूयागारवनिमित्तं ॥ ३२॥ इहपरलोगासंसारहिओ जं कुणइ निज्जराहेउं । इंदियवियारविरओ भावविसुद्धं तयं नेयं ।। ३३ ॥ जं पुण कोहाइवसा उम्मत्तो वावि सुमिणमज्झे वा। गिण्हइ | पच्चक्खाणं तं न पमाणं सुयहराणं ॥ ३४ ॥ अन्नं मणमिकाउं अन्न वायाए कुगइज सहसा । तत्थवि मणं *पमाणं न पमाणं वंजणच्छलणा ।। ३५ । इय सुद्धीहि विसुद्धं पच्चवाणं भगति मोक्वंग । एयाहि अपरिसुद्धं
॥३॥ का विवरीयं तं मुणेयव्वं । ३६ ॥ भणियं विद्धिदारं सतविधारंति संपयं भणिमो । नवकार माइयाणं कमेण मुत्ताणुसारेणं ।। ३७ ।। दा. २ ।
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सूत्रविचार
द्वारं
श्रीयशोदे
नवकार १ पोरिसीए २ पुरिमड्ढे ३ कासणे ४ गठाणे ५ य । आयंबिल ६ उभत्तढे ७ चरिमे य८ अभिग्गहे वाय प्रत्याला विगई १०॥३८॥ दो चेव नमुकारे आगारा छच्च पोरिसीए उ। सत्तेव य पुरिमड्डे एगासणगम्मि अटेव ॥ ३९॥ ख्यान
सत्तेगट्ठाणस्स उ अटेवायंबिलम्मि आगारा । पंचेव अभत्तट्टे छप्पाणे चरिमि चत्तारि॥४०॥ पंच चउरो अभिग्गहि स्वरूपे
निविइए अट्ट नव य आगारा । अप्पाउरणे पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥४१॥ पंचपरमेट्टिनमणं नवकारो तेण संजुयं सहियं । जाव नवकारपाढं होइ न पाओवि एयंति ॥ ४२ ।। न य संकेइगतुल्लं एवं एयं मुहुत्तमज्झवि । नवकारपाढमेत्ते न पुज्जई जेणिमं किंतु ॥४३॥ नवकारमुहुत्तेहिं पुज्जइ जम्हा सुए इमं भणियं । अद्धापच्चक्खाणं सूरुदयविसेसणपयाओ ॥ ४४ ॥ पोरिसिपच्चक्रवाणे सूरुदयविसेसणेण जह पढमा । पोरिसि लब्भइ एगा पढममुहुत्तो तहेहंपि ॥४५॥ सुत्ते अविसेसेवि हु मुहुत्तअवहीए कारणं एत्था । अइधोवागारत्तं थोवे काले मुणेयब्वं | ॥ ४६ ॥ पोरिसिमाईयाणं मुहुत्तविरहेण लहुयरो अवही । अन्नो न कोइ भणिओ तम्हा गाहा इमा तत्थ ।। ४७॥
अद्धापच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं । पुरिमडपोरिसीहिं मुहुत्तमासद्धमासेहिं ।। ४८॥ तम्हा मुहुत्तविगमे | नवकारे भासिए हवइ पुण्णं । एवं पच्चक्रवाणं तत्थ य सुत्त इमं नेयं ।। ४९ ॥
उग्गए सूरे नमुक्कारसहियं पच्चक्खाइ, चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थऽणाभोगणं सहसागारेणं वोसिरह ।
॥
४
॥
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श्रीयशोदेचीये प्रत्या
ख्यान
स्वरूपे
॥ ५ ॥
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तत्थुग्गयम्मि सूरे सूरुदयाओ समारभेऊण | नवकारस्सहियं जे पच्चक्वाइत्ति गिण्हेइ || ५० ॥ कह चडविहंपि न पुणो एगविहं चैव दुविहमेवऽहवा । तिविहं चेवाहारं अन्भवहारं समासज्ज ॥ ५१ ॥ अहव नवकारसहियं पच्चक्खड़ तत्थ चउहमाहारं । वोसिरइ वज्जेई इय संबंधो मुणेयव्वो ॥ ५२ ॥ एवं किर पाएणं चडविहाहारगोयरं चैव । रयणी भोयणविरमणतीरणपायंतिकाऊ ||१३|| असणं पाणं इच्चाइणा उ आहा यनिद्देसं । वयभंगदोसवज्जणहेउं चाऽऽगारदुगमाह ॥ ५४ ॥ आभोगो उबओगो तस्साभावे भवे अणाभो अच्चतं विम्हरणं पच्चक्खाणस्स जं भणियं ||२५|| अन्नत्थ अणाभोगा णाभोगं मोतु चयइ आहार । पंच तुझ्या सहसाकारेवि एमेव ।। ५६ ।। सो पुण इह विन्नेओ पवत्तजोगानियत्तणसरूवो । जम्मी सुमरंतस्सवि शक्ति मुंहे किंपि पविसेज्जा ॥ ५७ ॥ एवमणा भोगेणं भुजतस्सवि हवेज्ज मा भंगो । सहसाकारेण वा मुहं पविद्वे चे आहारे ।। ५८ ।। तो आगारा भणिया अववाया कारणाणि छिड्डीओ । इय बहुविहपज्जाया दो चैव य ए सुत्तमि ॥५९ ॥ एतो असणाईयं वोच्छामि चउव्विपि आहारं । सुत्ताणुसारओ खलु तस्स विवक्खं चणाहा || ६० || आहारजाइओ एस एत्थ एकोऽवि दंसिओ चउहा। असणाइजाइभेया सुहावबोहाइजणणत्थं ॥ ६१ नाणं सदहणं गहणपालणा विरइवुड्डि चैवंति । होइ इहरा उ मोहा विवज्जओ भणियभावाणं ।। ६२ ।। असणं ओयणसत्तुगमुग्गजगाराइ खज्जगविही य । खीराइ सूरणाई मंडगपाभिई य विज्ञेयं ॥ ६३ ॥ इत्यशनं । पाण सोवीरजवोदगार चित्तं सुराइयं चेव । आउक्काओ सब्बो संगरकइराइनीरं च ॥ ६४ ॥ खज्जूरदक्खदाडिम
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सूत्रविचारे नमस्कार सहितं
114 11
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चीये
श्रीयशोदे-चिंचापाणाइतकामिक्खुरसो । गुडखंडाईनीरं आयामुस्सयमाई य ।। ६५ ।। पाणगआगारेहिं कएहिं एयाई होति | सूत्रविचारे कप्पाइं । इहरा न हुंति कप्पा मोत्तुं उसिणोदगाईयं ॥ ६६ ।। इति पानं । भत्तोसं दंताई ग्वज्जूरं नलिकेरदवाई।ाला
पौरुषी प्रत्या- कक्कडियंबगफणसाइ बहुविहं खाइम नेयं ।। ६७ !। गोहुमनणगाईयं भुग्गं भत्तोसमिह समक्खायं । गुरुसंभियदंख्यान
तवणाइ देसरूढीए दंतंति ॥ १८॥ इति खादिमं । दंतवणं तंबोलं चित्तं तुलसी कुहेडगाईयं । महुपिप्पलसुंठाइ स्वरूपे.
अणेगहा साइमं होइ ।। ६९ ।। इति स्वादिमं । लेसुद्देसेणेए भेया एएसि दंसिया एवं । एयाणुसारओ च्चिय सेसा ॥ ६॥
एमेव नायब्वा ।। ७० ॥ निंबाईणं छल्ली पत्तफलाई य मोय भूईओ। अन्नं चेयपगारं दव्वमणि टुंअणाहारो।।७।। अलमेत्थ वित्थरेणं संपइ वोच्छामि पोरिसवियारं । पुरिसो पुरिससरीरं अहवा संकू भवे पुरिसो ॥७२॥ पुंरिसो पमाणमेई पोरिसी वन्निया इहं छाया । सा भवइ जत्थ काले सोऽवि मओ पोरिसीपहरो ॥ ७३ ॥ कक्कडसंकंतिदिणे पोरिसिमाणं इमं मुणेयव्वं । तत्तो परं तु वुड्डी दक्षिणअयणे इमा नेया ।।७४।। अद्वैगसहिभागा पइदिवसं अंगुलस्स बटुंति । उत्तरअयणम्मि पुणो ते च्चिय हायंति पइदियहं ॥ ७२ ॥ एवं पोरिसमाणं पुरिसच्छायापयाण संखाए । सत्तजुयाए अहवा चउयालसयाहिए भाए ॥ ७६ ॥ लद्धं एत्थ विहीणं घडियाओ सेसमेयसट्टिगुणे । तह चेव हिए लद्धं एगविहणिं पले मुणह ॥७॥ पुठवण्हे गयमाणं एवं अवरण्हि जाण दिणसेसं। नवरं दिणप्पमाणं आगमभणियं इमं नेयं ।। ७८ ॥ ककडसंकंतिदिणे छत्तीसं नाडिगाओ दिणमाणं। चउवीसं घडियाओ रयणि-18॥६॥ पमाणं विणिहिटं ॥७९॥ तीयदिणा चउगुणिया सहिविहत्ता हवंति घडियाओ । एयासि हाणिवुड्डी दिणरयणीसु
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श्रीयशोदेश
तओ परओ ।। ८० ॥ किश्चिदूनत्वाविवक्षया चतुर्भिर्गुणनं । मयरे पुण दिणमाणं चउवीसं नाडिगाओ पढमदिणे। सूत्रविचार वीये
छत्तीसं घडियाओ रयणिपमाणं मुणेयव्वं ।।८।। परओ दिणस्स वुड्डी रयणीहाणी य पुवनिद्दिष्टा । ता नायव्वा पौरुषी प्रत्याख्यान
जाव उ उत्तरअयणस्स चरिमदिणं ॥ ८२ ॥ एवं च पडइ चडइ व घडिया पक्वेण दोन्नि मासेण । दिणरयणिस्वरूपे.
पमाणाओ भणियविहाणेण अयणदुगे ।। ८३ ॥ पोरिसिविसओ नियमोवि पोरिसी तत्थ सुत्तमेयं तु । आगार
छ के जुत्तं भणियं जिणगणहरिंदेहिं ।। ८४ ।। ॥ ७॥
पोरिमिं पच्चक्खाद उग्गए सूरे, चउविहंपि आहारं असणं ४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेण 3 पच्छन्नकालणं दिसामोहेणं साहवयणेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइत्ति ॥
एयस्सवि वक्खाणं जह नवकारे तहेव कायब्वं । नवरं पच्छन्नेणं कालेणं एवमवसेयं ॥ ८५ ।। मेहमाहियारयाईछन्ने सूरे न नजई दिवसो | तो पच्छन्ने काले पुन्ने पहरोत्ति कलिऊण ॥ ८६ ॥ भुजंतस्स न भंगो अह भुजंतो ४स कहवि जाणेज्जा । नो पुन्नो तो सहसा ठाएज्जन ठाइ तो भंगो||८७ातथा--कोवि हु कहिपि देसे दिसिमोहा लेपच्छिमंति पुव्वंपि । कलिऊण गओ पहरो इमोऽवरण्होत्ति बुद्धीए ।। ८८ ॥ भुजेज्जा न य भंगो मोहावगमाइणा
उ विन्नाए । ठायव्वं नो ठायइ जइ निरवेक्खस्स तो भगो।।८९।। साहुवयणं तु एत्थं उग्घाडा पोरिसित्ति एमाई।। सोच्चा भुंजतदोसो नाए पुण इहवि ठाएज्जा ।। ९०॥ एत्थ इमो भावत्थो जइणो भासंति सच्चमेव गिरं । तो
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ख्यान
CRCH
श्रीयशादमा तेच्चिय गज्झवया न जहिच्छावाइणो इयरे ॥११॥ भासादोसविहिन्नू साह साहुस्स कारणवसेणं । साहइमा
सूत्रविचारे कालपमाणं पोरिसिपुरिमड्डमाईयं ॥१२॥ तं सोउं भुजंतो पच्चक्रवाणस्स होइ नहु भंगो । अहऽणाभोगा मुणिणा पुरिमाचे
कालपमाणं समुल्लवियं ॥ १३ ॥ अन्नो वा उवलद्धो ठायब्वं तत्थ मुहगयं सव्वं । रक्वाइसु खिवियव्वं हत्थगयं स्वरूपे
भायणे चेव ॥ १४ ॥ आयमिउं इहरा वा खमियब्वं जाव पुज्जए नियमो । पुण्णे पच्चक्वाणे पुणोऽवि भुंजज्ज ॥८ ॥ सिरिऊणं ॥१५॥ सव्वसमाही एसा गाढायंकाइविरहियत्तं जं । तप्पच्चयआगारो तीए च्चिय पच्चक्खाणंति ॥२६॥
| तिब्वसूलाइदुक्खा संजाए अदृरोहझाणाम । तस्सोवसमनिमित्तं ओसहपत्थाइकरणेऽवि ॥९७।। नो भंगो संपज्जइ दुक्खावगमे समाहिलाभेउ । ठायव्वं नो ठायइ तो भंगो होइ नियमस्स ।। २८॥ पोरिसिपच्चक्रवाणं भणिय संपइ भणामि पुरिमई । तत्थ य एयं सुत्तं सत्तविहागारसंजुत्तं ॥ १०॥
सूरे उग्गए पुरिमड्ढं पच्चक्खाइ, चउब्विहंपि आहारं असणं ४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहवयणणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरहत्ति ।
॥८ ॥ सूरुग्गमाइयाणं पयाण अत्थो इहेव तह चेव । जह पोरिसीए भणिओ नवरि विसेसो इमो इत्थ ॥ १०॥४ पुरिमं पढमं अद्धं दिणस्स पुरिमड्डमेयविसयं तु । पच्चक्खाणंपि भवे पुरिमटुं तइयगो नियमो ॥ १०१॥ मयहरयंट गुरुतरयं पच्चक्खाणाणुपालणाओऽवि । बहुनिज्जरानिमित्तं तहेव पुरिसंतरासझं ॥१०२॥चेइयगिलाणसंघाइयाण
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श्रीयशोदे- वीये प्रत्या
ख्यान स्वरूपे
एकासण
सूत्र व्याख्या
कज्जे तमेव आगारो । पच्चक्वाणऽववाओ भन्नइ इह महयरागारो ॥१०३ ॥ तेणं भुंजंतस्सवि गुरुणो आणाए निरभिलाभस्स । तं चेव फलं जायइ पच्चक्खाणस्स जं भणियं ॥ १०४ ॥ एयस्सिहेव गहणं न पुणो नवकारसहियमाईसु । कालस्सऽप्पबहुत्तं मन्नामो कारणं तत्थ ।। १०५॥ वक्वायं पुरिम8 इहि एक्कासणं पवक्खामि । तत्थं य सुत्तं इणमो अट्टविहागारसंजुत्तं ।। १०६ ॥ ____एकासणं पच्चक्खाइ चउन्विहंपि आहारं असणं ४, अन्नत्थणाभोगणं सहसागारेणं सागारिया| गारेणं आउंटणपसारेणं गुरुअब्भुट्टाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारणं सनसमाहिवत्तियागारणं वोसिरइ।
एकं असणं अहवावि आसणं जत्थ निच्चलपुयस्स । तं एकासणमुत्तं इगवेलाभोयणे नियमो ।। १०७ ॥ तं |पच्चक्खाइ विहेययाए अंगीकरइ सेसत्थो । एत्थवि तहेव नेओ नवरि विसेसो इहं एसो ॥ १०८॥ सागारिओ| गिहत्थो परलिंगी वा स एव आगारो। पच्चक्खाणववाओ भन्नइ सागारियागारो ॥ १०९ ।। सागारियस्स
पुरओ जम्हा भोत्तुं न कप्पइ जईणं । पवयणउवघायाओ एत्तोच्चिय आगमे भाणियं ॥ ११ ॥ छक्कायदयावंतो| ऽवि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं । आहारे नीहारे दुगुछिए पिंडगहणे वा ।। १११ ॥ तो भुजंतस्स जया साग
RECORRORGAESORROR
॥९॥
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श्री यशोदेबीये
प्रत्या
ख्यान
स्वरूपे.
॥ १० ॥
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रिओ आगओ थिरो होज्जा | सज्झायाइविधाओत्ति गंतुमन्नत्थ तो भुंजे ॥ ११२ ॥ गिहिणो पुण सागरिओ जच्चक्खुनिरिक्खियं न जीरेज्जा । अन्नं वा पाणभयं जत्तो होज्जा घणभयं वा ॥ ११३ ॥ आउंटणं च जंघाइयाण संकोयणं मुणेयच्वं । आकुंचियाण तेसिं पसारणं इह रिजूकरणं ॥ ११४ ॥ असह नरेण तम्मी कीरते किंचि आसणं चलइ । तत्तो तं मोत्तृणं पच्चक्खाइत्ति भावत्थो ।। ११५ ॥ एत्थ गुरू आयरिओ पाहुणगो वावि तस्स कायव्वं । अभुद्वाणं आसणचयणं जीयंति सयकालं ॥ ११६ ॥ तम्हा भुजतेणवि अभुट्ठाणं इमस्स कायवं । गुरुलाघव चिंताए जम्हा धम्मो समखाओ ॥ ११७ ॥ पारिट्ठावणियं पुण उग्गमउप्पायनेसणासुद्धे । विहिगहिए विहिभुत्ते उच्चरियं जमसणाईहिं ॥ ११८ ॥ छंडिज्जते दोसा बहुतरगा तत्थ हुंति तो गुरुणा । भणिओ वियरेज्ज | तयं अट्ठमछट्ट । इकारीणं ॥ ११९ ॥ पच्छाणुपुव्वियाए ता देज्जा जाव निव्वियतवस्सी । अह कहवि होज्ज बहुयं | सव्वेसिं चेव तो देयं ॥ १२० ॥ तुल्ले तव विसेसे बालावालाण कस्स दायं ? । भन्नह वाले दाउं देज्जा इयरेवि जइ बहुगं ॥ १२१ ॥ दोण्ह बालाण मज्झे दायव्वं असहुणो न इयरस्स । दोपहं असणं पुण दायव्वं हिंडग| स्सेव ।। १२२ ।। दोहवि हिंडंताणं दायव्वं पाहुणे न वत्थव्वे । जइ पाणगआहारो पच्चक्खाओ न एएहिं ॥ १२३ ॥ अह पाणगंपि होज्जा विर्गिचियत्वं तओ उ दायव्वं । पाणगआहाराओ विरयाविरयाण दोहेपि ॥ १२४ ॥ दसमाइ विगिट्टतवस्सियाण नो दिज्जई इमं जेण । पायोसिणभत्तुचिया जेणं व सदेवया ते उ ॥ १२५ ॥ केसिंचि अट्टमाइ तवो विगिट्ठो तओ न तं देयं । अहमतवस्सियाणवि कारणमेत्यपि तं चैव ।। १२६ ।। सोवि जई जइसुइयं
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एकासण सूत्र
व्याख्या
॥ १० ॥
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श्रीयशोदे
तो गुरुभणिओ विसुद्धपरिणामो । वंदणपुव्वं विहिणा भुजइ तं संदिसावेउं ॥१२७। जो पुण तं उच्छिद्रु वियरइ वीये
13|एकस्थान प्रत्या
अन्नस्स जो व तं भुजे । गुरुवयणमंतरेण तेसिं गुरुगो भवे दंडो । १२८ ॥ गच्छाओ निज्जूहण आउद्दाणं च | आचामापंचकल्लाणं । डंडो जिणेहिं भणिओ दोण्हवि गिण्हेतदेंताणं ।। १२९ एसागारो गिहिणो न भवइ सुत्तं तहावि
म्लं ख्यान
च स्वरूपे. & अक्खडं । उच्चरइ जहा गुरुणो अहवा आगाढजोगित्ति ॥ १३० ॥ वोसिरई परिहरई चउहाहारं अणेगभत्तं वा।
इय एक्कासणमुत्तं एगहाणं अओ वोच्छं ॥ १३१ ।। एग अचालणेणं ठाणं अंगाण जत्थ तं भणियं । एगट्टाणं तम्मी ॥११॥ आगारा हुंति सत्तेव ॥ १३२ ॥
___एगट्ठाणं पच्चक्खाइ चउबिहंपि आहारमित्यादि । जह एगासणमुत्तं एगट्टाणंपि तह मुणेयव्वं । आउंटणप्पसारणमिह आगारो नवरि नस्थि ॥१३३॥ मुहहस्थवज्जियाणं अंगावयवाण चालणारहियं । होइ इमं नियमेणं तम्हा सत्तेत्थ आगारा ॥१३४॥ आयंबिलसुत्तत्थं अहुणा वोच्छामि तत्थ सुत्तमिमं । आगारगसहियं पन्नत्तं लोगनाहोह ॥ १३५ ।।
आयंत्रिलं पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगणं सहमागारेण लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं गिहत्थसंसट्टेणं 18 पारिद्वारणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ।
BRAHMARAKES
॥११॥
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श्रीयशोदे
आयाममंबिलचिय पाएणं वंजणो जहिं भत्ते । कुम्मासोयणसत्तुगपमुहे आयंबिलं तंति ॥ १३६ ॥ तग्गय आचामावाय प्रत्यापच्चक्खाणं भण्णइ आयंबिलंति तस्सत्थो । जह पुव्वं तह नेओ नवरि विसेसो इमो एत्थ ॥ १३७ ॥ पच्च- IS मलमुपवासः ख्यान
क्खइ तं चिय भोत्तव्वं अज्ज मेत्ति नियमेह । जम्हा पवित्तिवयणो निवित्तिवयणो य वयसद्दो ॥१३८ ।। लेवो पानास्वरूपे
मुणिभोयणभाणस्स विगईय लेवडेणं वा । एवं लित्तस्स पुणो कराइणा सोहणमलेवो ।। १३९ ॥ लेवो य अलेवोकाराच ॥१२॥ालय लेवालेवं तओ य मन्नत्थ । भाणे खीराइऽवयवभावेवि न होइ भंगोत्ति ॥ १४० ॥ सुकोयणाइभत्ते अद्दयदहिः
माइ निवडियं दव्वं । इह उक्वित्तं भण्णइ तस्स विवेगो समुद्धरणं ॥ १४१ ॥ तो सम्म तम्मि कए अंबिलपाउमाग्ग भोयणे भुत्ते । तदजोगफासिएवि हुन होइ भगोत्ति परमत्थो ॥ १४२ ॥ जावइयं उवजुज्जइ तावइयं भा| यणे गहेऊणं । जलनिम्बुडूं काउं भोत्तव्यं एस एत्थ विही ॥१४३।। दायगगिहिणो संबंधि भायणं जं करोडगाईयं । संसह उवलित्तं विगईए लेवडेणं व ॥ १४४ ॥ ता तेण दीयमाणं अकप्पदव्वेण होइ सम्मिस्सं। न य तं भुजंतस्सवि भंगो भवइत्ति भावत्थो ॥१४२ ॥ वोसिरइ अणायंवं वुत्तं आयंबिलं अओ वोच्छ । पंचागारसमेयं अभत्तटुं गणहरुद्दिष्टं ।। १४६ ॥ नो भत्तणं अट्टो पओयणं जत्थ सो अभत्तहो । पच्चवाणविसेसो तत्थ
॥१२॥ इमं वन्नियं सुत्तं ॥ १४७ ॥
सूरे उग्गए अभत्तटं पञ्चक्खाइ चउन्विहंपि आहारं असणं ४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारण :
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यशोदेवीये प्रत्या
राः
ख्यान में स्वरूपे
॥ १३॥
पारिद्वावणियागारणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेण वोसिरइ ॥
वार्थआहारागाराणं अत्यो एत्थंपितह मुणेयव्वो । जह पुब्वं निष्डिो नवरि विसेसी इमो नेओ ॥१४८॥ सूरस्मिारकाउग्गयम्मि सूरोदयवेलमाइओ काउं। अभतटुं पच्चक्खइ कायव्वमिणति गिण्हेइ ।। १४९ ॥ वोसिरह य भी चउहाहारं च जइ पुणो कुणइ । पोरिसिपुरिमेगासणअभत? तिविह आहारे ॥ १५० ॥ तो पाणगमुद्दिसिंड लेवाडेणेवमाइयं कुणइ । आगाराणं छक्कं तत्थ य सुत्तं इमं भणियं ॥ १५१ ॥
लेवाडेण वा १ अलेवाडेण वा २ अच्छेण वा ३ बहलेण वा ४ ससित्थेण वा ५ असित्येण वाई | वोसिरह।
एत्थवि अन्नत्थपयं अणुवत्तइ पंचमीइ अत्यम्मि । तइया तहा विभत्ती तो लेवाडाओ अन्नत्थ ॥ १५२।। खज्जूरपाणपमुहं पिच्छिलभावेण भायणाईणं । उवलेवकारणत्ता कयलेवं तं विवज्जेत्ता ॥ १५३ ॥ वोसिडू तिहाहारं संबंधो एवमेत्थ कायब्वो। वासद्दी अविसेसं अलेवडेणं भणइ तस्स ॥ १५४ ॥ उववासमाइयाणं जह | चेव अलेवकारिपाणेणं। तह लेबकारिणाविहन होइ भंगोत्ति भावत्यो ।। १५५॥ एवमलेवाडाओ अपिच्छलाओ तहेव अच्छाओ। निम्मलउसिणोदयमाइयाओ जइपाणजोगाओ ।। १५६ ॥ बहलाओ गड्डुलाओ तिलतंडुलधोवणाइरू
सम
॥१३॥ वाओ। सस्सित्थपाणगाओ आयामप्पमुहनीराओ ।। १५७ ॥ तह चेव असित्थाओ पाणाहाराउ सित्थवज्जाओ।
बीमामाजी का अमान%%
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श्रीयशोदेवीये
प्रत्या
ख्यान
स्वरूपे
॥ १४ ॥
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वासणं अत्थो पढमगमेणं भणेयव्वो ।। १५८ ॥ - चरिमो अंतिम भागो दिवसस्स भवस्स चैव नायव्वो । तव्विसयं इह भण्णइ पच्चक्खाणंपि चरिमंति ॥ १५९ ॥ दुविहेवि तम्मि चउरो आगारा हुंति नवरि भवचरिमं । | सागारमणागारं पढमदुगं तत्थऽणागारे ।। १६० ।। तणवत्थंगुलिमुहे मुहं पविट्टे हवेज्ज मा भंगो। तो तत्थवि आगारा न उणो आहारबुद्धी ।। १६१ ।।
सूत्राणि चामूनि - दिवसचरिमं पच्चक्खाइ चउव्विपि आहारं असणं०४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ॥ भवचरिमं पच्चक्खाइ तिविहंपि चव्विपि वा आहारं असणं ० ४, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारणं महत्तरागारणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसरह || निरागारे तु-भवचरिमं पच्चक्खाइ तिविहंपि चव्विहंपि वा आहारं असणं० ४, अन्नत्थणा भोगेणं सहमागारेणं वोसिरह ||
एक्कासrasia कए दिणचरिमं सफलमेव जेण तयं । थोवागारं इयरं बहुआगारं विणिदिहं ।। १६२|| एक्कासणाइ एतो देवसियं चैव होइ नायव्वं । निसिविरई जा जीवं तिविहंतिविहेण जेण कया ।। १३३ ।। एत्तोत्ति बह्नाकारत्वतः । गिहिणो पडुच्च दिवस रूढिवसाओ भणतऽहोरत्तं । तो तेसिं निसिभोगणविरयाणवि गुणकरं चैव ॥ १६४ ॥
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चरमप्रत्या
ख्यानानि
॥ १४ ॥
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श्री यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूपे
॥१५॥
पाएण होइ एयं रयणीभोयणघयस्स जं तेसिं। आगाराण बहुत्तं इमंच संखित्तआगारं॥१६५॥ जइ पुण निसिभत्त- देशावकावयं दुक्कालभयाइकारणेहि विणा । गिहिणावि हु पडिवन्नं चउबिहाहारविसयं च ॥ १६६ ॥ तो तस्सवि देव- शिकमभिसियं एयं संभवइ तो दिणे सेसे । थोए वा बहुए वा कायव्वं न उण रयणीए ॥ १६७।-भणियं चरममियाणि
ग्रहाश्च आभिग्गहियं भणामि लेसेण । तत्थागारा चउरो अहवावि हवंति पञ्चेव ।। १६८।। देसावगासिगाइसु दंडगगहणाइगोयरेसुं च । अंगुट्टमुट्ठिमाइसु नियमेसु हवंति चत्तारि ॥ १६९ ॥ अप्पाउरणे पंच उ तं पुण सीयाइसहणबुद्धीए । कोइ पवज्जइ पुरिसो मोत्तुं सव्वंपि पाउरणं ॥ १७ ॥ सो सागरियभएणं चोलगपदृस्स परिहणनिमित्तं । चोलगपट्टागारं करेइ तेणेह ते पंच ॥ १७१ ॥
सूत्राणि च,-देसावगासियं उवभोगपरिभोगं (द्रव्य सचित्त०) प० अन्नत्थणाभोगणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ॥ एवं डंडगगहणअंगुट्टमुट्टिगंठीघरसेउस्सास(जोइ)थिबुगाइसुवि चत्तारि आगारा दट्टव्वा। अप्पाउरणं पच्चक्खाह अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं चोलपगागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह॥
भणियं आभिग्गहियं निव्वीयं संपयं पवक्खामि | विगईचागाउ इमं ताओच्चिय ताव तो भणिमो। १७१।४ खीरं दहि नवणीयं घयं तहा तेल्लमेव गुल मज्जं । महु मंसं चेव सहा ओगाहिमगं च दस विगई ॥ १७३ ॥ |
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यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूप
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गोमहिसिउट्टिअयएलगाण खीराणि पंच चत्तारि । दहिमाईया जम्हा उट्टीणं ताणि न हु होति ॥१७४ ॥ चत्तारि निर्विकृतिहुंति तेल्ला तिलअयसिकुसुभसरिसवाणं च । विगईओ सेसाई महुयफलाईण नो विगई ॥ १७२ ॥ दवगुडपिंड
प्रत्यागुडा दो मज्जं पुण कट्टपिट्ठनिष्फन्नं । मच्छियकोत्तियभामरभेयं च तिहा महं होइ ॥१७६ ॥ जलथलखहयर
ख्याने मंसं चम्मं वस सोणियं तिहेयंपि । आइल्लतिनि चलचल ओगाहिमगा य विगईओ ॥ १७७॥ चलचलसद्दीवया
विकृति
गतानि नेहोगाहेण जे उ पच्चंति । ओगाहिमगा नेया वडगाई ग्वज्जगविसेसा ।। १७८॥ तिण्डं घाणाण परओ एए विगई न हुँति जइन खिवे । अन्नंपि तत्थ नेहं तो ते कप्पंति जंभणियं ॥ १७९ ॥ सेसा न हुंति विगई अजोगवाहीण ते उ कप्पंति । परिभुज्जति न पायं जं निच्छयओ न नज्जंति ।। १८० ॥ एगेण चेव तवओ पूरेज्जइ पूयएण जो तावो । बीओवि स पुण कप्पड अखवियनेहतरो नवरं ॥ १८१ ॥ दहिअवयवओ मंथू विगई तकन होइ विगईओ। खीरं तु निरावयवं नवणीओगाहिम चेव ॥ १८२ ।। घयघहो पुण विगई वीसंदणमो य केइ इच्छति । तेल्लगुलाणमविगई सोमालियखंडमाईणि ॥ १८३ ॥ एत्थ य-घयघट्टो मेहाहुव वीसंदणमद्धदड्डषयमज्झे । छूढेहिं तंदुलेहिं जिणलं(जिण्णालं)होइ नायव्वं ॥१८४॥ सोमालियं वियाणह सन्निय तह सेल्लियं च ज विति। आदिग्गहणेण गहिया सक्करवरसालगाईवि ।। १८५ ॥ मज्जमहुणो तु खोला मयणा विगइओ पोग्गले पिंडो । रसओ पुण तदवयवो सो पुण नियमा भवे विगई ॥ १८६॥ मयकच्चसं तु खोला मंसं पुण पुग्गलं मुणेयव्वं । कालेज्जं पुण पिंडो
12॥१६॥ मंसरसो भन्नए रसओ ॥ १८७॥ खज्जूरमुद्दियादाडिमाण पीलुच्छुचिंचमाईणं । पिंडरसा न विगईओ नियमा
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यबुद्धीए विगवाणं तओविसेसेणारे नालिएरे य21.
श्री पुण हुंति लेवकडा ॥१८८॥ एमेव बयर रायण वारंग कविट्ट अंबजंबीरे । टिंबरुय चारुकयले बिजउरे नालिएरे य |
इन्द्रियजययशोदेवीये ॥१८९॥ नवरं इह परिभोगो निम्विइयाणंपि कारणावरखो। उक्कोसगदब्याण तओ विसेसेण विन्नेओ॥१९०॥ आव-निdिiaप्रत्या- ननिविगइयस्स असहुणो जुज्जए परीभोगो । इंदियजयबुद्धीए विगईचायम्मि नो जुत्तो ॥१९१॥ जो पुण विगई- के न विकख्यान | चायं काऊणं खाइ निद्धमहराह । उकोसगव्वाणं तुच्छफलो तस्स सो नेओ ॥१०२॥ दीसंति य केह इहं पच्चक्खा- तिगतानि स्वरूपे
का एवि मंदधम्माणो । कारणियं पडिसवं अकारणेणावि कुणमाणा ॥ १९३ ॥ तिलमोयगतिलवहिं वरिसोलगनालि
केरखंडाई । अइबहलघोलखारं घयपप्पुयवंजणाई च ॥ १९४ ॥ घयवुडमंडगाई दहिदुद्धकरंवपेयमाईयं । झल्लरिहै|चूरिमपमुहं अकारणे केइ भुंजंति ।। १९५ ।। न य तंपि इह पमाणं जहुत्तकाराण आगमन्नूणं । जरजम्ममरणभाभीसणभवन्नवुब्बिग्गचित्ताणं ॥१९६।। मोत्तुं जिणाणमाणं जियाण बहुदुहदवग्गितवियाणं । न हु अन्नो
पडियारो कोइ इहं भववणे जेण ॥ १९७ ॥ विगई परिणइधम्मो मोहो जमुदिजए उदिन्ने य । सुझुवि चित्तजयअपरो कहं अकज्जेन वहिहि ॥ १९८ ॥ दावानलमज्झगओकोतदुवसम्मट्टयाए जलमाई। संतेविन सेविज्जा?
