Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020573/1
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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१
आराधना
वीर जैन
श्री महावी
कोबा.
अमृतं
अमृत
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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गङ्गानाथझा-ग्रन्थमाला
[१]
प्रशस्तपादभाष्यम्
श्रीधरभट्टप्रणीतया न्यायकन्दलीव्याख्यया
संवलितम्
विश्वावल
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गङ्गानाथझा ग्रन्थमाला [1]
प्रशस्तपादभाष्यम्
श्रीधर भट्टणी तया
निम्
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयः
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GANGANATHAJHA-GRANTHAMĀLĀ
(Vol. 1)
Chief Editor
DR. BHĀGĪRATHA PRASĀDA TRIPATHI VAGISA ŚĀSTRĪ'
Director, Research Institute,
Sampurnanand Sanskrit Vishvavidyalaya,
Varanasi
सुतम में गोपाय
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PRASASTAPĀDABHĀṢYA (PADĀRTHADHARMASANGRAHA )
With Commentary
NYAYAKANDALĪ
by
SRIDHARA BHATTA
Along with
HINDI TRANSLATION
Edited by Pt. DURGĀDHARA JHA
VARANASI
1977
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Published byDircctan, Research Institute, Sampurnanand Sanskrit Vishvavidyalaya, Varanasi.
Available at Publication Section Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalaya, Varanasi-221002.
Printed : 1100 Copics Price: 68-00 px
Printed byG. S. Upadhyay:
Manage Sampurnanand Sanskrit Vishvavidyalaya Press
Varanas
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गङ्गानाथझा-ग्रन्थमाला
(१)
मुख्यसम्पादकः डॉ. भागीरथप्रसादत्रिपाठी 'वागीशः शास्त्री'
अनुसन्धानसंस्थाननिदेशकः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये
Trata
स्कृत-गम
Reliabete
द्यालयः
गोपाय
प्रशस्तपादाचार्यप्रणीतं प्रशस्तपादभाष्यम्
(पदार्थधर्मसङ्ग्रहाख्यम् )
श्रीधरभट्टप्रणीतया न्यायकन्दलीव्याख्यया
संवलिबम् सम्पादको हिन्दीभाषानुवादकश्च प० दुर्गाधरझा-शर्मा
वाराणस्याम् १८९९ तमे शकाब्दे
२०३४ तमे वैक्रमाब्दे
१९७७ तमे स्तार
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प्रकाशकः,
निदेशकः, अनुसन्धान संस्थानस्य, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालये, वाराणसी ।
प्राप्तिस्थानम् - प्रकाशन विभागः
सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयः, वाराणसी - २२१००२ ( उ० प्र०)
द्वितीयं संस्करणम् : ११०० प्रतिरूपाणि मूल्यम् : ६८०० रूप्यकाणि
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मुद्रक:
घनश्याम उपाध्यायः
सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयीय
मुद्रणालय व्यवस्थापकः
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प्राक्कथन
भारतीय परम्परा के अनुसार वेद सम्पूर्ण ज्ञान के निधान माने जाते हैं । वेद तथा उनके अन्तिम भाग उपनिषद् आस्तिक दर्शनों के स्रोत हैं । मूलतः तीन दर्शन परिगणनीय होते हैं-१. सांख्य, २. वैशेषिक तथा ३. पूर्वमीमांसा । यद्यपि उक्त तीनों दर्शन वेद का प्रामाण्य स्वीकृत करने के कारण आस्तिक हैं, तथापि ये ईश्वर को नहीं मानते । पद्मपुराण में इन्हें वेदबाह्य कहा गया है। इनके सेश्वरत्व के लिए पूरक रूप में अन्य तीन दर्शनों का अवतार हुआ। वे हैं क्रमशः-१. योगदर्शन, २. न्यायदर्शन तथा ३. उत्तरमीमांसा ( वेदान्तदर्शन)। उक्त दर्शनों के जो तत्त्वबीज वेदों में संनिहित हैं, उन्हीं को सूत्ररूप में प्रस्तुत करने का कार्य किया है—कपिल, पतञ्जलि, कणाद, गोतम, जैमिनि तथा व्यास ने ।
कणाद के वैशेषिक सूत्र ( चतुर्थ तथा सप्तम अध्याय ) में भौतिक जगत का आधार परमाणुओं में संनिहित बताया गया है । पदार्थों के स्वरूप निर्णय के लिए भारतीय विद्यावेत्ताओं को वैशेषिक दर्शन का ज्ञान उसी प्रकार अनिवार्य है, जिस प्रकार पदसाधुत्व के निर्णय के लिए पाणिनीय व्याकरण का अनुशीलन । जिस प्रकार योगसूत्र के प्रथम सूत्र 'अथ योगानुशासनम्' में योग शब्द के उल्लेख के कारण योगसूत्र तथा ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' में ब्रह्म शब्द के उल्लेख के कारण ग्रन्थ का नामकरण ब्रह्मसूत्र हुआ, उसी प्रकार वैशेषिकदर्शन के प्रथम सूत्र ‘अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' के अनुसार यद्यपि इसका नामकरण धर्मसूत्र होना चाहिए था, तथापि चतुर्थ सूत्र में वर्णित पदार्थों के मध्य 'विशेष' पदार्थ के कारण यह दर्शन प्रसिद्ध हुआ है। सांख्य दर्शन की अपेक्षा विशिष्ट होने के कारण इसका नाम वैशेषिक दर्शन पड़ा-ऐसी भी कुछ विद्वानों की मान्यता है।
यद्यपि महाभारत के शान्तिपर्व (अ० ३२०, २२) में वैशेषिक शब्द का स्पष्ट उल्लेख हुआ है
यस्माच्चैतन्मया प्राप्तं ज्ञानं वैशेषिकं पुरा ।
यस्य नान्यः प्रवक्ताऽस्ति मोक्षं तदपि मे शृणु ।। तथापि व्याख्याकारों में पर्याप्त मतभेद है । परमानन्द महाभारत की अपनी व्याख्या में 'वैशेषिक' का अर्थ करते हैं-'आत्मनो यो विशेषस्तत्प्रकाशकम्'। केवल अर्जुन मिश्र (महा) भारतार्थ(प्र)दीपिका नामक अपनी व्याख्या में वैशेषिक शब्द को स्पष्टतः कणादकृत वैशेषिक दर्शन बताते हैं-'वैशेषिकम् = पदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारा हेयोपादेयफलम् , हेयोपादानाभ्यामात्मतत्त्वविवेकफलं कणादप्रणीतशास्त्रम्। किन्तु उन्होंने अपने द्वारा किये गये उक्त अर्थ के प्रति अरुचि दिखाते हुए 'यद्वा विशेषाय प्रवृत्तं सांख्यपदेन प्रसिद्धमेव शास्त्रं वैशेषिकम्' लिखा । महाभारत के उक्त श्लोक के पूर्व प्रथम तथा चतुर्थ
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श्लोकों में 'छत्रादिषु विशेषेण मुक्तं मां विद्धि तत्त्वतः' तथा 'जनकोऽप्युत्स्मयन् राजा भावमस्या विशेषयन्' कहकर जनक एवं संन्यासिनी के मध्य प्रचलित दार्शनिक प्रसङ्ग में 'विशेष' शब्द साभिप्राय रखा गया है। विद्वज्जनों को इस पर विचार करना चाहिए कि उक्त प्रसङ्ग में विशेष' शब्द को लेकर जिस दर्शन पर विचार किया गया है, क्या वह कणाद प्रणीत वैशेषिक दर्शन है अथवा सांख्यदर्शन ।
'ऋतूक्थादिसूत्रान्ताक्' (४-२-६०) सूत्र के गणपाठ में पाणिनि ने 'न्याय, उक्थ, लोकायत, ज्योतिष, संहिता, निरुक्त, वृत्ति, आयुर्वेद' इत्यादि का उल्लेख किया है, 'विशेष' शब्द का नहीं । 'विनयादिभ्यष्ठक्' (५-४-३४ ) सूत्र के गणपाठ में यद्यपि 'विशेष' शब्द का पाठ हुआ है, तथापि उक्त सूत्र स्वार्थ में प्रत्यय-विधान करता है। 'विशेषमधिकृत्य कृते ग्रन्थे' इस अर्थ में 'अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' (४-३-८७ ) सत्र से ठक् प्रत्यय होकर 'वैशेषिक' शब्द निष्पन्न होता है। यद्यपि इस प्रकार पर्यालोचना करने पर ज्ञात होता है कि पाणिनि को 'वैशेषिक दर्शन' अज्ञात था, तथापि पाणिनि के 'परेरभितोभावि मण्डलम्' (१,२,१८२) सूत्र में 'परिमण्डल' शब्द वैशेषिक दर्शन के नित्यं परिमण्डलम्'
७,२,२०) सूत्र-गत परिमण्डल शब्द के सदृश परमाणुपरिमाण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
वायुपुराण के महेश्वरावतारयोग नामक तेईसवें अध्याय में अक्षपाद, कणाद, उलक तथा वत्स को सोमशर्मा का पुत्र बताया गया है । छब्बीसवें परिवर्त में वैद्युत एवं आश्वलायन की उत्पत्ति तथा सत्ताइसवें परिवर्त में अक्षपाद, कणाद इत्यादि के जन्म का उल्लेख किया गया है। जातकर्ण्य व्यास के काल में सोमशर्मा की स्थिति प्रभासतीर्थ में बतायी गयी है । वह प्रभासपत्तन के नाम से गुजरात में अवस्थित है ।
पद्मपुराण ( उत्तरखण्ड ) के २६३वें अध्याय में दस ऋषियों को तामस कहा गया है। वे हैं-१. कणाद, २. गौतम, ३. शक्ति, ४. उपमन्यु, ५. जैमिनि, ६. कपिल, ७. दुर्वासा, ८. मृकण्डु, ६. बृहस्पति तथा १०. भृगुवंशोत्पन्न जमदग्नि । इन्हें भावशक्त्यावेशावतार बताया गया है। इनके द्वारा रचित शास्त्रों को वेदबाह्य तथा तामस कहा गया है ( २६३,६६-६८)--
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि तामसानि यथाक्रमम् । येषां स्मरणमात्रेण पातित्यं ज्ञानिनामपि । प्रथमं हि मया चोक्तं शंबं पाशुपतादिकम् । मच्छक्त्यावेशितैविप्रैः प्रोक्तानि च ततः शृणु ॥ कणादेन तु संप्रोक्तं शास्त्रं वैशेषिकं महत् ।
गौतमेन तथा न्यायं सांख्यं तु कपिलेन वै ।। वायुपुराण के अनुसार जातूकण्यं व्यास सत्ताइसवें परिवर्त में तथा कृष्णद्वैपायन ध्यास अट्ठाइसवें परिवर्त में हुए थे। इस प्रकार पातुकर्ण्य व्यास के समय उत्पन्न सोमशर्मा के पुत्र कणाद वैपायन व्यास से पूर्ववर्ती ठहरते हैं ।
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जैनों की तत्त्वसमीक्षा वैशेषिक पदार्थ निरूपण से प्रभावित है। मिलिन्दप्रश्न जैसे प्राचीन बौद्धग्रन्थों में वैशेषिक दर्शन का बारम्बार उल्लेख हुआ है। वेद और ईश्वर को प्रमाणकोटि में न रखे जाने के कारण बौद्धों में वैशेषिक सूत्रों के प्रति विशेषतः समादर की दृष्टि बनी प्रतीत होती है। वैशेषिकों के लिए 'वैशेषिका अर्धवैनाशिकाः' की प्रसिद्ध उक्ति भी उक्त बात को पुष्ट करती है।
प्रशस्तपाद ने 'पदार्थधर्मसंग्रह' नामक अपने स्वोपज्ञ ग्रन्थ में वैशेषिक दर्शन के तत्त्वों के निरूपणार्थ तथा 'अर्धवैनाशिकाः' की लोकधारणा के निराकरणार्थ महनीय कार्य किया है। वैशेषिक दर्शन की सेश्वरता को प्रतिष्ठापित करने का श्रेय प्रशस्तपाद को ही प्राप्त है। पदार्थधर्मसंग्रह की अपनी सर्वाङ्गपूर्णता के कारण वैशेषिक दर्शन पर रचित रावणकृत भाष्य लुप्त हो गया । इस की विशिष्टता तथा महनीयता इसी से समझी जा सकती है कि 'संग्रह होते हुए भी परवर्ती आचार्यों ने इसे भाष्य के रूप में मान्यता प्रदान की है।
प्रशस्तपाद ने कणाद मुनि को नमस्कार किया है । सूत्रों का आधार लेकर उन्होंने कुछ स्थलों पर व्याख्या की है । 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' सूत्र के 'धर्मम्' का आधार लेकर अपने ग्रन्थ का नाम 'पदार्थधर्मसंग्रह' रखा है । चतुर्थ सूत्र 'धर्मविशेषणप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम्' के आधार पर (१५ पृ० पर) इस प्रकार लिखा है-'द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः' (१५ पृ.) 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः' सूत्र के आधार पर उन्होंने 'ईश्वर' शब्द जोड़ते हुए लिखा-'तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद् धर्मादेव' (पृ० १८) । कणाद के सूत्रों का आधार लेने पर भी 'पदार्थधर्मसंग्रह' स्वतन्त्र ग्रन्थ है, व्याख्या ग्रन्थ नहीं । इसके अतिरिक्त इसमें कई मौलिक उद्भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं । परमाणुवाद, प्रमाण, २४ गुण तथा जगत् की उत्पत्ति एवं विनाश का विशद और प्रामाणिक विवेचन यहाँ मिलता है। न्यायदर्शन के भाष्यकार वात्स्यायन ने अपने भाष्य में 'पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपाद भाष्य) से सहायता ली है। अनीश्वरवादी बौद्धों पर इसकी प्रतिक्रिया हई और बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु ने प्रशस्तपाद द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का खण्डन करने की चेष्टा की।
प्रशस्तपाद के 'पदार्थधर्मसंग्रह' पर छठी से सोलहवीं शताब्दी तक व्याख्याएँ लिखी गयीं। छठी शताब्दी में व्योमशिवाचार्य ने 'व्योमवती' नामक व्याख्या लिखी। दसवीं शताब्दी में दो प्रौढ व्याख्याएँ उदयनाचार्य तथा श्रीधराचार्य द्वारा रची गयीं-१.किरणावली, एवं २. न्यायकन्दली । उदयनाचार्य ने वैशेषिक दर्शन पर 'लक्षणावली' नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की भी रचना की है। 'व्योमवती' तथा 'किरणावली' की अपेक्षा 'न्यायकन्दली' अधिक प्रौढ एवं विशद व्याख्या है । इसमें कई स्थापनाएँ नवीन हैं। तम के आरोपित नील रूप मानने के सिद्धान्त के उपज्ञाता के रूप में श्रीधराचार्य की प्रसिद्धि है। रावणकृत वैशेषिक दर्शन के भाष्य का नाम 'वैशेषिक कन्दली' (वैशेषिककटन्दी) था। अधिक सम्भव है कि श्रीधराचार्य ने रावणभाष्य की स्मृति को जगाये रखने के साथ साथ अपनी व्याख्या की प्रसिद्धि के लिए उसका नामकरण 'कन्दली' किया। 'वैशेषिक' के स्थान पर श्रीधर ने
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'न्याय' शब्द का प्रयोग बड़ी सूझबूझ के साथ किया है। फलतः परवर्ती काल में गङ्गे. शोपाध्याय से पहले न्याय और वैशेषिक दोनों सिद्धान्तों के निरूपण के लिए शिवादित्य ने 'सप्तपदार्थी' नामक ग्रन्थ की रचना की। केशवमिश्र की 'तर्कभाषा' गङ्गशोपाध्याय के परवर्ती काल की रचना है । श्रीधर के परवर्ती श्रीवत्स तथा वल्लभाचार्य ने भी प्रशस्तपाद पर रची गयी अपनी व्याख्याओं के नामों में 'न्याय' शब्द को सम्बद्ध किया है । श्रीधराचार्य की व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने के लिए पद्मनाभ मिश्र ने 'न्यायकन्दलोसार' और जैन पण्डित राजशेखर ने 'न्यायकन्दलीपञ्जिका' नामक टीकाओं की रचना की है।
न्यायकन्दली व्याख्या की विशिष्टता के निदर्शन के लिए अधोलिखित विषय अवलोकनार्ह हैं-१. महोदय शब्द की व्याख्याएँ (६ पृ०), श्रेयः सम्बन्ध में मण्डनमत का खण्डन (१६ पृ०),; बौद्धों के अर्थक्रियाकारित्व' का खण्डन (३३ पृ०), अयुत सिद्ध पदार्थ का विचार (३७ पृ०), उद्योतकर के मत का खण्डन (७१ पु०), शरीरारम्भ से कारणतो का विचार (८३ पृ०), अनुमानाङ्ग के सम्बन्ध में बौद्धों के मत का खण्डन १८४ पृ०), अन्त:करणत्व का साधन (२१८ पृ.), प्रदेशवृत्तित्वका व्याख्यान (२४७ पृ०), द्वित्व की उत्पत्ति इत्यादि का निरूपण (२९५-३१३ पृ.), सत् अथवा असत् की कारणता का विचार (३३६ पु०), विपर्यय का समर्थन (४३० पृ.), निर्विकल्पकसाधन (४४६ पृ०), युक्तों की व्याख्या (४६५ पृ.), 'यदनुमेयेन' की व्याख्या (४८१ पृ.), 'विधिस्तु की व्याख्या (४६१ पृ.), भाष्य की व्याख्या (५०३ पृ.), 'आम्नायविधातणाम्' को व्याख्या पर विचार (६२७ पृ.) इत्यादि ।
प्रशस्तपाद की इस व्याख्या के महत्त्व के कारण वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के अनुसन्धान संस्थान ने अपने अन्यतम अनुसन्धान सहायक श्रीदुर्गाधर झा को हिन्दी अनुवाद करने का कार्य सन् १९६० में सौंपा । न्याय-वैशेषिक दर्शन के उद्भट विद्वान् श्रीझा ने इस गुरुतर कार्य का निर्वाह ग्रन्थग्रन्थिभेदपूर्वक सफलता के साथ किया। सन् १९६३ में इस ग्रन्थ का प्रकाशन अनुसन्धान संस्थान से किया गया। इस अनुवाद को उपादेयता का भान इसी से होता है कि कुछ ही वर्षों में ग्रन्थ की सभी प्रतियां विक्रीत हो गयीं। न्यायकन्दली के पुनःप्रकाशन के लिए जिज्ञासुओं के द्वारा कई वर्षों से निरन्तर प्रार्थना की जाती रही है। फलतः न्यायकन्दलो सहित प्रशस्तपाद की हिन्दी व्याख्या का यह संशोधित द्वितीय संस्करण जिज्ञासुओं और विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत है । अनुसन्धान संस्थान के अन्यतम अनुसन्धान सहायक डॉ० उमाशंकर त्रिपाठी ने इस ग्रन्थ का संशोधन कार्य बड़ी तत्परता के साथ किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह जिज्ञासुओं का उपकारक और विदज्जनों को मनोमोदकर सि
वाराणसी ) भागीरथप्रसाद त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री' मकरसंक्रान्ति: २०३४ वै.'
निदेशक, (१४-१-७८ ई. शनिवार ) )
अनुसन्धान संस्थान
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॥श्रीः॥ विज्ञप्तिः
गङ्गानाथान् गुरून् नत्वा बहुग्रन्थानुवादकान् । तन्नाम्ना ग्रन्थमालायाः प्रक्रमं करवाण्यहम् ॥ प्रशस्तपादभाष्यस्य कन्दलीटीकया सह । प्रकाशः क्रियतेऽस्माभिरनुध देशभाषया ॥ संशोधनं कृतं यत्नैर्हिन्दीभाषानुवादिना । अस्मत्सहायकेनैव श्रीदुर्गाधरशर्मणा ॥ लिखिता भूमिकाप्येका न्यायशास्त्रविदाऽमुना। वैशेषिकपदार्थानां सम्यग बोधो यथा भवेत् ॥ मालायाः सुमनश्चाद्यं सौमनश्यं प्रसारयेत् ।
प्रार्थना काशिकापुर्या क्षेत्रेशचन्द्रशर्मणः ॥ शास्त्रज्ञ पण्डितों के अतिरिक्त अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त अथवा हिन्दी भाषा के वेत्ता साधारण बुद्धिमान् जनता में अपवा विद्वानों में प्राचीन भारतीय दर्शनों के प्रति विशेष रुचि आजकल पाई जाती है। परन्तु संस्कृत भाषा में पूर्ण ज्ञान न होने के कारण वे मूल ग्रन्थों का अध्ययन नहीं कर सकते हैं। इस त्रुटि की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे मुख्य मुख्य दार्शनिक तथा अन्य शास्त्रों के ग्रन्थों का प्रामाणिक अनुवाद के साथ प्रकाशन हो, जैसे ग्रीक तथा लातिन भाषा की लोएब क्लै सिकल लाइब्रेरी ( LOEB CLASSICAL LIBRARY ) में हुआ है। काशी से प्रकाशित 'अच्युतग्रन्थमाला' ने अंशतः यह कार्य किया है। परन्तु इस ग्रन्थमाला में कुछ ही शास्त्रों का समावेश हुआ। यह ग्रन्थमाला भी इधर बन्द हो गई ।
___ सन् १९५८ में काशी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय के "वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में परिणत होने पर अनुसंधान संचालक के पद पर जब मेरी नियुक्ति हुई, मैंने प्रथम उपकुलपति श्री आदित्यनाथ झा जी से प्रार्थना की कि ऐसी एक ग्रन्थमाला हम भी प्रकाशित करें और उन्होंने इस प्रस्ताव को स्वीकृत किया। ग्रन्थमाला का नाम रखा गया 'गङ्गानाथझा ग्रन्थमाला'। इस नामकरण के दो कारण थे-(१) हमारे दिवङ्गत गुरु विद्यासागर महामहोपाध्याय डा० श्री गङ्गानाथ झा जी ने बहुत संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद किया था और (२) गुरुजी के अनुवादों के कारण हमारे देश में और विदेशों में भारतीय दर्शन का ज्ञान पर्याप्त मात्रा में फैला ।
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इस ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प है श्रीधरकृत "न्यायकन्दली" टीका सहित प्रशस्तपादाचार्य कृत 'पदार्थधर्मसंग्रह' नाम का वैशेषिक भाष्य । इन पुस्तकों का संशोधन
और अनुवाद विश्वविद्यालय के अनुसंधान सहायक न्यायाचार्य श्री दुर्गाधर झा ने किया है । “पदार्थधर्मसंग्रह" वैशेषिक शास्त्र में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है, कणाद कृत वैशेषिक सूत्रों की क्रमिक व्याख्या नहीं। यह ग्रन्थ इतना प्रामाणिक समझा गया कि इसके आगे सूत्र का प्रचार कम हो गया। पदार्थधमसंग्रह के ऊपर विद्वानों ने टीकायें लिखीं। ऐसी तीन टीकायें बहुत प्रसिद्ध हैं-श्रीधरकृत 'न्यायकन्दली'. उदयनकृत 'किरणावली' और व्योमशिवाचार्यकृत 'व्योमवती'। इनमें 'न्यायकन्दली', ग्रन्थ लगाने की दृष्टि से सर्वोत्तम है । इस कारण से इस टीका का और उसके अनुवाद का यहाँ समावेश किया गया है।
आगे इस ग्रन्थमाला में उदयन कृत 'न्यायकुसुमाञ्जलि' (गद्य और पद्य ) और अन्य ग्रन्थों का प्रकाशन होगा। दर्शन शास्त्र के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों के भी ग्रन्थ प्रकाशित किये जायेंगे। १४-१२-१९६३
क्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्याय
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भूमिका
न्यायकन्दली सहित प्रशस्तपादभाष्य को हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणियों के साथ पण्डितों के समक्ष उपस्थित करते हुए मुझे विशेष हर्ष हो रहा है । हर्ष दो कारणों से है ( १ ) वर्तमानकाल में दुर्लभ इस टीका के साथ प्रशस्तपादभाष्य की पुस्तक मूल संस्कृत पुस्तकों के चाहनेवालों के लिए सुलभ हो जायगी । ( २ ) एवं प्रशस्तपादभाष्य और न्यायकन्दली का अर्थ हिन्दी संसार के सामने स्पष्ट हो जायगा । पुस्तक का सम्पादक हो या अनुवादक, सब के लिए यह अलिखित कर्त्तव्य निर्दिष्ट सा हो गया है कि पुस्तक के साथ वह कोई भूमिका अवश्य लिखे । तदनुसार मैं भी एक भूमिका लिख रहा हूँ । शास्त्रों से ज्ञान-लाभ करने के लिए पद और पदार्थों का सम्यक ज्ञान आवश्यक है । इनमें पद- ज्ञान के लिए जिस प्रकार व्याकरणशास्त्र का शरण लेना अनिवार्य है, उसी प्रकार पदार्थज्ञान के लिए कणादनिर्मित इस दर्शन की भी आवश्यकता है । वैशेषिक दर्शन की इस आवश्यकता को " काणादं पाणिनीयञ्च सर्वशास्त्रोपकारकम्" इत्यादि उक्तियाँ भी समर्थन करती हैं । अत एव वैशेषिक दर्शन की उपादेयता में तो कोई सन्देह ही नहीं है । वैशेषिकदर्शन और इसके सूत्र
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इसके तीन नाम अधिक प्रसिद्ध हैं - ( १ ) वैशेषिकदर्शन, ( २ ) औलूक्यदर्शन और ( ३ ) काणाददर्शन |
इन में 'वैशेषिक' नाम के प्रसङ्ग में ६ प्रकार की युक्तियाँ प्रचलित हैं - ( १ ) 'अन्यत्र अन्त्येभ्यो विशेषेभ्यः' ( १-२-६ ) इस सूत्र के अनुसार अन्त्य' विशेष पदार्थ के साथ सम्बद्ध जो 'दर्शन' वही 'वैशेषिकदर्शन' है, क्योंकि दूसरे किसी भी दर्शन में इस प्रकार का विशेष' पदार्थ स्वीकृत नहीं है । अतः 'विशेष' रूप स्वतन्त्र पदार्थ के निरूपण के द्वारा यह अन्य दर्शनों से अलग समझा जा सकता है । अतः दूसरे दर्शनों से इसको अलग समझानेवाली यह 'वैशेषिकदर्शन' संज्ञा है ।
( २ ) न्यायदर्शन में दुःखों की पूर्ण निवृत्ति को 'मोक्ष' कहा गया है । इस विनाश की 'अपवर्ग' माना गया है । मोक्ष के प्रसङ्ग में यह 'विशेषगुण' को माना है, अतः 'विशेष एवं वैशेषिकः ' शब्द के द्वारा मोक्ष के प्रसङ्ग में इस नाम 'वैशेषिकदर्शन' है । जो शास्त्र सम्बद्ध हो वही
दर्शन में आत्मा के सभी विशेष गुणों के पूर्ण अतः सभी दर्शनों के द्वारा समान प्रतिपाद्य अवलम्बन कर उस के मूलतः उच्छेद को 'मुक्ति' इस स्वार्थिक प्रत्यय के द्वारा निष्पन्न 'वैशेषिक' का उक्त असाधारण्य ही प्रतिपादित होता है, अतः इस का फलतः 'विशेष' से, अर्थात् विशेषगुण' से मोक्ष के प्रसङ्ग में 'वैशेषिक' दर्शन है |
( ३ ) 'विगतः शेषो यस्य तत् विशेषम् ' इस व्युत्पत्ति के अनुसार निर्विशेष ही प्रकृत 'विशेष' शब्द का अर्थ है । 'विशेष एव वैशेषिकम्' इस प्रकार स्वार्थिक प्रत्यय
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करके यह 'वैशेषिक' शब्द निष्पन्न है। अर्थात् नैयायिकादि पदार्थों की षोडशादि संख्याओं को स्वीकार कर प्रमाणादि जिन पदार्थों को स्वीकार किया है, वे सभी वैशेषिकों से स्वीकृत सात पदार्थों में ही 'निरवशेष' होकर अन्तर्भूत हो जाते हैं। कोई भी अन्तर्भूत होने से अवशिष्ट नहीं रहते, अतः इस दर्शन का नाम वैशेषिक-दर्शन' है।
(४) 'विशेषणं विशेषः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार लक्षणपरीक्षादि के क्रम से पदार्थों का प्रतिपादन ही प्रकृत में 'विशेष' शब्द का अभिप्रेत अर्थ है । उक्त प्रतिपादन रूप कार्य जिस शास्त्र के द्वारा हो वही 'वैशेषिकदर्शन' है। इस प्रकार से व्याख्या करनेवालों का अभिप्राय है कि सांख्य, वेदान्तादि दर्शनों में मोक्ष के लिये साक्षात् उपयोगी आत्मा एवं अन्तःकरणादि पदार्थ और सृष्टितत्त्व प्रभृति ही विशेष रूप से विवेचित हुए हैं। इस से जगत् के और पदार्थों के तत्त्व यथावत् परिस्फुट नहीं होते। आत्मतत्त्व को समझने के लिये भी आत्मा के सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान आवश्यक है। अतः आत्मा और उन के सजातीय और विजातीय सभी पदार्थों की ओर 'विशेष' रूप से मुमुक्षुओं की दृष्टि आकृष्ट करने के कारण ही इस दर्शन का नाम वैशेषिकदर्शन' है।
(५) प्रकृत 'विशेष' शब्द के 'भेद' और विशेष गुण' दोनों ही अर्थ हैं। इन दोनों अर्थों के साथ सम्बद्ध जो दर्शन वही 'वैशेषिकदर्शन' है। वेदान्तदर्शन के अनुसार आत्मा में भेद और विशेष गुण ये दोनों ही नहीं हैं। इस दर्शन में आत्माओं में परस्पर भेद और ज्ञान, इच्छा प्रभृति विशेष गुण दोनों ही स्वीकृत हैं। सांख्यदर्शन में आत्माओं में परस्पर भेद यद्यपि स्वीकृत है, फिर भी वे आत्मा में विशेष गुण की सत्ता नहीं मानते । तस्मात् आत्मा में उक्त भेद और विशेष गुण इन दोनों 'विशेषों' का प्रतिपादन करते हुए महर्षि कणाद ने इस नाम के द्वारा यह सूचित किया है कि वेदान्त और सांख्यदर्शन से यह दर्शन गतार्थ नहीं है।'
(६) 'विशेष' शब्द का प्रयोग परमाणु अर्थ में भी होता है, तदनुसार परमाणु की सत्ता और तन्मूलक सृष्टि जिस दर्शन में स्वीकृत हो वही वैशेषिकदर्शन' है। कुछ विद्वानों की ऐसी भी सम्मति है ।
औलुक्यदर्शन महर्षि कणाद किसी उलूक नाम के महर्षि के वंश में थे, अतः उनका 'औलूक्य' नाम भी था। इसी कारण कणाद-निर्मित दर्शन को 'औलूक्यदर्शन' भी कहते हैं।
काणाददर्शन महर्षि कणाद के द्वारा रचित होने के कारण इसे काणाददर्शन भी कहते हैं ।
१. टिप्पणी--ये पाँच व्युत्पत्तियाँ म० म० विद्वद्वर श्रीयुत कालीपदतर्काचार्य महोदय के द्वारा सम्पादित सूक्ति और उनकी टीका के साथ संस्कृतसाहित्यपरिषद् से प्रकाशित 'प्रशस्तपादभाष्य' की भूमिका से ली गयी हैं। अतः उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
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वैशेषिकसूत्र और उसकी टीकाओं की परम्परा वैशेषिकसूत्र के ऊपर प्रशस्तपादकृत भाष्य से पहिले की टीका उपलब्ध नहीं हैं। रावणकृत भाष्य एवं भारद्वाज कृत वृत्ति की बातें सुनने में आती हैं, किन्तु वे अपने स्वरूप में उपलब्ध नहीं हैं। ग्रन्थान्तरों में उनकी चर्चा अवश्य मिलती है । प्रशस्तपादकृतभाष्य के द्वारा सभी सूत्रों के अर्थ प्रकाशित नहीं होते । अतः शङ्कर मिश्र कृत 'उपस्कार' टीका के द्वारा ही इतने दिनों तक सूत्रों के प्रसङ्ग में जो कुछ भी कहा जाता रहा है । इधर दरभङ्गा विद्यापीठ से अज्ञातनामा किसो दाक्षिणात्य विद्वान् की टीका प्रकाशित हुई है। उस ग्रन्थ के सम्पादक उसे उपस्कार से प्राचीन और किरणावली से अर्वाचीन मानते हैं । गायकावाड़ औरियण्टल सिरीज से अभी चन्द्रानन्द नाम के किसी विद्वान् की एक वृत्ति निकली है । पं० श्रीजयनारायण भट्टाचार्य और पं. श्रीचन्द्रकान्त तर्कालङ्कार की टीकायें प्रायः इसी शताब्दी की हैं। सूत्र की संख्याओं के सम्बन्ध में प्रथमोक्त तीन टोकाओं में काफी अन्तर है। शेष दोनों अर्वाचीन टीकायें इस के सम्बन्ध में भी शङ्करमिश्र के अनुयायी हैं। उपस्कार के अनुसार सूत्र की संख्या है ३७० और मिथिला विद्यापीठवाली पुस्तक के अनुसार ६ अ० के पहिले आह्निक तक सूत्रों की संख्या ही ३२४ है । इस पुस्तक में आगे का अंश नहीं है, क्योंकि टीका उतनी ही उपलब्ध थी। अगर इसके आगे के उपस्कारानुयायी सूत्रों को जोड़ देते हैं तो उनकी संख्या ३५३ तक ही पहुँचती है। इस प्रकार सूत्रों के सम्बन्ध में मतान्तर चले आ रहे हैं। स्थिति यह मालूम होती है कि प्रशस्तपाद को भाष्यरचना के बाद उसके सौष्ठव के कारण सूत्र की तरफ से सबका ध्यान ही हट गया और वैशेषिकदर्शन के सम्बन्ध में जितने भी कुछ विचार हुए या ग्रन्थ-रचनायें हुईं सभी प्रशस्तपादभाष्य की आधार मानकर ही होने लगी। मिथिला विद्यापीठ से और बड़ौदा से प्रकाशित पूर्वोक्त वैशेषिकसूत्र की दोनों पुस्तकों के छपने के बाद एक बात और सामने आयी है। उन दोनों ही पुस्तकों में "धर्मविशेषप्रसूतात्" ( १-१-३) इत्यादि उपक्रम सूत्र नहीं है। किन्तु धर्मनिरूपण की प्रतिज्ञा और लक्षण लिखने के बाद हठात् 'पृथिव्यापस्तेजो वायुः' (१-१-५ ) इस सूत्र के द्वारा पदार्थों के विभाग से जो असङ्गति की आपत्ति आती है, उसको उन दोनों टीकाकारों ने अपनी अपनी टीका में जिस युक्ति से समर्थन किया है, वह युक्ति 'धर्मविशेषप्रसूतात्' इत्यादि सूत्र के द्वारा कही हुई युक्तियों से अधिक भिन्न नहीं है। इस प्रसङ्ग में दो ही बातें संभव जान पड़ती हैं--(१) जिन लोगों ने 'धर्मविशेषप्रसूतात्' इत्यादि को सूत्र नहीं माना है, उन लोगों के हाथ में जो सूत्रावली आई उसके मूल लेखक से प्रमादवश उक्त सूत्र छूट गया हो और उस के बाद से उसी सूत्रावली का प्रचार उस क्षेत्र में हो गया हो । अथवा (२) धर्मव्याख्या की प्रतिज्ञा और लक्षण कहने के बाद हठात् पदार्थ-निरूपण करने से जो असंगति आती है, उसकी पूर्ति किसी विद्वान् ने अपनी सूत्रपाठ की पुस्तक में “घर्मविशेषप्रसूताद्' इत्यादि शब्दों के द्वारा टिप्पणी रूप में कर दी हो। आगे उस पुस्तक के आधार पर लिखनेवाले किसी दूसरे लेखक ने भ्रमवश उस टिप्पणी को सूत्र समझ कर पृथक् सू त्र के रूप में लिख दिया हो । भ्रम और प्रमाद इन दोनों की संभावनाओं में से प्रकृत में किस संभावना की कल्पना में लाघव और स्वारस्य है, इसे पण्डितगण विचार कर देखें।
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( ४ ) वैशेषिकदर्शन और ईश्वर
सभी जानते हैं कि न्याय और वैशेषिकदर्शन के आचार्यों ने ईश्वर साधन के प्रसङ्ग में बहुत कुछ लिखा है । किन्तु वैशेषिक दर्शन के कणादरचित सूत्र में ईश्वर शब्द का स्पष्ट उल्लेख न रहने के कारण एवं सष्ट रूप से ईश्वर - साधन का कोई प्रकरण न रहने के कारण कुछ विद्वानों का कहना है कि कणाद के समय से लेकर प्रशस्तपाद से पहिले तक वैशेषिकदर्शन में ईश्वर स्वीकृत नहीं थे । अतः मूलतः यह दर्शन
ईश्वरपरक नहीं है ।
वैशेषिक दर्शन को ईश्वर-परक माननेवालों की दृष्टि इस प्रसङ्ग में कुछ भिन्न प्रकार की है। उनका कहना है कि किसी वस्तु का स्पष्ट उल्लेख न करना ही उस वस्तु के अभाव का साधक नहीं हो सकता, किसी वस्तु को अस्वीकृत करना है तो फिर उन के लिए उस प्रसङ्ग में केवल मौन साधन से ही काम नहीं चल सकता । उसके लिए उक्त वस्तु की सत्ता के विरुद्ध युक्तियों का स्पष्ट रूप से निर्देश आवश्यक है | क्योंकि किसी वस्तु की अनुक्ति ही उसकी विरुद्धोक्ति नहीं हो सकतो । अनुक्ति और विरुद्धोक्ति में बहुत अन्तर है ।
अतः प्रशस्तपाद प्रभृति आचायों ने एवं उनके अनुयायी उदयनादि आचार्यों ने ईश्वर साधन के प्रसङ्ग में अपनी चरम प्रतिभा का परिचय दिया है । एवं इस दर्शन में ईश्वर को सिद्ध मानकर उपपादन किया है। शङ्करमिश्र प्रभृत्ति सूत्र के टीकाकारों ने सूत्र
द्वारा ही ईश्वरसिद्धि का भी प्रयास किया है। उन लोगों का कहना है कि किसी विषय का स्पष्ट उल्लेख न होने पर भी उसके अन्य उपपादनों से विषय में उस विषय में उस व्यक्ति की अनुमति का पता चल जाता है। जैसे व्याकरणशास्त्र में योगविभागादि के द्वारा सूत्र में अनुद्दिष्ट बिधानों का भी आपेक्ष होता है । इसी प्रकार प्रकृत में 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' ( १-१-३ ) संज्ञाकर्मत्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम् ( २-१-१८ ) प्रत्यक्षप्रवृत्तत्वात्संज्ञाकर्मणः ( २-१-१६ ) इत्यादि सूत्रों के द्वारा आनुषङ्गिक रूप में ईश्वरसिद्धि का प्रयास शङ्कर मिश्रादि टीकाकारों द्वारा किया गया है।
धर्म और वैशेषिकदर्शन
वैशेषिकदर्शन का आरम्भ 'धर्मव्याख्या' की प्रतिज्ञा से हुआ है । उसके दूसरे सूत्र के द्वारा अवसर प्राप्त धर्म का लक्षण कहा गया है । और तीसरे सूत्र के द्वारा धर्म के कारणीभूत यागादि के प्रतिपादक वेदों में प्रामाण्य का प्रतिपादन हुआ है । 'धर्मविशेषप्रसूतात्' इत्यादि चौथे सूत्र के द्वारा यह उपपादन किया गया है कि द्रव्यादि छः पदार्थों के साधम्य एवं वैधर्म्य सहित तत्त्वज्ञान के द्वारा ही निःश्रेयस का लाभ होता है । उक्त तत्त्वज्ञान निवृत्तिलक्षण विशेष प्रकार के धर्म से उत्पन्न होता है । फलतः निःश्रयेस के लिये धर्म अत्यन्त आवश्यक है, अतः उसका निरूपण भी आवश्यक है, जिसके लिए इस शास्त्र का आरम्भ उचित है । फिर इसके बाद धर्म के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं दीख पड़ती है । क्कम के अनुसार और पदार्थों की तरह धर्म का भी निरूपण किया गया है । पदार्थों के निरूपण से ग्रन्थ की समाप्ति हो जाती है ।
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इस प्रसङ्ग में कुछ लोगों का आक्षेप है कि धर्म निरूपण के लिए प्रवृत्त शास्त्र में धर्म की इतनी सी चर्चा हो और उससे असम्बद्ध द्रव्यादि पदार्थों का इतना विस्तृत वर्णन हो यह कुछ ठीक नहीं जंचता । इसी आक्षेप की प्रतिध्वनि 'धर्म' व्याख्यातुकामस्य षट्पदार्थोपवर्णनम् । सागरं गन्तुकामस्य हिमवद्गमनोपमम्' इत्यादि वचनों से होती है ।
इस प्रसङ्ग में वैशेपिक सिद्धान्त के अनुयाथियों का यह कहना है कि इस शास्त्र में जिस धर्म की व्याख्या की प्रतिज्ञा की गयी है वह पूर्वमीमांसा के प्रतिज्ञासूत्र में कथित 'धर्म' से भिन्न है । मीमांसको ने धर्म शब्द से यागादि क्रियायों को लिया है । ये क्रियायें केवल वेदों के द्वारा ही प्रमित हो सकती हैं । फलतः केवल वेद ही धर्मरूप क्रिया कलाप के ज्ञापक हेतु है, किन्तु इन क्षणिक क्रियाकलापों को स्वर्गादि कालपर्यन्त रहने की सम्भावना नहीं है, अतः मध्यवर्ती एक अतीन्द्रिय अपूर्व की कल्पना मीमांसक भी करते हैं। वैशेषिक गण इस अपूर्व को ही धर्म करते हैं । यह 'धर्म' केवल अनुमान से ही समझा जा सकता है । अतः जिस प्रकार मीमांसकों ने यागादि कर्मकलाप रूप धर्म के ज्ञापक प्रमाण रूप वेदों के अर्थ के निर्णय में ही अपना सारा श्रम व्यय किया है, उसी प्रकार अगर वैशेषिकगण आत्मनिष्ठ उक्त अपूर्व रूप गुण के एकमात्र साधक अनुमान और आवश्यक पदार्थ निरूपण के प्रसङ्ग में अधिक जागरूक हों तो उनके ऊपर प्रतिज्ञात अर्थ से असम्बद्ध अर्थ के अभिधान का दोष नहीं मढ़ा जा सकता ।
दूसरी बात यह है कि अगर वैशेषिक दर्शन के उपक्रमस्थ धर्म शब्द से भी गादि क्रियाकलापों को ही लें, तथापि द्रव्यादि के निरूपण को यागादि से सर्वथा असम्बद्ध नहीं कहा जा सकता । हेतु दो प्रकार के होते हैं एक ज्ञापक और दूसरा उत्पादक । दण्ड घट का उत्पादक कारण है और धूम वह्नि का ज्ञापक कारण है । इसी कारणत्वासाम्य से दोनों प्रकार के हेतु - बोधक पदों से हेतु में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे 'दण्डाद् घटः, धूमाद् वह्निः' इत्यादि । प्रकृत में विधिवाक्य रूप वेद धर्म के ज्ञापक कारण हैं और द्रव्यादि पदार्थ उनके उत्पादक कारण हैं। क्योंकि व्रीहि प्रभृति द्रव्य, आरुण्यादि गुण, उत्वन अवहननादि कर्म, ब्राह्मणत्वादि सामान्य, इन सबों को मीमांसासाशास्त्र में भी यागादि का सम्पादक मान गया है । इसी प्रकार इनके तत्त्वज्ञान में सहायक विशेष और समवाय का तत्त्वज्ञान भी परम्परया याग में उपकारक है फिर धर्म व्याख्या के प्रसङ्ग में द्रव्यादि पदार्थों के निरूपण करनेवालों को सागर जाने की इच्छा से हिमालय जानेवालों की उपमा देना कहां तक उचित है ?
इस दर्शन के ऊपर सबसे अधिक प्रहार हुये हैं और हो रहे हैं, अपने थूथ के दार्शनिकों द्वारा और त्रयीबाह्य बौद्धादि के द्वारा भी । किन्तु इन सभी विरोधियों ने इस शास्त्र के प्रसङ्ग में आचार्य महर्षि प्रशस्तपाद को ही सत्र से प्रामाणिक व्याख्याता रूप में मानते चले आ रहे हैं । अतः प्रशस्तपादभाष्य का महत्त्व तो निर्विवाद है । तब रही बात यह भाष्य है ? या स्वतन्त्र निबन्ध ग्रन्थ है ? इस प्रसङ्ग में 'सूत्रार्थों वर्ण्यते येन' भाष्य का यह लक्षण पूर्व रूप से संघटित न होने के कारण ही विवाद उपस्थित होता है | किन्तु यह भी ध्यान देने की बात है इस दर्शन में था और दर्शनों में भी स्वतन्त्र निबन्ध ग्रन्थों की कमी नहीं है। उन सभी के ऊपर दृष्टिपात करने
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पर प्रशस्तपाद भाष्य को स्वतन्त्र निबन्ध मानने में भी कुछ कठिनाई होती है। क्योंकि इस ग्रन्थ में जिस प्रकार अपने सभी मन्तव्यों को प्रतिपद सूत्र के द्वारा प्रतिपन्न करने की चेष्टा की गई है, वैसी चेष्टा और स्वतन्त्र निवन्धग्रन्थों में नहीं देखी जाती। अतः इसे भाष्य न मानने वालों को भी इसे और स्वतन्त्र निबन्धग्रन्थों से भिन्न प्रकार का मानना ही होगा । अतः हम यथास्थितिपालकों का कहना है कि यह वैशेषिकसूत्रों का भाष्य ही है। 'भाष्य के सभी लक्षण इसमें पूर्णरूप से संघटित नहीं होते' यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है । क्योंकि पदों के जितने भी अर्थ होते हैं, वे सभी अविकल रूप से सभी अभिधेयों में नहीं घटते । यह बात भाष्य पद से निर्विवाद रूप से समझे जाने वाले ग्रन्थों में भी देखी जा सकती है कि सभी भाष्य कहाने वालों ग्रन्थों में उक्त सूत्रानुवर्तिता समान नहीं है, थोड़ा बहुत अन्तर है हो । तस्मात् यह ग्रन्थ भाष्य के पूर्णलक्षण से युक्त न होने पर भी भाष्य ही है, प्रामाणिकता में तो किसी भाष्य ग्रन्थ से न्यून है ही नहीं।
इसके बाद तो फिर वैशेषिक दर्शन के प्रसङ्ग में जो कुछ भी टीकादि ग्रन्थों का निर्माण हुआ, सब इसी ग्रन्थ को आधार मानकर हुआ। जिनमें (१) मिथिला के श्री उदयनाचार्य की किरणावली (२) वनकुलालङ्कार श्री श्रीधरभट्ट की न्यायकन्दली और (३) विद्वत्कुलालङ्करण श्री व्योमशिवाचार्य की व्योमवती ये तीन प्राचीन टीकायें अधिक प्रसिद्ध हुई। इनमें भी किरणावली टीका सम्पूर्ण न होने पर भी सबसे अधिक मान्य हुई और इसकी टीका और उपटीकाओं की एक लम्बी परम्परा बन गयी । न्यायकन्दली पर भी टीका की रचनायें हुई, किन्तु वे उतनी प्रसिद्धि न पा सकीं गुजरात प्रान्त में इसका प्रचलन अधिक सुना जाता है। न्यायकन्दलीटीका की सबसे खूबी यह है कि वह सम्पूर्ण प्रशस्तपाद भाष्य के ऊपर है, और मूल ग्रन्थप्राय के प्रत्येक पद को सादे शब्दों में समझाने में अधिक तत्पर है । व्योमवती टीका प्रायः दक्षिण में अधिक प्रचलित है। इन तीनों से भिन्न पद्मनाभमिश्रकृत सेतु और जगदीश तर्कालङ्कार की सूक्ति टीका भी है, किन्तु दोनों ही असम्पूर्ण हैं ।
वैशेषिकदर्शन के सिद्धान्तों का संक्षिप्त विवरण वैशेषिकदर्शन का आरम्भ 'धर्म' व्याख्या की प्रतिज्ञां से हुआ है। सभी प्रकार के ऐहिक और पारलौकिक इष्टों और मोक्ष के साधन को ही इस दर्शन में धर्म कहते हैं । यह धर्म (१) प्रवृत्तिलक्षण और (२) निवृत्तिलक्षण भेद से दो प्रकार का है । प्रवृत्तिलक्षण धर्म से ऐहिक तथा पारलौकिक स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है । एवं निवृत्तिलक्षण रूप 'विशेष' धर्म के द्वारा (१) द्रव्य, (२) गुण, (३) कम, (४) सामान्य (५) विशेष (१) समवाय और (७) अभाव इन सात पदार्थों का साधर्म्य
और वैधर्म्य रूप से तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है, उसी से मुक्ति होती है। अर्थात् निवृत्तिलक्षण धर्म के द्वारा मुक्ति के सम्पादन में द्रव्यादि पदार्थो का और उनके परस्पर साधम्य और वैधर्म्य का ज्ञान मध्यवर्ती व्यापार हैं। यद्यपि 'आत्मा वारे श्रोतव्यः, तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति' इत्यादि श्रुतियों के द्वारा आत्मतत्त्व ज्ञान को ही मोक्ष का कारण माना
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गया है, किन्तु आत्मा को अच्छी तरह समझने के लिये भी संसार के और सभी पदार्थों को समझना आवश्यक है। अपने सहधर्मियों से और विरुद्धधर्मियों से विविक्त होकर किसी व्यक्ति को समझे बिना उसका तत्त्व समझना सम्भव नहीं है। संसार की प्रत्येक वस्तु अन्य सभी वस्तुओं के साथ किसी न किसी प्रकार सादृश्य या वैसादृश्य से युक्त हैं, अतः परस्पर सम्बद्ध है। अतः एक वस्तु को समझने के लिये और सभी वस्तुओं को भी समझना आवश्यक है। सुतराम् आत्मा को समझने के लिये भी संसार के अन्य सभी वस्तुओं को समझना आवश्यक है। किन्तु संसार के असंख्य वस्तुओं को अलग अलग प्रत्येकशः समझना साधारण जनों के लिये सम्भव नहीं है । अतः महर्षि कणाद ने समझने की सुविधा के लिये जगत् को द्रव्यादि सात भागों में विभक्त किया है । फलतः इनके मत से संसार की सभी वस्तुयें द्रव्यादि सात पदार्थों में से ही कोई हो सकती हैं।
द्रव्य द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें गुण हो या क्रिया हो । इसका यह अर्थ नहीं कि सभी द्रव्यों में सभी अवस्थाओं में गुण या कर्म रहते ही हैं, क्योंकि उत्पत्ति के समय उत्पत्तिशील पृथिव्यादि द्रव्यों में भी गुण या कर्म नहीं रहते। गुण और कम का समवायिकारण आश्रयीभूत द्रव्य ही हैं जो अपनी उत्पत्ति से पहिले नहीं रह सकता । अतः उत्पत्ति के समय द्रव्य बिना गुण या बिना कर्म के ही रहते हैं। उत्पत्ति के बाद उनमें गुण या क्रिया की उत्पत्ति होती है। आकाशादि विभुद्रव्यों में तो क्रियायें कभी रहती ही नहीं । अतः 'गुण या क्रिया से युक्त जो पदार्थ वही द्रव्य है' इस लक्षण का 'अर्थ इतना ही है कि गुण और कर्म द्रव्यों में ही रहते हैं, द्रव्य से भिन्न गुणादि में नहीं।
वस्तुतः 'द्रव्यत्व' जाति ही द्रव्य का लक्षण है। यह द्रव्यत्व जाति कहाँ रहती है ? इस को समझाने के लिए ही कम का, विशेषतः गुण का सहारा लिया जाता है। विभिन्न व्यक्तियों को किसी एक रूप से समझने के लिए उन सभी व्यक्तियों में किसी सादृश्य की आवश्यकता होती है । सभी मनुष्य परस्पर भिन्न हैं, किन्तु ठीक एक ही आकार के दो मनुष्य नहीं मिल सकते। किन्तु सभी मनुष्यों में कुछ आन्तर और बाह्य सादृश्य भी है, जिनके चलते सभी मनुष्यों में 'यह मनुष्य है' इस एक तरह का व्यवहार होता है। इस प्रकार जिन सभी व्यक्तियों में यह द्रव्य है' इस प्रकार का व्यवहार होता है, उन सभी द्रव्यों में कोई सादृश्य अवश्य ही होना चाहिये, इस सादृश्य के लिये संयोग और विभाग नाम के गुण को आचार्यों ने उपस्थित किया है। संयोग सभी द्रव्यों में समान रूप से रहनेवाला गुण है और विभाग भी । अतः सभी द्रव्य संयोग या विभाग के समवायिकारण हैं। संयोग और विभाग का समवायिकारण होना या समवायिकारणत्व नाम का धर्म ही द्रव्यत्वजाति का ज्ञापक है। संयोग और विभाग का यह समवायिकारणत्व गुणादि पदार्थों में नहीं है, अतः गुणादि पदार्थ संयोग और विभाग के समवायिकारण नहीं है, अतः उनमें द्रव्यत्व नहीं है । इसी प्रकार गुणत्वादि सभी पदार्थविभाजकधों में समझना चाहिए ।
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(८) पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन ये द्रव्य के नौ प्रकार (मेद) हैं। इन सभी द्रव्यों को नित्य और अनित्य भेद से दो भागों में बाँटा जा सकता है । पृथिवी, जल, तेज, वायु इन चार द्रव्यों के परमाणु और आकाश, काल, दिक, आत्मा
और मन ये सभी द्रव्य नित्य हैं। एवं कथित परमाणुओं से भिन्न पृथिव्यादि चारों द्रव्य के सभी प्रभेद उत्पत्तिशील होने के कारण अनित्य हैं। अनित्य द्रव्यों में से पृथिव्यादि तीन द्रव्यों को शरीर, इन्द्रिय और विषय इन तीन भागों में विभक्त किय. गया है । किन्तु वायु का इन तीनों से भिन्न 'प्राण' नाम का एक चौथा भेद भी है ।
- आत्मा विभु है, अतः सभी मूर्त द्रव्यों के साथ उसका संयोग है, किन्तु सुख दुःखों का अनुभव, अर्थात् भोग वह शरीर में ही करता है अतः शरीर के साथ उसका और मूर्त्त द्रव्यों से विलक्षण प्रकार का अवच्छेदकत्व नाम का सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध के ही कारण शरीर को आत्मा के भोग करने का 'आयतन' कहा जाता है । फलतः आत्मा के भोग का आयतन ही 'शरीर' है। यह शरीर भी पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय भेद से चार प्रकार का है। इनमें मानव शरीर पार्थिव है, क्योंकि इस शरीर का उपादान पृथिवी रूप द्रव्य ही है । यद्यपि जलादि और द्रव्यों का भी सम्बन्ध इसमें प्रतीत होता है, फिर भी वे इसके उपादान या समवायिकारण नहीं है, निमित्तकारण हैं। पृथिवी से लेकर आकाशपर्यन्त सभी भूतद्रव्य शरीर के बनने में हेतु हैं, अतः यह शरीर पाञ्चभौतिक भी कहलाता है। अस्मदादि के शरीर का उपादान कारण या समवायिकारण पृथिवी रूप द्रव्य ही है, अतः उसे पार्थिव कहा जाता है । वैशेषिक सिद्धान्त के अनुसार शरीर का समवायिकारण पृथिवी, जल, तेज, वायु इन चारों में से कोई एक ही है, शेष चार उसके निमित्तकारण हैं। अतः पृथिवी रूप उपादान से उत्पन्न हम लोगों का शरीर पार्थिव है। पार्थिव शरीर के (१) योनिज और (२) अयोनिज दो भेद हैं । योनिज शरीर के भी दो भेद हैं (१) जरायुज और (२) अण्डज | जरायुज मानुषादि के शरीर हैं, और पशुपक्षी आदि के शरीर अण्डज हैं। स्वेदज और उभिज्जादि के शरीर अयोनिज हैं। स्वेदज हैं कृमि प्रभृति और उद्भिज्ज हैं वृक्षादि । नारकीय शरीर भी अयोनिज ही है। जल रूप समवायिकारण और शेष चार भूत द्रव्य रूप निमित्तकारणों से उत्पन्न शरीर जलीय शरीर है, जो 'वरुणलोक' में प्रसिद्ध है। तेज रूप समवायिकारण और शेष चार भूत द्रव्य रूप निमित्तकारणों से उत्पन्न शरीर 'तेजस शरीर' कहलाता है, जो 'सूर्यलोक' में प्रसिद्ध है । वायु रूप समवायिकारण और शेष चारों भूत द्रव्य रूप निमित्तकारणों से जिस शरीर का निर्माण होता है, वह वायवीय शरीर कहलाता है । पिशाचादि का शरीर वायवीय शरीर है।
घ्राण, रसना, चक्षुः, त्वचा, श्रोत्र और मन ये छः इन्द्रियाँ हैं। हाथ, पैर प्रभृति शरीर के अवयव मात्र हैं, इन्द्रिय नहीं। इनमें श्रोत्र आकाश रूप है, अतः नित्य है। और मन परमाणु रूप है, अतः नित्य है । चक्षुरादि शेष चार इन्द्रियाँ क्रमशः पृथिवी, जल, तेज
और वायु रूप द्रव्य से उत्पन्न होती हैं। इनमें प्राण पार्थिव है, रसना जलीय है, चक्षु तैजस है और त्वचा वायवीय है। फलतः घ्राण पृथिवी है, रसना जल है, चक्षु तेज है और त्वचा वायु है। इस प्रकार प्राण प्रभृति चार इन्द्रियाँ पृथिवी प्रभृति चार
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(
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भूतों से उत्पन्न होने के कारण 'भौतिक' हैं । श्रवणेन्द्रिय आकाश रूप है आकाश से उत्पन्न नहीं, क्योंकि आकाश नित्य है । नित्य द्रव्य किसी द्रव्य का समवायिकारण नहीं हो सकता, अतः 'श्रवणेन्द्रिय' स्वयं भूत-द्रव्य होने के कारण ही 'भौतिक' कहलाता है । मन भौतिक नहीं है ।
मिट्टी प्रभृति 'विषय' रूप पृथिवी हैं, सरिता, समुद्रादि 'विषय' रूप जल हैं । वह्नि एवं सुवर्णादि 'विषय' रूप तेज हैं। जिससे आँधी प्रभृति होती हैं, वे सभी वायु विषय रूप हैं । शरीरादि तीनों प्रकारों से भिन्न वायु का 'प्राण' नाम का चौथा प्रकार भी है । शरीर के भीतर चलनेवाली वायु को 'प्राण' कहते हैं । किन्तु कार्य-भेद से और स्थान- भेद से उसके प्राण, अपान, समान और व्यान ये चार नाम प्रसिद्ध हैं । शाखादि के कम्प से वायु का केवल अनुमान ही होता है, प्रत्यक्ष नहीं । क्योंकि रूपी द्रव्य का ही प्रत्यक्ष होता है । किसी का मत है कि वायु का भी स्पार्शनप्रत्यक्ष होता है । द्रव्य के चाक्षुषप्रत्यक्ष के लिए ही द्रव्य में रूप का रहना आवश्यक है 1
1
राई का
विनाश भी अनन्त
अतः दोनों अनन्त
।
नित्य द्रव्यों में पृथिव्यादि चारों प्रकार के परमाणुओं का उल्लेख कर चुके हैं । वैशेषिकों का कहना है कि घटादि कार्यद्रव्यों का नाश प्रत्यक्षसिद्ध है । विनाश की परम्परा का विश्राम कहीं पर मानना आवश्यक है । ऐसा न मानने पर राई और पर्वत दोनों को एक परिमाण का मानना पड़ेगा। क्योंकि खण्डों में होगा और पहाड़ का भी विनाश अनन्त खण्डों में होगा । खण्डों से निर्मित होने के कारण समान परिमाण के होंगे। किन्तु है, अतः विनाश-परम्परा का कहीं विश्राम मानना आवश्यक है विश्राम होगा उसको ही 'परमाणु' कहते हैं । इसे मान लेने पर समान परिमाण का प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होता है, क्योंकि दोनों के का तारतम्य ही दोनों के परिमाण में भी न्यूनाधिक का ज्ञापक होगा । परमाणु को नित्य मानना भी आवश्यक है, क्योंकि परमाणुओं को अनित्य मानने पर ऐसे द्रव्य रूप कार्यों को भी मानना पड़ेगा, जिनके अवयव नहीं हैं । किन्तु यह प्रत्यक्ष विरुद्ध होने के कारण उचित नहीं है । इस प्रकार दो परमाणुओं से द्वयणुक और तीन द्वयणुकों सेव्यसरेणु वा त्र्यणुक की उत्पत्ति होती है । व्यसरेणु में महत्त्व आ जाता है । फिर आगे की सृष्टि होती है । वैशेषिकमत के अनुसार अवयवों से जिस अवयवी की उत्पत्ति होती है, वह अवयवों से सर्वथा भिन्न वस्तु है, और उत्पत्ति से पूर्व उसकी और किसी रूप में सत्ता नहीं रहती है । इसी को 'असत्कार्यवाद' या 'आरम्भवाद' कहते हैं ।
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यह प्रत्यक्ष विरुद्ध
जहाँ पर उसका
राई और पर्वत के परमाणुओं में संख्या
आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन इन पाँच द्रव्यों का प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतः इनके विवरण से पहिले इनकी सत्ता में अनुमान को प्रमाण रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि सभी शब्दप्रमाणों में सबों की आस्था नहीं होती । किसी वस्तु की सत्ता को जहाँ अनुमान के द्वारा स्थापित करना होता है, वहाँ थोड़ा कौशल का अवलम्बन आवश्यक होता है । क्योंकि सीधे विवादास्पद वस्तु को पक्ष
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( १० ) बनाकर अनुमान को उपस्थित नहीं किया जा सकता। जैसे कि 'आकाशः अस्ति, शब्दाश्रयत्वात्' यह अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि पक्ष को अपने स्वरूप (पक्षतावच्छेदक ) से युक्त होकर पहिले से सिद्ध रहना चाहिए। जैसे 'पर्वतो बह्निमान् धूमात्' इत्यादि स्थलों में पर्वतत्वादि से युक्त पर्वतादि पहिले प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्ध रहता है । अत: इस प्रकार के स्थलों में परिशेषानुमान का अवलम्बन करना पड़ता है।
आकाश नाम के एक स्वतन्त्र द्रव्य के साधक परिशेषानुमानों की परम्परा इस प्रकार है कि चक्षु से न दीखनेवाले, अथ च रसनादि और बाह्य इन्द्रियों से गृहीत होनेवाले गुण सामान्यगुण नहीं होते, विशेषगुण ही होते हैं-यह बात स्पर्श को दृष्टान्त मानकर अच्छी तरह समझा जा सकता है, क्योंकि स्पर्शगुण का चक्षु से ग्रहण नहीं हो सकता, अथ च वह त्वचा रूप बहिरि नि, य से गृहीत होता है, अतः वह विशेषगुण है ।
___ इसी प्रकार शब्द भी विशेषगुण ही है, क्योंकि उसका ग्रहण चक्षु से नहीं हो सकता, अथ च श्रोत्र रूप बहिरिन्द्रिय से उसका ग्रहण होता है । अतः शब्द विशेषगुण ही है, सामान्य गुण नहीं। यह पहिले सिद्धवत् समझ लेना चाहिए कि दिक; काल और मन इन तीन द्रव्यों में विशेषगुण नहीं रहते, अतः शब्द कालादि के गुण नहीं हो सकते । आकाश अभी विवादास्पद है। अतः आकाश को न मानने की स्थिति में शब्द अगर विशेष गुण है तो फिर पृथिवी, जल, तेज, वायु और आत्मा इन्हीं में से किसी का वह विशेष गुण होगा। इनमें से पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार स्पर्श से युक्त हैं । स्पश से युक्त द्रव्यों के जितने प्रत्यक्ष दीखनेवाले विशेष गुण हैं उनका यह स्वभाव है कि या तो वे अग्नि के संयोग से उत्पन्न हों, जैसे कि पके हुए घट का रक्त रूप या फिर कारण के गुण से उत्पन्न हों, जैसे कि पट का रक्त रूप तन्तु के रक्त रूप से उत्पन्न होता है। अगर शब्द को स्पर्श से युक्त द्रव्य का विशेषगुण मानगे तो फिर शब्द की उत्पत्ति भी अग्नि के संयोग से या उपादान कारणों में रहनेवाले गुणों से ही माननी होगी, किन्तु दोनों में से कोई भी सम्भव नहीं है, क्योकि संयोग और विभाग से शब्द की उत्पत्ति प्रत्यक्ष से सिद्ध है। जिस प्रकार सुख रूप विशष गुण कारणगुणपूर्वक और अग्निसंयोगासमवायिकारणक न होने से स्पर्श से युक्त पृथिव्यादि चार द्रव्यों का विशेष गुण नहीं हो सकता, उसी प्रकार शब्द भी स्पर्श से युक्त पृथिव्यादि चार द्रव्यों का विशेष गुण नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा के विशेष गुण गृहीत नहीं होते, शब्द का ग्रहण श्रोत्र रूप बाह्य इन्द्रिय से होता है, अतः वह आत्मा का विशेष गुण नहीं हो सकता। तस्मात् पृथिवी, जल, तेज, वायु, काल, दिक, आत्मा और मन इन आठ द्रव्यों से भिन्न कोई द्रव्य मानना होगा, जो शब्द का उपादान या समवायिकरण हो। इसी द्रव्य का नाम 'आकाश' है। आकाश स्वरूप श्रोत्रेन्द्रिय की चर्चा कर चुके हैं। यह ( श्रोत्रेन्द्रिय ) नित्य, विभु, आकाश स्वरूप होने के कारण एक ही है । किन्तु प्राणियों के अङ्गविशेष (कर्णशष्कुली) के उपाधि के कारण भिन्न-भिन्न हैं । अतः उनके भेद से श्रोत्रेन्द्रिय परस्पर भिन्न प्रतीत होते हैं और एक के श्रवणेन्द्रिय से दूसरे की आत्मा में शब्द का प्रत्यक्ष नहीं होता।
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( ११ )
'इदानीं घटः, तदानीं घटः' इत्यादि प्रतीतियों की उपपत्ति के लिए 'काल' नाम के एक द्रव्य की सत्ता माननी पड़ती है। क्योंकि 'इदानीम्, तदानीम्' इत्यादि प्रतीतियों का विषय यद्यपि सूर्य नक्षत्रादि की क्रियायें प्रतीत होती हैं, किन्तु सूर्यादि नक्षत्रों का साक्षात् सम्बन्ध घटादि विषयों के साथ नहीं है, अतः एक काल रूप अतिरिक्त द्रव्य मानकर उसके द्वारा सूर्यादि नक्षत्रों की क्रिया द्वारा उक्त प्रतीतियों की उपपत्ति होती है । अतः काल नाम का एक स्वतन्त्र द्रव्य अवश्य है । उत्पन्न होनेवाले सभी पदार्थों के साथ इसका सम्बन्ध एवं अन्वय है, अतः वह सभी जन्यों का कारण भी है और आश्रय भो । यद्यपि क्षण मूहूर्त्तादि से लेकर मन्वन्तरादि अनेक रूपों में इसका व्यवहार होता है, फिर भी वे विभिन्न प्रतीतियों औपाधिक ही हैं । काल वस्तुतः एक ही है । काल के द्वारा हो नये ओर . पुराने का व्यवहार या ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व का व्यवहार, अर्थात् कालिक परत्व और कालिक अपरत्व का व्यवहार भी होता है ।
पाटलिपुत्र से काशी की अपेक्षा प्रयाग दूर है एवं प्रयाग की अपेक्षा पाटलिपुत्र से काशी समीप है --- इस दूरत्व और समीपत्व की प्रतीति के लिए 'दिक' नाम का एक द्रव्य माना जाता है। इसी कारण उक्त प्रतीतियाँ होती हैं । यह भी एकही ही है और नित्य भी है । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर प्रभृति के जो विभिन्न व्यवहार होते हैं वे सभी उपाधिमूलक हैं । अगर दिशा के प्राच्यादि भेद वास्तविक होते हो तो पूर्व में सदा पूर्वत्व का ही व्यवहार होता और पश्चिम में सदा पश्चिमत्व का ही । किन्तु सो नहीं होता, क्योंकि जिसमें एक की अपेक्षा पूर्वत्व का व्यवहार होता है, उसीमें उस से भी पूर्व में रहनेवाले की अपेक्षा पश्चिमत्व का व्यवहार होता है । इसी प्रकार पश्चिम में भी किसी पश्चिमेतर की अपेक्षा पूर्वत्व का व्यवहार होता है, अतः दिशा के पूर्वपश्चिमादि भेद औषधिक हैं, वास्तविक नहीं । अतः दिक् भी एक ही है ।
'अहं सुखी, अहं दुःखी, अहं जानामि' इत्यादि प्रत्यक्षात्मक प्रतीति सार्वजनीन हैं । इन प्रत्यक्षों के द्वारा ही सुखदुःखादि के आश्रय रूप आत्मा की सिद्धि होती है, फिर भी सुखदुःखादि के आश्रय शरीर या इन्द्रिय अथवा मन क्यों नहीं हैं ? ये प्रश्न रह जाते हैं । इन प्रश्नों के उत्तर के बिना आत्मा तत्त्वतः ज्ञात नहीं हो सकता । अतः 'शरीरादि आत्मा नहीं हैं' यह समझना आवश्यक है ।
I
शरीर को ही आत्मा माननेवालों का कहना है कि आत्मा कोई प्रत्यक्षदृष्ट वस्तु नहीं है । जो सम्प्रदाय आत्मा को स्वीकार करते हैं वे भी सुखादि प्रत्यक्ष के लिए आत्मा में शरीर का सम्बन्ध आवश्यक मानते हैं । अत एव वे शरीर को आत्मा के भोग का 'आयतन' कहते हैं । ऐसी स्थिति में शरीर के साथ जब सुखादि का अन्वय और व्यतिरेक सर्वसिद्ध है, अतब शरीर को सुखादि का कारण सभी को मानना आवश्यक है | अतः शरीर का ही समवायिकारण क्यों न स्वीकार कर लें ? सुतराम् 'अहं सुखी' इत्यादि वाक्य का 'अहम्' शब्द का अर्थ शरीर ही है, फलतः शरीर ही आत्मा है । आत्मा नाम का कोई अतिरिक्त स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । यह पक्ष सांसारिक साधारण जनों से स्वीकृत होने के कारण अधिक सरल है । वस्तुतः हम सभी सांसारिक
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(
१२ )
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प्राणि शरीरात्मवादी ही हैं । इसी पक्ष के अनुसार हमारे सभी व्यवहार चलते हैं । अतः
इसकी विशेष रूप से समीक्षा आवश्यक है ।
ज्ञान ही वस्तुतः चैतन्य है । चैतन्य से युक्त वस्तु ही चेतन कहलाता है । शरीर पाञ्चभौतिक है, पाँच भूतों में से कोई भी चेतन नहीं है । फिर भी उनकी समष्टि में चैतन्य की उत्पत्ति शरीरात्मवादी इस प्रकार करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में जो धर्म नहीं भी रहता है, समूह में वह धर्म रह सकता है । जैसे कि मदिरा के उपादानों में से किसी एक मैं मादक शक्ति न रहने पर भी उस समूह से निर्मित मदिरा में मादक शक्ति रहती है, उसी प्रकार पृथिवी प्रभृति पाँच भूतों में से प्रत्येक में चैतन्य के न रहने पर भी उन पाँचों से निर्मित शरीर में चैतन्य रह सकता है ।
शरीर ही है ।
शरीर को आत्मा न माननेवाले या शरीर में चैतन्य न माननेवालों का कहना है कि शरीर को अगर चैतन्यस्वभाव का माना जाय तो फिर मृत शरीर में भी चैतन्य मानना पड़ेगा क्योंकि मृतशरीर भी तो अतः शरीर में चैतन्य नहीं माना जा सकता । शरीर को चेतन मानने के पक्ष में दूसरी बाधा यह उपस्थित होती है कि इस पक्ष में शरीर के प्रत्येक अवयव में चैतन्य मानना पड़ेगा ? या फिर सम्पूर्ण शरीर में ? इन दोनों में से पहिला पक्ष इसलिए नहीं मान सकते कि शरीर के हाथ रूप अवयव के द्वारा अनुभूत विषय का उसके कट जाने पर स्मरण नहीं हो सकेगा, क्योंकि स्मरण के प्रति जो पूर्वानुभव कारण है उसमें समान कत्व भी आवश्यक है । अर्थात् जिस पुरुष को जिस विषय का पूर्व में अनुभव रहेगा उसी पुरुष को उस अनुभवजनित उपयुक्त संस्कार के द्वारा समय आने पर उस विषय का स्मरण होगा, किसी अन्य पुरुष को नहीं जैसा कि देवदत्त के पूर्वानुभव से यज्ञदत्त को स्मरण नहीं हो सकता । इस कार्यकारणभाव के अनुसार शरीर के हाथ रूप अवयव के द्वारा अनुभव के बाद उस हाथ रूप अनुभविता के नष्ट हो जाने पर उस विषय का अगर स्मरण मानेंगे तो एक के द्वारा अनुभूत विषय का स्मरण दूसरे से मानना पड़ेगा, अतः शरीर के प्रत्येक अवयव में चैतन्य या ज्ञान नहीं माना जा सकता ।
एवं शरीर रूप अवयवी में भी चैतन्य नहीं माना जा सकता । क्योंकि प्रत्येक अवयवी एक क्षण में उत्पन्न होकर दूसरे क्षण में रहकर तीसरे क्षण में नष्ट हो जाता है । आगे फिर इसी प्रकार उत्पत्ति और विनाश का क्रम चलता है । ( बौद्धों के क्षणिकत्व सिद्धान्त में और वैशेषिकों के क्षणिकत्व सिद्धान्त में यही अन्तर है कि वैशेषिक लोग कुछ पदार्थों को नित्य भी मानते हैं । और एक क्षण में उत्पत्ति दूसरे क्षण में स्थिति और तीसरे क्षण में नष्ट हो जाने को क्षणिकत्व कहते हैं । बौद्धलोग सभी पदार्थों को क्षणिक ही मानते हैं किसी पदार्थ को नित्य नहीं मानते और क्षणिक उस उत्पत्ति विनाश की परम्परा को कहते हैं जिसमें पदार्थ एक क्षण में उत्पन्न होकर दूसरे ही क्षण में विनाश को प्राप्त होता है) वैशेषिक लोग अवयवियों को क्षणिक इसलिए मानते हैं कि उत्पन्न होने के बाद उसमें ह्रास और वृद्धि देखी जाती है । एक ही मनुष्यशरीर कभी दुबला और मोटा कभी छोटा और कभी बड़ा देखा जाता है । किन्तु एकही आदमी छोटे और बड़े परिमाण का आश्रय नहीं हो सकता । क्योंकि अवयव के परिणाम और अवयवों की संख्या ही अवयवी में रहने
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१३ )
वाले परिमाण के कारण हैं । कुछ नियमित संख्या के अवयवों से निर्मित होनेवाले अवयवियों में अवयवों के एक प्रकार की संख्या और एक परिमाणों से अवयवी में विभिन्न प्रकार के परिमाणों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः यही मानना पड़ेगा कि विभिन्न प्रकार के परिमाणवाले अवयविओं की उत्पत्ति एक प्रकार की संख्यावाले और एक समान परिमाणवाले अवयवों से नहीं हो सकती, अतः देवदत्तादि एक ही नाम से प्रत्यभिज्ञात होने पर भी विभिन्न परिमाण के देवदत्तादि के शरीर विभिन्न संख्यक और विभिन्न परिमाणवाले अवयवों से ही उत्पन्न होते हैं । विभिन्न संख्यक अवयवों से I निर्मित अवयवी कभी एक नहीं हो सकते । अतः देवदत्तादि के मोटे और पतले शरीर रूप अवयवी भी विभिन्न ही हैं, क्योंकि विभिन्न परिमाणों के होने के कारण विभिन्न संख्यकों और विभिन्न परिमाण के अवयवों से उत्पन्न हैं । उत्पत्ति और विनाश का या शरीर के छोटे बड़े होने का या मोटा और दुबला होने का यह क्रम इतना सूक्ष्म है कि उसे परख नहीं सकते । यह तो प्रत्यक्ष है कि एक पाँच साल का लड़का जिस ऊँचाई पर की वस्तु को छू नहीं सकता था वही दश वर्ष का होने पर उसे आसानी से 'छू सकता है । किन्तु उसकी ऊँचाई में यह वृद्धि कब हुई ? यह कोई देख नहीं सकता । ऐसा तो होता नहीं कि एक रात पहिले जिस उँचाई की वस्तु को छूने में पाँच अङ्गल की कमी थी, वह प्रातः होते ही छूट जाती है और वह उस वस्तु को छू लेता है । तस्मात् यह वृद्धि और नाश प्रतिक्षण होता है अतः प्रत्येक वृद्धि को या प्रत्येक विनाश को देखा नहीं जा सकता, क्योंकि क्षण अत्यन्त सूक्ष्म है ।
अतः 'अहं गौरः' इत्यादि प्रतीतियों के वाचक 'अहम्' शब्द से शरीर का बोध लाक्षणिक ही है । शरीर आत्मशब्द का मुख्यार्थ नहीं है । उसका मुख्यार्थ कोई अतिरिक्त द्रव्य ही है, जिसके सम्बन्ध के कारण आत्मा शब्द से शरीर का भी गौणव्यवहार होता है । तस्मात् शरीर आत्मा नहीं है ।
किसी सम्प्रदाय का कहना है कि जिस प्रकार 'अहं गौर:' इस प्रकार की प्रतीति होती है, उसी प्रकार 'अहं काणः' 'अहं बधिरः' इत्यादि प्रतीतियाँ भी होती हैं, काणत्व बधिरत्वादि चक्षुरादि इन्द्रियों के ही धर्म हैं, अतः उन प्रतीतियों में अहम् शब्द से चक्षुरादि इन्द्रियों का ही भान उचित है । अतः इन्द्रियाँ ही आत्मा हैं । सभी ज्ञानों में इन्द्रियाँ किसी न किसी प्रकार अपेक्षित हैं ही। उन्हें आत्मा मान लेने में केवल इतना अधिक होता है कि उन्हें ज्ञानों का निमित्तकारण न मानकर समवायिकारण मानते हैं । अतः इन्द्रियाँ हो आत्मा हैं । वे ही अपने अपने से उत्पन्न ज्ञानों के आश्रय हैं । अतः इन्द्रियों से अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं है ।
आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न अतिरिक्त पदार्थ माननेवाले सिद्धान्तियों का कहना है कि शरीर को आत्मा मानने में जो स्मरणानुपपत्ति प्रभृति दोष दिखला आये हैं, वे सभी अनित्य इन्द्रियों को आत्मा मान लेने के पक्ष में भी हैं । उसकी रीति यह है कि आँखों के रहते जिसने जिन वस्तुओं को देखा है, अन्धा हो जाने पर भी उस व्यक्ति को उन वस्तुओं का स्मरण होता है । किन्तु इन्द्रियों को आत्मा मान लेने के पक्ष में यह स्मरण
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सम्भव नहीं है। क्योंकि इस स्मरण का आश्रय (समवायिकारण) चक्षु रूप इन्द्रिय सर्वदा के लिए नष्ट हो चुका है। अतः यह मानना पड़ता है कि इन्द्रियों से होनेवाले ज्ञानों का आश्रय कोई और ही द्रव्य है, जो इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी विद्यमान रहता है । वही आत्मा है।
इन्द्रियात्मवाद के पक्ष में कोई कहते हैं कि ये सभी आपत्तियाँ इन्द्रियों के अनित्य होने के कारण उठती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय आकाश रूप होने पर भी पूर्ण नित्य नहीं है, क्योंकि निरुपाधिक आकाश इन्द्रिय नहीं है। कर्णशष्कुली प्रभृति उपाधि से युक्त आकाश ही इन्द्रिय है, अतः उपाधि में दोष आ जाने से स्वरूपतः आकाश रूप श्रोत्र का नाश न होने पर भी उसका इन्द्रियत्व नष्ट हो जाता है । अतः श्रीनेन्द्रिय भी फलतः अनित्य ही है। ऐसी स्थिति में मन रूप इन्द्रिय को आत्मा मान लेने से उक्त सभी आपत्तियाँ हट जाती हैं। क्योंकि मन नित्य है एवं सभी ज्ञानों में मन की अपेक्षा भी है ही। तस्मात् सभी ज्ञानों के प्रति मन को ही समवायिकारण मान लें । तद्भिन्न आत्मा नाम के किसी द्रव्य को मानने की आवश्यकता नहीं है । इस प्रसङ्ग में सिद्धान्तियों का कहना है कि मन की सिद्धि जिस हेतु से की जाती है, वही उसको अतीन्द्रिय भी सिद्ध करता है। मन को अगर विभु मान लिया जाय तो फिर उसका कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता। क्योंकि एक समय एक आश्रय में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होती है। किन्तु चक्षुघ्राणादि इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ एक ही समय सम्बन्ध हो सकते हैं। ज्ञान के समवायिकारण को जो लोग विभु मानते हैं उनके मत में एक ही साथ अनेक विषयों के साथ उसका सम्बन्ध होना कोई बड़ी बात नहीं है। अतः मध्यवर्ती एक ऐसे इन्द्रिय की कल्पना करनी पड़ती है जो अपनी सूक्ष्मता के कारण एक समय एक ही बहिरिन्द्रिय के साथ सम्बद्ध हो सके वही इन्द्रिय 'मन' है । फलतः जिस बहिरिन्द्रिय के साथ जिस समय मन रूप इन्द्रिय का सम्बन्ध रहेगा, उस समय उसी बहिरिन्द्रिय के विषय का ग्रहण होगा, और इन्द्रियों के विषयों का नहीं । अगर मन को विभु मान लें तो फिर एक ही समय अनेक बहिरिन्द्रियों के साथ वह सम्बद्ध हो सकता है। अतः एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की ( ज्ञानयोगपद्य की) आपत्ति जैसी की तैसी रहेगी। अतः मन की सत्ता के साधक प्रमाण (धर्मिग्राहक प्रमाण ) के द्वारा ही मन का अणुत्व भी सिद्ध है । मन के इस अणुत्व के कारण ही ज्ञान का आश्रय मन नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मान लेने पर ज्ञान-सुखादि का प्रत्यक्ष न हो सकेगा। क्योंकि गुणप्रत्यक्ष के प्रति आश्रय का महत्त्व भी कारण है चूँकि मन अणु है, अतः उसमें रहनेवाले ज्ञान-सुखादि का प्रत्यक्ष संभव नहीं .ोगा । तस्मात् मन भी आत्मा नहीं है । अतः पृथिव्यादि आठों द्रव्यों से अतिरिक्त आत्मा नाम का एक स्वतन्त्र द्रव्य मानना आवश्यक है।
यह आत्मा ईश्वर और जीव भेद से दो प्रकार का है। ईश्वर एक ही है और सर्वज्ञत्वादि गुणों से विभूषित है। जीव अदृष्टादि गुणों के द्वारा बद्ध है और प्रत्येक शरीर में अलग अलग होने के कारण अनन्त है। मन रूप नवम द्रव्य के प्रसङ्ग में जानने योग्य सभी बातें आत्मनिरूपण के प्रसङ्ग में अधिकतर कह दी गयी हैं।
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( १५ )
गुण
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, यत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म, और शब्द ये चौबीस
गुण F
रूप
।
पीत,
केवल आँखों से ही दीखने वाला गुण 'रूप' है । द्रव्य जाता है जिसमें कि रूप हो । आकाशादि में रूप नहीं है, सुतराम् द्रव्य के चाक्षुर प्रत्यक्ष में भी रूप सहायककारण है केवल द्रव्य ही नहीं जिस किसी का भी चाक्षुष प्रत्यक्ष हो- रूप किसी न किसी प्रकार अपेक्षित होगा ही । फलतः चक्षु से सभी ज्ञान कार्यों के सम्पादन में रूप सहायककारण है । यह शुक्ल, नील, हरित, रक्त, कपिश, और चित्र भेद से सात प्रकार का है । चित्र रूप के प्रसङ्ग में कुछ विवाद है । कुछ लोग कथित नीलादि रूपों से भिन्न चित्र नाम का कोई अतिरिक्त रूप नहीं मानते । सिद्धान्तियों का कहना है कि संयोग की तरह रूप अपने किसी आश्रय के एक अंश में रहे और दूसरे अंश में नहीं - ऐसा नहीं होता ( रूप अव्याप्यवृत्ति नहीं है ) किन्तु रूप अपने आश्रय के सभी अंशों में रहता है ( अतः वह व्याप्यवृत्ति है ) इस नियम के अनुसार जो छींट प्रभृति अनेक रङ्गों के कपड़े हैं, उनमें कोई रूप सभी अंशों में नहीं है । किन्तु वे भी रूपवाले द्रव्य हैं क्योंकि उनका चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है । तस्मात् उनमें नीलादि से भिन्न कोई रूप मानना पड़ेगा । वही चित्र रूप है ।
भी वही आँखों से देखा अतः वे नहीं देखे जाते ।
पृथिवी में ये सभी रूप रहते हैं । जल और तेज इन दोनों में केवल शुक्ल रूप ही है । शुक्ल रूप को छोड़कर और किसी रूप के आवान्तर वास्तविक भेद नहीं हैं । शुक्ल रूप भास्वर और अभास्वर भेद से दो प्रकार का है। जल में अभास्वर शुक्लरूप है, और तेज में भास्वर शुक्ल रूप है ।
रस
केवल रसनेन्द्रिय से ज्ञात होनेवाले गुण को रस कहते हैं । यह मधुर अम्ल लवण कटुकषाय और तिक्त भेद से छः प्रकार का है । यह पृथिवी और जल इन दो द्रव्यों में ही रहता है । पृथिवी में सभी प्रकार के रस रहते हैं, और जल में केवल मधुर रस ही रहता है ।
गन्ध
घ्राण से ज्ञात होनेवाले गुण को 'गन्ध' कहते हैं । यह सुगन्ध और दुर्गन्ध भेद से दो प्रकार का है, एवं यह केवल पृथिवी में ही रहता है ।
स्पर्श
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केवल त्वचा रूप इन्द्रिय से ज्ञात हो सकनेवाले गुण को स्पर्श कहते हैं । यह पृथिवी, जल, तेज, और वायु इन चार द्रव्यों में रहता है । शीत, उष्ण और अनुष्णाशीत
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भेद से यह चार प्रकार का है। शीतस्पर्श जल में, उष्णस्पश तेज में, अनुष्णाशीत स्पर्श पृथिवी और वायु में रहता है। अनुष्णाशीत स्पर्श भी पाकज और अपाकज भेद से दो प्रकार का है। इनमें पाकज अनुष्णाशीत स्पर्श पृथिवी में (पाक से पृथिवी का अनुष्णाशीतस्पर्श परिवर्तित हो सकता है ) और अपाकज अनुष्णाशीत स्पर्श वायु में रहता है।
इनमें से जल के परमाणुओं में रहनेवाले रूप रस और स्पर्श एवं तेज के परमाणुओं में रहनेवाले रूप और स्पर्श और वायु के परमाणुओं में रहनेवाले स्पर्श नित्य हैं। एवं कार्य रूप जलादि में रहनेवाले रूपादि अनित्य हैं। किन्तु पृथिवी के परमाणुओं में रहनेवाले रूा रस गन्ध और स्पर्श भी अनित्य ही हैं। कार्य रूप पृथिवी में रहनेवाले रूपादि तो अनित्य हैं ही।
इसका यह हेतु है कि पाक के द्वारा पृथिवी में रहनेवाले रूप रस गन्ध और स्पर्श का परिवर्तित होना प्रत्यक्ष से सिद्ध है। अवयवियों के रूपादि का यह परिवर्तन परमावयव परमाणुओं में रूपादि परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। अतः पार्थिव परमाणुओं के रूपादि को अनित्य मानना पड़ता है। यह वैशेषिक दर्शन का खास विषय है, अतः इस विषय का विवरण कुछ विस्तृत रूप से देता हूँ।
पाकजरूपादि समवायिकारणों में रहनेवाले गुण ही जन्यद्र व्यों में रहनेवाले गुणों का असमवायिकारण है । शतशः देखी हुई यह व्याप्ति ही 'काणगुणाः कार्यगुणानारभन्ते' इस न्याय में पर्यवसित हुई है। जब तक सूत लाल न हों तब तक कपड़े लाल नहीं होते । श्याम कपालों से श्याम घट ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु श्यामकपाल से उत्पन्न श्यामघट ही आग में पकने पर लाल हो जाता है। अतः प्रत्यक्ष दृष्ट रक्तघट की उत्पत्ति उक्त न्याय से रक्त कपालों से ही माननी पड़ेगी। फलतः कपालों का रक्त रूप ही घट में दीखनेवाले रक्त रूप का असमवायिकारण है। रक्त रूप की उत्पत्ति की यह प्रणाली घट क उत्पादक त्र्यस रेणु तक अबाधित गति से चलेगी। उक्त रीति के अनुसार घट के उत्पादक द्वयणुक में रहनेवाले रक्त रूप की उत्पत्ति द्वथणुक के उत्पादक दोनों परमाणुओं में रहनेवाले रक्त रूप से होगी। किन्तु प्रश्न यह है कि उन परमाणुओं में रक्त रूप आया कहाँ से? क्योंकि श्यामघट के उत्पादक परमाणु ही इस रक्त घट के भी उत्पादक हैं। उन परमाणुओं में श्याम रूप का अनुमान घट की श्यामता से निरबाध है। अतः यही एक कल्पना अवशिष्ट रह जाती है कि अग्नि के विशेष प्रकार के संयोग ( पाक ) से उन परमाणुओं की श्यामता नष्ट हो जाती है, और उनमें रक्त रूप की उत्पत्ति होती है । किन्तु घट के बन जाने पर घट के उत्पादक परमाणुओं की स्वतन्त्र सत्ता है कहाँ ? वे तो अपने कार्य द्वयणुकों को अपने में समेट कर अपनी स्वतन्त्रता खो चुके हैं। अ: द्वयणुकों में समवेतत्व सम्बन्ध से विद्यमान परमाणुओं में रहनेवाले श्याम रूप का नाश पाक से नहीं हो सकता। अतः उन परमाणुओं में रक्त रूप की उत्पत्ति की सम्भावना ही नहीं है। अतः यह कल्पना करनी पड़ती है कि जिन अवयवियों की परम्परा से श्याम घट का
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( १७ ) निर्माण हुआ था, द्वयणुक पर्यन्त के वे सभी अवयवी अग्नि के संयोग से बिनष्ट हो जाते हैं। नित्य होने के कारण परमाणु विनष्ट नहीं होते। इस प्रकार उक्त श्याम घट के आरम्भक सभी परमाणुओं के अलग हो जाने पर उनमें से प्रत्येक परमाणु में पाक से श्याम रूप का नाश हो जाता है। और पाक से ही उनमें रक्त रूप की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार पहिले के रस गन्ध और स्पर्श भी नष्ट हो जाते हैं और उनमें दूसरे रसादि की उत्पत्ति होती है। इन दूसरे रूप रस गन्ध और स्पर्श से युक्त परमाणुओं के द्वारा पुनः द्वयणुकादि के क्रम से दूसरे पक्व घट की उत्पत्ति होती है । उसमें कथित कारणगुण क्रम से ही रक्तरूपादि की उत्पत्ति होती है। इस पके हुए घट में 'यही वही ट है जिसे पकने के लिए दिया गया था' इस प्रकार की जो प्रत्यभिज्ञा होती है, उसका कारण पके हुए और बिना पके हुए दोनों घटों का ऐक्य नहीं है। ऐक्य न रहने पर भी सादृश्य के कारण प्रत्यभिज्ञा होती है। जैसे कि 'सेयं दीपज्वाला' इत्यादि स्थलों में होती है। वैशेषिकों का यह सिद्धान्त 'पिलुपाकवाद के नाम से प्रख्यात है । 'पिलु' परमाणुओं का ही दूसरा नाम है ।
किन्तु नैयायिक लोग इस बात को नहीं मानते। उन लोगों का कहना है कि पका हुआ घट और बिना पका हुआ घट-दोनों एक ही हैं। इस ऐक्य से ही 'सोऽयं घटः' इत्यादि प्रत्यभिज्ञायें होती हैं । सम्भव होने पर किसी प्रतोति का गौणार्थक मानना उचित नहीं है। अतः उक्त प्रत्यभिज्ञा वस्तुतः ऐक्यमूलक ही है, सादृश्य-मूलक नहीं। तदनुसार सम्पूर्ण घट रूप अवयवी में ही पाक होता है भट्ठी में डाले गये घट का छिद्र से देखने पर प्रत्यक्ष भी होता है। अतः उक्त स्थल में घट का विनाश मानना प्रत्यक्षविरुद्ध भी है। उक्त प्रत्यभिज्ञा स विरुद्ध होने के कारण 'कारणगुणाः कार्यगुणानारभन्ते' इस नियम को पाक ज रूपादि से अतिरिक्त विषय के लिए सङ्कुचित करना पड़ेगा।
प्रत्येक अवयवी अनन्तछिद्रों से युक्त है, अतः उन छिद्रों के द्वारा अति तीक्ष्ण तेज भीतर प्रविष्ट होकर अवयवी को बाहर और भीतर पका देता है। अतः अनुभव से विरुद्ध कच्चे घट का विनाश और पके घट की उत्पत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
संख्या ___यह एक है, ये दो हैं, ये तीन हैं' इत्यादि व्यवहार जिस गुण से उत्पन्न हों, वहीं 'संख्या' है। यह एकत्व और द्वित्वादि से लेकर परार्द्ध पर्यन्त अनन्त प्रकार की है । इनमें एकत्व संख्या की नित्यता और अनित्यता उसके आश्रय की नित्यता और अनित्यता के अनुसार होती है घट अनित्य है अतः उसमें रहनेवाली एकत्व संख्या भी अनित्य है, आकाश नित्य है, अतः उसमें रहनेवाली एकत्व संख्या भी नित्य है, किन्तु द्वित्वादि सभी संख्या अनित्य ही हैं, चाहे उनके आश्रय नित्य हों या अनित्य । क्योंकि इन संख्याओं के व्यवहार करनेवाले पुरुषों की बुद्धि से इसकी उत्पत्ति होती. है। जिस घट में पट को साथ लेकर कोई पुरुष द्वित्व का व्यवहार करता है, उसी घट में पट और दण्ड को
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( १८ )
साथ लेकर कोई तीसरा पुरुष त्रित्व का व्यवहार भी करता है । द्वित्व को दृष्टान्त रूप लेकर समझने में सरलता होगी। जब किसी पुरुष को दो घंटों में से प्रत्येक में 'यह एक है, यह एक है' इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है, तभी दो एकत्वों की उक्त बुद्धि से उक्त दोनों घटों में द्वित्व संख्या की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार अनेक एकत्व विषयक बुद्धि की 'अपेक्षा' द्वित्व की उत्पत्ति में है, अतः उक्त बुद्धि को 'अपेक्षाबुद्धि' कहते हैं । सभी बुद्धियाँ क्षणिक हैं, अतः अपेक्षा बुद्धि भी क्षणिक ही है । अतः उनसे उत्पन्न होनेवाली द्वित्वादि सभी संख्यायें अनित्य हैं ।
I
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है
पहिले कह चुके हैं कि एक क्षण में उत्पत्ति, द्वितीय क्षण में स्थिति और तृतीय क्षण में जिस वस्तु का नाश हो, उसे ही वैशेषिक लोग 'क्षणिक' कहते हैं । किन्तु अपेक्षाबुद्धि का क्षणिकत्व उक्त क्षणिकत्व से थोड़ा सा भिन्न है । अपेक्षाबुद्धि की एक क्षण में उत्पत्ति उसके बाद दो क्षणों तक उसकी स्थिति और चौथे क्षण में विनाश मानना होगा, अतः अपेक्षाबुद्धि का क्षणिकत्व चतुर्थ क्षण में नष्ट होना है। अगर ऐसा न मानें, अपेक्षा बुद्धि का भी और बुद्धियों की तरह तीसरे ही क्षण में विनाश मार्ने ? तो उससे उत्पन्न होनेवाले द्वित्व का सविकल्पक प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। क्योंकि वर्त्तमान विषयों का ही प्रत्यक्ष होता है । प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण हैं । तदनुसार द्वित्व विषयक प्रत्यक्ष के प्रति भी द्वित्व कारण है । अगर द्वित्व के कारणीभूत उक्त अपेक्षाबुद्धि की सत्ता तीन क्षणों तक न मानें तो द्वित्व जनित उक्त प्रत्यक्ष अनुपपन्न हो जाएगा । द्वित्व प्रत्यक्ष की रीति यह कि द्वित्व के आश्रयीभूत दोनों व्यक्तियों में अलग-अलग 'अयमेकः, अयमेकः' इत्यादि आकार की अपेक्षाबुद्धि उत्पन्न होती है । इस अपेक्षाबुद्धि से द्वित्व की उत्पत्ति होती है फिर द्वित्व में विशेषणीभूत द्वित्वत्व विषयक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है । इसके बाद द्वित्व का विशिष्टप्रत्यक्ष होता है । उसके बाद के क्षण में द्वित्व का विनाश होता है। क्योंकि विशिष्टज्ञान के लिए पहिले विशेषण का ज्ञान आवश्यक है, अतः द्वित्वत्व विशिष्ट द्वित्व के प्रत्यक्ष के लिए द्वित्वत्व का निर्विकल्पक ज्ञान मानना आवश्यक है । अगर उक्त अपेक्षाबुद्धि की और साधरण ज्ञानों की तरह दूसरे क्षण तक ही स्थिति मानें, तो द्वित्व की उत्पत्ति के आगे के क्षण में ही अपेक्षा बुद्धि का विनाश हो जाएगा । अतः जिस क्षण में द्वित्वत्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कहा गया है, उसी क्षण में अपेक्षाबुद्धि का विनाश होगा। फिर उसके आगे के क्षण में द्वित्व के सविकल्पक प्रत्यक्ष की अपेक्षा द्वित्व का ही नाश हो जाएगा । क्योंकि अपेक्षाबुद्धिका विनाश ही द्वित्व का विनाशक है । फिर द्वित्व विनाश के बाद द्वित्व का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष के अव्यवहित पूर्वक्षण में विषय का रहना आवश्यक है । अतः अपेक्षाबुद्धि का विनाश और बुद्धियों की तरह तीसरे क्षण में न मानकर उत्पत्ति के चौथे क्षण में मानना पड़ता है ।
लम्बा और चौड़ा एवं भारी उस गुण को 'परिमाण' कहते हैं।
परिमाण
और हल्का ये व्यवहार जिस गुण के कारण हो दोनों में पहिले से लम्बाई चौड़ाई का
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( १९ ) बोध होता है, और दूसरे से भारीपन और हलकापन का बोध होता है। इनमें पहिला भी दो प्रकार का है, एक दीर्घ और दूसरा ह्रस्व । दूसरे प्रकार का वह परिमाण है जिससे द्रव्य का भारीपन और हल्क पन प्रतीति हो। यह भी अणु और महत् भेद से दो प्रकार का है । इसकी भी नित्यता और अनित्यता अपने आश्रय की नित्यता और अनित्यता के अधीन है । अर्थात् नित्य द्रव्य में रहनेवाला परिमाण नित्य है और अनित्य द्रव्य में रहनेवाला परिमाण अनित्य है । अनित्यपरिमाण तीन कारणों से उत्पन्न होता है (१) अवयवों के परिमाण से (२) अवयवों की संख्या से और (३) ( अवयवों के प्रशिथिलसंयोगरूप )प्रचय से । दोनों कलापों के परिमाण से घट में परिमाण की उत्पत्ति होती है। किन्तु उसी परिणाम के तीन कलापों से जिस घट की उत्पत्ति होगी, उस घट का परिमाण दो कलापों से उत्पन्न घट के परिमाण से भिन्न होगा। इस विलक्षण परिमाण का कारण तीनों कपालों का परिमाण नहीं हो सकता, क्योंकि इन तीनों कपालों का परिमाण भी पहिले घट के उत्पादक दोनों कपालों के समान ही है। अतः उक्त तीन कपालों से उत्पन्न घट में जो उक्त दोनों कालों से उत्पन्न घट के परिमाण से विलक्षण परिमाण उपलब्ध होता है, उसका कारण कपालों की त्रित्व संख्या ही है। अतः संख्या भी परिमाण का कारण है । इस प्रकार संख्या में स्वोकृत परिमाण की कारणता के अनुसार ही अणु परिमाणों में किसी भी वस्तु की कारणता का अस्वीकार करना वैशेषिकों के लिए संभव होता है। वैशेषिकों के सिद्धान्त के अनुसार अणुपरिमाण किसी के भी कारण नहीं हैं। परमाणुओं के परिमाण और द्वयणुकों के परिमाण ही अणुपरिमाण है। ये अगर कारण होंगे तो परमाणु के परिमाण द्वयगुणों के परिमाण के कारण होंगे, और द्वयणुकों के परिमाण त्र्यसरेणु के परिमाण के कारण होंगे। किन्तु सो संभव नहीं है, क्योंकि परिमाणों में यह नियम देखा जाता है कि वे अपने समान जाति के अपने से उत्कृष्ट परिमाण को ही उत्पन्न करते है। कपालों में महत् परिमाण हैं उसके परिमाणों से घट का जो परिमाण उत्पन्न होता है वह कपाल परिमाण से महत्तर होता है। अर्थात् कपाल परिमाण में रहनेवाली महत्त्व जाति भी उसमें है और कपाल परिमाण से वह बड़ा भी है। इस नियम के अनुसार परमाणुओं के परिमाणों से द्वथणुकों के परिमाणों की उत्पत्ति मानने से द्वयगुणक के परिमाणों में अणुत्व जाति के साथ साथ परमाणुओं के परिणाम से न्यूनता भी माननी पड़ेगी । क्योंकि जिस प्रकार महत्परिमाण के उत्पन्न होववाले परिमाण महत्तर होते हैं उसी प्रकार अणुपरिमाण से उत्पन्न होनवाले परिमाण अणुतर होंगे। इसी प्रकार द्वथणुकों में रहनेवाले अणुपरिमाणों से अगर त्र्यसरेणु परिमाण की उत्पत्ति माने तो वह द्वयणुक के परिमाण से छोटा होगा । फलतः त्यसरेणु का प्रत्यक्ष न हो सकेगा। जिससे आगे की प्रत्यक्ष धारा ही रुक जाएगी। जो जगत् के अप्रत्यक्ष में परिणत हो जाएगी । तस्मात् द्वयणुक परिमाण के उत्पादक दोनों परमाणुओं की द्वित्व संख्या ही है, एवं तीन द्वयणुकों से उत्पन्न होनवाले त्र्यसरेणु के परिमाण का उसके उपादानभूत तीनों द्वयणुकों की त्रित्व संख्या ही कारण है। घटादि के विशेष प्रकार के परिमाणों के लिए भी संख्या की अपेक्षा का उपपादन कर चुके हैं। अतः जन्य अणुपरिमाणों के लिए वह कोई नवीन कल्पना भी नहीं है ।
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'प्रचय' भी परिमाण का कारण है। इसी से सेर भर लोहे की लम्बाई चौड़ाई और सेर भर रूई की लम्बाई चौड़ाई में अन्तर उपलब्ध होता है । यह अन्तर अवयवों के परिमाण या अवयवों की संख्या से उपपन्न नहीं हो सकते । कथित लोहखण्ड और तुलखण्डों के अवयवों की संख्या और परिमाण समान हैं । अतः उक्त अन्तर की उपपत्ति के लिए यही कल्पना करनी चाहिए कि लोहे के अवयवों के संयोग संघटित है और रूई के अवयवों के संयोग शिथिल ( ढीले ) हैं । अवयवों के इस शिथिल संयोग को ही 'प्रचय' कहते हैं।
पृथकत्व घट पट से पृथक है ( अयमस्मात् पृथक) इस आकार की प्रतीति जिस गुण से हो उसे 'पृथक्त्व' कहते हैं। यह भिन्न द्रव्यों में एक दो या इनसे अधिक द्रव्यों को अवधि मानकर शेष द्रव्यों में रहता है। इस प्रकार यह भेद या अन्योन्याभाव सा ही दीखता है। किन्तु अन्योन्याभाव की प्रतीति का आकार 'घटभिन्नः पटः इत्यादि प्रकार के होते हैं, अतः भेद से पृथकत्व भिन्न है। अर्थात् भेद की प्रतोति के अभिलापक वाक्य में प्रयुक्त प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों के लिए प्रथमान्त पद का ही प्रयोग होता है। किन्तु पृथकत्व की प्रतीति के लिए उनमें से अवधिभूत एक अर्थ का पञ्चम्यन्त पद से उपादान किया जाता है।
संयोग असम्बद्ध दो द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध को ही 'संयोग' कहते हैं। यह तीन प्रकार का है । (१) दोनों सम्बन्धियों में से एकमात्र की क्रिया से उत्पन्न । जैसे पहाड़ और पक्षी का संयोग केवल पक्षी की क्रिया से उत्पन्न होता है । (२) दोनों सम्बन्धियों की क्रिया से उत्पन्न । जैसे लड़ते हुए दो पहलवानों का संयोग। (३) तीसरा संयोग संयोग से ही उत्पन्न होता है। जैसे हाथ ओर पुस्तक के संयोग से शरीर
और पुस्तक का संयोग उत्पन्न होता है । वैशेषिकों के सिद्धान्त में अवयव और अवयवी परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं। अतः शरीर रूप अवयवी और हाथ पैर प्रभृति अवयव परस्पर भिन्न हैं। अतः जिस प्रकार घट की क्रिया से भूतल और पट का सयोग उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार हाथ की क्रिया से शरीर और पुस्तक का संयोग भी उत्पन्न नहीं हो सकता। किन्तु शरीर में क्रिया के न रहने पर भी हाथ की क्रिया से पुस्तक के साथ जो हाथ और पुस्तक का संयोग उत्पन्न होता है, उसके बाद शरीर के साथ पुस्तक के संयोग की प्रतीति होती है। प्रतीति का अपलाप नहीं किया जा सकता। अतः शरीर और पुस्तक में भी संयोग मानना पड़ेगा। किन्तु यह संयोग अगर क्रिया से उत्पन्न होगा तो पुस्तक की क्रिया या शरीर की क्रिया या फिर उन्हीं दोनों की क्रिया से उत्पन्न होगा, किन्तु न शरीर में और न पुस्तक में ही क्रिया है । अतः प्रकृत में शरीर और पुस्तक के संयोग का कारण क्रिया को नहीं माना जा सकता। किन्तु असमवायिकारण तो क्रिया या गुण इन दोनों में से ही कोई होगा। प्रकृत में क्रिया
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( २१ ) असमवायिकारण नहीं हो सकती, अतः उसके असमवायिकारण होने की बात ही नहीं उठती । सुतराम् प्रकृत में हाथ और शरीर इन दोनों के लिए गुण रूप किसी असमवायिकारण की कल्पनः आवश्यक है । यह गुण उक्त संयोग से अव्यवहित पूर्वक्षण में नियत रूप से रहनेवाले हाथ और पुस्तक के संयोग को छोड़ कर दूसरा नहीं हो सकता । अतः हाथ और पुस्तक की क्रिया से उत्पन्न संयोग से ही शरीर और पुस्तक का संयोग उत्पन्न होता है । सुतराम् संयोगजसंयोग का मानना आवश्यक है।
(१) नोदन और (२) अभिधात संयोग के ये दो और प्रकार भी हैं। जिस संयोग से शब्द की उत्पत्ति न हो उसे 'नोदन कहते हैं। एवं इसके विपरीत जिस संयोग से शब्द की उत्पत्ति हो उसे 'अभिघात' कहते हैं ।
विभाग संयोग को विनष्ट करनेवाले गुण का नाम 'विभाग' है। संयोग की तरह यह भी (१) एक क्रिया से उत्पन्न (२) दो क्रियाओं से उत्पन्न और (३) विभाग से उत्पन्न भेद से तीन प्रकार का है। पर्वत से पक्षी का विभाग केवल पक्षी में रहनेवाली क्रिया से ही उत्पन्न होता है। परस्पर गुथे हुए दो पहलवानों का विभाग दोनों पहलवानों में से प्रत्येक में रहनेवाली अलग अग दो क्रियाओं से उत्पन्न होता है ।
संयोगजसंयोग की तरह ‘विभागजविभाग' का भी मानना आवश्यक है। क्योंकि किसी व्यक्ति के हाथ का संयोग अगर किसी वृक्ष के साथ था, और हाथ की क्रिया से उस संयोग के छूट जाने पर वृक्ष से हाथ का विभाग हो जाता है। हाथ और वृक्ष के इस विभाग के उत्पन्न होने पर वृक्ष से शरीर के विभाग की भी प्रतीति होती है। शरीर और वृक्ष का विभाग अगर क्रिया से उत्पन्न होगा तो फिर शरीर की क्रिया से या वृक्ष की क्रिया से अथवा दोनों की क्रिया से ही उत्पन्न हो सकता है। प्रकृत में क्रिया केवल हाथ में ही है, पूरे शरीर में नहीं। वृक्ष में तो है ही नहीं। हाथ अवयव है शरीर अवयवी, अतः दोनों भिन्न हैं। सुतराम् घट की क्रिया से जैसे कि पट और दण्ड का विभाग उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार हाथ को क्रिया से वृक्ष का भी विभाग नहीं उत्पन्न हो सकता। अतः हाथ और वृक्ष का विभाग ही शरीर और वृक्ष के विभाग का कारण है। अतः विभागजविभाग का मानना आवश्यक है। इसी हेतु से विभाग को संयोगध्वंस रूप न मानकर स्वतन्त्र गुणरूप भाव पदार्थ मानना पड़ता है। अगर ऐसा न माने अर्थात् विभाग को संयोगध्वस रूप ही मानें तो हाथ और तरु के विभाग के बाद जो शरीर और तरु के विभाग की प्रतीति होती है, वह न हो सकेगी, क्योंकि शरीर और तरु का विभाग शरीर और तरु के संयोग का ही विनाश रूप होगा। शरीर में क्रिया है नहीं, क्रिया है हाथ में । हाथ की क्रिया से शरीर के संयोग का विनाश कैसे होगा ? हाथ की क्रिया से जिस संयोगविनाश की उत्पत्ति होगी वह तो हाथ में ही रहेगी, शरीर में नहीं। अतः विभाग संयोग का अभाव रूप नहीं है, किन्तु गुण रूप भाव ही है। विभाग को भाव रूप मान लेने से प्रतीतियों की उपपत्ति दिखलायी जा चुकी है।
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( २२ ) विभागजविभाग भी दो प्रकार का है। (१) कारणमात्रजन्य और (२) कारणाकारण विभागजन्य । जिस विभाग की उत्पत्ति होगी, उस विभाग के समवायकारणीभूत द्रव्यों के ही विभाग से जो विभाग उत्पन्न हो उसे 'कारणमात्रविभागजन्य विभाग' कहते हैं। घट-नाश से लेकर उसके उत्पादक कर्मनाश पर्यन्त के पर्यालोचन से यहाँ की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। उसका यह क्रम है कि पहिले घट के अवयव रूप दोनों कपालों में क्रिया (हलचल) की उत्पत्ति होती है। फिर घट के उत्पादक दोनों कपालों में विभाग उत्पन्न होता है। कपालों के इस विभाग से घट के उत्पादक कपालों के संयोग का नाश होता है। चूंकि कपालों का संयोग घट का असमवायिकारण है, अतः इसके नाश से घट का नाश होता है। तब तक कपालों में क्रिया रहती ही है । घट-नाश के बाद कर्म से युक्त उन कपालों का संयोग पहिले के जिस देश के आकाश के साथ था, उस देश से कपालों का विभाग उत्पन्न होता है। आकाश के साथ कपालों के इस विभाग का असमवायिकारण पहिले कहा गया दोनों कपालों का क्रियाजनित विभाग ही है। पूर्व देशों के आकाश से एक दूसरे से विभक्त दोनों कपालों का यह विभाग ही "कारणमात्रविभागजन्य विभागजविभाग" है। क्योंकि इस विभाग के समवायिकारण दोनों कपाल और पूर्वदेशों का आकाश है। अतः दोनों कपाल भी इस विभाग के समवायिकारण हैं। अतः प्रकृत विभाग के समवायिकारणीभूत केवल दोनों कपालों के विभाग से ही वह उत्पन्न होता है, किसी और द्रव्यों के विभाग से नहीं । इसके बाद विभागजविभाग से कपालों का जिस पूर्वदेश के साथ पहिले संयोग था, उस संयोग का नाश होता है। फिर दूसरे देशों के आकाश ( उत्तरदेश ) के साथ इन विभक्त कपालों का संयोग होता है। करालों को उस क्रिया का नाश होता है, जिससे दोनों कपालों का विभाग उत्पन्न हुआ था।
इस प्रसङ्ग में इन दो विषयों को भी समझना आवश्यक है। (१) जिस क्रिया से कपालों का परस्पर विभाग उत्पन्न होता है, उस क्रिया से ही विभक्त कपालों का पूर्वदेश के आकाश के साथ कथित विभाग को उत्पत्ति क्यों नहीं मानते ? क्योंकि क्रिया में विभाग की हेतुता स्वीकृत है। एवं क्रिया को सत्ता इस विभाग के कई क्षणों बाद तक रहती है। फिर विमाग में विभाग की हेतुता की नयी कल्पना क्यों की जाती है ? दूसरी बात यह है कि अगर उक्त दूसरे विभाग की उत्पत्ति विभाग से ही मान भी लें तो यह पहिला विभाग दूसरे विभाग का असमवायिकारण ही होगा। असमवायिकारण का संबलन हो जाने पर कार्य की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं रह जाती है। फिर अवयवों के विभाग के बाद ही अवयवी के नाश से पूर्व ही उक्त दूसरे देश के साथ अवयवों का (विभागज) विभाग क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता ? इसके लिए घट के उत्पादक संयोग का विनाश और घट का विनाश इन दो कार्यों के लिए अपेक्षित दो क्षणों का विलम्ब सहने की क्या आवश्यकता है ?
इन दोनों में प्रथम प्रश्न का यह समाधान है कि अगर उक्त दूसरे विभाग को भी क्रियाजन्य माने तो कमल खिलने की अपेक्षा विनष्ट ही हो जाएँगे। क्योंकि संयोग दो प्रकार के हैं। एक संयोग से अवयवी की उत्पत्ति होती है, जैसे दोनों कपालों का
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( २३ ) कथित संयोग । इसे 'आरम्भक' संयोग कहते हैं। क्योंकि यह संयोग घट रूप अवयवी द्रव्य का 'आरम्भक' अर्थात् 'उत्पादक' है। दूसरा संयोग है अनारम्भक संयोग, जैसे विभक्त कपालों का दूसरे देश के आकाश के साथ संयोग । इससे किसी द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः इसे 'अनारम्भक' संयोग कहते हैं। फलतः वे दोनों संयोग परस्पर विरोधी हैं, अतः एक क्रिया रूप कारण से उन दोनों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अगर इसे मानने का हठ करें तो फूलते हुए कमल के विनाश की उक्त आपत्ति होगी। क्योंकि कमल के पत्रों का ऊपर की ओर जो परस्पर संयोग है, यह कमल का उत्पादक संयोग नहीं है । उस संयोग को नष्ट करनेवाला विभाग ही कमल का फूलना है। जो सूर्य किरणों के संयोग से उत्पन्न होनेवाली पत्रों की क्रिया से होती है । कमल के पत्रों का ही नीचे की ओर डण्टी के ऊपर अंश में भी परस्पर संयोग है। जो कमल का उत्पादक संयोग है। इस संयोग का विनाश उन रविकिरणों के उक्त क्रियाजनित विभाग से नहीं होता है। यदि आग्रहवश ऐसा माने तो कमल का विनाश मानना पड़ेगा, क्योंकि अवयवों का विशेष प्रकार संयोग ही अवयवी का उत्पादक है। एवं उक्त संयोग का विनाश ही अवयवी का विनाशक है। तस्मात् अवयवियों के उत्पादक संयोग के विनाशक विभाग और उक्त संयोग के अविनाशक विभाग दोनों की उत्पत्ति एक क्रिया से नहीं हो सकती। अतः प्रकृत में कपालों के संयोग को नष्ट करनेवाले विभाग की उत्पत्ति क्रिया से मानते हैं। और उन्हीं विभक्त कपालों का पूर्वदेशसंयोग के विनाशक विभाग की उत्पत्ति कपालों के उक्त विभाग से मानते हैं। अतः विभागजविभाग का मानना आवश्यक है।
दूसरे प्रश्न का यह समाधान है कि कथित आरम्भक संयोग के विरोधी विभाग से युक्त अवयवों का दूसरे आकाशादि देशों के साथ तब तक संयोग नहीं हो सकता जब तक की अवयवी विनष्ट नहीं हो जाता। अतः क्रिया से विभाग, विभाग से पूर्व ( आरम्भक ) संयोग का नाश, संयोग के इस नाश से घट का नाश जब हो जाएगा तभी घट के उत्पादक उक्त विभक्त कपालों का दूसरे देशों के साथ संयोग उत्पन्न हो सकता है। अतः उक्त रीति माननी पड़ती है ।
परत्व और अपरत्व परत्व और अपरत्व ये दोनों ही दैशिक और कालिक भेद से दो दो प्रकार के हैं। एक वस्तु से दूसरी वस्तु की दूरी दैशिक परत्व है और एक वस्तु का दूसरे वस्तु से समीप होना दैशिक अपरत्व है। ये दोनों ही आपेक्षिक हैं, अतः अपेक्षाबुद्धि ही इनके कारण हैं
और तीसरे अवधि की भी अपेक्षा होती है। जैसे कि पटना से काशी की अपेक्षा प्रयाग दूर है। एवं पटना से प्रयाग की अपेक्षा काशी समीप है।
कालिक परत्व का ही दूसरा नाम ज्येष्ठत्व है। एवं कालिक अपरत्व का ही दूसरा नाम कनिष्ठत्व है। कालिक परत्व और अपरत्व भी आपेक्षिक हैं। क्योंकि जो कोई व्यक्ति एक व्यक्ति से ज्येष्ठ होता है, वही अपने से पूर्ववर्ती की अपेक्षा कनिष्ठ भी होता है। एवं जो कोई व्यक्ति एक व्यक्ति से कनिष्ठ होता है वही अपने से
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( २४ ) पश्चाद्वर्ती की अपेक्षा ज्येष्ठ भी होता है । अतः इनमें भी अपेक्षाबुद्धि की आवश्यकता होती है । अतः अपेक्षाबुद्धि के नाश से इनका नाश होता है ।
परत्व और अपरत्व दोनों ही बुद्धिसापेक्ष हैं। अतः इनके निरूपण के बाद ही आकर-ग्रन्थों में बुद्धि का निरूपण किया गया है। तदनुसार मैं भी अब बुद्धि का निरूपण प्रारम्भ करता हूँ। बुद्धि के निरूपण में नव्यन्याय की दृष्टि से भी कुछ विषयों को समझाने का मैंने प्रयास किया है।
बुद्धि संसार के सभी व्यवहारों के मूल में बुद्धि ही काम करती है। संक्षेपतः (१) प्रमा ( विद्या) और (२) अप्रमा ( अविद्या ) इसके दो भेद हैं। इनमें अप्रमा के (१) संशय (२) विपर्यय ( ३ ) अनध्यवसाय और (४) तर्क, ये चार भेद हैं।। ... ज्ञान या बुद्धि को अच्छी तरह से समझने के लिए उसके विशिष्ट स्वरूप के प्रत्येक अंश को अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है। नैयायिकों और वैशेषिकों के मत में ज्ञान किसी विषय का ही होता है। बिना विषय के ज्ञान नहीं होते । ज्ञान में भासित होनेवाले विषय ( १) विशेषण (२) विशेष्य और (३) उन दोनों के संसर्ग, ये तीन प्रकार के हैं। 'विषय' का एक चौथा प्रकार भी है जो निर्विकल्पक-ज्ञान में भासित होता है । 'घटवद्भुतलम्' इस ज्ञान में मुख्यतः घट विशेषण है, और भूतल विशेष्य है, एवं संसर्ग वह संयोग है । जिसके कारण भूतल में घट का रहना सम्भव होता है। वैसे तो इसी ज्ञान में घट में घटत्व भी भासित होता है। अतः घटत्व भी विशेषण है, और घट भी विशेष्य है, एवं इन दोनों का समवाय भी संसर्ग है। इसी प्रकार भूतल में भूतलत्व और संयोग में संयोगत्व के भान होने के कारण भूतलत्व संयोगत्वादि और भी विशेषण हैं एवं घट भूतलादि और भी विशेष्य हैं। किन्तु ये गौण हैं। विशेषण को ही 'प्रकार' कहते हैं। ज्ञान के इन विषयों में ज्ञानीय विषयता' नाम का एक धर्म भी है जो विषयों के प्रकारविशेष्यादि के विभेदों के कारण (१) प्रकारता ( २ ) विशेष्यता और ( ३ ) संसर्गता भेद से तीन प्रकार का है। निर्विकल्पज्ञान के चौथे प्रकार के विषयों में रहनेवाली इन तीनों विषयताओं से भिन्न एक चौथी विषयता भी है। उक्त प्रकारता ही उस स्थिति में प्रायशः विधेयता कहलाती है जिसमें कि उसका आश्रय पहिले से ज्ञात न हो। विशेष्यता ही स्थिति विशेष में उद्देश्यता कहलाती है।
ऊपर जिस संसर्ग की चर्चा की गयी है बह विभिन्न दो व्यक्तियों में क्रमशः विशेष्यविशेषणभाव का सम्पादक वस्तु विशेष रूप है, 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि स्थलों में चूँकि दण्ड का संयोग संसर्ग या सम्बन्ध पुरुष में है इसीलिए दण्ड विशेषण है और पुरुष विशेष्य है । सम्बन्ध (१) साक्षात् और ( २ ) परम्परा भेद से दो प्रकार का है। साक्षात् सम्बन्ध संयोग समवाय स्वरूपादि भेद से अनेक प्रकार के हैं। जिस सम्बन्ध के निर्माण में दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता हो उसे परम्परा सम्बन्ध कहते हैं। यह
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( २५ )
अनन्त प्रकार का हो सकता है । इसकी कोई संख्या निर्णित नहीं हो सकती । यह सम्बन्ध ऐसे दो वस्तुओं का भी हो सकता है, जिन्हें साधारण सम्बन्ध से कभी परस्पर सम्बद्ध होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती । ( १ ) वृत्तितानियामक और ( २ ) वृत्तिता का अनियामक भेद से सम्बन्ध दो प्रकार का है । जिस सम्बन्ध से आधार - आधेयभाव की प्रतीति हो उसे 'वृत्तिता का नियामक' सम्बन्ध कहते हैं । ये संयोग समवायादि नियमित प्रकार के ही हैं । जिससे दो सम्बन्धियों में केवल सम्बद्ध मात्र होने की प्रतीति हो उसे वृत्तिता का अनियानक सम्बन्ध कहते हैं ।
जिस ज्ञान के विशेष्य में विक्षेषण की सत्ता वस्तुतः रहे उसी ज्ञान को 'प्रमा' कहते हैं यथार्थ चाँदी में जो 'इदं रजतम्' इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'प्रमा' ज्ञान है, क्योंकि ज्ञान का विशेष्य या उद्देश्य है चाँदी ( रजत ) उसमें रजतत्व रूप विशेषण की या प्रकार की वस्तुतः सत्ता है, अतः उक्त ज्ञान 'प्रमा' । किस वस्तु में किस वस्तु की यथार्थ सत्ता है ? इस प्रश्न का यह समाधान यह है जिस विशेष्य में विशेषण के सम्बन्ध की सत्ता रहे, उसी विशेष्य विशेषण की यथार्थ सत्ता है । प्रकुत उदाहरण के रजत रूप विशेष्य में रजतत्व जाति का समवाय सम्बन्ध है अतः रजत्व की सत्ता रजत में है । शुक्तिका में जो इदं रजतम्' इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'प्रमा' इस लिए नहीं है कि इस ज्ञान के विशेष्य शुक्तिका में रजतत्व का समवाय नहीं है । अतः शुक्तिका में रजत्व का ज्ञान प्रमा न होकर 'अप्रमा' है । फलतः प्रमा के विपरोत अर्थात् जिस ज्ञान के विशेष्य में विशेषण की सत्ता न रहे उस ज्ञान को ही 'अप्रमा' या अविद्या या भ्रम कहते हैं ।
यथार्थ ज्ञान के भेदादि इस ग्रन्थ में विस्तृत रूप से वर्णित हैं। कथित प्रमाज्ञान या यथार्थज्ञान के दो भेद हैं ( १ ) प्रत्यक्ष और ( २ ) अनुमिति । शब्दादिजन्य जितने भी प्रमाज्ञान हैं वे सभी प्रायः अनुमिति में ही अन्तर्भूत हैं । फलतः प्रमाकरण भी अर्थात् प्रमाण भी ( १ ) प्रत्यक्ष और ( ३ ) अनुमान भेद से दो ही प्रकार के हैं, शब्दादि जितने भी प्रकार के प्रमाज्ञान हैं, वे सभी इन्हीं दोनों में से किसी करण से उत्पन्न होते हैं ।
।
निष्पन्न होता है अर्थात् विषय के
।
प्रत्यक्ष शब्द 'प्रति' शब्द और 'अक्ष' शब्द से 'प्रतिगतम् अक्षि' या 'अक्ष्याक्षिप्रति वर्त्तते' इन दोनों व्युत्पत्तिओं के द्वारा प्रकृत में अर्थ के साथ सम्बद्ध इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष शब्द से अभीष्ट है साथ सम्बद्ध इन्द्रिय ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । इस प्रमाण के द्वारा उत्पन्न यथार्थ ज्ञान ही 'प्रत्यक्ष' रूप प्रमिति है । फलतः इन्द्रिय ओर अर्थ के संनिकर्ष से जो यथार्थ ज्ञान उत्पन्न हो वह है प्रत्यक्ष-प्रमिति और इस प्रमिति का कारण ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । प्रत्यक्ष के प्रसङ्ग में और विशद विवेचन इस ग्रन्थ में देखना चाहिए ।
'अनु' पूर्वक 'मा' धातु से अनुमान शब्द बना है । 'अनु' पश्चात् | 'पश्चात् ' शब्द अपने अर्थबोध के लिए किसी और अवधि की है । प्रकृत में वह अवधि है 'लिङ्गपरामर्श' । अर्थात् लिङ्गपरामर्श के ज्ञान उत्पन्न हो उसे 'अनुमिति' कहते हैं । इसी दृष्टी से 'परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिः'
शब्द का अर्थ है आकांक्षा रखता पश्चात् ही जो
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( २६ )
इस प्रकार अनुमिति के लक्षण मिलते हैं । व्याविज्ञान और पक्षधर्मताज्ञान इन दोनों से परामर्श उत्पन्न होता है । हेतु के आश्रय में साध्य का नियमित से रहना ही व्याप्ति है । पक्ष में हेतु का रहना ही पक्षधर्मता है । 'साध्यव्याप्यो हेतुः' यही व्याप्तिज्ञान का आकार है, और 'हेतुमान् पक्षः' यह पक्षधर्मताज्ञान का आकार है । अतः मिलकर इन दोनों से उत्पन्न परामर्श का स्वभावतः 'साध्यव्याप्यहेतुमान् पक्षः ' यह आकार होता है । इस परामर्श को ही 'तृतीयलिङ्गपरामर्श' भी कहते हैं । इस दृष्टि से पक्षधर्मता - ज्ञान हेतु का प्रथम ज्ञान है, और व्याप्तिविशिष्टहेतु का ज्ञान हेतु का दूसरा ज्ञान है, व्याप्ति और पक्षधर्मता इन दोनों रूपों से हेतु का परामर्श रूप तीसरा ज्ञान होता है, अतः उसे " तृतीय लिङ्गपरामर्श " कहते हैं । इसके बाद ही अनुमिति की उत्पत्ति होती है ।
पक्षता
इस प्रसङ्ग में एक विचार उठता है कि प्रायः सभी ज्ञान दो क्षणों तक रहते हैं, तीसरे क्षण में उनका विनाश होता है । कथित परामर्श भी ज्ञान है, अतः वह भी दो क्षणों तक रहेगा । जिस क्षण में वह उत्पन्न होगा, उसके अव्यवहित उत्तरक्षण में जिस प्रकार की अनुमिति को उत्पन्न करेगा, इस अनुमिति के अगले क्षण में भी उसी प्रकार की अनुमिति को वह क्यों नहीं उत्पन्न करता ? क्योंकि कथित दूसरी अनुमिति के अव्यवहित पूर्वक्षण में अर्थात् पहिली अनुमिति की उत्पत्तिक्षण में परामर्श की सत्ता
है
। एवं परामर्श अनुमिति का अन्यनिरपेक्ष कारण है । परामर्श संबलन के बाद अनुमिति के लिए और किसी की अपेक्षा नहीं रह जाती । सुतराम् परामर्श अगर अपनी उत्पत्तिक्षण के अव्यवहित उत्तरक्षण में जिस विषय की जिस आकार प्रकार की अनुमिति को उत्पन्न करेगा, उसी आकार प्रकार की उसी विषय की दूसरी अनुमिति को भी अपने स्थितिक्षण के अव्यवहित उत्तरक्षण में फलतः पहिली अनुमिति के अव्यवहित उत्तरक्षण में उत्पन्न करने में कोई बाधा तो नहीं है ? किन्तु ऐसी बात होती नहीं है । अनुमान को जितने माननेवाले दार्शनिक हैं, उनमें से कोई भी एक आकार प्रकार क अनुमिति के रहते हुए उसी आकार प्रकार की दूसरी अनुमिति की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । किन्तु किसी की स्वीकृति और अस्वीकृति मात्र पर वस्तु के सामर्थ्य को अन्यथा नहीं किया जा सकता । फलतः एक अनुमिति रूप सिद्धि के रहते हुए परामर्श के रहने पर भी दूसरी अनुमिति न हो सके, इसके लिए परामर्श के सामान ही अनुमिति का एक और साक्षात् कारण माना गया है जिसका नाम है 'पक्षता' । इसका ऐसा स्वरूप या लक्षण होना चाहिए, जिससे एक अनुमिति या अन्य किसी प्रकार की सिद्धि के रहते हुए कथित दूसरी अनुमिति की आपत्ति न हो सके । इसी प्रयोजन को सामने रखकर पक्षता के अनेक लक्षण किए गये हैं । जैसे कि ( १ ) सध्य का संशय ही पक्षता है । ( २ ) अनुमित्सा ही पक्षता है । ( ३ ) अथवा अनुमित्सा की योग्यता पक्षता है । ( ४ ) सिद्धि का अभाव ही पक्षता है। पक्षता के इन सभी लक्षण करनेवालों की यहीं दृष्टि रही है कि अनुमिति या अन्य किसी भी प्रकार की सिद्धि के रहते हुए उक्त प्रकार के लक्षणों से आक्रान्त किसी भी पक्षता रूप कारण का रहना संभव न हो । क्योंकि सभी के साथ सिद्धि का विरोध है । अतः
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( २७ ) सिद्धि के रहते हुए पक्षता रूप कारण का संबलन संभव ही नहीं है। अतः एक अनुमिति के बाद दूसरी अनुमिति की आपत्ति नहीं दी जा सकती।।
पक्षता के ये जितने भी लक्षण कहे गये हैं, उन सभी लक्षणों का तत्त्वचिन्तामणिकार ने खण्डन किया है । खण्डन की युक्तियों को विस्तृत रूप से चिन्तामणि के पक्षता प्रकरण में देखना चाहिए । संक्षेप में तत्त्वचिन्तामणि कार कहना है कि एक अनुमिति के रहते हुए परामर्शादि सभी कारणों के रहने पर भी जब दूसरी अनुमति नहीं होती है, तो पहली अनुमिति या सिद्धि को दूसरी अनुमिति का प्रतिबन्धक मानना पड़ेगा। क्योंकि और सभी कारणों के रहने पर भो जिसके रहते कार्य उत्पन्न न हो सके, उसे ही कार्य का प्रतिबन्धक कहा जाता है। प्रतिबन्धक का अभाव भी कार्य का एक कारण ही है । अतः प्रकृत में सिद्धि का अभाव भी अनुमिति का एक कारण है। जिसके चलते एक अनुमिति के बाद तुरत दूसरी अनुमिति नहीं हो जाती । अतः सिद्धि का अभाव ही पक्षता है। किन्तु कभीकभी एक सिद्धि के रहते हुए भी विषय को विशेष प्रकार की जानने की इच्छा से तुरत दूसरी अनुमति होती है। जैसे की आत्मा को विशेष प्रकार से सजाने की इच्छा से आत्मा के श्रवण रूप सिद्धि के बाद भी मनन ( अनुमिति ) का विधान 'आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यः' इत्यादि श्रुतियों के द्वारा किया गया है । अगर जिस किसी भी प्रकार की भी सिद्धि के रहने पर दूसरी अनुमि.ते रूप सिद्धि बिलकुल ही न हो, तो फिर उक्त विधान असङ्गत हो जाएगा। अतः इतना इसमें जोड़ना आवश्यक है कि विशेष प्रकार की अनुमिति या सिद्धि की इच्छा रहने पर एक सिद्धि के रहने पर भी दूसरी अनुमिति होती है। अतः सामान्य रूप से सभी सिद्धियाँ अनुमिति की विरोधिनी नहीं हैं, किन्तु अनुमिति की इच्छा से असंश्लिष्ट अथवा यों कहिये कि सिषाधयिषा के विरह से युक्त सिद्धि की अनुमिति की विरोधिनी है । फलतः सिषाधयिषा के विरह से युक्त जो सिद्धि, उसका अभाव हो अनुमिती का पक्षता रूप कारण है। इसको समझने के लिए अनुमिति की इन तीन स्थितियों को समझना आवश्यक है । (१) जहां परामर्श के बाद केवल अनुमिति रूप सिद्धि रहेगी वहां उस सिद्धि के अव्यवहित उत्तर क्षण में अनुमिति नहीं होगी । क्योंकि यहां कथित पक्षता रूप कारण नहीं है। यह सिद्धि अनुमित्सा या सिषाधयिषा से युक्त नहीं है, सिषाधयिषा के विरह से युक्त है। अतः यह सिद्धि अनुमिति का प्रतिबन्धक है। सुतराम् प्रतिबन्धकाभाव रूप कारण या कथित पक्षता रूप कारण के न रहने से अनुमिति का प्रतिरोध होता है। (२) जहाँ परामर्शादि कारणों के साथ अगर सिषाधयिषा भी है तो फिर उक्त परामर्शजनित अनुमिति रूप सिद्धि के बाद पुनः अनुमिति होगी। क्योंकि यह अनुमिति रूप सिद्धि सिषाधयिषा से युक्त है, सिषाधयिषा के विरह से युक्त नहीं है। अतः सिषाधयिषा के विरह से युक्त न होने के कारण यह सिद्धि अनुमिति का प्रतिबन्धक नहीं है। अनुमिति का प्रतिबन्धक कोई दूसरी सिद्धि है, जिसमें सिषाधयिषा का सम्बन्ध नहीं है। उसका यहाँ अभाव है, अतः पक्षता रूप कारण के रहने से अनुमिति होगी । (३) जहाँ सिद्धि नहीं है वहाँ सिषाधयिषा रहे या न रहे-दोनों ही स्थितियों में अनुमिति होगो ही। क्योंकि यहाँ कोई भी सिद्धि नहीं है, अतः सिषाधयिषा के विरह से युक्त सिद्धि भी नहीं है। सुतराम् सिषाधयिषा के विरह से युक्त सिद्धि का
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( २८ ) अभाव भी अवश्य है। अतः अनुमिति होगी। विस्तृत ज्ञान के लिए अध्यापकों का सहाय्य अपेक्षित है।
हेत्वाभास किसी भी विषय के तत्त्व को अनुमान के द्वारा समझने के लिए जिस प्रकार हेतुओं को समझना आवश्यक है, उसी प्रकार जो हेतु नहीं हैं किन्तु हेतु की तरह दीखते हैं, उन हेत्वाभासों को भी समझना आवश्यक है। अगर ऐसा न मानें तो हेतुओं और हेत्वाभासों के संमिश्रण से कदाचित् अतत्त्व भी तत्त्व की तरह प्रतिभात होकर अन्त में अभीष्ट प्रवृत्ति को विफल कर देंगे, और अनभीष्ट स्थिति में भी डाल देंगे। अतः हेतुओं की तरह विशेष रूप से आचार्यों ने हेत्वाभासों का भी निरूपण किया है ।
'हेत्वाभास' शब्द दो व्युत्पत्तिओं से निष्पन्न होता है । (१ ) हेतोरभासा हेत्वाभासाः और ( २) हेतुवदाभासन्ते इति हेत्वाभासाः। इन में पहिली व्युत्पत्ति के अनुसार हेत्वाभास शब्द का अर्थ होता है 'हेतु का दोष' ।
___ महर्षि गौतम ने हेत्वाभासों को (१) सव्यभिचार ( २ ) विरुद्ध (३) प्रकरणसम (४) साध्यसम और (५) कालात्ययापादिष्ट भेद से पाँच प्रकारों का माना है, और सव्यभिचार हेत्वाभास को समझाने के लिए 'अनैकान्तिकः सव्यभिचारः' इस सूत्र की रचना की है । जो हेतु साध्य या साध्याभाव इन दोनों में से किसी एक के साथ नियमित रूप से सम्बन्ध न हो, वही हेतु 'अनैकान्तिक' है । अर्थात् जो हेतु साध्य और साध्याभाव दोनों के साथ रहे केवल साध्य के ही साथ न रहे, वही हेतु 'अनैकान्तिक' है । सव्यभिचारशब्द के अर्थ की आलोचना से भी इसी अर्थ की पुष्टि होती है। 'व्यभिचारेण सहितः सव्याभिचारः' इस व्युत्पत्ति से सव्यभिचार शब्द बना है। व्यभिचार' शब्द 'वि' 'अभि' और 'चार' इन तीन शब्दों से बना है। इनमें 'वि' शब्द विरुद्धार्थक है और 'अभि' शब्द उभयार्थक है । 'चार' शब्द सम्बन्ध का बोधक है। इसके अनुसार परस्पर विरोधी दो वस्तुओं के साथ अर्थात् साध्य और साध्याभाव के साथ किसी आश्रय में हेतु का रहना ही व्यभिचार है। यह व्यभिचार अर्थात् साध्याधिकरण और साध्याभावाधिकरण दोनों में समान रूप से रहना जिस हेतु का हो, वही 'सव्यभिचार' है।
साध्य के साथ नियत सम्बन्ध ही हेतु की व्याप्ति है। इस व्याप्ति के बल से ही हेतु साध्य का ज्ञापक होता है । जो हेतु उक्त प्रकार से सव्यभिचार या अनैकान्तिक होगा वह कभी कथित रीति से व्याप्तियुक्त नहीं हो सकता। अतः व्यभिचार युक्त हेतु 'सव्यभिचार' नाम का हेत्वाभास है, हेतु नहीं ।
किन्तु बाद में सूक्ष्म निरूपण से यह निष्पन्न हुआ कि व्याप्ति का उक्त स्वरूप ठीक नहीं है । किन्तु हेतु के नियत सम्बन्ध से युक्त साध्य के साथ सपक्षों में हेतु का रहना ही हेतु की व्याप्ति है। इस प्रकार व्याप्तिशरीर के दो अंश माने गये, एक तो साध्य में हेतु का नियत सम्बन्ध अर्थात् व्यापकत्व, दूसरा हेतु के व्यापकीभूत साध्य का सपक्षों में हेतु के साथ रहना अर्थात् सामानाधिकरण्य । इस स्थिति में साध्य में हेतु के
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( २६ ) व्यापकत्ववाला जो अंश है, उसका विरोध परोक्ष रूप से ही सही, कथित व्यभिचार करेगा। क्योंकि जो हेतु साध्य और साध्याभाव दोनों के साथ रहेगा, उस हेतु की व्यापकता उस साध्य में नहीं जा सकती। व्यापक होने के लिए यह आवश्यक है कि व्याप्य के अधिकरण में व्यापक का अभाव न रहे । कथित व्यभिचारी हेतु के आश्रय में तो साध्य का अभाव रहता है। अतः साध्य कभी भी व्यभिचारी हेतु का व्यापक नहीं हो सकता। इस प्रकार व्याप्ति के उक्त स्वरूप मानने के पक्ष में भी कथित व्यभिचार दोष से युक्त हेतु अवश्य ही सव्यभिचार हेत्वाभास होगा ।
किन्तु उक्त व्याप्तिशरीर का एक अंश और है 'व्यापकीभूत साध्य का हेतु के साथ सपक्षों में रहना'। इस अंश को विघटित करनेवाला दोष भी अगर हेतु में रहेगा तो भी वह 'व्यभिचार' दोष से ही युक्त होने के कारण 'सव्यभिचार' हेत्वाभास होगा क्योंकि सामान्यतः व्याप्ति का विघटन ही व्यभिचार होता है ।
___ व्याप्ति के उक्त द्वितीय अंश का विघटन दो प्रकारों से सम्भव है। जिस स्थल में कोई सपक्ष या विपक्ष नहीं है वहाँ साध्य का हेतु के साथ सपक्ष में रहना संभव नहीं होगा क्योंकि वहाँ कोई सपक्ष ही नहीं है । एवं जहाँ संसार के सभी पदार्थ पक्ष होंगे, वहाँ भी सपक्ष का मिलना सम्भव नहीं होगा। अतः ऐसे स्थलों में भी हेतु के साथ साध्य का सामानाधिकरण्य सपक्ष में सम्भव नहीं होगा । पहिले का उदाहरण है 'शब्दो नित्यः शब्दत्वात्' । यहाँ शब्दत्व हेतु केवल शब्द में ही है। शब्द ही पक्ष है। पक्ष में साध्य अनिर्णीत रहता है। सपक्ष में साध्य और हेतु दोनों जो पहिले से निश्चित रहना चाहिए। नित्यत्व निर्णीत है आकाशादि में, वहाँ शब्दत्व हेतु नहीं है। शब्दत्व निर्णीत है शब्द में, वहाँ नित्यत्व रूप साध्य ही निर्णीत नहीं है। अतः ऐसे स्थलों में सपक्ष न मिलने के कारण सपक्ष में साध्य और हेतु का सामानाधिकरण्य संभव न होने से व्याप्ति सम्भव न होगा। अतः शब्दत्व हेतु में भी सव्यभिचार हेत्वाभास होगा। किन्तु नित्यत्व रूप साध्य का अभाव निर्णीत है घटादि अनित्यवस्तुओं में, वहाँ शब्दत्व भी नहीं है। अतः पूर्व कथित व्यभिचार दोष यहाँ सम्भव नहीं है। सुतराम् यहाँ नित्यत्व हेतु का केवल पक्ष में रहना, किसी सपक्ष या विपक्ष में न रहना ही व्याप्ति का विघटक है। इसको 'असाधारण' नाम का व्यभिचार कहते हैं। क्योंकि यह हेत्वाभास साध्य के अधिकरण और साध्याभाव के अधिकरण दोनों में साधारण रूप से सामान्य रूप से नहीं है, जैसे कि साधारण हेत्वाभास रहता है । यह शब्दत्व हेतु केवल शब्द रूप पक्ष में ही है, अतः उक्त शब्दत्व हेतु 'असाधारण' नाम का सव्यभिचार है।
- इसी प्रकार जिस स्थल में संसार के सभी वस्तु पक्ष होंगे-जैसे 'सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वात्', ऐसे स्थलों के हेतु में भी उक्त समानाधिकरण्य संभव नहीं होगा। क्योंकि प्रकृतस्थल में संसार के सभी वस्तु पक्ष के अन्तर्गत आ गये हैं। सपक्ष के लिए कोई नहीं बचा है। सपक्ष को पक्ष से भिन्न होना चाहिए। अतः ऐसे स्थलों में भी हेतु के व्यापक साध्य का किसी सपक्ष में हेतु के साथ रहना संभव नहीं होगा। अतः इस
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( ३० )
प्रकार के हेतुओं में भी व्याप्ति नहीं रह सकती । फलतः व्यभिचार रहेगा । किन्तु कथित साधारण या असाधारण व्यभिचार यहाँ संभव नहीं है । अतः 'अनुपसंहारी' नाम का अतिरिक्त ही व्यभिचार दोष माना गया है । जिससे उक्त हेतु 'अनुपसंहार' नाम का तीसरा सव्यभिचार होगा ।
अतः तत्त्वचिन्तामणिकार ने अपने सव्यभिचार प्रकरण में लक्षण करने से भी पहिले 'सव्यभिचारस्त्रिविधः संधारणासाधारणानुपसंहारिभेदात्' यह विभाग वाक्य ही लिखा है । यद्यपि सूत्र-भाष्यादि में इस त्रैविध्य की चर्चा नहीं है
I
फलितार्थ यह है कि सव्यभिचार ( १ साधारण ( २ ) असाधारण ( ३ ) और अनुपसंहारी भेद से तीन प्रकार का है। इनमें जो हेतु साध्य और साध्याभाव दोनों के साथ रहे. उसे साधारण कहते हैं। जैसे कि 'धूमवान् वह्नेः' का वह्नि हेतु । वह्नि हेतु धूम ' के साथ भी महानसादि में है, और धूमाभाव के साथ भी तप्त अयःपिण्डादि में है । जो हेतु केवल पक्ष में ही रहे, सपक्ष या विपक्ष में जो न रहे उस हेत को 'असाधारण ' सव्यभिचार कहते हैं । जैसे कि 'शब्दो नित्यः शब्दत्वात्' इस अनुमान का शब्दत्व हेतु । यह शब्दत्व हेतु केवल शब्द रूप पक्ष में ही है । न आकाशादि सपक्षों में है, और न घटादि विपक्षों में । अतः शब्दत्व हेतु 'असाधारण' सव्यभिचार है । जिस धर्म का सभी वस्तुओं में केवल अन्वय ही रहे, व्यतिरेक या अभाव किसी भी वस्तु में न रहे उस धर्म को केवलान्वयि धर्म कहते हैं, केवलान्वयि धर्म जिस पक्ष का विशेषण ( अवच्छेदक ) हो उस पक्ष के अनुमान का हेतु भी 'व्यभिचारी' है, क्योंकि इस अनुमान में भी कोई सपक्ष नहीं हो सकता, चूँकि सभी पदार्थ पक्ष के अन्तर्गत आ जाते हैं । अतः उक्त अनुमान के हेतु का व्यापकत्व साध्य में रहने पर भी व्यापकीभूत वह साध्य किसी सपक्ष में हेतु के साथ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई सपक्ष ही नहीं है ।
जो हेतु साध्य के बदले साध्याभाव के साथ ही नियमित रूप से रहे, उस हेतु को 'विरुद्ध' हेत्वाभास कहते हैं । अर्थात् हेतु का साध्याभाव के साथ नियमित रूप से रहना 'विरोध' नाम का हेतुदोष है जिस दोष से युक्त हेतु 'विरुद्ध' नाम का हेत्वाभास है । 'वि' अर्थात् विशेष रूप से साध्य की अनुमिति को जो 'रुद्ध' करें, अर्थात् साध्य के साथ नियत रूप से न रहकर साध्यभाव के साथ ही नियमित होकर व्यतिरेकव्याप्ति को विघटित करते हुए जो अनुमिति को विघटित करे, वही विरुद्ध नाम का हेत्वाभास है । नियमतः साध्य के साथ ही रहनेवाले हेत्वभाव का प्रतियोगित्व ही 'विरोध' दोष है, इस विरोध दोष से युक्त हेतु ही 'विरुद्ध' नाम का हेत्वाभास है । जैसे कि 'हृदो वह्निमान् जलात्' इस अनुमिति का जल हेतु 'विरुद्ध' हेत्वाभास है, क्योंकि जल रूप हेतु वह्न रूप साध्य के साथ न रहकर वह्नि के अभाव के साथ ही नियमित रूप से रहता है । अतः जल रूप हेतु का अभाव वह्नि का व्यापकीभूत अभाव है, इस अभाव का प्रतियोगित्व कथित जल हेतु में है ।
जिस प्रकार हेतु के साथ साध्य का नियमित रूप से रहना व्याप्ति का प्रयोजक है, उसी प्रकार साध्याभाव के साथ हेत्वभाव का नियमित रूप से रहना भी व्याप्ति का
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एक प्रयोजक है । जिसे व्यतिरेक व्याप्ति कहते हैं। साध्याभाव के साथ नियमित रूप से रहनेवाले (साध्याभाव व्यापकीभूत ) हेत्वभाव का प्रतियोगित्व ही व्यतिरेकव्याप्ति है। है। इस व्याप्ति के शरीर में साध्यभावव्यापकीभूताभाववाला जो अंश है, उसी को विरोध दोष अपने साध्यव्यापकीभूताभाववाले अंश के द्वारा विघटित कर व्यतिरेक व्याप्ति को विघटित कर देता है । इस विरोध दोष के प्रसङ्ग में एवं विरुद्ध हेत्वाभास के प्रसङ्ग में बाद में भी अधिक परिवर्तन नहीं हुआ।
जिस हेतु के प्रयोग करने पर 'प्रकरण' की अर्थात् परस्पर विरुद्ध दो पक्षों की 'चिन्ता' अर्थात् संशय ही उपस्थित हो, उन दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष का निर्णय संभव न हो, वह हेतु अगर उन दोनों पक्षों में से किसी भी एक पक्ष के निर्णय के लिए प्रयुक्त हो, तो वह हेतु 'प्रकरणसम' नाम का हेत्वाभास होगा।
शब्द में अनित्यत्व के साधन के लिए नैयायिक अगर नित्यधर्मानुपलब्धि' को हेतु रूप से उपस्थित करें तो उनका यह हेतु 'प्रकरणसम' नाम का हेत्वाभास होगा। क्योंकि प्रतिपक्षी मीमांसक भी तुल्य युक्ति से शब्द में नित्यत्व साधन के 'अनित्यधर्मानुपलब्धि' हेतु को उपस्थित कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में शब्द में अनित्यत्व या नित्यत्व का निर्णय नहीं होगा, किन्तु शब्द में नित्यत्व और अनित्यत्व का संशय ही होगा । अतः उक्त 'नित्यधर्मानुपलब्धि' या 'अनित्यधर्मानुपलब्धि' रूप हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास होगा । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि उक्त विवरण के अनुसार साध्यधर्म की अनुपलब्धि ही अगर हेतु रूप से उपस्थित किया जाएगा तो वह 'प्रकरणसम' हेत्वाभास होगा। और कोई हेतु प्रकरणसम नहीं होगा।
किन्तु श्री वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका में प्रकरणसम के उक्त लक्षण को असपूर्ण ठहराया है, और प्रकरणसम को सत्प्रतिपक्ष का नामान्तर कहा है। 'सन् प्रतिपक्षो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस हेतु का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी दूसरा हेतु रहे वही हेतु सत्प्रतिपक्ष दोष से ग्रस्त है । वादी अगर किसी पक्ष में किसी साध्य की सिद्धि के लिए एक हेतु का प्रयोग करता है, उसके बाद ही कोई प्रतिवादी अगर उसी पक्ष में उसी साध्य के अभाव की सिद्धि के लिए दूसरे हेतु का प्रयोग करता है, तो फिर ये दोनों हेतु सत्प्रतिपक्ष दोष से ग्रस्त समझे जाएँगे। अगर दोनों हेतु अर्थात् हेतु और प्रतिहेतु दोनों समानबल के हों। अर्थात् दोनों में व्याप्ति और पक्षधर्मता समान रूप से रहे, तो वे दोनों सत्प्रतिपक्ष दोष से ग्रसित होंगे और दोनों ही हेतु न होकर 'सत्प्रतिपक्षित' नाम के हेत्वाभास होंगे । इसी बात को दृष्टि में रखकर 'समान बलों सत्प्रतिपक्षी' यह लक्षणवाक्य प्रचलित हैं। इन दोनों हेतुओं में से अगर एक हेतु व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त होने के कारण प्रबल रहेगा और दूसरा उन दोनों से रहित होने के कारण दुबल रहेगा तो फिर वहाँ सत्प्रतिपक्ष दोष नहीं होगा। दुबल हेतु में केवल व्यमिचार या स्वरूपासिद्धि दोष होगा । और सबल हेतु से अभीष्ट अनुमिति हो जाएगी।
प्राचीन नैयायिकों ने सत्प्रतिपक्ष को अनित्य दोष माना है। उन लोगों का अभिप्राय है कि जब तक कि हेतुलिङ्गकपरामर्श और प्रतिहेतुलिङ्गकपरामर्श इन दोनों
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( ३२ ) में से किसी एक परामर्श के किसी भी अंश में भ्रमत्व का निश्चय नहीं हो जाता, तब तक ही उक्त दोनों हेतु सत्प्रतिपक्षित रहेंगे, उक्त भ्रमत्व निश्चय के बाद नहीं । अतः कुछ नियमित समय में ही रहने के कारण सत्प्रतिपक्ष अनित्य दोष है। इस मत में सद्धेतु स्थल में भी अगर विरोधी प्रतिहेतु का भ्रमात्मक परामर्श भी है, तो सद्धेतु भी तक तक सत्प्रतिपक्षित रहेगा, जब तक कि उक्त भ्रमात्मक विरोधी प्ररामर्श का भ्रमत्व ज्ञात नहीं हो जाता।
नव्य नैयायिकों के मत से सत्प्रतिपक्ष नित्य दोष हैं। क्योंकि किसी हेतु को सत्प्रतिपक्षित होने के लिए इतना ही आवश्यक है कि प्रकृत हेतु से जिस पक्ष में साध्य का साधन इष्ट है, उस पक्ष में उक्त साध्य के अभाव की व्याप्ति से युक्त दूसरा (प्रतिहेतु) अगर विद्यमान है, तो वह पहिला हेतु सत्प्रतिपक्षित होगा। जल में वह्नि के साधक सभी हेतु सत्प्रतिपक्षित होंमे । क्योंकि वह्नि के अभाव की व्याप्ति जलत्व में है, एवं जल मेंवह्नयभावव्याप्यजलत्व सर्वदा ही विद्यमान है । अतः इस प्रकार का हेतु सदा ही सत्प्रतिपक्षित रहेगा। अतः सत्प्रतिपक्ष नित्य दोष है।
महर्षि गौतम ने चौथे हेत्वाभास का नाम 'साध्यसम' कहा है। और उसके स्वरूप को समझाने के लिए 'साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः' यह सूत्र लिखा है । पहिले से जो सिद्ध नहीं रहता है वहीं 'साध्य' कहलाता है। हेतु के लिए यह आवश्यक है कि वह पहिले से "सिद्ध' रहे । अर्थात् उसमें असाध्य की व्याप्ति सिद्ध रहे । एवं ( साध्यव्याप्ति से युक्त ) हेतु स्वयं पक्ष में सिद्ध रहे । किन्तु जिस अनुमान का हेतु पहिले से सिद्ध नहीं है, वह हेतु साध्य के समान ही है, अतः उसे 'साध्यसम' कहा गया है। अगर कोई 'छाया द्रव्य है क्योंकि वह गतिशील है' इस प्रकार से अनुमान का प्रयोग करे तो यहाँ 'गतिशीलत्व' हेतु 'साध्यसम' हेत्वाभास होगा। क्योंकि 'छाया में गति है' यही पहिले से सिद्ध नहीं है । अतः छाया में द्रव्यत्व की सिद्धि की तरह छाया में गति की भी सिद्धि अपेक्षित है।
_ 'साध्यसम' हेत्वाभास को ही नव्य नैयायिकों ने 'असिद्ध' शब्द से व्यक्त किया है । एवं ( १) आश्रयासिद्ध (२) स्वरूपासिद्ध और ( ३) व्याप्यत्वासिद्ध इसके ये तीन भेद किये हैं। जिसमें साध्य की सिद्धि अभिप्रेत हो उसे पक्ष कहते हैं । पक्ष को ही 'आश्रय' भी कहते हैं । आश्रय अगर सिद्ध नहीं रहेगा तो अनुमान कहाँ होगा ? अगर कोई साधारण फूलों के दृष्टान्त से आकाशकुसुम में गन्ध का अनुमान करे तो वहाँ के सभी हेतु आश्रयासिद्ध होंगे । एवं स्वर्णमय-पर्वत में अगर कोई वह्नि का अनुमान करे तो वहाँ के भी सभी हेतु आश्रयासिद्ध होंगे । यद्यपि पर्वत असिद्ध नहीं है, किन्तु पर्वत में स्वणमयत्व असिद्ध है । अतः स्वर्णमयपर्वतरूप विशिष्टपक्ष भी असिद्ध है।
हेतु यदि कथित पक्ष में विद्यमान न रहे तो वह हेतु 'स्वरूपासिद्ध' हेत्वाभास होगा । जैसे कि जल में कोई धूम हेतु से भी वह्नि का अनुमान करना चाहेगा तो वहाँ का धूम हेतु स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास होगा। क्योंकि जल रूप पक्ष में धूम हेतु नहीं है । भाष्यकार ने जो असिद्ध का उदाहरण दिया है, वह स्वरूपासिद्ध का ही उदाहरण
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( ३३ )
है, क्योंकि छाया या अन्धकार में गति रूप हेतु नहीं है । इससे ऐसा भान होता है कि वात्स्यायनादि प्राचीन नैयायिकों ने केवल स्वरूपासिद्ध को ही असिद्ध मानते थे । असिद्ध के और भेद बाद में किये गये ।
हेतु में उसके विशेषणीभूत धर्म ( हेतुतावच्छेदक ) के अभाव और साध्य में साध्यतावच्छेदक के अभाव को व्याप्यत्वासिद्धि दोष कहते हैं । इस दोष से युक्त हेतु व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास है । 'पर्वतो वह्निमान् काञ्चनमयधूमात्' इस अनुमान के हेतु - धूम में काञ्चनमयत्व रूप हेतुतावच्छेदक नहीं है । अतः वह ( हेत्वप्रसिद्धि रूप ) व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास है । एवं पर्वतः काञ्चनमयवह्निमान् धूमात्' इस अनुमान के साध्य वह्नि में काञ्चनमयत्व रूप साध्यतावच्छेदक नहीं है, अतः यह हेतु ( साध्या प्रसिद्ध रूप ) ब्याप्यत्वासिद्ध है । इसी प्रकार व्याप्ति में अनुपयोगी ( व्यर्थ ) विशेषणादि से युक्त हेतु भी व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास ही है, जैसे कि 'पर्वतो वह्निमान् नीलधूमात्' इत्यादि स्थलों का नीलधूम रूप हेतु व्याप्यत्वासिद्ध है, क्योंकि धूम का नील विशेषण व्यर्थ है । यह रहना चाहिए कि दोष जहाँ कहीं भी रहे, किन्तु दुष्टता हेतु में ही आवेगी ।
1
पाँचवें हेत्वाभास को महर्षि ने 'कालातीत' की संज्ञा दी है, और इसके परिचय के लिए " कालात्ययापदिष्टः कालातीतः” इस सूत्र का निर्माण किया है ।
1
पक्ष में पूर्ण रूप से निश्चित साध्य के लिए अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती है एवं पक्ष में जिस साध्य का अभाव ही पूर्णरूप से निश्चित है, उस साध्य के लिए भी न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । किन्तु जो साध्य पक्ष में सन्दिग्ध रहता है, उस साध्य को उस पक्ष में निश्चित रूप से समझाने के लिए ही न्याय का प्रयोग होता है । हेतुवाक्य का प्रयोग भी न्याय के ही अन्तर्गत है ।
जिस समय जिस पक्ष में जिस साध्य का सन्देह वर्त्तमान है, वही समय हेतुप्रयोग के लिए उपयुक्त है । यदि उस समय उस पक्ष में उप साध्य का अभाव दूसरे किसी बलवत् प्रमाण से निश्चित है, तो उस समय उस पक्ष में साध्य का सन्देह नहीं रह सकता। साध्यसन्देह का समय पक्ष में साध्याभाव निश्चय के पूर्व ही था, जो 'अतीत ' हो चुका है । अतः जिस पक्ष में जिस साध्य का अभाव किसी बलवत् प्रमाण से निश्चित है, उस पक्ष में उस साध्य की अनुमिति के लिए अगर कोई हेतु का प्रयोग करे तो वह हेतु व्याप्ति-पक्षधर्मता प्रभृति से युक्त होने पर भी ' कालातीत' नाम का हेत्वाभास होगा । उससे प्रमा अनुमिति नहीं हो सकती । इसका अतीतकाल' नाम भी प्राचीन ग्रन्थों में है ।
नवनैयायिक इस हेत्वाभास को ही 'बाधित' और उसके विशेषणीभूत दोष को 'बाध' कहते हैं । पक्ष में बलवत् प्रमाण के द्वारा निश्चित साध्य के अभाव का निश्चित रहना ही बाध है । फलतः पक्ष में साध्याभाव का रहना ही बाध दोष है । द्वारा इस बाध दोष से युक्त हेतु ही 'बाधित' नाम का
जिस किसी भी सम्बन्ध के हेत्वाभास है ।
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( ३४ )
दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार हेत्वाभास शब्द का अर्थ होता है 'दुष्टहेतु' । दोषों से युक्त हेतु ही दुष्ट हेतु है । फलतः कथित दोष ही दुष्ट हेतुओं को सद्धेतुओं से पृथक करते अतः दुष्टहेतु रूप हेत्वाभासों को समझने के लिए हेतु के दोषों को समझना पहिले आवश्यक है । दोषों को समझ लेने के बाद ' इस दोष से युक्त ही दुष्ट हेतु है' इस प्रकार दुष्टहेतुओं को समझना सुलभ हो जाता है । इसी दृष्टि से ' हेतोरभासा हेत्वाभासाः ' इस व्युत्पत्ति से लभ्य हेतु के दोषों का ही लक्षण आकर ग्रन्थों में किया गया है ।
हेतुओं के ये दोष दो प्रकार से अनुमिति का प्रतिरोध करते हैं। एक सीधे ही अनुमिति को रोकते हैं । जैसे कि सत्प्रतिपक्ष और बाघ । कुछ हेत्वाभास अनुमिति के कारण व्याप्ति या पक्षधर्मता का विघटन करते हुए अनुमिति का प्रतिरोध करते हैं, जैसे कि व्यभिचार एवं स्वरूपासिद्धि | कुछ हेत्वाभास ऐसे भी हैं जो उक्त दोनों ही प्रकार से अनुमिति का प्रतिरोध करते हैं, जैसे कि आश्रयासिद्धि एवं साध्याप्रसिद्धि ।
हेत्वाभास की संख्याओं में और नामों में भी वैशेषिकदर्शन के सूत्र में इसके तीन ही भेद कहे गये हैं, सतनाम को जोड़कर निम्नलिखित चार ( ३ ) सन्दिग्ध और ( ४ ) अनध्यवसित । सत्प्रतिपक्ष ( ४ ) असिद्ध और ( ५ ) बाध मीमांसकों ने महर्षि कणाद की रीति से इसके
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इसी प्रकार जिसमें द्वेष अपेक्षा न हो वही 'दुःख' है ।
I
मतभेद देखा जाता है । जैसे कि किन्तु भाष्यकार ने उनमें अनध्यभेद किया है । ( १ ) असिद्ध ( २ ) विरुद्ध न्यायमत में ( १ ) सव्यभिचार (२) विरुद्ध (३) ये पाँच हेत्वाभास के मुख्य भेद माने गये हैं । तीन ही भेद किये हैं ।
हेतु की तरह हेत्वा
लोगों को उठाना
दोषों का प्रदर्शन
इस प्रकार ज्ञान के परिशोधन के अभिप्राय से आचार्यों ने भासों को भी समझाने में बहुत श्रम किया है । जिसका लाभ हम चाहिए। एक पक्ष के स्थापन के लिए विरुद्ध पक्ष के हेतुओं में आवश्यक है । जो आज भी न्यायालयों के व्यवस्थाओं को सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर अवगत हो सकता है । प्राचीन समय के धर्मशास्त्रानुयायी व्यवस्थाओं को देखने से तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है। जिसके लिए भारतीय व्यवहार के द्वैतपरिशिष्टादि निबन्ध ग्रन्थों के व्यवहारप्रकरणों को देखना उपयोगी होगा ।
सुख
जिस इच्छा
लिए और किसी इच्छा की आवश्यकता न हो उसे 'सुख' कहते हैं। सुख की इच्छा से ही चन्दनवनितादि सभी विषयों की इच्छा होती है । अर्थात् चन्दनादि विषय चूँकि सुख के कारण हैं, इसीलिए उनकी इच्छा होती है । सुख की इच्छा के लिए किसी और इच्छा की आवश्यकता नहीं होती । अतः किसी और इच्छा के अनधीन इच्छा का विषय ही 'सुख' है ।
दुःख
उत्पन्न होने के लिए मध्य में दूसरे विषयों के द्वेष की मुख्यतः जीवों को दुःखों से ही द्वेष है । फिर 'ये मुझे न
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( ३५ ) मिलें' इस प्रकार की धारणा से जिनसे साक्षात् या परम्परा से दुःख मिलने की सम्भावना समझ में आती है, उन सभी वस्तुओं से द्वेष उत्पन्न होता है ।
इच्छा अपने लिए अथवा दूसरे के लिए किसी अप्राप्त वस्तु की 'मुझे यह मिले या उसे यह मिले' इस प्रकार की जो प्रार्थना, उसे ही 'इच्छा' कहते हैं । काम अभिला. षादि इसके अनेक अवान्तर भेद हैं ।
द्वेष आत्मा के जिस गुण के द्वारा जीव अपने को जलता सा अनुभव करे वही 'द्वेष' है । क्रोध द्रोहादि इसी के अवान्तर भेद हैं।
प्रयत्न उत्साह को ही 'प्रयत्न' कहते हैं । यह तीन प्रकार का है (१)जीवनधारणोपयोगी (या जीवनयोनि) (२) इच्छा से उत्पन्न और ( ३ ) द्वेष से उत्पन्न । इनमें जीवनयोनि यत्न से सोते हुए जीव के प्राणादि वायुओं की क्रियायें उत्पन्न होती हैं। एवं जागते हुए पुरुष का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है । अपने अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए आवश्यक क्रिया का कारण ही इच्छाजनित 'प्रयत्न' है। इस इच्छाजनित प्रयत्न के कारण ही शरीर का पतन नहीं होता । एवं अहित वस्तुओं से बचने के लिए जो व्यापार होते हैं, उनका कारण भी प्रयत्न ही है, जो द्वेष से उत्पन्न होता है।
बुद्धि से लेकर प्रयत्न तक कहे गये ये १७ गुण ही महर्षि कणाद के सूत्रों के द्वारा कहे गये हैं । गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म अधर्म और शब्द इन सात वस्तुओं में गुणत्व की व्यवस्था भाष्यकार प्रशस्तपाद ने की है । और इसे कथित सत्रह गुणों के विधायक सूत्र में पटित 'च' शब्द के द्वारा सूत्रकार का अनुमत माना है ।
गुरुत्व पृथिवी और जल का पहिला पतन जिस गुण के कारण हो उसे 'गुरुत्व' कहते हैं। यह 'गुरुत्व' नाम का गुण केवल पृथिवी और जल में ही रहता है । गुरुत्व से पतन का सिद्धान्त पृथ्वी के मध्याकर्षणवाले आधुनिक सिद्धान्त से बिलकुल विपरीत है ।
स्नेह जो केवल जल का ही विशेषगुण हो उसे 'स्नेह' कहते हैं । स्नेह के हीकारण आटा प्रभृति पिसे हुए द्रव्यों की गोल आकृति बन सकती हैं । घृतादि जिन पार्थिवद्रव्यों से उक्त आकृतियाँ बनती हैं, वहाँ भी घृतादि में जल सम्बन्ध के कारण ही वैसा होता है।
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संस्कार 'संस्कार' नाम का भी एक गुण है जिसके (१) वेग (२) भावना और (३) स्थितिस्थापक ये तीन भेद हैं । ( १ ) वेग नाम संस्कार क्रिया से उत्पन्न होता है
और पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन इन पाँच द्रव्यों में रहता है । (२) 'भावना' नाम का संस्कार आत्मा में रहता है। इसी के बल से स्वयं तीसरे क्षण में ही विनष्ट हो जाने पर भी पूर्वानुभव स्मृति को उत्पन्न करता है । ( ३ स्थितिस्थापक संस्कार के कारण ही बाँस प्रभृति द्रव्यों के अग्रभाग को बलात् नीचे से ले आकर छोड़ देने बाद वे फिर अपनी पहिले की स्थिति में आ जाते हैं।
धर्म जीव के उस गुण को धर्म कहते हैं, जिससे उसे सुख मिलता है, इसी का दूसरा नाम पुण्य है । 'किन क्रियाओं से धर्म की उत्पत्ति होती है ?' इसको श्रुति स्मृति ही समझा सकते हैं । तदनुसार 'श्रुत्यादि प्रमाणों के द्वारा निर्दिष्ट क्रियाओं से उत्पन्न गुण ही 'धर्म' है इस प्रकार 'विहितकमजन्यो धर्मः' धर्म का यह लक्षण किया जाता है।
__ अधर्म . अधर्म भी जीव का ही विशेष प्रकार का गुण है । जिससे जीवों को दुःख मिलता है। शास्त्रों में निषिद्ध जीवहत्यादि क्रियाओं से इसकी उत्पत्ति होती है।
शब्द । श्रोत्रेन्द्रिय से गृहीत होनेवाले गुण को ही शब्द कहते हैं। यह संयोग से विभाग से और शब्द से उत्पन्न होता है । दण्ड और मेरी के संयोग से शब्द की उत्पत्ति होती है । एवं बाँस प्रभृति के विभाग से भी शब्द की उत्पत्ति होती है। किन्तु संयोग और विभाग से उत्पन्न शब्दव्यक्ति का श्रवण संभव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष के लिए विषय के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध आवश्यक है । शब्द रूप विषय का ग्राहक श्रवणेन्द्रिय है । यह आकाश रूप है । आकाश अमूर्त्त होने के कारण कहीं जा नहीं सकता । अतः शब्द की उत्पत्ति जिस देशावच्छिन्न आकाश में होता है, वहाँ श्रवणेन्द्रिय जा नहीं सकता । किन्तु उस शब्द का प्रत्यक्ष तो होता है । इसलिए यह कल्पना करनी पड़ती है कि संयोग या विभाग से जिस शब्दब्यक्ति की उत्पत्ति होती है, उसी शब्द से उसी शब्द के सदृश दूसरे शब्द की उत्पत्ति अनन्तर प्रदेश में होती है । इस प्रकार एक शब्द से दूसरे शब्द की उत्पत्ति, और दूसरे शब्द से तीसरे शब्द की उत्पत्ति की धारा जल की तरङ्गों की तरह चलती है । उस धारा के अन्तर्गत जब किसी की उत्पत्ति कर्णवाले आकाश प्रदेश में होती है, तो उस शब्द का प्रत्यक्ष होता है। अतः संयोग और विभाग की तरह शब्द से भी शब्द की उत्पत्ति माननी पड़ती है।
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( ३७ )
कर्म सभी प्रकार के चलने को या गतियों को 'कर्म' कहते हैं। ऊपर की तरफ उछालने की क्रिया को उत्क्षेपण एवं निचे की तरफ गिराने की क्रिया को अपक्षेपण' कहते हैं। समेटने की क्रिया को 'आकुञ्चन', और सामने वाहर की तरफ फैलाने की क्रिया को प्रसारण कहते हैं। शेष सभी क्रियाओं का 'गमन' कहते हैं । क्रियाओं का ऐसा विशद एवं सूक्ष्म वर्णन और किसी दर्शन में नहीं है । उसे इस मूल ग्रन्थ में देखा जा सकता है ।
सामान्य सभी व्यक्तियों के कुछ असाधारण धर्म होते हैं, जो उसी व्यक्ति में रहते हैं। इसके द्वारा ही जगत् के और सभी वस्तुओं से उस व्यक्ति को अलग रूप में समझा जाता है । इसी प्रकार कुछ ऐसे भी धर्म हैं जिनके कारण पदार्थ व्यक्तिशः भिन्न होते हुए भी एक आकार की प्रतीति के विषय होते हैं। जैसे सभी घट-व्यक्तियाँ अलग-अलग हैं । किन्तु 'अयं घटः' इस एक ही प्रकार से सब की प्रतीति होती है। विभिन्न व्यक्तियों की यह एक आकार की प्रतीति का कोई प्रयोजक अवश्य है । उस प्रयोजक को ही 'सामान्य' कहते हैं। अतः जो समान आकृत्यादिवाले विभिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति
का कारण हो वहीं 'सामान्य' है । इसे जाति भी कहते हैं। . बौद्धों का इस प्रसङ्ग में कहना है कि कोई भी व्यक्ति केवल अपने से भिन्न और सभी व्यक्तियों से विभिन्न रूप में ही प्रतीति होती है। अतः घटव्यक्ति में घंटों से भिन्न पटादि सभी व्यक्तियों का जो भेद है, वही विभिन्न घटों में “यह घट है" इस प्रकार की प्रतीति से भासित होता है, क्योंकि सभी घटों में घट से भिन्न और सभी पदार्थों का भेद समान रूप से विद्यमान है। इस समान विषयक प्रतीति का सम्पादक है यह तद्भिन्नभिन्नत्व या अपोह, इससे ही उक्त विभिन्न व्यक्तियों में समान आकार की प्रतीतियों का सम्पादन होता है। इसके लिए अलग जाति का नाम के भाव पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है।
विशेष ____ 'विशेष' नाम का भी एक पदार्थ वैशेषिक लोग मानते हैं। इसे केवल वैशेषिक लोग ही मानते हैं। इसको मानने में वे इस युक्ति का प्रयोग करते हैं कि जिस प्रकार घट पटादि दृश्य पदार्थों में परस्पर भेद मानते हैं उसी प्रकार उनके उत्पादक परमाणुओं में और आकाशकालादि विभु पदार्थों में भी भेद मानना होगा। किन्तु घट पटादि सावयव पदार्थों में परस्पर भेद के नियामक उनके अवयवों के भेद हैं। अर्थात् घट पट से भिन्न इसलिए हैं कि घट के उत्पादक कपाल और पट के उत्पादक तन्तु परस्पर भिन्न हैं। जिनके उत्पादक अवयव परस्पर भिन्न जाति के होते हैं, वे सभी द्रव्य भी परस्पर भिन्न जाति के ही होते हैं। किन्तु निरवयव परमाणु और आकाशादि के तो अवयव नहीं हैं। अवयवों के भेद से उसमें परस्पर भेद का नियम नहीं किया
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( ३८ )
।
परस्पर भेद का नियामक कोई पदार्थ मानना अर्थात् जो अपने-अपने आश्रयीभूत द्रव्य को में या भिन्न रूप में समझावे वहीं 'विशेष' है । फलतः अनन्त है ।
जा सकता । अतः निरवयव द्रव्यों में पड़ेगा । इसी पदार्थ का नाम 'विशेष' है अपने से भिन्न सभी वस्तुओं से 'विशेष' रूप यह प्रत्येक निरवय द्रव्य में अलग अलग है किन्तु इस प्रसङ्ग में यह समझना है, दूसरे परमाणु में दूसरा विशेष है । अतः एक परमाणु से फलतः दोनों परमाणुओं में रहनेवाले दोनों विशेषों के परस्पर परस्पर भेद के प्रयोजक हैं। किन्तु इन दोनों विशेषों ही कौन नियामक है ? इस प्रसङ्ग में वैशेषिकों का कहना है कि ये विशेष 'स्वतः व्यावृत्त' इनमें परस्पर भेद के लिए किसी दूसरे नियामक की आवश्यकता नहीं है ।
शेष रहता है कि एक परमाणु में एक विशेष दूसरा परमाणु भिन्न है । भेद ही दोनों परमाणु में परस्पर भेद है ? इसका
इस 'स्वतोव्यावृत्ति' वाली दुर्बलता के कारण ही नव्यवैशिषकों ने 'विशेष' पदार्थ को अस्वीकार कर दिया है। उन लोगों का कहना है कि अगर परमाणु प्रभृति निरवयव द्रव्यों में रहनेवाले विशेषों को स्वतः व्यावृत्त मानते हैं, तो फिर परमाणुप्रभृति सभी निरवयव द्रव्यों को ही स्वतोव्यावृत्त क्यों नहीं मान लेते ? इसमें क्या लाभ है कि निरवय पदार्थों में परस्पर भेद के लिए उनमें स्वतोव्यावृत्तस्वभाववाले विशेषों की कल्पना की जाय ?
समवाय
समवाय नाम का एक प्रष्ठ पदार्थ भी महर्षि ने माना है । संयोग की तरह समवाय भी सम्बन्ध रूप है, क्योंकि यह भी विशेष्यविशेषणभाव का नियामक है । संयोग सम्बन्ध से समवाय सम्बन्ध में यह अन्तर है कि यह अपने आधार और आधेय इन दोनों में से एक के विनष्ट होने तक बना रहता है। संयोग में यह बात नहीं है । यह अपने आधार और आधेय दोनों के बने रहने पर भी विनष्ट हो जाता है। आधार या आधेय के सत्ता पर्यन्त समवाय का रहना ही वस्तुतः समवाय की नित्यता है । यद्यपि आकाशादि की तरह समवाय की नित्यता का भी उपपादन किया गया है !
विशेष्यविशेषणभाव का नियामक ही सम्बन्ध है । 'घटवद्भूतलम्' इत्यादि स्थल में घटका संयोग भूतल में है, अतः घट विशेषण है । एवं भूतल विशेष्य इसलिए है कि भूतलानुयोगिक संयोग घट में है । इसी प्रकार महर्षि कणाद ने समवाय का लक्षण करते हुए लिखा है कि 'इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः सम्बन्धः स समवाय:' ( ७-२-२६ )
'इह कुण्डे दधि', 'इह कुण्डे वदराणि' इत्यादि प्रतीतियों में जिस प्रकार कुण्ड और दही एवं कुण्ड और बेर इन विशेष्य और विशेषणों को छोड़कर दोनों के संयोग सम्बन्ध भी विषय होते हैं; उसी प्रकार 'इह तन्तुषु पट: ' ' इह वीरणेषु कटः', 'इह द्रव्ये द्रव्य गुणकर्माणि', 'इह गवि गोत्वम्', 'इहात्मनि ज्ञानम्, 'इहाकाशे शब्द:', इत्यादि प्रतीतियों में भी तन्तु आधारों और पट प्रभृति आधेयो से अतिरिक्त कोई सम्बन्ध अवश्य ही भासित होता है । क्योंकि कोई भी विशिष्टबुद्धि विशेष्य और विशेषण के सम्बन्ध के बिना
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( ३६ ) उत्पन्न ही नहीं हो सकती। 'इह तन्तुषु पटः' इत्यादि प्रतीतियों का नियामक यह सम्बन्ध संयोग हो नहीं सकता, क्योंकि संयोग तो अन्यतरकर्मज होगा, अथवा उभयकर्मज होगा किं वा संयोगज होगा। प्रकृत में तन्तु प्रभृति में पट प्रभृति के सम्बन्ध की उत्पत्ति उक्त कर्मादि से नहीं होती है। दूसरी बात यह है कि जिन दो वस्तुओं का संयोग होता है, उन दोनों का विभाग भी अवश्य होता है। किन्तु तन्तु प्रभृति का प्रटादि के साथ कभी विभाग नहीं होता। जब तक पट की सत्ता रहेगी, तब तक वह तन्तु के साथ सम्बद्ध ही रहेगा। अतः संयोग से भिन्न समवाय नाम का भी सम्बन्धात्मक एक स्वतन्त्र पदार्थ वैशेषिक लोग मानते हैं। वैशेषिक सम्प्रदाय से भिन्न नैयायिक और मीमांसक (प्रभाकर ) भी इसे मानते हैं। किन्तु इसके स्वरूप में कुछ मतभेद है। जैसे कि वैशेषिकगण इसे अतीन्द्रिय और नित्य मानते हैं, किन्तु नैयायिक इसे नित्य मानते हुए भी प्रत्यक्षवेद्य मानते हैं। प्रभाकर इसकी नित्यता को ही अस्वीकार करते हैं। वेदान्ती और सांख्यदर्शन के अनुयायी इसके कट्टर विरोधी हैं। ___सभी सम्बन्धों के प्रतियोगी और अनुयोगी होते हैं। तदनुसार इसके भी प्रतियोगी और अनुयोगी हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इसके प्रतियोगी हैं। एवं द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन ही इसके अनुयोगी हैं। अर्थात् कथित द्रव्यादि पाँच पदार्थ ही समवाय सम्बन्ध से रहते हैं, और द्रव्य, गुण और कर्म में ही रहते हैं।
__ संयोग सम्बन्ध को दृष्टान्त मानकर इसकी सिद्धि की गयी है। संयोग अपने अनुयोगियों और प्रतियोगियों में समवाय सम्बन्ध से रहकर ही विशिष्ट बुद्धि का सम्पादन करता है। अतः समवाय को अगर विशिष्टबुद्धि के नियामक रूप से स्वीकार करते हैं, तो यह भी निर्णय करना होगा कि वह अपने प्रतियोगी और अनुयोगी में किस सम्बन्ध से रहकर उक्त विशिष्टबुद्धियों का सम्पादन करेगा ? समवायवादियों के ऊपर इसके विरोधी इसी प्रश्न के द्वारा अपना चरम प्रहार करते हैं। विरोधियों का अभिप्राय है कि अगर समवाय के रहने के लिए किसी दूसरे सम्बन्ध की कल्पना करेंगे तो फिर उस सम्बन्ध के रहने के लिए भी दूसरे सम्बन्ध की कल्पना आवश्यक होगी, जिसका पर्यवसान अनवस्था में होगा। यदि स्वरूप सम्बन्ध से उसके प्रतियोगी और अनुयोगी में समवाय की सत्ता मानेंगे, तो फिर द्रव्यादि जिन पाँच पदार्थों का समवाय सम्बन्ध मान रहे हैं, उनका स्वरूप सम्बन्ध ही क्यों नहीं मान लेते ?
इस आक्षेप का उत्तर समवायवादी वैशेषिकादि इस प्रकार देते हैं कि घटादि द्रव्यों में रूपादि गुण या थादि का अगर स्वरूप सम्बन्ध से ही रहना माने, तो फिर यह निर्णय करना कठिन होगा कि ये सम्बन्ध किसके स्वरूप हैं ? क्योंकि घटादि भी अनन्त हैं, और उनमें रहनेवाले गुण एवं क्रियादि भी अनन्त हैं । सम्बन्ध को अनन्त पदार्थ स्वरूप मानना सम्भव नहीं है। हमलोग अगर इसके लिए अलग समवाय नाम का सम्बन्ध मान लेते हैं, तो फिर इस प्रकार की कोई भी आपत्ति नहीं रह जाती है। क्योंकि वह अपने सभी प्रतियोगियों और अनुयोगियों में एक ही है, और स्वाभिन्न स्वरूप सम्बन्ध से ही है। एवं समवाय में रहनेवाला सम्बन्ध भी चूंकि समवाय रूप ही है, अतः आगे
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( ४. ) विभिन्न सम्बन्ध की कल्पना की धारा ही रुक जाती है। अतः इस पक्ष में न अनवस्था दोष है, और न कल्पना का गौरवदोष है । अतः समवाय का मानना आवश्यक है।
अभाव
अभाव पदार्थ को महर्षि कणाद के द्वारा उनके सूत्रों से स्वीकृत मानकर मैं उसका विवरण दे रहा हूँ। इस प्रकरण के अन्त में 'अभाव पदार्थ भी महर्षि कणाद को अभीष्ट था' इसकी उपपत्ति यथामति दे दी है ।
प्रथमतः अभाव के ( १ ) अन्योन्याभाव और ( २ ) संसर्गाभाव ये दो भेद हैं । तादात्म्य नाम का एक सम्बन्ध है, जिसके द्वारा इस सम्बन्ध के प्रतियोगी का अभेद उसके अनुयोगी में प्रतीत होता है। जैसे कि 'नरः सुन्दरः' इस बुद्धि में भासित होनेवाले तादात्म्य सम्बन्ध के द्वारा नर' और 'सुन्दर' में अभेद प्रतीत होता है। जिस अभाव की प्रतियोगिता इस तादात्म्य सम्बन्ध से नियमित हो या अविच्छिन्न हो, उस प्रतियोमिता के आश्रयीभूत वस्तु का अभाव ही अन्योन्याभाव है। इस अभिप्राय से ही तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावोऽन्योन्याभाव.' अन्योन्याभाव का यह लक्षण प्रसिद्ध है। 'अन्योन्याभाव का ही दूसरा नाम 'भेद' है।
'अन्योन्यस्मिन् अन्योन्यस्याभावः' इस ब्युत्पत्ति के अनुसार जो अभाव जिस अनुयोगी में रहे, अगर उस अनुयोगी का अभाव भी प्रथमोक्त अभाव के प्रतियोगी में रहे तो वह अभाव 'अन्योन्याभाव है। जैसे कि 'घटो न' इस आकार का अन्योन्याभाव पट में है। यतः अनुयोगीभूत इस पट का भी अन्योन्याभाव घट में है। अन्योन्याभाव के वोधक वाक्य में उसके प्रतियोगी के वोघकपद और अनुयोगी के बोधकपद दोनों ही प्रथमान्त होते हैं, जैसे कि 'घटो न पटः' । किन्तु संसर्गभाव के अभिलापक वाक्य में प्रतियोगि के बोधक पद तो प्रथमान्त होते हैं, किन्तु अनुयोगी के बोधक पद प्रायः सप्तम्यन्त होते हैं, जैसे कि 'भूतले घटो नास्ति' ।।
__अन्योन्याभाव को छोड़कर और सभी अभाव संसर्गाभाव कहलाते हैं। संसर्गाभाव के द्वारा अनुयोगी में प्रतियोगी के संसर्ग का ही प्रतिषेध होता है। ‘भूतले घटो नास्ति' यहाँ पर यद्यपि भूतल में घट के निषेध का ही व्यवहार होता है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर वह प्रतिषेध भूतल में घटसंयोग का ही प्रतिषेध प्रतिपन्न होता है । क्योंकि भूतल में यतः घट का संयोग है, अतः भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट की सत्ता है। सुतराम् भूतल में घट संयोग की सत्ता ही घटसला का नियामक है । अतः भूतल में घट संयोग की असत्ता ही घट की असत्ता की प्रयोजिका होगी।
(१) प्रागभाव (२) प्रध्वंसाभाव और (३) अत्यन्ताभाव भेद से संसर्गाभाव तीन प्रकार का है। कार्य की उत्पत्ति से पहिले उपादानकारण में कार्य के जिस अभाव का व्यवहार होता है वह 'प्रागभाव' है। जैसे कि तन्तु में पट का अभाव दूध में दही का अभाव इत्यादि । यह यद्यपि अनादि है, किन्तु इसका विनाश होता है। क्योंकि पट की उत्पत्ति के बाद तन्तु में पुनः इस अभाव की प्रतीति नहीं होती है।
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मुद्गरादि के प्रहार से घटादि के नाश को ही प्रध्वंस या ध्वंश कहते हैं। इस की उत्पत्ति तो होती है, किन्तु विनाश होता । ध्वंस का विनाश मानने पर फूटे हुए घड़े की पुनः उत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि घटादि के ध्वंस का ध्वंस घटादि के उत्पत्ति स्वरूप हो हो सकता है । अतः ध्वंस सादि होने पर भी अनन्त है ।
संसर्गभावों में जो अभाव नित्य हो उसे ही 'अत्यन्ताभाव' कहते हैं। अत्यन्ताभाव की न उत्पत्ति होती है, न उसका विनाश ही होता है जैसे कि वायु में रूपादि का अभाव अन्तन्ताभाव है, भूतल में घटाभाव भी अत्यन्तामाव ही है।
इस प्रसङ्ग में यह प्रश्न उठता है कि अत्यन्ताभाव यदि नित्य है तो वह अपने आश्रयों में बराबर रहेगा। अतः भूतल में घट की सत्त्वदशा में भी घटाभाव की प्रमा प्रतीति होनी चाहिए । किन्तु भूतल में घट की स्थिति-दशा में घटाभाव की प्रतीति को प्रमा नहीं स्वीकार किया जा सकता ।
__ इसको दो उत्तर दिये जाते हैं । (१) कुछ लोगों का कहना है, अत्यन्ताभाव नित्य और अनित्यभेद से दोनों प्रकार का है। वायु में रहनेवाला रूप का अत्यन्ताभाव नित्य है । एवं भूतलादि में रहनेवाला घटाभाव अनित्य है, क्योंकि भूतल में घट के न रहने पर वह उत्तन्न होता है, पुनः घट के आ जाने पर वह घटाभाव नष्ट हो जाता है। अतः उस समय भूतल में घटाभाव नहीं है ।
(२) कुछ लोगों का कहना है कि सभी अत्यन्ताभाव नित्य हैं । अगर ऐसी बात न हो, भूतल में घट के आ जाने पर घटात्यन्ताभाव का नाश मान लिया जाय तो उस समय अन्यत्र भी घटात्यन्ताभाव की सत्ता न रह पायेगी। जिससे भूतल की तरह और सभी आश्रयों में भी जहाँ कि उस समय घट की सत्ता नहीं है-घटाभाव की प्रतीति प्रमा न हो सकेगी। अतः सभी अत्यन्ताभाव नित्य ही है। भूतल में घट की स्थिति दशा में जो घटाभाव की प्रतीति प्रमा नहीं होती है, उसका कारण है उस समय भूतल में घटाभाव के सम्बन्ध का न रहना। सम्बन्ध के रहने से ही सम्बद्ध वस्तुओं की सत्ता होती है । भूतल में घट का संयोग है, अतः संयोग सम्बन्ध से भूतल में घट है। तन्तुओं में पट का समवाय सम्बन्ध है, अतः समवाय सम्बन्ध से तन्तुओं में पट की सत्ता है। भूतल में घटाभाव की सत्ता का प्रयोजक स्वरूप सम्बन्ध केवल साधारण भूतल स्वरूप नहीं है। किन्तु घट का असमानकालिक जो भूतल, तत्स्वरूप है। जिस समय भूतल में घट की सत्ता रहती है, उस समय का भूतल घट का समानकालिक है, असमानकालिक नहीं। अतः उस समय भूतल में घटाभाव की सत्ता का उपयुक्त स्वरूपसम्बन्ध नहीं है। सुतराम् उस समय अन्यत्र घटाभाव की सत्ता रहते हुए भी भूतल में घटाभाव की सत्ता नहीं है। अतः उस समय भूतल में होनेवाली घटाभाव की प्रतीति प्रमा नहीं होती है । सुतराम् किसी भी अत्यन्ताभाव को अनित्य मानने की आवश्यकता नहीं है। सभी अत्यन्ताभाव उत्पत्ति और विनाश से रहित है, अतः पूर्णरूप से नित्य है । .
___ अभाव के प्रसङ्ग में नव्य नैयायिकों ने इतना अधिक विचार किया है कि उसके कुछ अशों को भी जाने बिना अभाव का ज्ञान अधूरा ही रहेगा। अतः तदनुसार मैं
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( ४२ ) अभाव को प्रकृत रूप से समझने के लिए उससे सम्बद्ध कुछ विषयों का परिचय देना आवश्यक समझता हूँ।
जिस प्रकार संयोगादि सभी सम्बन्धों का एक प्रतियोगी और एक अनुयोगी होता है उसी प्रकार सभी अभावों के भी प्रतियोगी और अनुयोगी होते हैं । प्रतियोगी शब्द यहाँ प्रतिपक्षी का बोधक है । अतः जो अभाव जिसका विरोधी अर्थात् प्रतिपक्ष होगा वही उसका प्रतियोगी होगा। फलतः अभाव जिस वस्तु का होगा, वही वस्तु उस अभाव का प्रतियोगी होगा । जैसे कि 'घट का अभाव. पट का अभाव, रूप का अभाव' इत्यादि रीति से जिसके सम्बन्ध से युक्त होकर जिस अभाव की प्रतीति होती है, वही उस अभाव का प्रतियोगी होता है । जैसे कि जहाँ पर घटाभाव रहेगा, वहाँ घट नहीं रहेगा, अतः घटाभाव घट का विरोधी है। एवं घट का अभाव ही घटाभाव है, अतः घटाभाव का प्रतियोगी घट है। एवं पटाभाव का प्रतियोगी पट है, रूपाभाव का प्रतियोगी रूप है ।
___ जो अभाव जिस आश्रयीभूत वस्तु में रहेगा, वही वस्तु उस अभाव का अनुयोगी होगा। जैसे कि वायु रूपाभाव का अनुयोगी है, घटादि जड़ पदार्थ ज्ञानाभाव के अनुयोगी हैं।
कथित प्रतियोगी में रहनेवाला धर्म ही प्रतियोगित्व या प्रतियोगिता है, एवं कथित अनुयोगी में रहनेवाला धर्म ही अनुयोगिता है ।
इस प्रसङ्ग में यह विशेष रूप से विचारणीय है कि एक स्थान में एक सम्बन्ध से विद्यमान वस्तु का भी दूसरे सम्बन्ध से उसी स्थान में अभाव रहता है। जैसे कि भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट के रहने पर भी समवाय सम्बन्ध से भूतल में घट का अमाव रहता है। इसी प्रकार एक स्थान में एक रूप से एक वस्तु की सत्ता रहने पर भी दूसरे रूप से उसी वस्तु का अभाव उसी आश्रय में रहता है। जैसे कि किसी गृह में पटत्व रूप से शुक्ल पट के रहने पर भी नीलपट रूप विशेष रूप से पट नहीं रहता, अतः उक्त शुक्लपट के आश्रय गृह में 'नीलपटत्वेन पटो नास्ति' यह ( विशेष रूप से सामान्याभाव ) अभाव रहता है। क्योंकि शुक्ल पट की सत्ता गृह में है, इससे नीलपट की सत्ता गृह में नहीं रह जाती । एवं वही पट जब घर से बाहर रहता है, उस समय उसमें बहिवृत्तित्व रूप धर्म रहता है। इस बहिवृत्तित्व रूप से पट कमी भी घर मैं नहीं रह सकता। अतः घर में पट की सत्त्व-दशा में पटत्वेन पट के रहते हुए भी बहिवृत्तित्वेन पट का अभाव रहता है । एवं जिस समय घर में पट तो है, किन्तु घट नहीं है, उस समय केवल घट के रहने पर भी घट पट दोनों नहीं है। अतः पटत्वेन पट की सत्ता घर में रहने पर भी घटपटोभयत्वेन पट की सत्ता नहीं है। क्योंकि ऐसा तो नहीं कह सकते कि घट है इस लिए घट और पट दोनों ही है । अतः उभयाभाव के एक प्रतियोगी के रहने पर भी उभयत्वेन उसी प्रतियोगी का अभाव रहता है। इसको ही 'एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ति' इस वाक्य के द्वारा व्यवहार करते हैं। इस प्रकार सम्बन्ध के द्वारा और धर्म के द्वारा अभावों में वैलक्षण्य होता है ।
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किन्तु प्रतियोगिता के द्वारा ही अभावों में वैलक्षण्य आ सकता है। अतः यह कहा जाता है कि अभाव की प्रतियोगितायें किसी सम्वन्ध से एवं किसी धर्म से नियमित (अविच्छिन्न ) होती हैं। जो प्रतियोगिता जिस सम्बन्ध से एवं जिस धर्म से अविच्छिन्न ( नियमित ) होगी, वही सम्बन्ध और वही धर्म उस प्रतियोगिता का अवच्छेदक होगा। जैसे कि 'समवायेन घटो नास्ति' इस अभाव की प्रतियोगिता समवाय सम्बन्ध और घटत्व धर्म से अवच्छिन्न है। अतः उक्त अभाव का प्रतियोगितावच्छेदक सम्बन्ध समवाय है, और प्रतियोगितावच्छेदक धर्म घटत्व है। तदनुसार नवीन नैयायिक समवायेन घटो नास्ति' इस वाक्य का अर्थ करते हैं-- “समवायसम्बन्धावच्छिन्नघटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावोऽस्ति ।
___ सम्बन्ध को अभाव का प्रतियोगितावच्छेदक मानने में यह युक्ति है कि सामान्यतः किसी भी वस्तु का अभाव कहीं भी नहीं है। अन्ततः कालिक सम्बन्ध से सभी वस्तुएँ सभी जगह वर्तमान हैं। अतः जब भी किसी वस्तु का अभाव कहीं व्यवहृत होता है, तो उसके मध्य में कोई विशेष प्रकार का सम्बन्ध कार्य करता रहता है। सम्बन्ध का यह कार्य प्रतियोगिता में वैलक्षण्य सम्पादन के द्वारा ही हो सकता है, और किसी प्रकार नहीं। जिस सम्बन्ध से जो वस्तु जहाँ नहीं है, वही सम्बन्ध उस अभाव की प्रतियोगिता में और अभाव की प्रतियोगिताओं से वैलक्षण्य का सम्पादन करता है । अतः वही सम्बन्ध उस अभाव की प्रतियोगिता का 'अवच्छेदक' है। एवं वह प्रतियोगिता उस सम्बन्ध से अवच्छिन्ना होती है। जैसे कि भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट के रहते हुए समवायेन घटो नास्ति' इस प्रकार का जो अभाव रहता है, उस अभाव की प्रतियोगिता में समवाय सम्बन्ध ही ( संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटनिष्ठप्रतियोगिता की अपेक्षा) वैलक्षण्य का सम्पादन करता है। अगर समवाय सम्बन्ध उक्त प्रतियोगिता में वैलक्षण्य का प्रयोजक न हो तो फिर घटनिष्ठ सभी प्रतियोगिताएँ समान रह जाएगी। जिससे जिस प्रकार भूतल में संयोग सम्बन्ध से घट के रहते हुए संयोगेन घटो नास्ति' यह प्रतीति नहीं होती है, उसी प्रकार 'समवायेन घटो नास्ति' यह प्रतीति भी न हो सकेगी। अतः 'समवायेन घटो नास्ति' इस अभाव की प्रतियोगिता में और प्रतियोगिताओं से वैलक्षण्य का सम्पादक समवाय सम्बन्ध को मानना पड़ेगा। सम्बन्धों में प्रतियोगिताओं का यह 'विशेषकत्व' ही सम्बन्ध का प्रतियोगितावच्छेकत्व है ।
धर्म को प्रतियोगिता का नियामक ( अवच्छेदक ) मानने में यह युक्ति है कि किस अभाव की प्रतियोगिता कहाँ कहाँ है ? एवं कहाँ नहीं ? इसके लिए प्रतियोगिता का कोई ऐसा नियामक ( अवच्छेदक) धर्म मानना पड़ेगा जो सभी प्रतियोगियों में रहे एवं अप्रतियोगिभूत वस्तुओं में न रहे। इसी नियामक धर्म को प्रतियोगिता का 'अवच्छेदक धर्म' कहते हैं, जो इस नियामक के द्वारा नियमित होता है, वह उस धर्म से 'अवच्छिन्न होता है। जैसे कि घटाभाव की प्रतियोगिता कहाँ कहाँ है ? एवं कहाँ कहाँ नहीं ? इस प्रश्न का यही उत्तर है कि घटत्वधर्म जहाँ कहीं भी है, उन सभी स्थानों में अर्थात् सभी घटों में घटाभाव की प्रतियोगिता है। एवं जिन सब स्थानों में घटत्व नहीं है अर्थात् घट से भिन्न पटादि सभी वस्तुओं में वह प्रतियोगिता नहीं है । अतः घटत्व
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( ४४ ) ही घटाभाव की प्रतियोगिता की स्थिति का नियामक है। एवं घटाभाव की प्रतियोगिता घटत्व से नियम्य है । वस्तुतः नियामकत्व ही अवच्छेदकत्व है और नियम्यत्व ही अवच्छिन्नत्व है। इस दृष्टि से यद्यपि 'अच्छेदक' पद के स्थान में 'नियामक' पद का और 'अवच्छिन्न' पद के स्थान में नियम्य' पद का भी प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु 'अवच्छेदक' पद ही उक्त अर्थ में परम्परा से प्रयुक्त है, अतः उसके स्थान में दूसरे पदों की प्रयुक्ति से झटिति बोध में बाधा पहुँचेगी और अप्रयुक्तत्व दोष प्रयोक्ता के ऊपर आ पड़ेगा।
सप्तपदार्थी इधर वैशेषिकदर्शन के मूर्द्धन्य प्रकरण ग्रन्थों के प्रभाव से विद्वानों की यह धारणा चली आ रही है कि महर्षि कणाद और उनके अनुयायी द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थों की सत्ता मानते थे ।
किन्तु महर्षि कणाद ने "धर्मप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसम्" ( अ-आ-१-सू० ४ ) इस पदार्थोद्देश्य सूत्र में पदार्थ का उल्लेख नहीं किया है। एवं वैशेषिक दर्शन के सब से प्रामाणिक भाष्यकार प्रशस्तपाद ने भी अभाव पदार्थ का उल्लेख नहीं किया है। एवं विपक्षियों के
धर्म व्याख्यातुकामस्य षट्पदार्थोपवर्णनम् ।
सागरं गन्तुकामस्य हिमवद्गमनोपम् ॥ (अर्थात् "धर्म की व्याख्या के लिए प्रवृत्त पुरुष के द्वारा छः पदार्थों का वर्णन वैसा ही अयुक्त है जैसा कि समुद्र की ओर जानेवाले पुरुष के लिए हिमालय पर जाना अयुक्त है)।" इत्यादि उक्तियों से भी इस धारणा को बल मिला है कि महर्षि कणाद द्रव्यादि छः भावपदार्थों को ही मूलतः मानते थे । पीछे आकर उपपत्ति की दृष्टि से आवश्यक समझकर आचार्यों ने 'अभाव' को भी वैशेषिक दर्शन के द्वारा अभिमत स्वतन्त्र पदार्थों में गणना कर ली, और तब से ही वैशेषिकदर्शन को सप्तपदार्थवादी माना जाने लगा। अत एव किरणावलीकार उदयनाचार्य न्यायकन्दलीकार श्रीधर भट्ट, न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य प्रभृति वैशेषिकदर्शन के सभी प्रमुख आचार्यों को इसकी उपपत्ति देनी पड़ी है कि "पदार्थोद्देश" सूत्र में अभाव पदार्थ की अनुक्ति से उसका महर्षि कणाद के द्वारा अस्वीकृति का समर्थन नहीं किया जा सकता। किन्तु महर्षि कणाद के द्वारा निर्मित सूत्रों में निम्नलिखित पाँच सूत्र ऐसे हैं, जिनसे अभाव पदार्थ का स्वातन्त्र्य और उसके प्रागभावादि चार भेदों का स्पष्टतः उल्लेख है। एवं ये पाँच सूत्र उन सभी सत्र व्याख्याताओं के द्वारा स्वीकृत है जो अभी तक उपलब्ध हैं। कणाद सूत्र की अभीतक तीन प्राचीन स्वतन्त्र टीकाएँ उपलब्ध है (१) अनेकशः प्रकाशित शङ्कर मिश्र कृत उपस्कार टीका, (२) मिथिला विद्यापीठ के द्वारा प्रकाशित अज्ञातनामा किसी दाक्षिणात्य विद्वान् की टीका, एवं (३) बड़ौदा से प्रकाशित चन्द्रानन्द पंडित कृत टोका। इन सभी टीकाकारों के द्वारा ये पाँच सूत्र स्वीकृत हैं और इनकी व्याख्या भी प्रायः उक्त सभी टीकाओं में एक सी है । पं. जयनारायण तर्कपञ्चानन की विवृति और चन्द्रकान्त तर्कालङ्कार के भाष्य ये दो
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( ४५ )
वैशेषिक सूत्र की अर्वाचीन टीकाएँ हैं । इन दोनों में भी उक्त पाँच सूत्र हैं । इन उपपत्तियों से अपने निर्णय पर पहुँचने के बाद मैंने चौखम्बा सिरीज से प्रकाशित शङ्कर मिश्र कृत 'कणादरहस्य' के अन्त में चन्द्रकान्त तर्कालङ्कार महाशय कृत वैशेषिक दर्शनभाष्य की एक आलोचना छपी देखी है, आलोचक का नाम उसमें नहीं है, इस आलोचना के अन्त में स्वतन्त्र रूप से इन पाँच सूत्रों का उल्लेख किया गया है, और व्याख्या लिखी गय है । और उन्होंने लिखा है कि 'अभाव को कणाद के द्वारा अस्वीकृति का जो आक्षेप किया जाता है, उसके निराकरण के लिए ही मैंने इन सूत्रों की व्याख्या की है' । अतः इन पाँच सूत्रों की प्रामाणिकता में कोई सन्देह नहीं हे । ये सूत्र हैं—
( १ ) क्रियागुणव्यपदेशाभावात् ( ६-१-१ ) । उत्पत्ति से पहिले ( घटादि कार्य ) असत् हैं, क्योंकि उस समय उनमें क्रियाओं का और गुणों का व्यवहार नहीं होता ।
( २ ) सदसत् (९-१-२ ) । पहिले से विद्यमान मी घटादि कार्य नाश के वाद असत् हैं ( क्योंकि नाश के बाद भी उनमें गुणक्रियादि का व्यवहार नहीं होता ) ।
( ३ ) असत: क्रियागुणव्यपदेशाभावादर्थान्तरम् । अविद्यमान पदार्थों में यतः गुणक्रियादि का व्यवहार नहीं होता है, अतः अभाव पदार्थ द्रव्यादि भावपदार्थों से भिन्न पदार्थ है ।
(४) सच्चासत् ( ६-१-४) । सत् अर्थात् विद्यमान घटादि का भी प्रतिपेध होता है (यह प्रतिषेध ही अन्योन्याभाव है ) ।
(५) यच्चान्यदसतस्तदसत् ( ६-१-५) । कथित तीनों प्रकार के अभावों से भिन्न अभाव भी हैं (यही अत्यन्ताभाव है ) ।
इनमें तीसरे सूत्र से अभाव को द्रव्यादि छः पदार्थों से भिन्न ठहराया गया है, और शेष चार सूत्रों में से पहिला प्रागभाव का, दूसरा ध्वंस का चौथा अन्योन्याभाव का एवं पाँचवाँ अत्यन्ताभाव का ज्ञापक है । अतः इन सूत्रों के द्वारा अभाव का इत्यादि छः पदार्थों से स्वातन्त्र्य और उसके प्रागभावादि चारों भेद सुव्यवस्थ हैं ।
सुतराम् उद्देश्य सूत्र में अभाव पदार्थ का पृथक रूप से उल्लेख न रहने के कारण सूत्रकार के ऊपर न्यूनता का ही आक्षेप कथञ्चित् हो सकता है । इससे अभाव के प्रसङ्ग उनकी असम्मति नहीं मानी जा सकती । उपसंहार सूत्रों के अनुसार भी उपक्रम सूत्र में ह्रासवृद्धि अनेक स्थानों में देखी जाती है ।
इसरी बात यह है कि मिथिलाविद्यापीठ से और बड़ौदा से जो वैशेषिकसूत्र छपे हैं, उन दोनों में ही " द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानाम्" इत्यादि उद्देशसूत्र हैं ही नहीं । अतः इस सूत्र का प्रामाण्य ही सन्दिग्ध है । अतः सन्दिग्धप्रामाण्यवाले सूत्र के द्वारा किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता ।
वैशेषिक दर्शन के प्रसङ्ग में पट्पदार्थ प्रतिपादक और जितने भी वाक्य हैं, वे सभी कथित बैशेषिक सूत्रों से दुर्बल ही हैं । अतः प्रवादों के बल पर अभाव की वैशेषिकशास्त्रीय स्वीकृति काटी नहीं जा सकती है ।
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( ४६ ) इन सभी उपपत्तियों के अनुसार मेरी सम्मति में अभाव पदार्थ भी महर्षिकणादा के द्वारा स्वीकृत है।
इस पुस्तक के पाठ के प्रसङ्ग में मैंने साधारणतः मुद्रित न्यायकन्दली का ही अनुसरण किया है। किन्तु जहाँ कहीं मुझे ऐसे पाठ मिले, जिससे प्रकृत अर्थ का बोध ही संभव नहीं था, उनको यथामति संशोधन करके तदनुसार ही अनुवाद किया है। किन्तु मूल में यथावत् प्रायः मुद्रित पुस्तक के पाठ को ही रहने दिया है। नीचे टिप्पणी में उपपत्ति सहित उन पाठभेदों का उल्लेख कर दिया है। विद्वान् लोग इस पर अवश्य दृष्टिपात करें।
अनुवाद में मैंने अर्थ को स्पष्ट करने के अभिप्राय से कुछ अधिक शब्दों के प्रयोग का स्वातन्त्र्य ग्रहण किया है। इतने बड़े आकार के ग्रन्थ में न्यूनता के अतिरिक्त भ्रम और प्रमाद की पूरी संभावना है। अतः विद्वानों से क्षमा याचना पूर्वक प्रार्थना है कि ऐसे स्थलों से मुझे अवश्य अवगत करावें। जिससे अगर इसका पुनः संस्करण संभव हुआ तो उन अवगतियों से लाभ उठाया जा सके।
तद्विद्वांसोऽनुगृह्णन्तु चित्तश्रौत्रैः प्रसादिभिः ।
सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृह्णन्ति ह्यनसूयवः ॥ आचार्य कुमारिलभट्ट के इस श्लोक के साथ मैं इस भूमिका को समाप्त करता हूँ।
दुर्गाधर झा
अनुसन्धानसहायक, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय,
वाराणसी।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम
प्रशस्तपादभाष्यम् कारणत्वञ्चान्यत्र पारिमाण्डल्यादिभ्यः ।
पारिमाण्डल्य प्रभृति पदार्थो को छोड़कर और सभी पदार्थों का कारणत्व साधर्म्य है।
न्यायकन्दली यद्यपि विनाशो वस्तुकाले नास्ति, तथापि प्रमाणान्तरसिद्धसद्भावो भवत्येव विशेषणम्, अनित्यो घट इति प्रत्येतुरेकत्वात् । तथा लोके विनाशि शरीरमध्रुवा विषया इति ।
कारणत्वञ्चान्यत्र पारिमाण्डल्यादिभ्य इति । पारिमाण्डल्यमिति परमाणुपरिमाणम्, आदिशब्दाद् द्वयणुकपरिमाणम्, आकाशकालदिगात्मनां विभुत्वमन्त्यशब्दमनःपरिमाणं परत्वापरत्वे द्विपृथक्त्वमन्त्यावयविपरिमाणञ्चेत्यादि दशा में विनाश नहीं रहता है । ( उ० ) तथापि२ जिसकी सत्ता प्रमाण सिद्ध से है, वह भी अवश्य विशेषण ही होता है। साधारण जनों को भी इस प्रकार की स्वारसिक प्रतीतियां होती हैं कि शरीर विनाशशील है, सभी वस्तु चिरकाल तक रहनेवाली नहीं हैं।
पारिमाण्डल्य' शब्द का अर्थ है परमाणुओं का परिमाण । (पारिमाण्डल्यादि पद में प्रयुक्त ) 'आदि' पद से आकाश काल, दिशा और आत्मा इन चार पदार्थों का 'विभुत्व' अर्थात् परममहत्परिमाण, अन्तिम शब्द मन का परिमाण तथा उसी का परत्व और अपरत्व, द्विपृथक्त्व, अन्त्यावयवी द्रव्य ( जो अवयवी किसी दूसरे अवयवी का अवयव न हो, जैसे घट) का परिमाण, ये सभी अभिप्रेत हैं। इनसे भिन्न द्रव्यादि तीन
१. पूर्वपक्षी का आशय है कि विनाश ही अगर अनित्यत्व हो तो 'घटोऽनित्यः' इस प्रकार की विशिष्ट प्रमाबुद्धि नहीं होगी, क्योंकि विशिष्ट प्रमा के लिए विशेष्य में विशेषण का रहना आवश्यक है। जब तक धटरूप विशेष्य रहेगा, तब तक उसमें विनाशरूप अनित्यत्व नहीं रहेगा और जब घट विनष्ट हो जाएगा, तब अनित्यत्वरूप विशेषण रहेगा कहाँ ? सुतरम् चूंकि विद्यमान वस्तु और विनाश दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः उनमें विशेष्यविशेषणभाव नहीं हो सकता।
२. इस समाधान ग्रन्थ का आशय है कि विशेष्यविशेषणभाव के लिए दोनों का एक समय में रहना आवश्यक नहीं है, केवल इतना ही आवश्यक है कि दोनों प्रमाणसिद्ध हों एवं परस्पर सम्बद्ध हों। इसका भी कोई बन्धन नहीं है कि वह सम्बन्ध आधाराघेयभाव का नियामक ही हो । अतः 'घटो विनष्टः' इत्यादि विशिष्ट प्रतीति के अनुरोध से घट और विनाश में भी प्रतियोगि त्वादि सम्बन्ध की कल्पना करेंगे। अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है।
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४८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ साधम्यं वैषH
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः ।
नित्य द्रव्यों को छोड़कर और सभी पदार्थो का द्रव्य में आश्रित रहना साधर्म्य है।
न्यायकन्दली ग्राह्यम् । एतानि परित्यज्यापरेषां द्रव्यादीनां त्रयाणां कारणत्वं समवाय्यसमवायिकारणत्वम् । यद्यपि द्रव्यस्य नासमवायिकारणत्वम्, न च समवायिकारणत्वं गुणकर्मणोः, तथापि निमित्तकारणविलक्षणतयेदं साधर्म्यमुक्तम् ।।
द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति । नन्वाश्रितत्वं षण्णामित्युक्तं तेनेदं पुनरुक्तम् ? न पुनरुक्तम, द्रव्योपलक्षितस्याश्रितत्वस्यात्र विवक्षितत्वादिति कश्चिद् । तदयुक्तम्, सामान्यादीनामपि द्रव्योपलक्षितस्याश्रितत्वस्य सम्भवान्नेदं द्रव्यादित्रयसाधर्म्यकथनं स्यात् । तस्मादित्थं व्याख्येयम् । अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति द्रव्यग्रहणमुपलक्षणम, तदवत्तयोऽन्त्या विशेषास्तेऽपि गृह्यन्ते। नित्यद्रव्याणि तद्गतांश्च विशेषान् परित्यज्य द्रव्य एवाश्रितत्वं द्रव्यादीनां त्रयाणां साधयं नापरेषामित्यर्थः। पदार्थों का कारणत्व' साधर्म्य है। यहाँ कारणत्व शब्द से समवायिकारणत्व और असमवायिकारणत्व ही इष्ट है । यद्यपि द्रव्यों में असमवायिकारणत्व नहीं है, एवं गुण और कर्म में समवायिकारणत्व नहीं है, किन्तु यहाँ 'क रणत्व' शब्द से 'निमित्तकारणभिन्न कारणत्व' रूप साधर्म्य ही विवक्षित है । (यह साधर्म्य द्रव्यादि तीनों वस्तुओं में समान रूप से है)।
___ "द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" । (प्र०) पहिले कह चुके हैं कि आश्रितत्व (नित्य द्रव्यों को छोड़कर ) छः पदार्थों का साधर्म्य है। फिर वही बात कहते हैं, अतः इसमें पुनरुक्ति दोष है। (उ०) इस दोष का परिहार कोई इस प्रकार करते हैं कि पहिले केवल 'आश्रितत्व' साधर्म्य का उल्लेख है, अब 'द्रव्या.ितत्व' साधर्म्य कहते हैं । दोनों में कुछ अन्तर अवश्य है, अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। किन्तु यह समाधान ठीक नहीं है,
योकि यह द्रव्यादि तीन वस्तुओं के साधर्म्य का प्रकरण है, अतः द्रव्याश्रितत्व रूप प्रकृत साधर्म्य सामान्यादि पदार्थों में अतिप्रसक्त होगा, इसलिए प्रकृत पङ्क्ति की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए कि प्रकृत 'अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः” इस वाक्य में प्रयुक्त द्रव्य' पद उपलक्षण है ('द्रव्याश्रितत्व' शब्द का अर्थ है, द्रव्यरूप समवायिकारण से उत्पन्न होना, तदनुसार) नित्य द्रव्य और उनमें रहनेवाले 'विशेष' अर्थात् नित्य गुणों को छोड़कर द्रव्यादि तीन वस्तुओं का ( फलतः अनित्य द्रव्य, अनित्य गुण और कर्म इन तीन वस्तुओं का) 'द्रव्याभितत्व' अर्थात् द्रव्यरूप समवायिकारण से उत्पन्न होना साधर्म्य है, औरो का नहीं।
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संशोधकनिवेदनम्
श्रीमदभिर्गवेषणालयनिदेशकैः डॉ० भागीरथप्रसादत्रिपाठि-( वागीशः शास्त्री) महाभागैराज्ञप्तेन मया न्यायकन्दलोटोकायुतस्यास्य प्रशस्तपादभाष्यग्रन्थस्य यथाशक्यं यथाशीघ्रं च पुनर्मुद्रणक्षमं संशोधन विहितम् ।
यद्यप्यत्र न्यायकन्दल्यां तत्सहकृत-हिन्दीभाषानुवादे चानुच्छेदादिव्यवस्था नास्ति समीचीना, अतः पाठकानां सौविध्याय आपेक्षिकानुच्छेदा दिविधेरवश्यम्भावादपि ग्रन्थस्य मुद्रणप्रकाशनशैव्रयविधिसम्भवात् पुनः पूर्वसदृश एवायं ग्रन्थः संस्कृतः; तथापि समेवां भाष्य-कन्दली-भाषानुवादानां प्रती कानुसारं पृष्ठबन्धने ऐक्यरूप्यापादनाय यत्र तत्र यथासम्भवं कियत्प्रयासस्तरसा कृतोऽपि ।
___ ग्रन्थेऽस्मिन् संशोधन विधकर्मणा सप्ततिपृष्ठे ( पृ० ७० ) 'प्रशस्तपादभाष्यम्' इत्यस्योपरि अथ द्रव्यपदार्थनिरूपणम् इति नूतनं शीर्षकं विधाय 'पृथिवी-प्रकरणम्' इत्युपशीर्षकात् पूर्व स्वल्पस्थानभावाद् द्रव्येषु-इतिकर्तव्यस्थाने केवलं 'द्रव्ये' इति पदं योजितम् । तथैव गुणपदार्थनिरूपण-प्रकरणे पञ्चाशदुत्तर-द्विशततमपृष्ठत: (पृ० २५०) ग्रन्थोपशीर्षकात् पूर्व गुणेषु-इतिकर्तव्यस्थाने केवलं 'गुणे' इति पदं योजितम् ।।
. एकचत्वारिंशदुत्तर-सप्तशततमपृष्ठे ( पृ० ७४१ ) उपरि मुद्रितम् 'प्रशस्तपादभाष्यम्' पदं मुद्रितात अथ सामान्यपदार्थनिरूपणम् शीर्षकादधः कृतम् । तथैव पञ्चषष्ट्यत्तरसप्तशततमपृष्ठे ( पृ० ७६५ ) मुद्रितम् 'प्रशस्तपादभाष्यम्' पदं मुद्रितात् अथ विशेषपदार्थनिरूपणम् शीर्षकात, तथा व्यधिकसप्तत्युत्तर-सप्तशततमपृष्ठे ( पृ० ७७३) मुद्रितात् अथ समवायपदार्थनिरूपणम् शोर्षकाच्चाधः कृतम् । प्रतीकानुसारं च केषाञ्चित् प्रशस्तपादभाष्यांशानां न्यायकन्दल्यंशानां च पृष्ठपरिवर्तनम्
यथा सप्तपञ्चाशदुत्तर-षटशततमपृष्ठे । पृ० ६५७ ) मुद्रितः "स्थितिस्थापकस्तु घनावयवमन्त्रि-' भाष्यांशोऽष्टपञ्चाशदुत्तर-षट्शततमपृष्ठे ( पृ० ६५८) कृतः, तद्धिन्दीभाषानुवादोऽपि तत्रैव विहितः।
नवपञ्चाशदुत्तर-षटशततमपृष्ठे (पृ० ६५६) मुद्रितः 'धर्मः पुरुषगुणः.."." विशुद्धाभिसन्धिजः' भाष्यांशः षष्ट्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पृ० ६६०) परिवर्तितः। तथात्रस्थः (पृ० ६६०) 'समवेतमसमवायिकारणं स स्थितिस्थापकः' इत्यादिकन्दल्यंशो नवपञ्चाशदुतर-षट्शनतमपृष्ठे ( पृ. ६५६ ) कन्दल्यंशे निवेशितः ।
पञ्चषष्ट्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पृ० ६६५ ) 'तत्र सामान्यानि .... विशिष्टदेवताभक्तिरुपवासोऽप्रपादश्च' इति भाष्यांशः सर्वत्रेव भाषानुवादेन सह षट्षष्ट्युत्तर-पट्शततमपृष्ठे ( पु० ६६६ ) कृतोऽर्थ पंवादात् । तथास्थः (पृ. ६६६ । 'ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यानाम् .. .."संस्कार' भाष्यांशः सप्तषष्ट्युतर-षट्श । तमपृष्ठे (पृ० ६६७ ) परिवर्तितः ।
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( आ ) एवमेव सप्तषष्ट्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे ( पृ० १६७ ) मुद्रितः 'क्षत्रियस्य सम्यक् ...... स्वकीयाश्च संस्काराः' भाष्यांशोऽष्टषष्ट्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे ( पृ० ६६८) मुद्रितः 'शूद्रस्य पूर्ववर्णपारतन्त्र्यम्......अभ्यञ्जनादिवर्जनं च' भाष्यांशो नवषष्ट्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पु० ५६६) विहितः।
तथा च नवषष्ट्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पृ० ६६६) मुद्रितः 'विद्यावतस्नातकस्य.. .."महायज्ञानां' भाष्यांशः सर्वत्रेव भाषानुवादेन सह सप्तत्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पृ० ६७०), एवमेव एकसप्तत्युत्तर-षट्शततमपृष्ठस्थः (पृ. ६७१) 'ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वा....." वानप्रस्थस्य' भाष्यांशस्तथा द्वयधिकसप्तत्युत्तर-षट्शततमपृष्ठस्थः (पृ. ६७२) 'वनस्थस्य धर्मसाधनं कथयति .. । हुतशेषभोजनम्' कन्दल्यंशश्च सर्वत्रेव द्वयधिकसप्तत्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पृ० ६७२) परिवर्तितः ।
इत्थमेव सप्तनवत्युत्तर-षट्शततमपृष्ठे (पृ. ६६७ ) शिवस्तवबोधकस्य 'जगदकरबीजाय..."चन्द्रायाधेन्दुमोलये' इति कन्दलीस्थश्लोकस्य स्पष्टार्थावगमको हिन्दीभाषानवानुवादो वाक्येनैकेनाङ्गितः ।
एकचत्वारिंशदुत्तर-सप्तशततमपृष्ठे (पृ. ७४१) 'जयन्ति जगदुत्पत्तिस्थितिसंहृतिहेतवः'..."तन्निषेधार्थमाह-' इति कन्दल्यंशादधोलिखितः 'मणियों का चोर की तरफ जाना....."कर्मनिरूपण समाप्त हुआ' इति हिन्दीभाषानुवादांशस्तव पृष्ठे 'च प्रक्षोभणं चलनम् ....'कर्मपदार्थः समाप्तः' इति कन्दल्यं शादधस्तदर्थसङ्गत्या परिवर्तितः।।
सथैव पञ्चषष्ट्युत्तर-सप्तशततमपृष्ठे (पृ. ७६५ ) 'चतुयुं गचतुविद्या....."उत्पादविना-' इति कन्दल्यंशस्तत्रैव पृष्ठे 'अप्रत्यक्ष व्यक्तियों में भी प्रवृत्ति....."सामान्यनिरूपण समाप्त हुआ' इति हिन्दीभाषानुवादांशादधो न्यायकन्दलीति लिखित्वा परिवर्तितः ।
प्रकृतग्रन्थे मूलं प्रशस्तपादभाष्यं तदुरवग्राह्यार्थावबोधिका न्यायकन्दलीति टीका च भूतपूर्वानुसन्धानसहायकैः श्रीदुर्गाधरझा-महोदयैरपि तदुभयभाष्यटोकयोः सम्यगर्थावबोधायातिसरहिन्दीभाषानुवादेनालङ्कृता। अत्र प्राचीनपरम्परया चूंकि-अगरमगर-प्रभृतियावनभाषामिश्रितशब्दानां प्रयोगो बाहुल्येन कृतो विद्यते, इतः पूर्व तेषामेव मिश्रितभाषाशब्दानां हिन्दीभाषाप्राशस्त्यात् । अतः वचन तत्तत्स्थलेषु यतः-यदि-किन्तुप्रभृति शब्दानां प्रयोगप्रयासः कृतो वर्तते ।
ईटक्प्रशस्तग्रन्थविषयविशेष सहयोगिनस्तथा ग्रन्थमुद्रणकालमध्ये ममातर्कितास्वस्थतायां प्रायो मासद्वयं यावदीक्ष्यपत्र-संशोधनकर्मदत्तावधानाश्चेमे प० श्रीरामगोविन्दशुक्लमहोदयास्तेऽवश्यं धन्यवादार्हाः। तथैव ग्रन्थस्यास्य प्रशस्तप्रकाशनकर्मणि शैघ्योत्पादनाय प्रकाशनाधिकारि-डॉ० हरिश्चन्द्रमणित्रिपाठिमहोदयाश्चापि सततं साधुवादाः सन्तीति निवेदयते । वसन्त-पञ्चमी
उमाशङ्करत्रिपाठी २०३४ वैक्रमाब्दे
अनुसन्धानसहायकः १२-२-७८ खैस्ताब्दे
सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालयः
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पृ. सं.
२४७ २३८ ३५६
२८३
२३६ ६७७
४७६ ४२४
०
२३२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यस्य
विषयानुक्रमणी विषयाः अकारणगुणकथनम् ( भाष्ये) अकारणगुणपूर्वकगुणकथनम् (भाष्ये ) अजसंयोगमतखण्डनम् (भाष्ये) अतीतस्य समवायिकारणत्वे मतविशेषः ( न्या. क. टीकायाम् ) अतीन्द्रियगुणकथनम् (भा० ) अधर्मनिरूपणम् अधर्मसाधन कथनं च ( भा०) अनध्यवसायनिरूपणम् भा० अनुमाननिरूपणम् भा० अनुमाननिर्णयकथनम् टी. अनुसंधाननिरूपणम् भा. अनुसन्धानोदाहरणम् भा० अनेकाश्रितगुणकथनम् भा० अन्तःकरणग्राह्यगुणकथनम् भा० अपक्षेपणनिरूपणम् भा. अपदेशलक्षणम् अपदेशोदाहरणं च भा० मोक्षो ज्ञानपूर्वकाद्धर्मात् भा० अपां सांसिद्धिकद्रवत्त्ववत्त्वे विप्रतिपत्तिखण्डनम् भा० ..." अपेक्षाबुद्धिविनाशात् परत्वापरत्वविनाशस्योदाहरणम् भा० अप्रत्ययकर्मकथनम् भा० अभावप्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावकथनम् भा० अभावस्य पदार्थत्वसाधनम् टी. अमूर्त्तगुणकथनम् भा० अयावद् व्यभाविगुणकथनम् भा० अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावकथनम् भा. अवयवनिरूपणम् भा० अवविगुरुत्वभावखण्डनम् टी० अविदुषां प्रवर्तकधर्माधर्मकार्यकथनम् भा. अविद्याभेदनिरूपणम् भा. अविनाभावपदार्थनियामक कथने सौगतमतग टी० अविनाभावस्मरणस्यानुमानाङ्गत्वप्रदर्शनम् भा० अव्याप्य वृत्तिगुणकथनम् भा० असत्कार्यव्यवस्थापनम् टी.
५७५ ६७६ ६४२ ३६६ ७२५ ५४२ ५५२ २२६ २४६
५६५ ६४१ ६७८
૪૨ ४६१
२४७. ३४२
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विषयाः
असत्कार्यवादे विप्रतिपत्तिपूर्वकं सत्कार्यवादकथनम् टी०
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असमवायिकारणगुणकथनम् भा०
असमानजात्यारम्भकगुणकथनम् भा०
आकाशकाल दिगात्मनां साधर्म्यकथनम् भा०
आत्मस्वरूपनिरूपणम् ( टी० )
आत्मैकत्ववादनिरासः ( टी० )
आकाशनिरूपणम् भा०
आकाशात्मनां साधर्म्यकथनम् भा० आकाशे प्रमाणम् ( भा० > आकुञ्चननिरूपणम् ( भा० > आत्मनित्यत्वेऽनिर्मोक्षाभावप्रकार : ( टी० ) आत्मनिरूपणम् आत्मसिद्धी प्रमाणानि च ( भा० आत्मनः क्षणिकत्ववादनिरास: ( टी० ) आत्मसमवेतानां प्रत्यक्षे कारणकथनम् ( भा० )
आर्षज्ञाननिरूपणम् ( भा० > आश्रमिणां धर्महेतुनिरूपणम् ( भा० ) आश्रयनाशाद् द्वित्वादिनाशः ( भा० )
आश्रयव्यापि गुणकथनम् ( भा० ) इच्छा निरूपणम् 1 भा० ) इन्द्रियकथनम् ( भा० )
[ ४८ ]
ईश्वरस्यैकानेकत्वविचार : ( टी० )
ईश्वरस्य क्लृप्तद्रव्यान्तर्गतत्वम् ( टी० )
इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वव्यवस्थापनम् ( टी० ) ईश्वरस्याष्टगुणाधिकरणत्वम् ( टी० )
• )
(0)
ईश्वरस्य नित्यमुक्तश्व कथनम्, ईश्वरस्य षड्गुणाश्रयत्वमतं च ( टी० )... ईश्वरे प्रमाणोपन्यास: ( टी० )
उत्क्षेपणनिरूपणं कर्मविभागश्च ( भा० >
उत्क्षेपणादो गमनव्यवहारस्य भाक्तत्वकथनम् उद्देशादिलक्षणम् ( टी० ) ... उपमानस्य शब्देऽन्तर्भावकथनम् ( भा० )
उभयकारणताश्रयगुणकथनम् ( भा० ) एकादिप्रत्ययस्य रूपादिविषयत्वमतखण्डनम् ( टी० ).... एकै वृत्तिगुणकथनम् ( भा०
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: : :
पृ.सं. ३३६
२४४
२४०
५८
१४३
६५
१४४
७००
२१५
१६७
१७५
४६३
६६०
२१०
६२७
६६८
२८६
२६४
६३४
४४२
६०
१४२
१४१
२६
૪૨
१३३
६६६
६६
५३०
२४६
२६८
२३०
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[ ४ ]
विषयाः
एकै केन्द्रियग्राह्यगुणकथनम् ( भा० ) ऐतिह्यस्यानुमानेऽन्तर्भावकथनम् ( भा० ) कणादशब्दार्थकथनम् (टी० )
कर्मज गुणकथनम् (भा० )
कर्मणां जातिपञ्चकत्वव्यवस्थापने शङ्कासमाधिः ( भा० )
कर्मनिरूपणम् (भा० )
कर्म प्रत्यक्षे विप्रतिपत्तिनिराकरणम् (टा० ) कामादीनामिच्छायामन्तर्भावकथनम् (भा० ) कारणगुणपूर्वक गुणकथनम् ( भा० ) कारणत्वञ्चान्यत्र पारिमाण्डत्यादिभ्यः ( भा० ) कारणवतां कार्यत्वानित्यत्वे ( भा० ) कालकृतपरत्वापरत्वोत्पत्तिकथनम् (भा० ) कालनिरूपणम्, सर्वकार्याणामुत्पत्तिस्थितिविनाशहेतुत्वम्, क्षणादिव्यवहारहेतु:, तद्गुणकथनम् (भा० )
कृतदारविद्याव्रतस्नातकानां धर्महेतुनिरूपणम् (भा० )
क्रिया हेतुगुणकथनम् भा०
क्रोधादीनां द्वेषान्तर्भावकथनम् भा०
गन्धनिरूपणम् (भा० )
गन्धशून्यत्वं सलिलादीनाम् टी०
गुण निरूपणारम्भ:, तेषां निर्गुणत्वं निष्क्रियत्वम् भा०
घ्राणस्य पार्थिवत्वे प्रमाणम् टी० घ्राणे प्रमाणकथनम् टो० चक्षुषस्तैजसत्वकथनम् टी ० चित्ररूपयुक्तिकथनम् टी०
गुणविभागो रूपरसादिभेदेन भा०
गुणस्य निर्गुणले निष्क्रियत्वे युक्तिः टी०
गुणादीनां पञ्चानां निगुर्णत्वनिष्क्रियत्वे भा०
गुरुत्वनिरूपणम् भा०
गुरुत्वस्य त्वगिन्द्रियग्राह्यतावादिमतखण्डनम् टी०
ग्रन्थकार वंशवर्णनादिकम् टी०
ग्रन्थोपसंहारः भा०
....
::
...
**
गमनत्वस्य कर्मत्वापययत्वकथनम् भा०
गमनत्वस्य कर्मत्वपर्ययत्वे विशेषसञ्ज्ञया गमनग्रहणस्य फलम् भा०
गमननिरूपणम् भा०
.-.
***
...
nee
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पू. सं.
२३१
५५८
४
२३६
७१
६६७
૪૪૦
६३५
२३६
४७
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३६७
१५५
६६१
२४४
६३७
२५५
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७१०
७००
७४
२२७
२६
२२८
४३
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७८७
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दद
८८
६६
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पृ. सं.
५२६
६०
१२
७२८ २२३ ६८६
२३५ २३४
२६
२१
४१५
६७
[ ५. ] विषयाः चेष्टाया अनुमानेऽन्तर्भावकथनम् भा० जलनिरूपणम् । तद्गुणकथनम् । तस्य द्वविध्यम् । अनित्यस्य विध्यम् भा० जलस्य शुक्लरूपादिमत्त्वे युक्तिः टी० जले द्रवत्वात् कर्मोत्पत्तिः भा० ज्ञाततावादनिराकरणम् टी० ज्ञानपूर्वकाद्धर्मादपवर्गकथनम् भा० ज्ञानस्य आत्मसमवेतत्वव्यवस्थापनम् टी. ज्ञानस्य विषयसंवेदनानुमेयत्वमतखण्डनम टी. ज्ञानस्य शरीराद्याश्रयत्वनिरासः भा० तमसो भाभावरूपत्वम् टी. तमसो द्रव्यान्तरत्वयुक्तिखण्डनम टी० तर्कज्ञानस्य चतुर्विधाविद्यायामन्तर्भावविचारः टी. तेजसो नैमित्तिकद्रवत्ववत्त्वे युक्तिः टी० तेजोनिरूपणम् । तद्गुणकथनम् । तस्य द्वैविध्यम् । अनित्यस्य विध्यम् भा० त्रिपुटीप्रत्यक्षतामतनिराकरणम् टी. त्र्यणुककारणनिरूपणम् टी. त्वगिन्द्रियस्य वायुत्वम् टी. दिक्कालयोः सर्वोत्पत्तिनिमित्तत्वसाधनम् टी० दिक्कालयोः साधर्म्यकथनम् भा० दिनिरूपणम् । तद्गुणकथनम् । तस्याः प्राच्यादिभेदाः भा० दीर्घत्वमहत्त्वयोर्हस्वत्वाणुत्वयोश्च विशेषकथनम् भा...' दुःखनिरूपणम् भा० द्रवत्वनिरूपणम्, द्रवत्वविभागादिश्च भा० द्रव्यत्वादीनामपरसामान्यत्व-विशेषसामान्यत्वकथनम् भा० द्रव्यनाशजपरत्वापरत्वनाशोदाहरणम् भा० द्रव्यविभागः पृथिव्यादिभेदेन भा. द्रव्यसंयोगनाशजपरत्वापरत्वनाशोदाहरणम् भा० ... द्रव्यातिरिक्तसंख्यासाधनम् टी० द्रव्यादिपदार्थोद्देशक्रमनियमे युक्तिः टी. द्रव्यादीनां त्रयाणां सत्तावत्त्वे बाधकनिरासः टी• ... द्रव्यादीनां त्रयाणां सत्तावत्वं सामान्यविशेषवत्त्वं स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्वं धर्माधर्मकर्तृत्वम् भा०
११२
६६
१६२
६४१ ७४६
२०
४०६
१७
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[ ५१ ]
पृ. सं.
४२
४०४
४८ २६५
२७६ २७२
२७५ २३२
६३७
७६ ६५६
६६०
विषया: द्रव्यादीनां पञ्चानामनेकत्वं समवायित्वं च भा. द्रव्योपेक्षाबुद्धिविनाशजपरत्वापरत्वनाशोदाहरणम् भा० द्रव्याश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः नित्यद्रव्याणामनाश्रितत्वं च भा. द्वित्वसद्भावे विप्रतिपन्ना ना तैथिकानां मतखण्डनम् टी० द्वित्वसामान्यज्ञाने प्रमाणम् टी. द्वित्वादेरपेक्षाबुद्धि नाशनाश्यत्वे क्षणनियमः भा० द्वित्वादेर्बुद्धिजत्वे युक्तिः टी. द्वीन्द्रियग्राह्यगुणकथनम् भा० द्वेषनिरूषणम् भा० द्वणुककारणनिरूपणम् टो० धर्मनिरूपणम् भा० धर्मविनाशप्रकार: टी० धर्मस्य निःश्रेयसहेतुत्वकथनम् भा० धर्मस्वीकारे युक्तिप्रदर्शनम् टी० ध्वन्यात्मकशब्दोत्पत्तिविधिः भा० निदर्शननिरूपणं तद्विभागः भा० निदर्शनाभासनिरूपणम् भा० निमित्तकारणगुणकथनम् भा० निर्णयनिरूपणं निर्णयविभागश्च भा० निष्क्रमणत्वप्रवेशनत्वयोः कन्तिरत्वखण्डनम् भा० नैमित्तिकद्रवत्वोत्पत्तिप्रकारः भा. पञ्चानां कर्मणां गमनत्वकथनम् भा. पदानामर्थबोधकत्वप्रकारकथनम् टी. पदार्थानां सामान्य विशेषलक्षणानि टी. परत्रारम्भकाणां गुणानां कथनम् भा० परत्वापरत्वनिरूपणम् भा. परत्वापरस्वविनाशकारणनिर्वचनम् भा० परमह्रस्वत्वपरमदीर्घत्वपरिमाणस्वीकर्तृ मतम् टी० परमाणुपरिमाणस्य कारणतामतखण्डनम् टी. परमाणुसद्भावे युक्तिः टो० परापरसामान्यनिरूपणम् भा. परार्थानुमानकथनम् भा०
६६५ ५६८ ५६६ २४६ ६२२ ७०४
६४४ ७०१
५६१
२४२ ३६३
३९९
३२८
७८
५५८
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[ ५२ ]
विषया:
परार्थानुमाने पूर्वपक्षनिरासः टी०
परिमाणनिरूपणम्, तस्य चातुर्विध्यम् । महद द्विविधम् । अण्वपि द्विविधम् ।
अनित्यपरिमाणमपि चतुविधम् भा० परिमाणस्य द्रव्यातिरिक्तत्वव्यवस्थापनम् टी०
पाणिमुक्तेषु गमननिरूपणम् भा०
पिठरपाक (परमाणु संयोगजपाक) वादनिराकरणम् टी०
पीलुपाक (पूर्वव्यूहनाशाद् व्यूहान्तरोत्पत्तिपूर्व कपाक) वादिमतपरिष्कारः टी०
पूर्वरूपनाशे प्रमाणों पन्यासः टी०
पृथिवीपरमाणुरूपादीनां पाकजोत्पत्तिविधानम् भा०
पृथिव्यप्तेजोवायुमनसां पृथिव्युदकज्वलनपवनात्ममनसां च साधर्म्यकथनम् भा०
पृथिव्यादीनां चतुर्णां साधर्म्यकथनम् भा०
पृथिव्यादीनां त्रयाणां साधर्म्यकथनम् भा०
पृथिव्यादीनां नवानां साधर्म्यकथनम्, द्रव्यत्वयोग इत्यादिना भा०
पृथिव्यामभिघातात् कर्मोत्पत्तिः भा०
प्रतिज्ञाया उदाहरणन् भा०
प्रतिज्ञालक्षणम् भा०
२६३
२५६
पृथक्त्वनिरूपणम् भा०
३३२
पृथिवीजलयोः साधर्म्यकथनम् भा०
६४
६५
पृथिवीजलात्मनां साधर्म्यकथनम् भा० पृथिवीतेजसोः साधर्म्यकथनम् भा०
६७
पृथिवीनिरूपणम्, पृथिव्या गुणानां कथनम् । तस्या द्वैविध्यम् । अनिश्यायास्त्रविध्यम् भा. ७०
२५७
५६
६३
६३
૧૪
पृथिव्यादीनां परत्वापरत्ववत्त्वे बाधकनिरासः टी०
पृथिव्यादीनां पञ्चानां साधर्म्यकथनम् भा०
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प्रत्यक्ष निर्णयकथनम् भा०
प्रत्यक्ष निर्णयोदाहरणम् भा० प्रत्यक्षनिरूपणम् प्रत्यक्षप्रकारकथनं च भा०
प्रत्यक्षानुमानयोर्विरोधे बलाबलकथनम् टी० प्रत्यक्षे मानमितिमेयमातॄणां विभागः भा०
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108
प्रत्याम्नायनिरूपणम् भा०
प्रत्याम्नायोदाहरणम् प्रत्यम्नायावयवस्यानुमानाङ्गत्वे शङ्कासमाधानं च भा० प्रयत्ननिरूपणम् प्रयत्नविभागादिकथनं च भा०
पू. सं. ૧૬૪
३१४
३१६
७१८
२६०
५७
५६
७२६
५६६
५६५
६२२
६२४
४४२
३७४
४७१
६११
६१२
६३८
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[ ५३ ]
पृ. सं.
७००
१२०
४१.
६४
."
विषया: प्रवजितस्य धर्महेतु निरूपणम् भा० प्रसारणनिरूपणम् भा० प्राणस्य वायुत्वम् भा. बुद्धिनिरूपणं बुद्धिभेदनिरूपणं च भा० बुद्धिविभागः, तस्य द्वैविध्यं विद्याविद्याभेदेन अविद्यापि चतर्धा ___ इत्यादिना भा.
४११ बुद्धे रन्तःकरणग्राह्यत्वमतखण्डनम् टी०
२३२ बुद्धयपेक्षगुणकथनम् भा०
२३६ ब्राह्मणादीनां प्रत्येक धर्महेतुकथनम् भा० भावनाख्यसंस्कार निरूपणमू भा.
६४७ भावस्थाभावकार्यत्वे विप्रतिपत्तिनिराकरणम् टी. ... भूतात्मनां साधयंकथनाम् भा० भ्रमणादीनां गमनेऽन्तर्भावः, तानि च भ्रमणरेचनस्यन्दनोव॑ज्वलनतिर्यपतननमनोनमनादीनि भा. मङ्गलश्लोकव्याख्या मङ्गलस्य सफलस्वसाधनं च टी०... मङ्गलाचरणम् भा. मनसि कर्मकथनम् भा०
७३५ मनसि प्रमाणोपन्यासः, मनोनिरूपणं तद्गुण नरूपणं च भा० मनसो ज्ञातृत्वनिराकरणम् टी०
२२५ मनोबहुत्वव्यवस्थापनम् टी. महोदयशब्दार्थः तत्र तैथिकानां बोद्धादीनां च मतभेदः प्रदर्शितः टी० ... महोदयाभिधस्यापवर्गस्य पारम्पर्येणास्मिनिबन्धे हेतृत्वकथनम् टी० .. मुक्तानमात्रजन्यत्वं कर्मसमुच्चितज्ञानजन्य त्वं वा इति मतयोविवेकः टी. ६८३ मुक्तेः पुरुषार्थत्वसाधनम् टी. मुनिशब्दार्थकथनम् टी. मूर्तगुण कथनम् मूर्तामूर्तगुणकथनं च भा०
२२६ मोक्षक्रमनिरूपणम् टी०
६७४ यन्त्रमुक्तेषु गमननिरूपणम् भा. यावद्दव्यभाविगुणकथनम् भा०
२४६ युगपत्रितयकारणनाशजपरत्वापरत्वनाशोदाहरणम् भा०
४०६ योगिनामतोन्द्रियार्थज्ञाने विपरीतानुमाने दोष कथनम् टी०
४
४६८
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[ ५४ ]
पृ. सं०
२५४
२५३ २५१ २५२ ४५६
४७८
४८२ ४८० ४९० ४७६
विषयाः योगिप्रत्यक्षकथनम् भा० रसनिरूपणम् भा० रसनेन्द्रियस्याप्यत्वम् टी० रूपद्रव्यतादाम्यमतखण्डनम् टी० रूपनिरूपणम् भा० रूपस्य आश्रयनाशनाश्यत्वे युक्तिः टी० रूपादिषु प्रत्यक्षोत्पत्तिकारणकथनम् भा० रूपादिसंज्ञायां बीजकथनम् भा० लक्षणस्य प्रयोजनम् टी० लिङ्गलक्षणम् भा. लिङ्गलक्षणेऽतिव्याप्तिनिरासे मतविशेषनिरासपूर्वकस्वमतव्यवस्थापनम् लिङ्गाभासकथनम् भा० लिङ्गाभासे सूत्रकारस्य विशेषमतोपन्यासः भा० ... लैङ्गिकलक्षणम् भा० वर्णात्मकशब्दोत्पत्तिविधिः भा० वर्णाश्रमिणां सामान्यरूपेण धर्महेत कथनम् भा० ... वाक्यस्यार्थप्रत्यायकत्वे स्फोटवादनिराकरणारम्भः टी० वानप्रस्थानां धर्महेतुनिरूपणम् भा० वायुनिरूपणम्, तद्गुणकथनम् । तस्य वैविध्यम्, अनित्यस्य त्रैविध्यम् भा. वायोरप्रत्यक्षत्वकथनं वाय्वनुमान प्रकारश्च टी. वायौ कर्मोत्पत्तिकथनम् भा० विज्ञानवादिमतखण्डनम् टी० विद्याविभाग: भा० विपर्ययनिरूपणम् भा० विपर्ययास्वीकर्तृमतम् टी० विपर्ययास्वीकर्तृमतखण्डनम् टी० विभागजगुणकथनम् भा० विभागनिरूपणम् भा. विभागलक्षणम् भा० विभागविनाशः भा. विभागजविभागादिः भा० विभुद्वयसंयोगमतखण्डनम् भा० वियुक्तप्रत्यक्षकथनम् भा० विशेषणविशेष्ययोरेकज्ञानालम्बनत्वे बाधक
६७१
१११
७३३ २६८
४४१
४२३ ४३०
२३६
३६३ ३६४ ३८२ ३६५
४६५
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]
पृ.सं.
३१
५६९
६६२
६६४
विषयाः विशेषपदार्थनिरूपणम् भा. विशेषपदार्थनिरूपणम् भा० विशेषस्य द्रव्याद्यतिरिक्तत्वनिरूपणम् भा० विषयभोगजसुखस्य क्षणिकत्वादिकथनम् टी. विहित नित्यकर्माकरणस्य प्रत्यवायहेतुत्वे विप्रतिपत्तिनिरासः टी. वेगस्य गुणान्तरत्वे युक्तिः टी.
गोत्पत्तिप्रकारः भा. बंपर्म्यनिदर्शनलक्षणं वैधय॑निदर्शनोदाहरणं व भा० बोषिकगुणकथनम् भा. शातेः पदार्थान्तरत्वखण्डनम् टी. बादादीनामनुमानेऽन्तर्भावकयनम् भा. अवनिरूपणम् भा० सम्पविभागः भा. सदस्य श्रोत्रग्राह्यत्वप्रकार: भा० शब्दस्यार्थप्रतिपादकत्वे विप्रतिपत्तिनिराकरणम् टी.-. सरीरस्य पाञ्चभौतिकत्वनिरास: टी. शास्त्रारम्भः भा० शुक्तिरजतप्रतीतेरलौकिकवस्तुविषयकत्वलनम् टी. शौर्यादीनां गुणेष्वन्तर्भावकथनम्, ते च शोयो दार्यकारुण्यदाक्षिण्योण्यादयः टी. धोत्रस्य नभोदेशत्वम् टी. पणां पदार्थानां साधय निरूपणम् भा० सत्कार्यवादखण्डनम् टी. सत्तानिरूपणम् टी. सत्तासामान्यव्यवस्थापनम् भा० सत्प्रत्ययकमकथनम् भा. सनिकृष्टविप्रकृष्टयोः परस्पराभावरूपत्वमतखण्डनम् समवायः, द्रव्यादिसाधम्यं च भा. समवायनिरूपणम् भा० समवायसद्भावे प्रमाणम् भा. समवायस्य द्रव्याद्यतिरिक्तत्वम् भा. बमबायस्य नित्यत्वम् भा० बनवायस्य संयोगभिन्नत्वम् भा० अमवायस्यानुमेयत्वम् भा० समायस्याप्रत्यक्षात्वम् भा.
१५
७४३ ७१५
७७३
७७० ७८२
७४
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विषयाः
ममवायस्यैकत्वम् भा०
साघम्यं वैधप्रिक रणारम्भः भा साधम्यं वैधर्म्य शब्दार्थ कथनम् टी०
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[ प्र
• समान जात्यारम्भकगुण कथनम् भा० समानाधिकरणारम्भकगुणकथनम् भा० समानासमानजात्यारम्भक गुणकथनम् भा० -सम्बन्ध प्रयोजनकथन फलम् - टी०का सम्भवस्यानुमानेऽन्तर्भावादिकथनम् भा० सविकल्पक प्रत्यक्षान्तर्भूतकल्पनापदार्थ विचार: टी० सलिलादीनां गन्धशून्यत्वकथनम् टी०
साधर्म्य निदर्शनलक्षणं साधर्म्य निदर्शनोदाहरणं च भा०
सुखस्य दुःखाभावरूपतावादिमतखण्डनम् टी० सुखादीनां ज्ञानात्मकत्वमतनिरासः टी०
1
adv
सृष्टिसंहारविधिः भा०
सौगतमतम् अविनाभावपदार्थ नियामककथनम् टी० सौगतमखण्डनम् अनुमाने टी०
संयोगजगुणकथनम् भा०
संयोगनाशकथनम् भा०
सुरभिचन्दन प्रत्यक्षस्य चक्षुर्घाणोभयजन्यत्वमतखण्डनम् टी० सुवर्णादीनां रूपस्पर्शव्यतिरिक्त द्रव्यत्वसाधनम् टी० सुवर्णादिस्तेज सत्वसाधनम् टी०
...
संख्या निरूपणम् भा०
संख्येयनाशेऽपि संख्या व्यवहारोपपत्तिः टी० संयुक्त प्रत्ययनिमित्तत्वेन संयोगसिद्धौ विप्रतिपत्तिनिरासः टी०
सामान्यगुणकथनम् भा०
सामान्यनिरूपणम् भा०
सामान्यविभागादिः परमपरमित्यादिना भा० सामान्यस्य द्रव्याद्यतिरिक्तत्व व्यवस्थापनम् भा० सामान्यादिषु सामान्याभावकथनम् टी० सामान्यादीनामकृतकत्वे युक्तिः टी० सामान्यादीनां त्रयाणां साधर्म्यकथनं स्वात्मसत्वं बुद्धिलक्षणत्वम् अकार्यत्वमकारणत्वमसामान्यविशेषवत्त्वं नित्यत्वमर्थशब्दानभिधेयत्वं च भा०
सिद्धदर्शनस्थ विद्यान्तरत्व खण्डनम् भा०
सुखनिरूपणम् भा०
...
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***
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****
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606
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2006
180
...
190
:
पू. सं.
७७७
२४०
२४२
२४१
५
५४२
૧૨
७४
૨૮
४१
१६
२३१
७४१
२१
७४८
૪
५१
જર
६२६
६३०
६३३
२१८
२७६
१०२
६७
१२१
જર
ver
२६७
२८३
L
२३८ ३६१
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पु.सं.
४१.
७११
[ ५७ ] विषयाः संयोगनाशजपरत्वापरत्वनाशोदाहरणम् भा. संयोगनिरूपणं तस्य विध्यादिकम् भा. संयोगलक्षणं संयोगस्यान्यतरकर्मजादिविभागादिश्च भा. संयोगापेक्षाबुद्धिनाशजपरवापरत्वनाशोदाहरणम् भा. संयोगाभावातिरिक्तविभागकथनम् टो० संशयनिरूपणं संशयभेदकथनं च भा. संशयस्य प्रत्ययत्वे विप्रतिरत्तिनिराकरणम् टी० संस्कारनिरूपणं तद्विभागश्च भा. संस्कारात संयोगविभागपूर्वककोत्पत्तिः भा. संस्कारातिशयहेतुकथनम् टी. स्थितिस्थापक निरूपणम् भा० स्पर्शनिरूपणम् भा. स्फोटवादनिराकरणम् टी. स्मृतिनिरूपणम् भा० स्नेहनिरूपणम् भा. स्वतन्त्रपरमाणुषु पाकजोत्पत्तौ प्रमाणम् टी. स्वप्ननिरूपणं स्वप्नविभागादिश्च भा० स्वप्रकाश वादखण्डनम् टी. स्वार्थानुमाननिरूपणम् भा० स्वाश्रयसमवेततदन्योभयारम्भकगुणकथनम् भा० हेत्वाभासनिरूपणम् भा.
(४७
५७ २५६
२५४
२१५
२४२
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पृ.प.
१३-१०
م
२४- २ ७४-८ ६७-१६ १४७-१२ १७१-२ १७१-१० .१८१-९
असुद्धम् वक्तृप्रमाण्यो कार्यान्वितपदाथ वैधमञ्चेति प्रतीते तद्गुणोपब्धः सिद्धस्तथा मेकप्रतित्तु प्रसाधकोऽकोनु कारणहम मात्मन्यव पत्त्यत्व अहमेवायिमिति भुतिप्राण्या पूज्यते हाविमाौँ बरकारणाविच्छा बिभवाभावाश्चास्य मानसः आत्यन्तिका कारणत्वाति जनयन्ति सहकस्मिनन्नथें बदवाभ्यामपि तदकाय तदतरूप क्षित्युदमक तेनादि आकाशाविभाग त्वकैक सहनि भावाव प्रतित्युपपत्तो तन्नित्मेवं प्रयत्नानन्तरीक प्रतितिरियम्
शुष्पाशुष्डपत्रम्
शुद्धम् वक्तृप्रामाण्यो कार्यान्वितपदार्थे वैधर्म्यञ्चेति प्रतीते। तद्गुणोपलब्धेः सिद्धिस्तथा नेकप्रतिपत्त प्रसाधकोऽनु कारणमहम नात्मव्यव व्याबृत्त्यसत्त्व अहमेवायमिति श्रुतिप्रामाण्या युज्यते द्वाविमावर्थों तत्कारणादिच्छा विभवाभावश्चास्य मनसः आत्यन्तिक कारणत्वावि जनयन्ती सहैकस्मिन्नर्थे तदभावाभ्यामपि तदकार्य तद्गगतरूप क्षित्युदक तेनापि आकाश विभाग त्वेकैक सहान भावाभाव प्रतीत्युपपत्तेः तन्नित्यमेवं प्रयत्नानन्तरीयक प्रतीतिरियम्
२०८-१२ २१२-११ २१३-१२ २२२-१० २२३-८ २२३-११ २२१-१७ २२७-१५ २३५-३ २४२-१४ २४५-७ २४८-५ २५२-६ २५२-१५ २५६-१६
२६६-७ २७२-१५ २८६-१९ ३२.-३
६०१-१ ६१८-२२ ७४९-३
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प्रशस्तपादाचार्यप्रणीतम्
प्रशस्तपादभाष्यम् [ पदार्थधर्मसङ्ग्रहाख्यम्]
श्रीधरभट्टकृतन्यायकन्दलीव्याख्योपेतम् श्रीदुर्गाधरझाकृत-हिन्दीभाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रणम्य हेतुमीश्वरं मुनि कणादमन्वतः ।
पदार्थधर्मसङ्ग्रहः प्रवक्ष्यते महोदयः ॥ ( सभी जन्यपदार्थों के ) कारण ईश्वर को प्रणाम करने के पश्चात् कणाद मुनि को प्रणाम करके 'महोदय' अर्थात् मोक्ष देनेवाले 'पदार्थधर्मसङ्ग्रह' नाम के ग्रन्थ को लिख रहा हूँ।
न्यायकन्दली अनादिनिधनं देवं जगत्कारणमीश्वरम् । प्रपद्ये सत्यसङ्कल्पं नित्यविज्ञानविग्रहम् ॥१॥ ध्यानकतानमनसो विगतप्रचाराः
पश्यन्ति यं कमपि निर्मलमद्वितीयम् । ज्ञानात्मने विघटिताखिलबन्धनाय
तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२॥ आदि और विनाश से रहित एवं जगत् के निमित्तकारण, तथा जिनके संकल्प कभी विफल नहीं होते, नित्यविज्ञानस्वरूप उन परमेश्वर की शरण को मैं प्राप्त होऊ ॥२॥
सभी दोषों से रहित एवं सांसारिक सभी वस्तुओं से सर्वथा विलक्षण जिस वस्तु को योगिगण एकाग्र होने पर देखते हैं, सभी बन्धनों से शून्य ज्ञान-स्वरूप उन भगवान् पुरुषोत्तम को मैं प्रणाम करता हूँ ॥२॥
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली शास्त्रारम्भेऽभिमतां देवतां शास्त्रस्य प्रणेतारं गुरुञ्च श्लोकस्य पूर्वार्द्धन नमस्यति – प्रणम्येति। कारम्भे हि देवता गुरवश्च नमस्क्रियन्ते इति शिष्टाचारोऽयम्। फलं च नमस्कारस्य विघ्नोपशमः। न तावदयमफलः, प्रेक्षावद्भिरनुष्ठेयत्वात्। अन्यफलोऽपि न कारम्भे नियमेनानुष्ठीयेत, अविघ्नेन प्रारीप्सितपरिसमाप्तेस्तदानीमपेक्षितत्वात्, फलान्तरस्यानभिसंहितत्वाच्च।
ननु किं नमस्कारादेव विघ्नोपशमः ? उत अन्यस्मादपि भवति ? न तावन्नमस्कारादेवेत्यस्ति नियमः, असत्यपि नमस्कारे न्यायमीमांसाभाष्ययोः परिसमाप्तत्वात् । यदा चान्यस्मादपि तदा नियमेनोपादानं निरुपपत्तिकम् । अत्रोच्यते - नमस्कारादेव विघ्नोपशमः, कारम्भे सद्धिनियमेन तस्योपादानात् । न च न्यायमीमांसाभाष्यकाराभ्यां न कृतो नमस्कारः, किन्तु तत्रानुपनिबद्धः ।
शास्त्र के आदि में इष्टदेवता तथा शास्त्र के रचयिता और अपने गुरु कणाद मुनि को "प्रणम्य” इत्यादि श्लोक के पूर्वार्द्ध से नमस्कार किया गया है। किसी कार्य के आरम्भ में देवता और गुरु को नमस्कार करना शिष्टजनों का आचार है। इसका फल विघ्नों का नाश (ही) है। यह निष्फल तो हो नहीं सकता, क्योंकि शिष्टों से आचरित है। विघ्नों के नाश को छोड़ कर और (स्वर्गादि) फल भी इसके नहीं हो सकते, क्योंकि उस दशा में शास्त्रों के आरम्भ में ही नियम से इसका अनुष्ठान नहीं होता । एवं मङ्गलाचरण के समय "ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हो जाय" यही मङ्गला. चरण करनेवाले को अभिप्रेत भी होता है। दूसरे (स्वर्गादि) फल वहाँ उपस्थित भी नहीं हैं।
(प्रश्न) (१) विघ्नों का विनाश नमस्कार से ही होता है ? या (२) और भी किसी कारण से ? यह नियम तो नहीं है कि नमस्कार से ही विघ्नों का नाश हो, क्योंकि न्यायभाष्य और मीमांसाभाष्य दोनों ही निर्विघ्न समाप्त हैं, यद्यपि उनमें नमस्कार नहीं है। अगर नमस्कार को छोड़ कर और भी किसी कारण से विघ्नों का नाश हो सकता है तो फिर ग्रन्थ के आरम्भ में नमस्कार करना ही चाहिए, यह नियम युक्ति-शून्य हो जाता है। (उत्तर) उक्त प्रश्न के समाधान में कहना है कि नमस्कार से ही विघ्नों का नाश होता है, क्योंकि सभी कार्यो के आरम्भ में शिष्टों ने नियम से मङ्गलाचरण किया है। न्यायभाष्यकार और मीमांसाभाष्यकार इन दोनों ने मङ्गलाचरण नहीं किया है, यह बात नहीं है, किन्तु उन लोगोंने अपने मङ्गलाचरण को अपने ग्रन्थों में लिखा नहीं है।
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली . कथमेषा प्रतीतिरिति चेत् ? कर्तुः शिष्टतयैव । अस्तु वा तावदपरः । प्रेक्षावान् म्लेच्छोऽपि तावद् गुर्वारम्भे कर्मणि न प्रवर्तते यावदिष्टान्न नमस्यति । यदिमौ परमास्तिको पक्षिलशबरस्वामिनी नानुतिष्ठत इत्यसम्भावनमिदम् । .. .. अक्षरार्थो व्याह्रियते-प्रणम्येति। प्रकर्षवाचिना प्रशब्देन भक्तिश्रद्धातिशयपूर्वकं नमस्कारमाचष्टे । स हि धर्मोत्पादकस्तिरयत्यन्तरायबीजं नापरः। अत एव कृतनमस्कारस्यापि कादम्बादेरपरिसमाप्तिः, विशिष्टनमस्काराभावात् तदवैशिष्टयस्य कार्यगम्यत्वात् । अत्रैव च नमस्कारः क्रियमाणोऽपि करिष्यमाणपदार्थधर्मसङ्ग्रहप्रवचनापेक्षया पूर्वकालभावीति क्त्वाप्रत्ययेनाभिधीयते तदेकवाक्यतामापादयितुम्, न त्वस्य पूर्वकालमात्रतामनूद्यते, अनुवादे वा प्रयोजनाभावात् । हेतुमिति निविशेषणेन हेतुपदेन सर्वोत्पत्तिमतां निमित्ततां प्रतिजानीते। ईश्वरमिति विशिष्टदेवताया अभिधानम्, लोके तद्विषयत्वेनैवास्य पदस्य प्रसिद्धेः, लोकप्रसिद्धार्थोपसङ्ग्रहत्वादस्य शास्त्रस्य। मुनिमिति
(प्रश्न) यह कैसे समझा जाय ? (उत्तर) उन लोगों की शिष्टता से ही। अथवा और भी इसका हेतु हो सकता है। किन्तु बुद्धिमान् म्लेच्छ भी इस प्रकार के बड़े काम में तब तक प्रवृत्त नहीं होता है, जब तक अपने इष्टदेवता को नमस्कार न कर ले । फिर परम आस्तिक पक्षिलस्वामी (वात्स्यायन) और शबरस्वामी ग्रन्थनिर्माण से पहिले मङ्गलाचरण न करें यह बात सम्भावना के बाहर है।
- मङ्गल-श्लोक में प्रयुक्त प्रत्येक पद की व्याख्या करते हैं। 'प्रणम्य' पद में प्रयुक्त प्रकर्षवाची 'प्र' शब्द से भक्ति और श्रद्धा से युक्त नमस्कार का बोध होता है। वहीं (भक्ति-श्रद्धा पूर्वक) नमस्कार धर्माजनक होकर विघ्नों को मूल सहित नष्ट करता है, भक्ति और श्रद्धा से रहित नमस्कार नहीं। इसीलिए कादम्बरी प्रभृति ग्रन्थों में नमस्कार होने पर भी समाप्ति नहीं हुई। नमस्कार में भक्तिश्रद्धायुक्तत्व का अभाव कार्य से ही समझा जा सकता है। नमस्कार भी यद्यपि इस ग्रन्थ में ही किया जा रहा है, तथापि आगे प्रतिपादित की जानेवाली वस्तु को अपेक्षा वह पहिले है । मङ्गलग्रन्थ और वस्तुविवेचनग्रन्थ दोनों में एकवाक्यता लाने के अभिप्राय से 'क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। इससे मङ्गल-ग्रन्थ में विषय-ग्रन्थ से पूर्वकालतामात्र अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि उसका यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। बिना विशेषण के केवल 'हेतु' शब्द से ईश्वर में सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं की कारणता समझायी गई है यहाँ 'ईश्वर' शब्द विशेष प्रकार के देवता का वाचक है, क्योंकि लोक में ईश्वर शब्द इसी अर्थ में प्रसिद्ध है एवं यह शास्त्र लोक में प्रसिद्ध अर्थों का ही विवेचक है। उग्र तपस्या और सभी विषयों के यथार्थ ज्ञान से युक्त जिस व्यक्ति का अज्ञानरूप अन्धकार विशुद्ध आत्मज्ञानरूप
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली
शुद्धात्मज्ञानप्रदीपक्षपिततमसमत्युग्रतपसं साक्षादशेषतत्त्वावबोधयुक्तं पुरुषविशेषमाह, इत्थम्भूत एवार्थे मुनिशब्दस्य लोके दर्शनात् । कणादमिति तस्य कापोती वृत्तिमनुतिष्ठतो रथ्यानिपतितांस्तण्डुलकणानादाय प्रत्यहं कृताहारनिमित्ता संज्ञा। अत एव "निरवकाशः कणान् वा भक्षयतु” इत्युपालम्भस्तत्रभवताम् । इदं हि तस्थ नामेति तच्छब्दसङ्कीर्तनं कृतं प्रशस्तदेवेन, न त्वियं तदुपनिबन्धवैशिष्टयख्यापनाय युक्तिरभिहिता, तदुपनिबन्धवैशिष्टयस्य मन्वादिवाक्यवन्महाजनपरिग्रहादेव प्रतीतेः । न चास्य कणादशास्त्रख्यापनेन किञ्चित् प्रयोजनमस्ति ।
___ तावता तत्पूर्वकस्य ग्रन्थस्य वैशिष्टयसिद्धिरिति चेन्न, अवश्यं तत्पूर्वकत्वेन स्वग्रन्थस्य वैशिष्टयसिद्धिः, कर्तृ दोषेणाऽयथार्थस्यापि निबन्धस्य सम्भावनास्पवत्वात् । सम्भावितप्रामाण्ये प्रशस्तदेवे पुरुषदोषाणामसम्भव इति चेत् ? एवं तर्हि यथा कणादशिनां तच्छिष्याणां पुरुषप्रत्ययादेव तथात्वनिश्चयात् तदुपनिबन्धे प्रवृत्तिः, अपरेषाञ्च पुरुषान्तरसंवादात् । एवं प्रशस्तदेवकृतोपनिबन्धेऽपि तच्छिष्याणामपरेषाञ्च प्रवृत्तिर्भविष्यतीति नार्थस्तत्पूर्वकत्वख्यापनेन । प्रदीप से नष्ट हो गया है, वही विशिष्ट पुरुष 'मुनि' शब्द से अभिप्रेत है,क्योंकि इसी प्रकार के अर्थ में 'मुनि' शब्द का प्रयोग लोक में देखा जाता है। उन (शास्त्रकर्त्ता) का यह 'कणाद' नाम रास्ते में गिरे हुए अन्नकणों को कपोत की तरह चुन-चुन कर आहार करने का कारण है । अत एव उनके खण्डन-ग्रन्थों में जहां तहाँ "अब कोई उपाय न रहने के कारण कणों को खाइये" यह आक्षेपयुक्त उक्ति उनके लिए देखी जाती है। यह (कणाद) इनका नाम है, इसीलिए प्रशस्तदेव ने 'कणाद' शब्द का प्रयोग किया है, अपने ग्रन्थ में ख्याति दिखलाने की दृष्टि से नहीं। इस निबन्ध रूप वाक्यों के वैशिष्टय की प्रतीति मनु इत्यादि स्मृतिकारों के वाक्य की तरह महापुरुषों के इसके अनुसार चलने से ही हो जाती है। यह निबन्ध कणादकृत शास्त्रमूलक है, यह प्रसिद्ध करने का कोई प्रयोजन भी नहीं है।
(प्र०) इस प्रसिद्धि से ग्रन्थ में उत्कर्ष की सिद्धि होगी। (उ०) यह ठीक है कि इस प्रसिद्धि से ग्रन्थ में उत्कर्ष की सिद्धि होगी, किन्तु कर्ता के दोष से उत्कृष्ट निबन्ध में भी वैशिष्टय संशयास्पद हो जाता है । (प्र.) प्रशस्तदेव में प्रामाण्य निश्चित है, अतः उनमें पुरुष-दोष की सम्भावना नहीं है । (उ०) अगर ऐसी बात है तो फिर जैसे (कणादरूप) पुरुष में प्रामाण्यनिश्चय के कारण कणाददर्शन के अनुगामी उनके शिष्यों की प्रवृत्ति उनके ग्रन्थ के अध्ययन में होती है, एवं औरों की प्रवृत्ति उन प्रवृत्त पुरुषों की सफलता सुनकर होती है, उसी प्रकार उनके शिष्यों की एवं औरों की भी प्रवृत्ति इस ग्रन्थ के अध्ययन में भी होगी। तस्मात् "यह निबन्ध कणादसूत्रमूलक है" इसे प्रसिद्ध करने का कोई प्रयोजन नहीं है।
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प्रकरणम्
माषानुदावसहितम्
न्यायकन्दली किमर्थं तर्हि कणादनमस्कारः ? विघ्नोपशमायेत्युक्तम्, यथेश्वरस्य नमस्कारः । सोऽपि हि न तत्पूर्वकत्वख्यापनाय, व्यभिचारात् । यस्य हि या देवता स तां प्रणम्य सर्वकर्माणि प्रस्तौति, न कर्मणस्तत्पूर्वकत्वेन, भक्तिश्रद्धामात्रनिबन्धनत्वान्नमस्कारस्य। यथा मीमांसावात्तिककृता नमस्कृतः सोमावतंसः । न च तत्पूविका मीमांसेत्यस्ति प्रवाद: । अन्विति ईश्वरप्रणामादनन्तरतां कणादप्रणामस्य परामृशति, ईश्वरमादौ प्रणम्य ईश्वरप्रणामादनु पश्चात् कणादं प्रणम्येत्यर्थः ।
सम्बन्धप्रयोजनयोरनभिधाने श्रोता न प्रवर्त्तते, प्रयोजनाधिगतिपूर्वकत्वात् सर्वप्रेक्षावत्प्रवृत्तेः। तस्याप्रवृत्तौ च शास्त्रं कृतमकृतं स्यात् । अतः शास्त्रारम्भमादधानः प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यङ्गं तस्य सम्बन्धं प्रयोजनञ्चादौ श्लोकस्योत्तरार्द्धन कथयति-पदार्थधर्मेत्यादि। पदार्था द्रव्यादयः 'षट्, तेषां धर्माः साधारणासाधारणस्वभावाः संगृह्यन्ते संक्षेपेणाभिधीयन्तेऽनेनेति पदार्थधर्मसङ्ग्रहः। प्रवक्ष्यत इति । पदार्थधर्माणां
(प्र.) फिर कणाद ऋषि को ही नमस्कार करने की क्या आवश्यकता है ? (उ०) यह कहा जा चुका है कि ईश्वर को नमस्कार करने की तरह कणाद ऋषि को नमस्कार करना भी विघ्नों के नाश के लिए ही है, ग्रन्थ में इस प्रसिद्धि के लिए नहीं कि यह ग्रन्थ कणादकृतग्रन्थमूलक है, क्योंकि यह नियम व्यभिचरित है । जिसके जो देवता हैं, उनको नमस्कार करके ही वह व्यक्ति अपने सभी कामों को आरम्भ करता। (कोई भी) 'सभी काम उस देवतामूलक हैं" इस अभिप्राय से अपने इष्टदेवता को प्रणाम नहीं करता है। नमस्कार तो केवल भक्ति-श्रद्धामूलक है । जैसे मीमांसावार्तिककार (कुमारिलभह) ने सोमावतंस (शिव) को नमस्कार किया है, किन्तु इससे कोई यह नहीं कहता कि मीमांसा सोमावतंसकृत है। 'अन्वतः' यह पद 'ईश्वरप्रणाम के बाद कणाद ऋषि को प्रणाम करते हैं ' इस आनन्तर्य को दिखाता है। अभिप्राय यह है कि पहिले ईश्वर को प्रणाम कर 'अनु' अर्थात् उसके बाद कणाद ऋषि को प्रणाम करके इस ग्रन्थ को आरम्भ करते हैं।
(वक्तव्य विषय के साथ ग्रन्थ का) सम्बन्ध और (ग्रन्थ सुनने के) प्रयोजन को न कहने से श्रोता (ग्रन्थ को सुनने में) प्रवृत्त नहीं होते हैं क्योंकि बुद्धिमान् व्यक्ति प्रयोजन को बिना समझे हुए किसी भी काम में प्रवृत्त नहीं होते। वे अगर इस शास्त्र को पढ़ने या सुनने में प्रवृत्त न होंगे तो इसका निर्माण होना न होने के बराबर होगा। इसलिए शास्त्र को आरम्भ करते हुए (प्रशस्तदेव ने) बुद्धिमान् व्यक्तियों की प्रवृत्ति में कारणीभूत 'सम्बन्ध' और 'प्रयोजन' इन दोनों को "पदार्थधर्मसङग्रहः” इत्यादि कथित श्लोक के उत्तरार्द्ध से दिखलाते हैं। जिसमें 'पदार्थ' अर्थात् द्रव्यादि छः वस्तुएँ और उनके साधारण और असाधारण स्वभाव 'संगृहीत' हों याने संक्षेप से कहे जायँ यही "पदार्थधर्मसङ्ग्रहः” शब्द का अर्थ है । "प्रवक्ष्यते” इस पद से "मैं पदार्थों और
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली
संक्षेपेणाभिवायको ग्रन्थः प्रकृष्टो मया वक्ष्यत इति ग्रन्थकर्तुः प्रतिज्ञा। ग्रन्थस्य चेयं प्रकृष्टता यदन्यत्र ग्रन्थे विस्तरेणेतस्ततोऽभिहितानामिहैकत्र तावतामेव पदार्थधर्माणां ग्रन्थे संक्षेपेण कथनम् । एतदेव चास्यारम्भः सत्स्वप्युपनिबन्धान्तरेषु पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहः पदार्थधर्मप्रतीतिहेतुः । पदार्थधर्मप्रतीतिश्च न पुरुषार्थः, सुखदुःखाप्तिहान्योः पुरुषप्रयोजकत्वात् । तस्मादयमपुरुषार्थहेतुत्वादनुपादेय एवेत्याशङ्कय तस्य पुरुषार्थफलता प्रतिपादयितुमुक्तं महोदय इति । महानुदयो महत्फलमपवर्गलक्षणं यस्मात् सङ्ग्रहादसौ महोदयः सङ्ग्रहः । एतेन सङ्ग्रहस्य पदार्थधम्मैः सह वाच्यवाचकभावः, तत्प्रतिपत्त्या च महोदयेन सह साध्यसाधनभावः सम्बन्धो दर्शितः। - ननु भोः क एष महोदयो नाम? .
(१) सजासनसमुच्छेदो ज्ञानोपरम इत्येके । तथा च पठन्ति - न प्रेत्य संज्ञास्तीति । तदयुक्तम्, सर्वतः प्रियतमस्यात्मनः समुच्छेदाय प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, बन्धविच्छेदपर्यायस्य मुक्तिशब्दस्यातदर्थत्वाच्च । । उनके धम्मों को संक्षेप में प्रतिपादित करनेवाले उत्तम ग्रन्थ को कहूँगा” ग्रन्थकार की ऐसी प्रतिज्ञा प्रतीत होती है। इस ग्रन्थ में और ग्रन्थों से उत्तमता यही है कि अन्य ग्रन्थों में जहाँ तहाँ विस्तृत रूप से कहे गये पदार्थ इस ग्रन्थ में एक ही स्थान में संक्षेप से कहे गये हैं। इसीलिए और निबन्धों के रहते हुए भी इसकी रचना सार्थक है । (प्र०) “पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहः" इस वाक्य का अर्थ है पदार्थों और उनके धर्मों की सम्यक् प्रतीति का कारण', किन्तु पदार्थों की या उनके धम्मों की सम्यक् (यथार्थ) प्रतीति तो पुरुष का अभीष्ट नहीं है, क्योंकि पुरुष (जीव) का यथार्थ अभीष्ट : तो सुख प्राप्ति एवं दुःख की निवृत्ति ये ही दोनों हैं। तस्मात् यह ग्रन्थ पुरुष के अभीष्ट का सम्पादक न होने क कारण अनुपादेय ही है। यही प्रश्न (मन में) रख कर (इसके उत्तर स्वरूप) “यह ग्रन्थ पुरुष के उक्त प्रयोजन का सम्पादक है" यह कहने के लिए “महोदयः" यह पद लिखा है। "महान् उदय' अर्थात् अपवर्ग (मोक्ष) रूप महान् फल जिस सङ्ग्रह से हो वही "महोदय सङ्ग्रह" है। इससे इस “सङग्रह' रूप ग्रन्थ का पदार्थ और उनके धम्मों के साथ कार्यकारणभाव सम्बन्ध दिखलाया गया है।
प्र०) यह महोदय नाम की कौन वस्तु है ?
(१) कोई (बौद्धविशेष) कहते हैं कि वासनारूप मूलसहित ज्ञान का नाश ही 'महोदय' निर्वाण) है। इसके प्रमाण में वे उपनिषद् का यह वाक्य उद्धृत करते हैं-"न प्रेत्य संज्ञास्ति', अर्थात् मरने के बाद 'संज्ञा' (चेतना) नहीं रहती है । (उ०) किन्तु यह पक्ष अयुक्त है, क्योंकि (प्रश्नकर्ता के मत से आत्मा ज्ञानरूप है) आत्मा ही
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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( २ )
निखिलवासनोच्छेदे विगतविषयाकारोपप्लव विशुद्धज्ञानोदयो
महोदय इत्यपरे । तदयुक्तम्, कारणाभावे तदनुपपत्तेः । भावनाप्रचयो हि तस्य कारणमिष्यते, स च स्थिरैकाश्रयाभावाद्विशेषानाधायकः प्रतिक्षणमपूर्ववदुपजायमानो निरन्वयविनाशी लङ्घनाभ्यासवदनासादितप्रकर्षो न स्फुटाभज्ञानजननाय प्रभवतीत्यनुपपत्तिरेव तस्य । समलचित्तक्षणानां स्वाभाविक्याः सदृशारम्भणशक्तेरसदृशारम्भं किश्व पूर्वे
प्रत्यशक्तेश्चाकस्मादनुच्छेदात्,
सब से प्रिय है, उसका विनाश वस्तुतः आत्मा का विनाश ही है, तो अपने सब से अधिक प्रिय वस्तु का नाश करने के लिए कौन बुद्धिमान् प्रवृत्त होगा ? और यह बात भी है कि महोदय का 'मुक्ति' शब्द और 'बन्धविच्छेद' शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं ।
( २ ) कोई कहते हैं कि सभी वासनाओं के नष्ट हो जाने पर विषयरूप आकार के मालिन्य से रहित ज्ञान की उत्पत्ति ही 'महोदय' है । किन्तु यह पक्ष भी कारण की अनुपपत्ति से अयुक्त है, क्योंकि इस पक्ष के माननेवाले भावना के 'प्रचय' अर्थात् बार-बार होने को इसका कारण मानते हैं । ( किन्तु इस मत में ) सभी वस्तु क्षणिक हैं । वस्तुओं का निरन्वय विनाश उत्पत्ति के द्वितीय क्षण में ही कूदने के अभ्यास की तरह हो जाता है, और दूसरे क्षण में बिलकुल अपूर्व अन्य व्यक्ति की उत्पत्ति होती है | जब पहिले विज्ञान से आगे के विज्ञान में कोई उपकार नहीं पहुँच सकता है तो 'स्फुटाभ' ज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होगी । इस प्रकार इस पक्ष में निर्वाण ही अनुपपन्न हो जाएगा । और भी बात है - 'मल' अर्थात् बन्ध सहित चित्त (ज्ञान)- क्षण अपने उत्तर क्षण में अपने सदृश ही चित्त की उत्पत्ति का कारण हो सकता है, क्योंकि सदृशारम्भकत्व ही उसका स्वभाव है । घटविज्ञान दूसरे घटविज्ञान को ही उत्पन्न कर सकता है, पटविज्ञान को नहीं, नीलघटविज्ञान को भी नहीं । तब घटादि विषयरूप मलसहित विज्ञान अपने से विसदृश शुद्ध ( निर्मल ) विज्ञानरूप मुक्ति का कारण कैसे हो सकता है ? विज्ञान का सदृशारम्भकत्व तो नष्ट नहीं हो सकता । दुसरी बात यह है कि प्रत्येक क्षण अपने स्वभावसिद्ध निर्वाण से १. अभिप्राय यह है कि जैसे कोई अपराधी राजा की आज्ञा से बँध जाता है और उसके उस बन्धन के खुल जाने पर वह मुक्त हो गया" यह व्यवहार होता है । इस व्यवहार के लिए उस आदमी के मरने की आवश्यकता नहीं होती । वह आदमी रहता ही है, उसका बन्धन भर खुल जाता है। वैसे हो 'यह जीव मुक्त हो गया" इस वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वयं ही नष्ट हो गया । उससे इतनी ही प्रतीति होती है कि उसके मिथ्याज्ञानादि बन्धन खुल गये हैं। इसलिए 'महोदय' शब्द का अर्थ आत्मा से अभिन्न ज्ञान का उच्छेद कदापि नहीं हो सकता ।
२. अभिप्राय यह है कि इस मत में वास्तविक सत्ता ज्ञान की हो है । अन्य घटादि विषय 'संवृति' या अज्ञान से कल्पित हैं ( वेदान्ती लोग जिनको व्यावहारिक सत्ता मानते हैं ) । वास्तविक सत्ताविशिष्ट ज्ञान निर्विकल्पक है । उसमें घटादि विषयों का
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लाचरण
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली क्षणाः स्वरसनिर्वाणाः, अयमपूर्वो जातः, सन्तानश्चैको न विद्यते, बन्धमोक्षौ चैकाधिकरणौ विषयभेदेन वर्तेते, य एव च प्रवर्तते प्राप्य च निवृत्तो भवति ।
( ३ ) प्रकृतिपुरुषविवेकदर्शनादुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इत्यन्ये । तन्न, प्रवृत्तिस्वभावायाः प्रकृतेरौदासीन्यायोगात् । पुरुषार्थनिबन्धना तस्याः प्रवृत्तिः, विवेकख्यातिश्च पुरुषार्थः। तस्यां सजातायां सा निवर्तते कृतकार्यात्वादिति चेन्न, अस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाभावात् । यथेयं कृतेऽपि शब्दाधुपलम्भे पुनस्तदर्थं प्रवर्तते, तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थ प्रतिष्यते स्वभावस्यानपायित्वात् ।
(४) नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरित्यपरे। तदप्यसारम् , अग्रे निराकरिष्यमाणत्वात् । तस्मादहितनिवृत्तिरात्यन्तिकी महोदय इति युक्तम् । युक्त है (क्षण शब्द से क्षणिक-विज्ञान विवक्षित है), यह विशुद्धविज्ञान बिलकुल अपूर्व ही है। संतान नाम की कोई विलक्षण वस्तु नहीं है । यह नियम है कि जो बद्ध रहता है वही मुक्त होता है । एवं यह भी स्वाभाविक है कि जो प्रवृत्त होता है वही प्राप्त करके निवृत्त होता है ।
(३) कोई कहते हैं कि जब प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान से प्रकृति अपने सृष्टयादि कार्यों से निवृत्त हो जाती है, उस समय पुरुष की अपने स्वरूप में अवस्थिति ही 'मुक्ति' है। किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रवृत्तिस्वभाववाली प्रकृति कभी उससे उदासीन नहीं हो सकती। (प्र.) पुरुष के प्रयोजन-सन्पादन के लिए ही प्रकृति प्रवृत्त होती है, एवं प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान ही पुरुष का परम प्रयोजन है। उसके सम्पादित हो जाने पर वह कृतकार्य हो जाती है और फिर कार्य में प्रवृत्त नहीं होती। (उ०) किन्तु उक्त कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि प्रकृति जड़ है। उसमें विचारकर काम करने की शक्ति नहीं है, ( अतः ) वह जिस प्रकार शब्दविज्ञान के उत्पन्न होने पर भी फिर उसके लिए प्रवृत्त होती है, उसी प्रकार "विवेकख्याति" अर्थात् प्रकृति-पुरुष के विवेक-ज्ञान के उत्पन्न होने पर भी फिर उसके लिए प्रवृत्त होगी । (तस्मात् इस पक्ष में अनिर्मोक्ष प्रसङ्गहोगा)।
(४) यह भी कोई कहते हैं कि नित्य एवं निरतिशय ( सर्वोत्कृष्ट) सुख की अभिव्यक्ति ही 'मुक्ति' है। इस मत के ठीक न होने की युक्ति आगे लिखी जाएगी। तस्मात् दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही 'मुक्ति' है। सम्बन्ध ही सुख और दुःखजनक होने के कारण 'बन्ध' है अतः उक्त विशुद्धज्ञान में घटादि विषयों के सम्बन्ध का उच्छेद ही मुक्ति है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि "मात्माभिन्न ज्ञानोच्छेद" ही मुक्ति है. इस कथित पक्ष में नौ दोष दिखलाये गए हैं, ये दोष इस पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि इस पक्ष में मुक्तावस्था में ज्ञानरूप आत्मा का नाश नहीं होता, किन्तु उसमें घटादि विषयों के सम्बन्ध का ही नाश होता है ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली - तस्याः सद्भावे किं प्रमाणम् ? दुःखसन्ततिम्मिणी अत्यन्तमुच्छिद्यते सन्ततित्वाद्दीपसन्ततिवदिति तार्किकाः। तदयुक्तम्, पार्थिवपरमाणुरूपादिसन्तानेन व्यभिचारात्। "अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्यादयो वेदान्ताः प्रमाणमिति तु वयम् । भूतार्थानामेषामप्रामाण्यप्रसङ्ग इति
चेन्न, प्रत्यक्षेणानकान्तिकत्वात्। अथ मतं भूतार्थप्रतिपादकं वचनमनुवादकं स्यात्, ततश्चाप्रमाणत्वं प्रमाणान्तरसापेक्षत्वात्, प्रमायां साधकतमत्वाभावादिति । .. (प्र०) इसमें क्या प्रमाण है कि दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में तार्किक लोग यह अनुमान उपस्थित करते हैं कि दुःखों की सन्तति (समूह) का अत्यन्त विनाश होता है, क्योंकि उसमें सन्ततित्व है, जैसे दीपसन्तति । किन्तु अत्यन्त विनाश के साधन के लिए जिस 'सन्ततित्व' हेतु को उपस्थित किया गया है, वह पार्थिव परमाणु के रूपादि में व्यभिचरित है। इसलिए हम लोग कहते हैं कि "अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः" इत्यादि वेदान्त ही ( दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति में ) प्रमाण हैं । (प्र.) भूत अर्थात् निष्पन्न विषय के अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वेदान्त के ये वाक्य प्रमाण नहीं हैं। (उ०) ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस दशा में प्रत्यक्ष प्रमाण में व्यभिचार होगा। अगर ऐसा कहें कि भूत अर्थ के प्रतिपादक वचन अनुवादक हैं, अतः वेदान्तों में दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा के कारण अप्रामाण्य की सिद्धि होगी। क्योंकि प्रमा का जो 'साधकतम' होगा, वही 'करण' होने से प्रमाण होगा। अनुवादक वाक्य अपने अर्थ के
१. अभिप्राय यह है कि वैशेषिक पार्थिव परमाणु को नित्य मानते हुए भी उसमें रूप; रस, गन्ध और स्पर्श को अनित्य मानते हैं। क्योंकि पाक से उनका परिवर्तन घटादि स्थूल वस्तुओं में प्रत्यक्ष सिद्ध है । किन्तु उनके मूल कारण परमाणुओं में रूपादि के परिवत्तित हुए बिना घटादि में उनका परिवर्तन सम्भव नहीं है । अतः वह मानना पड़ेगा कि पार्थिव परमाणु के रूपादि पाक से परिवत्तित होते हैं। रूपादि का यह परिवर्तन पहिले रूपादि का नाश और दूसरे रूपादि की उत्पत्ति के सिवाय और कुछ नहीं है। किन्तु परमाणु तो नित्य है, उसमें सभी समय कोई न कोई रूपादि अवश्य रहते हैं । तस्मात् एक ही परमाणु में नानाजातीय रूपादि की सत्ता माननी पड़ेगी। इस प्रकार पार्थिव परमाणुगत नानाजातीय रूपादि का समूह मानना पड़ेगा। किन्तु उस समूह का कमी अत्यन्त विनाश नहीं होता है, अतः उसमें कथित 'सन्ततित्व' हेतु है । तस्मात् उक्त 'सन्ततित्व' हेतु व्यभिचार-दुष्ट है ।
२. प्रत्यक्ष निष्पन्न वस्तु का ही होता है। अतः “वेदान्ता अप्रमाणम्, भूतार्थविषयकत्वात्" अर्थात् वेदान्त अप्रमाण है, क्योंकि वे भूतार्थ के प्रतिपादक हैं। इस अनुमान का भूतार्थप्रतिपादकत्व हेतु प्रत्यक्ष प्रमाण में है, अथ च उसमें अप्रामाण्यरूप साध्य नहीं है। अतः उक्त हेतु व्यभचरित होने के कारण वेदान्तों में अप्रामाण्य का साधक नहीं हो सकता।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली न सिद्धार्थप्रतिपादकत्वमनुवादकत्वम्, प्रत्यक्षस्याप्यनुवादकत्वप्रसङ्गात्। किन्त्वधिगताधिगन्तृत्वम्, ईदृशश्च वेदान्तानामर्थो यदयं भूतोऽपि प्रत्यक्षादेः प्रमाणान्तरस्य न विषयः, कुतस्तेषामनुवादकता कुतश्च सापेक्षत्वम्, स्मृतेरिव तेभ्यः पूर्वाधिगमसंस्पर्शनार्थप्रतीतेरभावात् । अत एव पुरुषवाक्यमपि प्रमाणम् । नहि तदपि वक्तृप्रमाण्योत्थापनेनार्थं प्रतिपादयति, किन्त्वनपेक्षिततद्वयापारं स्वयमेव, उत्पत्तिमात्र एव तदपेक्षणात्। स्वाभाविकी हि पदानां पदार्थपरता, स्वाभाविकी च पदार्थानामाकाङ्क्षासन्निधियोग्यतावतामितरेतरान्वययोग्यता। तेन यथा वेदे प्रमाणान्तरानपेक्षः शब्दः, शब्दसामर्थ्यादेवार्थप्रत्ययः, एवं लोकेऽपि ये लौकिका वैदिकास्त एव चार्था इति न्यायेनोभयत्रापि शब्दशक्तेबोध का साधकतम'का अर्थात् कारण नहीं है । । (उ०) किन्तु यह कथन भी असङ्गत ही है क्योंकि भूतार्थ का प्रतिपादक होना ही अनुवादक होना नहीं है । (ऐसा मान लेने पर) प्रत्यक्ष प्रमाण भी अनुवादक होगा । किन्तु ज्ञात विषय का ज्ञापक ही अनुवादक होता है। वेदान्तों से प्रतिपादित होनेवाले अर्थ निष्पन्न होने पर भी प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों के विषय नहीं है । तब वेदान्तों में प्रमाणान्तरसापेक्षत्व कैसा ? और अनुवादकता कैसी ? क्योंकि वेदान्त वाक्यों से स्मरण की तरह अर्थों की प्रतीति पूर्वानुभव से नहीं होती । इसी लिए पुरुष के वाक्य भी प्रमाण हैं। वे भी अपने अर्थविषय बोध के उत्पादन में वक्ता के प्रामाण्य-ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखते। अपनी उत्पत्ति में ही वक्ता की अपेक्षा रखते हैं। किन्तु सुनने के बाद ही वक्ता के प्रामाण्य-ज्ञानरूप व्यापार की अपेक्षा नहीं रखते हुए ही केवल अपने सामर्थ्य से अपने अर्थ का बोध करा देते हैं। पदों में अपने अर्थों के बोध के उत्पादन की स्वाभाविक 'शक्ति' है। अतः जैसे वेदों में दूसरे प्रमाणों की सहायता के विना ही केवल उन शब्दों के सामर्थ्य से ही अर्थ का बोध होता है, वैसे ही लोक में भी-- "जो पद लोक में जिस अर्थ में प्रयुक्त है, सन्भव होने पर उस पद से वेद में भी उसी अर्थ का बोध होता है" (शाबरभाष्य), इस न्याय से लौकिक और वैदिक
१. अनवादक वाक्य का प्रसिद्ध उदाहरण है-'नधास्तीरे फलानि सन्ति" । इस वाक्य में प्रामाण्य तभी होता है, जब कि नदी किनारे के फलों को प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा जाननेवाले पुरुष से वह प्रयुक्त हुआ हो । अतः उस बोध का 'साधकतम' अर्थात् 'करण' वहीं प्रमाण होगा, जिससे प्रयोक्ता को उक्त प्रमा का ज्ञान हुआ हो। अतः उक्त वाक्य अपने अर्थविषयक बोध का कारण होने पर भी साधकतम 'करण' रूप प्रमाण नहीं है । तस्मात् अनुवादक वाक्य दूसरे प्रमाण से सापेक्ष रहने के कारण प्रमाण नहीं है ।
२. स्मृति (स्मरण) के प्रति पूर्वानुभव कारण है । स्मृति का प्रमात्व उसके कारणीभूत पूर्वानुभव के प्रमात्व के अधीन है। अतः संस्कार स्मृति का कारण होते हुए भी
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प्रकरणम् ]
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भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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११
रविशेषात् । वक्तृप्रामाण्यानुसरणन्तु स्वरूपविपर्यासहेतोर्दोषस्याभावावगमाय । प्रत्यक्ष इव स्वकारणशुद्धेरनुगमो विपर्य्यासशङ्कानिरासार्थ इत्येषा दिक् । विस्तरस्त्वद्वयसिद्धौ द्रष्टव्यः ।
ननु कार्येऽर्थे शब्दस्य प्रामाण्यं न स्वरूपे, वृद्धव्यवहारेष्वन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्य्यान्वितेषु पदानां शक्त्यवगमात् । अतो वेदान्तानां न स्वरूपपरतेति दोनों शब्दों के सामर्थ्य में कोई अन्तर नहीं है । ( प्रमात्व के ) स्वरूप के विपर्यासरूप अप्रमात्व के प्रयोजक दोषों के अभाव को जानने के लिए ही लौकिक वाक्यों में वक्ता के प्रामाण्य का अनुसन्धान किया जाता है । जैसे प्रत्यक्ष में स्वरूप विपर्यास, अर्थात् अप्रमत्व की शङ्का को हटाने के लिए उसके कारणों की शुद्धि का अनुसन्धान किया जाता है । यह केवल इस विषय का दिग्दर्शन मात्र है इसका विशेष विचार हमारे 'अद्वयसिद्धि' नामक ग्रन्थ में देखना चाहिए ।
( प्र०) कोई ( प्रभाकर ) कहते हैं कि काय्र्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शब्द की शक्ति है । 'स्वरूप' अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध केवल अर्थ में ही नहीं । क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से वृद्धों से व्यवहृत कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शक्ति गृहीत होती है' । अतः वेदान्त वाक्य भी 'स्वरूप' अर्थात् कार्य्यत्व से असम्बद्ध अर्थ के बोधक नहीं है" ।
1
'साधकतम ' करण नहीं है । एवं यथार्थानुभव से उत्पन्न स्मृति अप्रमा न होती हुई भी प्रमाणजन्य न होने के कारण प्रमा नहीं है । जिस यथार्थानुभव से उत्पन्न होने के कारण जिस स्मृति में प्रमात्व की सम्भावना है, उस यथार्थ पूर्वानुभव का करण उस स्मृतिविषय-विषयक उसी यथार्थानुभव को उत्पन्न करने के कारण तज्जनित स्मृति की उत्पत्ति के समय में ज्ञातज्ञापक हो जाता है । सुतरां उससे स्मृति में प्रमात्व की सम्भावना नहीं हैं । तस्मात् उक्त स्मृति में अयथार्थभिन्नत्वप्रयुक्त कदाचित् प्रमात्व का गौण व्यवहार हो भी, तथापि उसके करण प्रमाणत्व के व्यवहार की सम्भावना नहीं है ।
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१. शब्द की शक्ति को ग्रहण करने की स्वाभाविक रीति यह है कि जिस स्थल में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कहता है कि 'मामानय', अर्थात् गाय ले आओ, अथवा 'गां बन्धय' अर्थात् गाय को बाँध दो । तब यह व्यक्ति गाय को ले जाता है या बाँध देता है । अगर उस स्थान पर कोई ऐसा व्यक्ति खड़ा रहता है जिसे 'आनय' या 'बन्ध' रूप क्रियापद के अर्थ का ज्ञान है किन्तु उस क्रिया के कर्म के बोधक 'गाम्' इस पद के अर्थ का ज्ञान नहीं है, वह व्यक्ति अनायास ही जिस व्यक्ति को लाया या बाँधा गया देखता है, उस व्यक्ति को गोपद का अर्थ समझ लेता है । तब फिर दूसरे समय आनयनादि काय्यों को छोड़कर केवल 'गो' प्रभृति अर्थों में गोपद की शक्ति कैसे गृहीत हो सकती है ?
२. अर्थात जिस " अशरीरम्" इत्यादि वेदान्तवाक्य को आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मोक्ष
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली चेत्, वान्तमिदम्, स्वरूपपरस्यापि वाक्यस्य लोके प्रयोगदर्शनात् । यथा परिणामसुरसमानं परिणतिविरसञ्च पनसमिति । अत्रापि प्रवृत्तिनिवृत्त्योरुपदेशः, एवं हि वाक्यार्थः परिणामसुरसानं भक्षय, परिणतिविरसञ्च मा भक्षयेति । न, वैयर्थ्यात् । सुरसत्वप्रतीत्यैव स्वयमभिलाषात् पुरुषः प्रवर्त्तते, विरसत्वप्रतीत्यैव द्वेषानिवर्तते । का तत्र वस्तुसामर्थ्य भाविन्युपदेशापेक्षा, अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवद्भवति । अथ प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभिसन्धानेनास्य वाक्यस्य प्रयोगात् तादर्थ्यमिति चेत्, अस्ति प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थता, किन्तु जनकत्वान्न तु प्रतिपादकत्वेन । यस्माद् भूतार्थविषय एव प्रामाण्यम् । यदि तु प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभिसन्धानेन वाक्यप्रयोगात् तयोरप्रतीयमानयोरपि शाब्दता, आम्रभक्षणोत्तरकालीना तृप्तिर्धातुसाम्यञ्च (उ)किन्तु यह कथन भी सारशून्य है, क्योंकि 'स्वरूप' कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ के बोधक वाक्य से भी लोक में अर्थ-बोध देखा जाता है। जैसे "परिणतिसुरसमाम्रम्, परिणतिविरसञ्च पनसम्” (आम परिणाम में सुखद है और कटहल परिणाम में दुःखद है) इत्यादि वाक्यों से अर्थ-बोध होता है । (प्र०) यहाँ पर भी प्रबृत्ति और निवृत्ति ही वक्ता के उन वाक्यों से अभीष्ट है । तदनुसार उन दोनों वाक्यों का अर्थ यह है कि “आम खाओ, क्योंकि वह परिणाम में दुख देनेवाला है, और कटहल मत खाओ, क्यों कि वह अन्त में दुःख देनेवाला है।" (उ०) नहीं,यह कल्पना ब्यर्थ है । वाक्यों को प्रवृत्त्यर्थक या निवृत्त्यर्थक न मानने पर भी आम में परिणामतः दुःख देने की कारणता का ज्ञान ही पुरुष को आम खाने में प्रवृत्त करेगा। एवं कटहल में परिणामतः दुःख देने की कारणता का ज्ञान ही पुरुष को कटहल खाने से निवृत्त करेगा। फिर वस्तुओं के सामर्थ्य से ही उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्तियों एवं निवृत्तियों में उपदेश की आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि और सभी प्रमाणों से अज्ञात वस्तु को समझाना ही शास्त्र (शब्द) का असाधारण प्रयोजन है। (प्र.) "लोग आम खाने में प्रवृत्त हों और कटहल खाने में नहीं" यह मन में रखकर ही वक्ता उन वाक्यों का प्रयोग करते हैं, अतः प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों उन वाक्यों के ही अर्थ हैं । (उ०) यह ठीक है कि उन वाक्यों से प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है किन्तु इससे केवल यही सिद्ध होता है कि वे वाक्य क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति के कारण हैं। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे दोनों उन दोनों वाक्यों के प्रतिपाद्य भी हैं। क्योंकि निष्पन्न अर्थों में ही शब्दों की शक्ति है। (अगर प्रवृत्ति और निवृत्ति के अभिप्राय से उन वाक्यों का प्रयोग किया गया है, केवल इसीलिए प्रवृत्ति और निवृत्ति को उन वाक्यों का अर्थ मान लिया जाय तो) आम के खाने से जो तृप्ति होती है या शरीर का उपकार होता है, उनकी प्रतिपादकता भी उस वाक्य में माननी पड़ेगी । ( किसी प्रकार की में प्रमाण माना है, उसका भी वह निष्पन्न अर्थ नहीं है । उसका भी धाय॑त्वविशिष्ट - कोई दूसरा हो अर्थ है । जिससे कि आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होगी।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली वाक्याथों स्याताम्, प्रत्यक्षस्य च काञ्चिदर्थक्रियामभिसन्धायोपलिप्सिते विषये प्रवृत्तस्यार्थक्रिया प्रमेया स्यात् । जनकत्वेन प्रवृत्तिपरत्वं वेदान्तानामपि विद्यते, तेभ्यः स्वरूपप्रतीतौ ध्यानाभ्यासादिप्रवृत्तस्य विगतविविधविकल्पविशदात्मज्ञानोदये सत्यपवर्गस्य भावात् । न चेदमावश्यकं यत्प्रवृत्तिनिवृत्त्यवधिकः प्रमाणव्यापार इति, तयोः पुरुषेच्छाप्रतिबद्धयोरनुत्पादेऽपि वस्तुपरिच्छेदमात्रेणापेक्षाबुद्धः पर्यवसानात् । न च कार्यान्वित एवार्थे पदानां शक्तिः, अनन्वितेऽपि व्युत्पत्तिदर्शनात् । यथेह प्रभिन्नकमलोदरे मधूनि मधुकर: पिबतीति वर्तमानापदेशे प्रसिद्धतरपदार्थोऽप्रसिद्धमधुकरपदार्थस्तु यं मधुपानकर्तारं पश्यति तं मधुकरवाच्यत्वेन प्रत्येति । अत्राप्यस्ति पारम्पर्येण कार्यान्वयो वाक्यप्रयोक्तुः, वृद्धव्यवहारे कार्यान्वितपदाथ मधुकरपदस्य व्युत्पत्तिभावादिति चेत् ? न, अनिश्चयात् । वाक्यप्रयोक्तुः कि
कारणता से ही अगर प्रतिपादकता मान ली जाय तो) मन में किसी कार्यविशेष की इच्छा से उत्पन्न तत्प्रयोजकीभूत किसी विषय के प्रत्यक्ष का वह विशेष कार्य प्रमेय होगा । कारणत्व रहने से ही अगर प्रतिपादकत्व मान लिया जाय तो फिर वेदान्त-वाक्य भी प्रवृत्ति के वाचक ही हैं। क्योंकि उनसे भी स्वरूप अर्थविषयक बोध के बाद ध्यान, अभ्यासादि में प्रवृत्त पुरुष को अनेक प्रकार के विकल्पों से रहित आत्मा के यथार्थज्ञान के उदय से अपवर्ग की प्राप्ति अवश्य होती है। यह आवश्यक नहीं है कि ( शब्द) प्रमाण के व्यापार की अवधि प्रवृत्ति और निवृत्ति ये ही दो मानी जाएँ। क्योंकि पुरुष की इच्छा से नियमतः प्रवृत्ति और निवृत्ति की उत्पत्ति न होने पर भी वस्तुओं का परिच्छेद' अर्थात् इष्टसाधकत्वादि का परिचय देकरके ही अपेक्षा बुद्धि चरितार्थ हो जाती है।
यह भी नियम नहीं है कि कार्य में अन्वित अर्थों में ही शब्दों की शक्ति है. क्योंकि कार्य में अनन्वित अर्थों में भी शब्दों की शक्ति देखने में आती है। जैसे "प्रभिन्नकमलोदरे मधूनि मधुकरः पिबति" (अर्थात् फूले कमल के बीच 'मधुकर' मधु को पीता है ) इत्यादि वाक्य के 'मधुकर' शब्द से । जिस व्यक्ति को पहिले से ( उक्त वृद्धव्यवहार की रीति से ) 'मधुकर' पद के अर्थ का ज्ञान नहीं भी है, वह भी वर्तमानकालिक उस मधुपान क्रिया में रत भ्रमर को 'मधुकर' शब्द का वाच्य समझ लेता है। (प्र०) बोद्धा को कार्यान्वित अर्थ में शक्ति गृहीत न होने पर भी वक्ता को तो कार्य में अन्वित अर्थ में ही शक्ति गृहीत है, क्योंकि उसका शक्तिज्ञान वृद्धव्यवहारमूलक हो है। अतः साक्षात् न सही, परम्परा से मधुकर शब्द की शक्ति कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही है । ( उ०) यह आक्षेप भी अनिश्चय के कारण असङ्गत है,
. १. पहिले प्रमाण से यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर उस ज्ञात ईप्सित विषय की इच्छा उत्पन्न होती है, अथवा द्वेष उत्पन्न होता है। ईप्सित
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [मङ्गलाचरन
न्यायकन्दली वृद्धव्यवहारात् कार्यान्वितेऽर्थे व्युत्पत्तिरभूत् ? किमुत प्रसिद्धपदसामानाधिकरण्येनोपदेशाद्वा स्वरूपेऽर्थ इति निश्चयो नास्ति, इदम्प्रथमताया अभावात् । किञ्च प्रयोक्तुरन्विते व्युत्पत्तिः श्रोतुश्चानन्विते, अन्यव्युत्पत्त्याऽन्यो न शब्दार्थ प्रत्येति, ततश्च मधुकरशब्दस्यानन्वितार्थत्वमन्वितार्थत्वञ्च पुरुषभेदेनेत्यर्द्धवैशसमापतितम् । क्रियाकाङ्क्षानिबन्धनः पदार्थानामन्योन्यसम्बन्धो नाख्यातपदरहितेषु वेदान्तवाक्येषु भवितुमर्हतीति चेत् ? न तावत्सर्वत्र क्रियाया अभावः, यत्र तु नास्ति तत्रोपसंसर्गपरतया पदैरभिहितानां पदार्थानामेव योग्यतासन्निधिमतामन्योन्याकाङ्क्षानिबन्धनः सम्बन्धः । तथा च 'काञ्च्यामिदानी त्रिभुवनतिलको राजा' इत्यत्रापि क्योंकि वाक्य के प्रयोक्ता को वृद्ध-व्यवहार से कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में शक्ति गृहीत हुई थी, या प्रसिद्धपद के सामानाधिकरण्य के उपदेश से 'स्वरूप' अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ में हो शक्ति गृहीत हुई थी, इसका कोई निश्चय नहीं है। यह नियम भी नहीं है कि वृद्ध-व्यवहार से ही उस परम्परा में शक्ति गृहीत हुई है और उसके पश्चात् प्रसिद्धपद के सामानाधिकरण्य से या उपदेश से । अगर यह मान भी लें कि वहाँ वक्ता को वृद्ध-व्यवहार से कार्य्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शक्ति गृहीत हुई है, तब भी यह मानना ही पड़ेगा कि उक्त स्थल में बोद्धा को कार्यत्व से अनन्वित केवल स्वरूप में ही शक्ति गृहीत होती है। अतः इस वाक्य के 'मधुकर' शब्द का इस प्रकार कार्य्यत्व विशिष्ट अर्थ में एवं कार्यत्व से असम्बद्ध केवल स्वरूपार्थ में, दोनों जगह शक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी। क्योंकि एक व्यक्ति के शक्ति-ज्ञान से दूसरे व्यक्ति को शाब्दबोध नहीं होता है । तस्मात् इस पक्ष में अर्द्धजरतीय न्याय हो जायगा । (प्र०) पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध क्रिया की आकाङ्क्षा से होता है । वेदान्तवाक्यों में क्रियापद नहीं रहते, अतः वे परस्पर असम्बद्ध होने के कारण निराकाङ्क्ष हैं, फलतः अर्थ के बोधक न होने के कारण प्रमाण भी नहीं हैं । ( उ०) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पहिले तो यही असत्य है कि वेदान्तों में क्रियापद नहीं रहते। क्योंकि "अशरीरम्" इत्यादि क्रियापद से युक्त वेदान्त का उल्लेख कर चुके हैं। दूसरी बात है कि यह नियम ही ठीक नहीं है कि वाक्यों का परस्पर सम्बन्ध क्रिया की आकाङक्षा से ही उत्पन्न होता है । अतः जहाँ क्रियापद नहीं है, वहाँ भी पदों में परस्पर सम्बद्ध रूप से कथित आकाङ्क्षा, योग्यता और संनिधि से युक्त पदार्थों में ही आकाङ्क्षामूलक परस्पर सम्बन्ध है। क्योंकि “काञ्च्यामिदानी त्रिभुवनतिलको राजा"
वस्तुओं में जीव प्रवृत्त होता है, अथवा अनिष्टसाधनत्व के अनुसन्धान से उत्पन्न द्वेष से निवृत्त होता है। फलतः यथार्थ ज्ञान से उत्पन्न इच्छा और द्वेष इन दोनों से ही क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। अगर ज्ञान के बाद किसी प्रतिबन्ध के कारण इष्टसाधनत्व या अनिष्टसाधनत्व का अनुसन्धान न हुमा तो फिर प्रवृत्ति और निवृत्ति को भी उत्पत्ति नहीं होती । किन्तु इससे ऐसा नहीं कह सकते कि उस शब्द से ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हुआ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्यगुणकम्मंसामान्यविशेषसमवायानां षष्णां पदार्थानां साधयेवैधर्म्यतत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः ।
(१) द्रव्य, ( २ ) गुण, ( ३ ) कर्म, ( ४ ) सामान्य, ( ५ ) विशेष, और ( ६ ) समवाय, इन छ: पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्य का तत्त्वज्ञान 'निःश्रेयस' अर्थात् अपवर्ग का कारण है। एवं उक्त तत्त्वज्ञान का जनक यह ग्रन्थ भी परम्परा से अपवर्ग का कारण है।
न्यायकन्दली वाक्यार्थो गम्यत एव। अथवा तत्र श्रुतप्रयुज्यमानाऽस्तिभवतिक्रियानिबन्धनो भविष्यतीति यत्किञ्चिदेतत् ।।
प्रकृतमनुसरामः । अत्र पवार्थधर्मज्ञानादेव पदार्थानामपि सङ्ग्रहो लभ्यते, स्वातन्त्र्येण धर्माणां सङ्ग्रहाभावात् ।
ननु पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहपरो ग्रन्थो महोदयहेतुरिति नोपपद्यते, शब्दानामर्थप्रतिपादनमन्तरेण कार्यान्तराभावादित्याशय पदार्थधर्मप्रतीतिहेतोः सङ्ग्रहस्य पारम्पर्येण महोदयहेतुत्वं प्रतिपादयन्नाह-द्रव्यगुणेत्यादि। इत्यादि वाक्यों से भी अर्थ-बोध अवश्य होता है। (अगर यह आग्रह मान भी लिया जाय कि क्रिया से ही पदों में परस्पराकाङ्क्षा होती है, तब भो) अस्ति,भवति इत्यादि क्रियाओं का अध्याहार कर लिया जा सकता है । तस्मात् वेदान्त वाक्यों में अप्रामाण्य की कोई भी शङ्का नहीं है।
अब हम फिर प्रकृत विषय का अनुसन्धान करते हैं । यहाँ 'पदार्थधर्म के ज्ञान से पदार्थों के भी 'संग्रह' अर्थात् ज्ञान का लाभ होता है।
पदार्थधर्म के यथार्थज्ञान का कारण ग्रन्थ (शब्दसमूह) महोदय अर्थात् अपवर्ग का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द में अपने अर्थो के प्रतिपादन को छोड़कर दूसरे कामों के करने का सामर्थ्य नहीं है । यह शङ्का मन में रखकर ( अपवर्ग के कारण ) पदार्थधर्म-विषयक यथार्थ-ज्ञान के सम्पादक ग्रन्थ में (अपवर्ग की साक्षात्कारणता सम्भव न होने पर भी) परम्परया (अपवर्ग की) कारणता का प्रतिपादन करते हुए 'द्रव्यगुण' इत्यादि भाष्य को कहते हैं।
१. अभिप्राय यह है कि इस पुस्तक का नाम 'पदार्थधर्मसंग्रह" है। 'संग्रह' शब्द का अर्थ सम्यक् ज्ञान या यथार्थज्ञान है। "प्रवक्ष्यते महोदयः" इत्यादि वाक्य से पदार्थधर्म के यथार्थज्ञान में 'महोदय' या अपवर्ग की कारणता कही गई है। आगे सापयंवैधयंयुक्त पदार्थ-ज्ञाम में ही महोदय को कारणता कही गई है। अत: दोनों उक्तियों में सामञ्जस्य नहीं होता। इसी को मिटाने के लिए इस अभिप्राय से उपर्युक्त शब्द कहना पड़ा कि धर्म का ज्ञान धम्मिज्ञान के बिना असम्भव है।
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१६ .
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ उद्देश
न्यायकन्दली
यस्य वस्तुनो यो भावस्तत् तस्य तत्त्वम् । साधारणो धर्मः साधर्म्यम्, असाधारणो धर्मो वैधर्म्यम् । साधर्म्यवैधर्म्य एव तत्त्वं साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वम् , तस्य ज्ञानं निःश्रेयसहेतुः । विषयसम्भोगजं सुखं तावत् क्षणिकविनाशि दुःखबहुलं स्वर्गादिपदप्राप्यमपि सप्रक्षयं सातिशयञ्च । तथा च कस्यचित् स्वर्गमात्रमपरस्य स्वर्गराज्यम् । अतस्तदपि सततं प्रच्युतिशङ्कया परसमुत्कर्षोपतापाच्च दु:खाकान्तं न निश्चितं श्रेयः । आत्यन्तिको दु:खनिवृत्तिरसह्यसंवेदननिखिलदुःखोपरमरूपत्वादपरावृत्तेश्च निश्चितं श्रेयः। तस्य कारणं द्रव्यादिस्वरूपज्ञानम् । एतेन तत्प्रयुक्तं यदुक्तं मण्डनेन-"विशेषगुणनिवृत्तिलक्षणा मुक्तिरुच्छेदपक्षान्न
जिस वस्तु का जो 'भाव' है वही उसका 'तत्त्व' है। (अनेक वस्तुओं में रहनेवाले एक) साधारण धर्म को 'साधर्म्य' कहते हैं । (प्रत्येक पदार्थ में ही रहनेवाले) असाधारण धम्म को 'वैधयं कहते हैं । साधम्य और वैधर्म्य रूप जो तत्त्व है. वही इस 'साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्व' शब्द का अर्थ है। इसी का तत्त्वज्ञान निःश्रेयस का कारण है। सांसारिक विषयों के उपभोग से होनेवाला सुख क्षणमात्र में विनष्ट हो सकता है और अपनी अपेक्षा बहुत अधिक दुःखों से घिरा हुआ है । स्वर्गपद से व्यवहृत होनेवाला सुख भी विनाशशील है और न्यूनाधिक भावयुक्त है। जैसे किसी को स्वर्ग मिलता है और किसी को उसका अधिपत्य (स्वाराज्य)। अतः वह (स्वर्गरूप) सुख भी स्वर्ग से गिरने की आशङ्का से उत्पन्न दुःख और दूसरे के उत्कर्ष से उत्पन्न क्षोभ से आक्रमण होने के कारण निश्चित कल्याण नहीं है । दुःखों की अत्यन्तिक निवृत्तिरूप मोक्ष असह्य होनेवाले दुःखों के अत्यन्त विनाशरूप होने के कारण और इसलिए भी कि एक बार उस अवस्था की प्राप्ति हो जानेपर फिर दुख की अवस्था नहीं लौटती है, परम कल्याणमय है, अतः जीवों को परम अभीष्ट है । उसका कारण द्रव्यादि पदार्थों का तत्त्वज्ञान है। इसी से आचार्य मण्डन की यह उक्ति भी खण्डित हो जाती है कि- “(आत्मा के) सभी विशेष गुणों का नाश ही मोक्ष है, यह पक्ष 'ज्ञानस्वरूप आत्मा का अत्यन्त उच्छेद ही मुक्ति है" बौद्धों के इस उच्छेद
अत: धर्मज्ञान में मुक्तिजनकता कहने से ही म्मिसहित धर्मज्ञान में मुक्तिजनकता कथित हो जाती है । तस्मात् कोई असामञ्जस्य नहीं है।
१. अभिप्राय यह है कि भाष्य में स्थित “साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वज्ञानम्" इस वाक्य का "साधर्म्यञ्च वैधर्म्यञ्च साधर्म्यवैधयें, ते एव तत्वं साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वम्' इस द्वन्द्वान्त कर्मधारय के बाद 'तस्य ज्ञानम्' यह षष्ठी समास है। किन्तु उक्त द्वन्द्वान्त पद का 'तत्त्वम्' इस पद के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास नहीं है, क्योंकि इससे साधर्म्यवैधर्म्यरूप तत्त्व के ज्ञान में मुक्तिजनकता सिद्ध न होकर उस साधर्म्यवैधर्म्य में रहनेवाले धर्मों के ज्ञान में ही मुक्तिजनकता कही जायगी, किन्तु यह असङ्गत है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
भिद्यते” इति । विशेषगुणोच्छेदे हि सत्यात्मनः स्वरूपेणावस्थानं नोच्छेदः, नित्यत्वात् । न चायमपुरुषार्थः, समस्तदुःखोपरमस्य परमपुरुषार्थत्वात् । समस्तसुखाभावादपुरुषार्थत्वमिति चेत् ? न, सुखस्यापि क्षयितया बहुलप्रत्यनीकतया च साधनप्रार्थनाशतपरिक्लिष्टतया च सदा दुःखानान्तस्य विषमिश्रस्येव मधुनो दुःखपक्षे निक्षेपात् । केषां साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वपरिज्ञानमपवर्गकारणमित्यपेक्षायां द्रव्यादीनामिति सम्बन्धः। द्रव्याणि च, गुणाश्च, कर्माणि च, सामान्यञ्च, विशेषाश्च, समवायश्चेति विभागवचनानुसारेण विग्रहः, उद्देशस्य विभागवचनेन समानविषयत्वात् । आदौ द्रव्यस्योद्देशः, सर्वाश्रयत्वेन प्राधान्यात् । गुणानाञ्च कर्मापेक्षया भूयस्त्वाद् द्रव्यानन्तरमभिधानम् । नियमेन गुणानुविधायित्वात् कर्मणां गुणानन्तरमुद्देशः। कान्वितत्वात् सामान्यस्य कर्मानन्तरमभिधानम् । पञ्च पदार्थवृत्तेः समवायस्य सर्वशेषेणाभिधाने प्राप्त विशेषाणां मध्ये कथनम् ।
पक्ष से भिन्न नहीं है ।" क्योंकि विशेष गुणों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का अपने स्वरूप में रहना आत्मा का नाश नहीं है । (और उसका नाश हो भी नहीं सकता है, क्योंकि) वह नित्य है । यह आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मोक्ष जीवों का अकाम्य भी नहीं है, क्योंकि यह दुःखों का अत्यन्त विनाशरूप है, अतः जीवों का परम अभीष्ट है । (प्र०) यह (मोक्ष) सभी सुखों का भी निवृत्तिरूप होने के कारण जीवों का काम्य नहीं है ? (उ०) नहीं, क्योंकि सुख भी विनाशशील अनेक विघ्नों से ओतप्रोत, अनेक कठिन उपायों से उत्पन्न होने के कारण अनेक दुःखों से आक्रान्त होने से त्याज्य ही है। जैसे विष से मिला हुआ मधु भी ग्राह्य नहीं होता। (प्र०) किन पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्यरूप तत्त्व का ज्ञान मोक्ष का कारण है ? इस आकाङ्क्षा की पूर्ति के लिए "द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां षण्णां पदार्थानाम्" इस वाक्य का उपादान है। पदार्थों के विभागवाक्य के अनुसार उक्त द्वन्द्वसमासान्त वाक्य का विग्रह “द्रव्याणि च, गुणाश्च, कर्माणि च, सामान्यञ्च, विशेषाश्च, समवायश्च” इस प्रकार का है। क्योंकि 'उद्देश' वाक्य में प्रयुक्त पदार्थबोधक पद की विभक्ति का वचन विभागवाक्य के अनुसार होना चाहिए। द्रव्य सभी पदार्थों का आश्रय है, अतः सर्वप्रधान है। इस कारण उसका उल्लेख सबसे पहिले है । गुण कर्म से संख्या में अधिक हैं, अतः द्रव्य के बाद और कर्म से पहिले गुणों का उल्लेख है। कर्म नियमतः गुणों के साथ ही रहता है, अतः गुण के बाद कर्म का निरूपण है। कर्म के साथ रहने के कारण कर्म के बाद सासान्य का निरूपण किया है । समवाय द्रव्यादि पाचों पदार्थों में रहता है, सुतरां उसका निरूपण सबसे पीछे होना उचित है । अतः सामान्य निरूपण के बाद और समवाय से पहिले बीच में 'विशेष' का निरूपण किया है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[उद्देश
प्रशस्तपादभाष्यम् तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धादेव ।
उस 'निःश्रेयस' (या अपवर्ग) की प्राप्ति ईश्वर की विशेष प्रकार की इच्छा से कार्य करने में उन्मुख हुए धर्म से ही होती है ।
न्यायकन्दली अभावस्य पृथगनुपदेशो भावपारतन्त्र्यात्, न त्वभावात् । द्रव्याणामिति सम्बन्धे षष्ठी । अत्रापि साधादिज्ञानस्य निःश्रेयसहेतुत्वे कथिते द्रव्यादिज्ञानस्य कथितम्, साधर्म्यवैधर्म्ययोः स्वातन्त्र्येण ज्ञानाभावात् ।
ननु यदि तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुस्तहि धर्मो न कारणम् ? ततः सूत्रविरोधः-"यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" इति, तत आह-"तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धर्मादेवेति । तन्निःश्रेयसं धर्मादेव भवति, द्रव्यादितत्त्वज्ञानं तस्य कारणत्वेन निःश्रेयससाधनमित्यभिप्रायः। तत्त्वतो ज्ञातेषु बाह्याध्यात्मिकेषु विषयेषु दोषदर्शनाद्विरक्तस्य समीहानिवृत्तावात्मज्ञस्य तदर्थानि कण्यिकुर्वतस्तत्परित्यागसाधनानि च श्रुतिस्मृत्युदितान्यसङ्कल्पितफलान्युपाददानस्यात्मज्ञानअभावों को स्वतन्त्र रूप से न कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि वे हैं ही नहीं, न कहने का अभिप्राय केवल इतना ही है कि अभाव भावपरतन्त्र हैं। (अर्थात् "द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानाम्" इस समस्त वाक्यघटक पदरूप) 'द्रव्याणाम् इत्यादि पदों में सम्बन्धसामान्य में षष्ठी विभक्ति है। "साधर्म्यवैधय॑तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः” इस वाक्य से यद्यपि द्रव्यादि पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्यरूप तत्त्व के ज्ञान में ही मुक्ति की कारणता कही गयी है, तथापि द्रव्यादिविषयक ज्ञानों में भी मुक्ति की कारणता उसी वाक्य से कथित हो जाती है, क्योंकि द्रव्यादि रूप धमियों के ज्ञान के बिना उनके साधय और वैधर्म्यरूप तत्त्वों का ज्ञान असम्भव है।
__ अगर मोक्ष का कारण (साधर्म्यवैधर्म्यरूप) तत्त्व का ज्ञान ही है, तो फिर 'धर्म' उसका कारण नहीं है । किन्तु ऐसा मान लेने पर सूत्र का विरोध होता है । क्योंकि सूत्रकार ने कहा है कि-'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः” । इसी विरोध को मिटाने के लिये भाष्यकार ने "तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धादेव" यह वाक्य कहा है । अभिप्राय यह है कि 'तत्' अर्थात् मोक्ष, धर्म से ही (उत्पन्न) होता है । किन्तु द्रव्यादि तत्त्वज्ञान धर्म का कारण है, अतः परम्परा से मोक्ष का भी कारण है । पदार्थों के यथार्थज्ञान से बाह्य और आभ्यन्तर सभी वस्तुओं में ('ये सभी दुःख के कारण हैं। इस प्रकार की) दोष-बुद्धि उत्पन्न होती है । इस दोष-बुद्धि से वैराग्य की उत्पत्ति होती है और वैराग्य से उस पुरुष की सारी अभिलाषायें निवृत्त हो जाती हैं। फिर वह व्यक्ति अभिलाषाओं के पोषक सभी उपायरूप कम्मों को छोड़ देता है तथा अभिलाषा से पिण्ड छुड़ानेवाले वेद धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों में कथित
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्वली
मभ्यस्यतः प्रकृष्टविनिवर्तकधर्मोपचये सति परिपक्वात्मज्ञानस्यात्यन्तिकशरीरवियोगस्य भावात् । दृष्टो विषयिणामहिकण्टकादीनां परित्यागो विशेषदोषदर्शनपूर्वकाभिसन्धिकृतनिवर्त्तकात्मविशेषगुणात् प्रयत्नात् । तेन शरीरादीनामात्यन्तिकः परित्यागो विषयदोषदर्शनपूर्वकाभिसन्धिकृतनिवर्तकात्मविशेषगुणनिमित्तो विज्ञात इति मोक्षाधिकारे वक्ष्यामः।।
धर्मोऽपि तावन्न निःश्रेयसं करोति यावदीश्वरेच्छया नानुगद्यते। तेनेदमुक्तम्-ईश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धर्मादेवेति । चोद्यन्ते प्रेर्यन्ते स्वकार्येषु प्रवर्त्यन्तेऽनया भावा इति चोदना ईश्वरचोदना ईश्वरेच्छाविशेषः। अभिव्यक्तिः कार्यारम्भं प्रत्याभिमुख्यम् । ईश्वरचोदनयाभिव्यक्तादीश्वरचोदनाभिव्यक्ताद् ईश्वरेच्छाविशेषेण कार्यारम्भाभिमुखीकृताद्धादेव नि:श्रेयसं भवतीति वाक्ययोजना। तच्चेति चकारो द्रव्यादिसाधर्म्यज्ञानेन सह धर्मस्य निःश्रेयसहेतुत्वं समुच्चिनोति ।
निष्काम कम्मों का अनुष्ठान करता हुआ आत्म-ज्ञान का अभ्यास करता है। इन आचरणों से निवृत्तिजनक धर्म की वृद्धि होने पर जब आत्मज्ञान परिपक्व हो जाता है, तब उससे ( आत्मा का ) शरीर के साथ अत्यन्त-वियोग ( मोक्ष ) की उत्पत्ति होती है। यह देखा जाता है कि सर्प और कण्टकादि पदार्थों में पहिले इस प्रकार के दोष का ज्ञान होता है कि ये सभी दुःखजनक हैं। फिर उन्हें त्यागने की इच्छा होती है। इस इच्छा से निवृत्तिजनक ( निवर्त्तक ) प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। आत्मा के विशेषगुण इस प्रयत्न से जीव उन दुष्ट ( सर्पादि ) पदार्थों को छोड़ देता है । यही बात हम मोक्ष निरूपण में कहेंगे ।
धर्म भी तब तक अकेला मोक्ष का सम्पादन नहीं कर सकता, जबतक उसे ईश्वर की इच्छा की सहायता न मिले। इसीलिए प्रशस्तपाद ने "तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धर्मादेव” यह वाक्य लिखा है । "चोद्यन्ते स्वकार्येषु प्रय॑न्तेऽनया भावाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस 'इच्छा' से ( कारणरूप वस्तु अपने कार्यो में उसके उत्पादन के लिए प्रेरणा प्राप्त करे) वही 'इच्छा' प्रकृत 'चोदना' शब्द का अर्थ है। 'ईश्वरस्य चोदनां' इस विग्रह के अनुसार 'ईश्वर की इच्छा' ही 'ईश्वरचोदना' शब्द का अर्थ है । प्रकृत 'अभिव्यक्ति' शब्द से कारणों की कार्य करने की उन्मुखता इष्ट है । "ईश्वरचोदनाभिव्यक्तात्" यह पञ्चम्यन्त पद "ईश्वरचोदनयाऽभिव्यक्तात्" इस तृतीया समास से बना है । उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के अनुसार 'तच्च' इत्यादि वाक्य का फलित अर्थ यह है कि ईश्वर के इच्छाविशेष से कार्य के प्रति उन्मुख धर्म से ही 'मुक्ति' होती है । 'तच्च' इस वाक्य में प्रयुक्त 'च' शब्द इस समुच्चय का बोधक है कि पदार्थों के साधादिरूप तत्त्वविषयक ज्ञान के साथ मिलकर ही धर्म में मोक्ष की साधनता है ।
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न्यायकन्दलीसंवलिप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देशप्रशस्तपादभाष्यम् अथ के द्रव्यादयः पदार्थाः, किञ्च तेषां साधन्यं वैधमञ्चेति ।
तत्र द्रव्याणि पृथव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि सामान्यविशेषसंज्ञयोक्तानि नवैवेति । तद्व्यतिरेकेणान्यस्य संज्ञानभिधानात् ।
द्रव्यादि कौन-कौन पदार्थ हैं ? एवं उनके साधर्म और वैधर्म्य क्या हैं ?