मोहानलदीविए उवमा ॥ १९९ ।। तथा-विगई विगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साह । विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ ॥ २००॥ विकृति-चेतोविकारमाश्रित्य विगतिभीत:-कुगतित्रस्तो विकृतिगतं-क्षीरादिविकृतिजातं यो भुङ्क्ते साधु-1 | विकृतिः-क्षीरादिका विकृतिस्वभावा-चेतोविकारकरणशीला अतो विकृतिः--क्षीरादिका विगाते-कुगतिं बलानयतीति ।
॥१७॥ इय दोसकरिं नाउं वयंति धीरा इमं जहासतिं । महुमज्जमावणाई मंस च विसेप्तओ निच्चं ॥२०१ ॥
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प्रत्या
श्रीयशो
15 एत्थ य पच्चक्खाणे आगारा अट्ट अहव नव हुंति । विगइविसेसोवेक्वा तेसि विभागो इमो नेओ ।। २०२॥ निविकृतिदेवीये
नवणीओगाहिमए अहवदाहिपिसियवयगुलेसुं च । नव आगारानेया उक्वित्तविवेगसंभवओ ॥२०३।। खीरमहुम
ज्जतेल्ले दवेसु घयपिसियदहिगुलेसुंच । अट्ठेव य आगारा उक्वित्तविवेगऽभावाओ॥ २०४ ॥ अन्नयरविगइनियमो ख्यान स्वरूपे
| निश्विययं भण्णए तओ कुणइ । अद्दवविगइविवज्जी उक्खित्तविवेगमागारं ।।२०५।। इयरो न तमुच्चारइ वयण
प्पामन्नओ भणंतेगे । अन्ने भणंति एवं वियारमेत्तं मुणेयव्वं ।। २०६ ॥ तो सव्वविगइचाई असव्वचाई य उच्च॥१८॥ रह एयं । जह भगवइजोगो जई गिहत्थसंसहपभिईयं ।। २०७॥
सूत्रं चेदम-निविगइयं पच्चक्खाइ अन्नत्थऽणाभोगणं सहसागारेण लेवालेवेणं गिहत्थसंमट्टणं उक्खित्तविवेगेणं पडुच्चमाक्खएणं पारिद्रावणियागारेणं महत्तरागारणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह ॥ वक्खायं चिय एयं नवरि विसेसो मिहत्थसंसट्टे । गिहिणा नियकज्जेणं संसट्टो ओयणो पयसो ॥ २०८॥ तं जइ तमइक्कमिउं उक्कोसेणंगुलाणि चत्तारि । उवरिं वदृइ तइया न तयं दुद्धं भवे विगई ।। २०९॥ पंचमगे पारद्धे नियमा विगई अणेण नारण । दहिवियडमाइयाउवि भणियमिणं जेण सुत्ताम्म ॥ २१ ॥ खीरदहीवियडाणं
॥१८॥ चत्तारि उ अंगुलाइ संसह । फाणियतेल्लघयाणं अंगुलमेगं तु संसटुं ॥ २११ ।। महुपोग्गलरसयाणं अद्वंगुलगं तु
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श्री
यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूपे
॥१९॥
| होइ संसटुं । गुलपुग्गलनवणीयं अद्दामलगं तु संसर्ट ॥ २१२ ॥ आद्रोमलक-पीलूमयूरः इति सम्प्रदायः । अइरु- विकृतिप
क्खमंडगाई पडुच्च जं मक्खियं व पडिहाइ । तं पडुच्चमक्खियं खलु मविश्वय आभासमिइ भावो ॥२१३।। जइरिमाणव्य| अंगुलीए घेत्तुं घयतेल्लाईहिं मंडगाईयं । मक्खइ तइया कप्पइ धाराए न कप्पइ अणुंपि ॥२१४।। निव्विगइयभणणाओ
शुनसार्ध | विगइपमाणंपि एत्थ न विरुद्धं । अपमायवुड़िहेउत्तणेण आयरणओ चेव ।।२१।। एत्तोच्चिय सुत्तेसु चउहाहा- पौरुष्य | रस्स विरइभणणेऽवि । दुविहतिविहस्स करणं न विरुद्ध पोरिसाईसुं ।। २१६ ।। एगासणसुत्तेणं बेयासणगंपि एत्थ | पार्थसिद्धिः
न विरुद्धं । आसणधणिसाहम्मा विगई परिमाणकरणं च ।। २१७ ।। अन्नं च इमं भणियं पयर्ड गिहिदेससह | जम्हा । तम्हा गहणे सुत्तं एयस्सवि किंपि दब्वं ॥ २१८ ।। न य वच्चमभिग्गहियं सुत्तं एयस्स चउब्विहागारं ।। जेणेगासणगेणं समजोगवममेयंपि ॥ २१९ ॥ एवं पुरिमड्डेणं अवड्डमवि सूइयं मुणेयव्वं । जम्हा महानिसीहे | तयंपि भणियं फुडं चेव ।। २२० । इय सङ्कपोरिसीविय पोरिसिसुत्तेण सूइया चेव । न य पुण कत्थवि विट्ठा गंभीरं नवरि जिणवयणं ॥ २२१ ॥ भणिओ सुत्तवियारो पइसुत्तं तत्थ देसियागारा । तेसिभिहाणम्मि पुणो । कारणमिणमो मुणेयव्वं ॥ २२२ ।। वयभंगे गुरुदोसो थेवस्सवि पालणा गुणकरी ओ । गुरुलाघवं च नेयं धम्मम्मि अओ उ आगारा ॥ २२३ ॥ जहगहियपालगणं अपमाओ सेविओ धुवं होइ । सो तह सेवितो वह ॥१९॥ इयरं विणासेइ ॥ २२४ ॥ अब्भत्थो य पमाओ तत्तो मा होज्ज कहवि भंगोत्ति । भंगे आणाईया तओ य सव्वे अणत्थत्ति ।। २२५ ।। (अत्राह परः)-एवं पमाइणो कह पव्वज्जा होइ (गुरुराह) चरणपरिणामा । न य तस्स
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त्ताणतरमेव पमाओ खयं जाइ ॥ २२६ ॥ जमणाइभवभयो तस्सेव खयत्यनुज्जएणेह । जहगहियपालणेणं 31 पारणक यशोदेवीये है
विचार: अपमाओ सेवियम्वोत्ति ॥२२७॥३॥ अल नेत्थ पसंगणं संपइ वोच्छामि पारणविहाणं । साहण सावगाण य जह प्रत्याख्यान
भणियं पुत्वसूरीहिं ॥ २२८ ॥ सड्ढो पच्चक्रवाणे पुन्नेवि गए उ थेवकालम्मि । संपूइय तित्थयरं वंदित्ता तह य है स्वरूप भावेणं ॥ २२९ ।।दाऊण उचियदाणं पडिलाभिय साहुणो विसेसेणं । संभालिय परिवार काउं तस्सोचियं किचं
|॥ २३० ॥ उचियासणठाणगओ मंगलपाढं करेत्तु उवउत्तो । सुहधाउजोगभाधे किच्छेणमणाउलेण तहा ॥२०॥
॥ २३१ ॥ जम्हा भयकोहपरब्बसेण लुणि रीणतिसिएण । मणसा सेविज्जंतं अन्नं सम्मं न परिणमइ ॥२३२॥ सरिउं च विसेसेणं पच्चक्वायं इमं मए पच्छा । भुजह पगइविरुद्धं वज्जंतो जुतमाहारं ॥ २३३ ॥ एएणं चिय विहिणा समणावि कुणंति पारणं पायं । जो पुण तेसि विसेसो तमहं योच्छ समासेणं ॥ २३४ ॥ सुत्तत्थपोरिसीओ काउं संवेगभावियमई य । सुत्तुत्तविहाणेण य उवउत्तो हिडिंडं भिक्खं ॥ २३५ ॥ आलोइय तं विहिणा दंसिय गुरुणो करेन्तु उस्सग्गं । मज्झालोगस काउं मंगलाई य झाएत्ता ॥ २३६ ॥ विणएण पट्टवेत्ता सज्झायं काउ तो मुहुत्तागं । मंडलिय भुजमाणे पाहुणगाई णिमंतेउं ॥ २३७ ॥ इच्छेज्ज न इच्छेज्जा तहविय |पयओ निमंतए साह । परिमाणविसुद्धीए उ निज्जरा होअगहिएवि ॥ २३८ ॥ परिणामविसुद्धीए विणा उ गहिएऽवि निज्जरा थोवा । तम्हा विहिभत्तीए छंदिज्जा तह य वियरेज्जा ॥२३९॥ मंडलिभोई उ पुणो सत्तीए
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स्वरूपे
॥ २१ ॥
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बहुपि काउ सज्झायं । धम्मं कहं नु कुज्जं संजमगाहं च नियमेणं || २४०|| देति तओ अणुसट्ठि संविग्गो अप्पणा उ जीवस्स । रागद्दोसा भावं परमरहस्सं गणेमाणो || २४१ ॥ बायालीसेसणसंकडम्मि गहणम्मि जीव ! नऽसि छलिओ । इहि जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदो सेहिं ॥ २४२|| रागद्दोसविरहिया वणलेवाइउबमाए भुंजंति । कत्तु नमोकारं विहीए गुरुणा अणुन्नाया ।। २४३ ॥ रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं मुणेयवं। रागद्दोसविरहिया भुजति जई उ परमत्थो || २४४ || जइ भागगया मत्ता रागाईणं तहा चओ कम्मे । रागाइविहुरयाविय पायं वत्थूण विहुरत्ता || २४५|| नियमेण भावणाओ विवक्खभूयाउ सुप्पउत्ताओ । होइ खओ दोसाणं रागाईणं विसुद्धाओ || २४६ ॥ जे बन्नानिमित्तं एत्तो आलंबणेण वडन्त्रेण । भुजंति तेसिं बंधो नेओ तप्पच्चओ तिब्बो || २४७|| भणिओ पारणगावही पच्चक्रवाणस्स पुवमुणिसिहो। एतो य समासेणं वोच्छं सयपालणादारं || २४८|| आह जह जीवधाए पच्चक्खाए न कारए अन्नं । भंग भयाऽसणदाणे धुवकारवणंति नणु दोसो ।। २४९ ॥ ततश्च-नो कयपच्चक्खाणो आयरियाईण देज्ज असणाई । न य विरइपालणाओ वेयावच्चं पहाणयरं || २५०॥ यतः- दाणमोरग्भिरणावि, चंडालेणवि दीयइ । जेण वा तेण वा सीलं, न सकमभिरक्खिउं ॥ सीलं च त्रिरतिः || २५१ ।। अत्रोत्तरम् -नो तिविहंति विहेणं पच्चक्खाणन्नदाण-: कारवणं । सुद्धस्स तओ मुणिणो न होइ त भंग उत्ति || २५२|| सयमेवऽणुपालणियं दाणुवएसा य णेह पडिसिद्धा । ता दिज्ज उवदिसेज्ज व जहासमाहीए अन्नेसिं ॥ २५३॥ कयपच्चक्खाणावि य आयरियगिलाणबालवुड्राणं । दे ॥ ज्जासणाइ संते लाहे कयवी रियायारो || २५४|| संविग्गअन्नसंभोइयाण दंसेज्ज सङ्कगकुलाणि । अतरतो वा संभो | इयाण जह वा समाहीए || २५५|| एवमिह सावगाणं दाणुवएसाइ संगयं चैव । पाणासणाइविसयं अविसेसेणं जड़
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पारणक
-विधिः
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श्री यशोदेवीये प्रत्याख्यान स्वरूपे
॥२२॥
जणम्मि ॥२६॥ संभोइयाइभेओ नत्थि गिहस्थाण तेण जो सत्तो । अविसेसेण पयच्छइ असमत्थो देइ उवएसं श्रावकाणां॥२५७।। एवं वत्थाईणिवि दाणे गिहिणो विही इमो चेव | तुच्छो पणमिय गुरुणो तप्परिवारस्स वा देइ ॥२५८॥ दानविधि: एसो अविसेसेणं दाउमसत्तोत्ति धम्मसूरीणं | दुप्पडियारत्तणओ विसेसओ पूयणिज्जाणं ॥२५९।। देइ विसेसे
सिं तप्परिवारस्स वावि गुणनिहिणो । अह उवगरणं गुरुणोवि अस्थि परेसिं च तं नत्थि ॥२६०॥ तो तेसि तं | पयच्छह अह दोण्हं नत्थि तत्थ दायव्वं । लद्धिविहीणाणं चिय अह लद्धिविवज्जिया दोवि ॥२६शा तो गुरुणो च्चिय देयं इहरा दोसा विवेगविरहाओ । आणाभंगऽणवत्थामिच्छत्तविराहणाईया ।।२६२।। अहऽतुच्छो पुण दोण्हं संतेऽसंते व लद्धिजुत्ताणं । लद्धाएँ विउत्ताण व तुल्लगुणाणंपि समणाणं ॥२६३।। जइदेज्जा दरवज्जिय तो तस्सममत्तदूसियमणस्स । अविवेइणो य धणियं सम्मं गुणभात्तसुन्नस्स ॥२६४॥ नियमेण होंति दोसा आणाभगाणवत्थमाईया । एत्तोच्चिय भणियमिणं जयजीवहिए जिणमयम्मि ॥२६५।। सड्डेणं सइ विभवे साहणं वत्थमाइ दायव्वं । गुणवंताण विसेसा दिसाए तत्थवि न जेसऽस्थि॥ तत्रापि येषां साधूनां वस्त्रादि नास्ति तेभ्यो देयमित्यर्थः ॥२६६।। तथा- संतं बज्झमणिच्चं ठाणे दाणंपि जो न वियरेइ । इय खुड्डगो कहं सो सील अइदुद्धरं धरइ ? ॥२६७।। दिसाविवरणायाह-दीसइ जीए सीसो सेहदिसा सूरिमाइया नेया । जह एस अमुगसीसो तदंतिए योहिलाभाओ ॥२६८॥ आभव्वावेक्खाए दिसा गिहस्थाण आगमे भणिया। पव्वज्जाभिमुहाणं मुक्कवयाणं च नऽन्नेसिं।२६९॥ जो पब्वइडं इच्छइ सामाइयमाइसुत्तपाढी य । सो चरणुज्जय गुरुणो तिन्नि समा तदुवरि भयणा ॥२७०॥ तथा
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श्री यशोदेवीये
प्रत्या
ख्यान
स्वरूपे
॥ २३ ॥
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परलिंगिनिण्हए व सम्मसणजढे उ उवसंते । तद्दिवसमेव इच्छा सम्मत्तजुए समा तिन्नि || २७१ || मुकवओ पुण दुविहो सारूवी होइ तह गिहत्थो य । तत्थ य रयहरणवज्जिय जइवेसधरो उ सारूवी ॥ २७२ ॥ किंच- मुंडसिरो सियवत्था सभज्जऽभज्जो व मुक्ककच्छो य । पत्तेहि भमइ भिक्खं अवभयारी य सारूवी ॥ २७३ ॥ सो जाजीव गुरुणो | तेण य मुंडीकयाणिवि तहेव । तेणेव बोहियाणं अमुंडियाणं पुणो इच्छा || २७४ ॥ अणवच्चे सेसविही पुत्र्वायरियरस तस्सवच्चाइ । आभव्वाइं नियमा मुंडिय इयराई नऽन्नस्स ।। २७५ || जो पुण गित्थमुंडो अहव अमुं - डो उ तिण्ह वरिसाण । आरेण पव्वावे सयं च पुव्वायरिय सव्वे ॥। २७३ || भरहस्स पुत्र्वजम्मो आहरणं होइ साहुणो दाणे । गिहिणो घणसत्यवइदिहंतो जुन्नसेट्ठी वा ॥ २७७ ॥ हरिण वणछेइणो वा अहवा गामस्स चिंतगो पुरिसो । कयन्नसालिभद्दा दाणफले अहव दिता ॥ २७८ ॥ भरणं पुत्र्वभवे बेयावच्चं कयं सुविहियाणं । तो तस्स पभावेणं जाओ भरहाहिवो राया ।। २७९ ।। लद्धूण केवलसिरिं लक्खं पुत्रवाण संजमं काउं । नीसेसकम्ममुको भरहरिसी सिवपयं पत्तो ।। २८० ।। दाणेण मुणिवराणं धणोवि कल्लाणभायणं होउं । तेलुकनमियचलणो जुगाइदेवो जिणो जाओ ।। २८१ ॥ आह कह जुन्नसंडीदितो अस्थादिन्नदाणोवि । दिन्नं चिय भावेण सोच्चिय जं उत्तमो एत्थ ।। २८२ ।। अविय तस्सेरिसपरिणामो जेण तथा केवलंपि पावितो । जिणपारणवृत्तंतं जइ न सुर्णेतो खणं एकं ।। २८३ ।। एत्तोच्चिय नवसेट्ठी जिणस्स वीरस्स लोगनाहस्स । जाइच्छियदाणेणं न भायणं सग्गमोक्खाणं ॥ २८४ ॥ अह पडिया तस्स गिहे वसुहारा तेण भावहीनंपि । दाणं तस्सवि सहलं (आचा० ) किं इमिणा एग
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दाने दिग्विधिः
॥ २३ ॥
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दाने दृष्टान्ताः
श्रीयशो- देवीये प्रत्या ख्यान
स्वरूपे
॥२४॥
भविएणं ? ॥२८५।। बलएवमहामुणिणो तवस्सिणो संखधवलदेहस्स। बड्डाणा पाहेयं दिन्नं परमाए भत्तीए॥ २८६ ॥ संवेगपुलइएणं अणमिसबाहुल्ललोयणजुएणं । जाइस्सरहरिणेणंऽणुमोइयं तं च भावेणं ।। २८७॥ ते तिन्निवि सुरलोए पवरविमाणे महिड्डिया देवा । एगावसेसगम्भा उववन्ना दिव्ववादिधरा ॥ २८८ ।। अवरविदेहे गामस्स चिन्तओ रायदारुवणगमणं । साह भिक्खनिमित्तं सत्था होणे तहिं पासे ॥ २८९ ॥ दाणन्नपंथनयणं अणुकंप गुरूण कहण सम्मत्तं । सोहम्मे उववन्नो पलिआउसुरो महिड्डीओ ॥ २९० ।। लण य सम्मत्तं अणुकंपाए उसो सुविहियाणं । भासुरवरबादिधरो देवो वेमाणिओ जाओ ॥२९१।। चइऊण देवलोगा इह चेव य भारहम्मि वासम्मि । इक्वागुकुले जाओ उसुभसुयसुओ मरीइत्ति ॥ २९२ ।। तत्तो कमेण लढे केसवचक्त्तिणाइं सो जाओ। तिहुयणजणियाणंदो चरमजिणो बद्धमाणोत्ति ॥२९३ ॥ कयउन्नसालिभद्दा दरिद्दभावेऽवि पुव्वजम्मेसु । पत्तेसु सुद्धदाणं दाऊणं सुद्धबुद्धीया ॥ २९४ ॥ लोगच्छेरयभूयं रूवं रिद्धिं मुहं च लहिऊण । जाया महातवस्सी उत्तमपयसाहगा खिप्पं ॥ २९५ ॥ पासंगियभोगेणं वेयावच्चमिह मोक्वफलमेव । आणाआराहणओ अणुकंपाइ व्व विसयम्मि ॥ २९६ ॥ सुहतरुछायाइजुओ जह मग्गो होइ कस्सइ पुरस्स । एको अन्नो नेवं सिवपुरमग्गोवि इय ने
ओ ।। २९७ ॥ अणुकंप वेयावच्च पाविओ पढमगो जिणाईणं । तयजत्तगो उ इयरो सदेव सामन्नसाहणं॥२९८ ॥ ता नत्थि एत्थ दोसो पच्चक्खाएवि निरहिगरणमि । गुणभावाओ य तहा एवं च इमं हवइ सुद्धं ॥ एत्यत्ति-भक्तादिदानादौ ॥ २९९ ॥ फासियं पालियं चेव, सोहियं तीरियं तहा। किट्टियमाराहियं चेव, जएजेयारिसम्मि उ
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श्री
आ
॥३०॥ उचिए काले विहिणा पत्तं जे फासियं तयं भणियं । तह पालियं तु असई सम्म उवओगपडियरियं प्रत्यायशोदेवीये|P॥ ३०१॥ गुरुदाणसेसभोयणसेवणयाए उ सोहियं जाण । पुन्नेऽवि थेवकालावस्थाणा तीरियं होइ ।। ३०२॥ भो
ख्याने प्रत्या- यणकाले अमुगं पच्चक्वायंति भुंज किदिययं । आराहिय पगारेहिं सम्ममेएहिं निढवियं ॥ ३०३ ॥ फासियपमुह-18
शुद्धयः ख्यान 1 पयाणं भणियत्थाणंपि इह पुणो भणणं । मंदमासुमरणत्थं बहुसत्थपसिद्धिओ चेव ॥ ३०४॥ आह किमयं संते*
विषयश्च स्वरूपे | पञ्चक्खेयम्मि अह असंतम्मि? । जइ संते तो जुत्तं साहीणे चागजोगाओ ॥३०५।। आहु असंते एवं सयंपि संढस्स ॥२५॥
बंभयारित्तं । तो विजमाणविसयं पञ्चक्खाणं हवइ सहलं ॥३०६॥ आचा०) बज्झाभावेवि इमं पच्चक्खंतस्स गुणकर चेव । आसवनिरोहभावा आणाआराहणाओ य ॥३०७॥ न य एत्थवि एगंतो सगडाहरणाइ एत्थ दिटुंतो । संतंपि नासह लहुं होइ असंतंपि एमेव ॥३०८|सगडोया(डस्सा)हरणं पुण किर केणइ माहणेण गीयत्थ । मुणिपुंगवपयमूले नाणाविहगोयरे नियमे ॥ ३०९ ॥ पडिवज्जंते बहुए तहाविहे माणवे निएऊणं । निग्गोयरात्त अहला निय|मा इइ मन्नमाणेणं ॥ ३१ ॥ उवहासबुद्धिण च्चिय निविसयंपि हु हवेज्ज जइ सहलं । पच्चक्खाणं मज्झविस
फलं होउत्ति भणिऊणं ॥ ३११ ।। जावज्जीवपि इओ सगडं मे सव्वहा न भोत्तव्वं । नियमो एवंरूवो गहिओ साहू&ीण पच्चक्खं ।। ३१२॥ तस्सऽन्नया कयाई कंतारुत्तिन्नछुहकिलंतस्स । एगा नरवइधूया अववसणकए पयत्तेण
॥ ३१३ ॥ उ«लियजंघजुयं अप्पुव्वं माहणं पलोइंती। पकन्नमयं सगडं वियरइ पत्तीए काऊण ||३१४॥ तो सो तं दट्टणं चिंतइ साहहिं सोहणं भणिय । अस्संभविवत्थूणवि कहिंचि जह संभवो होइ ॥ ३१५ ॥ तो सब्वमेव स
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प्रत्या
RECIES
कच्चं पच्चक्खाणं इमं च मे सगई। भवत्ताए पत्तं कहं अहं निययवायाए ॥ ३१६ ॥ चइऊण साहुपुरओ निय-का
शकटोयशोदेवीये
लिवियणं लोविऊण भक्खमि । इय चिंतिय तं सगडं परिहरई सो दिओ सहसा ।। ३१७॥ मुणिवयणजायसद्धो न-ल दाहरणं
रवइधूयाए बोहणानीमत्तं । सयलं नियवुत्तंतं कहेइ तीए सवित्थारं ॥ ३१८ ।। सयपालणत्तिदारं सपसंगं वन्नियंप्रत्याख्याख्यान अओ वोच्छं। पच्चक्खाणस्स फलं समासओ सुत्तनिद्दिटुं ।। ३१९ ।। एयं पच्चक्खाणं विसुद्धभावस्स होइ जीव
नफले स्वरूप स्स । चरणाराहणजोगा निव्वाणफलं जिणा बिति ।। ३२० ।। पच्चक्खाणेण जिया थेवेणवि भावणाए चिन्नणं ।
दामन्त्र
काद्याः ॥२६॥
| पावेंति सुहसमिद्धिं दामन्नगसत्तवइणोव्व ॥ ३२१ ।। दामन्नग कुलपुत्तो वहविग्ई पालिऊण ददचित्तो । तरिऊण
आवयाओ जाओ भोगाण आभागी ॥ ३२२ ।। अमुणियफल सत्तपए निवइकलत्तं च कायमंसं च । चइऊणं सुरलोए उववन्नो सत्तवइओऽवि ॥ ३२३ ॥ पच्चक्खाणेण मुणी तवोविसेसेहिं चित्तरूवेहिं । नाणाविहारद्धीए सणंकुमारोव्व पार्वति ॥ ३२४ ॥ पच्चक्रवाणेण जिओ आसवदारस्स निग्गहं कुणई । संवरियासवदारो कम्मेहिं न | बज्झए कहवि ॥ ३२५॥ पच्चक्खाणेण तवो तवेण कम्माण निज्जरा होइ । निज्जरितकम्मकवओ जीवो पावेइ परमपयं ॥ ३२६॥ पच्चक्वाणामिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिटुं । पत्ता अणंतजविा सासयसोक्खं लहुं मो
क्खं ।। ३२७ ॥ आवस्सयपंचासयपणवत्थुयविवरणाणुसारेणं | पच्चक्खाणसरूवं भणियं जसएवसूरीहिं।। ३२८ ॥ लापच्चक्रवरगणणाए गंथपमाणं सयाणि चत्तारि । नयणवसुरुद्दमाणो (१९८२) विकमनिववच्छरो एत्थ ।। ३२९ ।।
॥ इइ सिरिजसोएवमूरिसुत्तियं पच्चक्खाणसरूवं सम्मत्तं ॥ ग्रन्थानम् ४००॥
SECREATOR
॥२६॥
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कातन्त्र (सारस्वत) विभ्रमे
॥। २७ ॥
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नमः सरस्वत्यै ।
श्रीकातन्त्र (सारस्वत ) विभ्रमसूत्रं सवृत्तिकं लिख्यते.
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नत्वा जिनेन्द्रं स्वगुरुं च भक्त्या, तत्सत्प्रसादाप्तसुसिद्धिशक्त्या । सत्सम्प्रदायादवचूर्णिमेतां, लिखामि सारस्वतसूत्रयुक्त्या ॥ १ ॥ प्रायः प्रयोगा दुर्ज्ञेयाः, किल कातन्त्रविभ्रमे ।
येषु मोमुद्यते श्रेष्ठः, शाब्दिकोऽपि यथा जडः ॥ २ ॥
कातन्त्रसूत्रविसरः खलु साम्प्रतं यत्, नातिप्रसिद्ध इह चातिखरो गरीयान् । स्वस्येतरस्य च सुबोधविवर्द्धनार्थास्त्वित्थं ममात्र सफलो लिखनप्रयासः ॥ ३ ॥ कस्य धातोस्तिवादीनामेकस्मिन् प्रत्यये स्फुटम् । परस्परविरुद्धानि रूपाणि स्युत्रयोदश ॥ १ ॥ 'कस्ये' त्यादि प्रश्नोऽत्र उत्तरं, गिरतेरवपूर्वस्यानद्यतन्यामात्मने पदे मध्यमध्वमि सम्प्राप्ते रूपाणि स्युखयोदश, 'गु निगरणे' गृ अष्टसु स्थानेषु स्थाप्यः अवपूर्वः, अग्रे अनद्यतनध्वंप्रत्ययः, ' भूते सि' (७-२-७ ) रिति सिः, इकारस्योच्चारणार्थत्वात् स्,
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१. श्रोक्रे १.३ रूपाणि
॥। २७ ॥
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कातन्त्र
रस्वत विभ्रमे
त्याद्यन्ताभः स्यादिः भः
॥२८॥
KOREGAR
|'दिवादावडि ' त्यडागमः, 'सिसतासीस्यपा' मिति (७-४-१०४) इद्, 'ध्वे च सेर्लोपो' गुणः, गर्, 'इटो ग्रहा' (७-४-१२०).
मिति बहुवचनेन वृङ् सं० वृञ् वरणे दीर्घऋवर्णान्तानां इटो वा दीर्घत्वामिति क्षेमेन्द्रकृतव्याख्यातः वेट ईद, स्वरहीनं, अवाग- | रिध्वं अवागरीध्वं, वा लत्वं र ल , अवागलिध्वं अवागलीध्वं, तथा 'नामिनोचतुर्णा धो ढ' (७-४-१२१) इत्यनेन सेटो हसावे ति वक्तव्यम् , ध्वमित्यस्य वं, अवागरीदवं अवागलीढ्वं अवागरिध्वं अवागलिध्वं, गृ निगरणे ४ अवपूर्वः तनादिगणस्थः ध्वं प्र०, पूर्वमडागमः, भूते स्प्रत्ययः, ' स्वरान्तानां हन्ग्रहदृशां भावकर्मणोः सिसतासीस्यपा मिति इद्, णित्त्वाद् वृद्धौ गार् ४ स्वरहीनं प० नाम्यन्ताद्धातोः ध्वं वं वा, वा लत्वं, अवागारिध्वं अवागालिध्वं अवागारिवं अवागालिदवं ४, इडभावे गृ ध्वं दिवादावट् भूतस् प्र० अवपूर्वः 'ध्वे च सेर्लोप' इति स् लोपः 'ऋत इर् ' (७-४-१०२) इति इर् अवागिर ध्वं इति स्थिते यवोर्विहस इति दीर्घः गीर्, स्वरहीनं, नाम्यन्तात् ध्वमित्यस्य वं, अवागावं इति सिद्धं, एवंविधानि त्रयोदश रूपाणि ॥१॥
__ अग्निभ्यः पार्थिवेभ्यश्च, प्रथमान्तं पदद्वयम् । एषेति नैतदाबन्तं, इवानस्येति च साधुता ॥२॥
'अग्निभ्य' इति चतुर्थीपञ्चम्योबहुवचनान्तमसदिग्धं, प्रथमान्तं च सन्दिग्धमिति साध्यते, 'भ्यसि भ्यये ' भ्यम् भ्यसतीति क्विप् क्विप् सर्वापहारी लोपः, अग्निपूर्वः, अग्नेयः आग्निभ्य इति पञ्चमी तत्पुरुषे प्रथमैकवचनं सिः 'हसेपस्सेर्लोप'(३-२-३) 'स्रोविसर्गः' (४-४-९) अग्निभ्यः, यद्वा 'भये तु भी' रित्येकाक्षरनिघण्टौ, भीर्भयम् अग्नेयेः १-३ । इभ्यः पार्थिवपूर्वः पार्थिव
१ यद्वा बिभी भये ' अग्नर्बिभेतीति किप् १-३ अग्निभ्यः
॥ २८
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कातन्त्र | (सारस्वत विभ्रारे
है स्य-राज्ञः इभ्यः-ईश्वरः पार्थिवेभ्यः, अथवा इभी-हस्तिनी, पार्थिवस्य इभ्यो-हस्तिन्य इति प्रथमाबहुवचनं पार्थिवेभ्यः, एषु गतौ, त्याद्यन्ता॥२९॥ एषतीति एष क्विए लोपः, तृतीयकवचने एषा अथवा नसे नासिकायै हितं नस्य, हितार्थे यप्रत्ययः, नपूर्वः, न विद्यते नस्यंमः स्यादिः अस्येत्यनस्य, श्वेवानस्यं श्वानस्य तस्य सम्बोधनं हे-श्वानस्य, यद्वा 'अण् प्राणने अन् अननं आनः, 'भावे घनि' (घञ् भावे८-३-४)इ.
श्लो.३-४ तिघञ् प्रत्ययः त्रित्वाद् वृद्धौ आन इति सिद्धं, शुनः आनः-प्राणः श्वानः तस्य श्वानस्य, षष्टीतत्पुरुषः, यद्वा 'पोऽन्तकर्मणिं' पो 'आदेःष्णः स्नः' (७-४-७७) अग्रे हि, 'दिवार्य' (७-१-१५) इति यप्रत्ययः 'वो' रिति (७-४-७२) ओकारलोपः, 'अत' (७-३-१३) इति हेर्लुक् स्य, श्वान आमन्त्रणे, सिलोपः, हे श्वान स्य, श्वानशब्दस्याभिधानकोशोक्तस्य विषयतैव नास्ति,'शुनः श्वानो गृहमृग' इति हैमः ॥२॥
भवेतामिति शब्दोऽयं, बहुत्वे वर्त्तते कथम्? । यागः षष्ठीसमासः स्यात्, पञ्चमी पर्वतात् न तु ॥३॥ 'भवेता' मिति, प्रश्नार्थस्य सुगमत्वान्निर्वचनमेव निर्वच्मः, 'इण् गतौ' इ भवः पूर्वः, भव-संसारं यान्ति-गच्छन्ति इति किप | 'हस्वस्य पिति कृति तुगि' (८-४-२२) ति तुक, क्वित्त्वादन्ते क्विप् लोपः, भवेत्, षष्ठीबहुवचने आमि भवेतामिति सिद्धं । इ:-|॥२९॥ कामस्तस्य आगः, यद्वा ई-लक्ष्मीस्तस्या आगः-अपराधः यद्वा या-लक्ष्मीस्तस्या अगः-पर्वतः पादपो वा, यागः, त्रिष्वप्यर्थेषु षष्ठीतत्पुरुषः, यद्वा 'यस्तु वाते यमेऽपि चे'त्येकाक्षरनिघण्टुवचनात् यः-यमस्तस्यागः-अपराधः-यद्वा 'यमो यः कथितः शिष्टर्यो दातरि च
१ वा एषणं एष्. २ विनाशे.
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त्यादिस्यादिविवेकः
लो.
॥३०॥
कातन्त्र | शब्दित' इत्युक्तत्त्वाद्यः-दाता तस्यागः-पर्वतो दुमश्च, इत्थमपि समाससम्भवः, 'पूर्व पर्व सर्व पूरणे'पर्व अग्रे हि, अप कर्तरी ७-१-१२)(सारस्वताल त्यप् प्रत्ययः स्वरहीनं, तुह्योस्तातडाशिषि वे( )ति हेः स्थाने तात् पर्वतात्, यद्वा 'अद भक्षणे' अद् तिप् प्रत्ययः 'अप् कर्तरी'त्यपू विभ्रमे
'अदादेलगि (७-१-१३) त्यपो लुक्, अत्ति, पर्वतम् अत्तीति क्विए क्विपो लोपः प्रथमैकवचनं सिः 'हसेपः सेर्लोपः (३-२-३) वावसाने' (४-२-२७) पर्वतात् , यद्वा पर्वतमततीति, 'अत सातत्यगमने' इत्यस्मात् क्विप् , एवं वृक्षात् , घटादित्यादयो ज्ञेयाः॥३॥
पंचड्डलानि साधुत्वं, कथं याति च लक्षणात् । मुनीनामिति नो षष्ठी, त्याद्यन्तं चाश्व इत्यपि ॥४॥
"पंचढलानी 'ति, अत्रापि प्रश्नार्थस्य सुगमत्वाग्निर्वचनं ब्रूमः, एवमुत्तरश्लोकेऽप्यूचं. पंचन् १-३ अग्रे षष् १-३ पंच षटु च पंचषाः, पंच वा षट् वा परिमाणमेषां 'टाडका' इति(६-३-१५) डप्रत्यये पंचषाः, पंचपानाचक्षते जिर्डिकरणे (७-४-६) इति जिप्रत्ययः, डिवाडिलोपः, पंचषि अप् कर्त्तरि गुणायादेशौ पंचषयन्तीति क्विप् प्रत्ययः, क्विा लोपे 'अ' रिति (७-४-७१) जिलोपे पश्चष् , स्थित एव पञ्चष् १-३, अग्रे हलानि, पंचषां हलानि पञ्चड्डलानि, मध्ये 'पोड' (४-४-५) ड्, अन्तवर्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदान्त| त्वं, तस्माद् 'वाऽवसाने' (४-२-२७) अत्र हि वाशब्दस्य व्यवस्थितविकल्पार्थत्वाच्च षः ड्, 'हो झभाः' इति (२-३-४) हस्य ढः | पश्चड्डलानि सिद्धं । मुनिः इनो यस्याः सा मुनीना तां मुनीनां, यद्वा मुनीनां इना-स्वामिनी तां २-१, अश्व इत्यस्य स्याद्यन्तत्त्वं प्रसिद्धं, त्याद्यन्तत्वं कथमिति प्रश्नः, 'ओश्वि गतिवृद्धयोः श्वि दिवादिगणस्थः, सिपि प्र०स दिवादावडि(७-२-४) त्यद् 'लित्पुषादे'(७-२-१५) रित्यादिशब्दाद् ङः प्र०, श्वयतेः श्वादेशः प्रयोगवशात् स्वरहीनं 'स्रोविंसर्गः' (४-४-९) अश्वः॥४॥
१ भौवादिकः
1955464RSHISHERS
S te-RSECRUSik
GARL
॥३०॥
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कातन्त्र (सारस्वत विभ्रमे
स्याद्यन्त
प्रतिरूपकास्ता
॥३१॥
984929
अष्टाविति कथं द्वित्वं, राजेभ्य इति साधुता । तेनेत्येतत्याद्यन्तं स्यादत्याद्यन्तं भवेदिति ॥५॥
'अष्टाविति' 'अशु व्याप्ती' अशूङ् अश्यतेऽस्म 'तक्तवतू' इति (८-२-१३) क्तप्रत्ययः, 'छशषराजादेः षः' इति (४-४-१८) पः,'ष्टुभिःष्टु'रिति(२-३-७)टः, प्रथमाद्विवचनं औ, अष्टौ । राज्ञामिभ्यो राजेभ्यः षष्ठीतत्पुरुषः१-१। 'तनू विस्तारे' णबादिस्थोऽप्रत्ययः |'विश्व' (७-४-४३) 'लोपः पचां कित्ये चास्येति(७-४-४५) पूर्वद्विवचनलोपः अकारस्यैकारः, स्वरहीनं तेन । 'इण् गतौ' भवपूर्वः भवं | संसारं शङ्करं वा एतीति क्विप् तुक् , क्विब्लोपे भवेत् १-१, ' हसेपः सर्लोपः' (३-२-३ ) ॥५॥
हस्तौ द्विवचनं नेदं, शोभनेष्वित्यसप्तमी । क्षीरस्येति न षष्ठीयं, त्याद्यन्तं वायुरित्यपि ॥ ६॥ 'हस्ता' विति हस्ताविति द्विवचनान्तं प्रसिद्धं, द्विवचनान्तं नेदं कथमिति प्रश्नः, तत्र 'हस हसने हस् 'स्त्रियां क्ति' रिति (८४-१६) क्तिः स्वरहीनं हस्तिः , ७-१'डेरी डित्' (३-२-२१) शोभना इषवो-वाणा यत्र कुले तत शोभनेषु, 'नपुंसकात् स्यमोलक् (३-३-११)। | हे क्षीर स्येति, 'पोऽन्तकम्मेणि' धातुः, साधना प्राग्वत, अथवा क्षीरमिच्छतीति 'करणे च यः' (बिर्डित्करणे ७-४-६) इति सूत्रस्थचकारात् क्वचिदितीच्छायामपि यः प्रत्ययः, सुगागमोऽसुगागमश्चेति ज्ञातव्यमिति पुंजराजव्याख्यानात, अनेन यः प्रत्ययः सुकागमः ‘स धातु रिति (७-४-१०) धातुत्वात् अग्रे हि 'अतः' (७-३-१३) इति हे कि क्षीर स्येत्यषष्ठयन्तं । 'वा गति गन्धनयोः' वा विधिसम्भावनयोः यादादिस्थो युस् प्रत्ययः, अप्प्रत्ययः अदादेलक्, वायुः॥६॥
दधिस्येति कथं साधु, मधुस्येति तथा परम् । केनेत्येतदटान्तं स्यादपापा इत्यसुप्तता ॥७॥
This
4.4
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कातन्त्र
(सारस्वत) विभ्रमे
॥ ३२ ॥
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'दधिस्येति' दधि मधु, दभा भोजन मिच्छति मध्विच्छति, 'करणे च य' इति यप्रत्ययः, सुगागमः हि अप् प्रत्ययः, अदेऽलोपः, 'अत' (७-३-१३) इति हेर्लुक्, दधिस्य मधुस्य, असुगागमे दध्यस्य मध्वस्येति सिद्धं । कं चारि तस्य इनः स्वामी केनस्तस्य सम्बोधनं केन!, अपापा इत्यसुप्तता - अस्याद्यन्तता त्याद्यन्तता साध्यते 'पर्द कुत्सिते शब्दे' पद् अत्यर्थं पर्दते 'अतिशये हसादेर्य ङिति (७-३-५७) यङ् प्रत्ययः, 'वा अन्यत्रे'ति ( ८-२-२७ ) यङ्लुक्, 'द्विश्व' पपई 'आत' इति ( ७-४-३५ ) पूर्वस्य दीर्घः, अनद्यतनस्प्रत्ययः, 'दिबादावद्' (७-२-४) 'सोऽपदान्ते रेफप्रकृत्योरपि दधा रत्त्वं इति व्याकरणान्तरसूत्रेण दस्य रः दूर्, 'दिस्योर्हसा' दिति (७-३-३ ) स्लोपः, 'रिलोपो दीर्घवे ति ( २-४ -१२ ) रलोपः पूर्वस्य च दीर्घः 'त्रोर्विसर्गः ' ( ४-४-९) अपापा इति सिद्धं, एवं स्पर्द्धर्नद्धेश्व अपास्पाः अनाना इति भवति, एवमन्येषामप्येवंजातीयानां यङ्लुगन्तानामूह्यानि रूपाणि ॥ ७ ॥
एतेषां कथमेकत्वं वनानि ब्राह्मणैरमी । वृक्षाः पचन्ति येषां यान्, वायुभ्यः पार्थिवाः सुराः ॥ ८ ॥
'एतेषा' मिति वैषम्यमेव लिखामः, 'वन पण संभक्तौ वन्, तुत्रादिस्थ आनिप्प्रत्ययः, 'अप् कर्त्तरि' 'सवर्णे दीर्घः' ( २-१-१४ ) सह, वनानि । ब्राह्मण सम्बोधनं अग्रे 'इण गतौ' इ, दिवादिस्प्रत्ययः 'अप् कर्त्तरि' 'अदादेर्लुक्' 'दिवादावाद' 'अइए' ( २-१-१५) स्वरादेः 'ए ऐ ऐ' ( २-१-१९) ऐः ब्राह्मणै:, हे ब्राह्मण ! त्वं ऐः गच्छ इत्यर्थः । अमोsस्यास्तीत्यमि 'मान्तोपधाद्वत्विना' विति ( ६-१-३६ ) इन्प्रत्यये अमी । 'अस क्षेपणे' अस् वृक्षपूर्वः, वृक्षान् अस्यतीति क्विप् लोपः, प्रथमैकवचनं सिः १-१ 'हसेपः से०' वृक्षा । 'ड पचन् पाके' पच्, पचतीति 'शतृशानौ तिप्तेवत्क्रियाया' मिति ( ८-२-१७) शतृ
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बहुवचनप्रतिरूप
काणामेक
वचनता
॥ ३२ ॥
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कातन्त्र
(सारस्वत) विभ्रारे
॥ ३३ ॥
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प्रत्ययः, शकारश्चतुर्वत्कार्यार्थः, ऋकारोऽनुबन्धो नुमागमार्थः, 'अप्ययोरा' दिति ( ३-२-३२ ) नुमागमः 'द्वित' ( ६-२-४) इतीप्, पचन्ती, धौ हस्वः, हे पचन्ति । 'येषु प्रयत्ने' येषु येषणं येषा 'गुरोर्हसा' दिति ( ८-४-२० ) अप्रत्ययः, स्त्रीत्वादाप् १- १ तां । ' या प्रापणे', या यातीति यान्, 'शतृशाना' विति शतृ, 'सवर्णे दीर्घः सहे' ति ( २-१-१४) दीर्घः, 'त्रितो नु' मिति ( ३-२-३० ) नुम् १-१ । 'भ्यसि भये' भ्रुवादिः वायुपूर्वः, वायोर्म्य सतीति वायुभ्यः, क्विप्प्रत्ययः लोपः, 'हसेपः सेर्लोपः' ( ३-२-३ ) स्रो० । 'असु क्षेपणे' अस् पार्थिवपूर्वः, पार्थिवं अस्यतीति क्विप् लोपः १-१ हसेपः 'स्रोर्विसर्गः' पार्थिवाः । 'पुस् अभिषवे' पु, 'आदेः ष्णः स्त्रः' (७-४-७७ ) सु सु रापूर्वः, सुरां सुनोतीति क्विप् 'हस्वस्य पिति कृति तुगि' ति ( ८-४-२२ ) तुक, सुरासुत् तमाचष्टे 'ञिर्डित्करणे' इति ( ७-४-६ ) ञिः, स च डित्, टिलोपे सुरासि, सुरास्यतीति क्विप्, लोपः 'ने'रिति ( ७-४-७१ ) त्रिलोपः सुरास् प्रथमैकवचनं सिः सुराः । यद्वा सुरानस्यतीति सुराः साधना प्राग्वत् । यद्वा रैशब्दः सुपूर्वः शोभना राः सुराः १-१ 'रस्भी' त्याकारः 'स्रोर्विसर्गः' सुराः ॥ ८॥
शेषाणि पूर्वाणि समान्यजानां, फलानि मूलानि हलान्यगूनाम् ।
अभ्राणि नीलानि दलान्यतस्यः, शूलानि कूलानि तटान्यपापाः ॥ ९ ॥
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'शेषाणी 'ति, इह वक्ष्यमाणे च वृत्ते प्रथमादिबहुवचनान्तप्रतिरूपकाण्येकवचनान्तानि कथं स्युरिति प्रश्नार्थे वयं वच्मः, 'कष | शष जप झष वष मष मुष रुष यूप जूप शिप हिंसायां' शिष्पूर्वः 'पर्व (पूर्व) सर्व पूरणे' पूर्व 'षम ष्टम वैक्लव्ये' षम्, 'आदेःष्नः स्रः' (७-४-७७) सम्
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स्यादिबहुत्ववतां
त्याद्येकत्वं
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कातन्त्र (सारस्वत विभ्रमे
॥३४॥
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तुवाद्युत्तमपुरुषे आनिप, अप् कर्तरी' (७-१-१२) त्या शिषधातोरुपधागुणः, स्वरहीनं, सवर्णे दीर्घः सह, शेषाणि पूर्वाणि समानि। स्यादिबहु'ज्ञा अवबोधने' ज्ञा, दिवा० अम् , अड् 'ना त्र्यादे' रिति (७-१-२०) ना प्र०,'ज्ञाजनोर्जा' इति (७-४-८५) जा आदेशः, सवर्णे, त्वता | मोऽनुस्वारः, अजानां । 'फल निष्पत्ती' फल, 'मूल प्रतिष्ठायां' मूल 'हल विलेखने हल्, तुबाजुत्तमपुरुषैकवचने आनिप्, 'अप् कर्तरी' | Pr
त्यप् , सवर्णे दीर्घः सहेति दीर्घत्वे फलानि मूलानि हलानि सिद्धयन्ति, यद्वा फलपूर्वः 'णी प्रापणे' णी, 'आदेष्णः स्नः' नी, | | फलमानयति यत् कुलं क्विप् प्रत्ययः, लोपः, नामसंज्ञायां स्यादिः, प्रथमैकवचने १-१ 'नपुंसकस्येति (४-२-७) इस्वत्त्वे 'नपुंसकात् है | स्यमालुगिति (३-३-११) सिलोपे फलानि इति सिद्धः, एवमन्यावपि प्रयोगौ। न विद्यते गौर्येषां ते अगवः 'ना'(६-४-५)इति नओs-| | कारः, 'गो' (४-२-६) रिति इस्वः, तेषां अगूनामिति बहुवचनान्तं स्यात् , एकवचनान्तं तु 'गु पुरीपोत्सर्ग' गुवति स्म 'गत्यर्थादकर्मका'दिति क्तप्रत्ययः, 'वाद्योदितश्चेति (८-४-३७) तस्य नत्वं, 'दुग्वोर्दीर्घश्चेति ज्ञापकादीर्घत्वे गूना, स्त्रीवादाप , न गूना अगूना | तां २-१ सिद्धम् । 'अभ्र वभ्रमभ्रगती' अभ्र चरेति गत्यर्थाः, 'नील वर्णे, नील् , 'दल त्रिफला विशरणे' दल, आनिए प्रत्ययः, अपि प्रत्यये इष्टरूपसिद्धिः। अतसीशब्दाज्जसि बहुत्त्वं, एकत्त्वं पुनरित्थं-'तस क्षये तस्, दिबादि स्प्र०,दिवादावद् ,'दिवादेर्यः' (७-१-१५)
स्वरहीनं, स्रो०, अतस्य इति सिद्धम् । 'शूल रुजायां' 'कूज आवरणे' 'तट समुच्छ्राय' सर्वत्राकारोऽनुबन्धः, साधना सुगमाऽभ्राणिमावत् । 'पा पाने 'पा रक्षणे वा, अपपूर्वः, दिवादिः स्, 'दिबादावर (७-२-४) भृते सिरिति(७-२-७)स् प्रत्ययः,'दादेःप'(७-३-१०)
३. लाइति सिप्रत्ययलोपः, स्रोविसर्गः, अपापाः, पर्दधातुना निष्पादितेन पूर्वश्लोकोक्तेन अनेन प्रयोगेण न पौनरुत्यं, धात्वन्तरत्वादशान्तरत्वाच्च ॥९॥
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कातन्त्र (सारस्वत) विभ्रमे
।। ३५ ।।
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सुखानि शीलानि नखान्यसांलाः, खलानि पापानि बलान्यचर्चाः । पुराणि वर्षाणि मठान्यमीनाः, धनानि सर्वाणि बिलान्यपां च ॥ १० ॥
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'सुखानी 'ति, कथमेकत्त्वमित्यनुवर्त्तते, सुष्ठु - शोभनाः खानयो यत्र कुले तत् सुखानि १-१, यथा खनिशब्दस्तथा खानि - | शब्दोऽपि 'खनिः खानी 'ति हैमलिंगानुशासनोक्तः, यद्वा सुखमिवाचरति 'कर्तुर्यङ्' (७-४-५) अत्रार्थे क्विरपि वाच्य इति क्विप् प्रत्ययः, 'वे' रिति ( ८-४-२७) विलोपे आनिप्प्रत्यये सुखानि, अथवा सु-शोभनं खं-छिद्रादि तदिवाचरतीति, अथवा 'अन प्राणने' अन् सुखपूर्वः, सुखेन अनितीत्येवंशीलं 'णिनिरतीते' इति णिन्प्रत्ययः, णित्त्वाद् वृद्धौ प्रथमैकवचने 'नपुंसकात् स्यमोलुगि 'ति (३-३-११)सेलुकि सुखानि, यद्वा सुखमानयति यत्कुलं तत् सुखानि, फलानीतिवत्साध्यं, पंचार्थाः 'शील समाधौ ' ' उख नख णख वखेति दण्डकधातुः, प्राग्वत्साध्यानि शीलानि नखानि । असास्ना इति न विद्यते सास्ना येषां तेऽसास्नाः 'सास्ना तु गलकम्बल' इत्यमरः इति भूम्नि प्रसिद्धं, एकत्वं तु 'ष्णा शौचे' ष्णा, 'आदेः ष्णः स्नः' 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याभावः' इति स्ना, अत्यर्थ स्नाति 'अतिशये हसादेर्यङ् 'द्विश्चेति (७-३-५७) यङ्-प्रत्ययः, 'वाऽन्यत्रे' ति(८-२-२७) यङ्लुक्, द्वित्वं स्ना स्ना, 'पूर्वस्य हसादिः शेष' इति (७-४-२४) नकार लोपः, 'सधातु' (७-४-१०) रिति दिवादिगणगतसिप्प्रत्ययः स्, 'स्रोर्विसर्गः' असास्नाः । 'खल संचये'खल्, आनिप्प्रत्यये अपि खलानि सिद्धं । 'पा पाने' पा, अत्यर्थ पिबति, अतिशये यङ्, 'वान्यत्रे' ति ( ८-२-२७) यङ् लुक् 'ह्वादिवच्च द्रष्टव्यमिति वचनादप्प्रत्ययः, 'ह्रादेर्द्वि ' (७-१-१४) त्यपो लुक् द्विश्व, तुबादिपरस्मैपदोत्तमपुरुषैकवचने आनिपि सिद्धं पापानि । 'बल प्राणधारणे' बल्- आनिपि
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स्वाद्यन्ताभानि
त्याद्य
॥ ३५ ॥
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कातन्त्र
बलानि । न विद्यते चर्चा येषां ते अचर्चाः इति बहुत्त्वं, एकत्वे प्रश्नः, 'घृती ग्रन्थे हिंसायां च त् , 'अतिशये हसादेर्यङिति (७-३-५७) स्याद्य(सारस्वतारयङ्, यङ्लुकि च ह्वादित्वादप लुक् द्विश्च, 'र' इति(७-४-२८)रत्वे 'ऋदन्तानामृदुपधानांचे'ति(८-२-३०)पूर्वस्य रुक, दिवादिस् प्र०,गुणः न्ताभानि विभ्रमे | तस्य रत्वे 'रिलोपो दीर्घश्चे (२-४१२) तिरस्य लुकि पूर्वस्य दीर्घ अचर्चाः, यद्वा चर्चा इवाचरति 'कर्तुर्यङि'ति (७-४-५) 'अत्रार्थे किरपि
त्याद्य| वाच्य' इति क्षेमेन्द्रोक्तः, वेरिति(८-४-२७) विलोप, अनद्यतने स्प्रत्ययः, दिवादावट ,स्रोवि०,अचर्चाः । 'पुर अग्रगमने' पुर्, तुदादि
न्तानि ॥३६॥
| तुबादिस्थ आनिप् , तुदादेरप्रत्ययस्यापित्त्वान्नोपधागुणः, णत्वं, पुराणि । 'वृष सेचने वृष् आनिप् , अप्प्रत्ययः, अपः पित्वाद् | 'उपधाया लघो' रिति(७-४-६०)गुणः, ऋकारस्य अर् , णत्वं, वर्षाणि। 'मठ मदनिवासयोः' मठ , आनिपि अपि मठानि । न विद्यन्ते ४ मीना-मत्स्या येषु ते अमीनाः, मीनशब्दे सत्ययं समासः, एकत्वं तु 'मी हिंसायां दिवादिसिः, दिवादावट , 'नाक्रथादे' रिति ★(७१-२०) ना प्र०, स्रोवि० अमीना इति सिद्धं । घन इवाचरति 'कर्तुङि' ति यङ्, यङ् लोपः आनिपि घनानि रूपं सिद्धयति । 'अन
प्राणने' अन् सर्वपूर्वः सर्वमनितीत्येवंशीलं 'णिनिरतीते' (८-२-११) णिन् प्रत्ययः, णत्वं १-१ 'नपुंसकात् स्यमोलक्'सवर्णे दीर्घः | सर्वाणि । 'बिल भेदने बिल्, आनिप् प्र. 'तुदादेर' (७-१-१९) गुणनिषेधः बिलानि । 'पा पाने' अनद्यतने अम् दिवादावद् भूते सिः 'दादेः प' इति (७-३-१०) सेर्लोपः 'सवणे दीर्घः सह 'मोऽनुस्वारः (२-३-१८) अपां,यद्वा 'पा रक्षणे' पा, अनद्यतने अम् , अप्क
रीत्यप् , अदादेलक (७-१-१३) सवर्णे दीर्घः सहापामिति सिद्धयति ॥१०॥ समुच्चयाच्चकारस्य, स्याद्यन्तं भवतीत्यपि । | तथा जग्लो दधौ मम्लौ, ददावित्यादयोऽपरे ॥१॥ जग्ले पपे ददे मम्ले, जज्ञे सने मुखास्तथा । विना परोक्षम-II ॥३६॥ भ्यूयाः, स्याचन्ता बहवो बुधैः ॥२॥ अनयोः सोपयोगित्वात किंचिल्लिख्यते-'भू सत्तायां' भू, भवतीति 'शतृशाना'
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कातन्त्र (सारस्वत विभ्रमे
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विति अत्प्रत्ययः, अप् कर्त्तरीत्यप् (७-१-१२) गुणः, ओ अव् , 'द्वित' (६-२-४) इतीप् भवति, सम्बोधने हे भवति', 'धौल त्यादी हस्व' इति (३-२-११) इस्वः। 'ग्लै हर्षक्षये 'म्लै गात्रविनामें 'डुधांधारणपोषणयोः' 'डुदादाने' 'पा रक्षणे' 'ला आदाने 'कै गैरै विपरीतानि शब्दे' सन्ध्यक्षराणामा' (७-४-७३) इत्याकारः, ग्लायति स्म म्लायति स्म दधाति स्म ददाति स्म पाति स्म लाति स्म रायतिरूपाणि स्म एभ्यो धातुभ्य आदितः किश्चेि' ति (८-२-३१) सूत्रेण कि प्रत्ययः, पश्चाद् द्विवचनं हस्वः 'आतोऽनपी (७-४-६९) त्याकारलोपः, स्वरहीन, जग्लिः मम्लिः दधिः ददिः पोपः ललिः रिः जगिः इति जातं इकारान्तं, ७-१ डेरौर्डि' (३-२-२१) | जग्लो मम्लौ दधौ ददौ पपौ ललौ ररौ जगौ, एवं जग्लिमम्लिपपिदधिददिशब्देषु सम्बोधने 'धा' विति (३-२-१८) सूत्रेण एकारे | कृते जग्ले मम्ले पपे इत्यादयः प्रयोगाः स्युः । 'मृ गतो' , सरति स्म आदृतः किश्चेि ति (८.२-३१) किः, ककारः कित्कार्यार्थः, इप्रत्ययः, द्वित्त्वं, सृ सृ इति स्थिते 'र' (७-४-२८ ) इति पूर्व ऋकारस्य अत्वं, 'कर' मिति (२-१-३) रत्वं ससिः, | इकारान्तत्त्वे 'समानार्लोिपोधातो' रिति ( ३-१-६ ) धेर्लोपे 'धा' विति (३-२-१८) एत्त्वे सटे इति सिद्धं । 'जनी प्रादुर्भावे' ईकार | | 'आदीदित' इति सूत्रविशेषणार्थः, जन् , 'आदृतः किश्चेि' ति चकारादुपधालोपिन इति क्षेमेन्द्रोक्तेः चकाराद्गमिजनिहनिभ्यः | किरिति मण्डनव्याख्यातश्च किप्रत्ययः, द्वित्त्वं, ज जन् इ इति स्थिते 'गमा स्वर' (७४-६८) इत्युपधोलापे, स्वरहीनं, जज्ञि, पश्चादिकारान्तत्त्वेन हरिशब्दवत् सम्बोधने जज्ञे इति सिद्धं, एवं जग्मे जप्ते इत्यादयोऽपि साध्याः । ( जगाम न गमे रूपं ) 'कै गै
॥३७॥ |रै शब्दे' सन्ध्यक्षराणामाः, गा, गायतीत्येवंशीलः 'आदृतः कि' रिति किप्रत्ययः, द्विश्च, 'कुहोश्चुरिति (७-४-२६) गस्य कः,
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GAR
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कातन्त्र 'आतोऽनपी' (७-४-६९) त्याकारलोपे जगिः, जैगिमाचष्टे 'जिर्डित्करणे' इति (७-४-६) अिप्रत्यये जगयति, जगयतीति किए लोपः त्यादौ (सारस्वत ४ जग्, जग् इवाचरति 'कर्तुर्यङि' ति (७-४-५) यङ्, यङ् लोपः, तुवादिः आम जगाम इति रूपमनुक्तमपि प्रसङ्गादिह लिखितम् ॥ द्र
विपरीतानि विभ्रमे अधीये नोपसृष्टस्य, शक्यतीत्यस्य साधुता । जागतीति न जागर्तेरुच्यतीतिं च साधुता ॥ ११ ॥
रूपाणि, ॥३८॥ 11 'अधीये' इत्यादि, अधीये इति रूपं उपसृष्टस्य-उपसर्गसहितस्य 'इङ् अध्ययने इ इडिकावध्युपसर्गतो न व्यभिचरतः इति
द्र सदा अधिपूर्वः, वर्तमाने ए, 'नुधातो' रिति ( ३-४-२१) इय् स्वर० अधीये, किन्त्वन्यथा साध्यते, 'धीङ् अनादरे धी, अनद्य
| तने इ, दिबादावद्, 'दिबादेर्यः' (७-१-१५) 'अइ ए' (२-१-१५) अधीये, यद्वा 'डुधाञ् धारणपोषणयो' रित्यस्य धातोर्याक 8| प्रत्यये इ परे रूपं सिद्धम् । 'शक्ल. शक्ती' इति धातोर्यकि प्रत्यये कृते शक्यते इति भाव्यम् , 'शक मर्षणे शक , वर्तमाने तिप्प्रत्ययः
दिवादेये इति यः, शक्यति, यद्वा शक्य इवाचरति कत्तुयेङिति यङ्, लोपः, वर्तमाने तिप, अप कत्तरि इत्यप, अदादेलुक, श| क्यति रूपं सिद्धं । जागर्तीति 'जागृ निद्राक्षये' इत्यस्य प्रसिद्धं, तत्र नेदमस्येति पृच्छयते, 'गृ निगरणे' गर्हितं गिरति 'अतिश्ये हसादे' रिति (७-३-५७) यङ्, 'वाऽन्यत्रे' ति (८-२-२७) यङ् लुक् , 'हादिवच्च द्रष्टव्य मित्युक्तत्त्वाद् द्वित्त्वं, 'र' इत्यकारः, 'कुहोश्चु रिति (७-४-२६) गस्य जः 'आत' इति (७-४-३५) दीर्घः, ऋकारान्तत्त्वान्न ऋगादयः, गुणः, जागतिं । 'वच परिभाषणे' वच्, यक्, संप्रसारणे उच्यते इति भाव्यम् , साधुत्त्वं तु 'उच समवाये' उच् , वर्तमाने तिप् , दिवादेर्य इति य प्रत्यये सिद्धं उच्यति ॥ ११ ॥
।।३८॥ १-जगि छान्दस इति हेम: २-त्यस्येतिद्विः
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कातन्त्र (सारस्वत ) विभ्रमे
॥ ३९ ॥
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अस्यन्निति न शत्रन्तं, व्याघ्रा इत्यस्य चैकधा । बहुत्वं च तथैतेषामसुर्मेषारुरेव च ॥ १२ ॥
'अस्यन्निति' शत्रन्तं इति तावत् 'अमु क्षेपणे' अस् अस्यतीति 'शत्रुशाना' विति (८-२-१७) शतृप्रत्ययः, दिवादेर्यः, अस्थन्, अशत्रन्तं तु ' षोऽन्तकर्म्मणि' पो, 'आदेः ष्णः स्नः' सो, दिवादिस्थः अन् प्रत्ययः, दिवादावद्, 'दिवादेर्यः' ( ७-१-१५) 'वो'रिति ( ७-४-७२ ) ओकारलोपः, 'अदे' ( ७-३-१४ ) इत्यलोपः अस्यन् सिद्धं । व्याघ्रा इति जसन्तं प्रसिद्धम्, एकत्वं पुनरित्थं'घ्रा गन्धोपादाने' घ्रा, दिवादि स्, भूते सिः दिवादावद्, विपूर्वः 'प्रासाच्छाशाघेटा' मिति सिलोपः, स्रो० व्याघ्राः सिद्धं । तथा एतेषां वक्ष्यमाणानां बहुत्त्वम्, असुः इति, असुशब्दः प्राणवाचकः १ - १, बहुत्वं तु 'षोऽन्तकर्म्मणि' पो, दिवादि अन्, 'आदेः ष्णः स्नः', सो, 'भूते सि:' 'घासाच्छाशाधेटा' मिति सिलोपः, 'स्थाविद' (७-३-२१) इत्यन उस्, 'उस्यालोप' (७-३-३३) इत्यालोपः, स्वरहीनं, स्रो, असुरिति सिद्धं, मेषेति मेपशब्दात् सम्बुद्धौ एकत्वं प्रसिद्धं, बहुत्वं तु 'कप शप जप झषे' त्यादि, मष हिंसायां मष्, परोक्षे अग्रे अ, द्विश्व 'लोपः पचां किस्ये चास्ये' ति पूर्वलोपः एकारः, मेष सिद्धम् । अरुप शब्दो मर्मवाची, 'दोषां रः' १ - १, बहुत्त्वं तु 'रा दाने' रा, अनद्यतने अन् प्रत्ययः, अप्, 'अदादेर्लुगि' (७-१-१३) त्यपो लुक्, 'स्याविद' (७-३-२१) इत्यन उस्, उस्यालोपः, स्रो०, अरुः सिद्धम् ||१२|| पुनः समुच्चयाच्चस्य, शसन्तं पर्वतस्त्विति । आगमोऽनुजगृहे राजसे हरहरेऽ व्ययम् ॥ १ ॥ चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् पर्वत इति द्वितीयाबहुवचनान्तं पर्व धातोः शतृप्रत्यये पर्वतशब्दात् २-३ पर्वतः, 'गम्लु गतौ' गम्, आङ्पूर्वः दिवादि स्, 'लित्पुषादेर्ड' (७-२-१५) इति अप्रत्ययः दिवादाद्, स्रो० 'गमां स्वरे' (७-४-६८) इत्यत्र न के
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विभक्तिव्या त्ययवन्ति
॥ ३९ ॥
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कातन्त्र (सारस्वत विभ्रमे
॥४०॥
XUSUSILOSA
इति वक्तव्यं, तेनाऽऽगमदित्यत्रालोपाभावः इति क्षेमेन्द्रवचनात् आगमः सिद्धम् । अनुजातः अनुजस्तस्य गृहमनुजगृहं ततः ७१ स्याद्यन्ता
स्याद्यन्तं, त्याद्यन्तं कथं ?, 'ग्रह उपादाने' ग्रह, णवादि ए द्विश्च ‘णबादौ पूर्वस्येति' (८-४-३२ ) सम्प्रसारणं, रस्य ऋकारः, 'र' भानित्याहै इत्यः 'कुहोश्चुः' (७-४-२६ ) 'ग्रहाङ्किति चे' ति (८-४-३१) द्वितीयसम्प्रसारणं, अनुपूर्वः अनुजगृहे सिद्धं । सह इना वर्त्तते इति
द्यन्तानि सेः, राज्ञः सेः संबुद्धा इति स्याद्यन्तं, त्याद्यन्तं तु 'राज़ दीप्त्या' मिति धातोः सेप्रत्यये अपि राजसे सिद्धम् । 'हृञ् हरणे तुबादि | हौ अप्रत्यये गुणे 'अत' इति (७-३-१३ ) हे कि सिद्ध हर, अस्यैव धातोरुभयपदित्वाद्वर्तमाने एप्रत्यये हरे रूपं साधु, अव्ययमिति 'व्येञ् संवरणे' इत्यस्य दिवाद्यमिष्प्रत्यये अपि दिबादावडित्यटि, अयि व्यय गतावित्यस्य वा रूपम् ॥
एतानि न स्याद्यन्तानि, यस्य तस्याश्वमस्य च । शेलुबिभीतको वेणुः, पञ्चेते स्म ऋणानि च ॥१३॥ 8 'एतानी' ति, यस्येत्यादीनि स्याद्यन्तत्त्वेन प्रसिद्धानि, तानि त्याद्यन्तानि कथमिति प्रश्नः, तत्र 'यस्ये' ति 'यस् प्रयत्ने हो । | दिवादेर्य इति यप्रत्यये हेलुकि सिद्धम् । एवं 'तस क्षये' तस्य 'अस् क्षेपणे' इत्यस्य अस्य रूपं, यथा पूर्व 'ओश्वि गतिबृद्धयो' रिति धातोः अश्व इति रूपं निष्पादितं तथा अमि प्रत्यये अश्वमिति सिद्धम् । शेलुः श्लेष्मातक इत्यभिधानात् १-१ स्याद्यन्तं, त्याद्यन्तं तु 'पल फल शल गतौ शल, यथा पेचुः तथा शेलुः सिद्धयति । विभीतकः-प्रतीतः, त्याद्यन्तं तु 'जिभी भये भी, वर्त० तस, अकर्तरीत्यप् , 'हादेईिश्च' 'झपानां जबचपाः' 'हस्वः' बिभीतः, 'अव्ययसर्वनाम्ना' मिति सूत्रे चकारादाख्यातेऽप्यक् । 'अण रण ॥४०॥ वण व्रण गतौ' वण् वा 'वण शब्दें' इत्यस्य वेणुरिति प्रयोगो न भवति, बकारादीनां पूर्वलोपादेनिषेधात् , तस्माद् रेणुरिति पाठो
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विभ्रमे
कातन्त्र द्रष्टव्यः, रण शब्दे, साधना शेलुवत् , वेणुरित्याह च हेमसूरिः, पञ्च इत:-प्राप्तः पञ्चभिः पञ्चभ्य इतः-प्राप्तः तस्मिन् पञ्चते स्याद्यन्ता(सारस्वता इति स्याद्यन्तं, त्याद्यन्तं तु 'पचि व्यक्तीकरणे' पच्, वर्तमाने आते, अप् प्रत्ययः, 'इदित' इति (७-४-९६ ) नुम् 'आदाथ इ' भानित्या४ (७-३-१६) पञ्चेते सिद्धं । स्म इति अतीतद्योतकः, स्मेति निपाति हस्वः णत्वं ऋणानि सिद्धम् ?) ॥१३॥ चस्य समुच्चयार्थत्वात्-४
द्यन्तानि लासमुच्चयात्पुनश्चस्य, प्रयोगास्त्यादिजा अमी । अस्यास्तस्याश्च यस्याश्च, कस्या इति चतुष्टयी ॥ १॥ 'अस् क्षेपणे' ॥४१॥ 'यस मोक्षणे' 'तस क्षये' 'कस गतिशातनयोः' कस्, आशिषि यास् , स्वरहीनं, अस्याः तस्याः यस्याः कस्याः इति रूपाणि स्युः ।।
एकस्य कस्य धातोः स्यात्त्यादौ रूपचतुष्टयम् । पर्वाणि पर्वत पर्व पर्वतोऽपूर्वमेव च ॥१४॥ __'एकस्ये' ति कस्यैकस्य धातोः त्यादौ स्याद्यन्तप्रतिरूपकं रूपचतुष्टयं भवतीति प्रश्नार्थः, 'पूर्व पर्व सर्व पूरणे पर्व, परतः आनि तस् हि तुबादि तं प्रत्ययः, सर्वत्राप्प्रत्यये पर्वाणि पर्वतः पर्व पर्वतमिति रूपचतुष्टयं, पूर्वधातोर्दिवाद्यम्प्रत्ययेऽपि अटि 'अदे' अपूर्व सिद्धम् ॥ १४ ॥
चस्य समुच्चयार्थत्वात् । जलानि वातो वातं च, वातः प्रातस्तथैवहि । श्यामाऽध्यायोऽनलश्चाप्यक्षरं चस्य समुच्चयात् ॥ १॥ 'जल धान्ये' जल, आनिपि अपि जलानि । वा गतिगन्धनयोः वा, अत्र तस् तुवादि तंत, अप् 'अदादेलुक् वातः वातं वात इति३रूपाणि । 'प्रा पालनपूरणयो' प्रा , वर्तमाने तसि अपि अदादेलक् प्रातः । 'श्ये गती, श्ये, वर्तमाने मस्, ४॥४१॥
१ तुबादिमप्रत्यये ' अस् भुवि ' इत्यस्य स्मेति । 'ऋगतो' क्रयादौ ल्वादो आनिपि णत्वे ह्रस्वेऋणानि.
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चन्तानि
॥४२॥
RECREEREST
सन्ध्यक्षराणामाः,अप्, अदालक्, श्यामः,यद्वा'शो तनूकरणे' इत्यस्य मसि रूपं । 'ध्यै चिन्तायां'ध्यै, दिवादिस्, अकर्तरीत्यप्, स्याघन्ताअडागमः, ऐ आय् अध्यायः । 'णल गन्धे आदेष्णः'नल्, अनद्यतने स्, अप् अट्, अनलः। 'क्षर सञ्चलने' क्षर, अनद्यतने अम्, इमान दिबादाब, अक्षरमिति इति समुच्चयरूपाणि भवन्ति ।। वेम नेम मम स्यामो, दाम विश्राम वाम च । बहुत्वं कथमेषां स्यादेकत्वं भवतामपि ॥१॥ आदिदेवेत्यसम्बुद्धिः, पाथ इत्यनपुंसकम् । अजागाः कथमेकत्वं, कथं सिद्धचत्तथा मधुक् ॥ २ ॥ इदं श्लोकद्वयमवचूरिकृता कृतमस्ति प्रसङ्गतः ।
अशोकोऽनौस्तथा वातादश्रीणामरुणोऽवनम् । वनानि स्वोऽखिलं यानि, शुभानि च रणानि च ॥ १५ ॥
'अशोक' इति स्याद्यन्ताः मायः सुगमा एवेति त्याद्यन्ता एव दयन्ते, 'शुक गतौ' शुक्, अनद्यतने स्, दिबादावद् , अप् 3] कर्तरीत्यप्, उपधाया लघोरिति गुणः, स्रो०, अशोकः सिद्धं । न नौरिति अनौः-तरेरन्यत् इति स्याद्यन्तं, त्याद्यन्तं तु 'णु स्तुतौ'णु 'आदेः ष्णः स्नः' नु, अनद्यतने स्, दिबादावद्, 'ओरा' (७-४-८२) वित्यौकारः, अनौः सिद्धं । 'वा गतिगन्धनयोः' वा, तुप अप् अदादेलुक्, 'तुह्योस्तात िति तात् हेरपि वातात् । 'श्री पाके' श्री, दिवादि अम् , 'ना ऋयादेः' दिवादावट , सवर्णे दीर्घः सह, णत्वं प्वादिष्वपाठान्न हस्वत्त्वं, नाप्रत्ययस्य ङित्त्वाद् गुणाभावः, अश्रीणामिति सिद्धम् । अरुणः सूर्यस्य सारथिः वर्णविशेषो वा, त्याद्यन्तं तु 'रुधिर् आवरणे' रुध् , 'रुधार्दनम्' (७-१-१७) दिवादावद् , णत्वं, 'दिस्योर्हसा' दिति (७-३-३) स्।
॥४२ लोपः, 'वाऽवसाने' (४-२-२७) इति धस्य दवे, 'दः स' (४-४-२४ ) इति सत्वं, अरुणः । 'वन पण संभक्ती' वन भौवादिकः,
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कातन्त्र (सारस्वत) विभ्रमे
॥ ४३ ॥
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दिवादि अम्, अप्, अवनम्, एवमानिष्प्रत्यये वनानि सिद्ध्यति, यद्वा 'अन प्राणने' वनपूर्वः वनमनिति स्मेति' णिनिरतीते' (८-२-११) इति इन् वनानि १-१, 'नपुंसकात् स्यमोलुगि' ति लुक । 'अस भुवि' इति धातोर्वसि प्रत्यये 'नमसोऽस्ये' (७-३-२६)त्यलोपे स्वः इति सिद्धम् । खिलमिवाचरं 'कर्तुर्यङि' ति क्विप् लोपः, अनद्यतनेऽम्, अप् लुक् अखिलं सिद्धं । ' या प्रापणे' इत्यस्य आनिपि यानिरूपं । 'शुभ शुभ शोभार्थे' शुभ तुदादिः, 'रण शब्दे' रण भुवादिः, आनिपि परे शुभानि रणानि सिद्धम् ।। १५ । उपलक्षणतो लोके, इति रूपस्य विभ्रमे । कुण्डे पिण्डे तथा गुण्डे, मुण्डे चण्डे च खण्डके ॥ १ ॥ 'कुडि दाहे' कुड्, 'पिडि सङ्घाते' पिड् 'मुडि मज्जने उद्यमे वा' मुड्, चडि कोपे चड् 'खडि मन्थने' खड्, सर्वत्र वर्त्तमाने ए प्रत्ययः, 'इदित' (७-४-९६) इति नुम्, कुण्डे पिण्डे इत्यादिरूपाणि स्युः, एतानि सप्तम्येकवचनप्रतिरूपकाणि प्रथमाद्वितीयाद्विवचनसदृशानि वा ।
सास्नःया अकृशोऽताता, असर्मा अटोऽनृणाम् । रेफ वेव रवेऽपेपेरदोधूर्तानिलः कुतः ॥ १६ ॥
'सास्नाया' इति, इहापि प्रायः स्याद्यन्तप्रतिरूपकाः, सास्नाशब्दस्य षष्ठयेकवचनान्तस्यादौ रूपं, क्रिया तु 'ष्णा शौचे' ‘आदेः ष्णः स्नः’ ( ७-४-७७ ) स्ना, अत्यर्थं स्नाति, 'अतिशये हसादे' ( ७-३-५७ ) रिति यङ्, यङो लोपे द्विर्वचनं 'पूर्वस्य हसादिः शेष' इति ( ७-४-२४ ) नस्य लोपे आशीर्यास्प्रत्ययः, सास्नायाः सिद्धं । 'कृश तनूकरणे' कृश्, अनद्यतने स्, दिवादाबद् 'लित्पुषादे' (७-२-१५)रित्यप्रत्ययः, स्वर० अकृशः इति सिद्धम् । नास्ति तातो येषां ते ताताः १-३ स्याद्यन्ते, क्रिया तु 'तर्द हिंसायां ' तर्द, अत्यर्थं तर्दति यङ् यङ् लुक्, द्विश्व, अनद्यतने स्, अद्, सौ पदान्ते रेफप्रकृत्योरपि दधो रत्वं, 'आत' इति (७-४-३५) पूर्वस्य
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स्याद्यन्ताभानि त्या
धत्तपन
॥ ४३ ॥
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कातन्त्र दीर्घत्वे 'दिस्योर्हसादि' ति स्लोपः, 'रिलोपो दीर्घश्चे' ति (२-४-१२) रलोपः, अताताः, अथवा 'तनूकरणे तन्' अत्यर्थ तनोति स्याद्यन्ता(सारस्वता 'तनोतेर्ना वा' इति ( तनोतेर्वा ७-४-७५) नस्याचं, शेषं प्राग्वत् । न विद्यते मर्म यासां ता इति विग्रहे 'टाडका' इति (६-३-१५) ट्राभान त्याविभ्रमे
डप्रत्यये 'आवतः स्त्रिया' (६-२-१) मित्यापि अमाः १-३ रूपं, क्रिया तु 'मृद क्षोदे' मृद् , अत्यर्थ मृद्नाति यङ् लुक् द्विश्च राना ॥४४॥
'ऋदुपधाना (रागृ उपधायाः७-४-३७) मिति ऋगागमः, अनद्यतने स् गुणः अर्, दकारस्य रत्वे 'दिस्योर्हसादिति सिपि लुप्ते 'रि लोपो दीर्घश्चे' ति अममा इति सिद्धं । 'वट वेष्टने' वट्, अनद्यतने स् दिबादावद् अप कर्तरीत्यप, स्रो०, अवटः सिद्धं, 'वट परिभाषणे' | इत्यस्य वा रूपं, अन्यथा तु 'अवटो गत्तेः'। 'अनृणा' मिति, 'नृञ् नये' नृ, अनद्यतने अम् , 'ना क्रथादेः' (७-१-२०) 'प्वा-12 | देईस्वः' (७-४-९३ ) णत्वं, सवर्णे०, अट् अनृणामिति सिद्धम्, नृशब्दः नपूर्वः न नरोऽनरस्तेपामिति स्याद्यन्तं । 'वर्फ रफ || & रिफ गतौ' रफ्, परोक्षेप्रत्ययः, द्विश्च, 'लोपः पचां कित्ये चास्य' (७-४-४५) ति पूर्वलोपः अकारस्यैकहसस्यैकारः, स्वर० रेफ | सिद्धं । 'जिष् विष् मिष् निष पृष् वृष सेचने' विष, तुदादि हिः, 'अकर्तरी त्या 'उपधाया लघो' रिति (७-४-६०) गुणः, 'अत' इति (७-३-१३) हेर्लुक्, स्व०, वेष सिद्धं । केचित्तु 'वष हिंसाया' मित्यस्य णादिमध्यमपुरुषबहुत्वे वेषेत्याहुः, तदसत् , लोपः पचा कित्ये चास्येति सूत्रे चकाराद्वकारादित्वादेत्त्वपूर्वलोपयोरसम्भवात् । रविशब्दादामन्त्रणे सौ, यद्वा रवशब्दस्य | सप्तम्येकवचनान्तस्य स्याद्यन्तता, क्रिया तु 'रुङ् रोषणे' रु, वर्त० ए, 'अप्कर्तरी त्यप् , गुणः, 'अदे' (७-३-१४) इत्यलोपः,