उन पदार्थो में ( १) पृथिवी, (२) जल, (३) तेज, (४) वायु, (५) आकाश (६) काल, (७) दिक्, (८) आत्मा और (E) मन ये नौ ही द्रव्य सूत्रकार के द्वारा सामान्य (द्रव्यसंज्ञा) और विशेष (पृथिव्यादिसंज्ञा ) संज्ञाओं से कहे गये हैं। क्योंकि पदार्थो के उपदेश के लिये सर्वज्ञ महर्षि ने इन नवों को छोड़ कर और किसी द्रव्य का नाम नहीं लिया है।
न्यायकन्दली __ एवं षट्पदार्थज्ञानस्य पुरुषार्थोपायत्वं प्रतीत्य तेषां प्रत्येकं भेदजिज्ञासाथ परिपृच्छति-अथ के द्रव्यादय इति। कानि द्रव्याणि ? के गुणाः ? कानि कर्माणीत्यादि योजनीयम् । नावश्यं धम्मिणि ज्ञाते धर्मा ज्ञायन्त इति, तेन धर्मेषु पृथक् प्रश्नः-किञ्च तेषामित्यादि। अत्रापि चः समुच्यये।
उत्तरमाह-तत्रेत्यादि । तेषु द्रव्यादिषु मध्ये, द्रव्याणि पृथिव्यादीनि, सामान्यविशेषसंज्ञया सामान्यसंज्ञया द्रव्यसंज्ञया, विशेषसंज्ञया प्रत्येकमसा
इस प्रकार द्रब्यादि छः पदार्थों में मुक्ति की कारणता को समझाकर, उन पदार्थों में से प्रत्येक की जिज्ञासा के लिये प्रशस्तदेव "अथ के द्रव्यादयः” इत्यादि प्रश्नभाष्य लिखते हैं
'अथ के द्रव्यादयः' इत्यादि प्रश्नभाष्य की व्याख्या' '-द्रव्य कितने हैं ?' 'गुण कितने हैं ?' इत्यादि रीति से करनी चाहिए। धर्मी के ज्ञात हो जाने पर यह आवश्यक नहीं है कि धर्म भी ज्ञात ही हो जाएँ। अतः “किञ्च तेषाम्” इत्यादि से धर्म के विषय में अलग प्रश्न करते हैं । यहाँ भी 'च' शब्द समुच्चय का ही बोधक है।
( कथित दोनों प्रश्नों का समाधान क्रमशः करते हैं ) 'तत्र' अर्थात् उन छः पदार्थों में, 'द्रव्याणि' अर्थात् पृथिव्यादि नौ द्रव्य, “सामान्यविशेषसंज्ञया" सामान्यसंज्ञा से अर्थात् द्रव्य नाम से, विशेषसंज्ञा से अर्थात् पृथिव्यादि विशेष नामों से-पृथिवीत्व, जलत्व,
१. अभिप्राय यह है कि न्यादिभाग वाक्य के पहिले का 'तत्र के द्रव्यादयः' ? इत्यादि प्रश्नवाक्य केवल यहाँ के लिये ही नहीं है, किन्तु गुणादि के विभाग वाया
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली धारणसंज्ञया पृथिव्यप्तेजस्त्वादिरूपया उक्तानि सूत्रकारेण प्रतिपादितानि । किमेतावन्त्याहोस्विदपराण्यपि सन्तीत्याह नवैवेति । ननु नवानां लक्षणाभिधाने सामर्थ्यादपरेषामभावो ज्ञातव्यः, व्यर्थं नवैवेति । न, नवसु लक्षितेषु किमपरेषामसत्त्वादुत सतामप्यनुपयोगित्वान्न लक्षणं कृतमिति संशयो न निवर्तेत । लक्षणस्य व्यवहारमात्रसारतया समानासमानजातीयव्यवच्छेदमात्रसाधनत्वेन चान्याभावप्रतिपादिनासामर्थ्यात्, तदर्थमवधारणं कृतम् । इदमेव सामान्योद्दिष्टानां विशेषसंज्ञाभिधानं तन्त्रान्तरे विभाग इति निर्देश इति च कथ्यते। कथमेतदवगतं नवैवेति ? अत आह-तद्वयतिरेकेणेत्यादि। तेभ्यो नवभ्यो व्यतिरेकेण सर्वज्ञेन महर्षिणा सर्वार्थोपदेशाय प्रवृत्तेनान्यस्य संज्ञानभिधानात् ।
तमो नाम रूप-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-परत्वापरत्व-संयोग-विभागवद् द्रव्यान्तरमस्तीति चेत् ? अत्रकश्चिदाह-यदि तमो द्रव्यम्, रूपवद्रव्यस्य स्पर्शाव्यभितेजस्त्वादि विशेषरूप से सूत्रकार ने द्रव्यों का प्रतिपादन किया है । (प्र० ) नौ प्रकार के द्रव्यों का लक्षण कह देने भर से सामर्थ्यवश यह ज्ञात हो ही जाएगा कि नौ से अधिक द्रब्य नहीं हैं, अतः (अवधारणार्थक) 'नवैव' शब्द का प्रयोग व्यर्थ है । ( उ० ) उक्त प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि नौ द्रव्यों का केवल लक्षण कह देने भर से यह सन्देह रह ही जाता है-"नौ द्रव्यों का ही लक्षण इस लिए किया गया है कि नौ से अधिक द्रव्यों की सत्ता ही नहीं है ?" या "नौ से अधिक भी द्रव्य हैं, किन्तु प्रकृत में उनका कोई उपयोग नहीं है । अतः केवल नौ ही (उपयोगी) द्रव्य के लक्षण कहे गये हैं।" लक्ष्य का व्यवहार ही लक्षण का मुख्य प्रयोजन है । अतः लक्षणवाक्य केवल (व्यवहार के लिए) अपने लक्ष्यों को उनके सजातीय और विजातीय वस्तुओं के भिन्न रूप में केवल समझा सकते हैं। उनमें ( अवधारणादि ) किसी और अर्थ को समझाने की क्षमता नहीं है। अतः ( अवधारणार्थक ) 'एव' शब्दघटित 'नवैव' शब्द का प्रयोग ( भाष्य ) में है । सामान्य नामों से कहे हुए पदार्थों का विशेष नामों से यह कथन हा और शास्त्रों में 'विभाग' और 'निर्देश' शब्द से कहा गया है । यह कैसे समझा गया है कि नौ से अधिक द्रव्य नहीं है ? इसी प्रश्न का समाधान 'तद्वयतिरेकेणान्यस्य" इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं। अभिप्राय यह है कि सभी पदार्थों का उपदेश करने के लिये प्रवृत्त सर्वज्ञ महर्षि (कणाद) ने इन नौ द्रव्यों से भिन्न किसी का भी उल्लेख द्रव्य नाम से नहीं किया है।
(प्र०) रूप, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, संयोग' और विभाग, के पहिले भी 'के गुणाः' इत्यादि प्रश्न वाक्यों का ऊह करना चाहिए। अन्यथा उत्तररूप सभी विभागवाक्य विना आकाङ्क्षा के ही कहे जाने के कारण उपेक्ष्य हो जायेंगे ।
१. अभिप्राय यह है कि द्रव्य का सामान्यलक्षण गुण ही है। अन्धकार में कथित रूपादि आठ गुणों की उपलब्धि सार्वजनीन है । अतः वह द्रव्य अवश्य है, किन्तु कथित पृथिव्यादि नौ
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२३ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देशन्यायकन्दली चारात् स्पर्शवद्रव्यस्य महतः प्रतिघातधर्मत्वात् तमसि सञ्चरतः प्रतिबन्धः स्यात्, महान्धकारे च भूगोलकस्येव तदवयवभूतानि खण्डावयविद्रव्याणि प्रतीयेरनिति । तदयुक्तम्, यथा प्रदीपानिर्गतैरवयवैरदृष्टवशादनुद्भूतस्पर्शमनिबिडावयवमप्रतीयमानखण्डावयविद्रव्यप्रविभागमप्रतिघातिप्रभामण्डलमारभ्यते, तथा तम:परमाणुभिरपि तमो द्रव्यम् । तस्मादन्यथा समाधीयते । तम:परमाणवः स्पर्शवन्तस्तद्रहिता वा ? न तावत् स्पर्शवन्तः, स्पर्शवतस्तत्कार्य्यस्य क्वचिदनुपलम्भात् । अदृष्टव्यापाराभावात् स्पर्शवद्रव्यानारम्भका इति चेत् ? रूपवन्तो वायुइन आठ गुणों से युक्त एवं इन नौ द्रव्यों से भिन्न 'तम'(अन्धकार)नाम का द्रव्य है ? इस प्रश्न का समाधान(१)कोई यह देते हैं कि यह निश्चित है कि जहाँ रूप रहे वहां स्पर्श भी अवश्य रहे । एवं स्पशवाले महान् द्रव्य का यह स्वभाव है कि वह प्रतिघात करे। अगर अन्धकार (रूपयुक्त) द्रव्य है (फिर स्पर्शयुक्त भी अवश्य ही है),तो उसका प्रतिघातधर्मक होना भी अनिवार्य है। अगर ऐसी बात है तो) अन्धकार में चलते हुए मनुष्य उससे टकरा कर अवश्य ही रुक जाते।(तस्मात् अन्धकार कोई द्रव्य नहीं है।अतः नवैव द्रव्याणि' यह अवधारण ठीक है)। (२)कोई(यह दूसरा समाधान करते हैं कि जैसे)किसी महाभूखण्ड की प्रतीति होने पर उसके अवयवों की भी प्रतीति अवश्य होती है । (वैसे ही) अन्धकार अगर कोई महान् द्रव्य होता तो (उसकी प्रतीति की तरह) उसके अवयवों को भी प्रतीति अवश्य होती। (किन्तु अन्धकार के अवयवों की प्रताति नहीं होती है), अतः अन्धकार कोई द्रव्य नहीं है और इसीलिए वह महान् भी नहीं है। किन्तु ये दोनों ही समाधान असङ्गत है, क्योंकि जैसे प्रदीप से निकले हुए तेज के अवयवों से अदृष्टवश अनुभूत र श से युक्त अनिविड़(पतले) प्रभामण्डलरूप प्रकाश नाम के द्रव्य की उत्पत्ति होती है । एवं इस महान् द्रव्य के अवयवों की उपलब्धि नहीं होती है और उस (आलोक ) में चलते हुए मनुष्य की गति रुकती भी नहीं है। इसी प्रकार अन्धकार के परमाणुओं से अन्धकार की उत्पत्ति होगी । (इसमें अन्धकार के अवयवों की अनुपलब्धि और उससे मनुष्यों कान टकराना, ये दोनों बाधक नहीं हो सकते) अतः इसका दूसरी रीति से समाधान करना चाहिए। (समाधान के लिए यह पूछना है कि)(प्र.) अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श है या नहीं ? (उ०)नहीं है, क्योंकि उनके किसी भी कार्य में स्पर्श की उपलब्धि नहीं होती । (प्र०) अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श है, किन्तु उससे स्थूल अन्धकार में अदृष्टरूप कारण के अभाव से स्पर्श की उत्पत्ति नहीं होती। अतः अन्धाकार के परमाणु स्वयं स्पर्शयुक्त होते हुए भी स्पशयुक्त स्थूल अन्धकार को उत्पन्न नहीं करते। द्रव्यों में से वह किसी में भी अन्तर्भूत नहीं है। क्योंकि गन्ध की उपलब्धि न होने से वह पृथिवी नहीं है। स्पर्श की प्रतीति न होने के कारण वह जल, तेज और वायु भी नहीं है। उसमें रूप का प्रत्यक्ष होता है, अतः वह आकाश, काल, दिग, आत्मा और मन भी नहीं है। इस प्रकार कथित नौ द्रव्यों में उसका अन्तर्भाव नहीं है। गुण प्रतीति के कारण द्रव्य अवश्य ही हैं। तस्मात् 'तम' कोई दशवां स्वतन्त्र द्रव्य ही है। किन्तु तब "नवैव द्रव्याणि" यह अवधारण असङ्गत हो जाताहै।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली परमाणवोऽदृष्टव्यापारवैगुण्याद्रूपवत्कार्यं नारभन्त इति किं न कल्प्येत । किं वा न कल्पितमेतदेकजातीयादेव परमाणोरदृष्टोपग्रहाच्चतुर्धा कार्याणि जायन्त इति । कायकसमधिगम्या: परमाणवो यथाकार्यमुन्नीयन्ते, न तद्विलक्षणाः, प्रमाणाभावादिति चेत? एवं तहि तामसाः परमाणवोऽप्यस्पर्शवन्तः कथं तमोद्रव्यमारभेरन? अस्पर्शवत्त्वस्य कार्य्यद्रव्यानारम्भकत्वेनाव्यभिचारोपलम्भात् । कार्यदर्शनात तदनुगुणं कारणं कल्प्यते, न तु कारणवैगुण्येन दृष्टकार्यविपर्यासो युज्यत इति चेत्, न वयमन्धकारस्य प्रथिनः, किन्त्वारम्भकानुपपत्ते!लिममात्रप्रतीतेश्च द्रव्यमिदं न भवतीति ब्रूमः । तहि भासामभाव एवायं प्रतीयेत? न, तस्य नीलाकारेण (किन्तु स्पर्शशून्य स्थूल अन्धकार को ही उत्पन्न करते हैं)। (उ०) अगर ऐसी बात है तो फिर "वायु के परमाणुओं में रूप है, किन्तु अनुकूल अदृष्ट के न रहने से स्थूल वायु में रूप की उत्पत्ति नहीं होती है" ऐसी कल्पना भी क्यों नहीं कर लेते ? अथवा यही कल्पना क्यों नहीं करते कि किसी एकजातीय परमाणुओं से ही पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये तारों उत्पन्न होते हैं और अदृष्ट की विचित्रता से इनमें परस्पर वैचित्र्य है । (प्र०) परमाणु प्रत्यक्षसिद्ध वस्तु नहीं हैं, किन्तु पृथिव्यादि स्थूल कार्यों से ही उनका अनुमान होता है । स्थूल पृथिवी-जलादि द्रव्य परस्पर भिन्नरूपों से प्रत्यक्ष होते हैं, अतः उनके मूलकारण परमाणुओं को भी परस्पर विलक्षण मानना पड़ेगा। क्योंकि कार्य से समानजातीय कारण का अनुमान होता है। (उ०) फिर स्पर्शशून्य रूप से प्रत्यक्ष होनेवाले अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श की कल्पना कैसी ? तस्मात् (स्पर्शशून्य) अन्धकार का परमाणु स्थूल अन्धकार को उत्पन्न कर ही नहीं सकता । क्योंकि यह अव्यभिचरित नियम है कि स्पर्शविशिष्ट द्रव्य ही द्रव्य का उत्पादक होता है। (प्र.) कार्य जिस रूप में देखे जाते हैं उनके अनुरूप कारणों की कल्पना की जाता है । यह तो नहीं होता कि एक विशेष प्रकार के कारण की कल्पना कर ली जाए और उसके अनुरोध से कायों को प्रत्यक्ष सिद्ध अपने रूपों से भिन्न रूपों से माना ए'। (उ०) हम अन्धकार के विरोधी नहीं हैं। (अर्थात् प्रत्यक्षसिद्ध अन्धकार की सत्ता तो हम मानते हैं) किन्तु मेरा कहना है कि दृष्ट अन्धकार में स्पर्श की उपलब्धि नहीं होती । एवं कार्य
और कारण दोनों को समान गुण का ही होना उचित है। अतः अन्धकार के मूलकारण परमाणु में स्पर्श नहीं है । 'एवं स्पर्शयुक्त द्रव्य ही द्रव्य का उत्पादक है' इस नियम में कहीं ब्यभिचार भी नहीं है । तस्मात् प्रत्यक्ष से सिद्ध अन्धकार 'द्रव्य' नहीं है। किन्तु अन्धकार को द्रव्य मानना सम्भव न होने पर भी उसको केवल तेज का अभाव ही मान लें यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि नील रूप से ही अन्ध
१. अभिप्राय यह है कि अन्धकार के प्रत्यक्ष में नीलरूप का भान होता है, स्पर्श का नहीं। अतः यह मानना पड़ेगा कि दृष्ट अन्धकार के मूलकारण
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[उद्देश
न्यायकन्दली
प्रतिभासायोगात्, मध्यन्दिनेऽपि दूरगगना भोगव्यापिनो नीलिम्नश्च प्रतीतेकिश्व गृह्यमाणे प्रतियोगिनि संयुक्तविशेषणतया तदन्यप्रतिषेधमुखेनाभावो गृह्यते, न स्वतन्त्रः । तमसि च गृह्यमाणे नान्यस्य ग्रहणमस्ति । न च प्रतिषेधमुख: प्रत्ययः । तस्मान्नाभावोऽयम् । न चालोकादर्शनमात्र मेवैतत्, बहिर्मुखतया तम इति, छायेति च कृष्णाकार प्रतिभासनात् । तस्माद्रूपविशेषोऽयमत्यन्तं तेजोभावे सति सर्व्वतः समारोपितस्तम इति प्रतीयते । दिवा चोर्ध्वं नयनगोलकस्य नीलिमावभास इति वक्ष्यामः । यदा तु नियतदेशाधिकरणो भासामभावस्तदा तद्देशसमारोपिते नीलिम्नि छायेत्यवगमः । अत एव दीर्घा, ह्रस्वा, महती, अल्पीयसी
I
कार का प्रत्यक्ष होता है । (अभाव में किसी भी रूप की मुख्य प्रतीति नहीं हो सकती ) । एवं दिन में दोपहर को ( सूर्य का पूर्ण प्रकाश रहते हुए भी) गगन मण्डलव्यापी नीलिमा की प्रतीति होती है । धर्म्मो की प्रतीति होने पर ( उस समय या किसी भी समय न रहनेवाले) उससे भिन्न वस्तु को 'स्वसंयुक्तविशेषणता' नाम के सम्बन्ध से प्रतिषेधरूप से प्रतीति ही अभाव-प्रतीति है । किन्तु अन्धकार - ज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रतियोगिरूप से किसी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता । तस्मात् अन्धकार तेज का अभाव ही है । (प्र०) 'तेज' का न देखना ही अन्धकार की प्रतीति है ? ( उ० ) नहीं, बाहर की तरफ "यह अन्धकार है, यह छाया है" इत्यादि नीलाकार की प्रतीतियाँ होती हैं, ( तस्मात् तेज की अप्रतीति ही 'तम' नहीं है । ), अतः ( अन्धकार नाम की ) यह वस्तु 'रूप' विशेष हैं, जो तेज का अत्यन्ताभाव रहने पर सभी ओर 'समारोपित' होकर 'तम' कहलाती है । दिन में भी ऊपर की तरफ ( आकाशमण्डल में) जो नीलिमा की प्रतीति होती है, वह नयनगोलक की ही नीलिमा है, यह हम आगे कहेंगे । जब जिस नियत देशरूप अधिकरण में तेज का अत्यन्ताभाव रहता है, उस देश में आरोपित नीलरूपाभिन्नतम 'छाया' कहलाती है । अत एव "यह छाया बड़ी है या छोटी है, यहाँ अधिक छाया है वहाँ कम" इत्यादि प्रतीतियाँ होती हैं। क्योंकि उन देशों में आरोपित नीलिमा की प्रतीति ही
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परमाणुओं में रूप है, स्पर्श नहीं है । पृथिव्यादि द्रव्यों में रूप और स्पर्श को नियमित रूप के साथ देखना, या स्पर्शयुक्त द्रव्य ही द्रव्य को उत्पन्न करते हैं, यह नियम स्पर्श से शून्य अन्धकार के परमाणुओं में द्रव्यारम्भकत्व का बाधक नहीं हो सकता ।
१. अभिप्राय यह है कि चक्षु के संयोग से जब भूतल का ज्ञान होता है और घट नहीं दिखाई देता, तभी भूतल में "यहाँ घट नहीं है" इस आकार की प्रतीति होती है । फलतः निषिद्ध रूप से घट की यह प्रतोति ही 'घटाभाव' प्रतीति है । उससे भिन्न स्वतन्त्र घटाभाव की कोई प्रतीति नहीं है । प्रत्यक्ष इन्द्रियसम्बन्धमूलक होता है । प्रकृत में वह सम्बन्ध 'स्वसंयुक्त विशेषणता' नाम का है । 'स्व' शब्द से चक्षु, तत्संयुक्त मूतल, वहाँ विशेषण है- निषेधविशिष्ट घट ।
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
छायेत्यभिमानः, तद्देशव्यापिनो नीलिम्नः प्रतीतेः, अभावपक्षे च भावधर्माध्यारोपोऽपि दुरुपपादः । तदुक्तम्
न च भासामभावस्य तमस्त्वं वृद्धसम्मतम् । छायायाः कार्ण्यमित्येवं पुराणे भूगुणश्रुतेः ॥ दूरासन्न प्रदेशादि महदल्प - चलाचला देहानुर्वात्तनी छाया न वस्तुत्वाद्विना भवेत् ॥ इति ।
I
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२५.
दुरुपपादश्च क्वचिच्छायायां कृष्णसर्प भ्रमः, चलतिप्रत्ययोऽपि गच्छत्यावरकद्रव्ये यत्र यत्र तेजसोऽभावस्तत्र तत्र रूपोपलब्धिकृतः । एवं परत्वादयोऽप्यन्यथातत्र चालोकाभावव्यञ्जनीयरूपविशेषे
सिद्धाः ।
तमस्यालोकानपेक्षस्यैव
तो अन्धकार की प्रतीति है ? तम को अभाव रूप मान लेने से तो नील 'रूप' का आरोप कठिन होगा, क्योंकि 'रूप' भाव का धर्म है ( उसका आरोप भी अभाव नहीं हो सकता । ) जैसा कहा है कि – (१) तेज के अभाव में अन्धकार का व्यवहार वृद्धों से अनुमोदित नहीं है, क्योंकि पुराणों में कहा गया है कि छाया में पृथ्वी का कृष्ण वर्ण वर्तमान है ।
( २ ) छाया को भावस्वरूप माने बिना छाया देह के साथ चलती है, छाया अभी बहुत दूर है, अब समीप आई, यह छाया बहुत बड़ी है, या यह बहुत छोटी है, यह अब चल रही है और वह अब खड़ी हो गयी, इन प्रतीतियों की उपपत्ति नहीं हो सकती ।
छाया में काले साँप का भ्रम तो बिलकुल ही असम्भव होगा । (प्र० ) अन्धकार को रूपविशेष मान लेने पर भी "अन्धकार चलता है", अन्धकार में गमन की यह प्रतीति अनुपपन्न ही रहेगी । ( उ० ) इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं है । क्योंकि गमन को उक्त प्रतीति आलोक को ढँकनेवाले द्रव्य के चलने से जहाँ जहाँ तेज का अभाव हो जाता है, उन सभी जगहों में आरोपित रूप की उपलब्धि ही है । इसी प्रकार अन्धकार में प्रतीत होनेवाले परत्वादि गुणों की प्रतीति की उपपत्ति भी दूसरे प्रकार से की जा सकती है । ( प्र०) रूपों का प्रत्यक्ष आलोक में ही चक्षु से होता है, अन्धकार की प्रतीति आलोक के न रहने से ही चक्षु से होती है, अतः अन्धकार 'नीलरूप' नहीं है । ( उ० ) यह आपत्ति भी व्यर्थ है, क्योंकि वस्तुओं के स्वभाव के अनुसार ही कार्य्यकारणभाव की कल्पना की जाती है । अगर आलोक के न रहने से ही अन्धकार का प्रत्यक्ष चक्षु से होता है तो फिर और रूपों के प्रत्यक्ष में आलोकसहकृत चक्षु को (ही) कारण मानते हुए भी अन्धकारस्वरूप रूप के प्रत्यक्ष में आलोक से निरपेक्ष चक्षु को ही कारण मानना पड़ेगा । जैसे कि आप घटाभावादि के प्रत्यक्ष में आलोकसहकृत चक्षु को कारण
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१. जैसे की चलते हुए मनुष्यादि के शरीर से या स्थावर वृक्षादि से भूतल के जो अंश सौर तेज क े संयोग से बच जाते हैं, उनमें ही 'छाया' की प्रतीति होती है । एवं शरीरादि आवरक द्रव्यों का परिमाण जितना होता है, उतने ही परिमाण के अनुसार वे देशों को आवृत करते हैं। तदनुसार ही अन्धकाररूप छाया की प्रतीतियाँ होती हैं ।
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२६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देशप्रशस्तपादभाष्यम् गुणाश्च रूपरसगन्धस्पर्शसंन्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चेति कण्ठोक्ताः सप्तदश ।
स्वयं सूत्रकार के द्वारा कथित ये सत्रह गुण हैं
(१) रूप, (२) रस, ( ३ ) गन्ध, (४) स्पर्श (५) संख्या, ( ६ ) परिमाण, (७) पृथक्त्व, (८) संयोग, (६) विभाग, (१०) परत्व (११) अपरत्व, (१२) बुद्धि, ( १३ ) सुख, (१४) दुःख (१५ ) इच्छा, ( १६ ) द्वेष और ( १७ ) प्रयत्न ।
न्यायकन्दली चक्षुषः सामर्थ्यम, तद्भावभावित्वात्; यथालोकाभाव एव त्वन्मते। नन्वेवं तहि सूत्रविरोधः “द्रव्यगुणकर्मनिष्पत्तिवैधाद्धाभावस्तमः” इति ? न विरोधः, भाऽभावे सति तमसः प्रतीते भावस्तम इत्युक्तम् ।
ईश्वरोऽपि बुद्धिगुणत्वादात्मैव, न तु षड्गुणाधिकरणश्चतुर्दशगुणाधिकरणाद् गुणभेदेन भिद्यते, मुक्तात्मभिर्व्यभिचारात् ।
गुणा रूपादयः कण्ठोक्ता सूत्रकारेण कथिता रूपरसेत्यादिना । मानते हुए भी तेज के अभावरूप अन्धकार के प्रत्यक्ष में आलोक से निरपेक्ष चक्षु को ही कारण मानते हैं । (प्र०) अन्धकार को अगर तेज का अभाव न मानें तो सूत्र का विरोध होगा, क्योंकि उसमें कहा है कि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों के उत्पत्तिकम से अन्धकार की उत्पत्ति का क्रम भिन्न है, अतः भा' अर्थात् तेज का अभाव ही 'तम' है । (उ०) तेज का अभाव होने पर ही अन्धकार की प्रतीति होती है अतः सूत्रकार ने 'भामावस्तमः' ऐसा औपचारिक प्रयोग किया है।
ईश्वर भी बुद्धियुक्त होने के कारण आत्मा ही है । बुद्धि प्रभृति छः गुणों से युक्त परमात्मा चौदह गुणों से युक्त जीवात्मा से गुणभेद के कारण भिन्न जातीय द्रव्य नहीं हैं. क्योंकि ऐसा (नियम) मानने पर मुक्त जीव में व्यभिचार होगा ।
'गुणाः' अर्थात् रूपादि गुण 'कण्ठोक्ताः' अर्थात् सूत्रकार महर्षि कणाद के द्वारा "रूपरसगन्धस्पर्शाः, संख्याः, परिमाणानि, पृथक्त्वम्, संयोगविभागौ, परत्वापरत्वे, बुद्धयः, सुख
१. 'आयुर्वं घृतम्,' 'लाङ्गलम्' 'जीवनम्, इत्यादि प्रयोग जैसे कारण और कार्य को एक समझकर लक्षणा के द्वारा होते हैं, वैसे ही प्रकृत में भी तेज के मभाव की प्रतीति के कारण में अन्धकार के अभेद का आरोप कर अन्धकार पद की 'भाभाव' में लक्षणा के द्वारा सूत्रकार ने 'भाभाव' अर्थात् तेज के अभाव को 'तम' कहा है।
२. अभिप्राय यह है कि पहिले 'नवैव द्रव्याणि" ऐसा अवधारणात्मक प्रयोग है। किन्तु जीव और ईश्वर के परस्पर भिन्न द्रव्य होने के कारण द्रव्य दश हो
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
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प्रशस्तपादभाष्यम् चशब्दसमुच्चिताश्च गुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारादृष्टशब्दाः सप्तवेत्येवं चतुर्विंशतिगुणाः ।
___ एवं ( १ ) गुरुत्व, ( २) द्रवत्व, (३) स्नेह, (४) संस्कार, अदृष्ट (अर्थात् (५) धर्म, (६) अधर्म) और (७) शब्द, ये सात गुण सूत्रस्थ 'च' शब्द से संग्राह्य हैं। इस प्रकार मिलाकर गुण चौबीस प्रकार के हैं।
न्यायकन्दली 'च' शब्देनात्रानुक्ता गुणत्वेन लोके प्रसिद्धा गुरुत्वादयः सप्त समुच्चिताः । एवं चतुर्विशतिरेव गुणाः । ये तु शौय्यौदार्यकारुण्यदाक्षिण्यौग्र्यादयः, तेऽत्रैवान्तभवन्ति । शौर्यो बलवतोऽपि परस्य पराजयाय प्रत्युत्साहः। स च प्रयत्नविशेष एव। सततं सन्मार्गवर्तिनी बुद्धिरौदार्यम् । परदुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम् । दुःखे, इच्छाद्वेषौ, प्रयत्नाश्च गुणा:” (१२११६) इस सूत्र की रचना के द्वारा रूपादि सत्रह गुण ही 'रूपादि' शब्दों के द्वारा स्पष्ट रूप से कहे गये हैं । जो गुण इस सूत्र के द्वारा साक्षात् नहीं कहे गये हैं और लोक से गुणत्व के नाम से व्यवहृत हैं, वे सूत्र के 'च' शब्द से सूचित किये गये हैं । इस प्रकार कण्ठोक्त १७ और 'च' शब्द से समुच्चित सात, दोनों को मिलाकर गुण चौबीस ही हैं । शौर्य, औदार्य कारुण्य, दाक्षिण्य, औग्र्य प्रभृति जितने भी गुणशब्द से लोक में व्यवहृत हैं, वे सभी इन्हीं गुणों में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अपने से अधिक बलशाली शत्रु को पराजित करने के उत्साह को 'शौर्य' कहते हैं, जो वस्तुतः प्रयत्न विशेष ही है । बराबर सन्मार्ग में रहनेवाली 'बुद्धि' हो औदार्य कही जाती है। दूसरों के दुःख को नाश जाते हैं। आत्मत्वरूप से जीव और ईश्वर को एक द्रव्य नहीं मान सकते, क्योंकि जीव में चौदह गुण हैं एवं ईश्वर में केवल छः । तस्मात् द्रव्यविभागवाक्य का 'आत्मा' शब्द जीव या ईश्वर किसी एक का ही बोधक हो सकता है। जिससे कि उक्त अवधारण का प्रयोग असङ्गत हो जाता है । इसी आक्षेप का समाधान "ईश्वरेऽपि" इत्यादि सन्दर्भ से देते हैं । समाधान ग्रन्थ का अभिप्राय है कि चौदह गुण जीव के लक्षण नहीं हैं, क्योंकि इतने गुण मुक्त आत्माओं में नहीं रहते । आत्मा के सभी विशेष गुणों का अत्यन्त विनाश हो मुक्ति है । तस्मात् मुक्त जीवों में संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व और अपरत्व ये सात सामान्य गुण ही रहेंगे, क्योंकि मुक्ति के समय बुद्धि सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और भावनाख्य संस्कार जीव के ये सात विशेष गुण नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रव्यविभागवाक्य का 'आत्मा' शब्द चौदह गुणों से युक्त केवल जीव का ही बोधक नहीं है। किन्तु आत्मत्वजाति से युक्त द्रव्य का बोधक है । यह जाति बुद्धि से युक्त जीव और ईश्वर दोनों में है, क्योंकि आत्मत्वरूप से दोनों अभिन्न हैं । अतः "नवैव द्रव्याणि" यह अवधारण ठीक है।
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ग्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [उद्देश
प्रशस्तपादभाष्यम् उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि पञ्चैव कर्माणि । गमनग्रहणाद् भ्रमणरेचनस्यन्दनो ज्वलनतिर्यपतननमनोन्नमनादयो गमनविशेषा न जात्यन्तराणि ।
(१) उत्क्षेपण, ( २ ) अपक्षेपण ( ३ ) आकुञ्चन, ( ४ ) प्रसारण और (५ ) गमन ये पाँच ही कर्म हैं । गमन पद से यह कहना है कि भ्रमण, रेचन, स्यन्दन, ऊर्ध्वज्वलन, तिर्यक्रपतन, नमन और उन्नमन प्रभृति कर्म भी गमनविशेष ही हैं, दूसरी जाति के नहीं।
न्यायकन्दली तत्त्वाभिनिवेशिनी बुद्धिर्दाक्षिण्यम् । औग्र्यमात्मन्युत्कर्षप्रत्यय इत्येवमादिः । अदृष्टशब्देन धर्माधर्मयोरुपसङ्ग्रहः । संस्कार इति । स च वेगस्य भावनायाः स्थितिस्थापकस्य चाभिधानम् । नन्वेवं ताधिक्यम् ? न, संस्कारत्वजात्यपेक्षया वेगभावनास्थितिस्थापकानामेकत्वात् । एवं तर्हि न चतुर्विंशतित्वम् ? अदष्टत्वजात्यपेक्षया धर्माधर्मयोरेकत्वात् । न, अदृष्टत्वजात्यभावात् । निर्गुणेष्वपि गुणेष्वसाधारणधर्मयोगित्वेनोपचाराच्चतुर्विशतिरिति व्यवहारः ।
कर्माणि विभजते-उत्क्षेपणोति । कियन्ति तानि ? तत्राह-पञ्चैवेति । ननु भ्रमणादयोऽपि सन्ति ? कथं पञ्चैवेत्यवधारणमत आह-गमनग्रहणादिति। करने की 'इच्छा' ही कारुण्य है । यथार्थ वस्तु को ग्रहण करनेवाली 'बुद्धि' ही दाक्षिण्य है । अपने में उत्कर्ष की बुद्धि ही औग्र्य है । 'अदृष्ट' शब्द से धर्म और अधर्म-दोनों अभिप्रेत हैं। 'संस्कार' शब्द से वेग भावना और स्थितिस्थापक तीनों संग्राह्य हैं । (प्र०) इस प्रकार गुण तो चौबीस से अधिक हो जायेंगे ? (उ.) नहीं, संस्कारत्व जाति है और इस रूप से वेगादि तीनों संस्कार एक ही हैं । (प्र०) इस प्रकार भी गुण चौबीस ही नहीं होंगे, क्योंकि (वेगादि की तरह) अदृष्टत्वजाति रूप से धर्म और अधर्म ये दोनों भी एक हो जाएंगे ? (उ०) नहीं, क्योंकि अदृष्टत्व नाम की कोई जाति नहीं है । गुणों में गुण के न रहने पर भी 'गुण चौबीस हैं' यह गौण व्यवहार होता है। जैसे कि पृथिवीत्वादि नौ धर्मों के सम्बन्ध से "द्रव्य पृथिव्यादि भेद से नो हैं" यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार रूपादिगत असाधारण धर्मस्वरूप रूपत्वादि चौबीस धर्मों के सम्बन्ध से रूपादि गुणों में चौबीस संख्या का गोण व्यवहार होता है । (इससे रूपादि गुणों में संख्या गुण की सत्ता की सम्भावना नहीं है ।)
"उत्क्षेपण" इत्यादि से कर्म पदार्थ का विभाग किया गया है। वे कितने हैं ! इस प्रश्न का उत्तर है 'पञ्चव', अर्थात् कर्म पाँच ही हैं । (प्र०) भ्रमणादि और
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यं द्विविधं परमपरञ्चानुवृत्तिप्रत्ययकारणम् । तत्र परं सत्ता, महाविषयत्वात् । सा चानुवृत्तेरेव हेतुत्वात सामान्यमेव ।
( १ ) पर और ( २ ) अपर भेद से सामान्य दो प्रकार का है । वे अनुवृत्तिप्रत्यय' अर्थात् विभिन्न वस्तुओं में एक आकार की प्रतीति के कारण हैं। उनमें 'सत्ता' पर सामान्य ही है,क्योंकि वह महाविषय' अर्थात् और सभी सामान्यों से अधिक आश्रयों में विद्यमान है । सत्ता केवल सामान्य ही है ( विशेष नहीं ), क्योंकि वह केवल अनुवृत्तिप्रत्यय का ही कारण है, अर्थात् परस्पर भिन्न अपने
न्यायकन्दली गमनग्रहणात् पञ्चैव कर्माणि । अत्रोपपत्तिमाह-भ्रमणरेचनस्यन्दनेत्यादि । यस्माद् भ्रमणादयोऽपि गमनविशेषा गमनप्रभेदा न जात्यन्तराणि, तस्माद् गमनग्रहणेनैतेषामपि ग्रहणात् पञ्चैवेत्यवधारणं सिद्धयतीत्यर्थः ।
___सामान्यं कथयति-सामान्यं द्विविधमिति । द्वैविध्यमेव कथयति-परमपरं चेति । चोऽवधारणे, परमपरमेवेत्यर्थः । तस्य रूपं कथयति-अनुवृत्ति प्रत्ययकारणमिति । अत्यन्तव्यावृत्तानां पिण्डानां यतः कारणादन्योन्यस्वरूपानुगमः प्रतीयते तत्सामान्यम्। कि तत्परं सामान्यमित्याह-परं सत्तेति । भी तो कर्म हैं ? किर 'कर्म पाँच ही हैं' यह अवधारण असङ्गत है । इसी प्रश्न का समाधान 'गमनग्रहणात्' इत्यादि से करते हैं । अर्थात् चूंकि गमनरूप कर्म का ग्रहण किया गया है, इसलिए कर्म पाँच ही हैं। 'भ्रमणरेचन' इत्यादि से इसी में युक्ति देते हैं । चूंकि भ्रमणादि गमनत्व जाति के ही हैं, दूसरी जाति के कम नहीं हैं, अतः 'गमन' पद से भ्रमणादि कर्मों का भी संग्रह हो जाने से 'कर्म पाँच ही हैं' यह अवधारण ठीक है।
"सामान्यं द्विविधम्” इत्यादि पक्तियों से अब (अवसरप्राप्त) सामान्य का निरूपण 'परमपरञ्च' इस वाक्य से करते हैं । (१) पर और (२) अपर ये दो प्रकार सामान्य के कहे गये हैं । इस वाक्य के 'च' शब्द से इस 'अवधारण' का बोध होता है कि सामान्य के पर और अपर भेद से दो ही प्रकार हैं । 'अनुवृत्तिप्रत्ययकारणम्' इत्यादि से सामान्य पदार्थ का लक्षण कहते हैं (अर्थात) अत्यन्त विभिन्न दो वस्तुओं में जिस एक वस्तु के रहने से एक आकार की प्रतीति होती है, उसी को सामान्य' कहते हैं । वह 'पर' सामान्य कौन सा
१. जैसे कि एक घट दूसरे घट से भिन्न है, फिर भी उन दोनों में ये घट हैं' एक आकार की प्रतीति होती है और पट में यह प्रतीति नहीं होती। इसका कारण सभी घटों में घटत्व नाम के सामान्य का रहना ही है । एवं घट और
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३. न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ उद्देशप्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्यत्वाद्यपरम् , अल्पविषयत्वात् । तच्च व्यावृत्तेरपि हेतुत्वात् सामान्य सद्विशेषाख्यामपि लभते । आश्रयों में एकाकारप्रतीति को उत्पन्न करती है । किसी भी प्रकार की व्यावृत्तिबुद्धि अर्थात् अपने विभिन्न आश्रयों में परस्पर भेदबुद्धि को उत्पन्न नहीं करती। द्रव्यत्वादि सामान्य सत्ता की अपेक्षा थोड़े आश्रयों में रहने के कारण 'अपर सामान्य' हैं। ये द्रव्यत्वादि अनुवृत्तिप्रत्यय की तरह व्यावृत्तिप्रत्यय के भी कारण हैं, अत: वे सामान्य होते हुए 'विशेष' भी कहलाते हैं ।
न्यायकन्दली अत्र युक्तिमाह-महाविषयत्वादिति । द्रव्यत्वाद्यपेक्षया बहुविषयत्वादित्यर्थः । सा चानुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वादिकं तु स्वाश्रयस्य विजातीयेभ्योऽपि व्यावृत्तेरपि हेतुत्वाद्विशेषोऽपि भवति । सत्ता तु स्वाश्रयस्यानुवृत्तेरेव हेतुस्तेन सामान्यमेव । यद्यप्येषा सामान्यादिभ्यो व्यावर्त्तते तथापि न तेभ्यः है ? इस प्रश्न का समाधान 'परं सत्ता' इस वाक्य से देते हैं । सत्ता 'पर' सामान्य ही क्यों है ? इसका हेतु 'महाविषयत्वात्' इस (पञ्चम्यन्त) पद से दिखलाया है। अर्थात् 'सत्ता' जाति द्रव्यत्वादि और जातियों से अधिक आश्रयों में रहती है। यह (सत्ता रूप सामान्य) केवल अनुवृत्ति-बुद्धि (अनेक वस्तुओं में एकाकारता की बुद्धि) का ही कारण है, अतः वह केवल 'सामान्य' ही है (विशेष नहीं)। द्रव्यत्वादिरूप सामान्य (विभिन्न द्रव्यों में एकाकारतारूप अनुवृत्तिबुद्धि की तरह) अपने आश्रयीभूत द्रव्यादि में गुणादि से व्यावृत्तिबुद्धि, अर्थात् द्रव्य गुणादि से भिन्न हैं, इस प्रकार की विभिन्नाकारता प्रतीति का भी कारण हैं, अतः द्रव्यत्वादि जातियाँ विशेष' भी हैं। सत्ता तो अपने आश्रयीभूत द्रव्य, गुण और कर्म में "ये सत् हैं' इस प्रकार के अनुवृत्तिप्रत्यय का ही कारण है (किसी भी व्यावृत्तिबुद्धि का नहीं), अतः वह 'सामान्य' ही है। (प्र.) यद्यपि यह कह सकते हैं कि सत्ता जाति सामान्यादि पदार्थों में नहीं है (क्योंकि उनमें कोई भी सामान्य नहीं है), अतः 'सत्ता जाति' व्रव्य, गुण, और कर्म, इन तीनों में 'ये सत् हैं' इस अनुवृत्तिबुद्धि की तरह (सत्ताजातियुक्त) द्रव्यादिपदार्थ (सत्ताशून्य) सामान्यादि पदार्थों से भिन्न हैं, इस व्यावृत्तिबुद्धि के भी कारण हैं । (इस युक्ति से सत्ता भी द्रव्यत्वादि सामान्य की तरह 'विशेष' कहला सकती है) तथापि सामान्यादि पदार्थों में भी भावत्व, अस्तित्वादि रूप सत्ता तो है ही, जिससे सामान्यादि पदार्थों में भी "ये सत् हैं" इस प्रकार की प्रतीति होती है। अतः सामान्यादि में जातिरूप सत्ता का सम्बन्ध न भी रहे, तथापि द्रव्यादि से सामान्यादि पदार्थों से भिन्नत्व प्रतीति का पट दोनों परस्पर भिन्न होते हुए भी दोनों में 'ये द्रव्य है। इस एक आकार को प्रतीति होती है। इसका भी कारण घट और पट में द्रव्यत्व नामक सामान्य का रहना ही है ।
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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३१
स्वाश्रयं व्यावर्त्तयितुं शक्नोति । तेषामपि स्वरूप सत्तासम्बुद्धिसंवेद्यत्वात् । वस्त्वपेक्षया चानुवृत्तिहेतुत्वं विवक्षितम् तेनाभावाद्वयावृत्तिहेतुत्वेऽपि न दोषः ।
यत्प्रमाणेन प्रतीयते तत्रास्ति व्यवहारो लोकानां विपर्य्यये तु नास्तीति । तेन प्रमाणगम्यैव सत्तेति केचित् । तदयुक्तम्, प्रमाणोत्पत्तेः प्राग् वस्तुनोऽसत्त्वप्रसङ्गादसतश्च खरविषाणस्येव ग्राह्यत्वाभावादन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च । सतः प्रमाणस्य ग्राहकत्वे सत्तायाः प्रमाणग्राह्यतालक्षणत्वे च ग्राहकस्य प्रमाणस्यापि ग्राहकान्तरानुसरणेनानवस्थापाताच्च ।
वह कारण नहीं हो सकती, (क्योंकि सत्ता के सम्बन्ध से जिस प्रकार द्रव्य, गुण और कमं में 'ये सत् हैं' यह प्रतीति होती है, उसी प्रकार सामान्यादि भावपदार्थों से 'भावत्व' रूप सता के बल से 'ये सत् हैं' इस प्रकार की भी प्रतीति होती है । अतः द्रव्यादिधम्मिक सत्त्व की प्रतीति में और सामान्यादिधम्मिक सत्त्व की प्रतीति में आकारगत कोई भेद नहीं है ) । (प्र०) अभावों में किसी भी प्रकार की 'सत्त्व' बुद्धि (सत्ताजातिमूलक, या भावत्वमूलक) नहीं होती है, अतः सत्ता जाति और किसी को न सही अपने आश्रयीभूत द्रव्यादि में अभावभिन्नत्वरूप व्यावृत्ति के बोध को तो उत्पन्न कर ही सकती है । अतः सत्ता जाति भी द्रव्यस्वादि जातियों की तरह सामान्य और विशेष दोनों हो सकती हैं । ( उ० ) नहीं, उक्त 'अनुवृत्तिप्रत्यय' शब्द का अर्थ है अनेक विभिन्न भावपदार्थों में एकाकारता की प्रतीति, एवं 'व्यावृत्तिबुद्धि' शब्द का अर्थ है एक या अनेक भावों में दूसरे भावपदार्थ से भिन्नत्व की बुद्धि । इसी व्यावृत्तिबुद्धि का कारण है 'विशेष' । विशेष का यह लक्षण सत्ता जाति में नहीं है । अतः द्रव्यादि में अभावभिन्नत्व बुद्धि की प्रयोजक होने पर भी सत्ता सामान्य ही है, 'विशेष' नहीं ।
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( प्र०) कोई कहते हैं कि वस्तुतः 'अस्तित्व' ही 'सत्ता' है । प्रमाण के द्वारा ज्ञात अर्थ में ही अस्तित्व की प्रतीति होती है । जिस वस्तु की प्रतीति प्रमाण के द्वारा नहीं होती, उसमें अस्तित्व की बुद्धि भी नहीं होती है । अतः 'प्रमाणगम्यत्व' ( अर्थात् प्रमाण से ज्ञात होना) ही 'सत्ता' है । इस नाम की कोई अतिरिक्त जाति नहीं है । (उ० ) यह उक्ति असङ्गत है, क्योंकि इससे तो प्रमाण की प्रवृत्ति से पहले गदहे के सींग की तरह वस्तुओं को असत्ता माननी पड़ेगी । दूसरी बात यह है कि गदहे की सींग प्रभृति असत् वस्तुओं में प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती है । 'सत्' घटादि वस्तुओं में ही प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है । ( इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ) वस्तु 'सत्' तभी होगी, जब उसमें प्रमाण की प्रवृत्ति होगी । एवं. प्रमाणों की प्रवृत्ति सद्विषयों में ही होगी । अतः सत्त्व को प्रमाणगम्यत्वमूलक और प्रमाणों की प्रवृत्ति को सत्त्वमूलक मानना पड़ेगा, जिससे कि परस्पराश्रयत्व होगा। तीसरी बात है कि 'सत्' प्रमाण ही वस्तुओं का ज्ञापक है, 'असत्' प्रमाण नहीं । एवं 'सत्त्व' को आपने
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३२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देश
न्यायकन्दली
___ अथ मतं न ब्रूमः प्रमाणसम्बन्धः सत्तेति, किन्तु प्रमाणसम्बन्धयोग्य वस्तुस्वरूपमेव सत्ता । योऽपि सत्तासामान्यमिच्छति, तेनापि पदार्थस्वरूप. मभ्युपेयम्, नि:स्वभावे शशविषाणादौ सत्ताया असमवायात् । एवं चेत् तदेवास्तु, किं सत्तयेति ।
अत्रोच्यते, प्रत्येक पदार्थस्वरूपाणि भिन्नानि, कथं तेष्वेकाकारप्रतीति : ? एकशब्दप्रवृत्तिश्च ? अनन्तेषु सम्बन्धग्रहणाभावात् । अथ तेष्वेकं निमित्तमस्ति ? सिद्धं नः समीहितम्। यथा दृष्टैकगोपिण्डस्य पिण्डान्तरे पूर्वरूपानुकारिणी बुद्धिरुदेति, नैवं महीधरमुपलभ्य सर्षपमुपलभमानस्य पूर्वाकाराप्रमाणगम्यत्वरूप माना है, अत: ग्राहकीभूत प्रमाणों में सत्त्वसम्पादन के लिए दसरे प्रमाण का अलवम्बन करना पड़ेगा। इस पक्ष में अनवस्था दोष भी अनिवार्य होगा।
(प्र०) प्रमाणों के सम्बन्ध को ही हम सत्ता नहीं कहते, किन्तु प्रमाणसम्बन्ध के योग्य वस्तु के 'स्वरूप' अर्थात् असाधारण धर्म को ही उस वस्तु की 'सत्ता' कहते हैं। जो कोई 'सत्ता' नाम की अतिरिक्त जाति मानने की इच्छा रखते हैं, वे भी वस्तुओं के असाधारणस्वभावरूप सत्त्व से शून्य खरगोश के सींग प्रभृति वस्तुओं में सत्ता जाति का समवाय नहीं मानते । अतः उस असाधारण धर्म को छोड़कर सत्ता नाम की कोई जाति ही नहीं है।
(उ०) यह कहना भी कुछ ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों के परस्पर भिन्न होते हुए भी तीनो में जो 'ये सत् हैं' इस एक आकार की प्रतीति होती है, वह अनुपपन्न हो जाएगी, चूंकि द्रव्यादि तीनों व्यक्तियों के 'स्वरूप' अर्थात् असाधारण धर्म भिन्न भिन्न हैं। यह सत्त्व अपने अपने आश्रय को छोड़कर किसी दूसरे में नहीं रह सकते। फिर द्रव्यादि तीनों में रहनेवाली किसी एक वस्तु से उक्त एक आकार की प्रतीति होगी, एवं द्रव्यादि तीनों को समझाने के लिए जिस एक ही 'सत्' शब्द की प्रवृत्ति होती है, वह भी अनुपपन्न हो जाएगी, क्योंकि व्यक्ति अनन्त हैं, उन सभी व्यक्तियों में शक्ति का ग्रहण ही असम्भव है। अगर उक्त अनुवृत्तिप्रत्यय के लिए अथवा शब्द के उक्त प्रयोग के लिए द्रव्यादि तीनों में रहनेवाले किसी एक कारण की कल्पना की जाय तो फिर इससे हमारा ही अभीष्ट सिद्ध होगा (फलतः सत्ता जाति माननी ही पड़ेगी) । (प्र०) जिस प्रकार एक गाय को देखने के बाद दूसरी गाय को देखने पर इस दूसरी गाय में भी 'यह गाय है' इस प्रकार की बुद्धि होती है, अतः सभी गायों में रहनेवाली एक गोत्व जाति की कल्पना करते हैं, उसी प्रकार से पर्वत को देखने के बाद सरसों को देखने पर दोनों में किसी एक आकार की बुद्धि नहीं होती, अतः इन दोनों में से किसी एक का धर्म दूसरे में नहीं है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली वभासोऽस्तीति कूतोऽत्र सामान्यकल्पनेति चेत् ? कि महीधरादिषु निखिलरूपानुगमो नास्ति ? उत मात्रयाऽपि न विद्यते ? यदि निखिलरूपानुगमाभावात् तेषु सामान्थप्रत्याख्यानम् ? तर्हि गोत्वमपि प्रत्याख्येयम्, तयोः शाबलेयबाहलेययोः सर्वथा साधाभावात् । अथ मात्रयाऽपि स्वरूपानुगमो नास्ति ? तदसिद्धम्, सर्वेषामपि तेषामभावविलक्षणेन रूपेण तुल्यताप्रतिभासनात् । इयांस्तु विशेष:-गोपिण्डेषु झटिति तज्जातीयताबुद्धिः, भूयोऽवयवसामान्यानुगमात् । महीधरादिषु तु विलम्बिनी, स्तोकावयवसामान्यानुगमेन जातेरनुद्भूतत्वात्, यथा मणिकदर्शनाच्छरावे मृज्जातिबुद्धिः।।
एतेनार्थक्रियाकारित्वमपि सत्त्वं प्रत्युक्तम्, असतोऽर्थक्रियाया अभावात्, अर्थक्रियायाञ्च सत्यां तस्य सत्त्वात्, अर्थक्रियायाश्चार्थक्रियापेक्षया सत्त्वेनानवस्थाने सर्वस्यासत्त्वप्रसङ्गाच्च ।
(उ०) (इस आक्षेप के समाधानार्थ यह पूछना है कि) (१) क्या पर्वतादि के सभी धर्म एक दूसरे में नहीं हैं ? (२) या पर्वतादि के कुछ धर्म एक दूसरे में नहीं है ? अगर पहिला पक्ष मानें तो फिर गायों में भी “ये गायें है" इस प्रकार का अनुवृत्तिप्रत्यय नहीं होगा, क्योंकि प्रत्येक गाय में रहनेवाले शाबलेयत्वादि धर्म दूसरी गायों में नहीं हैं । अगर दूसरा पक्ष मानें तो हम कहेंगे कि यह असत्य है, क्योंकि अन्ततः भावभिन्नत्वरूप धर्म तो पर्वत और सरसों दोनों में अवश्य ही प्रतीत होता है । इतना अन्तर अवश्य है कि एक गाय को देखने के बाद दूसरी गाय को देखने पर सादृश्य की बुद्धि शीघ्र उत्पन्न होती है। क्योंकि दोनों गायों के अवयवों में बहुत से सादृश्य हैं। किन्तु पर्वत और सर्षप के अवयवों में उतने सादृश्य नहीं हैं। अतः पर्वत को देखने के बाद सर्षप में सादृश्य की बुद्धि देर से उत्पन्न होती है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि पर्वत और सर्षप दोनों में रहनेवाली जाति परिस्फुट नहीं है । जैसे हड़िया को देखने के बाद पुरवे में मिट्टी में रहनेवाली पृथिवीत्व जाति की उपलब्धि होती है।
कोई (बौद्ध) कहते हैं कि 'अर्थक्रियाकारित्व' ही 'सत्त्व' है। किन्तु 'परस्पराश्रयत्व' दोष से ग्रसित होने के कारण यह पक्ष भी असङ्गत ही है। शशविषाणादि असत् पदार्थों में सत्त्व इसलिए नहीं है कि उनमें अर्थक्रियाकारित्व नहीं है । और उनमें अर्थक्रियाकारित्व इसलिए नहीं है कि वे 'सत्' नहीं हैं। दूसरी बात है कि घटादि पदार्थों की सत्ता जिस अर्थक्रिया के अधीन है, उस अर्थक्रिया के सत्त्व की प्रयोजिका कोई दूसरी अर्थक्रिया नहीं है । अतः (घटादि वस्तुओं के सत्त्व की प्रयोजिका) अर्थक्रिया के असत् होने के कारण घटादि वस्तुओं की सत्ता ही उठ जाएगी।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देशन्यायकन्दली द्रव्यत्वाद्यपरम्, द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वञ्चापरम्, सत्तापेक्षयाल्पविषयत्वादित्यर्थः, तथा द्रव्यत्वाद्यपेक्षया पृथिवीत्वादिकमपरम्, तदपेक्षया घटत्वादिकमपरम्, गुणत्वाद्यपेक्षया रूपत्वादिकमपरम्, कर्मत्वाद्यपेक्षया चोत्क्षेपणत्वादिकं व्याख्येयम्।
जलमुपलभ्य वह्निमुपलभमानस्य तदित्यनुगमाभावाद् द्रव्यत्वं नास्तीति केचित । तदसारम, द्वयोरपि तयोः स्वप्राधान्येन प्रतीतिसम्भवात् । स्वप्राधान्यप्रतीतिरेव द्रव्यत्वप्रतीतिः । उत्क्षेपणादिष्वपि चलनात्मकताप्रतीतिरस्ति, सैव च कर्मत्वप्रतीतिः । रूपादिषु तु कृतसमयस्यानुवृत्तिप्रत्ययसम्भवाद् गुणत्वस्याप्रत्याख्यानम् । व्यक्तिग्रहणमिव समयग्रहणमपि तस्य प्रतीतिकारणम्, ब्राह्मणत्वस्येव योनिसम्बन्धज्ञानम् । तत्रापि विशुद्धब्राह्मणसन्ततिजस्योत्पत्तिमात्रानुबद्धमपि ब्राह्मणत्वमिन्द्रियपातमात्रेण क्षत्रियादिविलक्षणतया न गृह्यते, अत्यन्तव्यक्तिसौसादृश्येनानुद्भूतत्वात्। यदा तु मातापित्रोस्तत्पूर्वेषाञ्च वृद्धपरम्परया विशुद्धब्राह्मणत्वमवसितम्, तदा ब्राह्मणोऽयमिति प्रत्यक्षेणैव प्रतीयते।
"द्रव्यत्वाद्यपरम्" द्रव्यत्वादि जातियाँ अपर हैं। अर्थात् द्रव्य त्व, गुणत्व, कर्मत्व इत्यादि जातियाँ सत्ता की अपेक्षा 'अपर' हैं। इसी प्रकार यह व्याख्या भी करनी चाहिए कि द्रव्यत्वादि जातियों की अपेक्षा पृथिवीत्वादि जातियां अपर' हैं। पृथिवीत्वादि की अपेक्षा घटत्वादि जातियाँ अपर हैं। एवं गुणत्वादि सामान्यों की अपेक्षा रूपत्वादि सामान्य अपर हैं और कर्मत्वादि सामान्यों की अपेक्षा उत्क्षेपणत्वादि सामान्य अपर हैं।
कोई कहते हैं कि जल की उपलब्धि के बाद वह्नि की उपलब्धि होने पर "यह वही है" इस प्रकार की (प्रत्यभिज्ञात्मक)प्रतीति नहीं होती है । अतः जलवह्नयादि साधारण द्रव्यत्व नाम की कोई जाति नहीं है । किन्तु यह असङ्गत है, क्योंकि स्वतन्त्ररूप से प्रतीति का विषय ही द्रव्य है। जल एवं वह्नि दोनों की ही स्वतन्त्ररूप से प्रतीति होती है। अतः अवश्य ही दोनों में रहने वाली एक द्रव्यत्व जाति है । उत्क्षेपणादि सभी क्रियाओं में चलनरूपत्व की प्रतीति होती है । चलनरूपत्व की प्रतीति ही वस्तुतः कर्मत्व की प्रतीति है (अतः कर्मत्व जाति भी अवश्य है)। रूपादि चौबीस गुणों में जिस व्यक्ति को 'गुण' पद की शक्ति गृहीत है, उस व्यक्ति को रूपादि में भी अवश्य ही गुणत्व की प्रतीति होती है। अतः गुणत्व जाति का भी खण्डन नहीं कर सकते । सामान्य (जाति) की प्रतीति के लिए व्यक्ति के ज्ञान की तरह सामान्यवाचक शब्द की (व्यक्ति में) शक्ति का ज्ञान भी कारण है। जैसे ब्राह्मणत्व जाति के ज्ञान में योनिसम्बन्ध का ज्ञान कारण है। ब्राह्मणत्व जाति भी ब्राह्मणजातीय माता पिता से उत्पन्न व्यक्ति में उत्पत्ति के समय से ही सम्बद्ध रहती है, किन्तु क्षत्रियादि व्यक्तियों के अवयवों के साथ ब्राह्मण जातीय व्यक्तियों के अवयवों का अत्यन्त सादृश्य होने के कारण
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली यथा हि सुविदितरत्नपरीक्षाशास्त्रो रत्नजातिभेदं प्रत्यक्षतः प्रत्येति, नापरः । न च तावता रत्नजातिभेदो नास्ति, न च तत्प्रत्यक्षमप्रत्यक्षम् । यच्चोक्तम्-स्त्रीणां स्वभावचपलानां विशुद्धिर्दुरवबोधैवेति । तदसत्, अभियुक्तैः सुरक्षितानां सुकरस्तदवबोधः, कथितश्च तासां बहुविधो रक्षणोपाय इत्यास्तां तावत्प्रसक्तानुप्रसङ्गः। ___तच्च द्रव्यत्वादिकं स्वविषयस्य विजातीयेभ्यो व्यावृत्तेरपि हेतुत्वाद्विशेषाख्यां विशेषसंज्ञामपि लभते, न केवलमनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यसंज्ञां लभते, व्यावृत्तेरपि हेतुत्वाद्विशेषसंज्ञामपि लभत इत्यपिशब्दयोरर्थः । किमुक्तं स्यात् ? द्रव्यत्वादिषु सामान्यशब्दो मुख्यः, अनुवृत्तिहेतुत्वस्य सामान्यलक्षणस्य सम्भवात्, विशेषशब्दश्च भाक्तः, स्वाश्रयो विशिष्यते सर्वतो व्यवच्छिद्यते येन स विशेष इति लक्षणस्यात्राभावात् । इदन्तु लक्षणमन्त्यविशेषेष्वस्ति । केवल प्रथम दर्शन में ही क्षत्रियादि व्यक्तियों से विलक्षण रूप से ब्राह्मणों की प्रतीति नहीं होती है । क्योंकि ब्राह्मणत्व जाति व्यक्ति में सम्बद्ध रहने पर भी उद्भूत नहीं है । जब यह ज्ञान हो जाता है कि यह व्यक्ति ब्राह्मण माता पिता से उत्पन्न है, तब उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष के साथ ही ब्राह्मणत्व जाति का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे कि रत्नों की परीक्षा में निपुण व्यक्ति रत्नों की जातियों को प्रत्यक्ष ही देखता है । एवं उस परीक्षा से अनभिज्ञ व्यक्ति रत्नों की जातियों को समझाने पर भी नहीं समझ पाता है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि रत्नों की भिन्न जातियाँ ही नहीं हैं या उस निपुण पुरुष का प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ही नहीं है । (प्र.) कोई कहते हैं कि स्त्रियाँ चञ्चल होती हैं, अत: तन्मूलक वंशविशुद्धि का ज्ञान दुर्लभ है। (उ०) किन्तु यह सर्वथा असङ्गत है, क्योंकि आर्यों से सुरक्षित स्त्रियों की सन्तानों में विशुद्धि का बोध कठिन नहीं है । स्त्रियों की रक्षा के बहुत से उपाय शास्त्रों में कहे गये हैं। अब इस प्रसङ्ग से आये विषय को यहीं छोड़ देना चाहिये ।
द्रव्यत्वादि जातियां अपने आश्रयों को भिन्नजातीय वस्तुओं से पृथक् रूप से भी समझाती हैं, अतः वे 'विशेष' नाम से भी कही जाती हैं। अपने विभिन्न आश्रयों में एकाकारप्रतीतिरूप अनुवृत्तिप्रत्यय-जनक होने से केवल 'सामान्य' शब्द से ही व्यवहत नहीं होती हैं। यही दोनों (व्यावृत्तेरपि विशेषाख्यामपि) 'अपि' शब्दों का अभिप्राय है। इससे निष्कर्ष क्या निकला ? यही कि द्रव्यत्वादि जातियाँ 'सामान्य' शब्द के मुख्य अर्थ हैं। क्योंकि "अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्व" रूप सामान्य का सम्पूर्ण लक्षण उनमें है । विशेष' शब्द का उनमें लाक्षणिक प्रयोग होता है, क्योंकि "जो अपने आश्रय व्यक्ति को और सभी पदार्थों से भिन्न रूप से समझावे वही 'विशेष' है", विशेष का यह सम्पूर्ण लक्षण उनमे नहीं है, किन्तु वह अन्त्य विशेषों में (ही) है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देश
प्रशस्तपादभाष्यम् नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषाः । ते खल्वत्यन्तव्यावृत्तिहेतुत्वाद्विशेषा एव।
सभी नित्य द्रव्यों में रहनेवाले 'अन्त्य' ही 'विशेष' हैं। वे ( अपने आश्रय को और पदार्थों से भिन्नत्व बुद्धिरूप ) व्यावृत्ति के ही कारण हैं। अतः वे 'विशेष' ही हैं ( अपने आश्रयों को परस्पर समानरूप से न समझाने के कारण 'सामान्य' शब्द के गौण अर्थ भी नहीं हैं।
न्यायकन्दली नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा इति । नित्यद्रव्येष्वेव वर्तन्त एव ये ते विशेषा इति । नित्यद्रव्येष्वेवेति द्रव्यगुणकर्मसामान्यानां व्यवच्छेदः । द्रव्यगुणकर्माणि द्रव्येष्वेव वर्तन्ते, न नित्येष्वेवेति । सामान्यानि तु न द्रव्येज्वेव । न नित्येष्वेव वर्तन्त एवेति बुद्धिशब्दादीनां व्यवच्छेदः, तेषां समस्तनित्यद्रव्यप्राप्त्यभावात् । ननु कि विशेषा एव किं वा द्रव्यत्वादिवदुभयरूपा ? इति । तत्राह-ते खल्विति । खलुशब्दो निश्चये, नित्यद्रव्यवृत्तयो ये विशेषास्ते विशेषा एव निश्चिता न तु सामान्यान्यपि भवन्तीत्यर्थः। अत्यन्तं सर्वदा,व्यावृत्तेरेव स्वाश्रयस्येतरस्माद्वयवच्छेदस्यैव, हेतुत्वात् कारणत्वादिति । यथा चेदं तथोपरिष्टादुपपादनीयम् ।
जो (पदार्थ) केवल सभी नित्य द्रव्यों में रहें और अवश्य ही रहें वे ही 'विशेष' हैं । 'नित्य द्रव्यों में ही रहें' (नित्यद्रव्येष्वेव) इस अंश से द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में विशेष के लक्षण की अतिव्याप्ति की शङ्का मिट जाती है, क्योंकि वे यद्यपि द्रव्यों में ही रहते हैं, तथापि नित्य द्रव्यों में ही नहीं रहते (किन्तु अनित्य द्रव्यों में भी रहते हैं)। सामान्य पदार्थ केवल द्रव्य में ही नहीं रहता है, (गुणादि में भी रहता है, अतः सामान्य में विशेष लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है)। नित्यद्रव्येष्वेव वर्त्तत एव' इस वाक्य से शब्द और बुद्धि इन दोनों में विशेष लक्षण की अतिव्याप्ति वारित होती है; क्योंकि शब्दादि यद्यपि नित्य द्रव्यों में ही रहते हैं, किन्तु सभी नित्य द्रव्यों में नहीं रहते । क्या ये 'विशेष' ही हैं ? या द्रव्यत्यादि की तरह सामान्य और विशेष दोनों ही हैं ? इस संशय को 'ते खलु' इत्यादि वाक्य से हटाते हैं । यहाँ 'खलु' शब्द 'निश्चय' अथं का बोधक है। अभिप्राय यह है कि नित्य द्रव्यों में रहनेवाले ये 'विशेष' निश्चित रूप से केवल 'विशेष' ही हैं, ये कभी सामान्य नहीं होते। क्योंकि ये बराबर अपने आश्रय को और पदार्थों से भिन्न रूप में ही समझाते हैं। यह जिस प्रकार उत्पन्न होता है, वह आगे दिखाया जाएगा।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अयुतसिद्धानामाधा-धारभूतानां यः सम्बध इहप्रत्ययहेतुः स समवायः।
आधार और आधेयरूप अयुतसिद्धों के 'इहप्रत्यय' अर्थात् इस आधार में यह आधेय है, इस बुद्धि का कारण जो सम्बन्ध वही समावाय है ।
न्यायकन्दली समवायस्वरूपं निरूपयति—अयुतसिद्धानामिति । युतसिद्धिः पृथसिद्धिः, पृथगवस्थितिरुभयोरपि सम्बन्धिनो: परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वम्, सा ययोर्नास्ति तावयुतसिद्धौ, तयोः सम्बन्ध: समवायः । यथा तन्तुपटयोः ।
__ यद्यपि तन्तवः पटव्यतिरिक्ताश्रये समवयन्ति, तथाप्युभयोः परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वं नास्ति, पटस्य तन्तुष्वेवाश्रयित्वात् । यत्र तु द्वयोरपि सम्बन्धिनो: परस्परपरिहारेण व्यतिरिक्ताश्रयाश्रयित्वम्, तत्र युतसिद्धिः, यथा त्वगिन्द्रियशरीरयोः । शरीरं हि त्वगिन्द्रियपरिहारेण पृथगाश्रये स्वावयवे समाश्रितम्, तेनानयोः संयोगो न समवायः । नित्यानान्तु युतसिद्धिः पृथग
'अयुतसिद्धानाम्' इत्यादि पङ्क्तियों से 'समवाय' के स्वरूप का निरूपण करते हैं। 'युतसिद्धि' शब्द से पृथसिद्धि अर्थात् अलग अलग स्वतन्त्ररूप से रहना अभिप्रेत है । कहने का तात्पर्य है कि जिन दो सम्बन्धियों का आश्रयत्व या आश्रितत्व एक दूसरे को छोड़कर किसी तीसरी वस्तु में भी रहे उन दो वस्तुओं की स्वतन्त्र रूप से विद्यमानता ही "युतसिद्धि" है। इस प्रकार की युतसिद्धि जिन दो वस्तुओं की न रहे वे दोनों वस्तु 'अयुतसिद्ध' हैं । इसी प्रकार की (अयुतसिद्धि) दो वस्तुओं का सम्बन्ध समवाय है । जैसे सूत और कपड़े का ।
___ यद्यपि तन्तु पट से भिन्न अपने अंशु नाम के अवययों के साथ भी सम्बद्ध है । फिर भी परस्पर एक दूसरे को छोड़कर वे न कहीं आश्रित हैं एवं न कोई उनमें आश्रित हैं।' जिन दो वस्तुओं में परस्पर एक दूसरे से असम्बद्ध होकर स्वतन्त्र रीति से किसी तीसरी वस्तु का आश्रयत्व या आश्रितत्व है, उन दो वस्तुओं की स्वतन्त्र रूप से विद्यमानता ही 'युतसिद्धि' है, जैसे कि त्वगिन्द्रिय और शरीर की विद्यमानता । शरीर त्वगिन्द्रिय को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से अपने अवयवों में रहता है, अतः त्वगिन्द्रिय और शरीर का सम्बन्ध संयोग ही है, समवाय नहीं । नित्य दो पदार्थों की 'युतसिद्धि' १. अभिप्राय यह है कि यद्यपि तन्तु पट से भिन्न अपने अंशु नाम के अवयवों में भी सम्बद्ध है, अतः तन्तु और पट में युतसिद्धि को शङ्का ठीक है। किन्तु पट चूँकि तन्तुओं में ही आश्रित है । अतः पट का आश्रयरूप तन्तु अंशु प्रति अन्य पदार्थों में सम्बद्ध भी हों तथापि पट को छोड़कर कहीं सम्बद्ध नहीं हो सकते । अतः पट समवाय से युत तन्तुओं की स्वतन्त्र सिद्धि सम्भव नहीं है ।
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३८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[उद्देश
न्यायकन्दली
वस्थितिः, पृथग्गमनयोग्यता, सा ययोर्नास्ति तावयुतसिद्धौ, तयोर्यः सम्बन्धः स समवायः, यथाकाशद्रव्यत्वयोरिति । अयुतसिद्धयोः सम्बन्ध इत्युच्यमाने धर्मस्य सुखस्य च यः कार्यकारणभावलक्षणः सम्बन्धः, सोऽपि समवायः प्राप्नोति, तयोरात्मैकाश्रितयोर्युतसिद्धयभावात् । तदर्थमाधाऱ्यांधारभूतानामिति पदम्, न त्वाकाशशकुनिसम्बन्धनिवृत्त्यर्थम्, अयुतसिद्धपदेनैव तस्य निवत्तितत्वात् । एवमप्याकाशस्याकाशपदस्य च वाच्यवाचकभावः समवायः स्यात्, तन्निवृत्त्यर्थमिहप्रत्ययहेतुरिति । वाच्यवाचकभावे हि तस्माच्छब्दात् तदर्थो ज्ञायते न त्विहेदमिति । आधा-धारभूतानामिहप्रत्ययहेतुरिति कुण्डबदरसम्बन्धो न व्यवच्छिद्यते, तदर्थमयुतसिद्धानामिति ।
_अत्र केचिदयुतसिद्धिपदं विकल्पयन्ति-किं युतौ न सिद्धौ ? आहोस्विदयुतौ सिद्धौ ? यदि युतौ न सिद्धौ, कस्तयोः सम्बन्धः, धम्मिणोरभावात् । अर्थात् पृथक् सिद्धि का अर्थ है दोनों में परस्पर एक दूसरे को छोड़कर जाने की यह 'योग्यता'। यह जिन नित्य दो वस्तुओं में नहीं है, उनका सम्बन्ध भी समवाय है, जैसे आकाश और द्रव्यत्व का अगर इतना ही कहें कि "अयुतसिद्ध दो वस्तुओं का सम्बन्ध ही समवाय है" तो पुण्य और सुख इन दोनों का जो कार्यकारणभाव सम्बन्ध है, उसमें समवाय लक्षण की अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि वे दोनों केवल आत्मा में ही रहने के कारण युतसिद्ध नहीं हैं, अतः समवाय के लक्षणवाक्य में "आधाधिारभूतानाम्" यह पद देना आवश्यक है। किन्तु बाज पक्षी और आकाश के संयोग में अतिव्याप्ति वारण के लिए "आधाधिारभूतानाम्” यह पद नहीं है । क्योंकि इस अतिव्याप्ति का वारण 'अयुत सिद्ध' पद से ही हो जाता है। इसी प्रकार आकाश पद और आकाशरूप अर्थ इन दोनों के वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध में अतिव्याप्ति वारण के लिए प्रकृत समवाय लक्षण में इहप्रत्ययहेतुः यह पद दिया गया है। क्योंकि आकाश पद से आकाशरूप अर्थ को हो प्रतीति होती है। इससे यह प्रतीति नहीं होती कि 'आकाशरूप अर्थ में आकाश पद है' या 'आकाशपद में आकाशरूप अर्थ है। (प्रकृत समवाय लक्षण में) 'आधाधिारभूतानाम्' एवं 'इह प्रत्ययहेतुः' इन दोनों पदों का प्रयोग करने पर भी कुण्ड और बदर के संयोग सम्बन्ध में अतिव्याप्ति नहीं हटती है, अतः 'अयुतसिद्धानाम्' यह पद है ।
___यहाँ कुछ लोग अयुतसिद्ध पद के अर्थ के प्रसङ्ग में इन विरुद्ध पक्षों को उठाते हैं कि अयुतसिद्ध पद का (१) 'युतौ न सिद्धौ' एवं 'अयुती सिद्धौ' इन दोनों में कौन सा विग्रह प्रकृत में इष्ट है ? इनमें प्रथम पक्ष तो इस लिए ठीक नहीं है कि प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों अगर असिद्ध हैं तो फिर यह समवाय सम्बन्ध
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न्यायकन्दली
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३६
अथात सिद्ध, तथापि कः सम्बन्धोऽपृथक् सिद्धत्वादेव । भिन्नयोहि सम्बन्धो यथा कुण्डबदरयोरिति ।
तदपरे न मृषन्ति । नह्यस्यायमर्थो युतौ न सिद्धौ न निष्पन्नाविति, असतो: समवायानभ्युपगमात् । नाप्यस्यायमर्थः - अयुतौ सिद्धाविति, एकात्मकत्वे ह्येकमेव वस्तु स्यान्नोभयम्, परस्परात्मकत्वाभावलक्षणत्वादुभयरूपतायाः । न च तदेकं वस्तु परमार्थतः परस्परविलक्षणेन रूपेण तयोराकारयोः प्रतिभासनात् । विलक्षणाकार बुद्धिवेद्यत्वस्यैव भेदलक्षणत्वात्, अन्यथा भेदाभेदव्यवस्थानुपपत्तेः । तस्मान्न स्वरूपाभेदोऽप्ययुतसिद्धिः, किन्तु अयुत सिद्धानामिति परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितानामित्यर्थः । तथा च सति सम्बन्धो नानुपपन्नः, स्वरूपभेदस्य सम्भवात्, भिन्नयोश्च परस्परोपश्लेषस्य दहनाय : पिण्डयोरिव विना सम्बन्धेनासम्भवात् । इयांस्तु विशेष : -- वह्निरुत्पत्तेः पश्चादयःपिण्डेन सह सम्बद्ध्यते, इह तु स्वकारणसामर्थ्यादुपजायमानमेव तत्र सम्बद्धयते, यथा छिदिक्रिया छेद्येनेत्यलम् ।
किसके साथ किसका होगा ? ( क्योंकि सम्बन्ध से पहिले सम्बन्धियों की सिद्धि आवश्यक है), अगर " जिन दोनों की पृथक् सिद्धि न हो वे अयुतसिद्ध हैं' यह दूसरा पक्ष मानें तो भी असङ्गति है ही क्योंकि जिन दो वस्तुओं की अलग अलग सिद्धि न हो, पृथक् सत्ता न रहे, उन दोनों का सम्बन्ध कैसा ? दो भिन्न वस्तुओं का ही सम्बन्ध होता है, जैसे कुण्ड और बैर का ।
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इन दोनों ही आक्षेपों को दूसरे सम्प्रदाय नहीं मानते। इन लोगों का कहना है कि ' युतो न सिद्धौ” इस विग्रह वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि "जिन दो वस्तुओं की (पृथक् ) सत्ता न रहे, वे प्रयुतसिद्ध हैं", क्योंकि हम लोग असत् वस्तुओं का समवाय नहीं मानते । " अयुतौ न सिद्धौ” इस विग्रहवाक्य के अनुसार यह अर्थ भी नहीं है कि * जिन दो वस्तुओं की अभिन्नरूप से सिद्धि हो वे अयुतसिद्ध हैं", क्योंकि एक स्वरूप की वस्तु एक ही होगी, दो नहीं । दो वस्तुओं के दोनों असाधारण धम्मों का एक दूसरे में अभाव ही 'उभयरूपत्व' शब्द का अर्थ है । समवाय सम्बन्ध के अनुयोगी और प्रतियोगीरूप वे दोनों अयुतसिद्ध अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि परस्पर विलक्षण रूप से दोनों की यथार्थ प्रतीति होती है । विलक्षण रूप से ज्ञात होना ही वस्तुओं का (परस्पर) भेद है । अगर विलक्षण रूप से ज्ञात होने पर भी वस्तुओं में भेद न मानें तो संसार से भेद और अभेद की बात ही उठ जाएगी । अयुत सिद्ध शब्द का अर्थ यह है कि जो अनेक वस्तुएँ परस्पर एक दूसरे को छोड़कर न रहें वे 'अयुत सिद्ध' हैं । (अयुत सिद्ध शब्द के ) इस प्रकार के अर्थ में सम्बन्ध की कोई अनुपपत्ति नहीं है । क्योंकि इस प्रकार के अयुतसिद्धों के स्वरूप
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देशप्रशस्तपादभाष्यम् एवं धम्मैर्विना धम्मिणामुद्देशः कृतः ।
इस प्रकार धर्मों को छोड़ कर केवल म्मियों के नामों का उल्लेख किया गया है।
न्यायकन्दली ननु किमर्थं षडेव पदार्था उद्दिष्टा नापरे ? तेषामेव भावात्, तदन्येषामभावाच्च । तदभावश्च सर्वैः प्रमाणैरनुपलभ्यमानत्वाच्छाविषाणवत् । षण्णां सामान्यलक्षणं विधिप्रत्ययविषयत्वम् । व्यावृत्तन्तु लक्षणम्-यथा गुणाश्रयो द्रव्यम् । सामान्यवानगुणः संयोगविभागयोरनपेक्षो न कारणं गुणः । एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागयोरनपेक्षकारणं कर्म । अनुवृत्तिप्रत्ययकारणं सामान्यम् । अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुविशेषः । अयुतसिद्धयोराश्रयाश्रयिभावः समवाय इति ।
अनुद्दिष्टेषु धम्मिधु धर्मा न शक्यन्ते वक्तुम्, अतो धर्माणामुद्देशं प्रक्रमयितुं सङ्गति प्रदर्शयति-एवमिति । एवं पूर्वोक्तेन ग्रन्थेन धर्मे विना भी भिन्न भिन्न हो सकते हैं । जैसे कि वह्नि और अयःपिण्ड का परस्पर सम्मिलन बिना संयोग रूप सम्बन्ध के असम्भव है, उसी प्रकार किन्हीं भी विभिन्न दो पदार्थों का बिना किसी सम्बन्ध के परस्पर सम्मिलन असम्भव है। अन्तर केवल इतना ही है कि उत्पन्न होने के बाद वह्नि अयःपिण्ड के साथ सम्बद्ध होता है, किन्तु समवाय का प्रतियोगी अपने कारणों के बल से अपने अनुयोगी में सम्बद्ध ही उत्पन्न होता है जैसे कि काटने की क्रिया काटे जानेवाली वस्तु के साथ सम्बद्ध ही उत्पन्न होती है । इस विषय में इतना ही विचार पर्याप्त है।
(प्र०) छः पदार्थों का ही प्रतिपादन क्यों किया ? और पदार्थों का क्यों नहीं? (उ०) इस लिए कि पदार्थ उतने ही हैं, उससे अधिक नहीं . इन छ: पदार्थों से भिन्न पदार्थों का अभाव इसलिए है कि वे किसी भी स्वीकृत प्रमाण से उपलब्ध नहीं हैं। जैसे कि खरहे की सींग। छः पदार्थों का सामान्य लक्षण यह है कि किती प्रतियोगी की अपेक्षा के बिना भावत्वरूप से ज्ञात होना । प्रत्येक पदार्थ का औरों में न रहनेवाला लक्षण इस प्रकार है-(१) गुणों का आश्रय द्रव्य है । (२) जो सामान्य (जाति) से युक्त हो, गुणों से सर्वथा रहित हो, संयोग और विभाग का स्वतन्त्र कारण न हो वही गुण है। (३) जो एक समय में एक ही द्रव्य में रहे, गुणों से सर्वथा शून्य हो, एवं संयोग और विभाग का स्वतन्त्र कारण हो वही कर्म है । (४) अपने विभिन्न आश्रयों में एकाकारता प्रतीतिरूप अनुवृत्तिप्रत्यय का कारण 'जाति' है। (५) अपने आश्रय में औरों से भिन्नत्व बुद्धिरूप व्यावृत्तिप्रत्यय का कारण 'विशेष' है। (६) अयुतसिद्धों के आधाराधेयभाव का नियामक सम्बन्ध 'समवाय' है।
___ जब तक धीं न कहे जाय तब तक उनके धर्म नहीं कहे जा सकते । अतः पदार्थों के उद्देश के बाद पदार्थ के धर्म अर्थात् साधर्म्य क्यों कहे गये ? इस प्रश्न का
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् षण्णामपि पदार्थानामस्तित्वाभिधेयत्वज्ञेयत्वानि । ( द्रव्यादि ) छहों पदार्थों का (१) अस्तित्व, (२) अभिधेयत्व और (३) ज्ञेयत्व ये तीन साधर्म्य हैं ।
न्यायकन्दली धर्मान् परित्यज्य धर्मिणामुद्देशः कृतः, धम्मिणां संज्ञामात्रेण सङ्कीर्तनं कृतमिदानी धर्मा उद्दिश्यन्त इति भावः। यद्यपि पूर्व द्रव्यादीनां विभागः कृतस्तथाप्युद्देशः कृत इत्युक्तम्, विभागस्य नामधेयसङ्कीर्त्तनमात्रेणोद्देशेऽन्तर्भावात् ।
यद्यपि धर्माः षट्पदार्थेभ्यो न व्यतिरिच्यन्ते, किन्तु त एव अन्योन्यापेक्षया धा धम्मिणश्च भवन्तीति । तथापि तेषां धम्मिरूपतया परिज्ञानार्थं पृथगुद्देशं करोति—षण्णामपीति। अस्तित्वं स्वरूपवत्त्वम्, षण्णामपि साधर्म्यम्, यस्य वस्तुनो यत् स्वरूपं तदेव तस्यास्तित्वम् । अभिधेयत्वमप्यभिधानप्रतिपादनयोग्यत्वम्, तच्च वस्तुनः स्वरूपमेव । भावस्वरूपमेवावस्थाभेदेन ज्ञेयत्वमभिधेयत्वञ्चोच्यते।
आश्रितत्वञ्च परतन्त्रतयोपलब्धिः, न समवायलक्षणा वृत्तिः, समवाये तदभावात् । इदञ्चाश्रितत्वं चतुर्विधेषु परमाणुषु आकाशकालसमाधान सङ्गति प्रदर्शन के द्वारा 'एवम्' इत्यादि पङ्क्ति से दिखलाते हैं। 'एवम्' पहिले कहे हुये सन्दर्भ से. 'धम्मॆविना' धर्मों को छोड़कर 'धम्मिणामुद्देशः कृतः' अर्थात् धर्मियों को ही केवल उनके नाम के द्वारा कहा है, अब उनके धर्मों को उनके नाम से कहते हैं । यद्यपि पहिले के ग्रन्थों से पदार्थों का विभाग भी किया है, फिर भी 'उद्देशः कृतः' यही वाक्य कहा है, क्योंकि नामों के द्वारा पदार्थों के कथन रूप उद्देश में ही विभाग का भी अन्तर्भाव हो जाता है।
यद्यपि ये धर्म भी इन छ: पदार्थों के ही अन्तर्गत हैं, तथापि वे ही यथासम्भव अपने में एक दूसरे के धर्म और धर्मी कहलाते हैं. फिर भी धर्मी रूप से उनको समझाने के लिए 'षण्णाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अलग से उनको कहते हैं। 'अस्तित्व' शब्द का अर्थ है 'स्वरूप', अर्थात् वस्तुओं का अपना असाधारण रूप ही अस्तित्व है। यह 'अस्तित्व' द्रव्याणि छहों पदार्थों में रहनेवाला धर्म है। 'अभिधेयत्व' शब्द का अर्थ है अभिधान, अर्थात् शब्द से कहे जाने की क्षमता, वह भी वस्तुओं का स्वरूप ही है। वस्तुओं का यह स्वरूप ही अवस्थाओं के भेद से अभिधेयत्व ज्ञयत्व प्रभृति शब्दों से कहा जाता है।
परतन्त्र रूप से ज्ञात होना ही 'आश्रितत्व' शब्द का अर्थ है। समवाय सम्बन्ध से कहीं रहना (आश्रितत्व शब्द का अर्थ) नहीं है, क्योंकि समवाय कहीं पर भी समवाय सम्बन्ध से नहीं रहता है। पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों पदार्थों के परमाणुओं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ साधर्म्यवैधH
प्रशस्तपादभाष्यम् आश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः । द्रव्यादीनां पञ्चानां समवायित्वमनेकत्वञ्च ।
नित्य द्रव्यों को छोड़कर और सभी पदार्थों का आश्रितत्व साधर्म्य है। ___ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पाँच पदार्थों के समवायित्व और अनेकत्व ये दो साधर्म्य हैं।
न्यायकन्दली दिगात्ममन:सु नास्तीत्याह–अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति ।
___ ये तु धर्मान् व्यतिरिक्तानिच्छन्ति तेषामेकस्मिन् समस्तवस्तुव्यापिन्यस्तीतिप्रत्ययहेतावस्तित्वे कल्पिते द्रव्यादिषु सत्तावैयर्थ्यम् । अथास्तित्वं प्रतिवस्तु भिद्यते तदा तत्कल्पनावैयर्थ्यम्, सत्तायाः स्वरूपसत्तायाश्च सदिति प्रत्ययोपपत्तेः। येषान्तु भावस्वरूपमेवास्तित्वं न तेषां व्यर्था सत्ता, स्वरूपस्यानुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वाभावात् । नाप्यस्तित्वमनर्थकं निःस्वरूपे सत्तायाः समवायाभावादित्युभयमुपपद्यते ।
द्रव्यादीनां विशेषान्तानां साधर्म्य साधयति । समवायित्वं समवायलक्षणा वृत्तिः । अनेकत्वं परस्परविभिन्नत्वमितरेतरव्यावृत्तं स्वरूपमेव । में, तथा आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन इन नौ निःय द्रव्यों में (इतने ही द्रव्य नित्य हैं) यह 'आभितत्व' नहीं है, अतः 'अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" यह वाक्य कहा गया है।
जो समुदाय व्यक्तिभेद से धर्मों को भिन्न ही मानना चाहते हैं (वे भी अनेक वस्तुओं में रहनेवाले और धर्मों को न भी मानें, किन्तु) सभी वस्तुओ में एक प्रकार की 'अस्ति' प्रतीति को उत्पन्न करनेवाला 'अस्तित्व' नाम का धर्म उन्हें भी मानना ही पड़ेगा, किन्तु ऐसा मानने पर द्रव्यादि तीन पदार्थों में ही सत्त्व प्रतीति के लिए सत्ता' जाति की कल्पना व्यर्थ हो जाएगी। अगर अस्तित्व धर्म को प्रतिव्यक्ति भिन्न मानें तो फिर इस प्रकार के अस्तित्व की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि सत्ता' जाति एवं तत्तद्वयक्तिगत तद्वयक्तित्व (रूप स्वरूपसत्ता) से ही 'सत्प्रतीति' उपपन्न हो जाएगी। जो कोई ‘अस्तित्व' को वस्तुओं का स्वरूप ही मानते हैं, उनके मत में भी 'सत्ता' जाति की कल्पना व्यर्थ नहीं है, क्योंकि (बिना सत्ता जाति माने) भिन्न रूप से प्रतीत होनेवाले द्रव्यादि तीन पदार्थों में एक आकार की सत्त्व की प्रतीति नहीं हो सकेगी। अस्तित्व की कल्पना भी व्यर्थ नहीं है, क्योंकि अपने अपने व्यक्तिगत स्वरूप (अस्तित्व) से शून्य वस्तुओं में सत्ता जाति का समवाय भो सम्भव नहीं है, अतः सत्ता जाति और सभी प्रकार की वस्तुओं में 'अस्ति' प्रतीति का कारण अस्तित्व, इन दोनों को ही मानना आवश्यक है। - द्रव्य से लेकर विशेष तक के पांच पदार्थों के साधर्म्य का उपपादन करते हैं । 'समवायित्व' शब्द का अर्थ है समवाय रूप सम्बन्ध, (अर्थात्) समवाय सम्बन्ध से कहीं
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प्रशस्तपादभाष्यम्
गुणादीनां पञ्चानामपि निर्गुणत्वनिष्क्रियत्वे । द्रव्यादीनां त्रयाणामपि सत्तासम्बन्धः, सामान्य विशेषगुण से लेकर समवाय तक अर्थात् गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन पाँच पदार्थों के निर्गुणत्व और निष्क्रियत्व साधर्म्य हैं ।
द्रव्यादि तीन वस्तुओं के अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीन पदार्थों के ये पाँच साधर्म्य हैं- ( १ ) सत्ता का सम्बन्ध, ( २ ) सामन्यवत्त्व, ( ३ ) विशेषवत्त्व (अर्थात् पर और अपर दोनों जातियों का सम्बन्ध ), ( ४ ) इस शास्त्र के सङ्केत न्यायकन्दली
૪૨
द्रव्यादीनामित्युक्ते समवायोऽपि गृह्येत, तदर्थं पञ्चानामित्युक्तम् । पञ्चानामित्युक्ते च केषामिति न ज्ञायते तदर्थं द्रव्यादीनामिति ।
गुणादीनां समवायान्तानां साधर्म्यमाह - गुणादीनामिति । निर्गुणत्वं गुणाभावविशिष्टत्वम्, निष्क्रियत्वं क्रियाभावविशिष्टत्वम्, यथा भावोऽभावस्य विशेषणं स्वविशिष्टप्रत्ययजननादेवमभावोऽपि । तथा चोपनिबद्धमघटं भूतलमिति । भावाभावयोरसम्बन्धात् कथमभावो विशेषणमिति चेदस्ति तावदयं विशिष्ट - प्रत्ययः, तद्दर्शनात् सम्बन्धमपि कल्पयिष्यामः । यदि सम्बद्धमेव विशेषणं मन्यसे ।
रहना । 'अनेकत्व' शब्द का अर्थ है विभिन्नत्व वह परस्पर एक दूसरे में न रहनेवाला उन वस्तुओं का स्वरूप ही है । 'द्रव्यादीनाम् ' केवल इतना कह देने से समवाय का भी ग्रहण हो जाता, अतः 'पञ्चानाम्' यह पद है । केवल 'पञ्चानाम्' इतना ही कहने से 'कौन पाँच' यह समझ में नहीं आता, अतः द्रव्यादीनाम्' यह पद है ।
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'गुणादीनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से गुण से लेकर समवाय तक के पाँच पदार्थों का साधर्म्य कहते हैं । 'निर्गुणत्व' शब्द का अर्थ है गुणों का अभाव और 'निष्क्रियत्व' शब्द का अर्थ है क्रियाओं का अभाव । जिस प्रकार भाव' अपने से युक्त अभाव प्रतीति का जनक होने से अभाव का विशेषण होता है, उसी प्रकार एवं उसी हेतु से अभाव भी भाव का विशेषण हो सकता है । एवं उसी के अनुकूल 'अघटं भूतलम्' इत्यादि विशिष्टप्रतीति के जनक प्रयोग भी होते हैं । (प्र०) भाव और अभाव दोनों ही परस्पर विरोधी हैं, अतः उन दोनों में परस्पर सम्बन्ध असम्भव है, एवं दोनों में परस्पर सम्बन्ध न रहने से विशेष्य विशेषणभाव सुतराम् असम्भव है । (उ० ) उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि भाव विशिष्ट अभाव की, एवं अभाव विशिष्ट भाव की दोनों ही प्रतीतियाँ अवश्य हैं। अगर परस्पर सम्बद्ध दो वस्तुओं में से ही एक को विशेष्य और दूसरे को विशेषण मानना हो तो फिर उक्त विशिष्ट प्रतीतियों के बल से भाव और अभाव इन दोनों में भी किसी अनुकूल सम्बन्ध की कल्पना करनी ही पड़ेगी ।
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[ साधम्यंवैधर्म्य
ववम्, स्वसमार्थशब्दाभिधेयत्वम्, धर्माधर्मकत्वञ्च ।
८
रूप अभिवावृत्ति के द्वारा 'अर्थ' शब्द के द्वारा समझा जाना और ( ५ ) धम्र्मा -
धर्म्मकर्तृत्व ।
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न्यायकन्दली
सबन्ध:
द्रव्यादीनां त्रयाणां सत्तासम्बन्धः सत्तया सामान्येन समवायरूपो द्रव्यगुणकर्म्मणां साधर्म्यम् । यथा चैतेषु सत्तासम्बन्धस्तथोपपादितम् । इदन्त्विह निरूप्यते - कि सत्तासम्बन्धः सतोऽसतो वा ? सतश्चेत् प्राक् सत्तासम्बन्धात् नेवासावर्थ इति व्यर्था सत्ता ? अथासतः सम्बन्धः ? खरविषाणादिष्वपि सत्ता स्यात् । नित्येषु तावत्पूर्वापरभावानभ्युपगमः । अनित्येषु प्रागसत एव सत्ता, कारणसामर्थ्यात् । न च खरविषाणादिष्वतिप्रसङ्गः, तदुत्पत्तौ कस्यचित् सामर्थ्याभावात् ।
अन्यदपि साधर्म्यं द्रव्यादीनां त्रयाणां कथयति - सामान्यविशेषवत्त्वञ्चेति । अनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्यविशेषा द्रव्यत्वादयस्तः सह सम्बन्धो द्रव्यादीनाम्, स च समवाय एव ।
" द्रव्यादीनां त्रयाणां सत्तासम्बन्धः" अर्थात् सत्ता नाम की जाति के साथ समवाय नाम का सम्बन्ध द्रव्य, गुण और कर्म्म इन तीनों का साधर्म्य है । इन तीनों में सत्ता जाति का सम्बन्ध किस प्रकार है ? यह कह चुके हैं (प्र०) अब यहाँ विचार करना है कि सत्ता जाति 'सत्' अर्थात् पहिले से विद्यमान वस्तुओं के साथ सम्बद्ध होती है ? या असद्वस्तुओं के साथ ? अगर सत्ता सद्वस्तुओं के साथ सम्बद्ध होती है तो फिर सत्ता जाति की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि सत्ता सम्बन्ध के बिना भी वे सत् हैं ही। अगर असत् वस्तुओं के साथ सत्ता सम्बद्ध होती है तो फिर गदहे के सींग प्रभृति पदार्थों को भी सत्ता माननी पड़ेगी । ( उ० ) नित्य वस्तुओं में तो पहिले पीछे की कोई बात ही नहीं उठती है । अनित्य वस्तुओं के प्रसङ्ग में यह कहना है कि पहिले से अविद्यमान वस्तुओं के साथ ही कारणों के (विशिष्ट) बल से सत्ता सम्बद्ध होती है । गदहे के सींग प्रभृति अलीक पदार्थों की आपत्ति का भी प्रसङ्ग नहीं आता है, क्योंकि किसी भी वस्तु में उनके उत्पादन का बल ही नहीं है । 'सामान्यविशेषवत्त्वश्व' इत्यादि से द्रव्यादि तोन पदार्थों के और भी साधर्म्य कहते हैं । द्रव्यत्वादि जातियाँ अपने विभिन्न आश्रयों में 'द्रव्यम्' इस एक आकार की ( अनुवृत्ति) बुद्धि का कारण होने से 'सामान्य' हैं एवं अपने आश्रयों को औरों से भिन्न रूप में समझाने के कारण 'विशेष' भी हैं । सामान्य एवं विशेष इन दोनों शब्दों से समझी जानेवाली द्रव्यत्वादि जातियों के साथ द्रव्यत्वादि तीनों वस्तुओं का सम्बन्ध है । वह सम्बन्ध समवाय ही है ।
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४५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्वञ्चेति । वैशेषिकैः स्वयं व्यवहाराय यः सङ्केतः कृतोऽस्मिन् शास्त्रे 'अर्थशब्दाद् द्रव्यगुणकर्माणि प्रतिपत्तव्यानि' इति, तेन द्रव्यादीनि त्रीणि निरुपपदेनार्थशब्देनोच्यन्ते ।
धर्माधर्मकर्तृत्वञ्चेति । धर्माधर्मोत्पत्तिनिमित्तत्वं त्रयाणाम्, यथा हि भूमिरेकैव दीयमानापह्रियमाणा च धर्माधर्मयोः कारणम् । एकः संयोगो द्वयोः कारणम्, यथा कपिलास्पर्शो नरास्थिस्पर्शश्च । एवं कर्माप्युभयकारणम्, यथा तीर्थगमनं शौण्डिकगृहगमनञ्च, एवमन्यदप्यूह्यम् । धर्माधर्मकर्तृत्वमिति त्वप्रत्ययेन धर्माधर्मजननं प्रति तेषां निजा शक्तिरुच्यते । ननु जातिरपि तयोः कारणम् ? न, तस्याः स्वाश्रयव्यवच्छेदमात्रेण चरितार्थत्वात् ।
स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्वञ्च' अर्थात् वैशेषिक शास्त्र के आचार्यों ने सङ्केत किया है कि 'अर्थ' शब्द से द्रव्यादि न समझे जायें। इस सङ्केत के बल से विशेषण से शून्य केवल 'अर्थ' शब्द से द्रव्यादि तीन ही समझे जाते हैं। (इस प्रकार वैशेषिक शास्त्र के सङ्केत सम्बन्ध से 'अर्थ' शब्दवत्ता द्रव्यादि तीन पदार्थों में है), अत: स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्व द्रव्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य है ।
__ 'धर्माधर्मकतत्वञ्च' अर्थात् द्रव्यादि तीनों पदार्थों में धर्म और अधर्म दोनों की कारणता है, एक ही भूमि जब किसी को दी जाती है, तब वह धर्म का कारण होती है, वही भूमि जब किसी से छीनी जाती है, तब अधर्म का कारण होती है-इसी तरह कपिला गो का स्पर्श (गुण) धर्म का एवं मनुष्य की अस्थि का स्पर्श (गुण) अधर्म का कारण है। इसी प्रकार तीर्थगमन क्रिया से धर्म और मद्य बेचनेवाले के गृह में जाने की क्रिया से अधर्म होता है। इसी प्रकार और स्थलों में भी कल्पना करनी चाहिए । 'धर्माधर्मकत्त त्वञ्च' इस वाक्य में प्रयुक्त 'त्व' प्रत्यय से द्रव्यादि तीनों वस्तुओं में धर्म और अधर्म के उत्पादन करने की अपनी शक्ति कही गई है। (प्र०) जाति भी तो उन दोनों का कारण है ? (उ०) जाति धर्म और अधर्म का कारण नहीं है, क्योंकि वह अपने आश्रय को विजातीय वस्तुओं से भिन्न समझाकर ही चरितार्थ हो जाती है, (अर्थात् ) उक्त शब्द से धर्म और अधर्म का साक्षात् कारणत्व ही विवक्षित है, ( उक्त धर्माधर्म ) के तो ब्राह्मणादि व्यक्ति ही कारण हैं। जाति का काम वहाँ इतना ही है कि ब्राह्मणादि से भिन्नजातीय व्यक्तियों से प्रकृत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति का प्रतिषेध करे, अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है।
१. प्रश्न का अभिप्राय है कि द्रव्यादि तीनों पदार्थों की तरह जाति भी धर्म और अधर्म का कारण है, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए विहित क्रिया के अनुष्ठान से क्षत्रि
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न्यायकन्दलीसंघलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[साधर्म्यवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम् कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव । कारणों से उत्पन्न पदार्थों के कार्यत्व और अनित्यत्व ये दो साधर्म्य हैं।
__ न्यायकन्दली कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव । येषां द्रव्यादीनामुत्पत्तिकारणमस्ति तेषां कार्यत्वमनित्यत्वञ्च धर्मो न सर्वेषामित्यर्थः । स्वकारणे समवायः, प्रागसतः सत्तासमवायो वा कार्यात्वमित्येके । तदयुक्तम्, प्रध्वंसे तदभावात् । तस्मात् कारणाधीनः स्वात्मलाभः कार्यत्वमिति लक्षणम्, व्यापकत्वात् । प्राक्प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुनः सत्तैवानित्यत्वमिति केचित् । तदयुक्तम्, अप्रतीतेः । अनित्य इति विनाशीत्येवं लोक: प्रत्येति, न तु सत्ताविशिष्टताम् । उत्पत्तिविनाशयोगित्वमित्यपरः । तदप्यसारम्, प्रागभावे उत्पत्तेरभावात्, तस्याप्यनित्यत्वेन लोके सम्प्रतिपत्तेः । तस्मात् स्वरूपविनाश एवानित्यत्वमिति । यथोक्तम्-"अनित्यत्वं विनाशाख्या क्रियासामान्यमुच्यते" इति।
'कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव' अभिप्राय यह है कि कारणों से जिन द्रव्यादि वस्तुओं की उत्पत्ति होती है: कारणत्व और अनित्यत्व उन्हीं पदार्थों के साधर्म्य हैं, सभी पदार्थों के नहीं। कोई कहते हैं कि (प्र.) कारणों में कार्यों का समवाय ही उनका 'कार्यत्व' है या पहिले से अविद्यमान कार्यों में 'सत्ता' (जाति) का समवाय सम्बन्ध ही 'कार्य्यत्व' है। (उ.) किन्तु ये दोनों ही पक्ष अयुक्त हैं, क्योंकि ध्वंसात्मक कार्य में इन दोनों में से एक प्रकार का भी कार्यत्व नहीं है, अतः कार्यत्व लक्षण के सभी लक्ष्यों में रहने के कारण “कारणों से अपने स्वरूप का लाभ हो” कार्यत्व का लक्षण है। कोई कहते हैं कि (प्र०) जिन वस्तुओं का कभी प्रागभाव रहे और कभी जिनका ध्वंस भी हो उनमें रहनेवाली 'सत्ता' ही 'अनित्यत्व' है। (उ.) किन्तु यह असङ्गत है, क्योंकि अनित्यत्व की प्रतीति इस आकार को नहीं होती है। 'अनित्यत्व' शब्द से विनाशशीलत्व की ही प्रतीति होती है, किसी प्रकार की सत्ता की नहीं। (प्र.) कोई कहते हैं कि उत्पत्ति और विनाश दोनों का सम्बन्ध ही 'अनित्यत्व' है। (उ० ) किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागभाव में अनित्यत्व की सार्वजनीन अबाधित प्रतीति होती है, किन्तु उसमें उत्पत्ति का सम्बन्ध नहीं है। अतः वस्तुओं के स्वरूप का नाश ही अनित्यत्व है। जैसा कहा भी है कि विनाश नाम की सामान्य क्रिया ही 'अनित्यत्व' शब्द से कही जाती है । (प्र०) यद्यपि वस्तुओं की वर्तमान यादि को पुण्य नहीं होता, एवं ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध सुरापानादि से शूद्रादि को अधर्म नहीं होता, अतः यह कथन असङ्गत है कि उक्त धर्माधर्मकत्तत्व केवल व्रव्यादि तीन के ही साधर्म्य हैं।
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४७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् कारणत्वञ्चान्यत्र पारिमाण्डल्यादिभ्यः ।
पारिमाण्डल्य प्रभृति पदार्थो को छोड़कर और सभी पदार्थों का कारणत्व साधर्म्य है।
न्यायकन्दली यद्यपि विनाशो वस्तुकाले नास्ति, तथापि प्रमाणान्तरसिद्धसद्भावो भवत्येव विशेषणम्, अनित्यो घट इति प्रत्येतुरेकत्वात् । तथा लोके विनाशि शरीरमध्रुवा विषया इति ।
कारणत्वञ्चान्यत्र पारिमाण्डल्यादिभ्य इति । पारिमाण्डल्यमिति परमाणुपरिमाणम्, आदिशब्दाद् द्वयणुकपरिमाणम्, आकाशकालदिगात्मनां विभुत्वमन्त्यशब्दमनःपरिमाणं परत्वापरत्वे द्विपृथक्त्वमन्त्यावयविपरिमाणञ्चेत्यादि दशा में विनाश नहीं रहता है । ( उ० ) तथापि जिसकी सत्ता प्रमाण सिद्ध से है, वह भी अवश्य विशेषण ही होता है। साधारण जनों को भी इस प्रकार की स्वारसिक प्रतीतियाँ होती हैं कि शरीर विनाशशील है, सभी वस्तु चिरकाल तक रहनेवाली नहीं हैं।
'पारिमाण्डल्य' शब्द का अर्थ है परमाणुओं का परिमाण । (पारिमाण्डल्यादि पद में प्रयुक्त ) 'आदि' पद से आकाश काल, दिशा और आत्मा इन चार पदार्थों का 'विभुत्व' अर्थात् परममहत्परिमाण अन्तिम शब्द मन का परिमाण तथा उसी का परत्व और अपरत्व, द्विपृथक्त्व, अन्त्यावयवी द्रव्य (जो अवयवी किसी दूसरे अवयवी का अवयव न हो. जैसे घट ) का परिमाण, ये सभी अभिप्रेत हैं। इनसे भिन्न द्रव्यादि तीन
१. पूर्वपक्षी का आशय है कि विनाश ही अगर अनित्यत्व हो तो 'घटोऽनित्यः' इस प्रकार की विशिष्ट प्रमाबुद्धि नहीं होगी, क्योंकि विशिष्ट प्रमा के लिए विशेष्य में विशेषण का रहना आवश्यक है। जब तक घटरूप विशेष्य रहेगा, तब तक उसमें विनाशरूप अनित्यत्व नहीं रहे। और जब घट विनष्ट हो जाएगा, तब अनित्यत्वरूप विशेषण रहेगा कहाँ ? सुतर.म् चूंकि विद्यमान वस्तु और विनाश दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः उनमें विशेष्यविशेषणभाव नहीं हो सकता।
२. इस समाधान ग्रन्थ का आशय है कि विशेष्यविशेषणभाव के लिए दोनों का एक समय में रहना आवश्यक नहीं है, केवल इतना ही आवश्यक है कि दोनों प्रमाणसिद्ध हों एवं परस्पर सम्बद्ध हों। इसका भी कोई बन्धन नहीं है कि वह सम्बन्ध आधाराधेयभाव का नियामक ही हो । अतः 'घटो विनष्टः' इत्यादि विशिष्ट प्रतीति के अनुरोध से घट और विनाश में भी प्रतियोगित्वादि सम्बन्ध की कल्पना करेंगे। अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [साधयंवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः ।
नित्य द्रव्यों को छोड़कर और सभी पदार्थो का द्रव्य में आश्रित रहना साधर्म्य है।
न्यायकन्दली ग्राह्यम् । एतानि परित्यज्यापरेषां द्रव्यादीनां त्रयाणां कारणत्वं समवाय्यसमवायिकारणत्वम् । यद्यपि द्रव्यस्य नासमवायिकारणत्वम्, न च समवायिकारणत्वं गुणकर्मणोः, तथापि निमित्तकारणविलक्षणतयेदं साधर्म्यमुक्तम् । __द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति । नन्वाश्रितत्वं षण्णामित्युक्तं तेनेदं पुनरुक्तम् ? न पुनरुक्तम्, द्रव्योपलक्षितस्याश्रितत्वस्यात्र विवक्षितत्वादिति कश्चिद् । तदयुक्तम्, सामान्यादीनामपि द्रव्योपलक्षितस्याश्रितत्वस्य सम्भवान्नेदं द्रव्यादित्रयसाधर्म्यकथनं स्यात् । तस्मादित्थं व्याख्येयम् । अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति द्रव्यग्रहणमुपलक्षणम्, तद्वत्तयोऽन्त्या विशेषास्तेऽपि गृह्यन्ते। नित्यद्रव्याणि तद्गतांश्च विशेषान् परित्यज्य द्रव्य एवाश्रितत्वं द्रव्यादीनां त्रयाणां साधयं नापरेषामित्यर्थः । पदार्थों का कारणत्व' साधर्म्य है। यहाँ कारणत्व शब्द से समवायिकारणत्व और असमवायिकारणत्व ही इष्ट है । यद्यपि द्रव्यों में असमवायिकारणत्व नहीं है, एवं गुण और कर्म में समवायिकारणत्व नहीं है, किन्तु यहाँ 'क रणत्व' शब्द से 'निमित्तकारणभिन्न कारणत्व' रूप साधर्म्य ही विवक्षित है। (यह साधर्म्य द्रव्यादि तीनों वस्तुओं में समान रूप से है)।
"द्रव्याश्रितत्वञ्चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः"। (प्र०) पहिले कह चुके हैं कि आश्रितत्व (नित्य द्रव्यों को छोड़कर) छः पदार्थों का साधर्म्य है। फिर वही बात कहते हैं, अतः इसमें पुनरुक्ति दोष है। (उ०) इस दोष का परिहार कोई इस प्रकार करते हैं कि पहिले केवल 'आश्रितत्व' साधर्म्य का उल्लेख है, अब 'द्रव्या-ितत्व' साधर्म्य कहते हैं। दोनों में कुछ अन्तर अवश्य है, अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। किन्तु यह समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि यह द्रव्यादि तीन वस्तुओं के साधर्म्य का प्रकरण है, अतः द्रव्याश्रितत्व रूप प्रकृत साधयं सामान्यादि पदार्थों में अतिप्रसक्त होगा, इसलिए प्रकृत पङ्क्ति की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए कि प्रकृत 'अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः" इस वाक्य में प्रयुक्त द्रव्य' पद उपलक्षण है ('द्रव्याश्रितत्व' शब्द का अर्थ है, द्रव्यरूप समवायिका रण से उत्पन्न होना, तदनुसार) नित्य द्रव्य और उनमें रहनेवाले 'विशेष' अर्थात् नित्य गुणों को छोड़कर द्रव्यादि तीन वस्तुओं का (फलतः अनित्य द्रव्य, अनित्य गुण और कर्म इन तीन वस्तुओं का) 'द्रव्याभितत्व' अर्थात् द्रव्यरूप समवायिकारण से उत्पन्न होना साधर्म्य है, औरो का नहीं।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
सामान्यादीनां त्रयाणां स्वात्मसत्वं बुद्धिलक्षणत्वमकार्यत्वमकारणत्वमसामान्यविशेषवत्वं नित्यत्वमर्थशब्दानभिधेयत्वश्चेति ।
सामान्य प्रभृति तीन पदार्थों का अर्थात् सामान्य, विशेष, और समवाय इन तीन पदार्थों का 'स्वात्मसत्त्व' अर्थात् सत्ता जाति के बिना सत्ता, बुद्धिलक्षणत्व, अकार्यत्व, अकारणत्व, असामान्यविशेषवत्त्व, नित्यत्व और 'अर्थ' शब्द का अभिधेय न होना ये सात साधर्म्य हैं ।
न्यायकन्दली
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જા
सम्प्रति सामान्यादीनां साधर्म्यमाह - सामान्यादीनामिति । स्वात्मैव सत्त्वं स्वरूपं यत्सामान्यादीनां तदेव तेषां सत्त्वम्, न सत्तायोगः सत्त्वम् । एतेन सामान्यादीनां त्रयाणां सामान्यरहितत्वं साधर्म्य मुक्तमित्यर्थः । कथमेतत् ? बाधकसद्भावात्, सामान्ये सत्ता नास्ति, अनिष्टप्रसङ्गात् । विशेषेष्वपि सामान्यसद्भावे संशयस्यापि सम्भवात् । निर्णयार्थं विशेषानुसरणेऽप्यनवस्थैव । समवायेऽपि सत्ताभ्युपगमे तद्वृत्त्यर्थं समवायाभ्युपगमादनिष्टापत्तिरेव दूषणम् । गोत्वादिष्वपरजातिमत्त्वेन व्याप्तस्य सत्तासम्बन्धस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तिसिद्धिः । कुतस्तहि सामान्यादिषु सत्सदित्यनुगमः ? स्वरूप सत्त्वसाधर्म्येण सत्ताध्यारो
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द्रव्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कहकर अब 'सामान्यादीनाम्' इत्यादि से सामान्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कहते हैं । अर्थात् सामान्यादि का 'आत्मा' अर्थात् स्वरूप ही 'सत्त्व' है । (द्रव्यादि तीनों की तरह) सत्ता जाति का सम्बन्ध उनकी 'सत्ता' नहीं है । इससे सत्ता जाति से रहित होना सामान्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कथित होता है । ( प्र ० ) सामान्यादि में सत्ता क्यों नहीं है ? ( उ० ) सामान्यादि तीन पदार्थों में सत्ता मानने में यह बाधा है कि इससे 'अनवस्था' होगी । विशेषों में भी अगर सामान्य की सत्ता मानें तो वहीं संशय हो सकता है कि ये विशेष एकजातीय हैं या विभिन्न जातीय ? और तब फिर सभी नित्य द्रव्यों में यह संशय होगा । निश्चय करने के लिए अगर और विशेष निश्चयों के पीछे दौड़ेंगे तो अनवस्था होगी। समवाय में अगर सत्ता जाति मानेंगे तो उसके सम्बन्ध के लिये दूसरे समवाय की कल्पना करनी पड़ेगी । इस प्रकार इसमें भी अनवस्था होगी । और भी बात है, जहाँ जहाँ सत्ता जाति रहती है, उन सभी स्थानों में गोत्वादि अपर जातियों में से भी कोई जाति अवश्य ही रहती है । सत्ता और गोवादि अपर जातियों की यह व्याप्ति गोप्रभृति वस्तुओं में सिद्ध है । सामान्यादि में कोई भी अपरजाति नहीं है अतः सत्ता जाति भी उनमें नहीं है । (प्र०) फिर सामान्यादि में 'ये सत् हैं' इस प्रकार की प्रतीति क्यों होती है ? ( उ० ) सामान्यादि में रहनेवाली 'स्वरूपसत्ता' और सत्ता जाति इन दोनों के सादृश्य से सामान्यादि पदार्थों में सत्ता जाति का आरोप
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[साधर्मवैधयं
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
पात् । तहि मिथ्याप्रत्ययोऽयम् ? को नामाह नेति । भिन्नस्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्येव, स्वरूपग्रहणन्तु न मृषा, स्वरूपस्य यथार्थत्वात् । द्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारोपकृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः ? नैवम्, सति मुख्येऽध्यारोपस्यासम्भवात् । न चेयं सामान्यादिष्वेव मुख्या, बाधकसम्भवाद् द्रव्यादिषु च तदभावात् ।
बुद्धिलक्षणत्वमिति । बुद्धिरेव लक्षणं प्रमाणं येषां ते बुद्धिलक्षणाः, विप्रतिपन्नसामान्यादिसद्भावे बुद्धिरेव लक्षणं नान्यत्, द्रव्यादिसद्भावे त्वन्यदपि तत्कायं प्रमाणं स्यादित्यर्थः । कश्चित् पुनरेवमाह-बुद्धया लक्ष्यन्ते प्रतीयन्त इति बुद्धिलक्षणा: । तदयुक्तम्, द्रव्यादेरपि स्वबुद्धिलक्षणत्वान्नेदं वैधर्म्यमुक्तं स्यात् । होता है । इसी आरोप से सामान्यादि पदार्थों में भी एक प्रकार की - सत् है' इस आकार की प्रतीति होती है। (प्र.) तो फिर सामान्यादि में उक्त एक आकार की सत्त्व की प्रतीति भ्रमरूप है ? (उ०) कौन कहता है कि भ्रम रूप नहीं है ? भिन्न स्वभाव की वस्तुओं में एक आकार की प्रतीति अवश्य ही भ्रम है। किन्तु उनके स्वरूपों का ज्ञान यथार्थ ही है, क्योंकि वे उन में ठीक ही हैं । (प्र०) फिर द्रव्यादि तीनों पदार्थों में भी (सामान्यादि की तरह) स्वरूपसत्त्व के आरोप से सत्ता की एक आकार की प्रतीति को भी मिथ्या क्यों नहीं मान लेते ? (उ०) इस लिए कि मुख्य प्रतीति के सम्भव होने पर आरोप मानना अनुचित है । यह भी सम्भव नहीं है कि सामान्यादि में ही सत्त्व को एक आकार की प्रतीति को ही मुख्य मान लें, क्योंकि ऐसा मानने में अनास्था आ जाती है। द्रव्यादि तीनों पदार्थों में सत्त्व की एक आकार की प्रतीति को मुख्य मानने में इस प्रकार की कोई बाधा नहीं है।
'बुद्धिलक्षणत्वम्', "बुद्धिरेव लक्षणं प्रमाणं येषां ते बुद्धिलक्षणा:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार बुद्धि ही जिनका प्रमाण है, वे ही बुद्धि लक्षण कहे जाते हैं । अभिप्राय · यह है कि द्रव्यादि के प्रसङ्ग में विरुद्ध मत रखनेवालों को द्रव्यादि के कर्यों से भी समझाया जा सकता है । किन्तु सामान्यादि के प्रसङ्ग में विरुद्धमत रखनेवालों को समझाने के लिए बुद्धि ही एक अवलम्ब है। (प्र०) किसी सम्प्रदाय के व्यक्ति 'बुद्धधा लक्ष्यन्ते प्रतीयन्ते इति बुद्धिलक्षणा:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत बुद्धिलक्षण' शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि “जो बुद्धि से ही प्रतीत हों वे ही बुद्धिलक्षण हैं" । (उ०) किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार का बुद्धिलक्षणत्व तो द्रव्यादि में भी है, फिर यह 'बुद्धिलक्षणत्व' रूप सामान्यादि तीन पदार्थों के साधर्म्य को द्रव्यादि पदार्थों का वैधर्म्य कहना सम्भव न होगा।
१. अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के आदि में पदार्थ एवं उनके साधर्म्यवैधयं के निरूपण की प्रतिज्ञा कर चुके हैं । उसके बाद पदार्थ एवं उनके साधयों का विस्तार से निरूपण
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प्रकरणम् ]
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भावानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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५१
अकार्यत्वं कारणानपेक्षस्वभावत्वम्, तच्च सामान्ये तावद् व्यक्तेः पूर्वमूर्ध्वं व्यक्तिकाले चावस्थितिग्राहकेण कारणाभावोपलब्धिसहकारिणा भूयो - दर्शनजसंस्कारानुगृहीतेन प्रत्यक्षेणैव व्याप्तिवद् गृह्यते । समवायस्याप्य कार्य्य त्वं पूर्वापर सहभावानवक्लृप्तेः, यदि हि पटस्य समवायः पटात् पूर्वं सम्भवति, असति
अकार्यत्व शब्द का अर्थ है अपनी (स्वरूप) सत्ता के लिए कारणों की अपेक्षा न रखना । सामान्यादि के आश्रय द्रव्यादि व्यक्तियों में तीनों कालों में ही सामान्य की सत्ता के ज्ञापक एवं सामान्यादि के कारणों के अभावज्ञान का सहायक तथा बार बार के देखने से उत्पन्न संस्कार के द्वारा विशेष बलप्राप्त प्रत्यक्ष के द्वारा ही व्याप्ति की तरह इस अकार्यत्व का ज्ञान होता है । समवाय में भी अकार्यत्व है ही, क्योंकि समवाय को कार्य मानने की कोई रीति उपपन्न नहीं होती है । समवाय को अगर कार्य मानें तो फिर उसकी
८
किया है । वैधर्म्यनिरूपण के लिए साधर्म्यनिरूपण के अन्त में लिखा है कि "एवं सर्वत्र साधर्म्य विपर्ययाच्च वैधर्म्यम्" अर्थात् इस प्रकार ये साधर्म्य हैं और ( ये ही साधर्म्य ) उनसे भिन्न वस्तुओं न रहने के कारण उनके वैधर्म्य हैं। तदनुसार 'सामान्यादीनाम्" इत्यादि प्रकृत पक्ति का एक यह भी अर्थ मानना पड़ेगा कि 'ये सभी स्वात्मसत्त्वादि तोन पदार्थों से भिन्न पदार्थों के वैधर्म्य भी हैं । अगर बुद्धिलक्षणत्व शब्द को ऐसी व्याख्या करें जिसके अनुसार यह द्रव्यादि में भी रह सके तो फिर प्रकृत पङ्क्ति से उक्त वैधर्म्य का आक्षेप सम्भव न हो सकेगा ।
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१. अभिप्राय यह है कि एक घट व्यक्ति की उत्पत्ति के पहिले भी उससे पहिले के घट में घटत्व की प्रतीति होती है । एवं एक घट व्यक्ति के नष्ट हो जानेपर भी दूसरे अविनष्ट घट में घटत्व की प्रतीति होती है। वर्तमान घट में घटत्व की प्रतीति में तो कोई विवाद ही नहीं है, अतः यह समझते हैं कि व्यक्ति के तीनों कालों में ही जाति की सत्ता रहती है। ऐसी स्थिति में सामान्य को अगर किसी कारण का कार्य माने तो वह कारण उसके आश्रयीभूत व्यक्तियों के कारणों में से ही होगा या उसके सदृश ही कोई दूसरा होगा, किन्तु किसी भी प्रकार से सामान्य में कार्यत्व मान लेने से उसकी उक्त त्रैकालिक प्रतीति की उपपत्ति नहीं होगी, अतः उक्त त्रैकालिक प्रतोति के कारणभूत प्रमाणों से ही यह भी समझते हैं कि सामान्यादि का कोई कारण नहीं है, अतः जिस प्रकार धूम और वह्नि के सामानाधिकरण्य के भूयोदर्शनजनितसंस्कार से युक्त पुरुष को धूम को देखते हो उसकी व्याप्ति भी दीखती है, उसी प्रकार व्यक्तियों में सामान्य का होते ही उसी प्रत्यक्ष प्रमाण से उसमें रहनेवाले अकार्यत्व का भी ज्ञान हो जाता है ।
प्रत्यक्ष
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[साधयंवैधयं
न्यायकन्दली
सम्बन्धिनि कस्यासौ सम्बन्धः स्याद् । अथ पटेन सहोत्पद्यते, तदा पटस्यानाधारत्वं प्राप्नोति । अथ पश्चाद्भवति, तथापि पटस्यानाधारत्वमेव, न च कार्यत्वमनाधारं युक्तम्, तस्मादकृतकः समवायः । विशेषाणाञ्चाकार्यत्वं वस्तुत्वे सति द्रव्यगुणकर्मान्यत्वात् सामान्यसमवायवत् सिद्धम् ।
अकारणत्वं समवाय्यसमवायिकारणत्वाभावः, न तु निमित्तकारणत्वप्रतिषेधः, बुद्धि निमित्तत्वाभ्युपगमाद् । असामान्यविशेषवत्त्वम् अपरजातिरहितत्वमित्यर्थः । सामान्येषु सामान्यन्नाम नापरं सामान्यमस्ति, अत्रापि सामान्यप्राप्त्याऽनवस्थानात् । विशेषसमवाययोस्तु सामान्याभावे कथित एव निम्नलिखित तीन ही गति हो सकती है कि (१) समवाय अपने पटादिरूप प्रतियोगी से पूर्व ही उत्पन्न हो, या (२) अपने प्रतियोगी से पीछे उत्पन्न हो (३) अथवा प्रतियोगी के साथ ही उत्पन्न हो । किन्तु इनमें से कोई भी प्रकार सम्भव नहीं है, (१) क्योंकि सम्बन्ध बिना प्रतियोगी के नहीं होता है । अगर समवाय की उत्पत्ति से पूर्व पट की सत्ता नहीं रहेगी तो फिर पट से पूर्व उत्पन्न वह समवाय किसका सम्बन्ध होगा ? अतः समवाय अपने पटादि प्रतियोगियों के पहिले उत्पन्न नहीं हो सकता। (२) समवाय अपने पटादि प्रतियोगियों के साथ साथ भी उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि इससे पटादि कार्य समवाय के आधार ही नहीं हो सकते, क्योंकि आधार को आधेय से पूर्व रहना आवश्यक है। सुतराम् एक ही क्षण में उत्पन्न दो वस्तुओं में आधाराधेय भाव असम्भव है। (३) समवाय की उत्पत्ति अगर पटादि कार्यों की उत्पत्ति के बाद माने फिर भी पटादि की अनाधार उत्पत्ति की आपत्ति रहेगी, क्योंकि पट की उत्पत्ति के समय अगर समवाय ही नहीं है तो फिर तन्तु में किस सम्बन्ध से पट की उत्पत्ति होगी? अतः समवाय अकार्य ही है। वह कारणों से उत्पन्न नहीं होता है। विशेष भी कार्य नहीं है, क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों से भिन्न होने पर भी वह भाव पदार्थ है, जैसे कि सामान्य और समवाय ।
यहाँ अकारणत्व' शब्द से समवायिकारणत्व और असमवायिकारणत्व इन दोनों का ही निषेध इष्ट है, निमित्तकारणत्व का नहीं, क्योंकि सामान्गादि में भी बुद्धि की निमित्तकारणता स्वीकृत है। 'असामान्यविशेषवत्व' शब्द का अर्थ है अपरजातियों का न रहना। सामान्यों में सामान्यत्व नाम का कोई अपर सामान्य नहीं है, क्योंकि इससे अनवस्था होगी। समवायों और विशेषों में सामान्य के न रहने की युक्ति दिखला
१. जातियों में जातित्व नाम का सामान्य मानने में अनवस्था इस प्रकार होती है कि द्रव्यत्व गुणत्वादि जितने सामान्य पहिले से स्वीकृत हैं उन सभी सामान्यों में जातित्व या सामान्यत्व नाम का एक और सामान्य मानना पड़ेगा, किन्तु यह
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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५३
न्यायः । कथं तहि सामान्येषु प्रत्ययानुवृत्ति: सामान्यं सामान्यमिति ? अनेकव्यक्तिसमवायोपाधिवशाद् विशेषेष्वप्येकशब्दप्रवृत्तिः, अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिजनकत्वस्य सर्वत्र सम्भवात् । नित्यत्वं विनाशरहितत्वम्, तदपि सामान्यस्य व्यक्त्युत्पादविनाशयोरवस्थितिग्राहिणा भूयो भूयः प्रवृत्तेन निरुपाधिप्रत्यक्षेण व्याप्तिवन्निश्चीयते । समवायस्य तु सर्वत्र कार्योपलम्भादकृतकत्वाच्चानुअर्थशब्दानभिधेयत्वञ्चेति ।
मीयते । साधर्म्यम् । चः समुच्चये ।
स्वसमयार्थशब्दानभिधेयत्वं चैतेषां
चुके हैं । ( प्र० ) फिर सभी सामान्यों में 'ये सामान्य हैं' इस एक आकार की प्रतीति ( अनुवृत्तिप्रत्यय ) क्यों होती हैं ? ( उ० ) सभी सामान्य अनेक व्यक्तियों में रहते हैं, अतः यह " अनेक व्यक्तियों में रहना या अनेक व्यक्तिवृत्तित्व" रूप एक उपाधि सभी सामान्यों में है । इसी अनेक व्यक्तिवृत्तित्व-रूप उपाधि के कारण सभी सामान्यों में उक्त एक आकार की प्रतीति होती है । सभी विशेषों में भी 'ये विशेष हैं' इस एक आकार की प्रतीति होती है । इसके लिए भी विशेषत्व नाम के सामान्य का मानना आवश्यक नहीं है । क्योंकि सभी विशेषों में जो अपने अपने आश्रय को विभिन्न पदार्थों से विलक्षण रूप से समझाने की क्षमता है, उसी क्षमता रूप एक उपाधि के बल से ही उक्त एकाकार की प्रतीति को उपपत्ति हो जाएगी । 'नित्यत्व' शब्द का अर्थ है विनाश रहित होना । यह (नित्यत्व) भी व्यक्तियों की उत्पत्ति से पहिले और उनके नाश के बाद भी सामान्यों के वर्तमानता का ज्ञापक उनमें बार-बार प्रवृत्त प्रत्यक्ष प्रमाण से ही व्याप्ति की तरह ज्ञात होता है । समवाय से सभी स्थलों में ( सभी कालों में ) कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है, एवं समवाय किसी भी कारण से उत्पन्न हुआ नहीं दीखता है । इन्हीं दोनों हेतुओं से समवाय में नित्यत्व का अनुमान होता है । 'अर्थशब्दानभिधेयत्वश्व' अर्थात् वैशेषिक शास्त्र में बिना विशेषण के केवल 'अर्थ' शब्द से द्रव्य, गुण, कम्मं इन तीनों के ही समकने का एक सङ्केत है । तदनुसार उक्त 'अर्थ' शब्द का अभिधावृत्ति द्वारा न समझा जाना भी सामान्यादि तीनों का साधर्म्य है । 'च' शब्द समुच्चय अर्थ का बोधक है ।
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'सामान्यत्व' भी सामान्य ही होगा । यह सामान्यत्व-रूप सामान्य - द्रव्यत्वादि पहिले से स्वीकृत सामान्यों में तो रहेगा, किन्तु स्वाभिन्न सामान्यत्व - रूप सामान्य में न रहेगा, क्योंकि एक वस्तु में आधाराधेयभाव असम्भव है, अतः पूर्व स्वीकृत द्रव्यत्वादि सामान्य एवं अधुना स्वीकृत सामान्यत्व - रूप सामान्य एतत्साधारण एक दूसरे सामान्यत्व की कल्पना करनी पड़ेगी । इस प्रकार अनन्त सामान्यत्वों को कभी समाप्त न होनेवाली कल्पना की धारा चलेगी। यही अनवस्था है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[साधर्म्यवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम् पृथिव्यादीनां नवानामपि द्रव्यत्वयोगः स्वात्मन्यारम्भकत्वं गुणवत्वं कार्यकारणाविरोधित्वमन्त्य विशेषवश्वम ।
द्रव्यत्व जाति का सम्बन्ध, अपने में समवाय सम्बन्ध से कार्य को उत्पन्न करना, गुणवत्त्व, अपने कार्यों से या कारणों से विनष्ट न होना एवं अन्त्यविशेष ये पाँच साधर्म्य पृथिवी प्रभृति नौ द्रव्यों के हैं।
न्यायकन्दली इदानीं द्रव्याणामेव साधर्म्य निरूपयति—पृथिव्यादीनामिति । पृथिव्यादीनामेव द्रव्यत्वेन सामान्येन योगः सम्बन्धः । स कियतामत आह-- नवानामपीति। अपिशब्दोऽभिव्याप्त्यर्थः। एतेन द्रव्यपदार्थस्येतरेभ्यो भेदलक्षणमुक्तम् । द्रव्यशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तञ्च चिन्तितम् ।
अत्र कश्चित् चोदयति-द्रव्यत्वयोगो द्रव्यत्वसमवायः, स च पञ्चपदार्थधर्मत्वात् कथं द्रव्यलक्षणमिति । अपरः समाधत्ते-यद्यपि सर्वत्राभिन्नः समवायः, तथापि द्रव्यत्वोपलक्षणभेदाद् द्रव्यस्य लक्षणम्, दृष्टो हि कल्पितभेदस्याप्याकाशस्य श्रोत्रभावेनार्थक्रियाभेद इति । द्वयमप्ये
पृथिव्यादीनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से अब केवल नौ द्रव्यों का ही साधर्म्य कहते हैं। पृथिवी प्रभृति नौ द्रव्यों का ही द्रव्यत्व जाति के साथ योग' अर्थात् सम्बन्ध है। द्रव्यत्व जाति का यह सम्बन्ध पृथिव्यादि कितने द्रव्यों के साथ है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'नवानाम्' इस पद से दिया है। 'नवानामपि' इस वाक्य के 'अपि' शब्द का अर्थ है ( सभी द्रव्यों में सम्बन्ध रूप) 'अभिव्याप्ति' । अर्थात् पृथिव्यादि नौ द्रव्यों में से किसी को न छोड़कर सभी द्रव्यों में रहना । इस अभिव्याप्ति से द्रव्य पदार्थ को गुणादि पदार्थों से भिन्न समझानेवाला स्वरूप कहा गया है। इससे 'द्रव्य' शब्द का 'प्रवृत्तिनिमित्त' भी निद्दिष्ट हो जाता है।
इस प्रसङ्ग में कोई आक्षेप करते हैं कि प्रकृत 'द्रव्यत्वयोग' शब्द का अर्थ है द्रव्यत्व का समवाय, वह द्रव्य से विशेष पर्यन्त पांचों पदार्थों में समान रूप से है। फिर यह 'द्रव्यत्वयोग' पृथिव्यादि नौ पदार्थों का ही 'साधर्म्य' कैसे है ? इस आक्षेप का समाधान कोई इस प्रकार कहते हैं कि यह ठीक है कि ( समवाय एक होने के कारण ) सभी स्थलों में एक ही है, किन्तु द्रव्यत्व रूप उपलक्षण ( प्रतियोगी) के भेद से वह केवल द्रव्यों का ही लक्षण हो सकता है । एक ही वस्तु में उपलक्षण के भेद से विभिन्न कार्यों के सम्पादन की क्षमता देखी जाती है. जैसे एक ही आकाश के सर्वत्र रहने पर भी कर्णशष्कुली रूप उपाधि से श्रोत्रभावापन्न आकाश से ही शब्दश्रवण रूप कार्य होता है। किन्तु उक्त आक्षेप और उसका यह समाधान दोनों ही असङ्गत हैं, क्योंकि जिस प्रकार आकाश ही श्रोत्र है
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
तदसाधीयः, यथाकाशं श्रोत्रं नैवं योगो द्रव्यस्य लक्षणम्, किन्तु द्रव्यत्वमेव, तत्त्वसम्बद्धं लक्षणं न स्यादिति योगसङ्कीर्तनं लिङ्गस्य धर्मिण्यस्तित्वकथनम्। तथा चैवं प्रयोगः-पृथिव्यादिकमितरेभ्यो भिद्यते द्रव्यत्वात्, येषामितरेभ्यो भेदो नास्ति तेषां द्रव्यत्वमपि नास्ति, यथा रूपादीनामिति । तस्मादसच्चोद्यमसदुत्तरञ्च ।
अन्यदपि द्रव्याणां साधर्म्यमाह--स्वात्मन्यारम्भकत्वमिति, स्वसमवेतकार्यजनकत्वमित्यर्थः। गुणवत्त्वं गुणैः सह सम्बन्धः। एतदप्युभयं गुणादिभ्यो द्रव्याणां वैधय॑मन्यत्रासम्भवात् । कार्यकारणाविरोधित्वम् । गुणो हि क्वचित् कार्येण विनाश्यते, यथा आद्यः शब्दो द्वितीयशब्देन । क्वचित् कारणेन विनाश्यते, यथा अन्त्यः शब्द उपान्त्यशब्देन । कर्मापि कार्येण विनाश्यते, यथोत्तरसंयोगेन। द्रव्याणि तु न कार्येण विनाश्यन्ते नापि कारणेनेति कार्यकारणाविरोधीनि । नित्यानां कारणविनाशयोरभावादेव कारणेनाविनाशः,
उसी प्रकार प्रकृत में 'योग' अर्थात् द्रव्यत्व का समवाय रूप सम्बन्ध ही द्रव्यों का साधर्म्य या लक्षण नहीं है, किन्तु द्रव्यत्व ही द्रव्यों का लक्षण है। यह द्रव्यत्व बिना किसी असाधारण सम्बन्ध के लक्षण नहीं हो सकता, अतः ‘योग शब्द का उल्लेख है । अर्थात् इस 'योग' शब्द से (इतर भेदानुमिति के पक्ष रूप) धर्मी में (उस अनुमिति के लक्षण रूप) हेतु का अस्तित्व दिखलाया गया है। इससे अनुमान का यह रूप फलित होता है कि पृथिव्यादि नौ पदार्थ गृणादि और पदार्थों से भिन्न हैं, क्योंकि इनमें द्रव्य त्व है। जिनमें यह इतरभेद नहीं है, उनमें द्रव्यत्व भी नहीं है । अतः उक्त आक्षेप और उसका समाधान दोनों ही अशुद्ध हैं।
'स्मात्मन्यारम्भकत्यम्' इत्यादि से द्रव्यों का और भी साधर्म्य कहते हैं, अर्थात् अपने में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले कार्यों का कारणत्व भी द्रव्यों का साधर्म्य है। 'गुणवत्त्व' शब्द का अर्थ है गुण के साथ सम्बन्ध, ये दोनों ही गुणादि पदार्थों से द्रव्यों में असाधारण्य के सम्पादक हैं, क्योंकि द्रव्य से भिन्न किसी भी पदार्थ में इन दोनों की सम्भावना नहीं है । “कार्यकारणाविरोधित्वम्" गुण कहीं अपने कार्य से ही नष्ट होता है, जैसे कि पहिला शब्द दूसरे शब्द से, कहीं वह अपने कारण से भी नष्ट होता है, जैसे कि अन्तिम शब्द अपने अव्यवहितपूर्व के शब्द से । क्रिया भी अपने कार्य से नष्ट होती है, जैसे कि उत्तर देश के संयोग से; द्रव्य न अपने कार्यों से नष्ट होते हैं, न कारणों से ही, अतः द्रव्य कार्य और कारण दोनों के अविरोधी हैं। नित्य द्रव्यों का न कोई कारण हैं, न उनका विनाश ही होता है, अतः उनका विनाश कार्य और कारण किसी से भी नहीं होता है। अनित्य द्रव्यों का विनाश भी होता है, एवं उनके कारण भी होते हैं, किन्तु उनका विनाश अपने कारणों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[साधर्म्य वैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम् अनाश्रितत्वनित्यत्वे चान्यत्रावय विद्रव्येभ्यः । पृथिव्युदकज्वलनपवनात्ममनसामनेकत्वापरजातिमत्वे । क्षितिजलज्योतिरनिलमनसां क्रियावत्वमूर्तत्वपरत्वापरत्व
अवयवी द्रव्यों को छोड़कर और सभी द्रव्यों के अनाश्रितत्व और नित्यत्व ये दो साधर्म्य हैं।
_पृथिवी, जल, तेज, वायु, आत्मा और मन इन छ: द्रव्यों के अनेकत्व और अपरजातिमत्त्व ये दो साधर्म्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और मन इन पाँच द्रव्यों के क्रिया, मूर्त्तत्व,
न्यायकन्दली अनित्यद्रव्याणां कारणविनाशयोः सम्भवेऽपि कारणेन न विनाशः, किन्त्वन्येनेति विवेकः । तथा अन्त्यविशेषवत्त्वमन्त्यविशेषयोगित्वमित्यर्थः ।
__ अनाश्रितत्वं क्वचिदप्यसमवेतत्वम्, नित्यत्वं विनाशरहितत्वञ्च द्रव्याणां साधर्म्यम् । तत् किं सर्वेषां साधर्म्यमित्यत आह-अवयविद्रव्येभ्योऽन्यत्रेति । अवयविद्रव्याणि परित्यज्यान्त्यविशेषवत्त्वानाश्रितत्वनित्यत्वान्यन्यत्र सन्तीत्यर्थः । न केवलं पूर्वोक्ताः पृथिव्यादीनां धाः, किन्त्वनाश्रितत्वनित्यत्वे चेति चार्थः ।
पृथिव्यादीनां द्रव्याणामेव परस्परसाधयं वैधर्म्यञ्च प्रतिपादयन्नाह--पृथिव्युदकज्वलनपवनात्ममनसामिति। अनेकत्वं प्रत्येक व्यक्तिभेदः । अपरजातिमत्त्वमिति पृथिवीत्वादिजातिसम्बन्धित्वम् । से नहीं होता है, अन्य वस्तुओं से होता है । इसी प्रकार 'अन्त्यविशेष' शब्द का अर्थ है अन्त्यविशेष का सम्बन्ध ।।
कभी भी समवाय सम्बन्ध से न रहना ही 'अनाभितत्व' शब्द का अर्थ है। 'नित्यत्व' शब्द का अर्थ है नाश को प्राप्त न होना, अनाश्रितत्व और नित्यत्व ये दोनों ही द्रव्य के साधर्म्य हैं। ये दोनों क्या सभी द्रव्यों के साधर्म्य हैं ? इसी प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि "अवयविद्रव्येभ्योऽन्यत्र" अर्थात् अवयविद्रों को छोड़कर और सभी द्रव्यों में अन्त्यविशेष, अनाश्रितत्व और अनित्यत्व ये तीनों रहते हैं। 'च' शब्द से यह अभिप्रेत है कि पृथिवी प्रभृति द्रव्यों के पहिले कहे हुए साधर्म्य ही नहीं हैं किन्तु प्रकृत अनाश्रितत्व और नित्यत्व भी उनके साधर्म्य हैं।
पृथिव्यादि द्रव्यों में ही परस्पर साधम्यं और वैधर्म्य का निरूपण करते हुए "पृथिव्युदकज्वलन मनसाम्" इत्यादि सन्दर्भ कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में परस्पर भेद ही 'अनेकत्व' शब्द का अर्थ है । 'अपरजातिमत्त्व' शब्द से पृथिवीत्वादि जातियों की अधिकरणता अभिप्रेत है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
वेगवत्वानि । परत्व, अपरत्व और वेगवत्त्व ये पाँच साधर्म्य हैं ।
न्यायकन्दली क्षितिजलज्योतिरनिलमनसां क्रियावत्त्वमूर्त्तत्वपरत्वापरत्ववेगवत्त्वानोति । क्रियावत्त्वमुत्क्षेपणादिक्रियायोगः । मूर्त्तत्वमवच्छिन्नपरिमाणयोगित्त्वम् । परत्वापरत्ववेगवत्त्वानि परत्वापरत्ववेगसमवायः।
संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वयोरेव परापरव्यवहारहेतुत्वात् परत्वापरत्वे न स्त इति केचित्, न, भिन्नदिक्सम्बन्धिनोः सत्यपि संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वसद्भावे सत्यपि च द्रष्टुः शरीरापेक्षया सन्निकृष्टविप्रकृष्टबुद्धयोरुत्पादे
क्रिया, मूतत्व, परत्व, अपरत्व, और वेग ये पाँच पृथिवी. जल, तेज, वायु और मन इन पाँच द्रव्यों के साधर्म्य हैं। 'क्रियावत्व' शब्द का अर्थ है उत्क्षेपणादि क्रियाओं का सम्बन्ध । मूर्तत्व शब्द का अर्थ है किसी अल्प परिमाण का सम्बन्ध । परत्व, अपरत्व और वेग इन तीनों का समवाय ही परत्वापरत्ववेगवत्व' शब्द का अर्थ है ।
(प्र०) कुछ आचार्यों का कहना है कि परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुण नहीं हैं । पाटलिपुत्र से काशौ की अपेक्षा प्रयाग 'पर' (दूर) है, एवं पाटलिपुत्र से प्रयाग की अपेक्षा काशौ 'अपर' (समीप) है, इसी प्रकार की प्रतीतियों से तो दैशिक परत्व और अपरत्व स्वीकार किये जाते हैं । किन्तु यह 'परत्व' और 'अपरत्व' दूरत्व और समीपत्व को छोड़कर और कुछ नहीं है। एवं परत्व और अपरत्व इन प्रतीतियों से भी स्वीकार किये जाते हैं कि देवदत्त यज्ञदत्त से 'पर' है, एवं यज्ञदत्त दे दत्त से 'अपर' है, यह (कालकृत) परत्व और अपरत्व ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व के ही दूसरे नाम हैं। किन्तु इन व्यवहारों के लिए परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुणों की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि दूरत्व और समीपत्व रूप परत्व और अपरत्व के व्यवहार का नियामक देश के साथ संयोग की अधिकता और न्यूनता ही है। यह स्वीकार करना हो होगा कि पाटलिपुत्र से काशी में जितने दिग्देशों का सम्बन्ध है उससे प्रयाग में अधिक है । एवं पाटलिपुत्र से प्रयाग में जितने दिग्देशों का संयोग है उससे काशी में अल्प है। इसी प्रकार ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व रूप परत्व एवं अपरत्व का व्यवहार भी सूर्य की अधिक क्रिया से युक्त काल के सम्बन्ध और सूर्य की अल्प क्रिया से युक्त काल के सम्बन्ध से ही होता है। सुत राम् सूर्य क्रियाओं की अधिकता और अल्पता से ही (कालिक) परत्वापरत्व के व्यवहार की उपपत्ति होगी। इन प्रतीतियों के लिए परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुण की कल्पना आवश्यक नहीं है । (उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार से तो परस्पर विरुद्ध दो दिशाओं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम् आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्वं परममहत्वं
सर्व संयोगि
आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों के सर्वगतत्व, परममहत्त्व, और सर्वसंयोगिसमानदेशत्व ( सभी संयोगी द्रव्यों का समान रूप से न्यायकन्दली
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[ साधम्यवैधभ्यं
परापरप्रत्ययाभावात् । एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोस्तथा प्रत्यय इति चेत् ? अस्ति तर्हि संयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वाभ्यां विषयान्तरम्, विषयवैलक्षण्यमन्तरेण विलक्षणाया बुद्धेरनुत्पादात् । वेगोऽपि गुणान्तरम्, न क्रियासन्ततिमात्रम्, मन्दगतौ वेगप्रतीत्यभावात् । क्रियाक्षणानामाशूत्पादनिमित्तो वेगव्यवहार इति चेत् ? न, अलातचक्रादिषु क्रियाक्षणानां निरन्तरोत्पादव्ययवतां प्रत्येकमन्तरा - ग्रहणेनाशूत्पादस्य प्रत्यक्षेणाप्रतीतेः, वेगप्रत्ययस्य च भावात् । व्यक्ता च लोके क्रियावेगयोर्भेदावगतिः, वेगेन गच्छतीति प्रतीतेः ।
आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्वमित्यादि । सर्वशब्देनात्र प्रकृतापेक्षयानन्तरोक्तानि मूर्त्तद्रव्याणि परामृश्यन्ते । सर्वगतत्वं सर्वैर्मूतैः सह संयोग में विद्यमान वस्तुओं में भी परत्व और अपरत्व का व्यवहार होना चाहिए, किन्तु देखनेवाले के शरीर से उनमें सामीप्य की बुद्धि होने पर भी (विरुद्ध) दिशाओं में अवस्थित उन दोनों वस्तुओं में परस्पर की अपेक्षा परत्व या अपरत्व की बुद्धि नहीं होती है । (प्र०) अगर इसी में इतना बढ़ा दें कि समान दिशा के देशों के संयोग के अल्पत्व और अधिकत्व ही (अपरत्व एवं परत्व) प्रतीतियों के नियामक हैं ? ( उ० ) तो भी परत्व और अपरत्व नाम का स्वतन्त्र गुण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि विषयों में अन्तर हुए बिना प्रतीतियों में अन्तर नहीं हो सकता । वेग भी स्वतन्त्र गुण है, क्रियाओं का समूह नहीं, क्योंकि मन्द गतिवाली वस्तुओं में वेग की प्रतीति नहीं होती हैं । ( प्र ० ) क्रिया के कारणीभूत क्षणों का यह स्वभाव है कि वे अत्यन्त शीघ्र विनष्ट होते हैं । उनकी इस अत्यन्त शीघ्र विनाशशीलता से ही वेग का व्यवहार होता है ( अतः क्रियाओं का समूह ही वेग है, कोई स्वतन्त्र गुण नहीं ) | ( उ० ) चूँकि अलातचक्रादि में होनेवाली क्रियाओं के कारणभूत क्षणों का बराबर उत्पाद और विनाश होता रहता है, किन्तु उत्पत्ति और विनाश की अत्यन्त शीघ्रता के कारण उन दोनों के बीच के समय गृहीत नहीं हो पाते, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु अलातचक्रादि में भी वेग की प्रतीति तो होती ही है । क्रिया और वेग की विभिन्न रीति से प्रतीति सर्वजन सिद्ध है । 'यह वेग से जा रहा है' इस आकार की वेग की प्रतीति होती है । (क्रियाओं की प्रतीति का यह आकार नहीं है ) ।
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प्रकृत भाष्य के 'सर्वगतत्व' पद में प्रयुक्त 'सर्व' शब्द से प्रकृत आकाशादि से ठीक पहिले कहे हुए सभी मूर्त्त द्रव्यों को समझना चाहिए। आकाशादि का सभी
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् समानदेशत्वञ्च ।
पृथिव्यादीनां पञ्चानामपि भूतत्वेन्द्रिय प्रकृतित्ववादैकैकेन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वानि । आधार होना ) ये तीन साधर्म्य हैं ।
पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच द्रव्यों के भूतत्व, इन्द्रियप्रकृतित्व और एक एक बाह्येन्द्रिय से गृहीत होनेवाले विशेष गुण ये तीन साधर्म्य हैं।
न्यायकन्दली आकाशादीनाम, न तु सर्वत्र गमनम्, तेषां निष्क्रियत्वात् । परममहत्त्वमियत्तानवच्छिन्नपरिमाणयोगित्वम् । सर्वसंयोगिसमानदेशत्वं सर्वेषां संयोगिनां मूर्तद्रव्याणामाकाशः समानो देश एक प्राधार इत्यर्थः । एवं दिगादिष्वपि व्याख्येयम् । यद्यप्याकाशादिकं सर्वेषां संयोगिनामाधारो न भवति, आधारभावेनानवस्थानात्, तथापि सर्वसंयोगाधारत्वात् सर्वसंयोगिनामाधार इत्युच्यते, उपचारात् । अत एव सर्वगतत्वमित्यनेनापुनरुक्तता । तत्र हि सर्वैः सह संयोगोऽस्तीत्युक्तम् । इह तु सर्वेषामाधार इत्युच्यते।
पृथिव्यादीनामाकाशान्तानामितरवैधपेण साधर्म्य कथयतिपृथिव्यादीनामिति । भूतत्वं भूतशब्दवाच्यत्वम् । एकनिमित्तमन्तरेणानेकेषु मत्तं द्रव्यों के साथ संयोग ही सर्वगतत्व है, आकाशादि का सभी मूर्त द्रव्यों में जाना नहीं, क्योंकि वे सभी क्रियाशून्य हैं । 'परममहत्त्व' शब्द का अर्थ है इयत्ता से रहित परिमाण का (सबसे बड़े परिमाण का) सम्बन्ध । 'सर्वसंयोगिसमानदेशत्व' अर्थात् आकाश संयोग से युक्त सभी मूर्त द्रव्यों का एक आधार है। इसी प्रकार दिशा में भी व्याख्या करनी चाहिये । यद्यपि आकाशादि संयोग से युक्त पदार्थों का आधार नहीं है, किन्तु उनके सभी संयोगों का आधार है, अतः उनमें 'सर्वाधार' शब्द का लाक्षणिक प्रयोग होता है। अतएव 'सर्वगतत्व' के बाद 'सर्वसंयोगिसमानदेशत्व' के कथन से पुनरुक्ति की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि 'सर्वगतत्व' शब्द से आकाशादि में सभी मूतं द्रव्यों का संयोग प्रतिपादित होता है और 'सर्वसंयोगिसमानदेशत्व' शब्द से लक्षणा वृत्ति के द्वारा उनमें सर्वाधारत्व का प्रतिपादन होता है।
पृथिवी से लेकर आकाश पर्यन्त पाँच द्रव्यों का साधर्म्य औरों से असाधारण्य दिखलाते हुए कहते हैं । 'भूत' शब्द का अर्थ है 'भूत' शब्द से अभिधावृत्ति के द्वारा कहा जाना। यद्यपि पृथिवी प्रभृति पाँच द्रव्यों में सभी को समझाने के लिए एक शब्द की प्रवृत्ति का नियामक कोई एक धर्म नहीं है, किन्तु तब भी 'अक्ष' शब्द
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[साधम्यंवैधयं
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
पृथिव्यादिष्वेकशब्दप्रवृत्तिरक्षशब्दवत्, यथा देवनत्वेन्द्रियत्वबिभीतकत्वसामान्यत्रययोगाद्देवनादिष्वक्षशब्दः सङ्केतितः, तथा पृथिवीत्वादिसामान्यवशात् पृथिव्यादिषु चतुर्षु भूतशब्दः सङ्केतितः । आकाशे तु व्यक्तिनिमित्त एव भूतं भूतमिति तच्छब्दानुविद्धः प्रत्ययस्तच्छब्दवाच्यतोपाधिकृतः, यथा देवनादिष्वेकोऽक्ष इति प्रत्ययः।
इन्द्रियप्रकृतित्वमिन्द्रियस्वभावत्वम् । न भूतस्वभावानीन्द्रियाणि, अप्राप्यकारित्वात्, प्राप्यकारित्वं हि भौतिको धर्मो यथा प्रदीपस्येति केचित् । तदयुक्तम्, व्यवहितानुपलब्धेः, यदीन्द्रियमप्राप्यकारि कुड्यादिव्यवहितमप्यर्थ गृह्णीयादप्राप्तेरविशेषात् । योग्यताभावाद् व्यवहितार्थाग्रहणमिति चेत् ? इन्द्रियस्य तावद् योग्यता विषयग्रहणसाममिस्त्येव तदानीमव्यवहितार्थग्रहणात्, विषयस्यापि योग्यता
की तरह 'भूत' शब्द की प्रवृत्ति उनमें होती है । अर्थात् जैसे देवनत्व (द्यूतत्व) इन्द्रियत्व और विभीतकत्व इन तीन सामान्य के सम्बन्ध से जूये प्रभृति में 'अक्ष' शब्द की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही पृथिवीत्यादि चारों जातियों से पृथिवी जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों को समझाने के लिए 'भूत' शब्द प्रवृत्त होता है। आकाश में आकाश रूप व्यक्तिमूलक 'यह भूत है' इत्यादि 'भूत' शब्दमूलि का प्रतीति भूत शब्दबोध्यत्व रूप उपाधि से होती है। जैसे कि एक ही 'अक्ष' शब्द देवनादि सभी अर्थों को समझाने के लिए प्रवृत्त होता है।
'इन्द्रिय प्रकृतित्व' शब्द का अर्थ है इन्द्रियस्वभावत्व । यहाँ कोई शङ्का उठाते हैं कि (प्र०) भूत इन्द्रियों की प्रकृति (समवायिकारण) नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ वस्तुओं के साथ असम्बद्ध होकर ही अपना काम करती हैं । भौतिक वस्तुओं का यही स्वभाव है कि अपने विषयों के साथ सम्बद्ध होकर ही अपना काम करें, जैसे कि प्रदीप । (उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहित वस्तुओं की इन्द्रियों से उपलब्धि नहीं होती। अगर इन्द्रियाँ अपने से असम्बद्ध विषयों को भी ग्रहण करें तो फिर दीवाल प्रभृति से ढके हुए अपने विषयों का भी वे ग्रहण कर सकती हैं। दीवाल से घिरे और न घिरे हुए वस्तुओं में तो कोई अन्तर नहीं है, और इन्द्रियों की असम्बद्धता तो दोनों प्रकार की वस्तुओं में समान है। (प्र.) व्यवहित वस्तुओं में प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है ? (उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि व्यवहित विषयों में प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है ? या इन्द्रियों में व्यवहित विषयों के प्रत्यक्ष के उत्पादन की योग्यता नहीं है ? इन्द्रियों की योग्यता है विषयों को ग्रहण करने का सामर्थ्य, सो उनमें है ही। क्योंकि उस समय भी अन्यवहित विषयों को वे ग्रहण करती
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली महत्त्वानेकद्रव्यवत्त्वरूपविशेषाद्यात्मिका व्यवधानेऽपि न निवृत्तव, आर्जवावस्थानमपि तदवस्थमेव । अथ मतम्-आवरणाभावोऽप्यर्थप्रतीतिकारणं संयोगाभाव इव पतनकर्मणि, आवरणे सत्यावरणाभावो निवृत्त इति प्रतीतेरनुत्पत्तिः कारणाभावादिति । नैतत्सारम् आवरणस्य स्पर्शजद्रव्यप्राप्तिप्रतिषेधभावोपलब्धेः, छत्रादिकं हि पततो जलस्य सावित्रस्य च तेजसः प्रतिषेधति, न तु स्वस्याभावमात्रं निवर्तयति । तथा सति सुलभमेतदनुमानम् – प्राप्तप्रकाशकं चक्षुः, व्यवहितार्थाप्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्, बाह्येन्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत् । नन्वेवं तहि विप्रकृष्टार्थग्रहणं कुतः ? रश्म्यर्थसंनिकर्षादनुभूतरूपस्पर्शा नायना ही हैं । विषयों में प्रत्यक्ष होने की योग्यता है महत्त्व, अनेकद्रव्यवत्त्वादि, सो दीवाल से घिर जाने पर भी विषयों से हट नहीं जाती। दीवाल से घिर जाने पर भी वे इन्द्रियों के सामने ही रहते हैं । (प्र०) जिस पकार संयोग का अभाव भी पतन का कारण है, उसी प्रकार आवरण का अभाव भी प्रत्यक्ष का कारण है। आवरण के रहते हुए आवरण का अभाव नहीं रह सकता, अत: दीवाल से घिरी हुई वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वहाँ आवरणाभाव रूप कारण ही नहीं है। (उ०) आवरण का इतना ही काम है कि स्पर्श से युक्त द्रव्यों के साथ संयोग न होने दे | जैसे छाता गिरते हुए पानी या धूप के साथ संयोग को नहीं होने देता । आवरण का इतना ही काम नहीं है कि अपने अभाव को हटाये। अतः (१) यह अनुमान सुलभ है कि चक्षु अपने से सम्बद्ध वस्तुओं का ही प्रकाशक है, क्योंकि व्यवहित वस्तुओं का प्रकाश उससे नहीं होता, जैसे कि प्रदीप । (२) अथवा चक्षुरादि (इन्द्रियाँ) अपने से सम्बद्ध वस्तुओं के ही प्रकाशक हैं, क्योंकि वे बाह्येन्द्रिय हैं, जैसे कि त्वगिन्द्रिय । (प्र.) तो फिर चक्षु से कुछ दूर हटी हुई वस्तुओं का ही प्रत्यक्ष ( क्यों) और कैसे होता है ? (उ०) चक्षु की रश्मियों के साथ विषयों के संयोग से । 'अनुभूत रूप और अनुद्भूत स्पर्श से युक्त चक्षु की रश्मियाँ वहाँ विद्यमान वस्तुओं के प्रत्यक्ष को उत्पन्न
१. चक्षु को रश्मियाँ दूर की वस्तुओं को ग्रहण करने के लिए अगर उनके देशों तक जाती हैं तो फिर सूर्य की रश्मियों की तरह उनके रूप और स्पर्श का भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, किन्तु होता नहीं है । अत: "चक्षु की रश्मियाँ दूर जाकर वस्तुओं को ग्रहण करती हैं" यह कहना ठीक नहीं है। इसी पूर्व पक्ष के समाधान की सूचना देने के लिए कन्दलीकार ने चक्षु की रश्मियों में अनुवभूतरूप और अनुभूत स्पर्श, ये दो विशेषण लगाये हैं। कहने का तात्पर्य है कि अगर चक्षु की रश्मियों का विषय देश तक जाना युक्तियों से सिद्ध है तो फिर उनके रूप और स्पर्श की अनुपलब्धि से वह हट नहीं सकती। उनके प्रत्यक्षापत्तिवारण का यह उपाय सुलभ है कि रश्मियों के रूप और स्पर्श को अनुभूत मान लेना।
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न्यायकन्वलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली
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[ सावयवैधम्य
यो दूरे गत्वा सन्तमर्थं गृह्णन्ति, अत एव महदणुप्रकाशकत्वात् किमि - न्द्रियस्य भौतिकत्वं न सिद्धयति ? प्रदीपस्येव रश्मिद्वारेण तदुपपत्तेः । यत्र च रश्मयो भूयोभिः स्वावयवैः सहार्थावयविना तदवयवैश्च सह सम्बद्धयन्ते, तत्राशेषविशेषास्कन्दितस्यार्थस्य ग्रहणात् स्पष्टं ग्रहणम् । यत्र त्ववयवमात्रेण सम्बन्धस्तत्र सामान्यमात्रविशिष्टस्य धम्मिणो ग्रहणादस्पष्टं ग्रहणम् । यद् गच्छति तत् संनिहितव्यव हितार्थो क्रमेण प्राप्नोति । तत् कथं शाखाचन्द्रमसोस्तुल्यकालोपलब्धिरिति चेत् ? इन्द्रियवृ त्तेराशुसञ्चारित्वात् पलाशशतव्यतिभेदवत् क्रमाग्रहणनिमित्तोऽयं भ्रमो न तु वास्तवं यौगपद्यम् । ननु प्राप्तिपक्षे सान्तरालोऽयमिति ग्रहणं न स्यात् ? न, अन्यथा तदुपपत्तेः । इन्द्रियसम्बन्धस्यातीन्द्रियत्वान्न तदभावाभावकृतौ सान्तरनिरन्तरप्रत्ययौ, किन्तु शरीरसम्बन्धभावाभावकृतौ यत्र शरीरसम्बद्धस्यार्थस्य ग्रहणं तत्र निरन्तरोऽयमिति प्रत्ययः, यत्र तु तदसम्बद्धस्य ग्रहणं तत्र सान्तर इति ।
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करती है । इन्द्रियाँ चूंकि छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की वस्तुओं को दिखलाती हैं, इससे भी उनमें भौतिकत्व की सिद्धि क्यों नहीं होगी ? प्रदीप की तरह रश्मियों में भी भौतिकता सिद्ध हो सकती है । जहाँ पर रश्मियाँ अपने बहुत से अवयवों को लेकर अवयवी रूप वस्तु और उनके अवयवों के साथ सम्बद्ध होती हैं, वहाँ सभी विशेषों से युक्त अवयवी का ज्ञान होता है । अत एव वह ज्ञान ' स्पष्टग्रहण' कहलाता है । जहाँ वे केवल वस्तुओं के किसी अवयव के साथ ही सम्बद्ध होती हैं, वहाँ सामान्यधम्मं से युक्त ही उस धर्मी का ज्ञान होता है, जिसे 'अस्पष्ट ग्रहण' कहते हैं । ( प्र०) गतिशील वस्तु समीप की वस्तुओं के साथ पहिले सम्बद्ध होती है और दूर की वस्तुओं के साथ पीछे, तो फिर गतिशील इन्द्रियों से शाखा और चन्द्रमा का ग्रहण एक ही समय क्यों होता है ? ( उ० ) वस्तुतः एक समय में शाखा और चन्द्रमा दोनों का ज्ञान नहीं होता है । दोनों के ज्ञान क्रमशः ही होते हैं, किन्तु इन्द्रियाँ इतनी शीघ्रता से चलती हैं कि उनकी गति के क्रम का ज्ञान नहीं हो पाता । अत एव यह भ्रम होता है कि शाखा और चन्द्रमा दोनों का ज्ञान एक ही समय होता है । जैसे फूल के सौ पत्रों को सूई से छेदने पर उसका क्रम उपलब्ध नहीं होता और भ्रम होता है कि एक ही समय में सभी पत्रों का छेदन हुआ है । ( प्र० ) इन्द्रियाँ अपने से सम्बद्ध वस्तुओं को ही ग्रहण करती हैं' इस पक्ष में विषय और इन्द्रियों में सार्वजनीन व्यवधान की प्रतीति अनुपपन्न होगी ? ( उ० ) नहीं, क्योंकि दूसरी रीति से उसकी उपपत्ति हो सकती है । इन्द्रियों का सम्बन्ध अतीन्द्रिय है, अत: उसकी सत्ता से व्यवधान की प्रतीति और असत्ता से अव्यवधान की प्रतीति नहीं हो सकती, किन्तु शरीरसम्बन्ध की सत्ता और असत्ता से ही उक्त दोनों प्रतीतियाँ
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् चतुणां द्रव्यारम्भकत्वस्पर्शवच्चे। त्रयाणां प्रत्यक्षत्वरूपवत्त्वद्रवत्वानि ।
पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों का द्रव्य को उत्पन्न करना और स्पर्श से युक्त होना ये दो साधर्म्य हैं ।
पृथिवी, जल, और तेज इन तीन द्रव्यों का प्रत्यक्षत्व, रूपवत्त्व और द्रवत्व ये तीन साधर्म्य हैं।
न्यायकन्दली बायैकैकेन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वानीति । बााँकैकेन्द्रियेण चक्षुरादिना ग्राह्या ये विशेषगुणा रूपादयस्तैस्तद्वत्ता पृथिव्यादीनामिति। अन्तःकरणग्राह्यत्वमप्येषां गुणानामस्ति, ततश्चैकैकेन्द्रियग्राह्यत्वमसिद्धम्, तदर्थं बाह्यग्रहणम् । एकैकग्रहणं स्वरूपकथनार्थम् ।
चतुर्णा द्रव्यारम्भकत्वस्पर्शवत्त्वे। चतुर्णां पृथिव्युदकानलानिलानाम् । द्रव्यारम्भकत्वं द्रव्यं प्रति समवायिकारणभावः । स च निजा शक्तिरेव । स्पर्शवत्त्वं स्पर्शसमवायः।
त्रयाणां प्रत्यक्षत्वरूपवत्त्वद्रवत्वानि। त्रयाणां क्षित्युदकतेजसां प्रत्यक्षत्वमिन्द्रियजज्ञानप्रतिभासमानता, न तु महत्त्वादिकारणयोगः, रूपवत्त्वहोती हैं । जहाँ शरीर से सम्बद्ध अर्थ का ग्रहण होता है, उस अर्थ में यह व्यवधान रहित है। इस प्रकार की बुद्धि होती है और जहाँ शरीर से असम्बद्ध अर्थ का ग्रहण होता है उस अर्थ में 'यह व्यवहित है' इस प्रकार की प्रतीति होती है।
बाह्य कैकेन्द्रियग्राह्यगुणवत्त्वानि' अर्थात् चक्षुरादि एक एक बाह्य इन्द्रियों से गृहीत होनेवाले जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द, ये पांच विशेष गुण हैं, तद्वत्त्व' पृथिव्यादि पांच द्रव्यों का साधम्र्य है। ये रूपादि मन रूप अन्तरिन्द्रिय से भी गृहीत होते हैं, अतः उनमें एकैकेन्द्रियग्राह्यत्व' नहीं रह सकता, अत: 'बाह्य' पद का प्रयोग है। 'एकैक' पद केवल इस वस्तुस्थिति को समझाने के लिए है कि कथित रूपादि पांच विशेष गुण एक एक बाह्य इन्द्रिय से ही गृहीत होते हैं, संयोगादि की तरह दो इन्द्रियों से नहीं।
_ 'चतुर्णाम्' अर्थात् पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों का 'द्रव्यारम्भकत्व' अर्थात् द्रव्य का समवायिकरणत्व साधर्म्य है । यह उनकी स्वाभाविक शक्ति है । 'स्पर्शवत्त्व' शब्द का अर्थ है-स्पर्श का समवाय ।।
'त्रयाणाम्' अर्थात् पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों का 'प्रत्यक्षत्व' साधयं है। इस 'प्रत्यक्षत्व' शब्द का अर्थ है इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न ज्ञान में प्रतिभासित
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [साधर्मावैधर्म्य
प्रशस्तपादभाष्यम द्वयोगुरुत्वं रसवत्त्वश्च ।
भूतात्मनां वैशेषिकगुणवत्त्वम् । पृथिवी और जल इन दोनों के गुरुत्व और रसवत्त्व ये दो साधर्म्य हैं।
भूत अर्थात् पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच और आत्मा इन छः द्रव्यों का विशेषगुणवत्त्व साधर्म्य है।
न्यायकन्दली मित्यस्य पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात् । नन्वात्मनोऽपि प्रत्यक्षत्वमस्ति ? सत्यम्, बाह्येन्द्रियापेक्षया त्रयाणामित्युक्तम् । तथा रूपवत्त्वं रूपसमवायः। द्रवत्वं द्रवत्वन्नाम गुणान्तरम्।
___ द्वयोर्गुरुत्वम्। द्वयोः पृथिव्युदकयोः, गुरुत्वन्नाम गुणान्तरम्, तस्य भावात् पृथिव्यामुदके च गुरुशब्दनिवेशः। रसवत्त्वञ्च रससमवायः, न केवलं तयोर्गुरुत्वं रसवत्त्वञ्चेति चार्थः ।
भूतात्मनां वैशेषिकगुणवत्त्वम् । भूतानां पृथिव्यप्तेजोवायुनभसामात्मनां च वैशेषिकगुणयोगः । विशेषो व्यवच्छेदः, विशेषाय स्वाश्रयस्येतरेभ्यो व्यवच्छेदाय प्रभवन्तीति वैशेषिका रूपादयस्तद्योगो भूतात्मनाम् । होना, महत्त्वादि प्रत्यक्ष के कारणों का सम्बन्ध नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर इन तीनों का रूपवत्त्व को साधर्म्य कहना पुनरुक्ति-दुष्ट हो जाएगा। प्रत्यक्षत्व तो आत्मा में भी है ? (उ०) हाँ है, किन्तु यहाँ बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न प्रत्यक्ष का ही ग्रहण है । एवं 'रूपवत्त्व' शब्द का अर्थ है रूप का समवाय और 'द्रवत्व' शब्द से द्रवत्व नाम का स्वतन्त्र गुण विवक्षित है।
'द्वयोः पृथिवी और जल इन दोनों का गुरुत्व' अर्थात् गुरुत्व नाम का स्वतन्त्र गुण साधर्म्य है। इसी गुरुत्व नामक गुण के सम्बन्ध से पृथिवी और जल ये दोनों 'गुरु' शब्द से व्यवहृत होते हैं : ‘रसवत्त्व' शब्द से रस का समवाय इष्ट है। गुरुत्व और रसवत्त्व इन दोनों में से केवल गुरुत्व ही या केवल रसवत्त्व ही पृथिवी और जल के साधर्म्य नहीं हैं, किन्तु दोनों मिलकर उनके साधर्म्य हैं, यही 'च' शब्द से सूचित होता है।
'भूतात्मनाम्' अर्थात् पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश एवं आत्मा इन छः द्रव्यों का वैशेषिकगुण का सम्बन्ध साधर्म्य है। यहाँ 'विशेष' शब्द का अर्थ है 'भेद' (व्यवच्छेद) विशेषाय स्वाश्रयस्येतरभ्यो व्यवच्छेदाय प्रभवन्तीति वैशेषिकाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने आश्रय को जो गुण भिन्न पदार्थों से अलग रूप से समझावे वही यहाँ 'वैशेषिक' शब्द का अर्थ है। इन्हीं रूपादि विशेष गुणों का योग पृथिव्यादि पाँच भूत एवं आत्मां इन छः द्रव्यों का साधर्म्य है ।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
क्षित्युदकात्मनां चतुर्दशगुणवत्त्वम् ।
आकाशात्मनां क्षणिकैकदेशवृत्ति विशेषगुणवत्त्रम् । दिक्कालयोः पञ्चगुणवश्वं सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तकारणत्वश्च । पृथिवी, जल और आत्मा इन तीन द्रव्यों का चौदह गुणों का सम्बन्ध साधर्म्य है ।
आकाश और आत्मा इन दो द्रव्यों का क्षणिक एवं अव्याप्यवृत्ति ( अर्थात् अपने आश्रय के किसी एक अंश में ही रहनेवाला) विशेष गुण साधर्म्य है ।
दिशा और काल इन दो द्रव्यों का ( संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ) ये पाँच गुण और सभी उत्पत्तिशील पदार्थों का निमित्तकारणत्व ये दो साधर्म्य हैं :
६५
न्यायकन्दली
क्षित्युदकात्मनां चतुर्दशगुणवत्त्वम् । क्षितेरुदकस्यात्मनां चतुर्दशगुणयोगः ।
आकाशात्मनra क्षणिकैकदेशवृत्तिविशेषगुणैः सह योगो विद्यत इत्याहआकाशात्मनामिति । विशेषगुणाः पृथिव्यादीनामपि सन्ति, तन्निवृत्त्यर्थमेकदेशवृत्तिग्रहणम् । ये च ते आकाशात्मनामव्याप्यवृत्तयो विशेषगुणास्तेषामाशुतरविनाशित्वञ्च स्वरूपमस्तीति क्षणिकसङ्कीर्त्तनं कृतम् ।
सङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः पञ्चैव गुणा दिशि काले च वर्तन्त इत्याह-दिक्कालयोरिति । न केवलमनयोः पञ्चगुणवत्त्वं साधर्म्यं सर्वोत्पत्तिमतां
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पृथिवी, जल और आत्मा, इन तीन द्रव्यों का चौदह गुणों का सम्बन्ध साधर्म्य है । 'आकाशात्मनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं कि आकाश में और आत्माओं में क्षणिक एवं 'अव्याप्यवृत्ति' (अपने आश्रय के किसी एक देश में रहनेवाले) विशेष गुणों का सम्बन्ध है । विशेषगुण पृथिवी प्रभृति द्रव्यों में भी हैं, अतः 'एकदेशवृत्ति' यह पद है । 'क्षणिक' पद का उपादान यह सूचना देने के लिए है जि आकाश और आत्माओं के जितने भी 'अव्याप्यवृत्ति' अर्थात् अपने आश्रय को व्याप्त कर न रहनेवाले विशेष गुण हैं, अतिशीघ्न नष्ट हो जाना ही उनका स्वरूप है ।
'दिक्कालयोः' इत्यादि से कहते हैं कि संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये ही पाँच गुण दिशा और काल में रहते हैं । उक्त पाँच गुण ही इन दोनों के साधर्म्य १. रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व और वेगाख्य तथा स्थितिस्थापक संस्कार ये चौदह गुण पृथिवी के हैं । इन्हीं चौदह गुणों में गन्ध के स्थान में स्नेह को रख देने से जल के चौदह गुण हो
Ε
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६६
न्यायकादलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
साधर्म्यवैधयं
न्यायकन्दली
निमित्तकारणत्वञ्च साधर्म्यम् ।
ननु दिक्कालौ सर्वेषामुत्पत्तिमतां निमित्तमिति कुत एतत् प्रत्येतव्यम् ? यदि सन्निधिमात्रेण ? आकाशस्यापि कारणत्वं स्यात्, अथ तव्यपदेशात् ? सोऽप्यनैकान्तिकः, गृहे जातो गोष्ठे जात इत्यनिमित्तेऽपि दर्शनात् । अत्रोच्यते-अस्ति तावत तन्त्वादिप्रतिनियमात पटाद्यत्पत्तिवद्देशविशेषनियमात कालविशेषनियमाच्च सर्वेषामुत्पत्तिः, यदि देशकालविशेषावपि न कारणम्, अत्र क्वचन हेतवः कार्य कुर्य्यरविशेषात् । सर्वदा सर्वत्र कारणाभावात् कार्यानुत्पत्तिरिति चेत् ? यत्र देशे काले च कारणानि भवन्ति, तत्र तेषां जनकत्वं नान्यत्रेत्यभ्युपगन्तव्यं विशिष्ट देशकालयोरङ्गत्वम, कार्य्यजननाय तयोः कारणैरपेक्षणीयत्वात् । इदमेव च देशस्य कालस्य च निमित्तत्वम्, यदेकत्र कार्योत्पत्तिरन्यत्रानुत्पत्तिरिति । नहीं हैं, किन्तु सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं का निमित्तकारणत्व भी इन दोनों का साधयं है ।
(प्र०) यह कैसे समझें कि दिशा और काल सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं के निमित्तकारण हैं ? अगर सभी वस्तुओं की उत्पत्ति के पहिले नियत रूप से रहने के कारण ही ये दोनों सभी उत्पत्तिशील वस्तुओं के निमित्तकारण हैं, तो फिर आकाश में भी यह कारणता रहनी चाहिए । 'अभी घट की उत्पत्ति हुई है' या 'उस दिशा में पट की उत्पत्ति हुई है' इत्यादि व्यवहारों से भी काल और दिशा में निमित्तकारणता का मानना सम्भव नहीं है, क्योकि निमित्तकारणता के बिना भी 'घर में घट की उत्पत्ति हुई और गोष्ठ में पट की उत्पत्ति हुई' इस प्रकार के व्यवहारों की तरह उक्त व्यवहारों की उपपत्ति हो सकती है। (उ०) इस आक्षेप के उत्तर में कहना है कि जिस प्रकार पटादि कार्यों में यह नियम है कि वे तन्तु प्रभृति कारणों से ही उत्पन्न हों, उसी प्रकार सभी कार्यों की उत्पत्ति में देश और काल का भी नियम है। अगर ये दोनों अपेक्षित न हों तो फिर जहाँ-तहाँ विक्षि: कारणों से और भिन्नकालिककारणों से भी कार्यों की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि नियमित देश और नियमित काल के कारणों में और अनियत देश और अनियत काल के कारणों में स्वरूपतः (देश और काल के सम्बन्ध को छोड़कर) कोई अन्तर नहीं है। (१०) सभी देशों और सभी कालों में कारणों की सत्ता न रहने से ही सभी देशों और सभी कालों में कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। (उ०) तो फिर यह मानना पड़ेगा कि जिस देश में और जिस काल में सम्मिलित होकर जो सब कारण कार्य को उत्पन्न कर सके, उसी काल में और उसी देश में वे कारण हैं और कालों में नहीं और देशों में नहीं, जाते हैं । संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, भावनाख्य संस्कार, धर्म और अधर्म ये चौदह गुण आत्मा के हैं।
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६७.
স ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् क्षितितेजसो मित्तिकद्रवत्वयोगः ।
पृथिवी और तेज इन दो द्रव्यों का नैमित्तिक द्रवत्व का सम्बन्ध साधर्म्य है।
न्यायकन्दली क्षितितेजसो मित्तिकद्रवत्वयोगः । निमित्तादुपजातं ( नैमित्तिकम् ), नैमित्तिकञ्च तद्वत्वञ्चेति नेमित्तिकद्रवत्वम, तेन सह क्षितितेजसोर्योगः, पाथिवस्य सपिरादेस्तैजसस्य च सुवर्णरजतादेरग्निसंयोगेन विलयनात् । गुरुत्ववत्पार्थिवभेव द्रवत्वं दह्यमानेषु सुवर्णादिषु संयुक्तसमवायात् प्रतीयत इति चेत् ? न, पाथिबद्रवत्वस्यात्यन्ताग्निसंयोगेन भस्मीभावोपलब्धः, अस्य च तदभावात् । अत एव सुवर्णादिकमपि पार्थिवमेवेति कस्यचित् प्रवादोऽपि प्रत्युक्तः, पार्थिवत्वे सति सर्पिरादिवदत्यन्तवह्निसंयोगेन द्रवत्वोच्छेदप्रसङ्गात् ।
यदपीदमुक्तं पार्थिवं . सुवर्णादिकम्, सांसिद्धिकद्रवत्वाभावे सति इस प्रकार यह स्वीकार करना पड़ेगा कि देश और काल भी कार्योत्पत्ति के अङ्ग हैं, क्योंकि कार्य के उत्पादक सभी कारण काल और दिशा की अपेक्षा रखते हैं। काल और दिशा में सभी कार्यों का यही निमित्तकारण है कि किसी कालविशेष और देशविशेष में ही कार्यों की उत्पत्ति होती है, सभी कालों और सभी देशों में नहीं।
निमित्तादुपजातं नैमित्तकम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कारण से उत्पन्न हो उसे 'नैमित्तिक' कहते हैं । 'नैमित्तिमञ्च तद्रवत्वञ्चेति' इस कर्मधारय समास के बल से किसी निमित्त से उत्पन्न द्रवत्व ही नैमित्तिकद्रवत्व' शब्द का अर्थ है। उसके साथ सम्बन्ध ही पृथिवी और तेज का साधर्म्य है क्योंकि घृतादि पार्थिव द्रव्य और सुवर्णादि तैजस द्रव्य आग के संयोग से विलीन होते (पिघलते) दीख पड़ते हैं, अत: उनमें अवश्य ही नैमित्तिक द्रवत्व है। (प्र०) जिस प्रकार सुवर्ण में पार्थिव गुरुत्व की ही उपलब्धि संयुक्तसमवाय संबन्ध से होती है, उसी प्रकार सुवर्ण में पृथिवीगत नैमित्तिक द्रवत्व की ही सयुक्तसमवाय सम्बन्ध से उपलब्धि होती है। (अर्थात् सुवर्ण में नैमित्तिक द्रवत्व नहीं है)। (उ०) घृतादि पोथिव द्रव्यों में रहनेवाले नैमित्तिक द्रवत्व का यह स्वभाव है कि अग्नि के अत्यन्त संयोग से नष्ट हो जाना, सुवर्ण के द्रवत्व में यह बात नहीं है। इसी समाधान से स्वर्ण को पृथिवी होने का प्रवाद भी खण्डित हो जाता है, अगर सुवर्ण पार्थिव होता तो फिर घृतादि पार्थिव द्रव्यों के द्रवत्व की तरह सुवर्ण का द्रवत्व भी अग्नि के अत्यन्त संयोग से नष्ट हो जाता।
(प्र०) यह जो विरोधी अनुमान का प्रयोग किया जाता है कि सुवर्ण पार्थिव ही है, क्योंकि सांसिद्धिक द्रवत्व के न रहने पर भी उसमें गुरुत्व है, जैसे कि ढेले में (उ०) इस
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशतपादभाष्यम्
एवं सर्वत्र साधर्म्यं पर्य्ययाद्वैधर्म्यश्च वाच्यमिति द्रव्यासङ्करः । इसी प्रकार रहने के कारण साधर्म्य और नहीं रहने के कारण वैधर्म्य समझना चाहिए । अतः द्रव्यों में कोई साङ्कर्य नहीं है ।
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[ साधर्म्यवैधयं
न्यायकन्दली
गुरुत्वाधिकरणत्वाल्लोष्टादिवत्, तदप्यसारम्, किं तत्र गुरुत्वस्योपलब्धिस्तद्गुणत्वादुतान्यगुणत्वेऽपि घृतादिष्वपि स्नेहवत् स्वाश्रयप्रत्यासत्तिनिमित्तादिति संशयस्यानिवृत्तेः । यदपि साधनान्तरं परप्रकाश्यमानत्वादिति, तदप्यनुद्भूतरूपवत्त्वेनाप्युपपत्तेरसाधनम् । दिङ्मात्रमस्माभिरुपदिष्टम् ।
अनेनैव न्यायेन सर्वत्र पदार्थेऽन्यदपि साधर्म्यं स्वयं वाच्यम्, विपर्य्ययादितरव्यावृत्ते वैधर्म्यं वाच्यमिति शिष्यानाह - एवमिति ।
अनुद्दिष्टेषु पदार्थेषु न तेषां लक्षणानि प्रवर्त्तन्ते निर्विषयत्वात्, अलक्षितेषु च तत्त्वप्रतीत्यभावः कारणाभावात्, अतः पदार्थव्युत्पादनाय प्रवृत्तस्य शास्त्रस्योभयथा प्रवृत्तिः - उद्देशो लक्षणञ्च । परीक्षायास्त्वनियमः । यत्राभिहिते लक्षणे प्रवादान्तरव्याक्षेपात्तत्त्वनिश्चयो न भवति, तत्र परपक्षव्युदासार्थं
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अनुमान में भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि सुवर्ण में जिस गुरुत्व की उपलब्धि होती है वह उसका अपना गुण हैं, जैसे कि ढेले में, या उसमें संयुक्त किसी दूसरे द्रव्य का है, जैसे कि तेल में स्नेह का, इस संशय की निवृत्ति नहीं होती है । सुवर्ण तैजस नहीं है' इसको सिद्ध करने के लिए कोई यह हेतु देते हैं कि सुवर्ण तैजस इसलिए नहीं है कि वह (दीपादि ) दूसरे वस्तुओं से प्रकाशित होता है, किन्तु यह भी हेत्वाभास ही है, क्योंकि स्वर्ण को (दीपादि) दूसरे द्रव्यों से प्रकाशित होने की उपपत्ति उसके भास्वर शुक्ल रूप को अनुभूत मान लेने से भी हो सकती है। सुवर्ण मे तैजसत्व की साधक और बाधक युक्तियों का यही हम लोगों ने दिग्दर्शन मात्र किया है ।
इसी प्रकार सभी पदार्थों में और साधम्यों की भी कल्पना स्वयं करनी चाहिए । एवं जो साधर्म्य जिनमें न हो उसको उनका वैधर्म्यं समझना चाहिए । इसी विषय को शिष्यों को समझाने के लिए आगे 'एवम्' इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं ।
जिन पदार्थों का उल्लेख नामतः नहीं होता है, उनमें लक्षण को प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि उस लक्षण का कोई लक्ष्य ही निर्दिष्ट नहीं रहता है । एवं बिना लक्षण के पदार्थों का बोध ही असम्भव है । अतः पदार्थों के प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों की प्रवृत्ति नियमत: (१) उद्देश और (२) लक्षण भेद से दो ही प्रकार की होती है, परीक्षा रूप शास्त्र की प्रवृत्ति के प्रसङ्ग में नियम नहीं है, (अर्थात्) जहाँ लक्षण कहे जाने के
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
परीक्षाविधिरधिक्रियते । यत्र तु लक्षणाभिधानसामर्थ्यादेव तत्त्वनिश्चयः स्यात्, तत्रायं व्यर्थो नार्थ्यते । योऽपि हि त्रिविधां शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिच्छति, तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा, तत् कस्य हेतोः ? लक्षणमात्रादेव ते प्रतीयन्त इति । एवञ्चेदर्थप्रतीत्यनुरोधाच्छास्त्रस्य प्रवृत्तिर्न त्रिधैव । नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणं विचार: परीक्षा। उद्दिष्टविभागस्तु न विधान्तरम्, उद्देशलक्षणेनैव संगृहीतत्वात् । तथा हि पृथगुच्येत। एतान्येवेति नियमार्थं विशेषलक्षणप्रवृत्त्यर्थश्च विभक्तेषु पदार्थेषु तेषां विशेषलक्षणानि भवन्ति, अन्यथा तानि निविषयाणि स्युः। तत्र द्रव्याणि द्रव्यगुणकर्मेत्युद्दिष्टानि पृथिव्यप्तेज इति विभक्तानि । सम्प्रति तेषां विशेषलक्षणार्थं प्रकरणमारभ्यते।
बाद विरुद्ध मत के उपस्थित होने के कारण पदार्थों का तत्त्व ज्ञात नहीं होने पाता, वहीं विरुद्ध मत को खण्डित करने के लिए परीक्षा आरम्भ की जाती है। किन्तु जहाँ लक्षण के कहने से ही वस्तुओं का तत्त्वज्ञान हो जाता है, वहाँ व्यर्थ होने के कारण परीक्षा अपेक्षित नहीं होती है । जो कोई (न्यायभाष्यकार वात्स्यायन) शास्त्रों की प्रवृत्ति को (१) उद्देश, (२) लक्षण और (३) परीक्षा भेद से नियमतः तीन प्रकार का मानते हैं, उनके शास्त्र में भी प्रयोजनादि पदार्थों की परीक्षा नहीं है। इसका क्या कारण है ? यही कि वे लक्षण कहने मात्र से तत्त्वतः ज्ञात हो जाते हैं। अगर प्रतीति के अनुरोध से ही शास्त्रों की प्रवृत्ति होती है तो फिर वह नियम से तीन ही प्रकार की नहीं होती है (अधिक भी हो सकती है और अस्प भी) पदार्थों को केवल उनके नामों से निर्दिष्ट करना 'उद्देश' हैं । उद्दिष्ट पदार्थ को अपने से भिन्न सजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्न रूप से समझानेवाला धर्म ही 'लक्षण' है। लक्षण के द्वारा समझाये गये वस्तु का लक्षण के अनुसार विचार ही परीक्षा' है। 'उद्दिष्ट लक्षण' नाम की शास्त्र की कोई अलग प्रवृत्ति नहीं है, क्योंकि कथित उद्देश के लक्षण से ही वह गतार्थ हो जाता है। "उद्दिष्ट विभाग' नाम की अलग शास्त्र की प्रवृत्ति (१) 'पदार्थ इतने ही हैं। इस नियम के लिए या (२) विशेष लक्षणों की प्रवृत्ति के लिए इन्हीं दो प्रयोजनों से मानी जा सकती थी, क्योंकि विभाग किये हुए पदार्थों के ही विशेष लक्षण होते हैं । अगर ऐसा न हो तो फिर इन विशेष लक्षणों का कोई विषय ही नहीं रहेगा । यहाँ द्रव्यगुणेत्यादि ग्रन्थ से द्रव्यों का उद्देश हो गया है एवं 'पृथिव्यप्तेज' इत्यादि ग्रन्थ से वे विभक्त हुए हैं। अब द्रव्यों के विशेष लक्षण के लिए आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्ये पृथिवीअथ द्रव्यपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् इहेदानीमेकैकशो वैधर्म्यमुच्यते । पृथिवीत्वामिसम्बन्धात् पृथिवी ।
अब तक कहे हुए पदार्थों में से प्रत्येक का वैधर्म्य, अर्थात् असाधारण धर्म रूप लक्षण कहते हैं। पृथिवी जाति के सम्बन्ध से यह पृथिवी है यह व्यवहार करना चाहिए ।
न्यायकन्दली इहेदानीमिति । पूर्व द्वयोर्बहूनां परस्परापेक्षया वैधय॑मुक्तम् । इह वक्ष्यमाणे प्रकरणे सम्प्रत्येकैकस्य द्रव्यस्य व्यावर्त्तको धर्मः कथ्यते । एकैकश इति शस्प्रत्ययाद् वीप्सात्यन्तबहुव्याप्तिप्रदर्शनार्था ।
____ उद्देशकमेण पृथिव्याः प्रथमं वैधय॑माह-पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवीति । यो हि पृथिवीं स्वरूपतो जानन्नपि कुतश्चिद् व्यामोहात् पृथिवीति न व्यवहरति, तं प्रति विषयसम्बन्धाव्यभिचारेण व्यवहारसाधनार्थमसाधारणो धर्मः कथ्यते-पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवीति । इयं पृथिवीति व्यवहर्तव्या पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात्, यत् पुनः पृथिवीति न व्यवह्रियते, न तत् पृथिवीत्वेनाभिसम्बद्धम्, यथाबादिकम्, न चेयं पृथिवीत्वेन. नाभिसम्बद्धा, तस्मात् पृथिवीति व्यवहर्तव्येति । यो वा पृथिवीति लोके शृणोति, न जानाति च तस्याः स्वरूपं कीदृगिति, तं प्रति तस्याः स्वपरजातीयव्यावृत्तस्वरूपप्रतिपादनार्थमसाधारणो
(इससे) पहिले दो या दो से अधिक पदार्थों में रहनेवाले एक दूसरे की अपेक्षा से जो असाधारण धर्म हैं-वे ही कहे गये हैं। अब प्रत्येक द्रव्य में रहनेवाले असाधारण धर्म ही कहे जाते हैं। 'एकैकशः' इस पद में प्रयुक्त वीप्सा के बोधक 'शस्' प्रत्यय के प्रयोग से इस बात की सूचना होती है कि लक्षण कहने के इस क्रम का दायरा बहुत दूर तक अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के लक्षण कहने तक है।
पृथिवीत्वादिसम्बन्धात् पृथिवी । जो कोई पृथिवी को स्वरूपतः जानते हुए भी उसमें 'पृथिवी' शब्द का व्यवहार नहीं कर पाते पृथिवीत्व जाति और पृथिवीत्व जाति के अव्यभिचरित सम्बन्ध इन दोनों के द्वारा पृथिवी में 'पृथिवी' पद का उनके व्यवहार के लिए "पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् पृथिवी" इस वाक्य से पृथिवी का असाधारण धर्म कहते हैं । इसका व्यवहार 'पृथिवी' शब्द से करना चाहिए, क्योंकि इसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध है। जो पथिवी शब्द से व्यवहृत नहीं होता है, उसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध नहीं है, जैसे कि जलादि में, यह पृथिवी से असम्बद्ध भी नहीं है, तस्मात् इसका व्यवहार 'पृथिवी' शब्द से करना चाहिए । अथवा जो लोगों से 'पृथिवी' शब्द को सुनता है, किन्तु पृथिवी के स्वरूप को नहीं जानता कि वह कैसी है ? पृथिवी को सजातीयों से एवं विजातीयों से भिन्न समझानेवाले असाधारण धर्म
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसगन्धस्पर्शसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वसंस्कारवती । एते च गुणविनिवेशाधिकारे रूपादयो गुण
यह पृथिवी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व,संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व गुरुत्व, द्रवत्व और संस्कार इन चौदह गुणों से युक्त है । ये रूपादि गुणविशेष
न्यायकन्दली धर्मः कथ्यते, या लोके पृथिवीति व्यपदिश्यते सा पृथिवी, पृथिवीत्वाभिसम्बन्धात् । यथाहोद्योतकर:--"समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थः" (न्या० वा०) एतेनैतदपि प्रत्पुक्तम्, प्रसिद्धाश्चेत् पदार्था न लक्षणीयाः, अप्रसिद्धा नितरामशक्यत्वात्, स्वरूपेणावगतस्यापि व्यवहारविशेषप्रतिपादनार्थं सामान्येन प्रसिद्ध स्य विशेषावगमार्थञ्च लक्षणप्रवृत्तेः । नन्वेवं सत्यनवस्था, लक्ष्यवल्लक्षणस्याप्यन्ततो लक्षणीयत्वादिति चेन्न, अप्रतीतो लक्षणापेक्षित्वात्, सर्वत्र चाप्रतीत्यभावात् तथा हि--शिरसा पादेन गवामनुबध्नन्ति विद्वांसः, न पुनरेतावप्यन्यतः समीक्षन्ते । यस्तु सर्वथैवाप्रतिपन्नः, न तं प्रत्युपदेशः, तस्य बालमूकादिवदनधिकारात् ।। ____ गन्धसहचरितचतुर्दशगुणवत्त्वमपि पृथिव्या इतरेभ्यो वैधर्म्यमिति प्रतिपादयन्नाह--रूपरसगन्धेति । अत्र द्वन्द्वानन्तरं मतुप्प्रत्यययोगात् प्रत्येक के द्वारा उसे समझाने के लिए 'पथिवीत्वाभिसम्बन्धात्' इत्यादि वाक्य कहते हैं । जिसका व्यवहार लोक में 'पृथिवी' शब्द से होता है, वही पृथिवी है, क्योंकि उसमें पृथिवीत्व का सम्बन्ध है। जैसा कि उद्योतकर ने कहा है कि लक्ष्य को उसके समानजातीयों से एवं असमानजातीयों से भिन्न रूप में समझाना ही लक्षण का काम है। इससे यह आक्षेप भी खण्डित हो जाता है कि पदार्थ अगर प्रसिद्ध हैं तो फिर उनका लक्षण करना ही व्यर्थ है । अगर अप्रसिद्ध हैं तब तो और भी व्यर्थ है । स्वरूपतः ज्ञात वस्तुओं के विशेष व्यवहार के लिए एवं सामान्यतः प्रसिद्ध वस्तुओं के विशेष रूप से जानने के लिए ही लक्षण की प्रवृत्ति होती है। (प्र०) इस प्रकार तो अनवस्था होगी क्योंकि उन लक्षणों को विशेष रूप से जानने के लिए भी दूसरे लक्षणों की आवश्यकता होगी, उनके विशेष ज्ञान के लिए फिर तीसरे की । (उ०) सम्यक प्रतीति न होने पर ही लक्षणों की अपेक्षा होती है, किन्तु सभी स्थलों में वस्तुओं की अप्रतीति नही होती। विद्वान् लोग शिर और पैर से गाय को समझते हैं, किन्तु शिर और पैर को किसी ओर से समझने की आवश्यकता नहीं होती । जो व्यक्ति इन सब बातों से सर्वथा अनजान है, उसके लिए उपदेश है ही नहीं, क्योंकि वह तो बालक और गूंगे की तरह उपदेश का सर्वथा अनधिकारी है ।
"गन्ध से युक्त चौदह गुणों का रहना भी औरों की अपेक्षा से पृथिवी का असाधारण
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
१.
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प्रशस्तपादभाष्यम्
विशेषाः सिद्धाः। चाक्षुषवचनात् सप्त सङ्ख्यादयः । पतनोपदेशाद् गुरुत्वम् । 'गुणविनिवेशाधिकार' अर्थात् कौन गुण किस द्रव्य में है ? इसके प्रतिपादक वैशेषिक सूत्र के द्वितीय अध्याय के सूत्रों से पृथिवी में सिद्ध हैं । चाक्षुष घटित सूत्र ( ४ - १ - ११ ) से पृथिवी में संख्या प्रभृति सात गुण सिद्ध हैं । महर्षि कणाद ने ( ५-१-७ से ) कहा है कि पृथिवी पतनशील
[ द्रव्ये पृथिवी
न्यायकन्दली
रूपादीनां पृथिव्या सह सम्बन्धो लभ्यते । सूत्रकारस्याप्येते गुणाः पृथिव्यामभिमता इत्याह-- एते चेति । गुणानां विनिवेशो द्रव्येषु वृत्तिः, सा प्रतिपाद्यते अनेनाधिक्रियतेऽस्मिन्निति गुणविनिवेशाधिकारो द्वितीयोऽध्यायः । तस्मिन् रूपरसगन्धस्पर्शाः पृथिव्यां सिद्धाः सूत्रकारेण प्रतिपादिताः -- रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवीति । चाक्षुषवचनात् सप्त सङ्ख्यादयः । “सङ्ख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभाग परत्वापरत्वे कर्म च रूपिद्रव्यसमवायाच्चाक्षुषाणि" ( ४पृथिव्यां -१ ) इति चाक्षुषवचनाद् रूपवत्यां सङ्ख्यादयः सप्त
--
सिद्धाः । यदि ते रूपिद्रव्येषु न सन्ति तत्समवाये तेषां प्रत्यक्षत्वं सूत्रकारेण नोक्तं स्यादित्यर्थः ।
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धर्म है” यही समझाने के लिए "रूपरसगन्धस्पर्श संख्या" इत्यादि वाक्य है। इस वाक्य में द्वन्द्व समास के बाद मतुप् प्रत्यय है, अन: कथित रूपादि गुणों में से प्रत्येक का सम्बन्ध पृथिवी के साथ ज्ञात होता है । पृथिवी में 'इतने गुण है' इस विषय में महर्षि कणाद की सम्मति " एते च" इत्यादि से दिखलाते हैं। 'गुणानां विनिवेशोऽधिक्रियते अस्मिन् ' इस व्युत्पत्ति के बल से द्रव्य में गुणों की विद्यमानता जिसमें कही गयी है, वह द्वितीय अध्याय हो यहाँ 'गुणविनिवेशाधिकार' शब्द से कहा गया है । गुणविनिवेशाधिकार के "रूपरसगन्धस्पर्शवत्ती पृथिवी ” ( २ - १ - १ ) इस सूत्र से पृथिवी मे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श की सत्ता सूत्रकार ने कही है । "संख्या परिमाणानि पृथकत्वं संयोगविभागो परत्वापरत्वे च रूपिद्रव्यसमवायाच्चाक्षुषाणि " ( ४ - १ - १ ) इस सूत्र से संख्यादि सात गुणों को रूप युक्त द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध के कारण 'चाक्षुष' कहा है । जिससे रूपयुक्त पृथिवी में संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व और अपरत्व ये सात गुण समझना चाहिए | अभिप्राय यह है कि संख्यादि सात गुण अगर रूपवाले द्रव्यों में न रहते तो 'रूपिद्रव्य के समवाय से इनका प्रत्यक्ष होता है' यह सूत्रकार न कहते ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम् । उत्तरकर्मवचनात् संस्कारः। क्षितावेव गन्धः । रूपमनेकप्रकारं शुक्लादि। रसः षड् विधो मधुरादिः । गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । स्पर्शोऽस्या अनुष्णाशीतत्वे सति पाकजः । है' अतः (समझना चाहिए कि) गुरुत्व नाम का गुण भी पृथिवी में उन्हें अभीष्ट है । जल के साथ सादृश्य ( २-१-७ ) के कहने से पृथिवी में द्रवत्व भी उन्हें अभीष्ट है । शर प्रभृति पार्थिव, द्रव्य के उत्तर कर्म में संस्कार को कारण कहने ( ५-१-१७ ) से पृथिवी में (वेग और स्थितिस्थापक) संस्कार भी उन्हें अभिप्रेत हैं । गन्ध पृथिवी में ही है। शुक्लादि अनेक प्रकार के रूप भी पृथिवी में ही हैं। मधुरादि छः प्रकार के रस भी पृथिवी में ही हैं। सुरभि (सुगन्ध) और असुरभि (दुर्गन्ध) भेद से गन्ध दो प्रकार का है। पाकज अनुष्णाशीत स्पर्श भी पृथिवी में ही है।
न्यायकन्दली पतनोपदेशाद् गुरुत्वमिति । “संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात् पतनम्" ( ५। १ । ७) इत्युपदेशात् सूत्रकारेण पतनसम्बन्धिन्यां पृथिव्यां गुरुत्वमस्तीत्यर्थात् कथितम्, व्यधिकरणस्याकरणत्वात् । अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम्, “सपिर्जतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम्" ( २।१ । ७ ) इति वचनात् पृथिव्यां नैमित्तिकं
'पतनोपदेशाद् गुरुत्वम्' अर्थात् 'संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम् (५।१।७) इस सूत्र से महर्षि कणाद ने उपदेश किया है कि पतनशील पृथिवी में गुरुत्व है, क्योंकि एक आश्रय में विद्यमान वस्तु दूसरे आश्रय में कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। 'अद्भिः सामान्यवचनाद् द्रवत्वम्' अर्थात् “सपिजतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यम्” (२ । १ । ७) अर्थात् घृत, लाह, मोम प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में अग्नि के संयोग से द्रवत्व को उत्पत्ति होती है । यह (नैमित्तिक द्रवत्व) पृथिवी और जल दोनों
१. एक मात्र विजयनगरम् संस्कृत ग्रन्थमाला में मुद्रित न्यायकन्दली की पुस्तक में इस सूत्र का पाठ है "संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात्पतनम्'' (पृ. २६ पं० १४)। यद्यपि यह ठीक है कि विरुद्ध यत्न भी पतन का प्रतिबन्धक है, जिससे कि आकाश में उड़ते हुए पक्षी का पतन नहीं होता है। अतः पतन के लिए उसका भी अभाव अपेक्षित है। किन्तु ढेले को फेंकने पर कुछ दूर तक उसका भी पतन नहीं होता है, अतः वेग को भी पतन का प्रतिबन्धक कहना ही चाहिए। न कहने पर न्यूनता होगी। अत: प्रथमोपात्त संयोग पद को उपलक्षण मानकर उसे पतन के सभी प्रतिबन्धकों में लाक्षणिक
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये पृथिवी
न्यायकन्दली द्रवत्वमस्तीत्युक्तम् । मधूच्छिष्टशब्देन सिक्थस्याभिधानम् ।
उत्तरकर्मवचनात् संस्कार इति । "नोदनादाद्यमिषोः कर्म, तत्कर्मकारिताच्च संस्कारात् तथोत्तरमुत्तरञ्च" ( ५ । १ । १७) इति सूत्रकारेण इषौ पार्थिवद्रव्ये कर्महेतुः संस्कार इति दर्शयता पृथिव्यां वेगोऽस्तीति ज्ञापितम्, अविद्यमानस्याहेतुत्वात् । यथा चैक एव संस्कार आपतनात् तथोपपादयिष्यामः ।
क्षितावेव गन्धः । अयमस्यार्थः--केवल एवायमसाधारणधर्म इति । सुगन्धि सलिलम्, सुगन्धिः समीरण इति प्रत्ययाद् द्रव्यान्तरेऽपि गन्धोऽस्तीति चेन्न, पार्थिव द्रव्यसमवायेन तद्गुणोपलब्धः । कथमेष निश्चय इति चेत् ? तदभावेऽनुपलम्भात्। में समान रूप से है । 'मधूच्छिष्ट' शब्द का अर्थ है 'सिक्थ' अर्थात् मोम । इस सूत्र से महर्षि कणाद ने कहा है कि पृथिवी में नैमित्तिक द्रवत्व है।
'उत्तरकर्मवचनात् संस्कारः' अर्थात् 'नोदनादाद्यमिषोः कर्म, तत्कर्मकारिताच्च संस्कारात् तथोत्तरमुत्तरञ्च' (५-१-१७) । (अर्थात् तीर की पहिली क्रिया नोदन से होती है, उस क्रिया से उत्पन्न संस्कारों के द्वारा शर के आगे आगे की क्रियायें होती हैं) 'शर रूप पार्थिव द्रव्य में कर्म का कारण संस्कार है' इस उक्ति के द्वारा महर्षि कणाद ने यह सूचित किया है कि 'पृथिवी में वेग है', क्योंकि किसी आश्रय में अविद्यमान कोई भी वस्तु उस आश्रय में कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। पतन पर्यन्त एक ही वेगाख्य संस्कार जिस प्रकार से रहता है, उसका प्रतिपादन हम आगे करेंगे ।
'क्षितावेव गन्धः' इस वाक्य का अर्थ है कि गन्ध दूसरे की अपेक्षा न करते हुए केवल पृथिवी का असाधारण धर्म है । (प्र०) 'जल में सुगन्धि है, वायु में सुगन्धि है' इत्यादि प्रतीतियों से और द्रव्यों में भी गन्ध सूचित होता है ? (उ०) पार्थिव द्रव्य के (संयुक्तसमवेत) समवाय से ही जलादि द्रव्यों में गन्ध की उपलब्धि होती है। (प्र.) यह कैसे समझते हैं ? (उ०) क्योंकि पार्थिव द्रव्य का सम्बन्ध न रहने से जलादि में गन्ध की उपलब्धि नहीं होती है।
मानना पड़ेगा । तब 'प्रतियत्न' पद को आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसी अभिप्राय से वैशेषिक सूत्र के सर्वमान्य वृत्तिकार श्रीशङ्कर मिश्र ने भी इस सूत्र की व्याख्या की है (वै० उपस्कार पृ० १९७ पं० २३ गुजराती प्रे० सं०)। किरणावली में मुद्रित सत्र. पाठ में भी 'प्रतियत्न' शब्द नहीं है। (बनारस सं० सिरीज में मुद्रित किरणावली सूत्र पाठ पृ० ६ पं० १७) । अतः यहाँ पर 'संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात्पतनम्' यह पाठ न रखकर 'संयोगाभावे गुरुत्वात्पतनम्' यही पाठ रखना उचित समझा मया ।
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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७५.
यद्यपि रूपं त्रयाणाम्, तथाप्यवान्तरभेदापेक्षया तदपि पृथिव्या एव वैधर्म्यमाह - रूपमनेकप्रकारकमिति । अत्रापि क्षितावेवेत्यनुसन्धानीयम् । शुक्लपीताद्यनेकविधं रूपं क्षितावेव नान्यत्रेत्यर्थः । एकस्यां पृथिवीत्वजातौ नानारूपाणि व्यक्तिभेदेन समवयन्ति । क्वचिदेकस्यामपि व्यक्तावनेकप्रकाररूपसमावेशः, यत्र नानाविधरूप सम्बन्धिभिरवयवैरवयव्यारभ्यते । कथमेतदिति चेत् ? उच्यते, यथावयवैरवयव्यारब्धस्तथावयवरूपैरवयविनि रूपमारब्धव्यम्, अवयवेषु च न शुक्लमेव रूपमस्ति, नापि श्याममेव किन्तु श्यामशुक्लहरितादीनि । न च तेषामेकं रूपमेवारभते नापराणीत्यस्ति नियमः, प्रत्येकमन्यत्र सर्वेषामपि सामर्थ्यदर्शनात् । न च परस्परं विरोधेन सर्वाण्यपि नारभन्त एवेति युक्तम् । चित्ररूपस्यावयविन: प्रतीतेररूपस्य द्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वाभावाच्च । न चावयवरूपाणि समुच्चितान्यत्र चित्रधिया प्रतीयन्ते तेनैवावयवी प्रत्यक्ष इति कल्पनायामन्यत्रापि तथाभावप्रसङ्गेनावयविरूपोच्छेदप्रसङ्गः, तस्मात् सम्भूय तैरारभ्यते । तच्चारभ्यमाणं
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यद्यपि रूप पृथिवी, जल और तेज इन तीनों द्रव्यों में है, किन्तु अगर विशेष रूप से देखा जाय तो अनेक प्रकार के रूप पृथिवी में ही हैं, इस प्रकार रूप भी पृथिवी का असाधारण धर्म हो सकता है । इसी अभिप्राय से "रूपमनेक प्रकारकम्” यह वाक्य लिखा है । इस वाक्य में भी ' क्षितावेव' इतना इस अभिप्राय से जोड़ देना चाहिए कि शुक्ल पीतादि अनेक प्रकार के रूप पृथिवी में ही हैं, और द्रव्यों में नहीं । एक ही पृथिवीत्व जाति के द्रव्यों में व्यक्तिभेद से अनेक प्रकार के रूप देखे जाते हैं । कहीं एक ही व्यक्ति में नाना प्रकार के रूपों का समावेश देखा जाता है, जहाँ कि नाना रूप के अवयवों से एक अवयवी की उत्पत्ति होती है । (प्र०) यह कैसे होता है ? ( उ० ) जिस तरह अवयवों से अवयवी की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार अवयवों के रूपों से अवयवी रूप की उत्पत्ति होती है । (कथित पट के ) अवयवों में न केवल शुक्ल रूप ही हैं, न केवल नील रूप ही, किन्तु श्याम शुक्ल, हरित प्रभृति अनेक रूप हैं । इसका कोई नियामक नहीं है कि उनमें से कोई एक ही रूप अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हैं और रूप नहीं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक रूप और जगह अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हुए दीख पड़ते हैं । यह भी ठीक नहीं है कि यहाँ परस्पर विरोध के कारण कोई भी रूप अवयवी में रूप को उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि चित्र रूप से युक्त अवयवी का प्रत्यक्ष होता है, एवं बिना रूप के द्रव्य का चाक्षुषप्रत्यक्ष हो भी नहीं सकता । यह भी सम्भव नहीं है कि अवयवों के ही रूप अवयवी में सम्मिलित होकर चित्रबुद्धि से प्रतीत होते हैं, एवं उसी चित्र रूप से अवयवी का भी प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि इस प्रकार की कल्पना से तो सभी अवयवी की यही दशा होगी, फलत: अवयवियों से रूप की सत्ता ही उठ जाएगी । तस्मात् अवयवों
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ द्रव्ये पृथिवी
विविधकारणस्वभावानुगमाच्छ्यामशुक्लहरितात्मकमेव स्यात्, चित्रमिति च व्यपदिश्यते । विरोधादेकमनेकस्वभावमयुक्तमिति चेत् ? तथा च प्रावादुकप्रवादः -- “एकञ्च चित्रञ्चेत्येतत्तच्च चित्रतरं ततः" इति । को विरोधो नीलादीनाम्, न तावदितरेतराभावात्मकः, भावस्वभावानुगमादन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च । स्वरूपान्यत्वं विरोध इति चेत् ? सत्यमस्त्येव । तथापि चित्रात्मनो रूपस्य नायुक्तता, विचित्रकारणसामर्थ्यभाविनस्तस्य सर्वलोकप्रसिद्धेन प्रत्यक्षेणैवोपपादितत्वात् । अचित्रे पार्श्वे पटस्येव तदाश्रयस्य चित्ररूपस्य ग्रहणप्रसङ्गस्तस्यैकत्वादिति चेन्न, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां समधिगतसामर्थ्यस्यावयवनानारूपदर्शनस्यापि चित्ररूपग्रहणहेतुत्वात्, तस्थ च पाश्र्वान्तरेऽभावात् । नन्वेवं तहि नानारूपैर्द्वयणुकैरारब्धे द्रव्ये न चित्ररूपग्रहणम्, तदवयवरूपग्रहणाभावात् ? को नामाह न तथेति नहि परमसूक्ष्मस्य वस्तुनो रूपं विविच्य गृह्यते, यस्य तु विविच्य गृह्यते तस्यावयवरूपाण्यपि गृह्यन्ते । यस्त्वव्यापकानि बहूनि चित्ररूपाणीति मन्यते, तस्य नीलपीताभ्यामारब्धे
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प्रत्येक में भावत्व दोष भी होगा ।
के सभी रूप मिलकर ही उस अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हैं । इस अवयवी में उत्पन्न होनेवाला वह एक रूप कारणों के अनेक स्वभाव से श्याम शुक्ल और हरित स्वरूप ही होगा जो 'चित्र' शब्द से व्यवहृत होता है । ( प्र०) विरोध के कारण एक वस्तु को अनेक स्वभाव का मानना ठीक नहीं है । ( उ० ) लोक में यह प्रसिद्ध है कि 'चित्र' रूप एक है और यह उस चित्र रूप से चित्रतर' है । फिर नीलादि रूपों में परस्पर विरोध ही क्या है ? क्योंकि वे परस्पर अभाव स्वरूप नहीं हैं, क्योंकि उनमें से की प्रतीति होती है एवं परस्पराभाव रूप मानने में अन्योन्याश्रय ( प्र . ) एक में दूसरे की स्वरूपभिन्नता ही दोनों में विरोध है ? (उ.) यह विरोध ठीक है, किन्तु इससे चित्ररूप की अत्युक्तता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि विलक्षण कारणों से उत्पन्न चित्र रूप सर्वजनीन प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है । ( प्र . ) जिस पट के कुछ अंश बिलकुल सफेद हैं, और कुछ अंश चित्र रूप के हैं, उसमें शुक्ल रूप के ग्रहण से जैसे पट का ग्रहण होता है वैसे ही चित्र रूप का भी ग्रहण होना चाहिए, क्योंकि प्रकृत में शुक्लरूपाभय पट और चित्ररूपाश्रय पट दोनों एक ही हैं ? ( उ ) कारणता अन्वय और व्यतिरेक इन दोनों के अधीन है, ये दोनों जिसे जिसका कारण सिद्ध करेंगे वही उसका कारण होगा । तदनुसार चित्र रूप के प्रत्यक्ष में उसके आश्रय के अवयवों का प्रत्यक्ष भी कारण है । वह सफेदवाले अंश में नहीं है (इसी से वहाँ चित्र रूप का प्रत्यक्ष नहीं होता है) । ( प्र . ) तो फिर नाना रूप के द्वद्यणुकों से बने हुए द्रव्य चित्र रूप का प्रत्यक्ष नहीं होगा ? क्योंकि उत्पन्न होनेवाले द्रव्य के द्वथणुक रूप अवयव अतीन्द्रिय हैं, अतः उनके रूपों का ज्ञान सम्भव नहीं है । ( उ ) कौन कहता है कि
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مان
द्वितन्तुके रूपानुत्पत्तिरेकैकस्यावयवरूपस्यानारम्भकत्वात् । अथ मतम् - तत्रो - भाभ्यामेकं चित्रं रूपमारभ्यते, तदन्यत्रापि तथा स्यादविशेषात् । विवादाध्यासितं चित्रद्रव्यमेकरूपद्रव्यसम्बन्धि द्रव्यत्वादितरद्रव्यवत्, तद्गतं रूपमेकमवयविरूपत्वाद् इतरावयविद्रव्यरूपवत् ।
रसः षड्विध इत्यत्रापि पूर्ववद् व्याख्यानम् । यद् गन्धस्य भेदनिरूपणं तत् पारम्पर्येण पृथिव्या अपि स्वरूपकथनमित्यभिप्रायेणाह - गन्धो द्विविध इति । तदेव द्वैविध्यं दर्शयति - सुरभिरसुरभिश्चेति । असुरभिरिति सुरभिगन्धविरुद्ध प्रतिद्रव्यादिसमवेतं प्रतिकूलसंवेदनीयं गन्धान्तरम्, न तु तदभावमात्रम्, विधिरूपेण सातिशयतया च संवेदनात् । उपेक्षणीयस्तु गन्धोऽनुद्भूतसुरभ्यसुरभिप्रभेद एवेति पृथङ्नोच्यते । अथवा सोऽप्यसुरभिरेव, सुरभिगन्धादन्योऽसुरभिरिति
व्युत्पादनात् ।
सूक्ष्म वस्तु के रूप
ऐसा नहीं होता है । परम नहीं देखे जाते। जिसका रूप अच्छी तरह देखा जाता है उसके अवयवों के रूप भी देखे हो जाते हैं । जो कोई 'एक ही अवयवी में रहनेवाले अव्याप्यवृत्ति अनेक रूप ही चित्र रूप है' ऐसा मानते हैं उनके मत में नील और पीत रूप के दो तन्तुओं से भारब्ध पट में रूप की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि अवयव का एक रूप तो कारण नहीं है ( प्र . ) वहाँ दोनों रूप मिलकर एक चित्र रूप का उत्पादन करते हैं । (उ.) तो फिर और स्थानों में भी वही होगा, क्योंकि स्थिति में कोई अन्तर नहीं है । (१) विवाद का विषय यह चित्र द्रव्य एक रूप के द्रव्य का सम्बन्धी है, क्योंकि वह द्रव्य है । (२) उसमें रहनेवाला रूप एक ही है, क्योंकि वह अवयवी का रूप है । जैसे कि और अवयवी द्रव्यों का रूप ।
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इस पहिले स्वरूप का
'रसः षड् विध:' इस वाक्य की व्याख्या भी ' रुपमनेक प्रकारकम्' वाक्य की तरह है । गन्ध के भेद का निरूपण परम्परा से पृथिवी के ही निरूपण है, इसी अभिप्राय से 'गन्धो द्विविधः' इत्यादि वाक्य लिखते हैं । यही दोनों प्रकार 'सुरभिरसुरभिश्च' इस वाक्य से लिखते हैं। 'असुरभि' शब्द का अर्थ सुगन्ध के विरोधी किसी विशेष द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला अनभीष्ट रूप से ज्ञात होनेवाला दूसरा गन्ध है, केवल सुरभि का अभाव नहीं, क्योंकि भावत्व रूप से और न्यूनाधिक भाव से उसका भान होता है । उपेक्षणीय गन्ध अनुभूत सुरभि और धनु - भूत असुरभि का ही प्रभेद है, अतः उसे अलग से नहीं कहा गया । अथवा उपेक्षणीय गन्ध असुरभि' शब्द का ही अर्थ है, क्योंकि 'असुरभि' शब्द का ऐसा अर्थ है कि सुरभिगन्धादन्यो गन्धः' अर्थात् सुरभि गन्ध से भिन्न गन्ध ही 'असुरभि' शब्द का अर्थ है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये पृथिवी
प्रशस्तपादभाष्यम् सा च द्विविधा-नित्या चानित्या च । परमाणुलक्षणा नित्या, कार्यलक्षणा त्वनित्या। सा च स्थैय्याद्यवयवसन्निवेशविशिष्टाऽपरजातिबहुत्वोपेता शयनासनाद्यनेकोपकारकरी च ।
(१) परमाणुरूपा नित्य पृथिवी एवं (२) कार्यरूपा अनित्य पृथिवी, इस भेद से पृथिवी के दो भेद हैं। इनमें कार्यरूपा पृथिवी स्थैर्यादि (घनत्व शिथिलत्वादि) अवयवों के विलक्षण संयोग से युक्त है और उसमें अनेक अपर जातियाँ रहती हैं। वह बिछावन और आसनादि द्वारा अनेक उपकारों का कारण है।
न्यायकन्दली ____ यथाभूतः स्पर्शोऽस्या वैधा तथा दर्शयति-स्पर्शोऽस्या इति। पाकज: स्पर्शः पृथिव्या वैधा तस्य स्वरूपकथनमनुष्णाशीत इति। यद्यपि स्पर्शवत्पाकजौ रूपरसावप्यस्याः वैधगम्, तथापि रूपरसयोः पाकजत्वानभिधानम, अन्यथापि तयोर्वैधास्य सम्भवात्, वैधामात्रप्रतिपादनस्यैव विवक्षितत्वात् । अप्रतीयमानपाकजेषु स्तम्भादिषु स्पर्शस्य पाकजत्वमनुमानात् । स्तम्भादिषु स्पर्शः पाकजः, पार्थिवस्पर्शत्वात्, घटादिस्पर्शवत् । घटादिस्पर्शस्यापि पाकजत्वमेकेन्द्रियग्राह्यत्वे सति तद्गुणत्वात् तद्गतरूपवत् ।
अवान्तरभेदनिरूपणार्थमाह--नित्या चानित्या चेति । प्रकारान्तराभावसंसूचनाथौं चशब्दौ। का नित्या का चानित्येत्याह--परमाणुलक्षणा नित्या कार्यलक्षणा त्वनित्येति । उभयत्रापि लक्षणशब्दः स्वभावार्थः। परमाणु
'किस प्रकार का स्पर्श पृथिवी का असाधारण धर्म है' यह 'स्पर्शोऽस्याः' इत्यादि से दिखलाते हैं। पाकज स्पर्श हो पृथिवी का असाधारण धर्म है, 'अनुष्णाशीतः' यह अंश उसी के स्वरूप का कथन है। यद्यपि स्पर्श की तरह पाकज रूप एवं पाकज रस भी पृथिवी के असाधारण धर्म हो सकते हैं, फिर भी असाधारण धर्म के लिए कथित रूप और रस में पाकजत्व इस लिए नहीं कहा कि वे और तरह से भी पृथिवी के वैधर्म्य हो सकते हैं । यहाँ केवल वैधयं प्रतिपादन ही इष्ट है। स्तम्भादि जिन पार्थिव द्रव्यों के स्पर्श में पाकजत्व का प्रत्यक्ष नहीं होता है, उन स्पों में भी पाकजत्व का अनुमान करेंगे कि स्तम्भादि के स्पर्श पाकज हैं, क्योंकि वे पृथिवी के स्पर्श हैं, जैसे घटादि के स्पर्श । घट के स्पर्श में पाकजत्व का अनुमान इस प्रकार करेंगे कि वह पार्थिव होने के साथ साथ एक मात्र इन्द्रिय से गृहीत होता है, जैसे कि उसका रूप । (अतः वह भी पाकज है)। _ 'नित्या चानित्या च' यह वाक्य पृथिवी के अवान्तर भेद के निरूपण के सिए लिखते हैं । 'पृथिवी के और प्रकार नहीं हैं। इसकी सूचना देने के लिए ही दोनों 'च' शब्द लिखे गये हैं। इनमें कौन नित्य है ? और कौन अनित्य ? यह समझाने के
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७६
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
स्वभावायाः पृथिव्याः सत्त्वे किं प्रमाणम् ? अनुमानम्, अणुपरिमाणतारतम्यां क्वचिद् विश्रान्तं परिमाणतारतम्यत्वाद् महत्परिमाणतारतम्यवत्, यत्रेदं विश्रान्तं यतः परमणुर्नास्ति स परमाणुः। अत एव नित्यो द्रव्यत्वे सत्यनवयवत्वादाकाशवत् अथायं सावयवो न तर्हि परमाणुः, का परिमाणापेक्षया तदवयवपरिमाणस्य लोकेऽल्पीयस्त्वप्रतीतेः, यश्च तस्यावयवः स परमाणुर्भविष्यति । अथ सोऽपि न भवति, अवयवान्तरसद्भावात् ? एवं तीनवस्था, ततश्चावयविनामल्पतरतमादिभावो न स्यात्, सर्वेषामनन्तकारणजन्यत्वाविशेषेण परिमाणप्रकर्षाप्रकर्षहेतोः कारणसङ्ख्याभूयस्त्वाभूयस्त्वयोरसम्भवात् । अस्ति तावदयं परिमाणभेदः, तस्मादणुपरिमाणं क्वचिन्निरतिशयमिति सिद्धो नित्यः परमाणुः। स चैको नारम्भकः,
लिए लिखते हैं कि 'परमाणुलक्षणा नित्या, कार्यलक्षणा त्वनित्या' इस वाक्य के दोनों ही 'लक्षण' शब्द 'स्वभाव' के बोधक हैं। (प्र०) परमाणु स्वभाव की पृथिवी को सत्ता में प्रमाण क्या है ? (उ०) यह अनुमान प्रमाण है कि अणुपरिमाण का न्यूनाधिक भाव भी कहीं समाप्त होता है, क्योंकि वह भी परिमाण का न्यूनाधिक भाव है, जैसे कि महत्परिमाण का न्यूनाधिक भाव । अणुपरिमाण का यह तारतम्य जहाँ समाप्त होता है, चूंकि उससे छोटा कोई और अणु नहीं है, अतः वही परमाणु है । अतएव वह नित्य भी है, क्योंकि वह द्रव्य होने पर भी सावयव नहीं है जैसे कि आकाश । अगर वह सावयव है तो फिर वह परमाणु नहीं है, क्योंकि यह लोक में सिद्ध है कि कार्य के परिमाण से कारण का परिमाण अल्प होता है। फिर वही कारणीभूत द्रव्य परमाणु कहलायेगा। यह परमाणु भी नहीं कहला सकता, अगर इसके छोटे अवयव हैं। इस प्रकार (परमाणु को सावयव मानने में) अनवस्था होगी, एवं इस अनवस्था से अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े के भेद ही उठ जायेंगे। कोई अवयवी किसी दूसरे अवयवी से बड़ा इसलिए है कि उसका निर्माण उस छोठे अवयवी के निर्मापक अवयवों से अधिक संख्यक अवयवों से होता है। कोई अवयवी किसी अवयवी से छोटा इसलिए है कि उस अवयवी के निर्मापक अवयवों से अल्पसंख्यक अवयवों से उसका निर्माण होता है। अगर सभी को सावयव मान लें तो सभी अवयवियों को असंख्य अवयवों से निर्मित मानना पड़ेगा। फिर अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े का व्यवहार ही किससे होगा ? किन्तु अवयवियों में परस्पर छोटे बड़े का भेद सर्वजनीन अनुभव से सिद्ध है। तस्मात् अणुपरिमाण का न्यूनाधिक भाव अवश्य ही कहीं समाप्त होता है । जहाँ यह समाप्त होता है वही 'नित्य परमाणु' है। उन परमाणुओं में से किसी एक से ही कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इससे सभी समय कार्योत्पत्ति की आपत्ति होगो, कारण कि उसे दूसरे को अपेक्षा नहीं है । अगर एक ही नित्य वस्तु
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८०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये पृथिवी
न्यायकन्दली
एकस्य नित्यस्य चारम्भकत्वे कार्य्यस्य सततोत्पत्तिः स्यादपेक्षणीयाभावात्, अविनाशित्वञ्च प्रसज्येत, आश्रयविनाशस्यावयविभागस्य च विनाशहेतोरभावात् । त्रयाणामप्यारम्भकत्वमयुक्तम्, इह महत्कार्य्यद्रव्यस्योत्पत्तौ स्वपरिमाणापेक्षयाऽल्पपरिमाणस्य कार्यद्रव्यस्यैव सामर्थ्यदर्शनात् । त्र्यणुकं कार्य्यद्रव्येणैव जन्यते, महत्परिमाणत्वात्, घटवत्। एवं त्रयाणामेकस्य चारम्भकत्वे प्रतिक्षिप्ते द्वाभ्यामेव परमाणुभ्यामारभ्यते यत् तद्वयणुक मिति सिद्धम्। द्वयणुकर्बहुभिरारभ्यत इत्यपि नियमो न, द्वाभ्यां तस्याणुपरिमाणोत्पत्तौ कारणसद्भावेनाणुत्वोत्पत्तावारम्भवैयात, बहषु त्वनियमः । कदाचित् त्रिभिरारभ्यत इति त्र्यणुकमित्युच्यते, कदाचिच्चतुर्भिरारभ्यते, कदाचित् पञ्चभिरिति यथेष्टं कल्पना । न च कार्य्यस्य व्यर्थता, यथा यथा कारणसङ्घयाबाहुल्यं तथा तथा महत्परिमाणतारतम्योपलम्भात् । न चैवं सति द्वयणकानामेव घटारम्भकत्वप्रसक्तिः, घटस्य भङ्गेऽल्पतरतमादिभागदर्शनेन तथैवारम्भकल्पनात् तदेवं द्वयणुकादिप्रक्रमेण क्रियते कार्य्यलक्षणा पृथिवी।
से कार्य की उत्पत्ति मानें तो कार्य का विनाश ही असम्भव होगा, क्योंकि कार्यों का नाश दो ही वस्तुओं से सम्भव है, एक तो आश्रय के नाश से (समवायिकारण के नाश से) दूसरे अवयवों के विभाग से (फलतः असमवायिकारण के नाश से), ये दोनों ही प्रकार नित्य वस्तु से कार्यों की उत्पत्ति मान लेने पर असम्भव हैं । तीन परमाणु भी मिलकर कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकते, क्योंकि तीन परमाणुओं से जो बनेगा वह अवश्य ही महान् होगा। महत्परिमाण के कार्य द्रव्य का यह स्वभाव सर्वत्र देखा जाता है कि उसकी उत्पत्ति उसके परिमाण से न्यून परिमाणवाले कार्यद्रव्यों से होती है। तस्मात् त्र्यसरेणु कार्यद्रव्यों से उत्पन्न होता है, क्योंकि उसमें महापरिमाण है, जैसे कि घटादि । इससे एक परमाणु से और तीन परमाणुओं से कार्य की उत्पत्ति खण्डित हो जाने पर यह सिद्ध होता है कि दो परमाणुओं से ही कार्य की उत्पत्ति होती है, एवं उस कार्य का नाम द्वयणुक है। यह भी निश्चित ही है कि दो से अधिक द्वयणुकों से ही कार्य की उत्पत्ति हो सकती है, दो द्वथणुकों से नहीं, क्योंकि दो द्वयणुकों से उत्पन्न कार्य का परिमाण 'अणु' ही होगा, क्योंकि उसके परिमाण में अणुपरिमाण को ही उत्पन्न करने का सामर्थ्य है। दो द्वथणुकों से जिस अणुपरिमाणवाले द्रव्य की उत्पत्ति होगी उसका उत्पन्न होना ही व्यर्थ है। दो से अधिक कितने द्वथणुकों से कार्य की उत्पत्ति होती है, इसका कोई नियम नहीं है, कभी तीन द्वयणुकों से ही कार्योत्पत्ति होती है, कभी चार या पाँच द्वयणुकों से कार्योत्पत्ति की यथेच्छ कल्पना की जा सकती है। इस पक्ष में कार्योत्पत्ति की व्यर्थता नहीं है, क्योंकि जिस क्रम से कारणों की संख्या में अधिकता होगी, उसी क्रम से उनके कार्यों में परिमाण
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भाषानुवादसहितम्
९१
प्रशस्तपादभाष्यम् त्रिविधं चास्याः कार्यम् । शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञकम् । इसके कार्य (१) शरीर (२) इन्द्रिय और (३) विषय भेद से तीन प्रकार के
न्यायकन्दली सा चानित्या कारणविभागस्याश्रयविनाशस्य च हेतोः सम्भवात् । कार्यलक्षणायाः पृथिव्या अनित्यत्वेन सह धर्मान्तरं समुच्चिन्वन्नाह-सा चेति । स्थैर्य निबिडत्वम् । आदिशब्दात् प्रशिथिलत्वादिपरिग्रहः । अवयवानां सन्निवेशोऽवयवसंयोगविभागविशेषः । स्थैर्यादयश्चावयवसन्निवेशाच तैविशिष्टा अपरजातिबहुत्वोपेता गोत्वादिजातिभूयस्त्वयुक्तेत्यर्थः । परमाण्वादिष्वपरजात्यभावेऽप्यदृष्टवशात्तथा तथा तेषां व्यूहो यथा यथा तदारब्धेष्वपरजातयो व्यज्यन्ते। नन्वदृष्टकारिता सर्वभावानां सृष्टिः, कार्यलक्षणा पृथिवी कामर्थक्रियां पुरुषस्य जनयति, येनेयमदृष्टेन क्रियत इत्यत आह-शयनासनेति । शयनासनादयोऽनेक उपकारास्तत्कारिणी कार्यलक्षणेति । तारतम्य भी बढ़ता जाएगा, किन्तु इसे द्वयणुक में साक्षात् घट की उत्पादकता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि घट के नष्ट होने पर अन्य छोटे बड़े अवयव दीख पड़ते हैं। उसीके अनुसार द्वयणुक से उत्पन्न होनेवाले कार्य की कल्पना करते हैं। तस्मात् परमाणुओं से द्वयणुकादि क्रम से कार्य रूप पृथिवी की. उत्पत्ति होती है।
यह कार्य रूप पृथिवी अनित्य है, क्योंकि आश्रयविनाश एवं अवयवों के विभाग, कार्यविनाश के ये दोनों ही हेतु सम्भावित हैं । कार्य रूप पृथिवी में अनित्यत्व के साथ और धर्मों का समावेश कहते हुए 'सा च' इत्यादि वाक्य लिखते हैं । 'स्थैर्य' शब्द का अर्थ है निबिडत्व, कठोरता । 'आदि' पद से प्रशिथिल त्व, कोमलत्व प्रभृति का संग्रह अभीष्ट है। 'अवयवसं निवेश' शब्द का अर्थ है अवयवों का विशेष प्रकार का संयोग । ('स्थैर्याद्यवयवसंनिवेशविशिष्टा' ) इस वाक्य का विग्रह इस प्रकार है कि स्थैर्यादयश्च अवयवसंनिवेशाश्च स्थैर्याद्यवयवसंनिवेशाः' तैः विशिष्टा स्थाद्यवयव. संनिवेश विशिष्टा । 'अपरजातिबहत्वोपेता' अर्थात् गोत्वादि अनेक प्रकार की अपर जातियाँ उसमें रहती हैं। यद्यपि कार्य रूप पृथिवी के मूल कारण परमाणुओं में ये अपर जातियां नहीं हैं, किन्तु अदृष्टवश उनसे इस प्रकार से कार्यों की उत्पत्ति होती है कि उनमें ये गोत्वादि अपरजातियां अभिव्यक्त होती हैं। अगर सभी वस्तुओं की उत्पत्ति अदृष्ट से ही होती है तो फिर यह कार्यरूपा पृथिवी जीवों के किन प्रयोजनों का सम्पादन करती है कि उन्हें अदृष्ट से उत्पन्न मानें ? इसी प्रश्न का समाधान 'शयनासन' इत्यादि से देते हैं। अर्थात् शयन और आसन प्रभृति जीवों के अनेक उपकरण कार्यरूपा पृथिवी के द्वारा सम्पादित होते हैं।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये पृथिवीप्रशस्तपादभाष्यम् शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजञ्च । तत्रायोनिजमनपेक्ष्य शुक्रशोणितं देवर्षीणां शरीरं धर्मविशेषसहितेभ्योऽणुभ्यो जायते । क्षुद्रजन्तूनां यातनाशरीराण्यधर्मविशेषसहितेभ्योऽणुभ्यो जायन्ते । शुक्रशोणितसन्निपातजं योनिजम् । तद् द्विविधं जरायुजमण्डजञ्च । मानुषपशुमृगाणां जरायुजम् । पक्षिसरीसृपाणामण्डजम् । हैं। इनमें शरीर (१) योनिज और (२) अयोनिज भेद से दो प्रकार का है। इनमें एक प्रकार के अयोनिज शरीर देवताओं और ऋषियों के हैं, जो शुक्र और शोणित की अपेक्षा न रखकर विशेष प्रकार के धर्म और परमाणुओं से ही उत्पन्न होते हैं। (दूसरे प्रकार के) अयोनिज शरीर (मशकादि) क्षुद्र जीवों के हैं जो (शुक्र शोणित की अपेक्षा न रखकर ) अधर्म एवं परमाणुओं से उत्पन्न होते हैं। शुक्र और शोणित के संयोग से उत्पन्न शरीर को ही योनिज शरीर' कहते हैं । योनिज शरीर भी (१) जरायुज और (२) अण्डज भेद से दो प्रकार का है। मनुष्य, पशु एवं मृगादि के शरीर जरायुज' हैं, एवं चिड़ियों और साँप प्रभृति जीवों के शरीर 'अण्डज' हैं।
न्यायकन्दली
कार्यान्तरं त्वस्याः समुच्चिनोति-त्रिविधमिति। कार्यवैविध्यमेव दर्शयति-शरीरेत्यादि । शरीरमिन्द्रियं विषय इति संज्ञा यस्य कार्यस्य तत्तथा। भोक्तुर्भोगायतनं शरीरम्, मृतशरीरे तद्योग्यत्वात् तद्व्यपदेशः। शरीराश्रयं ज्ञातुरपरोक्षप्रतीतिसाधनं द्रव्यमिन्द्रियम् । शरीरेन्द्रियव्यतिरिक्तमात्मोपभोगसाधनं द्रव्यं विषयः । शरीरभेदं कथयति-- योनिजमयोनिजञ्चेति । शुक्रशोणितसन्निपातो योनिः, तस्माज्जातं योनिजम, तद्विपरीतमयोनिजम् । तदेव दर्शयति--तत्रायोनिजमिति । तयोर्योनिजायोनिजयो
पृथिवी के और कार्यों का सङ्कलन 'शरीर' इत्यादि से करते हैं। अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और विषय ये तीन नाम जिनके हैं वे ही 'शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञक, हैं । भोग करनेवाला ( जोव) जिस आश्रय में भोग करे वही 'शरीर' है। मृत शरीर में भोग की योग्यता के कारण शरीरत्व का व्यवहार होता है। शरीर में रहनेवाला एवं जीव के अपरोक्ष ज्ञान का सम्पादक द्रव्य ही इन्द्रिय है। शरीर और इन्द्रिय को छोड़कर जीवों के भोग के सम्पादक जितने द्रव्य हैं वे सभी विषय' हैं। 'योनिजमयोनिजञ्च' इत्यादि से शरीर का भेद दिखलाते हैं। प्रकृत में 'योनि' शब्द का अर्थ है शुक्र और शोणित का मेल । उससे उत्पन्न होनेवाले 'योनिज' कहलाते हैं, एवं इसके विपरीत जो कार्य शुक्र और शोणित के मेल के बिना ही उत्पन्न होता है, उसे 'अयोनिज' कहते हैं। इस अर्थ को 'तत्रायोनिजम्' इत्यादि वाक्य से समझाते हैं।
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली मध्येऽयोनिजं शरीरं शक्रशोणितमनपेक्ष्य जायते। केषामित्यत आह--देवर्षीणामिति। देवानाञ्च ऋषीणाञ्चेत्यर्थः । अन्वयव्यतिरेकावधारितकारणभावस्य शुक्रशोणितस्याभावे कथं शरीरस्योत्पत्तिरित्यत आह-धर्मविशेषसहितेभ्य इति । विशिष्यत इति विशेषः, धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः, प्रकृष्टो धर्मः, तत्सहितेभ्योऽणुभ्य इति । अयमभिसन्धिः--शरीरारम्भे परमाणव एव कारणम्, न शुकशोणितसन्निपातः, नियाविभागादिन्यायेन तयोविनाशे सत्युत्पन्नपाकजः परमाणुभिरारम्भात् । न च शुक्रशोणितपरमाणूनां कश्चिद्विशेषः, पार्थिवत्वाविशेषात् । अत्रापि कार्ये जातिनियमस्यादृष्ट एव हेतुः, एवञ्चेद्धर्मविशेषानुगृहीतेभ्यः परमाणुभ्योऽयोनिजशरीरोत्पत्तिर्नानुपपन्ना । ननु दृष्टस्तावत् सर्वत्र शरीरोत्पत्तौ शुक्रशोणितयोः पूर्वकालतानियमः, तेन यथा ग्रावोन्मज्जनाभ्युपगमस्तत्सदृशग्रावान्तरनिमज्जन
'तत्र' अर्थात् योनिज और अयोनिज इन दोनों में अयोनिज शरीर अपनी उत्पत्ति में शुक्र एवं शोणित के मेल की अपेक्षा नहीं रखते । ये अयोनिज शरीर किनके हैं ? इस प्रश्न का समाधान 'देवर्षीणाम्' इत्यादि से देते हैं। अर्थात् देवताओं और ऋषियों के शरीर अयोनिज हैं। शुक्र और शोणित में शरीर की कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है, फिर देवताओं और ऋषियों के शरीर बिना शुक्रशोणित के ही कैसे उत्पन्न होते हैं ? इसी आक्षेप का उत्तर 'धर्मविशेषसहितेभ्यः' इस वाक्य से दिया गया है। 'विशिष्यत इति विशेषः, धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उत्कृष्ट धर्म ही इस 'धर्मविशेष' शब्द से इष्ट है। इसकी सहायता से परमाणु ही देवादि शरीरों को उत्पन्न करते हैं। अर्थात् उन शरीरों की उत्पत्ति परमाणुओं से ही होती हैं शुक्र और शोणित के मेल से नहीं। क्रियाविभागादिक्रम से' अर्थात् पहिले अवयवों में क्रिया उसके बाद अवयवों का विभाग, फिर आरम्भक संयोग का नाश, अनन्तर कार्य द्रव्य का नाश, इस क्रम से जब शुक्र और शोणित का परमाणु पर्यन्त विनाश हो जाता हैं, तब इन परमाणुओं में दूसरे रूप रसादि की उत्पत्ति होती है, एवं इन पाकज रुपरसादि गुणों से युक्त परमाणुओं से ही शरीर की उत्पत्ति होती है। शुक्र और शोणित के आरम्भक परमाणुओं में एवं अन्य पार्थिव परमाणुषों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों में पार्थिवत्व समान रुप से है। योनिज-शरीर स्थलों में भी किसी विशेष प्रकार के शक्रशोणित से किसी विशेष प्रकार के (द्रव्य रुप शरीर) की ही उत्पत्ति हो, इसमें अदृष्ट को ही (नियामक) कारण मानना पड़ता है। अगर ऐसी बात है तो फिर उत्कृष्ट धर्म से अनुगृहीत परमाणुओं के द्वारा अयोनिज शरीर की उत्पति में कोई अयुक्तता नहीं है। (प्र.) जिस प्रकार किसी पत्थर के तैरने को स्वीकार करना उसी तरह के दूसरे पत्थर के डूबने के बाधक प्रमाण के द्वारा असम्भव होता है, उसी प्रकार सर्वत्र
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[व्रव्ये पृथिवी
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
ग्राहकप्रमाणान्तरविरोधादनुपपन्नस्तद्वदयोनिजशरीराभ्युपगमोऽपि, नैवम्, शुक्रादिनिरपेक्षस्यापि शलभादिशरीरस्य दर्शनात् । विशिष्टसंस्थानस्य शरीरस्य शुकादिपूर्वतावगतेति चेत् ? सत्यम्, तथापि न नियमसिद्धिः, किमदृष्टविशेषाभावादस्मदादिशरीरस्य शुक्रादिपूर्वता, किं वा विशिष्टसंस्थानमात्रानुबन्धकृतेति संदेहात्। एतेन बाधकानुमानमपि पर्य्यदस्तम्, तस्य व्याप्तिसंदेहात् । यच्चात्र वक्तव्यं तद्योगिप्रत्यक्षनिरूपणावसरे वक्ष्यामः ।
____ अधर्मविशेषेणाप्ययोनिजं शरीरं भवेतीत्याह--क्षुद्रजन्तूनामिति । क्षुद्रजन्तवो दंशमशकादयस्तेषां यातना पीडा दु:खमिति यावत्, तदर्थं शरीरं यातनाशरीरम् । तदधर्मविशेषसहितेभ्योऽणुभ्यो जायते। इदन्त्विह लोकसिद्धमेव । योनिजं शरीरमाह--शुक्रशोणितसन्निपातजमिति । शुक्रञ्च शोणितञ्च तयोः सन्निपातः संयोगविशेषः, तस्माज्जातं योनिजदेहोत्पत्ति से पहिले नियमतः शुक्रशोणित को देखने के कारण अयोनिज शरीर का मानना सम्भव नहीं है ? (उ०) नहीं, क्योंकि शुक्र और शोणित के विना भी कीड़े-मकोड़े प्रभृति के अनेक शरीर देखे जाते हैं । (प्र.) फिर भी कुछ शरीर तो नियमतः शुक्रशोणित से ही उत्पन्न होते हैं। (उ०) तब भी यह सन्देह रह ही जाता है कि जिन शरीरों की उत्पत्ति के पहिले शुक्र शोणित का संनिपात नियमतः देखा जाता है, उस (नियम) का कारण (शुक्रशोणित निरपेक्ष शलभादि शरीर के सम्पादक अदृष्ट के सदृश) अदृष्ट का अभाव है ? अथवा उस शरीर का ही यह स्वभाव है कि वह बिना शक्रशोणित के उत्पन्न ही न हो । तस्मात् यह नियम ही नहीं हो सकता कि सभी शरीर शुक्र और शोणित से ही उत्पन्न हों। इससे यह बाधक अनुमान भी खण्डित हो जाता है कि देवादि शरीर भी शुक्रशोणितपूर्वक हैं, क्योंकि वे भी विशेष आकार के हैं जैसे कि मनुष्यशरीर क्योंकि कथित युक्ति से इस अनुमान की व्याप्ति ही संदिग्ध है। इस विषय में और जो कुछ भी कहना है वह योगिप्रत्यक्ष के निरूपण में कहेंगे ।
'क्षुद्रजन्तूनाम्' इत्यादि पङ्क्ति से कहते हैं कि विशेष प्रकार के अधर्म से भी अयोनिज शरीर की उत्पत्ति होती है। ये 'क्षुद्रजन्तु' हैं डांस, मच्छर प्रभृति । इनके शरीर 'यातनाशरीर' कहलाते हैं, 'यातना' शब्द का अर्थ है पीड़ा, दुःख । भोग करना ही जिस शरीर का प्रधान प्रयोजन हो वही है 'यातनाशरीर' । वे विशेष प्रकार के अधर्मों से सहकृत परमाणुओं से ही उत्पन्न होते हैं । यह विषय आपामर प्रसिद्ध है। शुक्रशोणितसंनिपातजम' इत्यादि से योनिज शरीर का निरूपण करते हैं । शुक्र और शोणित इन दोनों का जो 'संनिवेश' अर्थात् विशेष प्रकार का संयोग, उस संयोग से 'जात' अर्थात् जन्म हो जिसका वही 'योनिज' शब्द से व्यवहृत होता है।
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
मित्युच्यते । पितुः शुक्रं मातुः शोणितं तयोः सन्निपातानन्तरं जठरानलसम्बन्धाच्छुकशोणितारम्भकेषु परमाणुषु पूर्वरूपादिविनाशे सति समानगुणान्तरोत्पत्तौ द्वचणुकादिप्रक्रमेण कललशरीरोत्पत्तिस्तत्रान्तःकरणप्रवेशो न तु शुक्रशोणितावस्थायाम्, शरीराश्रयत्वान्मनसः । तत्र मातुराहाररसो मात्रया संकामति, अदृष्टवशात् । तत्र पुनर्जठरानलसम्बन्धात् कललारम्भकपरमाणुः क्रियाविभागादिन्यायेन कललशरीरे नष्टे समुत्पन्नपाकजैः कललारम्भकपरमाणुभिरदृष्टवशादुपजातक्रियैराहारपरमाणुभिः सह सम्भूय शरीरान्तरमारभ्यत इत्येषा कल्पना शरीरे प्रत्यहं द्रष्टव्या । शरीरभेदे कि प्रमाणम् ? परिमाणभेदः, स्वल्पपरिमाणावच्छिन्ने आश्रये महत्परिमाणस्य परिसमाप्त्यभावात् । अवस्थान्तरापन्नं शरीरं तदाश्रयो भवतीति चेत् ? अवस्थान्तरमाहारावयवसहकारिणः शरीरा
पिता का शुक्र एवं माता का शोणित इन दोनों के मेल के बाद माता के उदर सम्बन्धी तेज से शुक्र के और शोणित के आरम्भक परमाणुओं के पहिले के रूपादि का नाश एवं दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। परिवर्तित रूपादि से युक्त इस शुक्र और शोणित के परमाणुओं से कलल' नाम के शरीर की उत्पत्ति होती है । इस शरीर में ही मन का सम्बन्ध होता है, शुक्रशोणितावस्था में नहीं, क्योंकि मन शरीर में ही रह सकता है । उस शरीर में माता से खायी हुई वस्तुओं के रस का कुछ अंश सम्बद्ध होता है । ' अदृष्टवश उस 'कलल' नामक शरीर के आरम्भक परमाणुओं में क्रिया होती है, फिर विभाग होता है। इस प्रकार द्रव्य नाश के कथित क्रम से उस कलल शरीर का नाश हो जाता है। इस नाश के बाद कलल के आरम्भक परमाणुओं के पहिले रूपादि का उसी तेज के संयोग से नाश होता है और दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। पाकज रूपादि से युक्त कलल के आरम्भक ये परमाणु, अदृष्ट से उत्पन्न क्रिया से युक्त ( माता के ) आहार के परमाणुओं से मिलकर दूसरे शरीर को उत्पन्न करते हैं। शरीर के नाश और शरीरान्तर की उत्पत्ति की यह प्रक्रिया प्रतिदिन चलती है। अभिप्राय यह है कि अवस्था की वृद्धि के साथ हाथ पैर प्रभृति अङ्गों की लम्बाई चौड़ाई कुछ हद तक बढ़ती है, या शरीर ही कुछ दुबला पतला होता ही रहता है। यह ह्रास और वृद्धि पहिले शरीर के नाश के बाद अभिनव शरीर की उत्पत्ति मानने पर ही सम्भव है। इसी विषय को प्रश्नोत्तर रूप से समझाते हैं । (प्र.) एक ही व्यक्ति के भिन्न भिन्न शरीर मानने में क्या प्रमाण है ? (उ०) परिमाण का भेद (ही प्रमाण है) । अल्प परिमाण के द्रव्य में उस से बड़े परिमाण का समावेश नहीं हो सकता। (प्र.) वही शरीर दूसरी अवस्था पाकर उस बड़े परिमाण का आश्रय होगा। (उ०) इस दूसरी अवस्था का उत्पादक कौन है ? आहार के अवयवों से साहाय्यप्राप्त शरीर के ही अवयव ? या आहार के अवयवों
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न्यायकन्दली
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तपादभाष्यम्
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न्यायकन्दली
वयवा आरभेरन् शरीरं वा तत्सहकृतम्, उभयथापि पटादिषु तन्त्वादिवदन्ते होनाधिकपरिमाणवदनेकशरीरोपलम्भः स्यात्, न चैवम्, तस्मात् पूर्व प्रनष्टमपरञ्च शरीरमुपजातम् । विवादाध्यासिते परिमाणे भिन्नाश्रये, हीनाधिकपरिमाणत्वात्, घटशरावपरिमाणवत्, विवादाध्यासितं परिमाणमाश्रयविनाशादेव विनश्यति परिमाणत्वात् मुद्गराभिहतविनष्टघटपरिमाणवत् । प्रत्यभिज्ञानाच्छरीरंकत्वसिद्धिरिति चेत् ? न तस्य सादृश्यविषयत्वेनाप्युपपत्तेः । व्यक्तीनामव्यवधानोत्पादनेनान्तराग्रहणस्यात्यन्तिकसादृश्यस्य च भ्रान्तिहेतोः सर्वदा सम्भवे ज्वालादिव्यक्तिवन्दं तदिति बाधकानुदयेऽपि युक्तिद्वारेण बाधकसम्भवात् ।
[ द्रव्ये पृथिवी
तस्य प्रकारं दर्शयति - द्विविधमिति । द्वे विधे प्रकारौ यस्य तद् द्विविधमिति व्याख्या । जरायुरिति गर्भाशयस्याभिधानम्, तेन वेष्टितं जायत इति
'द्विविधम्' इत्यादि से योनिज शरीर का भेद तद् द्विविधम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस वस्तु के का अर्थ है । 'जरायु' शब्द का अर्थ है गर्भाशय,
(मोटे और पतले ) दोनों उन दोनों में घड़े और
से सहकृत शरीर ही ? दोनों ही प्रकार से यह अनुपपन्न है, क्योंकि स्वल्प परिमाण के अवयवों से आरब्ध पट और उससे अधिक परिमाणवाले अवयवों से आरब्ध घट दोनों की उपलब्धि एक समय में हो सकती है. उसी प्रकार एक ही व्यक्ति में एक ही समय में मोटे और पतले दोनों शरीरों की उपलब्धि होनी चाहिए, किन्तु होती नहीं है, अतः ऐसे स्थलों में एक शरीर का नाश और दूसरे शरीर की उत्पत्ति माननी ही पड़ेगी । (उक्त विषय के साधक अनुमान ये हैं कि ) (१) विवाद के विषय शरीरों के परिमाण दो विभिन्न व्यक्तियों में रहते हैं, क्योंकि पुरवे के परिमाणों की तरह एक न्यून है, दूसरा अधिक । (२) परिमाण मुद्गर से विनष्ट घट के परिमाण की तरह आश्रय के नष्ट होते हैं, क्योंकि ये भी ( जन्य ) परिमाण हैं, (प्र०) एक ही पतले दोनों शरीरों में परस्पर यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि मैंने पहिले देखा था उसी को अभी देख रहा हूँ । इसी प्रत्यभिज्ञा से दोनों शरीरों में एकत्व की सिद्धि करेंगे | ( उ० ) दो सदृश व्यक्तियों में भी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है. जैसे कि दीपशिखाओं में । यह और बात है कि दीपशिखाओं के एकत्व का बाधक अत्यन्त परिस्फुट होने के कारण उस प्रत्यभिज्ञा में अयथार्थत्व शीघ्र गृहीत हो जाता है, शरीर बिना व्यवधान के बराबर उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, अतः व्यवधान का अज्ञान और अत्यन्त सादृश्य ये दोनों भ्रान्ति रूप प्रत्यभिज्ञा के कारण बराबर रहते हैं, किन्तु युक्ति के द्वारा विचार करने पर विलम्ब से ही सही उस प्रत्यभिज्ञा का बाध अवश्य होता है ।
'जिसको
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विवाद के विषय ये
नष्ट होने पर ही व्यक्ति के मोटे और
दिखलाते हैं । 'द्वे विधे प्रकारौ यस्य दो प्रकार हों वही 'द्विविध' शब्द उससे वेष्टित होकर जन्म होने के
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মৰ ]
भाषानुवादसहितम्
८७
प्रशस्तपादभाष्यम् इन्द्रियं गन्धव्यञ्जकं सर्वप्राणिनां जलाधनभिभूतैः पार्थिवावयवैरारब्धं घ्राणम् ।
इन्द्रिय रूप पृथिवी वह है जिससे सभी प्राणियों को गन्ध का ज्ञान होता है। यह जलादि से अनभिभूत पार्थिव अवयवों से बनती है। इस इन्द्रिय का अन्वर्थ नाम है 'घ्राण' ।
न्यायकन्दली जरायुजम् । अण्डं बिम्बं तेन वेष्टितं जायते तदण्डजम् । केषां जरायुजं केषां चाण्डजमित्यत्राह-मानुषेत्यादि । मानुषा अस्मदादयः, पशवः छागाः, “अग्नीषोमीयं पशुमालभेत", "सप्तदश प्राजापत्यान पशूनालभेत" इति दर्शनात् । मृगाः कृष्णसारादयः, तेषां जरायुजं शरीरम् । इदञ्चोपलक्षणपरम्, अन्येषामपि चतुष्पदां जरायुजत्वात् । पक्षिण: प्रसिद्धाः। सरीसृपाः सस्तेिषामण्डजं शरीरम् । एतदपि न नियमार्थमन्येषामपि मत्स्यादीनामण्डजत्वात् ।
इन्द्रियमाह-इन्द्रियमिति । सर्वप्राणिनां गन्धव्यञ्जकं गन्धोपलम्भक यदिन्द्रियं तत् पार्थिवावयवैरारब्धम् । एतावता नियमो न लभ्यते यदेतदेव गन्धमभिव्यनक्ति नान्यत् पाथिवं द्रव्यम्, तदर्थमाह-- जलाधनभिभूतैः पार्थिवावयवैरारब्धं घ्राणम् । जलादिभिरनभिभूतैरप्रतिहतसामर्थ्यरवयवैरदृष्टवशादितरविलक्षणमारब्धमेतत्, अतो विशिष्टोत्पादाकारण ही (मानुषादि) शरीर जरायुज हैं । 'मानुष' इत्यादि पङ्क्तियों से समझाते हैं कि किन प्राणियों के शरीर जरायुज हैं और किन प्राणियों के अण्डज । 'मानुष' हैं हम लोग, पशु शब्द का अर्थ है छाग, मेमना आदि । छाग रूप अर्थ में पशु शब्द के प्रयोग करने का यह अभिप्राय नहीं है कि 'जरायुज' इतने ही हैं, क्योंकि सभी चौपाये भी जरायज ही हैं । 'पक्षि' शब्द का अर्थ प्रसिद्ध है। 'सर्प' शब्द से साँप अभिप्रत है। इन सभी योनिजों के शरीर अण्डज हैं । इसका यह भी अभिप्राय नहीं कि अण्डज इतने ही हैं, क्योंकि मांछ प्रभृति ओर भी अण्डज हैं ।
___'इन्द्रियम्' इत्यादि से पार्थिव इन्द्रिय का निरूपण करते हैं । सभी प्राणियों के गन्धव्यञ्जक' अर्थात् सभी प्राणियों के गन्ध प्रत्यक्ष की उत्पादक इन्द्रिय ही पार्थिव अवयवों से बनती है । किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह इन्द्रिय रूप पार्थिवद्र व्य ही गन्ध के प्रत्यक्ष का उत्पादक है और कोई पार्थिव द्रव्य नहीं । इसी नियम की सूचना के लिए लिखते हैं कि 'जलाद्य नभिभूतैः पार्थिवावयवैरारब्धं घ्राणम्' अर्थात् जिन पार्थिव अवयवों का सामर्थ्य जलादिगत किसी विरोधी शक्ति से नष्ट नहीं है, अदृष्टवश उन पार्थिव अवयवों से आरब्ध यह घ्राणन्द्रिय रूप पार्थिव द्रव्य और पाथिव द्रव्यों से
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये पृथिवी
प्रशस्तपादभाष्यम् विषयस्तु द्वयणुकादिक्रमेणारब्धस्त्रिविधो मृत्पाषाणस्थावरलक्षणः ।
विषय रूप पृथिवी परमाणुओं से द्वयणुक, व्यसरेणु प्रभृति के क्रम से उत्पन्न होती है। विषय रूप पृथिवी भी (१) मृत्तिका, (२) पाषाण और (३) स्थावर
न्यायकन्दली दिदमेव गन्धाभिव्यक्तिसमर्थम्, नान्यदित्यर्थ । घ्राणमिति तस्य संज्ञा । आत्मा जिघ्रति गन्धमुपादत्तेऽनेनेति कृत्वा तत्सद्भावे गन्धोपलब्धिरेव प्रमाणम्, क्रियायाः करणसाध्यत्वात्, चक्षुरादिव्यापारे च तस्या अनुत्पादात् । पार्थिवत्वेऽपि रूपादिषु मध्ये गन्धस्येवाभिव्यञ्जकत्वं प्रमाणम्, कुङ्कुमगन्धाभिव्यञ्जकघृतवत् । यथा घृतं स्वगन्धसहितमेव कुङकुमगन्धमभिव्यनक्ति, तथा घ्राणमपि स्वगन्धसहितमेवेन्द्रियम्, अतो न स्वगन्धस्य ग्राहकम्, तेनव तस्याग्रहणात् । यथा घ्राणस्य तथा रसनचक्षुस्त्वगिन्द्रियाणामपि वक्ष्यमाणेन दृष्टान्तबलेन रूपरसस्पर्शसहकृतानामेवेन्द्रियत्वानुमानान्न स्वगुणग्रहणम्। श्रोत्रन्तु शब्दगुणमिन्द्रियम्, अतस्तेनैव शब्दोपलम्भः। सर्वथा विलक्षण है। इन विलक्षण कारणों से उत्पन्न होने के हेतु ही और पार्थिव द्रव्यों में गन्ध की व्यञ्जकता नहीं है, ब्राण में ही है । घ्राण इस इन्द्रिय का नाम है। इस नाम की व्युत्पत्ति से ही घ्राणेन्द्रिय की सत्ता में प्रमाण भी सूचित होता है । 'आत्मा जिघ्रत्यनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे आत्मा को गन्ध का प्रत्यक्ष हो वही 'प्राण' है। फलतः यह अनुमान निकला कि गन्ध ग्रहण रूप क्रिया का कोई करण है, क्योंकि वह भी क्रिया है, जैसे कि छेदनक्रिया । चक्षु प्रभृति और इन्द्रियों के व्यापार से गन्ध का ज्ञान नहीं होता है. तस्मात् चक्षुरादि इन्द्रियों से विलक्षण कोई इन्द्रिय अवश्य है, जिसका अन्वर्थ नाम 'घ्राण' है । घ्राण में पार्थिवत्व इस अनुमान प्रमाण से सिद्ध है कि घ्राणेन्द्रिय पार्थिव है, क्योंकि रूपादि वस्तुओं में से वह केवल गन्ध के ही प्रत्यक्ष का उत्पादक है, जैसे कि कुङ्कुम के गन्ध को अभिव्यक्त करानेवाला घृत । जिस प्रकार घृत अपने गन्ध के साथ ही कुकुम के गन्ध का अभिव्यञ्जक है, उसी प्रकार से घ्राण भी अपने गन्ध के साथ ही सभी गन्धों का अभिव्यञ्जक है। अतः घ्राण से स्वगत गन्ध का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रत्यक्ष होनेवाले गन्ध से भिन्न दूसरे गन्ध से युक्त ध्राण से ही प्रत्यक्ष होता है, अतः स्वगत गन्ध से युक्त घ्राण से घ्राणगत गन्ध का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है। इसी प्रकार आगे के दृष्टान्त से यह समझना चाहिए कि रस से युक्त रसना रूप से युक्त चक्षु एवं स्पर्श से युक्त त्वचा में ही इन्द्रियत्व अर्थात् रसादि प्रत्यक्ष का करणत्व है, अतः इन सबों से भी स्वगत रूपादि का प्रत्यक्ष नहीं होता है। श्रोत्र रूप इन्द्रिय का तो शब्द ही केवल विशेष गुण है, अतः उसीसे शब्द का प्रत्यक्ष होता है।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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तत्र भूप्रदेशाः प्राकारेष्टकादयो मृत्प्रकाराः । पाषाणा मणिवचादयः । स्थावरास्त णौषधिवृक्षलता व तान वनस्पतय इति ।
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उपल
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भेद से तीन प्रकार की है । भूमि रूप प्रदेश, दीवाल, ईटें आदि मृत्तिका के ही प्रभेद हैं । साधारण पत्थर से लेकर मणि एवं वज्र पर्यन्त सभी पत्थर पाषाण ही हैं । औषधि, वृक्ष, लता, अवतान, वनस्पति प्रभृति सभी स्थावर रूप पृथिवी हैं । न्यायकन्दली
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शरीरेन्द्रियाभ्यां विषयस्य स्वरूपविशेषं 'तु' शब्देन दर्शयन् भेदं दर्शयतिविषयस्त्विति । द्वयणुकादिप्रक्रमेणारब्ध इति साधारणरूपानुवादः । मृत्पाषाणस्थावरलक्षण इति । मृत्पाषाणस्थावरादिस्वभाव इत्यर्थः । तेषां मध्ये मृदं स्वरूपेण निर्द्धारयन्नाह - तत्रेति । तत्र भूप्रदेशाः स्थलनिम्नादयः प्राकारेष्टकादयः सर्वे ते मृत्प्रकाराः, मृत्प्रभेदा इत्यर्थः । पाषाणभेदमाह– पाषाणा इति । उपलाः शिलाः, मणयः सूर्य्यकान्तादयः, वज्रोऽशनिर्होरश्च । तृणमुलपादिः, औषधयः फलपाकान्ता गोधूमादय:, ये सपुष्पफलास्ते वृक्षाः कोविदारप्रभृतयः, लता प्रसिद्धैव, अवतन्वन्तीत्यवताना नाम विटपाः केतकी बीजपूरादयः, ये विना पुष्पं फलन्ति ते वनस्पतय औदुम्बरादयः । ननु स्वेच्छाधीनचेष्टाविरहः स्थावरत्वम्, तत्तु मृत्पाषाणयोरप्यस्ति । सत्यम्, तयो रूपान्तरस्यापि सम्भवादनेन रूपेणाभिधानं न कृतम् ।
'तु' शब्द से शरीर और इन्द्रिय में परस्पर भेद दिखलाते हुए विषय रूप पृथिवी का भेद 'विषयस्तु' इत्यादि से दिखलाते हैं । 'वह द्वघणुकादि क्रम से उत्पन्न होती है' यह कहना केवल उसके साधारण धर्म का अनुवाद है । 'मृत्पाषाणस्थावरलक्षणः' अर्थात् मिट्टी, पत्थर एवं स्थावर सभी वस्तु विषयरूपा पृथिवी हैं । इसमें मिट्टी को औरों से अलग करते हुए 'तत्र' इत्यादि ग्रन्थ लिखते हैं । इनमें चौरस एवं नीची ऊँची सभी भूमि 'भूप्रदेश' हैं। दीवाल, ईंटा प्रभृति सभी विषय मृत्तिका के ही प्रभेद हैं । 'पाषाणा:' इत्यादि से पत्थर का भेद कहते हैं । उपल' शब्द का अर्थ है शिला, अर्थात् साधारण पत्थर, 'मणि' है सूर्यकान्त प्रभृति 'वज्र' है अशनि ( इन्द्र का अस्त्र ) और हीरा । 'तृण' है 'उलप' प्रभृति, 'औषधि' वह कहलाता है जो अपने फल के पकने तक ही रहे, जैसे गेहूँ प्रभृति । जिसमें फूल और फल दोनों ही लगे वह 'वृक्ष' है, कोविदार प्रभृति । 'लता' शब्द से माधवी लता प्रभृति प्रसिद्ध ही है । अवतन्वन्ति इति अवताना:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार बड़ा वृक्ष ही 'अवतात' है, जिसे 'विटप' कहते हैं ( पीपल आदि महावृक्ष) । (प्र०) जिसमें स्वाधीन चेष्टा न रहे वही स्थावर है । तदनुसार मिट्टी और पत्थर भी स्थावर के अन्तर्गत आ जाते हैं, फिर उनका अलग से निरूपण क्यों ? ( उ० ) ठीक है, किन्तु स्थावरत्व से
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न्यायकन्दली संचलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये जल
अपत्वाभिसम्बन्धादापः ।
'यह जल है' इस प्रकार का व्यवहार 'जलत्व' जाति के सम्बन्ध से करना चाहिए ।
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न्यायकन्दली
अपां लक्षणमाह-- अपत्वाभिसम्बन्धादापः । अत्रापि व्यवहारसाधनं समानासमानजातीयव्यवच्छेदो वा लक्षणार्थ: पूर्ववत् । इदन्त्विह वक्तव्यम् - स्वयं प्रत्यक्षाधिगतपदार्थभेद: परस्य लक्षणेन प्रतिपादयेत्, अप्रतिपन्नस्याप्रतिपादकत्वात् । भेदश्व पदार्थानामन्योन्याभावलक्षणः । स च यस्याभावो यत्र चाभावस्तदुभयग्रहणेन गृह्यते, अन्यथा तत्स्वरूपप्रतिनियमेन निषेधानुपपत्तिः, गौरश्वो न भवतीति । तत्र किं सङ्कीर्णयोरुभयोर्ग्रहणादन्योन्याभावग्रहणं परस्परविविक्तयोर्वा ? सङ्कीर्णग्रहणे तावदयमयं न भवतीति प्रतीत्यसम्भव एव । परस्परविविक्तयोर्ग्रहणादभावप्रतीतावितरेतराश्रयत्वम्, विविक्तयोर्ग्रहणे सत्यभावग्रहणमभावग्रहणे च विविक्तग्रहणम्, अभाव एव विवेको यतः । अत्रोच्यते, भिन्नयोरितरेतराभावो नत्वितरेतरादूसरे रूप से भी वे कहे जा सकते हैं, अतः वे स्थावर वर्ग में नहीं कहे गये ।
'अप्त्वाभिसम्बन्धादाप:' इत्यादि से जल का लक्षण कहते हैं । यहाँ भी 'यह जल है' इस व्यवहार का साधन अथवा जल को उनके सजातीत एवं विजातीय वस्तुओं से पृथक् रूप से समझाना हौ जल के लक्षण का प्रयोजन है । ( प्र०) यहाँ यह पूछना है कि जिस व्यक्ति को लक्ष्य और उसके सजातीय विजातीयों के भेद प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात हैं, वही व्यक्ति लक्षण के द्वारा इस विषय को दूसरों को समझा सकता है अज्ञ व्यक्ति किसी को भी नहीं समझा सकता । पदार्थों के भेद एवं अन्योन्याभाव दोनों ही एक वस्तु हैं । जिसमें जिस वस्तु का अन्योन्याभाव समझाना है, उन दोनों के ज्ञान से ही अन्योन्याभाव ज्ञात होता है । अन्यथा गो अश्व नहीं है' इस निषेध के लिए नियमतः प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों का उल्लेख अनुपपन्न हो जाएगा। इस प्रसङ्ग में प्रष्टव्य है कि भेद-ज्ञान के लिए परस्पर सम्बद्ध अनुयोगी और प्रतियोगी इन दोनों का ज्ञान आवश्यक है या परस्पर असम्बद्ध अनुयोगी और प्रतियोगी का ज्ञान ? इनमें परस्पर सम्बद्ध प्रतियोगी और अनुयोगी के नहीं है, क्योंकि 'यह' (घट) 'यह' (पट) नहीं है' इस प्रकार की प्रतीति नहीं होती है । परस्पर विविक्त अनुयोगी और प्रतियोगी के ज्ञान से अगर भेद का ज्ञान मानें तो फिर अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य होगा, क्योंकि भेद का ज्ञान परस्पर विविक्त प्रतियोगी और अनुयोगी के ज्ञान से होगा, एवं भेद-ज्ञान से परस्पर विवेक की वृद्धि होगी, क्योंकि
ज्ञान से तो भेद का ज्ञान सम्भव
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसस्पर्शद्रवत्वस्नेहसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वा
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६१
परत्वगुरुत्व संस्कारवत्यः । पूर्ववदेषां सिद्धिः ।
यह (जल) रूप, रस, स्पर्श, द्रवत्व, स्नेह, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व और संस्कार इन चौदह गुणों से युक्त है । पृथिवी की तरह सूत्र के वाक्यों से जल में ( भी ) गुणों की सिद्धि समझनी चाहिए ।
न्यायकन्दली
भावो भेदः । यदेतद् वस्तुनः प्रात्यात्मिकं स्वरूपं स एव भेदः, तच्चापरदर्शनानपेक्षमिन्द्रियसन्निकर्षमात्रादेव प्रतीयमानं प्रत्येकं विलक्षणमेव संवेद्यते । तथा हिगवार्थी नाश्वदर्शनात् प्रवर्त्तते, गोशब्दञ्च न स्मरति, तत्राश्वे गवि च स्वेन स्वेनात्मना गृह्यमाणेन तत्स्वरूपनियमेनान्योन्याभावप्रतीतिर्नानुपपन्ना । न चैवं सति वाच्यं स्वरूपभेद एवास्तु किमन्योन्याभावेनेति, तस्यापि प्रतिषेधविषयस्य संवेदनात् ।
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न केवलमपत्वमपां वैधर्म्यं स्नेहसहचरितं चतुर्दशगुणवत्त्वमपीतरेभ्यो वैधर्म्यमिति प्रतिपादयन्नाह - रूपरसेति । अत्र द्वन्द्वानन्तरं मतुप्प्रत्ययः करणीयः । पूर्ववदेषां सिद्धिः । यथा पूर्वं पृथिव्यां सूत्रकारवचनादेषां रूपादीनां गुणानां विवेक वस्तुतः भेद ही है । ( उ० ) इस प्रश्न के समाधान में हम यह कहते हैं कि परस्पर भिन्न दो वस्तुओं में अन्योन्याभाव रहता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि (प्रकृत) भेद और अन्योन्याभाव दोनों ( यहाँ ) एक ही वस्तु हैं । प्रत्येक वस्तु में रहनेवाला असाधारण धर्म ही यहाँ ( भेद ) है । यह भेद ( आश्रय में ) इन्द्रिय सम्बन्ध के होते ही और किसी के ज्ञान की अपेक्षा न करके और व्यक्तियों के असाधारण धर्म से विलक्षण रूप में प्रतिभासित होता है। गाय का प्रयोजन जिस व्यक्ति को है, वह अश्व के देखने से न प्रवृत्त होता है, न गो शब्द का स्मरण हो करता है । वहाँ गो और अदव में असाधारण रूप से ज्ञात होनेवाले नियमित तत्तत् असाधारण धर्मों से दोनों में अन्योन्याभाव की प्रतीति में कोई अन्तर नहीं आता । इस लिए यह प्रश्न भी ठीक नहीं है कि ( प्र०) वस्तुओं के तत्तत् असाधारण धर्म से अतिरिक्त भेद मानने की आवश्यकता नहीं है । ( उ० ) क्योंकि भेद की प्रतीति नञ् प्रभृति निषेधार्थक शब्दघटित वाक्यों से होती है । केवल जलत्व जाति ही इसका असाधारण धर्म नहीं है, किन्तु स्नेहादि चोदह tat आश्रयत्व भी औरों से जल का वैधर्म्य है, यह उपपादन करते हुए रूप, रस, इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं । यहाँ द्वन्द्व समास के बाद मतुप् प्रत्यय करना चाहिए । 'पूर्ववदेषां सिद्धि:' जैसे कि पहिले अर्थात् पृथिवी में सूत्रकार के वाक्यों से रूपादि गुणों की सिद्धि
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ द्रव्ये जल
प्रशस्तपादभाष्यम् शुक्लमधुरशीता एव रूपरसस्पर्शाः ।
रूपों में शुक्ल रूप ही जल में है, रसों में मधुर रस ही एवं स्पर्शों में शीतस्पर्श ही है।
न्यायकन्दली सिद्धिः प्रतिपत्तिस्तथाप्स्वपीत्यर्थः । तथा च सूत्रम्- रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाश्च" इति । सङ्घयादिप्रतिपादकन्तु साधारणमेव सूत्रम् । वैधर्म्यनिरूपणावसरे पृथिव्यादिसाधारणानां रूपादीनामभिधानमयुक्तमित्याशयावान्तरभेदेनैषामसाधारणत्वं प्रतिपादयति-शुक्लेत्यादि । शुक्लमेव रूपमपाम्, मधुर एव रसः, शीत एव स्पर्शः। अप्सु रूपान्तरप्रतीतिराश्रयरूपभेदात् । कथमेतदिति चेत् ? तासामेवोद्धृत्य वियति विक्षिप्तानां धवलिममात्रप्रतीतेः, पुनिपतितानामाश्रयरूपानुविधानात् । तासु न मधुरो रसो गुडादिवदप्रतिभासनादिति चेत् ? न, कटुकषायतिक्तलवणाम्लविलक्षणस्य रसस्य संवेदनात्, गुडादिवदप्रतिभासनन्तु माधुर्यातिशयाभावात् । अर्थात् ज्ञान होता है, उसी प्रकार जल में भी ( समझना चाहिए )। जैसा कि सूत्र है"रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवा: स्निग्धाश्च” (२।१।२) । अर्थात् रूप, रस, स्पर्श, द्रवत्व और स्नेह से युक्त वस्तु ही जल है । संख्यादि नौ गुणों के लिए वही साधारण ('सख्याः परिमाणानि' इत्यादि ४ । १ । ११) सूत्र है । रूपादि जितने गुण पृथिवी प्रभृति और द्रव्यों में भी रहते हैं. जल के वैधर्म्य के निरूपण के प्रसङ्ग में उनका निरूपण क्यों? इस प्रकार का प्रश्न अपने मन में रखकर ये रूपादि गुण भी जिस रीति से जल के वैधर्म्य हो सकते हैं वह रीति 'शुक्लमधुर' इत्यादि से कहते हैं । ( रूपों में ) शुक्ल रूप ही ( जल में ) है, एवं ( रसों में ) मधुर रस ही जल में है, एवं ( स्पर्शों में) शीत स्पर्श ही ( जल में ) है। आश्रय रूप उपाधि के भेद से ही जल में दूसरे रूपों की प्रतीति होती है । (प्र०) यह कैसे समझते हैं ? (उ०) उसी जल को आकाश की ओर उछाल कर आश्रय से विच्छिन्न कर दिया जाय तो फिर उस (जिस जल में नील-रूप का भान होता है ) में भी शुक्ल रूप की ही प्रतीति होती है। (प्र.) जल में मधुर रस नहीं है, क्योंकि गुड़ प्रभृति द्रव्यों की तरह जल में मधुर रस की प्रतीति नहीं होती। ( उ० ) यह स्वीकृत सत्य है कि 'जल में रस हैं', किन्तु वह रस कटु, कषाय, तिक्त, लवण और अम्ल से भिन्न है, अतः जल का रस मधुर ही है, क्योंकि इनसे भिन्न कोई सातवाँ रस नहीं है । गुड़ प्रभृति द्रव्यों की तरह जल में मधुर रस का भान इसलिए नहीं होता कि इसमें गुड़ादि द्रव्यों की तरह उत्कट माधुर्य नहीं है। केवल इससे जल में मधुर रस के अभाव की सिद्धि नहीं हो सकती।
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भाषानुवादसहितम्
६३
प्रशस्तपादभाष्यम् स्नेहोऽम्भस्येव सांसिद्धिकञ्च द्रवत्वम् । स्नेह एवं सांसिद्धिक ( स्वाभाविक ) द्रवत्व केवल जल में ही रहते हैं।
न्यायकन्दली निविशेष एव स्नेहोऽपां वैधर्म्यमिति ध्वनति-स्नेहोऽम्भस्येवेति । नन्वयं पृथिव्यामपि वर्त्तते, यथा क्षीरे तैले सपिषि च । न सर्वत्र, पाषाणेष्टकाशुष्कन्धनादिष्वसम्भवात् । यत्तु क्वचित् क्षीरादिषु दर्शनं तत्संयुक्तसमवायादुदकगतस्यैव, यथा सांसिद्धिकद्रवत्वस्य क्षीरतैलयोः । उदकधर्मत्वन्तु स्नेहस्य सर्वत्र तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् । तथा चानूपदेशप्रभवानां तरुणादीनां स्निग्धता, जाङ्गलप्रदेशप्रभवानाञ्च रूक्षता । तत्रापि सततं परिषिच्यमानमूलानां स्निग्धत्वं तद्विरहिणाञ्च तन्नास्तीति।
सांसिद्धिकञ्च द्रवत्वमिति । न केवलं स्नेहः, स्वभावसिद्धञ्च द्रवत्वमम्भस्येवेत्यर्थः । क्षीरतैलयोस्त्वाश्रयसन्निकर्षेण तदुपलम्भः, क्वचित् तयोघनत्वोपलम्भात् ।
किसी और वस्तु को साथ में न लेकर भी स्वतन्त्र रूप से केवल स्नेह जल का असाधारण धर्म हो सकता है, यही बात 'स्नेहोऽम्भस्येव' इस वाक्य से सूचित करते हैं । (प्र०) स्नेह तो जल की तरह दूध, तेल, घी प्रभृति में भी है ? ( उ०) नहीं, क्योंकि पत्थर, इट, सूखे काठ प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में स्नेह की उपलब्धि नहीं होती। दूध प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में जल का स्नेह हो संयुक्तसमवाय सम्बन्ध से उपलब्ध होता है जैसे कि दूध प्रभृति में ही स्रांसिद्धिक द्रवत्व की उपलब्धि होती है : सभी जलों में स्नेह की उपलब्धि ( रूप अन्वय ) एवं जल से भिन्न सभी वस्तुओं में स्नेह की अनुपलब्धि ( रूप व्यतिरेक ) ये ही दोनों 'स्नेह जल के ही धर्म है' इसमें प्रमाण है । अतः 'अनूप' देश में उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि और तिनके स्निग्ध, एवं "जाङ्गल' प्रदेश में उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि रूक्ष देखे जाते हैं। जाङ्गल प्रदेश में भी बराबर सींचे जाने वाले वृक्षादि स्निग्ध देखे जाते हैं तथा बराबर न सींचे जानेवाले वृक्षादि रूक्ष देखे जाते हैं।
सांसिद्धिकञ्च द्रवत्वम्' अर्थात् बिना किसी की सहायता से स्वतन्त्र रूप से केवल स्नेह ही जल का बैधर्म्य नहीं है, किन्तु केवल 'सांसिद्धिक द्रवत्व' भी उसी रूप से जल का वैधर्म्य है, क्योंकि वह भी केवल जल में ही है। दूध और तेल में आश्रय के सम्बन्ध से सांसिद्धिक द्रवत्व की प्रतीति होती है, क्योंकि उनमें कभी काठिन्य की प्रतीति भी होती है।
१. स्वल्पोदकतणो यस्तु प्रवातः प्रचुरातपः।
स ज्ञेयो जाङ्गलो देशो बहुधान्यादिसंयुतः ।।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपाद भाष्यम्
[द्रव्ये जल
प्रशस्तपादभाष्यम् ताश्च पूर्ववद् द्विविधाः, नित्यानित्य भावात् । तासां तु कार्य त्रिविधं शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञकम् । तत्र शरीरमयोनिजमेव वरुणलोके, पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्चोपभोगसमर्थम् ।।
___ यह भी पृथिवी की तरह नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का ह । शरीर, इन्द्रिय, और विषय भेद से कार्य रूप जल के तीन प्रकार हैं । जलीय शरीर अयोनिज ही होते हैं । वह शरीर केवल वरुण-लोक में प्रसिद्ध है एवं पार्थिव अवयवों के सम्बन्ध से सुख और दुःख की अनुभूति की शक्ति प्राप्त करता है।
न्यायकन्दली
पृथिव्या इवापामप्यवान्तरभेदेन द्वैविध्यमित्याह-ताश्चेति । परमाणुस्वभावा आपो नित्याः, कार्यस्वभावास्त्वनित्याः । कार्यञ्च त्रिविधम् । अत्रापि पूर्ववदनुषङ्गः, यथा पृथिव्याः शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञितं कायं त्रिविधमेवमपामपोति । तत्र शरीरमयोनिजमेव, पार्थिवं शरीरं योनिजमयोनिजञ्च, आप्यं शरीरमयोनिजमेवेति विशेष इत्यर्थः । ननु मानुषं शरीरं तावत् पार्थिवंगन्धगुणोपलब्धेः, आप्यं तु क्वास्तीत्याह-वरुणलोक इति। इदं शरीरमपामागमात् प्रत्येतव्यम् । द्रवत्वकस्वभावत्वादपां तदारब्धं शरीरं जलबुबुदप्रायं विशिष्टव्यवहारायोग्यं कथमुपभोगसमर्थ स्यादित्याह-पार्थिवावयवोपष्टम्भादुपभोगसमर्थम् । पार्थिवानामवयवानामुपष्टम्भात् संयोगविशेषा
'ताश्च' इत्यादि से लिखते हैं कि पृथिवी की तरह जल के भी अपने अवान्तर भेद दो प्रकार के हैं। परमाणुरूप जल नित्य है, एवं कार्यरूप जल अनित्य है। “कार्यं त्रिविधम्" इस वाक्य में 'त्रिविधम्' यह पद भी जोड़ देना चाहिए। ( तदनुसार इस वाक्य का यह अर्थ है कि ) जैसे पृथिवी के शरीर, इन्द्रिय और विषय भेद से तीन भेद हैं, वैसे ही उसी नाम से जल के भी तीन भेद हैं। 'तत्र शरीरमयोनिजमेव' अर्थात् पार्थिव शरीर से जलीय शरीर में यह अन्तर है कि पार्थिव शरीर के योनिज और अयोनिज दोनों ही प्रकार हैं, किन्तु जलीय शरीर केवल अयोनिज ही होते हैं : मनुष्य के शरीर में गन्ध की उपलब्धि होती है, अतः समझते हैं कि वह पार्थिव है। किन्तु जलीय शरीर कहाँ है? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि 'वरुणलोके', अर्थात् जलीय शरीर केवल वरुणलोक में प्रसिद्ध है। इस विषय को शास्त्र के द्वारा ही समझना चाहिए । जल प्रसरणशील द्रव्य हैं, इससे उत्पन्न शरीर तो जल के बुबुदे के समान होंगे, उनसे शरीर के प्रधान प्रयोजन उपभोग का सम्पादन असम्भव होगा। इसी असम्भावना को 'पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्च' इत्यादि से हटाते हैं। अर्थात् पार्थिव अवयवों के उपष्टम्भ
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प्रकरणम् ]
६५
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
दाप्यं शरीरमुपभोगाय समर्थं स्यात् । आप्यशरीरोत्पत्तौ पार्थिवावयवा निमित्तकारणम्, तेषां संयोगादाप्यावयवानां द्रवत्वे प्रतिरुद्धे विशिष्टमेवेदं शरीरमुत्पद्यते, न जलबुबुदप्रायमित्यर्थः। ये तु पञ्चभूतसमवायिकारणं शरीरमित्यास्थिषत, तेषामगन्धं शरीरं स्यात्, कारणगन्धस्यैकस्यानारम्भकत्वात्। चित्ररूपरसस्पशश्च प्राप्नोति कारणेषु नानारूपरसस्पर्शसम्भवात् । न चैवं दृष्टम्, तस्मान्न पञ्चभूतप्रकृतिकम् । भूजलप्रकृतिकमप्यत एव न स्यात्, अत एव भूजलानिलप्रकृतिकमपि न स्यात्, भूवाय्वाकाशप्रकृतिकत्वेऽरूपमरसमगन्धञ्च स्यात्, अनलानिलाकाशप्रकृतिकत्वे चागन्धमरसं चेत्यादि यथासम्भवं योजनीयम् । न च पञ्चभूतसमवायिकारणत्वे शरीरस्यैकत्वं प्राप्नोति, स्वभावभेदेन भेदोपपत्तेः। मानुषं शरीरं पृथिव्यात्मकं गन्धवत्त्वात् परमाणुलक्षणपृथिवीवत् । उदकादिधर्मोपलम्भः कथमत्रेति चेत् ? संयुक्तसमवायादित्यलम् ।
अर्थात् विलक्षण संयोग से जलीय शरीर में उपभोग की क्षमता आएगी। कहने का तात्पर्य है कि जलीय शरीर के पार्थिव अवयव भी निमित्तकारण हैं। उनके संयोग से जल का द्रवत्व प्रतिरुद्ध हो जाता है, अतः उसके बाद जलीच शरीर भी विशेष आकार का ही उत्पन्न होता है, जल के बुबुद की तरह नहीं। जो कोई (प्र०) पृथिवी, जल, तेल, वायु और आकाश इन पाँचों द्रव्यों को सभी शरीरों का समवायिकारण मानते हैं, उनके मत में ( उ०) (१) शरीर गन्ध से सर्वथा रहित होगा, क्योंकि समवायिकारणों में से किसी एकमात्र में रहनेवाला केवल एक गुण कार्य के गुण को उत्पन्न नहीं कर सकता। (२) एवं पाँचों महाभूतों से उत्पन्न शरीर में चित्र रूप, चित्र रस, चित्र गन्ध और चित्र स्पर्श की सत्ता माननी पड़ेगी, क्योंकि शरोर के समवायिकारणों में नाना तरह के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हैं, किन्तु चित्र रूपरसादिविशिष्ट शरीर की कहीं उपलब्धि नहीं होती। तस्मात् पाँचों महाभूत सम्मिलित होकर किसी भी एक शरीर के समवाधिकारण नहीं हैं, इसी हेतु से पृथिवी और जल ये दोनों भी किसी एक शरीर के समवायिकारण नहीं हैं, एवं पृथिवी, जल और वायु ये तीनों भी किसी एक शरीर के समवायिकारण नहीं हैं। पृथिवी, वायु और आकाश इन तीनों को अगर किसी एक शरीर का समवायिकारण माने तो इनसे उत्पन्न शरीर रूप, रस और गन्ध इन तीनों से रहित होगा। अगर तेज वायु और आकाश इन तीनों को एक शरीर का समवायिकारण मानें तो फिर इन तीनों कारणों से उत्पन्न शरीर गन्ध और रस से शून्य होगा। इग प्रकार और भी कल्पना करनी चाहिए। पञ्च महाभूत रूप अनेक समवायिकारणों से शरीररूप एक कार्य की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि सभी के स्वभाव अलग अलग हैं। भिन्न स्वभाव के व्यक्तियों से एक स्वभाव के कार्य
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६६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ द्रव्ये जल
प्रशस्तपादभाष्यम् इन्द्रियं सर्वप्राणिनां रसव्यञ्जकं विजात्यनभिभूतैर्जलावयवैरारब्धं रसनम् । विषयस्तु सरित्समुद्रहिमकरकादिः ।
जिससे प्राणियों को रस का प्रत्यक्ष होता है, वही जलीय इन्द्रिय है। यह विरोधी द्रव्यों की शक्ति से अपराजित जल के अवयवों से बनती है। इस इन्द्रिय का अन्वर्थ नाम है 'रसना' । नदी, समृद्र, पाला, बरफ इत्यादि विषय रूप जल हैं।
न्यायकन्दली - इन्द्रियं रसव्यञ्जकं सर्वप्राणिनामिति । सर्वप्राणिनां रसव्यञ्जकं यदिन्द्रियं तज्जलावयवैरारब्धम् । तथापि कस्मात् तदेव रसव्यञ्जकं स्यात्, नान्यदुदकद्रव्यमित्याह---विजात्यनभिभूतैरिति । विजातिभिः पार्थिवावयवैर्येऽनभिभूता अप्रतिहतसामर्थ्या आप्यावयवास्तैरितरद्रव्यविलक्षणमारब्धमत इदं विशिष्टोत्पादाद्रसव्यञ्जकमिन्द्रियं न द्रव्यान्तरम्, तस्येत्थमुत्पत्त्यभावादित्यर्थः । एतच्च नियमदर्शनादेव कल्प्यते । रसनेन्द्रियसद्भावे रसोपलब्धिरेव प्रमाणम्, क्रियायाः की उत्पत्ति नहीं हो सकती। मानव शरीर पार्थिव है, क्योंकि उसमें गन्ध की उपलब्धि होती है, जैसे कि पार्थिव परमाणु । (प्र.) मानव शरीरों में जलादि के धर्मों की उपलब्धि कैसे होती है ? ( उ०) संयुक्त समवाय सम्बन्ध से । अब इस विषय में इतना ही पर्याप्त है।
"इन्द्रियं रसव्यञ्जकं सर्वप्राणिनाम्"। यह तो ठीक है कि सभी प्राणियों के रसप्रत्यक्ष का कारण रसनेन्द्रिय जल के अवयवों से बनती है फिर भी इन्द्रिय रूप जलीय द्रव्य ही क्यों रस का व्यञ्जक होगा ? कोई और जलीय द्रव्य क्यों नहीं ? 'विजात्यनभिभूतैः' इत्यादि से इसी प्रश्न का उत्तर देते हैं। 'विजाति' अर्थात् पार्थिव अवयवों से, 'अनभिभूत' अर्थात् जिनका बल प्रतिरुद्ध नहीं हुआ है, इस प्रकार के जलीय अवयवों से यह ( इन्द्रिय रूप) विलक्षण द्रव्य उत्पन्न होता है । इस प्रकार और जलीय द्रव्यों से विलक्षण रूप से उत्पन्न होने के कारण यह इन्द्रिय रूप जलीय द्रव्य ही रस का ब्यञ्जक है, और कोई जलीय द्रव्य नहीं । क्योंकि और जलीय द्रव्यों की उत्पत्ति इससे भिन्न रीति से होती है । "इस रसनेन्द्रिय रूप जलीय द्रव्य से ही रस को अभिव्यक्ति होती है, और द्रव्यों से नहीं” इस नियम से ही उक्त कल्पना करते हैं । रस की उपलब्धि ही रसनेन्द्रिय
१. पार्थिव, जलीय, तैजस और वायवीय भेद से शरीर चार प्रकार के हैं । इनमें से प्रत्येक के क्रमशः पृथिवी, जल, तेज और वायु इनमें से एक एक ही समवायिकारण हैं। चारों में से तीन और आकाश ये सभी निमित्तकारण हैं। इमीसे शरीरों में पाञ्चभौतिकत्व का व्यवहार होता है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् तेजस्त्वाभिसम्बन्धात्तेजः । रूपस्पर्शसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वद्रवत्वसंस्कारवत् । पूर्ववदेषां सिद्धिः । तत्र शुक्लं भास्वरश्च रूपम् । उष्ण एव स्पर्शः ।
तेज का व्यवहार तेजस्त्व जाति के सम्बन्ध से करना चाहिए। यह रूप, स्पर्श, सङ्ख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व और संस्कार इन ग्यारह गुणों से युक्त है। इसमें भी गुणों की सिद्धि पृथिवी और जल की तरह सूत्रकार की उक्तियों से समझनी चाहिए। इसमें रूपों में से भास्वर शुक्ल रूप ही, एवं स्पर्शों में से उष्ण स्पर्श ही है।
न्यायकन्दली करणसाध्यत्वात् । आप्यत्वं रूपादिषु मध्ये रसव्यञ्जकत्वात्, मुखशोषिणां लालादिद्रव्यवत् । विषयनिरूपणार्थमाह--विषयस्त्विति । सरित्समुद्रौ हिमं करको धनोपलमित्यादिविषयो भोग्यत्वेन भोक्तुर्भोगसाधनत्वात् ।
तेजस्त्वाभिसम्बन्धात्तेज इति । व्याख्यानं पूर्ववत् । तेजस्स्वमिव रूपाोकादशग्रणयोगोऽपि तस्य वैधय॑मिति दर्शयति--रूपेत्यादि। पूर्ववत्तेषां सिद्धिरिति । यथा सूत्रकारवचनाद्रूपादीनां पृथिव्यां सिद्धस्तथा तेजस्थपीत्यर्थः । तथा च सूत्रम्--'तेजोऽपि रूपस्पर्शवत्" (२-१-३)। सङ्खयादिप्रतिपादकन्तु की सत्ता में प्रमाण है, क्योंकि क्रिया करण से ही निष्पन्न होती है । रसनेन्द्रिय जलीय इस लिए है कि रूपादि गुणों में से वह रस को ही व्यक्त करती है, जैसे कि मुंह का तरल द्रव्य । विषयरूप जल को समझाने के लिए 'विषयस्तु' इत्यादि वाक्य लिखते हैं। चूंकि नदी, समुद्र, पाला, बरफ प्रभृति द्रव्य जीव के सुखदुःखानुभव के साधन हैं, अतः ये विषयरूप जल हैं।
___ 'पृथिवीत्वादिसम्बन्धात् पृथिवी', अपत्वाभिसम्बन्धादापः' इत्यादि पहिले वाक्यों की तरह तेजस्त्वाभिसम्बन्धात्तेजः' इस वाक्य की भी व्याख्या करनी चाहिए । 'रूपस्पर्श इत्यादि पति का तात्पर्य है कि तेजस्व जाति की तरह रूपादि ग्यारह गुणों का सम्बन्ध भी तेज का 'वैधर्म्य' अर्थात् लक्षण है। 'पूर्ववत्तेषां सिद्धिः' अर्थात् जैसे पृथिव्यादि द्रव्यों में सूत्ररूप वचनों से गुणों की सत्ता प्रमाणित की है, उसी प्रकार सौत्र वचनों से ही तेज में भी रूपादि ग्यारह गुणों को सिद्धि समझनी चाहिए। जैसा कि सूत्र है-"तेजोऽपि
१. अभिप्राय यह है कि छेदनादि क्रिया कुठारादि करणों से ही निष्पन्न देखी जाती हैं। इस दृष्टान्त से यह अनुमान सुलभ है कि रस प्रत्यक्षरूप क्रिया का भी कोई करण
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये तेज:--
प्रशस्तपादभाष्यम् तदपि द्विविधमणुकार्यभावात् । कार्यश्च शरीरादित्रयम् ।
यह भी परमाणु (नित्य) और कार्य के भेद से दो प्रकार का है, एवं कार्यरूप तेज के शरीर, इन्द्रिय एवं विषय भेद से तीन प्रकार हैं। तैजस
न्यायकन्दली
साधारणमेव सूत्रम् । यादृशमस्य रूपं तद्दर्शयति--शुक्लं भास्वरञ्चेति । शुक्लं रूपं पृथिव्युदकयोरप्यस्ति, किन्तु न भास्वरं रूपम्, स्वरूपप्रकाशकं शुक्लं रूपं तेजस्येवेति वैधर्म्यम् । यत् त्वस्य लोहितं कपिलं वा रूपं क्वचित् प्रतीयते तदाश्रयोपाधिकृतम्, निराश्रयस्य सर्वत्र शुक्लतामात्रप्रतीतेः, यथा प्रदीपप्रभामण्डलस्य सौरचन्द्राद्यालोकस्य च उष्ण एव स्पर्श इति । पृथिव्युदकमरुतामनुष्णाशीतशीतानुष्णाशीतस्पर्शाः, उष्ण एव तेजसि स्पर्श इति वैधर्म्यम् ।
पृथिव्युदकवत् तेजसोऽपि वैविध्यमपिशब्देन सम्भावयन्नाह-तदपीति । अणुभावात् कार्यभावात् तेजोऽपि द्विविधमिति । कार्यञ्च शरीरादित्रयम्, शरीरमिन्द्रियं रूपस्पर्शवत्" (२-१-३)। (अर्थात् भास्वर शुक्ल रूप एवं उष्ण स्पर्श से युक्त द्रव्य ही 'तेज' है। तेज में संख्यादि गुणों का प्रतिपादक "संख्याः परिमाणानि" (४-१-११) इत्यादि सामान्य सूत्र ही है। तेज में किस प्रकार का रूप है ? इसका उत्तर ' शुक्लं भास्वरञ्च' इत्यादि से देते हैं । यद्यपि शुक्ल रूप पृथिवी और जल में भी है, तथापि उनका शुक्ल रूप 'भास्वर' अर्थात् अपने रूप एवं पररूप दोनों का प्रकाशक नहीं है। इस प्रकार का शुक्ल रूप केवल तेज में ही है, अतः भास्वर शक्ल रूप तेज का लक्षण है। कहीं कहीं तेज में जो लाल पीले प्रभृति रूपों के दर्शन होते हैं, वह आश्रयरूप उपाधिमूलक हैं, क्योंकि प्रदीप और सौर प्रकाश प्रभृति में सभी जगह शुक्लता की ही प्रतीति होती है । 'उष्ण एव स्पर्शः' अर्थात् पृथिवी में अनुष्णाशीत स्पर्श, जल में शीत स्पर्श एवं वायु में अनुष्णाशीत स्पर्श हैं, किन्तु तेज में केवल उष्ण स्पर्श ही है, अर्थात् केवल उष्ण स्पर्श भी तेज' का लक्षण है।
___ 'तदपि' इस वाक्य के 'अपि' शब्द के द्वारा सूचित करते हैं कि पृथिवी एवं जल की तरह तेज के भी दो प्रकार हैं । अर्थात् परमाणु स्वरूप एवं कार्य स्वरूप
है, क्योंकि वह भी क्रिया है, जैसे कि छेदनादि क्रिया। रस प्रत्यक्ष का करणत्व चक्षुरादि इन्द्रियों में बाधित है, अतः इन सभी से भिन्न कोई इस क्रिया का करण मानना पड़ेगा, जिसका अन्वर्थ नाम है 'रसना' ।
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६६
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् शरीरमयोनिजमेवादित्यलोके । पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्चोपभोगसमर्थम् ।
इन्द्रियं सर्वप्राणिनां रूपव्यञ्जकमन्यावयवानभिभूतैस्तेजोऽवयवैरारब्धं चक्षुः । शरीर भी अयोनिज ही है एवं आदित्यलोक में प्रसिद्ध है । पार्थिव अवयवों के सम्बन्ध से यह सुख दुःख के अनुभव की क्षमता प्राप्त करता है।
सभी प्राणियों को रूप का प्रत्यक्ष जिससे होता है, वही तैजस इन्द्रिय है । जिनकी शक्ति विजातीय द्रव्यों की शक्ति से पराभूत नहीं हुई है, उन तैजस अवयवों से तैजस इन्द्रिय की सृष्टि होती है। इस इन्द्रिय का नाम है 'चक्षु'।
___न्यायकन्दली विषय इति त्रयं तेजसश्च कार्यम् । शरीरमयोनिजमेवादित्यलोके । ननु दहनात्मत्वात् तेजसा तदारब्धं शरीरं वह्निपुञ्जप्रायं विशिष्टव्यवहारायोग्यत्वान्नोपभोगाय कल्प्यते, तत्राह-पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्च इति । पार्थिवानामवयवानां निमित्तभूतानामुपष्टम्भात् संयोगविशेषात् तेजोऽवयवा उपभोगक्षम विशिष्टमेव शरीरमारभन्ते, न वह्निपुञ्जप्रायमित्यभिप्रायः ।
___ इन्द्रियं रूपव्यञ्जकमिति । सर्वप्राणिनां रूपव्यञ्जकं यदिन्द्रियं तत् तेजोऽवयवैरारब्धम् । इदमेव कुतो रूपव्यञ्जकमिन्द्रियं स्याद्, नान्यत् तेजोद्रव्यमित्यत्रोपपत्तिः-अन्यावयवानभिभूतैरिति । ये पार्थिवोदकावयवैरप्रतिबद्धभेद से तेज के भी दो भेद हैं । “कार्यञ्च शरीरादित्रयम्" अर्थात शरीर, इन्द्रिय और विषय भेद से कार्यरूप तेज के तीन भेद हैं । तैजस शरीर अयोनिज ही है, जो कि आदित्यलोक में प्रसिद्ध है। तेज है अग्नि स्वरूप, उससे उत्पन्न द्रव्य अग्नि की तरह ही होगा, अत. शरीर से होनेवाले विशेष प्रकार के व्यवहार के अनुपयुक्त होगा। फलतः यह शरीर सुखदुःखानुभवरूप अपना प्रधान कार्य ही नहीं कर सकता? इसी प्रश्न का समाधान 'पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्च" इस वाक्य से किया गया है। अभिप्राय यह है कि पार्थिव अवयवों के 'उपष्टम्भ' अर्थात् विशेष प्रकार के संयोग की सहायता से तेज के अवयव (उपभोगक्षम) एक विशेष प्रकार के शरीर को उत्पन्न करते हैं, वह्निसमूह की तरह नहीं ।
"इन्द्रियं रूपव्यञ्जकम्" सभी प्राणियों के रूप-प्रत्यक्ष की कारणीभूत इन्द्रिय तेज के अवयवों से ही उत्पन्न होती है। यही इन्द्रि यरूप तैजस द्रव्य रूप के प्रत्यक्ष का कारण क्यों है ? अन्य तेजस द्रव्य क्यों नहीं है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'अन्यानभिभूतैः' इत्यादि से देते हैं। तेज के जिन अवयवों का सामर्थ्य पार्थिव और जलीय अवयवों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
विषयसंज्ञकं चतुर्विधम् — भौमं दिव्यमुदर्य्यमाकरजञ्च । तत्र भौमं काष्ठेन्धनप्रभव मूर्ध्वज्वलनस्वभावं पचनदहनस्वेदनादिसमर्थम्, दिव्यमविषय नामक तेज के भौम, दिव्य, उदर्य और आकरज भेद से चार प्रकार हैं । इनमें लकड़ी प्रभृति से उत्पन्न तेज 'भौम' है । ऊपर की ओर प्रज्वलित होना उसका स्वभाव है । भौम तेज पाक, दाह एवं वस्तुओं के काठिन्य को दूर कर कोमल बनाने की शक्ति रखता है । जिसमें 'अप्, अर्थात् जल ही लकड़ी का काम
[ द्रव्ये तेज:
न्यायकन्दली
सामर्थ्यास्तेजोऽवयवास्तैरारब्धं चक्षुः, अत इदं विशिष्टोत्पादाद्रूपाभिव्यञ्जकमिन्द्रियं नान्यत् । तादृशं तदुत्पद्यत इत्यत्रादृष्टमेव कारणम्, कार्य्यनियम एव प्रमाणम् । तेजसत्वन्तु तस्य रूपादिषु मध्ये नियमेन रूपस्याभिव्यञ्जकत्वात् प्रदीपवत् । इदं त्वदृष्टवशादनुद्भूतरूपस्पर्शम् तेन न स्वाश्रयं दहति नाप्युपलभ्यते ।
विषयसंज्ञकं चतुर्विधम् । विषय इति संज्ञा यस्य तद्विषयसंज्ञकं तेजः कार्य्यं चतुविधम् । चातुविध्यमेव दर्शयति- भौममित्यादि । तत्रेति निर्धारणार्थ: । भूमौ भवं भौमं काष्ठेन्धनप्रभवं काष्ठस्वभावं यदिन्धनं तस्मात् प्रभवत्युसे नष्ट नहीं हुआ है, उन तैजस अवययों से इस इन्द्रिय की सृष्टि होती है । चूँकि इसी तेजस द्रव्य की उत्पत्ति उक्त विशेष प्रकार से होती है, दूसरे तेजस द्रव्यों की नहीं अतः यही तैजस द्रव्य रूप के प्रत्यक्ष का उत्पादक है, दूसरे तेजस द्रव्य नहीं । "उक्त विशेष प्रकार से इसी तैजस द्रव्य की उत्पत्ति क्यों होती है ?" इस प्रश्न के उत्तर में अदृष्ट को ही इसका कारण कहना पड़ेगा । एवं इस प्रकार के अदृष्ट की सत्ता में इस नियम को ही प्रमाण मानना पड़ेगा कि इन्द्रियरूप तैजस द्रव्य से ही रूप का प्रत्यक्षरूप कार्य होता है, दूसरे द्रव्यों से नहीं । ( रूपप्रत्यक्ष का उत्पादक ) यह द्रव्य तैजस इस लिए है कि रूपादि गुणों में से यह केवल रूप के ही प्रत्यक्ष का उत्पादन कर सकता है, जैसे कि प्रदीप । अदृष्टवश इसके रूप और स्पर्श अनुभूत हैं, अतः ( स्पर्श के अनुभूतत्व प्रयुक्त ) अपने आश्रय में दाह को एवं ( रूप के अनुभूतत्व प्रयुक्त ) अपने प्रत्यक्ष को उत्पन्न नहीं कर सकता ।
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'विषयसंज्ञकं चतुर्विधम्' अर्थात् 'विषय इति संज्ञा यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'विषय' नाम के तेज के कार्य चार प्रकार के हैं । यहीं चारों भेद 'भोमम्' इत्यादि से कहते हैं । 'त' इस पद के सप्तमी विभक्ति का अर्थ है निर्द्धारण । 'भौम' अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न विषयरूप तेज का नाम 'भौम' है। 'काष्ठेन्धनप्रभवम्' अर्थात् लकड़ी रूप
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१०१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विन्धनं सौरविद्युदादि, भुक्तस्याहारस्य रसादिपरिणामार्थमुदर्यम, आकरजश्च सुवर्णादि । त्र संयुक्तसमवायाद्रसाधुपलब्धिरिति । देवे, उसी विषय रूपी तेज को 'दिव्य' कहते हैं, इसके अन्तर्गत सौर तेज और विद्युत् प्रभृति आते हैं। खाये हुये द्रव्य को पचानेवाला उदर का तेज ही 'उदयं' तेज है । सुवर्ण प्रभृति ‘आकरज' तेज हैं। उनमें रस की उपलब्धि संयुक्तसमवाय सम्बन्ध से होती है।
न्यायकन्दली त्पद्यते, निराश्रयस्यानुत्पत्तेः। काष्ठग्रहणमुपलक्षणार्थम्, तृणतुषादीनामपि कारणत्वात्, ऊर्ध्वं ज्वलनं क्रियाविशेषः, तत्स्वभावकं तद्धर्मकम् । पचनस्वेदनादिसमर्थम्, पचनं पूर्वगुणविलक्षणं गुणान्तरोत्पादनम्, स्वेदनं स्तब्धत्वनाशनम्, आदिशब्दाद्विस्फोटादिजननलक्षणं दहनं तत्र समर्थमित्यर्थक्रियोपवर्णनम् । दिव्यमबिन्धनं सौरं विद्युदादिभवं तेजोऽबिन्धनम्, आप इन्धनं यस्येति व्युत्पत्त्या तत् सौरं विद्युदादि, आदिशब्दादुल्काया अवबोधः । भुक्तस्याहारस्य रसादिपरिणामार्थमुदर्यम्, उदरे भवं तेजो भुक्तस्याहारस्य रसमलधातुभावेन परिणामप्रयोजनम् । आकरजञ्च सुवर्णादि। आकरः स्थानविशेषः, तस्मिन् सुवर्णरजतादि तैजसं द्रव्यं जायते। सुवर्णादीनां तैजसत्वे तावदागमः प्रमाणम् । न्यायश्चाभिहितः । इन्धन से जिसकी उत्पत्ति हो, वही तेज काष्ठेन्धनप्रभव' है, क्योंकि बिना आश्रय के किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती । 'काष्ठ' पद उपलक्षण है, क्योंकि तिनके
और भूसे आदि पृथिवी से भी अग्नि की उत्पत्ति होती है। 'ऊर्ध्वज्वलन' ऊपर की तरफ उठनेवाली एक क्रिया है, वही 'स्वभाव' अर्थात् धर्म इस तेज का है। ‘पचनस्वेदनादिसमर्थम्' पचन शब्द का अर्थ है-द्रव्य में पहिले से विद्यमान गुणों से दूसरे प्रकार के गुणों का उत्पादन । स्वेदन शब्द का अर्थ है-काठिन्य का नाश करना। 'आदि' शब्द से 'विस्फोट' आदि इसके कार्य सूचित किये गये हैं। यह 'भीम' तेज से होनेवाले कार्यों का विवरण है 'आप इन्धनं यस्य' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न 'अबिन्धन' शब्द से समझे जानेवाले सौर एवं विद्युत् प्रभृति एवं उससे उत्पन्न तेज ही 'दिव्य' तेज है। प्रकृत आदि शब्द से उल्का प्रभृति तेजों का परिग्रह इस दिव्य तेज के अन्तर्गत करना चाहिए । 'भुक्तस्याहारस्य रसादिपरिणामार्थमुदर्यम्' 'उदरे भवं तेजः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उदर्य शब्द से खाये हुये अन्नादि को रस, मल, धातु प्रति रूपों में परिणत करनेवाला पेट का तेज ही अभीष्ट है । 'आकरजं सुवर्णादि' विशेष प्रकार के स्थान (खान) को 'आकर' कहते हैं। उसमें सोना चाँदी प्रभूति द्रब्य उत्पन्न होते हैं। सुवर्णादि के तैजस द्रव्य होने में (“अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णम्" इत्यादि ) आगम भी प्रमाण हैं। सुवर्णादि द्रव्य के तैजस
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्य जः
न्यायकन्दलो कथं तहि गन्धरसयोरनुष्णाशीतस्पर्शस्य च गुणस्योपलब्धिरत आह--तत्रेति । भोगिनामदृष्टवशेन भूयसां पार्थिवानां पार्थिवावयवानामुपष्टम्भादनुभूतरूपस्पर्श पिण्डीभावयोग्यं सुवर्णादिकमारभ्यते, तत्र पार्थिवद्रव्यसमवेता इमे रसादयो गृह्यन्ते । इतिशब्दः समाप्तौ।।
____ अनुद्भूतरूपस्पर्श सुवर्णादिकमिति न मृष्यामहे, प्रतीयमानरूपस्पर्शव्यतिरिक्तस्य द्रव्यान्तरस्याभावादिति चेन्न, स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमिति प्रत्येकविलक्षणसंस्थानसंवेदनाद्पादिस्वभावस्य सर्वत्राविशेषात् । वासना. भेदात् प्रतिसञ्चयं संवित्तिभेद इति चेत् ? नीलादिसंवित्तिभेदोऽपि वासनाकृत एवास्तु नार्थो नीलादिभेदेन । असति बाह्यवस्तुनि स्वसन्तानमात्राधीनजन्मनो वासनापरिपाकस्य कादाचित्कत्वानुपपत्तेस्तन्मात्रहेतो!लादिसंवेदनस्य कादाचित्कत्वासम्भवान्नीलादिभेदकल्पनेति चेत् ? स्तम्भादिहोने में अनुमान प्रमाण का उल्लेख कर चुके हैं । (प्र०) फिर सुवर्णादि में गन्ध, रस एवं अनुष्णाशीत स्पर्श प्रभृति की उपलब्धि कैसे होती है ? इसी प्रश्न के उत्तर में 'तत्र' इत्यादि पंङ्कि लिखी गयी है । भोग करनेवाले के अदृष्ट की सहायता से पार्थिव अवयवों के संयोग द्वारा (पार्थिव वस्तुओं की तरह) ठोस सुवर्णादि तैजस द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। सुवर्णादि में निमित्त कारणरूप इन पार्थिव अवयवों के ही रसादि प्रतीत होते हैं । इस ‘इति' शब्द का अर्थ है समाप्ति ।
__ (प्र०) हम लोगों को यह बात मान्य नहीं है कि अनुभूत रूप एवं अनुभूत स्पर्श से युक्त सुवर्ण नाम का कोई द्रव्य है, क्योंकि प्रतीत होनेवाले रूपरसादि को छोड़कर द्रव्य नाम की कोई दूसरी वस्तु नहीं है । (उ०) नहीं क्योंकि "यह खूटा है, यह घट है" इन दोनों प्रतीतियों से दो विभिन्न आकार की वस्तुओं की सत्ता जनसाधारण के अनुभव से सिद्ध है, किन्तु खूटा और घट दोनों के रूपादि गुणसमूह तो समान ही हैं। (प्र.) वासना (मिथ्याज्ञ!नजनित संस्कार) के भेद से प्रत्येक गुणसमूह की प्रतीतियाँ विभिन्न आकार की होती हैं ? (उ०) फिर 'यह नील है', 'यह पीत है' इत्यादि गुणविषयक प्रतीतियाँ भी वासना से ही मान ली जायें, नीलादि गुणों की भी सत्ता मानने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। (प्र०) अगर (नीलादि ) किसी बाह्य वस्तु की सत्ता न मानी जाय तो फिर नीलादि प्रतीतियाँ कभी होती हैं एवं कभी नहीं। उनका यह कादाचित्कत्व अनुपपन्न हो जाएगा, क्योंकि वासना के परिपाक से तो कादाचित्कत्व सम्भव नहीं है, चूंकि वह अपने पूर्ववर्ती समूहों से ही उत्पन्न होती है, अतः नीलादि गुणों की सत्ता अवश्य माननी पड़ती है, जिससे उनकी सत्ता से नीलादि प्रतीतियाँ होती हैं और
१. अर्थात् प्रतीत होनेवाले गुणसमूह को ही द्रव्य मानें तो दोनों प्रतीतियों में विलक्षणता उत्पन्न नहीं होगी, क्योंकि विषयों के अन्तर हुए बिना ज्ञानों में अन्तर
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली संवित्तिभेदस्यापि बाह्मवस्त्वननुरोधिनो न कादावित्कत्वमुपपद्यत इति रूपादिव्यतिरिक्तः प्रतिसञ्चयं वासनाविशेषबोधहेतुर्विलक्षणः संस्थानविशेष: कल्पनीयः, येन दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणमपि सिद्धयति । रूपादिमात्रे वस्तुन्यस्याप्यसम्भवः, तेषामेकैकेन्द्रियग्रहणनियमात् । अपि च, रूपादयः परमाणुस्वभावाः प्रत्येकमतीन्द्रियाः, तव्यतिरिक्तः सञ्चयो नास्तीति भवतां कोऽर्थों दर्शनस्पर्शनविषयः ? प्रत्येकमतीन्द्रिया अपि परमाणवो मनस्कारेन्द्रियादिषु सत्सु समर्थोत्पन्ना ऐन्द्रियका भवन्तीति चेन्न, समर्थोत्पादेऽपि परमसूक्ष्मस्वरूपानतिवृत्तेः, समर्थोत्पत्तिमात्रेण च चाक्षुषत्वे मनस्कारेन्द्रिययोरपि प्रत्यक्षता स्यात्, अविशेषात् । अथ मतम्, प्रत्येकमस्थूला अपि परमाणवः केशसमूहवत् संहताः सत्ता न रहने से नहीं होती हैं। इस प्रकार प्रतीतियों का कादाचित्कत्व सम्भव होता है। (उ०) उक्त स्तम्भादि प्रतीतियों में भी अगर बाह्य किसी वस्तु की सत्ता की अपेक्षा न मानें तो इन प्रतीतियों का भी कादाचित्कत्व अनुपपन्न ही रहेगा, अतः (आप को यह भी) मानना पड़ेगा कि रूपादि गुणों से भिन्न स्तम्भादि प्रत्येक समूह में विशेष प्रकार की वासना की उद्बोधक कोई विलक्षण आकार की वस्तु है। इसे मान लेने से चक्षु और त्वचा से एक ही वस्तु के ग्रहणरूप सर्वजनीन प्रतीति की भी उपपत्ति हो जाएगी। द्रव्य को रूपादि समूहरूप मान लेने में यह सम्भव नहीं है क्योंकि रूपादि प्रत्येक गुण एक-एक इन्द्रिय से ही गृहीत होते हैं, और यह बात भी है कि रूपादि प्रत्येक परमाणु-स्वभाव के हैं अत: प्रत्येक अतीन्द्रिय हैं। समूह नाम की कोई अतिरिक्त वस्तु नही है। अत: आपके मत में कौन-सी वस्तु त्वचा से गृहीत होगी ? (प्र०) उनमें से प्रत्येक अतीन्द्रिय है, किन्तु जिस क्षण में मन से सम्बद्ध उन्मुख इन्द्रियादि रूप प्रत्यक्ष की सामग्री का सम्बलन होता है, उससे आगे के क्षण में उस अतीन्द्रिय समुदाय से भी इन्द्रिय से ज्ञात होने योग्य समुदाय की उत्पत्ति होती है, अतः इस समुदाय का इन्द्रिय से ग्रहण होता है । ( उ०) 'अतीन्द्रिय वस्तुएँ भी चक्षु से गृहीत होने योग्य समुदाय को उत्पन्न करती हैं' यह मान लेने पर भी यह चक्षु से गृहीत हं.नेवाला समू ही अपने सूक्ष्मत्वरूप स्वभाव को छोड़ नहीं सकता। अगर समर्थ के उत्पादन करने से ही उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष हो तो फिर मनोवृत्ति और इन्द्रियों का भी प्रत्यक्ष होना चाहिए, (क्योंकि इनके रहने पर ही अतीन्द्रिय स्वभाव का समूह चाक्षुष प्रत्यक्ष योग्य समूह का उत्पादन करता है), क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । (प्र.) यह ठीक है कि प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय है, किन्तु समुदायभावापन्न होने पर वह इन्द्रिय से गृहीत हो सकता है। जैसे कि एक केश दूर से नहीं देखा ताता, किन्तु उसका समूह नहीं आ सकता। अगर उक्त दोनों प्रतीतियों के विषय गुणसमूह ही हैं, तो फिर दोनों प्रतीतियों में अन्तर करना कठिन है।
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१०४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[द्रव्ये तेजःन्यायकन्दली स्थूलावभासभाजो भवन्तश्चाक्षुषा जायन्ते, निरन्तरतया चैकत्वेनाध्यवसीयन्ते, इति चेत् ? किमेतेषु बहुषु तदानीमेकः स्थूलाकारो जायते ? किं वा केशेष्विवाविद्यमानः समारोप्य प्रतीयते ? यदि च जायते स नोऽवयवीति । अथाविद्यमानः प्रतीयते, भ्रान्तिस्तहि । भ्रान्तिश्चाभ्रान्तिप्रतियोगिनी, क्वचिदेकः स्थूल: सत्योऽभ्युपेयः । न च विज्ञाने तस्य सत्यता युक्ता, स्थूलमहमस्मीति प्रतीत्यनुदयादनेकद्रष्टसाधारणत्वाभावप्रसङ्गाच्च । तस्माद्विषय एवायमेकः स्थूलः, सर्वदा भिन्नाकारेण प्रतिभासनादर्थक्रियासम्पादनाच्चेत्यवयविसिद्धिः । दूर से भी देखा जाता है। उस समूह के बीच व्यवधान न रहने के कारण केश अनेक होने पर भी एक दीखते हैं। (उ.) (१) उन परमाणुओं में एक स्थूलाकार वस्तु की उत्पत्ति होती है, जिसमें वस्तुतः विद्यमान एकत्व का भान होता है ? (२) या जैसे केशसमूह में वस्तुतः अविद्यमान भ्रमज्ञान विषय के एकत्व का भान होता है, वैसे ही उक्त परमाणु समूह के स्थल में भी होता है ? अगर पहिला पक्ष मानते हैं तो फिर वही (परमाणुओं में उत्पन्न स्थूलाकार एक वस्तु ) हम लोगों का अभीष्ट अवयवी है। अगर दूसरा पक्ष माने तो फिर एकत्व की इन प्रतीतियों को भ्रान्तिरूप मानना पड़ेगा। भ्रान्ति अभ्रान्ति का प्रतियोगी है, इसकी प्रसिद्धि के लिए कहीं एक स्थूलाकार वस्तु की यथार्थ सत्ता को स्वीकार्य करना अनिवार्य है। सभी वस्तुओं को विज्ञानस्वरूप मान लेने पर ( यद्यपि उक्त एकत्व प्रतीति के प्रमात्व की उपपत्ति हो जाती है, किन्तु यह विज्ञानवाद' इसलिए अयुक्त है कि घटादि वस्तुओं में ) 'मैं स्थूल हूं' इस प्रकार को प्रतीति नहीं होती। एवं घटादि वस्तुएं अनेक ज्ञाताओं से ज्ञात न हो सकेंगी।
१. अगर सभी पदार्थ विज्ञान स्वरूप ही हैं तो फिर आत्मा और घटादि दोनों एक ही विज्ञान स्वभाव के हैं, अत दोनों को एक मानना पड़ेगा। फिर जैसे आत्मा की अभिव्यक्ति 'अहम्' शब्द से होती है कि 'मैं जानता हूँ, वैसे ही 'घटादि स्थूल हैं' इत्यादि प्रतीतियों का यह अभिलाप न होकर 'भै स्थूल हूँ इस प्रकार का होना चाहिए। इससे दो आपत्तियाँ आ जाती हैं-(१) घटादि के लिए 'अहम्' शब्द के प्रयोग को, एवं (२) 'अहम्' शब्द बोध्य में स्थूलत्व को, किन्तु जो 'अहम्' शब्द से समझा जाता है, वह स्थूल नहीं हो सकता, एवं जो स्थूल है वह 'अहम्' शब्द का अभिधेय नहीं हो सकता।
२. 'अनेकप्रतिपत्तसाधारणत्व' की जो अनुपपत्ति दी गई है, उसका अभिप्राय है घटादि वस्तुएँ विज्ञान के आकार की है तो फिर यह मानना पड़ेगा कि मेरे विज्ञान से गृहीत होनेवाला घटविज्ञान आपके विज्ञान से गृहीत होनेवाले घटविज्ञान से भिन्न है, क्योंकि मेरा और आपका विज्ञान अवश्य ही भिन्न है। तस्मात् जिस घट को मैं देखता है उसी को आप भी देखते हैं यह स्वारसिक प्रतीति नहीं हो सकेगी। अनेक ज्ञाताओं से किसी एक वस्तु का ज्ञात होना ही उस विषय का 'अनेकप्रतिपत्तसाधारणत्व' है। यही अनुपपन्न होगा।
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१०५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली नन्वसति बाधके प्रतीतिसिद्धस्तथेति व्यवह्रियते, अवयविसद्भावे तु बाधकं प्रमाणमस्ति । तथा हि--पाणौ कम्पवति तदाश्रितं शरीरं न कम्पते, पादे वा कम्पमाने तद्गतं शरीरं न कम्पत इत्येकस्य विरुद्धधर्मताप्रसङ्गः । तदसङ्गतम्, पाणी कम्पमाने शरीरकम्पावश्यम्भावनियमाभावात्। यदा पाणिमात्रं चालयितुं कारणं भवति तदा तन्मात्रं चलति, न शरीरम्, कारणाभवात्। यदा तु शरीरस्यापि चलनकारणं भवेत् तदा शरीरं चलत्येव । नास्याचलनमस्तीति कुतो विरोधः, यदि हस्तश्चलति न शरीरं तदाऽवयवावयविनोयुतसिद्धिः ? नैवम्, पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिः, न चलाचलत्वम्, द्रव्ये चलति गुणस्यातस्मात् उन प्रतीतियों के विषय गुणादि से भिन्न गुणादि के आश्रय, एवं परमाणुसमूहों से भिन्न, किन्तु उनसे उत्पन्न, एवं विज्ञान से भिन्न अवयवी अवश्य ही हैं।
(प्र.) जिस प्रतीति का आगे किसी विरोधी प्रतीति से बाध न हो, वह प्रतीति वस्तु को जिस रूप में उपस्थित करे, वह वस्तु उसी रूप से व्यवहृत होती है । किन्तु 'अवयवों से भिन्न अवयवों में रहनेवाला कोई अवयवी नाम का द्रव्य है' इस बुद्धि को बाधित करनेवाली बुद्धि है, क्योंकि हाथ में कम्पन होने पर भी उसमें रहनेवाला शरीर रूप अवयवी कम्पित नहीं होता । अथवा पैर में कम्पन होने पर भी उसमें रहनेवाला शरीररूप अवयवी कम्पित नहीं होता है। इस प्रकार एक ही अवयवी में अकम्पत्व और कम्पत्व रूप दो विरुद्ध धर्मों की सत्ता माननी पड़ेगी। (उ०) यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि यह नियम नहीं है कि हाथ कांपने पर शरीर अवश्य ही कांपे । जिस समय केवल हाथ में ही कम्पन के कारण रहते हैं, तब केवल वही कम्पित होता है। जब उसमें रहनेवाले शरीर में भी कम्प होने की सामग्री रहती है, उस समय शरीर में भी कम्प होता है। वह भी तो कम्पनशून्य नहीं है, फिर विरोध क्या है ? (प्र. ) अगर हाथ के चलने पर भी शरीर में क्रिया न हो तो अवयव और अवयवियों में 'युतसिद्धि' की आपत्ति होगी। (उ०) इससे 'युतसिद्धि' को आपत्ति नहीं होगी। (क्योंकि अयुतसिद्धि उन दो वस्तुओं में होती है, जिनमें) एक से असम्बद्ध होकर दूसरा न कहीं रहे, और न उनमें कोई रहे, यही वस्तुओं की अयुतसिद्धि है । 'अयुतसिद्धि' शब्द का यह अर्थ नहीं है कि एक के चलने पर दूसरा भी चले, एवं एक के न चलने पर दूसरा भी न
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि 'इति न मृष्यामहे' इत्यादि से जो आक्षेप किया गया है कि प्रतीत होनेवाले गुणसमूह से भिन्न कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं है, उसका समाधान 'भवतां कोऽर्थो दर्शनस्पर्शनविषयः' इतनी पङ्क्तियों से ही हो जाता है। रूपादिसमूह से अतिरिक्त द्रव्य अवश्य है । उसके बाद 'परमाणु-समूह ही अवयवी है' या 'सभी विज्ञानस्वरूप हैं इत्यादि विषयों की चर्चा प्रासङ्गिक है।
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[द्रव्ये तेज:
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
चलनेऽपि तयोर्युतसिद्धयभावात् । पृथगाश्रयायित्वं चावयवावयविनोभिन्नत्वेऽपि नास्तीति न युतसिद्धता। यदप्यन्यद् बाधकमुक्तम्, एकावयवावरणे तत्समवेतस्यावयविनो न ग्रहणम्, अनावृतावयवग्रहणे च ग्रहणमित्येकस्य युगपद् ग्रहणमग्रहणञ्च प्राप्नुत इति । तदप्यसारम् एकावयवावरणेऽवयव्यावरणस्याभावात् । स होकोऽनेकेषु वाऽवयविषु वर्तमानः कतिपयावयवावरणेऽप्यनावृतेतरकतिपयावयवग्रहणेन गृह्यते, तस्य सर्वत्राभिन्नत्वात् । यत्तु बहुतरावयवग्रहणवत् स्थूलप्रतीतिर्न भवति, तद्भूयोऽवयवप्रचयग्रहणस्य परिमाणप्रकर्षप्रतीतिहेतोरभावात् । यत्र तु भूयसामवयवानामावरणमल्पतरावयवग्रहणञ्च तत्रावयविनो न ग्रहणम्, यथा जलनिमग्नस्य शिरोमात्रदर्शनात् । एकस्मिन्नवयवे रक्ते तद्देशोऽवयवी रक्तोऽवयवान्तरे चारक्त इत्येकस्य रक्तारक्तत्वप्रसङ्ग इत्यचले, क्योंकि द्रव्य के चलने पर भी गुण नहीं चलते, किन्तु वे दोनों 'अयुतसिद्ध' हैं । अवयव और अवयवी इन दोनों में परस्पर भेद रहने पर भी एक को छोड़कर न दूसरा कहीं रहता है, न एक से असम्बद्ध एक-दूसरे में कोई रहता है। अतः इन दोनों में यतसिद्धि की आपत्ति नहीं है। (अवयवों से भिन्न अवयवी के मानने में ) आपने जो दूसरा बाधक कहा है कि (प्र.) जहाँ एक अवयवी के कुछ अवयव किसी दूसरी वस्तु से ढंके हुये हैं, और कुछ अवयव बिना ढंके हुये हैं, वहाँ ढंके हुए अवयवों में समवायसम्बन्ध से रहनेवाला अवयवी का प्रत्यक्ष नहीं होता है, और बिना ढंके हुए अवयवों में समवायसम्बन्ध से रहनेवाले अवयवों का ग्रहण होता है, दोनों प्रकार के अवयवों में रहनेवाला अवयवी एक ही है। तस्मात् अवयवों से भिन्न एक अवयवी के मानने में एक ही वस्तु में एक ही समय में ग्रहणत्व और अग्रहणत्व रूप विरुद्ध दो धर्मों का समावेश मानना पड़ेगा। ( उ०) इसमें भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि एक या कुछ अवयवों के ढंके जाने पर भी अवयवी नहीं ढंकता। यह अवयवी अनेक अवयवों में रहने के कारण कुछ अवयवों के ढंके रहने पर भी बिना ढंके हुए अवयवों के ग्रहण से गृहीत होता है, क्योंकि सभी अवयवों में अवयवी तो एक ही है । यह ठीक है कि कुछ अवयवों के ग्रहण से जो अवयवी का ग्रहण होता है, वह सभी अवयवों के ग्रहण से गृहीत होनेवाले अवयवी की प्रतीति की तरह 'स्थूल' विषयक नहीं होता। उसका कारण यह है कि 'परिमाणप्रकर्ष' रूप 'स्थूलता' की प्रतीति के कारण बहुत से अवयवों की प्रतीति वहाँ नहीं है । जिस अवयवी के अधिक अवयव ढके रहते हैं और कुछ ही अवयव बिना ढंके हुए रहते हैं, उस अवयवी का प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे कि पानी में डुबे हुए व्यक्ति का केवल शिर देखने पर भी प्रत्यक्ष नहीं होता। यह जो दुसरी आपत्ति ( अवयवी को अवयवों से अतिरिक्त मानने में बौद्ध लोग) देते हैं कि (प्र.) किसी अवयवी का एक अवयव रक्त रहे और दूसरा रक्त न रहे इनमें
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१०७
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली दूषणम्, अविरोधात् । रागद्रव्यसंयोगो रक्तत्वम्, अरक्तत्वञ्च तदभावः। उभयं चैकत्र भवत्येव, संयोगस्याव्याप्यवृत्तिभावात् ।
इदमपरं बाधकम्, अवयविनः प्रत्यवयवमेकदेशेन वृत्तिः कात्न्येन वा? प्रकारान्तराभावात् । न तावदेकदेशेन वृत्तिरवयवव्यतिरेकेणास्यैकदेशाभावात् । कात्स्न्येन वृत्तौ वाऽवयवान्तरे वृत्यभावः, एकावयवसंसर्गावच्छिन्ने स्वरूपेऽवयवान्तराणामनवकाशात, तत्स्वरूपव्यतिरेकेण चास्य स्वरूपान्तराभावात् । अत्रापि निरूप्यते--यद् वर्त्तते तदेकदेशेन वर्तते कात्स्न्ये न वेति ? किमिदं स्वसिद्धमभिधीयते परसिद्धं वा? स्वयं तावत् कस्यचित् क्वचिद् वृत्तिरसिद्धा शाक्यानाम्, परस्यापि नैकदेशकात्या॑भ्यां वृत्तिः सिद्धा, तयोरवृत्तित्वात्, वृत्ति प्रत्यकारणत्वाच्च। रक्त अवयवों में रहने वाले अवयवी को रक्त मानना पड़ेगा, और अरक्त अवयवों में रहनेवाले अवयवी को अरक्त मानना पड़ेगा, एवं दोनों प्रकार के अवयवों में रहनेवाला अवयवी एक ही है। अवयव समुदाय से भिन्न एक अवयवी के मानने में उक्त रीति से एक ही काल में एक ही वस्तु में रक्तत्व और अरक्तत्व इन दो विरुद्ध धर्मों का समावेश स्वीकार करना पड़ेगा। ( उ०) यह भी दोष नहीं है, क्योंकि “रक्तत्व' शब्द का अर्थ है लाल द्रव्य का संयोग, एवं अरक्तत्व शब्द का अर्थ है उसका अभाव । संयोग 'अव्याप्यवृत्ति' अर्थात् एक ही समय में अपने आश्रय के किसी अंश में रहता है, एवं किसी में नहीं। तस्मात् रक्तत्व और अरक्तत्व दोनों का एक ही समय में एक अवयवी में रहना उनके परस्पर अविरोधी होने के कारण युक्तिविरुद्ध नहीं है ।
__ अवयवों से भिन्न अवयवी के मानने में बौद्ध लोग एक आपत्ति और करते हैं कि ( प्र०) प्रत्येक अवयव में अवयवी अपने किसी एक अंश के द्वारा सम्बद्ध रहता है ? या अपने सम्पूर्ण रूप से ? इन दोनों से भिन्न कोई तीसरा प्रकार नहीं है। किन्तु किसी एक अंश से तो रह नहीं सकता, क्योंकि उन अवयवों को छोड़कर उसका कोई एक अंश नहीं है। उसका अवयवों में अपने सम्पूर्ण रूप से रहना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस प्रकार वह अपने किसी एक ही अवयव में रहेगा और अवयवों में नहीं, क्योंकि एक अवयव में अपने सम्पूर्ण रूप से सम्बद्ध अवयवी की दूसरे अवयवों में सम्बद्ध होने की सम्भावना नहीं है। जिस रूप से वह एक अवयव में सम्बद्ध होगा, उसको छोड़कर अवयवी का कोई दूसरा रूप नहीं है। किन्तु इस रूप से तो वह एक अवयव में है ही। ( उ० ) इस विषय में यह पूछना है कि अवयवी अवयवों में एक अंश से रहता है या सम्पूर्ण रूप से ? यह प्रश्न आप (बौद्ध) अपने से कर रहे हैं ? या दूसरों के सिद्धान्त के अनुसार ? बौद्धों के यहाँ किसी वस्तु की वृत्तिता किसी वस्तु में है ही नहीं। दूसरों के मत में भी 'एक देश से या सम्पूर्ण रूप से वृत्तिता सिद्ध
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[द्रव्ये तेज:
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
यद् वर्त्तते तत् स्वरूपेणाश्रयाश्रितभावलक्षणया वृत्त्या वर्तते । न चैकस्यानेकसंसर्गो विरुद्धयते । दृष्टो हि चित्रज्ञाने नीलाकारावछिन्ने पीताद्याकारसंसर्गः । न च तस्य प्रत्याकारं भेदः, एकस्यानेकाकारग्रहणानुपपत्तौ भवतां चित्रप्रत्ययाभावप्रसङ्गात् । नापि ज्ञानकत्वादाकाराणामप्येकत्वम्, चित्रानुभव. विरोधात् । यथैकावयवावच्छिन्ने एकावयविस्वभावेऽवयवान्तरसमावेशः प्रत्यक्षे. णानेकावयवसम्बद्धस्य, तथैकस्य स्थूलात्मनः संवेदनादेकस्मिन्ननेकसंसर्गो दृष्टो नैकस्यानेकेषु संसर्ग इति च वैधय॑मात्रम्, एकस्यानेकसंसर्गावच्छेदस्योभयत्राविशेषात् । एवं यदेकं तदेकत्रैव वर्तते, यथैक रूपमेकश्चावयवीति, तथा यदनेकवृत्ति तदनेकम्, यथानेकभाजनगततालफलान्यनेकवृत्तिश्चावयवीति प्रसङ्गद्वयं प्रत्याख्यातम्, स्वतः परतश्च व्याप्त्यसिद्धेः, स्वतस्तावदेकं विज्ञानमनेकेषु विषयेन्द्रियमनस्कारेषु स्वरूपाभेदेन तदुत्पत्त्या वर्त्तते, परस्याप्येकं सूत्रमभेदेनानेकेषु मणिषु संयोगवृत्या वर्त्तते, तथाऽवयव्यवयवेषु समवायवृत्त्या वतिष्यते
नहीं है, क्योंकि 'एकदेश' या 'सम्पूर्णरूप' इन दोनों में कोई भी 'वृत्ति' अर्थात् सम्बन्ध नहीं है, एवं सम्बन्ध के कारण भी नहीं हैं ।
किसी वस्तु का किसी वस्तु में रहना, उन दोनों वस्तुओं के आधाराधेयभावसम्बन्ध से ही होता है । अनेक वस्तुओं में एक वस्तु का सम्बन्ध विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि चित्रज्ञानस्थल में नीलाकारविशिष्ट में पीताकार का सम्बन्ध सर्वजनीन अनुभव से सिद्ध है । चित्ररूप की प्रतीति में उसके आश्रय रूप से भासित होनेवाली वस्तु नीलादि आकारों के भेद से भिन्न-भिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि फिर उसमें चित्र रूप की प्रतीति नहीं होगी। (एक वस्तु में अनेक आकारों के रूप की प्रतीति ही चित्र की प्रतीति है) एक ज्ञान में भासित होने के कारण ( नीलादि सभी) आकारों को एक मानना भी सम्भव नहीं है । (प्र. ) एक वस्तु एक ही आश्रय में रह सकती है, जैसे कि एक रूप । अवयवी भी एक ही है, (तस्मात् अनेक अवयवों में रहनेवाला अवयवी एक नहीं हो सकता ), एवं जो वस्तु अनेक आश्रयों में रहता है वह स्वयं भी अनेकात्मक ही है, जैसे कि अनेक पात्रों में रक्खे हुए अनेक तालफल । (तस्मात् अनेक अवयवों में रहनेवाला अवयवी अनेकात्मक ही हो सकता है, एकात्मक नहीं )। (उ०) किन्तु ये दोनों ही बाधक अनुमान अनादर के पात्र हैं, क्योंकि इनमें व्याप्ति न पूर्वपक्षवादी बौद्धों के मत से सिद्ध है, न हम लोगों के मत से । बौद्धों के मत में भी एक ही विज्ञान अपने उत्पत्तिरूप सम्बन्ध से और अपने स्वरूप के अभेद से विषय, इन्द्रिय और मनोवृत्ति इन अनेक वस्तुओं में रहता है। हम लोगों के मत में भी एक डोरी अनेक मणियों में संयोग सम्बन्ध से रहती है। अतः एक अवयवी भी