अइ ए, वे सिद्धं । 'पि गतौ' पि इत्यस्माद्यङि लुकि द्वित्त्वे 'यडी' ति (७-४-३४ ) पूर्वस्य गुणे गुण इति परस्य गुणे दिवादिसिप्प्रत्यये सोर्वि० अपेपेः, यद्वा 'पिस पेसृ वेसृ गतौ पिस्, अत्यर्थ पेसति 'अतिशये हसादे' रिति यङ्. 'वाऽन्यत्रे ति यङ्लुकि
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॥४५॥
दिबादिसिप , दिवादावद् , गुणः, 'दिस्योर्हसादि' ति सिप्लोपः, 'स्रोविः' अपेपेरिति सिद्धम् । 'उबै तुर्वै थुर्वै दुई धुर्व जुबै अर्व भर्वस्यादित्या
शर्व हिंसायां' धुर्व, ऐकार ऐदित्कार्यार्थः, अत्यर्थं धूर्वति ‘अतिशये हसादे' रिति । ७-३-५७) यह लुक द्वित्वं 'झपानां जबच-1वताभानि ४(बाश्च ) पा' इति (७-४-२७ ) पूर्वधस्य दः, 'यडी' ति (७-४-३४ ) पूर्वनामिनो गुणः, 'लोपो व्योर्वस' इति क्षेमेन्द्रकृतवृत्ति
सूत्रेण वकारलोपः, दो धुर् इति स्थिते दिवादितप्रत्ययः, दिवादावट् इत्यद्, 'यबोर्विहसे' (७-४-१३ ) इति दीर्घत्त्वे रेफस्योर्ध्वगमने द्वित्वे अदोधूर्त सिद्धं । अनिल इति 'णिल गहने णिल्, तुदादिः, 'आदेः प्णः स्नः' इति नत्वे दिवादिसिप्प्रत्यये 'तुदादेर' (७१-१९) इत्यप्रत्ययेऽनिलः । कुत इति 'टु क्षु रु कुक् शब्दे' ककारः परस्मैपदार्थः, वर्त० तस् , अप , अदादेलुगित्यपि लुकि | कुतः सिद्धम्, स्याद्यन्तता सुगमेति न लिखिता ॥ १६ ।।
अरये नभसे पयसे वयसे लोके नसे गवे वृक्षे । अहयोऽकवेऽयसे लेखे रेखे रजसि रेजेऽलिट् ॥ १७ ॥ ___ 'अरये इत्यादि, स्याद्यन्ताः सुगमाः, क्रियारूपे तु साधनां ब्रूमः, 'अय वय पय मय नय रय गतौ' भ्वादिः रय्, दिवादिइप्रत्ययः, अपकर्तरीत्यप् , दिबादावद् , अइ ए अरये। 'णुभ णभ हिंसायां' णम् , आदेः ष्णः स्वः, नम्, वर्त० सेऽप् नभसे । 'अय वय
पय मय गतौ' पय् वय् , नभसेवत् साधना, पयसे वयसे । 'लोक दर्शने' लोक् , वर्त० ए, अप्, अदे, अइए, लोके । 'णस् कोटिल्ये काशब्दे वा' णस् , आदेः ष्णः स्वः, नस् , वर्तमाने ए, 'अप् कर्तरी'त्यपि नसे, नासिकाशब्दस्य चतुर्थेकवचने नसादेशे, यद्वा शकट
॥४५॥ पर्यावे अनस्शब्दे चतुर्येकवचनान्ते ज्ञेयं स्याद्यन्तं । उङ् कुङ् पुङ् गुङ् घुङ् शब्दे, गुवर्तमाने ए, अप्, गुणः, ओ अव्, गवे सिद्धं ।
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भानि
CHARLES
कातन्त्र
'वृक्ष वरणे' वृक्ष, वर्तमाने ए, अप्, वृक्ष, यद्वा अनयोरेव धात्वोः अनद्यतने इप्रत्यये अगवे अवृक्षे सिद्धं । अहय इति, हयशब्दानब्-15 स्याद्यन्ता(सारस्वत टा | पूर्वात् १-१ अहिशब्दाद्वा जसि, क्रिया तु 'हय गतौ' (क्लान्तौ वा ) हय्, अनद्यतने सि, अप्, दिवादावद्, स्रो०, अहयः सिद्धं । टू विभ्रमे
त्याद्य | 'उङ् कुङ्कु, वर्तमाने इप्रत्यये (नजि) सिद्धं, त्याद्यन्त, स्याद्यन्तं तु न कविः अकविस्तस्यामन्त्रणे, नञ्पूर्वात् कुशब्दाच्चतुर्थ्यां वा अकवे ,
न्तानि ॥४६॥ | इति ज्ञेयम् । अयसे इति लोहवाची चतुर्थ्यन्तः, क्रिया तु 'अय गती' अय् , वर्त० से, अप्, अयसे सिद्धम् । 'उख नख णख० गतौ'
| 'लख रख' परोक्षे एप्रत्ययः, द्विश्च 'लोपः पचा मितिपूर्वलोपः एकारश्च लेखे रेखे सिद्धं । रजसि इति पांशुरेणुः ७-१, क्रिया तु
रंज रागे' रंज्, वर्तक सि, अप्, 'अपि राजदंशे (2) ति नलोपः, स्वर० रजसि सिद्धं । 'रेजे अलिडि'ति लिट् इति परोक्षप्रत्ययानां 51 संज्ञा पाणिनीयानां, परोक्षप्रत्ययं विना रेजे इति व्युत्पादनीयं, परोक्षे त्वेवं-'राज दीप्तौ' राज , परतः णबाद्यात्मनेपदे ए द्विश्चेति द्वित्वं, रराज् ए इति स्थिते 'लोपः पचां कित्ये चास्थे' (७-४-४५) ति सूत्रस्थचकारात् पूर्वस्य रस्य लोपः अकारस्य एकारः, स्वरहीन, रेजे इति सिद्धम् परोक्षं विना रेजे इति कथं सिद्धयतीति प्रश्नः, इहोत्तरं-रेज दीप्तौ रेज, ऋकार इत् , भुवादिः, तिबाद्यात्मनेपदोत्तमपुरुषकवचनं ए, अप्कर्तरीत्यप , अदे इत्यलोपः, यद्वा 'ऋजि गतिथानार्जनेषु' अर्मु कश्चिद् व्यञ्जनादिं पठति, तन्मतमाश्रित्य प्रयोगोऽयं रिज्, गुणकृतस्तु विशेपः, शेषं प्राग्वत् , रेजे इति सिद्धम् ॥ १७ ॥ अद्यौर्न नसमासोऽयं, सर्वेषामिति चैकता । अन्येषामपरेषां च, केषां कासा तथा दश ॥१८॥
& ॥४६॥ 'अयौ' रिति न द्यौरद्यौरिति नइसमासः, प्रतिपक्षस्तु 'यु अभिगमने' धु, अन० सि दिवादावद् 'ओरा' (७-४-८२) वि
RECALLS
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कातन्त्र (सारस्वत
विभ्रमे
॥४७॥
HOSAROKAROCARERASAC
|त्याकारः, स्रो०, अद्यौः सिद्धं । सर्वेषामिति, सर्वा चासौ ईषा च सर्वेषा ताम्२-१,'ईषा सीते तद्दण्डपद्धती' इतिहैमाभिधाने । अन्येषां समासामं
अपरेषां च सर्वेषांवत् यो । कस्य ईषा केषा तां२-१ कासामिति 'कासृ शब्दकुत्सायां' कास् , कासनं कासा, गुरोर्हसादि'(८-४-२०)- बहुवचना त्यप्रत्ययः, 'आवतः खिया' (६-२-१) मित्याप्, २-१॥ दंश दंशने' दंश, तुदादि हिः, अप्, 'अपि संजिदंशे' ति नलोपः, 'अत' [ मानि च इति हेलुकि दश इति सिद्धिः । एते एकवचनान्तत्वाद्विभ्रमविषयाः, चस्य समुच्चयार्थत्वं दश्यते-समुच्चयाच्चकारस्य, चक्र सम्बोधनं विना । अवस्था इति शब्दोऽपि, स्यादेकवचनः कथम् ?, ॥१॥ तेन चक्र इति आमन्त्रणैकवचनान्तप्र| तिरूपकम् , बहुवचनान्तं तु वच्म:- डुकृञ् करणे' क, परोक्षे अ, द्विश्च, रः, 'कुहोश्चुः' (७-४-२६) 'कर'मिति रत्त्वे चक्रेति सिद्धम् । | 'वस आच्छादने' वस् , अनद्यतने थास्, दिवादावट, अप्, अदादेलुगित्यपो लुक् , स्वर०, स्रोः अवस्थाः ॥१८॥
अगारं द्वे पदे स्यातां, प्रथमान्तं शुनस्तथा । कर्तृरूपे कथं स्यातां, दीयते धीयते तथा ? ॥१९॥
अगारमिति गृहवाचि एक पदं, द्वे पदे तु 'अग कुटिलायां गतौ' अग् , तुबाहि , अप , अतः, स्वर०, अग सिद्धं । 'ऋगतो। |ऋ, अद्य० अम् , 'लित्पुषादे (७-२-१५) रित्यप्रत्यये गुणे अटि आरं, अगारं सिद्धं, यद्वा 'इण गता' विति धातोर्दिवादीसपि भूते सिरिति सौ 'दादेः पे' (७३-१०) इणः सिलोपे गा इति कृते अटि अगाः, रमिति 'रः कामे तीक्ष्णे वैश्वानरे नरे । रामे वने। इत्येकाक्षरोक्तेः रशब्दात् २-१, यद्वा अगशब्दात सम्बुद्धौ अरमित्यत्यर्थ अगारामिति । शुनशब्दात्प्रथमैकवचने स्रो०, यद्वा 51॥४७॥ 'शुन गता' वित्यस्य शुनतीति 'नाम्युपधात्क' (८-१-५) इति के १-१ शुनः । 'डुदा दाने' 'दाए दाने 'दो अवखण्डने 'देङ
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कातन्त्र
पालने' इत्येतेषां चतुर्णा तेप्रत्यये भावकणार्याक 'दादेरि' (७-४-१५) रितीत्त्वे दीयते इति स्यात् , 'धेट पाने' 'डुधाञ् धार-18/समासवि(सारस्वत)
सूणपोषणयों' रनयोर्भावकर्मणोकि धीयते इति भवति, तत्र कर्तरि कथं स्यातामिति प्रश्नः, 'दीङ् क्षये' 'दी धीङ् अनादरे' धी, विभ्रमे
मक्ति
कत्र्तरूपा है वर्त्त ते, 'दिवादेर्य' (७-१-१५) इति यप्रत्यये दीयते धीयते ॥ १९ ॥
भानि ॥४८॥
त्याद्यन्तमालयं प्रोक्तमसमस्तमजापयः । अन्यान्योऽनालयश्चैव, यश्वालयमशालयः ॥२०॥ । 'त्याद्यन्त' मिति, आलयशब्दो गृहवाची पुल्लिङ्गः,द्वितीयैकवचने आलयं इति स्याद्यन्तं, त्याद्यन्तं पुनरेवं 'अली भूषणहा पर्याप्तिवारणेषु' अल्, अलन्तं प्रयुक्ते 'धातोः प्रेरणे' (७-४-८) इति अिप्रत्ययः, जित्वाद् वृद्धिः, आलि इति स्थिते परतो अन० अम् ,
| 'अप् कर्तरी' त्यप् गुणायादेशौ, अटि, स्वर०, सवर्ण, आलयं सिद्धं । अजायाः पयोऽजापय इति षष्ठीसमासे प्रसिद्धमेतद्, अस18| मस्तं तु कथमिति प्रश्नः, तत्र 'जप मानसे च' मनोनिवर्ये वचने इत्यर्थः, चाद् व्यक्ते बचने जप, जपन्तं प्रेरयति 'धातोः प्रेरण' दा(७-४-८) इति बिः, वृद्धिः, जापि, अन०स् , अप, गुणे अयादेशे दिवादावडित्यटि स्व०स्रो० अजापयः, यद्वा 'जि अभिभवे' जिधातोः
प्रेरणे बिः, जयन्तं प्रयुक्ते, 'इङादेऔं पुगि'ति पुक, इकारस्य आ, जापि, शेष प्राग्वत , अजापयः सिद्धं । 'णी प्रापणे' णी, नी, |नपूर्वः न नी अनी अन्याश्च ता अन्यश्चान्यान्यः १-३ प्रथमाबहुवचने सवर्णे० स्रो। अश्वालयमिति अश्वानामालयः अश्वालय| स्तमिति समासपदं, असमासे तु 'श्वल श्वल्ल गतौ' श्वल, श्वलन्तं प्रेरयति धातोः प्रे० विप्र वृद्धिः, श्वालि अन०अम् अपि गुणे|॥४८॥ अयादेशे अश्वालयमिति सिद्धं । चैव हीति छन्दःपूरणे निपातः । 'णल गन्धे' णल्, नलन्तं प्रयुक्त प्रेरणे जिः वृद्धिः नालि अनद्य०
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कातन्त्र कस् अपि गुणे अपि स्वर० स्रोवि० अनालयः । 'शल चलने वा' 'शाल कत्थने वा' 'पल फल शल गतौ' शल्, शलन्तं प्रेरयति अनालय- स्याद्यन्त(सारस्वतावत् साध्यं अशालयः, ॥"अजिनान्यधिक्षताधुक्षतेत्त्याद्यपराण्यपि। शेषे च देवता देवतामित्यादि चकारतः॥१॥" अजि
समासाविभ्रम
भानि नानि 'ज्या वयोहानौ' ज्या क्रयादिः, आनिए 'ना क्रयादे' रिति नाप्रत्ययः, 'ग्रहाङ्किति चे (८-४-३१) संप्रसारणं यकारस्य ॥४९॥ इकारः, दीर्घस्य दीर्घः जी 'प्वादेर्हस्व' इति जि नञ्पूर्वः, न जिनानि अजिनानि सिद्धं । 'धिक्ष धुक्ष सन्दीपनक्लेशनयाचनेषु'
धिक्ष धुक्ष, अनद्य० तप्र. दिबादावन, अप्कर्तरीत्यप, स्वर० अधिक्षत अधुक्षत सिद्ध, यद्वा 'दिह उपचये' दिह्, 'दुह प्रपूरणे' दुइ अन० तन् प्र०, 'हशषान्तात् सगि (७-२-१३) ति सक् प्रत्ययः 'दादेर्घः' (2-४-१५) 'आदिजबानां झभान्तस्येति (४-४-२८) दस्य धः, 'खसे चपा झसाना' मिति (४-४-२५) घस्य कः, कपसंयोगे क्षः अधिक्षत अधुक्षत । 'शीङ् स्वम' इत्यस्यात्मनेपदिनः वर्तमाने मध्यमपुरुषैकवचने शेषे । 'देवृङ् देवने' देव, वर्त० ते, तुबादि तां, अप् , देवते देवतां सिद्धम् ॥ २० ॥ अव्याधयोऽसमस्तं स्यात् , येयेषांचक्रिरे पदम् । अक्षेपयस्तथा चान्यदक्षेवयममीवयम् ॥ २१॥
॥इति कातन्त्रविभ्रमसूत्रं सम्पूर्णम् ।। 'अव्याधय' इति, न विद्यते व्याधिर्येषां ते अव्याधयः इति समस्तम् , असमस्तं तु 'व्यध ताडने' व्यध्, विध्यति कश्चि-* तमन्यः प्रयुङ्क्ते 'धातोः प्रेरणे' जिः, वृद्धिः, व्याधि, अनद्य० शेष अशालयवत् साध्यम् अव्याधयः । येयेषांचक्रिरे इति पदत्र-15 यसदृशमेकं पदं कथं स्यादिति साध्यते, 'येष प्रयत्ने येष, अत्यर्थ येषते 'अतिशये हसादे' रिति (७-३-५७) यद्वित्वं येयेष
HOSASRAESAEERRCARस
CRORSCORROR
18/॥४९॥
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कातन्त्र (सारस्वत) विभ्रमे
।। ५० ।।
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" कासादिप्रत्ययादाम् क्रस्भूपर' इत्याम् प्रत्ययः, चक्रिरे 'डुकृञ् करणे' इति धातोः परोक्ष इरे प्र०, येयेषांचक्रिरे पदं सिद्धं । ' क्षिप प्रेरणे' क्षिप्, क्षिपति कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते प्रेरणे ञिः, गुणे क्षेपि अनद्य० स् अपि गुणे अयि अक्षेपयः सिद्धं । 'ष्ठिबु क्षिवु निरसने' क्षित् क्षिवन्तं प्रेरयति प्रेरणे ञिः, गुणे क्षेत्रि, अनद्य० अम्, अक्षेवयं सिद्धं । 'पीव मीव नीव स्थौल्ये' मीव, मीवन्तं प्रयुङ्क्ते, शेषं सुगमम्, अमीवयं सिद्धम् ॥ २१ ॥ अन्येऽपि केचिद्विभ्रमप्रयोगा लिख्यन्तेः “ असतीति कथं साधु, करतीति तथाsपरम् । कथमेतानि साधूनि, वोच्यते भवते सह ॥ १॥" 'अस गतिदीप्त्यादानेषु' 'कृञ करणे' इत्येतयोर्भीवादिकयोर्वर्त्तमाने परस्मैपदप्रथमैकवचने असति करतीति रूपे सम्पद्येते, वचर्यङन्ताद्भावकर्म्मणोरात्मनेपदे यति उत्तरस्य सम्प्रसारणे पूर्वस्य तु 'न सम्प्रसारणे सम्प्रसारण' मिति निषेधे उ ओ वाच्यते इत्येतत् सम्पद्यते । 'भू सत्ताया' मिति धातोरुदात्तेत्त्वात् परस्मैपदित्वे आत्मनेपदाभावे प्रश्नः भृ प्राप्तौ आत्मनेपदी भ्रू, वर्त्तमाने, ते, अपः पिचाद् गुणे भवते, न चैतदशुद्धमित्याशङ्कनीयम्', 'उत्साहाद्भवते लक्ष्मी ' रिति स्मरणात् । सहेरनुदात्तेच्त्वात् परस्मैपदानुपपत्तेः प्रश्नः, ' षह मषेणे ' तुबादिहौ सह, न तु सहेः परस्मैपदप्रयोगे शङ्का कार्या, तथा च प्रयोगः, -"नदीकूलं भित्त्वा कुवलयवदुत्पाट्य च तरून्मदोन्मत्तान् हत्वा करणदन्तैः ( शनैश्व) प्रतिगजान् । जरानारीमाप्त्वा तरुणजनविद्वेषणकरी, स एवायं नागः सहति कलभेभ्यः परिभवम् ||१|| ” मारिरेकाम मामिमीमाम मामीमिले तथा । असीदामादिका ज्ञेया, प्रयोगा अनया दिशा || २ || 'रेकङ शकङ शङ्कायां, ' रेक्, रेकते कश्चित्तमन्यः प्रयुङ्क्ते ' धातोः प्रेरणे ' इति ञिः, रोक, अन० मप्र ० ' बेरङ् द्विश्वे ' ( ७-२-१४ ) त्यङ् प्रत्ययः, द्विव मापूर्वः 'मेट' ( ७-३-११ ) इत्यटो लोपः, जे हस्वः 'न ऋत' इति ( ७४-४१ ) पूर्वलघोर्दीर्घस्योपधाह्रस्वस्य च निषेधः, 'मोरा' (७-३-१५ )
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अप्रसिद्ध
त्याद्यन्ता
नि
॥ ५० ॥
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है इत्याचे मारिरेकाम सिद्धं । 'अम द्रम हम मीमृ गमृ गतौ' मीम् , मीमन्तं प्रेरयति धातोः प्रे० त्रिः, शेषं प्राग्वत् , न ऋतः, मामि-है दुर्लक्ष्ययक कातन्त्र (सारस्वत
|मीमाम सिद्धं । ' मील स्मील क्ष्मील निमेषणे' संकोचे इत्यर्थः, मील, मीलन्तं प्रेरयति प्रेरणे जिः, अनद्य० इप्र०''अरङ् द्विश्चे'- न्तानि विभ्रमे त्यङ् (७-२-१४) प्रत्यये द्वित्वे 'जे' रिति (७-४-७१) जिलोपे लघोर्दीघः मामीमिले सिद्धं । 'षद् विशरणगत्यवसादनेषु,
पद् , 'आदेः ष्णः स्नः' अन० मप्रत्ययः अट् अप् 'दृशादेः पश्यादे' रिति (७-४-८४ ) सदः सीदादेशे 'व्मोरा' इत्यात्त्वे ॥५१॥
असीदाम सिद्धं । 'चदि आल्हादनादनयोः' चद्, 'टुणदि समृद्धौ' नत्वे नद्, 'यदि अभिवादनस्तुत्योः' वद्, 'णिदि कुत्सायाँ' निद्, अत्यर्थ चन्दति नन्दति वन्दते निन्दति 'अतिशये हसादे' रिति (७-३-५७) यङ् द्विश्च, 'वाऽन्यत्रे ' ति (८-२-२७) यङ् लुक् 'आत ' इति (७-४-३५) दीर्घः, चा, वा, ना, निदिधातोर्गुणः 'यडी' ति (७-४-३४ ) पूर्वस्य गुणः अनद्य० स् , दिवादावट , सौ पदान्ते रेफप्रकृत्योरपि द् र, 'दिस्योर्हसा' दिति (७-३-३) स्लोपः स्रो० अचाचः, अनानः अवावः अनेनेः इति सिद्धम् । 'शुच शौके' शुच् 'क्रुध कोपे' क्रुध, 'क्रुध कुत्सायां' 'शृध् वृध वृद्धा' वृध, 'गृध् अभिकाङ्क्षायो' गृथ् अत्यर्थ शुध्यति क्रुध्यते शर्धते वर्धते गृध्यति, 'अतिशये' (७३-१५) हसादेरिति यङ्' वाऽन्यत्रे' ति यङ्लुक् द्विश्च यडी'| ति (७-४-३४) पूर्वनामिनो गुणः शो को शुधवृधगृध्धातूनां ऋकारान्तानामिति वक्तव्ये न पूर्वस्य रुक् 'कुहोश्चु' रिति (७-४-२६) कुत्वस्य चुत्त्वं, दिवादाबद्, गुणः, ‘स धातु' (७-४-१०) रित्यनद्य० स् , अप , ' अदे' (७-३-१४ ) इत्यलुक्, 'दधो रत्व'| मिति ध्र, 'दिस्योर्हसा' दिति (७-३-३) स्लोपः, 'रिलोपो दीर्घश्चे' ति रलोपः, दीर्घत्त्वं, अशोशोः अचोक्रोः अशशाः अवर्वाः अजर्धाः इति रूपाणि सिद्धानि । 'कस गतिशातनयोः' कस् , अतिशयेन कसति यङ् 'वाऽन्यत्रे ' ति यङ्लुक्,
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कातन्त्र
'हादिवच द्रष्टव्य ' मित्यनेन अबादि कार्यम् , अप, द्विच 'कुहो चुः' (७-४-२६) अन० स् 'पदा नीगि' ति पूर्वस्य नीकालत्या (सारस्वत) है
न्तानि विभ्रमे
| दिवादावद्, विपूर्वः, 'दिस्योर्हसादि ' ति (७-३-३) स् लोपः, स्रो०, व्यचनीकः सिद्धं ।।।
बाणाश्विषडिन्दु (१६२५) मितिसंव्यति धवलकपुरवरे समहे । श्रीखरतरगणपुष्करसुदिवापुष्टप्रकाराणाम् ॥ १॥ श्रीजिन॥५२॥
| माणिक्याभिधसूरीणां सकलसार्वभौमानाम् । पट्टे वरे विजयिषु श्रीमजिनचन्द्रसूरिराजेषु ॥२॥ गीतिः । वाचकमतिभद्रगणे: शिष्यस्तदुपास्त्यवाप्तपरमार्थः । चारित्रसिंहसाधुर्व्यदधादवचूर्णिमिह सुगमाम् ॥ ३ ॥ यल्लिखितं मतिमान्धादनृतं प्रश्नोत्तरत्र किञ्चिदपि । तत् सम्यक् प्राज्ञवरः शोध्यं स्वपरोपकाराय ॥ ४ ॥
॥ इति कातन्त्र(सारस्वत)विभ्रमावचूरिः सम्पूर्णा ॥
ROSIS
SECRECRUAGA
॥५२॥
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श्रीमद्रराजशेखराचार्यकृता दानपट्त्रिंशिका सावचूर्णिः
त्रिंशिका
श्रीहर्षपुरी
सावतरणा
दानषद्राजशेखराचार्यकृता
अवतरणिका-बहवोऽपि हि देवाः क्षेत्रं मर्यादीकृत्य इन्द्रं यावत् तत्तद्वृद्धियुक्तास्तत्तत्स्थाननिवासिनस्तत्तत्कार्यकारिणः सन्ति, ॥ ५३॥ | तेऽपि लोकोपकारनिरता धांद्युद्यमे सानिध्य पावित्र्यं संचिंत्य कुर्वन्ति, यथा भरते निधिस्था देवाः कृष्णे वैश्रवणः कर्णे सूर्यः
|नले युधिष्ठिरेऽपि रविः विक्रमे आगियाकः शालिवाहने भारती शेषौ जयसिंहदेवे बर्बरेश्वरौ, परं परमपु(पौ)रुषानुन्नयैव विदधति, यतः"कृतप्रतिज्ञस्य पुरुषस्य, देवा यान्ति सहायताम्" यस्य तु देवस्य स्थावराणामपि दातृणामुपकारकत्त्वं विलोक्य शृङ्गारादिसामग्री चकार, किं पुनर्विद्यावतां भाग्यवतां विशेषज्ञानां सत्क्रियाणां गुरुभक्तानां विवेकिनां ?, अत एवोच्यते
दातुरिधरस्य मूर्द्धनि तडिद्गाङ्गेयशृङ्गारणा, वृक्षेभ्यः फलपुष्पदायिनि मधौ मत्तालिबन्दिश्रुतिः। भीतत्रातरि वृत्तिदातरि गिरी पूजा झरैश्चामरैः, सत्कारोऽयमचेतनेष्वपि विधेः किं दातृषु ज्ञातृषु ॥१॥
भाग्यवति उदयिनि कुले कश्चित्पुमानुत्पद्यते, सर्वगुणानां निधिः सः, यथा जले सर्वबीजानि यथा भूमौ सर्वानोत्पत्तिः, यथाऽग्नौ आहारशक्तिः, यथा इन्द्रे प्रभुत्वं, तथा सत्पुरुषे गुणाः, तेन महात्मना पुरुषेण सर्व चित्ते प्रियते, परं याचकेभ्यो दवं 8/॥ ५३ ।। दू हृदयेन धार्यते, अतः श्रूयताम्
GHISATARE
(ESCUSTERSNX
OG
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श्रीहर्षपुरी
ला
सावतरणा दानषट्त्रिंशिका
राजशेखराचार्यकृता
॥ ५४॥
RSEASESS
पित्रोर्वत्सलता गुरोर्बतभृतः शिक्षाप्रसादःप्रभोः, सद्वृत्तं सुतकल्पभृत्यसुहृदां तत्तत्क्रियाभिग्रहाः। छन्दोज्योतिषतर्कलक्षणकथाचित्यं चिरंधार्यते, सर्व सत्पुरुषैः क्षणादपि पराग् दत्तं तु नेत्यद्भुतम् ॥२॥
पुरुषाहीनाः सेवका अपिकर्मकरा अपि निर्द्धना अपि कर्म कुर्वाणाः सर्वाणि सौख्यानि प्राप्नुवन्ति, पर श्रीभरतादिभिः | | सत्पुरुषैः समयं प्राप्य लोकोपकारः कृतः, तेन चासंसारं विश्व कीर्तयः स्थिरतामानञ्चुः॥ यतः--
आरोहन्ति सुखासनान्यपटवो नागान् हयाँस्तज्जुषस्ताम्बूलाधुपभुञ्जते नटविटाः खादन्ति हस्त्यादयः। प्रासादे चटकादयोऽपि निवसन्त्येते न पात्रं स्तुतेः, स स्तुत्यो भुवने प्रयच्छति कृती लोकाय यः कामितम् ॥३॥ ___कलिकाले करालेऽस्मिन् सकलोपकारकाः कल्पद्रुमादयो लोकोपकारं न कुर्वन्ति, न च दृश्यन्ते, इन्द्रादयः सुखस्वादरसपरवशाः, पूर्वजास्तु भोगीभूय सन्तानिनां पीडां कुर्वते, तैः सार्धं सत्पुरुषस्य उपमा न घटते, सम्प्रत्यसत्त्वात् , जलधरस्तु सकलधरातलललितलावण्यकारी, उक्तञ्च-"सम्प्रति न कल्पतरवो न सिद्धयो नापि देवता वरदाः । जलद! त्वयि विश्राम्यति सृष्टिरियं भुवनकोशस्य ॥ १॥" तेन सार्द्ध सत्पुरुषस्योपमा युक्ता, जलधरस्य सत्पुरुषेण सहोपमा विद्यते, तथापि सत्पुरुष उत्तम एव, यतः
स्फातिं बन्धुसरांसि यान्तु परितः कीर्तिश्रवन्त्यः स्फुरन्तूच्चैर्माद्यतु दीनदुबरकुलं विद्वन्मयूरैः सह । म्लायन्त्याशु जवासकाः खलजनाः स्वर्णाम्बुदानोद्यते, सत्पाथोमुचि विस्मयोऽयमिह मे मालिन्यगर्जी न यत् ॥४॥
तिर्यक्षु सिंहादयो बले तुरङ्गास्तु शीघ्रगतौ भारोद्वहने वृषभाः दुग्धोत्पत्तौ गावः विषमे रणे राजद्वारे परमे लक्ष्मीविलासे महास्वमे उच्चत्वे गजा एव श्लाध्यन्ते, तैः सार्द्धमुपमानं सत्पुरुषस्याहोश्चिदाधिक्यं ?, आधिक्यमेव प्रतीमः, यतः
॥५५॥
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श्रीहर्षपुरी
तुङ्गाः सत्कुलविन्ध्यजाः सुगतयः सद्भावनावल्लकीसक्ताः श्रीसहचारिणो बहुविधग्रन्थार्थभोज्योर्जिताः। | सावतरणा
गुर्वाधोरणशिक्षिताः शमगुडामिथ्यात्त्वदौःस्थ्ये कले, प्राकारौ दलयन्त्युपासकगजाश्चित्रं मदान्धा न यत् ॥५॥ दानषट्राजशखरा
त्रिशिका चायेंकृता
एकेनापि सिंहेन बहवः शृगाला इव सूर्येण ध्वान्तानीव गंगाप्रवाहेण वृक्षा इव कुठारेण तरव इव तथा एकेनापि सत्पुरुषेण, दादात्रा ज्ञात्रा विवेकिना कलिकालोऽपि निर्जीयते; यतः
एकेनापि खरादयो भुजभृता रामेण निष्कन्दिता, एकेनापि हनूमता विदलिता नक्तंचराणां चमूः। एकेनापि धनञ्जयेन पृतना दौर्योधनी चूर्णिता, दात्रा तत्त्वविदा कलिबलवतैकेनापि निर्जीयते ॥६॥
चातका जलधरमिव चक्रवाकाः सूर्यमिव चकोराः शशिनमिव गजा विन्ध्याचलमिव देवा मेरुमिव तथा याचका दातारं दृष्ट्वा । हृष्टा भवन्ति, वावदूकाः सन्तः स्तुवन्ति, मनोरथशतैर्ध्यायन्ति, काव्यश्लोकषट्पद्यादिभिः स्तुवन्ति, यथा-- किं वज्राकर एव दन्तनिवहो ? जिह्वास्य किं देवता?, दृर्षि कल्पलता? स्मितं किमु सुधा ? किं कल्पवृक्षः करः। 8 किं चिंन्तामणयो नखाः ? किमु मुखं चन्द्रः?स्वरः शान्तिकं?, दृष्टेष्वर्थिजनस्य येष्विति मतिर्नन्दन्तु ते दानिनः ॥७॥
कृतयुगत्रेताद्वापरकलिषु दातारो बहवोऽभुवन् , चक्रवर्तिभरतमान्धातृदुष्यन्तहरिश्चन्द्रपुरूरवाऐलनलनघुपरामकर्णयुधिष्ठिरादयः, ते श्लोकवर्णनार्हाः, परं यथैते दातारोऽपि यस्य याचका यद्दत्वा चन्द्रार्क स्थिराः तदेव दानं वयं दाट (तुः) स्तुमः, यतः 31
दत्ता भूर्वलिना धनं रविभुवा दैलेपिणा धर्मिणा, राज्य लक्ष्मणबान्धवेन करणं जीमूतकेतोस्तुका ।
Bilal
तिहास
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श्रीहर्षपुरी-18
एवं विक्रमसातवाहनमुखैतार एते ततो, मन्ये दानमपि प्रदातृ यदमी तद्दत्तकीर्त्या स्थिराः॥८॥ सावतरणा हा भटकोटिकोटेगजद्गजगलगर्जिस्फुटत्कर्णकुहरे सहर्षहयहेपितत्रस्तकातरगणे रणरसविलोकनकौतूहलितसकलसुरासुरदेवदेवी
दानषट्राजशेखरा
त्रिशिका चायकृताल
|न्दे रणे रणति सुभटाः प्रविशन्ति कुहरान्तरं तरन्ति दुस्तरं पारावारं तपन्ति विपमं तपः आरोहन्ति दुर्गम गिरि भ्रमन्ति करि-IR
केसरिद्वीपिचित्रकव्यालवदनज्वालाजटिलमरण्यं तेऽपि याचकच दृष्ट्वा श्यामा इव जायन्ते, मन्येऽहं न केवलं ते रुद्रादयोऽचल॥५६॥ | शिखरशिखामारूढास्तद्भयादेव, परं किश्चित् (कोच)कुलधवला धन्या यशस्विन आसन्नसिद्धिकाः पुण्यवन्तो विपमेऽपि कलौ दानद
| यादाक्षिण्योपकारनिरता दृश्यन्ते, यतः
रुद्रोदि जलधि हरिर्दिविषदो दूरं विहायः श्रिताः, भोगीन्द्राः प्रबला अपि प्रथमतः पातालमूले स्थिता । लीना पद्महदे सरोजनिलया मन्येऽर्थिसार्थाद् हिया, दीनोद्धारपराः कलाविह खले सत्पुरुषाः केवलम् ॥९॥
न केवलं धनेनैव पुरुषस्य कीर्तिः, पश्यत मेरौ सुवर्ण लक्षयोजनसङ्ख्यं वैताढय रूप्यानन्त्यं रोहणाचले वजाकरत्वं ताम्रपण्यां मुक्ताफलानि तथा सर्वासु खानिषु, अथवा एते अचेतना मूढाः पाणिपादवऋविकला यदि न यच्छन्ति तदा न चित्रं, परमिन्द्रादयोऽपि विभवे सति न यच्छन्ति तच्चित्रं, अत एव किं वर्ण्यन्ते ते ?, सत्पुरुषस्तु वर्ण्यतां, य एवं सर्वोपकारनिरतः, यतः
प्रायः सत्यपि वैभवे सुरजनः स्वार्थी न दत्ते धनं, तीर्थान्नोद्धरति कचिन्न हरति व्याधीन न हन्त्यापदम् । अस्त्वात्मभरिभिर्जनैर्युगलिभिर्धन्यास्तु केचिन्नराः, सर्वाङ्गीणपरोपकारयशसा ये द्योतयन्ते जगत् ॥१०॥
॥ ५६
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श्रीराज
शेखरकृते संघ
महोत्सवे
॥ ५७ ॥
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दाता चिन्तयति तावत् सूर्यस्य सर्वप्रकाशकत्वात् तिमिरध्वंसनात् लोकोपकारकारकात् स्तुतिः, चन्द्रस्यापि तथैव, समुद्रस्यापि व्यवसायिनां मनोरथपूरकत्वात् लक्ष्मीजनकत्वात् रत्नाकरत्त्वाच्च महाविस्तीर्णपृथ्वीकुण्डलास्तुतिः, एवं नदीनां पृथिव्याश्च सर्वोत्पत्तिताप्रशंसा, तथा कालस्य धर्मस्य ऋतूनां सर्वोपायैरुपकारकत्वात् इन्द्रादीनां मनसा सर्वेच्छादायकत्वात्, ऋषीणां च वचनमात्रेण परेषां कार्यसाधकत्वात् परं मम का प्रशंसात एवोक्ति:
दाता ध्यायति विष्टपं कियदिदं ? तत्रापि भागास्त्रयस्तत्राल्पा वसुधाऽम्बुधिर्यवधिस्तत्रापि खण्डान्यहो । तत्रैकत्र वसामि तद्द्विरिसरित्कान्ताररुद्धं ततः का शक्तिः ? किमुपाददे ? किमु ददे । यहातृशब्दो मयि ॥ ११॥ सकलस्य विश्वस्य दाता एव धर्म्मः यस्मादुदयं प्राप्य धर्म्मचक्रवर्त्तिचक्रवर्त्त्यादयो याच्यन्ते, यद्भाग्यमसामान्यं येन केवला श्रीभवति, भाग्यवतां तु श्रीर्मुञ्जवत् सरस्वत्यपि वदनकमलवासिनी भवति, तुष्टश्च धर्म्मः किं किं न प्रापयति ?, अतः कारणात् सेवातुष्टेन धर्मेण दातुर्गृहे द्वयं दत्तं, अत एवाह
दत्ता सत्पुरुषाय यद्यपि मया तुष्टेन सेवाभरात्, पुत्री श्रीर्विनयं नयं सुवचनं दानं विवेकं विना । काऽस्याः श्रीर्विनयादयश्च धिषणासाध्याः कुतः सा विना, ब्राह्मीं? तेन सखीयमस्त्विति युते ते तत्र धर्म्मो व्यधात् ॥ १२ ॥ यो हि अहर्निशं सद्गुरुभक्तिं कुरुते आत्मनः शरीरस्य च साधनां विदधाति सर्वलोकोपकारी सर्वव्यापी स सिद्धः, यस्य शरीरं न बुभुक्षया नापि आतपेन शीतेनापि न नापि जलेन नापि ज्वलनेन नापि निद्रया नापि कोपेन, किन्तु समचित्तः सर्वत्र स महात्मा दाता सिद्धतां दर्शयति, सिद्धावस्थाकार्यं करोति, यतः -
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दातुर्गुणाः
॥ ५७ ॥
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श्रीराजशेखरकृते
संघ
श्रीवुद्धिश्च सिद्धार्थता
महोत्सवे
॥५८॥
प्राग्दारिद्रयलिपि भनक्ति लिखितां देवेन भालेऽर्थिनां, प्रत्यक्षानिव दर्शयत्यतिगतान् प्राच्यानुदारान् कवीन् । धत्ते दुष्टयुगेऽपि शिष्टयुगतां लक्ष्मी प्रकृत्या चलामाचन्द्र स्थिरतां नयत्ययमहो दानेन सिद्धः कृती॥ १३ ॥ | मूलवशीकरणहेतोरौषधानि मेलयन्ति, तिलकादि कुर्वति, मन्त्रान् गृह्णन्ति, पर्वतादौ जपध्यानहोमेन यत्नान् कुर्वन्ति, भूतप्रेतपिशाचजटिलामरण्यानी भ्रमन्ति, सिद्धान् सिद्धौषधं प्रार्थयन्ति, देशान्तराणि भ्रमन्ति, निद्रां कुटुम्ब पत्नी पुत्रान् मातापितृन् मुक्त्वा जनं जनं पृच्छन्ति, तथापि सिद्धिस्तेषां सन्देहास्पदं, परं दानेनाऽऽमोक्षं सर्वमनोरथप्राप्तिः, यतः-- .