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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नाना च न भविष्यति । सर्वश्चायं प्रसङ्गहेतुराश्रयं निघ्नन्नात्मानमपि हन्ति, अवयव्यभावे परमाणुमात्रे जगति धर्म्मधम्मिदृष्टान्तादिप्रतीत्यसिद्धौ निराश्रयस्य वृत्त्यभावात् । अतो नानेन प्रत्यक्षसिद्धोऽवयवी शक्यो निराकर्तुम्, प्रत्यक्षसापेक्षस्य तस्य ततो दुर्बलत्वात् । भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेत् ? कुत एतत् ? बाधकेनापाकरणादिति चेत्, प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वे बाधकस्य प्रमाणत्वं बाधकप्रामाण्ये च प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमित्यन्योन्यापेक्षित्वम् । प्रत्यक्षे तु नायं न्यायः, तस्यानपेक्षत्वात् । न चार्थक्रियासंवादिसर्वलोकसिद्धं स्पष्टप्रतिभासं भ्रान्तमिति युक्तम्, नीलादिप्रत्यक्षस्यापि भ्रान्तत्वप्रसङ्गादिति बाधकोद्धारः । परमाणवोऽवयव्यनुमेया अपि सन्तो व्यवहर्त्तव्याः ।
षट्केन युगपद्योग एकस्य परमाणोः षडंशत्वमापादयन् परमाणुसमवायसम्बन्ध से अनेक अवयवों में रहेगा, इसके लिए उसे नाना अवयवरूप मानने की आवश्यकता नहीं है । विरुद्ध अनुमानों के ये सभी हेतु अपने आश्रय का नाश करते हुए अपना भी नाश करते हैं, क्योंकि अगर अवयवी न रहे तो संसार परमाणुमात्र में परिणत हो जाय । फिर धर्म, धर्मी, दृष्टान्तादि की विलक्षण प्रतीतियों की उपपत्ति न होगी । और ये विरुद्ध अनुमान के हेतु बिना आश्रय के रह नहीं सकते ( अपना काम भी नहीं कर सकते ), अतः इससे प्रत्यक्षसिद्ध अवयवी नहीं हटाया जा सकता, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष सापेक्ष है, अतः अनुमान प्रत्यक्ष से दुर्बल है । ( प्र० ) प्रत्यक्ष भ्रान्त है ? ( उ० ) क्यों ? ( प्र० ) क्योंकि वह बाधक अनुमान से हटा दिया जाता है । ( उ० ) प्रत्यक्ष जब भ्रान्तिरूप से निश्चित होगा तभी बाधक होगा, एवं बाधक अनुमान का प्रामाण्य जब तक निर्णीत नहीं है तब तक प्रत्यक्ष को भ्रान्ति रूप मानना सम्भव नहीं है, इस प्रकार इस पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य है । प्रत्यक्ष को बाधक मानने में यह अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योंकि उसे अपने प्रामाण्य के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि प्रवृत्ति की सफलता के लिए लोक में प्रसिद्ध स्पष्ट ज्ञानरूप प्रत्यक्ष भ्रान्त है क्योंकि इस प्रकार नीलादि गुणसमूहों
का प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हो जाएगा । इस प्रकार सभी बाधकों का खण्डन हो गया ।
१०६
१
( प्र० ) छ : परमाणुओं के एक ही समय का संयोग एक एक परमाणु के छः अंशों को सिद्ध करता है, जिससे ( आप के अभिमत निरंश) परमाणु की सत्ता ही उठ
षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता । षण्णां समानदेशत्वात् पिण्डः स्यादणुमात्रकः ।।
१. 'षट्केन युगपद्योगः' इत्यादि कन्दलीकार का उठाया हुआ पूर्वपक्ष 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' की इस कारिका की ओर सङ्केत करता है
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये तेजः
___ न्यायकन्दली सद्भावं बाधत इति चेत् ? कोऽयं युगपद्योगो नाम ? किमेकस्य परमाणोः षड्भिः परमाणुभिः सह युगपदुत्पादः ? किं वा युगपत्संयोगः ? युगपदुत्पादस्तावत् कारणयोगपद्यादेव निरंशस्यापि यदि भवेत् को विरोधः, अथ युगपत्संयोगः, सोऽपि नानुपपन्नः, न ांशविषयः संयोगो द्रव्याणाम्, निरंशस्याप्याकाशस्य तद्भावात्, अंशस्याप्यंशान्तरसद्भावे परमाणुमात्रे संयोगस्थितौ तस्याजाती है। (उ०) यह 'युगपद्योग' क्या है ? (१) छः परमाणुओं के साथ एक ही समय में एक परमाणु की उत्पत्ति ( युगपद्योग' शब्द का अर्थ है ? ) या (२) एक परमाणु के साथ छः परमाणुओं का संयोग ? (इन में प्रथम विकल्प के प्रसङ्ग में यह कहना है कि) (१) अगर अंशशून्य वस्तुओं के भी कारण हों तो फिर कथित सात परमाणु रूप निरंश वस्तुओं के कारणों का अगर एक समय में सम्बलन हो सके तो एक ही समय में सात परमाणुओं की सृष्टि में क्या बाधा है ? इसमें कौन सा विरोध है ? (२) अगर प्रकृत युगपद्योग शब्द का दूसरा अर्थ है, तब भी कोई अनुपपत्ति नहीं है, क्योंकि यह नियम नहीं है कि संयोग अंशशून्य द्रव्यों का ही हो, क्योंकि अंशशून्य आकाश में भी संयोग मानते ही हैं। अगर संयोग केवल अंशों में ही माना जाय तो फिर सभी अंशों का भी अंश मानना पड़ेगा, फलतः संयोग केवल परमाणु में ही सीमित
___अर्थात एक परमाणु एक ही समय में छः परमाणुओं के साथ संयुक्त होने के कारण 'षडशः' अर्थात् छः अंशों से युक्त है, क्योंकि एक ही स्थान में छ: संयोग नहीं हो सकते । एक वस्तु के भिन्न-भिन्न अंशों में ही विभिन्न संयोगों की उत्पत्ति होती है। अगर आग्रहवश यह मान भी लें कि एक ही परमाणु के एक ही अंश में छः परमाणुओं के छः संयोग होते हैं तो फिर 'पिण्डः स्थादणुमात्रकः' अर्थात् इस प्रकार सात परमाणुओं से जिस 'पिण्ड' की उत्पत्ति होगी वह 'अणुमात्र' अर्थात् परमाणुस्वभाव का ही होगा । इसमें स्थूलता नहीं आ सकती। कोई भी वस्तु अपने पहिले स्वरूप से अधिक लम्बी चौड़ी या अधिक वजन को इसलिए होती है कि उसके विभिन्न अंशों में विभिन्न द्रव्यों के विभिन्न संयोग होते हैं। अतः विना अंश के परमाणुओं से उत्पन्न वस्तु स्थूल नहीं हो सकती, परमाणु के एक प्रदेश में विभिन्न परमाणुओं के भिन्न-भिन्न संयोग मान लेने पर भी नहीं। एवं एक में अनेक संयोग हो भी नहीं सकते, अतः परमाणु के अनेक प्रदेश मानने होंगे । तस्मात् एक परमाणु के चार दिशाओं के चार अंशों में चार विभिन्न परमाणुओं के चार संयोग, एवं परमाणु के नीचेवाले अंश में एक परमाणु का एक संयोग, एवं उसके ऊपर प्रदेश में एक परमाणु का एक संयोग, इस प्रकार छः दिशाओं से छः संयोग से ही स्थूल वस्तु की सृष्टि हो सकती है। फलतः एक परमाणु के उक्त छः दिशाओं से छः परमाणु आकर संयुक्त होते हैं, तभी स्थूल सृष्टि होती है । तस्मात् जिसे आप परमाणु कहते हैं, वस्तुतः वह छः अंशवाली एक वस्तु है । फलतः निरवयव परमाणु की सत्ता ही अप्रामाणिक है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
१११
प्रशस्तपादभाष्यम वायुत्वाभिसम्बन्धाद्वायुः । स्पर्शसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वसंस्कारवान् । स्पर्शोऽस्यानुष्णाशीतत्वे
वायुत्व जाति के सम्बन्ध से वायु का व्यवहार करना चाहिए। यह स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और संस्कार इन नौ गुणों से युक्त है । इसमें अपाकज अनुष्णाशीत स्पर्श ही है ये सभी
न्यायकन्दली प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गाच्च, किन्तु स्वरूपविषयः । एवञ्चेत्, सांशद्रव्यस्येव निरंशस्यापि परमाणोरेकस्य युगपत्कारणसम्भवे सत्यनेकसंयोगाधिकरणत्वमुपपद्यत एवेति न तत्प्रतिक्षेपः।
प्रत्यक्षं पृथिव्यादित्रयं व्याख्यायाप्रत्यक्षद्रव्यव्याख्यानावसरे नित्यानित्योभयस्वभावद्रव्यनिरूपणस्य प्रकृतत्वाद्वायु व्याचष्टे-वायुत्वाभिसम्बन्धाद्वायुरिति । व्याख्यानं पूर्ववत् । तस्य गुणान् कथयति-स्पर्शत्यादि । अत्रापि पूर्ववद् व्याख्या । यादृशः स्पर्शो वायौ वर्तते तं दर्शयति-स्पर्श इति । पृथिवीस्पर्शः पाकजः परमाणुषु, तत्पूर्वकश्च स्वकार्येषु । अस्य तु स्पर्शोऽपाकज हो जाएगा, जो कि केवल अंश ही है ( उसका कोई अंश नहीं है ), अतः संयोग को अंश की अपेक्षा नहीं है द्रव्य के स्वरूप की अपेक्षा है । तस्मात् कारणों के रहने पर एक समय में ही अंश से युक्त द्रव्यों की तरह अंशशून्य परमाणु में भी अनेक परमाणुओं के संयोग की अधिकरणता युक्तिविरुद्ध नहीं है, अतः अंशरहित परमाणु की सत्ता में कोई विवाद नहीं हैं ।
प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात होनेवाले पृथिवी, जल और तेज इन तीन पदार्थों के निरूपण के बाद प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात न होनेवाले द्रव्यों के निरूपण की बारी आती है, एवं पृथिवी प्रभृति कहे हुये द्रव्य नित्य और अनित्य दोनों ही प्रकार के हैं, अतः पूर्वागत होने के कारण नित्यानित्यस्वभाव के द्रव्य का ही निरूपण क्रम से प्राप्त है। अप्रत्यक्ष द्रव्यों में से नित्यानित्यस्वभाव के कारण वायु का निरूपण ही क्रमप्राप्त है । तदनुसार 'वायुत्वाभिसम्बन्धाद्वायुः” इत्यादि से वायु का निरूपण करते हैं । इस वाक्य की व्याख्या "पृथिवीत्वादिसम्बन्धात् पृथिवी" इत्यादि वाक्यों की तरह करनी चाहिए। 'स्पर्शः' इत्यादि से वायु के गुणों का वर्णन करते हैं। इसकी भी व्याख्या पृथिवी प्रभृति द्रव्यों के गुण के बोधक वाक्यों की तरह करनी चाहिए । पार्थिव परमाणुओं में पाकज स्पर्श है, अत: उन परमाणुओं के कार्य और पार्थिव द्रव्यों में भी पाकज स्पर्श ही है, क्योंकि कार्य के गुण कारण के गुणों से उत्पन्न होते हैं । इस ( वायु ) का स्पर्श भी अपाकज ही है, अतः यह स्पर्श वायु का लक्षण है। यह स्पर्श अपाकज इसलिए है कि
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११२
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशतपादभाष्यम्
सत्यपाकजः, गुणविनिवेशात् सिद्ध: । अरूपिष्वचाक्षुषवचनात् सप्त सङ्ख्यादयः । तृणकर्मवचनात् संस्कारः । स चायं द्विविधोऽणुकागुण ( कणाद के ) गुणविनिवेशाधिकार के सूत्रों से इसमें सिद्ध समझना चाहिए । 'अरूपिष्वचाक्षुषाण' (४।१।१२) रूप शून्य द्रव्यों के संख्यादि सात गुण आँखों से नहीं देखे जाते' सूत्रकार की इस उक्ति में वायु में संख्यादि सात गुणों की सत्ता समझनी चाहिए। 'तृणे कर्म्म वायुसंयोगात्' ( ५।१।१४ ) वायु प्रभृति द्रव्यों के संयोग से तृण में क्रिया उत्पन्न होती है' महर्षि कणाद की इस उक्ति से वायु में संस्कार नाम के गुण की सत्ता समझनी चाहिए। इसके भी ( १ ) अणु और ( २ ) न्यायकन्दली
[ द्रव्ये वायु
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इत्यती वैधर्म्यम् । अपाकजत्वञ्चास्य पृथिव्यनधिकरणत्वादुदकतेजःस्पर्शवत् । अनुष्णाशीतत्वे सतीत्युदक तेजःस्पर्शाभ्यां वैधर्म्यमुक्तम् । अयञ्च द्वितीयाध्यायात्-"वायुः स्पर्शवान् ” ( २।१।४ वै० सू० ) इति सूत्रेण वायौ सिद्ध इत्याहविनिवेशादिति । अरूपिष्व चाक्षुषवचनात् सप्त
न
सङ्ख्यादयः । रूपरहितेषु द्रव्येषु सङ्ख्यादयश्चाक्षुषा भवन्तीत्यभिधानादरूपिषु सङख्यादीनां सद्भावः कथितः, अन्यथा तवर्तिनां तेषामप्रत्यक्षत्वाभिधानमसम्बद्धं स्यात् । तृणकर्मवचनात् संस्कार इति । " तृणे कर्म वायोः संयोगात्" ( ५।१।१४ ० सू० ) इति वचनाद् वायो संस्कारो दर्शितः, वेगरहितद्रव्यसंयोगस्य कर्महेतुत्वानुपलम्भात् । तस्य भेदनिरूपणार्थमाह - स चायमिति । स चेति स्मृत्युत्थापितो बुद्धिसन्निहितः पश्चादयमिति प्रत्यक्षवत् परामृश्यते । पृथिवी में वह नहीं है, जैसे कि जल और तेज का स्पर्श । अनुष्णाशीतत्वे सति' इस पद से ( इस अनुष्णाशीत स्पर्श में ) तेज और जल के स्पर्श से ( अपाकजत्वरूप से ) समानता होने पर भी ( अनुष्णाशीतत्वरूप से ) विभिन्नता कही गई है । यह ' स्पर्शवान् वायुः ' ( २ १ ४ ) इस सूत्र से सिद्ध है । यह विषय ' गुणविनिवेशात्सिद्ध:' इस वाक्य से कहा गया है। रूप से रहित द्रव्य के संख्यादि सात गुणों को चूंकि सूत्रकार ने 'अचाक्षुष' कहा है (४।१।११), अतः इससे ही वायु में संख्यादि सात गुणों की सत्ता भी जाननी चाहिए । अगर ऐसा न हो तो रूपशून्य द्रव्यों के संख्यादि गुणों की अचाक्षुषत्व की सूत्रकार की उक्ति असङ्गत हो जाएगी । 'तृणकर्मवचनात्संस्कारः' अर्थात् सूत्रकार ने 'तृणे कर्म वायुसंयोगात् (५।१।१४) इस सूत्र के द्वारा वायु में संस्कार नाम के गुण की सत्ता कही है, क्योंकि वेग से रहित द्रव्य का संयोग कर्म को उत्पन्न करते नहीं देखा जाता । ' स चायम्' इत्यादि वाक्य
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११३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् भावात । तत्र कार्यलक्षणश्चतुर्विधः, शरीरमिन्द्रियं विषयः प्राण इति । तत्रायोनिजमेव शरीरं मरुतां लोके, पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्चोपभोगसमर्थम् । इन्द्रियं सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकम् , पृथिव्याधनभिकार्य ये दो भेद हैं। इनमें कार्यरूप वायु ( १ ) शरीर ( २ ) इन्द्रिय ( ३ ) विषय
और ( ४ ) प्राण भेद से चार प्रकार के हैं। इनके शरीर अयोनिज ही हैं, जो केवल वायुलोक में ही प्रसिद्ध हैं। इस शरीर में पार्थिव अवयवों के विलक्षण संयोग से सुख और दुःख के अनुभव की क्षमता रहती है । सभी प्राणियों के स्पर्श के प्रत्यक्ष का साधन द्रव्य ही इन्द्रिय रूप वायु है । वायु के जिन अवयवों का बल पार्थिवादि
न्यायकन्दली न केवलं पृथिव्यादयो द्विविधाः, अयमपि द्विविध इति चार्थः । कार्यलक्षणश्चतुर्विधः कार्यस्वभाव इत्यर्थः । चातुविध्यं कथमित्यत आह-शरीरमिन्द्रियं विषयः प्राण इति । तेषां मध्ये शरीरं जात्या निर्धारयति-तत्र शरीरमिति । अयोनिजमेव न तु पार्थिवशरीरवद् योनिजमयोनिजमपीत्यर्थः । मरुतां लोक इति स्थानसङ्कीर्तनम् । भूयसां पार्थिवावयवानां निमित्तकारणभूतानामुपष्टम्भात् संयोगविशेषात् स्थिरं संहतस्वभावमुत्पन्नं पार्थिवशरीरवदुपभोगसमर्थम् । इन्द्रियं सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकमिति । यत् सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकवायु के प्रकारों का निरूपण करने के लिए लिखते हैं। 'सच' इस शब्द से स्मृति के द्वारा बुद्धि के अत्यन्त निकट ले आने के बाद वायु प्रत्यक्ष वस्तु की तरह कहा गया है। केवल पृथिव्यादि ही दो दो प्रकार के नहीं हैं किन्तु यह वायु भी उन्हीं की तरह दो प्रकार का है, यही ('स च' इस वाक्य में प्रयुक्त) 'च' शब्द से सूचित होता है । 'कार्यलक्षणश्चतुर्विधः' इस वाक्य में आनेवाले 'कार्यलक्षण' शब्द का 'कार्यस्वभाव' अर्थ है । यह चार प्रकार का कैसे है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'शरीरमिन्द्रियम्' इत्यादि वाक्य से देते हैं । अर्थात् (१) शरीर, (२) इन्द्रिय, (३) विषय, और (४) प्राण इन भेदों से कार्यरूप वायु चार प्रकार का है। उनमें 'तत्र शरीरम्' इत्यादि से शरीर रूप वायु को जाति के द्वारा निर्धारित करते हैं। अर्थात् वायवीय शरीर केवल अयोनिज ही है, पार्थिव शरीर की तरह योनिज और अयोनिज भेद से दो प्रकार का नहीं । 'मरुतां लोके' यह वाक्त्र इस शरीर के स्थान का निर्देश करता है। निमित्तकारणरूप बहुत से पार्थिव अवयवों के 'उपष्टम्भ' अर्थात् विशेश प्रकार के संयोग से यह शरीर भी ठोस आकार का उत्पन्न होता है और इसी से पार्थिवादि शरीरों की तरह उपभोग कर सकता है। 'इन्द्रियं सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकम्' अभिप्राय यह है कि सभी प्राणियों
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११४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये वायु
प्रशस्तपादभाष्यम् भूतैर्वाय्वयवैरारब्धं सर्वशरीरव्यापि त्वगिन्द्रियम् । विषयस्तूपलम्यविरोधी शक्तियों से नष्ट नहीं हुआ है, उन वायवीय अवयवों से इसकी सृष्टि होती है। यह शरीर के भी सभी अंशों में रहती है । इस इन्द्रिय का नाम है त्वचा। विषयरूप वायु प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात स्पर्श का आश्रय, एवं स्पर्श, शब्द, धृति और
न्यायकन्दली मिन्द्रियं तत् पृथिव्याद्यनभिभूतैरप्रतिहतसामर्थ्यर्वाय्ववयवैरारब्धम्, अतो विशिष्टोत्पादादिन्द्रयं स्यादित्यर्थः । तस्य सद्भावे तावत् स्पर्शोपलब्धिरेव प्रमाणम् । वायवीयत्वञ्चास्य रूपादिषु मध्ये स्पर्शस्येवाभिव्यञ्जकत्वावङ्गसङ्गिसलिलशैत्याभिव्यञ्जकसमीकरणवत् । तच्च सर्वशरीरव्यापि, सर्वत्र तत्कार्यस्य स्पर्शो. पलम्भस्य भावात् । त्वगिन्द्रियमिति समाख्या त्वचि स्थितमिन्द्रियं त्वगिन्द्रियमित्युच्यते, तत्स्थे तदुपचारात्, त्वचा सर्वेन्द्रियाधिष्ठानानि व्याप्तानि, सत्यां त्वचि रूपादिग्रहणमसत्यामग्रहणमिति त्वगिन्द्रियं सर्वार्थम्, न तु स्पर्शमात्र ग्राहकमिति केचित्, तदयुक्तम्, अन्धाद्यभावप्रसङ्गात्, तत्तदधिष्ठानभेदेन शक्तिभेदाभ्युपगमे प्रकारान्तरेणेन्द्रियभेदाभ्युपगमः । विषयब्यवस्थानियमनिरूपणार्थम-विषयस्त्विति ।
उपलभ्यमानस्पर्शस्याधिष्ठानभूत आश्रयो यः स विषय इति । किमस्यास्तित्वे प्रमाणम् ? के प्रत्यक्ष का कारण यह इन्द्रिय, पार्थिव अवयवों से अनभिभूत है, अर्थात् जिन वायवीय अवयवों की शक्ति का पार्थिवादि विरोधी शक्तियों से नाश नहीं हुआ है, उनसे बनी हुई है, अतः यह इन्द्रिय है। स्पर्श के प्रत्यक्षरूप प्रमाण से ही इस इन्द्रिय की सत्ता समझी जाती है। यह इन्द्रिय चूंकि रूपादि गुणों में से केवल स्पर्श के प्रत्यक्ष का ही उत्पादक है, अतः पसीने की शीतता को व्यजित करनेवाले समीर की भांति यह (इन्द्रिय) भी वायवीय सिद्ध होती है। शरीर के सभी प्रदेशों में स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है, अतः यह इन्द्रिय शरीर के सभी प्रदेशों में है। चूंकि यह इन्द्रिय त्वचा में रहती है, इसलिए इसका नाम 'त्वक्' है। त्वचारूप अधिकरण में रहने के कारण ही लक्षणा वृत्ति के द्वारा उसके आधेयरूप इन्द्रिय में भी त्वक्' शब्द का प्रयोग होता है । (प्र.) त्वगिन्द्रिय अगर शरीर के सभी प्रदेशों में है तो फिर उसका अन्वय और व्यतिरेक स्पर्श की तरह रूपादि गुणों में भी है, अतः त्वगिन्द्रिय मात्र एक ही इन्द्रिय मान ली जाय, इससे ही रूपादि प्रत्यक्षों का भी निर्वाह हो सकेगा ? (उ०) उक्त कथन असङ्गत है क्योंकि इससे संसार से अन्धापन का मिट जाना मानना पड़ेगा। अगर अधिष्ठान के भेद से त्वचा में ही रूपादि प्रत्यक्ष की विभिन्न शक्तियाँ मानें, तो फिर वह वस्तुतः दूसरे शब्दों में अनेक इन्द्रियों की सत्ता माननी जैसी ही होगी।
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करणम् ] भावानुवादसहितम्
११५ प्रशस्तपादभाष्यम् मानस्पर्शाधिष्ठानभूतः स्पर्शशब्दधतिकम्पलिङ्गस्तिय्यंग्गमनस्वभावो मेघादिप्रेरणधारणादिसमर्थः। कम्प इन चार हेतुओं से अनुमेय,और कुटिल गति से चलनेवाला है। मेघ आदि वस्तुओं को इधर उधर जाने में प्रेरित करना और उनको गिरने न देना विषयरूप वायु के कार्य हैं।
न्यायकन्दली प्रत्यक्षमेव, त्वगिन्द्रियव्यापारेण वायुतीत्यपरोक्षज्ञानोत्पत्तेरिति कश्चित्, तन्न युक्तम्, स्पर्शव्यतिरिक्तस्य वस्त्वन्तरस्यासंवेदनात्, अपरोक्षज्ञाने तु स्पर्श एव प्रतिभाति नान्यत्, यदपि वायुतीति ज्ञानं तदभ्यासपाटवातिशयाद् व्याप्तिस्मरणाद्यनपेक्षं स्पर्शनानुमानम्, चक्षुषेव वृक्षादिगतिक्रियोपलम्भात्। शीतोष्णस्पर्शभेदप्रतीतौ वायुप्रत्यभिज्ञानमपि तदाश्रयोपनायकद्रव्यानुमानादेव । त्वगिन्द्रियेण तु शीतोष्णस्पर्शाभ्यामन्यस्य न प्रतिभासोऽस्ति । स्पार्शनप्रत्यक्षो वायुरुपलभ्यमानस्पर्शाधिष्ठानत्वाद् घटवदित्यनुमानं शशादिषु
विषयरूप वायु इतने ही हैं, इससे अधिक नहीं, इससे कम भी नहीं' इस व्यवस्था के लिए 'विषयस्तु' इत्यादि लिखते हैं । अर्थात् पृथिवी, जल और तेज के स्पर्श से विलक्षण जिस स्पर्श की उपलब्धि होती है, उस स्पर्श का आश्रय ही 'विषय' रूप वायु है । (प्र.) इस स्पर्श के आश्रयरूप द्रव्य की सत्ता में प्रमाण क्या है ? ( उ० ) कोई कहते हैं कि उसके अस्तित्व में प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, क्योंकि त्यगिन्द्रिय के व्यापार से ही 'वायु चल रही है' इस प्रकार की अपरोक्ष प्रतीति होती है। किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस अपरोक्ष ज्ञान में त्वगिन्द्रिय के व्यापार के द्वारा स्पर्श से भिन्न कोई और पदार्थ भासित नहीं होते, अर्थात् उस अपरोक्ष ज्ञान में स्पर्श को छोड़कर ( उसके आश्रयादि) और कोई वस्तु प्रतिभासित नहीं होती। 'हवा चलती है' यह ज्ञान भी स्पर्श हेतुक अनुमिति ही है। यह और बात है कि बार बार स्पर्शहेतुक वायु की अनुमिति से उत्पन्न विशेष प्रकार की पटुता से उक्त अनुमिति में व्याप्ति की अपेक्षा नहीं होती, जैसे कि चक्षु से वृक्षादिगत क्रिया की अनुमिति में व्याप्ति को अपेक्षा नहीं होती। उस स्पर्श में शीत और उष्ण से वैलक्षण्य की प्रतीति के बाद जो यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि 'यह स्पर्श वायु का है' वह भी स्पर्श के आश्रयरूप द्रव्य के अनुमान से ही होती है । तस्मात् त्वगिन्द्रिय से शीतोष्णादि स्पर्शों से अतिरिक्त किसी और वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता है। 'वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष स्पर्श का आश्रय है, जैसे कि
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये वायु
न्यायकन्दली पशुत्वेन शृङ्गानुमानवदनुपलब्धिबाधितम् । द्रव्यस्य स्पार्शनत्वं चाक्षुषत्वेन व्याप्तमवगतं घटादिषु चाक्षुषत्वस्य च वायावभावस्तेनात्र शक्यं स्पार्शनत्वनिवृत्त्यनुमानमेतत्, अतस्तस्याप्रत्यक्षस्य सद्भावेऽनुमानमुपन्यस्यति-स्पर्शशब्दधृतिकम्पलिङ्ग इति । स्पर्शश्च शब्दश्च धृतिश्च कम्पश्चेति ते लिङ्गानि यस्येति बहुव्रीहिः ।
योऽयं रूपादिरहितः स्पर्शः प्रतीयते, स क्वचिदाश्रितः, स्पर्शत्वात्, इतरस्पर्शवत् । न चास्य पृथिव्येवाश्रयो रूपविप्रयोगात् । अस्त्यत्राप्यनुद्भूतं रूपमिति चेन्न, उपलभ्यमानस्य पाथवस्य स्पर्शस्योपलभ्यमानरूपेणैव सहाव्यभिचारोपलम्भात्, न चेह रूपस्यास्त्युपलम्भस्तस्मानायं पार्थिवः स्पर्शः। न चोदकतेजसोरयमाश्रितोऽनुष्णाशीतत्वाद् घटादिस्पर्शवत् । नाप्यमूर्तेष्वाकाशकालदिगात्मसु वर्तते, स्पर्शस्य मूर्ताव्यभिचारोपलम्भात् । मनसाञ्च स्पर्शवत्त्वे परमाणनामिव तेषां सजातीयद्रव्यारम्भकत्वं स्यात्, न चैवम्, तस्मात् तेषामपि न भवति, अतो यत्रायमाश्रितः स वायुरिति परिशेषः । घटादि' यह अनुमान शश (खरहे ) में पशुत्व हेतु से सींग के अनुमान की तरह अनुपलब्धिमूलक बाध दोष से युक्त है । एवं त्वगिन्द्रिय द्वारा वायु के प्रत्यक्ष होने में बाधक अमुमान भी है कि 'स्पार्शन प्रत्यक्ष उसी द्रव्य का होता है, जिसका कि चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है' यह व्याप्ति घटादि में ज्ञात है एवं वायु में चाक्षुषत्व नहीं है, तस्मात् 'वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है। अतः प्रत्यक्ष न होनेवाले वायु की सत्ता में "स्पर्शशब्दधृतिकम्पलिङ्गः” इत्यादि से अनुमान प्रमाण दिखलाया गया है । 'स्पर्शश्च शब्दश्च धृतिश्च कम्पश्चेति ते लिङ्गानि यस्य' इस विग्रह के अनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि स्पर्श, शब्द, धृति और कम्प ये चार जिसके ज्ञापक हैं, वही 'वायु' है।
(१) (सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से) रूपरहितत्व विशिष्ट जिस स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है उसका कोई आश्रय अवश्य है, क्योंकि वह भी स्पर्श है, जैसे कि और वस्तुओं का स्पर्श । प्रतीयमान इस स्पर्श का आश्रय पृथिवी नहीं है, क्योंकि इस स्पर्श में रूप का (सामानाधिकरण्य) सम्बन्ध नहीं है। (प्र.) इसमें भी रूप है ही, किन्तु अनुभूत है ? (उ०) नहीं, क्योंकि उपलब्धि के योग्य पृथिवी के स्पर्श का उपलब्धियोग्यरूप साथ ही नियत सम्बन्ध सभी जगहों में देखा जाता है, किन्तु इस स्पर्श के साथ रूप को उपलब्धि नहीं होती है, तस्मात् यह स्पर्श पार्थिव नहीं है। यह स्पर्श तेज और जल का भी नहीं है, क्योंकि यह अनुष्णाशीत है, जैसे कि घटादि का स्पर्श । यह स्पर्श आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन अमूर्त द्रव्यों का भी नहीं है, क्योंकि यह अव्यभिचरित नियम है कि स्पर्श मूर्त द्रव्यों में ही रहे। मन में अगर स्पर्श मानें तो फिर उनमें
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली एवं शब्दोऽप्यस्य लिङ्गम, योऽयं पर्णादिष्वकस्माच्छुकशुकाशब्दः श्रूयते तस्याद्यः शब्दः स्पर्शवद्रव्यसंयोगजः, अविभज्यमानावयवद्रव्यसम्बन्धित्वे सत्यादिशब्दत्वाद् दण्डाहतभेरीशब्दवत्, यश्चासौ स्पर्शवान् स वायुः। आकाशादीनां स्पर्शाभावात् पृथिव्युदकतेजसां च रूपवतां तच्छब्दहेतुत्वे प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । विभागजशब्दव्यवच्छेदार्थमविभज्यमानावयवद्रव्यसम्बधित्वे सतीत्युक्तम् ।
एवमन्तरिक्षे पर्णादीनां धृतिरवस्थितिः स्पशवद्रव्यसंयोगकाऱ्या प्रयत्नवेगादिकारणाभावे सति धतित्वाज्जलोपरि स्थितपर्णादिवत् । यच्च तत् स्पर्शवद्रव्यं न तत् पृथिव्यादित्रयमप्रत्यक्षत्वादेवेति द्रव्यान्तरसिद्धिः । इषोः पक्षिणाञ्च स्थितिव्यवच्छेदार्थ प्रयत्नादिकारणाभावः।
तथा वृक्षादीनां कम्पविशेषः स्पर्शवद्रव्यसंयोगजो विशिष्ट
अपने सजातीय द्वयणुकरूप दूसरे द्रव्य की समवायिकारणता माननी पड़ेगी, किन्तु उनसे किसी द्वयणुकादि द्रव्यों की उत्पत्ति नहीं होती है । तस्मात् यह स्पर्श मन का भी गुण नहीं है, अतः परिशेषानुमान से यह सिद्ध होता है कि उक्त स्पर्श का आश्रय ही 'वायु' है।
(२) इसी प्रकार शब्द भी वायु का ज्ञापक हेतु है । पत्तों में कभी कभी जो शुक शुक प्रभृति शब्द सुनते हैं, उनका पहिला शब्द स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होता है, क्योंकि द्रव्यों के विभाग से उसकी उत्पत्ति नहीं होती है. और वह पहिला शब्द है, जैसे डंडे से पिटे हुए नगाड़े का शब्द । उक्त स्पर्श का आश्रय ही वायु है। क्योंकि आकाशादि में कोई भी स्पर्श नहीं है । पृथिवी, जल और तेज में से किसी को उसका आश्रय मानने से उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। उस शब्द-श्रवणस्थल में पृथिव्यादि किसी द्रव्य का प्रत्यक्ष नहीं होता है, विभागज शब्द में व्यभिचार के वारण के लिए ('द्रव्यों के विभाग से इसकी उत्पत्ति नहीं होती है' हेतु के इस अंश का बोधक) 'अविभज्यमानावयवद्रव्यसम्बन्धित्वे सति' यह वाक्य कहा है।
(३) इसी तरह आकाश में पत्तों का ठहरना स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य के संयोग से ही होता है, क्योंकि ठहरने के प्रयत्न और वेग प्रभृति कारण वहाँ नहीं हैं । और वह भी ठहरना ही है, जैसे पानी के ऊपर ठहरे हुये पत्ते का ठहरना प्रभृति । इस स्पर्श का आश्रय पृथिवी, जल और तेज रूप द्रव्य भी नहीं हैं, क्योंकि कह चुके हैं कि 'फिर उनका प्रत्यक्ष चाहिए' किन्तु उनमें स किसी का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः पृथिव्यादि आठ द्रव्यों से भिन्न वायु नाम के द्रव्य की सिद्धि होती है। तीर और चिड़ियों की आकाश में जो स्थिति है, उसमें व्यभिचार वारण करने के लिए (स्थिति के वेगादि और कारणों के न रहने पर भो' इस अर्थ के बोधक) हेतु में, प्रयत्नादिकारणाभाव' का निवेश है।
(४) वृक्षप्रभृति द्रव्यों का विशेष प्रकार का कम्प स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होता है, क्योंकि वह भी विशेष प्रकार का कम्प है, जैसे कि नदी के वेग
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये वायु
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्याप्रत्यक्षस्यापि नानात्वं सम्मूछेनेनानुमीयते । सम्मूछेनं पुनः
प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात न होने पर भी वायु में अनेकत्व का अनुमान 'समूर्छन' से होता है। विरुद्ध दो दिशाओं में गतिशील समानवेग की दो वायुओं
न्यायफन्दली कम्पत्वाद् नदीपूराहतवेतसादिवनकम्पवत् । भूकम्पेन व्यभिचार इति चेन्न, तस्यान्यहेतुत्वावगमात्, स्पर्शवद्रव्यसंयोगजे तु विशिष्ट कम्पत्वमेव प्रमाणमित्यव्यभिचारः । ननु यदेव द्रव्यं स्पर्शनानुमितं तदेव शब्दादिभिरप्यनुमीयते, न तु प्रतिलिङ्गं द्रव्यान्तरानुमितिः, किमिह प्रमाणं येनैतदुच्यते स्पर्शशब्दधृतिकम्पलिङ्गो वायुरिति ? इदं प्रमाणम्, स्वर्शानुमितद्रव्यकार्यत्वेनैव शब्दादीनामुपपत्तौ सम्भवन्त्यां द्रव्यान्तरकल्पनावैयर्थ्यमिति ।
एवं स्थिते वायौ तद्धर्म दर्शयति-तिर्यग्गमनस्वभाव इति । तिर्यग्गमनं स्वभावो यस्येति । मेधादिप्रेरण इतस्ततो नयने । धारणे गुरुत्वप्रतिबन्धे । आदिशब्दाद् वर्षणे समर्थः । मेघादीत्यादिपदेन यानपात्रादिपरिग्रहः, तेषामपि वायुना प्रेय॑माणत्वात् ।
अनुमीयमानेष्वाकाशादिष्वेकानेकत्वोपलब्धौ संशये सति तद्व्युदासार्थमाहसे आहत किनारे के बेतवन का कम्पन । (प्र०) यह हेतु तो भूकम्प में व्यभिचरित है ? (उ०) भूकम्प का कुछ और ही कारण समझा जाता है। भूकम्प की अपनी एक विशिष्टता है, जिससे समझा जाता है कि भूकम्प स्पर्शयुक्त किसी द्रव्य के संयोग से ही उत्पन्न होता है। तस्मात् उक्त हेतु में कोई व्यभिचार नहीं है । (प्र०) 'शब्द हेतु से जिस द्रव्य का अनुमान होता है, उसी द्रव्य का कम्पादि हेतुओं से भी अनुमान होता है, शब्दादि प्रत्येक हेतु से विभिन्न द्रव्य का अनुमान नहीं होता है' इसमें क्या प्रमाण है ? एवं क्या प्रमाण है कि कथित शब्दादि हेतुओं में से सभी वायु के ही ज्ञापक हैं ? (उ०) इसमें यही प्रमाण है कि स्पर्श से अनुमित वाय नाम के द्रव्य से हो उक्त शब्दादि कार्यों की उत्पत्ति होगी उसके लिए और द्रव्यों की कल्पना व्यर्थ है।
इस प्रकार वायु के सिद्ध हो जाने पर 'तिर्यग्गमनस्वभावः' इत्यादि से उसका धर्म दिखलाते हैं। तिर्यग्गमनं स्वभावो यस्य' इस बहुव्रीहि समास से उक्त शब्द निष्पन्न है। मेघ आदि के 'प्रेरण' में अर्थात् इधर-उधर ले जाने में, और 'धारण' में, गुरुत्व के प्रतिरोध में, एवं 'आदि' पद से उनको बरसाने में समर्थ है। 'मेघादि' पद में आनेवाले 'आदि' पद से सवारी वर्तन प्रभृति द्रव्यों का सङ्ग्रह समझना चाहिए ।
आकाशादि द्रव्यों में एकत्व और अनेकत्व दोनों ही उपलब्ध होते हैं (इनमें आकाश,
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भावानुवादसहितम्
प्रकरणम् ]
प्रशस्तपादभाष्यम् समानजवयोर्वाय्वोविरुद्धदिक्रिययोः समिपातः, सोऽपि सावयविनोर्वाय्वोरूर्ध्वगमनेनानुमीयते, तदपि तृणादिगमनेनेति । का मेल ही (प्रकृत में ) 'सम्मूर्च्छन' शब्द का अर्थ है । अवयवयुक्त दो वायुओं के ऊपर जाने की क्रिया से समूर्च्छन का भी अनुमान ही होता है। एवं तृणादि द्रव्यों के ऊपर जाने की क्रिया से ही सावयव वायुओं की ऊपर जाने की क्रिया का भी अनुमान ही होता है।
न्यायकन्दली तस्याप्रत्यक्षस्यापीति । सन्मूर्छनमपि न ज्ञायते तदर्थमाह-सम्मूर्च्छनमिति । विरुद्धायां दिशि क्रिया ययोस्तयोः सन्निपातः परस्परगतिप्रतिबन्धहेतुः संयोगविशेषः सम्मूर्छनम्, तेन वायो नात्वमनुमीयते, एकस्य संयोगाभावात, एकदिवप्रस्थितयोर्यथाक्रमं गच्छतोः सम्मूर्च्छनाभाव इति विरुद्धदिक्क्रिययोभिन्नदिविक्रययोरित्यर्थः । असमानवेगयोः सम्मूर्छनं न भवति, एकेनापरस्य विजयात् तदर्थ समानजवयोरिति । अप्रत्यक्षयोर्यथा नानात्वमप्रत्यक्ष तथा संयोगेऽपीति मत्वेदमाहसोऽपीति । सोऽपि सन्निपातोऽपि । सावयविनोर्वाय्वोरूर्ध्वगमनेनानुमीयते, वायोरूर्ध्वगमनं परस्परव्याहतिपूर्वकमन्यकारणासम्भवे सति तिर्यग्गतिस्वभावद्रव्यो
र्ध्वगतित्वात् परस्पराहतजलतरङ्गोदर्ध्वगमनवत् । अवयविनोरिति वक्तव्ये
काल और दिक् ये तीनों एक एक ही है एवं आत्मा और मन अनेक हैं), अतः (प्रत्यक्ष क अविषय और अनुमान से सिद्ध) वायु में संशय होता है कि वायु एक है या अनेक ? इसी संशय को हटाने के लिए 'तस्याप्रत्यक्षस्यापि' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं। यह भी नहीं समझते कि 'संमूच्र्छन' क्या है ? इसी को समझाने के लिए 'संमू
छनम्' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं । अर्थात् समानवेग की जिन दो वायुओं की गति दो विरुद्ध दिशाओं में हैं, उन दोनों का संनिपात' अर्थात् दोनों की गति को प्रतिरुद्ध करनेवाला विशेष प्रकार का संयोग ही 'संमूर्छन' है। न्यूनाधिक वेग की वायुओं का संमूर्छन नहीं हो सकता है, क्योंकि अधिक वेगवाली न्यून वेगवाली के ऊपर विनय पा . जाती है, अत: लिखा है कि 'समानजवयोः' । आँखों से न दीखनेवाली वस्तुओं के नानात्व का भी जैसे प्रत्यक्ष नहीं होता है, उसी प्रकार उन वस्तुओं में रहनेवाले संयोग का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है। यही मानकर 'सोऽपि' इत्यादि ग्रन्थ लिखते हैं। 'सोऽपि' अर्थात् उक्त संयोग विशेष रूप संनिपात भी अवयवों से युक्त दो वायुओं की ऊपर की गति से अनुमति होता है, अर्थात् दोनों वायुओं का ऊपर जाना उनके परस्परसंघर्ष से उत्पन्न होता है, क्योंकि उनके ऊपर जाने का कोई दूसरा कारण सम्भावित नहीं है अथ च वह गति कुटिल स्वभाव के दो द्रव्यों की है, जैसे कि परस्पर संघर्ष से
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये वायु
प्रशस्तपादभाष्यम्
प्राणोऽन्तःशरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेकः सन् क्रियाभेदाद
पानादिसंज्ञां लभते ।
शरीर के अन्दर रहनेवाली एवं उसके रस मल और धातु के प्रेरणादि क्रियाओं का कारण वायु ही 'प्राण' है । यह एक होते हुए भी क्रियाओं की भिन्नता के कारण 'अपान' प्रभृति नामों से भी कही जाती है ।
न्यायकन्दली
सावयविनोरित्युक्तम्, अवयवानामप्यवयवित्वविवक्षया स्थूलवायुपरिग्रहार्थम्, अणुपरिमाणस्य तृणादिप्रेरणसामर्थ्याभावात् । ऊर्ध्वगमनमपि तयोरप्रत्यक्षमिति तत्प्रतिपत्तावनुमानमाह - तृणादिगमनेनानुमीयत इति ।
लोके योगशास्त्रे च विषयवायोर्भेदेन प्रसिद्धस्य प्राणाख्यस्य स्वरूपमाह - प्राणोऽन्तः शरीर इति । अन्तःशरीरे यो वायुर्वर्त्तते स प्राण इत्युच्यते । तस्याक्रियां कथयति - रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरिति । रस इति भुक्तवतामाहारेषु पाकजोत्पत्तिक्रमेणोत्पन्नस्य द्रव्यविशेषस्य ग्रहणम् । मल इति मूत्रपुरीषयोरभिधानम् । धातवस्त्वङमांसास्थिशोणितादयः, तेषां प्रेरणस्येतस्ततो नयनस्य, आदिशब्दाद् व्यूहनस्य च हेतुः । तस्यैकत्वानेकत्वसंशये सत्याह - एकः सन्निति । प्राप्त जल के तरङ्गों की ऊपर की गति । परमाणु को छोड़कर सभी अवयव अवयवी भी हैं, इस अभिप्राय से स्थूल वायु के सङ्ग्रह के लिए 'अवयविनोः' यह करने पर काम चलने की सम्भावना रहने पर भी 'सावयविनो:' यह पद कहा है, क्योंकि अणुपरिमाणवाला द्रव्य तृणादि को इधर उधर नहीं ले जा सकता है । उन दोनों वायुओं की ऊर्ध्व गति भी अप्रत्यक्ष ही है, अतः उसके ज्ञान के लिए अनुमान का प्रयोग 'तृणादिगमनेनानुमीयते ' इस वाक्य से दिखलाये हैं ।
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जनसाधारण में और योगशास्त्र में भी विषयरूप वायु से भिन्न रूप में प्रसिद्ध, प्राण नाम के वायु का स्वरूप 'प्राणोऽन्तः शरीरे' इत्यादि से दिखलाते हैं । अर्थात् शरीर के अन्दर जो वायु है, उसे ही 'प्राण' कहते हैं । 'रसमलधातूनाम्' इत्यादि से प्राण वायु का कार्य दिखलाते हैं । खाये हुए द्रव्यों में ( जाठर अग्निरूप तेज के संयोग रूप ) पाक से रूपरसादि परिवर्तित हो जाते हैं । परिवर्तित इन रूपरसादि से युक्त द्रव्य ही 'रस' शब्द का अर्थ है । विष्ठा और मूत्र ही यहाँ 'मल' शब्द के अर्थ हैं त्वचा, मांस, शोणित प्रभृति यहाँ 'धातु' शब्द से इष्ट हैं । इनके 'प्रेरण' का अर्थात् इधर उधर ले जाने का एवं 'आदि' शब्दसे 'व्यूहन' का अर्थात् विशिष्ट प्रयोग में नियोग का प्राण वायु एक है या अनेक ? इस संशय में कहते हैं 'एक: सन्' ।
।
भी कारण है । यह सुना जाता है कि शरीर
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
इहेदानीं चतुर्णा महाभूतानां सृष्टिसंहारविधिरुच्यते । त्राह्मण अब यहाँ पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों महाभूतों की सृष्टि और उनके संहार की रीति कहते हैं । ब्राह्म मान से सौ वर्ष के अन्त में जब वर्तमान
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१२१
ननु पञ्च वायवः शारीराः श्रूयन्ते ? तत्राह - - क्रियाभेदादिति । मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपानः, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यानः, अन्नपानादेरूर्ध्वं नयनादुदानः, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राणः, आहारेषु पाकार्थमुदय्र्यस्य वह्नेः समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तवमेतेषां पञ्चत्वमपि तु कल्पितम् । कथम् ? एकस्मिन्नाश्रये मूर्त्तानां समावेशाभावात् ।
उत्पत्तिमन्ति चत्वारि द्रव्याण्याख्याय विस्तरात् । तेषां कर्त्ती परीक्षार्थमुद्यमः क्रियतेऽधुना ॥
पृथिव्यादीनां चतुर्णामुत्पत्तिविनाशौ निरूपणीयौ । तयोश्च प्रतिप्रकरणं निरूपणे ग्रन्थविस्तरः स्यादिति समानन्यायेनैकत्र निरूपणार्थं प्रकरणमारभ्यते-- चतुर्णा - मिति । सृष्टिसंहारयोर् उत्पत्तिविनाशयोः, विधिः प्रकारः कथ्यते । यद्यप्येकत्र चतुर्णामपि सृष्टिसंहारौ कथ्येते, तथापि नेदं साधर्म्याभिधानम्, प्रत्येकं विलक्षणयो
पाँचवा हैं (फिर एक कैसे ? ), इसी आक्षेप का समाधान 'क्रियाभेदात्' इत्यादि से देते हैं। मूत्र और विष्ठा को नीचे ले जाने के कारण यही प्राणवायु 'अपान' कहलाता है । यह व्यान इसलिए कहलाता है कि इसका काम गर्भनाडी में रस का विस्तार करना भी है । खायी और पीयी हुई वस्तुओं को ऊपर ले जाने के कारण वही 'उदान' शब्द से भी अभिहित होता है। मुँह और नाक निकलने के कारण ही वह प्राण कहलाता है । आहार द्रव्य को पचाने के लिए उदर्य तेज को उनमें पहुँचाने के
से
समान रूप से पचत्व उसमें कल्पित है,
कारण वही प्राण वायु 'समान' कहलाता है। इस प्रकार
किन्तु वस्तुतः वह एक ही है । ( प्र० ) वह एक ही क्यों हैं ? ( उ० ) चूँकि एक मूर्त द्रव्य में अनेक द्रव्यों का समावेश असम्भव 1
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उत्पत्तिशील चारों द्रव्यों की विस्तृत व्याख्या के का उद्योग करते हैं । पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन विनाश इन दोनों का निरूपण करना है । इन दोनों का अगर अलग निरूपण किया जाय तो ग्रन्थ का व्यर्थं विस्तार होगा । दोनों का निरूपण करने के लिए 'चतुर्णाम्' इत्यादि सन्दर्भ को संहारयोः' अर्थात् उत्पत्ति और विनाश इन दोनों को 'विधि' यद्यपि चारों भूतों को सृष्टि और संहार दोनों का निरूपण साथ ही किया जाता है,
बाद अब उनके कर्त्ता की परीक्षा चारों द्रव्यों की उत्पत्ति और प्रत्येक प्रकरण में अलगअतः संक्षेप में एक ही जगह आरम्भ करते हैं । 'सृष्टिअर्थात् प्रकार कहते हैं ।
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१२२.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
प्रशस्तपादभाष्यम् मानेन वर्षशतान्ते वर्तमानस्य ब्रह्मणोऽपवर्गकाले संसारखिन्नानां सर्वप्राणिनां निशि विश्रामार्थं सकलभुवनपतेर्महेश्वरस्य सञ्जिहीर्षासमकालं ब्रह्मा के मोक्ष का समय होता है, उस समय कुछ काल तक प्राणियों के ( जन्म मृत्यु जनित ) खेद को मिटाने के लिए सभी भुवनों के अधिपति महेश्वर को संहार
न्यायकन्दली रेतयोरुपवर्णनात् । महाभूतानामित्युक्ते त्रयाणामेव परिग्रहः, कपिजलानालभेतेतिवद् बहुत्वसंख्यायास्तावत्येव चरितार्थत्वात्, अतश्चतुर्णामित्युक्तम् । चतुर्णामित्युक्ते चानन्तरोक्तमेव वायुकार्य शरीरमिन्द्रियं विषयः प्राण इति चतुष्टयं बुद्धौ निविशते, तन्निवृत्त्यर्थं महाभूतानामिति । नन्वेवं तहि द्वयणुकानामुत्पत्तिविनाशौ न प्रतिज्ञातौ स्यातां तेषामणुत्वात् । नैवम्, विधिशब्दोपादानात् । येन प्रकारेण महाभूतानामुत्पत्तिविनाशौ स प्रकारः कथ्यत इत्युक्तम् । तेषाञ्च द्वयणुकादिप्रक्रमेणोत्पत्तिरापरमाण्वन्तश्च विनाश इति । अतो द्वयणुकानामपि सृष्टिसंहारौ प्रतिज्ञातौ स्याताम्, अर्थप्रतिपादनमात्रस्य विवक्षितत्वात् । फिर भी यह चारों का साधर्म्य-कथन नहीं है, क्योंकि पृथिव्यादि में से प्रत्येक की सृष्टि और संहार का वर्णन अलग-अलग है। 'महाभूतानाम्' केवल इतना कहने से तीन महाभूतों का ही बोध होता, क्योंकि कपिजलान्' आलभेत' इत्यादि वाक्यों के बहुवचनान्त 'कपिञ्जलान्' आदि पदों से त्रित्व का ही बोध होता है, बहुत्व संख्या उतने सें भी चरितार्थ हो जाती है, अतः 'चतुर्णाम्' यह पद कहा है। केवल 'चतुर्णाम्' इतना मात्र कह देने से अव्यवहित पहिले कहे हुए वायु के (शरीर, इन्द्रिय, विषय और प्राण रूप ) चारों भेद ही जल्दी से बुद्धि में आते हैं, उनको हटाने के लिए 'महाभूतानाम्' यह पद है। (प्र०) तो फिर इससे द्वयणुकों को उत्पत्ति और उनका विनाश इस प्रतिज्ञा के अन्दर नहीं आते हैं। क्योंकि वे अणु हैं, (महान् नहीं)। नहीं, क्योंकि 'विधि' शब्द का उपादान है। (अर्थात् ) जिस प्रकार महाभूतों की उत्पत्ति और विनाश होता है, वह प्रकार कहते हैं । उनको उत्पत्ति द्वयणुकादिक्रम से ही होती है और विनाश भी परमाणु पर्यन्त होता है अतः द्वचणुकों की उत्पत्ति और विनाश भी उक्त प्रतिज्ञा के अन्दर आ जाते हैं।
१. श्रुति में 'वसन्ताय कपिञ्जलान् आलभेत' यह वाक्य है । इस वाक्य में प्रयुक्त 'कपिञ्जलान्' इस पद से तीन ही कपिजल अभिप्रेत हैं, या तीन से लेकर आगे की संख्या में यथेच्छाचार है ? क्योंकि बहुत्व तो तीन से लेकर आगे की सभी संख्याओं में समान है। इसी संशय के समाधान से कहा है कि तीन ही कपिजलों का
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
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१२३
कथयति - ब्राह्मण
अस्माकं
पश्चादुक्तमपि संहारं प्रथमं पश्वदश निमेषा: काष्ठा 1 त्रिशतिः पश्वदश कला नाडिका । त्रिंशत्कलो मुहूर्त्तः । त्रिशता पञ्चदशाहोरात्राः पक्षः । द्वौ पक्षौ मासः । द्वौ मासावृतुः द्वादश मासाः संवत्सरः । ऋतुत्रयेणोत्तरायणम्, ऋतुत्रयेण च दक्षिणायनम् । उत्तरायणश्व देवानां दिनम्, दक्षिणायनश्च देवानां रात्रिः ।
। षड्ऋतवो
मानेनेति ।
काष्ठाः कला ।
मुहूर्त्तेरहोरात्रः ।
जिस किसी प्रकार पदार्थों का प्रतिपादन मात्र ही इष्ट है. अतः पीछे कहे हुए भी संहार को "ब्राह्मण मानेन' इत्यादि से पहले कहते हैं । हम लोगों के १५ निमेषों की एक काष्ठा होती है । ३० काष्ठाओं की एक कला और १५ कलाओं को एक नाड़िका होती है । ३० कलाओं का एक मुहूर्त होता है । ३० मुहूर्तों से एक दिन और एक रात होती है । १५ अहोरात्रों का एक पक्ष होता है। दो पक्षों का एक मास और दो मासों की एक ऋतु होती है। छः ऋतुओं एवं बारह मासों का एक वर्ष होता है। मकर राशि में जब सूर्य आते हैं तब से लेकर मिथुन राशि में उनकी स्थिति पर्यन्त के शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं का एक उत्तरायण होता है । एवं कर्क राशि में सूर्य की स्थिति से लेकर धनु राशि में उनकी स्थिति पर्यन्त के वर्षा, शरद् और हेमन्त इन तीन ऋतुओं का दक्षिणायन होता है । उत्तरायण देवताओं का दिन है,
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आलम्भन युक्त है, क्योंकि त्रित्व संख्या के ग्रहण से ही शास्त्रकृत्य सम्पन्न हो जाता है । एवं तीन संख्या से अधिक संख्या को ग्रहण करने पर भी त्रित्व को छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि चतुष्ट्वादि के अन्दर त्रित्व अवश्य ही है। जो कोई त्रित्व को ग्रहण करेगा वह चतुष्ट्वादि को छोड़ सकता है, क्योंकि चतुष्ट्वादित्रित्व के अन्दर नहीं है, अतः उनके लिए त्रित्व को छोड़ना असम्भव है । त्रित्व सब से पहिले उपस्थित है, एवं उसके ग्रहण में लाघव भी है । तस्मात् त्रित्व संख्या के ग्रहण से ही शास्त्रकृत्य सम्पन्न हो जाता है, फिर उससे अधिक कपिञ्जल के वध से तो प्रत्यवाय ही होगा। तस्मात् विना विशेषण के बहुवचन का अर्थ त्रित्व ही है । ( मीमांसासूत्र अ. ११ पा. १ अधि. ८ )
१. प्रतिज्ञावाक्य के विरुद्ध इस उलटफेर को किरणावली में इस प्रकार सुलझाया गया है कि सृष्टि और संहार इन दोनों में पहिले कौन ? इस विप्रतिपांत में वैशेषिकों का सिद्धान्त है कि कोई भी पहिले नहीं, क्योंकि संसार अनादि और अनन्त है । प्रत्येक सृष्टि के पहिले अनन्त संहार बीत चुके हैं, एवं हर एक संहार के पहिले अनन्त सृष्टियाँ बीत चुकी रहती हैं । इस विषय को सूचना देने के लिए ही प्रतिज्ञावाक्य में पीछे कथित भी संहार का 'ब्राह्मण मानेन' इत्यादि से पहिले प्रतिपादन करते हैं। देखिये किरणावली - ( पृ० ८६ पं० १६ और पृ० ६० पं० ३ ) ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये सृष्टिसंहार
प्रशस्तपादभाष्यम् शरीरेन्द्रियमहाभूतोपनिबन्धकानां सर्वात्मगतानामदृष्टानां वृत्तिनिरोघे की इच्छा होती है। उसके बाद ही शरीर, इन्द्रिय, एवं और सभी महाभूतों के उत्पादक सभी आत्माओं के सभी अदृष्टों के कार्यों के उत्पन्न करने की शक्ति
न्यायकन्दली तथाभूताहोरात्रशतत्रयेण षष्टयधिकेन वर्षम् । द्वादशसहस्रेश्च वर्षेश्चतुर्युगम् । चतुर्युगसहस्रेण ब्रह्मणो दिनमेकम् ।
इत्यनेन मानेन वर्षशतस्यान्तेऽवसाने, वर्तमानस्य ब्रह्मणोऽपवर्गकाले मुक्तिकाले, संसारे नानास्थानेषु भूयो भूयः शरीरादिपरिग्रहेण, खिन्नानां गर्भवासादिविविधदुःखेन दुःखितानां प्राणिनाम्, निशि विश्रामार्थं कियत्कालं दुःखोपशमार्थम्, सकलभुवनपतेः सर्वत्राव्याहतप्रभावस्य, महेश्वरस्य सञ्जिहीर्षा संहारेच्छा भवति । तत्समानकालं तदनन्तरं शरीरेन्द्रियमहाभूतोपनिबन्धकानां शरीरेन्द्रियमहाभूतारम्भकाणां सर्वात्मगतानां सर्वेष्वात्मसु समवेतानामदृष्टानां वृत्तिनिरोधः शक्तिप्रतिबन्धः स्यात् । तस्मिन् सत्यनागतानां शरीरेन्द्रियमहाभूतानामनुत्पत्तिः । उत्पन्नानाञ्च विनाशार्थं महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगेभ्यः कर्माणि जायन्ते । महेश्वरेच्छा सजिहीर्षालक्षणा। अण्विति परमाणुपरिग्रहः। महेश्वरस्येच्छा चात्माणुएवं दक्षिणायन उनकी रात है। इस प्रकार के ३६. अहोरात्रों से उनका एक वर्ष होता है। इस वर्ष से बारह हजार ( १२०००) वर्षों का एक चतुर्युग होता है । एक हजार (२०००) चतुर्युग से ब्रह्मा का एक दिन होता है । उतने की ही एक रात होती है। इसी अहोरात्र से ३६० दिनों का एक वर्ष और इसी वर्ष से सो वर्षों की आयु ब्रह्मा की है।
इसी ब्राह्म मान से सौ वर्ष बीत जाने पर ब्रह्मा के अपवर्ग के समय में संसार में अनेक स्थानों में बार-बार शरीरादि धारण से खिन्न' गभवासादि अनेक दुःखों से दुःखी जीवों को रात में विश्राम देने के लिए, अर्थात् कुछ समय तक उक्त दुःखों से उन्हें छुटकारा देने के लिए 'सकलभुवनपति' सभी स्थानों में अबाधित शक्तिवाले महेश्वर को 'सजिहीर्षा' अर्थात् नाश करने की इच्छा होती है। उसी के समान काल में अर्थात् उसके बाद शरीर, इन्द्रिय और महाभूतों के 'उपनिबन्धक' अर्थात् उत्पादक सभी जीवों में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले अदृष्टों का 'वृत्तिनिरोध' अर्थात् कार्यों को उत्पन्न करने का सामर्थ्य प्रतिरुद्ध हो जाता है। सामर्थ्य के उक्त प्रतिरोध से भविष्यत् शरीर, इन्द्रिय और अन्य महाभूतों की उत्पत्ति रुक जाती है, एवं उत्पन्न शरीरादि के विनाश के लिए महेश्वर की इच्छा, आत्मा एवं अणुओं के संयोग इन सबों से क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। महेश्वर की यह इच्छा 'सञ्जिहीर्षा' रूप है। कथित 'अणु'
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१२५ प्रशस्तपादभाष्यम् सति महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगजकर्मभ्यः शरीररेन्द्रियकारणाणुविभागेभ्यस्तत्संयोगनिवृत्तौ तेषामापरमाण्वन्तो विनाशः। तथा पृथिव्युदकज्वलनकुण्ठित हो जाती है। उसके बाद महेश्वर की इच्छा, और आत्मा एवं परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न क्रिया के द्वारा शरीर और इन्द्रिय के उत्पादक परमाणुओं में विभाग उत्पन्न होते हैं। उन विभागों से (शरीर और इन्द्रिय के आरम्भक परमाणुओं के) संयोगों का नाश होता है। फिर (शरीरादि) कार्य द्रव्यों का परमाणु पर्यन्त विनाश हो जाता है। इसी प्रकार पृथिवी, जल, तेज और वायु इनमें आगे-आगे के रहते
न्यायकन्दली संयोगाश्चेति विग्रहः । तेभ्यो जातानि तेभ्यो महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगजकर्मभ्यः । शरीराणामिन्द्रियाणां ये पारम्पर्येण कारणभूता अणवस्तेषु विभागा भवन्ति । विभागेभ्यस्तेषामणूनां संयोगनिवृत्तिः। संयोगनिवृत्तौ सत्यां तेषामापरमाण्वन्तो विनाशः । तेषां शरीरेन्द्रियाणां द्वचणुकादिविनाशप्रक्रमेण तावद्विनाशो यावत्परमाणुरिति ।
प्रजानामकाण्डे संहरन्नयमकारुणिको यत्किञ्चनकारी च स्यादिति यत्केनचिदुक्तं तत्रेयं प्रतिक्रिया-प्राणिनां निशि विश्रामार्थमिति । यदप्येतदुक्तम्-"अनन्तानामात्मनामनन्तेष्वदष्टेषु क्रमेण परिपच्यमानेषु केचिददृष्टक्षयाद् भोगावुपरमन्ते भुज्यन्ते च केचित् । अपरे तु भोगाभिमुखा शब्द से परमाणु समझना चाहिए । 'महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगेभ्यः' इस समस्त वाक्य के विग्रह का यह स्वरूप है कि "महेश्वरस्येच्छा महेश्वरेच्छा, महेश्वरेच्छा चात्माणुसंयोगाश्च महेश्वरस्येच्छात्माणुसंयोगाः, तेभ्यो जातानि कर्माणि महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगकर्माणि, तेभ्यो महेश्वरस्येच्छात्माणुसंयोगजकम्मभ्यः" अर्थात् महेश्वर की इच्छा एवं आत्मा और परमाणुओं के संयोग इन दोनों से उत्पन्न कर्मों के द्वारा शरीर और इन्द्रियों के कारण अणुओं में परस्पर विभाग उत्पन्न होते हैं। इन विभागों से परमाणुओ के (द्वयणुका. रम्भक) संयोग का नाश होता है । संयोग के नाश से शरीर और इन्द्रिय का 'आपरमाण्वन्त' विनाश हो जाता है । अर्थात् शरीरादिनाश की यह क्रिया द्वयणुक नाश पर्यन्त चलती है ।
प्रजा के इस अकारण विनाश से कोई-कोई परमेश्वर में अकरुणा और स्वेच्छाचार का दोष लगाते हैं, उन्हीं को समझाने के लिए 'प्राणिनां निशि विश्रामार्थम्' यह वाक्य है। किसी की आपत्ति थी कि संहार का उक्त क्रम ठीक नहीं है. क्योंकि जीव अनन्त है, प्रत्येक जीव में अदृष्ट भी अनन्त हैं। वे सभी अदृष्ट क्रमशः ही भोगों को उत्पन्न करेंगे । अतः कोई जीव अष्टनाश के कारण अगर भोग से निवृत्त होगा (अथवा एक ही जीव एक अदृष्ट के भोग से निरस्त होगा ), कोई जीव ( अथवा वही जीव ) वर्तमान
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ मध्ये सृष्टिसंहार
पवनानामपि महाभृतानामनेनैव क्रमेणोत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् सति पूर्वस्य पूर्वस्य विनाशः । ततः प्रविभक्ताः परमाणवोऽवतिष्ठन्ते धम्मधर्मसंस्कारानुविद्धा आत्मानस्तावन्तमेव कालम् |
हुए पहिले पहिले का विनाश होता है । उसके बाद उतने ही समय तक ( ब्राह्म मान से सौ वर्ष पर्यन्त ) अपने में परस्पर असम्बद्ध परमाणु एवं धर्म, अधर्म और संस्कार से युक्त जीव ही रह जाते हैं ।
न्यायकन्दली
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इत्येवं सर्वत्र विषयप्रवृत्तौ न शरीरादीनां युगपदभावो घटते" इति, तदनेन पराहतम् - अदृष्टानां वृत्तिप्रतिबन्ध इति । ब्रह्मणोऽपवर्गकाले निशीत्युक्तम् । तत्र सर्वप्राणिनां प्रबोधप्रत्यस्तमयसाधर्म्येणोपचारात् । महाभूतानामप्येवं विनाश इत्याह- तथेति । यथा शरीरेन्द्रियाणामापरमाण्वन्तो विनाशस्तथा महाभूतानामप्यनेनैव क्रमेणेति । परमाणुक्रिया विभागादिक्रमेणोत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् सति पूर्वस्य पूर्वस्य विनाश इति । जले तिष्ठति पूर्वं पृथिव्या विनाशः, तेजसि तिष्ठति जलस्य, वायौं तिष्ठति तेजस इत्यर्थः । ततः प्रविभक्ताः परमाणवोऽवतिष्ठन्ते धर्माधिभावनाख्यसंस्कारैरनुविद्धा उपगृहीताश्वात्मानस्तावन्तमेव
कालं
फल के प्रति उन्मुख अदृष्ट से भोग करता ही रहेगा, फल देने की उन्मुखता ही उत्पन्न होगी । इा प्रकार के
अथवा किसी अदृष्ट में आगे सभी कालों के विषयों में प्रवृत्त रहने के कारण शरीरादि सभी विषयों का विनाश एक काल में नहीं हो सकता, किन्तु 'अदृष्टानां वृत्तिप्रतिबन्धे' इस वाक्य से उक्त आपत्ति का समाधान हो जाता है, क्योंकि ईश्वर की संहारेच्छा से सभी अदृष्टों की कार्यजननशक्ति एक ही समय में कुण्ठित हो जाएगी । 'निशि' शब्द से लक्षणावृत्ति के द्वारा ब्रह्मा के मोक्ष का है । जैसे कि रात में सोने पर प्राणियों के जाग्रत अवस्था के हो जाते हैं, उसी तरह उस समय भी जीवों के सभी सुख दुःखादि नष्ट हो जाते
काल कहा गया सभी सुखदुःखादि नष्ट
और इन्द्रियों की तरह और भी
कहते हैं । अर्थात् जैसे शरीरों
हैं, यही सादृश्य इस लक्षणोवृत्ति का मूल है | शरीरों सभी भूत नष्ट होते हैं, यही ' तथा ' इत्यादि पङ्क्ति से और इन्द्रियों का परमाणुपर्यन्त विनाश होता हैं, उसी प्रकार और उसी क्रम से अन्य महाभूतों का भी विनाश होता है । पहिले परमाणुओं में क्रिया, फिर उनमें परस्पर विभाग इत्यादि कथित क्रम से पूर्व पूर्व का विनाश होता है, अर्थात् जल के रहते हुए पृथिवी का विनाश, एवं तेज के रहते हुए जल का विनाश और वायु के रहते हुए तेज का विनाश होता है। इसके बाद परस्पर असम्बद्ध परमाणु, एवं धर्म, अधर्म भावनाख्य संस्कार इन तीन गुणों से युक्त जीव ये ही 'उतने समय तक' अर्थात् ब्रह्मा के
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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-१२७
प्राणिनां भोगभूतये महेश्वर सिसृक्षानन्तरं
ततः पुनः सर्वात्मगतवृत्तिलब्धादृष्टापेक्षेभ्यस्तत्संयोगेभ्य:
पवनपरमाणुषु
कर्मोत्पत्तौ
तेषां
परस्परसंयोगेभ्यो
द्वयणुकादि
फिर जीवों के भोग सम्पादन के लिए महेश्वर को सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न होती है । तब सभी आत्माओं के अदृष्ट की कुण्ठित शक्ति कार्यों के उत्पादन के लिए फिर से उन्मुख हो जाती है। कार्य में उन्मुख अदृष्ट एवं आत्मा और परमाओं के संयोग से वायु के परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है । फिर क्रिया से
न्यायकन्दली
ब्रह्मणो वर्षशतमेवावतिष्ठन्ते । दिगादयोऽपि तिष्ठन्ति नित्यत्वात् । किन्त्वा - त्मनामदृष्टवशात् परमाणवः पुनर्नारप्स्यन्त इति । प्राधान्याददृष्टवशादात्मपरमाण्ववस्थान संकीर्त्तनम् ।
एवं संहारक्रमं प्रतिपाद्य सृष्टिक्रमं प्रतिपादयन्नाह - ततः पुनरिति । यद्यपि तदा आत्मनां प्राणसम्बन्धो नास्ति, तथापि प्राणिन इत्युक्तं योग्यत्वात् । तेषां भोगभूतये सुखदुःखानुभवोत्पत्तये महेश्वरस्य सिसृक्षा सर्जनेच्छा जायते । तदनन्तरं सर्वेष्वात्मसु गता अदृष्टा वृत्तिं लभन्ते । यद्यपि युगपदुत्पद्य - मानासंख्येयकार्योत्पत्तौ व्याप्रियमाणा दिगादिवनित्यत्वादेकैवेश्वरेच्छा क्रियाशक्तिरूपा, तथाप्येषा तत्तत्कालविशेषसहकारिप्राप्तौ कदाचित् संहारार्था भवति, सौ वर्षों तक रहते हैं । यद्यपि दिगादि पदार्थ भी नित्य होने के कारण उस समय रहते ही हैं, तथापि जीवों के अदृष्ट (की अक्षमता ) से ही परमाणु अपने काम को नहीं करते । अतः प्रधान होने के कारण अदृष्टों से युक्त जीव और परमाणुओं की अवस्थिति का ही वर्णन किया है ।
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इस प्रकार संहारक्रम का प्रतिपादन करने के लिए 'ततः पुनः' इत्यादि लिखते हैं । यद्यपि उस समय के जीवों में प्राण का सम्बन्ध नहीं है, तथापि प्राणसम्बन्ध की योग्यता के कारण 'प्राणिनः ' पद का प्रयोग किया है । प्राणियों की 'भोगभूति' अर्थात् सुख और दुःख के अनुभव के लिए महेश्वर की 'सिसृक्षा' अर्थात् सृष्टि करने की इच्छा होती है । इसके बाद जीवों के सभी अदृष्टों में कार्यों को उत्पन्न करने की क्षमता आ जाती है । यद्यपि ईश्वर की असंख्य कार्यों की उत्पत्ति में व्यापृत इच्छा उनकी क्रियाशक्ति का रूप है, एवं दिगादि पदार्थों की तरह नित्य होने के कारण एक ही है, फिर भी तत्तत्काल रूप सहकारी को पाकर वही कभी संहार का कारण होती और कभी सृष्टि का कारण होती है । जब वह सृष्टि का कारण होती हैं, तब जीवों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रक्रमेण महान् वायुः समुत्पनो नभसि दोधूयमानस्तिष्ठति। तदनन्तरं तस्मिन्नेव वायावाप्येभ्यः परमाणुभ्यस्तेनैव क्रमेण महान् सलिलनिधिउत्पन्न परमाणुओं के संयोगो के द्वारा द्वयणुकादि क्रम से महान् वायु उत्पन्न होकर आकाश में अत्यन्त वेग से युक्त होकर रहता है । उसके बाद उसी क्रम से उसी वायु में जलीय परमाणुओं से उत्पन्न महान् जलराशि सर्वत्र प्लावित होकर रहता है।
न्यायकन्दली कदाचित् सृष्टयर्था भवति । यदा संहारार्था तदा तदनुरोधाददृष्टानां वृत्तिनिरोध औदासीन्यलक्षणो जायते। यदा त्वसौ सृष्टया भवेत् तदा वृत्तिलाभः स्वकार्यजननं प्रति व्यापारो भवति । वृत्तिर्लब्धा यैस्ते वृत्तिलब्धा इति । आहितान्यादित्वान्निष्ठायाः पूर्वनिपातः, दन्तजात इति यथा। सर्वात्मगताश्च वृत्तिलब्धाश्चादृष्टाश्च तानपेक्षन्ते ये तत्संयोगा आत्माणुसंयोगास्तेभ्यः पवनपरमाणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते । पवनपरमाणवः समवायिकारणम् । लब्धवृत्त्यदृष्टवदात्मपरमाणुसंयोगोऽसमवायिकारणम् । अदृष्टं निमित्तकारणम् । एवं कर्मोत्पत्तौ तेषां पवनपरमाणूनां परस्परसंयोगा जायन्ते। तत्संयोगेभ्यश्च वयणुकान्युत्पद्यन्ते । तदनु त्र्यणुकानीत्यनेन क्रमेण महान् वायुः समुत्पद्यमानो नभसि आकाशे दोधूयमानः क्वचिदप्रतिहतत्वाद् वेगातिशययुक्तस्तिष्ठति । के अदृष्ट कार्यक्षम हो जाते हैं और अपने-अपने कार्यों के प्रति व्यापारशील हो जाते हैं। जब ईश्वर की इच्छा संहार का कारण होती है, तब अदृष्टों में कार्यों के प्रति उदासी. नता रूप 'वृत्तिनिरोध' हो जाता है । 'वृत्तिलब्धा यैस्ते वृत्तिलब्धाः' इसी भाशय का समास 'वृत्तिलब्ध' पद में है। यद्यपि निष्ठाप्रत्ययान्त 'लब्ध' शब्द का प्रयोग पहिले चाहिए, किन्तु आहिताग्नि गण में पठित शब्द के साथ समस्त निष्ठाप्रत्ययान्तपद का पूर्वप्रयोग विकल्प से होता है, जैसे कि 'दन्तजातः' इत्यादि स्थलों में, तदनुसार ही 'वृत्तिलब्ध' शब्द का प्रयोग भी है । 'सर्वात्मगतवृत्तिलब्धादृष्टापेक्षेभ्यः' इस समस्त महावाक्य का विग्रहवाक्य यों है कि 'सर्वात्मगताच, वृत्तिलब्धाश्च, अदृष्टाश्च तानपेक्षन्ते ये, तत्संयोगास्तेभ्यः । 'तत्संयोग' अर्थात् आत्मा और अणुओं का संयोग । इन संयोगों से वायवीय परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती है। इस क्रिया के समवायिकारण हैं वायु के परमाणु, असमवायिकारण हैं वृत्तिलब्ध अदृष्ट से युक्त आत्मा और परमाणुओं का संयोग, एवं अदृष्ट निमित्तकारण है । इस प्रकार परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति हो जाने पर इन वायवीय परमाणुओं में फिर संयोगों की उत्पत्ति होती है। इन संयोगों से द्वयणुकों की उत्पत्ति होती है, उसके बाद त्र्यसरेणु की। इस क्रम से महान् वाय उत्पन्न
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
रुत्पन्नः पोप्लूयमानस्तिष्ठति । तदनन्तरं तस्मिन्नेव पार्थिवेभ्यः परमाणुयो महापृथिवी संहतावतिष्ठते । तदनन्तरं तस्मिन्नेव महोदधौ तेजसेभ्योऽणुभ्यो द्वणुकादिप्रक्रमेणोत्पन्नो महाँस्तेजोराशिः केनचिदन भिभूतत्वाद्देदीप्यमानस्तिष्ठति । एवं समुत्पन्नेषु मात्रात् तैजसेभ्योऽणुभ्यः महदण्डइसके बाद इसी जलनिधि में उसी क्रम से पार्थिव परमाणुओं के द्वारा कठिन स्वभाव का पार्थिव द्रव्य उत्पन्न होकर रहता है । एवं उसी जलनिधि में तैजस परमाणुओं से महान् तेज उत्पन्न होकर किसी से प्रतिहत न होने के कारण अत्यन्त दीप्ति से युक्त होकर विद्यमान होता है ।
चतुर्षु महाभूतेषु महेश्वरस्याभिध्यानपार्थिव परमाणुसहितेभ्यो
इस प्रकार चारों महाभूतों के उत्पन्न होने पर केवल महेश्वर के संकल्प से ही पार्थिव परमाणुओं की सहायता से तेजस परमाणुओं से महान् ( हिरण्मय) न्यायकन्दली
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तदनन्तरं तस्मिन्नेव वायावाप्येभ्यः परमाणुभ्य:, तेनैव क्रमेण द्वचणुकादिक्रमेण, महान् सलिलनिधिरुत्पन्नः पोप्लूयमानः प्रतिरोधकाभावात् सर्वत्र प्लवमानस्तिष्ठति । तदनन्तरं जलनिधेरुत्पत्त्यनन्तरम्, तस्मिन्नेव जलधौ पार्थिवेभ्यः परमाणुभ्यो महापृथिवी संहता स्थिरस्वभावावतिष्ठते । तदनन्तरं तस्मिन्नेव महोदधौ तैजसेभ्योऽणुभ्यो द्वयणुकादिप्रक्रमेणात्पन्नो महाँस्तेजोराशिः केनचिदनभिभूतत्वाद्देदीप्यमानस्तिष्ठति । यद्यपि पयःपावकयोः स्वाभाविको विरोधस्तथाप्यदृष्टव शेनाधाराधेयभावो नानुपपन्नः ।
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होकर किसी से बाधित न होने के कारण अत्यन्त वेग से युक्त होकर रहता है । उसी महान् वायु में जलीय परमाणुओं से 'उसी क्रम से' अर्थात् द्वयणुकादि क्रम से जल का महान् निधि उत्पन्न होकर किसी से प्रतिरुद्ध न होने के कारण सर्वत्र प्लावित रहता है । तदनन्तर अर्थात् इस जलनिधि के उत्पन्न होने पर जल के उसी समुद्र में पार्थिव परमाणुओं से कठिन स्वभाव की महापृथिवी उत्पन्न होकर स्थित रहती है । तदनन्तर उसी जलनिधि में तैजस परमाणुओं से द्वयणुकादि क्रम से महान् तेज का समूह किसी से अभिभूत न होने के कारण अतिशय दीप्ति से युक्त होकर विद्यमान रहता है । यद्यपि जल और तेज इन दोनों मे स्वभावतः विरोध है, तथापि जीवों के अदृष्ट से उनमें भी आधाराधेयभाव होता है ।
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१३.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
प्रशस्तपादभाष्यम् मारभ्यते । तस्मिंश्चतुर्वदनकमलं सर्वलोकपितामहं ब्रह्माणं सकलभुवनसहितमुत्पाद्य प्रजासतें विनियुङ्क्ते । स च महेश्वरेण विनियुक्तो ब्रह्मातिशयज्ञानवैराग्यश्वयंसम्पन्नः प्राणिनां कम्मविपाकं विदित्वा कर्मापिण्ड की उत्पत्ति होती है । उसी तैजस पिण्ड में (महेश्वर) कमल के सदृश चार मुँहवाले ब्रह्मा को उत्पन्न कर प्रजा की सृष्टि के लिए नियुक्त करते हैं । विलक्षण ज्ञान, उत्कट वैराग्य और अभूतपूर्व ऐश्वर्य से सम्पन्न, एवं परमेश्वर के द्वारा नियुक्त वह ब्रह्मा प्राणियों के कर्म की परिणति समझकर कर्मों के अनुरूप ज्ञान, भोग,
न्यायकन्दली एवम् अनन्तरोक्तेन प्रक्रमेणोत्पन्नेषु महाभूतेषु महेश्वरस्य अभिध्यानमात्रात् सङ्कल्पमात्रात्, तैजसेभ्यः परमाणुभ्यः पार्थिवपरमाणुसहितेभ्यो महदण्डं महद् बिम्बमारम्यते। बिम्बारम्भे पार्थिवा अयवया उपष्टम्भकाः, तेनेदं वह्निपुञ्जप्रायं नाभूत्। तस्मिन्नण्डे चत्वारि वदनकमलानि यस्य तं ब्रह्माणं सर्वलोकपितामहं सर्वेषामेव लोकानामाद्यं पुरुषं समस्तैर्भुवनैः सहोत्पाद्य प्रजानां सर्गे जनने विनियुङ्क्ते त्वमिदं कुर्विति । स च महेश्वरेण विनियुक्तो ब्रह्मातिशयज्ञानवैराग्यैश्वर्यसम्पन्नो ज्ञानञ्च वैराग्यञ्चैश्वर्यञ्च ज्ञानवैराग्यश्वाणि, अतिशयेन ज्ञानवैराग्यैश्वर्याणि तैः सम्पन्न उपचितो ज्ञानातिशयात् प्राणिनां धर्माधम्मों यथावत् प्रत्येति । वैराग्यान्न पक्षपातेन
___ 'एवम्' अर्थात् द्वषणुकादि क्रम से महाभूतों के उत्पन्न हो जानेपर महेश्वर के 'अभिध्यान' अर्थात् केवल संकल्प से ही पार्थिव परमाणुओं से सहारा पाये हुए तैजस परमाणुओं से महदण्ड' अर्थात् महान् पिण्ड की उत्पत्ति होती है। इस पिण्ड (बिम्ब) की उत्पत्ति में चूंकि पार्थिव परमाणुओं का विशेष सम्बन्ध ह, अतः यह पिड ( तैजस होनेपर भी) वह्निपुञ्ज सदृश नहीं होता है । उसी पिण्ड में कमल के समान चार मुखवाले 'सर्वलोकपितामह' अर्थात् सभी पुरुषों के आदि पुरुष ब्रह्मा को सकल भुवनों के साथ उत्पन्न कर जाओं को उत्पन्न करने के लिए नियुक्त करते हैं । कि तुम यह काम करो'। महेश्वर के द्वारा सृष्टिकार्य के लिए नियुक्त वह ब्रह्मा 'अतिशय ज्ञानवैराग्यैश्वर्यसम्पन्नः' अर्थात् “ज्ञानञ्च, वैराग्यञ्च, ऐश्वर्यञ्च ज्ञानवैराग्यैश्वाणि, अतिशयेन ज्ञानवैराग्यैश्वाणि, तैः सम्पन्नः” इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त वाक्य का अर्थ है कि वह ब्रह्मा उत्तम ज्ञान, उत्कट वैराग्य और अमित ऐश्वर्य से युक्त हैं । अपने उत्तम ज्ञान के बल से वह प्राणियों के धर्म और अधर्म को ठीक से समझते हैं । उत्कट वैराग्य के प्रभाव से उनकी प्रवृत्ति पक्षपात से दूषित नहीं होती है। अपने अमित ऐश्वर्य
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् नुरूपज्ञानभोगायुषः सुतान् प्रजापतीन् मानसान् मनुदेवर्षिपितृगणान् मुखबाहूरुपादतश्चतुरो वर्णानन्यानि चोच्चावचानि भूतानि च सृष्ट्वाशयानुरूपैर्धर्मज्ञानवैराग्यैश्वय्यः संयोजयतीति । और आयु से युक्त 'सुत' अर्थात् प्रजापतियों की एवं 'मानस' अर्थात् मनु, देवर्षि और पितृगणों की सृष्टि करते हैं । एवं अपने मुह से ब्राह्मणों को, बाहु से क्षत्रियों को, जङ्घा से वैश्यों को और पैर से शूद्रों को उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार और भी छोटे बड़े अनेक प्राणियों को उत्पन्न करके सभी को कर्मों के अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य के साथ सम्बद्ध करते हैं।
न्यायकन्दली प्रवर्तते, ऐश्वर्यात् कर्मफलं भोजयति। प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वेति । विविधेन प्रकारेण पाको विपाकः, कर्मणां विपाकः कर्मविपाकः, तं विदित्वा एतावदस्य कर्मफलं भविष्यतीति ज्ञात्वा, कर्मानुरूपाणि ज्ञानभोगायूंषि तान् सुतान् प्रजापतीन् दक्षादीन् मानसान् मनःसङ्कल्पप्रभवान् मनुदेवर्षिपितृगणान् मनून, देवान्, ऋषीन्, पितृगणान्, मुखबाहूरुपादतश्चतुरो वर्णान् मुखाद् ब्राह्मणान्, बाहुभ्यां क्षत्रियान्, ऊरुभ्यां वैश्यान्, पद्धयां शूद्रान्, अन्यानि चोच्चावचानि क्षुद्रक्षुद्रतराणि च भूतानि सृष्ट्वा, आशयानुरूपैः आशेते फलोपभोगकालं यावदात्मन्यवतिष्ठत इत्याशयः कर्म, तदनुरूपैर्धर्मज्ञानवैराग्यश्वय्यः, संयोजयति यस्य यथाविधं कर्म तत्तदनुरूपेण ज्ञानादिना सम्यग् योजयति, मात्रयाऽप्यन्यथा न करोतीत्यर्थः। के बल से वह प्राणियों के कर्म का भोग सम्पन्न कर सकते हैं। 'प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वा', विविधेन प्रकारेण पाको विपाकः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अनेक प्रकार की परिणति 'विपाक' शब्द का अर्थ है । 'कर्मणां विपाकः कर्मविपाक:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मों की विविध परिणति ही 'कर्मविपाक' शब्द का अर्थ है । अतः वे कर्मविपाक को समझकर अर्थात् 'इस जीव के कर्मों का फल इतना होगा' यह समझकर 'कर्मानुरूपज्ञानभोगायुषः' अर्थात् कर्म के अनुरूप ज्ञान, भोग और आयु से युक्त दक्षप्रजापति प्रभृति पुत्रों को, मन मात्र से उत्पन्न अत एव मानस पुत्ररूप मनुओं, देवताओं, ऋषियों और पितरों को उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार मुख, बाहु, जङ्घा, एवं चरणों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों को एवं और भी छोटे बड़े जीवों को उत्पन्न करते हैं । 'आशयानुरूपैः' अर्थात् 'आरोते फलोपभोगकालं यावदात्मन्यवतिष्ठित इत्याशयः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार फलों के उपभोग पर्यन्त जो आत्मा रहे उसे 'आशय' कहते हैं। फलतः कर्म ( अदृष्ट ) ही 'आशय'
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली यत् खलु केचिदेवमाचचक्षिरे-प्रेक्षावत्प्रवृत्तिरिष्टार्थाधिगमा स्यादनिष्टपरिहारार्था वा, न चेष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारावीश्वरे समस्तावाप्तकामे सम्भवतः, तेनास्य जगन्निर्माणे प्रवृत्तिरनुपपन्ना। तत्रोत्तरम्--प्राणिनां भोगभूतय इति। परार्था सिसृक्षायां प्रवृत्तिर्न स्वार्थनिबन्धनेत्यभिप्रायः । नन्वेवं तर्हि सुखमयोमेव सृष्टि कुन्नि दु:खशबलां करुणाप्रवृत्तत्वादित्यत्रैष परिहारः--प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वेति। परार्थ प्रवृत्तोऽपि न सुखमयोमेव करोति, विचित्रकर्माशयसहायस्य कर्तृत्वादित्यर्थः । न चैवं सति करुणाविरोधः, दुःखोत्पादस्य वैराग्यजननद्वारेण परमपुरुषार्थहेतुत्वात । यदि धधिविपेक्ष्य करोति नास्य स्वाधीनं कर्तृत्वमित्यनीश्वरतादोष इत्यस्यायं प्रतिसमाधिः-- आशयानुरूपैर्धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यैः संयोजयति । स हि सर्वप्राणिनां
शब्द का अर्थ है। उसके अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वयं से जीवों को सम्बद्ध करते हैं। अर्थात् जिस जीव का अदृष्ट जिस प्रकार का है उसी के अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य इन चारों वस्तुओं से जीवों को उचित रीति से सम्बद्ध करते हैं, इसमें थोड़ा सा भी इधर उधर नहीं करते ।
इस प्रसङ्ग में किसी की आपत्ति है कि (१) इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति एवं (२) अनिष्ट वस्तुओं के परिहार इन दो भेदों से प्रवृत्ति दो ही प्रकार की है। महेश्वर को सभी वस्तुयें बराबर प्राप्त ही हैं । उनका अनिष्ट तो कोई है ही नहीं, अतः कारण की अनुपपत्ति से संसार रचना की उनकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। इसी आपत्ति का समाधान 'प्राणिनां भोगभूतये' इस वाक्य से दिया है। अमिप्राय यह है कि सृष्टिकार्य में महेश्वर की प्रवृत्ति अपने लिए नहीं है ( उक्त कार्यकारणभाव स्वार्थमूलक प्रवृत्ति का है )। ( इस पर यह आक्षेप हो सकता है कि ) तो फिर वे सुखमयी सृष्टि की ही रचना करते, दुःखबहुल सृष्टि की नहीं, क्योंकि वे करुणा से ही इसमें प्रवृत्त होते हैं। इसी आक्षेप का परिहार प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वा' इस वाक्य से किया गया है। कहने का तात्पर्य है कि दूसरों के लिए प्रवृत्त होनेपर भी केवल सुखमयी सृष्टि नहीं कर सकते, कोंकि सुख और दुःख दोनों के जनक 'विचित्र' कर्माशय के साहाय्य से ही उनमें सृष्टि का कर्तृत्व है। ऐसा होनेपर भी उनकी स्वाभाविक करुणा में कोई अन्तर नहीं आता, क्योंकि वैराग्य के उत्पादन के द्वारा दुःखों का उत्पादन भी परम पुरुषार्थ ( मोक्ष ) का साधन है। अगर सृष्टिकार्य के लिए उन्हें भी जीवों के धर्म और अधर्म की अपेक्षा है तो फिर कहना पड़ेगा कि उनमें सृष्टि कार्य के प्रति स्वातन्त्र्य रूप कर्तृत्व नहीं है, फिर उनमें अनीश्वरत्व का दोष अनिवार्य है । इसी आक्षेप का समाधान 'आशयानुरूपैधर्मज्ञानवैराग्यश्वय्यः संयोजयति' इस वाक्य से किया है। अभिप्राय है कि
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भाषानुवादसहितम्
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१३३
कर्मानुरूपं फलं प्रयच्छन् कथमनीश्वरः स्यादिति भावः । नहि योग्यतानुरूप्येण भृत्यानां फलविशेषप्रदः प्रभुरप्रभुर्भवति ।
कल्पाद (वुत्पन्नानां प्राणिनां सर्वशब्दार्थेष्वव्युत्पन्नानां सङ्केतस्याशक्यकरणत्वाच्छाब्दव्यवहारानुपपत्तिरिति चोदनायां प्रत्यवस्थान बीजमिदम्मानसानिति । योनिजशरीरो हि महता गर्भवासादिदुःखप्रबन्धेन विलुप्त - संस्कारो जन्मान्तरानुभूतस्य सर्वस्य न स्मरति । ऋषयः प्रजापतयो मनवस्तु मानस० अयोनिजशरीर विशिष्टादृष्टसम्बन्धिनो दृष्टसंस्काराः कल्पान्तरानुभूतं सर्वमेव शब्दार्थव्यवहारं सुप्तप्रतिबुद्धवत् प्रतिसन्दधते, प्रतिसन्दधानाश्च परस्परं बहवो व्यवहरन्ति । तेषां व्यवहारात् तत्काल वत्तिनां प्राणिनां व्युत्पत्तिः, तद्व्यवहाराच्चान्येषामित्युपपद्यते व्यवहारपरम्परया शब्दार्थव्युत्पत्तिरित्यर्थः ।
अभिप्राय यह है कि योनिज
किं पुनरीश्वरसद्भावे प्रमाणम् ? आगमस्तावदनुमानञ्च । महाभूतचतुष्टयमुपलब्धिमत्पूर्वकं काय्र्यत्वाद् यत्कार्यं तदुपलब्धिमत्पूर्वकं यथा घट: कार्य्यश्व महाभूतचतुष्टयं तस्मादेतदप्युपलब्धिमत्पूर्वकम् । प्रमाणेन सभी जीवों को अपने कर्म के अनुसार फल देते हुए भी वह 'अनीश्वर' क्यों होंगे ? क्योंकि योग्यता के अनुसार अपने भृत्यों को फल देते हुए भी स्वामी अप्रभु नहीं होते । सृष्टि के आदि में उत्पन्न जीव शब्द और अर्थ के व्यवहार से अनभिज्ञ रहते हैं, अतः सृष्टि के आदि में सङ्केत के द्वारा शब्द से होनेवाले व्यवहारों की उपपत्ति नहीं होगी। इसी का समाधान मानसान्' इस पद में है । शरीर के जीवों के संस्कार गर्भवासादिजनित बहुत बड़े विलुप्त हो जाते हैं, अतः उन जीवों को दूसरे जन्म सभी बातों का स्मरण नहीं रहता है। ऋषि, प्रजापति और मनु चूँकि मानस हैं (योनिज नहीं), अतः योनिज शरीरवालों से उनका अदृष्ट विलक्षण है । अत एव उनके सभी संस्कार उदबुद्ध रहते हैं । वे सोकर उठे हुए व्यक्तियों की तरह दूसरे जन्मों में किये गये शब्द ओर अर्थों के व्यवहारों को स्मरण कर इस जन्म में भी शब्द और अर्थ का व्यवहार करते हैं । उनके व्यवहार से ही और सभी जीव शब्द और अर्थ सङ्केत को ग्रहण करते हैं । उन जीवों के व्यवहार से फिर अन्य जीव भी शब्दार्थ व्यवहार को ग्रहण करते हैं । व्यवहार की इस परम्परा से शब्द और अर्थ के सङ्केत का ग्रहण होता है ।
दुःखों के भोगने के कारण
में
अनुभूत
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( प्र० ) ईश्वर की सत्ता में प्रमाण ही क्या है ? ( उ० ) शब्द और अनुमान दोनों हो। ( अनुमान इस प्रकार है कि ) पृथिवी प्रभृति चारों महाभूत किसी ज्ञानी कर्ता के द्वारा उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वे कार्य हैं। कार्य अवश्य ही किसी ज्ञानी कर्ता के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली पूर्वकोटयनुपलब्धरसिद्धं पृथिव्यादिषु कार्यात्वमिति चेत् ? तदयुक्तम्, सावयवत्वात्, यत् सावयवं तत् कार्य यथा घटः, सावयवञ्च पृथिव्यादि, तस्मादेतदपि कार्यमेव । ननु व्याप्तिग्रहणादतुमानप्रवृत्तिः, कार्यत्वबुद्धिमत्पूर्वकत्वयोश्च व्याप्तिग्रहणमशक्यम्, घटादिषु कत्तु प्रतीतिकाले एवाङ्कुरादिषूत्पद्यमानेषु तदभावप्रतीतेः । न चाकुरत्वादीनामपि पक्षत्वमिति न्याय्यम्, गृहीतायां व्याप्तावनुमानप्रवृत्तिकाले प्रतिवाद्यपेक्षया पक्षादिप्रविभागः, इह तु सर्वदैव प्रतिपक्षप्रतीत्याक्रान्तत्वाद् व्याप्तिग्रहणमेव न सिद्धयतीत्युक्तम् । अत्र प्रतिविधीयतेयदि चैवं द्वैतानुपलम्भाद् व्ययाप्तिग्रहणाभानः, तदानीं मीमांसाभाष्याकृदभिमतं सामान्यतोदृष्टमादित्यगत्यनुमानमपि न सिद्धयति, तत्रापि देवदत्तगतिपूर्वकदेशान्तरप्राप्तिग्रहणकाल एक नक्षत्रादिषु देशान्तरप्राप्तिमात्रोपलम्भात् । अथ तेषु द्वारा उत्पन्न होते हैं, जैसे कि घटादि ! पृथिव्यादि चारों भूत भी कार्य हैं अतः वे सभी भी अवश्य ही ज्ञानी कर्ता के द्वारा उत्पन्न हैं । (प्र.) किसी भी प्रमाण से 'पूर्वकोटि' अर्थात् पक्षधर्मता का ज्ञान (अर्थात् पृथिव्यादि चारों महाभूतरूप पक्ष में कार्यत्व रूप हेतु का निश्चयात्मक ज्ञान) नहीं है, उक्त पक्ष में कार्यत्व हेतु सिद्ध नहीं होने के कारण कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध ) है। (उ०) प्रकृत में कार्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है, क्योंकि पक्ष रूप चारों महाभूतों के सावयव होने के कारण उक्त सावयवत्व हेतु से उनमें कार्यत्व हेतु सिद्ध है, क्योंकि जितने भी सावयव हैं वे सभी कार्य हैं जैसे घटादि । पृथिव्यादि चारो महाभूत भी सावयव हैं, अतः वे भी अवश्य ही कार्य हैं। (प्र०) व्याप्तिज्ञान से ही अनुमान की प्रवृत्ति होती है, किन्तु उपलब्धिमत्कत्तृ - जन्यत्वरूप प्रकृत साध्य की व्याप्ति का ज्ञान कार्यत्वरूप हेतु में सम्भव नहीं है, क्योंकि घटादि में उक्त साध्य और हेतु के दोनों की प्रतीति-काल में ही अङ्कुरादि में उक्त साध्य के अभाव के साथ कार्यत्व हेतु के सामानाधिकरण्य की भी अबाधित प्रतीति होती है । (उ०) अङकुर तो पक्ष के अन्तर्गत है ? (५०) इस कथन में कोई सार नहीं है, क्योंकि व्याप्ति के ज्ञात हो जाने के बाद अनुमान की प्रवृत्ति होती है। उस प्रवृत्तिकाल में प्रतिवादी को आकाङ्क्षा के अनुसार पक्ष-साध्यादि विभाग प्रवृत्त होते हैं। यहाँ तो हेतु में साध्याभाव के सामानाधिकरण्य के ज्ञान से व्याप्ति का ज्ञान ही असम्भव है । (उ०) इसके समाधान में कहना है कि अगर इस प्रकार हेतु और साध्य के सामानाधिकरण्य की अनुपलब्धि से व्याप्ति का ज्ञान न हो तो मोमांसाभाष्यकार का अभिमत सामान्यतोदृष्ट अनुमान का सूर्य की गतिवाला उदाहरण ही असङ्गत हो जाएगा, क्योंकि जिस समय यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि 'देवदत्त का दूसरे देश के
१. अर्थात् 'नहि पक्षे पक्षसमे वा व्यभिचारो दोषाधायकः' इस न्याय से पक्षान्तर्गत अङ्कुर में व्यभिचार का उद्भावन अनुमिति का प्रतिरोध नहीं कर सकता।
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१३५
प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली देशविप्रकर्षेणापि गतेरनुपलब्धौ सम्भवन्त्यां न तया व्याप्तिग्रहणहेतोनिरुपाधिप्रवृत्तस्य भूयोदर्शनस्य प्रतिरोधः, तुल्यकक्ष्यत्वाभावात् । एवञ्चेत्, अत्राशरीरत्वेनाभ्युपेतस्य कर्तुः स्वरूपविप्रकर्षणाप्यकुरादिष्वनुपलम्भसम्भवान्न तेन निरुपाधिप्रवृत्तस्य भूयोदर्शनस्य सामर्थ्यमुपहन्यत इति समानम् । अपि च भोः ! किमनुमानेन कर्तृ मात्रं साध्यते ? पृथिव्यादिनिर्माणसमर्थो वा? कर्तृ मात्रसाधने तावदभिप्रेतासिद्धिः, नास्मदादिसदृशः कर्ताऽभिप्रेतो भवताम्, न च तेनेदं पृथिव्यादिकार्य्यमर्वाग्दृशा शक्यनिर्माणम्, पृथिव्यादिनिर्माणसमर्थस्तु कर्ता न सिद्धयत्यनन्वयात्, अन्वयबलेन हि दृष्टान्तदृष्टकर्तृ सदृशः सिद्धयतीति । नायं प्रसङ्गः, कर्तृ विशेषस्याप्रसाधनात्, व्याप्तिसामर्थ्याद् बुद्धिमत्पूर्वकत्वे सामान्ये साथ सम्बन्ध गति से उत्पन्न होता हैं, उसी समय नक्षत्रों में केवल दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध का ही ज्ञान होता है। इसके लिए अगर यह उत्तर दिया जा सकता है कि नक्षत्र चूकि बहुत दूर है, अत: उनमें दूसरे देशों के साथ सम्बन्ध का ज्ञान होने पर भी गति का ज्ञान नहीं होता है। यहाँ गति की अनुपलब्धि से व्याप्तिज्ञान के कारणरूप उपाधि से शून्य (गति और देशान्तरसञ्चार ) के भूयोदर्शन का प्रतिरोध नहीं हो सकता, क्योंकि (प्रकृत गति की अनुपलब्धि और प्रकृत भूयोदर्शन ) दोनों समान कक्षा के नहीं हैं । ( उ०) तो फिर प्रस्तुत विषय में भी कहा जा सकता है कि जिस कार्य का कर्ता शरीरी पुरुष होता है, उस कर्ता के शरीर में प्रत्यक्ष की योग्यता रहने के कारण उसके कार्यों में भी कर्तृ जन्यत्व की प्रतीति होती है, किन्तु प्रस्तुत महाभूतादि की सृष्टि के कर्ता महेश्वर को तो शरीर नहीं है, अतः ईश्वररूप-कर्तृजन्य अङ्कुरादि कार्यों में कर्तृजन्यत्व की प्रतीति नहीं होती है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अङ्कुरादि कार्यों में कर्तृजन्यत्व है ही नहीं। तस्मात् कोई अनुपपत्ति नहीं है। (प्र.) और भी बात है—अनुमान से आप क्या साधन करना चाहते हैं ? केवल कर्ता ? या पृथिवी प्रभृति उक्त महाभूतों के निर्माण से समर्थ कर्ता ? केवल कर्ता की सिद्धि से तो आपका अभीष्ट सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि हम लोगों के समान अल्पज्ञ कर्ता की सिद्धि आपको उस अनुमान से इष्ट नहीं है, एवं हम लोगों के समान अल्पज्ञ पुरुष पृथिव्यादि का निर्माण कर भी नहीं सकता है। उक्त अनुमान से पृथिव्यादि के निर्माण में समर्थ कर्ता की सिद्धि हो ही नहीं सकती, क्योंकि इस विशेष प्रकार का कर्तृजन्यत्व कहीं उपलब्ध नहीं है। अन्वय ( हेतु में साध्य का सामानाधिकरण्य) के बल से दृष्टान्त में जिस प्रकार के कर्तृजन्यत्व रूप साध्य की उपलब्धि होगी, पक्ष में भी उसी प्रकार के साध्य की सिद्धि होगी। घटादि रूप दृष्टान्तों में तो पृथिव्यादि निर्माण में समर्थ कर्ता का जन्यत्व उपलब्ध नहीं है। (उ० ) उक्त आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि विशेष प्रकार के कर्ता की सिद्धि अनुमान से इष्ट नहीं है, क्योंकि व्याप्ति के बल से पृथिव्यादि के किसी बुद्धियुक्त कर्ता की सिद्धि हो
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली
साध्यमाने पृथिव्यादिनिर्माणसामर्थ्यलक्षणोऽपि विशेषः सिद्धयत्येव, निर्विशेषस्य सामान्यस्य सिद्ध्यभावात् । ननु मा सिद्धयतु सामान्यमिति चेन्न, कार्यत्वेन सह तद्व्याप्तेरप्रतिक्षेपत्वात् । यदि हि व्याप्तमपि न सिद्ध्यति, धूमादप्यग्निसामान्यं न सिद्धयेत्, अग्निविशेषस्यानन्वितस्यासिद्धेः, निर्विशेषस्थानवस्थानात् ।
अथेदमुच्यते--द्वयमनुमानस्य स्वरूपं व्याप्तिः पक्षधर्म्मता च, तत्र व्याप्तिसामर्थ्यात् सामान्यं सिद्धयति, पक्षधर्म्मताबलेन चाभिप्रेतो विशेषः पर्वताद्यवच्छिन्नवह्निलक्षणात्मा सिद्धयति । अन्यथा पक्षधर्म्मताया: क्वोपयोगः क्व चानुमानस्य गृहीतग्राहिणः प्रामाण्यम् ? एवञ्चेत्, ईश्वरानुमानेऽपि तुल्यम्, अन्यत्राभिनिवेशात् । अथ मतम्, सिद्धयत्यनुमाने विशेषोऽपि यत्र प्रमाणविरोधो नास्ति । तथा हि-- धूमात् पर्वतनितम्बवृत्तिवह्निविशेषसिद्धों का नामानुपपत्तिः ? दृष्टो हि देशकालादिभेदः स्वलक्षणानाम् । ईश्वरानुमाने तु विशेषो न सिद्ध्यति, प्रमाणविरोधात् । तथा हिह--नात्र शरीरपूर्वकत्वं साधनीयम्, शरीरे सत्यवश्यमिन्द्रियप्राप्तावतीन्द्रियोपादानोपकरणादिकारकशक्तिपरिज्ञानासम्भवे सति कर्त्तृत्वासम्भवात् ।
जाने पर पृथिव्यादि में उनके निर्माण में समर्थ कर्तृ जन्यत्वरूप विशेष की सिद्धि स्वत: हो जाएगी, क्योंकि विशेषों से रहित सामान्य की सिद्धि सम्भव नहीं है । ( प्र० ) सामान्य की भी सिद्धि न हो ? ( उ० ) नहीं, क्योंकि कार्यत्व में कर्तृ जन्यत्व की व्याप्त है, इसमें कोई गड़बड़ नहीं है । अगर व्याप्ति के रहने पर भी सामान्य की सिद्धि न हो तो फिर धूम से वह्नि सामान्य की भी सिद्धि नहीं होगी ।
अगर यह कहें कि अनुमान के दो रूप हैं—व्याप्ति और पक्षधर्मता । इनमें व्याप्ति के बल से सामान्य की सिद्धि होती हे और पक्षधर्मता के बल से विशेष की सिद्धि होती है । अगर पक्षधर्मता से विशेष का नियमन न हो तो उसका उपयोग ही क्या है ? एवं ज्ञातज्ञापक हो जाने के कारण अनुमान में प्रामाण्य ही कैसे हो ? ( उ० ) अगर यह न्याय है तो फिर ईश्वरानुमान में भी यही न्याय है, अगर आपका कोई विशेष आग्रह न हो । अनुमान से विशेषों की सिद्धि वहीं होती है, जहाँ उसके विरुद्ध कोई प्रमाण उपस्थित नहीं रहता । जैसे कि पर्वत के मूल में वह्निविशेष की सिद्धि होती है । देश और काल के भेद से विशेषों का असाधारण्य प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं । इसमें कौनसी अनुपपत्ति है ? किन्तु उक्त अनुमान से पृथिव्यादि के निर्माण में समर्थ कर्ता की सिद्धि का तो विरोधी प्रमाण है, क्योंकि इससे पृथिव्यादि महाभूतों के शरीरी कर्ता की सिद्धि तो आपको इष्ट नहीं है, क्योंकि इससे ईश्वर का शरीर एवं उनकी इन्द्रियाँ माननी पड़ेगी और इन सबों से सब गुड़ गोबर हो जाएगा, क्योंकि इन्द्रियादि से युक्त कर्ता में महाभूतों के अतीन्द्रिय परमाणु रूप उपादानों में कार्योत्पादन शक्ति का ज्ञान सम्भव
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प्रकरणम् ]
भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
अशरीरपूर्वकत्वञ्चाशक्यसाधनम्, सर्वोऽपि कर्त्ता कारकस्वरूपमवधारयति, तत इच्छतीदमहमनेन निर्वर्त्तयामीति, ततः प्रयतते तदनु कायं व्यापारयति, ततः कारणान्यधितिष्ठति, ततः करोति, अनवधारयन्ननिच्छन्नप्रयतमानः कायम - व्यापारयन् न करोतीत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां बुद्धिवच्छरीरमपि कार्योत्पत्तावुपायभूतम् । निखिलोपाधिग्रहणे व्याप्तिग्राहकप्रमाणादेवावधारितं न शक्यते प्रातुं वह्नेरिवेन्धनविकारसामर्थ्यं धूमानुमाने, तत्परित्यागे च बुद्धिरपि परित्यज्यताम् । प्रभावातिशयादशरीरवदबुद्धिमानेवायमीश्वरः करिष्यति । उपादानोपकरणादिस्वरूपानभिज्ञो न शक्नोतीति चेत् ? कुत एतत् ? तथानुपलम्भादिति चेत् ? फलितं ममापि मनोरथद्रुमेण, न तथा यावदिच्छा प्रयत्नव्यवहिता कार्य्योत्पत्तावुपयुज्यते यथेदमव्यवहितव्यापारं शरीरम् ।
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१३७
नहीं है, एवं उसके बिना कर्तृत्व ही असम्भव है । यह सिद्ध करना तो बिलकुल ही असम्भव है कि ये महाभूत उन कर्ता से उत्पन्न होते हैं जिनके शरीर नहीं हैं। क्योंकि कर्ताओं का यह स्वभाव है कि वे पहिले उपादानों के स्वरूप को जानते हैं । फिर यह इच्छा होती है कि इन उपादानों से अमुक कार्य को उत्पन्न करें । इसके बाद वे तदनुकूल प्रयत्न करते हैं । फिर अपने संचालित करते हैं । इन सबों के बाद कार्य के कर कार्य को उत्पन्न करते हैं। बिना उपादान रखते हुए, उस कार्य विषयक प्रयत्न के बिना ही, भी कर्ता किसी भी कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता । इस
शरीर को उस कार्य के अनुसार उपकरणों को यथावत् परिचालित निश्चय के, उस कार्य की इच्छा न शरीर को हिलाये डुलाये बिना कोई अन्वय और व्यतिरेक से बुद्धि की तरह शरीर में भी कारणता सिद्ध है । व्याप्ति की प्रतिबन्धक उपाधियों की खोज के बाद भी जिस हेतु में जिस साध्य की व्याप्ति गृहीत होती है, उस हेतु से साध्य के ज्ञान को कोई रोक नहीं सकता है । जैसे कि आद्रेन्धन प्रभव वह्निरूप उपाधि से युक्त होने के कारण धूम की सिद्धि नहीं होती हैं। इस प्रकार शरीर में सिद्ध कारणत्व का भी अगर परित्याग करे तो बुद्धि को भी छोड़िए । ईश्वर अगर अतिशय प्रभाव के कारण बिना शरीर के भी महाभूतों को उत्पन्न कर सकते हैं तो फिर बिना बुद्धि के भी उन कार्यों का सम्पादन कर सकते हैं । ( प्र० ) उपादान एवं और कारणों से अनभिज्ञ कर्ता से किसी कार्य का उत्पादन सम्भव नहीं है, भी कार्यों का कारण मानते है ) | ( उ० ) यह आपने कैसे समझा ? घटादि कार्यों में यह देखा जाता है कि वे उपादानादि कारणों के ज्ञान से युक्त कर्ता से ही उत्पन्न होते हैं । ( उ० ) तो फिर हमारे मनोरथ के वृक्ष भी फल गये, क्योंकि जिस प्रकार किसी विषय की इच्छा रहने पर भी अगर उस विषय का प्रयत्न नहीं रहता हैं तो कार्य
( अतः बुद्धि को ( प्र ० ) स्थूल
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
न्यायकन्दली
एवं तर्हि का गतिरत्र बुद्धिमत्कर्तृ पूर्वकत्वसामान्यस्य ? अगतिरेव, उभयोरपि शरीरित्वाशरीरित्वविशेषयोरनुपपत्तेः, निविशेषस्य सामान्यस्य सिद्धयभावात् । किमनुमानस्य दूषणम् ? न किञ्चित्, पुरुष एवायं विशेषाभावाच्छशविषाणायमाने साधनानहें सामान्ये साधनं प्रयुञ्जानो निगृह्यते, यथा कश्चिनिशितं कृपाणमच्छेद्यमाकाशं प्रति व्यापारयन् । अथानुमानदूषणं विना न तुष्यति भवान्, तदिदमशरीरिपूर्वकत्वानुमानं व्याप्तिग्राहकप्रमाणबाधितत्वात् कालात्ययापदिष्टम्, व्याप्तिबलेन चाभिप्रेतमशरीरित्वविशेषं विन्धद् विशेषविरुद्धम्, ततश्च विरुद्धावान्तरविशेष एवेति पूर्वपक्षसङ्क्षपः ।
अत्र प्रतिसमाधिः-किं शरीरित्वमेव कर्तृत्वमुत परिदृष्टसामर्थ्यकारकप्रयोजकत्वम् ? न तावच्छरीरित्वमेव कर्तृत्वम्, सुषुप्तस्योदासीनस्य च कर्तृत्वनहीं होता है, उसी प्रकार शरीरव्यापार के बिना केवल प्रयत्न से भी कार्य नहीं होता।
(प्र०) कथित अनुमान से पृथिव्यादि महाभूतों में सिद्ध बुद्धिविशिष्टकर्तृ. जन्यत्व की क्या गति होगी? ( उ०) कोई भी गति नहीं, ( क्योंकि बुद्धिमत्कर्तृजन्यत्वरूप ) सामान्य के विशेषभूत शारीरिकतजन्यत्व और अशरीरिकर्तृजन्य त्व इन दोनों में से किसी भी विशेष की सिद्धि नहीं होगी। एवं विशेषों से शून्य सामान्य की सिद्धि भी सम्भव नहीं है। (प्र०) उस सामान्य विषयक अनुमान में दोष क्या है ? ( उ०) कोई भी दोष नहीं है, चूंकि विशेषों में से किसी की भी सिद्धि नहीं है, अतः आकाशकुसुमप्रतिम ईश्वर ही साधन के आयोग्य है । अतः अनुमान के द्वारा ईश्वर का साधन करनेवाला पुरुष उसी प्रकार विफल होगा, जैसे कि किसी भी प्रकार से न खण्डित होने वाले आकाश की तरफ कृपाण को उछालनेवाला व्यक्ति विफल हो जाता है। अगर आपको बिना हेत्वाभासों के सुने सन्तोष न हो तो फिर उन्हें भी सुनिये। अशरीरिकर्तृ जन्यत्व में फलित उक्त अनुमान व्याप्तिग्राहक प्रमाणों से बाधित होने के कारण 'कालात्ययापदिष्ट' नाम के हेत्वाभास से दूषित है। एवं व्याप्ति के बल से ही अशरीरिकर्तृजन्त्वरूप विशेष की सिद्धि हो सकती है, किन्तु 'कर्ता शरीरयुक्त ही होता हैं' विशेष प्रकार की इस व्याप्ति से भी उक्त अनुमान दूषित होता है, जो वस्तुतः विरुद्ध नाम से प्रसिद्ध हेत्वाभास का ही प्रभेद है। इतना हो उक्त ईश्वरानुमान के विषय में आक्षेप करनेवाले पूर्वपक्षियों का आशय है।
(उ० ) अब हमें इन सब आक्षेपों के समाधान में यह पूछना है कि शरीर का सम्बन्ध ही कर्तृत्व है ? या जिन कारणों में कार्य करने का सामर्थ्य ज्ञात
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१३६ न्यायकन्दली प्रसङ्गात्, किन्तु परिदृष्टसामर्थ्यकारकप्रयोजकत्वम्, तस्मिन् सति कार्योत्पत्तेः । तच्चाशरीरस्यापि निर्वहति यथा स्वशरीरप्रेरणायामात्मनः । अस्ति तत्राप्यस्य स्वकर्मोपाजितं तदेव शरीरमिति चेत् ? सत्यमस्ति, परं प्रेरणोपायो न भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । प्रेय॑तयाऽस्तीति चेत् ? ईश्वरस्यापि प्रेर्यः परमाणुरस्ति । ननु स्वशरीरे प्रेरणाया इच्छाप्रयत्नाभ्यामुत्पत्तेरिच्छाप्रयत्नयोश्च सति शरीरे भावादसत्यभावाद् अस्ति तस्य स्वप्रेरणायामिच्छाप्रयत्नजननद्वारेणोपायत्वमिति चेन्न, तस्येच्छाप्रयत्नयोरुपजननं प्रत्येव कारकत्वात्, लब्धास्मकयोरिच्छाप्रयत्नयोः प्रेरणाकरणकाले तु तदनुपायभूतमेव शरीरं कर्मत्वादिति व्यभिचारः, अनपेक्षितशरीरव्यापारस्येच्छाप्रयत्नमात्रसचिवस्यैव चेतनस्य कदाचिदचेतनव्यापार प्रति सामर्थ्यदर्शनात्, बुद्धिमदव्यभिचारि तु कार्य्यत्वमितीश्वरसिद्धिः । इच्छाप्रयत्नोत्पत्तावपि शरीरमपेक्षणीयमिति चेत् ? अपेक्षतां
हो गया है, उन्हे उचित रूप से परिचालित करना ही कर्तृत्व है ? अगर शरीर सम्बन्ध को ही कर्तृत्व मानें तो फिर सोये हुए व्यक्ति में एवं कार्यों से उदासीन व्यक्ति में भी कर्तृत्व मानना पड़ेगा। अतः उक्त प्रकार के कारणों को परिचालित करना ही कर्तृत्व है, क्योंकि उचित रूप से उन्हें परिचालित होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है। यह दूसरे प्रकार का कर्तृत्व शरीर सम्बन्ध के बिना भी सम्भव है, जैसे कि अपने शरीर के लिए जीव का । (प्र०) यहाँ भी अपने पूर्व कर्मों से उपाजित उसी शरीर का सम्बन्ध जीव को अपने शरीर को प्रेरित करने में सहायक है ? ( उ०) यह ठीक है कि जीव में शरीर का सम्बन्ध है, किन्तु अपने शरीर की क्रिया से अपने शरीर में प्रेरणा नही हो सकती। ( प्र०) फिर भी यहाँ प्रेरणा का आश्रय तो है ? ( उ० ) ईश्वर की प्रेरणा के लिए भी परमाणु रूप आश्रय तो है ही। (प्र०) इच्छा और प्रयत्न से अपने शरीर में प्रेरणा उत्पन्न होती है । इन दोनों में भी शरीर अपेक्षित है ही। इस प्रकार अपने शरीर की प्रेरणा में भी अपने शरीर की अपेक्षा होती है। ( उ० ) शरीर केवल इच्छा और प्रयत्न का ही कारण है, अपने कारणों से उत्पन्न इच्छा एवं प्रयत्न इन दोनों से प्रेरणा की उत्पत्ति होती है। प्रेरणा में शरीर कारण नहीं है, क्योंकि शरीर प्रेरणा रूप क्रिया का कर्म है। इस प्रकार यह नियम हो गलत हो जाता है कि कर्तृत्व शरीर युक्त द्रव्यों में ही रहता है, क्योंकि शरीरव्यापार की अपेक्षा न रखते हुए भी केवल इच्छा और प्रयत्न की सहायता से ही चेतन में जड़ वस्तुओं को व्याप्त करने का सामर्थ्य कहीं कहीं देखा जाता है। कार्यत्व और बुद्धिमत्कर्तृ जन्यत्व दोनों अव्यभिचारी हैं, अत: उक्त अनुमान से ईश्वर की सिद्धि होती है । (प्र. ) ( महाभूतादि सृष्टि के प्रयोजक
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली यत्र तयोरागन्तुकत्वम्, यत्र पुनरिमौ स्वाभाविकावासाते तत्रास्यापेक्षणं व्यर्थम् । न च बुद्धीच्छाप्रयत्नानां नित्यत्वे कश्चिद् विरोधः । दृष्टा हि रूपादीनां गुणानामाश्रयभेदेन द्वयी गतिः-नित्यतानित्यता च । तथा बुद्धयादीनामपि भविष्यतीति । सेयमीश्वरवादे वादिप्रतिवादिनोः पराकाष्ठा । अतः परं प्रपञ्चः।
आत्माधिष्ठिताः परमाणवः प्रतिष्यन्त इति चेन्न, तेषां स्वकर्मोपाजितेन्द्रियगणाधीनसंविदां शरीरोत्पत्तेः (विना) सर्वविषयावबोधविरहात् । अस्त्यात्मनामपि सर्वविषयव्यापि सहजचैतन्यमिति चेन्न, सहजं शरीरसम्बन्धभाजां तत् केन विप्लुतं येनेदं सर्वत्रापूर्ववदवभासयति। शरीरावरणतिरोधानात् तदात्मन्येव समाधीयते, न बहिर्मुखं भवतीति चेत् ? व्यापकत्वेन तस्य विषयसम्बन्धानुच्छेदेन नित्यत्वेन च विषयप्रकाशस्वभावस्यानिवृत्ती का तिरोधानवाचोयुक्तिः ? वत्तिप्रतिबन्धश्चैतन्यतिरोधानमिति चेत् ? कथं तर्हि शरीरिणां विषयग्रहणम् ? क्वचिदस्य ईश्वरीय ) इच्छा और प्रयत्न के लिए भी शरीर को आवश्यकता होगी ? ( उ०% इच्छा और प्रयत्न जहाँ आगन्तुक गुण हैं, वहाँ शरीर को आवश्यकता भले ही हो, जहाँ ये दोनों स्वाभाविक गुण हैं, वहाँ शरीर की अपेक्षा व्यर्थ है। बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न इन सबों का नित्यत्व भी युक्ति विरुद्ध नहीं है, क्योंकि आश्रय के भेद से रूपादि गुणों की नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों प्रकार की गति देखी जाती है। अतः बुद्धयादि भी जीव और ईश्वर रूप आश्रयों के भेद से नित्य और अनित्य दोनों प्रकार के होंगे। ईश्वर को माननेवाले और न माननेवाले दोनों की इतनी ही युक्तियाँ हैं, आगे इन्हीं का विस्तार है।
(प्र.) जीवों की अध्यक्षता में केवल परमाणु ही पृथिव्यादि महाभूतों की सष्टि करेंगे ? ( उ० ) उनका ज्ञान अपने कर्मों से उपाजित इन्द्रियों क अधीन है, अतः महाभतों की सृष्टि में अपेक्षित सभी विषयों का ज्ञान जीवों में सम्भव नहीं है। (प्र० ) जीवों में भी सभी विषयों में व्याप्त चैतन्य की सत्ता तो है ही। ( 30 ) तो फिर शरीर से युक्त जीवों में उस सहज चैतन्य का विघटन कौन कर देता हैं ? जिससे कि सभी विषयों को विना देखी हुई वस्तुओं की तरह देखता है। (प्र०) शरीर रूप आवरण के कारण वह सर्वविषयक सहज चैतन्य जीवों में तिरोहित रहता है, केवल प्रकाशित मात्र नहीं होता है । ( उ० ) जीव भी व्यापक है, अतः विषयों के साथ सर्वदा उसका सम्बन्ध रहेगा। जीव नित्य है, अतः विषयों को प्रकाशित करनेवाला स्वभाव भी उसमें बराबर रहेगा। फिर तत्स्वरूप सहज चैतन्य के तिरोभाव में क्या युक्ति है ? (प्र. ) कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति का नाश ही उसका तिरोभाव है ? (उ०) फिर जीवों को विषयों का ज्ञान कैसे होता है ? (प्र०) कहीं उसकी वृत्तियाँ निरुद्ध नही भी होती हैं ? (उ० ) ( कहीं वह शक्ति उबुद्ध रहती है एवं कहीं तिरोहित ), इस
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प्रकरणम् ]
१४१
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
वृत्तयो न निरुध्यन्त इति चेत् ? कुतोऽयं विशेष: ? इन्द्रियप्रत्यासत्तिविशेषाद् यद्येवम्, इन्द्रियाधीनश्चैतन्यस्य विषयेषु वृत्तिलाभो न सन्निधिमात्रनिबन्धनः, सत्यपि व्यापकत्वे सर्वार्थेषु वृत्त्यभावादिन्द्रियंवैयर्थ्यप्रसङ्गाच्च ( इति ) साधूक्तमशरीरिणामात्मनां न विषयावबोध इति ।
तथा चैके वदन्ति-"पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्" इति । अनवबोधे च तेषां नाधिष्ठातार इति तेभ्यः परः सर्वार्थदर्शिसहजज्ञानमयः कर्तृस्वभावः कोऽप्यधिष्ठाता कल्पनीयः, चेतनमधिष्ठातारमन्तरेणाचेतनानां प्रवृत्त्यभावात् ।
स किमेकोऽनेको वा ? एक इति वदामः । बहूनामसर्वज्ञत्वेऽस्मदादिवद. सामर्थ्यात्, सर्वज्ञत्वे त्वेकस्यैव सामर्थ्यादपरेषामनुपयोगात् । न च समप्रधानानां भूयसां सर्वदैकमत्ये हेतुरस्तीति कदाचिदनुत्पत्तिरपि कार्य्यस्य स्यात्, एकाभिप्रायानुरोधेन सर्वेषां प्रवृत्तावेकस्येश्वरत्वं नापरेषाम्, मठपरिषदामिव कार्योविशेष में क्या युक्ति है ? अगर इन्द्रिय सम्बन्ध रूप विशेष से ऐसा होता है ? (उ०) तो फिर विषय केवल जीवों के समीप रहने के कारण ही उसके सहज चैतन्य के द्वारा प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि व्यापक होने पर भी जीवों को सभी विषयों का ज्ञान नहीं होता है ! अगर जीवों में इन्द्रियों से निरपेक्ष भी ज्ञान की सत्ता रहे तो किर इन्द्रियों की रचना ही व्यर्थ हो जाएगी, अतः मैंने पहिले जो कहा है कि 'जीवों को बिना शरीर के विषयों का ज्ञान नहीं होता है' वह ठीक है।
'पराञ्चि खानि' इत्यादि श्रुतियों का अवलम्बन करते हुए कोई कहते हैं कि सभी विषयों का ज्ञान जीवों को नहीं है। सभी विषयों के ज्ञान के बिना सृष्टि जैसा कार्य सम्भव नहीं है। सृष्टि रचना के लिए जीवों से भिन्न सहजज्ञान से युक्त कर्तृत्वस्वभाववाले किसी अधिष्ठाता की कल्पना करनी होगी, क्योंकि जड़ वस्तुओं की प्रवृत्ति चेतन अधिष्ठाता के बिना सम्भव ही नहीं है, अतः ईश्वररूप अधिष्ठाता अवश्य है।
किन्तु वह एक हैं या अनेक ? इस प्रसङ्ग में हम लोगों का कहना है कि वह एक ही है, क्योंकि अगर ईश्वर अनेक हों एवं सर्वज्ञ हों तो फिर हमलोगों की तरह ही सृष्टिकार्य में असमर्थ होंगे। अगर ईश्वर को अनेक मानकर सभी को सर्वज्ञ मानें, तो फिर एक ही ईश्वर के सामर्थ्य से सृष्टि कार्य की उत्पत्ति हो जाएगी, अन्य सभी ईश्वरों के सामर्थ्य व्यर्थ जाएंगे। एवं एक ही प्रकार के प्राधान्य से युक्त अनेक व्यक्तियों में सर्वदा ऐकमत्य भी नहीं रहता है। अगर एक ही ईश्वर के अभिप्राय से अन्य ईश्वरों की
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१४२
[ध्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
त्पत्त्यनुरोधेन सर्वेषामविरोधे प्रत्येकमनीश्वरत्वम्। तदेवं कार्यविशेषेण सिद्धस्य कर्तृ विशेषस्य सर्वज्ञत्वान्न कुत्रचिद् वस्तुनि विशेषानुपलम्भः। अतो न तन्निबन्धनं मिथ्याज्ञानम्, मिथ्याज्ञानाभावे च न तन्मूलौ रागद्वेषौ, तयोरभावान्न तत्पूविका प्रवृत्तिः, प्रवृत्त्यभावे च न तत्साध्यौ धधिम्मौ , तयोरभावात् तज्जयोरपि सुखदु:खयोरभावः, सर्वदैव चानुभवसद्भावात् स्मृतिसंस्कारावपि नासाते इत्यष्टगुणाधिकरणो भगवानीश्वर इति केचित् । अन्ये तु बुद्धिरेव तस्याव्याहता क्रियाशक्तिरित्येवं वदन्त इच्छाप्रयत्नावप्यनङ्गीकुर्वाणाः षड्गुणाधिकरणोऽयमित्याहुः। स कि बद्धो मुक्तो वा ? न तावद् बद्धः, बन्धनसमाज्ञातस्य बन्धहेतोः क्लेशादेरसम्भवात् । मुक्तोऽपि न भवति, बन्धविच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तेः । नित्यमुक्तस्तु स्यात्, यदाह तत्रभवान् पतञ्जलि:--"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः" इति ।
भी प्रवृत्ति माने तो फिर वही ईश्वरपद के मुख्यार्थ होंगे, और बाकी सर्वज्ञ ईश्वर न कहला सकेंगे। अगर कार्यसम्पादन के अनुरोध से अन्य विषयों में मतभेद रहते हुए भी मठ की परिषद् के सभासदों की तरह सृष्टिरूप एक कार्य में सभी ईश्वरों का एक मत मानें तो फिर प्रत्येक ईश्वर में अनीश्वरता की आपत्ति होगी। तस्मात् अन्य सभी कार्यों से विलक्षण कार्य द्वारा सिद्ध अन्य सभी कर्ताओं से विशिष्ट सृष्टिरूप कार्य का ईश्वररूप कर्ता एक ही है। चूंकि सर्वज्ञ हैं, किसी भी विषय का कोई भी विशेष उनको अज्ञात नहीं है, अतः विषयों के विशेष के अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला मिथ्याज्ञान भी उनमें नहीं है। सुतरां मिथ्याज्ञानमूलक राग और द्वेष भी उनमें नहीं है। इसी हेतु से राग और द्वेष से होनेवाली प्रवृत्तियाँ भी उनमें नहीं हैं। फिर प्रवृत्ति, धर्म और अधर्म की उनमें सत्ता कैसी ? धर्म और अधर्म के न रहने से उनमें सुख एवं दुःख भी नहीं है। सर्वदा सभी विषयों के अनुभव के ही रहने के कारण उनमें स्मृति और संस्कार भी नहीं हैं। इस प्रकार किसी का मत है कि भगवान् परमेश्वर संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग. ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न इन आठ गुणों से युक्त हैं। किसी विषय में व्याहत न होने वाला ज्ञान ही उनकी क्रियाशक्ति है। इस प्रकार उनमें इच्छा और प्रयत्न को भी अस्वीकार करते हुए कोई उन्हें छः गुणों का ही आधार मानते हैं। वे बद्ध हैं या मुक्त ? बद्ध तो वे नहीं हैं, क्योंकि बन्धन के कारण क्लेशकर्मादि उनमें नहीं हैं। वे मुक्त भी नहीं हो सकते, क्योंकि 'मुक्ति' और 'बन्धविच्छेद' दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। नित्यमुक्त वे हो सकते हैं, जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने 'क्लेशकर्मविपाकाशयैः' इत्यादि सूत्र से कहा है |
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
१४३
प्रशस्तपादभाष्यम् आकाशकालदिशामेकैकत्वादपरजात्यभावे पारिभाषिक्यस्तिस्रः संज्ञा भवन्ति, आकाशः कालो दिगिति ।
तत्राकाशस्य गुणाः शब्दसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः ।
आकाश, काल और दिक् इन तीनों में से प्रत्येक एक एक ही है, अतः उनमें से किसी में (द्रव्यत्व से भिन्न द्रव्यत्व व्याप्य और कोई) भी अपर जाति नहीं है। तस्मात् आकाश, काल और दिक नाम की उन तीनों की तीन पारिभाषिक संज्ञायें हैं।
इनमें आकाश के शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये छ: गुण हैं।
. न्यायकन्दली आकाशादीनां त्रयाणां सङ्क्षपार्थमेकेन ग्रन्थेन वैधयं कथयतिआकाशकालदिशामिति । आकाशस्य कालस्य दिशश्चैकैकत्वादपरजाति स्ति, तस्या व्यक्तिभेदाधिष्ठानत्वात् । अपरजात्यभावे चाकाश इति काल इति दिगिति तिस्रः संज्ञाः पारिभाषिक्यो न पृथिव्यादिसंज्ञावदपरजातिनैमित्तिक्य इत्यर्थः । संज्ञेषामितरवैधयं यस्याः संज्ञाया विना निमित्तेन शृङ्गग्राहिकया सङ्केतः सा पारिभाषिको, यथायं देवदत्त इति । यस्याः पुननिमित्तमुपादाय सङ्केतः सा नैमित्तिकोति विवेकः।
सम्प्रति प्रत्येक निरूपणार्थमाह-तत्राकाशस्य गुणा इति । तेषां त्रयाणां
थोड़े शब्दों में ही आकाशादि तीनों द्रव्यों का लक्षण कहने के अभिप्राय से 'आकाशकालदिशाम्' इत्यादि एक ही वाक्य से उन सभी के असाधारण धर्म कहे गये हैं। अभिप्राय यह है कि जातियों की कल्पना आश्रयों की विभिन्नता से ही की जाती है, आकाशादि चूकि एक एक ही हैं, अतः अपर जातियाँ उनमें न रहने के कारण आकाश, काल और दिक् ये तीनों संज्ञायें पारिभाषिकी हैं । अर्थात् पृथिवीत्वादि अपर जातियों की निमित्तमूलक पृथिव्यादि संज्ञाओं की तरह आकाशादि नैमित्तिक संज्ञायें नहीं हैं। इन तीनों की ये पारिभाषिकी संज्ञायें ही औरों की अपेक्षा इनका वैधर्म्य हैं। जैसे कि शाम को गोष्ठ के सोमने इकठ्ठी हुई गायों में से उनका रक्षक अपनी इच्छा के अनुसार किसी एक को पकड़ कर अन्दर कर देता है, उसी प्रकार जो संज्ञा किसी निमित्त विशेष की अपेक्षा न करके किसी व्यक्तिविशेष का बोध करा देती है, वही पारिभाषिकी संज्ञा है, जैसे कि देवदत्तादि संज्ञाएँ । जो संज्ञा किसी निमित्तमूलक सङ्केत से स्वार्थ विषयक बोध का उत्पादन करती है, उसे नैमित्तिकी संज्ञा कहते हैं । यही इन दोनों संज्ञाओं में अन्तर है।
____अब इन तीनों में से प्रत्येक का निरूपण करने के लिए 'तत्राकाशस्य गुणाः' इत्यादि वाक्य लिखते हैं । अर्थात् इन तीनों में से आकाश में शब्द, संख्या, परिमाण,
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१४४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आकाश
प्रशस्तपादभाष्यम् शब्दः प्रत्यक्षत्वे सत्यकारणगुणपूर्वकत्वादयावद्द्व्यभावित्वादाश्रयादन्यत्रोपलब्धेश्च न स्पर्शवद् विशेषगुणः । बाह्येन्द्रिय प्रत्यक्षत्वादात्मान्तरग्राह्यत्वादात्मन्यसमवायादहङ्कारेण विभक्तग्रहणाच्च नात्मगुणः। श्रोत्रग्राह्यत्वाद् वैशेषिकगुणभावाच्च न दिककालमनसाम् ।
___ शब्द स्पर्श से युक्त द्रव्यों का गुण नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष का विषय होने पर भी अपने समवायिकारण के गुण से उत्पन्न नहीं होता है, एवं अपने समवायिकारण के अन्तिम समय तक वह नहीं रहता है, एवं अपने आश्रय (स्पर्शवत् शङ्खादि द्रव्यों) से अन्यत्र श्रोत्र में उनकी उपलब्धि होती है। शब्द आत्मा का भी गुण नहीं है, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष बाह्य इन्द्रिय से होता है । एवं एक ही शब्द विभिन्न आत्माओं से गृहीत होता है। एवं शब्द का समवाय आत्मा में नहीं है । एवं अहङ्कार के साथ ( 'अहं जानामि' इत्यादि प्रतीतियों में ज्ञान की तरह) शब्द की प्रतीति नहीं होती है। शब्द दिक, काल और मन का भी गुण नहीं है, क्योंकि वह विशेष गुण है । इस प्रकार चूंकि शब्द गुण है, अतः
न्यायकन्दली मध्ये आकाशस्य गुणाः शब्दसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः। शब्दादिगुणयोगोऽप्याकाशस्य वैधर्म्यम् ।
नन्वाकाशस्य सद्भावे किं प्रमाणम् ? प्रत्यक्षमेव, वियति पतति पतत्त्रिणि चक्षुर्व्यापारेणेहायं पक्षी प्राप्तो नेहेति नियतदेशाधिकरणा प्रतीतिरिति चेत्, तदयुक्तम्, अरूपस्य द्रव्यस्य चाक्षुषत्वाभावात् । योऽप्ययमधिकरणप्रत्ययस्तत्र विततालोकमण्डलव्यतिरेकेण न द्रव्यान्तरं प्रतिभाति, अत आकाशस्य सद्भावे परिशेषानुमानमुपन्यस्यञ्छब्दस्य द्रव्यान्तरगुणत्वं निषेधति-शब्द इति । संयोग और विभाग ये छः गुण हैं। फलतः शब्द प्रभृति इन छ: गुणों का सम्बन्ध भी आकाश का वैधर्म्य है।
(प्र.) आकाश की सत्ता में ही क्या प्रमाण है ? कोई कहते हैं कि प्रत्यक्ष ही इसमें प्रमाण है, क्योंकि आकाश में चिड़ियों के उड़ने के समय चक्षु के व्यापार से इस प्रदेश में पक्षी हैं, उस प्रदेश में नहीं' इस प्रकार किसी नियमित अधिकरण में पक्षियों की प्रतीति होती है, किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बिना रूप के द्रव्य आखों से नहीं देखे जाते । उक्त प्रतीति में जो अधिकरणता भासित होती है, उसके सम्बन्ध में अगत्या यही मानना पड़ेगा कि आकाश में फैला हुआ प्रकाशपुञ्ज ही अधिकरणतया भासित होता है, अत: उसकी सत्ता में परिशेषानुमान का
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
१४५
प्रशस्तपादभाष्यम परिशेषाद गुणो भूत्वा आकाशस्याधिगमे लिङ्गम् । उक्त परिशेषानुमान के द्वारा आकाश के ज्ञान का हेतु है।
न्यायकन्दली स्वाश्रयस्य यत्समवायिकारणं तद्गुणपूर्वः शब्दो न भवति, पटरूपादिवदाश्रयोत्पत्त्यनन्तरमनुत्पादात् । अतः सुखादिवत् स्पर्शवतो विशेषगुणो न भवति । विशेषगुणत्वप्रतिषेधे सामान्यगुणत्वं भविष्यतीति नाशङ्कनीयम्, सामान्यविशेषवतस्तस्य बाौकेन्द्रियग्राह्यत्वेन रूपादिवद्विशेषगुणत्वसिद्धेः । पार्थिवपरमाणुरूपादयः स्पर्शवद्विशेषगुणा अथ चाकारणगुणपूर्वकाः परमाणोरकार्यत्वात् तद्वयवच्छेदार्थ प्रत्यक्षत्वे सतीति कृतम् । यावद्रव्यं शब्दो न भवति सत्येवाश्रये शङ्कादौ तस्य विनाशात्, अतोऽपि सुखादिवत् स्पर्शवद्विशेषगुणो न भवति । तत्रापि पार्थिवपरमाणुरूपादिभिरेव व्यभिचारः, तेषां सत्येवाश्रये परमाणावग्निसंयोगेन विनाप्रदर्शन करने के बाद 'शब्दः प्रत्यक्षत्वे सति' इत्यादि से प्रतिपादन करते हैं कि शब्द आकाशादि से भिन्न पृथिव्यादि का गुण नहीं है। जिस प्रकार पट का रूप अपने समवायिकारण पट के आश्रयीभूत तन्तुओं के रूप से उत्पन्न होता है, क्योंकि पट के उत्पन्न होने के बाद ही वह उत्पन्न होता है, उसी प्रकार से शब्द अपने समवायिकारण के आश्रयीभूत द्रव्यगत गब्द से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि आश्रय की उत्पत्ति के बाद उसकी उत्पत्ति नहीं होती है। अतः जिस प्रकार स्पर्श से युक्त पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों का सुख विशेषगुण नहीं है, उसी प्रकार शब्द भी स्पर्शों से युक्त द्रव्यों का गुण नहीं है। इससे यह शङ्का न करनी चाहिए कि "शब्द अगर उन स्पशयुक्त द्रव्यों का विशेषगुण नहीं है, तो विशेषगुण ही नहीं है, किन्तु सामान्य गुण ही है" क्योंकि शब्द परजाति एवं अपरजाति दोनों से युक्त है, एवं श्रोत्ररूप एक ही बाह्येन्द्रिय से गृहीत होता है, अतः वह अवश्य ही विशेषगुण है। पार्थिव परमाणु के रूपादि यद्यपि स्पर्शयुक्त द्रव्य के ही गुण हैं, फिर भी 'कारणगुणपूर्वक' नहीं हैं, अर्थात् अपने आश्रय के समवायिकारण के गुण से उत्पन्न नहीं होते हैं. क्योंकि परमाणु कार्य नहीं है। अतः पार्थिव परमाणु के रूपादि में व्यभिचार वारण के लिए प्रकृत परिशेषानुमान के प्रथम हेतु में 'प्रत्यक्षत्वे सति' यह विशेषण दिया गया है। शब्द चूकि याहद्दव्यभावी नहीं है, अर्थात् अपने समवायिकारणीभूत द्रव्य की अवस्थिति के सभी कालों में नहीं रहता है, क्योंकि (पूर्वपक्षियों के अभिमत शब्द के आश्रय) शङ्खादि के रहते हुए भी शब्द नष्ट हो जाते हैं । इसलिए अयावद्दव्यभावित्व हेतु से भी समझते हैं कि शब्द स्पर्श से युक्त द्रव्यों का गुण नहीं है। यह हेतु भी केवल अपने इस रूप से पार्थिव परमाणु के रूपादि में व्यभिचरित होगा, क्योंकि रूपादि गुणों के आश्रयीभूत
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न्यायकन्दली संवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दलो
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[ द्रव्ये आकाश
शात् तदर्थं प्रत्यक्षत्वे सतीत्यनुवर्त्तनीयम् । हेत्वन्तरञ्चाह - आश्रयादन्यत्रोपलब्धेश्च । स्पर्शवद्विशेषगुणत्वे शब्दस्य शङ्खादिराश्रयो वाच्यः । स च तस्मादन्यत्र दूरे कर्णशष्कुलीदेशे समुपलभ्यते, न चान्यगुणस्यान्यत्र ग्रहणमस्ति, तस्मान्न स्पर्शवद्विशेषगुणः । ननु शङ्खादिदेशस्थित एव शब्दो गृह्यते, इन्द्रियाणामासंसारमण्डलव्यापित्वादिति चेन्न, संनिकृष्ट विप्रकृष्टयोरविशेषेणोपलब्धिः स्यात् । व्यापकत्वेsपीन्द्रियाणां पुरुषार्थेन हेतुना क्षोभ्यमाणानां यदधिष्ठानदेशेभ्यो विषयग्रहणानुगुणवृत्तयो निर्गता विषयं विश्नुवते तदा विषयग्रहणस्य भावान्नाव्यवस्थेति चेत् ? विषयग्रहणार्थानीन्द्रियाणि, विषयग्रहणञ्च वृत्तिनिबन्धनम्, वृत्तय एवेन्द्रियाणि तदन्येषामनुपयोगान्निः प्रमाणकत्वाच्च / न च श्रोत्रवृत्तिविषयदेशं गत्वाऽर्थमुपलभते, चाक्षुषप्रतीताविव शब्देऽपि दिक्सन्देहानुपपत्तिप्रसङ्गात् । नापि
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परमाणुओं के रहते हुए भी उन गुणों का नाश हो जाता है, अतः प्रथम हेतु के कथित 'प्रत्यक्षत्वे सति' इस विशेषण को अनुवृत्ति इस हेतु में भी करनी चाहिए। शब्द स्पर्शयुक्त द्रव्यों का गुण नहीं है इसकी सिद्धि के लिए 'आश्रयादन्यत्रोपलब्धेश्च' इत्यादि से एक और हेतु देते हैं । शब्द को अगर किसी स्पर्शयुक्त द्रव्य का गुण मानें तो जिन शङ्खादि द्रव्यों से शब्द की उत्पत्ति देखी जाती है उन द्रव्यों को शब्द का आश्रय मानना पड़ेगा, किन्तु शब्द तो उन द्रव्यों से दूर कर्णशष्कुली प्रदेश में उपलब्ध होता है । एवं एक द्रव्य का गुण दूसरे द्रव्य में उपलब्ध नहीं होता है, तस्मात् शब्द स्पर्श से युक्त शङ्खादि द्रव्यों का गुण नहीं है । ( प्र ० ) इन्द्रियाँ संसारमण्डलव्यापी हैं, अतः शङ्खादि देशों में विद्यमान शब्द की ही उपलब्धि होती है । ( उ० ) अगर इन्द्रियाँ संसारमण्डलव्यापी हों तो फिर दूर की और समीप की वस्तुओं के ग्रहण में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए । ( प्र ० ) इन्द्रियाँ यद्यपि व्यापक हैं, किन्तु पुरुषों के उपभोगजनक अदृष्ट से उनमें 'क्षोभ' अर्थात् कार्य करने योग्य क्रिया उत्पन्न होती है । अत: जब अधिष्ठान देश से विषयज्ञान के अनुकूल वृत्तियाँ निकल कर विषयों से सम्बद्ध होती हैं तब इन्द्रियों विषयों का ग्रहण होता है । अतः दूर और समीप की वस्तुओं के समान रूप से ग्रहण की आपत्ति नहीं है । ( उ० ) इन्द्रियाँ विषयग्रहण के का ग्रहण अगर वृत्तियों से होता है तो फिर वे ही इन्द्रियाँ हैं। का भी उपयोग विषयग्रहण में नहीं है । एवं विषय के ग्रहण में अनुपयोगी कोई भी वस्तु इन्द्रिय नहीं हो सकती है । जैसे कि रूप के प्रत्यक्ष के लिए चक्षु की वृत्ति को रूप के प्रदेश में जाना पड़ता है, श्रोत्र की वृत्ति को शब्दश्रवण के लिए उसके प्रदेश में जाने की आवश्यकता नहीं होती है । अगर ऐसा मानें तो रूपादि प्रतीति की तरह शब्द प्रतीति में दिक्सन्देह की उत्पत्ति नहीं होगी । ( अर्थात् यह शब्द पूर्व दिशा
लिए हैं । विषयों उनसे भिन्न किसी
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
स्वाश्रयं परित्यज्य गुणस्यागमनमस्ति, न च शङ्खत्तिना तेनान्तराले शब्द आरब्धव्यः, स्पर्शवद्विशेषगुणस्य स्वाश्रयारब्धे द्रव्ये विशेषगुणान्तरारम्भदर्शनात्, शङ्खारब्धस्य च द्रव्यस्य शङ्कश्रोत्रयोरन्तरालेऽनुपलम्भात् । न चाप्राप्तस्य ग्रहणमस्ति, अतिप्रसङ्गात् । तस्माच्छादिगुणत्वे शब्दस्यानुपलब्धिरेव । अस्ति च तदुपलब्धिः, सैव तस्य द्रव्यान्तरगुणत्वं साधयति, यस्मिन्नन्तरालव्यापिनि शब्दस्य शब्दान्तरारम्भक्रमेण श्रोत्रप्रत्यासन्नस्य ग्रहणं स्यात् ।।
आत्मगुणनिषेधार्थमाह-बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वादिति। श्रोत्रं तावद् बाह्येन्द्रियं नियमेन बाह्यार्थप्रकाशकत्वाच्चक्षुर्वत्, तद्ग्राह्यश्च शब्दस्तत्प्रतीतेस्तद्भावभावित्वात् । यस्तु बाह्येन्द्रियाग्राह्यो नासावात्मगुणो यथा रूपादि:, तस्मादयमपि न तद्गुण इत्यर्थः । इतोऽपि शब्दो नात्मगुण आत्मान्तरग्राह्यत्वादनेकप्रतित्तृसाधारणत्वादित्यर्थः । या खलु वीणावेण्वादिजा शब्दव्यक्तिः सन्ततिसे सुन पड़ा है या पश्चिम दिशा से ? इस सन्देह को उपपत्ति नहीं होगी)। गुण अपने आभय को छोड़कर जा भी नहीं सकता है। शङ्ख का शब्द श्रोत्र और अपने बीच के शब्दों का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि स्पर्श से युक्त द्रव्यों के विशेष गुणों का यह स्वभाव है कि अपने आश्रय से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यों के विशेष गुणों का ही वह उत्पादन करें। शङ्ख से उत्पन्न किसी दूसरे द्रव्य की उपलब्धि शङ्ख और श्रोत्र के बीच में नहीं होती है। तथा इन्द्रियों से असम्बद्ध द्रव्यों का प्रत्यक्ष नहीं होता है, ऐसा मान लेने से चक्षुरादि से रसादि की अथवा व्यवहित या दूरस्थ घटादि के प्रत्यक्षत्व की आपत्ति होगी। तस्मात् शब्द अगर स्पर्श से युक्त द्रव्यों का विशेष गुण हो तो उसकी उपलब्धि ही नहीं होगी। लेकिन उसकी उपलब्धि होती है । यह उपलब्धि ही यह सिद्ध करती है कि शब्द ऐसे द्रव्य का विशेष गुण है जो शङ्खादि द्रव्य एवं श्रोत्ररूप इन्द्रिय के बीच में रहता है। जिससे कि एक शब्द से दूसरा शब्द दूसरे से तीसरा इस प्रकार शब्द की धारा उत्पन्न होकर उस धारा के श्रोत्र में उत्पन्न शब्द श्रोत्र के साथ सम्बद्ध होकर प्रत्यक्ष का विषय होता है।
'शब्द आत्मा का गुण नहीं है' इसका साधक हेतु 'बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इस वाक्य से देते हैं। अभिप्राय यह है कि श्रोत्र बाह्येन्द्रिय है, क्योंकि चक्षुरादि बाह्य इन्द्रियों की तरह वह केवल बाह्य वस्तु का ही प्रकाशक है। शब्द का प्रत्यक्ष श्रोत्र से ही होता है, क्योंकि शब्द प्रत्यक्ष की सत्ता श्रोत्र के अधीन है। जिस गुण का ग्रहण बाह्य इन्द्रिय से होता है वह कभी आत्मा का गुण नहीं हो सकता जैसे कि रूप, तस्मात् शब्द आत्मा का गुण नहीं है। 'आत्मान्त रग्राह्यत्व' हेतु से भी समझते हैं कि शब्द आत्मा का गुण नहीं है। 'आत्मान्तरग्राह्यत्व' शब्द का अर्थ है अनेक
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१४८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली
द्वारेणैकेन पुरुषेण प्रतीयते सैवापरेणापि तद्देशत्तिना प्रतीयते, न त्वेवं सुखादिरित्यात्मगुणवैधान्नात्मगुणः । आत्मन्यसमवायादपि शब्दो नात्मगुणः, रूपादिवत् । आत्मन्यसमवायस्तस्यासिद्ध इति चेत् ? न, रूपादिवद् बहिर्मुखतया प्रतीतेरात्मगुणानाञ्चान्तरत्वेनावगमात् । इतश्च नायमात्मगुणः-अहङ्कारेण अहमितिप्रत्ययेन, विभक्तस्य व्यधिकरणस्य ग्रहणात्, यः खल्वात्मगुणः सोऽहङ्कारसमानाधिकरणो गृह्यते, यथा सुख्यहं दुःख्यहमिति, न त्वेवं शब्दस्य ग्रहणमतो नात्मगुणः । प्रियवागहमिति व्यपदेशोऽस्तीति चेत् ? सत्यम्, किन्तु तदधिष्ठानशीलतया न तु तद्गुणाधिकरणत्वेन, मृदङ्गादिशब्देषु तथा प्रतीत्यभावात् । ___अस्तु तहि दिशः कालस्य मनसो गुणस्तत्राह-श्रोत्रग्राह्यत्वादिति । किमुक्तं स्यात् ? ये दिक्कालमनसामुभयवादिसिद्धाः संयोगादयस्ते श्रोत्रग्राह्या
पुरुषों से (एक ही वस्तु का) गृहीत होना। वीणा, वंशी प्रभृति से उत्पन्न शब्द का शब्दान्तर की उत्पत्ति के धाराक्रम से जैसे एक पुरुष को प्रत्यक्ष होता है, उस देश में विद्यमान और पुरुषों को भी उसी शब्द का उसी क्रम से प्रत्यक्ष होता है। (आत्मा के गुण) सुखादि में यह बात नहीं है। इस प्रकार शब्द में आत्मा के विशेष गुणों का आत्मान्तरानामत्व रूप वैधर्म्य रहने के कारण शब्द आत्मा का गुण नहीं है । आत्मा में शब्द का समवाय न रहने के कारण भी शब्द आत्मा का गुण नहीं है, जैसे कि रूपादि । (प्र०) यही सिद्ध नहीं है कि 'आत्मा में शब्द का समवाय नहीं है' (उ०) रूपादि की प्रतीतियों की तरह शब्द की भी प्रतीति बहिमुखी होती है, किन्तु आत्मा के गुणों की प्रतीति अन्तर्मुखी होती है (तस्मात् शब्द का समवाय आत्मा में नहीं है)। अहम्' प्रतीति में विषय न होने के कारण से भी समझते हैं कि शब्द आत्मा का गुण नहीं है। अहङ्कार' से अर्थात् 'अहम्' इस प्रकार की प्रतीति से शब्द का 'विभक्त ग्रहण' अर्थात् व्यधिकरण ग्रहण होता है । अभिप्राय यह है कि जैसे 'अहं सुखी', 'अहं दुःखी' इत्यादि 'अहम्' घटित वाक्यों से सुख दुःखादि की प्रतीति आत्मा के साथ ही होती है। उस प्रकार 'अहं शब्दवान्' इत्यादि 'अहम्' पदघटित वाक्यों से शब्द की प्रतीति का अभिलाप नहीं होता है । (प्र०) 'मैं प्रिय बोलता हूँ' ऐसा व्यवहार तो होता है । (उ०) इस प्रतीति से इतना ही सिद्ध होता है कि प्रियवाक्य का उच्चारण कर्ता मैं है, इससे आत्मा में प्रियशब्द की अधिकरणता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि मृदङ्गादि के शब्दों में प्रियत्व का व्यवहार होते हुए भी 'मृदङ्गादि प्रियवाक् हैं' इस आकार का व्यवहार नहीं होता है।
फिर शब्द को दिक्, काल और मन इन्हीं तीनों द्रब्यों का ही गुण मान लिया जाय? इसी प्रश्न का समाधानजनक हेतु है श्रोत्र ग्राह्यत्वात् । (प्र०) इस से क्या अभिप्राय निकला ?
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१४६ न्यायकन्दली न भवन्ति, अयन्तु तद्ग्राह्यस्तस्मान्न तद्गुणः । दिक्कालमनसां विशेषगुणो नास्ति, अयन्तु विशेषगुण इतोऽपि तेषां न भवतीत्याह-वैशेषिकगुणभावाच्चेति । शब्दो दिक्कालमनसां गुणो न भवति विशेषगुणत्वात् सुखादिवदिति प्रयोगः ।
नन्वेकस्मिन्नर्थेऽनेकसाधनोपन्यासो व्यर्थः, एकेनैव तदर्थपरिच्छेदस्य कृतत्वादिति चेत् ? किमेकप्रमाणावसिते प्रमाणान्तरवैयर्थ्यं फलाभावात् ? पुरुषेणानपेक्षितत्वाद्वा ? न तावत् फलं नास्ति पूर्ववत्तरत्रापि तदर्थप्रतीतिभावात् । नापि पुरुषस्यानपेक्षा सर्वत्र । यत्रातिशयमाधुर्यात् प्रत्यनुभवं सुखोत्पत्तिः, तत्र दृष्टेऽपि पुनः पुनदर्शनाकाङ्क्षा भवत्येव यथाऽत्यन्तप्रियपुत्रादौ । यत्र त्वनपेक्षा तत्रापि पूर्ववदुत्तरस्यापि कारणसद्भावे सति प्रवृत्तस्य न वैयर्थ्यम्, तद्विषयपरिच्छेदेनैवार्थेनार्थवत्त्वात् । पिष्टपेषणे त्दशक्तभङ्गताप्राप्तौ फलमेव न भवति ।
(उ०) यही कि दिक, काल और मन इन तीनों के जो ससिद्ध संयोगादि गुण हैं उनमें से किसी का भी ग्रहण थोत्र से नहीं होता है। शब्द का ग्रहण श्रोत्र से होता है । तस्मात् शब्द दिगादि तीनों द्रव्यों का भी गुण नहीं है। एवं दिक काल
और मन इन तीनों द्रव्यों में कोई भी विशेष गुण नहीं रहता है। शब्द विशेष गुण है, इस हेतु से भी शब्द उनका गुण नहीं है। 'वैशेषिकगुणभावाच्च' इस हेतुवाक्य से यही न्यायप्रयोग इष्ट है।
(प्र.) एक ही विषय की सिद्धि के लिए अनेक हेतुओं का प्रयोग व्यर्थ है ? (उ०) इस प्रश्न का क्या आशय है ? (१) एक प्रमाण के द्वारा ज्ञात वस्तु के लिए दूसरे प्रमाण का कथन असङ्गत है ? क्योंकि इससे कोई फल नहीं निकलेगा ? या (२) ज्ञाता को एक प्रमाण से ज्ञात वस्तु के ज्ञान के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है ? अतः दूसरे हेतुओं का कथन असङ्गत है ? पहिली युक्ति इसलिए असङ्गत है कि पहिले हेतु की तरह और हेतुओं से भी साध्य के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं होता है। दूसरी युक्ति इस लिए ठीक नहीं है कि सभी जगह एक हेतु से ज्ञात वस्तु का ज्ञान पुरुष को अनभीष्ट ही नहीं होता है, क्योंकि जहाँ अतिमाधुर्य के कारण विषय के प्रत्येक अनुभव में विलक्षण सुख की उत्पत्ति होती है, वहाँ उस विषय के ज्ञान के बाद भी फिर से ज्ञान होने की आकाङ्क्षा बनी ही रहती है, जैसे कि अत्यन्त प्रिय पुत्रादि के विषय में । जहाँ एक हेतु से ज्ञात वस्तु का ज्ञान अनपेक्षित भी है, वहां भी प्रथम हेतु के समान द्वितीय हेतु में भी ज्ञापकत्व समान रूप से है ही, अतः दूसरे हेतु के प्रयोग की प्रवृत्ति भी व्यर्थ नहीं है, क्योंकि अभीष्ट विषय का ज्ञापकत्व ही प्रयोग की सार्थकता है। वह दूसरे हेतुओं के प्रयोगों में भी है ही । (प्र०) पिसी हुई वस्तु को अगर फिर से पीसने की प्रवृत्ति ठीक हो, तो
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२५.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली
अन्यदपि प्रमाणविषयपरिच्छेदमात्रमेवार्थक्रियाया विषयसाध्यत्वात । एकपरिच्छिन्ने द्वितीयस्य साधकतमत्वाभाव इति चेत् ? न, स्वकार्ये तस्यैव साधकतमत्वात् । अन्यथा धारावाहिकं ज्ञानमप्रमाणं स्यात्, विषयस्यानतिरेकात् । प्रतिज्ञानञ्च कालक्षणानाम्मतिसूक्ष्माणामप्रतिभासनात् । न चैवं सत्यनवस्था, उपायाभावे सति विरामादित्यलम्।
__ ननु यदि नाम पृथिव्यादिद्रव्याष्टकगुणः शब्दो न भवति तथाप्याकाशस्य सद्भावे किमायातम् ? तत्राह-परिशेषादिति । गुणः शब्दः, गुणश्च गुणिना बिना न भवति, न चैष पृथिव्यादीनां गुणः, द्रव्यान्तरञ्च नास्ति, तस्माद्यस्यायं गुणस्तदाकाशमिति परिशेषादाकाशस्याधिगमे प्रतिपत्तौ लिङ्गमित्यर्थनिर्देशः । प्रयोगः पुनरेवं द्रव्यान्सरगुणः शब्दो गुणत्वे सति पृथिव्याद्यष्टद्रव्यानाश्रितत्वाद् यस्तु
समाप्ति कभी नहीं होगी, अतः एक हेतु से ज्ञात वस्तु के पुनर्ज्ञापन के लिए दूसरे हेतुओं का प्रयोग व्यर्थ है, क्योंकि अर्थविषयक ज्ञान को छोड़कर हेतु प्रयोग का कोई दूसरा फल भी नहीं है। प्रवृत्ति विषय से होती है, अतः एक प्रमाण से ज्ञात वस्तु के ज्ञान का दूसरा हेतु 'साधकतम' नहीं है। (उ०) (उस प्रमाण से उत्पन्न तद्विषयक दूसरे ज्ञानरूप) अपने कार्य के प्रति वही साधकतम है, अन्यथा सभी धारावाहिक ( कुछ क्षणों तक निरन्तर उत्पन्न होनेवाले एकविषयक अनेक ) ज्ञान अप्रमा हो जायेंगे क्योंकि उन सभी ज्ञानों का विषय एक ही है। प्रत्येक ज्ञान के आश्रयीभूत प्रत्येक क्षण भी उन धारावाहिक ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं। इसी कारण से दूसरे हेतुओं के प्रयोग में अनवस्था दोष भी नहीं है, क्योंकि उपाय के समाप्त हो जानेपर हेतुप्रदर्शन की यह प्रवृत्ति भी समाप्त हो जाएगी। इस विषय में अब इतना ही बहुत है।
शब्द अगर पृथिवी प्रभृति आठ द्रव्यों का गुण न भी हुआ, तथापि इससे यह कैसे समझा जाय कि यह आकाश का ही गुण है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'परिशेषात्' इत्यादि से देते हैं। अभिप्राय यह है कि शब्द गुण है, गुण द्रव्य के बिना नहीं रह सकते । शब्द पृथिवी प्रभृति आठ द्रव्यों का गुण नहीं है । इनसे भिन्न कोई द्रव्य (सिद्ध) नहीं है। तस्मात् शब्दरूप गुण का आश्रय ही आकाश है। आकाश के इस परिशेषानुमान में हेतु है 'शब्द' । 'प्रत्यक्षत्वे सति' यहाँ से लेकर आकाशस्याधिगमे लिङ्गम्' यहाँ तक के भाष्यग्रन्थ का यही आशय है। इस विषय में अनुमान प्रयोग इस प्रकार है कि शब्द पृथिवी प्रभृति आठ द्रव्यों से भिन्न किसी द्रव्य का गुण है, क्योंकि गुण होने पर भी वह पृथिव्यादि आठ द्रव्यों में आश्रित नहीं है। जो पृथिवी प्रभृति आठ द्रव्यों से भिन्न द्रव्य
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
शब्दलिङ्गा विशेशादेकत्वं सिद्धम् । तदनुविधानादेकपृथक्त्वम् । विभववचनात् परममहत्परिमाणम् । शब्दकारणत्ववचनात् संयोगविभागाविति । अतो गुणवत्त्वादनाश्रितत्वाच्च द्रव्यम् । समानासमानजातीय
१५१
.
सर्वत्र आकाश में चूँकि शब्दरूप चिह्न समान रूप से है, अतः आकाश में एकत्व की सिद्धि होती है। चूँकि आकाश में एकत्व है, अतः एकपृथक्त्व भी है । "विभववान् महानाकाशस्तथा चात्मा' (७।१।२२ ) इस सूत्र के द्वारा आकाश को वैभवयुक्त कहने के कारण इसमें परममहत् परिमाण भी समझना चाहिए । संयोगाद्विभागात् शब्दाच्च शब्दनिष्पत्तिः " ( २२|३१ ) महर्षि ने इस सूत्र द्वारा चूँकि संयोग और विभाग को शब्द का कारण कहा है, अतः उसमें संयोग
के
न्यायकन्दली
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द्रव्यान्तरगुणो न भवति नासौ गुणत्वे सति पृथिव्याद्यष्टद्रव्यानाश्रितो यथा रूपादिरिति व्यतिरेकी ।
सद्भावप्रतिपादकादेव प्रमाणादाकाशस्य शब्दगुणत्वं तावत् प्रतीतम् । सम्प्रति सङ्ख्यादिगुणत्वप्रतिपादनार्थमाह - शब्दलिङ्गाविशेषादिति । शब्दो लिङ्गमाकाशस्य शब्दश्च सर्वत्राविशिष्ट एक इत्येकरूपमेवाकाशं सिद्धयति, भेदप्रतिपादकप्रमाणाभावादित्यर्थः । ननु शब्दोऽपि तारतरादिरूपेण विविध एव ? सत्यम्, न तु तेन रूपेणास्य लिङ्गता, किन्तु गुणत्वेन तच्चाविशिष्टं नाश्रयभेदावगमाय प्रभवति, एकस्मादप्याश्रयात् कारणभेदेन तारतरादिभेदस्य शब्दस्योत्पत्त्यविरोधात् । का गुण नहीं है, वह पृथिवी प्रभृति आठ द्रव्यों में अनाश्रित भी नहीं है, जैसे कि रूपादि । इस प्रकार शब्द आकाश का साधक व्यतिरेकी हेतु है । आकाश की सत्ता ज्ञापक प्रमाण से यह भी ज्ञात हो गया कि शब्द आकाश का गुण है । 'शब्दलिङ्गाविशेषात्' इत्यादि वाक्य से अब यह प्रतिपादन करते हैं कि संख्यादि गुण भी आकाश में हैं । अभिप्राय यह है कि शब्द आकाश का लक्षण है । शब्द सभी स्थानों के आकाश में एक ही प्रकार से है, अतः एक रूप से हो आकाश की सिद्धि होती है, क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि 'आकाश परस्पर भिन्न हैं और अनेक हैं । (प्र०) उच्चमन्दादि भेद से शब्द तो अनेक हैं । ( उ० ) यह ठीक है कि उच्चमन्दादि भेद से शब्द अनेक प्रकार के हैं, किन्तु मन्दत्वादि उक्त विभिन्न रूपों से तो वह आकाश का लक्षण नहीं है, गुणत्व रूप से ही शब्द आकाश का लक्षण है । गुणत्व तो सभी शब्दों में समान रूप से ही है । तस्मात् मन्दत्वादि भेद से शब्द का अनेकत्व आकाश के अनेकत्व का ज्ञापक नहीं हो सकता, क्योकि एक ही आश्रय में उक्त अनेक प्रकार के शब्दों की उत्पत्ति हो सकती है, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
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૨
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आकाश
प्रशतपादभाष्यम् कारणाभावाच्च नित्यम् । सर्वप्राणिनाञ्च शब्दोपलब्धौ निमित्तं श्रोत्रभावेन । श्रोत्रं पुनःश्रवणविवरसंज्ञको नभोदेशः, शब्दनिमित्तोपभोगप्रापकधर्माधर्मोपनिबद्धः। तस्य च नित्यत्वे सत्युपनिबन्धकवकन्याद्बाधिर्यमिति। और विभाग भी समझना चाहिए । गुणवत्त्व और अनाश्रितत्व ( स्वातन्त्र्य ) इन दो हेतुओं से आकाश में द्रव्यत्व की सिद्धि होती है। चूंकि आकाश का समानजातीय या असमानजातीय कोई भी कारण नहीं है, अतः वह नित्य है । श्रोत्ररूप में परिणत होकर वह सभी प्राणियों के शब्दप्रत्यक्ष का कारण है। श्रवण विवर नाम का आकाश प्रदेश ही श्रोत्रेन्द्रिय है। यह श्रोत्र जीव के शब्दप्रत्यक्षमूलक उपभोग के जनक धर्म और अधर्म के साथ सम्बद्ध है, अतः आकाश रूप होने के कारण नित्य होने पर भी धर्म और अधर्म के अभाव से ही उसमें बहरापन आता है।
न्यायकन्दली तदनुविधानादेकपृथक्त्वमिति । एकत्वानुविधानादेकपृथक्त्वम् । अस्ति चाकाशे भेदप्रतिपादकप्रमाणाभावात् सर्वसिद्धमेकत्वम्, तेन पृथक्त्वमपि सिद्धमित्यर्थः । केचिद्वस्तुनो निजं स्वरूपमेवैकत्वम्, न तु सङ्ख्याविशेष इत्याहुः । तेषामेको घट इति सहप्रयोगानुपपत्तिः पर्यायत्वात् । येऽपि पदार्थानां स्वाभाविकमेकपृथक्त्वमित्याहुः, तेषामपि प्रतियोग्यनुसन्धानरहितस्यैकत्वविकल्पवत् पृथक्त्वविकल्पोऽपि प्राप्नोति, न चैवं स्यात्, अयमस्मात् पृथगिति पृथक्त्वस्य विकल्पनात् । तस्मान्न तयोरेकत्वम्।
आकाश में एकत्व के रहने से यह भी समझते हैं कि उसमें एक पृथक्त्व भी है। अभिप्राय यह है कि आकाश में अनेकत्व का ज्ञापक कोई प्रमाण नहीं है, अतः आकाश में एकत्व फलतः सर्वसिद्ध ही है । एवं एकत्व के रहने से आकाश में एकपृथक्त्व भी है ही। कोई कहते हैं कि (प्र०) द्रव्यों में प्रतीत होनेवाला एकत्व अपने आश्रयीभूत द्रव्य का ही स्वरूप है अतः संख्या नाम का कोई गुण नहीं है । (उ०) किन्तु उनके मत में 'यह एक घट है' इस प्रकार एक वाक्य में एक साथ 'एक' शब्द और 'घट शब्द का प्रयोग अनुपपन्न हो जाएगा। क्योंकि उक्त मत में 'एक' शब्द और 'घट' शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक होंगे। कोई कहते हैं कि (प.) पृथक्त्व नाम का कोई गुण नहीं है, जिसमें पृथक्त्व की प्रतीति होती है, पृथक्त्व उस आश्रय से अभिन्न है। अतः पृथक्त्व अपने आश्रय का ही त्वरूप है । (उ.) किन्तु पृथक्त्व की प्रतीति उसके प्रति योगो की प्रतीति के साथ ही होती है । प्रतियोगी के ज्ञान से रहित पुरुषों को पृथक्त्व का ज्ञान नहीं होता है, अतः एकत्व के ज्ञान को तरह पृथक्त्व का ज्ञान भी बिना प्रतियोगी के ही होना चाहिए। चूंकि 'इससे यह पृथक् है, इस प्रकार की प्रतीति होती है, अतः पृथक्त्व और उसका आश्रय दोनों एक नहीं हैं।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
विभववचनात् परममहत्परिमाणमिति । द्रव्यत्वादावाकाशस्य परिमाणयोगित्वे सिद्धे "विभववान् महानाकाशः" इति सूत्रकारवचनात् परममहत्त्वमाकाशे सिद्धम् । यद्विभु तत्परममहद्, यथात्मा, विभु चाकाशं, तस्मादेतदपि परममहत् । विभुत्वं सर्वगतत्वं तदाकाशस्य कुतः सिद्धमिति चेत् ? सर्वत्र शब्दोत्पादात्, यद्याकाशं व्यापकं न भवति, तदा सर्वत्र शब्दोत्पत्तिर्न स्यात्, समवायिकारणाभावे कार्योत्पत्त्यभावात्। दिवि भुव्यन्तरिक्षे चोपजाताः शब्दा एकार्थसमवेताः, शब्दत्वात्, श्रूयमाणाद्यशब्दवत्, श्रयमाणाद्यशब्दयोश्चैकार्थसमवायः कार्यकारणभावेन प्रत्येतव्यो व्यधिकरणस्यासमवायिकारणत्वाभावात् ।
शब्दकारणत्ववचनात् संयोगविभागाविति । 'संयोगाद्विभागाच्छब्दाच्च शब्दस्य निष्पत्तिः" इति सूत्रेणाकाशगुणं शब्दं प्रति संयोगविभागौ कारणमित्युक्तम् । तेनाकाशे संयोगविभागौ सिद्धौ व्यधिकरणस्यासमवायिकारणत्वा
"सूत्रकार ने चूकि आकाश को विभु कहा है, अतः उसमें परममहत्परिमाण को सिद्धि होती है" अभिप्राय यह है कि चूंकि आकाश द्रव्य है, अतः उसमें परिमाण है। इस प्रकार परिमाण सामान्य के सिद्ध हो जाने पर "विभववान् महानाकाशः” सूत्रकार की इस उक्ति से आकाश में परममहत्परिमाण की सिद्धि होती है । जो विभु है वह अवश्य ही परममहत्परिमाण से युक्त है, जैसे कि आत्म। । आकाश विभु है, अतः वह भी परममहत्परिमाण से युक्त है। (प्र०) सभी मूर्त द्रव्यों के साथ संयोग ही 'विभुत्व' है। वह आकाश में किस हेतु से सिद्ध है ? (उ०) सभी स्थानों में शब्दों की उत्पत्ति से। अगर आकाश व्यापक न हो तो सभी स्थानों में शब्दों की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि समवायिकारण के न रहने से (समवेत) कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन सबों में उत्पन्न सभी शब्द एक ही द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से हैं, क्योंकि सभी 'शब्द' हैं, जैसे कि श्रयमाण शब्द और प्रथम शब्द । 'श्रूयमाण शब्द और उसका उत्पादक पहिला शब्द दोनों एक ही आश्रय में रहते हैं यह इसी से अनुमान करना चाहिए कि पहिला शब्द श्रूयमाण शब्द का कारण है। क्योंकि विभिन्न स्थानों में रहनेवाली एवं विभिन्न स्थानों में उत्पत्तिशील वस्तु उस स्थान में उत्पन्न होनेवाली वस्तु का असमवायिका रण नहीं हो सकती है।
"सूत्रकार ने चूकि आकाश को शब्द का कारण कहा है, अतः आकाश में संयोग और विभाग ये दोनों गुण भी सिद्ध होते हैं।" अर्थात् "संयोगात् विभागात शब्दाच्च शब्दस्य निष्पत्तिः” इस सूत्र से यह कहा है कि आकाश के गुण शब्द के संयोग और विभाग असमवायिकारण हैं। इसी से आकाश में संयोग और विभाग की भी सिद्धि होती है, क्योंकि एक आश्रय में रहनेवाली वस्तु किसी दूसरे आश्रय में
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१५४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली
भावात् । अतो गुणवत्त्वादनाश्रितत्वाच्च द्रव्यम् । यत आकाशं गुणवद् अतो गुणवत्त्वाद् द्रव्यं घटादिवत्, न केवलं गुणवत्त्वादाकाशं द्रव्यमनाश्रितत्वाच्च परमाणुवत्। समानासमानजातीयकारणाभावाच्च नित्यमिति । समानजातीयं समवायिकारणमसमानजातीयमसमवायिकारणं निमित्तकारणञ्च तेषामभावान्नित्यम्। सर्वप्राणिनां शब्दोपलब्धौ निमित्तमिति । नन्वेवं सर्वेषां सर्वशब्दोपलब्धिराकाशस्य सर्वत्राविशेषादत आह-श्रोत्रभावेनेति। किं पुनः श्रोत्रं तत्राहश्रोत्रं पुनरिति। श्रूयतेऽनेनेति श्रवणं, श्रवणञ्च तद्विवरञ्चेति श्रवणविवरं, तदेव संज्ञा यस्य नभोदेशस्य स नभोदेशः श्रोत्रम्, तत्पिधाने शब्दस्यानुपलम्भात् । तस्य विशेषणमाह-शब्दनिमित्तेत्यादिना । शब्दनिमित्त उपभोगः सुखदःखानुभवस्तस्य प्रापकाभ्यां धर्माधर्माभ्यामुपनिबद्धः सहकृत इति । अयमर्थः-यस्य बाबकैकेन्द्रियग्राह्यविशेषगुणग्राहकं यदिन्द्रियं तत्तद्गुणकं यथा रूपग्राहकं चक्षुरूपाधिकरणम्, श्रोत्रञ्च तथाभूतस्य शब्दस्य ग्राहक तस्मात्तदपि शब्दगुणकम् ।
रहनेवाली वस्तु का असमवायिकारण नहीं हो सकती। आकाश चूंकि गुणवान् है और स्वतन्त्र है, अतः द्रव्य है। आकाश में चूंकि गुण है, अतः वह द्रव्य है। केवल गुण ही आकाश में द्रव्यत्व का साधक नहीं है, यतः आकाश 'अनाश्रित' अर्थात स्वतन्त्र है, इसलिए भी वह द्रव्य है, जैसे कि परमाणु ! चूंकि उसका समानजातीय अथवा असमानजातीय कोई भी कारण नहीं है, अतः वह नित्य है (द्रव्य का) समवायिकारण समानजातीय कारण है, एवं असमवायिकारण और निमित्तकारण दोनों (द्रव्य के) असमानजातीय कारण हैं। आकाश के इन दोनों में से कोई भी कारण उपलब्ध नहीं है, अतः आकाश नित्य है। वह सभी प्राणियों के शब्दप्रत्यक्ष का कारण है। (प्र०) इस प्रकार तो सभी शब्दों का प्रत्यक्ष चाहिए? क्योंकि आकाश तो सर्वत्र समानरूप से विद्यमान है। इसीलिए कहा है 'श्रोत्रभावेन', अर्थात् श्रोत्ररूप से ही आकाश शब्दप्रत्यक्ष का कारण है। धोत्र किसे कहते हैं ? इस प्रश्न का समाधान 'भोत्रं पुनः' इत्यादि से कहते हैं। 'श्रवणविवरसंज्ञकम्' इस समस्त वाक्य का विग्रह यों है कि 'श्रवणञ्च तद्विवरञ्चेति भवणविवरम्, तदेव संज्ञा यस्य' अर्थात् शब्दप्रत्यक्ष का कारण विवर' रूप आकाश ही 'श्रोत्र' है, क्योकि उस विवर के ढंक जानेपर शब्द का प्रत्यक्ष नहीं होता है । 'शब्दनिमित्त' इत्यादि से उसका विशेश कहते हैं । शब्दमूलक 'उपभोग' अर्थात् सुखदुःखानुभव के प्रापक जो धर्माधर्म हैं, उनसे युक्त होकर ही श्रोत्र इन्द्रिय है । अभिप्राय यह है कि एक ही बाह्य इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले जितने भी विशेष गुण हैं, उनकी ग्राहक इन्द्रियाँ भी तत्तद्विशेष गुण से युक्त हैं। जैसे रूप की ग्राहक चक्षुरिन्द्रिय रूप से युक्त है, उसी प्रकार श्रोत्र भी शब्द प्रत्यक्ष का कारण होने से शब्द से युक्त है । अतः उसमें
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प्रकरणम् भाषानुवादसहितम्
१५५ प्रशस्तपादभाष्यम् कालः
परापरव्यतिकरयोगपचायोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गम् । तेषां विषयेषु पूर्वप्रत्ययविलक्षणानामुत्पत्तावन्यनिमित्ता
( एक ही वस्तु में ) परत्व और अपरत्व का वैपरीत्य, एककालिकत्व, एवं विभिन्नकालिकत्व, विलम्ब एवं शीघ्रता इन सबों की प्रतीति रूप हेतुओं से काल का अनुमान होता है। इनमें से प्रत्येक प्रतीति शेष प्रतीतियों से विलक्षण है।
न्यायकन्दली शब्दश्चाकाशगुण इति निर्णीतम, तेनाकाशमेव तावच्छोत्रं, तच्च व्यापकमपि न सर्वत्र शब्दमुपलम्भयति प्राणिनामदृष्टवशेन कर्णशष्कुल्यधिष्ठाननियतस्यैव तस्येन्द्रियत्वात्, यथा सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वं नान्यत्र, शरीरस्योपभोगार्थत्वात्, अन्यथा तस्य वैयर्थ्यात् । नन्वेवमपि बधिरस्य शब्दोपलब्धिः स्यात् कर्णशष्कुलीसद्भावादत्राह-तस्य चेति। तस्याकाशस्य नित्यत्वेऽप्युपनिबन्धकयोधर्माधर्मयोः सहकारिभूतयोर्वकल्यादभावाद् बाधिर्यम् । इतिशब्दः समाप्तौ।
कालस्य निरूपणार्थमाह-काल इति। दिगविशेषापेक्षया यः परस्तस्मिन्नपर इति प्रत्ययः, यश्चापरस्तस्मिन् पर इति प्रत्ययः परापरयोर्व्यतिकरो व्यत्ययः। तथा च युगपत्प्रत्ययोऽयुगपत्प्रत्ययश्च, क्षिप्रप्रत्ययश्चिरप्रत्ययश्च काल
भी शब्द रूप विशेष गण है। यह निर्णय कर चुके हैं कि शब्द आकाश का गुण है, अतः श्रोत्रेन्द्रिय आकाश रूप ही है। व्यापक होने पर भी उससे सर्वत्र सभी शब्दों का प्रत्यक्ष नहीं होता है, क्योंकि प्राणियों के धर्म और अधर्म से कर्णशष्कुल्यवच्छिन्न आकाश में ही इन्द्रियत्व है। जैसे कि आत्मा में सभी मूर्त द्रव्यों के साथ समान रूप से संयोग रहनेपर भी देहप्रदेशविशिष्ट आत्मा में ही ज्ञान का कत्तुं त्व है और प्रदेशों के साथ संयुक्त आत्मा में नहीं, क्योंकि शरीररूप द्रव्य ही भोग का आयतन है। अन्यथा उसकी और कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। (प्र०) इस प्रकार
बहरे आदमियों को भी शब्द का प्रत्यक्ष होना चाहिए? इस प्रश्न का समाधान 'तस्य च' इत्यादि से देते हैं । 'तस्य' अर्थात् आकाश रूप होने के कारण श्रोत्र के नित्य होनेपर भी उसके सहायक धर्म और अधर्म से ही आदमी बहरे होते हैं। यहां 'इति' शब्द समाप्ति का सूचक है ।
काल का निरूपण करने के लिए 'काल' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं। जैसे कि एक स्थान किसी दिशा की अपेक्षा दूर है, उसीमें फिर दूसरी दिशा विशेष की अपेक्षा सामीप्य की भी प्रतीति होती है। एवं कोई स्थान किसी विशेष दिशा से समीप है, उसीमें किसी विशेश दिशा से दूरत्व की भी प्रतीति होती है। यही पर और अपरत्व का 'व्यतिकर' अर्थात् व्यत्यय है। एककालिकत्व और विभिन्नकालिकत्व
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१५६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये काल
प्रशस्तपादभाष्यम् भावाद्यदत्र निमित्तं स कालः । सर्वकार्याणाञ्चोत्पत्तिस्थितिविनाशहेतुस्तद्व्यपदेशात् । क्षणलवनिमेषकाष्ठाकलामुहूर्तयामाहोरात्रार्द्ध मासमासत्वंयनसंवत्सरयुगकल्पमन्वन्तरप्रलयमहाप्रलयव्यवहारहेतुः। प्रतीतिगत इन वैलक्षण्यों का कोई कारण अवश्य है, उसी को 'काल' कहते हैं। यह सभी उत्पत्तियों और विनाशों का कारण है, क्योंकि सभी उत्पत्ति और विनाश काल से युक्त होकर ही कहे जाते हैं। यह क्षण, लव, निमेष, काष्ठा, कला, मुहूर्त, याम, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, कल्प, मन्वन्तर, प्रलय और महाप्रलय इन सबों के व्यवहार का कारण है।
न्यायकन्दली लिङ्गम् । ननु कालस्याप्रत्यक्षत्वात् तेन सह परापरादिप्रत्ययानां व्याप्तिग्रहणाभावात् कुतो लिङ्गत्वमत आह-तेषामिति। तेषां युगपदादिप्रत्ययानां विषयेषु द्रव्यादिषु पूर्वप्रत्ययविलक्षणानां द्रव्यादिप्रत्ययविलक्षणानामुत्पत्तावन्यस्य निमित्तस्याभावात्। एतदुक्तं भवति-द्रव्यादिषु विषयेषु पूर्वापरादिप्रत्यया जायन्ते, न चैषां द्रव्यादयो निमित्तं तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात्, न च निमित्तमन्तरेण कार्यस्योत्पत्तिरस्ति, तस्माद्यदत्र निमित्तं स काल इति ।
आदित्यपरिवर्तनाल्पीयस्त्वभूयस्त्वनिबन्धनो युवस्थविरयोः परापरव्यवहार इत्येके, तदयुक्तम्, आदित्यपरिवर्तनस्य युवस्थविरयोः सम्बन्धाभावादसम्बद्धस्य निमित्तत्वे चातिप्रसङ्गात् । इन दोनों की प्रतीतियाँ भी काल की ज्ञापक हेतु हैं। (प्र०) काल का तो प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः उन प्रतीतियों के साथ उसकी व्याप्ति गृहीत नहीं हो सकती हैं। अतः वे किस प्रकार हेतु हो सकती हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर 'तेषाम्' इत्यादि से देते हैं। 'तेषाम' काल के ज्ञापक उन प्रतीतियों के विषय द्रव्यादि से विलक्षण इस ज्ञान की उत्पत्ति में काल को छोड़कर और कोई भी कारण नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि द्रव्यादि विषयों में परत्व और अपर स्व की प्रतीतियाँ होती हैं। उनके कारण वे द्रव्य नहीं हैं, क्योंकि केवल द्रव्यादि विषयक प्रतीतियों से परत्वादि विषयक प्रतीति विलक्षण आकार की होती है । निमित्त के बिना कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। तस्मात् उन ( विलक्षण ) प्रतीतियों का कारण ही 'काल' है।
कोई कहते हैं कि सूर्य की गति की अधिकता एवं न्यूनता से ही वृद्ध और युवक में परत्व एवं अपरत्व की प्रतीति होती है, किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि सूर्य की गति के साथ उस वृद्ध और युवक का कोई भी सम्बन्ध नहीं है । असम्बद्ध पदार्थ को कारण मानने से अतिप्रसङ्ग होगा।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१५७ न्यायकन्दली सहभावो यौगपद्यमित्यपरे, तदसङ्गतम्, कालानभ्युपगमसहार्थाभावात् । कस्याञ्चित् क्रियायां भावानामन्योन्यप्रतियोगित्वं सहार्थ इति चेन्न, अनुत्पन्नस्थितनिरुद्धानामन्योन्यप्रतियोगित्वाभावात् सहभवताञ्च प्रतियोगित्वे कालस्याप्रत्याख्यानमेवेत्युक्तम् । एवमयुगपदादिप्रत्यया अपि समर्थनीयाः । कालस्याभेदात् कथं प्रत्ययभेद इति चेत् ? सामग्रीभेदात्, वस्तुद्वयस्योत्पादसद्भावयोर्यदेकेन ज्ञानेन ग्रहणं तत्सहकारिणा कालेन परापरप्रत्ययौ जन्येते, भूयसामुत्पादव्यापारयोरेकग्रहणसहकारिणा युगपत्प्रत्ययः, कार्यस्योत्पादविनाशयोरन्तत्तिनां क्रियाक्षणानां भूयस्त्वाल्पीयस्त्वग्रहणसहकारिणा चिरक्षिप्रप्रत्ययाविति यथासम्भवं वाच्यम् । ननु तत्तन्निबन्धन एवास्तु प्रत्ययभेदः कृतं कालेन ? न, असति तस्मिन् वस्तूत्पादाभावात् । न तावदत्यन्तसतो गगनस्योत्पादः, नाप्यत्यन्तासतो नरविषाणस्य, किन्तु प्रागसतः। कालासत्त्वे चाभावविशेषणस्य प्राक्शब्दार्थस्याभावान्नायं विशेषः
कोई कहते हैं कि एक साथ रहना ही 'योगपद्य' है एक कालिकत्व नहीं, किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि काल के न मानने पर 'सह' शब्द का कुछ अर्थ ही नहीं होता है। (प्र०) किसी क्रिया में अनेक वस्तुओं का अविरोधित्व ही 'सह शब्द का अर्थ है । ( उ०) जिसकी उत्पत्ति नहीं हुई है, एवं जो विद्यमान है, एवं जिसका नाश हो गया है, इन तीनों में परस्पर विरोध की कोई सम्भावना ही नहीं है। एक साथ होनेवाले पदार्थों में अगर परस्पर विरोध माने तो एक काल का न मानना असम्भव ही है। इसी प्रकार अयोगपद्य विषयक प्रतीति का भी समर्थन करना चाहिए । (प्र०) काल अगर एक ही है तो तन्मूलक प्रतीतियों में अन्तर क्यों है ? ( उ० ) कारणों ( सामनी) के भेद से । एक वस्तु की उत्पत्ति और दूसरी वस्तु को स्थिति इन दोनों का एक ज्ञान से ग्रहण ही परत्व और अपरत्व की प्रतीति है। यह प्रतीति अपने सहकारी कारण 'काल' से उत्पन्न होती है। बहुत सी वस्तुओं के उत्पादन आदि व्यापारों के एक ज्ञान का सहकारिकाणीभूत 'काल' से ही युगपत्प्रत्यय होता है। कार्यों की उत्पत्ति और विनाश के बीच की क्रियाओं के आधार जितने क्षण हैं, उन्हीं की न्यूनता और अधिकता से विलम्बत्व और क्षिप्रत्व की प्रतीति होती है । इसी प्रकार और भी कल्पना करनी चाहिए । (प्र०) (सहकारी काल के अतिरिक्त उनके और) निमित्तों से ही उन विलक्षण (युगपदादि) प्रत्ययों की उत्पत्ति हो ? (उ०) काल की सत्ता न मानने से सभी वस्तुओं की उत्पत्ति ही अनुपपन्न हो जाएगी, क्योंकि अत्यन्त 'सत्' वस्त की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे कि गगनादि की, अत्यन्त असत वस्तु को भी उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे कि नरविषाण की। किन्तु 'प्रागसत्' अर्थात् पहिले से अविद्यमान वस्तु की ही उत्पत्ति होती है। अगर 'काल'
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[द्रव्य काल
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
सिद्धयतीति न कस्यचिदुत्पत्तिः स्यात् । अप्रत्यक्षेण कालेन कथं विशिष्टा प्रतीतिरिति चेत् ? तत्राह कश्चित्-विशिष्टप्रत्ययस्योत्पत्ताविन्द्रियवत् कारणत्वं कालस्य, न तु दण्डवद् विशेषणत्वमिति, तद्सारम्, बोधैकस्वभावस्य ज्ञानस्य विषयसम्बन्धमन्तरेण विशेषणान्तराभावात्। तस्मादन्यथोच्यते । युवस्थविरयोः शरीरावस्थाभेदेन तत्कारणतया कालसंयोगेऽनुमिते सति पश्चात्तयोः कालविशिष्टतावगतिः प्रत्येतुरेकत्वात्, प्रमाणान्तरोपनीतस्यापि विशेषणत्वाविरोधात्, यथा सुरभि चन्दनमिति । यथा वा मीमांसकानामघट भूतलमिति, घटादिषु तु मूर्त्तद्रव्यत्वेनावस्थाभेदेन वा शरीरवत् कालसम्बन्धेऽनुमिते तद्विशिष्टो युगपदादिप्रत्ययो जातः । पश्चात् कार्यत्वादिविप्रतिपन्नं प्रति काललिङ्गत्वमित्यनवद्यम् ।
की सत्ता न रहे तो 'प्रागसत्' शब्द के अर्थ उस अभाव विशेषार्थक असत् शब्द में विशेषण रूप प्राक्' शब्द का कुछ अर्थ ही नहीं होता है । इससे अनुत्पत्तिशील गगनादि और अत्यन्त असत् नरविषाणादि से उत्पत्तिशील घटादि में प्रागसत्त्व' रूप विशेष की सिद्धि नहीं होगी, अतः उन्हीं अनुत्पत्तिशील वस्तुओं की तरह और सभी वस्तुओं का उत्पादन असम्भव हो जाएगा। (प्र०) अप्रत्यक्ष काल रूप विशेषण से युक्त प्रागसत्त्व रूप विशेषण का ज्ञान ही कैसे होगा ? इस प्रश्न का समाधान कोई यों देते हैं कि प्रागसत्त्व की विशिष्ट प्रतीति में काल इन्द्रियों की तरह 'सामान्य' कारण है, दण्डादि की तरह विशेष नहीं। (उ० ) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बोधमात्र स्वभाव के ज्ञानों में विषयों के सम्बन्ध को छोड़कर परस्पर भेद का कोई प्रयोजक नहीं है, अतः उक्त आक्षेप का दूसरा समाधान कहते हैं। बालक और वृद्ध के शरीर की विभिन्न अवस्थाओं से शरीरभेद का अनुमान होता है। एवं इस विभिन्नशरीरता के कारण रूप से काल का अनुमान होता है। उन शरीरों में कालविशिष्टता की प्रतीति होती है। क्योंकि ज्ञाता एक ही है। प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाणों से ज्ञात अर्थों को भी विशेषण मान लेने में कोई बाधा नहीं है। जैसे कि 'सुरभि चन्दनम्' इत्यादि स्थलों में, अथवा मीमांसकों के अघटं भूतलम्' इत्यादि स्थलों में। धटादि द्रव्यों में उक्त शरीर की तरह, अथवा मूर्तद्रव्यत्व हेतु से काल का संयोग अनुमित होनेपर एककालिकत्व ( योगपद्य ) की प्रतीति होती है । उसके बाद काल रूप कारण उन प्रतीतियों से काल का अनुमान होता है। इस प्रकार काल की सत्ता के प्रसङ्ग में विरुद्ध मत रखनेवाले पुरुष को काल की सत्ता समझाने के लिए इन योगपद्यादि प्रतीतियों को हेतु मानने में कोई बाधा नहीं है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
१५६
प्रशस्तपादभाष्यम्
तस्य गुणाः सङ्ख्यापरिमाणपृथकत्वसंयोगविभागाः । काललिङ्गाविशेषादेकत्वं सिद्धम् । तदनुविधानात् पृथक्त्वम् । कारणे काल इति
इसमें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये पाँच गुण हैं। कालप्रतीति के ज्ञापक हेतु चूंकि सभी स्थलों में समानरूप से हैं, अतः वह एक ही है। एवं चूँकि उसमें एकत्व संख्या है, अतः पृथक्त्व भी है । "कारणे कालाख्या' ( ७।१।१५) इस सूत्र के बल से इसमें
न्यायकन्दली सर्वकार्याणाञ्चोत्पत्तिविनाशहेतुः । अत्र युक्तिमाह-तव्यपदेशादिति । तेन कालेनोत्पत्त्यादीनां व्यपदेशात् उत्पत्तिकालो विनाशकाल इत्यादिव्यपदेशात् कालस्य तत्र हेतुत्वमित्यर्थः । कार्यान्तरमपि तस्य कथयतिक्षणलवेत्यादि । निमेषस्य चतुर्थो भागः क्षणः, क्षणद्वयेन लवः, अक्षिपक्ष्मकम्र्मोपलक्षितकालो निमेष इत्यादिगणितशास्त्रानुसारेण प्रत्येतव्यम् ।
एवं धम्मिणि सिद्ध तस्य गुणान् कथयति-तस्य गुणा इति । कालस्य द्रव्यत्वात् सङ्घयादियोगे सिद्धे तद्विशेषप्रतिपादनार्थमाह-काललिङ्गाविशेषादिति । कालस्य लिङ्गानां युगपदादिप्रत्ययानामविशेषादेकत्वम्, कालस्य भेदे प्रमाणान्तराभावादित्यर्थः । ननु युगपदादिप्रत्ययभेद एव तद्भेदप्रतिपादकः ? नैवम्, कालाभेदेऽपि सहकारिभेदात् प्रत्ययभेदोपपत्तेः । तदनुविधानात् पृथक्त्वमिति ।
'वह सभी कार्यों की उत्पत्ति स्थिति और विनाश जा कारण है। 'तद्वयपदेशात्' इत्यादि से इसी में हेतु देते हैं। 'तेन' अर्थात् उस काल के 'व्यपदेश' अर्थात् व्यवहारों से । अभिप्राय यह है कि इसका यह उत्पत्तिकाल है, इसका यह विनाशकाल है' इत्यादि व्यवहारों से काल में उत्पत्त्यादि तीनों के कारणत्व की सिद्धि होती है। 'क्षणलव' इत्यादि से काल के द्वारा होनेवाले कार्यों को कहते हैं । 'निमेष' का चौथा भाग 'क्षण' है। दो क्षणों का एक 'लव' होता है। आँख के पलकों की क्रिया से उपलक्षित काल को 'निमेष' कहते हैं । ये सभी गणितशास्त्र के द्वारा जानना चाहिए।
इस प्रकार कालरूप धर्मी के सिद्ध हो जानेपर 'तस्य गुणाः' इत्यादि से उसके गण कहे गये हैं। द्रव्यत्व हेत के द्वारा काल में सामान्य संख्यादि की सिद्धि हो जानेपर उसमें विशेष संख्यादि की सिद्धि के लिए काललिङ्गाविशेषात्' यह हेत वाक्य लिखते हैं। अभिप्राय यह है कि काल की ज्ञापक योगपद्यादि विषयक प्रतीतियाँ सभी कालों में समान रूप से हैं, अतः 'काल' एक ही है। काल में अनेकत्व का ज्ञापक कोई प्रमाण भी नहीं है। (प्र.) यौगपद्यादि की विभिन्न प्रतीतियाँ काल
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१६.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये कालप्रशस्तपादभाष्यम् वचनात् परममहत्परिमाणम् । कारणपरत्वादिति वचनात् संयोगः। तद्विनाशकत्वाद् विभाग इति । तस्याकाशवद्रव्यत्वनित्यत्वे सिद्धे । काललिङ्गाविशेषादञ्जसैकत्वेऽपि सर्वकार्याणामारम्भक्रियाभिनिवृत्तिस्थितिनिरोधोपाधिभेदान्मणिवत्पाचकवद्वा नानात्वोपचार इति । महत्परिमाण भी समझना चाहिए । “कारणपरत्वात्कारणापरत्वाच्च परत्वापरत्वे" (७।२।२२) इस सूत्र के बल से इसमें संयोग की सिद्धि समझनी चाहिए। विभाग
चूँकि संयोग का विनाशक है, अतः विभाग भी काल में है। उसमें आकाश की ही तरह द्रव्यत्व और नित्यत्व भी सिद्ध हैं। चूँकि सभी कालों में उसके ज्ञापक हेतु समान रूप से हैं, अतः यद्यपि वह एक ही है, तथापि सभी क्रियाओं के आरम्भ, स्थिति और समाप्ति आदि उपाधियों से मणि और पाचक की तरह अनेकों जैसा प्रतीत होता है।
न्यायकन्दली एकत्वस्य पृथक्त्वानुविधानं साहच्यर्यनियमः, तेनैकत्वात् पृथक्त्वसिद्धिः । कारणे काल इति वचनात् । परममहत्परिमाणमित्यनेन कारणे कालाख्या" इति सूत्रं लक्षयति । युगपदादिप्रत्ययानां कारणे कालाख्या कालसंज्ञेति सूत्रार्थः । तेन व्यापक: कालो लभ्यते, युगपदादिप्रत्ययानां सर्वत्र भावादित्यभिप्रायः। कारणपरत्वादिति वचनात संयोग इति । "कारणपरत्वात कारणापरत्वाच्च परत्वापरत्वे" इति सूत्रे कारणपरत्वशब्देन कालपिण्डसंयोगोऽभिहितः । तेनास्य संयोगगुणत्वं सिद्धम् । के अनेकत्व की ज्ञापिका होंगी ? (प्र०) काल के एक मान लेनेपर भी सहकारियों के भेद से उन विभिन्न प्रतीतियों की सिद्धि हो जाएगी। उसके अनुविधान से ही काल में पृथक्त्व भी हैं। अभिप्राय यह है कि एकत्व के साथ 'पृथक्त्व' का 'अनुविधान' अर्थात् नियत साहचर्य है। अतः काल में एकत्व की सिद्धि से पृथक्त्व की सिद्धि समझनी चाहिए।
___'कारणे काल:' सूत्रकार की इस उक्ति से काल में परममहत्परिमाणवत्त्वरूप विभुत्व की भी सिद्धि समझनी चाहिए। कथित 'उक्ति' शब्द से "कारणे कालख्या" (७ । १ । २५) इस सूत्र को समझना चाहिए । उस सूत्र का यह अर्थ है कि योगपद्यादि विषयक प्रतीतियों के असाधारण कारण का ही नाम 'काल' है चूंकि ये योगपद्यादि की प्रतीतियाँ सभी स्थानों में होती हैं, अतः यह समझना चाहिए कि काल व्यापक है । 'कारणपरत्ववचनात्' अर्थात् "कारणपरत्वात् कारणापरत्वाच्च परत्वापरत्वे” (७।२ । २२) इस सूत्र में महर्षि कणाद के द्वारा प्रयुक्त कारणपरत्व शब्द से काल और पिण्ड ( अवयवी द्रव्य ) का संयोग अभिप्रेत है। इसीसे काल में संयोगरूप
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१६१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तद्विनाशकत्वाद्विभाग इति। तस्य संयोगस्य कृतकत्वादवश्यं विनाशिनो विभागो विनाशकः, सर्वत्राश्रयविनाशाभावात् । अतः काले विभागसिद्धिय॑धिकरणस्य विभागस्याविनाशकत्वात् । तस्थाकाशवद् द्रव्यत्वनित्यत्वे सिद्धे ( इति )। यथा गुणवत्त्वादनाधितत्वाच्चाकाशं द्रव्यं तथा कालोऽपि । यथा समानासमानजातीयकारणाभावान्नित्यमाकाशं तथा कालोऽपि ।
यद्येकः कालः कथं तत्रानेकव्यपदेश इत्याह-काललिङ्गाविशेषादिति । काललिङ्गानां परापरादिप्रत्ययानामविशेषाद् भेदाप्रतिपादकत्वादजसा मुख्यया वृत्त्या कालस्यैकत्वेऽपि सिद्धे नानात्वोपचारान्नानात्वव्यपदेशः। कुतः ? सर्वेषां कार्यणामारम्भ उपक्रमः, क्रियाया अभिनिर्वृत्तिः क्रियायाः परिसमाप्तिः, स्थितिः स्वरूपावस्थानम्, निरोधो विनाशः, एषामुपाधीनां भेदानानात्वव्यपदेशः । यथैको मणिः स्फटिकादिर्नीलाधुपाधिभेदान्नील इति पीत इति व्यपदिश्यते तथा कालोऽप्येक एवोपाधिभेदादारम्भकाल इति, नियाभिव्यक्तिकाल इति, निरोधकाल
गुण की सिद्धि होती है। विभाग चूंकि संयोग का विनाशक है, अतः विभाग भी काल में अवश्य है। अभिप्राय यह है कि संयोग उत्पत्तिशील है, उसके विनाशकों में से विभाग भी एक है क्योंकि सभी जगह संयोग का नाश आश्रय के नाश से ही नहीं होता है। एक अधिकरण में रहनेवाला विभाग अन्य अधिकरण में रहने वाले संयोग का नाश नहीं कर सकता। अत: काल में विभाग भी अवश्य ही है। आकाश की हो तरह इसमें द्रव्यत्व और नित्यत्व भी है, अर्थात् जिस प्रकार अनाश्रितत्व और गुणत्व हेतु से आकाश द्रव्य है, उसी प्रकार उन्हीं हेतुओं से काल भी द्रव्य है। जैसे समानजातीय और असमानजातीय कारणों के अभाव से आकाश नित्य है, वैसे ही काल भी उसी हेतु से नित्य है। यदि काल एक है तो फिर उसमें अनेकत्व की प्रतीति कैसे होती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'काललिङ्गाविशेषात्' इत्यादि से देते हैं। अभिप्राय यह है कि काल को ज्ञापक योगपद्यादि प्रतीतियों के ‘अविशेष' से अर्थात् भेदप्रतिपादक प्रमाण के न रहने से 'अञ्जसा' अर्थात् मुख्यवृत्ति से काल यद्यपि एक ही है, किन्तु लक्षणारूप गौणवृत्ति से उसमें नानात्व का भी व्यवहार होता है, क्योंकि सभी कार्यों का आरम्भ अर्थात् उपक्रम, सभी क्रियाओं की 'अभिनिवृत्ति' अर्थात् समाप्ति, स्थिति' अर्थात् अपने रूप से विद्यमानता, 'निरोध' अर्थात् विनाश, इन उपाधियों की विभिन्नता से एक ही काल में नानात्व का व्यवहार होता है । जैसे एक ही मणि स्फटिकादि और नीलादि उपाधियों से कभी नील और कभी पीत प्रतीत होती हैं, वैसे ही उक्त उपाधियों के भेद से एक ही काल कभी आरम्भकाल, कभी क्रिया को अभिव्यक्ति का काल, कभी निरोधकाल इत्यादि नाना रूपों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ब्रव्ये विक्
प्रशस्तपादभाष्यम् दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा । मूर्त्तद्रव्यमवधिं कृत्वा मूर्तेवेव द्रव्येष्वेतस्मादिदं पूर्वेण दक्षिणेन पश्चिमेनोत्तरेण पूर्वदक्षिणेन दक्षिणापरेणापरोत्तरेणोत्तरपूर्वेण चाधस्तादुपरिष्टाच्चेति दश प्रत्यया यतो भवन्ति सा दिगिति, अन्यनिमित्तासम्भवात् ।
____ यह पूर्व है, यह पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियों से अनुमित होनेवाला (द्रव्य ही) दिक् है। किसी मूर्त द्रव्य को अवधि बनाकर किसी दूसरे मूर्त द्रव्य में ही इससे यह पूर्व है या इससे यह दक्षिण है, पश्चिम है, उत्तर है, पूर्वदक्षिण है, दक्षिणापर है, अपरोत्तर है, उत्तरपूर्व है, इससे ऊपर है या इससे नीचे है, ये दश प्रकार के ज्ञान जिससे होते हैं उसे ही 'दिक्' कहते हैं। इन प्रतीतियों का कोई अन्य ( असाधारण ) कारण सम्भव नहीं है।
न्यायकन्दली इति व्यपदिश्यत इत्यर्थः । मणेरुपाधिसम्बन्धो न वास्तवः, कालस्य तु क्रियासम्बन्धो वास्तव इति प्रतिपादयितुं दृष्टान्तान्तरमाह-पाचकेति । यथैकस्य पुरुषस्य पचनादिक्रियायोगात् पाचक इति, पाठक इति व्यपदेशस्तथा कालस्यापि, न तु प्रारम्भादिक्रियैव कालः, विलक्षणबद्धिवेद्यत्वादिति ।।
युगपदादिप्रत्ययलिङ्गत्वमिव कालस्य पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गत्वं दिशो वैधमिति प्रतिपादयन्नाह-दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गेति । पूर्वमित्यपरमित्यादिप्रत्ययो लिङ्गं यस्या दिशः सा तथोक्ता । एतदेव दर्शयति-मूर्त्तद्रव्यमित्यादिना। अमूर्तस्य द्रव्यस्य नावधित्वम्, नापि पूर्वापरादिप्रत्ययविषयत्वसे व्यवहृत होता है। मणि एवं उपाधियों का सम्बन्ध अवास्तविक है, किन्तु काल और क्रिया का सम्बन्ध तो वास्तविक है, यही दिखलाने के लिए 'पाचक' इत्यादि सन्दर्भ से प्रकृत विषय के अनुरूप दूसरा दृष्टान्त देते हैं। अर्थात् जिस प्रकार एक ही पुरुष में पाक क्रिया के सम्बन्ध से 'यह पाचक है' एवं पठन क्रिया के सम्बन्ध से यह पाठक है' इत्यादि अनेक व्यवहार होते हैं, वैसे ही काल में भी समझना चाहिए। प्रारम्भादि क्रियायें ही काल नहीं हैं, क्योंकि उनसे विलक्षण काल की प्रतीति होती है।
जैसे योगपद्यादि प्रतीति से ज्ञात होना काल का असाधारण धर्म है, वैसे ही यह पूर्व है, यह पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियों से ज्ञात होना 'दिक् का असाधारण धर्म है' यही वैलक्षण्य प्रतिपादन करते हुए 'दिक् पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा' इत्यादि पंक्ति लिखते हैं। “पूर्वमपर मित्यादि प्रत्ययो लिङ्गं यस्याः सा पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा” इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसकी ज्ञापक 'यह पूर्व है, यह पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियाँ हैं,
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली मस्त्यनवच्छिन्नपरिमाणत्वात् । अत इदमुक्तं मूलद्रव्यमवधि कृत्वा, मूर्तेष्वेव द्रव्येष्विदमस्मात् पूर्वेणेत्यादिप्रत्यया यतो भवन्ति सा दिगिति । एतस्मादिदं पूर्वमित्यस्मिन्नेवार्थे पूर्वेणेति निर्देशः, प्रातिपदिकार्थे तृतीयोपसङ्खयानाद् ।
ननु पूर्वापरादिप्रत्ययानां कार्यत्वात्कारणमनुमीयते, तत्तु दिगेवेति कुतो निश्चयः ? तत्राह-अन्यनिमित्तासम्भवादिति। न तावत् पूर्वापरादिप्रत्ययानां द्रव्यमात्रं निमित्तम्, यथाकथञ्चिदवस्थिते द्रव्ये तेषामुत्पत्तिप्रसङ्गात् । परस्परापेक्षया द्रव्ययोरुत्पत्तिनिमित्तत्वेऽपि स एव दोषः, उभयाभावप्रसङ्गश्चाधिकः । क्रियागुणादिनिमित्तत्वे च समानगुणक्रियादिषु प्रत्ययविशेषो न स्यात् । तेन यदेषां निमित्तं सा दिगिति । यत्रैतस्मादिदमिति पञ्चमी प्रयुज्यते, अन्यथा सापि निविषया वही 'पूर्वापरादिप्रत्ययलिङ्गा' शब्द का अर्थ है। यही 'मूर्तद्रव्यमवधि कृत्वा' इत्यादि से समझाते हैं । अमूर्त (आकाशादि) द्रव्य किसी के अवधि नहीं हो सकते और न वे उक्त पूर्वापरादि प्रत्यय के विषय ही हैं, क्योंकि उनमें परममहत्परिमाण है। अतः 'मूर्तद्रव्यमधिं कृत्वा' यह वाक्य लिखा है। अर्थात् मूर्तद्रव्यों में ही 'यह उससे पूर्व है, अथवा यह उससे पश्चिम है' इत्यादि प्रतीतियां होती हैं। ये प्रतीतियाँ जिससे हों वही 'दिक्' है। ‘एतस्मादिदं पूर्वम्' इसी अर्थ में केवल प्रातिपदिक अर्थमात्र के बोधक 'पूर्वेण' इस पद में प्रातिपदिकार्थ मात्र में तृतीया है । (प्र०) यह ठीक है कि पूर्वापरादि प्रतीतियाँ यतः कार्य हैं, अत: उनका कोई कारण अवश्य है, वह कारण 'दिक' ही है यह किस प्रकार निश्चय किया जाय ? इसी प्रश्न का समाधान है 'अन्यनिमित्तासम्भवात्' । अर्थात् पूर्वापरादि के अवधिभूत वे मूर्त द्रव्य ही उनकी प्रतीतियों के कारण नहीं हैं, क्योंकि इससे दक्षिणादि दिशाओं में विद्यमान द्रव्य में अनभीष्ट पूर्वापरादि की प्रतीतियाँ होंगी, क्योंकि कारणीभूत मूर्त द्रव्य तो है ही। 'दो विरुद्ध दिशाओं में विद्यमान दोनों द्रव्यों में ही एक दूसरे की सहायता से यथायोग्य पूर्वापरादि प्रतीतियाँ होती है' यह कहने पर उक्त दोष तो है ही, बल्कि इस कथन में उभयाभाव प्रसङ्ग का दोष अधिक' है । द्रव्य में रहने वाले गुणों एवं कर्मों को अगर पूर्वादि प्रत्ययों का कारण माने तो पूर्व दिशा में विद्यमान द्रव्य में रहनेवाले गुण और क्रिया से युक्त पश्चिम दिशा में विद्यमान मूर्तं द्रव्य में भी पूर्व दिशा की प्रतीति होगी। 'अत्र एतस्मादिदम्' इस अर्थ में पञ्चमी का प्रयोग हैं। नहीं तो 'अस्मादिदं प्राची' इत्यादि वाक्यों में प्रयुक्त पञ्चमी का प्रयोग व्यर्थ हो जायगा। (प्र.) यदि उक्त पञ्चमी का प्रयोग अवधि के अर्थ में मानें ? ( उ०) तो ठीक है, किन्तु बिना
१. अर्थात् पूर्वप्रत्यय में पश्चिम दिशा में विद्यमान मूर्त द्रव्य और पूर्व दिशा में विद्यमान मूर्स द्रव्य दोनों को परस्पर सम्मिलित होकर कारण माने तो पूर्व प्रत्यय एवं पश्चिम प्रत्यय दोनों में से एक को भी उत्पत्ति नहीं होगी। क्योंकि एक प्रत्यय दूसरे प्रत्यय के विषय मूत्ते द्रव्य के अधीन हो जायेंगे । अतः परस्पराश्रयत्वरूप आपत्ति से दोनों प्रत्यय असम्भूत होंगे।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये दिक्
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्यास्तु गुणाः सङ्ख्यापरिमाणपृथकत्वसंयोगविभागाः कालवदेते सिद्धाः।
काल की तरह इसके (दिशा के) भी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये ही पाँच गुण हैं ।
न्यायकन्दली स्यात् । अवधावियं पञ्चमीति चेत् ? सत्यम्, किन्त्वधित्वं दिगपेक्षया, न तु द्रव्यमात्रस्य, सर्वत्राविशेषप्रसङ्गात् । तस्या अप्रत्यक्षत्वेऽपि कालव विशिष्ट प्रत्ययहेतुत्वं वाच्यम् । गुणवत्त्वं द्रव्यलक्षणं तदस्यामस्तीति प्रतिपादयन्नाह-तस्यास्तु गुणा इत्यादि । कालवदेते सिद्धाः, यथा काललिङ्गाविशेषात् कालस्यैकत्वं सिद्धं तथा दिग्लिङ्गाविशेषाद् दिश एकत्वम्, यथा तदनुविधानात् काले पृथक्त्वं तथा दिशि, यथा कारणे काल इति वचनात् परममहत्परिमाणं तथा कारणे दिगिति वचनाद् दिशः परममहत्परिमाणम् । सर्वत्र तत्कार्यस्य पूर्वापरादिप्रत्ययस्य भावात् । यथा कारणपरत्वाच्चेति कालस्य संयोगगुणत्वं प्रतिपादितं तथा दिशोऽपि, यथा संयोगविनाशकत्वात् काले विभागः सिद्धस्तथा दिशीत्यतिदेशार्थः । दिशा के वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि केवल उक्त मूर्त द्रव्य को ही अवधि मानने से सभी दिशाओं की प्रतीति सभी वस्तुओं में समान रूप से होगी। दिशा स्वयं यद्यपि अप्रत्यक्ष है, फिर भी काल की ही तरह विशिष्ट बुद्धि का कारण है। दिशा में गुणवत्त्व रूप द्रव्य का लक्षण है' यह प्रतिपादन करते हुए 'तस्यास्तु गुणाः' इत्यादि पंक्ति लिखते हैं । 'काल की ही तरह इसमें भी इन गुणों की सत्ता समझी जाती है' । अर्थात् जैसे सभी कालों में योगपद्यादि प्रत्यय रूप ज्ञापक हेतुओं के समान रूप से रहने के कारण एकत्व संख्या की सिद्धि होती है, वैसे ही सभी दिशाओं में दिशा के ज्ञापक उक्त पूर्वापरादि प्रत्ययों के होने से दिशा में भी एकत्व संख्या की सिद्धि जाननी चाहिए। जैसे एक त्व संख्या की व्याप्ति से काल में एकपृथक्त्व की सिद्धि की है, वैसे ही दिशा में भी एकपृथक्त्व की सिद्धि समझनी चाहिए। जैसे 'कारणे कालः' सूत्रकार की इस उक्ति से काल में परममहत्परिमाण की सिद्धि की गयी है, वैसे ही 'कारणे दिक्' सूत्रकार की इस उक्ति से दिशा में भी परममहत्परिमाण रूप गुण समझना चाहिए । क्योंकि सर्वत्र दिशा के कार्य पूर्व, पश्चिम आदि प्रतीतियां होती हैं। जैसे 'कारणपरत्वाच्च' इस सूत्र के अनुसार कालका संयोगगुण प्रतिपादित है, वैसे दिशा में भी संयोगगुण समझना चाहिए। जैसे विनाशशील संयोग की सत्ता से काल में विभाग नाम के गुण की सिद्धि की गयी है, वैसे ही दिशा में भी समझना चाहिए । यही 'कालव देते सिद्धा:' इस अतिदेश वाक्य का अर्थ है।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
दिग्लिङ्गा विशेषादञ्जसैकत्वेऽपि दिशः परममहर्षिभिः श्रुतिस्मृति
सर्वत्र समान रूप से हैं, लोकव्यवहार के लिए
यतः दिक् के ज्ञापक उक्त प्रतीति रूप सभी हेतु अतः यह भी वस्तुतः एक ही है । किन्तु श्रुति स्मृति एवं
न्यायकन्दली
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१६५
ननु दिग्लिङ्गाविशेषो न सिद्ध:, पूर्वापरादिप्रत्ययानां परस्परतो भेदात् । तथा च सति दिशो भेद इति युक्तम् ? न, एकस्मिन्नेवार्थे युगपद्वस्त्वन्तरापेक्षया पूर्वापरादिप्रत्ययोत्पत्तेः, दिग्भेदे हि यत्पूर्वं न तत्र पश्चिमप्रत्ययो भवेत् । सर्वदिक्सम्बन्धस्तस्यास्तीति चेत् ? तहि सर्वार्थेषु सर्वापेक्षया सर्वेषां सर्वे प्रत्ययाः प्रसज्येरन् । न चैवम्, तस्मादेका दिक्, प्रत्ययभेदस्तूपाधिभेदात् ।
पूर्वमादित्य संयोगस्य तदार्जवावस्थितस्य च द्रव्यस्यान्तराले (पूर्वेति) दक्षिति, अस्तमयसंयोगस्य तदार्जवावस्थितस्य च द्रव्यस्यान्तराले पश्चिमेति, यत्रादित्य संयोगो न दृश्यते तत्र मध्याह्नसंयोगप्रगुणाव स्थित द्रव्यापेक्षयोत्तरव्यवहारः, तासामन्तरालेषु पूर्वदक्षिणादिव्यवहार इत्युपपद्यते प्रतीतिभेदः । आदित्यसंयोग. निबन्धन एवास्तु प्रत्ययः ? न तस्य मूर्त्तद्रव्यसंयोगाभावात् असम्बद्धस्य च प्रत्ययहेतुत्वासम्भवात् । एतदेव दर्शयति- दिग्लिङ्गा विशेषादिति । दिश एकत्वे
( प्र ० ) सभी दिशाओं में तो दिग्बुद्धि के वे हेतु एक से नहीं हैं, क्योंकि पूर्वापरादि प्रत्यय परस्पर भिन्न प्रकार के होते हैं । अतः दिशाओं को भी अनेक मानना पड़ेगा । ( उ० ) यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही समय एक ही वस्तु में अवधि रूप वस्तुओं के भेद पूर्वपश्चिमादि नाना प्रतीतियों की उपपत्ति हो सकती है । अगर वे वास्तव में भिन्न हों तो फिर पूर्व दिशा में विद्यमान वस्तु में कभी पश्चिम दिशा की प्रतीति ही नहीं होगी । ( प्र०) उस वस्तु में सभी दिशाओं का सम्बन्ध है ? ( उ० ) तो फिर सभी वस्तुओं में सभी वस्तुओं की अपेक्षा सभी को पूर्वापरादि प्रत्यय होना चाहिए, किन्तु होते नहीं हैं । तस्मात् ' दिकू' एक ही है । उपाधियों के भेद से उसमें नानात्व की प्रतीति होती है । सूर्य का प्रथम संयोगाधिकरण देश एवं उसके सामने के पूर्वदिशा की प्रतीति होती है । सूर्य के अस्तकालिक संयोग के प्रदेश एवं उसके सम्मुख द्रव्य के बीच पश्चिम दिशा की प्रतीति होती है । मध्याह्नकालिक सूर्य के संयोगवाले प्रदेश के एक ओर दक्षिण और दूसरी ओर उत्तर की प्रतीति होती है । इस प्रकार विभिन्न प्रतीतियों की उपपत्ति होती है । (प्र०) सूर्य के उक्त संयोग ही पूर्वादि दिशाओं का व्यवहार मान लिया जाय ? ( 30 ) नहीं, क्योंकि उन मूर्त्त द्रव्यों के साथ सूर्य का संयोग सम्बन्ध नहीं है । असम्बद्ध वस्तु ज्ञान का कारण नहीं हो सकती है । यह " दिग्लिङ्गा विशेषात् " से दिखलाते हैं । इस प्रकार दिक् में एकत्व की सिद्धि हो जाने
द्रव्य इन दोनों के बीच में
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१६६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये दिक्
प्रशस्तपादभाष्यम् लोकसंव्यवहारार्थ मेरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य भगवतः सवितुर्ये संयोगविशेषा लोकपालपरिगृहीतदिक्प्रदेशानामन्वर्थाः प्राच्यादिभेदेन दशविधाः संज्ञाः कृताः, अतो भक्त्या दश दिशः सिद्धाः । तासामेव देवतापरिग्रहात् पुनर्देश मेरु की प्रदक्षिण परिक्रमा करते हुए भगवान् सूर्य के जो संयोग विशेष उनका ही लोकपालों से अधिकृत प्रदेशों का योग के द्वारा बोध करानेवाले प्राची प्रभृति दश नाम महर्षियों ने बनाये हैं। अत. गौणवृत्ति से दश दिशाओं का व्यवहार होता है। उन्हीं दिशाओं के (१) माहेन्द्री (२) वैश्वानरी
न्यायकन्दली स्थिते महर्षिभिः प्राच्यादिभेदेन दशविधाः सज्ञाः कृताः । कीदृश्यस्ताः ? अन्वर्थाः, अनुगतोऽर्थो यासामिति ता अन्वर्थाः। केषामर्थस्तास्वनुगतः ? लोकपालेरिन्द्रादिभिः परिगृहीतानां दिक्प्रदेशानाम् । सवितुर्ये संयोगविभागास्तेषामित्यध्याहारः । तथा हि-प्रथममस्यामञ्चति सवितेति प्राची। अवागञ्चतीति अवाची । प्रत्यगञ्चतीति प्रतीची। उदगञ्चतीति उदीची। कि विशिष्टस्य सवितुः ? मेरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य, मेरुं प्रदक्षिणं परिभ्रमतः । किमर्थं सज्ञाः कृताः? श्रुतिश्च स्मृतिश्च लोकश्च तेषां सम्यग् व्यवहारार्थम् । श्रौतो पर भी महषियों ने उसकी अन्वर्थ दश संज्ञायें बनाया हैं। 'अनुगतोऽयों यासाम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस संज्ञा का जो यौगिक अर्थ हो, उस वस्तु की वही अन्वर्थ संज्ञा है। (प्र०) किनके अर्थ उन संज्ञाओं में अनुगत हैं ? इस प्रश्न के समाधान के लिए "इन्द्रादि लोकपालो को अधिकृत दिशाओं के प्रदेश के साथ सूर्य के संयोगों
और विभागों का" यह अध्याहार करना चाहिए । 'अस्यां सविता प्रथमञ्चति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'प्राची' शब्द का अर्थ है कि पूर्व दिशा में सूर्य सबसे पहिले आते हैं, अतः उसका नाम 'प्राची' है । 'अवागञ्चतीति अवाची' अर्थात् सूर्य जिस दिशा में पूर्व दिशा से कुटिल गति के द्वारा जाते हैं वही अवाची' है । 'प्रत्यगञ्चतीति प्रतीची' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सूर्य जिस दिशा में सबसे पीछे जाँय वही 'प्रतीची' है। 'उदगच्चतीति उदीची' इस व्युत्पति के अनुसार सूर्य जिस दिशा में सबसे उँचे पर हों वही 'उदीची' है। किस विशेषण से युक्त सूर्य का ? इस आकाङ्क्षा की पूर्ति के लिए 'मेरुं प्रदक्षिणमावर्त्तमानस्य' यह वाक्य है। अर्थात् मेरु के चारों तरफ प्रदिक्षण क्रम से घूमते हुए सूर्य का। महर्षियों ने ये संज्ञायें क्यों बनायीं ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए 'श्रुतिस्मृतिलोकमव्यवहारार्थ' यह वाक्य लिखा गया है। "श्रुतिश्च, स्मृतिश्च, लोकश्च, तेषां संव्यवहारार्थम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ है कि श्रोत, स्मार्त और लौकिक इन सभी व्यवहारों को अच्छी तरह चलाने के लिए महर्षियों ने उन संज्ञाओं की रचना
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् संज्ञा भवन्ति-माहेन्द्री, वैश्वानरी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, कौबेरी, ऐशानी, ब्राह्मी, नागी चेति ।
आत्मत्वाभिसम्बन्धादात्मा । तस्य सौक्ष्म्यादप्रत्यक्षत्वे सति (३) याम्या (४) नैऋती (५) वारुणी (६) वायवी (७) कौबेरी (८) ऐशानी (६) ब्राह्मी और (१०) नागी देवताओ के अधिकारमूलक ये दश (यौगिक) नाम और हैं।
आत्मत्व जांति के सम्बन्ध से 'यह आत्मा है' यह व्यवहार होता है। आत्मत्व जाति ही आत्माओं का असाधारण धर्म है। वह दुर्लक्ष्य होने के
न्यायकन्दली व्यवहारः 'न प्रतीचीशिराः शयीत' इत्यादिः । स्मार्तो व्यवहारः 'आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते' इत्यादिः । लोकव्यवहारः 'पूर्व गच्छ, दक्षिणमवलोकय' इत्यादिः। यतो दश संज्ञाः कृतास्ततो भक्त्या उपचारेण दश दिशः सिद्धा व्यवस्थिताः । माहेन्द्रयादिसंज्ञास्तु नार्थान्तरविषयाः, किन्तु तासामेव निमित्तान्तरवशात् प्रवर्तन्त इत्याह-तासामेवेत्यादि । महेन्द्रस्येयमिति माहेन्द्री । वैश्वानरस्येयं वैश्वानरीत्यादि सर्वत्र निर्वचनीयम ।
यस्य तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसाय घटते विपर्ययज्ञानं संसारहेतुर्यदर्थानि च भूतानि तत्प्रतिपादनार्थमाह-आत्मत्वाभिसम्बन्धादात्मेति । आत्मत्वं नाम की। श्रोत व्यवहार का उदाहरण है 'न प्रतीचीशिराः शयीत' अर्थात् पश्चिम की तरफ शिर रख कर नहीं सोना चाहिए। स्मार्त व्यवहार का उदाहरण है 'आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते' अर्थात् आयु की कामना वाले पुरुष को पूर्वाभिमुख होकर भोजन करना चाहिए इत्यादि । लोक व्यवहार का उदाहरण है पूर्व की ओर जाओ दक्षिण की ओर देखो इत्यादि । यत महर्षियों ने दिशा को दश संज्ञायें बनायी हैं, अत: लक्षणा वृत्ति के द्वारा दिशाओं में भी दशत्व का व्यवहार होता है । माहेन्द्री प्रभृति संज्ञाएँ किसी दूसरी वस्तु की नहीं हैं, वे भी दिशाओं को ही दूसरे निमित्त से समझाती हैं । यही तासामेव' इत्यादि से कहते हैं । 'महेन्द्रस्येयं माहेन्द्री' अर्थात् जिस दिशा के अधिष्ठाता महेन्द्र हों उस दिशा को माहेन्द्री कहते हैं। 'वैश्वानरस्येयं वैश्वानरी' इस व्युत्पति के अनुसार जिस दिशा के अधिष्ठाता वैश्वानर (अग्नि) हों उस दिशा को वैश्वानरी कहते हैं। इसी प्रकार और संज्ञाओं का भी निर्वचन करना चाहिए ।
जिसका तत्त्वज्ञान नि:श्रेयस ( मोक्ष ) का कारण है, एवं जिसका विपर्यय (मिथ्याज्ञान) संसार का कारण है, एवं जिसके उपभोग के लिए ये भौतिक वर्ग हैं, उसी के प्रतिपादन के लिए 'आत्मत्वाभिसम्बन्धादात्मा' यह सन्दर्भ लिखते हैं। 'आत्मत्व'
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न्याय कन्दली संघलित प्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
करणैः शब्दाद्यपलब्ध्यनुमितैः श्रोत्रादिभिः समधिगमः क्रियते । वास्यादीनां करणानां कर्त्त प्रयोज्यत्वदर्शनात् शब्दादिषु प्रसिद्धया च
कारण बाह्य इन्द्रियों से गृहीत नहीं होता है । ( १ ) अतः शब्दादि प्रत्यक्ष से अनुमित होनेवाले श्रोत्रादिकरणों (इन्द्रियों) के द्वारा आत्मा का अनुमान करते हैं । यह देखा जाता है कि बसुला आदि करण बढ़ई रूप कर्ता के सम्बन्ध से ही छेदनादि कार्य करते हैं । (२) शब्दादि विषयक ज्ञानादि क्रियाओं से भी
न्यायकन्दली
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[ द्रव्ये आत्म
सामान्यं तदभिसम्बन्धादात्मेति व्यवहारः ।
कुत
इदमस्येतरेभ्यो वैधर्म्यम् । ननु दृश्यस्य सत्त्वं तदाकारसंवेदनेन व्याप्तम्, न चात्माकारं कस्यचित्संवेदनमस्ति, अतो व्यापकानुपलब्ध्या तस्य सत्त्वमेव निराक्रियत कुतो धर्मनिरूपणमित्याशङ्क्य तत् सद्भावे बाधकं प्रमाणं नास्ति, प्रत्यक्षानुपलब्धेरन्यथासिद्धत्वात् साधकवच प्रमाणमनुमानमस्तीति प्रतिपादयन्नाह - तस्येति । प्रत्यक्षोपलब्धियोग्यता विरहः सौक्ष्म्यम् । तस्मादप्रत्यक्षस्यात्मनः करणैः शब्दाद्युपलब्धयः करणसाध्याः क्रियात्वाच्छिदिक्रियावदित्यनुमितैः श्रोत्रादिभिः समधिगमः क्रियते । इत्याह- वास्यादीनां करणानां कर्त्तृ प्रयोज्यत्वदर्शनात् । यत्करणं तत् केनचित् शब्द का अर्थ है आत्मत्व नाम की जाति । उसी के सम्बन्ध से 'यह आत्मा है' इस प्रकार का व्यवहार होता है । यह 'आत्मत्व' जाति ही अन्य पदार्थों की अपेक्षा आत्मा का वैधर्म्य असाधारणधर्म या इतरभेदानुमितिजनक हेतु है । ( प्र० ) उसी वस्तु की सत्ता स्वीकार की जाती है. जो अपने आकार द्वारा ज्ञान का विषय हो, किन्तु आत्मा का कोई भी आकार उपलब्ध नहीं है, अतः अस्तित्व के व्यापक 'स्वाकारविषयत्व' के अभाव से हम आत्मा के अस्तित्व का ही खण्डन करते हैं। फिर उसके धर्मों का निरूपण क्यों ? इस शङ्का के दो समाधान करते हैं एकतो आत्मा की सत्ता में बाधा डालने वाला कोई प्रमाण ही नहीं है । 'प्रत्यक्षानुपलब्धेः ' हेतु अन्यथासिद्ध है अर्थात् आत्मत्वाभावका साधक नहीं है । क्योंकि बाह्य इन्द्रियों से आत्मा का प्रत्यक्ष न
होने का कोई अन्य ही हेतु है, आत्मा की असत्ता नहीं । दूसरे आत्मा की सत्ता का ज्ञापक अनुमान प्रमाण है । आत्मा की असत्त्वापत्ति का समाधान करते हुए तस्य ' इत्यादि पंक्ति लिखते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ज्ञात होने की अयोग्यता ही 'सौक्ष्म्य'
शब्द का अर्थ है । अत: ( १ ) प्रत्यक्ष से ज्ञात न होने शब्दादि की ये उपलब्धियाँ करणजन्य हैं, क्योंकि ये भी छेदनादि क्रिया' इस प्रकार के अनुमानों से सिद्ध श्रोत्र आत्मा का अनुमान होता है । 'वास्यादीनाम्' इत्यादि से करते हैं ।
होता है
कैसे कर्ता के द्वारा ही
पर भी 'श्रोत्रादि करणों से'
क्रियारूप हैं । जैसे कि आदि करणों के द्वारा
इस प्रश्न का समाधान
? करण कार्य में प्रवृत्त होते हैं ।
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१६९
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली का प्रयुज्यते कार्ये व्यापार्यते, यथा वास्यादिकं वर्धकिणा। करणञ्च श्रोत्रादिक तस्मात् केनचित् प्रयोक्तव्यं य एषां प्रयोक्ता स आत्मा। आकाशस्य श्रोत्रस्य यद्यप्यात्मना सह साक्षात् सम्बन्धो नास्ति, विभुत्वात्, तथाप्यात्मना तस्य प्रयोज्यत्वमन्तःकरणाधिष्ठानद्वारेण, यथा हस्तेन सन्दंशयोगिना तत्संयुक्तस्यायःपिण्डस्य संयोगः । करणत्वञ्च श्रोत्रादीनां नियतार्थस्य ग्राहकत्वात, प्रदीपवत् । यद्यप्यात्मा अहं भमेति स्वकर्मोपार्जितकार्यकारणसम्बन्धोपाधिकृतकर्तृतास्वामित्वरूपसम्भिन्नो मनसा संवेद्यते, तथाप्यत्राप्रत्यक्षत्ववाचोयुक्तिर्बाह्येन्द्रियाभिप्रायेण ।
शब्दादिषु प्रसिद्धया च प्रसाधकोऽनुमीयते । शब्दादिषु विषयेषु प्रसिद्धिर्ज्ञानं तत्रापि प्रसाधको ज्ञातानुमीयते। ज्ञानं क्वचिदाश्रितं, क्रियात्वात्, छिदिक्रियावत् यत्रेदमाश्रितं स आत्मा।
अथेदं स्वयमेव जानाति, न पराश्रितमिति चेत् ? किमिदं नित्यम?
जैसे बढ़ई के द्वारा वसुला प्रभृति करण । श्रोत्रादि इन्द्रियाँ भी करण हैं। अतः उनका भी कोई प्रयोग करनेवाला चाहिए। वह प्रयोक्ता ही आत्मा है। यद्यपि श्रोत्र आकाश रूप होने के कारण विभु है । एवं आत्मा भी विभु है। दो विभु किसी भी साक्षात् सम्बन्ध से परस्पर सम्बद्ध नहीं हो सकते, तथापि आत्मा से अधिष्ठित मन के साथ सम्बन्ध के द्वारा आत्मा में श्रोत्र रूप करण का भी प्रयोज्यकत्र्तृत्व है। जैसे कि तपे हुए लोहे को बढ़ई सीधे हाथ से नहीं छूता। हाथ से सड़सी को और सड़सी से तपे हुए लोहे को, तब भी हाथ में प्रयोज्यकत्र्तृत्त्व रहता ही है, क्योंकि चिमटे से संयुक्त लोहे के साथ भी चिमटे से संयुक्त हाथ का भी सम्बन्ध है हो । श्रोत्र शब्द-प्रत्यक्ष का ही करण है दूसरे प्रत्यक्ष का नहीं। चक्षुरूपप्रत्यक्ष का ही करण है रसादि का नहीं। अतः इन्द्रियाँ प्रदीप की तरह नियत अर्थों की ही प्रकाशक होने से 'करण' हैं। यद्यपि अपने कर्मों से उपाजित शरीर एवं इन्द्रियादि के सम्बन्ध रूप उपाधि के द्वारा स्वामित्व मिश्रित कत्तृत्त्व रूप से आत्मा मानसप्रत्यक्ष का भी विषय है, क्योंकि हम जानते हैं कि यह मेरा शरीर है, मेरी आँखें सुन्दर हैं, अतः अप्रत्यक्षत्व की युक्तियाँ बाह्य प्रत्यक्ष के अभिप्राय से कही गई समझनी चाहिए ।
(२) 'शब्द'दिषु प्रसिद्धया च प्रसाधको ज्ञातानुमीयते' अर्थात् शब्दादि रूप विषयों में जो 'प्रसिद्धि' अर्थात् ज्ञान, उससे आत्मा का अनुमान होता है। जैसे कि ज्ञान कहीं पर आश्रित है, क्योंकि वह क्रिया है। जैसे कि छेदनादि क्रिया । यह ज्ञान रूप क्रिया जहां पर आश्रित है वही 'आत्मा' है ।
(प्र.) यह ज्ञान स्वयं ही विषय को समझ लेता है, इसके लिए इसे किसी दूसरी वस्तु में आश्रित होने की आवश्यकता नहीं होती है। (उ०) यह ज्ञान नित्य
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली
प्रतिक्षणविनाशि वा ? यदि नित्यम् ? संज्ञाभेदमात्रम् । अथ क्षणिकम्, चिरानुभूतस्य न स्मरणम्, प्रतिपत्तृभेदात् । यत्तु कार्यकारणभावात् पूर्वक्षणानुभूतस्योत्तरेण स्मरणम्,यत्पुनः पित्रानुभूतस्य पुत्रेणास्मरणम्, तत्र पितृपुत्रज्ञानयो: कार्यकारणभावाभावात्, शरीरयोश्च तथाभूतयोरचेतनत्वात् । तदयुक्तम्, आत्माभावे कार्यकारण भावस्यानिश्चयात् । कारणविज्ञानकाले कार्यज्ञानमनागतम्, तत्काले च कारणमतीतम् । न च ताभ्यामन्यः कश्चिदेको द्रष्टास्तीति कस्तयोः क्रमभाविनोः कार्यकारणभावं प्रतीयात् ।
अथ मतम्, स्वात्मनाहिणी पूर्वा बुद्धिः स्वात्माव्यतिरिक्तिं स्वस्य कारणत्वमतिरूपं गोचरयति । उत्तरापि बुद्धिः स्वरूपविषया तदव्यति. रिक्तमात्मीयं कार्यत्वमपि गृहणाति, ताभ्याञ्च प्रत्येकमुपातं कारणत्वं कार्यत्वं च तदुभयजनितैकवासनाबलभुवा विकल्पेनाध्यवसीयत इति चेत् ? अहो
है, या प्रशिक्षण विनाशशील ? अगर नित्य है तो फिर फलतः आत्मा ही है, केवल नाम का अन्तर है। अगर प्रतिक्षण विनाशशील है तो फिर बहुत दिन पहिले अनुभूत विषय का आज स्मरण नहीं होगा क्योंकि स्मृति और अनुभव के कर्ता (प्रकृत में ) भिन्न हैं, (किन्तु अनुभव और स्मृति दोनों का एक ही कर्ता होना चाहिए) (प्र.) पहिले जिस विषय का ज्ञान चक्षुरादि से होता है, वहीं अपने विनाश काल के उत्तर क्षण में उसी विषय के दूसरे ज्ञान को जन्म देता है, फलतः कारणीभूत ज्ञान से ही अनुभूत विषय का स्मरण होता है । 'पिता से अनुभूत विषय का स्मरण पुत्र को नहीं होता है' इस में यह हेतु है कि पितृविज्ञान पुत्रविज्ञान का कारण नहीं है। पितृशरीर पुत्रशरीर का कारण है, किन्तु शरीर अचेतन हैं। (उ.) आत्मा अगर न माना जाय तो दोनों विज्ञानों में कार्यकारणभाव है, यही निश्चय नहीं हो पायेगा। क्योंकि जिस क्षण में कारणविज्ञान है, उस समय कार्यविज्ञान भविष्य के ही गर्भ में रहता है । जिस क्षण में कार्यविज्ञान की सत्ता रहती है, उसी क्षण कारणविज्ञान का नाश हो जाता है। उन दोनों से भिन्न देखनेवाला कोई नही है, फिर क्रमशः उत्पन्न होनेवाले उन दोनों विज्ञानों के कार्यकारणभाव को कौन समझे ?
(प्र.) विज्ञान जिस प्रकार विषयों को समझता है, उसी प्रकार अपने स्वरूप को भी समझता है। कारणविज्ञान का कारणत्व ही स्वरूप है, फिर कारणविज्ञान ही अपने से अभिन्न कारणत्व को भी समझता है। इसी प्रकार उत्तरकाल में होनेवाले कार्यविज्ञान को भी कार्यत्व का ज्ञान है। फलतः कारणविज्ञान को कारणत्व का ज्ञान है और कार्यविज्ञान को कार्यत्व का ज्ञान है। फिर दोनों विज्ञानों से वासना रूप विलक्षण बल से युक्त 'विकल्प' नाम के ज्ञान को उत्पति होती है। उससे ही कार्यकारणभाव
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
१७१
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसाधकोऽकोनुमीयते। न शरीरेन्द्रियमनसाम् ,अज्ञत्वात् । न शरीरस्य चैतन्यम्, घटादिवद् भूतकार्यत्वात्, मृते चासम्भवात् । नेन्द्रियाणाम्, करणत्वात्, उक्त क्रिया के आश्रय रूप कारण आत्मा का अनुमान करते हैं । यह आश्रयत्व (कर्तृत्व) शरीर, इन्द्रिय एवं मन इन तीनों में सम्भव नहीं है, क्योंकि वे अज्ञ (जड़) हैं । चैतन्य (ज्ञान) शरीर का धर्म नहीं है, क्योंकि वह ( शरीर ) घटादि की तरह भूत द्रव्य से उत्पन्न होता है । एवं मृत शरीर में ज्ञान सम्भव भी नहीं हैं । वह (चैतन्य) इन्द्रियों का भी धर्म नहीं है, क्योंकि वे (ज्ञानक्रिया के ) करण हैं। एवं इन्द्रियों
न्यायकन्दली कुसृष्टिकल्पना ? पूर्वोत्तरधियौ स्वात्ममात्रनियते, कुतस्तस्याः कारणहमस्याश्चास्मि कार्यमिति प्रतीयेताम्, परस्परवा नभिज्ञत्वात् । ताभ्यामगृहीतं कुतोऽध्यवस्यति, तस्यानुभवानुसारित्वात् ? भवतु पराश्रितं ज्ञानम्, तदधिकरणन्तु शरीरमिन्द्रियं मनो वा भविष्यति । तत्राह-न शरीरेन्द्रियमनसामिति । उत्तरवाक्यस्थितं चैतन्यमिति पदमिह सम्बद्धयते । शरीरेन्द्रियमनसां चैतन्यं न भवति, कुतस्तत्राह-अज्ञत्वादिति । ज्ञान प्रति समवायिकारणत्वाभावादित्यर्थः ।
। नन्वेतदपि साध्याविशिष्टमित्याशङ्कयाह-न शरीरस्येति । चैतन्यं शरीरस्य न भवति घटादिवच्छरीरस्य भूतकार्यत्वात्, यद् भूतकार्य न तच्चेतनं, यथा घटः।
गृहीत होता है । ( उ०) एक तो यह कल्पना ही बड़ी विचित्र है कि वे दोनों ज्ञान अपने स्वरूप को समझ सकते हैं। फिर पूर्वविज्ञान को यह भान ही कैसे होगा कि 'उत्तरविज्ञान का कारण मैं ही हूँ'। एवं उत्तरविज्ञान को भी यह कैसे पता चलेगा कि 'मैं पूर्वविज्ञान का कार्य हू । क्योंकि दोनों ही अपने से भिन्न किसी भी विज्ञान के स्वरूप और प्रभाव से अनभिज्ञ हैं । फिर दोनों विज्ञानों से अगृहीत कार्यकारणभाव का निश्चय कैसे होगा ? क्योंकि निश्चय अनुभवमूलक है। (प्र०) मान लिया कि ज्ञान का अपने से भिन्न कोई आश्रय है। किन्तु वह आश्रय शरीर, इन्द्रिय एवं मन भी हो सकता है ? इसी प्रश्न के उत्तर में "शरीरेन्द्रियमनसाम्" इत्यादि पंक्ति लिखते हैं। इस वाक्य के आगे लिखित 'न शरीरस्य चैतन्यम्' इस वाक्य के चैतन्य पद का अनुसन्धान करके प्रकृत वाक्य को 'न शरीरेन्द्रियमनसां चैतन्यम्' इस प्रकार पढ़ना चाहिए । उक्त प्रश्न का ही 'अज्ञत्वात्' इत्यादि से समाधान करते हैं । अर्थात् शरीरादि ज्ञान के समवायिकारण नहीं हैं।
किन्तु यह भी तो सिद्ध नहीं है, किन्तु साध्य ही है, अत: 'शरीरादि प्रत्येक में चैतन्य नहीं है' यह प्रतिपादन करने के लिए "न शरीरस्य" इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं । शरीर में चैतन्य नहीं है, क्योंकि वह घटादि जड़ द्रव्यों की तरह भूत द्रव्य का कार्य है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली
भूतकार्यञ्च शरीरम्, तस्मादेतदप्यचेतनम् । युक्त्यन्तरमाह---मृते चासम्भवादिति । मृते शरीरे चैतन्यस्यासम्भवादित्यनेनायावद्रव्यभावित्वं विवक्षितम् । चैतन्यं शरीरस्य विशेषगुणो न भवति, अयावद्रव्यभावित्वात् संयोगवत् । अत एव तत्कारणान्यप्यचेतनानि, तेषां चैतन्ये कार्येऽपि चैतन्यं स्यात् । एकस्मिन् शरीरे ज्ञातृबहुत्वञ्च प्राप्नोति । ततश्चैकाभिप्रायेण प्रवृत्तिनियमाभावादिदोषः । नेन्द्रियाणां करणत्वादिति । इन्द्रियाण्यचेतनानि करणत्वाद्दण्डवत् ।
हेत्वन्तरञ्च समुच्चिनोति-उपहतेष्विति । विनष्टेष्वपीन्द्रियेषु पूर्वानुभूतोऽर्थः स्मर्य्यते, न चानुभवितरि विनष्टे स्मरणं युक्तम्, तस्मान्नेन्द्रियगुणा ज्ञानम् । न च विषयस्य पूर्वानुभूतस्यासान्निध्येऽपि स्मृतिदृष्टा, बाह्येन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वात् । तस्मात् स्मृतिस्तावन्नेन्द्रियाणाम् । तदभावादनुभवोऽपि न स्यादन्यस्यानुभवेऽन्यस्यास्मरणादित्यर्थः । अत एव विषयस्यापि न चैतन्यम्, नष्टे विषये जितने भी कार्य भूतद्रव्यों से उत्पन्न होते हैं वे सभी अचेतन ही होते हैं, जैसे कि धटादि । शरीर भी भूत द्रव्य का ही कार्य है, अतः उसमें भी चैतन्य नहीं है । 'मृते चासम्भवात्' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग में दूसरा हेतु देते हैं कि मृत शरीर में चैतन्य असम्भव है। इससे यह अनुमान अभीष्ट है कि चैतन्य ( ज्ञान ) शरीर का विशेषगुण नहीं है. क्योंकि वह अयावद्रव्य भावी है, जैसे कि संयोग । इसी हेतु से शरीर के अवयवों में भी चैतन्य नहीं है। यदि वे चेतन होते तो उनका कार्य शरीर भी चेतन होता। शरीर के अवयवों को अगर चेतन मान लें तो फिर एक ही शरीर में अनेक ज्ञाताओं की सत्ता माननी पड़ेगी। जिससे एक अभिप्राय के द्वारा नियमित प्रवृत्त्यादि की अनुपपत्ति होगी । 'नेन्द्रियाणां करणत्वात्' इन्द्रियाँ अचेतन हैं, क्योंकि करण हैं, जैसे कि दण्डादि ।
'उपहतेषु' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग में दूसरा हेतु देते हैं । इन्द्रियों के नाश हो जाने पर भी उनके द्वारा अनुभूत विषयों को स्मृति होती है। फिर तो अनुभव करने वाली इन्द्रिय का नाश हो जाने पर उससे अनुभूत विषयों का स्मरण होना उचित नहीं है, अतः ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं है । ( इस में एक युक्ति यह भी है कि) इन्द्रियों का यह स्वभाव है कि जिस विषय के साथ उन का सम्बन्ध विद्यमान रहता है, उसी विषय के ज्ञान का वह उत्पादन करती हैं। किन्तु जिस समय जिस विषय के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध न भी रहे उस समय भी उस विषय को स्मृति होती है, अतः स्मृतियों की उत्पत्ति इन्द्रियों से नहीं होती है। इन्द्रियों में अनुभव करने की क्षमता भी नहीं है, क्योंकि अनुभव करने की एवं स्मरण करने की क्षमता एक ही वस्तु में होनी चाहिए। यह कभी नहीं होता कि अनुभव कोई करे एवं स्मृति किसी और को हो। ठीक इन्हीं कारणों से विषयों में भी चैतन्य नहीं
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् उपहतेषु विषयासान्निध्ये चानुस्मृतिदर्शनात् । नापि मनसः, करणान्तरानपेक्षित्वे युगपदालोचनस्मृतिप्रसङ्गात्, स्वयं करणभावाच्च । परिका सामीप्य न रहने पर या इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी स्मृति को उत्पत्ति देखी जाती है। ज्ञान मन का भी धर्म नहीं है, क्योंकि मन को अगर (चक्षुरादि) अन्य कारणों से निरपेक्ष होकर ज्ञान का समवायिकारण मानें तो फिर एक ही समय एक ही व्यक्ति को आलोचनज्ञान और स्मृति दोनों होंगी। एवं मन स्वयं करण
न्यायकन्दली तत्स्मरणायोगात् । इतोऽपि न तस्य चैतन्यम्, तद्देशज्ञानस्य तज्जन्यस्य च सुखादे. रननुभवात्, बुद्धिपूर्वकचेष्टाविशेषाभावाच्च । न चेन्द्रियचैतन्ये विषयचैतन्ये च रूपमद्राक्षं रसमन्वभवं स्पर्श स्पृशामि गन्धं घ्रास्यामीति रूपादिप्रत्ययानामेकैकरूपत्वप्रतिपत्तिसम्भवः, रूपादीनां चक्षुरादीनाञ्च भेदात् ।
__ अस्तु हि मनोगुणो ज्ञानम् ? तस्य सर्वविषयत्वे नित्यत्वे च प्रतिसन्धानाधुपपत्तेस्तत्राह-नापि मनस इति । मनो यदि चक्षुरादिविविक्तं कारणान्तरमपेक्ष्य रूपादीन् प्रत्येति, सज्ञाभेदमात्रे विवादः, यदपेक्षणीयं तन्मनो यच्च ज्ञानाधिकरणं स्वीकार किया जाता, क्योंकि विषयों के नष्ट हो जाने पर भी उनकी स्मृति होती है। विषयों में चैतन्य न मानने में एक यह भी युक्ति है कि वे ज्ञान के आश्रय रूप में ज्ञात नहीं होते, एवं उनमें ज्ञानजनित सुख का भी अनुभव नहीं होता है, एवं विषयों में ज्ञानजनित विशेष प्रकार की चेष्टा भी नहीं है। इन्द्रियों में या विषयों में चैतन्य मान लेने से 'मैंने रूप को देखा, मैंने रस का अनुभव किया, मैं स्पर्श का अनुभव कर रहा हूँ, मैं गन्ध को सूघूगा' इत्यादि विभिन्न प्रतीतियों में एक कर्ता के द्वारा उत्पन्न होने का अनुभव ठीक नहीं बैठेगा। क्योंकि वे रूपादि और उनकी ग्राहक इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न है ।
(प्र.) ज्ञान को मन का ही गुण मान लीजिए, क्योंकि वह सभी विषयों का ग्राहक एवं नित्य भी है। अत: शरीर में, इन्द्रियों में या विषयों में चैतन्य मान लेने से होने वाली स्मृति की अनुपपत्तियां आपत्तियाँ इस पक्ष में नहीं आयेंगी। इसी पूर्वपक्ष का खण्डन 'नापि मनसः' इत्यादि से करते हैं। मन यदि चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न किसी (कारणान्तर) इन्द्रिय की सहायता से रूपादि विषयों के ज्ञान का उत्पादन करता है तो फिर नाममात्र का विवाद रह जाता है। क्योंकि आप के मत से ज्ञान के उत्पादन में मन को चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न जिस इन्द्रिय की अपेक्षा होती है. उसे हम लोग 'मन' कहते हैं । एवं ज्ञान के जिस अधिकरण को आप 'मन' कहते हैं, वही हम लोगों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली मनः सोऽस्माकमात्मेति । अथ नापेक्षते करणान्तरम्, तदा रूपरसादिष्विन्द्रियसम्बद्धेषु युगपदालोचनानि प्रसज्यन्ते, कारणयोगपद्यात् । कारणान्तरापेक्षायां तु तस्याणुत्वे सर्वेन्द्रियेषु सान्निध्याभावाद्युगपदालोचनानुत्पत्तिः । अथान्तःकरणाभावो युगपत्स्मरणानि स्युरपेक्षणीभावात् करणापेक्षायां तु तत्संयोगस्य युगपदसामर्थ्यात् क्रमेण स्मृत्युत्पत्तिः।
यत्तूक्तं केनचिदेकस्य नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामकरणमिति ! तदयुक्तम्, युगपत्करणासम्भवात्, उत्तरकालमकरणञ्च कर्तव्याभावात् ! न च तावता तस्य सत्त्वम्, अर्थक्रियाकारित्वव्यतिरिक्तस्य सत्त्वस्येष्टत्वात् ।
इतोऽपि मनोगुणो ज्ञानं न भवति, मनसः स्वयं करणत्वादित्याह-स्वयं
की आत्मा है। यदि किसी अन्य (करण) इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं होती है तो फिर एक ही क्षण में एक ही अधिकरण में स्मृति और अनुभव दोनों की उत्पत्ति अनिवार्य होगी, क्योंकि एक ही समय दोनों की सामग्री तैयार है। अगर दूसरे कारण की अपेक्षा मानते हैं और मन को अणु मान लेते हैं तो एक काल में अनेक इन्द्रियों के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः ज्ञान योगपद्य' (अर्थात् एक आश्रय में एक क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति ) की आपत्ति होगी। (प्र. ) यह ठीक है कि मन को चक्षुरादि से भिन्न किसी दूसरे करण की भी आवश्यकता रहती है, किन्तु वह करण' अन्तःकरण नहीं है। ( उ०) तब भी एक काल में अनेक स्मृतियों की आपत्ति रहेगी, क्योंकि स्मृति के उत्पादन में बाह्य किसी भी करण की आवश्यकता नहीं होती है ? अगर अन्तःकरण मान लेते हैं तो फिर अन्तःकरण में एक काल में अनेक स्मृतियों के उत्पादन का सामर्थ्य नहीं रहता है, अतः उससे क्रमशः ही स्मृतियाँ उत्पन्न होंगी।
(प्र.) एक एवं नित्य कोई वस्तु कारण ही नहीं हो सकती. क्योंकि कारण का यह स्वभाव है कि या तो वह एक ही समय अपने सभी कामों को करेगा ( यही युगपत्कारित्व है) या क्रमशः ही अपने कामों को करेगा ( यही क्रमकारित्व है)। इन दोनों में से कोई भी किसी नित्य एक वस्तु में सम्भव नहीं है । अतः नित्य आत्मा ज्ञान का समवायिकारण नहीं हो सकता । (उ०) एक ही कारण से होनेवाले सभी कार्य किसी एक ही क्षण में हो ही नहीं सकते क्योंकि ऐसा मान लेने पर वह उसके बाद कारण ही नहीं रह जायगा। यतः उसी सम्पादित होनेवाले सभी कार्य हो चुके हैं, अब उसे कुछ करना नहीं है। एवं यह भी कोई नियम नहीं है कि जो किसी का कारण न हो उसकी सत्ता ही उठ जाय। जो किसी का कारण नहीं है, उसकी भी सत्ता मानने में कोई बाधा नहीं है।
'मन स्वयं ही करण है' इस हेतु से भी ज्ञान मन का गुण नहीं है, यही बात
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
१७५
प्रशस्तपादभाष्यम् शेषादात्मकार्यत्वात्तेनात्मा समधिगम्यते । है ( अा: कर्ता नहीं हो सकता ) । परिशेषानुमान के द्वारा यतः ज्ञान आत्मा रूप कारण का कार्य है, अतः ज्ञान रूप कार्य से आत्मा रूप कारण को समझते हैं।
न्यायकन्दली करणभावाच्चेति । मनश्चेतनं न भवति करणत्वाद् घटादिवदिति । असिद्धं मनसः करणत्वम् कर्तृत्वाभ्युपगमादिति चेत् ? मनसः कर्तृत्वे रूपादिप्रतीतौ चक्षुरादिवत् सुखादिप्रतीतौ करणान्तरं मृग्य, क्रियायाः करणमन्तरेणानुपजननात् । तथा सति च सज्ञाभेदमात्रम्, कर्तु:करणस्य चोभयोरपि सिद्धत्वात् ।।
___ इतोऽप्यचेतनं मनो मूर्त्तत्वाल्लोष्टवत् । यदि शरीरेन्द्रियमनसां गुणो ज्ञानं न भवति, तथाप्यात्मसिद्धौ किमायातं तत्राह--परिशेषादिति। ज्ञानं तावत् कार्य्यत्वात् कस्यचित् समवायिकरणस्य कार्यम्, शरीरेन्द्रियमनसाञ्च तदाश्रयत्वं प्रतिषिद्धम् । न चान्येषु वक्ष्यमाणेन न्यायेन ज्ञानकारणत्वं प्रति शक्तिरस्ति, अतः परिशेषादात्मकायं ज्ञानम् । आत्मकार्यत्वात्तेन ज्ञानेनात्मा समधिगम्यत इत्युपसंहारः।
ननु सर्वमेतदसम्बद्धम्, क्षणिकत्वेनाश्रयाश्रयिभावाभावात् । तथा हि'स्वयं करणभावाच्च' इस वाक्य से कहते हैं। मन चेतन नहीं है, क्योंकि स्वयं करण हैं, जैसे कि घटादि । (प्र. ) मैंने तो मन को कर्ता मान लिया है फिर उसके करणत्व की चर्चा कैसी ? (उ०) मन को अगर कर्ता मान लें तो फिर जैसे रूपादिज्ञान के चक्षुरादि करण हैं, वैसे ही सुखादि ज्ञान के लिए भी कोई करण खोजना पड़ेगा। क्योंकि करण के बिना क्रिया की उत्पत्ति ही असम्भावित है। तब फिर नाम का ही विवाद रह जाता है, क्योंकि सुखादि प्रतीति के कर्ता और करण दोनों ही सिद्ध हो चुके हैं ।
मन चेतन नहीं है, क्योंकि वह मूर्त है, जैसे कि ढेला, इस प्रकार मूर्त्तत्व हेतु से भी समझते हैं कि मन चेतन नहीं है । (प्र०) 'ज्ञान शरीर, इन्द्रिय एवं मन इन तीनों में से किसी का भी गुण नहीं है, यह सिद्ध हो जाने पर आत्मा की सिद्धि में क्या उपकार हुआ ? इसी प्रश्न का उत्तर 'परिशेषात्' इत्यादि से देते हैं । यतः ज्ञान (समवेत ) कार्य है, अत: अवश्य ही उसका कोई समवायिकारण है | यह सिद्ध हो चुका है कि शरीर, इन्द्रिय और मन ये तीनों समवाय सम्बन्ध से उसके आश्रय नहीं हैं | आगे कही जाने वाली युक्तियों से और भी किसी वस्तु में ज्ञान (समवायि) कारणत्व रूप शक्ति सम्भव नहीं है, अत: परिशेषानुमान से यह समझते हैं कि ज्ञान आत्मा रूप समवायिकारण का ही कार्य है । यही प्रकृत विषय का उपसंहार है।
(प्र०) किन्तु ये सभी बातें असम्बद्ध हैं, क्योंकि संसार को सभी वस्तुएँ क्षणिकर १. बौद्धों का कहना है कि 'बीजों में अकुरों को जन्म देने का सामर्थ्य
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१७६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[प्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली
सत्त्वमर्थक्रियाकारित्वम्, तच्च क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्तम्, क्रमाक्रमालात्मकस्य प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । अनेकार्थक्रियाणामनेककालता हि क्रमः, योगपद्यं चंककालता । न चैकानेकाभ्यामन्यः प्रकारोऽस्ति, परस्परविरुद्धयोरेकप्रतिषेधस्येतरविधिनान्तरीयकत्वात् । अक्षणिकत्वे तु न क्रमसम्भवः, समर्थस्य क्षेपायोगात् ।
हैं, क्षणिक वस्तुओं में आधाराधेयभाव सम्भव ही नहीं है। (अभिप्राय यह है कि अर्थक्रियाकारित्व ही सत्य है, सत् वही है जो किसी कार्य का कारण हो) अर्थक्रियाकारित्व क्रम और यौंगपद्य का व्याप्य है। कार्यों की उत्पत्ति के क्रम एवं अक्रम ( योगपद्य) ये दो ही प्रकार हैं। इन दोनों को छोड़कर इसका कोई तीसरा प्रकार नहीं है। अनेक अर्थक्रियाओं (कार्यों ) की एक काल में उत्पत्ति ही 'क्रम' है। एक काल में अनेक कार्यों की उत्पत्ति ही 'अक्रम' या योगपद्य है, अतः इन दोनों को छोड़कर कार्योत्पति का कोई तीसरा प्रकार नहीं है। परस्पर विरुद्ध दो वस्तुओं में से एक के प्रतिषेध के बिना दूसरे का विधान नहीं हो सकता। अगर वस्तुओं को क्षणिक न मानें तो कार्यों की यह क्रमशः उत्पत्ति सम्भव नहीं होगी, क्योंकि जिसमें जिस कार्य
है या नहीं ?' इस विकल्प को अगर विधिकोटि माने, अर्थात् यह कहें कि बीजों में अंकुर के उत्पादन की शक्ति है तो फिर बीज से सर्वदा-बीजों को कोठियों में रहने के समय भी-अंकुरों की उत्पत्ति होनी चाहिए। अगर निषेधकोटि माने, अर्थात् यह कहें कि बीजों में अंकुरों के उत्पादन करने का सामर्थ्य नहीं है, तो फिर कभी भी--खेत में बोने पर भी-बीजों से अंकुरों की उत्पत्ति नहीं होगी। अत: अंकुर के अव्यवहित पूर्वक्षण में बीज में एक विलक्षण धर्म की उत्पत्ति होती है, जिसका नाम है 'कुर्वद्रूपत्व' । इस रूप से ही बीज अंकुर का कारण है, केवल बीजत्व रूप से नहीं, कोठियों के बीजों में बीजस्व के रहने पर भी यह 'अंकुरकुर्वद्रूपत्व' धर्म नहीं है, अतः कोठी के बीजों से अंकुरों की उत्पत्ति नहीं होती है। इस प्रकार खेत में बोये हुए बीजों से कोठी के बीज भिन्न हैं, क्योंकि यह सम्भव नहीं है कि एक ही वस्तु में एक ही जाति रहे भी और न भी रहे। बीजों की यह विभिन्नता प्रत्येक क्षण में विभिन्न बीजों की उत्पत्ति के बिना सम्भव नहीं है, अतः यह समझमा चाहिए कि किसी भी वस्तु को क्षणिक माने बिना उसमें अर्थक्रियाकारित्व सम्भव ही नहीं है । एवं सत्त्व अर्थक्रियाकारित्व रूप ही है, अत: यह उपसंहार कर सकते हैं कि जो भी सत् है वह अवश्य ही क्षणिक है, जैसे कि बीज, तस्मात् सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं।
___ आत्मा को अगर ज्ञान का समवायिकारण मानें तो उसे भी क्षणिक मानना ही पड़ेगा । अगर आत्मा क्षणिक है तो वह किसी का आश्रय नहीं हो सकता । अत: आत्मसिद्धि को कथित युक्तियां ठीक नहीं हैं।
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१७७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली असमर्थस्य कालान्तरेऽप्यजनकत्वस्वभावस्यानतिवृत्तेः । क्रमवत्सहकारिलाभात्क्रमेण करणं तस्येति चेत् ?
अत्र वदन्ति-यदि सहकारिणो भावातिशयं न जनयन्ति, नापेक्षणीयाः, अकञ्चित्किरत्वात् । जनयन्ति चेत् ? स किं तावद्वयतिरिक्तः ? अव्यतिरिक्तो वा ? व्यतिरेकपक्षे तावदतिशयादेवागन्तुकादन्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्योत्पत्तिरित्यक्षणिकस्य न हेतृत्वम, सत्यपि तस्मिन्नभावात् । सहकारिकृताशयसहितस्य तस्य जनकत्वमिति चेत् ? अतिशयस्यातिशयान्तरानारम्भे कीदृशी सहायता ? आरम्भे चानवस्थायाः का प्रतिक्रिया ? सहकारिजन्योऽतिशयः स चाक्षणिकस्येति सुभाषितम्, अनुपकार्यानुपकारकयोः सम्बन्धाभावात् । भावादभिन्नोऽतिशयः सहकारिभिः क्रियत इत्यपि न सुपेशलम्, भावस्य को करने का सामर्थ्य है, वह कभी नष्ट नहीं हो सकती है। एवं जो जिस कार्य को करने में असमर्थ है वह कभी उस काम को कर ही नहीं सकता है। क्रमशः कार्य करनेवाले सहकारि कारणों की सहायता से क्रमशः कार्यों की उत्पत्ति होती है।
__ इस प्रसङ्ग में बौद्धगण कहते हैं कि (प्र.) सहकारि कारण मुख्य कारण में किसी विशेष सामर्थ्य का उत्पादन करते हैं या नहीं ? यदि नहीं करते हैं तो फिर उस कार्य के लिए वे अपेक्षित ही नहीं हैं (फलत: कारण ही नहीं हैं ) क्योंकि वे कार्योत्पत्ति के लिए कुछ भी नहीं करते । यदि सहकारि कारण मुख्य कारण में किसी विशेष सामर्थ्य का उत्पदन करते हैं तो फिर यह पूछना है कि यह सामर्थ्य क्या अपने आश्रयीभूत मुख्य कारण से भिन्न है. या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो फिर कार्य की उत्पत्ति उसी से होगी, क्योंकि कार्य का अन्वय और व्यतिरेक उसी के साथ है। इस से यह सिद्ध होता है कि अक्षणिक वस्तुओं से कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि उनके रहते हुए भी (क्षणिक उस शकिा के विना) कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। ( उ०) सहकारी कारणों से विलक्षण शक्ति की उत्पत्ति होती है एवं उस शक्ति से युक्त बीजादि ही कारण हैं। (प्र०) यह अतिशय' ( विलक्षण सामर्थ्य ) उन बीजादि बस्तुओं में किसी दूसरे अतिशय को जन्म देता है या नहीं ? अगर नहीं तो फिर सहायता कैसी ? अगर हाँ ? तो अनवस्था दोष का क्या परिहार होगा ? यद्यपि यह कहना ठीक सा लगता है कि सहकारियों से अतिशय की उत्पत्ति अवश्य होती है किन्तु वह क्षणिक वस्तुओं का धर्म नहीं है, किन्तु अक्षणिकों का धर्म है। यह कहता भी ठीक नहीं हैं कि वह अतिशय या सामर्थ्य विशेष सहकारियों से अवश्य ही उत्पन्न होता है, एवं वह अपने
१. अभिप्राय यह है कि बीजादि में सर्वदा अङकुरादि के उत्पन्न का सामर्थ्य है ही। जब उसे खेत, पानी प्रभृति सहकारियों की सहायता पहुंचती है तभी उन से अकुरादि कार्यों की उत्पत्ति होती है ।
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१७८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्य आत्म
न्यायकन्दली पूर्वोत्पन्नस्य पुनरुत्पत्त्यभावात् । प्राक्तनो हि भावोऽनतिशयात्मा निवर्त्तते, अन्यश्चातिशयात्मा जायत इति चेत् ? क्षणिकत्वसिद्धिः।
ननु क्षणिकस्यापि सहकारिभि. किं क्रियते ? न किञ्चित्, किमर्थं तहि ते अपेक्ष्यन्ते ? को वै ब्रूते अपेक्ष्यन्ते इति, प्रत्येकमेव हि कार्यजननाय समर्था अन्त्यावस्थाभाविनः क्षणाः, का तेषां परस्परापेक्षा ? यत्तु तदानों परस्परं प्रत्यासीदन्ति तदुपसर्पणकारणस्यावश्यम्भावनियमात्, न तु सम्भूयकार्यकरणाय, तत्काले चोपसर्पणहेतुनियमस्तेषां वस्तुस्वाभाव्यात् । प्रत्येकं समर्था हेतवः प्रत्येक कार्य जनयेयुः। किमित्येकमनेके कुर्वन्ति ? अत्राप्यमीषां कारणानि प्रष्टव्यानि, यान्यप्रत्येकार्थनिर्वर्तनशीलानि प्रभावयन्ति । वयं तु यथादृष्टस्य वस्तुस्वभावस्य वक्तारो न पर्यनुयोगमर्हामः । कार्यमेकेनैव कृतं किमपरे कुवन्तीति चेत् ? न कृतं कुर्वन्ति किन्त्वेकेन क्रियमाणमपरेऽपि कुर्वन्ति । आश्रयीभूत मुख्य कारण से अभिन्न है, क्योंकि अनुपकार्य और अनुपकारक में ( सहाय्यसहायकभाव ) सम्बन्ध असम्भव है" क्योंकि एक बार उत्पन्न वस्तु की फिर से उत्पत्ति नहीं होती है। ( उ० ) अनतिशय स्वरूप पहली वस्तु का नाश होता है एवं अतिशय स्वरूप दूसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है। (प्र०) फिर तो क्षणिकत्व का सिद्धान्त अटल है।
(उ० ) वस्तुओं को क्षणिक मान लेने पर भी सहकारियों से उन्हें क्या सहायता मिलती है ? (प्र०) कुछ भी नहीं ? (उ०) फिर वे सहकारियों की अपेक्षा क्यों रखते हैं ? (प्र०) कौन कहता है कि बीजादि कारण अपने कार्यों के लिए सहकारियों की अपेक्षा रखते हैं । 'अन्त्य क्षण अर्थात् कार्योत्पत्ति के अव्यवहित पूर्वक्षण में रहनेवाले सभी ( मुख्य और सहकारी दोनों ही प्रकार के ) कारण अङकुरादि कार्यों को उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इस में सब की परस्परापेक्षा कैसी? उस क्षण में मुख्य सहकारी दोनों प्रकार के कारणों का सम्मेलन इसलिए नहीं होता कि मिलकर ही वे कार्य को उत्पन्न कर सकते हैं, किन्तु उस क्षण में नियमित रूप से सम्मेलन की सामग्री रहती है अतः उस क्षण में सभी कारण अवश्य ही सम्मिलित होते हैं । प्रश्न यह रह जाता है कि 'नियमत: उसी क्षण में क्यों एकत्र हों ? इस का यही उत्तर है कि 'यह उनका स्वभाव है' (उ० ) मुख्य कारण और सहकारियों में से प्रत्येक भी यदि स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सकते हैं तो फिर वे अलग अलग अपना काम करेंगे, एक ही काम को सब मिलकर क्यों करेंगे? (प्र.) यह तो उन कारणों से ही पूछिये कि प्रत्येकशः वे कार्य करने में समर्थ होते हुए भी क्यों सम्मिलित होकर एक ही कार्य को करते हुए से प्रतीत होते हैं। इस अभियोग के भागो हमलोग नहीं। हमलोग तो वस्तुओं को जैसा देखते हैं वैसा ही वर्णन करते हैं। (उ०) कार्य जब एक ही कारण से सम्पादित हो जाता है तब शेष
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प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम्
१७६ न्यायकन्दली यत्रैकमेव समर्थ तत्रापरेषां क उपयोग इति चेद् ? सत्यम्, न ते प्रेक्षापूर्वकारिणो यदेवं विमृश्योदासते । एकं कार्य्यमनेकस्मादुत्पद्यत इति दुर्घटमिदम्, कारणभेदस्य कार्यभेदहेतुत्वादिति चेन्नैवम्, सामग्रीभेदाद्धि कार्य्यभेदो न सहकारिभेदात्, एककार्यकारितैव सहकारिता, तस्मात् क्षणिकत्वे कमवतां भावानां क्रमेण कार्यकरणं घटते, दुर्घटा तु अक्षणिकस्यार्थक्रियेति । युगपत्करणमपि दुर्घटम्, तावत्कार्यकरणसमर्थस्य स्वभावस्योत्तरकालमप्यनिवृतेः । कृतस्य करणं नास्ति, कर्तव्यञ्चास्य न विद्यते । निखिलस्य कार्यकलापस्य सकृदेव कृत. त्वात् अतः क्षणान्तरे न करोतीति चेत् ? तहि अयं तदानीमसन्नेव, समस्तार्थक्रियाविरहात् । तदेवं व्यापकयोः क्रमयोगपद्ययोरनुपलम्भेनाक्षणिकान्निवर्तमानं कारण क्या करते हैं, ठीक है वे उस एक कारण से किए जाते हुए कार्य को ही करते हैं ? (प्र.) एक कारण से उत्पन्न हुए कार्य को ही शेष कारण नहीं करते हैं किन्तु एक के द्वारा सम्पादित होते हुए कार्य का ही सम्पादन शेष कारण भी करते हैं। ( उ० ) जहाँ एक ही कारण से कार्य सम्पादन की सम्भावना है वहाँ और कारणों का क्या उपयोग है ? (प्र. ) यह आक्षेप सत्य है, किन्तु वे कारण तो कुछ समझ कर काम करने की क्षमता नहीं रखते कि एक ने इस काम को कर ही दिया तो हम लोगों को इस झंझट से क्या प्रयोजन ? यह समझकर इस से उदासीन हो जाय । ( उ०) फिर भी यह दुर्घट ही है कि समान शक्ति वाले अनेक कारणों से एक ही कार्य की उत्पत्ति हो, क्योंकि कारणों के भेद से ही कार्यो के भेद होते हैं। (फलतः विभिन्न कारणों से विभिन्न ही कार्य होंगे, एक कार्य नहीं) (प्र.) यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सहकारियों के भेद से कार्यो का भेद नहीं होता है, किन्तु सामग्रियों ( कारणसमूहों) के भेद से कार्यों में भेद होता है। एक कार्यकारित्व ही अर्थात् मुख्य कारण से होनेवाले कार्य को मुख्य कारण के साथ मिलकर करना ही 'सहकारित्व' है। अतः वस्तुओं को क्षणिक मानने पर ही क्रमशील भावों से क्रमशः कार्य की उत्पत्ति की सम्भावना है । अक्षणिक स्थिर वस्तुओं से कार्य की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । एवं युगपत्कारित्व ( एक ही काल में अनेक कार्यों का सम्पादन ) भी सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही काल में अनेक कार्यों की सम्पादकता ही 'युगपत्कारिता' है, इस युगपत्कारिता रूप सामर्थ्य का तो कारणों से लोप नहीं होगा ? तब फिर उन्हीं कार्यों की उत्पत्ति बराबर होती रहेगी। ( उ० ) उत्पन्न कार्यों की फिर से उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अपने से होनेवाले सभी कार्यों का सम्पादन वह कर चुका है यतः उस को कुछ कर्तव्य भी नहीं है। अतः उसके बाद वह कार्य का सम्पादन नहीं कर सकता । (प्र०) फिर आगे के क्षणों में उस की सत्ता ही सम्भव नहीं है, क्योंकि उन क्षणों में उस में किसी किसी अर्थक्रिया का
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१८०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली
सत्त्वं क्षणिके व्यवतिष्ठते । तथा च सति सुलभं क्षणिकत्वानुमानं यत् सत् तत् क्षणिकं, सन्ति च द्वादशायतनानीति । अत्रोच्यते - न सत्वात् क्षणिकत्वसिद्धिः, तस्य विपक्षव्यावृत्त्यनवगमात् । यत्क्रमयौगपद्यरहितं तदसत् यथा वाजिविषाणम्, क्रमयौगपद्यरहितञ्चाक्षणिकमिति बाधकेनाक्षणिकात् क्रमयौगपद्यव्यावृत्त्या सत्त्वव्यतिरेकप्रतीतिरिति चेन्न, अक्षणिकस्याप्रतीतौ सत्त्वस्य ततो व्यावृत्तिप्रतीत्यसम्भवात् यथा प्रतीयमाने जले तत्र वह्निधूमयोरभावप्रतीतिः, एवमक्षणिके दृश्यमाने क्रमयौगपद्याभावात्सत्त्वाभाव: प्रत्येतव्यः । न चाक्षणिको नाम कश्चिदस्ति भवताम्, यथाऽप्रतीयमानेऽपि पिशाचे ततोऽन्यव्यावृत्तिः प्रतीयते जनकत्व नहीं है । अतः सत्त्व के व्यापक क्रमकारित्व युगपत्कारित्व ये दोनों ही अक्षणिक स्थिर वस्तुओं में नहीं रह सकते ( अतः अक्षणिक स्थिर किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है ) फलतः सत्त्व क्षणिक वस्तुओं में ही नियमित हो जाता है । अत: सभी वस्तुओं में क्षणिकत्व का यह अनुमान सुलभ हो जाता है कि जो सत् है अवश्य ही क्षणिक है, जैसे कि द्वादश आयतन । ( उ० ) हम लोग इस आक्षेप का यह समाधान करते हैं कि सत्त्व हेतु से क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि इस अनुमान के हेतु में 'विपक्षव्यावृत्ति' अर्थात् विपक्षासत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता है । ( प्र० ) " जिसमें न क्रमशः कार्य के उत्पादन का सामर्थ्य है अर्थात् क्रमकारित्व है और न कार्यों को एक ही समय में उत्पादन का सामर्थ्य अर्थात् युगपत्कारित्व है वह सत् भी नहीं है जैसे कि घोड़े की सींग” इस बाधक अनुमान के वल से स्थिर वस्तुओं से सत्त्व हट जाता है, अतः स्थिर वस्तुओं में सत्त्व के अभाव की प्रतीति होती है । अक्षणिक वस्तु ही प्रकृत में विपक्ष है । अत. अक्षणिक वस्तु रूप विपक्ष के ज्ञान के विना विपक्षव्यावृति का सम्भव नहीं है । प्रतीत होनेवाले जल में ही वह्नि और घूम के अभाव की प्रतीति होती है । इसी प्रकार जब अक्षणिक कोई वस्तु देखी जायेगी तब उस में क्रम और योगपद्य के न होने . से सत्त्व का अभाव समझेंगे । किन्तु आप ( बौद्ध ) के मत में कोई भी वस्तु अक्षणिक
ज्ञान
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[ द्रव्ये आत्म
१. अभिप्राय यह है कि वही हेतु साध्य का ज्ञापक हो सकता है जिसमें ( १ ) पक्ष सत्त्व ( २ ) सपक्षसश्व ( ३ ) विपक्षासत्त्व ( ४ ) अबाधितत्व एवं ( ५ ) असत्प्रतिपक्षितत्व ये पाँच रूप निर्णीत रहे । प्रकृत क्षणिकत्व के साधक सत्त्व हेतु में विपक्षध्यावृत्ति या विपक्षासत्त्व का सकता है, क्योकि बौद्धगण संसार की सभी वस्तुओं में क्षणिकत्व का अतः सभी अन्तर्गत आ गये हैं । विपक्ष के लिए कोई बचा ही नहीं अतः प्रकृत में विपक्ष की अप्रसिद्धि के कारण विपक्षव्यावृत्ति भी अप्रसिद्ध ही है । अतः साध्यसाधक हेतु का ज्ञान न होने के कारण प्रकृतानुमान ठीक नहीं है ।
निर्णय नहीं हो साधन करते हैं ।
पदार्थ पक्ष के हो
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१८१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्तम्भः पिशाचो न भवतीति, तद्वदेतदपि भविष्यतीति चेद ? न, व्यावृत्तरनुपलब्धिप्रमाणैकगोचरत्वात्, तद्विविक्तेतरपदार्थोपलब्धिस्वभावत्वाच्चानुपलब्धेः प्रतियोग्युपलब्धिमन्तरेणाभावात् । न च स्वरूपविप्रकृष्टत्वे पिशाचस्य ततो व्यावृत्तिप्रतीतिसम्भवः । कथं तहि स्तम्भः पिशाचो न भवतीति प्रतीतिरिति चेत् ? नायं संसर्गप्रतिषेधः, किन्तु तादात्म्यप्रतिषेधोऽयम् । स च स्तम्भात्मतया प्रसञ्जितस्य पिशाचस्य दृश्यत्वाभ्यनुज्ञानात् प्रवर्तते, नान्यथा, यथोक्तम्-- तादात्म्येन यावान्निषेधः स सर्व उपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वाभ्युपगमेन क्रियते" इति । तत्र स्तम्भस्वरूथैकनियता स्तम्भप्रतीतिस्तदनात्मन्यवच्छेदकारणम्, यदि स्तम्भः पिशाचो भवेत् तेनाप्यात्मना ज्ञातः स्यात् । न च ज्ञानं स्तम्भत्ववत्पिशाचात्मतामपि गृह्णाति, तस्मादयं पिशाचो न भवतीति । ___अथ मतम्, न नीलादिव्यतिरिक्तोऽक्षणिकः क्षणिको वा कश्चिदस्ति,
नहीं है । (प्र०) जैसे कि अप्रतीत पिशाच में अन्य से व्यावृत्ति की यह प्रतीति होती है कि 'स्तम्भ पिशाच नहीं है' यहाँ भी वैसे ही विपक्ष-व्यावृत्ति की प्रतीति होगी ? ( उ० ) 'व्यावृत्ति' अर्थात् वृत्तित्व के अभाव का निश्चय अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण से ही हो सकता है। अनुपलब्धि केवल उपलब्धि का अभाव ही नहीं है, किन्तु प्रतीत होनेवाले अभाव के प्रतियोगी से भिन्न की उपलब्धिरूप है । अतः (विपक्ष व्यावृत्ति में अपेक्षित ) अनुपलब्धि साध्योभाव के प्रतियोगीरूप साध्यकी उपलब्धि के विना असम्भव है ( अर्थात् पिशाच की, यदि असत्ता सिद्ध हो जाय तो फिर उस का ज्ञान ही असम्भव है' ) (प्र.) तो फिर स्तम्भ पिशाच नहीं है' यह प्रतीति कैसे होती है ? ( उ० ) यह संसर्ग के अर्थात् आधारआधेयभाव के नियामक पिशाच के सम्बन्ध के अभाव की प्रतीति नहीं है, किन्तु यह उस के तादात्म्य के प्रतिषेध की प्रतीति है, यह भी स्तम्भ रूप से सम्भावित पिशाच को दृश्य मान कर ही प्रवृत्त होता है, अन्यथा नहीं, । जैसा कहा है कि तादात्म्य सम्बन्ध से जितने निषेधों की प्रतीति होती है वे निषिद्ध होनेवाले सभी वस्तुओं की सत्ता मान कर ही होती है। यहाँ केवल स्तम्भ में ही होनेवाली 'यह स्तम्भ है' यह प्रतीति ही स्तम्भ के स्वरूप से भिन्न पिशाचादि के निषेध का कारण होती है। तदनुकूल न्याय का प्रयोग ऐसा है कि 'अगर यह स्तम्भ पिशाच होता तो यह पिशाचत्व रूप से ज्ञात होता, किन्तु स्तम्भोऽयम्' यह ज्ञान स्तम्भत्व की तरह पिशाचत्व को समझाने में असमर्थ है। अतः स्तम्भ पिशाच नहीं
(प्र०) प्रतीत होनेवाले नीलादि पदार्थों से भिन्न क्षणिक या अक्षणिक कोई पदार्थ है ही नहीं किन्तु पहले की बुद्धि से ज्ञात नीलादि क्षणों में जब वर्तमान कालिक
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१८२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली किन्तु प्राक्तनबुद्धिवेद्यो नीलादिक्षणोऽधुनातनबुद्धिवेद्यान्नीलक्षणादभेदेनारोप्यमाणोऽक्षणिक इत्युच्यते । भेदेन व्यवस्थाप्यमाणश्च क्षणिक इति। तत्र नीलादिष्वेव क्रमानमव्यावृत्त्या सत्त्वाभावप्रतीतिः । यदि पूर्वोपलब्धक्षण एवायमुपलभ्यते तदा सम्प्रतितनीमर्थक्रियां प्रागेव कुर्यात्, प्राक्तनी वा सम्प्रत्येव, न पुनः क्रमेण कुर्यात्, एकस्य कारकत्वाकारकत्वविरोधात् । नापि सर्व पूर्वमेव कुर्यात्, सम्प्रत्यर्थक्रियारहितस्यासत्त्वप्रसङ्गादिति । तत्रापि किमेवं सत्त्वस्य हेतोर्वास्तवो विपक्षो दर्शितः ? कल्पनासमारोपितो वा समर्थितः ? न तावद्वास्तवो विपक्षः,नीलादीनामक्षणिकस्यावास्तवत्वात्, तस्मादनुमानाद्वास्तवीमर्थगतिमिच्छता लिङ्गस्य त्रैरूप्यविनिश्चयार्थ धूमानुमानवत् सर्वत्र प्रमाणसिद्धः पक्षादिभावो दर्शयितव्यः, न कल्पनामात्रेण । न चाक्षणिकस्तथाभूतोऽस्तीति व्यतिरेकासिद्धिः । तदसिद्धावन्वयस्याप्यसिद्धिस्तस्यास्तत्पूर्वकत्वादित्यसाधारणत्वं हेतोः ।
बुद्धि के द्वारा ज्ञात क्षण का अभेदभ्रम होता है तभी नीलादि अक्षणिक (स्थिर ) कहलाते हैं। जब वे ही क्षण भिन्न भिन्न रूप से ज्ञात होते हैं तभी नीलादि क्षणिक कहलाते हैं। यही स्थिर रूप से अभिमत नीलादि न क्रमशः कार्यों का उत्पादन कर सकते हैं, न एक ही समय में (युगपत् ) कार्यों का उत्पादन कर सकते हैं। इस (क्रम योगपद्याभाव ) की प्रतीति से स्थिर रूप से अभिमत नीलादि में ही सत्त्व के अभाव की प्रतीति होगी। क्योंकि अगर पहिले के ज्ञात क्षण में ही नीलादि की प्रतीतियाँ होती हैं, तो फिर वह (क्षण ) अभी उत्पन्न होने वाले कार्यों को पहिले ही उत्पन्न करता, या पहिले उत्पन्न होनेवाले काय को अभी उत्पन्न करता। किन्तु क्रमशः तो वह कार्यों का उत्पादन कर नहीं सकता है, क्योंकि एक ही वस्तु में कारकत्व एवं अकारकत्व दोनों विरुद्ध धर्मों का समावेश असम्भव है। यह भी सम्भावना नहीं है कि सभी कार्यों को पहिले ही कर देता है तब तो इस समय अर्थ क्रिया से रहित होने के कारण वस्तु की (वर्तमान काल में सत्ता ही) उठ जायगी। ( उ० ) आप के प्रदर्शित विपक्ष की (स्थिरत्वेन व्यवहृत नीलादि की) सत्ता यथार्थ है ? या काल्पनिक ? इस की सत्ता वास्तविक तो है नहीं, क्योंकि उक्त नीलादि का अक्षणिकत्व ( आप के मत से) अवास्तविक है। अतः अनुमान के द्वारा वास्तव वस्तुओं की सिद्धि की इच्छा रखनेवाले को चाहिए कि हेतु के तीनों रूपों (पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, एवं विपक्षासत्त्व) के निश्चय के लिए धूमानुमान की तरह पक्षादि (पक्ष, सपक्ष, एवं विपक्ष) की काल्पनिक नहीं, वास्तविक सत्ता दिखलावे, किन्तु आप के मत से अक्षणिक वस्तुओं की वास्तविक सत्ता है नहीं। फलतः व्यतिरेक व्याप्ति भी नहीं बन सकती है। (क्योंकि विपक्ष असिद्ध है) इसी तरह अन्वय व्याप्ति भी नहीं बन सकती है,
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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१८३
अपि च बाधकेनाक्षणिकात् सत्त्वव्यतिरेकः प्रसाधितः, क्षणिकत्वसत्त्वयोरन्वयः कुतः सिद्धयति ? न च तत्र विपक्षव्यावृत्तिमात्रेण हेतुत्वमसाधारणस्यापि हेतुत्वप्रसङ्गात् । केवलव्यतिरेक्यनुमानञ्च स्वयमनिष्टम् । अक्षणिकेऽपि सत्त्वं न भवतीत्यवस्थापितेऽर्थात् क्षणिकाश्रयं सत्त्वमित्यन्वयसिद्धिरिति चेत् ? न तावदर्थादिति सत्त्वस्य हेतोः परामर्शः, असिद्धान्वयस्य तस्याद्यापि हेतुत्वाभावात् । बाधकमेव तूभयव्यापारं प्रमाणन्तरं व्याप्ति प्रसाधयद् द्वादशायतनेष्वेव प्रसाधनविषयाया व्याप्तेः प्रत्येतुमशक्यत्वात्, द्वादशायतनव्यतिरिक्तस्य चार्थस्याभावात् । तेषु चान्वयप्रतीतौ क्षणिकत्वस्यापि प्रतीति:, सम्बन्धिप्रतीतिनान्तरीयकत्वात् सम्बन्धप्रतीतेरिति सत्त्ववैयर्थ्यम् । पक्षे सामान्येन व्याप्तिग्रहणं, विशेषे सत्त्वस्य हेतुत्वमिति चेन्न, निर्विशेषस्य सामान्यस्य प्रतीतेरभावात् । विशेष
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।
क्योंकि अन्वयव्याप्ति में भी विपक्ष का ज्ञान आवश्यक है । अतः कथित सत्त्व रूप हेतु ( केवल पक्ष में ही रहने के कारण ) असाधारण नाम का हेत्वाभास है । और भी बात है कि ( कार्यकारणभाव की अनुपपत्ति रूप ) बाघ मूलक अक्षणिकत्व हेतु से विपक्ष में असस्त्र रूप साध्य के अभाव का आपने निश्चय किया है, किन्तु क्षणिकत्व और सत्व में ( नियत ) सामानाधिकरण्य रूप अन्वय ( व्याप्ति ) किस हेतु से सिद्ध होगा ? केवल विपक्ष में न रहने से ही हेतु साध्य का साधन नहीं कर सकता है । क्योंकि इस प्रकार तो असाधारण हेत्वाभास से भी यथार्थ अनुमिति की आपत्ति होगी । केवल व्यतिरेकी अनुमान तो स्वयं ही दूषित है ( प्र०) अक्षणिकों ( स्थिरों) में सत्त्व नहीं है' यह सिद्ध हो जाने पर यह 'अन्वय' अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि 'सत्त्व क्षणिक वस्तुओं में ही है । ( उ० ) " अर्थात् " पञ्चमी विभक्ति युक्त इस हेतु बोधक पद से 'सत्त्व' हेतु ही अभिप्रेत है, किन्तु अन्वय के असिद्ध होने के कारण उसमें हेतुत्व ही असिद्ध है । ( प्र० ) कथित कार्यकारणभाव की अनुपपत्ति रूप दोष के ही दो व्यापारों की कल्पना करेंगे, एक से अक्षणकों में असत्त्व की सिद्धि होगी और दूसरे से क्षणिकों में सत्त्व को सिद्धि होगी । अथवा वही बाधक अभ्वयसाधक दूसरी व्याप्ति रूप प्रमाण को उपस्थित करता हुआ द्वादशायतनों में ही सत्र को सिद्ध करेगा। क्योंकि व्याप्ति की प्रतीति विषय के विना नहीं हो सकती है । एवं द्वादशायतनों से भिन्न किसी वस्तु की सत्ता है नहीं । उस में अन्वय की प्रतीति से क्षणिकत्व की प्रतीति अवश्य होगी । क्योंकि जहाँ सम्बन्ध की प्रतीति रहेगी वहाँ सम्बन्धियों को भी प्रतीति अवश्य ही रहेगी । अतः पहिले पक्ष में सत्त्वसिद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है । व्याप्ति सामान्य रूप से ही गृहीत होगी और सत्त्व हेतु से विशेष की सिद्धि होगी 'अर्थात् उस सामान्य व्याप्ति से ही विशेष तत्तद्व्यक्तियों में सत्त्व की सिद्धि होगी । ( उ० )
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१८४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली परिनिष्ठयोश्च क्षणिकत्वसत्त्वसामान्ययोः प्रतीयमानयोर्नीलादिगतं क्षणिकत्वं प्रतीतमिति सूक्तं सत्त्ववैयर्थ्यमिति। बाधकक्षणिकत्वव्यावृत्त्यत्वव्यावृत्त्योाप्तिग्रहणम्, सत्त्वात्तु वस्त्वात्मकक्षणिकत्वप्रतीतिरिति चेन्न, व्यावर्त्यभेदेन कल्पितभेदयोावृत्त्योस्तादात्म्यभावात् । तादात्म्यञ्चानुमानाङ्गमुक्तम्, वस्त्वात्मनोः क्षणिकत्वसत्वयोस्तादात्म्यभावात् । तदात्मकत्वेनाध्यवसितयोरपि व्यावृत्त्योस्तादात्म्यमिति चेत् ? न, वस्तुनोस्तादात्म्यस्यान्यतोऽप्रसिद्धः, प्रसिद्धौ वा बाधकस्यापि वैयर्थ्यम् । न च व्यावृत्त्योः प्रतिबन्धनिश्चये वस्तुसिद्धिरस्ति वस्त्ववस्तुनोर्भेदादसम्बन्धाच्च ।
यदप्युक्तम्--धर्मोत्तरेण घटे बाधकेन व्याप्ति प्रसाध्य शब्दे सत्त्वात् क्षणिकत्वप्रसाधनमित्युभयोरपि सार्थकत्धं विषयभेदादिति । तत्रापीदमुत्तरम् ।
यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विशेषों को छोड़कर सामान्य की प्रतीति नहीं होती है। एवं जब कि विशेष व्यक्तियों में क्षणिकत्व सामान्य और सत्त्व सामान्य की सिद्धि उस सामान्य व्याप्ति से हो ही गयी तो फिर नीलादि वर तुओं में भी क्षणिकत्व ज्ञात हो ही गया। उस के लिए सत्त्व हेतु की फिर से आवश्यकता नहीं है अतः हम ने ठीक ही कहा है कि सत्त्व हेतु की कोई सार्थकता नहीं है। (प्र. ) कार्यकारणभाव की अनुपपत्ति रूप बाधक से ही अक्षणिकत्वव्यावृत्ति (अक्षणिकत्वाभाव ) एवं 'असत्त्वव्यावृत्ति' ( अर्थात् असत्त्वाभाव ) इन दोनों की व्याप्ति का ज्ञान होता है और सत्त्व से भावस्वरूप क्षणिकत्व की प्रतीति होती है । ( उ० ) व्यावयं ( व्यावृत्ति के अभाव के प्रतीति का प्रयोजक ) के भेद से (असत्त्वव्यावृत्ति एवं अक्षणिकत्व व्यावृत्ति इन ) दोनों व्यावृत्तियों में भी भेः की कल्पना करनी पड़ेगी। किन्तु साध्य और हेतु के ताद!त्म्य को आप (बौद्ध ) अनुमान का अङ्ग मानते हैं। (प्र० ) भावस्वरूप क्षणिकत्व और सत्त्व इन दोनो में तो तादात्म्य है ही, इस तादात्म्य से ही, 'सत्त्व और क्षणिकत्व' इन दोनों के अभिन्न रूप से कल्पित अक्षणिकत्वव्यावृत्ति और असत्त्वव्यावृत्ति इन दोनों में भी तादात्म्य होगा। (उ०) वस्तुओं का तादात्म्य किन्हीं और चीजों से साधन करने योग्य वस्तु नहीं है। अगर वह तादात्म्य अन्य वस्त से ही सिद्ध हो तो फिर उक्त कार्यकारणभाव की अनुपत्ति का प्रदर्शन ही व्यर्थ है। ( अभाव रूप) दोनों व्यावृत्तियों में व्याप्ति निश्चय होने पर भी क्षणिकत्व रूप भाव पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि भाव और अभाव दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं। एवं इन दो विरुद्ध वस्तुओं में सम्बन्ध भी असम्भव है।
धर्मोत्तर ने यह कहा है कि (प्र०) उक्त बाधक के बल से घटादि में व्याप्ति की सिद्धि के बाद शब्दादि में सत्त्व हेतु से क्षणिकत्व की सिद्धि करेंगे। इस
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१८५ न्यायकन्दली घट इव शब्देऽपि बाधकस्य प्रवृत्त्यविरोधात् प्रमाणान्तरानुसरणमफलमिति । न चाक्षणिकस्यार्थक्रियानुपपत्तिः, सहकारिसाहित्ये हि सति कार्याकरणस्वभावो हि भावो नानपेक्षकारकस्वरूपः, तस्य यथान्वयव्यतिरेकावगतसामर्थ्याः सहकारिणः सन्निपतन्ति तथा कार्योत्पत्तिरित्युपपद्यते स्थिरस्यापि क्रमेण करणम् । अनेककारणाधीनस्य कार्यस्यैकस्मादुत्पत्त्यभावात् । न च सहकारिसापेक्षित्वे सति सत्कृतादेवातिशयात् कार्योत्पत्तेर्भावो न कारक इति युक्तम्, भावस्वरूपानुगमनेन कार्योत्पाददर्शनात् । अकारकत्वे हि यवबीजस्य क्षित्युदकसंनिधौ शालिबीजाद्यङकुरोऽपि स्यात्, नियमकारणाभावात् । नापि सहकारिणो भावस्य स्वरूपातिशयमादधति, किन्तु सहकारिण एव ते । अतिशयः पुनरेतस्य सहकारिसाहित्यम्, अनतिशयोऽपि तदभाव एव, तस्मिन् सति ततः कार्य्यस्य भावादप्रकार बाधक के उपन्यास और सत्त्व हेतु दोनों की सार्थकता विषय भेद से है। ( उ०) किन्तु उनका यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दादि में ( घटादि पदार्थों की तरह ) उस बाधक के बल से ही क्षणिकत्व की सिद्धि होगी, उसके लिए भी सत्त्व हेतु का अवलम्बन व्यर्थ ही है। वस्तुतः यह कहना ही भूल है कि 'वस्तुएँ अगर क्षणिक न मानी जाँय तो उन से अर्थक्रिया का सम्पादन असम्भव है। क्योंकि वस्तुओं का यह स्वभाव है कि वे सहकारियों से सहायता प्राप्त करके ही कार्यों का सम्पादन करती हैं उन से निरपेक्ष रह कर नहीं । अतः यह निश्चित होने में कोई बाधा नहीं है कि अन्वय और व्यतिरेक से जिस में कार्य को उत्पन्न करने का सामार्थ्य ज्ञात हो गया है, वे सहायक जब बीजादि प्रधान कारणों के साथ सम्मिलित होते हैं तभी कार्यों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार स्थिर वस्तुओं से भी क्रमशः कार्यों की उत्पत्ति हो सकती है। क्योंकि अनेक कारणों से उत्पन्न होने से एक कार्य की उत्पत्ति केवल किसी एक कारण से नहीं हो सकती है। (प्र.) तब फिर सहकारि कारणों से उत्पन्न 'अतिशय' रूप विलक्षण सामर्थ्य से ही उत्पत्ति होगी, 'भाव' (अर्थात् बीजादि मुख्य कारणों) को कारण मानने की क्या आवश्यकता है ? ( उ० ) इसलिए कि कार्यों में भावों के मूल कारणों की अनुवृत्ति देखी जाती है। यदि बीज ( अङ्कुर का ) कारण ही न हो, तो फिर यब के बीज से पृथिवी जलादि सहकारियों का संनिधान रहने पर धान के अङ्कुर की भी उत्पत्ति होगी। क्योंकि ( यव बीज से यवाकुर ही हों एवं धान्य बीज से धान्याङ्कुर ही) इस नियम का कोई ज्ञापक नहीं है। यह कहना भी दूषित है कि मूल कारण में सहकारि कारणों से किसी अतिशय की उत्पत्ति होती है। क्योंकि वे सहकारी ही हैं और उन का साहित्य ही 'अतिशय' है, इस साहित्य का अभाव ही 'अनतिशय' अर्थात विलक्षण सामर्थ्य का न रहना है। (प्र.) मूल
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१८६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली सत्यभावात्, जनकाजनकक्षणभेदाभ्युपगमः सर्वदावस्थाननाहिप्रत्यक्षबाधितः, सुसदृशक्षणानामव्यवधानोत्पादेनान्तराग्रहणादवस्थानभ्रमोऽयमिति चेत् ? स्थिते क्षणिकत्वे प्रत्यक्षस्य भ्रान्तता, तद्धान्तत्वे च क्षणिकत्वसिद्धिरित्यन्योन्यापेक्षता। न च यद्यस्योत्पत्तिकारणं विनाशकारणञ्चान्वयव्यतिरेकाभ्यामवगतं तयोरभावे तस्योत्पत्तिविनाशकल्पना युक्ता, निर्हेतुको विनाशो, बीजमपि बीजस्य कारणमिति चासिद्धम् । अङकुरजनकं बीजं बीजकृतं न भवति बीजत्वाच्छालिस्तम्भमूर्द्धस्थितबीजवत् । निर्भागं वस्तु तस्य कारकत्वमकारकत्वञ्चेत्यंशावनुपपन्नाविति यत् किञ्चिदेतत् । यथा वह्नहिं प्रति कारकत्वम्, अकारकत्वञ्च स्नानं प्रति,
कारण को जिस क्षण में सहकारियों का साहित्य मिलता है, उस से अव्यवहित आगे कार्य की उत्पत्ति होती है। और जिन क्षणों में वह साहित्य उन को नहीं मिलता है उन से अव्यवहित अग्रिम क्षण में कार्य को उत्पत्ति नहीं होती है। इस अन्वय और व्यतिरेक से यह समझते हैं कि वह साहित्यक्षण ही 'जनकक्षण' है और उस से भिन्न सभी 'अजनकक्षण है ( दो प्रकार के क्षणों में रहनेवाले बीजादि कोई एक स्थिर वस्तु नहीं हैं) ( उ०) किन्तु 'जिस बीज को मैंने कल घर में देखा था उसी बीज को आज खेत में देख रहा हूँ' इस प्रकार एक ही बीज में अनेक कालों के सम्बन्ध का ग्राहक प्रत्यक्ष बीजो के क्षणिकत्व का बाधक है। (प्र. ) एक ही बीज में अनेक कालों के सम्बन्ध का भान इस लिए होता है कि उत्पन्न हुए अनेक बीजक्षण परस्पर अत्यन्त सदृश हैं, अतः उन का परस्पर भेद समझ नहीं पड़ता है। फलतः एक ही बीज में अनेक कालों के सम्बन्ध का ग्राहक उक्त प्रत्यक्ष ही भ्रम रूप है। ( उ० ) उक्त प्रत्यक्ष भ्रान्त क्यों है ? इस लिए कि सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं। सभी वस्तुएँ क्षणिक क्यों हैं ? इसलिए कि उक्त प्रत्यक्ष भ्रान्ति रूप है। इस प्रकार इस पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है। यह तो ठीक नहीं है कि अन्वय और व्यतिरेक से जिन में उत्पत्ति और विनाश की कारणता सिद्ध हो गयी है उन के बिना भी उत्पत्ति और विनाश माने जाँय । एवं ये दोनों बातें भी ठीक नहीं है कि (१) विनाश विना कारण के हो उत्पन्न होता है एवं (२) बीज ही बीज का कारण है । ( 'बीज ही बीज का कारण नहीं है' इस में यह अनुमान भी प्रमाण है कि ) बीज अङकुरजनक बीज का कारण नहीं है क्योंकि मञ्च पर रक्खे हुये बीज की तरह वह भी बीज है । आप (बौद्धों) का यह कहना भी ठीक नहीं है कि ( प्र०) 'वस्तुओं के अनेक भाग नहीं हैं अतः एक ही वस्तु में कारकत्व और अकारकत्व इन दोनों विरुद्ध धर्मों का समावेश नहीं हो सकता है' (उ०) क्योंकि एक ही अग्नि में दाह का कारकत्व भी है एवं स्नान का अकारकत्व
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली न च ताभ्यामस्य स्वरूपभेदः, तथैकस्यैव भावस्य सहकारिभावात्कारकत्वमकारकत्वञ्च तदभावात्, कथमन्यस्य सन्निधावन्यस्य कारकत्वं कारकत्वेऽपि कथं कस्यचिदेव न सर्वस्येति चेत् ? अत्र वस्तुस्वभावाः पर्यनुयोक्तव्याः। वयन्तु यत्र येषामन्वयव्यतिरेकाभ्यां सामर्थ्यमवगच्छामः, तत्र तेषामेव सामग्रीभावमभ्युपगच्छन्तो नोपालम्भमर्हामः । त्वत्पक्षेऽपि क्षित्युदकबीजानामेवाकुरोत्पत्तौ सहकारिता नापरेषाम्, (अत्र) तवापि वस्तुस्वभावादपरः को हेतुः ? प्रत्येकमेव बीजादयः समर्था न परस्परसहकारिण इति चेत् ? किमर्थं तहि कृषीबल: परिकर्षितायां भूमौ बीजमावपति उदकञ्चासिञ्चति ? परस्पराधिपत्येन तेभ्य: प्रत्येकमकुरजननयोग्यक्षणजननायेति चेत् ? यद्यकुरजननयोग्यक्षणोपजननाय बीजं स्वहेतुभ्यः समर्थमुपजातं किमवनिसलिलाभ्याम् ? अथासमर्थम् ? तथापि तयोरकिञ्चित्करः सन्निधिः स्वभावस्यापरित्यागात् । क्षित्युदकाभ्यां बीजस्य स्वसन्तानवत्तिन्यसमर्थक्षणान्तरारम्भणशक्तिनिरुद्धचते
भी है। इस कारकत्व या अकारकत्व से वह्नि में कोई अन्तर नहीं आता है। इसी प्रकार एक भाव ( बीजादि ) में सहकारियों के सहयोग से कारकत्व और असहयोग से अकारकत्व दोनों ही रह सकते हैं ( इसके लिए उन के स्वरूप में कोई अन्तर मानने की आवश्यकता नहीं है ) (प्र०) अन्य वस्तुओं के सानिध्य से अन्य वस्तु में कारकत्व ही क्यों आता है ? और कुछ विशेष वस्तुओं में ही वह क्यों सीमित रहता है ? सभी वस्तुओं में नहीं। (उ० ) यह अभियोग तो वस्तुओं के स्वरूप के ऊपर लाना उचित है, हम लोगों के ऊपर नहीं । पृथिवी, जल और बीज ये तीन ही अङकुर के उत्पादन में परस्पर सहकारी हैं' इस अपने पक्ष में आप ही स्वभाव को छोड़ कर और क्या उत्तर देंगे। (प्र०) बीजादि प्रत्येक ही स्वतन्त्र रूप से) अङ्कुर के उत्पादन में समर्थ है, वे तो परस्पर सहकारी नहीं हैं । ( उ. ) तो फिर जोते हुए खेत में बीजों को बो कर उसे पानी से सींचते क्यों हैं ? (प्र०) उन सभी कारणों से परस्पर के आधिपत्य के द्वारा अङ्कुरोत्पत्ति की योग्यता रखने वाले क्षण की उत्पत्ति के योग्य क्षण की उत्पत्ति के लिए ही जल सिञ्चनादि की आवश्यकता होती है। (उ०) यदि बीज में अपने कारणों से ही अङकुर के उत्पादन योग्य क्षण को उत्पन्न का सामर्थ्य उत्पन्न होता है तो फिर खेत और जल वहाँ क्या करते हैं ? अगर बीज उस में असमर्थ है तो असामर्थ्य रूप अपने स्वभाव को छोड़ नहीं सकता है । (प्र०) प्रत्येक क्षण में रहनेवाले बीज अनेक हैं, सुत राम् क्षण भी अनेक हैं, उन क्षणों के समूह में से जो क्षण अङ्कुर के उत्पादन में असमर्थ है उन में अङ्कुर की उत्पादिका शक्ति को जल और पृथिवी रोकते हैं । ( उ० ) मान लिया कि पृथिवी और जल से असमर्थ क्षण की
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली इति चेत् ? अस्तु तस्मादसमर्थक्षणानुत्पत्तिः, समर्थक्षणोत्पत्तिस्तु दुर्लभा, कारणाभावात् । न च स्वभावभूतायाश्शक्तेरस्ति निरोधो भावस्यापि निरोधप्रसङ्गात् । सहेतुकश्च विनाशः प्राप्नोति, विशिष्टक्षणोत्पादनशक्त्याधानञ्च बीजस्याशक्यं, क्षणिकत्वात् । स्वभावाव्यतिरिक्तशक्त्युत्पादने चोत्पन्नोत्पादनप्रसङ्गात् । तस्मादसमर्थस्योत्पादवतो न काचित् क्रिया, समर्थस्योत्पादानन्तरमेव करणमिति द्वयी गतिः । न त्वर्थान्तरसाहित्ये सति करणम्, तस्यानुपयोगात् । अथ मतम एकस्मात्कार्यानुत्पत्तेबहभ्यश्च तदुत्पत्तिदर्शनात सहितानामेव सामर्थ्यमिति? किमित्येवं वदभ्योऽस्मभ्यं भ्राम्यति भवान् ? तदेवमक्षणिकस्यार्थक्रियोपपत्तरनैकान्तिको हेतुः।
यदप्युक्तं कृतकानामवश्यम्भावी विनाशः, तेनापि शक्यं क्षणिकत्वमनुमातुम्, तथाहि यद्येषां ध्रुवभावि तत्र तेषां कारणान्तरापेक्षा नास्ति, यथा
उत्पत्ति रोकी जाती है। फिर भी समर्थक्षण की उत्पत्ति असम्भव ही है, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है । एवं स्वभाव रूप शक्ति का कभी नाश नहीं होगा, क्योंकि इससे भाव का अर्थात् वस्तु का भी नाश हो जायगा। अतः विनाश का भी कारण अवश्य है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि (प्र०) सहकारियों में बीजादि में समर्थ क्षण की उत्पत्ति की शक्ति लायी जाती है, (उ०) क्योंकि बीजादि क्षणिक हैं। स्वभाव से अभिन्न ही शक्ति का यदि उत्पादन माने तो फिर वह उत्पन्न वस्तु का ही पुनरुत्पादन होगा। अतः आप के मत में भी ये दो ही गतियाँ सम्भव हैं कि (१) जो उत्पत्तिशील होने पर भी असमर्थ हैं उनसे कभी कार्यों की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती है। या फिर (२) उन में जो समर्थ हैं वह उत्पन्न होने के बाद ही अपना काम करेगा। किन्तु यह तो ( आप के मत में ) सर्वथा असम्भव है कि सहकारियों की सहायता से मुख्य कारण (भाव) कार्य को उत्पन्न करते हैं । (प्र.) केवल एक ही वस्तु से कार्य की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है, एवं बहुत सी वस्तुओं से कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है, अत: समझते हैं कि सहकारियों सहित मुख्यकारण में ही कार्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य है । ( उ० ) तो फिर यही कहते हुए भी आपने हम लोगों को चक्कर में क्यों डाल रक्खा है ? तस्मात् अक्षणिकत्व की सिद्धि में बाधा डालनेवाली अर्थक्रिया की उपपत्ति रूप हेतु ही व्यभिचारी है।
(प्र०) बनाई हुई वस्तुओं का विनाश अवश्यम्भावी है। इस अवश्यम्भावी विनाश से भी वस्तुओं के क्षणिकत्व का अनुमान होता है। अभिप्राय यह है कि जो जिसका 'ध्र वभावी' ( अवश्यम्भावी ) धर्म है वह किसी की अपेक्षा नहीं रखता है,
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शरकृपाणादीनां लोहमयत्वे, ध्रुवभावी च कृतकानां विनाश इत्यनुमानं विनाशस्य हेत्वन्तरायततां प्रतिक्षिपति। ये हेत्वन्तरसापेक्षा न ते ध्रुवभाविनः, यथा वाससि रागादयः तथा यदि भावा अपि स्वहेतुभ्यो विनाशं प्रति हेत्वन्तरमपेक्षन्ते तदा हेत्वन्तरस्य प्रतिबन्धवैकल्ययोरपि सम्भवे कश्चित्कृतकोऽपि न विनश्येत् ? स्वहेतुतश्च विनश्वरस्वभावा जायमाना उत्पत्त्यनन्तरमेव विनश्यन्तीति सिद्धं क्षणिकत्वम् ।
अपि च भावस्याविनश्वरस्वभावत्वे विनाशोऽशक्यकरणो वह्नरिव शीतिमा, विनश्वरस्वभावत्वे वा नार्थो हेतुभिः, न च भावादभिन्नस्य विनाशस्य हेत्वन्तरजन्यता, कारणभेदस्य भेदहेतुत्वात् । भिन्नस्य हेत्वन्तरादुत्पादे च भावस्योपलब्ध्यादिप्रसङ्गः, अन्योत्पादादन्यस्वरूपप्रच्युतेरभावात् । घटो नष्ट इति च भावकर्तृको व्यपदेशो न स्यात्, किन्त्वभावो जात इति व्यपदिश्येत, तथा च सति घट: किमभूदिति वार्ताप्रश्ने तस्य निवृत्तौ प्रस्तुता
जैसे कि शर, कृपाण आदि वस्तुओं का लौहमपत्व । बनाई हुई वस्तुओं का विनाश 'ध्रवभावी' है । यह (ध्रुवभावित्व ) अनुमान खण्डन करता है कि 'वस्तुओं का विनाश किन्हीं स्वतन्त्र दूसरे हेतुओं से होता है' क्योंकि जो किसी दूसरे हेतुओं से उत्पन्न होते हैं वे 'ध्रुवभावी' नहीं हैं । जैसे की कपड़े का रङ्ग । अगर भाव भी अपने विनाश के लिए अपने उत्पादन के हेतुओं से भिन्न दूसरे हेतुओं की अपेक्षा रक्खे, तो फिर उन कारणों में किसी प्रतिबन्ध के आ जाने से या विघटन हो जाने से कभी कभी बनाई हुई वस्तुओं में से किसी किसी का विनाश असम्भव हो जायगा । अतः अपने हेतुओं से विनाश स्वभाव की ही वस्तुओं की उत्पत्ति होती है और उत्पत्ति बाद ही वे विनष्ट हो जाती है। इस प्रकार (ध्रुवभावित्व के द्वारा) सभी वस्तुओं में क्षणिकत्व सिद्ध है ।
और भी बात है। वस्तुएँ अगर अविनश्वर स्वभाव की ही उत्पन्न हों तो फिर वह्नि की शीतता की तरह उनका विनाश करना ही शक्ति के बाहर होगा। अगर ( कारणों से ) विनाशस्वभाव की ही वस्तुओं की उत्पत्ति होती है तो फिर विनाश के लिए दूसरे हेतुओं का क्या प्रयोजन ? एवं वस्तुओं से अभिन्न विनाश का कोई और कारण हो भी नहीं सकता है, क्योंकि कारणों की विभिन्नता ही वस्तुओं की विभिन्नता का कारण है। विभिन्न हेतु ओं से भावों से भिन्न हो विनाशों की उत्पत्ति माने तो फिर उन के स्वतन्त्र रूप से उपलब्धि प्रभृति आपत्तियां सामने आयेंगी। एवं एक वस्तु की उत्पत्ति से दूसरी वस्तु के स्वरूप का विघटन भी असम्भव है । अतः विनाश की प्रतीति 'घड़ा फूट गया' इस प्रकार से भाव मूलक नहीं होगी किन्तु 'अभाव उत्पन्न हुआ है, इसी प्रकार का व्यवहार होगा। तब फिर यदि कोई पूछे कि घट का क्या हुआ ? तो फिर 'अभाव उत्पन्न हुआ' इस प्रकार का उत्तर देना होगा जो असम्बद्ध ही होगा।
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[ द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली
अत्रो
यामप्रस्तुतमेव कथं स्यात् ? तस्माद् भावस्वभाव एव विनाश इति 1 च्यते- उत्पन्नो भावः किमेकक्षणावस्थायी ? किं वा क्षणान्तरेऽप्यवतिष्ठते ? क्षणान्तरावस्थितिपक्षे तावत्क्षणिकत्वव्याहतिः, अनेककालावस्थानात्, एकक्षणावस्थायित्वे तु क्षणान्तरे स्थित्यभाव इति न भावाभावयोरेकत्वम्, कालभेदात् । अथ मतं न ब्रूमो भावः स्वस्यैवाभावः, किन्तु द्वितीयक्षणः पूर्वक्षणस्याभाव इति, तदप्यसारम्, पूर्वापरक्षणयोर्व्यक्तिभेदेऽपि स्वरूपविरोधस्याभावात् । यथा घटो भिन्नसन्ततिवर्तिना घटान्तरेण सह तिष्ठति, एवमेकसन्ततिर्वात्तिनाऽपि सह तिष्ठेत्, द्वितीयक्षणग्राहिप्रमाणान्तरस्य तत्स्वरूपविधेश्चरितार्थस्य प्रथमक्षणे निषेधे प्रमाणत्वाभावात् । अभावस्तु भावप्रतिषेधात्मैव, घटो नास्तीति प्रतीत्युदयात् । ततस्तस्योत्पत्तिर्भावस्य निवृत्तिः, तस्यावस्थानं भावस्यानवस्थितिः, तस्योपलम्भो भावस्यानुपलम्भ इति युक्तम्, परस्परविरोधात् । एवश्व सति न भावस्य क्षणिकत्वं पश्चाद् भाविनस्तदभावस्य हेत्वन्तरसापेक्षस्य भावानन्तर्य्यनियमाभावात्, तथा च दृश्यते घटस्योत्पन्नस्य चिरेणैव विनाशो मुद्गराभिघातात् ।
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अतः
भाव एवं अभाव दोनों अभिन्न ही हैं । ( उ० ) इस पर यह पूछना है कि उत्पन्न भाव एक ही क्षण तक रहता है ? या अनेक क्षणों तक भी ? यदि अनेक क्षणों तक उसको सत्ता मानें तो फिर अनेक क्षणों में रहने के कारण उनका क्षणिकत्व ही व्याहत हो जायगा । यदि एक ही क्षण तक वस्तु की सत्ता मानें तो फिर आगे के क्षण में उत्पन्न होनेवाले विनाश काल में तो उस की सत्ता ही नहीं है फिर भाव और विनाश दोनों एक कैसे हैं ? ( प्र० ) हम यह तो कहते नहीं कि भाव अपने ही अभाव अभिन्न है किन्तु ( हमारा यह कहना है कि ) द्वितीयक्षण पूर्वक्षण का ही अभाव है । ( उ० ) यह कथन भी असङ्गत ही है क्योंकि पूर्वक्षण रूप व्यक्ति और उत्तरक्षण रूप व्यक्ति भिन्न ही हैं, और उन में कोई विरोध नहीं है । जैसे एक घट दूसरे घट के साथ विद्यमान रहता है. वैसे ही क्षण समूहरूप एक ममुदाय के भी दूसरे व्यक्तियों के साथ रहने में कोई बाधा नहीं है । द्वितीय क्षण का ज्ञापक प्रमाण उसी में चरितार्थ हो जायगा | अतः प्रथमक्षण के निषेध में वह लागू नहीं होगा । भाव का प्रतिषेध ही अभाव है, क्योंकि 'घट नहीं है' इस प्रकार से अभाव की प्रतीति होती है । अतः अभाव की उत्पत्ति ही भाव की निवृत्ति है और अभाव का रहना ही भाव का न रहना है एवं अभाव की उपलब्धि ही भाव की अनुपलब्धि है, क्योंकि भाव और अभाव दोनों परस्पर विरोधी हैं । अतएव भाव क्षणिक भी नहीं हैं, क्योंकि भावों
बाद दूसरे हेतुओं से उत्पन्न होनेवाले अभावों का यह नियम नहीं हो सकता कि भाव की उत्पत्ति के अव्यवहित क्षण में ही उत्पन्न हों। यह देखा भी जाता है कि घटादि
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
भावात्मको घटविनाशो मुद्गराभिघातात् तु कपालसन्तानोत्पादः स्यादित्यसङ्गतम्। सन्तानप्रतिबद्धायाः सदृशारम्भणशक्तेरप्रतिघाते विलक्षणसन्तानोत्पत्त्यसम्भवात् । मुद्गराघातेन तस्याः प्रतिहतौ च भावप्रतिघाते कः प्रद्वषः ? न च कारणकार्य्यत्वे भाववदभावस्यापि वस्तुत्वप्रसक्तिस्तस्य वस्तुप्रतिषेधस्वभावस्य प्रत्यक्षादिसिद्धत्वात् । ईदृशञ्चास्य स्वरूपं यदयं कृतकोऽपि भाववन्न विनश्यति, नष्टस्यानुपलम्भात् । प्रमाणाधिगतस्य वस्तुस्वभावस्य परसाधर्येण निराकरणत्वे जगद्वैचित्र्यस्यापि निराकरणम् । अन्योत्पादे कथमन्यस्थ स्वरूपप्रच्युतिरित्यपर्यनुयोज्यम्, वस्तुस्वाभाव्याद् । घटो विनष्ट इति च व्यपदेशस्तदवयव क्रियादिन्यायेनाभावोत्पत्त्यैव । अत एवायं तस्यैवाभावो न सर्वस्य । न चास्य समवायिकारणं किञ्चित्, तदभावानासमवायिकारणम् । क्व कार्य्यमनाधारं दृष्टम् ? इदमेव दृश्यते तावत्, न ह्ययं घटे समवैति,
उत्पन्न होने के बहुत दिनों बाद मुद्गरादि के प्रहार से नष्ट होते हैं । (प्र०) मुद्गर के प्रहार से उत्पन्न होने वाला घट का विनाश भावरूप ही है, क्योंकि कपाल समूह का उत्पादन ही घट विनाश का उत्पादन है ? ( उ० ) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'सन्तान अपने सदृश ही दूसरे सन्तान को जन्म देता है" आप का यह नियम जब तक अक्षुण्ण है तब तक उससे विसदृश वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती है | यदि मुद्गर प्रहार से उस की सादृशारम्भकत्व-शक्ति का विनाश ही इष्ट है तो फिर मुद्गरादि प्रहार से घटादि का नाश मानने में ही क्यों द्वेष है ? (प्र. ) भावों की तरह अभाव भी स्वतन्त्र कारण जन्य हों तो उन में भी वस्तुत्व ( भावत्व ) मानना अनिवार्य होगा। (उ०) नहीं, क्योंकि वे वस्तुओं के प्रतिषेध रूप से ही प्रत्यक्ष के विषय हैं। यही उन का स्वरूप है कि भावों की तरह कृतिजन्य होते हुए भी वे भावों की तरह नष्ट नहीं होते हैं, क्योंकि विनष्ट वस्तु की फिर से उपलब्धि नहीं होती है । प्रमाण से सिद्ध वस्तुओं का स्वभाव अगर किसी के सादृश्यमात्र से हट जाय तो फिर जगत् की विचित्रता ही लुप्त हो जायगी। (प्र. ) एक ( अभाव ) की उत्पत्ति से दूसरे ( अभाव ) की स्वरूपप्रच्युति क्यों होती है। ( उ० ) यह अभियोग लाने योग्य नहीं है, क्योंकि वस्तुओं का स्वभाव ही इस प्रकार का है। घट के अवयवों में क्रिया, तब विभाग इत्यादि द्रव्यनाश की सामान्य रीति से घटाभाव की उत्पत्ति होने पर ही “घट नष्ट हो गया" यह व्यवहार होता है, अतः यह अभाव घट का ही है पट का नहीं। अभाव का कोई समवायिकारण नहीं है अतएव असमवायिकारण भी नहीं है। (प्र०) कार्य को विना आधार के कहाँ देखा है ? ( उ० ) यहीं, इस अभाव रूप कार्य को ही देखते हैं। क्योंकि समवाय सम्बन्ध से घट इसका आधार नहीं है, क्योंकि
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्ये आकाश
न्यायकन्दली तस्याभावात्, नापि भूतले, अन्यधर्मत्वात् । कथं तहि नियतदेशः प्रतीयते ? प्रतियोगिनियमात् । अयमस्य स्वभावो यत् संयुक्तप्रतिषेधे संयुक्तवत् प्रतिभाति, समवेतप्रतिषेधे समवेतवत् प्रतिभाति । विशेषणमपीत्थमेव, न पुनरस्य संयोगसमवायौ, तयोर्भावधर्मत्वात् । तदेवं सिद्धोऽभावो भावविरोधी नास्ति बुद्धिवेद्योऽर्थः, यत्कृतो दहनतुहिनयोरपि विरोधः। दहनाभावस्तुहिने तुहिनाभावश्च दहने इत्यनयोविरोधो न स्वरूपेण विविध्यन्तरविरोधाभावात् । यच्च ध्रुवभावित्वादभावस्य हेत्वन्तरानपेक्षेत्युक्तम्, तदपि सवितुरुदयास्तमयाभ्यामनैकान्तिकम्, तयोरनपेक्षत्वे हि कालभेदो न स्यात् । एकसामग्रीप्रतिबन्धेऽपि स एव दोषः। नियतो हि वाससि रागहेतुनियतकालश्च तस्य तत्कालासन्निधिमात्रेण रागस्यानुत्पादः सिद्धयति अनन्तास्तु विनाशहेतवो नियतकालाश्च
वह उसका अभाव ही है। भूतल भी उसका आधार नहीं है. क्योंकि वह दूसरे का धर्म है। इसका यह भी स्वभाव है कि वह जहाँ किसी वस्तु में संयोग सम्बन्ध से किसी भाव के प्रतिषेध का स्वरूप होता है वहाँ उस संयुक्त भाव की तरह प्रतीत होता है एवं जहाँ किसी वस्तु में समवाय सम्बन्ध से किसी वस्तु के प्रतिषेध-स्वरूप होता है वहीं उस समवेत वस्तु की तरह प्रतीत होता है। प्रतियोगियों में रहने वाले संयोगादि के अनुसार ही वह विशेषण भी होता है। अभाव में स्वतः संयोग या समवाय नहीं है, क्योंकि ये दोनों ही भाव के धर्म हैं। अतः अभाव नाम का एक स्वतन्त्र पदार्थ है और वह भाव पदार्थों का विरोधी है जो 'नास्ति' प्रभृति शब्दों से प्रतीत होता है। जिससे कि वह्नि और पाला में विरोध है क्योंकि वह्नि में पाले का अभाव है और पाले में वह्नि का अभाव है। यही उन दोनों में विरोध है। स्वतन्त्र रूप से सिद्ध एक भाव का स्वतन्त्र रूप से सिद्ध दूसरे भाव के साथ विरोध का कोई दूसरा प्रकार नहीं है। यह जो आप ने कहा कि (प्र०) अभाव यत: 'ध्रुव भावी' है, अतः उसे भाव के कारणों से अतिरिक्त किसी कारण की अपेक्षा नहीं है' (उ०) आपका यह 'ध्रुव भावित्व' हेतु भी सूर्य के उदय और अस्त में नहीं देखा जाता है। वे दोनों अगर विभिन्न हेतुओं की अपेक्षा न रक्खें तो फिर वे दोनों विभिन्नकालिक भी न होंगे उदय और अस्त दोनों को आपत्ति एक ही क्षण में होगी। अगर एक की उत्पादक सामग्री से दूसरे का प्रतिरोध मानें तो फिर वही (ध्रुवभावित्वानुपपत्ति की) आपत्ति होगी। वस्त्र के रङ्ग के काल और हेतु दोनों ही नियत हैं, अतः उस नियत काल का भी सांनिध्य न रहने के कारण वस्त्र में राग के अनुत्पाद की सिद्धि होती है, किन्तु भावों के विनाश के काल नियत होने पर भी उसके हेतु अनन्त हैं। अत: सर्वदा सभी
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तेषां सर्वदा सर्वेषां प्रतिबन्धस्याशक्यत्वात् कश्चिदेको निपतत्येव । कालान्तरे च निपतितः क्षणेनैव भावं विनाशयतीत्युपपद्यते कृतकत्वेऽपि ध्रुवो विनाशः ।
सर्वञ्चैतत्क्षणभङ्गसाधनं कालात्ययापदिष्टम्, प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेण प्रतीतस्य पुनः प्रतीतेः । नन्वेष प्रत्ययो न भावस्य पूर्वापरकालावस्थानं शक्नोति प्रतिपादयितुम्, न तदेकं विज्ञानम्, कारणाभावात् । इन्द्रियं सन्निहितविषयं न पूर्वकालत्वभवगाहते, संस्कारोऽपि पूर्वानुभवजन्मा तद्विषये नियतो नापरकालतां परिस्पृशति, न च ताभ्यामन्यदुभयविषयं किञ्चिदेकमस्ति यदेतद् विज्ञानं प्रसुवीत । इतोऽपि नैतदेकं विज्ञानं स्वभावभेदात्, इदमिति हि प्रत्यक्षता तदिति हि परोक्षत्वम्, प्रत्यक्षतापरोक्षत्वे च परस्परविरोधिनी नैके युज्येते, तस्माद् ग्रहणस्मरणात्मके द्वे इमे संवित्ती भिन्नविषये । अत्र ब्रूमः--प्रतीयते तावदेतस्माद् विज्ञानात् पूर्वापर
का प्रतिरोध असमान है । अतः नियमित कालों में से किसी क्षण में कोई अप्रतिरुद्ध कारण रह ही जायगा, बही कारण उनी क्षण में भाव का विनाश कर देगा। इस प्रकार कृतिजन्य होने पर भी विनाश के ध्र वभावित्व में कोई बाधा नहीं है।
क्षणभङ्ग ( भाव एक क्षण में उत्पन्न होते हैं और उसके बाद के अगले ही क्षण में नष्ट हो जाते हैं इस सिद्धान्त ) के साधक उक्त मभी हेतु कालात्ययापदिष्ट' अर्थात् बाध रूप हेत्वाभास से दूषित हैं। क्योंकि जिस घट को कल देखा था उसी को मैं आज देखता हूँ' इस प्रत्यभिज्ञा से ज्ञात वस्तु ही फिर से ज्ञात होती है। (१०) यह प्रत्यभिज्ञा नाम का प्रतीति अपने विषय घट में पूर्वकालवतित्व और उत्तरकालवतित्व इन दोनों को ही समझा सकती है, क्योंकि कारण की अनुपपत्ति से यह एक विज्ञान ही सिद्ध नहीं होती है। इन्द्रियाँ अपने स निहित विषयों को ही ग्रहण करती हैं उनके पूर्वकालिकत्वादि को नहीं। संस्कार भी चूकि पूर्वानुभव जनित है अतः पहिले अनुभूत विषयों की ही स्मृति को उत्पन्न कर सकता है, उत्तरकालिक त्व विषयक स्मृति को नहीं । पूर्वकालिक रव और उत्तर कालिकत्व इन दोनों को छोड़ कर कोई दूसरा उभय' यहाँ नहीं है, जिनसे युक्त घट विषयक ज्ञान को वह जन्म दे । प्रत्यभिज्ञा नाम का कोई एक विज्ञान नहीं है। इसमें यह हेतु भी है कि 'उसको' यह प्रत्यक्षत्व का द्योतक है जिसको' यह परोक्ष त्व का द्योतक है। परोक्षत्व और प्रत्यक्षत्व दोनों परस्पर विरोधी हैं। परस्पर विरुद्ध दो वस्तुएँ एक काल में एक ही वस्तु में सम्बद्ध नहीं हो सकती हैं। अतः उक्त प्रत्यभिज्ञा वस्तुतः दो ज्ञानों का एक समूह है, जिसमें 'जिस घट को' यह अंश स्मृगि रूप है एवं 'उसी को मैं देखता हूँ' यह अंश अनुभव रूप है किन्तु दोनों ही भिन्न विषय के है । ( उ० ) इस आक्षेप के समाधान में मैं कहता हूँ कि इस प्रत्यभिज्ञा से पूर्वकाल और उत्तर काल दोनों से सम्बद्ध एक ही वस्तुत्व की प्रतीति
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली
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[ द्रव्ये आत्म
कालावच्छिन्नमेकं वस्तुतत्त्वम्, तदप्यस्य विषयो न भवतीति संविद्विरुद्धम् । ग्रहणस्मरणे च नैकं विषयमालम्बेते, तस्मादेकमेवेदं विज्ञानमिति प्रतीतिसामर्थ्याप्रतीयमान कार्य्योत्पत्तये दुभयविषयमास्थेयम् । चाप्रतीयमानमपि कारणं कल्पयन्ति विद्वांसो, न तु कारणाप्रतीत्या विशदमपि कार्य्यमपह्न ुवते, जगद्वैचित्र्यस्याप्यपह्नवप्रसङ्गात् । तेन यद्यपि प्रत्येकमिन्द्रियसंस्कारावसमथ तथापि संहताभ्यामिदमेकं कार्यं प्रत्यभिज्ञास्वभावं प्रभावयिष्यते, भविष्यति चैतदुभयकारणसामर्थ्यादुभयविषयम्, प्राप्स्यति च प्रत्यक्षतां विषयेन्द्रियसामर्थ्यानुविधानात् । न च यत्रैकैकमसमर्थ तत्र मिलितानामपि तेषा - मसामर्थ्यम् ? प्रत्येकमकुर्वतामपि क्षित्युदकन्बीजानामन्योन्यसन्निधिभाजामकुरादिजननोपलब्धेः । यत्र विलक्षणा सामग्री तत्र कार्य्यमपि विलक्षणमेव स्यादिति सुप्रतीतम्, तेनास्य सन्निहितातन्निहितविषयतालक्षणे प्रत्यक्षतापरोक्षते न विरोत्येते । अत एव चेन्द्रियसन्निकर्षाभावेऽपि पूर्वकालप्रत्यक्षतैव, इन्द्रिय
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होती है । यह अनुभव से बाहर की बात है कि 'वह एक वस्तु प्रत्यभिज्ञा का विषय नहीं है' यहाँ स्मृति और अनुभव दोनों एक विषयक नहीं हैं । अतः उक्त प्रत्यभिज्ञा नाम की प्रतीति से यह कल्पना करनी पड़ेगी कि एक ही विज्ञान उभय
करते हैं । कारण
कहलाएगी।
वह
विषयक | विद्वान् लोग दृष्ट कार्य से अष्ट कारण को कल्पना की अप्रतीति से अनुभूत कार्य का ही अपलाप नहीं करते । ऐसा करने पर संसार की विचित्रता ही लुप्त हो जायगी । ( अतः यह कल्पना करनी पड़ेगी कि ) यद्यपि संस्कार और इन्द्रिय इन दोनों में से प्रत्येक प्रत्यभिज्ञा रूप कार्य के उत्पादन में असमर्थ हैं तथापि मिलकर वे ही दोनों उक्त प्रत्यभिज्ञा रूप कार्य का सम्पादन कर सकते हैं । उक्त दोनों कारणों के प्रभाव से यह प्रत्यभिज्ञा पूर्वकाल और उत्तर काल दोनों विषयक होंगी । एवं इन्द्रियजन्य होने से प्रत्यक्ष भी यह कोई वात नहीं है कि जो स्वयं अकेला जिस कार्य को न कर सके, दूसरे के साथ मिलकर भी उस कार्य को न कर सके | क्योंकि पृथिवी जल और बोज इनमें से प्रत्येक अङ्कुर के उत्पादन में असमर्थ होने पर भी तीनों मिल कर अङ्कुर का उत्पादन करते ही हैं। रही यह बात कि एक ही प्रत्यभिज्ञा में इन्द्रियों से जन्य होने के कारण प्राप्त संनिहित विषयवाला 'प्रत्यक्षत्व' एवं संस्कार से उत्पन्न होने के कारण प्राप्त असंनिहित विषयवाला परोक्षत्व' परस्पर विरुद्ध इन दोनों धर्मों का समावेश कैसे होगा ? किन्तु यह अनुभव की बात है कि सामग्री की विलक्षणता से कार्य की दिलक्षणता होती है । फलतः ये दोनों धर्मं परस्पर विरुद्ध हो नहीं हैं । अत एव इन्द्रियसंनिकर्ष के न रहने पर भी 'पूर्वकाल' में भी प्रत्यक्षविषयत्व है क्योंकि वह इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय है । इन्द्रियजन्य ज्ञान
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली जज्ञानविषयत्वात् तन्मात्रानुबन्धित्याच्च प्रत्यक्षतायाः । असन्निहितमपि परिच्छिन्ददिन्द्रियं पूर्वकालतामेव परिच्छिनति न भविष्यत्कालताम्, तत्र संस्कारस्य सहकारिणोऽभावात् । न चैकस्थोभयकालतायां काचिदनुपपत्तिः, येनास्योभयकालतां सङ्कलयतः कल्पनात्वम्, दृष्टो टेकस्यानेकेन विशेषणेन सम्बन्धो यथा चैत्रस्य छत्रपुस्तकाभ्याम् । युगपच्छत्रपुस्तकसम्बन्ध क्रमेण कालद्वयसम्बन्धे च न कश्चिद् विशेषः, एफस्योभयविशेषणावच्छेदप्रतीतेरुभयत्राविशेषात् । तदेवं देशकालावस्थाभेदानुगतमेकं वस्ततत्वमध्यवसन्ती प्रत्यभिज्ञा भावानां प्रतिक्षणमुत्पादविनाशौ तिरयतीति । भ्रान्तेयं प्रतीतिरिति चेन्न, बाधकाभावात् । क्षणभङ्गसाधनमेतस्या बाधकमिति चेत् ? प्रत्यक्षबाधे सत्यबाधितविषयत्वादनुमानोदयः, उदिते च तस्मिन् प्रत्यक्षवाध इत्यन्योन्याश्रयत्वम् । प्रत्यक्ष
विषयत्व ही (विषयनिष्ठ ) प्रत्यक्षत्व है। ( इन्द्रिय समिकर्ष उसका प्रयोजक नहीं है )। असं निहित विषयों में से इन्द्रियाँ पूर्वकालिक विषयों को ही ग्रहण करती हैं भविष्यत्कालिक विषयों को नहीं, क्योंकि ( असंनिहित वषयक प्रत्यक्ष का ) संस्कार रूप सहकारी नहीं रहता है'। ( अतः ) वर्तमान और अतीत काल विषयक एक ज्ञान में कोई विरोध नहीं है, जिससे कि दोनों कालविषयक प्रत्यभिज्ञा रूप ज्ञान में भ्रमत्व को कल्पना की जाय । एक ही वस्तु में अनेक निशेषणों का सम्बन्ध हो सकता है, जैसे कि छाता और पुस्तक दोनों के साथ एक ही चैत्र का सम्बन्ध देखा भी जाता है। चैत्र में इन दोनों के और एककालिक सम्बन्ध और विभिन्न कालिक सम्बन्ध में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि एक ही विशेष्य में दोनों विशेषणों से वैशिष्ट्य की प्रतीति दोनों { चैत्र और प्रत्यभिज्ञा ) स्थानों में समान ही है। तस्मात् उक्त रीति से विभिन्न देश विभिन्न काल और विभिन्न अवस्था इन तीनों में एक ही वस्तुतत्त्व को समझाने वाली उक्त प्रत्यभिज्ञा भावों की प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश ( क्षणभङ्ग) को जड़ मूल से उखाड़ फेंकती है। (प्र.) उक्त प्रत्यभिज्ञा तो भ्रान्ति है ? ( उ०) क्यों ? कोई बाधक तो नहीं है ? (प्र०) क्षणभङ्ग के साधक ही उक्त प्रत्यभिज्ञा के प्रमात्व के बाधक हैं। ( उ० ) इसमें यह अन्योन्याश्रय दोष है यतः उक्त प्रत्यभिज्ञा रूप प्रत्यक्ष बाधित है अतः क्षणिकत्व का अनुमान होता है. और वह प्रत्यक्ष बाधित क्यों है ? क्योकि अनुमान के द्वारा क्षणिकत्व सिद्ध है । प्रत्यक्ष में यह बात नहीं है, क्योंकि उसे किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षा नहीं है । (४०) प्रत्यक्ष प्रमाण से दीप की शिखा अनेक कालों तक रहनेवाली प्रतीत होती है, किन्तु सभी मतों से सिद्ध अनुमान के द्वारा यह निर्णीत है कि वहाँ प्रतिक्षण ज्वाला की उत्पत्ति होती है । अतः प्रत्यक्ष से बाधित
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली तु नायं विधिस्तस्यानपेक्षत्वात्, ज्वालादिषु सामान्यविषयं प्रत्यक्षं विशेषविषयश्वानुमानमित्यविरोधान्न प्रत्यक्षेणानुमानोत्पत्तिनिषेध इत्यलम् ।
योऽप्यतिप्रौढिम्ना प्रत्यक्षसिद्धं क्षणभङ्गमाह तस्यानुभवाभाव एवोत्तरम् । नीलमेतदिति प्रतिपत्तिर्न क्षणिमेतदिति नीलत्वाव्यतिरेकिणी क्षणिकता, तस्याः पृथगर्थक्रियाया अभावात् । अतो नीलत्वे गृह्यमाणे क्षणिकत्वमपि गृह्यते, सुसदृशक्षणभेदाग्रहणात् । तथा नाध्यवसीयत इति चेत् ? अहोऽपरः प्रज्ञाप्रकर्षो यदयमनुभवमपि व्याख्याय कथयति । यन्नाध्यवसितं तदगृहीतमिति मृगतृष्णिकेयम, प्रत्यक्षबलोत्पन्नादध्यवसायादन्यस्य प्रत्यक्षदृष्टत्वव्यवस्थानिबन्धनस्यानभ्युपगमात् । यस्मिन्नध्यवसीसमाने नियमेन नाध्यवसीयते नीलपीतयोरिव तयोस्तादात्म्याभिधानमपि प्रलापः । क्षणिकं प्रत्यक्षं ज्ञानं स्वसमानकालवत्तिनीमर्थस्य सत्ता परिच्छिन्दत् तत्कालासम्बद्धतां व्यवच्छिन्दत् तत्कालभावाव्यभिचारिणः कालान्तरसम्बन्धमपि व्यवच्छिन्दत् तदेकक्षणावस्थायित्वं क्षणिकत्वं गृह्णातीति
सभी अनुमान भ्रम ही नहीं होते । ( उ० ) दीपशिखा स्थल में प्रत्यक्ष केवल सामान्य विषयक होता है और अनुमान विशेष विषयक होता है, अतः विभिन्न विषयक होने के कारण वहाँ प्रत्यक्ष से अनुमान का बाध नहीं होता है ।
जो कोई अति प्रौढ़तावश क्षण भङ्ग को प्रत्यक्षप्रमाण से ही सिद्ध करना चाहते हैं उनके लिए अनुभव का अभाव ही उत्तर है। क्योंकि यह नोल है' यही प्रतीति होती है यह 'क्षणिक है' इस प्रकार की प्रतिति नहीं होती है । ( प्र०) नीलत्व से क्षणिकत्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है, क्योंकि क्षणिकत्व का कोई कार्य नहीं है, अतः यदि नीलत्व गृहीत होता है तो क्षणिकत्व भी ज्ञात हो ही जाता है। यह नील है' इस बुद्धि में क्षणिकत्व के स्कुट प्रतिभास न होने का यह हेतु है कि दोनों (नीलक्षण और क्षणिकत्व का प्रतिभा क क्षण) अत्यन्त सदृश है । (उ.) यह तो बड़ी विलक्षण प्रज्ञा है कि जो अनुभव की भी व्याख्या करके यह समझाती है कि 'जो आपने नहीं समझा है वह भी उस अनुभव का विषय है' अत: ( उक्त कथन से अभिप्राय सिद्धि की अभिलाषा) भृगतृष्णा ही है। क्योंकि 'अमुक वस्तु प्रत्यक्ष सिद्ध है' इस व्यवस्था का मूल प्रत्यक्ष प्रमाण जनित निश्चय से भिन्न और किसी को नहीं माना जा सकता। जिसके निश्चित हो जाने पर जो अवश्य ही निश्चित नहीं हो जाते. जैसे की नील और पीत उन दोनों को अभिन्न कहना भी प्रलाप ही है। (प्र.) क्षणमात्र स्थायी प्रत्यक्षात्मक ज्ञान अपने काल में रहनेवाली वस्तु को सता को समझाता हुआ एवं उस वस्तु में उस काल का असम्बद्धता को हटाता हुआ उस काल में रहनेवाली वस्तु की सत्ता के अव्यभिचारी दूसरे काल के सम्बन्ध का भी निषेध करता हुआ उस वस्तु के एक
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चेत् ? काशकुशावलम्बनमिदम्, स्वात्मानमेव न गृह्णाति विज्ञानम्, कुतः स्वसमानकालतामर्थस्य गृह्णाति ? गृह्णातु वा, तथापि पूर्वमयं नासीत् पश्चाच्च न भविष्यतीत्यत्र प्रत्यक्षमजागरूकं पूर्वापरकालताग्रहणात् । वर्तमानकालपरिच्छेदे चातत्कालव्यवच्छेदो युक्तो भावाभावयोविरोधान्न तु कालान्तरसम्बन्धव्यवच्छेदो मणिसूत्रव देकस्यानेक सम्बन्धत्वादिरोधात् । प्रपञ्चितश्चायमर्थोऽस्माभिस्तत्त्वप्रबोधे तत्त्वसंवादिन्याञ्चेति नात्र प्रतन्यते ।
चेत् ?