आदौ पात्ररतिस्ततः कृशदया निर्लोभता निर्मला, धर्मश्रीरथ कीर्तिरिन्दुकुमुदाहङ्कारसर्वकषा। स्व गर्द्धिरथानघा नृपरमा चारित्रलक्ष्मीरथाकृष्टा मुक्तिरुपैत्यही वितरणं स्त्रीवश्यसिद्धौषधम् ॥१४॥
आदौ तावन्मनुष्याः सामान्याः कलाविदः, तदनु पातालवासिनो देवाः, ततो व्यन्तरज्योतिष्कसुरसुरपतिअहमिन्द्रगणधरादयः, तेभ्योऽपि त्रिभुवनस्वामी छत्रत्रयच्छायासुखशिराः तीर्थकरस्तस्यापि करः यस्य करतार इत्याख्या पञ्चशाखः साक्षात् कल्पद्रुमः सोऽपि दातुः करादधो भवति, अत एवोच्यतेयो बभ्राम ससंभ्रमप्रणतभूपालेन्द्रपृष्ठस्थले, विश्वं वात्सरिकप्रदत्तिसुधिया प्रोज्जीवयामास यः। यः साध्वाचनवद्यसंघशिरसि क्रीडोचितः सोऽहंतः, पाणिः स्याद्यदनुग्रहाद गृहिकराधस्तांस्तुमो दातृताम् ॥१५॥
धन्यः कृती सर्वत्रोचितां पूजा करोति, आसनादिकां कुसुममयीं चाष्टम्यां रुद्रस्य एकादश्यां नारायणस्य चतुर्दश्यां ब्रह्मणः सन्ध्यायां सूर्यस्य विवाहादी गणपतेः अन्नोदये साधोयथा तीर्थेषु तीर्थनायकानां कुटुम्बस्य च, परं लक्ष्म्याश्रिताः सकला: शोभा
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श्रीराजशेखरकृते संघ महोत्सवे
॥ ५९ ॥
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द्या भवन्ति उत्सवाः, अतस्तस्या एवागताया गृहपूजां वितन्वन्ति महान्तः, पूजया तुष्टा देवी तस्य गेहं न मुञ्चति, अत उच्यतेऔदार्यं कनकासनं सुवसनान्यक्रौर्यलज्जर्जुताः, श्रद्धाचन्दनलेपनं सुविनयन्यायौ मणीकुण्डले । मुक्तावल्लरिचिती वितरणं कोटीरमेवं श्रियं देवीं गेहगतां कृती महति यस्तस्य स्थिरा सा रसात् ॥ १६ ॥ येशूरा ये च विद्वांसो, ये च सेवाविचक्षणाः । सर्वे ते धनवृद्धस्य, द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः ॥ १ ॥ धनं कारणं, येनाविद्यमाना अपि गुणाः प्रकटीभवन्ति, विद्यमाना अपि यान्ति यस्याभावात्, “धनमर्जय काकुत्स्थः, धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नैव पश्यामि, निर्द्वनस्य मृतस्य च ॥ १ ॥ लक्ष्मीः पूर्वपुण्यरज्ज्वाकृष्टा मम गेहं प्राप्ता, परं-या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता कष्टेन सा त्यज्यते, इतीयं कमला क्षणं कुमुदे क्षणं चन्द्रे क्षणं सूर्ये मान्धात्रादीनां गृहे चिरं नो वासः, अतोऽस्या अनुवृत्तिरेव क्रियते इति संचित्योवाच
लक्ष्मीमें सुकृतेन यद्यपि गृहे न्यस्ता तथाऽप्येतया, नानास्थाननिवासशीलमनवं दुर्म्माचमित्यग्ग्रधीः । सत्रार्हद्गृहविम्बपुस्तकवसत्युद्यापनाद्यैरिदं, तस्याः पुष्यति वश्यबीजमपरं भावानुवृत्तेर्न हि ॥ १७ ॥ महाकुले जलधावुत्पन्नः सर्वलोकप्रियः शीतलकरः कलावान् तेन चन्द्रमसा सार्द्धं उपमां दातुं विचारयामः परं तेनापि सह न समीचीना राजते, दातरि विशेषदर्शनात् यतः -
सङ्ग्राम्मोधिविवर्द्धनः शुभकरः सद्वंशपूर्वाचलोद्भिन्नः सज्जनकैरवप्रमदनः सौम्यस्तमः स्तोमहा । सम्प्रीतार्थिचकोरकः सुतसुहृन्नक्षत्रतारागृहो, दातेन्दुर्न पुनः क्षयी न च जडो नान्तः कुरङ्गोऽद्भुतम् ॥ १८ ॥
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दानात मनोरथ
सिटि
।। ५९ ।।
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श्रीराज-18
शर्करा मृष्टत्वात् सर्वेभ्यो रोचते, एवं चन्द्रस्तथा धनं तथैव सरसानि वस्तूनि, तथा रामा सकामा गीतं च स्नान च, पर यथाक्रम |8| भावानुशेखरकृते | विरहिणः निःस्पृहस्य तृप्तस्य ऋषेः निष्कामस्य च तत्त्वज्ञस्य शीतज्वराकान्तस्य तत्र वाञ्छाया अभावः, परं दाता सर्वत्र सर्वेषांत
वृत्तिः संघ
निर्दोषता महोत्सवे शीतलः, अत उच्यते
शिशिरता आद्रो दानजलैः करो निखिलमप्यङ्गं सुधासिन्धुगं, वाक् सारस्वतदुग्धवार्द्धिविविधप्रोल्लेखकल्लोलभाम् ।
पावनता ॥६ ॥
धीः कारुण्यसुधासरः सुखलालिङ्गनव्यापृता, सन्नेवं शिशिरस्ततो हृदि कृतो लोकस्य तापच्छिदे ॥१९॥ दारिद्य पुरुषे पुरुषे च महान् विशेषः, 'वाजिवारणलोहानां, काष्टपाषाणवाससाम् । नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम् ॥१॥ स
विपक्षता पुनः पुत्रो नरकात्पूर्वजानुद्धरति, तेनैव जातेन कुलं सुकुलं, दिनं सुदिनं, अपत्यशब्दोऽपि सार्थकः, शास्त्रऽपि गीयते- 'वानेयं गृह्यते पुष्पमङ्गजस्त्यज्यते मलः ।" मुक्तानां सगुणत्त्वादेव मूल्यं, रत्नादीनां च, अतः स पुत्रः पवित्र उच्यते
मूकः पूज्यसदस्युदारवचनो जल्पेषु दु दिनां, पूज्यानां क्रुधि भीलुकः परचमूदृष्टौ प्रकृष्टायुधः ।। | द्यूतादिव्यसनक्षणेषु कृपणः पात्रेषु दानेश्वरः, पश्चाद्भोजनकर्माण प्रथमकः कार्ये सतां कोऽपि ना (पुमान् ॥२०॥
धनं सर्वस्य सुखदं, दारिद्रयं महाकष्टादपि रोगादपि अन्धत्वादपि मुखत्वादपि एकाकित्वादपि परदेशवासित्वादपि असुभगत्वादपि कुरूपत्वादपि अतीव दुःखदायि, दाता तु तद् दारिद्रयं समूलघातं हन्ति सर्वत्र दानवज्रप्रहारेण, यस्तु दातारं निन्दति, पुरुषं आत्मीयामित्रं ज्ञात्वा तस्य गृहे तिष्ठति, अत आह
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RECECk GREAMS
॥६
॥
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श्रीराजशेखरीये संघ
महोत्सवे
॥ ६१ ॥
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दानादिकपति भारतीहरिहरिप्रेष्ठा ग्रहग्रामपूः, पातालोदकगोश्रदैवतमुनिश्मापाललोकप्रिये । पुण्याव्ये स्वपर प्रभुत्त्वकरणोद्युक्ते प्रवेशः क मे, ध्यात्वेदं तदसूयकस्य सदने दारिद्र्यमालीयते ॥ २१ ॥
सूराः पण्डिताः कलाविदस्तार्किका उपविद्याचतुराः सन्ति सर्वेऽपि विमृश्यमानाः, दातारमेव कृतज्ञं सर्वविदं भुक्तिमुक्तिसाधकं पश्यामः, कलौ यः पूजयति कलाविदः श्रमं वेत्ति, अतः कलावत्सु विचरति रामकर्णनलमुखभोजवद्, उच्यतेविद्वद्भोऽजनि वाग्वशा परभवे विद्याविचारो घनः, सारासारविनिश्चयोऽथ करुणा धर्मस्ततः श्रीरियम् । इत्याहृत्य कृतज्ञतां सुमतिभिर्दानेश्वरैरन्वहं युक्तं यद्विदुषामुपासनकृते श्रीः कर्म्मकारीकृता ॥ २२ ॥
समुद्रो रत्नाकरोऽपि क्षारच्त्वदोषदूषितः, चन्द्रः कलानिधिरपि सकलंकः, रविः प्रकाशात्मकोऽपि देहादिदाघकारी, मेघो महीपोपकोऽपि चपलाश्रयः, मेरुः सुवर्णमयोऽप्यदृश्यः, रुद्रमूर्त्तिरप्याकाशं शून्यं, सुधा सुधामयापि द्विजिह्वदंष्ट्राविषविकल्पा, सर्वमनोरथदात्र्यपि कामधेनुः पशुत्वाद् गुणग्रहणविकला, पारिजातोऽपि काष्टरूपः, सुरमणिः कर्कर एव, अग्निस्तु रोगापहारकोऽपि दाघदः, जीवनं जीवनमपि बोलकं, पवनः सुखदोऽपि विरुद्धो दुःखदः, सर्वत्रैकैकमगुणं विना निर्वाहो न, परं दातरि सर्वदोषाभावः, यतः तुल्यमेवोपकारं करोति
विश्वाश्वासकरो घनोऽपि तडिता गोधां सुधा बाधते, दत्तेऽर्कः कुमुदाय न श्रियमहो पद्माय नेन्दुर्द्विषे । क्षुद्राङ्गाय जनाय नो वितरति प्रायः फलं पादपो, दाता सत्पुरुषः परं परहिते बद्धप्रयत्नः समम् ॥ २३ ॥
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दातरि
श्रीः
कर्मकरी
सर्वफलदानं
॥ ६१ ॥
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श्रीराजशेखये संघ महोत्सवे
॥ ६२ ॥
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'गतिरन्या गजेन्द्रस्य, गतिरन्या खरोष्ट्रयोः । गतिरन्यैव सिंहस्य, लीलादलितदन्तिनः ॥ १ ॥ तथा विदुषामन्यैव वाग् मूर्खाणामन्यैव, अन्य एव रसो दुग्धस्य, अन्य एव दुग्धस्य भावः यस्य कोशे यद्भवति स तस्य सत्रं विस्तारयति, साक्षादूदृश्यते च यतः
तर्कव्याकरणादिशास्त्राने वहस्याचार्यवृन्दारकैर्धम्र्म्मार्थ धनिभिर्विशालमतिभिर्भोज्यादिसद्वस्तुनः । तल्लाभेन तदर्थिभिः प्रमुदितैः सम्यक् तदीयस्तुतेस्तन्निन्दोत्थितपातकस्य तु खलैः सत्रं कृतं स्पर्द्धया ||२४|| चतुर्षु युगेषु दातारोऽभूवन् कृते मान्धातृमुकुन्दहरिश्चन्द्रनहुषादयः, त्रेतायां रामादयः, द्वापरे युधिष्ठिरादयः, कलौ विक्रमादयः, हीनकलौ कुराजकरकलिते दुष्टखलवचनमये विद्याविकले दैवतप्रसादशून्ये मन्त्रप्रभावहीने जलददयादारिद्रये कल्पद्रुमादि| दानरहिते ये दातारो ददति तीर्थयात्रां वितन्वंति तीर्थानुद्धरंति जीवदद्याद्युद्घोषणामुद्घोषयन्ति शासनमुद्दीपयन्ति शान्तिकपौष्टिकरथयात्राजलयात्रा स्वजनोपकारभित्रपरिजनस्वामिकार्य कुर्वन्ति ते वर्ण्यन्ते, -
अर्हच्चक्रभृतां सुरेन्द्रनिधयः षट्खण्डराज्यं वशे, सौरीणामपि तत्तदर्थनिचयाः कर्णस्य सौरो वरः । जीमूतस्य कराग्रगः सुरतरुर्देवो विशालापतेर्दानं तैः सुकरं कलौ कृशधनान् सर्वस्वदातृन् स्तुमः ||२५|| परमेश्वरस्य त्रिभुवनजनकामितदातुः कर्म्मरूपस्य तस्याक्षराणि शुभाशुभमयानि करलिखितानि सन्ति सर्वस्य, अतः सत्पुरुपास्तस्यैवाशां कुर्वन्ति, तमेव स्तुवन्ति, प्रातरुत्थाय समेव पश्यन्ति, करतार इति या संज्ञा सा करस्यैव, करतारुहस्तस्यापि चागु
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दाता स सुरद्रुमसमश्व
॥ ६२ ॥
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शेखरीये
श्रीराज-18| तेनेदं नवदेशनार्थिहृदयानन्दाय सारं मित, प्रोक्तं सङ्घमहोत्सवप्रकरणं सुश्रावकश्रीकरम् ॥ ३५ ॥
Bा स्वर्गद्वयं लक्ष्मीः सत्पात्रलाभादभृत सुभगतां मर्त्यजन्मद्रुमोऽयं, साफल्यं प्राप दृष्टः सुगुरुमुखजुषामाशिषां सत्यभावः ।। संघ
सध्यान मज्जन् कार्पण्यपके सुचिरमतिजरन्नुधृतो दानधर्म-स्तन्वद्भिस्तीर्थयात्रामहमिह विहितः को न लब्धप्रतिष्ठः ॥३६॥ महोत्सवे
प्रशस्ति श्व
।
इति श्रीराजशेखरसूरिकृता दानषत्रिंशिका सम्पूर्णा
ॐॐ5455HABAR
मा॥६६॥
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श्रीविशेषण वत्यां
श्रीवीरात्मा गुलादि विशेषः
30-456
श्रीजैनप्रवचनसुधासुधादीधिति श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणसूत्रिता विशेषणवती. उस्सेहंगुलमेग हवइ पमाणंगुलं सहस्सगुणं । उस्सेहंगुलदुगुणं वीरस्साऽऽयेगुलं भणियं ॥१॥ (प्रज्ञा)३०० एवं चायंगुलओ कहमट्ठसयं जिणो हवह वीरो। उस्सहंगुलमाणेण किह व सयमट्ठसटुं सो? ॥२॥ दो सोलसुत्तरसया उस्सेहंगुलपमाणओ एवं । अहवाऽऽयंगुलमाणेण होइ चुलसीइमुग्विद्धो ॥३॥
भरहायंगुलमेगं जइ अ पमाणंगुलं तु निहिडें । तो भरहो वीराओ पंचसयगुणो न संदेहो ॥४॥ तत्थ जं भणियं-उस्सेहंगुलं सहस्सगुणियं पमाणगुलं हवइ तं भरहस्स आयंगुलंति, तत्थिमं करणं-भरहो किर आयंगुलेण | वीसुत्तरमंगुलसयं, उस्सेहंगुलेण पंच धणुसंयाई, तत्य जइ वीसुत्तरेणं पमाणंगुलसएणं१२० सपाएण धणुणा१-१।४ पंच धणुसयाणि
५०० लब्भामो तो एगेण किं लब्भामो?, आगतं सयाणि चत्तारि, एवं जमेगं पमाणंगुलं पमाणधणुं वा तमुस्सेहंगुलओ चउसय| गुणं भवति सेढिगणिएणं, एअंचेव खत्तगणिएणं सहस्सगुणं भवइ, कहं ?, पमाणंगुलं उस्सेहंगुलबाहुल्लं अड्डाइज्जंगुलविक्खंभं
चउसयायाम, तत्थायामो चउसओ अड्डाइज्जंगुलेण विक्खंभेण गुणिओ सहस्समुस्सेहंगुलं हवइ, एवं उस्सेहंगुलं सहस्सगुणियं |पमाणंगुलं भवइ ॥ भगवंपि बद्धमाणो वीसुत्तरमंगुलसयमायंगुलेण अट्ठसहसयं १६० उस्सेहंगुलेणं, तत्थ जइ वीसुत्तरेणायंगुलसएणं
पाठान्तगणि-(१) होइ प्र० (२) कारणं ( ३) बाहल्लं ( ४ ) सआ
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वनस्पत्यवगाहा
वत्यां ॥२॥
GADGAODONEDROOTECTORX
अट्ठसटुं अंगुलसयं लब्भामो एगेणं किं लब्भामो ?, आगयं-एगमुस्सेहंगुलं दो अं आअंगुलपंचभागा, सवण्णिा सत्त पंचभागा, | द्र एवं भगवओ वीरस्स जमायंगुलं तमुस्सेहंगुलेण सत्त पंचभागा, विउणं च सुत्ते भणियं, एयं पुण खेत्तगणियं पडुच्च विउणं, सेढि
गणिएण सत्त पंचभागा, कहं , इहायंगुलेण पंचहत्थो भगवं, उस्सेहंगुलपमाणेण सत्तहत्थो, एवं जाई भगवओ पंच आयंगुलाई 8 ताई सत्त उस्सेहंगुलाणि, एवं हत्थादोऽवि, तत्थ समणे० सत्तहत्थो, एवं जा चउरंसपंचगमायंगुलं बाहापडिबाहागुणं
खेत्तगणिएणं पणवीसं रूवाई, समचउरंससत्तगमुस्सेहंगुलं भगवओ वाहापडिबाहागुणं खेत्तगणिएणं एगूणपण्णं रूवाइंतिकाउं किंचूणबिगुणमुस्सेहंगुलाओ, उण्हीसाइसाहिअत्तणओ वा पण्णासं चेव रूवाइंतिकाउं बिगुणं चेव भण्णति, अहवा समचउरंसपंचगस्स उस्सेहंगुलस्स पण्णासकरणीओ कण्णो, एस महावीरायंगुलस्स बाहा बाहाए गुणिया गणियंतिकाउं पण्णासा करणीए गुणिया जायाइं पणवीस सयाई २५००, एएसिं मूलं पण्णासं रूवाणि महावीरस्सायंगुलखेत्तगणिअं,
एयस्स उस्सेहंगुलखेत्तगणियाओ पणवीससयाओ विगुणं । इयाणिं छज्ज [प] गएणं पञ्चक्खं दाइज्जइ, तत्थ ताव इमं समचउ४|रंसं पंच समुस्सेहंगुलं ता इमं पुण समचउरंसं पण्णासकरणीयमायंगुलं भगवओ, ता इयाणिं एवं चेव जहा उस्सेहंगुलकण्णाओ |णिप्फज्जइ तमेवमालिाहअत्ति, एवं जे उस्सेहंगुलप्पमाणगुलाणं उस्सेहंगुलमहावीरायंगुलाण य विरोहाभिप्पाएणं पमाणविसंवायाइदोसा चोइ ते परिहरिया भवंति १॥
(१) दो अ अं० (२) संचुण्णिआ,
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वत्यां
गौतमद्वीपे जलावगा
हादि
श्रीविशेषण
जोअणसहस्समहिअं वणस्सइसरीरमाणमुद्दिढे । तं च किर समुद्दगयं जलरुहनाल हवइ णण्णं ॥ ५॥ उस्सेहंगुलओ त होइ |पमाणंगुलेण य समुद्दो । अवरोप्परओ दोणिवि कहमविरोहीणि होज्ज गहुँ ? ॥६॥ पुढवीपरिणामाई ताई किर सिरिनिवासपउमं व |
। तित्थेसु पुण वणस्सइपरिमाणाईपि होज्ज गणु ॥ ७॥ जत्थुस्सेहंगुलओ सहस्समवसेसएसु य जलेसु । वल्लीलयादओचिय है सहस्समायामश्रे होति ॥ ८॥२ ( ठा. २९५) PI पण्णत्तीए भणिया सोलसहस्सा सिहा समुदस्स । सच्चेव दीवसागरपण्णत्तीए सया सत्त ॥ ९॥ उस्सेहे सत्तसए गोअमदीवा४ दओ जलंताओ । उबिद्धा जावइ तमेइ तेरासिएण फुडं ॥१०॥ उस्सेहे सोलसए गोयमदीवादओ निबुडिज्जा । तहवि अण
सो ण सच्चो तं पड़ जं बुड्डि भणियाई ॥११॥ किह पुण दोनिवि सच्चा जं सत्त सओवरिं समा चेव । निहाइ सोलससहस्सिया
सिहा दस य विच्छिण्णा ॥१२॥ जीवाभिगमे वुड्डी जा सा तं पप्प खेत्तगणियं च । कण्णगईए णेयं लवणाभन्बस्स खेत्तस्स 8॥ १३ ॥ जइ पंचणउइजोअणसहस्साई गंतूण सत्त जोअणसयाई उस्सेहं लब्भामो बारसजोयणसहस्से गंतूण गोयमदीवे
किमुस्सेहं लब्भामो ?, आगतं अट्ठासीइ जोअणाई चत्तालीसं च पंचाणउइभागा जोअणस्स, एयं जंबुद्दीवंतेणं जले णिबुडं दीवस्स, उवरिपि एत्तिय चेव ऊसिय जलंताओ अद्धजोअणं च, चउवीस जोअणसहस्साई गतूणं लद्धं छावत्तरं जोअणसयं असीई च पंचा|णउइभागा जोअणस्स, एवं लवणसमुदंतेणं निबुडं दीवस्स, दो कोसे ऊसिओ जलंताओ, जीवाभिगमे पंचाणउइ पंचाणउइ अंगुलाई
(१)गु उ (२) निवुइजा (३) बुद्धि.
RRERAऊर
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णिगंतूर्ण सोलसअंगुलाई उस्सेहवुड्डी, इमा पुण एगरूवबुड्डी, जइ पंचाणउइ जोअणसहस्साई गंतूण सोलस जोअणसहस्साई उस्सेह | लहामो जोअणे किं लब्भामो?, आगतं सोलस पंचाणउइभागा जोअणस्स, एवमायंगुलाणंपि, एवं जंबुदीवपण्णत्तीकरणगाहासु ॥३॥x
गणितपद
| माभाव्यं लवणस्स खेत्तगणियं पुवायरिओवणिबद्धं जंबुद्दीवलवणपरिरए दोवि एगओ मेलेऊण अद्धं घेप्पइ, तं पंचुत्तरजोअणसहस्सेणं
ज्योतिष्कः विक्खंभेणं गुणिज्जइ, पुणो सम्बग्गेण सत्तरसजोअणसहस्सेणं गुणिज्जइ, तओ एवं आगयफलं भवइ । सोलसकोडाकोडी तेणउद्द कोडिसयसहस्साई । ऊयालीस सहस्सा णव कोडिसयाई पण्णासा ॥ १४ ॥ पण्णाससयसहसाई जोयणाणं भवे अणूणाई । लवणसमुदस्सेयं जोअणसंखाए गणिअपयं ॥ १५ ॥ एवं उभयवेइयंताओ ४॥
सोलससहस्सउस्सेहस्स य कण्णगईए जं लवणसमुद्दामव्वं जलसुण्णंपि खित्तं तस्स गणियं, जहा मंदरस्स पव्वयस्स एकारस-| | भागपरिहाणी कण्णगईए आगासस्सवि तदाभव्वंतिकाउं भणिया तहा लवणसमुदस्सवि ५॥
आह-सोलसहस्सिाए सिहाए कहं जोइसविधाओ ण हवइ ?, तत्थ भण्णइ, जेण सूरपण्णत्तीए भणिअं-जोइसियविमाणाई | | सवाई भवंति फालिअमयाई । दगफालियामया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ।। १६ ॥ ज सव्वदीवसमुद्देसु फालिआमयाई लवण-TRI | समुद्दे चेव केवलं दगफालिआमयाई तत्थ इदमेव कारण-उदगेण मा विधाओ होउत्ति, जंसूरपण्णत्तीए चेव भणियं, लवणम्मी जोड़-1 सिया उ8 लेसा हवंति णायव्वा । तेण परं जोइसिया अहलेसाया मुणेयव्वा ॥ १७ ॥ तंपि उदगमालावभासणत्थमेव, लोगडिइशा ( एसा. जीवा ३०४ पत्रे)६॥
सत्त य सत्तट्ठाणाईएसु ( ११.५५६ ) दस कुलगरा दसट्ठाणे (११-७६७)। पण्णत्तीए भणिया पण्णारस जंबुदीवस्स IA
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श्रीविशेषण वत्यां
॥ ५ ॥
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| (१२० २०२) ||१८|| सतगहणेण जे विमलवाहण परेण ते ण संगहिया । अणिउंजिज्झिय ते कुलगरत्तणं जेण कयवंता ॥ १९ ॥ पणरस कुलगरत्तणं सामण्णा उत्ति तेऽवि संगहिया । जत्थ दसहं सत्तगमणिअत्तं तत्थ तिगमाहूं ।। २० ।। ७ ।
( भ. २९८ ज्ञा. १८३ प्रज्ञा. ५३५ ) तिरियाणं चारितं णिवारिअं तो कओ पुणो तेसिं । सुब्बइ बहुआणं चिय महन्वयारे। वर्ण समए १ ॥ २१ ॥ ण महव्वयसम्भावेवि चरणपरिणामसंभवो तेसिं । ण बहुगुणापि जओ केवलसंभूइपरिणामो || २२ || ८ |
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७-६ विशेषः
( स्था. १७८ म. ९६० ) सुत्ते चउसमयाओ णत्थि गईओ परा विनिद्दिट्ठा | जुज्जइ उ पंचसमया जीवस्स इमा गई लोए ।। २३ ।। जो तमतमविदिसाए समोहओ बंभलोगविदिसाए । उववज्जए गईए सो नियमा पंचसमयाए ॥ २४ ॥ उज्जुया य एगवका दुहओवकाई विनिदिट्ठा । जुज्जइ अ तिचउवका विणा न चउपंचसमयाए ।। २५ ।। उववायाभावाओ ण पंचसमयाउहवा न संताध्वी । भणिया जह चउसमया महलबंध ण संतावि ।। २६ ॥ ९ ।
निरइंदा तेरस पत्थडाइया अउणपण्ण सन्चग्गा । अण्णे अ सोलसाई पण्णा सग्गा कहं गेज्झा १ ।। २७ ।। दस तिअसहिया एकाहिया य णव सत्त पंच तिष्णेके । नरइंदर कमो खलु ओसरमाणो उ रयणाए ।। २८ ।। सोलस दसट्ट छप्पंच चेव चत्तारि चैत्र १ अवसर्पिण्यां सप्त उत्सर्पिण्यां दशेति स्थानाङ्गतात्पर्य, भगवत्यां प्रस्तुतवाचनायां यद्यपि सप्तक्ता: तथापि 'अथ चेह स्थाने कुलकरादि वक्तव्यता दृश्यते' इति वृत्तिपाठे न नियता वाचना, ततः कचित् 'पन्नरसे' त्यस्यापि संभव:, अत एव 'कचित् पंचदशापि दृश्यन्ते' इति ६ ॥ ५ ॥ स्थानाङ्गदशमस्थानवृत्तिरपि संगता ।
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श्री विशेषण व त्यां
॥ ६ ॥
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एकोऽयं । पण्णास पत्थडा खलु सत्तसु पुढवीसु णायव्वा ॥ २९ ॥ जे तेरसादओ किर ते सव्वंति गुरवो पभासति । बोडिअ विणिग्गया सोलसादओ ते न ते गेज्झा ॥ ३० ॥ ॥। १० ।
सामाइयचुन्नीए उसभस्स धणादओ भवा सन्त । होन्ति अ पिंडिज्जंता बारस वसुदेवचरिअम्मि ।। ३१ ।। संवत्था चुन्नीए सत्त इयरे सहाणुभृइति । सिज्र्ज्जसेणऽकखाया दोमुवि संपिंडिआ सव्वे ॥ ३२ ॥ ११ ॥
सीहो सुदाढनागो आसग्गीवो य होइ अष्णसिं । सिद्धो मिगव्बओत्ति य होइ वसुदेवचरिअम्मि ।। ३३ ।। सीहो चैव सुदाढो जं रायगिहम्मि कविलवडुओति । सीसइ ववहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खतो ।। ३४ ।। १२ ।
साईअपज्जवसिआ सिद्धा ण य णामतीतकालम्मि । आसी कयावि सुण्णा सिद्धी सिद्धेहिं सिद्धते ॥ ३५ ॥ सव्वं साइ सरीरं ण य णामाइमय देहसम्भावो । कालअणाइत्तणओ जहाव राईदियाईणं ।। ३६ ।। भ. २५५ सव्यो साई सिद्धो गयाइ सो विज्जए तहा तं च । सिद्धा सिद्धी अ सया णिद्दिट्ठा रोहपुच्छाए ।। ३७ ।। १३ ।
पंचणुस जहण्णओ सत्तरयणि सिद्धते । कुम्मासु अमरुदेवणि देहमाणं कहं गेज्नं १ ॥ ३८ ॥ एमेवुको सयपुव्यकोडिजीविसु णरेसु अव्वं । तत्तो समहिमजीवीवसुदेवाईसु तं किह णु १ ।। ३९ ।। ससरीरतिभागूणं भणियं सिद्धावगाहणामाणं । संकुइयाइअमरणे जहणमुकोसए कहणु ? || ४० ॥ जं किर तित्थमराणं जहण्णमुकोसयं च जं भणियं । उच्चत्तं तो कुम्मयमरुदेवणं ण | सम्ग्रहणं ॥ ४१ ॥ अहवा पंचसउच्चिय मरुदेवी जेण किचि ऊणा ऊ । इत्थी पुरिसेहितो अहिया वा णायती सिद्धा ॥ ४२ ॥ अहंगुलाहि करा सिद्धजहणानमाहथा जेण । तेनातित्वगराण अत्थि विहत्थाण निव्वाणं ॥ ४३ ॥ तं कुम्मसुयाईणं अच्छेरयत्ति
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१३-१५ विशेषाः
॥ ६ ॥
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श्रीविशेषण विषमा मते असिशति । तेणं अद्वैगुलाहिअकरावयाहणा सिद्धा ॥ ४४ ॥ अहवाऽऽऊ जमुच्चत्तं च सुत्तभणियं जहण्णमियरं च ।। वत्यां IP सामच्छण विसेसा पंचसयादेसवयणं व ॥ ४५ ॥॥१४ ।
विशेपोः (प्र.३७९)जइ पोग्गलपरियडा संखाईआ वणस्सईकालो। तो अच्चंतवणस्सइजीवा कह णाम मरुदेवा ॥४६॥ होज्जव दणस्सईण हैन अमाइमिचमत एव हेऊओ । जमसंखेज्जा पोग्गलपरिअट्टा तत्वध्वत्थाणं ॥ ४७॥ कालेणेवइएणं तम्हा कुवंति कायप
लटं । सम्वेवि वणस्सइणो ठिइकालंते जह सुराई ।। ४८ ॥ पइसमयमसंखज्जा जेणुववति तो तदभत्थ । कायठिईए समया वणस्सईणं परीमाण ॥४९॥ कायठिईकालेणं तेसिमसंखेन्जयावहारेण । जिल्लेवणमावणं सिद्धीविय सव्वभव्याण ॥ ५० ॥णय * पच्चुप्पण्णवणस्सईण णिल्लेवणं न भव्वाण । जुत्तं होइन तं [न] जइ अच्चन्तवणस्सई णस्थि ॥५१॥ एवं चाणाइवणस्सईण अत्थित्तमस्थओ सिद्धं । भण्णइ इमावि गाहा गुरूवएसागया समए ॥५२॥जी-५०७.३८० अस्थि अणंता जीवा जेहिं न ली तसाइपरिणामो। तेवि अणताणता णिगोअवास अणुवसति ॥५३॥ अच्चंतवणस्सइणोवि संति एवं कुंडवि सिद्धम्मि । भावेअव्वो कह गहु तेसि कायढिईकालो ? ॥५४॥ सब्बेहि कह व जीवेहिं फासि सुअमणंतसो समए । पत्ताइ कहव बहुसो ठाणाई णारगाइणि ? ॥५५॥ दम्बिदियभाविंदिय पोग्गलपरियड रागदोसाई । भावेअब्वाई कहं सुत्ताई एवमाईणि? ॥५६॥ कह मविआणाईया सपज्जवसिअत्ति* देसिय मुत्ते । ण य भविएहिं रिरहिओ होही लोगोत्ति भणियमिणे ॥५७। गम्मइ जे सिज्झिस्संति ते अगाइसपज्जवसित्ति। तह
बहुसो सुत्ताई सिद्धते देसविसयाई ॥५८॥ तह कायठिईकालादओ विसेसे पडुच्च किरं जीवे । णाणाइवणस्सइणो जं संववहारबाहरिआ 18॥ ५९ ॥ (जी.५१) सिज्झति जेत्तिया किर इह संववहारजीवरासीओ । ऐति अणाइवणस्सइरासीओ तेत्तिआ तम्मि ॥६० ॥१५॥
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१७-१९ विशेषाः
वत्यां
विशण (भ.६१२)धम्माइपएसेहिं दुपएसाई जहण्णयपयम्मि । दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहणु हु फुसेज्जा ॥६१॥ एत्थ पुण जहण्णपयं
लागते तत्थ लोगमालिहिउं । फुसणा दाएअव्या अहवा खंभाइकोडीए ॥ ६२ ॥१६॥ ॥ ८ ॥
(भ. ७८४) वीसइमसउद्देसे चउप्पएसाइए चउप्फासे | एगबहुवयणमीसा बीयाईआ कहं भंगा? ॥ ६३ ॥ देसी देसा || व मया दव्ववेत्तवसओ विवक्खाते । संघाइयभेयतदुभयभावाओवी वयणकाले ॥ ६४ ॥१७ ।
(भ. ८६५) परिमंडलं जहनं भणियं जुम्मणवडिओ लोओ। तिरियाययसेढीण संखयपएसया कहणुः ॥६५॥ दो दो दिसासु एक्केकओ य विदिसासु एस कडजुम्मो । पढमपरिमंडलंते बुड्डी किर जीवलोअंतो ॥ ६६ ॥ अटुंसया पसज्जइ एवं लोगस्स ण परि| मंडलया । वट्टालेहेण तओ वड्डी कडजुम्मिया जुत्ता ॥६७॥ जइ लोगतिरिअसेढो संखेज्जपएसियावि वजीत । किमलोगतिरिअसेढी संखपएसा ण सिद्धा उ॥६८॥ एवं वा दव्वट्ठा जइ सव्वा कडजुम्माओ कह पएसतया? । लोगतिरिअसेढीओ भणिया कडवायरपएसा ॥६९॥ जइवि तिरिआययाओ णियमा कडबायरा पएसतया । उडाइया कहं तो कडजुम्मा होति दव्यतया ॥७॥ उड्डाययाण जा खलु पएसदब्वट्ठया विणिहिट्ठा । होअव्वं तिरियाणं ताए दव्बप्पएसतया ॥ ७१ ॥ पच्चक्खं दाइज्जइ सेढीणं |पयरलोगनालीए । दव्वपएसट्ठयया जुम्मविभागे जहा जेसि ॥ ७२ ॥ १८।।
कोडाकोडी अयरोवमाण तित्थंकरणामकम्मठिई । बज्झइ य तयणंतरभवम्मि तइयम्मि निद्दिटुं ।। ७८ ॥ तट्टिइमोसकेउ| तइयभवो अहव जीवसंसारो तित्थयरभवाओ वा ओसकेउं भवे तइए ॥ ७९ ॥ जे बज्झइत्ति भणिय तत्थ निकाइज्जइत्ति णिय-1& मोऽयं । तदवंझफलं नियमा अण्णा अणिकाइआवत्थे ॥ ८० ॥ १९ ।
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श्रीविशेषण (प्र.४८४) तिरिएसु णस्थि तित्थयरणामसंतति देसि समए । कह व तिरिओ न होही अयरोवमोडिकोडीए? ॥८१॥ तपि से
२०-२४ वत्यां । मुनिकाइ यस्सेव तइअभवभाविणो विणिद्दिट्ट । अणिकाइयम्मि वच्चइ सब्बर्गईओवि ण विरोहो ॥ ८२ ॥ २० । .
विशेषाः तिरिअनरसम्मदिट्ठी ण पंधई विमाणवज्जमाउंति । मणुएसु बंधइच्चिय कम्मप्पयडीण णिट्टि ।। ८३ ।। दरिसणविसेसओ तै| जहेह सासाणदरिसणस्सावि । सम्मत्तम्भंतरया ण य तेणामरगई नियमो ।। ८४ ॥ २१
छेवढे संघयण सुत्ते एगिदियाण पण्णत्तं । कम्मप्पगडीए कह बंधे उदए य तं नथि॥८५॥ सण्णी अ असण्णियत्ति य जह हा कालिअहेउदिट्टिवायाओ। एगिदियाणमेवं संघयणं ण य विसेसाओ ॥ ८६ ॥ २२ । I (भ.३९१) मोहनिमित्ता अट्ठवि बायरराए परीसहा कहणु । कीस व सुहमसरागे न होंति उवसामो सव्ये? ॥८७।। सत्त य|
| परउच्चिय जेण बायरो जं च सावसेसम्मि । मग्गिल्लम्मि पुरेल्ले लग्गइ तो दंसणस्साचि ॥८८॥ लग्गइ पएसकम्मं पडुच्च सुहुमादओ 81 | गुणे अट्ठ । तस्स भणियाण सुहुमे ण तस्स सुहुमोदओवि जओ ॥ ८९ ॥ २३ । २ सयरीए मोहबंधट्ठाणा पंचादओ कया पंच । अनिअट्टिणो छलुत्ता णवादओदीरणापगए ॥९०॥ सयरीए दो विगप्पा सम्मा| मिच्छं समोहबंधम्मि । भणिया उईरणाए चत्तारि कहंणु होज्जाहि ? ॥ ९१ ॥ सयरीए पंचविहबंधगस्स दोण्ह उदओ विणिद्दिटो।। | चउराई छण्ह उदओ उदीरणाए पुणो भणिओ ॥९२॥ एको व दो व चउबंधगस्स सयरीए देसिया उदया । एको य विचउ पंच यते छच्चेवोदीरणा देसे ॥ ९३ ॥ सग वायरस्स संते ठाणा सयरीइ मोहणिज्जस्स । बारस उईरणाए दुगतेवीसाहिआ भणिया ॥ ९४ ॥ संजलणलोहचरिमत्तिभागसंखेज्जभागमेतीव । वढतस्स कहं बायरस्स को हवइ संतं ।। ९५ ॥ जइ वायरस्स बारस
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विशेषाः
श्रीविशेषण कीस णिअट्टिस्स पंच पडिसिद्धा । संता चउविहणिब्बंधगस्स किह वा भवे सत्त? ॥ ९६ ॥ संजलणलोहचरिमत्तिभागसंखेज्जभाग
वत्यां मेत्तोऽवि । सत्तावीसोवसमो वायररागस्स किंण भवे ? ॥ ९७ ॥ संजलणाणं वासु सयरीए उवसमो समक्खाओ। मज्झिमकसाय॥१०॥
मीसे उईरणाईसु परिकहिओ ।। ९८ ॥ धुवमणुधावति माया धुवा सयं किंचि बायरनेवि । सचावीसोवसमे ण तस्स तो संतमेको ४ीय ॥ ९९ ॥ बंधाइविहाणविचित्तयावि रोगंभि भेसजोवमया । परिणामविचित्तत्तणभावाओ जुज्जए सव्वे ॥१०० ॥२४॥
भणियं सुत्ते छिन्नं चोदसपुब्बिम्मि पढमसंघयण । तम्मि अ अवट्टमाणे सव्व₹ कह गओ वइरो?॥१०१॥न य भणिअमिया | वइरो सव्वट्ठमिती न सुत्तणिदिट्ट । तेण तमनारिसच्चिय फुडं च णाणुत्तरविमाणं ॥ १०२ ॥ २५।।
एगाई एगन्ता जवमझा सत्त तित्थवोच्छेया । अण्णेसि पलितपया एकेकगदुतिदुवेकेका ॥ १०३ ॥ २६ ।
(प्र.३९१) सुत्ते विन्भंगस्सवि परूविअंओहिदंसणं बहुसो। कीस पुणो पडिसिद्धं कम्मप्पयडीइ पगयम्मि? ॥१०४॥ विन्भंगेविहु भादरिसण सामण्णविसेसविसयतो सुत्ते । तं ता विसिट्ठमणगारमेत्तत्ताऽवहिविभंगाणं ॥ १०५॥ कम्मप्पयडी मयं पुण सागारेयरवि|सेसभावम्मि । ण विभंगणाणदंसणविसेसणमणिच्छितत्तणओ ॥ १०६ ॥२७ ।।
समुच्छिमोरगाणं काओ जोअणपुहुत्तमुकोसं । तं च णव जाव भणियं बारस आसालियाकाओ ॥ १०७ ।।अवगाहणाअवसरे 13 माणं णिद्दिसइ जेण तस्सेव । तो भण्णइ तं मोत्तुं सेसाणं जोअणपुहुत्तं ॥ १०८ ॥ २८ ॥ IN होऊणं देवकया चउतीसाइसयबाहिरा कीस । पागारंबुरुहाइ अणण्णसरिसावि लोगम्मि ॥ १०९।। चोत्तीस किर णियया ते
| गहिआ सेसया अणिययत्ति । सुत्तम्मि ण सगहिआ जह लद्धीओ विसेसाओ ॥ ११० ॥ २९॥
।
॥१०॥
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SARH
श्रीविशेषण (सूर्य. २९० भ. ५७७) वदृच्छेदो कइवयदिवसे धुवराहुणो विमाणस्स । दीसइ परं न दीसइ जह गहणे पव्वराहुस्स ॥१११॥ वत्यां | अच्चत्थेण हि तमसा भिभूय तेज ससी विसुझंतो । तेण ण वट्टच्छेओ गहणे उ तमो उ तमबहुलो ॥ १२२ ॥ ३० ।
विशेषाः (जी.३७९सूर्य २६३) अद्धकविट्ठागारा उदयत्थमणम्मि किं न दीसति। ससिमराण विमाणा तिरिअक्खेत्तट्ठियाणंपि ॥११३॥ ॥ ११॥
उत्ताणद्धकविढं पेढं किर तदुवरिं च पासाओ । बट्टालेहेण तओ समवट्ट दूरभावाओ ॥ ११४ ॥ ३१ ।
तिरिअडिओ मयंको राहुविमाणोवरि डिओ कहणु । उरि खंडो दीसइ हेट्ठा खंडो कह ण भवे ॥११५।। आईइ कालपक्ख|स्स उवरिमारधुमक्कमइ चंदं । जं तेण णज्जइ फुड हेट्ठा राहू न चंदस्स ॥११६।। हेट्ठा तमसो सूरो जं किर पुव्वावरि हिओ सोमं । भासइ य तेण दीसइ उवरि खंडो दुपक्खवि ॥ ११७ ॥ ३२ .