किश्व सर्वभावक्षणिकत्वाभ्युपगमे कस्य संसार: ? ज्ञानसन्तानस्येति न सन्तानिव्यतिरिक्तस्य सन्तानस्याभावात् । अथ मतम् - नैकस्यानेकशरीरादियोगः संसारः, किं तर्हि ? ज्ञानसन्तानाविच्छेदः, स च क्षणिकत्वेऽपि नानुपपन्नः । तदप्यसारम्, गर्भादिज्ञानस्य प्राग्भवीयज्ञानकृतत्वे प्रमाणाभावात्, नहि समानजातीयादेवार्थस्योत्पत्तिः, विजातीयादप्यग्नेर्धूमस्योत्पत्तिसम्भवात् । अथ
क्षणावस्थायित्व रूप क्षणिकत्व को भी ग्रहण करता है । ( उ० ) यह कहना भी युक्ति से दुर्बल है | क्योंकि जो विज्ञान अपने स्वरूप को भी ग्रहण नहीं कर सकता वह अपने विषय रूप अर्थ की समानकालीनता ( क्षणिकत्व) को कैसे ग्रहण करेगा ? अगर यह मान भी लें कि उक्त प्रत्यक्ष से क्षणिकत्व की प्रतीति होती है तो भी 'यह वस्तु पूर्वक्षण में नहीं थी, और आगे के क्षणों में भी नहीं रहेगी' यह समझाने में उक्त प्रत्यक्ष कैसे समर्थ होगा १ क्योंकि पूर्वकाल ? (भूत) और पश्चात् काल (भविष्यत्) इन दोनों को समझाने में प्रत्यक्ष असमर्थ है । यह ठीक है कि किसी वस्तु में वर्त्तमान काल के सम्बन्ध का ज्ञान होने पर उस ज्ञान से भविष्यत् काल और भूतकाल दोनों हट जाते हैं, किन्तु ज्ञान के विषय उन नीलादि वस्तुओं से अनेक कालों का सम्बन्ध क्यों हटेगा ? एक ही सूत्र के साथ अनेक मणियों का सम्बन्ध तो होता है, क्योंकि उसमें कोई विरोध नहीं है । अपने 'तत्त्वप्रबोध' और 'तत्त्वसंवादिनी' नाम के ग्रन्थों में इन्हीं विषयों की आलोचना की है, अतः इस विषय के विस्तार से यहाँ विरत होते हैं ।
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अब बात है कि अगर सभी वस्तुएँ ( प्र० ) ज्ञान समूह को ? ( उ० ) नहीं, नियों ( अर्थात् सन्तान घटक प्रत्येक व्यक्ति ) से भिन्न नहीं है । ( प्र० ) एक ही वस्तु
क्षणिक हों तो संसार किसको होगा ? क्योंकि सन्तान ( समूह ) अपने सन्ता
किन्तु ज्ञान की निरवच्छिन्न
( आत्मा ) का अनेक शरीरादि के सम्बन्ध ही संसार नहीं है ( अविरल ) धारा रूप सन्तान हो संसार है । यह संसार तो वस्तुओं को क्षणिक मान लेने पर भी उत्पन्न हो सकता है । ( उ० ) यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि 'गर्भादि विषयक ज्ञान पहिले के ही ज्ञान से उत्पन्न होते हैं' इसमें कोई प्रमाण नहीं है । इसका भी कुछ ठीक नहीं है कि वस्तुओं से ही समानजातीय वस्तुओं की उत्पत्ति होती हो,
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये आत्म
मतम् -- यस्यान्वयव्यतिरेकावतिशयञ्च यदनुविधत्ते तत्तस्य समानजातीयमुपादानञ्चेति स्थितिः, ज्ञानश्च बोधात्मकत्वमतिशयं बिर्भात तच्च पृथिव्यादिभूतेषु नास्ति, तस्माद्यस्यायमतिशयस्तदस्य समानजातीयमुपादानकारणमिति स्थिते गर्भज्ञानं ज्ञानान्तरपूर्वकं सिद्ध्यति, कारणव्यभिचारे कार्य्यस्याकस्मिकत्वप्रसङ्गादिति । तदप्यसारम्, अदहनस्वभावेभ्यो दारुनिर्भथनादिभ्यो वह्नेर्दाहातिशयोत्पत्तिवदबोधात्मकेभ्योऽपि चक्षुरादिभ्यो बोधात्मकत्वातिशयोत्पत्तिसम्भवे बोधात्मक कारणकल्पनानवकाशात्, अतो न प्राक्तनजन्मसिद्धिर्भविष्यति । जन्मान्तरमित्यपि न सिद्ध्यति, मरणे शरीरान्त्यज्ञानेन ज्ञानान्तरं प्रतिसन्धातव्यमित्यत्र प्रमाणाभावात् । यद्यत्राविकलकारणावस्थं तज्जनयत्येव यथाविकलजननावस्थं बीजमङ्कुरं प्रति, अविकलजननावस्थं चान्त्यं ज्ञानमिति प्रमाणमस्तीति चेत् ? न, ज्वालादीनामन्त्यक्षणेन व्यभिचारात्, स्नेहवत्तिक्षयादीना
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उनकी उत्पत्ति अनियमित हो संघर्ष का स्वभाव
क्योंकि वह्नि से विभिन्न जातीय धूम की उत्पत्ति होती है । ( प्र० ) वस्तु स्थिति यह है कि जिसका जिसमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही हों, एवं जिसमें जिसके असाधारण रूप की अनुवृत्ति हो वही उसका समानजातीय हैं और उपादान भी है । ( अतः यह सिद्ध है कि गर्भादि ज्ञान भी पहिले के अपने राजातीय ज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं ) बोधरूपता ही ज्ञान का असाधारण धर्म है, वह पृथिव्यादि भूतों में नहीं हैं । अतः जिसमें वह ( बोधरूपता है ) वही उसका समानजातीय है और उपादान भी है । इससे यह सिद्ध है कि गर्भज्ञान भी पहिले के गर्भज्ञान से ही उत्पन्न होता है, क्योंकि कार्य अगर कारणों के बिना भी हों तो फिर जायगी । ( उ० ) यह कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि काष्ठों के दाह नहीं है काष्ठ से उनके मन्थन के द्वारा दाह स्वभाव के होती है | वैसे ही चक्षुरादि इन्द्रियों में बोधात्मकत्व शक्ति के न से बोध स्वरूप विलक्षण धर्मविशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं है । इसके लिए वोध स्वरूप कारण की कल्पना की आवश्यकता नहीं है । अतः इस मत पूर्वजन्म की सिद्धि असम्भव है। आगे के जन्म की सिद्धि भी असम्भव है क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि मृत्यु हो जाने पर अन्तिम ज्ञान रूप शरीर अवश्य ही आगे दूसरे शरीर रूप ज्ञान का अनुसन्धान करेगा। जहाँ पर जिस वस्तु की कारणावस्था में कोई विघटन नहीं हुआ रहता है वहाँ उस कारण से वस्तु की उत्पत्ति अवश्य ही होती है, जैसे कि कारणावस्था के विघटन से रहित बीज से अङकुर की उत्पत्ति अवश्य होती है । शरीर के उक्त अन्तिम ज्ञान की भी कारणावस्था विघटित नहीं है अतः यही प्रमाण इस पक्ष में अपर जन्म का साधक है । ( उ० ) उक्त हेतु अन्तिम क्षण
वह्नि को उत्पत्ति रहने पर भी उन
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
१६९
प्रशस्तपादभाष्यम् शरीरममवायिनीभ्याश्च हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्तिभ्यां रथकर्मणा सारथिवत् प्रयत्नवान् विग्रहस्याधिष्ठातानुमीयते, प्राणादिभिश्चेति । कथम् ? (३) शरीर में समवाय सम्बन्ध से रहने वाली हित की प्राप्ति एवं अहित का परिहार इन दोनों की प्रयोजक क्रियाओं के द्वारा प्रयत्न से युक्त आत्मा रूप शरीर के अधिष्ठाता का अनुमान करते हैं। जैसे कि रथ की गति रूप क्रिया से सारथि का अनुमान होता है । (४) प्राणादि से भी वायु का अनुमान होता है। (प्र०) कैसे ?
न्यायकन्दलो मन्त्यज्वालाक्षणस्य कारणावस्थावैकल्यादविकलत्वं नास्तीति चेत् ? अन्त्यज्ञानस्यापि मरणपोडया पीडितस्याविकलकारणावस्थात्वमसिद्धनिति सुव्याहृतं क्षणिकत्वे परलोकाभाव इत्युपरम्यते।।
आत्मसिद्धौ प्रमाणान्तरमप्याह--शरीरसमवायिनीभ्यामिति । प्रवृत्ति. निवृत्तिभ्यां प्रयत्नवान् विग्रहस्थ शरीरस्याधिष्ठातानुमीयते। लतादिप्रवृत्तिव्यवच्छेदार्थ शरीरसमवायिनीभ्यामित्युक्तम् । स्रोत:पतितमृतशरीरप्रवृत्तिनिवृत्तिव्यवच्छेदार्थञ्च हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्यामिति । हितं सुखमहितं दुःखम् , तयोः प्राप्तिपरिहारौ हितस्य प्राप्तिरहितस्य परिहारः, तत्र योग्याभ्यां समर्थाभ्यामिति बुद्धिपूर्वकचेष्टापरिग्रहः । रयकर्मणा सारथिवदिति दृष्टान्त
की ज्वाला में व्यभिचरित है। (प्र०) अन्तिम क्षण में तेल बत्ती प्रभृति कारणता के अवैकल्य के सम्पादक नष्ट हो जाते हैं अतः उस क्षण की दीपशिखा की कारणावस्था विघटित हो जाता है । (उ०) तो फिर मरण की पीड़ा से दुःखी अन्तिम शरीर रूप विज्ञान की भी कारणावस्था अविघटित नहीं है । अतः हमने ठीक हो कहा है कि वस्तु मात्र को क्षणिक मानने के पक्ष में परलोक की सिद्धि नहीं होगी अत: इससे विरत होता हूँ।
'शरी रसमला यिनीभ्याम्' इत्यादि से आत्मा की सिद्धि में और भी प्रमाण देते है। प्रवृत्ति और निवृत्ति से शरीर रूप विग्रह (मूर्ति) के प्रयत्न वाले अधिष्ठाता का अनुमान करते हैं। लताओं (वृक्षादि पर चढ़ने) की प्रवृत्ति में व्यभिचार वारण करने के लिए 'शरीरसमवायिनीभाम्' यह पद कहा है। जल के प्रवाह में गिरे हुए शरीर की प्रवृत्ति और निवृत्ति में व्यभिचार वारण के लिए 'हिताहितप्राप्तिपरिहारयोग्याभ्याम्' इत्यादि से प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों में क्रमशः हितप्राप्तियोग्यत्व एवं अहितपरिहारयोग्यत्व ये दोनों विशेषण दिय गये है। 'हित' शब्द का अर्थ है 'सुख' एवं 'अहित' शब्द का अर्थ है दुःख । इन दोनों का जो प्राप्ति परिहार' अर्थात् सुख की प्राप्ति एवं दुःख का परिहार इन दोनों में समर्थ अथात् क्षम। इन दोनों विशेषणों में से ज्ञानजनित चेष्टा का संग्रह
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ द्रव्ये आत्मप्रशस्तपादभाष्यम् शरीरपरिगृहीते वायो विकृतकर्मदर्शनाद् भस्त्राध्मापयितेव, निमेषोन्मेषकर्मणा नियतेन दारुयन्त्र प्रयोक्तेव, देहस्य वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणादिनिमित्त( उ०) वायु की गति स्वभावतः कुटिल होती है, किन्तु उसके विपरीत प्राण वायु की गति कभी ऊर्ध्व भी देखी जाती है, अतः भाथी को चलाने वाले की तरह शरीर सम्बन्धी वायु को भी ऊपर की तरफ चलाने वाला कोई अवश्य है। उसी का नाम है 'आत्मा' । (५) निमेष और उन्मेष की क्रिया से भी कठपुतली को नचाने वाले की तरह आत्मा का अनुमान होता है । (६) देह की वृद्धि, घाव एवं टूटे हुए अङ्गों
न्यायकन्दली कथनम्। साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका विशिष्टक्रियात्वात् रथक्रियावत् । शरीरं वा प्रयत्नवदधिष्ठितं विशिष्टक्रियात्वात् रथवत् । प्राणादिभिश्चेति । प्राणादिभिश्च प्रयत्नवाधिष्ठाताऽनुमीयत इत्यनुषञ्जनीयम् । प्राणादिभिरित्यनेन "प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियविकार: सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि" इति सूत्रोक्ततमस्तलिङ्गपरिग्रहः । कथमिति प्रश्नपूर्वकं प्राणापानयोलिङ्गत्वं दर्शयति---शरीरपरिगृहीत इति। वायुस्तिर्यग्गमनस्वभावः, शरीरपरिगृहीते वायौ प्राणापानाख्ये विकृतं स्वभावविपरीतं कमौर्ध्वगमनमधोगमनञ्च दृश्यते, तस्मात् प्रयत्नवान् विग्रहस्याधिष्ठातानुमीयते, यस्तथा वायु प्रेरयति, अन्य
किया गया है। 'रथकर्मणा सारथिवत्' यह वाक्य अनुमान का दृष्टान्त दिखाने के लिए है। सुखसाधनों के ग्रहण के द्वारा ही जिस चेष्टा से हित की प्राप्ति होती है, एवं दु:ख साधनों के परिवर्जन के द्वारा ही जिस चेष्टा से आहत का परिहार होता है, रे दोनों प्रकार की चेष्टायें प्रयत्न से उत्पन्न होती हैं क्योंकि ये विशेष प्रकार की क्रियायें हैं जैसे कि रथ को क्रिया। अथवा प्रयत्न से युक्त कोई व्यक्ति ही शरीर का अधिष्ठाता है. क्योंकि उसमें विशेष प्रकार की क्रिया है जैसे कि रथ में । 'प्राणादिभिश्च' अर्थात् प्राणादि से भी प्रयत्न से युक्त अधिष्ठाता का अमान होता है" यह अनुषन कर लेना चाहिए। प्राणादिभिः' इस 'आदि' पद घटित हेतु वाक्य से प्राणापानादि, निमेष, उन्मेष, जीवन, मन की गति.. इन्द्रिय का विकार आदि "सुखदुःखेन्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि' (३ अ. २ आ. ४ सू.) इस सूत्र के द्वारा कथित सभी हेतु अभीष्ट हैं । कथम् ?' इस वाक्य के द्वारा प्रश्न करके 'शरीरपरिगृहीत" इत्यादि वाक्य से प्राण और अपान वायु में आत्मानुमान का हेतुत्व दिखलाते हैं । टेढ़े मेढ़े चलना वायु का स्वभाव है, किन्तु शरीर की प्राण और अपान नाम की वायुओं में विकृत' अर्थात् उन स्वभाव से विपरीत क्रमशः ऊर्ध्वगति और अधोगति देखी जाती
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मकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
२०१
न्यायकन्दली
थास्य विकृतवाय्वसम्भवात् । भस्त्राध्मापयितेव दृष्टान्तः, शरीरं प्रयत्नवदधिष्ठितमिच्छापूर्वकविकृतवाय्वाश्रयत्वाद् भस्त्रावत् । शरीरपरिगृहीतेत्यनेनेच्छापूर्वकत्वं दर्शितम्, तेन हि द्विवायुकादिभिर्नानकान्तिकम् । निमेषोन्मेषकर्मणा नियतेन दारुयन्त्रप्रयोक्तेवेति । अक्षिपक्ष्मणोः संयोगनिमित्तं कर्म निमेषः, विभागार्थ कर्मोन्मेषः । तेन कर्मणा दारुयन्त्रप्रयोक्तेव विग्रहस्य प्रयत्नवानधिष्ठाता अनुमीयते। वायुवशेनापि दारुयन्त्रस्य निमेषोन्मेषौ स्याताम, तन्निवत्त्यर्थं नियतेनेति। अनेनेच्छाधीनत्वं कथयति । शरीरं प्रयत्नवदधिष्ठितमिच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद् दारुयन्त्रवत् । जीवनलिङ्गकमनुमानं कथयतिदेहस्येति । वृद्धिः प्रसिद्धव । क्षतस्य भग्नस्य च संरोहणं पुनः सङ्घटनं तयोनिमित्तत्वाद् गृहपतिरिव प्रयत्नवानधिष्ठाता अनुमीयते। शरीरस्य वृद्धिक्षतसंरोहणं प्रयत्नवता कृतं वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणत्वाद् गृहवृद्धिक्षतभग्नसंरोहणवत् ।
है, अतः इस शरीर रूप मूर्ति के प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान करते हैं जो उन दोनों वायुओं को विपरीत गति से चलने के लिए प्रेरित करते हैं। अन्यथा उक्त वायु में उक्त विपरीत गति की सम्भावना नहीं है । 'भस्त्राध्मापयितेव' इस वाक्य से उसी अनुमान का दृष्टान्त कहा गया है। अर्थात् जैसे कि भाथी की वायु से प्रयत्नशील किसी चलाने वाले का अनुमान होता है, इसी प्रकार शरीर का भी कोई प्रयत्न से युक्त अधिष्ठाता अवश्य है, क्योंकि इच्छा जनित विपरीत गति से युक्त वायु का वह (शरीर) आश्रय है जैसे कि भाथी। 'शरीर-परिगृहीत' इत्यादि से यह दिखलाया गया है कि शरीर में रहने वाली वायु की उक्त विपरीत गति इच्छा से उत्पन्न होती है। अतः विपरीत दशाओं में बहनेवाली दो वायुओं की विपरीत गति में व्यभिचार नहीं है। शरीर के किसी प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान कठपुतली को नचाने वाले की तरह 'निमेष' एवं 'उन्मेष रूप क्रियाओं से भी होता है। जिस क्रिया से आँख के दोनों पलकों का संयोग उत्पन्न हो उसे 'निमेष' एवं जिस क्रिया से उन्हीं दोनों पलकों का विभाग उत्पन्न हो उसे 'उन्मेष' कहते हैं। उन दोनों क्रियाओं से कठपुतली को नचाने वाले की तरह शरीर रूप मूर्ति के प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान होता है। वाय से कठपुतली में भी निमेष और उन्मेष हो सकते हैं अतः 'नियतेन' यह पद दिया है। इससे यह लाभ होता है कि निमेष और उन्मेष इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं। फलत: (यह अनुमान होता है कि) शरीर का कोई प्रयत्नविशिष्ट अधिष्ठाता है, क्योंकि उसमें इच्छाजनित निमेष और उन्मेष क्रियाओं से युक्त अवयवों का सम्बन्ध है, जैसे कि कठपुतली में। 'देहस्य' इत्यादि से 'जीवन' हेतुक अनुमान दिखलाया गया है। 'वृद्धि' शब्द का (बढ़ना) अर्थ प्रसिद्ध है। घाव और टूटे हुए अङ्गों का 'संरोहण' अर्थात् पहिले की तरह होना इन दोनों के कारण रूप में भी घर के मालिक की तरह शरीर (रूप घर) के प्रयत्नशील अधिष्ठाता का अनुमान होता है। शरीर की वृद्धि, उसके घाव और टूटे हुए अङ्गों का पुनः सङ्घटन ये सभी
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[द्रव्ये आत्म
प्रशस्तपादभाष्यम् त्वात् गृहपतिरिव, अभिमतविषयग्राहककरणसम्बन्धनिमित्तेन मन:कम्म॑णा गृहकोणेषु पेलकप्रेरक इव दारकः, नयनविषयालोचनानन्तरं रसानुस्मृतिक्रमेण रसनविक्रियादर्शनादनेकगवाक्षान्तर्गतप्रेक्षकवदुभयदशी कश्चिदेको विज्ञायते । सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नैश्च गुणैगुण्य नुमीयते । का पुनः संघटन इन दोनों से भी घर के मालिक की तरह प्रयत्न विशिष्ट आत्मा का अनुमान होता है। (७) अभिमत विषयों को ग्रहण करनेवाली चक्षुरादि इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्बन्ध करानेवाले मन की क्रिया से भी आत्मा का अनुमान होता है। जैसे घर के एक कोने में रक्खी हुई लाख की गोली पर दूसरी लाख की गोली फेंक कर खेलने वाले लड़के का अनुमान होता है। (८) चाक्षुष ज्ञान के बाद रस की स्मृति के क्रम से रसनेन्द्रिय में विकार देखा जाता है। (अर्थात् मुँह में पानी भर आता है)। इससे भी अनेक गवाक्षों से एक देखने वाले की तरह रूप और रस दोनों के एक ज्ञाता रूप आत्मा का अनुमान होता है। (६) सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्नादि गुणों से भी गुणी आत्मा का अनुमान होता है। वे (सुखादि)
न्यायकन्दली वृक्षादिगतेन वृद्धयादिना व्यभिचार इति चेन्न, तस्यापीश्वरकृतत्वात्, न तु वृक्षादयः सात्मकाः, बुद्धयाद्युत्पादनसमर्थस्य विशिष्टात्मसम्बन्धस्याभावात् ।
मनोगतिलिङ्गकमनुमानमुपन्यस्सति-अभिमतेत्यादिना। अभिमतो विषयो जिघृक्षितोऽर्थः, तस्य यद्ग्राहकं करणं चक्षुरादि तेन योगो मनस्सम्बन्धस्तस्य निमित्तेन मनःकर्मणा । गृहे कोणेषु कोष्ठेषु भूमौ रोपितं पेलकं प्रति हस्तस्थितस्य पेलकस्य प्रेरको दारक इव प्रयत्नवान् मनः प्रेरकोऽनुमीयते । प्रयत्नकिसी प्रयत्नवान के द्वारा उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वे भी वृद्धि और संरोहण हैं, जैसे कि घर की वृद्धि और टूटे हुए अङ्गों का जुटना । (प्र०) वृक्ष में भी तो ये भग्नक्षत संरोहणादि है ? (उ०) वे भी ईश्वर रूप आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु वृक्ष में आत्मा (जीव) का सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि आत्मा का वह विलक्षण प्रकार का सम्बन्ध बुद्धि का कारण है, किन्तु विलक्षण सम्बन्ध वृक्षादि में नहीं है।
__'अभिमत' इत्यादि से मनोगतिहेतुक आत्मा का अनुमान दिखलाते हैं। 'अभिमतविषय' अर्थात् जिस विषय को लेने की इच्छा हो, उस वस्तु के ज्ञान का उस बस्तु के साथ एवं चक्षुरादि विषयों के साथ 'योग' अर्थात् मन का संयोग है। इस सम्बन्ध के कारण मन की क्रिया से भी ( आत्मा का अनुमान होता है )। 'घर में' अर्थात् घर के कोने में, अथवा भूमि में गड़े हुए एक लाह की गोली पर जब बालक अपने हाथ की दूसरी गोली चलाता है, तब उस दूसरी गोली की क्रिया से
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली वता प्रेय॑ मनः, अभिमतविषयसम्बन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्दारकहस्तगतपेलकवत् । वायवादिप्रेरितस्यानभिमतेनापि सम्बन्धो भवति । नयनविषयेति । नयनविषयस्य रूपस्यालोचनाद् ग्रहणानन्तरं रसस्यानुस्मरणकमेण रसनेन्द्रियान्तरविकारो दृश्यते, तस्मादुभयोर्गवाक्षयोरन्तःप्रेक्षक इव द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपरसयोर्दी कश्चिदेकोऽनुमीयते। किमुक्तं स्यात् ? कस्यचिदिष्टफलस्य रूपं दृष्ट्वा तत्सचहरितस्य पूर्वानुभूतस्य रसस्य स्मरणात्तत्रेच्छा भवति, ततोऽपि प्रयत्न आत्ममनस्संयोगापेक्षो रसनेन्द्रियविनियां करोति। सा दन्तोदकसंप्लवानुमिता रसनेन्द्रियविक्रिया इन्द्रियचैतन्ये न स्यात्, प्रत्येकं नियताभ्यां चलरसनाभ्यां रूपरसयोः साहचर्यप्रतीतौ रूपदर्शनेन रसस्मृत्यभावात् । अस्ति चायं विकारैः तस्मादिन्द्रियव्यतिरिक्तः कोऽप्युभयदर्शी यो रूपं दृष्ट्वा रसस्य स्मरति । शरीरमेवोभयशि भविष्यतीति चेन्न, बालवृद्धशरीरयोः परिमाणभेदेनान्यत्वे
गोली चलाने वाले प्रयत्न से युक्त उक्त बालक का अनुमान होता है। अतः मन प्रयत्न से युक्त किसी व्यक्ति के द्वारा प्रेरित होता है, क्योंकि वह इच्छित विषय के सम्बन्ध का कारण क्रिया का आश्रय है, जैसे बालक के हाथ की लाह की गोली । वायु प्रभृति से प्रेरित वस्तुओं का सम्बन्ध अनभीष्ट विषयों के साथ भी होता है। "नयनविषयेति" चक्षु से देखे जाने वाले रूप के आलोचन अर्थात् ज्ञान के बाद रस के स्मरणक्रम से रसनेन्द्रिय में विकार ( मुंह में पानी आना ) देखा जाता है, उसी से दो गवाक्षों के द्वारा एक देखने वाले की तरह दो इन्द्रियों से देखने वाले एक ज्ञाता का अनुमान करते हैं। इससे यही तात्पर्य क्या निकला ? कि किसी अभीष्ट फल के रूप को देखकर उस रूप के साथ रहनेवाले पूर्वानुभूत रस की स्मृति से उस रस के आस्वादन की इच्छा होता है। उस इच्छा से प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। इस प्रयत्न, (आत्मा और मन के संयोग) से रसनेन्द्रिय में विकृति हो जाती है । इन्द्रिय को अगर चेतन मानें तो मुंह के पानी से अनुमित रसनेन्द्रिय की विकृति की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि इन्द्रियों के विषय नियमित हैं। चक्षु से रूप का ही ज्ञान होता है रसादि का नहीं, एवं रसना से रस का ही ज्ञान हो सकता है रूप का नहीं। अतः रूप और रस के सामानाधिकरण्य की प्रतीति के बाद जो रूप को देखने से रस की स्मृति होती है, वह नहीं हो सकेगी, और वह विकार है अवश्य | अतः इन्द्रियादि से भिन्न कोई दोनों का अभिज्ञ एक व्यक्ति अवश्य है जो रूप को देखकर रस का स्मरण करता है। (प्र) रूप को देखनेवाला और रस को स्मरण करनेवाला शरीर ही क्यों नहीं है ? ( उ० ) एक ही व्यक्ति की बाल्यावस्था का शरीर और वृद्ध अवस्था का शरीर यत: भिन्न हैं, दोनों भिन्न परिमाणों के हैं। (ऐसी स्थिति में शरीर को ही अनुभविता और स्मर्त्ता दोनों
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न्यायकन्दलीसंलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ द्रव्ये आत्म
प्रशस्तपादभाष्यम्
ते च न शरीरेन्द्रियगुणाः, कस्मादहङ्कारेणैकवाक्यताभावात् प्रदेशवृत्तिशरीर और इन्द्रिय के गुण नहीं हैं, क्योंकि (१) अहङ्कार के साथ उनकी प्रतीत नहीं होती है। (२) वे अपने आश्रय के किसी प्रदेश में रहते है। (३) जब तक
न्यायकन्दली
सिद्धे बाल्यावस्थानुभूतस्य वृद्धावस्थायामस्मरणप्रसङ्गात् ।
न केवलं पूर्वोक्तहेतुभिः, सुखदुःखेच्छाद्वेषादिभिश्च गुणैर्गुण्यनुमीयते । अहङ्कारेणाहमितिप्रत्ययेनैकवाक्यत्वमेकाधिकरणत्वं सुखादीनां 'अहं सुखी, अहं दुःखी' इत्यहङ्कारप्रत्ययविषयस्य सुखाद्यवच्छेद्यस्य प्रतीतेः। अहं प्रत्ययश्च न शरीरालम्बन:, परशरीरेऽभावात्। स्वशरीरे एवायं भवतीति चेन्न, अविशेषात्। शरीरालम्बनोऽहंप्रत्ययः स्वशरीवत् परशरीरमपि चेत् प्रत्यक्षं तत्र यथा स्थूलादिप्रत्ययः स्वशरीरे परशरीरेऽपि भवति, एवमहमिति प्रत्ययोऽपि स्यात्, स्वरूपस्योभयत्राविशेषात् । स्वसम्बन्धिताकृते तु विशेषे तत्कृत एवायं प्रत्ययो न शरीरालम्बनः, तदालम्बनत्वे चान्तर्मुखतयापि न भवेत्। अत एवायं नेन्द्रियावलम्बनः, इन्द्रियाणामतीन्द्रियत्वात्, अस्य च लिङ्गशब्दानपेक्षस्य मान लेने पर) बाल्यावस्था में अनुभूत विषय का स्मरण वृद्धावस्था में अनुपपन्न हो जायगा।
केवल पहिले कहे हुए हेतुओं से ही नहीं, किन्तु सुख, दुःख, इच्छा, द्वेषादि गुणों से भी गुणी आत्मा का अनुमान होता है। 'अहङ्कार से', 'अहम्' इस प्रकार की प्रतीति से, एवं सुखादि के एकवाक्यत्व अर्थात् एकाधिकरणत्व से भी ( आत्मा का अनुमान होता है), क्योंकि अहं सुखी, अहं दुःखी' इत्यादि प्रतीतियों में 'अहम्' शब्द के अर्थ का सुखादि युक्त रूप से ही भान होता है, 'अहम्' इस आकार की प्रतीति का विषय शरीर नहीं हो सकता है, क्योंकि दूसरे के शरीर में 'अहम्' इस आकार की प्रतीति नहीं होती है। केवल अपने ही शरीर में 'अहम्' शब्द की प्रतीति होती है। (प्र.) ( यतः) अपने ही शरीर में 'अहम्' इस आकार की प्रतीति होती है, ( अत: वही अहं प्रत्यय का विषय हो)। ( उ०) इस कथन में कोई विशेष नहीं हैं, क्योंकि 'अहम्' यह प्रतीति यदि शरीर विषयक है तो फिर स्वशरीरविषयक और परशरीर विषयक दोनों होगी, जैसे कि स्थूलत्व का प्रत्यक्ष होता है, वह स्वशरीर में भी होता है एवं पर शरीर में भी होता है। इसी प्रकार 'अहम्' प्रतीति भी दोनों में समान होगी, क्योंकि स्वशरीर और परशरीर के स्वरूपों में कोई अन्तर नहीं है। यदि अपना सम्बन्ध ही अपने शरीर में विशेष मानें ? तो फिर वह प्रतीति उस सम्बन्ध विषयक ही होगी (आत्मविषयक नहीं) । एवं 'अहम्' प्रतीति अगर शरीर विषयक हो तो फिर अन्तमुखतया उसकी उत्पत्ति नहीं होगी। अत एव 'अहम्' प्रतीति इन्द्रिय विषयक भी नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय हैं, एवं 'अहम्' प्रतीति प्रत्यक्षरूप है, क्योंकि इस
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
त्वादयावद्द्रव्यभावित्वाद् बाह्येन्द्रियाप्रत्यक्षत्वाच्च तथाहंशब्देनापि पृथिव्यादिशब्दव्यतिरेकादिति ।
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उनके आश्रय विद्यमान रहें तब तक रहते ही नहीं हैं (अयावद्द्द्द्रव्यभावी हैं) । (४) एवं बाह्य इन्द्रियों से उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है । (१०) ' अहम्' शब्द से भी आत्मा का अनुमान होता है, क्योंकि पृथिवी प्रभृति अन्य द्रव्यों के लिए 'अहम्' शब्द का मुख्य प्रयोग कहीं नहीं देखा जाता है ।
न्यायकन्दली
प्रत्यक्ष प्रत्ययत्वात्, तस्मात् सुखादयोऽपि न शरीरेन्द्रियविषयाः । किश्व, योऽनुभविता तस्यैव स्मरणमभिलाषः, सुखसाधनपरिग्रहः, सुखोत्पत्तिः, दुःखप्रद्वेष इति सर्वशरीरिणां प्रत्यात्मसंवेदनीयम् । अनुभवस्मरणे च न शरीरेन्द्रियाणामित्युक्तम् । ततोऽपि सुखादयो न तद्विषयाः । युक्त्यन्तरश्वाह- प्रदेश वृत्तित्वादिति । दृश्यते प्रदेशवृत्तित्वं सुखादीनां पादे मे सुखं शिरसि मे दुःखमिति प्रत्ययात् । ततश्च शरीरेन्द्रियगुणत्वाभावः । तद्विशेषगुणानां व्याप्यवृत्तिव्यभिचारात् । सुखादयः शरीरेन्द्रियविशेषगुणा न भवन्ति, अव्याप्यवृत्तित्वात् । ये तु शरीरेन्द्रियविशेषगुणास्ते व्याप्यवृत्तयो दृष्टाः, यथा रूपादयः, न च तथा सुखादयो व्याप्यवृत्तयः, तस्मान्न शरीरेन्द्रियगुणा इति व्यतिरेकी । कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नस्य नभोदेशस्य
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में 'हेतु' और 'शब्द' इन दोनों की ( अर्थात् अनुमान प्रमाण और शब्द प्रमाण की ) अपेक्षा नहीं है | ( यत: शरीर और इन्द्रिय अहम् प्रत्यय के विषय नहीं हैं ) अत: सुखादि भी शरीर और इन्द्रिय के धर्म नहीं हैं । एवं यह सभी शरीरधारियो का अनुभव है कि स्मरण, अभिलाषा, सुख के साधनों का ग्रहण, सुख की उत्पत्ति, दुःख के प्रति द्वेष प्रभृति अनुभव करने वाले को ही होते हैं । यह कह चुके हैं कि अनुभव और स्मरण दोनों शरीर और इन्द्रियों को नहीं हो सकते । इस हेतु से भी शरीरादि सुखादि के आश्रय नहीं हैं 'सुखादि के आश्रय शरीरादि नहीं हैं' इसमें 'प्रदेश वृत्तित्वात्' इत्यादि से दूसरी युक्ति भी देते हैं । 'पैर में सुख है, और शिर में वेदना
।
है' इत्यादि प्रतीतियों से समझते हैं कि सुखादि प्रदेशवृत्ति हैं, अर्थात् अपने आश्रय के किसी एक देश में ही रहते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि सुखादि शरीर इन्द्रियों के गुण नहीं हैं, क्योंकि सुखादि विशेषगुण कभी 'व्याप्यवृत्ति' अर्थात् अपने आश्रय के समस्त अंशों में रहनेवाले नहीं होते । शरीर और इन्द्रियों के जितने भी विशेष गुण हैं, सभी व्याप्यवृत्ति अर्थात् अपने आश्रय के सभी अंशों में रहनेवाले होते हैं, जैसे कि रूपादि । सुखादि रूपादि विशेष गुणों की तरह व्याप्यवृत्ति नहीं हैं, अतः सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं हैं
।
यह व्यतिरेक व्याप्ति जनित अनुमान भी ( 'सुखादि
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दली श्रोत्रेन्द्रियभावमापन्नस्य यश्शब्दो गुणो भवति स तद्विवरव्यापीत्यव्यभिचारः । इतोऽपि न शरीरेन्द्रियगुणाः सुखादयो भवन्ति, अयावद्दव्यभावित्वात्, व्यतिरेकेण रूपादय एष निदर्शनम् । इन्द्रियगुणप्रतिषेधे तु नायं हेतुः, श्रोत्रगुणेन शब्देनानैकान्तिकत्वात् । इतोऽपि न शरीरेन्द्रियगुणा: सुखादयो बाह्येन्द्रियाप्रत्यक्षत्वात् । शरीरेन्द्रियगुणानां द्वयी गतिः-अप्रत्यक्षता गुरुत्वादीनाम्, बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षता रूपादीनाम् । विधान्तरन्तु सुखादयस्तस्मान्न तद्गुणा इति शरीरेन्द्रियगुणत्वे प्रतिषिद्धे परिशेषात्तैरात्मानुमीयत इति स्थितिः ।
ननु सुखं दुःखञ्चेमौ विकाराविति नित्यस्यात्मनो न सम्भवतः । भवतश्चेत् सोऽपि चर्मवदनित्यः स्यात् । न, तयोरुत्पादविनाशाभ्यां तदन्यस्यात्मनः
शरीरादि के गुण नहीं हैं' ) इसका साधक है । यद्यपि आकाश रूपी विभु-श्रोत्रेन्द्रिय का विशेषगुण शब्द अव्याप्यवृत्ति प्रतीत होता है, तथापि विभु आकाश श्रोत्रेन्द्रिय नहीं है, किन्तु कर्णशष्कुली से सीमित आकाश ही श्रोत्रेन्द्रिय है और इस आकाश में शब्द व्याप्यवृत्ति ही है। अत: इन्द्रियादि के विशेषगुण अवश्य ही व्याप्यवृत्ति होते हैं। इस नियम में कोई व्यभिचार नहीं है । 'सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं है' इसमें यह हेतु भी है कि वे अयावद्रव्य भावी' हैं (अर्थात् वे आश्रय रूप द्रव्य के विद्यमान समय तक बराबर नहीं रहते ), अयावद्रव्यभावित्व हेतु के न्याय प्रयोग में भी रूपादि ही व्यतिरेक दृष्टान्त हैं । 'सुखादि इन्द्रिय के विशेष गुण नहीं है' अयावद्रव्य हेतुक अनुमान इसका साधक नहीं है ( इस अनुमान से केवल यही सिद्ध होता है कि सुखादि शरीर के गुण नहीं हैं ). क्योंकि यह हेतु श्रोत्रेन्द्रिय के शब्द रूप गुण में व्यभिचरित है। इस हेतु से भी सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं हैं, क्योंकि सुखादि का बाह्य इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं होता है। वस्तुस्थिति यह है कि शरीर और इन्द्रियों के गुण के दो ही प्रकार हैं (१) किन्हीं गुणों का तो किसी भी प्रकार प्रत्यक्ष ही नहीं होता है जैसे कि गुरुत्वादि का, या फिर (२) बाह्य इन्द्रियों से ही प्रत्यक्ष होता है, जैसे कि रूपादि का। सुखादि दोनों प्रकारों से भिन्न तीसरे प्रकार के हैं, अतः शरीरादि के गुण सुखादि नहीं हैं। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाने पर कि 'सुखादि शरीर और इन्द्रियों के गुण नहीं हैं' इन सुखादि हेतुओं से होनेवाले परिशेषानुमान से भी आत्मा का अनुमान होता है।
(प्र०) सुख और दुःख ये दोनों तो विकार है, अत: वे नित्य आत्मा के गुण नहीं हो सकते, अगर विकार स्वरूप सुखादि भी आत्मा के गुण हों तो फिर आत्मा चर्म की तरह अनित्य वस्तु होगी। (प्र.) नहीं, क्योंकि सुख और दुःख दोनों की उत्पत्ति और विनाश से उन दोनों से भिन्न आत्मा के स्वरूप में कोई विघटन नहीं
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সকম্ব ] भाषानुवादसहितम्
२०७ न्यायकन्द्रलो स्वरूपप्रच्युतेरभावात् । नित्यस्य हि स्वरूपविनाशः स्वरूपान्तरोत्पादश्च विकारो नेष्यते, गुणनिवृत्तिर्गुणान्तरोत्पादश्चाविरुद्ध एव। अथास्य नित्यस्य सुखदुःखाभ्यां कि क्रियते ? स्वविषयोऽनुभवः । सुखदुःखानुभवे सत्यास्यातिशयानतिशयरहितस्य क उपकार:? अयमेव तस्योपकारोऽयमेव चातिशयो यस्मिन् सति सुखदुःखभोक्तृत्वम् । तथाहंशब्देनापीति । यथा सुखादिभिरात्मा अनुमीयते तथाहंशब्देना. प्यनुमीयते, अहंशब्दो लोके वेदे चाभियुक्तैः प्रयुज्यमानो न तावनिरभिधेयः। न च स्वरूपमभिधेयं युक्तं स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । यथोक्तम्'नात्मानमभिधत्ते हि कश्चिच्छब्दः कदाचन।" तस्माद् योऽस्याभिधेयः स आत्मेति। नन्वयं पृथिव्यादीनामेव वाचको भविष्यति तत्राह-पृथिव्यादिशब्दव्यतिरेकादिति । यो यस्यार्थस्य वाचकः स तच्छब्देन समानाधिकरणो दृष्टः, यथा द्रव्यं पृथिवीति । अहंशब्दस्य तु पृथिव्यादिवाचकैः शब्दैः सह व्यति.
हो सकता है। एक स्वरूपविनाश और दूसरे स्वरूप की उत्पत्ति ये दोनों विकार तो नित्य वस्तुओं में होते नहीं हैं। एक गुण का नाश और दूसरे गुण की उत्पत्ति ये दोनों विकार उसके नित्यत्व के विरोधी नहीं हैं । (प्र०) नित्य आत्मा को सुख और दुःख से क्या होता है ? (उ०) सुख दुःखादि का अनुभव होता है । (प्र०)अतिशय (वैशिष्टय) और अनतिशय से रहित आत्मा का सुख और दुःख के अनुभव से क्या उपकार होता है ? ( उ०) इनसे यही उपकार होता है और इनसे आत्मा में यही अतिशय उत्पन्न होता है कि इन दोनों के रहने से ही सुख दुःख के भोक्तृत्व का व्यवहार उस में होता है। "तथाऽहंशब्देनापि" जैसे कि सुखादि से आत्मा का अनुमान होता है वैसे ही 'अहम्' शब्द से भी आत्मा का अनुमान होता है। लोक में और वेदों में प्रयुक्त 'अहम्' शब्द अपने वाच्य अर्थ से रहित नहीं हैं और अपना स्वरूप (आनुपूर्वी) भी उसके वाच्य अर्थ नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु में एक क्रिया का कतत्व और कर्मत्व दोनों नहीं रह सकते, क्योंकि वे दोनों परस्पर विरोधी है । जैसा कहा है कि 'कोई भी शब्द अपने स्वरूप (आनुपूर्वी) को कभी भी अभिधावृत्ति से नहीं समझाते, अतः आत्मा ही 'अहम्' शब्द का वाच्य अर्थ है । 'अहम्' शब्द पृथिव्यादि का वाचक हो सकता है ? इस आक्षेप के समाधान में 'पृथिव्यादिशब्दव्यतिरेकात्' यह वाक्य कहा है। जो शब्द जिस अर्थ का वाचक रहता है वह उस अर्थ के वाचक दूसरे शब्द के साथ 'समानाधिकरण' अर्थात् अभेद का बोध करनेवाले रूप से प्रयुक्त होता है, जैसे कि 'द्रव्यं पृथिवी' इत्यादि । 'अहम्' शब्द का पृथिव्यादि वाचक शब्दों के साथ व्यतिरेक' अर्थात् सामानाधिकरण्य नहीं है, क्योंकि 'अहं पृथिवी, अहमुदकम्' इत्यादि प्रतीतियाँ नहीं होती हैं । अत: 'अहम्' शब्द पृथिव्यादि का वाचक नहीं है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आत्म
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्य गुणा बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः। आत्मलिङ्गाधिकारे बुद्धथादयः
(१) बुद्धि, (२) सुख, (३) दुःख, (४) इच्छा, (५) द्वेष, (६) प्रयत्न, (७) धर्म, (८) अधर्म, (६) संस्कार, (१०) संख्या, (११) परिमाण, (१२) पृथक्त्व, (१३) संयोग और (१४) विभाग ये चौदह गुण आत्मा के हैं। 'आत्मलिङ्गाधिकार' अर्थात् 'प्राणापानादि' (३।२।४) सूत्र के द्वारा बुद्धि से प्रयत्न पर्यन्त
न्यायकन्दली रेकः समानधिकरणत्वाभावः, अहं पृथिव्यहमुदकमिति प्रयोगाभावात् , तस्मान्नायं पृथिव्यादिविषयः । ननु शरीरविषय एवायं दृश्यते स्थूलोऽहमिति? न, अहं जानामि अहं स्मरामीतिप्रयोगात्। शरीरस्य च ज्ञानस्मृत्यधिकारणत्वं निषिद्धम्, तस्मादात्मोपकारकत्वेन लक्षणया शरीरे तस्य प्रयोगः, यथा भूत्येऽहमेवायिमिति व्यपदेशः।
एवं व्यवस्थिते सत्यात्मनो गुणान् कथयति-तस्य च गुणा इत्यादिना। बुद्धयादीनामात्मनि सद्भावे सूत्रकारानुमति दर्शयति-आत्मलिङ्गाधिकारे बुद्धयादयः प्रयत्नान्ता: सिद्धा इति। आत्मलिङ्गाधिकार इति प्राणापानादिसूत्रं लक्षयति । धर्माधर्मावात्मान्तरगुणानामकारणत्ववचनादिति । धर्माधर्मा. वात्मान्तरगुणानामकारणत्वादिति वचनासिद्धौ । दातरि वर्तमानो दानधर्मः प्रतिगृहीतरि अधर्म जनयतीति कस्यचिन्मतं निषेद्ध सूत्रकृतोक्तम्
(प्र.) 'अहम्' शब्द तो शरीर के लिए ही प्रयुक्त दीखता है, जैसे कि 'स्थूलोऽहम्' इत्यादि । (उ०) नहीं, "अहं जानामि, अहं स्मरामि” इत्यादि भी प्रयोग होते हैं। यह कह चुके हैं कि अनुभव और स्मृति शरीर के धर्म नहीं हैं, अतः शरीर चूंकि आत्मा को उपकार पहुँचाने वाला है, अतः आत्मा के वाचक 'अहम्' शब्द का लक्षणावृत्ति से शरीर में भी प्रयोग होता है, जैसे कि भृत्य में 'यह मैं ही हूँ' यह प्रयोग होता है ।
___ इस प्रकार आत्मा की सिद्धि हो जाने पर 'तस्य च गुणाः' इत्यादि से आत्मा के गुण कहे जाते हैं । आत्मलिङ्गाधिकारे बुद्ध यादयः प्रयत्नान्ताः सिद्धाः' इत्यादि से आत्मा में बुद्धयादि गुणों की सता में सूत्रकार की अनुमति सूचित करते हैं । 'आत्मलिङ्गाधिकार' शब्द से 'प्राणापानादि' सूत्र सूचित होता है । 'धर्माधर्मावात्मान्तरगुणानामकारणत्ववचनात्" अर्थात् 'आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरेऽकारणत्वात्” (६।१।५) सूत्रकार की इस उक्ति से आत्मा में धर्म और अधर्म की सिद्धि समझनी चाहिए। किसी का कहना है कि दाता के दानजनित धर्म से ग्रहण करनेवाले पुरुष में अधर्म की उत्पत्ति होती है, इस मत को खण्डन करने के लिए सूत्रकार ने 'आत्मान्तरगुणानाम्' इत्यादि सूत्र लिखा है। इस सूत्र का अभिप्राय है कि जैसे कि एक आत्मा का धर्मरूप गण
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रयत्नान्ताः सिद्धाः। धर्माधर्मावात्मान्तरगुणानामकारणत्ववचनात् । संस्कारः, स्मृत्युत्पत्ती कारणवचनात् । व्यवस्थावचनात् सङ्ख्या । छः गुण आत्मा में कहे गये हैं। यतः “आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरेऽकारणत्वात्' (६।१।१५) इस सूत्र के द्वारा एक आत्मा के गुणों को दूसरी आत्मा के गुणों का अकारण कहा गया है, इससे सिद्ध होता है कि धर्म और अधर्म ये दोनों भी आत्मा के गुण हैं । महर्षि ने 'आत्ममनसोः संयोगविशेषात्संस्काराच्च स्मृति:" (६।२।६) इस सूत्र के द्वारा संस्कार को स्मृति का कारण कहा है, अत: आत्मा में संस्कार नामक गुण का रहना भी उनको अभिप्रेत समझना चाहिए। "व्यवस्थातो नाना" ( ३।२।२० ) सूत्रकार की इस उक्ति से आत्मा में संख्या की सिद्धि समझनी
न्यायकन्दली "आत्मान्तरगुणानामात्मान्तरगुणेष्वकारणत्वात" इति । अस्यायमर्थः-आत्मान्तरगुणानां सुखादीनामात्मान्तरगुणेषु सुखादिषु कारणत्वाभावाद्धर्माधर्मयो. रन्यत्र वर्तमानयोरन्यत्रारम्भकत्वमयुक्तमिति । एतेन धर्माधर्मयोरात्मगुणत्वं कथितम्, अन्यथा तयोः सुखादिसाधर्म्यकथनेनानारम्भकत्वसमर्थनं न स्यात् । संस्कारः स्मृत्युत्पत्ताविति ।आत्ममनसोः संयोगात्संस्काराच्चेति स्मृतिसूत्रं लक्षयति। पूर्वानुभूतोऽर्थः स्मर्य्यते, न तत्रानुभव: कारणम्, चिरविनष्टत्वात् , नाप्यनुभवाभाव: कारणमभावस्य निरतिशयत्वेन पटुमन्दादिभेदानुपपत्तेरभ्यासवैयर्थ्याच्च । दूसरी आत्मा में सुख का उत्पादन नहीं कर सकता है, वैसे ही एक आत्मा का धर्म या अधर्म दूसरी आत्मा में धर्म या अधर्म को भी उत्पन्न नहीं कर सकता। इससे यह कथित हो जाता है कि 'धर्म और अधर्म आत्मा के गुण हैं। अगर ये आत्मा के गुण न हों तो फिर जैसे एक आत्मा में रहनेवाले सुखादि दूसरी आत्मा में सुखादि के उत्पादक नहीं हैं, वैसे ही धर्म और अधर्म भी, तथा एक आत्मा में रहनेवाले सुखादि भी, इस सादृश्य से दूसरी आत्मा में अधर्मादि के उत्पन्न न होने का समर्थन असङ्गत हो जायगा। महर्षि कणाद ने संस्कार को स्मृति का कारण कहा है, अतः आत्मा में संस्कार (भावना नाम का) गुण भी समझना चाहिए । 'संस्कारः' इत्यादि भाष्य की पंक्ति "आत्ममनसोः संयोगात्संस्का. राच्च स्मृतिः" (६।२।६) इस सुत्र की ओर सङ्केत करती है । पूर्वकाल में अनुभूत विषय की ही स्मृति होती है। स्मृति के प्रति पूर्वानुभव कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि स्मति की उत्पत्ति से बहुत पहिले वह नष्ट हो जाता है। उस अनुभव का नाश भी उसका कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि अभाव में अर्थात् अनुभवनाशजनित अनुभव की असत्ता रूप
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
२१.
[ द्रव्ये आत्मन्यायकन्दली तस्मादनुभवेनात्मनि कश्चिदतिशयः कृतो यतः स्मरणं स्यादिति संस्कारकल्पना । ये तु विनष्टमप्यनुभवमेव स्मृतेः कारणमाहुः, तेषां विनष्टमेव ज्योतिष्टोमादिकं स्वर्गादिफलस्य साधनं भविष्यतीत्यदृष्टस्याप्युच्छेदः स्यात् । व्यवस्थावचनात् संख्येति । "नानात्मानो व्यवस्थातः" इति सूत्रेणात्मनानात्वप्रति. पादनाद् बहुत्वसङ्ख्या सिद्धेत्यर्थः ।
____ अथ केयं व्यवस्था ? नानाभेदभाविनां ज्ञानसुखादीनामप्रतिसन्धानम् , ऐकात्म्ये हि यथा बाल्यावस्थायामनुभूतं वृद्धावस्थायामनुसन्धीयते मम सुखमासीन्मम दुःखमासीदिति, एवं देहान्तरानुभूतमप्यनुसन्धीयते, अनुभवितुरेकत्वात् । न चैवमस्ति, अत: प्रतिशरीरं नानात्मानः । यथा सर्वत्रैकस्याकाशस्य श्रोत्रत्वे कर्णशष्कुल्याद्युपाधिभेदाच्छन्दोपलब्धिव्यवस्था,
अभाव में और अनुभव की अनुत्पत्तिमूलक अनुभव की असत्ता रूप अभाव में कोई भा अन्तर नहीं है, अतः अधिक काल तक स्मरण रखने से 'पटु' और थोड़े समय तक स्मरण रखने से मन्द, इस प्रकार की दोनों स्मृतियों में कोई अन्तर नहीं रहेगा । एवं चिरकाल तक स्मरण रखने के लिए अभ्यास की भी जरूरत न रह जायगी अतः संस्कार रूप अतिशय की कल्पना की जाती है। जो कोई विनष्ट अनुभव को ही स्मति का कारण मानते हैं, उनके मत में विनष्ट ज्योतिष्टोमादि याग से ही स्वर्गादि की उत्पत्ति माननी पड़ेगी। अतः उनके मत में धर्म और अधर्म इन दोनों को भी मानने की आवश्यकता नहीं रहेगी। 'व्यवस्था के रहने से संख्या भी' अर्थात् "व्यवस्थातो नाना" (२२।२०) इस सत्र से आत्मा में नानात्व की सिद्धि की गयी है। इससे आत्मा में बहुत्व संख्या की भी सिद्धि होती है ।
(प्र०) (आत्मा अनेक हैं) इसमें क्या युक्ति है ? (उ०) यही कि एक के ज्ञानसुखादि का दूसरे को स्मरण नहीं होता है। अर्थात् आत्मा अगर एक माना जाय तो फिर बाल्यावस्था में विषय का जैसे वृद्धावस्था में स्मरण होता है कि 'मुझे दुःख था, मुझे सुख था' वैसे ही और देहों के द्वारा अनुभून विषयों का स्मरण भी हो, क्योंकि अनुभव करने वाला आत्मा सभी देहों में एक ही है, किन्तु ऐसा नहीं होता। अतः प्रत्येक शरीर में रहनेवाले आत्मा भिन्न-भिन्न हैं । ( प्र०) जैसे यह नियम है कि आकाश के एक होने पर भी कर्णशष्कुली रूप उपाधि से युक्त आकाश से ही शब्द सुना जाता है, वैसे ही आत्मा के एक होने पर भी जिस देह रूप उपाधि से युक्त होकर वह (आत्मा) जिन सुखादि का अनुभव करता है, उस देह रूप उपाधि से युक्त आत्मा ही उन सुखादि का स्मरण भी करेगा दूसरा नहीं, यह व्यवस्था भी की जा सकती है। ( इस
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२११ न्यायकन्दली तथात्मकत्वेऽपि देहभेदादनुभवादिव्यवस्थेति चेद् ? विषमोऽयमुपन्यासः, प्रतिपुरुषं व्यवस्थिताभ्यां धर्माधर्माभ्यामुपगृहीतानां शब्दोपलब्धिहेतूनां कर्णशष्कुलीनां व्यवस्थानाद्युक्ता तदधिष्ठाननियमेन शब्दग्रहणव्यवस्था । ऐकात्म्ये तु धमधिर्मयोरव्यवस्थानाच्छरीरव्यवस्थाभावे कि कृता सुखदु:खोत्पत्तिव्यवस्था ? मनस्सम्बन्धस्यापि साधारणत्वात् । यस्य तु नानात्मानः, तस्य सर्वेषामात्मनां सर्वगतत्वेन सर्वशरीरसम्बन्धेऽपि न साधारणो भोगः । यस्य कर्मणा यच्छरीरमारब्धं तस्यैव तदुपभोगायतनं न सर्वस्य, कर्मापि यस्य शरीरेण तस्येव तद्भवति नापरस्य, एवं शरीरान्तरनियमः कान्तरनियमादित्यनादिः । अथ मतम्, एकत्वेऽपि परमात्मनो जीवात्मनां परस्परभेदाद् व्यवस्थेति तदसत्, परमात्मनो भेदेऽद्वैतसिद्धान्तक्षतिः, “अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि' इति जीवपरमात्मनोस्तादात्म्यश्रुतिविरोधाच्च । अविद्याकृतो जीवपरमात्मनोभेंद इति चेत् ? कस्येयमविद्या ? किं ब्रह्मणः ? किमुत जीवानाम ?
के लिए आत्मा को नाना मानने की आवश्यकता नहीं है ) । ( उ०) प्रत्येक पुरुष के शब्दोपलब्धि के अरष्ट से कर्णशष्कुली रूप कारण की कल्पना की गयी है। अतः यह ठीक है कि उसी कर्णशष्कुली रूप उपाधि से युक्त आकाश (श्रवणेन्द्रिय ) से ही शब्द का प्रत्यक्ष होता है, औरों से नहीं, किन्तु आत्मा को एक मान लेने से धर्म और अधर्म की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी, फिर सुखदुःखादि की भी व्यस्था नहीं होगी, फिर सुखदुःखादि का भी नियम नहीं रहेगा, क्योंकि मन का सम्बन्ध तो सभी देहों में समान ही है, अतः उक्त आक्षेप असङ्गत है। यद्यपि जिनके मत में आत्माएँ अनेक हैं, उनके मत में भी ( व्यापक होने के कारण प्रत्येक ) आत्मा सभी मूतं द्रव्यों के साथ सम्बद्ध है, फिर भी भोग के सर्वसाधारणत्व की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि जिस आत्मा के कर्म ( अदृष्ट ) से जो शरीर उत्पन्न होगा वह शरीर उसी आत्मा के भोग का 'आयतन' होगा, दूसरी आत्माओं के भोग का नहीं, एवं जिस आत्मा के शरीर से जो कर्म ( अदृष्ट ) उत्पन्न होगा वह कर्म उसी आत्मा का होगा और आत्माओं का नहीं । इसी प्रकार अन्य शरीर और अन्य कर्मों की भी व्यवस्था समझनी चाहिए। (प्र.) जीवात्मा और परमात्मा ये दो मान लेने से ही ( शरीर भेद से अनन्त जीव न मानने पर भी) सभी व्यवस्थायें ठीक हो जाती हैं ? ( उ०) यह मान लेने पर भी अद्वैत सिद्धान्त तो विघटित हो ही जायगा । एवं 'अनेन जीवेन' इत्यादि श्रुतियाँ भी विरुद्ध हो जायँगी । (प्र. ) जीव और ईश्वर वास्तव में तो अभिन्न ही हैं, किन्तु 'अविद्या' से अर्थात् अज्ञान से दोनों में भेद की कल्पना की जाती है । ( उ०) यह अविद्या किसकी ? जीव की ? या ब्रह्म की ? ब्रह्म की तो
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२१२
[ द्रव्ये आत्म
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
न तावद् ब्रह्मणोऽस्त्यविद्यायोगः, शुद्धबुद्धस्वभावत्वात् । जीवाश्रयाविद्येति चान्योन्याश्रयदोषपराहतम्, अविद्याकृतो जीवभेदो जीवाश्रयाविद्येति । बोजाहुकुरवदनादिरविद्या जीवप्रभेद इति चेत् ? बीजाङकुरव्यक्तिभेदवदविद्याजीवयोः पारमाथिकत्वाभादादनुपपन्नं व्यक्तिभेदेन च बीजाङकुरयोरन्योन्यकारणता, जीवस्तु सर्वासु भवकोटिष्वेक एव, मानुषपशुपक्ष्यादियोनिप्रत्यग्रजातस्य शिशोर्जातिसाम्यादाहारविशेषाभिलाषेण तासु तासु जातिषु जन्मान्तरकृतस्य तत्तदाहारविशेषस्यानुमानपरम्परया तस्यानादिशरीरयोगप्रतीतेः, तत्राविद्याकृतो जीवभेदो जीवभेदाच्चाविद्येत्यसङ्गतिः । ब्रह्मवज्जीवस्याप्यनादिनिधनत्वेन ब्रह्मप्रतिबिम्बता, तस्मात् “तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" इति श्रुतिप्राण्यादनादिनिधनं ब्रह्मतत्त्वमेवेदं सर्वदेहेषु प्रतिभासत इति न वाच्यम्, तथा सति चानुपपन्ना व्यवस्थितेति सूक्तं 'नानात्मानो व्यवस्थात' इति ।
वह हो नहीं सकती है, क्योंकि वे शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव के हैं। अगर अविद्या का आश्रय जीव को मानें, तो फिर अन्योन्याश्रय दोष होगा, क्योंकि अविद्या से ही जीव की कल्पना की जाती है और वह अविद्या उसी में आश्रित है। अविद्या के रहने से ही वह जीव होगा एवं जीव के रहने से ही अविद्या की सत्ता रहेगी, इन दोनों में पहिले कौन होगा ? और पीछे कौन ? यह निर्णय असम्भव है, अतः इस निर्णय के बल पर कोई भी निर्णय सम्भव नहीं है। (प्र०) बीज और अकुर की तरह जीव और अविद्या का सम्बन्ध भी अनादि है । ( उ० ) जब बीज और अकुर नाम के दो स्वतन्त्र वस्तु हैं, तब यह स्वीकार करना पड़ता है कि अङकुर के कारण बीज का भी कोई दूसरा अङ्कुर ही कारण है । अतः अन्योन्याश्रय से दूषित होते हुए भी बीज और अङ्कुर का सामान्य कार्यकारणभाव मानना पड़ता है। किन्तु जीव और अविद्या वास्तव में दो व्यक्ति नहीं हैं, अतः यहाँ अन्योन्याश्रयदोष को सह्य करना उचित नहीं है । ( प्र० ) संसार के सभी देहों में जीव एक ही है। मनुष्य, पशु, पक्षी प्रभृति जिस योनि में अभी उसका जन्म होता है उस जाति के विशेष प्रकार के भोजन की अभिलाषा से उस जीव में इससे पहिले जन्म में भी इस प्रकार के आहार का अनुमान होता है और यही अनुमान की परम्परा जीव में शरीर के अनादि सम्बन्ध को प्रमाणित करती है । (उ०) इस पक्ष में भी अविद्या के कारण जीवों में भेद एवं जीवभेद के कारण अविद्या, यह असङ्गति है ही। (प्र.) ब्रह्म की तरह जीव भी आदि और अन्त से रहित है, फलतः जीव ब्रह्म का ही प्रतिबिम्ब है। "तमेव भान्तम्' इत्यादि श्रुतियां भी इस अर्थ को पुष्ट करती हैं, अतः आदि और अन्त से रहित ब्रह्मतत्त्व ही सभी देहों में प्रतिभासित होता है । ( उ०) इस पक्ष में भी
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
सिद्धम्,
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प्रशस्तपादभाष्यम्
पृथकत्वमप्यत
एव !
तथा
चात्मेतिवचनात् परममहत्परिमाणम ।
चाहिए । यतः आत्मा में संख्या है, अतः पृथक्त्व भी अवश्य ही है । वैभव सूत्र ( ७।१।२२ ) में प्रयुक्त 'तथा चात्मा' इस उक्ति से आत्मा में परममहत्परिमाण गुण का रहना भी महर्षि का अभिप्रेत समझना चाहिए । यतः सुखादि
न्यायकन्दली
अभेदश्रुतयस्तु गौणार्था इति दिक् । न च नानात्मपक्षे सर्वेषां क्रमेण मुक्तावन्ते संसारोच्छेदः, अपरिमितानामन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वायोगात् । यथाहुवर्तिककारमिश्रा:
२१३
अत एव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु सन्ततम् । ब्रह्माण्डो जीवानामनन्तत्वादशून्यता ॥ अन्त्यन्यूनातिरिक्तत्वे पूज्यते परिमाणवत् । वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसम्भवः ॥ इति ।
पृथक्त्वमप्यत एव । "नानात्मानो व्यवस्थातः” इति वचनादेव पृथक्त्वं सङ्ख्यानुविधायित्वात्पृथक्त्वस्येत्यभिप्रायः । तथा चात्मेतिवचनात्परममहत्परिमाणमिति । “विभववान् महानाकाशस्तथा चात्मा" इति सूत्रकारवचनादाकाशवदात्मनोऽपि विभुत्वात् परममहत्परिमाणं सिद्धमित्यर्थः । विभुत्वश्वात्मनो वह्नेरूर्ध्वज्वलनाद् वायोस्तिर्यग्गमनादवगतम् । ते ह्यदृष्ट
व्यवस्था की उक्त अनुपपत्ति रहेगी ही, अतः "तीनात्मानो व्यवस्थातः " सूत्रकार की यह उक्ति ठीक है । जीव और ब्रह्म में अभेद को प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियाँ गौण हैं । जीव को नाना मान लेने से इसका भी समाधान हो जाता है कि 'सभी आत्माओं के मुक्त हो जाने पर अन्त में संसार का ही लोप हो जायगा, क्योंकि 'अपरिमित' अर्थात् अनन्त वस्तुओं में अन्तिम, न्यूनत्व, अधिकत्व प्रभृति की चर्चा ही नहीं उठती है । जैसा वांतिककार मिश्र ने कहा है कि यतः जीव अनन्त हैं, अतः बराबर ज्ञानी जीवों को मुक्त होते रहने पर भी यह ससार जीवों से शून्य नहीं होता है । अन्तिम, न्यून, और अधिक ये सभी बातें परिमित अपरिमत वस्तुओं में ये सभी बातें असम्भव हैं ।
वस्तुओं की हैं,
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समझनी चाहिए
।
आत्मा में पृथकूत्व नाम के गुण की भी सिद्धि संख्या रहेगी वहाँ पर पृथक्त्व भी अवश्य ही रहेगा सूत्र में प्रयुक्त सूत्रकार की इस उक्ति से विभुत्व हेतु से तरह परममहत्परिमाण की सिद्धि होती है । आत्मा का विभुत्व वायु की कुटिल गति से समझते हैं, क्योंकि वे दोनों ही
क्योंकि जहाँ पर " तथा चात्मा" (७|१|२२) वैभव आत्मा में भी आकाश की आग की ऊर्ध्वगति और अदृष्टकृत हैं । उन गतियों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
२१४
[ द्रव्ये आत्मन्यायकन्दली कारिते । न च तदाश्रयेणासम्बद्धमदृष्टं तयोः कारणं भवितुमर्हति, अतिप्रसङ्गात् । न चात्मसमवेतस्यादृष्टस्य साक्षात् द्रव्यान्तरसम्बन्धो घटत इति स्वाश्रयसम्बन्धद्वारेण तस्य सम्बन्ध इत्यायातम् । ततः समस्तमूर्तद्रव्यसम्बन्धलक्षणमात्मनो विभुत्वं सिद्धयति । स्वभावत एव वहरूप्रज्वलनं नादृष्टादिति चेत् ? कोऽयं स्वभावो नाम ? यदि वह्नित्वमुत दाहकत्वम् ? रूपविशेषो वा ? तप्तायःपिण्डे वह्नेरपि स्यात् । अथेन्धनविशेषप्रभवत्वं स्वभाव इति ? अनिन्धनप्रभवस्य विद्यदादिप्रभवस्य चौ@ज्वलनं न स्यात् । अथातीन्द्रियः कोऽपि स्वभावः कासुचिद् व्यक्तिष्वस्ति यासामूर्ध्वज्वलनं दृश्यत इति, पुरुषगुणे कः प्रद्वेषः ? यस्य कर्मणो गुरुत्वद्रवत्ववेगा न कारणं तस्यात्मविशेषगुणादुत्पादः, यथा पाणिकर्मणः पुरुषप्रयत्नात , ऊर्ध्वज्वलनतिर्यकपवनादिनां कर्मणां गुरुत्वादयो न कारणमभावात्, तत्तत्कार्यविपरीतत्वाच्च । तस्मादेषामप्यात्मविशेष
के आश्रयों में असम्बद्ध अदृष्ट उनके कारण नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा मानने से अतिप्रसङ्ग होगा, एवं आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहने के कारण अदृष्ट का बाह्य वस्तुओं के साथ कोई भी साक्षात् सम्बन्ध नहीं हो सकता है, अतः यही मानना पड़ेगा कि अदृष्ट के आश्रय आत्मा के साथ वह्निप्रभृति के सम्बन्ध होते हैं। इस प्रकार तद्गत अदृष्ट के साथ भी उनका परम्परा सम्बन्ध होता है। अतः मूर्त द्रव्यों के साथ आत्मा का सम्बन्ध अवश्य है और सभी मूर्त द्रव्यों के साथ सम्बन्ध ही विभुत्व' है । (प्र.) 'स्वभाव' से ही वह्नि ऊपर की ओर जलती है, इसमें अदृष्ट कारण नहीं है। (उ०) 'स्वभाव' शब्द का यहाँ क्या अर्थ है ? 'स्व' वह्नि का जो 'भाव' अर्थात् धर्म वह तो (१) वह्नित्व (२) दाहकत्व और (३) विशेष प्रकार का रूप ये तीन ही हैं, 'स्वभाव' शब्द से इन तीनों धर्मों को कारण मानने से तपे हुए लोहे का भी ऊज्वलन मानना पड़ेगा, क्योंकि उसमें भी स्वभाव शब्द के उक्त तीनों अर्थ हैं । (प्र.) लकड़ी की आग ही ऊपर को तरफ जलती है, अतः वह्नि का लकड़ी से उत्पन्न होना ही ऊर्ध्वज्वलन का कारणोभूत 'स्वभाव' है। (उ०) फिर इन्धन के बिना ही उत्पन्न विद्युत् प्रभृति वह्नि का ऊर्ध्वज्वलन नहीं होगा। अगर किसी वह्नि में कोई ऐसी अतीन्द्रिय सामर्थ्य मानते हैं, जिससे उसी वह्नि में ऊर्ध्वज्वलन होता है, तो फिर जीव के अतीन्द्रिय धर्म रूप अदृष्ट को ही अगर ऊध्र्वज्वलन का कारण मानते हैं तो आपको क्यों जलन होती है ? जिस क्रिया का कारण गुरुत्व, द्रवत्व और वेग नहीं है, वह क्रिया आत्मा के विशेष गुण से ही उत्पन्न होती है, जैसे कि पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न हाथ की क्रिया । गुरुत्व, द्रवत्व या वेग वह्नि के ऊर्ध्वज्वलन या वायु की कुटिलगति रूप क्रिया के कारण नहीं हैं, क्योंकि वे वहाँ नहीं है, एवं उनसे होनेवाली क्रियायें भी
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सन्निकर्षजत्वात् सुखादीनां संयोगः । तद्विनाशकत्वाद्विभाग इति । संयोग से उत्पन्न होते हैं, अत: आत्मा में संयोग भा है। यतः विभाग संयोग का नाशक है, अतः आत्मा में विभाग भी है।
न्यायकन्दली गुणादेवोत्पादो न्याय्यः । ऊर्ध्वज्वलनतिर्यकपवनान्यात्मविशेषगुणकृतानि गुरुत्वादिकारणाभावे सति कर्मत्वात् पुरुषप्रयत्नजपाणिकर्मवत् ।
___ सन्निकर्षजत्वात्सुखादीनां संयोगः । सुखादीनामात्मगुणानां मनःसंयोगजत्वादात्मनि संयोगः सिद्धः, व्यधिकरणस्यासमवायिकारणत्वाभावात् ।तद्विनाशकत्वाद् विभाग इति । तस्य संयोगस्य विनाशकत्वाद् विभागः सिद्धः, आत्ममनसोनित्यत्वेनाश्रयविनाशस्य विनाशहेतोरभावादित्यर्थः । नन्वात्मनि नित्ये स्थिते नित्यात्मशिनः सुखतृष्णापरिप्लुतस्य सुखसाधनेषु रागो दुःखसाधनेषु द्वेषस्ताभ्यां प्रवृत्तनिवृत्ती, ततो धर्माधम्मो, ततः संसार इत्यदिर्मोक्षः । नैरात्म्ये त्वहमेव नास्मि कस्य दुःखमित्यनास्थायां सर्वत्र रागद्वेषरहितस्य प्रवृत्त्यादेरभावे सत्यपवर्गो घटत इति चेन्न, नित्यात्मशिनोऽपि विषयदोषदर्शनाद् वैराग्योत्पत्तिद्वारेण तस्योत्पत्तिरित्यलम् । विलक्षण प्रकार की होती हैं, अत: यही न्याय सङ्गत है कि ऊर्वज्वलनादि क्रियाओं का कारण भी आत्मा का विशेषगुण ही हो। जिस प्रकार हाथ की क्रिया पुरुष में रहने वाले प्रयत्न रूप विशेष गुण से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार वह्नि को ऊध्वंज्वलन रूप क्रिया एवं वायु की कुटिल गति रूपा किया ये दोनों ही आत्मा के विशेष गुण से उत्पन्न होती हैं, क्योंकि गुरुत्वादि उनके कारण वहाँ नहीं हैं जैसे कि पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न हाथ की क्रिया ।
'यतः सुखादि संयोग से उत्पन्न होते हैं, अतः संयोग भी आत्मा का गुण है'.क्यों कि 'व्यधिकरण' अर्थात् विभिन्न अधिकरणों में रहने वाले कारणों से उस अधिकरण में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। विभाग चूंकि संयोग का नाशक है, अतः वह भी आत्मा का गुण है' अर्थात् विभाग संयोग का नाशक है इससे आत्मा में विभाग नाम के गुण की भी सिद्धि समझनी चाहिए । अभिप्राय यह है कि आत्मा और मन दोनों ही नित्य हैं, अतः सुखादि के कारणीभूत संयोग का नाश आश्रयों के नाश से नहीं हो सकता, फलतः उक्त संयोग का नाश विभाग से ही मानना पड़ेगा।
(प्र०) नित्य आत्मा के सिद्ध हो जाने पर नित्य आत्मा के ज्ञान से युक्त एवं सुख की तृष्णा ( एवं दुःख की वितृष्णा से ) ओतप्रोत जीव का सुख के साधनों में राग और दुःख के साधनों में द्वेष, राग से प्रवृत्ति एवं द्वष से निवृत्ति, एवं प्रवृत्ति से धर्म और निवृत्ति से अधर्म और धर्माधर्म से संसार इस प्रकार मोक्ष की ही अनुपपत्ति होगी। अगर 'नरात्म्य' अर्थात् आत्मा का विनाश मान लिया जाय 'जब हम ही नहीं तो फिर दुःख किसको ? इस प्रकार की अवज्ञा से पुरुष स्वभावतः राग और द्वेष से
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये मन:
प्रशस्तपादभाष्यम् मनस्त्वयोगान्मनः । सत्यप्यात्मेन्द्रियार्थसान्निध्ये ज्ञानसुखादीनामभूत्वोत्पत्तिदर्शनात् करणान्तरमनुमीयते । श्रोत्राद्यव्यापारे स्मृत्युत्पत्ति___मनस्त्वजाति के सम्बन्ध से मन का व्यवहार होता है। आत्मा और इन्द्रिय का संयोग, विषय और इन्द्रिय का संयोग इन दोनों के रहने पर भी किसी को ज्ञान सुखादि की उत्पत्ति कभी होती है, कभी नहीं। अतः आत्मा, इन्द्रिय और विषय इन सबों से भिन्न (ज्ञानादि के) कारण का अनुमान करते हैं, श्रोत्रादि इन्द्रियों के व्यापार के न रहने पर भी स्मृति की उत्पत्ति होती है। एवं बाह्य इन्द्रियों से
न्यायकन्दली प्रधानत्वात् प्रथममात्मनमाख्याय तदनन्तरं मनोनिरूपणार्थमाहमनस्त्वयोगान्मन इति । व्याख्यानं पूर्ववत् । मनस्त्वं नाम सामान्यं मनोव्यक्तीनां भेदे स्थिते सत्यनुमेयम् । या हि समानगुणकार्या व्यक्तयस्तासु परं सामान्यं दृष्ट यथा घटादिषु, समानगुणकार्याश्च मनोव्यक्तयस्तस्मात्तासु सद्भावे सामान्ययोगः । असिद्धे मनसि तस्य धर्मनिरूपणमन्याय्यमिति मत्वा तस्य सद्भावे प्रमाणमाह-सत्यप्यात्मेन्द्रियार्थसान्निध्ये इति । आत्मनस्तावत् सर्वेन्द्रियैर्युगपत्सम्बन्धोऽस्त्येव, इन्द्रियाणामपि सन्निहितैरर्थः सन्निकर्षो भवति, तथाप्येकस्मिन् निवृत्त हो जायगा। राग और द्व प से शून्य पुरुष को न किसी विषय में प्रवृत्ति होगी न किसी से निवृत्ति । प्रवृत्ति और निवृत्ति के न रहने से धर्म और अधर्म की धारा रुक जायगी। इससे जन्म की धारा रुक जाएगी इस प्रकार इस ( नैरात्म्य ) पक्ष में अपवर्ग की उपपति हो सकती है। (उ०) नित्य आत्मा के ज्ञान से युक्त पुरुष को भी विषयों में दोष दीख पड़ते हैं, इस दोष दर्शन से वैराग्य की उत्पत्ति होती है, फिर मोक्ष की उत्पत्ति असम्भव नहीं है । अब इस विषय में इतना ही बहुत है।
आत्मा और मन इन दोनों में आत्मा ही प्रधान है, अतः आत्मा का निरूपण करके बाद में 'मनस्त्वयोगात्' इत्यादि से मन का निरूपण करते हैं। इस पक्ति की व्याख्या 'आत्मत्वाभिसम्बन्धात्' इत्यादि पङ्क्तियों की तरह समझनी चाहिये । भिन्न-भिन्न मनोव्यक्तियों की सिद्धि हो जाने पर 'मनत्व' जाति का अनुमान करना चाहिए । जिनसे समान रूप के (जितने भी) कार्य होते हैं एवं समान गुणवाले जिनने भी व्यक्ति हैं, उन सबों में एक प रसामान्य देखा जाता है, जैसे कि घटादि में। मनोव्यक्तियों से भी समान कार्य होते हैं, एवं मनोव्यक्तियां भी समान गुणवाली हैं, अतः उनमें भी एकः परसोमोन्य अवश्य ही है। 'मन की सिद्धि के बिना उसके गुणों का निरूपण सङ्गत नहीं है' यह मान कर ही 'सत्यपीन्द्रियार्थर्सनिकर्षे' इत्यादि से मन की सत्ता में प्रमाण देते हैं । आत्मा का सभी इन्द्रियों के साथ एक ही काल में
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२१७ न्यायकन्दली विषये प्रतीयमाने विषयान्तरे ज्ञानसुखादयो न भवन्ति, तदुपरमाच्च भवन्तीति दृश्यते, तदर्शनादात्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षेभ्यः करणान्तरमनुमीयते यस्य सन्निधानाज्ज्ञानसुखादीनामुत्पत्तिः, असन्निधानाच्चानुत्पत्तिः । आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षा: कार्योत्पत्तौ करणान्तरसापेक्षाः, सत्यपि सद्भावे कार्यानुत्पादकत्वात् तन्त्वादिवत, यच्च तदपेक्षणीयं तन्मनः । एकार्थोपलब्धिकालेऽनुपलभ्यमानस्याप्यर्थान्तरस्येन्द्रियसन्निकर्षोऽस्तीति कि प्रमाणम् ? इन्द्रियाधिष्ठानसन्निधिरेव । रूपोपलब्धिकाले गन्धादयोऽपि घ्राणादिभिः सन्निकृष्यन्ते, तदधिष्ठानसन्निहितत्वादुपलभ्यमानगन्धादिवत् । प्रमाणान्तरमप्याह-श्रोत्राद्यव्यापारे स्मृत्युत्पत्तिदर्शनादिति। स्मृतिस्तावदिन्द्रियजा ज्ञानत्वाद् गन्धादिज्ञानवत् , न चास्याः श्रोत्रादीनि करणानि, बधिरादीनां श्रोत्रादिव्यापाराभावे तस्या उत्पत्तिदर्शनात् । तस्माद्यदस्याः करणमिन्द्रियं तन्मनः, न केवलं पूर्वस्मात्कारणात् करणान्तरानुमानं बाह्येन्द्रियैश्चक्षुरादिभिसम्बन्ध है ही, ( क्योंकि आत्मा विभु है ) इन्द्रियाँ भी समीप के अपने विषयों के साथ सम्बद्ध हैं हो। तब भी जिस क्षण में एक ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उस क्षण में दसरे ज्ञान या सुखादि रूप आत्मा के दूसरे विशेष गुणों की उत्पत्ति नहीं होती। उस ज्ञान का नाश हो जाने पर दूसरे ज्ञान या सुखादि की उत्पत्ति देखी जाती है। इससे ज्ञान के प्रति आत्मा और इन्द्रिय का संनिकर्ष, एवं विषय और इन्द्रिय का सन्निकर्ष इन दोनों को छोड़ कर तीसरे कारण का भी अनुमान होता है, जिसके संनिहिन रहने से दूसरे ज्ञान सुखादि की उत्पत्ति होती है एवं जिसके संनिहित न रहने पर नहीं होती है, अतः आत्मा और इन्द्रिय का संनिकर्ष एवं इन्द्रिय और विषय का संनिकर्ष ये दोनों ज्ञानादि के उत्पादन में किसी और व्यक्ति को भी अपेक्षा रखते हैं, क्योंकि उनके रहते हुए भी ज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं होती है, जैसे कि तन्तु प्रभृति से (ज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं होती है)। उन संनिकर्षों को ज्ञानादि के उत्पादन में जिसकी अपेक्षा होती है वही मन हैं। (प्र.) 'जिस समय एक विषय की उपलब्धि होती है, उसी समय अनुपलब्ध दूसरे विषयों के साय भी इन्द्रियों का संनिकर्ष है', इसमें क्या प्रमाण है ? ( उ०) इन्द्रियों के अधिष्ठान ( चक्षुगोलकादि आश्रय प्रदेश, ही प्रमाण हैं । जिस समय (चक्षु से ) रूप की उपलब्धि होती है, उसी समय घ्राणादि इन्द्रियों के साथ भी उनके विषय गन्धादि सम्बद्ध रहते हैं, क्योंकि वे भी अपने ग्राहक घ्राणादि इन्द्रियों के अधिष्ठान के समीप हैं, जैसे कि उपलब्धि कालिक गन्धादि । 'श्रोत्राद्यव्यापारे' इत्यादि से मन की सत्ता में और भी प्रमाण देते हैं। स्मृति भी इन्द्रिय से उत्पन्न होती है, क्योंकि वह भी ज्ञान है, जैसे कि गन्धादि का ज्ञान । श्रोत्रादि इन्द्रियाँ स्मृति के हेतु नहीं हैं, क्योंकि श्रोत्रादि व्यापार के न रहने पर भी बहरे व्यक्ति को भी स्मृति होती है, अतः स्मति का हेतु जो इन्द्रिय वही 'मन' है। केवल इन कहे हुए हेतुओं से ही मन का अनु
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये मनः
दर्शनाद्
बाह्येन्द्रियैरगृहीतसुखादिग्राह्मान्तरभावाच्चान्तःकरणम् ।
गृहीत न होने वाले एवं दूसरे प्रकार से प्रत्यक्ष होने वाले सुखादि की भी सत्ता है । इन दोनों से भी 'अन्तःकरण' ( मन ) का अनुमान होता है ।
न्यायकन्दली
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च न
परस्पर
रगृहीतानां सुखादीनां रूपाद्यपेक्षया ग्राह्यान्तराणां भावाच्च तदनुमानमित्याह - बाह्येन्द्रियैरिति । सुखादिप्रतीतिरिन्द्रियजा, अपरोक्षप्रतीतित्वाद् रूपादिप्रतीतिवत् यच्च तदिन्द्रियं तन्मनः, चक्षुरादीनां तत्र व्यापाराभावात् । अभिन्नकरणत्वाज्ज्ञानात्मकाः सुखदायः सुखसंवेदनानि (च) न कारणान्तरेण गृह्यन्ते इति चेन्न, ज्ञानस्वभावत्वे सुखदुःखयोरविशेषप्रसङ्गात् । परस्परभेदे तयोर्ज्ञानात्मकता, बोधाकारस्योभयसाधारणत्वेऽपि सुखदुःखाकारयोः व्यावृत्तत्वात् । न चानयविज्ञानाभिन्नहेतुत्वम्, ज्ञानस्यार्थाकारादुत्पत्तेः, तस्माच्च वासना साहयात् सुखदुःखयोरुत्पादात्, अन्यथोपेक्षाज्ञानाभावप्रसङ्गात् । न च स्वसंवेदनं विज्ञानमित्यपि सिद्धम् एकस्य कर्म्मकरणादिभावे दृष्टान्ताभावात्, मान नहीं होता है. किन्तु 'बाह्य इन्द्रियों से' अर्थात् चक्षुरादि इन्द्रियों से जिन सुखादि विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, वे रूपादि से विलक्षण अर्थ, अथ च प्रत्यक्ष योग्य सुखादि से भी मन का अनुमान होता है ! यही बात 'बाह्येन्द्रियैः' इत्यादि से कहते हैं । सुख की प्रतीति भी इन्द्रिय से होती है, क्योंकि वह भी अपरोक्ष प्रतीति है, जैसे कि रूपादि की प्रतीति । सुखादि का प्रत्यक्ष करानेवाली इन्द्रिय हो 'मन' है, क्योंकि ( वहाँ ) चक्षुरादि अन्य इन्द्रियों का व्यापार असम्भव है । ( प्र० ) ज्ञान एवं सुखादि वस्तुतः अभिन्न हैं, क्योंकि एक ही सामग्री से इन सबों की उत्पत्ति होती है, अतः सुख एवं उसके ज्ञान के लिए ज्ञान उत्पादकों को छोड़ कर और किसी को अपेक्षा सुख और नहीं है । ( उ० ) सुखादि अगर ज्ञान स्वभाव के होते तो में कोई अन्तर दुःख न रहता । सुख और दुःख परस्पर भिन्न हैं तो फिर दोनों ज्ञान स्वभाववाले नहीं हो सकते । सुखादि में ज्ञानाकारतारूप एक धर्मं मान लेने पर भी उनमें से प्रत्येक में रहनेवाले सुखाकारत्व एवं दुःखाकारत्व रूप विभिन्न धर्म तो परस्पर भिन्न हैं ही। ( बौद्ध मत में भी ) केवल ज्ञान के कारण विज्ञान से सुख और दुःख की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि विषयाकार विज्ञान से ज्ञान की ही उत्पत्ति होती है । विषयाकार विज्ञान को ही जब वासना का साहाय्य मिलता है तो उससे सुख दुःख की उत्पत्ति (बौद्ध मत से ) होती है, अगर ज्ञान के उत्पादक विषयाकार विज्ञान से ही सुख और दुःख की भी उत्पत्ति मानें तो संसार से उपेक्षात्मक ज्ञान की सत्ता उठ जायगी, (क्योंकि सुख और दुःख से भिन्न ज्ञान ही बौद्ध मत में उपेक्षा ज्ञान है । ) विज्ञान 'स्वसंवेदन' अर्थात् स्वप्रकाश ही है' इसमें भी कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि इसमें कोई दृष्टान्त नहीं है कि एक ही वस्तु एक ही क्रिया का एक ही समय
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्वप्रकाश: प्रदीपोऽस्ति दृष्टान्त इति चेन्नैवम्, सोऽपि हि पुरुषेण ज्ञायते ज्ञाप्यते चक्षुषा । ज्ञानञ्च तस्य क्रिया, न च स्वयं करणं कर्ता कर्म क्रिया च भवति । यथात्मवादिनां स्वप्रतीतावात्मना युगपत्कर्मक भावः, तथा ज्ञानस्यापि करणादिभाव इति चेन्न, अविरोधात्, ज्ञानक्रियाविषयत्वं कर्मत्वमात्मनस्तस्यामेव च स्वातन्त्र्यात् कर्तृत्वम्, न स्वातन्त्र्यविषयत्वयोरस्ति विरोधः। करणत्वं क्रियात्वन्तु सिद्धसाध्यत्वाभ्यामेकस्य परस्परविरुद्धम, कारणकरणयोरेकत्वाभावात् । एवं परप्रयोज्यता करणत्वमितराप्रयोज्यत्वं कर्तृत्वमित्यनयोरपि विरोधः, विधिप्रतिषेधस्वभावत्वादित्यतो नैषामेकत्र सम्भवो युक्तः। अथ मतम् न ज्ञानस्य करणाद्यभावः स्वसंवेदनार्थः, किन्तु स्वप्रकाशस्वभावस्य तस्योत्पत्तिरेव स्वसंवेदनमिति । अत्रापि निरूप्यते कि तदर्थस्य प्रकाशः ? स्वस्य वा? यद्यर्थस्य प्रकाशः, तदुत्पत्तेरर्थस्य संवेदनं स्यान्न तु स्वस्येति तस्यासंवेद्यतादोषः । में करण भी हो एवं कर्मादि अन्य कारक भी हो। ( प्र ) स्वतः प्रकाश प्रदीप हो इस विषय में दृष्टान्त है ? ( उ ) नहीं, प्रदीप का ज्ञान पुरुष को होता है, ( अतः वह उसका कर्ता है )। वह चक्षु से उत्पन्न होता है, अतः चक्षु उसका करण है, ( वह ज्ञान प्रदीप-विषयक होने के कारण प्रदीप कर्म है), वह क्रिया ( धात्वर्थ) प्रदीप विषयक ज्ञान रूप है । अतः एक ही वस्तु एक ही समय में क्रिया, कर्ता, कर्म और करण नहीं हो सकती है । ( प्र० ) आत्मवादियों ( विज्ञानादि भिन्न स्थिर नित्य आत्मा माननेवालो) के मत में एक ही आत्मतत्त्वज्ञान ( क्रिया ) का कत्तृत्व और कर्मत्व दोनों एक ही समय में एक ही आत्मा में है हो, अतः कर्तृत्व और कर्मत्व दोनों में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार विज्ञानवादियों के मत में भी उपपत्ति हो सकती है। ( उ०) सविषयक (ज्ञानादि रूप ) एक ही क्रिया का कत्तृत्व और कर्मत्व ये दोनों विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि सविषयक ज्ञान क्रिया का विषयत्व ही उसका कर्मत्व है, एवं उसी क्रिया में स्वतन्त्रता है कत्तृत्व, ये दोनों ही आत्मा में रह सकते हैं, किन्तु क्रियात्व एवं करणत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि करण सिद्ध रहता है, एवं क्रिया साध्य होती है, अतः एक ही व्यक्ति में क्रियात्व एवं करणत्व दोनों नहीं रह सकते । करणत्व एवं कत्तृत्व ये दोनों भी परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि करण दूसरे के द्वारा प्रयुक्त होता है, एवं कर्ता दूसरे कारकों से बिलकुल ही अप्रयोज्य होता है, अर्थात् स्वतन्त्र होता है। अत: ये दोनों भी एक समय एक में नहीं रह सकते। (प्र०) ज्ञान के प्रकाश के लिए करणादि का अभाव कभी हो ही नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति ही उसका प्रकाश है। ( उ० ) इस विषय में यह पूछना है कि ज्ञान अपने विषयों का प्रकाश रूप है ? या 'स्वसंवेदन' 'स्व' अर्थात् अपना ही प्रकाश रूप है ? अगर अर्थ प्रकाश रूप है तो फिर उससे अर्थ का ही 'संवेदन' अर्थात् प्रकाश होगा,
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२२० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये मन:न्यायकन्दली अथेदं स्वस्य प्रकाशः, तदेव प्रकाश्यं प्रकाशश्चेति क्रियाकरणयोरेकत्वं तदवस्थम् । न च स्वोत्पत्तिरेव स्वात्मनि क्रियेत्यपि निदर्शनमस्ति । यदपि स्वसंवेदनासिद्धौ प्रमाणमुक्तं यद्यदायत्तप्रकाशं तत्तस्मिन् प्रकाशमाने प्रकाशते, यथा प्रदीपायत्तप्रकाशो घटो, ज्ञानायत्तप्रकाशाश्च रूपादय इति । तत्रापि यदि ज्ञाननेवार्थप्रकाशोऽभिमतः, तदा तदायत्तप्रकाशा रूपादय इत्यसिद्धमनैकान्तिकञ्चेन्द्रियेण ।
अथ च ज्ञानजन्योऽर्थप्रकाशो न तु ज्ञानमेवार्थप्रकाशस्तदा दृष्टान्ताभाव , ज्ञानजनकस्य प्रदीपस्यार्थप्रकाशकत्वाभावात् । एतेनैतदपि प्रत्युक्तम्- 'अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति" इति । नहि ज्ञानस्य प्रत्यक्षताऽर्थस्य दर्शनम्, किन्तु विज्ञानस्योत्पत्तिः, तत्रासंविदितेऽपि ज्ञाने तदुत्पत्तिमात्रेणैवार्थस्य संवेदनं सिद्धयति । कथमन्यस्योत्पत्तिरन्यस्य संवेदनमिति चेत् ? कि कुर्मो वस्तुस्वभावत्वात् । न चैवं सति सर्वस्य संवेदनम् ? तस्य स्वकारणसामग्रीनियमात् प्रतिनियतार्थसंवित्तिस्वभावस्य प्रतिनियतप्रतिपत्तृसंवेद्यस्यैव चोत्पादात् । 'स्व' अर्थात् ज्ञान का नहीं, अतः ज्ञान को अर्थप्रकाश रूप मानने से बौद्ध मत में ज्ञान असंवेद्य' अर्थात् अतीन्द्रिय हो जायगा। अगर ज्ञान को 'स्व का ही प्रकाशक मानें तो फिर एक ही वस्तु प्रकाश्य और प्रकाशक दोनों ही होगी, अतः इस पक्ष में भी करणत्व
और क्रियात्व रूप दो विरुद्ध धर्मों का समावेश रूप असामञ्जस्य है ही। स्व' की उत्पत्ति ही 'स्व रूपा क्रिया है, इसमें कोई दृष्टान्त नहीं है। 'स्वसंवेदन' अर्थात् ज्ञान के स्वप्रकाशत्व में जो यह युक्ति दी जाती है । (प्र. ) जिस का प्रकाश जिसके अधीन रहता है, उस प्रकाशक के प्रकाशित होने पर वह ( प्रकाश्य ) भी प्रकाशित हो जाता है, जैसे कि प्रदीप से प्रकाशित होने वाले घटादि एवं ज्ञान से प्रकाशित होने वाले रूपादि । ( उ०) इस विषय में यह पूछना है कि 'प्रकाश' शब्द से अगर रूपादि विषय का ज्ञान ही इष्ट है तो फिर यह सिद्ध नहीं होता कि रूपादि का प्रकाश ज्ञान के अधीन है। अतः उक्त हेतु इन्द्रियों में व्यभिचरित है। अगर यह कहें कि (प्र.) ज्ञान अर्थ-प्रकाश रूप नहीं है, किन्तु ज्ञान से अर्थ का प्रकाश होता है, ( उ० ) तो फिर इ. विषय में कोई दृष्टान्त नहीं मिलेगा, क्योंकि प्रदीप में अर्थ को प्रकाशित करने का सामर्थ्य नहीं है। कि ज्ञान को ही अर्थ का प्रकाशक माना है। (प्र) अप्रत्यक्ष ज्ञान से अर्थ प्रकाशित नहीं होता है। (उ०) ज्ञान का प्रत्यक्षत्व और अर्थ का प्रकाशन दोनों एक नहीं है, अतः ज्ञान का प्रत्यक्ष न होने पर भी उसकी उत्पत्ति से ही अर्थ प्रकाशित हो जाता है, ( फलतः ज्ञान की उत्पत्ति ही अर्थ का प्रकाश है)। (प्र०) एक वस्तु को उत्पत्ति दूसरे की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ( उ० ) इसके लिए हम क्या करें ? यह तो वस्तुओं के स्वभाव के अधीन है। (प्र ) इस प्रकार से तो सभी अर्थों का प्रकाशन होना चाहिए ? ( उ० ) वह तो अपने विलक्षण कारणसमूह रूप सामग्री के अधीन है, जिससे कि कुछ नियमित विषयों का ज्ञान कुछ नियमित ज्ञाताओं को ही होता है ।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२२१ प्रशस्तपादभाष्यम् तस्य गुणाः संख्यापरिमाणपथकत्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वसंस्काराः। प्रयत्नज्ञानायौगपद्यवचनात्प्रतिशरीरमेकत्वं सिद्धम् । पृथक्त्व
___मन के संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और संस्कार ये आठ गुण हैं। चूंकि सूत्रकार ने कहा है (३।२।३) कि प्रयत्न और ज्ञान एक क्षण में (एक आत्मा में) नहीं होते, अतः सिद्ध होता है कि प्रति शरीर में एक एक मन है । एकत्व संख्या के रहने से ही उसमें पृथक्त्व गुण की भी सिद्धि
न्यायकन्दली अपरे पुनरेवमाहुः-ज्ञानसंसर्गाद्विषये प्रकाशमाने प्रकाशस्वभावत्वात् प्रदीपवद्विज्ञानं प्रकाशते, प्रकाशाश्रयत्वात् प्रदीपतिवदात्माऽपि प्रकाशत इति त्रिपुटीप्रत्यक्षतेति । तदप्यसत्, घटीऽयमित्येतस्मिन् प्रतीयमाने ज्ञातृज्ञानयोरप्रतिभासनात् । यत्र त्वनयोः प्रतिभासो घटमहं जानामीति, तत्रोत्पन्ने ज्ञाने ज्ञातृज्ञानविशिष्टस्यार्थस्य मानसप्रत्यक्षता। न तु ज्ञातृज्ञानयोश्चाक्षुषज्ञाने प्रतिभासः, तयोरपि चाक्षुषत्वप्रसङ्गात् ।
तदेवं सिद्ध मनसि तस्य गुणान् प्रतिपादयति-तस्य गुणा इत्यादिना। सङ्गयाद्यष्टगुणयोगोऽपि मनसो वैधर्म्यम् । सङ्घयासद्भावं कथयति-प्रयत्नेत्यादिना । प्रतिशरीरमेकं मन आहोस्विदनकमिति संशये सति सूत्रकृतोक्तम्-"प्रयत्ना
___कोई कहते है कि (प्र.) जब ज्ञान के सम्बन्ध से विषय प्रकाशित होता है, उसी समय 'प्रकाशस्वभाव' के कारण ज्ञान भी प्रदीप की तरह प्रकाशित हो जाता है, एवं प्रकाश के आश्रय होने के कारण जैसे प्रदीप भी प्रकाशित होता है, वैसे ही प्रकाश रूप ज्ञान के प्रकाशित होने पर आत्मा भी प्रकाशित होता है । इस प्रकार ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय इन तीनों 'पुटों' से युक्त होने के कारण प्रत्यक्षता 'त्रिपुटी' है । (उ०) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह घट है' इस प्रकार का प्रत्यक्ष होने पर भी उसमें ज्ञान और ज्ञातो प्रतिभासित नहीं होते। 'घट को मैं जानता हूँ' इत्यादि जिन ज्ञानों से वे प्रकाशित होते हैं, वे घटप्रत्यक्ष के बाद ज्ञान और ज्ञाता विशिष्ट घटादिविषयक और ही मानस प्रत्यक्षात्मक ज्ञान हैं, किन्तु पहिले के घटादि विषयक चाक्षुष प्रत्यक्ष में ही ज्ञान और ज्ञाता ये दोनों भी विषय नहीं होते, क्योंकि तब ज्ञाता और ज्ञान इन दोनों को भी चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय मानना पड़ेगा ।
इस प्रकार मन के सिद्ध हो जाने पर 'तस्य गुणाः' इत्यादि से मन का गुण कहते हैं। संख्यादि आठ गुणों का सम्बन्ध मन का 'वैधर्म्य' अर्थात् असाधारण धर्म है। प्रयत्न' इत्यादि से 'मन में संख्यादि आठ गुणों का सम्बन्ध है' इसमें प्रमाण देते हैं। 'प्रति शरीर में मन एक है या अनेक ?' इस संशय में सूत्रकार ने कहा है कि
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२२२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
द्रव्ये मन:
न्यायकन्दली यौगपद्याज्ज्ञानायौगपद्याच्च प्रतिशरीरमेकं मनः" इति । तेन प्रतिशरीरमेकत्वं सिद्धमिति । मनोबहुत्वे ह्यात्ममन:संयोगानां बहुत्वाागपज्ज्ञानानि प्रयत्नाश्च भवेयुः, दृश्यते च कमो ज्ञाननामेकोपलम्भव्यासक्तेन विषयान्तरानुपलम्भाद् निवृत्तव्यासङ्गन चोपलम्भादि त्युक्तम् । एवं प्रयत्नानामपि तमोत्पाद एव, एकत्र प्रयतमानस्यान्यत्र व्यापाराभावात्, समाप्तक्रियस्य च भावात्, तस्मादेकं मनः । तस्यैकत्वे खल्वेक एकदा संयोग इत्येकमेव ज्ञानमेकः प्रयत्न इत्युपपद्यते। यस्तु क्वचिद्युगपदभिमानस्तदलाचक्नवदाशुभावात् , न तु तात्त्विकं यौगपद्यमेकत्र दृष्टेन कार्यक्रमेणान्यत्रापि करणस्य तस्यैव सामर्थ्यानुमानात् ।।
नन्वेवं तहि द्वाविमाथी पुष्पितास्तरव इत्यनेकार्थप्रतिभास: कुतः ? कुतश्च स्वशरीरस्य सह प्रेरणधारणे, न, अर्थसमूहालम्बनस्यैकज्ञानस्याप्रतिषेधाद् बुद्धिभेद एव, न तु तथा प्रतिभासः, सर्वासामेकैकार्थनियत्वात् । एवं शरीरस्य
चूंकि एक काल में ( एक आत्मा में ) दो ज्ञानों और दो प्रयत्नों की उत्पत्ति नहीं होती है. अतः एक शरीर में एक ही मन है' इस कथन से ( एक शरीरस्थ ) मन में एकत्व संख्या की सिद्धि होती है। अभिप्राय यह है कि ( एक हो शरीर में) अगर अनेक मन मानें जाँय तो मन और आत्मा के संयोग भी उतने हो होंगे, फिर उ: संयोगों से ( एक ही आत्मा एक साथ में ) अनेक ज्ञान एवं अनेक प्रत्यलों की उत्पत्ति होनी चाहिए, किन्तु ज्ञानादि की उत्पत्ति क्रमशः हो देखी जाती है, क्योंकि एक प्रयत्न के समय अन्य विषयों के व्यापार नहीं देखे जाते। उस प्रयत्न जनित व्यापार के समाप्त होने पर फिर अन्य विषयक व्यापार भी होते हैं, अतः ( एक शरीर में) एक हो मन है । उसे एक मान लेने पर आत्मा और मन का संयोग भी एक ही होगा, अतः एक क्षण में एक ही ज्ञान और प्रयत्नादि की उत्पत्ति होगी। कभी-कभी एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों और अनेक प्रयत्नों की जो उत्पत्ति दीख पड़ती है, वह भी एक ही क्षण में नहीं होती है, किन्तु अलातचक्र भ्रमण की तरह क्रमशः ही होती है । यह और बात है कि अति शीघ्रता के कारण वह क्रम समझ में नहीं आता है। एक स्थान पर देखे हुए कार्य के क्रम से दूसरी जगह भी उन्हीं सामर्थ्य से युक्त कारणों का अनुमान होता है। (प्र.) तो फिर 'ये दो वस्तुएँ हैं, ये वृक्ष फूले हैं' इत्यादि अनेक विषयों का ज्ञान एवं एक समय अपने शरीर में धारण और प्रेरण आदि क्रियायें कैसे होती हैं ? ( उ०) अनेक विषयक एक समूहालम्बन ज्ञान का खण्डन करना उक्त कथन का अभिप्राय नहीं है, किन्तु एक क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति का खण्डन करना ही उसका अभिप्राय है, चाहे वे एक ही विषयक क्यों न हों ? अगर उक्त ( समूहालम्बन ) ज्ञान विभिन्न विषयक अनेक ज्ञान ही होते तो फिर उनके आकार भी परस्पर विलक्षण ही होते, क्योंकि वे सभी सरस्पर विभिन्न व्यक्तियों में नियत होते हैं। इसी प्रकार विशेष प्रकार के एक ही प्रयत्न से शरीर
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प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम्
२२३ प्रशस्तपादभाष्यम् मप्यत एव । तदभाववचनादणुपरिमाणम्। अपसर्पणोपसर्पणवचनात्संयोगहोती है । “तदभाववचनादणु मनः" (७।१।२२) सूत्रकार की इस उक्ति से मन में अणु परिमाण की सिद्धि होती है। 'असर्पणोसपण' वचन से अर्थात् 'अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगवत् कायान्तरसंयोगश्चादृष्टकारितानि" (५।२।१७) सूत्रकार
न्यायकन्दली प्रेरणधारणे च प्रयत्नविशेषादेकस्मादेव भवतः, यथानेकविषयमेकं ज्ञानं तथा तत्कारणाविच्छाप्रयत्नावपीति न किञ्चिद् दुरुपपादम् । पृथक्त्वमप्यत एवेति । सङ्घचानुदिधानादेव पृथक्त्वमपि सिद्धमित्यर्थः। तदभाववचनादणुपरिमाणम् । विभववान्महानाकाशस्तथा चात्मेत्यभिधाय तदभावादणु मन इत्युक्तम् । तस्मादणुपरिमाणं मन इति सिद्धम्। नित्यद्रव्यगतस्य विभवाभावस्य अणुपरिमाणत्याव्यभिचारात् । विभवाभावाश्चास्य युगपज्ज्ञानानुपपत्त्यैव समधिगतः । मनसो विभुत्वे युगपत्समस्तेन्द्रियसम्बन्धाच्चक्षुरादिसनिकृष्टेषु रूपादिषु ज्ञानयोगपद्यं स्यात् । अथ कथमेकेन्द्रियग्राह्येषु घटादिषु मनोधिष्ठितेन चक्षुषा थुगपत्सन्निकृष्टेष ज्ञानानि युगपन्न भवन्ति ? आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षाणां यौगपद्यान्न भवन्ति । लावदनेनात्ममनः संयोगस्यैकस्य युगपदनेकस्य ज्ञानस्योत्पादनसामर्थ्याभावः कल्प्यत इति चेत् ? समानमेतद्विभुत्वेऽपि मानसः, तस्मादविभुत्वेऽपि का धारण और प्रेरण दोनों ही होंगे। जैसे कि एक ही सामग्री से अनेक विषयक एक ज्ञान की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक ही इच्छा और प्रयत्नवाली सामग्री से धारण और प्रेरण दोनों की उत्पत्ति होगी इसमें कुछ भी असङ्गति नहीं है। 'अत एव मन में पृथक्त्व भी है' अर्थात् चूँकि मन में संख्या है, अतः उसमें पृथक्त्व भी है। 'उसके 'अभाव' के कहने से मन में अणु परिमाण भी है' अर्थात् महर्षि कणाद ने वैभवसूत्र के बाद कहा हैं कि 'तदभाबादणु मनः', इसमें मन में अणु परिमाण की सिद्धि होती है । 'जो नित्य दव्य विभु न हो वह अवश्य ही अणु परिमाण का हो' इस नियम में कोई व्यभिचार नहीं है। एक क्षण में एक आत्मा में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होती है, इसी से समझते हैं कि मन विभु नहीं है । अगर मन विभु हो तोफिर एक ही क्षण में अनेक इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध होने के कारण चक्षुरादि इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध रूपादि विषयक अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति हो जायगी। (प्र०) (हर एक शरीर में एक एक हो मन मान लेने पर भी ) एक हो इन्द्रिय से सम्बद्ध घटादि विषयक अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति क्यों नहीं होती है ? क्योंकि आत्ममन:संयोग इन्द्रिय का मन के साथ संयोग, एवं अनेक विषयों के साथ इन्द्रिय का संयोग ये सभी तो एक ही क्षण में है ही । अगर यह कल्पना करें कि 'उस सामग्री को एक क्षण में एक ही ज्ञान को उत्पन्न करने का सामर्थ्य है, अनेक ज्ञानों को उत्पन्न करने का नहीं तो फिर ज्ञान योगपद्य
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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युक्त्यन्तरं वाच्यम् तदुच्यते विभुत्वादात्ममनसोः परस्परसंयोगाभावे सत्यात्मगुणानां ज्ञानसुखादीनामनुत्पत्तिरसमवायिकारणाभावात् । आत्मार्थसंयोगस्य ह्यसमवायिकारणत्वेऽर्थदेशे ज्ञानोत्पत्तिः स्यादसमवायिकारणाव्यवधानेन प्रदेशवृत्तीनां गुणानामुत्पादात् । आत्मेन्द्रियसंयोगस्यासमवायिकारणत्वे शब्दज्ञानानुत्पत्तिः, आकाशात्मकेन श्रोत्रेणात्मनः संयोगाभावात् । न च बहिर्देशे प्रत्ययो नापि शब्दज्ञानानुत्पाद:, तस्मादात्मार्थसंयोगस्यात्मेन्द्रियसंयोगस्य चासमवायिकारणत्वं प्रतिषिद्धे परिशेषादात्ममनः संयोगस्यासमवायिकारणत्वं व्यवतिष्ठते, तच्च मनसो व्यापकत्वे न सम्भवतीत्यनुत्पत्तिरेव ज्ञानमुखादीनाम् अस्ति च तेषामुत्पाद: स एव मनसो विभुत्वं निवर्त्तयतीति । अपसर्पणोपसर्पणवचनात् संयोगविभागावति । “अपसर्पणमुपसर्पणमशितपीतसंयोगवत् कायान्तरसंयोगश्चादृष्ट
[ द्रव्ये मन:
,
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का कारण मन को विभु मान लेने पर भी हो सकता है, इसके लिए मन को अणु मानना व्यर्थ ही होगा, अतः 'मन विभु नहीं है' इसके लिए दूसरी युक्ति कहनी चाहिए । ( उ० ) कहते हैं, आत्मा और मन ये दोनों हो अगर विभुहों तो फिर इन दोनों का संयोग हो नहीं होगा और उन दोनो के संयोग न होने पर आत्मा के विशेषगुण ज्ञानसुखादि की उत्पत्ति ही नहीं होगी क्योंकि उसका कोई असमवायिकारण नहीं होगा । आत्मा और विषय इन दोनों के संयोग को अगर ज्ञानसुखादि का असमवायिकारण मानें तो फिर उस विषय के देश में ही ज्ञानादि की उत्पत्ति माननी पड़ेगी क्योंकि प्रादेशिक ( अव्याप्यवृत्ति) गुणों का यह स्वभाव है कि वे असमवायिकारण के अव्यवहित प्रदेश में ही उत्पन्न हों । आत्मा एवं (श्रोत्रादि) इन्द्रियों के संयोग को ही अगर आत्मा के उन ज्ञानादि गुणों का असमवायिकारण मानें तो शब्दज्ञान की ही अनुत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि आकाशात्मक ( विभु ) श्रोत्र के साथ ( विभु) आत्मा का संयोग ही असम्भव हैं, तस्मात् भूतलादि प्रदेशों में ज्ञानादि गुणों की उत्पत्ति नहीं होती हैं, एवं शब्दादि गुणों की उत्पत्ति होती हैं । इन ( अनुत्पत्ति और उत्पति ) दोनों से यह सिद्ध होता है कि आत्मा के साथ विषयों के संयोग एवं इन्द्रियों के साथ आत्मा का संयोग ये दोनों आत्मा के विशेष गुणों के असमवायिकारण नहीं हैं, अतः आत्मा और मन का संयोग हो उनका असमवायिकारण है । यह ( असमवायिकारण ) संयोग मन को विभु मानने पर असम्भव होगा, फलतः ज्ञान की उत्पत्ति अनुपपन्न हो जायगी, किन्तु ज्ञान की उत्पत्ति होती है, अतः ज्ञानसुखादि की उत्पत्ति से ही मन से विभुत्व हट जाता है ।
"अपसर्पण और उपसर्पण के कहने से मन में संयोग और विभाग भी हैं" अर्थात् सूत्रकार ने लिखा है कि "अर्पणमुपसर्पण मशितपीत संयोगवत् कायान्तरसंयोगश्चाष्टकारितानि” । अभिप्राय यह है कि मन का एक शरीर से 'अपसर्पण' अर्थात् हटना एवं ' उपसर्पण' अर्थात् दूसरे शरीर
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
२२५
प्रशस्तपादभाष्यम् विभागौ । मूर्तत्वात्परत्वापरत्वे संस्कारश्च । अस्पर्शववाद् द्रव्यानारम्भकत्वम् । क्रियावत्वान्मृतत्वम् । साधारणविग्रहवत्त्वप्रसङ्गादज्ञत्वम् । की इस उक्ति से मन में संयोग और विभाग भी सिद्ध हैं । यतः इसमें मूर्त्तत्व है, अतः परत्व, अपरत्व और ( वेगाख्य ) संस्कार भी हैं। यत: इसमें स्पर्श नहीं है, अतः यह किसी द्रव्य का समवायिकारण भी नहीं है। यतः इसमें क्रिया है, अतः इसमें मूर्त्तत्व भी है। मन चेतन नहीं है, क्योंकि मन को चेतन मान लेने पर
___ न्यायकन्दली कारितानि" इति सूत्रेण मनसः पूर्वशरीरादपसर्पणं शरीरान्तरे चोपसर्पणञ्चादृष्टकारितमित्युक्तम्, तस्मादस्य संयोगविभागौ सिद्धौ । मूर्त्तत्वात्परत्वापरत्वे संस्कारश्च । विभवाभावान्मूर्त्तत्वं सिद्धं तस्माद् घटादिवत् परत्वापरत्ववेगाः सिद्धाः । अस्पर्शवत्त्वाद् द्रव्यानारम्भकत्वम् । अस्पर्शवत्त्वं मनसः शरीरान्यत्वे सति सर्वविषयज्ञानोत्पादकत्वादात्मवत् सिद्धम्, तस्माच्चात्मवदेव सजातीयद्रव्यानारम्भकत्वम् । क्रियावत्त्वान्मूर्त्तत्वमिति। अणुत्वप्रतिपादनान्मूतत्वे सिद्धेऽपि विस्पष्टार्थमेतदुक्तम् । साधारणविग्रहवत्त्वप्रसङ्गादज्ञत्वम् । यदि ज्ञातृ मनो भवेच्छरीरमिदं साधारणमुपभोगायतनं स्यात् । न चैवम्, एकाभिप्रायानुरोधेन तस्य सर्वदा प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्, तस्मादशं मनः। चैतन्ये निषिद्धेऽपि प्रक्रमात् में जाना ये दोनों ही अदृष्ट से होते हैं, अतः मन में संयोग और विभाग को सिद्धि होती है। चूंकि मन में मूर्तत्व है, अतः परत्व, अपरत्व और (वेगाख्य) संस्कार भी हैं । विभुत्व के न रहने पर ही मन में मूतत्व सिद्ध है। मूर्तत्व हेतु से घटादि की तरह मन में परत्व, अपरत्व और वेग ( संस्कार ) ये तीनों भी सिद्ध होते हैं। चूंकि मन में स्पर्श नहीं है, अतः वह किसी द्रव्य का समवायिकारण भी नहीं है। मन में स्पर्श इसलिए नहीं है कि शरीर से भिन्न होने पर भी आत्मा की तरह ज्ञान का कारण है, एवं आत्मा की तरह ही अपने सजातीय द्रव्य का अनारम्भक है। चूंकि मन में क्रिया है, अतः मूर्तत्व भी है। यद्यपि उसमें अणु परिमाण के कह देने से ही मुर्तत्व भी सिद्ध हो जाता है, फिर भी और स्पष्ट करने के लिए किया रूप हेतु का भी उपादान किया है। 'वह अज्ञ ( अचेतन ) इस लिए है कि ( उसको चेतन मानने पर ) 'साधारणविग्रहवत्त्व' प्रसङ्ग होगा'। अभिप्राय यह है कि मन में अगर ज्ञान ( चैतन्य ) मान लिया जाय तो शरीर जो केवल आत्मा के ही भोग का आयतन' है, उसे आत्मा और मन दोनों के ही भोग का 'आयतन' मानना पड़ेगा, किन्तु शरीर की प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों ही एक ही व्यक्ति के अनुरोध से देखी जाती हैं, अतः मन 'अज्ञ' (चेतन नहीं) है। यद्यपि मन के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये मन:
प्रशस्तपादमाष्यम् करणभावात्परार्थम् । गणवत्त्वाद् द्रव्यम् । प्रयत्नादृष्टपरिग्रहवशादाशुसञ्चारि चेति ।
इति प्रशस्तपादभाष्ये द्रव्यपदार्थः ॥ आत्मा की तरह मन को भी शरीर का अधिष्ठाता मानना पड़ेगा। चूंकि यह करण है अत: दूसरों के उपभोग का ही साधन (पदार्थ) है। चूंकि इसमें गुण हैं, अतः यह द्रव्य है । प्रयत्न और अदृष्ट के कारण यह तीब्र गतिवाला है।
न्यायकन्दली पुनरेतदुक्तम् । अज्ञत्वे सिद्धे सत्याह-करणभावात् परार्थमिति । परस्योपभोगसाधनमित्यर्थः । गुणवत्त्वाद् द्रव्यं पृथिव्यादिवत् । प्रयत्नादृष्टपरिग्रहवशादाशुसञ्चारि चेति द्रष्टव्यम् । इच्छाद्वेषपूर्वकेण जीवनपूर्वकेण च प्रयत्नेन परिगृहीतं स्थानात् स्थानान्तरमाशु सञ्चरति, तथा अदृष्टेन परिगृहीतं मरणाच्छरीरान्तरमाशु सञ्चरतीति द्रष्टव्यम् । इतिशब्दः परिसमाप्तौ ।
विशुद्धविविधन्यायमौक्तिकप्रकराकरः ।
सेव्यतां द्रव्यजलधिः स्फुटसिद्धान्तविद्रुमः ॥ इति भट्टश्रीश्रीधरकृतौ पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
__ द्रव्यपदार्थः समाप्तः ॥
चैतन्य का निषेध कर चुके हैं ( देखिये आत्मनिरूपण ) तथापि प्रसङ्ग आने के कारण उसे फिर से दुहराया है। अज्ञत्व के सिद्ध हो जाने के बाद कहते हैं कि यतः वह करण है, अतः परार्थ' है, अर्थात् दूसरों के उपभोग का साधन मात्र है। चूंकि उसमें गुण है, अतः पृथिवी की तरह वह द्रव्य है । "आत्मा के प्रयत्न और अदृष्ट से शीघ्र चलना उसका स्वभाव है" अर्थात् जिस प्रकार से इच्छा, द्वेष और जीवनयोनि यत्न इन तीनों के साथ सम्बद्ध होने के कारण मन क्षिप्रगति से एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, वैसे ही यह अदृष्ट से प्रेरित होकर मरण के बाद दूसरे शरीर में भी शीघ्र चला जाता है । यह 'इति' शब्द समाप्ति का बोधक है ।
___ अनेक प्रकार के न्याय रूपी विशुद्ध मोतियों की खान निश्चित सिद्धान्त रूपी मूंगों से युक्त 'द्रव्य समुद्र' (द्रव्य निरूपण ) का (विद्वान् लोग ) सेवन करें।
भट्ट श्रीश्रीषर द्वारा रचित पदार्थों की बोधिका न्यायकन्दली
नाम की टीका में द्रव्य का निरूपण समाप्त हुआ।
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अथ गुणपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपादीनां गुणानां सर्वेषां गुणत्वाभिसम्बन्धो द्रव्याश्रितत्वं निगुणत्वं निष्क्रियत्वम् ।
गुणापदार्थों का निरूपण गुणत्व जाति का सम्बन्ध, द्रव्यों में ही रहना, गुणों का राहित्य एवं क्रियाओं का राहित्य (ये चार ) रूपादि सभी गुणों के साधर्म्य हैं।
न्यायकन्दली नमो जलदनीलाय शेषपर्यशायिने ।
लक्ष्मीकण्ठग्रहानन्दनिष्यन्दायासुरद्विषे ॥ द्रव्यपदार्थ व्याख्याय गुणानां निरूपणार्थमाह-रूपादीनां गुणानामिति । गुणत्वं नाम सामान्यं तेनाभिसम्बन्धो गुणानामिति परस्परसाधर्म्यकथनम् । इतरपदार्थवैधर्म्यकथनमप्येतत् । गुणत्वं रूपादिषु रत्नत्वमिवोपदेशसहकारिणा प्रत्यक्षेणैव गृह्यते । यत्तु प्रथममस्य कर्मादिविलक्षणतया न ग्रहणं तदाश्रयपारतन्त्र्यस्यात्यन्तिकासादृश्यस्य सम्भवात् । रूपादीनां गुणानामिति स्वरूपमात्रकथनम् । सर्वेषामित्यभिव्याप्तिप्रदर्शनार्थम् । द्रव्याश्रितत्वं द्रव्योपसर्जनत्वम् । एतच्च धर्ममात्रकथनं न तु वैधाभिधानं द्रव्यकर्मादिष्वपि सम्भवात् ।
शेषनाग रूपी पलंग पर सोनेवाले, लक्ष्मी के काठालिङ्गन से उत्पन्न आनन्द में विभोर, प्रणवस्वरूप मेघ के समान नीलवर्णवाले एवं असुरों के विनाशक (श्री विष्णु) को मैं प्रणाम करता हूँ।
___ द्रव्य की व्याख्या करने के बाद (क्रमप्राप्त) गुणों का निरूपण करने के लिए 'रूपादीनां गुणानाम्' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं । 'गुणत्व नाम की जाति के साथ सभी गुणों का सम्बन्ध है' इस उक्ति से सभी गुणों का परस्पर साधर्म्य कथित होता है। गुणों के इस साधर्म्य के कथन से ही 'गुणत्वादि जातियों का सम्बन्ध ही गुण से भिन्न पदार्थों का वैधर्म्य है' यह भी कथित हो जाता है। उपदेश के सहारे जिस प्रकार प्रत्यक्ष से ही रत्नों का रत्नत्व गृहीत होता है, उसी प्रकार उक्त प्रकार के प्रत्यक्ष से ही गुणत्व भी गृहीत होता है । (उपदेश से) पहिले कर्मादि से भिन्न रूप में जो गुणों का ग्रहण नहीं होता है, कर्मादि पदार्थों के साथ गुणों का 'आश्रय पारतव्य' रूप अत्यन्त सादृश्य ही इसका कारण है । 'रूपादीनां गुणानाम्' इस वाक्य से गुणों का केवल स्वरूप ही कहा गया है। सर्वेषाम्' इस पद से इन साधो का सभी गुणों में रहना अभिव्यक्त होता है । 'द्रव्याश्रितत्व' शब्द का अर्थ है द्रव्योपसर्जनत्व, अर्थात् द्रव्य रूप मुख्य का अप्रधान होना ।
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२२८
___ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणसाधर्म्यवैधर्म्य
न्यायकन्दली एवं निर्गुणत्वं गुणरहितत्वं गुणानां स्वरूपं तेषां स्वात्मनि गुणान्तरानारम्भकत्वात् , तदनारम्भकत्वञ्च रूपादिषु रूपाद्यन्तरानुपलब्धरनवस्थानाच्च । एवं सत्येक रूपमणुः शब्द इत्यादिव्यवहार उपाचारात्। सङ्घयादिकं रूपाद्याश्रयं न भवति गुणत्वाद् रूपादिवत् । स्वरूपान्तरं कथयति-निष्क्रियत्वमिति । द्रव्ये गच्छति रूपादिकमपि गच्छतीति चेत् ? न, वेगवद्वायुसंयोगेन व्योमादिषु कियाया अभावाच्छाखादिषु च भावाद् अन्वयव्यतिरेकाभ्यां मूतत्वक्रियावत्त्वयो. याप्यव्यापकभावसिद्धौ मूर्त्यभावेन रूपादिषु क्रियानिवृत्तिसिद्धः कथं तर्हि तेषु गमनप्रतीति: ? आश्रयक्रियया, यथैव सत्तायां नहि सत्ता स्वाश्रयेण सह गच्छति, एकस्य गमने विश्वस्य गमनप्रसङ्गादिति ।
यह द्रव्याश्रितत्व गुणों के केवल साधर्म्य समझाने के लिए ही कहा गया है, कर्मादि पदार्था का वैधयं समझाने के लिए नहीं, क्योंकि द्रव्य एवं कर्म प्रभृति पदार्थों में भी 'द्रव्याश्रितत्व' तो है ही।
इसी प्रकार गुणरहितत्व रूप निर्गुणत्व भी गुणों का साधर्म्य ही है (गण से भिन्न पदार्थों का वैधर्म्य नहीं) क्योंकि एक गुण में दूसरे गुण की उत्पत्ति नहीं हाती है। एक रूप दूसरे रूपों का उत्पादक इसलिए नहीं है कि एक रूप में दूसरे रूपों की उपलब्धि नही होती है। एवं एक रूप में दूसरे रूप की सत्ता मानने में अनवस्था भी होगी। इस प्रकार ( गुण में गुण की असत्ता सिद्ध हो जाने पर यही कहना पड़ेगा कि ) 'एक रूपम्', 'अणुः शब्दः' इत्यादि प्रयोग लक्षणामूलक हैं। इस प्रसङ्ग में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है कि रूपादि गुणों में संख्यादि गुण नहीं है, क्योंकि वे भी गुण हैं, जैसे कि रूप !
'निष्क्रियत्वम्' इत्यादि से गुणों का दूसरा साधयं कहते हैं । (प्र०) द्रव्य के चलने पर उसी के साथ रूपादि भी तो चलते हैं ? (उ०) आकाश में वेग से युक्त वायु का संयोग रहने पर भी क्रिया होती है। किन्तु वेग से युक्त वायु का संयोग रहने पर शाखादि में क्रिया होती है। इस अन्वय और व्यतिरेक के बल से क्रिया और मूर्त द्रव्य में इस प्रकार व्याप्यव्यापकभाव निश्चित होता है कि क्रिया मूर्त द्रव्य में ही रहती है। ऐसा सिद्ध हो जाने पर रूपादि में व्यापकीभूत मूर्तत्व के अभाव से व्याप्यभूत क्रिया का अभाव सिद्ध होता है । (प्र०) फिर रूपादि में गमन की उक्त प्रतीतियाँ कैसे होती हैं ? (उ०) जिस प्रकार सत्ता में आशय की क्रिया से क्रिया की प्रतीति उसके स्वयं न चलने पर भी होती है, उसा प्रकार रूपादि में भी आश्रय की क्रिया से ही क्रिया की प्रतीति होती है । इस प्रकार अगर क्रिया की प्रतीति से ही क्रिया की सत्ता मानी जाय तो फिर समस्त संसार का ही चलना स्वीकार करना पड़ेगा।
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२१९
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसगन्धस्पर्शपरत्वापरत्वगुरुत्वद्वत्वस्नेहवेगा मूर्तगुणाः । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाशब्दा अमूर्तगुणाः । सङ्ख्थापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागा उभयगुणाः ।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह और वेग ये दस 'मूर्तगुण' ( अर्थात् मूर्त द्रव्यों में ही रहनेवाले गुण ) हैं।
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना, और शब्द ये दश 'अमूर्त्तगुण' ( अर्थात् अमूर्त द्रव्यों में ही रहने वाले गुण ) हैं।
संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, और विभाग ये पाँच 'उभयगुण' ( अर्थात् मूर्त्तद्रव्य और अमूर्तद्रव्य दोनों में ही रहनेवाले गुण ) हैं।
न्यायकन्दली सम्प्रति परस्परमेव तेषां साधयं वैधर्म्यञ्च प्रतिपादयन्नाह-रूपेत्यादि । एते मूर्तानामेव गुणा नामूर्तानाम् । तथा हि रूपस्पर्शपरत्वापरत्ववेगाः पृथिव्यादिषु त्रिषु, वायौ रूपवर्जम, रूपस्पर्शवजं मनसि, रसगुरुत्वे पृथिव्युदकयोः, द्रवत्वं पृथिव्युदकतेजस्सु, स्नेहोऽम्भसि, गन्धः पृथिव्याम् ।
अमूर्तगुणान् कथयति---बुद्धिसुखेत्यादि । बुद्धयादयो भावनान्ता आत्मगुणाः । आकाशगुणः शब्दः ।
संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः उभयगुणाः मूर्त्तामूर्तगुणाः।
अब गुणों में ही परस्पर साधर्म्य और वैधयं का निरूपण करते हुए 'रूप रस' इत्यादि वाक्य लिखते हैं। ये मूर्त (द्रव्यों) के ही गुण हैं, अमूर्त (आकाशादि ) के नहीं। अभिप्राय यह है कि रूप, स्पर्श, परत्व, अपरत्व और वेग ये पाँच गुण ( मिलकर ) पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में ही रहते हैं। इनमें से रूप को छोड़कर शेष चार गुण वायु में रहते हैं। कथित पाँच गुणों में से रूप और स्पर्श को छोड़ कर शेष तीन गुण मन में रहते हैं। पृथिवी और जल इन दोनों में ( इन पांच में से ) रस और गुरुत्व ये दो ही गुण हैं । द्रवत्व पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में ही रहता है। स्नेह केवल जल में और गन्ध केवल पृथिवी में रहता है।
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना और शब्द ये दश अमूत्तं गुण ( अर्थात् मृतं द्रव्य से भिन्न द्रव्यों में ही रहते ) हैं ।
संख्या, परिमाण, पृथक्त्य, संयोग और विभाग ये पाँच 'उभय गुण' अर्थात् मूर्त द्रव्य और अमूर्त द्रव्य दोनों में रहने वाले गुण हैं ।
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२३०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गणसाधर्म्यवैधर्म्य
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वादयोऽनेकाश्रिताः ।
शेषास्त्वेकैकवृत्तयः। रूपरसगन्धस्पर्शस्नेहसांसिद्धिकद्र वत्वबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाशब्दा वैशेषिकगुणाः । |
संयोग, विभाग, द्वित्व और द्विपृथक्त्वादि गुण अनेकाश्रित' (अर्थात् इनमें से प्रत्येक अनेक द्रव्यों में ही रहनेवाला है) हैं।
शेष सभी गुण 'एकद्रव्यवृत्ति' अर्थात् एक एक द्रव्य में ही रहते हैं
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना, संस्कार और शब्द ये ( सोलह ) विशेष गुण हैं।
न्यायकन्दली ___ संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वादयोऽनेकाश्रिताः, एका संयोगव्यतिरेका च विभागव्यक्तिरुभयोर्द्रव्योर्वर्त्तत इत्यनेकाश्रितत्वम् । एवं द्वित्वद्विपृथक्त्वव्यक्त्यो. रपि। आदिशब्दगृहीतास्तु त्रित्वत्रिपृथक्त्वादिव्यक्तयो यथासम्भवं बहुष्वाश्रिताः । अनेकशब्दश्च ‘एको न भवति' इति व्युत्पत्त्या द्वयोर्बहुष्वपि साधारणः ।
शेषास्त्वेकैकवृत्तयः शेषा' रूपादिव्यक्तयः, एकस्यामेव व्यक्तौ वर्तन्ते, न पुनरेका रूपव्यक्तिः संयोगवदुभयत्र व्यासज्य वर्तत इत्यर्थः ।
विशेषगुणान निरूपयति-रूपरसगन्धेत्यादि । विशेषो व्यवच्छेदः, तस्मै प्रभवन्ति ये गुणास्ते वैशेषिका गुणा रूपादयः । ते हि स्वाश्रयमितरस्मा
एक ही संयोग और एक ही विभाग ( अपने प्रतियोगी और अनुयोगी) दोनों द्रव्यों में रहता है, अतः ये दोनों 'अनेकाश्रित' गुण हैं। इसी प्रकार द्वित्व और द्विपृथक्त्वये दोनों भी 'अनेकाश्रित' गुण हैं। आदि' शब्द के द्वारा बहुत से द्रव्यों में रहनेवाले त्रित्व एवं त्रिपृथक्त्वादि गुण भी अनेकाश्रित कहे गये हैं । ‘एको न भवति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'दो' एवं इससे अधिक 'बहुत' सभी 'अनेक' शब्द के अर्थ हैं ।
'शेष' अवशिष्ट रूपादि गुणों की इकाइयां एक एक द्रव्य में ही रहती है। अभिप्राय यह है कि एक ही रूपादि इकाई संयोग की तरह दो व्यक्तियों को व्याप्त कर नहीं रहती।
_ 'रूपरस' इत्यादि वाक्य के द्वारा विशेष गुणों का वर्णन करते हैं। 'विशेष' शब्द का अर्थ है 'व्यवच्छेद' अर्थात् भेदबुद्धि । इतने गुण भेदबुद्धि के उत्पादन में समर्थ है।
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२३१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वनैमित्तिकद्रत्ववेगाः सामान्यगणाः।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा बाथै कैकेन्द्रियग्राह्याः ।
संख्या, परिमाण, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, नैमित्तिक द्रवत्व और वेग ये ( ग्यारह ) सामान्य गुण हैं।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पाँच में से प्रत्येक एक ही इन्द्रिय से गुहीत होता है, एवं बाह्य इन्द्रिय से ही गृहीत होता है।
न्यायकन्दली द्वयवच्छिन्दन्ति न संख्यादयः, तेषां स्वतो विशेषाभावात् । यस्तु तेषां विशेषः स आश्रयविशेषकृतः एवेति बोद्धव्यम् ।
संख्यादयः सामान्यगुणाः । सामान्याय स्वाश्रयसाधर्माय गुणाः, न स्वाश्रयविशेषायेत्यर्थः । नन्वणुपरिमाणं परमाणूनां व्यवस्थापकम् ? न, जात्यन्तरपरमाणुसाधारणत्वात् । सांसिद्धिकद्रवत्वमपां विशेषगुण एव तेन नैमित्तिकग्रहणम् ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा बाह्यकैकेन्द्रियग्राह्याः । बाह्यानीन्द्रियाणि चक्षुरादीनि बाह्यर्थप्रकाशकत्वात् । तैः प्रत्येकं रूपादयो गृह्यन्ते। वे ही 'वैशेषिक गुण' हैं, जैसे कि रूपादि। ये अपने आश्रयों को औरों से भिन्न रूप में समझाते हैं । संख्यादि सामान्य गुण अपने आश्रयों को औरों से भिन्न रूप में नहीं समझा सकते, क्योंकि ( एक द्रव्य की एक संख्या से दूसरे द्रव्य की उसी संख्या में ) स्वतः कोई अन्तर अर्थात् विशेष नहीं है। उन दोनों संख्याओं में जो कुछ अन्तर है उसे आश्रय के विशेषों से ही समझना चाहिए।
ऊपर कहे हुए संख्यादि सामान्य गुण हैं। अर्थात् 'सामान्याय गुणा:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कथित संख्या दि 'सामान्य' अर्थात् अपने आध्यों में परस्पर साधर्म्य प्रतीति के ही कारणीभूत गुण हैं, इनसे इनके आश्रयों में परस्पर विभिन्नता की प्रतीति नहीं होती है। (प्र.) अणु परिमाण तो परमाणुओं का व्यवस्थापक है, अर्थात् और परि. माणवालों से विभिन्नत्व बुद्धि का कारण है ? ( उ० ) नहीं, अणु परिमाण भी विभिन्न जातीय परमाणुओं में समान रूप से रहने के कारण परस्पर (परमाणुत्व रूप) साधर्म्य. बुद्धि का ही कारग है। सांसिद्धिक ( स्वाभाविक ) द्रवत्व जल का विशेष गुण है, अतः नैमित्तिक द्रवत्व को ही सामान्य गुणो में गिनाया है।
____ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पाँच गुण 'बाह्य कैकेन्द्रियग्राह्य' हैं, अर्थात बाह्य विषयों के ही प्रकाशक होने के कारण चक्षुरादि 'बाह्येन्द्रिय' हैं । शब्दादि में से प्रत्येक
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२३२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
धियंवैधऱ्या
प्रशस्तपादभाष्यम् सङ्घयापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वद वत्वस्नेहवेगा द्वीन्द्रियग्राह्याः ।
बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नास्त्वन्तःकरणग्राह्याः। संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, नैमित्तिक द्रवत्व और वेग ये नौ गुण दो इन्द्रियों से (भी) गृहीत हो सकते हैं।
___ बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये छ: गुण 'अन्त:करण' अर्थात् मन से ज्ञात होते हैं।
न्यायकन्दली संख्यादयो वेगान्ता द्वीन्द्रियग्राह्याः चक्षुस्पर्शनग्राह्याः। यथा चक्षषा स्निग्धोऽयम' इति प्रतीतिरेवं त्वगिन्द्रियेणापि भवति, संख्यादिवत् स्नेहोऽपि तदुभयग्राह्यः।
बुद्धयादयः प्रयत्नान्ता अन्तःकरणग्राह्याः, मनसा प्रतीयन्त इत्यर्थः ।
बुद्धिरनुमेया नान्तःकरणेन गृह्यत इति केचित्, तदयुक्तम्, लिङ्गाभावात् । न तावदर्थमात्रं लिङ्गम्, तस्य व्यभिचारात् । ज्ञातोऽर्थों लिङ्ग चेत् ? ज्ञानसम्बन्धो ज्ञातता, याऽसौ ज्ञानकर्मता सा प्रतीयमाने ज्ञाने न प्रतीयते, सम्बन्धिप्रतीत्यधीनत्वात् सम्बन्धप्रतीतेरिति कथं तद्विशेषेणार्थो लिङ्गं स्यात् ?
चक्षुरादि बाह्य इन्द्रियों में से ही किसी एक इन्द्रिय से गृहीत होता है।
संख्या से लेकर वेग पर्यन्त कथित ये दश गुण 'द्वीन्द्रियग्राह्य' हैं, अर्थात् चक्षु और त्वचा दोनों इन्द्रियों से गृहीत होते हैं । 'यह स्निग्ध है' यह प्रतीति जैसे चक्षु से होती है, वैसे ही त्वचा से भी होती है अतः संख्यादि की तरह स्नेह भी 'द्वीन्द्रियग्राह्य' है ।
बुद्धि से लेकर प्रयत्न पर्यन्त कहे हुये ये छः गुण 'अन्तःकरणग्राह्य हैं', अर्थात् इनका प्रत्यक्ष मन रूप अन्तरिन्द्रिय से ही होता है। कोई कहते हैं कि (प्र०) बुद्धि का अनुमान हो होता है, अतः अन्तरिन्द्रिय से भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता। ( उ०) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बुद्धि की अनुमिति का कोई उपयुक्त हेतु नहीं है। केवल (ज्ञेय) अर्थ के ज्ञान अनुमिति के हेतु नहीं हो सकते, क्योंकि यह व्यभिचरित है। ज्ञात अर्थ के ज्ञानों को अनुमिति का हेतु माने (तो भी नहीं हो सकता, क्योंकि ) अर्थ में ज्ञान का सम्बन्ध ही उसकी 'ज्ञातता' है। अर्थ में ज्ञान का सम्बन्ध (ज्ञानक्रिया का) कर्मत्व रूप ही है । अतः ज्ञान के प्रतीत हुये बिना ज्ञानकर्मत्व रूप ज्ञातता की प्रतीति नहीं हो सकती, किन्तु अनुमिति में लिङ्ग की तरह उसका विशेषण
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
लिङ्गवल्लिङ्गविशेषणस्थापि ज्ञायमानस्यैवानुमानहेतुत्वम् । अथ मन्यसे 'ज्ञानेन स्वोत्पत्त्यनन्तरमर्थे ज्ञातता नाम काचिदवस्था जन्यते पाकेनेव तण्डुलेषु पक्वता, सा चार्थधर्मत्वादर्थेन सह प्रतीयते' इति । तदप्यसारम् अननुभवात् । यथा हि तण्डुलानामेवौदनीभावः पक्वताऽनुभूयते नैवमर्थस्य ज्ञातता। या चेयमपरोक्षरूपता हानादिव्यवहारयोग्यता च तस्य, साऽपि हि ज्ञानसम्बन्धो न धर्मान्तरम् । यथा चार्थे ज्ञायमाने ज्ञातता, तथा ज्ञाततायामपि ज्ञायमानायां ज्ञाततान्तरमित्यनवस्था । अथेयं स्वप्रकाशा ? ज्ञाने कः प्रद्वेषः ?
वस्तुतस्त्रिकालविशिष्टोऽप्यर्थो ज्ञानेन प्रतीयमानो वर्तमानकालावच्छिन्नः प्रतीयते। या च त्रिकालस्य वर्तमानकालावच्छिन्नावस्था सा ज्ञातता, ज्ञानकृतत्वात्तस्य लिङ्गमिति कश्चित् । तदपि न किञ्चित्, वर्तमानावछिन्नता
भी कारण है वह लिङ्ग की तरह ज्ञात होकर ही। अगर यह माने कि (प्र०) ज्ञान की उत्पत्ति के बाद इस ज्ञान से ही अर्थ की एक विशेष प्रकार की अवस्था होती हैं, जिसे ज्ञाततावस्था कहते हैं । जिस प्रकार कि चावल में पाक से पक्वता नाम की एक अवस्था उत्पन्न होती है । (उ०) इस कथन में भी कुछ विशेष सार नहीं है, क्योंकि पाक से चावल में जिस प्रकार ओदनावस्था रूप पक्वता का अनुभव होता है, वैसे ही अर्थ में ज्ञातता का कोई अनुभव नहीं होता । ( विषयों के ज्ञान के बाद जो) उसमें अपरोक्ष रूपता, त्याग या ग्रहण करने की जो योग्यता भासित होती है, वह भी ज्ञान सम्बन्ध को छोड़ कर और कुछ नहीं है। एवं इस पक्ष में अनवस्था दोष भी है, क्योंकि जिस प्रकार ज्ञात होने पर अथों में ज्ञातता मानते हैं, उसी प्रकार ज्ञातता के ज्ञात होने पर उसमें भी कोई दूसरी ज्ञातता माननी पड़ेगी। जिसका पर्यवसान अनवस्था में होगा। अगर ज्ञातता को स्वप्रकाश मान लें तो फिर ज्ञान की ही स्वप्रकाश मान लेने में क्यों द्वेष है ?
कोई कहते हैं कि (प्र.) तीनों कालों में से वर्तमान काल ही ऐसा है जिससे युक्त अर्थ का प्रत्यक्ष होता है अर्थात् वर्तमान कालिक वस्तुओं का ही प्रत्यक्ष होता है । अतः वस्तुओं की जो वर्तमानावस्था, भूतावस्था और भविष्यदवस्था है इनमें से वस्तुओं के प्रत्यक्षमूलक होने के कारण केवल वर्तमानावस्था ही उसकी ज्ञातता है ! यह ज्ञातता हो ज्ञानानुमिति का हेतु है । (उ०) किन्तु इस कथन में भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि वस्तुओं का वर्तमान काल के साथ सम्बन्ध ( या उसमें रहना ) ही उनकी
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२३४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणधर्माधर्म्य
न्यायकन्दली
हि वर्तमानकालविशिष्टता सा चार्थस्य स्वाभाविकी, न ज्ञानेन क्रियते किन्तु प्रतीयते।
योऽपि हि विषयसंवेदनानुमेयं ज्ञानमिच्छति, सोऽप्येवं पर्यनुयोज्य:किं विषयसंवेदनमात्मनि समवैति ? विषये वा ? न तावद्विषये, तच्चैतन्यप्रतिषेधात् । अथात्मनि समवैति ? ततः किमन्यद्विज्ञानं यदस्यानुमेयम् । अस्य कारणं ज्ञातृव्यापारलक्षणं तदिति चेत् ? ततिक नित्यम् ? अनित्यं वा? यद्यनित्यं तदुत्पत्तावपि कारणं वाच्यम् । विषयेन्द्रियादिसहकारी ज्ञानमनःसंयोगोऽस्य कारणमिति चेत् ? सेव सामग्री विषयसंवेदनोत्पत्तावस्तु किमन्तर्गडुनानेन ? अथ तन्नित्यम् ? कादाचित्कविषयेन्द्रियसंनिकर्षादिसहकारि कादाचित्कं विषयसंवेदनं करोतीत्यभ्युपगः, तदस्याप्यागन्तुककारणकलापादेव विषयसंवेदनोत्पत्तिसिद्धौ तत्कल्पनावैयर्थ्यम् ? विषयसंवेदनादेवार्थावबोधस्य तत्पूर्वकस्य व्यवहारस्य च सिद्धः ।
वर्तमानकालावच्छिन्नता है। यह उनका स्वाभाविक धर्म है, यह धर्म ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता, ज्ञान के द्वारा प्रतीत भर होता है ।
___ जो कोई विषयसवेदन ज्ञान का अनुमान मानते हैं, उन्हें इस प्रकार पराजित करना चाहिये कि यह 'विषयसंवेदन' समवाय सम्बन्ध से आत्मा में रहता है ? या विषयों में ? विषयों में तो रह सकता नहीं, क्योंकि विषयों में चैतन्य का खण्डन कर चुके हैं ( देखिए आत्मनिरूपण पृ० १७१)। अगर यह समवाय सम्बन्ध से आत्मा में रहता है तो फिर ज्ञान उससे भिन्न कौन सी वस्तु है ? जिसका विषयसंवेदन से अनुमान होता है। (५०) अनुमेयज्ञान एवं विषयसंवेदन ये दोनों भिन्न हैं, क्योंकि ( अनुमेय ) ज्ञान विषयसंवेदन का कारण और ज्ञाता का व्यापार है। (उ०) विषयसंवेदन का कारणीभूत ज्ञान नित्य है ? अथवा अनित्य ? अगर अनित्य है तो फिर उसकी उत्पत्ति के लिए भी अलग से कारण कहना पडेगा। विषय एवं इन्द्रियादि सहकारियों से युक्त ज्ञाता के मनःसंयोग को अगर उसका कारण मानें, तो फिर इन्हीं कारणों के समूह से विषयसंवेदन की भी उपपत्ति मानिये । विषयसंवेदन के उत्पादक कारणों की पंक्ति में उस ज्ञान को बिठाने की क्या आवश्यकता है ? अगर उस अनुमेय ज्ञान को नित्य मानते हैं और विषय एवं इन्द्रियादि सहकारियों के रहने और नहीं रहने से विषयसंवेदन के कादाचित्कत्व ( कभी होना कभी नहीं ) का निर्वाह करते हैं, तो फिर विषयसंवेदन के कादाचित्कत्व के प्रयोजक इन्द्रियादि रूप कारणों से ही विषयसंवेदन की उत्पत्ति मान लीजिए। इस तरह के ज्ञान की कल्पना हो व्यर्थ है जो विषयसंवेदन से अनुमेय हो
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् ।
न्यायकन्दली अथोच्यते-विषयेन्द्रियादिजन्यं विज्ञानं कथमात्मन्येव समवैति ? यद्यात्मा सहजज्ञानमयो न स्यात् । तस्याचेतनत्वे हि कारणत्वातिशेषादिन्द्रियादिष्वपि ज्ञानसमवायो भवेदिति । तत्र स्वभावनियमादेव नियमोपपत्तेः । यथा तन्तूनामपटत्वेऽपि तन्तुत्वजातिनियमात्तेषु समवायो न तुर्यादिषु, तद्वचिदात्मकेऽप्यात्मन्यात्मत्वजातिनियमाद् ज्ञानसमवायस्य नियमो भविष्यति ।
एतेनैतदपि प्रत्युक्तं यदाहुरेके 'स्वसंवेदनमात्मनो निजं चैतन्यम्' इति, संसारावस्थायामपि तस्यावभासप्रसङ्गात् । अविद्यया वा तस्य तिरोधानमिति चेत् ? किं ब्रह्मणोऽप्यविद्या ? कथं च नित्ये स्वप्रकाशे तिरोधानवाचोयुक्तिः ? न च तिरोहिते तस्मिन्नन्यप्रतिभानमस्ति, तस्य भासा
एवं विषयसंवेदन का कारण हो, क्योंकि उसी विषयसंवेदन से अर्थविषयक बोध एवं तज्जनित व्यवहार दोनों की उपपत्ति हो जायगी।
अगर यह कहें कि ( प्र०) विषय एवं इन्द्रियादि से उत्पन्न ज्ञान तब तक आत्मा में समवाय सम्बन्ध से कैसे रह सकता है जब तक कि आत्मा को सहजज्ञानमय न माना जाय । आत्मा अगर स्वतः अचेतन हो किन्तु ज्ञान का कारण होने से ही ( उसमें) ज्ञान की सत्ता हो तो फिर इन्द्रियादि ( रूप ज्ञान के और कारणों ) में भी ज्ञान का समवाय मानना पड़ेगा। ( उ० ) उक्त कथन भी असङ्गत ही है, क्योंकि स्वाभाविक नियम के अनुसार ही इस विषय का अवधारण हो जायगा कि ज्ञान अपने आत्मा रूप कारण में ही समवाय सम्बन्ध से है, इन्द्रियादि रूप कारणों में नहीं। जैसे कि तन्तु में पटरूपता न रहने पर भी (पट के कारणीभूत ) तन्तु में ही समवाय सम्बन्ध से पट रहता है, तुरी, वेमा प्रभृति ३.पने अन्य कारणों में नहीं। इस नियम को मान लेने से ही आत्मा में हा ज्ञान का समवाय है, इस नियम की भी उपपत्ति हो जायगी।
___ इसी से किसी का यह मत भी खण्डित हो जाता है कि (प्र. ) स्वसंवेदन (स्वतःप्रकाश ) ज्ञान आत्मा का स्वकीयचैतन्य ही है ( वह किसी कारण से उसमें उत्पन्न नहीं होता है ) । ( उ०) क्योंकि (वह ज्ञान अगर स्वतःप्रकाश और नित्य है तो फिर ) संसारावस्था में भी उसका प्रत्यक्ष होना चाहिये। अगर यह कहें कि (प्र.) संसारावस्था में वह अविद्या से ढंका रहता है, (उ.) तो फिर इस विषय में यह पूछना है कि क्या ब्रह्म में भी अविद्या रहती है ? एवं नित्य एवं स्वप्रकाश रूप ज्ञान के तिरोधान में ही क्या युक्ति है ? एवं उसके तिरोहित हो जाने पर ( संसारावस्था में) और विषयों का ज्ञान भी असम्भव होगा, क्योंकि 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' इत्यादि श्रुतियों में कहाँ
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणसाधयंवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम गुरुत्वधर्माधर्मभावना यतीन्द्रियाः ।
अपाकजरूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणैकत्वैकपृथक्त्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहवेगाः कारणगुणपूर्वकाः।
गुरुत्व, धर्म, अधर्म और भावना ये चार गुण किसी भी इन्द्रिय से गृहीत नहीं होते ( अर्थात् अतीन्द्रि य हैं )।
अपाकज रूप, अपाकज रस, अपाकज गन्ध, अपाकज स्पर्श, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह और वेग ये ग्यारह गुण 'कारणगुणपूर्वक' हैं, अर्थात् अपने आश्रयीभूत द्रव्य के अवयवों में रहनेवाले अपनेअपने समानजातीय गुण से उत्पन्न होते हैं।
न्यायकन्दली सर्वमिदं विभाति' इति श्रुतेः । भासते चेत् ? सर्वमुक्तिः, विद्याविर्भावे सत्यविद्याविलयात् । अथेयं न विलीयते ? न तर्हि विद्याप्रकाशस्तस्याविलयहेतुरित्यनिर्मोक्षः । निर्भागस्यैकदेशेन प्रतिभानमनाशङ्कनीयम् ।
गुरुत्वधर्माधर्मभावना अतीन्द्रियाः, न केनचिदिन्द्रियेण गृह्यन्त इत्यर्थः।
अपाकजरूपादयो वेगान्ताः कारणगुणपूर्वकाः स्वाश्रयस्य यत्समवायिकारणं तस्य ये गुणास्तत्पूर्वका रूपादयः, तन्तुरूपादिपूर्वकाः पटरूपादयः, गया है कि उसीके प्रकाश से और सभी प्रकाशित होते हैं। अगर संसारावस्था में भी आत्मा का वह सहज चैतन्य प्रकाशित होता है तो फिर सभी जीवों को मुक्ति मिल जायगी, क्योंकि विद्या रूप तत्त्वज्ञान से अविद्या का विनाश हो जाता है। अगर विद्या के प्रकाशित होने पर भी अविद्या का विनाश नहीं होता है तो फिर विद्या ( तत्त्वज्ञान) अविद्या के विनाश का कारण ही नहीं है। तब फिर किसी को भी मोक्ष का मिलना असम्भव हो जायगा । अंशों से शून्य किसी अखण्ड वस्तु के किसी अंश के प्रकाशित होने एवं किसी अंश के अप्रकाशित होने की तो शङ्का ही नहीं करनी चाहिए ।
गुरुत्व, धर्म, अधर्म और भावना ये चार गुण 'अतीन्द्रिय' हैं, अर्थात् किसी भी इन्द्रिय से इनका ग्रहण नहीं होता।
अपाकज रूप से लेकर वेग पर्यन्त कथित ग्यारह गुण 'कारण गुणपूर्वक' हैं । अर्थात् उक्त रूपादि गुण अपने आश्रय ( द्रव्य ) के समवायिकारण ( अवयव ) में रहनेवाले गुणों से उत्पन्न होते हैं। पट प्रभृति द्रव्यों में रहनेवाले रूपादि की उत्पत्ति तन्तु आदि में रहनेवाले रूपादि गुणों से ही होती है। क्योंकि जिस तरह के रूपादि तन्तुओं में देखे जाते हैं, उसी प्रकार के रूपादि पट में भी देखे जाते हैं। अगर ऐसी बात न हो तो फिर
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
वियभेन तद्धर्मानुविधानात् । अतत्पूर्वकत्वे हि पटे यत्किञ्चद् गुणान्तरं स्यानियमहेतोरभावात् ।
एतेनैकमेव सर्वत्र शुक्लं रूपं प्रत्यभिज्ञानादिति प्रत्युक्तम् । तरतमादिभावानुपपत्तिप्रसङ्गाच्च । तस्मात्सामान्यविषया प्रत्यभिज्ञा।
पार्थिवपरमाणुरूपादयः पाकाद्वह्निसंयोगाज्जायन्ते न तु परमाणुसमवायिकारणाश्रितरूपादिपूर्वकाः, अतस्तन्निवत्यर्थमपाकजग्रहणम् । सिद्धायामुत्पत्तौ कारणगुणपूर्वकत्वमकारणगुणपूर्वकत्वं चेति निरूपणीयम् । जलादिपरमाणु
पट में ऐसे भी गुणों की उत्पत्ति हो जो जन्तुओं में न देखे जाते हों क्योंकि ( 'अवयव के गुणों से ही अवयवी के गुण उत्पन्न होते हैं' इस ) नियम में कोई अन्य) प्रमाण नहीं हैं। अगर यह नियम न हो तो फिर पट में तन्तुओं में न रहनेवाले किसी गुण की उत्पत्ति होने में भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि 'पट में इतने ही गुण उत्पन्न हों' इस विषय में ( उक्त नियम को छोड़ कोई अन्य ) कारण नहीं हैं।
कथित युक्ति से ही किसी आचार्य का निम्नलिखित यह मत भी खण्डित हो जाता है कि (प्र.) शुक्ल रूप से युक्त जितने भी द्रव्य दीख पड़ते हैं, उन सभी द्रव्यों में एक ही शुक्ल रूप है, क्योंकि ( जिस शुक्ल रूप को मैंने घट में देखा था, उसी को पट में भी देख रहा हूँ यह ) प्रत्यभिज्ञा होती है । ( उ०) ('अवयव गत गुण ही अवयवी में गुण को उत्पन्न करते हैं' इस नियम की अनुपपत्ति रूप दोष के अतिरिक्त इस पक्ष में) यह दोष भी है कि अगर शुक्ल रूप से युक्त सभी द्रव्यों में एक ही शुक्ल रूप हो तो फिर उनमें इस न्यूनाधिकभाव की प्रतीति नहीं होगो कि 'यह इससे अधिक शुक्ल है' या 'यह इससे कम शक्ल है', अत: कथित प्रत्यभिज्ञा केवल सादृश्य के कारण होती है ( दोनों द्रव्यों में प्रतीत होने वाले शुक्ल रूपों के एकत्व से नहीं)।
पार्थिव परमाणु के रूपरसादि पाक से ही उत्पन्न होते हैं, अपने आश्रय के समवायिकारणों में रहने वाले रूप रसादि से नहीं, क्योंकि उन रूपादि के आश्रयीभूत, परमाणुओं का कोई समवायिकारण ही नहीं है। पार्थिव परमाणुओं के पाकजरूपादि में 'कारणगुणपूर्वकत्व' रूप साधर्म्य अव्याप्त न हो जाय, अतः ( प्रकृत साधर्म्य के लक्ष्यबोधक वाक्य में) 'अपाकज' पद दिया है। उत्पत्ति की सिद्धि हो जाने पर फिर उस उत्पन्न वस्तु में ही जिज्ञासा होती है कि उसकी उत्पत्ति कारण के गुणों से होती है या और किसी से ? जलादि के परमाणुओं के रूपादि की तो उत्पत्ति ही नहीं होती ( क्योंकि वे नित्य है ), अतः उनमें कारणगुणपूर्वकत्व साधयं के न होने से भी व्यभिचार दोष नहीं है। इन गुणों को 'कारणगुणपूर्वक' कहने का अभिप्राय केवल इनके स्वरूपों का कथन मात्र है।
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रणगुणपूर्वकाः ।
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
बुद्धि सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाशब्दा
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[ गुणसाधर्म्यवैधर्म्य -
बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाशब्दतूलपरिमाणोत्तरसं योगनैमित्तिकद्रवत्वपरत्वापरत्वपाकजाः संयोगजाः ।
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना और शब्द ये नौ गुण 'अकारणगुणपूर्वक' हैं ( अर्थात् ये अपने आश्रयों के अवयवों में रहनेवाले अपने समानजातीय गुण से नहीं उत्पन्न होते ) ।
अका
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, भावना, शब्द, रुई प्रभृति के परिमाण, उत्तरदेश के साथ संयोग, नैमित्तिक द्रवत्व ये तेरह गुण संयोग से उत्पन्न होते हैं ।
न्यायकन्दली
रूपादीनां चोत्पत्तिरेव नास्तीति न व्यभिचारः । एषां कारणगुणपूर्वकत्वाभिधानं स्वरूपकथनं न त्ववधारणार्थम् नैमित्तिकद्रवत्ववेगयोरकारणगुण
पूर्वकत्वस्यापि सम्भवात् ।
कारणगुणपूर्वकत्वमनयोर्वेगवदारब्धजलावयविसम
वेतयोर्द्रष्टव्यम् ।
बुद्धयादयः शब्दान्ता अकारणगुणपूर्वकाः स्वाश्रयस्य यत्समवायिकारणं तद्गुणपूर्वका न भवन्ति, नित्यगुणत्वात् ।
दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और भावना, ये नौ संयोग से उत्पन्न होते हैं । शब्द की उत्पत्ति भेरी ( नगाड़ा) होती है । 'प्रचय' नाम के संयोग से रूई के परिमाण की
बुद्धयादयः संयोगजाः । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावना आत्ममनःसंयोगजाः । शब्दो भेर्याकाशसंयोगजः । तूलपरिमाणं प्रचयाख्यसंयोगजम् । इस नियम का यह अभिप्राय नहीं है कि ये सभी गुण कारणगुणपूर्वक ही होते हैं', क्योंकि नैमित्तिकद्रवत्व और वेग अकारणगुणपूर्वक भी होते हैं । वेग एवं द्रवत्व से युक्त अययवों के द्वारा उत्पन्न जल रूप अवयवी के वेग और द्रवत्व में कथित कारणगुणपूर्वकत्व समझना चाहिए ।
बुद्धि से लेकर शब्द पर्यन्त कथित ये नौ गुण 'अकारणगुणपूर्वक' हैं, अर्थात् अपने आश्रयरूप द्रव्य के समवायिकारण में रहनेवाले गुण से नहीं उत्पन्न होते, क्योंकि इनके आश्रय नित्य हैं । इन गुणों के समवायिकारणों का कोई कारण ही नहीं है ।
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'बुद्धि प्रभूति कथित गुण संयोग से उत्पन्न होते हैं' इनमें बुद्धि, सुख, गुण आत्मा और मन के और आकाश के संयोग से उत्पत्ति होती है । संयोगज
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
२३६
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागवेगाः कर्मजाः । शब्दोत्तरविभागौ विभागजौ।
परत्वापरत्वद्वित्वपृथक्त्वादयो बुद्धयपेक्षाः । संयोग, विभाग और बेग ये तीन गुण क्रिया से उत्पन्न होते हैं ।
शब्द और उत्तर ( विभागज) विभाग ये दोनों विभाग से उत्पन्न होते हैं। परत्व, अपरत्व, द्वित्व, द्विपृथक्त्व प्रभृति बुद्धिसापेक्ष हैं।
न्यायकन्दली उत्तरसंयोगः संयोगजः संयोगोऽभिमतः । नैमित्तिकद्रवत्वं वह्निसंयोगजम् । परत्वापरत्वे दिक्कालपिण्डसंयोगजे । पार्थिवपरमाणुरूपरसगन्धस्पर्शा वह्निसंयोगजा इति विवेकः।
संयोगविभागवेगाः कर्मजाः। आधौ संयोगविभागौ कर्मजौ।
शब्दोत्तरविभागौ विभागजौ । आद्यः शब्दो विभागादपि जायते, उत्तरो विभागो विभागादेव जायत इति विवेकः ।।
परत्वापरत्वद्वित्वद्विपृथक्त्वादयो बुद्ध्यपेक्षाः । एषामुत्पत्तौ निमित्तकारणं बुद्धिः। आदिशब्दात् त्रित्वत्रिपृथक्त्वादिपरिग्रहः । संयोग ही यहाँ 'उत्तरसंयोग' शब्द से इष्ट है। वह्नि के संयोग से नैमित्तिक द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। द्रव्यों के साथ दिशा एवं काल के संयोग से परत्व एवं अपरत्व की उत्पत्ति होती है। पार्थिव परमाणुओं के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये सभी (विशेष प्रकार के ) वह्निसंयोग रूप पाक से उत्पन्न होते हैं ( अतः संयोगज होते हुए भी अपाकज नहीं हैं)।
___ संयोग, विभाग और वेग ये तीनों क्रिया से उत्पन्न होते हैं । पहिला संयोग और पहिला विभाग ये दोनों ही क्रिया से उत्पन्न होते हैं (द्वितीय संयोग की उत्पत्ति संयोग से एवं द्वितीय विभाग की उत्पत्ति विभाग से ही होती है)।
___ शब्द और उत्तरविभाग दोनों ही विभाग से उत्पन्न होते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि ( इनमें ) प्रथम शब्द विभाग से भी उत्पन्न होता है, किन्तु उत्तर विभाग केवल विभाग से ही उत्पन्न होता है ।
परत्व, अपरत्व, द्वित्व, द्विपृथक्त्वादि 'बुद्धिसापेक्ष' हैं, अर्थात् इन सबों की उत्पत्ति में बुद्धि निमित्तकारण है। आदि पद से त्रित्व एवं त्रिपृथकत्व प्रभृति को समझना चाहिए।
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२४०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणसाधम्यंवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसगन्धानुष्णस्पर्शशब्दपरिमाणैकत्वैकपृथक्त्वस्नेहाः समानजात्यारम्भकाः।
सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चासमानजात्यारम्भकाः ।
रूप, रस, गन्ध, उष्ण से भिन्न सभी स्पर्श, शब्द, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व और स्नेह ये नौ गुण अपने अपने समानजातीय गुणों के ही उत्पादक हैं।
सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये पाँच गुण अपने से भिन्नजातीय वस्तुओं के उत्पादक हैं।
न्यायकन्दली रूपादयः स्नेहान्ताः समानजात्यारम्भका: । कारणरूपात् कार्यरूपं रसादसो गन्धाद् गन्धः, स्पर्शात् स्पर्शः स्नेहात् स्नेहो महत्त्वान्महत्त्वमित्यादि योज्यम् । शब्दस्तु स्वाश्रये एव शब्दान्तरारम्भकः । अत्र कारणत्दमानं विवक्षितम्, न त्वसमवायिकारणत्वम्, अन्यथा विजातीयानां पाकजानां निमित्तकारणस्योष्णस्पर्शव्यवच्छेदोऽसङ्गतार्थः स्यात् । नन्वेवं तहि कथं रूपादीनां ज्ञानकारणत्वम् ? न, तद्व्यतिरेकेण समानजातीयारभ्भकत्वस्याभिप्रेतत्वात् ।।
___ सुखादयोऽसमानजात्यारम्भकाः । सुखमिच्छाया: कारणं दुखं द्वेषस्य इच्छाद्वेषौ प्रयत्नस्य सोऽपि कर्मणः। पुत्रसुखं पितरि सुखं जनयति,
रूप से लेकर स्नेह पर्यन्त नो गुण समानजातीय गुणों के उत्पादक है। कारणों में रहनेवाले रूप से कार्य में रूप की उत्पत्ति होती है। कारण में रहनेवाले रस से कार्य में रस की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले गन्ध से कार्य में गन्ध की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले स्पर्श से कार्य में स्पर्श की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले स्नेह से कार्य में स्नेह को उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले महत्परिमाण से कार्य में महत्परिमाण को उत्पत्ति होती है। इस प्रकार के वाक्यों की कल्पना करनी चाहिये। शब्द अपने आश्रय में ही दसरे शब्द को उत्पन्न करता है। यहाँ 'आरम्भकत्व' शब्द से सामान्यतः कारणत्व ही विवक्षित है, ( प्रकरण प्राप्त ) असमवायिकारणत्व नहीं, क्योंकि ऐसा न मानने पर उष्ण स्पर्श को प्रकृत लक्ष्यबोधक वाक्य में छोड़ देना असङ्गत होगा, चूंकि उष्ण स्पर्श भी अपने विजातीय पाकजरूपादि गुणों का निमित्तकारण तो है ही। ( उष्ण स्पर्श भी अपने सजातीय उष्ण स्पर्श का असमवायिकरण है)। (प्र०) फिर रूपादि अपने ज्ञान के प्रति कैसे कारण होते हैं ? ( उ०) प्रकृत में समानजातीय गुणों में ज्ञान से भिन्न गुणों की ही गणना करनी चाहिए। अतः ज्ञान से भिन्न अपने सजातीय गुणों की उत्पादकता ही प्रकृत में विवक्षित है।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
.. २४१ प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागसङ्घयागुरुत्वद्रवत्वोष्णस्पर्शज्ञानधर्माधर्मसंस्काराः समानासमानजात्यारम्भकाः।
__ संयोग, विभाग, संख्या, गुरुत्व, द्रवत्व, उष्णस्पर्श, ज्ञान, धर्म, अधर्म और संस्कार ये दश गुण अपने समानजातीय एवं असमानजातीय दोनों तरह की वस्तुओं के उत्पादक हैं।
न्यायकन्दली अन्यथा तस्य प्रमोदानुपपत्तिरिति चेत् ? तदसारम्, पुत्रस्य हि मुखप्रसादादिना सुखोत्पत्तिमनुमाय पश्चात् पितरि सुखं जायते । तत्रास्य पुत्रस्य सुखं न कारणम्, तस्यैतावन्तं कालमनवस्थानात् । किन्तु लैङ्गिको तद्विषया प्रतीतिः कारणमिति प्रक्रिया।
संयोगादयः संस्कारान्ताः समानासमानजात्यारम्भकाः । संयोगात् समानजातीय उत्तरसंयोगो विजातीयं द्वितूलके महत्परिमाणम्, विभागाद्विभागः शब्दश्च, कारणगतेकत्वसङ्ख्यातः कार्यत्तिन्येकत्वसङ्घया, द्वित्वबहुत्वसङ्घयाभ्यां
सुखादि अपने असमानजातीय वस्तुओं के उत्पादक हैं। (जैसे कि ) सुख इच्छा का, दुःख द्वेष का, इच्छा और द्वेष ये दोनों ही प्रयत्न के, एवं प्रयत्न भी क्रिया का उत्पादक है । (प्र०) पुत्र का सुख तो पिता में ( अपने सजातीय ) सुख को उत्पन्न करता है । अगर ऐसा न हो तो फिर सुखी पुत्र को देख कर पिता का प्रफुल्लित होना युक्त नहीं होगा। (उ०) इस आक्षेप में कुछ विशेष सार नहीं है। यहाँ (पुत्र के सुख से पिता में सुख की उत्पत्ति ) की यह रीति है कि पुत्र के प्रफुल्लमुख से पिता को उसमें सुख का अनुमान होता है । इस अनुमान से पिता में दूसरे सुख की उत्पत्ति होती है । पिता के इस सुख में पुत्र का सुख ( स्वयं) कारण नहीं है, क्योंकि वह पिता में सुख की उत्पत्ति के अव्यवहितपूर्व क्षण तक (क्षणिक होने के कारण ) ठहर नहीं सकता। अतः मुखप्रफुल्लादि हेतुओं से उत्पन्न पुत्रगत सुखविषयक अनुमिति रूप प्रतीति ही पिता के प्रकृत सुख का कारण है।
___ संयोग से लेकर संस्कार पर्यन्त कथित ये नौ गुण अपने समानजातीय एवं असमानजातीय दोनों प्रकार की वस्तुओं के उत्पादक हैं। संयोग से उसके सजातीय उत्तरदेशसंयोग (संयोगजसंयोग) की उत्पत्ति होती है, एवं संयोग से ही उसके विजातीय तूल ( रुई ) के दो अवयवों से उत्पन्न होने वाले एक बड़े तूल के अवयवी के महत्परिमाण की भी उत्पत्ति होती है। विभाग से उसके सजातीय विभागजविभाग की उत्पत्ति होती है, एवं विभाग से ही उसके विजातीय शब्द की भी उत्पत्ति होती है। कारण में रहनेवाली एकत्व संख्या से कार्य में उसकी सजातीय एकत्व संख्या की उत्पत्ति होती है, एवं द्वित्वबहुत्वादि संख्याओं से उनके विजातीय अणुत्व एवं महत् परिमाणों की भी
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२४२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ गुणसाधर्म्यवैधर्म्य
र प्रशस्तपादभाष्यम् बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषभावनाशब्दाः । स्वाश्रयसमवेतारम्भ काः। रूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणस्नेहप्रयत्नाः परत्रारम्भकाः ।
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, भावना और शब्द ये सात गुण अपने आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली वस्तुओं के उत्पादक हैं।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, स्नेह और प्रयत्न ये सात गुण अपने आश्रय से भिन्न आश्रयों में ही कार्य को उत्पन्न करते हैं।
न्यायकन्दली चाणुत्वमहत्त्वे, गुरुत्वाद् गुरुत्वान्तरं पतनं च, द्रवत्वाद् द्रवत्वान्तरं स्यन्दनक्रिया च, उष्णस्पर्शादुष्णस्पर्शः पार्थिवपरमाणुरूपादयश्च, ज्ञानाज्ज्ञानं संस्कारश्च, धर्माद्धर्मः सुखं च, अधर्मादधर्मो दुःखं च, संस्कारात् संस्कारः स्मरणं च ।।
बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषभावनाशब्दाः स्वाश्रयसमवेतारम्भकाः । सुखादय'स्तावद्यत्र स्वयं वर्तन्ते तत्रैव कार्यं जनयन्ति । बुद्धिस्तु द्वित्वादिकं परत्रारभमाणाप्यात्मविशेषगुणं जनयन्ति स्वाश्रयसमवेतमेव जनयति, नान्यत्र।
रूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणस्नेहप्रयत्नाः परत्रारम्भकाः । अवयवेषु उत्पत्ति होती है । ( कारणों में रहनेवाले ) एक गुरुत्व से ( कार्य में रहनेवाली सजातीय ) दूसरी गुरुत्व एवं विजातीय पतन इन दोनों की उत्पत्ति होती है। कारणों में रहनेवाले द्रवत्व से कार्य में रहनेवाला उसका सजातीय दूसरा द्रवत्व एवं विजातीय स्यन्दन ( प्रसरण ) क्रिया इन दोनों की उत्पत्ति होती है । ( कारणों में रहनेवाले ) उष्ण स्पर्श से (कार्य में रहने वाले ) उष्ण स्पर्श रूप सजातीय कार्य की उत्पत्ति होती है, एवं पार्थिव परमाणुओं के रूपादि स्वरूप विजातीय कार्यों की भी उत्पत्ति होती है। ज्ञान से भी अपने सजातीय ज्ञान और विजातीय संस्कार दोनों की उत्पत्ति होती है । धर्म से भी सजातीय धर्म एवं विजातीय सुख दोनों ही प्रकार के कार्य होते हैं । अधर्म भी अपने सजातीय अधर्म एवं विजातीय दुःख दोनों का उत्पादक है । संस्कार भी अपने सजातीय संस्कार एवं विजातीय स्मृति दोनों का उत्पादक है ।
__बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, भावना और शब्द ये सात गुण अपने-अपने आश्रयों में ही समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले पदार्थों के उत्पादक हैं। (इनमें ) सुखादि जहाँ स्वयं रहते हैं, वहीं अपने कार्यों को भी उत्पन्न करते हैं। किन्तु बुद्धि अपने आश्रय से भिन्न पदार्थों में भी द्वित्वादि संख्या को उत्पन्न करती है, आत्मा के विशेष गुणों को बुद्धि तो अपने आश्रय में ही समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न करती है, और किसी आश्रय में नहीं।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, स्नेह और प्रयत्न ये सात गुण अपने
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भाषानुवादसहितम्
२४३
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागसङ्ख्यैकपृथक्त्वगुरुत्ववत्ववेगधर्माधर्मास्तूभयत्रारम्भकाः।
संयोग, विभाग, संख्या, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग, धर्म और अधर्म ये नौ गुण अपने आश्रय एवं अनाश्रय दोनों प्रकार की वस्तुओं में कार्य को उत्पन्न करते हैं।
न्यायकन्दली वर्तमाना रूपादयो यथासम्भवमवयविनि रूपादिकमारभन्ते, आत्मनि समवेतः प्रयत्नो हस्तादिषु क्रियाहेतुः।
संयोगादय उभयत्रारम्भकाः । स्वाश्रये तदन्यत्र चारम्भकाः । तन्तुषु वर्तमानः संयोगस्तेष्वेव पटमारभते, विषयेन्द्रियसंयोगश्चात्मनि ज्ञानम् । वंशदलयोविभागोऽन्यत्राकाशे शब्दमारभते, वंशदलाकाशविभागश्च स्वाश्रय आकाशे। अवयवत्तिन्येकत्वसङ्घया अवयविन्येकत्वसङ्ख्यामारभते, स्वाश्रये च द्वित्वादिसङ्ख्याम् । अथावयवेष्वेकपृथक्त्वमवयविन्येकपृथक्त्वं स्वाश्रयेषु त्रिपृथक्त्वादिकमिति । कारणगताश्च गुरुत्वद्रवत्ववेगाः कार्ये तानारभन्ते, स्वाश्रयेषु क्रियाम् । धर्माधर्मवात्मनि सुखदुःखे परत्र चाग्न्यादौ ज्वलनादिक्रियाम् । आश्रय से भिन्न आश्रय में ही कार्य को उत्पन्न करते हैं। अवयवों में रहनेवाले रूपादि यथासम्भव अवयवो में ही रूपादि को उत्पन्न करते हैं। प्रयत्न स्वयं समवाय सम्बन्ध से आत्मा में रहता है किन्तु हाथ पैर प्रभृति अङ्गों में क्रिया को उत्पन्न करता है।
संयोगादि ये नौ गुण दोनों ही प्रकार के आश्रयों में कार्य को उत्पन्न करते हैं, अर्थात् ये अपने आश्रय और उससे भिन्न आश्रय, दोनों प्रकार के आश्रयों में कार्य के उत्पादक हैं, (जैसे कि ) तन्तुओं में रहनेवाला संयोग अपने आश्रयीभूत उन तन्तुओं में ही पटरूप कार्य को उत्पन्न करता है, किन्तु विषय एवं इन्द्रिय का संयोग ( अपने आश्रयीभूत इन दोनों से भिन्न ) आत्मा में ज्ञान को उत्पन्न करता है। बांस के दो दलों का विभाग ( अपने आश्रयीभूत उन दो वंशदलों से भिन्न ) आकाश में शब्दरूप कार्य को उत्पन्न करता है, किन्तु बाँस के ही दल और आकाश का विभाग अपने आश्रयीभूत आकाश में ही शब्दरूप कार्य को उत्पन्न करते हैं। अवयव में रहनेवाली एकत्व संख्या ( अपने आश्रय से भिन्न ) अवयवी में एकत्व संख्या को उत्पन्न करती है, एवं अपने आभयरूप अवयव में द्वित्वादि संख्या को भी उत्पन्न करती है। अवयवों में रहनेवाला एकपृथक्त्व अवयवी में एकपृथक्त्व को एवं अपने आभय में त्रिपृथक्त्वादि को भी उत्पन्न करता है। इसी प्रकार कारणों में रहनेवाले गुरुत्व, द्रवत्व, वेग और स्नेह आश्रयीभूत उन कारणों के कार्यों गुरुत्व, द्रवत्व, वेग एवं स्नेहरूप कार्यों को उत्पन्न करते हैं, किन्तु अपने आश्रय
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणसाधम्र्म्य वैधयं
क्रियाहेतवः ।
गुरुत्वद्रवत्ववेगप्रयत्नधर्माधर्मसंयोग विशेषाः रूपरसगन्धानुष्णस्पर्शंसङ्ख्यापरिमाणैक पृथक्त्व स्नेहशब्दानामसम
वायिकारणत्वम् ।
गुरुत्व, द्रवत्व, वेग, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और विशेषप्रकार के संयोग से सात गुण क्रिया के कारण हैं ।
रूप, रस, गन्ध, अनुष्णाशीतस्पर्श, संख्या, परिमाण, एकपृथक्त्व, स्नेह और शब्द ये नौ गुण असमवायिकारण हैं ।
न्यायकन्दली
गुरुत्वादयः क्रियाहेतवः । गुरुत्वात्पतनं द्रवत्वात् स्यन्दनं वेगादिषोरुत्तरकर्माणि प्रयत्नाच्छरीरादिक्रिया धर्माधर्माभ्यामग्न्यादिक्रिया । विशिष्यते इति विशेषः, संयोग एव विशेषः संयोगविशेषः, विशिष्टः संयोगो नोदनाभिघात - लक्षण:, सोsपि क्रियाहेतुरिति वक्ष्यते ।
रूपादयः
शब्दान्ता असमवायिकारणम् ।
समवायिकारणप्रत्यासमवायिकारणसमवायः
सन्नमवधूत सामर्थ्यमसमवायिकारणम् । प्रत्यासत्तिश्च समवायिकारणैकार्थसमवायश्च । सुखादीनां समवायिकारणमात्मा, तत्र समवाया
में क्रिया को उत्पन्न करते हैं । धर्म और अधर्म अपने आश्रय में ( क्रमशः ) सुख और दुःख को एवं अपने आश्रय से भिन्न अग्नि प्रभृति में ऊर्ध्वज्वलनादि क्रिया को भी उत्पन्न करते हैं ।
ये गुरुत्वादि सात गुण क्रिया के उत्पादक हैं। इनमें गुरुत्व से पतनरूप क्रिया, द्रवत्व से प्रसरणरूप क्रिया, वेग से तीर प्रभृति की उत्तर क्रियायें, प्रयत्न से शरीर की क्रिया, धर्म और अधर्म से अग्नि प्रभृति में ऊध्र्वज्वलनादि क्रियायें होती हैं । 'संयोग एव विशेष:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार नोदन एवं अभिघातरूप विशेष प्रकार के संयोग हा प्रकृत 'संयोगविशेष' शब्द से इष्ट हैं। आगे कहेंगे कि ये दोनों ही प्रकार के संयोग क्रिया के कारण हैं ।
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रूप से लेकर शब्द पर्यन्त कथित ये सात गुण असमवायिकारण हैं । समवायिकारण में 'प्रत्यासन्न' अर्थात् समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध जिस वस्तु में कार्य करने की सामर्थ्यं निश्चित है, वही असमवायिकारण है । कार्यों के साथ अन्वय ( अर्थात् कारण के अव्यवहित क्षण में कार्य का अवश्य रहना ) एवं व्यतिरेक ( अर्थात् जिसके न रहने पर कार्य उत्पन्न ही न हों ) यही दोनों कारणों में कार्य के उत्पादन की सामर्थ्य हैं । 'प्रत्यासन्न' शब्द 'प्रयुक्त 'प्रत्यासत्ति' शब्द समवायिकारणानुयोगिकसमवाय सम्बन्ध का वाचक है । यह समवायरूप सम्बन्ध प्रकृत में दो प्रकार का है ( १ ) समवायिकारणानुयोगिक
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२४५ न्यायकन्दलो दात्ममनःसंयोगस्तेषामसमवायिकारणम् । नन्वेवं तहि धर्माधर्मयोरप्यसमवायिकारणत्वं स्थात्, न, तयोः समस्तात्मविशेषगुणोत्पतौ सामर्थ्यानवधारणात् । तथा हिधर्मादधर्मदुःखयोरनुत्पत्तिः, अधर्माच्च धर्मसुखयोरनुत्पादः । एवं ज्ञानादीनामपि प्रत्येक व्यभिचारो दर्शनीयः । सर्वत्रावधृतसामर्थ्यस्तु ज्ञातृमनःसंयोग इत्येतावता विशेषेण तस्यैवासमवायिकारणत्वम् । तथा पटरूपस्य समवायिकारणेन पटेन सहैकस्मिनन्नर्थे तन्तौ समवायात् तन्तुरूपं पटरूपस्यासमवायिकारणं, न रसादयः, तस्यैव तदुत्पत्तावन्वयव्यतिरेकाभ्यां सामर्थ्यावधारणात् । एवं रसादिष्वपि योज्यते । उष्णस्पर्शस्य पाकजारम्भे निमित्तकारणत्वमप्यस्ति, तदर्थमनुष्णस्य ग्रहणम् । रूपरसगन्धानुष्णस्पर्शपरिमाणस्नेहानां समवायिकरणैकार्थसमवायादसमवायिकारणत्वम्, कारणवतिनामेषां कार्यसजातीयारम्भकत्वात् । शब्दस्य समवाय, एवं ( २) समवायिकारण जिस वस्तु मे समवेत हो तदनुयोगिक समवाय । (प्रथम प्रकार के सम्बन्ध के अनुसार) आत्मा और मन का संयोग सुखादि का असमवायिकारण है, क्योंकि सुभ के समयायिकारण आत्मा में आत्मा और मन का संयोग समवाय सम्बन्ध से है। (प्र. ) इस प्रकार तो धर्म और अधर्म भी असमवायिकारण होंगे। ( उ० ) नहीं, क्योंकि उन दोनों में आत्मा के किसी भी विशेष गुण को उत्पन्न करने की सामर्थ्य ( अन्वय और व्यतिरेक से ) निश्चित नहीं है । इसी रीति से धर्म के द्वारा अधर्म और दुःख की उत्पत्ति और अधर्म से सुख तथा धर्म की उत्पत्ति का निराकरण होता है। इसी प्रकार आत्मा के ज्ञानादि सभी विशेष गुणों में व्यभिचार दिखाना चाहिए। आत्मा के सभी गुणों में से केवल आत्मा और मन का संयोग ही ऐसा गुण है, जिसमें आत्मा के सभी विशेष गुणों के उत्पादन की सामथ्य ( अर्थात् अन्वय और व्यतिरेक ) निर्णीत है, इसी वैशिष्ट्य के कारण आत्मा के गुणों में से केवल आत्मा और मन का संयोग ही आत्मा के सभी विशेष गुणों का असमवायिकारण है । (असमवाधिकारण के लक्षण में कथित एक दूसरै सम्बन्ध के अनुसार) तन्तुओं का रूप पट के रूप का असमवायिकारण हैं, क्योंकि पटगत रूप का समवायिकारण पट है, वह तन्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहता है, एवं तन्तुओं का रूप भी तन्तुओं में ही समवाय सम्बन्ध से हैं। इस प्रकार तन्तुओं के रूपों में ही पटगत रूप के उत्पादन का सामथ्यं निश्चित है रसादि में नहीं, अतः तन्तुओं के रूप ही पटगत रूप के असमवायिकारण हैं पटगत रसादि नहीं। इसी प्रकार अवयवियों में रहनेवाले रसादि का असमवायिकारणत्व अवयवों में रहनेवाले रसादि में ही समझना चाहिए। उष्ण स्पर्श पाकज रूपादि का निमित्तकारण भी है, (अतः लक्ष्यबोधक वाक्य में) 'अनुष्ण' पद लिखा है । समवायिकरणरूप एक वस्तु में कार्य के साथ समवाय सम्बन्ध से रहने के कारण रूप, रस, गन्ध, अनुष्ण स्पर्श परिमाण और स्नेह ये छः गुण असमवायिकारण होते हैं।
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न्यायकन्दलीसंलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणसाधर्म्यवैधर्म्य
प्रशस्तपादभाष्यम् बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनानां निमित्तकारणत्वम् । संयोगविभागोष्णस्पर्शगुरुत्वद्रवत्ववेगानामुभयथा कारणत्वम् ।
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और भावना ये सभी निमित्तकारण ( ही ) होते हैं।
__ संयोग, विभाग, उष्ण स्पर्श, गुरुत्व, द्रवत्व और वेग ये छ: गुण असमवायिकारण भी हैं और निमित्तकारण भी।
न्यायकन्दली समवायिकारणसमवायादसमवायिकारणता, आकाशाश्रितेनाकाशे एव शब्दान्तरारम्भात् । सङ्घयापृथक्त्वयोरुभयथा कारणत्वम्, कारणवतिनोस्तयोः कार्ये यथासङ्खयमेकत्वैकपृथक्त्वारम्भकत्वात्, स्वाश्रये द्वित्वद्विपृथक्त्वजनकत्वात् ।
बुद्धयादीनां निमित्तकारणत्वम् । तेषां निमित्तकारणत्वमेवेत्यर्थः ।
संयोगविभागोष्णस्पर्शगुरुत्वद्रवत्ववेगानामुभयथा कारणत्वम् । असमवायिकारणत्वं निमित्तकारणत्वं चेत्यर्थः । तथा हि-भेरीदण्डसंयोगः शब्दोत्पत्तौ निमित्तं भेर्याकाशसंयोगोऽसमवायिकारणम् । एवं विभागे दलविभागो निमित्तं वंशदलाकाशविभागोऽसमवायिकारणम् । उष्णस्पर्श उष्णस्पर्शस्यासमवायिकारणं पाकजानां निमित्तकारणम् । गुरुत्वं स्वाश्रये पतनस्यासमवायि
शब्द अपने कार्य के समवायिकारण ( आकाश ) में रहने से ही असमवायिकारण है, क्योंकि आकाश में रहने वाले शब्द से आकाश में ही शब्दों की उत्पत्ति होती है । संख्या एवं पृथक्त्व ये दोनों ही प्रकार से असमवायिकारण होते हैं, क्योंकि (कारणगत ) ये दोनों कार्यगत एकत्व एवं पृथक्त्व के कारण है, एवं अपने ही समवायिकारणरूप आश्रय में ही द्वित्व या द्विपृथक्त्व के कारण हैं ।
बुद्धि प्रभृति इन नौ गुणों का निमित्तकारण व साधर्म्य है, अर्थात् ये निमित्त कारण ही होते हैं (असमवायिकारण भी नहीं )।
संयोग, विभाग, उष्ण स्पर्श, गुरुत्व, द्रवत्व और वेग इन छः गुणों का 'उभयथा कारणत्य' साधर्म्य है, अर्थात् ये सभी गुण असमवायिकारण और निमित्तकारण दोनों ही होते हैं। भरी और आकाश का संयोग शब्द का असमवायिकारण है, एवं भेरी और आकाश का संयोग शब्द का ही निमित्तकारण है, एवं विभाग में भी ( उभयथा कारणत्व ) है, क्योंकि बाँस के दोनों दलों का विभाग शब्द का निमित्तकारण है, एवं बांस के दल और आकाश का विभाग शब्द का ही असमवायिकारण भी है । ( कारणगत ) उष्ण स्पर्श (कार्यगत) उष्ण स्पर्श का असमवायिकारण हैं, एवं पाकज रूपादि का निमित्त
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् परत्वापरत्वद्वित्वद्वि पृथक्त्वादीनामकारणत्वम् ।
संयोगविभागशब्दात्मविशेषगुणानां प्रदेशवृत्तित्वम् । परत्व, अपरत्व, द्वित्व, और द्विपृथक्त्वादि गुण किसी के भी कारण नहीं हैं।
संयोग, विभाग, शब्द एवं आत्मा के सभी विशेष गुण ये सभी प्रादेशिक (अव्याप्यवृत्ति ) हैं।
न्यायकन्दली कारणम् । नोदनाभिघातः क्रियोत्पत्तौ निमित्तकारणम् । द्रवत्ववेगयोरपि योज्यम् ।
परत्वापरत्वादीनामकारणत्वम् । नैतान्यसमवायिकारणं नापि निमित्तकारणम् । द्वित्वद्विपृथक्त्वादीनामित्यादिपदेन त्रिपृथक्त्वानां परमाणुपरिमाणपरममहत्परिमाणयोश्च परिग्रहः।
संयोगविभागशब्दात्मविशेषगुणानां प्रदेशवृत्तित्वमिति । प्रवेशवृत्तयोऽव्याप्यवृत्तयः स्वाश्रये वर्तन्ते, न वर्तन्ते चेत्यर्थः । नन्वेतदयुक्तम्, युगपदेकस्यैकत्र भावाभावविरोधात् । नानुपपन्नम्, प्रमाणेन तथाभावप्रतीतेः । तथा हिमहतो वृक्षस्य पुरुषेण सहाग्रे संयोगो मूले च तदभावः प्रतीयते, मूले वृक्षोपलम्भेऽपि संयोगस्य सर्वैरनुपलम्भात् । न च मूलाग्रयोरेव संयोगतदभावौ, तत्प्रदेशाकारण भी है। गुरुत्व अपने आश्रय की पतन क्रिया का असमवायिकारण है, एवं नोदन और अभिघातजनित क्रिया का निमित्तकारण भी है। इसी तरह द्रवत्व और वेग में भी विचार करना चाहिए ।
परत्व एवं अपरत्व प्रभृति चार गुणों का 'अकारणत्व' साधयं है, अर्थात् ये न तो असमवायि कारण हैं और न निमित्तकारण ही ( समवायिकारण तो द्रव्य से भिन्न कोई होता ही नहीं है)। 'द्वित्वद्विपृथक्त्वादि' शब्द में प्रयुक्त 'आदि' पद से विपृथक्त्व, परमाणुओं के परिमाण, एवं परममहत्परिमाण प्रभृति को समझना चाहिए ( अर्थात् ये भी किसी के कारण नहीं होते )।
संयोग, विभाग, शब्द और आत्मा के सभी विशेष गुण इन सबों का 'प्रदेश वृत्तित्व' साधर्म्य है। प्रदेशवृत्ति' शब्द का अर्थ है अव्याप्यवृत्ति अर्थात् ये अपने आश्रय ( के किसी अंश) में रहें भी, एवं अपने आश्रय ( के ही दूसरे किसी अंश में ) न भी रहें। (प्र.) यह तो ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही समय में एक ही आश्रय में एक ही वस्तु रहे भी और न भी रहे, क्योंकि 'रहना' और 'न रहना' दोनों परस्पर विरोधी हैं ? (उ०) इसमें कुछ भी असङ्गति नहीं है कि एक ही आश्रय में भाव और अभाव की उक्त प्रतीति प्रमाण से उत्पन्न होती है। एक ही महावृक्ष के अग्रभाग के साथ पुरुष के संयोग की प्रतीति होती है, उसी वृक्ष के मूल भाग में उसी पुरुष के संयोग के
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२४८
न्यायकन्दलीसंवलिप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणसाधयंवैधयं
न्यायकन्दली वच्छेदेन वृक्षे एव पुरुषस्य भावाभावप्रतीतेः। यदि प्रदेशस्य संयोगो न प्रदेशिनस्तदा प्रदेशस्यापि स्वप्रदेशापेक्षया प्रदेशित्वान्निष्प्रदेशे परमाणुमात्रे संयोगः स्यात् । तवत्तिस्तु संयोगो न प्रत्यक्ष इति संयोगप्रतीत्यभाव एव पर्यवस्यति । यथा च रूपादिभेदेऽप्येकोऽवयवी न भिद्यते तथा संयोगतदवाभ्यामपि, उभयत्रापि तदेकत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । यद्यप्युभयाश्रयः संयोगस्तयोरुपलब्धावुपलभत एव, तथापि तस्य रूपादिवद् गृह्यमाणाखिलावयवावच्छेदेनानुपलम्भादव्यापकत्वम् । एवं शब्दोऽप्याकाशं न व्याप्नोति, तत्रैवास्य देशभेदेनोपलम्भानुपलम्भाभ्यां युगपद्भावाभावसम्भवात् । बुद्धयादयो झन्तर्बहिश्चोपलम्भानुपलम्भाभ्यामव्यापकाः । कथं तहि धर्माधर्माभ्यामग्न्यादिषु किया, तयोस्तद्देशेऽभावादिति चेन्न, तत्रासतोरपि तयोः स्वाश्रयसन्निधिमात्रेण निमित्तत्वान् । यथा वस्त्रस्यकान्ते चाण्डालस्पर्शीsपरान्तसंयुक्तस्य वणिकस्य प्रत्यवायहेतुस्तथेदमपि द्रष्टव्यम् ।
अभाव की भी प्रतीति होती है। अगर प्रदेशों ( अवयवों) मे ही संयोग मानें प्रदेशी ( अवयवी ) में संयोग न मानें तो उन प्रदेशों में भी संयोग मा मानना सम्भव न होगा, क्योंकि वे प्रदेश भी अपने अवयवों की अपेक्षा अवयवी हैं ही, फलत: अवयवों (प्रदेशों) से शून्य परमाणुओं में ही संयोग मानना पड़ेगा। जिससे संयोग का प्रत्यक्ष ही असम्भव हो जायगा, क्योंकि उसका आश्रय परमाणु अतीन्द्रिय है। अतः ( अवयवों में ही संयोग है अवयवियों में नहीं) इस पक्ष में संयोग का प्रत्यक्ष ही न हो पायेगा। जैसे रूप रसादि के परस्पर भिन्न होने पर भी उनके आश्रय रूप अवयवी परस्पर भिन्न नहीं होते, उसी प्रकार संयोग और संयोगाभाव के आश्रय दो वस्तुओं के आधार होने के कारण ही परस्पर भिन्न नहीं हैं, क्योंकि इन दोनों के आश्रयों में एकता की प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से होती है। यद्यपि संयोग अपने प्रतियोगी एवं अनुयोगी दोनों में ही आश्रित है, क्योंकि उसके प्रत्यक्ष के लिए दोनों का प्रत्यक्ष आवश्यक है, तथापि जिस प्रकार रूपादि की उपलब्धि प्रत्यक्ष होनेवाले अवयवी के सभी अवयवों में होती है, संयोग की उपलब्धि उस प्रकार से सभी अवयवों में नहीं होती। अतः संयोग 'अव्यापक' अर्थात अव्याप्यवृत्ति है। इसी प्रकार शब्द भी (अपने आश्रय ) आकाश के समूचे प्रदेश में नहीं रहता है, अतः एक ही समय आकाश में प्रदेश भेद से शब्द की सत्ता और असत्ता दोनों की ही सम्भावना है। ज्ञानादि गुणों की प्रतीति अन्तर्मुखो होती है, बहिर्मुखी नहीं होती, अतः वे भी अव्यापक अर्थात् प्रादेशिक हैं। (प्र.) तो फिर धर्म और अधर्म से वह्नि प्रभृति में क्रिया कैसे होती है ? क्योंकि वे तो वहां नहीं है ? (उ) क्रिया के प्रदेश में धर्मादि के न रहने पर भी धर्मादि आत्मा में रहते हैं, आत्मा का क्रिया प्रदेश से सान्निध्य है, इसी परम्परा सम्बन्ध के द्वारा धर्मादि क्रिया के कारण हैं। जिस प्रकार कपड़े के एक छोर में चाण्डाल का स्पर्श उसी कपड़े के दूसरे छोर से संयुक्त त्रैवर्णिकों के प्रत्यवाय का कारण होता है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए ।
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प्रकरणम् 1
भाषानुवादसहितम्
२४९
प्रशस्तपादभाष्यम् शेषाणामाश्रयव्यापित्वम् ।
अपाकजरूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणैकपृथक्त्वसासिद्धिकद्रवत्वगुरुत्वस्नेहानां यावद्रव्यभावित्वम् ।
शेषाणामयावदव्यभावित्वञ्चेति । अवशिष्ट सभी गुण अपने आश्रय के सभी अंशों में रहते हैं। __ अपाकज रूप, अपाकज रस, अपाकज गन्ध, अपाकज स्पर्श, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व, सांसिद्धिक द्रवत्व, गुरुत्व और स्नेह इन दश गुणों का 'यावद्रव्यभावित्व' साधर्म्य है।
शेष' अर्थात कथित अपाकज रूपादि से भिन्न सभी गुणों का 'अयावद्रव्यभावित्व' साधर्म्य है।
न्यायकन्दली शेषाणामाश्रयव्यापित्वम् । उक्तेभ्यो येऽन्ये ते शेषाः । तेषामाश्रयव्यापित्वं संयोगादिवदव्यापकं न भवतीत्यर्थः ।
अपाकजरूपादीनां यावद्दव्यभावित्वम् । यावदाश्रयद्रव्यं तावद्रूपादयो विद्यन्ते । पाकजरूपादयः सत्येवाश्रये नश्यन्तीत्यपाकजग्रहणम् ।
शेषाणामयावद्रव्यभावित्वम् । अपाकजरूपादिव्यतिरिक्ता गुणा यावद्व्यं न सन्ति, सत्येवाश्रये नश्यन्तीत्यर्थः ।
शेष सभी गुणों का आश्रयव्यापित्व' साधर्म्य है। ऊपर जितने भी गुण कहे गये हैं, उनसे भिन्न सभी गुण यहाँ शेष' शब्द से अभिप्रेत हैं। उन सबों का 'आश्रयव्यापित्व' ( साधर्म्य है ), अर्थात् वे संयोगादि गुणों की तरह अव्याप्यवृत्ति नहीं हैं ।
____ कथित अपाकज रूपादि गुणों का 'यावद्रव्यभावित्व' ( साधर्म्य है), अर्थात् जब तक आश्रयरूप द्रव्य रहते हैं, तब तक ये अपाकज रूपादि रहते हैं। इसमें 'अपाकज' पद का उपादान इस लिए किया गया है कि पाकज रूपादि आश्रय के रहते हुए ही नष्ट हो जाते हैं।
'शेष' गुणो का 'अयावद्व्यभावित्व' साधर्म्य है। अर्थात् उक्त अपाकज रूपादि से भिन्न जितने भी गुण हैं, वे तब तक नहीं रहते, जब तक उम के आय द्रव्य रहते हैं. किन्तु उनके रहते ही नष्ट हो जाते है ।
अव प्रत्येक गुण का असाधारण धर्म कहना है, अत: 'रूपादीनाम्' इत्यादि वाक्य लिखते हैं। रूपमादिर्येषाम्' इस व्युत्पत्ति से सिद्ध 'रूादि' शब्द से युक्त प्रकृत
३२
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२५.
न्यायकन्दलीसंघलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेरूपादि
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपादीनां सर्वेषां गुणानां प्रत्येकमपरसामान्यसम्बन्धाद्रूपादिसंज्ञा भवन्ति ।
रूपादि सभी गुणों के रूपादि नाम इसलिए हैं कि उनमें ( रूपत्वादि ) अपर जातियों का सम्बन्ध है।
न्यायकन्दली सम्प्रति प्रत्येक गुणानां परस्परवैधर्म्यप्रतिपादनार्थमाह-रूपादीनामिति । रूपमादिर्येषां तेषामेकैकं प्रत्यपरजाते रूपत्वादिकायाः सम्बन्धाद्रपादिसंज्ञा रूपमिति रस इति संज्ञा भवन्ति । रूपत्वाद्यपरसामान्यकृता रूपादिसंज्ञा रूपादीनां प्रत्येकं वैधर्म्यम् । रूपत्वसामान्यं नास्तीति केचित, तदयुक्तम्, नीलपीतादिभेदेषु रूपं रूपमिति प्रत्ययानुवृत्तेः । चक्षुर्ग्राह्यतोपाधिकृता तदनुवृत्तिरिति चेन्न, तेषां रूपमित्येवं चक्षुषाऽग्रहणात् । तद्गाह्यतानिमित्तत्वे हि प्रहणादनन्तरं तथा प्रत्ययः स्यात् । चक्षुर्ग्राह्यता तद्ग्रहणयोग्यता, सा च नीलादिषु त्रिकालावस्थायिनीति चेत् ? अस्तु कामम्, किन्त्वेषा यदि प्रतिरूपं व्यावृत्ता, प्रत्ययानुगमो न स्यात्, एकनिमित्ताभावात् । अथानुवृत्ता, संज्ञाभेदमात्रम् । एवं रसादयोऽपि व्याख्याताः। वक्य का अर्थ है कि रूपादि गुणों में से प्रत्येक में रूपत्वादि स्वरूप अपर जातियों के सम्बन्ध से रूप, रस आदि संज्ञायें होती हैं । रूपादि नाम ही रूपादि गुणों के असाधारण धर्म हैं, जिनकी मूल हैं रूपत्वादि जातियाँ। कोई कहते हैं कि (प्र० ) रूपत्व नाम की कोई जाति नहीं है । ( उ०) किन्तु यह कहना ठीक नहीं क्योंकि नीलपीतादि विभिन्न रूपों में यह रूप है' इस एक प्रकार की ( अनुवृत्त ) प्रतीतियाँ होती हैं (प्र.) सभी रूप आँख से देखे जाते हैं, इसीसे मभी रूपों में एक आकार की प्रतीति होती है । ( उ०) नीलपीतादि में 'यह रूप है' इस आकार की प्रतीति आँख से नहीं होती है, अगर चक्षु से गृहीत होने के कारण ही नीलादि में 'यह रूप है' इस प्रकार की प्रतीति हो, तो फिर चक्षु के द्वारा ग्रहण के बाद ही 'यह रूप है' इस प्रकार की प्रतीति होनी चाहिए। (प्र०) चक्षुर्ग्राह्यत्व' (चक्षु से गृहीत होने का ) का अर्थ है चक्षु के द्वारा गृहीत होने की स्वरूपयोग्यता, यह तो नीलादि में तीनों कालों में है ही। ( उ० ) मान लिया कि है, किन्तु यह योग्यता नीलादि प्रत्येक रूप में अगर अलग अलग है तो फिर सभी रूपों में ये रूप हैं' इस एक आकार की प्रीति नहीं होगी, क्योंकि उसका कोई एक कारण नहीं है। अगर चक्षुर्माह्यता सभी रूपों में एक है तो फिर जाति को मान लेने में कोई विवाद ही नहीं रह जाता है। इसी प्रकार से रसादि की भी व्याख्या हो जाती है।
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
२५१
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्र रूपं चक्षुर्णायं पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति द्रव्याधुपलम्भकं नयनसहकारि शुक्लाद्यनेकप्रकारं सलिलादिपरमाणुषु नित्यं
उनमें चक्षु से ही जिसका ग्रहण हो वही 'रूप' है। यह पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में रहता है । द्रव्यादि के प्रत्यक्ष के उत्पादन में आँख का सहारा है । यह शुक्लादि भेद से अनेक प्रकार का है । जलादि के परमाणुओं में यह नित्य है, एवं पृथिवी के परमाणु में
न्यायकन्दली सर्वपदार्थानामभिव्यक्तिनिमित्तत्वादादौ रूपं निरूपयति-तत्र रूपं चक्षु ह्यमिति । तेषां गुणानां मध्ये रूपं चक्षुषेव गृह्यते नेन्द्रियान्तरेण । ननु रूपत्वमपि चक्षुषव गृह्यते कथमिदं वैधर्म्य रूपस्य ? न, गुणेभ्यो वैधर्म्यस्य विवक्षितत्वात् । तथा च प्रकृतेभ्यो निर्धारणार्थं तत्रत्युक्तम् । सामान्यादस्य वैधयं तु सामान्यवत्त्वमेव । पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति । पृथिव्युदकज्वलनेष्वेव वर्तते। द्रव्याधुपलम्भकम् । यस्मिन्नाश्रये वर्त्तते तस्य द्रव्यस्य तद्गतानां च गुणकर्मसामान्यानामुपलम्भकम् । नयनसहकारि । स्वगतं रूपं चक्षुषो विषयग्रहणे सहकारि । शुक्लाद्यनेकप्रकारम् । शुक्लादयोऽनेके प्रकारा यस्य तत् तथाविधम् । सलिलादिपरमाणुषु नित्यम् । सलिलपरमाणुषु तेजःपरमाणुषु च
रूप सभी वस्तुओं के प्रत्यक्ष में किसी न किसी प्रकार से अवश्य ही कारण है, अतः 'तत्र रूपं चक्षुर्ग्राह्यम्' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा गुणों में सबसे पहिले रूप का ही निरूपण करते हैं। इन सभी गुणों में रूप चक्षु के ही द्वारा गृहीत होता है और किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं। (प्र०) रूपत्व भी तो केवल चक्षु से ही गृहीत होता है तो फिर 'चक्षुर्मात्रग्राह्यत्व' रूपों का असाधारण धर्म कैसे है ? (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि और गुणों की ही अपेक्षा चक्षुर्णाह्यत्व को रूप का असाधारण धर्म कहना यहाँ अभिप्रेत है, सभी पदार्थों की अपेक्षा नहीं। इसी 'निर्धारण' को हो समझाने के लिए तत्र' शब्द का प्रयोग किया गया है। रूपों में जाति का रहना ही (रूपत्वादि) जातियों से रूप के भिन्न होने का प्रयोजक है ( क्योंकि सामान्य में सामान्य नहीं रह सकता)। 'पृथिव्युदकज्वलनवृत्ति' अर्थात् रूप पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में ही रहता है। 'द्रव्याधुपलम्भकम्' अर्थात् रूप जिस आश्रय में रहता है उस द्रव्य का, एवं उस आश्रय द्रव्य में रहनेवाले अन्य गुणों, क्रियाओं और सामान्यों के भी प्रत्यक्ष का प्रयोजक है । 'नयनसहकारि' चक्षुरूपद्रव्य में रहनेवाला रूप चक्षु से होनेवाले सभी प्रत्यक्षों का सहकारिकारण है। शुक्लाधनेकप्रकारम्' 'शुक्लादयोऽने के प्रकारा यस्य' इस व्युत्पत्ति के द्वारा जिसके शुक्लादि अनेक प्रकार हों वही शुक्लाद्यनेकप्रकार' है ( अर्थात् शुक्लादि भेद से रूप अनेक प्रकार के हैं )। 'सलिलादिपरमाणुषु नित्यम्' जल के और तेज के
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२५२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेरूपादि
प्रशस्तपादभाष्यम् पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगविरोधि सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकमाश्रयविनाशादेव विनश्यतीति । अग्नि के संयोग से उसका विनाश होता है । जन्य द्रव्यों में उनके अवयवों में रहनेवाले रूप से यह उत्पन्न होता है, एवं आश्रय के विनाश से उसका विनाश होता है।
न्यायकन्दली नित्यम । पार्थिवपरमाणष्वग्निसंयोगविरोधि । अग्निसंयोगो विनाशकः पार्थिवपरमाणुरूपस्येति च वक्ष्यामः। सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकम् । कार्यद्रव्यगतं रूपं स्वाश्रयसमवायिकारणरूपपूर्वकम् । आश्रयविनाशादेव विनश्यति । कार्यरूपविनाशस्याश्रयविनाश एव हेतुः।
आश्रयविनाशाद्रूपस्य विनाश इति न मृष्यामहे सहैव रूपद्रव्ययोविनाशप्रतीतेरिति चेन्न कारणाभावात् । मुद्गराभिघातात् तावदवयव क्रियाविभागादिक्रमेण द्रव्यारम्भकसंयोगनिवृत्तौ तदारब्धस्य द्रव्यस्य विनाशः कारणविनाशात्, तद्तरूपविनाशे तु किं कारणम् ? यदि ह्यकारणस्याप्यवयवसंयोगस्य विनाशाद्रूपविनाशः, कपालरूपाण्यपि ततो विनश्येयुपरमाणुओं के रूप नित्य हैं। एवं पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगविरोधि' अर्थात् पार्थिव परमाणुओं में रहने वाले रूपों का अग्नि के संयोग से नाश होता है, यह हम आगे कहेंगे । 'सर्वकार्यद्रव्येषु कारणगुणपूर्वकम्' अर्थात् कार्य-द्रव्यों में रहनेवाले सभी रूप अपने आश्रय के समवायिकारणों में रहने वाले रूपों से ही उत्पन्न होते हैं। आश्रयविनाशादेव विनश्यति अर्थात् उत्पन्न होनेवाले सभी रूपों का नाश अपने आश्रयों के नाश से ही होता है।
(प्र. हम यह नहीं मानते कि रूप का आश्रय के नाश से होता है, क्योंकि रूप के नाश एवं उसके आश्रयीभूत द्रव्य के नाश दोनों कः प्रतीति साथ ही होती है। (उ०) नहीं, क्योंकि आश्रयीभूत द्रव्य के नाश के साथ उसमें रहनेवाले रूप के नाश का कारण ही ( उस समय ) नहीं है। मुद्गरादि के आघात से कार्य-द्रव्य के अवयवों में क्रिया, क्रिया से अवयवों का विभाग, इस क्रम के अनुसार द्रव्य के अवयवों के उत्पादक संयोग का विनाश हो जाने पर अवयवी द्रव्य का विनाश होता है। किन्तु तद्गत रूप का विनाश किससे मानेंगे ? आश्रयीभूत द्रव्य के अवयवों का संयोग रूप का कारण नहीं है। अकारणीभूत इस संयोग के नाश को ही अगर रूपनाश का कारण मानें तो फिर उक्त संयोग के नाश से कलादि अवयवों में रहने वाले रूप का भी नाश मानना पड़ेगा, क्योंकि अवयवों का संयोग जैसे कि अवयवी के रूप का कारण नहीं है, वैसे ही कपालादिगत रूप का भी कारण नहीं है। अगर अवयवी में
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२५३
प्रकरणम् ] .
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली रविशेषात् । तस्मात् पूर्व द्रव्यस्य विनाशस्तदनु रूपस्य, आशुभावात् क्रमस्याग्रहणभिति युक्तमुत्पश्यामः ।
ये तु रूपद्रव्ययोस्तादात्म्यमिच्छन्तो द्रव्यकारणमेव रूपस्य कारणमाहुस्ते इदं प्रष्टव्याः --कि परमाणुरूपं रूपान्तरमारभते न वा ? आरभमाणमपि कि स्वात्मन्यारभते ? किं वा स्वाश्रये परमाणौ ? यदि नारभते ? यदि वा स्वात्मनि स्वाश्रये चारभते ? द्वयणुके रूपानुत्पत्तौ तत्पूर्वकं जगदरूपं स्यात् । अथ तद् द्वयणुके आरभते, अविद्यमानस्य स्वाश्रयत्वायोगादुत्पन्ने द्वयणुके पश्चात्तत्र रूपोत्पत्तिरित्यवश्यमभ्युपेतव्यम्, निराश्रयस्य कार्यस्यानुत्पादात् । तथा सति तादात्म्यं कुतः ? पूर्वापरकालभावात् । किञ्चावस्थित एव घटे रूपादयो वह्निसंयोगाद्विनश्यन्ति तथा सति जायन्ते चेति भवतामभ्युपगमः, यस्य चोत्पत्तौ यस्यानुत्पत्ति
रहनेवाले रूप के प्रति कारण न होते हुए भी अवयवों का संयोग अपने नाश से अवयवी में रहनेवाले रूप का नाश कर सकता है, तो फिर वही संयोग कपालादि अवयवों में रहनेवाले रूप का नाश क्यों नहीं कर सकता ? अतः हम यही युक्त समझते हैं कि पहिले द्रव्य का नाश होता है, उसके बाद तद्गत गुण का नाश होता है । द्रव्य के एवं तद्गत गुण के नाश का यह क्रम मालूम इसलिए नहीं पड़ता है कि दोनों के मध्य में अत्यन्त थोड़े समय का व्यवधान रहता है।
किसी सम्प्रदाय का मत है कि (प्र.) द्रव्य एवं गुण दोनों अभिन्न हैं, अतः जो द्रव्य का कारण है वही गुण का भी कारण है । (उ०) उनसे यह पूछना चाहिए कि पर-Tणुओं के रूप किसी दूसरे रूप को उत्पन्न करते हैं या नहीं ? अगर उत्पन्न करते हैं तो कहाँ ? अपने में ही ? या अपने आश्रय परमाणु में ? अगर यह मान लें कि परमाणु के रूप किसी भी दूसरे रूप को उत्पन्न नहीं करते हैं या फिर यही मान लें कि परमाणु का रूप अपने आश्रय में एवं अपने में भी रूप को उत्पन्न करते हैं हर हालत में द्वयणुक में रूप की उत्पत्ति न हो सकेगी, जिससे समूचे जगत् को ही रूप शून्य मानना पड़ेगा। अगर परमाणुओं के रूप से द्वयणुक में रूप की उत्पत्ति मानें तो फिर द्वयणुक में रूप की उत्पत्ति के पहिले द्वयणुक की उत्पत्ति माननी ही होगी। अतः यही कहना पड़ेगा कि द्वयणुक के उत्पन्न हो जाने पर पीछे उसमें रूपादि की उत्पत्ति होती है। क्योंकि बिना आश्रय के कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। अगर यह स्थिति है तो फिर रूप (गुण) और द्रव्य का अभेद कैसा ? क्योंकि द्रव्य पहिले उत्पन्न होता है और रूप पीछे । और भी बात है, वह्नि के संयोग से घटगत रूप का नाश घट के रहते ही हो जाता है, अतः यही मानना पड़ेगा कि अग्नि के संयोग से ही उसी घट में दूसरे रूप की उत्पत्ति होती है। अतः यही रीति माननी होगी कि जिसकी उत्पत्ति से
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न्याय कन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
रसो
निमित्तं
रसनग्राह्यः रसन सहकारी अस्यापि नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयो रूपवत् ।
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पृथिव्युदकवृत्तिर्जीवन पुष्टिबलारोग्य मधुगम्ललवणतिक्तकटुकषायभेदभिन्नः ।
न्यायकन्दली
[ गुणस्पर्श
रसनेन्द्रिय से गृहीत होनेवाला ( गुण ही ) 'रस' है । वह पृथिवी और जल इन दो द्रव्यों में ही रहता है, एवं जीवन, पुष्टि, बल और आरोग्य का कारण है । प्रत्यक्ष के उत्पादन में रसनेन्द्रिय का सहायक है । वह मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त भेद से छः प्रकार का है । नित्यत्व एवं अनित्यत्व के प्रसङ्ग में इसकी सभी बातें रूप की तरह है ।
निवृत्तौ चानिवृत्तिर्न तयोस्तादात्म्यमिति प्रक्रियेयम् । न चात्यन्तभेदे पृथगुपलम्भ प्रसङ्गः, सर्वदा रूपस्य द्रव्याश्रितत्वात् । एतदेव कथम् ? वस्तुस्वाभाव्यादिति कृतं गुरुप्रतिकूलवादेन ।
सम्प्रति बाहाँकै केन्द्रियग्राह्यस्य
प्रत्यक्षद्रव्यवृत्तविशेषगुणस्य निरूपणप्रसङ्गेन रसगन्धयोव्र्व्याख्यातव्ययोरुभयद्रव्यवृत्तित्वविशेषेणादौ रूपं व्याख्याय रसं व्याचष्टे - रसो रसनग्राह्य इति । गुणेषु मध्ये रस एव रसनग्राह्यो रसनग्राह्य एत रसः । पृथिव्युदक् वृत्तिः । पृथिव्युदकयोरेव वर्त्तते । जीवनपुष्टिबला
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ही जिसकी उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो जाती एवं जिसके विनाश से ही जिसका विनाश सिद्ध नहीं हो जाता वे दोनों अभिन्न नहीं हो सकते । ( प्र० ) अगर रूप और द्रव्य अत्यन्त भिन्न हैं तो द्रव्य को छोड़ कर भी रूप की प्रतीति होनी चाहिए । (उ० ) नहीं, क्योंकि रूप सभी कालों में द्रव्य में ही रहता है । ( प्र०) यहीं क्यों होता है ? ( उ० ) यह तो वस्तुओं का स्वभाव है । गुरुचरणों के विरुद्ध व्यर्थ की बातों को बढ़ाना व्यर्थ है ।
प्रत्यक्ष योग्य द्रव्यों में ही रहने
अब एक ही बाह्य इन्द्रिय से गृहीत होनेवाले एवं वाले गुणों का निरूपण करना है । इस प्रसङ्ग में रस और समान रूप से प्राप्त हो जाती है, किन्तु इन दोनों में और रस दो द्रव्यों में, इस विशेष के कारण रूप के निरूपण से पहिले 'रसो रसनग्राह्य', इत्यादि से रस से केवल रस ही रसनेन्द्रिय से गृहीत होता है, अतः रसनेन्द्रिय से गृहीत होनेवाला गुण ही रस है । पृथिव्युदकवृत्तिः' अर्थात् यह पृथिवी और जल इन दो द्रव्यों में रहता है । 'जीवनबलारोग्यनिमित्तम् प्राण के धारण को 'जीवन' कहते हैं। शरीर के अवयवों की वृद्धि ही 'पुष्टि' है । विशेष प्रकार के उत्साह को 'बल' कहते
गन्ध इन दोनों की व्याख्या गन्ध एक ही द्रव्य में निरूपण के बाद और का निरूपण करते हैं ।
रहता है गन्ध के
गुणों में
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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गन्धो घाणग्राह्यः पृथिवीवृत्तिर्घाणसहकारी सुरभिरसुरभिश्च । अस्यापि पूर्ववदुत्पश्यादयो व्याख्याताः ।
२५५
जिस गुण का प्रत्यक्ष घ्राणेन्द्रिय से हो वही 'गन्ध' है । वह केवल पृथिवी में ही रहता है । ( प्रत्यक्ष के उत्पादन में ) वह घ्राण का सहायक है । सुरभि एवं असुरभि भेद से यह दो प्रकार का है । इसकी उत्पत्ति और विनाश प्रभृति पहिले की तरह जानना चाहिए ।
न्यायकन्दली
रोग्यनिमित्तम् । जीवनं प्राणधारणम्, पुष्टिरवयवोपचयः, बलमुत्साह विशेषः, आरोग्यं रोगाभावः, एषां रसो निमित्तम् । एतच्च सर्वं वैद्यशास्त्रादवगन्तव्यम् । रसनसहकारी । स्वगतो रसो रसनस्य बाह्यरसोपलम्भे सहकारी । मधुराम्ललवणतिक्तकटुकषायभेदभिन्नः । मधुरादिभेदेन भिन्नः षट्प्रकार इत्यर्थः । तस्य च नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयो रूपवत् । यथा रूपं पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगादुत्पत्तिविनाशवत् सलिलपरमाणुषु नित्यं कायें कारणगुणपूर्वकमाश्रमविनाशाद्विनश्यति, तथा रसोऽपि ।
गन्धो घ्राणग्राह्यः । गन्ध एव प्राणग्राह्यो घ्राणग्राह्य एव गन्धः । ननु कथमयं नियमः ? स्वभावनियमात् । ईदृशो गन्धस्य स्वभावो यदयमेव घ्राणेनैकेन गृह्यते नान्यः, दृष्टानुमितानां नियोगप्रतिषेधाभावात् । पृथिवीवृत्तिः ।
में
हैं। रोगों का अभाव ही 'आरोग्य' है । रस इन सबों का कारण है । ये सभी बातें आयुर्वेद से जाननी चाहिए। 'रमन सहकारी' अर्थात् रसनेन्द्रिय रूप द्रव्य में रहने वाला रस रसनेन्द्रिय के द्वारा होनेवाले रस के बाह्य प्रत्यक्ष में सहकारी कारण हैं । 'मधुराम्ललवणकटुकषायादिभेदभिन्नः' अर्थात् मधुरादि भेदों से विभक्त होकर वह छः प्रकार का है । रस के नित्यश्व एवं अनित्यत्व की निष्पत्ति रूप की तरह जाननी चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार से रूप पार्थिव परमाणुओं में अग्निसंयोग से उत्पन्न भी होता हैं और नष्ट भी होता है एवं (रूप ) जलादि परमाणुओं नित्य है और कार्य द्रव्यों में कारण के गुणों से उत्पन्न होता है, एवं आश्रय के विनाश नाश को प्राप्त होता है, उसी प्रकार से रस के प्रसङ्ग में भी व्यवस्था समझनी चाहिए ।
से
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'गन्धो घ्राणग्राह्य : ' ( उक्त गुणों में से ) केवल गन्ध का ही ग्रहण घ्राणेन्द्रिय से होता है, अतः घ्राण से जिस गुण का प्रत्यक्ष हो वही 'गन्ध' है । ( प्र० ) ( गन्ध का ही प्रत्यक्ष घ्राण से होता है ) यह नियम क्यों ? ( उ० ) स्वाभाविक नियम के अनुसार गन्ध का ही यह स्वभाव निर्णीत होता है कि गुणों में से केवल वही घ्राणेन्द्रिय के द्वारा गृहीत होता है कोई और गुण नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा
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२५६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणस्पर्श
प्रशस्तपादभाष्यम् स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवृत्तिस्त्वकसहकारी रूपानुविधायी शीतोष्णनुष्णाशीतभेदात त्रिविधः । अस्यापि नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः पूर्ववत् ।
त्वगिन्द्रिय से गृहीत होनेवाला गुण ही 'स्पर्श' है । यह पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों में रहता है। स्पर्श त्वगिन्द्रिय ( से प्रत्यक्ष के उत्पादन में उसका ) सहायक है। रूप के आश्रयों में वह अवश्य ही रहता है । यह शीत, उष्ण और अनुष्णशीत भेद से तीन प्रकार का है। इसके नित्यत्व और अनित्यत्व की रीति पहिले की तरह जाननी चाहिए।
न्यायकन्दली पृथिव्यामेव वर्तते नान्यत्र । घ्राणसहकारी । स्वगतो गन्धो घ्राणस्य सहकारी। सुरभिरसुरभिश्चेति भेदः । अस्यापि पूर्ववदुत्पत्त्यादयो व्याख्याताः । यथा रसः पार्थिवपरमाणुष्वग्निसंयोगादुत्पत्तिविनाशवान् कार्ये कारणगुणपूर्वक आश्रयविनाशाद्विनश्यति, तथा गन्धोऽपि । नित्यत्वं पुनरस्य नास्त्येव ।
स्पर्शस्त्वगिन्द्रियग्राह्यः । त्वचि स्थितमिन्द्रियं त्वगिन्द्रियम् तेनैव स्पर्शो गृह्यते नान्येन । क्षित्युदमकज्वलनपवनवृत्तिः । एतेष्वेव वृत्तिरेव । त्वकसहकारी। स्पर्शस्त्वगिन्द्रियस्य विषयग्रहणसहकारी । रूपानुविधायी रूपमनुविधातुमनुगन्तु शीलमस्य, यत्र रूपं नियमेन तस्य सद्भावात् । शीतोष्णा
सिद्ध विषयों में नियोग या प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। 'पृथिवीवृत्तिः' अर्थात् गन्ध पृथिवी में ही रहता है और किसी द्रव्य में नहीं। इसके सुरभि ( सुगन्ध ) एवं असुरभि ( दुर्गन्ध ) दो भेद है। 'अस्यापि पूर्ववदुत्पत्त्यादयो व्याख्याता:' अर्थात् जिस प्रकार पार्थिव परमाणुओं के रस की उत्पत्ति और विनाश दोनों ही अग्नि के संयोग से होते हैं एवं कार्य द्रव्यों में वे कारणगत गुणों से उत्पन्न होते हैं, एवं आश्रय के विनाश से विनय होते हैं उसी प्रकार से गन्ध में भी समझना चाहिए । गन्ध नित्य होता ही नहीं।
त्वचा में रहनेवाली इन्द्रिय ही 'स्वगिन्द्रिय' है। स्पर्श का प्रत्यक्ष इसी से होता है, और किसी इन्द्रिय से नहीं। 'क्षित्युदकज्वलनपवनवृत्तिः' अर्थात् पृथिवी, जल तेज और वायु इन चार द्रव्यों में वह रहता है और अवश्य रहता है । 'त्वक्सहकारी' ( त्वगिन्द्रिय में रहनेवाला स्पर्श ) त्वगिन्द्रिय के द्वारा स्पर्श के प्रत्यक्ष में सहायक है। 'रूपानुविधायी' 'रूपमनुविधातु शीलमस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त वाक्य का यह अभिप्राय है कि स्पर्श रूपानुगमनशील है, अर्थात् जहाँ रूप रहता है वहाँ स्पर्श भी अवश्य ही रहता हैं। शीत, उष्ण और अनुष्णाशीत भेद से स्पर्श तीन प्रकार का है।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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२५७
पार्थिवपरमाणुरूपादीनां पाकजोत्पत्तिविधानम् । घटादे - रामद्रव्यस्याग्निना सम्बद्धस्याग्न्यभिघातान्नोदनाद्वा तदारम्भकेष्वणषु पार्थिव परमाणुओं के रूपादि की पाक से उत्पत्ति
( कहते हैं ) । घटादि कच्चे द्रव्यों के उत्पादक परमाणुओं के साथ अग्नि का ( अभिघात या नोदन नाम का ) संयोग होता है। उक्त परमाणुओं के साथ
न्यायकन्दली
नुष्णाशीतभेदात् त्रिविधः । काठिन्यप्रशिथिलादयस्तु संयोगविशेषा न स्पर्शान्तरम्, उभययेन्द्रियग्राह्यत्वात् । अस्यापि नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः पूर्ववदिति । व्यवहितस्य रसस्य ग्रहणं न गन्धस्य, तस्य नित्यत्वाभावात् ।
पार्थिवपरमाणुरूपादीनामुत्पत्तिविनाशनिरूपणार्थमाह- पार्थिवपरमाणुरूपादीनामिति 1 यद्यपि परमाणव एव पृथिवी, तथापि ते कार्यरूपपृथिव्य - पेक्षया पार्थिवा उच्यन्ते । पृथिव्या इमे कारणं परमाणवः पार्थिवपरमाणवः, तेषां ये रूपादयस्तेषां पाकजानामुत्पत्तविधानं प्रकारः कथ्यते । नन्वेवं सति श्यामादिविनाशनिरूपणं न प्रतिज्ञातं स्यात्, नैवम्, यकारशब्देन तस्यावबोधात् । यथा हि रूपादीनां पाकादुत्पत्तिप्रकारः । यत्र पूर्वेषां विनाशादपरेषमुत्पादस्तमेव प्रकारं दर्शयति-घटादेरामद्रव्यस्येत्यादिना आदिशब्देन शरावादयो गृह्यन्ते ।
कठिनता और कोमलता नाम के कोई अतिरिक्त स्पर्श नहीं हैं वे विशेष प्रकार के संयोग ही है, क्योंकि आँख और त्वचा दोनों इन्द्रियों से इनका प्रत्यक्ष होता है । 'अस्यापि नित्यत्वानित्यत्वनिष्पत्तयः पूर्ववत्' इस वाक्य में 'पूर्व' शब्द से ठीक पहिले कहा गया गन्ध अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि गन्ध नित्य है ही नहीं । किन्तु गन्ध से पहिले कहे हुए रस का ग्रहण है ( जो नित्य और अनित्य दोनों प्रकार का होता है ) ।
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'पार्थिवपरमाणुरूपादीनाम्' इत्यादि सन्दर्भ पार्थिव परमाणुओं
।
रूपादि की उत्पत्ति और विनाश का निरूपण करने के लिए है । पृथिवी के परमाणु यद्यपि स्वयं ही पृथिवी है, फिर भी 'पृथिव्या इमे कारणं परमाणवः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार कार्यरूप पृथिवी की अपेक्षा ये परमाणु भी 'पार्थिव' कहलाते हैं पार्थिव परमाणुओं के जो 'रूपादि' अर्थात् पाकजरूपादि उनकी जो उत्पत्ति उसका 'विधान' अर्थात् प्रकार कहते हैं । ( प्र० ) इस प्रकार की व्याख्या में ( कच्चे घटादि के ) श्यामादि रूपों का विनाश प्रतिज्ञा के अन्दर नहीं आवेगा ? ( उ० ) ( उक्त प्रतिज्ञा वाक्य में ) 'प्रकार' शब्द के रहने से ( उस प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा ) रूपादि के विनाश का भी बोध हो जायगा | अर्थात् पाक से रूपादि की उत्पत्ति के जिस प्रकार में रूपादि के विनाश से दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है, वही 'प्रकार' 'घटादेरामद्रव्यस्य' इत्यादि से कहते हैं
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२५८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेरूपादीनां पाकजोत्पत्ति
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्माण्युत्पद्यते तेभ्यो विभागा विभागेभ्यः संयोगविनाशाः संयोगविनाशेभ्यश्च कार्यद्रव्यं विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे स्वतन्त्रेषु परमाणुष्वसंयोगादौष्ण्यापेक्षाच्छयामादीनां विनाशः पुनरन्यस्मादग्निसंयोगादौष्ण्यापेक्षात् पाकजा जायन्ते । अग्नि के उस नोदन या अभिघात से उनमें क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। उन क्रियाओं से परमाणुओं में विभाग होते हैं। इन विभागों से परमाणुओं के परस्पर के सारे संयोग टूट जाते हैं। संयोग के इन विनाशों से घटादि द्रव्यों का विनाश हो जाता है। उनके विनष्ट हो जाने के बाद परस्पर अलग हुए उन परमाणुओं में उष्णता और अग्नि के संयोग से पाकज रूपादि की उत्पत्ति होती है।
न्यायकन्दली आमद्रव्यस्येत्यपक्वद्रव्यस्येत्यर्थः । पाकार्थमग्निना सम्बद्धस्य परमाणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते, आमद्रव्यस्य घटादेः संयोगिनोऽप्युदकपरमाणवः सन्ति, तन्निवृत्त्यर्थमाहतदारम्भकेष्विति । तस्य घटादेरारम्भकेष्वित्यर्थः । घटाद्यारम्भकाश्च परमाणवः पारम्पर्येण कर्मणां कारणमित्याह-अग्न्यभिधातान्नोननाद्वेति । पार्थिवस्य परमाणोरग्निनाभिघातो नोदनं वा संयोगविशेषः, स च कर्माधिकारे वक्ष्यते । तेभ्यो विभागा विभागेभ्यः संयोगविनाशाः संयोगविनाशेभ्यश्च कार्यद्रव्यं विनश्यति, तेभ्यः कर्मभ्यः परमाणनां विभागा विभागेभ्यो द्वयणकलक्षणं कार्यद्रव्यं विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे स्वतन्त्रेषु परमाणुष्वग्निसंयोगादग्नि
(घटादि पद में प्रयुक्त ) 'आदि' शब्द से शराव प्रभृति द्रव्यों को समझना चाहिए । 'आमद्रव्य' का अर्थ है बिना पका हुआ कच्चा द्रव्य । पाक के लिए अग्नि के साथ सम्बद्ध परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न होती हैं, किन्तु घटादि कच्चे द्रव्यों में तो जलादि के परमाणु भी सम्बद्ध हैं, किन्तु उनके परमाणुओं में पाक इष्ट नहीं है, अतः उनको हटाने के लिए 'तदारम्भकेषु' यह वाक्य दिया गया है । 'तस्य' शब्द के 'तत्' शब्द से घटादि द्रव्य अभिप्रेत हैं। उनके आरम्भक अर्थात् उत्पादक परमाणुओं में । 'अग्न्यभिघातान्नोदनाद्वा' इत्यादि से यह कहते हैं कि घटादि के उत्पादक परमाणु भी परम्परा से उक्त क्रिया के कारण हैं । पार्थिव परमाणु के साथ अग्नि का नोदन या अभिघात नाम का संयोग ( होता है ) इसकी बातें आगे कर्मपदार्थ-निरूपण में कहेंगे । 'तेभ्यो विभागः, । विभागेभ्यः संयोगविनाशाः, संयोगविनाशेभ्यश्च कार्यद्रव्यं विनश्यति' अर्थात् उन क्रियाओं से परमाणुओं में विभाग उत्पन्न होते हैं, उन विभागों से संयोगों के नाश उत्पन्न होते हैं, संयोग के उन विनाशों से दूयणुक रूप कार्य द्रब्यों का नाश होता है। तस्मिन् विनष्टे स्वतन्त्रेष्वग्नि
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली गतोष्ण्यापेक्षाच्छ्यामादीनां पूर्वरूपरसगन्धस्पर्शानां विनाशः । पुनरन्यस्मादग्निसंयोगात् पाकजा जायन्ते ।
स्वतन्त्रेषु परमाणुषु पाकजोत्पत्तौ कार्यानवरुद्ध एव द्रव्ये सर्वत्र रूपाद्युत्पत्तिदर्शनं प्रमाणम् । परमाणुरूपादयः कार्यानवरुद्धष्वेव द्रव्येषु भवन्ति, आरभ्यमाणरूपादित्वात्, तन्त्वादिरूपवत् । पूर्वरूपादिविनाशेऽपि रूपान्तरोत्पत्तिः प्रमाणम् । रूपादिमति रूपाद्यन्तरारम्भासम्भवाद् रक्तादिरूपादयो रूपादिमत्सु नारभ्यन्ते रूपादित्वात्, तन्त्वादिरूपादिवत् । एवं परमाणुषु पूर्वरूपादिविनाशे सिद्धे वह्निसंयोग एव विनाशहेतुरवतिष्ठते, तद्भावित्वादन्यस्यासम्भवात् । न च यदेव रूपादीनां विनाशकारणं तदेव तेषामुत्पत्तिकारणमित्यवगन्तव्यम्, तन्तुरूपादीनामन्यत उत्पत्तेरन्यतश्च विनाशदर्शनात् । तेन परमाणुषु रूपादीनामन्यस्मादग्निसंयोगादुत्पत्तिरन्यस्मादग्निसंयोगाद्विनाश इत्यसंयोगादौष्ण्यापेक्षाच्छयामादीनां विनाशः, पुनरन्यस्मादग्निसंयोगादौपण्यापेक्षापाकजा जायन्ते' 'स्वतन्त्र' अर्थात् परस्पर असम्बद्ध परमाणुओं में पाक से विलक्षण रूपादि की उत्पत्ति होती है।
जिस समय द्रव्य दूसरे द्रव्य के उत्पादनकायं से विरत रहता है, उसी समय उसमें गुण की उत्पत्ति होती है। पटरूप कार्य के उत्पादन में लगने से पहिले ही तन्तुओं में रूपादि की उत्पत्ति होती है, अतः यही प्रामाणिक है कि द्वयणुक रूप कार्य में व्याप्त होने से पहिले पार्थिव परमाणुओं में भी रूपादि की उत्पत्ति होती है, क्योंकि ये भी उत्पत्तिशील रूपादि ही हैं। एवं यह भी प्रमाण से सिद्ध है कि एक आश्रय में दूसरे रूपादि की उत्पत्ति तब तक नहीं हो सकती, जब तक उसके पहिले के रूपादि का नाश न हो जाय । अत: यह अनुमान ठीक है कि पाक से रक्त रूपादि की उत्पत्ति रूप से युक्त किसी द्रव्य में नहीं होती है, जैसे कि तन्तु प्रभृति के रूपादि किसी रूपयुक्त द्रव्य में नहीं उत्पन्न होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि परमाणुओं क पहिले रूपादि का नाश हो जाने पर पाक से उनमें दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है । एवं रूप का उक्त नाश भी अग्निसंयोग के रहते ही होता है. एवं नहीं रहने से नहीं होता है, अतः (पाकज रूपादि की उत्पत्ति की तरह उस आश्रय में रहनेवाले अपाकज ) रूपादि के नाश का भी अग्निसंयोग ही कारण है। किन्तु रूप का नाश एवं रूप की उत्पत्ति दोनों एक कारण से सम्भव नहीं हैं, क्योंकि तन्तु प्रभृति के रूपों का नाश एवं उत्पत्ति विभिन्न कारणों से देखे जाते हैं। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि अग्नि के एक संयोग से पहिले के रूपादि का नाश होता है, एवं अग्नि के ही दूसरे संयोग से दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार तन्तु प्रभृति के रूपादि की उत्पत्ति और विनाश दोनों एक सामग्री से इसलिए नहीं होते कि
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२६०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे रूपादीनां पाकजोत्पत्ति
प्रशस्तपादभाष्यम तदनन्तरं भोगिनाम दृशापेक्षादात्माणुसंयोगादुत्पन्नपाकजेष्वणुषु कर्मोत्पत्तौ तेषां परस्पर संयोगाद् द्वयणुकादिक्रमेण कार्यद्रव्यमृत्पद्यते । तत्र च कारणगुणप्रक्रमेण रूपाद्युत्पत्तिः ।
___इसके बाद भोग करनेवाले आत्मा के अदष्ट, एवं आत्मा और परमाणुओं के संयोग इन दोनों से पाकजनित विलक्षण रूपादि से युक्त परमाणुओं में परस्पर संयोग उत्पन्न होते हैं। इन संयोगों से द्वयणुकादि की उत्पत्ति के क्रम से ( घटादि ) स्थूल द्रव्य की उत्पत्ति होती है। फिर इस ( नये ) कार्य-द्रव्य में स्वाभाविक कारणगुण के क्रम से रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है।
न्यायकन्दलो वसीयते । परमाणुरूपादिविनाशोत्पादावेककारणको न भवतः, रूपादिविनाशोत्पादत्वात् तन्तुरूपादिविनाशोत्पादवत् ।
तदनन्तरमित्यादि। उत्पन्नेषु घटादिषु येषां तत्साध्ययोः सुखदुःखयोरनभवो भोगो भविष्यति ते भोगिनः, तेषामदृष्टं धर्माधर्मलक्षणम्, तमपेक्षमाणादात्मपरमाणुसंयोगादुत्पन्नपाकजरूपरसगन्धस्पर्शेषु परमाणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते । तेभ्यस्तेषां परमाणूनां परस्परसंयोगास्ततश्च द्वाभ्यां द्वयणुकं त्रिभिद्वर्यणुकैस्त्र्यणुकमित्यनेन क्रमेण कार्यद्रव्यं घटादिकमुत्पद्यत इति । तत्र च कारणगुणप्रक्रमेण रूपाद्युत्पतिः। परमाणुद्वयरूपाभ्यां द्वयणुके रूपं द्वयणुकरूपेभ्यश्च त्र्यणुकरूपमित्यनेन क्रमेण घटादौ रूपरसगन्धस्पर्शोत्पत्तिः !
वे भी उत्पत्ति और विनाश हैं, उसी प्रकार उसी हेतु से यह भी निष्पन्न होता है कि परमाणुओं के रूपादि की उत्पत्ति और विनाश दोनों ही एक सामग्नी से उत्पन्न नहीं होते ।
'तदनन्तरम्' अर्थात् घटादि द्रव्यों के उत्पन्न हो जाने के बाद उन घटादि द्रव्यों से जिन जीवों को सुख या दुःख का अनुभव रूप 'भोग' होगा, वे ही जोव ( भोगिनाम्' इस पद के ) 'भोगि' शब्द से अभिप्रेत हैं। उन्हीं के अदृष्ट अर्थात् धम और अधर्म एवं आत्मा और परमाणुओं के संयोग इन सबों से पाकज रूपादि से युक्त परमाणुओं में क्रियायें उत्पन्न होती हैं। इन क्रियाओं से उन परमाणुओं में परस्पर संयोग उत्पन्न होते हैं। उक्त संयोग एवं दो परमाणुओं से द्वयणुक, एवं तीन द्वयणुकों से 'त्र्यणुक' इसी क्रम से ( अभिनव ) घटादि द्रव्यों की उत्पत्ति होती है । 'उसमें' अर्थात् द्वथणुक में 'कारणगुणक्रम' से अर्थात् परमाणुओं के (पाकज ) रूपों से (द्वयणुकों में ) रूपों की उत्पत्ति होती है। अर्थात् दोनों परमाणुओं के दोनों रूपों से द्वयणुक में एक रूप की उत्पत्ति होती है। एवं तीन द्वयणुकों के तीनों रूपों से व्यणुक में एक
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प्रकरणम् ]
२६१.
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दलो
सङ्घयादीनां न पाकजत्वं तेषामविलक्षणत्वात् । ननु स्पर्शस्यापि वैलक्षण्यं न दृश्यते, सत्यम्, तथाप्यस्य पाकजत्वमनुमानात् । तच्च पृथिव्यधिकारे दर्शितम् । पाकजोत्पत्त्यनन्तरं परमाणषु क्रिया, न तु श्यामादिनिवृत्तिसमकालमेवेति रूपादिमत्येव द्रव्ये रूपादिमत्कार्यद्रव्यारम्भहेतुभूतक्रियादर्शनाद् दृश्यते । परमाणुक्रिया रूपादिमत्येव जायते रूपादिमत्कार्यारम्भहेतुभूतक्रियात्वात् पटारम्भकसंयोगोत्पादकतन्तुक्रियावत् ।
अथ कथं कार्यद्रव्ये एव रूपादीनामग्निसंयोगादुत्पादविनाशौ न कल्प्येते ? प्रतीयन्ते हि पाकार्थमुपक्षिप्ता घटादयः सर्वावस्थासु प्रत्यक्षाश्छिद्रविनिवेशितदृशा, प्रत्यभिज्ञायन्ते च पाकोत्तरकालमपि त एवामी घटादय इति, तत्राह .... न चेति । उपपत्तिमाह-सर्वावयवेष्विति । अन्तर्वहिश्च
रूप की उत्पत्ति होती है। इसी ( कारणगुणपूर्वक ) क्रम से घटादि स्थूल द्रव्यों में भी (पाकज ) रूप, रस गन्ध एवं स्पर्श की उत्पत्ति होती है। ( पके हुए घटादि में भी) संख्यादि गुणों की उत्पत्ति पाक से नहीं होती हैं, क्योंकि पाक के बाद भी संख्यादि गुणों में कोई अन्तर नहीं दीखता है। ( प्र०) स्पर्श में भी तो पाक के बाद कोई अन्तर नहीं दीखता है ? ( उ० ) हाँ, फिर भी पृथिवी निरूपण में इस अनुमान को दिखा चुके हैं, जिसके द्वारा पके हुए द्रव्यों के स्पर्शों में पाकजन्यत्व की सिद्धि होती है। जिस क्रिया के द्वारा रूपादि से युक्त द्रव्य की उत्पत्ति होती है वह क्रिया रूपादि से युक्त द्रव्यों में ही देखी जाती है, अतः यह समझना चाहिए कि पार्थिव परमाणुओं में पाक से रूपादि की उत्पत्ति के बाद ही उसमें (पके हुए द्वयणुक को उत्पन्न करनेवाली ) क्रिया उत्पन्न होती है, श्यामादि रूपों के नाशक्षण में नहीं। इस प्रकार यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार पट के कारणीभूत तन्तुओं के संयोग को उत्पन्न करने वाली क्रिया रूप से युक्त तन्तुओं में ही देखी जाती है, क्योंकि वह क्रिया ( तन्तुसंयोग के द्वारा ) रूप से युक्त पट स्वरूप द्रव्य का उत्पादक है, उसी प्रकार रूप से युक्त द्वथणुक. स्वरूप द्रव्य के उत्पादक दोनों परमाणुओं की क्रिया भी रूप से युक्त परमाणुओं में ही उत्पन्न होती है।
(प्र०) घटादि कार्य द्रव्यों में ही अग्निसंयोग से रूपादि का विनाश एवं उत्पत्ति क्यों नहीं मान लेते ? क्योंकि भट्ठी में पकने के लिए दिये गये घटादि का तीनों अवस्थाओं में प्रत्यक्ष होता है। एवं भट्टी के किसी छेद से झाँकनेवाले को यह वही घट है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा भी होती है। इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'न च' इत्यादि. वाक्य लिखते हैं। 'सर्वावयवेषु' इत्यादि वाक्य से उक्त आक्षेप के खण्डन की ही युक्ति का प्रतिपादन करते हैं। अभिप्राय यह है कि भीतर और बाहर के सभी
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेरूपादीनां पाकजोत्पत्ति
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न च कार्यद्रव्य एव रूपाद्युत्पत्तिर्विनाशो वा सम्भवति, सर्वावयवेष्वन्तबहिश्च वर्त्तमानस्याग्निना व्याप्त्यभावात । अणुप्रवेशादपि च व्याप्तिनं सम्भवति, कार्यद्रव्यविनाशादिति ।
उस ( कच्चे स्थूल घटादि ) द्रव्यों में ही ( अग्निसंयोग से पाकज) रूपादि की उत्पत्ति या ( नीलादि पहिले ) रूपादि का विनाश नहीं हो सकता, क्योंकि बाहर और भीतर के सभी अवयव केवल बाहर में विद्यमाम अग्नि के संयोग से व्याप्त नहीं हो सकते । ( अग्नि के ) परमाणुओं से भी उक्त व्याप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसके मानने पर भी कार्य द्रव्य का नाश मानना ही पड़ेगा ।
?
न्यायकन्दली
सर्वेष्ववययेषु वर्त्तमानस्य समवेतस्यावयविनो बाह्ये वर्त्तमानेन वह्निना व्याप्तेर्थ्यापकस्य संयोगस्याभावात् कार्यरूपादीनामुत्पत्तिविनाशयोरक्लृप्तेरन्तर्बत्तिनामपाक प्रसङ्गादिति भावः । सच्छिद्राण्येवावयविद्रव्याणि । तत्र यदि नाम महतस्तेजोऽवयविनो नान्तःप्रवेशोऽस्ति तत्परमाणूनां ततो व्याप्तिर्भविष्यति ? तत्राह - अणुप्रवेशादपीति । न तावत्परमाणवः सान्तराः, निर्भागत्वात् । द्व्यणुकस्य सान्तरत्वे चानुत्पत्तिरेव तस्य परमाण्वोरसंयोगात् । संयुक्तौ चेदिमौ निरन्तरावेव | सभागयोहि
अवयवों में 'वर्तमान' अर्थात् समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले अवयवी में केवल बाहर रहनेवाले वह्नि की 'व्याप्ति' अर्थात् व्या कसंयोग ( बाहर और भीतर सभी अवयवों के साथ संयोग ) नहीं हो सकता । एवं कार्यद्रव्यों के रूपादि की उत्पत्ति और विनाश भी ( बिना कारण के ) नहीं हो सकते ( अतः आक्षेप करनेवाले के पक्ष में कथित व्यापकसंयोग रूप कारण के अभाव से ) भीतर के अवयवों में पाक ही उत्पन्न नहीं होगा ( फलतः भीतर की तरफ घटादि कच्चे ही रह जाएँगे ) | ( प्र० ) जितने भी अवयवो रूप द्रव्य हैं सभी छोटे छोटे छिद्रों से युक्त हैं, उन छोटे छिद्रों के द्वारा यद्यपि बड़े तेज - द्रव्य का प्रवेश सम्भव नहीं है, फिर भी तेज के परमाणुओं का प्रवेश उन छोटे छिद्रों से भी हो सकता है । इस प्रकार घट का विनाश न मानने पर भी ( अवयवी के बाहर और भीतर पाक का प्रयोजक ) कथित व्यापक वह्निसंयोग की उपपत्ति हो सकती है । इसी आक्षेप के समाधान में 'अणुप्रवेशादपि' इत्यादि वाक्य लिखते हैं । अभिप्राय यह है कि परमाणुओं के तो अंश हैं नहीं, जिससे कि वे छिद्रयुक्त होंगे ? द्वयणुकों को अगर छिद्र युक्त मानें तो फिर उनकी उत्पत्ति ही सम्भव नहीं
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२१३ न्यायकन्दली वस्तुनोः केनचिदंशेन संयोगात् केनचिदसंयोगात् सान्तरः संयोगः । निर्भागयोस्तु नायं विधिरवकल्पते। स्थूलद्रव्येषु प्रतीयमानेष्वन्तरं न प्रतिभात्येव, त्र्यणुकेष्वेवान्तरम्, तच्चानुपलब्धियोग्यत्वान्न प्रतीयत इति गुर्वोयं कल्पना। तस्मानिरन्तरा एव घटादयः। तेषामन्तस्तावदग्निपरमाणूनां प्रवेशो नास्ति यावत्पार्थिवावयवानां व्यतिभेदो न स्यात् । स्पर्शवति द्रव्ये तथाभूतस्य द्रव्यान्तरस्य प्रतीघाताद् व्यतिभिद्यमानेषु चावयवेषु क्रियाविभागादिन्यायेन द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशादवश्यं द्रव्यविनाश इति कुतस्तस्याणुप्रवेशादभिव्यक्तिः । न च कार्यद्रव्येष्वाश्रयविनाशादन्यतो रूपादीनां विनाशः कारणगुणेभ्यश्चान्यत उत्पादो दृष्टः, तेनादि घटवह्निसंयोगाद्रूपादीनामुत्पत्तिविनाशौ न कल्प्येते ।
घटरूपादय आश्रयविनाशादेव नश्यन्ति कार्यद्रव्यगतरूपरसगन्धस्पर्शत्वाद् मुद्गराभिहतनष्टघटरूपादिवत् । तथा घटरूपादयः कारणगुणेभ्य
होगी, क्योंकि दो परमाणुओं में इस प्रकार का संयोग असम्भव है (जिससे छिद्र युक्त द्वयणुक की उत्पत्ति सम्भव हो) क्योंकि दोनों परमाणु अगर संयुक्त हैं तो फिर उनमें अन्तर नहीं हो सकता। अनुयोी और प्रतियोगी के किसी अंश में संयोग एवं किसी अंश में असंयोग से ही अन्तरयुक्त संयोग होता है, निरंश परमाणुओं में उक्त संयोग की सम्भावना नहीं है। एवं प्रतीत होनेवाले स्थूल द्रव्यों में छिद्र देखा भी नहीं जाता। अब केवल एक कल्पना बच जाती है कि केवल यसरेणु रूप अवयवी में ही छिद्र है, किन्तु अतीन्द्रिय होने के कारण उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है, किन्तु इस कल्पना में बहुत ही गौरव है। अत: घटादिद्रव्य छिद्रों से युक्त नहीं हैं। उनके भीतर अग्नि के परमाणुओं का प्रवेश तब तक सम्भव नहीं है, जब तक उनके अवयव विभक्त न हों जांय । स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य में जब स्पर्श से युक्त किसी दूसरे द्रव्य का प्रतिघात होता है, तब उसके अवयव अवश्य ही विभक्त हो जाते हैं। फिर 'क्रिया से विभाग, विभाग से आरम्भक संयोग का नाश' इस रीति से आरम्भक संयोग के नाश के द्वारा अवयवी द्रव्य का भी नाश अवश्य ही होगा फिर अणुप्रवेश के बाद अग्नि के व्यापकसंयोग की उत्पत्ति कैसे होगी ? एवं कार्यद्रव्यों के रूपादि का नाश आश्रयनाश को छोड़कर और किसी कारण से नहीं देखा जाता है, इसी प्रकार कार्यद्रव्य के रूपादि की उत्पत्ति भी कारणों में रहनेवाले रूपादि से भिन्न किसी और कारण से नहीं देखी जाती है। इन सभी युक्तियों से भी घटादि कार्यद्रव्यों के रूपादि की उत्पत्ति घटादि कार्यद्रव्य और वह्नि के संयोग से कल्पित नहीं हो सकती ।
इस प्रकार यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार घटादिद्रव्यों के रूप रस, गन्ध एवं स्पर्श मुद्गरादि के प्रहार से उत्पन्न होते हैं, एवं घटादि कार्यद्रव्यों के नाश से ही नष्ट होते हैं, क्योंकि वे भी कार्यद्रव्य के रूपादि हैं, उसी प्रकार सभी कार्यद्रव्यों के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणरूपादीनां पाकजोत्पत्ति
न्यायकन्दली
एव
जायन्ते कार्यद्रव्यगतरूपादित्वात्
पटगतरूपादिवत् । किञ्च,
न च
पूर्वमवयवानां प्रशिथिलता आसीदिदानीं काठिन्यमुपलभ्यते, नोदनाभिघातयोरिव freeकाठिन्ययोरेकत्र समावेशो युक्तः, परस्परविरोधात् । तस्मात् पूर्वव्यूहनिवृत्तौ व्यूहान्तरमेतदुपजातम् । तथा सति प्राक्तनद्रव्यविनाशः कारणविनाशात्, द्रव्यान्तरस्योत्पादः कारणसद्भावादेवेत्यवतिष्ठते । प्रत्यभिज्ञानं च ज्वालादिवत् सामान्यविषयम् । सर्वावस्थोपलब्धिरपि कार्यस्य विनश्यतोऽपि क्रमेण विनाशात् । नहि घटः परमाणुसञ्चयारब्धो येन विभक्तेषु परमाणुषु सहसैव विनश्येत्, किन्तु द्रयणुकादिप्रक्रमेणारब्धः । तस्य द्वयणुकत्र्यणुकाद्यसङ्घयेयद्रव्यविनाशात्परम्परया चिरेण विनश्यतो यावदविनाशस्तावदुपलब्धिरस्त्येव । एकतश्च पूर्वेऽवयवा विनश्यन्ति, अन्यतश्चोत्पन्नपाकजैरणुभिरपूर्वे तत्स्थाने एवं द्वयणुकादिप्रक्रमेणारभ्यन्ते, तेन रूपादि अपने आश्रयों के नाश से ही नष्ट होते हैं । एवं जिस प्रकार पटस्वरूप कार्यद्रव्य के रूपादि अपने कारणीभूत तन्तुओं के रूपादि से ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार घटादि सभी कार्यद्रव्यों के रूपादि अपने कारणीभूत द्रव्यों के रूपादि से ही उत्पन्न होते हैं । और भी बात है कि पाक से पहिले घटादि में रहनेवाला प्रशिथिल संयोग, एवं पाक के बाद होनेवाला कठिन संयोग दोनों परस्पर विरोधी हैं, नोदनसंयोग एवं अभिघात संयोग इन दोनों की तरह वे परसर अविरोधी नहीं हैं, अतः एक घट में पाक से पहिले का प्रशिथिल संयोग एवं पीछे का कठिन संयोग ये दोनों नहीं रह सकते । अतः यही मानना पड़ेगा कि पहिले 'व्यूह' अर्थात् अवयवों के संयोग का नाश हो जाने पर अवयवों के दूसरे व्यूह ( संयोग ) की उत्पत्ति होती है । फलतः पहिले अवयवी का नाश हो गया; क्योंकि उसके कारण अवयवों के संयोग ( पूर्वव्यूह ) का नाश हो गया है। दूसरे अवयवी की उत्पत्ति होती है, क्योंकि कारणीभूत दूसरे व्यूह ( अवयवसंयोग ) की सत्ता है । पकने के बाद भी 'यह वही घट हैं। इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा तो दोनों में अत्यन्त सादृश्य के कारण होती है जैसे कि दीपादि की ज्वालाओं में इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञायें होती हैं । घटादि की सभी अवस्थाओं की उक्त उपलब्धि में यह युक्ति है कि ( पाक से ) घटादि द्रव्यों का विनाश क्रमशः होता है । परमाणुओं के समूहों से ही तो घट उत्पन्न होते नहीं कि उनमें परस्पर विभागों के उत्पन्न होते ही उनका सहसा नाश हो जाय । द्वघणुकादि क्रम से उनकी उत्पत्ति होती है, अतः द्वणुक यसरेणु प्रभृति के नाश की असंख्य परम्परा से बहुत समय के बाद घटादि का नाश भी होगा, अतः जितने समय तक उनका नाश नहीं हो जाता उतने समय तक उनकी उपलब्धि होना उचित ही है । पहिले के अवयव नष्ट होते हैं एवं अग्नि के ही दूसरे संयोग से रूपादि से युक्त अवयवों से
अग्नि के एक संयोग से उसी स्थान पर पाकज
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली पक्वापक्वावयवदर्शनम् । यदा चान्यावयवानां नाशात्पूर्वावयविनो विनश्यत्ता तदैवापूर्वावयवानामुत्पादात् क्षणान्तरे पूर्वावयविविनाशेऽवयव्यन्तरस्य चोत्पाद इत्याधाराधेयभावोऽवधारणं च स्यात्, यावन्तः पूर्वस्यावयवास्तावन्त एवोत्तरस्यारम्भकाः ( इति ) तत्परिमाणत्वं तत्सङ्ख्यात्वं चोपपद्यते ।
प्रक्रिया तु द्वयणुकस्य विनाशः, त्र्यणुकस्य विनश्यत्ता, श्यामादीनां विनश्यत्ता, सकिये परमाणौ विभागजविभागस्योत्पद्यमानता, रक्ताद्युत्पादकस्याग्निसंयोगस्योत्पद्यमानतेत्येकः कालः । ततस्त्र्यणुकविनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, श्यामादीनां विनाशः, विभागजविभागस्योत्पादः, संयोगस्य विनश्यत्ता, रक्ताद्युत्पादकाग्निसंयोगोत्पादः, रक्तादीनामुत्पद्यमानता, श्यामादिनिवर्तकाग्निसंयोगस्य विनश्यत्तेत्येकः कालः । ततस्तत्कार्यविनाशः, तत्कार्यविनश्यत्ता, उत्तरस्य संयोगस्योत्पाद्यमानता,
नवीन अवयवी की सृष्टि होती जाती है, अत: पके हुए एवं बिना पके हुए दोनों प्रकार के अवयव देखने में आते हैं। जिस समय कुछ अवयवों के विमाश से पहिले के अवयवी के विनाश की सम्भावना होती है, उसी समय अपूर्व अवयवों की उत्पत्ति भी होती है। इसके बाद दूसरे क्षण में पहिले अवयवी का नाश एवं दूसरे अवयवी की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार आधार आधेयभाव और नियम दोनों की ही उपपत्ति होती है। जितने ही अवयव पहिले अवयवी के उत्पादक थे उतने ही अवयव नवीन अवयवी के भी उत्पादक हैं, अतः दूसरे अवयवी में पहिले अवयवी के समान ही संख्या एवं परिमाण का भी सम्बन्ध ठीक बैठता है।
(पाकज रूपादि की उत्पत्ति की) रीति यह है कि (१) परमाणुओं में अग्नि के नोदन या अभिघात संयोग से परमाणुओं के विभक्त हो जाने से द्वथणुक के उत्पादक परमाणुओं के संयोग नष्ट हो जाते हैं। उसके बाद द्वथणुकों का नाश, व्यसरेणु के विनाश की सम्भावना, श्याम रूपादि के विनाश की सम्भावना, क्रिया से युक्त परमाणुओं में विभागजविभाग की उत्पत्ति की सम्भावना, रक्तरूपादि के उत्पादक अग्नि के संयोग की उत्पत्ति की सम्भावना, ये पांच काम एक समय में होते हैं। (२) उसके बाद एक ही समय में व्यसरेणु का विनाश, त्र्यसरेणु से बननेवाले अवयवों के नाश की सम्भावना, श्याम रूपादि का विनाश, विभागजविभाग की उत्पत्ति, संयोग के विनाश की सम्भावना, रक्त रूपादि के उत्पादक अग्निसंयोग की उत्पत्ति, रक्त रूपादि की उत्पत्ति की सम्भावना, श्यामरूपादि का नाश एवं अग्निसंयोग के विनाश की सम्भावना ये आठ काम होते हैं। (३) इसके बाद यसरेणु से उत्पन्न द्रव्य का विनाश, इस द्रव्य से उत्पन्न द्रव्य के विनाश की सम्भावना, उत्तरदेशसंयोग के उत्पत्ति की सम्भावना,
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ग्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे रूपादीनां पाकजोत्पत्ति
न्यायकन्दली रक्तादीनामुत्पादः, श्यामाधुच्छेदकाग्निसंयोगस्य विनाशः, द्वितीयपरमाणौ द्रव्यारम्भकक्रियाया उत्पद्यमानतेत्येकः कालः। ततस्तत्कार्यस्य विनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, उत्तरसंयोगस्योत्पादः, क्रियाविभागविभागजविभागानां विनश्यत्ता, द्वितीयपरमाणौ क्रियाया उत्पादः, विभागस्योत्पद्यमानतेत्येकः कालः । ततस्तत्कार्यस्य विनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, क्रियाविभागविभागजविभागानां विनाशः, द्वितीयपरमाण्वाकाशाविभागस्योत्पादः, तत्संयोगस्य विनश्यत्तेत्येकः कालः। ततस्तत्कार्यस्य विनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, परमाण्वाकाशसंयोगविनाशः, उत्तरसंयोगस्योत्पद्यमानतेत्येकः कालः। ततस्तत्कार्यस्य विनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, परमाणोः परमाण्वन्तरेण सहोत्तरसंयोगोत्पादः, द्वय णुकस्योत्पद्यमानता, विभागकर्मणोविनश्यत्तेत्येकः कालः । ततस्तत्कार्यस्य विनाशः, तत्कार्यस्य विनश्यत्ता, द्वयणुकस्योत्पादः, तद्गतानां रूपादीनामुत्पद्यमानता, विभागकर्मणोविनाशः, ततः क्षणान्तरे कारणगुणप्रक्रमेण द्वयणुके गुणान्तरोत्पादः । एवं सर्वत्र द्वयणुकेषु कल्पना।
त्र्यणुकाद्युत्पत्तौ तु कर्म न चिन्तनीयम्, युगपद् बहूनां परमाणूनां रक्तरूपादि की उत्पत्ति, श्यामरूपादि के नाशक अग्नि के संयोग का विनाश, दूसरे (पके हुए ) परमाणुओं में द्रव्य को उत्पन्न करनेवाली क्रिया को सम्भावना ये पाँच काम एक समय में होते हैं । (४) इसके बाद व्यसरेणुजनित द्रव्य से उत्पन्न कार्यद्रव्य का विनाश, एवं इस कार्यद्रव्य से उत्पन्न द्रव्य के विनाश की सम्भावना, क्रिया और विभागजविभागों का विनाश, द्वितीय परमाणु के आकाश के साथ विभाग की उत्पत्ति, द्वितीय परमाणु एवं आकाश के पहिले संयोग के विनाश की सम्भावना ये छ: काम एक समय में होते हैं। (५) इसके बाद प्रकृत कार्य का नाश होता है। इससे विनष्ट कार्यद्रव्य से उत्पन्न द्रव्य के विनाश की सम्भावना, एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ उत्तरसंयोग की उत्पत्ति, (पके हुए) द्वयणक की उत्पत्ति की सम्भावना, एवं विभाग और क्रिया के विनाश की सम्भावना ये छ: काम एक समय में होते हैं। (६) इसके बाद ( उक्त सम्भावित विनाश के प्रतियोगी) कार्यद्रव्य का विनाश, एवं इस कार्यद्रव्य से उत्पन्न कार्यद्रव्य के विनाश की सम्भावना, ( पके हुए ) द्वथणुक की उत्पत्ति, द्वयणुक में उत्पन्न होनेवाले ( रक्त) रूपादि गुणों की उत्पत्ति की सम्भावना, विभाग एवं क्रिया का विनाश ये छ: काम एक समय में होते हैं। इसके बाद अगले क्षण में दूसरे रक्त रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार नवीन घटादि के प्रयोजकीभूत और द्वषणुकों में भी कल्पना करनी चाहिए ।
यसरेणु की उत्पत्ति में क्रिया की चिन्ता अनावश्यक है, क्योंकि बहुत से परमा
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
२६७
प्रशस्तपादभाष्यम् एकादिव्यवहारहेतुः संख्या 'यह एक है, ये दो हैं' इत्यादि व्यवहारों का कारण ही 'संख्या' है।
न्यायकन्दली संयोगादुत्पन्नेषु द्वयणुकान्तरकारणस्य परमाणोद्वर्यणुकान्तरकारणेन परमाणुना सह संयोगाद् द्वयणुकस्य द्वयणुकान्तरकारणपरमाणुना संयोगः, ततोऽपि द्वयणुकयोः संयोग इत्यनेन क्रमेण संयोगजसंयोगेभ्य एतेषामुत्पादात् । एवं यथोपदेशं यथाप्रज्ञं च व्याख्यातमस्माभिः ।
सिद्धेऽपि सङ्ख्यास्वरूपे ये केचिदत्यन्तदर्दर्शनाभ्यासतिरोहितबुद्धयो विप्रतिपद्यन्ते तान् प्रत्याह-एकादीति । व्यवहतिर्व्यवहारो ज्ञेयज्ञानं व्यवह्रियतेऽनेनेति व्यवहारः शब्दः, एकादिव्यवहार एकं द्वे त्रीणीत्यादिप्रत्ययः शब्दश्च, तयोर्हेतुः सङ्खयेति । एक द्वे त्रीणीत्यादिप्रत्ययो विशेषणकृतो विशिष्टप्रत्ययत्वाद् दण्डीतिप्रत्ययवत् । एवं शब्दमपि पक्षीकृत्य विशिष्टप्रत्ययत्वादिति हेतुरवगन्तव्यः । णुओं के संयोग से द्वथणुकों की उत्पत्ति हो जाने पर दूसरे द्रघणुक के कारणीभूत परमाणु का तीसरे द्वयणुक के कारणीभूत परमाणु के साथ भी संयोग होगा। इस संयोग से एक द्वयणुक का दूसरे द्वयणुक के कारणीभूत परमाणु के साथ भी संयोग होगा । परमाणु एवं द्वथणुक के इस संयोग से इस परमाणु के कार्यरूप द्वथणुक एवं पहिले के द्वयणुक इन दोनों में संयोगजसंयोग होगा। इन द्वथणुकों के संयोगजसंयोग के द्वारा भी यसरेणु की उत्पत्ति हो सकती है । इस विषय में हमलोगों की जैसी शिक्षा है और जितनी बुद्धि हैं, तदनुसार व्याख्या लिखी है ।
___ संख्या को यद्यपि सभी लोग जानते हैं फिर भी अत्यन्त दुष्ट दर्शनों के अभ्यास से जिनकी बुद्धि मारी गयी है, वे इसमें भी विवाद ठानते हैं अतः उनको समझाने के लिए ही 'एकादि' इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं । 'व्यवहृतिर्व्यवहारः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'व्यवहार' शब्द का अर्थ ज्ञान है । एवं 'व्यवह्रियते अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसी का शब्दप्रयोग अर्थ भी है। (तदनुसार ) 'एकादिव्यवहारः' अर्थात् एक, दो, तीन इत्यादि की प्रतीतियां एवं एक, दो, तीन इत्यादि शब्दों के प्रयोग इन दोनों की हेतु ही 'संख्या' है । (प्रतीति की हेतुता संख्या में इस प्रकार है कि ) जैसे कि 'दण्डी पुरुषः' इस विशिष्ट प्रतीति के प्रति दण्ड केवल इसीलिए कारण है कि वह भी विशिष्ट प्रतीति ( अर्थात् विशेषण से युक्त विशेष्य की प्रतीति ) है, वैसे ही 'यह एक है, ये दो हैं ये तीन हैं' इत्यादि प्रतीतियाँ भी विशिष्ट प्रतीति होने के कारण ही एकत्वादि संख्या रूप विशेषणों से उत्पन्न होती है। इसी प्रकार शब्द को पक्ष बनाकर विशिष्ट शब्दत्व
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
२६८
[गुणे संख्यान्यायकन्दली नन्वयं प्रत्ययो रूपादिविषयः ? न, तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् । रूपनिमित्तो हि प्रत्ययो नीलं पीतमित्येवं स्यान्न त्वेकं द्वे इत्यादि। अस्तु तहि निविषयो रूपादिव्यतिरिक्तस्यार्थस्याभावात् । कुतोऽस्मिन्नेकद्वित्रीणीत्याद्याकारो जातः ? आलयविज्ञानप्रतिबद्धवासनापरिपाकादिति चेत् ? नीलाद्याकारोऽपि तत एवास्तु, नहि ज्ञानारूढस्य तस्य सङ्ख्याकारस्य वा कश्चिदनुभवकृतो विशेषो येनकोऽर्थजोऽनर्थजश्चापर इति प्रतिपद्यामहे । अथायं विशेषोऽयमभ्रान्तो नीलाकारः, सङ्ख्याकारस्तु विप्लुत इति । तदसारम्, नीलाकारस्याप्यत्राभ्रान्तत्वे प्रमाणाभावात् । न तावत् क्वचिदस्यास्ति संवादः, तदेकज्ञाननियतत्वात् क्षणिकत्वाच्च । अत एव नार्थक्रियापि । न च प्रत्येक सर्वज्ञानेषु स्वाकारमात्रसमाहितेषु पूर्वापरज्ञानवर्तिनामाकाराणां सादृश्यप्रतिपत्तिको संख्या का साधक हेतु समझना चाहिए।
(प्र. ) ये ( 'एकः, द्वौ' इत्यादि ) प्रतीतियाँ तो रूपादि विषयक हैं ? ( उ० रूपादि विषयक प्रतीतियाँ 'यह नील है, यह पोत है' इत्यादि आकारों की होती है. 'एकः द्वौ' इत्यादि प्रतीतियाँ उनसे भिन्न आकार की हैं। अतः ये रूपादि विषयक नहीं हैं। (प्र.) ( प्रत्यक्ष से दीखने वाले) रूपादि पदार्थों से भिन्न किसी वस्तु की सत्ता नहीं है । अतः 'एकः द्वौ' इत्यादि प्रतीतियाँ ( अगर रूपादि विषयक नहीं हैं तो फिर ; बिना विषय के ही (निविषयक) ही मानी जायँ ? (उ०) तो फिर इस प्रताति में 'एकः द्वौ' इत्यादि आकार किससे उत्पन्न होते हैं। (प्र०) आलय विज्ञान में नियत रूप से सम्बद्ध वासना के परिपाक से ही (उक्त आकार उत्पन्न होते हैं) (उ.) इस प्रकार तो नीलाकार पीताकारादि ज्ञान भी उस वासना से ही उत्पन्न होंगे (फलतः निर्विषयक होंगे), क्योंकि ज्ञानों में सम्बद्ध संख्या के आकारों में एवं नीलादि के आकारों में कोई अन्तर नहीं है। अतः नीलादि विषयक प्रतीतियों को अर्थ (नीलादि) जन्य माने एवं संख्या विषयक प्रतीति को अनर्थ (केवल वासना) जन्य मानें इसमें काई विशेष युक्ति नहीं है। (प्र०) यही दोनों में अन्तर है कि नीलादि आकार अभ्रान्त हैं और संख्यादि आकार भ्रान्त हैं । (उ०) यह समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि नीलादि आकार अभ्रान्त हैं। एवं प्रत्येक आकार क्षणिक है, अत: एक आकार नियमतः एक ही ज्ञान से गृहीत हो सकता है। सुतराम् नीलादि आकारों की अभ्रान्तता किसी प्रमाण से निश्चित नहीं हो सकती । प्रत्येक ज्ञान क्षणिक होने के कारण अर्थक्रियाकारी (कार्यजनक) होने पर भी नीलाकारादि का
१. अर्थात् जिस प्रकार 'दण्डी पुरुषः' विशेष प्रकार के इस शब्द के प्रयोग में दण्ड कारण है उसी प्रकार एकः द्वौ, त्रीणि' इत्यादि प्रयोगों का भी कोई कारण अवश्य है । वही है संख्या।
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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रस्ति, येन तत्सदृशाकार प्रवाहोपलब्धिनिबन्धनः संवादो व्यवस्थाप्येत, नापि सदृशाकारोपलम्भ एव सर्वत्र, विलक्षणाकारोपलम्भस्यापि क्वचिद् भावात् । न चार्थजत्वादेव नीलाकारस्याभ्रान्तत्वसिद्धिः, अर्थस्याप्रतीतौ तज्जन्यत्वविनिश्चयायोगात्, अन्यतश्च प्रमाणादर्थप्रतीतावाका रकल्पना वैयर्थ्यात्, आकारसंवेदना देवार्थसिद्धयभ्युपगमे वा अभ्रान्ताकारसंवेदनादर्थसिद्धिः सिद्धे चार्थे तज्जन्यत्व विनिश्चयादाकारस्याभ्रान्तत्वसिद्धिरित्यन्योन्यापेक्षित्वम् । अबाधितत्वं च नीलाकारवज्ज्ञानारूढस्य सङ्ख्याकारस्याप्यस्ति, अर्थगतत्वेन च बाधाया असम्भवो नीलादिष्वपि दुरधिगमः, तेषां स्वरूपविप्रकृष्टत्वात् । तस्मादाकारमात्र संवेदनमेव सर्वत्र, न चेदेकत्राऽनर्थजोऽन्यत्रापि तथैवेति न नीलादिसिद्धिः ।
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२६६
"
अभ्रान्तता का ज्ञापक प्रमाण नहीं हो सकता । ( प्र०) नीलादि आकारों के समूह (प्रवाह) का प्रत्येक आकार परस्पर भिन्न होते हुए भी सभी एक से हैं । इस सादृश्य के ज्ञान से इस 'संवाद' का निश्चय होगा, अर्थात् यह निश्चय होगा कि अत्यन्त सदृश ये सभी ज्ञान अभ्रान्त नीलाकारादि से अभिन्न ज्ञानसमूह के हैं । इस संवाद निश्चय से सभी आकारों में अभ्रान्तत्व का निश्चय होगा । ( उ० ) ( इस पक्ष के खण्डन में प्रथम युक्ति यह है कि ) ( १ ) प्रत्येक आकार अपने विलक्षण ज्ञान से ही गृहीत होता है, अतः आकार के समूहों में परस्पर सादृश्य का ग्रहण ही असम्भव है । ( २ ) यह बात भी नहीं कि सभी आकार सदृश ही उत्पन्न हों, क्योंकि कहीं कहीं एक ही वस्तु विभिन्न आकारों से भी गृहीत होती है । ( ३ ) यह कहना भी सम्भव नहीं है कि चूँकि नीलादि आकार 'अर्थ' से उत्पन्न होते हैं, अतः वे अभ्रान्त हैं, क्योंकि अर्थनिश्चय के बिना अर्थजन्यत्व का निश्चय सम्भव नहीं है । यदि अर्थ का निश्चय किसी और ही प्रमाण से मान लें तो फिर आकार की कल्पना व्यर्थ हो जाती है । अगर आकार के ही अभ्रान्त ज्ञान से अर्थ का निश्चय मानें तो अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य होगा, क्योंकि आकार के अभ्रान्त ज्ञान से अर्थ की सिद्धि होगी, एवं इसकी सिद्धि हो जाने पर आकार ज्ञान के अर्थजन्य होने के कारण उस में अभ्रान्तत्व को सिद्धि होगी । (यदि आकार की अबाधित प्रतीति को ही नीलादि अर्थों का साधक माने तो फिर ) वह जिस प्रकार नीलादि आकार के विज्ञानों में है, वैसे ही संख्या विज्ञान के आकार मे भी है हो । ( एवं बोद्धों के मत से ) नीलादि आकारों के बाधित न होने से भी उनकी सत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती, क्योंकि नीलादि आकारों की वस्तुतः सत्ता न रहने के कारण नीलादि आकारो के बाधित न होने की प्रतीति ही असम्भव है । अतः सभी जगह केवल आकार का ही ज्ञान होता है, है तो और ज्ञान भी बिना अर्थ के के आक्षेपों से नीलादि आकारों की
उन ज्ञानों में अगर एक बिना अर्थ के ही होता ही हो सकते हैं । संख्या के सम्बन्ध में इस प्रकार सिद्धि भी सङ्कट में पड़ जायगी । (प्र० ) यदि
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२७.
न्यायकन्दलीसंवलिंतप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेसंख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च। तत्रैकद्रव्याया: सलिलादिपरमाणु रूपादोनामिव
नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परान्तिा।
वह एकद्रव्या ( एकद्रव्य मात्र में रहनेवाली ) एवं अनेकद्रव्या ( अनेक द्रव्यों में ही रहने वाली ) भेद से दो प्रकार की है। इनमें एकद्रव्या संख्या के नित्यत्व और अनित्यत्व का निर्णय परमाणुरूप जल एवं कार्यरूप जल के रूपादि की तरह है। अनेकद्रव्या संख्या द्वित्व से लेकर परार्द्ध पर्यन्त है।
न्यायकन्दली असति बाह्ये वस्तुनि स्वसन्तानमात्राधीनजन्मनो वासनापरिपाकस्य कादाचित्कत्वानुपपत्तौ तन्मात्रहेतोर्नीलाद्याकारस्य कादाचित्कत्वासम्भवान्नीलादिकल्पनेति चेत्, एकद्वित्र्याकारस्यापि बाह्यवस्त्वननुरोधिनो न कादाचित्कत्वमुपपद्यत इति सङ्घयापि कल्पनीया, उपपत्तेरुभयत्राप्यविशेषात् ।
यदपि द्रव्यव्यतिरिक्ता सङ्ख्या न विद्यते, भेदेनाग्रहणादित्युक्तम्, तदप्ययुक्तम्, परस्परप्रत्यासन्नानां वृक्षाणां दूरादेकत्वाद्यग्रहणेऽपि स्वरूपग्रहणस्य सम्भवात् । एवं रूपादिव्यतिरेकोऽपि व्याख्यातः, दूरे रूपस्याग्रहणेऽपि द्रव्यप्रत्ययदर्शनात् ।
एवं सिद्धे सङ्ख्यास्वरूपे तस्या भेदं प्रतिपादयति-सा पुनरेकद्रव्या बाह्य वस्तुओं की सत्ता बिलकुल ही न मानी जाय तो अपने समुदाय मात्र से उत्पन्न होनेवाली वासना का परिपाक कभी होता है कभी नहीं, यह 'कादाचित त्व' असम्भव हो जायगा। एवं केवल वासना के परिपाक से ही उत्पन्न होनेवाले नीलादि का कादाचित्कत्व भी अनुपपन्न हो जायगा । अतः नीलादि की कल्पना करते हैं । (उ०) उसी प्रकार नीलादि आकारों की प्रतीति की तरह एकाकार, द्वित्वाकार, त्रित्वाकारादि प्रतीतियों का भी कादाचित्कत्व की अनुपपत्ति के कारण समान युक्ति से संख्या की कल्पना भी आवश्यक है।
_कोई कहते हैं कि (प्र.) द्रव्य की प्रतीति को छोड़कर अलग से संख्या की कोई प्रतीति नहीं होती, अतः द्रव्य से भिन्न संख्या नाम की कोई वस्तु नहीं है। (उ०) किन्तु यह कहना भी असत्य है, क्योंकि आपस में सटे हुए बृक्षों में संख्या का भान न होने पर भी उनके स्वरूपो (द्रव्यों) का ग्रहण होता है ।
इस प्रकार संख्या की सिद्धि हो जाने पर ‘सा पुनः' इत्यादि से इसके भेदों का
१. द्रव्य और संख्या अगर अभिन्न होती तो फिर टूटे हुए वृक्षों के स्वरूप का जहाँ प्रहण होता है वहाँ वृक्ष से अभिन्न संख्या का भी ग्रहण अवश्य ही होता।
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२७१
प्रकरणम् ]
प्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली चानेकद्रव्या चेति । एक द्रव्यमाश्रयो यस्याः सा एकद्रव्या । अनेक द्रव्यमाश्रयो यस्याः सा अनेकद्रव्या । 'च' शब्दावेकद्रव्यानेकद्रव्ययोरन्योन्यसमुच्चयं प्रदर्शयन्तौ प्रकारान्तराभावं कथयतः । तत्रैकद्रव्यानेकद्रव्ययोर्मध्ये एकद्रव्याया: सलिलादिपरमाणुरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः यथा सलिलपरमाणौ रूपरसस्पर्शा नित्यास्तथैकत्वसङ्कायपि । यथा च कार्यसलिलस्य रूपादयोऽनित्या आश्रयविनाशाद्विनश्यन्ति कारणगुणप्रक्रमेण च निष्पद्यन्ते, तथैकत्वसङ्घयापि ।
अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परान्तिा। द्वित्वमादिर्यस्याः सा द्वित्वादिका, परार्धोऽन्तो यस्याः सा परार्धान्ता । यस्मिन्नियत्ताव्यवहारः समाप्यते स परार्द्धः । एकद्रव्यत्तिन्या एकत्वसङ्घयायाः सकाशाद् द्वित्वादेरनेकवृत्तित्वविशेषप्रतिपादनार्थः 'तु' शब्दः ।
निरूपण करते हैं। 'एक द्रव्यमाश्रयो यस्याः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार एक द्रव्य में ही रहने वाली संख्या को 'एकद्रव्या' कहते हैं । 'अनेकद्रव्यमाश्रयो यस्याः' इस विग्रह के अनुसार अनेक द्रव्यों में ही रहने वाली संख्या को 'अनेकद्रव्या' कहते हैं। दोनों ही 'च' शब्द से एक द्रव्य और अनेक द्रव्य इन दोनों के समुच्चय का बोध होता है एवं इन दोनों से तीसरी तरह की संख्या की सम्भावना का खण्डन भी होता है। 'तत्र' अर्थात् एकद्रव्या और अनेकद्रव्या इन दोनों प्रकार की संख्याओं में, एकद्रव्या संख्या का निर्णय (कार्यरूप) जलादि और परमाणु रूप जलादि की तरह समझना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार जलादि के परमाणुओं के रूपरसादि नित्य है, वैसे ही उनमें रहनेवाली एकद्रव्या संख्या भी नित्य है। एवं जिस प्रकार कार्यरूप जलादि के रूप रसादि अनित्य हैं (अर्थात् ) आश्रय के नाश से उनका नाश एवं कारणगुणक्रम से उत्पत्ति होती है, वैसे ही कार्यरूप जलादि में रहनेवाली एकत्व ( एकद्रव्या) संख्या भी ( आश्रय के नाश से ) विनष्ट होती है, एवं ( कारणगुणक्रम से) उत्पन्न भी होती है ।
'अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका परान्तिा ' ( इस वाक्य में प्रयुक्त ) 'दित्वादिका' शब्द का अर्थ वह संख्या समूह है जिस समूह के पहिले व्यक्ति का नाम द्वित्व है, क्योंकि द्वित्वादिका' इस समस्त वाक्य का विग्रह वाक्य 'द्वित्वमादिर्यस्याः' इस प्रकार का है। जिस संख्या (परम्परा ) की समाप्ति परार्द्ध में हो वही (संख्यासमूह) 'परार्द्धान्त' शब्द का अर्थ है, क्योंकि 'परार्द्धान्ता' इस समरत वाक्य का विग्रह वाक्य 'परार्धोऽन्तं यस्याः' इस प्रकार है। जहाँ संख्या के व्यवहार की समाप्ति हो उसी सख्या को 'परार्द्ध' कहते हैं। एकत्व संख्या केवल एक ही द्रव्य में रहती है, द्वित्वादि संख्यायें अनेक द्रव्यों में ही रहती हैं, अनेकद्रव्या संख्या में एकद्रव्या संख्या से इसी अन्तर को समझाने के लिए प्रकृत वाक्य में तु' शब्द है।
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२७२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्याः खल्वेकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाद् विनाश इति । कथम् ? यदा बोद्धश्चक्षुषा समानासमानजातीययोर्द्रव्योः सन्निकर्षे सति तत्संयुक्तसमवेतसमवेतैकत्वसामान्य ज्ञानोत्पत्तावेकत्वसामान्यतत्सम्बन्धज्ञानेभ्य एकगुणयोरनेकविषयिण्येका
__ अनेक एकत्व की बुद्धि एवं अनेक एकत्व इन सबों से इसकी उत्पत्ति होती है । ( प्र० ) कैसे ( उ० ) चक्षु के साथ सम्बद्ध उक्त दोनों द्रव्यों में से प्रत्येक में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली 'एक' संख्या में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली एकत्व जाति का ज्ञान होता है। इसके हो जाने पर एकत्व सामान्य एवं इसके ( दोनों 'एक' संख्या रूप गुणों के साथ ) सम्बन्ध एवं ( इन संख्यारूप गुणों में ) उस सामान्य का ज्ञान इन सबों से दोनों 'एक संख्याओं में अनेक ( एकसंख्या) विषयक एक बुद्धि उत्पन्न होती
न्यायकन्दली तस्याः खल्वेकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धि सहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाद्विनाशः । खल्वित्यवधारणे, तस्या एकत्वेभ्यो निष्पत्तिरेव, न त्वकैकगुणसमुच्चयमात्रत्वमित्यर्थः । एकत्वे चैकत्वानि चेति समासाश्रयणम्, अन्यथा द्वित्वोत्पत्तिकारणं न कथितं स्यात् । अनेकविषयबुद्धिसहितेभ्य इति । अनेकशब्द एको न भवतीति व्युत्पत्त्या द्वयोर्बहुषु च द्रष्टव्यः, अनेकेषु विषयेषु या बुद्धिस्तत्सहितेभ्य इति । एतदेव प्रश्नपूर्वकं प्रतिपादयति कथमित्यादिना। यदा यस्मिन् काले बोद्धरात्मनश्चक्षुषा समानजातीययोर्घटयो
'तस्याः खल्वेकत्वेभ्योऽनेकबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धि विनाशाद्विनाशः' ( इस वाक्य में प्रयुक्त ) 'खलु' शब्द का प्रयोग इस अवधारण के लिए हुआ है कि अनेकद्रव्या संख्या अनेक एकत्व संख्याओं का समूहमात्र नहीं है, किन्तु अनेक एकत्वों से उत्पन्न होनेवाली ( एकत्व से भिन्न ) अनेकद्रव्या संख्या स्वतन्त्र ) ही है। 'एकत्वेभ्यः' इस पद की निष्पत्ति के लिए 'एकत्वे च एकत्वानि च' इसी समास का अवलम्बन करना चाहिए, ऐसा न करने पर ( 'एकत्वञ्च एकत्वञ्च एकत्वञ्च एकत्वानि' ऐसा समास मानने पर ) 'एकत्वेभ्यः' इस पद से द्वित्व के कारणीभूत दो एकत्वों में द्वित्व की कारणता नहीं कही जायगी। 'अनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यः' इस वाक्य में प्रयुक्त 'अनेक' शब्द से दो एवं उससे आगे की सभी संख्याओं का बोध होता है, क्योंकि 'अनेक' शब्द की ‘एको न भवति' इस प्रकार की व्युत्पत्ति है। अनेक विषयों में जो ( अनेक एकत्वों की ) बुद्धि है, उससे (द्वित्वादि) अनेकद्रव्या संख्याओं की उत्पत्ति होती है। 'कथम्' इस पद के द्वारा प्रश्न कर इसी विषय को समझाने का उपक्रम करते हैं। 'यदा' अर्थात् जिस समय 'बोद्धः' अर्थात्
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२७३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली (समानजातीययोर्घटपटयोर्वा सन्निकर्षं संयोगे सति चक्षुःसंयुक्तयोर्द्रव्ययोः प्रत्येक समवेतौ यावेकगुणौ तयोः समवेतं यदेकत्वं सामान्यं तस्मिन् ज्ञानमुत्पद्यते । विशेषणज्ञानं विशेष्यज्ञानस्य कारणम् । एकगुणयोश्च विशेष्योरेकत्वसामान्य विशेषणम्, तेनादौ तत्रैव ज्ञानं चिन्त्यते। न च प्रत्यासत्तिमन्तरेण चाक्षुषं ज्ञानं जायत इत्येकत्वसामान्यस्येन्द्रियेण संयुक्तसमवेतसमवायलक्षणः सम्बन्धो दर्शितः । एवं ज्ञानोत्पत्तौ भूतायामेकत्वसामान्यात् तस्यैकत्वस्यैकगुणाभ्यां सम्बन्धाज्ञानाच्च एकगुणयोरनेकविषयिण्युभयैकगुणालम्बिन्येका बुद्धिरुत्पद्यत इति, एकं चक्षुरिन्द्रियमन्तःकरणेन युगपदुभयोरधिष्ठानासम्भवादेकस्यैव सर्वदा विषयग्राहकत्वे द्वितीयस्य कल्पनावैयर्थ्यात् । तस्योभाभ्यां गोलकाभ्यां रश्मयो निस्सरन्ति विषयैश्च सह सम्बन्ध्यन्ते, प्रदीपस्येव गुहान्तर्गतस्य गवाक्षविवराभ्याम् । तत्रान्तःकरणं साक्षाच्चक्षुरधितिष्ठति, न विषयसम्बन्धात्, बहिनिर्गमनाभावात्, चक्षुरधिष्ठानादेव
आत्मा को आँखों से समान जाति के दो द्रव्यों में अर्थात् दो घटों में ( अथवा) असमानजातीय दो द्रव्यों अर्थात् घट और पट के 'संनिकर्ष' अर्थात् संयोग होने के बाद कथित समानजातीय एवं असमानजातीय दोनों प्रकार के दोनों द्रव्यों के प्रत्येक में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली एकत्वसंख्यागत जाति रूप एकत्व ( अर्थात् एकत्वत्व ) का ज्ञान होता है। विशेषण का ज्ञान विशेष्यज्ञान ( विशिष्ट ज्ञान ) का कारण है। संख्यारूप दोनों एकत्वों से अभिन्न विशेष्य का जातिरूप एकत्व ( एकत्वस्व ) विशेषण है, अतः सब से पहिले उसी का विचार करते हैं। (विषयों के साथ ) चक्षु का सम्बन्ध रहे बिना चाक्षुष ज्ञान नहीं हो सकता, अतः सब से पहिले जातिरूप एकत्व के साथ (चक्षु का ) संयुक्तसमवेतसमवायरूप सम्बन्ध ही दिखलाया गया है। इस प्रकार जाति रूप एकत्वविषयक ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर उस सामान्य का अपने आभयों के साथ सम्बन्ध एवं इस सम्बन्ध के ज्ञान, इन दोनों से दोनों 'एक' नाम की संख्याओं में ( अलग अलग ) 'एक' (संख्या) गुण विषयक एकबुद्धि ( अर्थात् 'अयमेकः' अयमेकः' इस आकार ) की बुद्धि की उत्पत्ति होती है। एक ही समय एक ही चक्षुरिन्द्रिय अन्तःकरण के द्वारा दो विषयों का अधिष्ठान नहीं हो सकती। एवं अगर एक ही चक्षु से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति मानें तो दूसरे चक्षु की कल्पना हो व्यर्थ हो जायगी। अतः ( यही जानना पड़ेगा कि ) जिस प्रकार गवाक्ष के छिद्रों से घर के भीतर के दीप की रश्मियाँ घटादि के साथ सम्बद्ध होती हैं, उसी प्रकार चक्षु के दोनों गोलकों से रश्मियाँ निकल कर विषयों के साथ सम्बद्ध होती हैं। अन्तःकरण का साक्षात् सम्बन्ध चक्षु के साथ ही होता हैं, विषयों के साथ नहीं। क्योंकि वह किसी भी प्रकार बाहर नहीं निकल सकता। (विषयों से सम्बद्ध) चक्षु स्वरूप
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न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम्
बुद्धिरुत्पद्यते तदा तामपेक्ष्यैकत्वाभ्यां स्वाश्रय योद्वित्वमारभ्यते । ततः पुनस्तस्मिन् द्वित्वसामान्यज्ञानमुत्पद्यते । तस्माद् द्वित्वसामान्यज्ञानादहै ( इसे ही अपेक्षाबुद्धि कहते हैं ) । उस समय उसी बुद्धि की 'अपेक्षा' करके उन दोनों एकत्व नाम के गुणों से उनके आश्रयरूप दोनों द्रव्यों में द्वित्व संख्या की उत्पत्ति होती है । इसके बाद द्वित्व संख्या में द्वित्वसामान्य ( द्वित्वत्व ) का ज्ञान उत्पन्न होता है । द्वित्वसामान्यविषयक इस ज्ञान से
न्यायकन्दली
च तस्य सम्बन्धा ज्ञानोत्पत्तिहेतवः । एवं च सति युगपदनेकेषु विषयेषु ज्ञानं भवत्येव, कारणसामर्थ्यात् । तच्च भवदेकमेव प्रभवति, आत्मान्तःकरणसंयोगस्यैकस्यैकज्ञानोत्पत्तावेव सामर्थ्यात् । अत एव सविकल्पोत्पत्तिरपि, युगदभिव्यक्तेष्वनेकसङ्केतविषयेषु संस्कारेषु स्मृतिहेतुष्वात्मान्तःकरणसंयोगस्य सामर्थ्यादेकस्यानेकविषयस्मरणस्योत्पादात् । यदि नामानेकगुणालम्बनेका बुद्धिरुपजाता ततः किमेतावता ? तदेतां बुद्धिमपेक्ष्यैकत्वाभ्यामेकगुणाभ्यां स्वाश्रयोर्द्रव्ययोद्वित्वमारभ्यते । स्वाश्रययोः समवायिकारणत्वम्, एकगुणयोरसमवायिकारणत्वम्, अनेक विषयाया बुद्धेनिमित्तकारणत्वम् । यदैकगुणयोरेका बुद्धिरुत्पद्यते तदेकत्वाभ्यां अधिष्ठान के साथ अन्तःकरण का सम्बन्ध ही ज्ञान का कारण है । ऐसी स्थिति में अनेक विषयों का ज्ञान सुलभ होगा, क्योंकि अनुरूप कारणों का संवलन है । अनेक विषयों का यह एक ही ज्ञान हो सकता है, क्योंकि आत्मा और अन्तःकरण के एक संयोग में एक ही ज्ञान को उत्पन्न करने का सामर्थ्य है । इसी हेतु से सविकल्पोत्पत्ति अर्थात् अनेक विषयों की एक स्मृति की उत्पत्ति भी सङ्गत होती है, क्योंकि पहिले का अनुभव जितने विषयों का होगा उससे संस्कार भी उतने ही विषयक उत्पन्न होंगे। इसके अनुसार अनेकविषयक या एकविषयक अनुभव से जहाँ स्मृति में कारणीभूत अनेक विषयक संस्कार उत्पन्न होते हैं, एवं एक ही समय उबुद्ध होते हैं, वहाँ अनेक विषयों की एक ही स्मृति उत्पन्न हो सकती है, चूंकि आत्मा और अन्त:करण के उक्त संयोग में उक्त प्रकार के स्मरण को भी उत्पन्न करने का सामर्थ्य
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उत्पत्ति मान ली गयी तो प्रकृत में
| ( प्र० ) अनेक विषयक एक बुद्धि की यदि इसका क्या उपयोग है ? ( उ० ) यही उपयोग है कि अनेक विषयक एक बुद्धि की सहायता से दो संख्याविषयक एक बुद्धि ( 'अयमेकः, अयमेक:' इस प्रकार की एक बुद्धि ) उत्पन्न होती है । उक्त रीति से ज्ञात इन्हीं दो एकत्वों से द्वित्व की उत्पत्ति होती है । दोनों एकत्वों के आश्रयीभूत दोनों द्रव्य द्वित्व के समवायिकारण हैं। दोनों एकत्व संस्थायें असम
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२७५
भकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली द्वित्वमारभ्यत इत्येककालनिर्देशः क्षणद्वयात्मकलवाख्यकालाभिप्रायेण । क्षणाभिप्रायेण तु कालभेद एव, कार्यकारणयोः पूर्वापरकालभावात् । ज्ञानादर्थस्योत्पाद इति नालौकिकमिदं, सुखादीनां तस्मादुत्पत्तिदर्शनात् । बाह्यार्थस्योत्पादो न दृष्ट इति न वैधर्नामात्रम्, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वस्योभयत्राविशेषात् । उभयगुणालम्बनस्य द्वित्वाभिव्यञ्जकत्वे सिद्ध सति ज्ञानस्य तदा नानन्तर्यनियमोपपत्तिरिति चेन्न, अनियमप्रसङ्गात् । यदि हि द्वित्वमबुद्धिजं स्याद्रूपादिवत्पुरुषान्तरेणापि प्रतीयेत, नियमहेतोरभावात् । बुद्धिजत्वे तु यस्य बुद्धया यज्जन्यते तत् तेनैवोपलभ्यत इति नियमोपपत्तिः । प्रयोगस्तु द्वित्वं बुद्धिजं नियमेनैकप्रतिपत्तवेद्यत्वाद्, यनियमेनकप्रतिपत्तृवेद्यं तद् बुद्धिजं यथा सुखादिकम् । नियमेनकप्रतिपत्तृवेद्यं च द्वित्वं तस्मादिदमपि बुद्धिजम् ।
वायिकारण हैं। दोनों एकत्व रूप अनेकविषयक एकबुद्धि (अपेक्षाबुद्धि) निमित्तकारण है। जिस समय दोनों एकत्व संख्याओं की एकबुद्धि (अपेक्षाबुद्धि) उत्पन्न होती है, उसी समय दोनों एकत्वसंख्याओं से द्वित्व की उत्पत्ति होती। इसी अभिप्राय से 'इत्येकः कालः' इस वाक्य से एककाल का निर्देश किया गया है । इस निर्देश वाक्य के 'एक काल' शब्द से दो क्षणात्मक 'लव' रूप काल अभिप्रेत है । क्षणात्मक काल के अनुसार वस्तुतः वे क्रियायें क्रमशः हो होती हैं, क्योंकि कारण को पहिले एवं कार्य को पीछे रहना आवश्यक है। ज्ञान से वस्तु की उत्पत्ति कोई अलौकिक घटना नहीं है, क्योंकि ज्ञान से सुखादि की उत्पत्ति देखी जाती है । 'ज्ञान से बाह्य वस्तु की सृष्टि नहीं होती है' यह कहना केवल बाह्य और आन्तर दोनों वस्तुओं के भेद को ही प्रकट करता है, क्योंकि दोनों ही प्रकार की अवस्थाओं के साथ ज्ञान को अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही समान रूप से देखे जाते हैं। (प्र०) (द्वित्व के) दोनों आश्रयों में रहनेवाले दोनों एकत्वों से द्वित्व की उत्पत्ति हो ही जायगी, फिर उस के लिए अपेक्षाबुद्धि को भी कारण मानने की क्या आवश्यकता है ? (उ.) द्वित्व को अगर बुद्धिजन्य न मानें तो साधारण्यरूप अनियम की आपत्ति होगी, क्योंकि रूपादि साधारण विषयों की तरह सभी द्वित्व सभी पुरुषों से गृहीत नहीं होते, किन्तु जिस पुरुष की अपेक्षाबुद्धि से जिस द्वित्व की उत्पत्ति होती, वह द्वित्व उसी पुरुष से गृहीत होता है और किसी पुरुष से नहीं । इस प्रकार द्वित्व असांधारण है, साधारण नहीं । अतः अपेक्षाबुद्धि भी द्वित्व का कारण है। (इस प्रसङ्ग में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है कि) नियमतः सुखादि की तरह जो कोई भी वस्तु नियमतः किसी एक ही पुरुष के द्वारा गृहीत होती है, उसकी उत्पत्ति अवश्य ही बुद्धि से होती है। द्वित्व का ग्रहण भी किसी एक ही पुरुष से होता है, अतः द्वित्व भी बुद्धि से उत्पन्न होता है।
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न्यायकन्दलीसंवलिप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेसंख्या
न्यायकन्दली एवं द्वित्वस्योत्पन्नस्य प्रतीतिकारणं निरूपयति-ततः पुनरिति । ततो द्वित्वोत्पादादनन्तरं द्वित्वसामान्ये तस्मिन् ज्ञानमुत्पद्यते । अत्रापि संयुक्तसमवाय एव हेतुः । एकत्वसामान्यापेक्षया पुनरिति वाचोयुक्तिः । द्वित्वसामान्यं द्वित्वगुणस्य विशेषणम, न चागहीते विशेषणे विशेष्ये बुद्धिरुदेति, अतो विशेष्यविज्ञानकारणत्वेनादौ सामान्यज्ञानं निरूपितम् । अस्य सद्भावेऽपि द्वित्वसामान्यविशिष्टा द्वित्वबुद्धिरेव प्रमाणम् । तस्याः सद्भावेऽपि द्वे द्रव्ये इति ज्ञानं प्रमाणम् । द्वे द्रव्ये इति ज्ञानं विशेषणज्ञानपूर्वकं विशिष्टज्ञानत्वाद् दण्डीति ज्ञानवदित्यनुमिते गुणज्ञाने तस्यापि विशिष्टज्ञानत्वेन विशेषणज्ञानपूर्वकत्वमनुमेयम् ।
ये तु विशेषणविशेष्ययोरेकज्ञानालम्बनत्वमाहुः, तेषां सुरभि चन्दन
इस प्रकार से उत्पन्न द्वित्व के प्रत्यक्ष के कारणों का निरूपण ततः पुनः इत्यादि ग्रन्थ से करते हैं । 'ततः' अर्थात् द्वित्व की उत्पत्ति के बाद, 'तस्मिन्' अर्थात् संख्या रूप द्वित्व में जाति रूप द्वित्व (द्वित्वत्व) का ज्ञान उत्पन्न होता है। जाति स्वरूप इस द्वित्व के प्रत्यक्ष में संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध ही कारण है । (द्वित्व के आश्रयीभूत दोनों द्रव्यों में अलग अलग) पहिले एकत्व हो था, उसके बाद द्वित्व की उत्पत्ति हुई-इस आनन्तर्य को समझाने के लिए ही 'पुन:' शब्द का प्रयोग है। जातिरूप द्वित्व (द्वित्वत्व) संख्यारूप द्वित्व का विशेषण है । विशेषण का ज्ञान विशेष्य (विशिष्ट) ज्ञान का कारण है, अतः बिना विशेषण ज्ञान के विशेष्य (विशिष्ट) ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। इसी लिए सब से पहिले सामान्य रूप द्वित्व के ज्ञान का ही निरूपण किया गया है। जातिरूप द्वित्व (द्वित्वत्व) विशिष्ट संख्यारूप द्वित्व का ज्ञान सर्वजनीन है, इसी से प्रमाणित होता है कि जातिरूप द्वित्व का भी अस्तित्व है। एवं 'द्वे द्रव्ये' इत्यादि आकार की विशिष्ट अनुभूतियों से ही संख्यारूप द्वित्व की सत्ता प्रमाणित होती है। इस प्रसङ्ग में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है कि जिस प्रकार 'दण्डी पुरुषः' यह विशिष्ट बुद्धि केवल विशिष्ट बुद्धि होने के कारण हो दण्डरूप विशेषण को सत्ता के बिना नहीं हो सकती, उसी प्रकार 'टे द्रव्ये' इस आकार की विशिष्ट बुद्धि' भी केवल विशिष्ट बुद्धि होने के कारण ही संख्यात्मक द्वित्व रूप विशेषण के अस्तित्व के बिना सम्भव नहीं है। अतः द्वित्व संख्या की सत्ता अवश्य है। द्वित्व संख्या की इस प्रकार से अनुमिति हो जाने पर 'इस अनुमिति की भी उत्पत्ति विशिष्ट बुद्धि होने के कारण ही जातिरूप द्विज विशेषण की अस्तित्व के बिना सम्भव नहीं है, अतः जातिरूप द्वित्व की भी सत्ता अवश्य है' इस प्रकार द्वित्व संख्या की अनुमिति के बाद जातिरूप द्वित्व का भी उक्त रीति से अनुमान करना चाहिए। .
____ जो कोई विशेष्य और विशेषण दोनों को (नियमतः) एक ही ज्ञान का विषय मानते हैं, उनके सामने 'सुरभि चन्दनम्' इस ज्ञान का प्रसङ्ग रखना चाहिए,
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
२७७ न्यायकन्दली मित्यत्र का वार्ता ? नहि चक्षुर्गन्धविषयं, न च घ्राणं द्रव्यमादत्ते । अत एव न ताभ्यां सम्बन्धग्रहणम्, उभयसम्बन्धिग्रहणाधीनत्वात् सम्बन्धग्रहणस्य ।यथा संस्कारेन्द्रियजन्यं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षमुभयकारणसामर्थ्यात्पूर्वापरकालविषयम्, एवं चक्षुर्घाणाम्यां सम्भूय जन्यमानमिदं कारणद्वयसामर्थ्यादुभयविषयं स्यादित्येके समर्थयन्ति ।
तदपि न साधीयः, निर्भागत्वात् । यदि ज्ञानं सभागं स्यात्तदा कश्चिदस्यांशो घ्राणेन जन्येत कश्चिच्चक्षुषत्युपपद्यते व्यवस्था, किन्त्विदमेकमखण्ड मुभाभ्यां जनितं यदि गन्धं द्रव्यं च गृह्णाति, तदा गन्धोऽपि चाक्षुषो द्रव्यमपि घ्राणगम्यं प्रसक्तम, तज्जनितज्ञानविषयत्वलक्षणत्वात्तदिन्द्रियग्राह्यतायाः। न चाणुत्वान्मनसो युगपदुभयेन्द्रियाधिष्ठानसम्भवः । तस्माद् प्राणेन गन्धे गृहीते पश्चात्तद्ग्रहणसहकारिणा चक्षुषा केवलविशेष्यालम्बनमेवेदं विशेष्यज्ञानं जन्यत इत्यकामेनाप्यभ्युपगन्तव्यम् । तथा च सत्यन्येषामपि विशेष्यज्ञानानामयं न्याय क्योंकि गन्ध का ग्रहण आँखों से नहीं होता, एवं प्राण में द्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति नहीं है । अत एव सौरभ और चन्दन इन दोनों का ग्रहण भी इन दोनों इन्द्रियों से नहीं हो सकता, क्योंकि सम्बन्ध के प्रत्यक्ष के लिए उनके दोनों आश्रयों का प्रत्यक्ष आवश्यक है । कोई कहते हैं कि 'सुरभि चन्दनम्' यह एक ही ज्ञान चक्षु और घ्राण दोनों इन्द्रियों से होता है। इसका समर्थन इस प्रकार करते हैं कि जिस प्रकार (योऽहं घटमद्राक्षं सोऽहमिदानी स्मरामि ) इत्यादि आकार की प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष इन्द्रिय से उत्पन्न होने के कारण वर्तमान काल विषयक होता हैं, एवं संस्कार से उत्पन्न होने के कारण भूतकाल विषयक भी होता है, इस प्रकार 'सुरभि चन्दनम्' यह ज्ञान अलग अलग सामर्थ्य वाली चक्षु और घ्राण इन दोनों इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण द्रव्य एवं सौरभ दोनों विषयों का हो सकता है।
किन्तु इस प्रकार का समर्थन संगत नहीं है, क्योंकि ज्ञान अखण्ड है, उसके अंश नहीं होते। यदि ज्ञान अंशों से युक्त होता तो यह कह सकते थे कि उसका एक अंश आँखों से उत्पन्न होता है तो दूसरा घ्राण से। अतः ज्ञान अगर अखण्ड है और उसकी उत्पत्ति दो इन्द्रियों से होती है, एवं सौरभ और द्रव्य दोनों उसके विषय हैं तो फिर यह मानना ही पड़ेगा कि गन्ध का ग्रहण भी आंख से होता है, एवं घ्राण से द्रव्य भी गृहीत होता है, क्योंकि जिस इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न ज्ञान से जिसका प्रतिभास होता है, वही उस इन्द्रिय का ग्राह्य विषय है । दूसरी बात यह है कि मन अणु है, अतः एक ही समय वह दो इन्द्रियों का अधिष्ठान नहीं हो सकता, अतः इच्छा न रहते हुए भी प्रकृत में आप को यही मानना पड़ेगा कि घ्राण के द्वारा केवल गन्ध का ग्रहण हो जाने के बाद उसके सहकारी चक्षु के द्वारा केवल विशेष्य विषयक ( चन्दन विषयक ) ज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार यही रीति अन्य विशेष्य ज्ञानों के लिए भी प्रयुक्त होती
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेसंख्या
न्यायकन्दली उपतिष्ठते । विवादाध्यासितं विशेष्यज्ञानं, केवलविशेष्यालम्बनं, प्रत्यक्षत्वे सति विशेष्यज्ञानत्वात्, सुरभि चन्दनमिति ज्ञानवत् । प्रत्यक्षत्वे सतीति लैङ्गिकज्ञानव्यवच्छेदार्थम् । ननु यदि द्रव्यस्वरूपमात्रमेव विशेष्यज्ञानस्यालम्बनम, असत्यपि विशेषणे तथा प्रत्ययः स्यात् । अथ विशेषणस्य जनकत्वान्न तदभावे विशेष्यज्ञानोदयः, तथापि द्रव्यरूपप्रत्ययादस्य न विशेषः, विषयविशेषमन्तरेण ज्ञानस्य विशेषान्तराभावात्, न, अनभ्युपगमात् । न विशेष्यज्ञानस्य द्रव्यस्वरूपमात्रमालम्बनं ब्रूमः, किन्तु विशिष्टम् । विशिष्टता च स्वरूपातिरेकिण्येव, या दण्डीति ज्ञाने प्रतिभासते । न खलु तत्र पुरुषमात्रस्य प्रतीतिर्नापि दण्डसंयोगितामात्रस्य । तथा च दण्डीति प्रतीतावितरविलक्षण एव पुरुषः संवेद्यते । वैलक्षण्यं चास्य दण्डोपसर्जनत्वमेव । अत एव विशेषणं व्यवच्छेदकमिति गीयते । दण्डो हि स्वोपसर्जनताप्रतिपत्ति पुरुषे कुर्वन् पुरुषमितरस्माद् व्यवच्छिनत्ति । अयमेव
है। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार 'सुरभि चन्दनम्' यह ज्ञान प्रत्यक्षात्मक होने पर भी केवल विशेष्य विषयक ज्ञान है, उसी प्रकार प्रकृत में विवाद का विषय 'द्वे द्रव्ये' यह ज्ञान भी केवल विशेष विषयक ही है, क्योंकि वह भी प्रत्यक्षात्मक होने पर भी विशेष्य ज्ञान है । प्रकृत अनुमान वाक्य के प्रयोग के हेतु वाक्य में 'प्रक्षत्वे सति' यह विशेषण अनुमिति में व्यभिचार वारण के लिए है। (प्र०) यदि 'द्वे द्रव्ये' इस विशेष्य (विशिष्ट ) ज्ञान का विषय केवल द्रव्य ही हो तो फिर विशेषण के न रहने पर भी उक्त प्रकार की प्रतीति होनी चाहिए। यदि यह कहें कि विशेषण विशेष्यज्ञान का कारण है, अत: विशेषण के न रहने पर विशिष्टज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, तथापि केवल 'द्रव्यम्' इस आकार के ज्ञान में और उक्त विशिष्टज्ञान में कोई अन्तर नहीं रहेगा, क्योंकि कारणों की विभिन्नता रहते हुए भी दोनों ज्ञानों के विषयों में कोई अन्तर नहीं है। विषयों के भेद से ही ज्ञानों में भेद होता है कारणों के भेद से नहीं। (उ०) हम यह नहीं मानते कि 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान में केवल द्रव्य ही विषय है । किन्तु 'विशेष्य' (विशिष्ट ) को उक्त ज्ञान का विषय मानते हैं । 'दण्डी' इस प्रकार की विशिष्ट प्रतीति में भासित होने वाली विशिष्टता विशेष्य (विशिष्ट ) के स्वरूप से कोई भिन्न वस्तु नहीं है । 'दण्डी' इस प्रतीति के दण्ड से रहित पुरुषों के विलक्षण पुरुष का ही बोध होता है। और पुरुषों से इस पुरुष में यही वैलक्षण्य है कि यह दण्डरूप विशेषण का विशेष्य है, और कुछ भी अन्तर नहीं है । अत एव विशेषण को व्यवच्छेदक ( भेदक ) कहा जाता है । पुरुष में अपनी ( दण्ड की) विशेष्यता की प्रतीति एवं इस पुरूष को और पुरुषों से भिन्न में समझना ये ही दो काम यहाँ दण्डरूप विशेषण के हैं। विशेषण और उपलक्षण इन दोनों में यही अन्तर है कि उपलक्षण
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् पेक्षाबुद्धविनश्यता, द्वित्वसामान्यतत्सम्बन्धतज्ज्ञानेभ्यो द्वित्वगुणबुद्धेरुत्पद्यमानतेत्येकः कालः । तत इदानीमपेक्षाबुद्धिविनाशाद् द्वित्वगुणस्य अपेक्षाबुद्धि के विनाश की सम्भावना उत्पन्न होती है । द्वित्व संख्या रूप गुण का द्वित्वसामान्य के साथ सम्बन्ध और द्वित्व गुण में द्वित्वसामान्य का ज्ञान इन सबों से गुणरूप द्वित्वविषयक बुद्धि की उत्पत्ति की सम्भावना, इतने काम एक काल में होते हैं। इसके बाद उसी समय अपेक्षाबुद्धि के विनाश से गुणरूप द्वित्व
न्यायकन्दली चास्योपलक्षणाद्विशेषः। उपलक्षणमपि व्यावच्छिनत्ति, न तु स्वोपसर्गनताप्रतीतिहेतुः। नहि यथा दण्डीति दण्डोपसर्जनता पुरुषे प्रतीयते तथा जटाभिस्तापस इति तापसे जटोपसर्जनता, दण्डोपसर्जनतापुरुषस्य प्राधान्यं चार्थक्रियायामुपभोगातिशयाऽनतिशयापेक्षया । नन्वेवं तापेक्षिकोऽय विशेषणविशेष्यभावो न वास्तवः, किं न दृष्टो भवद्भिः कर्तृ करणादिव्यावहार आपेक्षिको वास्तवश्चेति कृतं विस्तरेण संग्रहटीकायाम्।
द्वित्वसामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धेविनश्यत्ता। उभयकगुणालम्बना बुद्धिरपेक्षाबुद्धिरित्युच्यते । तस्या द्वित्वसामान्यज्ञानाद्विनश्यता विनाशकारणसान्निध्यां द्वित्वसामान्यात् । तस्य द्वित्वगुणेन सह सम्बन्धाज्ज्ञानाच्च द्वित्वगुणबुद्धेअपने आश्रय को दूसरों से भिन्न रूप में समझाता तो है, किन्तु उसमें अपनी उपसर्जनता की प्रतीति को उत्पन्न नहीं करता, क्योंकि 'दण्डी' इस प्रतीति से जिस प्रकार पुरुष में दण्डरूप विशेषण की उपसर्जनता प्रतीत होती है, उसी प्रकार 'जटाभिस्तापसः' इस प्रकार के स्थलों में जटादि से युक्त तापसादि को जटा से शून्य तापसादि से विलक्षण रूप में भान यद्यपि होता है, फिर भी जटादि उपलक्षणों की उपसर्जनता की प्रतीति तापसादि में नहीं होती। दण्ड से युक्त ( दण्डी ) पुरुष में दण्ड से रहित पुरुष की अपेक्षा विशेष प्रकार का उपभोग मिलता है, इसी दृष्टि से दण्डी पुरुष में प्रधानता और दण्ड में उपसर्जनता है । (प्र. ) तो फिर यह कहिये कि विशेष्यविशेषणभाव आपेक्षिक हैं, वास्तविक नहीं ? ( उ०) क्या आप लोगों ने कर्तृत्वकरणत्वादि के आपेक्षिक है, वास्तविक दोनों प्रकार के व्यवहार नहीं देखे है ? टीकादि रूप संग्रह ग्रन्थों में इससे अधिक लिखना व्यर्थ है।
(द्वित्वसामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धविनश्यत्ता)। गुणस्वरूप दो एकत्वों को विषय करनेवाले एक ज्ञान को 'अपेक्षाबुद्धि' कहते हैं। जातिस्वरूप द्वित्व (द्वित्वत्व) के ज्ञान से उसकी (अपेक्षाबुद्धि की) 'विनश्यत्ता' अर्थात् उसको विनष्ट करनेवाले कारणों की समीपता संघटित होती है, (फलतः विनाश को उत्पन्न करनेवाली सामग्री का संवलन होता है)।
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२८०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम विनश्यत्ता, द्वित्वगुणज्ञानम् , द्वित्वसामान्यज्ञानस्य विनाशकारणम् , द्वित्वगुणतज्ज्ञानसम्बन्धेभ्यो द्वे द्रव्ये इति द्रव्य बुद्धरुत्पद्यमानतेत्येकः कालः । के विनाश की सामग्री का संवलन, गुणरूप द्वित्व का ज्ञान, सामान्यरूप द्वित्व विषयक ज्ञान के विनाशक गुणरूप द्वित्व का ज्ञान, गुणरूप दित्व और उसका ज्ञान एवं गुणरूप द्वित्व का ( अपने आश्रय द्रव्य के साथ ) सम्बन्ध इन तीनों से 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्य विषयक ज्ञान की सामग्री का
न्यायकन्दली रुत्पद्यमानता उत्पत्तिकारणसान्निध्यम । द्वित्वसामान्यज्ञानमपेक्षाबुद्धविनाशकं गुणबुद्धश्चोत्पादकम् । तेन तदुत्पत्तिरेवैकस्य विनश्यता परस्य चोत्पद्यमानतेत्युपपद्यते विनश्यत्तोत्पद्यमानतयोरेककालत्वम् । तत इदानीमपेक्षाबुद्धिविनाशो द्वित्वविनाशस्य कारणम्, तत्सद्भावे तस्यानुपलम्भात् । अतोऽपेक्षाबुद्धिविनाशो द्वित्वस्य विनश्यत्ता । दृष्टो गुणानां निमित्तकारणादपि विनाशो यथा मोक्षप्राप्त्यवस्थायामन्त्यतत्त्वज्ञानस्य शरीरविनाशात् ।
द्वित्वगुणज्ञानं द्वित्वसामान्यज्ञानस्य विनाशकारणं बुद्धर्बद्धयन्तरविरोधात् । तथा द्रव्यज्ञानस्यापि कारणम् । अतो गुणबुद्धयुत्पाद एवैकस्योत्पद्यमानताऽपरस्य विनश्यता स्यात् । द्वित्वगुणज्ञानसम्बन्धेभ्य इति । जातिरूप द्वित्व का गुणस्वरूप द्वित्व के साथ सम्बन्ध एवं इस सम्बन्ध का ज्ञान इन दोनों से गुणस्वरूप द्वित्व की 'उत्पद्यमानता' अर्थात् द्वित्व संख्या को उत्पन्न करने वाले कारणसमूह परस्पर समीप हो जाते हैं, (द्वित्वोत्पत्ति की सामग्री एकत्र हो जाती है) । जातिरूप द्वित्व (द्वित्वत्व) का ज्ञान अपेक्षाबुद्धि का नाशक एवं गुणस्वरूप द्वित्व (संख्या) विषयक बुद्धि का उत्पादक भी है, अतः जातिरूप द्वित्व विषयक बुद्धि की उत्पत्ति एक (अपेक्षाबुद्धि) की 'विनश्यत्ता' एवं दूसरे (गुणस्वरूप द्वित्वविषयक बुद्धि) की उत्पद्यमानता दोनों ही है। सुतराम् उक्त विनश्यत्ता एवं उक्त उत्पद्यमानता दोनों का एक ही समय रहना युक्ति से सिद्ध है (असङ्गत नहीं)। उसके बाद के क्षण में अपेक्षाबुद्धि का नाश होता है, यही (नाश) द्वित्व के नाश का कारण है, क्योंकि अपेक्षाबुद्धि के विनाश के बाद द्वित्व की उपलब्धि नहीं होती है, अतः अपेक्षाबुद्धि का विनाश ही द्वित्वबुद्धि की 'विनश्यत्ता' है । जिस प्रकार मोक्षप्राप्ति की अवस्था में शरीर रूप निमित्त कारण के विनाश से अन्तिम तत्त्वज्ञानरूप गुण का विनाश होता है, उसी प्रकार (यह मानना पड़ेगा कि) निमित्तकारण के विनाश से भी अन्य गुणों का विनाश होता है ।
गुणस्वरूप द्वित्व का ज्ञान जातिरूप द्वित्वविषयक ज्ञान का विनाशक है, क्योंकि एक बुद्धि दूसरी बुद्धि की विनाशिका है। एवं (गुणस्वरूप द्वित्व विषयक यह
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
२८१
प्रशस्तपादभाष्यम् तदनन्तरं द्वे द्रव्ये इति द्रव्यज्ञानस्योत्पादो द्वित्वस्य विनाशो द्वित्व. गुणबुद्धेविनश्यत्ता द्रव्यज्ञानात् संस्कारस्योत्पद्यमानतेत्येकः कालः । तदनन्तरं द्रव्यज्ञानाद् द्वित्वगुणबुद्धविनाशो द्रव्यबुद्धेरपि संस्कारात् । संवलन, द्रव्यज्ञान से उसी विषयक संस्कार की उत्पादक सामग्री का संवलन-इतने काम एक समय में होते हैं। इसके बाद उक्त द्रव्य विषयक ज्ञान से गूणरूप द्वित्व विषयक बुद्धि का विनाश और उस द्रव्य विषयक बुद्धि का भी संस्कार से विनाश हो जाता है ।
न्यायकन्दली
द्वित्वगुणश्च तस्य ज्ञानं च सम्बन्धश्चेति योजना । तदनन्तरं द्वे द्रव्ये इति द्रव्यज्ञानस्योत्पादो द्वित्वस्य विनाशो गुणबुद्धेविनश्यत्तेत्येक: काल: । यद्यपि द्वे द्रव्ये इति ज्ञानोत्पत्तिकाले द्वित्वं नास्ति, तथापि तदस्य कारणम्, कार्योत्पत्तिकाले कारणस्थितेरनुपयोगात् । कार्योत्पत्त्यनुगुणव्यापारजनकत्वं हि कारणस्य कारणत्वम् । स चेदनेन कृतः, किमस्य कार्योत्पत्तिकाले स्थित्या ? व्यापारादेव कार्योत्पत्तिसिद्धः। न त्वेवं सति तस्याकारकत्वम्, व्यापारद्वारेण तस्यैव हेतुत्वात् । न चैवं सति भाक्तं कारकत्वम् ? स्वव्यापारेण व्यवधानाज्ञान 'द्वे द्रव्ये' इस प्रकार के ) द्रव्य विषयक ज्ञान का उत्पादक भी है। अतः गुण स्वरूप द्वित्व विषयक बुद्धि की उत्पत्ति एक (सामान्य रूप द्वित्व विषयक ज्ञान ) की 'विनश्यत्ता एवं दूसरे ( ' द्रव्ये इस द्रव्य ज्ञान' ) की 'उत्पद्यमानता' दोनों ही होंगी। 'द्वित्वगुणज्ञान सम्बन्धेभ्यः' इस समस्त वाक्य का विग्रह इस प्रकार है-द्वित्वगुणश्च, तस्य ज्ञानञ्च, सम्बन्धश्च । इसके बाद के एक समय में 'द्वे द्रव्ये' इस द्रव्यज्ञान की उत्पत्ति, द्वित्व का विनाश एवं गुणस्वरूप द्वित्वविषयक बुद्धि की विनश्यत्ता ये तीन काम होते हैं । यद्यपि 'दे द्रव्ये' इस ज्ञान के उत्पत्तिकाल में द्वित्व की सत्ता नहीं रहती, फिर भी द्वित्व उस ज्ञान का कारण अवश्य है। कारण होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह कार्य के उत्पत्ति क्षण तक रहे ही, क्योंकि कार्य के उत्पादन में उस समय तक कारण की सत्ता का कुछ भी उपयोग नहीं है । कारण का इतना ही स्वरूप है कि कार्य की उत्पत्ति के अनुकूल किसी व्यापार को वह उत्पन्न कर दे। यह (व्यापारोत्पादनरूप) काम अगर इस (द्वित्व ) ने कर दिया तो फिर कार्य की उत्पत्ति के समय उसकी सत्ता रहे ही इससे क्या प्रयोजन ? द्वित्व से उत्पन्न व्यापार के द्वारा 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञानस्वरूप कार्य की उत्पत्ति तो हो ही जाएगी, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह ( व्यापारी द्वित्व ) कारण ही नहीं है, वह भी (उत्पत्तिक्षण के अव्यवहित पूर्व क्षण में न रहने पर भी) व्यापार के उत्पादन के द्वारा कारण अवश्य हैं। (प्र०) तो फिर द्वित्व में व्यापार के द्वारा कारणत्व के रहने से कारकत्व का प्रयोग गौण है ? (उ० ) नहीं, क्योंकि मध्य में
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२८२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् एतेन त्रित्वाद्युत्पत्तिरपि व्याख्याता । एकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाश इति । इसी से ( अनेक द्रव्यों में रहनेवाली) त्रित्वादि संख्याओं की भी व्याख्या समझनी चाहिए । (फलतः अनेक द्रव्यों में रहनेवाली संख्याओं की उत्पत्ति ) अनेक विषयक बुद्धि का साथ रहने पर अनेक एकत्वों से होती है, एवं अपेक्षाबुद्धि के विनाश से इन ( अनेकद्रव्या संख्याओं) का विनाश होता है।
न्यायकन्दली भावात् । अन्यथा शरमुक्तिसमकालं निष्ठुरपृष्ठाभिघातादभिपतितस्य धन्विनः क्षणान्तरभाविनि लक्ष्यव्यतिभेदे कर्त त्वं न स्यात् । तदनन्तरं द्रव्यज्ञानाद् गुणबुद्धेविनाशः, संस्कारस्योत्पद्यमानता, ततः संस्कारस्योत्पादो · द्रव्यबुद्धेविनश्यत्ता, क्षणान्तरे संस्काराद् द्रव्यबुद्धविनाशः, द्रव्यबुद्धिविनाशकारणत्वं च, संस्कारस्य नद्भावभावित्वादन्यथाऽसम्भवाच्च ।
एतेन त्रित्वाद्युत्पत्तिरपि व्याख्याता । एतेन द्वित्वोत्पत्तिविनाशनिरूपणप्रक्रमेण त्रित्वादीनामुत्पत्तिाख्याता । तमेव प्रकारं दर्शयति-एकत्वेभ्योऽनेकविषयबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाश इति । व्यापार के रहने से भी व्यवधान नहीं माना जाता। अगर ऐसी बात न हो तो फिर तीर छोड़ने के समय यदि कोई धनुषधारी पीठ में पाये हुए किसी निष्ठुर आघात से गिर जाय और उस छोड़े हुए तीर से आगे क्षण में लक्ष्य का छेदन भी हो जाय, तब उस धनुषधारी में उस छेदन क्रिया के कर्तृत्व का व्यवहार न होगा, ( क्योंकि छेदन क्रिया की उत्पत्ति के समय उसकी सत्ता नहीं है ) । इसके बाद 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्यज्ञान से गुण (द्वित्व) बुद्धि का नाश होता है, एवं संस्कार के कारण ऐकत्र होते हैं । इसके दूसरे क्षण में संस्कार की उत्पत्ति होती है, एवं उक्त द्रव्यबुद्धि के विनाशक और कारणों का संवलन होता है । इसके बाद के क्षण में संस्कार से उक्त ' द्रव्ये' इस बुद्धि का विनाश होता हैं। संस्कार के रहने से ही उक्त बुद्धि का नाश होता है, एवं संस्कार को छोड़ कर और कोई उसके विनाश का कारण सम्भव भी महीं है। इन्हीं दोनों से यह समझना चाहिए कि संस्कार ही उक्त द्वित्वविषयक बुद्धि के विनाश का कारण है।
एतेन त्रित्वाद्युत्पत्तिरपि व्याख्याता । 'एतेन' द्वित्व की उत्पत्ति एवं विनाश के उक्त उपपादन क्रम से त्रित्वादि और अनेक द्रव्यों में ही रहनेवाली ( अनेकद्रव्या ) और संख्याओं की भी व्याख्या हो गयी समझनी चाहिए। त्रित्वादि संख्याओं की उत्पत्ति की ही रीति 'एकत्वेभ्योऽनेकबुद्धिसहितेभ्यो निष्पत्तिरपेक्षाबुद्धिविनाशाच्च विनाशः' इत्यादि से दिखलायी गयी है।
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प्रकरणम् भाषानुवादसहितम्
२८३ न्यायकन्दली एतेन शतसङ्ख्याद्युत्पत्तिरपि समथिता । प्रत्येकमनुभूतेष्वेकैकगुणेषु क्रमभाविनां संस्काराणामन्त्यगुणानुभवानन्तरं शतव्यवहारसंवर्तकादृष्टाधुगपदभिव्यक्तौ संयोगैकत्वादनेकविषयैकस्मरणोत्पादे सत्यनुभवस्मरणाभ्यामपेक्षाबुद्धिभ्यां स्वाश्रयेषु शतसङ्ख्या जन्यते । सा च सर्वद्रव्ये संस्कारसचिवा अन्त्यद्रव्यसंयुक्तेन्द्रियज्ञानविषयत्वात् प्रत्यक्षैव । यत्र विनष्टेषु सङ्घयेष्वन्ते सङ्कलनात्मकः प्रत्ययो जायते, शतं पिपीलिकानां मया निहतमिति, तत्र कथं शतसङ्ख्याया उत्पत्तिः ? आश्रयाभावात् नोत्पद्यत एव तत्र सा, कारणाभावात्। शतव्यवहारस्तु रूपादिष्विव गौण इत्येके समर्थयन्ति । अपरे तु प्रतीतेस्तुल्यत्वादुपचारकल्पनामनादृत्यातीतानामेव द्रव्याणां संस्कारोपनीतत्वादाश्रयतामिच्छन्ति । यदत्यन्तममत् खपुष्पादि, तदकारणम्, निःस्वभावत्वात् । अतीतानां तु वर्तमानकालसम्बन्धो नास्ति, न तु स्वरूपम्, तेषां
इससे सौ प्रभृति संख्याओं की उत्पत्ति का भी समर्थन होता है। सौ द्रव्यों में से प्रत्येक में क्रमशः यह एक है) इस आकार के 'एक' गुण का अनुभव होता है। उन अनुभवों से एकत्व गुण विषयक संस्कारों की क्रमशः उत्पत्ति होती है । अन्तिम 'एक' रूप गुणविषयक अनुभव के बाद सौ विषयक व्यवहार के सम्पादक अदृष्ट से वे सभी संस्कार उबुद्ध हो जाते हैं । (किन्तु उन सभी संस्कारों से) आत्मा और उनके एक ही संयोग के कारण अनेक एकत्व गुण विषयक एक ही स्मरण उत्पन्न होता है । इसके बाद अनुभव और स्मरण दोनों प्रकार की अपेक्षाबुद्धियों से उन आश्रयीभूत द्रव्यों में 'सौ नाम की संख्या उत्पन्न होती है। कथित सभी द्रव्य विषयक संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली 'सौ' नाम की इस संख्या की सत्ता में प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, क्योंकि उन द्रव्यों में से अन्तिम द्रव्य एवं इन्द्रिय इन दोनों के संयोग से उत्पन्न ज्ञान के द्वारा ही वह गृहीत होता है। (प्र.) संख्येयों (द्रव्यों) के विनष्ट होने के बाद जोड़ कर जहां संख्या की प्रतीति "मैंने सौ कीड़ों को मारा' इत्यादि आकार की होती है, वहां 'सो' संख्या की उत्पत्ति किस प्रकार से होगी ? क्योंकि उसके आश्रय ही विनष्ट हो गये हैं। इस प्रश्न का उत्तर कोई इस प्रकार देते हैं, कि ऐसे स्थलों में 'सौ' संख्या की उत्पत्ति ही नहीं होती, अतः ऐसे स्थलों में सौ संख्या का व्यवहार रूपादि गुणों में संख्या के व्यवहार की तरह गौण है। कोई कहते हैं कि दोनों ही प्रकार के (जहाँ सौ संख्या का आश्रयीभूत द्रव्य हैं, एवं जहां उनका विनाश हो गया है) स्थलों में संख्या की उक्त प्रतीति समान रूप से होती है, अत: इन प्रतीतियों में से एक प्रतीति को मुख्य और दूसरी को गौण नहीं मान सकते, अतः उक्त स्थल में विनष्ट अथ च संस्कार के द्वारा समीप लायी गयी पिपीलिका ही उक्त सौ संख्या का आश्रय है। आकाशकुसुमादि की किसी भी काल में सत्ता नहीं है, अतः वे कभी किसी के भी कारण नहीं होते, विनष्ट पिपीलिकादि में तो केवल वर्तमानकाल का ही सम्बन्ध नहीं है, उनके स्वरूप के अस्तित्व का तो अभाव नहीं है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणे संख्या
तर्कानुगुणसहकारिलाभात्
स्मृतिसन्निहितानां समवायिकारणत्वमविरुद्धम् । न चैवं सति सर्वत्र तथाभाव:, यथादर्शनं व्यवस्थापनात् । अतीतस्य जनकत्वेSनुभवस्यैव स्मृतिहेतुत्वसम्भवे संस्कारकल्पनावैयर्थ्यमिति चेन्न, निरन्वयप्रध्वस्तस्यानुपस्थितस्यापि कारकत्वात्, तदुपस्थापनाकल्पनायां तु संस्कारसिद्धिः । तथा चान्त्यवर्णप्रतीतिकाले पूर्ववर्णानां विनष्टानामपि स्मृत्युपनीतत्वादर्थप्रतीतौ निमित्तकारणत्वमस्त्येव । यथेदं तथा समवायिकारणत्वमपि केषाञ्चिद्भविष्यति । यथा च संस्कारसचिवस्य मनसो बाह्ये स्मृत्युत्पादनसामर्थ्यमेवं प्रत्यक्षानुभवजननसामर्थ्यमपि दृष्टत्वादेषितव्यम् । एवं च सति नान्धबधिराद्यभावो बाह्येन्द्रियप्रवृत्त्यनुविधायित्वात् ।
तत्र
यत्र विनष्ट एव पराश्रये स्मृत्युपनीते द्वित्वमुत्पद्यते, स्मृतिलक्षणापेक्षा बुद्धिविनाशादेवास्य विनाशः, यत्र त्वाश्रये विद्यमाने तदुत्पन्नं अतः स्मृति के द्वारा समीप आयी हुई विनष्ट पिपीलिकादि वस्तुओं को भी अगर तर्कसम्मत सहकारी मिले तो वे भी समवायिकारण हो सकती हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है । वस्तुस्थिति के अनुसार ही कल्पना की जाती है अतः उपर्युक्त दृष्टान्त ( मात्र ) से यह कल्पना करना सङ्गत नहीं है कि विनष्ट हुए समवायिकारणों से ही सभी कार्य हों । ( प्र० ) अतीत वस्तु भी अगर कारण हो तो फिर अतीत अनुभव से ही स्मृति की उत्पत्ति हो ही जाएगी, इसके लिए संस्कार की कल्पना ही व्यर्थ है । ( उ० ) जड़मूल से विनष्ट वस्तुओं को जब तक कोई विद्यमान दूसरी वस्तु ( कारण होने के लिए ) उपस्थित न करे तब तक वह कारण नहीं हो सकती । प्रकृत में अगर अनुभव को उपस्थित करनेवाले की कल्पना करें तो फिर संस्कार की ही कल्पना होगी । ( नाम में विवाद की सम्भावना रहने पर भी ) संस्कार ( वस्तु ) की सिद्धि हो ही जाएगी, अतः जिस प्रकार ज्ञान के समय विनष्ट भी पहिले के वर्णं वाक्य के अन्तिम अक्षर से स्मृति के द्वारा समीप लाये जाने पर शाब्दबोध के निमित्तकारण होते हैं, वैसे ही कुछ विनष्ट वस्तु समवायिकारण भी होंगे । वस्तुस्थिति के अनुसार ही तो कल्पना की जाती है, अतः प्रकृत में भी ऐसी कल्पना करेंगे कि संस्कार का साहाय्य पाकर मन जिस प्रकार बाह्य वस्तुओं के स्मरण को उत्पन्न करता है उसी प्रकार बाह्य वस्तुविषयक प्रत्यक्ष रूप अनुभव को भी ( मन ) उत्पन्न कर सकता है । इस ( मन से बाह्य वस्तु विषयक प्रत्यक्ष मान लेने ) से संसार से अन्धे और बहरों का लोप नहीं होगा, क्योंकि मन की प्रवृत्ति बाह्य इन्द्रियों के पीछे चलनेवाली है ।
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जहाँ किसी आश्रयरूप वस्तुओं के नष्ट होने पर भी स्मृति के द्वारा उन्हें समीप लाये जाने पर उन विनष्ट वस्तुओं में द्वित्व उत्पन्न होता है, ऐसे स्थलों में स्मृति रूप अपेक्षाबुद्धि के नाश से ही द्वित्व का नाश होता है । किन्तु जहाँ विद्यमान वस्तुओं
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् क्वचिच्चाश्रयविनाशादिति । कथम् ? यदैकत्वाधारावयवे कर्मोत्पद्यते तदैवैकत्वसामान्यज्ञानमुत्पद्यते, कर्मणा चावयवान्तराद्विभागः क्रियते, अपेक्षाबुद्धेश्चोत्पत्तिः। ततो यस्मिन्नेव
कहीं आश्रय के विनाश से भी संख्यायें विनष्ट होती हैं। (प्र०) कैसे ? (उ.) ( जिस स्थल विशेष में ) जिस समय संख्यारूप एकत्व के आधारभूत द्रव्य के अवयवों में क्रिया उत्पन्न होती है, उसी समय जातिरूप एकत्व का ज्ञान भी होता है। क्रिया एक अवयव से दूसरे अवयव को विभक्त करती है और अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति होती है। इससे जिस समय विभाग से
न्यायकन्दली तत्र न केवलमपेक्षाबुद्धिविनाशादस्य विनाशः, क्वचिदाश्रयविनाशादपि स्यात् । एकस्य द्रव्यस्य द्वयोर्वा द्रव्ययोरभावाद् द्वे इति प्रत्ययाभावादित्याह-क्वचिच्चाश्रयविनाशादिति। कमित्यज्ञेन पृष्टस्तुदुपपादयन्नाह-यदेति । यस्मिन् काले एकगुणाश्रयस्य द्रव्यस्यावयवे क्रियोत्पद्यते तस्मिन् काले एकगुणवत्तिन्येकत्वसामान्य ज्ञानमुत्पद्यते, क्षणान्तरे कर्मणावयवान्तराद्विभागः क्रियते, एकत्वसामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धेश्चोत्पत्तिः, यस्सिन्नेव कालेऽवयवद्रव्यविभागाद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशस्तदापेक्षाबुद्धद्वित्वमुत्पद्यते, ततः संयोगविनाशाद् द्रव्यस्य विनाशः, द्वित्वसामान्यबुद्धेश्चोत्पाद इत्येकः कालः । ततो यस्मिन् में ही द्वित्व उत्पन्न होता है, ऐसे स्थलों में अपेक्षाबुद्धि के नाश से ही द्वित्व का नाश नहीं होता है, ऐसे स्थलों में । कहीं आभय के नाश से भी द्वित्व का नाश होता है, क्योंकि एक ही द्रव्य के रहने पर या दोनों द्रव्यों के न रहने पर 'ये दो हैं' इस प्रकार की प्रतीति नहीं हो सकती है। यही बात 'क्वचिच्चाश्रयविनाशात्' इत्यादि से कहते हैं । 'कैसे ?' इस विषय में किसी अनजान के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए 'यदा' इत्यादि वाक्य लिखते हैं। जिस समय 'एक संख्या' रूप गुण के आश्रयीभूत द्रव्य के अवयव में क्रिया होती है, उसी समय एक संख्या रूल गुण में रहनेवाला एकत्व रूप जाति विषयक ज्ञान भी उत्पन्न होता है । इसके दूसरे क्षण में उस क्रिया से ( क्रियानय अवयव का) दूसरे अवयव से विभाग उत्पन्न होता है, एवं जातिरूप एकत्व के ज्ञान से अपेक्षाबुद्धि उत्पन्न होती है। इसके बाद जिस समय अवयव रूप द्रयों के विभाग से ( अवयवी ) द्रव्य के उत्पादक संयोग का विनाश होता हैं, उसी समय अपेक्षांबुद्धि से द्वित्व की उत्पत्ति होती है। उसके बाद द्रव्य के आरम्भक संयोग के नाश से द्रव्य का नाश होता है एवं जाति रूप द्वित्व (द्वित्वत्व ) विषयक बुद्धि की उत्पत्ति होती है। इतने काम एक समय में होते हैं। इसके बाद जिस समय द्वित्वत्व जाति के ज्ञान से.
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् काले विभागात् संयोगविनाशस्तस्मिन्नेव काले द्वित्वमुत्पद्यते । संयोगविनाशाद् द्रव्यविनाशः, सामान्यबुद्धेश्चोत्पत्तिः। ततो यस्मिन्नेव काले सामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धेविनाशस्तस्मिन्नेव काले आश्रयविनाशाद् द्वित्वविनाश इति । पूर्वसंयोग का नाश होता है, उसी समय द्वित्व की उत्पत्ति होती है। संयोग के विनाश से द्रव्य का विनाश होता है, एवं सामान्य रूप ( द्वित्व विषयक ) बुद्धि की उत्पत्ति होती है। इसके बाद जिस समय सामान्यविषयक उक्त ज्ञान से अपेक्षाबुद्धि का नाश होता है, उसी समय आश्रय के नाश से द्वित्व का नाश भी हो जाता है।
( यद्यपि ) इस प्रकार द्वित्वनाश की यह प्रक्रिया 'वध्यघातक' रूप विरोध पक्ष में तो ठीक है, किन्तु 'सहानवस्थान' रूप विरोध पक्ष में
न्यायकन्दली काले द्वित्वसामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धविनाशस्तदैवावयविविनाशाद् द्वित्वविनाश:, न त्वपेक्षाबुद्धविनाशस्तत्कारणम्, सहभावित्वात्। अत्र यद्यपि द्वे द्रव्ये इति ज्ञानमकृत्वैव प्रणष्टस्य द्वित्वस्योत्पत्त्या न किञ्चित् प्रयोजनम्, तथापि कारणसामर्थ्यभावी कार्योत्पादो न प्रयोजनापेक्ष इति तदुत्पत्तिचिन्ता कृता। इह खलु द्वित्वोत्पत्तिकमेण पूर्वपूर्वज्ञानस्योत्तरोत्तरज्ञानाद्विनाशो दर्शितः। स च ज्ञानानां विरोधे सत्युपपद्यते। विरोधं च तेषां वध्यघातकस्वभावं केचिदिच्छन्ति, सहनिअपेक्षाबुद्धि का नाश होता है, उसी समय आश्रय के नाश से द्वित्व गुण का नाश होता है। गुण रूप इस द्वित्व के विनाश का अपेक्षाबुद्धि का विनाश कारण नहीं है, क्योंकि ये दोनों एक ही क्षण में उत्पन्न हुए हैं। 'द्वे द्रव्ये' इस बुद्धि को उत्पन्न करना ही द्वित्वोत्पत्ति का प्रधान प्रयोजन है। यह प्रयोजन यद्यपि प्रकृत में सिद्ध नहीं होता है, (क्योंकि इसके पहिले ही आश्रय के नाश से द्वित्व का नाश हो जाता हैं ), फिर भी कारों के सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाले कार्य ( अपने उत्पादन में ) किसी प्रयोजन की अपेक्षा नहीं रखते, ( अतः वस्तुस्थिति के अनुसार आश्रन्ननाश से नष्ट होने वाले द्वित्त्व का निरूपण व्यर्थ नहीं है ), अतः इस द्वित्व का भी विचार किया गया है । यहाँ द्वित्व की उत्पत्ति के क्रम में आगे आगे के ज्ञान पहिले पहिले के ज्ञान का विनाश दिखलाया गया हैं, किन्तु यह तभी सम्भव है जब कि ज्ञानों में परस्पर विरोध रहे । ज्ञानों के विरोध को कोई 'वध्यघातक' रूप मानते हैं, एवं कोई 'सहानवस्थान' रूप । इन दोनों में से
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प्रकरणम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
२८७
प्रशस्तपादभाष्यम् शोभनमेतद्विधानं वध्यघातकपक्षे, सहानव स्थानलक्षणे तु विरोधे द्रव्यज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः । कथम ? गुणबुद्धिसमकालमपेक्षाबुद्धिविनाशाद् द्वित्वविनाशे तदपेक्षस्य द्वे द्रव्ये इति द्रव्यज्ञानस्यानुत्पत्तिप्रसङ्ग इति । लैङ्गिकवज्ज्ञानमात्रादिति चेत् ? स्यान्मतम् , यथाऽभूतं भूतस्येत्यत्र ( इस प्रक्रिया को स्वीकार करने पर 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के ) द्रव्य ज्ञान की उत्पत्ति न हो सकेगी। (प्र०) कैसे ? (उ०) चूंकि गुणरूप द्वित्वविषयक बुद्धि के समय ही द्वित्व का नाश हो जाएगा, अतः द्वित्व के द्वारा उत्पन्न होनेवाले 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्यज्ञान की उत्पत्ति न हो सकेगी। इस विषय में यह कह सकते थे कि (प्र०) अनुमिति की तरह (हेतुविषयक ज्ञान से ही) उक्त द्वे द्रव्ये' इस द्रव्यविषयक ज्ञान की उत्पत्ति होगी। ( अभिप्राय यह है कि ) जैसे 'अभूतं भूतस्य' इस सूत्र के द्वारा महर्षि ने हेतु के न रहने पर भी हेतु
। न्यायकन्दली वस्थानं चापरे। तत्राचार्यो वध्यघातकपक्षपरिग्रहं कुर्वन्नाह-शोभनमेतद्विधानमिति । एतद्विधानमेष द्वित्वप्रकारः। वध्यघातकपक्षे द्वितीयं ज्ञानमुत्पद्य क्षणान्तरे पूर्व विज्ञानं नाशयतीति पक्षे शोभनं युक्तमित्यर्थः । सहानवस्थानलक्षणे तु विरोधे एकस्य ज्ञानस्योत्पादोऽपरस्य विनाश इति पक्षे द्वे द्रव्ये इति ज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः, तस्मात् सहानवस्थानलक्षणो न युक्त इत्यभिप्रायः। एतदेवोपपादयति-कथमित्यादिना। सहानवस्थानपक्षे हि द्वित्वकाले एवापेक्षाबुद्धेविनाशाद् द्वित्वस्य विनश्यत्ता, गुणबुद्धिसमकालं च द्वित्वस्य विनाश इति क्षणान्तरे द्वित्वापेक्षस्य द्वे द्रव्ये इति ज्ञानस्योत्पत्तिर्न भवेत् कारणाभावात् । आचार्य (प्रशस्तपाद ) वध्यघातक पक्ष को ग्रहण करते हुए 'शोभनमेतद्विधानम्' यह वाक्य लिखते हैं। ‘एतद्विधानम्' अर्थात् द्वित्व की उत्पत्ति का यह क्रम 'वध्यघातकपक्षे' अर्थात् 'पहिला ज्ञान उत्पन्न होकर दूसरे ज्ञान को अपने उत्पत्तिक्षण के आगे के क्षण में ही नाश कर देता है' इस पक्ष में 'शोभन' है । 'सहानवस्थानलक्षणे तु विरोधे' अर्थात् 'एक क्षण में ज्ञान की उत्पत्ति ही उससे पूर्व के क्षण में उत्पन्न ज्ञान का विनाश है' इस पक्ष में 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होगी। अतः 'सहानवस्थान' रूप विरोध पक्ष ठीक नहीं है । 'कथम्' इस पद से प्रश्न कर इसका उपपादन करते हैं। ( अर्थात् ) सहानवस्थान पक्ष में द्वित्व के उत्पत्तिकाल में ही अपेक्षाबुद्धि के विनाश से द्वित्वविनाश की सागग्री एकत्र हो जाती है. अतः द्वित्वविषयक (निर्विकल्पक ) बुद्धि की जिस क्षण में उत्पत्ति होती है, उस क्षण में द्वित्व का नाश हो जाता है, सुतराम् इसके अगले क्षण में 'द्वे द्रव्ये' इस विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि द्वित्व रूप उस
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् लिङ्गाभावेऽपि ज्ञानमात्रादनुमानम् , तथा गुणविनाशेऽपि गुणबुद्धिमात्राद् द्रव्यप्रत्ययः स्यादिति । न, विशेष्यज्ञानत्वात् । नहि विशेष्यज्ञानं सारूप्याके ज्ञान से अनुमिति का उपादन किया है, वैसे ही यहाँ भी ( द्वित्व ) गुण का नाश हो जाने पर भी उसके ज्ञान से ही द्रव्य विषयक उक्त ज्ञान की उत्पत्ति होगी। (उ०) किन्तु सो कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि वह (द्रव्य विषक ) ज्ञान 'विशेष्यज्ञान' अर्थात् विशिष्ट ज्ञान है । ( विशिष्ट ज्ञान ) विशेष्य में विशेषण के सम्बन्ध के बिना ( फलतः विशेष्य में विशेषण की सत्ता के बिना ) केवल 'सारूप्य'
न्यायकन्दली अत्राशङ्कते-लैङ्गिकवदिति । एतद्विस्पष्टयति-स्यान्मतमित्यादिना । एवं ते मतं स्यादिदमभिप्रेतं भवेत् । यथा ध्वनिविशेषेण पुरुषानुमाने ज्ञातमेव ध्वनिलक्षणं लिङ्गमभूतमविद्यमानं विनष्टमेव भूतस्य विद्यमानस्य पुरुषविशेषस्य लिङ्गं भवतीति लिङ्गस्याभावेऽपि तज्ज्ञानमात्रादेव लैङ्गिकं ज्ञानं जायते, तथा गुणबुद्धिसमकालं द्वित्वे विनष्टेऽपि तज्ज्ञानमात्रादेव द्वे द्रव्ये इति ज्ञानं स्यादिति । अन्यस्तु-अभूतं वर्षकर्म भूतस्य वाय्वभ्रसंयोगस्य लिङ्गमित्यत्र वर्षकर्मणो लिङ्गस्याभावेऽपि तज्ज्ञानमात्रादेवानुमानमिति व्याचष्टे । तदसङ्गतम् , नत्र वर्षकर्म लिङ्गम् अपि तु तस्याभावः । स च तदानीमस्त्येव, स्वरूपेण वस्त्वनुत्पादे प्रागभावस्याविनाशात् । तस्मादस्मदुक्तैव रीतिरनुसरणीया ।
बुद्धि का कारण उस समय नहीं है। 'लैङ्गिकवत्' इस वाक्य के द्वारा सहा नवस्थान रूप विरोधपक्ष के समर्थन का उपक्रम करते हैं, एवं 'स्यान्मतम्' इत्यादि से इसी पक्ष को स्पष्ट करते हैं । अर्थात् यह सहानवस्थान रूप विरोध मानने वालों का यह अभिप्राय हो सकता है कि जैसे विशेष प्रकार की ध्वनि से पुरुष का अनुमान होने में ध्वनि रूप हेतु केवल ज्ञात ही रहता है (पुरुष की अनुमिति के अव्यवहित पूर्वक्षण में उसकी सत्ता नहीं रहती है), अत: 'अभूत' अविद्यमान फलतः विनष्ट ( ध्वनि रूप हेतु ) ही 'भूत' अर्थात् विद्यमान उस पुरुषविशेष का (ज्ञापक ) हेतु होता है। जिस प्रकार हेतु के न रहने पर भी हेतु के केबल ज्ञान से ही पुरुष की उक्त अनुमिति होती है, उसी प्रकार गुण रूप द्वित्व विषयक ज्ञान के समय ही दित्व के नष्ट हो जाने पर भी ( विनष्ट) द्वित्व के ज्ञान से 'द्वे द्रव्ये' यह ज्ञान भी होगा। 'अभूतं भूतस्य' इस (वैशेषिक ) सूत्र की व्याख्या कोई इस प्रकार करते हैं कि 'अभूतम्' अर्थात् अविद्यमान वर्षा रूप क्रिया 'भूतस्य' अर्थात् वायु एवं मेघ के विद्यमान संयोग का (ज्ञापक) लिङ्ग है। किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है, क्योकि प्रकृत में वर्षा रूप क्रिया ( वायु और मेघ के संयोग का ज्ञापक) हेतु नहीं है, किन्तु वर्षा रूप क्रिया का ( प्राक् ) अभाव ही ( उक्त संयोग का) हेतु है । वह
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प्रकरणम् ]]
भाषानुवादसहितम्
२८९
प्रशस्त पादभाष्यम् द्विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवितुमर्हति । तथा चाह सूत्रकार:- "समवायिनः श्वैत्याच्छवैत्यबुद्धेः श्वेते बुद्धिस्ते कार्यकारणभूते" इति । से, अर्थात् ज्ञानरूप एक अर्थ में विशेष्य और विशेषण के सामानाधिकरण्य मात्र से ( फलतः दोनों के एक ज्ञान में विषय होने मात्र से ) विशेष्य ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। जैसा कि सूत्रकार ने कहा है कि 'समवायी' ( अर्थात् विशेष्य ) की शुक्लता से द्रव्य में शुक्लता को प्रतीति होती है, क्योंकि इन दोनों ( विशेषण एवं विशेष्य के ज्ञानों ) में एक कारण और दूसरा कार्य है,
न्यायकन्दली
परिहारमाह-न, विशेष्यज्ञानत्वादिति । ज्ञानमात्रादेव द्वे द्रव्ये इति ज्ञानोत्पत्तिरित्येतन्न, कस्मात् ? विशेष्यज्ञानत्वात् । भवतु विशेष्यज्ञानं तथापि कुतो ज्ञानमात्रान्न भवति? तत्राह-नहीति। विशेषणं विशेष्यस्य स्वरूपं विशेष्यानुरञ्जकं विशेष्ये स्वोपसर्जनताप्रतीतिहेतुरिति यावत् । न चाविद्यमानस्यानुरञ्जकत्वं स्वोपसर्जनताप्रतीतिहेतुत्वं युक्तम्, अतो न विशेष्यज्ञानं विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवितुमर्हतीति विशेष्यज्ञानं सारूप्याद्विशेषणानुक्तत्वाद् विशेषणसम्बन्धमन्तरेण भवितुं नार्हति । सूत्रार्थे सूत्रकारानुमति दर्शयति-तथा चाहेति । समवायिनः
तो वाय्वभ्रसंयोग को अनुमिति से पहिले विद्यमान ही है, क्योंकि ( प्रतियोगीभूत ) वस्तुओं की स्वरूपतः उत्पत्ति के बिना प्रागभाव का विनाश नहीं होता है, अतः मेरी ही व्याख्या ठीक है।
'न विशेष्यज्ञानत्वात्' इत्यादि ग्रन्थ से उक्त आक्षेप का समाधान करते हैं। यह बात नहीं है कि (द्वित्व के नष्ट हो जाने पर भी) केवल द्वित्व के ज्ञान से ही
द्वे द्रव्ये' इस ( विशेष्य ) ज्ञान की उत्पत्ति होगी (प्र०, क्यों ? ( उ०) चूंकि वह विशेष्य ज्ञान है । ( प्र० ) रहे वह विशेष्यज्ञान ही फिर भी ( हेतु के न रहने पर भी हेतु के ) केवल ज्ञान से ही उसकी उत्पत्ति क्यों नहीं होगी ? 'नहि' इत्यादि से इसी प्रश्न का समाधान करते हैं । ( अर्थात् ) विशेषण विशेष्य (विशिष्ट ) का स्वरूप' है, अर्थात् विशेष्य का 'अनुरञ्जक' है । फलतः अपने में उपसर्जनत्व ( विशेषणत्व ) प्रतीति का कारण है । यह अनुरजकता या 'स्व' में उपसर्जनता प्रतीति की कारणता किसी अविद्यमान वस्तु में नहीं हो सकती, अनः विशिष्टज्ञान में ( विशेष्यज्ञान ज्ञानत्व रूप से अविशिष्ट ज्ञान का ) मारूप्य रहने के कारण ही विशेषण सम्बन्ध के बिना यह अनुरजकता नहीं हो सकती। 'नथा चाह' इत्यादि सन्दर्भ से इस प्रसङ्ग में सूत्रकार की अनुमति दिखलाते हैं । द्रव्यविशेष में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले श्वेत गुण से ही श्वैत्यबुद्धि अर्थात्
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२६०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संख्यान तु लैङ्गिकं ज्ञानममेदेनोत्पद्यते । तस्माद्विषमोऽयमुपन्यासः । न, आशुत्पत्तेः। यथा शब्दवदाकाशमित्यत्र त्रीणि ज्ञानान्याशूत्पद्यन्ते, तथा द्वित्वादिज्ञानोत्पत्तावित्यदोषः । अर्थात् ( विशिष्टज्ञानरूप विशेष्य ज्ञान में विशेषण कारण है), अतः लैङ्गिक ज्ञान अर्थात् अनुमिति में लिङ्ग अर्थात् हेतु अभेद सम्बन्ध से भासित नहीं होता, ( किन्तु 'श्वेतः शङ्खः' इत्यादि आकार के विशेष्य ज्ञान अथवा विशिष्ट ज्ञान में 'श्वेत' रूप विशेषण अभेद सम्बन्ध से भासित होता है ), अतः विशेष्य में विशेषण के न रहते हुए भी विशेषण के केवल ज्ञान से ही विशिष्ट ज्ञान की उपपत्ति के लिए लैङ्गिक ज्ञान को दृष्टान्त रूप में उपस्थित करना युक्त नहीं है, क्योंकि लङ्गिक ज्ञान एवं विशेष्य ज्ञान दोनों समान नहीं हैं । ( प्र०) 'द्वे द्रव्ये' इस प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से द्रव्य की तरह उसमें विशेषणीभूत द्वित्व भी प्रकाशित होता है, किन्तु उस समय द्वित्व
न्यायकन्दली
समवेताच्छ्वैत्याच्छ्वेतगुणाच्छ्वैत्यबुद्धेः श्वेते द्रव्ये बुद्धिर्भवति श्वेतं द्रव्यमिति : ते विशेषणविशेष्यबुद्धी कार्यकारणभूते कार्यकारणस्वभावे इति सूत्रेण विशेषणस्यानुरञ्जकत्वमुक्तम् । तच्चाविद्यमानस्य नास्तीति भावः ।
सम्प्रति लैङ्गिकज्ञानस्य विशेष्यज्ञानात् 'तु' शब्देन विशेष सूचयन्नाह-न त्विति । लैङ्गिकं ज्ञानं लिङ्गाभेदेन लिङ्गिनो लिङ्गोपसर्जनताग्राहितया नोत्पद्यते । तस्माद्विषमोऽयमुपन्यासः । लैङ्गिकवदित्युपन्यासो विषमो द्वे द्रव्ये इति ज्ञानेन सह तुल्यो न भवतीत्यर्थः । द्वे द्रव्ये इति ज्ञानकाले द्वित्वमपि नास्ति कथं तद्विशिष्टमेव ग्रहणम् ? न, ज्ञानोत्पत्तेः पूर्वस्मिन् क्षणे तस्य सद्भावात् । सर्वत्र
श्वेत द्रव्य में श्वैत्यबुद्धि की उत्पत्ति होती है, क्योंकि श्वैत्य बुद्धि एवं श्वेत गुण इन दोनों में पहिला कार्य है और दूसरा कारण ।
अब लैङ्गिक ज्ञान ( अनुमिति से प्रकृत विशेष्य ( विशिष्ट ) ज्ञान में 'तु' शब्द के द्वारा अन्तर दिखलाते हुए 'न तु' इत्यादि भाष्य लिखते हैं । अर्थात् (जिस प्रकार श्वेतः शङ्खः' इस विशिष्टबुद्धि में श्वेत गुणविशिष्ट अभेद सम्बन्ध से भासित होता है, उसी प्रकार) लैङ्गिक ज्ञान में लिङ्ग का अभेद भासित नहीं होता है, फलतः अनुमिति में साध्य का भान होता है, किन्तु साध्य में विशेषण होकर हेतु का भान नहीं होता, अत: कोई भी अनुमिति लिङ्गाभेदविशिष्ट लैङ्गिक विषयक न होने के कारण लिङ्ग में साध्य की उपसर्जनता नहीं होती। तस्मात् इसका दृष्टान्त रूप से 'लैङ्गिकवत्' इस वाक्य का उत्थापन 'विषम' है, अर्थात् लैङ्गिकवत् यह दृष्टान्त प्रकृत 'हे द्रव्ये' इस ज्ञान के बराबर नहीं है । (प्र०) 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान के समय जब द्वित्व की सत्ता ही नहीं है तो फिर द्वित्व से युक्त द्रव्य का उस ज्ञान से ग्रहण ही कैसे होता है ? (उ०)
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प्रकरणम् ]]
भाषानुवादसहितम्
२६१
प्रशस्तपादभाष्यम
का नाश मान लेने पर सी नहीं हो सकेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष के द्वारा केवल विद्यमान विषय ही प्रकाशित होते हैं । अतः यही कहना पड़ेगा कि उक्त प्रत्यक्ष के समय तक द्वित्व का नाश नहीं होता। तस्मात् सहानवस्थान रूप विरोध पक्ष में जो द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की अनुत्पत्तिरूप आपत्ति दी गयी है, वह अयुक्त है। इसी प्रश्न का समाधान ग्न, आशूत्पत्तेः' इत्यादि से देते हैं। ( उ० ) नहीं, अर्थात् कथित द्रव्यप्रत्यक्ष के समय द्वित्व का नाश अवश्य ही हो जाता है। 'द्वे द्रव्ये' यह एक ही विशिष्ट ज्ञान नहीं है. किन्तु अलग अलग दो ज्ञान हैं। अतिशीघ्रता से उत्पन्न होने के कारण 'द्वे' 'द्रव्ये' एवं 'द्व द्रव्ये' ये तीन ज्ञान 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के एक विशिष्ट ज्ञान की तरह मालूम पड़ते हैं। जैसे कि 'शब्दवदाकाशम्' यह एक विशिष्टज्ञान नहीं है, किन्तु 'शब्दः', 'आकाशः' एवं 'शब्दवत्' ये तीन ज्ञान हैं, फिर भी क्रमशः अतिशीघ्रता से उत्पन्न होने के कारण उन तीनों ज्ञानों में एक ही विशिष्ट ज्ञान की तरह व्यवहार होता है, इसी प्रकार 'वे द्रव्ये' यहाँ भी समझना चाहिए।
न्यायकन्दली
द्वित्वप्रत्यक्षज्ञानस्य पूर्वक्षणवत्येवार्थो विषयः, अस्ति च 'द्वे द्रव्ये' इति ज्ञानोत्पादात् पूर्वस्मिन् क्षणे द्वित्वमिति तदुपसर्जनता भवत्येव । इदं त्विह वक्तव्यम्-द्वे द्रव्ये इति ज्ञाने यथा द्रव्यं प्रतिभाति तथोपसर्जनीभूतं द्वित्वमपि, न चाविद्यमानस्य द्वित्वस्य प्रतिभासो युक्तः । तस्मादेतदविनष्टमेव तदानीं विशेष्यज्ञानस्यालम्बनं स्यात्, तदवभासमानतालक्षणत्वात् तदालम्बनताया इत्यत आह-नाशूत्पत्तेरिति । द्रव्यज्ञानकाले द्वित्वं न विनष्टमित्येतन्न, आशूत्पत्तद्वित्वगुणज्ञानस्य द्रव्यज्ञानस्य च
नहीं ( यह बात नहीं है ), क्योंकि द्वित्व के सभी प्रत्यक्षों में पहिले क्षण में विद्यमान द्वित्व ही प्रतिभासित होता है। प्रकृत में भी 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान से पहिले क्षण में दित्व की सत्ता तो है ही, अतः द्वित्व में उक्त उपसर्जनता के रहने में कोई बाधा नहीं है । इस प्रसङ्ग में यह आक्षेप किया जाता है कि 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान में द्रव्य को तरह द्वित्व का भी प्रतिभासित होना कहा गया है, सो ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि उक्त प्रत्यक्षात्मक ज्ञान में अविद्यमान द्वित्व का प्रतिभास कैसे होगा ? अत: उक्त ज्ञान का अविनष्ट द्वित्व ही अवलम्बन हो सकता है. क्योंकि उस ज्ञान में प्रतिभासित होना ही उस ज्ञान का अवलम्बन होना है। इसी आक्षेप का समाधान 'न, आशूत्पत्तेः' इत्यादि भाष्य से कहते हैं। अर्थात् 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान के समय द्वित्व का नाश हो जाता है, किन्तु आशूत्पत्ति' से ( उक्त ज्ञान की उपपत्ति होती है ), अर्थात्
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् वध्यघातकपक्षेऽपि समानो दोष इति चेत् ? स्यान्मतम्ननु वध्यघातकपक्षेऽपि तहि दव्यज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्गः ? कथम् ? द्वित्वसामान्यबुद्धिसमकालं संस्कारादपेक्षाबुद्धिविनाशादिति। न,
(प्र०) 'वध्यघातक' रूप विरोध पक्ष में भी तो द्रव्य ज्ञान की अनुत्पत्ति रूप आपत्ति है ही, क्योंकि द्वित्वत्व जाति के ज्ञान के समय ही संस्कार से अपेक्षाबुद्धि का नाश हो जाएगा। ( उ०) नहीं,
न्यायकन्दली शीघ्रमुत्पादात् क्रमस्याग्रहणे द्वित्वद्रव्ययोरेकस्मिन्नेव ज्ञाने प्रतिभास इत्यभिमानः। वस्तुवृत्त्या तु पूर्वं द्वित्वस्य प्रतिभासस्तदनु द्रव्यस्येत्यर्थः । अत्र प्रकृतानुरूपं दृष्टान्तमाह-यथेति । शब्दवदाकाशमित्यत्र शब्दज्ञानमाकाशज्ञानं शब्दविशिष्टाकाशज्ञानं च त्रीणि ज्ञानान्याशत्पद्यन्ते यथा, तथा द्वित्त्वादिविज्ञानोत्पत्तावपि । किमुक्तं स्यात ? यथा शब्दादिज्ञानेष्वाशुभावितया क्रमस्याग्रहणे - युगपत्प्रतिभासाभिमानस्तथा द्वित्वद्रव्य ज्ञानयोरपीति ।
वध्यघातकपक्षेऽपि द्रव्यज्ञानानुत्पत्तिप्रसङ्ग इति केनचिदुक्तं तदाशते-वध्यघातकपक्षेऽपीति । अस्यार्थं विवृणोति स्यान्मतमित्यादिना । यदि गुणबुद्धिसमकालं द्वित्वविनाशे द्रव्यज्ञानं नोत्पद्यते ? 'द्व द्रव्ये' ये दो ज्ञान है, जो अत्यन्त शीव्रता से एक के बाद उत्पन्न होते हैं। इस शीघ्रता के कारण ही दोनों का अन्त र समझ में नहीं आता, एवं यह अभिमान होता है कि 'द्वे द्रव्ये' इस आकार का एक ही विशिष्टज्ञान है, जिसमें द्वित्व और द्रव्य दोनों हो प्रतिभासित होते हैं। किन्तु वस्तुतः यहाँ पहिले ( ज्ञान में) द्वित्व का प्रतिभास होता है पीछे ( के ज्ञान में ) द्रव्य का ! 'यथा इत्यादि से इस प्रसङ्ग में अनुरूप दृष्टान्त देते हैं। अभिप्राय यह है कि 'शब्दवदा काशम्' यहाँ पर शब्दज्ञान, आकाशज्ञान, एवं शब्दविशिष्ट आकाश ज्ञान ये तीन ज्ञान क्रमशः अत्यन्त शीघ्रता से उत्पन्न होते हैं । एवं इस अत्यन्त शीघ्रता के कारण ही तीनों ज्ञानों का अन्तर गृहीत नहीं हो पाता और तीनों शब्द, आकाश और शब्दविशिष्ट आकाश इके एक ही समय प्रतिभासित होने का अभिमान होता है । वैसे ही द्वित्वज्ञान और द्रव्यज्ञान इन दोनों में भी है।
__ किसी की शङ्का है कि वध्यघातक पक्ष मे 'द्वे द्रव्ये' इस आकार के द्रव्यज्ञान की अनुपपत्ति है ही। बध्यघातकपक्षेऽपि' इत्यादि से इसी शङ्का का उत्थापन करके 'स्यान्मतम्' इत्यादि से उसकी व्याख्या करते है । अर्थात् द्वित्व रूप गुणविषयक द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान के समय ही द्वित्व के नष्ट हो जाने के कारण द्रव्यविषयक उक्त 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की उत्पत्ति न भी हो फिर भी वध्यघातक पक्ष में द्रव्य ज्ञान की अनुत्पत्ति रूप दोष है ही।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् समूहज्ञानस्य संस्कारहेतुत्वात् । समूहज्ञानमेव संस्कारकारणं नालोचनज्ञानमित्यदोषः ।
क्योंकि समूह ज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान संस्कार का कारण हैं। अर्थात् समूह ज्ञान ही संस्कार का कारण है, आलोचन ( निर्विकल्पक ) ज्ञान नहीं, अतः उक्त आपत्ति नहीं है। अत: उक्त 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान का अनुत्पत्तिरूप दोष नहीं है।
न्यायकन्दली तहि वध्यघातकपक्षेऽपि तदनुत्पत्तिः। अत्रोपपत्तिमाह-सामान्यबुद्धिसमकालं संस्कारादपेक्षाबुद्धिविनाशादिति । यथापेक्षाबुद्धिरुत्पन्ना दित्वं जनयति तथा संस्कारमपि, स च तस्या विनाशकः । तेन संस्कारस्य द्वित्वस्य चोत्पादे द्वित्वसामान्यज्ञानस्य चोत्पद्यमानतापेक्षाबुद्धविनश्यत्तेत्येकः कालः। ततो द्वित्व. सामान्यज्ञानस्य चोत्पादो गुणबुद्धश्चोत्पद्यमानतापेक्षाबुद्धविनाशो द्वित्वस्य विनश्यत्तेत्येकः कालः। ततो गुणबुद्धरुत्पादो द्वित्वस्य विनाश इति क्षणान्तरे तदपेक्षस्य द्वे इति ज्ञानस्यानुत्पाद इति वध्यघातकपक्षेऽपि तुल्यो दोषः। समाधत्ते-न, समूहज्ञानस्य संस्कारहेतुत्वादिति । एतदेव विवृणोति-समूह इत्यादिना। समूहजानं द्वित्वगुणविशिष्टद्रव्यज्ञानमेव संस्कारं करोति, नालोचनज्ञानम्, न निर्विकल्पकमपेक्षाज्ञानम्, अतो नास्य संस्काराद्विनाश इत्यर्थः ।
इसी विषय में 'समानबुद्धिममकालम्' इत्यादि ग्रन्थ लिखा गया है। अभिप्राय यह है कि जैसे अपेक्षाबुद्धि स्वयं उत्पन्न होकर द्वित्व को उत्पन्न करती है वैसे ही संस्कार भी ( स्वयं उत्पन्न होकर ही द्वित्व को उत्पन्न करता है), एवं संस्कार अपेक्षाबुद्धि का विनाशक भी है, अतः संस्कार और द्वित्व इन दोनों के उत्पन्न हो जाने पर सामान्यरूप द्वित्व (द्वित्वत्व ) विषयक ज्ञान की उत्पद्य मानता (उक्त ज्ञान के सभी कारणों का एकत्र होना) और अपेक्षाबुद्धि की विनश्यत्ता, ( अर्थात् विनाश के सभी कारणों का एकत्र होना) इतने काम एक समय में होते हैं ( यह मानना पड़ेगा )। इसके बाद गुण रूप द्वित्व का ज्ञान और द्वित्व का नाश, ये दो काम होते हैं । अतः इसके बाद के क्षण में द्वित्व से उत्पन्न होनेवाले 'द्वे द्रव्ये' इस ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होगी। इस प्रकार वध्यघातक पक्ष में भी द्रव्यज्ञान का उक्त अनुत्पत्ति रूप दोष तो समान ही है : “न, समूहज्ञानस्य संस्कारहेतुत्वात्" इत्यादि से इस आक्षेप का समाधान कर 'समूह' इत्यादि से इसकी व्याख्या करते हैं । अभिप्राय यह है कि 'समूहज्ञान' अर्थात् द्वित्वगुण-विशिष्ट द्रव्य का ज्ञान ही संस्कार का उत्पादक है, आलोचन (केवल विशेष्य) ज्ञा र नहीं, निर्विकल्पकज्ञान रूप अपेक्षाज्ञान भी नहीं, अतः संस्कार
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संख्या
प्रशस्तपादभाष्यम् ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्ग इति चेत् ? स्यान्मतम्-ननु ज्ञानानां बध्यघातकविरोधे ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्ग इति । न, अविनश्यतोरवस्थानप्रतिषेधात् । ज्ञानायौगपद्यवचनेन ज्ञानयोयुगपदुत्पत्तिरविनश्यतोश्च
(प्र०) इस पक्ष में ज्ञानयोगपद्य' की आपत्ति होगी? अर्थात् अगर 'वध्यघातक' रूप विरोध मानें तो एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति (ज्ञानयोगपद्य ) की आपत्ति होगी। (उ०) नहीं, क्योंकि ( ज्ञानयोगपद्य के खण्डन से ) एक ही क्षण में अविनाशावस्था वाले दो ज्ञानों की सत्ता खण्डित होती है। अर्थात् उक्त ज्ञानायौगपद्य' वाक्य
न्यायकन्दली
अपेक्षाज्ञानस्य संस्काराहेतुत्वे द्रव्यविवेकेनैकगुणयोः स्मरणं प्रमाणम् , गुणविशिष्टद्रव्यज्ञानस्य तद्धेतुत्वे चाविशिष्टद्रव्यस्मरणं प्रमाणम् । यदि ज्ञानमुत्पद्य पूर्वोत्पन्नं ज्ञानं विनाशयति तदेतस्मिन् पक्षे तयोः सहावस्थानं प्राप्नोति, ततश्च ज्ञानायौगपद्यादिति सूत्रविरोध इति केनचिदुक्तं तदाशङ्कते-ज्ञानयोगपद्यप्रसङ्ग इति चेत् ? स्यान्मतमित्यादिना । अस्य विवरणं करोति-नन्वित्यादिना । समाधत्ते-नेति । एकस्मिन् क्षणे विनाश्यविनाशकज्ञानयोः सहावस्थान न दोषाय, ज्ञानायोगपद्यादिति सूत्रेणाविनश्यतोरवस्थानप्रतिषेधात्। एतदेव दर्शयति-ज्ञानायौगपद्यवचनेन ज्ञानयोयुगपदुत्पत्तिरविनश्यतोश्च युगपदवस्थानं से द्वित्व का विनाश नहीं हो सकता है। द्रव्य को छोड़कर दोनों गुण रूप एकत्वों के स्मरण रूप प्रमाण से ही यह समझते हैं कि 'उक्त अपेक्षाज्ञान संस्कार का कारण नहीं है। एवं गुणविशिष्ट द्रव्य के स्मरण रूप प्रमाण से ही यह भी समझते हैं कि गुण विशिष्टद्रव्य का ज्ञान संस्कार का कारण है'। किसो का कहना है कि (प्र.) अगर एक ज्ञान उत्पन्न होकर पहिले उत्पन्न दूसरे ज्ञान को ( अपने अगले ही क्षण में, नष्ट करता है तो फिर इस (वध्यघातक ) पक्ष में उन दोनों ज्ञानों की एक ही (विना शक ज्ञानोत्पत्ति ) क्षण में स्थिति प्राप्त हो जाती है। ऐसा होने पर 'ज्ञानायोगपद्यात्' यह सूत्र विरुद्ध होता है। यही आक्षेप 'ज्ञानायौरपद्यप्रसङ्गः स्यान्मतम्' इत्यादि से करते हैं । 'ननु' इत्यादि से इसी आक्षेपोक्ति की व्याख्या करते हैं । 'न' इत्यादि से इस आक्षेप का समाधान इस प्रकार करते हैं कि एक क्षण में विनाश्य एवं विनाशक इन दो ज्ञानों की अवस्थिति से ज्ञान योगपद्य रूप दोष नहीं होता है। ज्ञानायौगपद्यात्' इस सूत्र के द्वारा विनाश्यविनाशकभावानापन्न परस्पर निरपेक्ष दो ज्ञानों की एक क्षण में सत्ता का ही निषेध महर्षि कणाद को उक्त सूत्र से अभीष्ट है । 'ज्ञानायोगपद्यवचनेन' इत्यादि भाष्य के द्वारा यही उपपादन किया गया है। अर्थात् वध्यघातक पक्ष में अनेक ज्ञानों की एक क्षण में (एक आत्मा में) उत्पत्ति की आपत्ति
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
युगपदेवस्थानं प्रतिषिध्यते । नहि वध्यघातकविरोधे ज्ञानयोर्युगपदुत्पत्तिरविनश्यतोश्च युगपदेवस्थानमस्तीति ।
२१५
से एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति एवं अगले ही क्षण में विनष्ट न होनेवाले ज्ञानों की स्थिति खण्डित होती है । वध्यघातक पक्ष में एक क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति एवं अविनष्टावस्थावाले अनेक ज्ञानों की स्थिति नहीं ( माननी पड़ती ) है |
न्यायकन्दली
प्रतिषिध्यत इति । वध्घातकपक्षे च न ज्ञानयोर्युगपदुत्पादोऽस्ति, नाप्यविनश्यतोः सहावस्थानमेकस्योत्पादे द्वितीयस्य विनश्यद्रूपत्वादित्याह - न हीति । 'इति' शब्दः समाप्ति कथयति ।
अयि भोः सर्वमिदमुत्पत्त्यादिनिरूपणं द्वित्वस्यानुपपन्नम्, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात् । द्वे इति ज्ञानं प्रमाणमिति चेत् ? न, ग्राह्यलक्षणाभावात् । तथा हार्थो ज्ञानग्राह्यो भवन्नुत्पन्नो भवति, अनुत्पन्नो वा ? उभयथाप्यनुपपत्तिरनुत्पन्नस्यासत्वात्, उत्पन्नस्य च स्थित्यभावात् । अतीत एवार्थो ज्ञानग्राह्यस्तज्जनकत्वादिति चेत् ? न, वर्तमानतावभासविरोधादिन्द्रियस्यापि ग्राह्यत्वप्रसङ्गाच्च । ईदृश एवार्थस्य स्वकारणसामग्रीकृतः स्वभावो येन जनकत्वाविशेषेऽप्ययमेव ग्राह्यो नेन्द्रियादि
नहीं है, एवं विनाश्यविनाशकभावानापन्न परस्पर निरपेक्ष अनेक ज्ञानों की स्थिति की भी आपत्ति नहीं है, क्योंकि एक ( विनाशक ) ज्ञान की उत्पत्ति के समय दूसरे ( विनाश्य ) ज्ञान की विनाशावस्था हो जाती है । यही बात 'नहि' इत्यादि से कहते हैं । इस 'इति' शब्द का अर्थ समाप्ति है ।
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इन सबों का निरूपण ही गलत उ० ) 'द्वे' ( यह दो है ) इस
(
( प्र० ) द्वित्व की उत्पत्ति या नाश अथवा ज्ञान, है, क्योंकि द्वित्वादि संख्याओं की सत्ता ही प्रमाणशुन्य है । आकार का ज्ञान ही द्वित्व संख्या की सत्ता में प्रमाण है । ( प्र० ) नहीं, क्योंकि 'द्वित्व' ग्राह्यलक्षण ( ज्ञान से गृहीत होने योग्य ) नहीं है । ( उ० ) अभिप्राय यह है कि उत्पन्न वस्तुओं का या अनुत्पन्न वस्तुओं का ही जान से ग्रहण होगा। इन दोनों में से किसी भी प्रकार द्वित्वादि विषयक ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि उत्पन्न वस्तुओ की स्थिति रहती हैं, एवं अनुत्पन्न वस्तुओं का अस्तित्व ही नहीं होता है । ( उ० ) अतीत वस्तु ही ज्ञान से गृहीत होता है, क्योंकि वही अर्थज्ञान का कारण है । ( प्र० ) नहीं, क्योंकि इससे वर्त्तमानत्व की स्वाभाविक प्रतीति विरुद्ध हो जाएगी । एवं ( ज्ञान के कारण होने से ही अगर ज्ञान से ग्राह्य भी हो तो फिर ) इन्द्रियो के भी ( प्रत्यक्ष ) ज्ञान की आपत्ति होगी । यह कहें कि ( उ० ) वस्तुओं के अपने उत्पादक कारणों से यही स्वभाव प्राप्त
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२९६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
न्यायकन्दली कम्, तदनन्तरक्षणविषयश्च वर्तमानतावभास इति चेत् ? कि पुनरिदमस्य ग्राह्यत्वम् ? ज्ञान प्रति हेतुत्वमिति चेत् ? पुनरपीन्द्रियस्य ग्राह्यत्वमापतितम्, हेतुत्वमात्रस्य तत्राप्यविशेषात् । ज्ञानस्य स्वसंवेदनमेवान्यस्य ग्राह्यतेति चेत् ? अन्यस्य स्वरूपसंवेदनमन्यस्य ग्राह्यतेत्यतिचित्रमेतत् । न चित्रम्, स्वभावस्यापर्यनुयोज्यत्वात् । अर्थावग्रहस्वभावं हि विज्ञानम् । तेनास्य स्वरूपसंवेदनमेवार्थस्य ग्रहणं भवति। यदर्थजं चेदं तस्यैवायमवग्रहो न सर्वस्येति नातिप्रसक्तिः ? न, एकार्थत्वात् । अर्थजत्वं नाम ज्ञानस्यार्थादुत्पत्तिः। सा चैका । न च ज्ञानार्थयोधर्म इति नार्थ नियमयेत् । अथार्थस्य न ज्ञानम् अन्यधर्मत्वात, उभयनियमाच्च तयोः परस्परग्राह्यग्राहकभाव्यवस्था नैकसम्बन्धिनियमात् । न चातीतानागतयोरर्थयोर्ज्ञानं प्रत्यस्ति कारणत्वम्, असत्त्वात् । विषयविषयभावनियमाद् ग्राह्यग्राहकभावनियम इति चेन्न, अभेदात् । ग्राह्यत्वमेव विषयत्वम्,
हैं कि घटादि और इन्द्रियादि इन दोनों प्रकार की वस्तुओं में ज्ञान की कारणता समान रूप से रहने पर भी घटादि वस्तुएँ ही ग्राह्य हैं इन्द्रियादि वस्तुएँ नहीं। एवं वस्तु की उत्पत्ति के अव्यवहित आगे के क्षण का ज्ञान ही वस्तु के वर्तमानत्व का अवभास है। (प्र०) घटादि वस्तुओं में रहनेवाला एवं इन्द्रियादि वस्तुओं में न रहने वाला यह 'ग्राह्यत्व' क्या वस्तु है ? अगर ( उ० ) ज्ञान के प्रति कारणत्व ही यह ग्राह्यत्व है तो (प्र.) इन्द्रियादि में फिर ग्राह्यत्व की आपत्ति होगी, क्योंकि ज्ञान का हेतुत्व भर तो इन्द्रियादि में भी समानरूप से है। ( उ० ) ज्ञान का 'स्वसंवेदन' ही घटादि वस्तुओं की ग्राह्यता है। (प्र० ) यह तो बड़ी विचित्र बात है कि एक वस्तु के स्वरूप का ज्ञान दूसरे की ग्राह्यता हो। ( उ० ) नहीं, इसमें कोई विचित्रता नहीं है, क्योंकि वस्तुओं का स्वभाव अभियोग की सीमा से बाहर है। विज्ञान अर्थग्रहण स्वरूप ही है अत: विज्ञान के स्वरूप के संवेदन से ही अर्थ का ग्रहण होता है। इनमें से जो अर्थ विज्ञान का (विषयविधया ) कारण होता है, उस अर्थ का ग्रहण ही विज्ञान है, सभी अर्थों का ग्रहण विज्ञान नहीं है, अतः इन्द्रियज्ञान की आपत्ति नहीं है। (प्र०) नहीं, क्योंकि वह एक हो काम कर सकती है। अर्थ से ज्ञान की उत्पत्ति ही ज्ञान का अर्थजन्यत्व है. अतः वह अर्थ और ज्ञान दोनों का धर्म नहीं हो सकता ( वह ज्ञान का ही धर्म है, अतः ) ज्ञानों का ही नियमन कर सकता है, अर्थों का नहीं। अगर अर्थ का धर्म है तो फिर ज्ञानों का ही नियमन नहीं कर सकता, क्योंकि वह दूसरे का धर्म है। दोनों के नियम से ही 'ग्राह्यग्राहक व्यवस्था की, अर्थात् घटविषयकज्ञान का ग्राह्य घट ही है, घटजन्य ही घटज्ञान है -इस व्यवस्था की उपपत्ति हो सकती है, किसी एक के नियम से नहीं । एवं भूत और भविष्य अर्थ ज्ञान के कारण मी नहीं हैं, क्योंकि उस समय उनका अस्तित्व
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२६७
प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली ग्राहकत्वमेव विषयित्वम्, तयोः प्रतिनियमे एव कारणे पृष्टे तदेवोत्तरमुच्यत इति सर्वोत्तरधियां परिस्फुरति । नियतार्थावग्राहितापि ज्ञानस्य स्वभाव इति चेत् ? स पुनरस्य स्वभावो यदि निर्हेतुको नियमो न प्राप्नोति । अथ कारणवशात ? तदेवोच्यतां किं स्वभावपरिघोषणया, न च तदुत्पत्तेरन्यत् पश्यामः । अथोच्यते यदुत्पादयति सरूपयति ज्ञानम्, तदस्य ग्राह्य नेतरत् । अवश्यं चाकारो ज्ञानेऽप्येषितव्यः, अन्यथा निराकारस्य बोधमात्रस्य सर्वार्थ प्रत्यविशेषाद् नीलस्येदं पीतस्येदमिति व्यवस्थानुपपत्तौ ततोऽर्थविशेषप्रतीत्यभावात् । अत एव विषयाकारं प्रमाणमाहुः । स चासाधारणो ज्ञानमर्थविशेषेण सह घटयति, न साधारणमिन्द्रियादिकम् । तदुक्तम्
अर्थेन घटयत्येनां नहि मुक्त्वार्थरूपताम् ।
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ अपरत्र चोक्तम्--नहि वित्तिसत्तैव तद्वेदना युक्ता, तस्याः सर्वत्रा.
ही नहीं है। ( उ०) 'विषयविषयिभाव' से ही 'ग्राह्यग्राहकभाव' को व्यवस्था होगी। (प्र.) नहीं, क्योंकि दोनों एक ही बात है। ग्राह्यत्व और विषयत्व एक ही वस्तु है। एवं ग्राहकत्व और विषयित्व इन दोनों में भी कोई अन्तर नहीं है। इन दोनों के कारण के पूछने पर उन्हीं दोनों को उपस्थित करते हैं। इस प्रकार का उत्तर तो किसी लोको. त्तर बुद्धिवाले को ही सूझ सकता है। ( उ० ) ज्ञान का यह भी स्वभाव है कि वह किसी नियत अर्थ को ही ग्रहण करे (प्र०) थह (नियतविषयग्राहकत्व ) ज्ञान का स्वभाव तभी हो सकता है जब कि वह बिना किसी कारण के ही ज्ञान में रहे। अगर यह स्वभावनियम भी किसी कारण से ही ज्ञान में रहे तो फिर उसी का उल्लेख क्यों नहीं करते, स्वभाव की घोषणा क्यों करते हैं अगर ज्ञान की उत्पत्ति को छोड़कर ज्ञान के (विषय) नियम का और किसी को कारण ही नहीं समझते ? अगर यह कहें कि ( उ० ) जो जिस ज्ञान को उत्पन्न करती है और आकार प्रदान करती है, वही वस्तु उस ज्ञान की ग्राह्य है और कोई वस्तु नहीं। एवं ज्ञान में अर्थाकारता भी माननी ही पड़ेगी, क्योंकि ज्ञान को अगर निराकार मानें तो फिर वह सभी विषयों के प्रति समान ही होगा। इससे 'यह ज्ञान नील विषयक है, एवं वह पीत विषयक' इस व्यवस्था की उपपत्ति नहीं होगी, अत: इस पक्ष में ज्ञानविशेष से अर्थविशेष का बोध नहीं होगा। अत: विषय के आकार को ही प्रमाण कहते हैं। वह असाधारण आकार ही ज्ञान को अर्थविशेष के साथ सम्बद्ध करता है, साधारण इन्द्रियादि नहीं। जैसा कहा है कि इस अर्थरूपता ( अर्थाकारता ) को छोड़कर ज्ञान को अर्थ के साथ कोई सम्बद्ध नहीं करता है, अतः ज्ञान की प्रमेयाकारता को छोड़कर प्रमेय के यथार्थ ज्ञान का कोई दूसरा करण (प्रमाण) नहीं है। दूसरी जगह और भी कहा है कि वित्ति ( ज्ञान ) की सत्ता मात्र
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२६८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
न्यायकन्दली विशेषात् । तां तु सारूप्यमाविशत् सरूपयितं घटयेदिति । अत्रोच्यतेसाकारेण ज्ञानेन किमर्थोऽनुभूयते ? किं वा स्वाकारः ? किमुतोभयम् ? न तावदुभयम्, नीलमेतदित्येकस्यैवाकारस्य सर्वदा संवेदनात् । अर्थस्य च ज्ञानेनानुभवो न युक्तः, तस्य स्वरूपसत्ताकाले ज्ञानानुत्पादाज्ज्ञानकाले चातीतस्य वर्तमानतावभासायोगात् । ज्ञानसहभाविनः क्षणस्यायं वर्तमानतावभास इति स्वसिद्धान्तश्रद्धालुतेयम्, तस्य तदग्राह्मत्वात् । कश्चात्र हेतुर्यद्विज्ञानं नियतमर्थ बोधयति न सर्वम् ? नहि तयोरस्ति तादात्म्यम्, तदुत्पत्तिश्च न व्यवस्थाहेतुरित्युक्तम् । तदाकारता नियमहेतुरिति चेत् ? किमित्येको नीलक्षणः समानाकारं नीलान्तरं न गृह्णाति ? ग्राहकत्वं ज्ञानस्यैव स्वभावो नार्थस्येति चेत् ? तथाप्येकं नीलज्ञानं सर्वेषां नीलक्षणानां ग्राहकं स्यात, तदाकारत्वाविशेषात् । तदुत्पत्तिसारूप्याभ्यां स्वोत्पादकस्यैवार्थक्षणस्य ग्राह्यता न सर्वेषामिति
से वस्तुओं का ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सभी वस्तुओं में समान रूप से है । किन्तु उसमें विषयाकारता का प्रवेश होने पर उसी से विषयों का अवभास होता है । (प्र०) इस प्रसङ्ग में मेरा कहना है कि आकार से युक्त ज्ञान के द्वारा अर्थ की अनुभूति होती है ? या उसके अपने आकार का ही अनुभव होता है । अथवा आकार एवं वस्तु दोनों का ही अनुभव होता है ? दोनों का अनुभव तो उससे होता नहीं, क्योंकि 'यह नील है' इससे एक ही आकार का अनुभव होता है। एवं ज्ञान के द्वारा अर्थ का अनुभव सम्भव भी नहीं है, क्योंकि अर्थ के अस्तित्व के समय ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। एवं ज्ञान के अस्तित्व के समय वस्तुएँ अतीत हो जाती है, अतः वर्तमानत्व विषयक वस्तुओं की 'घटोऽस्ति' इत्यादि प्रतीतियाँ असम्भव हैं। 'घटोऽस्ति' इत्यादि आकार की प्रतीतियों में भासित होनेवाला वर्तमानत्व घटादि अर्थों का नहीं, किन्तु ज्ञान के साथ उत्पन्न होनेवाले क्षण का है, यह कहना केवल अपने सिद्धान्त में अत्यन्त श्रद्धा प्रकट करना है क्योंकि वर्तमानत्व उस ज्ञान का ग्राह्य ही नहीं है। एवं इसमें भी कारण कहना पड़ेगा कि एक ज्ञान किसी नियत विषय को ही ग्रहण करे, सभी विषयों को नहीं । पहिले कह चुके हैं कि वस्तु विज्ञान से अभिन्न नहीं है। यह भी कह चुके हैं कि विज्ञान की उत्पत्ति ( यह ज्ञान इसी विषय का बोधक है, दूसरे ज्ञान का नहीं, इस ) व्यवस्था का कारण नहीं है । (उ०) तदाकारता ही ( अर्थात् जिसमें जिस अर्थ की आकारता है, फलतः जो ज्ञान यदाकारक है वही उसका नियामक है ) इस नियम का कारण होगी। (प्र०) तो क्या एक नील क्षण ( का ग्राहक विज्ञान ) समान आकार के दूसरे नील को भी ग्रहण नहीं करता है ? (उ० ) ग्राहकत्व अर्थात् अर्थ को ग्रहण करना तो ज्ञान का स्वभाव है, अर्थ का नहीं। (प्र.) फिर भी एक ही नील विज्ञान सभी मील क्षणों का ग्राहक होगा, क्योंकि सभी नील क्षणों के आकार में तो कोई अन्तर नहीं है। (उ० ) वस्तुओं की उत्पत्ति एवं ( ज्ञान में) उसका आकारता रूप सादृश्य
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
1
इन्द्रियसमनन्तरप्रत्यययोरपि ग्राह्यतापत्तिः । ताभ्यामपि हि ज्ञानमुत्पद्यते, बिर्भात च तयोर्यथास्वं विषयग्रहणप्रतिनियमं बोधात्मकं च सारूप्यम् । अथ मतं यदेतद्विषयग्रहणप्रतिनियतत्वमिन्द्रियसारूप्यं विज्ञानस्य यदपि समनन्तरप्रत्ययसारूप्यं बोधात्मकत्वम्, तदुभयमपि सर्वज्ञानसाधारणम्, असाधारणं तु विषयसारूप्यम्, नीलजे एव नीलज्ञाने नीलाकारस्य संभवात् । यश्चासाधारणो धर्मः स एव नियामक इत्येतावता विशेषेण ज्ञानमर्थं गृह्णाति नेन्द्रियसमनन्तरप्रत्ययाविति । तदप्यसारम्, समानविषयस्य समनन्तरप्रत्ययस्य ग्रहणप्रसङ्गात् । यो विज्ञाने नीलाद्याकारमर्पयति स एव तस्य ग्राह्यः न च धारावाहिकविज्ञाने समनन्तरप्रत्ययान्नीलाद्याकारस्योत्पत्तिः, किन्त्वर्थादस्यैव, तदुत्पत्तावन्वयव्यतिरेकाभ्यां सर्वत्र सामर्थ्योपलब्धेर्बोधाकारोत्पत्तावेव बोधस्य सामर्थ्यावगमादिति चेत् ? नीलाद्याकार समर्पको ग्राह्म इति कस्येयमाज्ञा ? नान्यस्य कस्यचित्, तस्यैव तु ग्राह्यत्वस्वभावनियमो नियामकः । एवं चेत् स्वभावनियमादेव नियमोsस्तु,
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२६६
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इन दोनों से अर्थ का ग्रहण होता है, अतः ज्ञान अपने उत्पादक अर्थक्षण का ही ग्राहक है और किसी का नहीं । ( प्र० ) तो फिर इन्द्रिय और समनन्तरप्रत्यय मन ) इन दोनों में भी ग्राह्यता आएगी, क्योंकि वे दोनों मिलकर ज्ञान का उत्पादन करते हैं । एवं ज्ञान उन दोनों से ही क्रमशः विषयग्रहण का नियम और बोधात्मकत्वरूप सादृश्य का लाभ करता है । अगर यह कहें कि ( प्र० ) ज्ञान में नियतविषयग्राहकत्व इन्द्रिय का सादृश्य एवं बोधात्मकत्वरूप समनन्तरप्रत्यय ( मन ) का सादृश्य है, तो फिर ये दोनों तो सभी ज्ञानों में समान रूप से हैं । ज्ञान में विषय से ही असाधारण्य होता है, क्योंकि नीलरूप विषयजन्य ज्ञान में ही नीलाकारता सम्भव है । असाधारण धर्म ही नियामक होता है, इसी विशेष के कारण ज्ञान ( अपने जनकों में से ) विषय को ही ग्रहण करता है, इन्द्रिय और समनन्तरप्रत्यय ( मन ) को नहीं, किन्तु इस कथन में भी कुछ तत्त्व नहीं है, क्योंकि ( नीलादिविज्ञान से नीलादि वस्तुओं की तरह समान नीलादि विषयक ) समनन्तरप्रत्यय के ग्रहण की आपत्ति तब भी होगी । ( उ० ) जो वस्तु विज्ञान में नीलादि विषय के आकार का सम्पादन करती है, वही वस्तु उस विज्ञान की ग्राह्य है। धारावाहिक ज्ञान में भी समनन्तरप्रत्यय से नीलादि आकार की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु नीलादि अर्थों से ही होती है, क्योंकि आकार के प्रति अर्थ ही कारण है, चूँकि उसी के साथ आकार का अन्वय और व्यतिरेक है । एवं बोध में बोधाकार की उत्पत्ति का सामर्थ्य भी देखा जाता है । ( प्र० ) यह किसकी आज्ञा है कि विज्ञान में जो सम्पादक हो वही विज्ञान का ग्राह्य हो ? ( उ० ) विज्ञान के साथ विषय ग्रहण का जो नियम है, वही उक्त नियम का सम्पादक है । किसी की आज्ञा से यह नियम नहीं बनाया गया है | ( प्र० ) फिर स्वभाव के नियम से ही उक्त नियम मानिए । ज्ञान
नीलादि आकार का
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे संख्या
न्यायकन्दली ज्ञानं हि स्वसामग्रीप्रतिनियतार्थसंवेदनात्मकमेवोपजायते । अर्थोऽपि संवेद्यस्वभावनियमादेव संवेद्यते, नेन्द्रियादिकमित्यकारणमाकारः। नहि छिदिक्रिया वृक्षाकारवती येनेयं वृक्षेण सह सम्बद्धयते न कुठारेण, किन्त्वस्या वृक्षस्य च तादृशः स्वभावो यदियमत्रेव नियम्येत नान्यत्र । अस्येदं संवेदनमिति च व्यवस्था तदवभासमात्र. निबन्धनैवेति तदर्थमप्याकारो न मृग्यः।।
__अथ साकारेण ज्ञानेनार्थो न संवेद्यत एव, किन्तु स्वाकारमात्रम् । तदर्थसद्भावो निष्प्रमाणको न तावदर्थस्य ग्रहणम्, न चाध्यवसायो विकल्पो ह्यवशिष्यते, स चोत्प्रेक्षामात्रव्यापारो भवन्नपि प्रत्यक्षपृष्ठभावित्वाद्यत्र प्रत्यक्षं प्रवृत्तं तत्र स्वव्यापारं परित्यज्य कारणव्यापारमुपाददानो वस्तु साक्षाकरोति । यत्र तु प्रत्यक्षमेवाप्रवृत्तं तत्र विकल्पोऽप्यसमर्थ एव, कारणाभावात् । ज्ञानाकारः स्वसदृशं कारणं व्यवस्थापयन्नर्थसिद्धौ प्रमाणमिति चेत ? तत्किमिदानीं स्थूलाकारस्य समर्पकोऽप्यर्थो बहिरस्ति ? का गतिरस्य वचनस्य
तस्मान्नार्थेन विज्ञाने स्थूलाभासस्तदात्मनः। एकत्र प्रतिषिद्धत्वाद् बहुष्वपि न सम्भवः ।। इति ।
अपने कारणों से नियमित विषय से ही उत्पन्न होता है। एवं अर्थ भी अपने ग्राह्यत्व रूप स्वभाव से ही विज्ञान के द्वारा गृहीत होता है, अतः विज्ञान में आकार का कोई उत्पादक नहीं है। जैसे कि वृक्ष की कुठारजनित छेदन-क्रिया वृक्ष रूप आकार से युक्त नहीं है, फिर भी वह वृक्ष के साथ ही सम्बद्ध होती है, कुठार के साथ नहीं। अतः यह कल्पना सुलभ है कि छेदनक्रिया और वृक्ष दोनों का ही यह स्वभाव है कि वह छेदनक्रिया वृक्ष में ही नियमित रहे, अत: 'यह ज्ञान इसी विषयक है' इस नियम के लिए भी किसी आकार को खोजने की आवश्यकता नहीं है ।
अगर यह कहें कि साकार विज्ञान से अर्थ गृहीत नहीं होता है, केवल विज्ञान का अपना आकार ही गृहीत होता है, अतः अर्थ की सत्ता ही अप्रामाणिक है, क्योंकि अर्थों का ग्रहण ज्ञानरूप भी नहीं हो सकता अध्यवसाय रूप भी नहीं, किन्तु अर्थों का केवल विकल्प रूप ज्ञान ही हो सकता है। वह अगर होता भी है तो प्रत्यक्ष के पीछे होता है जहाँ प्रत्यक्ष प्रवृत्त भी होता है, वहाँ अपने व्यापार को छोड़कर अपने कारणादि के व्यापार को ( विकल्परूप ज्ञान के द्वारा) ग्रहण कर वस्तु का साक्षात्कार करा देता है। जहां प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती है, वहाँ कारण के न रहने से विकल्प भी असमर्थ ही है। ( उ० ) ज्ञान का आकार ही अपने सदृश कारण को सिद्ध करते हुए अर्थसिद्धि का भी जनक प्रमाण है। (प्र.) क्या यह कहना चाहते हैं कि घटादि स्थूल आकार का सम्पादक भी बाहर ही है ? तो फिर आपके इस वाक्य की क्या गति होगी ? अतः विज्ञान में विज्ञानात्मक स्थूल वस्तु का अवभास नहीं होता है ।
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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३०१
अथायमनर्थज: ? कुतश्चिन्निमित्तात् कदाचिद्भवति, असन्नेव वा प्रतीयते, तद्वदितराकारोऽपि भविष्यति, असन्नेव वा प्रत्येष्यते, न चाकारवादे ज्ञानाकाराणां भ्रान्ताम्रान्तत्वविवेकः सुगम इति निरूपितप्रायम् ।
किञ्च तदानों बोधाकारः सदृशमर्थं कारणं कल्पयति, यदि यादृशो बोधाकारस्तादृश एवाकारस्य कारणमित्यवगतम् । न चार्थस्यासंवेद्यत्वे तथा प्रतीतिः संभवति हेतुत्वसादृश्ययोविनिश्चयस्योभयग्रहणाधीनत्वादिति नाकारादर्थसिद्धिः । तदेवं न हेतुत्वं ग्राह्यलक्षणं नाप्याकारार्पणक्षमस्य हेतुत्वम्, तस्माद् ग्राह्यलक्षणाभावाद् बुद्धेरन्योऽनुभाव्यो नास्तीति साधूक्तम् ।
इतोऽपि बुद्धिव्यतिरिक्तोऽर्थो नास्ति, यद्यसौ जडो न स्वयं प्रकाशेत । न च तस्य प्रकाशकान्तरमुपलभामहे, सर्व दैवैकस्यैवाकारस्योपलम्भात् । अथास्ति प्रकाशम्, न तत्स्वयमप्रकाशमानमप्रकाशस्वभावं विषयमपि प्रकाशयेत् । यदव्यक्तप्रकाशं तदव्यक्तम्, यथा कुड्यादिव्यवहितं वस्तु, अव्यक्त प्रकाशश्च परस्य
इस प्रकार एक विज्ञान में आकार के खण्डित हो जाने पर वह और विज्ञानों में भी सम्भव नहीं है । ( उ० ) अगर नीलादि आकार के विज्ञान अर्थ के बिना ही उत्पन्न होते हैं तो फिर औरही किसी कारण से कभी उत्पन्न होते हैं, या नीलादि आकारों के अस्तित्व के बिना ही प्रतीत होते हैं तो फिर और आकार भी वैसे ही होंगे या बिना अस्तित्व के ही प्रतीत होंगे । यह तो उपपादित सा है कि 'आकारबाद' में ज्ञान के आकारों से किसी आकार को भ्रान्त या अभ्रान्त समझना सहज नहीं हैं ।
दूसरी बात यह है कि बोध का आकार अपने सदृश हो कारण की कल्पना करता है तो फिर इससे यह समझा जाय कि 'इस बोध का जो आकार है उसी तरह का आकार उसका कारण है,' किन्तु यह आकार को अग्राह्य मानने पर सम्भव नहीं है, क्योंकि कारणत्व और सादृश्य इन दोनों का ग्रहण उनके प्रतियोगी और अनुयोगी रूप दो सम्बन्धियों के ग्रहण के बिना सम्भव नहीं है । एवं विज्ञान का कारण उससे ग्राह्य नहीं हो सकता, एवं विज्ञान में जो आकार को उत्पन्न करेगा वह विज्ञान का कारण नहीं हो सकता । अतः हमने ठीक कहा था कि बुद्धि के ग्राह्य स्वरूप को छोड़कर और कोई बुद्धि का ग्राह्य नहीं है ।
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बुद्धि से भिन्न अर्थ की स्वतन्त्र सत्ता इसलिए भी नहीं है कि अर्थ अगर जड़ है तो फिर स्वयं प्रकाशित नहीं हो सकता, एवं उसके दूसरे प्रकाशक की उपलब्धि होती नहीं है, बराबर एक आकार की ही प्रतीति होती है । अगर कोई दूसरा प्रकाशक है तो फिर वह या तो स्वयं अप्रकाश स्वभाव का होगा ? या प्रकाशस्त्रभाववाला होगा ? इन दोनों में से किसी से भी अर्थों का प्रकाश सम्भव नहीं है, क्योंकि जो स्वयं अप्रकाश स्वभाव का होगा वह अप्रकाशस्वभाव की ही किसी दूसरी वस्तु को कैसे प्रकाशित कर
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३०२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
गुण संख्या
न्यायकन्दली
बाह्योऽर्थः । तथा यत्परस्य प्रकाशकं तत्स्वप्रकाशे सजातीयपरानपेक्षम्, यथा प्रदीपः, प्रकाशकं च परस्य ज्ञानमिति । अतः प्रकाशमानस्यैव बोधस्य विषयप्रकाशकत्वमिति न्यायादनपेतम् । तथा सति सहोपलम्भनियमात् सर्वज्ञासर्वज्ञयोरिव वेद्यवेदकयोरभेदः, भेदस्य सहोपलम्भानियमो व्यापको नीलपीतयोयुगपदुपलम्भनियमाभावात् । सहोपलम्भानियमविरुद्धश्च सहोपलम्भनियम इति व्यापकविरुद्धोपलब्ध्या भेदादनियमव्याप्त्या व्यावर्तमानो नियमोऽभेदे व्यवतिष्ठत इति प्रतिबन्धसिद्धिः । न च 'सह' शब्दस्य साहाय्यं योगपद्यं वार्थः, तयोश्च भेदेन व्याप्तत्वाद्विरुद्ध इति वाच्यम्, आभिमानिकस्य सहभावस्य हेतुविशेषणत्वेनोपादानात् दृष्टान्ते द्विचन्द्रे आभिमानिकः सहभावो न तात्त्विकः, चन्द्रस्यैकत्वात् । सार्वज्य
सकता है ? अगर यह कहें कि विज्ञान और उसके विषय दोनों ही प्रकाशस्वभाव के ही है, किन्तु इनमें विज्ञान का यह स्वभाव व्यक्त है और विषयों का अव्यक्त, अतः प्रकाशस्वभाव वाले विज्ञान में विषयों के प्रकाशस्वभाव अभिव्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित करते हैं, तो इस विषय में यह कहना है कि जिसका प्रकाश अव्यक्त रहता है वह स्वयं भी अव्यक्त ही रहता है, जैसे दीवाल से घिरी हुई वस्तु । पूर्व पक्षवादी के मत से वस्तुओं का प्रकाशस्वभाव अव्यक्त है, अतः उसके मत से वे वस्तु कभी प्रकाशित हो ही नहीं सकतीं। रही विज्ञान के प्रकाशस्वभाव की बात -इस प्रसङ्ग में यह कहना है कि जो दूसरे का प्रकाशक होता है, बह अपने प्रकाश के लिए किसी दूसरे प्रकाशस्वभावकाले की अपेक्षा नहीं रखता है, जैसे कि प्रदीप । ज्ञान भी दूसरे का प्रकाशक है अतः विज्ञान स्वयं प्रकाश' हैं। विज्ञान दूसरे का प्रकाशक है यह बात न्याय से विरुद्ध भी नहीं है । चूँकि 'सहोपलम्भनियम' के कारण अर्थात् ज्ञान और अर्थ नियमतः साथ ही प्रकाशित होते हैं इस नियम के कारण (वे दोनों एक ही हैं) जैसे कि एक ही पुरुष ( काल भेद से ) सर्वज्ञ एवं असर्वज्ञ दोनों होने पर भी अभिन्न ही होता है, सुतराम् सहोपलम्भ का अनियम भेद का व्यापक है (अर्थात् यह अव्यभिचरित नियम है कि जिन वस्तुओं का नियमतः साथ साथ प्रकाशन नहीं होता वे अवश्य ही परस्पर भिन्न होती हैं ) जैसे कि नील और पीत नियमतः साथ प्रकाशित नहीं होते और वे दोनों भिन्न होते हैं । सहोपलम्भ का यह अनियम कथित-सहोपलम्भ नियम का विरोधी है, अतः ( भेद के ) व्यापक (सहोपलम्भ के अनियम ) के विरुद्ध (सहोपलम्भ की) उपलब्धि ( ज्ञान ) और अर्थों के भेद को मिटाकर दोनों को अभिन्न रूप में व्यवस्थित कर देती है, ( अतः विज्ञान से भिन्न किसी वस्तु की वास्तविक सत्ता नहीं है ), इस प्रकार सहोपलम्भनियम में अभेद की व्याप्ति सिद्ध है । ( उ०) सहोपलम्भ शब्द में प्रयुक्त 'सह' शब्द का साहाय्य अर्थ है ? या एककालिकत्व १ ये दोनों ही विषयों के भेद के साथ सम्बद्ध हैं । (प्र०) 'सहोपलम्भ' में आभिमानिक ( सांवृत, अतात्त्विक) साहित्य को ही विशेषण मानते हैं। इसके दृष्टान्त द्विचन्द्र ज्ञान में भी सांवृत साहित्य
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली वित्तक्षणः स्वेनात्मना सह सर्वान् प्राणिनो युगपदुपलभ्यते । न च तेषां सार्वज्ञज्ञानाभेद इत्यनैकान्तिकत्वमिति चेत् ? न, अनियमात् । क्षणाभिप्रायेण तावद् ययोः सहोपलम्भस्तयोरसौ नियत एव, क्षणयोः प्रत्येकं पुनरनुपलपम्भात् । किन्तु सन विवक्षित: सन्तानाभिप्रायेण सहोपलम्भनियमः। न च सर्वज्ञसन्तानस्य चित्तान्तरसन्तानेन सह युगपदुपलम्भोऽस्ति, सर्वज्ञस्य कदाचित् स्वात्ममात्रप्रतिष्ठस्यापि सम्भवात् । न च तदानीमसर्वज्ञः, सर्वज्ञात् सामर्थ्यसम्भवात् । अपचन्नपि पाचको यथा, तथा यद्वद्यते येन वेदनेन तत्ततो न भिद्यते, यथात्मा ज्ञानस्य, वेद्यन्ते च नीलादयः । भेदे हि ज्ञानेनास्य वेद्यत्वं न स्यात्, तादात्म्यस्य नियमहेतोरभावात्, तदुत्पत्तेरनियामकत्वात् । अन्येनान्यस्यासम्बद्धस्य वेद्यत्वे चातिप्रसङ्गादिति भेदे नियमहेतोः सम्बन्धस्य व्यापकस्यानुपलब्ध्या भेदाद्विपक्षाद् ही है, तात्त्विक नहीं, क्योंकि चन्द्र वस्तुतः एक ही है । ( उ० ) सर्वज्ञत्यविषयक ज्ञान का क्षण तो अपने साथ सभी आत्माओं को ग्रहण करता है, किन्तु सर्वज्ञत्वविषयक ज्ञान और आत्माओं में तो अभेद नहीं है, अत: 'सहोपलम्भनियम' रूप हेतु व्यभिचरित है । (प्र०) यह व्यभिचार दोष नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि सर्वज्ञ-चित्त-विषयक ज्ञान के साथ और सभी चित्त अवश्य ही गृहीत हों। क्षण ( प्रत्येक विज्ञान में भासित होनेवाले प्रत्येक क्षण में स्थित चित्त या आस्मा ) के अभिप्राय से जिन दोनों ( सन्तानियों के समूह में स्थित प्रत्येक व्यक्ति ) के सहोपलम्भ का नियम है, उन दोनों में अभेद भी अवश्य ही है, क्योंकि उन दोनों में से प्रत्येक की अलग से उपलब्धि नहीं होती है । किन्तु सर्वज्ञत्व ज्ञान के समय जो और सभी आत्माओं की उपलब्धि होती हैं, वह सन्तान के अभिप्राय से है, सन्तान ( समूह ) में स्थित प्रत्येक के अभिप्राय से नहीं, क्योंकि कभी सर्वज्ञत्व की प्रतीति अगर आत्माओं को छोड़कर केवल स्वमात्र विषयक भी हो सकती है, किन्तु इससे उस समय भी वह असर्वज्ञ नहीं हो जाता, क्योंकि उस समय भी उस पुरुष से सर्वज्ञ पुरुष से होनेवाले असाधारण कार्य के सम्पादन की सम्भावना बनी रहती है । जैसे कि पाक न करते समय भी रसोइया 'पाचक' कहलाता ही है । अतः जिस ज्ञान के द्वारा जो गृहीत होता है, वह उससे भिन्न नहीं है । जैसे कि आत्मा ज्ञान से भिन्न नहीं है । नीलादि भी ज्ञात होते हैं । अतः नीलादि और उनके ज्ञान अगर भिन्न हों तो फिर नीलादि उनसे ज्ञात ही नहीं होंगे। (घट विषयक ज्ञान से घट ही ज्ञात होता है इस ) नियम का कारण ( उक्त ज्ञान और घटादि विषयों का ) तादात्म्य तो है नहीं और उसकी उत्पत्ति भी नियामक नहीं है ( उत्पत्ति और अभेद ये दो ही व्याप्ति के ग्राहक हैं ), परस्पर असम्बद्ध दो वस्तुओं में से एक को अगर दूसरे का ज्ञापक माने ( घट ज्ञान से पट भी ज्ञात हो इत्यादि ) आपत्तियाँ होंगी, अतः ज्ञान और विषय इन दोनों में भेद का ज्ञापक और
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
न्यायकन्दली घ्यावर्तमानं वेद्यत्वमभेदेन व्याप्यत इति हेतोः प्रतिबन्धसिद्धिरिति । एतेनाहमित्याकारस्यापि ज्ञानादभेदः सथितः । यश्चायं ग्राह्यग्राहकसंवित्तीनां पृथगवभासः स एकस्मिश्चन्द्रमसि द्वित्वावभास इव भ्रमः । तत्राप्यनादिरविच्छिन्नप्रवाहाभेदवासनैव निमित्तम् । यथोक्तम्
"भेदश्चाभ्रान्तिविज्ञाने दृश्येतेन्दाविव द्वये" इति ।
ननु बाह्याभावे येयं नीलाद्याकारवती बुद्धिरुदेति तस्याः किं कारणम् ? यथोक्तम्
अर्थबुद्धिस्तदाकारा सा त्वाकारविशेषणा ।
सा बाह्यादन्यतो वेति विचारमिममर्हति ॥ अत्रापि वदन्ति-बाह्मसद्भावेऽपि तस्याः किं कारणम् ? नीलादिरर्थ इति चेत् ? न तावदयं दृश्यतेऽर्थस्य सदातीन्द्रियत्वात् । कार्यवैचित्र्येण कल्पनीयश्चेत् ? दृश्यस्य समनन्तरप्रत्ययस्यैव शक्तिवैचित्र्यां कल्प्यताम्, गेन स्वप्नज्ञानेऽप्याकारवैचित्र्यं घटते, नहि तत्र देशकालव्यवहितानामर्थानां
भेद का व्यापक दोनों के सम्बन्ध को उपलब्धि नहीं होती है । ज्ञान के द्वारा समझ में आनेवाले घटादि ज्ञान से भिन्न नहीं हो सकते । इस प्रकार वेद्यत्व भेदरूप विपक्ष से हट जाता है एवं अभेद के साथ व्याप्त हो जाता है । 'अहम्' इस आकार के ज्ञान का विषय (आत्मा) और ज्ञान के अभेद का भी समर्थन हो जाता है। विषय, प्रमाण एवं ज्ञान इनमें जो परस्पर भिन्नत्व की प्रतीति होती है, वह एक ही चन्द्रमा में द्वित्व के अवभास की तरह भ्रम है । इस भ्रम में भी अनादि एवं सतत प्रवाहित होनेवाली वासना ही कारण हैं । जैसा कहा है कि भ्रान्तिरूप ज्ञान में ही चन्द्रमा में द्वित्व की तरह भेद भासित होता है । अगर नीलादि बाह्य विषयों की सत्ता ही नहीं है तो फिर नीलादि आकारों से युक्त इन विविध बुद्धियों का कारण कौन है ? जैसा कहा है कि "अर्थ विषयक बुद्धि अर्थाकार होती है, अतः बुद्धि आकार रूप विशेषण से युक्त अवश्य है, अतः यह विचार उठता है कि यह आकार विशिष्ट बुद्धि बाह्य वस्तु से होती है या और किसी वस्तु से ? इस विषय में विज्ञानवादी कहते हैं कि (प्र०) बाह्य वस्तुओं की सत्ता मान लेने के पक्ष में आकारविशिष्ट बुद्धि का कारण कौन होगा ? अगर नीलादि अर्थों को कारण मानें तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि वे कभी देखे नहीं जाते। क्योंकि अर्थ सदा ही इन्द्रिय के अगोचर हैं। अगर कार्यों की विचित्रता से उसका अनुमान करते हैं तो फिर अतीन्द्रिय अर्थ में उस शक्ति की कल्पना की अपेक्षा दृश्य समनन्तरप्रत्यथ में ही विचित्र शक्ति की कल्पना क्यों नहीं कर लेते ? जिससे कि स्वप्नज्ञान में भी आकार की विचित्रता को उपपत्ति हो सके । स्वप्नज्ञान में भासित होनेवाले एवं देश और काल से व्यवहित विषयों में
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३०५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली सामर्थ्यम. अविद्यमानत्वात । नन्वेवं विचित्रप्रत्ययोऽपि न स्याज्ज्ञानस्यैकत्वेन तदव्यतिरेकिणामप्येकत्वप्रसङ्गात, प्रत्याकारं च ज्ञानभेदे ज्ञानानां प्रत्येक स्वाकारमात्रनियतत्वात, तेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सर्वाकारग्राहकस्याभावात् । अत्र ब्रूमः—न तावच्चित्रं रूपं न प्रकाशते ? संवित्तिविरोधात् । जडस्य च प्रकाशायोगः । तेनेदं ज्ञानात्मकमेव रूपम्, न चाकारभेदेन ज्ञानभेदः, चित्ररूपस्यैकस्याकार. भेदाभावात् । यथा नीलस्यैको नीलस्वभाव आकारः, तथा वैचित्र्यस्यैकस्य चित्रस्वभाव एवाकारः । तस्मिश्चात्मभूते ज्ञानं प्रवर्तमानं कृत्स्न एव प्रवर्तते, यदि वा न प्रवर्तत एव । न तु भागेन प्रवर्तते, तस्य निर्भागत्वात् । ये त्वमी भागाः परस्परविविक्ताः प्रतिभान्ति, न ते चित्रं रूपमिति न काचिदनुपपत्तिः । स्थलाकारोऽप्यनजैव दिशा समर्थनीयः । अवयवी त्वेकः स्थूलो वा नोपपद्यते । नानावयववृत्तित्वेन तस्य नानात्वापातात् । ज्ञानाकारस्त्वेकमिन् ज्ञाने वर्तमान एकः स्थूलो भवत्येव। कम्पाकम्पादिविरोधस्तु संविद्विरोधो व्युदसनीय इति केचित् ।
स्वप्नज्ञान की कारणता सम्भव ही नहीं है, क्योंकि उस समय उनका अस्तित्व ही नहीं है। (उ०) ज्ञान और अर्थ यदि एक हों तो फिर चित्र रूप की प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि चित्र रूप विषयक प्रतीति एक है, उससे अभिन्न रूप भी एक ही होगा । आकार के भेद से यदि ज्ञानों का भेद मानें तो फिर प्रत्येक ज्ञान आकार में नियत होगा, उनसे अतिरिक्त सभी रूपों का एक आकार का कोई एक ग्राहक सम्भव नहीं होगा। (प्र०) यह कहना अनुभव से विरुद्ध है कि चित्र रूप की प्रतीति ही नहीं होती है। चूंकि जड़ में प्रकाश का सम्बन्ध सम्भव नहीं है, अतः प्रकाशित होनेवाला चित्र रूप भी ज्ञान रूप ही है। चित्र रूप एक है, उसके विभिन्न आकार नहीं हैं। अत: यह कहना भी सम्भव नहीं है कि चित्र रूप की प्रतीति वस्तुतः अनेक रूपों की विभिन्न आकार की अनेक प्रतीतियाँ ही हैं। जैसे कि नील का नीलस्वभाव रूप एक ही आकार है, वैसे ही वैचित्र्य का भी चित्र स्वभाव रूप एक ही आकार है । इस स्वतन्त्र एक आकार की वस्तु में यदि ज्ञान प्रवृत्त होगा तो सम्पूर्ण में ही प्रवृत्त होगा अथवा प्रवृत्त ही नहीं होगा, किन्तु उसके किसी एक अंश में प्रवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह अंशों से शून्य है, उसके जो परस्पर भिन्न भाग मालूम होते हैं वै चित्र रूप नहीं है। अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है। वस्तुओं के स्थूल आकारों का भी समर्थन इसी रास्ते से करना चाहिए। किसी बौद्ध विशेष का मत है कि सभी अवयवों में रहनेवाला एक स्थूल अवयवी का मानना ठीक नहीं जंचता, क्योंकि अनेक अवयवों से सम्बद्ध रहने के कारण उसमें भी अनेकत्व की ही आपत्ति होगी । उसको अगर ज्ञान का आकार मान लेते हैं तो फिर एक आकार के ज्ञान में आरूढ़ वस्तु में स्थूलत्व और एकत्व दोनों का रहना असम्भव नहीं होता । नाना अवयवों से एक स्थूलाकार वस्तु मानने में एक ही वस्तु में कम्प और अकम्प रूप होनेवाले विरोध रूप दोष तो वस्तुतः ज्ञानों का ही विरोध है, जिसका परिहार कर लेना चाहिए ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
न्यायकन्दली अपरे तु ज्ञानाकारस्याप्यनादिवासनावशेन प्रतिभासमानस्य विचारा. क्षमत्वमलीकत्वमेव तत्त्वमाहुः । तथा च यः प्रत्ययः स बाह्यानालम्बनो यथा स्वप्नादिप्रत्ययः, प्रत्ययश्चायं जाग्रतः स्तम्भादिप्रत्ययः, निरालम्बनता हि प्रत्ययत्वमात्रानुबन्धिनी स्वप्नादिषु दृष्टा, जाग्रतः प्रत्ययस्यापि प्रत्ययत्वमेव स्वभावः, स यदि निरालम्बनत्वं परित्यजति तदा स्वभावमेव परित्यजेत् । ननु सर्वप्रत्ययानामनालम्बनत्वे मिहेतुदृष्टान्तादिप्रत्ययानामनालम्बनत्वम्, ततश्च धमिहेत्वाद्यभावान्नानुमानप्रवृत्तिः। अथ ते सालम्बनास्तैरेवास्य हेतोय॑भिचारः ? नैवम्, तेषां बहिरनालम्बनानां संवृतिमात्रेणानुमानप्रवृत्तिहेतुत्गात् । दृष्टा ह्यविद्यातो विद्याप्राप्तिः, यथा लिप्यक्षरेभ्यो वर्णप्रतीतिः, वर्णप्रतिपादकरेखादयोऽपि
कोई (माध्यमिक) बौद्ध मतावलम्बी कहते हैं कि ज्ञानाकार से वस्तुओं का प्रतिभास भी अनादि वासना से ही होता है, अतः इसका निर्वचन भी असम्भव है। अतः 'विचाराक्षमत्व' रूप 'शून्यत्व' ही तत्त्व है। जितने भी ज्ञान हैं, उनका कोई बाह्य वस्तु विषय नहीं है । जैसे कि स्वप्न ज्ञान का कोई बाह्य विषय नहीं होता । जाग्रदवस्था के पुरुषों का स्तम्भादि विषयक ज्ञान भी केवल ज्ञान होने के नाते ही बाह्य विषय शून्य है। क्योंकि स्वप्नज्ञान को केवल ज्ञान होने के नाते ही विषयशून्य और ज्ञान दोनों समझा जाता है। अतः जागते हुए व्यक्ति का ज्ञान भी केवल ज्ञानत्व स्वभाव का ही है, उसका भी स्वभाव सविषयकत्व नहीं है, (अर्थात् स्वप्न ज्ञान की तरह जाग्रदवस्था का ज्ञान भी निविषयक ही है, जिससे सभी विषयों की सत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती). अतः स्तम्भादि विषयक ज्ञान यदि निविषयकत्व को छोड़ेगा तो अपने ज्ञानत्व को भी खो बैठेगा। (प्र०) अगर सभी ज्ञान निविषयक ही हों उो (आपके अभिमत का साधक) पक्ष, हेतु, दृष्टान्तादि विषयक ज्ञान भी विषय शून्य ही होंगे, फिर पक्ष साध्य प्रभृति के अभाव से (आपको अभिमत) अनुमिति की ही प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। वे पक्षादि यदि सविषयक हैं तो फिर उन्हीं ज्ञानों में (निविषयकत्व का साधक ज्ञानत्व रूप) आपका हेतु व्यभिचरित होगा । (उ०) नहीं, यह बात नहीं है, क्योंकि वे पक्षादि विषयक ज्ञान वस्तुतः निविषयक होने पर भी केवल संवृति (अविद्या) के कारण ही अनुमानप्रवृत्ति के कारण हैं। अविद्या से भी विद्या (यथार्थज्ञान) की उत्पत्ति देखी जाती है। जैसे कि लिपि से वर्गों की प्रतीति होती है । (प्र०) वर्ण को ज्ञापक रेखादि रूप वे लिपियां भी तो स्वरूपतः सत्य ही हैं ? (उ०) यह सत्य है कि वे रेखादि रूप से सत्य हैं, किन्तु वे अपने रेखात्व रूप से तो वर्गों के ज्ञापक नहीं हैं । उन रेखाओं में जब ककार। दि वर्णों का आरोप किया जाता है, तब उसी आरोपित रूप से वे वर्ण की प्रतीति को उत्पन्न करती हैं। अतः स्वरूपतः सत्य होते हुए भी
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३०७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दलो स्वरूपेण सत्याः । सत्यं सत्याः, न तु तेन रूपेण प्रतिपादकाः । ककारादिरूपाध्यारोपेण प्रतिपादकाः, तदेषां कार्योपयोगित्वमसत्यमेवेति पूर्वपक्षसंक्षेपः ।
यत्तावदुक्तं ग्राह्यलक्षणायोगादिति न तदर्थाभावसाधनसमर्थम्, ग्राह्यलक्षणो ह्यर्थो ग्राह्यो न भवेन्न तु तस्यासद्भावः, ग्रहणाभावस्य पिशाचादिवत् स्वरूपविप्रकर्षणाप्युपपत्तेः । ग्रहणयोग्ये सत्यग्रहणादभावसिद्धिरिति चेत् ? कथं पुनरस्य योग्यता संप्रधारिता ? नहि तस्य ग्रहणं क्वचिदभूत्, भूतं चेन्न ग्राह्यलक्षणायोगः । किञ्च, ग्राहकाधीनं ग्रहणम्, ग्राहकं च ज्ञानं स्वात्ममात्रनियतमित्येतावतंव तदन्यस्याग्राह्यता, ग्राह्याभावादेव चेदमग्रहणमिति साध्याविशिष्टम् । अपि चेदं भवान् पृष्टो व्याचष्टां का ज्ञानाकारस्य ग्राह्यता ? नहि तस्यास्ति ज्ञानहेतुत्वं तदव्यतिरेकात् । नाप्याकाराधायकत्वम्, आकारद्वयाननुभवात् । न च कार्योपयोगित्व रूप से असत्य ही हैं। इतना तक बाह्य अर्थ की यथार्थ सत्ता माननेवाले हम लोगों पर बाह्य अर्थ की यथार्थ सत्ता को न माननेवाले बौद्धों के आक्षेप रूप पूर्वपक्ष का संक्षेप में वर्णन है।
(अब इस प्रसङ्ग में हम लोगों का उत्तर सुनिये) यह जो कहा गया है कि 'ग्राह्यलक्षण' के अयोग से बाह्य वस्तुओं की सत्ता नहीं हैं यह इसलिए गलत है कि ग्राह्यलक्षण का अयोग रूप यह हेतु बाह्य वस्तु के स्वतन्त्र अस्तित्व के खण्डन का सामर्थ नहीं रखता है । इससे इतना ही हो सकता है कि बाह्य वस्तुएँ ज्ञात न हो सकेंगी, किन्तु इससे इनके अस्तित्व का लोप नहीं हो सकता, क्योंकि वस्तुओं के ग्रहण (ज्ञान) का न होना स्वरूपविप्रकर्ष (ज्ञान होने की योग्यता के अभाव) से भी हो सकता है। जैसे कि पिशाचादि की सत्ता रहते हुए भी उनका ग्रहण नहीं होता। (प्र.) ग्रहण की योग्यता रहने पर भी कभी-कभी कोई विषय गृहीत नहीं होता है, इससे समझते हैं कि उसकी सत्ता नहीं है । (उ०) आपने इसकी योग्यता कैसे निश्चित की ? क्योंकि आपको तो उसका भी ज्ञान नहीं है । अगर है तो फिर उसमें ग्राह्य लक्षण रूप हेतु ही नहीं है । और भी बात है, ग्रहण ग्राहक से होता है। ज्ञान ही ग्राहक है। वह केवल अपने स्वरूप में ही नियत है, (अर्थात् उसमें किसी बाह्य वस्तु का सम्बन्ध नहीं है ), केवल इसीलिए ज्ञान से अतिरिक्त वस्तु को आप अग्राह्य कहते हैं । एवं (आप ही कहते हैं कि) वस्तुओं का ग्रहण इसलिए नहीं होता कि वह अग्राह्य हैं । अतः यह ग्राह्यलक्षण का अयोग रूप हेतु साध्याविशिष्ट है, (अर्थात् सिद्ध नहीं है, किन्तु हेतु को सिद्ध होना चाहिए)। और भी मुझे पूछना है कि ज्ञानाकार में यह ग्राह्यता क्या है ? उस आकार में ज्ञान की कारणता तो ग्राह्यता नहीं है, क्योंकि वह आकार ज्ञान से अभिन्न है। (अतः उक्त ग्राह्यता ज्ञानकारणत्व रूप नहीं है) । ज्ञान में आकार सम्पादन की क्षमता भी ग्राह्यता नहीं हो सकती, क्योंकि विषयों के आकार से भिन्न ज्ञानाकार नाम की किसी दूसरी वस्तु का अनुभव नहीं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेसंख्या
न्यायकन्दली
ज्ञानात्मकत्वमेव ग्राह्यत्वम्, सुषुप्तावस्थायां ज्ञानात्मभूतस्य ज्ञानसन्तानवदनुवर्तमानस्यापि ग्रहणाभावात् । अवभासमानत्वमेव तस्य ग्राह्यत्वमिति चेत् ? कोऽयमाकारस्यावभासः ? ज्ञानप्रतिबद्धहानादिव्यवहारयोग्यतापत्तिश्चेत् ? बाह्यस्यापि सैव योग्यता । तथा हि-नीलं पीतमेतदिति संवादिना बाह्यमेवोपाददते जहत्युपेक्षन्ते वा, नान्तरमाकारमित्यसिद्धो ग्राह्यलक्षणायोगः, कथमन्यस्योत्पत्त्यान्यस्य व्यवहारयोग्यतेति चेत् ? तस्य स्वरूपकारणसाभग्रीनियमेन तद्विषयव्यवहारानुगुणस्वभावस्योत्पादनादिति यत्किञ्चिदेतत् ।
एतेन वेद्यत्वमपि प्रत्युक्तम् । भेदेऽपि ज्ञानस्वभावकारणसामग्रीनियमादेव तस्योपपत्तेः, सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् । यदपि जडस्य प्रकाशायोग इति, तदपि प्रकाशानात्मकत्वाभिप्रायेण । सिद्धसाधनं संसर्गाभिप्रायेण निरुपपत्तिकम् । नहि जडस्य प्रकाशसंसर्गेण न भवितव्यमित्यस्ति राजाज्ञा, यथा होता। ज्ञान रूपत्व भी ग्राह्यत्व नहीं है, क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में ज्ञान रूप ज्ञान समह की तरह बराबर रहनेवाले विषय रूप ज्ञान की भी उपलब्धि नहीं होता है। यदि अवभासमानत्व को ही ग्राह्यत्व कहें तो फिर यह पूछना है कि आकारों का यह अवभासमानत्व क्या वस्तु है ? यदि वह ज्ञान के साथ नियमित रूप से सम्बद्ध ग्रहण करने की योग्यता या त्याग करने की योग्यता ही है तो फिर बाह्य वस्तुओं में ( अर्थात् वस्तुओं को बाह्य मान लेने पर ) भी उक्त दोनों प्रकार की योग्यतायें हैं ही, क्योंकि “यह नील है, यह पीत है' इत्यादि यथार्थ ज्ञानों से युक्त पुरुष उन ज्ञानों से बाह्य वस्तुओं को ही लेता है, छोड़ता है, या उपेक्षा कर देता है, किसी आन्तर वस्तु से नहीं । तस्मात् 'ग्राह्यलक्षण' का अयोग रूप आपका हेतु ही सिद्ध नहीं है । (प्र०) एक (ज्ञान) की उत्पत्ति से दूसरे (उस ज्ञान के विषय बाह्य वस्तु) में व्यवहार की योग्यता कैसे होती है ? (प्र०) इसमें कोई बात नहीं है, क्योंकि अपनी सामग्री रूप नियमित कारणों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह उसके विषय में व्यवहार योग्यता सम्पादन की क्षमता रूप स्वभाव को लेकर ही उत्पन्न होता है।
इसी से ज्ञान और विषय के अभेद का साधक वेद्यत्व हेतु भी खण्डित हो गया, क्योंकि ज्ञान और विषय को भिन्न मान लेने पर भी ज्ञान का स्वभाव और सामग्री का नियम इन दोनों से ही (घटज्ञान से ही घट समझा जाय) इस नियम की उपपत्ति हो जाएगी । उक्त वेद्यत्व हेतु में विपक्ष की व्यावृत्ति भी सन्दिग्ध है। एवं प्रकाश का 'योग' ( सम्बन्ध ) असम्भव है, इस कथन से (योग शब्द के द्वारा) यदि जड़ और प्रकाश का अभेद ( सम्बन्ध ) आपको अभीष्ट है, तो फिर यह सिद्धसाधन है। यदि इससे जड़ में प्रकाश के सम्बन्ध का असम्भव कहना अभिप्रेत है, तो फिर इस प्रसङ्ग में यह कहना है कि यह युक्ति से शून्य है, एवं
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३०३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली छिदिक्रिया छेद्येन सम्बध्यते भिद्यते च, तथा ज्ञानक्रियापि ज्ञेयेन सह संभन्त्स्यते भेत्स्यते च । सहोपलम्भनियमस्यापि विपक्षाद् व्यावृत्तिः सन्दिग्धा, ज्ञानस्य स्वपरसंवेद्यतामात्रेणैव नीलतद्धियोर्युगपद्ग्रहणनियमस्योपपत्तेः । बाह्याभावाज्ज्ञानं परस्य संवेदकं न भवतीति चेत् ? बाह्याभावसिद्धौ हेतोविपक्षाद् व्यावृत्तिसिद्धिः, तत्सिद्धौ चास्य विपक्षाभावं प्रति हेतुत्वमित्यन्योन्यापेक्षित्वम् ? तदेवास्तु किमनेन ? असिद्धश्च सहोपलम्भनियमो नीलमेतदिति बहिर्मुखतयार्थेऽनुभूयमाने तदानीमेवान्तरस्य तदनुभवस्यानुभवात् । ज्ञानस्य स्वसंवेदनतासिद्धौ सहोपलम्भनियमसिद्धिरिति चेत् ? स्वसंवेदनसिद्धौ किं प्रमाणम् ? यत्प्रकाशं तत्स्वप्रकाशे परानपेक्षं यथा प्रदीप इति चेत् ? प्रदीपस्य तद्देशतितमोपनयने व्यापारः, स चानेन स्वयमेव कृत इति तदर्थं प्रदीपान्तरं नापेक्षते, वैयर्थ्यात् । स्वप्रतिपत्तौ तु चक्षुरादिकमपेक्षत एवेति साध्यविकलता दृष्टान्तस्य । अथ प्रकाशकत्वं ज्ञानत्वमभिप्रेतम् ? तस्मात परानपेक्षा, तदानीमसाधारणो हेतुः । किसी राजा की आज्ञा भी नहीं है कि जड़ और प्रकाश में सम्बन्ध न हो। जैसे कि छेदन क्रिया छेद्य वस्तु से भिन्न होती हुई भी उसके साथ सम्बद्ध होती है, उसी प्रकार ज्ञान रूप क्रिया भी ज्ञेय वस्तु से भिन्न होने पर भी उसके साथ सम्बद्ध होगी। एवं कथित 'सहोपलम्भनियम' रूप हेतु में भी विपक्ष की व्यावृत्ति सन्दिग्ध ही है, क्योंकि ज्ञान को 'स्व' एवं 'स्व' से भिन्न (अपना विषय) दोनों का प्रकाशक मान लेने से ही उक्त 'सहोपलम्भ' नियम की उपपत्ति हो जाएगी। (प्र०). बाह्य वस्तु की तो सत्ता ही नहीं हैं, फिर ज्ञान दूसरे का ज्ञापक कैसे होगा। (उ०) यह कहना तो स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय से दूषित है, क्योंकि बाह्य वस्तु की सत्ता के उठ जाने पर सहोपलम्भ रूप हेतु में विपक्षव्यावृत्ति का निश्चय होगा, और विषक्ष व्यावृत्ति के सिद्ध हो जाने पर सहोपलम्भनियम रूप हेतु के विपक्ष । बाह्य वस्तु) के अभाव की सिद्धि होगी। (प्र.) उक्त हेतु में विपक्ष की व्यावृत्ति के न रहने से ही क्या ? (उ०) वस्तुतः सहोपलम्भनियम रूप हेतु ही असिद्ध है, क्योंकि नील और नीलविषयक ज्ञान इन दोनों का अनुभव एक समय में नहीं होता। नील की बहिर्मुख प्रतीति हो जाने के अव्यवहित उत्तर क्षण में नील ज्ञान की अन्तर्मुखतया उपलब्धि होती है। (प्र.) ज्ञान को स्वतः प्रकाश मान लेने से ही सहोपलम्भनियम की सिद्धि होगी। (उ०) ज्ञान को स्वसंवेदन (स्वतः प्रकाश) मानने में ही क्या युक्ति है ? (प्र०) जो प्रकाश रूप होता है वह अपने प्रकाश के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता, जैसे कि प्रदीप । (उ०) प्रत्यक्ष के उत्पादन में प्रदीप का इतना ही उपयोग है कि वह विषयदेश के अन्धकार को हटाता है। प्रदीप अपने प्रत्यक्ष के लिए भी अन्धकार को हटाने का काम स्वयं कर लेता है, अतः प्रदीप के प्रत्यक्ष में दूसरे प्रदीप की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु चक्षुरादि
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाध्यम
[गुणे संख्या
न्यायकन्दली
यच्चोक्तं यस्याव्यक्तः प्रकाशः तत्स्वयमव्यक्तं यथा पिहितं वस्त्विति, तत्र पिहितस्याव्यक्तता अप्रकाशः, तन्न, स्वयमव्यक्तत्वात् किन्त्वभावादेवेति व्याप्त्यसिद्धिः । यच्च प्रत्ययत्वादिति तदप्यसारं दृष्टान्तासिद्धेः। स्वप्नादिप्रत्यया अपि समारोपितबाह्यालम्बना न स्वात्ममात्रपर्यवसायिनः, जाग्रदवस्थोपयुक्तानामेवार्थानां संस्कारवशेन तथा प्रतिभासनात्, अन्यथा दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु तदुत्पत्तिनियमायोगात् । किञ्च, यदि बाह्यं नास्ति किमिदानी नियताकारं प्रतीयते नीलमेतदिति । विज्ञानाकारोऽयमिति चेन्न, ज्ञानाद्वहिर्भूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे त्वहं नीलमिति प्रतीतिः स्यान्न विदं नीलमिति । ज्ञानानां प्रत्येकमाकारभेदात् कस्यचिदहमिति प्रतीतिः कस्यचिदिदं नीलमिति चेत् ? नीलाद्याकारवदहमित्या
को अपेक्षा तो रहती ही हैं। अतः प्रदीप रूप दृष्टान में स्वतः प्रकाशकत्व का ज्ञापक परानपेक्षत्व रूप हेतु नहीं है । यदि ज्ञानत्व को ही प्रकाशकत्व रूप मानें तो फिर 'स्वतः प्रकाशत्व' का साधक परानपेक्षत्व हेतु उस समय असाधारण नाम का हेत्वाभास होगा।
यह जो आप ने कहा कि-' ढकी हुई चीज की तरह जिसका प्रकाश अव्यक्त रहता है वह स्वयं भी अव्यक्त ही रहता है ।" इस प्रसङ्ग में कहना है कि आवृत वस्तु का अप्रकाश ही उसकी अव्यक्तता है, जो वस्तुतः उस वस्तु के प्रकाश का अभाव मात्र है। उस वस्तु के प्रकाशक की अव्यक्तता उस वस्तु की अव्यक्तता नहीं है । अत: ज्ञान के स्वतः प्रकाशत्व की साधक उक्त व्यतिरेक व्याप्ति भी सिद्ध नहीं है । (बाह्य वस्तुओं की असत्ता के साधक या ज्ञान में विषय शून्यत्व या निराल. म्बनत्व का साधक) प्रत्यक्षत्व (ज्ञानत्व) हेतु में भी कुछ बल नहीं है, क्योंकि इस हेतु का (स्वप्न ज्ञान रूप) दृष्टान्त ही असिद्ध है । स्वप्नज्ञान भी बाह्य विषयक है ही। वहाँ वे केवल अपने स्वरूप में नहीं हैं। जाग्रत् अवस्था के ज्ञान में भासित होने योग्य विषयों का ही संस्कारवश स्वप्नज्ञान में भान होता है। अगर यह बात न हो तो स्वप्नज्ञान में नियमतः उसी विषय का भान कैसे हो जो वस्तु पहिले से ही श्रुत या दृष्ट हो। दूसरी बात यह है कि अगर बाह्य वस्तु नहीं है तो फिर यह नील है' इत्यादि प्रतीतियों में नियमित रूप से किसका भान होता है ? (प्र०) प्रतीतियों में भासित होनेवाले आकार विज्ञान के हैं ? (उ०) ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त प्रतीतियां ज्ञान से भिन्न अर्थ विषयक ही होती हैं। अगर उक्त प्रतीतियों में भासित होनेवाले आकार भी विज्ञान के ही हों तो फिर उन प्रतीतियों का अभिलाप "यह नील है" इस प्रकार का न होकर 'मैं नील हूँ' इत्यादि आकार का होगा। (प्र०) ज्ञानों के प्रत्येक आकार भिन्न-भिन्न हैं। इनमें से किसी आकार को प्रताति 'अहम्' के साथ होती है, एवं किसी आकार की प्रतीति 'इदम्' के साथ । (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि नीलादि आकारों की तरह 'अहम्' आकार नियमित
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३११
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली कारस्य व्यवस्थितत्वाभावात् । तथा च यदेकेनाहमिति प्रतीयते तदपरेण त्वमिति प्रतीयते, स्वयं स्वस्य संवेदनेऽहमिति प्रतिभास इति चेत् ? कि वै परस्यापि संवेदनमस्ति ? स्वरूपस्यापि भ्रान्त्या भेदप्रतीतिरिति चेत् ? प्रत्यक्षेण प्रतीतो भेदो वास्तवो न कस्मात् ? भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेत् ? यथोक्तम्
परिच्छेदान्तरं योऽयं भागो बहिरवस्थितः।
ज्ञानस्याभेदिनो भेदप्रतिभासो ह्यपप्लवः ॥ इति । कुत एतत् ? अनुमानेनाभेदसाधनादिति चेत् ? प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वेनाबाधितविषयत्वादनुमानस्यात्मलाभः, लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमित्यन्योन्यापेक्षितादोषः। अस्तु वा भेदो विप्लवो नियतदेशाधिकरणप्रतीतिः, कुतः ? नहि तत्रायमारोपयितव्यो नान्यत्रेत्यस्ति नियमहेतुः । वासनानियमात् तदारोपनियमः स्यादिति चेन्न, तस्या अपि तद्देशनियमकारणाभावात् । सति ह्यर्थसद्भावे यद्देशोऽर्थस्तद्देशानुभवस्तद्देशा च तत्पूर्विका वासना, बाह्याभावे
नहीं है। जिसको एक आकार की प्रतीति 'अहम्' रूप से होती है, उसी आकार की प्रतीति किसी दूसरे को 'त्वम्' रूप से या 'इदम्' रूप से होती है। (प्र०) (यह नियम है कि) स्वयं की प्रतीति अपने को 'अहम्' आकार से होती है। (उ०) 'स्नयं' से भिन्न का भी तो संवेदन होता है। (प्र.) वह संवेदन भी वस्तुत: 'स्व' रूप का ही है, किन्तु भ्रान्तिवश उसमें भेद की प्रतीति होती है। (उ०) प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाला यह भेद वास्तविक ही क्यों नहीं है । (प्र०) चूकि प्रत्यक्ष भ्रान्त है । जैसा कहा है कि जो अंश ज्ञान से भिन्न एवं बाह्य मालूम होता है, वह भी ज्ञान से अभिन्न ही है, उसमें ज्ञान भेद की प्रतीति भ्रान्ति है। (उ०) यह क्यों ? (प्र.) चूकि अनुमान से ज्ञान और अर्थ का अभेद सिद्ध है। (उ०) उक्त कथन असङ्गत है, क्योंकि यह अन्योन्याश्रय से दूषित है। कथित अभेद का साधक अनुमान इस लिए प्रमाण है भेद का साधक प्रत्यक्ष भ्रान्त है । प्रत्यक्ष इसलिये भ्रान्त है कि अभेद का साधक अनुमान प्रमाण है । अगर यह मान भी लें कि उक्त भेद की प्रतीति भ्रान्ति है, फिर भी नियमित देश रूप अधिकरण की प्रतीति कैसे उपपन्न होगी? क्योंकि इसका नियामक कोई नहीं है कि अमुक आकार के विज्ञान का आरोप अमुक आकार के विज्ञान में ही हो, विज्ञान के दूसरे आकारों में न ? (प्र०) वासना के नियम से आरोप का नियम होगा ? (उ०) वासना में मी तद्देशविषयकत्व का कोई नियामक नहीं है। बाह्य वस्तुएँ जब रहती हैं, तब जो अर्थ जिस देश में रहता है उस अर्थ विशिष्ट उस देश का अनुभव होता है, एवं उस देश विषयक इस अनुभव से ही उस देश विषयक 'वासना' (संस्कार) उत्पन्न होती है। अगर बाह्य अर्थ ही न रहेंगे तो फिर वासना में भी यह विशेष किससे उपपन्न होगा ? विना विशेष कारण के विशेष
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
___ न्यायकन्दली तु तस्याः किंकृतो देशनियमः ? न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषो घटते, बाह्यश्चार्थो नास्ति । तेन वासनानामेव वैचित्र्यं तद्वैचित्र्यस्यार्थवत्तत्कारणानां वैचित्र्यादित्यनादिरिति चेत् ? वासनावैचित्र्यं यदि बोधाकारादनन्यत् कस्तासां परस्परतो विशेषः ? अथान्यदर्थे कः प्रद्वेषः ? येन सर्वलोकप्रतीतिरपह्रयते । केन चायमाकारो बहिरारोप्यते ? ज्ञानेन चेत? किं तस्य स्वात्मन्याकारसंवित्तिरेव बहिरारोपस्तदन्यो वा ? आये कल्पे सेव तस्य सम्यकप्रतीतिः, सैव च मिथ्येत्यापतितम्, ज्ञानगतत्वेनाकारग्रहणस्य सत्यत्वात्, बाह्यतासंवित्तश्चायथार्थत्वात् । अन्यत्वे तु तयोर्न क्रमेण भावः, तत्कारणस्य ज्ञानस्य क्षणिकत्वात् । न चैकस्य युगपत्सत्यत्वेन मिथ्यात्वेन च प्रतीतिसम्भवः । न च क्रमयोगपद्याभ्यामन्यः प्रकारोऽस्ति, यत्र वर्तमानं ज्ञानं स्वात्मन्याकारं गृह्णीयाद्वहिश्च तमारोपयति । ___अपि च यदि ज्ञानाकारो नीलादिरों यस्यैवायमाकारः स एव तं प्रतीयात्, न पुरुषान्तरं प्रतीयात् । प्रतीयते चायं बहुभिरेकः, सर्वेषां तदाभिमुख्येन
कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। (प्र.) चूकि बाह्य वस्तुओं की सत्ता नहीं है, अतः वासना में ही वैचित्र्य की कल्पना करते हैं। प्रयोजन से युक्त (उस पहिलो वासना में स्थित) कारणों का वैचित्र्य ही उक्त वासना के वैचित्र्य का कारण है। (उ०) वासनाओं के ये वैचित्र्य भी अगर केवल विज्ञान रूप ही हैं तो फिर उन में परस्पर भेद क्या है ? अगर ये वैचित्र्य विज्ञान से भिज्ञ हैं तो फिर नीलादि वस्तुओं को ही विज्ञान से भिन्न मानने में आपको क्यों द्वेष है ? जिससे कि सर्वजनीन प्रतीतियों का आप अपलाप करते हैं। (एवं) विज्ञान के आकारों का यह आरोप कौन करता है ? अगर ज्ञान ही ? अगर आकार से अभिन्न विज्ञान में ही आकार का भान होता है और वही आरोप कहलाता है, तो फिर इस पक्ष में एक ही ज्ञान को सत्य और मिथ्या दोनों ही कहने की आपत्ति होगी, क्योंकि ज्ञान हो आकार के ग्रहण रूप होने से सत्य है, एवं उसमें बाह्यत्व का आरोप होने से मिथ्या है । अगर आकार विज्ञान और आकाराधायक विज्ञान दोनों को भिन्न माने तो फिर उक्त कारणविज्ञान और कार्यविज्ञान दोनों की क्रमशः सत्ता नहीं रहेगी, क्योंकि कारणविज्ञान क्षणिक है। (अगर दोनों विज्ञानों को एक मानें तो फिर) एक ही विज्ञान एक ही समय सत्य और मिथ्या दोनों नहीं हो सकता। क्रम और योगपद्य को छोड़कर कोई तीसरा प्रकार नहीं है कि जिस रूप में विद्यमान आकार अपने से अभिन्न आकार का भी ग्रहण करे और अपने आकार को बाहर आरोपित भी करे।
और भी बात है। अगर ये नीलादि वस्तुएँ विज्ञान के ही आकार हों तो फिर जिस पुरुष के विज्ञान के ये आकार होंगे केवल उसी पुरुष से गृहीत हो सकेंगे, दूसरे पुरुषों से नहीं, किन्तु एक ही वस्तु अनेक पुरुषों से गृहीत होती है, क्योंकि एक
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३११ न्यायकन्दली युगपत्प्रवृत्तेः, यस्त्वया दृष्टः स मयापीति प्रतिसन्धानात् । तस्मादर्थोऽयं न ज्ञानाकारः।
ये तु ज्ञानाकारमप्यपह्नवाना अलीका एव नीलादयः प्रतिभासन्ते इत्याहुः, तेषां कारणनियमादुत्पत्तिनियमोऽर्थक्रियानियमश्च न प्राप्नोति, अर्थाभावेन किञ्चित् कस्यचित् कारणम्, सर्व वा सर्वस्य, नार्थक्रियासंवादो न वा विसंवादो विशेषाभावात् । यथोक्तं गुरुभिः
आशामोदकतृप्ता ये ये चोपाजितमोदकाः ।
रसवीर्यविपाकादि तेषां तुल्यं प्रसज्यते ॥ इति । वासनाविशेषात् तद्विशेषसिद्धिरिति चेत् ? सा यदि बाह्यार्थक्रियाविशेषहेतुः ? संज्ञाभेदमात्रम्, अर्थो वासनेति । अथ ज्ञानात्मिका ? अर्थाभावे तस्या विशेषो निनिबन्धनो बोधमात्रस्योपादानस्य सर्वत्राविशेषात्, बोधाकारस्य व्यतिरिक्तस्य च विशेषस्याभ्युपगमेऽर्थसद्भावाभ्युपगमप्रसङ्गादित्युक्तम् । न चास्मिन् पक्षे नीलादिप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वं स्यात्, तज्जननसमर्थक्षणसन्तानस्य सर्वदानुवृत्तेः, अननुवृत्तौ वा कालान्तरेऽपि तत्प्रत्ययानुपपत्तिः, स्वव्यतिरिक्तस्यापेक्षणी. ही वस्तु की ओर एक ही समय अनेक व्यक्ति प्रवृत्त दीख पड़ते हैं । एवं इस प्रकार की प्रतीति भी होती है कि जिसको मैंने देखा था उसी को तुमने भी देखा है' अतः नीलादि (कोई भी) बाह्य वस्तु ज्ञान रूप नहीं है।
___ जो कोई ( माध्यमिक) विज्ञान के इस आकार का भी अपलाप करते हुए 'अलीक' (शून्य ) वस्तु को ही नीलादिबुद्धि का विषय मानते हैं, उनके मत से कारण के नियम से ( कपालादि कारण समूह से घट की ही उत्पत्ति हो पटादि की नहीं ) कायं के ( इस ) नियम को उपपत्ति नहीं होगी। एवं अर्थ-क्रिया ( प्रवृत्ति) का नियम भी अनुपपन्न हो जाएगा, क्योंकि अर्थक्रिया की सत्ता ही नहीं है। अत: यही कहना पड़ेगा कि किसी का कोई कारण नहीं है या सभी वस्तुएं सभी वस्तुओं के कारण हैं । एवं अर्थक्रिया की सफलता भी नहीं होगी विफलता भी नहीं होगी, क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । जैसा कि गुरुओं ने कहा है कि (अगर शून्यता ही तत्त्व हो तो) मन के लड्डू खाने से तृप्त पुरुष के एवं यथार्थ मोदक का उपार्जन कर उसे खानेवाले पुरुष के रस, वीर्य और विपाकादि सभी समान ही होने चाहिए।
(प्र०) वासना के विशेष से दोनों में जो विशेष है, उससे उन दोनों पुरुषों के रस वीर्यादि के अन्तर की उपपत्ति होगी। (उ०) वासना अगर प्रयोजन विशेष के सम्पादन में समर्थ है ? तो फिर नाम का ही अन्तर रह जाता है कि हम उसे अर्थ कहते हैं और आप वासना कहते हैं। अगर वह भी ज्ञान स्वरूप ही है तो अर्थों के न रहने के कारण उसमें वैशिष्ट्य असम्भव है, क्योंकि बोधरूप कारण सभी जगह समान है । पहिले कहा जा चुका है कि बोधाकार से भिन्न किसी विशेष को प्रयोजक मानना वस्तुतः बाह्य वस्तुओं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे परिमाण
प्रशस्तपादभाष्यम् परिमाणं मानव्यवहारकारणम् । तच्चतुर्विधम् -अणु महद् दीर्घ हस्वं चेति । तत्र महद् द्विविधम्-नित्यमनित्यं च । नित्यमा
मान ( तौल और नाप ) के व्यवहार का असाधारण कारण ही 'परिमाण' है। वह अणु, महत्, दीर्घ और ह्रस्व भेद से चार प्रकार का है।
न्यायकन्दली यस्याभावात् । कारणपरिपाकस्य कादाचित्कत्वात् तत्कार्यस्य कादाचित्कत्वमिति चेत् ? कारणस्य परिपाकः कार्यः, कार्यजननं प्रत्याभिमुख्यम्, सोऽपि स्वसंवेदनमात्राधीनो न कादाचित्को भवितुमर्हति । अस्ति चायं कादाचित्कः प्रत्यक्षप्रतिभासः, स एव प्रतीतिविषयं देशकालकारणस्वभावनियतं बाह्यं वस्तु व्यवस्थापयंस्तदभावसाधनं बाधत इति कालात्ययापदिष्टत्वमपि हेतूनामित्युपरम्यते । समधिगता संख्या।
सम्प्रति परिमाणनिरूपणार्थमाह-परिमाणं मानव्यवहारकारणमिति । मानव्यवहारोऽणु महद् दीर्घ ह्रस्वमित्यादिज्ञानं शब्दश्च, तस्य कारणं परिमाणमित्यनेन प्रत्यक्षसिद्धस्यापि परिमाणस्य विप्रतिपन्नं प्रति कार्येण सत्तां दर्शयति । यथा तावज्ज्ञानस्य ज्ञेयप्रसाधकत्वं तथोक्तम् । को ही मानना है। एवं इस पक्ष में नीलादि प्रतीतियों का कादाचित्कत्व (कभी होना कभी न होना) को उपपत्ति भी ठीक नहीं बैठती है, क्योंकि नीलादि विज्ञान के प्रयोजक क्षणसन्तान की सत्ता तो बराबर है ही। अगर सदा उसकी अनुवृत्ति नहीं रहती है तो फिर आगे नीलादि की प्रतीतियां नहीं होंगी। (प्र०) (यद्यपि) कार्य को अपने के भिन्न किसी की अपेक्षा नहीं है फिर भी कारण का परिपाक कदाचित् ही होता है, अतः कार्य भी कभी होता है कभी नहीं। (उ०) कार्य के प्रति उन्मुख होना ही कारणों का परिपाक है, वह भी स्वसंवेदन रूप विज्ञान से भिन्न कुछ भी नहीं है, अतः उसका भी कादाचित्कत्व उचित नहीं है। किन्तु कार्यों का कादाविकत्व प्रत्यक्ष से सिद्ध है । यह प्रत्यक्ष ज्ञान देश, काल और स्वभाव से नियत अपने बाह्य विषय का स्थापन करते हुए उसके अभाव के साधक को भी बाधित करता है। इस प्रकार बाह्य अर्थ को सत्ता का लोप करनेवाले ये सभी हेतु कालात्ययापदिष्ट हैं। (इस प्रकार) संख्या को अच्छी तरह समझा।
'परिमाणं मानव्यवहारकारणम्' इत्यादि पक्ति से अब परिमाण का निरूपण करते हैं। अणु, महत्, दीर्घ, ह्रस्व इन सबों के ज्ञान एवं इन सबों के प्रतिपादक शब्दों के प्रयोग ये दोनों ही प्रकृत 'मानव्यवहार' शब्द से अभिप्रेत हैं। प्रत्यक्ष के द्वारा सिद्ध परिमाण को जो नहीं मानना चाहते, उन्हें (परिमाण के उक्त व्यवहार रूप) कार्य लिङ्गक अनुमान की सूचना 'तस्य परिमाणम्' इत्यादि से देते हैं। जिस प्रकार ज्ञान अपने ज्ञेय अर्थ का साधक है उसे (संख्याप्रकरण में) दिखला चुके हैं।
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३१५
সকল }
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शब्दस्य तु कथम् ? न ह्यसावर्थात्मा, अन्नाग्न्यसिशब्दोच्चारणे मुखस्य पूरणदाहपाटनप्रसङ्गात् । नाप्यर्थजः, कौष्ठयवायुकण्ठाद्यभिघातजत्वात् अतदात्मनोऽतदुत्पन्नस्य प्रतिपादकत्वे चातिप्रसङ्गात् । तदयुक्तम्, यदि कण्ठाद्य भिघातमात्रज एव शब्दो न वक्तुर्विवक्षामपि प्रतिपादयेत् तदुत्पत्त्यभावात् । तथा च वक्तुविवक्षामपि न सूचयेयुः शब्दा इति प्रमत्तगीतं स्यात् । पारम्पर्येण विवक्षापूर्वकत्वाच्छब्दस्य विवक्षाप्रतिपादकत्वमिति चेत् ? एवमर्थानुभवप्रतिपादकत्वमपि, विवक्षाया अर्थानुभवपूर्वकत्वात् । असत्यप्यर्थानुभवे विप्रलम्भकस्य तदर्थविवक्षाप्रतीतिरिति चेत् ? असत्यामपि तदर्थविवक्षायां भ्रान्तस्य तदर्थविषयं वाक्यमुपलब्धम् । यथाहुराचार्याः
____ 'भ्रान्तस्यान्यविवक्षायामन्यद् वाक्यं हि दृश्यते।' इति ।
नान्यविवक्षातोऽन्याभिधानसम्भवः, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यद् यस्य कारणमवगतं तस्य तद्वयभिचारे विश्वस्याकस्मिकत्वप्रसङ्गात्, अतो भ्रान्तस्याप्रतीयमानापि
(प्र.) किन्तु 'शब्द' अपने बोध्य अर्थ का साधक किस तरह से है ? शब्द स्वयं अर्थ स्वरूप नहीं है, अगर ऐसी बात हो तो अन्य शब्द के उच्चारण से ही पेट भर जाय, 'अग्नि' शब्द के उच्चारण से मुंह जल जाय, एवं असि (तलवार) शब्द के उच्चारण से मुह कट जाय । अर्थ से शब्द की उत्पत्ति भी नहीं होती है, क्योंकि कोष्ठसम्बन्धी वायु के कण्ठादि देशों के साथ अभिघात से शब्द की उत्पत्ति होती है। शब्द से भिन्न होने पर भी एवं शब्द का कारण न होने पर भी अगर शब्द से अर्थ का प्रतिपादन माना जाय तो अतिप्रसङ्ग होगा। (उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि अगर शब्द की उत्पत्ति कण्ठादि के अभिघात से ही हो (विवक्षा वक्ता के अर्थ प्रतिपादन की इच्छा से नहीं) तो फिर शब्द विवक्षा का भी ज्ञापक नहीं होगा, क्योंकि विवक्षा से उसकी उत्पत्ति नहीं होती है। अगर विवक्षा की सूचना भी शब्दों से नहीं होगी तो फिर शब्दों का प्रयोग केवल पागल का प्रलाप ही होगा। (प्र.) (विवक्षा साक्षात् शब्द का उत्पादक न होने पर भी) परम्परा से शब्द का उत्पादक है, अतः शब्द विवक्षा का ज्ञापक है। (उ०) इस प्रकार तो शब्द अर्थानुभव का भी सूचक है ही, क्योंकि विवक्षा अर्थानुभव से ही उत्पन्न होती है । (प्र.) अर्थ का अनुभव न रहने पर भी वश्वक पुरुष में अर्थ की विवक्षा देखी जाती है। (उ०) विवक्षा के न रहने पर भी भ्रान्त व्यक्ति के द्वारा उस अर्थ के बोधक शब्द का प्रयोग भी तो देखा जाता है ।
__जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि 'भ्रान्तपुरुष कहना कुछ चाहता है, किन्तु कहता कुछ और ही है' (प्र०) एक की विवक्षा से दूसरा पुरुष शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से जिसमें कारणता निश्चित है, उसके रहते हुए भी अगर कार्य की उत्पत्ति कभी न भी हो तो फिर संसार की सभी रचनाएँ अनियमित हो जाएंगी।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण
न्यायकन्दली तदर्थविवक्षा सहसोपजाता गच्छतृणसंस्पर्शज्ञानवदस्पष्टरूपा कार्येण कल्पनीयेति चेत् ? विप्रलम्भकस्यापि विवक्षाविशेषेण तदर्थानुभवः कल्प्यताम्, असंविदितेऽर्थे तद्विषयस्य विवक्षाविशेषस्यायोगात् । तदानीं विप्रलम्भकस्य तदर्थानुभवो नास्तीति चेत् ? मा स्म भूत्, स्मरणं तावद्विद्यते, विप्रलम्भको हि पूर्वानुभूतमेवार्थमन्यथाभूतमन्यथा च कथयति । तत्रास्य तदर्थविवक्षा स्मरणकारणिका भवन्ती पारम्पर्येण तदनुभवकारणिकेति नास्ति ब्यभिचारः, मिथ्यानुभवपूविकाया अपि विवक्षायाः पारम्पर्येण सत्यानुभवपूर्वकत्वात् । अनुभवश्चार्थाव्यभिचारीति शब्दादर्थसिद्धिः । अन्यथा वाक्यश्रुतौ श्रोतुरर्थप्रतीत्यभावाद् विवक्षामात्रप्रतीतेश्चापुरुषार्थत्वाच्छाब्दो व्यवहार उच्छिद्येत, वादिप्रतिवादिनोर्जयपराजयव्यवस्थानुपपत्तिः, विवक्षामात्रं प्रत्युभयोरपि भूतार्थवादित्वात् ।
यच्चोक्तं द्रव्यादव्यतिरिक्तं परिमाणम्, द्रव्याग्रहे तबुद्धयभावदिति, तदसिद्धम् । दूराद् द्रव्यग्रहणेऽपि तत्परिमाणविशेषस्याग्रहणात् । अत एव महानप्यणुरिव भ्रान्त्या दृश्यते । अतः (भ्रान्तपुरुष के शब्द प्रयोग रूप) कार्य से ही यह अनुमान करते हैं कि (शब्द प्रयोग से पहिले) भ्रान्त पुरुष को भी अज्ञात अर्थ विषयक अस्फुट विवक्षा सहसा उत्पन्न होती है। जैसे कि राह चलते आदमी को तृण के स्पर्श का हठात् अस्पष्ट प्रतिभास होता है। (उ०) तो फिर उस प्रतारक के विशेष प्रकार की विवक्षा से उसके उस अर्थविषयक अनुभव की भी कल्पना कीजिए, क्योंकि अज्ञात अर्थ की विवक्षा कभी भी नहीं उत्पन्न होती। (प्र०) उस समय ठगनेवाले पुरुष को उस विषय का अनुभव तो नहीं है। (उ०) अनुभव न रहे, स्मरण तो रह सकता है। पहिले समझी हुई वस्तु को ही वह प्रतारक दूसरों से कहता है। इस प्रकार प्रकृत में भी कि अर्थ विषयक विवक्षा स्मरण का कारण है. अत: परम्परा से वह अनुभव का भी कारण होती है। सुतराम् (शब्द और विवक्षा के कार्यकारणभाव में) व्यभिचार नहीं है । अतः मिथ्या अनुभव से उत्पन्न होनेवाली विवक्षा का सत्यानुभव भी परम्परा से कारण है । तस्मात् विवक्षा एवं यथार्थानुभव इन दोनों के कार्यकारणभाव में भी व्यभिचार नहीं है । अगर ऐसी बात न होती तो वाक्य के सुनने से सुनने वाले को अर्थ की प्रतीति न होकर विवक्षा की ही प्रतीति होती, किन्तु यह वाक्य का प्रयोग करने वाले को अभीष्ट नहीं है, अतः शब्द से होनेवाले व्यवहार का ही उच्छेद हो जाएगा । वादी एवं प्रतिवादी में हार-जीत की व्यवस्था भी उठ जाएगी, क्योंकि विवक्षा के प्रसङ्ग में तो दोनों बराबर ही कहते हैं।
__ यह जो आपने कहा कि (प्र०) द्रव्य और उसके परिमाण दोनों अभिन्न हैं, क्योंकि द्रव्यज्ञान के बिना उसके परिमाण का ज्ञान नहीं होता है, (उ०) सो ठीक नहीं है,
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली एवं व्यवस्थिते परिमाणे तस्य भेदं कथयति-तच्चतुर्विधमिति । येन रूपेण चातुविध्यं तद्दर्शयति-अणु महद् दीर्घ ह्रस्वं चेति । चतुरस्रादिकं त्ववयवानां संस्थानविशेषो न परिमाणान्तरम् । दीर्घत्वादयोऽपि तथा भवन्तु ? न, अवयवसंस्थानानुपलम्भेऽपि दूराद् दीर्घादिप्रत्ययत्य दर्शनात् । अपि च भोः ! द्वयणुकपरिमाणं तावदणु, महत्परिमाणोत्पत्तौ कारणाभावात् । तस्माच्च परमाणुपरिमाणमपकृष्टम्, कार्यपरिमाणात् कारणपरिमाणस्य हीनत्वदर्शनात् । ततश्च परमाणोः परिमाणं द्वयणुकपरिमाणाद्भिन्नम् । एवं घटादीनां परिमाणादन्यदेव प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तमाकाशादिपरिमाणम्, तथा दीर्घ ह्रस्वं चेति परिमाणमष्टविधमेव, कुतश्चातुविध्यमित्याह-तत्रेति। तेषु चतुर्षु परिमाणेषु मध्ये महद् द्विविधं नित्यमनित्यं चेति । केषु नित्यमित्याह-नित्यमाकाशकालदिगात्मसु । तच्च परममहत्त्वमित्युच्यते ।
क्योंकि दूर से द्रव्य का ज्ञान होने पर भी उसके विशेष प्रकार के परिमाण का ज्ञान नहीं होता है, अतः भूल से बड़ी चीज भी छोटी प्रतीत होती है।
इस प्रकार परिमाण की सत्ता सिद्ध हो जाने पर 'तच्चतुर्विधम्' इत्यादि से उसके भेद कहे गये हैं। जिन भेदों से परिमाण के चार भेद हैं यह 'अणु महद्दीघ ह्रस्वञ्चेति' इस पङ्क्ति से कहा गया है। चौकोर आदि आश्रय द्रव्यों के अवयवों के विशेष प्रकार के विन्यास ही हैं, कोई स्वतन्त्र परिमाण नहीं। ( उ०) फिर दीर्घत्वादि भी अवयवों के विशेषविन्यास ही हों स्वतन्त्र परिमाण नहीं । ( उ० ) संस्थाव की अर्थात् अवयवों के विशेष विन्यास की प्रतीति दूर से नहीं होती है, किन्तु दीर्घत्वादि की प्रतीति दूर से भी होती है । (प्र. ) द्वयणुक 'अणु' परिमाण वाला है, क्योंकि वह महत्परिमाण का कारण नहीं है । एवं परमाणु का परिमाण ( अणु होते हुए भी ) द्वयणुक के परिमाण से न्यून है क्योंकि कार्य के परिमाण से कारण का परिमाण न्यून ही देखा जाता है । अतः परमाणु के परिमाण और द्वयणुक के परिमाण ( दोनों ही अणु होते हुए भी) भिन्न प्रकार के हैं। एवं घटादि के महत्परिमाण एवं महत्परिमाण के अन्तिम अवधि आकाशादि का महत्परिमाण दोनों ही ( महत्त्वत्वेन समान होने पर भी) भिन्न प्रकार के हैं। इसी प्रकार दीर्घ और ह्रस्व में भी समझना चाहिए । अतः परिमाण का आठ भेद होना ही उचित है चार भेद नहीं। इसी प्रश्न का उत्तर 'तत्र' इत्यादि
१. मुद्रित न्यायकन्दली पुस्तक में षड्विधमेव' ऐसा पाठ है, किन्तु सो असङ्गत मालूम होता है, क्योंकि जैसे द्वथणुक और परिमाणु के अणुत्व में अन्तर है, वैसे ही दोन के ह्रस्वत्व में भी अन्तर है। एवं जैसे कि घट और आकाशादि के महत्परिमाण में अन्तर है,
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण
प्रशस्तपादभाष्यम् काशकालदिगात्मसु परममहत्त्वम् । अनित्यं त्र्यणुकादावेव । तथा चाण्वपि द्विविधम्-नित्यमनित्यं च । नित्यं परमाणुमनस्सु तत् पारिइनमें महत् (परिमाण ) नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का है। नित्य महत्परिमाण आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार द्रव्यों में है, क्योंकि वे परममहत्त्व रूप हैं। इसी तरह अणु भी नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का है । इन दोनों में से नित्य अणु (परिमाण) परमाणुओं और मनों में है।
__न्यायकन्दली अनित्यं महृत्परिमाणं त्र्यणुकादावेव नाकाशादिष्वित्यर्थः । यथा महद् द्विविध तथावपि द्विविधं नित्यमनित्यं च । उभयत्रापि चकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः। नित्यमणुपरिमाणं परमाणुमनःसु, उत्पत्तिविनाशकारणाभावात् । पारिमाण्डल्यमिति सर्वापकृष्टं परिमाणम् । अनित्यमणुपरिमाणं द्वयणुक एव नान्यवेत्यर्थः । एतेनैतदुक्तं भवति, अणुपरिमाणप्रभेद एव परमाणुपरिमाणं महत्परिमाणप्रभेदश्च परममहत्परिमाणम्, अन्यथा परमशब्देन विशेषणायोगात् । यत् खलु परिमाणं रूपसहायं स्वाश्रयं प्रत्यक्षयति तत्र महदिति व्यपदेशः, यच्च से देते हैं । 'तत्र' अर्थात् उन चारों प्रकारों के परिमाणों में 'महत्' नित्य और अनित्य भेद से दो प्रकार का है। किन द्रव्वों में वह नित्य है ? इस आकाङ्क्षा की पूर्ति 'नित्यमाकाशकालदिगात्मसु' इस वाक्य से की गयी है। आकाशादि द्रव्यों में रहनेवाले 'महत्त्व' को ही 'परममहत्त्व' कहते हैं। अनित्य महत्परिमाण यसरेणु प्रभृति द्रव्यों में ही है, आकाशादि द्रव्यों में नहीं। जिस प्रकार महत्त्व नित्य और अनित्व भेद से दो प्रकार का है, उसी प्रकार 'अणु' भी दो प्रकार का हैं। दोनों वाक्यों के 'च' शब्द परिमाण की और प्रकार की सम्भावनाओं को हटाने के लिए हैं। परमाणुओं और मनों में केबल नित्य अणु परिमाण ही रहता है, क्योंकि उनके परिमाणों का कोई बिनाशक नहीं है । सब से छोटे परिमाण को पारिमाण्डल्य कहते हैं । अनित्य अणुपरिमाण केवल द्वयणुकों में ही है और कहीं नहीं। इससे यह अर्थ निकला कि परमाणुओं का परिमाण भी अणुपरिमाण का ही एक भेद है । एवं आकाशादि का परममहत्परिमाण भी महत्परिमाण का ही एक भेद है। अगर आकाशादि का परिमाण महत् न हो तो फिर उसमें 'परम' विशेषण ही व्यर्थ हो जाएगा। रूप के साहाय्य से जो परिमाण अपने आश्रय के प्रत्यक्ष का कारण होता है, उसे महत्परिमाण कहते हैं । जिससे यह वैसे ही दोनों को दीर्घता में भी। फलतः ह्रस्वस्व एवं अणुत्व के दो दो भेद एवं महत्त्व और दीर्घत्व के दो दो भेद सब मिलाकर आठ भेद की हो आपत्ति ठीक बैठती है, और यह बात भ्यायकन्दली के 'दीर्घ ह्रस्वञ्चेति' इस वाक्य से भी स्पष्ट होती है, अतः मैंने 'षड्वियमेव' के स्थान पर 'अष्टविषमेव' ऐसा ही पाठ रखना उचित समझा।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
माण्डन्यम् । अनित्यं द्वथणक एव । कुवलयामलकबिल्वादिषु महत्स्वपि तत्प्रकर्षभावाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽणुत्वव्यवहारः । दीर्घत्व हस्वत्वे यही अणुपरिमाण पारिमाण्डल्य कहलाता है । अनित्य ( अणुपरिमाण ) केवल द्व्यणुक रूप द्रव्य में ही है। कुवलय, आमला और बेल प्रभृति के महत्परिमाणों में अणुत्व का जो व्यवहार होता है, वह महत्परिमाणों के न्यूनाधिकभाव के कारण गौण है । जिन आश्रयों के महत् (परिमाण) और अणु (परिमाण) उत्पत्ति
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३१६
न्यायकन्दली
नो प्रत्यक्षयति तत्राविति व्यवहारः । न चैवं सति त्र्यणुकस्याप्यणुत्वप्रसक्ति: ? तस्यापि प्रत्यक्षत्वात् त्र्यणुकमस्मदादिप्रत्यक्षं बहुभिः समवायिकारणैरारब्धत्वात्, घटवत् । यस्य च प्रत्यक्षस्य द्रव्यस्यावयवा न प्रत्यक्षास्तदेव त्र्यणुकम् । आकाशपरिमाणस्य तु प्रत्यक्ष हेतुत्वाभावेऽपि महत्त्वमेव, तदाश्रयस्य द्वघणुकव्याप्तितोऽधिकव्याप्तित्वात्, घटादिपरिमाणवत् ।
अनित्यमणुपरिमाणं द्वयणुक एवेत्ययुक्तम्, कुवलयामलक बिल्वादिषु परस्परापेक्षयाणुव्यवहारदर्शनादत आह- कुवलयामलकबिल्वादिष्विति । बिल्वे यः प्रकर्षभावो महत्परिमाणातिशययोगित्वं तस्यामलकेऽभावमपेक्ष्याणुव्यवहारो भाक्तः । उभाभ्यां भज्यते इति भक्तिः सादृश्यम्, तस्यायमिति भाक्तः, सादृश्यमात्र निबन्धनो गौण इत्यर्थः । एवमामलकपरिमाणातिशयाभावं काम नहीं होता है उस परिमाण को 'अणु' कहते हैं। इसी से व्यसरेणु के परिमाण में अणुत्व की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष होता है । त्र्यणुक की उत्पत्ति घटादि की तरह अनेक अवयवों से होती है, अतः वह हम लोगों के प्रत्यक्ष का भी विषय है । प्रत्यक्ष दोखने वाले जिस द्रव्य के अवयवों का प्रत्यक्ष न हो उसे 'त्र्यणुक' कहते हैं । घटादि के परिमाणों की तरह आकाशादि के परिमाण की व्याप्ति द्वयक के परिमाण की व्याप्ति से अधिक है, अत: आकाशादि के परिमाण भी महत् ही हैं ।
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( प्र०) यह कहना ठीक नहीं कि 'अनित्य अणुपरिमाण' केवल द्वथणुक में ही है, क्योंकि कुवलय, आंवला और बेल इन सबों में आपेक्षिक अणु' को व्यवहार देखा जाता है । इसी प्रश्न का उत्तर " कुवलयामलकबिल्वादिषु' इत्यादि पक्ति से देते हैं । बेल में जो प्रकर्षभाव अर्थात् विलक्षण महत्परिमाण का सम्बन्ध है वह आँवले में नहीं है, इसी से आँवले में 'अणुत्व' का भाक्त व्यवहार होता है। अभिप्राय यह है कि ' उभाभ्यां भज्यते इति भक्ति:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार केवल सादृश्य से होनेवाले व्यवहार को 'भाक्त' कहते हैं । इसी प्रकार आँवले में जिस उत्कृष्ट महत्परिमाण का सम्बन्ध है, उस प्रकार के महत्परिमाण का सम्बन्ध कुवलय में नहीं हैं । इसी से कुवलय
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३२०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परिमाण
प्रशस्तपादभाष्यम् चोत्पाद्ये महदणुत्वैकार्थसमवेते । समिदिक्षुवंशादिष्वञ्जसा दीपेष्वपि तत्प्रकर्षभावावमपेक्ष्य भाक्तो ह्रस्वत्वव्यवहारः । अनित्यं चतुर्विधशील हैं उन आश्रयों में ह्रस्वत्व और दीर्घत्व भी समवाय सम्बन्ध से उत्पत्तिशील ही हैं। लकड़ी, ईख, बाँस प्रभृति दीर्घ वस्तुओं में भी उनके उत्कर्ष और अपकर्ष से ह्रस्वत्व का गौण व्यवहार होता हैं। चारों प्रकार के अनित्य परिमाण
न्यायकन्दलो कुवलयेऽपेक्ष्याणुव्यवहारः । यत्र हि मुख्यमणत्वं द्वयणुके तत्र महत्परिमाणस्याभावो दृष्टः । आमलकेऽपि यादृशं बिल्वे महत्परिमाणं तादृशं नास्तीत्येतावता साधयेणोपचारप्रवृत्तिः ।
दीर्घत्वह्रस्वत्वयोविशेष दर्शयति-दीर्घत्वह्रस्वत्वे इति । महच्चाणुत्वं च महदणुत्वे, उत्पाद्ये च ते महदणुत्वे चेत्युत्पाद्यमहदणुत्वे, ताभ्यामेकस्मिन्नर्थे समवेते ह्रस्वत्वदीर्घत्वे । यत्रोत्पाद्यं महत्त्वं व्यणुकादौ तत्रोत्पाद्यं दीर्घत्वम्, यत्र चोत्पाद्यमणुत्वं द्वयणुके तत्रोत्पाद्य ह्रस्वत्वमित्यर्थः । तत्र परमाणोः परिमण्डलत्वाद्धस्वत्वाभावो व्यापकत्वाच्चाकाशस्य दीर्घत्वाभाव में अणुत्व का व्यवहार होता है। जहाँ अणुत्व का मुख्य व्यवहार होता है जैसे कि द्वथणुक में, वहाँ महत्परिमाण के अभाव की भी प्रतीति होती है। आँवले में भी अणुत्व के गौण ठपवहार की प्रवृत्ति केवल इतने ही सादृश्य से होती है कि बिल्व में जिस प्रकार का उत्कृष्ट महत्परिमाण है, वह आंवले में नहीं है।
_ 'दीर्घत्व ह्रस्वत्वे' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दीर्घत्व एवं ह्रस्वत्व रूप दोनों परिमाणों का अन्तर दिखलाते हैं । 'महच्चाणुत्वञ्च महदणुत्वे' कथित इस व्युत्पत्ति के द्वारा 'दीर्घत्वह्रस्वत्वे' इत्यादि वाक्य का यह अर्थ है कि जिन द्रव्यों में उत्पत्तिशील महत्त्व एवं उत्पत्तिशील अणुत्व रहते हैं, उन्हीं में उत्पत्तिशील दीर्घत्व एवं उत्पत्तिशील ह्रस्वत्व भी समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अर्थात् व्यणुकादि द्रव्यों में चूकि उत्पत्तिशील महत्त्व ही है, अतः वहाँ दीर्घत्व भी उत्पत्तिशील ही है । एवं द्वयणुक में चूँकि उत्पत्तिशील अणुत्व है तो फिर वहाँ ह्रस्वत्व भी उत्पत्तिशील ही है । इस प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि (अणु परिमाण के आश्रय) परमाणुरूप परिमण्डल' सभी से अल्पपरिमाण के होने के कारण ह्रस्वत्व परिमाण का आभय नहीं
१. चणुक में अणुत्व का मुख्य व्यवहार होता है, वहाँ महत्त्व नहीं है। कुवलयादि द्रव्यों में एक विशेष प्रकार का उत्कृष्ट महत्त्व न रहने के कारण महत्त्व के रहते हुए भी पणुत्व का गौण व्यवहार होता है। गौण व्यवहार वस्तु की सत्ता का साधक नहीं है, अतः कुवलयादि द्रव्यों में अणुत्व नहीं है । तस्मात् यह कहना ठीक है कि अनित्य अणुपरिमाण केवल द्वथणुक में ही है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली इत्येके । अन्ये तु परमाणुपरममहद्वयवहारवत् परमहस्त्रपरमदीर्घव्यवहारस्यापि लोके दर्शनात् परमाणुषु परमहस्वत्वं परमदीर्घत्वं चाकाशे इत्याहुः । दीर्घपरिमाणाधिकरणमाकाशं महत्परिमाणाश्रयत्वात् स्तम्भादिवत् । एवं ह्रस्वपरिमाणाश्रयः परमाणुः, अणुपरिमाणाश्रयत्वात्, द्वयणुकवत् ।
यदि ह्रस्वत्वमुत्पाद्यनाणुत्वेनैकार्थसमवेतं कथमन्यत्र ह्रस्वत्वव्यवहारः ? तत्राह-समिदिक्षुवंशादिष्विति। समिच्चक्षुश्च वंशाश्च समिदिक्षुवंशाः। एतेष्वजसा परमार्थतो दीर्घष्वपि वंशे य: परिमाणप्रकर्षभावो दोर्धातिशययोगित्वं तस्याभावमिक्षावपेक्ष्य प्रतीत्य भाक्तो गौणो व्यवहारः, एवमिक्षोः प्रकर्षभावस्तस्याभावं समिध्यपेक्ष्य ह्रस्वव्यवहारः । यत् खलु परमार्थतो ह्रस्वं द्वयणुकं तत्र दैाभावः,
है। एवं आकाशादि में भी परममहत्परिमाण के रहने से उनमें दीर्घत्व परिमाण नहीं है। कोई कहते हैं कि (जैसा कि आकाशादि में परममहत्त्व का एवं (परमाणु में) परम अणुत्व का व्यवहार लोक सिद्ध है वैसे ही (दोनों में क्रमशः) परमदीर्घस्व एवं परमहस्वत्व का भी व्यवहार लोकसिद्ध है, अतः आकाशादि में परमदीर्घत्व भी है एवं परमाणु में परम ह्रस्वत्व भी है। (इस प्रसङ्ग में अनुमानों का प्रयोग इस प्रकार है कि) (१) जिस प्रकार स्तम्भ महत्परिमाण के आभय होने से दीर्धत्व परिमाण का भी आश्रय है, वैसे ही आकाशादि भी परमदीर्घत्व परिमाण के आश्रय हैं। (२) एवं जिस प्रकार द्वयणुक में अणुपरिमाण के रहने से उसमें ह्रस्वपरिमाण भी रहता है वैसे ही परमाणु में भी ह्रस्वपरिमाण है, क्योंकि वह भी अणुपरिमाणवाला है।
(प्र०) जहाँ समवाय सम्बन्ध से उत्पत्तिशील अणुत्व रहता है वहीं अगर उत्पत्तिशील ह्रस्वत्व भी समवाय सम्बन्ध से रहता है तो फिर अन्यत्र (महत्परिमाण के आभय) बांस प्रभृति में, ह्रस्वत्व का व्यवहार कैसे होता है ? इसी प्रश्न का समाधान 'समिदादिषु' इत्यादि से देते हैं। समिध् (इन्धन), ईख और बांस इन सबों में 'अञ्जसा' अथात् वस्तुतः दीर्घत्व के रहने पर भी बांस के परिमाण का जो 'प्रकर्षभाव' अर्थात् विशेष प्रकार के दीर्घपरिमाण का सम्बन्ध है, उस प्रकार के दीर्घपरिमाण का सम्बन्ध ईख में नहीं है। इसी कारण ईख में ह्रस्वत्व का 'भाक्त' अर्थात्, गौण व्यवहार होता है। इसी तरहु ईख में जो परिमाण का प्रकर्ष है वह समिध् में नहीं है। इसी से ईख में भी ह्रस्वत्व का गौण व्यवहार होता है। जो द्रव्य वास्तव में ह्रस्व है, जैसे कि द्वयणुक उसमें दीर्घत्व अवश्य ही नहीं है । ईख में भी बांस में रहनेवाला परिमाण का प्रकर्ष नहीं है, अतः उसमें भी अणुत्व का भाक्त व्यवहार ही होता है। (प्र०) इनमें ह्रस्वत्व के व्यवहारों को भी मुख्य ही क्यों नहीं मानते ? (उ०) चूंकि उनमें ही
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे परिमाण
प्रशस्तपादभाष्यम् मपि मुख्यापरिमाणप्रचययोनि । तत्रेश्वरबुद्धिमपेक्ष्योत्पन्ना परमाणुद्वथणुकेषु बहुत्वसंख्या, तैरारब्धे कार्यद्रव्ये व्यणुकादिलक्षणे रूपाधु( १ ) परिमाण ( २ ) संख्या और ( ३ ) प्रचय ( इन तीनों में से किसी ) से उत्पन्न होते हैं। (परमाणुओं से उत्पन्न होनेवाले) तीन परमाणु द्वचणुकों में से प्रत्येक में रहनेवाली तीन एकत्व संख्या एवं उक्त तीन एकत्व विषयक ईश्वर की अपेक्षाबुद्धि इन दोनों से तीनों परमाणु द्वयणकों में बहुत्व संख्या की उत्पत्ति होती है। इन तीन परमाणु घणुकों से उत्पन्न होनेवाले त्र्यसरेणु
न्यायकन्दली
इक्षावपि वंशस्य यादृशं दैर्ध्य तादृशं नास्तीत्युपचारः । नन्वेतेषु वास्तव एव ह्रस्वत्वव्यवहारः किं नेष्यते ? नेष्यते, तेष्वेव परापेक्षया दीर्घव्यवहारदर्शनात् । न चैकस्य दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चोभयमपि वास्तवं युक्तम्, विरोधात् । अथ कस्माद् दीर्घव्यवहार एव गौणो न भवति ? न, तस्योत्पत्तिकारणासम्भवात् । सर्वत्रैव भाक्तो ह्रस्वव्यवहारो भवतु ? नैवम्, मुख्यभावे गौणस्यासम्भवात् ।
अथेदानीमुत्पाद्यस्य परिमाणस्य कारणनिरूपणार्थमाह-अनित्यं चतुर्विधमपीति । अनित्यं चतुर्विधमपि दीर्घ ह्रस्वं महद् अणु चेति चतुविधं परिमाणम्, संख्यापरिमाणप्रचययोनि संख्यापरिमाणप्रचयकारणकम् । संख्याया
परस्पर साक्षेप दीर्घत्व का भी व्यवहार होता है। ह्रस्वत्व और दीर्घत्व दोनों परस्पर विरुद्ध दो धर्म हैं, अतः एक आश्रय में उक्त दोनों धर्मों की वास्तविक सत्ता नहीं मानी जा सकती। (प्र०) तो फिर दीर्घत्व का ही व्यवहार गौण क्यों नहीं हैं ? (उ०) उनमें भाक्त दीर्घत्व के व्यवहार को गौण मानने का कारण नहीं है, अतः वहाँ दीर्घत्व व्यवहार को गौण नहीं मानते। (प्र०) सभी जगहों में ह्रस्वत्व व्यवहार को गौण ही क्यों नहीं मान लेते ? (उ०) जहाँ जिसका मुख्य व्यवहार सम्भव होता है, वहाँ उस व्यवहार को गौण नहीं माना जा सकता।
अब उत्पत्तिशील परिमाण के कारणों का निरूपण करने के लिए 'अनित्यं चतुर्विधमपि' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं । 'अनित्यं चतुर्विधमपि' अर्थात् अनित्य दीर्घ, ह्रस्व, अणु एवं महत् ये चारों प्रकार के परिमाण 'संख्यापरिमाणप्रत्ययोनि' अर्थात् ये चारों प्रकार के परिमाण संख्या, परिमाण एवं प्रचय इन तीनों में से ही किसी से उत्पन्न होते हैं। संख्यादि तीनों कारणों में से (क्रमप्राप्त) संख्या में परिमाण की कारणता 'तत्र' इत्यादि से दिखलाते हैं । 'परमाणुभ्यामारब्धं द्वथणुकम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार दो द्वषणुकों से उत्पन्न होने के कारण 'द्वयणुक' ही यहाँ 'परमाणुद्वयणुक' शब्द का अर्थ है । ग्तेषु त्रिषु' अर्थात्
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्तावत्कारणत्वमाह-तत्रेति। परमाणुभ्यामारब्धं द्वयणुकं परमाणुद्वचणुकमित्युच्यते । तेषु त्रिष्वेकैकगुणालम्बनामीश्वरबुद्धिमपेक्ष्योत्पन्ना या त्रित्वसंख्या सा त्रिभिर्द्वयणुकरारब्धकार्यद्रव्ये त्र्यणुकलक्षणे रूपाद्युत्पत्तिसमकालमेव महत्त्वं दीर्घत्वं च करोति । तत्रेतिपदं महत्परिमाणकारणनिवारणार्थम्, त्र्यणुकादीत्यादिपदं चतुरणुकादिपरिग्रहार्थम् । कथं पुनरेष निश्चयः, त्र्यणुकादिपरिमाणस्य द्वयणुकगता बहुत्वसंख्येवासमवायिकारणमिति ? अन्यस्यासम्भवात् । न तावद् द्वयणुकवृत्तयो रूपरसगन्धस्पर्शकत्वैकपृथक्त्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहास्तस्यासमवायिकारणम्, तेषां कारणवृत्तीनां कार्ये गुणमारभमाणानां समानजातीयगुणान्तरारम्भे एव सामर्थ्यदर्शनात् । द्वयणुकाणुपरिमाणानां चारम्भकत्वे त्र्यणु कस्याणुत्वमेव स्यान्न महत्त्वम्, परिमाणात् समानजातीयस्यैव परिमाणस्योत्पत्त्यवगमात् । अस्ति चात्र महत्त्वम्, भूयोऽवयवारब्धत्वात् घटादिवत् । न चासमवायिकारणं विना कार्यमुत्पद्यते, दृष्टश्चान्यत्रावयवसंख्याबाहुल्यात् समानपरिमाणारब्धयोः कार्ययोरेकत्र महत्त्वा
उक्त तीनों परमाणु घणुकों में से प्रत्येक में एक गुण विषयक (एकत्व संख्या विषयक) 'यह एक है' इस आकार के ईश्वरीयज्ञान (रूप अपेक्षा बुद्धि) से जो त्रित्व संख्या उत्पन्न होती है. वही तीन द्वथणुकों से उत्पन्न व्यसरेणु रूप द्रव्य में रूपादि गुणों की उत्पत्ति के समय ही महत्त्व और दीर्घत्व परिमाण को उत्पन्न करती है। ('तत्रेश्वरबुद्धि' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त) 'तत्र' पद यह समझाने के लिए है कि यसरेणु में रहनेवाले महत्त्व की कारणता महत्परिमाण में नहीं है। (त्र्यणुकादि पद में प्रयुक्त) 'आदि' पद 'चतुरणुक' का संग्राहक है। (प्र.) यह निर्णय कैसे करते हैं कि व्यणुकादि गत परिमाणों का द्वथणुकों में रहनेवाली बहुत्व संख्या ही कारण है ? (उ०) चूकि दूसरी किसी वस्तु में उक्त परिमाण की कारणता सम्भव नहीं है। समवायिकारणों में रहनेवाले रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, एकत्व, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व और स्नेह ये सभी गुण अपने आश्रय रूप समवायिकारणों से उत्पन्न द्रव्य में रहनेवाले कथित रूपादि गुणों में से कोई भी व्यसरेणु में रहनेवाले परिमाणों के असमवायिकारण नहीं हो सकते । द्वयणुकों के अणुपरिमाण भी त्र्यणुकादि के परिमाणों कारण के नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा मानने पर त्र्यणुक का परिमाण भी 'अणु' ही होगा 'महत्' नहीं, क्योंकि यह नियम है कि परिमाण अपने समानजातीय दूसरे परिमाण को ही उत्पन्न कर सकता है, विभिन्न जातीय परिमाणों को नहीं। त्र्यणुकादि द्रव्यों में महत्परिमाण ही है, क्योंकि (महत्परिमाणवाले) घटादि की तरह वे भी बहुत से अवयवों से उत्पन्न होते हैं। असमवायिकारण के बिना (समवेत) कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है, और स्थानों में भी समानपरिमाण के विभिन्न न्यूनाधिक संख्या के अवयवों से उत्पन्न द्रव्यों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे परिमाण
प्रशस्तपादभाष्यम् त्पनिसमकालं महत्त्वं दीर्घत्वं च करोति । द्विवहुभिर्महद्भिश्चारब्धे कार्यद्रव्ये कारणमहत्त्वान्येव महत्वमारभन्ते न बहुत्वम् । समानरूप द्रव्य में जिस समय रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है, उसी समय उक्त बहुत्व संख्या से उक्त द्रव्य में महत्त्व एवं दीर्घत्व परिमाणों की भी उत्पत्ति होती है । महत्परिमाणवाले दो या उससे अधिक अवयवों से उत्पन्न द्रव्य में कारणों (अवयवों) के महत्त्व ही महत्परिमाण को उत्पन्न करते हैं,
न्यायकन्दली तिशयः । तेनात्र संख्याया एव कारणत्वं कल्प्यते । द्वयणुकसंयोगाभ्यां त्र्यणुके महत्त्वोपपत्तिः स्यात्, यदि भूयसामवयवानां संयोगः कारणमित्युच्यते, प्राप्ताप्राप्तविवेकादवयवानां भूयस्त्वमेव कारण समर्थितं स्यात्, ईश्वरबुद्धयपेक्षस्य त्रित्वस्य स्थितिहेत्वदृष्टक्षयाद्विनाशो न तु कदाचिदाश्रयविनाशादपि विनाशः, ईश्वरबुद्धनित्यत्वात् ।
___सम्प्रति महत्त्वान्महत्त्वोत्पत्तिमाह-द्विबहुभिर्महद्भिरिति । द्वौ च वहवश्च तैरारब्धे कार्यद्रव्ये कारणमहत्त्वान्येव महत्त्वमारभन्ते, यत्र द्वाभ्यां महद्भ्यामप्रचिताभ्यामारम्यते द्रव्यं तत्रावयवमहत्त्वाभ्यामेव महत्त्वस्योत्पादो बहुत्वसंख्याप्रचययोरभावात् । यत्र च बहुभिर्महद्भिरवयवैः कार्यमारभ्यते तत्रावयवमहत्त्वेभ्योऽवयविनि महत्त्वस्योत्पादो न बहुत्वसंख्यायाः, समानमें परिमाण का न्यूनाधिकभाव देखा जाता है, अतः कल्पना करते हैं कि (व्यणुकादि द्रव्यों के परिमाण का) संख्या ही (असमवायि) कारण है। अगर वहुत से अवयवों के संयोग को ही उन महत्त्वों का कारण मानें तो फिर विचार कर देखने से समवायिकारणों के बहुत्व में ही उक्त महत्त्वों की कारणता का समर्थन होता है। ईश्वर की अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होनेवाले त्रित्व का विनाश उसके संस्थापक अदृष्ट के नाश से ही होता है. आश्रय के विनाश से उसका विनाश कभी नहीं होता, क्योंकि ईश्वर नित्य है।
द्विबहुभिर्महद्भिः' इत्यादि से महत्परिमाण से पहत्परिमाण की उत्पत्ति कहते हैं। 'द्वौ च बहवश्च द्विबहवः, तैः द्विबहुभिः इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि दो या उनसे अधिक महान् अवयवों से आरब्ध द्रव्य के महत्त्व की उत्पत्ति समवायिकारणों के महत्त्व से ही होती है। अभिप्राय यह है कि जिस द्रव्य की उत्पत्ति प्रचय से शून्य दो महान् अवयवों से होती है, उस द्रव्य के महत्व का (असमवायि) कारण उन दोनों अवयवों के दोनों महत्त्व ही हैं, क्योंकि महत्त्व के उक्त कारणों में से बहुत्व संख्या और प्रचय ये दोनों ही वहाँ नहीं हैं जहाँ बहुत से महान् अवयवों से कार्यद्रव्य की उत्पत्ति होती है, उसमें अवयवों के महत्त्व से ही
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् संख्यैश्चारब्धेऽतिशयदर्शनात् । प्रचयश्च तूलपिण्डयोर्वर्तमानः पिण्डारम्भकावयवप्रशिथिलसंयोगानपेक्षमाण इतरेतरपिण्डावयवबहुत्व संख्या नहीं, क्योंकि समान संख्या के ( अथ च न्यूनाधिक परिमाणवाले ) अवयवों से उत्पन्न द्रव्यों में न्यूनाधिक परिमाण की उपलब्धि होती है। रूई के दो खण्डों से उत्पन्न एक अवयवी रूप रूई का महत्त्व, इन अवयवी के उत्पादक रूई के खण्डों में रहनेवाले 'प्रचय' से ही उत्पन्न होता है
न्यायकन्दली
संख्यैः स्थलैः सूक्ष्मैश्चारब्धयोर्द्रव्ययोः स्थूलारब्धे महत्त्वातिशयदर्शनात् । संख्यायाः कारणत्वे हि कार्यविशेषो न स्यात्, तस्या अविशेषात् । यत्र तु समानपरिमाणरवयवैरारब्धयोरवयवसंख्यावाहुल्यादेकत्र परिमाणातिशयो दृश्यते तत्रावयव. संख्यापि कारणमेष्टव्या, अन्यथा कार्यविशेषायोगः । यत्र समानसंख्यः सामानपरिमाणैश्च कार्यमारब्धम्, तत्र महत्त्वोत्पत्तावुभयोरपि कारणत्वम्, प्रत्येक. मुभयोरपि सामर्थ्यदर्शनात, तत्रान्यतरविशषादर्शनादित्येके । अपरे तु परिमाणस्यैव कारणतामाहुः, समानजातीयात् कार्योत्पत्तिसम्भवे विजातीयकारणकल्पनानवकाशात् ।
प्रचयमाह-प्रचयश्चेति । प्रचय इति द्रव्यारम्भकः प्रशिथिलः संयोगविशेपः । स तु द्वितूलकद्रव्यारम्भकयोस्तूलपिण्डयोर्वर्तमानः महत्त्व की उत्पत्ति होती है, अवयवों की बहुत्व संख्या से नहीं, क्योंकि समान संख्या के स्थूल और सूक्ष्म अवयवों से आरब्ध दो द्रव्यों के दोनों महत्त्वों में अन्तर देखा जाता है। अगर अवयवों में रहनेवाली संख्याओं को ही महत्त्व का कारण मानें तो उक्त अन्तर की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि वह तो दोनों द्रव्यों के अवयवों में समान ही है। जहाँ समान परिमाण के अथ च विभिन्न संख्या के अवयबों से उत्पन्न दो द्रव्यों के दोनों महत्त्वों में अन्तर देखा जाता है, वहाँ (महान् अववयों से उत्पन्न द्रव्य में रहनेवाले महत्परिमाण के प्रति भी) अवयवों में रहनेवाली संख्या ही कारण है, अन्यथा उक्त महत्परिमाणों में अन्तर की उपपत्ति नहीं होगी। किसी सम्प्रदाय का कहना है कि समान संख्या के एवं समान परिमाणों के अवयवों से जिस द्रव्य की उत्पत्ति होती है, उस द्रव्य के महत्परिमाण का अवयवों की संख्या और उनके महत् परिमाण दोनों ही कारण हैं, क्योंकि संख्या एवं परिमाण दोनों में ही परिमाण की कारणता निश्चित है । उक्त स्थल में दोनों में से किसी एक को ही कारण मानने की कोई विशेष युक्ति नहीं है । इसी प्रसङ्ग में किसी दूसरे सम्प्रदाय का कहना है कि अवयवों का महत्त्व ही प्रकृत महत्परिमाण का कारण है, अवयवों की संख्या नहीं, क्योंकि जहाँ समानजातीय कारण से ही कार्य की सम्भावना हो वहाँ विभिन्न जातीय वस्तु में उसकी कारणता की कल्पना व्यर्थ है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे परिमाण
न्यायकन्दली प्रत्येकं पिण्डयोरारम्भकान् प्रशिथिलानवयवसंयोगानपेक्षमाण इतरेतरपिण्डयोरवयवानां परस्परसंयोगानपेक्षमाणो वा द्वितूलके महत्त्वमारभ्यते। यत्र पिण्डयोः संयोगः स्वयं प्रशिथिलस्तयोरारम्भकाश्चावयवसंयोगा अपि प्रशिथिलास्तत्र पिण्डाभ्यामारब्धे द्रव्ये निबिडावयवसंयोगारब्धपिण्डद्वयनिबिडसंयोगजनितद्रव्यापेक्षया महत्त्वातिशयदर्शनात्, पिण्डयोः प्रशिथिलः संयोगः पिण्डारम्भकप्रशिथिलसंयोगापेक्षो महत्त्वस्य कारणम् । थत्र तु पिण्डयोः संयोगः प्रशिथिल इतरेतरपिण्डावयवानामितरेतरावयवः संयोगा अपि प्रशिथिलाः, पिण्डयोरारम्भकाश्च न प्रशिथिलाः, तत्र पिण्डाभ्यामारब्धे द्रव्येऽत्यन्तनिबिडपरस्परावयवसंयोगपिण्डद्वयारब्धद्रव्यापेक्षया महत्त्वातिशयदर्शनात् पिण्डयोः प्रशिथिलः संयोग इतरेतरपिण्डावयवसंयोगापेक्षो महत्त्वस्य कारणमिति विवेकः ।
'प्रचयश्च' इत्यादि से प्रचय (का स्वरूप) कहते हैं। द्रव्य के उत्पादक (असम. वायिकारण) विशेष प्रकार के संयोग को ही 'प्रचय' कहते हैं। रूई के दो खण्डों से रूई के जिस एक अवयवी की उत्पत्ति होती है, उस अवयवी रूप (द्वितूलकपिण्ड) में महत्परिमाण की उत्पत्ति इस द्रव्य के उत्पादक दोनों अवयवों में रहनेवाले प्रचय से होती है। (१) कोई कहते हैं कि इस प्रकार अवयवों के प्रचय से अवयवी के महत्परिमाण के उत्पादन में उन उत्पादक अवयवों के अवयवों में रहनेवाले प्रशिथिल संयोग रूप प्रचय के भी साहाय्य की आवश्यकता होती है । (२)(कोई कहते हैं कि) इसकी आवश्यकता नहीं होती है, अवयवों के अवयवों में रहनेवाले साधारण, संयोग के रहने से ही काम चल जाएगा। (इनमें प्रथम पक्ष का स्वारस्य यह है कि) जिम अवयवी के उत्पादक दोनों अवयवों का संयोग प्रशिथिलात्मक है एवं अवयवों के उत्पादक अवयवों का संयोग भी प्रशिथिलात्मक ही है, इन दोनों मूलावयवों से उत्पन्न अवयवी रूप द्रव्य में जो महत्त्व है, एवं जिन अवयवों का निर्माण निबिड़ संयोग वाले दो अवयवों से हुआ है, उन अवयवों के निविड़ संयोग से उत्पन्न द्रव्य में जो महत्त्व है, उन दोनों महत्त्वों में अन्तर देखा जाता है, अतः अवयवों के प्रशिथिल संयोग के द्वारा महत्त्व के उत्पादन में उसके अवयवावयवों के परस्पर प्रशिथिल संयोग की भी अपेक्षा होती है । एवं जहाँ दोनों अवयवों का (अनारम्भक) संयोग प्रशिथिलात्मक है, एवं अवयवावयवों के परस्पर संयोग भी प्रशिथिलात्मक ही है, किन्तु दोनों अवयवों का आरम्भक संयोग प्रशिथिलात्मक नहीं है, इन दोनों से आरब्ध अवयवी का महत्त्व उस द्रव्य के महत्त्व से अधिक देखा जाता है। जिसके अवयवों का संयोग एवं अवयवावयवों के परस्पर संयोग सभी घन' (निबिड़) हैं। इन अवयवों से जिस द्रव्य की उत्पत्ति होती है, उस द्रव्य में रहनेवाले महत्त्व का उत्पादन अवयवों का प्रशिथिल संयोग अवयवावयवों के परस्पर निबिड़ संयोग के साहाय्य से ही करता है।
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प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम्
३२७ प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगापेक्षो वा द्वितूलके महत्त्वमारभते न बहुत्बमहत्त्वानि, समानसंख्यापलपरिमाणैरारब्धेऽतिशयदर्शनात् । द्वित्वसंख्या चाण्वोवर्तमाना बहुत्व संख्या से नहीं, महत्परिमाण से भी नहीं। अवयवों में रहनेवाला यह प्रचय उक्त महत्त्व के उत्पादन में कहीं अपने आश्रय रूप रूई के दो खण्डों के अवयवों के प्रशिथिल संयोग रूप प्रचय की अपेक्षा रखता है, कहीं वह अपने आश्रयीभूत दोनों अवयवों के उत्पादक साधारण संयोग की सहायता से ही उक्त महत्परिमाण को उत्पन्न करता है। दो परमाणुओं में रहनेवाली द्वित्व संख्या द्वयणुक में परिमाण को उत्पन्न करती है । जिस
न्यायकन्दली अथ कथं तत्र बहुत्वमहत्त्वयोरेव क्लप्तसामर्थ्ययोः कारणत्वं नेष्यते ? तत्राह-न बहुत्वमहत्त्वानीति । प्रचयभेदापेक्षया बहुवचनम् । यत्र प्रचयविशेषात् परिमाणविशेषप्रतीतिरस्ति तत्र बहुत्वं महत्त्वं च न कारणमित्यर्थः । अत्रोपपत्ति:समानसंख्यापलपरिमाणैरारब्धेऽतिशयदर्शनात् । संख्या च पलं च परिमाणं च संख्यापलपरिमाणानि, समानानि संख्यापलपरिमाणानि येषां तेरारब्धे कार्येऽतिशयदर्शनात् । यदि हि संख्येव कारणं समानसंख्यस्त्रिभिश्चतुभिर्वा प्रशिथिलसंयोगैनिबिडसंयोगैश्चारब्धयोर्द्रव्ययोः प्रशिथिलसंयोगारब्धे निबिडसंयोगारब्धापेक्षया महत्त्वातिशयो न स्यात्, कारणसंख्याया उभयत्रापि तुल्यत्वात् । तथा यदि महत्त्वमपि कारणं समानमहत्त्वैः प्रचितैरप्रचितश्चारब्धयो
महत्परिमाण में एवं बहुत्व संख्या में महत्परिमाण की कारणता स्वीकृत है ही, फिर इन्हीं दोनों में से किसी को इस महत्परिमाण का भी कारण क्यों नहीं मान लेते ? इसी प्रश्न का समाधान 'न बहुत्वमहत्त्वानि' इत्यादि से देते हैं। 'बहुत्वमहत्त्वानि' इस पद में बहुवचन का प्रयोग उन दोनों के आश्रयों में जो बहुत्व है उसके अभिप्राय से है । 'विशेष प्रकार के प्रचय से उत्पन्न महत्परिमाण का कारण महत्त्व और बहुत्त्व संख्या नहीं हो सकती' इस सिद्धान्त की युक्ति ही 'समानसंख्यापलपरिमाण रारब्धेऽतिशयदर्शनात्' इस वाक्य के द्वारा प्रतिपादित हुई है । 'संख्या च पलञ्च परिमाणञ्च संख्यापलपरिमाणानि, समानानि संख्यापलपरिमाणानि येषां तैः, आरब्धेऽतिशयदर्शनात्' अगर उक्त महत्त्व का कारण केवल संख्या ही हो प्रचय नहीं तो फिर तीन या चार अवयवों के प्रशिथिल संयोग से उत्पन्न परिमाण में एवं तीन या चार ही अवयवों के निबिड़ संयोग से उत्पन्न परिमाण में अन्तर उपपन्न नहीं होगा, क्योंकि दोनों द्रव्यों के कारणों की संख्या समान हैं। अगर केवल अवयवों के महत्त्व को ही उक्त महत्परिमाण का भी कारण माने (प्रचय को नहीं) तो फिर
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३२८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
रिमाण
न्यायकन्दली द्रव्ययोरप्रचितारब्धापेक्षया प्रचितारब्धे परिमाणातिशयो न भवेत्, अस्ति च विशेषः, तेनैव तर्कयामो न संख्या कारणं न महत्त्वमिति। यत्र त्वप्रचितैरणुभिर्महद्भिश्च प्रचितरारब्धयोर्द्रव्ययोः प्रचितैर्महद्भिरारब्धे महत्त्वातिशयदर्शनं तत्र महत्त्वप्रचययोः कारणत्वम् । यत्र प्रचितैः समानपरिमाणैर्बहुतरसंख्याकैरप्रचितैश्चारब्धयोर्द्रव्ययोर्बहुतरसंख्याकैः प्रचितैरारब्धेऽतिशयदर्शनम्, तत्र संख्याप्रचययोः कारणत्वम् । यत्राप्रचितैरणुभिरल्पसंख्यैरारब्धात् प्रचितबहुतरस्थूलारब्धे विशेषदर्शनम्, तत्र त्रयाणामेव बोद्धव्यम् । यस्तु मन्यते तुलापरिमेयेषु द्रव्येषु कारणगतानि पलानि परिमाणोत्पत्तौ कारणं न महत्परिमाणानि, तन्मते पलस्य कारणत्वमभ्युपगम्य प्रतिषेधः कृतः, स्वमते तु पलस्याकारणत्वात्।
द्वित्वसंख्या चाण्वोर्वर्तमाना द्वयणुकेऽणुत्वमारभते । यस्तु परमाणुपरिमाणाभ्यामेव द्वयणुके परिमाणोत्पत्तिमिच्छति, तं प्रति द्वयणुकस्याप्यणु
महत्त्व एवं प्रचय इन दोनों से युक्त अवयवों के द्वारा उत्पन्न द्रव्य के परिमाण में एवं महत्त्व से युक्त किन्तु प्रचय से रहित अवयवों से उत्पन्न द्रव्य के महत्त्व में अन्तर की उपलब्धि नहीं होगी, किन्तु उक्त दोनों द्रव्यों के परिमाणों में अन्तर अवश्य है । अतः यह तर्क करते हैं कि उन महत्परिमाणों का अवयवों के महत्परिमाण या संख्या कारण नहीं हैं, क्योंकि प्रचयशून्य अणुओं से उत्पन्न द्रव्य के परिमाण की अपेक्षा प्रचय एवं महत्त्व इन दोनों से युक्त अवयवों के द्वारा उत्पन्न द्रव्य के परिमाण में विशेष प्रकार के महत्त्व की उपलब्धि होती है, अतः ऐसे स्थलों के महत्त्व का महत्व
और प्रचय दोनों ही कारण हैं। प्रचय से युक्त बहुत से समान परिमाण के अवयवों से उत्पन्न द्रव्य के महत् परिमाण में, प्रचय से युक्त उससे अधिक संख्या के एवं उसी प्रकार के महत्त्व से युक्त अवयवों से उत्पन्न द्रव्य के परिमाण में भी अन्तर उपलब्ध होता है, अतः ऐसे स्थलों में संख्या, प्रचय एवं महत्परिमाण ये तीनों ही उस प्रकार के महत्परिमाण के) कारण हैं। जो कोई यह मानते हैं कि तराजू से तोले जाने योग्य द्रव्यों के महत्परिमाणों का कारण कारणों में रहनेवाले 'पल' (कर्षचतुष्टय) ही हैं, कारणों में रहनेवाले महत्परिमाण नहीं, उनके मत के अनुसार पल में महत्परिमाण की कारणता मानकर ही उसका खण्डन किया है, क्योंकि अपने सिद्धान्त में पल में महत्परिमाण की कारणता स्वीकृत नहीं है
'द्वित्वसंख्या चाण्वोर्वर्तमाना द्वयणुकेऽणुत्वमारभते' जो कोई दो परमाणुओं के दोनों अणुत्वों को ही द्वघणुक परिमाण का कारण मानते हैं, उनके लिए पहिले को इस युक्ति को दुहराना भी ठीक है कि उनके मत में घणुक का परिमाण परमाणुओं के
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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३२६
केऽणुत्वमारभते । महत्त्ववत् त्र्यणुकादौ कारणबहुत्व महत्त्वसमानजातीयप्रचयेभ्यो दीर्घत्वस्योत्पत्तिः । अणुत्ववद् द्वयणुके द्वित्वसंख्यातो ह्रस्वत्वस्योत्पत्तिः
प्रकार महत्त्व की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार समवायिकारणों में रहनेवाली संख्या, समवायिकारणों में रहनेवाले महत् (दीर्घ) परिमाण, एवं समवायिकारणों में रहनेवाला समानजातीय प्रचय इन्हीं सबों से त्र्यसरेणु प्रभृति द्रव्यों में दीर्घत्व की भी उत्पत्ति होती है । द्व्यणुक में अणुत्व परिमाण की तरह ह्रस्वत्व की भी उत्पत्ति द्वयक के अवयव भूत दोनों परमाणुओं में रहनेवाल द्वित्व संख्या से ही होती है ।
न्यायकन्दली
तमत्वप्रसक्तिरिति पूर्विकैव युक्तिरावर्तनीया । अधिकं चैतद् यन्नित्यद्रव्यपरिमाणस्यानारम्भकत्वम् । परमाणुपरिमाणं न भवति कस्यचिदारम्भकं नित्यद्रव्यपरिमाणत्वात्, आकाशादिपरिमाणवत्, अणुपरिमाणत्वाद्वा मनःपरिमाणवत् ।
दीर्घत्वस्योत्पत्तिमाह- महत्त्ववदिति । यथा महत्त्वस्य कारणबहुत्वात् समानजातीयात् कारणमहत्त्वात् प्रचयाच्चोत्पत्तिरिति सर्वमस्य महत्त्वेन सह तुल्यम् । द्वयणुके हस्वत्वस्यापि द्वित्वसंख्यैवासमवायिकारणमित्याह- अणुत्ववदिति । कथमेकस्मात् कारणात् कार्यभेदः ? अदृष्टविशेषस्य सहकारिणो भेदात् । महत्त्वविशेष एव दीर्घत्वम्, अणुत्वविशेष एव ह्रस्वत्वमिति मन्यमान
परिमाणों से भी अल्प हो जाएगा। इस प्रसङ्ग में इतना और भी कहना चाहिए कि नित्यपरिमाण कभी कारण नहीं होता है, अतः आकाश परिमाण की तरह नित्य होने के कारण परमाणुओं के परिमाण किसी के कारण नहीं हो सकते । एवं जिस प्रकार मन का परिमाण अणु होने से किसी का कारण नहीं होता है, उसी प्रकार परमाणुओं का परिमाण भी अणु होने से किसी का कारण नहीं हो सकता ।
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'महत्त्ववत्' इत्यादि सन्दर्भ से दीर्घत्व परिमाण की उत्पत्ति का क्रम कहते है । जैसे कि महत्परिमाण की उत्पत्ति ( उस के आश्रय द्रव्य के उत्पादक अवयवरूप ) कारणों की बहुत्व ( संख्या ) से और कारणों के महत्त्व और प्रचय से होती है, ये सभी दीर्घत्व में भी महत्त्व के ही जैसे हैं । द्वणुक के ह्रस्वत्व में भी ( उसके अणुत्व की तरह ) कारणों में रहनेवाली द्वित्व संख्या ही कारण है, यही बात 'अणुत्ववत्' इत्यादि से कहते हैं । ( प्र० ) ( परमाणुओं की ) एक ही ( द्वित्व संख्यारूप ) कारण से ( अणुत्व और ह्रस्वत्व रूप ) दो विभिन्न कार्य सहकारिकारणों के भेद से ( उक्त एक कारण से )
कैसे होते हैं ? ' ( उ० ) अदृष्ट रूप विभिन्न कार्यों की उत्पत्ति होती हैं ।
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३३
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दलासन
[गुणे परिमाणप्रशस्तपादभाष्यम् अथ व्यणुकादिषु वर्तमानयोमहत्त्वदीर्घत्वयोः परस्परतः को विशेषः ? द्वयणुकेषु चाणुत्वहस्वत्वयोरिति । तत्रास्ति महत्त्वदीर्घत्वयोः परस्परतो विशेषः, महत्सु दीर्घमानीयताम् , दीर्घषु
(प्र०) त्र्यसरेणु प्रभृति द्रव्यों में रहनेवाले महत्त्व और दीर्घत्व एवं द्वयणकादि में रहनेवाले अणुत्व और ह्रस्वत्व इनमें क्या अन्तर है ? (उ०) 'भारी वस्तुओं में से जो लम्बी हो उसे ले आओ' यह व्यवहार ही प्रकृत में महत्त्व और दीर्घत्व में भेद का
न्यायकन्दली
आह-अथेति । समाधत्ते-तत्रास्तीति । यदि दीर्घमहत्त्वयोरभेदो दीर्घषु महदानीयतामिति निर्धारणं न स्यादभेदात् । नहि भवति रूपवत्सु रूपवदा. नीयतामिति, अस्ति चेदं निर्धारणम् । तेन दीर्घत्वमहत्त्वयोर्भेदः कल्प्यते, परिमाणस्य व्याप्यवृत्तित्वादेकस्मिन् द्रव्ये परिमाणद्वयानुपपत्तिरिति चेन्न, विजातीययोरेकत्र वृत्त्यविरोधात्, अवान्तरजातिभेदेऽपि नीलपीतयोरेकत्र समावेशो न दृष्ट इति चेत् ? ययोर्न दृष्टस्तयोर्मा भूत्, दीर्घत्वमहत्त्वयोस्तु सहभावः सर्वलोकप्रतीतिसिद्धत्वादशक्यनिराकरणः ।
'अथ' इत्यादि से कोई आक्षेप करते हैं कि (प्र.) दीर्घत्व विशेष प्रकार के महत्त्व से कोई अलग वस्तु नहीं है। एवं ह्रस्वत्व भी अणुत्व का ही एक विशेष रूप है (दीर्घत्व और ह्रस्वत्व नाम का कोई अलग परिमाण नहीं है )। 'तत्रास्ति' इत्यादि सन्दर्भ से इसका उत्तर देते हैं कि अगर महत्त्व और दीर्घत्व दोनों अभिन्न हों तो फिर 'इन लम्बे द्रव्यों में जो सबसे भारी हो उसे ले आओ' इत्यादि प्रकार के निर्धारणों की उपपत्ति नहीं होगी, क्योंकि दोनों अभिन्न हैं। यह निद्धारण नहीं होता कि 'रूपयुक्तों में से रूपयुक्त को ले आओ, किन्तु (पहिला ) निर्धारण होता है, अतः दीर्घत्व और महत्त्व में अवश्य ही अन्तर है। (प्र०) परिमाण व्याप्यवृत्ति ( अपने आश्रय को व्याप्त करके रहनेवाली ) वस्तु है, अतः एक द्रव्य में दो ( दीर्घत्व और महत्त्व या ह्रस्वत्व और अणुत्व ) परिमाण नहीं रह सकते । ( उ० ) विभिन्न जाति के दो ( व्याप्यवृत्ति) वस्तुओं का भी एक आश्रय में सत्ता मानने में कोई विरोध नहीं है । (प्र०) ( रूपत्व धर्म के एक होने पर भी ) अवान्तर ( रूपत्वव्याप्यनीलत्वादि ) रूपों से विभिन्न नीलपीतादि रूप एक आश्रय में नहीं देखे जाते । ( उ० ) जिन्हें एकत्र नहीं देखा जाता है उनका एकत्र रहना मत मानिए, किन्तु इससे साधारण जनों के अनुभव से सिद्ध महत्त्व और दीर्घत्व का एकत्र रहना आप नहीं रोक सकते।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् च महदानीयतामिति विशिष्टव्यवहारदर्शनादिति । अणुत्वहस्वत्वयोस्तु परस्परतो विशेषस्तदर्शिनां प्रत्यक्ष इति । तच्चतुर्विधमपि परिमाणमुत्पाद्यमाश्रयविनाशादेव विनश्यतीति । बोधक प्रमाण है । अणुत्व और ह्रस्वत्व के अन्तर का प्रत्यक्ष तो उसके आश्रयीभूत (परमाणु एवं द्वयणुक) के प्रत्यक्ष से युक्त पुरुष को ही होता है। उत्पत्तिशील ये चारों प्रकार के परिमाण आश्रयों के विनाश से ही विनाश को प्राप्त होते हैं।
न्यायकन्दली द्वयणुकतिनोरणुत्वह्रस्वत्वयोस्तु भेदो योगिनां प्रत्यक्ष इत्याह–अणुत्वह्रस्वत्वयोस्त्विति । अस्मदादीनां तु भाक्तयोरणुत्वह्रस्वत्वयोर्भेदे तन्मुख्ययोरपि भेदानुमानम् । एतच्चतुर्विधमपि परिमाणमाश्रयविनाशादेव विनश्यति नान्यस्मादिति नियमः । उत्पाद्यग्रहणेन परमाणुपरमहस्वपरममहत्परमदीर्घव्यवच्छेदः । अणुत्वमहत्त्वयोः दीर्घत्वहस्वत्वयोश्च परस्परापेक्षाकृतत्वम्, न तु स्वाभाविकत्वमिति चेत् ? तत्र केवलावस्थायां हस्तवितस्त्यादिपरिमितस्य परिमाणस्य सापेक्षावस्थायामपि भेदानुपलब्धः, उदयाभावप्रसङ्गाच्च । किमर्थं तीपेक्षा ?
'अणुत्वह्रस्वत्वयोस्तु' इत्यादि से कहते हैं कि द्वथणुक में रहनेवाले ह्रस्वत्व एवं अणुत्व इन दोनों को योगीजन ही अपने ( असाधरण) प्रत्यक्ष के द्वारा देख सकते हैं। 'यह नियम है कि ये चारों प्रकार के उत्पन्न होनेवाले परिमाण अपने अपने आश्रयों के नाश से ही नष्ट होते हैं' (इस अर्थ के ज्ञापक वाक्य में) 'उत्पाद्य' पद के उपादान से ( परमाणु में रहनेवाले } परम ह्रस्वत्व एवं परमाणुत्व तथा ( आकाशादि में रहनेवाले ) परममहत्त्व एवं परमदीर्धत्व को (आश्रय के नाश से नष्ट होनेवाले परिमाणों से ) पृथक् करते हैं। (प्र. ) अणुत्व एवं ह्रस्वत्व, दीर्घत्व एवं महत्त्व ये सभी तो आपेक्षिक हैं, स्वाभाविक नहीं। ( उ० ) एक हाथ या एक बीताभर द्रव्य जिस समय केवलावस्था में रहते हैं (अर्थात् किसी ऐसे दूसरे द्रव्य के साथ नहीं रहते जिनकी अपेक्षा इनमें ह्रस्वता या दीर्घता का व्यवहार होता हो) और जब कि वही द्रव्य न्यून या अधिक परिमाणवाले किसी दूसरे द्रव्य के साथ रहते हैं, तब उन दोनों अवस्थाओं के द्रव्य के परिमाण में अन्तर की प्रतीति नहीं होती है, एवं (एक की अपेक्षा से अगर दूसरे की उत्पत्ति मानें तो, परस्परापेक्ष होने के कारण) इनकी उत्पत्ति ही असम्भव हो जाएगी। (प्र०) (एक द्रव्य के परिमाण में ह्रस्वत्व या दीर्घत्व के व्यवहार के लिए) दूसरे की अपेक्षा क्यों होती है ? ( उ०) जिन दो परिमाणों में न्यूनाधिक व्यवहार को प्रतीति उनके आश्रयीभूत द्रव्यों के ग्रहण से ही होती है, उन दोनों परिमाणों में न्यूनाधिकभाव की प्रतीति के लिए हो दूसरे द्रव्य की अपेक्षा
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे पृथक्त्व
प्रशस्तपादभाष्यम् पृथक्त्वमपोद्धारव्यवहारकारणम् । तत्पुनरेकद्रव्यमनेकद्रव्यं च । तस्य तु नित्यत्वानित्यत्वनिष्पत्तयः संख्यया व्याख्याताः।
'अपोद्धार' अर्थात् 'इससे यह पृथक है' इस व्यवहार (ज्ञान और शब्दप्रयोग) का कारण ही 'पृथक्त्व' है। यह भी (१) एकद्रव्य और (२) अनेकद्रव्य भेद से दो प्रकार का है। इसके नित्यत्व और अनित्यत्व की सिद्धि भी संख्या की भाँति ही समझनी चाहिए । (किन्तु संख्या से पृथक्त्व में इतना ही अन्तर है कि) जिस प्रकार एकत्वादि संख्याओं में
न्यायकन्दली प्रत्येकमाश्रयग्रहणे गृहीतयोरेव परिमाणयोः प्रकर्षभावाभावप्रतीत्यर्था, ययोरधिगमादिदमस्माद्दीर्घमिदं ह्रस्वमिति व्यवहारः स्यात् ।।
__पृथक्त्वमपोद्धारव्यवहारकारणम् । अपोद्धारव्यवहार इदमस्मात् पृथगिति ज्ञानं व्यपदेशश्च, तस्य कारणं पृथक्त्वमिति । व्याख्यानं पूर्ववत् । इतरेतराभावनिमित्तोऽयं व्यवहार इति चेन्न, प्रतिषेधस्य विधिप्रत्ययविषयत्वायोगात्। तत्पुनरेकद्रव्यमनेकद्रव्यं च । एक द्रव्यमाश्रयो यस्य तदेकद्रव्यम्, अनेक द्रव्यमाश्रयो यस्य तदनेकद्रव्यम्, पुनःशब्द एकद्रव्यवृत्तेः परिमाणात पृथक्त्वस्यैकानेकद्रव्यवृत्तित्वविशेषावद्योतनार्थः । परिमाणमेकद्रव्यम्, एकपृथक्त्वं पुनरेकद्रव्यमनेकद्रव्यं चेति विशेषः ।
होती है, जिन दोनों को प्रतीति से 'इससे यह ह्रस्व है' या 'इससे यह दीर्घ है' इत्यादि व्यवहार होते हैं ।।
___ 'पृथक्त्वमपोद्धारव्यवहारकारणम्' कथित व्याख्या की तरह यह इससे पृथक् है' इस आकार का ज्ञान एवं इस आनुपूर्वी के शब्द का प्रयोग ये दोनों ही 'अपोद्धारव्यवहार' शब्द के अर्थ हैं। (प्र.) उक्त व्यवहार तो ( अवधि और आश्रय ) इन दोनों में रहनेवाले भेद से ही होता है । ( उ०) ( भेद से पृथक्त्व की प्रतीति ) नहीं होती है, क्योंकि प्रतिषेध ( अभाव ) विधि प्रत्यय (विना नपद के वाक्य ) का विषय नहीं हो सकता । 'तत्पुनरेकद्रव्य मनेकद्रव्यञ्च' इस वाक्य के 'एकद्रव्य' शब्द की व्युत्पत्ति 'एक द्रव्यम् आश्रयो यस्य' इस प्रकार की है। उक्त वाक्य के 'पुनः' शब्द से पृथक्त्व में परिमाण से इस अन्तर की सूचना दी गयी है कि परिमाण एक ही आश्रय (द्रव्य ) में रह सकता है, किन्तु पृथक्त्व दोनों प्रकार का है। कोई पृथक्त्व एक ही द्रव्य में रहता है । जैसे कि एकपृथक्त्व ) और कोई पृथक्त्व अनेक द्रव्यों में ही रहता है, ( जैसे कि द्विपृथक्त्वत्वादि )।
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प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
३३५
प्रशस्तपादभाष्यम् एतावांस्तु विशेषः-एकत्वादिवदेकपृथक्त्वादिष्वपरसामान्याभावा, संख्यया तु विशिष्यते तद्विशिष्टव्यवहारदर्शनादिति । संख्यात्वरूप पर-सामान्य से अतिरिक्त एकत्वत्वादि अपर-सामान्य भी हैं, उस प्रकार से पृथक्त्व में एकपृथक्त्वत्वादि नाम का कोई भी अपरसामान्य नहीं है। किन्तु पृथक्त्व संख्या के द्वारा ही औरों से अलग रूप में समझा जाता है, क्योंकि पृथक्त्व का व्यवहार संख्या से युक्त होकर ही देखा जाता है।
न्यायकन्दली
तस्य तु नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः संख्यया व्याख्याताः। तस्य द्विविधस्यापि पृथक्त्वस्य नित्यत्वं चानित्यत्वं च निष्पत्तिश्च संख्यया व्याख्याताः । यथैकद्रव्यैकत्वसंख्या परमाणुषु नित्या कार्ये कारणगुणपूविका आश्रयविनाशाच्च नश्यति, तथैकद्रव्यमेकपृथक्त्वम् । यथा अनेकद्रव्या द्वित्वादिका संख्या अनेकगुणालम्बनाया अपेक्षाबुद्धरुत्पद्यते तद्विनाशाच्च विनश्यति, क्वचिच्चाश्रयविनाशाद्विनश्यति, तथानेकद्रव्यद्विपृथक्त्वादिकमपीत्यतिदेशार्थः । नित्यं चानित्यं च नित्यानित्ये, तयोर्भावो नित्यानित्यत्वमिति द्वन्द्वात् परं श्रवणात् त्वप्रत्ययस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः। अत्रापि वाक्ये तुशब्दो विशेषावद्योतनार्थः । तस्य नित्यत्वादयः संख्यया व्याख्याताः, न परिमाणस्येत्यर्थः ।
'तस्य तु नित्यत्वानित्यत्वनिष्पत्तयः संख्यया व्याख्याता:' अर्थात इन दोनों प्रकार के पृथक्त्वों के नित्यत्व और अनित्यत्व का निर्णय संख्या के नित्यत्व और अनित्यत्व के निर्णय के अनुसार समझना चाहिए। अर्थात् जैसे कि कार्यद्रव्य में रहने वाली एकत्व रूप 'एकद्रव्या' संख्या अनित्य है, क्योंकि आश्रय के नाश से उसका नाश हो जाता है, और परमाणु में रहने वाली वही संख्या नित्य है। वैसे ही एक पृथक्त्व भी अनित्य और नित्य दोनों है । एवं जिस प्रकार द्वित्वादिरूप 'अनेकद्रव्या' संख्या अनेक एकत्व रूप गुण विषयक अपेक्षा बुद्धि से उत्पन्न होती हैं और उस ( अपेक्षा) बुद्धि के विनाश से विनष्ट होती है, उसी प्रकार द्विपृथक्त्वादि भी उत्पन्न और विनष्ट होते हैं। संख्या के धर्मों का पृथक्त्व में 'अतिदेश' का यही अभिप्राय है । 'नित्यत्यानित्यत्व' शब्द में 'त्वल' प्रत्यय नित्यञ्चानित्यञ्च नित्यानित्ये, तयोर्भावो नित्यानित्यत्वम्' इस तरह के द्वन्द्व समास के बाद किया गया है, अतः उसका सम्बन्ध (प्रयोग केवल अनित्य पद के बाद होने पर भी) उस द्वन्द्व समान में प्रयुक्त प्रत्येक पद के साथ है। इस वाक्य में प्रयुक्त 'तु' शब्द इस विशेष की सूचना के लिए है कि पृथक्त्वादि के नित्यत्वादि तो संख्या से व्याख्यात हो जाते हैं, किन्तु परिमाण के नित्यत्वादि नहीं ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे पृथक्त्व
न्यायकन्दली एवं संख्यया सह पृथक्त्वस्य साधयं प्रतिपाद्य वैधयं प्रतिपादयतिएतावास्त्विति। संख्यायाः सकाशात् पृथक्त्वस्यतावान् भेदो यथा संख्यात्वपरसामान्यापेक्षयैकत्वद्वित्वादिकमपरसामान्यमस्ति, तथा पृथक्त्वत्वपरसामान्यापेक्षयैकपृथक्त्वत्वादिकमपरसामान्यं नास्तीति । कथं तानेकेष्वेकपृथक्त्वादिष्ववान्तरप्रत्ययविशेषस्तत्राह-संख्यया तु विशिष्यत इति । अयमेकः पृथग् द्वाविमौ पृथगित्येकत्वादिसंख्याविशिष्टो व्यवहारः पृथक्त्वे दृश्यते । तत्रैकत्र द्रव्ये वर्तमानं पृथक्त्वमेकार्थसमवेतयैकत्वसंख्यया विशिष्यते, तद्विशेषश्चावान्तरव्यवहारविशेषः, अनुवृत्तिप्रत्ययश्च पृथक्त्वसामान्यकृत एवेत्यभिप्रायः। एतेन परमाणुपरिमाणेष्वपि परमाणुत्वं सामान्य प्रत्याख्येयम्, परमशब्दविशेषितादेवाणुत्वसामान्याद् व्यवहारानुगमोपपत्तेः। अथ कस्मात् सर्वद्रव्यानुगतमेकमेव पृथक्त्वमेकत्वादिसंख्याविशेषणभेदात् प्रत्ययभेदहेतुरिति नेष्यते ? नेष्यते,
इस प्रकार संख्या के साथ पृथक्त्व का साधर्म्य दिखला कर अब 'एतावांस्तु' इत्यादि ग्रन्थ से संख्या से इसमें जो असाधारण्य है उसका प्रतिपादन करते हैं। अर्थात् संख्या से पृथक्त्व में इतना ही अन्तर है कि संख्या में संख्यात्व रूप परसामान्य के अतिरिक्त एकत्वत्व द्वित्वत्वादि और अपरजातियाँ भी हैं, किन्तु पृथक्त्व में पृथक्त्वत्व रूप परसामान्य को छोड़कर एकपृथक्त्वत्वादि कोई अपर सामान्य नहीं हैं । (प्र.) तो फिर द्विपृथक्त्वादि विभिन्न पृथक्त्वविषयक प्रतीतियों में अन्तर क्यों कर होता है ? 'संख्यया तु विशिष्यते' इत्यादि से इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। अभिप्नाय यह है कि 'अयमेकः पृथक्, द्वाविमौ पृथक्' इत्यादि स्थलो में पृथक्त्व का व्यवहार संख्या के साथ ही देखा जाता है। इनमें एक ही द्रव्य में रहनेवाला पृथक्त्व अपने आश्रय रूप द्रव्य में समवायसम्बन्ध से रहनेवाली एकत्वसंख्या के द्वारा ही और पृथक्त्वों से अलग रूप में समझा जाता है । उस संख्या रूप विशेष से ही एकपृथक्त्व विषयक प्रतीति में द्विपृथक्त्वादि विषयक प्रतीतियों से अन्तर होता है । विभिन्न पृथक्त्व विषयक सभी प्रतीतियों में एकाकारत्व की प्रतीति (अनुवृत्तिप्रत्यय) तो पृथक्त्वत्व सामान्य से ही होता है। इसी रीति से परमाणुओं में रहनेवाले परिमाण में परमाणुत्व जाति का खण्डन करना चाहिए, क्योंकि ('परम' शब्द से युक्त सभी अणुओं में रहनेवाले अणुत्व रूप पर) सामान्य से ही सभी परमाणुओं में परमाणुत्व के व्यवहार का अनुगम होगा। (प्र.) इस प्रकार सभी द्रव्यों में रहनेवाला एक ही पृथक्त्व क्यों नहीं मानते ? उसीसे संख्या रूप विशेषण के बल से ( एक पृथक्त्व, द्विपृथक्त्वादि ) विशेष प्रकार के व्यवहारों की उपपत्ति होगी, ( उ० ) इस लिए नहीं मानते हैं, कि क्रमशः उत्पन्न होनेवाले द्रव्यों में सामान्य की तरह (उत्पत्तिक्षण में ही)
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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३३५
संयोगः संयुक्तप्रत्ययनिमित्तम् । स च द्रव्यगुणकर्महेतुः ।
( ये दोनों संयुक्त हैं ) संयुक्त विपथक ( इस प्रकार की ) प्रतीति का कारण ही 'संयोग' है । यह द्रव्य, गुण और कर्म तीनों का कारण है ।
न्यायकन्दली
क्रमेणोपजायमानेषु द्रव्येषु सामान्यवद् गुणस्य समवायादर्शनात् । अथेदं सामान्यमेव भविष्यति ? न, पिण्डान्तराननुसन्धाने सामान्यबुद्धिवत् पृथक्त्वबुद्धेरभावात् । संयोगसद्भावनिरूपणार्थमाह-संयोगः संयुक्तप्रत्ययनिमित्तमिति । अस्ति तावदिदमनेन संयुक्तमिति प्रत्ययो लौकिकानाम्, न चास्य रूपादयो निमित्तं तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् । अतो यदस्य निमित्तं स संयोगः । नैरन्तर्यनिबन्धनोऽयं प्रत्यय इति चेत् ? किं द्रव्ययोः परस्परसंश्लेषो नैरन्तर्यम् ? अन्तराभावो वा ? आद्ये कल्पे न किञ्चिदतिरिक्तमुक्तं स्यात्, द्रव्ययोः परस्परोपसंश्लेष एव हि नः संयोगः । द्वितीये कल्पे सान्तरयोरन्तराभावे संयोगादन्यः को हेतुरिति
गुण का समवाय उपलब्ध नहीं होता हैं । (प्र०) तो फिर यह पृथक्त्व जातिरूप ही होगा, गुण नहीं ? ( उ० ) इसलिए यह सामान्य नहीं है कि इसकी प्रतीति एक द्रव्य में भी होती है, किन्तु पृथक्त्व की प्रतीति आश्रय और अवधि दोनों की प्रतीति के बिना नहीं होती है ।
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संयोग का अस्तित्व समझाने के लिए 'संयोगः संयुक्तप्रत्ययनिमित्तम्' इत्यादि पङ्क्ति लिखते हैं । ( अभिप्राय यह है कि ) ' वह इसके साथ संयुक्त है' इस प्रकार की प्रतीति साधारण जनों को भी होती है । इस प्रतीति के कारण रूपादि नहीं हैं, क्योंकि रूपादि से जितनी प्रतीतियाँ उत्पन्न होती हैं, उनसे यह प्रतीति विलक्षण प्रकार की है । अतः उक्त प्रतीति का जो कारण है वही संयोग है । (प्र०) उक्त प्रतीति तो
।
दोनों अवधियों में अन्तर के न (नैरन्तर्य) रहने से होती है ( उ० ) यह 'नैरन्तयं' क्या वस्तु है ? दो द्रव्यों का परस्पर मिलन है ? या दोनों में व्यवधान का अभाव ? इनमें प्रथम पक्ष को स्वीकार करना संयोग को ही स्वीकार करना है । दूसरे पक्ष को स्वीकार करने पर पूछना है कि संयोग को छोड़कर परस्पर मिलित दो वस्तुओं के बीच में व्यवधान न रहने का और भी क्या कारण है ? (प्र०) आपके मत से दो असंयुक्त वस्तुओं में संयोग का जो कारण है, वही मेरे मत से दो अलग रहनेवाली वस्तुओं के बीच अन्तर न रहने का भी कारण है । ( उ०) मान लिया कि वही कारण है, (किन्तु पूछना यह है कि वह कारण अपने आश्रय को दूसरे देश से सम्बद्ध करके उस अन्तर को मिटाता है या दूसरे देश के साथ सम्बद्ध न करके ही ? अगर दूसरा पक्ष
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रष्यारम्भ निरपेक्षस्तथा भवतीति, "सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च" इति बच. नात् । गुणकारम्भे तु सापेक्षः, “संयुक्तसमवायादग्नेवैशेषिकम्" इति वचनात् । यह द्रव्य का स्वतन्त्र उत्पादक है। (द्रव्य के उत्पादन में इसकी औरों से) इस विशेष की सूचना तथा भवति' और 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' सूत्रकार की इन दो उक्तियों से सिद्ध है। गुण के उत्पादन में इसे
और कारणों की भी अपेक्षा होती है, क्योंकि 'संयुक्तसमवायादग्नेवैशेषिकम्' सूत्रकार की ऐसी उक्ति है।
न्यायकन्दली वाच्यम् । यदेव भवतामसंयुक्तयोः संयोगे कारणं तदेव नः सान्तरयोरन्तराभावे कारणमिति चेत् ? अस्तु, कामं किन्त्विदं स्वाश्रयं देशान्तरं प्रापयत् तदन्तराभावं करोति ? अप्रापयद्वा ? अप्राप्तिपक्षे तावदन्तराभावो दुर्लभो पूर्वावष्टब्धे एव देशेऽवस्थानात् । देशान्तरप्राप्तिपक्षे तु तस्याः को नामान्यः संयोगो य: प्रतिषिध्यते ? अविरलदेशे द्रव्यस्योत्पादे संयोगव्यवहार इति चेत् ? न, उत्पादमात्रे संयोगव्यवहारः, किन्त्वविरलदेशोत्पादे, यैवेयमुत्पाद्यमानयोरविरलदेशता स एव संयोगः।
स च द्रव्यगुणकर्महेतुः । तन्तुसंयोगो द्रव्यस्य पटस्य हेतुः, आत्ममनःसंयोगो बुद्धयादीनां गुणानाम् ; एवं भेर्याकाशसंयोगः शब्दस्य गुणस्य हेतुः, प्रयत्नवदात्महस्तसंयोगो हस्तकर्मणो हेतुः, तथा वेगवद्वायुमानें तो फिर व्यवधान का अभाव सम्भव न होगा, क्योंकि (कारण का आश्रय) अपने ही देश में बैठा है। अगर दूसरा पक्ष कहें कि दूसरे देश में अपने आश्रय को सम्बद्ध करके ही वह व्यवधान को मिटाता है तो फिर संयोग को छोड़कर वह कौन सी दूसरी वस्तु है जिसका आप निषेध करते हैं ? (प्र०) अविरल (व्यवधान शून्य) द्रव्य की उत्पत्ति होने पर ही संयोग का व्यवहार होता है । (उ०) उत्पन्न हुई सभी वस्तुओं में तो संयोग का व्यवहार नहीं होता है, तो फिर अविरल देश में उत्पन्न जिन दो वस्तुओं में संयोग का व्यवहार होता है, उन दोनों वस्तुओं का अविरलदेशत्व ही संयोग है।
'स च द्रव्यगुणकर्महेतुः' (संयोग द्रव्य, गुण और कर्म का कारण है) तन्तुओं का संयोग (पट रूप) 'द्रव्य' का कारण है। आत्मा और मन का संयोग बुद्धिप्रभृति 'गुणों का कारण है। भेरी और आकाश का संयोग शब्द (रूप गुण) का कारण है । प्रयत्न से युक्त आत्मा और हाथ का संयोग हाथ की क्रिया का कारण है। वेग से
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प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम्
३३७ न्यायकन्दली संयोगस्तृणकर्मणो हेतुरित्यादिकमूह्यम् । यथायं द्रव्यमारभते, यथा च गुणकर्मणी, तं प्रकारं दर्शयति-द्रव्यारम्भ इत्यादिना । द्रव्यस्यारम्भ कर्तव्ये संयोगः स्वाश्रयं स्वनिमित्तं च कारणमन्तरेण नान्यदपेक्षते। न त्वयमनपेक्षार्थः पश्चाद्भावि निमित्तान्तरं नापेक्षत इति, श्यामादिविनाशानन्तरभाविनोऽन्त्यस्य परमाण्वग्निसंयोगस्य पाकजानां गुणानामपि आरम्भे निरपेक्षकारणत्वप्रसङ्गात् । कथमेतदवगतं त्वया यदयं द्रव्यारम्भे निरपेक्षः संयोग इति ? तत्राह –तथा भवतीति । 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' इति वचनात, पटार्थमुपक्रियमाणेभ्यस्तन्तुभ्यो 'भविष्यति पटः' इति प्रत्ययो जायत इति पूर्व प्रतिपाद्य सूत्रकारेणैतदुक्तम्-तथा भवतीति सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्चेति । अस्यायमर्थो यथोपक्रियमाणेभ्यो भविष्यति पट इति प्रत्ययस्तथा सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्चेति
युक्त वायु का संयोग तिनके की क्रिया का कारण है 'द्रव्यारम्भे' इत्यादि से यह प्रतिपादन करते हैं कि संयोग किस रीति से द्रव्य का उत्पादन करता है, एवं किस प्रकार वह गुण एवं क्रिया का उत्पादन करता है । 'द्रव्यारम्भे निरपेक्षस्तथा भवति' इस वाक्य में प्रयुक्त 'अनपेक्ष' शब्द का यही अर्थ है कि संयोग को द्रव्य के उत्पन्न करने में द्रव्य के समवायिकारणों और निमित्तकारणों को छोड़कर और किसी की अपेक्षा नहीं होती है। उक्त 'अनपेक्ष' शब्द का यह अर्थ नहीं है कि पीछे उत्पन्न होनेवाले भी किसी गुण को अपेक्षा उसे नहीं होती है, अगर ऐसा माने तो श्यामादि गुणों के नष्ट होने के बाद उत्पन्न होनेवाले अग्निसंयोग को भी पाकज रूपादि के प्रति निरपेक्ष कारण मानना पड़ेगा। (प्र. ) यह तुमने कैसे समझा कि द्रव्य के उत्पादन में संयोग को और किसी को अपेक्षा नहीं होती है ? इसी प्रश्न का समाधान तथा भवति' और 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' इत्यादि दो सूत्रों के उल्लेख से करते हैं। अभिप्राय यह है कि सूत्रकार ने पहिले यह प्रतिपादन किया है कि 'पट के लिए व्याप्त तन्तुओं से पट की उत्पत्ति होगी' इस प्रकार का प्रतीति होती है। इसके बाद सूत्रकार के द्वारा 'तथा भवति' एवं 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' ये दो सूत्र कहे गये हैं। इन दोनों सौत्र वाक्यों का यह अर्थ है कि जिस प्रकार पट के लिए व्यापृत तन्तुओं में यह प्रतीति होती है कि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों प्रकार के पट की इनसे
१. समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले कार्यों का असमवाथिकारण भी अवश्य होता है। अतः कार्यरूप द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों के असमवायिकारण भी अवश्य हैं। किन्तु इसमें द्रव्य के असमवायिकारण में यह विशेष है कि उसके उत्पन्न हो जाने पर कार्य के उत्पादन में और किसी को अपेक्षा नहीं रहती है। असमवायिकारण का सम्बन्ध होने के अव्यवहित उत्तर क्षण में ही कार्य उत्पन्न हो जाता है । कपालों का संयोग होने पर या तन्तुओं में संयोग होने पर घट या पट रूप कार्य अव्यवहित उत्तर क्षण में उत्पन्न हो ही जाता है,
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[गुणे संयोग
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
भवतीति वर्तमानप्रत्ययः, अन्यथा सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्चेति भवतीति वर्तमानप्रत्ययो न स्यात, यदा कतिचित्तन्तवः संयुक्ता वर्तन्ते कतिचिच्चासंयुक्तास्तदा तेभ्यो भवति पट इति प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । अत्र सूत्रे वार्तमानिकप्रतीतिहेतुत्वेनाभिधीयमानेषु तन्तुषु संयुक्तेष्वेवानपेक्षशब्दप्रयोगात संयोगो द्रव्यारभ्भे निरपेक्ष इति प्रतीयत इति तात्पर्यम् । तुशब्देन पूर्वस्माद्विशेषं प्रतिपादयन्नाह-गुणकर्मारम्भे तु सापेक्षः। कुतो ज्ञातमित्यत आह-संयुक्तसमवायादिति।
__ अग्नेवैशेषिकमित्यग्निगतमुष्णत्वं विवक्षितम् । तत्पार्थिवपरमाणुसंयुक्ते वह्नौ समवायात् परमाणौ रूपाद्युत्पत्तिकारणमित्यस्माद्वचनाद् गुणारम्भे परमाण्वग्निसंयोगस्योष्णस्पर्शसापेक्षत्वं प्रतीयते, अन्यथा वह्निसंयोगजेषु रूपादिषु वह्निस्पर्शस्य कारणत्वाभिधानायोगात्, बुद्धयारम्भे आत्ममनःसंयोगस्य स्वाश्रय
उत्पत्ति होगी, उसी प्रकार यह वर्तमान त्वविषयक प्रतीति भी होती है कि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों प्रकार के तन्तुओं से पट उत्पन्न हो रहा है। संयोग अगर निरपेक्ष होकर द्रव्य का उत्पादक न हो तो फिर उक्त वर्तमानत्व विषयक प्रतीति नहीं हो सकेगी, प्रत्युत जिम समय पट के उत्पादक तन्तुओं में से कुछ परस्पर संयुक्त हैं और कुछ असंयुक्त, उस समय भी वर्तमानत्व की प्रतीति होगी। कहने का तात्पर्य है कि वर्तमानकालिक उक्त प्रतीति के कारण रूप से कथित परस्पर संयुक्त उक्त तन्तुओं में 'अनपेक्ष' शब्द का प्रयोग किया गया है, अतः समझते हैं कि संयोग को द्रव्य के उत्पादन में किसी और की अपेक्षा नहीं है। 'गुणकर्मारम्भे तु सापेक्षः' यह वाक्य अपने 'तु' शब्द के द्वारा अपने पहिले पक्ष से इस पक्ष में अन्तर को समझाने के लिए लिखा गया है। यह आपने कैसे समझा ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए संयुक्तसमवायात्' यह वाक्य लिखा गया है।
___ 'अग्नेर्वैशेषिकम्' इस वाक्य से अग्नि में रहनेवाला उप्ण स्पर्श अभीष्ट है। वह उष्ण स्पर्श पार्थिवपरमाणु से संयुक्त वह्नि में समवाय सम्बन्ध से रहने के कारण परमाणु में होनेवाले ( पाकज ) रूप की उत्पत्ति का कारण है, इस वाक्य से यह समझते हैं कि परमाणु और अग्नि के संयोग से जो पाकजरूप की उत्पत्ति होती है, उसमें उसे उष्णस्पर्श की भी अपेक्षा रहती है। अगर ऐसी बात न हो तो फिर वह्निसंयोग से उत्सन्न होनेवाले रूपादि के प्रति वह्नि को कारण कहना ही असङ्गत हो जाएगा । एवं आत्मा और मन के संयोग को बुद्धि के उत्पादन में अपने आश्रय और निमित्त को छोड़कर
अतः द्रव्य के उत्पादन में असमवायिकारणीभूत संयोग को किसी और की अपेक्षा नहीं रह जाती है । गुणों के असमवायिकारण के प्रसङ्ग में यह बात नहीं है, क्योंकि कपाल में रूप की उत्पत्ति के बाद कपालसंयोगादि क्रम से जब घट की उत्पत्ति हो जाती है, उसके बाद घट में उस रूप की उत्पत्ति होती है, जिसमें कपाल का रूप असमवायिकारण है, अतः गुण के उत्पादन में असमवायिकारण को उस गुण के आश्रयादि को भी अपेक्षा रहती है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्वनिमित्तकारणव्यतिरेकेणापि धर्माद्यपेक्षत्वमिति यथासंभवमप्यू ह्यम्, कर्मारम्भेऽपि तृणे कर्मारम्भकत्वात् । बीजविनाशानन्तरमकुरस्योत्पत्तेमपिण्डध्वंसानन्तरं घटस्योत्पादादभावादेव द्रव्यस्योत्पादो न संयोगादिति चेत् ? तदयुक्तम्, अवयवसंयोगविशेषेभ्यो द्रव्यस्योत्पत्तिदर्शनात्, अभावस्य निरतिशयत्वे कार्यविशेषस्याकस्मिकत्वप्रसङ्गाच्च ।
इदं त्विह निरूप्यते-किं सत् क्रियते ? असदेव वा? सत् क्रियत इति सांख्याः। असदकरणात्, न ह्यसतो गगनकुसुमस्य सत्त्वं केनचिच्छक्यं कर्तुम्, सतश्च सत्कारणं युक्तमेव, तद्धर्मत्वात् । दृष्टं हि तिलेषु सत एव तैलस्य निष्पीडनेन करणम् । असतस्तु करणे न निदर्शनमस्ति । इतश्च सत्कार्यम्-उपादानग्रहणात्, उपादानानि
धर्मादि वस्तुओं की भी अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार यथासम्भव ऊह करना चाहिए । इसी प्रकार तृणादि में कर्म के उत्पादन में भी संयोग इतर सापेक्ष ही है (द्रव्योत्पादन की तरह इतर निरपेक्ष नहीं)। (प्र.) ( अवयवों का ) संयोग द्रव्य का कारण ही नहीं है, क्योंकि बीज के विनाश के बाद अङ्कुर की उत्पत्ति होती है, एवं मिट्टी के गोले के नष्ट होने के बाद ही घट की उत्पत्ति होती है, अतः अभाव ( ध्वंस ) ही द्रव्य का कारण है। ( उ०) यह पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि अवयवों के विशेष प्रकार के संयोग से विशेष प्रकार के द्रव्य की उत्पत्ति देखो जाती है। एवं अभावों में कोई अन्तर न रहने के कारण इस पक्ष में कार्यों की उत्पत्ति अनियमित भी हो जाएगी।
अब यहाँ यह विचार करते हैं कि पहिले से विद्यमान वस्तु की ही उत्पत्ति कारणों से होती है ? या पहिले से सर्वथा अविद्यमान वस्तु की ? इस प्रसङ्ग में सांख्य दर्शन के अनुयायियों का कहना है कि 'सत्' अर्थात् पहिले से विद्यमान वस्तु की ही उत्पत्ति कारणों से होती है। ( इसके लिए इस हेतु वाक्य का प्रयोग करते हैं ) 'असदकरणात' अर्थात् 'असत्' को कोई उत्पन्न नही कर सकता। सर्वथा अविद्यमान आकाशकुसुम को कोई भी उत्पन्न नहीं कर सकता। 'सत्' कार्य का कारण भी 'सत्' ही होना चाहिए, क्योंकि कार्य कारण के धर्म से युक्त होता है। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि तिल में पहले से विद्यमान तेल को ही पेरकर उससे निकालते हैं । असत् वस्तु के उत्पादन में ऐसा कोई दृशन्त नहीं हैं । 'उपादानग्रहण' रूप हेतु से भी
१. कहने का तात्पर्य है कि अभाव को ही द्रव्य का असमवायिकारण माने तो बीज से ही अकुर की उत्पत्ति होती है, एवं मिट्टी के गोले से ही घट की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार के नियम नहीं रह जायँगे । क्योंकि बीज के अभाव में एवं मिट्टी के गोले के अभाव में कोई अन्तर तो है नहीं, अतः यह भी कहा जा सकता है कि मिट्टी के गोले के अभाव से अकुर की उत्पत्ति और बीज के अभाव से घड़े की उत्पत्ति होती है। यही कार्योत्पत्ति की अनियमितता या आकस्मिकत्व है।
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न्यागकन्दलीसंवलितप्रशस्तपावभाज्यम्
[ गुणे संयोग
न्यायकन्दली
कारणानि तेषां कार्येण ग्रहणं कार्यस्य तैः सह सम्बन्धः, तस्मात् तत्कार्य सदेव, अविद्यमानस्य सम्बन्धाभावात् । असम्बद्ध मेव कार्य कारणः क्रियत इति चेत् ? न, सर्वसम्भवाभावात्, असम्बद्धत्वाविशेषे सर्व सर्वस्माद्भवेत् । न चैवम्, तस्मात् कार्य प्रागुत्पत्तः कारणः सह सम्बद्धम् । यथाहुः
असत्त्वान्नास्ति सम्बन्धः कारणैः सत्त्वसङ्गिभिः।।
असम्बद्धस्य चोत्पत्तिमिच्छतो न व्यवस्थितिः ॥ इति । अपि च शक्तस्य जनकत्वम् ? अशक्तस्य वा ? अशक्तस्य जनकत्वे तावदतिप्रसक्तिः। शक्तस्य जनकत्वे तु किमस्य शक्तिः सर्वत्र ? क्वचिदेव वा ? सर्वत्र चेत ? सैवातिव्याप्तिः । अथ क्वचिदेव ? कथमसति तस्मिन् कारणस्य तत्र शक्तिनियतेति वक्तव्यम्, असतो विषयत्वायोगात् । तस्माच्छक्तस्य
समझते हैं कि कार्य ( कारण व्यापार से पहिले भी ) सत् है । 'उपादान' शब्द का यहां 'कारण' अर्थ है । अर्थात् कारणों के साथ कार्य के सम्बन्ध से भी समझते हैं कि कार्य (कारण व्यापार से पहिले भी ) सत् है, क्योंकि अविद्यमान वस्तु के साथ किसी का भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है। (प्र.) कारणों के सम्बन्ध से रहित कार्य की ही उत्पत्ति कारणों से होती है ? (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि सभी कारणों से सभी कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है, सर्वसम्भवाभावात्' ( अगर कारणों के सम्बन्ध से रहित कार्य की उत्पत्ति हो तो) सभी कारणों से सभी कार्यों की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि कार्य को असम्बद्धता जैसे कारणों में है, वैसे और वस्तुओं में भी समान हो है, किन्तु सभी वस्तुओं से सभी कार्यों को उत्पत्ति नहीं होती है, अतः उत्पत्ति से पहिले भी कार्य के साथ कारण का सम्बन्ध अवश्य है। जैसा कि सांख्यवृद्धों ने कहा है कि विद्यमान कारणों के साथ अविद्यमान कार्य का सम्बन्ध नहीं है। जो कोई कारण से असम्बद्ध कार्य की उत्पत्ति ( उस ) कारण से मानते हैं, उनके मत में (नियत कारण से ही नियत कार्य की उत्पत्ति हो इस) व्यवस्था की उपपत्ति नहीं होगी। और भी बात है, (१) कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति से युक्त वस्तुओं में कारणता है ! या (२) कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित वस्तुओं में कारणता है। इनमें दूसरा पक्ष माने (तो तन्तुप्रभृति कारणों से घटादि कार्यों की उत्पत्ति रूप) अतिप्रसक्ति होगी। अगर कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति से युक्त ही कारण है, तो फिर इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि कारण में रहनेवाली यह शक्ति सभी कार्यविषयक है ? या विशेष कार्यविषयक ? इनमें अगर पहिला पक्ष मानें तो फिर कथित अतिप्रसक्ति बनी बनायी है। अगर दूसरा पक्ष मानें तो यह भी कहना पड़ेगा कि कारण की वह शक्ति किसी विशेष असत् कार्य में नियमित कैसे है ? क्योंकि असत् वस्तु तो किसी का विषय नही हो सकती, अतः शक्ति से युक्त
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मकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
यच्छक्यं शक्तिविषयो योऽर्थः, तस्य करणात् प्रागपि शक्यं सदेव । इतोऽपि सत् कार्यम, कारणभावात्, कारणस्वभावं कार्यमिति नान्योऽवयवी अवयवेभ्यस्तद्देशत्वात् । यत्तु यस्मादन्यन्न तत्तस्य देशो यथा गौरश्वस्येत्यादिभिः प्रमाणः प्रतिपादितम्, कारणं च सत्, अतस्तदन्यतिरेकि कार्यमपि सदेवेति । तदेतदुक्तम्--
असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यमिति ॥
अत्रोच्यते, यदि कारणव्यापारात् प्रागपि पटस्तन्तुषु सन्नेव, किमित्युपलब्धिकारणेषु सत्सु सत्यामपि जिज्ञासायां नोपलभ्यते ? अनभिव्यक्तत्वादिति चेत् ? केयमनभिव्यक्तिः ? यधुपलब्धेरभावस्तस्यैवानुपपत्तिश्चोदिता कथं तदेवोत्तरम् ? अथोपलब्धियोग्यस्यार्थक्रियानिवर्तनक्षमस्य रूपस्य विरहोऽनभिव्यक्तिः ? तदानीमसत्कार्यवादः, तथाभूतस्य रूपस्य प्रागभावे पश्चाद्भावात् । अथ मतं पटस्य चक्षुरादिवत् कुविन्दादिकारणव्यापारोऽप्युपलब्धिकारणं तस्या
उस कारण से उत्पन्न होनेवाला एवं शक्ति का विषय वह कार्य रूप अर्थ अपने कारण में उत्पत्ति से पहिले भी 'सत्' ही है। 'कारणभाव' हेतु से भी यह सिद्ध होता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति से पहिले भी 'सत्' है। अभिप्राय यह है कि कार्य अपने ( उपादान ) कारण के स्वभाव का होता है अतः अवयवों से भिन्न अवयवी नाम की कोई स्वतन्त्र वस्त नहीं हैं, क्योंकि अपने अवयव ही उसकी उत्पत्ति के देश हैं। जो जिससे भिन्न होता है, वह उसकी उत्पत्ति का देश नहीं होता, जैसे कि गाय का भैस उत्पत्ति देश नहीं होता। इन प्रमाणों से यह सिद्ध है कि कार्य अपने उपादानों से अभिन्न है। उपादान तो अवश्य ही सत् हैं, अतः उनसे अभिन्न कार्य भी 'सत्' है। ( सत्कार्यवाद के साधक इन हेतुओं की ही सूचना 'असदक र णात्' इत्यादि ( सां• का०६) कारिका से दी गई है।
(सत्कार्यवाद के साधक इन हेतुओं का खण्डन असत्कार्यवादी वैशेषिकादि) इस प्रकार करते हैं कि कार गों के व्याप्त होने के पहिले भी अगर तन्तुओं में पट है तो फिर पट को जानने की इच्छा रहने पर भी एवं पटप्रत्यक्ष के कारणों के रहते हुए भी सूत में पट का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ? (प्र.) उस समय पट अनभिव्यक्त रहता है, अतः उस समय उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है । ( उ० ) यह 'अनभिव्यक्ति' क्या है ? अगर वह उपलब्धि का अभाव ही है तो फिर पूर्वपक्ष और समाधान दोनों एक ही हो गये । अगर उपलब्ध हो सकनेवाली वस्तु में उस वस्तु से होनेवाले प्रयोजन के सम्पादक रूप का अभाव ही अनभिव्यक्ति है, तो उस समय 'असत्-कार्यवाद' स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि पट में पहिले से अविद्यमान उसके प्रयोजन सम्पादक रूप की उत्पत्ति हुई है। अगर यह कहें कि (प्र०) जैसे कि चक्षुरादि इन्द्रियाँ पट प्रत्यक्ष के कारण हैं, वैसे ही पट के जुलाहे प्रभृति कारणों का व्यापार भी पट के प्रत्यक्ष का कारण है। इन कारणों के न
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोगभावात् सतोऽप्यनुपलब्धिरिति ? न, कारणव्यापारस्यापि सर्वदा तत्र सम्भवात्, व्यापारोऽपि पूर्वमनभिव्यक्तः सम्प्रति कारणैरभिव्यज्यमानो भावमुपलम्भयतीति चेत् ? अभिव्यक्तिरपि यद्यसती? कथं तस्याः कारणम् ? सतीति चेद्भावोपलम्भप्रसङ्गस्तदवस्थ एवेति कस्यचिदपूर्वस्य विशेषस्योपजननमन्तरेण प्रागनुपलब्धस्य पश्चादुपलम्भो दुर्घटः ।
यच्चोक्तम्--असदशक्यकरणं व्योमकुसुमवदिति, तत्र स्वभावभेदाद् असदेकस्वभावं गगनकुसुमम्, सदसत्स्वभावं तु घटादिकम् ? तत्पूर्वमसत् पश्चात्सद्भवति । कथं सदसतोरेकत्र न विरोध इति चेत् ? कालभेदेन समावेशात् । प्रागुत्पत्तेः पटस्य धर्मिणोऽभावात् कथमसत्त्वं तस्य धर्म इति चेत् ? यादृशो यक्षस्तादृशो बलिः, सत्त्वमसतो धर्मो न स्यादसत्त्वं त्वसत एव युक्तम् । यदसत् पूर्वमासीत् तस्य कथं सत्त्वमिति चेत् ? कारणसामर्थ्यात्, अस्ति स कोऽपि महिमा तुर्यादीनां
रहने से ही उत्पत्ति से पहिले तन्तुओं में विद्यमान रहने पर भी पट का प्रत्यक्ष नहीं होता है । ( उ० ) ऐसा आप नहीं कह सकते, क्योंकि आपके मत से सभी कार्य उत्पत्ति से पहिले भी सत् हैं, अतः जुलाहे प्रभृति का व्यापार भी सत् है, अतः वे भी सर्वदा रहेंगे ही। (प्र.) कारणों का वह व्यापार भी पहिले से अनभिव्यक्त ही रहता है, उन्हीं कारणों से अभिब्यक्त होकर पटादि कार्यों के प्रत्यक्ष में सहायक होता है । ( उ०) कारणों की यह अभिव्यक्ति सत् है ? या असत् ? अगर असत् है तो फिर वह उस प्रत्यक्ष का कारण कैसे हो सकती है ? अगर सत् है तो पटादि प्रत्यक्ष की उक्त आपत्ति है ही। अत: किसी अपूर्व विशेष की उत्पत्ति के बिना पहिले से अनुपलब्ध वस्तु की पीछे उपलब्धि सम्भव नहीं है।
___ यह जो आपने कहा कि 'आकाशकुसुम की तरह असत् वस्तु का उत्पादन असम्भव है' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु भिन्न भिन्न स्वभाव की होती हैं । आकाश कुसुम का केवल 'असत्त्व' ही स्वभाव है । घटादि वस्तुओं के सत्त्व और असत्त्व दोनों ही स्वभाव हैं। वे पहिले असत् रहते है, पीछे से सत् हो जाते हैं। (प्र०) एक आश्रय में सत्त्व और असत्त्व दोनों में विरोध क्यों नहीं होता है ? ( उ०) ( यद्यपि वे दोनों एक ही समय एक आश्रय में नहीं रह सकते फिर भी) काल भेद से वे दोनों एक आश्रय में रह सकते हैं । (प्र०) उत्पत्ति से पहिले तो पट रूप धर्मी ही नहीं है, फिर असत्त्व उसका धर्म किस प्रकार होगा? (उ.) "जैसा देवता वैसा ही उनका भोग' (इस न्याय से) असत् वस्तुओं का सत्त्व धर्म तो होगा नहीं, अतः यही ठीक है कि असत्त्व ही उसका धर्म है । (प्र०) जो पहिले असत् रहा कभी भी सत्त्व उसका धर्म कैसे हो सकता है ? ( उ०) कारणों के सामर्थ्य से ( असत् वस्तुओं का भी सत्त्व धर्म हो सकता है । तुरीवेमादि कारणों की ही यह अपूर्व महिमा है कि जब ये मिलकर काम
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३४३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली यदेतेषु सम्भूय व्याप्रियमाणेष्वसन्नेव पटः संभवति । असतोऽसम्बद्धस्य जन्यत्वे ऽतिप्रसक्तिरिति चेन्नैतत्, तन्तुजातीयस्य पटजातीय एव सामर्थ्यात् । कुत एतत् ? त्वत्पक्षेऽपि कुत एतत् ? तन्तुष्वेव पटात्मता, न सर्वत्रेति ? वस्तुस्वाभाव्यादिति चेत् ? सैवात्रापि भविष्यति । अत एव चोपादाननियमः, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तज्जातीयनियमने तज्जातीयस्य शक्त्यवधारणात् । यत् पुनरेतत् कार्यकारणयोरव्यतिरेकात् कारणावस्थानादेव । कार्यस्याप्यवस्थानमिति, तदसिद्धमसिद्धेन साधितम्, कार्यकारणयोः स्वरूपशक्तिसंस्थानभेदस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । प्रधानात्मकविश्वस्यातीन्द्रियत्वप्रसङ्गाच्च । तद्देशत्वं तु तदाश्रितत्वमात्रनिबन्धनमेवेत्यलं बृद्धष्वतिनिर्बन्धेन ।
एतत् तु विमृश्यतां केयं शक्तिरिति ? अतीन्द्रिया काचिदित्यार्याः । तदयुक्तम्, तस्याः सद्भावे प्रमाणाभावात्। अथ मन्यसे यथाभूतादेव
करते हैं तब पहिले से असत् होनेपर भी पट सत् हो जाता है। (१०) पहिले से बिलकुल असत् एवं कारणों के साथ बिलकुल असम्बद्ध कार्य की अगर उत्पत्ति मानें तो 'अतिप्रसक्ति' (अर्थात् कपालादि कारणों से भी पट की उत्पत्ति ) होगी। (उ०) ( यह अतिप्रसङ्ग) नहीं होगा, क्योंकि तन्तु जातीय वस्तुओं में पट जाति की वस्तुओं के उत्पादन का ही सामर्थ्य है। (प्र०) यही क्यों है ? (उ०) (इसके उत्तर में हम भी पूछ सकते हैं कि) तन्तु ही पटस्वरूप क्यों हैं, (कपालादि पटस्वरूप क्यों नहीं हैं), अगर इसका आप यह उत्तर दें कि (प्र.) यह इसका स्वभाव है ? (उ०) तो फिर यही उत्तर मेरे लिए भी होगा। अतएव यह नियम भी ठीक बैठता है कि 'अमुक वस्तु ही अमुक वस्तु का उपादान है', क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से तज्जातीय (पटादिजातीय) वस्तुओं के उत्पादन की शक्ति तज्जातीय (तन्त्वादि. जातीय वस्तुओं में ही निश्चित है। आपने जो यह कहा कि कार्य और कारण अभिन्न हैं, अतः कारण अगर सत् हो तो फिर उससे अभिन्न कार्य भी सत् ही है' यह तो असिद्ध (हेतु) से ही असिद्ध का साधन करना है (कारण और कार्य का अभेव ही सिद्ध नहीं है), क्योंकि कार्य और कारण दोनों के स्वरूप (आकार) शक्ति और विन्यास सभी में विभिन्नता देखी जाती है। अगर पूरा संसार ही प्रकृति से अभिन्न हो तो फिर पूरा संसार ही अतीन्द्रिय होगा। कार्य में जो उपादान का अन्वय देखा जाता है, उसका मूल तो इतना ही है कि वही कार्य का आश्रय है (ओर कारण नहीं)।
यह विचारिये कि यह 'शक्ति' क्या वस्तु है ? आर्यों (मीमांसकों) का कहना है कि 'शक्ति एक अतीन्द्रिय स्वतन्त्र पदार्थ है' किन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसको सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है। अगर आप (मीमांसक) यह मानते हों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग
न्यायकन्दली वह्नहोत्पत्तिरवगता तथाभूतादेव मन्त्रौषधिसन्निधाने सति न दृश्यते, यदि दृष्टमेव रूपं दाहस्य कारणं स्यात् तस्य सम्भवाद् दाहानुत्पादो न स्यात् । अस्ति च तदनुत्पत्तिः, सेयमदृष्ट रूपस्य वैगुण्यं गमयन्ती हुतभुजि शक्तेरतीन्द्रियायाः सत्त्वं कल्पयति, यस्या मन्त्रादिनाभिभवो विनाशो वा क्रियते । यत्र प्रतीकारवशेन पुनः कार्योदयस्तत्राभिभवः, यत्र तु सर्वथैवानुत्पत्तिः कार्यस्य तत्र विनाशः। न चैतद्वाच्यम्, न मन्त्रो वह्निसंयुक्तो नापि तत्समवेतः कथं व्यधिकरणां शक्ति विनाशयेत्, विनाशयति चेदतिप्रसङ्गः स्यादिति, तदुद्देशेन प्राप्तत्वात् । यथैवासम्बद्धोऽप्यभिचारो यमुद्दिश्य क्रियते तमेव हिनस्ति, न पुरुषान्तरम्, एवं यामेव व्यक्तिमभिसन्धाय मन्त्रः प्रयुज्यते तस्या एव शक्ति निरुणद्धि, न सर्वासाम् । नाप्येतदुद्घोषणीयम्--यदि शक्तिर्द्रव्यात्मिका ?
कि (प्र०) जिस प्रकार की वह्नि से दाह देखा जाता है, उस प्रकार की ही वह्नि से (दाह के प्रतिरोधक) मन्त्र और औषध का सामीप्य रहने पर दाह को उत्पत्ति नहीं भी होती है, अगर केवल अपने दृष्टस्वरूप से ही वह्नि दाह का कारण हो तो फिर उस रूप से युक्त वह्नि तो मन्त्रादि संनिहित देशों में भी है ही, अतः उन स्थानों में दाह के अनुत्पाद का निर्वाह नहीं होगा। दाह की उक्त उत्पत्ति और अनुत्पत्ति इन दोनों से वह्नि में दाह के प्रयोजक किसी अतीन्द्रिय धर्म की कल्पना अनिवार्य हो जाती है, जो वह्मि में अतीन्द्रिय शक्ति की कल्पना को उत्पन्न करती है। जिस (शक्ति) का मन्त्रादि से अभिभव या विनाश होता है, (अर्थात् ) जहाँ फिर से प्रतीकार करने पर दाहादि कार्यों की उत्पत्ति होती हैं, वहाँ शक्ति के अभिभव की कल्पना करते हैं और मन्त्रादि प्रयोग के बाद जहाँ दाहादि कार्यों की उत्पत्ति फिर कभी नहीं होती, वहाँ शक्ति के विनाश की कल्पना करते हैं। एवं यह भी कहना ठीक नहीं है कि (उ०) वह्नि का मन्त्र के साथ न संयोग सम्बन्ध है, न समवाय, तो फिर विभिन्न अधिकरणों में रहने वाली शक्ति का नाश वह कैसे करेगा ? अगर मन्त्र से व्यधिकरण ही शक्ति का नाश मानें तो अतिप्रसङ्ग होगा, (अर्थात् दाह के प्रतिरोधक मन्त्र से संसार के सभी काम रुक जाएंगे)। (प्र.) यह आक्षेप ठीक नहीं है, क्योंकि शक्ति को नष्ट करने या प्रतिरुद्ध करने के उद्देश्य से ही मन्त्र का प्रयोग किया जाता है। जैसे कि अभिचार (मारणप्रयोग) जिस व्यक्ति को उद्देश्य कर किया जाता है, उस व्यक्ति के साथ सम्बद्ध न रहने पर भी वह उसी व्यक्ति की हत्या करता है । वैसे ही जिस व्यक्ति को मन में रखकर मन्त्रप्रयुक्त होता है, उसी व्यक्ति की शक्ति को वह नष्ट करता है या अभिभूत करता है, सभी व्यक्तियों की शक्ति को नहीं। यह घोषणा भी न करनी चाहिए कि शक्ति अगर द्रव्यरूप है ? तो फिर अपने समवायिकारण या असमवायिकारण क नाश से ही नष्ट होगी (मन्त्रादि प्रयोग
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३४५
प्रकरणम्]
प्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली समवाय्यसमवायिकारणयोरन्यतरविनाशाद्विनश्येत् ? अथ गुणानतिरेकिणी ? तदाश्रयविनाशाद्विरोधिगुणप्रादुर्भावाद्वा विनश्येदिति, समवायस्यानभ्युपगमात् । यस्य यतो विनाशं प्रतीमस्तस्य तमेव विनाशहेतु ब्रूमो न पुनरमुत्वत्कृतं समयमभ्युपगच्छामः, प्रतीतिपराहतत्वात् । यदि चावश्यमभ्युपेयस्तदा द्रव्यगुणयोरेव विनाशं प्रत्यभ्युपगम्यतां यत्र परिदृष्टः, शक्तिः पुनरियं सादृश्यवत् पदार्थान्तरं प्रकारान्तरेणापि विनंक्ष्यति। कार्योत्पादानुत्पादाभ्यां वह्नावधिगता शक्तिः कुत एव सर्वभावेषु कल्प्यते इति चेत् ? एकत्र तस्याः कार्योत्पादानुगुणत्देन कल्पितायाः सर्वत्र तदुत्पत्त्यैवात्रानुमानात् ।।
____ अत्रोच्यते-न मन्त्रादिसन्निधौ कार्यानुत्पत्तिरदृष्टं रूपमाक्षिपति । यथान्वयव्यतिरेकाभ्यामवधृतसामर्थ्यो वह्निहस्य कारणम्, तथा प्रतिबन्धकमन्त्रादिप्रागभावोऽपि कारणम् । स च मन्त्रादिप्रयोगे सति निवृत्त इति सामग्रीवैगुण्यादेव दाहस्यानुत्पत्तिर्न तु शक्तिवैकल्यात् । भावस्य भावरूपकारणनियतत्वसे नहीं) अगर वह गुण स्वरूप है, तो फिर वह आश्रय के नाश से या विरोधी दूसरे गुण की उत्पत्ति से ही नष्ट होगी, क्योंकि हम समवाय नहीं मानते। जिससे जिसके नाश की हमको प्रतीति होती है, उसे ही हम उसके नाश का कारण मानते हैं । तुम्हारे बनाये हुए (द्रव्य का नाश उसके समवायिकारण के नाश से हो या असमवायकारण के नाश से ही हो, एवं गुण का नाश आश्रय के नाश से या विरोधी गुण की उत्पत्ति से ही हो) इस नियम को हम नहीं मानते, क्योंकि यह प्रतीति के विरुद्ध है। अगर उक्त सिद्धान्त को मानना आवश्यक ही हो तो द्रव्य और गुण के नाश के लिए ही उसे मानिए, जहां कि वह देखा गया है। शक्ति तो सादृश्यादि की तरह दूसरा ही पदार्थ है, अतः वह दूसरे ही प्रकार से नष्ट होगा। (उ०) दाह रूप कार्य की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से वह्नि में जिस प्रकार की शक्ति का निश्चय करते हैं, उस प्रकार की शक्ति की कल्पना सभी भाव पदार्थों में क्यों करते हैं ? (प्र.) एक जगह कार्य की अनुकूलता से जैसी शक्ति की कल्पना करते हैं, दूसरी जगह भी कार्य की उत्पत्ति से ही उसी प्रकार की शक्ति की कल्पना करते हैं। . (उ०) इस पूर्वपक्ष के समाधान में कहना है कि मन्त्रादि का सामीप्य रहने पर दाह की अनुत्पत्ति से वह्नि में किसी अदृश्य शक्ति की कल्पना आवश्यक नहीं है, क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से वह्नि में दाह के कारणता की कल्पना जिस प्रकार करते हैं, उसी प्रकार अन्वय और व्यतिरेक से ही दाह के प्रति मन्त्रादि प्रतिबन्धकों के प्रागभाव में भी कारणता की कल्पना करते हैं । मन्त्रादि का प्रागभाव रूप यह कारण मन्त्रादि की संनिधि रहने पर नहीं रहते हैं, अतः मन्त्रादि के प्रयोग के स्थल में दाह नहीं होता है । उक्त स्थल में दाह की अनुत्पत्ति शक्ति के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग
न्यायकन्दली दर्शनादभावकार्यत्वं नास्तीति चेत् ? न, नित्यानां कर्मणामकरणात् प्रत्यवायस्योत्पादात्, अन्यथा नित्याकरणे प्रायश्चित्तानुष्ठानं न स्याद्वैयर्थ्यात् । नित्यानामकरणेऽन्यकरणात् प्रत्यवायो न तु नित्याकरणस्य करणप्रागभावस्य हेतुत्वमिति चेत् ? नित्याकरणस्य तद्भावभावित्वनियतस्य सहायत्वेन व्यापारात् । ननु यदि प्रतिबन्धकस्य प्रयोगे तदभावो निवृत्त इति दाहस्यानुत्पत्तिस्तदा प्रतिबन्धकप्रतिबन्धकेऽपि दाहो न स्यात, तत्कारणस्य प्रागभावस्य निवृत्तत्वात् । दृश्यते च प्रतिबन्धकस्यापरेण मन्त्रादिना प्रतिबन्धे सति दाहः, तेन नाभावः कारणमित्यवस्थितेयं शक्तिः कारणम् । सा च प्राक्तनेन प्रतिबद्धा द्वितीयेनोत्तम्भितेति कल्पना अवकाशं लभते । तदप्यपेशलम्,
सम्भवत्यदृष्टकल्पनानवकाशात् । कदाचित् प्रतिबन्धकमन्त्राद्यभाव
विघटन से नहीं होती है । (प्र.) यह नियमित रूप से देखा जाता है कि भाव रूप कारण से ही भाव रूप काय की उत्पत्ति होती है (अभाव रूप कारण से नहीं), अतः अभाव को दाह रूप भाव कार्य का कारण मानना सम्भव नहीं है। (उ०) (भाव रूप कारण से ही भाव कार्य की उत्पत्ति ) नहीं होती है, क्योंकि नित्य कर्मों के न करने से भी पापों की उत्पत्ति होती है। अगर ऐसी बात न हो तो फिर नित्य कर्म के न करने से प्रायश्चित्त का अनुष्ठान व्यर्थ हो जाएगा। (प्र०) नित्य कर्म के अनुष्ठान के समय उसे न कर दूसरा जो कर्म किया जाता है, उसी से पाप की उत्पत्ति नहीं होती है । (वहाँ) नित्य कर्म के अनुष्ठान के प्रागभाव से पाप की उत्पत्ति नहीं होती है । ( उ०) जिस समय नित्य कर्म का अनुष्ठान नहीं होगा, उस समय अवश्य ही किसी दूसरे कर्म का अनुष्ठान होगा, अतः नियत रूप से पहिले रहने के कारण दूसरे कर्म का अनुष्ठान उस पाप का केवल सहायक व्यापार ही हो सकता है, कारण नहीं । (प्र०) अगर प्रतिबन्धकीभूत मन्त्रादि के प्रयोग से उक्त मन्त्रादि के प्रागभाव नष्ट हो जाते हैं और इसीलिए मन्त्र के प्रयोग के स्थलों में वह्नि से दाह नहीं होता है, तो फिर दाह के प्रतिबन्धक मन्त्र के प्रभाब के प्रतिरोधक दूसरे मन्त्र के रहने पर भी दाह की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि उसका कारण प्रतिबन्धक का प्रागभाव तो नष्ट हो गया है । किन्तु दाहादि के प्रतिबन्धक मन्त्र के प्रयोग के रहने पर भी उसके विरोधी मन्त्र के प्रयोग से दाह की उत्पत्ति देखी जाती है, अतः मन्त्र का प्रागभाव दाह का कारण नहीं हो सकता । तस्मात् वह्नि प्रभृति कारणों में दाहादि कार्यों के उत्पादन करने की ( एक अतिरिक्त) शक्ति अवश्य है। इससे यह कल्पना भी सुलभ हो जाती है कि पहिले (प्रतिरोधक ) मन्त्र के प्रयोग से वह शक्ति प्रतिरुद्ध हो जाती है, और दूसरे (प्रतिबन्धक के विरोधी) मन्त्र के प्रयोग से वह फिर से कार्योंन्मुख हो जाती है । ( उ० ) दृष्ट कारणों से ही कार्यों की उत्पत्ति अच्छी प्रकार से हो सकती है, ऐसी स्थिति में अदृष्ट (शक्तिरूप) कारण की कल्पना व्यर्थ है। कभी
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
अथ कथंलक्षणः ? कतिविधश्चेति । अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः । स च त्रिविधः -- अन्यतरकर्मजः, उभयकर्मजः, संयोगजश्च । ( प्र ० ) उसका स्वरूप (लक्षण) क्या है ? एवं वह कितने प्रकार का है ? ( परस्पर न मिले हुए दो द्रव्यों की प्राप्ति) मिलन ( ही ) संयोग है । वह ( १ ) अन्यतरकर्मज, (२) उभयकर्मज और ( २ ) संयोगज भेद से तीन प्रकार का है। इसमें ( १ )
अप्राप्त
न्यायकन्दली
(उ० )
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३४७
सहिता सामग्री कारणम्, कदाचिद् द्वितीयमन्त्रादिसहिता कारणमित्यस्यां कल्पनायां को विरोध: ? यदनुरोधाददृष्टमाश्रीयते । दृष्टो ह्येकरूपस्यापि कार्यस्य सामग्रीभेदः, यथा दारुनिर्मथनप्रभवो वह्निः सूर्यकान्तप्रभवश्चेति तर्कसिद्धान्तरहस्यम् । मीमांसासिद्धान्तरहस्यं तत्त्वप्रबोधे कथितमस्माभिः ।
संयोगः संयुक्तप्रत्ययनिमित्तमित्यवगतं तावत् किन्त्वस्य स्वरूपं भेदश्च न ज्ञायते तदर्थं परिपृच्छति - अथ कथंलक्षणः कतिविधश्चेति । अथेति प्रश्नोपक्षेपे कथं शब्द: किंशब्दार्थे, यथा को धर्मः कथंलक्षण इति । लक्षणशब्दश्च स्वरूपवचन इति किस्वरूपः संयोगः ? कतिविधश्चेति कतिप्रकार इत्यर्थः । लक्षणं कथयति - अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः | पूर्वमप्राप्तयोर्द्रव्ययोः पश्चाद्या
प्रतिबन्धकीभूत मन्त्रादि सहित कारणों का समूह ही कार्य को उत्पन्न करता है, एवं कभी द्वितीय ( प्रतिबन्धक मन्त्रादि के विरोधी ) मन्त्रादि सहित कारणों का समूह हो उसका कारण होता है, इन दोनों कल्पनाओं में कौन सा विरोध है कि जिसके लिए आप ( मीमांसक ) अदृष्ट ( शक्ति का अवलम्बन करते हैं । एक तरह के कार्यों की उत्पत्ति अनेक प्रकार के कारणों से देखी जाती है । जैसे कि काठ की रगड़ से भी अग्नि की उत्पत्ति होती है, एवं सूर्यकान्तमणि से भी । ( शक्ति के विषय में ) यही तार्किकों के सिद्धान्त का रहस्य है । ( शक्ति पदार्थ की सत्ता के प्रसङ्ग में ) मीमांसकों के अभिमत सिद्धान्त के रहस्य का निरूपण मैंने 'तत्त्वप्रबोध' नाम के ग्रन्थ में किया है ।
यह तो समझा कि 'ये परस्पर संयुक्त हैं' इस आकार की प्रतीति का कारण ही संयोग है । किन्तु यह तो नहीं समझ सके कि इसका स्वरूप क्या है ? इसके कितने भेद हैं ? यही समझाने के लिए 'अथ कथं लक्षणः ? कतिविधश्च ?' इत्यादि प्रश्न करते हैं । यहाँ 'अर्थ' शब्द का अर्थ है 'प्रश्न का आरम्भ करना' एवं 'कथम' शब्द 'किम्' शब्द के स्थान में आया है। 'को धर्मः ? कथं लक्षणः ?" इत्यादि
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जैसे कि ( शाबरभाष्य - अ०१ - पा० - १ - सू० - १ के ) स्थलों में ( ये शब्द ) प्रयुक्त हुए हैं । प्रकृत में
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम्
,
तत्रान्यतरकर्मजः क्रियावता निष्क्रियस्य यथा स्थाणोः श्येनेन, । उभय कर्मजो विरुद्ध दिक्रिययोः संनिपातः,
विभूनां च मूर्त्तेः
क्रिया से युक्त द्रव्य के साथ निष्क्रिय द्रव्य का संयोग अन्यतरकर्मज संयोग है, जैसे कि सूखे वृक्ष के साथ बाज पक्षी का संयोग एवं विभु द्रव्यों के साथ मूर्त्त द्रव्यों का संयोग । (२) दो विरुद्ध दिशाओं में रहनेवाले क्रियायुक्त दो द्रव्यों का संयोग उभयकर्मज है । जैसे ( कि लड़ते हुए) दो पहलवानों का
न्यायकन्दली
प्राप्तिः परस्परसंश्लेषः स संयोगः । अप्राप्तयोरिति समवायव्यवच्छेदार्थम् । इदानीं तस्य भेदं प्रतिपादयति- स च त्रिविध इति ।
च शब्दोऽवधारणे - संयोगस्त्रिविध एव । त्रैविध्यमेव दर्शयति - अन्य - तरकर्मज इत्यादिना । द्वयोः संयोगिनोर्मध्ये यदन्यतरद् द्रव्यं तत्र यत्कर्म तस्माज्जातोऽन्यतरकर्मजः । उभयोर्द्रव्ययोः कर्मणी उभयकर्मणी ताभ्यां जात उभयकर्मजः । संयोगादपि संयोगो जायते । तत्रान्यतरकर्मजः । तत्र तेषां त्रयाणां मध्ये क्रियावता द्रव्येण निष्क्रियस्य द्रव्यस्य संयोगोऽन्यतरकर्मजः । अस्योदाहरणम्- - यथा स्थाणोः श्येनेन विभूनां च मूर्त्तेः । निष्क्रियस्य स्थाणोः
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'लक्षण' शब्द का अर्थ है स्वरूप', तदनुसार उक्त वाक्यों का यह अभिप्राय है कि संयोग का स्वरूप क्या है ? एवं उसके कितने भेद हैं ? 'अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः ' इस वाक्य से संयोग का लक्षण ( स्वरूप ) कहा गया है । पहिले से अप्राप्त दो द्रव्यों की बाद में जो 'प्राप्ति' अर्थात् सम्बन्ध ( होता है ), वही ( सम्बन्ध ) संयोग है । ( इस लक्षण वाक्य में ) 'अप्राप्तयोः ' यह पद समवाय में अतिव्याप्ति को हटाने के लिए है ।
'सच त्रिविधः' इत्यादि से अब इसके भेदों को समझाते हैं । ( प्रकृत वाक्य में ) 'च' शब्द अवधारण के लिए है । तदनुसार प्रकृत वाक्य का यह अर्थ है कि संयोग तीनही प्रकार के हैं । 'अन्यतरकर्मजः' इत्यादि से वे तीनों भेद दिखलाये गये हैं । संयोग के दोनों सम्बन्धियों में जो 'अन्यतर' अर्थात् एक द्रव्य है, केवल उसी द्रव्य की क्रिया से उत्पन्न होने वाले संयोग को अन्यतरकर्मज कहते हैं । 'उभयोः द्रव्ययोः' इत्यादि व्युत्पत्ति के अनुसार 'उभयकर्मज ' शब्द का वह संयोग अर्थ है - जिसकी उत्पत्ति संयोग के सम्बन्धी रूप दोनों द्रव्यों की दोनों क्रियाओं से होती है । उसी को 'उभयकर्मज्' संयोग कहते हैं। संयोग से भी संयोग की उत्पत्ति होती है, ( अर्थात् संयोग से उत्पन्न संयोग को ही संयोगज संयोग कहते हैं ) । 'तत्रान्यतरकर्मजः' अर्थात् 'तेषां त्रयाणां मध्ये' अर्थात् उन तीनों संयोगों में से क्रिया से युक्त एक द्रव्य के साथ तथा क्रिया से रहित दूसरे द्रव्य के साथ के संयोग को 'अन्यतरकर्मज संयोग' कहते है । 'यथा स्थाणो:' इत्यादि वाक्य से अन्यतर
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३४६ न्यायकन्दली कियावता श्येनेन सह संयोगः श्येनकर्मजः। एवमाकाशादीनां विभूनां निष्क्रियाणां क्रियावद्भिर्मूर्तेरसर्वगतद्रव्यपरिमाणः मूर्तद्रव्यकर्मजः । नन्वेकस्य मन्दं गच्छतोऽपरेण तत्पृष्ठमनुधावतान्यतरकर्मजः संयोगो दृष्टः कथमुक्त क्रियावता निष्क्रियस्येति ? सत्यम् । निष्क्रियत्ववाचोयुक्तिस्तु विवक्षितसंयोगहेतुभूतकर्माभिप्रायेणेति मन्तव्यम्।
प्रथमं श्येनचरणस्थाणुशिरसोः संयोगः, तदनु स्थाणुश्येनावयविनो: । तत्रावयवयोः संयोगः कर्मजः, अवयविनोस्तु संयोगजः संयोग इति केचित् । तदप्यसारम्, सक्रियस्याप्यवयविनः क्रियावत एवावयव्यन्तरेण संयोगात् । यदि चैवं नेष्यते, अवयवानामपि स्वावयवापेक्षयावयवित्वेन सर्वत्रावयविषु कर्मजस्य संयोगस्योच्छेदः स्यादिति । तथा सति चावयविनि कर्माभावो कर्मज संयोग का ही उदाहरण कहा गया है, अर्थात् जैसे कि स्थाणु' अर्थात् सूखे हुए वृक्ष और श्येन (बाज) पक्षी इन दोनों का संयोग केवल बाज पक्षी की क्रिया से उत्पन्न होने के कारण 'अन्यतरकर्मज' संयोग है उसी प्रकार विभु अर्थात् क्रिया से रहित आकाशादि द्रव्यों का मूर्त द्रव्यों के साथ अर्थात् क्रिया से युक्त द्रव्यों के साथ जितने भी संयोग उत्पन्न होते हैं, वे सभी मूर्त द्रव्य रूप केवल एक द्रव्य की क्रिया से ही उत्पन्न होने के कारण 'अन्यतरकर्मज' ही हैं। ( प्र०) एक आदमी अगर मन्दगति से जा रहा है, दूसरा तीव्र गति से चलकर उससे टकरा जाता है, इन दोनों आदमियों का संयोग भी तो अन्यतरकर्मज ही है, फिर क्रिया से युक्त एक द्रव्य का क्रिया से शून्य दूसरे द्रव्य के साथ होनेवाले संयोग को ही अन्यतरकर्मज कैसे कहते हैं ? ( उ० ) यह ठीक है (कि अन्यतरकर्मज सभी संयोगों का एक सम्बन्धी नियमतः निष्क्रिय नहीं होता ) फिर भी अन्यतरकर्मज संयोग के प्रकृतलक्षण में निष्क्रियत्व' का उपादान अन्यतरकर्मज संयोग के कहे हुए दोनों उदाहरणों को ही दृष्टि में रखकर किया गया है, ( क्योंकि स्थाणु और श्येन का संयोग एवं विभु द्रव्यों का मूर्त द्रव्यों के साथ संयोग इन दोनों उदाहृत संयोगों का एक सम्बन्धी अवश्य ही निष्क्रिय हैं)।।
कोई कहते हैं कि (प्र०) पहिले श्येन के पैर और स्थाणु के आगे का भाग इन दोनों अवयवों में संयोग उत्पन्न होता है। इसके बाद श्येन रूप अवयवी
और स्थाणु रूप अवयवी इन दोनों अववियों में दूसरा संयोग उत्पन्न होता है। इन दोनों में से पहिला संयोग ही कर्मज है और दूसरा संयोग संयोगज है। ( उ०) किन्तु इस कथन में कुछ सार नहीं है, क्योंकि संयोग के क्रियाशील सम्बन्धी एक अवयवी में क्रिया के रहने से ही दूसरे (निष्क्रय या सक्रिय ) अवयवी के साथ संयोग हो जाता है। अगर ऐसा न मानें तो वे ( श्येन के पैर या स्थाणु के अग्रभागादि) अवयव भी तो अपने-अपने अवयवों की अपेक्षा अवयवी हैं ही। इस प्रकार सभी अवयवियों से कर्मज
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम् यथा मल्लयोर्मेषयोर्वा । संयोगजस्तूत्पन्नमात्रस्य चिरोत्पन्नस्य वा निष्क्रियस्य कारणसंयोगिभिरकारणैः कारणाकारणसंयोगपूर्वका संयोग, अथवा (लड़ते हुए दो) भेड़ों का संयोग। (३) उत्पन्न होते ही या उत्पन्न होने के बहुत बाद किसी निष्क्रिय द्रव्य का अपने अवयवों के संयोग से युक्त अपने अकारणीभूत द्रव्यों के साथ जो संयोग होता है, वह 'संयोगजसंयोग' है, (इस संयोगजसंयोग की उत्पति कारण और अकारण के
न्यायकन्दली वक्तव्यः, त्यक्तव्यं वावयविकर्मणः संयोगविभागयोरनपेक्षकारणं कर्मेति कर्मलक्षणमिति । दुरक्षरदुर्विदग्धानां युक्तिमाचार्यवचनं चोत्सृजतामन्धानामिव पदे पदे कियत् स्खलितं दर्शयिष्यामः ।
उभयकर्मजो विरुद्ध दिक्रिययोः सन्निपातः । याभ्यां दिग्भ्यां द्वयोः परस्परमागच्छतोरन्योन्यप्रतीघातो भवति ते विरुद्ध दिशौ, यथा प्राचीप्रतीच्यौ दक्षिणोदीच्याविति । विरुद्धयोदिशोः क्रिया ययोर्द्रव्ययोस्ते विरुद्धदिक्रिये, तयोः सन्निपात उभयकर्मजः संयोगः, प्रत्येकमन्यत्र द्वयोरपि सामर्थ्यावधारणात् । यथा मल्लयोमषयोवत्युदाहरणम् । संयोगजस्तु संयोग उत्पन्नमात्रस्य चिरोत्पन्नस्य वा निष्क्रियस्य कारणसंयोगिभिरकारणैः कारणाकारणसंयोगपूर्वक: कार्याकार्यगतः ।
न्यायमा
संयोग का ही लोप हो जाएगा। (अन्त में) इससे यही कहना पड़ेगा कि अवयवियों में क्रिया होती ही नहीं है । या फिर अवयवियों में रहनेवाले कर्म के लिए कर्म सामान्य के इस लक्षण को ही छोड़िए कि 'संयोग और विभाग का निरपेक्ष कारण ही कर्म है।' ( फलतः अवयवी में रहनेवाले कर्म के लिए दूसरा लक्षण करिए ) । इस प्रकार आचार्य के वचनों को छोड़नेवाले मूखों के पद पद पर गिरनेवाले अन्धों की तरह कितने स्खलनों को हम दिखलावें ?
'उभयकर्मजो विरुद्धदिक्रिययोः संनिपातः' जिन दो दिशाओं से आते हुए दो व्यक्तियों में संघर्ष हो सके वे दोनों दिशाएँ परस्पर विरुद्ध हैं, जैसे कि पूर्व और पश्चिम एवं दक्षिण और उत्तर । विरुद्धयोदिशोः क्रिया ययो,व्ययोस्ते विरुवदिविक्रये, तयोः संनिपात उभयकर्मजः संयोगः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार विरुद्ध दो दिशाओं में रहनेवाली क्रियाओं से युक्त दो द्रव्य ही द्विवचनान्त प्रकृत 'विरुद्धदिक्क्रिये' शब्द के अर्थ हैं । इन दोनों द्रव्यों का संयोग ही 'उभयकर्मज' संयोग है, क्योंकि दोनों क्रियाओं में से प्रत्येक में संयोग के उत्पादन का सामर्थ्य और स्थलों में देखा जाता है । 'यथा मल्लयोर्मेषयोर्वा' यह वाक्य उभयकर्मज संयोग के उदाहरण को समझाने के लिए है। 'संयोगजस्तु संयोग उत्पन्नमात्रस्य' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त 'कारण' शब्द से समवायिकारण और 'अकारण'
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
।
कार्याकार्यगतः संयोगः । स चैकस्माद् द्वाभ्यां बहुस्यश्च भवति । एकस्मात्तावत् तन्तुवीरणसंयोगाद् द्वितन्तुकवीरणसंयोगः । द्वाभ्यां
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३५१
संयोग से होती है, एवं इसकी स्थिति ( उस कारण के ) कार्य और ( उसी कारण के अकार्य द्रव्यों में ) रहती है । यह ( संयोगजसंयोग ) एक संयोग से, दो संयोगों से, एवं बहुत से संयोगों से भी उत्पन्न होता है । (१) ( एक संयोग से इस प्रकार उत्पन्न होता है कि ) तन्तु और वीरण ( तृणविशेष ) के एक ही संयोग से दो तन्तुओं वाले एक पट और वीरण के संयोग की उत्पत्ति होती है ।
न्यायकन्दली
कारणशब्देनात्र समवायिकारणमभिमतम्, अकारणशब्देन समवायिकारणादन्यदुच्यते । शेषमुदाहरणे व्यक्तीकरिष्यामः ।
स चैकस्माद् द्वाभ्यां बहुभ्यश्च भवति । एकस्मात् तन्तुवीरणसंयोगाद् द्वितन्तुकवीरणसंयोगः । वीरणसंयुक्तस्य तन्तोस्तत्वन्तरेण संयोगादुत्पन्नमात्रस्य द्वितन्तुकद्रव्यस्य निष्क्रियस्य समवायिकारणभूतैकतन्तुसंयोगिना वीरणेन संयोगः प्राक्तनात् तन्तुवीरणसंयोगादेकस्माद्भवति स चायं कारणाकारणपूर्वर्सयोगपूर्वकः कथ्यते, द्वितन्तुकस्य समवायिकारणं तन्तुकारणं वीरणं तयोः संयोगेन जनितत्वात् । कार्याकार्यगतश्चायं तन्तुकार्ये द्वितन्तुके
शब्द से 'समवायिकारण से भिन्न' अभिप्रेत हैं। संयोगजसंयोग की और बातें हम इसके उदाहरण में कहेंगे ।
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" स चैकस्मात् द्वाभ्यां बहुभ्यश्च भवति, एकस्मात्तन्तुवीरणसंयोगाद् द्वितन्तुकवीरणसंयोगः” अभिप्राय यह है कि जहाँ वीरण ( तृण विशेष ) के साथ संयुक्त एक तन्तु का दूसरे तन्तु के साथ के संयोग से ( द्वितन्तुक ) पट की उत्पत्ति होती है । इस ( द्वितन्तुक ) पट का उस वीरण के साथ भी संयोग होता है जो क्रिया से सर्वथा रहित है, एवं इस पट के समवायिकारणीभूत तन्तु के साथ संयुक्त है । पट एवं ( तन्तुसंयुक्त ) वीरण का यह संयोग ( कथित ) तन्तु और वीरण के संयोग से ही उत्पन्न होता है । इसी प्रकार का संयोगजसंयोग 'कारणाकारणसंयोगपूर्वक' कहलाता है, क्योंकि उक्त द्वितन्तुक पटका समवायिकारण है तन्तु, एवं अकारण है वीरण, इन दोनों के संयोग से वह उत्पन्न होता है | यह (संयोगजसंयोग ) 'कार्याकार्यगत' भी है, क्योंकि ( असमवायिकारणीभूत तन्तु और वीरण के संयोग का एक सम्बन्धी ) तन्तु के कार्य द्वितन्तुक पट एवं उस तन्तु के अकार्य वीरण इन दोनों में वह संयोग समवाय सम्बन्ध से है । उक्त ( पट और वीरण के ) संयोग का ( असमवायि ) कारण ( तन्तु और वीरण का संयोग ही है, क्योंकि यहाँ कोई दूसरा असमवायिकारण नहीं हो सकता । अतः संयोग में संयोग की कारणता परिशेषा
)
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यामेको द्वितन्तुकः संयोगः ।
बहुभ्यश्च तन्तु
( २ ) दो संयोगों से संयोगजसंयोग की उत्पत्ति इस प्रकार होती है कि दो तन्तुओं के साथ आकाश के दो संयोगों से उन दोनों तन्तुओं से बने
न्यायकन्दली
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[ गुणे संयोग
तदकाय च वीरणे समवेतत्वात् संयोगस्य संयोगहेतुत्वमन्यस्यासम्भवात् परिशेषसिद्धम् । प्रत्यासत्तिश्चात्र कार्यैकार्थसमवायः, तन्तुवीरणसंयोगस्य द्वितन्तुकवीरणसंयोगेन कार्येण सहैकस्मिन्नर्थे वीरणे समवायात् । संयोगस्यैकस्य संयोगजनकत्वे गुणाश्च गुणान्तरमारभन्त इति सूत्रविरोध: ? न, सूत्रार्थापरिज्ञानात् । गुणानामपि गुणं प्रति कारणत्वमित्यनेन कथ्यते, न पुनरस्थायमर्थो बहव एव गुणा आरभन्ते, नैको न द्वावित्यवधारणस्याश्रवणात् । यत् पुनरत्र गुणाश्च गुणान्तरमारभन्त इति, कारणवृत्तीनां समानजात्यारम्भकारणानामयं नियमो न सर्वेषामिति समाधानम्, तदश्रुतव्याख्यातॄणां प्रकृष्टधियामेव निर्वहति नास्माकम् ।
द्वितन्तुकाकाशसंयोग
द्वाभ्यां तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यां इति । आकाशं तावदुत्पन्नमात्रेण द्वितन्तुकेन समं संयुज्यते, तत्कारणसंयोगित्वात् नुमान से सिद्ध है ! यहाँ कारणता का सम्पादक (अवच्छेदक) सम्बन्ध कार्यकार्थसमवाय' है, क्योंकि तन्तु और वीरण का संयोग रूप कारण, द्वितन्तुक पट और वीरण के संयोग रूप कार्य के साथ वीरण रूप एक वस्तु ( अर्थ ) में समवाय सम्बन्ध से है । ( प्र० ) अगर एक भी संयोग दूसरे संयोग का कारण हो तो फिर 'गुणाश्च गुणान्तरम्' सूत्रकार की यह उक्त विरुद्ध हो जाएगी ? क्योंकि उन्होंने ( उक्त सूत्र के द्वारा ) कहा है कि बहुत से गुण ( मिलकर ) दूसरे गुण को उत्पन्न करते हैं । ( उ० ) यहाँ उक्तिविरोध नहीं हैं, क्योंकि आपने उक्त सूत्र का अर्थ ही नहीं समझा है । इस सूत्र का इतना ही अर्थ है कि गुण दूसरे गुण के ( भी ) कारण हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि बहुत से गुण मिलकर ही किसी दूसरे गुण को उत्पन्न करते हैं, एक या दो गुण नहीं, क्योंकि इस प्रकार के 'अवधारण' को समझाने के लिए सूत्र में कोई शब्द नहीं है । कुछ लोग उक्त सूत्र का यह अर्थ करते हैं कि कारणों में रहनेवाले गुण से जहाँ समानजातीय गुण की उत्पत्ति होती है वहीं के लिए यह नियम है कि बहुत से गुण मिलकर ही किसी दूसरे गुण को उत्पन्न करते हैं । किन्तु इस प्रकार की अश्रुतपूर्वं व्याख्या से उनके जैसे उत्कृष्ट बुद्धिवाले का ही निर्वाह हो सकता है, मुझ जैसे साधारण बुद्धिवालों का नहीं ।
'द्वाभ्यां तन्त्वाकाशसंयोगाभ्यां द्वितन्तुकाकाशसंयोगः " द्वितन्तुक पट के उत्पन्न होते ही उसके साथ आकाश संयुक्त हो जाता हैं, क्योंकि उस ( द्वितन्तुक ) पट के कारण के साथ वह (आकाश) संयुक्त है । जैसे कि तन्तु के साथ संयुक्त वीरण उस तन्तु के द्वारा पट क
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् तुरीसंयोगेभ्य एकः पटतुरीसंयोगः। एकस्माच्च द्वयोरुत्पत्तिः कथम् ? हुए पट और आकाश के (एक ही संयोगज ) संयोग की उत्पत्ति होती है। ( ३ ) ( बहुत से संयोगों से एक संयोगजसंयोग की उत्पत्ति इस प्रकार होती है कि ) तुरी और तन्तुओं के बहुत से संयोगों से तुरी और पट के एक ही ( संयोगज ) संयोग का उत्पत्ति होती है। (प्र०) ( किन्तु ) एक (संयोग )
न्यायकन्दली
द्वितन्तुककारणसंयुक्तवीरणवत् । न च तस्य संयोगस्य कारणान्तरमस्ति, अतो द्वितन्तुककारणयोस्तन्त्वोराकाशसंयोगाभ्यामेव तस्योत्पत्तिः ।
बहुभ्यश्च तन्तुतुरीसंयोगेभ्य एकः पटतुरीसंयोगः, पटकारणानां तन्तूनां प्रत्येकं तुर्या सह संयोगः, तेभ्यो बहुभ्य एकः पटतुर्योः संयोगो जायते। पटारम्भकत्वं तु तन्तूनां खण्डावयविद्रव्यारम्भपरम्परया। न च मूर्तानां समानदेशतादोषः, यावत्सु तन्तुष्वेकोऽवयवी वर्तते, तावत्स्वेवान्यूनानतिरिक्तेषु परस्य समवायानभ्युपगमात् । द्वितन्तुकं द्वयोस्तन्त्वोः समवैति, त्रितन्तुकं तु तयोस्तन्त्वन्तरे चेत्युत्तरोत्तरेषु कल्पनायां कुतः समानदेशत्वम् ? अत एव च पटे पाटिते तिष्ठति चाल्पतरतमादिभावभेदेन खण्डावयविग्रहणम् । तेषु विनष्टेषु तु यद्यारभ्यते पटो दुर्घटमिदम् ।
उत्पन्न होते ही उस पट के साथ संयुक्त हो जाता है, क्योंकि आकाश और द्वितन्तुक पट के संयोग का कोई दूसरा कारण नहीं है। अत: द्वितन्तुक पट के कारणीभूत दोनों तन्तुओं के साथ आकाश के दोनों संयोगों से ही उसकी उत्पत्ति होती है।
'बहुभ्यश्च तन्तुतुरीसंयोगेभ्य, एकः पटतुरीसंयोगः' पट के कारणीभूत तन्तुओं में से प्रत्येक तन्तु के तुरी के साथ भिन्न भिन्न संयोग हैं। तुरी और तन्तु के उन बहुत से संयोगों से तुरी के साथ पट के एक संयोग की उत्पत्ति होती है। तन्तुओं से खण्डपटों की, और खण्डपटों से महापट की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार तन्तुओं में भी परम्परा से महापट की जनकता है । (प्र.) इससे तो मूर्तों के समानदेशत्व की आपत्ति होगी ? (उ०) समानदेशत्व की आपत्ति नहीं है, क्योंकि जितने तन्तुओं में एक खण्डपट रूप अवयवी की वृत्तिता मानते हैं, ठीक उतने ही तन्तुओं में-न उनसे अधिक में न उनसे कम अवयवों में दूसरे खण्ड पटरूप अवयवी की वृत्तिता नहीं मानते । द्वितन्तुक पट दो ही तन्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहता है, और त्रितन्तुक पट उन दोनों तन्तुओं में और एक तीसरे तन्तु में भी समवाय सम्बन्ध से रहता है । इस प्रकार के उत्तरोत्तर खण्डपटों की कल्पना में उक्त समानदेशत्व को आपत्ति क्योंकर होगी ? इसलिए कपड़े के किसी बड़े थान को टुकड़े टुकड़े कर देने पर किन्तु बिलकुल नष्ट न कर देने पर छोटे बड़े
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रधास्तपादभाष्यम [ गुणे संयोग
न्यायकन्दली नन्वेवं बालशरीरावयवा अविनष्टे एव तस्मिन्नाहारावयवसहिताः शरीरान्तरमारभेरन् ? आरभन्ताम्? यदि पट इव खण्डावयविनां वृद्धशरीरे तिष्ठति विनाशिते वा पूर्वशरीराणामुपलम्भः सम्भवति ? अथ नास्ति, न तत्रायं विधिः, यथादर्शनं व्यवस्थापनात् । एतेनारभ्यारम्भकवादपक्षे परमाण्ववस्थितस्य जगतो ग्रहणं न स्यादित्यपि प्रत्युक्तम्, परमाणूनां त्र्यणुकादिकारणत्वाभावस्य पृथिव्यधिकारे दर्शितत्वात । अथवा यदि परमाणवो द्वयणुकमारभ्य तत्सहितास्त्र्यणुकमारभन्ते, त्र्यणुकसहितास्तु द्रव्यान्तरम्, तथापि कुतो विश्वस्याग्रहणम् ? महत्त्वानेकद्रव्यवत्त्वरूपविशेषाणामुपलब्धिकारणानां सम्भवात् । अथ सत्स्वपि तेष्वतीन्द्रियाश्रयत्वादतीन्द्रियत्वमेव, एवं द्वयणुकारब्धस्य त्र्यणुकस्यातीन्द्रियत्वे तत्पूर्वकस्य विश्वस्यातीन्द्रियत्वं त्वत्पक्षेऽपि दुनिवारम् । तस्मान्नेयमत्रानुपपत्तिः । परमाणूनां त्र्यणुकानारम्भकत्वे पृथिव्यधिकारोक्तव युक्तिरनुगन्तव्या। कपड़े के टुकड़ों की उपलब्धि होती है। अगर उस महापट के बिलकुल नष्ट होने पर ही उन ( उपलब्ध छोटे बड़े ) पटों की उत्पत्ति हो, तो फिर कथित उपलब्धि की उपपत्ति नहीं हो सकेगी।
(प्र०) तो फिर बालक के शरीर के अवयव भी उसी शरीर में बिना उसके विनष्ट हुए हा भोजन-द्रव्यों के अवयवों की सहायता से दूसरे शरीर को उत्पन्न कर सकते हैं ? (उ०) कर ही सकते हैं, अगर वृद्ध शरीर के नष्ट होने पर या रहते हुए ही पट की तरह उसके खण्ड अवयवियों को भी उपलब्धि सम्भव हो। अगर यहाँ खण्ड अवयवियों की उपलब्धि नहीं होती है तो फिर दूसरे शरीर की उत्पत्ति का वह प्रकार भी यहां नहीं है। जहां जैसी स्थिति रहती है वैसी व्यवस्था की जाती है। उक्त निरूपण से किसी सम्प्रदाय की यह आपत्ति भी मिट जाती है कि 'आरभ्य-आरम्भकवाद' पक्ष में परमाणुओं में विद्यमान संसार की उपलब्धि नहीं होगी। क्योंकि परमाणुओं में व्यणुकादि द्रव्यों की कारणता किस प्रकार से है ? सो पृथिवी निरूपण में दिखला चुक हैं । अथवा यह मान भी लें कि यदि परमाणु ही द्वथणुकों को उत्पन्न कर उन्हीं द्वथणुकों से मिलकर यसरेणु को भी उत्पन्न करते हैं, एवं व्यसरेणु से मिलकर और द्रव्यों को भी, तब भी विश्व का अप्रत्यक्ष क्यों होगा ? चूकि प्रत्यक्ष के जितने भी महत्त्व अनेकद्रव्यवत्त्वादि विशेष कारण हैं, सभी विद्यमान हैं। अगर विशेष कारणों के रहते हुए भी केवल अतीन्द्रियों (परमाणुओं) में आधित होने के कारण ही द्वथणुक अतीन्द्रिय हो तो फिर अतीन्द्रिय द्वयणुकों से आरब्ध होने के कारण व्यसरेणु भी अतीन्द्रिय होंगे, और व्यसरेणु से आरब्ध सम्पूर्ण विश्व में ही अतीन्द्रिय में आश्रित होने के कारण अतीन्द्रियत्व को आपत्ति तुम्हारे पक्ष में भी समानरूप से होगी। अतः यह दोष यहाँ नहीं है। परमाणु साक्षात् ही त्र्यस रेणुओं का उत्पादन नहीं करते' इस प्रसङ्ग में पृथिवी निरूपण में कही गयी युक्तियों का ही अनुसन्धान करना चाहिए । (देखिये पृ०८० पं. ३)
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् यदा पार्थिवाप्ययोरण्वोः संयोगे सत्यन्येन पार्थिवेन पार्थिवस्य, अन्येन चाप्येन चाप्यस्य युगपत्संयोगौ भवतस्तदा ताभ्यां संयोगाभ्यां पार्थिवाप्ये द्वथणुके युगपदारभ्यते । ततो यस्मिन् काले द्वयणुकयोः कारणगुणपूर्वक्रमेण रूपाद्युत्पत्तिस्तस्मिन्नेव काले इतरेतरकारणासे दोनों संयोगों की उत्पत्ति कैसे होती है ? ( उ० ) जब पृथिवी का एक परमाणु जल के एक परमाणु के साथ संयुक्त होता है, फिर वही पार्थिव परमाणु दूसरे पार्थिव परमाणु के साथ. एवं वही जलीय परमाणु दूसरे जलीय परमाणु के साथ एक ही समय संयुक्त होता है, ( इसके बाद दोनों पार्थिव परमाणुओं के एवं दोनों जलीय परमाणुओं के ) दोनों संयोगों से एक ही समय पार्थिव द्वयणुक और जलीय द्वयणुक दोनों की उत्पत्ति होती है। इसके बाद जिस समय कारणगुणक्रम से दोनों द्वयणुकों में
न्यायकन्दली एकस्माच्च संयोगाद द्वयोरुत्पत्तिः कथमित्यज्ञेन पृष्टः सन्नाह—यदेति । पार्थिवाप्ययोः परमाण्वोः संयोगे सत्यन्येन पाथिवेन परमाणुना पार्थिवस्य परमाणोरन्येनाप्येन चाप्यस्य परमाणोर्युगपत्संयोगौ भवतस्तदा ताभ्यां संयोगाभ्यां पार्थिवाप्ये द्वयणुके युगपदारभ्येते । समानजातीयसंयोगस्य द्रव्यान्तरोत्पत्तिहेतुत्वात् । ततो यस्मिन्नेव काले पार्थिवाप्यद्वयणकयोः कारणगुणपूर्वक्रमेण रूपाद्युत्पत्तिः, तस्मिन्नेव काले इतरेतरकारणाकारणगतात् संयोगा
___ किसी अज्ञपुरुष के द्वारा ‘एक ही संयोग से दो संयोगों की उत्पत्ति कैसे होती है ?' यह पूछे जाने पर 'यदा' इत्यादि से इसका उत्तर कहते है। (जहाँ) एक पार्थिव परमाणु और एक जलीय परमाणु दोनों परस्पर संयुक्त रहते हैं (वहाँ) उक्त पार्थिव परमाणु का दूसरे पार्थिव परमाणु के साथ, एवं उक्त जलीय परमाणु का दूसरे जलीय परमाणु के साथ, एक ही समय दो संयोगों की उत्पत्ति होती है । वहाँ इन दोनों संयोगों में से दोनों पार्थिव परमाणुओं के संयोग से पार्थिव द्वयणुक की, एवं दोनों जलीय परमाणुओं के संयोग से जलीय द्वयणुक की उत्पत्ति अवश्य ही होगी, क्योंकि एक जाति के दो द्रव्यों का संयोग (उसी जाति के) दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति का कारण है। इसके बाद जिस समय कथित पार्थिव और जलीय दोनों द्वयणुकों में 'कारणगुणपूर्वक्रम' से रूपादि (गुणों) की उत्पत्ति होती है, उसी समय दोनों द्वयणुर्को के समवायिकारण पार्थिव और जलीय परमाणु और (पार्थिव द्वयणुक के) अकारण जलीय परमाणु और (जलीय द्वयणुक के अकारण) पार्थिव परमाणु इन दोनों (कारणाकारण) के एक ही संयोग
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३५६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम् करणगतात् संयोगादितरेतरका कार्यगतौ संयोगौ युगपदुत्पद्यते। रूपादि की उत्पत्ति होती है, उसी समय दोनों द्वयणकों के कारण और अकारण ( अर्थात् जलीय द्वयणुक के कारण जलीय परमाणु और अकारण पार्थिव परमाणु एवं पार्थिव द्वयणुक के कारण पार्थिव परमाणु एवं अकारण जलीय परमाणु इन ) दोनों में रहनेवाले एक ही संयोग से एक ही समय कार्य और अकार्य ( अर्थात् पार्थिव परमाणु के कार्य पार्थिव द्वयणुक, और पार्थिव परमाणु के अकार्य जलीय द्वयणुक इन दोनों के ) संयोग एवं जलीय परमाणु के कार्य जलीय द्वयणुक एवं अकार्य पार्थिव परमाणु, इन दोनों के संयोग, इन दोनों संयोगों की उत्पत्ति होती है। ( इस प्रकार एक संयोग से दो संयोगों
न्यायकन्दली
दितरेतरकार्याकार्यगतौ संयोगौ युगपदुत्पद्यते । इतरेतरे पार्थिवाप्ये द्वयणुके, तयोः कारणाकारणे परस्परसंयुक्तौ पार्थिवाप्यपरमाणू, पार्थिवः परमाणुरितरस्य पार्थिवद्वयणुकस्य कारणमितरस्याप्यस्य द्वयणुकस्याकारणम् । एवमाप्यपरमाणुरितरस्याप्यद्वयणुकस्य कारणमितरस्य पार्थिवद्वयणुकस्याकारणम् । तयोः संयोगाद् इतरस्य पार्थिवपरमाणोर्यत् कार्य पाथिवं द्वयणकमकार्यश्चाप्यः परमाणुः, तयोः संयोगो भवति । एवमितरस्याप्यपरमाणोर्यत् कार्यमाप्यं व्यणुकमकार्यस्तु पार्थिवः परमाणुस्तयोरपि संयोगो भवतीत्येकस्माद् द्वयोरुत्पत्तिः ।
से दोनों के कार्य (अर्थात्) पार्थिव परमाणु के कार्य पार्थिव द्वयणुक और जलीय परमाणु के कार्य (जलीय द्वथणुक) एवं दोनों परमाणुओं के अकार्य (अर्थात् पार्थिव परमाणु के अकार्य जलीय द्वथणुक एवं जलीय परमाणु के अकार्य पार्थिव द्वयणुक) इन दोनों के एक ही संयोग की उत्पत्ति होती है। 'इतरेतर' शब्द से परस्पर सम्बद्ध पार्थिव द्वथणुक और जलीय द्वथणुक, ये ही दोनों अभिप्रेत हैं। इन दोनों के कारण और अकारण अर्थात् पार्थिव
घणुक के कारण पार्थिवपरमाणु और अकारण जलीय परमाणु एवं जलीय द्वथणुक के कारण जलीय परमाणु और अकारण पार्थिव परमाणु, कथित कारण और अकारण इन दोनों के संयोग से 'इतर' अर्थात् पार्थिव परमाणु के कार्य पार्थिव द्वथणुक, और अकार्य जो जलीय परमाणु, इन दोनों के संयोग की उत्पत्ति होती है। एवं 'इतर' जो जलीय परमाणु के कार्य जलीय द्वथणुक, एवं अकार्य जो पार्थिव परमाणु, इन दोनों के संयोग की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार एक हो संयोग से (संयोगज) संयोगों को उत्पत्ति होती है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
३५७
प्रशस्तपादभाष्यम् किं कारणम् १ कारणसंयोगिना ह्यकारणेन कार्यमवश्यं संयुज्यत इति न्यायः । अतः पार्थिवं द्वयणकं कारणसंयोगिनाप्येनाणुना सम्बद्धयते । आप्यमपि द्वयणुकं कारणसंयोगिना पार्थिवेनेति । अथ द्वयणुकयोरितरेतरकारणाकारणसम्बद्धयोः कथं परस्परतः की एक ही समय उत्पत्ति होती है) (प्र०) (एक कारण से दो कार्यों की उत्पत्ति) क्यों होती है ? ( उ० ) चूंकि यह नियम है कि समवायिकारण के संयोग से युक्त अकारण ( द्रव्य ) के साथ ( उस समवायिकारण का) कार्य भी अवश्य ही संयुक्त होता है, अतः पार्थिव द्वयणुक उस जलीय परमाणु के साथ भी संयुक्त होता है, जिसका संयोग उक्त पार्थिव परमाणु के साथ है। (प्र०) एक दूसरे के कारण और अकारण के साथ सम्बद्ध इन दोनों द्वयणुकों में परस्पर संयोग
न्यायकन्दली किं कारणम् ? पाथिवाप्ययोद्वर्यणुकयोविजातीयपरमाणसंयोगे किं प्रमाणम् ? इति पृष्टः सन् प्रमाणमाह-कारणसंयोगिनेति । पार्थिवपरमाणुराप्यद्वयणुकेन सह सम्बद्धयते, तत्कारणसंयोगित्वात पटसंयुक्ततुरीवत् । एवमाप्यं परमाणुमपि पक्षीकृत्य वक्तव्यम् । यतः कारणसंयोगिना कार्य संयुज्यते, अतः पार्थिवं द्वयणुकं कारणसंयोगिनाप्येन परमाणुना सम्बध्यते, आप्यं च द्वयणुकं तस्य कारणसंयोगिना पार्थिवपरमाणुनेत्युपसंहारः । अथ पार्थिवाप्यद्वयणुकयोरितरेतरकारणाकारणसम्बद्धयोः कथं सम्बन्धः ? पार्थिवद्वयणुकस्य स्वकीयाकारणेनाप्यद्वयणुककारणेनाप्यपरमाणुना
'किं कारणम् ?' इत्यादि से प्रश्न करते हैं कि क्या कारण है ? अर्थात् पार्थिव द्वथणुक और जलीय द्वथणुक इन दोनों का अपने से भिन्न जाति के परमाणुओं के (पार्थिवद्वथणुक का जलीय परमाणु के साथ एवं जलीय द्वयणुक का पार्थिव परमाणु के साथ) जो संयोग की उत्पत्ति होती है, इसमें क्या कारण है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'कारणसंयोगिना' इत्यादि सन्दर्भ से देते हैं । अर्थात् जिस प्रकार तन्तु में संयुक्त तुरी के साथ पट भी संयुक्त होता है, उसी प्रकार पार्थिव परमाणु भी जलीय द्वयणुक के साथ संयुक्त होता है, क्योंकि जलीय द्वयणुक के कारणीभूत जलीय परमाणु के साथ वह (पार्थिव परमाणु) संयुक्त है । इसी प्रकार जलीयपरमाणु को भी पक्ष बनाकर अनुमान करना चाहिए। (अर्थात् जिस प्रकार कपाल में संयुक्त दण्ड के साथ घट भी संयुक्त होता है, उसी प्रकार जलीय परमाणु भी पार्थिव द्वयणक के साथ संयुक्त होता है, क्योंकि पार्थिव द्वयणक के कारणीभूत पार्थिव परमाणु के साथ उसका संयोग है)। इस प्रसङ्ग का सारमर्म यह है कि जिस द्रव्य के साथ कारण का संयोग रहता है, उस द्रव्य के साथ कार्य भी अवश्य ही संयुक्त होता है। अतः प्रकृत में पार्थिव द्वयणुक जलीय परमाणु के साथ
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम् सम्बन्धः ? तयोरपि संयोगजाम्यां संयोगाभ्यां सम्बन्ध इति । नास्त्यजः संयोगो नित्यापरिमण्डलवत्, पृथगनभिधानात् । यथा चतुर्विधं परिमाणमुत्पाद्यमुक्त्वाह नित्यं परिमण्डलमित्येवमन्यतरकर्मजाकिस कारण से उत्पन्न होता है ? ( उ० ) इन दोनों द्वयणुकों में भी दोनों संयोगज' संयोगों से ही उक्त संयोग की उत्पत्ति होती है। अनुत्पत्तिशील संयोग कोई है ही नहीं। क्योंकि सूत्रकार ने नित्य परिमण्डल ( नित्य अणुपरिमाण ) की तरह नित्य संयोग का उल्लेख नहीं किया है, अर्थात सूत्रकार ने जिस प्रकार उत्पत्तिशील चार परमाणुओं के उल्लेख के बाद 'नित्यं परिमण्डलम्' इत्यादि से नित्य अणुपरिमाण का उल्लेख किया है,
न्यायकन्दली सम्बद्धस्याप्यद्वयणुकस्यापि स्वकीयाकारणेन पार्थिवद्वयणुककारणेन पार्थिव. परमाणुना सम्बद्धस्य कथं सम्बन्धः ? इति पृच्छति । उत्तरमाह-तयोरपीति । पार्थिवद्वयणुकस्याप्येन परमाणुना यः संयोगजः संयोगो यश्चाप्यद्वयणुकस्य पार्थिवपरमाणुना संयोगजः संयोगस्ताभ्यां पार्थिवाप्यपरमाणुसंयोगाभ्यां द्वयणुकयोः परस्परसंयोगः । अत्रापि पूर्वोक्त एव न्यायः, कारणसंयोगिना अकारणेन संयोगि कार्यमिति । संयुक्त होता है, क्योंकि उसके कारणीभूत पार्थिव परमाणु के साथ जलीय परमाणु संयुक्त है । इसी तरह जलीय द्वथणुक भी अपने कारणीभूत जलीय परमाणु से संयुक्त पार्थिव परमाणु के साथ संयुक्त होता है। (प्र०) इतरेतर कारणों और अकारणों में परस्पर असम्बद्ध पार्थिव द्वथणुक और जलीय द्वयणुकों में परस्पर संयोग कैसे होता है ? अर्थात् यह पूछते हैं कि पार्थिव द्वषणुक अपने अकारणीभूत और जलीय द्वयणुक के कारणीभूत जलीय परमाणु के साथ संयक्त है, एवं जलीय द्वथणक अपने अकारणीभूत और पार्थिव द्वथणक के कारणीभूत पार्थिव परमाणु के साथ संयुक्त है, फिर इससे पार्थिव और जलीय दोनों द्वयणुकों में परस्पर संयोग कैसे होता है ? 'तयोः' इत्यादि से इसी प्रश्न का उत्तर देते हैं । अमिप्राय यह है कि पार्थिव द्वथणुक का जलीय परमाणु के साथ जो संयोगज संयोग है, एवं जलीय द्वयणुक का पार्थिव परमाण क साथ जो संयोगज सयोग है. इन दोनों संयोगज संयोगों से ही कथित पार्थिव द्वथणुक और जलीय द्वथणुक इन दोनों में परस्पर संयोग की उत्पत्ति होती है । इस संयोग क प्रसङ्ग में भी पूर्व कथित वही न्याय लागू होता है कि जिस कार्य के कारण का जिस अकारण के साथ संयोग होगा, उस अकारण के साथ उस कार्य का भी संयोग अवश्य ही होगा।
१. अर्थात् पार्थिव परमाणु और जलीय परमाणु के संयोग से उत्पन्न पार्थिव द्वयणुक का जलीय परमाणु के साथ संयोग, और जलीय द्वयणुक का पार्थिव परमाणु के साथ संयोग, इन दो! संयोगज संयोगों से पार्थिव द्वयणुक और जलीय द्वयणुक इन दोनों में संयोग की उत्पत्ति होती है ।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
दिसंयोगमुत्पाद्यमुक्त्वा पृथङ् नित्यं ब्रूयात्, न त्वेवमत्रवीत्, तस्मान्नास्त्यजः संयोगः । परमाणुभिराकाशादीनां प्रदेशवृत्तिरन्यतरकर्मजः संयोगः । उसी प्रकार अगर नित्य संयोग भी होता तो ) उत्पत्तिशील अन्यतर कर्मजादि संयोगों को कहने के बाद नित्य संयोग का भी अलग से उल्लेख अवश्य ही करते, सो नहीं किया है, अत: संयोग नित्य नहीं है । परमाणुओं के साथ अकाशादि के संयोग न्यायकन्दली
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३५६
एकस्य
त्रिविध एव संयोग इत्युक्तम् । नित्यस्यापि संयोगस्य सम्भवादिति केचित्, तत्प्रतिषेधार्थमाह - नास्त्यजः संयोगः, परिमण्डलवत् पृथगनभिधानात् । सर्वज्ञेन महर्षिणा सर्वार्थोपदेशाय प्रवृत्तेन पृथगनभिधानात्, अजः संयोगो नास्ति, खपुष्पवत् । एतदेव विवृणोति - यथेत्यादिना । संयोगोऽजो न भवतीति प्रतिज्ञार्थो न पुनरजः संयोगो नास्तीति, आश्रयासिद्धत्वात् । ननु परमाण्वाकाशयोः संयोगो नित्य एव, योनित्यत्वादप्राप्त्यभावाच्च । यत् पुनरयं कणादेन नोक्तः, तद् भ्रान्तेः पुरुषधर्मत्वात्, अत आह— परमाणुभिराकाशादानामिति । यथा महतो न्यग्रोधस्य मूलाग्रावयवव्यापिन मूलादग्रमग्रान्मूलं गच्छता पुरुषेण संयोगविभागावन्यतरकर्मजौ युगपत्प्रतीयेते, तथा व्यापि - 'संयोग तीन ही प्रकार के हैं' इस अवधारण के प्रसङ्ग में किसी को आपत्ति है कि उक्त अवधारण ठीक नहीं है, क्योंकि नित्य भी संयोग हो सकता है । इसी पूर्वपक्ष का खण्डन 'नास्त्यजः संयोगः' इत्यादि से किया गया है । अर्थात् सभी विषयों के ज्ञाता महर्षि कणाद सभी वस्तुओं के उपदेश देने के लिए प्रवृत्त हुए थे । अत: अगर नित्य परिमण्डल की तरह नित्य संयोग की भी सत्ता रहती तो नित्य परिमण्डल की तरह उसका भी उल्लेख अवश्य ही करते । किन्तु गगनकुसुम की तरह नित्यसंयोग का भी उल्लेख महर्षि ने नहीं किया है, अतः नित्यसंयोग नहीं है । 'यथा' इत्यादि से इसी का विवरण देते हैं । 'संयोग नित्य नहीं है' प्रकृत में इसी आकार की प्रतिज्ञा है 'नित्यसंयोग नहीं है' इस प्रकार की नहीं, क्योंकि इस ( दूसरी ) प्रतिज्ञा का आश्रय ( पक्ष ) नित्यसंयोग (आकाशकुसुम की तरह अप्रसिद्ध है) अतः इसके लिए प्रयुक्त हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होगा । ( प्र०) परमाणु और आकाश का संयोग तो नित्य है, क्योंकि वे दोनों ही नित्य हैं और वे दोनों कभी अप्राप्त ( असम्बद्ध) भी नहीं रहते । ( इस वस्तुस्थिति के अनुसार यह कहना ही पड़ेगा कि ) कणाद ने जो नित्य संयोग का निरूपण नहीं किया है, इसका कारण उनकी भ्रान्ति हैं, चूंकि भ्रान्ति पुरुष का धर्म है। इसी पूर्व पक्ष के समाधान के लिए 'परमाणुभिराकाशादीनाम्' इत्यादि पक्ति लिखते हैं । जैसे कि एक महान वटवृक्ष के मूल से ऊपर की तरफ जाते हुए पुरुष का, एवं 'अग्रभाग से मूल की तरफ आते हुए पुरुष का एक ही समय उस वृक्ष के साथ अन्यतरकर्मज संयोग और अन्यतरकर्मज विभाग दोनों ही प्रतीत होते हैं. क्योंकि वे दोनों अव्याप्यवृत्ति हैं, उसी प्रकार परमाणु और आकाश का भी अन्यतरकर्मजसंयोग ( आकाश के
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३६०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम् विभूनां तु परस्परतः संयोगो नास्ति, युतसिद्धयभावात् । सा पुनईयोरन्यतरस्य वा पृथग्गतिमत्वं पृथगाश्रयाश्रयित्वं चेति । अव्याप्यवृत्ति एवं अन्यतरकर्मज ही हैं । आकाशादि विभ द्रव्यों में परस्पर संयोग हैं ही नहीं, क्योंकि उन सवों की युतसिद्धि नहीं है। दोनों (प्रतियोगी और अनुयोगी) में एक को स्वतन्त्रगतिशीलता और दोनों में से प्रत्येक में स्वतन्त्र रूप से किसी के आश्रय होने की या कहीं आश्रित होने की योग्यता ही 'युतसिद्धि' है।
_ न्यायकन्दली
नोऽप्याकाशस्य परमाणुना सह संयोगविभागौ परमाणकर्मजौ भवतः, तयोरव्याप्यवृत्तित्वादिति न परमाण्वाकाशसंयोगस्य नित्यता । इदं तावदित्थं परिहृतम्, विभूनां परस्परत: संयोगे का प्रतिक्रिया ? न ह्यसावन्यतरकर्मजः, नाप्युभयकर्मजः, तेषां निष्क्रियत्वात् । नापि संयोगजः, कार्यस्य हि कारणसंयोगिना अकारणेन संयोगजः संयोगो भवति । न चायं विभूनामुपपद्यते, नित्यत्वात् । अस्ति च तेषां संयोग आकाशममूर्तेनापि द्रव्येण समं संयुज्यते मूर्तद्रव्यसंयोगित्वात् पटवदित्यनुमानात् प्रतीतः। स चाकारणवन्नित्यं तस्मादनुपपन्नमिदम्, अजः संयोगो नास्तीति । तत्राह-विभूनामिति । निष्क्रिय होने पर भी, परमाणु के क्रियाशील होने के कारण) हो सकता है, क्योंकि संयोग
और विभाग दोनों ही अव्याप्यवृत्ति हैं। अतः परमाणु और आकाश का संयोग (दोनों के नित्य होने पर भी परमाणुगत क्रिया के अनित्य होने के कारण) नित्य नहीं है । संयोग के नित्यत्व के पक्ष में आयी हुई आपत्ति का उद्धार उसके समर्थक इस प्रकार करते हैं कि (परमाणु और आकाश के संयोग में नित्यत्व अनिवार्य न होने पर भी) विभु द्रव्यों के परस्पर संयोग में (नित्यत्व मानने के सिवाय) क्या समाधान करेंगे? क्योंकि विभु द्रव्यों के संयोग न अन्यत र कर्मज हो सकते हैं, न उभयकर्मज, क्योंकि वे सभी क्रिया से रहित हैं । संयोग से भी (विभु द्रव्य का दूसरे विभु द्रव्य के साथ संयोग) नहीं उत्पन्न हो सकता, क्योंकि सयोगजसंयोग किसी कार्य द्रव्य का उसके अकारणीभूत द्रव्य के ही साथ होता है जिसमें उस कार्य द्रव्य के कारणीभूत द्रव्य का संयोग रहता है। विभु द्रव्य तो नित्य ही होते हैं, अतः उनका कोई कारण ही नहीं है, तस्मात् उनका परस्पर संयोगजसंयोग नहीं हो सकता। किन्तु विभु द्रव्यों में परस्पर संयोग अवश्य ही होता है, क्योंकि इस प्रसङ्ग में यह अनुमान प्रमाण है कि जिस प्रकार पटादि द्रव्य घटादि मूर्त द्रव्यों के साथ संयुक्त होने पर आकाशादि अमूर्त द्रव्यों के साथ भी संयुक्त होते हैं, उसी प्रकार आकाशादि विभु द्रव्य भी दिगादि अमूर्त (विभु) द्रव्यों के साथ भी अवश्य ही संयुक्त होते हैं, क्योंकि उनमें घटादि मूर्त द्रव्यों का संयोग है (जो मूर्त द्रव्यों के साथ संयुक्त होगा, वह अमूर्त द्रव्यों के साथ भी संयुक्त होगा हो), किन्तु (इस प्रकार से
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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३६१
विनाशस्तु
सर्वस्य
संयोगस्यैकार्थसमवेताद्विभागात्,
क्वचिदाश्रयविनाशादपि । कथम् ? यथा तन्त्वोः संयोगे सत्यन्यतर
संयोग के आश्रयरूप एक अधिकरण में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले विभाग से ही सभी संयोगों का विनाश होता है, किन्तु कहीं कहीं आश्रय के विनाश से भी संयोग का विनाश होता है । ( प्र० ) कैसे ? ( उ० ) जब दो तन्तुओं के
न्यायकन्दली
यत्र युतसिद्धस्तत्रैव संयोगो दृष्टः । युतसिद्धिश्चाकाशादिषु नास्ति, अतो व्यापकाभावात् संयोगोऽपि तेषु न भवति । यच्च संयोगप्रतिपादकमनुमानमुक्तम्, तदसाधनम्, उभयपक्षसमत्वात् । यथेदं विभूनां संयोगं शास्ति, तथा ताभ्यामेव हेतुदृष्टान्ताभ्यां विभागमपि । अस्तु द्वयोरप्युपपत्तिः प्रमाणेन तथाभावप्रतीतेरिति चेन्न, संयोगविभागयोरेकस्य नित्यत्वेऽन्यतरस्यासम्भवादिति द्वयोरप्यसिद्धिः परस्परप्रतिबन्धात् ।
ar hi सिद्धिर्यस्या अभावाद्विभूनां संयोगो न सिद्ध्यति ? अत्राह - सा पुनरिति । द्वयोरन्यतरस्य वा पृथग्गमनं युतसिद्धिनित्यानाम्, द्वयोरन्यतरस्य परस्परनिष्पन्न विभु द्रव्यों के ) संयोग का कोई कारण नहीं है, अतः वह नित्य है । सुतराम् यह कहना ठीक नहीं है कि ' (नित्य) संयोग नहीं है' इसी आक्षेप का खण्डन 'विभूनाम्' इत्यादि से करते है । संयोग उन्हीं दो द्रव्यों में देखा जाता है, जिनमें 'युत सिद्धि' रहती हैं । आकाशदिगादि विभु द्रव्यों में 'युत सिद्धि' नहीं है, अत: (युतसिद्धि रूप) व्यापक के अभाव से समझते हैं कि ( व्याप्य) संयोग भी उनमें नहीं है । आकाशादि विभु द्रव्यों में परस्परं संयोग के साधन के लिए जिस अनुमान का प्रयोग किया गया है. वह (विभु द्रव्य के ) नित्यसंयोग का ही साधक नहीं है, क्योंकि वह (विभुद्रय
के नित्य संयोग और नित्य विभाग) दोनों पक्षों में समान रूप से लागू हो सकता है । जिस हेतु से और जिस दृष्टान्त से वह विभुओं में संयोग का साधन कर सकता है, उसी हेतु से और उसी दृष्टान्त से वह विभुओं में विभाग का भी साधन कर सकता है । (प्र०) विभुओं में परस्पर संयोग और विभाग दोनों ही अगर प्रामाणिक हों, तो दोनों ही मान लिये जायें। ( उ० ) विभुओं के संयोग और विभाग दोनों में से किसी एक में नित्यत्व की सिद्धि हो जाने पर दूसरे में नित्यत्व को सिद्धि असम्भव है, क्योंकि वे दोनों परस्पर विरुद्ध हैं ।
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?