चउरंगुलमप्पत्तं देसूर्ण जोअणं तयद्धेण । कह राहुविमाणेण ससिणो छाइज्जइ विमाणं? ॥ ११८ ।। सब्वे गहणक्खत्ता रवि-13 ससिमज्झम्मि अह य गहणम्मि । बच्चइ राहुविमाणं सूरविमाणस्स हेतुणं ॥ ११९ ॥ जं गहविमाणमाणं रविससिमझम्मि जं चल गहभगणो । उस्सग्गविहिअमेत्तं सुअम्मि तमसोऽपवाओ अ॥ १२० ॥ ३३।
कह व दसुत्तरजोअणसयवाहल्लम्मि जोइसे खेत्ते । जंबुद्दीवाईणं माएज्ज गणिज्जमाणमिणं? ॥१२१।। (जी. ३३४) कोडाकोडी सणंतरन्ति मण्णंति केइ थोपयरा । अण्णे उस्सेहंगुलमाणं काऊण ताराणं ॥ १२२ ॥ ३४ ।
॥११॥ कह होति समहिआई चरिमाऽचरिमप्पएसरासीओ। दव्वाई कह व जुज्जइ दवुवयारो पएसेसु ? ॥१२३।। उजुसुत्ताइमयहमिदं पइप्पएसमिह दवपडिवत्ती । देसप्पएसभेओ जह वा धम्मत्थियाईण ॥ १.२४ ॥ ३५ ।
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IKI श्रीविशेषण
दबिदियाइ सोलस जस्साणुत्तरसुरस्स एसाई । सो वच्चइ मिच्छत्तं कहण्णु आराहणा तस्स ? ॥१२५ ॥ णणु कम्मपय-18| वत्यां
विशेषाः #डियमयं सम्मदिट्ठी णरो राउंपि । बंधइ तो एगतो ण तस्स मिच्छत्तगमणम्मि ॥१२६ ।। मिच्छोदयमेचाओ कावाऽणाराहणा जओ तिविहा । आराहणा जहणाइया तदब्भन्तरो सो अ॥ १२७ ।। ३६ ।
उस्सेहंगुलमाणेण विण्ड्गुणो सयसहस्समुस्सेहो । मेरुम्मि पमाणंगुलमाणेण कह कम कुज्जा? ॥ १२८ ॥ कह वा सोहम्मत्थ च घट्टए उडुवरं विमाणं सो । संगमयसतिति च तं च कहं विण्हुकालम्मि? ॥ १२९ ॥ मेरुम्मि कमो उडुघट्टणं च सुइमेत्तयं ण सुत्ताणा । होज्ज व संचरमाणं विमाणमुडुसनियमदोसो ॥१३० ॥ ३७।
चक्खिंदिअस्स विसओ जं जोयणसयसहस्समभीह । विण्हुच्चिय णिदरिसणं तत्थवि केई पभासति ॥ १३१ ॥ ३८।
अह य पमाणंगुलओ सीआलीसाय समइरेगेहिं । भणियं उदयत्थमण दीसइ सूरो सहस्सेहिं ॥ १३२ ।। एवं जंबुद्दीवे व पोक्खरे माणुसुत्तरासन्न । लक्खेहिं एकवीसाए दीसह समयाइरेगेहिं ॥ १३३ ॥ चक्खिंदियस्स तम्हा विसयपमाणं जहा सुए अभिहियं । आउस्सेहपमाणगुलाण मेकेणवि ण सज्झं ॥१३४ ॥ (प्र.३०१) सुत्ताभिप्पाओऽयं पयासणिज्जे अन उण अपयासे । आरिसमायंगुलओ अहिय लक्खं ण सेसहि ॥१३५।। ण सदेहविसेसहि इयरा विण्डं न जुज्जए दटुं । जमणेगसहस्सगुणं पेच्छंति गरा सदेहाओ ॥ १३६ ।। ३९ ।
संतिजिणस्सुच्चत्तं चत्तालीस धणूणि भणियाई । सड्डत्तयालीस अण्णेहिं पुणो पणीयाई ॥ १३७ ॥ ४० ॥ णमिसुधएम हरिसेणपउमणामा हवंति दो चकी। णमिणमिणो अमज्झ जयणामो जिणमए भणिओ ॥ १३८ ॥ णमिसुब्बयंतरे पउमणामहरिसेण
॥१२॥
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४१-४५ विशेषाः
वत्यां
श्रीविशेषण चकिणोत्ति दुवे । जयणामा य णमिमि अण्णेहिं पकप्पियं एयं ॥ १३९ ॥ तिण्ह महापउमाईण वीस पण्णरस बारस धणूणि ।
बावीसवीसचउद्दस धणूणि उच्चत्तमण्णेसि ॥ १४० ॥ण विसंवयंति पढम उच्चत्ताईणि तेण सपमाण । विघडंति जिणेहिं समं | 18 बीयादेसम्मि तो वज्जो ॥ १४१ ॥ ४०।।
बंधिसयवीयभंगो जुज्जइ जइ किण्हपक्खियाईण । तो सुक्कपक्खियाई पढमे भंगे कहं गेज्झा ॥१४२॥ पुच्छाणंतरकालं पइ प-1 Pढमो सुक्कपक्खियाईणं । इयरेसिं अवसिटुं कालं पइ बीअओ भंगो ॥ १४३ ॥ ४१ ॥ (भ. ९२९)
पट्ठवणसए स किण्हु हु समासओ वण्णिओ उ चउम्भंगो । कहब समज्जिणणसए गमणिज्जा अत्थओ भंगा ॥१४४॥ पट्ठवण-13 लसए भंगा पुच्छा भंगाणुलोमओ वच्चा । कम्मसमज्जिणणसए बाहुल्लाओ समाओज्जा ॥ १४५ ॥४२।। (भ. ९४१) का अप्पडिलेहाईसु अ णवण्ह भंगाण संभवे सत्त । उवहिस्स य उवघायाँ पुणरुत्ता कीस णिदिवा ॥१४६॥ पगडा दगतीराइसु
पच्छित्तादेसबहुलया कीस । तेसिं तिविहो य कहं पूरइ कप्पो अपुणरुत्तो? ।। १४७ ॥ दो किर समाणरूवा बीय तइअ अभितरत्ति तणाभिहिया । जह पच्छित्तवसाओ पुरिसाणं भेयसंयोगा ॥१४८॥ आएसविसेसा किर उवघाया उवहिणो तहा कप्पो । तेसिंति जहा
सुत्ते पण्णरसाणंतरा सिद्धा ॥१४९॥ एकम्मिवि अवराहे परिणामविसेसओ जओ बहुधा । तो तयणुवत्तिओ च्चिय पच्छित्तादेसवा| हुल्लं ।। १५० ॥॥४३॥
१ संघाया. २ पडगा. ३ बहुया,
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श्रीविशेषण
तइयाए ठवणाए पढमवीयाण संभवो णियमा । एमेवारूवणीए पढमयबिइयाहिं किं कज्ज? ॥ १५१ ॥ चरिमाए वा तिण्हंपिका ४५ वत्यां ही संभवो तेहवि बोहणत्थं च । सुहगहणत्थं च तहा चरिमाए तदभिहाणंपि ॥ १५२ ॥ ४४ ॥
विशेषः ॥१४॥ (नन्दी.१३४) केई भणति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा। अण्णे एगंतरिअं इच्छंति सुओवएसेणं ॥१५३॥ अण्णे ण चेव वीसु
दसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलणाणं तं चिय से दरिसणं विति ॥ १५४ ॥ जह किर खीणावरणे देसणाणाण संभवो ण जिणे । उभयावरणाईए तह केवलदंसणस्सावि ॥ १५५ ॥ देसण्णाणोवरमे जह केवलणाणसंभवो भणिओ। देसइंसणविगमे तह केवलदंसणं होउ ॥ १५६ ॥ अह देसणाणदंसणविगमे तुह केवलं मयं णाणं। ण मयं केवलदंसणामिच्छामित्तं णणु तवेयं ॥१५७॥ देसण्णाणाभावो जैह य कसिणविसयलिंगलिंगित्ता । जुत्तं जिणम्मि एयं ण उ केवलदसणाभावो ॥१५८॥ अहवा ण चेव देसण्णाणाभावो जिणम्मि, किं कज्जं?। जाणाइ जिणवरिंदो तेसिं विसए अपरिसेसे ॥१५९॥ तहविय न पंचणाणी भण्णइ समयम्मि मा हु होज्जाहि । केवलणाणाकसिणप्पसंगदोसो जिणिंदस्स ॥१६०॥ पुण्णे महातलाए णत्थि पभूतं (पुहुत्तं) तदंतवत्तीणं । जह सेसतलागाणं जिणम्मि तह सेसणाणाई ॥१६१।। अहवा जह संताणवि गहताराईण दिनकरभुदए। न पुहुत्तमेवमण्णण्णाणाणं केवलब्भुदए। ॥१६२।। अहवा खओवसमियत्तणेण छउमत्थभाववत्तीणि । केवलणाणं खइयं जेण जिणे संभवो तस्स ॥१६३।। केवलदसणमेव (उ) छउमत्थे णत्थि तं जओ खइयं । जइ तं णत्थि जिणम्मिवि तो कत्थ तयं गहेअव्वं ? ॥१६४ ॥ छउमथम्मि जिणम्मिवि जं नत्थी
॥१४॥ १ भवणाए. २ सम्भावो, ३ मइबोह. ४ भावा. ५ जाणइ जेग जिणिदो. ६ असेसेऽवि. ७ वत्थीणं.
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विशेषः
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श्रीविशेषण सव्वहेच तं गत्थि । सिटुं चउविअप्पं च दंसणं सासणे बहुसो ॥ १६५ ॥ आह णउ सव्वसोच्चिय केवलिणो णत्थि दंसणं किंतु । ४५ वत्यां
णाणंति देसणं त अ एकं चिअ केवलं तस्स ।। ।। १६६ ।। जइ एगत्तं दोण्हवि ता एगयरोवओगया जुत्ता । इयरा फुडमण्णत्तं पुणरुत्त निरत्थया वावि ॥ १६७ ॥ पत्तेयावरणत्तं कह वा बारसविहोवओगत्तं। सागाराणागारं सिद्धाण य लक्खणं कह णु ? ॥१६॥ | णाणस्स जाणिअव्वे विसओ जइ दंसणस्स दट्ठव्वे । जुत्तं ते' इहरा पुण लक्खणवेहम्ममावहणं ॥१६९।। अहवा जइ णाणेणवि दीसह णज्जइ य दंसणेणावि । एवं खु णाणदंसणपरूवणा कप्पणामेत्तं ॥ १७० ॥ एवं च सेसदसणणाणाणवि णाम पत्तमेगत्तं । सिद्धाणि |
अ पत्तेयं दंसणणाणाणि समयम्मि ॥१७१॥ कह वा जिणेण भणिों दोण्णि अहं णाणदंसणवाए । सोमिलपुच्छाए जइ दसणणाणाAणमेगतं ॥ १७२ ॥ आह-जैतोच्चिय जीवाणं अणाई ( नण्णाई ) तेण तेसिमेगत्तं । भण्णइ तो सेसाणपि णाणाणं पत्तमेगतं
॥१७३ ॥ ताईपि जीवभावाणण्णाई जे य सेसया भावा । अण्णोऽण्णलिंगभिष्णा खओवसमियादओ पंच ॥१७४॥ सइ जीवाण४ ण्णत्ते णाणत्तं तव मयं अहो तेसिं । ण मयं केवलदसणणाणाणं एवमिच्छा ते ॥१७५।। जह जीवाणनाणं णाणतं सेसभावभेयाणं ।
तह जीवाणऽण्णाणं णाणत्तं केवलाणंपि ॥ १७६ ।। अह भणियं च जिणमए जाणइ पासइ अ केवलण्णाणी । णवि दंसत्ति तम्हा दणाणं चिय दंसणं तस्स ॥ १७७ ॥ भण्णइ जहोहिणाणी जाणइ पासइ य भासियं सुत्ते। ण य णाम ओहिदंसणणाणेगत्तं तह इमंपि ॥ १७८ ॥ जं पासइत्थ भणियं तम्हा तं दंसणेण घेत्तव्वं । जेणें विससियमेअं पण्णवणदसाइसुत्तेसु ॥ १७९ ॥ खीणे पंचविह
Ix॥१५॥ १ तो, २ आह जओ जीवाणं णाइ. ३ दंसणित्ति. ४ जाण,
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श्रीविशेषण वत्यां
॥१६॥
8| म्मिवि णाणावरणम्मि जाणइ जगंति । पासइ य दंसणावरणविप्पणासम्मि सब्वष्णू ॥ १८० ॥ मइणाणा अणत्यंतरभूयस्सवि . चक्खुदंसणस्सेह । जह दंसणोवयारो जुत्तो तह केवलसावि ॥ १८१ ॥ भण्णइ चक्खुदंसणमइणाणत्तम्मि कालभेयकयं । जं जत्थ[81
विशेषः दसणं तत्थ णत्थि कालम्मि नाणं तु ॥ १८२ ॥ जइ वा जुगवं चक्खुद्दसणमइणाणविसयया होज्जा । तो जुगवं छउमत्थेऽवि ,
होज्ज उवओगदुगमेवं ।। १८३ ।। तम्हा अचक्खुदंसणमिह दंसणमिट्ठमोग्गहेहाओ। सव्वत्थ अवाओ धारणा य सुद्धं मइण्णाणं 6॥१८४ ॥ आह किमोग्गहमेतं ण दंसणं होइ सेसयं णाणं । भण्णइ एगसमइओ जमोग्गहो णोवओगो उ ॥१८५।। अंतोमुहुत्तमेत्तं
उवओगो णिअमिओ जओ मुत्ते । तम्हा दंसणकालो सिद्धो फुडमोग्गहेहाओ ॥१८६ ॥ जह सेसणाणदंसणणाणत्तं तह जिणम्मि किमणिहूँ ? । णाणत्तं केवलणाणदंसणाणं सलक्खणओ ॥ १८७ ॥ णाणं वत्तं दसणमव्वत्तं भणइ देसियं समए । तो णाणदंसणाणं जिणम्मि सविसेसणं जुत्तं ॥ १८८ ॥ भण्णइ केवलदसणमन्यत्तं जेण होज्ज को हेऊ ?। जइ णाणांओ अण्णं वत्तं च हवेज्ज को दोसो ! ॥१८९ ॥ जह सब्बं विण्णय नाणेण जिणोऽमलं विजाणाइ । तह दसणेण पासइ णिययावरणक्खए सम्म ॥ १९० ॥ जेसिमणिट्ठ दसणमण्णं णाणाहि जिणवरिंदस्स । तेसिं न पासइ जिणो सविसयणिययं जओ नाणं ॥ १९१ ॥ जह पासइ तह पासउ पासइ सो जेण दंसणं तं से । जाणइ अजेण अरहा तं से णाणं निउत्तव्यं ॥ १९२ ॥ जं केवलाई साई अपज्जवसियाई दोऽवि भणियाई । तो विंति केइ जुगवं जाणइ पासइ य सवण्णू ॥१९३।। इहराईणिहणत्ते मिच्छावरणक्खोतवि जिणस्स।
१ नाणं तमिह. २ णाणाओ अ अण्णं. ३ जाणेइ. ४ ते ५ तिघेत्तब्वं.
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श्रीविशेषण वत्यां
॥ १७ ॥
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इयरेयराव रणया अहवा णिकारणावरणं ॥ १९४ ॥ तह य असव्वष्णुतं असव्वदरिसणत्तणपसंगो य एगंतरोवओगे जिणस्स | दोसा बहुविहीया ॥ १९५ ॥ ठिकालं जह से दंसणणाणाणमणुवओगंवि । दिट्ठमत्राणं तह ण होइ किं केवलाणंपि १ १९६ ।। तुल्लेऽवि णाणदंसणसन्भावे किह णु जुगवउवओगो । छउमत्थस्साणिट्ठो इडोवि 'जिणस्स दुविहोऽवि ? || १९७॥ सव्वक्खीणा वरणो अह मण्णइ केवली ण छउमत्थो । तो जुगवमजुगवपि च उवओगविसेसणं तेसिं ॥। १९८ ।। देसक्खए अजुतं जुगवं कसिणोभओवजोगित्तं । देसोभओवओगो पुण हैय पडिसिज्झए कीस १ । १९९ ।। अह णेवेस उ घेप्पउ जह छउमत्थस्स तह जिणस्सावि । | दोहवि उवओगाणं एगस्स ये एगसमयीम्म || २०० || तो भणइ एव मिच्छा उभयावरणक्खओत्ति केवलिणो। उवउत्तरगयरे जेणेगयरस्स आवरणं ॥ २०१ || भण्णइ भिष्णमुहुत्तोवओगकालेऽवि तो तिणाणस्स । मिच्छा छाबडा सागरोवमाई खओवसमो ॥ २०२ ॥ अह गवि एवं तो सुण जहेव खीणंतराइओ अरहा । संतवि अंतराइयखयम्मि पंचप्पयारम्मि || २०३ || सययं ण देइ लहइ व भुंजइ उवभुंजई य सव्वन्नू । कज्जम्मि देइ लहइ अ झुंज अ तहेव एयमि ॥ २०४ ॥ देतस्स लभतस्स व भुंजंत|स्सवि जिणस्स एस गुणो । खीणंतराइयत्ते जं से विग्धो ण संभवइ || २०५ ।। उवउत्तस्सेमेव य णाणम्मि व दंसणम्मि व जिणस्स । खीणावरणगुणोऽयं जं कसिणं मुणइ पासइ वा ॥ २०६ ॥ तो भणइ केवलाणं पत्तो इयरेयरावरणदोसो । भण्णइ चउणाणिस्सवि स एव दोसो समाविसह । २०७ ।। एवं विणावि णामं कारणमुप्पायविगमया पत्ता । एवं च सह विण्णाणुब्भवो कह णु
१ सेसं. २, ३ मण्ण सि. ४ व. य. ५ पुणाइ प. ६ एययरो, ७ स्स य, ८ विग्धे विग्धं.
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४५
विशेषः
॥ १७॥
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का
श्रीविशेषण | सिद्धाणं? ॥ २०८ ॥ जुगवाणुवओगित्ते वुच्चइ चउणाणिणो विणा हेउं । विगमुप्पायं जह तह जिणस्स जइ होज्ज को दोसो ? वत्यां
विशेष: | ॥२०९॥ अहवा खीणावरणे जिणम्मि णिकारणावरणदोसो। ण उ जुज्जइ छउमत्थ संतावरणेत्ति ते बुद्धी ॥२१०॥ भण्णइ छउमत्थस्सवि
केवल ज्ञान
! णाणेगयरोवओगभाविते । संतेऽवि खओवसमे सेसावरणं न संभवइ ॥ २११ ॥ जेणं जया ण जाणइ गृणमुइण्णं तदा तदावरणं । है। ॥१८॥
दर्शन तदु| अध संतेण ण जाणइ मिच्छावरणकखओवसमे ॥ २१२ ॥ एवं जं कालं उवउज्जइ जम्मि २ णाणम्मि । तं तं कालं जुत्तो तस्सा
पयोग वरणक्खओवसमो ॥ २१३ ॥ ठिइकालविसंवाओ नाणाणं णविअ ते चउण्णाणी । एवं सति छउपत्थो अस्थि ण जइ दंसणी समए । ॥ २१४ ॥ पासन्तो णवि जाणइ जाणं व ण पासई जइ जिणिंदो । एवं ण कयाइवि सो सव्वण्णू सम्बदरिसी य ॥२१५॥ जुगवभजाणतोऽविहु चउहिवि णाणेहिं जह चउण्णाणी । भण्णइ तहेव अरहा सव्यण्णू सव्वदरिसी य ॥ २१६ ॥ तुल्ले उभयावरणकखयम्मि पुच्चयरमुब्भवो कस्स? । दुविहुवओगाभावे जिणस्स जुगवंति चोएइ ॥ २१७ ।। भण्णइ ण एस णियमो जुगवुप्पण्णेसु जुगमेवेह । होयव्वं उबओगेण एत्थ सुणे ताव दिद्रुतं ॥ २१८ ॥ जह जुगवुप्पत्तीइवि मुत्ते सम्मत्तमइसुयाईणं । णस्थि जुगवोवओगो सधेसु तहेब केवलिणो ।। २१९ ।। भणियंपि य पन्नत्तिपण्णवणाईसु जह जिणो समयं । जंजाणइ णवि पासइ तं अणुरयणप्पभाइाण ॥ २२० ॥ इवसहमतुप्पच्चयलोवा तं विंति केइ छउमत्थों । अण्णे पुण परतित्थियवत्तव्यमिणपि जंपंति ॥२२१ ॥ जे छउम
13॥१८॥ स्थाऽऽहोहियपरमावहिणो विसेसिउँ कर्मओ । णिद्दिसइ केवलित्तेण तस्स छउमत्थया नत्थि ॥ २२२ ॥ण य पासइ अणुमण्णो
१. ०प्पाओ. २ पुण. ३ तो.४ ०मत्थे. ५ बोहि. ६ कमसो. ७ मण्णे
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श्रीविशेषण छउमत्थो मोत्तु ओहिसंपुण्णं । तत्थवि जो परमावहिणाणी तत्तोऽवि किं नूणो ? ॥२२३॥ ते दोवि विससेउं अण्णो छउमस्थकेवली |११.४५
को सो । जो पासइ परमाणु गहणमिदं जस्स होज्जाहि ॥ २२४ ॥ तेसि चिय छउमत्थाइयाण मग्गिज्जए जहिं सुत्ते । केवल-1 विशपाः
संजमसंवरबंभाईएहि निव्वाणं ॥ २२५ । तिण्णिवि पडिसेहेउं तीसुवि कालेसु केवली तत्थ । सिभिंसु सिज्झई या सिज्झिस्सइ यावि | भान ॥ १९॥ है णिहिट्ठा ॥ २२६ ॥ एवं विससियम्मिवि परमयमेगन्तरोवओगोत्ति । ण पुण जुगवोवओगे परवत्तव्यत्ति का बुद्धी ? ॥ २२७ ॥
दशेन तदु अण्णं च इमा गाहा समए सिद्धाहिगारपरिपढिया । फुडविअडत्थं साहइ जिणस्स एगंतवओगं ॥२२॥णाणम्मि दंसणंमि य एत्तो
विशेषः ६ एगतरयम्मि उवउत्ता । सव्वस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उबओगा ॥ २२९ ॥ सिद्धाणवि एगयरोवोगवत्तित्तणंति तईए से ।
पुव्वद्धणं सिद्धं अत्थउ पच्छद्धमिह ताव ॥ २३० ॥ परवत्तव्वमिणति य भणिज्ज एवंपि कोइ तं ण भवे । पण्णत्तीऍ विसेसिय| मेयं जम्हा णियंठेसु ।। २३१ ॥ उबओगो एगयरो पणुवीसइमे सए सिणायस्स । भणिो विअडत्थोऽवि य छठ्ठद्देसे विसेसेउ | ॥ २३२ ॥ पण्णवणाचरिमपए भणिओ सिद्धोवि सुद्धनाणीहिं । सागारे उवउत्तो सिज्झइ जह तत्थ गंतूणं ॥२३३ ॥ अह भणसी सव्वं चिय सागारं से अओ अदोसोत्ति । तो सिद्धलक्खणं कह भणियं सागारणागारं ? ॥ २३४ ॥ एवं फुडविअडम्मिवि सुत्ते सवण्णुभासिए सिद्धे । कह तीरइ परतित्थियवत्तव्यमिणंति वोत्तुं जे? ॥२३५।। सव्वत्थ सुत्तमत्थि य फुडमेगयरोवउत्तसत्ताणं । उभओवउत्तसत्ता सुत्ते वुत्ता ण कत्थइवि ॥ २३६ ॥ कस्सइवि णाम कत्थइ कालं जइ होज्ज दोऽवि उवओगा । उभओवउत्तसुत्ताण
१ वरमय.२ एई.३०मेवं.४ समए,
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वत्यां
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श्रीविशेषणा
सुत्तमेगंपि ता होज्जा ॥ २३७ ॥ दुविहाणं चिय जीवाण भणियमप्पबहुयं ससमयम्मि । सागारणगाराण य न भणियमुभओ-12 वउत्ताणं ॥२३८॥ जइ केवलीण जुगवं उवओगो होज्ज तो ( भवे) एवं । सागारणगाराण य मीसाण य तिहमप्पबहुं ॥२३९॥
HAI विशेषः
केवलज्ञान॥२०॥ अहवा मइ छउमत्थे पडुच्च सुत्तं ण णाम केवलिणो । तपि ण जुज्जइ सबसत्तसंखाहिगारोऽयं ॥ २४० ॥ काउं सिद्धग्गहणं AM
बहुवत्तब्बयपएसु सन्चेसु । इह केवलमग्गहणं जइ ते तं कारणं वच्चं ॥२४१॥ अहवा विसेसियं चिय जीवाभिगमम्मि एतमप्पबहुं ।। दुविहत्ति सव्वजीवा सिद्धासिद्धादिया तत्थ ।। २४२ ॥ सिद्धगइंदियकाए जोए वेए कसायलेसा य । णाणुवओगाहारग भासा य ला विशेषः सरीर चरिमे य ॥२४३।। अंतोमुहुत्तमेव य कालो भणिओ तओवओगस्स । साईअपज्जवसिओत्ति णस्थि कत्थइ विणिहिट्ठो ॥२४४॥ जह सिद्धाणऽइयाणं भणियं साईअपज्जवसियत्तं । तह जइ उवओगाणं हवेज्ज तो होज्ज ते जुगवं ।। २४५ ।। कस्स व णाणुमय मिणं जिणस्स जइ होज्ज दोऽवि उवओगा । Yणं न सि होति जुगवं जओ निसिद्धा सुए बहुसो ॥ २४६ ॥णवि अभिणिवेसबुद्धी
अम्हं एगंतरोबओगम्मि । तहवि भणिमो न तीरइ जं जिणमयमण्णहा काउं ॥२४७॥ मोत्तूग हेउवायं आगममेत्तावलंबिणो होउं । | सम्ममणुचिन्तणिज्ज किं जुत्तमजुत्तमेयन्ति ? ॥ २४८ ॥ अहवा ण सव्वसोच्चिय सव्वं जिणमयमहेउयं भणियं । किनु अणुअत्त
माणो अण्णत्तं हेउओ भणइ ? ॥ २४९ ॥ ४५। | जेण किर सुकबीएसु नोवलब्भन्ति जीवलिंगाई । तो के भणति बीआ जोणिन्भूया ण सज्जीवा ।। २५० ॥ भण्णइ जह सव्वन्नू-IR॥२
१ केई गाउंवि ( णाओ)
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श्रीविशेषण है वएसओ जीवलिंगरहियावि । घेप्पड़ मही सजीवा तह बीआ किं न घेप्पंति ? ॥२५१॥ आयारप्पणिहीए तणरुक्खसबीअगा। ४६
वत्यां सजीवत्ति । सबियाइचित्तमंतो छज्जीवनिकाय अक्खाया ॥ २५२ ।। अण्णेसुवि सुत्तेसु काउंपि वणप्फईसु णो बीए। आवस्सकाइ- विशेषः ॥ २१॥
एसुं भणइ सजीवत्ति सिद्धत्थं ॥ २५३ ॥ भणिअं पण्णत्तीए बीअजीवाणमाउमुक्कोस । वासा ति पंच सत्त य सयम्मि फुडमेकवी- बीजसजी| सम्मि ॥ २५४ ॥ण य संवच्छरमच्छति ताव एकंपि जेण नीलाई । सुक्काणेवि सजीवत्तमत्थि तम्हा धुवं सिद्धं ॥ २५५ ॥ आह
Vवत्वचर्चा जहऽग्गाईणं सुकाणमचेअणत्तणं सिद्धं । सइविहु बीयकाए तहेव सुक्काण आिणं ॥ २५६ ॥ सुका बीआ ण दीसह विसेसम्मि
त्तमंकुरुप्पत्ती । ण उ सुक्कग्गाईणं तेण सजीवाई बीयाई ॥ २५७ ॥ जइ वा णिज्जीवाई तो किमगम्माई संजयज* णस्स । मज्जहिरण्णाईण व न अण्णदोसुब्भवकराई ॥२५८ ॥ जोणित्ति परिहरिज्जति अह मई ण य सजीवदोसाओ। सावि
सजिएयरा वा पुणोवि ते चेव दो दोसा ॥२५९ । अहवा तसजोणीणं कुल(फल)गोरसवंजणोदणाईणं । एत्तो परिहारो ते गुरुतरिया | जण तज्जोणी ॥ २६० ॥ अच्चित्तेयरमीसत्तणम्मि जोणी य जीवणियमो य । सच्चित्तेयरमीसत्तणम्मि जोणी उ सच्चित्ता | M॥ २६१ ॥ जोणीमेत्तत्थे वा बीयाणं चेव जुत्तमग्गहणं । दुगुगेकछडाणं च तंदुलाणं किमग्गहणं ? ॥ २६२ ।। कुक्कुसपिट्ठाईणं तह तिगुणुकडतंदुलाणं च । किमणिहताणऽग्गहणं पोरिसिकाले अईयम्मि ? ॥ २६३ ॥ मोत्तुं देहावयवे जह देहावयवमाणमाविसइ । घरकोइलियापुच्छं छिन्नं पत्तेयपत्तं वा ।। २६४ ॥ तह किर सबीअकाओ समोहओ होज्ज देहदेसेऽवि । अच्छेज्ज किंचि कालं तो
२ (णाओ) ३ बीओ ४ मालाई ५ ण बीज.६ एमित्त७ णहु ८ सजीवाण ९ जण्णाइनिविण्णे १० तह तह ११ णिहिणो ते गह,
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INI
विशेषः बीजसजीवत्वचचा
वशषण | पिट्ठाईणमग्गहणं ॥ २६५ ।। पच्छित्तंपि य तुल्लं बहुसो बीअहरिओवरोहम्मि । दिष्णं ण य तं जुज्जइ जइ णिज्जीवाई बीयाई वत्यां
| ॥ २६६ ।। आह अणेगतोऽयं पच्छित्तस मग्गणा सजीवम्मि । जे पलमज्जाईसुवि दीसइ पच्छित्तसाहम्मं ॥ २६७ ॥ भण्णइ मया ॥ २२॥ | य दोसा जह मज्जाईसु तह ण बीएसु । दीसंति केइ दोसा सजीवत्तं पमोत्तूणं ।। २६८ ॥ अहव मई पच्छित्तं अणवत्थावारणत्थ
8 मेयंति । पिट्ठाईणं गहणं ण होज्ज तो सबकालंपि ॥ २६९ ॥ होज्जा व काणिव जइ तव सजीवाईपि सुकवीयाई । तो तप्प| रिहरणत्थं जुज्जेज्ज व सेसपरिहारो ॥ २७० ॥ जम्हा पुण सव्वाई निज्जीवाई च सुकचीयाई । तेणाजुलं वज्जणमणवत्थावारणत्थं
भो! ॥ २७१ ।। अहव मइ सुकबीए गेण्हंतो मा कयाई णीले वि । गेण्हेज्ज तपि तो तप्पसंगविणिवारणमिणति ॥ २७२ ।। एवं 18| तो सुक्काणं मूलाईणंपि जुत्तमग्गहणं । माऽइप्पसंगदोसा सज्जीवाईपि गेण्हेज्जा ॥ २७३ ।। को वाऽभिणिवेसो ते जेणेच्छसि जिण
मयं सतकाए । ण य जुत्तं तकाए सब्वष्णुमयं णिसेहेतुं ॥ २७४ । आह फुडं चिय भणियं णणु पण्णवणापए विसेसेउ । जोणीमत्तं | बीयं ण सजीवमिमाए गाहाए ॥ २७५ ।। जोणिन्भूए बीए जीवो वक्कमइ सो अ अण्णो वा । जोवि य मूले जीवो सोवि अ पत्ते पढमयाए ॥ २७६ ॥ भण्णइ सइ जोणीए सच्चित्ताचित्तमीसभावम्मि । जइ जोणी सज्जीवं व होज्ज बीअत्ति को दोसो ! ॥२७७।। सब्भावे सारिक्खे वसुंधराईसु जीवदेहत्ते । समईयसंभवाइसु भूअसई बुहा बेंति ॥ २७८ ॥ जोणीम्भूयं बीयंति जमुत्तं तत्थ भूय. | सद्दोऽयं । जीवत्ते सारिक्खे सम्भावे वा समाउज्जो ॥ २७९ ॥ जोणिन्भूयं जस्स उ जोणीभूयंति जति जीवते । जोणी चेव सरूवं
१ मत्तेणि सजीवत्तं. २ तं. ३ पिंडाईण
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सा॥२२॥
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विशेषः बीजसजीवत्वचर्चा
श्रीविशेषण त जोणिभूयं तु वा बीअं ॥ २८० ॥ अफुड लिंगताओ जोणीसरिसत्ति वा सजीवपि । ण उ जोमत्तं चिर जोणीभूतं चयइ बीज वत्यां ॥ २८१ ॥ जोणी विज्जइ जस्स उ जोणीभूयति एस सब्भावो । जे भणियं निरुवयं सजीवमियरं व होज्जाहि ॥ २८२ ॥ जीप य
| सो वऽण्णो वा तस्सत्थोऽयं गुरूवएसेणं । सोत्ति स एवान्नोऽविय जीवो जो तत्थ सण्णिहिओ ॥२८३॥ जइ णाम किह व परिणयजीवं ।। २३ ।। दिबीयं हवेज्ज तो अण्णो । निरुवहए उववज्जए पउट्टपरिहारसामत्था ।। २८४ ॥ अहवा पच्चविऊण स एव जीयो पुणोऽवि तंबीयं ।
पज्जविरोहणकाले एवंपि कयाइ होज्जा हि ॥ २८५ ॥ जं पुण णिज्जीवं चिय सुकवियं णिच्चमयमणेगंतो। वासाइ सत्त भणिय जेणाऊ तेसिमुक्कोस ॥ २८६ ॥ मूलं जीवो सो जेग बीअं देहं तय विणिम्मवियं । अण्णण वा जण तयं विरोहकाले परिग्गहिअं ॥ २८७ ॥ सो किर पढमे पत्त वच्चइ अण्ण य सो व सेसाई । णिव्यत्तयंति मूलाइयाई जीवा कमेणेव ॥ २८८ ॥ णिरुवहयंपि हु वकंतजीविअं होज्ज किंचि बीयं तु । तं अइसइणो जुज्जइ णिज्जीवमिणति जाउं जे ॥ २८९ ॥ अणइसईण पुणाइ णिरुवहयाई हवंति बीआई । ठिइकालभतरतो घेतबाई सजीवाई ॥२९० ॥ वक्तजीविया पत्थिवादओ संति ण य असत्थहया । जुत्तमजीवा गाउं जह णिरइसयस्स तह बीअं ॥ २९१ ॥४६॥
हत्थिणापुरि सोमप्पभपुत्तो सेज्जंस जाइसंभरण । वसुधारदाणघोसण हबइ य पुष्फोघवासो अ॥२९२॥ अमयकलसाभिसेओ | रस्सिसमुद्धरणजुद्धसाहिज्ज । मंदररविपुरिसाणं सुविण दिलै तिहि जणेहिं ।। २९३ ॥ पडिलाभिए जिणवरे रायरिसीएत्ति जिण
१ जोणीभूयं हवइ जम्हा २ चइयं ३ सुकवीयं निव्वसयमणे एर्गते-णिच्चमण्णय. ४ देयं ५ पढम पत्तं ६ णेया ७ ० इसएण
-CANCE
x॥२३॥
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ऋषभ
श्रीविशेषण ४ वरसगासे । सेज्जसो च्चिय साहइ अट्ट भवे सामिणा समयं ॥ २९४ ॥ जंबुद्दीवुत्तरकुरुसण (सुर) दंसण मिहुण जाइसंभरणं । तह वत्यां
विशेषः | ईसाणसिरिप्पभविमाणललियंगओ देवो ॥ २९५ ॥ देवी सयप्पभाऽहं सुरज्जइ परिहाणि पुच्छणा कहणं । जंबुद्दीवे अहयं अवर॥२४॥ विदेहे अहेसीय ॥ २९६ ॥ विजयम्मि गंधिलावइवेयड्डे दाहिणिल्लसेढीए । गंधारजणवयम्मी गंधसमिद्धे पुरवरम्मि ॥ २९७ ॥
श्रेयांस अइबलपुत्ता सयवलपुत्तो राया महाबलो णाम । संभिन्नसोयमंती सड्डोऽमच्चो ये संबुद्धो ॥ २९८ ॥ नट्टम्मि सयंबुद्धावबोहणं
भवाः गीयविलइयाईहिं । रसभंग कोव संभिन्नसोय वाए जिओ सो य ।। २९९ ॥ टिट्टिभि-रयणागर-काक-जंबु-इंगालदाहगाईहिं । अइबलसुरदसणभद्दसालसंबोहसारणया ॥३०० ॥ हरियंददेवकुरुमई कुरुचंदामच्चदेवसंबोहो । नंदण अमिअजसामिअतेयकहणमाससेसाऊ ॥ ३०१ ॥ संवरण मरण देवो इहति नंदीसरागमो चयणं । देवस्सई तुह मज्झवि जंबुद्दीवे विदेहम्मि ॥ ३०२ ॥ विज | यम्मि पुक्खलावई नामे णयरीइ पुंडरगिणीए । णिववइरसेण गुणवइ धूयाऽहं सिरिमई जाया ॥ ३०३ ॥ जइकेवलदेवालोय जाइ
संभरणमाणवे इच्छा । धाई पुच्छणकहणं धायइसंडम्मि पुब्बद्धे ॥ ३०४ ॥णंदिअगामे णिण्णामियत्तहँ मंगलावईविजए । अंबर| तिलग युगंधर संवरण सुरवरागमणं ॥ ३०५ ॥ सणिआण मरण देवी सविमाण जुगंधराहिगमणं च। चयणमिहं चित्तपडा धाई हैणयण णिवत्ता य ॥ ३०६ ॥ निवसमुदय णयणागम कहणं ध वयरजंघसंभरणं । णिवकहण जंबुदीवे सलिलावइवीयसोगाए Iल॥२४॥ ॥ ३०७ ॥ जियसत्तुमणोहरिकेकईण अयलो विभीसणोऽवि सुया । णिवमरणदेविदिक्खा संगारा लंतगसुरोऽहं ॥ ३०८ ॥ निग्गम
१.सणमि मिहुणेण २ सुत्थणं ३ भत्ता ४ व ५ आइच्चजसामि०६. इओ ७ ०त्ति अह
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श्रीऋषिवर्धनसूरिकृता यमकमयी नेमिस्तुतिः
समुल्लसद्भक्तिसुराः सुरासुराधिराजपूज्यं जगदंगदं गदम् । हरंतमीहारहितं हि तं हितं, नेमि स्तुवे रैवतके तकेतके ॥१॥ विभार्ति यस्य स्तवनेऽवनेऽवनेरीशे रसं यद्रसना स ना सना । सिद्धर्भवन्नन्ववरोऽवरो वरः, ने० ॥२॥ यशःपटस्य प्रभवे भवे भवेऽभवन् स्वभावग्रगुणा गुणा गुणाः । यस्यातिहर्ष सुजनं जनं जनं, ने० ॥३॥ जिगाय खेलिं तरसा रसा रसातिरेक जाग्रन्मदनन्दनन्दनम् । यो बाहुदंडं विनयं नयनयं ने०॥४॥ येनांगराजी भयतो यतो यतोऽवगत्य तत्त्वं दुरितारि तारिता । स कस्य नेष्टः सदयो दयोदयो ने० ॥५॥ सुरा अपि प्रोन्नतया तया तया, रूपस्य यस्या मुमुहुर्मुहुर्मुहुः । यस्योग्रजाताऽप्यजनीजनी जनी, ने० ॥६॥ भवेत्र नाऽऽभा नवमेऽवमेव मे, जहासि तत् किंवदऽमाद मादमा । यं स्मेति भोज्या सहसाहसाह सा ने० ॥७॥ वनेत्र दीक्षा जगृहे गृहे गृहे, स्थित्वाऽथ दत्त्वा कनकं न कं? न कम् ? । संतोष्य येनाममताऽमताऽमता, ने०॥८॥ धर्मस्य तत्त्वे भवतोऽवतो बतोद्यमो विधेयो जगदेऽगदे गदे । येनांगिनां संयमिनामिनामिना, ने० ॥९॥ शरीरशोभा तिघना घना घना प्रतापदीप्तिस्तरुणारुणारुणा । वाणी च यस्योल्लसिता सिता सिता ने० ॥१०॥ तर्कव्याकरणागमादिचतुर स्फूर्जत्सुधासारवाक्पूज्यश्रीयशकीर्तिगुरुणा ध्यानकतानात्मना । सूरिश्रीऋषिवर्धनेन रचिता त्रैलोक्यचिन्तामणेः, श्रीनेमेर्यमकोज्ज्वला स्तुतिरियं देयात् सतां मंगलम् ॥ ११ ॥
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विषेशण
णभीसण मरणमयल संबोहणं व दिक्खा य। मरणसिरिप्पहललिअंगयत्तणं लंतगाणयण ॥३०९॥ सत्तरसण्हयमयणं अट्ठारसमो विणी- ४७ वत्ती यपुव्वोत्ति । दाणं पाणिग्गहणं पूइअलोहेग्गले णयणं ॥३१०॥ णिवलोगंतिअबोहणपुक्खलसालाभिसेअसुयजम्मं । णरवइविरोह पेसण 21
का विशेषे
ऋषभ ॥ २५॥ सरवण परिहरण णिव पडणं ॥ ३११ ।। सकार गमण सरवण सागरसेणमुणिसणदाणं च । वेरग्गपुत्त वासघरजोग मरणं इहं जम्म
श्रेयांस ॥ ३१२ । सोहम्मगमण चयणं वत्थवइ पहंकराए दुण्हपि । भिससेविसुअभयघोसकेसवाणं इमे मित्ता ॥ ३१३ ॥ णिवसेद्विसत्थ-ल
भवाः वाहामच्चसुआ रोगमोअणा जइणो । सामण्णमच्चुअसुरा चयणं पुव्वे विदेहमि ॥ ३१४ ॥ विजयम्मि पुक्खलावइ नामे नगरीए ४ पुंडरगिणीए । जिणवइरसेणधारीणपुत्ता तो वइरणाभाई ॥३१५ ॥ अहयं च सारहिसुओ दिक्खा सन्वट्ठगमणमिह जम्मं ।।४ | एयाई अट्ठ जम्माई आसि अहं सामिणा समयं ॥ ३१६ ॥ तिण्हवि सुमिणाण फलं एवं भणियं गुणित्तिय गुरुस्स । रयणमयमाइपेढं कालेणाइच्चपेढंति ॥ ३१७ ।। ग्रन्थानम् ३८० ॥
॥ इति विशेषणवती सम्पूर्णा। कृतिराचार्यशिरोमणेर्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्य ॥
SCHECRORESTIONS
१ ण्हं संघनय २ पूअण, हग्गलं णयणा ३ बोहणफल. ४. मुत्तवासे,
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श्रीविंशतिकाप्रकरणे
श्रीमद्धरिभद्रसूरिवर्यनिर्मिता विंशतिः विंशिकाः
अधिकार विशिका
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नमिऊण वीयरायं सव्वन्नु तियसनाहकयपूयं । जहनायवत्थुवाइं सिद्धं सिद्धालयं वीरं ॥१॥ वुच्छं केइ पयत्थे लोगिगलोगुत्तरे समासेण । लोगागमाणुसारा मंदमइविवोहणट्ठाए ॥२॥ सुंदरमिइ अन्नेहिवि भणियं चक यं च किंचि वत्थुति । अन्नेहिवि भणियव्वं कायव्वं चेति मग्गोऽयं ॥३॥ इहरा उ कुसलभणिईण चिट्ठियाणं च इत्थ वुच्छेओ । एवं खलु धम्मोवि हु सन्वेण कओ ण कायव्यो ॥४अन्ने आसायणाओ महाणुभावाण पुरिससीहाण । तम्हा सत्तऽणुरूवं पुरिसेण हिए पयइयव्वं ॥५॥ तेसिं | बहुमाणाओ ससत्तिओ कुसलसेवणाओ य । जुत्तमिणं आसेवियगुरुकुलपरिदिट्ठसमयाणं ॥६॥ जत्तो उद्धारो खलु अहिगाराणं | सुयाओ ण उ तस्स । इय बुच्छेओ तद्देसदसणा कोउगपवित्ती ॥ ७॥ इको उण इह दोसो जं जायइ खलजणस्स पीडत्ति । तहवि: | पयट्टो इत्थं दटुं सुयणाण मइतोसं ॥ ८॥ तत्तोविय जं कुसलं तत्तो तेसिपि होहिइ ण पीडा । सुद्धासया पबत्ती सत्थे निहोसिया
भणिया ॥९॥ इहरा छउमत्थेणं पढमं न कयाइ कुसलमग्गम्मि । इत्थं पट्टियव्वं सम्मति कयं पसंगेण ॥ १०॥ अहिगारसूयणा खलु १ लोगाणादित्तमेव बोद्धव्यं २। कुलनीइलोगधम्मा २ सुद्धोऽवि य चरमपरियट्टो ४ ॥११॥ तब्बीजाइकमोऽविय ५ तं पुण सम्मत्तमेव विन्नओ ६। दाणविही य तओ खलु ७ परमो पूयाविही चेव ८ ॥ १२ ॥ सावगधम्मो य तओ ९ तप्पडिमाओ य
॥१॥
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IPI
२
श्रीविशाता हुंति बोद्धव्वा १० जइधम्मो इत्तो पुण ११ दुविहा सिक्खा य एयस्स १२ ॥ १३ ॥ भिक्खाइविही सुद्धो १३ तयंतराया असुद्धि-४२लोकानालिंगता १४। आलोयणाविहाणं १५ पच्छित्ता सुद्धिभावो य १६॥ १४ ॥ तत्तो जोगविहाणं १७ केवलनाणं च सुपरिसुद्धति १८ला