यह 'युत सिद्धि' कौन सी वस्तु है नहीं हो पाता ? ' सा पुनः' इत्यादि से किसी एक में गति का रहना दो नित्य
जिसके न रहने से विभु द्रव्यों में संयोग इसी प्रश्न का उत्तर देते हैं । दोनों में से वस्तुओं की युतसिद्धि है । अनित्य दो वस्तुओं की तसिद्धि के लिए यह आवश्यक है कि वे दोनों या दोनों में से एक भी कहीं
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३६२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
तन्त्वारम्भके अंशौ कर्मोत्पद्यते, तेन कर्मणा अंश्वन्तराद् विभागः क्रियते, विभागाच्च तत्वारम्भकसंयोगविनाशः, संयोगविनाशात् तन्तुविनाशः, तद्विनाशे तदाश्रितस्य तन्त्वन्तरसंयोगस्य विनाश इति ॥
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संयुक्त होने पर उन दोनों तन्तुओं में से एक तन्तु के उत्पादक अंशु ( तन्तु के अवयव ) में क्रिया उत्पन्न होती है, एवं उसी क्रिया से उस अंशु दूसरे अंशु से विभाग उत्पन्न होता है, इस विभाग से तन्तु के उत्पादक उन दोनों अंशुओं के संयोग का विनाश होता है, संयोग के इस विनाश से उस तन्तु का नाश हो जाता है, तब उस तन्तु में रहनेवाल दूसरे ( उक्त पट के अनारम्भक ) तन्तु के संयोग का भी नाश होता है ।
क्वचिदाश्रयविनाशादपि संयोगस्य विनाशः ।
न्यायकन्दली
परिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिरनित्यानाम् । इयं द्विधाप्याकाशादिषु नास्तीत्यभिप्रायः | विनाशस्तु सर्वस्य संयोगस्य एकार्थसमवेताद् विभागात् । अन्यतरकर्मजस्योभयकर्मजस्य संयोगजस्यैकार्थसमवेताद् विभागात् । ययोर्द्रव्ययोः संयोगो वर्तते, तयोः परस्परं विभागादस्य विनाशः । यद्यपि विभागकाले संयोगो विद्यत एव तथापि तयोः सहभावो न लक्ष्यते, विनाशस्याशुभावाद् विभागेन वा तदुपलम्भप्रतिबन्धात् ।
संयोगे सत्यन्यतरतन्त्वारम्भकेंऽशौ कर्मोत्पद्यते
[ गुणे संयोग
कथम् ? तन्त्वोः कुतश्चित् कारणात् । तेन
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दूसरी जगह आभित हों या कोई दूसरी वस्तु ही इन दोनों में, यां इन दोनों में से एक में भी आश्रित हो अभिप्राय यह है कि इन दोनों प्रकार की युतसिद्धियों में आकाशकालादि विभु द्रव्यों में एक भी नहीं है । ( संयोग के आश्रय रूप ) एक अर्थ ( द्रव्य) में रहनेवाले विभाग से हो सभी संयोगों का नाश होता है, अर्थात् अन्यतरकर्मज, उभयकर्मज और संयोगज इन तीनों प्रकार के संयोगों का एक अर्थ में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले विभाग से, अर्थात् संयोग के आश्रयीभूत सम्बन्ध से रहने वाले उनके परस्पर विभाग से ही उन (सभी है ) । यद्यपि विभाग के उत्पत्तिक्षण में संयोग रहता ही है, फिर भी दोनों में सामानाधिकरण्य (एक अधिकरण में रहने की ) प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि अतिशीघ्रता से ( विभाग की उत्पत्ति के अगले क्षण में हो ) संयोग का विनाश हो जाता है । अथवा विभाग के द्वारा ही दोनों के सामानाधिकरण्य की प्रतीति प्रतिरुद्ध हो जाती है ।
दो द्रव्यों में समवाय संयोगों का नाश होता
कहीं आश्रय के विनाश से
( किस स्थिति में कहीं आश्रय के
भी संयोग का नाश होता है । ( प्र०) किस प्रकार ? नाश से संयोग का नाश होता है ?) (उ०) जहाँ
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विभागो विभक्तप्रत्यानिमित्तम् । शब्दविभागहेतुश्च ।
'इससे यह विभक्त है' इस आकार की प्रतीति का कारण ही 'विभाग' है। वह शब्द एवं विभाग का कारण है। प्राप्ति ( संयोग ) के
न्यायकन्दली कर्मणा अंश्वन्तराद् विभागः क्रियते, विभागादश्वोः संयोगविनाशात् तन्तुविनाशे तदाश्रितस्य संयोगस्य विनाशः, उभयाश्रयस्य तस्यकाश्रयावस्थानेऽनुपलम्भादिति ।
संयोगपूर्वकत्वाद् विभागस्य तदनन्तरं निरूपणार्थमाह-विभागा विभक्तप्रत्ययनिमित्तमिति । अत्रापि व्याख्यानं पूर्ववत् । संयोगाभावे विभक्तप्रत्यय इति चेत् ? असति विभागे संयोगाभावस्य कस्मादुत्पादः ? कर्मणा क्रियत इति चेत् ? न, कर्मणो गुणविनाशे सामर्थ्यादर्शनात् । दृष्टं च गुणविनाशे गुणानां हेतुत्वम्, तेनात्रापि गुणान्तरकल्पना । किञ्च संयोगाभावेऽसंयुक्तादिमाविति प्रत्यय: स्यान्न विभक्ताविति, अभावस्य विधिमुखेन ग्रहणाभावात् । ( दो द्वितन्तुक पट की उत्पत्ति के लिए ) दोनों तन्तुओं में संयोग के उत्पन्न होने पर उन दोनों में से एक तन्तु के उत्पादक अंशु ( तन्तु के अवयव ) में किसी कारण से क्रिया उत्पन्न होती है। एवं इस क्रिया से दूसरे अंशु का पहिले अंशु से विभांग उत्पन्न होता है । इस विभाग से ( तन्तु के उत्पादक ) दोनों अंशुओं के संयोग का विनाश होता है । इस संयोग के नाश से तन्तु का विनाश होता है । ( उस एक ही ) तन्तु के विनष्ठ हो जाने पर (भी) उस में रहने वाले संयोग का नाश हो जाता है, क्कोंकि (नियमतः ) दो आश्रयों में रहनेवाली वस्तु की ( उसके केवल ) एक आश्रय के न रहने पर ( भी) उपलब्धि नहीं होती है।
(किन्हीं दो द्रव्यों में ) पहिले संयोग के होने पर ही ( उन दोनों द्रव्यों में) विभाग उत्पन्न होता है । अतः संयोग के निरूपण के बाद विभाग का उपपादन विभागो विभक्तप्रत्ययनिमित्तम्' इत्यादि सन्दर्भ से करते हैं। इस वाक्य की व्याख्या पहिले की ( अर्थात् 'संयोगः संयुक्तप्रत्ययनिमित्तम्' इस वाक्य की व्याख्या की) तरह करनी चाहिए । (प्र०) संयोग के न रहने पर ही विभाग की प्रतीति होती है (विभाग नाम का कोई स्वतन्त्र गुण नहीं है)। (उ०) विभाग के न माननेपर संयोग के अभाव की उत्पत्ति किससे होती है ? क्रिया से उसकी उत्पत्ति मानना सम्भव नहीं है, क्योंकि कर्म से गुण का नाश कहीं नहीं देखा जाता। एवं एक गुण से दूसरे गुण का नाश देखा जाता है। अतः ( संयोगनाश के लिए ) स्वतन्त्र (विभाग नाम के ) गुण की कल्पना ही उचित है । ( संयोग की तरह विभाग भी स्वतन्त्र गुण ही है, संयोग का अभाव नहीं)। इसमें दूसरी युक्ति यह भी है कि तब 'इन दोनों में संयोग नहीं है' इस आकार की प्रतीति होती, 'ये दोनों विभक्त है' इस आकार की नहीं, क्योंकि अभाव को प्रतीति भाव के बोधक शब्द से नहीं होती है । (प्र०)
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम
प्राप्तिपूर्विका प्राप्तिर्विभागः । स च त्रिविधः - अन्यतरकर्मजः, उभयकर्मज:, विभागजश्च विभाग इति । तत्रान्यतरकर्मजोमय कर्मजौ बाद उत्पन्न अप्राप्ति का नाम ही 'विभाग ' है । वह ( १ ) अन्यतरकर्मज, (२) उभयकर्मज और (३) विभागज विभाग भेद से तीन प्रकार का है । इनमें अन्यतरकर्मज विभाग और उभयकर्मज विभाग इन दोनों की सभी बातें
न्यायकन्दली
[ गुणे विभाग
भाक्तः प्रत्ययोऽयमिति चेत् ? तहिं विभागस्याप्रत्याख्यानम्, निष्प्रधानस्य भाक्तस्याभावात् ।
तस्य कार्यं दर्शयति- शब्दविभागहेतुश्चेति । न केवलं विभक्तप्रत्ययनिमित्तं शब्दविभागहेतुश्चेति चार्थः । वंशदले पाट्यमाने योऽयमाद्यः स तावद् गुणान्तरनिमित्तः शब्दत्वात्, भेरीदण्डसंयोगजशब्दवत् । न चायं संयोगजः, तस्याभावात् । तस्माद् वंशदलमिभागज एवायम्, तद्भावभावित्वात् । विभागस्य विभागहेतुत्वं चानन्तरं वक्ष्यामः ।
शब्दः,
प्राप्ति पूर्विका प्राप्तिरिति तस्य लक्षणकथनम् । अधर्म इति नञ् यथा धर्मविरोधिनि गुणान्तरे, न तु धर्माभावे, तथा अप्राप्तिरिति नञ् प्राप्तिविरोधिनि गुणान्तरे, न तु प्राप्तेरभावे । प्राप्तौ पूर्वस्थितायां याऽप्राप्तिः ('ये दोनों विभक्त हैं' इत्यादि) प्रतीतियाँ तो गोण हैं ? ( उ० ) इस गोणता की प्रतीति से भी विभाग का मानना आवश्यक है, क्योकि प्रधान के बिना गोण नहीं होता है । 'शब्दविभागहेतुश्च' इस वाक्य से विभाग के द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्य दिखलाये गये हैं । उक्त वाक्य में प्रयुक्त 'च' शब्द से यह सूचित होता है कि विभाग केवल विभक्त प्रत्यय का ही कारण नहीं है, किन्तु शब्द और ( विभागज ) विभाग का भी कारण है । ( 'विभाग से शब्द उत्पन्न होता हैं' इसमें यह अनुमान प्रमाण है कि ) जिस प्रकार भेरी और दण्ड के संयोग से उत्पन्न शब्द का शब्द से भिन्न उक्त संयोग कारण है, उसी प्रकार बाँस का दो भाग करने पर जो पहिला शब्द होता है, उसका भी स्व ( शब्द ) से भिन्न कोई दूसरा ही गुण कारण है । एवं इस शब्द का ( भेरी के उक्त शब्द की तरह ) संयोग भी कारण नहीं है अतः चूंकि बाँस के दोनों दलों की सत्ता के बाद ही उक्त शब्द की उत्पत्ति होती है, अतः बांस के दोनों दलों का विभाग ही उस शब्द का कारण है। विभाग से ( दूसरे) विभाग की उत्पत्ति का विवरण हम आगे देंगे ।
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'प्रातिपूर्विकाप्राप्ति:' इस वाक्य से विभाग का लक्षण कहा गया है। जिस प्रकार 'अधर्म' शब्द में प्रयुक्त नन् शब्द धर्म के विरोधी पाप रूप दूसरे गुण का बोधक है, उसी प्रकार प्रकृत 'अप्राप्ति' शब्द में प्रयुक्त 'नन्' शब्द भी प्राप्ति ( संयोग ) रूप
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भाषानुवादसहितम्
३६५
प्रशस्तपादभाष्यम्
संयोगवत् । विभागजस्तु द्विविधः-कारणविभागात, कारणाकारणविभागाच्च । तत्र कारणविभागात् तावत् कार्याविष्टे कारणे कर्मोत्पन्न ( उक्त नाम के दोनों ) संयोगों की तरह हैं। ( किन्तु ) विभागज विभाग दो प्रकार का है-(१) केवल कारणों के विभाग से उत्पन्न होनेवाला, एवं (२) कारण और अकारण इन दोनों के विभाग से उत्पन्न होनेवाला।
न्यायकन्दली प्राप्तिविरोधी गुणविशेषः, स विभाग इति वाक्यार्थः । कि प्राप्तेः पूर्वावस्थानमात्रम् ? किं वा विभागं प्रति हेतुत्वमप्यस्ति ? अवस्थितिमात्रमिति ब्रमहे, संयोगस्य विभागहेतुत्वेऽवयवसंयोगानन्तरमेव तद्विभागस्योत्पत्तौ द्रव्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । कर्मसहकारी संयोगः कारणमिति चेत् ? अन्वयव्यतिरेकावधृतसामर्थ्य कर्मैव कारणमस्तु, न संयोगः, तस्मिन् सत्यप्यभावात् ! प्रध्वंसोत्पत्ताविव भावस्य । विभागोत्पत्तौ संयोगस्य पूर्वकालतानियमः, विभागस्य तद्विरोधिस्वभावत्वात् ।
स च त्रिविध इति भेदकथनम् । अत्रापि चशब्दोऽवधारणे, त्रिविध एव । अन्यतरकर्मज उभयकर्मजो विभागजश्च विभाग इति । गुण क विरोधी विभाग नाम के गुण का ही बोधक है ( संयोग के अभाव का नहीं)। 'प्राप्ति' (संयोग ) के रहने पर जो 'अप्राप्ति' अर्थात् प्राप्ति का विरोधी गुणविशेष वही 'विभाग' है। (प्र. ) विभाग के उत्पन्न होने से पहिले संयोग (प्राप्ति ) केवल रहता है, या वह उसका उत्पादक भी है ? ( उ०) हम तो कहते हैं कि विभाग की उत्पत्ति के पूर्व (नियमतः ) संयोग केवल विद्यमान रहता है, ( यह विभाग का कारण नहीं है ), क्योंकि संयोग अगर विभाग का कारण हो, तो फिर द्रव्यों की उत्पत्ति ही रुक जाएगी क्योंकि अवयवों में संयोग के होने के बाद उस संयोग से अवयवों के विभाग उत्पन्न होंगे । अगर कहें कि (प्र०) (केवल संयोग ही विभाग का कारण नहीं है क्रिया भी उसकी सहायिका हैं ? ( उ०) तो फिर अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा जिस क्रिया में विभाग का सामर्थ्य निश्चित है, वह क्रिया ही विभाग का कारण है, संयोग नहीं। क्योंकि संयोग के रहते हुए भी बिना क्रिया के विभाग की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः जिस प्रकार ध्वंस की उत्पत्ति से पहिले ( उसके प्रतियोगी) भाव की नियमतः सत्ता (ही) रहती है, (एवं वह ध्वंस का कारण नहीं होता), उसी प्रकार संयोग भी विभाग से पहिले नियमतः केवल रहता है, वह उसका उत्पादक नहीं है । क्योंकि विभाग स्वभावतः संयोग का विरोधी है।
'स च त्रिविधः' इस वाक्य के द्वारा विभाग के भेद कहे गये हैं। यहाँ भी 'च' शब्द का अवधारण ही अर्थ है, ( तदनुसार इस वाक्य का यह अर्थ है कि) विभाग के ये तीन ही प्रकार हैं-(१) अन्यतरकर्मज, (२) उभयकर्मज और (३) विभागज ।
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम्
यदा तस्यावयवान्तराद् विभाग करोति, न तदाकाशादिदेशात्; यदा वाकाशादिदेशाद् विभागं करोति, न तदावयवान्तरादिति स्थितिः । अतो
इनमें कारण मात्र के विभाग से उत्पन्न होनेवाले विभाग कर निरूपण करते हैं । वस्तुस्थिति यह है कि कार्य से सम्बद्ध अवयव में उत्पन्न हुई क्रिया जिस समय अपने आश्रयरूप अवयव द्रव्य में दूसरे अवयव से विभाग को उत्पन्न करती है, उस समय विभक्त अवयवों में आकाशादि देशों से विभाग को उत्पन्न नहीं करती, एवं जिस समय ( वही क्रिया) अवयवों में आकाशादि देशों से विभाग को उत्पन्न करती है, उस समय एक अवयव में
न्यायकन्दली
तत्र तेषु मध्येऽन्यतरकर्मजोभयकर्मजौ संयोगवत् । यथा क्रियावता निष्क्रियस्य संयोगोऽन्यतरकर्मजस्तथा विभागोऽपि । यथोभयकर्मजः संयोगो मल्लयोर्मेषयोर्वा तथा विभागोऽपि । विभागजस्तु द्विविध इति । तुशब्देनास्य पूर्वाभ्यां विशेषकथनम् । कारणयोविभागादेको विभागो भवति । अपरस्तु कारणाकारणयोविभागादिति द्वैविध्यम् ।
कारण विभागाच्च विभागः कथ्यते - कार्याविष्ट इत्यादिना । कार्येणाविष्टे व्याप्ते अवरुद्धे कारणे कर्मोत्पन्नं यदा तस्यावयवस्यावयवान्तराद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशकं विभागं करोति, न तदा द्रव्यावरुद्धा
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'तत्र' अर्थात् उनमें अभ्यंतरकर्मज और उभयकर्मज ये दोनों 'संयोगवत्' हैं, अर्थात् जिस प्रकार क्रिया से युक्त एक द्रव्य का और क्रिया से रहित दूसरे द्रव्य का संयोग अन्यतरकमंज है उसी प्रकार ( निष्क्रिय एक द्रव्य के साथ क्रिया से युक्त दूसरे द्रव्य का ) विभाग भी ( अन्यतरकर्मज ) है । एवं जिस प्रकार ( लड़ते हुए ) दो भेड़ों का ( या ) पहलवानों का संयोग उभयकर्मज है, उसी प्रकार उनका विभाग भी ( उभयकर्मज ) है | 'विभागजस्तु द्विविध:' इस वाक्य में प्रयुक्त 'तु' शब्द से विभागजविभाग में कथित दोनों विभागों से भेद सूचित किया गया है। एक प्रकार का विभागजविभागकारणीभूत दोनों द्रव्यों के ही विभाग से उत्पन्न होता है, और दूसरे प्रकार का विभागजविभागकारणीभूत एक द्रव्य, और दूसरा अकारणीभूत द्रव्य, इन दोनों द्रव्यों के विभाग से उत्पन्न होता है । विभागजविभाग के ये ही दो भेद हैं ।
'कार्याविष्टे कारणं' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कारण ( मात्र ) के विभाग से उत्पन्न विभागज ) विभाग का निरूपण किया गया है। वस्तुस्थिति यह है कि कार्य से 'आविष्ट' अर्थात् नियत रूप से सम्बद्ध (अवयव रूप) कारण में उत्पन्न हुई क्रिया जिस समय अवयवी द्रव्य के उत्पादक संयोग के विनाशक विभाग को उत्पन्न करती है, उस समय ( वह क्रिया) उस द्रव्य के
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३६७
प्रकरणम् ]
प्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली दाकाशादिदेशाद् विभागं करोति । यदा चाकाशादिदेशात, न तदावयवान्तरादिति स्थितिनियमः । अतोऽवयवकर्मावययान्तरादेव विभागमारभते। यत आकाशविभागकारणं कर्म अवयवान्तराद् विभागं न करोतीति नियमः, अतोऽवयवान्तरविभागारम्भकं कर्म अवयवान्तरादेव विभागं करोति, नाकाशादिदेशात् ।
अयमभिसन्धिः-आकाशविभागकर्तृत्वं कर्मणो द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानारम्भक त्वेन व्याप्तम्, द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानारम्भकत्व. विरुद्धं च द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादकत्वम् । अतो यत्रेदमुपलभ्यते तत्र द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानुत्पादकत्वे निवर्तमाने तद्व्याप्तमाकाशविभागकर्तृत्वमपि निवर्तते । यथा वह्निव्यावृत्तौ धूमव्यावृत्तिः ।
आकाशविभागकर्तृत्वस्य द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानारम्भकत्वस्य च सहभावमात्रं न व्याप्तिरिति चेत् ? न, व्यभिचारानुपलब्धः। ययोः क्वचिद्वयभिचारो दृश्यते तयोः सहभावमात्रम्, यथा वजे पार्थिवत्वलोह
साथ सम्बद्ध आकाशादि देशों के साथ विभाग को उत्पन्न नहीं करती, अतः अवयव को क्रिया दूसरे अवयव से ( अपने ) विभाग को ही उत्पन्न करती है। चूंकि यह नियम है कि जिस कारण से आकाश के साथ अवयवों का विभाग उत्पन्न होगा उस कारण से एक अवयव के दूसरे अवयव का विभाग उत्पन्न नहीं होगा, अत: एक अवयव में रहनेवाले जिप विभाग की उत्पत्ति जिस क्रिया से होगी, वह क्रिया ( एक अवयव में) दूसरे अवयव से विभाग को ही उत्पादिका होगी, आकाशादि देशों के साथ विभाग की नहीं।
___अभिप्राय यह है कि जिस क्रिया में आकाशविभाग का कर्तृत्व है, उसमें द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का कर्तृत्व नहीं है' यह अव्यभिचरित नियम है। सुतराम् द्रव्य के उत्पादक संयोग ( अवयवद्वयसंयोग ) के विरोधी विभाग का अनुत्पादकत्व, एवं द्रव्य के अनुत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का उत्पादकत्व, ये दोनों परस्पर विरोधी धर्म हैं। अतः जहाँ द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का उत्पादकत्व उपलब्ध होता है, वहाँ द्रव्य के आरम्भक संयोग के विरोधी विभाग का अनारम्भकत्व ( उससे स्वयं ) दूर हटते हुए अपने से व्याप्त आकाश विभागकर्तृत्व को भी दूर हटा देता है। जैसे कि ( जलादि में ) वह्नि के प्रतिक्षिप्त होने के कारण धूम ( स्वयं ही जल से हट जाता है )।
(प्र.) आकाश विभाग का कर्तृत्व, एवं द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का अनारम्भक त्व, ये दोनों एक आभय में केवल रहते भर हैं, (इसका यह अर्थ नहीं कि) दोनों में परस्पर व्याप्ति सम्बन्ध भी है । (उ०) (यह कहना ठीक) नहीं हैं, क्योंकि उक्त दोनों धर्मों में कहीं व्यभिचार उपलब्ध नहीं है, (समानाधिकरण ) जिन दो धर्मों में से एक दूसरे के बिना भी उपलब्ध होता हैं, उन दोनों धर्मों के लिए कह सकते हैं कि वे केवल एक आभय में
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् ऽवयवकर्मावयवान्तरादेव विभागमारभते, ततो विभागाच्च द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः। तस्मिन् विनष्टे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यवयविदूसरे अवयव से विभाग को उत्पन्न नहीं करती, अत: अवयव में रहनेवाली क्रिया उसमें दूसरे अवयव से ही विभाग को उत्पन्न करती है। इसके बाद (अवयवी) द्रव्य के उत्पादक संयोग का नाश होता है। उसके विनष्ट हो जानेपर (असमवायि ) कारण के अभाव से (अवयवी द्रव्य
न्यायकन्दली लेख्यत्वयोः, सत्यपि पार्थिवत्वे काष्ठादिषु लोहलेख्यत्वात् । न तु व्योमविभागकर्तृत्वस्य विशिष्ट विभागानुत्पादकत्वस्य च व्यभिचारो दृश्यते। अदश्यमानोऽपि कदाचिदयं भविष्यतीत्याशङ्कयेत यद्यनयोः शिष्याचार्ययोरिवोपाधिकृतः सहभावः प्रतीयेत । न चैवमप्यस्ति, उपाधीनामनुपलम्भात् । यद्यप्रतीतव्यभिचारो निरुपाधिकः सहभावो न व्याप्तिहेतुरित्यग्निधूमयोरपि व्याप्तिर्न स्यादित्युच्छिन्नदानी जगत्यनुमानवार्ता।
यद्यवयवकर्मणावयवान्तराद् विभागः क्रियते नाकाशादिदेशात, ततः किं सिद्धम् ? तत्राह-विभागाच्च द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः । आकाशरहते हैं, उनमें परस्पर व्याप्ति सम्बन्ध नहीं है। जैसे कि काष्ठादि ( रूप एक आश्रय ) में पार्थिवत्व और लौहलेख्यत्व (लोहे से लिखने पर चिह्न पड़ जाना) दोनों के रहते हुए भी वज्रादि पत्थरों में (पार्थिवत्व के रहते हुए भी ) लौहलेख्यत्व के न रहने के कारण, उन दोनों धर्मों के प्रसङ्ग में यह कहा जाता है कि पार्थिवत्व और लौहलेख्यत्व दोनों धर्म एक आश्रय में केवल रहते हैं, किन्तु उन दोनों में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं है। किन्तु आकाशविभाग का कर्तृत्व तथा द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का अनुत्पादकत्व इन दोनों में से कोई एक को छोड़कर कहीं नहीं देखा जाता है । व्यभिचार के उपलब्ध न होने पर भी उक्त दोनों धर्मों में इस प्रकार के व्यभिचार की शङ्का हो सकती थी कि कदाचित् ये दोनों भी व्यभिचरित हों', अगर शिष्य और आचार्य के सम्बन्ध की तरह उनमें भी उपाधिमूलकत्व की उपलब्धि होती। किन्तु यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रकृत में कोई उपाधि भी उपलब्ध नहीं है, अगर उपाधि से रहित जिस सामानाधिकरण्य में व्यभिचार उपलब्ध न हो, वह भी अगर व्याप्ति का प्रयोजक न हो तो फिर वह्नि और धूम में भी व्याप्ति नहीं होगी। इस प्रकार संसार से अनुमान की बात ही उठ जाएगी।
अगर अवयव की क्रिया से दूसरे अवयव से ही उसका विभाग उत्पन्न हो, आकाशादि देशों से नहीं, तो फिर इससे क्या सिद्ध होता है ? इसी प्रश्न के उत्तर में यह वाक्य लिखा गया है कि विभागाच्च पूर्व संयोगनाशः। अभिप्राय यह है कि
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प्रशस्तपादभाष्यम्
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३६६
विनाशः । यदा कारणयोर्वर्तमानो विभागः कार्य विनाशविशिष्टं कालं स्वतन्त्र वावयवमपेक्ष्य सक्रियस्यैवावयवस्य कार्यसंयुक्तादाकाशादिदेशाद् विभागमारभते न निष्क्रियस्य, कारणाभावादुत्तरसंयोगारूप) कार्य का (अभाव) नाश होता है । उस समय ( विभाग के आश्रय और विभाग के अवधि रूप ) दोनों अवयवों में विद्यमान क्रिया कार्य से संयुक्त आकाशादि देशों के साथ क्रिया से युक्त अवयवों के ही विभाग को उत्पन्न करती है । ( यह दूसरी बात है कि ) उसे इस विभाग के उत्पादन में कार्य के नाश से युक्त काल या आश्रयीभूत अवयव के साहाय्य की भी
न्यायकन्दली
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न्यायादवयविनो
आह-तदेति । कार्यविनाशेन
विभागकर्तृत्वे विशिष्टविभागानुत्पादाद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशो न भवेदित्यर्थः । संयोगविनाशे किं स्यादत आह- तस्मिन्निति । संयोगेऽसमवायिकारणे तस्मिन्नष्टे कारणस्याभावात् कार्याभाव इति विनाशः । अवयविद्रव्ये नष्टे कि स्यादत द्रव्ये विनष्टे तत्कारणयोरवयवयोर्वर्तमानो विभाग: विशिष्ट कालं स्वतन्त्रं वा अवयवमपेक्ष्य सक्रियस्यैवावयवस्य कार्यसंयुक्तादाकाशादिदेशाद् विभागमारभते । यावत् कार्यद्रव्यं न विनश्यति, तावदवयवस्य स्वातन्त्र्यम् । पृथग्देशगमने योग्यता नास्तीत्यवयवदेशाद् विभागो न घटते, तदर्थमुक्तं कार्यविनाशविशिष्टं कालं स्वतन्त्रं वावयवमपेक्षते । कारणयोर्वर्त - ( अवयव की क्रिया में ) आकाश विभाग का भी कर्तृत्व अगर मान ले तो फिर उससे ( अवयवी के नाशजनक ) विशेष प्रकार के विभाग की उत्पत्ति नहीं होगी । फलतः ( अवयवी ) द्रश्य के उत्पादक संयोग का विनाश नहीं होगा। दोनों अवयवों के संयोग के विनाश से कौन सा कार्य होगा ? ( जिसके न होने का आपने भय दिखलाया हूँ ) | इसी प्रश्न का समाधान 'तस्मिन्' इत्यादि से कहा गया है । 'तस्मिन्नष्टे' अर्थात् ( अवयवी के ) असमवायिकारण रूप उस संयोग के नष्ट होनेपर 'कारण के अभाव से कार्य का अभाव' इस न्याय से अवयवी का नाश होगा | अवयवी रूप द्रव्य के नाश होनेपर क्या होगा ? इस प्रश्न का समाधान 'तदा' इत्यादि पङ्क्ति से कहा गया है । अर्थात (अवयवरूप द्रव्य के नष्ट हो जाने पर उसके कारणीभूत दोनों अवयत्रों में रहनेवाला विभाग ) क्रिया से युक्त अवयवों का ही आकाशादि देशों से विभाग को उत्पन्न करता है । उस ( विभाग ) को इस विभाग के उत्पादन में ( अवयविरूप ) कार्य के नाश से युक्त
अवयव, इन दोनों में से किसी एक का अवयविरूप कार्यद्रव्य के विनष्ट हुए बिना उसके अवयवों में स्वतन्त्र रूप से दूसरे देश में जाने की योग्यता नहीं आती ।
काल, स्वतन्त्र रूप से केवल साहाय्य अपेक्षित होता है ।
४७
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विभाग
. प्रशस्तपादभाष्यम् नुत्पत्तावनुपभोग्यत्वप्रसङ्गः। न तु तदवयवकर्माकाशादिदेशाद् विभागं अपेक्षा होती है, अथवा स्वतन्त्ररूप से ही वह उक्त विभाग को उत्पन्न करती है। निष्क्रिय अवयवों में वह विभागों को उत्पन्न नहीं कर सकती, क्योंकि (उसके बाद) कारण के न रहने से उत्तर देश के साथ संयोग की
___ न्यायकन्दली मानो विभागः सक्रियस्यैव विभागं करोतीत्यत्र को हेतुरिति चेत् ? अत आहन, निष्क्रियस्य कारणाभावादिति । विभागाद विभागोत्पत्तौ कर्मापि निमित्तकारणम्, तस्याभावान्न निष्क्रियस्य विभागः । अत्रैवार्थे युक्त्यन्तरमाहउत्तरसंयोगानुत्पत्तावनुपभोग्यत्वप्रसङ्ग इति । क्रिया हि प्राधान्येन उत्तरसंयोगार्थमुपजाता, देशान्तरप्राप्तेन द्रव्येण कस्यचित् पुरुषार्थस्य सम्पादनात । तत्र यदि सक्रियस्यावयवस्य कार्यसंयुक्तादाकाशादिदेशाद् विभागो न भवति, तदा पूर्वसंयोगस्य प्रतिबन्धकस्यानिवृत्तेरुत्तरसंयोगानुत्पत्तौ सानुपभोग्या निष्प्रयोजना स्यात् । न चैतद्युक्तम् । तस्मात् सक्रियस्यैव विभाग इत्यर्थः । अवयव क्रिययोः अवयवविभागसमकालमाकाशादिविभागकर्तृत्वं नोपपद्यत इति। मा कार्कदियं युगपद्विभागद्वयम्, क्रमकरणे तु को विरोधो येन विभागअतः ( दूसरे ) अवयव देश से ( उस समय तक ) विभाग नहीं हो सकता। इसीलिए कहा गया है कि 'काल' ( काल और अवयव ) अथवा स्वतन्त्र रूप से (केवल) अवयव को अपेक्षा रखता है। इसमें क्या कारण है कि कारणीभूत दोनों अवयवों में रहनेवाला विभाग, क्रिया से युक्त द्रव्य के ही विभाग को उत्पन्न करता है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए ही 'न निष्क्रियस्य कारणाभावात्' यह बाक्य लिखा गया है। विभाग से जो विभाग की उत्पत्ति होती है, उसमें क्रिया भी निमित्तकारण है । क्रिया के न रहने से ही निष्क्रिय द्रव्य में विभाग नहीं होता। इसीमें दूसरी युक्ति 'उत्तरसंयोगानुसत्तावनुपभोग्यत्वप्रसङ्गः' इस वाक्य के द्वारा दिखायी गयी है। उत्तर देश के साथ संयोग ही क्रिया की उत्पत्ति का मुख्य प्रयोजन है, क्योंकि दूसरे ( उत्तर ) देश में प्राप्त द्रव्य के द्वारा ही वह पुरुष के किसी प्रयोजन का सम्पादन करतो है। अभिप्राय यह है कि अगर क्रिया के द्वारा उससे युक्त अवयवरूप द्रव्य का कार्य (अवयवी ) द्रव्य से संयुक्त आकाशादि देशों से विभाग उत्पन्न न हो, एवं (अवयवी के) प्रतिबन्धक पहिले (दोनों अवयवों के) संयोग का विनाश भी न हो तो फिर क्रिया 'अनुपभोग्या' अर्थात् प्रयोजन से रहित ( व्यर्थ) हो जाएगी। किन्तु सो उचित नहीं है, अतः सक्रिय द्रव्य का ही विभाग होता है। अर्थात् दोनों अवयवों की दोनों क्रियाओं से जिस समय दोनों अवयवों का विभाग उत्पन्न होगा, उसी समय क्रियाओं से अवयवों के आकाशादि देशों के साथ विभाग की उत्पत्ति उचित नहीं है। (प्र०) अवयवों की वे दोनों क्रियाये
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३७१ प्रशस्तपादभाष्यम् करोति, तदारम्भकालातीतत्वात् । प्रदेशान्तरसंयोगं तु करोत्येव, उत्पत्ति नहीं होगी, जिससे विभाग की उत्पत्ति 'अनुपभोग्य' अर्थात् निष्प्रयोजन हो जाएगी। अवयव की क्रिया आकाशादि देशों से विभाग को उत्पन्न नहीं करती, क्योंकि उसके उत्पादन का काल ही बीत गया रहता है। किन्तु दूसरे प्रदेशों के साथ संयोग को अवश्य उत्पन्न करती है, क्योंकि
न्यायकन्दली जनने दृष्टसामर्थ्यामिमां परित्यज्यादृष्टसामर्थ्यस्य विभागस्य विभागहेतुत्वमाश्रीयते ? इत्यत्राह-न तु तदवयवकर्माकाशादिदेशाद् विभागं करोति, तदारम्भककालातीतत्वात् । एवं हि कर्मणः स्वभावो यत् तदसमवायिकारणतया विभागमारभमाणं स्वोत्पत्त्यनन्तरक्षण एवारभते, न क्षणान्तरे, स च तस्य विभागारम्भकालो द्वितीयभागोत्पत्तिकालेऽतीत इति न तस्मादस्योत्पत्तिः ।
नन्वेवमुत्तरसंयोगमपि कुतः करोति ? अनेकक्षणव्यवधानात्, अत आहप्रदेशान्तरसंयोगं करोतीति। यथा कर्मणः स्वोत्पादानन्तरक्षणो विभागारम्भकालस्तथा पूर्वसंयोगनिवृत्त्यनन्तरक्षणः प्रदेशान्तरसंयोगारम्भकालः, पूर्वदेशाव
एक ही समय ( अवयवों के परस्पर विभाग और अवयवों का आकाशादि देशो के साथ विभाग इन ) दोनों विभागों को उत्पन्न न भी कर सकें, फिर भी वे ही क्रियायें क्रमशः उन दोनों विभागों को उत्पन्न कर सकती हैं. इसमें तो कोई विरोध नहीं है। चूंकि जिस (क्रिया) में विभाग को उत्पन्न करने का सामर्थ्य उपलब्ध है, उसे छोड़कर जिस (विभाग ) में विभाग को उत्पन्न करने का सामर्थ्य दीख नहीं पड़ता है, उसमें विभाग की कारणता स्वीकार करते हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर न तु तदवयवकर्माकाशादिदेशाद्विभागं करोति, तदारम्भकालातीतत्वात् इस वाक्य से दिया गया है। क्रिया का यह स्वभाव है कि जिस विभाग का वह असमवायिकारण होगी, उसे अपनी उत्पत्ति के अव्यवहित उत्तर क्षण में ही उत्पन्न करेगी, आगे के क्षणों में नहीं। वही ( उक्त अव्यवहितोत्तर) क्षण इसका आरभ्भकाल है । यह काल द्वितीय विभाग (विभागजविभाग) की उत्पत्ति के समय बीत जाता है, अतः क्रिया से इस (विभागजविभाग) की उत्पत्ति नहीं होती।
(अगर दोनों अवयवों की क्रिया का आरम्भकाल उसका अव्यवहित उत्तर क्षण हौ है तो फिर ) कुछ क्षणों के बाद वही क्रिया उत्तर संयोग को कैसे उत्पन्न करती है ? इसी प्रश्न का समाधान 'प्रदेशान्तरसंयोगं करोति' इस वाक्य से दिया है । अर्थात् जिस प्रकार क्रिया का अव्यवहित उत्तर क्षण विभाग के उत्पादन का उपयुक्त समय है, उसी प्रकार पूर्वसंयोग ( दोनों अवयवों के संयोग) के नाश का अव्यवहित उत्तर क्षण ही उस दूसरे प्रदेशों के साथ संयोग ( उत्तरसंयोग) के उत्पादन का
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् अकृतसंयोगस्य कर्मणः कालात्ययाभावादिति ।
कारणाकारणविभागादपि कथम् ? यदा हस्ते कर्मोत्पन्न - संयोग को उत्पन्न करनेवाली क्रिया का काल तब तक नहीं बीता रहता है, जब तक कि वह संयोग को उत्पन्न न कर दे।
(प्र० ) कारण और अकारण के विभाग से (कारणाकारण विभागजनित ) विभाग की उत्पत्ति कैसे होती है ? ( उ० ) जिस समय हाथ में उत्पन्न
न्यायकन्दली
स्थितस्य द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तेरसम्भवात् । तस्य च संयोगारम्भकालस्यात्ययोऽतिक्रमोन भूतः, तदानी हि कालोऽयमतिकान्तः स्याद् यदि कर्मणा प्रदेशान्तरसंयोगः कृतो भवेन्न त्वेवम् ; तस्मादकृतसंयोगस्य कर्मणो यः संयोगारम्भकालस्तस्यात्ययाभावात् कर्म संयोगं करोति, न विभागम् । तेन चेदयं न कृतोऽन्यस्यासम्भवादसमवायिकारणेन विना च वस्तुनोऽनुत्पादादेकार्थसमवेतो विभागोऽस्य कारणमित्यवतिष्ठते । इतिशब्दः प्रक्रमसमाप्तौ।
एवं कारणविभागपूर्वकं विभागं प्रतीत्य कारणाकारणविभागपूर्वक विभागं प्रत्येतुमिच्छन् पृच्छति—कारणाकारण विभागादपि कथमिति । उपयुक्त समय है, एक देश में रहते हुए द्रव्य का दूसरे देश के साथ संयोग सम्भव नहीं है। ( अतः ) इस ( उत्तर ) संयोगोत्पादन के समय का 'अत्यय' अर्थात् अतिक्रम नहीं हआ है। इस संयोग के काल का अतिक्रमण तब होता, जब कि उस क्रिया से उत्तर देश संयोग का उत्पादन हो गया होता। किन्तु सो नहीं हुआ है. अतः जिस क्रिया ने जिस संयोग को जब तक उत्पन्न नहीं किया है, तब तक उस क्रिया से उस संयोग के उत्पादन का काल नहीं बोता है। अत: क्रिया उत्तरदेश संयोग को उत्पन्न करने पर भी ( विभागज ) विभाग को उत्पन्न नहीं करती है। दोनों अवयवों के विभाग से अगर ( विभागज ) विभाग की उत्पत्ति न मानें, तो फिर उस ( विभागज ) विभाग का कोई दूसरा असमवायिकारण नहीं हो सकता। असमवायिकारण के न रहने पर ( समवेत ) कार्य की उत्पत्ति ही नहीं होती है। इससे सिद्ध होता है कि विभागजविभाग के आश्रयीभूत एक द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला ( दोनों अवयवों का ) विभाग ही उस ( पूर्व देश के साथ अवयवों के) विभाग का : असमवायि) कारण है। 'इति' शब्द प्रसङ्ग की समाप्ति का बोधक है।
इस प्रकार कारण ( मात्र) के विभाग से उत्पन्न विभाग ( विभागजविभाग) को समझा कर कारण और अकारण के विभाग से उत्पन्न होने वाले (विभागज ) विभाग को समझाने के अभिप्राय से 'कारणाकारण विभागादपि कथम् ?' इस वाक्य के
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३७३ प्रशस्तपादभाष्यम मवयवान्तराद् विभागमकुर्वदाकाशादिदेशेभ्यो विभागानारभ्य प्रदेशान्तरे संयोगानारभते, तदा ते कारणाकारणविभागाः, कर्म यां दिशं प्रति कार्यारम्भाभिमुखं तामपेक्ष्य कार्याकार्यविभागानारभन्ते तदनन्तरं कारणाकारणसंयोगाच्च कार्याकार्यसंयोगानिति । हुई क्रिया शरीर के दूसरे अवयवों से विभाग को उत्पन्न करती हुई आकाशादि देशों के साथ विभागों को उत्पन्न करने के बाद ( उत्तर देश) संयोगों को उत्पन्न करती है, उस समय के वे विभाग (शरीर के) कारण (अवयव ) और ( शरीर के) अकारण के विभाग हैं। क्रिया जिस दिशा में ( उत्तरसंयोगरूप ) कार्य को करने के लिए उत्सुक रहती है, उसी दिशा के साहाय्य से वे ( कारण और अकारण के विभाग ) कार्य और अकार्य के विभागों को उत्पन्न करते हैं । इसके बाद (वे ही कारण और अकारण के विभाग ) कारणों और अकारणों के संयोगों के साहाय्य से उन कारणों से उत्पन्न कार्य द्रव्यों और उनसे अनुत्पन्न अकार्य द्रव्यों में संयोगों को उत्पन्न करते हैं।
न्यायकन्दली उत्तरमाह-यदेत्यादिना । हस्ते कुतश्चित् कारणात् कर्मोत्पन्नं तस्य हस्तस्यावयवान्तराद् विभागमकुर्वदाकाशादिदेशेभ्यो विभागानारभ्य प्रदेशान्तरैः सह यदा संयोगानारभते तदा ते कारणाकारणविभागा: शरीरकारणस्य हस्तस्याकारणानामाकाशादिदेशानां विभागाः, कर्म च यस्यां दिशि कार्यारम्भाभिमुखं कर्मणा यत्रोत्तरसंयोगो जनयितव्यः, तां दिशमपेक्ष्य, कार्याकार्यविभागान् हस्तकार्यस्य शरीरस्याकार्याणामाकाशादिदेशानां विभागानारभन्ते । यतः कुड्यादिदेशाद्धस्तस्य विभागः, ततः शरीरस्यापि विभागो दृश्यते । न चायं शरीरक्रियाकार्यः, द्वारा प्रश्न किया गया है। 'यदा' इत्यादि सन्दर्भ से उक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं । हाथ में जिस किसी कारण से उत्पन्न हुई क्रिया शरीर के अवयवों में विभागों को उत्पन्न न कर, जिस समय हाथ में आकाशादि (पूर्व) देशों के साथ विभागों को उत्पन्न कर. उत्तर प्रदेशो के साथ हाथ के संयोग का उत्पादन करती है, उस समय के वे ( हाथ का आकाशादि पूर्व देशों से ) विभाग 'कारणाकारणविभाग' हैं, अर्थात् शरीर के 'कारण' हाथ और 'अकारणीभूत' आकाशादि प्रदेश, इन दोनों के विभाग हैं। क्रिया जिस दिशा में कार्य को उत्पन्न करने को उत्सुक रहती है, अर्थात् क्रिया से जिस देश में उत्तर संयोग उत्पन्न होता है, उस दिशा के साहाय्य से ही क्रिया, कार्य
और अकार्य के, अर्थात् हाथ के कार्य शरीर का उसके अकार्य आकाशादि प्रदेशों के साथ विभागों को उत्पन्न करती है। चूंकि दीवाल प्रभृति देशों से हाथ का विभाग होने पर
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग
न्यायकन्दली तदानीं शरीरस्य निष्क्रियत्वात् । नापि हस्तक्रियाकार्यों भवितुमर्हति, व्यधिकरणस्य कर्मणो विभागहेतुत्वादर्शनात् । अतः कारणाकारणविभागस्तस्य कारणमिति कल्प्यते । आकाशादावित्यादिपदं समस्तविभुद्रव्यावरोधार्थम् । अत एव विभागानिति बहुवचनम्, तद्विभागानां बहुत्वात् ।। ____ अत्राहुरेके-कुड्यादिदेशाद्धस्तशरीरविभागयोर्युगपद्धावप्रतीतेस्तयोः कार्यकारणभावाभिधानं प्रत्यक्षविरुद्धमिति । तदसङ्गतम्, हस्तविभागकाले शरीरविभागोत्पत्तिकारणाभावात् । न चासति कारणे कार्योत्पत्तिरस्ति, हस्तक्रिया च न कारणमित्युक्तम् । तस्मात् तयोर्युगपदभिमानो म्रान्तः ।
अनुमानगम्यः क्रमभावः, प्रत्यक्षसिद्धं च योगपद्यम्, प्रत्यक्षे च परिपन्थिन्यनुमानस्योत्पत्तिरेव नास्ति, अबाधितविषयत्वाभावात् । कथं तदनुरोधात् प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमिति चेत् ? उत्पलपत्रशतव्यतिभेदेऽपि कुतोऽनुमानप्रवृत्तिः ? प्रत्यक्षविरोधात् । अथ मन्यसे तत्र प्रत्यक्षविरोधादनुमानं नोदेति, यत्रानेन
शरीर का भी उससे विभाग देखा जाता है। यह (शरीर और दीवाल का विभाग शरीर की) क्रिया से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि शरीर उस समय निष्क्रिय रहता है। हाथ की क्रिया से वह (शरीर और दीवाल का) विभाग उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि एक आश्रय में रहनेवाली क्रिया से उस आश्रय रूप देश से भिन्न देशों में विभाग की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है। अतः यह कल्पना करते हैं कि ( शरीर के) कारण हाथ और अकारणीभूत प्रदेशों का विभाग ही उस विभाग का कारण है। 'आकाशादि' शब्द में प्रयुक्त 'आदि' शब्द सभी विभु द्रव्यों का संग्राहक है। इसी कारण विभागान्' यह बहुवचनान्त प्रयोग भी है. क्योंकि उनके विभाग भी बहुत हैं।
इस प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि (प्र.) दीवाल प्रभृति देशों का, हाथ और शरीर दोनों के साथ, दोनों विभागों की प्रतीति एक ही समय होती है। अतः उन दोनों विभागों में से एक को कारण मानना और दूसरे को कार्य मानना प्रत्यक्ष के विरुद्ध है । ( उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस समय दीवाल से हाथ का विभाग उत्पन्न होता है उस समय दीवाल से शरीर के विभाग की उत्पत्ति होने का कारण नहीं रहता है। कारणों के न रहने से कार्यों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। पहिले कह चुके हैं कि हाथ की क्रिया उस ( दीवाल और शरीर के विभाग ) का कारण नहीं है। अतः यह कहना भ्रान्त, अभिमान (मूलक ) ही है कि हाथ एवं शरीर दोनों से ( दीवाल प्रभृति का ) एक ही समय दो विभाग उत्पन्न होते हैं ।
(प्र.) उक्त दोनों विभागों का एक समय में उत्पन्न होना प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है एवं उन दोनों विभागों का क्रमशः उत्पन्न होना अनुमान से सिद्ध होता है। प्रत्यक्ष से विरुद्ध अनुमान की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि अनुमान के विषय का प्रत्यक्ष के द्वारा बाधित न होना आवश्यक है। तो फिर अयोगपद्य के अनुमान से योगपद्य के प्रत्यक्ष
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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३७५
विषयस्य बाधो निश्चितः स्यात् । इह त्वसौ सन्दिग्धः, पत्रशतव्यतिभेदस्याशुभावित्वेनापि निमित्तेन यौगपद्यग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तेः सम्भवात् । अस्ति च सर्वलोकप्रसिद्धम् 'अतिदृढमव्यवहिता सूची भिनत्ति, न व्यवहितम्' इति व्याप्तिग्राहकं प्रमाणम् । अतस्तत्सामर्थ्यात् प्रत्यक्षे संभवत्यपि भवत्यनुमानस्योदय इति । एवं चेदत्र व्यधिकरणा क्रिया विभागं न करोतीति व्याप्तिग्राहकस्य प्रमाणस्यातिदृढत्वात् प्रत्यक्षस्य चान्यथाप्युपपत्तेः सुस्थितं क्रमानुमानम् । अत एव चानेन प्रत्यक्षस्य बाधः । इदं हि सविषयम् । निर्विषयं च प्रत्यक्षम्, आशुभावित्वमात्रेण प्रवृत्तेः । यच्च सविषयं तत् तथात्वेनावस्थितस्य विषयस्य साहाय्यप्राप्तत्या सबलम्, दुर्बलं च निविषयमसहायत्वात् । व्याप्तिग्राहकेणैव प्रत्यक्षेण हि बाधो यदनुमानेन प्रत्यक्षस्य बाधः । तथा च दिमोहादिष्वनुमानमेव बलवदिति मन्यन्ते वृद्धाः भवति वै प्रत्यक्षादप्यनुमानं बलीयः' इति वदन्तः । वह्नावुष्णत्वग्राहिणः प्रत्यक्षस्य तु नान्यथोपपत्तिरस्तीति
का भ्रान्तिरूप होना किस प्रकार सम्भव है ? । ( उ० ) तो पत्तों का छेदन क्रमशः ही होता है' इस क्रमानुमान को निष्पत्ति क्योंकि वहाँ भी तो प्रत्यक्ष का विरोध है । अगर यह मानें कि ( प्र० ) वहीं प्रत्यक्ष के विरोध से अनुमान की प्रवृत्ति रोकी जाती है, जहाँ उनके विषय का प्रत्यक्ष के द्वारा बाधित होना निश्चित हो । अनुमान के विषय कमल के पतों के क्रमशः छेदन का प्रत्यक्ष के द्वारा बाध सन्दिग्ध है, क्योंकि सौ पत्तों का छेदन अतिशीघ्रता से क्रमशः होने से भी यौगपद्य ( एक ही समय उत्पन्न होने ) के ग्राहक प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति हो सकती है । 'सूई अगर किसी से व्यवहित न रहे, तो अतिदृढ़ वस्तु का भी भेदन करती है, एवं व्यवहित होने पर नहीं' यह सर्वजनीन अनुभव ही ( उक्त क्रमानुमान के कारणीभूत ) व्याप्ति का निश्चायक है । अतः इस व्याप्ति के बल से विरोधी प्रत्यक्ष की
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फिर ' कमल के सौ किस प्रकार होगी ?
।
प्रवृत्ति रहने पर भी अनुमान का उदय होता है । ( उ० ) तो फिर प्रकृत में भी ' एक अधिकरण में रहनेवाली क्रिया दूसरे अधिकरण में विभाग को उत्पन्न नहीं करती है' व्याप्ति का यह प्रमाण अत्यन्त दृढ़ है एवं उक्त योगपद्य प्रत्यक्ष को उपपत्ति और प्रकार से भी हो सकती है । अतः ( दीवाल से हाथ का विभाग एवं दीवाल से शरीर का विभाग इन दोनों के ) क्रमशः होने का अनुमान सुस्थिर है । अत एव इस अनुमान से प्रत्यक्ष का बाध होता है, क्योंकि यह ( अनुमान ) सविषयक यथार्थ ) है, और प्रत्यक्ष निर्विषयक ( भ्रम ) है । केवल दोनों के अतिशीघ्रता से उत्पन्न होने के कारण ही यौगपद्य में प्रवृत्ति है । सविषयक ( यथार्थ ) ज्ञान उस (ज्ञान के द्वारा प्रकाशित) रूप से यथार्थतः विद्यमान वस्तु की सहायता प्राप्त होने के कारण बलवान् है । निर्विषयक ( अयथार्थ ) ज्ञान उससे दुर्बल है, क्योंकि वह असहाय है । अनुमान से प्रत्यक्ष का यह बाध वस्तुतः व्याप्ति के ग्राहक प्रत्यक्ष के द्वारा ही किया जाता है । अत एव 'कहीं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे विभाग
न्यायकन्दली तेनावधारिते विषयस्य बाधे नास्त्यनुमानस्य प्रवृत्तिः । किमर्थं पुनर्ज्ञानयोबर्बाध्यबाधकभावः कल्प्यते, समाने विषये तयोविरोधात् । एकमेव तद्वस्तु किञ्चिद्रजतमित्येवं बोधयति शुक्तिकेयमिति चापरम् । शुक्तिकात्वरजतत्वयोश्च नैकत्र संभवः, सर्वदा तयोः परस्परपरिहारेणावस्थानोपलम्भात । अतो विषयविरोधात् तद्विज्ञानयोरपि विरोधे सति बाध्यबाधकभावकल्पनम् ।
को बाधः ? विषयापहारः । ननु रजतज्ञानावभासितो धर्मी तावदुत्पन्नेऽपि ज्ञानान्तरे तदवस्थ एव प्रतिभाति, रजतत्वं नास्त्येव, किमपहियते ? सम्बन्धवियोजनस्यापहारार्थत्वात् । विज्ञाने प्रतिभातं तदिति चेत् ? सत्यं प्रतिभातं न त प्रतिभातं शक्यापहारम्, भूतत्वादेव । नहि प्रतिभासितोऽर्थोऽप्रतिभासितो भवति, वस्तुवृत्त्या रजतमविद्यमानमपि ज्ञानेन तत्र विद्यमानवदुपदर्शितम् । तस्य अनुमान से भी प्रत्यक्ष दुर्बल होता है' यह कहते हुए वृद्ध लोग दिग्भ्रम स्थल में प्रत्यक्ष से अनुमान को ही बलबान मानते हैं । वह्नि में उष्णत्व के ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुमान को दुर्बल मानते हैं। चूंकि वह्नि में उष्णत्व के ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाण की किसी और प्रकार से उपपत्ति नहीं हो सकती, अतः प्रत्यक्ष से निश्चित उष्णत्व रूप विषय का बाध रहने के कारण ( वह्नि में अनुष्णत्व विषयक ) अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती है। (प्र०) यह कल्पना ही क्यों करते हैं कि एक ज्ञान बाध्य है और दूसरा बाधक ? ( उ० ) चूँकि समान विषय के दो ज्ञानों में विरोध रहता है। एक ही वस्तु को कोई रजत समझता है कोई सीप, किन्तु शुक्तिकात्व और रजतत्व दोनों एक आश्रय में नहीं रह सकते, क्योंकि दोनों की प्रतीति बराबर एक को छोड़कर ही होती है, ( कभी समानाधिकरण रूप से नहीं), अतः दोनों विषयों में विरोध (सहान वस्थान ) के कारण दोनों के ज्ञानों में भी विरोध होता है। इसीसे एक में बाधकत्व और दूसरे में बाध्यत्व की कल्पना भी की जाती है।
(प्र०) बाध कौन सी वस्तु है ? ( उ०) विषयों का अपहरण ही ज्ञानों का बाध है । (प्र. ) ( शुक्तिका में ) यह रजत है' इस आकार के ज्ञान से प्रकाशित होनेवाली शुक्तिका रूप धौं, शुक्तिका में यह शुक्तिका है' इस आकार के बाधक ज्ञान के उत्पन्न होनेपर भी ज्यों का त्यों प्रतिभासित होता है, और रजतत्व तो शुक्तिका में है ही नहीं, तो फिर ( 'यह शुक्तिका है, रजत नहीं' इत्यादि आकार के ) बाधक ज्ञान किन विषयों का अपहरण करते हैं। ( उ० ) बाधक ज्ञान से ( ज्ञान में भासित होनेवाले धर्मी और धर्म के ) सम्बन्ध का अपहरण होता है। (प्र०) वह ( सम्बन्ध ) भी तो ( शुक्तिका में यह रजत है' इस ) विज्ञान में प्रतिभासित है ही। ( उ०) अवश्य ही सम्बन्ध भी उक्त ज्ञान में प्रतिभासित होता है, क्योंकि प्रतिभान ( ज्ञान ) का तो अपहरण हो नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान की यथार्व में सत्ता है।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३७७ न्यायकन्दली ज्ञानप्रसञ्जितस्य साक्षाद्विरोधिप्रतिपादनमेव वियोजनमिति चेद्रजताभावे प्रतिपादिते रजतज्ञानस्य का क्षतिरभूत्? न ह्यस्य रजतस्थितिकरणे व्यापारः, अपि त्वस्यप्रकाशने, तच्चानेन जायमानेन कृतमिति पर्यवसितमिदं कि बाध्यते ? रजताभावप्रतीतौ पूर्वोपजातस्य रजतज्ञानस्य अयथार्थतास्वरूपं प्रतीयते इत्येषा क्षतिरभूत् ।
नन्वेवं फलापहार एव बाधः, अयथार्थतावगमे सति ज्ञानस्य व्यवहारानङ्गत्वात् । मैवम् । फलापहारस्य विषयापहारनान्तरीयकत्वात् । न तावज ज्ञानस्य सर्वत्र फलनिष्ठला, तस्य पुरुषेच्छाधीनस्यानुपजननेऽप्युपेक्षासंवित्तः पर्यवसानात् । यत्रापि फलाथिता, तत्रापि फलस्य विषयप्रतिबद्धत्वाद्विषयस्य ज्ञानप्रतिबद्धत्वाद्विषयापहार एव ज्ञानस्य बाधो न फलापहारः, तस्य विषयापहारनान्तरीयकत्वादिति कृतं ग्रन्थविस्तरेण संग्रहटीकायाम् ।
विभागजविभागानन्तरभावित्वात् पूर्व प्रतिज्ञातं चिरोत्पन्नस्य च संयोगजसंयोगं प्रतिपादयति-तदनन्तरमिति । तस्माद्विभागजविभागादनन्तरं शरीरप्रतिभासित विषय अप्रतिभासित नहीं हो सकते । (प्र०) वस्तुओं के स्वभाव के कारण (शुक्तिका स्थल में ) अविद्य मान रजत भी शुक्तिका के अधिकरण में ( इदं रजतम् ) इस ज्ञान के द्वारा विद्यमान के समान दिखाई देता है। अगर ज्ञान से उत्थापित रजत के साक्षात् विरोध के प्रतिपादन को ही उक्त 'विरोध' कहें तो फिर शुक्तिका के अधिकरण में रजत का अभाव प्रतिपादित होने पर भी उक्त ( भ्रमात्मक ) रजतज्ञान की क्या क्षति हुई ? इस ज्ञान का इतना हो काम है कि वह रजत को प्रकाशित करे, रजत की स्थिति का ज्ञान उसका काम नहीं है। रजत के प्रकाशन का अपना काम तो वह उत्पन्न होते ही कर दिया है, तो फिर उस ज्ञान से बाध किसका होता है ? (उ०) रजत के अभाव की प्रतीति होने पर पहिले शक्तिका के अधिकरण में रजत के ) ज्ञान में जो अयथार्थत्व की प्रतीति होती है, बाधक ज्ञान से बाध्यज्ञान की यही क्षति है।
(प्र०) इस प्रकार तो 'फल' का अपहरण ही बाध है, क्योंकि अयथार्थता का ज्ञान होने पर, वह ज्ञान फिर वह व्यवहार का अङ्ग नहीं रह जाता। (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योकि विषयापहरण के विना फल का अपहरण हो ही नहीं सकता। सभी जगह ज्ञान 'फलनिष्ठ' अर्थात् फल का उत्पादक नहीं होता, क्योंकि पुरुष की इच्छा के अनुसार फल की उत्पत्ति न होने पर वह ( ज्ञान ) उपेक्षाज्ञान में परिणत हो जाता है। जहाँ पर ज्ञान फल का उत्पादक होता भी है, वहाँ भी फल का सम्बन्ध विषय के साथ ही रहता है और विषय का सम्बन्ध ज्ञान के साथ रहता है, अतः विषय का अपहरण ही बाध है, फल का अपहरण नहीं, क्योंकि फल का अपहरण विषय के अपहरण के साथ नियमित है। ( इससे अधिक ) संग्रह रूप टीका ग्रन्थ में विस्तार करना व्यर्थ है।
विभागजविभाग के बाद उत्पन्न होने के कारण, एवं पूर्व में प्रतिज्ञात होने के कारण चिरकाल से उत्पन्न द्रव्यों के संयोगजसं योग का प्रतिपादन 'तदनन्तरम्' इत्यादि
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३७८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् - यदि कारणविभागानन्तरं कार्यविभागोत्पत्तिः, कारणसंयोगानन्तरं कार्यसंयोगोत्पत्तिः । नन्वेवमवयवावयविनोयुतसिद्धिदोषप्रसङ्ग इति । न, युतसिद्ध्यपरिज्ञानात् । सा पुनईयो
(प्र० ) अगर कारण विभाग की उत्पत्ति के बाद कार्य विभाग की उत्पत्ति होती है, एवं कारण संयोग के बाद कार्य संयोग की उत्पत्ति होती है, तो फिर अवयव और अवयवी के युतसिद्धि की आपत्ति होगी ? ( उ०) ( यह आपत्ति ) नहीं है, युतसिद्धि को न समझने के कारण ही ( आपने उक्त आपत्ति दी है )
न्यायकन्दली कारणस्य हस्तस्याकारणानामाकाशादिदेशानां संयोगात् कर्मजाद् हस्तकार्यस्य शरीरस्य निष्क्रियस्याकार्याणामाकाशादिदेशानां संयोगानारभन्ते न हस्तनिया, तस्याः स्वाश्रयस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुत्वात् । इतिशब्दः प्रक्रमसमाप्तो।
___ अत्र चोदयति-यदीति । कारणस्य हस्तस्य विभागानन्तरं यदि कार्यस्य शरीरस्य विभागस्तथा कारणस्य संयोगानन्तरं कार्यस्य संयोगो न तत्समकालम् । नन्वेवं सत्यवयवावयविनोर्यतसिद्धिः, पृथसिद्धिः परस्परस्वातन्त्र्यं स्यात् । एतदुक्तं भवति । यदि हस्ताश्रितं शरीरं तदा हस्ते गच्छति तदपि सहैव गच्छेत्, तथा सति च संयोगविभागक्रमो न स्यात, क्रमेण चेदनयोः संयोगविभागौ न तदा हस्तगमने शरीरस्य गमनमिति तस्य स्वातन्त्र्यप्रसक्तिः ।
ग्रन्थ से किया जाता है। (तत् ) 'तस्मात्' अर्थात् विभागजविभाग के बाद, शरीर के ( समवायि ) कारणीभूत सक्रिय हाथ का आकाशादि देशों के साथ ( कर्मज) संयोग से ही हाथ के कार्य शरीर का ( हाथ के ) अकार्य आकाशादि देशों के साथ संयोग उत्पन्न होता है, क्रिया से नहीं। क्योंकि क्रिया अपने आश्रय का किसी दूसरे के साथ संयोग का ही कारण हो सकती है। यहां भी 'इति' शब्द प्रसङ्ग की समाप्ति का ही बोधक है।
'यदि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा फिर से प्रश्न करते हैं कि अगर 'कारण' अर्थात् हाथ के विभाग के बाद 'कार्य' का अर्थात् शरीर का विभाग मानें, एवं कारण ( हाथ ) के संयोग के बाद कार्य (शरीर) का संयोग माने (अर्थात् एक ही समय कार्य और कारण के दूसरे देशों के साथ संयोग या विभाग न मानें क्रमशः हो मान) तो फिर अवयव और अवयवी इन दोनों की युतसिद्धि अर्थात् अलग अलग सिद्धियाँ माननी होंगी, फलतः दोनों को स्वतन्त्रता की आपत्ति होगी। अभिप्राय यह है कि अगर शरीर हाथ में आश्रित है, तो फिर हाथ के चलने पर शरीर भी उसके साथ ही चले, किन्तु तब संयोग और विभाग का कथित क्रम ठीक नहीं होगा। अर्थात् इन में अगर क्रमशः संयोग और विभाग हो, तो फिर हाथ के चलने से शरीर का
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সফল ]।
भाषानुवादसहितम्
३७९
प्रशस्तपादभाष्यम् रन्यतरस्य वा पृथग्गतिमच्चमियन्तु नित्यानाम्, अनित्यानां तु युतेष्वाश्रयेषु समवायो युतसिद्धिरिति । त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथग्गतिमत्त्वं नास्ति, युतेष्वाश्रयेषु समवायोऽस्तीति परस्परेण संयोगः दोनों में से एक की गतिशीलता नित्यों की युतसिद्धि है। पृथक् आश्रयों में समवाय का रहना अनित्यों की युतसिद्धि है। त्वगिन्द्रिय और शरीर दोनों यद्यपि स्वतन्त्र रूप से गतिशील नहीं हैं, फिर भी दोनों भिन्न आश्रयों में रहते हैं, अतः सिद्ध होता है कि शरीर और त्वगिन्द्रिय में संयोग (ही)
न्यायकन्दली परिहरति-नेति । युतसिद्धिप्रसङ्ग इति न, कुतः ? युतसिद्धेरपरिज्ञानात् । यादृशं युतसिद्धेर्लक्षणं तादृशं त्वया न ज्ञातमित्यर्थः। कीदृशं तस्या लक्षणं तत्राहसा पुनर्द्वयोरिति । द्वयोरेकस्य वा परस्परसंयोगविभागहेतुभूतकर्मसमवाययोग्यता युतसिद्धिः । द्वयोः परमाण्वोः पृथग्गमनमाकाशपरमाण्वोश्चान्यतरस्य पृथग्गमनमियं तु नित्यानाम् । तुशब्दोऽवधारणे, नित्यानामित्यस्मात् परो द्रष्टव्यः, नित्यानामेवेयं युतसिद्धिरित्यर्थः । अनित्यानां तु युतेष्वाश्रयेषु समवायो युतसिद्धिः । द्वयोरन्यतरस्य वा परस्परपरिहारेणान्यत्राश्रये समवायो युतसिद्धिरनित्यानां द्वयोः पृथगाश्रयायित्वं समवायः। शकुन्याकाशयो. चलना सिद्ध नहीं होगा, इस प्रकार अवयव और अवयवी दोनों में ( युतसिद्धि रूप ) स्वतन्त्रता की आपत्ति होगी।
'न' इत्यादि से इसका परिहार करते हैं। अर्थात् 'युतसिद्धि' की जो आपत्ति दी गई है, वह ठीक नहीं है. क्योंकि ( आपत्ति देनेवाले ) को युतसिद्धि' का यथार्थज्ञान नहीं है। अर्थात् युतसिद्धि का जो लक्षण है, उसका तुम्हें ज्ञान ही नहीं है। युतसिद्धि का क्या लक्षण है ? इस प्रश्न के उत्तर में 'सा पुनर्द्वयोः' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । अर्थात् परस्पर के संयोग और विभाग के प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों में, या दोनों में से एक में, उक्त संयोग और विभाग के कारणीभूत क्रिया के समवाय की योग्यता ही 'युतसिद्धि' है। द्वयणुक समवाय के दोनों ही अनुयोगी ( दोनों ही परमाणु ) गतिशील हैं, आकाश और परमाणु इन दोनों में से एक गतिशील है । यह नित्यों की युतसिद्धि है (अतः दोनों परमाणुओं में या परमाणु और आकाश में संयोग ही होते हैं, समवाय नहीं, (क्योंकि समवाय अयुत सिद्धों में ही होता है ) । 'तु' शब्द अवधारण का बोधक है । अर्थात् युतसिद्धि का कथित लक्षण नित्य के युतसिद्ध का ही है । अनित्य युतसिद्धों के लिए युतसिद्धि का दूसरा लक्षण खोजना चाहिए । 'युत' आश्रयों में समवाय ही अनित्यों की युतसिद्धि है। अर्थात् दोनों का, अथवा दोनों में से एक का परस्पर एक को छोड़कर दूसरे आश्रय में समवाय ही ( अनित्यों की ) युतसिद्धि है। फलतः दोनों का अथवा दोनों में से एक का पृथक् आश्रयायित्व
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३८०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् सिद्धः । अण्वाकाशयोस्त्वाश्रयान्तराभावेऽप्यन्यतरस्य पृथग्गतिभत्वात् संयोगविभागौ सिद्धौ । तन्तुपटयोरनित्ययोराश्रयान्तराभाहै ( समवाय नहीं )। परमाणु और आकाश इन दोनों में से कोई भी पृथक् आश्रय में नहीं रहता, ( क्योंकि दोनों का कोई आश्रय ही नहीं है) फिर भी दोनों में से एक (परमाणु ) में स्वतन्त्र गति है, अतः आकाश
और परमाणु इन दोनों में संयोग की सिद्धि ( और संयोगसिद्धि के कारण ही ) विभाग की भी सिद्धि समझनी चाहिये। चूँकि अनित्य तन्तु और अनित्य
न्यायकन्दली इचान्यतरस्य शकुनेः पृथगाश्रयायित्वम् । यद्यप्यन्यतरस्य पृथग्गमनमप्यस्ति, तथापि तस्य पृथग्गमनस्य ग्रहणं तस्य नित्यविषयत्वेन व्याख्यानात् ।
अनित्यानामपि पृथग्गमनमेव युतसिद्धिः किं नोच्यते ? तदाह-त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथग्गमनं नास्ति, युतेष्वाश्रयेषु बम योऽस्तीति परस्परेण संयोगः सिद्धः। यदि त्वनित्यानामपि पृथग्गमनं युतसिद्धिरुच्यते, त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथग्गमनाभावादयुतसिद्धता स्थात् । ततश्च तयोः परस्परसंयोगो न प्राप्नोति, तस्य युतसिद्धयैव व्याप्तत्वात् । तस्मादनित्यानां न पृथग्गमनं युतसिद्धिरित्यर्थः । आश्रयाभावादेव पृथगाश्रयायित्वं नित्येषु नास्ति । तेषां च पृथग्गतिमत्त्वात परस्परसंयोगविभागौ सिद्धौ, तेनैषां पक्षगमनमेव युतसिद्धिरित्यभिप्रायेणाह-अण्वाकाशयोस्त्वाश्रयान्तराभावेऽप्यन्यतरस्य पृथग्गति
अर्थात समवाय ही अनित्यों की 'युतसिद्धि' है। बाज पक्षी और आकाश इन दोनों में से एक में बाज पक्षी में पृथक् ‘आश्रयायित्व' है । यद्यपि दोनों में से एक ( बाज पक्षी) में पृथक् गतिशीलता भी है, किन्तु उस पृथक् गमन का यहाँ ग्रहण नहीं है, क्योंकि नित्यों की युतसिद्धि के लिए उसका उपादान किया गया है ।
(प्र०) पृथक् गमन-शीलता को ही अनित्यों की भी युतसिद्धि का लक्षण क्यों नहीं मानते ? इसी प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि त्वगिन्द्रय और शरीर ये दोनों यद्यपि स्वतन्त्र रूप से गतिशील है, फिर भी युत आश्रयों में इन दोनों का समवाय है, अतः सिद्ध होता है कि दोनों में संयोग ही है ( अयुतसिद्धों में रहनेवाला समवाय नहीं )। अभिप्राय यह है कि अनित्यों की युतसिद्धि भी अगर 'पृथग् गमन' रूप ही कही जाय, तो त्वगिन्द्रिय और शरीर इन दानों में से किसी में भी पृथक गतिशीलता न रहने के कारण वे दोनों भी अयुतसिद्ध होंगे। इससे उन दोनों में संयोग असम्भव हो जाएगा, क्योंकि यह नियम है कि संयोग युतसिद्धों में ही होता है। अतः 'पृथग् गमनशीलत्व' अनित्यों की युतमिद्धि नहीं है। नित्य द्रव्यों का कोई आश्रय नहीं होता, अतः 'पृथगाश्रयायित्व' नित्यों की युतसिद्धि नहीं हो सकती।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३८१ प्रशस्तपादभाष्यम् वात् परस्परतः संयोगविभागाभाव इति । दिगादीनां तु पृथग्गतिमत्त्वाभावादिति परस्परेण संयोगविभागाभाव इति । पट के अलग से स्वतन्त्र आश्रय नहीं रहते, अतः यह सिद्ध होता है कि इन दोनों में संयोग और (तन्मूलक) विभाग नहीं होते। दिगादि (विभुद्रव्यों में) स्वतन्त्र गति न रहने के कारण ही उनमें परस्पर संयोग और विभाग दोनों ही नहीं होते।
न्यायकन्दली मत्त्वात् संयोगविभागौ सिद्धाविति। पूर्वमसत्यपि पृथग्गतिमत्त्वे त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथगाश्रयायित्वे सति संयोगसंभवादनित्यानां पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिर्न पृथग्गमनमित्युक्तम् ।
___ सम्प्रत्येनमेवार्थं समर्थयितुं तन्तुपटयोरन्यतरस्य पृथग्गतिमत्त्वासंभवेऽपि पृथगाश्रयत्वाभावात् संयोगविभागाभावं दर्शयति--तन्तुपटयोरित्यादिना। विभूनां तु द्वयोरन्यतरस्य वा पृथग्गमनाभावान्न परस्परेण संयोगः, नापि विभागः, तस्य संयोगपूर्वकत्वात् । किं तु स्वरूपस्थितिमात्रमित्याह--दिगादीनामिति । एतावता सन्दर्भेणेतदुपपादितम्, हस्ते गच्छति शरीरं न गच्छतीति, एतावता न युतसिद्धिः । यदि तु हस्तशरीरयोः पृथगाश्रयाश्रयित्वं स्यात्, तदा भवेदनयोर्युतसिद्धता । तत्तु नास्ति, शरीरस्य हस्ते समवेतत्वात्। अनित्य द्रव्य पृथक् गतिशील हैं, एवं इनमें परस्पर संयोग और विभाग भी होते हैं। अतः पृथक् गमनशीलता ही अनित्यों को युतसिद्धि है। इसी अभिप्राय से 'अणु' इत्यादि सन्दर्भ लिखे गये हैं । अर्थात् परमाणु और आकाश इन दोनों का दूसरा कोई आश्रय न रहने पर भी चूंकि दोनों में से एक (अर्थात् परमाणु) स्वतन्त्र रूप से गतिशील है । अतः आकाश और परमाणु दोनों के युद्धसिद्ध होने के कारण) इन दोनों में संयोग और विभाग की सिद्धि होती है। पहिले पृथक् गति न रहने पर भी त्वगिन्द्रिय और शरीर में पृथगाश्रयायित्व के रहने के कारण दोनों में संयोग सम्भव होता है। इसी लिए कहा गया है कि पृथगाश्रयायित्व ही अनित्यों की युतसिद्धि है, पृथक् गमन नहीं ।
तन्तु और पट इन दोनों में से एक में पृथक् गति की सम्भावना न रहने पर भी, पृथक् आश्रयत्व के न रहने से ही दोनों में संयोग और विभाग नहीं होते, यही बात 'तन्तुपटयोः' इत्यादि सन्दर्भ से दिखलाया गया है। "दिगादीनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से यह प्रतिपादित हुआ है कि दो विभुद्रव्यों में या दो में से किसी एक विभुद्रव्य में भी पृथक् गति नहीं है। अतः दो विभुद्रव्यों में परस्पर संयोग नहीं होता । संयोग के न होने के कारण ही दोनों में विभाग भी नहीं होता, क्योंकि संयुक्तद्रव्यों में ही विभाग भी होता है। इन पङ्क्तियों के द्वारा यही कहा गया है कि हाथ के चलने पर भी शरीर नहीं चलता,
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् विनाशस्तु सर्वस्य विभागस्य क्षणिकत्वात्, उत्तरसंयोगावधिसद्भावात् क्षणिक इति। न तु संयोगवद्ययोरेव विभागस्तयोरेव
चूंकि विभाग क्षणिक है, अतः उत्पत्ति के तृतीय क्षण में ही उसका विनाश हो जाता है। सभी विभाग क्षणिक इस हेतु से हैं कि उत्तर देश के साथ ( विभाग के दोनों अवधि द्रव्यों के ) संयोग पर्यन्त ही उनकी सत्ता रहती है। जिस प्रकार संयोग का विनाश उसके दोनों आश्रयों के विभाग से ही होता है, उसी प्रकार विभाग
न्यायकन्दली
विनाशस्तु सर्वस्य विभागस्य, क्षणिकत्वात् । कर्मजस्य विभागजस्य च कारणवृत्तेः कारणाकारणवृत्तेश्च विभागस्य सर्वस्य क्षणिकत्वमाशुतरविनाशित्वं कुतः सिद्धमित्यत्राह-उत्तरसंयोगावधिसद्भावादिति । उत्तरसंयोगोऽवधिः सीमा, तस्य सद्भावात् क्षणिको विभागः। किमुक्तं स्यान्न विभागो निरवधिः, किं त्वस्योत्तरसंयोगोऽवधिरस्ति, उत्तरसंयोगश्चानन्तरमेव जायते, तस्मादाशुविनाश्युत्तरसंयोगो विभागस्यावधिरित्येतदेव कुतस्तत्राह-न तु संयोगवदिति। यथा संयोगः स्वाश्रययोरेव परस्परविभागाद्विनश्यति, नैवं विभागः
इस लिए वे दोनों युतसिद्ध नहीं हो सकते, अगर हाथ और शरीर दोनों पृथगाश्रयाश्रयी होते तो वे दोनों युतसिद्ध होते, सो नहीं हैं, अतः हाथ में शरीर ( अयुतसिद्ध होने के कारण ) समवाय सम्बन्ध से है (हाथ और शरीर दोनों में संयोग सम्बन्ध नहीं है ।) ।
सभी विभाग के क्षणिक होने के कारण अपनी उत्पत्ति के तीसरे ही क्षण में विनष्ट हो जाते हैं। कारण ( मात्र ) में रहनेवाले एवं कारण और अकारण दोनों में रहने वाले क्रिया से उत्पन्न और विभाग से उत्पन्न दोनों ही प्रकार के विभागों में क्षणिकत्व अर्थात् अतिशीघ्र विनष्ट होने का स्वभाव किस हेतु से है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'उत्तरसंयोगावधिसद्भावात्' इस वाक्य से दिया गया है । अर्थात् उत्तर संयोग ही उसकी अवधि अर्थात् सीमा है, इसी अवधि के कारण विभाग क्षणिक है । इससे क्या तात्पर्य निकला ? (यही कि) विभाग निरवधि (नित्य) नहीं है, एवं उत्तर संयोग ही उसकी अवधि है। क्योंकि विभाग के बाद ही उत्तरसंयोग की उत्पत्ति होती है। अतः शीघ्रतर विनाशी उत्तरसंयोग ही उसकी अवधि है । (प्र.) यही (उत्तर देश का संयोग) क्यों ? (विभाग का विनाशक है ? केवल अपने दोनों अवययियों का संयोग ही क्यों नहीं विभाग का विनाशक है ?) इसी प्रश्न का उत्तर 'न तु संयोगवत्' इत्यादि सन्दर्भ से दिया गया है। अर्थात्
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प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगाद्विनाशो भवति । कस्मात् १ संयुक्तप्रत्ययवद्विभक्तप्रत्ययानुवृत्त्यभावात् । तस्मादुत्तरसंयोगावधिसद्भावात् क्षणिक इति । का विनाश विभाग की दोनों अवधियों के संयोग से ही नहीं होता, किन्तु विभाग के एक अवधि के उत्तर देश के साथ संयोग से भी होता है। ( उत्तर संयोग होते ही विभाग का नाश हो जाता है, किन्तु ) संयोग से युक्त दो द्रव्यों में ये दोनों संयुक्त हैं। इस प्रकार की प्रतीति की तरह विभक्त हो जानेवाले दो द्रव्यों में ये दोनों विभक्त हैं। इस आकार की प्रतीति चिरकाल तक नहीं होती। इससे सिद्ध होता है, उत्तर देश संयोग तक ही विभाग की सत्ता है, अतः विभाग क्षणिक है।
न्यायकन्दली स्वाश्रययोरेव परस्परसंयोगाद् विनश्यति, किंतु स्वाश्रयस्यान्येनापि संयोगात् । तथा हि वृक्षस्य मूले पुरुषेण विभागस्तयोः परस्परसंयोगाद्विनश्यति, पुरुषस्य प्रदेशान्तरसंयोगाद्वा । एवं चेत् सिद्धमुत्तरसंयोगावधित्वं विभागस्य, तदारम्भ. कस्य कर्मणः स्वाश्रयस्य देशान्तरप्राप्तिमकृत्वा पर्यवसानाभावात् । नन्वेतदपि साध्यसमं संयोगमात्रेण विभागनिवृत्तिरिति ? तत्राह-संयुक्तप्रत्ययवदिति । यथा संयुक्तप्रत्ययश्चिरमनुवर्तते, नैवं स्वाश्रयस्य देशान्तरसंयोगे भूते विभक्तप्रत्ययानुवत्तिरस्ति । अतस्तस्य संयोगमात्रेणेव निवृत्तिः । उपसंहरतितस्मादिति।
जिस प्रकार अपने आश्रयों के विभाग से ही संयोग का नाश होता है, उसी प्रकार विभाग का विनाश केवल अपने आश्रयों के संयोग से ही नहीं होता है, किन्तु अपने आश्रय का दूसरे देश के ( उत्तरदेश के ) साथ संयोग से भी (विभाग का नाश होता है) क्योंकि वृक्ष के मूल के साथ पुरुष का विभाग, उन दोनों के परस्पर संयोग से विनष्ट होता है, अथवा पुरुष का दूसरे प्रदेश के साथ संयोग से भी ( उक्त विभाग विनष्ट होता है) अगर ऐसी बात है तो फिर यह सिद्ध है कि उत्तर देश का संयोग ही विभाग की अवधि है। विभाग के आश्रय का दूसरे देश के साथ संयोग को उत्पन्न किये विना विभाग के कारणीभूत क्रिया का नाश नहीं होता, अतः यह सिद्ध होता है कि
उत्तर देश का संयोग विभाग की अवधि है। (प्र.) संयोग ( की उत्पत्ति) होते ही विभाग का नाश हो जाता है, यह भी तो 'नाध्यसम' ही है अर्थात् सिद्ध नहीं है, किन्तु इसे भी सिद्ध ही करना है ? इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'संयुक्तप्रत्ययवत्' यह वाक्य लिखा गया है। जिस प्रकार 'ये संयक्त हैं' इत्यादि आकार के संयोगवैशिष्टय की प्रतीतियाँ चिरकाल तक रहती हैं, उसी प्रकार 'ये विभक्त हैं' इत्यादि आकार के विभागवैशिष्टय
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् क्वचिच्चाश्रयविनाशादेव विनश्यतीति । कथम् ? यदा द्वितन्तुककारणावयवे अंशो कर्मोत्पन्नमंश्वन्तराद् विभागमारभते तदैव तन्त्वन्तरेऽपि कर्मोत्पद्यते, विभागाच्च तन्त्वारम्भकसंयोगविनाशः, तन्तुकर्मणा तन्त्वन्तराद् विभागः क्रियत इत्येकः कालः । ततो यस्मिन्नेव काले विभागात् तन्तुसंयोगविनाशः, तस्मिन्नेव काले संयोगविनाशात् तन्तुविनाशस्तस्मिन् विनष्टे तदाश्रितस्य तन्त्वन्तरविभागस्य विनाश कहीं आश्रय के विनाश से भी विभाग का नाश होता है । (प्र० ) किस प्रकार ? ( आश्रय के नाश से विभाग का नाश होता है ? ) ( उ० ) ( जहाँ ) जिस समय दो तन्तुओं से बने हुए पट के कारणीभूत एक तन्तु के अवयवरूप एक अंशू में उत्पन्न हुई क्रिया दूसरे अंशु से विभाग को उत्पन्न करती है, उसी समय उक्त पट के अवयवरूप दूसरे तन्तु में भी क्रिया उत्पन्न होती है, इस विभाग से दोनों तन्तुओं के उत्पादक अंशुओं में रहनेवाले संयोग का नाश होता है। एवं तन्तु की क्रिया से इस तन्तु का दूसरे तन्तु से विभाग उत्पन्न होता है। इतने काम एक समय में होते हैं। इसके बाद जिस समय दोनों तन्तुओं के विभाग से ( पट के आरम्भक दोनों ) तन्तुओं के संयोग का नाश होता है उसी समय ( अंशुओं के) संयोग के विनाश से तन्तु का भी विनाश होता है। तन्तु का विनाश हो जानेपर उसमें
न्यायकन्दली
क्वचिदाश्रयविनाशादपि विनाशः । कथमित्यज्ञस्य प्रश्नः। उत्तरम्यदेति । द्वितन्तुककारणस्य तन्तोरवयवे अंशो कर्मोत्पन्नमंश्वन्तरस्यांशोविभागमारभते यदा, तदैव तन्त्वन्तरेऽपि कर्म, विभागाच्चांशोस्तन्त्वारम्भकसंयोगविनाशो यदा, तदा तन्तुकर्मणा तन्त्वन्तराद् विभागः क्रियत इत्येकः कालः ।
की प्रतीतियाँ चिरकाल तक नहीं होती रहतीं, अतः संयोग से ही विभाग का नाश होता है। 'तस्मात्' इत्यादि वाक्य से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
'कहीं आश्रय के विनाश से भी { विभाग का) विनाश होता है'। 'कथम्' इत्यादि वाक्य से इस विषय में अनभिज्ञ का प्रश्न सूचित किया गया है, और 'यदा' इत्यादि से इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है। जहाँ दो तन्तुओं से निष्पन्न पट के अवयवीभूत एक तन्तु के समवायिकारण अंशु में उत्पन्न हुई क्रिया जिस समय उस अंशु का दूसरे अंशु से विभाग को उत्पन्न करती है, उसी समय दूसरे तन्तु में भी क्रिया
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् इति । एवं तद्युत्तरविभागानुत्पत्तिप्रसङ्गा, कारणविभागाभावात् । ततः प्रदेशान्तरसंयोगवति संयोगाभाव इत्यतो विरोधिगुणासम्भवात् , रहनेवाले दूसरे तन्तु के विभाग का विनाश होता है। इस प्रकार यहाँ आश्रय के विनाश से ही विभाग का विनाश होता है, उत्तर देश के संयोग से नहीं। (प्र०) अगर उक्त स्थल में उक्त प्रकार से आश्रय नाश के द्वारा ही विभाग का नाश मानें, तो फिर तन्तु का आकाशादि देशों के साथ जो (विभागज) विभाग उत्पन्न होता है, वह न हो सकेगा, क्योंकि इस
न्यायकन्दली ततो यस्मिन काले विभागात् तन्त्वोः संयोगविनाशः, तस्मिन्नेव कालेश्वोः संयोगविनाशात् तदारब्धस्य तन्तोविनाशः, तस्मिस्तन्तौ विनष्टे तदाश्रितस्य तन्त्वन्तरविभागस्य विनाशः, तदाऽश्रयविनाशः, कारणमन्यस्य विनाशहेतोरभावात् ।
अत्र पुनः प्रत्यवतिष्ठते-एवं तीति। द्वितन्तुकविनाशसमकालमेव तन्तुविभागस्य विनाशः। उत्तरो विभागः सक्रियस्य तन्तोराकाशादिवेशेन समं विभागजविभागेनोत्पद्यते, कारणस्य तन्त्वोविभागस्याभावात् । यद्युत्तरो विभागो न संवृत्तः, ततः किं तत्राहतत इति। तत उत्तरविभागानुत्पादात् प्राक्तनस्य तन्त्वाकाशसंयोगस्य उत्पन्न होती है। जिस समय विभाग के द्वारा तन्तु के उत्पादक (दोनों अंशुओं के) संयोग का विनाश होता है, उसी समय एक तन्तु की क्रिया से उसका दूसरे तन्तु से विभाग भी उत्पन्न होता है। इतने काम एक समय में होते हैं। इसके बाद जिस समय विभाग से दोनों तन्तुओं के संयोग का नाश होता है, उसी समय विभागजनित दोनों अंशुओं के संयोग के नाश के द्वारा उन दोनों अंशुओं से उत्पन्न तन्तु का भी विनाश होता है । इस लिए (इस विभाग के विनाश का) आश्रयविनाश ही कारण है, क्योंकि किसी दूसरे कारण से उसके विनष्ट होने की सम्भावना नहीं है ।
एवं तहि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस प्रसङ्ग में फिर आक्षेप करते हैं। अगर दो तन्तुओं से निष्पन्न पट के विनाश के समय में ही तन्तुविभाग का भी विनाश हो जाता है, तो फिर उत्तरविभाग की अर्थात् क्रिया से युक्त तन्तु का आकाशादि देशों के साथ विभागजविभाग की उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि (इस विभागज विभाग के कारण अर्थात् दोनों तन्तुओं का विभाग वहाँ नहीं है। (प्र०) अगर 'उत्तरविभाग' (अर्थात् उक्त विभागज विभाग) की उत्पत्ति न हो सकेगी तो क्या हानि होगी? इसी प्रश्न के समाधान के लिए 'ततः' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। 'ततः' अर्थात् उत्तर विभाग की उत्पत्ति न होने के कारण, तन्तु
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न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
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( गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम्
कर्मणश्चिरकालावस्थायित्वं नित्यद्रव्यसमवेतस्य च नित्यत्वमिति दोषः । कथम् ? यदाप्यद्व्यणुकारम्भकपरमाणौ कर्मोत्पन्नमण्वन्तराद्
( विभागज ) विभाग के कारणीभूत दोनों तन्तुओं का विभाग विनष्ट हो चुका है। इससे (१) जहाँ आश्रय के नाश से विभाग उत्पन्न होगा, उस विभाग के अवधिभूत अनित्य द्रव्य में रहनेवाली क्रिया चिरकालस्थायिनी होगी ( तीन क्षणों से अधिक समय तक रहेगी ) ( २ ) एवं नित्य द्रव्य में रहनेवाली क्रिया तो नित्य ही हो जाएगी, क्योंकि ( उक्त उत्तरदेश विभागरूप विभागज विभाग के उत्पन्न न होने के कारण तन्तु का उत्तरदेश के साथ संयोग रहेगा ही, एवं ) एक प्रदेश में एक संयोग के रहते दूसरे संयोग की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अतः क्रिया के विरोधी ( दूसरे )
न्यायकन्दली
प्रतिबन्धकस्यानिवृत्तेः प्रदेशान्तरेण सह संयोगो न भवति, अतः कारणाद् विरोधिनो गुणस्योत्तरसंयोगस्याभावात् कर्मणः कालान्तरावस्थायित्वं स्यात्, यावदाश्रयविनाशो विनाशहेतुर्नोपनिपतति - नित्यद्रव्यसमवेतस्य नित्यत्वमिति दोषः । कथमिति प्रश्नः । उत्तरमाह - यदेति । आप्यद्व्यणुकस्यारम्भके परमाणौ कर्मोत्पन्नमण्वन्तराद् विभागं करोति यदा तदैव द्वयणुकसंयोगिन्यकर्म । ततो यस्मिन्नेव काले परमाणु संयोग
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नारम्भकपरमाण्वन्तरेऽपि
और आकाश के संयोग की भी निवृत्ति नहीं होगी, जो कि पूर्ववर्ती संयोग का प्रतिबन्धक है । जिससे दूसरे प्रदेशों का संयोग रुक जाएगा । अतः विरोधी संयोग रूप गुण के न रहने से क्रिया में से स्थायित्व की आपत्ति होगी । क्योंकि ( उत्तरदेश संयोग को छोड़कर केवल ) आश्रय का विनाश ही क्रिया के नाश का कारण है, सो जबतक नहीं होता, तब तक क्रिया की सत्ता रहेगी ही । फलतः, नित्यद्रव्यों (परमाणुओं) में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली क्रिया नित्य हो जाएगी । उक्त क्रिया के आश्रय परमाणु नित्य होने के कारण विनष्ट नहीं हो सकते, अतः विभागज विभाग के न मानने से किया में नित्यत्व रूप दोष को आपत्ति होगी । 'कथम्' यह पद प्रश्न का बोधक है। 'यदा' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है । जिस समय जलीय द्वयणुक के एक परमाणु में उत्पन्न हुई क्रिया, उसका दूसरे जलीय परमाणु के साथ विभाग को उत्पन्न करती है, उसी समय दूसरे परमाणु में भी क्रिया उत्पन्न होती है, जो जलीय द्वणुक का उत्पादक तो नहीं है, किन्तु उसमें जलीय द्वघणुक का संयोग है । इसके बाद जिस समय (जलीय दोनों) परमाणुओं के संयोग के विनाश से, उन परमाणुओं
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विभागं करोति, तदैवाण्वन्तरेऽपि कर्म । ततो यस्मिन्नेव काले विभागाद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः, तदैवाण्वन्तरकर्मणा द्वयणुकाण्वोर्विभागः क्रियते । ततो यस्मिन्नेव काले विभागाद् द्वथणुकाणुसंयोगस्य विनाशः, तस्मिन्नेव काले संयोगविनाशाद् द्वयणुकस्य विनाशः ।
उत्तर देश के साथ तन्तु का संयोग भी उक्त स्थल में नहीं है, । अतः कथित युक्ति से ) तन्तु प्रभृति अनित्य द्रव्यों में रहनेवाली उक्त क्रिया क्षणिक न होकर अधिक समय तक रहेगी एवं परमाणु प्रभृति नित्य द्रव्य में रहनेवाली क्रिया तो नित्य ही हो जाएगी। (प्र०) कैसे ? ( अर्थात् नित्य द्रव्य में रहनेवाली क्रियाओं में नित्यत्व की आपत्ति किस प्रकार किस स्थिति में और किस स्थल में होगी? ( उ० ) जिस समय ( जहाँ ) जलीय द्वयणक के उत्पादक जलीय परमाणु में उत्पन्न क्रिया ( जलीय व्यणुक के अनुत्पादक ) दूसरे परमाणु के साथ ( जलीय द्वयणुक के ) विभाग को उत्पन्न करती है, उसी क्षण में ( जलीय द्वयणुक ) के उत्पादक निष्क्रिय दूसरे परमाणु में भी क्रिया उत्पन्न होती है। इसके बाद जिस क्षण में विभाग के द्वारा द्रव्य के उत्पादक संयोग का विनाश होता है, उसी क्षण ( जलीय द्वयणुक के अनुत्पादक ) दूसरे परमाणु की क्रिया से जलीयद्वयणुक और ( उदासीन ) परमाणु इन दोनों में भी विभाग उत्पन्न होता है। इसके अनन्तर जिस क्षण में ( इस जलीय द्वयणुक और उदासीन परमाणु के ) विभाग से जलीय द्वयणुक और ( उदासीन ) परमाणु इन दोनों के संयोग का नाश होता है, उसी क्षण ( द्वयणुक के उत्पादक जलीय दोनों परमाणुओं के ) संयोग के नाश से जलीय
न्यायकन्दली
विनाशात् तदारब्धस्य द्वयणुकस्य विनाशः, तस्मिन् द्वयणुके विनष्टे तदाश्रितस्य द्वयणुकाणुविभागस्य विनाशः, ततो विभागस्य कारणस्याभावात् परमाणोराकाशदेशविभागानुत्पादे पूर्वसंयोगानिवृत्तावुत्तरसंयोगस्य विरोधिगुणस्य
के द्वारा उत्पन्न द्वथणुक का विनाश होता है, उसी समय द्वयणुकविनाश के कारण उसमें रहनेवाले विभाग का भी नाश हो जाता है। इसके बाद विभाग रूप कारण के न रहने से परमाणु का आकाशादि देशों के साथ विभाग उत्पन्न न हो सकेगा, जिससे कि पहिले संयोग का विनाश भी रूक जाएगा। ( इस विनाश के रुक जाने पर ) उत्तर संयोग रूप
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न्याय कन्दलो संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे विभाग
विनाशः ।
तस्मिन् विनष्टे तदाश्रितस्य द्र्यणुकाणुविभागस्य विरोधिगुणासम्भवान्नित्यद्रव्यसमवेतकर्मणो नित्यत्वमिति ।
ततश्च
द्वणुक का भी नाश हो जाता है । जलीय द्वयणुक के विनष्ट हो जाने पर उसमें रहनेवाले जलीय द्वयणुक और उदासींन परमाणु के विभाग का भी नाश होता है । अत ( उत्तरसंयोग रूप ) विरोधी गुण की उत्पत्ति की सम्भावना नहीं रहती, क्योंकि उत्तरदेश संयोग के लिए पूर्वदेश के संयोग का विनाश भी आवश्यक है । एवं पूर्वदेश के संयोग का विनाश तभी होगा, जब कि उससे अव्यवहित पूर्व काल में जलीय द्वयणुक और उदासीन परमाणु के विभाग की सत्ता रहे, ( क्योंकि वही वह विरोधी गुण है, जिससे यहाँ उस पूर्वदेश के संयोग का नाश होगा। विरोधी गुण की इस असम्भावना से ) परमाणुरूप नित्य द्रव्य में रहनेवाली क्रिया में नित्यत्व की आपत्ति होगी ।
न्यायकन्दली
विनाशहेतोरसम्भवान्नित्यपरमाणुसमवेतस्य कर्मणो नित्यत्वं स्यात् ।
पूर्वोक्तं तावत्परिहरति-तन्त्वंश्वन्तरविभागाद्विभाग इत्यदोषः ।
कार्याविष्टे कारणे कर्मोत्पन्नमवयवान्तरेण समं स्वाश्रयस्य विभागं कुर्वदाकाशादिदेशाद्विभागं न करोतीति नियमः, आकाशादिदेशविभागकर्तृत्वस्य विशिष्ट विभागानारम्भकत्वेन व्याप्तत्वात् । अवयवान्तरस्यावयवेन स्वाश्रयसंयोगिना समं तु करोत्येव, विरोधाभावात् । अतो द्वितन्तुककारणे
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( क्रिया का ) विरोधी गुण के विनाश का कोई कारण ही नहीं रह पाएगा । अतः परमाणु में रहनेवाली क्रिया ( परमाणु की नित्यता के कारण ) नित्य हो जाएगी ।
'तन्त्वं श्वन्तर विभागाद्विभागः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा पूर्व कथित दोष का परिहार करते हैं ।
यह नियम है कि कार्य के साथ सम्बद्ध कारण में उत्पन्न हुई क्रिया अपने आश्रय का दूसरे अवयव के साथ विभाग को उत्पन्न करने के समय अपने आश्रय का आकाशादि देशों के साथ विभागों को उत्पन्न नहीं करती, क्योंकि यह व्याप्ति है कि जो अपने आश्रय का आकाशादि देशों के साथ विभाग का उत्पादक होगा, वह कभी भी विशिष्ट विभाग का ( अर्थात् क्रिया के आश्रयीभुत एक अवयव का दूसरे अवयव के साथ विभाग ) का उत्पादक नहीं हो सकता । ( किन्तु उक्त क्रिया ) अपने आश्रय के संयोग से युक्त rara के साथ तो विभाग को अवश्य ही उत्पन्न करती है क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है । दो तन्तुओं से बने हुए पट के कारणीभूत एक तन्तु में उत्पन्न हुई क्रिया,
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
तन्त्वंश्वन्तर विभागाद विभाग इत्यदोषः । आश्रयविनाशात तन्त्वोरेव विभागो विनष्टो न तन्त्वंश्वन्तरविभाग इति । एतस्मादुत्तरो विभागो जायते, अगुल्याकाशविभागाच्छरीराकाशविभागवत् तस्मिन्नेव काले कर्म संयोगं कृत्वा विनश्यतीत्यदोषः ।
( उ०
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↑
) ( आश्रय के विनाश से विभागनाश के प्रसङ्ग में जो उत्तरविभाग की अनुत्पत्ति का अतिप्रसङ्ग दिया गया है, उसका यह समाधान है कि उत्तर विभाग आकाशादि देशों के साथ तन्तु के ( विभागज) विभाग, एवं तन्तु और तन्तु के अनारम्भक दूसरे अंशु, इन दोनों के विभाग से उत्पन्न होता है, ( अत: प्रकृत में उक्त विभागानुत्पत्ति रूप ) दोष नहीं है, क्योंकि आश्रय के विनाश से दोनों तन्तुओं का विभाग ही नष्ट होता है, इससे तन्तु और ( उसके अनुत्पादक ) दूसरे तन्तु, इन दोनों के विभाग का नाश नहीं होता। इसी विभाग से आकाशादि देशों के साथ तन्तु के इस उत्तर विभाग की उत्पत्ति होती है जैसे कि अङ्गुलि और आकाश के विभाग से शरीर और आकाश के विभाग की उत्पत्ति होती है । उसी समय क्रिया उत्तर (देश) संयोग को उत्पन्न कर स्वयं भी विनष्ट हो जाती है । इस प्रकार अनित्य द्रव्यों की क्रिया में चिरस्थायित्व और परमाणुओं में रहनेवाली क्रियाओं में नित्यत्व रूप दोनों दोषों का निराकरण हो जाता है ।
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न्यायकन्दली
तन्तौ कर्मोत्पन्नं तन्त्वन्तराद् विभाग समकालं तदंशुनापि तन्तुसंयुक्तेन समं विभागमारभते । स च विभागस्तन्तोरंशोश्चावस्थानादवस्थित इत्याह-आश्रयविनाशात् तन्त्वोरेव विभागो विनष्टः, तन्त्वंश्वन्तरविभागस्त्ववस्थित इति ।
अङ्गुल्याकाश
किमतो यद्येवमित्यत आह- एतस्मादिति । विभागाच्छरीराकाशविभागवत् । यथा कर्मजादगुल्या काशविभागाच्छरीरादूसरे तन्तु साथ विभाग की उत्पत्ति के समय ही तन्तु के साथ संयुक्त अंशु के साथ भी विभाग को उत्पन्न करती है । वह विभाग ( अपने आश्रय ) तन्तु और अंशु के विद्यमान रहने के कारण रहता ही है । यही बात आश्रयविनाशात्तन्त्वोरेव विभागो विनष्ट:' इत्यादि सन्दर्भ से कहा गया है । अर्थात् आश्रय के विनाश से दोनों तन्तुओं के विभाग का ही विनाश होता है, तन्तु और दूसरे अंशु का विभाग तो रहता ही है । अगर ऐसी बात है तो इससे प्रकृत में क्या इसी प्रश्न का समाधान 'एतस्मात् इत्यादि से दिया गया है । 'अङ्गुल्या काशविभागाच्छरीराकाशविभागवत्' इस उदाहरण वाक्य का यह तात्पर्य है कि जैसे अंगुलि और आकाश के विभाग से शरीर और
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् अथवा अंश्वन्तरविभागोत्पत्तिसमकालं तस्मिन्नेव तन्तौ कर्मोत्पद्यते, ततोऽश्वन्तरविभागात् तन्त्वारम्भकसंयोगविनाशः, तन्तु
अथवा ( इस प्रकार से भी आश्रय के विनाश से विभाग का विनाश हो सकता है ) जिस समय ( तन्तु के उत्पादक एक अंशु का) दूसरे अंशु के साथ विभाग उत्पन्न होता है, उसी समय ( उन्हीं अंशुओं से आरब्ध ) उसी तन्तु में क्रिया उत्पन्न होती है । इसके बाद एक अंशु का दूसरे अंशु के विभाग से तन्तु के उत्पादक ( दोनों अंशुओं के ) संयोग का विनाश होता
न्यायकन्दली काशविभागः, एवं कर्मजादंशुतन्तुविभागात् तन्त्वाकाशविभाग इत्युदाहरणार्थः । हस्ताकाशविभागाच्छरीराकाशविभागो युक्तो न त्वमुल्याकाशविभागात्, अगुलेः शरीरं प्रत्यकारणत्वादिति चेत् ? हस्तोऽपि बाहोराश्रयो न शरीरस्य, कुतस्तद्विभागादपि शरीरविभागादपि शरीरविभागः । अथ समस्तावयवव्यापित्वाच्छरीरस्य हस्तोऽप्याश्रयः, एवमगुल्यप्याश्रयो हस्ता
गुल्याद्यवयवसमुदाये शरीरप्रत्यभिज्ञानात् । तस्मिस्तन्त्वाकाशविभागे जाते पूर्वसंयोगस्य प्रतिबन्धकस्य निवृत्तौ तन्तुसमवेतं कर्मोत्तरसंयोगं कृत्वा ततो विनश्यतीत्याह-तस्मिन्निति ।।
प्रकारान्तरेणाप्याश्रयविनाशाद् विनाशं कथयति-अथवेति । अंश्वन्तरविभागोत्पत्तिसमकालं तस्मिन्नेव तन्तौ विभज्यमानावयवे कर्मोत्पद्यते, आकाश का विभाग उत्पन्न होता है, उसी प्रकार क्रिपाजनित अंश और तन्तु के विभाग से तन्तु और आकाश का विभाग भी उत्पन्न होता है । (प्र०) शरीर और आकाश का विभाग तो हाथ और आकाश के विभाग से होना चाहिए, अंगुलि और आकाश के विभाग से नहीं, क्योंकि अंगुलि शरीर का कारण नहीं है। (उ.) हाथ भी तो बाँह का आश्रय ( अवयव ) है, शरीर का नही, तो फिर हाथ और आकाश के विभाग से ही शरीर और आकाश का विभाग कैसे उत्पन्न होगा? अगर शरीर सभी अवयवों में व्याप्त है, तो फिर हाथ की तरह अंगुलि भी शरीर का आश्रय है ही, क्योंकि हाथ अंगुलि प्रभृति सभी समुदायों में शरीर की प्रत्यभिज्ञा होती है। 'तस्मिन्' इत्यादि वाक्य के द्वारा यह कहा गया है कि तन्तु और आकाश के विभाग की उत्पत्ति हो जाने के बाद, प्रतिबन्धकीभूत पूर्वसंयोग के विनष्ट हो जाने पर, तन्तु में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली क्रिया उत्तर संयोग को उस्पन्न कर स्वयं भी विनष्ट हो जाती है।
'अथवा' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा आश्रय के नाश से विभागनाश की दूसरी रीति दिखलाई गई है। जहां दूसरे अंशु में विभाग की उत्पत्ति के समय ही विभक्त अवयव रूप उसी (अंशु विभाग के आश्रय ) तन्तु में क्रिया उत्पन्न होती है। इसके बाद विभाग
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
कर्मणा च तन्त्वन्तराद् विभागः क्रियते इत्येकः कालः । ततः संयोगविनाशात् तन्तु विनाशः तद्विनाशाच्च तदाश्रितयोर्विभागकर्मणो
युगपद्विनाश: ।
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है और तन्तु की क्रिया से एक तन्तु का दूसरे तन्तु क साथ विभाग उत्पन्न होता है । इतने काम एक समय में होते हैं । इसके बाद कथित दोनों अंशुओं के विभाग के द्वारा उत्पन्न दोनों अंशुओं के संयोग के विनाश से तन्तु का विनाश होता है, एवं तन्तु के विनाश से उसमें रहनेवाले विभाग और क्रिया, इन दोनों का एक ही समय विनाश हो जाता है । अत: इस पक्ष में क्रिया में चिरकालस्थायित्व की आपत्ति भी नहीं है ।
न्यायकन्दली
ततो विभागात् तत्त्वारम्भकस्यांशु संयोगस्य विनाशः, तन्तुकर्मणा च तस्य तन्तोस्तन्त्वन्तराद् विभाग इत्येकः कालः । तदनन्तरं संयोगस्य विनाशात् तदारब्धस्य तन्तोविनाशः तद्विनाशाच्च तदाश्रितयोविभाग कर्मणोर्युगपद्विनाशः । यच्च नित्यसमवेतस्य नित्यत्वमिति चोदितम्, तत्र प्रतिसमाधानं नोक्तम्, तस्यात्यन्तमसङ्गतार्थत्वात् । कार्याविष्टे हि कारणे कर्मोत्पन्नमवयवान्तरविभागसमकालमाकाशादिदेशेन समं विभागं न करोति, आकाशादिविभागकर्तृ - त्वस्य द्रव्यारम्भकसंयोग विरोधिविभागोत्पादकत्वस्य च विरोधात् । अनारम्भके तु द्वचणुकसंयोगिनि परमाणौ कर्म द्वद्यणुक विभागसमकालं तस्याकारादेशेन
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के द्वारा तन्तु के उत्पादक अंशु के संयोग का विनाश होता है, एवं तन्तु की क्रिया से उस तन्तु का दूसरे तन्तु से विभाग उत्पन्न होता है । इतने काम एक समय में होते हैं । इसके बाद संयोग के विनाश से उस संयोग के द्वारा उत्पन्न तन्तु का विनाश होता है । तन्तु के विनष्ट हो जाने से उसमें रहनेवाले विभाग और कर्म दोनों ही एक ही समय नष्ट हो जाते हैं । नित्य द्रव्य में रहनेवाले कर्म में नित्यत्व की जो शङ्का की गई है, उसका उत्तर इस कारण से नहीं दिया गया, चूँकि वह अत्यन्त ही निःसार है । कार्य के साथ सम्बद्ध कारण में उत्पन्न हुई क्रिया दूसरे अवयव के साथ विभाग के उत्पत्तिक्षण में आकाशादि देशों के साथ ( अपने आश्रय के ) विभाग को नहीं उत्पन्न करती, क्योंकि आकाशादि देशों के साथ विभाग का कर्तत्व एवं द्रव्य के उत्पादक संयोग के विभाग का कर्त्तत्व, ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध हैं ( अतः एक समय एक आश्रय में दोनों नहीं रह सकते ) द्वणुक के संयोग से युक्त ( उस द्वयणुक के ) अनुत्पादक परमाणु में ( विद्यमान ) क्रिया द्वयणुक उत्पत्ति के समय ही आकाशादि देशों के साथ भी विभाग
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की
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३६२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् तन्तुवीरणयोर्वा संयोगे सति द्रव्यानुत्पत्तौ पूर्वोक्तेन विधानेनाश्रयविनाशसंयोगाभ्यां तन्तुवीरणविभागविनाश इति ।
अथवा ( इस स्थिति में भी आश्रय के नाश से विभाग का नाश हो सकता है, जहाँ ) तन्तु और वोरण ( तृणविशेष ) में संयोग होता है। इस संयोग से किसी द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि यह विजातीय दो द्रव्यों का संयोग है। पहिले कथित रीति के अनुसार आश्रय का विनाश और संयोग इन दोनों से तन्तु और वीरण के विभाग का नाश होता है।
न्यायकन्दली
समं विभागं करोत्येव, ततो विभागाच्च परमाणोराकाशसंयोगनिवृत्तावुत्तरसंयोगे सति तदाश्रितस्य कर्मणो विनाशो भवत्येव ।
समानजातीयसंयोगे सति द्रव्योत्पत्तावाश्रयविनाशाद् विभागकर्मणोविनाशः कथितः, सम्प्रति विजातीयसंयोगे द्रव्यानुत्पत्तौ संयोगाश्रयविनाशाभ्यां विभागविनाशं कथयति-तन्तुवीरणयोर्वां संयोगे सति द्रव्यानुत्पत्तौ पूर्वोक्तेन विधानेनेति । तन्त्वारम्भकांशो कर्मोत्पत्तिसमकालं वीरणे कर्म, ततोऽशुक्रियया अंश्वन्तराद् विभागो वोरणकर्मणा च तस्य विभज्यमानावयवेन तन्तुना आकाशदेशेन च समं विभागः क्रियते, ततोऽशुविभागादंशुसंयोगविनाशो वीरणविभागाच्च
को अवश्य ही उत्पन्न करती है । इसके बाद विभाग के द्वारा परमाणु और आकाश के संयोग के नष्ट हो जाने पर उत्तर संयोग के बाद परमाणु में रननेवाली क्रिया का भी अवश्य विनाश होता है।
( समानजातीयद्रव्यों के संयोग के रहने पर ) द्रव्य की उत्पत्ति के बाद आश्रय के विनाश से विभाग और क्रिया दोनों का ही नाश अभी कहा गया है । अब विजातीय द्रव्यों के संयोग के रहने के कारण द्रव्य की उत्पत्ति न होने पर भी संयोग और आश्रय के विनाश, इन दोनों से विभाग का विनाश तन्तुवी रणयोर्वा संयोगे सति द्रव्यानुत्पत्तौ पूर्वोक्तेन विधानेन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कहा गया है। इसकी यही प्रक्रिया है कि तन्तु के उत्पादक अशु में क्रिया की उत्पत्ति के समय ही वीरण ( तृण विशेष ) में भी क्रिया उत्पन्न होती है। इसके बाद अंशु की क्रिया से दूसरे अंशु के साथ उसका विभाग उत्पन्न होता है । वीरण की क्रिया से अवयव से विभक्त होते हुए तन्तु के साथ वीरण का, एवं आकाशादि देशों के साथ भी विभाग उत्पन्न होते हैं ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् परत्वमपरत्वं च परापराभिधानप्रत्ययनिमित्तम् । तत्तु द्विविधं दिक्कृतं कालकृतं च। तत्र दिक्कृतं दिग्विशेषप्रत्यायकम् ।
___यह इससे पर ( दूर अथवा ज्येष्ठ ) है', 'यह इससे अपर ( समीप अथवा कनिष्ठ ) है' इन शब्दों के प्रयोगों और इन आकार के ज्ञानों का (असाधारण) कारण ही (क्रमशः ) परत्व और अपरत्व है (१) दिक्कृत ( दिशामूलक ) और (२) कालकृत ( कालमूलक ) भेद से वे दोनों ही दो-दो प्रकार के हैं। इनमें दिक्कृत ( परत्व और अपरत्व ) दिशाओं की
न्यायकन्दली तन्तुवीरणसंयोगस्याकाशवीरणसंयोगस्य च विनाशः, ततींऽशुसंयोगविनाशात् तन्तुविनाशो वीरणस्य चोत्तरसंयोगोऽत उत्तरसंयोगाश्रयविनाशाभ्यां तन्तुवीरणविभागस्य विनाश इति प्रक्रिया ॥
परत्वमपरत्वं च परापराभिधानप्रत्ययनिमित्तमिति । परमित्यभिधानस्य प्रत्ययस्य च निमित्तं परत्वम् । अपरमित्यभिधानप्रत्यययोनिमित्तमपरत्वमिति कार्येण सत्ता प्रतिपादयति ।
यद्यप्याकाशं कण्ठाद्याकाशसंयोगादिकं च परापराभिधानयोः कारणं भवति, यद्यप्यात्ममन:संयोगादिकं च परापरप्रतीतिकारणं स्यात्, तथापि निमित्तान्तरसिद्धिः, विशिष्टप्रत्ययस्य कारणविशेष
इसके बाद दोनों अंशुओं के विभाग से दोनों अंशुओं के ( तन्तु के उत्पादक ) संयोग का विनाश होता है। एवं वीरण के विभाग से तन्तु और वीरण के संयोग का, एवं आकाश और वीरण के संयोग का भी विनाश होता है। इसके बाद दोनों अंशुओं के संयोग के विनाश से तन्तु का विनाश होता है, एवं वीरण और उत्तरदेश, इन दोनों के संयोग की उत्पत्ति होती है। अतः उत्तरदेशसंयोग और आश्रय के विनाश इन दोनों से तन्तु और वीरण के विभाग का विनाश होता है।
'परत्वमपरत्वञ्च परापराभिधान प्रत्ययनिमित्तम्' इस सन्दर्भ के द्वारा यह उपपादन किया गया है कि 'यह इससे पर है' इत्यादि आकार के ज्ञान और शब्द के प्रयोग इन दोनों का कारणीभूत गुण ही 'परत्व' है, एवं 'यह इससे अपर है' इस आकार के ज्ञान और शब्द के प्रयोग, इन दोनों का कारणीभूत गुण ही 'अपरत्व' है । इस प्रकार कार्य से कारण के प्रतिपादन की रीति से परत्व और अपरत्व की सत्ता दिखलायी गयी है। यद्यपि यह पर है' एवं 'यह अपर हैं' इत्यादि शब्दों के प्रयोगों के आकाश, कण्ठ, एवं आकाश के संयोगादि भी कारण है, एवं उक्त आकार की प्रतीतियों के आत्मा एवं मन के संयोगादि भी करण हैं, फिर भी (ये सब सामान्य कारण हैं, उन विशिष्ट
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे परत्वापरत्व
प्रशस्तपादभाष्यम् कालकृतं च वयोभेदप्रत्यायकम् । तत्र दिक्कृतस्योत्पत्तिरभिधीयते । कथम् ? एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोः संयुक्त संयोगवह्वल्पविशिष्टिता को समझाते हैं। एवं कालकृत ( परत्व और अवरत्व वस्तुओं के ) वयस् के भेद को समझाते हैं। इनमें दिक्कृत ( परत्व और अपरत्व ) की उत्पत्ति बतलाते हैं। (प्र०) किस प्रकार ( इनकी उत्पत्ति होती है ? ) ( उ० ) एक दिशा में अवस्थित दो कार्य द्रव्यों में ( इन द्रव्यों के आश्रयीभूत प्रदेश के साथ ) संयुक्त (प्रदेशों के ) संयोग की अधिकता और अल्पता
न्यायकन्दली मन्तरेणोत्पत्त्यभावात् । एकत्र द्वयोरुपन्यासस्तयोरितरेतरसापेक्षत्वात् । तद् द्विविधम्', 'तत्' परत्वमपरत्वं च 'द्विविधम्' द्विप्रकारमिति भेदनिरूपणम् । किंकृतस्तयोभैद इत्याशय कारणभेदाद् भेदमाह-दिक्कृतं कालकृतं चेति । दिक्पिण्डसंयोगकृतं दिक्कृतम्। कालपिण्डसंयोगकृतं कालकृतम्। अनयोर्भेदः कुतः प्रत्येतव्यः ? कार्यभेदादित्याह-दिक्कृतं दिग्विशेषप्रत्यायकम, कालकृतं तु वयोभेदप्रत्यायकम्। दिक्कृतं परत्वं देशविप्रकृष्टत्वं प्रत्याययति, अपरत्वं च देशसन्निकृष्टत्वम् । कालकृतं तु परत्वं पिण्डस्य कालविप्रकृष्टत्वं प्रतिपादयति, अपरत्वं च शब्द प्रयोगों के एवं उक्त प्रतीतियों के लिए विशेष कारणों की सिद्धि आवश्यक है, क्योंकि विशेष कारण के बिना विशेष प्रकार के शब्दों का प्रयोग, या विशेष प्रकार की प्रतीतियाँ नहीं हो सकतीं। चूंकि परत्व और अपरत्व दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं, अतः दोनों का एक साथ निरूपण किया गया है ।
'द्विविधं तत्' यह वाक्य उनके भेद को दिखलाने के लिए लिखा गया है । किस हेतु से दोनों में भेद है ? यह प्रश्न करके कारण के भेद से उनका भेद दिक्कृतं कालकृतञ्च' इत्यादि से दिखलाया गया है । दिक्कृत (परत्व और अपरत्व) काल और पिण्ड (अर्थात् परत्वादि के आश्रयीभूत द्रव्य) के संयोग से होता है । इसी प्रकार काल और पिण्ड के संयोग से 'कालकृत परत्व और अपरत्व' उत्पन्न होता है । इन दोनों का भेद किससे समझेंगे? इसी प्रश्न का उत्तर 'दिक्कृतम्' इत्यादि से देते हैं कि कार्य की विभिन्नता से ही उन दोनों का भेद समझेंगे । विशेष प्रकार की दिशा के ज्ञान का कारण ही दिक्कृत परत्व और अपरत्व है । एवं वय के भेद के ज्ञान का कारण ही काल कृत 'परत्वापरत्व' है। अर्थात् दिक्कृत (परत्व और अपरत्व) दिशा विशेष की प्रतीति के कारण हैं । एवं कालकृत (परत्व और अपरत्व ) वयो भेद के ज्ञान के कारण हैं। इनमें 'दिक्कृत परत्व' देश विप्रकृष्टत्व अर्थात् देश की दूरी का ज्ञापक है। 'दिक्कृत अपरत्व' देश के सामीप्य का बोधक है। एवं 'कालकृत परत्व' पिण्ड (आश्रयभूत द्रव्य) के कालविप्रकृष्टत्व अर्थात् ज्येष्ठत्व का
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भाषानुवादसहितम
३६५
प्रशस्तपादभाष्यम् भावे सत्येकस्य द्रष्टुः सन्निकष्टमवधिं कृत्वा एतस्माद् विप्रकृष्टोऽयमिति परत्वाधारेऽसनिकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । ततस्तामपेक्ष्य परेण के रहने पर देखने वाले एक पुरुष के समीप ( प्रदेश ) को अवधि मानकर इससे यह दूर है' इस प्रकार की दूरत्वविषयक बुद्धि परत्व के आधारद्रव्य में उत्पन्न होती है। इसके बाद इसी बुद्धि के सहयोग से दूर दिशा के
न्यायकन्दली कालसन्निकृष्टत्वमिति विशेषः। तत्र तयोदिक्कृतकालकृतयोर्मध्ये दिक्कृत. स्योत्पत्तिरभिधीयते।
कथमिति प्रश्ने सत्युत्तरमाह-एकस्यामिति । पूर्वापरदिग्व्यवस्थितयोः पिण्डयोः परापरप्रत्ययौ न सम्भवतः, तदर्थमेकस्यां दिश्यवस्थितयोरित्युक्तम् । एकस्यां दिशि प्राच्यां वा प्रतीच्या वाडवस्थितयोः पिण्डयोर्मध्ये एकस्य द्रष्टुः संयुक्तेन भूदेशेन सहापरस्य प्रदेशस्य संयोगः, तेनापि सममपरस्येति संयुक्तसंयोगानां बहुत्वे सत्यल्पसंयोगवन्तं पिण्डं सन्निकृष्टमवधि कृत्वैतस्मात् पिण्डाद् प्रिकृष्टोऽयमिति संयोगभूयस्त्ववति भविष्यतः परत्वस्याधारे पिण्डे विप्रकृष्टा बुद्धिरुदेति । ततो
प्रतिपादन करता है 'कालकृत अपरत्व' काल के संनिकृस्टत्व का, अर्थात् कनिष्ठत्व का ज्ञापक है। यही इनमें विशेष है । 'तत्र' अर्थात् दिक्कृत परत्वापरत्व और कालकृत परत्वापरत्व इन दोनों में दिक्कृत परत्वापरत्व का निरूपण करते हैं।
(इसी प्रसङ्ग में) 'कथम्' इस वाक्य से प्रश्न किये जाने पर 'एकस्याम्' इत्यादि वाक्य के द्वारा उत्तर देते हैं । पूर्व और पश्चिमादि विरुद्ध दिशाओं में स्थित दो पिण्डों में परत्व और अपरत्व की प्रतीति नही हो सकती, अतः 'एकस्यां दिश्यवस्थितयोः यह वाक्य लिखा गया है। 'एक ही' अर्थात् पूर्व या पश्चिमादि किसी एक दिशा में अवस्थित दो पिण्डों में से किसी एक पिण्ड और देखनेवाले पुरुष, इन दोनों से संयुक्त भूप्रदेश के साथ दूसरे भूप्रदेश का संयोग है, उसके साथ फिर तीसरे भूप्रदेश का संयोग है, इस प्रकार संयुक्त प्रदेशों के बहुत से संयोगों के रहने पर, संयुक्त प्रदेशों के संयोगों की अधिकता के कारण, उन भप्रदेशों के संयोगों से अल्प संयोग से युक्त अत एव समीपस्थ पिण्ड को अवधि मानकर उत्पन्न होनेवाले परत्व के आधारभूत एवं उक्त बहुत से संयोगों से युक्त पिण्ड में 'इससे यह दूर है' इस प्रकार की विप्रकृष्टा बुद्धि अर्थात् दूरत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है । 'तत:' अर्थात् लस दूरत्व की बुद्धि के बाद उसी विप्रकृष्ट द्रव्य को
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
स्वापरत्व
प्रशस्तपादभाष्यम् दिकप्रदेशेन संयोगात् परत्वस्योत्पत्तिः । तथा विप्रकृष्टं चावधिं कृत्वा एतस्मात् सनिकृष्टोऽयमित्यपरत्वाधारे इतरस्मिन् सन्निकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । ततस्तामपेक्ष्यापरेण दिकप्रदेशेन संयोगादपरत्वस्योत्पत्तिः । प्रदेशों के संयोग के द्वारा ( दिक्कृत) परत्व विषयक बुद्धि की उत्पत्ति होता है। इसके बाद इसी परत्व विषयक को अवलम्बन बना कर दूर के दिक् प्रदशों के संयोग से दिक्कृत परत्व (गुण ) की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार दूर दिशा के द्रव्य को अवधि मानकर इससे यह समीप है' इस प्रकार का बुद्धि अपरत्व गुण के आधारभूत द्रव्य में उत्पन्न होती है। इसके बाद इस बुद्धि को अवलम्बन मानकर 'अपर' अर्थात् समीपवाले प्रदेशों के संयोग से दिक्कृत अपरत्व गुण की उत्पत्ति होती है।
न्यायकन्दली विप्रकृष्टबुद्धयुत्पत्त्यनन्तरं विप्रकृष्टां बुद्धिमपेक्ष्य परेण संयोगभूयस्त्ववता दिकप्रदेशेन संयोगादसमवायिझारणाद् विप्रकृष्टे पिण्डे समवायिकारणभूते परत्वस्योत्पत्तिः। द्रष्टुः स्वशरीरापेक्षया संयुक्तसंयोगभूयस्त्ववन्तं विप्रकृष्टं चावधि कृत्वेतरस्मिन् संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्ववति सन्निकृष्टा बुद्धिरुदेति। तां सन्निकृष्टां बुद्धि निमित्तकारणीकृत्यापरेण संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वविशिष्टेन दिप्रदेशेन सह संयोगादसमवायिकारणात् सन्निकृष्टे पिण्डे समवायिकारणे परत्वस्योत्पत्तिः।
सन्निकृष्टविप्रकृष्टबुद्धयोः परस्परापेक्षित्वादुभयाभावप्रसङ्ग इति चेत् ? न, अनभ्युपगमातं । न सन्निकृष्टोऽयमित्येवं प्रतीत्यैव तदपेक्षया विप्रकृष्टबुद्धिः, अवधि मानकर बहुत से संयोगों से युक्त दूसरे देश की अपेक्षा परत्व की उत्पति उस पिण्ड (द्रव्य) में होती है। इस परत्व का उक्त द्रव्य समवायिकारण है, पिण्ड में रहनेवाले कथित संयोग उसके असमवायिकारण हैं। अर्थात् देखनेवाले को अपने शरीर की अपेक्षा अधिक संयोगवाले दूर देश के द्रव्य को अवधि मानकर उससे भिन्न, एवं उससे अल्प संयोगवाले देश के द्रव्य में 'सनिकृष्ट बुद्धि' अर्थात् 'इससे यह समीप है' इस आकार को थुद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार समीप के पिण्ड में परत्व की उत्पत्ति का उक्त पिण्ड समवायिका : ण है, अल्प संयोग से युक्त दिक् प्रदेशों के साथ उक्त पिण्ड का संयोग निमित्तकारण है । एवं उक्त संनिकृष्टबुद्धि निमित्तकारण है।
(प्र.) किसी के संनिकृष्ट समझे जाने पर उसकी अपेक्षा कोई विप्रकृष्ट समझा जाता है। एवं किसी के विप्रकृप्ट समझे जाने पर ही उसकी अपेक्षा कोई संनिकृष्ट समझा जाता है । इन प्रकार दोनों बुद्धियाँ अगर परस्पर सापेक्ष हैं, तो फिर
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भाषानुवादसहितम्
३६७
प्रशस्तपादभाष्यम् कालकतयोरपि कथम ? वर्तमानकालयोरनियतदिगदेशसंयुक्तयोर्युवस्थविरयो रूढश्मश्रुकार्कश्यवलिपलितादिसानिध्ये सत्येकस्य
(प्र० ) कालिक ( कालकृत ) परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? ( उ० ) वर्तमान काल में अवस्थित किसी भी दिकप्रदेश के साथ संयुक्त युवा पुरुष में कडी मूछ और गठित शरीर ( प्रभृति असाधारण ) स्थिति, और किसी भी दिक् प्रदेश से संयुक्त वृद्ध पुरुष में पके
न्यायकन्दली नापि विप्रकृष्टोऽयमिति प्रतीत्यैव तदपेक्षया सन्निकृष्टबुद्धयुदयः, किन्तु संयोगाल्पीयस्त्वसहचरितं पिण्डं प्रतीत्यैव तदपेक्षया संयोगभूयस्त्ववति विप्रकृष्टबुद्धिः। एवं संयोगभूयस्त्वसहचरितं पिण्डं प्रतीत्यैव तदपेक्षया संयोगाल्पीयस्त्ववति सन्निकृष्टबुद्धयुत्पत्तिरिति न परस्परापेक्षित्वमनयोः ।
कालकृतयोरपि कथम् ? दिककृतयोस्तावत्परत्वापरत्वयोरुत्पत्तिः दोनों बुद्धियों के कारणीभूत परत्व और अपरत्व इन दोनों की सत्ता ही उठ जाएगी (उ०) दोनों की सत्ता के उठ जाने की आपत्ति नहीं है, क्योंकि हम ऐसा नहीं मानते, क्योंकि 'ततः' अर्थात् इस विप्रकृष्ट बुद्धि के बाद उसी के साहाय्य से बहुत से संयोगों से युक्त दूसरे उस पिण्ड में परत्व की उत्पत्ति होती है। इस परत्व का समवायिकारण उक्त पिण्ड ही है, एवं उन दिशाओं के साथ उस पिण्ड का संयोग ही उसका असमवायकारण है। अभिप्राय यह है कि द्रष्टा पुरुष के शरीर के मध्यवर्ती बहुत से दिग्देशों के संयोग से युक्त होने के कारण 'विप्रकृष्ट' अर्थात् दूर देश को अवधि मानकर, उससे अल्प संयोग से युक्त मध्यवर्ती देश में 'संनिकृष्ट बुद्धि' अर्थात् 'उससे यह समीप है' इस आकर की बुद्धि उक्त द्रष्टा पुरुष को होती है। इस संनिकृष्ट बुद्धिरूप निमित्तकारण से उक्त पिण्डरूप समावायिका रण में परस्व की उत्पत्ति होती है, जिसका अल्प संयोग से युक्त दिक्प्रदेश और पिण्ड का संयोग असमवायिकारण है। 'संनिकृष्टोsयम्' अर्थात् यह समीप' है इस प्रकार की संनिकृष्ट बुद्धि से ही उसकी अपेक्षा 'यह दूर है' इस आकार की विप्रकृष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है। एवं विप्रकृष्टोऽयम्' इस बुद्धि से ही इसकी अपेक्षा 'यह समीप है' इस आकार की संनिकृष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है। किन्तु उक्त प्रदेशों के संयोगों की अल्पता के साथ ज्ञात द्रव्य (पिण्ड ) की प्रतीति से ही ( इस पिण्ड की) अपेक्षा अधिक दिक्पदेशों के संयोगों से युक्त पिण्ड में विप्रकृष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है । इसी प्रकार दिक्प्रदेशों के अधिक संयोगों के साथ ज्ञात द्रव्य की प्रतीति से ही उसकी अपेक्षा अल्प दिक्प्रदेशों के संयोगवाले पिण्ड में संनिकृष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है। अतः परस्परापेक्ष होने के कारण परत्व और अपरत्व दोनों की असत्ता की आपत्ति नहीं है।
___'कालकृतयोरपि कथम् ? अर्थात् 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ से प्रश्न करते हैं कि दिक्कृत परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति तो उपपावित हुई, किन्तु कालिक परत्व और
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे परत्वापरत्व
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रष्टुयुवानमवधिं कृत्वा स्थविरे विप्रकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते । ततस्तामपेक्ष्य परेण काल प्रदेशेन संयोगात् परत्वस्योत्पत्तिः, स्थविरं चावधिं कृत्वा यूनि सनिकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते। ततस्तामपेक्ष्यापरेण कालप्रदेशेन संयोगादपरत्वस्योत्पत्तिरिति । हुए केश और शरीर की शिथिलता ( प्रभृति ) की स्थिति, इन दोनों स्थितियों के रहते हुए दोनों को देखनेवाले पुरुष को उक्त युवा पुरुष की अपेक्षा उक्त वृद्ध पुरुष में 'विप्रकृष्ट' वुद्धि अर्थात् कालकृत परत्व (ज्येष्ठत्व ) की बुद्धि उत्पन्न होती है। इसके बाद इसी बुद्धि के साहाय्य से दूसरे कालप्रदेश के साथ के संयोग से ( वृद्ध पुरुष ) में कालकृत परत्व ( ज्येष्ठत्व ) की उत्पत्ति होती है। एवं इसी वृद्ध पुरुष की अपेक्षा युवा पुरुष में संनिकृष्ट' बुद्धि उत्पन्न होती है। इसी बुद्धि के साहाय्य से दूसरे कालप्रदेश के साथ ( युवा) पुरुष के संयोग से कालकृत अपरत्व ( कनिष्ठत्व ) की उत्पत्ति होती है।
न्यायकन्दली कथिता, कालकृतयोरपि तयोरुत्पत्तिः कथमिति प्रश्नः। समाधान वर्तमानकालयोरिति । द्वयोरेकस्मिन् वा पिण्डेऽविद्यमाने परत्वापरत्वे न भवतः, तदर्थं वर्तमानकालयोरित्युक्तम्। अनियतदिग्देशयोरित्येकदिश्यवस्थितयोभिन्नदिगवस्थितयोर्वा युवस्थविरयो रूढश्मश्रु च कार्कश्यं च बलिश्च पलितं च चेषां कालविप्रकर्षलिङ्गानां सान्निध्ये सत्येकस्य द्रष्टुर्युवानं रूढ
अपरत्व की उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? इसी प्रश्न का समाधान 'वर्तमानकालयोः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा किया गया है। इस समाधान वाक्य में 'वर्तमानकालयोः' यह पद इस लिए दिया गया है कि चूंकि दोनों ही पिण्डो के न रहने पर, या दोनों में से किसी एक के न रहने पर भी (उनमें से किसी में ) परत्व या अपरत्व की उत्पत्ति नहीं होती है। 'अनियतदिग्देशयोः' अर्थात् एक दिशा में अथवा विभिन्न दिशाओं में स्थित्त युवक और वृद्ध पुरुष में ( से युवा पुरुष में रहनेवाले) मूछों का कड़ापन और देह का कड़ा गठन एवं ( वृद्ध पुरुष की ) झुर्रा और पके केश प्रभृति काल के ज्ञापक हेतुओं का सामीप्य रहने पर दोनों को देखने वाले किसी एक पुरुष को मूछों की कड़ाई और देह के काठिन्य से युवा पुरुष में अल्पकाल मम्बन्धरूप कनिष्ठत्व या संनिकृष्टबुद्धि रूप ज्येष्ठत्व की अनुमिति होती है। इस अल्पकाल को अवधि मानकर झुर्रा और पके केश वाले वृद्ध पुरुष में अधिककाल सम्बन्ध रूप ज्येष्ठत्व या काल विप्रकृष्टत्व की वृद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार उस वृद्ध पुरुष में कालिक परत्व (ज्येष्ठत्व) की उत्पत्ति
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम
प्रशस्तपादभाष्यम् विनाशस्त्वपेक्षाबुद्धिसंयोगद्रव्यविनाशात् ।
अपेक्षाबुद्धिविनाशात् तावदुत्पन्ने परत्वे यस्मिन् काले सामान्यबुद्धिरुत्पन्ना भवति, ततोऽपेक्षाबुद्धेविनश्यत्ता, सामान्यज्ञानतत्सम्बन्धेभ्यः
(परत्व और अपरत्व इन दोनों का ) विनाश ( इन सात ) रीतियों में से किसी रीति से होता है-(१) अपेक्षाबुद्धि के विनाश से, (२) संयोग के विनाश से, ( ३ ) द्रव्य के विनाश से, (४) द्रव्य और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों के विनाश से, (५) द्रव्य और संयोग इन दोनों के विनाश से (६ ) संयोग और अपेक्षा बुद्धि इन दोनों के विनाश से, (७ ) एवं अपेक्षाबुद्धि द्रव्य एवं संयोग इन तीनों के विनाश से।
(१) अपेक्षाबुद्धि के विनाश से परत्व और अपरत्व का विनाश इस प्रकार होता है कि परत्व (या अपरत्व ) की उत्पत्ति के बाद जिस समय (परत्व या अपरत्व में रहनेवाले ) सामान्य ( परत्वत्वादि जातियों ) की
न्यायकन्दली
श्मश्रुकार्कश्याद्यभावानुमितमल्पोत्पत्तिकालमवधि कृत्वा रूढश्मश्रुबलिपलितादिमति स्थविरे विप्रकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते, तां बुद्धिमपेक्ष्य परेणादित्यपरिवर्तनभूयस्त्ववता कालप्रदेशेन संयोगादसमवायिकारणात् तस्मिन्नेव स्थविरे परत्वस्योत्पत्तिः, स्थविरं चावधि कृत्वा यूनि सन्निकृष्टा बुद्धिरुत्पद्यते, तां बुद्धिमपेक्ष्यापरेणाल्पादित्यपरिवर्तनोपलक्षितेन कालप्रदेशेन संयोगादपरत्वस्योत्पत्तिः। युवस्थविरशरीरयोः कालसंयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वे शरीरसन्तानापेक्षया, न तु व्यक्तिविषयत्वेन, तयोः प्रतिक्षणं विनाशात् ।
होती है, जिसमें वह पुरुष समवायिकारण है, एवं सूर्य को अधिक क्रियावाले काल प्रदेश के साथ उस पुरुष का संयोग असवायिकारण है, एवं उक्त विप्रकृष्ट बुद्धि निमित्तकारण है। ( इसी प्रकार ) वृद्ध पुरुष को अवधि मानकर युवा पुरुष में अल्पकाल सम्बन्ध रूप संनिकृष्ट बुद्धि की उत्पत्ति होती है। इसी बुद्धिरूप निमित्त कारण से युवा पुरुषरूप समवायिका रण में कालिक अपरत्व ( कनिष्ठत्व ) की उत्पत्ति होती है, जिसका असमवायिकारण आदित्य की अल्पगति से परिमित काल प्रदेश और उस युवा पुरुष का संयोग है । यद्यपि युवा शरीर और वृद्ध शरीर दोनों ही क्षणिक है, (अतः दोनों ही के एक एक शरीर में समान ही काल का सम्बन्ध है), अतः दोनों में अधिककाल सम्बन्ध और अल्पकाल सम्बन्ध वर्तमान काल के दोनों शरीर के समुदायों को दृष्टि में रखकर कहा गया है ।
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४००
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
स्वापरत्व
प्रशस्तपादभाष्यम् परत्वगुणबुद्धेरुत्पद्यमानतेत्येकः कालः। ततोऽपेक्षाबुद्धे विनाशो गुणबुद्धेश्चोत्पत्तिः, ततोऽपेक्षाबुद्धिविनाशाद् गुणस्य विनश्यत्ता, गुणज्ञानबुद्धि उत्पन्न होती है, उसी समय अपेक्षाबुद्धि को विनष्ट करनेवाले कारणसमूह एकत्र हो जाते हैं, एवं ( परत्वादि में रहनेवाले उक्त ) सामान्य, एवं सामान्य के ज्ञान और परत्वादि गुणों के साथ उक्त सामान्य का सम्बन्ध इन सबों से परत्वादि गुणविषयक बुदि। के उत्पादक कारणसमूह भी एकत्र हो जाते हैं। ये सभी कार्य एक समय में होते हैं। उसके बाद ( एक ही समय ) अपेक्षाबुद्धि का विनाश और (परत्वादि) गुणविषयक बुद्धि की उत्पत्ति होती है, इसके बाद अपेक्षाबुद्धि के विनाश से परत्वादि गुणों के विनाशक कारणसमूह का एकत्र होना, परत्वादि गुण, उसके ज्ञान, एवं द्रव्य के साथ परत्वादि
न्यायकन्दली
कृतकस्यावश्यं विनाशः, स च निर्हेतुको न भवतीति परत्वापरत्वयोविनाशहेतुमाह-विनाशस्त्विति। परत्वापरत्वयोविनाशोऽपेक्षाबुद्धिविनाशात्, संयोगविनाशात्, द्रव्यविनाशात्, द्रव्यापेक्षाबुद्धयोविनाशात्, द्रव्यसंयोगयोविनाशात्, संयोगापेक्षाबुद्धधोविनाशात्. अपेक्षाबुद्धिसंयोगद्रव्याणां विनाशादिति सप्तविधो विनाशनमः ।।
(१) अपेक्षाबदिधविनाशात तावद्विनाशः कथ्यते । उत्पन्ने परत्वे यस्मिन्नेव काले परत्वसामान्ये बुद्धिरुत्पन्ना भवति । तत इति सप्तम्यर्थे सार्व
जिसकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी अवश्य ही होता है। एवं विनाश भी बिना कारणों के नहीं होता। अतः (परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति के निरूपण के बाद ) परत्व और अपरत्व के विनाश के हेतुओं का निरूपण 'विनाशस्तु' इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है। विनाश इन सात प्रकार के विनाशक्रमों में से ही किसी से होता है-(परत्व और अपरत्व का विनाश (१) अपेआ बुद्धि के नाश से, (२) संयोग के विनाश से, (३) द्रव्य के विनाश से, (४) द्रव्य और अपेक्षाबुद्धि दोनों के विनाश से, (५) द्रव्य और संयोग इन दोनों के विनाश से (६) संयोग और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों के विनाश से, एवं (७) अपेक्षाबुद्धि, संयोग, और द्रव्य, इन तीनों के विनाश से ।
___ इनमें क्रमप्राप्त सबसे पहिले (१) अपेक्षाबुद्धि के विनाश से होनेवाले परत्व और अपरत्व के विनाश का क्रम 'अपेक्षाबुद्धिविनाशात्तात्' इत्यादि सन्दर्भ से उपपादित हुआ है । 'ततः' इस पद में सप्तमी विभक्ति के अर्थ में तसिल्' प्रत्यय है। इसी समय
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४०१
प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
४०१ प्रशस्तपादभाष्यम् तत्सम्बन्धेभ्यो द्रव्यबुद्धेरुत्पद्यमानतेत्येकः कालः। ततो द्रव्यबुद्धेरुत्पत्तिर्गुणस्य विनाश इति ।
___ संयोगविनाशादपि कथम् ? अपेक्षाबुद्धिसमकालमेव परत्वाधारे कर्मोत्पद्यते । तेन कर्मणा दिपिण्डविभागः क्रियते । अपेक्षाबुद्धितः गुणों का सम्बन्ध इन सबों से (परत्वादि गुण से युक्त ) द्रव्यविषयक बुद्धि के उत्पादक कारणसमूह एकत्र हो जाते हैं। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद ( परत्वादि गुणविशिष्ट ) द्रव्य विषयक (विशिष्ट ) बुद्धि की उत्पत्ति और परत्वादि गुणों का विनाश ये दोनों काम एक ही समय होते हैं।
(२) (प्र०) केवल संयोग के विनाश से (परत्व और अपरत्व का विनाश) किस प्रकार होता है ? ( उ० ) ( जहाँ ) अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति के समय ही परत्वादि गुणों के आधारभूत द्रव्य में क्रिया होती है, एवं उस क्रिया के द्वारा उस द्रव्य और दिक्प्रदेश इन दोनों का विभाग उत्पन्न होता है, और अपेक्षा
न्यायकन्दली विभक्तिकस्तसिलिति तसिल । एतस्मिन्नेव कालेऽपेक्षाबुद्धविनश्यत्ता विनाशकारणसान्निध्यम्। सामान्यतज्ज्ञानतत्सम्बन्धेभ्यः परत्वसामान्यं च, परत्वसामान्यज्ञानं च, परत्वगुणसम्बन्धश्च, तेभ्यः परत्वगुणबुद्धेरुत्पद्यमानतेत्येकः कालः। परत्वसामान्यज्ञानमेवापेक्षाबुद्धिविनाशकारणम्, गुणबुद्धश्चोत्पत्तिकारणम्, अतस्तदुत्पाद एवापेक्षाबुद्धविनश्यत्ता गुणबुद्धश्चोत्पद्यमानता स्यात् । ततः क्षणान्तरेऽपेक्षाबुद्धविनाशः, परत्वगुणबुद्धश्चोत्पादः। ततस्तस्मादपेक्षाबुद्धिविनाशाद् गुणस्य विनश्यत्ता। गुणश्च गुणज्ञानं च तत्सम्बन्धश्च तेभ्यो द्रव्यबुद्धरुत्पद्यमानतेत्येकः काल: । अपेक्षाबुद्धिविनाशो ( अर्थात् परत्व की उत्पत्ति हो जाने पर जिस समय परत्व गुण में रहने वाले सामान्य का ज्ञान होता है, उसके बाद ) अपेक्षा बुद्धि की 'विनश्यत्ता' अर्थात् विनाश के सभी कारणों का समावेश होता है। सामान्यतज्ज्ञानतत्सम्बन्धेभ्यः' (इस भाष्य सन्दर्भ का ) 'परत्वसामान्यच परत्वसामान्यज्ञानञ्च परत्वगुणसम्बन्धश्च तेभ्यः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह अभिप्राय है कि परत्वसामान्य, एवं परत्वसामान्य का ज्ञान और परत्वगुण का सम्बन्ध, इन तीन कारणों से 'परत्वगुण की उत्पद्यमानता' अर्थात् परत्वगुण के उत्पादक सभी कारणों का संनिवेश होता है, ये सभी काम एक ही समय होते हैं । परत्वसामान्य का ज्ञान ही अपेक्षाबुद्धि के विनाश एवं गुणबुद्धि की उत्पत्ति इन दोनों का कारण है। अतः अपेक्षाबुद्धि की विनश्यत्ता और गुणबुद्धि की उत्पद्यमानता दोनों ही वस्तुतः परत् । सामान्य बुद्धि की उत्पत्ति स्वरूप ही है। इसके बाद दूसरे क्षण में अपेक्षाबुद्धि का विनाश होगा, एवं परत्वगुणबुद्धि की उत्पत्ति होगी। 'ततः'
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४०२
न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
परत्वस्योत्पत्तिरित्येकः कालः । ततः सामान्यबुद्धेरुत्पत्तिः, दिपिण्डसंयोगस्य च विनाशः । ततो यस्मिन् काले गुणबुद्धिरुत्पद्यते तस्मिन्नेव बुद्धि के द्वारा परत्वादि गुणों की उत्पत्ति होती है । उसके बाद ( परत्वादि गुणों में रहनेवाले) सामान्य विषयक बुद्धि की उत्पत्ति, उक्त द्रव्य और पूर्व दिक्प्रदेश इन दोनों के संयोग का नाश, ये दोनों काम एक ही समय होते हैं । इसके बाद जिस समय परत्वादिगुणविषयक ( विशिष्ट ) बुद्धि की उत्पत्ति होती है, उसी समय ( कथित ) दिक्प्रदेश और ( परत्वादि गुणों के आधार
न्यायकन्दली
गुणविनाशस्य कारणम् गुणबुद्धिस्च द्रव्यबुद्धेः कारणम्, अपेक्षाबुद्धिविनाशगुणबुद्धयुत्पादौ च युगपत् स्याताम्, अतो गुणस्य विनश्यत्ता द्रव्यबुद्धेचोत्पद्यमानतापि युगपत् स्यात् । ततः परत्वविशिष्टद्रव्य बुद्धेरुत्पादः परत्वगुणस्य च विनाशः ।
संयोगविनाशादपि कथं
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[ गुणे परत्वापरत्व
परत्वापरत्वयोविनाश इति प्रश्ने कृते परत्वस्याधारे पिण्डे कर्मोत्पद्यते, क्षणान्तरे तेन कर्मणा दिशः परत्वाधारपिण्डस्य च विभागः क्रियते, अपेक्षा
सत्याह- अपेक्षा बुद्धिसमकालमेव
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इसके बाद, अपेक्षाबुद्धि के विनाश से गुण की विनश्यत्ता ( उत्पन्न होती है ) | 'गुणज्ञानतत्सम्बन्धेभ्यः' ( इस भाष्यपङ्क्ति का ) ( गुणश्च गुणज्ञानश्च तत्सम्बन्धश्च तेभ्यः' ( इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह अभिप्राय है कि ) गुण एवं गुण का ज्ञान और गुण का सम्बन्ध इन तीनों से द्रव्य बुद्धि अर्थात् परत्व गुणविशिष्ट द्रव्य बुद्धि की ) उत्पद्य - मानता निष्पन्न होती है। ये सभी काम एक ही समय होते हैं । अपेक्षाबुद्धि का विनाश ( परत्वादि ) गुणों के विनाश का कारण है । गुणबुद्धि ( गुणविशिष्ट ) द्रव्यबुद्धि का कारण है ! अतः अपेक्षाबुद्धि का विनाश और गुणबुद्धि का उत्पादन दोनों एक ही समय होते हैं । इसीलिए गुण की विनश्यत्ता और द्रव्यबुद्धि की उत्पद्यमानता ये दोनों भी एक ही समय होंगी । एवं इसी कारण ( परत्व ) गुण की विनश्यत्ता और ( परत्वगुणविशिष्ट) द्रव्य बुद्धि की उत्पद्यमानता ये दोनों भी एक ही समय होंगी। इसके बाद परत्वगुण विशिष्ट द्रव्य बुद्धि की उत्पत्ति एवं परत्व गुण का विनाश होगा |
( २ ) केवल संयोग के विनाश से परत्व और अपरत्व का विनाश किस रीति से ( किस स्थिति में ) होता है ? यह प्रश्न किये जाने पर 'अपेक्षा बुद्धिसमकालमेव ' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । ( अर्थात् जहाँ निम्निलिखित स्थिति होती है, वहाँ संयोग के विनाश से परत्व का विनाश होता है । ( जैसे ) अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति के समय ही पिण्ड ( परत्वादि के आधार भूत द्रव्य ) में क्रिया उत्पन्न होती है । इस क्रिया के द्वारा आगे दूसरे क्षण में उक्त पिण्ड का पूर्व दिशा के साथ विभाग उत्पन्न होता है, एवं
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् काले दिपिण्डसंयोगविनाशाद् गुणस्य विनाशः ।
द्रव्य विनाशादपि कथम् ? परत्वाधारावयवे कर्मोत्पन्न यस्मिन्नेव कालेऽवयवान्तराद विभागं करोति तस्मिन्नेव कालेऽपेक्षाभूत द्रव्य इन दोनों के) संयोग के विनाश से परत्वादि गुणों का विनाश होता है।
(३) ( प्र०) ( आधारभूत ) द्रव्य के विनाश से (परत्वादि गुणों का) विनाश किस प्रकार : किस स्थिति में ) होता है ? ( उ० ) (जहाँ) परत्वादि गुणों के आधारभूत द्रव्य ( के एक अवयव) में उत्पन्न हुई क्रिया जिस समय एक अवयव का दूसरे अवयव से विभाग को उत्पन्न करती है,
न्यायकन्दली बद्धश्च परत्वस्योत्पत्तिरित्येकः कालः। तत उत्पन्ने परत्वे परत्वसामान्यबुद्धरुत्पत्तिः दिक्पिण्डसंयोगस्य च विभागाद् विनाश इत्येकः कालः। ततो यस्मिन्नेव काले सामान्यज्ञानाद् गुणबुद्धिरुत्पद्यते तस्मिन्नेव काले दिपिण्डसंयोगविनाशात् परत्वस्य विनाशो नापेक्षाबुद्धिविनाशात्, अपेक्षाबुद्धरपि तदानीमेव विनाशात् ।
द्रव्यविनाशादपि कथं विनाश इत्याह-परत्वाधारावयव इति । भविष्यतः परत्वस्याधारो द्रव्यम्, तस्यावयवे कर्मोत्पन्नं यदाऽवयवान्तराद् विभागं करोति, तस्मिन्नेव कालेऽपेक्षाबुद्धिरुत्पद्यते। ततो विभागाद् यस्मिन्नेव काले द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः, तस्मिन्नेव कालेऽपेक्षाबुद्धेः परत्वमुत्पद्यते। ततः अपेक्षाबुद्धि के द्वारा परत्व की उत्पत्ति होती है। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद जिस समय (परत्व गत जातिरूप ) सामान्य के ज्ञान से गुणविशिष्टद्रव्य विषयक बुद्धि की उत्पत्ति होती है, उसी समय दिशा और (परत्व के आधारभूत द्रव्य रूप) पिण्ड इन दोनों के संयोग के विनाश से परत्व का भी विनाश होता है। (यहाँ) परत्व का विनाश अपेक्षाबुद्धि के विनाश से सम्भव नहीं है, क्योंकि उसी समय (परत्वनाश के समय ही ) अपेक्षाबुद्धि का भी विनाश होता है।
(३) ( आधारभूत ) द्रव्य के विनाश से परत्वादि का बिनाश किस प्रकार होता है ? इस प्रश्न का उत्तर परत्वाधारायवे' इत्यादि ग्रन्थ से दिया गया है। उत्पन्न होनेवाले परत्व के आधारभूत अवधि प्रव्य ही (प्रकृत में 'परत्वाधार शब्द से इष्ट है) इस (द्रव्य ) के अवयव में उत्पन्न हुई क्रिया जिस समय ( अपने आधारभूत एक अवयव द्रव्य का) दूसरे अवयव से विभाग को उत्पन्न करती है, उसी समय अपेक्षाबुद्धि भी उत्पन्न होती है। इसके बाद जिस समय विभाग से द्रव्य के उत्पादक संयोग का वि नाश
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४०४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
बुद्धिरुत्पद्यते । ततो विभागाद् यस्मिन्नेव काले संयोगविनाशः, तस्मिन्नेव काले परत्वमुत्पद्यते । ततः संयोगविनाशाद् द्रव्यविनाशः, तद्विनाशाच्च तदाश्रितस्य गुणस्य विनाशः !
द्रव्यापेक्षा बुद्धयोर्युगपद्विनाशादपि कथम् ? यदा परत्वाधारावयवे
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[ गुणे परत्वापरत्व
इसके बाद जिस समय उक्त विभाग के द्वारा परत्वादि के आधारभूत द्रव्य के उत्पादक दोनों अवयवों के संयोग का नाश होता है, उसी समय परत्वादि गुणों की उत्पत्ति भी होती है । इसके बाद ( उक्त ) संयोग के विनाश से ( परत्वादि के आधारभूत ) द्रव्य का नाश होता है, एवं द्रव्य के विनाश से उसमें रहनेवाले परत्वादि गुणों का भी नाश हो जाता है ।
( ४ ) एक ही समय ( परत्वादि के आधारभूत ) द्रव्य और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों के विनाश से परत्वादि गुणों का विनाश ( कहाँ और किस
न्यायकन्दली
संयोगविनाशाद् द्रव्यविनाशः । ततो द्रव्यविनाशात् तदाश्रितस्य गुणस्य विनाशः । तदानीमेव परत्वसामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धेविनाशः, आश्रयविनाशाच्च दिपिण्डसंयोगविनाश इत्यनयोर्न हेतुत्वं सहभावित्वात् ।
द्रव्यापेक्षा बुद्धयोर्युगपद्विनाशादपि कथम् । यदैव परत्वाधारावयवे कर्मोत्पद्यते तदेवापेक्षा बुद्धिरुत्पद्यते । कर्मणा चावयवान्तराद् विभागः क्रियते, परत्वस्योत्पत्तिरित्येकः कालः । ततो यस्मिन्नेव कालेऽवयवविभागाद् द्रव्यारम्भक
होता है, उसी समय अपेक्षाबुद्धि के द्वारा परत्व की भी उत्पत्ति होती है । इसके बाद उक्त संयोग के विनाश से ( अवयवि ) द्रव्य का विनाश होता है। चूँकि परत्वगुण में रहनेवाले सामान्य के ज्ञान से अपेक्षा बुद्धि का विनाश एवं ( उक्त अवयवी रूप ) अभय के विनाश से दिशा और पिण्ड के संयोग का विनाश, ये दोनों भी उसी समय उत्पन्न होते हैं, अतः ( परत्व के विनाशक रूप में कथित होने पर भी ) ये दोनों प्रकृत में परत्वादि के विनाशक नहीं हो सकते ।
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( ४ ) एक ही समय उत्पन्न होनेवाले द्रव्य का विनाश, और अपेक्षा बुद्धि का विनाश इन दोनों से किस प्रकार परत्वादि का विनाश होता है ? 'द्रव्यापेक्षा बुद्धयोः' इत्यादि से इस प्रश्न का उपपादन किया गया है, एवं 'यदेव परत्वाधारावयबे' इत्यादि से उसके समाधान का उपपादन हुआ है । ( जहाँ ) जिस समय परत्व के
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४०५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्मोत्पद्यते तदैवापेक्षाबुद्धिरुत्पद्यते । कर्मणा चावयवान्तराद् विमागः क्रियते, परत्वस्योत्पत्तिरित्येकः कालः । ततो यस्मिन्नेव कालेऽवयवविभागाद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशस्तस्मिन्नेव काले सामान्यबुद्धिरुत्पद्यते, तदनन्तरं संयोगविनाशाद् द्रव्यविनाशः, सामान्यक्रिया ) और अपेक्षाबुद्धि दोनों एक ही समय उत्पन्न होती हैं, एवं क्रिया उसी समय दोनों अवयवों में विभाग को उत्पन्न करती है, एवं ( अपेक्षाबुद्धि ) परत्वादि गुणों को उत्पन्न करती है। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद जिस समय उक्त विभाग से द्रव्य के उत्पादक संयोग का विनाश होता है, उसी समय (परत्वादिगुणों में रहनेवाली ) सामान्य (जाति) विषयक बुद्धि मी उत्पन्न होती है। इसके बाद ( उक्त संयोग के नाश से)
न्यायकन्दली संयोगविनाशः, तस्मिन्नेव काले परत्वसामान्यज्ञानमुत्पद्यते। तदनन्तरं संयोगविनाशाद् द्रव्यविनाशः, सामान्यबुद्धश्चापेक्षाबुद्धेरपि विनाश इत्येकः कालः । ततो द्रव्यापेक्षाबुद्धयोविनाशात् परत्वस्य विनाशः, प्रत्येकमन्यत्रोभयोरपि विनाश प्रति कारणत्वप्रतीतेः । इह चान्यतरविशेषानवधारणादुभयोरपि विनाशं प्रति कारणत्वम् ।
आधारभूत द्रव्य के अवयव में क्रिया उत्पन्न होती है, उसी समय क्रिया से उसके आधारभूत अवयव द्रव्य का दूसरे अवयव से विभाग उत्पन्न होता है, एवं ( उक्त अवयवी द्रव्य में ) परत्व की भी उत्पत्ति होती है। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं । इसके बाद जिस समय अवयवों के विभाग से द्रव्य ( अवयवि ) के उत्पादक संयोग का विनाश होता है, उसी समय परत्व ( में रहनेवाले ) सामान्य का ज्ञान भी उत्पन्न होता है। इसके बाद (अवयवों के) संयोग के विनाश से द्रव्य का विनाश होता है, एवं कथित सामान्य विषयक ज्ञान से अपेक्षा बुद्धि का भी विनाश होता है। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद जो परत्व का विनाश होता है वह द्रव्य विनाश और अपेक्षाबुद्धि का विनाश इन दोनों से ही होता है। क्योंकि इन दोनों में से प्रत्येक में परत्व विनाश की कारणता स्वीकृत हो चुकी है। एवं दोनों में से किसी एक में किसी विशिष्टता की प्रतीति नहीं होती, जिससे कि किसी एक को ही कारण माने दूसरे को नहीं, अतः (समानयुक्ति रहने के कारण) दोनों को ही परत्व-विनाश का कारण मानना पड़ता है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे परत्वापरत्व
प्रशस्तषादभाष्यम् बुद्धेश्चापेक्षावुद्धिविनाश इत्येकः कालः । ततो द्रव्यापेक्षाबुद्धयोविनाशात् परत्वस्य विनाशः ।
द्रव्यसंयोगविनाशादपि कथम् ? यदा परत्वाधारावयवे कर्मोत्पन्नमवयवान्तराद् विभागं करोति तस्मिन्नेव काले पिण्डकर्मापेक्षाबुद्धयोर्युगपदुत्पत्तिः । ततो यस्मिन्नेव काले परत्वस्योत्पत्तिस्तस्मिन्नेव काले विभाद्रव्य का नाश एवं उक्त सामान्यविषयक बुद्धि और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों का भी नाश होता है। इसके बाद उक्त द्रव्यनाश और अपेक्षाबुद्धि का विनाश इन दोनों से परत्वादि गुणों का विनाश होता है।
(५) (प्र०) द्रव्यनाश और संयोगनाश इन दोनों से परत्वादि गुणों का विनाश ( कहाँ और ) किस स्थिति म होता है ? ( उ० ) ( जहाँ ) जिस समय परत्वादि के आधारभूत द्रव्य के अवयव में उत्पन्न क्रिया उसके दूसरे अवयव से विभाग को उत्पन्न करती है, उसी समय परत्वादि के आधार. भूत ( अवयवि ) द्रव्य में भी क्रिया एवं अपेक्षाबुद्धि दोनों की उत्पत्ति पहिले की तरह होती है, इसके बाद जिस समय परत्वादि गुणों की उत्पत्ति होती है, उसी
न्यायकन्दली द्रव्यसंयोगविनाशादपीत्यादि। द्रव्यसंयोगविनाशादपि कथं ? विनाशः ? यदा परत्वाधारावयवे कर्मोत्पन्नमवयवान्तराद् विभागं करोति, तस्मिन्नेव काले पिण्डकर्मापेक्षाबुद्धयोयुगपदुत्पत्तिः। ततो यस्मिन्नेव काले परत्वस्यो. त्पत्तिस्तस्मिन्नेव कालेऽवयवविभागाद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः, पिण्डकर्मणा च दिपिण्डस्य च विभाग: नियत इत्येकः कालः। ततो यस्मिन्नेव काले सामान्यबुद्धिरुत्पद्यते तस्मिन्नेव काले द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशात् पिण्ड
(५) 'द्रव्यसंयोगादपि' इत्यादि भाष्यग्रन्थ के द्वारा यह प्रश्न किया गया है कि द्रव्य का विनाश और संयोग का विनाश इन दोनों से परत्वादि का विनाश कैसे होता है ? ( उ० ) ( जहाँ ) जिस समय परत्वादि के आधारभूत अवयव में कर्म उत्पन्न होकर अपने आश्रयरूप अवयव का दूसरे अवयवों से विभाग को उत्पन्न करता है, उसी समय एक साथ ही अवयवी में क्रिया और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों की उत्पत्ति होती है । इसके बाद जिस समय परत्व की उत्पत्ति होती है, उसी समय अवयवों के विभाग से द्रव्य के उत्पादक संयोग का भी विनाश होता है। एवं अवयवी की क्रिया के द्वारा दिशा से अवयवि कविभाग भी उत्पन्न होता है। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद जिस समय : परत्व गुण में रहने वाले ) सामान्य का ज्ञान होता है, उसी समय द्रव्य के उत्पादक संयोग के विनाश से अवयवी का विनाश भी उत्पन्न होता
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
४०७
प्रशस्तपादभाष्यम् गाद् द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः, पिण्डकर्मणा दिपिण्डस्य च विभागः क्रियत इत्येकः कालः। ततो यस्मिन्नेव काले सामान्यबुद्धिरुत्पद्यते, तस्मिन्नेव काले द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशात् पिण्डविनाशः, पिण्डसमय विभाग से द्रव्य के उत्पादक संयोग का नाश, और ( उक्त अवयविरूप) पिण्ड की क्रिया से पिण्ड का पूर्व दिक्प्रदेश से विभाग, ये दोनों काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद जिस समय सामान्य विषयक बुद्धि उत्पन्न होती है, उसी समय ( अवयवि) द्रव्य के उत्पादक संयोग के विनाश से (परत्वादि के आधारभूत अवयवि) पिण्डद्रव्य का विनाश, और पिण्ड के विनाश से (पूर्वदिक् प्रदेश के साथ ) पिण्डसंयोग का विनाश भी होता
न्यायकन्दली विनाशः, पिण्डविनाशाच्च पिण्डसंयोगविनाशः, ततो गुणबुद्धिसमकालं पिण्डदिपिण्डसंयोगविनाशात् परत्वस्य विनाशः। अपेक्षाबुद्धिविनाशस्तु न कारणम् , तदानीमेव सामान्यबुद्धस्तस्य सम्भवात् ।।
संयोगापेक्षाबुद्धयोयुगपद्विनाशादपि कथम् । यदा परत्वमुत्पद्यते तदा परत्वस्याधारे द्रव्ये कर्म, ततो यस्मिन्नेव काले परत्वसामान्यबुद्धिरुत्पद्यते परत्वस्याधारे, तस्मिन्नेव काले पिण्डकर्मणा दिपिण्डविभागः क्रियते। ततः सामान्यबुद्धितोऽपेक्षाबुद्धिविनाशो दिपिण्डविभागाच्च दिपिण्डसंयोगहै। एवं अवयवी के विनाश से उसमें रहने वाले संयोग का भी विनाश होता जाता है । इसके बाद जिस समय परत्व गुण (विशिष्टद्रव्य ) की बुद्धि उत्पन्न होती है, उसी समय परत्व का विनाश भी होता है । अपेक्षाबुद्धि का विनाश यहाँ परत्व के विनाश का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि परत्र के विनाश के काल में ही परत्व में रहनेवाले सामान्य के ज्ञान से वह उत्पन्न होती है।
(६)(प्र. ) एक ही समय संयोग और अपेक्षाबुद्धि दोनों के विनाश से परत्व का विनाश किस प्रकार होता है ? ( उ० ) ( इस प्रकार होता है कि ) जिस समय परत्व उत्पन्न होता है उसी समय परत्व के आधार भूत द्रव्य में क्रिया भी उत्पन्न होती है । इसके बाद जिस समय परत्व में रहने वाले सामान्य का ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी समय परत्व के आधारभूत द्रव्य में उसी में रहनेवाली क्रिया से दिशा के साथ उसका विभाग भी उत्पन्न होता है। इसके बाद परत्व में रहनेवाले सामान्य विषयक बुद्धि के विनाश से अपेक्षाबुद्धि का विनाश उत्पन्न होता है, एवं दिशा और ( परत्व के
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४०८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे परत्वापरत्व
प्रशस्तपादभाष्यम् विनाशाच्च पिण्डसंयोगविनाशः । ततो गुणबुद्धिसमकालं पिण्डदिपिण्डसंयोगविनाशात् परत्वस्य विनाशः ।
संयोगापेक्षाबुद्धयोर्युगपद्विनाशादपि कथम् ? यदा परत्वमुत्पद्यते तदा परत्वाधारे कर्म, ततो यस्मिन्नेव काले परत्वसामान्यबुद्धिरुत्पद्यते, तस्मिन्नेव काले पिण्डकर्मणा दिपिण्डविभागः क्रियते, ततः सामान्यहै। इसके बाद ( परत्वादि ) गुणविषयक बुद्धि की उत्पत्ति के समय (परत्वादि के आधारभूत ) पिण्ड के नाश और पिण्ड का (पूर्वदिक प्रदेश के साथ ) संयोग के नाश, इन दोनों से परत्वादि गुणों का विनाश होता है।
(६) एक ही समय संयोग और अपेक्षाबुद्धि दोनों के विनाश से ( कहाँ और ) किस स्थिति में परत्वादिगुणों का विनाश होता है ? ( उ० ) ( जहाँ ) जिस समय परत्वादि की उत्पत्ति होती है, उसी समय उनके आधारभूत द्रव्यों में क्रिया भी उत्पन्न होती है। इसके बाद जिस समय परत्वादि गुणों में रहनेवाले ( परत्वत्वादि) सामान्यविषयक बुद्धि उत्पन्न होती है, उसी समय पिण्ड ( द्रव्य ) की क्रिया से पूर्वदिकप्रदेश के साथ पिण्ड ( द्रव्य ) का विभाग भी उत्पन्न होता है। इसके बाद उक्त सामान्यविषयक ज्ञान से अपेक्षाबुद्धि का विनाश और उक्त विभाग से पूर्वदिक्प्रदेश के साथ पिण्ड के संयोग का विनाश इतने कार्य एक समय में होते हैं। इसके बाद उक्त संयोगनाश और अपेक्षाबुद्धि का विनाश इन दोनों से परत्वादि गुणों का विनाश होता है।
न्यायकन्दली विनाश इत्येकः कालः । ततः संयोगापेक्षाबुद्धिविनाशात् परत्वस्य विनाशः । द्रव्यविनाशस्तु तदानीं नास्त्येवेति न तस्य हेतुत्वम् ।
त्रयाणां समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां विनाशादपि कथम् ? आधारभूत ) द्रव्य के विभाग से उन दोनों के संयोग का नाश होता है। इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद कथित ( दिपिण्ड ) संयोग और अपेक्षाबुद्धि इन दोनों के विनाश से परत्व का विनाश होता है। उस समय द्रव्य का विनाश नहीं है, अतः वह ( उस समय के परत्व विनाश का ) कारण नहीं हो सकता ।।
(७) 'त्रयाणाम्' इत्यादि वाक्य के द्वारा ( समवायि चासमवायि च निमित्तञ्च समवाय्य समवायिनिमित्तानि, सानि च कारणानि चेति समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानि) इस विग्रह के अनुसार यह प्रश्न किया गया है कि द्रव्य या रूप समवायिकारण, दिपिण्ड
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
४०६
प्रशस्तपादभाष्यम् बुद्धितोऽपेक्षाबुद्धिविनाशः, विभागाच्च दिपिण्डसंयोगविनाश इत्येका कालः । ततः संयोगापेक्षाबुद्धिविनाशात् परत्वस्य विनाशः। त्रयाणां समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां युगपद् विनाशादपि कथम् ? यदापेक्षाबुद्धिरुत्पद्यते तदा पिण्डावयवे कर्म, ततो यस्मिन्नेव काले कर्मणाऽ. वयवान्तराद् विभागः क्रियतेऽपेक्षाबुद्धेः परत्वस्य चोत्पत्तिस्तस्मिन्नेव काले पिण्डेऽपि कर्म, ततोऽवयवविभागात् पिण्डारम्भकसंयोग
(७) ( प्र.) समवायिकारण (परत्वादि के आधारभूत द्रव्य ) असमवायिकारण ( दिकप्रदेशसंयोग ) और निमित्तकारण ( अपेक्षाबुद्धि ) इन तीनों के नाश से परत्वादि गुणों का नाश ( कहाँ और ) किस स्थिति में होता है ? ( उ. ) जहाँ जिस समय अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति होती है, उसी समय ( परत्वादि के समवायिकारण ) पिण्ड के अवयव में क्रिया उत्पन्न होती है। इसके बाद जिस समय उक्त क्रिया से ( एक अवयव का ) दूसरे अवयव से विभाग उत्पन्न होता है, उसी समय अपेक्षाबुद्धि और परत्वादि गुण इन दोनों की उत्पत्ति होती है। एवं पिण्ड ( अवयवि) में भी क्रिया उसी समय उत्पन्न होती है। इसके बाद अवयवों के उक्त विभाग से पिण्ड के
न्यायकन्दली समवायि चासमवायि च निमित्तं च समवाय्यसमवायिनिमित्तानि, तानि च कारणानि चेति समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानि द्रव्यसंयोगापेक्षाज्ञानानि, तेषां त्रयाणां युगपद् विनाशात् कथं परत्वस्य विनाश इति प्रश्ने कृते प्रत्युत्तरमाह-यदेति । इत्येतत् सर्वं युगपद् भवति कारणयौगपद्यात्, ततश्च त्रयाणां समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां विनाशात् परत्वस्य विनाश इति । परत्वस्य विनाश इत्युपलक्षणमिदम् । अपरत्वस्याप्ययमेव विनाशक्रमो दर्शयितव्यः।
संयोग रूप असमवायिकारण, एवं अपेक्षाबुद्धि रूप निमित्तकारण, इन तीनों कारणों के एक ही समय विनाश के कारण परत्व का विनाश किस प्रकार होता है ? इसी प्रश्न के उत्तर में 'यदा' इत्यादि भाष्य सन्दर्भ लिखा गया है। अर्थात् जब एक ही समय उक्त तीनों कारणों के विनाश कारण समूह एकत्र हो जाते हैं, तो फिर तीनों का एक ही समय विनाश हो जाता है । इसके बाद परत्व के तीनों कारणों के विनाश से परत्व का विनाश होता है। इस प्रकरण में 'परत्वविनाश' शब्द उपलक्षणमात्र है ( नियामक नहीं), अतः इसीसे अपरत्व नाश का भी यही क्रम जानना चाहिए ।
५२
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
४१०
[गुणे बुद्धिप्रशस्तपादभाष्यम् विनाशः, पिण्डकर्मणा च दिकूपिण्डविभागः क्रियते, सामान्यबुद्धेश्चोत्पत्तिरित्येकः कालः। ततः संयोगविनाशात् पिण्डविनाशः, विभागाच्च दिकपिण्डसंयोगविनाशः, सामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धेविनाश इत्येतत् सर्व युगपत् त्रयाणां समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां विनाशात् परत्वस्य विनाश इति ॥
बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानं प्रत्यय इति पर्यायाः । सा चानेकप्रकारा, अर्थानन्त्यात् प्रत्यर्थनियतत्वाच्च । उत्पादक संयोग का विनाश, और अवयवी ( पिण्ड ) की क्रिया, उसका पूर्वदिकप्रदेश के साथ विभाग और सामान्य विषयक बुद्धि की उत्पत्ति, इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद उक्त संयोग के विनाश से पिण्ड का विनाश एवं पूर्वदिशा और पिण्ड के विभाग से इन दोनों के संयोग का नाश. एवं सामान्य ज्ञान से अपेक्षाबुद्धि का नाश होता है। इस प्रकार एक ही समय समवायिकारण ( परत्वादि के आधारभूत पिण्डद्रव्य ), असमवायिकारण ( उक्त पिण्ड का पूर्वादि दिक्प्रदेशों के साथ संयोग ) और निमित्त. कारण ( अपेक्षाबुद्धि ) इन तीनों के विनाश से (भी ) परत्वादि गुणों का विनाश होता है।
बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान और प्रत्यय ( ये सभी ) शब्द अभिधावृत्ति के द्वारा एक ही अर्थ के बोधक हैं।
यह अनेक ( अनन्त) प्रकार की है, क्योंकि इसके विषय अनन्त हैं और यह प्रत्येक विषय में स्वतन्त्र रूप से ( भी) अवश्य ही सम्बन्ध है।
न्यायकन्दली बुद्धिजे परत्वापरत्वे इति समथिते । अथ केयं बुद्धिरित्याहबुद्धिरित्यादि। प्रधानस्य विकारो महदाख्यमन्तःकरणं चित्तापरपर्यायं बुद्धिः । बुद्धी
यह समर्थन कर चुके है कि परत्व और अपरत्व दोनों ही बुद्धि से उत्पन्न होते हैं । किन्तु 'यह बुद्धि कौन-सी वस्तु है ?' (इस स्वाभावाविक प्रश्न का उत्तर) 'बुद्धिः' इत्यादि पङक्ति से देते हैं।
सांख्याचार्यों का कहना है कि प्रकृति (प्रधान) का महत् नाम का विकाररूप अन्तःकरण ही 'बुद्धि' है, जिसे 'चित्त' भी कहते हैं । इस बुद्धि की वह विषयाकार की
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प्रकरणम् )
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्याः सत्यप्यनेकविधत्वे समासतो द्वे विधे-विद्या चाविद्या चेति । तत्राविद्या चतुर्विधा-संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा ।
संशयस्तावत् प्रसिद्धानेकविशेषयोः सादृश्यमात्रदर्शनादुमयविशेषानुस्मरणादधर्माच्च किंस्विदित्युभयावलम्बी विमर्शः
यह ( बुद्धि व्यक्तिशः ) अनन्त प्रकार की होने पर भी संक्षेप में (१) विद्या ( यथार्थज्ञान ) और अविद्या ( अयथार्थ ज्ञान ) भेद से दो प्रकार की है। इनमें अविद्या के (१) संशय (२) विपर्यय (३) अनध्यवसाय और (४) स्वप्न, ये चार भेद हैं।
जिन दो वस्तुओं के साधारण धर्म पहिले से ज्ञात हैं, उन दोनों के केवल साधारण धर्म रूप सादृश्य के ज्ञान, एवं पश्चात् दोनों के असाधारण धर्मों के स्मरण और अधर्म इन ( तीनों हेतुओं) से 'यह अमुक वस्तु है ? या उससे भिन्न ?' इस प्रकार के दो विरुद्ध विषयों का ज्ञान ही 'संशय' है। यह (१) अन्तःसंशय और (२) बहिःसंशय भेद से दो प्रकार का
न्यायकन्दली न्द्रियप्रणालिकया बाह्यविषयोपरक्तायास्तदाकारोपग्रहवती सत्त्वगुणाश्रया वृत्तिानम्, प्राप्तविषयाकारोपग्रहायां बुद्धौ प्रतिबिम्बितायाश्चेतनाशक्तेस्तवृत्त्यनुकार उपलब्धिः । तथा चाह स्म भगवान् पतञ्जलि:"अपरिणामिनी हि भोक्तृशक्तिरप्रतिसङ्कमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंकान्तेव तद्वत्तिमनुभवतीति' इति । भोक्तृशक्तिरिति चितिशक्तिरुच्यते, सा चात्मैव । परिणामिन्यर्थ इति बुद्धितत्त्वे प्रतिसङ्क्रान्तेवेति प्रतिबिम्बिलेवेत्यर्थः । तद्वृत्तिमनुभवति बुद्धौ प्रतिबिम्बिता सती बुद्धिच्छायापत्त्या बुद्धिवृत्यनुकारिणी वृत्ति ही ज्ञान है, जिसमें सत्त्वगुण की प्रधानता रहती है, एवं जो ज्ञानेन्द्रिय के मार्ग से बुद्धि के निकलने पर विषयों के साथ उसके सम्बद्ध होने के कारण उत्पन्न होती है । एवं विषय के आकार में परिणत बुद्धि (ज्ञान में) प्रतिबिम्बित पुरुष के उस वृत्ति के अनुकरण को ही 'उपलब्धि' कहते हैं। जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने कहा है कि भोक्तृशक्ति अपरिणामिनी, एवं किसी में प्रतिबिम्बित होनेवाली नहीं है, किन्तु (बुद्धिरूप) परिणामी अथ में प्रतिबिम्बित की तरह उसकी वृत्तियों का अनुभव करती है। अभिप्राय यह है कि चितिशक्ति को ही भोक्तृशक्ति कहते हैं जो वस्तुतः आत्मा ही है। परिणामी अर्थ में- अर्थात् बुद्धितत्त्व में 'प्रतिसंक्रान्तेव' अर्थात् प्रतिबिम्बित की तरह तवृत्तिमनुभवति' अर्थात् बुद्धि को छाया पड़ने के कारण वह (चितिशक्ति ) बुद्धि की वृत्तियों का अनुकरण करने सी लगती है। सुखादि आकार के (अहं सुखो-इत्यादि
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४१२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
प्रशस्तपादभाष्यम् संशयः। स च द्विविधः ---अन्तर्बहिश्च । अन्तस्तावद् आदेशिकस्य सम्यङ् मिथ्या चोद्दिश्य पुनरादिशतस्त्रिषु कालेषु संशयो भवति-- 'किन्नु सम्यङ् मिथ्या वा' इति । है। (१) अन्तःसंशय ( का उदाहरण यह है कि जहाँ ) किसी ज्योतिषी ने ( एक समय एक व्यक्ति के ग्रहस्थिति को देखकर उसे ) कहा कि तुम्हें अमुक इष्ट या अनिष्ट फल ) भूत काल में मिल चुका है, या भविष्य में मिलनेवाला है (या) वर्तमान में भी है। उनका यह फलादेश सत्य हुआ। किन्तु उनके ही अन्य निर्देश मिथ्या सिद्ध हुए। ( ऐसी स्थिति में वही यदि ) पुनः फलादेश करते हैं तो उस व्यक्ति को ज्योतिषी के इस आदेश से उत्पन्न अपने ज्ञान में संशय होता है कि 'यह सत्य है या मिथ्या ?'
न्यायकन्दली भवतीत्यर्थः। बुद्धेविषयः सुखाद्याकारः प्रत्ययः। तथा चाह स एव भगवान्- 'शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, अनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रत्यवभासते" इति ।
एतत् सांख्यमतं निराकर्तुमाह-बुद्धिरित्यादि।
यस्या अमी पर्यायशब्दाः सा बुद्धिः। या पुनरियं प्रक्रियोपदर्शिता सा प्रतीत्यभावादेव पराणुद्यते । विषयहानोपादानानुगुणमुत्पादव्ययधर्मकमेकम, तदधिकरणं चापरम्, यस्य तदुत्पादात् प्रवृत्तिनिवृत्ती स्याताम्, इत्युभयं प्रत्यात्ममनुभयते, न प्रकारान्तरम् । या चास्या बुद्धवत्तिः सा कि बुद्धरन्याऽनन्या वा ? न तावदन्या, वृत्तिवृत्तिमतोरैकान्तिकतादात्म्याभ्युपगमात् । अथानन्या, तदा आकार के) प्रत्यय ही बुद्धि के विषय हैं। जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने ही कहा है कि पुरुष शुद्ध (अपरिणामी) होने पर भी बुद्धि को देखी हुई वस्तुओं को ही उसके पीछे देखता है। उसके बाद देखने ही के कारण विषय स रूप न होने पर भी विषय रूप से प्रतिभासित होता है।
इसी सांख्यमत का खण्डन करने के लिए 'बुद्धिः' इत्यादि पक्ति लिखी गई है । अर्थात् अभिधावृत्ति के द्वारा इन सभी शब्दों से जिसका बोध हो वही 'बुद्धि' है। सांख्य के अनुयायियों को जो रीति ऊपर लिखी गयी है वह साधारण प्रतीति के विरुद्ध होने के कारण ही रूण्डित हो जाती है। बुद्धि एक ऐसी वस्तु है जिसके द्वारा (अभिमत) विषयों को ग्रहण और (प्रतिकूल विषयों का) त्याग होता है। एवं जिसकी
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
४१३
प्रशस्तपादभाष्यम् बहिर्द्विविधः-प्रत्यक्षविषये चाप्रत्यक्षविषये च । तत्राप्रत्यक्षविषये तावत् साधारणलिङ्गदर्शनादुभयविशेषानुस्मरणादधर्माच्च संशयो भवति । यथाष्टव्यां विषाणमात्रदर्शनाद् गौर्गक्यो वेति । प्रत्यक्षविषयेऽपि स्थाणुपुरुषयोरूयतामात्रसादृश्यदर्शनाद्
बहिःसंशय दो प्रकार का है (१। जिसके विषय प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा गृहीत हों एवं (२) जिसके विषय प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत न हो सकें। इनमें अप्रत्यक्षविषय का बहिःसंशय वह है जो दोनों कोटियों में रहनेवाले ( साधारण) धर्म के ज्ञान, एवं दोनों कोटियों में से प्रत्येक के असाधारण धर्म की अनुस्मृति ( पश्चात्स्मरण ) और अधर्म इन कारणों से उत्पन्न होता है। जैसे जङ्गल में ( जाने पर ) केवल सींग के देखने पर यह संशय होता है कि यह ( सींगवाला) गो है या गवय ? प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत होनेवाले विषयों के संशय (का यह उदाहरण है कि ) स्थाणु और पुरुष दोनों में समान रूप से रहनेवाली उच्चता ( ऊँचाई ) रूप से सादृश्य का ज्ञान, दोनों में से प्रत्येक में रहनेवाली वक्रता
न्यायकन्दली बुद्धेरेकत्वे विषयाकारवतीनां तद्वत्तीनामप्येकत्वात् त्रिचतुरादिप्रत्ययो दुर्लभः, परस्परविलक्षणाकारसंवेदनाभावाद् बुद्धचारूढाकारमात्रवेदित्वाच्च पुरुषस्य । यथोक्तम्- 'बुद्धेः प्रतिसंवेदी पुरुषः' इति । वृत्तीनां वा नानात्वे बुद्धरपि नानात्वादेकत्वव्याघात इत्यादि दूषणमूह्यम् ।
बृद्धभेदं निरूपति—सा चानेकप्रकारेति । अत्र कारणमाह-अर्था
उत्पत्ति और विनाश दोनों ही होते हैं। एवं जिसका कोई दूसरा आश्रय है। जिसमें उसकी उत्पत्ति से प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही उपपन्न होती हैं। (बुद्धि के प्रसङ्ग में) इन्हीं दोनों प्रकारों का प्रत्येक आत्मा अनुभव करता है, दूसरे का नहीं। (इस प्रसङ्ग में यह प्रश्न भी उठता है कि) बुद्धि की यह कथित 'वृत्ति' बुद्धि से भिन्न है या अभिन्न ? साख्याचार्यगण वृत्ति और उसके आश्रय दोमों में अत्यन्त अभेद मानते हैं, अतः (उनके मत से) ये दोनों भिन्न तो हो नहीं सकते। यदि वृत्ति और वृत्तिमान में भेद मानें तो ये तीन है, ये चार ई' इत्यादि विभिन्न प्रकार की प्रतीतियाँ दुर्लभ होंगी, क्योंकि बुद्धि के एक होने के कारण उसकी वृति भी एक ही होगी, अतः वृत्तियों में परस्पर विशेष नहीं हो सकता, क्योंकि सभी आकार एक ही बुद्धि में आरूढ हैं । जैसा कि (भगवान् पतञ्जलि ने)
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे बुद्धि
प्रशस्तपादभाष्यम्
वक्रादिविशेषानुपलब्धितः स्थाणुत्वादिसामान्यविशेषानभिव्यक्तावुभयविशेषानुम्मरणादुभयत्राकृष्यमाणस्यात्मनः प्रत्ययो दोलायते-कि नु खल्वयं स्थाणुः स्यात् पुरुषो वेति । (टेढ़ापन ) और हस्तपादादि असाधारण धर्मों का अज्ञान, दोनों कोटियों में से प्रत्येक में रहनेवाले स्थाणुत्वपुरुषत्वादि जाति रूप विशेषधर्मों का अप्रत्यक्ष, एवं इन दोनों जातियों की पश्चात्स्मृति, इन सभी कारणों से पुरुष का चित्त झूले की तरह स्थाणु और पुरुष दोनों तरफ डोलता है और उसे संशय होता है कि यह ( सामने दीखनेवाला) स्थाणु है ? या पुरुष ?
न्यायकन्दली नन्त्यादिति । यदि नामार्थस्य विषयस्यानन्तत्वं बुद्धरनेकविधत्वे किमायातम् ? तत्राह-प्रत्यर्थनियतत्वाच्चेति । प्रत्यर्थं प्रतिविषयमस्मदादिबुद्धयो नियताः, अर्थाश्चानन्ता इति प्रत्येकं तत्र बुद्धयोऽप्यनन्ताः । यदि क्वचिदनेकविषयमेकं विज्ञानं तदपि तावदर्थनियतत्वात् तदर्थाद् विज्ञानान्तराद् विलक्षणमेवेत्यदोषः।
बुद्धेविषयभेदेन सत्यपि भेदे संक्षेपतो द्वैविध्यमाह-तस्या इति । निःसन्दिग्धाबाधिताध्यवसायात्मिका प्रतीतिविद्या, तद्विपरीता चाविद्येति । अत्र प्रतिपादनमात्रस्य विवक्षितत्वात् पश्चादुद्दिष्टामप्यविद्यां प्रथमं कथयतिकहा है कि 'बुद्धेः प्रति संवेदी पुरुषः ।' अर्थात् बुद्धि में आरूढ़ आकारों को ही पुरुष अनुभव करता है। वृत्ति को यदि अनेक मानें तो फिर बुद्धि को भी नाना मानना पड़ेगा ही, जिससे बुद्धि की एकता खतरे में पड़ जाएगी, इन सभी दोषों की भी कल्पना करनी चाहिए।
'सा चानेकप्रकारा' इत्यादि सन्दर्भ से बुद्धि के भेदों का निरूपण करते हैं । 'अर्थानन्त्यात्' इस पद के द्वारा इसमें हेतु दिखलाया गया है (कि बुद्धि अनेक प्रकार की क्यों हैं ?) यदि अर्थ या विषय अनन्त है, तो फिर इसलिए बुद्धियाँ क्यों अनेक हों ? इसी प्रश्न का समाधान 'प्रत्यर्थनियतत्वाच्च' इस वाक्य के द्वारा दिया गया है । 'प्रति अर्थ' अर्थात् प्रत्येक विषय में हमलोगों की बुद्धियाँ नियत रूप से अलग हैं । ये 'अर्थ' या विषय असंख्य हैं, फिर बुद्धियाँ भी अवश्य ही अनन्त होंगी। जहाँ कहीं अनेक विषयक एक ज्ञान उपलब्ध भी होता है, वह भी उतने अर्थों में नियत तो है ही, किन्तु जो अपने विषयों से भिन्नविषयक या अल्पाधिक-विषयक ज्ञानों से भिन्न भी हैं। इस प्रकार (विषयभेद से ज्ञानभेद
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तत्रेति । तयोविद्याविद्ययोर्मध्ये अविद्या चतुर्विधा चतुष्प्रकारा संशयविपर्ययानध्यवसायस्वप्नलक्षणा।।
नन्वविद्या चतुविधेति परिसंख्यानानुपपत्तिः, रूढस्य तर्कज्ञानस्यापि सम्भवात् । अनुभूयते ह्यन्तरा संशयं निर्णयं च तर्कः । तथा हि-उत्पत्तिधर्मक आत्मेत्येके। अनुत्पत्तिधर्मक इत्यपरे। ततो विप्रतिपत्तेः किस्विदयमुत्पत्तिधर्मा आहोस्विदेवं न भवतीति संशये विचारात्मकस्तर्कः प्रवर्तते। यद्ययमुत्पत्तिधर्मकः, तदैकस्यानेकशरीरादिसंयोगलक्षणः संसारस्तदत्यन्तविमोक्षलक्षणश्चापवर्गो नोपपद्यते। अनुत्पत्तिधर्मके तु ज्ञातरि स्यातां संसारापवर्गावित्यनुत्पत्तिधर्मकेणानेन भवितव्यमिति ।
किमस्य सम्भावनाप्रत्ययस्य प्रयोजनम् ? तत्त्वज्ञानमेव, प्रतिपक्षनिश्चयवत प्रतिपक्षसंशयेऽपि हि हेतोरप्रवृत्तिरेव, वस्तुनो द्वैरूप्याभावात् । यथार्भट्टमिश्राः
यावच्चाव्यतिरेकित्वं शतांशेनापि शङ्कयते । विपक्षस्य कुतस्तावद्धतोर्गमनिकाबलम् ॥ इति ।
के मानने में) कोई दोष नहीं है। 'तस्याः ' इत्यादि से कहते हैं कि विषयों के भेद से बुद्धियों के असंख्य भेद होने पर भी संक्षेपतः उसके दो ही प्रकार हैं । सन्देह से भिन्न वह निश्चयात्मक ज्ञान ही 'विद्या' है, जिसके विषय बाधित न हों। यहाँ जिस किसी प्रकार से विषयों का प्रतिपादन ही इष्ट है अतः पीछे कही गयी अविद्या का भी 'तत्र' इत्यादि से पहिले ही निरूपण करते हैं । 'तयोः' अर्थात् विद्या और अविद्या इन दोनों में अविद्या चतुर्विधा' अर्थात् (१) संशय (२) विपर्यय (३) अनध्यवसाय और (४) स्वप्न भेद से चार प्रकार की हैं।
(प्र.) 'अविद्या चार ही प्रकार की है' संख्या का यह नियम ठीक नहीं है क्योंकि अविद्या के अन्तर्गत इनसे भिन्न तर्क रूप पांचवें ज्ञान की भी सम्भावना है । क्योंकि संशय और विपर्यय के मध्यवर्ती तर्क का भी अनुभव होता है। जैसे कि कोई कहता है कि आत्मा की उत्पत्ति होती है। दूसरे उसे अनुत्पत्तिशील कहते हैं। इस विप्रतिपत्ति से यह संशय होता है कि 'आत्मा उत्पत्तिशील है या नहीं ?' इस संशय के बाद यह विचार रूप तर्क उपस्थित होता है कि अगर आत्मा उत्पत्तिशील वस्तु हो तो फिर अनेक शरीरों के साथ इसका सम्बन्ध रूप संसार, और उस सम्बन्ध के अत्यन्त विनाश रूप अपवर्ग ये दोनों ही अनुपपन्न होंगे। यदि इसे अनुत्पत्तिधर्मक मान लेते हैं, तो फिर कथित संसार और अपवर्ग दोनों ही उपपन्न हो जाते हैं । अतः इसे अनुत्पत्तिधर्मक ही होना चाहिए।
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४१६
४१६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ गुणे बुद्धिन्यायकन्दली अनेन तूत्पत्तिधर्मकत्वं व्युदस्यानुत्पत्तिधर्मकत्वं सम्भावयिताविषये विवेचिते सत्यसत्प्रतिपक्षत्वादनुमानं प्रवर्तते इति विषयविवेचनद्वारेण प्रमाणानुग्राहकतया तर्कस्तत्वज्ञानाय घटते, प्रमाणस्य करणत्वेनेतिकर्तव्यतास्थानीयतर्कसहायस्यैव स्वकार्य पर्यवसाात् । नानपेक्षितदृढमुष्टिनिपीडितो जाल्मकरपञ्जरोदरे विलुठन्नपि कठोरधारः कुठारः प्रतितिष्ठति निष्ठरस्यापि काष्ठस्य छेदाय । तथा चोक्तम् ---
नहि तत्करणं लोके वेदे वा किञ्चिदीदृशम् । इतिकर्तव्यतासाध्ये यस्य नानुग्रहेथिता ॥ इति ।
यदि पुनरेवं तर्को नेष्यते परस्यानिष्टापादनरूपः प्रसङ्गोऽपि नाभ्युपगन्तव्यः स्यात् ? स हि तर्कादनतिरिच्यमानात्मा, अस्ति च वैशेषिकाणामपि प्रसङ्गः, न प्रसङ्गो हेतुराश्रयासिद्धतादिदोषात् ।
(प्र०) इस 'सम्भावना प्रत्यय' रूप तर्क का प्रयोजन क्या है ? (उ०) तत्त्व का ज्ञान ही इसका भी प्रयोजन है। क्योंकि प्रतिपक्ष (बाध) निश्चय की तरह प्रतिपक्ष संशय के रहने पर भी हेतु की प्रवृत्ति नहीं होती है। क्योंकि कोई भी वस्तु (परस्पर विरुद्ध) दो रूपों का नहीं होता। जैसा कि भट्टमिश्र ने कहा है कि 'जब तक विपक्ष में अव्यतिरेकित्व अर्थात् बाधाभाव का संशय (भी) रहेगा, तब तक हेतु में साध्य की सिद्धि करने का सामर्थ्य कहाँ से आएगा।' इस प्रकार आत्मा से उत्पत्तिधर्मकत्व को हटा कर विषय के विवेचित होने पर सत्प्रतिपक्ष दोष के हट जाने के कारण सम्भावयिता (तर्क करनेवाला पुरुष) अनुमान में प्रवृत्त होता है। इस रीति से विषय-विवेचन के द्वारा प्रमाण का सहायक होने के कारण तर्क भी तत्त्वज्ञान का सम्पादक होता है। प्रमाण करण रूप है । 'इतिकर्त्तव्यता' (करण से कार्य सम्पादन की रीति) के साहाय्य के बिना कोई करण अपना कार्य नहीं कर सकता। प्रमाण रूप करण का तर्क ही 'इतिकर्तव्यता' की जगह है। अतः इसके साहाय्य से ही प्रमाण अपने कार्य में सफल हो सकता है। कैसा ही तीखे धार की कुल्हाड़ी हो, उसको पकड़नेवाला चाहे जितना बलवान् हो यदि वह गलत ढंग से उसको पकड़ता है, तो फिर उससे कठोर काठ का छेदन नहीं हो सकता, (अतः इतिकर्तव्यता का साहाय्य आवश्यक है)। जैसा कहा भी गया है कि लौकिक (कुठारादि) या वैदिक (यागादि) कोई भी ऐसा करण नहीं है, जिसे अपने कार्य के सम्पादन में इतिकर्तव्यता के साहाय्य की अपेक्षा न हो। इश प्रकार तत्त्वज्ञान के लिए उपयोगी तर्क को यदि स्वीकार नहीं करेंगे तो फिर (प्रसङ्ग) को भी मानना सम्भव नहीं होगा, क्योंकि वह भी प्रतिपक्षी के अनभीष्ट पक्ष का उपस्थापन स्वरूप ही है। इस प्रकार तर्क से प्रसङ्ग में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु वैशेषिक लोग भी प्रसङ्ग की सत्ता मानते ही हैं।
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-कि परपक्षाभावप्रतीतिस्तर्कः ? किं वा स्वपक्षसम्भावना ? आये पक्षे प्रमाणमेवेदम, ज्ञातुरनित्यत्वे संसारापवर्गयोरसंभव इति ज्ञानं यद्यप्रमाणम्, नास्माद् विपक्षाभावसिद्धिः, अप्रमाणेन कस्यचिदर्थस्य सिद्धरयोगादित्यत्रास्याप्रवृत्तिरेव विषयविवेकाभावात् । अथ सिद्धयत्यस्माद् विपक्षाभावस्तदा प्रमाणमिदं प्रत्यक्षादिषु कस्मिश्चिदन्तर्भविष्यति, तद्वयतिरेकेणान्यस्य प्रतीतिसाधनाभावादित्यकामेनाभ्युपगन्तव्यम् । प्रसङ्गोऽपि विरोधोद्भावनम्, तच्च कस्यचिद् बलीयसो विपरीतप्रमाणस्योपदर्शनम्। कस्तत्र विपरीतात् प्रमाणात् तदुपदर्शकाच्च वचनादन्यस्तर्कः ?
अथ स्वपक्षसम्भावनात्मकः प्रत्ययस्तर्कः ? अस्योत्पत्तौ कि कारणम ? न तावत्स्वपक्षसाधकं प्रमाणम्, तस्याप्रवृत्तः। तर्केण विवेचिते विषये स्वपक्षसाधक प्रवर्तते । तदेव यदि तस्य कारणम्, मुव्यक्तमन्योन्याश्रयत्वम् ।
विपक्षाभावे प्रतीते स्वपक्षसम्भावनोपजायत इति विपक्षाभावप्रतीतिरस्य कारणमिति चेत् ? तहि विपक्षाभावलिङ्गकमनुमानमेवैतत्, परस्परविरुद्धयोरेकप्रतिषेधस्येतरविधिनान्तरीयकत्वात् । भवत्येवं यदि विषयमवधार
(उ०) इस प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्तियों) का कहना है कि तक (१) प्रतिपक्षी से माने हुए सिद्धान्त के अभाव का प्रतीतिरूप है ? अथवा (२) अपने सिद्धान्तपक्ष का सम्भावनारूप है ? यदि इनमें पहिला पक्ष मानें, तब तो तर्क का प्रमाण ही मानना पड़ेगा (जिससे तर्क विद्यारूप ज्ञान में ही अन्तर्भूत हो जाएगा) क्योंकि 'ज्ञाता' (आत्मा) को यदि अनित्य मानेंगे तो संसार और अपवर्ग दोनों ही अनुपपन्न होंगे. यह ज्ञान यदि अप्रमाण है, तो इससे विपक्षाभा (अर्थात् आत्मा में नित्यत्व) की सिद्धि न हो सकेगी, क्योंकि अप्रमाणभूत ज्ञान से किसी भी विषय की सिद्धि सम्भव नहीं है । अतः प्रकृत में विपक्ष के अभाव की सिद्धि के लिए उक्त तर्करूप ज्ञान प्रवृत्त ही नहीं होगा, क्योंकि उसका विषय ही निद्दिष्ट नहीं है । यदि तक से विपक्षाभाव की सिद्धि होती है, तो फिर यह प्रमाण ही है। अतः प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण में ही अन्तर्भूत हो जाएगा । क्योंकि इच्छा न रहने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों को छोड़कर प्रतीति का कोई दूसरा साधन नहीं है । 'प्रसङ्ग' भी विरोध के उद्भावन को छोड़कर और कुछ नहीं है। विरोध का यह उद्भावन बलिष्ठ विरोधी प्रमाण का प्रदर्शन ही है । तर्क भी विरोधी प्रमाणों और उनके प्रतिपादक वाक्यों से भिन्न और कुछ नहीं है।
यदि तर्क को अपने पक्ष के सम्भावनात्मक ज्ञान रूप द्वितीय पक्ष मानें, तो फिर पूछना है कि इसका कारण कौन है ? अपने पक्ष का साधक प्रमाण तो उसका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह इस ज्ञान के उत्पादन के लिए प्रवृत्त ही नहीं होगा, क्योंकि तर्क के द्वारा विचार किये हुए विषयों में ही अपने पक्ष का साधक प्रमाण प्रवृत्त होता है, यही प्रमाण अगर तर्क का भी कारण हो तो इस पक्ष में अन्योन्याभय दोष स्पष्ट
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
यत्येदमेवेदमिति । अनुजानात्ययमेकतरधर्मं न त्ववधारयति । न चायं संशयोऽपि, उभयकोटिसंस्पर्शाभावात् । किन्तु संशयात् प्रच्युतो निर्णयं चाप्राप्तः सम्भावनाप्रत्ययोsन्य एव । तथा च लोके वक्तारो भवन्ति - एवमहं तर्कयामीति । न, योग्यतावधारणाद् यत्र विपक्षाभावस्तत्रान्यतरपक्षोपपत्तिः, यत्र तु तस्य सम्भवस्तत्रानुपपत्तिरित्यन्वयव्यतिरेकदर्शी विपक्षाभावं प्रतिपद्यमानः सभ्भावयत्ययमनुत्पत्तिधर्मको भविष्यतीत्यस्मिन्नर्थे प्रमाणमेतत्प्रतिपादनाय योग्योऽयमर्थ इति प्रमाणयोग्यतां विषयस्याध्यवस्यतीति अनुमानमेव । इत्थमेव च प्रमाणमनुगृह्णाति योग्यताप्रतीतेः प्रमाणप्रवृत्तिहेतुत्वात् । अन्यथा पुनरिदं सम्भावनामात्रमनर्थकमेव स्वयमप्रमाणस्य सिद्धयुपलम्भयोरनङ्गत्वाद् विषयविवेकस्यापि विपक्षाभावं प्रतिपादयता बाधकप्रमाणेनैव कृतत्वात् । है । ( प्र०) विपक्ष के अभाव की प्रतीति से अपने पक्ष की सम्भावना उत्पन्न होती है, इस प्रकार विपक्षाभाव की प्रतीति स्वपक्षसम्भावना का कारण है । ( उ० ) तो फिर स्वपक्ष की सम्भावना परपक्षाभावहेतुक अनुमान ही है, क्योंकि परस्पर विरुद्ध दो पक्षों में से एक का प्रतिषेध तबतक नहीं किया जा सकता जबतक दूसरे की विधि न हो ( प्र ० ) किन्तु इस प्रकार की प्रतीतियाँ भी तो होती हैं कि 'यह इसी प्रकार है' या 'इन दोनों में से एक को जानते तो हैं, किन्तु निश्चय नहीं कर सकते' । यह दूसरा ज्ञान संशय रूप नहीं है, क्योंकि इसमें दो कोटि विषय नहीं है । किन्तु संशय से आगे बढ़ा हुआ, एवं निश्चय स्वरूप को अप्राप्त यह सम्भावनाप्रत्यय, प्रत्यक्ष संशय और निश्चय से भिन्न एक अलग ही ज्ञान है । साधारण जन भी ऐसा कहते हैं कि 'मैं ऐसा तर्क करता हूँ' ! ( उ० ) उक्त कथन ठीक नहीं है । क्योंकि योग्यता निश्चित रहने के कारण जहाँ कोई विपक्ष नहीं रहता है, वहाँ दो में से एक पक्ष की उपपत्ति ही होती है, जहाँ योग्यता की सम्भावना भर होती है, वहाँ एक पक्ष की अनुपपत्ति होती है । इस अन्वय और व्यतिरेक का ज्ञान जिस पुरुष को है, वह विपक्ष के अभाव को समझता हुआ यह सम्भावना करता है कि आत्मा अनुत्पत्तिधर्मक ही होगी, इस विषय को समझाने के लिए (उक्त सम्भावना प्रत्यय का विषय ) आत्मा का यह अनुत्पत्तिधर्मकत्व सर्वथा उपयुक्त है । एवं इस अर्थ को समझाने के लिए उक्त विगय सर्वथा उपयुक्त है । इस प्रकार आत्मा के अनुत्पत्तिधर्मकत्व के विषय में प्रमाण से उत्पन्न होती है । अतः यह अनुमान ही है । उक्त रीति से ही भी होता है । प्रमाण में विषय को उचित रूप में समझाने की योग्यता की प्रतीति तर्क से ही होती है, यह योग्यता की प्रतीति ही प्रमाण की प्रवृत्ति का कारण है । यदि ऐसी बात न हो तो फिर यह सम्भावनाप्रत्ययरूप तर्क व्यर्थ ही होगा, अप्रमाण है, वह न किसी के स्थापन में न किसी के खण्डन में ही सहायक हो सकता है । विषय के विवेक का ज्ञान तो विपक्षाभाव के प्रतिपादक बाधक प्रमाण से ही हो जाएगा !
होने की योग्यता निश्चित तर्क प्रमाण का सहायक
क्योंकि तर्क स्वयं
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[ गुणे बुद्धि
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अन्ये तु संशयप्रभेद एव तर्कोऽनवधारणात्मकत्वादित्याहुः ।
संशयस्तावत् । तावच्छब्दः क्रमार्थः। संशयस्तावत् कथ्यते इत्यर्थः । प्रसिद्धानेकविशेषयोरिति। प्रसिद्धाः पूर्व प्रतीता अनेकविशेषा असाधारणधर्मा चक्रकोटरादयः शिरःपाण्यादयश्च ययोः स्थाणुपुरुषयोस्तयोः सादृश्यमात्रस्य साधारणधर्ममात्रस्य क्वचिदेकत्र मिणि दर्शनादुभयोः स्थाणुपुरुषयोविशेषाणां वनकोटरादीनां शिरःपाण्यादीनां च पूर्व प्रतीतानां स्मरणादधर्माच्च किंस्विदिति उभयावलम्बी विमर्शः संशयः। किं स्थाणुः ? कि वा पुरुषः ? इति अनवस्थितोभयरूपेणोभयविशेषसंस्पर्शी विमर्शी विरुद्धार्थावमर्शो ज्ञानविशेषः संशयः।
____सादृश्यमात्रदर्शनादिति । मात्रग्रहणसामा विशेषाणामनुपलम्भो गम्यते। दर्शनशब्द उपलब्धिवचनो न प्रत्यक्षप्रतीतिवचनोऽनुमेयस्यापि सामान्यस्य संशयहेतुत्वात् । सादृश्योपलम्भाभिधानाद्धयंपलम्भोऽपि लभ्यते । अस्यानुपलम्भे तद्धर्मस्य सादृश्यस्योपलम्भाभावात् संशयोऽपि धर्मिण्येव, न सादृश्ये, तस्य निश्चितत्वात् । सादृश्यमिति च साधारणधर्ममात्रं कथ्यते, नानेकार्थसमवेतं सादृश्यम्, ___ कोई सम्प्रदाय तर्क को निश्चयात्मक न होने के कारण संशय रूप ही मानते हैं।
'संशयस्तावत्' इत्यादि सन्दर्भ का 'तावत्' शब्द 'क्रम' का बोधक है, तदनुसार इसका यही अर्थ है कि क्रमप्राप्त संशय का निरूपण करते हैं । (प्रसिद्ध) 'अनेकविशेषयोः' (इत्यादि सन्दर्भ का) "प्रसिद्धा अनेकविशेषा ययोः, तयोः सादृश्य मात्रस्य दर्शनादुभययोः स्मरणादधर्माच्च किस्विदित्युभयालम्बी विमर्शः संशय.” इस विवरण के अनुसार स्थाणु एवं पुरुष रूप जिन दो धर्मियों में से स्थाणु की वक्रता एवं कोटर प्रभृति, एवं पुरुष के शिर पैर प्रभृति पहिले से ज्ञात हैं, इन पूर्वज्ञात विषयों के स्मरण और अधर्म इन दोनों से 'किस्वित्' अर्थात् यह स्थाणु है या पुरुष' इत्यादि आकार के दोनों विषयों को ग्रहण करनेवाला 'विमर्श' अर्थात् विरुद्ध दो विषयों का विशेष प्रकार का ज्ञान ही 'संशय' है । 'सादृश्यमात्रदर्शनात्' इस वाक्य में 'मात्र' पद के उपादान से उन दोनों विषयों (स्थाणु और पुरुष ) के असाधारण धर्म की अनुपलब्धि का आक्षेप होता है (अर्थात् दोनों के सादृश्य ज्ञान की तरह दोनों के विशेष घर्मों का अज्ञान भी संशय के लिए आवश्यक है ) । उक्त वाक्य के 'दर्शन' शब्द से सभी प्रकार के ज्ञान अभिप्रेत हैं, केवल प्रत्यक्ष ही नहीं। क्योंकि अनुमान के द्वारा ज्ञात साधारण धर्म से भी संशय होता है। सादृश्य को धर्मज्ञान का कारण कहने से धर्मी के ज्ञान में संशय की कारणता स्वयं कथित हो जाती है। क्योंकि धर्मी के ज्ञान के बिना सादृश्य रूप धर्म का ज्ञान सम्भव ही नहीं हैं । धर्मी में ही संशय होता है, सादृश्यादि (उभय साधारण ) धर्मों में नहीं, क्योंकि वे तो निश्चित हैं । 'सादृश्य' शब्द से ( संशय के दोनों कोटियों में रहनेवाले ) सभी
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४२०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे संशय
न्यायकन्दली अस्पर्शवत्त्वस्य स्पर्शाभावस्याकाशान्तःकरणगतस्य प्रतीत्यात्मन्यणुत्वमहत्त्व. संशयदर्शनात् ।
तदयं संक्षेपार्थः-- यदायं प्रतिपत्तोभयसाधारणं धर्म क्वचिदेकत्र धर्मिण्युपलभते, कुतश्चिनिमित्तात् तस्य धर्मिणो विशेषं नोपलभते, पूर्वप्रतीतयोः स्मरति विरुद्धविशेषयोः, न चोभयोरेकत्र सम्भावयति सद्भावम्, विरुद्धत्वात् । नाप्यभावं तदविनाभूतस्य साधारणधर्मस्य दर्शनात् । तदास्य साधारणधर्मविषयत्वेनावधारिते मिणि विशेषविषयत्वेनानवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयो भवति ।
नन्वनवधारणात्मकः प्रत्ययश्चेति प्रतिषिद्धम् । इदं हि प्रत्ययस्य प्रत्ययत्वं यद्विषयमवधारयति ? न, उभयस्यापि सम्भवात् । अयं हि सामान्यविशिष्टधर्म्यपलम्भेन धर्मविशेषानुपलम्भविरुद्धोभयविशेषस्मरणसहकारिणा जन्यमान इति सामान्यविशिष्टं धर्मिणमवधारयन् स्थाणुर्वा पुरुषो वेति विशेषमनवधारयन्ननवधारणात्मकः प्रत्ययश्च स्यात् । दृष्टं साधारण धर्मों को समझना चाहिए । अनेक वस्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाली 'साहश्य' नाम की कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि आकाश और अन्त:करण (मन) इन दोनों में रहनेवाले स्पीभाव से आत्मा में अणुत्व और महत्त्व दोनों का संशय होता है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय किसी ज्ञाता को किसी धर्मी में दो वस्तुओं में समान रूप से रहनेवाले धर्म का ज्ञान होता है. एवं उन दोनों वस्तुओं के असाधारण धर्मों का अनुभव नहीं हो पाता। एवं दोनों धमियों के पहिले से ज्ञात विशेए धर्मों का स्मरण भी रहता है। उस समय वह यह समझता है कि इन दोनों विशेष धर्मों का एक धर्मी में रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, इन दोनों विशेष धर्मों का अभाव भी निश्चित नहीं है, क्योंकि उनके साथ अवश्य रहनेवाले साधारण धर्म तो देखे ही जाते हैं। उस समय साधारण धर्मों के आश्रयरूप से निश्चित उस धर्मी में विशेष धर्मों का जो अनिश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है वही 'संशय' है।
(प्र०) यह अनिश्चयात्मक है, एवं प्रतीति भी है, ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि सभी प्रतीतियों का यही काम है कि अपने विषयों को निश्चित रूप में समझा। (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि दोनों ही बातें हो सकती हैं, चूंकि यह संशयरूप ज्ञान सामान्य धर्म से युक्त धर्मी के ज्ञान, विशेष धर्मों की अनुपलब्धि, एवं विशेष धर्मों के स्मरण, इन तीनों से उत्पन्न होता है, अतः सामान्य धर्म विशिष्ट धर्मों का तो वह अवधारण कर सकता है, क्योंकि केवल धर्मी के अंश में वह अवधारणात्मक है ही, किन्तु 'स्थाणु है या पुरुष' यह ज्ञान इन (स्थाणुत्व और पुरुषत्व) दोनों का निश्चायक न होने के कारण 'अयं स्थाणुर्वा पुरुषः' तह संशयज्ञान रूप अनवधारणात्मक भी है, अतः अनवधारण
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
४२१ न्यायकन्दली हि यत्र विलक्षणसामग्री, तत्र कार्यमपि विलक्षणमेव, यथा प्रत्यभिज्ञानम् ।
__ संशयोऽप्यविद्या । सा चानिष्टा पुरुषस्येत्यधर्मकार्यत्वं तस्य दर्शितम् । अधर्माच्चेति। सामान्यं दृष्ट्वा यदेकं विशेषमनुस्मृत्य विशेषमनुस्मरति तदा सामान्यदर्शनस्य विनष्टत्वात् संशयहेतुत्वानुपपत्तिरिति
चेन्न, ' उभयविशेषविषयाभ्यां संस्काराभ्यां युगपत्प्रबुद्धाभ्यामुभयविशेषविषयकस्मरणजननात्, तत्काले च विनश्यदवस्थस्य सामान्यज्ञानस्य सम्भवात् ।
स च द्विविध इति भेदकथनम्। केन रूपेणेत्यत आह-अन्तबहिश्चेति। यः समानधर्मोपपत्तेरनेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यव्यवस्थातोऽनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च समानतान्त्रिकैः पञ्चविधः संशयो दर्शितः, स सर्वो द्वैविध्येनैव संगृहीतः ।
अन्तस्तावद् आदेशिकस्येति । आदेशिको ज्योतिवित्, तेनैकदा किञ्चिद् ग्रहसञ्चारादिनिमितमुपलभ्यादिष्टं किञ्चिदिष्टमनिष्टं वात्राभूद्वर्तते भविष्यति और प्रत्यय दोनों ही हो सकता है । जहाँ की सामग्री ( कारणसमूह ) विशेष रूप की होगी, वहाँ का कार्य भी विशेष प्रकार का ही होगा, जैसे कि 'प्रत्यभिज्ञा' ( अनुभवात्मक और स्मरणात्मक दोनों हैं ) ।
संशय भी अविद्या ही है, अयिद्या पुरुष का अनिष्ट करनेवाली है। इसीलिए कहा गया है कि 'संशय अधर्म से उत्पन्न होता है'। (प्र०) सामान्य ज्ञान के बाद एक विशेष धर्म का स्मरण कर अगर दूसरे विशेष धर्म का स्मरण होता है, तो फिर उस समय कथित सामान्य ज्ञान का ही विनाश हो जाएगा। अत: सामान्य दर्शन संशय का कारण नहीं हो सकता । (उ०) एक ही समय दोनों विशेष धर्मो के एक ही उद्बुद्ध संस्कार से दोनों विशेष धर्म विषयक एक ही ( समूहालम्बन ) स्मरण की उत्पत्ति हो सकती है, उस समय आगे क्षण में ही विनष्ट होनेवाले (विनश्यदवस्थ ) सामान्य धर्म के ज्ञान की सम्भावना है।
‘स च द्विविधः' इस वाक्य के द्वारा संशय के दो भेद कहे गये हैं। कौन से उसके दोनों प्रकार हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर ‘स च द्विविधः' इत्यादि से दिया गया है। समानतन्त्र ( न्याय ) के आचार्यों ने जो (१) साधारण धर्म के ज्ञान से उत्पन्न (२) अमाधारण धर्म के ज्ञान से उत्पन्न (३) विप्रतिपत्ति वाक्य से उत्पन्न (४) उपलब्धि की अव्यवस्था से उत्पन्न एवं (५) अनुपलब्धि की अव्यवस्था से उत्पन्न इत्यादि संशय के जो पाँच भेद गिनाये गये हैं, वे सभी इन्हीं दो प्रकारों में अन्तर्भूत हो जाते हैं ।
'आदेशिकस्य' इत्यादि से कहा गया है कि कथित संशय 'अन्तःसंशय' का उदाहरण है। 'आदेशिक' शब्द का यहाँ 'ज्योतिषशास्त्रवेत्ता' अर्थ है। उन्होंने एक समय किसी पुरुष को उसके ग्रहसञ्चारादि निमित्त को देखकर 'आदेश' किया कि 'यहाँ
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न्याय कन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे संशय
न्यायकन्दली
चेति, तत् तथैव तदा संवृत्तम् । अन्यदादिष्टं तद्वितथमभूत् । पुनरिदानीं तस्योत्पन्नं तथाभूतमेव निमित्तं दृष्ट्वादिशतोऽन्तः स्वज्ञाने संशयो भवति यदेतन्मम नैमित्तिकं ज्ञानमभूत् तत् सत्यमसत्यं वेति ।
बहिद्विविधः - प्रत्यक्षविषये अप्रत्यक्षविषये च । तत्र तयोर्मध्येऽप्रत्यक्षतावत् साधारणलिङ्गदर्शनादुभयविशेषानुस्मरणादधर्माच्च संशयो
विषये
भवति ।
यथाscort विषाणमात्रदर्शनाद गौर्गवयो वेति । वाटान्तरितस्य पिण्डस्याप्रत्यक्षस्य सामान्येन विषाण मात्रदर्शनानुमितस्य संशयविषयत्वादप्रत्यक्षविषयोऽयं संशयः ।
प्रत्यक्षविषयेऽपि कथयति - स्थाणुपुरुषयोरित्यादिना । स्थाणुपुरुषयोः सम्बन्धिनी योर्ध्वता तन्मात्रस्य प्रत्यक्षविषये पुरोवर्तिनि धर्माणि दर्शनात् । वक्रादिविशेषानुपलब्धित इत्यादिपदेन शिरः पाण्यादिपरिग्रहः । वक्रकोटरादेः
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कुछ इष्ट या अनिष्ट था, या है. अथवा होगा और वे उस प्रकार सङ्घटित भी हुए । फिर उसी प्रकार का निमित्त उपस्थित होते देखकर उस आदेशिक पुरुष को अपने ज्ञान में यह संशय होता है कि मेरा दह नैमित्तिक ज्ञान सत्य था या मिथ्या ?
अधर्म से जङ्गल
इस आकार का
विषयक इसलिए है कि
अप्रत्यक्ष पिण्ड ( गो और
(१) प्रत्यक्ष के द्वारा जानने योग्य विषयों का और ( २ ) अप्रत्यक्ष विषयों का बाह्य संशय के ये दो भेद हैं । ( गो और गवय ) दोनों में साधारण रूप से रहनेवाले धर्मों के ज्ञान से एवं पोछे दोनों के असाधारण धर्मो के स्मरण और में केवल सींग देखने से जो पुरुष को 'यह गो है अथवा गवय' संशय होता है वह 'अप्रत्यक्ष विषयक संशय' है । यह अप्रत्यक्ष विषाणरूप साधारण हेतु से अनुमित एवं रास्ते में छिपा हुआ गवय ) उसका विषय है । 'स्थाणुपुरुषयोः' इत्यादि ग्रन्थ से उस संशय का निरूपण किया है जिसका विषय प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाता है स्थाणु और पुरुष दोनों में समान रूप से रहनेवाली जो ऊँचाई ( ऊर्ध्वता ) है, आगे स्थित एवं प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत धर्मी में उसके प्रत्यक्ष से 'स्थाणुर्वा पुरुषः' यह संशय उत्पन्न होता है । एवं 'वक्रादिविशेषानुपलब्धित:' इस वाक्य में 'आदि' पद से ( पुरुष में रहनेवाले ) शिर एवं हाथ पैर प्रभृति धर्मों का ग्रहण समझना चाहिए। अर्थात् बक्रता और कोटर प्रभृति स्थाणु के विशेष धर्मों की अनुपलब्धि तथा शिर एवं पैर प्रभृति पुरुष के विशेष धर्मों की अनुपलब्धि से प्रकृत में प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का संशय होता है । 'स्थाणुत्वादिसामान्य विशेषानभिव्यक्तो' इस वाक्य में प्रयुक्त 'आदि' पद से 'पुरुषत्वादि' धर्मों का संग्रह अभीष्ट है । वक्रता और अभिव्यक्ति के कारण हैं । शिर और पैर प्रभृति धर्म हैं । इन ( स्थाणुत्व और पुरुषत्व के अभिव्यञ्जक ) धर्मों की अनुपलब्धि के कारण
कोटर प्रभृति धर्म स्थाणुत्व की पुरुषत्व की अभिव्यक्ति के कारण
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
४२३
प्रशस्तपादभाष्यम् विपर्ययोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषय एव भवति । प्रत्यक्षविषये तावत् प्रसिद्धानेकविशेषयोः पित्तकफानिलोपहतेन्द्रियस्यायथार्थालोचनाद् असन्निहितविषयज्ञानजसंस्कारापेक्षादात्ममनसोः संयोगादधर्माच्चातस्मिंस्तदिति प्रत्ययो विपर्ययः । यथा गव्ये
विपर्यय भी प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का ही होता है। विभिन्न जिन दो वस्तुओं के असाधारण धर्म ज्ञात हैं, उन दोनों में से ( विद्यमान ) एक वस्तु में ( अविद्यमान ) दूसरे वस्तु का ज्ञान ही 'विपर्यय' है। इसकी उत्पत्ति उक्त विषयों के यथार्थ ज्ञान का
न्यायकन्दली स्थाणुधर्मस्य शिरःपाण्यादेविशेषस्य पुरुषधर्मस्यानुपलब्धितः । स्थाणुत्वादिसामान्यविशेषानभिव्यक्तावित्यादिपदेन पुरुषत्वाद्यवरोधः। वनकोटरादयः स्थाणुत्वाभिव्यक्तिहेतवः, शिरःपाण्यादयः पुरुषत्वाभिव्यक्तिहेतवः, तेषामनुपलम्भात् । स्थाणुत्वपुरुषत्वयोरनभिव्यक्तौ सत्यामुभयोः स्थाणुपुरुषयोः प्रत्येकमुपलब्धानां विशेषाणामनुस्मरणादुभयत्राकृष्यमाणस्य उभयत्र स्थाणौ पुरुष वाकृष्यमाणस्य प्रतिपत्तुर्यदोर्ध्वतादर्शनात् स्थाणुरयमिति निश्चेतुमिच्छति तदा पुरुषविशेषानुस्मरणेन पुरुषे समाकृष्यत इत्युभयत्राकृष्यमाणः, अत एवास्य प्रत्ययो दोलायते, नेकत्र नियमेनावतिष्ठते । दोला साधर्म्यमनवस्थित रूपत्वमेव प्रत्ययस्य दर्शयति-किन्नु खल्वयं स्थाणुः स्यात् पुरुषो वेति ।
संशयानन्तरं विपर्ययं निरूपयति-विपर्ययोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषय जब स्थाणुत्व और पुरुषत्व का अनुभव नहीं हो पाता, किन्तु स्थाणु और पुरुष दोनों में से प्रत्येक के विशेष धर्मों का पीछे स्मरण होता है तब 'उभयत्राकृष्यमाणस्य' 'उभयत्र' अर्थात् स्थाणु और पुरुष दोनों तरफ आकृष्ट ज्ञाता जिस समय ऊँचाई के देखने से 'यह स्थाणु ही है' यह निश्चय करने के लिए इच्छुक होता है, उसी की स्मृति से पुरुष की तरफ भी आकृष्ट होता है। इस प्रकार ( स्थाणु और पुरुष ) दोनों में आकृष्यमाण पुरुष का प्रत्यय दोलायित होता है, अर्थात् नियमपूर्वक एक ही स्थान में नहीं ठहरता। दोला (झूला ) के साधर्म्य के द्वारा प्रत्यय में जो अनिश्चय स्वरूपता सूचित होती है, उसके स्वरूप का निर्देश किं नु खल्वयं स्थाणुः स्यात् पुरुषो वेति' इस वाक्य के द्वारा दिखलाया गया है।
संशय के बाद 'विपर्ययोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषय एव' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा विपर्यय का निरूपण करते हैं। इस वाक्य के 'अपि' शब्द के द्वारा यह प्रतिपादित
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४२४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुण विपर्ययन्यायकन्दली एव भवतीति। संशयस्तावत् प्रत्यक्षानुमानविषय एव भवतीति विपर्ययोऽपि तद्विषये भवतीत्यपिशब्दार्थः । प्रत्यक्षानुमानविषय एव भवतीति प्रत्यक्षानुमानव्यतिरेकेण प्रमाणान्तराभावात् । प्रत्यक्षविषये तावत् प्रसिद्धानेकविशेषयोरपि प्रसिद्धाः पूर्व प्रतीता अनेके विशेषाः सास्नादयः केसरादयश्च ययोस्तौ प्रसिद्धानेकविशेषौ गवाश्वौ, तयोर्मध्ये योऽतस्मिन्ननश्वे गवि तदिति प्रत्ययोऽश्व इति प्रत्ययः स विपर्ययः ।
ननु यदि गवि गोत्वसास्नादयश्च विशेषाः परिगृह्यन्ते, तदा विपर्ययो न भवति । भवति चेदस्यानुपरमप्रसङ्गस्तत्राह-अयथार्थालोचनादिति । अयथार्थालोचनं यथार्थालोचनस्याभावो यथासावर्थो गौः सास्नाादिमांस्तथाग्रहणाभाव इति यावत् । तस्मादस्मिस्तदिति प्रत्ययो भवतीति । अनेन विशेषानुपलम्भस्य कारणत्वमुक्तम् । सन्निहिते पिण्डे गोत्वस्याग्रहणे को हेतुः, को वा हेतुरसन्निहितस्याश्वत्वस्य प्रतीतावित्याह-पित्तकफानिलोपहतेन्द्रियस्येति । पित्तं च कफाचानिलश्च तेरुपहतं दूषितमिन्द्रियं यस्य, तस्यायं विपर्यय इति। वातपित्तश्लेष्मादिदोषाणामसन्निहितप्रतिभासे सन्निहितार्थाप्रतिभासे च सामर्थ्यं समर्थितम् । यदि दोषसामर्थ्यादेवासन्निहितं हुआ है कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा ज्ञात विषयों का ही संशय होता है, उसी प्रकार 'विपर्यय' भी प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से ज्ञात विषयों का ही होता है, क्योंकि इन दोनों से भिन्न कोई प्रमाण ही नहीं है। प्रत्यक्षविषये तावत्' इत्यादि से प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषय का विपर्यय दिखलाया गया है । 'प्रसिद्धा अनेके विशेषा ययोः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व में ज्ञात ( गाय के ) सास्नादि विशेष धर्म एवं ( अश्व के ) केसरादि विशेष धर्म जिन दो वस्तुओं के हैं, वे दोनों ही अर्थात् गो और अश्व ही लिखित प्रसिद्धानेकविशेषयोः' इस पद के अर्थ हैं। इन दोनों में से 'अतस्मिन्' अर्थात् जो तत्स्वरूप नहीं है उसमें अर्थात् अश्व से भिन्न गो में 'तत्' अर्थात् 'यह अश्व है' इस आकार का जो प्रत्यय वही विपर्यय' है। (प्र.) यदि गो के गोत्व और सास्ना प्रभृति असाधारण धर्म गृहीत होते हैं तो फिर उक्त ज्ञान विपर्यय ही नहीं होगा। यदि उन असाधारण धर्मों के ज्ञान के रहते हुए भी उक्त विपर्ययरूप ज्ञान हो सकता है तो फिर उसकी विरति ही नहीं होगी। इसी प्रश्न के उत्तर के लिए 'अयथार्थालोचनात्' यह पद लिखा गया है । ( इस वाक्य में प्रयुक्त) 'अयथार्थालोचन' शब्द का अर्थ है 'यथार्थालोचन' ( यथार्थज्ञान ) का अभाव, अर्थात् गोरूप अर्थ जिस प्रकार का है (गोत्व एवं साम्नादि से युक्त है) उस प्रकार से अर्थात् गोत्वरूप से एवं सास्नादिमत्त्वरूप से गो के ज्ञान का अभाव ( भी विपर्यय का कारण है )। उक्त यथार्थ ज्ञान के अभाव के द्वारा जो जिस रूप का नहीं है उसका उस रूप से ज्ञान(रूप विपर्यय) की उत्पत्ति होती है। इससे गवादि के
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४२५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली प्रतिभाति सर्वं सर्वत्र प्रतिभासेत, नियमहेतोरभावादित्यत्राह--असन्निहितविषयज्ञानजसंस्कारापेक्षादात्ममनसोः संयोगादिति ।
असन्निहितो विषयोऽश्वादिस्ततः पूर्वोत्पन्नाज्ज्ञानाज्जातो यः संस्कारस्तमपेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगाद् विपर्यय इति । अयमस्यार्थः--गोपिण्डसंयुक्तमिन्द्रियं गोत्वमगृह्णपि तं पिण्डं गोसादृश्यविशिष्टं गृह्णाति, सांशत्वाद् वस्तुनः । तेन च सादृश्यग्रहणेनाश्वविषयः संस्कारः प्रबोध्यते । स च प्रबुद्धोऽश्वस्मृतिजनने प्राप्ते मनोदोषादिन्द्रियसंयुक्ते गव्यश्वसादृश्यानुरोधादनुभवाकारामश्वप्रतीति करोति, अतो न सर्वस्य सर्वत्रावभासः, सादृश्यसंस्कारयोः प्रतिनियमहेतुत्वात् । अत एव चेयं गुरुभिरिन्द्रियजा भ्रान्तिरुच्यते । एवं हीन्द्रियजा न स्याद् यदीयं संस्कारैकसामर्थ्यादसन्निहितमनधिकरणमश्वत्वमात्रमेव गृह्णीयान्निरुद्धेन्द्रियव्यापारस्य वा भवेत्, गोत्वादि ) विशेष धर्मों की अनुपलब्धि को ( गो में 'यह अश्व है। इस आकार के ) विपर्यय का कारण माना गया है। (प्र०) गो ( ज्ञाता पुरुष के) समीप में है, उसके गोत्वादि विशेष धर्म तो ज्ञात नहीं हो पाते, किन्तु जो अश्व उसके अप्रत्यक्ष एवं दूर है उसके अश्व. त्वादि विशेष धर्मों का ज्ञान होता है, इसमें क्या हेतु है ? इसी प्रश्न का समाधान 'पित्तकफानिलोपहितेन्द्रियस्य' इस वाक्य से दिया गया है। पित्तञ्च, कफश्च, अनिलश्च पितकफानिलाः, तैरुपहतमिन्द्रियं यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पित्त कफ और वायु से जिस पुरुष की इन्द्रिय दूषित हो गयी है वही पुरुष 'पित्तकफानिलोपहतेन्द्रिय' शब्द का अर्थ है। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार से दूषित इन्द्रियवाले पुरुष को ही यह विपर्यय ज्ञान होता है। इससे कफ, पित्त, वायु प्रभृति दोषों में समीप की वस्तुओं के अज्ञान एवं दूर की वस्तुओं के ज्ञान इन दोनों के उत्पादन की शक्ति समर्थित होती है। (प्र०) अगर केवल दोष के सामर्थ्य से ही दूर के विषय प्रतिभासित होते हैं, तो फिर मभी विषयों का प्रतिभास (विपर्यय ) सर्वत्र हो, क्योंकि ( अमुक स्थान में ही अमुक वस्तु का प्रतिभास हो इस ) नियम का कोई कारण नहीं है ? इसी प्रश्न के समाधान में 'असंनिहितविषयज्ञानसंस्कारापेक्षादात्ममनसोः संयोगात्' यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् अश्वादि असंनिहित विषयों का बहुत पहिले से जो ज्ञान हो चुका है, उस ज्ञान से उत्पन्न संस्कार की सहायता से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा विपर्यय की उत्पत्ति होती है। अभिप्राय यह है कि कथित रूप से दूषित इन्द्रिय गोरूप पिण्ड में संयुक्त रहने पर भी उसमें रहनेवाले गोत्व का ग्रहण नहीं करती है, ( फलतः गोत्व रूप से गो का ग्रहण नहीं करती है ) किन्तु गोपादृश्य से युक्त ( अश्यादि ) अर्थों का ही ग्रहण करती है, क्योंकि वस्तुओं के अनेक रूप हैं। इस सादृश्य के द्वारा अश्वविषयक संस्कार प्रबुद्ध हो जाता है। इस प्रबुद्ध संस्कार के द्वारा यद्यपि अश्व की स्मृति ही उचित है, फिर भी मन के दोष से गो में अश्व के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुणे विपर्यय
प्रशस्तपादभाष्यम् वाश्व इति । असत्यपि प्रत्यक्षे प्रत्यक्षाभिमानो भवति, यथा व्यपगतअभाव, आत्मा और मन के संयोग एवं अधर्म इन तीन हेतुओं से होती है। ( इन कारणों में से ) आत्ममनःसंयोग को उक्त दोनों विषयों के ज्ञान से उत्पन्न संस्कार का साहाय्य भी अपेक्षित होता है। यह ( विपर्यय ) कफ, पित्त और वायु के प्रकोप से बिगड़ी हुई इन्द्रियवाले पुरुष को ही होती है। जैसे गो में अश्व का ज्ञान (विपर्यय है )। (विपर्यय के और उदाहरण
न्यायकन्दली
व्याप्रियमाणे चक्षषि तत्संयुक्क्तमेव तु गोपिण्डमश्वात्मना गलती यदीयं नेन्द्रियजा, का तीन्द्रियजा भविष्यति विपरीतख्याति: ? अत एवान्यस्यान्यारोपेण प्रतिभासनाद् योऽपि निरधिष्ठाने विपर्ययस्तत्राप्यवर्तमानोऽर्थः स्वरूपविपरीतेन वर्तमानाकारेण प्रतीयत इति विपरीतख्यातिरेव, न त्वसत्ख्यातिः, स्वरूपतोऽर्थस्य सम्भवादसतो वावभासनायोगात् । यत्र सदशमर्थमधिष्ठाय विपर्ययः प्रवर्तते, तत्र सादृश्यं कारणम्, निरधिष्ठाने तु विभ्रमे मनोदोषमात्रानुबन्धिनि नास्य सम्भवः, यथा हि कामातुरस्येतस्ततो भाविनि स्त्रीनिर्भासे विज्ञाने। संस्कारोऽपि तत्रैव कारणं यत्र सविकल्पको
सादृश्य के अनुरोध से अश्व का अनुभव रूप ही ज्ञान होता है। अतः सभी जगह सभी का प्रतिभास (विपर्यय भी) नहीं होता, क्योंकि कथित सादृश्य और संस्कार ये दोनों ही उसको नियमित करते है। अत एव 'गुरु' इसे 'इन्द्रियजनित भ्रान्ति' कहने हैं। यह भ्रान्ति अगर इन्द्रिय से उत्पन्न न हो, केवल संस्कार के सामर्थ्य से ही उत्पन्न हो तो फिर गोरूप आश्रय से दूर रहनेवाले एवं आभय में न रहनेवाले अश्वस्व को ही प्रकाशित करेगी। अथवा जिस पुरुष की इन्द्रियों का व्यापार निरुद्ध है उसे भी उक्त आकार की भ्रान्ति होगी। व्यापार से युक्त चक्षु के साथ संयुक्त गोपिण्ड को अश्वरूप से ग्रहण करती हुई भी अगर यह अनुभूति भ्रान्ति नहीं है तो फिर कौन सी विपरीतख्याति इन्द्रियजनित होगी ? अत एव विपर्यय विपरीतख्याति ही है असत्रख्याति नहीं, क्योंकि विपर्यय में एक का ही दूसरे रूप से भान होता है। एवं जहाँ बिना अधिष्ठान के भी विपर्यय होता है, वहाँ भी अवर्तमान अर्थ ही अपने विरुद्ध वर्तमान की तरह प्रतिभासित होता है। चूंकि स्वरूपतः वस्तु की सम्भावना है, एवं सर्वथा अविद्यमान वस्तु का भान असम्भव है। जहां सदृश वस्तु को अधिष्ठान बनाकर विपर्यय की प्रवृत्ति होती है, वहाँ सादृश्यज्ञान ही विपर्यय का कारण है । जहाँ केवल मन के दोष से बिना अधिष्ठान का ही विपर्यय होता है, जैसे कि कामातुर पुरुष को चारो तरफ की सभी वस्तुएँ स्त्रीमय दीखती है, वहाँ सादृश्य का ज्ञान कारण नहीं हो सकता। संस्कार
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प्रकरणम् ]
भाषांनुवादसहितम्
४२७
प्रशस्तपादभाष्यम् धनपटलमचलजलनिधिसदृशमम्बरमञ्जनचूर्णपुजश्यामं शार्वरं तम इति । ये भी हैं) जहाँ वस्तुतः प्रत्यक्ष के न रहने पर भी प्रत्यक्ष के ये अभिमान होते है । 'मेध से रहित यह प्रकाश बिना तरङ्ग के समुद्र की तरह है' एवं रात का यह अन्धकार अञ्जन के चूर्ण की तरह कृष्ण वर्ण का है';
न्यायकन्दली
भ्रमः, निर्विकल्पके त्विन्द्रियदोषस्यैव सामर्थ्य तद्भावभावित्वात् । यथा शङ्के पीतज्ञानोत्पत्तौ।
विपर्ययस्योदाहरणान्तरमाह-असत्यपि प्रत्यक्षे प्रत्यक्षाभिमान इत्यादिना गगनावलोकनकुतूहलादूर्ध्वमनुप्रेषिता नयनरश्मयो दूरगमनान्मन्दवेगाः प्रतिमुखैः सूर्यरश्मिभिरतिप्रबलवेगैराहताः प्रतिनिवर्तमानाः स्वगोलकस्य गुणं देशान्तरे निरालम्बं नीलिमानमाभासयन्तो जलधरपटलनिर्मुक्तनिस्तरङ्गमहोदधिकल्पमम्बरमिति प्रत्यक्षमिव रूपज्ञानमप्रत्यक्षे नभसि जनयन्ति । स्वगोलकगुणं व्योमाधिकरणत्वेनेन्द्रियमाभासयतीत्यत्र तद्गुणानुविधानेन प्रतीतिनियमाप्रमाणम् । तथा हि-कामलाधिष्ठितेन्द्रियाधिष्ठानो विद्रुतकलधौतरसविलुप्तमिवान्तरिक्षमीक्षते। कफाधिकतया धवलगोलको रजतसच्छायं पश्यति । शर्वर्यां भवं शार्वरं तमोऽञ्जनपुञ्ज इव श्याममिति केवलभी केवल सविकल्पक भ्रम का ही कारण है। निर्विकल्पक भ्रम का इन्द्रियदोष ही कारण है, क्योंकि उसके रहने से ही उसकी उत्पत्ति होती है। जैसे कि शंख में पीत ज्ञान की उत्पत्ति होती है ।
___ 'असत्यपि प्रत्यक्षे' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा विपर्यय का दूसरा उदाहरण दिखलाया गया है। आकाश को देखने के कुतूहल से ऊपर की ओर प्रषित आँख की रश्मियों को गति दूर जाकर धीमी हो जाती है। फिर नीचे की ओर जाती हुई प्रबल गति से युक्त सूर्य की रश्मियों से बाधा पाकर वे ही रश्मियाँ नीचे की ओर लौटती हैं । तब ( ये ही चक्षु की रश्मियाँ) अपने गोलक के ही गुण नीलवर्ण को बिना अधिष्ठान के ही प्रतिभास कराती हुई अप्रत्यक्ष आकाश में प्रत्यक्ष की इस आकार के ज्ञान को उत्पन्न करती है कि 'यह मेघों से रहित आकाश तरङ्गों से शून्य समुद्र के समान है' (कथित स्थल में ) 'नयन की रश्मियां अपने अधिष्ठान भूत गोलक के गुण के ही आकाश में प्रतिभासित कराती हैं' इस अवधारण में यह प्रतीति ही प्रमाण है कि सदा से गोलक के गुण का ही प्रतिभास आकाश में नियमतः होता है, जैसे कि कमल नाम की व्याधि से दूषित चक्षुगोलक वाले पुरुष को आकाश पिघले हुए सुवर्ण रस से लिपा हुआ सा दीखता है। वही आकाश कफ के आधिक्य से स्वच्छ गोलकवाले पुरुष को चाँदी की तरह दीखता हैं । 'शर्वयाँ भवं शार्वरम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार रात
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे विपर्यय
प्रशस्तपादभाष्यम् अनुमानविषयेऽपि बाष्पादिभिधूमाभिमतैर्वह्नयनुमानम्, गवयदर्शनाच्च गौरिति । त्रयोदर्शनविपरीतेषु शाक्यादिदर्शनेष्विदं बाष्प को धूम समझकर उसके द्वारा ( जल में ) वह्नि का अनुमान, अनुमान के विषय में विपर्ययका उदाहरण है। अथवा गवय के सींग को देखकर गो का अनुमान भी ( इसका उदाहरण है ) । ऋग्वेद, सामवेद
न्यायकन्दली ज्ञानमत्यन्ततेजोऽभावे सति सर्वत्रारोपितरूपमात्रविषयमप्रत्यक्षमपि प्रत्यक्षमिव पश्यति।
अनुमानविषयेऽपि बाष्पादिभिर्बाष्पधूलिपताकादिभिधूमाभिमतेधूम इति ज्ञातैरनग्निके देशेऽग्न्यनुमानम् । तथा गवयविषाणदर्शनाद् गौरिति ज्ञानमनुमानविपर्ययः । __ अत्यन्तदुर्दर्शनाभ्यासाच्च विपर्ययो भवतीत्याह-त्रयीदर्शनविपरीतेष्विति। त्रयाणां वेदानामृग्यजुःसाम्नां समाहारः त्रयी, अथर्ववेदस्तु त्रय्येकदेश एव। दृश्यते स्वर्गापवर्गसाधनभूतोऽर्थोऽनयेति दर्शनम्, त्रय्येव दर्शनं त्रयीदर्शनम, तद्विपरीतेषु शाक्यादिदर्शनेषु शाक्यभित्रकनिर्ग्रन्थकसंसारमोचकादिशास्त्रेष्विदं श्रेय इति यदुपदिशन्ति तत् प्रमाणमिति ज्ञानं मिथ्याप्रत्ययः, तेषु कश्चिदेवोपगृहीतेषु सर्वेषां वर्णाश्रमिणां विगानात् प्रमाणविरोधाच्च । तथा शरीरेन्द्रियमनःस्वात्माभिमानो विपर्ययस्तेभ्यो व्यतिरिक्तस्य ज्ञातुः प्रतिपादनात् । का अन्धकार ही 'शार्वर्य' शब्द का अर्थ है । 'रात में उत्पन्न यह अन्धकार अञ्जन समूह की तरह श्याम है' यह ज्ञान यद्यपि तेज का अत्यन्त अभाव होने पर सभी स्थानों में आरोपित रूपविषयक होने पर भी अप्रत्यक्ष विषयक ही है फिर भी प्रत्यक्ष की तरह दीखता है।
अनुमान रूप विपर्यय वह है जहाँ 'बाष्पादि से' अर्थात् धूम समझे जानेवाले वाष्प धूल और पताकादि से अग्नि रहित देशों में जो वह्नि का ज्ञान होता है ( वही अनुमानरूप विपर्यय हैं)। इसी तरह गवय के सींग को देखने से जो गो का ज्ञान होता है, वह भी विपर्यगरूप अनुमान ही है। 'त्रयीदर्शनविपरीतेषु' इत्यादि से यह दिखलाया गया है कि कुत्सित दर्शनों के अभ्यास से भी विपर्ययरूप अविद्या की उत्पत्ति होती है । 'त्रयाणां समाहारः त्रयी' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद इन तीनों के समुदाय का नाम ही 'त्रयी' है। अथर्ववेद त्रयो का ही एकदेश है। 'दृश्यते स्वर्गापवर्गसाधनभूतोऽर्थोऽनया इति दर्शनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस दृष्टि से स्वर्ग और मोक्ष इन दोनों के कारणीभूत वस्तु देखो जाय वही दृष्टि प्रकृत 'दर्शन' शब्द का अर्थ है । 'त्रय्येव दर्शनम् त्रयोदर्शनम्'
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
श्रेय इति मिथ्याप्रत्ययः विपर्ययः शरीरेन्द्रियमनः स्वात्माभिमानः, कृतकेषु नित्यस्वदर्शनम्, कारणवैकल्ये कार्योत्पत्तिज्ञानम् हितमुपदिशत्स्वहितमिति ज्ञानम्, अहितमुपदिशत्सु हितमिति ज्ञानम् ।
1
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को धारण न करना चाहिए के प्रति ये 'मेरे हितू नहीं हैं,
और यजुर्वेद इन तीनों के समूह रूप ) त्रयी के विरुद्ध मतवाले बौद्धादि दर्शनों में 'यही मोक्ष का कारण है' इस प्रकार का अभिमान भी विपर्यय है । शरीर अथवा इन्द्रिय या मन को आत्मा समझना भी विपर्यय है । उत्पत्तिशील वस्तुओं में नित्यत्व का ज्ञान, कारणों के न रहने कार्य की उत्पत्ति का ज्ञान, हित उपदेश करनेवालों में 'यह मेरा हितू नहीं है' इस प्रकार का ज्ञान, अनिष्ट उपदेश करनेवालों में 'यही मेरा हित है' इस प्रकार का ज्ञान, ये सभी ज्ञान विपर्यय हैं ।
पर भी
न्यायकन्दली
कृतकेषु वेदेषु नित्यत्वाभिमानो विपर्ययो मीमांसकानाम् । कारणवैकल्ये धर्माधर्मयोरभावे कार्योत्पत्तिज्ञानं सुखदुःखादिवैचित्र्यज्ञानं तच्छिष्याणां विपर्ययो लौकायतिकानाम् । प्राणिनो न हिंसितव्या मलपङ्कादिकमशुचि न धारयितव्यमित्यादिकं हितमुपदिशत्सु वेदवृद्धेषु अहितमिति विज्ञानं प्राणिहिंसापरो धर्मो मलपङ्कादिधारणमेव श्रेयस इत्यहितमुपदिशत्सु क्षपणकसंसारमोचकादिषु हितमिति विज्ञानं तच्छिष्याणां विपर्ययः ।
४२६
इस व्युत्पत्ति के अनुसार कथित श्रथी से अर्थ है । त्रयी के विरुद्ध जो शाक्यादि के और ससारमोचकादि के शास्त्रों में से कोई उपदेश करते हैं, उस उपदेश प्रत्यय ही है । क्योंकि वे शास्त्र किसी है । एवं उनमें सभी बातें वर्णाश्रमियों के भी बहिर्भूत हैं । इसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय और मन में से प्रत्येक में आत्मा का अभिमान भौ विपर्यय ही है, क्योंकि इन सबों से भिन्न रूप में आत्मा का अस्तित्व प्रमाणों से सिद्ध है ।
अभिन्न दर्शन ही प्रकृत 'त्रयीदर्शन' शब्द का दर्शन हैं उनमें अर्थात् बौद्ध, भिन्नक, निर्ग्रन्थक किसी में 'यह कल्याण का कारण है' ऐसा जो प्रामाण्य का ज्ञान भी ( विपर्यय रूप ) मिथ्याअतिसाधारण व्यक्ति के द्वारा ही परिगृहीत विरुद्ध ही हैं, और उनकी बातें प्रमाणों से
प्रयत्न से उत्पन्न शब्दरूप वेदों में नित्यत्व का अभिमान भी
न
है । 'कारणों के वैकल्य' से अर्थात् धर्म और अधर्म के का ज्ञान अर्थात् सुख-दुःखादि वैचित्र्य का लौकायतिकों और उनके शिष्यों का ज्ञान
भी विपर्यय ही है । प्राणियों की हिंसा न करनो चाहिए,
इत्यादि प्रकार के 'हित' इस आकार का ज्ञान एवं
मलपङ्कादि अशुचि वस्तुओं उपदेश करनेवाले वेदज्ञ वृद्धों 'प्राणियों की हिंसा ही परम
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मीमांसकों का विपर्यय ही
रहने पर भी कार्योत्पत्ति
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४३०
म्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाध्यम
[गुणे विपर्ययन्यायकन्दली अत्र केचिद् वदन्ति- विपर्ययो नास्ति, कारणाभावात् । तदभावश्चेन्द्रियाणां यथार्थज्ञानजननस्वभावत्वात्। दोषवशादयथार्थमपि ज्ञानमिन्द्रियाणि जनयन्तीति चेन्न, शक्तिविघातमात्रहेतुत्वाद् दोषाणाम् । शुक्तिसंयुक्तमिन्द्रियं दोषोपहतशक्तिकं शुक्तिकात्वं न गृह्णाति, न त्वसन्निहितं रजतं प्रकाशयति दोषाणां संस्कारकत्वप्रसङ्गात् । यदि चाप्रत्यक्षमपि चक्षुरध्यक्षयति ? सर्वस्य सर्ववित्त्वं केन वार्येत ? इदं रजतमिति ज्ञानस्य शुक्तिकालम्बनमिति हि संविद्विरुद्धम । यस्यां हि संविदि योऽर्थोऽवभासते स तस्या आलम्बनम् । रजतज्ञाने च रजतं प्रतिभाति, न शुक्तिका। न चागृहीतरजतस्य शुक्तौ तद्भमः । तस्मादिदमिति शुक्तिकाविषयोऽनुभवो रजतमिति सदृशावबोधप्रबोधितसंस्कारमात्र दोषकृतं तदित्यंशप्रमोषं रजतस्मरणमिति द्वे इमे संवित्ती भिन्नविषये। धर्म है, मलपङ्कादि का धारण करना ही परमश्रेय है, इत्यादि उपदेश करनेवाले क्षपणक संसारमोचकादि में 'ये ही मेरे हितू है' इत्यादि आकार के उनके शिष्यों के ज्ञान भी विपर्यय हैं।
इस प्रसङ्ग में कोई कहते हैं कि (प्र०) विपर्यय नाम का कोई ज्ञान ही नहीं हैं, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है । इन्द्रियाँ चूंकि यथार्थ ज्ञान को ही उत्पन्न कर सकती हैं, अत: सिद्ध होता है कि विपर्यय ( या मिथ्याज्ञान ) नाम की कोई वस्तु नहीं है। अगर कहें कि (उ०) दोष के साहाय्य से इन्द्रियाँ अयथार्थ ज्ञान को भी उत्पन्न कर सकती हैं ? (प्र०) ( किन्तु यह कहना भी सम्भव ) नहीं है, क्योंकि दोष कारणों की शक्ति को केवल विघटित ही कर सकते हैं, जिस पुरुष के चक्षु की शक्ति दोष के द्वारा विघटित हो गयी है. उस चक्षु का यदि शुक्तिका के साथ संयोग भी होता है, तो भी वह चक्षु शुक्तिकात्व को ग्रहण नहीं कर सकती, एवं न दूरस्थ रजत को ही प्रकाशित कर सकती है, यदि ऐसी बात हो तो फिर दोषों में संस्कार की जनकता माननी पड़ेगी, फिर सभी जीवों में आनेवाली सर्वज्ञता को आपत्ति का निवारण किस प्रकार होगा? एवं यह अनुभव के भी विरुद्ध है कि 'इदं रजतम्' इस ज्ञान का विषय शुक्तिका है, क्योंकि जिस ज्ञान में जो भासित होता है वही उसका विषय होता है। 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में रजत ही भासित होता है, शुक्तिका नहीं। अज्ञात रजत का शुक्तिका में भ्रम भी नहीं हो सकता। अतः प्रकृत 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में 'इदम्' यह अंश शुक्तिकाविषयक अनुभव है. एवं रजतम्' यह अंश रजत विषयक स्मृति है, जिसमें कारणीभूत अनुभव के विषय में का 'तत्ता' का अंश हट गया है। उस स्मृति की उत्पत्ति ( रजत मे रहनेवाली शुक्तिका के ) सादृश्य से उबुद्ध संस्कार से होती है । तस्मात् 'इदम्' यह अनुभवरूप और 'रजतम्' यह स्मृति रूप फलतः दो विभिन्न विषयक ज्ञान है । ( 'इदं रजतम्' यह एक अखण्ड विशिष्ट ज्ञान नहीं है )।
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४३१
प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-यदि रजतज्ञानं न शुक्तिकाविषयं किं त्वेषा रजतस्मृतिः, तदा तस्मिन् ज्ञाने रजतार्थी पूर्वानुभूते एव रजते प्रवर्तत न शुक्तिकायाम्, स्मृतेरनुभवदेशे प्रवर्तकत्वात् । अथ मन्यसे-इन्द्रियेण रजतस्य साधारणं रूपं शुक्तिकायां गृहीतम्, न शुक्तिकात्वं विशेषः, रजतस्मरणेन च तदित्युल्लेखशून्येनानिर्धारितदिग्देशं रजतमात्रमुपस्थापितम्, तत्रानयोगुह्यमाणस्मर्यमाणयोग्रहणस्मरणयोश्च सादृश्याद् विशेषाग्रहणाच्च विवेकमनवधारयन् शुक्तिकादेशे प्रवर्तते, सामानाधिकरण्यं शुक्तिकारजतयोरध्यवस्यति रजतमेतदिति । तदप्ययुक्तम्, अविवेकस्याप्यग्रहणात् । रजताभेदग्रहो हि रजतार्थिनः शुक्तिकायां प्रवृत्तिकारणं न सादृश्यम्, भेदग्रहणं च ततो निवृत्तिकारणम्, तदुभयोरभावान्न प्रवर्तते न निवर्तत इति स्यात्, न तु नियमेन प्रवर्तत, विशेषाभावात् । एवं सामानाधिकरण्यमपि न स्यादभेदाग्रहणस्यापि वैयधिकरण्यहेतोः सम्भवात् । तथा च प्रवृत्त्युत्तरकालीनो नेदं रजतमिति बाधकप्रत्ययोऽपि न घटते, शुक्तिकारजतयो दो न गृहीतो न तु तादात्म्यमध्यवसितं येनेदं प्रतिषिध्यते, भेदाग्रहणप्रसञ्जितस्य शुक्तिकायां रजत.
(उ०) इस प्रसङ्ग में हमलोग कहते हैं कि उक्त रजतविषयक ज्ञान में अगर शुक्ति विषय न हो, वह केवल रजत की स्मृति ही हो तो फिर इस ज्ञान के बाद रजत को प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाला पुरुष पहिले से अनुभूत रजत में ही प्रवृत्त होता शुक्तिका में नहीं, क्योंकि स्मृति ( अपने कारणीभूत ) पूर्वानुभव के विषय रूप देश में ही प्रवृत्ति का उत्पादन कर सकती है। (प्र०) प्रकृत में रजत का साधारण रूप ( इदन्त्व ) ही इन्द्रिय से शुक्तिका में गृहीत होता है, शुक्तिका का विशेष धर्म शुक्तिकात्व नहीं। पूर्वानुभव की विषय तत्ता' के सम्बन्ध से सर्वथा रहित रजत की स्मृति से अनिश्चित केवल रजत ही जिस किसी देश में उपस्थित किया जाता है । अनुभूत एवं भृत दोनों विषयों के एवं अनुभव और स्मृति दोनों ज्ञानों के सादृश्य, एवं दोनों विषयों के असाधारण धर्मों का अज्ञान, इन दोनों से रजत की इच्छा रखनेवाले पुरुष को शुक्तिका और रजत के भेद का निश्चय नहीं हो पाता। अतः वह पुरुष शुक्ति रूप देश में ही रजत के लिए प्रवृत्त हो जाता है। एवं शुक्तिका और रजत इन दोनों में अभेद को यह निश्चय करता है कि 'यह रजत है'। (उ०) किन्तु उक्त कथन असङ्गत है, क्योंकि ( उक्त स्थल में) अभेद का ज्ञान नहीं होता, एवं शुक्तिका में रजत के अभेद का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है, दोनों का सादृश्य नहीं। एवं रजत और शुक्ति के भेद का ज्ञान (शुक्तिका में रजतार्थी की) निवृत्ति का कारण है। इस प्रकार ( शुक्तिका में 'इदं रजतम्' इत्यादि स्थलों में) प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों में से एक भी नहीं बनेगी, क्योंकि न वहाँ अभेद का ज्ञान है न भेद का । एवं उक्त ज्ञान
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४३२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे विपर्पय
न्यायकन्दली व्यवहारस्यायं प्रतिषेध इति चेन्न, अभेदाग्रहणादतद्वयवहारप्रवृत्तेरपि सम्भवात् । अस्ति च शुक्तिकादेशे रजतार्थिनः प्रवृत्तिः, अस्ति च सामानाधिकरण्यप्रत्ययो रजतमेतदिति, अस्ति च बाधकप्रत्यय इदन्ताधिकरणस्य रजतात्मतानिषेधपरः । तेनावगच्छामः शुक्तिसंयुक्तेनेन्द्रियेण दोषसहकारिणा रजतसंस्कारसचिवेन सादृश्यमनुरुन्धता शुक्तिकाविषयो रजताध्यवसायः कृतः ।
यच्चेदमुक्तं शुक्तिकालम्बनत्वमनुभवविरुद्धमिति, तदसारम् । इदन्तया नियतदेशाधिकरणस्य चाकचिक्यविशिष्टस्य शुक्तिकाशकलस्यापि प्रतिभासनात । हानादिव्यवहारयोग्यता चालम्बनार्थः, स चात्रैव सम्भवति । योऽपि भेदाग्रहाच्छुक्तौ रजतव्यवहारप्रवृत्तिमिच्छति, तेनापि विपर्ययोऽङ्गीकृतः, अस्मिस्तदिति व्यवहारप्रवृत्तेरेव विपर्ययत्वात् । यच्च शक्तिव्याघातहेतुत्वं के बाद नियम पूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति की भी उपपत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि प्रकृत में कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अभेद का ज्ञान भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि भेद के ज्ञान के कारण अभेद के अग्रहण की भी वहाँ सम्भावना है । एवं यहाँ प्रवृत्ति के बाद जो 'नेदं रजतम्' इत्यादि आकार की बाधक प्रतीति होती है, वह भी नहीं बन सकेगी, क्योंकि शुक्तिका और रजत इन दोनों के भेद ज्ञात ही नहीं हैं, एवं दोनों का अभेद भी गृहीत नहीं है, फिर किससे उक्त प्रतिषेध को उपपत्ति होगी ? (प्र०) शुक्तिका और रजत इन दोनों के भेद के अज्ञान से शुक्तिका में रजतव्यवहार की जो सम्भावना होती है, उसी का निषेध 'नेदं रजतम्' इत्यादि से होता है। ( इस प्रकार से उपपत्ति ) नहीं की जा सकती, क्योंकि उक्त अभेद के अग्रहण मात्र से तो रजत से भिन्न ( घटादि) व्यवहार भी हो सकता है। किन्तु शुक्तिका के प्रदेश में ही रजत की इच्छा करनेवालों की प्रवृत्ति होती है, एवं अभेद की यह प्रतीति होती है कि यह रजत है। एवं इदन्त्य के आश्रय शुक्तिका में रजतस्वरूपत्व का निषेध करनेवाला (नेद रजतम्) यह बाधक प्रत्यय भी है। इससे यह निश्चित रूप से समझते है कि शुक्ति का से संयुक्त इन्द्रिय ही शुक्ति का में रजत विषयक निश्चय को उत्पन्न करती है। यह अवश्य है कि इन्द्रिय को इस विशेष कार्य के लिए दोष रूप सहकारी की, रजतसंस्कार से सहायता की और सादृश्य के अनुरोध की आवश्यकता होती है।
यह जो कहा जाता है कि शुक्तिका रजतज्ञान का विषय हो, यह अनुभव से बाहर की बात है उसमें भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि इदन्त्व का नियत अधिकरण एवं चाकचिक्य से युक्त शुक्तिका खण्ड, ये दोनों भी तो उस प्रतीति में विषय हैं ही। जिस प्रतीति से जिसमें ग्रहण या त्याग की योग्यता आवे वही उस प्रतीति का विषय है यह योग्यता ( इस 'इदं रजतम्' इस ज्ञान में भासित होनेवाले रजत में भी) है ही। जिनकी यह अभिलाषा है कि भेद के अज्ञान से ही शुक्ति में रजत का व्यवहार और प्रवृत्ति दोनों की उपपत्ति
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली दोषाणामिति, तदपि न किञ्चित्, वातादिदोषदुष्टानां धातूनां रोगान्तरजननोपलम्भात । सर्वस्य सर्ववित्त्वं च दोषाणां शक्तिनियमादेव पराहतम् । न च ज्ञानस्यार्थव्यभिचारे सर्वत्रानाश्वासः, यत्नेनान्विष्यमाणानां बाधकारणदोषाणामनुपलम्भादभावसिद्धौ तद्वयाप्तस्य विपर्ययस्याभावावगमादेव विश्वासोपपत्तेः।
विपर्ययानम्युपगमे च द्विचन्द्रज्ञानस्य का गतिः ? दोषव्यतिभिन्नानां चक्षरश्म्यवयवानां च पृथङ निर्गत्य पतितानां चन्द्रमसि जनितस्य ज्ञानद्वयस्यायं द्वित्वावभास इति चेन्न, ज्ञानधर्मस्य चक्षुषा ग्रहणाभावात्। ज्ञानधर्मो ज्ञेयगतत्वेन गृह्यमाणो ज्ञेयग्राहकेणवेन्द्रियेण गृह्यत इत्यभ्युपगमे तु भ्रान्तिः समथिता स्यात्, अन्यधर्मस्यान्यत्र ग्रहणात् । इत्यलमतिप्रकोपितैः श्रोत्रियद्विजन्मभिरित्युपरम्यते।।
ये तु शुक्तिकायां रजतप्रतीतावलौकिकं रजतं वस्तुभूतमेव प्रतीयत इति हो, वे भी वस्तुतः 'विपर्यय को स्वीकार ही करते हैं, क्योंकि जहाँ जो नहीं है वहाँ उसके व्यवहार की प्रवृत्ति ही वस्तुतः 'विपर्यय' है। दोष केवल शक्ति का व्याघात ही कर सकता है' इस कथन में भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि वायु प्रभृति दोषों से युक्त धातुओं से रोग नाम की दूसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है । शक्ति के नियमन से ही सभी जनों में सर्वज्ञता को आपत्ति खण्डित हो जाती है। किसी स्थान में ज्ञान का अर्थव्य भिचारी होना ज्ञान में सभी व्यवहारों के विश्वास को डिगा नहीं सकता, क्योंकि यन पूर्वक अन्वेषण करने पर बाध के कारणीभूत दोष की अनुपलब्धि से दोष के अभाव का निश्चय हो जाएगा। फिर दोष के अभाव के साथ अवश्य रहनेवाले विपर्ययाभाव की सिद्धि ( सुलभ ) होगी। इस अभाव-निश्चय के द्वारा ही ( यथार्थ ) ज्ञान में विश्वास की उपपत्ति होगी।
विपर्यय को यदि न मानें तो चन्द्रों के ज्ञान की क्या गति होगी ? (प्र०) दोष से युक्त चक्षु की रश्मियों के अवयव अलग २ निकल कर चन्द्रमा के ऊपर जाते हैं, अतः एक ही चन्द्र के दो ज्ञान उत्पन्न होते हैं। दोनों ज्ञानों में रहनेवाले द्वित्व का ही चन्द्रमा में भान होता है। (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि ज्ञान में रहने वाले धर्म का चक्षु से भान होना सम्भव नहीं है। यदि यह मान भी लें कि (प्र.) ज्ञान का धर्म जब ज्ञेय में गृहीत होता है, तब ज्ञेय का ज्ञान जिस इन्द्रिय से होता है उसीसे ज्ञानगत धर्म भी गृहीत होता है । (उ०) तो फिर इससे भी विपर्यय या भ्रान्ति ही समर्थित होती है, क्योंकि ( आप के कथनानुसार भी ) अन्य ( ज्ञान ) का धर्म द्वित्व अन्यत्र (विषय चन्द्रमा में ) ही गृहीत होता है । अत्यन्त क्रुद्ध श्रोत्रिय ब्राह्मणों को इससे अधिक कहना व्यर्थ समझकर मैं इससे विरत होता हूँ।
जो कोई इस रीति से विपर्यय का खण्डन करते हैं कि ( शुक्ति में ) वस्तुतः
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विपर्यय
प्रशस्तपादभाष्यम् अनध्यवसायोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषय एव सञ्जायते । तत्र श्यक्षविषये तावत् प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा व्यासङ्गादर्थित्वाद्वा किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः । यथा वाहीकस्य पन
प्रत्यक्ष या अनुमान के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का ही अनध्यवसाय भी होता है। इनमें पहिले से ज्ञात अथवा अज्ञात किसी अन्य विषय में मग्न, अथवा किसी विशेष प्रकार की प्रतीति की इच्छा या किसी प्रयोजन से अभिभूत पुरुष का ( 'यह क्या है ?' इस आकार का) केवल आलोचन ज्ञान ही प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषय का अनध्यवसाय है। जैसे कि भार ढोनेवाले पुरुष को कटहल प्रभृति फलों को देखने के बाद यह अनिश्चयात्मक (अनध्यवसाय ) होता है (कि, यह क्या है ? ) उस ( भारवाही पुरुष ) को
न्यायकन्दली वदन्तो विपर्ययाभावं समर्थयन्ति, तेषामस्मिज्ञाने प्रवृत्तिर्न स्यादलौकिकस्यार्थनियाहेतुत्वानवगमात् ।
अनध्यवसायोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषये सजायते । प्रत्यक्षानुमानविषये विपर्ययस्तावद्भवति, अनध्यवसायोऽपि भवतीत्यपिशब्दार्थः । प्रत्यक्षविषये तावदनुमानविषये क्रमेणानध्यवसायो वक्तव्य इत्यभिप्रायेण क्रमवाचिनं तावच्छब्दमाह-प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा व्यासङ्गादथित्वाद्वा किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः। प्रसिद्धाश्च ते अर्थाश्च प्रसिद्धार्थाः, येऽर्था; पूर्वं ज्ञातास्तेषु व्यासङ्गादन्यत्रासक्तचित्तत्वाद् विशेषप्रतीयथित्वाद् वा किमित्यालोचनमात्रम्। गते विद्यमान रजत का ही भान होता है, किन्तु वह रजत अलौकिक है। उनके मत से इस ज्ञान के बाद प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि अलौकिरू वस्तु से किसी भी कार्य की उत्पत्ति कहीं भी किसी को ज्ञात नहीं है।
'अनध्यवसायोऽपि' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त 'अपि' शब्द का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार विपर्यय प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात होने वाले विषयों का ही होता है, उसी प्रकार 'अनध्यवसाय' भी उन दोनों प्रकार के विषयों का ही होता है। प्रकृत वाक्य में क्रम के वाचक 'तावत्' शब्द का प्रयोग इस अभिप्राय से किया गया है कि प्रत्यक्ष के विषय और अनुमान के विषय मशः दोनों में ही अनध्यवसाय भी समझना चाहिए । 'प्रसिद्धाश्च ते अर्थाश्च' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'प्रसिद्धार्थेषु' इत्यादि बाक्य में प्रयुक्त 'प्रसिद्धार्थ' शब्द से वह अर्थ लेना चाहिए जो पहिले से ज्ञात हो । 'तेषु व्यासङ्गात्' अर्थात् उनसे भिन्न विषयों में चित्त के लगे रहने के कारण अथवा किसी के विशेष प्रकार से प्रतीति के 'अथित्व' अर्थात् प्राप्ति की इच्छ। से
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भाषानुवादसहितम्
४३५
प्रशस्तपादभाष्यम् सादिष्वनध्यवसायो भवति। तत्र सत्ताद्रव्यत्वपृथिवीत्ववक्षत्वरूपवत्त्वादिशाखाद्यपेक्षोऽध्यवसायो भवति । पनसत्वमपि पनसेष्वनुवत्तमाम्रादिभ्यो व्यावृत्तं प्रत्यक्षमेव, केवलं तूपदेशाभावाद् विशेषसंज्ञाप्रतिपत्तिर्न भवति । अनुमानविषयेऽपि नारिकेल डीपवासिनः सास्नामात्रदर्शनात् को नु खल्वयं प्राणी स्यादित्यनध्यवसायो भवति । भी सत्ता, द्रव्यत्व, पृथिवीत्व, वृक्षत्व, रूपवत्त्व एवं शाखा प्रभृति धर्मों के साथ वह वृक्ष निश्चित ही है । एवं विभिन्न सभी पनसों ( कटहल ) को एक रूप से समझानेवाली एवं पनस को आम्रादि फलों से भिन्न रूप में समझानेवाली पनसत्व जाति का भी निश्चय है ही। केवल उसे यह विशेष रूप से ज्ञात नहीं रहता है कि 'इसका नाम क्या है ?' नारिकेल द्वीप में रहनेवालेको केवल सास्ना को देखने से जो यह कौन सा प्राणी होगा' इस आकार का अनध्यवसाय होता है, वह आनुमानिक विषय का अनध्यवसाय है।
न्यायकन्दली प्रसिद्ध राजनि कोऽप्यनेन पथा गत इति ज्ञानमात्रभनवधारितविशेषमनध्यवसायः। अप्रसिद्धष्वपरिज्ञानादेवानध्यवसायो यथा वाहीकस्य पनसादिष्वनध्यवसायो भवति, दक्षदेशोद्भवस्य पनसादिष्वनध्यवसाय इत्यर्थः । तत्रापि पनसे सत्त्वद्रव्यत्वपृथिवीत्ववृक्षत्वरूपत्वादिशाखाद्यपेक्षोऽध्यवसाय एव, द्रव्यमेतत् पार्थिवोऽयं वृक्षोऽयं रूपादिमान् शाखादिमांश्चेत्यवधारणात् । पनसत्वमपि पनसेष्वनुवृत्तमाम्रादिभ्यो व्यावृत्तं निर्विकल्पकप्रत्यक्षमेव । केवलं त्वस्य पनसशब्दो नामधेयमित्युपदेशाभावाद् विशेषसंज्ञाप्रतिपत्तिर्न भवति पनसशब्दवाच्योऽयमिति प्रतिपत्तिर्न भवति, किन्तु किमप्यस्य नामधेयं 'किमित्यालोचनमात्रम्' अर्थात् किसी प्रसिद्ध राजा के जाने पर भी कोई इस रास्ते से गया है। इस प्रकार का (अनवधारणात्मक ) ज्ञान-जिससे किसी के असाधारण धर्म का निर्धारण नहीं होता-~-'अनध्यवसाय' है। अभिप्राय यह है कि 'असिद्धों में' अर्थात् पहिले से बिलकुल अज्ञात विषयों में 'अपरिज्ञान से' अर्थात् वस्तुओं के सामान्य विषयक यथार्थ ज्ञान के न रहने से 'अनध्य व साय' होता है। जैसे कि पालकी ढोने वाले को एवं दक्षिण देश में रहने वालों को पनस के ( कटहल ) वृक्ष में अनध्यवसाय होता है। यद्यपि वहाँ भी सभी वृक्षों में रहनेवाले शाखादि के ज्ञान से पनस में सत्ता द्रव्यत्व, पृथिवील, वृक्षत्व एवं रूपवत्त्वादि विषयक (यह सत् है ) यह द्रव्य है, यह पार्थिव है, यह वृक्ष है, यह रूपवाला है, यह शाखा से युक्त है इत्यादि प्रतीतियाँ उन ( दक्ष देश के वासियों ) को भी होती ही हैं, एवं सभी पनसों में रहनेवाले एवं आम प्रभृति में न रहनेवाले पनसत्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भो होना ही है
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न्यायकादलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ गुणे स्वप्न
प्रशस्तपादभाष्यम् उपरतेन्द्रियग्रामस्य प्रलीनमनस्कस्येन्द्रियद्वारेणव यदनुभवनं जिस व्यक्ति के सभी इन्द्रिय मन के प्रलीन होने के कारण
न्यायकन्दली भविष्यतीत्येतावन्मात्रप्रतीतिः स्यात् । सेयं सज्ञाविशेषानवधारणात्मिका प्रतीतिरनध्यवसायः।
_अनुमानविषयेऽपि नारिकेलद्वीपवासिन: सास्नामात्रदर्शनात् को नु खल्वत्र प्रदेशे प्राणी स्यादित्यनध्यवसायः। नारिकेलद्वीपे गवामभावात् तत्रत्यो लोकोऽप्रसिद्धगोजातीयः, तस्य देशान्तरमागतस्य वने सास्नामात्रदर्शनात् सामान्येन पिण्डमात्रमनुमाय तत्र जातिविशेषविषयत्वेन को नु खल्वत्र प्राणी स्यादित्यनवधारणात्मकं ज्ञानमनध्यवसायः, अध्यवसायविशेषावधारणज्ञानादन्यदिति व्युत्पत्त्या । नन्वयं संशय एव, अनवधारणात्मकत्वात् । न, कारणभेदात्, स्वरूपभेदाच्च । किञ्च, उभयविशेषानुस्मरणात् संशयो न त्वनध्यवसायः, प्रतीतिविशेषविषयत्वेनाप्यस्य सम्भवात्। तथानवस्थितोभय. किन्तु 'इसका नाम पनस है' इस आकार के उपदेश के अभाव स 'पनस' रूप विशेष का ज्ञान नहीं हो पाता अर्थात् 'यह पनस शब्द का अभिधेय अर्थ है' इस प्रकार का ज्ञान नहीं हो पाता। केवल इसका भी कोई नाम होगा' इतनी ही प्रतीति होती है । संज्ञा विशेष की यही 'अवधारणात्मक' प्रतीति 'अनध्यवसाय (रूप अविद्या ) है ।
__नारिकेल- द्वीपवासियों को इस देश में केवल सास्ना के देखने से गाय के विषय में 'यह कौन प्राणी है ? यह ज्ञान अनुमान के द्वारा जानने योग्य विषय का अनध्यवसाय है । अभिप्राय यह है कि नारिकेल द्वीप में गायें नहीं होतीं, अत: उस देश के निवासियों को गायों का ज्ञान नहीं रहता। उस देश का कोई व्यक्ति दूसरे देवा के बन में जाकर केवल सास्ना को देखने के बाद केवल पिण्ड का अनुमान करता है। इसके बाद उसे विशेष जाति के उस सास्नावाले व्यक्ति का 'यह कौन सा प्राणी' इस आकार का जो जान होता है वह अनुमान विषयविषयक अनध्यवसाय है। 'विशेषावधारणादन्यत्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार विशेषधर्म पूर्वक निश्चय रूप अवधारणात्मक न होने के कारण ही उक्त ज्ञान 'अनध्यवसाय' है। (प्र०) तो फिर यह संशय ही है, क्योंकि निश्चयात्मक नहीं है। (उ०) यह संशय नहीं हो सकता, क्योंकि इसका स्वरूप और इसके कारण दोनों ही संशय से दूसरे प्रकार के हैं। और भी बात है, दोनों कोटियों के असाधारण धर्मों के पश्चात् स्मरण से संशय होता है अनध्यवसाय नहीं, क्योंकि अनध्यवसाय में विषय होनेवाले पदार्थों के असाधारण धर्म यदि अज्ञात भी रहें तब भी अनध्यवसाय रूप ज्ञान हो सकता है । संशय और अनध्यवसाय इन दोनों में यही भेद है कि संशय में अनिश्चित दो कोटियों का सम्बन्ध रहता है, अनध्यवसाय में नहीं। चूंकि अनध्यवसाय रूप ज्ञान
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् मानसं तत् स्वप्नज्ञानम् । कथम् ? यदा बुद्धिपर्वादात्मनः शरीरव्यापारादहनि खिन्नानां प्राणिनां निशि विश्रामार्थविषयों के ग्रहण से विमुख रहते हैं, उस व्यक्ति को केवल मन रूप इन्द्रिय से जो ज्ञान होता है वही स्वप्न ज्ञान' है । (प्र०) यह किस प्रकार उत्पन्न
न्यायकन्दली कोटिसंस्पर्शी संशयो न त्वयमिति भेदः । विद्या त्वयं न भवति, व्यवहारानङ्गत्वादिति ।
___ स्वप्ननिरूपणार्थमाह-उपरतेन्द्रियग्रामस्येत्यादि। उपरतः स्वविषयग्रहणाद् विरत इन्द्रियग्रामो यस्य असावुपरतेन्द्रियग्रामः । प्रकर्षण सर्वात्मना लीनं मनो यस्यासौ प्रलीनमनस्क इति । तस्योपरतेन्द्रियग्रामस्य प्रलीनमनस्कस्येन्द्रियद्वारेण यदनुभवनं पूर्वाधिगमानपेक्ष परिच्छेदस्वभावं मानसं मनोमात्रप्रभवं तत् स्वप्नज्ञानम् । यदा यथा पुरुषस्य मनः प्रलीयते इन्द्रियाणि च विरमन्ति तदर्शयति-कथमित्यादिना । आत्मनः शरीरव्यापाराद् गमनागमनादहनि खिन्नस्य परिश्रान्तस्य प्राणिनो निशि रात्रौ विश्रामार्थं श्रमोपशमार्थं भुक्तपीतस्याहारस्य रसादिभावेन परिणामार्थ चादष्टेन कारितं प्रयत्नमपेक्षमाणादात्मान्तःकरणसंयोगान्मनसि यः क्रियाप्रबन्धः क्रियासन्तानो जातस्तस्मादन्तहृदये निरिन्द्रिये बाह्येन्द्रियसम्बन्धशून्ये आत्मप्रदेशे निश्चलं मनस्तिष्ठति यदा, तदा पुरुषः प्रलीनमनस्क इत्याख्यायते। प्रलीने च तस्मिन् मनस्युपरतेन्द्रिस व्यवहार नहीं चल पाता अतः यह ज्ञान ‘अविद्या' रूप ही है, यह विद्या के अन्तर्गत नहीं आ सकता।
'उपरतेन्द्रियग्रामस्य' इत्यादि वाक्य स्वप्न के निरूपण के लिए लिखे गये हैं । 'उपरतः इन्द्रियग्रामो यस्य असौ उपरतेन्द्रियग्रामः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने २ विषयों के ग्रहण से उपरत' हैं अर्थात् अपने विषयों को ग्रहण करना छोड़ दी हैं वही पुरुष उपरतेन्द्रियग्राम' शब्द का अर्थ है । 'प्रकर्षण लीनं मनो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'प्रकोण' अर्थात् पूर्ण रूप से ( किसी विषय में ) लीन है मन जिसका वही पुरुष 'प्रलोनमनस्क' शब्द का अर्थ है। (इस प्रकार के ) उपरतेन्द्रिय ग्राम और प्रलीन मनस्क पुरुष को इन्द्रिय के द्वारा जो विचार रूप एवं मानस अर्थात् मनोमात्रजन्य पहिले के ज्ञानों से सर्वथा अनपेक्ष अनुभव होता है वही 'स्वप्न' है। 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा यह दिखलाया गया है कि किस समय और किस प्रकार से मन प्रलोन होता है एवं इन्द्रियाँ विषयों के ग्रहण से उपरत होती हैं। शरीर के व्यापार अर्थात गमन और आगमन के द्वारा 'खिन्न' अर्थात् थके हुए प्राणियों को निशा अर्थात् रात में विश्राम' अर्थात् थकावट को मिटाने के लिए एवं खाये और पिये हुए द्रव्य को रसादि रूप में परिणत करने के लिए आत्मा और अन्त:करण के संयोग से मन
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे स्वप्न
प्रशस्तपादभाष्यम् माहारपरिणामार्थं वादृष्टकारितप्रयत्नापेक्षादात्मान्त:करणसम्बन्धान्मनसि क्रियाप्रबन्धादन्तहृदये निरिन्द्रिये आत्मप्रदेशे निश्चलं मनस्तिष्ठति, तदा प्रलीनमनस्क इत्याख्यायते । प्रलीने च तस्मिन्नपरतेन्द्रियग्रामो भवति, तस्यामवस्थायां प्रबन्धन प्राणापानसन्तानप्रवृत्तावात्ममनःसंयोगविशेषात् स्वापाख्यात् संस्काराच्चेन्द्रियद्वारेणैवासत्सु विषयेषु प्रत्यक्षाकारं स्वप्नज्ञानमुत्पद्यते । होता है ? ( उ० ) शरीर के अति सञ्चालन से श्रान्त प्राणियों को विश्राम देने के लिए एवं भोजन के परिपाक के लिए हृदय के बीच वाह्य इन्द्रियों से रहित आत्मा के प्रदेश में जिस समय जिस पुरूष का मन (इष्ट प्राप्ति या अनिष्ट की निवृत्ति के लिए ) आत्मा के द्वारा जानबूझ कर निष्क्रिय होकर बैठ जाता है, उस समय उस व्यक्ति को 'प्रलीनमनस्क' कहते हैं । (बाह्येन्द्रिय प्रदेश में मन की यह निष्क्रिय स्थिति ) मन की उन क्रियाओं से होती है जो अदृष्ट युक्त आत्मा और अन्त:करण ( मन ) के सम्बन्ध से उत्पन्न होती है। इस प्रकार मन के निष्किय होकर बैठ जाने के कारण बाह्य इन्द्रियां अपने कामों को करने में (उस समय , असमर्थ हो जातो हैं। ऐसी अवस्था में प्राणवायु और अपान वायु की प्रवृत्तियां अधिक हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में 'स्वाप' नाम के आत्मा और मन के विशेष प्रकार के संयोग, एवं संस्कार इन दोनों से ( मन रूप ) इन्द्रिय के द्वारा ही अविद्यमान विषयक प्रत्यक्षाकारक ( प्रत्यक्ष नहीं ) जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'स्वप्नज्ञान' कहते हैं।
न्यायकन्दली यग्रामो भवति, अन्तःकरणानधिष्ठितानामिन्द्रियाणां विषयग्रहणाभावात् । तस्यां प्रलीनमनोऽवस्थायां प्रबन्धेन बाहुल्येन प्राणापानवायुसन्ताननिर्गमप्रवेशलक्षणायां प्रवृत्तौ सम्भवन्त्यामात्ममनःसंयोगात् स्वापाख्यात् स्वाप इति नामधेयात् में 'क्रियासन्तान' अर्थात् क्रियाओं के समूह की उत्पत्ति होती है। उस संयोग को इस काम के लिए अदृष्ट से प्रेरित प्रयत्न के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है। पुरुष के हृदय के बीच 'निरिन्द्रिय' अर्थात् बाह्य इन्द्रियों के सम्बन्ध से रहित आत्मा के एक प्रदेश में जिस समय मन निश्चल रहता है, उसी समय वह पुरुष 'प्रलीनमनस्क' कहलाता है । उसके अर्थात् मन के प्रलीन होने पर पुरुष 'उपरतेन्द्रिय ग्राम' होता है, ( अर्थात् उसके इन्द्रिय विषयों को ग्रहण करने से विमुख हो जाती हैं ) क्योंकि अन्तःकरण (मन) प्राण और अपान वायुओं के समुदाय के गमनागमन रूप प्रलीन वृत्ति के उत्पन्न होने पर
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प्रकरणम्] भाषानुवादसहितम्
४३९ प्रशस्तपादभाष्यम् तत्तु त्रिविधम् --संस्कारपाटवाद्धातुदोषाददृष्टाच्च । तत्र संस्कारपाटवात् तावत् कामी क्रुद्धो वा यदा यमर्थमावृतश्चिन्तयन् स्वपिति, तदा सैव चिन्तासन्ततिः प्रत्यक्षाकारा सञ्जायते । धातुदोषाद् वातप्रकृतिस्तद्
वह तीन प्रकार का है, (१) संस्कार की पटुता से उत्पन्न (२) धातु के दोष से उत्पन्न एवं (३) अदृष्ट से उत्पन्न । इनमें संस्कार की पटुता से उत्पन्न स्वप्न का उदाहरण यह है कि जिस समय कामी अथवा क्रुद्ध पुरुष जिस वस्तु की बराबर चिन्ता करते हुए सोता है, उस समय वही चिन्तासमूह प्रत्यक्ष का रूप ले लेती है।
न्यायकन्दली संस्काराच्च पूर्वानुभूतविषयादसत्सु देशकालव्यवहितेषु विषयेषु प्रत्यक्षाकारमपरोक्षसंवेदनाकारं स्वप्नज्ञानमुत्पद्यते।
तत्तु त्रिविधम् । कुत इत्याह -- संस्कारपाटवादिति । संस्कारपाटवात् तावत् कामी क्रुद्धो वा यदा यमर्थं प्रियतमां शत्रु वादृतोऽनुमन्यमानश्चिन्तयन् स्वपिति, तदा सैव चिन्तासन्तति: स्मृतिसन्ततिः संस्कारातिशयात् प्रत्यक्षाकारा साक्षादर्थावभासिनी सजायते। शरीरधारणाद् धातवो क्सासृमांसदोमज्जास्थिशुक्रात्मानः, तेषां दोषाद् वातादिदूषितत्वाद् विपर्ययो भवतीत्याहवातप्रकृतिर्यदि वा कुतश्चिन्निमित्तादुपचितेन वातेन दूषितः स्वात्मन आकाशगमनमितस्ततो धावनमित्यादिकं पश्यति । पित्तप्रकृतिः पित्तदूषितो वा अग्निप्रवेशकनकपर्वताभ्युदितार्कमण्डलादिकं पश्यति । श्लेष्मप्रकृतिः श्लेष्मदूषितो वा सरित्समुद्रप्रतरणहिमपर्वतादीत् पश्यति । स्वयमनुभूतेषु परत्राप्रायः विभिन्न काल के और विभिन्न देश के विषयों में भी 'प्रत्यक्षाकार' अर्थात् अपरोक्ष आकार के 'स्वप्न' ज्ञान की उत्पत्ति होती है। ( इस स्वप्न ज्ञान के) 'स्वाप' अर्थात् निद्रा नाम का आत्मा और मन का संयोग और पहिले के अनुभव के द्वारा ज्ञात विषयक संस्कार भी कारण हैं ।
(प्र.) यह तीन प्रकार का क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर संस्कारपाटवात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दिया गया है। कामी अथवा क्रुद्ध व्यक्ति संस्कार की पटुता से जिस समय 'जिस अर्थ को अर्थात् प्रियतमा अथवा शत्रु को आदर से' अर्थात् अनन्यचित्त होकर चिन्तन करते हुए सोता है, उस समय उसी चिन्तन' का अर्थात् स्मृति का समुदाय संस्कार की विलक्षणता से प्रत्यक्षाकार अर्थात् अर्थों को साक्षात् प्रकाशित करने वाला हो जाता है । शरीर को 'धारण' करने के हेतु से वसा, मांस, शोणित, मेद, मज्जा, अस्थि और शुक्र इन सातों का समुदाय 'धातु' कहलाता है। इनके दूषित हो जाने पर वायु प्रभृति दूषित हो जाते हैं। दूषित वायु प्रभृति के द्वारा 'विपर्यय रूप' स्वप्नज्ञान की
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४४० न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ गुणे त्वप्नप्रशस्तपादभाष्यम् दृषितो वा आकाशगमनादीन् पश्यति । पित्तप्रकृतिः पित्तदूषितो वाग्निप्रवेशकनकपर्वतादीन् पश्यति । श्लेष्मप्रकृतिः श्लेष्मदूषितो वा सरित्समुद्रप्रतरणहिमपर्वतादीन् पश्यति । यत् स्वयमनुभूतेष्वननुभूतेषु वा प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा यच्छुभावेदकं गजारोहगच्छत्रलाभादि, तत् सर्व संस्कारधर्माभ्यां भवति । विपरीतं च तैलाभ्यञ्जनखरोष्ट्रारोहणादि तत् सर्वमधर्मसंस्काराभ्यां भवति । अत्यन्ताप्रसिद्धाऽर्थेष्वदृष्टादेवेति । स्वप्नान्तिकं यद्यप्युपरतेन्द्रियग्रामस्य धातु दोष से उत्पन्न स्वप्नज्ञान के उदाहरण ये हैं-वायुप्रकृति के पुरुष अथवा प्रकुपित वायु के पुरुष को आकाश गमनादि के प्रत्यक्ष सदृश ज्ञान होते हैं। पित्तप्रकृति के अथवा कुपित पित्त के पुरुष को अग्निप्रवेश, स्वर्णमय पर्वतादि का प्रत्यक्ष सा होता है। कफ प्रकृतिक अथवा दूषित कफवाले पुरुष को नदी समुद्रादि में तैरने का एवं वर्फ से भरे पर्वत का प्रत्यक्ष सा होता है। (अदृष्टजनित स्वप्न के ये उदाहरण हैं ) स्वयं ज्ञात एवं दूसरों के लिए अज्ञात, एवं स्वयं अज्ञात दूसरों से ज्ञात और विषयों के जितने स्वप्नज्ञान शुभ के सूचक हैं, वे सभी संस्कार और धर्म (रूप अदृष्ट ) से उत्पन्न होते हैं। जैसे कि गजारोहण, छत्रलाभादि के स्वप्न ज्ञान । एवं उन्हीं विषयों के जितने स्वप्नज्ञान अशुभ के सूचक हैं, वे सभी अधर्म ( रूप अदृष्ट और संस्कार से उत्पन्न होते हैं। जैसे कि तैल का मालिश, खरारोहण, उष्ट्रारोहण आदि के स्वप्न ज्ञान । स्वयं भी अज्ञात एवं दूसरे से भी अज्ञात ( सर्वथा अप्रसिद्ध ) विषयों के दर्शन रूप स्वप्नज्ञान केवल अदृष्ट से ही होते हैं। यद्यपि (उक्त प्रकार से ) जिनकी इन्द्रियाँ अपने कार्य से विमुख हो गयी हैं उन्हें 'स्वप्नान्तिक' नाम का एक पाँचवाँ ( स्वप्न से भिन्न ) भी एक
न्यायकन्दली प्रसिद्धषु स्वयमननुभूतेषु वा परत्र प्रसिद्धेषु सत्सु यद् गजारोहणच्छत्रलाभादिकं शुभावेदकं स्वप्ने दृश्यते, तत् सर्वं संस्कारधर्माभ्यां भवति । शुभावेदकविपरीतं उत्पत्ति होती है। यही विषय 'वातप्रकृतिः' इत्यादि बाक्य के द्वारा कहा गया है। 'वातप्रकृति' अर्थात् किसी कारण से जिस पुरुष की वायु दूषित हो चुकी है, वह पुरुष अपना 'आकाशगमन' अर्थात् आकाश में इधर उधर दौड़ना प्रभृति ( स्वप्न ) देखता है । एवं जिस पुरुष में पित्त प्रधान है अथवा जिसका पित्त दूषित हो चला है वह अग्नि
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
भवति, तथाप्यतीतस्य ज्ञानप्रबन्धस्य प्रत्यवेक्षणात् स्मृतिरेवेति भवत्येषा चतुर्विधाऽविद्येति ।
विद्यापि चतुर्विधा - प्रत्यक्ष लैङ्गिकस्मृत्यार्पलक्षणा |
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ज्ञान होता है, किन्तु वह अतीत के किसी ज्ञान के सदृश ही दूसरा ज्ञान हैं, अत: स्मृति ही है, तस्मात् कथित रीति से 'अविद्या' रूप ज्ञान के कथित चार ही प्रकार हैं ।
न्यायकन्दली
४४१
६७. (अविद्या की तरह ) विद्या भी चार प्रकार की है, उसके (१) प्रत्यक्ष (२) लैङ्गिक (३) स्मृति और (४) आर्ष ( ये चार ) भेद हैं ।
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तैलाभ्यञ्जनखरोष्ट्रारोहणाद्यधर्मसंस्काराभ्यां भवति । अत्यन्ताप्रसिद्धेषु स्वतः परतश्चाप्रतीतेषु चन्द्रादित्यभक्षणादिषु ज्ञानं तददृष्टादेव, अननुभूतेषु संस्काराभावात् । यद्यपि संस्कारवाद्धातुदोषाददृष्टाद् वा समारोपितबाह्यस्वरूपः स्वप्नप्रत्ययो भवन्नर्तास्मस्तदिति भावाद् विपर्ययः, तथाप्यवस्थाविशेषभावित्वात् पृथगुक्तः । कदाचित् स्वप्नदृष्टस्यार्थस्य स्वप्नावस्थायामेव प्रतिसन्धानं भवति - अयं मया दृष्ट इति, तच्च पूर्वानुभूतस्य स्वप्नस्यान्तेऽवसाने भवतीति प्रवेश, सोने का पर्वत उदित सूर्यमण्डल प्रभृति वस्तुओं को स्वप्न में देखता है । जिस पुरुष में कफ की प्रधानता रहती है या जिसका कफ दूषित रहता है वह नदी और समुद्रों में तैरने का एवं बरफ के पर्वतादि का स्वप्न देखता है । स्वयं अनुभूत किन्तु और स्थानों में अप्रसिद्ध, अथवा अपने से अननुभूत किन्तु और स्थानों में प्रसिद्ध वत्र्त्तमान वस्तुओं के जो स्वप्न शुभ के ज्ञापक होते हैं, जैसे कि हाथी पर चढ़ना, छत्र का लाभ प्रभृति -- ये सभी स्वप्न, पुण्य और संस्कार से होते हैं । शुभ के ज्ञापकों से विरुद्ध जितने भी स्वप्न हैं, जैसे कि तेल का मालिश, गदहे पर चढ़ना, ऊँट पर चढ़ना — ये सभी स्वप्न अधर्म और संस्कार इन दोनों से होते हैं 'अत्यन्त अप्रसिद्ध' अर्थात् अपने से या दूसरों से सर्वथा 'अज्ञात' चन्द्र सूर्यादि के भोजन का स्वप्नात्मक ज्ञान केवल अदृष्ट से ही होता है, क्योंकि बिना अनुभव किये हुए किसी वस्तु का संस्कार नहीं होता । यद्यपि संस्कार की पटुता, धातु के दोष, अथवा अदृष्ट से उत्पन्न स्वप्नज्ञान में चूंकि बाह्य विषयों का ही समारोप होता है अतः तदभाव युक्त आश्रय में तत्प्रकारक होने के कारण बह विषय ही है, तथापि ( और विपर्ययों से ) विशेष अवस्था के कारण ( विपर्यय से ) अलग कहा गया है । कभी कभी स्वप्न में देखी हुई वस्तु का स्वप्न में ही इस प्रकार से अनुसन्धान होता है कि 'इसको मैंने देखा । यह ( अनुव्यवसाय ) पहिले अनुभूत स्वप्न के अन्त में होने के कारण 'स्वप्नान्तिक' कहलाता है । किसी का यह भी आक्षेप है
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४४२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्राक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यत इति प्रत्यक्षम् । अक्षाणीन्द्रियाणि, घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्छ्रोत्रमनांसि षट् । तद्धि द्रव्यादिषु
इनमें 'अक्षम् अक्षम् प्रतीत्योत्पद्यते यज्ज्ञानम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। ( इस ) 'अक्ष' शब्द के अर्थ हैं 'इन्द्रिय' (१) घ्राण ( २ ) रसना (३) चक्षु ( ४) त्वचा ( ५) श्रोत्र एवं (६) मन ये छः इन्द्रियाँ हैं।
न्यायकन्दली स्वप्नान्तिकमुच्यते । तदप्युपरतेन्द्रियग्नामस्य भावात् स्वप्नज्ञानमिति कस्यचिदा. शङ्कामपनेतुमाह-स्वप्नान्तिकं यद्यप्युपरतेन्द्रियग्रामस्य भवति, तथाप्यतीतस्य पूर्वानुभूतस्य स्वप्नज्ञानप्रबन्धस्य प्रत्यवेक्षणादनुसन्धानात् स्मृतिरेवेति । उपसंहरति--भवत्येषा चतुर्विधाऽविद्येति ।
सम्प्रति विद्यां विभजते--विद्यापीति । न केवलमविद्या चतुर्विधा, विद्यापि चतुविधेति । प्रत्यक्षेति। आदौ प्रत्यक्षस्य निर्देशः कारणत्वात्, तदनन्तरमनुमानस्य तत्पूर्वकत्वात्, तदनन्तरं स्मृतेः प्रत्यक्षानुमितेष्वर्थेषु भावात्, लौकिकप्रमाणान्ते संकीर्तनमार्षस्य लोकोत्तराणां पुरुषाणां तद्भावात् ।
प्रत्यक्षस्य लक्षणं तावत्कथयति-तत्राक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यत इति प्रत्यक्षकि यह ज्ञान भी कथित 'उपरतेन्द्रियग्राम' पुरुष को ही होता है, अतः यह भी 'स्वप्न' ही है (स्वप्नान्तिक नहीं) इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'स्वप्नान्तिकम्' इत्यादि वाक्य लिखा गया है। कहने का तात्पर्य है कि यह स्वप्नान्तिकज्ञान यद्यपि 'उपरतेन्द्रियग्राम' पुरुष को ही होता है फिर भी यह 'अतीत' अर्थात् पूर्वानुभूत स्वप्नज्ञानों के 'प्रत्यवेक्षण' अर्थात् अनुसन्धान से उत्पन्न होने के कारण स्मृति ही है । 'भवत्येषा' इत्यादि से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं।
___ 'विद्यापि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अब 'विद्या' (यथार्थज्ञान-प्रमा) का विभाग करते हैं। (इस 'अपि' शब्द का यह अभिप्राय है कि ) केवल अविद्या ही चार प्रकार की नहीं है, किन्तु विद्या भी चार प्रकार की है। प्रत्यक्ष का निरूपण सबसे पहिले इस हेतु से किया गया है कि वह (अन्य सभी ज्ञानों का) कारण है। प्रत्यक्ष के बाद अनुमान का निरूपण इसलिए किया गया है कि वह सीधे प्रत्यक्ष से उत्पन्न होता है । प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा ज्ञात अर्थों की ही स्मृति होती है, अतः इन दोनों के निरूपण के बाद स्मृति का निरूपण हुआ है। आर्षज्ञान लोकोत्तर पुरुषों को ही होता है, अतः उसका निरूपण लौकिक प्रमाणों के निरूपण के बाद अन्त में किया गया है ।
'तत्राक्षमक्षम्' इत्यादि ग्रन्थ से क्रम के द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष का लक्षण कहते हैं । 'अक्षमक्षम्प्रतीत्योत्पद्यते तत्प्रत्यक्षं प्रमाणम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्द्रियों की प्राप्ति ( सम्बन्ध ) से जितने भी ज्ञान उत्पन्न हों वे सभी प्रत्यक्ष प्रमाण' हैं । इस प्रकार विशेष
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् तावद् द्विविधे
महत्यनेकद्रव्यवश्वोद्भूत
पदार्थेषूत्पद्यते । द्रव्ये रूप प्रकाशचतुष्टयसन्निकर्षाद् धर्मादिसामग्रये च स्वरूपालोचनमात्रम्, यह (प्रत्यक्ष ) द्रव्यादि पदार्थों का होता है । इनमें द्रव्य का प्रत्यक्ष दो प्रकार का है (१) निर्विकल्पक और ( २) सविकल्पक ( द्रव्य के निर्विकल्पक और सविकल्पक ) दोनों ही प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं । ( १ ) अनेक द्रव्यवत्त्व
૪૪૨
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न्यायकन्दली
कारण
मिति । अक्षमक्षं प्रतीत्य प्राप्य यदुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षं प्रमाणमिति । विशेषजत्वमपि कार्यस्य समानासमानजातीयव्यवच्छेदसमर्थत्वाल्लक्षणं भवति । यथा यवबीजप्रभवत्वं यवाङ्कुरस्य, अत एव यवाङ्कुर इति व्यपदिश्यते । सुखदुःखसंस्काराणामपीन्द्रियजत्वात् प्रत्यक्षप्रमाणत्वप्रसङ्गः इति चेन्न, बुद्धयधिकारेण विशेषितत्वात् । अक्षमक्षं प्रतीत्य या बुद्धिरुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षम् । सुखादयश्च न बुद्धिस्वभावाः कुतस्तेषु प्रसक्तिः ? यद्येवं सन्निकर्षस्य प्रामाण्यं न लभ्यते ? सत्यम् । इतो वाक्यान्न लभ्यते, यदि तु करणव्युत्पत्त्या तस्यापि कारणों से उत्पन्न होना भी लक्ष्य को समानजातियों और असमानजातियों से भिन्न रूप से समझाने में समर्थ होने के कारण लक्षण हो सकता है । ( जैसे कि ) यव के अङ्कुर से उत्पन्न होना हो व का लक्षण है, अत एव वह 'यवाङ्कुर' कहलाता है । ( प्र०) सुख, दुःख और संस्कार ये सभी भी तो इन्द्रिय से उत्पन्न होते हैं, अतः इन सबों में प्रत्यक्षलक्षण की आपत्ति होगी । ( उ० ) यह आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि प्रत्यक्ष का लक्षण बुद्धि निरूपण को आरम्भ करने के बाद कहा गया है ( तदनुसार ) प्रत्यक्ष का यह लक्षण निष्पन्न होता है कि इन्द्रिय के सम्बन्ध से उत्पन्न ओ ज्ञान वही प्रत्यक्ष प्रमाण है । ( प्र०) यदि यह बात है तो फिर यह उपपन्न नहीं होगा कि 'इन्द्रिय का सम्बन्ध प्रमाण है' | ( उ० ) यह ठीक है कि उक्त लक्षण वाक्य के द्वारा इन्द्रियसम्बन्ध में प्रामाण्य का लाभ नहीं होगा, किन्तु 'परिच्छेद' अर्थात् प्रमिति के कारण होने से इन्द्रियसम्बन्ध का प्रमाण होना भी अभीष्ट है । प्रकरण से यह समझा जाता है कि 'यह विद्या का निरूपण है' | अतः विद्या से बहिर्भूत संशय और विपर्यय में प्रामाण्य स्वतः खण्डित हो जाता है । 'अक्षम्प्रतीत्य यदुत्पद्यते ज्ञानम्' केवल ऐसी ही व्युत्पत्ति मानें ( अर्थात् अक्षम् अक्षम् यह वीप्सा न मानें ) तो फिर अतिप्रसिद्ध होने के कारण कभी किसी को यह भ्रान्ति भी हो सकती है कि 'बाह्येन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है' इस भ्रान्ति की सम्भावना को हटाने के लिए ही 'अक्षम् अक्षम्' वीप्सा से युक्त इस व्युत्पत्ति का आश्रय लिया गया है । 'प्रत्यक्ष ' शब्द 'कुगतिप्रादय:' इस सूत्र के द्वारा विहित 'प्रादिसमास' के द्वारा सिद्ध है । 'प्रतिगतमक्षम' इस समास के कारण विशेषय वाचक पद के अनुसार 'प्रत्यक्ष' पद में
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४४४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली प्रामाण्यमभिमतम्, परिच्छेदहेतुत्वात् । संशयविपर्ययव्युदासो विद्यानिरूपणस्य प्रकृतत्वात् ।
अक्षं प्रतीत्य यदुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षमित्युक्तेऽतिप्रसिद्धत्वाद् बाह्येन्द्रियजमेव प्रत्यक्षमिति कस्यचिद् भ्रान्तिः स्यात्, तनिवृत्त्यर्थमक्षमक्षमिति वीप्सा समस्तेन्द्रियावरोधार्था कृता । कुगतिप्रादय इति प्रादिसमासः। प्रतिगतमक्षं प्रत्यक्षमित्यनेनास्याभिधेयलिङ्गता, प्रत्यक्षं ज्ञानं प्रत्यक्षा बुद्धिः प्रत्यक्षः प्रत्यय इति । अक्षशब्दस्य बहुष्वर्थेषु निरूढत्वाद् विशिनष्टि - अक्षाणीन्द्रियाणि।।
तानि च सांख्यैरेकादशविधान्युक्तानि, तन्निवत्त्यर्थं परिसंख्यां करोतिघ्राणरसनचक्षुस्त्वकछोत्रमनांसीति अक्षजं विज्ञानं प्रत्यक्षमित्युक्त स्मृतिरपि प्रत्यक्षा स्यात्, अतस्तामसद्विषयां दर्शयितं प्रत्यक्षविषयं निदिशति-तद्धीति । हिशब्दोऽवधारणे। तत् प्रत्यक्षं द्रव्यादिष्वेव द्रव्यगुणकर्मसामान्येष्वेवोत्पद्यते, न विशेषसमवाययोरित्यर्थः। द्रव्यस्य प्राधान्यात प्रथमं तत्प्रत्यक्षोत्पत्तिमाहद्रव्ये तावदिति । तावच्छब्दः क्रमार्थः। महति द्रव्ये पृथिव्यप्तेजोलक्षणे प्रत्यक्ष भवति, कुतः कारणादित्यत्राह-अनेकद्रव्यवत्त्वादिति । अनेकद्रव्यवत्त्वं भूयोऽवयवाश्रितत्वम् । रूपस्य प्रकाश उद्भवसमाख्यातो रूपस्य धर्मः, यदभावाद् वारिस्थे तेजसि प्रत्यक्षाभावः । चतुष्टयसन्निकर्षादात्मनो मनसा संयोगो मनस इन्द्रियेण इन्द्रियस्यार्थे तस्मात् कारणकलापाद्धर्मादिसामग्रये च सति धर्माधर्मदिक्कालादीनां समग्राणां भावे सति प्रत्यक्षं स्यात् । परमाणौ द्वयणके च प्रत्यक्षाभावान्महतीत्युक्तम् । अवयवभूयस्त्वप्रकर्षाप्रकर्षाभ्यामवयविनि
लिङ्ग परिवत्तित होता रहता है, जैसे कि 'प्रत्यक्ष ज्ञानम्, प्रत्यक्षा बुद्धिः, प्रत्यक्षः प्रत्ययः' इत्यादि । 'अक्ष' शब्द अनेक अर्थों में अनादि काल से प्रसिद्ध (निरूढ़ ) है, अत: लिखते हैं कि 'अक्षाणि इन्द्रियाणि' ।
सांख्यदर्शन के आचार्यों ने ग्यारह इन्द्रियां कही हैं, उसी पक्ष को खण्डन करने के लिए 'घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्छ्रोत्रमनांसि' इत्यादि वाक्य के द्वारा इन्द्रियों की संख्या का निर्धारण करते हैं। 'इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष है (प्रत्यक्ष लक्षण के लिए) केवल इतना कहने से स्मृति भी प्रत्यक्ष कहलाएगी अतः स्मृति के विषयों को विद्यमान रहना आवश्यक नहीं है' यह समझाने के लिए 'तद्धि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रत्यक्ष के विषयों का निर्देश करते हैं। (तद्धि' इस शब्द में प्रयुक्त ) 'हि' शब्द 'इस अवधारण' का बोधक है, कि यह ( उक्त लक्षण से लक्षित ) प्रत्यक्ष द्रव्यादि विषयों का ही होता है । अभिप्राय यह है कि यह प्रत्यक्ष ज्ञान द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य इन चार पदार्थों का ही होता है, विशेष एवं समवाय इन दोनों विषयों का नहीं। इन सबों में द्रव्य ही प्रधान है, अतः 'द्रव्ये तावत्' इत्यादि वाक्य के द्वारा द्रव्य के प्रत्यक्ष की उत्पत्ति ही सबसे पहिले कही गया है। इस वाक्य का 'तावत्' शब्द 'क्रम का बोधक है।
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४४५
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दलो स्फुटत्वास्फुटत्वातिशयानतिशयदर्शनादनेकद्रव्यवत्त्वं कारणम् । सत्यपि महत्त्वे. ऽनेकद्रव्यवत्त्वे च वायोरनुपलम्भाद् रूपप्रकाशो हेतुः । सर्वस्यैव ज्ञानस्य सुखदुःखादिहेतुत्वाद् देशकालादिनियमेनोत्पादाच्च धर्माधर्मदिक्कालजन्यत्वम् । अन्तरेणात्ममनःसंयोगं मनइन्द्रियसंयोगमिन्द्रियार्थसंयोगं च प्रत्यक्षाभावाच्चतुष्टयसन्निकर्षः कारणम् ।
___इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य हेतुत्वे सामान्योपलम्भवद् विशेषोपलम्भस्यावश्यंभावितया संशयविपर्ययानुत्पत्तिरिति चेन्न, अनियमात् । सामान्यं हि बहुविषयत्वात् स्वाश्रयस्य चक्षुःसन्निकर्षमात्रेणोपलभ्यते, विशेषस्तु स्वल्पविषयत्वात् स्वाश्रयस्य च तदवयवानां च भूयसां महत् परिमाण से युक्त पृथिवी, जल और तेज का ही प्रत्यक्ष क्यों होता है ? इसी प्रश्न का समाधान 'द्रव्ये तावत्' इत्यादि ग्रन्थ से कहते हैं । (१) 'अनेकद्रव्यवत्त्व' शब्द का अर्थ है अनेक द्रव्यों में आश्रित होना। (२) 'रूप का प्रकाश' रूप में रहनेवाला 'उद्भतत्व' नाम का एक विशेष प्रकार का धर्म है, जिसके न रहने से ही जल में रहते हुए भी तेज का प्रत्यक्ष नहीं होता। (३) 'चतुष्टयसंनिकर्ष' से अर्थात् आत्मा का मन के साथ संयोग, मन का इन्द्रिय के साथ और इन्द्रिय का अर्थ के साथ संयोग इन तीन संयोग रूप कारणों के द्वारा 'धर्मादि सामग्रियों के रहने पर' अर्थात् धर्म, अधर्म और दिशा, काल प्रभृति (सामान्य) कारणों के रहने पर प्रत्यक्ष होता है। 'महति' शब्द इसलिए रखा गया है कि परमाणु और द्वयणुक इन दोनों का प्रत्यक्ष नहीं होता है । प्रत्यक्ष के प्रति 'अनेकद्रव्य वत्त्व' को इसलिए कारण मानते हैं कि अवयवों के न्यूनाधिकभाव से अववियों में स्फुटत्व रूप विशेष और अस्फुटत्व रूप अविशेष दोनों ही देखे जाते हैं । अनेकद्रव्यवत्त्व और महत्त्व के रहते हुए भी वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः कथित 'रूपप्रकाश' को भी प्रत्यक्ष का कारण माना गया है। सभी ज्ञान सुख या दु.ख के कारण हैं, एवं सभी ज्ञान किसी नियमित देश और नियमित काल में ही उत्पन्न होते हैं, अतः धर्म, अधर्म, दिशा और काल इन सबों को भी प्रत्यक्ष का कारण माना गया है। आत्मा और मन के संयोग के न रहने पर मन और इन्द्रिय के संयोग एवं इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के रहने पर भी प्रत्यक्ष की उत्पत्ति नहीं होती है, अतः इन चारों का संनिकर्ष भी प्रत्यक्ष का कारण है।
(प्र०) प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रिय और अर्थ के संनिकर्ष को यदि कारण मानें तो फिर ( अर्थगत ) सामान्य की तरह ( अर्थ के असाधारण धर्म या व्यक्तिगत धर्म ) रूप विशेषों का भी सभी प्रत्यक्षों में भान मानना पड़ेगा, जिससे संशय और विपर्यय दोनों ही अनुपपन्न होंगे। (उ.) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि यह नियम नहीं है कि सामान्य की तरह प्रत्यक्ष में विशेष का भी अवश्य ही भान हो, ( सामान्य के अवश्य भासित होने में यह युक्ति है कि) सामान्य बहुत से विषयों के साथ सम्बद्ध रहता है, उनमें से कहीं संनिकर्ष होते ही उसकी भी उपलब्धि हो जाती है। विशेष ( असाधारण ) धर्म अल्प
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली चक्षुरवयविना भूयोभिश्च तदवयवैः सह सन्निकर्षमपेक्षत इति न सहोपलम्भनियमः, सामग्रीभेदात् । अत एव दूरादव्यक्तग्रहणम्, गच्छतश्चक्षुरश्मेरन्तराले प्रकीर्णानामवयवानामर्थप्राप्त्यभावात् ।
केचित् सविकल्पकमेवैकं प्रत्यक्षमाचक्षते, व्यवसायात्मकत्वेन सर्वस्य व्यवहारयोग्यत्वात्, शब्दव्युत्पत्तिरहितानामपि तिरश्चामर्थविकल्पात् प्रवृत्तेः, तान् प्रत्याह-स्वरूपालोचनमात्रमिति। स्वरूपस्यालोचनमात्रं ग्रहणमात्रं विकल्परहितं प्रत्यक्षमात्रमिति यावत् । यदि हि वस्तुस्वरूपस्य निर्विकल्पकेन ग्रहणं नेष्यते, तदा तद्वाचकशब्दस्य स्मृत्यभावात् सविकल्पकमपि न स्यात् । अतः सविकल्पकमिच्छता निविकल्पकमप्येषितव्यम्, तच्च न सामान्यमानं गलाति, भेदस्यापि प्रतिभासनात् । नापि स्वलक्षणमात्रम, सामान्याकारस्य संवेदनात, व्यक्तचन्तरदर्शने प्रतिसन्धानाच्च । किन्तु सामान्यं विशेषं चोभयमपि गह्णाति, यदि परमिदं सामान्यमयं विशेष इत्येवं विविच्य न प्रत्येति, वस्त्वन्तरानुसन्धानविरहात्। पिण्डान्तरानुवृत्तिग्रहणाद्धि सामान्यं विविच्यते स्थान में रहता है, अतः उसके प्रत्यक्ष के लिए उसके आश्रय एवं आश्रय के अवयवों के साथ चक्षुरिन्द्रिय रूप अवयवी और उसके अवयवों का भी संनिकर्ष आवश्यक है । इस प्रकार सामान्य और विशेष दोनों के 'सहोपलम्भनियम' अर्थात् दोनों साथ ही उपलब्ध हों यह नियम नहीं है । क्योंकि दोनों के प्रत्यक्ष के कारण भिन्न हैं। यही कारण है कि दूर से वस्तुओं का अस्फुट ग्रहण होता है। चूंकि जाती हुई चक्षु की रश्मियों के बीच में बिखरे हुए कुछ अवयवों के साथ अर्थ का सम्बन्ध नहीं हो पाता।
___ कोई कहते हैं कि प्रत्यक्ष केवल सविकल्पक ही होता है, क्योंकि वही निश्चयात्मक होने के कारण सभी तरह के व्यवहार की योग्यता रखता है। जिसके द्वारा शब्दों की व्युत्पत्ति से सर्वथा रहित सर्पादि तिर्यक् योनियों के प्राणियों की भी विशेष अर्थ के ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्तियाँ उपपन्न होती हैं। उन्हीं को लक्ष्य कर 'स्वरूपालोचनमात्रम्' यह पद लिखा गया है । 'स्वरूपालोचन' शब्द का ग्रहणमात्र अर्थात् विकल्प रहित केवल प्रत्यक्ष अर्थ है । निर्विकल्पक ज्ञान से यदि वस्तु के स्वरूप का ज्ञान न मानें तो फिर उस वस्तुस्वरूप के वाचक शब्द की स्मृति न हो सकेगी। उस स्मृति के न होने से सविकल्पक ज्ञान भी न हो सकेगा। अतः सविकल्पक ज्ञान को माननेवालों को निर्विकल्पक ज्ञान भी मानना ही पड़ेगा। निर्विकल्पक ज्ञान केवल सामान्य को ही नहीं ग्रहण करता, बल्कि उसमें 'भेद' (विशेष अर्थात् व्यक्ति ) का भी भान होता है। एवं निर्विकल्पक ज्ञान में केवल भेद (व्यक्ति) भी भासित नहीं होता। क्योंकि अनुभव के द्वारा यह सिद्ध है कि उसमें सामान्य भी भासित होता है। यदि यह कहें कि (प्र०) 'यह सामान्य है' 'यह विशेष है' इस प्रकार अलग २ दोनों का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि (निर्विकल्पक ज्ञान में) दूसरी वस्तु का ( अर्थात् ज्ञात वस्तु के सजातीय
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४४७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्मविशेषणापेक्षादात्ममनःसन्निकर्षात् प्रत्यक्ष(२) उद्भूत रूप ( ३ ) प्रकाश एवं ( आत्मा, मन, चक्षुरादि इन्द्रियाँ और घटादि अर्थ इन ) चार वस्तुओं के ( तीन ) संनिकर्ष, इन सबों के द्वारा धर्मादि ( साधारण ) सामग्रियों के रहते हुए द्रव्य के स्वरूप का केवल आलोचन ( निर्विकल्पक ) ज्ञान होता है। आत्मा और मन के संनिकर्ष से ही ( उक्त कारणों के रहते हुए ) द्रव्य का सविकल्पक प्रत्यक्ष होता है, (किन्तु) उसे ( आत्ममनःसंनिकर्ष को) इस कार्य के लिए (द्रव्य के ) सामान्य धर्म, विशेष धर्म, द्रव्य, गुण, कर्म, प्रभृति विशेषणों की भी अपेक्षा होती है। ( जिससे द्रव्य के सविकल्पक ज्ञान के 'यह द्रव्य सत् है, यह पृथिवी है, गाय सींगवाली है, गाय शुक्ल है, गाय जाती है, इत्यादि आकार होते हैं।
न्यायकन्दली व्यावृत्तिग्रहणाद् विशेषोऽयमिति विवेकः । निर्विकल्पकदशायां च पिण्डान्तरानुसन्धानाभावात् सामान्यविशेषयोरनुवृत्तिव्यावृत्ती धमौ न गृह्येते, तयोरग्रहणान्न विविच्य ग्रहणम् । स्वरूपग्रहणं तु भवत्येव, तस्यान्यानपेक्षत्वात् । अत एव निर्विकल्पेन सामान्यविशेषस्वलक्षणानां न विशेषणविशेष्यभावानुगमः, तस्य भेदावगतिपूर्वकत्वानिर्विकल्पेन च सामान्यादीनां परस्परभेदानध्यवसायात् । अतः परं से भिन्न वस्तु का ) भान नहीं होता। (उ०, इस प्रसङ्ग में यह कहना है कि ) दूसरे पिण्डों में अनुवृत्ति के ग्रहण से सामान्य का ज्ञान होता है और व्यावृत्ति के ग्रहण से विशेष का भान होता है। जिस समय निर्विकल्पक ज्ञान होता है उस समय दूसरे व्यक्ति का अनुसन्धान नहीं रहता है, अतः सामान्य की अनुवृत्ति और व्यावृत्ति दोनों में से किसी का भी ज्ञान सम्भव नहीं है, अतः अनुवृत्ति और व्यावृत्ति दोनों के अज्ञान के कारण सामान्य और विशेष के विवेक का ज्ञान नहीं हो पाता है। ( व्यक्ति के ) स्वरूप का ग्रहण तो होता ही है, क्योंकि स्वरूपग्रहण में दूसरे की अपेक्षा नहीं है। यही कारण है कि जाति, व्यक्ति एवं स्वलक्षण (व्यक्तिगत असाधारणधर्म तद्वयक्तित्वादि ) ये सभी निर्विकल्पकज्ञान में भासित होने पर भी विशेष्यविशेषणभावापन्न होकर भासित नहीं होते, क्योंकि विशेष्य विशेषणभाव के लिए दोनों में भेद का ज्ञान आवश्यक है। निर्विकल्पक ज्ञान से सामान्यादि के भेद का भान नहीं होता। निर्विकल्पक ज्ञान के बाद 'यह इसका विशेषण है' एवं 'यह इसका विशेष्य है' इत्यादि आकार का बोध सविकल्पक ज्ञान से होता है, क्योंकि विशेष्यविशेषणभाव की प्रतीति इन्द्रिय के द्वारा उसी पुरुष को हो
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दलो
सविकल्पकं सामान्यविशेषरूपतां
स्यात्मनोऽनुवृत्तिव्यावृत्ती भूतप्रतित्युपपत्तेः ।
सौगता:
प्रत्येति
धर्मो
"
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प्रतिपद्यमानस्येन्द्रियद्वारेण
पुनरेवमाहुः - स्वलक्षणान्वयव्यतिरेकानुविधायिप्रतिभासं निर्विकल्पकं वस्तुन्यस्रान्तम्, अतस्तदेव प्रत्यक्षं न सविकल्पकम्, तस्य वासनाधीनजन्मनो वस्त्वननुरोधिप्रतिभासस्य केशादिज्ञानवद् वस्तुनि भ्रान्तत्वादिति । तेषां मतं निराकतु सविकल्पकस्यापि प्रत्यक्षतामाहसामन्येत्यादि ।
[ गुणे प्रत्यक्ष
पिण्डान्तरमनुसन्दधान
तस्मात्
सामान्यं च विशेषश्च द्रव्यं च गुणश्च कर्म च सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्माणि, सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्माण्येव विशेषणानि सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्म विशेषणानि तान्यपेक्षते य आत्ममनः सन्निकर्षः, सद्रव्यमिति सामान्यविशिष्टम् । पृथिवीति पृथिवीत्वविशिष्टम् विषाणीति द्रव्यविशिष्टम्, शुक्लो गौरिति गुणविशिष्टम्, गच्छतीति कर्मविशिष्ट प्रत्यक्षं स्थात् । चतुष्टयसन्निकर्षादित्यनेनैवात्ममनः संयोगे लब्धे
तथा
सकती है जिसे निर्विकल्पक ज्ञान में भासित होनेवाले उसके सजातीय पिण्डों का अनुसन्धान रहे एवं ( जिसका निर्विकल्पक ज्ञान हो एवं जिसका उक्त अनुसन्धान हो इन ) दोनों में अनुवृत्ति प्रत्यय के कारणीभूत सामान्य और व्यावृत्ति प्रत्यय के कारणीभूत विशेष दोनों का ज्ञान भी रहे ।
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बौद्धों का कहना है कि निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण हैं सविकल्पक ज्ञान नहीं, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान के ही साथ विषय के स्वलक्षण ( असाधारणधर्म ) का अन्वय और व्यतिरेक है, अतः वही अपने विषय में अभ्रान्त है । चूंकि सविकल्पक ज्ञान वासना के अधीन है. वह अपनी उत्पत्ति के लिए विषयवस्तु का अनुरोध नहीं रखता । अतः केशराशि के ज्ञान की तरह सविकल्पक ज्ञान अपने विषयवस्तु में भ्रान्त है । बौद्धों के इस मत को खण्डित करने के लिए ही 'सामान्य' इत्यादि ग्रन्थ से 'सविकल्पकज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमाण है' यह उपपादन किया गया है ।
सामान्यश्च विशेषश्च द्रव्यश्च गुणश्च कर्म च सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्माणि, ( द्वन्द्व ) सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्माण्येव विशेषणानि सामान्यविशेषद्रव्यगुणकर्मविशेषणानि ( कर्मधारय ), तान्यपेक्षते यः आत्ममनः संनिकर्षः, तस्मात्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सामान्य, विशेष, द्रव्य, गुण, और कर्म स्वरूप विशेषणों के साहाय्य से आत्मा और मन के संनिकर्ष के द्वारा 'सद् द्रव्यम्' इस आकार का सत्ता ( सामान्य ) विशिष्ट द्रव्य का ज्ञान, 'इयं पृथिवी' इस आकार का पृथिवीत्व रूप विशेष प्रकारक ज्ञान, 'अयं विषाणी' इस आकार का द्रव्य विशेषणक ज्ञान, 'शुक्लो गो:' इस आकार का गुणविशेषणक ज्ञान, 'गौर्गच्छति' इस आकार का कर्मप्रकारक ज्ञान, ये जितने भी ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे सभी
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहित
न्यायकन्दली
पुनरस्योपादानं पूर्वस्मान्निर्विकल्पक प्रक्रमादिदं
प्रक्रमान्तरमित्यवद्योतनार्थम् ।
eforever न प्रमाणमिति कथमुच्यते ? प्रतीयते हि घटोऽयमिति ज्ञाने विच्छिन्नः कम्बुग्रीवात्मा सर्वतो व्यावृत्तः पदार्थः । अनर्थजप्रतिभासो विकल्पस्तस्मादर्थाध्यवसायो भ्रान्त इति चेत् ? यथोक्तम्
"विकल्पो वस्तुनिर्भासाद् विसंवादादुपप्लवः" इति ।
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४४६
न प्रवृत्तौ संवादात् । अथानुभवजन्मा विकल्पोsर्थात्मतयारोपितस्वप्रतिभासः स्वलक्षणस्वप्रतिभासयोर्भेदं तिरोधाय स्वलक्षणदेशे पुरुषं प्रवर्तयति संवादयति च मणिप्रभायां मणिबुद्धिवत् पारम्पर्येणार्थप्रतिबन्धादर्थप्राप्तेरिति चेत् ? यदि विकल्पो वस्तु न संस्पृशति, कथं तदात्मतया स्वप्रतिभासमारोपयेत् ? नह्यप्रतीते मरुमरीचिनिचये तदधिकरणो जलसमारोपो दृष्टः ।
अथ प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पः करणव्यापारमुपाददानोऽर्थक्रियासमर्थं वस्तु साक्षात्करोति, अन्यथार्थक्रियार्थिनो विकल्पतः प्रवृत्त्ययोगात् । यथाह-" ततोऽपि विकल्पाद् वस्तुन्येव प्रवृत्तिः" इति । एवं तहि वस्तुनि प्रमाणम्, तत्राविसंवादिप्रतीतिहेतुत्वात् । अथ मन्यसे यः क्षण: प्रत्यक्षेण गृह्यते
प्रत्यक्ष हैं । ( निर्विकल्पक ज्ञान के प्रसङ्ग में कथित ) चतुष्टय संनिकर्ष से ही यद्यपि आत्मा और मन के संनिकर्ष का लाभ हो जाता है फिर भी 'यह आरम्भ निर्विकल्पक ज्ञान के उपक्रम से सर्वथा भिन्न है' यह दिखलाने के लिए ही अलग से यहाँ भी आत्मा और मन के संनिकर्ष का उपादान किया गया है ।
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( उ० ) किस युक्ति के द्वारा यह कहते हैं कि सविकल्पक ज्ञान अपने विषय का ज्ञापक प्रमाण नहीं है ? क्योंकि 'घटोऽयम्' इस सविकल्पक ज्ञान में पटादि अन्य सभी पदार्थों से भिन्न कम्बुग्रीवादिमत् स्वरूप एक विलक्षण वस्तु भासित होता है । ( प्र० ) जो ज्ञान बिना अर्थ के भी उत्पन्न हो उसे विकल्प' कहते हैं। उनसे जो (सविकल्पक नाम का ) अध्यवसाय उत्पन्न होगा, वह भी अवश्य ही भ्रान्त होगा । जैसा कहा गया है कि विशिष्ट वस्तु को समझाने के कारण ही ज्ञान सविकल्पक होता है । किन्तु उससे होने वाली प्रवृत्तियाँ विफल होती हैं, अतः सविकल्पक ज्ञान भ्रान्तिरूप है । ( उ० ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि सविकल्पक ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्तियाँ सफल ( भी ) होती हैं । (प्र०) पहिले ( निर्विकल्पक) अनुभव से उत्पन्न होनेवाले सविकल्पक अनुभव में उसके विषय के अभेद का आरोप होता है, इसके बाद इस आरोप के कारण उसका घटादि विषय रूप से ही प्रतिभास होता है । इस प्रकार सविकल्पक अनुभव में भासित होनेवाले विषयों की प्रवृत्ति सफल होती है किन्तु प्रवृत्ति की इस सफलता से सविकल्पक ज्ञान में प्रामाण्य की सिद्धि नहीं की जा सकती ) | ( उ० ) ( इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि ) अगर सविकल्पक ज्ञान का अपने विषय के साथ सम्बन्ध नहीं प्रतिभास का आरोप ही कैसे कर सकता है ?
रहता है तो फिर वह विषय में अपने क्योंकि अज्ञान मरु-मरीचिका में तो जल का
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली
नासौ विकल्पेनाध्यवसीयते, यश्च विकल्पेनाध्यवसीयते, न स प्रवृत्त्या लभ्यत इति क्षणापेक्षया न संवादः, तेषां क्षणिकत्वात् । किन्तु यादृशः क्षणः प्रत्यक्षेण गृह्यते तादृशो विकल्पेनाध्यवसीयते, यादशश्च विकल्पेनाध्यवसीयते तादशश्च प्रवृत्त्या लभ्यत इत्यनाकलितक्षणभेदस्यातद्वयावृत्तवस्तुमात्रापेक्षया संवादः। तत्र च विकल्पो गृहीतग्राहित्वादप्रमाणम्, तथाभूतस्यार्थस्य प्रत्यक्षेणैव गृहीतत्वात्। लिङ्गजस्तु विकल्पः प्रमाणान्तराप्राप्तस्वलक्षणप्रापकतया प्रमाणमिति । तदप्यसारम्, नहि क्षणस्यान्यव्यावृत्तिरभावरूपान्यव्यावृत्त्यपेक्षया वा तस्यारोपितं साधारणं रूपमवस्तुभूतं आरोप देखा नहीं जाता। जैसा कहा गया है कि 'अप्रमा ज्ञान से भी यथार्थवस्तु में ही प्रवृत्ति होती है' अगर ऐसी बात है तो फिर सविकल्पक ज्ञान अवश्य ही अपने विषय का ज्ञापक प्रमाण है, क्योंकि अपने विषय की सफल प्रवृत्ति का वह कारण है । यदि यह मानते हैं कि (प्र०) जो क्षण (वृत्ति घटादि ) प्रत्यक्ष (निर्विकल्पकज्ञान ) से गृहीत होता है, वही सविकल्पक ज्ञान के द्वारा निर्णीत नहीं होता ( क्योंकि प्रत्येक क्षण वृत्ति घटादि भिन्न हैं ) एवं जिसका निर्णय सविकल्पक ज्ञान क द्वारा होता है, प्रवृत्ति के द्वारा उसी का लाभ नहीं होता है । 'अतः प्रवृत्ति और सविकल्पक ज्ञान में एक ही विषय भासित होते हैं' इस प्रकार दोनों में एक विषयत्व का सामञ्जस्य नहीं स्थापित किया जा सकता। क्योंकि (निर्विकल्पक ज्ञान सविकल्पक ज्ञान और प्रवृत्ति ये) सभी क्षणिक हैं ( अतः भिन्न हैं )। ( वस्तुस्थिति यह है कि) जिस प्रकार का क्षण (वृत्ति पदार्थ ) ( निर्विकल्पक ) प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत होता है उसी के जैसा क्षण ( वृत्ति पदार्थ) विकल्प ( सविकल्पक प्रत्यक्ष ) के द्वारा भी निश्चित होता है । एवं जिरा प्रकार की वस्तु सविकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत होती है उसी प्रकार की वस्तु का लाभ प्रवृत्ति से भी होता है। किन्तु ( निर्विकल्पक ज्ञान, सविकल्पक ज्ञान एवं प्रवृत्ति ) इनके विषयों का भेद गृहोत नहीं होता है, और यह भान होता है कि सविकल्पक ज्ञान के विषय की ही प्राप्ति प्रवृत्ति से हुई है। वस्तुतः प्रवृत्ति की सफलता का यह व्यवहार केवल इतने ही अंश में पर्यवसित है कि सविकल्पक ज्ञान और प्रवृत्ति के विषयों में 'अतद्वथावृत्त' या 'अपोह' ( रूप घटभिन्न भिन्नत्वादि धर्म ) एक हैं। वह व्यवहार दोनों के विषयों के ऐक्य-मूलक नही है. ( क्योंकि दोनों के विषय भिन्न हैं ) इनमें प्रत्यक्षात्मक सविकल्पक ज्ञान (निविकल्पक ज्ञान के द्वारा गृहीत ) विषय का ही ज्ञापक है, अतः वह प्रमाण नहीं है। किन्तु लिङ्ग ( हेतु ) जनित ( स ) विकल्पक ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि वह किसी दूसरे प्रमाण से सर्वथा अज्ञात असाधारण विषय का बोधक है। (उ०) इस उपपत्ति में भी कुछ सार नहीं है। (घटादि वस्तुओं में क्षण-भेद के कारण भेद होते हुए भी जो तत्तत्क्षणों में रहने वाले घटादि वस्तुओं के ही अन्यव्यावृत्ति रूप अपोह के कारण क्रमशः उत्पन्न होनेवाले निर्विकल्पक ज्ञान सदिकल्पक-ज्ञान और प्रवृत्ति के विषयों में ऐक्य व्यवहार का समर्थन किया है वह सम्भव नहीं है ) क्योंकि प्रत्येक क्षण ( वृत्ति घटादि
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प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम्
४५१ न्यायकन्दली प्रत्यक्षेण गृह्यते, हेतुत्वस्य ग्राह्यलक्षणत्वादवस्तुनश्च समस्तार्थक्रियाविरहात् ।
क्षणस्तु परमार्थसन्नक्रियासमर्थत्वात् प्रत्यक्षस्य विषयः। स च विकल्प. कालाननुपातीत्युक्तम्, कुतो विषयैकता ? अस्तु वा विकल्पप्रत्यक्षयोरनिरूपितरूपः कश्चिदेकः प्रवृत्तिसंवादयोग्यो विषयः, तथापि विकल्पः प्रमाणत्वं नातिवर्तते, धारावाहिकबुद्धिवदर्थपरिच्छेदे पूर्वानपेक्षत्वात्, अध्यवसितप्रापणयोग्यत्वाच्च । प्रमाणत्वे चावस्थिते प्रत्यक्षमेव स्याल्लिङ्गाद्यभावादर्थेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाच्च । यत् पुनरयमर्थजो भवन्नपि निर्विकल्पकवदिन्द्रियापातमात्रेण न भवति, तदिन्द्रियार्थसहकारिणो वाचकशब्दस्मरणस्यावस्तुओं में रहनेवाले अपोह या अन्य व्यावृत्ति ) अभाव रूप है, अतः क्षणों का साधारण रूप हो या सभी क्षणिक वस्तुओं में समारोपित ही हो-किसी भी स्थिति में उसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि अबस्तु ( अभाव ) से कोई काम नहीं हो सकता ( अतः उससे प्रत्यक्ष रूप कार्य भी नहीं हो सकता, किन्तु प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण है ) चूंकि क्षण (वृत्ति घटादि वस्तुओं ) की परमार्थसत्ता है, अतः वे ही अर्थक्रियाकारी होने से अपने निर्विकल्पक प्रत्यक्ष रूप कार्य का उत्पादन कर राकते हैं । किन्तु निर्विकल्पक प्रत्यक्ष काल में रहनेवाले विषय सविकल्पक प्रत्यक्ष के समय तक ( आप के मत से ) रह नहीं सकते, अतः ( आपके मत से ) निर्विकल्पक ज्ञान और सविकल्पक ज्ञान दोनों एक-विषयक हैं' इसकी उपपत्ति किस प्रकार की जा सकती है ? यदि यह मान भी लें (कि उक्त ऐक्य व्यवहार में समर्थ ) दोनों प्रत्यक्षों का एक ही कोई अनिर्वचनीय विषय है तब भी सविकल्पक प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व को कोई हटा नहीं सकता, क्योंकि धारावाहिक बुद्धि को तरह इसमें विषय के निर्धारण के लिए पहिले किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं है, एवं अपने द्वारा निश्चित विषय को प्राप्त कराने की योग्यता भी है । इस प्रकार सविकल्पक ज्ञान में प्रमाणत्व के निश्चित हो जाने पर यही कहना पड़ेगा कि वह प्रत्यक्ष प्रमाण ही होगा, क्योंकि अनुमान प्रमाण मानने के प्रयोजक लिङ्गादिज्ञान वहाँ नहीं है, एवं ( प्रत्यक्षत्व के प्रयोजक ) इन्द्रिय का अन्वय और व्यतिरेक भी है। निर्विकल्पक ज्ञान की तरह अर्थजनित होने पर भी जो विषयों के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होते ही सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, उसका यह कारण है कि विषय के वाचक शब्द का स्मरण उससे पहिले नहीं होती है, उसका यह कारण है कि विषय के वाचक शब्द का स्मरण उससे पहिले नहीं रहता है, क्योंकि सविकल्पक ज्ञान के उत्पादन में वाचक शब्द का स्मरण भी इन्द्रिय और अर्थ का सहकारी है ( अर्थात् वाचक शब्द का स्मरण भी सविकल्पक ज्ञान का सहकारि कारण है)। (प्र.) तो फिर स्मृति के बाद उत्पन्न होनेवाला यह विकल्प स्मृति से ही उत्पन्न होता है, इन्द्रिय और अर्थ से नहीं, क्योंकि इन्द्रिय, अर्थ एवं सविकल्पक ज्ञान इनके मध्य में स्मृति आ जाती है। (उ०) क्या सहकारी कारण मुख्य कारण में जो काय करने की शक्ति है उसे रोक देता है ? तो फिर बीज भी अङ्कर का कारण नहीं होगा, क्योंकि बीज और अङ्कुर के बीच में पृथिवी और जल भी आ जाता है । ( जिससे
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४५२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली
भावात् । स्मृत्यनन्तरभावी विकल्पः स्मृतिज एव नेन्द्रियार्थजः, तयोः स्मृत्या व्यवहितत्वादिति चेत् ? कि भोः सहकारी भावस्य स्वरूपशक्तिं तिरोधत्ते ? क्षित्युदकतिरोहितस्य बीजस्याङ्कुरजननं प्रति का वार्ता ? शब्दस्मरणनेन्द्रियार्थयोः क उपकारो येनेदं तयोः सहकारि भवतीति चेत् ? यथा विकल्पः स्वोत्पत्तावर्थेन्द्रिययोरन्दयव्यतिरेकावनुकरोति, तथा स्मृतेरपि । ततश्चेन्द्रियार्थयोरयमेव स्मरणेनोपकारो यदेतो केवलौ कार्यमकुर्वन्तौ स्मृतिसहकारिलाभात् कुरुतः। स्वरूपातिशयानाधायिनो न सहकारिण इति क्षणभङ्गप्रतिषेधावसरे प्रतिषिद्धम् ।
स्यादेतत्-कल्पनारहितं प्रत्यक्षम् । कल्पनाज्ञानं तु सविकल्पकम, तस्मादर्थे न प्रमाणमिति ।
अथ केयं कल्पना ? शब्दसंयोजनात्मिका प्रतीतिरेका, अर्थसंयोजनात्मिका चापरा विशिष्ट ग्राहिणी कल्पना । तदयुक्तम्, विकल्पानुपपत्तः । शब्दसंयोजनात्मिका प्रतीतिः किमर्थे शब्द संयोजयति ? किं वा स्वयं
व्यवहित होने के कारण बीज में भी कारणता कुण्ठित हो जाएगी)। (प्र.) (मुख्य कारण को कार्य के उत्पादन में उपकार करनेवाला ही सहकारि कारण है तदनुसार ) वाचकशब्द का स्मरण इन्द्रिय और अर्थ का क्या उपकार करता है जिससे शब्द के स्मरण को सविकल्पक प्रत्यक्ष का सहकारि कारण माने ? (उ०) जिस प्रकार सविकल्पक प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति के लिए इन्द्रिय और अर्थ का अनुगमन करता है, उसी प्रकार वह स्मृति के अन्वय और व्यतिरेक के अनुगमन की भी अपेक्षा रखता है । इन्द्रिय और अर्थ को वाचक शब्द की स्मृति से यही उपकार होता हैं कि इसके बिना वे दोनों सविकल्पक प्रत्यक्ष रूप अपना काम नहीं कर पाते और स्मृति रूप सहकारी के रहने से कर पाते हैं। 'मुख्य कारण के स्वरूप में किसी विशेष का सम्पादन न करनेवाला सहकारी ही नहीं है' इस आक्षेप का हम क्षणभङ्गवाद के खण्डन के अवसर पर निराकरण कर चुके हैं ( देखिए पृ. १८५-१८६)
(प्र.) 'कल्पना' से भिन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, किन्तु सविकल्पक ज्ञान तो 'कल्पना' रूप है, अतः वह अपने अर्थ का ज्ञापक प्रमाण नहीं है।
(उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि यह 'कल्पना' कौन सी वस्तु है ? (१) (निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा ज्ञात ) अर्थ को ( उसके बोधक ) शब्द के साथ सम्बद्ध करनेवाली (शब्द संयोजनात्मिका) प्रतीति 'कल्पना' है (२) अथवा उसी अर्थ को विशेषण के साथ सम्बद्ध करनेवाली ( विशिष्ट विषयक ) अर्थ संयोजनात्मिका प्रतीति ही 'कल्पना' है ? किन्तु ये दोनों ही पक्ष अयुक्त हैं, क्योंकि इन दोनों पक्षों के सभी सम्भावित विकल्प अनुपपन्न ठहरते है ।
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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૪૨
शब्दात्म
शब्देन संयुज्यते ? यदि तावदर्थे शब्द संयोजयति ? तत्रापि कि कमर्थं करोति ? कि वा शब्दाकारोपरक्तं गृह्णाति ? आहोस्विच्छब्देन व्यपदिशति ?
न तावत्प्रतीतिरर्थं शब्दात्मकं करोति, अर्थस्य निर्विकल्पक गृहीतेनैव स्वरूपेण विकल्पज्ञानेsपि प्रतिभासनात्, अर्थक्रियाकरणाच्च । अन्यथा व्युत्पन्नाव्युत्पन्नयोर्युगपदेकार्थव्यवसायायोगात् ।
अथ शब्दाकारोपरवतमर्थ गृह्णाति ? तदप्ययुक्तम्, अप्रीतीतेः । निर्विकल्प ज्ञानेनार्थे गृहीते प्रागनुभूतस्तद्वाचकः शब्दः स्मर्यते, प्रतियोगि. दर्शनात् । स्मृत्या रूढश्चासौ तदर्थे एवार्थं परिच्छिनत्ति, न तु स्फटिक इव नीलोपरक्तः शब्दाकारोपरवतोऽर्थो गृह्यते, शब्दस्याचाक्षुषत्वात्, केवलस्यैवार्थस्येदन्तया निर्विकल्पकवत् प्रतिभासनाच्च । न च वाचके स्मर्यमाणे वाच्यस्य काचित् स्वरूपक्षतिरस्ति, येनायं सत्यपीन्द्रियसंयोगे प्रत्यक्षतां न लभते । यथोक्तम्
(१) शब्द संयोजनात्मिका प्रतीति हो 'कल्पना' है, इस पक्ष के प्रसङ्ग में यह पूछना है कि यह प्रतीति क्या अर्थ के साथ शब्द को सम्बद्ध करती है या वह स्वयं ही शब्द के साथ सम्बद्ध होती है ?
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यदि यह कहें कि 'अर्थ में ही शब्द को सम्बद्ध करती है' तो फिर इस पक्ष में पूछना है कि वह प्रतीति शब्द स्वरूप अर्थ को ग्रहण करती है ( अर्थात् अर्थ में शब्द को अभेद सम्बन्ध से सम्बद्ध करती है ) अथवा शब्दाकार से अर्थ को ग्रहण करती है ? अथवा शब्द के द्वारा अर्थ का व्यवहार करती है ? ( इन तीनों पक्षों में से पहिले पक्ष के अनुसार यह कहना अयुक्त है कि उक्त कल्पना रूप प्रतीति ) अर्थ को शब्द से अभिन्न रूप में ग्रहण करती है, क्योंकि जिस रूप से अर्थ निर्विकल्पक ज्ञान में भासित होता है, उसी रूप से सविकल्पक ज्ञान से भी गृहीत होता है । एवं ( सविकल्पक ज्ञान के द्वारा ज्ञात ) अर्थ ही 'अर्थक्रियाकारी' अर्थात् कार्योत्पादक भी हैं ( क्योंकि अर्थ में शब्द का अभेद समारोपित ही है स्वाभाविक नहीं, समारोपित अर्थ से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है ) । अन्यथा ( यदि सविकल्पक प्रत्यक्ष शब्द विशिष्ट अर्थ विषयक ही हो तो फिर ) व्युत्पन्न ( शब्द अर्थ के वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध से अभिज्ञ ) पुरुष एवं 'अव्युत्पन्न ( उक्त सम्बन्ध से अनभिज्ञ ) पुरुष दोनों को एक ही समय एक ही विषयक सविकल्पक ज्ञान नहीं होंगे ।
शब्द से उपरक्त अर्थ को ही 'सविकल्पक ज्ञान ग्रहण करता है' यह पक्ष भी अनुभव से विरुद्ध होने के कारण अयुक्त हैं, क्योंकि अर्थ ( शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का ) प्रतियोगी है, उसी के निर्विकल्पक ज्ञान रूप 'दर्शन' से पूर्वानुभूत उस अर्थ का स्मरण होता है । उस स्मृति का विषय होकर ही वाचक शब्द उस अर्थ के साथ
वाचक शब्द
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५४
[गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
संज्ञा हि स्मर्यमाणापि प्रत्यक्षत्वं न बाधते।
संज्ञिनः सा तटस्था हि न रूपाच्छादनक्षमा॥ इति । प्रतीतिः शब्देन संसृष्टार्थं व्यपदिशतीत्यपि न सुप्रतीतम्। आत्मा हि चेतनः प्रतिसन्धानादिसामर्थ्यात् सङ्केतकालानुभूतं वाचकशब्दं स्मृत्वा तेनार्थं व्यपदिशति । घटोऽयमिति न प्रतीतिः, तस्याः प्रतिसन्धानादिसामर्थ्याभावात् । एवं तावत्प्रतीतिर्न शब्दं संयोजयति ।
नापि स्वयं शब्देन संयुज्यते, ज्ञानस्य तदव्यतिरिक्तस्य चाकारस्य
सम्बद्ध होकर निश्चित होता है । जिस प्रकार नीलवर्ण के द्रव्य के साथ सम्बद्ध होने पर वह स्फटिक नीलवर्ण से युक्त सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार शब्द से युक्त होकर अर्थ की प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि ( घटादि अर्थ चक्षु से गृहीत होते हैं किन्तु ) शब्द का चक्षु से ग्रहण नहीं होता। दूसरी यह भी बात है कि (यह नियम नहीं है कि सभी सविकल्पक ज्ञान शब्द से युक्त अर्थ को ही ग्रहण करें ) केवल अपने इदन्त्वादि असाधारण रूप से भी वह निर्विकलक ज्ञान की तरह अर्थ को ग्रहण करता है ( अर्थात् जिस प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान में अर्थ इदन्त्वादि अपने असाधारण रूपों से भासित होता है उसी प्रकार कुछ सवि. कल्पक ज्ञानों में भी होता है, अन्तर केवल इतना होता है कि निर्विकल्पक ज्ञान में विशेष्य और विशेषण दोनों ही विश्लिष्ट ही भासित होते हैं। किन्तु सविकल्पक ज्ञान में दोनों संश्लिष्ट ही भासित होते हैं) वाचक शब्द की स्मृति हो जाने से वाच्य अर्थ के स्वरूप में ऐसी कोई विच्युति नहीं आती कि इन्द्रियसंयोग के रहने पर भी (इदन्त्वादि असाधारण रूप से ) उसका प्रत्यक्ष न हो सके । जैसा कहा गया है कि
संज्ञा को स्मृति होने पर भी वह अपने वाच्य अर्थ के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं ला सकती, क्योंकि अपने अर्थ के प्रसङ्ग में उदासीन होने कारण उसके अर्थ में प्रत्यक्ष होने की जो योग्यता है-उसे तिरोहित करने का सामर्थ्य उसमें नहीं है।
यह पक्ष भी ठीक नहीं जंचता कि 'प्रतीति ( सविकल्पक प्रत्यक्ष ) शब्द से सम्बद्ध अर्थ का व्यवहार करती है क्योंकि प्रतीति अचेतन है, उसमें स्मरण करने का सामर्थ्य नहीं है ; चेतन आत्मा में ही स्मरणादि का ऐसा सामर्थ्य है कि शब्दार्थ सङ्केत के समय अनुभूत वाचक शब्द को स्मरण कर उससे 'घटोऽयम्' इत्यादि व्यवहार का सम्पादन कर सकती है। इस प्रकार 'प्रतीति शब्द को अर्थ के साथ सम्बद्ध करती हैंयह पक्ष ( अपने सभी विकल्पों के अनुपपन्न होने के कारण ) अयुक्त है ।
(सविकल्पक प्रत्यक्ष रूप प्रतीति स्वयं शब्द के साथ सम्बद्ध होती है ) यह पक्ष भी अयुक्त है, क्योंकि ज्ञान एवं उसके आकार दोनों ही 'क्षणिक' होने के कारण असाधारण हैं ( अर्थात् एक ज्ञान और उसका आकार एक ही पुरुष के द्वारा ज्ञात होता है )
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम
न्यायकन्दली क्षणिकत्वेनासाधारणतया चाशक्यसङ्कतयोः शब्देन संस्रष्टुमयोग्यत्वात्, विषयवाचिना शब्देन विषयिणो ज्ञानस्य तद्वयतिरिक्तस्य व्यपदेशाभावाच्च । अथ मन्यसे विकल्पः दिसंसृष्टार्थविषयः, स चार्थः संसृज्य शब्देन व्यपदिश्यते च । ( यत्र शब्दस्य सङ्कत: ) तत्र च शब्दस्य सङ्कतो यदक्षणिक साधारणं च, न च स्वलक्षणं स्वलक्षणविषयो वा बोधो बोधविषयश्चाकारः साधारणोऽक्षणिकश्च भवति । बोधाकारस्य बाह्यत्वमपि बोधाकारादनन्यदसाधारणमेव । सामान्यं च वस्तुभूतं नास्ति, विचारासहत्वात् । तस्मात् प्रत्येक विकल्पैर्बाह्यत्वेनारोपितेषु स्वाकारेषु परस्परभेदानध्यवसायादन्यव्यावृत्ततयैकत्वे समारोपिते शब्दस्य सङ्कत इति प्रमाणबलादायातमवर्जनीयम् । तत्र चालीके शब्दसंसर्गवति विकल्पः प्रवर्तमानोऽसन्तमर्थ विकल्पयतीति कल्पनाज्ञानमिति । यथोक्तम्अतः प्रतीति और उसका आकार दोनों का शब्द के साथ सङ्केत नहीं हो सकता । अतः प्रतीति में (सङ्केत सम्बन्ध से) शब्द में सम्बद्ध होने की योग्यता नहीं है। एवं घटादि विषयों के वाचक घटादि शब्द के द्वारा घटादि विषयों से भिन्न घटादि अर्थविषयक ज्ञान का प्रतिपादन भी सम्भव नहीं है (क्योंकि विषय और विषयी दोनों परस्पर विरुद्ध स्वभाव के हैं )। यदि यह मानते हों कि (प्र. ) शब्द से सम्बद्ध अर्थ ही सविकल्पक ज्ञान का विषय है और वह अर्थ शब्द के साथ सम्बद्ध होकर ही व्यवहार में आता है । (उ०) शब्द का सङ्केत ( रूप सम्बन्ध ) उसी के साथ होता है जो अक्षणिक ( अनेक क्षणों तक रहनेवाला) तथा साधारण ( अनेक पुरुषों से गृहीत होनेवाला) हो । कोई भी स्वलक्षण ( अर्थात् विज्ञान ) अथवा स्वलक्षण का विषय या उसका आकार बौद्धों के मत से अक्षणिक और साधारण नहीं है । बोध क आकार में ( बाह्यत्व को कल्पना कर उस कल्पित आकार को साधारण मान कर भी काम नहीं चलाया जा सकता क्योंकि ) वह कल्पित बाह्यत्व भी बोध के आकार से अभिन्न होने के कारण असाधारण ही होगा ( साधारण नहीं ) सामान्य नाम का कोई भाव पदार्थ विचार से बहिभूतं होने के कारण है ही नहीं। अतः यही मानना पड़ेगा कि विकल्प (विज्ञान) के द्वारा उसके आकारों में बाह्यत्य को कल्पना की जाती है, किन्तु परस्पर विभिन्न उन आकारों का भेद अज्ञात ही रहता है, इस अज्ञान के कारण ही उन आकारों में एकत्व का आरोप होता है । इन प्रमाणों के बल पर यही कहना पड़ता है कि इसी एकत्व के अधिष्ठानभूत वस्तु में शब्द का सङ्केत है, फलतः जिसमें शब्द का सङ्क। है वह अलीक है, और उसी असत् अर्थ में सविकल्पक ज्ञान प्रवृत्त होकर उसे निश्चित करता है। इस प्रकार ( सविकल्पक) ज्ञान कल्पना रूप है । जैसा कहा गया है कि 'कल्पना रूप ज्ञान में जो रूप बाह्य एक वस्तु की तरह एवं दूसरों से भिन्न की तरह भासित होता है, वह परीक्षा करने पर उन रूपों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
४५६
[गुणे प्रत्यक्षन्यायकन्दली तस्यां यद्रूपमाभाति बाह्यमेकमिवान्यतः ।
व्यावृत्तमिव निस्तत्त्वं परीक्षानङ्गभावतः ॥ इति । अत्रोच्यते-यदि सामान्यस्य वस्तुभूतस्याभावात् तद्विशिष्टग्राहिता कल्पनात्वम्, तटसदर्थतैव कल्पनात्वं न शब्दसंसृष्टार्थग्राहिता । तत्र यदि शक्ष्यामः प्रमाणेन सामान्यमुपपादयितुं तदा सत्यपि शब्दसंसृष्टग्राहकत्वे तद्विषयं विकल्पज्ञानमिन्द्रियार्थजत्वात् प्रत्यक्षमेव स्यात् । यदपरोक्षावभासि तत् प्रत्यक्षं यथा निर्विकल्पकम्, अपरोक्षावभासि च विकल्पज्ञानम् । इह ज्ञानानां परोक्षत्वमनिन्द्रियार्थजत्वेन व्याप्तं यथानुमाने, अनिन्द्रियार्थजत्वविरुद्धं चेन्द्रिसे भिन्न ठहरता है, अतः ( कल्पना ज्ञान में विषमीभूत वह विशेष प्रकार का ) अर्थ निस्तत्त्व है (असत्) है।
(उ०) (सविकल्पक ज्ञान कल्पना रूप होने के कारण प्रमाण नहीं है ) इस प्रसङ्ग में सिद्धान्तियों का कहना है कि सामान्य (जाति) नाम का कोई भाव पदार्थ बौद्धों के मत में नहीं है और सामान्य से युक्त अर्थ का ग्राहक होने के कारण ही सविकल्पक ज्ञान कल्पना (भ्रम) है तो फिर यही कहिये कि असत् अर्थ को ग्रहण करने के कारण ही सविकल्पक ज्ञान कल्पना ( भ्रम ) है । यह क्यों कहते हैं कि शब्द से सम्बद्ध अर्थ का ग्राहक होने के कारण सविकल्पक ज्ञान भ्रम है । इस प्रकार यह निश्चित होता है कि सविकल्पक ज्ञान चूंकि असत् अर्थ का प्रकाशक है इसीलिए वह कल्पना' है । इसलिए वह 'कल्पना' नहीं है कि शब्द से सम्बद्ध अर्थ का प्रकाशक है । (ऐगी स्थिति में ) यदि प्रमाण के द्वारा सामान्य नाम के भाव पदार्थ की सत्ता का हम लोग प्रमाण के द्वारा प्रतिपादन कर सके, एवं सविकल्पक ज्ञान यदि शब्द से सम्बद्ध अर्थ का प्रकाशक भी हो किन्तु इन्द्रिय और अर्थ ( के संनिकर्ष ) से उसकी उत्पत्ति हो, तो फिर इस इन्द्रियार्थजत्व रूप हेतु से उसमें प्रत्यक्षत्व की सिद्धि की जा सकती है। ( इस प्रसङ्ग के दृष्टान्त में साध्य का साधक यह अनुमान है) कि निर्विकल्पक ज्ञान की तरह जितने भी अपरोक्ष की तरह विषयों के भासक ज्ञान हैं, वे सभी प्रत्यक्ष होते हैं, अतः सविकल्पक ज्ञान भी अपरोक्षावभासि होने के कारण प्रत्यक्ष है । ( इस अनुमान में ) यह 'व्यापकविरुद्धोपलब्धि' अर्थात् व्यतिरेकव्याप्ति भी हेतु है कि अनुमान की तरह जितने भी ज्ञान बिना इन्द्रिय के उत्पन्न होते हैं वे सभी परोक्ष ही होते हैं। इन्द्रिय और अर्थ से उत्पन्न होना (इन्द्रियार्थजत्व) एवं इन्द्रिय से भिन्न करणों से उत्पन्न होना ( अनिन्द्रियार्थजन्यत्व ) ये दोनों परस्पर विरोधी हैं । अनिन्द्रियार्थजत्व का विरोधी यह इन्द्रियार्थजत्व निर्विकल्पक ज्ञान में है (जो कि दोनों के मत से प्रत्यक्ष है, अतः इन्द्रिय और अर्थ से उत्पन्न सविकल्पक ज्ञान भी प्रत्यक्ष प्रमाण है)। (प्र. ) ( उक्त अनुमान के ) विपक्ष में यह विरोधी अनुमान भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि जिस प्रकार अनुमान रूप ज्ञान की उत्पत्ति में स्मृति की अपेक्षा
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प्रकरणम्
भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली यार्थजत्वं तद्भावभावित्वानिर्विकल्पकज्ञाने प्रतीयत इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । विपक्षे यत् स्मृतिपूर्वकं तदप्रत्थक्षं यथानुमानज्ञानम्, स्मृतिपूर्वकं च सविकल्पकज्ञानमिति प्रतिपक्षानुमानमप्यस्तीति चेत् ? प्रत्यक्षत्वं यदि क्वचिदवगतम्, तदा सविकल्पके तस्य न प्रतिषेधः, प्राप्तिपूर्वकत्वात् प्रतिषेधस्य । अथ निर्विकल्पके प्रतीतम्, तत् कथं प्रतीतम् ? इन्द्रियार्थतद्भावभावित्वानुमानेनेति चेत् ? तहि प्रत्यक्षत्वप्रसाधकस्य तद्भावभावित्वानुमानस्य प्रामाण्याम्युपगमे सति प्रत्यक्षत्व. प्रतिषेधकानुमानं प्रवृत्तं तद्विपरीतवृत्ति अश्रावणः शब्द इतिवत् तेनैव बाध्यते । एवं तावच्छब्दसंयोजनात्मिका प्रतीति: कल्पना न भवतीति ।
___ अर्थसंयोजनात्मिकापि विशिष्टग्राहिणी न कल्पना, विशेषणस्य विशेप्यस्य च तयोः सम्बन्धस्य च व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभावस्य वास्तवत्वात् । अर्थावग्रहं विज्ञानम्, तदर्थेन्द्रियन्त्रिकर्षाद् यथाभूतोऽर्थस्तथोपजायते. न त्वर्थे
होती है एवं प्रत्यक्ष में नहीं होती है, उसी प्रकार और भी जिन ज्ञानों में स्मृति की अपेक्षा होगी वे प्रत्यक्ष नहीं हो सकते । मविकल्पक ज्ञान में भी (वाचक शब्द की ) स्मृति अपेक्षित होती है, अतः वह भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। (उ०) जिसका प्रतिषेध सविकल्पक ज्ञान में करते हैं वह प्रत्यक्षत्व कहीं पर ज्ञात है, या नहीं ? यदि नहीं, तो फिर सविकल्पक ज्ञान में भी उसका प्रतिषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि जिसकी कहीं सत्ता ज्ञात रहती है उसी का कहीं प्रतिषेध भी किया जाता है। यदि इसका यह उनर देंगे कि 'यह प्रत्यक्षत्व निर्विकल्पक ज्ञान में ही ज्ञात है' तो फिर यह पूछेगे कि किस हेतु से आपने निर्विकल्पक ज्ञान में प्रत्यक्षत्व को समझा ? यदि उसका यह उत्तर देंगे कि 'चूंकि निर्विकल्पक ज्ञान इन्द्रिय और अर्थ में उत्पन्न होता है अतः प्रत्यक्ष है' तो फिर यह स्वीकृत ही हो जाता है कि 'इन्द्रियार्थजत्व हेतु से जो प्रत्यक्षत्व का अनुमान होता है वह प्रमाण है' इसके बाद यदि कोई यह अनुमान करेगा कि 'इन्द्रिय और अर्थ से उत्पन्न भी सविकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है' तो यह 'अभावणः शब्दः' इस अमान की तरह मिग्राहक प्रमाण से ही बाधित हो जाएगा। अतः कल्पना 'शब्दसंयोजनात्मिका' है इस पक्ष में भी सविकल्पक ज्ञान का प्रामाण्य खण्डित नहीं हो सकता।
यदि कल्पना को अर्थ संयोजन रूप विशिष्ट विषयक ज्ञान से अभिन्न मानें तो भी मविकल्पक ज्ञान इस प्रकार की कल्पना रूप होने पर भी प्रमाण होगा ही, क्योंकि विशिष्ट ज्ञान में विशेष्य, विशेषण और दोनों का व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभाव सम्बन्ध ये तीन वस्तुएँ भासित होती हैं, विशिष्ट ज्ञान के विषय ये तीनों हो विषय वास्तव हैं, आरोपित नहीं ( अतः सविकल्पक ज्ञान केवल विशिष्ट विषयक होने से ही अप्रमाण नहीं हो
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४५८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे प्रत्यक्षन्यायकन्दली विचार्य प्रवर्तते । विशिष्टज्ञानं तु विचार इति । इदं विशेषणमिदं विशेष्यमयमनयोः सम्बन्ध एषा च लोकस्थितिः । दण्डी पुरुषो न तु पुरुषो दण्ड इति विचार्य च प्रत्येकमेतानि पश्चादेकीकृत्य गृह्णाति दण्डी पुरुष इति । यद्यर्थस्य विशिष्टता वास्तवी प्रथममेव विशिष्टज्ञानं जायेत । न भवति चेत् ? नास्य स्वरूपतो विशिष्टता, किं तूपाधिकृतेति विशिष्टताज्ञानं कल्पनेति चेत् ? दुरूहितमिदमायुष्मता, आत्मा हि प्रत्येकं विशेषणादीन् गृहीत्वा ताननुसन्दधान इन्द्रियेणार्थस्य विशिष्टतां प्रत्येति न ज्ञानमचेतनम्, तस्य प्रतिसन्धानाशक्तेः, विरम्य व्यापराभावाच्च । अर्थो विशेषणसम्बन्धाद् विशिष्ट एव, विशेषणादिग्रहणस्य सहकारिणोऽभावात् । प्रथममिन्द्रियेण न तथा गृह्यते, गृहीतेषु विशेषणादिषु गृह्यत इत्यर्थेन्द्रियजं तावद्विशिष्टज्ञानम् । यदि सकता ) । (प्र०) इन्द्रिय और अर्थ से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान में अर्थ अपने वास्तविक रूप में ही भासित होता है | किन्तु वह विचार पूर्वक अपने विषय को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता। यह विशेषण है, यह विशेष्य है, यह उन दोनों का सम्बन्ध है' इस प्रकार के विचार से ही तो विशिष्ट ज्ञान' की उत्पत्ति होती है, क्योंकि विशिष्ट ज्ञान के सम्बन्ध में साधारण जनों की स्थिति इस प्रकार है कि 'दण्ड ही विशेषण है और पुरुष ही विशेष्य है, किन्तु इसके विपरीत लोक में यह व्यवहार नहीं है कि 'पुरुष ही विशेषण है और दण्ड ही विशेष्य है' इस प्रकार के विचार के बाद दण्ड, पुरुष एवं दोनों के सम्बन्ध इन तीनों को एक ज्ञान में आरूढ़ कर 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि आकार को विशिष्ट प्रतीतियाँ होती हैं। ऐसी स्थिति में पुरुष की दण्डविशिष्टता अर्थात् अर्थ को विशिष्टता यदि वास्तव-वस्तु हो तो फिर पहिले ही इन्द्रियपात होते ही 'विशिष्टबोध' की ही उत्पत्ति होती, सो नहीं होती है, अतः समझना चाहिए कि विशेषण विशिष्टता अर्थ का स्वाभाविक धर्म नहीं है, किन्तु औपाधिक धर्म है (जैसे कि जवाकुमुम संनिहित स्फटिक का लौहित्य ) अतः विशिष्ट विषयक ज्ञान ( अर्थात् सविकल्पक ज्ञान ) प्रमा रूप नहीं है। (उ०) यह तो आप की बड़ी ही विचित्र कल्पना है, क्योंकि आत्मा पहिले विशेषणादि को जानकर फिर उनकी स्मृति की सहायता से इन्द्रिय के द्वारा अर्थ की विशिष्टता का भी अनुभव करता है । यह सब काम ज्ञान के द्वारा नहीं हो सकता क्योंकि वह अचेतन है, एवं ( क्षणिक होने के कारण ) एक व्यापार के बाद दूसरे व्यापार की क्षमता भी ज्ञान में नहीं है। विशेषण से युक्त होने के कारण ही अर्थ 'विशिष्ट' कहलाता है (विशिष्ट रूप से गृहीत होने के कारण नहीं इन्द्रिय के प्रथम सम्पात के बाद ही जो विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति नहीं होती है उसका कारण है विशेषण ज्ञान रूप सहकारि कारण का अभाव । इस स्थिति में यदि विशिष्ट बुद्धि रूप होने के अपराध से ही विशिष्ट ज्ञान ( सविकल्पफ ज्ञान )
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प्रकरणम् ]
भावानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
मुत्पद्यते, सद् द्रव्यं पृथिवी विषाणी विषाणी शुक्लो गौर्गच्छतीति । रूपरसगन्धस्पर्शेष्वनेकद्रव्यसमवायात् स्वगतविशेषात् स्वाश्रयसन्नि
इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श विषयक प्रत्यक्ष के उत्पादन के लिए इनमें से प्रत्येक के लिए नियमित चक्षुरादि तत्तत् इन्द्रिय, अनेक अवयवों से बने हुए द्रव्य में समवाय, रूपादि प्रत्येक में रहनेवाले रूपत्वादि असाधारण धर्म, एवं कथित रूपादि विषयों के आश्रयीभूत
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४५६
न्यायकन्दली
विशिष्दज्ञानत्वादेवापराधात् प्रत्यक्षं न भवति दुःसमाधेयमित्युपरम्यते । प्रत्यक्षोत्पत्तिकारणमाह - रूपरसेत्यादि ।
रूपादिषु अनेकेष्ववयवेषु समवेतं द्रव्यमनेकद्रव्यम्, तत्र समवायात् । स्वगतो विशेषो रूपे रूपत्वं रसे रसत्वं गन्धे गन्धत्वं स्पर्शे स्पर्शत्वं तस्मात् स्वाश्रयसन्निकर्षाद् रूपादीनां य आश्रयस्तस्य ग्राहकॅरिन्द्रियैः सन्निकर्षान्नियतेन्द्रियनिमित्तं चक्षुर्निमित्तं रूपे, रसननिमित्तं रसे, घ्राणनिमित्तं गन्धे, त्वगिन्द्रियनिमित्तं स्पर्शे ज्ञानमुत्पद्यते । प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है तो फिर इस प्रश्न का समाधान कठिन है, अतः हम इससे विरत होते हैं ।
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'रूपरस' इत्यादि पङ्क्ति के द्वारा रूपादि विषयों के प्रत्यक्ष के कारण कहे गये हैं । ( इस वाक्य के अनेकद्रव्यसमवायात्' इस पद का ) ' अनेकेष्ववयवेषु समवेतं द्रव्यमनेकद्रव्यं तत्र समवायात्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अनेक अवयवों में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला ( द्रव्य ही 'अनेकद्रव्य' शब्द का ) अर्थ है उसमें रूपादि का समवाय रूपादि के प्रत्यक्ष का कारण है । ( अर्थात् कथित 'अनेकद्रव्य' में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले रूपादि का ही प्रत्यक्ष होता है अन्य रूपादि का नहीं ) रूप में रूपत्व, रस में रसत्व, गन्ध में गन्धत्व और स्पर्श में स्पर्शत्व ही प्रकृत 'स्वगतविशेष' शब्द से अभिप्रेत हैं, ये भी क्रमशः रूपादि प्रत्यक्ष के कारण हैं । 'स्वाश्रयसंनिकर्ष' से अर्थात् रूपादि के जो आश्रयद्रव्य हैं उनका अपने अपने ग्राहक इन्द्रियों के साथ जो संनिकर्ष ( उससे रूपादि का ) 'नियतेन्द्रियनिमित्त' अर्थात् रूप में चक्षु स्वरूप निमित्त से, रस में रसनेन्द्रिय निमित्त से, गन्ध में घ्राण रूप निमित्त से, एवं स्पर्श में त्वक् रूप निमित्त से प्रत्यक्ष की उत्पत्ति होती है । चूंकि 'स्वगतविशेष' अर्थात् रूपत्वादि धर्म भी क्रमशः रूपादि प्रत्यक्ष के कारण हैं, अतः ( रूप का प्रत्यक्ष चक्षु से ही हो, से ही हो इत्यादि प्रकार की ) व्यवस्थायें उपपन्न होती हैं । व्यवच्छेदक न रहने के कारण इन्द्रियों के साङ्कर्य की आपत्ति
रस का प्रत्यक्ष रसनेन्द्रिय
ऐसा न मानने पर कोई होगी । ' शब्दस्य त्रय
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४६०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्षानियतेन्द्रियनिमित्तमत्पद्यते । शब्दस्य त्रयसन्निकर्षाच्छोत्रसमवेतस्य तेनैवोपलब्धिः। संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वस्नेहतत्तत् द्रव्य में चक्षुरादि तत्तद् इन्द्रिय का सन्निकर्ष, इन तीन कारणों की और अपेक्षा होती है। श्रोत्र ( रूप आकाश ) में रहनेवाले शब्द का ही श्रोत्र रूप इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है (किन्तु ) इसमें आत्मा. मन और श्रोत्र रूप इन्द्रिय इन तीनों के (दो) सन्निकर्षों की भी अपेक्षा होती है (रूपादि प्रत्यक्ष में कांयत आत्मादि चार वस्तुओं के तीन सन्निकर्षों की नहीं)। संख्या. परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, स्नेह,
न्यायकन्दली स्वगतविशेषाणां हेतुत्वाद रूपादिष्विन्द्रियव्यवस्था, अन्यथा परिप्लवः स्याद् विशेषाभावात् । शब्दस्य जयरान्निकर्षाच्छोत्रसमवेतस्य तेनैवोपलब्धिः । यसन्निकर्षादिति आत्ममनइन्द्रियाणां सन्निकर्षो दर्शितः। इन्द्रियार्थसन्निकर्षः श्रोत्रसमवेतस्येत्यनेनोक्तः । तेनैवोपलब्धिरिति श्रोत्रणवोपलापरित्यर्थः । संख्यादीनां कर्मान्तानां प्रत्यक्षद्रव्यसमवेतानामाश्रयवच्चक्षुःस्पर्शनाभ्यां ग्रहणम् ।
कर्मप्रत्यक्षभिति न मृष्यामहे, गच्छति द्रव्ये सयोगदिभागातिरिक्तपदार्थान्तरानुपलब्धः। यस्त्वयं चलतीति प्रत्ययः स संयोगविभागानुमिनियालम्बन इति । तदसारम्, यदि कर्माप्रत्यक्षं विभागसंयोगाभ्यामनुमोयते तदा विभागसंयोगयोरुभयवृत्तित्वादाश्रयान्तरेऽपि कर्मानुमीयेत । न च मूलादग्रमग्राच्च भलं गच्छति शाखामृगे तरावप्यनारतसंयोगविभागाधिकरणे चलतीति प्रत्यय उदयते। संनिकर्षात' इत्यादि वाक्य के 'त्रयसंनिकर्षात्' इस पद के द्वारा आत्मा, मन और इन्द्रियों के संनिकर्ष ( प्रत्यक्ष के कारण रूप में ) दिखलाये गये हैं । एवं 'श्रोत्रसमवेतस्य' इस पद के द्वारा ( शब्द प्रत्यक्ष के कारणीभूत ) इन्द्रिय और अर्थ का संनिकषं दिखलाया गया है । 'तेनैवोपलब्धिः ' अर्थात् श्रोत्र में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले शब्द का श्रोत्रे. न्द्रिय से ही प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्ष के विषय द्रव्यों में रहनेवाले 'संख्यादीनां कर्मान्तानाम्' अर्थात् संख्या से लेकर कर्मपर्यन्त ( संख्या परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, स्नेह, द्रवत्व, वेग और कर्म इन ग्यारह वस्तुओं का ) चक्षु और त्वचा इन दोनों इन्द्रियों से ग्रहण होता है।
(प्र.) हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि कम का भी प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि द्रव्य के चलने पर (उतर देश के साथ) संयोग और (पूर्व देश से) विभाग इन दोनों से भिन्न किसी वस्तु की प्रतीति द्रव्य में नहीं होती है। द्रव्य में जो 'चलति' इस प्रकार की
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प्रकरणम् ]
४६१
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
यदि मतं योऽयं तस्मृगस्याकाशादिनापि संयोगस्तस्य तरुसमवेतात् कर्मणी निष्पत्त्यनवकल्पनान्न तरो कर्भानुमानमिति कल्प्यताम् ? तहि देशान्तरसंयोगार्थ तरुमृगेऽपि कर्मान्तरम्, तरी तु कर्मकल्पना न निवर्तत एव । यदधिकरणं कार्य तदधिकरणं कारणमित्युत्सर्गस्तस्यैकत्र अभिधारेऽन्यत्र के आश्वासः ? शाखामृगसमवेतेन कर्मणा कल्पितेन शाखामृगस्थ तरुया देशान्तरेणापि रमं संयोगविभागयोरुत्पत्तेरुभयकर्मकल्पनानपयोग इति चे ? नवम्, प्रतिक हि लिङ्ग यत्रोपलभ्यते तत्र प्रतिबन्धकमुपस्थापयतीतोला स्वानुमानस्य सामग्री।
प्रतीति होती है, वह कर्म विषयक अनुमिति रूप है, जिसकी उत्पत्ति उन्न संयोग और विभाग रूप हेतुओं से होती है। (उ०) उक्त कथन में कुछ सार नहीं है, क्योंकि यदि कर्म का प्रत्यक्ष नहीं होता है एवं संयोग और विभाग से उसका अनुमान ही होता है तो फिर ( रायोग और विभाग तो उभयाश्रयी हैं ) अतः उन्के दूसरे आश्रयों (पूर्वदेश और उत्तर देशों ) में भी कर्म की अनुमति होनी चाहिए ( यो नहीं होती है ), किन्तु वृक्ष में जिस समय मूल भाग से अग्रभाग की तरफ और अग्रभाग से मूलभाग की तरफ बन्दर दौड़ लगाता रहता है, उस समय ( संयोग और विभाग के दूसरे आश्रय ) वृक्ष में 'चलति' यह प्रीति भी नहीं होती। यदि यह कहें कि ( वृक्ष के साथ संयुक्त) बन्दर का आकाशादि द्रव्यों के साथ भी तो संयोग है, सुतरम् वृक्ष में रहनेवाली क्रिया से उस संयोग की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अत: वृक्ष में क्रिया का अनुमान नहीं हो सकता । (प्र०) तो फिर आकाशादि दूसरे देशों के साथ बानर के संयोग और विभाग के लिए बन्दर में ही ( वृक्ष में कपि के संयोगादि के उत्पादक कर्म से भिन्न ) दूसरे कर्म की ही कल्पना कीजिए, (उ०) इससे तो वृक्ष में क्रिया के अनुमान की निवृत्ति नहीं हो सकती। यह औत्सगिक नियम है कि कार्य के आश्रय में कारण को अवश्य ही रहना चाहिए । इस नियम में यदि यहाँ व्यभिचार हो ( अर्थात् कार्य के अधिकरण में कारण के न रहने पर या अन्यत्र रहने पर भी उस अधिक रण में कार्य की उत्पत्ति हो) तो फिर दूसरे स्थानों में ( कार्य के अधिक रण में कारण के नियमतः रहने के नियम में ) कौन सा विश्वास रह जाएगा? (प्र०) वानर में समवाय सम्बन्ध से अनुमित होनेवाली फ्रिया के द्वारा ही वानर का पृक्ष के साथ एवं आकाशादि दूसरे देशों के साथ भी संयोग और विभाग दोनो की उत्पत्ति हो सकती है, अतः वानर में ( वृक्ष गत संयोगादिजनक एवं आकाशादिगत संयोगादि के जनक) दो क्रियाओं की कल्पना का कोई उपयोग नहीं है । ( उ० ) ऐसी बात नहीं हो सकती, क्योंकि प्रतिबद्ध ( अर्थात् साध्य की व्याप्ति से युक्त ) जिस हेतु की उपलब्धि जिस पक्ष में होती है. उस पक्ष में वह हेतु प्रतिबन्धक' को ( अर्थात् जिसका प्रतिबन्ध हेतु में है उस साध्य को) अवश्य ही उपस्थित करेगा । उसमें साध्य की दूसरे प्रकार से उपपत्ति के द्वारा
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली तस्यार्थापत्तिवदन्यथोपपत्त्या क: परिभवः ? न चेदं पुरुष इव चेतनं यत् प्रयो. जनानुरोधात् प्रवर्तते। यदि त्वेकस्य व्योमप्रदेशस्य संयोगविभागाः क्रियानुमितिहेतवः कल्प्यन्ते ? न शक्यं कल्पयितुम, अतीन्द्रियव्योमाश्रयाणां विभागसंयोगानामप्रत्यक्षत्वात् । भूगोलकप्रदेशविभागसंयोगसन्तानानुमेयत्वे गच्छतो वियति विहङ्गमस्य कर्म दुरधिगमं स्यात् । वियद्विततालोकनिवहविभागसंयोगप्रवाहो यदि तस्य लिङ्गमिष्यते ? अनिच्छतोऽप्यन्धकारे वायुदोषादेकस्मादुपजातावयवकम्पस्य भुजाग्रं मे कम्पते भ्रश्चलतीत्यदृष्टान्तःकरणाधिष्ठितत्वगिन्द्रियजा कर्मबुद्धिरनिबन्धना स्यात् । रात्रौ महामेघान्धकारे क्षणमात्रस्थायिन्यां विद्युति चलतीति प्रत्ययस्य का गतिः ?
बुद्धीत्यादि । आत्मसमवेतानां संयुक्तसमवायाद् ग्रहणम् । भावेति । कौन सी बाधा आएगी ? जैसे कि अर्थापत्ति में साध्य की अन्यथा उपपत्ति के द्वारा बाधा आती है। क्योंकि पुरुष की तरह प्रमाण चेतन तो है नहीं कि वह प्रयोजन के अनुसार काम करेगा ( अचेतन वस्तु तो स्वभाव के अनुसार ही काम कर सकती है, अतः साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु पक्ष में साध्य को अवश्य ही उपस्थित करेगा, चाहे उस साध्य का उस पक्ष में दूसरे प्रकार से भी उपपत्ति सम्भव हो)। यदि आकाश प्रदेश के संयोगों और विभागों को ही सभी क्रियाओं की अनुमिति का कारण माने (तो कदाचित उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि सभी मुर्त द्रव्यों का संयोग और विभाग आकाशादि मित्यद्रव्यों के साथ अवश्य रहता है)। किन्तु यह कल्पना सम्भव नहीं है। यदि यह कहें कि (प्र.) आकाशादि अतीन्द्रिय हैं अतः उनमें रहनेवाले संयोग और विभाग भी अतीन्द्रिय हो होंगे, अतः उनके द्वारा कर्म का अनुमान यद्यपि नहीं हो सकता, फिर भी भूगोलक में विद्यमान संयोग और विभाग को ही कर्म का अनुमापक लिङ्ग मान सकते हैं ( इससे कर्म की अनुमिति उपपन्न होगी)। (उ०) इस हेतु के द्वारा आकाश में उड़ती हुई पक्षियों में विद्यमान क्रिया की अनुमिति न हो सकेगी, जिससे उक्त पक्षियों की क्रियाओं का ज्ञान ही कठिन हो जाएगा। यदि आकाश में फैले हुए आलोक रूप तेज ( द्रव्य ) में रहनेवाले संयोग को पक्षियों में रहनेवाले कर्म का अनुमापक हेतु मानेंगे तो भी रात में बिना इच्छा के भी वायु के दोष से उत्पन्न होनेवाले कम्प रूप कम की 'भुजाग्नं मे कम्पते, भ्रूश्चलति' इत्यादि आकार की जितनी भी प्रतीतियाँ अदृष्ट एवं अन्तःकरण ( मन ) से अधिष्ठित त्वगिन्द्रिय से ( प्रत्यक्ष रूप ) उत्पन्न होती हैं, उनको विना कारण के ही स्वीकार करना पड़ेगा। एवं रात को बादल घिर जाने के कारण गाढ़ अन्धकार में जब बिजली कौंधती है उस समय उस क्षणिक विद्युत् में जो 'बिजली चलती है' इत्यादि आकार की प्रतीतियाँ होती हैं उनके प्रसङ्ग में ही ( कर्म को प्रत्यक्ष न माननेवाले) क्या उपाय करेंगे?
___'बुद्धि' इत्यादि पङ्क्ति का सार यह है कि आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहनेवालों का संयुक्तसमवाय सम्बन्ध के द्वारा प्रत्यक्ष होता है । 'भाव' इत्यादि पङ्क्ति का
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মঙ্ক ]
भाषानुवादसहितत्
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रवत्ववेगकर्मणां प्रत्यक्षद्रव्यसमवायाच्चक्षुःस्पर्शनाभ्यां ग्रहणम् । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नानां द्वयोरात्ममनसोः संयोगादुपलब्धिः । द्रवत्व, वेग और क्रिया इन ग्यारह वस्तुओं का चक्षु और त्वचा इन दोनों इन्द्रियों से ग्रहण हो सकता है, ( किन्तु इनके उक्त प्रत्यक्ष के लिए ) प्रत्यक्ष हो सकनेधाले द्रव्यों में इनके समवाय का रहना भी आवश्यक है ( अर्थात् प्रत्यक्ष होनेवाले द्रव्य में रहनेवाले संख्यादि गुणों के ही प्रत्यक्ष हो सकते हैं, प्रत्यक्ष न होनेवाले द्रव्यों के संख्यादि के नहीं)। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न इन छ:गुणों का आत्मा और मन इन दोनों के ही
न्यायकन्दली सत्ताद्रव्यत्वादीनां सामान्यानामाश्रयो येनेन्द्रियेण गृह्यते तेनैव तानि गृह्यन्ते । तत्र संयोगाद् द्रव्यग्रहणम्, संयुक्तसमवायाद् गुणादिप्रतीतिः, संयुक्तसमवेतसमवा. याद् गुणत्वादिज्ञानम्, समवायाच्छन्दग्रहणम्, समवेतसमवायाच्छब्दत्वग्रहणम, सम्बद्धविशेषणतया चाभावग्रहणमिति षोढा सनिकर्षः । यत् संयुक्तसमवेतविशेषगत्वेन रूपे रसायभावग्रहणम्, या च संयुक्तसमवेतविशेषणविशेषणत्वेन रूपत्वे रसत्वाद्यभावप्रतीतिः, यश्च समवेतविशेषणतया ककारे खकाराद्यभावावगमः, यच्च समवेतसमवेतविशेषणतया गत्वे खत्वाद्य भादसंवेदनम्, तत् सर्वं सम्बद्ध. विशेषणभावेन संगृहीतम् । यह अभिप्राय है कि सत्ता द्रव्यत्व प्रभृति सामान्यों का प्रत्यक्ष उसी इन्द्रिय से होता है जिससे उनके आश्रयों का प्रत्यक्ष होता है। (इन्द्रियों के निम्नलिखित छः संनिकर्ष प्रत्यक्ष के सम्पादक हैं) जिनमें (१) संयोग के द्वारा द्रव्य का प्रत्यक्ष होता है । (२) संयुक्त समवाय सम्बन्ध से गुणादि का ( अर्थात् द्रव्यसमवेत वस्तुओं का) प्रत्यक्ष होता है। (३) गुणत्वादि का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवेत-समवाय सम्बन्ध से होता है। केवल (४) समवाय सम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष होता है। (५) शब्दत्व का प्रत्यक्ष समवेतसमवाय सम्बन्ध से निष्पन्न होता है और (६) सम्बद्ध विशेषणता सम्बन्ध से अभाव का प्रत्यक्ष होता है। रूप में रसाभाव का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवेतविशेषणता' सम्बन्ध से, रूपत्व में रसस्वाभाव का प्रत्यक्ष 'संयुक्तसमवेत विशेषण (समवेत) विशेषणता सम्बन्ध से, 'क' वर्ण में 'ख' वर्ण के अभाव का प्रत्यक्ष 'समवेतविशेषणता' से, एवं गत्व में खत्वाभाव का प्रत्यक्ष 'समवेतसमवेतविशेषणता' सम्बन्ध से होता है, ये सभी विशेषणतायें कथित 'सम्बद्धविशेषणता' शब्द के द्वारा संगृहीत होती हैं ।
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे प्रत्यक्ष
भावद्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वादीनामुपलभ्याधारसमवेतानामाश्रयग्राहकैरिन्द्रियै
ग्रहणमित्येतदस्मदादीनां
प्रत्यक्षम् । अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां संयोग से प्रत्यक्ष होता है । ( उन्हीं ) भाव ( सत्ता ) द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादि का प्रत्यक्ष उनके आश्रयीभूत वस्तुओं के ग्राहक इन्द्रियों से होता है, जिनके आश्रय प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहण के योग्य हों ।
न्यायकन्दली
-
अपरे तु सर्वत्र यथासम्भवं संयोगसमवाययोरेव हेतुत्वादवान्तरसम्बन्धकल्पनां नेच्छन्ति, ईदृशो हि तेषां भावानां स्वभावो यदेषामन्यसन्निकर्षादेव ग्रहणम् । अतिप्रसङ्गश्च नास्ति, स्वायय प्रत्यासत्ते नियामकत्वात 1
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उपसंहरति- एतदस्मदादीनां प्रत्यक्षमिति । अस्मदादीनामयोगिनामित्यर्थः । योगिप्रत्यक्षमाह --- अस्मद्विशिष्टानां त्विति । योगः समाधिः । स द्विविध:-- सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातश्च । सम्प्रज्ञातो धारकेण प्रयत्नेन किसी सम्प्रदाय के लोग प्रत्यक्ष के लिए (१) संयोग और ( २ ) समवाय इन दो ही सम्बन्ध को आवश्यक मानते हैं एवं (संयुक्त समवायादि) अवान्तर सम्बन्ध की कल्पना को निरर्थक समझते हैं अर्थात् द्रव्य में चक्षु का जो संयोग है, उसीसे द्रव्य की तरह उसमें रहनेवाले सामान्य गुण एवं कर्मादि के भी बोध होंगे, एवं समवाय सम्बन्ध से शब्द एवं उसमें रहने वाले शब्दत्वादि सामान्यों का भी बोध होगा । कुछ वस्तुओं का यह स्वभाव स्वीकार करेंगे कि दूसरे के साथ के संनिकर्ष से भी उनका प्रत्यक्ष होता है। संयोग संनिकर्ष से यदि घटत्व या घट रूप का प्रत्यक्ष हो सकता है, तो फिर उसी सम्बन्ध से शब्द का भी प्रत्यक्ष हो ( क्योंकि दोनों में ही संयोग संनिकर्ष की असत्ता समान रूप से है) इस पक्ष में उक्त अतिप्रसङ्गों की भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि आश्रय में संनिकर्ष का रहना नियामक होगा ( अर्थात् इस पक्ष में ऐसा नियम है कि इन्द्रिय का संयोग संनिकर्ष जिस द्रव्य के साथ रहेगा उसमें रहनेवाले सामान्य, गुण या कर्म का हो उस संयोग संनिकर्ष से भान होगा । शब्द के आश्रय आकाश रूप द्रव्य में चक्षु का प्रत्यक्षजनक सोनकर्ष नहीं है। इसी प्रकार समवाय में भी समझना चाहिए ) । 'एतदस्मदादीनां प्रत्यक्षम् इस वाक्य के द्वारा (अस्मदादि के
प्रत्यक्ष का ) उपयोगियों से भिन्न
संहार करते हैं । उस वाक्य में प्रयुक्त 'अस्मदादि' शब्द का अर्थ है जीव | 'अस्मद्विशिवनाम्' इत्यादि संदर्भ के द्वारा योगियों के प्रत्यक्ष का निरूपण करते हैं । 'योग' शब्द का अर्थ है समाधि | यह योग ( १ ) सम्प्रज्ञात और ( २ ) असम्प्रज्ञात भेद से दो प्रकार का है धारक प्रयत्न के द्वारा आत्मा के किसी प्रदेश में नियोजित मन का और तत्त्वज्ञान की इच्छा से युक्त आत्मा का संयोग हो 'सम्प्रज्ञातयोग, है । वश किए हुए मन का बिना किसी विशेष अभिलाषा के पहिले ही विना विचारे हुए
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्य विशेषेषु समवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते। वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसन्निकर्षाद् योगजधर्मानुग्रहसामर्थ्यात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते । (१) युक्त और (२) वियुक्त भेद से योगी दो प्रकार के हैं, उनमें ( हम लोग जैसे साधारण जनों से विलक्षण ) 'युक्तयोगियों' को योगाभ्यास के द्वारा विशेष बलशाली मन से अपनी आत्मा, आकाश, दिक, काल, परमाणु, वायु और मन एवं इन सबों में रहनेवाले गुण, कर्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय प्रभृति पदार्थों के भी यथार्थ स्वरूप का प्रत्यक्ष होता है। किन्तु ( वियुक्त योगियों को ) आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थ इन ( चारों के ) तीन संयोग से ही योग जनित धर्मरूप विशेष बल के कारण सूक्ष्म ( परमाण्वादि ), व्यवहित ( दोवाल प्रभृति से घिरे हुए वस्तु ) और बहुत दूर की वस्तुओं का भी प्रत्यक्ष होता है।
न्यायकन्दलो क्वचिदात्मप्रदेशे वशीकृतस्य मनसस्तत्त्वबुभुत्साविशिष्टेनात्मना संयोगः । असम्प्रज्ञातश्च वशीकृतस्य मनसो निरभिसन्धिनिरभ्युत्थानात् क्वचिदात्मप्रदेशे संयोगः । तत्रायमुत्तरो मुमुक्षूणामविद्यासंस्कारविलयार्थमन्त्ये जन्मनि परिपच्यते, न धर्ममुपचिनोति, अभिसन्धिसहकारिविरहात् । नापि बाह्य विषयमभिमुखीकरोति, आत्मन्येव परिणामात् । पूर्वस्तु योगोऽभिसन्धिलहायः प्रतनोति धर्मम् । यदर्थ तत्त्वबुभुत्साविशिष्टश्च तदर्थमुद्द्योतयति, इति तेन योगेन योगिनः च्युतयोगा अपि योग्यतया योगिन उच्यन्ते । न च तेषामप्रक्षीणमलावरणानां तदानीमतीन्द्रियार्थदर्शनमस्त्यत आह- युक्तानामिति ।
युक्तानां समाध्यवस्थितानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मनि, किसी द्रव्य के साथ संयोग ही 'अमम्प्रज्ञात' योग है। इन दोनों योगों में अन्तिम योग अर्थात् असम्प्रज्ञात समाधि का परिपाक मुमुक्षुओं को अन्तिम जन्म में होता है, जिससे संस्कार सहित अविद्या का विनाश हो जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि से धर्म की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि धर्म का सहकारिकारण अभिलाषा या एषणा उस समय नहीं रहती है । उस समय किसी बाह्य विषय का भान भी नहीं होता है. क्योंकि उस समय अन्त:करण केवल अपने स्वरूप से ही परिणत होता है। पहिला योग अर्थात् सम्प्रज्ञातयोग विषयों की अभिलाषा की सहायता से धर्म को उत्पन्न करता है, जिससे तत्त्वज्ञान की इ-छा से युक्त योगी को सभी विषय प्रतिभात होते हैं। अतः सम्प्रज्ञात समाधि से युक्त
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४६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली स्वात्मान्तरेषु स्वात्मन आत्मान्तरेषु परकीयेष, आकाशे दिशि काले वायौ परमाणुमनस्सु तत्समवेतेषु गुणादिषु समवाये चावितथमविपर्यस्तं स्वरूपदर्शनं भवति । अस्मदादिभिरात्मा सर्वदैवाहं ममेति कर्तृत्वस्वामित्वरूपसंभिन्नः प्रतीयते, उभयं चैतच्छरीराधुपाधिकृतं रूपं न स्वाभाविकमत एव अहं ममेति, प्रत्ययो मिथ्यादृष्टिरिति गीयते, सर्वप्रवादेषु विपरीतरूपग्राहकत्वात् । स्वाभाविकं तु यदस्य स्वरूपं तद्योगिभिरालोक्यते, यदा हि योगी वेदान्तप्रवेदितमात्मस्वरूपमहं तत्त्वतोऽनुजानीयामित्यभिसन्धानाद् बहिरिन्द्रियेभ्यो मनः प्रत्याहृत्य क्वचिदात्मदेशे नियम्यैकाग्रतयात्मानुचिन्तनमभ्यस्यति, तदास्य तत्त्वज्ञानसंवर्तकधर्माधानक्रमेणाहङ्कारममकारविनिर्मुक्तमात्मतत्त्वं स्फुटीभवति । यदा तु परात्माकाशकालादिबुभुत्सया तदनुचिन्तनप्रवाहमभ्यस्यति, तदास्य परात्मादितत्त्वज्ञानानुगुणोऽचिन्त्यप्रभावो धर्म उपचीयते, तबलाच्चान्तःकरणं बहिः शरीरान्निर्गत्य परात्मादिभिः संयुज्यते । तेषु संयोगात्, संयुक्तसमवायात् तद्गुणादिषु, संयुक्तसमवेतसमवायात्
योगी ( अपने लक्ष्य असम्प्रज्ञात से ) च्युत होने पर भी 'योग' की अथात् असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता के कारण 'योगी' कहलाते हैं। सम्प्रज्ञात समाधि के समय योगियों के (तत्त्व के) आवरक मल की सत्ता मर्वथा क्षीण नहीं रहती है, अतः उन्हें अतीन्द्रिय अर्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। यही बात 'युक्तानाम्' इत्यादि से कहा गया है । 'युक्तों' को अर्थात् 'सम्माज्ञात' समाधि से युक्त योगियों को इस योग से उत्पन्न धर्म के अनुग्रह से युक्त मन के द्वारा अपनी आत्मा और अपनी आत्मा से भिन्न आत्माओं का अर्थात् अपनी आत्मा से भिन्न दूसरों की आत्माओं का, आकाश, काल, वायु, परमाणु और मन इन सबों का और इन सबों में रहने वाले गुणादि और समवाय का ‘अवितथ' अर्थात् विपर्यय रहित (यथार्थ) ज्ञान होता है। अस्मदादि को आत्मा की प्रतीति-कर्तृत्व एवं स्वामित्व रूप से ही बराबर होती है । म दोनों ही शरीर रूप उपाधि मूलक होने के कारण आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं हैं । अत तन्मूलक 'अहम्, मम' इत्यादि आकार की आत्मा की सभी प्रतीतियां सभी मतों के अनुसार आत्मा के स्वरूप के विरुद्ध धर्म विषयक होने के कारण 'मिथ्याष्टि कही जाती हैं। आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को केवल योगिगण ही देख पाते हैं। जिस समय ये गगण उपनिषदों में कथित आत्मा के स्वरूप को 'मैं यथार्थ रूप से जानू' इस संकल्प के द्वारा बाह्य विषयों से मन को खींचकर आत्मा के किसी भी प्रदेश में लगाकर आत्मचिन्तन का अभ्यास करते हैं, उस समय तत्त्वज्ञान के सम्पादक धर्म के उत्पादन के क्रम से अहङ्कार और ममकार से विनिमुक्त आत्मा को तत्व प्रकाशित होता है। जिस समय दूसरे की आत्मा एवं कलादि वस्तुओं को जानने की इच्छा से उनके चिन्तन के प्रयास का अभ्यास योगिगण करते हैं, उस समय योगियों में वह उत्कृष्ट धर्म बढ़ने लगता है, जिसका प्रभाव हम
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न्यायकन्दली
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૪૧૭
तद्गुणत्वादिषु, सम्बद्धविशेषणभावेन समवायाभावयोर्ज्ञानं जनयति । दृष्टं तावत् समाहितेन मनसाऽभ्यस्यमानस्य विद्याशिल्पादेरज्ञातस्यापि ज्ञानम् । तदितरत्रानुमानम् । आत्माकाशादिष्वभ्यासप्रचयस्तत्त्वज्ञानहेतु:, विशिष्टाभ्यासत्वात् विद्याशिल्पाद्यभ्यासवत् । तथा बुद्धेस्तारतम्यं क्वचिन्निरतिशयं सातिशयत्वात् परिमाणतारतम्यवत् ।
ननु सन्ताप्यमानस्योदकस्यौष्ण्ये तारतम्यमस्ति न च तस्य सर्वातिशायी वह्निरूपतापत्तिलक्षण: प्रकर्षो दृश्यते । नापि लङ्घनाभ्यासस्य क्वचिद् विश्रान्तिरवगता, न सोऽस्ति पुरुषो यः समुत्प्लवेन भुवनत्रयं लङ्घयति । उच्यते - यः स्थिरायो धर्मः स्वाश्रये च विशेषमारभते सोऽभ्यासः क्रमेण प्रकर्षपर्यन्तमासादयति । यथा कलधौतस्य पुटपाकप्रबन्धाहिता शुद्धिः परां रक्तसारताम् । न चोदकतापस्य स्थिर आश्रयो यत्रायमभ्यस्यमानः परां काष्ठां गच्छेत्,
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साधारण जनों की चिन्ता के भी बाहर है । उस धर्म के बल से अन्तःकरण उनके शरीर से बाहर होकर दूसरों की आत्मा प्रभृति वस्तुओं के साथ सम्बद्ध होता है । ( दूसरों की आत्मा में ) अन्तःकरण के संयोग से दूसरी आत्मा का एवं ( उसी सयोग से युक्त ) संयुक्तसमवाय सम्बन्ध से उस आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले गुणादि का, एवं संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध से उन गुणादि में समवाय सम्बन्ध से रहनवाले गुणत्वादि धर्माका, एवं परात्मसम्बद्ध विशेषणतासम्बन्ध से उस आत्मा में रहनेवाले समवाय और अभाव का प्रत्यक्ष योगियों को होता है । क्योंकि पूर्व से सर्वथा अज्ञात विद्या एवं शिल्पादि ज्ञान का भी समाधि युक्त मन के द्वारा अभ्यास करने पर योगियों को होता है । इस प्रसङ्ग में इससे यह अनुमान फलित होता है कि जिस प्रकार विशेष प्रकार के अभ्यास से योगियों को विद्या शिल्पादि का ज्ञान देखा जाता है, उसी प्रकार विशेष प्रकार के अभ्यास के कारण उनको आकाश एवं दूसरे की आत्मा प्रभृति अतीन्द्रिय विषयों का भी प्रत्यक्ष होता है । एवं इसी प्रसङ्ग में यह प्रयोग भी है कि जैसे परिमाण के आधिक्य का विश्राम आकाश की न्यूनता का विश्राम परमाणुओं में होता है, उसी प्रकार बुद्धि की विशदता का भी कहीं विश्राम अवश्य होगा ( वह आश्रय योगियों और परमेश्वर की बुद्धि ही है) । (४०) आग पर चढ़े हुए जल की गर्मी में न्यूनाधिक भाव देखा जाता है, किन्तु उसके आधिक्य की पराकाष्ठा-जो प्रकृत में जल का आग में परिवर्तित हो जाना ही है-नहीं देखा जाता । एवं यह भी नियम नहीं है कि सभी की चरम विभान्ति हो ही, क्योंकि लङ्घन (कूदना) के अभ्यास की चरम परिणति नहीं देखी जाती । कोई भी पुरुष ऐसा उपलब्ध नही है जो कूदकर तीनों भुवनों को लाँघ सके । ( अतः उक्त अनुमान ठीक नहीं है ) । ( उ० ) इसके उत्तर में कहना है कि स्थिर आश्रय में रहनेवाला जो धर्म है, वही अपन आश्रय में वैशिष्ट्यका सम्पादन कर सकता है, और उसी का अभ्यास क्रमशः चरम सीमा
दूसरा अनुमान एव परिमाण
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुण प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली
अत्यन्ततापे सत्युदकपरिक्षयात् । नापि लङ्घनाभ्यासस्य स्वाश्रये विशेषाधायकत्वमस्ति, निरन्वयविनष्टे पूर्वलङ्घने लङ्घनान्तरस्य बलान्तरात् प्रयत्नान्तरादध्यपूर्ववदुत्पत्तेः। अत एव त्रिचतुरोत्प्लवपरिश्रान्तस्य लङ्घनं पूर्वस्मादपचीयते, सामर्थ्य परिक्षयात्। बुद्धिस्तु स्थिराश्रया स्वाश्रये विशेषमाधत्ते, प्रथममगृहीतार्थस्य पुनः पुनरभ्यस्यमानस्य ग्रहणदर्शनात् । तस्याः पूर्वपूर्वाभ्यासाहिताधिकाधिकोत्तरोत्तरविशेषाधानक्रमेण दीर्घकालादरनरन्तर्येण सेविताया योगजधर्मानुग्रहसमासादितशक्तेः प्रकर्षपर्यन्तप्राप्ति नुपपत्तिमती।
यत् पुनरत्रोक्तम्, योगिनोऽतीन्द्रियार्थद्रष्टारो न भवन्ति, प्राणित्वात्, अस्मदादिवत् तद्यदि पुरुषमात्र पक्षीकृत्योक्तं तदा सिद्धसाधनम्, पुरुषविशेषश्च परस्यासिद्धः, सिद्धश्चेभिग्राहकप्रमाणविरुद्धमनुमानम् ।
अथोच्यते-प्रसङ्गसाधनमिदम्, प्रसङ्गसाधनं च न स्वपक्षसाधनायोपादीयते, किन्तु परस्यानिष्टापादनार्थम् । परानिष्टं च तदभ्युपगमसिद्धैरेव धर्मादिभिः
तक हो सकता है। जैसे सुवर्ण में पुटपाक से आनेवाली शुद्धता स्वर्ण के पूर्ण रक्त वर्ण होने तक जाती है। जल की गर्मी का कोई स्थिर आश्रय नहीं है जहाँ किया गया उसका अभ्यास चरम सीमा तक हो सके क्योंकि अत्यन्त ताप के बाद तो जल का नाश ही हो जाता है। इसी तरह लङ्घन के अभ्यास में भी वह सामर्थ्य नहीं है, जिससे कि कूदनेवाले में कूदने की विशेष क्षमता को उत्पन्न कर सके, क्योंकि एक लङ्घन के पूर्ण विनष्ट हो जाने पर ही पूर्ण दूसरे लङ्घन की उत्पत्ति दूसरे बल और प्रयत्न से होती है ! यही कारण है कि तीन चार धार कुदने के बाद कूदने वाले का सामर्थ्य घट जाने के कारण आगे का कूदना कुछ न्यून ही हो जाता है । किन्तु बुद्धि का आश्रय तो स्थिर है, अतः अभ्यास के द्वारा अपने आश्रय में वह 'विशेष' का आधान कर सकती है, क्योंकि देखा जाता है कि जो विषय पूर्ण अज्ञात रहता है, अभ्यास से उसका भी विशेष प्रकार का ज्ञान होता है। अतः योगजनित धर्म के अनुग्रह से विशेष शक्तिशालिनी बुद्धि के प्रकर्ष की अत्यन्त उत्कृष्ट परिणति होने में कोई बाधा नहीं है। क्योंकि वह उसके पहिले पहिले के अभ्यास से आगे आगे के ज्ञानों में विशेष का आधान करती रहती है, यदि बहुत दिनों तक बिना बीच में छोड़े हुए आदर पूर्वक उसकी सेवा की जाय ।
जो सम्प्रदाय (मीमांसक लोग) यह अनुमान उपस्थित करते हैं कि (प्र.) योगीगण भी हमलोगों की तरह प्राणी हैं, अतः वे भी अतीन्द्रिय विषयों को नहीं देख सकते । (उ०) उनसे इस प्रसङ्ग में पूछना है कि इस अनुमान में सभी पुरुष पक्ष हैं या विशेष प्रकार के पुरुष ? यदि सभी पुरुषों को पक्ष करें तो उक्त अनुमान में सिद्धसाधन
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মঙ্ক )
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शक्यमापादयितुम् । तत्र प्रमाणेन स्वप्रतीतिरनपेक्षणीया, नद्येवं परः प्रत्यवस्था. तुमर्हति 'तवासिद्धा धर्मादयो नाहं स्वसिद्धष्वपि तेषु प्रतिपद्ये, इति ।
अत्र ब्रूमः-किं प्रसङ्गसाधनमनुमानं तदन्यद्वा ? यद्यन्यत् क्वाप्युक्तलक्षणेषु प्रमाणेष्वन्तर्भावो वर्णनीयः, वक्तव्यं वा लक्षणान्तरम् । यदि त्वनुमानमेव, तदा स्वप्रतीतिपूर्वकमेव प्रवर्तते, स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पिपादयिषया सर्वस्य परार्थानुमानस्य प्रवृत्तः। अन्यथा गगनकमलं सुरभि, कमलत्वात्, क्रीडासरःकमलवदोष होगा, क्योंकि सभी पुरुषों को अतीन्द्रिय अर्थों का द्रष्टा तो कोई भी नहीं मानता। यदि विशेष प्रकार के पुरुष में अतीन्द्रियार्थ दर्शन के अभाव की सिद्धि करना चाहते हैं तो फिर इसमें आपके मत से पक्षासिद्धि होगी, क्योंकि पक्ष का उसके असाधारण धर्म के साथ निश्चित रहना अनुमान के लिए आवश्यक है। मीमांसकों के मत में 'विशेष प्रकार के पुरुष सिद्ध नहीं हैं। यदि उनकी सिद्धि करना चाहेंगे तो उस (धर्मितावच्छेदकविशिष्ट ) धर्मी के ग्राहक प्रमाण से ही योगियों में अतीन्द्रियार्थ दर्शनरूप 'विशेष' की भी सिद्धि हो जाएगी, जिससे उक्त अनुमान बाधित हो जाएगा। यदि यह कहें कि (प्र. ) ( उक्त अनुमान तो ) प्रसङ्ग (आपत्ति) साधन के लिए है । प्रसङ्ग के साधन का उपन्यास तो दूसरों के मत के खण्डन के लिए ही किया जाता है, अपने मत के साधन के लिए नहीं, दूसरों (प्रतिपक्षी) के अनभिमत धर्मों की आपत्ति तो उनके मत से सिद्ध धर्मादि के द्वारा भी दी जा सकती है। यह आवश्यक नहीं है कि जिसकी आपत्ति देनी है उसके विषयों को अपने मत के अनुसार प्रमाणों के द्वारा भी सिद्ध होना ही चाहिए क्योंकि प्रतिपक्षी यह आरोप कर ही नहीं सकते कि तुम्हारे मत के अनुसार जिन धर्मों की उपपत्ति नहीं हो सकती, उन धर्मों की केवल अपने मत से सिद्ध पदार्थों में प्रतीति मुझे नहीं होती।
(उ) इस प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्तियों) लोगों का कहना है कि जिसे आप 'प्रसङ्गसाधन' कहते हैं, वह अनुमान ही है या और कुछ ? यदि अनुमान नहीं है, तो फिर कथित प्रमाणों में ही उसका अन्तर्भाव करना होगा या फिर इसके लिए कोई दूसरा ही लक्षण करना पड़ेगा ? यदि अनुमान ही है तो फिर पहिले उसके विषयों का ज्ञान अवश्य चाहिए। क्योंकि इस स्वज्ञान के द्वारा ही अनुमान की उत्पत्ति होती है। सभी परार्थानुमानों में इच्छा से ही प्रवृत्ति होती है। जो कोई भी परार्थानुमान में प्रवृत्त होता है. सबकी यही इच्छा रहती है कि मेरे सदृश ज्ञान का उत्पादन बोद्धा में हो। अन्यथा ( यदि पक्षतावच्छेदक रूप से पक्ष का उभयसिद्ध ज्ञान न रहने पर भी अनुमान प्रमाण हो तो) यदि कोई परार्थानुमान का प्रयोग करनेवाला पुरुष कमल की उत्पत्ति गगन में मानकर इस अनुमान का प्रयोग करे कि गगन का कमल सरोवर के कमल की तरह ही सुगन्धित है, क्योंकि वह भी कमल है, तो इसे भी प्रमाण मानना पड़ेगा। ( अत: 'योगिनो अतीन्द्रियार्थद्रष्टारो न भवन्ति'
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली
दित्यस्यापि प्रतिपादकाभ्युपगतसिद्धाश्रयस्य प्रामाण्योपपत्तिः। सन्दिग्धव्याप्तयश्च प्राणित्वादयः। यदि विवादाध्यासितस्य पुरुषधौरेयस्य प्राणित्वादिकमपि भवेत् सर्वज्ञत्वमपि स्यात्, कैवात्रानुपपत्तिः ? नहि तयोः कश्चिद् विरोधः प्रतीक्षितः, सर्वज्ञताया प्रमाणान्तरागोचरत्वात् । प्राणित्वादेरसर्वज्ञतया सहभावस्तु सन्दिग्धः, किमस्मदादीनां प्राणित्वाद्यनुबन्धिनीयमसर्वज्ञता? कि वा सर्वज्ञानकारणत्वेनावगतस्य योगजधर्मस्याभावकृतेति न शक्यते निर्धारयितुम् । अतोऽनवधारितव्याप्तिकं प्राणित्वादिकम्, न तदनुमानसमर्थम् । अतीन्द्रियज्ञानकारणं योगजो धर्म इति न सिद्धम्, कुतस्तदभावादस्मदादीनामसर्वज्ञताशङ्कयत, अस्माकं तावत्सिद्धं तेनेदमाशङ्कयते ततश्च नोभयसिद्धा व्याप्तिः, कुतोऽनुमानम् ?
युक्तानां प्रत्यक्षं व्याख्याय वियुक्तानां व्याचष्टे-वियुक्तानां पुनरिति । अत्यन्तयोगाभ्यासोपचितधर्मातिशया असमाध्यवस्थिता अपि येऽतीन्द्रियं
इत्यादि अनुमान प्रमाण नहीं हो सकते ) । दूसरी बात यह है कि इस अनुमान के प्राणित्वादि हेतु में व्याप्ति सन्दिग्ध है (निश्चित नहीं, प्राणी सर्वज्ञ न हो, इसका कोई निश्चय नहीं है) । अतः पुरुष श्रेष्ठ ( योगी ) प्राणी भी हो सकते हैं और सर्वज्ञ भी हो सकते हैं, इसमें कौन सी अनुपपत्ति है ? क्योंकि प्राणित्व और सवर्शत्व इन दोनों में कोई परस्पर विरोध पहिले से निश्चित नहीं है। (आपके मत से ) सर्वज्ञता किसी दूसरे प्रमाण से सिद्ध नहीं है। हम लोगों की तरह प्राणियों में जो प्राणित्व और असर्वज्ञत्व दोनों का सहभाव देखा जाता है, उससे यह निश्चय नहीं कर सकते कि हम लोग प्राणी हैं, इसीलिए असर्वज्ञ हैं या हम लोगों में योग से उत्पन्न होनेवाला और सर्वज्ञता को उत्पन्न करनेवाला वह उत्कृष्ट धर्म नहीं है, इस कारण असर्वज्ञ हैं। अतः कथित प्राणित्व हेतु-जिसमें कि असर्वज्ञता की व्याप्ति निश्चित नहीं है--उक्त अनुमान का सम्पादन नहीं कर सकता। 'योग से उत्पन्न धर्म के द्वारा अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान उत्पन्न होता है' यह आपके मत से निश्चित नहीं है, अतः आप किस प्रकार यह आशङ्का करते हैं कि हमलोगों में चूंकि योगज धर्म नहीं है, अतः हम लोग असर्वज्ञ हैं। एवं हम लोगों को यह निश्चित है कि 'योग-जनित धर्म के ज्ञान से अतीन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति होती है। अतः हम लोगों की यह शङ्का ठीक है कि 'हम लोगों में चूंकि योगज उत्कृष्ट धर्म नहीं है, अतः हम लोग असर्वज्ञ हैं' अतः आपके हेतु में अन्वय और व्यतिरेक दोनों से ही व्याप्ति असिद्ध है, अतः उससे अनुमान किस प्रकार हो सकता है ?
युक्त योगियों के प्रत्यक्ष के बाद 'वियुक्त' योगियों के प्रत्यक्ष की व्याख्या "वियुक्तानां पुनः' इत्यादि ग्रन्थ से की गयी है। वे ही 'वियुक्तयोगी' हैं जो समाधि अवस्था में न होते हुए भी अत्यन्त योगाभ्यास के कारण अतीन्द्रिय वस्तुओं को भी देख सकते हैं। उन्हें 'चतुष्टयसंनिकर्ष' अर्थात् आत्मा, मन, इन्द्रिय और विषय इन चार वस्तुओं के संनिकर्ष से योगजधर्म के अनुग्रह से प्राप्त विशेष सामर्थ्य के द्वारा
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भाषानुवादसहितम्
४७१
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्र सामान्नविशेषेषु स्वरूपालोचनमात्रं प्रत्यक्ष प्रमाणम् , प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः, प्रमातात्मा, प्रमितिद्रव्यादिविषयं ज्ञानम् ।
जिस समय सत्तारूप ( सामान्य ) एवं ( द्रव्यत्वादिरूप ) विशेष विषयों का स्वरूपालोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है ( उस समय ) द्रव्यादि पदार्थ प्रमेय हैं । आत्मा प्रमाता है । द्रव्यादि-विषयक
न्यायकन्दली पश्यन्ति ते वियुक्ताः, तेषामभिमुखीभतनिखिलविषयग्रामाणामप्रतिहतकारणगणानां चतुष्टयसन्निकर्षादात्ममनइन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् योगजधर्मानुग्रहसहकारितात् तत्सामर्थ्यात् सूक्ष्मेषु मनःपरमाणुप्रभृतिषु व्यवहितेषु नागभुवनादिषु विप्रकृष्टेषु ब्रह्मभुवनादिषु प्रत्यक्षमुत्पद्यते ज्ञानम् ।।
एवं तावद्वयाख्यातं प्रत्यक्षम्, सम्प्रति प्रमाणफलं विभजते-तत्र सामान्यविशेषेषु स्वरूपालोचनमात्रं प्रत्यक्षमिति । सामान्यं सत्ता, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिकं विशेषा व्यक्तयः, तेषु स्वरूपालोचनमात्रं स्वरूपग्रहणमात्र विकल्परहितं प्रमाणम्, प्रमायां साधकतमत्वात् । साधकतमत्वं च तस्मिन् सति प्रमित्सोर्भवत्येवेत्यतिशयः, प्रमातरि प्रमेये च सति प्रमा भवति, न तु भवत्येव, प्रमाणे तु निर्विकल्पके अपने सामने के सभी वस्तुओं और उनके सभी कारणों का एवं 'सूक्ष्म विषयों' का अर्थात् मन एवं परमाणु प्रभृति विषयों का, एवं 'व्यवहित विषयों' का अर्थात् नागलोकादि का, एवं 'विप्रकृष्ट' विषयों का अर्थात् ब्रह्मलोक प्रभृति का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष की व्यारूपा हो गयी। अब 'तत्र सामान्यविशेषेषु स्वरूपालोचनमा प्रत्यक्षम्' इत्यादि से प्रत्यक्षा प्रमाण कौन है ? और उस (करण) का फल कौन है ? इसका विभाग करते हैं । ( उक्त वाक्य के ) 'सामान्य' शब्द से सत्ता, द्रव्यत्व, कर्मत्व प्रभृति को समझना चाहिए । 'विशेष' शब्द से ( उक्त सामान्य के आश्रय) व्यक्तियों को समझना चाहिए। इन सबों में 'स्वरूपालोचनमात्र, अर्थात् स्वरूप का ग्रहणमात्र फलतः निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि प्रकृति मे वही (उन विषयों के सविकल्पक ज्ञानरूप ) प्रमा का सबसे निकट साधक (साधकतम ) है। वह साधकतम इस लिए है कि उसके रहने पर उक्त प्रमाज्ञान के इच्छुक पुरुष को उक्त सविकल्पक ज्ञानरूप प्रमा अवश्य होती है। प्रमा के और करणों से उसमें यही 'विशेष' है। प्रमाता, प्रमेय प्रभृति साधनों के रहते हुए भी प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे प्रत्यक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यविशेषज्ञानोत्पत्तावविभक्तमालोचनमा प्रत्यक्षं प्रमाणम्, प्रत्यक्षात्मक ज्ञान ही ( उक्त प्रत्यक्ष प्रमाण की फलरूप ) प्रमिति है। जिस समय उक्त ( सत्तारूप ) सामान्य और (द्रव्यत्वादि ) विशेष विषयक निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रमितिरूप से ( फलरूप से ) इष्ट हो, उस समय (आलोच्यते ज्ञायते अर्थोऽनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ) केवल 'आलोचन अर्थात् ( ज्ञान से
न्यायकन्दली विशेषणज्ञानादिलक्षणे विशेष्यज्ञानादिलक्षणा प्रमा भवत्येवेत्यतिशयः। प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः, द्रव्यादयश्चत्वारः पदार्थाः प्रमेयाः प्रमितिविषयाः प्रमितौ जातायां तेषु हानादिव्यवहारः प्रवर्तत इत्यर्थः । प्रमाता आत्मा, बोधाश्रयत्वात् । प्रमितिद्रव्यादिविषयं ज्ञानम्, यदा निर्विकल्पकं सामान्यविशेषज्ञानं प्रमाणम्, तदा द्रव्यादिविषयं विशिष्टं ज्ञानं प्रमितिरित्यर्थः । यदा निविकल्पकं सामान्यविशेषज्ञानमपि प्रमारूपमर्थप्रतीतिरूपत्वात्, तदा तदुत्पत्तावविभक्तमालोचनमात्र प्रत्यक्षम्। आलोच्यतेऽनेनेत्यालोचनमिन्द्रियार्थसन्निकर्षस्तन्मात्रम्। अविभक्तं केवलं ज्ञानानपेक्षमिति यावत् । सामान्यविशेषज्ञानोत्पत्तौ प्रमाणम्, विशेष्यज्ञानोत्पत्तावपीन्द्रियार्थसन्निकर्षः
यद्यपि होती है, किन्तु होती ही नहीं है। विशेषणज्ञान रूप निर्विकल्पक ज्ञान के रहने पर (विशेषणविशिष्ट ) विशेष्य ज्ञानरूप प्रमा अवश्य होती है, अतः वही प्रमाण (अर्थात् प्रमा का साधकतम ) है । यही और कारणों से इसमे 'विशेष' है। 'प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः' अर्थात् द्रव्यादि (द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य ये) चार पदार्थ प्रत्यक्ष के 'प्रमेय' हैं, अर्थात् प्रमाज्ञान के विषय हैं । अभिप्राय यह है कि ( उक्त विशिष्ट ) प्रमाज्ञान के होने पर ही हानोपानादि के व्यवहार होते हैं। आत्मा प्रमा ज्ञान का आश्रय है, अतः वह 'प्रमाता' है। प्रमिति है द्रव्यादिविषयक ज्ञान । अभिप्राय यह है कि जिस समय सामान्य और विशेष का निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण है, उस समय द्रव्यादि विषयक विशिष्ट ( सविकल्पक ) ज्ञान ही फलरूपा प्रमिति है। जिस सामान्य और विशेष विषयक निर्विकल्पक ज्ञान को ही अर्थ की प्रतीति रूप होने के कारण (फलरूप) प्रमा मानते हैं, उस समय उस प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति में 'अविभक्त आलोचन मात्र' ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । 'आलोच्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस वाक्य के 'अलोचन' शब्द का अर्थ है इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष। तन्मात्रमविभक्तम्' अर्थात् ज्ञान से अनपेक्ष केवल इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष ही सामान्य विशेष विषयक (निर्विकल्पक) ज्ञान का (उत्पा
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সকল ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अस्मिन्नान्यत् प्रमाणान्तरमस्ति, अफलरूपत्वात् । अनपेक्ष ) इन्द्रिय और अर्थ का सम्प्रयोग ही प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि वहाँ ज्ञानादि कोई दूसरा प्रमाण उपस्थित नहीं है। एवं यह ज्ञान निर्विकल्पक होने के कारण किसी ज्ञानरूप प्रमाण का फल भी नहीं है, इस हेतु से भी उक्त निर्विकल्पक ज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमिति के पक्ष में उक्त आलोचनरूप इन्द्रिय और अर्थ का सम्प्रयोग ही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
न्यायकन्दली
प्रमाणं भवत्येव प्रमाहेतुत्वात, किन्तु विशेषणज्ञानसहकारितया न केवलः, सामान्यविशेषज्ञानोत्पत्तौ तु ज्ञानानपेक्षः केवल एवेत्यभिप्रायः। सन्निकर्षमात्रमिह प्रमाणं न ज्ञानमित्यत्रोपपत्तिमाह-न तस्मिन्निति
सामान्यविशेषज्ञाने नान्यत् प्रमाणं ज्ञानरूपमस्ति सामान्यविशेषज्ञानस्याफलरूपत्वात् ज्ञानफलत्वाभावात् । विशेष्यज्ञानं हि विशेषणज्ञानस्य फलम्,विशेषणज्ञानं न ज्ञानान्तरफलम्, अनवस्थाप्रसङ्गात् । अतो विशेषणज्ञाने इन्द्रियार्थसन्निकर्षमात्रमेव प्रमाणमित्यर्थः । यदा निविकल्पकं सामान्यविशेषज्ञानं फलं तदेन्द्रियार्थसन्निकर्षः प्रमाणम्, यदा विशेष्यज्ञानं फलं तदा सामान्यविशेषालोचनं दक करण) प्रमाण है (अर्थात् जिस समय निर्विकल्पक ज्ञान फल रूप है उस समय इन्द्रियार्थ संनिकर्ष प्रमाण है)। विशेष्य (विशिष्ट) ज्ञान की उत्पत्ति में भी इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष उक्त ज्ञान का कारण होने से (यद्यपि) प्रमाण है ही, फिर भी विशिष्ट ज्ञानरूप कार्य के उत्पादन के लिए उसे विशेषण ज्ञान (निर्विकल्पक ज्ञान) की भी अपेक्षा होती है, अतः केवल वही विशिष्ट ज्ञान का करण (प्रमाण) नहीं है । किन्तु सामान्य विशेषज्ञान (निबिकल्पक ज्ञान ) के उत्पादन में उसे दूसरे किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती, अतः वहाँ वह 'केवल' अर्थात् ज्ञान से अनपेक्ष होकर (प्रमा का उत्पादक करण) प्रमाण है। 'न तस्मिन्' इत्यादि ग्रन्थ से यह उपपादन करते हैं कि निर्विकल्पक ज्ञानरूप प्रमा के उत्पादन में केवल इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष ही क्यों करण है ? कोई ज्ञान उसका करण क्यों नहीं है ? अभिप्राय यह है कि कोई ज्ञान निर्विकल्पक ज्ञानरूप प्रमा का उत्पादक करण (प्रमाण) नहीं है, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान 'अफल रूप हैं' अर्थात् किसी ज्ञान का फल नहीं है। विशिष्ट ज्ञान (विशेष्य ज्ञान) तो विशेषण ज्ञान (निर्विकल्पकज्ञान) का फल है, किन्तु निर्विकल्पक ज्ञान (विशेषण ज्ञान) किसी ज्ञानरूप करण का फल नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था हो जाएगी। यही कारण है निर्विकल्पक (विशेषण ) प्रमा का, इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष ही केवल करण है। फलितार्थ यह है कि जिस समय निर्विकल्पकरूप सामान्य और विशेष का ज्ञान फल है, उस समय इन्द्रिय और अर्थ का संनिकर्ष ही केवल प्रमाण है. एवं जिस समय विशेष्य
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे प्रत्यक्षप्रशस्तपादभाष्यम् अथवा सर्वेषु पदार्थेषु चतुष्टयसभिकर्षादवितथमव्यपदेश्य
अथवा आत्मा, मन, इन्द्रिय और अर्थ इन चारों के (तीन) सम्प्रयोग से जिस किसी भी वस्तु विषयक अव्यपदेश्य अर्थात् शब्दाजन्य यथार्थ ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । एवं द्रव्यादि पदार्थ( इस प्रमाण के )प्रमेय हैं । एवं आत्मा प्रमाता है।
न्यायकन्दली प्रमाणमित्युक्तं तावत् । सम्प्रति हानादिबुद्धीनां फलत्वे विशेष्यज्ञानं प्रमाण. मित्याह-अथवेति। सर्वेषु पदार्थेषु चतुष्टयसन्निकर्षात् चतुष्टयग्रहण. मुदाहरणार्थम् । द्वयसन्निकर्षात् त्रयसन्निकर्षादवितथं संशयविपर्ययरहितमव्यपदेश्य व्यपदेशे भवं व्यपदेश्यं न व्यपदेश्यमव्यपदेश्यं शब्दाजन्यं यद् विज्ञानं जायते तत् प्रत्यक्षं प्रमाणम् । संशयो ह्यनवस्थितोभयधर्मतया पदार्थमुपदर्य व्यवस्थितकधर्माणं प्रापयति, अन्यथाध्यवसायो वितथ एवेत्यवितथपदेन व्युदस्यन्ति । अव्युत्पन्नस्य सन्निहितेऽर्थे व्याप्रियमाणे चक्षुषि शब्दश्रवणानन्तरं यद् गौरिति ज्ञानं जायते तत्राक्षमपि कारणम्, अन्यथा रेखोपरेखत्वादिविशेषप्रतीत्ययोगात् । (विशिष्ट) ज्ञान ही फलरूप से अभिप्रेत है, उस समय सामान्य और विशेष का आलोचन (निर्विकल्पक) ज्ञान ही प्रमाण है ।
___'अथवा' इत्यादि ग्रन्थ से अब यह कहते हैं कि हानादि बुद्धि को अगर फल मानें तो विशिष्ट ज्ञान ही प्रमाण है। 'सर्वपदार्थेषु चतुष्टयसंनिकर्षात्' इस वाक्य में 'चतुष्टय' पद का प्रयोग केवल उदाहरण दिखाने के लिए है, अतः दो के संनिकर्ष से या तीन के संनिकर्ष से भी उत्पन्न 'अवितथ' अर्थात् संशय और विपर्यय से भिन्न 'अव्यपदेश्य' (अर्थात् 'व्यपदेशे भवं व्यपदेश्यम्, न व्यपदेश्यमव्यपदेश्यम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार) शब्द से अनुत्पन्न उक्त प्रकार का ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
जिन दो रूपों से संशय के द्वारा एक ही विषय उपस्थित होता है, बाद में उनमें से एक रूप से निश्चित अर्थ की प्राप्ति का प्रयोजक होने से उपादान बुद्धिरूप प्रमिति के करणरूप संशय प्रमाण कोटि में यद्यपि आ सकता है, किन्तु संशय उस एक वस्तु को भी अनिश्चितरूप से ही उपस्थित करता है, इस प्रकार संशय 'वितथ' ही है, अस्तिथ नहीं। 'अन्यथाध्यवसाय' अर्थात् विपर्यय तो 'वितथ है ही। इस प्रकार 'अवितथ' पद से संशय और विपर्ययरूप सभी मिथ्या ज्ञानों की व्यावृत्ति होती है । (गो में गोशब्दवाच्यत्व विषयक ज्ञानरूप) व्युत्पत्ति जिस पुरुष को नहीं है, उसका चक्षु जिस समय गोरूप पिण्ड में व्याप्त रहता है उसी समय 'अयं गौः' इस वाक्य के द्वारा जो उसे 'गौः' इस प्रकार का शाब्द ज्ञान होता है, उसकी व्यावृत्ति के लिए ही 'अव्यपदेश्य' पद दिया गया है। इस ज्ञान के प्रति यद्यपि चक्षु भी कारण है, यदि ऐसा न हो तो उस व्यक्ति को गो की छोटी बड़ी रेखाओं का ज्ञान न हो सकेगा, फिर भी वह ज्ञान
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
यज्ज्ञानमुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षं प्रमाणम्, प्रमेया द्रव्यादयः पदार्थाः, प्रमातात्मा, प्रमितिर्गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनमिति ।
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४७५
एवं उन विषयों में उपादेयत्व या हेयत्व अथवा उपेक्षा की बुद्धि ही प्रमिति है ।
न्यायकन्दली
न च तत् प्रत्यक्षम्, अनन्तरभाविनः शब्दस्यैव तदुत्पत्तौ साधकतमत्वादिन्द्रि यस्यापि तत्सहकारितामात्रत्वात् । तथापि पृष्टो व्यपदिशति--अनेन समाख्यातम्, न पुनरेवमभिधत्ते -- प्रत्यक्षो मया प्रतीतं गौरयमिति तस्य व्यवच्छेदार्थ मुक्तमव्यपदेश्यमिति ।
प्रमितिर्गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम् । गुणदर्शनमुपादेयत्वज्ञानम्, दोषदर्शनं हेयत्वज्ञानम्ः माध्यस्थ्यदर्शनं न हेयं नोपादेयमिति ज्ञानं प्रमितिः, पदार्थ स्वरूपबोधे सत्युपकारादिस्मरणात् । सुखसाधनत्वादिविनिश्चये सत्युपादेयादिज्ञानं भवत् पदार्थस्वरूपबोधस्यैव फलं भवति, सुखस्मरणादीनामवान्तरव्यापारत्वात् । यथोक्तम्
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"अन्तराले तु यस्तत्र व्यापारः कारकस्य सः" इति ।
प्रत्यक्षरूप नहीं है, क्योंकि शब्द ही उस प्रमा का 'साधकतम' करण है, इतना ही विशेष है कि इन्द्रिय भी उस ज्ञान का सहकारिकारण है । इसीलिए पूछने पर वह व्यक्ति यह कहता है कि 'उसने कहा है कि यह गो है' वह यह नहीं कहता, मैंने प्रत्यक्ष के द्वारा देखा है कि 'यह गो है' |
'प्रमितिगुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम्' | 'यह ग्रहण के योग्य है'
इस आकार का ( उपा देयत्व) ज्ञान हो ' गुणदर्शन' है । 'यह त्याग के योग्य है' इस प्रकार का ( हेयत्व ) ज्ञान ही 'दोषदर्शन' है । 'न इसके लेने से कुछ होगा न छोड़ने से' इस प्रकार का ज्ञान ही 'माध्यस्थ्यदर्शन' है । ये ज्ञान ही (विशिष्ट ज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से उत्पन्न होनेवाली) प्रमितियाँ हैं, क्योंकि उक्त हेयत्व या उपादेयत्व का ज्ञान पदार्थ के स्वरूप विषयक बोध
( विशिष्टज्ञान ) का ही फल है, सुख के स्मरण का नहीं, क्योंकि सुखादि की स्मृतियाँ
उत्पादन का यह क्रम
उस ज्ञान के विषय में
तो बीच के व्यापार हैं । ( विशिष्ट ज्ञान से हेयत्वादि ज्ञान के है कि ) पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान ( विशिष्ट ज्ञान ) होने पर 'यह सुख ( या दुःख ) का साधन है' इस आकार का निश्चय उत्पन्न होता है । इसके बाद उन विषयों में उपादेयत्व (या हेयत्व ) की बुद्धि उत्पन्न होती है । ( उपादेयत्वादि का ज्ञान उक्त विशिष्ट ज्ञान का ही फल है, सुखादि स्मरण का नहीं) । जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि (कार्य के लिए करण की प्रवृत्ति के बाद और कार्य की उत्पत्ति से पहिले इस) मध्य में जो उत्पन्न होता है, वह तो कारक (करण) का (कार्योत्पादन में सहायक) व्यापार है ( स्वयं कारक नहीं है, अतः करण भी नहीं है ) ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्'
लिङ्गदर्शनात् सज्जायमानं लैङ्गिकम् ।
हेतु के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान ही 'लैङ्गिक' ज्ञान ( अनुमिति ) है |
न्यायकन्दली
अन्ये त्वेवमाहुः -- यदर्थस्य सुखसाधनत्वज्ञानं तद् गुणदर्शनम्, उपादेयत्वज्ञानमपि तदेव । यद् दुःखसाधनत्वज्ञानं तद् दोषदर्शनं हेयत्वज्ञानमपि तदेव । यच्च न सुखसाधनं न च दुःखसाधनमेतदिति ज्ञानं तन्माध्यस्थ्यं न हेयं नोपादेयमिति ज्ञानं प्रमितिः । पदार्थस्वरूपबोधे सत्युपकारादिस्मरणात् सुखसाधनत्वादिविनिश्चये सत्युपादेयादिज्ञानं भवत् पदार्थस्वरूपबोधस्यैव फलं भवति, सुखस्मरणादीनामुपेक्षाज्ञानमपि तदेव । सर्वं चैतदभ्यासपाटवोपेतस्य व्याप्तिस्मरणमनपेक्षमाणस्य वस्तुस्वरूपग्रहणमात्रा देवाननुसंहितलिङ्गस्यापरोक्षावभासितयोत्पादादभ्यासपाटवसहकारिणः प्रत्यक्षस्य फलमिति 1
लिङ्गदर्शनात् सञ्जायमानं लैङ्गिकम् । दर्शनशब्द उपलब्धिवचनो न चाक्षुषप्रतीतिवचनः अनुमितानुमानस्यापि सम्भवात् । लिङ्गदर्शनालिङ्गविषयः संस्कारो जायते किन्त्वस्य न परिग्रहः, बुद्धयधिकारेण विशेषितत्वात् । संशब्देन सम्यगर्थवाचिना संशयविपर्ययस्मृतीनां व्युदासः । लिङ्गस्य
[ गुणे अनुमान
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एवं 'हेयत्वज्ञान' भी वही है ।
सुख ही मिलेगा न दुःख ही '
कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि (घटादि ) अर्थों का 'इससे सुख मिलता है' इस आकार का जो ( सुखसाधनत्व ) का ज्ञान होता है, वही गुणदर्शन है, एवं 'उपादेयत्व का ज्ञान' भी वही है । एवं ( कण्टकादि) विषयों का जो 'इससे दुःख मिलता है, इस आकार का ( दुःखसाधनत्व ) का ज्ञान होता है, वही 'दोषदर्शन' है, हवा में उड़ते हुए पत्तं प्रभृति) विषयों में जो 'इससे न इस आकार का ज्ञान होता है, उसी को 'माध्यस्थ्य दर्शन' कहते हैं । ( उपादेयत्वादि के ) ये सभी ज्ञान चूंकि अपने विषयों को अपरोक्षरूप से ही प्रकाशित करते हैं और इनकी उत्पत्ति में (अनुमिति के प्रयोजक ) लिङ्गदर्शन एवं व्याप्ति स्मरणादि की भी अपेक्षा नहीं होती है, अतः ये ( सविकल्पक ) प्रत्यक्षरूप प्रत्यक्ष प्रमाण के ही फल हैं । इतना अवश्य है कि इन ज्ञानों के उत्पन्न होने में अभ्यास जनित पटुता भी अपेक्षित होती है, अतः वह भी उन प्रमितियों का सहकारिकारण है ।
लिङ्गदर्शनात् सञ्जायमानं लैङ्गिकम्' इस वाक्य में प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द का अर्थ केवल चक्षु से उत्पन्न ज्ञान ही नहीं है, किन्तु सभी ज्ञान या उपलब्धि उसके अर्थ हैं, क्योंकि अनुमान के द्वारा ज्ञात हेतु से भी अनुमान होता है ( अर्थात् अनुमितानुमान भी होता है ) । यद्यपि ( कथित ) लिङ्गदर्शन से लिङ्गविषयक संस्कार भी उत्पन्न होता है, ( जिससे लिङ्ग की स्मृति उत्पन्न होती है, अतः उसमें अनुमिति का लक्षण अतिव्याप्त हो जाएगा, किन्तु यह बुद्धि ( अनुभव ) का प्रकरण है, अतः 'प्रकरण' के द्वारा
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प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली दर्शनाज्ज्ञानात् सम्यग् जायमानं लैङ्गिकमिति वाक्यार्थः । तस्य च ज्ञानस्य सम्यग्जातीयस्य यथार्थपरिच्छेदकतयोत्पादः, सर्वधियां यथार्थपरिच्छेदकत्वस्य कुलधर्मत्वात् । संशयविपर्ययौ तावद्यथासावर्थो न तथा परिच्छिन्तः । स्मृतिरप्यर्थपरिच्छेदिका न भवति, अनुभवपारतन्त्र्यादिति वक्ष्यामः । अन्ये तु विद्याधिकारेण संशयविपर्ययौ व्युदस्यन्ति । अनर्थजायाश्च स्मृतेव्यु दासाथ 'तद्धि द्रव्यादिषु पदार्थेषूत्पद्यते' इत्यावर्त्तयन्ति । तदयुक्तम्, वाक्यलभ्येऽर्थे प्रकरणस्यानपेक्षणात्, अनर्थजत्वात्, स्मृतियुदासे चातीतानागतविषयस्य लैङ्गिकज्ञानस्यापि व्युदासप्रसङ्गात् । 'लिङ्गदर्शनात् संजायमानम्' के बाद 'ज्ञानम' पद का अध्याहार स्वभावतः प्राप्त है। ( अतः संस्कार को ज्ञानरूप न होने के कारण अतिव्याप्ति दोष नहीं है)। ('सञ्जायमानम्' इस पद में प्रयुक्त ) 'सम्' शब्द 'सम्यक्' अर्थ में प्रयुक्त है, (अतः 'लिङ्गदर्शन से उत्पन्न 'सम्यक्' ज्ञान ही अनुमान है' ऐसा लक्षण निष्पन्न होने के कारण) संशय, विपर्यय एवं स्मृति इन तीनों की अनुमान से व्यावृत्ति हो जाती है । क्योंकि ये ( ज्ञान होते हुए भी) सम्यग् ज्ञान अर्थात् यथार्थ ज्ञान नही हैं। सभी सम्यग् ज्ञानों का यह स्वभाव है कि अपने विषयों को उनके यथार्थ स्वरूप में उपस्थित करें, चूंकि अपने विषयों को यथार्थरूप में उपस्थित करना सभी ( यथार्थ ) ज्ञानों का मौलिक धर्म है। संशय और विपर्यय तो अपने विषयों को उसी रूप में उपस्थित नहीं करते जो कि उनका यथार्थ स्वरूप है । स्मृति के प्रसङ्ग में हम आगे कहेंगे कि स्मृति चूंकि अनुभव के अधीन है अतः वह अपने विषयों की परिच्छेदिका नहीं है। (पूर्वानुभव ही स्मृति के विषयों का परिच्छेदक है)। कोई कहते हैं कि यह विद्या ( यथार्थ ज्ञान ) का प्रकरण है, अतः प्रकरण के बल से बुद्धि विद्या रूप ही होगी, इसी से संशय और विपर्यय इन दोनों की अनुमिति से व्यावृत्ति हो जाएगी। स्मृति में अनुमिति लक्षण की अतिव्याप्ति के लिए वे लोग (प्रत्यक्ष प्रकरण में पठित ) 'तद्धि द्रव्यादिषु पदार्थेषूत्पद्यते' इस वाक्य की यहाँ आवृत्ति करते हैं । अतः स्मृति अर्थजनित न होने के कारण अनुमिति के अन्तर्गत नहीं आती। किन्तु ये (दोनों ही बातें) असङ्गत हैं, क्योंकि वाक्य के द्वारा जिस अर्थ का लाभ हो सकता है, उसे प्रकरण की अपेक्षा नहीं होती। एवं अर्थजनित न होने के कारण यदि स्मृति की व्यावृत्ति करें, तो फिर भुत और भविष्य विषयक अनुमान की भी अनुमिति से व्यावृत्ति हो जायगी।
१- अभिप्राय यह है कि संशय और विपर्यय में अनुमिति लक्षण की अतिव्याप्ति हटानी है। 'सञ्जायमानम्' पद घटक 'सम्' शब्द को सम्यगर्थक मान लेने से भी उक्त
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न्यायकवलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम्
लिङ्ग पुनः
यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते।
तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् ॥ जो अनुमिति में प्रधानरूप से विषय होनेवाली वस्तु के साथ अर्थात् पक्ष के साथ सम्बद्ध हो ( इसे पक्षसत्त्व कहते हैं ), एवं जो साध्यरूप धर्म से युक्त (दृष्टान्त) में यथार्थरूप से ज्ञात हो (इसे सपक्षसत्त्व कहते हैं), साध्य का न रहना जिसमें निश्चित
न्यायकन्दली लिङ्गस्य लक्षणमाह-लिङ्गं पुनरिति। अनुमेयः प्रतिपिपादयिषितधर्मविशिष्टो धर्मी, तेन यत् सम्बद्धं तस्मिन् वर्तत इत्यर्थः । यथा विपक्षकदेशे वर्तमानमपि च लिङ्गं विपक्षवृत्ति भवति, एवं पक्षकदेशे वर्तमानमनुमेयेन सम्बद्धमेव । ततश्चतुविधाः परमाणवोऽनित्या गन्धवत्त्वादित्यस्यापि भागासिद्धस्य हेतुत्वं प्राप्नोतीति चेत् ? न, वैधात् । यः साध्यसाधनव्यावृत्तिविषयोऽर्थः स विपक्षः। साध्यसाधनयोयावृत्तिन समुदितेभ्यः, किन्तु प्रत्येकमेव सभ्भवतीति प्रत्येकमेव विपक्षता। पक्षस्तु स भवति यत्र वादिना साध्यो धर्मः प्रतिपादयितुमिष्यते । न च वादिना
'लिङ्ग पुनः' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा लिङ्ग' का लक्षण कहा गया है। ('यदनुमेयेन' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त ) 'अनुमेय' शब्द का अर्थ वह 'धर्मी' है जिसमें (अनुमान प्रयोग करनेवाले को अपने अभीष्ट वस्तु अर्थात् साध्यरूप ) धर्म का प्रतिपादन इष्ट हो। ( फलत: प्रकृत में 'अनुमेय' शब्द से पक्ष अभिप्रेत है ) 'तेन यत् सम्बद्धम्' उस (पक्ष ) में जो विद्यमान रहे ( वह हेतु है )। (प्र.) जिस प्रकार विपक्षीभूत किसी एक वस्तु में यदि (हेतु) रहता है तो वह हेतु 'विपक्षवृत्ति' (हेत्वाभास) हो जाता है, उसी प्रकार किसी एक पक्ष में भी यदि हेतु की सत्ता है, तो फिर वह हेतु 'अनुमेयसम्बद्ध' ( पक्षवृत्ति) होगा। ( इस वस्तु स्थिति के अनुसार यदि कोई इस अनुमान का प्रयोग करे कि ) चारों प्रकार के ( अर्थात् पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों द्रव्यों के) परमाणु बनित्य हैं, क्योंकि उन सभी में गन्ध है, तो फिर इस अनुमान का उक्त गन्ध
दोनों अतिव्याप्तियाँ हट सकती हैं। एवं अनुमिति चूं कि विद्यारूप सम्यगज्ञान के प्रकरण में पठित है, अतः लिङ्गदर्शन से उत्पन्न ज्ञान में सम्यक्त्व का लाभ प्रकरण से भी हो सकता है। फलतः अनुमिति लक्षणघटक ज्ञान में सम्यक्त्व विशेषण देने से ही दोनों मतों में संशय और विपर्यय में अतिव्याप्ति का वारण हो जाता है। यह सम्यक्त्व प्रथम पक्ष में वाक्य लभ्य है, दूसरे पक्ष में प्रकरण लभ्य है। प्रकरण की अपेक्षा वाक्य बलवान् है। (देखिए बलाबलाधिकरण)। अतः प्रकरणापेक्षी द्वितीय पक्ष असङ्गत है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवावसहितम्
न्यायकन्दली पार्थिवपरमाणावेकस्मिन्ननित्यत्वं प्रतिपादयितुमिष्यते, किन्तु चतुर्ध्वपि परमाणुष्विति समुदितानामेव पक्षत्वे स्थितेऽसिद्धवद् भागासिद्धस्यापि व्युदासः, अनुमेयसम्बन्धाभावात् । प्रसिद्धं च तदन्वित इति । तदिति योग्यत्वात् साध्यधर्मः परामृश्यते। तदन्विते साध्यधर्मान्विते सपक्षे प्रसिद्धं परिज्ञातमिति विरुद्धासाधारणयोर्व्यवच्छेदः। तदभावे च नास्त्येवेति । अत्रापि तदिति हेतु भी पक्षवृत्ति होगा, क्योंकि उन चारों प्रकार के परमाणुओं में से एक पार्थिव परमाणु में वह विद्यमान है, किन्तु वह हेतु तो भागासिद्ध हेत्वाभास है, (अतः 'हेतु' का वह 'अनुमेयसम्बद्धत्व' रूप लक्षण ठीक नहीं है)। (उ०) जिसमें साध्य और हेतु दोनों का अभाव निश्चित हो वही विपक्ष' है। यह विपक्षता (विपक्षतावच्छेदकाश्रयीभूत ) प्रत्येक विपक्ष व्यक्ति में है (विपक्षतावच्छेदकाश्रयीभूत ) सभी विपक्ष व्यक्ति समूह में ही नहीं, ( अतः किसी भी विपक्ष व्यक्ति में रहनेवाला हेतु विपक्षवृत्ति होने के कारण भागासिद्ध हेत्वाभास होता है ) 'पश्च' के प्रसङ्ग में सो बात नहीं है, क्योंकि पक्ष वही है जिसमें वादी को साध्य सिद्धि की इच्छा हो, प्रकृत में वादी की यह इच्छा नहीं है कि केवल पार्थिव परमाणु में ही अनित्यत्व की सिद्धि करे, किन्तु वादी की यह इच्छा है कि चारों प्रकार के परमाणुओं में ही अनित्यत्व की सिद्धि करे । तदनुसार उक्त चारों परमाणुओं का समूह हो पक्ष है, तदन्तर्गत एक पार्थिव परमाणु नहीं, अतः जिस प्रकार पक्षाभिमत सभी वस्तुओं में हेतु के न रहने से हेतु ( हेतु नहीं रह जाता स्वरूपासिद्ध या ) असिद्ध नाम का हेत्वाभास हो जाता है. उसी प्रकार ( पक्षान्तर्गत पार्थिव परमाणुरूप पक्ष में गन्धरूप हेतु के रहने पर भी पक्षान्तर्गत जगदि के तीनों परमाणुओं में गन्ध के न रहने से वह हेतु न होकर ) भागासिद्ध नाम का हेत्वाभास ही होगा, क्योंकि उसमें पक्षान्तर्गत जलादि परमाणुओं का सम्बन्ध न रहने के कारण पक्षान्तर्गत ही पार्थिव परमाणु का सम्बन्ध रहते हुए भी अनुमेय स्वरूव चारों परमाणुओं के साथ सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार हेतु के लक्षण में 'अनुमेयेन सम्बद्धम्' इस विशेषण से स्पष्ट ही पक्ष में कहीं भी न रहनेवाला हेतु स्वरूपासिद्ध या भागासिद्ध हेत्वाभास होगा।
'प्रसिद्धञ्च तदन्विते' इस वाक्य में प्रयुक्त 'तत्' शब्द से साध्यरूप धर्भ ही गृहीत होता है, क्योंकि उसी का ग्रहण प्रकृत में उपयोगी है। 'तदन्विते' अर्थात साध्यरूप धर्म से युक्त अर्थात् 'सपक्ष' में 'प्रसिद्ध' अर्थात् अच्छी तरह से ज्ञात (होना हेतु के लिए आवश्यक है)। (हेतु के इस सपक्षवृत्तित्व रूप लक्षण से) विरुद्ध और असाधारण नाम के हेत्वाभासों में हेतुत्व का व्यवच्छेद होता है, अर्थात् उनमें हेतु लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं हो पाती।
'तदभावे च नास्त्येव' इस वाक्य के 'तत्' शब्द से साध्यरूप धर्म का ही ग्रहण करना चाहिए । ( तदनुसार ) इस वाक्य का यह अर्थ है कि साध्यरूप धर्म का अर्थात् साध्य का अभाव जिन आधयों में रहे उन सभी आश्रयों में जो कदापि न रहे वही (सपक्षवृत्ति
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४८.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम् विपरीतमतो यत् स्यादेकेन द्वितयेन वा ।
विरुद्धासिद्धसन्दिग्धमलिङ्गं काश्यपोऽब्रवीत् ।। यदनुमेयेनार्थेन देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितमहो, ऐसे आश्रयों में जो कदापि न रहे ( इसे विपक्षासत्त्व कहते हैं ), वही ( पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व से युक्त ) हेतु साध्य का ज्ञापक है। ( सपक्षसत्त्वादि इन तीन) लक्षणों में से एक या दो लक्षणों से भी रहित हेतु को काश्यप ने असिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध नाम का हेत्वाभास कहा है।
(लिङ्ग के लक्षण बोधक कथित पहिले श्लोक का यह अभिप्राय है कि ) जो साध्य के साथ किसी समयविशेष में एवं देशविशेष में सम्बद्ध
न्यायकन्दली साध्यधर्मस्यैव परामर्शः, तस्य साध्यधर्मस्याभावे नास्त्येव न पुनरेकदेशेऽस्त्यपीत्यनकान्तिकव्यवच्छेदः । तल्लिङ्गमनुमापकम् अनुमेयस्य ज्ञापकम् ।
लिङ्गं व्याख्याय लिङ्गाभासं व्याचष्टे-विपरीतमतो यत् स्यादिति । अत उक्तलक्षणाल्लिङ्गाद् यदेकेन द्वितयेन लिङ्गलक्षणेन विपरीतं रहितं विरुद्धमसिद्ध सन्दिग्धम्, तत् कश्यपात्मजोऽलिङ्गमनुमेयाप्रतिपादकमब्रवीत् । असिद्धमनुमेये नास्ति, अनैकान्तिक विपक्षादव्यावृत्तमित्यनयोरेकेन लिङ्गलक्षणेन विपरीतत्वम् ।
और पक्षवृत्ति) हेतु' है। उक्त वाक्य में प्रयुक्त एवं' शब्द के द्वारा यह सूचित किया गया है कि ऐसे किसी भी आश्रय में हेतु को न रहना चाहिए जिसमें कि साध्य न रहे। इस प्रकार इस विशेषण के द्वारा अनेकान्तिक नाम के हेत्वाभास में हेतु लक्षण की अतिव्याप्ति का वारण होता हैं। 'तल्लिङ्गमनुमापकम्' (अर्थात् उक्त पक्षवृत्तित्व, सपक्षवृत्तित्व और विपक्षावृत्तित्व इन ) तीनों लक्षणों से युक्त हेतु ही साध्य का ज्ञापक है ।
लिङ्ग के लक्षण के कहने के बाद अब 'विपरीतमतो यत् स्यात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा लिङ्गाभास ( हेत्वाभास ) का लक्षण कहते हैं । 'अत.' अर्थात् हेतु के कथित तीनों लक्षणों में से हेतु के एक या दो लक्षणों से 'विपरीत' अर्थात् शून्य हेतु को 'काश्यप' ने अर्थात् कश्यप के पुत्र ने क्रमशः विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध नाम का 'अलिङ्ग' ( हेत्वाभास) कहा है, क्योंकि ये अनुमेय के ज्ञापक नहीं हैं। इनमें 'असिद्ध' नाम का हेत्वाभास अनुमेय ( पक्ष) में रहीं रहता, ( अर्थात् उसमें पक्षवृत्तित्व रूप एक धर्म का अभाव है ), 'अनैकान्तिक' नाम का हेत्वाभास विपक्ष से अव्यावृत्त है, अर्थात् विपक्षावृत्तित्वरूप हेतु के एक ही लक्षण से रहित होने के कारण हेत्वाभास है ( इस प्रकार असिद्ध और अनेकान्तिक ये दोनों हेतु के एक ही लक्षण से रहित होने के कारण
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
'४८१
प्रशस्तपादभाष्यम् नुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमनुमेयविपरीते च सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव, तदप्रसिद्धार्थस्यानुमापकं लिङ्गं भवतीति । रहे, अनुमेयरूप धर्म के किसी ( निश्चित ) अधिकरण में या सभी अधिकरणों में जिसकी सत्ता प्रमाण के द्वारा सिद्ध रहे, एवं साध्य के अभाव के निर्णीत अधिकरण में जिसकी असत्ता भी प्रमाण के द्वारा निश्चित ही हो, वही वस्तु पूर्व में अज्ञात साध्य के अनुमिति का लिङ्ग है।
न्यायकन्दलो विरुद्धं सपक्षे नास्ति,विपक्षादव्यावृत्तमिति तस्य द्वितयेन लिङ्गलक्षणेन रहितत्वम् ।
यदनुमेयेन सम्बद्धमिति श्लोकार्थं विवणोति- यदनुमेयेनेति । अनुमेयेनार्थेन साध्यमिणा सह यद्देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितं सम्बद्धम्, अनुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सपक्षे सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धं प्रमाणेन प्रतीतम्, अनुमेयविपरीते च साध्यव्यावृत्तिविषये चार्थे सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव तदप्रसिद्धार्थस्य साध्यमिणोऽप्रतीतस्यार्थस्य साध्यधर्मस्यानुमापकं लिङ्गं भवति । यावति देशे काले वा दृष्टान्तर्धामणि लिङ्गस्य साध्यधर्मेणाविनाभावो निदशितस्तावत्येव देशे काले वा साध्यमिणि प्रतीयमानस्य गमकमिति प्रतिपादनार्थमुक्तम्-देशविशेष कालविशेषे वा सहचरितमिति । सर्वसपक्षव्यापकवत् सपक्षकदेशवृत्तेरपि हेतुत्वार्थं सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमित्युक्तम् । समस्तहेत्वाभास है ) । विरुद्ध नाम का हेत्वाभास सपक्ष में नहीं रहता और विपक्ष में रहता है, अतः विरुद्ध सपक्षवृत्तित्व और विपक्षब्यावृत्तत्व हेतु के इन दोनों लक्षणों से रहित हेत्वभास है।
___ 'यदनुमेयेनार्थेन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इत्यादि श्लोक की व्याख्या करते हैं। पहिले से अज्ञात अर्थ स्वरूप साध्य (धर्म) की अनुमिति का जनक वह 'लिङ्ग' है, जो अनुमेय अर्थ के साथ अर्थात् माध्य के धर्मी ( पक्ष ) के साथ किसी देश विशेष में एवं कालविशेष मे 'सहचरित' अर्थात् सम्बद्ध हो, एवं अनुमेय ( साध्य ) रूप धर्म से युक्त ( पक्ष से भिन्न ) किसी आश्रयरूप सपक्ष के किसी एक देश में या उसके सभी देशों में 'प्रसिद्ध' हो, अर्थात् प्रमाण के द्वारा निश्चित हो, एवं अनुमेय के विपरीत अर्थात् साध्य का अभाव जिनमें निश्चित हो उन सभी आश्रयों में प्रमाण के द्वारा जिसको असत्ता भी निश्चित ही हो (वहौ लिङ्ग है)। 'देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितम्' यह वाक्य इस लिए लिखा गया है कि दृष्टान्तरूप धर्मी के जितने देश में एवं जितने काल में हेतु का साध्यरूप धर्म के साथ 'अविनाभाव' (व्याप्ति) देखा जाय, उन्हीं देशों में और उन्हीं कालों में साध्य के धर्मी (प.) में जाते हुए साध्य का वह हेतु ज्ञापक होता है । 'सर्वस्मिन्नेकदेशे या प्रसिद्धम्' यह वाक्य इस
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४८२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
न्यायकन्दली विपक्षव्यापकवद्विपक्षकदेशवृत्तरप्यहेतुत्वावद्योतनार्थं सर्वस्मिन्नसदेवेति पदम् ।
केचित् प्रवादुका एवं वदन्ति–नावश्यं प्रमाणसिद्धो वैधHदृष्टान्त एव द्रष्टव्यः, यत्रेदं नास्ति तत्रेदमपि नास्ति' इति वचनादपि साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिप्रतीतिसम्भवात् । तथा च तेषां ग्रन्थः
__तस्माद् वैधHदृष्टान्तोऽनिष्टोऽवश्यमिहाश्रयः ।
तदभावेऽपि तन्नेति वचनादपि तद्गतेः ॥ इति । तन्निवृत्त्यर्थं प्रमाणत इति । साध्यविपरीते यत् प्रमाणतोऽसल्लिङ्गं न तु वाङमात्रणेत्यर्थः । प्रमाणशून्यस्य वचनमात्रस्य सर्वत्र सम्भवे हेतुहेत्वाभासव्यवस्थानुपपत्तिप्रसङ्गः। अतिव्यापकमिदं लिङ्गलक्षणम्, प्रकरणसमे कालात्ययापदिष्टे च भावादिति चेत् ? अत्राह कश्चित्-प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टावनैकान्तिक एवान्तर्भवतः, संदिग्धविपक्षे साध्यमिणि प्रकरणसमस्य भावानिश्चितविपक्षे च कालात्ययापदिष्टस्य वृत्तेः। तथा च प्रकरणसमः ग्यतः प्रकरण
लिए लिखा गया है कि जिस प्रकार सभी सपक्षों ( दृष्टान्तों) में रहनेवाली वस्तु में (साध्य के ज्ञापन करने का सामर्थ्यरूप) हेतुत्व है उसी प्रकार कुछ ही सपक्षों में रहनेवाली वस्तु में भी उक्त हेतुत्व है। 'सर्वस्मिन्नसदेव' यह वाक्य इसलिए दिया गया है कि जिस प्रकार सभी विपक्षों में रहनेवाला पदार्थ साध्य का ज्ञापक हेतु नहीं हो सकता, उसी प्रकार कुछ थोड़े से विपक्षों में रहनेवाला पदार्थ भी साध्य का ज्ञापक हेतु नहीं हो सकता। किसी सम्प्रदाय के लोगों ( बौद्धों) का कहना है कि 'वैधर्म्य दृष्टान्त में प्रमाण के द्वारा हेतु की असत्ता सिद्ध ही हो' यह कोई आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'जहाँ साध्य नहीं है, वहाँ हेतु भी नहीं है' इस प्रकार के साधारण वाक्य से ही साध्य से शून्य सभी आश्रयों ( सभी विपक्षों) में हेतु की असत्ता की प्रतीति हो सकती है। जैसा कि उन लोगों का ( उक्त सिद्धान्त का समर्थक ) यह वचन है कि 'तस्मात् अनुमान के लिए वैधम्यं दृष्टान्तरूप आश्रय (प्रयोजक ) का मानना आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'जहाँ साध्य नहीं है वहाँ हेतु भी नहीं है' इस वाक्य से भी उस ( साध्यशून्य आश्रय में हेतु के अभाव) की प्रतीति हो जाएगी' इस सिद्धान्त के खण्डन के लिए ही प्रकृत वाक्य में 'प्रमाणत:' पद दिया गया है। अर्थात् विपक्ष में हेतु की असत्ता प्रमाण से ही सिद्ध होनी चाहिए, प्रमाणशून्य केवल वचन मात्र के प्रयोग से प्रकृत में समाधान नहीं होगा, क्योंकि प्रमाणशून्य वचनों का प्रयोग तो सभी जगह सम्भव है, इससे 'यह हेतु है और हेत्वाभास है' इस प्रकार की व्यवस्था ही नहीं रह जाएगी। (प्र०) हेतु का यह लक्षण तो 'प्रकरणसम' और 'कालात्ययापदिष्ट' नाम के हेत्वाभासों में भी रहने के कारण अतिव्यापक ( अतिव्याप्त) है। इसके उत्तर में कोई कहते हैं कि ( उ०) प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट इन दोनों का अन्तर्भाव भी 'अनैकान्तिक' नाम के हेत्वाभास में ही हो जाता है, क्योंकि सन्दिग्धविपक्ष रूप साध्य के धर्मी में (अर्थात् पक्ष में)
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
४८३ न्यायकन्दली चिन्ता स निर्णयार्थमुपदिष्टः प्रकरणसमः' प्रक्रियते प्रस्तूयत इति प्रकरणं पक्षप्रतिपक्षौ, तयोश्चिन्ता विचारः, सा यत्कृता स निर्णयार्थमुपदिष्ट उभयपक्षसाम्यान्न प्रकरणसाम्येऽन्यतरपक्षनिर्णयाय कल्पते । यथा नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेः, अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुलब्धेरिति शब्दे नित्यानित्यधर्मयोरनुपलम्भान्नित्यानित्यत्वसंशये सति तद्विचारोऽभूत, अन्यतरधर्मग्रहणे तत्त्वनिश्चयाद् विचारस्याप्रवृत्तः । तत्रानित्यधर्मानुपलम्भो नित्यत्वविनिश्चयार्थमुपदिष्टः, नित्यधर्मानुपलम्भोऽनित्यत्वविनिश्चयार्थमुपदिष्टः, नित्यधर्मानुपलम्भं प्रतिपक्षमनतिवर्तमानो न निर्णयाय कल्पते, तत्प्रतिबन्धात् । स चायं संभवत्प्रतिपक्षे धर्मिणि वर्तमान एकस्मिन्नन्ते नियतो न भवतीत्यनैप्रकरणसम हेत्वाभास को सत्ता रहती है। एवं निश्चित विपक्ष में 'कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास की सत्ता रहती है। अभिप्राय यह है कि (न्यायसूत्र में ) प्रकरणसम के लक्षण के लिए यह सूत्र निर्दिष्ट है कि 'यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमुपदिष्टः प्रकरणसमः !' 'प्रक्रियते प्रस्तूयते इति प्रकरणम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपस्थित किये जानेवाले पक्ष और प्रतिपक्ष ये दोनों ही इस सूत्र में प्रयुक्त 'प्रकरण' शब्द के अर्थ हैं । 'तयोश्चिन्ता प्रकरणचिन्ता' अर्थात् कथित पक्ष और प्रतिपक्ष की जो 'चिन्ता' अर्थात् विचार, फलतः संशय जिससे उत्पन्न हो, उन दोनों में से किसी एक पक्ष के निश्चय के लिए प्रयुक्त हेतु ही प्रकरणसम नाम का हेत्वाभास है, क्योंकि वह हेतु दोनों पक्षों के साधन के लिए समान ही है, ( अतः प्रकरणसम है)। उन दोनों में से कोई एक हेतु एक पक्ष का निर्णायक नहीं हो सकता। जैसे कि एक ने यह पक्ष उपस्थित किया कि 'शब्द नित्य है. क्योंकि अनित्य वस्तुओं में रहनेवाले धर्मों की उपलब्धि शब्द में नहीं होती है। दूसरा पक्ष उपस्थित हुआ कि 'शब्द अनित्य है', क्योंकि नित्य पदार्थों में रहनेवाले धर्म की उपलब्धि उसमें नहीं होती। इस प्रकार नित्यों में रहनेवाले धर्म को ज्ञापन करने का सामर्थ्य मान लिया जाय तो फिर साध्य के धर्मी पक्ष में साध्य के अभाव रूप धर्मों एवं अनित्यों में रहनेवाले धर्मों की अनुपलब्धि से शब्द में नित्यत्व और अनिनत्वका संशय उपस्थित होगा। इस संशय के कारण ही 'प्रकरण' का उक्त 'चिन्ता' रूप विचार उपस्थित होता है । उन दोनों में से एक (नित्य या अनित्य ) धर्म का निर्णय रूप विचार उपस्थित होता है। उन दोनों में से एक ( नित्य या अनित्य ) धर्म का निर्णय हो जाने पर तो उक्त विचार की प्रवृत्ति ही नहीं होगी। इन दोनों मे शब्द में नित्यत्व के निश्चय के लिए अनित्य धर्म के अनुपलब्धिरूप हेतु का प्रयोग होता है, एवं शब्द में अनित्यत्व के निश्चय के लिए नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु का प्रयोग होता है। इनमें अनित्यधर्मानुपलब्धि रूप हेतु नित्यधर्म के अनुपलब्धिरूप प्रतिपक्ष को पराजित नहीं कर सकता, ( इसी प्रकार नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु अनित्यधर्मानुपलब्धिरूप प्रतिपक्ष को भी पराजित नहीं कर सकता), अतः शब्द में नित्यत्व या अनित्यत्व का निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों ही अपने प्रतिपक्ष के द्वारा प्रतिहत हैं । अतः यह हेतु
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४८४
[गुणे अनुमान
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
कान्तिकः । एवं कालात्ययापदिष्टोऽप्यनैकान्तिकः, प्रत्यक्षनिश्चितोष्णत्वे वह्नौ विपक्षे कृतकत्वस्य भावात् । एतदयुक्तम् । यदि पक्षव्यापकत्वे सति सपक्षे सद्भावो विपक्षाच्च व्यावृत्तिरित्येतावतव हेतोर्गमकत्वम्, तदास्तु नाम साध्यर्धामणि प्रतिपक्षसम्भावना, तथापि प्रकरणसमेन स्वसामर्थ्यात् साध्यं साधयितव्यमेव । अथ न शक्नोति साधयितुं प्रतिपक्षसंशयानान्तत्वात् ? न तहि रूप्यमात्रेण गमकत्वमिति असत्प्रतिपक्षत्वमपि रूपान्तरमास्थेयम्, सति प्रतिपक्षे हेतुस्वाभावादसति तद्भावात् । एवं कालात्ययापदिष्टेऽपि वाच्यम् । यदि त्रैरूप्यमात्रेण लिङ्गत्वं कृतकत्वाद् वहावतुष्णत्वमस्त्येवेति कथमनैकान्तिकत्वम् ? अथ सत्यपि कृतकत्वे वहावतुष्णत्वं न भवति प्रत्यक्षेणोष्णताप्रतीतेः, तदा प्रत्यक्षाविरोधे सति प्रतिपादनं न तद्विरोध इत्यबाधितविषयत्वमपि रूपान्तरमनु
( अर्थात् शब्द में नित्यत्व का साधक और अनित्यत्व का साधक हेतु ) साध्य संशयवाले पक्ष में विद्यमान होने के कारण एक अन्त' में, किसी एक कोटि के निश्चय के लिए नियत नहीं है, अतः 'प्रकरणसम' अनैकान्तिक ही है। इसी प्रकार 'कालात्ययापदिष्ट' अर्थात् बाधित हेत्वाभास भी अनैकान्तिक ही है, क्योंकि 'वह्निर नुष्ण: कृतकत्वात्' इत्यादि अनुमान का कृतकत्व रूप कालात्ययापदिष्ट हेतु वह्निरूप उस विपक्ष में ही विद्यमान है, जिसमें कि ( अनुमान से बलवान्) प्रतिपक्ष के द्वारा (अनुष्णत्वरूप साध्य के अभावरूप) उष्णत्व की सत्ता निर्णीत है। (उ०) (किन्तु प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट का इस प्रकार अनैकान्तिक में अनर्भाव करना ) अयुक्त है, क्योंकि यदि मभी पक्षों में रहने से, एवं सपक्षों में रहने से, और विपक्षों में न रहने से ही हेतु में साध्य की अनुमिति का सामर्थ्य मान लिया जाय तो साध्य को सम्भावना रहने पर भी प्रकरणसम हेत्वाभास से साध्य का साधन होगा ही, क्योंकि उसमें साध्य को ज्ञापन करने का ( पक्षसत्त्वादि ) उक्त सामय तो है ही। यदि प्रतिपक्ष संशय के कारण ह अपने साध्य का साधन नहीं कर सकता, तो फिर यह कहना ठीक नहीं है कि (पक्षसत्त्वादि) तीनों धर्मों का रहना ही हेतु मे साध्य के साधन का सामर्थ है, इसके लिए 'असत्प्रतिपक्षितत्व' नाम का एक और प्रयोजक हेतु में साध्य साधन के लिए मानना पड़ेगा। क्योंकि प्रतिपक्ष के रहने पर हेतु में साध्य साधन की क्षमता नहीं रहती है, और उसके न रहने से हेतु में वह क्षमता रहती है। इसी प्रकार कालात्ययापदिष्ट के प्रसङ्ग में भी कहना चाहिए कि यदि पक्षसत्वादि तीनों रूपों के रहने से ही हेतु साध्य का साधन कर सके तो फिर कृतकत्व के रहने के कारण वह्नि में अनुष्णता का अनुमान भी हो सकता है. सुतराम् यह प्रश्न रह जाता है कि वह्नि में अनुष्णता का साधक कृतकत्व हेतु अनैकान्तिक' कैसे है ? यदि वह्नि में कृतकत्व के रहने पर भी उष्णता की प्रत्यक्ष प्रतीति वह्नि में होती है, अतः अनुष्णत्व को उक्त अनुमिति नहीं होती है, तो यह कहना पड़ेगा कि पक्ष सत्त्वादि की तरह (अबाधितविषयत्व या) हेतु में अबाधितत्व का रहना भी साध्य ज्ञान के लिए आवश्यक है।
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली सरणीयम् । तस्मादन्यथोच्यते, पक्षो नाम साध्यपर्यायः, साध्यं च तद् भवति यत् साधनमर्हति, सम्भाव्यमानप्रतिपक्षश्चार्थो न साधनमर्हति, वस्तुनो द्वैरूप्याभावादित्ययमपक्षधर्म एव । तथा प्रत्यक्षादिविरुद्धोऽपि पक्षो न भवति, रूपान्तरेण सिद्धस्य रूपान्तरेण साधनानहत्वात् । अतः प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टावुभौ 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इत्यन्तेनैव निराकृतौ, अनुमेयाभासाश्रयत्वात् । अतः (अर्थात् पक्षसत्त्वादि तीनों रूपों को ही हेतुत्व का प्रयोजक मानें तो प्रकरणपम और कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभासों में हेतुत्व का वारण किम प्रकार होगा ? अतः इस प्रश्न का हम लोग (सिद्धान्ती) दूसरा समाधान कहते हैं कि (हेतु के बल रूप) पक्षवृत्तित्वादि के घटकीभूत 'पक्ष' शब्द और साध्य' शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं। साध्य वह है जिसका कि साधन हो सके। किन्तु जिस साध्य के प्रतिपक्ष की सम्भावना रहती है, उसका साधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तुओं के (परस्पर-विरुद्ध) दो रूप नहीं हो सकते' । अतः प्रकरणसम हेतु 'पक्षधर्म' ही नहीं है, अर्थात् साध्य से युक्त पक्षरूप अनुमेय से अभिन्न साध्य के साथ सम्बद्ध ही नहीं है, इसी प्रकार कालात्ययापदिष्ट हेतु भी 'प-धर्म' न होने के ही कारण हेतु' नहीं है, क्योंकि वह्नि की अनुष्णता प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, एक प्रकार से सिद्ध वस्तु का दूसरे (विरुद्ध) रूप से साधन करना सम्भव नहीं है, अतः प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट इन दोनों हेत्वाभासों मे हेतु का 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इस वाक्य के द्वारा निर्दिष्ट विशेषण ही नहीं है । अत: 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इसके उपादान से ही प्रकरण म और कालात्ययापदिष्ट दोनों हेत्वाभासों में हेतु लक्षण की अतिव्याप्ति हट जाती है।
१. अभिप्राय यह है कि 'शब्दो नित्योऽनित्यधर्मानुपलब्धेः' एवं 'शब्दोऽनित्यो नित्यधर्मानुपलब्धेः' इत्यादि प्रकरणसम के स्थल में नित्यत्वविशिष्ट शब्द और अनित्यत्वविशिष्ट शब्द ही 'साध्य' है। शब्दरूप पक्ष का नित्यत्व या अनित्यत्व दो में से कोई एक ही स्वरूप सत्य हो सकता है. अर्थात् शब्द नित्य ही हो सकता है या अनित्य हो, वह नित्य और अनित्य दोनों नहीं हो सकता। चूंकि अनुमान के समय शब्द में नित्यत्व या अनित्यत्व कोई भी सिद्ध नहीं है, अतः नित्यधर्मानुपलब्धि या अनित्यधर्मानुपलब्धि इन दोनों में से कोई भी हेतु 'अनुमेय' अर्थात् नित्यत्व या अनित्यत्वविशिष्ट शब्दरूप 'पक्ष' में विद्यमान नहीं है । अतः प्रकरणसम हेतु में हतुत्व का प्रयोजक 'पक्षवृत्तित्व' रूप धर्म ही नहीं है । सुतराम् 'अपक्षधर्म' होने के कारण ही प्रकरणसम 'असिद्ध' (स्वरूपासिद्ध) हेत्वाभास है, जिसकी सूचना 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इस वाक्य से ही दे दी गयी है।
इसी प्रकार बाधित (कालात्ययापदिष्ट) हेतु भी 'असिद्ध' हेत्वाभास में ही अन्तभूत हो जाता है, क्योंकि वह्निरनुष्णो द्रव्यत्वात्' इत्यादि स्थलों में वह्नि में यद्यपि द्रव्यत्व है, किन्तु उसमें अनुष्णत्व के विरुद्ध उष्णत्व प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः अनुष्णत्व बाधित है। अनुष्णत्वविशिष्ट वह्निरूप पक्ष में द्रव्यत्व की सत्ता नहीं है, क्योंकि अनुष्णत्व विशिष्ट वह्नि नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । इसको भी सूचना 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इसी वाक्य से दे दी गयी है।
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४८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे अनुमान
न्यायकन्दली नन्वेवमप्यलक्षणमिदमव्यापकत्वात् । त्रिविधो हि हेतुः-अन्वयी, व्यतिरेको, अन्वयव्यतिरेकी चेति । तत्रान्वयी विशेषोऽभिधेयः, प्रमेयत्वात्, सामान्यवत् । अस्य हि पक्षादन्यः सर्व एव सदसत्प्रभेदः सपक्षः, प्रमातृमात्रस्य प्रमाणमात्रापेक्षयाऽनभिधेयस्याप्रमेयस्याभावात् । यश्च पुरुषमात्रस्यानभिधेयोऽप्रमेयश्च स वाजिविषाणवदसन्नेव, न वा सपक्षो विपक्षो वा स स्यात्, निःस्वभावत्वात् । यश्च सत् स सर्वः सपक्ष एवेति तदभावे च नास्त्येवेत्यव्यापकं लक्षणम्, व्यतिरेकाभावात् । अगमकमेव तदिति चेन्न, अन्वयाव्यभिचारात् । अन्यस्य सद्धावादन्यस्य सिद्धिरित्यत्रान्वयः कारणम, तस्य तु व्यभिचारप्रतीतिरपवादिका । अस्ति तावत् प्रमेयत्वाभिधेयत्वयोरन्वयः, सर्वत्र प्रमेयेऽभिधेयत्वस्य दर्शनात् । न च व्यभिचारो दृष्टो नापि शङ्कामारोहति, यं यं व्यतिरेकविषयं बुद्धिगोचरी
(प्र०) प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभासों में अतिव्याप्ति के न होने पर भी हेतु का यह लक्षण 'तदभावे च नास्त्येव' इस विशेषण के कारण केवलान्वयि हेतु में अव्याप्त या अव्यापक है ही। अभिप्राय यह है कि (१) अन्वयी ( केवलान्वयी), (२) ( केवल ) व्यतिरेकी, एवं (३) अन्वयव्यतिरेको भेद से हेतु तीन प्रकार के हैं । इनमें 'विशेषोऽभिधेयः प्रमेयत्वात् सामान्यवत्' इस अनुमान का हेतु अन्वयी ( केवलान्वयी) है। इस अनुमान के पक्ष से अतिरिक्त जितने भी भाव और अभाव पदार्थ हैं, वे सभी सपक्ष हैं, क्योंकि कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी प्रमाता पुरुष के द्वारा प्रमित नहीं है ( अर्थात् प्रमेय नहीं है ) और किसी (शब्द ) प्रमाण का अभिधेय नहीं है । जो न किसी प्रमाता पुरुष के द्वारा शब्द से निर्दिष्ट होता है और न किसी प्रमाता पुरुष के द्वारा प्रमित ही होता है, वह घोड़े के सींग की तरह सर्वथा असत् होने के कारण न सपक्ष ही हो सकता है न विपक्ष ही, क्योंकि असत् वस्तुओं का कोई स्वभाव नहीं होता । जितने भी पदार्थ 'सत्' हैं वे सभी इस अनुमान के सपक्ष ही हैं। अतः इस अनुमान में व्यतिरेक नहीं है, अर्थात कोई विपक्ष नहीं है। सुतराम् ‘तदभावे च नास्त्येव' हेतु लक्षण का यह अंश उक्त केवलान्वयी हेतु में नहीं रहने के कारण हेतु का उक्त लक्षण अव्याप्ति से दुष्ट है। यदि यह कहें कि (प्र.) केवलान्वयो हेतु से अनुमान होता ही नहीं। (उ०) तो यह कहना सम्भव नहीं होगा, क्योंकि एक की सत्ता से दूसरे की जो सिद्धि होती है, इसमें 'अन्वय' ही कारण है, चूंकि इस कार्यकारणभाब में कोई व्यभिचार उपलब्ध नहीं है, ( अतः ‘केवलान्वयि-हेतु से अनुमिति नहीं होती' यह नहीं कहा जा
१. अनुमान प्रयोग का आशय है कि जिस प्रकार घटत्वादि जातियाँ प्रमेय होते के कारण अभिधेय है, उसी प्रकार 'विशेष' अर्थात् घटादि व्यक्ति भी प्रमेय होने के कारण अभिधेय हैं ।
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प्रकरणम् ]
भाषांनुवादसहितम्
न्यायकन्दली करोति परस्य च वक्तुमिच्छति तस्य सर्वस्य प्रमेयत्वाभिधेयत्वप्राप्तेः । न चास्ति विशेषो विपक्षे सत्यव्यभिचारः कारणं न विपक्षाभावादिति । तेन प्रमेयत्वमभिधेयत्वं गमयति । व्यतिरेकी च सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वादिति । अस्य पक्षादन्यः सर्व एव विपक्षः, तथापि हेतुत्वं विपर्ययसम्बन्धाव्यभिचारात् । घटादिज्वप्राणादिमत्त्वेन निरात्मकत्वस्य व्याप्तिरवगता, अप्राणादिमत्त्वस्य न जीवच्छरीरे निवृत्तिः प्रतीयते । तत्प्रतीत्या व्याप्तस्य निरात्मकत्वस्य निवृत्त्यनुमाम्।
अथ मन्यसे योऽर्थो नवागतस्तद्वय तिरेकोऽपि न शक्यते प्रत्येतुम, प्रतिषेधस्य विधिविषयत्वात् । आत्मा च न क्वचिदवगतः, कथं तस्य घटादिभ्यो
सकता), क्योंकि व्यभिचार की प्रतीति ही अन्वयी हेतु से साध्य की अनुमिति होने में बाधक है, सो प्रकृत में नहीं है । प्रमेयत्व और अभिधेयत्व दोनों में अन्वय या सामानाधिकरण्य अवश्य है क्योंकि सभी प्रमेयों में अभिधेयत्व की प्रतीति होती है। इन दोनों में व्यभिचार (एक को छोड़कर दूसरे का रहना) कहीं नहीं देखा जाता । एवं उन दोनों में कहीं व्यभिचार को शङ्का भी नहीं है, क्योंकि जो कोई भी स्थल व्यभिचार के लिए कोई सोचेगा या दूसरे को कहना चाहेगा, उन सभी स्थलों में अभिधेयत्व और प्रमेयत्व दोनों ही देखे जाते हैं (अतः इस अनुमान में कोई विपक्ष है ही नहीं)। जिस प्रकार जिन सब स्थलों में विपक्ष प्रसिद्ध है, उन सब स्थलों में यदि व्यभिचार नहीं है, तो वह हेतु अनुमिति का कारण होता है। उसी प्रकार जिन सब स्थलों में विपक्ष की सत्ता ही नहीं है, उन सब स्थलों में भी यदि व्यभिचार की उपलब्धि नहीं होती है तो वह हेतु साध्य का साधक क्यों नहीं होगा ? क्योंकि दोनों स्थितियों में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है। अतः प्रमेयत्व अवश्य ही अभिधेयत्व का ज्ञापक हेतु है । 'जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वात्' इस अनुमान का हेतु ( केवल ) व्यतिरेकी है, क्योंकि पक्ष को छोड़कर और सभी पदार्थ इसके 'विपक्ष' है, फिर भी यह 'हेतु' है ही, क्योंकि (साध्य के) विपर्यय (अर्थात् अभाव का हेत्वभाव के साथ) व्यभिचार नहीं हैं। (साध्य का निरात्मकत्वरूप अभाव घटादि में है, उनमें हेतु का अप्राणादिमत्त्वरूप अभाव भी अवश्य हा है, इस प्रकार) अप्राणादिमत्त्वरूप हेत्वभाव के साथ निरात्मकत्वरूप साध्याभाव की व्याप्ति गृहीत है। इससे जीवित शरीर रूप (प्रकृत पक्ष में) अप्राणादिमत्त्वरूप (हेत्वभाव की) निवृत्ति अर्थात् अभाव का बोध होता है। जीवित शरीर में (अप्राणादिमत्त्वाभाव की) इस प्रतीति से उसमें निरात्मकत्व रूप साध्याभाव की निवृत्ति का अनुमान होता है ।
अगर यह समझते हों कि (प्र०) जिस वस्तु का ज्ञान नहीं होता है, उसके अभाव का भी ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि जिसकी कहीं सत्ता रहती है, उसी का कहीं प्रतिषेध भी
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे अनुमानन्यायकन्दली व्यावृत्तिप्रतीतिरिति । तदयुक्तम् । परस्य तावत् समस्तवस्तुविषयं नैरात्म्यमिच्छतो घटादिभ्यः सिद्धैवात्मव्यावृत्तिः । स्वस्यापि जीवच्छरीरेष्वेवात्मनो बुद्धयादिभिः कार्यैः सह कार्यकारणभावे सिद्धे घटादिभ्यो बुद्धयादिव्यावृत्त्या तदुत्पादनसमर्थस्य विशिष्टात्मसम्बन्धस्याभावसिद्धिः । यथा धूमाभावे क्वचित् तदुत्पादनयोग्यस्य वह्नरभावसिद्धिः । यद्येवमात्मापि जीवच्छरीरेषु सिद्ध एव, सम्बन्धिप्रतीतिमन्तरेण सम्बन्धप्रतीतेरसम्भवात् । ततश्च व्यतिरेक्यनुमानवैयर्थ्यम्, निष्पादितकिये कर्मणि साधनस्य साधनन्यायातिपातात् । नेवम्, स्वसिद्धस्यात्मनः परं प्रत्यसिद्धस्य साध्यत्वात् । न चान्वयाव्यभिचारः प्रतिपादको न व्यतिरेकाव्यभिचार इत्यस्ति नियमहेतुः । तस्माद् व्यतिरेकिणोऽपि हेतुत्वात् तेन
हो सकता है। आत्मा कहीं पर ज्ञात नहीं है, अतः घटादि पदार्थों में भी उसके अभाव की प्रतीति क्यों होगी ? ( उ०) तो यह समझना भूल होगी, क्योंकि (बौद्धादि) परमत के अनुसार भी तो घटादि में नैरात्म्य सिद्ध ही है, क्योंकि वे तो सभी वस्तुओं में नैरात्म्य की अभिलाषा करते हैं। स्वमत' ( वैशेषिकादिमत ) में भी जीवित शरीर में ही आत्मा का सम्बन्ध बुद्धि प्रभृति का कारण है, अतः (अवच्छेदकत्व सम्बन्ध) से शरीर में बुद्धियादि कार्यों की उत्पत्ति होती है (मृत शरीर एवं घटादि में नहीं), इस प्रकार आत्मा से सम्बद्ध जीवित शरीर और बुद्धि प्रभृति में कार्यकारण भाव की सिद्धि हो जाने पर घटादि में बुद्धि का अभाव सिद्ध हो जाएगा, क्योंकि आत्मा का उक्त विशेष प्रकार का सम्बन्ध ही बुद्धि की उत्पत्ति का कारण है, सो घटादि में नहीं है, अतः उसमें कथित सात्मकत्व भी नहीं है। इस 'स्व'मत में भी निरात्मकत्वरूप साध्याभाव का ज्ञान सम्भावित है। जैसे कि धूम के न रहने पर कहीं पर धूम को उत्पादन करनेवाले वह्नि के अभाव की सिद्धि होती है। (प्र०) ( जीवित शरीर में जिस सात्मकत्व की सिद्धि करना चाहते हैं, वह सात्मकत्व आत्मा का सम्बन्ध हो है ) सम्बन्व का ज्ञान बिना प्रतिथोगी और अनुयोगी रूप दोनों सम्बन्धियों के ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। अतः जीवित शरीर में आत्मा तो सिद्ध ही है। तस्मात् उक्त व्यतिरेकी अनुमान व्यर्थ है, क्योंकि निष्पन्न कामों में साधन अपना साधनत्व छोड़ बैठता है (उ० ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अपने मत से जीवित शरीर में आत्मा के सिद्ध रहने पर भी नास्तिकों के मत में वह सिद्ध नहीं है। अतः परमत से असिद्ध आत्मा के सम्बन्ध का अनुमान ही प्रकृत में व्यतिरेको हेतु से किया गया है। यह नियम मान लेने में कोई युक्ति नहीं है कि अन्वय का अव्यभिचार (अन्वयव्याप्ति) ही साध्य का ज्ञापक है और व्यतिरेक का अव्यभिचार (व्यतिरेक) व्याप्ति नहीं। अतः (केवल) व्यतिरेकी भी हेतु अवश्य है। तस्मात् 'प्रसिद्धञ्च तदन्विते' इत्यादि से कथित सपक्षवृत्तित्व रूप
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
प्रसिद्धं च तदन्विते इत्यव्यापकम् । अत्रैके समानतन्त्रप्रसिद्धया केवलान्वयिनः केवलव्यतिरेकिणश्च परिग्रह इति वदन्ति । अपरे तु व्यस्तसमस्तं लक्षणं वदन्ति । अनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्वित इति अन्वयिनो लक्षणम् । अनुमेयेन सम्बद्धं तद्विपरीते च नास्त्येवेति व्यतिरेकिण इति । समस्तं लक्षणमन्वयव्यतिरेकिण इति । साध्यसाधनत्वं सामान्यलक्षणं त्रयाणाम् । यथा प्रमाणानां यथार्थपरिच्छेदकत्वं सामान्यलक्षणम् ।
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४८६
विशेषण के न रहने से हेतु का प्रकृतलक्षण ( केवल ) व्यतिरेकी हेतु में अव्याप्त है । केवलान्वयि हेतु और केवलव्यतिरेकी हेतु इन दोनों में कथित अव्याप्ति का समाधान कोई इस प्रकार करते हैं कि केवलान्वयि हेतु और केवलव्यतिरेकी हेतु इन दोनों में हेतुत्व का व्यवहार समानतन्त्र ( न्याय दर्शन ) के अनुसार समझना चाहिए ( सिद्धान्ततः वैशेषिक मत से वे दोनों हेतु नहीं है ) ।
कोई ( इन दोनों को वैशेषिक मत से भी हेतु मानते हुए ) हेतु के लक्षणवाक्य को सम्पूर्ण और खण्डशः दोनों प्रकार से लक्षण का बोधक मान कर उनमें अव्याप्ति दोष का परिहार करते हैं । तदनुसार 'यदनुमेयेन सम्बद्धम्' तीन लक्षणवाक्य निष्पन्न होते हैं
इत्यादि श्लोक से निम्न लिखित
( १ ) यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धञ्च तदन्विते । ( अर्थात् जो पक्ष और सपक्ष दोनों में ही रहे वही हेतु है ) । हेतु का यह लक्षण ( केवल ) अन्वयी ( 'विशेषोऽभिधेयः प्रमेयत्वात्' इस अनुमान के प्रमेयत्व ) हेतु का है ( अर्थात् हेतु के इस लक्षण में 'तदभावे च नास्त्येव' इस वाक्य से कथित विपक्षावृत्तित्व का प्रवेश नहीं है, अतः केवलान्वयि स्थल में विपक्ष की अप्रसिद्धि से हेतु लक्षण की अव्याप्ति नहीं है ) ।
( २ ) यदनुमेयेन सम्बद्धं तदभावे च नास्त्येव । अर्थात् पक्ष में रहे और विपक्ष में न रहे वही 'हेतु' है । हेतु का यह लक्षण ( केवल ) व्यतिरेकी हेतु के लिए है । अतः 'जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वात्' इत्यादि व्यतिरेकी हेतु में सपक्ष की अप्रसिद्धि के कारण अव्याप्ति नहीं है । क्योंकि हेतु के इस लक्षण में 'प्रसिद्धश्च तदन्विते' इस वाक्य के द्वारा कथित 'सपक्षसत्त्व' का निवेश नहीं है ) |
( ३ ) ' यदनुमेयेन सम्बद्धम्' इत्यादि संपूर्ण श्लोक के द्वारा कथित लक्षण अन्ययव्यतिरेकी हेतु का है, क्योंकि इसमें पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व हेतु के ये तीनों ही लक्षण विद्यमान रहते हैं ।
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कथित तीनों हेतुओं में समान रूप से रहनेवाला लक्षण यही है कि 'जो साध्य का साधन करे वही हेतु है' जैसे 'जो यथार्थ ज्ञान को उत्पन्न करे वही प्रमाण है' यह सभी प्रमाणों का साधारण लक्षण है ।
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४९०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम् यत्तु यथोक्तात् त्रिरूपाल्लिङ्गादेकेन धर्मेण द्वाभ्यां वा विपरीतं तदनुमेयस्याधिगमे लिङ्गं न भवतीति । एतदेवाह सूत्रकार:"अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्च" ( अ. ३ आ. १सू. १५) इति । उक्त प्रकार से कहे गये ( पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व रूप हेतुत्व के सम्पादक ) तीनों धर्मों में से एक या दो धर्मों से रहित कोई वस्तु साध्य की अनुमिति का नहीं (किन्तु हेत्वाभास) है । यही बात ( उनका हेत्वाभासत्व , सूत्रकार ने 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्च' इस सूत्र के द्वारा कही है।
न्यायकन्दली विपरीतमतो यत् स्यादिति द्वितीयश्लोकस्यार्थं विवृणोति-यत्त्विति । अनपदेश इति। अपदेशो हेतुर्न भवतीत्यपदेशोऽहेतुरित्यर्थः। अप्रसिद्ध इति विरुद्धासाधारणयोः परिग्रहः, तयोः साध्यधर्मेण सह प्रसिद्धयभावादहेतुत्वम्। असन्नित्यसिद्धस्यावरोधः, स हि सपक्षे साध्यधर्मेण सह प्रसिद्धोऽपि धमिणि वृत्त्यभावादहेतुः । सन्दिग्धश्चेत्यनैकान्तिकाभिधानम् । स हि धर्मिणि दृश्यमानः किं साध्यधर्मसहचरितः किं वा तद्रहित इति सन्दिग्धो भवति, न पुमरेकं धर्ममुपस्थापयितुं शक्नोति । उभयथा दृष्टत्वादहेतुः।
'यत्त' इत्यादि से 'विपरीतमतो यत् स्यात्' इस दूसरे श्लोक की व्याख्या करते हैं। कथित 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्च' इस सूत्र में प्रयुक्त 'अनपदेश' शब्द का 'अपदेशो हेतुर्न भवति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'अहेतु' ( अर्थात् हेत्वाभास ) अर्थ है । उक्त सूत्र के 'अप्रसिद्ध' शब्द से विरुद्ध और असाधारण इन दोनों को ( 'हेत्वाभास के अन्तर्गत ) समझना चाहिए। ये दोनों इस लिए अहेतु हैं कि साध्य रूप धर्म के साथ इनकी 'प्रसिद्धि' नहीं है, अर्थात् निश्चय नहीं है, फलतः सपक्षसत्त्व नहीं है। 'असन्' शब्द से 'असिद्ध' नाम का हेत्वाभास अभिप्रेत है, क्योंकि असिद्ध हेत्वाभास सपक्ष में साध्य धर्म के साथ रहते हुए भी अर्थात् सपक्षवृत्ति होते हुए भी 'धर्मी' में अर्थात् पक्ष में ही नहीं रहता है, अतः वह हेत न होकर हेत्वाभास है। 'सन्दिग्धश्च' इस पद से 'अनैकान्तिक' को हेत्वाभास कहा गया है। अनैकान्तिक यद्यपि पक्ष में देखा जाता है, किन्तु यह सन्देह बना ही रहता है कि वह साध्य के साथ रहनेवाला है ? या साध्याभाव के साथ ? इसी सन्देह के कारण वह साध्य या साध्याभाव रूप किसी एक धर्म को निश्चितरूप से उपस्थित नहीं कर सकता, क्योंकि वह दोनों के साथ देखा जाता है, अतः वह हेतु नहीं है।
धर्मी ( हेतु) में धर्म ( साध्य ) की अन्वयव्याप्ति एवं व्यतिरेकव्याप्ति इन दोनों के रहने पर भी बोद्धा पुरुष को यदि 'यह हेतु इस साध्य से व्याप्त है' इस प्रकार
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विधिस्तु यत्र धूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे धूमोऽपि न भवतीत्येवं प्रसिद्धसमयस्यासन्दिग्धधूमदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणात् तदनन्तरमग्न्यध्यवसायो भवतीति ।
(अनुमिति की उत्पत्ति को यह ) रीति है कि जहाँ जहाँ धूम है, उन सभी स्थानों में वह्नि भी अवश्य ही है, एवं जहाँ जहाँ अग्नि नहीं है, उन सभी स्थानों में धूम भी नहीं है' इस प्रकार से 'समय' अर्थात् व्याप्ति का निश्चय जिस पुरुष को है, उसी पूरुष को धम के असन्दिग्ध दर्शन अर्थात् निश्चय, और उसके बाद उत्पन्न धम और वह्नि के सामानाधिकरण्य ( एक अधिकरण में रहने ) के स्मरण के बाद अग्नि का (अनुमिति रूप ) निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है।
न्यायकन्दली इदमनेनाविनाभूतमिति ज्ञानं यस्य नास्ति तं प्रति मिणि धर्मस्यान्वयव्यतिरेकवतोऽपि लिङ्गत्वं न विद्यते, तदर्थमविनाभावस्मरणमनुमेयप्रतीतावनुमानाङ्गमिति दर्शयति-विधिस्त्विति ।
विधिस्तु अनुमेयप्रतीतिप्रकारस्तु, यत्र धूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे धमो न भवतीति । एवं प्रसिद्धसमयस्य प्रसिद्धाविनाभावस्य पुरुषस्यासन्दिग्धधूमदर्शनाद् धूम एवायम्, न बाष्पादिकमिति ज्ञानात् साहचर्यांनुस्मरणाद् यत्र धूमस्तत्राग्निरित्येवमनुस्मरणात्, तदनन्तरमग्न्यनुमानं भवति । नन्वेवं द्वितीयो लिङ्गपरामर्शी न लभ्यते ? मालम्भि, नहि नस्तेन प्रयोजनम्, लिङ्गदर्शनव्याप्तिस्मरणाभ्यामेवानुमेयप्रतीत्युपपत्तेः। न च स्मृत्यनन्तरभावित्वादनुमेयप्रतीतिरनियतदिग्देशा स्यात् ? लिङ्गदर्शनस्य नियामकत्वात् । नाप्युपनय. से 'अविनाभाव' रूप व्याप्ति का भान नहीं रहता है, तो फिर उस हेतु में उस साध्य का हेतुत्व ( अर्थात् ज्ञापकत्व ) नहीं रहता है। अत: अविनाभाव (व्याप्ति ) का स्मरण भी अनुमेय की प्रतीति (अनमिति ) का सहकारिकारण है। यही बात विधिस्तु' इत्यादि सन्दर्भ से दिखलायी गयी है।
'विधि' अर्थात अनमिति की उत्पत्ति की रीति यह है कि 'जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है, एवं जहाँ अग्नि नहीं है वहां धूम भी नहीं है' इस प्रकार से 'समय' अर्थात् अविनाभाव (व्याप्ति ) की प्रतीति जिस पुरुष को है, उसे जब धूम का 'असन्दिग्ध' ज्ञान अर्थात् 'यह धूम ही है, बाष्पादि नहीं' इस आकार का ज्ञान होता है, तब 'साहचर्य के अनुस्मरण से' अर्थात् जहाँ धूम है वहाँ वह्नि है' इस प्रकार के स्मरण के बाद अग्नि की अनुमिति होती है । (प्र.) यदि अनुमिति का यही क्रम निर्धारित हो जाता है तो फिर “द्वितीय लिङ्गपरामर्श' में ( अर्थात् 'साध्यव्याप्तिविशिष्टहेतुमान् पक्षः' इस आकार के परामर्श में) अनुमिति की कारणता का लाभ न होगा? (उ०) न हो, क्योंकि व्याप्ति का स्मरण और पक्षधर्मता का ज्ञान, इन दोनों से ही अनुमिति की उत्पत्ति हो जाएगी। (प्र०) अनुमिति यदि (व्याप्ति) स्मरण के अव्यवहित उत्तर काल में ही उत्पन्न हो तो फिर वह कब किस देश (पक्ष) में उत्पन्न होगी -इसका कोई नियामक नही होगा ? ( उ०) 'लिङ्गदर्शन' ही उसका नियामक होगा
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली
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[ गुणे अनुमान
वयर्थ्यम्, अवयवान्तरैरप्रतिपादितस्य पक्षधर्मत्वस्य प्रतिपादनार्थ परार्थानुमा तस्योपन्यासात् ।
अपि भोः । कोऽयमविनाभावो नाम ? अव्यभिचारः । स कस्माद्भवति ?
तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामिति सौगताः । यादृच्छिकः सम्बन्धो यथैव भवति, न भवत्यपि तथा च नियमहेतोरभावः । तत्र यदि नाम सपक्षे दर्शनमदर्शनं च विपक्षे, तथाप्यव्यभिचारो न शक्यते ज्ञातुम्, विपक्षवृत्तिशङ्काया अनिवारणात् । तदुत्पत्तिविनिश्चये तु शङ्का निवार्यते, कारणेन विना कार्यस्यात्मलाभासंभवात् । तदुत्पत्तिविनिश्चयोऽपि कार्यहेतुः पञ्चप्रत्यक्षोपलम्भानुपलम्भसाधनः । कार्यस्योत्पत्तेः प्रागनुपलम्भः, कारणोपलम्भे सत्युपलम्भः, उपलब्धस्य
( अर्थात् अनुमिति का पक्षधर्मताज्ञान रूप लिङ्गदर्शन ) जिस पक्ष में होगा, अनुमिति भी नियमतः उसी पक्ष में होगी । एवं उपनय रूप अवयव वाक्य के वैयर्थ्य की आपत्ति भी नहीं होगी, क्योंकि पक्षमता का प्रतिपादन अन्य अवयव वाक्यों से सम्भव नहीं है, अतः पक्षधर्मता का प्रतिपादन करने के लिए ही उपनय वाक्य का परार्थानुमान में प्रयोग होता है
( प्र० ) यह 'अविनाभाव' क्या वस्तु है ? यदि यह कहें कि ( उ० ) अव्यभिचार ही अविनाभाव है | ( प्र० ) तो फिर यह पूछना है कि यह अव्यभिचार किससे ( ज्ञात ) होता है ?
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क्योंकि इस
इस प्रसङ्ग में बौद्धों का कहना है कि ( १ ) तादात्म्य और ( २ ) कार्य की उत्पत्ति इन दोनों से ही अव्यभिचार ( व्याप्ति ) गृहीत होती है । ( १ ) ( तदुत्पत्तिमूलक व्याप्ति के मानने में यह युक्ति है कि ) दो वस्तुओं का आकस्मिक ( यादृच्छिक ) सम्बन्ध जिस प्रकार कभी होता है उसी प्रकार कभी नहीं भी होता है । अतः यह सम्बन्ध व्याप्ति का नियामक नहीं हो सकता । ( २ ) यदि उसी हेतु में साध्य की व्याप्ति मानें, जिसकी प्रतीति सपक्ष ( दृष्टान्त ) में हो और विपक्ष में उसकी प्रतीति न हो तो यह भी सम्भव नहीं होगा, ( सपक्षदर्शन और विपक्षादर्शन ) के बाद भी हेतु के विपक्ष में होने की निराकरण नहीं हो सकता । किन्तु जब यह निश्चय हो जाता है कि उत्पत्ति उस साध्य से हुई है तो फिर उक्त शङ्का, ( सम्भावना ) का निराकरण हो जाता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य की स्वरूपस्थिति ही नहीं हो सकती । 'हेतु रूप कार्यं साध्य रूप कारण से उत्पन्न होता है' इस प्रकार का विनिश्चय' प्रत्यक्ष रूप उपलम्भ और अनुपलम्भ को मिला कर होता है | ( इनमें तीन कार्य सम्बन्धी हैं ) । ( १ ) उत्पत्ति पलब्धि, (२) कारण के उपलब्ध होने पर कार्य की उपलब्धि,
सम्भावना का 'इस हेतु की
निर्णय रूप 'तदुत्पत्ति
से
पांच कारणों से उत्पन्न
पहिले कार्य की अनुएवं (३) उपलब्ध
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সন্ধত] भाषानुवादसहितम्
४६३ न्यायकन्दली पश्चात् कारणानुपलम्भादनुपलम्भ इति कार्यस्य द्वावनुपलम्भावेक उपलम्भः, कारणस्य चोपलम्भानुपलम्भाविति । एवमुपलम्भानुपलम्भैः पञ्चभिः सत्येवाग्नौ धूमस्य भावोऽसत्यभाव इति निश्चीयते । कार्यस्यैतदेव कार्यत्वं यत् तस्मिन् सत्येव भावोऽसत्यभाव इति तादात्म्यप्रतीत्याप्यविनामावो निश्चीयते । भावस्य न स्वभावव्यभिचारः, निःस्वभावत्वप्रसङ्गात् ।
तादात्म्यनिश्चयो विपक्षे बाधकस्य प्रमाणप्रवृत्त्या सिद्धयति । अप्रवृत्ते तु बाधके शतशः सहभावदर्शनेऽपि कदाचिदेत द्विपक्षे स्यादिति शङ्कायाः को निवारयिता प्रभवति ? तदुक्तम्
कार्यकारणभावाद् वा स्वभावाद वा नियामकात् ।
अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न तु दर्शनात् ॥ इति । कार्यकारणभावान्नियामकात स्वभावाद वा नियामकादविनाभावनियमः, न सपने दर्शनाद् विपक्षे चादर्शनादिति । होने के बाद भी कारण की अनुपलब्धि से कार्य की (पुनः ) अनुपलब्धि, इस प्रकार कार्य का एक उपलम्भ और दो अनुपलम्भ ये तीन होते हैं। एवं कारण का (१) उपलम्भ और (२) कारण का अनुपलम्भ ये दो हैं। इन उपलम्भों और अनुपलम्भों को मिला. कर इन्हीं पाँच कारणों के रहने पर यह निश्चय होता है कि वह्नि के रहने से ही धम की सत्ता है, और वह्नि के न रहने से धम की सत्ता नहीं रहती है। कोई भी वस्तु 'काय' नाम से इसी लिए अभिहित होती है कि कारण के रहने से ही उसकी सत्ता होती है, और कारण के न रहने से उसकी सत्ता नहीं रहती है ( अर्थात् 'कार्य' वही है जिसकी सत्ता कारण की सत्ता के अधीन हो, और कारण को सत्ता न रहने पर जो सत्ता का लाभ न कर सके ) हेतु में साध्य की तादात्म्य प्रतीति से भी अविनाभाव (या व्याप्ति ) का निश्चय होता है। यह नहीं हो सकता कि वस्तुओं का स्वभाव उनमें कभी रहे और कभी नहीं, ऐसा मानने पर तो वस्तुओं का कोई स्वभाव ही नहीं रह जाएगा। जिस धर्म के बिना भी धर्मी रह सके वह धर्म उस धर्मी का 'स्वभाव' कैसे होगा ? विपक्ष में बाधकप्रमाण की प्रवृत्ति से हो हेतु में साध्य का तादात्म्य निश्चित्त होता है । यदि विपक्ष में बाधक प्रमाण की प्रवृत्ति न हो तो फिर सैकड़ों स्थानों में साध्य और हेतु दोनों को साथ देखने पर भी 'जहाँ साध्य नहीं है, वहाँ भी यह हेतु कभी रह सकता है' इस शङ्का का निवारण कौन करेगा?
यही बात 'कार्यकारणभावाद्वा' इत्यादि श्लोक के द्वारा इस प्रकार कही गयी है कि कार्यकारणभाव रूप नियामक और स्वभाव ( तादात्म्य ) रूप नियामक इन दोनों से ही अविनाभाव का निश्चय होता है, हेतु का सपक्ष में दर्शन और विपक्ष में अदर्शन से ( अविनाभाव का निश्चय नहीं होता है)।
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४९४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे अनुमान
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-किं यत्र तादात्म्यतदुत्पत्ती तत्राव्यभिचार: ? कि वा यत्राव्यभिचारस्तत्र तादात्म्यतदुत्पत्ती ? न तावदाद्यः कल्पः, सत्यपि तदुत्पादे धमधर्मस्य पार्थिवत्वादेरग्निव्यभिचारात् । सत्यपि तादात्म्ये वृक्षत्वस्य विशेषाद् व्यभिचारात् । अथ यत्राव्यभिचारस्तत्र तादात्म्य. तदुत्पत्ती, तमुव्यभिचारसत्त्वे तयोर्गमकत्वम् । एवं चेत्, अव्यभिचार एवास्तु गमकः, कि तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्याम् ? कार्यमपि हि न कार्यमित्येव गमयतीति, नापि स्वभावः स्वभाव इति, कि तहि ? तदव्यभिचारीति, अव्यभिचार एव गमकत्वे कारणं न तादात्म्यतदुत्पत्ती, व्यभिचारात् । न चैवमुपपत्तिमारोहति धूमो वह्निना क्रियते न पार्थिवत्वादयस्तद्धर्मा इति, वस्तुनो निर्भागत्वात् । नान्येतदुपलब्धं शिशपा वृक्षात्मिका न वृक्षः शिशपात्मकः, धवखदिरादिसाधारणत्वादिति, तयोरभेदात् ।
इस प्रसङ्ग में हम (वैशेषिक ) लोग पूछते हैं कि (१) क्या जिस साध्य का तादात्म्य जिस हेतु में रहता है, उसी हेतु में उस साध्य का अव्यभिचार (व्याप्ति ) रहता है ? एवं जिस साध्य से जिस हेतु की उत्पत्ति होती है, उसी हेतु में उस साध्य का अव्यभिचार ( व्याप्ति ) रहता है ? (२) अथवा जिस हेतु में साध्य की व्याप्ति रहती है, उसी हेतु में उस साध्य का तादात्म्य या जन्यत्व रहता है ? इन दोनों में प्रथम कल्प इस लिए ठीक नहीं है कि वह्नि से धूम की उत्पत्ति होने पर भी धूम के पार्थिवत्वादि धर्मों के साथ वह्नि का व्यभिचार है ( अतः पार्थिवत्वादि धर्म से अभिन्न धूम के साथ वह्नि का व्यभिचार भी है ही, क्योंकि धर्म और धर्मी आपके मत से एक हैं )। एवं ('वृक्षः शिशपायाः' इत्यादि स्थलों में) शिशपा में यद्यपि वृक्ष का तादात्म्य है, फिर भी वृक्षत्व में 'विशेष' का अर्थात् शिशपा का व्यभिचार है (क्योंकि विल्वादि वृक्ष होने पर भी शिशपा नहीं है । ) यदि उसका यह अर्थ करें कि जिस हेतु में साध्य का अव्यभिचार है, वहाँ साध्य निरूपित उत्पत्ति (साध्य रूप कारण जन्यत्व) या साध्य का तादात्म्य अवश्य है । तो फिर इसका अभिप्राय यह हुआ कि हेतु में साध्य के अव्यभिचार के रहने के कारण ही उस हेत में रहनेवाले साध्य के तादात्म्य या साध्य रूप कारणजन्यत्व दोनों में साध्य को ज्ञापकता है। यदि यह स्थिति है तो फिर अव्यभिचार को ही साध्य का ज्ञापक मानिए ? साध्य के तादात्म्य या उत्पत्ति को इन सबों को बीच लाने का क्या प्रयोजन है ? क्योंकि हेतु साध्य से उत्पन्न होता है या साध्य से अभिन्न है, इन दोनों में से किसी भी कारण से हेतु में साध्य की ज्ञापकता नहीं है, किन्तु हेतु इस लिए साध्य का ज्ञापक है कि उसमें साध्य का अव्यभिचार है। (प्र.) धूम की उत्पत्ति तो वह्नि से होती है किन्तु धूम के पार्थिवत्वादि धर्म तो वह्नि से उत्पन्न नहीं होते । ( उ०) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु का एक ही स्वरूप होता है (अतः धूम को यदि
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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यदि धवादिसाधारणी वृक्षता न शिशपात्वम्, तदा नानयोरेकत्वं स्वभावभेदस्य मेदलक्षणत्वात् । अभेदे तु यथा वृक्षत्वं सर्ववृक्षसाधारणं तथा शिशपात्वमपि स्यात् । न च तादात्म्ये गम्यगमकभावे व्यवस्था युक्ता, तस्याभेदाश्रयत्वात् । यदि शिशपात्वे गृह्यमाणे वृक्षत्वमगृहीतम्, क्व तादात्म्यम् ? गृहीतं चेत् ? (तत्) क्वानुमानम् ?
अथोच्यते - यथावस्थितो धर्मी, शिशपात्वं वृक्षत्वं च त्रयमेकात्मकमेव, तत्र धर्मिणि गृह्यमाणे शिशपात्वं वृक्षत्वमपि गृहीतमेव । यथोक्तम्
तस्माद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः । भागः कोऽन्यो न दृष्टः स्याद् यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ॥ इति ।
જહા
वह्नि जन्य मानना है, तो उसमें रहनेवाले वस्तुतः तदभिन्न पार्थिवत्वादि को भी वह्नि जन्य मानना ही होगा ) अतः कथित व्यभिचार है ही ।
यह भी निश्चय नहीं है कि शिशपा तो वृक्ष रूप है, किन्तु ( वृक्षत्व के आश्रय खदिरादि अन्यवृक्षों में भी ) साधारण रूप से रहने के कारण वृक्षत्व शिशपा स्वरूप नहीं है क्योंकि वृक्ष और शिशपा दोनों अभिन्न हैं । यदि ( प्र० ) यह कहें कि वृक्षत्व ( शिशपा की तरह उससे भिन्न ) धवादि में भी है किन्तु शिशपात्व तो केवल शिशपा में ही है, धवादि में नहीं । ( उ० ) तो फिर वृक्षत्व और शिशपात्व दोनों एक नहीं हो सकते, क्योंकि स्वभावों की विभिन्नता ही वस्तुओं की विभिन्नता है । यदि शिशपात्व और वृक्षत्व को अभिन्न मानें तो फिर जिस प्रकार वृक्षत्व सभी वृक्षों में रहता है, उसी प्रकार ( वृक्षत्व से अभिन्न ) शिशपात्व की सत्ता भी सभी वृक्षों में माननी ही पड़ेगी। दूसरी बात यह है कि यदि वृक्षत्व और शिशपात्व में अभेद मानें तो यह निर्द्धारण नहीं हो सकता कि शिशपात्व ही वृक्षत्व का ज्ञापक है, वृक्षत्व शिशपात्व का ज्ञापक नहीं। क्योंकि ज्ञाप्यज्ञापकभाव भेदों के अधीन है ( अर्थात् ज्ञाप्य और ज्ञापक को परस्पर भिन्न हो होना चाहिए ) । शिशपात्व का ज्ञान हो जाने पर भी यदि वृक्षत्व अज्ञात ही रहता है, तो फिर शिशपात्व और वृक्षत्व में तादात्म्य कहाँ ? यदि शिशपात्व के गृहीत होने पर उसी ज्ञान से वृक्षत्व भी गृहीत हो जाता है, तो फिर वृक्षत्व के अनुमान की ही कौन सी सम्भावना है ?
१. अर्थात् वृक्ष और शिंशपा इन दोनों में अगर अभेद है वृक्षात्मक है तो फिर यह कैसे कह सकते हैं वृक्ष शिंशपात्मक नहीं है 1
यदि यह कहें कि ( प्र० ) अपने स्वरूप में अवस्थित शिशपावृक्ष रूप धर्मी एवं वृक्षत्व और शिशपात्व रूप दोनों धर्मं, ये तीनों वस्तुतः एक ही हैं । अतः धर्मी के गृहीत होने पर वृक्षत्व और शिशपात्व रूप उसके धर्म भी उसी ज्ञान से गृहीत हो जाते हैं । जैसा कहा गया है कि "तस्मात् किसी भी धर्मी के प्रत्यक्ष होने पर
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एवं इस कारण शिंशपा
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
ve६
[गुणे अनुमानन्यायकन्दली यदेवं शिशपाविकल्पो जातो न वृक्षविकल्पः, स वृक्षशब्दस्मृत्यभावापराधात शिशपाशब्दसंस्कारप्रबोधजन्मना शिशपाविकल्पेन चाशिशपाव्यावृत्तिपर्यवसितेन नावृक्षव्यावृत्तिरुपनीयते, सर्वविकल्पानां पर्यायत्वप्रसङ्गात् । गम्यगमकभावश्च व्यावृत्त्योरेव नानयोर्न वस्तुनः, तस्यान्वयाभावात् । अवृक्षव्यावृत्यशिशपाव्यावृत्ती च परस्परं भिन्ने, व्यावर्त्य भेदात् । अतो यथोक्तदोषानुपपत्तिरिति । अहो पूर्वापरानुसन्धाने परं कौशलं पण्डितानाम् ? तादात्म्यमनुमानबीजम्, साध्यसाधनभूतयोावृत्त्योः परस्परं भेद इति किमिदमिन्द्रजालम् ? वृक्षशिशपयोस्तादात्म्य
उसी प्रत्यक्ष के द्वारा उसके सभी धर्मों का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। अतः उसका कौन सा अंश देखने से बच जाता है, जिसकी परीक्षा अन्य प्रमाणों से की जाय।"
तब यह बात रही कि ( उस ज्ञान में शिशपात्व की तरह वृक्षत्व भी यदि भासित होता है तो फिर ) उस विकल्प ( विशिष्ट ज्ञान ) का अभिलाप 'यह शिशपा है' इस शब्द के द्वारा क्यों होता है ? 'यह वृक्ष है' इस प्रकार के शब्दों के द्वारा क्यों नहीं? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि उस समय वृक्ष शब्द की स्मृति नहीं रहती है। इसी स्मृति के न रहने के 'अपराध' से ही वृक्ष शब्द से उसका अभिलाप नहीं हो पाता । शिशपा शब्द की स्मृति से जिस शिंशपा विषयक विकल्प ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसका पर्यवसान 'अशिशपाव्यावृत्ति' रूप 'अपोह' में ही होता है, उससे 'अवृक्षव्यावृत्ति' रूप 'अपोह' का ज्ञान नहीं होता। यदि ऐसा हो तो सभी विशिष्ट ज्ञानों के बोधक शब्द एकार्थक हो जएंगे ( अर्थात् सभी ज्ञान एक विषयक हो जाएँगे )। एक की व्यावृत्ति ( अपोह ) ही दूसरी व्यावृत्ति की ज्ञापिका हो सकती है ( फलतः ज्ञाप्यज्ञापकभावसम्बन्ध दो अपोहो में ही हो सकता है ) किन्तु व्यावृत्ति के आश्रयों में ज्ञाप्यज्ञापकभाव नहीं हो सकता, क्योंकि (क्षणिक होने के कारण उनमें परस्पर सामानाधिकरण्य रूप) अन्वय ही सम्भव नहीं है। ( वृक्ष और शिंशपा इन दोनों के अभिन्न होने पर भी) अवृक्षव्यावृत्ति और अशिंशपाव्यावृत्ति ये दोनों अपोह तो भिन्न हैं क्योंकि दोनों अपोहों के व्यवच्छेद्य भिन्न हैं। अतः कथित (सभी ज्ञानों में एक विषयत्व की) आपत्ति नहीं है। ( उ०) यह तो आप जैसे पण्डितों का आगे और पीछे अनुसन्धान करने की अपूर्व ही चतुरता है, जिससे यह इन्द्रजाल सम्भव होता है कि तादात्म्य (अभेद ) को तो अनुमान का प्रयोजक मानते हैं, और कहते हैं कि साध्य और साध्य से अभिन्न हेतु इन दोनों को व्यावृत्तियाँ (अपोह)भिन्न
१. उक्त विवरण के अनुसार शिंशपात्व का यह स्वभाव निष्पन्न होता है कि वह केवल शिंशपा में ही रहे, और वृक्षत्व का यह स्वभाव निष्पन्न होता है कि वह शिंशपा में रहे और उससे भिन्न धवखदिरादि सभी वृक्षों में भी रहे, तो फिर विभिन्न स्वभाव की ये दोनों वस्तुएँ एक कैसे हो सकती हैं?
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४६७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तदात्मतया च व्यवस्थितयोरवृक्षव्यावृत्यशिशपाव्यावृत्त्योः सत्यपि भेदे यथाध्यवसायं तादात्म्यमिति चेत् ? सिद्धे तादात्म्ये सयशिशपाव्यावृत्त्या धर्मिण्यवृक्षव्यावृत्तिरध्यवसेया, तत्राध्यवसितायामवृक्षव्यावृत्तौ यथाध्यवसायं तादात्म्यसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयदोषः । व्याप्तिग्रहणवेलायामेकात्मतयाध्यवसितयोावृत्त्योस्तादात्म्यसिद्धिरिति चेत् ? तथाध्यवसितयोरभेद: काल्पनिकः । यद्यनुमानं कल्पनासमारोपेणापि प्रवर्तत, न कश्चिदहेतु म । प्रमेयत्वानित्यत्वयोरप्येकात्मतयाध्यवसितयोर्यथाध्यवसायं
हैं। (प्र०) वृक्ष और शिशपा इन दोनों में यद्यपि तादात्म्य है, किन्तु वृक्ष और शिशपा इन दोनों से क्रमशः अभिग्न रूप से निश्चित अवृक्षव्यावृत्ति (वृक्ष भिन्नभिन्नत्व) और अशिंशपाव्यावृत्ति ( शिशपा-भिन्न भिन्नत्व ) ये दोनों व्यावृत्तियाँ परस्पर भिन्न हैं। अत: दोनों व्यावत्तियों में वास्तविक भेद रहते हुए भी ज्ञानीय अभेद ( अर्थात् 'दोनों अभिन्न हैं' इस आकार के भ्रमात्मक ज्ञान के द्वारा गृहीत अभेद ) है, और इसी अभेद के कारण अशिंशपाव्यावृत्ति रूप हेतु के द्वारा अवक्षव्यावृत्ति का अनुमान होता है । (उ०) यह कहना भी सम्भव नहीं है (क्योंकि इससे अन्योन्याश्रय दोष होगा) चूकि तादात्म्य के रहने पर अशिशपाव्यावृत्ति के द्वारा वृक्ष रूप धर्मी में अवृक्षव्यावृत्ति का अनुमान होगा, कथित साध्य साधनभूत दोनों व्यावृत्तियों में तादात्म्य तब होगा जब कि पक्ष रूप शिशपा में अनुमान के द्वारा अवृक्षव्यावृत्ति की प्रतीति हो जाएगी, अतः अन्योन्याश्रय दोष होगा। (प्र.) व्याप्ति ज्ञान के समय में ही जो दोनों व्यावृत्तियों का अभेद गृहीत होता है, उसी से तादात्म्य की सिद्धि होती है अतः (अनुमितिमूलक उक्त अन्योन्याश्रय दोष नहीं है)। (उ० तो फिर यह कहिए कि अभिन्न रूप से ज्ञायमान दोनों व्यावृत्तियों का अभेद काल्पनिक है, वास्तविक नहीं। यदि हेतु प्रभृति के काल्पनिक ज्ञान से भी अनुमान की प्रवृत्ति माने तो हेत्वाभाग नाम की कोई वस्तु ही नहीं रह जाएगी। इस प्रकार तो प्रमेयत्व एवं अनित्यत्व इन दोनों में भी एकात्मता (अभेद) का विपर्यय हो ही सकता है, और इस विपर्यय रूप अध्यवसाय के द्वारा प्रमेयत्व और अनित्यत्व में भी काल्पनिक अभेद रहेगा ही। (प्र०) (जहाँ अनित्यत्व नहीं है, वहाँ भी प्रमेयत्व है, इस प्रकार ) विपक्षव्यावृत्ति के न रहने के कारण प्रमेयत्व
१. अवृक्षव्यावृत्त हैं वृक्ष से भिन्न सभी पदार्थों के भेदों का समूह एवं अशिंशपाव्यावृत्त है शिंशपावृक्षमात्र को छोड़ और सभी पदार्थों के भेदों का समूह, इन दोनों भेदों के समूह भिन्न हैं, क्योंकि दोनों भेदों के प्रतियोगी समूह अलग अलग हैं, पहले प्रतियोगि समूह में शिंशपा नहीं है, क्योंकि शिंशपा भी वृक्ष ही है। दूसरे समूह में शिंशपा को छोड़कर और सभी वृक्ष भी हैं क्योंकि सभी वृक्ष शिंशपा नहीं हैं।
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४१८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे अनुमान
न्यायकन्दली
तादात्म्यसंभवात् । विपक्षव्यावृत्त्यभावात् प्रमेयत्वस्यानित्यत्वेन सह तादात्म्याभाव इति चेत् ? सत्यम्, वास्तवं तादात्म्यं नास्ति, कल्पनासमारोपितं तावदस्त्येव, तदेवानुमानोदयबान्धवं समर्थितवन्तो यूयमिति विपक्षादव्यावृत्तिरसत्समा । अपि च तादात्म्ये तदुत्पादे च यस्य प्रतीतिविपक्षे हेत्वभावप्रतीत्या, तदभावप्रतीतिरपि दृश्यानुपलब्धेः, अनुपलब्धिश्चानुमानभूतत्वात् स्वसाध्येन विपक्षे हेत्वभावेन सह तादात्म्यप्रतीत्या तदुत्पादप्रतीत्या वा प्रवर्तते, तस्या अपि स्वसाध्येन तादात्म्यतदुत्पादनिश्चयो विपक्षे वृत्त्यभावप्रतीत्या, तदभावप्रतीतिश्चानुपल. ध्यन्तरसापेक्षा, यावान् प्रतिषेधः स सर्वोऽप्यनुपलब्धिविषय इत्यभ्युपगमात् । ततश्चानवस्थापाताद् व्यतिरेकासिद्धौ तादात्म्यतदुत्पादासिद्धर्न स्वभावः कार्य वा हेतुः। किञ्च तादात्म्यतदुत्पत्त्योरभावेऽपि कृत्तिकोदयरोहिण्यस्तङ्गमनयोगम्यगमकभावः प्रतीयते । तस्मात् कार्यकारणभावाद वा नियमः स्वभावाद् वेत्यनालोचिताभिधानम् ।
के साथ अनित्यत्व का तादात्म्य नहीं है। (उ.) यह सत्य है कि उन दोनों में प्रामाणिक तादात्म्य नहीं है, किन्तु काल्पनिक तादात्म्य तो है, तुम लोगों ने काल्पनिक तादात्म्य को ही तो अनुमानोदय के परम सहायक रूप में समर्थन किया है ? अतः प्रकृत में विपक्षव्यावृत्ति का रहना और न रहना दोनों ही बराबर हैं। और भी बात है कि व्याप्ति के प्रयोजक तादात्म्य और उत्पत्ति के रहने पर विपक्ष में हेतु के जिस अभेद की प्रतीति से जिसकी प्रतीति होगी, उस हेत्वभाव की प्रतीति के लिए भी दृश्यानुपलब्धि की आवश्यकता होगी, क्योंकि अभाव विषयक सभी प्रतीतियों के लिए दृश्यानुपलब्धि को कारण माना गया है। दृश्यानुपलब्धि भी कोई अतिरिक्त प्रमाण नहीं है, किन्तु अनुमान ही है । अतः इस दृश्यानुपलब्धि रूप अनुमान प्रमाण के लिए भी विपक्ष में हेत्वभाव के साथ-साथ हेतु में माध्य के तादात्म्य या उत्पत्ति की प्रतीति आवश्यक होगी। इस तादात्म्य और उत्पत्ति की प्रतीति के लिए भी विपक्ष में हेत्वभाव की प्रतीति आवश्यक होगी। एवं इस हेत्वभाव की प्रतीति के लिए फिर दूसरी दृश्यानुपलब्धि आवश्यक होगी, क्योंकि जितने भी प्रतिषेध हैं, सभी को अनुपलब्धि प्रमाण का विषय माना गया है। इस अनवस्था दोष के कारण विपक्ष में हेतुव्य तिरेक ( हेत्वभात्र ) की सिद्धि सम्भव न होने के कारण कथित तादात्म्य एवं उत्पत्ति की सिद्धि ही सम्भव नहीं है, अतः हेतु में साध्य का तादात्म्य या हेतु का साध्य से उत्पन्न होना ही हेतु में साध्य की व्याप्ति का कारण नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि कृत्तिका नक्षत्र का उदय एवं रोहिणी नक्षत्र का अस्त इन दोनों में ज्ञाप्यज्ञापकभाव की प्रतीति होती है, किन्तु इन दोनों में से न किसी का किसी में तादात्म्य है और न किमी की उत्पत्ति ही किसी से होती है। तस्मात् विना पूर्ण आलोचन के ही यह कह दिया गया है कि 'नियम' अर्थात् व्याप्ति की प्रतीति हेतु में साध्य की जन्यता या तादात्म्य की प्रतीति से ही होती है ।
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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४९९
स्वभावेन हि कस्यचित् केनचित् सह सम्बन्धो नियतो निरुपाधिकत्वात् उपाधिकृतो हि सम्बन्धः तदपगमार्थ निवर्तते, न स्वाभाविकः । यदि धूमस्योपाधिकृतो वह्निसम्बन्ध: ? उपाधय उपलब्धाः स्युः, शिष्याचार्ययोरिव प्रत्यासत्तावध्ययनम् । नहि वह्निधूमयोरसकृदुपलभ्यमानयोस्तदुपाधीनामनुपलम्भे किञ्चिद् बीजमस्ति । न चोपलभ्यमानस्य नियमेनानुपलम्या भवन्त्युपाधयः, ते हि यदि स्वरूपमात्रानुबन्धिनस्तथाप्यव्यभिचारसिद्धिः, तत्कृतस्यापि सम्बन्धस्य यावद्द्रव्यभावित्वात् । अथागन्तवः ? तत्कारणान्यपि प्रती. येरन् । उपाधयस्तत्कारणानि च सर्वाण्यतीन्द्रियाणीति गुर्वीयं कल्पना । यस्य चोपाधयो न सन्ति स धूमः कदाचित् स्वतन्त्रोऽप्युपलभ्येत, यथेन्धनोपाधिकृतधूमसम्बन्धो वह्निः शुष्केन्धनकृताधिपत्यो विधूमः प्रत्यवमृश्यते । न च तथा संविदन्तरे धूमः कदाचिन्निरग्निराभाति । तस्मादुपलब्धिलक्षणप्राप्ताना
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अभिप्राय यह है कि स्वभाव के द्वारा ही किसी भी वस्तु का किसी वस्तु के साथ जो सम्बन्ध स्थापित होता है वही उपाधि से शून्य होने के कारण 'नियम' कहलाता है । उपाधिमूलक सम्बन्ध ही उपाधि के हटने पर टूटता है, स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं । यदि धूम में वह्नि का सम्बन्ध भी उपाधिमूलक ही हो तो फिर उन उपाधियों की उपलब्धि उसी प्रकार होनो उचित है, जिस प्रकार कि शिष्य और आचार्य की उपलब्धि के बाद अध्ययन रूप उपाधि की उपलब्धि होती है । इसका कोई हेतु नहीं मालूम होता कि बार बार उपलब्ध होनेवाले वह्नि और धूम के सम्बन्ध की उपलब्धि तो हो, किन्तु उसकी प्रयोजिका उपाधि की उपलब्धि न हो । इसमें भी कोई हेतु नहीं है, कि उपलब्ध होनेवाली वस्तुओं के सम्बन्ध की उपाधियाँ नियमतः अनुपलभ्य ही हों । ये ( उपाधियाँ ) यदि अपनी स्वरूपसत्ता के कारण ही अपने उपधेयों ( साध्य और हेतुओं) के सम्बन्ध के कारण हैं, फलतः नित्य हैं । तो भी व्याप्ति की सिद्धि हो ही जाती है, क्योंकि यह औपाधिक सम्बन्ध अपने उपधेय रूप सम्बन्बियों को सत्ता तक विद्यमान ही रहता । यदि ये आगन्तुक हैं ? अर्थात् कारणों से उत्पन्न होते हैं तो फिर उनके कारणों की भी प्रतीति होनी चाहिए । यह कल्पना तो बहुत गौरवपूर्ण होगी कि उपाधियाँ और उनके कारण सभी अतीन्द्रिय ही हैं। जिन हेतुओं के उपाधि नहीं होते, वे कदाचित् स्वतन्त्र रूप से ( साध्य सम्बन्ध के बिना ) भी उपलब्ध होते हैं । किन्तु उपाधि से रहित धूम हेतु कभी भी स्वतन्त्र रूप (ह्न को छोडकर ) उपलब्ध नहीं होता है, जैसे कि उपाधिमूलक सम्बन्ध के योग्य वह्नि ही जब सूखी हुई लकड़ियों से उत्पन्न होती है तो बिना धूम सम्बन्ध के भी देखी जाती है, यद्यपि वह्नि ही जब गीली लकड़ी से उत्पन्न होती है,
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
न्यायकन्दली मुपाधीनामनुपलम्भादभावप्रतीतौ ( उपलब्धानामनुपलम्भादभावप्रतीतौ) उपलब्धानां शेषकालेन्धनावस्थाविशेषाणां पुनः पुनदर्शनेषु व्यभिचारादहेतुत्वनिश्चये सति निखिलदेशकालादिविशेषाध्याहारेण न उपाध्यभावोपलब्धि. दोषः। सहभावदर्शनजसंस्कारसहकारिणा निरस्तप्रतिपक्षशङ्कन चरमप्रत्यक्षेण धूमसामान्यस्याग्निसामान्येन स्वभावमात्राधीनं सहभावं निश्चित्य इदमनेन नियतमिति नियम निश्चिनोति ।
यद्यपि प्रथमदर्शनेऽपि सहभावो गृहीतः, तथापि न नियमग्रहणम् । नहि सहभावमात्रान्नियमः, अपि तु निरुपाधिकसहभावात् । निरुपाधिकत्वं च तस्य भूयोदर्शनाभ्यासावशेषमित्यतो भूयःसहभावग्रहणबलभुवा सविकल्पकप्रत्यक्षेण सोऽध्यवसीयत इति । एतेन प्रत्यक्षे उपलब्धविद्यमानविषयत्वादतीतानागतासु व्यक्तिषु कथं नियमग्रहणमिति प्रत्युक्तम् । नहि
तब उस में धूम के उपाधिमूलक सम्बन्ध की भी योग्यता है, किन्तु धूम की कोई भी प्रतीति वह्नि गम्बन्ध को छोड़कर नहीं होती है। तस्मात् जिन उपाधियों में उपलब्ध होने की योग्यता है ( अर्थात् जिनकी उपलब्धि हो सकती है ) उनकी अनुपलब्धि से ही उपाधियों के अभाव की सिद्धि होती है । इस प्रकार उपाधि के अभाव की प्रतीति हो जाने पर आर्टेन्धन संयोग रूप उपाधि से युक्त वह्नि हेतु में बार बार धूम का व्यभिचार देखे जाने पर वह्नि हेतु में अहेतुत्व ( हेत्वाभासत्व ) का निश्चय हो जाता है। अतः 'सभी देशों में या सभी कालों में उपाधि के अभाव की उपलब्धि नहीं हो सकती' केवल इसी कारण सभी हेतुओं में उपाधि संशय की आपत्ति नहीं दी जा सकती। अतः धूम सामान्य में वह्नि सामान्य का जो स्वाभाविक सामानाधिकरण्य है, उसके निश्चय से ही यह (धूम) इससे ( वह्नि से ) नियत है' इस प्रकार से (स्थाप्ति रूप) नियम का ज्ञान होता है। (व्याप्ति के कारणीभूत उक्त सामानाधिकरण्य का निश्चय ) प्रतिपक्ष शङ्का से रहित उस अन्तिम प्रत्यक्ष से होता है, जिसमें उसे सहभाव विषयक प्रत्यक्ष से उत्पन्न संस्कार के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है। यद्यपि प्रथमतः ही जब धूम और वह्नि साथ साथ देखे जाते हैं, तब भी दोनों का सामानाधिक रण्य गृहीत ही रहता है, तथापि उससे नियम (व्याप्ति ) का ग्रहण नहीं होता। किन्तु उपाधि रहित सहभाव से ही व्याप्ति का ग्रहण होता है। बार बार साध्य और हेतु को साथ देखने से ही उपाधि के अभाव का निश्चय होता है । अत: बार बार सामानाधिकरण्य के दर्शन के द्वारा बलप्राप्त (सामानाधिकरण्य विषयक) सविकल्पक प्रत्यक्ष से हो वह (नियम) गृहीत होता है। इससे नियम ( ब्याप्ति ) ग्रहण के प्रसङ्ग में इस आपत्ति का भी समाधान हो जाता है कि (प्र०) प्रत्यक्ष केवल वर्तमान काल की वस्तुओं का ही होता है, अतीत में बीते हुए एवं भविष्य काल में होनेवाले
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली विशेषनिष्ठं व्याप्तिग्रहणमाचक्ष्महे। विशेषहान्या सामान्येन व्याप्तिग्रहणे तु सर्वत्रैव निर्विशङ्कः प्रत्ययः, तस्य सर्वत्रैकरूपत्वात् । किं व्यक्तयो व्याप्तावप्रविष्टा एव ? को वै ब्रूते न प्रविष्टा इति। किन्तु सामान्यरूपतया, न विशेषरूपेण । अत एव धूमसंवित्त्या वह्निमात्रमेवानुसन्दधानस्तमनुधावति, न विशेषमाद्रियते । यदि तु सामान्येन सर्वत्र निश्चितेऽपि नियमे निष्प्रामाणिकैराशङ्का क्रियते, तदा त्वत्पक्षेऽपि प्रत्यक्षेण दृष्टासु वह्निधूमव्यक्तिषु गृहीतेऽपि कार्यकारणभावे देशकालव्यवहितात् तद्भावसन्देहादत्रानुमानाप्रवृत्ति को निवारयति ?
अथोच्यते--भूयोदर्शनेन कार्यकारणभावो निर्धार्यते, सकृद्दर्शनेन तदुपाधिजत्वशङ्काया अनिवर्तनात् । भूयोदर्शनं च सामान्यविषयम्, क्षणिकानां व्यक्तीनां पुनः पुनदर्शनाभावात् । तेनानग्निव्यावृत्तस्याधुमव्यावृत्तस्य च सामान्य
अनन्त हेतु (धूमादि ) व्यक्तियों में ( वह्नि आदि ) साध्य के नियम ( व्याप्ति ) का (प्रत्यक्ष रूप ) ग्रहण कैसे होगा? ( उ०) हम लोग विशेष व्यक्तियों में अलग अलग व्याप्तिग्रहण नहीं मानते, किन्तु विशेष को छोड़कर केवल हेतुसामान्य में साध्यसामान्य की व्याप्ति का ग्रहण मानने से ही सभी हेतुओं में व्याप्ति का शङ्का से सर्वथा रहित निश्चय हो जाएगा। क्योंकि सामान्यमुखी व्याप्ति सभी व्यक्तियों में समान है। (प्र०) तो क्या व्याप्तिग्रहण में विशेष्य रूप से ( हेतु) व्यक्तियों का प्रवेश नहीं होता ? (उ०) कौन कहता है कि व्याप्ति के ग्रहण में व्यक्तियों का प्रवेश नहीं होता है। 'व्याप्ति सामान्य विषयक ही है, विशेष विषयक नहीं' इसका इतना ही अभिप्राय है कि व्याप्तिबुद्धि में विशेष भी सामान्य रूप से ही भासित होते हैं, अपने असाधारण तत्तद्वयक्तित्वादि रूपों से नहीं। अत एव धूम के ज्ञान से वह्नि सामान्य को अनुमिति के द्वारा प्रमाता वह्नि सामान्य का ही अनुधावन करता है, किसी विशेष प्रकार के वह्नि का आदर वह नहीं करता। यदि हेतु सामान्य में साध्य सामान्य की व्याप्ति के निश्चित हो जाने पर भी अप्रामाणिक लोग यह शङ्का करें कि तुम्हारे मत में भी यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत धूम और प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत वह्नि इन दोनों में कार्यकारणभाव के गृहीत होने पर भी विभिन्न देशों के धूमों और वह्नियों में एवं विभिन्न काल के धूमों और चह्नियों में कार्यकारणभाव का सन्देह बना ही रहेगा तो फिर इस सन्देह के कारण सभी अनुमानों के उच्छेद का निवारण कौन कर सकेगा ?
यदि यह कहें कि (प्र.) हेतु और साध्य को बार बार एक स्थान में देखने ( भूयोदर्शन ) से दोनों में कार्यकारणभाव का निश्चय होता है। कहीं एक बार हेतु और साध्य दोनों में सामानाधिकरण्य के देखने पर भी यह संशय रह ही जाता है कि इन दोनों का सम्बन्ध स्वाभाविक हे, या औपाधिक ? बार बार का यह देखना (भूयोदर्शन ) साध्य सामान्य का हेतु सामान्य के साथ ही हो सकता है, एक साध्य व्यक्ति
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
न्यायकन्दली विषयः कार्यकारणभाव एकत्र निश्चीयमानः सर्वत्र विनिश्चितो भवति, सामान्यस्यैकत्वादिति चेत् ? अस्माभिरपीत्थमेव सर्वत्र निश्चीयमानो नियमः किं भवद्भ्यो न रोचते ? किञ्च, भवतां प्रत्यक्षागोचरः सामान्येन कार्यकारणभावः, अनुभवतोsवस्तुत्वात्, व्यक्तयस्तादृश्यः। तासु सर्वाणि प्रत्यक्षेण गृह्यन्ते। न चातीतानागतानां व्यक्तीनां मनसा संकलनमिति न्याय्यम्, मनसो बहिरर्थे स्वातन्त्र्येऽन्ध. बधिराद्यभावप्रसङ्गात् । दृष्टासु व्यक्तिषु कार्यकारणभावोऽध्यवसायश्चादृष्टासु नानुमानोदयस्तदन्यत्वात् । नापि व्यक्तीनां साध्यसाधनभावो युक्तः, परस्परमनन्वितत्वात् । न च तासामेकेन सामान्येनोपग्रहः, वस्त्ववस्तुनोः सम्बन्धाभावात्, असम्बद्धस्योपग्राहकत्वे चातिप्रसङ्गात् । तत्किविषयः प्रत्यक्षसाधनस्तदुत्पादविनिश्चयः, यस्मादनुमानप्रवृत्तिरिति न विद्मः। का एक हेतु व्यक्ति के साथ नहीं, क्योंकि व्यक्ति क्षणिक हैं। अतः उनको बार बार साथ देखना सम्भव नहीं है । तस्मात् अनग्निव्यावृत ( अपोह या अग्नित्व जाति ) अधूम व्यावृत्त ( अपोह या धूमत्व जाति ) इन दोनों का सामान्य षियक कार्यकारणभाव ही गृहीत होता है। 'धूम सामान्य की उत्पत्ति वह्निसामान्य से होती है' यह निश्चित हो जाने पर सभी धूमों और सभी वह्नियों में कार्यकारणभाव गृहीत हो जाता है, क्योंकि सामान्य ( अपोह ) एक ही है। ( उ०) इसी प्रकार जब हम हेतु सामान्य में साध्य सामान्य के नियम ( व्याप्ति ) का उपपादन करते हैं, तो आप लोगों को क्यों पसन्द नहीं आता ? आप लोगों क, सामान्य ( अपोह) चूंकि अभाव रूप है, अतः सामान्यों में आप लोग (बौद्धगण ) कार्यकारणभाव का अनुभव नहीं कर सकते । व्यक्ति सभी प्रत्यक्ष के विषय हैं अतः उनमें कार्यकारणभाव का ग्रहण होता है । यह कहना भी उचित नहीं है कि (प्र. ) भूत और भविष्य व्यक्तियों का (चक्षुरादि से ज्ञान सम्भव न होने पर भी) मन से ग्रहण हो सकता है ( अतः अतीत और अनागत व्यक्तियों में भी कार्यकारणभाव का ग्रहण असम्भव नहीं है)। ( उ०) ( यह सम्भव इस लिए नहीं है कि ) मन को यदि बाह्य अर्थों के ग्रहण में स्वतन्त्र ( अथात् चक्षुरादि निरपेक्ष) मान लिया जाय तो जगत् में कोई गूंगा या बहरा न रह जाएगा। इस प्रकार भी बौद्धों के मत से उपपत्ति नहीं की जा सकती कि प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत व्यक्तियों में ही कार्यकारण भाव गृहीत हो सकता है, किन्तु ( व्याप्ति ) का निश्चय अशष्ट व्यक्तियों में भी होता है, कि व्यक्ति भिन्न भिन्न हैं। व्यक्तियों में परस्पर कार्यकारणभाव भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वे परस्पर असम्बद्ध हैं। उन सभी व्यक्तियों का एक सामान्य धर्म ( अपोह ) के द्वारा संग्रह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तु ( भाव ) और अवस्तु (अभाव) इन दोनों में सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, यदि सम्बन्ध के न रहने पर भी संग्रह मानें तो (अघटव्यावृत्ति रूप अपोह से पट व्यक्तियों का संग्रह रूप ) अतिप्रसङ्ग होगा। अतः यह
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् एवं सर्वत्र देशकालाविनाभूतमितरस्य लिङ्गम् । शास्त्रे च कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थ कृतं नाव
इसी प्रकार और सभी स्थानों में एक वस्तु में जिस किसी दूसरी वस्तु की दैशिक और कालिक व्याप्ति रहती है, वह एक वस्तु उस दूसरे का ज्ञापक हेतु होता है। वैशेषिक सूत्र में जो व्याप्ति के लिए कार्यादि सम्बन्धों का उल्लेख है, वह
न्यायकन्दली
एवं देशकालाविनाभूतमितरस्य लिङ्गम्, यथा धूमो वह्नलिङ्गम्। एवं देशाविनाभूतं कालाविनाभूतं चेतरस्य साध्यधर्मस्य लिङ्गम्। यथा काश्मीरेषु सुवर्णभाण्डागारिकपुरुषैर्यववाटिकासंरक्षणं यवनालेषु हेमाङकुरोद्भदस्य लिङ्गम् । कालाविनाभूतं यथा प्राग्ज्योतिषाधिपतेर्वेश्मनि प्रातर्गायनादीनि नृपतिप्रबोधस्य लिङ्गम् । यदि देशकालाविनाभावमात्रेण गमकत्वं ननु सूत्रविरोधः ? अस्येदं कार्य कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकमिति,
समझ में ही नहीं आता कि प्रत्यक्ष के द्वारा किसमें उत्पत्ति का निश्चय होगा? जिससे कि अनुमान की प्रवृत्ति होगी ।
इसी प्रकार ( साध्य की ) दैशिक या कालिक व्याप्ति से युक्त एक पदार्थ ( हेतु ) दूसरे ( साध्य ) का ज्ञापक हो जाता है । जैसे कि धूम वह्नि का ज्ञापक हेतु है । ( अभिप्राय यह है कि) देशिक और कालिक व्याप्ति से युक्त 'एक' ( हेतु) पदार्थ इतर' का अर्थात् साध्य रूप धर्म का ज्ञापक हेतु होता है । (देशिक व्याप्ति से युक्त हेतु का उदाहरण यह है ) जैसे कि काश्मीर देश में जब यह देखा जाता है कि यव के क्यारियों का संरक्षण सोने के खजाने के अधिकारी लोग कर रहे हैं, तब यह समझा जाता है कि यव की क्यारियों में केसर के अङ्कुर उग आये हैं अतः काश्मीर देश की यव की क्यारियों का सोने के खजाने के अधिकारियों द्वारा संरक्षण ( रूप क्रिया ) यव को क्यारियों में केसर के अङ्कर का ज्ञापक हेतु है। ( एवं कालिक व्याप्ति से युक्त हतु का उदाहरण यह है ) जैसे कि प्राग्ज्योतिषपुर ( आसाम ) के राजगृह में प्रातःकालिक गाना बजाना वहाँ के राजा के जागरण का ज्ञापक हेतु है । (प्र. ) यदि दैशिक पाप्ति और कालिक व्याप्ति केवल इन दोनों सम्बन्धों में से किसी के रहने से ही हेतु में साध्य को समझाने का सामर्थ्य माना जाय
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भ्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम् धारणार्थम्, कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा अध्वर्युरों श्रावयन् व्यवहितस्य होतुर्लिङ्गम्, चन्द्रोदयः समुद्र वृद्धः कुमुदविकासस्य च केवल उदाहरण के लिए ही है, अवधारण के लिए नहीं। क्योंकि ( कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों में से किसी के न रहने पर भी अनुमान होता है ) जैसे कि ओंकार को सुनाते हुए अध्वर्यु समूह अपने से व्यवहित भी होता । हवन करनेवाले ) के अनुमापक होते हैं। अथवा चन्द्र का उदय समुद्र की वृद्धि और कुमुद के विकास का अनुमापक होता है। अथवा शरद् ऋतु में जल की
न्यायकन्दली तत्राह-शास्त्रे च कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृतं नावधारणार्थमिति । अस्येदमिति सूत्रे कार्यादीनामुपादानं लिङ्गनिदर्शनार्थं कृतम्, न त्वेतावन्त्येव लिङ्गानीत्यवधारणार्थम् । कथमेतदित्याह-कस्मादिति । उत्तरमाह-व्यतिरेकदर्शनादिति । कार्यादिव्यतिरेकेणाप्यनुमानदर्शनाद् नावधारणार्थम् । (तत्र) यत्र कार्यादीनां व्यतिरेकस्तद्दर्शयति-यथाध्वर्युरों श्रावयन् व्यवहितस्य होतुलिङ्गमिति । अध्वर्युहातारमोम् इत्येवं श्रावयति नान्यमित्येवं यस्य पूर्वमवगतितो फिर अस्येदं कार्यम्' इस सूत्र का विरोध होगा (क्योंकि इस सूत्र के द्वारा कार्यत्व, कारणत्व, संयोग, विरोध एवं समवाय इतने सम्बन्धों को ही हेतु में साध्य के ज्ञापन के सामर्थ्य का प्रयोजक माना गया है दैशिक और कालिक व्याप्ति को नहीं)। इसी प्रश्न का समाधान 'शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृतम्, नावधारणार्थम्' इस वाक्य के द्वारा किया गया है । अर्थात् वैशेषिक सूत्र रूप शास्त्र में जो कार्यत्वादि' सम्बन्ध का उपादान किया गया है, उसका यह अवधारण रूप अर्थ अभिप्रेत नहीं है कि कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों में से ही किसी के रहने से हेतु साध्य का ज्ञापक होता है। किन्तु साध्य के 'व्याप्ति रूप सम्बन्ध से युक्त हेतु ही ज्ञापक होता है' इस नियम के उदाहरण रूप में ही कार्यत्वादि सम्बन्धों का उल्लेख किया गया है कि साध्य के इन कार्यत्वादि सम्बन्धों से युक्त हेतु में साध्य की व्याप्ति रहती है। 'कस्मात्' इस वाक्य के द्वारा प्रश्न किया गया है कि कैसे समझते हैं कि उक्त सूत्र में कार्यादि' का उपादान अवधारण के लिए नहीं है ? 'व्यतिरेकदर्शनात्' इस वाक्य से उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है । अर्थात कथित कार्यत्वादि सम्बन्ध के न रहने पर भी हेत से साध्य का बोध होते देखा जाता है, अतः समझते हैं कि कार्यत्वादि सम्बन्धों का उल्लेख 'अवधारण' के लिए नहीं है। इन कार्यत्वादि सम्बन्धों के न रहने पर भी जहाँ अनुमिति होती है, उसका प्रदर्शन 'यथाऽध्वयुरों श्रावयन् व्यवहितस्य होतुलिङ्गम्' इस वाक्य के द्वारा किया गया है। जिस पुरुष को यह नियम पहिले से अवगत है कि होता को ही अध्वर्यु ओंकार सुनाते हैं किसी दूसरे को नहीं, वही पुरुष यदि अध्वर्यु को ओंकार का उच्चारण करते हुए
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्येति । एवमादि तत् सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् ।
स्वच्छता अगस्त्य नाम के नक्षत्र के उदय का ज्ञापक होती है । ( व्याप्ति के प्रयोजक) कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों से भिन्न इन वस्तुओं में व्याप्ति के प्रयोजक अवशिष्ट सभी सम्बन्धों का संग्रह सूत्रकार ने उक्त सूत्र के ‘अस्येदम्' इस वाक्य के द्वारा किया है ।
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५०५
न्यायकन्दली
भूतस्य ओं इति श्रावयन्तमध्वर्यु प्रतीत्य कुड्या दिव्यवहिते होतरि अनुमानं होताप्यत्रास्तीति । न चाध्वर्युः होतुः कार्यं न कारणं न संयोगे (गी) न च विरोधे (धी) न समवाये (यो) चेति व्यतिरेकः ।
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उदाहरणान्तरमाह – चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धेरित्यादि । यदा चन्द्र उदेति तदा समुद्रो वर्द्धते कुमुदानि च विकसन्तीति नियमो येनावगतः, तस्य चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धेः कुमुदविकासस्य च लिङ्गं स्यात् । न च चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धिकुमुदविकासयोः कार्यम् । उदयो हि चन्द्रस्य विशिष्टदेशसंयोगः, स च चन्द्रक्रियाकार्य:, न समुद्रवृद्धयादिनिमित्तः । न चायं समुद्रवृद्धेः कारणं नापि कुमुदविकासस्य, उत्कल्लोललक्षणाया वृद्धेः, पत्राणां परस्परविभागलक्षणस्य देखता है और दीवाल से छिपे रहने के कारण होता को नहीं देखता, तब भी 'होता' का यह अनुमान उसे होता है कि यहाँ होता भी अवश्य हैं । किन्तु अध्वर्युरूप हेतु होतारूप साध्य का न कार्य है, न कारण न संयोगी है, न विरोधी और न समवायी । अतः ( सूत्र में कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों में से अध्वर्युं में होता का कोई भी सम्बन्ध नहीं है, किन्तु उक्त अध्वर्युं से होता का अनुमान होता है, अत: 'कथित कार्यत्वादि सम्बन्ध के कारण ही हेतु ज्ञापक होता है' इस नियम में यही व्यतिरेक व्यभिचार है ) ।
'चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धे:' इस वाक्य के द्वारा भाष्यकार ने उक्त व्यतिरेक व्यभिचार का दूसरा उदाहरण कहा है। 'जिस समय चन्द्रमा का उदय होता है, उस समय समद्र बढ़ जाता है और कुमुद के पुष्प प्रफुल्लित हो जाते हैं । यह नियम जिस पुरुष को ज्ञात है, उसके लिए चन्द्रमा का उदय समुद्रवृद्धि और कुमुदिनी के विकास का अवश्य ही ज्ञापक लिङ्ग होगा, किन्तु चन्द्रमा का उदय न समुद्र की वृद्धि से उत्पन्न होता है, न कुमुद के विकास से, क्योंकि चन्द्रमा का किसी विशेष देश के साथ संयोग ही चन्द्रमा का उदय है, चन्द्रमा का यह संयोग चन्द्रमा में रहनेवाली क्रिया से ही उत्पन्न होगा, समुद्र की वृद्धि प्रभृति कारणों से नहीं, ( अतः चन्द्रमा का उदय समुद्रवृद्धि का या कुमुद के कार्य नहीं है ) एवं चन्द्रमा का उदय न समुद्र की वृद्धि का कारण है, विकाश का, क्योंकि समुद्र को वृद्धि है उसका उफान एवं कुमुद का
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विकास का
न कुमुद के विकास है
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणे अनुमान
च विकासस्य तत्काल सन्निहितकारणाधीन कर्मजन्यत्वादित्यादि वाच्यम् । शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्य प्रसादो वैशद्यम्, तच्छरदि प्रतीयमानमगस्त्योदयस्य लिङ्गम्, न कालान्तरे, व्यभिचारात् ।
कार्यादिव्यतिरिक्तमपि यदि लिङ्गमस्ति तर्हि नूनं तत्र सर्वलिङ्गानामनवरोधादत आह - एवमादि तत् सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धमिति । अध्वर्युरो श्रावयतीत्येवमादिपदाविनाभूतं लिङ्गं तत् सर्वमस्येदमितिपदेन सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धं परिगृहीतम् । अर्थान्तरमर्थान्तरस्य लिङ्गमिति न युज्यते ( इति ) प्रसक्तिः स्यादिति पर्यनुयोगमाशङ्कयेदमुक्तं सूत्रकारेणास्येदमिति । लिङ्गमित्यन्यत्वाविशेषेऽप्यस्य साध्यस्येदं सम्बन्धीति कृत्वा अस्येदं लिङ्गं न सर्वस्येति सामान्येन सम्बन्धिमात्रस्य लिङ्गत्वप्रतिपादनात् । यद् यस्य
अपने कारणों से उत्पन्न अतः चन्द्रमा का उदय लिङ्गम् ' ( इस वाक्य
उसके पत्रों का एक दूसरे से विभाग, ये दोनों ही उस समय होनेवाले कर्मों से ही उत्पन्न होंगे ( चन्द्रमा की वृद्धि से नहीं, समुद्रवृद्धि का कार्य भी नहीं है ) । ' शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्य में प्रयुक्त ) 'प्रसाद' शब्द का अर्थ है वैशद्य ( स्वच्छता ), यह वैशद्य शरद् ऋतु में ( ही ) ज्ञात होकर अगस्त्य नाम के नक्षत्र के उदय का ज्ञापक लिङ्ग होता है, अन्य ऋतु में ज्ञात होने पर भी नहीं, क्योंकि व्यभिचार देखा जाता है ( अर्थात् ग्रीष्मादि ऋतुओं में जल में स्वच्छता का भान होने पर भी अगस्त्योदय की प्रतीति नहीं होती ) है ।
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( प्र० ) ( यदि साध्य के ) कार्यादि न होने पर भी कोई हेतु साध्य का ज्ञापक हो सकता है, तो फिर 'अस्येदं कार्यम्' इत्यादि सूत्र के द्वारा लिङ्ग के जिन प्रकारों का उल्लेख किया गया है, उनसे सभी हेतुओं का संग्रह नहीं होता है ? ( जिससे सूत्रकार की न्यूनता होती है ) इसी प्रश्न का समाधान भाष्यकार ने 'एवमादि' इत्यादि भाष्यसन्दर्भ के द्वारा दिया है । ' एवमादि' अर्थात् साध्य के कार्यादि से भिन्न और सभी हेतु उक्त सूत्र के 'अस्येदम्' इस सम्बन्धबोधक वाक्य के द्वारा संगृहीत होते हैं । अभिप्राय यह है कि 'अध्वर्युरों श्रावयति' इत्यादि वाक्यों के द्वारा जिन हेतुओं का उल्लेख किया गया है। वे सभी हेतु उक्त सूत्र के ही अस्पदम्' इस सम्बन्धबोधक वाक्य के द्वारा 'सिद्ध' हैं, अर्थात् संगृहीत हैं । किन्तु " अर्थान्तर ( साध्य के कार्यत्वादि सम्बन्धों से रहित कोई भी श्र अर्थान्तर का ( अर्थात् हेतु के कारणत्वादि सम्बन्धों से शून्य किसी दूसरे अर्थ का ) साधक हेतु नहीं हो सकता" उक्त सूत्र में कार्यत्वादि सम्बन्धों के उल्लेख से इस अवधारण को स्थिति हो जाएगी । इस अभियोग की सम्भावना को हटाने के लिए हो सूत्रकार ने उक्त सूत्र में ( कार्यत्वादि सम्बन्धों के बोधक वाक्यों के अतिरिक्त ) 'अस्येदम् ' इस वाक्य का भी प्रयोग किया है । 'इतरस्य लिङ्गम्' इत्यादि भाष्य के द्वारा
लिङ्ग का भेद और सभी पदार्थों ( साध्यों ) में समान रूप से का सम्बन्ध इसी हेतु में है, इस नियम के
रहने पर भी ' इस साध्य अनुसार यह नियम भी उपपन्न होता है
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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सामान्यतोदृष्टं
च ।
तत्र
तत्त्
द्विविधम्- दृष्टं
दृष्टं प्रसिद्धसाध्ययोरत्यन्तजात्यभेदेऽनुमानम् । यथा गव्येव ( १ ) दृष्ट और ( २ ) सामान्यतोदृष्ट भेद से अनुमान दो प्रकार का है । जिस हेतु के साथ पूर्व में ज्ञात साध्य और वर्तमान में उसी हेतु के ज्ञाप्य साध्य दोनों अभिन्न हों, उस हेतु से उत्पन्न अनुमान ही 'दृष्ट' अनुमान है । जैसे कि पहिले एक स्थान में गाय में ही केवल सास्नारूप हेतु
न्यायकन्दली
देशकालाद्यविनाभूतं तत् तस्य लिङ्गमित्युक्तम्, तदेव हि तस्य यद् यस्याध्यभिचारि (त्वेन ) ( यद्यस्य) व्यभिचारि न तत् तस्य, अन्यत्रापि भावात् । अपि भोः ! किमस्येदं कार्यमिति न सम्बध्नातीति ब्रूनहे, कार्यादिग्रहणं तह किमर्थम् ? निदर्शनार्थमित्युक्तम् । अवश्यं हि शिष्यस्योदाहरणनिष्ठं कृत्वा किमप्यव्यभिचारि लिङ्ग दर्शनीयमिति सूत्रे कार्यादिकमुदाहृतम् । न तावन्त्येव लिङ्गानीत्यर्थः ।
भेदं कथयति तत्तु द्विविधं दृष्टं सामान्यतोदृष्टं चेति । चशब्दोऽवधारणार्थः । तदनुमानं द्विविधमेव दृष्टमेकमपरं सामान्यतोदृष्टम् । तत्र तयोर्मध्ये दृष्टं प्रसिद्धकि 'इस साध्य का यही लिङ्ग है'। इस प्रकार सामान्य रूप से साध्य के सभी सम्बन्धियों में लिङ्गत्व का प्रतिपादन एवं सर्वत्र देशकालाविनाभूतमितरस्य लिङ्गम्' इस भाष्य के द्वारा किया गया है । अर्थात् जिसमें जिस दूसरे वस्तु की दैशिकी या कालिको व्याप्ति है, वही उसका हेतु है । जिसमें जिसका व्यभिचार है, वह उसका हेतु नहीं है. क्योंकि उसके न रहने के स्थान में भी वह रहता है । (प्र०) तो क्या उक्त सूत्र में 'कमस्येदं कार्यम्' इस वाक्य के द्वारा यह कहते हैं कि 'साध्य का सम्बन्ध हेतु में नहीं है' ? यदि ऐसी बात है तो फिर 'कार्यादि' का उपादान
1
हो उक्त सूत्र में व्यर्थ है ? इसी प्रश्न का उत्तर निदर्शनार्थम्' इस वाक्य से दिया गया है। अभिप्राय यह है कि शिष्यों को उदाहरण के द्वारा पूर्ण अभिज्ञ बनाकर ही यह समझना होगा कि 'साध्य का अव्यभिचारी ही उसका लिङ्ग है' । अतः सूत्र में कार्यादि सम्बन्धों का उल्लेख केवल उदाहरण के लिए है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि सूत्र में कथित कार्यत्वादि सम्बन्धों से युक्त ही हेतु हैं, साध्य के और सम्बन्धों से युक्त भी हेतु हो सकते हैं, यदि वह सम्बन्ध अव्यभिचरित हो ।
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'तत्तु द्विविधम् - दृष्टम्, सामान्यतो दृष्टच' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अनुमान के अवान्तर प्रकारों का निरूपण किया गया है । उक्त वाक्य में प्रयुक्त 'च' शब्द 'अवधारण' अर्थ का है । (तदनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि ) कथित अनुमान दो ही प्रकार का है, एक है 'हट' और दूसरा है 'सामान्यतोदृष्ट' | 'तत्र' अर्थात् उन दोनों अनुमानों में से 'दृष्टं प्रसिद्धसाध्ययोजत्यभेदेऽनुमानम्' 'प्रसिद्ध' अर्थात् हेतु के साथ पहिले
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे अनुमान
सास्नामात्रमुपलभ्य
देशान्तरेऽपि सास्नामात्र दर्शनाद् गवि प्रतिपत्तिः । प्रसिद्धसाध्ययोरत्यन्तजातिभेद लिङ्गान मेयधर्मको देखकर, दूसरे स्थान में सास्ना को देखने के बाद गोविषयक प्रतिपत्ति ( अनुमिति ) होती है । जिस हेतु के साथ पूर्व में ज्ञात साध्य और उसी हेतु के द्वारा वर्त्तमान में ज्ञाप्य साध्य, दोनों विभिन्न जाति के हों, उस हेतु सामान्य और ( वर्तमान में अनुमेय ) साध्यसामान्य की व्याप्ति से जो अनुमान उत्पन्न होता है, उसे 'सामान्यतोदृष्ट' अनुमान कहते हैं । जैसे कि कृषक,
न्यायकन्दली
साध्ययोर्जात्यभेदेऽनुमानम् । प्रसिद्धं यत् पूर्वं लिङ्गेन सह दृष्टं साध्यं यत् सम्प्रत्यनुमेयं तयोरत्यन्तजात्यभेदे सति यदनुमानं तद् दृष्टम् । यथा गव्येव सास्नामात्रमुपलभ्य देशान्तरे गवि प्रतिपत्तिः । पूर्वं गोत्वजातिविशिष्टायामेव गोव्यक्तौ सानोपलब्ध्या सम्प्रत्यपि गोत्वजातिविशिष्टायामेव गोव्यक्तेरनुमानमत्यन्तजात्यभेदे । इदं च दृष्टमित्याख्यायते ।
सास्नामात्र दर्शनाद् वनान्तरे यदनुमीयते गोत्वसामान्यं तस्य स्वलक्षणं पूर्व नगरे दृष्टमिति कृत्वा प्रसिद्धसाध्ययोरत्यन्तजातिभेदे लिङ्गानुमेयधर्मसामान्यानुवृत्तितोऽनुमानं सामान्यतोदृष्टम् । प्रसिद्धं लिङ्गेन सह प्रतीतं
जो साध्य ज्ञात है और जो साध्य अभी अनुमेय है, इन दोनों के जातितः अत्यन्त अभिन्न होने पर जो अनुमान होता है, वही 'दृष्ट' अनुमान है। जैसे कि पहिले किसी गाय में ही सास्ता को देखकर दूसरे देश में गो का अनुमान होता है । पहिले गोत्व जाति से युक्त गो व्यक्ति में ही सास्ना की उपलब्धि हुई, अभी भी सास्ना से जो गो की अनुमिति होती है, वह गोत्व जाति से युक्त गो व्यक्ति में ही होती है, अतः गो विषयक दोनों ज्ञानों में विषय होनेवाला गोत्व अत्यन्त अभिन्न ( एक ही ) है, तस्मात् यह 'दृष्ट' अनुमान कहलाता है । इसे दृष्ट अनुमान होने की युक्ति यह है कि वन में केवल सास्ता के देखने से जिस गोत्व जाति का अनुमान होता है, वह उस स्वरूप से नगर में पहिले से ही गो में देखा जा चुका है ।
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"प्रसिद्धसाध्ययोरत्यन्त जातिभेदे लिङ्गानुमेय धर्म सामान्यानुवृत्तितोऽनुमानं सामान्यतोदृष्टम् " ( इस भाष्यवाक्य के ) प्रसिद्धसाध्ययो:' इस पद से 'प्रसिद्धं लिङ्गेन सह प्रतीतं साध्यमनुमेयं ययोः ' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अनुमान का साध्य एवं हेतु के साथ पहिले गृहीत होनेवाला साध्य ये दोनों साध्य अभिप्रेत हैं । इन दोनों साध्यों में परस्पर अत्यन्त भेद के रहने पर भी हेतु सामान्य में साध्यसामान्य की व्याप्ति से जो अनुमान उत्पन्न होता है, वही 'सामान्यतोदृष्ट' अनुमान है । ( इस अर्थ के बोधक
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
सामान्यानुवृत्तितोऽनुमानं सामान्यतोदृष्टम् । यथा कर्षकवणिग्राजपुरुषाणां च प्रवृत्तेः फलवत्वमुपलभ्य वर्णाश्रमिणामपि दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवर्तमानानां फलानुमानमिति । तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणं वणिक् और राजपुरुषों की सभी सफल प्रवृत्तियों को देखकर वर्णाश्रमियों की उन धार्मिक प्रवृत्तियों से भी फल का अनुमान होता है, जिन प्रवृत्तियों के कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दीख पड़ते ।
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न्यायकन्दली
साध्यमनुमेयं तयोरत्यन्तजातिभेदे सति, लिङ्गं चानुमेयधर्मश्च लिङ्गानुमेयधर्मों, तयोः सामान्ये लिङ्गानुमेयधर्मसामान्ये, तयोरनुवृत्तिः लिङ्गानुमेयधर्मसामान्यानुवृत्तिः, ततो लिङ्गसामान्यस्य साध्यसामान्येन सहाविनाभावाद् यदनुमानं तत् सामान्यतोदृष्टम् । यथा कर्षकवणिग्राजपुरुषाणां प्रवृत्तेः फलत्वमुपलभ्य वर्णाश्रमिणामपि दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवर्तमानानां फलानुमानम् । कर्षकादिप्रवृत्तेः फलं दृष्ट्वा वर्णाश्रमिणां प्रवृत्तेरपि फलानुमानम् कर्षकस्य प्रवृत्तेः फलं शस्यादिकम्, वणिग्राजपुरुषस्य च प्रवृत्तेः फलं काञ्चनमणिमुक्तावाजिवारणादिकम् वर्णाश्रमिणां च प्रवृत्तेः फलं स्वर्गादिकमित्यनयोरत्यन्तजातिभेदः । अनुमानोदयस्तु प्रवृत्तित्वसामान्यस्य फलवत्त्वसामान्येनाविनाभावात् । अत चेदं सामान्यतोदृष्टमुच्यते, सामान्येन नियमदर्शनात् ।
एव लिङ्गानुमेयधर्म सामान्यवृत्तितोऽनुमानं सामान्यतो दृष्टम्' इस भाष्यवाक्य का विग्रह इस प्रकार है कि) लिङ्गं चानुमेयधर्मश्च लिङ्गानुमेयधम तयोः सामान्ये लिङ्गानुमेयधर्मसामान्ये, तयोरनुवृत्तिः लिङ्गानुमेयसामान्यानुवृत्तिः, ततो लिङ्गसामान्यस्य साध्यसामान्येन सहाविनाभावात् यदनुमानं तत् 'सामान्यतोदृष्टम्' । 'यथा कर्षकवणिग्राजपुरुषाणां प्रवृत्तेः फलवत्त्वमुपलभ्य वर्णाश्रमिणामपि दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रवर्त्तमानानां फलानुमानम् । अर्थात् कृषकादि की प्रवृत्तियों की सफलता को देखकर वर्णाश्रमियों की उन प्रवृत्तियों में भी सफलता का अनुमान होता है, जिन प्रवृत्तियों की उत्पत्ति के लिए वे दृष्ट (सांसारिक) फलों का अनुसन्धान नहीं करते । अभिप्राय यह है कि भूमि जोतने की किसानों की प्रवृत्ति के फल है अन्न प्रभृति, एवं बनियों की एवं राजसेवा में लगे व्यक्तियों की प्रवृत्तियों के फल है, सुवर्ण, मणि, मुक्ता, हाथी, घोड़े प्रभृति; किन्तु वर्णाश्रमियों के ( सन्ध्यावन्दनादि) प्रवृत्तियों के फल हैं स्वर्गादि । इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि साध्य और दृष्टान्त दोनों अत्यन्त विभिन्न जाति के हैं । फिर भी उक्त दृष्टान्त के द्वारा अनुमान की उत्पत्ति उस सामान्यमुखी व्याप्ति से होती है, जो प्रवृत्तिसामान्य का फलसामान्य के साथ है' । इसीलिए इस अनुमान को
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१. अभिप्राय यह है कि 'शिष्ट जनों की सभी प्रवृत्तियाँ सफल ही होती हैं' इस सामान्य व्याप्ति के बल से ही उक्त अनुमान होता है । किन्तु इस व्याप्ति के अवधारण के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रमितिरग्निज्ञानम् । अथवाग्निज्ञानमेव प्रमाणं अमितिरग्नौ गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनमित्येतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम् ।
इनमें लिङ्ग (हेतु) का ज्ञान ही (अनुमान प्रमाण है) एवं (उससे उत्पन्न) अग्नि का ज्ञान ही (फलरूबा) प्रमिति है। अथवा (कथित) अग्नि का ज्ञान ही (अनुमान) प्रमाण है। अग्नि में उपादेयत्व, हेयत्व या उपेक्षा की बुद्धि ही प्रमिति ( अनुमिति ) है । ये सभी अनुमान करनेवाले पुरुष में ही निश्चय ( अनुमिति ) के उत्पादक ( स्वार्थानुमान ) हैं ।
न्यायकन्दली यः पुनरत्रानुमेयः स्वर्गादिलक्षणः फलविशेषो नैतज्जातीयस्य फलस्य नियमो दृष्टो वर्णाश्रमिणां प्रवृत्तेरपि जीविकामात्रमेव प्रयोजनमिति बार्हस्पत्याः, तदर्थमाह-दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्येति । सन्त्येव तथाविधाः पुरुषा ये खलु दृष्टनिस्पृहा वानप्रस्थादिकं व्रतमाचरन्ति ; तेषां प्रवृत्तेरिदं फलानुमानमिति न सिद्धः साध्यत इत्यर्थः । 'सामान्यतोदृष्ट' कहा जाता है, चूंकि सामान्यमुखी व्याप्ति के दर्शन से ही इसकी उत्पत्ति होती है।
बार्हस्पत्य' (चार्वाक) लोग (इस अनुमान में सिद्धसाधन दोष का उद्भावन इस प्रकार करते हैं कि) वर्णाश्रमियों की प्रवृत्ति से स्वर्गादि जिस प्रकार के अलौकिक फलों का यहाँ अनुमान किया जाता है, उस प्रकार के फलों का नियम नहीं देखा जाता है (क्योंकि वे अतीन्द्रिय हैं ) अतः वर्णाश्रमियों की उन प्रवृत्तियों का अपनी जीविका चलाना ही फल है, वह तो दृष्ट ही है। अतः इसमें अनुमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसका विषय पहिले से ही सिद्ध है। इसी सिद्धसाधन दोष को मिटाने के लिए प्रकृत भाष्यसन्दर्भ में 'दुष्टं प्रयोजन मनुद्दिश्य' यह वाक्य लिखा गया है। इस वाक्य से यह कहना अभिप्रेत है कि इस प्रकार के भी महापुरुष हैं जो वर्णाश्रमियों के लिये निर्दिष्ट वानप्रस्थादि व्रतों का आचरण करते हैं, जिनको जीविकादि दृष्ट फलों के प्रति स्नेह नहीं है । वर्णाश्रमियों की इस प्रकार की प्रवृत्तियों से फल का अनुमान ही प्रकृत में सामान्यतोदृष्ट अनुमान के उदाहरण के लिए उपस्थित किया गया है. अतः सिद्धसाधन दोष नहीं है।
लिए प्रकृत में साध्यभूत वर्णाश्रमियों की सफलता को उपस्थित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह सिद्ध नहीं है; एवं प्रत्यक्ष के द्वारा उसका सिद्ध होना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि उसके स्वर्गादि फल अतीन्द्रिय हैं। अतः प्रकृत फल से सर्वथा विपरीत अर्थात् कृषकादि के प्रत्यक्ष फलों को दृष्टान्त रूप से उपस्थित किया गया है ।
१. इसी प्रसङ्ग में बार्हस्पत्यों का यह श्लोक सर्वदर्शनसंग्रहादि ग्रन्थों में उल्लिखित है:
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५११
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली प्रमाणशब्दः करणव्युत्पत्तिसिद्धो न फलं विना पर्यवस्यति, अतः प्रमाणफलविभागं दर्शयति-तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणमिति । तत्रानुमाने लिङ्गज्ञानं प्रमाणं प्रमीयतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या, प्रमितिः प्रमाणस्य फलमग्निज्ञानम् । यद्यपि लिङ्गलिङ्गिज्ञानयोरुत्पत्त्यपेक्षया विषयभेदस्तथापि लिङ्गज्ञानस्यापि लिङ्गिनि ज्ञानोत्पत्ती व्यापाराल्लिङ्गिविषयत्वम्, ततश्च प्रमाणफलयोन व्यधिकरणत्वम् । प्रकारान्तरमाह-अथवेति । अग्निज्ञानं प्रमाणम्, प्रमितिः प्रमाणस्य फलम् । अग्नौ गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम्-गुणदर्शनं सुखसाधनमेतदिति ज्ञानम्, दोषदर्शनं दुःखसाधनत्वज्ञानम्, माध्यस्थ्यदर्शनं सुखदुःखसाधनत्वाभावज्ञानम्, अग्निज्ञाने सति तथाप्रतीत्युत्पादात् ।
'प्रमीयतेऽनेन' इस करणव्युत्पत्ति के द्वारा प्रकृत में 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रमाकरणरूप इसका निरूपण प्रमारूप फल के निर्देश के विना अधूरा ही रहेगा। अतः तत्र लिङ्गदर्शनं प्रमाणम्' इस वाक्य के द्वारा प्रमाण और फल का विभाग दिखलाया गया है । 'तत्र' अर्थात् अनुमान स्थल में 'लिङ्गज्ञान' ही 'प्रमाण' है चूंकि यहाँ प्रमाण' शब्द 'प्रमीयतेऽनेन' इस व्युत्पत्ति के द्वारा सिद्ध है। 'प्रमिति' अर्थात् प्रमाण का फल है अग्नि का ज्ञान । यद्यपि यह ठीक है कि (प्र.) लिङ्गज्ञान और लिङ्गी (साध्य ) का ज्ञान दोनों की उत्पत्ति भिन्न विषयक होती है, ( अतः दोनों व्यधिकरण हैं, किन्तु कार्य और कार ण को समान अधिकरण का होना चाहिये )। ( उ० ) फिर भी लिङ्गो (साध्य ) में जो (विधेयता सम्बन्ध से ) ज्ञान को उत्पत्ति होती है, उसमें लिङ्गज्ञान व्यापार ( रूप कारण ) है, अतः लिङ्गज्ञान भी लिङ्गिरूप विषय से सर्वथा असम्बद्ध नहीं है। अतः लिङ्गज्ञानरूप प्रमाण और लिङ्गि (साध्य ) ज्ञानरूप फल इन दोनों में सर्वथा विपरीतविषयत्व रूप वैयधिकरण्य की आपत्ति नहीं है। 'अथवा' इत्यादि सन्दर्भ से (प्रमाण फल विभाग का दूसरा प्रकार दिखलाया गया है। अग्नि (साध्य) का ज्ञान ही प्रमाण' है, और 'प्रमिति' अर्थात् उस प्रमाण का फल है अग्नि में गुण, दोष, और माध्यस्थ्य का ज्ञान । ( अग्नि में) 'यह सुख का साधन है' इस प्रकार का ज्ञान है 'गुण दर्शन' । एवं 'यह दुःख का साधन है' इस आकार को बुद्धि ही दोषदर्शन है। और 'न यह सुख का साधन है न दुःख का' इस प्रकार का ज्ञान ही 'माध्यस्थ्यदर्शन' है। चूंकि अग्नि ज्ञान के बाद ही उक्त गुणदर्शनादि उत्पन्न होते हैं ( अतः ये गुणदर्शनादि अग्नि ज्ञान रूप प्रमाण के फल हैं )।
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ।।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [गुणे अनुमान
प्रशस्तपादभाष्यम् शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भावः, समानविधित्वात् । यथा प्रसिद्धसमयस्यासन्दिग्धलिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्यामतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानमेवं शब्दादिभ्योऽपीति ।
शब्दादि प्रमाण भी इसी ( अनुमान ) के अन्तर्गत हैं ( वे स्वतन्त्र अलग प्रमाण नहीं हैं ), क्योंकि शब्दादि प्रमाणों से भी उसी रीति से ( व्याप्ति के बल पर ) प्रमिति की उत्पत्ति होती है, जिस प्रकार अनुमान प्रमाण से प्रमिति की उत्पत्ति होती है । जैसे कि जिस पुरुष को पूर्व में व्याप्ति ग्रहीत है, उसी पूरुष को हेतु के निश्चय और व्याप्ति के स्मरण इन दोनों से अप्रत्यक्ष अर्थ की अनुमिति होती है। उसी प्रकार शब्दादि प्रमाणों से भी अतीन्द्रिय अर्थ का ज्ञान होता है।
न्यायकन्दली एतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम् । निश्चितमिति भावे निष्ठा, स्वनिश्चितार्थ स्वनिश्चयार्थमेतदनुमानमित्यर्थः ।।
शब्दादीन्यपि प्रमाणान्तराणि सङ्गिरन्ते वादिनः, तानि कस्मादिह नोक्तानि ? इति पर्यनुयोगमाशङ्कय तेषामत्रैवान्तर्भावान्न पृथगभिधानमित्याहशब्दादीनामपीति । शब्दादीनामनुमानेऽन्तर्भावोऽनुमानाव्यतिरेकित्वम् , समानविधित्वात् समानप्रवृत्तिप्रकारत्वात् । यथा व्याप्तिग्रहणबलेनानुमानं प्रवर्तते, तथा शब्दादयोऽपीत्यर्थः। शब्दोऽनुमानं व्याप्तिबलेनार्थप्रतिपादकत्वाद् धमवत् । समानविधित्वमेव दर्शयति--यथेति । प्रसिद्धः समयोऽविनाभावो यस्य
'एतत् स्वनिश्चितार्थमनुमानम्' इस भाष्यवाक्य का 'निश्चित' शब्द 'भाव' अर्थ में निष्ठा प्रत्यय से निष्पन्न है । तदनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि यह कथित अनुमान अपने आश्रय पुरुष में ही निश्चयात्मक ज्ञान को उत्पन्न करने के लिए है (दूसरों को समझाने के लिए नहीं)।
(प्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त) शब्दादि प्रमाणों को भी अन्य दार्शनिक गण स्वीकार करते हैं कि वे शब्दादि प्रमाण इस भाष्य में क्यों नहीं कहे गये ? अपने ऊपर इस अभियोग की आशङ्का से भाष्यकार ने 'शब्दादीनामपि' इत्यादि ग्रन्थ से यह कहा है कि 'उन शब्दादि प्रमाणों का भी अनुमान में ही अन्तर्भाव हो जाता है। शब्दादि प्रमाणों का अनुमान में हो अन्तर्भाव होता है अर्थात् शब्दादि प्रमाण अनुमान से अभिन्न हैं (अनुमान ही हैं), क्योंकि (अनुमान और शब्दादि) 'समानविधि' के हैं, अर्थात् अनुमान और शब्दादि की सभी प्रवृत्तियां समान हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अनुमान की प्रवृत्ति व्याप्ति के बल से होती है, उसी प्रकार शब्दादि प्रमाणों को प्रवृत्ति भी व्याप्ति के बल से ही होती है। ( इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि ) जिस प्रकार व्याप्ति के बल से धूम वह्नि का ज्ञापक है, उसी प्रकार शब्द भी व्याप्ति के बल से ही अर्थ का ज्ञापन करता है, अतः (धूम की तरह ) शब्द भी
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम
न्यायकन्दली पुरुषस्य तस्य लिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्यां लिङ्गदर्शनम, यत्र धमस्तत्राग्निरित्येवंभूतायाः प्रसिद्धरनुस्मरणं च । ताभ्यां यथाऽतीन्द्रियेऽर्थे भवत्यनुमानं तथा शब्दादिभ्योऽपीति । तावद्धि शब्दो नार्थं प्रतिपादयति यावदयमस्याव्यभिचारीत्येवं नावगम्यते, ज्ञाते त्वव्यभिचारे प्रतिपादयन् धूम इव लिङ्ग स्यात् ।
अत्राह कश्चित्-अनुमाने साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी प्रतीयते, शब्दादानुमाने को धर्मी ? न तावदर्थः, तस्य तदानीमप्रतीयमानत्वात् । शब्दो धर्मोति चेत् ? किमस्य साध्यम् ? अर्थवत्त्वं चेत् ? न पर्वतादेरिव वह्नयादिना शब्दस्यार्थेन सह संयोगसमवायादिलक्षणः कश्चित् सम्बन्धो निरूप्यते, येनायमर्थविशिष्टः साधनीयः। प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव एव हि तयोः सम्बन्धः, सोऽर्थप्रतीत्युत्तर
अनुमान रूप से ही प्रमाण है । 'यथा' इत्यादि से कथित 'समान विधि' का प्रदर्शन करते हैं। 'प्रसिद्धः समयो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस पुरुष को समय ( व्याप्ति ) पूर्व से ज्ञात है, वही पुरुष प्रसिद्धसमय' शब्द का अर्थ है । 'लिङ्गदर्शनप्रसिद्धयनुस्मरणाभ्याम्' इस वाक्य के द्वारा यह कहा गया है कि लिङ्गदर्शन ( अर्थात् पक्षधर्मता ज्ञान) और जहाँ धूम है वहाँ वह्नि भी अवश्य ही है' इस प्रकार की प्रसिद्धि' अर्थात् व्याप्ति का स्मरण, इन दोनों से उक्त प्रसिद्धसमय' पुरुष को जिस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा अज्ञेय वस्तु का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शब्दादि प्रमाणों से भी कथित पुरुष को ही ज्ञान होता है (अतः शब्दादि प्रमाण भी वस्तुतः अनुमान ही हैं)। शब्द तब तक अर्थ के बोध का उत्पादन नहीं कर सकता, जब तक कि अर्थ के साथ उसका अव्यभिचार ( व्याप्ति ) गृहीत न हो जाय, ज्ञात अव्यभिचार के द्वारा हो जब (धूम की तरह) शब्द भी अर्थ का ज्ञापक है, तो फिर धूम की तरह वह भी ज्ञापक लिङ्ग ( अनुमान ) ही होगा।
यहाँ कोई (शब्द को अलग स्वतन्त्र प्रमाण माननेवाले ) यह विचार उठाते हैं कि अनुमान में तो साध्य रूप धर्म से युक्त धर्मी को प्रतीति होती है, किन्तु शब्द से जो अर्थ का अनुमान होगा उसमें धर्मी रूप से किसका भान होगा? अर्थ तो उस अनुमान का धर्मी (पक्ष ) हो नहीं सकता, क्योंकि वह तब तक अज्ञात है ( पक्ष को पहिले से निश्चित रहना चाहिए)। शब्द को ही यदि उस अनुमान का पक्ष माने, तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस अनुमान का साध्य कौन होगा ? अर्थवत्त्व को साध्य मानना सम्भव नहीं है, क्योंकि पर्वतादि पक्षों का वह्नि प्रभृति साध्यों के साथ जिस प्रकार का संयोगसमवायादि सम्बन्ध है, शब्द के साथ अर्थ का उस प्रकार के किसी सम्बन्ध का निर्वचन सम्भव नहीं है, जिस सम्बन्ध के द्वारा अर्थ से युक्त शब्द रूप धर्मी का साधन किया जा सके । शब्द और अर्थ में प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव सम्बन्ध ही केवल हो सकता है, किन्तु इस सम्बन्ध का ज्ञान तो शब्द से अर्थ प्रतीति के बाद ही होगा, अर्थ प्रतीति के पहिले नहीं। एवं वह्नि और धूम की तरह
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव
न्यायकन्दली कालोनो नार्थप्रतिपादनात् पूर्व सम्भवति । नाप्यग्निधूमयोरिव शब्दार्थयोरस्त्यविनाभावनियमः, देशकालव्यभिचारात्; तद्वयभिचारश्चासत्यपि युधिष्ठिरे कलौ युधिष्ठिरशब्दप्रयोगात्, असत्यामपि लङ्कायां जम्बुद्वीपे लङ्का शब्दश्रवणात् । तस्मादनुमानसामग्रीवैलक्षण्याच्छब्दो नानुमानम्, देशविशेषेऽर्थव्यभिचारात् । न धूमो वह्नि क्वचिद् व्यभिचरति, शब्दस्तु स्वार्थ व्यभिचरति । तथा हि चौर इति भक्ताभिधानं दाक्षिणात्यानाम्, आर्यावर्तनिवासिनां तु तस्कराभिधानम् ।
यदि च शब्दोऽनुमानं त्रैरूप्यप्रतीत्याऽस्य प्रामाण्यनिश्चयः स्यात्, नाप्तोक्तत्वप्रतीत्या; तत्प्रतीत्या तु निश्चीयमाने प्रामाण्येऽनुमानाद् व्यतिरिच्यत एव ! एवं वैधात् ।
अत्रोच्यते-य/कृतायां तर्जन्यां देशकालव्यवहितेष्वर्थेषु दशसंख्यानुमान न तत्र संख्या धर्मिणी, अप्रतीयमानत्वात् । नापि तर्जनीविन्यासो धर्मो, तस्य
शब्द और अर्थ में 'अविनाभाव' (व्याप्ति ) सम्बन्ध है भी नहीं, क्योंकि जिस देश या जिस काल में शब्द या अर्थ है, उस देश और उस काल में अर्थ या शब्द अवश्य रहता ही नहीं है, क्योंकि कलिकाल में युधिष्ठिर रूप अर्थ की सत्ता न रहने पर भी युधिष्ठिर शब्द का प्रयोग होता है, एवं लङ्का नगरी की सत्ता जम्बुद्वीप में वर्तमान काल में न रहने पर भी 'लङ्का' शब्द का प्रयोग होता है । अतः यह मानना पड़ेगा कि शब्द प्रमाण अनुमान प्रमाण से भिन्न है, क्योंकि विशेष प्रकार के कई देशों में शब्द के साथ अर्थ का व्यभिचार देखा जाता है। धूम का वह्नि के साथ व्यभिचार कहीं नहीं देखा जाता, किन्तु शब्द के साथ अर्थ का व्यभिचार देखा जाता है। जैसे कि एक ही 'चौर' शब्द का प्रयोग दाक्षिणात्य लोग भात के अर्थ में करते हैं, किन्तु उसी 'चौर' शब्द को आर्य लोग 'तस्कर' (चोर) अर्थ में प्रयोग करते हैं।
दूसरी बात यह है कि शब्द यदि अनुमान रूप से ही प्रमाण होता तो उससे अर्थ बोध के लिए उसका ( पक्षमत्त्वादि) तीनों रूपों से ज्ञान की ही अपेक्षा होती ( जैसे कि सभी अनुमानों में होता है ), आप्तोक्तत्व निश्चय की नहीं। यदि शब्द में आतोक्तत्व के निश्चय के बाद ही प्रामाण्य का निश्चय होता है, तो फिर अवश्य ही शब्द अनुमान से भिन्न प्रमाण है, क्योंकि दोनों के स्वरूप भिन्न हैं ।
___ इस प्रसङ्ग में हम लोग कहते हैं कि ( यह सङ्केत कर लेने पर कि यदि केवल तर्जनी अगुली को ऊपर उठावें तो उससे दश संख्या को समझना, इसके बाद तर्जनी अगुली को ऊपर उठाने पर उस सङ्केत को समझनेवाले को दश संख्या का अनुमान होता है, जिस दश संख्या का आश्रयीभूत द्रव्य उस बोद्धा पुरुष के आश्रयीभूत देश और काल से भिन्न देश और भिन्न काल का होता है। इस अनुमान में पक्ष कौन होता है ?
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५१५ न्यायकन्दली प्रतिपाद्यमानतया दशसंख्यया सह सम्बन्धान्तराभावेन तद्विशिष्ट प्रतिपादनायोगात । नाप्यनयोरेकदेशता, नाप्येककालत्वम, कथमनमानप्रवृत्तिः ? क्रयविक्रयव्यवहारे वणिजां तथाविधतर्जनीविन्यासस्य दशसंख्याप्रतिपादनाभिप्रायाव्यभिचारोपलम्भात् । कर्तस्तत्प्रतिपादनाभिप्रायावगतिमुखेनास्य दशसंख्याप्रतीतिहेतुत्वमिति चेत् ? शब्दस्याप्येवमेव। प्रथमं गोशब्दादुच्चारिताद् वक्तुः ककुदादिमदर्थविवक्षा गम्यते, स्वसन्ताने गोशब्दोच्चारणस्य पदार्थविवक्षापूर्वकत्वोपलम्भात् । तदर्थविवक्षया चार्थानुमानम् । अयं चात्र प्रयोगः-पुरुषो धर्मी ककुदादिमदर्थविवक्षावान, गोशब्दोच्चारणकर्त्त त्वादहमिवेति । अर्थाभावेऽप्यनाप्तानां विवक्षोपलब्धेर्न विवक्षातोऽर्थसिद्धिरिति चेत् ? शब्दादपि कथं तसिद्धिः ? संख्या तो इस अनुमान का पक्ष हो नहीं सकती, क्योंकि वह पहिले से प्रतीत नहीं है। तर्जनी का ऊपर उठाना ( विन्यास ) भी उस अनुमान का धर्मी नहीं हो सकता, क्योंकि इस अनुमान के द्वारा मुख्य ज्ञाप्य दश संख्या के साथ उसका कोई (सङ्केत सम्बन्ध को छोड़कर) दूसरा ( स्वाभाविक संयोग समवायादि) सम्बन्ध नहीं है। अत: दशसंख्यारूप साध्य धर्म से युक्त तर्जनी विन्यास रूप धर्मी का बोध इस अनुमान के द्वारा नहीं हो सकता, क्योंकि तर्जनी विन्यास और प्रकृत दशसंख्या न एक काल के हैं, न एक देश के। अतः तर्जनी के उक्त विशेष प्रकार के विन्यास से दशसंख्या में जो अनुमान की प्रवृत्ति होती है, वह कैसे हो सकेगी? यदि यह कहें कि (प्र.) खरीद बिक्री के प्रसङ्ग में बनियों में यह अव्यभिचरित नियम प्रचलित है कि केवल तर्जनी को उठाने से दश संख्या को समझना, अतः उक्त वर्जनी विन्यास से तर्जनी को ऊपर उठानेवाले पुरुष के इस अभिप्राय का बोध होता है कि 'तर्जनी को ऊपर उठाने से इस पुरुष को दश संख्या का बोध, अभिप्रेत है। इसी रोति से इसके बाद तर्जनी के उक्त विन्यास से दश संख्या का अनुमान होता है । (उ०) तो फिर शब्द से अर्थानुमान के प्रसङ्ग में भी यही रीति समझिए कि (श्रोता) पुरुष को वक्ता के द्वारा उच्चरित गो शब्द (के श्रवण) से ककुदादि धर्मों से युक्त (बैल) जीव को समझाने के लिए वक्ता के शब्द प्रयोग की इच्छा (विवक्षा) ज्ञात होती है, क्योंकि श्रोता अपने ज्ञात शब्द समूहों में से जब गोशब्द का उच्चारण करता है, उससे पूर्व उसे ककुदादि से युक्त अर्थ की विवक्षा का अपने में बोध होता है। इस प्रसङ्ग में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है कि जिस प्रकार मेरे द्वारा गोशब्द के उच्चारण से पहिले मुझमें ककुदादि धर्मों से युक्त अर्थ की विवक्षा रहती है, उसी प्रकार यह गोशब्द को उच्चारण करनेवाला पुरुष रूप धर्मी भी ककुदादि धर्मों से युक्त अर्थ की विवक्षा से युक्त है, क्योंकि यह भी गोशब्द का उच्चारण का कर्ता है। (प्र.) अर्थ की सत्ता न रहने पर भी अनाप्त ( अविश्वास्य ) लोगों में उस अर्थ को विवक्षा देखी जाती है, अत: विवक्षा से अर्थ की सिद्धि नहीं की जा सकती। (उ०) शब्द
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव
न्यायकन्दली भ्रान्त्या विप्रलम्भधिया वार्थशून्यस्य शब्दस्य प्रयोगात् । आप्तोक्ताच्छब्दादर्थप्रतीतिरिति चेत् ? आप्ताभिप्रायादेवार्थस्याधिगतिरिति समानार्थः ।
यस्तु सत्यपि लिङ्गत्वे देशविशेष शब्दस्यार्थ(स्य) व्यभिचारो न धूमस्य, तत्रैष न्यायः। धूमः स्वाभाविकेन सम्बन्धेनाग्नेलिङ्गम् । शब्दस्तु चेष्टावत् पुरुषेच्छाकृतेन सङ्केतेन प्रवर्तमानो यत्र यत्रार्थे पुरुषेण सङ्केत्यते तस्य तस्यैवार्थस्य विवक्षावगतिद्वारेण लिङ्गम् । अत एवास्मादाप्तप्रयुक्तत्वानुसारेण चेष्टादिवत् तावदर्थनिश्चये सातत्योर्ध्वगत्यादिधर्मविशिष्टस्येव धूमस्याप्तोक्तस्यैव शब्दस्यार्थाव्यभिचारसम्भवात् ।
शब्दस्यार्थप्रतिपादनं मुख्यया वृत्त्या किं न कल्प्यते ? सम्बन्धाभावात्, असम्बद्धस्य गमकत्वे चातिप्रसङ्गात् । अस्ति स्वाभाविकः ( को अलग प्रमाण मान लेने ) से ही अर्थ की सिद्धि क्यों कर होगी? क्योंकि अभिधा की भ्रान्ति से अथवा श्रोता को ठगने के लिए ऐसे शब्दों का भी प्रयोग होता है, जिनके वे अर्थ सम्भावित नहीं रहते। (प्र०) आप्तजनों के द्वारा उच्चरित शब्द से ही अर्थ को प्रतीति होती है । ( उ० ) इसके बदले यह भी तो कह सकते हैं कि आप्तपुरुष के द्वारा प्रयुक्त शब्द के श्रवण से श्रोता को उनके अभिप्राय का बोध होता है, एवं उस अभिप्राय से अर्थ विषयक अधिगति (अनुमिति) होती है।
यह जो कहा गया है कि "शब्द यद्यपि अर्थ का (ज्ञापक) लिङ्ग है, किन्तु किसी विशेष प्रकार के देश में शब्द का भी अर्थ के साथ व्यभिचार उपलब्ध होता है, किन्तु धूम में वह्नि का व्यभिचार कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, ( अतः धूम से वह्नि का अनुमान होता है, किन्तु शब्द से अर्थ का अनुमान नहीं हो सकता )" । इस प्रसङ्ग में यह युक्ति है कि धूम ( संयोग रूप ) स्वाभाविक सम्बन्ध से वह्नि का ज्ञापक हेतु है, किन्तु शब्द में यह बात नहीं है । जिस प्रकार पुरुषकृत सङ्कत के द्वारा तर्जन्यादि के विशेष विन्यास रूप चेष्टा से दश संख्या का अनुमान होता है, उसी प्रकार शब्द भी पुरुष की बोधनेच्छा रूप सङ्केत के द्वारा ही अर्थबोध के लिए प्रवृत्त होता है । अतः पुरुष का सङ्केत जिन अर्थों में जिन शब्दों का रहता है, उन्हीं अर्थों के वे शब्द विवक्षा के बोध के द्वारा ज्ञापक लिङ्ग होते हैं । जिस प्रकार चेष्टा रूप हेतु से (बनियों के सङ्कत के द्वारा दश संख्या प्रभृति ) अर्थों का बोध होता है, उसी प्रकार शब्दों से उसके आप्तोक्तत्व के कारण ही अर्थ का बोध होता है । अत एव जिस प्रकार अविच्छिन्नमूला एवं ऊर्ध्वमुखी रेखा से युक्त धूम में वह्नि का अव्यभिचार सम्भव होता है, उसी प्रकार आप्त से उच्चरित शब्द में भी अर्थ का अव्यभिचार (व्याप्ति) भी सम्भव है।।
__ (प्र०) अभिधा रूप मुख्य वृत्ति से ही शब्द के द्वारा अर्थ का प्रतिपादन क्यों नहीं मान लेते ? (उ.) चूंकि शब्द को अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। (प्र.)
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प्रकरणम् ]
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भाषावादसहितम्
न्यायकन्दली
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५१७
सम्बन्ध इति चेत् ? शब्दस्यैकस्य देशभेदेन नानार्थेषु प्रयोगात् । यत्रायमायैः प्रयुज्यते तत्रास्य वाचकत्वम्, इतरत्र सङ्केतानुरोधात् प्रवृत्तस्य लिङ्गत्वमिति चेत् ? न तुल्य एव तावच्चीरशब्दस्तस्करे भक्ते च प्रतीतिकरः, तत्रास्य तस्करे वाचकत्वं भक्ते च लिङ्गत्वमिति नास्ति विशेषहेतुः । आर्याणामपि चौरशब्दादर्थप्रतीतिः लिङ्गपूर्विका, चौरशब्दजनितप्रतिपत्तित्वात्, उभयाभिमतदाक्षिणात्य प्रयुज्यमानचौरशब्दजनितप्रतिपत्तिवत् । न च स्वाभाविकसम्बन्धसद्भावे प्रमाणमस्ति । शब्दस्य वाच्यनिष्ठा स्वाभाविकी वाचकशक्तिरेवोभयत्र दत्तपदत्वात् सम्बन्ध इत्युच्यते इति ।
सम्बन्धः "
भवद्भिः । तथा चोक्तम् - "शक्तिरेव हि शब्दशक्तेश्च स्वभावादेव वाच्यनिष्ठत्वे
व्युत्पन्नवदव्युत्पन्नोऽपि शब्दादर्थं
यदि वर्ष के साथ असम्बद्ध शब्द को ही अर्थ का बोधक मानें तो फिर ( घट पद से पट बोध की आपत्ति रूप ) अतिप्रसङ्ग होगा, अतः शब्द का अर्थ के साथ स्वाभाविक ( शक्ति रूप ) सम्बन्ध की कल्पना करते हैं । ( उ० ) यह सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही शब्द का विभिन्न अर्थों के बोध के लिए प्रयोग होता है । ( प्र० ) जिस अर्थ में आर्यलोग जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उस अर्थ का तो वह शब्द वाचक है अर्थात् उस अर्थ में उस शब्द का स्वाभाविक सम्बन्ध है ) । उससे भिन्न जिन अर्थों में केवल सङ्केत से ही शब्द प्रवृत्त होता है, वहाँ वह (धूम की तरह) ज्ञापक लिङ्ग है । उ० ) यह भी कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही 'चौर' शब्द चोर और भात दोनों का समान रूप से दोनों अर्थों में से चौर रूप अर्थ का तो चौर शब्द को वाचक माने और भात रूप अर्थ का उसे
(
बोधक है । इन
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बोधक लिङ्ग माने, इसमें विशेष युक्ति नहीं है । ( इससे यह अनुमान निष्पन्न होता
दाक्षिणात्यों के द्वारा प्रयुक्त 'चोर'
है कि ) जिस प्रकार दोनों पक्ष यह मानते हैं कि शब्द से भात रूप अर्थ की प्रतीति उक्त शब्द रूप लिङ्ग से उत्पन्न ( होने का कारण अनुमिति रूप होती) है, उसी प्रकार आर्यों के द्वारा प्रयुक्त चौर शब्द से तस्कर की प्रतीति भी चौर शब्द रूप लिङ्ग से ही होती है, क्योंकि यह प्रतीति भी चोर शब्द से उत्पन्न होती है । इसमें कोई प्रमाण भी नहीं है कि शब्द और अर्थ दोनों में कोई स्वाभाविक सम्बन्ध है, क्योंकि केवल शब्द में ही रहनेवाला जो वाच्य (अर्थ) का वाचकत्व सम्बन्ध है, उसी सम्बन्ध को अर्थ और शब्द दोनों में और केवल शब्द में रहनेवाले उस सम्बन्ध को ही आप ( मीमांसक लोग दोनों का 'सम्बन्ध' कहते हैं । जैसा कहा गया है कि 'शक्ति ही सम्बन्ध है' । शब्द के शक्ति रूप सम्बन्ध को यदि स्वाभाविक रूप से ही वाच्य अर्थ में भी मान लें तो फिर जिस प्रकार व्युत्पन्न (अर्थ में शब्द
कल्पना कर लेते हैं,
)
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५१५
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव
न्यायकन्दली प्रतीयात शब्दस्यार्थस्य तयोः सम्बन्धस्य च संभवात् । ज्ञातः सम्बन्धोऽर्थप्रत्ययहेतुर्न सत्तामात्रेणेति चेत् ? यथाहुः
ज्ञापकत्वाद्धि सम्बन्धः स्वात्मज्ञानमपेक्षते । तेनासौ विद्यमानोऽपि नागृहीतः प्रकाशकः ॥ इति ।
कीदृशं तस्य सम्बन्धस्य ज्ञानम् ? अस्य शब्दस्यायमर्थों वाच्य इत्ये. वंभूतमिति चेत् ? तत् कस्माद् भवति ? वृद्धव्यवहारादिति चेत् ? एतदेवाभिधानाभिधेयालम्बनज्ञानं परस्परं व्यवहरद्भिवृद्धैः पार्श्वस्थस्य बालकस्य क्रियमाणं सङ्कतो व्युत्पत्तिरिति चाभिधीयमानं संस्कारद्वारेणार्थप्रतीतिकारणमस्तु, किं सम्बन्धान्तरेण ? शब्दस्य हि निजं सामर्थ्यं शब्दत्वम्, आगन्तुकं च सामर्थ्य सङ्घतो विशिष्टा चानुपूर्वी। तस्मादेव सामर्थ्य द्वितयात् तदर्थप्रत्ययोपपत्तिः, सम्बन्धान्तरकल्पनावैयर्थ्यम्, दृष्टात् कार्योपपत्तावदृष्टकल्पनानवकाशात् । सङ्कत को जाननेवाले पुरुष को शब्द से अर्थ का बोध होता है, उसी प्रकार अव्युत्पन्न ( उक्त सङ्केत को न जाननेवाले ) पुरुष को भी शब्द से अर्थ के बोध की आपत्ति होगी, क्योंकि वहाँ भी शब्द और अर्थ इन दोनों का शक्ति रूप सम्बन्ध है ही। (प्र.) उक्त सम्बन्ध ज्ञात होकर ही अर्थ बोध के प्रति कारण हैं, केवल सत्ता मात्र से नहीं ( अतः अव्युत्पन्न पुरुष को अर्थबोध नही होता है)। जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि चूंकि शब्द का शक्ति रूप सम्बन्ध ज्ञापक हेतु है (उत्पादक नहीं), अतः वह अपने अर्थज्ञान रूप कार्य के उत्पादन में अपने ज्ञान की अपेक्षा रखता है, यही कारण है कि शब्द में विद्यमान रहने पर भी जब तक वह ज्ञात नहीं हो जाता, तब तक अर्थ को प्रकाशित नहीं कर सकता। (उ०) शक्ति रूप सम्बन्ध का कैसा ज्ञान अर्थबोध के लिए अपेक्षित है ? यदि यह कहें कि 'इस शब्द का यह अर्थ वाच्य है' इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षित है, तो फिर यह पूछना है कि यह ज्ञान किससे उत्पन्न होता है ? यदि इसका यह उत्तर दें कि 'यह ज्ञान वृद्धों के व्यवहार से उत्पन्न होता है तो फिर 'अभिधानाधेय' के इस ज्ञान को ही अपने संस्कार के द्वारा कारण क्यों नहीं मान लेते ? जो शब्दों का व्यवहार करते हुए वृद्धजनों से बालकों में उत्पन्न होता है, और जिसे 'सङ्केत' एवं 'व्युत्पत्ति' भी कहते हैं। इसके लिए शब्द का अर्थ में विलक्षण सम्बन्ध मानने का क्या प्रयोजन है ? कहने का अभिप्राय है कि शब्द की अपनी स्वाभाविक शक्ति शब्दत्व रूप ही है, एवं पुरुषों के द्वारा उसमें दो शक्तियाँ उत्पन्न की जाती हैं, जिनमें पहिली है सङ्केत, और दूसरी है विशेष प्रकार की आनुपूर्वी ( वर्गों का विन्यास )। इन्हीं दोनों सामों से शब्द के द्वारा अर्थ की उत्पत्ति हो जाएगी। अतः शब्द का अर्थ में स्वतन्त्र सम्बन्ध की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि दृष्ट कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति संभावित होने पर अतीन्द्रिय कारणों की कल्पना उचित नहीं है ।
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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५१६
श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याम्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्षः, तद्वचनादाम्नाय -
श्रुति एवं स्मृति रूपशब्द प्रमाणों का भी प्रामाण्य उनके वक्ताओं के प्रामाण्य केही अधीन है । यही बात 'तद्वचनादाभ्नायस्य प्रामाण्यम्” “लिङ्गाच्चानित्यः न्यायकन्दली
ननु यदि वक्तृद्वारेण शब्दोऽर्थावबोधकः, तदा वेदवाक्यादर्थ प्रत्ययो न घटते, वक्तुरभावादत आह- श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याभ्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्ष इति । न केवलं लौकिक आम्नायः, श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याम्नायो वक्तुः प्रामाण्यसपेक्ष्य प्रत्यायकः । शब्दो वक्त्रधीनदोषः, न त्वयमसुरभिगन्धवत् स्वभावत एव दुष्टः । यथोक्तम्—
शब्दे
कारणवर्णादिदोषा
वक्तृनराश्रयाः । नहि स्वभावतः शब्दो दुष्टोऽसुरभिगन्धवत् ॥
नित्यत्वे वेदस्य वक्तुरभावाद् दोषाणामनवकाशे सति निराशङ्कं प्रामाण्यं सिद्धयति, पौरुषेयत्वे तु निविचिकित्सं प्रामाण्यं न लभ्यते, कदाचित् पुरुषाणां रागद्वेषादिभिरयथार्थस्थापि वाक्यस्य दर्शनात् । तत्राह - " तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्” इति । तदित्यनागतावेक्षणन्यायेन “अस्मद्बुद्धिभ्यो लिङ्गमृषेः" इति
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( प्र० ) यदि वक्ता की विवक्षा के द्वारा ही शब्द अर्थ का बोधक है, तो फिर वेद वाक्यों से अर्थों का बोध न हो सकेगा, क्योंकि वेदों का कोई वक्ता नहीं है । इसी प्रश्न के समाधान के लिए "श्रुतिस्मृतिलक्षणोऽप्याम्नायो वक्तृप्रामाण्यापेक्षः” भाष्य का यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् केवल लौकिक 'आम्नाय' के द्वारा प्रमाबोध के उत्पादन के लिए ही वक्ता के प्रामाण्य की अपेक्षा नहीं है, किन्तु श्रुति एवं स्मृति रूप आम्नाय (शब्द) भी अपने द्वारा प्रमात्मक बोध के उत्पादन के लिए वक्ता के प्रामाण्य की अपेक्षा रखते हैं । क्योंकि शब्द दुर्गन्ध की तरह स्वतः ही दुष्ट नहीं है । उसमें तो वक्ता के दोष से ही दोष आते हैं । जैसा कहा गया है कि 'शब्द में कारणों के द्वारा वर्णों के जितने भी दोष भासित होते हैं, वे सभी वस्तुतः वक्ता पुरुष में रहनेवाले दोषों के कारण हो आते हैं । दुर्गन्ध की तरह शब्द स्वभावतः स्वयं दुष्ट नहीं हैं' ।
( प्र० ) वेदों को यदि नित्य मान लिया जाता है तो फिर उनमें निःशङ्क प्रामाण्य की सिद्धि होती है । यदि उन्हें पौरुषेय मानते हैं तो यह शङ्का बनी ही रहती है कि 'कदाचित् इसका कोई अंश अप्रमाण न हो' । क्योंकि कभी कभी ऐसा देखा जाता है कि रागद्वेष के कारण मनुष्य अयथार्थ ( बोषजनक ) वाक्य का भी प्रयोग करता है । इसी प्रश्न का उत्तर 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' इत्यादि सूत्रों का उल्लेख करते हुए भाष्यकार ने दिया है । 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' इस सूत्र में 'तत्' शब्द से 'आनेवाले भविष्यवस्तु को भी बुद्धि के द्वारा देखा जा सकता है' ( अनागता वेक्षण ) इस
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५२.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने शब्दान्तर्भाव
न्यायकन्दली सूत्रे प्रतिपादितस्यास्मद्विशिष्टस्य वक्तुः परामर्शः, तद्वचनात् तेन विशिष्टेन पुरुषेण प्रणयनादाभ्नायस्य वेदस्य प्रामाण्यम् ।
__ अयमभिसन्धिः--दोषाभावप्रयुक्तं प्रामाण्यं न नित्यत्वप्रयुक्तम्, सत्यपि नित्यत्वे श्रोत्रमनसोरागन्तुकदोषैः क्वचिदप्रामाण्यात् । असत्यपि नित्यत्वे प्रमृष्टदोषाणां चक्षुरादीनां प्रामाण्यात् । दोषाश्च पुरुषविशेषे नैव सन्तीत्युपपादितम् । तेनैतत्प्रोक्तस्याम्नायस्य सत्यपि पौरुषेयत्वे प्रामाण्यम् । नहि यथार्थद्रष्टा प्रक्षीणरागद्वेषः कृपावानुपदेशाय प्रवृत्तोऽयथार्थमुपदिशतीति शङ्कामारोहति ।
___ अथ पुरुषविशेषप्रणीतो वेद इति कुत एषा प्रतीतिरिति ? सर्वैर्वर्णाश्रमिभिरविगानेन तदर्थपरिग्रहात् । यत्किञ्चनपुरुषप्रणीतत्वे तु वेदस्य बुद्धादिवाक्यवन्न सर्वेषां परीक्षकाणामविगानेन तदर्थानुष्ठानं स्यात्, कस्यचिदप्रा
न्याय से आगे 'अस्मद्बुद्धिभ्यो लिङ्गमृषेः' इस सत्र में कथित अस्मदादि साधारण जनों से उत्कृष्ट पुरुष का परामर्श अभिप्रेत है। 'तद्वचनात्' उस विशिष्ट पुरुष के द्वारा निर्मित होने के कारण ही आम्नाय' में अर्थात् वेद में प्रामाण्य है।
गूढ़ अभिप्राय यह है कि किसी भी प्रमाण में प्रामाण्य के लिए उसका नित्य होना आवश्यक नहीं है। उसमें दोषों का न रहना ही उसके प्रामाण्य के लिए पर्याप्त है । क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय और मन ये दोनों ही नित्य हैं (पौरुषेय नहीं हैं), किन्तु किसी कारण से जब इनमें दोष आ जाते हैं तो फिर ( ये नित्य होते हुए भी ) अप्रमाण हो जाते हैं। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ यद्यपि अनित्य हैं फिर भी जब तक दोषों से शून्य रहती हैं तब तक उनमें प्रामाण्य बना रहता है। अतः विशिष्ट पुरुष (रूप ईश्वर) के द्वारा रचित आम्नाय में उसके पौरुषेय होने पर भी प्रामाण्य के रहने में कोई बाधा नहीं है । इसकी तो शङ्का भी नहीं की जा सकती कि यथार्थ ज्ञान से युक्त और रागद्वेष से रहित कृपाशील महापुरुष जब उपदेश करने के लिए उद्यत होंगे तो वे अयथार्थ ( ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले ) वाक्यों का भी कभी प्रयोग करेंगे।
(प्र.) यह कैसे समझते हैं कि विशिष्ट ( सर्वज्ञ ) पुरुष के द्वारा ही वेदों का निर्माण हुआ है ? ( उ०) चूंकि ब्राह्मणादि सभी वर्गों के लोग एवं ब्रह्मचर्यादि सभी आभमों के लोग बिना किसी विरोध के वेदों के द्वारा प्रतिपादित निर्देशों का पालन करते हैं। यदि किसी साधारण पुरुष से वेदों का निर्माण हुआ होता तो बुद्धिपूर्वक चलनेवाले इतने शिष्ट जनों के द्वारा वेदों के द्वारा कथित अर्थों का बिना विरोध के अनुष्ठान न होता, जैसे कि बुद्धादि के वाक्यों का अनुसरण कुछ ही व्यक्तियों के द्वारा हुआ, और वह भी बहुत विरोध के बाद । वेदों को बुद्धादि वाक्यों की तरह अप्रामाणिक मानने पर वर्णाश्रमियों में से भी किसी को अप्रामाण्य ज्ञान के द्वारा वेदों से अप्रमा ज्ञान भी होता। ( इससे यह अनुमान होता है कि ) जिसमें सभी को प्रामाण्य यह होता है वह प्रमाण ही होता है (अप्रमाण नहीं), जैसे कि प्रत्य
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५२१
प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रामाण्यम्" (वै. अ. १ आ. १ सू. ३) “लिङ्गाचानित्यो बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिदे" (वै. अ. ६ आ. १ सू. १) "बुद्धिपूर्वो ददातिः" (वै. अ. ६ आ. १ सू. ३) इत्युक्तत्वात् । "बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे", "बुद्धिपूर्वो ददातिः' इत्यादि सूत्रों के द्वारा कही गयी है।
न्यायकन्दली माण्यावबोधेन विसंवादप्रतीतेरपि सम्भवात् । यत्र च सर्वेषां संवादनियमस्तत्प्रमाणमेव, यथा प्रत्यक्षादिकम् । प्रमाणं वेदः, सर्वेषामविसंवादिज्ञानहेतुत्वात्, प्रत्यक्षवत् । यत्तु दृष्टार्थेषु कर्मस्वनुष्ठानात् क्वचित् फलादर्शनं न तदस्य प्रामाण्यं प्रतिक्षिपति, सामग्रीवैगुण्यनिबन्धनत्वात् । तन्निबन्धनत्वं च यथावत्सामग्रीसम्भवे सति फलदर्शनात् ।
___ आप्तोक्तत्वादाम्नायस्येति न युक्तम्, तदर्थानुष्ठानकालेऽभियुक्तैरनुष्ठातृभिः स्मृत्ययोग्यस्य कर्तुरस्मरणादभावसिद्धरत आह-लिङ्गाच्चानित्य इति । तद्वचनादाम्नायप्रामाण्यमित्यत्रोक्तमाम्नायपदं प्रकृतत्वादिह सम्बध्यते, लिङ्गा. दाम्नायोऽनित्यो गम्यत इत्यर्थः । लिङ्गमुपन्यस्यति-बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेद इति । क्षादि प्रमाण । अतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों की तरह वेद भी सभी व्यक्तियों में प्रमा ज्ञान का ही उत्पादक होने के कारण प्रमाण ही है। यह जो कोई आक्षेप करते हैं कि 'वेदों के द्वारा निर्दिष्ट अनुष्ठानों में से कुछ निष्फल भी होते हैं, जिससे निःशङ्क प्रामाण्य का विघटन होता है, यह आक्षेप तो उन अनुष्ठानों की यथाविहित सामग्री में वैगुण्य की कल्पना करके भी हटाया जा सकता है । 'उन अनुष्ठानों के विधान के अनुसार सामग्री का सम्बलन नहीं था' यह इसी से समझ सकते हैं कि विधान के अनुसार सामग्री के द्वारा जो अनुष्ठान किया जाता है, वह अवश्य ही सफल होता दीखता है ।
(प्र.) आम्नाय (वेद) आप्तों से उक्त होने के कारण प्रमाण नहीं है, क्योंकि अनुष्ठान के समय अनुष्ठाताओं को वेदों के कर्ता का स्मरण नहीं होता है, अतः सत्ता के न रहने के कारण वे स्मृति के अयोग्य हैं ? इसी प्रश्न के समाधान के लिए 'लिङ्गाच्चानित्यः' इस सूत्र का उल्लेख किया गया है। इस सूत्र के पूर्ववर्ती 'तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' इस सूत्र के 'आम्नाय' पद को प्रकृत में उपयुक्त होने के कारण 'लिङ्गाच्चानित्यः' इस सूत्र में अनुवृत्त समझना चाहिए । तदनुसार इस सूत्र का यह अर्थ होता है कि हेतु से आम्नाय को अनित्य समझना चाहिए, ( अर्थात् हेतु से वेद में अनित्यत्व का अनुमान करना चाहिए)। 'बुद्धिपूर्वा वाक्य कृतिदे इस सूत्र के उल्लेख के द्वारा वेद में अनित्यत्व के साधक हेतु का ही निर्देश किया गया है। उक्त सूत्र का 'वाक्यकृतिः' शब्द 'वाक्यस्य कृतिः' इस समास
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् गुणे स्वतःप्रामाण्यखण्डन
न्यायकन्दली वाक्यस्य कृतिर्वेद इति-वाक्यस्य कृतिर्वाक्यरचना बुद्धिपूर्विका, वाक्यरचनात्वात्, लौकिकवाक्यरचनावत् ।
लिङ्गान्तरमाह-बुद्धिपूर्वो ददातिरित्युक्तत्वात् । वेदे ददातिशब्दो बुद्धिपूर्वको ददातिरित्युक्तत्वाल्लौकिकददातिशब्दवत् ।
यच्चेदमस्मर्यमाणकर्तृकत्वादिति, तदसिद्धम्, “प्रजापतिर्वा इदमेक आसीनाहरासीन्न रात्रिरासीत्, स तपोऽतप्यत, तस्मात् तपसश्चत्वारो वेदा अजायन्त" इत्याम्नायेनैव कर्तृस्मरणात्, जीर्णकूपादिभिर्व्यभिचाराच्च । तदेवमनित्यत्वे वेदस्य सिद्ध पुरुषवचसा द्वैतोपलम्भात् प्रामाण्यसन्देहे सति दृष्टे विषये कदाचिदर्थसन्देहात् प्रवृत्तिर्भवत्यपि, अदृष्टे तु विषये प्रचुरवित्तव्ययशरीरायाससाध्ये
के द्वारा निष्पन्न है, तदनुसार उक्त सूत्र से यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार लौकिक वाक्य की रचना केवल वाक्य की रचना होने के कारण ही पुरुष की बुद्धि से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार वेदवाक्यों की रचना भी चूंकि वाक्य रचना ही है, अतः वह भी पुरुष की बुद्धि से ही उत्पन्न है ।
वेदों में अनित्यत्व के साधन के लिए ही दूसरे हेतु का प्रदर्शन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि 'बुद्धिपूर्वो ददातिः' इस सूत्र की रचना महर्षि कणाद ने की है। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार लोक में 'ददाति' शब्द का प्रयोग (पुरुष की) बुद्धि के द्वारा निष्पन्न होता है, उसी प्रकार वेद के ददाति' शब्द का प्रयोग भी केवल 'ददाति' शब्द का प्रयोग होने के कारण ही बुद्धि के द्वारा उत्पन्न है।
(वेद को नित्य माननेवालों ने) यह जो 'अस्मय॑माणकत्तु कत्व' रूप हेतु का उल्लेख ( वेदों के नित्यत्व के लिए किया है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि ) यह हेतु ही वेद रूप पक्ष में सिद्ध नहीं है । चूंकि 'प्रजापतिर्वा' इत्यादि वेद वाक्यों में कर्ता का स्पष्ट उल्लेख है। एवं यह 'अस्मर्यमाणकत्तकत्व' रूप हेतु उन जीर्णकूपादि में व्यभिचरित भी है, जिनके बनानेवालों का नाम आज कोई नहीं जानता। इस प्रकार वेदों में अनित्यत्व के सिद्ध हो जाने पर ( यह उपपादन करना सुलभ है कि ) दृष्टान्तभूत लौकिक वाक्य प्रमाण और अप्रमाण दोनों ही प्रकार के उपलब्ध होते हैं, अतः उनमें प्रामाण्यसन्देह के कारण उन वाक्यों से निर्दिष्ट कार्यों में कदाचित् अर्थ के सन्देह से भी प्रवृत्ति हो सकती है, किन्तु वैदिक यागादि कार्यों में-जिनके फल स्वर्गादि सर्वथा अदृष्ट हैं, जिनके अनुष्ठान में बहुत से धन का व्यय होता है, शारीरिक परिश्रम भी बहुत
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प्रकरणम् भाषानुवादसहितम्
५२३ न्यायकन्दली तावत् प्रेक्षावान्न प्रवर्तते, यावत् तद्विषये वाक्यस्य प्रामाण्यं नावधारयति । दृष्टं च लोके वचसः प्रामाण्यं वक्तृगुणावगतिपूर्वकम्, तेन वेदेऽपि तथैव प्रामाण्यान्निविचिकित्समनुष्ठानं स्यात् । ___अत्रके वदन्ति-नाप्तोक्तत्वनिबन्धनं वचसः प्रामाण्यम्, सर्वप्रमाणानां स्वत एव प्रामाण्यादिति। ते इदं प्रष्टव्याः, प्रामाण्यमेव तावत् किमुच्यते ? किमर्थाव्यभिचारः ? किं वा यथार्थपरिच्छेदकत्वम् ? न तावदाव्यभिचारः ।
सत्यपि वह्निनियतत्वे धूमस्य प्रमत्तस्य कुतश्चिन्निमित्तादनुत्पादिताग्निज्ञानस्यप्रामाण्याभावात्, नीलपीतादिषु प्रत्येक व्यभिचारेऽपि चक्षुषो यथार्थज्ञानजनकत्वेनैव प्रामाण्यात् ।
अथ यथार्थपरिच्छेदकत्वं प्रामाण्यम ? तत् कि स्वतो ज्ञायते ? स्वतो वा जायते ? किं वा स्वतो व्याप्रियते ? यदि तावज्ज्ञानेन स्वप्रामाण्यं स्वयमेव ज्ञायेत, यथार्थपरिच्छेदकमहमस्मीति । न तहि
अपेक्षित होता है-तब तक प्रवृत्ति नहीं हो सकती जब तक कि उन अनुष्ठानों के बोधक वाक्यों में प्रामाण्य का अवधारण न हो जाय । शब्दों के प्रामाण्य के प्रसङ्ग में लोक में यह देखा जाता है कि उसका प्रामाण्य अपने ज्ञान के लिए वक्ता में यथार्थज्ञानादि गुणों के ज्ञान की अपेक्षा रखता है, अतः वेदों में भी उसी प्रकार से वक्ता में गुणावधारणमूलक प्रामाण्य जब तक अवधारित नहीं होगा, तब तक उनसे विहित यागादि का निःशङ्क अनुष्ठान नहीं हो सकेगा।
___ इस प्रसङ्ग में एक सम्प्रदाय के ( मीमांसक ) लोग कहते हैं कि (प्र.) शब्द आप्तजनों से उक्त होने के कारण प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि सभी प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः है। ( उ०) इन लोगों से यह पूछना चाहिए कि आप लोग प्रामाण्य किसे कहते हैं ? क्या (१) अर्थ के साथ ज्ञान का अव्यभिचार (नियत सम्बन्ध ) ही प्रामाण्य है ? अथवा ( २) वस्तुओं को अपने रूप में निश्चित करना ही प्रामाण्य है ?
(१) अर्थ का अव्यभिचार तो प्रामाण्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे कितने हो पागल दुनियाँ में हैं, जिन्हें जिस किसी प्रतिबन्ध के कारण धूम में वह्नि की व्याप्ति रहने पर भी धमज्ञान से वह्नि का ज्ञान नहीं होता, फलतः उस धूम ज्ञान में प्रामाण्य नहीं रहेगा। एवं नील में सम्बद्ध चक्षु पीत में व्यभिचरित रहने पर भी यथार्थ ज्ञान का करण होने से ही प्रमाण माना जाता है ।
(२) यदि प्रामाण्य को यथार्थपरिच्छेदकत्व रूप मानें तो उस प्रसङ्ग में पहिले यह पूछना है कि यह यथार्थपरिच्छेदकत्व निम्नलिखित पक्षों में से क्या है ? (१) प्रामाण्य स्वतः ज्ञात होता है ? या (२)प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है ? अथवा (३) प्रामाण्य अपने अर्थपरिच्छेद रूप कार्य में स्वतः व्याप्त होता है ? (१) यदि ज्ञान का प्रामाण्य अपने ही द्वारा 'यथार्थ परिच्छेदक
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभव्यम् [ गुणे स्वतः प्रामाण्यखण्डन
न्यायकन्दली
प्रमाणे यथार्थमिदमयथार्थ वेति संशयः कदाचिदपि स्यात्, विपर्ययज्ञाने च प्रवृत्तिर्न भवेत् । अथ स्वात्मनि क्रियाविरोधादात्मानमगृह्लद् विज्ञानमात्मनो यथार्थपरिच्छेदकत्वं न गृह्णाति तहि तत्परिच्छेदाय परमपेक्षितव्यम्, प्रमाणेन विना प्रमेयप्रतीतेरभावात् । प्रामाण्यस्यापि प्रमीयमानदशायां प्रमेयत्वादिति परतः प्रामाण्यमेव । परेण प्रामाण्ये ज्ञायमाने परेण प्रामाण्यं ज्ञेयम्, तस्यापि प्रामाण्यमपरेण ज्ञेयं तस्याप्यन्येनेत्यनवस्थेति चेत् ? नानवस्था, सर्वत्र प्रामाण्ये जिज्ञासाभावात् । प्रमाणं हि स्वोत्पत्त्यैवार्थं परिच्छिनत्ति न ज्ञातप्रामाण्यम्, तेन त्वर्थे परिच्छिन्नेऽपि यत्र कुतश्चिन्निमित्तात् प्रमाणमिदमप्रमाणं वेति संशये जाते विषयसन्देहात् पुरुषस्याप्रवृत्तिः, तत्रास्य प्रवृत्त्यर्थं करणान्तरात् प्रामाण्यजिज्ञासा भवति, अनवधारिते प्रामाण्ये संशयानुच्छेदात् । यत्र पुनरत्यन्ताभ्यास
मैं ही हूँ' इस प्रकार से ज्ञात होता तो फिर ( प्रमा ज्ञान रूप ) प्रमाण में 'यह यथार्थ है ? या अयथार्थ ? इस प्रकार का संशय कभी नहीं होता । एवं विपर्यय ज्ञान से जो ( विफला ) प्रवृत्ति होती है, वह भी कभी नहीं होती ( उससे भी सफल प्रवृत्ति ही होती ) । यदि यह कहें ( प्र ) 'स्व' में क्रिया के विरोध के कारण अर्थात् एक ही वस्तु में एक क्रिया का कर्तृत्व और कर्मत्व रूप दो विरुद्ध धर्मों का समावेश असम्भव होने के कारण एक ज्ञान व्यक्ति अपने उसी ज्ञान व्यक्ति का ग्रहण नहीं कर सकता, अतः 'स्व' में रहनेवाले यथार्थपरिच्छेदकत्व का भी ग्रहण उससे नहीं होता है । ( उ० ) तो फिर अर्थ परिच्छेद के लिए किसी दूसरे प्रमाण की अपेक्षा होगी, क्योंकि प्रमाण के बिना प्रमेय का ज्ञान नहीं होता है । प्रमाण भी अपने प्रमा ज्ञान में विषय होने की दशा में प्रमेय है ही । अतः यथार्थपरिच्छेदकत्व भी 'परतः ' ही है । ( प्र०) दूसरी प्रमा से जिस समय प्रामाण्य गृहीत होता है, उस समय यह प्रामाण्य उस दूसरे प्रमाण का ज्ञेय विषय होता है । किन्तु जब यह दूसरा प्रमाण स्वयं ज्ञेय होता है, तब वह किसी तीसरे प्रमाण के द्वारा गृहीत होता है । इसी तरह उस तीसरे प्रमाण का भी ग्रहण किसी चौथे प्रमाण से होगा। इस प्रकार 'परतः प्रामाण्यम' पक्ष में अनुवस्था दोष है । ( उ० ) यह अनवस्था दोष 'परतः प्रामाण्य' पक्ष में नहीं है, क्योंकि सभी ज्ञानों में प्रामाण्य का संशय उपस्थित नहीं होता । प्रमाण अपनी उत्पत्ति के द्वारा अपने अर्थों का अवधारण कर लेता है । अर्थ परिच्छेद के लिए प्रामाण्य के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है । प्रामाण्यसंशय के द्वारा अर्थ में प्रवृत्ति के न होने
यह कारण है कि प्रमाण के द्वारा अर्थ पच्छेिद के बाद जब किसी कारणवश अर्थ के परिच्छेदक इस प्रमाण में 'यह प्रमाण है या अप्रमाण ?' इस आकार का संशय उपस्थित होता है और इस संशय से अर्थविषयक संशय होता है । इस अर्थ संशय के कारण ही प्रवृत्ति का उक्त प्रतिरोध होता है, प्रवृत्ति के इस प्रतिरोध को हटाकर पुनः प्रवृति के सम्पादन के लिए ही दूसरे कारणों के तक प्रामाण्य का
द्वारा प्रामाण्य को जानने की अवधारण नहीं हो जाएगा,
इच्छा उत्पन्न होती है, क्योंकि जब तब तक प्रामाण्य का उक्त संशय
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५२५ न्यायकन्दली पाटवादखिलविशेषग्रहणाद् वा प्रमृष्टसन्देहकलङ्कलेखमेव प्रमाणमुदेति, तत्र तदुत्पत्त्यैवार्थनिश्चये प्रमातुनिराकाङ्क्षत्वात् प्रतिपित्सव नास्तीति न प्रमाणान्तरानुसरणम्। यस्तु तत्रापि ज्ञानस्योभयथा दर्शनेन सन्देहमारोपयति स न शक्नोत्यारोपयितुम्, तदर्थनिश्चयेनैव पराहतत्वात् । यथाह मण्डनो ब्रह्मसिद्धौ
"अनाश्वासो ज्ञायमाने ज्ञानेनैवापबाध्यते” इति । यदि प्रवृत्त्यर्थं प्रामाण्यं विजिज्ञास्यते ? यत्रानवधारितप्रामाण्यस्यैवार्थसंशयात प्रवृत्तिरभूत् तत्रार्थप्राप्तिपरितुष्टस्य प्रामाण्ये जिज्ञासा नास्ति, कथं प्रवृत्तिसामर्थ्यात् प्रमाणस्यार्थवत्त्वावधारणम् ? न तत्रापि कर्षकस्येव बीजपरीक्षार्थ प्रामाण्यपरीक्षार्थमेव प्रवृत्तिः, अस्यास्त्येव तदर्थता। यस्य प्रामाण्यसन्देहादर्थ सन्दिहानस्यार्थग्रहणार्थमेव प्रवृत्तिर्जाता, तस्यार्थप्राप्तिचरितार्थस्यानभिसंहितमपि दूर नहीं हो सकेगा। जहाँ अभ्यास की अत्यन्त पटुता के कारण अथवा विषय के सभी अंशों को खूब अच्छी तरह देखने के कारण ऐमा ही प्रमाण उपस्थित होता है, जिसमें सन्देह कलङ्क की रेखा भी नहीं रहती है, वहाँ प्रमाण केवल अपनी उत्पत्ति के द्वारा ही अर्थ का अवधारण करा देता है ( इसी से प्रमाता पुरुष की प्रामाण्य ज्ञान की आकाङ्क्षा शान्त हो जाती है ), अतः ऐसे स्थलों में प्रामाण्य ज्ञान के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जो कोई 'ज्ञान प्रमा और अप्रमा दोनों प्रकार का होता है' केवल यह समझने के कारण ही ऐसे स्थलों में भी प्रामाण्य सन्देह का आरोप करते हैं, उनका यह आरोप भी सम्भव नहीं है, क्योंकि तदर्थ विषयक निश्चय हो जाने के कारण तदर्थ विषयक प्रामाण्य सन्देह नहीं हो सकता। जैसा कि आचार्य मण्डन ने ब्रह्मसिद्धि में कहा है कि किसी विषयक ज्ञान में उत्पन्न अविश्वास उस विषयक निश्चय के द्वारा ही पराभूत हो सकता है, ( अर्थात् इसके लिए ज्ञान गत प्रामाण्य का अवधारण अपेक्षित नहीं है ) ।
___ यदि प्रवृत्ति के लिए ज्ञान के प्रामाण्य को जिज्ञासा मानते हैं, तो फिर जो प्रवृत्ति अर्थ के संशय से ही होती है, जिस प्रवृत्ति के आश्रयीभूत पुरुष में प्रामाण्य का अवधारण है ही नहीं, ( उस प्रवृत्ति की उपपत्ति कैसे होगी ?) क्योंकि वह पुरुष तो उसी संशयजनित प्रवृत्ति के द्वारा अभीष्ट अर्थ को पाकर सन्तुष्ट है, उसमें प्रामाण्य की जिज्ञासा क्यों कर उठेगी ? फिर कैसे कहते हैं कि प्रवृत्ति की सफलता से प्रमाण में अर्थवत्त्व का अवधारण होता है ? जिस प्रकार कोई किसान बीज की परीक्षा को ही प्रधान प्रयोजन मानकर प्रवृत्त होता है, उस प्रकार की स्थिति प्रकृत में नहीं है, क्योंकि वह सन्दिग्ध पुरुष उस अर्थ का प्रार्थी है । किन्तु जहाँ प्रामाण्य-सन्देह के कारण उत्पन्न अर्थ सन्देह से ही अर्थ ग्रहण में पुरुष प्रवृत्त होता है और उसको प्रवृत्ति सफल भी होती है, उस प्रवृत्ति की सफलता से परितुष्ट पुरुष को भी प्रवृत्ति की सफलता से प्रामाण्य की अनुमिति अवश्य होती है,
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभ
वतःप्रामाण्यखण्डन
न्यायकन्दली प्रामाण्यावधारणं वस्तुसामर्थ्याद् भवति, प्रवृत्तिसामर्थ्यस्य प्रामाण्याव्यभिचारात् । तदेवं तावत् प्रामाण्यं स्वतो न ज्ञायते । नापि स्वतो जायते। यदि ज्ञानमुत्पद्य पश्चात् स्वात्मनि यथार्थपरिच्छेदकत्वं जनयति, प्रतिपद्येमहि तस्य स्वतः प्रमाणताम् । यथार्थावबोधस्वभावस्यैव तस्य कारणादुत्पत्ति पश्यन्तः परापेक्षमेव तस्य प्रामाण्यं मन्यामहे ।
___ अथ मन्यसे प्रमाणं स्वयमेव स्वकीयं प्रामाण्यं जनयतीति स्वतः प्रमाणत्वं न ब्रमः, अपि तु ज्ञानं प्रामाण्योत्पादाय स्वोत्पादककारणकलापादन्यन्नापेक्षत इति स्वतः प्रामाण्यम्। एतदप्यसत् । यदि ह्यन्यूनानतिरिक्तज्ञानोत्पादिकैव सामग्री प्रामाण्ये कारणम्, विपर्ययज्ञानं कुतः ? यथार्थज्ञानजननं कारणानां स्वभावः, स यदा दोषैः प्रच्याव्यते तदा तान्ययथार्यज्ञानं जनयन्ति, यदा तु स्वभावप्रच्युतिहेतवो दोषा न भवन्ति, तदा तेषां यथार्थज्ञानजननमेव स्वभावो व्यवतिष्ठत इति चेत् ? तत् किं वक्तृज्ञानमात्रादेव तत्पूर्वके वाक्ये क्योंकि प्रवृत्ति की सफलता रूप हेतु में प्रामाण्य का अव्यभिचार (व्याप्ति) है ही, और वस्तु के सामर्थ्य को कार्य करने से कोई रोक नहीं सकता ? तस्मात् प्रामाण्य न स्वतः उत्पन्न होता है और न स्वतः ज्ञात ही होता है । यदि उत्पन्न होने के बाद ज्ञान अपने में यथार्थपरिच्छेदकत्व को उत्पन्न करता तो समझते कि वह 'स्वतः प्रमाण' है। किन्तु हम देखते हैं कि यथार्थ बोध ( यथार्थपरिच्छेद) स्वरूप ही तो उसकी उत्पत्ति होती है, अत। हम लोग उसके प्रामाण्य के लिए दूसरे कारणों की अपेक्षा मानते हैं ।
(प्र.) यदि यह मानते हो कि (प्र० गुरुमत ) प्रामाण्य के स्वतस्त्व का यह अर्थ नहीं है कि प्रमाण अपने प्रामाण्य का उत्पादन स्वयं करता है, किन्तु स्वतः प्रामाण्य यह है कि ज्ञान के जितने कारण हैं, उतने से ही ज्ञान के प्रामाण्य की भी उत्पत्ति होती है, प्रामाण्य की उत्पत्ति के लिए उन कारणों से न अधिक कारण की आवश्यकता है
और न उन कारणों में से किसी को छोड़कर उसकी उत्पत्ति हो सकती है। ( उ०) किन्तु यह भी असङ्गत है, क्योंकि यदि ज्ञान के लिए जितने कारण आवश्यक हैं, उतने ही कारण यदि ज्ञान के प्रामाण्य के लिए लपेक्षित हैं, प्रामाण्य के लिए न उनसे अधिक की आवश्यकता है, न उनमें से किसी को छोड़कर प्रामाण्य की उत्पत्ति हो सकती है, तो फिर विपर्यय रूप ज्ञान क्योंकर उत्पन्न होता है ? (प्र.) यद्यपि यथार्थ ज्ञान को उत्पन्न करना ही उन कारणों का स्वभाव है, किन्तु दोषों से वे जिस समय अपने उस स्वभाव से प्रच्युत हो जाते हैं, उस समय उनसे ( दोष सांनिध्य के कारण) अयथार्य ज्ञान की भी उत्पत्ति होती है। जिस समय उन कारणों को उस स्वभाव से च्युत करनेवाले दोष उपस्थित नहीं रहते, उस समय ज्ञान के कारणों का अपना यथार्य ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला स्वभाव व्यवस्थित ही रहता है। ( उ० ) तो क्या वक्ता पुरुष
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.५२७
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली यथार्थतोत्पादः ? एवं सति सर्वमेव वाक्यमवितथं स्यात् । अथ प्रमाणज्ञानाड् वाक्ये यथार्थतोत्पादः ? न तहि कारणस्वरूपमात्रात् प्रामाण्यमपि तु तद्गुणात् । शब्दस्य कारणमर्थज्ञानम्, तस्य गुणो यथार्थत्वम्। अयथार्थत्वं च दोषः। तत्र यथार्थताया वाक्यप्रामाण्यहेतुत्वे कारणगुणादेव तस्य प्रामाण्यम्, न स्वरूपमात्रात् । शब्दस्य च गुणात् प्रामाण्ये ज्ञानान्तराणामपि तथैव स्यात् । विवादाध्यासितानि विज्ञानानि कारणगुणाधीनप्रामाण्यानि, प्रमाणज्ञानत्वाच्छब्दाधीनप्रमाणज्ञानवत् ।
शब्देऽपि कारणगुणस्य दोषाभावे व्यापारो न प्रामाण्योत्पत्ताविति चेत् ? न, गुणेन दोषप्रतिबन्धाद् दोषकार्यस्यायथार्थत्वस्योत्पत्तिर्मा भूत्, यथार्थत्वोत्पादस्तु
में रहनेवाले (प्रमा अप्रमा साधारण ) सभी ज्ञानों से उस पुरुष के द्वारा प्रयुक्त वाक्यों से उत्पन्न ज्ञानों में यथार्थता (प्रमात्व) की उत्पत्ति होती है। यदि ऐसी बात हो तो सभी वाक्य प्रमाण ही होगे। अगर वक्ता में रहनेवाले प्रमाज्ञान से ही तज्जनित वाक्य में प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है. अर्थात् वाक्यजनित ज्ञान में प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है, तो फिर 'ज्ञान के उत्पादक कारणों से ही प्रामाण्य की उत्पति होती है' यह न कहकर यह कहिए कि उस 'कारणगुण' से अर्थात् वक्तृज्ञान रूप कारण में रहनेवाले प्रमात्व रूप गुण से ही प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है। शब्द का कारण है वक्ता में रहनेवाला ज्ञान, वक्ता के ज्ञान रूप इस कारण में रहनेवाला (प्रमात्व का उत्पादक ) गुण है उस ज्ञान की 'यथार्थता' और अयथार्थत्व का उत्पादक दोष है उस ज्ञान की अयथार्थता। इनमें वक्ता में रहनेवाले ज्ञान की यथार्थता रूप गुण को वाक्य के प्रामाण्य का कारण मानें तो फिर ( यही निष्पन्न होता है कि ) वक्तृज्ञान रूप कारण मे रहनेवाले उसके प्रमात्व रूप गुण से ही शब्द से उत्पन्न ज्ञान में प्रमाण्य की उत्पत्ति होती है, ज्ञान स्वरूपतः अपने सामान्य कारणों से प्रामाण्य को लिये हुए ही उत्पन्न नहीं होता है । इस प्रकार शब्द में परतः प्रामाण्य के स्वीकृत हो जाने पर अनुमानादि ज्ञानों में भी प्रामाण्य के 'परतस्त्व' की यह स्थिति सुव्यवस्थ हो जाएगी। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार वक्ता के ज्ञान रूप कारण में रहनेवाली यथार्थता रूप गुण से शब्द के द्वारा उत्पन्न ज्ञान में यथार्थता (प्रमात्व) की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार उन सभी ज्ञानों में~जिनके प्रसङ्ग में ( स्वतःप्रामाण्यवादो मीमांसकों के साथ) विवाद है - कारण में रहनेवाले कथित 'गुण' से ही प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है, चूंकि वे सभी ज्ञान प्रमाण हैं।
(प्र०) शब्द प्रमाण स्थल में भी वक्ता के ज्ञान का प्रमात्वरूप 'गुण' इतना ही करता है कि शब्द ज्ञान में अप्रमात्व को लानेवाले दोषों को हटा देता है, प्रामाण्य की उत्पत्ति के लिए वह ( गुण ) कुछ भी नहीं करता (जो जिसकी उत्पत्ति के लिए कुछ भी नहीं करता, वह उसका कारण कैसे हो सकता है ?) अतः शाब्दज्ञान को दृष्टान्त रूप से
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न्ययकन्दलीसंवलितप्रशस्तपावभाष्यम् [गुणे स्वतःप्रामाण्यखण्डन
न्यायकन्दली कुतः ? कारणाभावे हि कार्याभावो न तु विपरीतस्य भावः । ज्ञानस्वरूपमात्रादिति चेत् ? न, तस्याविशेषात् । अर्थसम्बन्धो हि ज्ञानस्य विशेषः, सचेद्दोषप्रतिबन्धमात्रोपक्षीणत्वाद् यथार्थतोत्पत्तावनङ्गम्, स्वरूपस्याविशेषाद् नार्थविशेषनियतं वाक्यं स्यादविशेषाद् विशेषसिद्धरभावात् । अथ यदर्थविषयं ज्ञानं तदर्थविषयमेव वाक्यं जनयतीति, तदा ज्ञानस्य यथार्थतैव वाक्यस्य यथार्थताहेतुः, न बोधरूपतामात्रमित्यायातं तस्य गुणादेव प्रामाण्यम् । अस्तु वा गुणस्य दोषाभावे व्यापारस्तथापि परत: प्रामाण्यं न होयते, तदुत्पत्तौ सर्वत्र कारणस्वभावव्यतिरिक्तस्य दोषाभावस्याप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां सामर्थ्यांवधारणात् ।
उपस्थित करना युक्त नहीं है। (उ०) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि गुण से दोष में कार्य को उत्पन्न करने की जो शक्ति है वही केवल प्रतिरुद्ध होती है, इससे दोष से होनेवाली जो ज्ञान की अयथार्थता या अप्रमात्व है, उसको उत्पत्ति गुण के रहने से भले ही रुक जाय, किन्तु गुण के द्वारा उक्त ज्ञान में यथार्थत्व की उत्पत्ति कैसे हो जाएगी ? (जब तक वह प्रमाज्ञान के उत्पादन के लिए कोई व्यापार न करे ) कारण के न रहने से इतना ही होगा कि--उसका कार्य उत्पन्न न हो सकेगा, किन्तु कारण के न रहने पर विपरीत कार्य की उत्पत्ति कैसे हो जाएगी ? (अभिमत कार्य की अनुत्पत्ति और विपरीत कार्य की उत्पत्ति दोनों बिलकुल पृथक् वस्तु हैं )। (प्र०) सभी ज्ञानों की उत्पादिका जो साधारण सामग्री है, उसी से प्रामाण्य को भी उत्पत्ति होती है । (उ०) यह तो विपर्ययादि ज्ञानों में भी समान ही है, अतः यह नहीं कह सकते कि ज्ञानों के साधारण कारणों से (प्रामाण्य की ही उत्पत्ति होती है अप्रामाण्य की यदि यह कहें कि (प्र०) अर्थ का सम्बन्ध हो (प्रमा) ज्ञान का ( अप्रमा ज्ञान ) से अन्तर है, गुण दोषों को हटाने के ही काम में लग जाने के कारण यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति का अङ्ग नहीं है। (उ०) (घटादि ज्ञान और पटादिज्ञान दोनों का ज्ञानत्व रूप धर्म ) तो एक ही है, अतः किसी विशेष प्रकार के अर्थ की सिद्धि के लिए जो विशेष प्रकार के वाक्यों का प्रयोग का नियम है वह न रह सकेगा, क्योंकि विशेष वाक्य से विशेष प्रकार की सिद्धि आप मानते नहीं हैं। यदि यह कहें (प्र०) वक्ता में जिस विषय का ज्ञान रहता है, तदर्थ विषयक बोध को उत्पन्न करनेवाले वाक्य की ही उत्पत्ति ( उस वक्तृ. ज्ञान से ) होती है, (उ०) तो फिर कारणीभूत वक्तृज्ञान की यथार्थता ही वाक्य के प्रामाण्य का कारण है, शब्द केवल इसलिए प्रमाण नहीं है कि वह जिस किसी ज्ञान को उत्पन्न कर देता है। इससे वही बात आ जाती है कि ( दोष से अप्रामाण्य की तरह) गुण से ही प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है। दूसरी बात यह है कि यदि गुण का उपयोग दोषों को हटाने भर के लिए मान भी लें, फिर भी प्रामाण्य के परतस्त्व में कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि प्रमात्व के प्रति उसके आश्रयीभूत ज्ञान के कारणों से अतिरिक्त
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५२६
प्रकरणम् ]
भावानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसिद्धाभिनयस्य चेष्टया प्रतिपत्तिदर्शनात् तदप्यनुमानमेव ।
चेष्टा के साथ सङ्केतित अर्थ के ज्ञान से युक्त पुरुष को ही उस चेष्टा से अर्थ का बोध होता है, अत: चेष्टा भी अनुमान प्रमाण के ही अन्तर्गत है ( अतिरिक्त प्रमाण नहीं )।
न्यायकन्दली दोषाभावाद विपर्ययाभावः, प्रामाण्यं त्विन्द्रियादिस्वरूपमात्राधीनमिति चेत् ? दोषः प्रामाण्योत्पत्तिः प्रतिबध्यते, विपर्ययः पुनरिन्द्रियादिस्वरूपाधीन इति कस्मान्न कल्प्यते ? दोषान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाद् विपर्ययस्य नैवं कल्पनेति चेत् ? प्रामाण्यस्यापि दोषाभावान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वदर्शनान्न तत्कल्पनेति समानम् । नहि तदस्ति प्रमाणं यद् दोषाणां प्रागभावं प्रध्वंसाभावं नापेक्षते।
एवं प्रवृत्त्यादिकार्यजननव्यापारोऽपि प्रमाणस्य परत एव न स्वरूपमात्राधीनः, उपकारापकारादिसापेक्षस्य प्रवृत्त्यादिकार्यजनकत्वादित्येषा दिक् ।
हस्तस्यावाङ्मुखाकुञ्चनादाह्वानं प्रतीयते, पराङ्मुखोत्क्षेपणाच्च विसर्जनप्रतीतिर्भवति, एतत्प्रमाणान्तरमिच्छन्ति केचित् । तान् प्रत्याह-प्रसिद्धाभिनयदोषाभाव में भी कारणता अन्वय और व्यतिरेक से सिद्ध है। (प्र०) दीप के अभाव से तो विपर्यय ( अप्रमा ) का अभाव ही उत्पन्न होता है, प्रामाण्य तो ज्ञान सामान्य के लिए अपेक्षित इन्द्रियादि कारण समुदाय से ही उत्पन्न होता है । (उ०) इसी प्रकार यह कल्पना भी तो की जा सकती है कि दोषों से प्रामाण्य की उत्पत्ति ही केवल प्रतिरुद्ध होती है, इन्द्रियादि साधारण कारणों से ही विपर्यय की उत्पत्ति होती है। यदि यह कहें कि (प्र०) विपर्यय के साथ ही दोष का अन्वय और व्यतिरेक दोनों हैं, अतः यह (दोष से प्रामाण्य की उत्पत्ति के प्रतिरोध की) कल्पना नहीं की जा सकती ? (उ.) इसी प्रकार 'प्रामाण्य के साथ ही दोषाभाव का अन्वय और व्यतिरेक दोनों देखे जाते हैं, अतः दोषाभाव से प्रामाण्य की उत्पत्ति होती है' यह कल्पना भी तुल्य युक्ति से की जा सकती है; क्योंकि ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है जो अपने प्रमाज्ञान रूप कार्य के लिए दोषों के प्रागभाव या ध्वंस रूप अभाव की अपेक्षा नहीं करता।
इसी प्रकार चूंकि प्रमाण विषय में उपकारकत्वबुद्धि को सहायता से ही प्रवृत्तियों को उत्पन्न करते है, विषय में अपकारकत्व बुद्धि के सहयोग से ही प्रमाण के द्वारा निवृत्ति की उत्पत्ति होती है, अतः प्रमाण प्रवृत्त्यादि कार्यों के उत्पादन में भी परापेक्षी ही है ( केवल प्रवृत्त्यादि कार्यों की उत्पत्ति भी स्वत: नहीं होती है ), यही परतः प्रामाण्यवादियों की दृष्टि है।
हाथ को अपनी तरफ मोड़ने की 'आकुञ्चन' नाम की क्रिया से अपने तरफ बुलाने का बोध होता है, एवं हाथ को बाहर की तरफ फैलाने की प्रसारण नाम की क्रिया से बाहर जाने की आज्ञा का बोध होता है। इस बोध के लिए कोई उक्त क्रिया
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने उपमानान्तर्भाव
प्रशस्तपादभाष्यम् आप्तेनाप्रसिद्धस्य गवयस्य गवा गवयप्रतिपादनादुपमानमाप्तवचनमेव ।
( अज्ञ पुरुष को ) सर्वथा अज्ञात गवय का ज्ञान अप्त पुरुष से उच्चारित 'गोसदृशो गवयः' इस वाक्य से ही होता है। अत: उपमान भी आप्तवचन ( शब्द ) के ही ( अन्तर्गत ) है। ( फलतः उपमान भी अनुमान ही है )
न्यायकन्दली स्येति । कराकुञ्चनादिलक्षणोऽभिनयोऽनेनाभिप्रायेण नियत इत्येवं यत्पुरुषस्य प्रसिद्धोऽभिनयः, तस्य चेष्टया करविन्यासेनाह्वानविसर्जनादिप्रतीतिर्दश्यते नान्यस्य, अतस्तदपि चेष्टया ज्ञानमनुमानमेव ।।
उपमानस्यानुमानेऽन्तर्भावं कुर्वन्नाह-आप्तेनाप्रसिद्धस्य गवयस्य गवा गवयप्रतिपादनादुपमानमाप्तवचनमेव । आप्तिः साक्षादर्थस्य प्राप्तिः, यथार्थोपलम्भः, तया वर्तते इत्याप्तः साक्षात्कृतधर्मा यथार्थदृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयोक्तोपदेष्टा, तेनाप्तेन वनेचरेण विदितगवयेनाप्रसिद्धगवयस्याज्ञातगवयस्य नागरिकस्य कीदृग्गवय इति पृच्छतो गवा गोसारूप्येण गवयस्य
स्वरूप 'चेष्टा' नाम का एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। उसी के खण्डन के लिए प्रसिद्धाभिन यस्य' यह वाक्य कहा गया है । 'प्रसिद्धोऽभिनयो यस्य' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस पुरुष को यह सङ्केत ज्ञात है कि 'हाथ की ये आकुञ्चनादि क्रियायें इन अभिप्रायों से की जाती हैं' वही पुरुष प्रकृत में प्रसिद्धाभिनय' शब्द से अभीष्ट है। उसी पुरुष को 'चेष्टा' से अर्थात् हाथ के विशेष प्रकार के अभिनय या क्रिया से बुलाने या बाहर लोटने की क्रिया का बोध होता है, दूसरे को नहीं। अतः चेष्टा से उत्पन्न होनेवाला वह ज्ञान भी अनुमान ही है।
'उपमान भी अनुमान ही है, वह कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है' यह उपपादन करते हुए भाष्यकार ने 'आप्तेनाप्रसिद्धस्य गवयस्य गवा गवयप्रतिपादनमुपमानमाप्तवचनमेव यह वाक्य लिखा है। 'आप्त्या वर्तते यः स आप्तः' इस व्युत्पत्ति से ही 'आप्त' शब्द बना है। साक्षात् 'अर्थ' की प्राप्ति को ही 'आप्ति' कहते हैं जो वस्तुतः यथार्थज्ञान रूप ही हैं। तदनुसार 'आप्त' शब्द से उस विशिष्ट पुरुष को समझना चाहिये, जिसने विषयों को उनमें विद्यमान सभी धर्मों के साथ प्रत्यक्ष के द्वारा देखा है ( उनको पूर्ण रूप में यथार्थ रूप में समझा है) और उस यथार्थज्ञान से ज्ञात वस्तु के ख्यापन ( लोगों को विदित ) करने की इच्छा के द्वारा ही जो उपदेश करते हैं। वनों में रहनेवाले इस प्रकार के किसी 'आप्त' पुरुष से--जिन्हें गवय का ज्ञान है-जब 'अप्रसिद्धगवय' अर्थात् गवय को न जाननेवाले नागरिक के द्वारा 'गवय किस तरह का होता है' यह प्रश्न किया जाता है, तब उस पुरुष के द्वारा 'गवा' अर्थात् गो सादृश्य के द्वारा गवय को समझाने के
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितत्
न्यायकन्दली
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५३१
प्रतिपादनादुपमानं यथा गौर्गवयस्तथेति वाक्यमाप्तवचनमेव, वक्तृप्रामाण्यादेव तथा प्रतीतेः । आप्तवचनं चानुमानम् । तस्मादुपमानमप्यनुमानाव्यतिरिक्तमित्यभिप्रायः 1
ये तावत् पूर्वमीमांसका वनेचरवचनमेवोपमानमाहु:, तेषामिदमनुमानमेव ।
येsपि शबरस्वामिशिष्या अनुभूतस्य गोपिण्डस्य वने गवयदर्शनात् स्मृत्यारूढायां गदि मदीया गौरनेन सदृशी' इति सारूप्यज्ञानमुपमानमाचक्षते, तदपि स्मरणमेव । सादृश्यं हि सामान्यवत् प्रत्येकं व्यक्तिसमाप्तं न संयोग. वदुभयत्र व्यासज्य वर्तते, गोपिण्डस्यादर्शनेऽपि वने गवयव्यक्तौ गौसदृशोऽयमिति प्रतीत्युत्पादात् । यथोक्तं मीमांसागुरुभिः
सामान्यवच्च सादृश्यमेकैकत्र समाप्यते । प्रतियोगिन्यदृष्टेऽपि यस्मात् तदुपलभ्यते ॥ इति ।
लिए यथा गौस्तथा गवय: ( अर्थात गो को जिस प्रकार देख रहे हो गवय भी उसी प्रकार का होता है ) प्रयुक्त यह वाक्य आप्तवचन' अर्थात् शब्द प्रमाण ही है, क्योंकि यहाँ भी वचनों के प्रामाण्य से ही अर्थ की प्रतीति होती है । आप्तवचन अनुमान से भिन्न कोई प्रमाण नहीं है। अतः उपमान भी अनुमान के ही अन्तर्गत है, यही उक्त भाष्य सन्दर्भ का अभिप्राय है । प्राचीन मीसांसकों ने वनवासी के उक्त आप्तपुरुष के वचन को ही उपमान प्रमाण माना है, उनका यह उपमान प्रमाण भी अनुमान में हो अन्तर्भूत हो जाता है ।
अनुयायी शिष्यगण यह कहते
शबरस्वामी ( मीमांसासूत्र के भाष्य कर्ता ) के हैं कि जिस पुरुष ने गाय के शरीर को देखा है, वन में जाने पर वही जब गवय को देखता है तब उसे पहिले देखे हुए गो का स्मरण हो आता है । तब स्मरण किये हुए उस गो में यह बुद्धि उत्पन्न होती है कि 'हमारी गाय इस गवय के समान है । यह साक्ष्य ज्ञान ही उपमान प्रमाण है । इस प्रकार का उपमान प्रमाण रूप ज्ञान अनुमान के अन्तर्गत न आने पर भी स्मरण रूप हो सकता है । क्योंकि जिस प्रकार सामान्य ( जाति ) की अधिकरणता उसके प्रत्येक अधिकरण में अलग अलग होती है, उसी प्रकार सादृश्य की अधिकरणता भी उसके अनुयोगी और प्रतियोगी दोनों में अलग अलग है । जिस प्रकार संयोग के अनुयोगी और प्रतियोगी दोनों में उसकी एक ही अधिकरणता रहती है उस प्रकार सादृश्य की एक ही अधिकरणता उसके अनुयोगी और प्रतियोगी दोनों में नहीं है, किन्तु अलग अलग है । अतः गवय को देखने के समय गो का प्रत्यक्ष न रहने पर भी वन में गवय व्यक्ति रूप सादृश्य का ज्ञान उस समय अप्रत्यक्ष गो मे भी हो सकता है ।
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जैसा कि मीमांसा के आचार्यों ने कहा है कि—चूँकि सादृश्य को उपलब्धि उसके ( एक आश्रय ) प्रतियोगी के न देखने पर भी होती है, अतः सामान्य को तरह उसकी आश्रयता प्रत्येक आश्रय में अलग अलग है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्य
ने उपमानान्तर्भाव
न्यायकन्दली
प्रत्येकं परिसमाप्तत्वेऽपि सादृश्यं यद्यपि गवयग्रहणाभावाद् गवयसदृश इति गवि पूर्व प्रतीतिर्नासीत्, तथापि स्वाश्रयसन्निकर्षमात्रभाविनी सादृश्यप्रतीतिरुचितेव। यथा प्रतियोग्यन्तराग्रहणात् तस्मादिदं दीर्घमिदं ह्रस्वमिति प्रतीत्यभावेऽपि स्वाश्रयप्रत्यासत्तिमात्रेण परिमाणस्य स्वरूपतो ग्रहणम् । कथमन्यथा देशान्तरगतः प्रतियोगिनं गृहीत्वा अस्मात् तद्दीर्घ ह्रस्वमिति व्यवस्यति ।
यदि गवि पुरा सादृश्यमिन्द्रियापातमात्रेण न गृहीतम् ? सम्प्रत्यपि गवये न गृह्यते, गवयदर्शनादेव गव्येव च स्मरणमित्युभयनियमो न स्यादविशेषात् । यावतां खुरलाङ्कलित्वादिसामान्यानां गवि ग्रहणम्, तावतामेव गवयेऽपि ग्रहणात् स्मरणनियम इति चेत् ? भूयोऽवयवसामान्यान्येवोभयवृत्तित्वात् सादृश्यम् । तानि चेत् प्रत्येकमाश्रयग्रहणेन गृह्यन्ते, गृहीतमेव सादृश्यम् । तस्माद्
यद्यपि सादृश्य अपने प्रत्येक आश्रय में स्वतन्त्र रूप से ही रहता है, फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि गवय को देखने से पहिले उसका ज्ञान न रहने के कारण (गो प्रत्यक्ष के समय ) गो में 'यह गवय के समान है' इस आकार की प्रतीति नहीं थी, तथापि केवल सादृश्य के आश्रयीभूत गवय मे चक्षु के संनिकर्ष से, (फलतः ज्ञानलक्षण सन्निकर्ष से सादृश्य का प्रत्यक्ष सम्भव न होने पर भी स्वसंयुक्तसमवाय सम्बन्ध से ही) मादृश्य का ग्रहण होना अनुचित नहीं है। जैसे कि दीर्घत्वादि के आश्रयीभूत दण्डादि आश्रय जहाँ प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत रहते हैं, एवं इन दीर्घत्वादि परिमाणों के दूसरे अवधि द्रव्यों का ज्ञान नहीं रहता है, ऐसे स्थलों में यह इससे दीर्घ है या 'यह इससे छोटा है, इत्यादि विशिष्ट प्रतीतियाँ यद्यपि नहीं होती हैं, फिर भी 'यह दीर्घ है' या 'यह ह्रस्व है' इत्यादि आकारों से स्वरूपतः केवल परिमाण का ग्रहण तो होता ही है, यदि ऐसी बात न हो तो दूसरे देश में जाकर वह उसके दूसरे अवधि रूप प्रतियोगी को जब वेख लेता है, उसके बाद 'यह उस दम्ब से बड़ा या छोटा है' इस प्रकार की जो प्रतीति होती है, वह कैसे होगी ?
(प्र०) गी में यदि गोत्व की तरह गवय का सादृश्य भी रहता तो गवय को देखने से पहिले भी गो में इन्द्रिय सम्बन्ध के होते ही गवय के सादृश्य की भी प्रतीति हो जाती, सो नहीं होती है ? (उ०) गवय के प्रत्यक्ष के समय भी तो गो में उस सादृश्य की प्रतीति नहीं होती है। अतः यह दोनों नियम नहीं किये जा सकते कि उक्त सादृश्य को प्रतीति (१) गवय-प्रत्यक्ष से ही उत्पन्न होती है और (२) गो में ही उत्पन्न होती है । क्योंकि इससे विपरीत कल्पना के भी लिए स्थिति समान है । (प्र०) खुर पूछ प्रभृति जितने धर्मों का पहिले गो में ग्रहण हो चुका है, उतने का ही जब गवय में भी ग्रहण होता है तभी गो में गवय सादृश्य का स्मरण होता है, ऐसे नियम की कल्पना करेंगे । ( उ०)
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली गवयग्रहणे सत्यसन्निहितगोपिण्डावलम्बिनी सादृश्यप्रतीतिः सदृशदर्शनाभिव्यक्तसंस्कारजन्या स्मृतिरेव, न प्रमाणान्तरम् । दृष्टा च निविकल्पकगृहीतस्यापि स्मृतिविषयता, अव्युत्पन्नेनैकपिण्डग्रहणे प्रथममविकल्पितस्य सामान्यस्य पिण्डान्तरग्रहणे प्रत्यभिज्ञानात् ।।
येऽपि श्रुतातिदेशवाक्यस्य गवयदर्शने गोसादृश्यप्रतीत्या 'अस्य गवयशब्दो नामधेयम्' इति संज्ञासंज्ञिसम्बन्धप्रतीतिमुपमानमिच्छन्ति, तेषामपि यथा गौर्गवयस्तथेति वाक्यं तज्जनिता च 'लोके यः खल गवय इति श्रयते स गोसदशः' इति बुद्धिरागम एव । यदपि गोसदृशस्य गवांशब्दवाच्यत्वज्ञानं तदप्यनुमानम्, तत्र तच्छब्दप्रयोगात् । यः खलु शब्दो यत्राभियुक्तैरविगानेन प्रयुज्यते स तस्य वाचकः। प्रयुज्यते चारण्यकेनाविगानेन गोसदृशे गवयशब्द इति । तस्मात् गो और गवय दोनों में जो अनेक अवयवों की समानतायें हैं, वे ही दोनों में रहने के कारण सादृश्य कहलाती हैं। ये समानतायें यदि गो और गवय इन दोनों में से एक मात्र के ग्रहण से भी गृहीत होती हैं, तो फिर सादृश्य भी उसी प्रकार गृहीत हो हो गया। तस्मात् प्रमाता पुरुष से दूर में रहने वाले गोपिण्ड में जो गवय के सादृश्य की प्रतीति होती है, वह स्मरण रूप ही है। केवल इतनी सी बात है कि वह स्मरण उस संस्कार से उत्पन्न होता है, जिसका उद्बोधन गोसदृश गवय के दर्शन से होता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत विषयों का भी स्मरण उपलब्ध होता है. जैसे कि अव्युत्पन्न पुरुष के द्वारा एक पिण्ड के ग्रहण के समय सविकल्पकज्ञान के द्वारा अगृहीत सामान्य का भी उसी जाति के दूसरे पिण्ड के ग्रहण के समय प्रत्यभिज्ञा होती है ।
नैयायिकों का कहना है कि जो प्रमाता पहिले किसी आप्त पुरुष से 'गोसदृशो गवयः' इस अतिदेश वाक्य को सुन लेता है, बाद में वही जब गवय को देखता है तो उसे यह प्रतीति होती है कि 'इसी पिण्ड का नाम गवय है। यह प्रतीति चूकि गवय शब्द रूप सज्ञा की गवय पिण्ड रूप संज्ञी में (वाच्यवाचकरूप) सम्बन्ध विषयक है। ('अयं गवयपदवाच्यः' इस आकार की प्रतीति को संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध की प्रतीति कहते हैं ), अतः यही उपमान है । किन्तु नैयायिकों का भी यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह भी वस्तुतः शब्द प्रमाण ही है, क्योंकि 'लोक में यह जो 'गवय' का नाम सुनते हैं वह गोसदृश वस्तु का हो बोधक है' यह बुद्धि भी तो 'यथा गौस्तथा गवयः' इस वाक्य से ही उत्पन्न होती है। एवं इससे गोसदृश पिण्ड में गवय शब्द के अभिधेय होने का जो ज्ञान होता है, वह ( उपमान न होकर ) शब्द ही है, क्योंकि गोसदृश पिण्ड में ही गवय शब्द का प्रयोग होता है, (अतः नैयायिक गण जिसे उपमान कहते हैं, वह भी शब्द जनित होने के कारण अनुमान ही है), एवं गोसदृश (गवय में) जो गवय शब्द की वाच्यता का ज्ञान होता है वह भी अनुमान ही है, क्योंकि ( यहाँ अनुमान का यह आकार है कि) आप्तगण एक स्वर से बिना विरोध के जिस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में करते हैं वह शब्द उस अर्थ का वाचक होता है, सभी आरण्यक आप्तजन गवय शब्द का प्रयोग उसी पिण्ड में करते हैं जो गो के समान है। तस्मात् गो-सदृश उस पिण्ड का नाम अवश्य ही 'गवय' है । एवं
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५३४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमानेऽर्थापत्त्यन्तर्भाव
प्रशस्तपादभाष्यम् दर्शनार्थादर्थापत्तिर्विरोध्येव, श्रवणादनुमितानुमानम् ।
प्रमाणों के द्वारा ज्ञात अर्थ से थर्थों की जो अवगति ( दृष्टार्थापत्ति ) होती है वह विरोधि ( व्यतिरेकी ) अनुमान ही है। वाक्य के श्रवण से जो अर्थावगति (श्रुतार्थापत्ति) होती है, वह भी अनुमितानुमान ही है।
न्यायकन्दली सोऽपि गवयशब्दवाच्य एवेति सामान्येन ज्ञानमनुमानमेव । प्रत्यक्षे गवये सादृश्यज्ञानं त्रैलोक्यव्यावृत्तपिण्डबुद्धिरपि प्रत्यक्षफलम्। यच्च तद्गतत्वेन संज्ञासंज्ञिसम्बन्धानुसन्धानम्, तदपि सादृश्यग्रहणाभिव्यक्तपूर्वोपजातसामान्य. प्रवृत्तगोसदृशगवयशब्दवाच्यत्वज्ञानजनितसंस्कारजत्वादेकत्रोपजातसामान्यविषयसङ्केतज्ञानसंस्कारकृततज्जातीयपिण्डान्तरविषयतच्छब्दवाच्यत्वानुसन्धानवत् स्मरणमेव । एवं हि तदायमनुसन्धत्ते 'अस्यैव तन्मया पूर्वमेव तच्छब्दवाच्यत्वमवगतम्' इत्युपमानाभावः।
दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यर्थान्तरकल्पनापत्तिः । श्रुतग्रहणस्य पृथगभिधानसाफल्यमुपपादयता परेणार्थापत्तिरुभयथोपपादिता दृष्टापत्तिः, श्रुतार्थापत्तिश्च ।
गवय में जो गोसादृश्य का ज्ञान अर्थात् 'यह गवय रूप पिण्ड संसार के और सभी पिण्डों से भिन्न ( स्वतन्त्र जीव ) है' इस प्रकार का ज्ञान भी ( उपमान से उत्पन्न न होकर ) प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ही उत्पन्न होता है । एवं 'गवय रूप यही अर्थ गवय शब्द रूप संज्ञा का संज्ञी ( वाच्य ) है इस प्रकार संज्ञासंज्ञि सम्बन्ध का जो अनुसन्धान होता है, वह भी स्मरण ही है ( उपमान नहीं ), क्योंकि 'गोसदृशो गवयः' इस वाक्य के द्वारा पहिले उत्पन्न ग्रहणरूप संस्कार से ही इसकी उत्पत्ति होती है। यह संस्कार उक्त सादृश्यज्ञान से ही उबुद्ध होता है। जैसे कि किसी एक ही घट व्यक्ति में घट पद का सङ्केत सामान्य रूप से गृहीत होने पर भी उससे उत्पन्न संस्कार के द्वारा दूसरे घट व्यक्ति में भी घट शब्द की वाच्यता का इस आकार का अनुसन्धान होता है कि 'इस व्यक्ति में जिस घटवाच्यता को मैं समझ रहा हूँ, उसको मैं पहिले जान चुका हूँ। इन सभी उपपत्तियों से यह सिद्ध होता है कि उपमान नाम का कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है ।
__शब्द या और किसी प्रमाण के द्वारा निश्चित अर्थ की उपपत्ति जिस दूसरे अर्थ की कल्पना के विना न हो सके, उस दूसरे अर्थ को ही 'अर्थापत्ति' कहते हैं । इस लक्षण में ( 'शब्द प्रमाण के द्वारा इस अर्थ के बोधक) 'श्रुत' पद का स्वतन्त्र रूप से साफल्य का उपपादन करते हुए मेरे प्रतिपक्षियों ( मीमांसकों) ने (१) दृष्टार्थापत्ति और (२) श्रुतार्थापत्ति इसके ये दो भेद किये हैं ।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५३५ न्यायकन्दली यत्रार्थोऽन्यथानुपपद्यमानोऽर्थान्तरं गमयति, सा दृष्टार्थापत्तिः। यथा जीवति चैत्रो गृहे नास्तीत्यत्राभावप्रमाणेन गृहे चैत्रस्याभावः प्रतीतो जीवतीतिश्रुतेश्च तत्र सम्भवोऽपि प्रतीयते, जीवतो गृहावस्थानोपलम्भात् । न चैकस्य युगपदेकत्र भावाभावसम्भवः, तयोः सहावस्थानविरोधात् । तदयमभाव: प्रतीयमानो जीवतीति श्रवणानोपपद्यते, यद्ययं बहिर्न भवतीति । अनुपपद्यमानश्च यस्मिन् सति उपपद्यते तत्कल्पयति । जीवतो गहाभावोऽन्यथा नोपपद्यते । यद्ययं बहिर्न भवतीति जीवतीत्यनेन सह विरोध एव तस्यानुपपत्तिः । सा चैत्रस्य बहिर्भावे प्रतीते निवर्तते। चैत्रो जीवति गृहे च नास्ति बहिःसद्भाभावादिति सावकाशनिरवकाशयोः प्रमाणयोविरोधे सति निरवकाशस्यानुपपत्तिमुखेन सावकाशस्य विषयान्तरोपपादनात् तयोरविरोधसाधनमापत्तिः । या पुनर्देशादिनियतस्य सम्बन्धिनो दर्शनात सम्बन्धस्मरणद्वारेण सम्बन्ध्यन्तरप्रतीतिः सानुमानमित्यनयोर्भेदो ज्ञानोदयप्रकारभेदात ।
जहाँ प्रकृत अर्थ अनुपपन्न होकर दूसरे अर्थ का ज्ञापक होता है वहाँ 'दृष्टार्थापत्ति' समझना चाहिए। जैसे 'जीवति चैत्रो गृहे नास्ति' (चैत्र जीते हैं किन्तु घर में नहीं हैं) इस स्थल में जीवित रहने के कारण चैत्र के घर में रहने की सम्भावना को भी प्रतीति होती है। क्योंकि जीवित व्यक्ति घर में भी देखे जाते हैं। एवं अनुपलब्धि रूप अभाव प्रमाण से घर में चैत्र का अभाव भी निश्चित है। किन्तु एक ही समय चैत्र का घर में रहना और न रहना दोनों सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु में एक ही समय सत्ता और असत्ता दोनों का रहना परस्पर विरोध के कारण सम्भव नहीं है । अतः अभाव प्रमाण के द्वारा चैत्र के घर में न रहने की जो प्रतीति होती है, वह तब तक उपपन्न नहीं हो सकती, जब तक कि चैत्र का घर से बाहर रहना निश्चित न हो । जिसकी अनुपपत्ति होती है, वह ऐसी ही किसी वस्तु की कल्पना करता है, जिससे कि उसकी उपपत्ति हो सके । जीते हुए का घर में न रहना अन्यथानुपपन्न है, अर्थात् यदि वह बाहर नहीं रहता है तो ठीक नहीं बैठता। 'जीवति' के माथ 'गृहे नास्ति' का यह 'विरोध' ही उसकी 'अनुपपत्ति' है । यह अनुपपत्ति तब हटती है जब कि चैत्र के इस प्रकार से बाहर रहने की प्रतीति होती है कि 'चैत्र घर में नहीं रहने पर भी बाहर हैं, क्योंकि वह जीवित है। ( इससे अर्थापत्ति का यह निष्कृष्ट लक्षण हुआ कि ) एक सावकाश प्रमाण के साथ दूसरे निरवकाश प्रमाण का विरोध उपस्थित होने पर निरवकाश प्रमाण की अनुपपत्ति के प्रदर्शन के द्वारा सावकाश प्रमाण को दूसरे विषय का ज्ञापक मानकर उक्त दोनों प्रमाणों में अविरोध का सम्पादन ही 'अर्थापत्ति है। एक देश या एक काल में नियमित रूप से रहनेवाले दो सम्बन्धियों में से एक को देखने से उनके (नियम या व्याप्ति रूप ) सम्बन्ध की स्मृति के द्वारा जो दूसरे सम्बन्धी की प्रतीति होती है, वही अनुमान (या अनुमिति) है। इस प्रकार कि अनुमान और अर्थापत्ति इन दोनों प्रमाणों से ज्ञान की उत्पत्ति की
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष
अर्थापत्यन्तर्भाव
न्यायकन्दली यथोक्तम्
अन्वयाधीनजन्मत्वमनुमाने व्यवस्थितम् ।
अर्थापत्तिरियं त्वन्या व्यतिरेकप्रतिनी ॥ इति । श्रुतार्थापतिरपि यत्रानुपपद्यमानः शब्दः शब्दान्तरं कल्पयति, यथा 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इति वाक्याद् रात्रौ भुङ्क्त इति वाक्यैकदेशकल्पना।
तत्र दृष्टार्थापत्ति तावदनुमानेऽन्तर्भावयति-दर्शनार्थादर्थापत्तिविरोध्ये. वेति । दृश्यत इति दर्शनम्, दर्शनं च तदर्थश्चेति दर्शनार्थः, पञ्चभिः प्रमाणैरवगतोऽर्थः । तस्माद् दर्शनार्थादर्थान्तरस्यापत्तिरर्थान्तरस्यावगतिविरोध्येव, विरोध्यनुमानमेव । यस्य यथा नियमस्तस्य तथैव लिङ्गत्वम्, इह तु प्रमाणान्तरविरुद्ध एवार्थोऽर्थान्तराविनाभूत इति विरोध्येव लिङ्गम् ।।
अयमभिप्राय:-गहाभावो यद्यनुपपत्तिमात्रेण बहिर्भावं कल्पयति, नियमहेतोरभावाद् अर्थान्तरमपि कल्पयेत् । स्वोपपत्तये गृहाभावोऽर्थान्तरं रीतियां भिन्न हैं, अतः ये दोनों दो भिन्न प्रमाण हैं। अर्थापत्ति के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति की रीति दिखलायी जा चुकी है ) जैसा कहा गया है कि
यह निश्चित है कि अन्वय (व्याप्ति ) के द्वारा अनुमान प्रमाण अपने फल रूप ज्ञान का उत्पादन करता है, अतः व्यतिरेक (व्याप्ति ) के द्वारा अपने ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला अर्थापत्ति प्रमाण अनुमान से भिन्न है।
जहां शब्द अनुपपन्न होकर दूसरे शब्द की कल्पना करता है, वहाँ 'श्रुतार्थापत्ति' समझना चाहिए । जैसे कि 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' ( यह मोटा तो है, किन्तु दिन में भोजन नहीं करता है) इस वाक्य के द्वारा 'रात्रौ भुङ्क्ते' ( तो फिर रात में खाता है) इस वाक्यखण्ड का कल्पक होता है।
__'दर्शनार्थापतिविरोध्येव' इस वाक्य के द्वारा कथित 'दृष्टार्थापत्ति' अनुमान में अन्तर्भाव दिखलाते हैं । इस भाष्य में प्रयुक्त 'दर्शनार्थ' शब्द की अभीष्ट व्युत्पत्ति इस प्रकार है, दृश्यत इति दर्शनम्, दर्शनञ्च तदर्थश्च दर्शनार्थः' तदनुसार प्रत्यक्ष , अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ( अभाव ) इन पाँच प्रमाणों में से किसी के द्वारा निश्चित अर्थ ही उक्त 'दर्शनार्थ' शब्द से अभिप्रेत है। इस 'दर्शनार्थ' अर्थात् कथित पाँच प्रमाणों में से किसी के द्वारा अवगत अर्थ से जो दूसरे अर्थ की 'आपत्ति' अवगति होती है, वह 'विरोधी' ही अर्थात् विरोधी अनुमान ही है । हेतु में साध्य का जिस प्रकार का नियम रहेगा, उसी प्रकार से हेतु में साध्य की ज्ञापकता भी (हेतुता) होगी । यहाँ ( अर्थापत्ति स्थल में ) दूसरे प्रमाण से विरुद्ध अर्थ ही दूसरे अर्थ की व्याप्ति से युक्त है । अतः यहाँ विरोधी ही हेतु है ।
____ कहने का अभिप्राय यह है कि चैत्र का घर में न रहना (गृहाभाव) यदि केवल अपनी अनुपपत्ति से ही उसके बहिर्भाव (बाहर रहने) की कल्पना करे तो फिर वह तुल्ययुक्ति से दूसरे की भी कल्पना कर सकता है, क्योंकि ऐसे नियम का कोई कारण नहीं है कि वह चैत्र के बहिर्भाव की ही कल्पना करे और किसी की नहीं। (प्र.)