दित्व सिद्धविभत्तीय तहा १९ तेसिं परमं सुहं चेव २० ॥१५॥एए इहाहिगारा वीसं वीसाहिं चेव गाहाहिं । फुडवियडपायडत्था नेया
विशिका ॥ २ ॥
पत्तेय पत्तेयं ॥ १६॥ एए सोऊण बुहो परिभावतो उ तंतजुत्तीए । पाएण सुद्धबुद्धी जायइ सुत्तस्स जोगुत्ती ॥ १७ ॥ मज्झ-14 लत्थयाइ नियमा सुबुद्धिजोएण अत्थियाए य । नज्जइ तत्तविसेसोन अन्नहा इत्थ जइयव्वं ॥ १८॥ गुणगुरुसेवा सम्मं विणओx
तेसिं तदत्थकरणं च । साहूणमणाहाण य सत्तणुरूवं निओगेणं ॥ १९ ।। भव्वस्स चरमपरियट्टवत्तिणो पायणं [णिणो] परं एयं । एसोवि य लक्खिज्जइ भवविरहफलो इमेणं तु ॥ २० ॥ इति प्रथमाधिकारविंशिका समाप्ता १॥
पंचत्थिकायमइओ अणाइमं वट्टए इमो लोगो । न परमपुरिसाइकओ पमाणमित्थं च वयणं तु ॥१॥ धम्माधम्मागासा ॐ गइठिइअवगाहलक्खणा एए । जीवा उवओगजुया मुत्ता पुण पुग्गला णेया ॥२॥ एए अणाइनिहणा तहा तहा नियसहावओ नवरं । & वटुंति कज्जकारणभावेण भवे ण परसरूवे ॥ ३ ॥ नविय अभावो जायइ तस्संत्तीए य नियम विरहाओ । एवमणाई एए तहा | तहा परिणइसहावा ॥ ४ ॥ इत्तो उ आइमत्तं तहासहावत्तकप्पणाएवि । एसिमजुत्तं पुम्बि अभावओ भावियव्वमिणं ॥ ५ ॥
नो परमपुरिसपहवा पओयणाभावओ १ दलाभावा २। तत्तस्सहावयाए तस्सव तेसिं अणाइत्तं ॥६॥ न सदेवयऽस्स भावों IM को इह हेऊ ? तहासहावत्तं । हंताभावगयमिणं को दोसो ? तस्सहावत्तं ॥ ७॥ सो भावभावकारणसहावभयवं हविज्ज नेयंपि ।
सव्वाहिलसियसिद्धीओ अन्नहा भत्तिमंतं तु ॥८॥ धम्माधम्मनिमित्तं नवरमिहं हंत होइ एसोवि । इहरा उ थयकोसाइ सव्य
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३
॥
ल एवति । चत्तं चेव एयरस ॥१३॥जन अनहा सुद्धया सम्मंगाएसो धम्माइरा
जिं वासणामागच्चमा नमकया नया
LR
श्रीविगत मेयम्मि विहलं तु ॥९॥न य तस्सवि गुणदोसा अप्णासयनिमित्तभावओ हति । तम्भयचेयणकप्पो तहासहावो ख सो भयवं३ कुलनीति काप्रकरणे ॥१०॥ रयणाई सुहरहिया सुहाइहेऊ जहेव जीवाणं । तह धम्माइनिमित्तं एसो धम्माइरहिओऽवि ॥ ११ ॥ एसो अणाइमं चिय |
विशिका सुद्धो य तओ अणाइसुद्धत्ति । जुत्तो य पवाहेणं न अन्नहा सुद्धया सम्मं ॥१२॥ बंधोऽविहु एवंचिय अणाइमं होइ हेत कयगोवि । इहरा उ अकयगत्तं निच्चत्तं चेव एयस्स ॥१३।। जह भव्वत्तमकयगं नय निच्च एव किं न बंधोवि? । किरियाफलजोगो जे एसो तान खलु एवंति ॥ १४ ॥ भव्वत्तं पुणमकयगंमाणिच्चमो चेव तहसहावाओ । जह कयगोविहु मुक्खो निच्चोऽविय भाववइचित्रं | ॥ १५ ॥ एवं चव य दिक्खा भवबीजं वासणा अविज्जा य । सहजमलसद्दवच्चं वन्निज्जइ मुक्खवाईहिं ॥ १६ ॥ एवं पुण तह कम्मेयराणुसम्बन्धजोगयारूवं । एतदभावे णायं सिद्धाणाभावणागमं ॥ १७ ॥ इय असदेवाणाइयमंग्गे तम आसि एवमाईवि । भेयगविरहे वइचित्तजोगओ होइ पडिसिद्धं ॥१८॥ भेयगविरहे तस्सेव तस्सभावत्तकप्पणमजुत्तं । जम्हा सावहिगामिणं नीई
अवही य णाभावो ।। १९ ।। इय तन्तजुत्तिसिद्धो अणाइमं एस हंदि लोगुत्ति.। इहरा इमस्सऽभावो पावइ परिचिंतियव्वमिणं M॥ २०॥ इति अनादिविंशतिका द्वितीया २॥
इत्थ कुलनीइधम्मा पाएण विसिट्ठलोगमहिकिच्च । आवेणिगाइरूवा विचित्तसत्थोइया चेव ॥१॥ जे वेणिसंपयाया चित्ता। सत्थेसु अपडिबद्धत्ति । ते तम्मज्जायाए सब्वे आवेणिया नेया ॥२॥ जह संझाए दीवयदाणं सत्थं रविम्मि विद्धत्थे । सुद्धग्गिणो अदाणं च तस्स अभिसत्थपडियाणं ॥३॥ नक्खत्तमंडलस्स य पूजा नक्खत्तदेवयाणं च । गोसे सविसरणाइ य धन्नाणामा।। ३ ।। वंदणा चेव ।। ४ ॥ गिहदेवयाइसरणं वामंगुट्ठयनिवीडणा चेव । असिलिट्ठदंसणम्मी तहा सिलिटे य सिरिहत्थो ॥५॥ बालाणं |
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श्रीविंशति- काप्रकरणे
पुननिरूवणाइ चित्तप्पहणगाईहिं । सत्यंतरेहि कालाइभेयओ वयविभागेणं ॥ ६॥ तप्परिभोगेण तहाघाणे परदाणजातजुत्तण ।।४चरमावचित्तविणिओगविसया डिंभपरिच्छा य चित्तत्ति ॥ ७॥ वीवाहकोउगेहिं रइसंगसमत्तमद्दणाईहिं । धूवाणं पुननिरूवणं च विविहप्प- विशिका | ओगेहिं ॥ ८ ॥ भोगे भावट्ठवणं भावणाराहणं च दइयस्स । मलपुरिसुज्झ अणुद्धरिमंतेणं सीलरक्खा य ॥९॥ हायपरिमाजलमुत्तपीलणं वसणदंसणच्चाओ । वेलासुअथवाई थीणं आवेणिगो धम्मो ॥१०॥ सत्थभणिया य अन्ने वन्नासमधम्मभेयओ नेया । बन्ना उ बंभणाई तहासमा बंभचेराई ॥११॥ एए ससत्थसिद्धा धम्मा जयणाइभेयओ चित्ता । अन्भुदयफला सव्वे विवागविरसा य भावेणं ॥ १२ ॥ पयईसावज्जाविहु तहावि अब्भुदयसाहणं नेया। जह धम्मसालिगाणं 'हिंसाइ तहऽत्थहेउत्ति ॥ १३ ॥ मोहपहाणे एए वेरग्गपि य इमेसि पाएण। तग्गन्भंचिय नेय मिच्छाभिनिवेसभावाओ ॥ १४ ॥ अनेसि तत्तचिंता देसाणाभोगओ य अन्नेसि । दीसंति य जइणोऽवित्थ केइ समुच्छिमप्पाया ॥ १५ ॥ अन्ने उ लोगधम्मा पहुया देसाइभेयओ हुँति । वारिज्जसोयमयगविसया आयारभेएण ॥१६॥ कुलधम्माउ अपेया सुरा हि केसिंचि पाणगाणंपि। इत्थियणमुज्झियव्वा तेणाणज्जविह इमा मेरा ॥ १७॥ गणगुट्ठिधडापेडगजल्लाईणं च जे इहायारा । पाणापडिसेहाई ते तह धम्मा मुणेयब्बा ॥१८॥ सब्वेवि वेयधम्मा निस्सयससाहगा न नियमेण । आसयभेएणऽन्ने परंपराए तयत्थंति ॥ १९ ॥ विसयसरूवष्णुबंधेण होइ सुद्धो तिहा इह धम्मो । जं ता मुक्खसयाओ सम्बो किल सुंदरो नेओ ॥ २०॥ इति कुलनातिधर्मनाम्नी विंशिका तृतीया ३॥
॥४ ॥ निच्छयओ पुण एसो जायइ नियमेण चरमपरियट्टे । तहभव्वत्तमलक्खयभावा अच्चंतसुद्धत्ति ॥ १॥ मुक्खासओवि नन्नत्थ । | होइ गुरुभावमलपहावेण । जह गुरुबाहिविगारे न जाउ पत्थासओ सम्मं ॥२॥ परियट्टा उ अणंता हुंति अणाइम्मि इत्थ संसारे।
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श्रीविंशतिकाप्रकरणे
त्तविशिका
GRANSACRORCAM
तप्पुग्गलाणमेव य तहा २ हुँति गहणाओ ॥ ३ ॥ तह तग्गझसहाचा जइ पुग्गलमो हवंति नियमेण | तह तग्गहणसहावो आया | य तओ उ परियट्टा ॥४॥ एवं चरमोऽधेसो नीईए जुज्जई इहरहा उ । तत्तस्सहावखयवज्जिओ इमो किं न सव्वोवि? ॥५॥ तत्तग्गहणसहावो आयगओ इत्थ सत्थगारेहिं । सहजो मलुति भण्णइ भव्यत्तं तक्खओ एसो ॥६॥ एयस्स परिक्खयओ तहा २ हंत किंचि सेसम्मि । जायइ चरिमो एसुत्ति तंतजुत्तिप्पमाणमिह ॥ ७॥ एयम्मि सहजमलभावविगमओ सुद्धधम्मसंपत्तं । हेतेयरातिभावे जैन मुणइ अनहिं जीवो ।।८॥ भमणकिरियाहियाए सत्तीऍ समण्णिओ जहा बालो। पासइ थिरेऽवि उ चले भावे जा धरइ सा सत्ती ॥९॥ तह संसारपरिन्भमणसत्तिजुत्तोऽवि नियमओ चेव । हेएवि उवाएए ता पासइ जाव सा सती ॥ १० ॥ |जह तस्सत्तीविगमे पासइ पढमो थिरे थिरे चेव । बीओषि उपाएए तह तधिगमे उवाएए ॥ ११ ॥ तस्सत्तीविंगमो पुण जायइ कालेण चेव नियएण। तहभब्यत्ताइ तदनहेउकलिएण व कहिंचि।।१२।। इय पाहन्न नेयं इत्थं कालस्स तओ २(तत्तओ) चेव । तस्सत्तिविगमहेऊ सावि जओ तस्सहावत्ति ॥ १३ ॥ कालो सहाव नियई पुवकयं पुरिसकारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ समासोला सम्मत्तं ॥ १४ ॥ नायमिह मुग्गपत्ती समयपसिद्धावि भावियव्यंत्ति । सर्वसुवि सिद्धत्तं इयरेयरभावसाविक्खं
हा भव्वत्तक्खित्तो जह कालो तह इमंति तेणंति । इय अन्नुनाविक्खं रूवं सब्बेसि हेऊण ॥ १६ ।। न य सब्वहेउतु भलतमाहदि सब्वजीवाणं । जं तेणेवक्खित्ता तो तुल्ला दसणाईया ॥ १७ ॥ न इमो इमेसि हेऊ न य णातुल्ला इमेग एयंपि । एसि ही दिन ता तहभावं इमं नेयं ॥१८॥ अचरिमपारपट्टेसु कालो भवबालकालमो भणिओ। चरिमो उधम्मजुव्वणकालो तह चित्तंभेउत।१९॥ एयम्मि धम्मरागो जायइ भब्धस्स तस्सभावाओ । इत्सो य कीरमाणो होइ इमो हंत सुद्धत्ति ॥२०॥ इति चरिमपरियद्दविंशिका।।
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श्रीविंशति- बीजाइकमेण पुणो जायइ एसुत्थ भव्वसत्ताण । नियमा ण अनहावि उ इट्ठफलो कप्परुक्खुव्व ॥ १ ॥ वीजविमस्स 31
बीजकाप्रकरणलणेयं दट्टणं एयकारिणो जीवे । बहुमाणसंगयाए सुद्धपसंसाइ करणिच्छा ॥ २ ॥ तीए चेवऽणुबन्धो अकलंको अंकुरो इहं
विंशिका ५ | नेओ । कट्ठ पुण विनेया तदुवायनेसणा चित्ता ॥३॥ तेसु पवित्ती य तहा चित्ता पत्ताइसरिसिगा होइ । तस्संपत्तीइ पुप्फ गुरुसं| जोगाइरू तु ॥४॥ तत्तो सुदेसणाईहिं होइ जा भावधम्मसंपत्ती । तंफलमिह विनेयं परमफलपसाहगं नियमा ॥५" बीजस्सवि
संपत्ती जायइ चरिमंमि चेव परियट्टे । अच्चंतसुंदरा जं एसावि तओन सेसेसु ॥६॥ न य एयम्मि अणंतो जुज्जइ नेयस्स नाम 2 कालुत्ति । ओसप्पिणी अणंता हुँति जओ एगपरियट्टे ॥७॥ वीजाइया य एए तहा तहा संतरेयरा नेया। तहमव्वत्तक्खित्ता एगंत
सहावऽवाहाए ॥ ८॥ तहमव्वतंज कालनियइपुवकयपुरिसकिरियाओ । अक्खिवइ तहसहावं ता तदधीणं तयंपि भवे ॥९॥ है एवं जेणेव जहा होयव्वं तं तहेव होइत्ति । नय दिब्बपुरिसगारावि हंदि एवं विरुझंति ॥ १० ॥ जो दिव्वेणक्खित्तो तहा तहा हंत है
पुरिसगारुत्ति । तत्तो फलमुभयजमवि भण्णइ खलु पुरिसगाराओ॥११॥ एएण मीसपरिणामिए उजं तम्मि तं च दुगजण्णं । 6 दिव्वाउ नवरि भण्णइ निच्छयओ उभयजं सव्वं ॥ १२ ॥ इहराऽणक्खित्तो सो होइत्ति अहेउओ निओएण । इत्तो तदपरिणामो
किंचि तम्मत्तजं न तया ॥ १३ ॥ पुवकयं कम्म चिय चित्तविवागमिह भन्नई दिव्यो । कालाइएहिं तप्पायणं तु तह पुरिसगारुत्ति | ॥ १४॥ इय समयनीइजोगा इयरेयरसंगया उ जुज्जति । इह दिवपुरिसगारा पहाणगुणभावओ दोऽवि ॥ १५ । ता बीज&ा पुवकालो नेओ भवबालकाल एवेह । इयरो उ धम्मजुब्वणकालोऽविह लिंगगम्मुत्ति ॥ १६ ॥ पढमे इह पाहन्नं कालस्सियरम्मि
चित्तजोगाणं । वाहिस्सुदयचिकिच्छासमयसमं होइ नायव्वं ॥ १७ ॥ बालस्स धूलिगेहातिरमणकिरिया जहा परा भाइ । भववा-|
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श्रीविंशतिकाप्रकरणे
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लस्सवि तस्सत्तिजोगओ तह असकिरिया ॥ १८॥ जुब्बणजुत्तस्स उ भोगरागओ सान किंची जह चेव । एमेव धम्मरागा सकिरिया धम्मजूणोवि ॥ १९ ॥ इय बीजाइकमेणं जायइ जीवाण सुद्धधम्मुत्ति । जह चंदणस्स गंधो तह एसा तत्तओ चव ॥२०॥
सद्धर्म| इति बीजादिविंशिका पंचमी॥५॥
विंशिका ६ ___एसो पुण सम्मत्तं सुहायपरिणामरूवमेव च । अप्पुब्बकरणसमं चरमुक्कोसढिईखवणे ॥१॥ कम्माणि अद्व नाणावरणिज्जाईणि हुति जीवस्स । तेसिं च ठिई भणिया उक्कोसणेह समयम्मि ॥२॥ आइल्लाणं तिहं चरिमस्स य तीसकोडकोडीओ। होइ ठिई उकोसा अयराण सतिकडा चेव । ३॥ सयरिं तु चउत्थस्सा वीसं तह छट्ठसत्तमाणं च । तित्तीस सागराई पंचमगस्सावि विन्नया की ॥ ४ ॥ अढण्हं पयडीणं उक्कोसठिईए वट्टमाणो उ । जीवो न लहइ एयं जेण किलिट्ठःसओ भावो ।।५।। सत्तण्हं पयडोण अम्भितरओ उ कोडकोडीए । पाउणइ नवरमेयं अपुब्बकरणेण कोई तु ॥ ६॥ करणं अहापवत्तं अपुवमाणियट्टिमेव भव्वाणं । इयरेसिं पढमं । चिय भण्णइ करणंति परिणामो ॥ ७॥ जा गठिं ता पढमं गठिं समइच्छओ भवे वीयं । अणियट्टी करणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥८॥ इत्थ य परिणामो खलु जीवस्स सुहो य होइ विबेओ । किं मलकलंकमुकं कणगं भुवि झामलं होइ ? ॥ ९॥ षयईय व कम्माण वियाणिउं वा विवागमसुहति । अवरद्धेवि न कुप्पइ उवसमओ सब्बकालंपि ॥ १० ॥ नरविवुहेसरमुक्खं दुक्खं चिय भावओ उ मन्नतो । संवेगओ न मुक्खं मुत्तूणं किंपि पत्थेई ॥११॥ दद्रूण पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसे
॥ ७ ॥ सओऽणुकंपं दुहावि सामथओ कुणइ ॥ १२ ॥ नारयतिरियनरामरभवेसु निव्वेयओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविस
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श्रीविंशति- वेगरहिओवि ॥ १३ ॥ मन्नइ तमेव सच्चं नीसके जं जिणेहिं पण्णत्तं । सुहपरिणामो सच्चं कंखाइविसुत्तियारहिओ ॥ १४ ॥ एवं-18 दानकाप्रकरणे विहो य एसो तहा खओवसमभावओ होइ । नियमेण खीणवाही नरुब्व तव्वेयणारहिओ॥ १५॥ पढमाणुदयाभावो एयस्स जओ |
* विशिका ७ ॥८॥
भवे कसायाणं । ता कहमेसो एवं ? भन्नइ तब्बिसयविक्खाए ॥ १६ ॥ निच्छयसम्मत्तं वाहिकिच्च सुत्तभणिय निउणरूवं तु । एवंविहो निओगो होइ इमो हंत वच्चुत्ति ॥ १७ ॥ पच्छाणुपुब्बिओ पुण गुणाणमेएसि होइ लाहकमो । पाहनओ उ एवं विनेओ सिं उवनासो ॥ १८ ॥ एसो उ भावधम्मो धारेइ भवनवे विवडमाणं । जम्हा जीवं नियमा अन्नो उ भवं(तयं)गभावणं ॥ १९॥ | दाणाइया उ एयंमि चेव सुद्धा उ हुँति किरियाओ । एयाओविहु जम्हा मुक्खफलाओ पराओ य ॥२०॥ इति सद्धम्मबिंशिका षष्ठी।
दाणं च होइ तिविहं नाणाभयधम्मुवग्गहकरं च । इत्थ पढमं पसत्थं विहिणा जुग्गाण धम्मम्मि ॥१॥ सेवियगुरुकुलवासो | विसुद्धवयणोऽणुममिओ गुरुणा । सव्वत्थ णिच्छियमई दाया नाणस्स विबेओ ॥२॥ सुस्सूसासंजुत्तो विन्नेओ गाहगोवि एयस्स | न सिराउभावे खणणाउ चेव कूवे जलं होइ ॥ ३॥ ओहेणवि उवएसो आयरिएणं विभागसो देओ। सामाइधम्मजणा महुरगिराए विणीयस्स ॥४॥ अविणीयमाणवतो किलिस्सई भासई मुसं चेव । नाउं घंटालोहं को किर (कड) करणे पवत्तिज्जा ॥५॥ | विनेयमभयदाणं परमं मणवयणकायजोगेहिं । जीवाणमभयकरणं सब्बेसि सब्बहा सम्म ॥ ६ ॥ उत्तममेयं जम्हा तम्हा णाणुत्तमो & तरइ दाउं । अणुपालिउं च दिनपि हंति समभावदारिदे ॥ ७ ॥ जिणवयणनाणजोगेण तक्कुलठिईसमासिएणं च । विनेयमुत्तमत्तं
॥८ ॥ न अनहा इत्थ अहिगारे ॥८॥ दाऊणेयं जो पुण आरंभाइसु पवत्तए मूढो । भावदरिदो नियमा दूरे सो दाणधम्माणं ॥९॥
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एयरस ॥१०॥ इस देश
एयस्स दाणंति ॥
भवे दाया ॥१२
श्रीविशात इहपरलोगेसु भयं जेण न संजायए कयाइयवि । जीवाणं तकारी जो सो दाया उ एयस्स ॥ १०॥ इय देसओवि दाया इमस्स है।
पूजाकाप्रकरणे
IPI एयारिसो तर्हि विसए । इहरा दिन्नुद्दालणपायं एयस्स दाणंति ॥ ११ ॥ नाणदयाण खतीविरईकिरियाइ तं तओ देह । अनोविशिका ८ ॥९॥
| दरिद्दपडिसेहवयणतुल्लो भवे दाया ॥ १२ ॥ एवमिहेयं पवरं सब्वेसिं चेव होइ दाणाणं । इत्तो उ निओगेणं एयस्सवि इसरो दाया
॥ १३ ॥ इय धम्मुवग्गहकरं दाणं असणाइगोयरं तं च । पत्थमिव अन्नकाले अरोगिणो उत्तम नेयं ॥ १४ ॥ सद्धासकारजुयं | कासकमेण तहोचियम्मि कालाम्म । अन्नाणुवघाएणं वयणा एवं सुपरिसुद्धं ॥ १५॥ गुरुणाऽणुनायभरो नाओवज्जियधणो य
एयस्स । दाया अदुत्थपरियणवग्गो सम्म दयालू य ॥१६॥ अणुकंपादाणंपि य अणुकंपागोयरेसु सचेसु । जायइ धम्मोवग्गहहेऊ करुणापहाणस्स ॥१७॥ ता एयपि पसत्थं तित्थयरेणावि भयवया गिहिणा । सयमाइन्नं दियदेवदूसदाणेणऽगिहिणापि ॥१८॥ धम्मस्साइपयमिणं जम्हा सील इमस्स पज्जते । तस्विरयस्सावि जओ नियमा सनिवेयणा गुरुणो ॥ १९ ॥ तम्हा सत्तऽणुरूवं 8 अणुकंपासंगएण भव्वेणं । अणुचिट्ठियब्वमेयं इत्तोच्चिय सेसगुणसिद्धी ॥ २० ॥ इति दानविंशिका सप्तमी।
पूया देवस्स दुहा विनया दव्वभावभेएणं । इयरेयरजुत्ताविहु तत्तेण पहाणगुणभावा ॥११॥ पढम गिहिणो सावि य तहा तहा| | भावभेयओ तिविहा । कायवयमणविसुद्धी सम्भूओगरणपरिभेया ॥२॥ सव्वगुणाहिगविसया नियमुत्तमवत्थुदाणपरिओसा । कायकिरियापहाणा समंतभद्दा पढमपूया ॥३॥ बीया उ सव्वमंगलनामा वायकिरियापहाणेसा । पुव्वुत्तविसयवत्थुसु ओचित्ताणयणभेएण ॥४॥ तइया परतत्तगया सबुत्तमवत्थुमाणसनिओगा। सुद्धमणजोगसारा विन्नेया सव्वसिद्धिफला ॥५॥ पढमा
॥९ ॥ बंधकजोगा सम्मदिद्विस्स होइ पढमत्ति । इयरेयरजोगेणं उत्तरगुणधारिणो नेया ॥ ६॥ तइया तइयाबंधकजोगेणं परमसावगस्सेवं।
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२.
श्रीविंशति- जोगा य समाहीहिं साहुजुगकिरियफलकरणा ॥७॥ पढमकरणभेएणं गंथासन्नस्स धम्ममित्तफला । सा हुज्जुगाइभावो जायइ ४ श्रावक धर्म काप्रकरणे
तह नाणुबंधुत्ति ॥८॥ भवठिइभंगो एसो तह य महापहविसोहणो परमो । नियविरियसमुल्लासो जायइ संपत्तबीयस्स ॥९॥&ाशकार ॥१०॥
संलग्गमाणसमओ धम्मट्ठाणपि विति समयण्णू । अवगारिणोऽवि इत्थट्ठसाहणाओ य सम्मति ॥ १०॥ पंचट्ठसवभावयारजुत्ता य होइ एसत्ति । जिणचउवीसाजोगोवयारसंपत्तिरूवा य ॥ ११ ॥ सुद्धं चेव निमित्तं दव्वं भावेण सोहियवंति । इय | एगंतविसुद्धो जायइ एसा तहिदुफला ॥ १२ ॥ सयकारियाइ एसा जायइ-ठाणाइ बहुफला केई । गुरुकारियाइ अन्ने विसिट्ठविहिकारियाए य ॥ १३ ॥ थंडिल्लेवि य एसा मणठवणाए पसत्थिगा चेव । आगासगोमयाइहिं इत्थमुल्लवणाइ हियं ॥ १४ ॥ | उवयारंगा इह सोवओगसाहारणाण इटुफला । किंचि विसेसेण तओ सव्वे ते विभइयव्यत्ति ॥ १५॥ एवं कुणमाणाणं एया *दुरियक्खओ इहं जम्मो। परलोगम्मि य गोरवभोगा परमं च निव्वाणं ॥ १६ ॥ इकपि उदगबिंदू जह पक्खित्तं महासमुद्दम्मि ।
जायइ अक्खयमेयं पूावि जिणसु विनया ॥ १७॥ अक्खयभावे भावो मिलिओ तब्भावसाहगो नियमा। न हु तंब रसविद्धं पुणोवि तंबत्तणमुवेइ ॥ १८॥ तम्हा जिणाण पूया बुहेण सव्वायरेण कायव्वा । परमं तरंडमेसा जम्हा संसारजलहिम्मि॥ १९ ।। एवमिह दव्वपूया लेसुद्देसण दंपिया समया। इयरा जईण पाओ जोगहिगारे तयं बुच्छं ॥२०॥ इति पूजाविधिविंशिका ८
धम्मोवग्गहदाणाइसंगओ सावगो परो होइ । भावेण सुद्धचित्तो निच्चं जिणवयणसवणरई ॥१॥ मग्गणुसारी सड्ढो पन्न-18 वणिज्जो कियापरो चेव । गुणरागी सकारंभसंगओ देसचारित्ती ।।२।। पंच य अणुव्वयाई गुणव्वयाई च हुँति तिचेव । सिक्खावयाई
॥१०॥ चउरो सावगधम्मो दुवालसहा ॥ ३ ॥ एसो य सुप्पसिद्धो सहाइयारहिं इत्थ तंतम्मि । कुसलपरिणामरूवो नवरं सह अंतरो ने भो|
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श्रीविंशति- काप्रकरणे ॥११॥
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॥४॥ सम्मा पलियपुहुत्तेऽवगए कम्माण एस होइत्ति । सोवि खलु अवगमो इह विहिगहणाईहिं होइ जहा ॥ ५॥ गुरुमूलेश्रावक धर्म सुयधम्मो संविग्गो इत्तरं व इयरं वा । गिण्हइ वयाई कोई पालइ य तहा निरइयार ॥ ६ ॥ एसो ठिइओ इत्थं न उ गहणादेव | जायई नियमा । गहणावरिपि जायइ जाओवि अवेइ कम्मुदया ॥७॥ तित्थंकरभत्तीए सुसाहुजणपज्जुवासणाए य । उत्तर-[५ गुणसद्धाए इत्थ सया होइ जइयव्वं ॥ ८ ॥ तम्हा निच्चसईए बहुमाणेणं च अहिगयगुणमि। पडिवक्खदुगुंछाए परिणइयालोयणेणं है च ॥ ९॥ एवमसतोवि इमो जायइ जाओवि न पडइ कयाइ । ता इत्थं बुद्धिमया अपमाओ होइ कायव्वो ॥१०॥ निवसिज्ज तत्थ सड्ढो साहूर्ण जत्थ होइ संपाआ। चेइयघरा उ जहियं तदन्नसाहम्मिया चेव ।। ११ । नवकारेण वियोहो अणुसरणं सावओ वयाई मे । जोगो चिइबंदणमो पच्चक्खाणं तु विहिपुच्वं ॥ १२ ॥ तह चैईहरगमणं सकारो वंदणं गुरुसगासे । पच्चक्खाण सवणं | जइपुच्छा उचियकरणिज्जं ॥१३॥ अविरुद्धो ववहारो काले विहिभायणं च संवरणं । चेइहरागमसवणं सक्कारे बंदणाई य ला॥ १४ ॥ जइविस्सामणमुचिओ जोगो नवकारचिंताईओ। गिहिगमणं विहिसुवणं सरण गुरुदेवयाईण ॥ १५ ॥ अब्बभे पुण PIविरई मोहदुगुंछा सतत्तचिंता य । इत्थीकलेवराणं तब्बिरएसुं च बहुमाणो ॥ १६ ॥ सुत्तविउद्धस्स पुणो सुहुमपयत्येसु चित्तविना
सो । भवठिइनिरूवणे या अहिगरणोवसमचित्ते वा ।। १७॥ आउयपरिहाणीए असमंजसचिट्ठियाण व विवागे । खणलाभदीवणाए । धम्मगुणेसुं च विविहेसु ॥१८॥ बाहगदोसविवक्खे धम्मायरिए य उज्जुयविहारे । एमाइ चित्तनासो संवेगरसायणं देयं ॥१९॥ गोसे भणिओ य विही इय अणवस्यं तु चिट्ठमाणस्स । पडिमाकमेण जायइ संपुनो चरणपरिणामो॥१०॥ इति श्रावकधर्मविशिका
दंसण १ वय २ सामाइय ३ पोसह ४ पडिमा ५ अबंभ ६ सच्चित्त ७ । आरंभ ८ पेस ९ उद्दिववज्जए १० समणभूए ११
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॥११
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श्रावक प्रतिमाः
श्रीविंशति- य ॥१॥ एया खलु इकारस गुणठाणगभेयओ मुणेयव्वा । समणोवासगपडिमा बज्झाणुट्ठाणलिंगेहि ॥२॥ सुस्ससाई जम्हा काप्रकरणे
दिसणपमुहाण कज्जसूयत्ति । कायकिरियाइ सम्म लक्खिज्जइ ओहओ पडिमा ॥३॥ सुस्सूस धम्मराओ गुरुदेवाणं जहासमाहीए। ॥१२॥
| वेयावच्चे नियमो दंसणपडिमा भवे एसा ॥४॥ पंचाणुव्वयधारित्तमणइयारं वएसु पडिबंधो। वयणा तदणइयारा वयपीडमा सुप्पसिद्धत्ति ॥५॥ तह अत्तवीरिउल्लासजोगओ रयतसुद्धिदित्तिसमं । सामइयकरणमसई सम्म सामाइयप्पडिमा ॥ ११ ॥ पोसहकिरियाकरणं पंचसु पव्वेसु तहा सुपरिसुद्धं । जइभावभावसाहगमण, तह पोसहप्पडिमा ॥६॥ पव्वेसु चेव राई असिणाणाइ| किरियासमाजुत्तों । मासपणगावहि तहा पडिमाकरणं तु तप्पडिमा ॥ १२ ॥ असिणाण वियडभोई मउलियडो रत्तिभमाणेण । पिडिवक्खमंतजावाइसंगओ चेव सा किरिया ॥७॥एवं किरियाजुत्तोऽबंभ वज्जेइ नवर राइंपि । छम्मासावहि नियमा एसा उ4
| अबंभपीडमत्ति ॥ ८॥ जावज्जीवाएऽवि हु एसाऽव॑भस्स वज्जणा होइ । एवंचिय जं चित्तो सावगधम्मो बहुपगारो ॥९॥ एवं-12 | विहो उ नवरं सच्चित्तपि परिवज्जए सव्वं । सत्त य मासे नियमा फासुयभोगेण तप्पडिमा ॥१०॥ जावज्जावाएवि हु एसा | | सच्चित्तवज्जणा होइ । एवं चिय जं चित्तो सावगधम्मो बहुपगारो ॥ १३ ॥ एवं चिय आरम्भं वज्जइ सावज्जमदुमासं जा । | तप्पडिमा पेसेहिवि अप्पं कारेइ उवउत्तो ॥ १४ ॥ तेहिंपि न कारेई नवमासे जाव पेसपडिमत्ति । पुखोइया उ किरिया सव्वा । एयस्स सविसेसा ॥१५॥ उद्दिट्ठाहाराईण वज्जणं इत्थ होइ तप्पडिमा । दसमासावहि सज्झायझाणजोगप्पहाणस्स ॥१६॥ इक्कारस मासे जाव समणभूयपडिमा उ चरिमत्ति । अणुचरइ साहुकिरियं इत्थ इमो अविगलं पायं ॥ १७॥ आसेविऊण एयं कोई पचयइ तह गिही होइ । तब्भावभेयओ च्चिय विसुद्धिसंकेसभेएणं ॥ १८ ॥ एयाउ जहुत्तरमो असंखकम्मक्खओवसमभावा । ढुति |
SEASRAHASRASAX
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श्रीविशति काप्रकरणे ॥१३॥
पडिमा पसत्था विसोहिकरणाणि जीवस्स ॥ १९॥ आसेविऊण एया भावेण निओगओ जई होइ । जं उवरि सव्वविरई भावेणं ||११ यतिदेसविरईओ ॥ २० ॥ इति श्रावकप्रतिमाविंशिका दशमी ॥ १० ॥
धर्म
विशिका | नमिऊण खीणदोसं गुणरयणनिहिं जिण महावीरं । संखेवेण महत्थं जइधम्म संपवक्खामि ॥१॥ खती य मद्दवज्जव मुत्ती | ४ तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ २ ॥ उवगारवगारिविवागवयणधम्मुत्तरा भवे खंती । 6. साविक्खं आदितिगं लोगिगमियरं दुर्ग जइणो ॥३॥ वारसविहे कसाए खविए उवसामिए य जोगेहिं । जं जायइ जइधम्मो ता|
चरिमं तत्थ खंतिदुगं ॥ ४ ॥ सबे य अईयारा जं संजलणाणमुदयओ हुंति । ईसिजलणा य एए कुओवगारादविक्खेह ॥५॥ छडे | उ गुणट्ठाणे जइधम्मो दुग्गलंघणं तं च । भणिय भवाडवीए न लोगचिंता तओ इत्थं ॥ ६॥ तम्हा नियमेणं चिय जइणो सन्वा
सवा नियत्तस्स । पढममिह वयणखंती पच्छा पुण धम्मखंतित्ति ॥ ७॥ एमेवऽद्दवमज्जवमुत्तीओ हुँति पंचभेयाओ । पुन्बोइय|नाएणं जइणो इत्थंपि चरमदुर्ग ॥ ८॥ इहपरलोगादणविक्खं जमणसणाइ चित्तणुट्ठाणं । तं सुद्धनिज्जराफलमित्थ तवो होइ | नायव्वो ॥९॥ आसवदारनिरोहो जमिंदियकसायदंडनिग्गहओ। पेहातिजोगकरणं तं सव्वं संजमो नेओ ॥ १० ॥ गुरुसुत्ता| णुनायं जं हियमियभासणं ससमयम्मि । अपरोवतावमणघं तं सच्चं निच्छियं जइणो ॥११॥ आलोयणाइदसविहजलओ पावमलखालणं विहिणा । जं दब्बसोयजुत्तं तं सोयं जइजणपसत्थं ॥ १२ ॥ पक्खीउवमाए ज धम्मोवगरणाइलोभरेगेण । वत्थु
॥१३॥ स्सागहणं खलु तं आकिंचनमिह भणियं ॥ १३ ॥ मेहुणसन्नाविजएण पंचपरियारणापरिच्चाओ। बंभे मणवत्तीए जो सो बंभ
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श्रीविंशति
|सुपरिसुद्धं ॥ १४ ॥ कायफरिसरूवेहिं सहमणेहिच इत्थ पवियारो। रागा मेहणजोगो मोहदयं रहफलो सब्यो ।। १५॥ एयस्सा-सार शिक्षा काप्रकरणे भावमिवि नो बंभमणुत्तराण जंतेसिं । बभे ण मणोवित्ती तह परिसुद्धा सयाभावा ॥ १६ ॥ बंभमिहं बंभचारिहिं वत्रियं सव्वमेव
| विशिका ऽणुहार्ण । तो तम्मि खओवसमो सा मणवित्ती तहिं होइ ॥ १७॥ एवं परिसुद्धासयजुत्तो जो खलु मणोनिरोहोवि । परमत्था जहत्थं सो भण्णइ भमिह समए ॥ १८॥ इय तंतजुत्तिनीईई भावियब्बो बुहेहिं सुत्तत्थो । सव्वो ससमयपरसमयजोगओ मुक्खकंखीहिं ॥ १९ ॥ संखेवणं एसो जइधम्मो वनिओ अइमहत्थो। मंदमइबोहणट्ठा कुग्गहविरहेण समयाओ ॥ २० ॥ इति यतिधम्मविशिका एकादशमी ॥११॥ सिक्खा इमस्स दुविहा गहणासेवणगया मुणेयब्वा । सुत्तत्थगोयरेगा बीयाऽणुट्ठाणावसयात ॥१॥ जह चक्कवाट्ट रज्जं लद्धृण नेह खुद्दकिरियासु । होइ मई तह चेव उ नेयस्सवि धम्मरज्जवओ ॥२॥जह तस्स व रज्जत
कुव्वंतो वच्चए सुहं कालो । तह एयस्सवि सम्म सिक्खादुगमेव धनस्स ॥३॥ तत्तो इमं पहाणं निरुवमसुहहेउभावओ नेयं । Pइत्थवि होदहगसहं तत्तो देवो उ पसमसुहं॥४॥ सिक्खादगंमि पीई जह जायइ हंदि समणसीहस्स । तह चकवाट्टणीजव हु | नियमेण न जाउ नियकिच्चे ॥५॥ गिण्हइ विहिणा सुत्तं भावेणं परममंतरूवत्ति । जोगोवि बीयमहुरोदजोगतुल्ला इमस्सात्त
MITRगाम पाइजह जायाहार समसाला MI॥६॥ पत्तं परियाएणं सुगुरुसगासाउ कालजोगेण । उद्देसाइकमजुयं सुत्तं गेझंति गहणविही ॥ ७॥ एसुच्चिय दाणविही नवरं दाया गुरूऽथ एयस्स | गुरुसंदिवो वा जो अक्खयचारित्तजुत्तुति ॥ ८॥ अत्थग्गहणे उ एसो विबेओ तस्स तस्स य सुयस्स।
॥१४॥ तह चेव भावपरियागजोगओ आणुपुव्वीए ॥९॥ मंडाल निसिज्ज सिक्खा किइकम्मुस्सग बंदणं जिटे। उवओगो संवेगो ठाण पसिणे य इच्चाइ ॥१०॥ आसेवइ य जहुत्तं तहा तहा सम्ममेस सुत्तत्थं । उचियं सिक्खापुव्वं नीसेस उवहिपहाई ॥ ११ ॥
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१२ विधिः
श्रीविंशति-II पडिवत्तिविरहियाणं न हु सुयमित्तमुवयारगं होइ । नो आउरस्स रोगो नासह तह ओसहसुईओ ॥ १२ ॥ नय विवरीएणेसो काप्रकरणाकिारयाजोतेण अविय बढेइ । इय परिणामाओ खलु सव्वं खु जहत्तमायरह ॥ १३ ॥ भेदोऽविस्थमजोगो नियमेण विवागदारुणा ॥१५॥
४ा होइ । पागकिरियागओ जह नायमिण सुप्पसिद्धं तु॥ १४ ॥जह आउरस्स रोगक्खयत्थिणो दुक्करावि सुहहेऊ । इत्थ चिगिच्छा| किरिया तह चव जइस्स सिक्खत्ति ॥ १५॥ जं सम्मनाणमेयस्स तत्तसंवेयणं निओगेण । अन्नेहिवि भणियमओ उ विज्जासविज्ज
पदमिसिणो ॥ १६॥ पढममहं पीईविऊ पच्छा भत्ती उ होइ एयस्स । आगममित्तं हेऊ तओ असंगतमेगंता ॥ १७॥ जइणों ४चउव्विहचिय अन्नेहिवि वन्नियं अणुट्ठाणं । पीईभत्तिगयं खलु तहागमासंगभेयं च ॥ १८ ॥ आहारोवरि सिज्जासु संजओ होइ एस * नियमेण । जायइ अणहो सम्म इत्तो य चरित्तकाउत्ति ॥ १९ ॥ एयासु अवत्तवओ जह चेव विरुद्धसविणो देहो । पाउणइ न उणठा मेवं जइणोऽविहु धम्मदेहुत्ति ॥ २० ॥ इति शिक्षाविंशिका द्वादशमी १२॥
भिक्खाविही उ नेओ इमस्स एसो महाणुभावस्स । चायालदोसपरिसुद्धपिंडगगहणंति ते य इमे ॥ १॥ सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाइ दोसा उ । दस एसणाइ दोसा बायालीसं इय हवंति ॥२॥ आहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे य मीसजाए य । साठवणा पाहुडियाए पाओयरकीयपामिच्चे ॥३॥ परियट्टिए अभिहडे उन्भिन्ने मालोहडे इय । आच्छज्जे आनास? अज्झा| यरए य सोलसमे ॥ ४ ॥धाई दुइ निमित्ते आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥५॥ पुविपच्छासंथव विज्जा मंते य चुन जोगे य । उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥ ६॥ संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय एसणदोसा दस हवंति ॥ ७॥ एयद्दोसविमुको जईण पिंडो जिणेणऽणुनाओ।
Rॐॐॐॐ
8॥१५॥
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शुद्धिः
नामदुमसंसहा गया होइ । बत्थाइजा ॥ १५ ॥ओ य आम धम्मदेश
श्रीविंशति संजोयणाइरहिओ भोगोवि इमस्स कारणओ॥ ८॥ दवाईसंजोयणमिह व साहिगं तु अपमाणं । रागेण सइंगालं दोसेण सधू-13/१४ भिक्षाकाप्रकरणे मग जाण ॥ ९॥ वेयण यावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए ॥ १० ॥ वत्थं पाहाकम्मा
विशिका ॥१६॥
| इदोसदुड़े विवज्जियव्वं तु । दोसाण जहासंभवमेएसिं जोयणा नेया ॥ ११ ॥ इत्थेव पत्तभेएण एसणा होइऽभिग्गहपहाणा । सत्त चउरो य पयडा अन्नावि तहाऽविरुद्धत्ति ॥ १२॥ संसट्ठमसंसट्ठा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । ओग्गहिया पग्गहिया उज्झिय-18 धम्मा य सत्तमिया ॥ १३ ॥ उदिट्ठ पेह अंतर उज्झियधम्मा चउत्थिया होइ । वत्थेवि एसणाओ पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ १४ ॥ | सिज्जावि इहं नेया आहाकम्माइदोसरहियावि । तेवि दलाविक्खाए इत्थं सयमेव जोइज्जा ॥ १५॥ एसावित्थीपंडगपसुरहिया जाण सुद्धिसंपुन्ना । अन्नापीडाइ तहा उग्गहसुद्धा मुणेयव्वा ॥ १६ ॥ एसाविहु विहिपरिभोगओ य आसंगवज्जियाणं तु । वसही सुद्धा भणिया इहरा उ गिह परिग्गहओ ॥ १७ ॥ एवं आहाराइसु जत्तवा निम्ममस्स भावेण | नियमेण धम्मदेहा-18 रोगाओ होइ निव्वाणं ॥ १८ ॥ जाणइ असुद्धिमेसो आहाराईण सुत्तभणियाणं 1 सम्मुवउत्तो नियमा पिंडेसणभाणयविहिणा य ॥ १९ ।। इति भिक्षाविंशिका त्रयोदशमी १३ ॥
भिक्खाए वच्चंतो जइणो गुरुणो करति उवओगं । जोगतरं पवज्जिउकामो आभोगपरिसुद्धं ॥१॥ सामीवेणं जोगो एसो & सुत्ताइजोगओ होइ । कालाविक्खाइ तहा जणदेहाणुग्गहट्ठाए ॥२॥ एयविसुद्धिनिमित्तं अद्धागहणट्ठ सुत्तजोगट्ठा । जोगतिगेणुवउत्ता गुरुआणं तह पमग्गति ॥३॥ चिंतेइ मंगलमिहं निमित्तसुद्धिं तिहा परिक्खंता । कायवयमणेहिं तहा नियगुरुयणसंग
॥१६॥
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८.२.१.२.
श्रीविंशति18| एहिं तु ॥ ४ ॥ एयाणमसुद्धीए चिइबंदण तह पुणोऽवि उवओगो । सुद्धे गमणं हु चिरं असुद्धिभाव ण तद्दियह ॥ ५॥ सुद्धेवि
+१५ आलोकाप्रकरणे अंतराया एए पडिसहगा इहं हुंति । आहारस्स इमे खलु धम्मस्स उ साहगाजोगा || *६ ।। इति तदन्तरायशुद्धिालग
&ा विशिका ॥१७॥ विंशिका १४॥
भिक्खाइसु जत्तवओ एवमवि य माइदोसओ जाओ। हुंतइयारा ते पुण सोहइ आलोयणाइ जई ॥१॥ पक्खे चाउम्मासे | | आलोयण नियमसो उ दायब्वा । गहणं अभिग्गहाण य पुब्वगहिए णिवेदेउं ॥२॥ आलोयणा पयडणा भावस्स सदोसकहणमिइ
गज्झो । गुरुणो एसा य तहा सुविज्जनाएण विनेआ ॥ ३ ॥ जह चैव दोसंकहणं न विज्जमित्तस्स सुंदर होइ । अविय सुविज्जस्स | तहा वन्नेयं भावदोसऽवि ॥४॥ तत्थ सुविज्जो य इमो आरोग्गं जो विहाणओ कुणइ । चरणारुग्गकरो खलु एवित्थ गुरूवि विनय ।।५।। जस्स समीवे भावाउरा तहा पाविऊण विहिपुव्वं । चरणारुग्गं पकरति सो गुरू सिद्धकम्मुत्थ ॥ ६॥ धम्मस्स पसी । जायइ एयारिसो न सम्वोऽवि । विज्जो व सिद्धकम्मो जइयव्ध एरिसे विहिणा ॥७॥ एसो पुण नियमेण गीयत्थाइगुणसंजुओं विचा धम्मकहाऽपक्खेवग विसेसओ होइ उ विसिट्ठो ॥८॥ धम्मकहाउज्जुत्तो भावन्नू परिणओ चरित्तम्मि । संवेगवुड्डिजणओ सम्म सहेमा पसंतो य ॥९॥ एयारिसम्मि नियमा संविग्गणपमायदुच्चरियं । अपुणकरणुज्जुएणं पयासियव्वं जइजणेणं ॥१०॥ ज हालिनी
अ॥१७॥ * दृष्टेष्वादशेषु न कापि सप्तम्या आविंशति चतुर्दश गाथा उपलब्धा इति नोपायोऽत्रासां मुद्रणे । आहारकरणाकरणयोर्यद् है
वेयणे त्यादि मोहतिगिच्छेत्यादिरूपं च तद्यधुक्तं स्यात् तदा स्थानांगषष्ठस्थानकादवसेचे तत्
२४१२५.२-४८.१
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श्रीविंशति-3/ कज्जमकजं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा मायामयविप्पमुक्को य ॥११॥ पच्छित्तमयं करणा अन्ने सुद्धिं भणंति नाणस्स । १६ प्रायकाप्रकरणेला तं च न जम्मा एवं ससल्लवणरोहणप्पायं ॥ १२ ॥ अवराहा खलु सल्लं एयं मायाइभेयओ तिविहं । सव्वंपि गुरुसमीवे उद्धरियव्वं
श्चित्त
विशिका ॥१८॥
| पयत्तण ॥ १३ ।। न य तं सत्थं च विसं व दुप्पउत्तुव्य कुणइ वेयालो । जंतव्व दुप्पउत्तं सत्तुव्व पमाइओ कुद्धो । १४ ।। जे कुणइ | भावसल्लं अणुद्धियं उत्तिमढकालाम्म । दुल्लहबोहीयत्तं अणंतसंसारियत्तं च ॥ १५ ॥ तो उद्धरति गारवरहिया मूलं पुणब्भवलयाणं। मिच्छईसणसल्लं मायासल्लं नियाणं च ॥ १६ ॥ चरणपरिणामधम्मा दुच्चरियं अद्धिई दढं कुणइ । कहवि पमायावट्टिय जाव न | आलोइयं गुरुणो ॥ १७॥ जं जाहे आवज्जइ दुच्चरियं तं तहेव जत्तेणं । आलोएयव्वं खलु सम्म सइयारमरणभया ॥ १८ ॥ एवमवि य पक्खाई जायइ आलोयणाओ विसओत्ति । गुरुकज्जाणालोयण भावाणाभोगओ चेव ॥ १९ ॥ जं जारिसेण भावेण सेवियं किंपि इत्थ दुच्चरियं । तं तत्तो अहिगेणं संवेगेणं तहाऽऽलोए॥ २०॥ इति आलोयणाविंशिका १५॥
पच्छित्ताओ सुद्धी तहभावालोयणेण जं होइ । इहरा ण पीढबंभाइओ सआ सुकडभावेऽवि ॥१॥ अहिगा तक्खयभावे पच्छितं किंफलं इहं होइ? । तदहिगकम्मक्खयभावओ तहा हंत मुक्खफलं ॥२॥ पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा । पाएण वावि चित्तं सोहयई तेण पच्छित्तं ॥ ३ ।। संकेसणाइभेया चित्तअसुद्धीइ बज्झई पावं । तिव्वं चित्तविवागं अवेइ तं चित्तसुद्धीओ ॥४॥
किच्चेवि कम्मणि तहा जोगसमत्तीइ भणियमयंति। आलोयणाइभेया दसविहमेयं जहा सुत्ते ॥ ५॥ आलोयण पडिकमणे मीस ५॥१८॥ लविवेगे तहाँ विउस्सगे। तव छेय मूल अणवट्ठया व पारंचियं चेव ॥ ६ ॥ वसहीओ हत्थसया बाहिं कज्जे गयेस्स विहिपुच्वं ।
गमणाइगोयरा खलु भणिया आलोयणा गुरुणा ।। ७ ॥ सहसच्चिय' अस्समियाइमावगमणे य चरणपरिणामा । मिच्छादुकड-1
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श्रीविंशति- काप्रकरणे
॥१९॥
दाणा तग्गमण पुण पडिकमणं ॥८॥ सदाइएसु ईसिपि इत्थ रागाइभावओ होइ । आलोयणा पडिकमणयं च एवं तु मीसं तुटी
विशिका ॥९॥ असणाइगस्स पाय अणेसणीयस्स कहवि गहियस्स । संवरणे संचाओ एस विवेगो उ नायब्यो ॥१०॥ कुस्सुमिणमाइएसुं विणाभिसंघीइ जो उ अइयारो । तस्स विसुद्धिनिमित्त काउस्सग्गो विउस्सग्गो ॥ ११॥ पुढवाइणं संघट्टणाइभावेण तह पमा-12 याओ । अइयारसोहणट्ठा पणगाइतवो तवो होइ ॥१२॥ तवसा उ दुइमस्सा पावं तह चरणमाणिणो चेव । संकेसविसेसाओ छओ * पणगाइओ तत्थ ॥ १३ ॥ पाणवहाईमि पाओ भावेणासेवियम्मि सहसावि । आभोगेणं जइणो पुणो वयारोवणा मूलं ॥ १४ ॥ साहम्मिगाइतेणाइभावओ संकिलेसभेएण। तक्षणमेव वयाणवि होइ अजोगो उ अणवट्ठा ।। १५॥ पुरिसविससं पप्पा पावविसेसं च विसयभएण । पायच्छित्तस्संतं गच्छंतो होइ पारंची ॥ १६ ॥ एवं कुममाणो खलु पाचमलाभावओ निओगेण । सुज्दाइ साहू सम्म चरणस्साराहणा तत्तो ॥ १७ ॥ अविराहियचरणस्स य अणुबंधो सुंदरो उ हवइत्ति । अप्पो य भवो पार्य ता इत्थं होइ8 जयवं ॥ १८ ॥ किरियाए अपच्चारे त्याउ) जत्तवओ णावगारगा जह(य)। पच्छित्तवओ सम्मं तह पधज्जाए अझ्यारो ॥१९॥ एवं भावनिरुज्जो जोगमुहं उत्तम इह लहइ । परलोगे य नरामरसिवसुक्खं तष्फलं चेव ॥ २०॥ इति प्रायश्चित्तर्विशिका १६॥
मुक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वोचि धम्मवावारो। परिसुद्धो चिन्नेओ ठाणाइगओ विसेसेण ॥ १ ॥ ठाणुनथालेवणरहिओ तंतम्मि पंचहा एसो । दुगमित्थ कम्मओगो तहा तिय नाणजोगो उ ॥२॥ देसे सच्चे य तहा नियमेणेसो चरितिणो होइ । इयरस्स बीयमित्तं इत्तोच्चिय केइ इच्छति ॥ ३॥ इक्किको य चउद्धा इत्थं पुण तत्तओ मुणेयच्यो । इच्छापवित्तिपिरसिद्धि-l मेयओं समयनीईए ४॥ तज्जुत्तकहा पीईइ संगयाऽविपरिणामिणी इच्छा । सव्वत्थुक्समसारं तपालणमो पक्त्ताओ ॥ ५॥ तह
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श्रीविंशति- काप्रकरणे
चव एयबाहगचिंतारहियं थिरतणं नेयं । सव्वं परत्थसाहगरूवं पुण होइ सिद्धित्ति ॥ ६॥ एए य चित्तरूवा तहखओवसमजो| गओ टुति । तस्स उ सद्धापीयाइजोगओ भव्वसत्ताणं ॥७॥ अणुकंपा निव्वेओ संवेगो होइ तह य पसमुत्ति । एएसिं अणुभावा इच्छाईणं जहासंखं ॥ ८॥ एवं ठियम्मि तत्ते नाएण उ जोयणा इमा पयडा। चिइवंदणेण णेया नवरं तत्तन्नुणा सम्म ।।९।। अरहत
विशिका | चेइयाण करेमि उस्सग्ग एवमाईयं । सद्धाजुत्तस्स तहा होइ जहत्थं पवनाणं ॥ १० ॥ एवं वत्थालंबणजोगवओ पायमविवरीयं तु । | इयरसिं ठाणाइसु जत्तपराणं परं सेयं ॥ ११ ॥ इहरा कायव्वा सिय पायं अहवा महामुसाबाओ । ता अणुरूवाण चिय कायव्यो एयविनासो ॥ १२ ॥ जे देसि विरइजुत्ता जम्हा इह वोसिरामि कार्यति । सुबह चिरई य इमं ता सव्वं चितियवमिण ।। १३ ।। तित्थस्सुच्छेयाइवि नालंबणमित्थ जं स एमेव । सुत्तकिरियाइनासो एसो असमंजसविहाणो ॥ १४ ॥ सो एस वंझओ चिय नय | सयमयमारियाणमविसेसा । एयपि भावियव्वं इह तित्थुच्छेयभीरूहि ॥ १५॥ मुत्तूण लोगसन्नं दट्टण य साहुसमयसब्भावं । | सम्म परियट्टियव्वं बुहेणमइनिउणवुद्धीए ॥ १६ ॥ कयमित्थ पसंगणं ठाणाइसु जनसंगयाण तु । हियमेयं विनेयं सदणुट्ठाणतणेण |तहा ॥ १७ ॥ एयं च पीइभत्तागमाणुगं तह असंगयाजुत्तं । नेयं चउव्विहं खलु एसो चरमो हवइ जोगो ॥ १८ ॥ आलंबणंपि एयं रूविमरूबी य इत्थ परमुन्ति । तग्गुणपरिणइरूवो सुहुमो आलंबणो नाम ॥१९॥ एयम्मि मोहसागरतरण सेढी य केवलं चेव । तत्तो य जोगजोगो कमेण परमं च निव्वाणं ॥२०॥ इति योगविधानविंशिका सप्तदशी १७॥
केवलनाणमणतं जीवसरूवं तयं निरावरणं । लोगालोगपगासगमेगविहं निच्चजाइति ॥ १॥ मणपज्जवनाणतो नाणस्स य ॥२०॥ दसणस्स य विसेसे । केवलनाणं पुण दंसति नाणतिय समाण ॥२॥ संभिन्न पासतो लोगमलोग चे सब्बओ नेयं । तं नत्थि ||
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१८ केवल
ज्ञान |विंशिका
॥२१॥
लिन पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च ॥३॥ भृशं भृअत्तेणं भव्वंपेएण तह भविस्सं च । पासइ भविस्सभावेण जं इमं नेयमेवंति ॥४॥ काप्रकरणे
नेयं च विसेसेणं विगमइ केणावि इहरथा नेय । नेयंति तओ चित्तं एयमिण जुत्तिजुत्तति ॥५॥ सागाराणागारं नेयं जं नेयमुभयहा सव्वं । अणुमाइयपि नियमा सामनविसेसरूवं तु ॥६॥ ता एयंपि तहच्चिय तग्गाहगभावओ उ नायव्वं । आगारोऽवि य एयस्स नवर तग्गहणपरिणामा ॥७॥ इहरा उ अमुत्तस्सा को वाऽऽगारो नयावि पडिविवं । आदरिसगिव्य विसयस्स एस तह जुत्तिजोगाओ ॥८॥ सामा उ दिया छाया अभासरगया निसि तु कालाभा । सच्चेय भासरगया सदेहवन्ना मुणेयव्वा ॥९॥ जे आरिसस्स अंतो देहावयवा हवंति संकंता । तेसिं तत्थुवलद्धी पगासजोगाण इयरेसि ॥१०॥ छायाणुवेहओ खलु जुज्जइ आयरिसगे पुण इमंति।। सिद्धम्मि तेयछायाणुजोगविरहा अदेहाओ ॥ ११ ॥ छायाहिं न जोगो संगत्ताओ उ हंदि सिद्धस्स । छायाणवोऽवि सव्वेवि ४ाणाऽणुमाईण विज्जति ॥१२॥ तंमित्तवेयणं तह ण सेसगहणमणुमाणओ वावि । तम्हा सरूवनिययस्स एस तग्गहणपरिणामो ॥१३॥
चंदाइच्चगहाणं पहा पयासेइ परिमियं खित्तं । केवलियनाणलंभो लोयालोयं पयासह ॥१४॥ तह सव्वगयाभासं भाणयं सिद्धंतसम्मनाणीहिं । एयसरूवनियत्तं एवमिणं जुज्जए कहणु ॥१५॥ आभासो गहणं चिय जम्हा तो किं न जुज्जए इत्थं। चंदप्पभाइणायं तु णायमित्त मुणेयव्वं ॥१६॥ जम्हा पुग्गलरूवा चंदाईणं पभा ण तद्धम्मो । नाणं तु जीवधम्मो ता तंनियओ अयं नियमा ॥ १७ ॥ जीवो य ण सव्वगओ ता तद्धम्मो कहं भवइ बाही? । कह वाऽलो धम्माइविरहओ गच्छइ अणते ॥१८॥ भातम्हा सरूवनिययस्स चेव जीवस्स केवलं धम्मो । आगारावि य एयस्स साहु तग्गहणपरिणामो ॥ १९॥ एयम्मि भवोवग्गाहि
कम्मखयओ उ होइ सिद्धत्तं । नीसेससुद्धधम्मासेवणफलमुत्तमं नेयं ॥२०॥ इति केवलज्ञानविंशिका १८॥
॥२१॥
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श्रीविंशति
सिद्धाणं च विभत्ती तहेगरूवाण वीअतत्तण । पनरसहा पन्नत्तेह भगवया ओहभेएण ॥१॥ तित्थाइसिद्धभेया संघ सइ हुंति काप्रकरणे
इतित्थसिद्धत्ति । तदभावे जे सिद्धा अतित्थसिद्धा उ ते नेया ॥२॥ तित्थगरा तस्सिद्धा हुँति तदने अतित्थगरसिद्धा । सगबुद्धा त-16 स्सिद्धा एवं पत्तेयबुद्धावि ॥३॥ इय बुद्धबोहियाविहु इत्थी पुरिसे णपुंसगे चेव । एवं सलिंगगिहिअनलिंगसिद्धा मुणेयव्वा ॥४॥
विशिका ॥२२॥
पाएगाणेगा य तहा तदेगसमयम्मि हुँति तस्सिद्धा । सेढीकेवलिभावे सिद्धी एते उ भवभेया ॥ ५॥ पडिबंधगा ण इत्थं सेढीए | हुंति चरमदेहस्स । थीलिंगादीयायिहु भावा समयाविराहाओ ॥६॥ नवगुणठाणविहाणा इत्थीपमुहाण होइ अविरोहो। समएण | सिद्धसंखाभिहाणओ चेव नायव्वा ॥ ७॥ अणियट्टिबायरो सो सेटिं नियमेणमिह समाणेइ । तीए य केवलं केवले य जम्मक्खए सिद्धी ॥८॥ पुरिसस्स वेयसंकमभावेणं इत्थ गमणिगाऽजुत्ता । इत्थीणवि तब्भावो होइ तया सिद्धिभावाओ ॥ ९॥ लिंगमिह भावलिंग पहाणमियरं तु होइ देहस्स । सिद्धी पुण जीवस्मा तम्हा एयं न किंचिदिह॥१०॥ सत्तममहिपडिसहो उरुद्दपरिणामविरहओ | तासि । सिद्धीए इट्ठफलो न साहुणित्थीण पडिसेहो ॥ ११॥ उत्तमपयपडिसेहो उ तासिं सहगारिजोगयाऽभावे । नियवीरिएण | उ तहा केवलमवि हंदि अविरुद्धं ॥ १२ ॥ वीसिस्थिगा उ पुरिसाण अट्ठसयमेगसमयओ सिज्झे । दस चेव नपुंसा तह उवरि समएण पडिसेहो ॥ १३ ॥ इय चउरो गिहिलिंगेसलिंगसिद्धे सयं च अष्टहियं । विभयं तु सलिंगे समएणं सिज्झमाणाणं ॥ १४ ॥ दो चेवुक्कोसाए चउरो जहाइ मज्झिमाए य । अट्ठाहिगं सयं खलु सिज्झइ ओगाहणाइ तहा ।। १५ ॥ चत्तारि उड्डलोए दुए समुद्दे
२ | तओ जले चेव । बावीसमहोलोए सिरिए अट्ठसरसयं तु ॥१६॥ बत्तीसा अडयाला सट्ठी पावसरी उ बोद्धव्वा । चुलसीई छनउई दुरहियमठुत्तरसय च ॥ १७ ॥ एवं सिद्धाणंपिहु उवाहिमेएण होइ इह भेओ । तत्तं पुण सव्वासि भगवंताणं समं चेव ॥ १८॥[AT
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२० सिद्ध
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श्रीविंशति- सव्वेऽविय सव्वन्नू सव्वेवि य सव्वदंसिणो एए । निरुवमसुहसंपन्ना सव्वे जम्माइरहिया य ॥ १९ ॥ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ काप्रकरणे|अणंता भवखयविमुक्का । अन्नुन्नमणाबाहं चिट्ठति सुहं सुही पत्ता ॥ २०॥ इति सिद्धविभक्तिविंशिका १९॥
विशिका ॥२३॥
नमिऊण तिहुयणगुरुं परमाणंतसुहसंगपि सया । अविमुक्कसिद्धिविलयं च वीयरागं महावीरं ॥१॥ बुच्छ लेसुद्देसा सिद्धाण सुहं || |परं अणोवम्मं । नायाममजुत्तीहि मज्झिमजणबोहणढाए ॥२॥ जं सव्वसत्तु तह सव्ववाहि सव्वत्थ सव्वमिच्छाणं । खयविगमजोगप
त्तीहिं होइ तत्तो अणंतमिणं ॥३॥ रागाईया सत्तू कम्मुदया वाहिणो इहं नेया । लद्धीओ परह(म)त्था इच्छाणिच्छेच्छमो य तहा |॥ ४ ॥ अणुहवसिद्धं एयं नारुग्गसुहं व रोगिणो नवरं । गम्मइ इयरेण तहा सम्ममिण चिंतियव्वं तु ॥ ५॥ सिद्धस्स सुक्खरासी | सव्वद्धपिडिओ जइ हविज्जा । सोऽणंतवग्गभइओ सव्वागासे ण माइज्जा ॥६॥ वाबाहक्खयसंजायसुक्खलवभावमित्थमा| सज्ज । तत्तो अणंतरुत्तरबुद्धीए रासि परिकप्पो ॥७॥ एसो पुण सब्वोऽवि हु निरइसओ एगरूवमो चेव । सव्वाबाहाकारण| खयभावाओ तहा नेओ॥८॥न उ तह भिन्नाणं चिय सुक्खलवाणं तु एस समुदाओ। ते तह भिन्ना संतो खओवसम जाव जं | हुँति ॥ ९॥ न य तस्स इमो भावो न य सुक्खंपिहु परं तहा होइ । बहुविसलवसंविद्धं अमयपि न केवलं अमयं ॥१०॥।
| सव्वद्धासपिंडणमणंतवम्गमयणं च ज इत्थ । सम्यागासपमाणं च णत तदसणस्थ तु ॥ ११ ॥ तिन्निवि पएसरासी एगाणंता तु लठाविया हुंति । हंदि विसेसण तहा अणंतयाणतया सम्मं ॥ १२ ॥ तुल्लं च सव्वहेयं सव्वेसि होइ कालभेएवि । जह जं कोडीसत्तं
तह छणभएवि सुहममिण ॥ १३ ॥ सर्वपि कोडिकप्पियमसंभवठवणाइ जे भवे ठषियं । तत्तो तस्सुहसामी न होइ इह भेयगो। | कालो. ॥ १४ ॥ जइ तत्तो अहिंग खलु होइ सरूवेण किंचि तो भेओ । नधि अज्जवासकोडीमया (मयाणमा) णम्मि सो होइ ॥१५॥
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२० सिद्धविशिका
श्रीविंशतिः किरिया फलसाविक्खा जं तो तीए ण सुक्खमिह परमं । तम्हा मुगाइभावो लोगिगमिव जुत्तिओ सुक्खं ॥ १६ ॥ सव्व्सगवा- काप्रकरण
वित्ती जत्थ तयं पंडिएहिं जत्तेण । सुहुमाभोगेण तहा निरूवणीयं अपरितंतं ॥ १७॥ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्ख॥२४॥
| यविमुक्का । अन्नुन्नमणाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥१८॥ एमेव भवो इहरा ण जाउ सभा तयंतरमुवेइ । एगेए तह भावो सुक्खस| हावो कहं स भवे ॥ १९ ॥ तम्हा तेसिं सरूवं सहावणिययं जहा उ ण स मुत्ति । परमसुहाइसहावं नेयं एगंतभवरहियं ॥ २० ॥ & इति सिद्धसुखविंशिका विंशतितमी समाप्ता २०॥ कृतिः सिताम्बराचार्यहरिभद्रसूरेधमतो याकिनीमहत्तरासूनोः॥
काऊण पगरणमिण जे कुसलमुवज्जियं मए तेण । भव्या भयविरहत्थं लहंतु जिणसासणे बोहि ॥ २१ ॥ इति श्रीवीसी ४ प्रकरणं समाप्तम् ।। ग्रन्थानम् ५०० श्लोकाः॥
RA२४
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पूजा.
श्रीराज- लिलीव्याजेन पञ्चशाखता, सर्वाण्यपि देवतानि हस्ताश्रितानि, अङ्गुष्ठस्य मले ब्रह्माण्डवीथीं कायस्याधिष्ठायकाः कनिष्ठायां पित्र्यं तीर्थाला पाणरूपशेखरकृते तर्जन्यङ्गुष्ठान्तः अङ्गुलीदैवतं तीर्थ पक्षस्य पञ्चदश दिनानि पर्वरूपाणि तस्यैव यो दाता त्राता विषमतमेऽपि कार्येपि खड्गानां |
देशः करसंघ प्रहारेऽपि तस्यैवान्तरालं सूचयति, अतः सत्पुरुषेण स्तूयते, एवंविधस्य भवत आशा युक्ता,
स्य तीर्थमहोत्सवे युद्धाहारकरप्रपीडनजपन्यासाक्षरस्थापनास्थैर्यारोपकरोऽसि दैवतशतावासः सुपर्वाऽपभीः।
ता अंगतद् धर्मार्थिगलाईने परवधूस्पर्श परार्थग्रहे, घाते च प्रगुणो जिनार्चनदयादानेषु पाणे ! स्फुर ॥ २६ ॥
ये यात्रिका भवन्ति ते गंगागयागोदावरीतीर्थेषु प्रयागप्रभासश्रीशत्रुञ्जयादितीर्थेषु सेवां कुर्वन्ति, तत्र विशुद्धाः सन्तो देवताऽऽराधनं कुर्वति, तुष्टाः सत्योऽस्मन्मनोरथान् पूरयन्ति, चिन्त्यमानं तु दातुः करस्यैव तीर्थत्त्वमवगच्छामः, सामग्री च सामप्रथा दृश्यते, कथं सम्यकपीठे देवतामवतारयति, यतः
पीठं सत्पुरुषस्य दक्षिणकरःप्राचीनपुण्योदयो, मंत्री तत्र महाश्रियं हिमवतः पद्मादवातीतरत्।। नासैनमयैर्विशेषसफलीकारं च तत्र व्यधादू, जातं कामिकतीर्थमित्यत इतस्तद्यात्रिकैः सेव्यते ॥ २७ ।।
यस्य कस्यापि स्वामिनो दृष्टौ स्तुतिं पूजां विचारयन् वाचयितुं न शन्कोति, यस्तु त्रिभुवनविकाशनसमर्थः स्वामी तस्य | दृष्टौ पूजाकारापणं महच्चित्रं, अथवाऽऽश्चर्यमपि न, स्वराज्यदानसमये स्वयमेव स्वामी पुत्रादेः पूजां करोति, कारापयति, स्थानं स्वं ददाति, अत एव सम्भावयामः स्वदृष्टौ सवाधिपस्य यात्रिकैः पूजां कारयन् स्वप्रभावस्वस्थानदानतत्पर एव तत्कार्यकारणकर्मवत्त्वादङ्गादीनां पूजा, यतः
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श्रीराजशेखरकते
5 लक्ष्मी
संघ
महोत्सवे
॥६४॥
अंघी तीर्थपथाग्रगौ सुकृतिनौ दारिद्रयसर्वकषौ, पाणी धन्यतमौ जगत्प्रियवचाः कण्ठो भुजौ धूर्धरौ । ईग्भाग्यभराभिरामलिपिभृद्भालं तदेषां क्रमात्, पूजा माङ्गलिकेऽहतो दृशि जनैः सङ्घशितुस्तन्यते ॥२८॥
दि स्थापना
धर्मोमतिः पूर्वभवागण्यपुण्याकृष्टा लक्ष्मीः सत्पुरुष प्रेम्णा समाजगाम, संस्तु सर्वस्याशापूरकः, विशेषतो महालक्ष्म्या उपकारिण्याः, यो चिया यस्योपकारं करोति सर्वः कोऽपि तं प्रत्युपकरोति, यथा रामाय सुग्रीवेण दुर्योधनाय कर्णेन, अत्रापि सत्पुरुषमहालक्ष्म्योर्महान् स्नेहः | उपकारकरणप्रागल्भ्यं च, यतः
आदौ पाणिसरोरुहेषु गुणिनां पश्चात्तु देवालये, नाभयप्रभुनेमिशैलशिरसोर्मेरौ तथेन्द्रासने । मौलित्वेन जिनोत्तमाङ्गशिखरे छत्रत्रयत्वेन च, न्यस्ताऽथामलसारके सुकृतिना लक्ष्मीर्ध्वजायां ततः ॥२९॥
यो हि कुलीनो धन्यो निष्पापक्रियाप्राणनाथो भवति स निजस्वामिनं बलहीन हितमितसेवकत्यक्तं गतकोश एकाकिनं दुर्बलं विषमरणपतितं बलिष्ठशत्रुवृन्दगृहीतसर्वस्वमुपकरोति, अग्रे भूयः स्वामिनमुद्धरति, कार्य वयं विदधाति, तस्य स्तुति पूजां च | करोति सर्वः, तथाज्ञापि
नास्तिक्याभिधदुर्गभूमिबलिना मिथ्यात्त्वकोशेशिना, कार्पण्यादिभटोटेन कलिना निर्लोव्यमानं कृशम् । धर्म स्वामिनमुन्नति नयति यो दानादिशस्त्रः स्फुरन्, सङ्घानीकयुतो जयी स उचितं सङ्घाधिपः पूज्यते॥३०॥ यथा वृष्टिर्भवित्री तदाऽऽदावेव पृथिव्याममा भवति, पयसां स्वादाभावः, अयसां सकिदृता, गड्डरिकाणामूर्ध्वस्थानां
॥६४ ॥
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निद्रा, शिलन दृष्टस्थानप्राप्तौ प्रथमं शुमालक्षमावैरोच्छेदनदानस
संघ
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श्रीराज- है निद्रा, तक्रस्याम्लत्वं, यस्य पुरुषस्य लक्ष्म्या महादेव्याः प्राप्तिर्भवित्री तस्य प्रथमं शुभाः चेष्टा भवन्ति, इष्टादनिामागमनेऽङ्गस्फुरणा द स्वर्गद्वयं शेखरीये
भवति, कुशलेन दृष्टस्थानप्राप्तौ प्रथमं शुभशकुनोदयः, एवं यस्य जीवस्य तीर्थङ्करपदवी भवेत् काः तस्येत्यादयश्चेष्टा भवन्ति ! सध्यानं महोत्सवे जीवो जीवनबन्दिमोक्षणतपःसत्योक्तिशीलक्षमावैरोच्छेदनदानसत्त्वधिषणापूज्यत्वविख्यातिभिः ।
६ प्रशस्तिश्च संघेशो जिनधर्मतेजनभवत्सम्भावनाहत्पदस्प॒जिष्यत्सुकृतप्रभावविभवानत्र व्यनत्यंशतः ॥३१॥ ॥ ६५।। कर्पूरागुरुकुङ्कुमद्रुतिसुमश्रीखण्डगन्धोर्मिभिर्गेयस्तोत्रचरित्ररासललितैर्वाद्यारवैर्दन्तिाभः ।
अर्हद्विम्यगृहातपत्रचमरस्नात्राहणानाटकैस्तीर्थे स्वर्गमिहैव विन्दति बुधोऽमुत्रापि सोऽप्याप्स्यते ॥ ३२॥ स्वर्गङ्गा नवकुण्डमानसजलं दिव्यं च तच्चन्दनं, पुष्पं हेम च मौक्तिकं च वसनं रम्भादिसङ्गीतकम् । सङ्कल्पेन समानय प्रभुजनोपास्त्यै मृदुाय मा, पापंचञ्चलताफलं चिनु मनः सयानमेवं सताम् ॥३३॥
सुवर्ण त्रिधा-अर्जुनं पीतं रक्तं च, मेघमौक्तिकं यः पुष्करावर्गकमेघे वर्षति सति करकवत् सम्मृर्छति, तस्य सर्वा पृथिव्यपि ला स्वल्पं मूल्य, तन्मौक्तिकमपतदेव देवा गृह्णन्ति मनःकल्पनया । मासादिभाटकादिना संगृहीतो भृत्यः नीचकर्मकारी।
सेवां मोहवशाद् व्यलम्बयमहं कार्याण्यभञ्ज प्रभो त्यः किंकरकः कराङ्गुलिदलच्छेदी सहागांसि मे।। अमाने त्वपि दैन्यमित्यतनुम प्रायम्ब सुश्रावकाः, किं विज्ञीप्सव इत्यमी जिनपतिं प्रत्यास्यकोशं व्यधुः ॥३॥ श्रीमद्धर्षपुरीयगच्छतिलकश्रीसूरिवंशे गुरुर्विद्वत्पर्षदि राजशेखर इति प्रख्यातिमायाति यः।
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