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
५३७
न्यायकन्दली
कल्पयति, अन्यस्मिन् कल्पिते च न तस्योपपत्तिरिति चेत् ? बहिर्भावे सति तस्योपपत्तिरिति केन तत् कथितम् ? वयं तु ब्रूमो बहिर्भावेऽपि सति गृहाभावस्यानुपपत्तिरेव । दृष्टमेतद् अव्यापकं द्रव्यमेकत्रास्ति तदन्यत्र नास्तीति । यथा प्राची. प्रतीच्योरेकत्रोपलभ्यमानः सविताऽन्यत्र न भवतीति, इदं दर्शनबलेनैवावधार्यते जीवतो गृहाभावो बहिर्भावे सत्युपपद्यते नान्यथेति । नन्वेवमन्वयावगतिपूविकैव तथोपपत्त्यतगतिः ? तथा सति चापत्तिरनुमानमेव, अन्वयाधीनजन्मत्वात् । यत्तु विरोधे सति प्रवर्तत इति तद् वैधर्म्यमात्रम् । तथा चात्र प्रयोगः-देवदत्तो बहिरस्ति, जीवनसम्बन्धित्वे सति गृहेऽनुपलभ्यमानत्वात्, अहमिवेति ।
श्रुतार्थापत्तिमन्तर्भावयति-श्रवणादनुमितानुमानमिति । पोनो दिवा न भुङ्क्ते, इति वाक्यश्रवणाद् रात्रिभोजनकल्पना 'अनुमितानुमानम्'। लिङ्गभूतेन वाक्येनानुमितात् पीनत्वात् तत्कारणस्य रात्रिभोजनस्यानुमानात् ।
चैत्र का गृह में न रहना (गृहाभाव) अपनी उपपत्ति के लिए ही दूसरे अर्थ की कल्पना करता है, यह काम चैत्र के बहिर्भाव रूप दूसरे अर्थ को कल्पना से ही सम्भव है और किसी दूसरे अर्थ की कल्पना से नहीं। अतः वह चैत्र के बहिर्भाव की ही कल्पना करता है, किसी और अर्थ की नहीं । ( उ.) यह आपसे किसने कहा कि चैत्र के बाहर रहने की कल्पना कर लेने से ही चैत्र के घर में न रहने की उपपत्ति हो जाएगी? यदि हम यह कहें कि जीवित चैत्र के बाहर रहने की कल्पना कर भी ली जाय, तो भी चैत्र का घर में न रहना अनुपपन्न ही रहेगा। यदि इसका यह उत्तर दें कि (प्र०) (व्यापक आकाशादि को छोड़कर ) जितने भी अव्यापक (मूर्त) द्रव्य हैं, उनको देखते हैं कि एक समय यदि एक आश्रय में रहते हैं तो दूसरे में नहीं। जैसे कि पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा इन दोनों में से किसी एक में जिस समय सूर्य की उपलब्धि होती है, उस समय वे दूसरी दिशा में नहीं रहते। इसी से यह समझते हैं कि जीवित चैत्र का घर में न रहना, चैत्र के बाहर रहने से ही उपपन्न हो सकता है। ( उ० ) यदि ऐसी बात है तो फिर चैत्र के बहिर्भाव में उसके गृह में न रहने की अन्वयव्याप्ति से ही अर्थापत्ति होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि चूंकि अापत्ति की उत्पत्ति अन्वयव्याप्ति से होती है, अतः वह अनुमान ही है। यह ( अर्थापत्ति रूप अनुमान) जो विरोध के कारण अपने कार्य में प्रवृत्त होता है, इससे और अनुमानों से इसकी विचित्रता हो केवल व्यक्त होती है, ( इससे इसका अनुमान न होना निश्चित नहीं होता )। प्रकृत में अनुमान का यह प्रयोग इष्ट है कि जैसे कि 'जीवन सम्बन्ध से युक्त मैं घर में न रहने पर बाहर अवश्य रहता हूँ' उसी प्रकार जीवन के सम्बन्ध से युक्त देवदत्त घर में अनुपलब्ध होने के कारण अवश्य ही बाहर हैं।
'श्रवणादनुमितानुमानम्' इस वाक्य के द्वारा 'श्रुतार्थापत्ति' को अनुमान में अन्तर्भूत करते हैं। 'श्रवणात्' अर्थात् 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य को सुनने से जो
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श्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमानेऽर्थापत्त्यन्तर्भाव
न्यायकन्दली
इदमत्राकूतम् - अर्थाप्रतिपादकत्वं प्रमाणस्यानुपपत्तिः । 'दिवा न भुङ्क्ते' इति वाक्यं च स्वार्थं बोधयत्येव, का तस्यानुपपन्नता ? पीनत्वं भोजनकार्यं दिवाsभोजने सति नोपपद्यते, कारणाभावात् । तदनुपपत्तौ च वाक्यमप्यनुपपन्नम्, अनन्वितार्थत्वादिति चेत् ? तर्ह्यर्थानुपपत्तिर्वाक्यस्यानुपपन्नत्वमर्थोपपत्तिश्चोपपन्नत्वम्, न त्वस्य स्वरूपेणोपपत्त्यनुपपत्ती । दिवा न भुञ्जानस्य पीनत्वलक्षणश्चार्थो भोजनकार्यत्वाद् रात्रिभोजनरूपेणार्थेनोपपद्यते, न रात्रिभोजनवाक्येनेत्यर्थस्यानुपपत्त्या तस्य तद्वाक्यस्य चोपपत्तिहेतुरर्थ एवार्थनोयो न वाक्यम्, अनुपपादकत्वात् । उपपद्यमानश्चार्थोऽर्थेनैवावगम्यते, दिवा भोजनरहितस्य पीनत्वस्य रात्रिभोजनकार्यत्वाव्यभिचारादिति नास्त्यर्थापत्तिः शब्दगोचरा ।
देवदत्त के रात्रिभोजन की कल्पना होती है वह भी 'अनुमितानुमान' ही है । अर्थात् 'पीनः ' इस वाक्य रूप लिङ्ग ( हेतु ) से अनुमित पीनत्व ( मोटाई ) के द्वारा पीनत्व के कारणीभूत रात्रि भोजन का वहाँ भी अनुमान ही होता है ।
गूढ़ अभिप्राय यह है कि अपने अर्थ को यथार्थ रूप से की अनुपपत्ति है । 'दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य का अर्थ है का ज्ञापन तो वह अवश्य ही करता है, फिर उसमें किस
(प्र०) भोजन से उत्पन्न होनेवाला पीनत्वरूप कार्य हो दिन को भोजन न करने से अनुपपन्न होता है. क्योंकि पीनत्व का कारण वही नहीं है । पीनत्व रूप अर्थ की इस अनुपपत्ति से ही 'पीनः' इत्यादि वाक्य अनुपपन्न होता है, क्योंकि ( योग्यता न रहने के कारण ) उसका अन्वय नहीं हो पाता है । ( उ० ) तो फिर यह कहिए कि अर्थ की अनुपपत्ति ही वाक्य की अनुपपत्ति है और अर्थ की उपपत्ति ही उसकी उपपत्ति है, वाक्य स्वतन्त्र रूप से
करनेवाले ( देवदत्त ) में रहनेवालो
उपपन्न या अनुपपन्न नहीं होता । दिन को भोजन न पीनता भी भोजन से ही उत्पन्न हो सकती हैं, अतः प्रकृत में रात्रिभोजन रूप अर्थ से ही उसकी उपपत्ति होती है, 'रात्री भुङ्क्ते' इस रात्रिभोजन वाक्य से नहीं । चूंकि पीनत्व रूप अर्थ की अनुपपत्ति से ही रात्रि भोजन रूप अर्थ और उसका बोधक 'रात्री- भुङ्क्ते' यह वाक्य दोनों की ही उपपत्ति होती हैं, ' रात्रौ भुङ्क्ते इस वाक्य से इसकी उपपत्ति नहीं होती है, अतः इनके लिए ‘रात्रिभोजन' रूप अर्थ की कल्पना ही आवश्यक है, 'रात्रौ भुङ्क्ते' इस वाक्य की कल्पना आवश्यक नहीं है । उपपन्न होनेवाला अर्थ' ( अपने व्याप्त ) दूसरे अर्थ से ही उपपन्न होता है; ( इस नियम के अनुसार ) चूंकि दिन में भोजन न करनेवाले देवदत्त की पीनता की व्याप्ति रात्रि भोजन रूप कार्य के साथ है, अतः दिन को न खानेवाले की पीनता रूप अर्थ की उपपत्ति रात्रि भोजन रूप अर्थ से ही होती है, तस्मात् कोई भी अर्थापत्ति 'शब्द' विषयक नहीं है, ( अर्थात् श्रुतार्थापति नाम की कोई वस्तु नहीं है ) ।
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न समझा पाना ही प्रमाणों दिन में अभोजन, इस अर्थ प्रकार की अनुपपत्ति है ?
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মম্ব ] भाषानुवादसहितम्
१३४ न्यायकन्दली अथ मतम्-अर्थोऽर्थेनैवोपपद्यत इति तदुपपत्त्यैव तच्छब्दस्याप्युपपन्नता, किन्तु शाब्दोऽर्थः शाब्देनैवार्थेनोपपद्यते, प्रमाणान्तरावगतस्य तेन सहान्वयाभावात् । नहि पचतीत्युक्ते क्रियायाः कर्मणा विनानुपपत्तिः पच्यमानस्य कलायस्य प्रत्यक्षेणोपशाम्यति, तस्मिन् सत्यपि कि पचतीत्याकाङ्क्षाया अनिवृत्तेः । शब्दोपनीते तु कर्मणि निविचिकित्सः प्रत्ययो भवति 'शाकं पचति कलायं पचति' इति । 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यपि वाक्यार्थानुपपत्तिरियम, तस्मादस्यापि शाब्देनैवार्थेनोपशान्तिर्भविष्यतीति प्रथममर्थापत्या रात्रिभोजनप्रतिपादकं वाक्यमेवार्थनीयम्, अन्यथा दिवावाक्यपदार्थैः सह रात्रिभोजनस्यान्वयाभावात् । वाक्यविषये चार्थापत्तिपर्यवसाने रात्रिभोजनमर्थो नापत्तिविषयतामेति, तस्य वाक्यादेवावगमात् । न चैतद्वाच्यम्, दिवा
__यदि यह कहें कि (प्र०) यह तो ठीक है कि एक अर्थ की उपपत्ति उससे नियत दूसरे अर्थ से ही होती है, एवं अर्थ की उपपत्ति से ही तद्बोधक शब्द की भी उपपत्ति होती है। किन्तु इतना अन्तर है कि शब्द के द्वारा उपस्थित अर्थ को अनुपपन्नता शब्द के द्वारा उपस्थित दूसरे अर्थ से ही निवृत्त की जा सकती है, क्योंकि शब्द से भिन्न अन्य प्रमाणों के द्वार। उपस्थित अर्थ का अन्वय शब्द प्रमाण के द्वारा उपस्थित अर्थ के साथ नहीं होता है। जैसे कि केवल पचति' पद के उच्चारण के बाद जो कर्म के बिना पाक क्रिया की अनुगपत्ति उपस्थित होती है, उसकी निवृत्ति प्रत्यक्ष के द्वारा पकते हुए मटर ( कलाय ) को देखकर भी नहीं होती। उसके प्रत्यक्ष के बाद भी कि पचति' यह जिज्ञासा बनी ही रहती है। 'कलायम्' 'शाकम्' इत्यादि पदों के प्रयोग के बाद जब इन शब्दों से शाक या कलाय रूप कर्म उपस्थित हो जाता है, तभी 'कलाय पक रहा है' या 'शाक पक रहा है' इत्यादि आकार के निश्चयात्मक बोध होते हैं। 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' यहाँ वाक्य के द्वारा उपस्थित अर्थ की ही अनुपपत्ति है, अतः 'रात्रो भुङ्क्ते' इस वाक्य के द्वारा उपस्थित किये हुए रात्रिभोजन रूप अर्थ से ही उसकी निवृत्ति हो सकती है, (दूसरे प्रमाणों के द्वारा उपस्थित किये हुए रात्रिभोजन रूव अर्थ से नहीं)। अतः प्रकृत में अापत्ति से रात्रिभोजन के बोधक 'रात्रौ भुङ्क्ते' इस वाक्य की ही कल्पना करनी होगी। ऐसा न करने पर ( अर्थापत्ति के द्वारा सीधे रात्रि भोजन रूप अर्थ की ही कल्पना करने पर ) पोनो दिवा न भुङ्क्ते' इस ( दिवा ) वाक्य के द्वारा उपस्थित पदार्थों के साथ (दूसरे प्रमाण के द्वारा उपस्थित ) रात्रिभोजन रूप अर्थ का अन्वय नहीं हो सकेगा । (उ.) जब प्रकृत श्रतार्थापत्ति की विषयता केवल वाक्य के द्वारा उपस्थित अर्थ में नियत हो जाती है, तो फिर रात्रिभोजन रूप अर्थ अर्थापत्ति प्रमाण से ग्राह्य ही नहीं रह जाता, क्योंकि ( अर्थापत्ति प्रमाग के द्वारा 'रात्रौ भुङ्क्ते' इस ) वाक्य रूप शब्द प्रमाण से ही उसकी अवगति हो जाएगी। यह कहना भी उचित नहीं है कि (प्र०) 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' यह वाक्य और इस वाक्य के अर्थ दोनों में से किसी का भी 'रात्री भुङ्क्ते' इस वाक्य के साथ कोई नियत सम्बन्ध नहीं है, अतः इनमें से किसी के द्वारा
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४०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽपित्त्यन्तर्भाव
न्यायकन्दली पाक्यस्य तदर्थस्य वा रात्रिवाक्येन सह प्रत्यासत्यभावान्न ताभ्यां तदुपस्थापनमिति, अर्थप्रत्यासत्तिद्वारेण वाक्यस्यापि प्रत्यासन्नत्वात् । न चार्थापत्तावनमानवत् प्रत्यासत्तिरपेक्षते, तस्या अनुपपत्तिमात्रेणैव प्रवृत्तः । तदुक्तम्
न चार्थनार्थ एवायं द्वितीयो गम्यते पुनः । सविकल्पकविज्ञानग्राह्यत्वावृत्तिरोहितः ।। शब्दान्तराण्यबुद्ध्वाऽसामर्थ्यमेवावगच्छति । तेनैषां प्रथमं तावन्नियतं वाक्यगोचराः । वाक्यमेव तु वाक्यार्थं गतत्वाद् गमयिष्यति ।। इति ।
'रात्री भुङ्क्ते इस वाक्य की उपस्थिति नहीं हो सकती। ( उ०) चूंकि 'पीनी दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य के अर्थ के साथ 'रात्री भुङ्क्ते' इस वाक्य के अर्थ का नियत सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध के द्वारा ही 'पीनो दिवा न भुङ्ते' इस वाक्य के साथ भी 'रात्रौ भुङ्क्ते, इस वाक्य का नियत सम्बन्ध अवश्य है। (दूसरी बात है कि ) अर्थापति को अपने प्रमेय में प्रवृत्त होने के लिए अनुमान की तरह नियत सम्बन्ध की अपेक्षा भी नहीं होती है उसका काम अर्थानुपपत्ति से ही चल जाता है । जैसा कहा गया है कि
(१) 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङक्ते' इस वाक्य से भोजन न करने वाले देवदत्त की पीनता का शाब्दबोध रूप सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है ( इस सविकल्पक ज्ञान में विषयीभूत दिन में न खाने वाले देवदत्त की मोटाई रूप प्रथम ) अर्थ के द्वारा (रात्रि भोजन रूप द्वितीय अर्थ ज्ञात नहीं होता है क्योंकि वह (रात्रि भोजन रूप द्वितीय अर्थ) 'वृत्तिरोहित' नहीं है, अर्थात् किसी शब्द से (अभिधादि) 'वृत्ति के द्वारा उपस्थित नहीं है।
(२) अतः 'पीनो दिवा न भुङक्त' इस वाक्य को सुनने के बाद 'रात्रिभोजन' रूप दूसरे अर्थ को समझानेवाले 'रात्री भुक्ते' इत्यादि किसी दूसरे शब्द को न सुनकर (समझनेवाला पुरुष) इतना ही समझता है कि 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य में रात्रि भोजन रूप अर्थ को समझाने का सामर्थ्य नहीं है ।
(३) अतः (श्रतार्थापत्ति स्थल में) अर्थापति के द्वारा पहिले रात्री भुङ्क्ते' इत्यादि वाक्यों का ही बोध होता है। इसके बाद अर्थापत्ति के द्वारा ज्ञात 'रात्रो भुङ्क्ते' यह वाक्य ही रात्रि भोजन रूप अर्थ विषयक बोध को उत्पन्न करेगा।
१. उपक्रम और उपसंहार को हष्टि से इन श्लोकों का यथाश्रुत पाठ ठीक नहीं अँचता । इन श्लोकों का निम्नलिखित स्वरूप का होना उचित जान पड़ता है तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
न चार्थेनार्थ एवायं द्वितीयो गम्यते पुनः । सविकल्पकविज्ञानग्राोणावृत्तिरोहितः ।। शब्दान्तराण्यबुद्ध्वाऽसामर्थ्य मेवावगच्छति । तेनैषा प्रथमं तावन्नियतं वाक्यगोचरा । वाक्यमेव तु वाक्यार्थं गतत्वाद् गमयिष्यति ।।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहित
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-पदानि वाक्यार्थप्रतिपादनाय प्रयुज्यन्ते। तानि प्रत्येक पदार्थसंस्पर्शात्मकं वाक्यार्थं प्रतिपादयितुमशक्नुवन्त्यपर्यवसितव्यापारत्वाद् एकार्थकारीणि पदान्तराण्यपेक्षन्ते । यत्र पुनरमीभिर्वाक्यार्थः प्रतिपादितः, तत्रैषां शब्दान्तरापेक्षा नास्त्येव, स्वव्यापारस्य पुतत्वात् । यस्तैरुपपादितोऽर्थः स नोपपद्यत इति चेत् ? नोपपादि, नार्थस्याविरोधोपपादनमपि शब्दस्य व्यापारः, किन्तु प्रतिपादनम् । तच्चानेनासन्निहितेऽपि रात्रिवाक्ये कृतमेव । प्रतीयते हि दिवाऽभोजनवाक्यात् पीनस्याभोजनम्, निःसन्दिग्धाऽभ्रान्ता चात्रेयं प्रतीतिः, अन्यथार्थापत्तेरपि प्रवृत्त्यभावात्। निश्चितस्यैव हि पीनस्य दिवाऽभोजनप्रमाणसिद्धस्यानुपपत्तिर्न युक्तेति तदुपपादनमर्थ्यते, सन्दिग्धे विपरीतत्वेन चावधारिते तस्मिन् कस्योपपत्तयेऽर्थान्तरकल्पना स्यात ? न चार्थयोः पर.
इस प्रसङ्ग में हम लोगों का कहना है कि वाक्य के अर्थ को समझाने के लिए हो पदों का प्रयोग किया जाता है। वाक्य में प्रयुक्त होनेवाले पदो के अर्थ ही परस्पर उपयुक्त सम्बन्ध से युक्त होकर 'वाक्यार्थ' कहलाते हैं। इस विशिष्ट वाक्यार्थ को कोई एक पद नहीं समझा सकता, क्योंकि पदों में केवल अपने अपने ही अर्थ को समझाने का सामर्थ्य होता है। अतः एक पद अपने अर्थ के साथ और अर्थों के सम्बन्ध के लिए दूसरे पदों की अपेक्षा रखता है। जहाँ जितने ही पदों से वाक्यार्थ विषयक बोध का सम्पादन हो जाता है, वहाँ उनसे भिन्न पदों की अपेक्षा नहीं होती है। इन पदों के द्वारा उपस्थित अर्थ में यदि अनुपपन्नता या विरोध है तो इसको छुड़ाने का दायित्व पदों पर नहीं है, क्योंकि अपने अपने अर्थों का प्रतिपादन करना ही पदों का काम है, उनके विरोध को मिटाना नहीं। 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' यह वाक्य 'रात्रौ भुङ्क्ते' इस वाक्य का सांनिध्य न पाने पर भी दिन को भोजन न करनेवाले में पीनत्व रूप अपने अर्थ का बोध रूप काम तो कर ही दिया है, क्योंकि 'दिवा न भुङ्क्ते' इस वाक्य से दिन में भोजन न करनेवाले में पीनत्व की अभ्रान्त एवं निःसन्दिग्ध प्रतीति हो जाती है। यदि "दिवा' वाक्य से दिन को भोजन न करनेवाले में पीनत्व को अभ्रान्त और निःशङ्क प्रतीति न हो तो फिर आगे उससे अर्थापत्ति की प्रवृत्ति भी क्योंकर होगी ? दिन में न खाने पर भी देवदत्त में निश्चित पीनत्व की उपपत्ति ठीक नहीं बैठती है, उसकी उपपत्ति के लिए ही उसको प्रमाण सिद्ध रूप में समझाना आवश्यक होता है। दिन को न खाने पर भी देवदत्त में जो पीनता है, वह यदि इस स्थिति में सन्दिग्ध या विपरीत ही हो तो फिर उसकी उपपत्ति ही अपेक्षित नहीं है। अतः किसकी उपपत्ति के लिए रात्रिभोजन रूप दूसरे अर्थ की कल्पना आवश्यक होगी ? किन्हीं दो अर्थों में परस्पर विरोध है, केवल इसी लिए 'उनको प्रतीति ही नहीं होती' यह कहना
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૪ર
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावप्रमाणान्तर्भाव
प्रशस्तपादभाष्यम्
सम्भवोऽप्य विनाभावित्वादनुमानमेव । अभावोऽप्यनुमानमेव, यथोत्पन्नं कार्य कारणसद्भावे लिङ्गम्, ‘सभ्भव' प्रमाण से भी व्याप्ति के द्वारा ही अर्थ का बोध होता है, अत: वह भी अनुमान ही है ।
अभाव प्रमाण भी अनुमान के ही अन्तर्गत है, क्योंकि जिस
न्यायकन्दली
स्परविरोध इति तयोः प्रतीतिरप्रतीतिर्भवति । तस्मादर्थप्रतीत्यैवोपपन्नः शब्दो न शब्दान्तरमपेक्षते, कर्तव्यतान्तराभावात् । अर्थ एव तु तेनाभिहितोऽर्थान्तरेण विनानुपपद्यमानः प्रतीत्यनुसारेण स्वोपपत्तये मृगयतीत्यव्याहतं शब्दश्रवणादनुमितानुमानमिति ।
शतं सहसे सम्भवतीति सम्भवाख्यात् प्रमाणान्तरात् सहस्रेण शतज्ञानमिति केचित् । तन्निरासार्थमाह-सम्भवोऽप्यविनाभावित्वादनुमानमेव । सहस्रं शतेनाविनाभूतम्, तत्पूर्वकत्वात् । तेन सहस्राच्छतज्ञानमनुमानमेव । प्रमेयाभावप्रतीत भावग्राहक प्रत्यक्षादिपञ्चप्रमाणानुत्पत्तिरभावाख्यं प्रमाणान्तरं कैश्चिदिष्टम् । तद् व्युदस्यति - अभावोऽप्यनुमानमेव । कथमित्यत
ठीक नहीं है । अतः 'पीनो दिवा न भुङ्क्ते' इत्यादि शब्द यदि दिन में न खानेवाले में 'पीनत्वादि' रूप अपने अर्थ को अभ्रान्त और निःशङ्क रूप से समझा देते हैं, तो फिर वे अपना कर्त्तव्य कर ही लेते हैं, क्योंकि उन शब्दों का उन अर्थों को समझाना छोड़कर दूसरा कोई कर्त्तव्य नहीं है । अपने इस कार्य के सम्पादन के लिए उन्हें 'रात्री भुङ्क्ते' इत्यादि किसी दूसरे शब्द की न खानेवाले की पीनता रूप अर्थ ही रात्रि अपनी उपपत्ति के लिए उस दूसरे अर्थ की शब्द के श्रवण के बाद जो रात्रि भोजन रूप अर्थ का नुमान' ही है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । 'हजार में सौ के रहने की सम्भावना है' इस प्रकार के सम्भव नाम के स्वतन्त्र प्रमाण से ही कोई सम्प्रदाय सहस्र संख्या से सौ संख्या का ज्ञान मानते हैं | उनका खण्डन करने के लिए ही 'सम्भवोऽप्यविनाभावादनुमानमेव' यह वाक्य लिखा गया है । अभिप्राय यह है कि सहस्र में सो की व्याप्ति रूप सम्बन्ध के द्वारा हो उक्त ज्ञान होता है, अतः का ज्ञान होता है, वह भी अनुमान ही है ।
अपेक्षा नहीं है । तस्मात् दिन में भोजन रूप दूसरे अथ के बिना अनुपपन्न होकर खोज करता है, अतः 'दिवा न भुङ्क्ते' इस बोध होता है, वह 'अनुमिता
किसी सम्प्रदाय के लोग किसी वस्तु के अभाव की प्रतीति के लिए एक 'अभाव' नाम का और प्रमाण मानते हैं । एवं इस अभाव को भाव पदार्थों के ग्राहक प्रत्यक्षादि पाँच
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व्याप्ति रूप सम्बन्ध है । इस सहस्र संख्या से जो शत संख्या
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५४३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् एवमनुत्पन्न कार्य कारणासद्भावे लिङ्गम्। प्रकार उत्पन्न कार्य अपने कारण की सत्ता का ज्ञापक हेतु है, उसी प्रकार अनुत्पन्न कार्य भी अपने कारण की असत्ता का ज्ञापक हेतु ही है।
न्यायकन्दली आह-यथोत्पन्नं कार्य का रणसद्भावे लिङ्गम् , एवमनुत्पन्नं कार्य कारणासद्भावे लिङ्गम् ।
योऽप्यभावं प्रमाणमिच्छति, तस्यापि न ज्ञानानुत्पादमात्रात् प्रमेयाभावज्ञानम्, स्वरूपविप्रकृष्टस्यापि वस्तुनोऽभावप्रतीतिप्रसङ्गात् । किन्तु ज्ञानकारणेषु सत्सु ज्ञानयोग्यस्य वस्तुनो ज्ञानानुत्पादोऽभावावगमनिमित्तम् । न चायोग्यानुपलम्भाद् योग्यानुपलम्भस्य कश्चित् स्वरूपतो विशेषः, अभावस्य निरतिशयत्वात्। तेन नायं स्वशक्त्यैवेन्द्रियवद् बोधकः, किन्तु योग्यानुपलम्भो ज्ञेयाभावं न व्यभिचरति । अयोग्यानुपलम्भस्तु व्यभिचरति, सत्यपि ज्ञेये तस्य
प्रमाणों की अनुत्पत्ति रूप कहते हैं, उनके इस मत का खण्डन ही 'अभावोऽप्यनुमानमेव' इत्यादि भाष्यसन्दर्भ के द्वारा किया गया है। किस युक्ति से यह अभाव नाम का प्रमाण मानते हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर 'यथोत्पन्न कार्य कारणसद्भावे लिङ्गम् एवमनुत्पन्न कार्य कारणासद्भावे लिङ्गम्' इस वाक्य के द्वारा किया गया है ।
जो सम्प्रदाय उक्त अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण मानने को इच्छुक हैं, उन्हें भी ज्ञान की केवल अनुत्पत्ति से ही किसी वस्तु के अभाव का ज्ञान नहीं होता, यदि ऐसी बात हो तो उन वस्तुओं के अभावों की भी प्रतीति की आपत्ति होगी, जिन वस्तुओं में प्रत्यक्ष की योग्यता नहीं है। अतः (उन्हें भी) यही कहना पड़ेगा कि ज्ञान के (सामान्य) कारणों के रहने पर ज्ञात होने योग्य वस्तुओं के ज्ञान की अनुत्पत्ति ही उन वस्तुओं के अभाव का ज्ञापक 'अभाव' नाम का प्रमाण है। (उपलब्धि के) योग्य वस्तुओं की अनुपलब्धि और (उपलब्धि के) अयोग्य वस्तुओं की अनुपलब्धि इन दोनों के स्वरूपों में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिससे कि दोनों अनुपलब्धियों में भेद माना जाय, क्योंकि केवल अभाव रूप दोनों अनुपलब्धियों में कोई विशेष धर्म नहीं है। अतः अभाव (या प्रमाणों को कथित अनुत्पत्ति) उस प्रकार केवल अपनी ही शक्ति से अपने ज्ञेय अभाव के ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकते, जिस प्रकार इन्द्रियाँ केवल अपनी शक्ति से ही प्रत्यक्ष ज्ञान को उत्पन्न करती है। कथित अभाव प्रमाण से वस्तुओं के अभाव की प्रतीति की यह रीति है कि जिस वस्तु की जहाँ उपलब्धि हो सकती है, वहाँ यदि उसकी उपलब्धि नहीं होती है,
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__ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावप्रमाणान्तर्भाव
न्यायकन्दली सम्भवात्, एतावता विशेषेण योग्यानुपलम्भः प्रतिपादको नापरः। एवं सत्यभावो लिङ्गमेव स्यादविनाभावग्रहणसापेक्षत्वात् । तदनपेक्षत्वे त्वविशेषण तस्याभावस्याभावबोधकत्वमिति दुनिवारणप्रसङ्गः।।
___ अपि चेन्द्रियसन्निकर्षादुपलभ्यमाने भूतलेऽभावज्ञानमपि भवति 'अघटं भूतलम्' इति, तत्र भूतलस्येवाभावस्यापि प्रत्यक्षता किं नेष्यते ? भावांशेनैवेन्द्रियस्य सम्बन्धः, योग्यत्वादिति चेत् ? नेदमनुपपादितं सिध्यति। कार्यगम्या हि योग्यता, यथेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि कार्य भावे दृश्यते, तद्वदभावेऽपीति भाववदभावोऽपि इन्द्रियग्रहणयोग्य एव । कार्यदर्शनादेव चास्येन्द्रियसम्बन्धोऽपि कश्चित् कल्पयिष्यते।
तो समझते हैं कि वहाँ वह वस्तु नहीं है, इस प्रकार योग्यानुपलब्धि के साथ योग्य वस्तु के अभाव की व्याप्ति है, प्रत्यक्ष के अयोग्य वस्तुओं के अभाव के साथ उस वस्तु की अनुपलब्धि की व्याप्ति नहीं है, (अर्थात् व्यभिचार है), क्योंकि (अयोग्य पिशाचादि) ज्ञेयों के रहने पर भी उनकी उपलब्धि नहीं होती है, (अर्थात् अनुपलब्धि रहती है), इससे यह निष्कर्ष निकला कि योग्य वस्तुओं की अनुपलब्धि हो उसके अभाव का ज्ञापक है, अयोग्य वस्तुओं की अनुपलब्धि नहीं। अतः उक्त अभाव प्रमाण भी उक्त प्रमेयाभाव का ज्ञापक हेतु ही है, क्योंकि व्याप्ति के द्वारा ही उसका ज्ञापन कर सकता है, अन्यथा नहीं । यदि उसमें व्याप्ति की अपेक्षा न मानें तो सभी अभावों से सभी अभाबों की प्रतीति की आपत्ति होगी, जिसका वारण करना सम्भव न होगा।
दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय के द्वारा भूतल के उपलब्ध होने पर ही 'अघटं भूतलम्' इत्यादि आकारों से अभाव की प्रतीति भी होती है। यदि ऐसी बात है तो फिर भूतल की तरह उसमें विशेषण रूप से भासित होनेवाले घट के अभाव का इन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्ष ही क्यों नहीं मान लेते ? (प्र०) भाव पदार्थ ही इन्द्रियों से प्रकाशित होने की क्षमता रखते हैं, अतः (कल्पना करते हैं कि) भाव पदार्थों के साथ ही इन्द्रियों का ( प्रत्यक्षोपयुक्त ) सम्बन्ध हो सकता है। ( उ.) (भाव पदार्थों में इन्द्रियों के प्रत्यक्षोपयुक्त सम्बन्ध को योग्यता है' यह सिद्धान्त ) युक्ति के द्वारा उपपादन किये बिना नहीं माना जा सकता। कार्य से हो कारण में कार्योत्पादन की योग्यता निर्धारित होती है। जिस प्रकार भाव पदार्थों के प्रत्यक्ष रूप कार्य के साथ इन्द्रियों का अन्वय और व्यतिरेक दोनों देखे जाते हैं, उसी प्रकार अभाव की उपलब्धि के साथ भी वे दोनों देखे जाते हैं, अतः भाव पदार्थो की तरह अभाव पदार्थों में भी इन्द्रियों से गृहीत होने की योग्यता है । इस प्रकार इन्द्रियों से अभाव के प्रत्यक्ष की उपपत्ति हो जाने पर अभाव पदार्थों के साथ भी इन्द्रियों के किसी उपयुक्त सम्बन्ध की कल्पना कर ली जाएगी।
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प्रकरणम् भाषानुवादसहितम्
५४५ न्यायकन्दली अथ मतम्-निरधिकरणो न कस्यचिदभावः प्रतीयते, देशादिनियमेन प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् । यदधिकरणश्चायं प्रतीयते तस्य प्रतीताविन्द्रियव्यापारो नाभावग्रहणे, इन्द्रियव्यापारोपरमेऽप्यभावप्रतीतिदर्शनात् । तथा हि-कश्चित् स्वरूपेण देवकुलादिकं प्रतीत्य स्थानान्तरगतो देवकुले देवदत्तोऽस्ति नास्तीति केनचित् पृष्टः तदानीमेव ज्ञातजिज्ञासो नास्तीति प्रतीत्याऽभावं व्यवहरति नास्तीति । न च पूर्वमेव देवकुलग्रहणसमये देवदत्ताभावो निर्विकल्पेन गृहीतः, सम्प्रति स्मर्यमाण इति वाच्यम्, युक्तं घटादीनामिन्द्रियसन्निकर्षानिर्विकल्पेन ग्रहणम्, तेषां स्वरूपस्य परानपेक्षत्वात् । अभावस्य तु प्रतिषेधस्वभावस्य स्वरूपमेव यस्यायं (एव) प्रतिषेधः स्यात् तदधीनम् । अतस्तत्प्रतिषेधतामन्तरेण तदभावस्य स्वरूपान्तराभावात् । तत्रास्य प्रतियोगिस्वरूपनिरूपणमन्तरेण निरूपणम
इस प्रसङ्ग में अभाव को प्रमाण माननेवालों का कहना है कि नियमत: किसी विशेष देश में ही अभाव के प्रसङ्ग में प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है, इससे यह सिद्ध होता है कि किसी अधिकरण में ही अभाव की प्रतीति होती है, अधिकरण को छोडकर केवल अभाव की प्रतीति नहीं होती है। तदनुसार जिस अधिकरण में अभाव की प्रतीति होती है, उस अधिकरण की प्रतीति में ही इन्द्रिय का व्यापार आपेक्षित होगा। (प्र.) उस अधिकरण में भी अभाव की प्रतीति के लिए इन्द्रिय का व्यापार अपेक्षित नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों के व्यापार के हट जाने पर भी अभाव की प्रतीति होती है । जैसे किसी पुरुष को किसी देवालय को देखने के बाद किसी दूसरे स्थान में जाने पर कोई पूछता है कि 'वहाँ देवदत्त हैं या नहीं ? उसी समय उस पुरुष की जिज्ञासा को समझकर 'देालय में देवदत्त नहीं हैं' इस प्रतीति के द्वारा वह पुरुष 'नास्ति' का व्यवहार (अर्थात् 'देवकुले देवदत्तो नास्ति' इस बाक्य का व्यवहार) करता है। (प्र०) देवालय के देखने के समय ही उसे वहां देवदत्त के अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान हो गया था। अभी वह उसी निर्विकल्पक ज्ञान जनित स्मृति के द्वारा देवदत्त के अभाव का व्यवहार करता है । (उ०) ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान सम्भव ही नहीं है । घटादि पदार्थों का निर्विकल्पक ज्ञान इस लिए सम्भव होता है कि उनके ज्ञान के लिए प्रतियोगी प्रभृति किसी दूसरे पदार्थों को जानने की अपेक्षा नहीं होती है। किन्तु अभाव तो किसी भाव पदार्थ का प्रतिषेध रूप है, अतः उसको जानने के लिए उस भाव पदार्थ को भी जानना आवश्यक है, जिसका कि वह प्रतिषेध है। क्योंकि भाव के प्रतिषेध को छोड़कर अभाव का कोई दूसरा स्वरूप ही नहीं है। तस्मात् प्रतिषेध्य (प्रतियोगि) ज्ञान के बिना अभाव का ज्ञान सम्भव ही नहीं है । (अर्थात् अभाव का ज्ञान प्रतियोगी रूप विशेषण से युक्त होकर ही होगा, अतः अभाव का निर्विकल्पक ज्ञान असम्भव है)। भाव और अभाव में यही अन्तर है कि भाव का अपने भावत्व रूप से ही
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न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली
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शक्यम् । अयमेव हि भावाभावयोविशेषो यदेकस्य विधिरूपतया ग्रहणम्, अपरस्य त्वन्यप्रतिषेधमुखेन । यदाह न्यायवार्तिककारः - "स्वतन्त्रपरतन्त्रोपलब्ध्यनुपलब्धिकारणभावाच्च विशेषः, सत्तु खलु प्रमाणस्यालम्बनं स्वतन्त्रम्, असत्तु परतन्त्रमन्यप्रतिषेधमुखेनेति" । यदि त्वभावस्यापि स्वातन्त्र्येण ग्रहणं तदा भावादविशेषः स्यात् । अतो नास्त्यभावस्य निर्विकल्पकेन ग्रहणम् ।
यदपि विकल्पितं किं देवदत्तसंकीर्णस्य देवकुलस्य पूर्वं प्रतीतिरासीत् ? तद्विविक्तस्य वा ? संकीर्णग्रहणे तावत् केवलस्य न स्मरणम् । विविक्तग्रहणे वाभावोऽगृहीत एव पश्चात् स्मर्यत इति प्राप्तम् । तदप्यसारम्, देवदत्तभावाभावयोर ग्रहणेऽपि देवकुलस्य स्वरूपेण ग्रहणात् । तस्मान्न पूर्वमभावग्रहणम्, तदभावान्न स्मृतिः, न च तदानों प्रमाणान्तरमुपलभ्यते : तस्माद् व्यवहितेऽपि
ग्रहण होता है, किन्तु अभाव का भाव के प्रतिषेध रूप से ग्रहण होता है। जैसा कि न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने कहा है कि "भाव और अभाव में यहीं अन्तर है कि एक (भाव) स्वतन्त्र है, और दूसरा (अभाव) परतन्त्र । एवं एक की सत्ता का उसकी अपनी उपलब्धि ही नियामक है, और दूसरे की सत्ता के प्रतियोगी की अनुपलब्धि नियामक है । 'सत्' अर्थात् भाव पदार्थ प्रमाण के द्वारा स्वतन्त्र ही गृहीत होता है,
किन्तु 'असत्' अर्थात् अभाव प्रतियोगी के प्रतिषेध रूप से, फलतः प्रतियोगी परतन्त्र होकर प्रमाण के द्वारा ज्ञात होता है" । यदि अभाव की भी स्वतन्त्र उपलब्धि ही हो तो भाव और अभाव दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा, फलतः दोनों अभिन्न हो जाएँगे । अतः निर्विकल्पक ज्ञान के अभाव का गृहीत होना सम्भव नहीं है ।
इस प्रसङ्ग में किसी ने जो यह विकल्प उपस्थित किया था कि पहले देवदत्त और देवालय (देवकुल) दोनों की साथ साथ प्रतीति थी ? या देवदत्त से असम्पृक्त केवल देवकुल को ही प्रतीति थी ? यदि साथ साथ प्रतीति मानें तो फिर केवल देवकुल का स्मरण नहीं होगा । ( उस स्मृति में देवदत्त भी अवश्य ही भासित होगा, एवं देवदत्त के भासित होने पर उसके अभाव की प्रतीति असम्भव होगी) । यदि दूसरा पक्ष मानें तो ( यह अनिष्टापत्ति होगी कि ) पूर्व में अज्ञात ही देवकुल का स्मरण होता है । ( उ० ) इस विकल्प में भी कुल सार नहीं है, क्योंकि देवदत्त या उनका अभाव, इन दोनों में से किसी का ग्रहण न होने पर भी देवकुल अपने देवकुलत्व स्वरूप के साथ ही वहाँ ज्ञात होता है । देवदत्त के अभाव का उस पुरुष को पहिले सविकल्पक या निर्विकल्पक कोई भी ज्ञान नहीं था । अतः देवदत्त के अभाव की स्मृति भी उस पुरुष को नहीं हो सकती । उस समय देवदत्त के अभाव का ज्ञापक कोई दूसरा प्रमाण भी नहीं उपलब्ध होता है, अतः यही कहना पड़ेगा कि उस पुरुष को देवदत्त की संनिधि
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५४७
प्रकरणम्)
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली प्रतियोगिनि स्मृत्यारूढऽभावग्रहणाय प्रत्यक्षादिप्रमाणपञ्चकव्यावृत्तिरेव प्रमाणम् ।
एकत्र चाभावस्याभावपरिच्छेद्यत्वे सिद्धेऽन्यत्रापि तेनैव सेत्स्यतीति सिद्धमभावस्य प्रमाणान्तरत्वम् ।
अत्रोच्यते-देशान्तरं गतः केनचित् पृष्टो देवकुले देवदत्तस्येदानीन्तनानुपलम्भेनेदानीन्तनाभावं प्रत्येति ‘इदानीं नास्ति' इति ? किं वा प्राक्तनानुपलम्भेन प्राक्तनाभावं देवकुलग्रहणसमये नासीदिति ? इदानीन्तनानुपलब्धिस्तावद् योग्यानुपलब्धिर्न भवति, देशव्यवधानात् । सम्प्रत्यभावो देवदत्तस्य सन्दिग्धः, आगमनस्यापि सम्भवात् । प्राक्तनाभावपरिच्छेदयोग्या तु प्राक्तनानुपलब्धिर्नेदानीमनुवर्तते, अवस्थान्तरप्राप्तेः। न चाविद्यमाना प्रतीतिकारणं भवितुमर्हति ।
न रहने पर भी प्रश्न कर्ता के पूछने पर देवदत्त की स्मृति हो जाती है। स्मृति के द्वारा उपस्थित देवदत्त के अनुभावक प्रत्यक्षादि पाँचों प्रमाणों में से कोई भी वहाँ उपस्थित नहीं है, अत: देवदत्त के ग्राहक प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों का न रहना या व्यावृत्ति रूप अभाव प्रमाण से ही वहाँ देवदत्त के अभाव का बोध होता है।
___ इस प्रकार एक स्थान में उक्त अभाव प्रमाण को अभाव का ज्ञापक मान लेने पर अन्य सभी स्थानों में अभाव की ज्ञापकता उसमें सिद्ध हो जाती है।
इस प्रसङ्ग में (अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण न माननेवाले) हम लोगों का कहना है कि दूसरे देश में जाने पर किसी पुरुष को किसी अन्य पुरुष के द्वारा पूछे जाने पर देवकुल में इस (पूछने के) समय को जो देवदत्त की अनुपलब्धि है, उस अनुपलब्धि के द्वारा (१) देवदत्त का एतत्कालिक जो अभाव है, उसे पूछने वाले को इस प्रकार समझाया जाता है कि 'अभी देव कुल में देवदत्त नहीं है । (२) अथवा जिस समय वह पुरुष देवकुल में था, उस समय की जो देवकुल में देवदत्त की अनुपलब्धि थी, उस अनुपलब्धि के द्वारा देवदत्त के तत्कालिक अभाव को ही इस प्रकार समझाते हैं कि 'उस समय देवकूल में देवदत्त नहीं थे। इनमें इस समय की जो देवकुल में देवदत्त को अनुपलब्धि है. वह प्रत्यक्ष योग्य वस्तु की उपलब्धि ही नहीं है, क्योंकि इस समय बोद्धा पुरुष के देश और देवकुल इन दोनों में बहुत बड़ा व्यवधान है ( अतः देवदत्त उस देश में रहनेवाले पुरुष के द्वारा ज्ञात होने योग्य नहीं है), अतः यह योग्यानुपलब्धि न होने के कारण देवदत्त के अभाव का ग्राहक नहीं हो सकती। 'इस समय देवकुल में देवदत्त नहीं हैं। यह भी सन्दिग्ध ही है, क्योंकि बीच में वह आ भी सकते हैं। पूर्वकाल में रहनेवाली अनुपलब्धि जो-पूर्वकालिक अभाव को ही समझा सकती है-उसका अभी रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि स्थिति बदल गई है । अविद्यमान अनुपलब्धि अभावोपलब्धि का कारण नहीं हो सकती।
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૧૪
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली नापि स्मृत्यारूढा व्याप्रियते, पूर्वमसंविदितत्वात् । नानुपलब्धिः प्रमाणान्तरसंवेद्या, अभावरूपत्वात् । अनुपलब्ध्यन्तरापेक्षायां चानवस्था स्यात् । तस्मादियमगृहीतैवेन्द्रियवदर्थपरिच्छेदिकेति राधान्तः, तथा सति कुतस्तस्याः स्मरणम् ? अनुभवाभावात् । ____ अथ मतम्- देवकुले देवदत्तानुपलम्भो देवदत्तोपलम्भेन विनिवर्त्यते, न च देशान्तरगतस्य तदुपलम्भो जातः, तस्मादस्त्येव तदनुपलम्भः। यदि त्ववस्थान्तरमापन्नः, न चावस्थाभेदे वस्तुभेद इति । अस्तु तहि तावदिहैवम् । यत्र तु पूर्व प्रतियोगिस्मरणाभावाद् वस्त्वभावो न गृहीतः, पश्चात् कालान्तरे वस्तुग्रहणादिहेदानीं नासीदिति प्राक्तनाभावज्ञानम्, तत्र कः प्रती
यह कहना भी सम्भव नहीं है कि (प्र०) स्मृति के द्वारा उपस्थापित अनुपलब्धि से ही वहाँ अभाव का बोध होगा, (उ.) क्योंकि अनुपलब्धि का पहिले अनुभव न रहने के कारण उसकी स्मति सम्भव नहीं है। अनुपलब्धि चूंकि अभाव रूप है, अतः प्रत्यक्षादि पाँचों (भावबोधक) प्रमाणों में से किसी से भी उसका बोध सम्भव नहीं है । दूसरी अनुपलब्धि से यदि प्रकृत प्रमाणभूत अनुपलब्धि का अनुभव मानें, तो फिर कारणीभूत उस अनपलब्धि के अनुभव के लिए तीसरी अनुपलब्धि की आवश्यकता होगी, जो अन्त में अनवस्था में परिणत होगी। तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि जिस प्रकार इन्द्रिय से प्रत्यक्ष के उत्पादन में उसके ज्ञात होने की आवश्यकता नहीं होती है, उसी प्रकार अनुपलब्धि रूप प्रमाण भी स्वयं बिना ज्ञात हुए हो केवल अपनी सत्ता के द्वारा ही अपने अभाव रूप अर्थ के निश्चय का उत्पादन करता है। तस्मात् पूर्व में अनपलब्धि का अनुभव न रहने के कारण उसकी स्मृति किस प्रकार हो सकती है ?
यदि यह कहिए कि (प्र.) देवकुल में देवदत्त की जो अनुपलब्धि है वह केवल देवदत्त की उपलब्धि से ही हट सकती है। देवकुल से आनेवाला पुरुष जब दूसरे देश में चला आता है, उस समय उसे देवदत्त की उपलब्धि तो हो नहीं जाती। अतः ( जिस समय वह दूसरे के पूछने पर देवकुल में देवदत्त के अभाव का प्रतिपादन करता है) उस समय देव कुल में देवदत्त की अनुपलब्धि बनी हुई है। मान लिया कि उस समय की अनुपलब्धि से इस समय की अनुपलब्धि दूसरी अवस्था में है, किन्तु कोई भी वस्तु केवल अवस्था के बदल जाने से दूसरी वस्तु नहीं हो जाती। (उ०) यह मान भी लिया जाय कि उक्त रीति से देवकुल में देवदत्त के कथित अभाव के प्रतिपादन की इस प्रकार उपपत्ति की जा सकती है, तथापि जहाँ प्रतियोगी का स्मरण न रहने के कारण किसी एक अधिकरण में पहिले उस प्रतियोगी का अभाव ज्ञात न हो सका, फिर कुछ काल बीत जाने पर उसी अधिकरण में उस प्रतियोगी रूप वस्तु का ग्रहण हुआ। ऐसे अधिक रण में उस समय उसी वस्तु के पूर्वकालिक अभाव का
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५४६ न्यायकन्दली कार: ? निवृत्तो हि तद्वस्त्वनुपलम्भस्तस्योपलभ्भेन । न चानुपलम्भः पूर्वमासीदिति सम्प्रत्यविद्यमानोऽपि प्रतीतिहेतुः, प्रनष्टेन्द्रियस्यापि विषयग्रहणप्रसङ्गात् । अद्यतनेन तूपलम्भेनाद्यतनानुपलम्भस्तस्य निवर्तितः, प्राक्तनानुपलम्भस्त्वस्त्येव । तेन प्राक्कालीनाभावपरिच्छेदयोग्येन प्राक्तनाभावः परिच्छिद्यत इति चेत् ? अहो पाण्डित्यम् ? अहो नेपुण्यम् ? अनुपलम्भ उपलम्भप्रागभावः, स च वस्तुत्पत्त्यधिरेक एव न प्राक्तनाद्यतनकालभेदेन भिद्यते, तत्राद्यतनानुपलम्भो निवृत्तः, प्राक्तनो न निवृत्त इति कः कुशाग्रीयबुद्धेरन्य इममतिसूक्ष्मविवेकमवगाहते । तस्मादभावोऽभावेनैव परिच्छिद्यत इति न बुद्धधामहे ।
कथं तहि स्वरूपमात्रं गृहीत्वा स्थानान्तरगतस्य स्मर्यमाणे प्रतियोगिन्यभावप्रतीतिः ? अनुमानात्, यो हि यस्मिन् स्मर्यमाणे स्मृतियोग्यः इस प्रकार का ज्ञान होता है कि 'उस अधिकरण में उस समय यह वस्तु नहीं थी' वहाँ ( अनुपलब्धि को प्रमाण माननेवाले ) आप क्या प्रतीकार करेंगे ? अर्थात् यहाँ अभाव का ग्रहण किससे होगा ? क्योंकि यहाँ वर्तमान काल के प्रतियोगी की उपलब्धि से प्रतियोगी को भूतकालिक अनुपलब्धि नष्ट हो चुकी है। (प्र०) उस अधिकरण में उस वस्तु की अनुपलब्धि तो पहिले से ही थी, किन्तु उसका ज्ञान भर नहीं था; वही (भूतकालिक) अनुपलब्धि वर्तमान काल में उपलब्धि के द्वारा नष्ट हो जाने पर भी उस अधिकरण में उस वस्तु के अभाव का ग्राहक होगी। (उ०) यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षण में न रहने पर भी यदि भूत काल में कभी रहने से ही कोई किसी का उत्पादन कर सके, तो फिर जिसे कभी इन्द्रिय थी और अभी वह नष्ट हो गयी है, ऐसे व्यक्ति को भी रूपादि का प्रत्यक्ष होना चाहिए । (प्र.) आज की किसी वस्तु की उपलब्धि से आज की ही उस वस्तु की अनुपलब्धि विनष्ट होगी, उससे पूर्व की अनुपलब्धि नहीं, अतः पूर्वकाल की उस विषय को अनुपलब्धि तो इस ( उपलब्धि के ) समय भी है ही, इस अनुपलब्धि का तो विनाश नहीं हुआ है। पूर्वकालिक इसी अनुपलब्धि के द्वारा पूर्वकालिक उस वस्तु के अभाव का निश्चय होगा । (उ०) इस पाण्डित्य और निपुणता का क्या कहना ? (यह आप नहीं समझते कि ) अनुपलब्धि शब्द का अर्थ है उपलब्धि का प्रागभाव । वह अनादि काल से अपने प्रतियोगी की उत्पत्ति के समय तक बराबर रहनेवाली एक ही वस्तु है। वह वर्तमान काल और भूतकाल के भेद से भिन्न नहीं हो सकती। अतः प्रकृत में पूर्वकालिक अपलब्धि का नाश नहीं हुआ है, और एतत्कालिक अनुपलब्धि का नाश हो गया है, इस भेद को किसी कुशाग्रबुद्धि महापुरुष को छोड़कर और कौन समझ सकता है ? तस्मात् हम लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि ( अनुपलब्धि रूप ) अभाव से ही अभाव का ग्रहण होता है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली सत्यामपि सुस्मर्षायां न स्मर्यते, स तस्य ग्रहणकाले नासोदिति । यथा केवले प्रदेशे स्मर्यमाणे तत्र प्राक्प्रतीताभावो घटोऽस्मर्यमाणः। न च स्मर्यते देवकुले स्मर्यमाणे सत्यामपि सुस्मूर्षायां स्मृतियोग्योऽपि देवदत्तः। तस्मात् सोऽपि देवकुलग्रहणसमये नासोदिति स्मृत्यभावादनुमानम् । सहोपलब्धयोरपि वस्तुनोः संस्कारपाटवादिविरहादेकस्य स्मरणमपरस्यास्मरणं दृष्टम्, यथाधीतस्य श्लोकस्यैकस्य पदान्तरस्मरणेऽपि पदान्तरास्मरणम् । तत्र कथमेकस्य स्मरणे परस्यास्मरणाद् अभावानुमानमनैकान्तिकत्वादिति चेत् ? सहस्थितयोरपि पदार्थयोः कदाचित् कारणानुरोधादेक उपलभ्यते नापरः, तत्रापि कथं भूतलोपलम्भादनुपलभ्यमानस्य घटस्याभावसिद्धिः ?
(प्र.) तब फिर जहाँ कोई व्यक्ति केवल भूतल रूप आश्रय को देखकर दूसरी जगह चला जाता है, वहीं कुछ काल के बाद घट रूप प्रतियोगी का स्मरण होने पर 'उस भूतल रूप अधिक रण में उस समय घट नहीं था' इस प्रकार से उसे अभाव का ग्रहण होता है, उसकी उपपत्ति कैसे होगी ? (उ०) उस अभाव का ग्रहण अनुमान प्रमाण से होगा। क्योंकि (घट से असंयुक्त) केवल भूतल के स्मरण की पूर्ण इच्छा रहने पर भी पहिले से ज्ञात भूतल में घट का स्मरण नहीं होता है, वहां यह निश्चित है कि घट नहीं था। इससे यह सामान्य नियम उपपन्न होता है, कि जिस एक वस्तु का स्मरण होने पर, और स्मरण की पूर्ण इच्छा रहने पर भी स्मृति के योग्य जिस दूसरी वस्तु का स्मरण नहीं होता है, उस (एक) वस्तु में वह ( दूसरी) वस्तु नहीं है। तदनुसार देवालय का स्मरण होने पर देवदत्त के स्मरण की इच्छा रहने पर और देवदत्त में स्मृति को पूर्णयोग्यता रहने पर भी यदि उनकी स्मृति नहीं होती है, तो यह अनुमान सुलभ हो जाता है 'उस समय देवालय में देवदत्त नहीं थे' (प्र.) उक्त नियम में व्यभिचार रहने के कारण कथित रीति से भूतकालिक अभाव का अनुमान सम्भव नहीं है, क्योंकि साथ साथ अनुभव होनेवाले दो विषयों में से यदि एक विषयक संस्कार दृढ़ नहीं रहता है, या उसमें कुछ पटुता की कमी रहती है, तो फिर उसका स्मरण नहीं होता है । एवं दूसरे विषय का संस्कार यदि उन दोषों से दूर रहता है, तो उस विषय का स्मरण होता है। जैसे कि पढ़े हुए एक पद्य के एक अंश का स्मरण होता है, दूसरे का नहीं। इस प्रकार के स्थलों में एक का स्मरण न होने पर भी दूसरे का स्मरण किस प्रकार हो सकेगा? (उ०) (जिस प्रकार एक साथ ज्ञात होनेवाले दो विषयों में से कभी एक का स्मरण होता है, दूसरे का नहीं उसी प्रकार ) एक साथ रहनेवाले दो पदार्थों में से भी एक का स्मरण होता है, चूंकि उसके सभी कारण ठीक रहते हैं। दूसरे का स्मरण नहीं होता, क्योंकि
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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५५१
अय
-
मतम् — एकज्ञानसंसर्गिणोरेकोपलम्भेऽपरस्यानुपलम्भोऽभावसाधनं न सर्वः । येन हि ज्ञानेन प्रदेशो गृह्यते तेनैव तत्संयोगी घटोsपि गृह्यते, यैव प्रदेशग्रहणे सामग्री सैव घटस्यापि सामग्री । यदि प्रदेशे घटोऽभविष्यत् सोऽपि प्रदेशे ज्ञायमाने विज्ञास्येत तत्तुल्यसामग्रीकत्वात् । न ज्ञायते च तस्मान्नास्त्येव तदनुपलम्भस्य प्रकारान्तरेणासम्भवादिति । यद्येवमस्माकमप्येकज्ञानसंसगणोरेकस्म रणेऽपरस्यास्मरणमभावसाधनम् । यैव देवकुलग्रहणसामग्री सा देवदत्तस्यापि तत्संयुक्तस्य ग्रहणसामग्री, या च देवकुलस्य स्मरणसामग्री सा दवदत्तस्यापि स्मृतिसामग्री, तदेकज्ञानसंसगित्वाद् यदि देवकुलग्रहणकाले देवदत्तोऽभविष्यत् सोऽपि देवकुले स्मर्यमाणे अस्मरिष्यत् तत्तुल्यसामग्रीत्वात् । न च
उसके स्मरण के कारणों में कुछ त्रुटि रहती है । ऐसी स्थिति में भूतल के स्मरण के बाद घट का स्मरण न होने से भूतल में घट के न रहने की सिद्धि किस प्रकार होगी ।
यदि यह कहें कि ( प्र० ) सभी अनुपलब्धियाँ अभाव की साधिका नहीं है, किन्तु एक ज्ञान में विषय होनेवाले दो विषयों में से एक की अनुपलब्धि ही दूसरे के अभाव की साधिका है । अत: जिस ज्ञान के द्वारा भूतल रूप प्रदेश का ग्रहण होता है, उसी ज्ञान के द्वारा भूतल में संयुक्त घट का भी ग्रहण होता है । जिन कारणों के समूह से प्रदेश का ज्ञान होता है, उसी कारण समूह से भूतल में संयोग सम्बन्ध से रहनेवाले घट का भी ज्ञान होता है । अतः भूतल में यदि घट रहता तो भूतल के दीखने पर वह भी दीख पड़ता ही, क्योंकि भूतल और घट दोनों का ग्रहण एक ही प्रकार के कारणों से होता है । किन्तु भूतल के ज्ञात होने पर भी घट ज्ञात नहीं होता है । तस्मात् घट की उक्त अनुपलब्धि से समझते हैं कि वहाँ भूतल में घट है ही नहीं । क्योंकि भूतल में घटाभाव से बिना घट की इस अनुपलब्धि की सम्भावना नहीं है । ( उ० ) यदि ऐसी बात है तो समान रूप से हम भी कह सकते हैं कि एक ज्ञान में विषय होनेवाले दो विषयों में से एक विषय की स्मृति के न रहने की दशा में यदि दूसरे की स्मृति नहीं होती है, तो फिर यह अस्मरण' ( या उस विषय की स्मृति का न होना )
ही उस दूसरे विषय के अभाव का साधक है । तदनुसार देवकुल को
देखने की सामग्नी
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संयोग सम्बन्ध से रहने वाले देवदत्त को
देखने का कारण
।
( कारण समूह ) एवं देवकुल में समूह चूँकि दोनों एक ही हैं अतः जिस सामग्री से देवालय का स्मरण होगा, उसी सामग्री से देवदत्त का भी स्मरण होना चाहिए । इस उपपत्ति के अनुसार देवालय के दर्शन के समय यदि उसमें देवदत्त रहते तो देवकुल की स्मृति के बाद उनकी भी स्मृति अवश्य होती, क्योंकि देवकुल और देवदत्त दोनों की स्मृतियों के उत्पादक कारणसमूह समान रूप के हैं । किन्तु देवकुल की स्मृति होने पर भी देवदत्त का स्मरण
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली स्मर्यते, तस्मानासीद् देवदत्तः, तदस्मरणस्य प्रकारान्तरेणासम्भवादिति समानम् । श्लोकस्य तु पदान्युच्चारणानुरोधात् क्रमेण पठयन्ते, नेकज्ञानसंसर्गाणि । तेषु यत्र तु बहुतरः संस्कारो जातस्तत् स्मर्यते, नापरमिति नास्त्यनुपपत्तिः।
एवमुपलभ्यमानस्यापि वस्तुनो यत् प्राक्तनाभावज्ञानं प्रागिदमिह नासीदिति ज्ञानम्, तदपि प्रतियोगिनः प्राक्तनास्तित्वे स्मर्यमाणे तत्सत्तास्मृत्यभावादनुमानम्।
ये तु स्मृत्यभावमप्यभावं प्रमाणमाचक्षते तेषाम् "अभावोऽपि प्रमाणाभावः" इति भाष्यविरोधः, "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते" इत्यादिवात्तिकविरोधश्चेत्यलं बहुना ।
ये पुनरेवमाहुः-अभावरूपस्य प्रमेयस्याभावान्न साध्वी तस्य प्रमाणचिन्तेति। त इदं प्रष्टव्याः-नास्तीति संविदः किमालम्बनम् ? यदि न किञ्चित् ?
नहीं होता है, अतः उस समय देवकुल में देवदत्त नहीं थे, क्योंकि उस समय देवकुल में देवदत्त के अभाव के बिना उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती। किसी श्लोक के एक अंश की स्मृति और दूसरे अंश की देवदत्त की उक्त अस्मृति की स्थिति ही भिन्न है, क्योंकि श्लोक के प्रत्येक पद अलग अलग पढ़े जाते हैं, एवं उनके ज्ञान भी अलग अलग क्रमशः ही उत्पन्न होते हैं, अत: श्लोक रूप वाक्य के कोई भी अनेक अंश एक ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होते। सुतराम् श्लोक के प्रत्येक पद के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला संस्कार अलग अलग है। इन संस्कारों में से जिन पदों के संस्कारों में दृढ़ता अधिक होती है, उनके द्वारा उन पदों का स्मरण होता जाता है, और जिन पदों के संस्कार दुर्बल होते हैं, उनका स्मरण नहीं होता है । अतः श्लोक के प्रसङ्ग में भी कोई अनुपपत्ति नहीं है।
इसी प्रकार वर्तमान काल में जिस वस्तु को उपलब्धि है, उसके पूर्वकालिक अभाव की जो इस आकार की प्रतीति होती है कि 'यह पहिले नहीं था', वह ( प्रतीति ) भी अनुमान ही है। क्योंकि इस अभाव के प्रति योगी का पूर्वकालिक अस्तित्व के स्मत होने पर भी अधिकरण में उसकी सत्ता की स्मृति न होने से ही उक्त प्राक्तन अभाव की प्रतीति उत्पन्न होती है।
( मीमांसकों का) जो सम्प्रदाय स्मृति के अभाव को भी 'अभाव' प्रमाण मानता है, उसको "अभावोऽपि प्रमाणाभावः” इस शाबरभाष्य और "प्रमाणपञ्चकं यत्र" इत्यादि उसके वात्तिक दोनों के विरोध का सामना करना पड़ेगा ?
जो कोई यह कहते हैं कि (प्र०) अभाव नाम का कोई अलग प्रमेय ही नहीं है, अतः उसके प्रमाण की बात ही अनुचित है। (उ०) उनसे यह पूछना चाहिए
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
७०
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दत्तः स्वहस्तो निरालम्बनं विज्ञानमिच्छतां महायानिकानाम् । अथ भूतलमालम्बनम् ? कण्टकादिमत्यपि भूतले कण्टको नास्तीति संवित्तिः, तत्पूर्वकश्च निःशङ्कं गमनागमन लक्षणो व्यापारो दुर्निवारः । केवलभूतलविषयं 'नास्तोति' संवेदनम्, कण्टकसद्भावे च कैवल्यं निवृत्तमिति प्रतिपत्तिप्रवृत्त्योरभाव इति चेत् ? ननु किं कैवल्यं भूतलस्य स्वरूपमेव ? किमुत धर्मान्तरम् ? स्वरूपं तावत् कण्टकादिसंवेदनेऽप्यपरावृत्तमिति स एव प्रतिपत्तिप्रवृत्योरविरामो दोषः 1 धर्मान्तरपक्षे च तत्त्वान्तरसिद्धिः ।
५५३
अथ मन्यसे भाव एकाकी सद्वितीयश्चेति द्वयीमवस्थामनुभवति । तत्रैकाकीभावः स्वरूपमात्रमिति केवल इति चोच्यते तादृशस्य तस्य दृश्ये
कि 'नास्ति' इस आकार की बुद्धि का विषय ( प्रमेय ) कौन है ? इस प्रश्न के उत्तर में वे यदि यह कहें कि ( प्र०) उस बुद्धि का कोई भी विषय नहीं है, क्योंकि उक्त भाष्य और वातिक दोनों ही में 'प्रत्यक्षादि पाँचों प्रमाणों को अनुत्पत्ति' को ही 'अभाव' प्रमाण कहा गया है। किसी के भी मत से स्मृति प्रमाण नहीं है, अतः स्मृति के किसी भी अभाव का प्रामाण्य भाष्य और वार्तिक के द्वारा अनुमोदित नहीं हो सकता । ( उ० ) तो फिर बिना विषय के ही विज्ञान की इच्छा करनेवाले महायान के अनुयायियों को हो तरफ आप अपना हाथ बढ़ाते हैं । यदि इस प्रश्न के उत्तर में यह कहें कि (प्र० ) ( कण्टकाभावादि का ) भूतल रूप आश्रय ही उक्त 'नास्ति' प्रत्यय का विषय है, ( उ०) तो फिर काँट प्रभृति से युक्त भूतल में भी 'कण्टको नास्ति' इस आकार को बुद्धि होगी, जिससे कि ( निष्कण्टक भूमि की तरह ) काँटों से युक्त भूतल में भी निःशङ्क होकर जाना जाना सम्भव हो जाएगः । ( प्र०) 'नास्ति' इस प्रकार की उक्त बुद्धि का 'केवल' भूतल ही विषय है। फाँट के रहने पर भूतल से यह 'कैवल्य' हट जाता है यत भूतल में काँट के न न इस 'प्रतिपत्ति' की आपत्ति ही होती है, और प्रवृत्ति हो हो पाती हूँ । ( उ० ) इस प्रसङ्ग में भूतल स्वरूप है, या उससे भिन्न कोई दूसरा फिर ) भूतल में कण्टकादि ज्ञान के समय भी ( इस पक्ष में भी उक्त निःशङ्क प्रवृत्ति की, और कण्टक के रहने 'कण्टको नास्ति' इस ज्ञान की आपत्ति रहेगी ही । यदि कैवल्य को भूतल से भिन्न कोई दूसरा धर्म मानें तो (अभाव की तरह) किसी दूसरे पदार्थ का मानना आवश्यक ही होगा । दो अवस्थायें होती हैं ( १ ) एकाकी 'एकाकी' अवस्था से युक्त भूतल ही भूतल में ( घटभाव ) प्रतियोगी
रहने पर भूतल में 'कण्टको नास्ति' न गमन और आगमन को निःशङ्क पूछना है कि भूतल का यह 'कैवल्य' धर्म है ? ( यदि पहिला पक्ष मानें तो मूतल स्वरूप वह ) कैवल्य है हो । अतः पर भी भूतल में
यदि यह कहें कि ( प्र०) भाव की अवस्था और ( २ ) सद्वितीयावस्था | इनमें 'स्वरूप मात्र ' कहलाता है । इस केवल
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५५४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्य
नेऽभावान्तर्भावन्यायकन्दली प्रतियोगिनि घटादौ जिघृक्षिते सत्युपलब्धिघटाद्यभावव्यवहारं प्रवर्तयतीति।
अत्रापि ब्रूमः-घटादेरभावाद् भूतलं च व्यतिरेच्यकाकिशब्दस्यार्थः कः समर्थितो भवद्भिर्यो हि नास्तीति प्रतिषेधधिय आलम्बनम् ? नहि विषयवैलक्षण्यमन्तरेण विलक्षणाया बुद्धरस्त्युदयः, नापि व्यवहारभेदस्य संभवः । स्वाभाविकं यदेकत्वं भावस्य तदेवैकाकित्वमिति चेत् ? किमेकत्वं प्रतियोगिरहितत्वम् ? एकत्वसंख्या वा ? एकत्वसंख्या तावद् यावदाश्रयभाविनी भावस्य सद्वितीयावस्थायामप्यनुवर्तते। अथ प्रतियोगिरहितत्वं स्वाभाविकमेकत्वमुच्यते, सिद्धं प्रमेयान्तरम्।
नन्वभाववादिनोऽपि भूतलग्रहणमभावप्रतीतिकारणम्, अप्रतीते भूतले तत्राभावप्रतीतेरयोगात् । तत्र न तावत् कण्टकादिसहितभूतलोपलम्भात् कण्टको घटादि के ग्रहण की इच्छा से जब केवल भूतल को उपलब्धि होती है ( अर्थात् घटयुक्त भूतल की उपलब्धि नहीं होती है) तब ( भूतल की ) वही उपलब्धि भूतल में घटाभाव से व्यवहार को उत्पन्न करती है ।
(उ०) इस प्रसङ्ग में भी हम लोगों का कहना है कि भूतल शब्द के साथ प्रयुक्त 'एकाको' शब्द का भूतल और घटाभाव को छोड़कर और कौन सा अर्थ आप लोग मानते हैं, जिसे आप 'भूतले घटो नास्ति' इस प्रतिषेधबुद्धि का विषय कहते हैं ? विषयों की विलक्षणता के बिना बुद्धियों की विलक्षणता सम्भव नहीं है । एवं बुद्धियों की विभिन्नता के बिना ( शब्द प्रयोग रूप ) विभिन्न व्यवहार भी सम्भव नहीं हैं। (प्र०) ( भूतलादि आश्रय रूप) भावों में जो स्वाभाविक 'एकत्व' है वही उसका एकाकित्व (या एकाकी अवस्था) है। (उ०) यह एकत्व (भूतल में रहनेवाले घटाभाव के ) प्रतियोगी का ( भूतल में ) न रहना ही है ? या उसमें रहने वाली एकत्व संख्या रूप है ? यदि एकत्व संख्या रूप मानें तो वह एकाकित्व भूतल रूप आश्रय जब तक रहेगा तब तक-घट की सत्ता के समय भी-भूतल में रहेगा ही ( अर्थात् भूतल में घट रहने की दशा में भी घटाभाव की प्रतीति की आपत्ति होगी )। यदि उस स्वाभाविक एकत्व को भूतलादि में घटादि प्रतियोगियों का न रहना ही मानें, तो फिर अभाव रूप अलग स्वतन्त्र पदार्थ स्वीकृत ही हो गया।
(प्र.) जो सम्प्रदाय अभाव को स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं, उनके मत से भी जब तक भूतल की प्रतीति नहीं होती, तब तक भूतल में अभाव की प्रतीति नहीं होती है। अतः उनके मत से भी भूतल की प्रतीति भूतल में अभाव प्रतीति का कारण है ही। किन्तु कण्टक सहित भूतल के ग्रहण से भूनल में 'कण्टको नास्ति' इस अभाव की प्रतीति नहीं होती है । यदि कण्टकादि के अभाव से युक्त भूतल को
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५५५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली नास्तीति प्रतीतिः । अभावविशिष्टभूतलग्रहणस्याभावप्रतीतिहेतुत्वे च (भावग्रहणे) तदभावग्रहणे तदभावविशिष्टभूतलग्रहणम्, तदभावविशिष्टाद् भूतलग्रहणाच्चाभावग्रहणमिति स्वयमेव स्वस्य कारणमभ्युपगतं स्यात् । तस्मादभावव्यतिरिक्ता प्रतियोगिसंसर्गव्यतिरेकिणी भूतलस्य त्वयापि काचिदेकाकित्वावस्थाभ्युपगन्तव्या, यस्याः प्रतीतावभावप्रतीतिः स्यात्, सैवास्माकं नास्तीति व्यवहारं प्रवर्तयतीति । तदप्ययुक्तम्, भूतलस्वरूपग्रहणस्यैवाभावप्रतीतिहेतुत्वात् । न च सद्वितीयग्रहणेऽप्येतत्प्रतीतिप्रसङ्गः, भूतलग्रहणवदभावेन्द्रियसन्निकर्षोऽप्यभावग्रहणसामग्री, कण्टकादिसद्धावे तदभावो नास्तीति विषयेन्द्रियसन्निकर्षाभावात् सत्यपि भूतलग्रहणे नाभावप्रतीतिः। नहि चक्षुरालोकादिकमुपलम्भकारणमस्तीति यद्यत्र नास्ति तदपि तत्र प्रतीयते । तदेवं सिद्धोऽभावः ।
प्रतीति को भूतल में कण्टकाभाव को प्रतीति का कारण मानें, तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि 'भूतल में कण्ट काभाव के ग्रहण से ही कण्टकाभाव से युक्त भूतल का ग्रहण होता है' एवं 'कण्टकाभाव विशिष्ट भूतल के ग्रहण से ही भूतल में कण्टकाभाव का ग्रहण होता है' इन दोनों का इस अनिष्टापत्ति में पर्यवसान होगा कि 'वस्तु स्वयं ही अपना कारण है' । तस्मात् आप ( अभाव को स्वतन्त्र पदार्थ माननेवाले) को भी भूतल की कोई ऐसी 'एकाकी अवस्था' माननी ही होगी, जो कण्टका भावादि स्वरूप न हो, एवं भूतल में कण्टक रूप प्रतियोगी की मत्त्व दशा में न रहे, जिससे भूतल में कण्टकाभाव का व्यवहार हो सके । भूतल को वही एकाकी अवस्था भूतल में कण्टकाभाव के व्यवहार का कारण होगा ( इसके लिए अभाव को स्वतन्त्र पदार्थ मानने की आवश्यकता नहीं है । (उ०) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि केवल भूतल का ग्रहण ही भूतल में होनेवाले कण्टकाभावादि के प्रत्ययों का कारण है। (प्र.) तो फिर जिस समय भूतल में कण्टकादि दूसरी वस्तुओं का प्रत्यय होता है, उस समय कण्टकाभावादि की प्रतीतियां क्यों नहीं होती? ( उ० ) चूंकि भतल में कण्ट कामाव के प्रत्यक्ष (ग्रहण) के लिए जिस कारण समूह की अपेक्षा है, उसमें भूतल ग्रहण की तरह कण्टकाभाव के साथ इण्द्रिय का स नकर्ष भी निविष्ट है । भूतल में जिस समय कण्टक की सता रहती है, उस समय कण्टका गाव रूप विषय नहीं रहता है। अतः उस समय कण्टकाभाव रूप विषय के साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष सम्भव नहीं है । ( भूतल में कण्टक की सत्त्व दशा में) भूतल का प्रत्यक्ष रहने पर भी, कण्टकाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता है । यह तो सम्भव नहीं है कि प्रकाश एवं चक्षु प्रभृति प्रत्यक्ष के कारण विद्यमान हैं, केवल इसीलिए जो जहाँ नहीं भी है, उसका भी वहाँ प्रत्यक्ष हो। इस प्रकार यह सिद्ध है कि अभाव नाम का स्वतन्त्र पदार्थ अवश्य है।
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म्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽभावान्तर्भाव
न्यायकन्दली स च चतुर्दूहः-प्रागभावः, प्रध्वंसाभावः, इतरेतराभावः, अत्यन्ताभावश्चेति।
प्रागुत्पत्तेः कारणेषु कार्यस्याभावः प्रागभावः, तत्र प्राक् कार्योत्पत्तेः पूर्वमभावो विशेषस्य प्रागभावः स चानादिरप्यनित्यः, कार्यात्पादेन तस्य विनाशात्, अविनाशे च कार्यस्योत्पत्त्यभावात् । कः प्रागभावस्य विनाशः ? वस्तूत्पाद एव । निवृत्ते वस्तुनि प्रागभावोपलब्धिप्रसङ्ग इति चेत् ? वस्तुवद् वस्त्ववयवानामप्यारब्धकार्याणां प्रागभावविनाशलक्षणत्वात्।
उत्पन्नस्य स्वरूपप्रच्युतिः प्रध्वंसाभावः। स चोत्पत्तिमानप्यविनाशी, भावस्य पुनरनुपलम्भात् । प्रागभूतस्य पश्चाद्भाव उत्पादः, प्रध्वंसस्य कः
(१) प्रागभाव, (२) प्रध्वंसाभाव (३) इतरेतराभाव (अन्योन्याभाव या भेद ) और (४) अत्यन्ताभाव, अभाव के ये चार भेद हैं ।
(१) उत्पत्ति से पहिले ( समवाय ) कारणों में कार्य का जो अभाव रहता है वही प्रागभाव है (प्रागभाव शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि ) 'प्राक्' अर्थात् कार्य को उत्पत्ति से पहिले 'अभा' अर्थात् कार्य रूप 'विशेष' का अभाव ही 'प्रागभाव' है। यह अनादि होने पर भी बिनाशशील है, यदि प्रागभाव को अविनाशी मानें तो कार्य की उत्पत्ति ही न हो सकेगी। अतः (प्रतियोगिभूत ) कार्य की उत्पत्ति से उसका विनाश मानना आवश्यक है । (प्र०) प्रागभाव का विनाश कौन सी वस्तु है ? (उ.) प्रतियोगिभूत वस्तु की उत्पत्ति ही उसके प्रागभाव का विनाश है। (प्र०) तो फिर उस वस्तु के विनष्ट हो जाने पर उस वस्तु के पागभाव की फिर से उपलब्धि होनी चाहिए ? (उ०) (प्रागभाव के विनाश को प्रतियोगी का उत्पत्ति स्वरूप मानने पर भी यह आपत्ति ) नहीं है क्योंकि प्रागभाव का विनाश जिस प्रकार प्रागभाव के प्रतियोगी रूप वस्तु का उत्पत्ति रूप है, उसी प्रकार उस वस्तु के कारणीभूत उन अवयवों के स्वरूप भी हैं, जिन अवयवों से कार्य की उत्पत्ति हो चुकी है।
(२) उत्पन्न हुए कार्य का जपने स्वरूप से हटना ही ( उसका ) 'प्रध्वंसाभाव' है । यह अभाव उत्पत्तिशील होने पर भी विनाशशील नहीं है, क्योंकि विनष्ट हुए भाव व्यक्ति की फिर कभी उपलब्धि नहीं होती है। (प्र.) पहिले से जिसका प्रागभाव रहता है, बाद में उसकी सत्ता ही उस वस्तु की उत्पत्ति कहलाती है, किन्तु प्रध्वंस का प्रागभाव कौन सी वस्तु है ? ( उ०) 'प्रध्वंस के प्रतियोगिभूत वस्तु की सत्ता ही
१. अर्थात जिसकी उत्पत्ति होगी, उसका यदि प्रागभाव मानना आवश्यक हो तो प्रध्वंस का भी प्रागभाव मानना आवश्यक होगा, क्योंकि वह भी उत्पत्तिशील है । अतः प्रश्न उठता है कि प्रध्वंस का प्रागभाव क्या है ?
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न्यायकन्दली
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प्रागभावः ? यस्यार्थस्य यः प्रध्वंसः, तस्यार्थस्य स्वरूपस्थितिरेव तत्प्रध्वंसस्य प्रागभावः । यथा वस्तुत्पत्तिरेव तत्प्रागभावस्य विनाश:, तथा प्रध्वंसोत्पत्तिरेव तत्प्रागभावस्य विनाशः । यदसद्भूतं तस्य कथमभाव इति न परिचोद्यम्, कारणसामर्थ्यस्यापर्यनुयोज्यत्वात् ।
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rasaranaissa च गोरभाव इतरेतराभावः । स च सर्वत्रैको नित्य एव, पिण्डविनाशेऽपि सामान्यवत् पिण्डान्तरे प्रत्यभिज्ञानात् । यथा सामान्यमदृष्टवशादुपजायमानेनैव पिण्डेन सह सम्बद्धयते, नित्यत्वं च स्वभावसिद्धम्, तथेतरेतराभावोऽपि । इयांस्तु विशेष:- पिण्डग्रहणमात्रेण सामान्यग्रहणम्, इतरेतराभावग्रहणं तु प्रतियोगिसापेक्षम्, पररूपनिरूपणीयत्वात् ।
अत्यन्ताभावो यदसतः प्रतिषेध इति । इतरेतराभाव एवात्यन्ताभाव इति चेत् ? अहो राजमार्ग एव भ्रमः ? इतरेतराभावो हि स्वरूपसिद्धयोरेव उस प्रध्वंस का प्रागभाव है। जिस प्रकार प्रतियोगिभूत वस्तु की उत्पत्ति ही उसके प्रागभाव का विनाश है, उसी प्रकार प्रध्वंस की उत्पत्ति हो उसके प्रागभाव का विनाश हैं । यह अभियोग करना युक्त नहीं है कि ( प्र० ) जो ( प्रागभाव ) स्वयं अभाव स्वरूप है, उसका अभाव कैसे निष्पन्न होगा ? ( उ० ) क्योंकि कारणों का सामथ्यं सभी अभियोगों से बाहर है ।
( ३ ) गो में अश्व का अभाव और अश्व में गो का जो अभाव है, वही 'इतरेतराभाव' हैं । वह समवाय की तरह अपने सभी आश्रयों में एक ही है, और नित्य भी हैं, क्योंकि आश्रयीभूत एक वस्तु के विनष्ट हो जाने पर भी उसी प्रकार की दूसरी वस्तु में उसका भान होता है । जैसे कि ( घटत्व ) सामान्य के आश्रयीभूत एक घट का नाश हो जाने पर भी दूसरे घट में उसका प्रत्यभिज्ञान होता है । एवं जिस प्रकार घटादि वस्तुओं के उत्पन्न होते ही अदृष्ट रूप कारणवश सामान्य उनके साथ सम्बद्ध हो जाता है । एवं जिस प्रकार सामान्य में नित्यत्व स्वभावतः प्राप्त है । उसी प्रकार ये सभी बातें इतरेतराभाव ( अन्योन्याभाव या भेद ) में भी समझना चाहिए । ( सामान्य और इतरेतराभाव इन दोनों में उक्त सादृश्यों के रहते हुए भी ) इतना अन्तर है कि केवल आश्रय का ज्ञान होते ही सामान्य का ज्ञान हो जाता है । किन्तु इतरेतराभाव को समझने के लिए ( उसके आश्रय के अतिरिक्त ) उसके प्रतियोगी के ज्ञान की भी अपेक्षा होती है । क्योंकि सभी अभाव को समझने के लिए प्रतियोगी रूप दूसरी वस्तु के ज्ञान को अपेक्षा होती है ।
( प्र० ) अत्य
राजमार्ग में ही
सर्वथा अविद्यमान वस्तु का जो निषेध वही 'अत्यन्ताभाव' है । न्ताभाव इतरेतराभाव से भिन्न कोई वस्तु नहीं है । ( उ० ) यह तो भूल होने जैसी बात है, क्योंकि जहाँ प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों की सत्ता रहती हैं, किन्तु परस्पर एक के तादात्म्य का दूसरे में निषेध किया जाता है, वहाँ इतरेतराभाव माना जाता है । किसी सिद्ध आश्रय में सर्वथा अविद्यमान किन्तु केवल बुद्धि में आरो
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेऽन्मानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् तथैवैतिद्यमप्यवितथमाप्तोपदेश एवेति । पञ्चावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानु
इसी प्रकार 'ऐतिह्य' भी सत्य अर्थ के बोधक एवं आप्त से उच्चरित शब्द प्रमाण ही है ( फलत: अनुमान ही है)।
अपने निश्चित अर्थ को दूसरे को समझाने के लिए ( प्रसिद्ध ) पाँच अवयव ( पञ्चावयव ) वाक्यों का प्रयोग ही 'परार्थानुमान' है। ( अर्थात् )
न्यायकन्दली गवाश्वयोरितरेतरात्मताप्रतिषेधः। अत्यन्ताभावे तु सर्वथा असद्भूतस्यैव बुद्धावारोपितस्य देशकालानवच्छिन्नः प्रतिषेधः । यथा षट्पदार्थेभ्यो नान्यत् प्रमेय. मस्तीति । यदि चात्यन्ताभावो नेष्यते, षडेव पदार्था इत्ययं नियमो दुर्घट: स्यात् ।
ऐतिह्यमप्यवितथमाप्तोपदेश एव इति है' इति निपातसमुदाय उपदेशपारम्पयें वर्तते, तत्रायं स्वार्थिकः ष्यञ् प्रत्ययः, ऐतिह्यमिति ।
वितथमैतिां तावत् प्रमाणमेव न भवति । अवितथमाप्तोपदेश एव । आप्तोपदेशश्चानुमानम् । तस्मादवितथमैतिामनुमानान्न व्यतिरिच्यते इत्यभिप्रायः ।
। परार्थानुमानव्युत्पादनार्थमाह--पञ्चावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानमिति । प्रतिपादनीयस्यार्थस्य यावति शब्दससूहे प्रतीतिः पर्यवस्यति, तस्य पञ्चभागा: समूहापेक्षयावयवा इत्युच्यन्ते । स्वयं साध्यानन्तरीयकत्वेन निश्चितोऽर्थः स्वनिश्चितार्थः, साध्याविनाभूतं लिङ्गम् । पित वस्तु का इस आश्रय में यह कभी किसी भी प्रदेश में नहीं है' इस प्रकार का प्रतिषेध ही अत्यन्ताभाव है ! जैसे द्रव्यादि छः पदार्थो से अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है ( इस प्रकार का प्रतिषेध अत्यन्ताभाव रूप है ) यदि अत्यन्ताभाव न माने तो 'पदार्थ छः ही हैं' इस प्रकार का अवधारण कठिन होगा।
___ऐतिह्यमप्यवितथमाप्तोपदेश एव' इस वाक्य में प्रयुक्त 'ऐतिह्य' शब्द इति ह इन दोनों निपातों से स्वार्थ में 'ध्यञ्' प्रत्यय से निष्पन्न होता है। ये दोनों निपात ‘परम्परा से प्राप्त उपदेश' रूप अर्थ के बोधक हैं ।
__ अभिप्राय यह है कि जो 'ऐतिह्य' रूप वचन ( या उपदेश ) असत्य है, वह तो प्रमाण ही नहीं है। जो ऐतिह्य प्रमा ज्ञान का उत्पादक है, वह आप्तवचन को छोड़कर और कुछ भी नहीं है। (यह उपपादन कर चुके हैं कि ) आप्तोपदेश अनुमान से भिन्न कोई प्रमाण नहीं है । अतः ऐतिह्य भी अनुमान से भिन्न कोई प्रमाण नहीं है।
'पञ्चावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानम्' यह वाक्य परार्थानुमान को समझाने के लिए कहा गया है। अभीष्ट अर्थ की प्रतीति जिन शब्दों के समूह से सम्पन्न होती है, उसके पाँच खण्ड होते हैं। वाक्य के वे ही पाँच खण्ड वाक्यसमूह की अपेक्षा ( अर्थात् उक्त समूह को अवयवो मानकर ) उसके अवयव कहलाते हैं | 'स्वयं साध्यानन्तरीयकत्वेन निश्चितोऽर्थः स्वनिश्चितार्थः' इस व्युत्पत्ति के
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तस्य पञ्चावयवेन वाक्येन प्रतिपादनं तत्प्रतिपत्तिजननसमर्थपञ्चावयववाक्यप्रयोगः परार्थानुमानम् । पञ्चावयवं हि वाक्यं यावत्सु रूपेषु लिङ्गस्य साध्या. विनाभावः परिसमाप्यते तावद्रूपं लिङ्ग प्रतिपादयति । तत्प्रतिपादिताच्च लिङ्गात् साध्यसिद्धिः । न वाक्यमेव साध्यं बोधयति, तस्य शाब्दत्वप्रसङ्गात् । तस्मादविनाभूतलिङ्गाभिधायकवाक्यप्रयोग एव परार्थानुमानमुच्यते ।
अपरे तु यत्परः शब्दः स शब्दार्थः, वाक्यं च साध्यपरम्, तत्प्रतिपादनार्थमस्य प्रयोगात् । लिङ्गप्रतिपादनं त्ववान्तरव्यापारः, वचनमात्रेण विप्रतिपन्नस्य साध्यप्रतीतेरभावादिति वदन्त एवं व्याचक्षते-स्वनिश्चितार्थः साध्यः, तस्य लिङ्गप्रतिपादनमेवावान्तर व्यापारीकृत्य पञ्चावयवेन वाक्येन प्रतिपादनं तत्प्रतिपादकवाक्यप्रयोगः परार्थानुमानमिति ।।
स्वोक्तं विवृणोति-पञ्चावयवेनैवेत्यादिना । द्वयवयवमेव वाक्य
अनुसार साध्य को व्याप्ति से युक्त वस्तु हो (प्रकृत वाक्य में प्रयुक्त ) 'स्वनिश्चित' शब्द का अर्थ है । उस ( स्वनिश्चित अर्थ रूप साध्यव्याप्त हेतु ) का पञ्चावयव वाक्य के द्वारा जो 'प्रतिपादन' अर्थात् साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु विषयक बोध के उत्पादन में क्षम पञ्चावयव वाक्य का प्रयोग, वही परार्थानुमान है। जिन धर्मों के द्वारा हेतु में साध्य की व्याप्ति पूर्ण रूप से समझी जाती है, उन धर्मों से युक्त हेतु का ही प्रतिपादन पञ्चावयव वाक्य से होता है। पञ्चावयव वाक्य के द्वारा प्रतिपादित उक्त हेतु से ही साध्य का बोध ( अनुमिति ) होता है, साक्षात् पञ्चावयव वाक्य से साध्य की अनुमिति नहीं होती है, यदि ऐसी बात हो तो साध्य का उक्त बोध अनुमिति न होकर शाब्दबोध हो जाएगा। अतः साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु के बोधक पञ्चावयव वाक्यों के प्रयोग को ही 'परार्थानुमान' कहा जाता है ।
दूसरे सम्प्रदाय के कुछ लोग कहते हैं कि जिस विषय को समझाने के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है, वही विषय उस शब्द का अर्थ होता है । पञ्चावयव वाक्य साध्य को समझाने के लिए हो प्रयुक्त होता है, अतः साध्य ही पञ्चावयव वाक्य रूप शब्द का प्रतिपाद्य अर्थ है। चूंकि केवल पञ्चावयव रूप वाक्य के प्रयोग से भ्रान्त व्यक्ति को साध्य का बोध नहीं होता है, अतः मध्यवर्ती व्यापार के रूप में (साध्यव्याप्य हेतु का ज्ञान ) आवश्यक होता है। ये लोग प्रकृत वाक्य की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि साध्य ही प्रकृत 'स्वनिश्चितार्थ' शब्द से अभिप्रेत है। इसी 'साध्य' का प्रतिपादन पञ्चावयव वाक्य से ( मुख्यतः) होता है । इतना अवश्य है कि इस काम के लिए उसे साध्यव्याप्यहेतुज्ञान को बीच का व्यापार मानना पड़ता है। अतः साध्य के ज्ञापक पञ्चावयव वाक्यों का प्रयोग ही 'परार्थानुमान है।
'पञ्चावयबेनैव वाक्येन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा भाष्यकार ने अपने 'पञ्चावयवेन वाक्येन' इत्यादि अनी ही पङ्क्ति की व्याख्या की हैं। किसी सम्प्रदाय के लोग
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
नेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् मानम् । पञ्चावयवेनैव वाक्येन संशयितविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां परेषां स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानं विज्ञेयम् । अपने निश्चित अर्थ विषयक संशय या विपर्यय अथवा अव्युत्पत्ति से युक्त पुरुषों को पञ्चावयव वाक्य के द्वारा ही उस अर्थ को समझाने के लिए उक्त ( अपने निश्चित ) अर्थ का ( पञ्चावयव वाक्य के द्वारा ) प्रतिपादन ही 'परार्थानुमान' समझना चाहिये।
न्यायकन्दली मित्येके। व्यवयवमित्यपरे । तत्प्रतिषेधार्थमेवकारकरणम्-पञ्चावयवेनैवेति । प्रतिपाद्येऽर्थे यस्य संशयोऽस्ति स संशयितः, यस्य विपर्ययज्ञानं स विपरीतः, यस्य न संशयो न विपर्ययः किन्तु स्वज्ञानमात्रं सोऽव्युत्पन्नः, त्रयोऽपि ते प्रतिपादनार्हाः, तत्त्वप्रतीतिविरहात् ।।
यो यानि पदानि समुदितानि प्रयुङ्क्ते, स तत्पदार्थसंसर्गप्रतिपादनाभिप्रायवानिति सामान्येन स्वात्मनि नियमे प्रतीते पश्चात् पदसमूहप्रयोगाद् वक्तुस्तपदार्थसंसर्गप्रतिपादनाभिप्रायावगतिद्वारेण पदेभ्यो वाक्यार्थानुमानं न तु पदार्थे. भ्यस्तत्प्रतीतिः। नहि पदार्थो नाम प्रमाणान्तरमस्ति मीमांसकानाम् । नापि वाक्यार्थप्रतिपादनाय पदैः प्रत्येकमभिधीयमानानां पदार्थानां वाक्यार्थप्रतिपादनदो ही अवयव मानते हैं। अन्य सम्प्रदाय के लोग तीन अवयव मानते हैं। इन दोनों मतों का खण्डन करने के लिए ही 'एवकार' से युक्त 'पञ्चावयवेनैव' यह वाक्य लिखा गया है। प्रतिपादन के लिए अभिप्रेत अर्थ में जिसे संशय रहता है, वही पुरुष प्रकृत में 'संशयित' शब्द का अर्थ है। एवं जिसे उक्त अर्थ का विपर्यय रहता है, वही व्यक्ति विपरीत ( या 'विपर्यस्त' शब्द का अर्थ ) है। जिस पुरुष को प्रकृत अर्थ का न संशय ही है, न विपर्यय ही, केवल स्वज्ञान ही है, वही पुरुष प्रकृत में अव्युत्पन्न शब्द का अर्थ है। इन तीन प्रकार के पुरुषों को ही विषयों का समझना उचित है, क्योंकि इन्हें साध्य का तत्त्व ज्ञात नहीं रहता है।
'जो पुरुष जिन अनेक पदों का साथ साथ प्रयोग करता है उसका यह अभिप्राय भी अवश्य ही रहता है, कि उनमें से प्रत्येक पद का अर्थ परस्पर सम्बद्ध होकर ज्ञात हो। अपने स्वयं इत नियम को समझने के बाद ही पद समूह ( रूप) वाक्य के प्रयोग से वक्ता का यह अभिप्राय ज्ञात होता है कि वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद के अर्थ परस्पर सम्बद्ध होकर ज्ञात हों। वक्ता के इस अभिप्राय विषयक ज्ञान के द्वारा पदों से ही वाक्यार्थ का ज्ञान होता है, पद के अर्थों से वाक्यार्थ की प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि मीमांसकों के मत में भी पदार्थ नाम का कोई प्रमाण नहीं है। यह कहना भी सम्भब नही है कि (प्र.) वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद के द्वारा उपस्थित सभी
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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शक्तिराविर्भवति, प्रमेयप्रतीतिमात्रव्यापारस्य प्रमेयशक्त्याधायकत्वाभावात् । तस्मात् पदार्था वाक्यार्थं प्रतिपादयन्तो लिङ्गत्वेन वा प्रतिपादयेयुरन्यथानुपपत्त्या वा, उभयथाऽप्यशाब्दो वाक्यार्थः स्यात् ।
ननु किं पदानि प्रत्येकमेकैकमर्थं प्रतिपादयन्ति वाक्यार्थस्य लिङ्गम् ? किं वा परस्परान्वितं स्वाथं बोधयन्ति ? अत्रके तावदाहु: - व्युत्पत्त्यपेक्षया पदानामर्थ प्रतिपादनम् । व्युत्पत्तिश्च गामानय गां बधानेत्यादिषु वृद्धव्यवहारेषु क्रियान्वितेषु कारकेषु कारकान्वितायां वा क्रियायाम्, न स्वरूपमात्रे । अत: परस्परान्विता एव पदार्थाः पदैः प्रतिपाद्यन्त इति ।
प्रमाणस्य
५६१
अत्र निरूप्यते - यदि गामानयेत्यादिवाक्ये गामिति पदेनैवानयेत्यर्थान्वितः स्वार्थोऽभिहितस्तदानयेतिपदं व्यर्थम् उक्तार्थत्वात् । आनयेतिपदेनानयनार्थेऽभिहिते सत्यानयेत्यर्थान्वितः स्वार्थो गोपदेनाभिधीयते, तेनानयेति पदस्य
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अर्थों में उन पदों से वाक्यार्थ विषयक विशिष्ट बोध के लिए एक विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है । ( उ० ) क्योंकि प्रमाण का इतना ही काम है कि वह प्रमेय के ज्ञान को उत्पन्न करे, उसमें यह सामर्थ्य नहीं है कि प्रमेय में अपने ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति को भी उत्पन्न करे । तस्मात् पदों के अर्थ लिङ्ग बनकर वाक्यार्थ का प्रतिपादन करे या अन्यथानुपपत्ति के द्वारा दोनों ही प्रकार से यह निश्चित है कि ( इस पक्ष में ) शब्द के द्वारा वाक्यार्थ की उपस्थिति नहीं मानी जा सकती ।
( प्र ० ) ( वाक्य में प्रयुक्त ) प्रत्येक पद अलग २ अपने अपने अर्थों का प्रतिपादन करते हुए वाक्यार्थं के ज्ञापक हेतु हैं ? अथवा वे पद परस्पर अम्वित होकर वाक्यार्थ विषयक ज्ञान को उत्पन्न करते हैं ? इस प्रसङ्ग में एक सम्प्रदाय के ( अन्विताभिधानवादी ) लोगों का कहना है कि व्युत्पत्ति ( शक्ति या अभिधावृत्ति ) के सहारे ही पदों से अर्थ का प्रतिपादन होता है । यह व्युत्पत्ति 'गामानय, गां बन्धय' इत्यादि स्थलों में वृद्धों के व्यवहार से गृहीत होती देखी जाती है । वृद्ध के इन व्यवहारों से क्रियाओं के साथ अन्वित कारकों में या कारकों के साथ अन्वित क्रियाओं गृहीत होती है, केवल कारकों में या केवल क्रियाओं में
में
ही पदों की शक्ति ( व्युत्पत्ति ) नहीं । अतः परस्पर अन्वित
।
( अर्थात् इतरान्वित स्वार्थ में ही पदों की
अर्थ ही पदों के द्वारा प्रतिपादित होते हैं शक्ति है, केवल स्वार्थ में नहीं ) ।
इस प्रसङ्ग में हम ( अभिहितान्वयवादी ) लोग यह विचार करते हैं कि यदि 'गामानय' इस वाक्य में प्रयुक्त केवल 'गाम्' यह पद ही आनयन रूप अर्थ में अन्वित गो रूप अपने अर्थ को समझाता है, तो फिर आनय' पद के प्रयोग का क्या प्रयोजन ? उसका आनयन रूप अर्थ तो 'गामुळे पद से ही कथित हो 'आनय' पद से आनयन रूप अर्थ के कथित होने के बाद ही आनयन रूप अर्थ में अन्वित गो रूप के स्वार्थ का प्रतिपादन 'गो'
जाता है । ( प्र० )
शब्द से होता है, अतः उक्त वाक्य में 'आन'
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__ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽवयव
न्यायकन्दली न वैयर्थ्यमिति चेत् ? तानयेति पदं केवलं स्वार्थमात्रमाचक्षाणमनन्विताभिधायि प्राप्तम् । यथा चेदमनन्वितार्थ तथा पदान्तरमपि स्यादिति दत्तजलाञ्जलिरन्विताभिधानवादः। यदानयेति पदेनापि पूर्वपदाभिहितेनार्थेनान्वितः स्वार्थोंऽभिधीयते, तदा यावत् पूर्वपदं स्वार्थ नाभिधत्ते तावदुत्तरपदस्य पूर्वपदार्थान्वितस्वार्थाभिधानं नास्ति। यावच्चोत्तरपदं स्वार्थं नाभिधत्ते, तावत् पूर्वपदस्यो. तरपदार्थान्वितस्वार्थप्रतिपादनं न भवतीत्यन्योन्याश्रयत्वम् । अथ मन्यसेप्रथमं पदानि केवलं पदार्थं स्मारयन्ति, पश्चादितरेतरस्मारितेनार्थेनान्वितं स्वार्थमभिदधतीति, ततो नेतरेतराश्रयत्वम् । तदप्यसारम्, सर्वदैव हि पदान्यवितेन पदार्थेन सह गृहीतसाहचर्याणि नानन्वितं केवलं पदार्थमात्रं स्मारयितुमीशते, यथानुभवं स्मरणस्य प्रवृत्तेः। वृद्धव्यवहारेष्वन्वयव्यतिरेकाभ्यां गोपद का प्रयोग व्यर्थ नहीं है । (उ.) तो फिर इससे यह निष्कर्ष निकला कि 'आनय' पद से ( दूसरे अर्थ में अनन्वित ) केवल 'आनयन' रूप स्वार्थ का ही बोध होता है । अतः यह कहना सुलभ हो जाएगा कि जिस प्रकार 'आनय' पद से केवल ( इतरानन्वित ) स्वार्थ का बोध होता है, उसी प्रकार गो प्रभृति अन्य पदों से भी केवल स्वार्थ का बोध हो सकता है, इस प्रकार तो अन्विताभिधान को जलाञ्जलि ही मिल जाएगी। इस पर यदि यह कहें कि (प्र०) पूर्वपद (गाम् इस पद) से अभिहित अर्थ के साथ अन्वित ही आनयन रूप अर्थ का अभिधान आनयन पद से होता है । (उ०) तो यह भी मानना पड़ेगा कि जब तक 'आनय' रूप उत्तर पद से आनयन रूप अर्थ का अभिधान नहीं होता है, तब तक 'गोम्' इस पूर्वपद से उत्तरपद के अर्थ में अन्वित स्वार्थ का बोध नहीं हो सकता । इस प्रकार इस पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य है।
___यदि यह मानते हों कि (प्र.) पहिले पदों से उनके केवल ( इतरानन्वित ) अर्थों का ही स्मरण होता है, उसके बाद स्मरण किये गये अर्थो में से एक दूसरे के साथ अन्वित अपने अर्थ का प्रतिपादन पद ही करते हैं । अतः उक्त अन्योन्याश्रय दोष नहीं (उ०) इस उत्तर में भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि ( आपके गत से ) दूसरे अर्थ के साथ अनन्वित केवल अपने अर्थ का पद से स्मरण हो ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरे पदों के अर्थों के साथ अन्वित अपने अर्थों के साथ ही सभी पदों का सामानाधिकरण्य गृहीत है। एवं अनुभव के अनुरूप ही स्मृति की उत्पत्ति होती है । (प्र.) ( इतरान्वित अर्थ में शक्ति मानने पर भी) पदों से (इतरानन्वित ) केवल अर्थ का स्मरण हो सकता है, क्योंकि वृद्धों के व्यवहारों के द्वारा गो शब्द का ककुदादि से युक्त अर्थों के साथ ही अन्वय और व्यतिरेक गृहीत है, उसके साथ अन्वित होनेवाले आनयनादि क्रियाओं के साथ या दण्डादि करणों के साथ नहीं, क्योंकि ककुदादि से युक्त अर्थ में ही उन क्रियाओं या करणादि के न रहने पर भी ( दूसरी क्रियाओं या कर
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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शब्दस्य ककुदादिमदर्थे नियमो गृहीतो न क्रियाकरणादिष्विति तेषां प्रत्येकं व्यभिचारेऽपि गोशब्दस्य प्रयोगदर्शनात् । तेनायं गोशब्दः श्रूयमाणोऽभ्यासपाटवादव्यभिचरितसाहचर्यं ककुदादिमदर्थमात्रं स्मारयति न क्रियाकरणादीनीति चेत् ? एवं तहि यस्य शब्दस्य यत्रार्थे साहचर्यनियमो गृह्यते तत्रैव तस्याभिधायकत्वं नान्यत्रेत्यनन्विताभिधानेऽपि समानम् । न च स्मरणमनुमानवत् साहचर्यनियममपेक्ष्य प्रवर्तत इत्यपि सुप्रतीतम्, तद्धि संस्कारमात्र निबन्धनं प्रतियोगिमात्र दर्शनादपि भवति । तथाहि – धूमदर्शनादग्निरिव रसवत्यादिप्रदेशोऽपि स्मर्यते, तद् यदि गोशब्दः सहभावप्रतीतिमात्रेणैव गोपिण्डं स्मारयति, गोपिण्डप्रतियोगिनोऽपि पदार्थान् कदाचित् स्मारयेत् । नियमेन तु गोपिण्डमेव स्मारयंस्तद्विषयं वाचकत्वमेवावलम्बते, तथासत्येव नियमसम्भवात् । किञ्च यथा वाक्ये पदानामन्विताभिधानं तथा पदेऽपि प्रकृतिप्रत्यययोरन्विताभिधानमिच्छन्ति
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णादि के साथ अन्वित होनेवाले ) ककुदादि से युक्त अर्थ को समझाने के लिए गो शब्द का प्रयोग देखा जाता है। इस प्रकार सुना गया यह गो शब्द बार बार प्रयुक्त होने से प्राप्त पटुता के कारण ककुदादि से युक्त जिस अर्थ के साथ उसका व्यभिचार कभी उपलब्ध नहीं होता है, केवल उसी अर्थ का स्मरण करा सकता है, क्रियाओं का या करणादि अर्थों का नहीं, क्योंकि उनके साथ गो शब्द का कभी प्रयोग होता है कभी नहीं । ( उ० ) तब तो समान रूप से अनन्विताभिधानवादी की ही तरह यह कहिए कि "जिस अर्थ को समझाने के लिए जिस शब्द का प्रयोग नियम से होता है, केवल उसी अर्थ में उस शब्द की शक्ति है" । दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार अनुमान के द्वारा उसी अर्थ का ग्रहण होता है, जिसका साहचर्य हेतु में नियमतः गृहीत होता है । उस प्रकार स्मृति को साहचर्य नियम की अपेक्षा नहीं होती है, संस्कार से उत्पन्न होनेवाली वस्तु है, अतः साहचर्य के किसी एक भी उत्पन्न हो सकती है । जैसे कि धूम के वह्नि का तरह वह्नि के आश्रय महानसादि प्रदेशों का भी स्मरण शब्द से ककुदादि से युक्त गो रूप अर्थ का स्मरण यदि का सामानाधिकरण्य उक्त गो रूप अर्थ के साथ है, तो
क्योंकि वह तो केवल
देखने से
सम्बन्धी को देखने पर स्मरण होता है, उसी होता है । इस प्रकार गो इस लिए मानेंगे कि गो शब्द फिर गो शब्द से कदाचित् आश्रयीभूत गोष्ठादि का भी स्मरण
(
के आश्रयभूत महानसादि की तरह ) गो के हो सकता है । 'गो पद से नियमतः गोपिण्ड का ही स्मरण हो, इसके लिए किसी भी दूसरी रीति से गो पिण्ड में गो शब्द को शक्ति को हो हेतु मानना पड़ेगा, क्योंकि उस नियम की उपपत्ति किसी दूसरी रीति से सम्भव नहीं है । दूसरी यह भी बात है कि जिस प्रकार वाक्य में प्रयुक्त प्रत्येक पद की शक्ति दूसरे अर्थ में अन्वित स्वार्थ में ही मानने की इच्छा आप लोगों की है, उसी प्रकार यह भी आप लोगों का अभिप्रेत होगा कि पद के शरीर में प्रयुक्त होनेवाले प्रकृति और प्रत्यय रूप दोनों अंशों में से प्रत्येक
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽवयव
न्यायकन्दली भवन्तः, ताभ्यां चेत् परस्परान्वितः स्वार्थोऽभिहित: कस्तदन्यः पदार्थो यः पदेन पश्चात् स्मर्यते ? तदेतदास्तां नग्नाटकपक्षपतितं वचः ।
प्रकृतमनुसरामः-अस्त्वेवं पदानामर्थप्रतिपादनम्, इदं तु न सङ्गच्छते परार्थानुभानमिति । लिङ्ग तज्जनितं वा ज्ञानमनुमानम्। न च लिङ्गस्य ज्ञानस्य च परार्थत्वम् । अनुमानवाचकस्य शब्दस्य परार्थत्वादनुमानं परार्थ. मुच्यते चेत् प्रत्यक्षवाचकस्यापि शब्दस्य परार्थत्वात् प्रत्यक्षमपि परार्थमुच्येत ? तदुक्तम्
ज्ञानाद् वा ज्ञानहेतोर्वा नान्यस्यास्त्यनुमानता। तयोश्च न परार्थत्वं प्रसिद्ध लोकवेदयोः ।। वचनस्य परार्थत्वादनुमानपरार्थता ।
प्रत्यक्षस्यापि पारायं तदद्वारं किं न कल्प्यते ॥ इति । दूसरे अर्थ के साथ अन्वित ही अपने स्वार्थ का अभिधायक होगा। यदि प्रकृति और प्रत्यय ये दोनों ही एक दूसरे के साथ अन्वित अपने अर्थ का प्रतिपादन कर ही देते हैं, तो फिर कोन सा विलक्षण अर्थ समझने को अवशिष्ट रहता है, जिसका स्मरण पीछे पद के द्वारा होता है ? व्यर्थ बातों की यह प्रक्रिया अब यहीं तक रहे ।
_अब फिर प्रकृत विषय का अनुसरण करते हैं। (प्र. ) मान लिया कि पदो से अर्थों का प्रतिपादन उसी ( अभिहितान्वयवादियों की ) रीति से होता है, किन्तु यह समझ में नहीं आता कि अनुमान 'परार्थ' किस प्रकार है ? क्योंकि हेतु या पञ्चावयव. वाक्य जनित हेतु का ज्ञान इन दोनों में से ही कोई ‘अनुमान' है। इनमें से न लिङ्ग ही परार्थ है, न लिङ्ग का ज्ञान हो । यदि यह कहें कि (उ०) उक्त लिङ्ग या लिङ्ग ज्ञान के वाचक (पञ्चावयव के) शब्द चूँकि परार्थ हैं ( अर्थात् दूसरे को समझाने के लिए प्रयुक्त होते हैं ) अतः हेतु या हेतुज्ञान रूप अनुमान को भी परार्थ कहा जाता है। (प्र०) तो फिर प्रत्यक्ष के अभिधायक शब्द का भी प्रयोग तो दूसरे को समझाने के लिए ही किया जाता है। अतः प्रत्यक्ष भी 'परार्थ' होगा। जैसा कहा गया है कि
(१) हेतु का ज्ञान या हेतु इन दोनों से भिन्न कोई अनुमान नहीं हो सकता। इन दोनों की परार्थता न लोक में ही प्रसिद्ध है न वेद में ही।
(२) यदि हेतु के ज्ञापक या हेतु ज्ञान के अभिलापक वाक्य दूसरों को समझाने के लिए प्रयुक्त होते हैं, इस हेतु से लिङ्ग या लिङ्गज्ञान रूप अनुमान परार्थ हैं, तो फिर प्रत्यक्ष प्रमाण के बोधक वाक्य भी तो दूसरों को समझाने के लिए ही प्रयुक्त होते है, इस हेतु से ( अनुमान की तरह ) प्रत्यक्ष को भी परार्थ क्यों नहीं मानते ?
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अवयवाः पुनः प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः।
ये अवयव ( १ ) प्रतिज्ञा, ( २ ) अपदेश ( हेतु ), (३) निदर्शन ( उदाहरण ), (४) अनुसंधान ( उपनय ) और ( ५ ) प्रत्याम्नाय ( निगमन ) भेद से पाँच प्रकार के हैं।
न्यायकन्दली अत्र समाधिः-न शब्दस्य परार्थत्वात् तद्द्वारमनुमानपारार्थ्यमिति वदामः, अपि तु यत् परार्थं पञ्चावयवं वाक्यं तल्लिङ्गप्रतीतिद्वारेणानुमितिहेतुत्वादनुमानमिति ब्रूमः। नन्वेवमपि लिङ्गप्रतिपादकस्य प्रत्यक्षस्यानुमानतावतारप्रसङ्गः ? न प्रसङ्गस्तत्र लौकिकशब्दप्रयोगाभावात् ।
पञ्चावयवं वाक्यमित्युक्तम् । के पुनस्ते पञ्चावयवाः ? तत्राहअवयवाः पुनः प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः । पुनःशब्दो वाक्यालङ्कारे, तत्र तेषां मध्येऽनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा। एतत् स्वयमेव विवृणोति-प्रतिपिपादयिषितेत्यादिना । प्रतिपादयितुमिष्टो यो धर्मस्तेन
(उ०) इस प्रसङ्ग में हम लोगों का यह समाधान है कि इस युक्ति से हम अनुमान को परार्थ नहीं मानते कि सामान्यतः सभी शब्द दूसरों को समझाने के लिए ही प्रयुक्त होते हैं, अतः अपने उपस्थापक या ज्ञापक पञ्चावयववाक्य रूप शब्द के द्वारा हेतु वा हेतु ज्ञान रूप अनुमान भी परार्थ है, किन्तु (हम लोगों का यह कहना है कि) चूंकि परार्थ ( दूसरों को समझाने के लिए प्रयुक्त) जो पञ्चावयव वाक्य वह अपने द्वारा उपस्थित उपयुक्त हेतु के द्वारा या अपने से उत्पन्न हेतु के ज्ञान द्वारा ही अनुमिति का कारण है, अतः अनुमान परार्थ है । (प्र. ) इस प्रकार तो जहाँ हेतु का ज्ञान प्रत्यक्ष के ज्ञापक शब्द के द्वारा उत्पन्न होगा, वहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण भी ( परार्थ ) अनुमान होगा? ( उ०) यह आपत्ति नहीं है, क्योंकि ऐसे स्थलों में कहीं भी शब्दों का प्रयोग लोक में नहीं देखा जाता है।
यह कहा गया है कि परार्थानुमान के उत्पादक महावाक्य के पाँच अवयव हैं। किन्तु वे पाँच अवयव कोन कौन हैं ? इस प्रश्न का समाधान 'अवयवाः पुनः प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः' इस वाक्य के द्वारा किया गया है। इस वाक्य में 'पुनः' शब्द का प्रयोग केवल वाक्य को अलकृत करने के लिए है। 'तत्र' अर्थात् उन पाँचों अवयवों में प्रतिज्ञा का यह लक्षण किया गया है, 'अनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा' । 'प्रतिपिपादयिषित' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा प्रतिज्ञा के उस ( अपने ) लक्षण वाक्य की ही
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्रानुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा । प्रतिपिपादयिषितधर्मविशिष्टस्य धर्मिणोपदेशविषयमापादयितुमुद्देशमानं प्रतिज्ञा ।
इनमें 'अनुमेय' का अर्थात् अनुमान के लिए अभिप्रेत विषय का प्रतिपादक वह वाक्य ही प्रतिज्ञा' है, जिसका और किसा भी प्रमाण से विरोध न रहे। ( विशदार्थ यह है कि ) जिस धर्म (साध्य) का प्रतिपादन पक्ष में अभिप्रेत हो उस धर्म ( साध्य ) से युक्त धर्मी ( पक्ष ) ही अनुमेय है। ( साध्य से युक्त उस ) धर्मी ( पक्ष ) में हेतु के सम्बन्ध को दिखलाने के लिए प्रयुक्त ( साध्य से युक्त पक्ष के बोधक ) वाक्य ही 'प्रतिज्ञा' हैं।
न्यायकन्दली विशिष्टो धर्मी अनुमेयः पक्ष इति कथ्यते। तस्य यदुद्देशमा सङ्कीर्तनमात्रं साधनरहितं सा प्रतिज्ञेति । यथोपदिशन्ति सन्त:--
"वचनस्य प्रतिज्ञात्वं तदर्थस्य च पक्षता" इति ।
यदि हेतुरहितमुद्देशमात्रं प्रतिज्ञा नैव तस्याः साध्यसिद्धिरस्तीति असाधनाङ्गत्वान्न प्रयोगमर्हति । यथा वदन्ति तथागताः--
शक्तस्य सूचकं हेतुर्वचोऽशक्तमपि स्वयम् ।। साध्याभिधानात् पक्षोक्तिः पारम्पर्येण नाप्यलम् ।। इति ।
तत्राह-अपदेशविषयमापादयितुमिति । अपदेशो हेतुस्तस्य विषयमाश्रयमापादयितुं प्रतिपादयितुं प्रतिज्ञाने', (न) खलु यत्र क्वचन साध्यसाधनाय व्याख्या भाष्यकार स्वयं करते हैं। जिस धर्म ( वस्तु ) का प्रतिपादन ( पञ्चावयव वाक्य के प्रयोक्ता को ) अभिप्रेत हो उस धर्म से युक्त धर्मी ही 'अनुमेय' या 'पक्ष' कहलाता है । उसका जो 'उद्देशमात्र' केवल कथन अर्थात् हेतु वाक्य के सांनिध्य से रहित वाक्य का प्रयोग हो 'प्रतिज्ञा' है । जैसा कि विद्वानों का कहना है कि "उक्त वाक्य ही प्रतिज्ञा है और प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा कथित अर्थ ही पक्ष है" ।
(प्र.) यदि हेतु वाक्य से सर्वथा असम्बद्ध केवल पक्ष का बोधक वाक्थ ही प्रतिज्ञा है, तो फिर साध्य सिद्धि का उपयोगी अङ्ग न होने से उसका प्रयोग ही उचित नहीं है। जैसा कि तथागत के अनुयायियों का कहना है कि--हेतु ही साध्य का ज्ञापक है । ( केवल प्रतिज्ञा रूप ) वचन में साध्य को समझाने का सामर्थ्य नहीं है, अतः परम्परा से साध्य को उपस्थित करने के कारण भी प्रतिज्ञा अनुमान का अङ्ग नहीं है । इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'अपदेशविषयमापादयितुम्' यह वाक्य लिखा गया है । 'अपदेश' शब्द का अर्थ है 'हेतु' उसका 'विषय' अर्थात् आश्रय के 'आपादन' के लिए
१. मुद्रित पुस्तक में यहाँ न्यायकन्दली का पाठ है 'अपदेशी हतुः तस्य विषय. माश्रय मापादयितु प्रतिज्ञाने यत्र क्वचन सध्यसाधनाय हेतुः प्रयुज्यते तस्य सिद्धत्वात्, अपि च कम्मिश्चिमिणि प्रतिनियते" इसमें 'यत्र क्वचन' इत्यादि का उत्तर वाक्य में
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५६७ न्यायकन्दली हेतुः प्रयुज्यते, तस्य सिद्धत्वात्, अपि तु कस्मिश्चिमिणि प्रतिनियते, तस्मिन्ननुपन्यस्यमाने निराश्रयो हेतुर्न प्रवर्तेत । तस्याप्रवृत्तौ न साध्यसिद्धिरतः प्रतिज्ञया मिग्राहक प्रमागमुपदर्शयन्त्या हेतोराश्रयो धर्मी सन्निधाप्यते, इत्याश्रयोपदर्शनद्वारेण हेतुं प्रवर्तयन्ती प्रतिज्ञा साध्यसिद्धरङ्गम् । तथा च न्यायभाष्यम्-"असत्यां प्रतिज्ञायामनाश्रया हेत्वादयो न प्रवर्तेरन्" इति । उपनयादेव हेतोराश्रयः प्रतीयत इति चेन्न, असति प्रतिज्ञावचने तस्याप्यप्रवृत्तः । उपनयः साधनस्य पक्षधर्मतालक्षणं सामर्थ्यमुपदर्शयति । न प्रत्येतुः प्रथममेव साधनं प्रत्याकाङ्क्षा, किन्तु साध्ये, तस्य प्रधानत्वात्। आकाक्षिते साध्ये
अर्थात प्रतिपादन के लिए ही प्रतिज्ञा वाक्य का उपयोग है। अभिप्राय यह है कि जिस किसी आश्रय में साध्य के साधन के लिए हेतु का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि सामान्यतः किसी स्थान में साध्य तो सिद्ध है ही, अतः किसी विशेष धर्मी में साध्यसिद्धि के लिए ही हेतु का प्रयोग होता है ( जहाँ पहिले से साध्य सिद्ध नहीं है और वहां साध्य का साधन इष्ट है ) वह (विशेष प्रकार का धर्मी) यदि प्रतिपादित न हो तो फिर बिना आश्रय (विषय ) के होने के कारण हेतु की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । हेतु की प्रवृत्ति के बिना साध्य की सिद्धि भी न हो सकेगी । अतः प्रतिज्ञा पक्ष रूप धर्मी के ज्ञापक प्रमाण को उपस्थित करती हुई हेतु के आश्रय रूप धर्मी को उसके समीप ले आती है । इस आश्रय के प्रदर्शन के द्वारा ही हेतु की प्रवृत्ति में निमित्त होने के कारण प्रतिज्ञा भी साध्य-सिद्धि का उपयोगी अङ्ग है। जैसा कि न्यायभाष्यकार ने कहा है कि 'यदि प्रतिज्ञा न रहे तो फिर हेतु प्रभृति अवयवों की प्रवृत्ति ही न हो सकेगी। (प्र०) उपनय से ही हेतु के उस आश्रय (विषय) की प्रतीति होगी? (उ०) प्रतिज्ञा के न रहने पर उपनय की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि हेतु के पक्षधर्मता-रूप सामर्थ्य का प्रदर्शन ही उपनय का काम है। किन्तु साध्य के प्रधान होने के कारण ज्ञाता पुरुष को पहिले साध्य के प्रसङ्ग में ही जिज्ञासा होती है, साधन के सामर्थ्य के प्रसङ्ग में नहीं।
एक 'न' कार का रहना आवश्यक हैं। एवं पूर्ववाक्य के अन्त में भी प्रतिज्ञाया उपयोगः' इस अर्थ को समझाने के लिए भी कोई शब्द चाहिए। प्रकृत ग्रन्थ में जो 'प्रतिज्ञाने' शब्द है, उसका भी कुछ ठीक अर्थ नहीं बैठता है। अतः यह तय करना पड़ा कि 'प्रतिज्ञाने इस पद में 'ए' कार प्रमाद से लिखा गया है। अवशिष्ट प्रतिज्ञान' भी एक शब्द नहीं है, किन्तु 'प्रतिज्ञा' और 'न' ये दो अलग शब्द हैं। जिनमें पहिला पहिले वाक्य के अन्त में और दूसरा दूसरे वाक्य के आदि में मान लिया गया है। तदनुसार प्रकृत पाठ इस प्रकार निष्पन्न होता है 'अपदेशो हेतुः, तस्य विषयमाश्चयमापादयितुं प्रतिज्ञा। न खलु यत्र क्वचन साध्यसाधनाय हेतुः प्रयज्यते, तस्य सिद्धत्वात् । अपि तु कस्मिंश्चिद्धमिर्माण प्रतिनियते" इसी पाठ के अनुसार अनुवाद किया गया है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽवयव
न्यायकन्दली तत्सिद्धयर्थं पश्चात् साधनमाकाङ्क्षते, तदनु साधनसामर्थ्य मिति प्रथम साध्यवचनमेवोपतिष्ठते, न पुनरग्रत एव साधनसामर्थ्यमुच्यते, तस्य तदानीमनपेक्षितत्वात् ।
प्रतिपिपादयिषितेन धर्मेण विशिष्टो धर्मोति विप्रतिषिद्धमिदम, अप्रतीतस्याविशेषकत्वादिति चेत् ? सत्यम्, अप्रतीतं विशेषणं न भवति, प्रतीतस्तु साध्यो धर्मः सपक्षे विप्रतिपन्नं प्रति ज्ञापनाय धर्मिविशेषणतया प्रतिज्ञायते । अत एव धर्मिणः पक्षता वास्तवी, तस्य स्वरूपेण सिद्धस्यापि प्रतिपाद्यधर्मविशिष्टत्वेनाप्रसिद्धस्य तेन रूपेण आपाद्यमानत्वसम्भवात् । पक्षधर्मतापि हेतोरित्थमेव, यदि केवलमेवानित्यत्वं साध्यते, भवेच्छब्दधर्मस्य कृतकत्वस्यापक्षधर्मता, शब्दे एव त्वनित्ये साध्ये नायं दोषः । यथाहुराचार्याः
साध्य की आकाङ्क्षा निवृत्त हो जाने पर फिर साध्य की सिद्धि के लिए साधन और उसके प्रसङ्ग में आकाङ्क्षा जागती है, बाद में साधन के (पक्षधर्मतादि ) सामर्थ्य के प्रसङ्ग में आकाङ्क्षा उठती है। अतः पहिले प्रतिज्ञा रूप साध्य वचन की ही उपस्थिति उचित होती है । यह नहीं होता कि पहिले ( उपनय के द्वारा ) साधन के सामथ्र्य का ही प्रदर्शन हो, क्योंकि उस समय उसकी अपेक्षा ही नहीं है :
(प्र.) धर्मी का यह लक्षण ठीक नहीं मालूम पड़ता कि जिस धर्म का प्रतिपादन इष्ट हो, उस धर्म रूप विशेषण से युक्त ही धर्मी' ( या पक्ष ) है, क्योंकि ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं कि एक ही वस्तु प्रतिपादन के लिए अभीष्ट भी हो, एवं वही ( अप्रतिपादित) वस्तु विशेषण भी हो, क्योंकि विशेषण के लिए यह आवश्यक है कि वह पहिले से ज्ञात हो (पहिले से ज्ञात वस्तु कभी प्रतिपाद्य नहीं हो सकता ) । ( उ० ) यह ठीक है कि विशेषण को ( स्व से युक्त धर्मी के ज्ञान से ) पहिले ज्ञात होना ही चाहिए । किन्तु प्रकृत में भी तो साध्य रूप धर्म पहिले से सपक्ष ( दृष्टान्त ) में ज्ञात ही रहता है । सपक्ष में ज्ञात साध्य के प्रसङ्ग में जिस पुरुष को पक्ष में विप्रतिपत्ति है उसे समझाने के लिए ही साध्यरूप विशेषण से युक्त धर्मी का निर्देश प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा किया जाता है । चूकि (पर्वतत्वादि ) अपने स्वरूप से सिद्ध रहने पर भी प्रतिपाद्य ( वह्नि प्रभृति ) साध्य रूप धर्म से युक्त होकर वह पहिले से प्रसिद्ध नहीं है, अतः उस रूप से पक्ष का प्रति गदन सम्भव है। इसी कारण धर्मी का पक्ष होना (धर्मी को पक्षता) वास्तविक है ( काल्पनिक नहीं)। इसी प्रकार हेतु की पक्षधर्मता भी ठीक ही है, क्योंकि (शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्, घटादिवत्-इत्यादि स्थलों में) यदि केवल अनित्यत्व का ही साधन करें तो शब्द में रहने वाले कृतकत्व में पक्षधर्मता नहीं रह सकेगी, किन्तु अनित्यत्व से युक्त को हो यदि साध्य मान लेते हैं, तो फिर उक्त (कृतकत्व हेतु में अपक्षधर्मत्व रूप ) दोष की आपत्ति नहीं होती है। जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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५६६
स एव चोभयात्मायं गम्यो गमक एव च ।
असिद्धेनैकदेशेन गम्यः सिद्धो न बोधकः ॥ इति ।
प्रतिज्ञाया उदाहरणमाह-- द्रव्यं वायुरिति । यो वायुं प्रतिपद्यमानोऽपि तस्य द्रव्यत्वं न प्रतिपद्यते, तं प्रति साधयितुमिष्टेन द्रव्यत्वेन विशिष्टस्य वायोरभिधानं प्रतिज्ञा क्रियते द्रव्यं वायुरिति । अविरोधिग्रहणस्य तात्पर्यं कथयति — अविरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगत स्वशास्त्रस्ववचनविरोधिनो निरस्ता भवन्तीति । वादिना साधयितुमभिप्रेतोऽर्थः साध्य इत्युच्यते । प्रत्यक्षादिविरुद्धोऽपि कदाचिदनेन भ्रमात् साधयितुमिष्यते, तद् यद्यविशेषेणानुमेयोद्देशः प्रतिज्ञेत्येतावन्मात्रमुच्यते, प्रत्यक्षादिविरुद्धमपि वचनं प्रतिज्ञा स्यात् । न चेयं प्रतिज्ञा, तदर्थस्य साधयितुमशक्यत्वात्, अतोऽविरोधिग्रहणं कृतम् । न विद्यते प्रत्यक्षादि..
धर्मी के दो भेद हैं, पहिला है साध्य रूप धर्म से युक्त, जो पक्ष कहलाता है । दूसरा है केवल धर्मी, जो 'धर्मी' ही कहलाता है । इनमें पहिला ( पहिले से सिद्ध न होने के कारण ) 'गम्य' है अर्थात् साध्य है । दूसरा 'गमक' अर्थात् ( अपने ज्ञान के द्वारा अथवा पक्षधर्मता सम्पादन के द्वारा ) 'गमक' अर्थात साध्य ज्ञान का कारण है । अर्थात् धर्मी के दो स्वरूप हैं, एक साध्य से सम्बद्धवाला, दूसरा केवल अपने स्वरूपवाला, इनमें पहिले स्वरूप से वह् 'गम्य' अर्थात् साध्य है, ( क्योंकि उस रूप से पहिले वह सिद्ध नहीं है ) दूसरे स्वरूप से वह 'गमक' अर्थात् स्वज्ञान के द्वारा अथवा पक्षधर्मता सम्पादन के द्वारा साधक है ।
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'द्रव्यं वायु:' इस वाक्य के द्वारा प्रतिज्ञा का उदाहरण कहा गया है । जो व्यक्ति वायु को समझता है, किन्तु उसे द्रव्य नहीं समझता, उसको वायु में द्रव्यत्व को समझाना अभिप्रेत है। उसके लिए द्रव्यत्व से युक्त वायु को समझाने के लिए 'द्रव्यं वायुः ' ऐसी प्रतिज्ञा की जाती है । 'अविरोधिग्रहणात्प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगतस्वशास्त्रस्ववचनविरोघिनो निरस्ता भवन्ति' इस वाक्य के द्वारा ( प्रतिज्ञा के लक्षण वाक्य में ) 'अविरोधि ' शब्द के प्रयोग का हेतु दिखलाया गया है । वादी को जिस वस्तु का साधन अभिप्रेत होता है, उसे 'साध्य' कहते हैं । ऐसे भी वादी हैं जो भ्रान्ति से वशीभूत होकर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित अर्थों के साधन के लिए भी प्रवृत्त हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में यदि सामान्य रूप से 'अनुमेयोद्देशः प्रतिज्ञा' ( अर्थात् अनुमेय के बोधक सभी वाक्य प्रतिज्ञा हैं ) ऐसा ही प्रतिज्ञा का लक्षण किया जाय, तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध ( 'वह्निरनुष्णः' इत्यादि वाक्य भी प्रतिज्ञा हो जाएँगे, किन्तु उस प्रकार के वाक्य प्रतिज्ञा नहीं हैं, क्योंकि उनके द्वारा कथित विषय का साधन सम्भव नहीं है । अतः ऐसे वाक्यों में प्रतिज्ञात्व के निराकरण के लिए ही भाष्यकार ने प्रतिज्ञा लक्षण में 'अविरोधि '
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् यथा द्रव्यं वायुरिति । अविरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाम्युपगतस्वशास्त्रस्ववचन विरोधिनो निरस्ता भवन्ति । यथाऽनुष्णोऽग्निरिति प्रत्यक्षजैसे 'द्रव्यं वायुः' इत्यादि वाक्य। ( प्रतिज्ञा के लक्षणवाक्य में ) अविरोधि' पद के देने से ( १ ) प्रत्यक्षविरुद्ध, (२) अनुमानविरुद्ध, (३) आगमविरुद्ध, (४) स्वशास्त्रविरोधी एवं (५) स्ववचनविरोधी उक्त प्रकार के वाक्यों में प्रतिज्ञा लक्षण की अतिव्याप्ति का निवारण होता है। ( इनमें) प्रत्यक्षविरोधी वाक्य का उदाहरण है 'अनुष्णोऽग्निः'।
न्यायकन्दली विरोधो यस्यानुमेयोद्देशस्य असावप्रत्यक्षादिविरोधस्तस्य वचनं प्रतिज्ञा, यस्य तद्विरोधोऽस्ति न सा प्रतिजेत्यर्थः। किमनेनोक्तं भवति ? न वाद्यभिप्रायमात्रेण साध्यता, किं तु यत् साधनमर्हति तत् साध्यम्, स एव पक्षस्तदितरः पक्षाभास इति।
प्रत्यक्षादिविरोधोदाहरणं यथा-अनुष्णोऽग्निरिति । अनुष्ण इत्युष्णस्पर्शप्रतिषेधोऽयम् । अवगतं च प्रतिषिध्यते नानवगतम्। न चोष्णत्वस्य वहरन्यत्रोपलम्भसम्भवः, वह्नावपि तस्य प्रतीतिर्नानुमानिकी, प्रत्यक्षाभावे अनुमानस्याप्रवृत्तः। प्रत्यक्षप्रतीतस्य च प्रतिषेधे प्रत्यक्षप्रामाण्याभ्युपगमेन पद का उपादान किया है । 'अनुमेपोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा' प्रतिज्ञा के इस लक्षण वाक्य में प्रयुक्त 'अविरोधि' पद का विवरण इस प्रकार है कि 'न विद्यते ( प्रत्यक्षादि ) विरोंधो यस्यानुमेयोद्देशस्यासावप्रत्यक्षादिविरोधी, तस्य वचनं प्रतिज्ञा' तदनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि जिस 'अनुमेयोद्देश' में प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विरोध न रहे उसके बोधक वाक्य ही प्रतिज्ञा है, अर्थात् जिस अनुमेथोद्देश में प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विरोध रहे उसका बोधक वाक्य प्रतिज्ञा नहीं है। (प्र.) इससे क्या निष्पन्न हुआ ? (उ०, यही कि साधन के लिए वादी के अभिप्रत होने से ही कोई विषय साध्य नहीं हो जाता। साध्य वही है जिसका साधन करना सम्भव हो, वही साध्य पक्ष भी है, तद्भिन्न को अर्थात् प्रत्यक्षादि विरोध के कारण जिसका साधन सम्भव न हो उसे 'पक्षाभास' कहते हैं।
'अनुष्णो वह्निः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों के विरोधी प्रतिज्ञावाक्यों के उदाहरण दिखलाये गये हैं। प्रकृत में 'अनुष्ण' शब्द उष्णस्पर्श के प्रतिषेध का बोधक है ( उष्णस्पर्श विरोधी शीतस्पर्श का नहीं)। ज्ञात वस्तु का ही प्रतिषेध भी किया जाता है, अज्ञात वस्तु का नहीं। एवं उष्णता की प्रतीति वह्नि को छोड़ और कहीं सम्भव नहीं है । वह्नि में उष्णता की प्रतीति अनुमान से तब तक नहीं हो सकती, जब तक वह्नि में उष्णता को प्रत्यक्षवेद्य न मान लिया जाय, क्योंकि बिना प्रत्यक्ष के अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होने योग्य वस्तु के प्रतिषेध के
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भाषानुवादसहित
न्यायकन्दली
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प्रवर्तमानं प्रतिषेधानुमानं तद्विपरीतवृत्ति तेनैव बाध्यते, विषयापहारात् । को विषयस्यापहारः ? तद्विपरीतार्थप्रवेदनम्, तस्मिन् सत्यनुमानस्य किं भवति ? उत्पत्त्यभावः, प्रथमप्रवृत्तेनाबाधितविषय प्रत्यक्षेण वह्नेरुष्णत्वे प्रतिपादिते तत्प्रतीत्यवरुद्धे च तस्यानुष्णत्वप्रतीतिर्न भवति । हेतोरप्ययमेव बाधो यदयमनुष्णत्वप्रतिपादनाय प्रयुक्तः, तत्प्रतीति न करोति, प्रत्यक्ष विरोधात् । यथोक्तम् -
वैपरीत्यपरिच्छेदे नावकाशः परस्य तु ।
मूले तस्य ह्यनुत्पन्ने पूर्वेण विषयो हृतः ॥ इति ।
५७१
बाधा विनाभावयोविरोधादविनाभूतस्य बाधानुपपत्तिरिति चेत् ? यदि त्रैरूप्यमविनाभावोऽभिमत: ? तदास्त्येवाविनाभूतस्य बाधः यथानुष्णोऽग्निः
लिया जाता है । अनुमान के द्वारा
अपहरण है । ( प्र०)
(
लिए उस प्रत्यक्ष का प्रामाण्य स्वीकार कर ही लिया जाता है, अतः उक्त स्वीकृति से प्रवृत्त होनेवाले वह्नि में उष्णता के प्रतिषेध का अनुमान उस प्रत्यक्ष से ही बाधित हो जाता है, जो प्रकृत प्रतिषेध के विरोधी उष्णता का ज्ञापक है । क्योंकि इस प्रत्यक्ष के द्वारा अनुमान के विषय रूपी उष्णता के प्रतिषेध का अपहरण कर ( प्र० ) विषय का यह 'अपहरण' क्या वस्तु है ? ( उ० प्रकृत ज्ञाप्य विषय के विरोधी विषय का ज्ञापन ही प्रकृत में विषय का इस विषयापहरण से अनुमान के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है ? उ० ) यही कि उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो पाती, किन्तु उष्णता के बोधक प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति अनुष्णत्व के अनुमान से पहिले होती है, उसका विषय उष्णत्व किसी दूसरे प्रमाण से बाधित भी नहीं है, अतः इस प्रत्यक्ष के द्वारा जब वह्नि में उष्णता की प्रतिपत्ति हो जाती है, उसके बाद उस प्रत्यश्च के द्वारा ज्ञात वह्नि में अनुष्णता को प्रतीति नहीं होती है। हेतु में बाध की प्रतीति का भी यही रहस्य है कि वह्नि में अनुष्णत्व को समझाने के लिए प्रयुक्त होने पर भी इस प्रत्यअविरोध के कारण वह्नि में उष्णता की प्रतीति का उत्पादन नहीं कर सकता ।
जैसा कहा गया है कि विपरीत ( अभाव ) विषयक निश्चय के उत्पन्न हो जाने पर उसके विरोधी के ज्ञान का अवकाश नहीं रह जाता, क्योंकि उसके उत्पन्न होने के पहिले ही पहिले के प्रमाण से उसके विषय का अपहरण हो जाता है ।
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( प्र०) साध्य की व्याप्ति और साध्य का अभाव ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, अत: साध्य का व्याप्य हेतु कभी बाधित नहीं हो सकता । ( उ० ) व्याप्ति या अविनाभाव को यदि हेतु में ( पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व इन ) तीनों रूपों का रहना समझें, तो फिर इन तीनों रूपों के रहने पर भी हेतु में 'बाघ' रह ही सकता है, क्योंकि 'अग्निरनुष्णः कृतकत्वात्' इस स्थल में कृतकत्व रूप हेतु में उक्त तीनों रूप हैं ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् विरोधी, घनमम्बरमित्यनुमानविरोधी, ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमअनुमानविरोधी प्रतिज्ञावाक्य का उदाहरण है 'घनमम्बरम्' । 'ब्राह्मणेन सुरा पेया' यह वाक्य आगमप्रमाण से विरुद्ध है । वैशेषिकशास्त्र को मानने
न्यायकन्दली कृतकत्वादित्यस्यैव । अथाबाधितविषयत्वे सति त्रैरूप्यमविनाभाव इत्यभिप्रायेणोच्यते-अविनाभूतस्य नास्ति बाधेति, तदोमित्युच्यते। किन्त्वबाधितविषयत्वमेव रूपं कथयितं प्रत्यक्षाद्यविरोधिग्रहणं कृतम्।
प्रत्यक्षविरोधः किं पक्षस्य दोषः ? किं वा हेतोः ? न पक्षस्य, धर्मिणस्तादवस्थ्यात् । नापि हेतोः, स्वविषये तस्य सामर्थ्यात्, विषयान्तरे सर्वस्यैवासामर्थ्यात् । किन्तु प्रतिपादयितुरिदं दूषणम्, योऽविषये साधनं प्रयुङ्क्ते । यदि प्रतिज्ञातार्थप्रतीतियोग्यताविरहस्तत्प्रतिपादनम् ? योग्यताविरहश्च दूषणमभिमतम् ? तदा कर्मकरणयोरप्यस्ति दोषः। . घनमम्बरमित्यनुमानविरोधी। येन प्रमाणेनाकाशमवगतं तेनैवाकाशस्य नित्यत्वं निरवयवत्वं च प्रतिपादितम्, अतो निविडावयवमम्बरमिति प्रतिज्ञा मिग्राहकानुमानविरुद्धा । (क्योंकि कृतकत्व वह्नि में है और वायु में भी है एवं आकाश में नहीं है ) और अग्निरूप पक्ष में अनुष्णत्व रूप साध्य का अभाव स्वरूप बाध भी है। यदि जो हेतु बाधित न होकर पक्ष सत्त्वादि तीनों रूपों से युक्त हो उन हेतु को ही साध्य का व्याप्य या अविनाभूत मानकर यह कहते हों कि व्याप्ति से युक्त हेतु कभी बाधित नहीं हो सकता, तो हम इस के उत्तर में 'हाँ' कहेंगे ( अर्थात इस प्रकार का हेतु कभी बाधित नहीं होता) किन्तु व्याप्ति के लिए जिम अबाधितत्व या अबाधितविषयत्व को आप प्रयोजक मानते हैं, हेतु में उस अबाधितविषयत्व की सत्ता की आवश्यकता को समझाने के लिए ही प्रतिज्ञालक्षण में 'अविरोधि' पद का उपादान किया गया है।
यह 'प्रत्यक्ष विरोध' किसका दोष है ? पक्ष का या हेतु का ? पक्ष का दोष तो वह हों नहीं सकता, क्योंकि पक्ष तो ज्यों का त्यों रहता है। हेतु का भी वह दोष नहीं हो सकता क्योंकि अपने (व्यापक ) साध्य रूप विषय के ज्ञापन की क्षमता तो उसग है ही? दूसरे हेतु के साध्य को समझाने की क्षमता तो किसी भी हेतु में नहीं होती। अतः यह प्रत्यक्षादि विरोध रूप दोष वस्तुतः प्रयोग करनेवाले पुरुष का है, जो ऐसे साध्य के ज्ञापन के लिए ऐसे हेतु का प्रयोग करता है, जिस साध्य के ज्ञापन की क्षमता जिस हेतु में नहीं होती है ।
घ'नमम्बरमित्यनुमानविरोधी' जिस प्रमाण से आकाश के अस्तित्व का ज्ञान होता है, उसी प्रमाण से उसमें नित्यत्व एवं अवयवशून्यत्व भी निश्चित है, अतः 'आकाश के अवयव घन हैं, अर्थात् परस्पर निविड़ संयोग से युक्त है, यह प्रतिज्ञा आकाश रूप धर्मी के ज्ञापक अनुमान के ही विरुद्ध है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
५७३
प्रशस्तपादभाष्यम् विरोधी, वैशेषिकस्य सत्कार्यमिति अवतः स्वशास्त्रविरोधी, न शब्दोऽर्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी । वाले यदि 'सत्कार्यम्' इस प्रतिज्ञावाक्य का प्रयोग करें तो वह स्वशास्त्र. विरोधी प्रतिज्ञा होगी। यदि कोई इस प्रतिज्ञा वाक्य का प्रयोग करे कि 'शब्दो नार्थप्रत्यायक:' तो यह स्ववचनविरोधी प्रतिज्ञा होगी।
न्यायकन्दली ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमविरोधी। ब्राह्मणस्य सुरा पीता पापसाधनं न भवतीति प्रतिज्ञार्थः । अत्र क्षीरमुदाहरणम्, क्षीरस्य च पापसाधनत्वाभावः श्रतिस्मृत्यागमैकसमधिगम्यः । येनैवागमेन क्षीरपानस्य पापसाधनत्वाभावः प्रतिपादितः, तेनैव सुरापानस्य पापसाधनत्वं प्रतिपादितमिात ब्राह्मणेन सुरा पेयेति प्रतिज्ञाया दृष्टान्तग्राहकप्रमाणविरोधः।
वैशेषिकस्यापि प्रागुत्पत्तेः सत्कार्यमिति ब्रुवतः स्वशास्त्रविरोधी। वैशेषिको हि वैशेषिकशास्त्रप्रामाण्याभ्युपगमेन वादादिषु प्रवर्तते। तस्य 'प्रागुत्पादात् सत् कार्यम्' इति ब्रुवतः प्रतिज्ञायाः शास्त्रेण विरोधः, वैशेषिकशास्त्रे 'असदुत्पद्यते' इति प्रतिपादनात् ।
शब्दो नार्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी। यदि शब्दस्यार्थप्रत्यायकत्वं नास्ति, तदा शब्दो नार्थ प्रतिपादयति' इत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनाय शब्दप्रयोगो
'ब्राह्मणेन सुरा पेयेत्यागमविरोधी' । 'ब्राह्मणेन सुरा पेया' इस प्रतिज्ञा वाक्य का यह अर्थ है कि ब्राह्मण के द्वारा पी गयी सुरा ( मद्य) पाप का कारण नहीं होती। इसका उदाहरण है दूध । (अर्थात् जिस प्रकार ब्राह्मण से पान किया गया दूध पाप का कारण नहीं है, उसी प्रकार ब्राह्मण से पान किया गया मद्य भी पाप का कारण नहीं है) 'दूध स्वपान के द्वारा पाप का साधन नहीं है' यह केवल श्रुति एवं स्मृति रूप 'आगम प्रमाण से ही समझा जा सकता है। आगम के द्वारा ही 'दूध का पीना पाप का कारण नहीं है' यह कहा गया है, एवं आगम ( शब्द ) प्रमाण से ही यह निश्चित है कि सुरापान पाप का साधन है' इस प्रकार 'ब्राह्मण को सुरापान करना चाहिए' यह प्रतिज्ञा दुग्धपान रूप अपने दृष्टान्त के ज्ञापक प्रमाण का विरोधी है।
'वैशेषिकस्यापि प्रागुत्पत्तेः सत्कार्यमिति ब्रुवत: स्वशास्त्रविरोधी' वैशेषिक दर्शन के अनुयायी वैशेषिक दर्शन रूप शास्त्र को प्रमाण मान कर ही वादादि कथाओं में प्रवृत्त होते हैं । वे यदि इस प्रतिज्ञावाक्य का प्रयोग करें कि 'कार्य अपनी उत्पत्ति के पहिले भी विद्यमान ही रहता है' तो उनकी यह प्रतिज्ञा वैशेषिक दर्शन रूप अपने शास्त्र के ही विरुद्ध होगी, क्योंकि वैशेषिकदर्शन में यह प्रतिपादन किया गया है कि 'पहिले से अविद्यमान कार्य की ही उत्पत्ति होती है।
'शब्दो नार्थप्रत्यायक इति स्ववचनविरोधी' शब्द से यदि अर्थ का बोध ही नहीं होता है, तो फिर 'शब्द अर्थ का बोध का कारण नहीं है' इस अर्थ को समझाने के
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न्यायकन्दलीसंबलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽसमय
न्यायकन्दली ऽनुपपन्नः। अथैतदर्थः शब्दः प्रयुज्यते ? तदभ्युपगतं शब्दस्यार्थप्रतिपादकत्वमिति प्रतिज्ञायाः स्ववचनविरोधः ।।
प्रत्यक्षानुमानावगतवस्तुतत्त्वान्वाख्यानं शास्त्रम् । तद्विरोधः प्रत्यक्षानुमानविरोध एव, तथा तद्भावभावित्वानुमानसमधिगम्यं शब्दस्यार्थप्रत्यायकत्वं प्रतिषेधयतोऽनुमानविरुद्धव प्रतिज्ञा, कस्मात् स्वशास्त्रवचनविरोधयोः पृथगभिधानम् ? अत्रोच्यते-प्रमाणाभासमूलमपि शास्त्रं भवति शाक्यादीनाम्, अत्र बौद्धस्य 'सर्वमक्षणिकम्' इति प्रतिजानतः स्वशास्त्रविरोध एव, न प्रमाणविरोधः। स्ववचनम् ( अपि) कदाचिदप्रमागमूलमपि स्यात्, अतस्तद्विरोधो न प्रमाणविरोधः, किन्तु स्ववचनविरोध एव ।
लिए 'शब्दो नार्थप्रत्यायकः' इस वाक्य का भी प्रयोग करना उचित नहीं होगा। यदि उक्त अर्थ को समझाने के लिए उक्त वाक्य का प्रयोग वादी करते हैं, यो फिर वादी शब्द को अर्थबोध का कारण स्वयं मान ही लेते हैं। इस प्रकार उक्त प्रतिज्ञा स्ववचन विरोधी है ( क्योंकि वादी अपने अभीष्ट अर्थ को समझाने के लिए शब्दों का प्रयोग भी करें, और शब्द को अर्थप्रत्यायक भी न मानें ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं)।
(प्र०) प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा निर्णीत तत्त्व का ही 'अन्वाख्यान' अर्थात् पश्चात् कथन तो शास्त्र' है, अतः शास्त्र का विरोध वस्तुत: प्रत्यक्ष और अनुमान का ही विरोध है। एवं शब्द में अर्थबोध की कारणता इस अनुमान के द्वारा ही निश्चित होती है कि 'चूकि शब्दप्रयोग के 'भाव' अर्थात् सत्ता के कारण हो अर्थबोध को सत्ता देखी जाती है, अतः शब्द ही अर्थ का बोधक है' सुतराम् शब्द में अर्थबोध के निषेध करनेवाले पुरुष की शब्दो नार्थप्रत्यायकः' यह प्रतिज्ञा भी वस्ततः अनुमान के ही विरुद्ध है। (इस प्रकार स्वशास्त्रविरोध और स्ववचनविरोध ये दोनों ही प्रत्यक्ष विरोध या अनुमानविरोध में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं ) उनका अलग से परिगगन क्यों ? (उ०) इस आक्षेप के उत्तर में हम लोग कहते हैं कि सभी शास्त्र प्रमाणमूलक ही नहीं होते, ऐसे भी शास्त्र हैं जिनका अनुमोदन प्रमाण से नहीं किया जा सकता, जैसे कि बौद्धों के आगम हैं। अतः बौद्ध यदि 'सभी वस्तुयें अक्षणिक हैं' इस आशय के प्रतिज्ञावाक्य का प्रयोग करें तो वह प्रतिज्ञा प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण के विरुद्ध नहीं होगी, किन्तु उसमे 'स्वशास्त्र विरोध' ही होगा। इसी प्रकार स्ववचन भी कभी कभी अप्रमाणमूलक होता है. ऐसे स्थलों की प्रतिज्ञा में प्रमाणविरोध तो होगा नहीं, स्ववचन विरोध ही होगा ( अतः स्वशास्त्र विरोध और स्वचनविरोध का अलग से उल्लेख किया गया है।
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् लिङ्गवचनमपदेशः। यदनुमेयेन सहचरितं तत्समानजातीये सर्वत्र सामान्येन प्रसिद्धं तद्विपरीते च सर्वस्मिन्नसदेव तल्लिङ्ग
हेतुबोधक वाक्य ही 'अपदेश' है। (विशदार्थ) जो अनुमेय ( पक्ष ) में साध्य के साथ रहे एवं सभी तत्सजातीयों में अर्थात् सभी दृष्टान्तों में सामान्य रूप से (साध्य के साथ ) ज्ञात हो, एवं उसके विपरीत अर्थात् सभी विपक्षों में जो कदापि न रहे उसे 'लिङ्ग' अर्थात् हेतु कहा गया है,
न्यायकन्दली लिङ्गवचनमपदेशः। अस्यार्थं कथयति-यदनुमेयेनेत्यादिना। तत्सुगमम् । उदाहरणमाह-क्रियावत्त्वाद् गुणवत्त्वाच्चेति । द्रव्यं वायुरिति प्रतिज्ञायाः क्रियावत्त्वादिति क्रियावत्त्वस्य लिङ्गस्य वचनमपदेशः, तस्यामेव प्रतिज्ञायां गुणवत्त्वस्य लिङ्गस्य गुणवत्त्वादिति वचनमपदेशः, तयोरुपन्यासः सपक्षेकदेशवृत्तः सपक्षव्यापकस्य च हेतुत्वप्रदर्शनार्थः। यदुक्तं लिङ्गलक्षणं तत् क्रियावत्त्वस्य गुणवत्त्वस्य चास्तीत्याह-तथा च तदिति। तद् गुणवत्वमनुमेयेऽस्ति तत्समानजातीये सपक्षे द्रव्ये सर्वस्मिन्नस्ति, असर्वस्मिन् सपक्षकदेशे मूर्तद्रव्यमाने क्रियावत्त्वमस्ति, उभयमप्येतत् क्रियावत्त्वं गुणवत्त्वं चाद्रव्ये विपक्षे
'यवनुमेयेन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'लिङ्गवचनमपदेशः' इस वाक्य का अर्थ स्वयं कहते है। इस ( स्वपदवर्णन रूप भाष्य ) का अर्थ सुगम है। क्रियावत्त्वाद् गुणवत्त्वाच्च' इस वाक्य के द्वारा 'अपदेश' रूप दूसरे अवयव का उदाहरण दिखलाया गया है । (प्रतिज्ञा प्रन्थ में उल्लिखित ) 'द्रव्यं वायुः' इस प्रतिज्ञा के ही क्रियावत्त्व' रूप हेतु का प्रतिपादक 'क्रियावत्त्वात्' इस वाक्य का प्रयोग हो प्रकृत में 'अपदेश' है । उसी प्रतिज्ञा में 'पुणवत्त्वात्' इस वाक्य के द्वारा गुणवत्त्व रूप लिङ्ग का जो निर्देश किया गया है वह वचन भी 'अपदेश' है। इन दोनों हेतुओं का निर्देश इस विशेष को समझाने के लिए किया गया है कि कुछ ही सपक्षों में रहने वाला भी 'हेतु' है (जैसे कि क्रियाक्त्त्व रूप हेतु पृथिवी प्रभृति कुछ सपक्षों में ही है सभी सपक्षों में नहीं, क्योंकि आकाशादि सपक्षों में क्रियावत्त्व नहीं है ) एवं कुछ ऐसे भी हेतु होते हैं जो सभी सपक्षों में रहते हैं, जैसे कि प्रकृत 'गुणवत्त्व' हेतु ( क्योंकि वह सभी द्रव्यों में है)। 'तथा च तदनुमेयेऽस्ति' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कहते हैं कि लिङ्ग के जितने भी लक्षण कहे गये हैं, वे सभी क्रियावत्त्व और गुणवत्त्व रूप दोनों हेतुओं में हैं। 'तत्' अर्थात् गुणवत्त्व और क्रियावत्त्व रूप दोनों हेतु अनुमेय में अर्थात् वायु रूप पक्ष में हैं। इनमें गुणवत्त्व हेतु 'सर्वस्मिन् अर्थात् द्रव्य रूप सभी सपक्षों में है। और 'क्रियावत्त्व' रूप हेतु 'असर्वस्मिन्' अर्थात 'सपक्षकदेश में अर्थात् मूर्तद्रव्य रूप कुछ ही सपक्षों में है। किन्तु गुणवत्त्व और क्रियावत्त्व रूप दोनों हेतु 'अन्य' अर्थात् विपक्षों में द्रव्य से भिन्न सभी पदार्थों में कभी भी नहीं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास-.
प्रशस्तपादभाष्यम् मुक्तम्, तस्य वचनमपदेशः : यथा क्रियावत्वाद् गुणवत्त्वाच्चेति, तथा च तदनुमेयेऽस्ति तत्समानजातीये च सर्वस्मिन् गुणवत्त्वमसर्वस्मिन् क्रियावत्वम् । उभयमप्येतदद्रव्ये नास्त्येव । तस्मात् तस्य वचनमपदेश इति सिद्धम् ।
एतेनासिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वमुक्तं भवति। इस प्रकार के हेतु का प्रतिपादक वाक्य ही 'अपदेश' है। जैसे कि ( 'द्रव्यं वायुः' इस प्रतिज्ञा के उपयुक्त) 'क्रियावत्त्वात् गुणवत्त्वाच्च' ये वाक्य । इनमें गुणवत्त्व हेतु तो वायुरूप द्रव्य में भी है, एवं और सभी द्रव्यों में है । क्रियावत्त्व हेतु वायु में रहने पर भी ( एवं सभी द्रव्यों में न रहने पर भी) मूर्तद्रव्यों में तो है ही। किन्तु ये दोनों ही विपक्षीभूत सभी अद्रव्य पदार्थों में नहीं हैं, अतः इससे सिद्ध होता है कि चूंकि ये दोनों ही हेतु के उक्त लक्षणों से युक्त हैं, अतः इनके बोधक उक्त वाक्य 'अपदेश' हैं।
इससे ( अर्थात् हेतु के अनुमेयसम्बद्धत्वादि लक्षणों के कहने से ) (१) असिद्ध, (२) विरुद्ध, ( ३ ) संन्दिग्ध. ( ४ ) अनध्यवसित (हेत्वाभासों में ) अनपदेशत्व अर्थात हेत्वाभासत्व कथित हो जाता है। इनमें (१) उभयासिद्ध, (२)
न्यायकन्दली नास्त्येव, तस्योभयस्य वचनं क्रियावत्त्वाद् गुणवत्वादित्येवं रूपमपदेश इति हेतुरिति सिद्धं व्यवस्थितं निर्दोषत्वात् ।।
एतेन अपदेशलक्षणकथनेन अर्थादसिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वमुक्तं भवति । अनुमेयेन सहचरितमित्यनेनासिद्धवचनस्यानपदेशत्व
हैं। अतः इससे सिद्ध होता है कि इन दोनों के बोधक 'क्रियावत्त्वात्' और 'गुणवत्त्वात्' इस आकार के दोनों वाक्य 'अपदेश' हैं, अर्थात् हेतु रूप अवयव हैं, क्योंकि इस निर्णय में कोई दोष नहीं है।
एतेन' अर्थात् अपदेश के 'अनुमेयेन सहचरितम्' इत्यादि लक्षण के कहने से ही असिद्धवचन, विरुद्धवचन, सदिग्धवचन और अनध्यवसितवचनों में 'अनपदेशत्व' अर्थात् हेत्वाभासत्व का भी अर्थतः कथन हो जाता है। इस प्रसङ्ग में ऐसा विभाग समझना चाहिए कि हेतु के लक्षण में प्रयुक्त 'अनुमेयेन सहचरितम्' इस पद से 'असिद्धवचन' मे हेत्वाभासत्व का आक्षेप होता है । एवं 'तत्समानजातीये च नास्ति' इस वाक्य
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भाषानुवादसहितम्
५७७
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्रासिद्धश्चतुर्विधः--उभयासिद्धः, अन्यतरासिद्धः, तद्भावासिद्धः, अनुमेयासिद्धश्चेति । तत्रोभयासिद्ध उभयोर्वादिप्रतिवादिनोरसिद्धः, यथाऽनित्यः शब्दः, सावयवत्वादिति । अन्यतरासिद्धो यथाअन्यतरासिद्ध, ( ३) तद्भावासिद्ध और ( ४ ) अनुमेयासिद्ध भेद से 'असिद्ध' चार प्रकार के हैं। इनमें जो हेतुवादी और प्रतिवादी दोनों में से किसी के द्वारा पक्षादि में सिद्ध न हो उसे 'उभयासिद्ध' हेत्वाभास कहते हैं। जैसे कि शब्द में अनित्यत्व के साधन के लिए प्रयुक्त 'सावयवत्वात्' इस वाक्य से बोध्य सावयवत्व हेतु ( उभयासिद्ध हेत्वाभास ) है। शब्द में अनित्यत्व के साधन के लिए ही यदि कार्यत्व हेतु का कोई प्रयोग करे तो वह 'अन्यतरासिद्ध' हेत्वाभास होगा, क्योंकि वादी ( वैशेषिक ) ही शब्द को कार्य मानते हैं। प्रतिवादी ( मीमांसक ) उसे कार्य नहीं मानते ।
न्यायकन्दली मुक्तम्। तत्समानजातीये च प्रसिद्धमित्यनेन विरुद्धानध्यवसितवचनयोरनपदेशत्वम् । तद्विपरीते नास्त्येवेत्यनेन सन्दिग्धवचनस्यानपदेशत्वमिति विवेकः ।
___ एषामसिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितानां मध्ये असिद्धं कथयति-तत्रासिद्धश्चतुर्विध उभयासिद्ध इत्यादि।
तत्रोभयासिद्धः-उभयोर्वादिप्रतिवादिनोरसिद्धः, यथाऽनित्यः शब्दः, सावयवत्वादिति शब्दे सावयवत्वं न वादिनो नापि प्रतिवादिनः सिद्धमित्युभयासिद्धः।
के द्वारा 'विरुद्धवचन' और 'अनध्य वसितवचन' इन दोनों का हेत्वाभास व्यजित होता है। एवं तद्विपरीते च नास्त्येव' इस वाक्य के द्वारा 'सन्दिग्धवचन' की हेत्वाभासता ध्वनित होती है।
'तत्रासिद्धश्चतुर्विधः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इन असिद्ध, विरुद्ध, सन्दिग्ध और अनध्यवसितों में से असिद्ध नाम के हेत्वाभास का विवरण देते हैं । इनमें वादी और प्रतिवादी ये दोनों ही जिस हेतु की सत्ता पक्ष में न मानते हों, वह हेतु 'उभयासिद्ध' नाम का हेत्वाभास है। जैसे कि 'शब्दोऽनित्यः सावयवत्वात्' इस अनुमान का सावयवत्व हेतु उभयासिद्ध हेत्वाभास है। इस अनुमान के प्रयोग करनेवाले ( नैयायिकादि ) हैं वादी, वे भी शब्द को सावयव नही मानते, एवं शब्द को नित्य माननेवाले मीमांसक हैं प्रतिवादी, वे भी शब्द को द्रव्य मानते हुए भी सावयव नहीं मानते, अत: उक्त सावयवत्व हेतु 'उभयासिद्ध हेत्वाभास है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् अनित्यः शब्दः, कार्यत्वादिति । तद्भावासिद्धो यथा-धूमभावेनाग्न्यधिगतो कर्तव्यायामुपन्यस्यमानो बाष्पो धूमभावेनासिद्ध इति। अनुमेयासिद्धो यथा-पार्थिवं द्रव्यं तमः, कृष्णरूपवत्वादिति । यो ह्यनुमेयेऽ
(३) जिस रूप ( हेतुतावच्छेदक ) से युक्त हेतु के द्वारा साध्य की अनुमिति अभिप्रेत हो, हेतु का वह रूप या धर्म जिस हेतु में न रहे वह हेतु तद्भावासिद्ध हेत्वाभास है। जैसे धूमत्व रूप से युक्त ( धूम ) से वह्नि की अनुमिति के अभिप्राय से यदि कोई बाष्प को धूम समझकर हेतु रूप से कोई उपस्थित करे तो वह वाष्प हेतु धूमभाव से ( अर्थात् धूमत्व रूप से ) सिद्ध न होने कारण ( अर्थात् बाष्प में धूमत्व के न रहने के कारण ) तद्भावासिद्ध हेत्वाभास होगा। (४) जहाँ अनुमेय अर्थात् अभीष्ट पक्ष ही असिद्ध रहे उसके लिए प्रयुक्त हेतु अनुमेयासिद्ध हेत्वाभास होगा। जैसे कि 'तमो द्रव्य पार्थिवं कृष्णरूपवत्त्वात्, इस अनुमान का कृष्णरूप हेतु अनुमेयासिद्ध हेत्वा
न्यायकन्दली
अन्यतरासिद्धो यथा कार्यत्वादनित्यः शब्द इति । यद्यपि शब्दे वस्तुतः कार्यत्वमस्ति, तथापि विप्रतिपन्नस्य मीमांसकस्यासिद्धम् । अन्यतरासिद्धं साध्यं न साधयति यावन्न प्रसाध्यते।
तद्भावासिद्धो यथा धूमभावेनाग्न्यधिगतौ कर्तव्यायामुपन्यस्यमानो बाष्पो धूमभावेन धूमस्वरूपेणासिद्धस्तद्भावासिद्ध इत्युच्यते।
अनुमेयासिद्धो यथा पार्थिवं तमः, कृष्णरूपवत्त्वात् । तमो नाम द्रव्यान्तरं
'अन्यतरासिद्ध' का उदाहरण है 'शब्दोऽनित्य: कार्यत्वात्' इस अनुमान का कार्यत्व हेतु । वैशेषिक नैयायिकादि के मत से शब्द में यद्यपि कार्यता सिद्ध है, किन्तु मोमांसक लोग शब्द को कार्य नहीं मानते, नित्य मानते हैं; अतः यह हेतु वादी और प्रतिवादी इन दोनों में से एक के द्वारा असिद्ध होने के कारण 'अन्य तरासिद्ध' नाम का हेत्वाभास है, क्योंकि अन्यतर के द्वारा भो असिद्ध हेतु तब तक माध्य का साधन नहीं कर सकता, जब तक कि वह दूसरे के द्वारा सिद्ध नहीं माना जाता ।
'तद्भावासिद्ध' का उदाहरण वह बाष्प हेतु है, जो धूम समझकर वह्निसाधन के लिए प्रयुक्त होता है, क्योंकि 'तद्भाव' अर्थात् धूम का धूमत्व रूप धर्म बाष्प में सिद्ध नहीं है । अतः उक्त बाष्प हेतु तद्भावासिद्ध' हेत्वाभास है।
'अनुमेया सिद्ध' का उदाहरण है 'पार्थिवं तमः कृष्णरूपवत्त्वात्' इस अनुमान का 'कृष्णरूपवत्त्व' रूप हेतु । तम न:म का कोई द्रव्य ही नहीं है, क्योंकि कृष्णरूप ( गुण) का तेज के अभाव में आरोप मात्र होता है ( चूंकि पार्थिवत्वविशिष्ट तम रूप अनुमेय ही
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली नास्ति, आरोपितस्य कायॆमात्रस्य प्रतीतेः, अतस्तमो द्रव्यं पार्थिवम्, कृष्णरूप. वत्त्वादित्यनुमेयासिद्धमाश्रयासिद्धम् । अनुमेयमसिद्धं यस्येत्यसिद्धानुमेयमिति प्राप्तावाहिताग्न्यादित्वान्निष्ठायाः पूर्वनिपातः।
यथा हेतुरन्यतरासिद्ध उभयासिद्धो वा भवति, एवमाश्रयासिद्धिरप्युभयथा । यथा च हेतोर्वादिप्रतिवादिनो: प्रत्येकं समुदितयोर्वा अज्ञानात् सन्देहाद विपर्ययाद् वा असिद्धो भवति, तथाश्रयोऽपि । यथा च हेतुः कश्चिद् वादिनोऽज्ञानादसन्दिग्धः प्रतिवादिनः सन्दिग्धासिद्ध इति। यद्वा वादिनोsज्ञानासिद्धः, यदि वा प्रतिवादिनो विपर्ययासिद्धः। यद्वा वादिनः सन्देहासिद्धः प्रतिवादिनोऽज्ञानासिद्धः । यद्वा विपर्ययासिद्धो भवति वादिनः, उक्त स्थल में प्रसिद्ध नहीं है अतः ) 'पार्थिवं तमः कृष्णरूपवत्त्वात्' इस अनुमान का 'अनुमेय' अर्थात् आश्रय सिद्ध न होने के कारण इस अनुमान का ( कृष्णरूपवत्त्व ) हेतु अनुमेयासिद्ध या आश्रयासिद्ध हेत्वाभास है । यद्यपि 'अनुमेयमसिद्धं यस्य' इस व्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न होने के कारण अनुमेयासिद्ध' न होकर 'असिद्धानुमेय' शब्द का प्रयोग उचित है, तथापि आहिताग्न्यादि गण में पठित होने के कारण 'अनुमेय' शब्द का पूर्वप्रयोग मान कर ( असिद्धानुमेय न लिखकर ) अनुमेया सिद्ध' शब्द लिखा गया है।
___ जैसे कि हेतु वादी और प्रतिवादी दोनों से असिद्ध होने के कारण 'उभयासिद्ध' और उन दोनों में से केवल एक से असिद्ध होने के कारण 'अन्यतरासिद्ध' कहलाता है, अर्थात् हेतु की सिद्धि दो प्रकार को होने से 'असिद्ध' हेत्वाभास भी दो प्रकार का होता है। उसी प्रकार अनुमेय रूप आभय जहाँ वादी और प्रतिवादी दोनों के द्वारा असिद्ध होगा, वहाँ अनुमेयासिद्ध या आश्रयासिद्ध भी उभयासिद्ध रूप होगा । एवं जहाँ अनुमेय केवल वादी या प्रतिवादी किसी एक ही के द्वारा असिद्ध होगा, वहाँ अनुमेयासिद्ध भी अन्यतरासिद्ध नाम का आश्रयासिद्ध हेत्वाभास होगा। कहने का अभिप्राय है कि वादी और प्रतिवादी दोनों में से किसी एक के हेतुविषयक अज्ञान, या हेतुविषयक सन्देह या हेतुविषयक विपर्यय के कारण 'असिद्ध' नाम का हेत्वाभास होता है, उसी प्रकार आश्रयासिद्ध' नाम के हेत्वाभान के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए कि साध्यविशिष्ट पक्ष रूप आश्रय या अनुमेय विषयक वादी और प्रतिवादी दोनों के अज्ञान या सन्देह या विपर्यय एवं वादी और प्रतिवादी दोनों में से एक के उक्त अनुमेय या आश्रय के अज्ञान या सन्देह या विपर्यय के कारण ही आश्रयासिद्ध या अनुमेयासिद्ध नाम का हेत्वाभास भी होता है। ( अन्यतरासिद्ध के प्रसङ्ग में यह विशेष ) योजना या अतिदेश आश्रयासिद्ध के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए। जैसे कि कोई हेतु वादी के द्वारा अज्ञात होने के कारण असन्दिग्ध होने पर भी प्रतिवादी के लिए सन्दिग्धासिद्ध होता है, वैसे ही आश्रया सिद्ध के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए। अथवा कोई हेतु वादी के लिए सन्दिग्धासिद्ध होने पर भी प्रतिवादी के लिए विपर्ययासिद्ध होता है। अथवा जिस प्रकार कोई हेतु वादी के लिए सन्दिग्धासिद्ध है, किन्तु प्रतिवादी के लिए अज्ञानासिद्ध होता है, वैसे ही आश्रयासिद्ध
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् विद्यमानोऽपि तत्समानजातीये सर्वस्मिन्नास्ति, तद्विपरीते चास्ति, स विपरीतसाधनाद् विरुद्धः, यथा यस्माद् विषाणी तस्मादश्व इति । भास है ( क्योंकि तम यदि द्रव्य होगा तभी वह पार्थिव हो सकता है, किन्तु तम में द्रव्यत्व ही सिद्ध नहीं है, चूँकि वह अभाव रूप है, अतः द्रव्यत्व विशिष्ट तम रूप अनुमेय असिद्ध होने के कारण उसमें पार्थिवत्व के साधन के लिए प्रयुक्त कृष्णरूपवत्त्व हेतु अनुमेयासिद्ध है)।
(२) जो हेतु अनुमेय अर्थात् साध्य में एवं उसके सजातीयों में भी न रहे एवं अनुमेय के विपरीत वस्तुओं में रहे वह हेतु साध्य के विपरीत वस्तु का साधक होने के कारण विरुद्ध' नाम का हेत्वाभास है। जैसे गो में ( अभेद सम्बन्ध से ) अश्व के साधन के लिए प्रयुक्त विषाण ( सींग) हेतु ( विरुद्ध नाम का हेत्वाभास है ), क्योंकि अश्व रूप अनुमेय में विषाण हेतु
न्यायकन्दली प्रतिवादिनः सन्देहासिद्धः। एवमाश्रयोऽपीति योजनीयम् । विशेषणासिद्धादयः, अन्यतरासिद्ध उभयासिद्धेष्वेवान्तर्भवन्तीति पृथङ् नोक्ताः।।
_ विरुद्ध हेत्वाभासं कथयति-यो ह्यनुमेय इति । यदा कश्चिद् वनान्तरिते गोपिण्डे विषाणमुपलभ्य 'अयं पिण्डोऽश्वो विषाणित्वात' इति साधयति, तदा विषाणित्वमश्वजातीये पिण्डान्तरेऽविद्यमानमश्वविपरीते गवि महिष्यादौ च विपक्षे विद्यमानं व्याप्तिबलेनाश्वत्वविरुद्धमनश्वत्वं साधयदभिमतसाध्यविपरीतसाधनाद् के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए। अथवा जिस तरह कोई हेतु वादी के लिए ही विपर्ययासिद्ध और प्रतिवादी के लिए ही सन्दिग्धा सिद्ध होता है, वैसे ही आश्रयासिद्ध के प्रसङ्ग में भी समझना चाहिए । 'विशेषणासिद्ध' प्रभृति हेत्वाभास कथित अन्यतरासिद्ध और उभयासिद्धों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं, अतः उनका अलग से उल्लेख नहीं किया गया।
___यो ह्यनुमेये' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'विरुद्ध' नाम के हेत्वाभास का निरूपण करते हैं। जिस समय कोई पुरुष वन में छिपे हुए गो रूप अवयवी के केवल सींग को देखकर इस अनुमान वाक्य का प्रयोग करता है कि 'यह दीखनेवाला पिण्ड घोड़ा है, क्योंकि इसे सींग है उस समय यह 'विषाणित्व' हेतु विरुद्ध नाम का हेत्वाभास होता है, क्योंकि अश्व रूप पक्ष के सजातीय गदहे प्रभृति में विषाणित्व हेतु नहीं है, एवं अश्व के विपरीत गो महिषादि विपक्षों में विषाणित्व हेतु विद्यमान हैं । इस व्याप्ति के कारण विवाणित्व हेतु वन में दीखनेवाले उक्त पिण्ड में अश्वत्व के विरुद्ध अश्वभिन्नत्व का ही साधक होने के कारण 'विरुद्ध' कहलाता है। यह उदाहरण कुछ ही विपक्षों में
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् ___यस्तु सन्ननुमेये तत्समानासमानजातीययोः साधारणः सन्नेव स सन्देहजनकत्वात् सन्दिग्धः, यथा-यस्माद् विषाणी तस्माद् गौरिति । एकनहीं है, एवं अश्व के सजातीय रासभादि में भी वह नहीं है, किन्तु अश्व के विपरीत महिषादि में विषाण हेतु है, अत: गो में अश्व के विपरीत अश्वभेद का ही वह साधक है।
( ३ ) जो हेतु अनुमेय में ( साध्य में ) एवं उसके सजातीय और विरुद्धजातीय दोनों प्रकार के वस्तुओं में समान रूप से सम्बद्ध रहे, वह ( पक्ष में साध्य के ) सन्देह का कारण होने से 'सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास
न्यायकन्दली विरुद्ध मित्युच्यते । इदं विपक्षकदेशवृत्तेविरुद्धस्योदाहरणम्. विषाणित्वस्य सर्वत्रानश्वे स्तम्भादावसम्भवात् । समस्तविपक्षव्यापकस्य विरुद्धस्योदाहरणम्नित्यः शब्दः कृतकत्वादिति द्रष्टव्यम् ।
यस्तु सन्ननुमेये मिणि, तत्समानजातीययोः सपक्षविपक्षयोः, साधारणः स सन्देहजनकत्वात् सन्दिग्धः। यथा यस्माद् विषाणी, तस्माद् गौरिति । यदायं पिण्डो गौविषाणित्वादिति साध्यते, तदा विषाणित्वं गवि महिषे च दर्शनात् सन्देहमापादयन् सन्दिग्धो हेत्वाभासः स्यात् । अयं सपक्षरहनेवाले विरुद्ध ( हेत्वाभास ) का है। ( सभी विपक्षो में रहने वाले विरुद्ध का नहीं) क्योंकि प्रकृत अनुमान के विपक्षीभूत स्तम्भादि द्रव्यों में विषाणित्व हेतु नहीं है । सभी विपक्षों में व्यापक रूप से रहनेवाले विरुद्ध हेत्वाभास का उदाहरण 'नित्यः शब्दः कृतकत्वात्' इस अनुमान में प्रयुक्त 'कृतकत्व' को समझना चाहिए (क्योंकि नित्यत्व रूप साध्य के अनाश्रयीभूत सभी वस्तुओं में कृत कत्व हेतु अवश्य है )।
'यस्तु सन्ननुमेये' ( इस वाक्म में प्रयुक्त 'अनुमेये' शब्द का अर्थ है ) 'धर्मी में' अर्थात् जो हेतु पक्ष में रहते हुए 'तत्समानासमानजातीययोः' अर्थात् सपक्ष और विपक्ष दोनो में भी समान रूप से रहे, वह हेतु 'सन्देहजनक' होने के कारण 'सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास है। यस्माद् विषाणी तस्माद् गौः' अर्थात् जिस समय वन में छिपे हुए कथित पिण्ड में ही केवल विषाण के देखने से कोई इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग करे कि 'यह गो है क्योंकि इसे सींग है' उस समय यह विषाण रूप हेतु गो रूप पक्ष और महिष रूप विपक्ष दोनों में समान रूप से रहने के कारण इस सन्देह को उत्पन्न करता है कि 'यह गो है या महिष'। इस सन्देह को उत्पन्न करने के कारण ही उक्त विषाण हेतु सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास होता है। (भाष्योक्त सन्दिग्ध हेत्वाभास का यह उदाहरण ) (१) सपक्ष का व्यापक और कुछ ही विपक्षों में रहनेवाले 'सन्दिग्ध' नाम के हेत्वाभास का है, (क्योंकि विषाण रूप हेतु विषाणित्व रूप से निश्चित सभी गो रूप सपक्ष में है, किन्तु
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम्
स्मिश्च द्वयोर्हत्वोर्यथोक्तलक्षणयोर्विरुद्धयोः सन्निपाते सति संशयदर्शनादयमन्यः सन्दिग्ध इति केचित् । यथा - मूर्तस्वामूर्तत्वं प्रति मनसः है । जैसे कि किसी वस्तु में केवल विषाण के देखने से गो के अनुमान का विषाण हेतु ( सन्दिग्ध नाम का हेत्वाभास है ), क्योंकि विषाण रूप हेतु दर्शन के विषय किसी पक्षीभूत वस्तु में एवं उसके समानजातीयों में एवं विजातीय महिषादि में साधारण रूप से रहने के कारण पक्षीभूत वस्तु में यह 'गो' है या 'महिष' इस सन्देह का उत्पादक है । ( पूर्वपक्ष ) कोई कहते हैं कि उक्त रीति से ही यदि समानबल के एवं परस्पर विरुद्ध दो वस्तुओं के साधक दो हेतुओं का समावेश जहाँ एक धर्मी में होता है वहाँ वह हेतु उस धर्मी में उक्त परस्पर विरुद्ध दो वस्तुओं के सन्देह का हेतु होने के कारण एक और ही प्रकार का सन्दिग्ध नाम का हेत्वाभास
न्यायकन्दली
व्यापको विपक्षैकदेशवृत्तिरनैकान्तिकः । सपक्षविपक्षयोर्व्यापको नित्यः शब्दः, प्रमेयत्वादिति । सपक्षविपक्षैकदेशवृत्तिः, नित्यमाकाशममूर्तत्वादिति । सपक्षेकदेशवृत्तिविपक्षव्यापको द्रव्यं शब्दो निरवयवत्वादिति । समानासमानजातीययोः साधारण इति यत् साधारणपद तस्य विवरणं सन्नवेति ।
गो से भिन्न महिष एवं अश्त्र प्रभृति जो सभी उसके विपक्ष हैं, उनमें से महिषादि में ही विषाण रूप हेतु है, अश्वादि में नहीं ) । (२) सभी सपक्षों और सभी विपक्षों में व्यापक रूप से रहनेवाले सन्दिग्ध हेत्वाभास का उदाहरण 'नित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्' इस अनुमान का 'प्रमेयत्व' हेतु है ( क्योंकि प्रमेयत्व सभी वस्तुओं में रहने के कारण नित्य रूप सभी सपक्षों में और अनित्य रूप सभी विपक्षों में विद्यमान है ) । (३) कुछ ही विपक्षों में एवं कुछ ही सपक्षों में रहनेवाले सन्दिग्ध हेत्वाभास का दृष्टान्त है 'नित्यमाकाशममूर्त्तत्वात्' इस अनुमान का 'अमूर्त्तत्व' हेतु, ( क्योंकि आत्मा प्रभृति कुछ ही सपक्षों में अमूर्त्तत्व है, एवं अनित्य पृथिवी प्रभृति कुछ ही सपक्षों में ही अमृत्तत्व है ) ( ४ ) सभी विपक्षों में एवं कुछ ही सपक्षों में रहनेवाले सन्दिग्ध हेत्वाभास का उदाहरण है 'द्रव्यं शब्दो निरवयवत्वात्' इस अनुमान का 'निरवयवत्व' हेतु क्योंकि द्रव्यत्व शून्य सभी वस्तुओं में निरवयवत्व है, एवं सपक्षीभूत कुछ हो द्रव्यों में निरवयवत्व है ।" ' समानासमानजातीययोः साधारण:' इस वाक्य में जो 'साधारण' पद है, उसी की व्याख्या 'सन्नेव' इस वाक्य के द्वारा की गई है ।
१. अर्थात् यह ' सन्दिग्ध' हेत्वाभास चार प्रकार का है - ( १ ) सपक्षव्यापक और विपक्षैकदेशवृत्ति ( २ ) सपक्ष और विपक्ष दोनों का व्यापक, (३) सपक्षैकदेशवृत्ति एवं विपक्षकदेशवृति, (४) विपक्षव्यापक और सपक्षैकदेशवृत्ति । मुद्रित न्यायकन्दली
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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५८३
अथैको धर्मः सपक्षविपक्षयोर्दर्शनाद् धर्मिणि सन्देहं कुर्वन् सन्दिग्धो हेत्वाभासः स्यात्, एवमेकस्मिन् धर्मिणि द्वयोर्हेत्वोस्तुल्यबलयोविरुद्धार्थप्रसाधकयोः सन्निपाते सति संशयदर्शनादयं विरुद्धद्वयसन्निपातोऽन्यः सन्दिग्धो हेत्वाभास इति कैश्चिदुक्तम्, तद् दूषयितुमुपन्यस्यति - एकस्मिश्चेति । तस्योदाहरणमाहयथा मूर्तत्वामूर्तत्वं प्रति मनसः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोरिति । मूर्त मनः क्रियावत्त्वाच्छ्रादिवत्, अमूर्तं मनोऽस्पर्शवत्त्वादाकाशादिवदिति विरुद्धार्थप्रसाधकयोः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोर्हत्वोः सन्निपाते मनसो मूर्त्तत्वामूर्त्तत्वं प्रति संशयः, नह्यत्रो भयोरपि साधकत्वम्, वस्तुनो द्वयात्मकत्वासम्भवात् । नानि परस्परविरोधादुभयोरप्यसाधकत्वम् मूर्तामूर्तत्वव्यतिरेकेण प्रकारान्तराभावात् ।
न
किसी सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि जिस प्रकार सपक्ष और विपक्ष दोनों में यदि एक ही धर्म ( हेतु) देखा जाय तो वह धर्मी ( पक्ष ) में साध्य के सन्देह को उत्पन्न करने के कारण 'सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास होगा, उसी प्रकार परस्पर विरुद्ध दो साध्यों के साधक एवं समानबल के दो हेतु यदि एक धर्मी में देखे जाँय तो भी उस धर्मी में उक्त दोनों विरुद्ध साध्यों का संशय होगा । अतः यह 'विरुद्धद्वयसंनिपात' मूलक एक अलग ही ' सन्दिग्ध' नाम का हेत्वाभास है । इस पक्ष को खण्डन करने का ही उपक्रम 'एकस्मिश्च' इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है। इसी ( विशेष प्रकार के ) सन्दिग्ध का उदाहरण 'यथा मूर्त्तत्वामूर्त्तत्वं प्रति मनसः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वयोः ' इस वाक्य के द्वारा प्रदर्शित हुआ है। प्रकार घट शरावादि क्रिया से युक्त होने के कारण मूर्त्त हैं, उसी प्रकार है, क्योंकि वह भी क्रियाशील है' एवं 'जिस प्रकार आकाश स्पर्श से कारण मूर्त नहीं है, उसी प्रकार मन भी स्पर्श से विहीन होने के कारण अमूर्त है' इस रीति से मूर्त्तत्व और अमूर्त्तत्व रूप दो विरुद्ध साध्य को सिद्ध करनेवाले क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्व रूप दोनों हेतुओं का एक ही मन रूप धर्मी में यदि सम्मिलन होता है, तो मन रूप धर्मी में यह संशय होता है कि 'मन मूर्त है ? एक वस्तु एक ही प्रकार की हो सकती है, परस्पर विरोधी दो मन मूर्त ही होगा या अमूर्त ही ), अतः वे दोनों हेतु पक्ष में अपने अपने साध्य ( अर्थात् मूर्त्तत्व एवं अमूर्त्तत्व के ) निश्चय का उत्पादन
रहित होने के
अथवा अमूर्त ?” । चूंकि प्रकार की नहीं ( सुतराम् रूप अपने एक ही
मन
नहीं कर सकते । यह कहना भी सम्भव नहीं है कि ( प्र० ) चूंकि मूर्त्तत्व और अमूर्त्तत्व दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः मन रूप एक ही धर्मी में उक्त दोनों साध्यों को साधन करने का सामर्थ्य उन दोनों हेतुओं में से ( उ० ) क्योंकि मन को मूर्त या अमूर्त इन दोनों से भिन्न होना सम्भव नहीं है, ( अतः उन दोनों में से एक हेतु मन में अपने साध्य का साधक
किसी में भी नहीं है । किसी तीसरे प्रकार का
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अभिप्राय यह है कि 'जिस
मन भी मूर्त
पुस्तक के इस सन्दर्भ में जो 'अयं सपक्षविपक्षयोर्ध्यापको विपक्षैकदेश वृत्तिरनैकान्तिकः ' यह पाठ है उसमें 'विपक्षयोः' यह प्रमाद से लिखा गया जान पड़ता है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् क्रियावत्यास्पर्शवत्वयोरिति । नन्वयमसाधारण एवाचाक्षुषत्वप्रत्यक्षत्ववत् संहतयोरन्यतरपक्षासम्भवात् । ततश्चानध्यवसित इति है। जैसे कि मन में मूतत्व के साधक क्रियावत्त्व और अमर्त्तत्व के साधक अस्पर्शवत्त्व ये दोनों ही हेतु विद्यमान हैं, अतः संशय होता है कि मन क्रियाशील होने के कारण मूर्त है या अस्पर्शयुक्त ( द्रव्य ) होने के कारण (आकाशादि की तरह ) अमूर्त है ? मन में उक्त सन्देह का कारण होने से उक्त दोनों ही हेतु सन्दिग्ध नाम के हेत्वाभास हैं । ( अवान्तर उत्तरपक्ष ) जिस प्रकार अवाक्षुषत्व ( चक्षु से गृहीत न होना ) एवं प्रत्यक्षत्व ( इन्द्रिय से गृहीत होना ) इन दोनों में से एक-एक गुण से भिन्न दूसरी जगह पृथक् रूप से रहने पर भी मिलित होकर केवल गुण में ही रहने के
न्यायकन्दली चान्यतरस्य हेतोविशेषोऽवगम्यते येनेकपक्षावधारणं स्यात् । अतः क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वाभ्यां मनसि संशयो भवति, कि मूर्तं किं वामूर्तमिति । अयमेव च विरुद्धाव्यभिचारिणः प्रकरणसमाद् भेदो यदयं संशयं करोति, प्रकरणसमस्तु सन्दिग्धेऽर्थे प्रयुज्यमानः संशयं न निवर्तयतीति।
नन्वयमसाधारण एव, अचाक्षुषत्व प्रत्यक्षत्ववत् संहतयोरन्यतरपक्षासम्भवादिति। क्रियावत्त्वास्पर्शवत्त्वे प्रत्येकं न तावत् संशयं जनयतः, निर्णयहेतुत्वात् । सन्निपातश्च तयोरयमसाधारण एव, संहतयोस्तयोर्मनोव्यतिरेकेणान्यअवश्य है )। इन दोनों हेतुओं में से किसी एक हेतु में 'विशेष' बल का भी निश्चय नहीं है कि उन दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष का अवधारण हो जाय । अतः कथित क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्त्व इन दोनों हेतुओं से मन में यह संशय उत्पन्न होता है कि 'मन मूर्त है या अमूर्त ? विरुद्धाव्यभिचारी (प्रस्तुत विलक्षण सन्दिग्ध ) हेत्वाभास में प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्ष ) हेत्वाभास से यही अन्तर है कि विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास पक्ष में प्रकृत साध्य के संशय का उत्पादन करता है. किन्तु प्रकरणसम उस साध्य में प्रवृत्त होता है जो सन्दिग्ध है, जिससे कि वह पक्ष में साध्य के सन्देह को दूर नहीं कर पाता।
___ 'नन्वयमसाधारण एव, अचाक्षुषत्वप्रत्यक्षत्ववत् संहतयोरन्यतरपक्षासम्भवात्' इस (पूर्वपक्ष भाष्य ) का अभिप्राय है कि यह (विरुद्धाव्यभिचारी या सन्दिग्धविशेष ) असाधारण हेत्वाभास ही है, क्योंकि कथित क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्त्व इन दोनों में कोई एक हेतु संशय को उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्येकशः वे दोनों निश्चय के ही उत्पादक हैं। दोनों हेतुओं का सम्मिलन (जिससे संशय हो सकता है ) असाधारण ही है, क्योंकि क्रियावत्व और अस्पर्शवत्त्व इन दोनों का सम्मिलन तो केवल मन रूप पक्ष में ही सम्भव है, मन को छोड़कर उन दोनों का सम्मिलन
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प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तरपक्षे सपक्षे विपक्षे वाऽसम्भवात्, यथाऽचाक्षुषत्वप्रत्यक्षत्वयोः प्रत्येकं गुणव्यभिचारेऽपि समुदितयोर्गुणव्यतिरेकेणान्यत्रासम्भवः। यद्यपि विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयोपनिपातोऽसाधारणो धर्मः, तथापि संशयहेतुत्वमेव । व्यतिरेकिणो हि विपक्षादेवकस्माद् व्यावृत्तिनियता, तेन पक्षे निर्णयहेतुत्वम् । असाधारणस्य तु व्यावृत्तिरनकान्तिको, विपक्षादिव सपक्षादपि तस्याः सम्भवात् । तत्र यदि गन्धवत्त्वमनित्यव्यावृत्तत्वान्नित्यत्वं साधयति, नित्यादपि गगनाद् व्यावृत्तेरनित्यत्वमपि साधयेत् ? न चास्त्युभयोः सिद्धिः, वस्तुनो द्वैरूप्याभावात् । नाप्युभयोरसिद्धिः, प्रकारान्तराभावात् । अतो गन्धवत्त्वात् पृथिव्यां संशयो भवति किमियं नित्या ? किं वानित्या ? इति । यदाहुभट्टमिश्राः
__यत्रासाधारणो धर्मस्तदभावमुखेन तु।
द्वयासत्त्वविरोधाच्च मतः संशयकारणम् ॥ किसी भी सपक्ष में या किसी भी विपक्ष में सम्भव नहीं है। जैसे कि अचाक्षुषत्व ( आँखों से न देखे जाने योग्य ) और प्रत्यक्षत्व इन दोनों में से अलग अलग प्रत्येक का गुण में व्यभिचार (गुण से भिन्न पदार्थ में विद्यमानत्व) है, क्योंकि गुण से भिन्न आकाशादि द्रव्य चक्षु से नहीं देखे जाते एवं गुण से भिन्न होने पर भी घटादि द्रव्यों का प्रत्यक्ष होता है ), किन्तु अचाक्षुषत्व और प्रत्यक्षत्व दोनों मिल कर केवल गुण में ही हैं ( क्योंकि गन्धादि गुणों का चक्षु से ग्रहण न होने पर भी प्रत्यक्ष होता है)। यद्यपि विरुद्धाव्यभिचारी दो धर्मों का एक आश्रय में रहना असाधारण धर्म है, फिर भी वह संशय का ही उत्पादक है ( निर्णय का नहीं)। ( अन्वय ) व्यतिरेकी हेतु में केवल विपक्ष में न रहना (विपक्षव्यावृत्ति ) ही केवल निश्चित है ( सपक्षव्यावृत्ति नहीं ), अतः वह हेतु पक्ष में साध्य के निश्चय का उत्पादन कर सकता है। असाधारण हेतु में सपक्ष या विपक्ष इन दोनों में से किसी एक की भी व्यावृत्ति नियमित नहीं है, क्योंकि विपक्ष की तरह सपक्ष में भी उसका न रहना निर्णीत ही है। अतः गन्धवत्त्व रूप असाधारण हेतु सभी अनित्यों में न रहने के कारण पृथिवी में नित्यत्व का अगर साधन कर सकता है, तो फिर गगनादि नित्य पदार्थों में न रहने के कारण पृथिवी में अनित्यत्व का भी वह साधन कर ही सकता है। किन्तु एक ही पृथिवी व्यक्ति में नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि एक वस्तु एक ही प्रकार की हो सकती है, दो प्रकार की नहीं । ( वस्तुओं का किसी एक ही प्रकार का होना निश्चित होने के कारण ही ) नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों को असिद्धि भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि किसी एक वस्तु का नित्यत्व और अनित्यत्व से भिन्न कोई तीसरा प्रकार हो ही नहीं सकता । अतः पृथिवी में गन्ध के रहने के कारण यह संशय होता है कि 'यह नित्य है अथवा अनित्य ? जैसा कि भट्टमिश्र ( कुमारिलभट्ट) ने कहा
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम्
वक्ष्यामः । ननु शास्त्रे तत्र तत्रोभयथा दर्शनं संशयकारणमपदिश्यत
कारण असाधारण होते हैं, इसी प्रकार क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्त्व ये दोनों स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग मन से भिन्न वस्तुओं में रहते हुए भी मिलित होकर केवल मनरूप पक्ष में ही हैं, अतः क्रियावत्त्व से युक्त अस्पर्शवत्त्व असाधारण ही हैं, सन्दिग्ध नहीं । सिद्धान्तपक्ष ) हम आगे कहेंगे कि कथित स्थिति में अचाक्षुषत्व विशिष्ट प्रत्यक्षत्व या क्रियावत्त्वविशिष्ट अस्पर्शवत्त्व 'अनध्यवसित' होगा, सन्दिग्ध नहीं ।
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( पूर्वपक्ष ) शास्त्र ( वैशेषिक सूत्रों अ० २ आ० २ सू० १८ तथा १६ ) में एक धर्मी में विरुद्ध दो धर्मों के ज्ञान को संशय का कारण कई स्थानों में कहा गया है । अतः उक्त कथन शास्त्र के विरुद्ध है ।
न्यायकन्दली
यच्चाह न्यायवात्तिककारः - विभागजत्वं विभागजविभागासमवायिकारणकत्त्वं नर्ते शब्दात् सम्भवतीति सर्वतो व्यावृत्तेः संशयहेतुरिति ।
अत्राह -- ततश्चानध्यवसित इति वक्ष्याम इति । विरुद्धयोः सन्निपातोSसाधारणोऽसाधारणत्वाच्चानध्यवसितोऽयमिति वक्ष्यामः । किमुक्तं स्यात् ? असाधारणो धर्मोऽध्यवसायं न करोतीति वक्ष्याम इत्यर्थः ।
है कि ( गन्धवत्वादि ) असाधारण धर्म भी ( पृथिवी में नित्यत्व एवं अनित्यत्व के ) संशय का कारण है । ( उसकी रीति यह है कि ) उक्त असाधारण धर्म किसी सपक्ष में एवं किसी भी विपक्ष में न रहने के कारण पृथिवी में नित्यत्व का अभाव अनित्यत्व और अनित्यत्व का अभाव नित्यत्व इन दोनों का साधन कर सकता है, क्योंकि दो विरुद्ध धर्मों की सत्ता एक धर्मी में सम्भव नहीं है, अतः पृथिव्यादि में गन्धवत्त्वादि रूप असाधारण धर्मों से नित्यत्वादि का संशय ही होता है ।
जैसा कि न्यायवार्तिककार ( उद्योतकर ) ने भी कहा है कि - विभागजस्व अर्थात्, विभागजविभागरूप असमवायिकारण से उत्पन्न होना शब्द से भिन्न किसी दूसरी वस्तु में सम्भव नहीं है, अतः सपक्ष और विपक्ष इन दोनों में से किसी में भी न रहने के कारण उक्त विभागजत्व रूप असाधारण धर्म शब्द में संशय का कारण है ।
इसी आक्षेप का समाधान ' ततश्चानध्यवसित इति वक्ष्यामः ' इस वाक्य कें द्वारा किया गया है । अर्थात् ) चूंकि विरुद्ध दो धर्मों का एक आश्रय में समावेश ही असाधारण है, अतः इसी असाधारण्य के कारण वह 'अनध्यवसित' नाम का हेत्वाभास है, यह
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् इति, न, संशयो विषयद्वैतदर्शनात् । संशयोत्पत्तौ विषयद्वैतदर्शनं कारणम्, तुल्यबलत्वे च तयोः परस्परविरोधानिर्णयानुत्पादकत्वं
(सिद्धान्त ) नहीं, यहाँ कोई भी शास्त्रविरोध नहीं है क्योंकि एक ही विषय के दो विरुद्ध प्रकार के ज्ञान से संशय होता है, ( एक धर्मी में दो विरुद्ध धर्मों के ज्ञान से नहीं )। अर्थात विषय का द्वैतदर्शन ( दो प्रकारों से देखने ) से ही संशय की उत्पत्ति होती है। उन ( क्रियावत्त्व और अस्पर्शवत्त्व ) दोनों
न्यायकन्दली विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेत्वभावे प्रतिपादिते शास्त्रविरोधं चोदयति-नन्विति । उभयथा दर्शनमिति। उभाभ्यां विरुद्धधर्माभ्यां सहैकस्य धर्मिणो दर्शनं संशयकारणमिति शास्त्रे तत्र तत्र स्थाने कथितम् 'दृष्टं च दृष्टवद् दृष्ट्वा ' संशयो भवति ( वै० अ० २ आ० २ सू० १८ )। अमूर्तत्वेन सहात्मनि दृष्टमस्पर्शवत्वं यथा मनसि दृश्यते, तथा मूर्तत्वेन सह परमाणौ दृष्टं क्रियावत्त्वमपि दृश्यते, अतोऽमूर्तत्वेन सह दृष्टमस्पर्शवत्त्वमिव मूर्तत्वेन सह दृष्टं क्रियावत्त्वमपि दृष्ट्वा संशयो भवति कि मनो मूर्तम् ? किमुतामूर्तम् ? इति । 'यथादृष्टमयथादृष्टमुभयथादृष्टत्वात् संशयः' ( अ० २ आ० २ सू० १६)। यथा हम आगे कहेंगे । (प्र०) इससे क्या अभिप्राय निकला ? (उ०) यही कि हम आगे कहेंगे कि 'असाधारण धर्म' ( हेतु ) 'अध्यवसाय' ( निश्चय ) को उत्पन्न नहीं करता।
'विरुद्धाव्यभिचारी' हेतु ( असाधारण धर्म ) संशय का कारण नहीं है । कथित इस पक्ष के ऊपर 'ननु' इत्यादि ग्रन्थ से ( वैशेषिक सूत्र ) रूप शास्त्र के विरोध का उद्भावन किया गया है। 'उभयथा दर्शनम्' इत्यादि सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि 'उभाभ्याम' अर्थात् 'विरुद्ध दो धर्मों के साथ एक धर्मी का ज्ञान संशय का कारण है । यह जो शास्त्र ( वैशेषिक सूत्र ) में उन सब स्थानों में कहा गया है उसका विरोध होगा।
जैसे कि 'दृष्टं च दृष्टवत्' ( वै० सू० अ० २ आ. २ सू० १८) इस सूत्र के द्वारा कहा गया है कि 'दृष्ट्वा संशयो भवति' ( अभिप्राय यह है कि ) मन में अमूर्त्तत्व के साथ आत्मा में रहने वाला अस्पर्शवत्त्व भी है, एवं परमाणु में मूर्तत्व के साथ रहनेवाला क्रियावत्त्व भी मन में है, अतः यह संशय होता है कि 'मन मूर्त है या अमूर्त ? 'यथादृष्टमयथा दृष्ट मुभयथा दृष्टत्वाच्च' ( वै. सू. अ. २ सू. १६ ) के द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि 'यथादृष्ट' और 'अयथादृष्ट' इन दोनों प्रकार से ज्ञात धर्म के द्वारा संशय होता है । कहने का तात्पर्य है कि 'यथा' अर्थात् जिस प्रकार मूर्तत्व की व्याप्ति से युक्त क्रियावत्त्व के साथ मन की उपलब्धि होती है, एवं 'अयथादृष्ट' अर्थात् उसी प्रकार इससे विरुद्ध अमर्तत्व के साथ अवश्य रहने वाले क्रियावत्त्व के साथ भी मन की उपलब्धि होती है, अतः 'उभयथादृष्ट' अर्थात्
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५८८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
न्यायकन्दली येन धर्मेण मूर्तत्वाव्यभिचारिणा क्रियावत्त्वेन समं 'दृष्टम्' मनस्तस्मात् 'अयथादृष्टम्' अमूर्तत्वाव्यभिचारिणा स्पर्शवत्वेन समं दृष्टम्, अत: 'उभयथादृष्टत्वात्' संशयः किं क्रियावत्त्वान्मूतं मनः ? उतास्पर्शवत्त्वादमूर्तम् ? इति सूत्रार्थः । तेन विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेतुत्वं निराकुर्वतः शास्त्रविरोधः।
एतत् परिहरति न संशयः, विषयद्वैतदर्शनादिति । यत् त्वयोक्तं शास्त्रविरोध इति, तन्न, यस्मात् संशयो विषयद्वैतदर्शनाद् भवति । एतदेव विवृणोति-संशयोत्पत्तौ विषयद्वैतदर्शनं कारणमिति । यादशे धमिण्यूर्ध्वस्वभावे संशयो जायते, 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति, तादशस्य विषयस्य पूर्व द्वैतदर्शनमुभयथादर्शनं स्थाणुत्वपुरुषत्वाभ्यां सह दर्शनं संशयकारणम्, न त्वेकस्य धर्मिणो विरुद्धधर्मद्वयसन्निपातस्तस्य कारणम्, तस्मान्नायं सूत्रार्थों यद्विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयोपनिपातात् संशय इत्यभिप्रायः।
तथा च दृष्टं च दृष्टवदृष्ट्वेत्यस्यायमर्थः-पूर्वमेव 'दृष्टम्' पदार्थ स्थाणु वा पुरुषं वा, 'दृष्टवद्' दृष्टाभ्यां स्थाणुपुरुषान्तराभ्यां तुल्यं वर्तमानं दृष्टम्, स्थाणुपुरुषान्तरसमानमिति यावत्, देशान्तरे कालान्तरे वा पुनदृष्ट्वा मन की उक्त दोनों प्रकार से उपलब्धि होने के कारण यह संशय होता है कि 'यतः मन क्रियाशील है, अतः मूर्त है ? अथवा 'मन में स्पर्श नहीं है, अत: मन अमूर्त है ? यही उक्त दोनों वैशेषिक सूत्रों के अर्थ हैं । जो कोई विरुद्धाव्यभिचारी ( असाधारण ) धर्म को संशय का कारण नहीं मानते, उन्हें उक्त दोनों सूत्र रूप शास्त्रों के विरोध का सामना करना पड़ेगा।
___'न, विषयद्वैतदर्शनात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सिद्धान्ती इस विरोध का परिहार करते हैं । अर्थात् आप (पूर्वपक्षी) ने जो यह कहा है कि 'शास्त्र-विरोध है', सो नहीं है, क्योंकि उक्त दोनों सूत्रों से यही कहा गया है कि विषय दो प्रकार से जानने के कारण (विषयद्वैतदर्शन से) संशय उत्पन्न होता है। (संशयो विषयतदर्शनाद् भवति) अपने इस वाक्य का ही 'संशयोत्पत्तौ विषयद्वैतदर्शनं कारणम्' इस वाक्य के द्वारा विवरण देते हैं । अभिप्राय यह है कि ( स्थाणुर्वा पुरुषः में) ऊँचाई वाले जिस धर्मी में 'स्थाणुर्वा पुरुषः' इस आकार का संशय होता है, उस संशय के प्रति पहिले 'विषय' का 'द्वतदर्शन' अर्थात् 'उभयथा दर्शन' फलतः पुरुष और स्थाणु दोनों में समान रूप से ऊँचाई का देखना ही कारण है। उस संशय के प्रति एक धर्मी में विरुद्धाव्यभिचारी दो धर्मों का सम्मिलन कारण नहीं है । अतः उक्त सूत्र का यह अभिप्राय नहीं है कि विरुद्धाव्यभिचारी दो धर्मों का एक धर्मी में समावेश संशय का कारण है।
तदनुसार 'दृष्टञ्च दृष्टवद् दृष्ट्वा' इस सूत्र का यह अभिप्राय है कि पूर्वकाल में 'दृष्ट' स्थाणु या पुरुष को ही 'दृष्टवत्' अर्थात् वर्तमान काल में दूसरे स्थाणु या दूसरे पुरुष के 'तुल्य' देखकर अर्थात् दूसरे काल या दूसरे देश में दूसरे पुरुष का दूसरे स्थाणु के समान फिर से देखकर, किसी कारणवश उन दोनों के स्थाणुत्व और पुरुषत्व
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करणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली कुतश्चिनिमित्ताद्विशेषानुपलम्भे सति संशयो भवति। दृष्टं चेति चशब्देन पूर्वमदृष्टमपि पदार्थ दृष्टवद् दृष्टाभ्यां स्थाणुपुरुषान्तराभ्यां समानं दृष्ट्वा संशय इत्यर्थः ।
सूत्रान्तरं च यथादृष्टमयथादृष्टमुभयथादृष्टमित्येकर्मिविशेषानुस्मरणकृतं संशयं दर्शयति । पूर्वदृष्टमेव पुरुषं 'यथादृष्टम्' येन येनावस्थाविशेषण दृष्टं मुण्डं जटिलं वा, तस्मादयथादृष्टमन्येनान्येनावस्थाभेदेन दृष्टम्, कालान्तरे दृष्ट्वा, अवस्थाविशेषमपश्यतः स्मरतश्चैवं तस्यैव प्राक्तनीमवस्थितामुभयोमवस्था किमयमिदानीं मुण्डः किं वा जटिल इति संशयः स्यादिति सूत्रार्थः ।
न तु विरुद्धाव्यभिचारी संशयहेतुः, प्रयोगाभावात् । यदि तावदाद्यस्य हेतोर्यथोक्तलक्षणत्वमवगतं तदा तस्माद्योऽर्थोऽवधारितः स तथैवेति न द्वितीयस्य प्रयोगः, प्रतिपत्तिबाधितत्वात् । अथायं यथोक्तलक्षणो न भवति, तदानीमयमेव दोषो वाच्यः, कि प्रत्यनुमानेन ? विरुद्धं प्रत्यनुमानं न व्यभिचरति, नातिवर्तत इति विरुद्धाव्यभिचारी प्रथमो हेतुस्तस्यायमेव दोषो यद्विपरीतानुरूप असाधारण धर्म को न समझने के कारण संशय उत्पन्न होता है । 'दृष्टञ्च' इस वाक्य के 'च' शब्द से भी यही अर्थ व्यक्त होता है कि जो पदार्थ ( स्थाणु या पुरुष में) पहिले से ज्ञात नहीं है, अगर उसका भी दूसरे स्थाणु वा दूसरे पुरुष की तरह ज्ञान होता है, तो उस ज्ञान के बाद भी संशय की उत्पत्ति होती है ।
'यथा दृष्टमयथाष्टमुभयथादृष्टम्' इस दूसरे सूत्र के द्वारा वह संशय दिखलाया गया है कि जिसकी उत्पत्ति एक धर्मी में ( अनेक धर्मों की) स्मृति से होती है । पहिले देखा हुआ पुरुष ही अगर 'यथादृष्ट' हो, अर्थात् जिन जिन विशेष अवस्थाओं से-जटी अथवा मुण्डी प्रभृति अवस्थाओं से युक्त होकर जो पूर्व में देखा गया हो, वही पुरुष अगर उससे 'अयथादृष्ट अर्थात् ( उन पूर्वदृष्ट अवस्थाओं से ) दूसरी दूसरी अवस्थाओं से यक्त रूप में दूसरे समय देखा जाता है, एवं ( उसकी वर्तमान ) विशेष प्रकार की अवस्था की उपलब्धि नही होती है, एवं पूर्व की जटी और मुण्डी दोनों अवस्थाओं का स्मरण होता है, तो इस स्थिति में इसी संशय की उत्पत्ति होती है कि यह 'जटाधारी है मुण्डित-मस्तक ?
(विरुद्धाव्यभिचारी हेतु में संशय की कारणता सूत्रों से नहीं कही गयी है इतनी ही नहीं वस्तुतः) विरुद्धाव्यभिचारी हेतु संशय का कारण हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसका प्रयोग ही सम्भव नहीं है। ('मूर्त मनः अस्पर्शवत्त्वात्, अमूर्त मनः क्रियावत्त्वात्' इत्यादि स्थलों में) साध्य के ज्ञापकत्व के प्रयोजक जितने जिन प्रकार के (सपक्षसत्त्वादि धर्म) हैंपहिले हेतु में उन सबों का ज्ञान है, तो फिर इस हेतु से जो निश्चित होगा, वह उसी प्रकार का होगा। अतः ( उस विरुद्ध साध्य के साधन के लिए) दूसरे हेतु का प्रयोग ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह प्रथम हेतुजनित प्रथम साध्य की अनुमिति (प्रतिपत्ति) से बाधित है। ऐसी स्थिति में अगर प्रथम हेतु में साध्य ज्ञान के प्रयोजक (सपक्षसत्त्वादि)
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम्
स्यान तु संशयहेतुत्वम्, न च तयोस्तुस्यबलवच्चमस्ति, अन्यतरस्यानुमेयोद्देशस्यागमबाधितत्वादयं तु विरुद्धभेद एव ।
के ज्ञान समान बल के हैं, इससे इतना ही होगा कि दोनों में से कोई भा निश्चय का उत्पादन न कर सकेगा। इससे ( निश्चय की इस अनुपत्पदता ) से उनमें संशय की कारणता नहीं आ सकती । वस्तुतः मूर्त्तत्त्व का साधक क्रियावत्त्व और अमूर्त्तत्व का साधक अस्पर्शवत्त्व ये दोनों हेतु समानबल के हैं भी नहीं, क्योंकि इन दोनों में से एक ( अस्पर्शवत्त्व ) का साध्य ( अमूर्त्तत्त्व ) मन में तद्भावादणु मन:' ( अ० ६ ० १ सू-२३ ) इस वैशेषिकसूत्र रूप आगम से बाधित है । अतः ( जिसे पूर्वपक्षी दूसरे प्रकार का सन्दिग्ध हेत्वाभास कहते हैं ), वह विरुद्ध हेत्वाभास का ही एक प्रभेद है ।
न्यायकन्दली
मानसम्भवः । द्वितीयेन प्रतिपक्षे उपस्थाप्यमाने प्रथमस्य साध्यसाधकत्वाभावादिति चेत् ? यदि द्वितीयवत् प्रथममप्यनुमानलक्षणोपपन्नम्, न प्रथमस्या - साधकत्वम् । तदसाधकत्वेऽन्यत्राप्यनुमाने के आश्वासः ? वस्तुनो द्वैरूप्याभावादसाधकत्वमिति चेत् ? वस्तु द्विरूपं न भवतीति केनैतदुक्तम् ? यथा हि प्रमाणमथं गमयति, तदेव हि तस्य तत्त्वम् ।
धर्मों का ज्ञान ही नहीं है तो फिर उस धर्मविहीनता के प्रयोजक हेत्वाभास का ही उद्भावन करना चाहिए, ( उस हेतु को दूषित करने के लिए ) प्रमथानुमान ( के विरोधी अनुमान) के प्रयोग से क्या प्रयोजन ? (प्र०) 'विरुद्धं न व्यभिचरति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'विरुद्धाव्यभिचारी' शब्द का यह अर्थ है कि जो हेतु अपने विरोधी अनुमान की उत्पत्ति को न रोक सके वही हेतु 'विरुद्धाव्यभिचारी' हैं । तदनुसार पूर्व में प्रयुक्त हेतु हा "विरुद्धाव्यभिचारी है । इस हेतु में यही 'दोष' है कि इसके रहते भी दूसरे हेतु से विपरीत अनुमिति की उत्पत्ति होती है, क्योंकि द्वितीय ( प्रति ) हेतु के द्वारा जब विरोधी पक्ष की उपस्थिति हो जाती है, तो अपने साध्य के साधन करने की क्षमता पहिले हेतु से जाती रहती है । ( उ० ) अगर दूसरे हेतु की तरह पहले हेतु में अनुमान के उत्पादक ( सपक्षसत्त्वादि ) सभी लक्षण हैं, तो फिर पहले हेतु अपने साध्य के साधन में अक्षम ही नहीं है, क्योंकि सपक्षसत्त्वादि रूपी बलों के रहते हुए भी यदि प्रथम हेतु में साध्य के साधन का सामर्थ्य न माना जाय, तो और अनुमान प्रमाणों में हो कैसे विश्वास किया जा सकेगा कि वह अपने साध्य का साधन करेगा ही ? अगर यह कहें कि ( प्र०) चूँकि कोई भी वस्तु ( विरुद्ध ) दो प्रकार की नहीं हो सकती, अतः एक ( पहिले ) हेतु को साधक मान लेते हैं । ( उ० ) यह किसने कहा कि एक वस्तु ( विरुद्ध ) दो प्रकार की नहीं हो सकती ? प्रमाण से जिस प्रकार की वस्तु की सिद्धि होगी, वही प्रकार उस
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अथैकं वस्तूभयात्मकं न भवतीति सुदृढप्रमाणावसितोऽयमर्थो न शक्यतेऽन्यथा कर्तुम, तहिं तयोस्तुल्यबलत्वं नास्त्येव, एकस्य यथार्थत्वादिति, कुतः संशयः ? यद्यपि वस्तुवृत्त्या द्वयोर्यथार्थता नास्ति, तथाप्यन्यतरस्य विशेषानुपलम्भेन भवेत् तुल्यबलत्वाभिमान इति चेदस्त्वेवम्, तथापि तुल्यबलत्वाद्यथोत्तरेणाद्यं प्रतिबध्यते, तथायेनाप्युत्तरं प्रतिबध्यत इति परस्परं स्वसाध्यसाधकत्वं न स्यात्, न तु संशयकर्तृत्वम्, विशेषानुपलम्भमात्रेण विरुद्धोभयविशेषोपस्थापनाभावादित्याह-तुल्यबलत्वे चेति ।
ननु यद्वस्तु तन्मूर्तं भवत्यमूर्त वा, न मूर्तामूर्ताभ्यां प्रकारान्तरमुपलब्धम्, अतो मनसि मूर्त्तत्वामूर्त्तत्वत्योरनुपलम्भेऽपि द्वयोरभावं द्वयोरपि वस्तु का तत्त्व' होगा ( यथार्थ रूप होगः ,। अगर सुदृढ़ प्रमाण के द्वारा यह निश्चित है कि वस्तु दो प्रकार की नहीं हो सकती, अतः उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, तो फिर दोनों हेतु समानबल के है ही नहीं, क्योंकि उनमें एक यथार्थ ( अनुमिति का साधक ) है। अतः संशय किस प्रकार होगा ? (प्र०) यद्यपि वस्तुस्थिति यही है कि (परस्पर विरोधी साध्यों के साधक ) दोनों हेतु यथार्थ (ज्ञान के साधक नहीं हो सकते) फिर भी दोनों पक्षों में से किसी एक में (यथार्थ के प्रयोजक ) विशेष धर्म की उपलब्धि नहीं होती है, अतः दोनों हेतुओं में समान बल होने का अभिमान होता है। (उ०) अगर दोनों हेतुओं को समानबल का मान भी लें, तो भी जैसे कि पहला हेतु दूसरे हेतु को प्रतिरुद्ध करता है, वैसे ही ( उसी के समानबल होने के कारण ) दूसरा हेतु भो पहिले हेतु को प्रतिरुद्ध कर सकता है। इस प्रकार दोनों परस्पर एक दूसरे से प्रतिरुद्ध होने के कारण केवल अपने अपने साध्य का साधन भर न कर सकेंगे। इससे वह सम्भव नहीं है कि दोनों मिलकर संशय का उत्पादन करें, क्योंकि 'दोनों के विशेष (असाधारण ) धर्म उपलब्ध नहीं है' केवल इतने से ही दोनों हेतुओं से परस्पर विरुद्ध दो साध्यों की उपस्थिति नहीं हो सकती। यही बात 'तुल्यबलत्वे च' इत्यादि भाष्य के द्वारा कही गयी है। (प्र०) जो कोई भी वस्तु वह या तो मूर्त ही होगी या फिर अमर्त ही होगी, क्योंकि ( परस्पर विरोधी ) दो प्रकारों में से किसी एक ही प्रकार की होगी, दोनों से भिन्न किसी तीसरे प्रकार की नहीं, ( जैसे कि कोई भी वस्तु द्रव्य ही होगी वा अद्रव्य ही, द्रव्य भी न हो और अद्रव्य भी न हो ऐसे किसी तीसरे प्रकार की वस्तु को उपलब्धि नहीं होती है ), अतः मूर्त या अमूर्त इन दोनों को छोड़ कर वस्तुओं का कोई तीसरा प्रकार उपलब्ध नहीं है। अतः मन में मर्तत्व और अमत्र्तत्व इन दोनों में से किसी एक के निश्चित न होने पर भी जिस पुरुष के मन में मूर्तत्व और अमूर्त्तत्व दोनों की सम्भावना या दोनों के अभाव को भी सम्भावना नहीं है, उस पुरुष को मूर्तत्व और अमूर्तत्व इन दोनों में से एक पक्ष का यह संशय होता है कि मन मूर्त है या अमूर्त ?' (उ०) यह ठीक है कि उस पुरुष को उक्त प्रकार का संशय होता है, किन्तु वह इस कारण नहीं होता कि मन रूप धर्मी में
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम् [गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
न्यायकन्दली भावमसम्भावयतो भवत्येवान्यतरपक्षे स संशयः । सत्यं भवत्येव, न तु विरुद्धाव्यभिचारिधर्मद्वयसन्निपातात्, किन्तु वस्तुत्वात् । यन्मूर्तत्वामूर्तत्वाभ्यां दृष्टसाहचर्य मनसि प्रतीयमानं स्मृतिद्वारेण तयोरुपस्थापनं करोति ।
तुल्यबलत्वमभ्युपगम्य विरुद्धाव्यभिचारिणः संशयहेतुत्वं निरस्तम्, न त्वनयोस्तुल्यबलत्वमस्ति, अन्यतरस्यानुमेयोद्देशस्य 'अमूर्त मनः' इत्यस्यागमेन तदभावादणु मनः' ( अ० ७ भा० १ सू० २३ ) इति सूत्रेण बाधितत्वात् । अथेदं सूत्रमप्रमाणम् ? व्यापकमेव मनः, तदा मनःसद्भावे न किञ्चित् प्रमाणमस्तीत्यमूर्त मनः अस्पर्शत्वादिति हेतुराश्रयासिद्धः । अथ युगपज्ज्ञानानुत्पत्त्या सिद्धं मनस्तदा मिग्राहकप्रमाणबाधितो युगपज्ज्ञानानुत्पत्तर्मनसोऽणु
विरुद्धाव्यभिचारी मतत्व और अमर्त्तत्व रूप दोनों धर्मों का सन्निवेश है । वह तो इस वस्तुस्थिति के कारण होता है कि क्रियावत्व और अस्पर्शवत्त्व रूप जो दोनों धर्म मूर्तत्व और अमूर्त्तत्व के साथ क्रमशः घटादि और आकाशादि में ज्ञात हो चुके हैं, उन दोनों की जब मन में प्रतीति होती है, तो वे मूर्त्तत्व और अमूर्तत्व इन दोनों को मनरूप धर्मी में उपस्थित कर देते हैं।
विरुद्धाव्यभिचारी दोनों हेतुओं को समानबल का मान कर उनमें संशय को हेतुता का खण्डन किया गया है। किन्तु यथार्थ में वे दोनों समानबल के हैं ही नहीं, क्योंकि उन दोनों में से पहिला 'अनुमेयोद्देश' अर्थात् 'अमत्तं मनः' यह प्रतिज्ञावाक्य 'तदभावादणु मनः' इस सूत्र रूप आगमन से बाधित होने के कारण 'आगमविरोधी' है। अगर उक्त सूत्र को प्रमाण न मानें, तो फिर मन (आकाशादि की तरह) व्यापक द्रव्य ही होगा, ऐसी स्थिति में मन की सत्ता में कोई प्रमाण न रहने के कारण ( अमूतं मनः, अस्पर्शवत्त्वात् ) यह हेतु आभयासिद्ध होगा। अगर एक ही समय दो ज्ञानों की उत्पत्ति न होने के कारण मन की सिद्धि मान लें. तो मन का अमूर्तस्त्र रूप साध्य मन रूप धर्मी के ज्ञापक 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति' रूप प्रमाण से ही बाधित होगा, क्योंकि, 'युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति' अर्थात् एक ही समय दो ज्ञानों की अनुत्पत्ति तभी उपपन्न हो सकती है जब कि मन अणु ( मूर्त ) हो, क्योंकि मन अगर व्यापक होगा तो एक ही समय सभी इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध हो सकेगा, जिससे एक ही क्षण में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति सम्भव हो जाएगी। 'अनुमेयोद्देश' अर्थात् ज्ञान में आगम के विरोध से कौन सा दोष होगा? इसी प्रश्न का समाधान 'अयं तु विरुद्धभेद इति' इस भाष्य वाक्य से किया गया है। अर्थात् 'अनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा'इस प्रतिज्ञा लक्षण में 'अविरोधि' पद के उपादान से जिन प्रत्यक्षादि विरुद्ध प्रतिज्ञाभासों का निराकरण किया गया है, उन्हीं (निराकृत प्रतिज्ञाभासों में से ही) 'अमत्तं मनः' यह आगमविरोधी प्रतिज्ञा भी है। अतः यहाँ प्रतिज्ञाभास ही दोष है, सन्दिग्ध रूप हेत्वाभास नहीं। प्रकृत भाष्य वाक्य में प्रयुक्त 'तु' शब्द के द्वारा यह व्यक्त किया
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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५१३
यश्चानुमेये विद्यमानस्तत्समानासमानजातीययोरसन्नेव सोऽन्यतरासिद्धोऽनध्यवसायहेतुत्वादनध्यवसितः, यथा सत्कार्यमुत्पत्तेरिति ।
( ४ ) कथित अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास ही यदि अनुमेय ( पक्ष ) में रहे किन्तु सपक्ष और विपक्ष में न रहे, तो वही 'अनध्यवसाय' रूप ज्ञान का हेतु होने से 'अनध्यवसित' नाम का हेत्वाभास कहा जाता है । जैसे कि ( कार्यं सत् उत्पत्तिमत्त्वात्' इस अनुमान का उत्पत्तिमत्त्व ) हेतु
न्यायकन्दली
परिमाणत्वे सति सम्भवात् व्यापकत्वे मनसो युगपत्समस्तेन्द्रियसम्बन्धाद्युगपदेव ज्ञानानि प्रसज्यन्ते ।
अनुमेयोद्देशस्यागमविरोधः किं दूषणमत आह-अयं तु विरुद्धभेद इति । अयमागमविरुद्धोऽनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञेत्यविरोधिग्रहणेन निर्वाततानां प्रत्यक्षादिविरुद्धानां प्रतिज्ञाभासानां प्रभेद एव, नायं सन्दिग्धो हेत्वाभासः । किन्तु विरुद्धप्रभेद एवेति तु शब्दार्थः ।
अनध्यवसित इत्यसाधारणो हेत्वाभासः कथ्यते । तं व्युत्पादयतियश्चानुमेये विद्यमानस्तत्समानासमानजातीययोरित्यादि । सर्वं कार्यमुत्पादात् पूर्वमपि सदिति साध्यते, उत्पत्तेरिति हेतुः सांख्यानाम् । सति सपक्षे व्योमादावसति विपक्षे गगनकुसुमादावभावान्नैकत रपक्षाध्यवसायं करोति । विशिष्टार्थ
गया है कि ( अमूर्त्तत्व का साधक अस्पर्शवत्त्व हेय ) विरुद्ध हेत्वाभास का ही एक प्रभेद है ( सन्दिग्ध नहीं ) ।
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'असाधारण' नाम का हेत्वाभास ही ( इस शास्त्र में ) 'अनध्यवसित' शब्द से कहा गया है । 'यश्चानुमेये विद्यमानस्तत्समानजातीययोः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उसी ( असाधारण ) को समझाते हैं । 'सभी कार्य अपनी उत्पत्ति से पहिले भी 'सत्' अर्थात् विद्यमान ही है इसको सिद्ध करने के लिए सांख्याचार्यगण 'उत्पत्तेः' इस हेतुवाक्य का प्रयोग करते हैं । इस वाक्य के द्वारा उपस्थापित यह 'उत्पत्ति' रूप हेतु 'असाधारण ( या अनध्यवसित ) नाम का हेत्वाभास है, क्योंकि ( सदा से विद्यमान ) आकाश रूप सपक्ष में भी यह हेतु नहीं है, एवं ( सर्वदा असत् ) आकाशकुसुमादि में भी यह 'उत्पत्ति' रूप हेतु नहीं है, क्योंकि आकाश और आकाशकुसुम इन दोनों से किसी की उत्पत्ति नहीं होती ), अत: यह हेतु ( कार्यों की उत्पत्ति से पूर्व सत्त्व और असत्त्व ) इन दोनों मे से किसी भी पक्ष का साधन नहीं कर सकता । गगनादि नित्य पदार्थों की तरह घटादि अनित्य पदार्थ भी अगर पहिले से ही हैं, तो फिर 'उत्पत्ति' रूप हेतु कहाँ रहेगा ? कहीं पर निश्चित न रहने के कारण सांख्याचार्यों के इस
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्य
हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् अयमप्रसिद्धोज्नपदेश इति वचनादवरुद्धः। ननु चायं विशेषः संशयहेतुरभिहितः शास्त्रे तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु विशेषस्योभयथा अनध्यवसित नाम का हेत्वाभास है। सूत्रकार ने इसे 'अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्चानपदेशः ( अ०३ आ० १ सू०१५ ) इस सूत्र के द्वारा संग्रह किया है ।
(प्र०) ( सपक्ष और विपक्ष में न रहनेवाले एवं केवल पक्ष में ही रहनेवाले ) हेतु को 'तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु विशेषस्योभयथादृष्टत्वात्' ( अ० २ आ० २ सू० २२ ) इस वैशेषिक सूत्र में संशय का कारण कहा गया है,
न्यायकन्दली क्रियाजननयोग्येन रूपेण पूर्वमनभिव्यक्तस्य पश्चादभिव्यक्तिरेवोत्पत्तिरिति सांख्याः, तेन तेषामुत्पत्तेरिति हेतोर्न स्वतोऽसिद्धता।
अयमनध्यवसितो हेत्वाभासः केन वचनेन सूत्रकृता संगृहीत इत्याहअययप्रसिद्धोऽनपदेश (अ० ३ आ० १ सू० १५) इति । अनैकान्तिकवदसाधारणो धर्मः संशयं करोति, तेनास्य 'सन्दिग्धश्चानपदेशः' इत्यनेन संग्रहो युक्तो न पुनरप्रसिद्धवचनेनेत्यभिप्रायेणाह-ननु चेति । तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेष्विति पञ्चम्यर्थे सप्तमी । पदार्थानां विशेषस्तुल्यजातीयेभ्यो भवति, अर्थान्तरभूतेभ्यश्च भवति । यथा पृथिव्यां गन्धवत्त्वं विशेषो द्रव्यान्तरेभ्योऽपि स्याद् गुगकर्मभ्यश्च भवति । शब्दे च श्रावणत्वं विशेषो दृश्यते। तत् किं उत्पत्ति रूप हेतु में असत्कार्यवादियों को स्वतः असिद्धता का आक्षेप करना उचित नहीं है, क्योंकि (जल हरणादि) विशेष कार्यों के उपयोगी रूप से अनभिव्यक्त (किन्तु सर्वदा विद्यमान घटादि ) कार्यों को अभिव्यक्ति ही सांख्याचार्यों के मत से कार्यों की उत्पत्ति' है।
इस 'अनध्यवसित' हेत्वाभास का संग्रह सूत्रकार ने किस सूत्र ( वचन ) से किया है ? इसी प्रश्न का समाधान 'अयमप्रसिद्धोऽनपदेशः' भाष्य के इस वाक्य के द्वारा किया गया है। अनैकान्तिक ( सव्यभिचार ) हेत्वाभास की तरह यह असाधारण ( अनध्यवसित) हेत्वाभास भी ( साध्य ) संशय को उत्पन्न करता है, अतः इसका संग्रह 'सन्दिग्धश्चानपदेशः' सूत्र के इस अंश के द्वारा ही होना उचित है, 'अप्रसिद्धवचन' अर्थात् 'अप्रसिद्धोऽन. पदेशः' इस अंश के द्वारा नहीं। 'तुल्यजातीयेष्वर्थान्त रभूतेषु' इस वाक्य के दोनों पदों में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पञ्चमी विभक्ति के अर्थ में किया गया है। ( अभिप्राय यह है कि) पदार्थों का अपने सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार के पदार्थों की अपेक्षा 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म होता है। जैसे कि पृथिवी का गन्धवत्त्व रूप 'विशेष' उक्त दोनों ही प्रकार से पृथ्वी का विशेष है, क्योंकि गन्धवत्त्व पृथिवी के (द्रव्यत्व रूप से ) सजातीय जलादि द्रव्यों में भी नहीं है, और उसके विजातीय गुणादि पदार्थों में भी नहीं है। इसी प्रकार शब्द में भी श्रावणत्व (श्रवणेन्द्रिय से गृहीत होना ) रूप 'विशेष' है। उसके प्रसङ्ग
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् दृष्टत्वादिति ( अ. २ आ. २ सू. ७) नान्यार्थत्वाच्छब्दे विशेषदर्शनात् । संशयानुत्पत्तिरित्युक्ते नायं द्रव्यादोनामन्यतमस्य विशेषः स्याच्छ्रावणत्वं अत: कथित अनध्यवसित हेत्वाभास असाधारण के उक्त लक्षण से युक्त होने के कारण संशय रूप ज्ञान का ही कारण होगा अनध्यवसाय रूप ज्ञान का नहीं, क्योंकि वस्तुओं के विशेष (व्यक्तिगत ) धर्म ही उनके सजातीयों और विजातीयों की अपेक्षा 'असाधारण' समझ जाते हैं।
(उ०) यह आक्षेप युक्त नहीं है, क्योंकि उस सूत्र का कुछ दूसरा ही र्थ है। किसी ने आक्षेप किया था कि शब्द में श्रावणत्व (कान से सुनना) रूप उसका असाधारण (विशेष) धर्म
न्यायकन्दली शब्दस्य रूपादिभ्यः समानजातीयेभ्योऽयं विशेषः ? किं वा विजातीयेभ्यः ? यदि शब्दो गुणस्तदा रूपादिभ्यः सजातीयेभ्यो विशेषोऽयम्, अथ द्रव्यं कर्म वा? तदा विजातीयेभ्य इति शब्दे श्रावणत्वाद् द्रव्यं गुणः कर्मति संशय इति पूर्व पक्षवादिना सूत्र विरोधे दर्शिते सत्याह-नान्यार्थत्वादिति। नायं सूत्रार्थो यदसाधारणो धर्मः संशयहेतुरिति, किन्त्वस्यान्य एवार्थः । तमेवार्थं दर्शयतिशब्दे विशेषदर्शनादित्यादिना। श्रोत्रग्रहणो योऽर्थः स शब्द इति प्रतिपाद्य तस्मिन् द्रव्यं गणः कर्मेति संशय इत्यभिहितं सूत्रकारेण । तस्यायमर्थः-तस्मिन् में यह वितर्क उपस्थित होता है कि शब्द में क्या उसके सजातीय रूपादि गुणों की अपेक्षा यह 'श्रावणत्व, रूप विशेष है, अथवा द्रव्यकर्मादि विजातीय पदार्थों की अपेक्षा यह 'विशेष' है ? शब्द अगर गुण है तो फिर रूपादि उसके सजातीयों की अपेक्षा ही श्रावणत्व उसका विशेष है। शब्द अगर द्रव्य या कर्म है ? तो फिर विजातीय की अपेक्षा ही यह श्रावणत्व रूप विशेष शब्द में है। इस रीति से श्रावणत्व रूप असाधारण धर्म के द्वारा शब्द में 'यह द्रव्य है ? या गुण है ? अथवा कर्म है ? इस प्रकार के संशय की आपत्ति के द्वारा सूत्रविरोध का प्रसङ्ग पूर्वपक्षवादियों के उठाने पर उसके समाधान के लिए ही भाष्यकार ने 'न, अन्यार्थत्वात्' यह वाक्य लिखा है। अर्थात् उक्त सूत्र का यह अभिप्राय नहीं है कि 'असाधारण धर्म संशय का कारण है' उस सूत्र का कोई दूसरा ही अर्थ है। 'शग्दे विशेषदर्शनात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा वही दूसरा अर्थ प्रतिपादित हुआ है । 'जो वस्तु श्रवणेन्द्रिय के द्वारा गृहीत हो वही शब्द है' यह प्रतिपादन करने के बाद सूत्रकार ने कहा कि (श्रोत्रग्राह्य ) उस वस्तु में यह संशय होता है कि 'यह द्रव्य है ? या गुण है ? अथवा कर्म है ?' इस पर पूर्वपक्षवादी ने कहा कि श्रोत्रेन्द्रिय से गृहीत होनेवाले शब्द रूप अर्थ में जिन संशयों का तुमने उल्लेख किया है उससे 'श्रोत्रग्राह्यत्व' रूप असाधारण धर्म में ही उक्त संशयों की कारणता व्यक्त होती है। किन्तु सो ठीक नहीं है, क्योंकि
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भ्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने हेत्वाभास
प्रशस्तपादभाष्यम् किन्तु सामान्यमेव सम्पद्यते, कस्मात् ? तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु द्रव्यादिभेदानामेकैको विशेषस्योभयथादृष्टत्वादित्युक्तम्, न संशयदेखा जाता है, अत: कान से सूने जानेवाले एवं सत्ता जाति से सम्बद्ध शब्द में 'यह द्रव्य है ? या गुण है ?' अथवा कर्म है ?' इस प्रकार का संशय नहीं होगा। इसी आक्षेप के समाधान में उक्त सूत्र के द्वारा कहा गया है कि श्रावणत्व द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में से किसी का 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म नहीं है। उनका वह साधारण धर्म ही प्रतीत होता है, क्योकि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में से प्रत्येक द्रव्य, प्रत्येक गुण, एवं प्रत्येक कर्म के असाधारण धर्म अपने सजातीयों के ( अर्थात् अपने में और अपने सजातीयों में समान रूप से रहनेवाले ) सामान्य धर्म के साथ ही देखा
न्यायकन्दली श्रोत्रग्रहणेऽर्थे संशयः किं द्रव्यं किं वा गुणः किमुत कर्मेति । अत्र परेणोक्तम्-- श्रोत्रग्रहणे शब्दे संशयं वदता त्वया श्रोत्रग्राह्यत्वमेव संशयकारणत्वमुक्तम् । श्रोत्रग्राह्यत्वं च विशेषः, तस्य दर्शनात् संशयानुपपत्तिः। विरुद्धोभयस्मृतिपूर्वको हि संशयः, स्मृतिश्च नासाधारणधर्मदर्शनाद्भवति, तस्य केनचिद्विशेषेण सहानुपलम्भादिति परेणोक्ते सति सूत्रकारेण प्रतिविहितमेतत्, नायं द्रव्यादीनामन्यतमस्य विशेषः श्रावणत्वम्, द्रव्यगुणकर्मणां मध्येऽन्यतमस्य द्रव्यस्य गुणस्य कर्मणो वा श्रावणत्वं विशेषो न भवति, किन्तु तेषां सामान्यमेवेदं सम्पद्यते, कस्मात् ? तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु च द्रव्यादिभेदानामेकैकशो विशेषस्योभयथा दृष्टत्वादित्युक्तम् । भिद्यन्ते इति भेदाः, द्रव्यादय एव भेदा
भोत्रग्राह्यत्व शब्द का 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म है, अतः उसके ज्ञान से संशय नहीं हो सकता। चूंकि विरुद्ध दो कोटियों की उपस्थिति स्मृति का कारण है, यह स्मृति असाधारण धर्म के ज्ञान से सम्भव नहीं है, क्योंकि किसी भी विशेष धर्म के साथ उनकी उपलब्धि नहीं होती है। पूर्वपक्षवादियों के द्वारा यह आक्षेप किये जाने पर महर्षि कणाद ने यह समाधान किया है कि जिस श्रावणत्व धर्म का उल्लेख किया गया है, वह द्रव्यादि में से किसी एक का 'विशेष' नहीं है, अर्थात् द्रव्य या गुण अथवा कर्म इन तीनों में से श्रावणत्व किसी एक का 'विशेष' नहीं है, किन्तु उन तीनों का वह सामान्य ही प्रतिपन्न होता है। अपने इस उत्तर के प्रसङ्ग में 'कस्मात्' अर्थात् किस हेतु से आप यह बात कहते हैं ? यह पूछे जाने पर सूत्रकार ने "तुल्यजातीयेष्वर्थान्तर. भूतेषु द्रव्यादिभेदानामने कैकशो विशेषस्योभयथादृष्टत्वात्" इत्यादि सूत्र के द्वारा इसका
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
५६७ न्यायकन्दली द्रव्यादिभेदा द्रव्यगुणकर्माणि, तेषां मध्ये एकैकस्य द्रव्यस्य गुणस्य कर्मणो वा तुल्यजातीयेभ्योऽर्थान्तरभूतेभ्यो विशेष 'उभयथादृष्टः । पृथिव्याः स्वसमानजातीयेभ्यो विशेषः पृथिवीत्वं द्रव्यत्वेन सह दृष्टम् ? रूपस्य विशेषो रूपत्वं गुणत्वेन सह दृष्टम्, उत्क्षेपणस्य विशेष उत्क्षेपणत्वं कर्मत्वेन सह दृष्टम् । शब्दस्यापि श्रावणत्वं विशेषः गुणत्वेन, तस्मादेतदपि विशेषत्वेन रूपेण द्रव्यदीनां सामान्यमेव । ततश्चास्य तेन रूपेण संशयहेतुत्वं युक्तम्। यत् पुनरसाधारणं रूपं न तत् संशयकारणम, विशेषस्मारकत्वाभावादित्याह- न संशयकारणमिति । तुल्यजातीयेभ्योऽर्थान्तरभूतेभ्य. श्चेति वक्तव्ये सूत्रे सप्तम्यभिधानादेषोऽप्यर्थो गम्यते । शब्दे श्रावणत्वविशेषदर्शनाद् द्रव्यं गुणः कर्मति संशयः । द्रव्यादिभेदानामेकैकशो विशेषस्य तुल्यजातीयेषु सपनेष्वर्थान्तरभूतेषु विपक्षेषु दर्शनादिति । किमुक्तं स्यात् ? विशेषो द्रव्ये गुणे
उत्तर दिया है। भिद्यन्त इति भेदाः द्रव्यादय एव भेदा द्रव्यादिभेदाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त सूत्र में प्रयुक्त 'द्रव्यादिभेद' शब्द से द्रव्य गुण और कर्म, ये तीनों ही अभिप्रेत हैं। उन तीनों में से एक एक का अर्थात् द्रव्य या गुण अथवा कर्म का इनमें से सभी में 'तुल्यजातीयों' से अर्थात् समानजातीयों एवं 'अर्थान्तरभूत वस्तुओं' से अर्थात् भिन्नजातीयों से, दोनों प्रकार की वस्तुओं से 'विशेष' अर्थात् व्यावृत्ति देखी जाती है । दोनों प्रकार से ज्यावृत्ति या विशेष का यह देखा जाना ही सूत्र के 'उभयथादृष्ट' शब्द से अभिप्रेत है। पृथिवी का 'विशेष' है पृथिवीत्व, जो ( उसके समानजातीय जलादि द्रव्यों में रहनेवाले ) द्रव्यत्व के साथ ही पृथिवी में है। रूप का 'विशेष' है रूपत्व, जो रूप में गुणत्व के साथ ही देखा जाता है। एवं उत्क्षेपण रूप क्रिया का विशेष है उत्क्षेपणत्व, जो कर्मत्व के साथ ही देखा जाता है। इसी तरह शब्दों का श्रावणत्व रूप विशेष भा गुणत्व के साथ ही रहेगा। अतः यह श्रावणत्व रूप धर्म ( गन्धवत्त्वादि अन्य सभी विशेषों के समान होने के कारण 'सामान्य' ही है ( साधारण धर्म ही है ) 'विशेष' अर्थात् असाधारण धर्म नहीं, अतः श्रावणत्व शब्द में द्रव्यत्वादि संशय का अवश्य ही कारण है, किन्तु असाधारण धर्म होने के नाते नहीं, किन्तु साधारण धर्म होने के नाते ही। असाधारण धर्म कभी संशय का कारण होता ही नहीं क्योंकि वह किसी व्यावृत्ति का ( अभाव का) स्मारक नहीं है । यही बात भाष्यकार ने 'न संशय. कारणम्' इस वाक्य से कही है। तुल्यजातीयेष्वर्थान्तरभूतेषु' इत्यादि सूत्र में साधारण रीति से प्राप्त पञ्चमी विभक्ति से युक्त 'तुल्य जातीयेभ्योऽर्थान्तरभूतेभ्यः' इस प्रकार के पदों का प्रयोग न कर उक्त सप्तमी विभक्ति से युक्त पदों के प्रयोग से भी यही मालूम होता है कि शब्द में श्रावणत्व रूप विशेष के ज्ञान से यह संशय होता है कि 'शब्द द्रव्य है ? अथवा गुण है ? किं वा कर्म है ?' क्योंकि 'द्रव्यादि भेदों के अर्थात् द्रव्य' गुण और कर्म में से प्रत्येक के 'विशेष' से अपने आश्रय को तुल्यजातीयों से अर्थात् सपक्षों से, और
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५९८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने निदर्शन
प्रशस्तपादभाष्यम् कारणम् । अन्यथा षट्स्वपि पदार्थेषु संशयप्रसङ्गात् । तस्मात् सामान्यप्रत्ययादेव संशय इति ।
द्विविधं निदर्शनं साधयेण वैधम्र्येण च । तत्रानुमेयसामान्येन लिङ्गसामान्यस्यानुविधानदर्शनं साधयनिदर्शनम् । तद्यथा जाता है। उक्त सूत्र के द्वारा यह नहीं कहा गया है कि विशेष ( आसाधारण ) धर्म संशय का कारण है। अगर ऐसी बात न हो तो ( शब्द में गुणत्व के संशय की तरह) छः पदार्थों में भी अविराम संशय की आपत्ति होगी। अतः सामान्य (साधारण ) धर्म के ज्ञान से ही संशय होता है (असाधारण धर्म के ज्ञान से नहीं)।
( अन्वय ) साधर्म्य एवं ( व्यतिरेक ) वैधर्म्य भेद से निदर्शन ( उदाहरण ) भी (१) साधर्योदाहरण और (२) वैधर्योदाहरण भेद से दो प्रकार का है। इनमें अनुमेय ( साध्य ) सामान्य के साथ लिङ्ग ( हेतु ) सामान्य
न्यायकन्दली कर्मणि च दृष्टः। शब्दे च श्रावणत्वं विशेषो दृश्यते, तस्माद्विशेषत्वाद द्रव्यादिविषयः संशयः। यदि चासाधारणमपि रूपं संशयकारणम्. तदा षट्स्वपि पदार्थेषु संशयप्रसङ्गः ? सर्वेषामेव तेषामसाधारणधर्मयोगित्वात, ततश्च संशयस्याविरामप्रसङ्ग इत्याह- अन्यथेति । उपसंहरति-तस्मादिति । साधारणो धर्मो विरुद्ध विशेषाभ्यां सह दृष्टसाहचर्यः, तयोः स्मरणं शक्नोति कारयितुमतस्तद्दर्शनादेव संशयो भवति, नासाधारणधर्मदर्शनादित्युपसंहारार्थः ।
निदर्शनस्वरूपनिरूपणार्थमाह-द्विविधं निदर्शनं साधयेण वैधम्यण चेति। साध्यसाधनयोरनुगमो निदर्यते येन वचनेन तद्वचनं साधर्म्यविपक्षों से अर्थात् भिन्नजातीयों से, दोनों से व्यावृत्तिबुद्धि का उत्पादन देखा जाता है। इस का फलितार्थ क्या हुआ ? यही कि द्रव्य, गुण और कर्म तीनों में ही 'विशेष' देखे जाते हैं, एवं शब्द में भी भावणत्व रूप विशेष देखा जाता है, अतः संशय होता है कि 'शब्द द्रव्य है ? अथवा गुण है ? किं वा कर्म है ?' अगर असाधारण धर्म भी संशय का कारण हो तो फिर छः पदार्थों में ही संशय की आपत्ति होगी, क्योंकि वे सभी असाधारण धर्म से युक्त है। जिससे संशय की अनन्त धारा की आपत्ति होगी। यही बात 'अन्यथा' इत्यादि ग्रन्थ से आचार्य ने कही है। 'तस्मात्' इत्यादि से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। इस उपसंहार ग्रन्थ का आशय है कि परस्परविरुद्ध दो विशेष धर्मों के साथ दृष्ट होने के कारण साधारण धर्म ही उन परस्पर विरुद्ध दोनों धर्मों की स्मृति को उत्पन्न कर सकता है। अतः साधारण धर्म के ज्ञान से ही संशय होता है, असाधारण धर्म के ज्ञान से नहीं ।
'द्विविधं निदर्शनं साधम्र्येण वैधhण च' भाष्य का यह वाक्य 'निदर्शन' के स्वरूप को समझाने के लिए लिखा गया है। 'साध्य और हेतु का एक जगह रहना'
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
यत् क्रियावत् तद् द्रव्यं दृष्टं यथा शर इति । अनुमेयविपर्यये च लिङ्गस्याभावदर्शनं वैधर्म्य निदर्शनम्, तद्यथा यदद्रव्यं तत् क्रियावन्न भवति यथा सत्तेति । अनेन निदर्शनाभासा निरस्ता भवन्ति ।
1
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"
की अनुगति जहाँ देखी जाए वह साधर्म्य निदर्शन है । जैसे कि जिसमें क्रिया देखी जाती है, वह द्रव्य ही होता है, जैसे कि तीर ( में क्रिया देखी जाती है और वह द्रव्य है ) ।
Rea
अनुमेय ( साध्य ) के अभाव के साथ लिङ्ग ( हेतु ) के अभाव का आनुगत्य जहाँ देखा जाए वह 'वैधर्म्य निदर्शन' है। जैसे कि ( क्रिया युक्त किसी वस्तु को देख कर उसमें द्रव्यत्व के अनुमान के लिए प्रयुक्त ) 'जो द्रव्य नहीं है, उसमें क्रिया भी नहीं रहती है, जैसे कि सत्ता ( जाति द्रव्य नहीं है, अतः उसमें क्रिया भी नहीं है ) । अतः उक्त अनुमान में सत्ता वैधर्म्य निदर्शन है । निदर्शनों के इन लक्षणों से ( जो वस्तुतः निदर्शन नहीं हैं, किन्तु अज्ञ के द्वारा निदर्शन रूप से प्रयुक्त होने के कारण निदर्शन की तरह प्रतीत होते हैं. उन ) निदर्शनाभासों में निदर्शनत्व खण्डित हो जाता है ।
न्यायकन्दली
निदर्शनम्, साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिर्येन वचनेन निदश्यते तद्वैधर्म्य निदर्शनमिति भेदः । तत्र तयोर्मध्ये साधर्म्यनिदर्शनं कथयति - तत्रानुमेयेत्यादिना । तद्वयक्तमेव । वैधर्म्यनिदर्शनं कथयति - अनुमेयविपर्यय इत्यादिना । तदपि
व्यक्तमेव ।
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जिस वाक्य से 'निर्देशित ' हो, उसे 'साधर्म्यनिदर्शन' कहते हैं । एवं जिस वाक्य से साध्य के अभाव के द्वारा हेतु का अभाव निर्दिष्ट हो, उसे 'वैधर्म्यनिदर्शन' कहते हैं, यही दोनों (निदर्शनों) में अन्तर है । 'तत्र' अर्थात् उन दोनों में 'तत्रानुमेयसामान्येन' इत्यादि वाक्य के द्वारा 'साधर्म्यनिदर्शन' का उपपादन हुआ है । इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट है । 'अनुमेय विपर्यय' इत्यादि वाक्य के द्वारा "वैधर्म्य निदर्शन' का उपपादन हुआ है, उस वाक्य का भी अर्थ स्पष्ट ही है । 'अनेन निदर्शनाभासा निरस्ता भवन्ति' जो वस्तुतः 'निदर्शन' नहीं है, वह भी निदर्शन के किसी सादृश्य के कारण निदर्शन की तरह प्रतीत होते हैं, इस प्रकार जो निदर्शनाभास अर्थात् निदर्शन न होने पर भी निदर्शन के समान हैं, वे 'अनेन' अर्थात् निदर्शन के इस प्रकार के लक्षण के निर्देश से निदर्शन की श्रेणी से अलग हो जाते हैं, क्योंकि उन निदर्शनाभासों में निदर्शन का यह लक्षण नहीं है ।
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१००
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने निदर्शन
प्रशस्तपादमाष्यम् तद्यथा-नित्यः । शब्दोऽमूर्त्तत्वात्, यदमूर्त दृष्टं तन्नित्यम्, यथा परमाणुर्यथा कर्म, यथा स्थाली, यथा तमः अम्बरवदिति, यद् द्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टमिति च लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाननुगतविपरीतानुगताः साधयनिदर्शनाभासाः ।
____ अगर कोई शब्द में नित्यत्व के साधन के लिए अमूर्त्तत्व हेतु को उपस्थित कर ( शब्दो नित्यः, अमूर्त्तत्वात् ) ( १ ) परमाणु, ( २ ) क्रिया, ( ३ ) वर्तन, (४) अन्धकार, (५) आकाश जैसी वस्तुओं को ( साधर्म्य ) निदर्शन के लिए उपस्थित करे तो ( उक्त अनुमान के लिए ) ये सभी ( साधर्म्य) निदर्शनाभास' होंगे। एवं आकाशादि निष्क्रिय द्रव्यों में केवल द्रव्यत्व हेतु से अगर कोई क्रियावत्त्व के अनुमान के लिए (६) तीर प्रभृति सक्रिय द्रव्य को उपस्थित करे तो वह भी साधर्म्य निदर्शनाभास ही होगा। कथित ये (छः ) वस्तु कथित अनुमान के लिए प्रयुक्त होने पर साधर्म्य निदर्शन के निम्नलिखित छ: दोषों में से क्रमशः एक से युक्त होने कारण साधर्म्यनिदर्शनाभास' ही होंगे, इन दोषों के ( १) लिङ्गासिद्धि, (२) अनुमेयासिद्धि, (३) उभयासिद्धि, (४) आश्रयासिद्धि, (५) अननुगत और विपरीतानुगत ( ये छः नाम हैं )।
न्यायकन्दली अनेन निदर्शनाभासा निरस्ता भवन्ति । अनिदर्शनान्यपि केनचित् साधयेण निदर्शनवदाभासन्त इति निदर्शनसदृशाः, अनेन निदर्शनलक्षणेनान्निरस्ता भवन्ति, तल्लक्षणरहितत्वात् । यावनिदर्शनाभासानां स्वरूपं न ज्ञायते, तावत् तेषां स्ववाक्ये वर्जन परवाक्ये चोपालम्भो न शक्यते कर्तुम्, अतस्तेषां स्वरूपं कथयति-यथा नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्, यदमूर्त तन्नित्यं दृष्टम्, यथा परमाणुः, यथा कर्म, यथा स्थाली, यथा तमोऽम्बरवत्
निदर्शनाभासों का स्वरूप जबतक ज्ञात न हो जाए, तबतक न तो अपने द्वारा किये जानेवाले प्रयोगों में उनसे बचा जा सकता है, और न दूसरे यदि उनका प्रयोग करें तो उन वाक्यों में ( निदर्शनाभास रूप ) दोष का दिखाना ही सम्भव हो सकता है, अतः 'तद्यथा' इत्यादि वाक्यों से उनके उदाहरण और अन्त में उनके भेद दिखलाये गये हैं । अर्थात् (१) लिङ्गासिद्ध, (२) अनुमेयासिद्ध, (३) उभयासिद्ध, (४) आभयासिद्ध, (५) अननुगत और ( ६ ) विपरीतानुगत ये छः भेद निदर्शनाभास' के हैं ।
(१) नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्, यथा परमाणुः' अर्थात् शब्द में अमूर्तत्व हेतु से निरवयत्व के साधन के लिए कोई अगर 'यदमूत तन्नित्यम्, यथा परमाणुः' इस प्रकार के निदर्शन वाक्य का प्रयोग करे तो वह 'लिङ्गासिद्ध' निदर्शनाभास होगा, क्योंकि परमाणु
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भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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६०१
यद् द्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टमिति च लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाननुगतविपरीतानुगताः साधर्म्यनिदर्शनाभासाः । नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात् यथा परमाणुरिति लिङ्गासिद्धो निदर्शनाभासः परमाणोरमूर्तत्वाभावात् । यथा कर्मेत्यनुमेयासिद्धः, कर्मणो नित्यत्वाभावात् । यथा स्थालीत्युभया सिद्ध:, न स्थाल्यां साध्यं नित्यत्वमस्ति, नापि साधनममूर्तत्वम् । यथा तम इत्याश्रयासिद्धः । परमार्थतस्तमो नाम न किञ्चिदस्ति, क्व साध्यसाधनयोर्व्याप्तिः कथ्यते ? अम्बरवदित्यननुगतोऽयं निदर्शनाभासः । यद्यप्यम्बरे नित्यत्वममूर्त्तत्वमुभयमप्यस्ति, तथापि यदमूर्तं तन्नित्मेवं न व्रते, किन्त्वम्बरवदित्येतावन्मात्रमाह । न चेतस्माद् वचनादप्रतिपन्नसाध्यसाधनयोरम्बरे सद्भावप्रतीतिरस्ति, तस्मादननुके मूर्त होने के कारण उसमें अमूर्त्तत्व नाम का हेतु ही सिद्ध नहीं है । ( निदर्शन में साध्य की तरह हेतु का निश्चित रहना भी आवश्यक है ) ।
(२) नित्यः शब्दोऽमूर्त्तत्वात्' इसी अनुमान में अगर कोई 'यदमूर्त्त दृष्टं तन्नित्यम्, यथा कर्म' इस निदर्शन वाक्य का प्रयोग करे तो वह अनुमेयासिद्ध' निदर्शनाभास होगा, क्योंकि क्रिया में नित्यत्व रूप अनुमेय अर्थात् साध्य ही सिद्ध नहीं है ।
(३) उसी अनुमान में 'यदमूर्त्तं दृष्टं तन्नित्यम्, यथा स्थाली' इस प्रकार के निन्दर्शनवाक्य का अगर कोई प्रयोग करे तो वह 'उभयासिद्ध' नाम का निदर्शनाभास होगा, क्योंकि स्थाली (बटलोही ) में नित्यत्व रूप अनुमेय और अमूर्त्तत्व रूप लिङ्ग दोनों हो सिद्ध नहीं हैं ।
(४) उसी अनुमान में कोई अगर 'यदमूर्त्तं दृष्टं तन्नित्यम्, यथा तम:' इस प्रकार से निदर्शन वाक्य का प्रयोग करे, तो वह आश्रयासिद्ध' नाम का निदर्शनाभास होगा, क्योंकि तम नाम का कोई (भाव) पदार्थ वस्तुत: है ही नहीं, साध्य और हेतु की व्याप्ति का प्रदर्शन कहाँ होगा ? (क्योंकि निदर्शन का यही प्रयोजन है कि वहाँ साध्य और हेतु की व्याप्ति निश्चित रहे, जिससे कि प्रकृत पक्ष में साध्य की सिद्धि के लिए उसका प्रयोग किया जा सके। )
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( ५ ) ( शब्दो नित्यः, अमूर्त्तत्वात्' इसी स्थल में अगर उदाहरण को दिखाने के लिए 'अम्बरवत्' केवल इतने ही अंश का कोई प्रयोग करे 'यदमूर्तं तन्नित्यम्' इस अंश का प्रयोग न करे तो वह 'अननुगत' नाम का निदर्शनाभास होगा । यद्यपि आकाश में नित्यत्व और अमूर्त्तत्व ये दोनों ही हैं, फिर भी 'यदमूर्त्तं तन्नित्यम्' इस अंश का प्रयोग नहीं किया गया है, किन्तु केवल 'अम्बरवत्' इतना ही कहा गया है, केवल इसी त्रुटि से यह 'अननुगत' नाम का हेत्वाभास होगा। क्योंकि इस वाक्य के बिना पहिले से अज्ञात साध्य और हेतु इन दोनों की सत्ता का ज्ञान आकाश में नहीं हो सकेगा, अतः यह ( साध्य और हेतु आकाश रूप अधिकरण में अनुगत रूप से ज्ञापक न होने के कारण ) 'अननुगत' नाम का निदर्शना भास है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमाने निदर्शन
न्यायकन्दली गतोऽयं निदर्शनाभासः। यद् द्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टमिति विपरीतानुगतः, द्रव्यं वायुः क्रियावत्त्वादित्यत्रापि व्याप्यं क्रियावत्त्वं व्यापकं च द्रव्यत्वम् । यच्च व्याप्यं तदेकनियता व्याप्तिर्न संयोगवदुभयत्र व्यासज्यते, व्यापकस्य व्याप्यव्यभिचारात् । यत्रापि समव्याप्तिके कृतकत्वानित्यत्वादी व्याप्यस्यापि व्यापकत्वमस्ति, तत्रापि व्याप्यत्वरूपं समाश्रित्यैव व्याप्तिर्न व्यापकत्वरूपाश्रयत्वात्, व्यभिचारिण्यपि तद्रूपस्यापि सम्भवात् । यथोपदिशन्ति गुरवः
व्यापकत्वगृहीतस्तु व्याप्यो यद्यपि वस्तुतः।
आधिक्येऽप्यविरुद्धत्वाद् व्याप्यं न प्रतिपादयेत् ॥ इति । (६) 'द्रव्यं वायुः क्रियावत्त्वात! इस अनुमान के लिए अगर कोई 'यद्रव्यं तत् क्रियावद् दृष्टम्' इस प्रकार ('यत् क्रियावत् तत् द्रव्यं दृष्टम्' इस प्रकार से निदर्शन वाक्य प्रयोग न करके ) उसके विपरीत वाक्य का कोई प्रयोग करे, तो वह निदर्शन न होकर 'विपरीतानुगत' नाम का निदर्शनाभास होगा। क्योंकि इस अनुमान में 'क्रियावत्व' हेतु है, अत: वही व्याप्य है, एवं साध्य होने के कारण द्रव्यत्व ही व्यापक है । अनुमान की उपयोगी व्याप्ति केवल व्याप्त (हेतु) में ही रहती है, व्यापक (साध्य) में नहीं । एक ही व्याप्ति संयोग की तरह व्यापक और व्याप्य अपने दोनों सम्बन्धियों में व्याप्त होकर रहनेवाली वस्तु नहीं है। क्योंकि (साध्य ) व्यापक में व्याप्य ( हेतु) की व्याप्ति नहीं (भी) रहती है, क्योंकि साध्य हेतु के बिना भी देखा जाता है। जिन रामव्याप्तिक (जिस अनुमान के साध्य और हेतु दोनों समान आश्रयों में हों, साध्य का आश्रय हेतु के आश्रय से अधिक न हो) स्थलों में जैसे कि 'घटोऽनित्यः कृतकत्वात्' इत्यादि अनुमान के कृतकत्व हेतु में व्याप्यत्व की तरह साध्य का व्यापकत्व भी है, फिर भी कृतकत्व हेतु में जो अनित्यत्व रूप साध्य की व्याप्ति है, वह इसी कारण है कि वह साध्य का व्याप्य है। इसलिए कृतकत्व हेतु में अनित्यत्व रूप साध्य की व्याप्ति नहीं है कि कृतकत्व रूप हेतु अत्यित्व रूप साध्य का व्यापक है। अगर साध्य के व्यापक होने के कारण ही साध्य की व्याप्ति हेतु में माने तो ( 'धूमवान् वह्नः' इत्यादि ) व्यभिचारी स्थलों के हेतुओं में भी साध्य की व्याप्ति माननी होगी। क्योंकि व्याप्ति के प्रयोजक साध्य का व्यापकत्व तो वहाँ भी है ही ( वह्नि धूम का व्यापक है ही)। जैसा कि गुरुचरणों का उपदेश है कि :-( किसी ) व्याप्य ( हेतु ) में भी साध्य की व्यापकता वस्तुतः रहने पर भी, वह हेतु व्यापक होने के कारण व्याप्य का ( अपने से व्याप्य साध्य का केवल उसके व्याप्य होने के कारण ) ज्ञापन नहीं कर सकता, क्योंकि साध्य को व्यापकता ( केवल समव्याप्त हेतु में ही नहीं, किन्तु ) साध्य से अधिक स्थानों में रहनेवाले ( व्यभिचारी ) हेतु में भी है ।
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
६०३
प्रशस्तपादभाष्यम् ___ यदनित्यं तन्मूतं दृष्टम्, यथा कर्म यथा परमाणुर्यथाकाशं यथा तमः, घटवत् , यनिष्क्रियं तदद्रव्यञ्चेति लिङ्गानुमेयोभयाव्यावृत्ताश्रयासिद्धाव्यावृत्तविपरीतव्यावृत्ता वैधम्यनिदर्शनाभासा इति ॥
(रूपादि अनित्य गुणों में यदि कोई अनित्यत्व हेतु से मूर्त्तत्व के साधन के लिए प्रस्तुत होकर वैधय॑निदर्शन के लिए (१) क्रिया, (२) परमाणु, ( ३ ) आकाश, (४) अन्धकार और ( ५ ) घट जैसी वस्तुओं को उपस्थित करे तो ये सभी वस्तुयें ( उक्त अनुमान के लिए प्रयुक्त होने पर ) 'वैधर्म्यनिदर्शनाभास' होंगे। एवं (आकाशादि निष्क्रिय द्रव्यों में द्रव्यत्व हेतु से क्रियावत्त्व के अनुमान के लिए प्रयुक्त सत्ता जाति भी ) जिसमें क्रिया नहीं है, वह द्रव्य भी नहीं है, जैसे कि (६) 'सत्ता' इस प्रकार से प्रयुक्त होने पर वैधर्म्यनिदर्शनाभास' ही होगा। ( वैधर्म्यनिदर्शनाभास रूप दोषों के ये छ: नाम हैं-(१) लिङ्गाव्यावृत्त (२) अनुमेयाव्यावृत्त, ( ३ ) उभयाव्यावृत्त, (४ : आश्रयासिद्ध, (५) अव्यावृत्त और (६) विपरीत व्यावृत्त ( तदनुसार वैधय॑निदर्शनाभास रूप दुष्ट निदर्शन भी छः हैं )
न्यायकन्दली अतो व्याप्तिाप्यगतत्वेन दर्शनीया 'यत् क्रियावत् तद् द्रव्यमिति । न व्यापकगतत्वेन तत्र तस्या अभावात्, अतो विपरीतानुगतोऽयम् । लिङ्गं चानुमेयं चोभयं चाश्रयश्च लिङ्गानुमेयोभयाश्रयाः, तेऽसिद्धा येषां ते लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाः, लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाश्चाननुगताश्च विपरीतानुगताश्चेति योजना।
वेधर्म्यनिदर्शनाभासान् कथयति यदनित्यमित्यादिना । नित्यः शब्दोऽ. मूर्त्तत्वाद् यदनित्यं तन्मूतं यथा कर्मेति लिङ्गाव्यावृत्तो वैधर्म्यनिदर्शना
अतः व्याप्य (हेतु) में ही व्याप्ति की वर्तमानता दिखानी चाहिए, जैसे कि 'यत् क्रियावत् तद् द्रव्यम्' इस प्रकार के वाक्यों से होता है । व्यापक में व्याप्ति को नहीं दिखाना चाहिए, क्योंकि व्यापकीभूत वस्तु में रहने वाली व्याप्ति (अनुमिति की उपयोगी) नहीं है । अतः यत् द्रव्यं तत् क्रियावत्' इत्यादि प्रकार के निदर्शनवाक्य 'विपरीतानुगत' निदर्शनाभास हो हैं। लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाननुगतविपरीतानुगताः' इस समस्तवाक्य का विग्रह 'लिङ्गञ्चानुमेयञ्चोभयञ्चाश्रयश्च लिङ्गानुमेयोभयाश्रयाः, ते असिद्धा येषां ते लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाः, लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाश्चाननुगताश्च विपरीतानुगताश्च' इस प्रकार समझना चाहिए।
'यदनित्यम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा वैधर्म्य निदर्शनाभासों का उपपादन करते हैं । वैधर्म्य निदर्शनाभास भी निम्नलिखित छ: प्रकार के हैं, (१) लिङ्गाव्यावृत्त, (२) अनुमे
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न्यायकन्दली संचलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमाने निदर्शन
न्यायकन्दली
भासः, कर्मणो मूर्त्यभावात् । यथा परमाणुरित्यनुमेयाव्यावृत्तः, अनुमेयं नित्यत्वं परमाणोरव्यावृत्तम् । यथाकाशमित्युभयव्यावृत्तः नाकाशादमूर्तत्वं नापि नित्यत्वं व्यावृत्तम् । यथा तम इत्याश्रयासिद्धः । परमार्थतस्तु तम एव नास्ति, किमाश्रया साध्यसाधनयोर्व्यावृत्तिः स्यात् । घटवदित्यव्यावृत्तः । यद्यपि घटे साध्यसाधनयोरस्ति व्यावृत्तिः, तथापि यदनित्यं तन्मूर्तमित्येवं न
याव्यावृत्त, (३) उभयाव्यावृत्त, (४) आश्रयासिद्ध, (५) अव्यावृत्त और ( ६ ) विपरीतव्यावृत्त ।
(१) 'नित्यः शब्दः, अमूर्त्तत्वात्' रूप में इस अनुमान के लिए कोई यदि 'यदनित्यं तन्मूर्त्तम्, यथा कर्म' इस प्रकार से कर्म को वैधर्म्य निदर्शन न उपस्थित करे तो वहाँ कर्म 'लिङ्गाव्यावृत्त' नाम का वैधर्म्यनिदर्शनाभास होगा । क्योंकि क्रिया रूप विपक्ष में अमूर्त्तत्व रूप लिङ्ग की अव्यावृत्ति अर्थात् अभाव नहीं है । क्रिया में नित्यत्व रूप साध्य तो नहीं है, किन्तु अमूर्त्तत्व रूप हेतु है ।
(२) 'नित्यः शब्दः, अमूर्त्तत्वात्' इसी अनुमान में यदि कोई यदनित्यं तन्मूत् दृष्टम्, यथा परमाणु:' इस प्रकार से परमाणु को वैधर्म्य निदर्शन के लिए उपस्थित करे तो वह 'अनुमेयाध्यावृत्त निदर्शनाभास' होगा, क्योंकि परमाणु में नित्यत्व रूप अनुमेय अर्थात् साध्य की व्यावृत्ति (अभाव) नहीं है ।
(३) उसी अनुमान में यदि कोई 'यदनित्यं तन्मूर्त्तं दृष्टम्, यथाकाशम्' इस प्रकार से आकाश को वैधयं निदर्शनाभास के लिए उपस्थित करे तो वह 'उभयाव्यावृत्त' निदर्शनाभास होगा, क्योंकि आकाश में नित्यत्वरूप साध्य का अभाव और अमूर्त्तत्व रूप हेतु का अभाव, अर्थात् अनित्यत्व और मूर्त्तत्व इन दोनों में से कोई भी नहीं है, अतः आकाश में साध्यभाव और हेत्वभाव दोनों की ही व्यावृत्ति ( अभाव ) न रहने के कारण प्रकृत में आकाश 'उभयाव्यावृत्त' निदर्शनाभास है ।
(४) उसी अनुमान में 'यथा तम:' इस प्रकार से तम ( अन्धकार को यदि वैधर्म्यदृष्टान्त रूप से उपस्थित किया जाय तो वह 'आश्रयासिद्ध' नाम का निदर्शनाभास होगा। क्योंकि तम नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, फिर साध्यव्यावृत्ति ( साध्य का अभाव ) और हेतुव्यावृत्ति (हेतु का अभाव ) इन दोनों का किसमें प्रदर्शन होगा ?
(५) 'नित्यः शब्दः, अमूर्त्तत्वात् इसी अनुमान में वैधर्म्यनिदर्शन को दिखलाने के लिए यदि 'घटवत्' केवल इसी वाक्य का प्रयोग करे ('यदनित्यं तन्मूर्त्तम्' इस अंश का प्रयोग 'घटवत्' इस वाक्य के पहिले न करे ) तो वह 'अव्यावृत्त' नाम का निदर्शनाभास होगा । यद्यपि घट में साध्य की व्यावृत्ति ( अर्थात् अनित्यत्व) और हेतु की व्यावृत्ति ( मूर्त्तत्व) ये दोनों ही हैं, फिर भी 'यदनित्यं तन्मूर्त्तम्' ( जो अनित्य होता है वह अवश्य हो मूर्त होता है) इस अंश का प्रयोग न करने के कारण इस प्रसङ्ग में विरुद्ध मत
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली वदति, न च तथानभिधाने साध्यसाधनयोात्तिप्रतिपतिविप्रतिपन्नस्य भवति, अतोऽयमव्यावृत्तः । यनिष्क्रियं तदद्रव्यमिति विपरीतव्यावृत्तः। यथा साध्यं व्यापकं साधनं व्याप्यम् , तथा साध्याभावो व्याप्यः साधनाभावश्च व्यापकः । यथोक्तम्
नियम्यत्वनियन्तृत्वे भावयोर्यादृशे मते।।
विपरीते प्रतीयेते ते एव तदभावयोः ॥ इति । तत्र द्रव्यं वायुः कियावत्त्वादित्यत्र विपर्ययव्याप्तिप्रदर्शनार्थं यदद्रव्यं तदक्रियमिति वाच्यम्, अयं तु न तथा ब्रूते, किन्त्वेवमाह-यन्निष्क्रियं तदद्रव्यरखनेवाले पुरुष को साध्य के अभाव और हेतु के अभाव की ( उपयुक्त ) प्रतीति नहीं हो पाती है, अतः उक्त स्थल में घट 'अव्यावृत्त' नाम का निदर्शनाभास समझना चाहिए।
(६) 'द्रव्यं वायुः क्रियावत्त्वात्' इस अनुमान के लिए यदि कोई 'यनिष्क्रिय तदद्रव्यम्' इस प्रकार से वैधर्म्य निदर्शन का प्रयोग करना चाहे, तो वह 'विपरीतव्यावृत्ति' नाम का ( वैधयं ) निदर्शनाभास होगा, क्योंकि 'यद् द्रव्यं न भवति' इत्यादि प्रकार से साध्याभाव के बोधक वाक्य का प्रयोग पहिले न कर उसके विपरीत' अर्थात् उल्टा पहिले हेतु के अभाव का बोधक 'यनिष्क्रियम्' इस वाक्य का ही प्रयोग पहिले किया गया है। जैसे कि साध्य व्यापक है और साधन व्याप्य है ( अतः साधर्म्य निदर्शन वाक्य में पहिले हेतु बोधक पद का प्रयोग होता है, बाद में साध्य बोधक पद का, उसी प्रकार ) साध्याभाव व्याप्य है और हेत्वभाव व्यापक, ( अतः वैधये निदर्शन वाक्य में पहिले साध्याभाव के बोधक वाक्य का ही प्रयोग होना चाहिए, बाद में हत्वभाव के बोधक वाक्य का, अर्थात् दोनों ही प्रकार के निदर्शन वाक्यों में व्याप्य के बोधक वाक्य का पहिले प्रयोग चाहिए, बाद में व्यापक के बोधक वाक्य का, प्रकृत में इसके विपरीत हुआ है। अतः 'विपरीतव्यावृत्त' नाम का निदर्शनाभास है।
जैसे कि ( अनुमिति के लिए) साध्य का हेतु से व्यापक होना और हेतु का साध्य से व्याप्य होना सहायक है, उसी प्रकार ( अन्वयव्यतिरेकी और केवलव्यतिरेकी हेतु का अनुमानों में ) हेतु के अभाव से साध्य के अभाव का व्यापक होना और साध्य के अभाव का हेतु के अभाव का व्याप्य होना भी सहायक है। जैसा कहा गया है कि जिस प्रकार के हेतु में नियन्तत्व ( व्याप्यत्व ) एवं जिस प्रकार के साध्य में नियम्यत्व (व्यापकत्व ) रहता है, उसके विपरीत उन दोनों के अभावों में हेतु का अभाव ही व्यापक और साध्य का अभाव ही व्याप्य होता है। इस स्थिति में 'द्रव्यं वायुः क्रियावत्त्वात्' इस अनुमान में यदि विपर्यय (व्यतिरेक) व्याप्ति का दिखाना आवश्यक हो तो 'यदद्रव्यं तदक्रियम्' इस प्रकार से निदर्शन वाक्य का प्रयोग करना चाहिए। प्रकृत में वह पुरुष ( जो निदर्शनाभास का प्रयोग करता है ) इस प्रकार न कह कर, उसका उल्टा (विपरीत ) ऐसा कहता है कि 'यनिष्क्रियं तदद्रव्यम्' अर्थात
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
सह
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[ गुणेऽनुमाने निदर्शन
दृष्टस्य
निदर्शनेऽनुमेय सामान्येन लिङ्गसामान्यमनुमेन्वानयनमनुसन्धानम् । अनुमेयधर्ममात्रत्वेनाभिहितं लिङ्गसामान्य
निदर्शन ( उदाहरण ) में साध्य सामान्य के साथ ज्ञात हुए लिङ्ग ( हेतु ) सामान्य की सत्ता का पक्ष में बोध करानेवाला वाक्य ही साधर्म्या - नुसन्धान' ( साधर्म्यापनय ) है । ( विशदार्थ यह है कि ) लिङ्गसामान्य पक्ष ( अनुमेय ) में है' इस प्रकार केवल पक्षमात्रवृत्तित्व रूप से कथित हेतु
न्यायकन्दली
मिति । एवं च न व्याप्तिरस्ति, आकाशस्य क्रियारहितत्वेऽपि द्रव्यत्वात् । तस्माद् विपरीतव्यावृत्तोऽयं वैधर्म्यनिदर्शनाभासः । लिङ्गं चानुमेयं चोभयं च लिङ्गानुमेयोभयानि तान्यव्यावृत्तानि येषां ते तथोक्ताः । आश्रयोऽसिद्धो यस्य स आश्रयासिद्धः, लिङ्गानुमेयोभयाव्यावृत्तश्चाश्रयासिद्धश्च अव्यावृत्तश्च विपरीतव्यावृत्तश्चेति व्याख्या ।
निदर्शनेऽनुमेयसामान्येन सह दृष्टस्य लिङ्गसामान्यस्यानुमेयेऽन्वानयनमनुसन्धानम् । निदश्यते निश्चिता साध्यसाधनयोर्व्याप्तिरस्मिन्निति निदर्शनं दृष्टान्तः, तस्मिन्ननुमेयसामान्येन सह दृष्टस्य प्रतीतस्य लिङ्गसामान्यस्यानुमेये साध्यधमण्यन्वानयनं सद्भावोपदर्शनं येन वचनेन क्रियते तदनुसन्धानम् ।
जिसमें क्रिया नहीं है, वह द्रव्य ही नहीं है, किन्तु ऐसी व्याप्ति नहीं है, क्योंकि आकाशादि द्रव्य तो हैं, किन्तु उनमें क्रियावत्त्व नहीं है । अतः प्रकृत अनुमान में 'यनिष्क्रियं तदद्रव्यम्' यह वाक्य विपरीतव्यावृत्त' नाम का वैधर्म्य निदर्शनाभास होगा । 'लिङ्गानुमेयोभयाव्यावृत्ति' शब्द 'लिङ्गश्वानुमेयं चोभयं च लिङ्गानुमेयोभयानि, तान्यव्यावृत्तानि येषाम्' इस व्युत्पत्ति से बना है, और 'आश्रयोऽसिद्धो यस्य' इस व्युत्पत्ति से प्रकृत 'आश्रयासिद्ध' शब्द बना है । ( इस प्रकार दोनों शब्दों के निष्पन्न होने के बाद ) 'लिङ्गानुमेयोभयाव्यावृत्तश्चाश्रयासिद्धश्चाव्यावृत्तश्च विपरीत व्यावृत्तश्च' इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्याख्या करनी चाहिए ।
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निदर्शनेऽनुमेयसामान्येन सह दृष्टस्य लिङ्गसामान्यस्यानुमेयेऽन्वानयनमनुसन्धानम्' इस वाक्य में प्रयुक्त 'निदर्शन' शब्द का 'निर्दिश्यते निश्चिता साध्यसाधनयोर्व्याप्तिरस्मिन्निति निदर्शनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पर्यायवाची 'दृष्टान्त' शब्द है । तदनुसार दृष्टान्त में साध्य सामान्य के साथ दृष्ट अर्थात् ज्ञात लिङ्ग ( हेतु ) सामान्य का अनुमेय में अर्थात् साध्य के धर्मी में ( पक्ष में ) ' अन्वानयन' अर्थात् सत्ता का प्रदर्शन जिस वाक्य के द्वारा किया जाय वही 'अनुसन्धान' है । ' अनुसन्धीयते अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार दृष्टान्त में साध्य की व्याप्ति से युक्त एवं उसी रूप में देखे हुए हेतु
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली दृष्टान्ते साध्याविनाभूतत्वेन दर्शितं लिङ्गं पक्षेऽनुसन्धीयते प्रतिपाद्यते अनेनेति व्युत्पत्त्या । एतदेव स्वोक्तं विवृणोति-अनुमेयधर्ममात्रत्वेनाभिहितं लिङ्गसामान्यमिति । प्रतिज्ञानन्तरं हेतुवचनेन लिङ्ग वस्तुव्यावृत्त्यानुमेयेऽस्तीत्येतावन्मात्रतया हेतुत्वेनाभिहितम्, न तु धमिणि तस्य सद्भावः कथित इत्यभिप्रायः। लिङ्गस्य साध्यप्रतिपादने शक्तिरन्वयव्यतिरेको पक्षधर्मता च, सा पूर्व प्रतिज्ञाहेतवचनाभ्यां तस्य नावगतेत्यनुपलब्धशक्तिकं निदर्शने साध्यधर्मसामान्येन सह दृष्टमनुमेये येन वचनेनानुसन्धीयते तदनुसन्धानमिति।
___ अयमत्राभिसन्धिः - परार्थः शब्दो यथा यथा परस्य जिज्ञासोदयते तथा तथा प्रयुज्यते, प्रत्येतुश्च साध्येऽभिहिते साधने भवत्याकाङ्क्षा-कुत इदं सिद्धयति? न तु साधनस्य सामर्थ्यम्, स्वरूपावगतिपूर्वकत्वात् सामर्थ्यजिज्ञासायाः। साधने चाकाक्षिते प्रयुज्यमानं हेतुवचनं हेतुस्वरूपमात्रं कथयति, न तस्य पक्षधर्मताम, एकस्य शब्दस्योभयार्थवाचकत्वाभावात् । विज्ञाते हेतौ कथमस्य हेतुत्वमिति सामर्थ्य जिज्ञासायां साध्यप्रतीतेरविनाभावप्रतीतिनान्तरीयकत्वाद् व्याप्तिवचनेना
का पक्ष (रूप अनुमेय ) में सत्ता का प्रदर्शन जिस वाक्य के द्वारा हो वही 'अनुसन्धान' है, वहो बात 'निदर्शने' इत्यादि से भाष्यकार ने स्वयं कही है जिसकी व्याख्या 'अनुमेयमात्रत्वेनाभिहित लिङ्गसामान्यम्' इत्यादि से भाष्यकार स्वयं करते हैं। अभिप्राय यह है कि प्रतिज्ञावाक्य के प्रयोग के बाद प्रयुक्त हेतुवाक्य के विपक्षव्यावृत्ति के आक्षेप द्वारा सामान्य रूप से ही यह समझा जाता है कि 'यह हेतु अनुमेय ( पक्ष) में है। इससे हेतु केवल हेतुत्व रूप से ही प्रतिपादित होता है। इससे पक्ष रूप धर्मी में हेतु को सत्ता प्रतिपादित नहीं होती है। हेतु में साध्य का अन्वय और व्यतिरेक एवं पक्ष में हेतु का रहना (पक्षधर्मता ) ये दोनों ही वस्तुतः हेतु में रहनेवाली साध्य के ज्ञापन को शक्ति है। (यह शक्ति हेतु में ज्ञात होकर ही साध्यज्ञान रूप अनुमिति को उत्पन्न करती है) यह शक्ति (निदर्शन वाक्य के प्रयोग के ) पहिले प्रतिज्ञा वाक्य और हेतु वाक्य इन दोनों के द्वारा ज्ञात नहीं हो पाती। इस प्रकार अज्ञात शक्ति से युक्त हेतुसामान्य ही साध्यसामान्य के साथ निदर्शन ( उदाहरण ) में देखा जाता है। इस रूप से देखे हुए हेतु का अनुमेय ( पक्ष ) में अनुसन्धान (प्रति गदन ) जिस वाक्य के द्वारा हो वही प्रकृत में अनुसन्धान' है।
गूढ़ अभिप्राय यह कि जिस क्रम से बोद्धा पुरुष की जिज्ञासा उठती है, उसी क्रम से दूसरे के लिए (परार्थ) शब्द का प्रयोग होता है । तदनुसार (वक्ता के द्वारा प्रयुक्त प्रतिज्ञा वाक्य से ) साध्य के प्रतिपादित हो जाने पर बोद्धा को हेतु के प्रसङ्ग में यही जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से होनी है कि 'इस साध्य की सिद्धि किस हेतु से होती है ?' (प्रतिज्ञा वाक्य के प्रयोग के बाद हेतु विषयक इस जिज्ञासा से पहिले ) हेतु की शक्ति के प्रसङ्ग में जिज्ञासा नहीं होती है, क्योंकि हेतु के स्वरूप का ज्ञान हेतुगत सामर्थ्य की
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणेऽनुमाने निदर्शन
विनाभावे कथिते सत्यवधारितसामर्थ्यस्य हेतोः पक्षे पश्चात् सम्भवो जिज्ञास्यत इत्युदाहरणानन्तरं पक्षधर्मतावगमार्थमुपगन्तव्ध उपनयः, हेतुत्वाभिधानसामर्थ्यादेव पक्षधर्मत्वं प्रतीयते, व्यधिकरणस्यासाधकत्वादिति चेत् ? तदभिधानसामर्थ्याद् व्याप्तिरपि लप्स्यते, अनन्वितस्य हेतुत्वाभावादित्युदाहरणमपि न वाच्यम् । असाधारणस्यापि भ्रान्त्या हेतुत्वाभिधानोपपत्तेर्न तस्मादेकान्तेनान्वयप्रतीतिरस्तीत्युदाहरणेन व्याप्तिरुपदश्यंत इति चेद् ? धर्मिण्यविद्यमानस्यापि भ्रमण हेतुत्वाभिधानोपलम्भान्न ततः पक्षधर्मता सिद्धिरस्तीत्युदाहरणस्थस्य लिङ्गस्य पक्षेऽस्तित्वनिश्चयार्थमुपनयो वाच्यः । असिद्धस्य भ्रमादुपनयोऽपि
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जिज्ञासा का कारण है ( प्रतिज्ञा वाक्य से साध्यावगति के बाद ) केवल हेतु की आकाङ्क्षा से जिस हेतु वाक्य का प्रयोग होता है, उससे केवल हेतु के स्वरूप काही बोध होता है, हेतु के पक्षधर्मता रूप सामर्थ्य का नहीं । क्योंकि ( एक बार प्रयुक्त शब्द एक ही अर्थ को समझा सकता है ), दो अर्थों को नहीं । साधारण रूप से हेतु का ज्ञान हो जाने पर स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञासा होती है कि 'इससे साध्य का ज्ञान किस रीति से उत्पन्न होता है ?" बोद्धा की इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर ( उदाहरण ) का प्रयोग किया जाता है, जिस हेतु में साध्य उसका प्रदर्शन हो सके, क्योंकि हेतु में साध्य की व्याप्ति के ज्ञात होने अनुमिति होती है । इस क्रम से हेतु में साध्य के अविनाभाव का स्वाभाविक क्रम से पक्ष में साध्य की व्याप्ति से युक्त हेतु के रहने जिसको मिटाने के लिए ही उदाहरणवाक्य के बाद 'उपनय' वाक्य का प्रयोग करना पड़ता है । ( प्र० ) ( साध्य के साथ एक आश्रय में रहनेवाले
ही व्याप्तिवचन की जो व्याप्ति है, पर ही साध्य की निश्चय हो जाने पर की जिज्ञासा उठती है,
हेतु से ही साध्य का बोध होता है ) साध्य के आश्रय से भिन्न आश्रय में रहनेवाले हेतु से नहीं, इस रीति से हेतु वाक्य के द्वारा हेतुत्व का जो प्रतिपादन होता है. उसी से हेतु में पक्षधर्मता का भी बोध हो ही जाएगा । अतः पक्षधर्मता के लिए उपनयवाक्य का प्रयोग व्यर्थ है । ( उ० ) इस प्रकार तो हेतु वाक्य के द्वारा हेतुत्व के अभिधान से ही व्याप्ति का लाभ भी सम्भव है, क्योंकि व्याप्ति के बिना भी हेतु में हेतुता सम्भावित नहीं है, अतः हेतु वाक्य से ही व्याप्ति का भी लाभ हो जाएगा । यतः साध्य की व्याप्ति
( अन्वय) के बिना किसी में हेतुता नहीं आ सकती, अतः उदाहरण वाक्य का प्रयोग करना आवश्यक होता है । यदि यह कहें कि भ्रान्तिवश असाधारण हेतु ( केवल पक्ष में ही रहनेवाला हेतु जो वस्तुतः हेत्वाभास हैं ) भी हेतु वाक्य के द्वारा अभिहित हो सकता है । हेतु वाक्य से ही व्याप्ति का भी लाभ हो जाएगा, क्योंकि साध्य को व्याप्ति के बिना किसी में हेतुता नहीं आ सकती, अतः उदाहरण वाक्य का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए । यदि यह कहें कि भ्रान्तिवश असाधारण हेतु ( केवल पक्ष में ही रहनेवाले हेत्वाभास ) का भी हेतु है | अतः हेतु वाक्य के द्वारा हेतु में
वाक्य के द्वारा अभिधान किया जा सकता व्याप्ति की निश्चित प्रतीति नहीं हो सकती
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६०६ न्यायकन्दली दृश्यते कथं तस्मादपि पक्षधर्मतासिद्धिरिति चेत् ? असिद्धाविनाभावस्यापि भ्रान्त्या व्याप्तिवचनं दृश्यते कथं तस्मादन्वयसिद्धिः ? उदाहरणे व्याप्तिग्राहकप्रमाणानुसारेणान्वयनिश्चयो न वचनमात्रेण, तस्य सर्वत्राविशेषादिति चेत् ? उपनयेऽपि पक्षधर्मताग्राहकप्रमाणानुसारादेव तद्धर्मतानिश्चयो न वचनमात्रत्वात् । हेत्वभिधानान्यथानुपपत्त्यैव पक्षधर्मताग्राहिप्रमाणानुसारो भवतीति चेत् ? तदन्यथानुपपत्त्यैव व्याप्तिग्राहकप्रमाणानुसारो भविष्यति । हेतुवचनस्यान्यार्थत्वान्न तदुपनयनसामर्थ्यमस्तीति तदुपस्थापनमुदाहरणेन क्रियत इति चेत् ? इहापि सैव रीतिरनुगम्यताम्, अलमन्यथा सम्भावितेन । हैं, अतः उदाहरण के द्वारा व्याप्ति का प्रदर्शन किया जाता है। ( उ० ) तो फिर उपनय के प्रसङ्ग में भी इसी प्रकार यह कह सकते हैं कि पक्ष में न रहनेवाली ( अपक्षधर्म ) वस्तु में भी भ्रान्तिवश हेतुवाक्य के द्वारा हेतुत्व का प्रतिपादन हो सकता है, अतः उदाहरण में निश्चित रूप से विद्यमान हेतु को पक्ष में निश्चित रूप से समझाने के लिए उपनय का प्रयोग भी आवश्यक है। (प्र०) पक्ष में अनिश्चित हेतु के बोधक उपनय वाक्य का भ्रान्ति से भी प्रयोग होता है, अतः उपनय से पक्षधर्मता की सिद्धि कैसे होगी ? ( उ०) जिस हेतु में व्याप्ति निश्चित नहीं है, भ्रान्तिवश उसमें व्याप्ति को समझाने के लिए भी 'व्याप्तिवचन अर्थात् उदाहरण वाक्य का प्रयोग होता है, फिर उदाहरण से ही व्याप्ति की सिद्धि किस प्रकार होगी ? (प्र०) उदाहरण वाक्य केवल वाक्य होने के कारण ही व्याप्ति का बोधक नहीं हैं, क्योंकि वाक्यत्व तो सभी वाक्यों मे समान रूप से है। किन्तु उदाहरण वाक्य में यतः व्याप्ति के दोधक प्रमाण रूप शब्दों का प्रयोग होता है, अतः उदाहरण वाक्य से व्याप्ति का बोध होता है। ( उ० ) उपनय के प्रसङ्ग में भी इसी प्रकार कहा जा सकता है कि उपनयवाक्य केवल वाक्य होने के कारण ही पक्षधर्मता का बोधक नहीं है, क्योंकि वाक्यत्व तो सभी वाक्यों में समान रूप से है, किन्तु उपनय वाक्य में जिस लिए कि हेतु में पक्षधर्मता के बोधक प्रमाण रूप शब्दों का प्रयोग होता है, इसीलिए उपनय वाक्य से पक्षधर्मता का बोध होता है। (प्र.) हेतु वाक्य से ( उपयुक्त) हेतुत्व का बोध तब तक सम्भव नहीं है, जबतक कि उसे हेतु में पक्षधर्मता का बोधक प्रमाण न मान लिया जाय, अतः हेतु वाक्य से ही पक्षधर्मत्व का बोध हो जाएगा ( उसके लिए उपनय वाक्य के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है )। ( उ० ) यही बात व्याप्ति के प्रसङ्ग में भी कही जा सकती है कि हेतु में उपयुक्त हेतुत्व का बोध तब तक सम्भव नहीं है, जबतक हेतुवाक्य को व्याप्ति का भी बोधक प्रमाण न मान लिया जाय, ऐसी स्थिति में यह भी कहा जा सकता है कि व्याप्ति के बोध के लिए उदाहरण वाक्य की आवश्यकता नहीं है ( हेतुवाक्य से ही व्याप्ति का भी बोध हो जाएगा) यदि यह कहें कि (प्र०) हेतु वाक्य ( हेतु रूप ) दूसरे अर्थ का बोधक है, अतः उसमें व्याप्ति को समझाने का सामर्थ्य नहीं है, अत: व्याप्ति को समझाने के लिए उपनय वाक्य की अलग से आवश्यकता होती है। (उ०)
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६१.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् मनुपलब्धशक्तिकं निदर्शने साध्यधर्मसामान्येन सह दृष्टमनुमेये येन वचनेनानुसन्धीयते तदनुसन्धानम् । तथा च वायुः क्रियावानिति । अनुमेयाभावे च तस्यासत्त्वमुपलभ्य न च तथा वायुनिष्क्रिय इति । सामान्य में साध्य सामान्य को साधन करने का सामर्थ्य उपलब्ध नहीं होता है। उसके लिए यह आवश्यक है कि उदाहरण में साध्यसामान्य के साथ वृत्तित्व रूप से ज्ञात हेतुसामान्य का ( केवल हेतुसामान्य का नहीं ) पक्ष में सत्ता का ज्ञापन हो 1 यह ज्ञापन जिस वाक्य से होता है, वही ‘साधानुसंधान' है। ( वायु में क्रियावत्त्व हेतु से द्रव्यत्व के अनुमान के लिए यदि तीर को निदर्शन रूप से उपस्थित किया जाय, एवं उसके बाद तीर रूप निदर्शन में द्रव्यत्व के साथ ज्ञात क्रियावत्त्व का वायु रूप पक्ष में सत्ता दिखाने के लिए) 'वायु में (भी) क्रिया है' इस वाक्य का प्रयोग किया जाय तो ( उक्त अनुमान के लिए ) यह वाक्य 'साधानुसन्धान' होगा ।
(वैधर्म्यनिदर्शन या विपक्ष में ) अनुमेय अर्थात् साध्य के अभाव के साथ ज्ञात हेतु के अभाव का पक्ष में जिस वाक्य से असत्ता प्रतिपादित हो, वही वाक्य 'वधानुसन्धान है। जैसे कि ( कोई वायु में क्रियावत्त्व हेतु से द्रव्यत्व के अनुमान के लिए ही इस वैधर्म्य निदर्शनवाक्य का प्रयोग करे कि 'जो द्रव्य नहीं है उसमें क्रिया भी नहीं है जैसे कि सत्ता, सत्ता में द्रव्यत्व नहीं है तो क्रिया भी नहीं है' इस रीति से उक्त वाक्य से सत्ता में द्रव्यत्वाभाव के साथ ज्ञात) क्रियावत्त्व के अभाव का वायु में असत्ता को प्रतिपादन करनेवाले सत्ता की तरह 'वायु क्रियाशून्य नहीं है' इत्यादि वाक्य 'वैधानुसन्धान हैं'।
न्यायकन्दली
__ अस्तु तहर्युपनयः, व्यर्थ हेतुवचनम् ? न, असति हेतुवचने साधनस्वरूपानवबोधात् तत्सामर्थ्य जिज्ञासाया अनुपपत्तौ उदाहरणादिवचनानां प्रवृत्त्यभावात् । तथा च न्यायभाष्यम्--'असति हेतौ कस्य साधनभावः प्रदर्यते' इति ।
तो फिर उपनय के प्रसङ्ग में भी वही रीति अपनाइए ? उसके लिए अलग रीति अपनाना व्यर्थ है।
(प्र.) ऐसी स्थिति में उपनय को ही मान लीजिए, हेतु वाक्य को ही छोड़ दीजिए ? ( उ०) सो सम्भव नहीं है क्योंकि यदि हेतुवाक्य न रहे, तो हेतु के स्वरूप का बोध कैसे होगा ? हेतु के स्वरूप का बोध न होने पर हेतु की सामर्थ्य के प्रसङ्ग में कोई जिज्ञासा ही न उठ सकेगी, जिससे उदाहरणादि वाक्यों की प्रवृत्तियाँ ही अनुपपन्न
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
६११
प्रशस्तपादभाष्यम् अनुमेयत्वेनोद्दिष्टे चानिश्चिते च परेषां निश्चयापादनाथ प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं प्रत्याम्नायः । प्रतिपाद्यत्वेनोद्दिष्टे चानिश्चिते च परेषां हेत्वादिमिरवयवैराहितशक्तीनां परिसमाप्तेन
(प्रथमतः प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा ) अनुमेय रूप से कथित होने पर भी ( समर्थ हेतु सम्बन्ध के प्रतिपादन के बिना ) अनिश्चित साध्य को दूसरों को निश्चित रूप से समझाने के लिए फिर से प्रयुक्त ( उपयुक्त हेतु के सम्बन्ध से युक्त साध्य के बोधक) प्रतिज्ञा वाक्य ही 'प्रत्याम्नाय' ( निगमन ) है। ( विशदार्थ यह है कि सर्वप्रथम प्रयुक्त ) केवल प्रतिज्ञावाक्य से साध्य अनुमेयत्व रूप से निर्दिष्ट होने पर भी बोद्धा पुरुष के लिए
न्यायकन्दली अनुसन्धानस्योदाहरणमाह-तथा चेति । वधानुसन्धानं दर्शयति-अनुमेयाभावे चेति ।
प्रत्याम्नायं व्याचष्टे-अनुमेयत्वेनोद्दिष्टे इति । प्रतिज्ञावचनेन पक्षे अनुमयत्वेन प्रतिपाद्यत्वेनोद्दिष्टे साध्यधर्मऽनिश्विते तस्यैव धर्मिणि प्रत्याम्नायः प्रत्यावृत्त्याभिधानम् येन वचनेन क्रियते तत्प्रत्याम्नायः। अभिहितस्य पुनरभिधानं किमर्थमत आह-परेषां निश्चयापादनार्थमिति । प्रथम साध्यमभिहितं न तु तनिश्चितम्, प्रतिज्ञामात्रेण साध्यसिद्धेरभावात् । तस्योपर्शिते हेतो, कथिते च हेतोः सामर्थ्य, निश्चयः प्रत्याम्नायेन क्रियत इत्यस्य साफल्यम् । एतदेव दर्शयति-प्रतिपाद्यत्वेनोद्दिष्ट इत्यादिना। प्रथमं वचनमात्रेण परेषां हो जाएंगी। जैसा न्यायभाषा में कहा गया है कि "हेतु के न रहने पर किसका (साध्यबोधक जनक) सामर्थ्य ( उदाहरणादि वाक्यों से ) दिखलाया जायगा ?
'तथा च' इत्यादि वाक्य के द्वारा अनुसन्धान ( उपनय) का उदाहरण कहा गया है । 'अनुमेयाभावे' इस सन्दर्भ से 'वैधानुसन्धान' का उदाहरण दिखलाया गया है।
'अनुमेयत्वेनोद्दिष्टे' इत्यादि वाक्य के द्वारा 'प्रत्याम्नाय' (निगमन ) की व्याख्या करते हैं । प्रतिज्ञावाक्य के द्वारा 'उद्दिष्ट' अर्थात् कहने के लिए अभीष्ट जो 'अनिश्चित' साध्य रूप धर्म, उसी साध्य रूप धर्म का उसी पक्ष में जो प्रत्याम्नाय' अर्थात् दूसरी बार कहना, जिस वाक्य के द्वारा हो उसी को प्रत्याम्नाय' कहते हैं। (प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा) कहे हुए साध्य रूप धर्म को ही फिर से क्यों कहते हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर 'परेषां निश्चयापादनार्थम्' इस वाक्य से दिया गया है । पहिले (प्रतिज्ञा वाक्य के द्वारा ) केवल साध्य कहा जाता है, किन्तु उससे साध्य का निश्चय नहीं हो पाता, क्योंकि
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६१२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् वाक्येन निश्चयापादनार्थ प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं प्रत्याम्नायः, तस्माद द्रव्यमेवेति । न ह्येतस्मिन्नसति परेषामवयवानां समस्तानां अनिश्चित ( सन्दिग्ध ) ही रहता है ( क्योंकि हेतु में पक्षधर्मता और व्याप्ति के निश्चय के बिना) पक्ष में उसके निश्चयात्मक ज्ञान को अपनी आत्मा में उत्पादन का सामर्थ्य बोद्धा पुरुष को नहीं रहता है। हेतु प्रभृति अवयव जब समझानेवाले पुरुष से प्रयुक्त होते हैं, तब समझनेवाले पुरुष में साध्य को पक्ष में निश्चित रूप से समझने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। इस प्रकार की शक्ति से सम्पन्न पुरुष को पक्ष में साध्य को निश्चित रूप से समझाने के लिए प्रयुक्त प्रतिज्ञावाक्य ही 'प्रत्याम्नाय' ( निगमन ) है। जैसे कि ( क्रियावत्त्व हेतु से वायु में द्रव्यत्व की अनुमिति के लिए प्रयुक्त न्यायवाक्यों का) 'तस्मात् वायु द्रव्य ही है' यह वाक्य ( प्रत्याम्नाय है )। इस (प्रत्याम्नाय ) के न रहने पर शेष चार अवयव वाक्य परस्पर
न्यायकन्दली साध्यनिश्चयो न भूतः, तेषां हेतूदाहरणोपनयैरवयवैर्हेतोस्त्रैरूप्ये दर्शिते सञ्जातानुमेयप्रतिपत्तिसामर्थ्यानां प्रत्याम्नाये कृते 'परिसमाप्तेन' परिपूर्णन 'वाक्येन' निश्चयो जायत इत्येतदर्थं प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं प्रत्याम्नायः प्रवर्तते ।
तस्योदाहरणम्-तस्माद् द्रव्यमेवेति । हेत्वादिभिरवयवैरेव साध्यं केवल प्रतिज्ञा वाक्य से साध्य का निश्चय ( सिद्धि ) नहीं होता है। जब हेतु वाक्य के द्वारा हेतु का प्रदर्शन हो जाता है. एवं ( उदाहरण और उपनय के द्वारा) हेतु का (व्याप्ति और पक्षधर्मता रूप ) सामर्थ्य कथित हो जाता है, तब प्रत्थाम्नाय के द्वारा साध्य का निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रत्याम्नाय की सार्थकता स्पष्ट है। यही बात 'प्रतिपाद्यत्वेनोद्दिष्टे' इत्यादि से कही गई है। अभिप्राय यह है कि बोद्धा को पहिले केवल (प्रतिज्ञा ) वचन के द्वारा साध्य का निश्चय नहीं हो पाता, किन्तु हेतु, उदाहरण और उपनय इन तीन अवयवों के द्वारा ( अनुमान के प्रयोजक ) हेतु के (पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व इन) तीनों रूपों का ज्ञान जब बोद्धा पुरुष को हो जाता है, तब उसो पुरुष को अर्थात् कथित रीति से अनुमेय के ज्ञान के सामथ्यं से युक्त हेतु के ज्ञान से युक्त पुरुष को प्रत्याम्नाय वाक्य के प्रयुक्त होने पर 'परिसमाप्त' अर्थात् सम्पूर्ण वाक्य से निश्चयात्मक ज्ञान होता है। इसी निश्चयात्मक ज्ञान के लिए प्रतिज्ञा वाक्य का पुनः प्रयोग रूप प्रत्याम्नाय प्रवृत्त होता है।
'तस्माद् द्रव्यमेव' इस वाक्य के द्वारा प्रत्याम्नाय का उदाहरण दिखलाया गया है। हेतु प्रभृति अवयवों से ही साध्य की सिद्धि हो जाएगी, अतः प्रत्याम्नाय का
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् व्यस्तानां वा तदर्थवाचकत्वमस्ति, गम्यमानार्थत्वादिति चेन्न, अतिमिलित होकर या स्वतन्त्र रूप से भी प्रत्याम्नाय के द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकते ( अतः उन चारों के रहते हुए भी प्रत्याम्नाय का असाधारण प्रयोजन है। सुतराम् इसके वैयर्थ्य की आशंका अयुक्त है)।
(प्र०) ( यदि प्रतिज्ञावाक्य को फिर से दुहराना ही प्रत्याम्नाय है तो फिर ) ज्ञात अर्थ के ही ज्ञापक होने के कारण ( प्रत्याम्नाय की कोई आवश्यकता नहीं है ) ? ( उ०) ऐसी बात नहीं है, यदि ऐसी बात हो तो
न्यायकन्दलो निश्चीयते किं प्रत्याम्नायेन ? इत्यत आह---नह्येतस्मिन्नसतीति । प्रतिज्ञादयोऽवयवाः प्रत्येक स्वार्थमात्रेण पर्यवसायिनोऽसति प्रत्याम्नाये नैकमर्थं प्रत्याययितुमीशते, स्वतन्त्रत्वात् । सति त्वेतस्मिन्नाकाङ्क्षोपगृहीताः अङ्गाङ्गिभावमुपगच्छन्तः शक्नुवन्तीति युक्तः प्रत्याम्नायः ।
पुनश्चोदयति गम्यमानार्थत्वादिति। अयमभिप्रायः स्वार्थानुमाने यैव प्रतिपत्तिसामग्री, सैव परार्थानुमानेऽपि । इयांस्तु विशेषः, स्वप्रतीतावियं स्वयमनुसन्धीयते, परप्रतीतौ च परेण बोध्यते । स्वयं च लिङ्गसामर्थ्यादर्थोऽवगम्यते, परस्यापि तदेव गमकम् । वाक्यं तु लिङ्गोपक्षेपमात्रे चरितार्थम् । प्रतिपादितं च कोई प्रयोजन नहीं है इसी आक्षेप का समाधान 'न तु तस्मिन्नसति' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा किया गया है। अभिप्राय यह है कि प्रतिज्ञादि चारों अवयव अलग अलग स्वतन्त्र रूप से केवल अपने अपने अर्थों का ही प्रतिपादन कर सकते हैं, स्वतन्त्र होने के कारण प्रत्याम्नाय के बिना किसी एक विशिष्ट अर्थ को उनमें से कोई भी एक अवयव नहीं समझा सकता। प्रत्याम्नाय वाक्य के प्रयोग से ही प्रतिज्ञादि अवयव परस्पराकाङ्क्षा के द्वारा एक दूसरे से अङ्गाङ्गिभाव को प्राप्त कर एक विशिष्ट अर्थ विषयक बोध का सम्पादन कर सकते हैं, अतः प्रत्याम्नाय का प्रयोग आवश्यक है।
'गम्यमानार्थत्वात्' इस वाक्य के द्वारा फिर से आक्षेप करते हैं। आक्षेप करनेवाले का अभिप्राय है कि कारणों के जिस समुदाय से स्वार्थानुमान की उत्पत्ति होती है, परार्थानुमान भी उसी कारण समुदाय से उत्पन्न होता है। अन्तर इतना ही है कि स्वार्थानुमानवाले पुरुष को स्वयं ही उस कारण समूह का अनुसन्धान करना पड़ता है, और परार्थानुमान स्थल में उस समूह का अनुसन्धान दूसरे के द्वारा कराया जाता है । जिस प्रकार स्वार्थानुमान स्थल में हेतु के पक्षसत्त्वादि सामर्यों के द्वारा ‘अर्थावगम' अर्थात् अनुमिति होती है, उसी प्रकार परार्थानुमान स्थल में भी हेतु के उन सामर्यों से ही अनुमिति होती है । ( अवयव ) वाक्यों का तो अनुमिति में इतना ही उपयोग है कि वे ( उक्त सामर्थ्य से युक्त) हेतु को उपस्थित कर देवें। अन्वय और व्यतिरेक
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६१४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
प्रसङ्गात् । तथाहि प्रतिज्ञानन्तरं हेतुमात्राभिधानं कर्तव्यम्, विदुषामन्वयव्यतिरेकस्मरणात् तदर्थावगतिर्भविष्यतीति, तस्मादत्रैवार्थपरिसमाप्तिः । फिर उक्त पक्ष में ( केवल प्रतिज्ञा और हेतु वाक्य को छोड़कर निदर्शन और अनुसन्धान इन दोनों के भी वैयथ्य की आपत्ति होगी ), क्योंकि ( पूर्वपक्षवादी की रीति के अनुसार ) प्रतिज्ञावाक्य के बाद केवल हेतु वाक्य के प्रयोग से ही प्रकृत प्रयोजन की निष्पत्ति हो जाएगी, क्योंकि ( व्याप्ति से ) अभिज्ञ पुरुष को ( व्याप्ति के कारणीभूत अन्वय और व्यतिरेक का स्मरण यों ही ( बिना निदर्शनवाक्य और अनुसन्धानवाक्य के सुने ही ) हो जाएगा । ( प्रतिज्ञावाक्य के प्रयोग के बाद हेतुवाक्य का प्रयोग होने के बाद ही ) अभीष्ट अर्थ का बोध सम्पन्न हो जाएगा । अतः ( प्रतिज्ञादि चार अवयवों के प्रयोग को पूर्व पक्षी जिस दृष्टि से आवश्यक मानते हैं, उसी दृष्टि से उन्हे मानना होगा कि ( प्रत्याम्नाय पर्यन्त पाँच अवयववाक्यों के प्रयोग से ही अभीष्ट अर्थ के ज्ञान की समाप्ति हो सकती है ) ।
न्यायकन्दली
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[ गुणेऽनुमानेऽवयव
हेत्वादिभिरवयवैः पक्षधर्मतान्वयव्यतिरेकोपपन्नं लिङ्गम् । तावतैव च तस्मादर्थावगतिसम्भवात् कृतं निगमनेनेति । समाधत्ते - नातिप्रसङ्गादिति । वाक्यं लिङ्गसामर्थ्यमेव बोधयति न साध्यम् । किं तु न तस्य सामर्थ्यं बहिर्व्याप्तिपक्षधर्मतामात्रम्, सत्यपि तस्मिन् प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टयोरसाधकत्वात्, अपि त्वबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वमपि सामर्थ्यम् । तत्सद्भावो यावत्प्रमाणेन न प्रतिपाद्यते तावत्प्रतिपक्षसम्भवाशङ्काया अनिवर्तनात् । धर्मिण्युपसंहृतेऽपि साधने साध्यप्रतीतेरयोग इति विपरीत प्रमाणाभावग्राहकं
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( व्याप्ति ) एवं पचधर्मता इन दोनों से युक्त हैतु की उपस्थिति तो हेतु उदाहरण और उपनय इन्हीं अवयवों से सम्पन्न हो जाती है, फिर कौन सी आवश्यकता अवशिष्ट रह जाती है, जिसके लिए निगमनवाक्य का प्रयोग आवश्यक होता है ? "न, अतिप्रसङ्गात् " इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस आक्षेप का समाधान करते हैं । ( उदाहरणादि अवयव ) वाक्यों सेलिङ्ग के ( व्याप्ति और पक्षधर्मता रूप ) सामर्थ्य का ही बोध होता है साध्य का नहीं, किन्तु केवल व्याप्ति और पक्षधर्मता ये ही दोनों हेतु के सामथ्यं नहीं हैं, क्योंकि उक्त सामर्थ्य के रहने पर भी प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्षित ) और कालात्ययापदिष्ट (बाधित ) हेतु से साध्य को सिद्धि नहीं होती । अतः हेतु में साध्यसिद्धि के उपयुक्त सामर्थ्य के लिए यह भी आवश्यक है कि पक्ष में उसके साध्य की बाध न हो, एवं पक्ष में उसके साध्य के अभाव साधक का कोई दूसरा हेतु न रहे, फलतः अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व ये दोनों भी हेतु सामर्थ्य हैं | प्रमाण के द्वारा जब तक
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६१५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दलो प्रमाणमुपदर्श्यते । तदभावे प्रतिपादिते, प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टत्वाभावे निश्चिते, प्रख्यापितसामर्थ्य साधनं साध्यं समर्थयतीति प्रत्याम्नायोपयोगः । तत्र यद्यनुक्तमपि सामर्थ्यमर्थाद् गम्यत इत्यस्य प्रतिक्षेपः क्रियते, तदोदाहारणादिकमपि प्रतिक्षेप्तव्यम् । प्रतिज्ञानन्तरं हेत्वभिधाने कृते विदुषां स्वयमेवान्वयव्यतिरेकस्मरणादर्थावगतिसम्भवात् ।।
एतदुक्तं भवति । न प्रतिपन्नं प्रति परार्थानुमानम्, वैयर्थ्यात् । न च प्रतिपाद्यस्य कियत्यङ्ग प्रतिपत्तिरस्ति, कियति नास्तीति शक्यमवगन्तुम्, परचित्तवृत्तेर्दु रुन्नयत्वात् । नापि तच्छक्त्यनुरोधाद् वाक्यकल्पना युक्ता, प्रतिपत्तणां विचित्रशक्तिमत्त्वात् । तस्मात् परं बोधयता यावता हेतोः साधकत्वं
इन दोनों सामथ्र्यों का प्रतिपादन नहीं होगा, तब तक प्रतिपक्ष की सम्भावना बनी ही रहेंगी। इस प्रकार ( व्याप्ति और पक्षधर्मता से युक्त हेतु का पक्ष में उपसंहार होने पर भी माध्य को (प्रमा) प्रतीति नहीं हो पाती है। अत: साध्य के विपरीत अर्थात् साध्याभाव के साधक प्रमाणों के अभाव के ग्राहक प्रमाण का भी प्रदर्शन किया जाता है । इस प्रकार विपरीत अर्थात् उक्त प्रमाणाभाव की उपपति से ही हेतु में प्रकरणसमत्वाभाव ( असत्प्रतिपक्षितत्व ) और कालात्ययापदिष्टत्वाभाव ( अबाधितत्व ) इन दोनों का भी निश्चय होता है। इस रीति से हेतु में साध्य के साधक उक्त सभी सामर्यों के ज्ञान से ही हेतु साध्य का साधन करता है, अतः प्रत्याम्नाय (निगमन) का प्रयोग आवश्यक है। ऐसी स्थिति में यदि प्रत्याम्नाय वाक्य के बिना कहे हुए भी हेतु के उक्त प्रकरणसमत्वाभाव और कालात्ययापदिष्ट स्वाभाव रूप सामथ्र्थ का आक्षेप से बोध मांन कर प्रत्याम्नाय ( निगमन ) वाक्य का खण्डन करें, तो फिर ( व्याप्ति और पक्षधर्मता के बोधक ) उदाहरणादि वाक्यों का भी खण्डन करना होगा । क्योंकि प्रतिज्ञा वाक्य के बाद हेतु वाक्य का प्रयोग कर देने से ही बोद्धा को स्वयं हेतु का साध्य के साथ जो अन्वय और व्यतिरेक है, उसका स्मरण हो जाएगा, जिससे साध्य की अनुमिति हो जाएगी।
सिद्धान्तियों के इस सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि सर्वथा व्युत्पन्न पुरुष के लिए परार्थानुमान का प्रयोग व्यर्थ होने के कारण अपेक्षित हो नहीं है। यतः दूसरे की चित्तवृत्ति को यथार्थ रूप से समझना भी बहुत कठिन है। अतः बोद्धा को 'अनुमिति के उत्पादक कितने अङ्गों का ज्ञान है एवं कितने अङ्गों का नहीं' यह समझना भी असम्भव सा ही है। यह भी सम्भव नहीं है कि बोद्धा के सामर्थ्य के अनुसार अवयव वाक्यों का प्रयोग हो, क्योंकि बोद्धाओं के प्रत्येक व्यक्ति में अलग अलग प्रकार की शक्ति होती है । अतः वस्तुस्थिति के अनुसार हेतु की जितनी शक्तियों से साध्य का प्रतिपादन सम्भव है, उन सभी को समझाने के लिए जितने वाक्यों की आवश्यकता जान पड़े, उन सभी वाक्यों का प्रयोग सभी परार्थानुमानों में कर देना चाहिए। यह नहीं कि जहाँ जिस बोद्धा
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यथोक्तम्—
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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वस्तुवृत्त्योपपद्यते तावानर्थी वचनेन प्रतिपादनीयः, न प्रतिपत्तृविशेषानुरोधेन
तितव्यम् ।
[ गुणेऽनुमानेऽवयव
वस्तु प्रत्यभिधातव्यम् सिद्धार्थो न परान्। प्रति 1 को हि विप्रतिपन्नायास्तद्बुद्धेरनुधावति
उपसंहरति-तस्मादत्रैवार्थपरिसमाप्तिरिति । यस्मान्निगमने
सति हेतोः समग्रं सामर्थ्यं प्रतीयते तस्मादत्रैव निगमने अर्थस्य साध्यस्य परिसमाप्तिः प्रतीतिपर्यवसानम् ।
यद्वैवं योजना, यस्मान्निगमनमन्तरेण विपरीतप्रमाणाभावो नावगम्यते, तस्मादेतस्मिन्नेवार्थस्य सम्यग् हेतुसामर्थ्यस्य परिसमाप्तिः पर्यवसानमिति ।
प्रत्येकमुक्तमेवावयवानां रूपमेकत्र संहृत्य प्रश्नपूर्वकं कथयति--कथमित्यादिना । किं शब्दो नित्यः किं वा अनित्य इत्यन्यतरधर्मजिज्ञासायां प्रतिज्ञावचनेनानिश्चितेनानित्यत्वमात्रेण विशिष्टः शब्दः कथ्यते 'अनित्यः'
की जितनी शक्ति है, उसके अनुसार उन उन जगहों में अलग अलग संख्या के वाक्यों का प्रयोग किया जाय । जैसा कहा गया है कि "दूसरों को किसी वस्तु को समझाने के लिए 'सिद्धार्थ वाक्य' का ( अर्थात् जितने वाक्यों से उस अर्थ की सिद्धि की सम्भावना हो उन सभी वाक्यों का ) प्रयोग करना चाहिए ( समझनेवाले अनुसार वाक्यों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ) अनुगमन कौन कर सकता है ?"
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पुरुष की बुद्धि के बोद्धा की विविध बुद्धियों का
'तस्मादत्रं वार्थपरिसमाप्ति:' इस वाक्य से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं । यतः निगमन वाक्य के प्रयोग के होने पर ही हेतु के पूर्ण सामर्थ्य की प्रतीति होती है ' तस्मादत्रैव' अर्थात् अतः 'यहीं' निगमनवाक्य में ही 'अर्थ' को अर्थात् साध्य की 'परिसमाप्ति' अर्थात् प्रतीति की अन्तिम परिणति होती है । अथवा 'तस्मात्' इत्यादि उपसंहार वाक्य को इस प्रकार लगाना चाहिए कि यतः निगमन के बिना विपरीत प्रमाण की असत्ता की प्रतीति नहीं होती है 'तस्मात् ' निगमनवाक्य में ही 'अर्थ' की अर्थात् सद्धेतु के सामर्थ्य की परिसमाप्ति' अर्थात् पर्यवसान ( अन्तिम परिणति ) होता है । अलग अलग कहे गए प्रत्येक अवयव के स्वरूप को एक स्थान में संग्रह कर प्रश्नोत्तर रूप से 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा कहते हैं । शब्द के प्रसङ्ग में नित्यत्व और अनित्यत्व इन दोनों में से 'यह नित्य है ? अथवा अनित्य ?" इस प्रकार की एक ही आकाङ्क्षा उठती है । उसी के शमन के लिए 'अनित्यः शब्द:' इस आकार का प्रतिज्ञावाक्य प्रयुक्त होता है, जिससे 'शब्द उस अनित्यत्व रूप धर्म से युक्त है, जो अनिश्चित है' इस आकार का बोध होता है । 'शब्द अनित्य ही है' इसमें क्या हेतु है ?
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
६१७
प्रशस्तपादभाष्यम् कथम् ? अनित्यः शब्द इत्यनेनानिश्चितानित्यत्वमात्र विशिष्ट: शब्दः कथ्यते । प्रयत्नानन्तरीयकत्वादित्यनेनानियत्वसाधनधर्ममात्रमभिधीयते । 'इह यत् प्रयत्नानन्तरीयकं तदनित्यं दृष्टम् , यथा घटः' इत्यनेन साध्यसामान्येन साधनसामान्यस्यानुगममात्रमुच्यते । नित्यम
(प्र०) (प्रतिज्ञादि पाँच अवयवों की आवश्यकता) किस प्रकार है ? ( उ० ) 'अनित्यः शब्दः' ( शब्द अनित्य है ) इस प्रतिज्ञावाक्य से अनिश्चित अनित्यत्व से युक्त शब्द का ही बोध होता है । प्रतिज्ञावाक्य के बाद प्रयुक्त प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' । यतः प्रयत्न के बाद ही शब्द की सत्ता उपलब्ध होती है ) इस हेतु वाक्य से 'शब्द में अनित्यत्व का
न्यायकन्दली इति । तत्र को हेतुरित्यपेक्षायां प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् पूर्वमसत: प्रयत्नानन्तरमुपलभ्यमानत्वादिति हेतुवचनेनानित्यत्वसाधनधर्ममात्रमभिधीयते । मात्रग्रहणेन पक्षधर्मताया अन्वयव्यतिरेकयोश्चानभिधानं दर्शयति । अवगतसाधनस्य कथमिदं साध्यं गमयतीति साधनसामर्थ्यापेक्षायाम् 'इह जगति यत् प्रयत्नानन्तरीयकं तदनित्यं दृष्टम्' इत्युदाहरणेन साध्यसामान्येन साधनसामान्यस्यानुगममात्रं करोति, न तु स्वरूपान्तरमिति मात्रशब्दार्थः । नित्यम प्रयत्नानन्तरीयकमिति वैधर्म्यनिदर्शनेन साध्याभावे साधनाभावः प्रदर्श्यते-यत् प्रयत्नानन्तरीयकं तदनित्यइस प्रकार की आकाङ्क्षा के उठने पर उसके शमन के लिए 'प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' इस हेतुवाक्य का प्रयोग किया जाता है। प्रयत्न के बाद ही पहिले से अविद्यमान वस्तु की उपलब्धि होती है। इस हेतु वाक्य के द्वारा शब्द में अनित्यत्व के साधक 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' ही केवल उपस्थित किया जाता है। इस वाक्य में 'मात्र' शब्द का प्रयोग यह समझाने के लिए किया गया है कि इस वाक्य से हेतु का अन्वय और व्यतिरेक अर्थात् व्याप्ति और पक्षधर्मता का प्रतिपादन नहीं होता है ( केवल हेतु का ही अभिधान होता है)। बोद्धा को जब हेतु का ज्ञान हो जाता है, तब उसे जिज्ञासा होती है कि 'किस रीति से यह हेतु इस साध्य की अनुमिति का उत्पादन कर सकता है ? ' हेतु के सामर्थ्य के प्रसङ्ग को इस जिज्ञासा की निवृत्ति के लिए ही ( उक्त स्थल में ) 'इह' इत्यादि उदाहरण वाक्य का प्रयोग किया जाता है। जिनका अभिप्राय है कि 'इह' अर्थात् संसार में प्रयत्न के बाद ही जिसकी उपलब्धि होती है, वह अर्थ अनित्य ही देखा जाता है। उदाहरण वाक्य से सभी साधनों में सभी साध्यों की केवल अनुगति अर्थात् व्याप्ति ही केवल दिखलायी जाती है, पक्षधर्मता नहीं। यही बात उक्त सन्दर्भ में 'मात्र' शब्द के प्रयोग से दिखलायी गई है। 'नित्यमप्रयत्नानन्त रीयकम्' इस वैधम्यं निदर्शन वाक्य के द्वारा साध्य के अभाव में हेतु के अभाव
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६१८
ग्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रयत्नानन्तरीयकं दृष्टम् , यथाकाशमित्यनेन साध्याभावेन साधनस्यासत्वं प्रदश्यते। तथा च प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दो दृष्टो न च तथाकाशवदप्रयत्नानन्तरीयकः शब्द इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां दृष्टसामर्थ्यस्य साधनसामान्यस्य शब्देऽनुसन्धानं गम्यते । तस्मादनित्यः साधक प्रयत्नान्तरीयकत्व की सत्ता है' केवल इतना ही बोध होता है। ( इसके बाद प्रयुक्त ) 'प्रयत्न के बाद जो सत्ता लाभ करते हैं, वे सभी अनित्य ही देखे जाते हैं जैसे कि घटादि' इस ( साधर्म्य ) निदर्शन वाक्य से सभी साध्यों के साथ सभी हेतुओं के केवल अन्वय का बोध होता है 'जितने भी नित्य पदार्थ उपलब्ध हैं, उन सभी की सत्ता बिना प्रयत्न के ही देखी जाती है जैसे कि आकाश की' इस ( वैधर्म्य ) निदर्शन वाक्य से साध्य के अभाव के साथ हेतु के अभाव की नियमित सत्ता रूप व्यतिरेक ही प्रतिपादित होता है। शब्द घादि की तरह प्रयत्न के बाद ही सत्ता लाभ करते दीखते हैं' एवं 'आकाशादि की तरह बिना प्रयत्न के ही सत्ता लाभ करते नहीं दीखते' इस अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा (प्रयत्नानन्तरीयकत्व रूप ) हेतु में अनित्यत्व रूप साध्य के साधन का व्याप्ति रूप सामर्थ्य ज्ञात होता है ( इस प्रकार ) ज्ञान के सामर्थ्य ( व्याप्ति ) से युक्त हेतु सामान्य का शब्द रूप पक्ष में अनुसन्धान ही अनुसन्धान-वाक्य से किया जाता है ।
न्यायकन्दली मिति । दृष्टमेतत् किं तु शब्दे तदस्ति नवेति जिज्ञासायाम्-तथा च प्रयत्नानन्तरीयकः शब्द इति । यथा घटः प्रयत्नानन्तरीयकः, तथा शब्दोऽपि प्रयत्नानन्तरीयकः । न चाकाशवदप्रयत्नानन्तरीक इत्यनुसन्धानेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां दृष्टसामर्थ्यस्य दृष्टाविनाभावस्य प्रयत्नानन्तरीकत्वस्य शब्दे धर्मिण्यनुसन्धानमुपस्थापनं गम्यते। यथा यत् कृतकं तदनुष्णं दृष्टम्, यथा घट इति सत्यपि ( की व्याप्ति) दिखलायी गयी है । 'यत् प्रयत्नानन्तरीयकम्, तदनित्यम्' इस साधर्म्य निदर्शन वाक्य से "यह तो समझा कि प्रयत्द को सत्ता के अधीन जिनकी सत्ता होती है, वे सभी अनित्य होते हैं, किन्तु शब्द में यह प्रयत्नानन्तरीयकत्व है कि नहीं ? यह जानने की इच्छा तब भी बनी ही रहती है, इसो इच्छा को निवृत्ति के लिये “तथा च प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दः" इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जिस प्रकार घट में प्रयत्नानन्त रीयकत्व है, उसी प्रकार शब्द में भी प्रयत्नानन्त रोयकत्व है। एवं आकाश की तरह शब्द प्रयत्नानन्तरीयक नहीं है । इस प्रकार दोनों अनुसन्धान वाक्यों से अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा दृष्टसामर्थ्य' अर्थात् जिस प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु की व्याप्ति ज्ञात हो गयी है, उसी प्रयत्नानन्त रीयकत्व का शब्द' में अर्थात् पक्ष में 'अनुसन्धान' अर्थात् उपस्थापन होता है। जिस प्रकार “जो कृति से उत्पन्न होता है, वह अनुष्ण होता है" इस प्रक र की बाह्य व्याप्ति की सम्भावना इससे मिट जाती है
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प्रकरणम्)
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् शब्द इत्यनेनानित्य एव शब्द इति प्रतिपिपादयिषितार्थपरिसमाप्तिगम्यते: ( अर्थात् निदर्शन के द्वारा ज्ञात व्याप्ति विशिष्ट हेतु का पक्ष के साथ सम्बन्ध रूप पक्षधर्मता ही अनुसन्धान वाक्य से प्रतिपादित होती है ) इसके बाद 'अनित्यः शब्दः' इस प्रत्याम्नाय वाक्य से शब्द अनित्य ही है' इस प्रकार प्रतिपादन के लिए इच्छित अर्थ की परिसमाप्ति होती है।
न्यायकन्दली बहिर्व्याप्तिसम्भवे कृतकस्तेजोऽवयवी अनुष्णो न भवति, प्रमाणविरोधात् । तथा यत् प्रयत्नानन्तरीयकं तदनित्यमिति बहिर्व्याप्तिसम्भवे कदाचित् प्रयत्नानन्तरीयकः शब्दोऽनित्यो न भवेदिति विपक्षाशङ्कायां हेतोरसाधकत्वे तस्मादनित्यः शब्द इति प्रत्याम्नायः, यस्मानित्यत्वप्रतिपादकं प्रमाणं नास्ति तस्माच्छब्दो नित्यो न भवतीत्यर्थः। अनेनान्यव्यावृत्तिवाचिना विपरीतप्रमाणाभावग्राहक प्रमाणमुपस्थाप्यते, उपस्थापिते च तदभावे प्रतिपादिते विपरीतशालिवत्तौ दर्शिताविनाभावाद्धेतोर्मिण्युपसंहृताद् ब्याप्तिग्राहकप्रमाणबलेन निविचिकित्सः साध्यं प्रत्येति, नापरं किञ्चिदपेक्ष्यत इत्यनेन प्रत्याम्नायेनानित्य एव शब्द इति प्रतिपिपादयिषितस्यार्थस्य परिसमाप्तिनिश्चयो गम्यते । कि तेज के अवयव कृतिजन्य होते हुए भी अनुष्ण नहीं होते क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष प्रमाण का विरोध होगा। उसी प्रकार 'जो प्रयत्नानन्तरीयक है वह अनित्य है' इस बाह्य व्याप्ति की सम्भावना में भी यह आपत्ति की जा सकती है कि शब्द यद्यपि प्रयत्नानन्तरीयक है, फिर भी अनित्य नहीं भी हो सकता है' इस प्रकार शब्द में अनित्यत्व के साधक 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' में असाधकत्व ( साध्य को साधन करने की अक्षमता ) की जो आपत्ति उपस्थित होती है, उसी को मिटाने के लिए 'तस्मादनित्यः शब्दः' इस प्रत्याम्नाय वाक्य का प्रयोग किया जाता है। इसका यह अभिप्राय है कि यतः शब्द में नित्यत्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है, अतः शब्द नित्य नहीं हो सकता। अन्यव्यावृत्ति के बोधक इस प्रत्याम्नाय वाक्य के द्वारा प्रकृत अनित्यत्व रूप साध्य के विपरीत अर्थात् नित्यत्व के साधक प्रमाण का अभाव उपस्थित किया जाता है। उसकी उपस्थिति हो जाने पर प्रकृत साध्य के विपरीत साध्य की शङ्का मिट जाती है, जिससे कथित व्याप्ति से युक्त हेतु का प्रकृत पक्ष में उपसंहार के द्वारा व्याप्ति के बोधक प्रमाण की निधि उपस्थिति होती है। विपरीतप्रमाणाभाव को इस उपस्थिति से साध्य के विपरीत अर्थात् साध्याभाव को शङ्का भी मिट जाती है। इससे पूर्व में कथित व्याप्ति से युक्त हेतु का पक्ष में उपसंहार के कारण उम व्याप्ति रूप ज्ञापक प्रमाण से साध्य का निःशङ्क ज्ञान हो जाता है। फिर साध्यज्ञान के लिए और किसी की अपेक्षा नहीं रह जाती। इस प्रकार प्रत्याम्नाय के द्वारा शब्द अनित्य ही है' इस प्रतिपाद्य अर्थ को 'परिसमाप्ति' अर्थात् अन्तिम ज्ञान होता है ।
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६२०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणेऽनुमानेऽवयव
प्रशस्तपादभाष्यम् तस्मात् पश्चावयवेनैव वाक्येन परेषां स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं क्रियत इत्येतत्परार्थानुमानं सिद्धमिति ।
अत: पाँच अवयव वाक्यों से ही कोई समझानेवाला अपने निश्चित अर्थ को दूसरे को समझा सकता है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पाँच अवयव वाक्य ही परार्थानुमान हैं।।
न्यायकन्दली साध्यवाक्यार्थवादिनस्तु-निगमनस्येत्थमर्थवत्त्वं समर्थयन्ति-अन्यदेव घटस्य कृतकत्वमन्यच्छब्दस्य, तत्र यदि नाम घटस्य कृतकत्वमनित्यत्वेन व्याप्तं किमेतावता शब्दगतेनापि तथा भवितव्यम् ? इति व्यामुह्यतो दशितयोरपि लिङ्गस्य पक्षधर्मत्वाविनाभावयोः साध्यप्रतीत्यभावे सति निगमनेन तस्मादिति सर्वनाम्ना सामान्येन प्रवृत्तव्याप्तिग्राहकं प्रमाणमनुस्मार्य शब्दे अनित्यत्वं प्रतिपाद्यते, यस्माद् यत् कृतकं तदनित्यमिति सामान्येन प्रतीतं न विशेषतः, तस्मात् कृतकत्वेनानित्यः शब्दः इति । एतस्मिन् पक्षे च प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टत्वाभावः पक्षवचनेनैवोपदय॑ते, असत्प्रतिपक्षत्वाबाधितविषयत्वयोः पक्षलक्षणत्वात् ।
साध्यवाक्यार्थ वादिगण ( निगमन को साध्य का ज्ञापक माननेवाले ) निगमन की सार्थकता की पुष्टि इस प्रकार करते हैं कि ( दृष्टान्तभूत ) घट में रहनेवाला कृतकत्व और शब्द में रहने वाला कृतकत्व दोनों भिन्न हैं । अतः कथित व्याप्ति और पक्षधर्मता को समझनेवाले पुरुष को भी यह भ्रान्ति हो सकती है कि घट में रहनेवाले कृतकत्व मे अनित्यत्व की व्याप्ति के रहने पर भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि शब्द में रहनेवाले कृतकत्व में भी अनित्यत्व की ब्याप्ति है ही। इस प्रकार के पुरुष को (घट में रहने वाले अनित्यत्व में कृतकत्व को व्याप्ति का ज्ञान रहने पर भी) शब्द में अनित्यत्व रूप साध्य की अनुमिति नहीं हो सकती। इसी के लिए तस्मात्' इत्यादि सर्वनाम घटित निगमनवाक्य के द्वारा कृतकत्व सामान्य में अनित्यत्व सामान्य की व्याप्ति का स्मरण कराया जाता है, जिससे उसे भी शब्द में अनित्यत्व का ज्ञान हो। अभिप्राय यह है कि उक्त उदाहरण वाक्य से सामान्य रूप से ही यह प्रतीति होती है कि जितनी भी वस्तुयें कृति से उत्पन्न होती है, वे सभी अनित्य होती हैं। उदाहरण वाक्य का यह विशेष अभिप्राय ही नहीं है कि 'घट कृति से उत्पन्न होता है अतः वही अनित्य है'। तस्मात् शब्द भी कृतिजन्य है. वह भी अनित्य है। इस मत में अबाधितत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व हेतु के ये दोनों ही सामर्थ्य पक्षवचन (प्रतिज्ञावावय) से ही प्रदर्शित होते हैं। क्योंकि ये दोनों वस्तु पक्ष के स्वरूप के ही अन्तर्गत हैं ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
अपरे तु तस्मादिति त्रैरूप्यमेव परामृशन्ति 'यस्माद् यत् कृतकं तदनित्यं दृष्टम्, यस्मात् कृतकः शब्दः, यस्माच्च प्रतिपक्षबाधयोरसम्भवस्तस्मात् कृतकत्वादनित्यः शब्दः' इति ।
उपसंहरति-तस्मादिति । यस्मात् पञ्चस्वेवावयवेषु समग्रस्य साधनसामर्थ्यस्य प्रतीतौ साध्यप्रतीतिः पर्यवस्यति, नापरं किञ्चिदपेक्षते, तस्मात् पञ्चावयवेनैवान्यूनाधिकेन वाक्येन स्वनिश्चितस्यार्थस्य प्रतिपादनं क्रियत इति कृत्वा एतत्पञ्चावयवं वाक्यं परार्थानुमानमिति सिद्धं व्यवस्थितम् ।
ये तु प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिच्छन्तो नानुमानं प्रमाणमिति वदन्ति, त इदं प्रष्टव्याः, किमेकमेव प्रत्यक्षं स्वलक्षणं प्रमाणं यत्स्वरूपं प्रतीयते ? किं वा सर्वमेव ? न तावदेकमेव प्रमाणम्, अपरस्य तत्तुल्यसामग्रीकस्याप्रामाण्यका.
दूसरे सम्प्रदाय के लोग निगमन वाक्य के तस्मात्' इस ( सर्वनाम पद ) से हेतु को व्याप्तिपक्षधर्मता और अबाधितत्व असत्प्रतिपक्षितत्व इन तीनों रूपों का ही ग्रहण करते है, तदनुसार 'तस्मादनित्यः शब्द.' इस निगमन वाक्य का अर्थ इस प्रकार करते हैं कि 'यस्मात्' अर्थात् जिस लिए कि जितनी भी कृति से उत्पन्न वस्तुयें हैं, वे सभी अनित्य ही देखो जाती हैं, एवं 'यस्मात्' अर्थात् यतः शब्द भी कृति जन्य वस्तु है, एवं 'यस्मात् अर्थात् उक्त स्थल में बाध और सत्प्रतिपक्ष को सम्भावना नहीं है 'तस्मात्' अर्थात् कृति जन्य होने से शब्द भी अनित्य है।
___ 'तस्मात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा भाष्यकार इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। (इस उपसंहार वाक्य का अभिप्राय यह है कि ) 'यस्मात्' अर्थात् जिस कारण कथित पाँच अवयववाक्यों से ही हेतु के सभी सामर्थ्यो की प्रतीति होती है, और उसके बाद ही साध्य की अनुमिति रूप प्रतीति उपपन्न हो जाती है. और किसी की अपेक्षा उसे नहीं रह जाती, अतः 'पञ्चावयवेनैव' अर्थात् न उन पाँच अवयव वाक्यों से अधिक वाक्य की अपेक्षा रहती है, और न उनसे एक की भी कमी से काम ही चलता है, फलतः उन्हीं पञ्चावयव वाक्यों से वक्ता अपने पूर्व निश्चित अर्थ का प्रतिपादन करता है, इस रीति से यह 'सिद्ध' हुआ अर्थात् व्यवस्थित हुआ कि ये पांच अवयव वाक्य ही 'परार्थानुमान' हैं।
जो सम्प्रदाय एक मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने के अभिप्राय से कहते हैं कि 'अनुमान प्रमाण नही है' उनसे पूछना चाहिए कि 'केवल स्ववृत्ति एक वही प्रत्यक्ष व्यक्ति प्रमाण है ? जिससे कि उसके विषय के स्वरूप का बोध होता है, ( अर्थात् वर्तमान विषय को ग्रहण करनेवाला स्वगत ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ) अथवा जितने भी (वर्तमान, भूत और भविष्य ) विषयों के ज्ञान होते हैं, वे सभी प्रमाण हैं ? ऐसा कहना तो सम्भव नहीं है कि एक ( वर्तमान विषय का ग्राहक) ही प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योंकि समान कारणों से उत्पन्न ज्ञानों में से एक को ही प्रमाण मानकर और
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६२२
म्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे निर्णय
न्यायकन्दली
रणाभावात् । अथातीतमनागतं च पुरुषान्तरवति सर्वमेव प्रत्यक्षं स्वलक्षणं प्रमाणम् ? कथमिदं निश्चीयते ? प्रतीयमानप्रमाणव्यक्तिसजातीयत्वादिति चेत् ? अङ्गीकृतं स्वभावानुमानस्य प्रामाण्यम् ।
एवमनुमानप्रमाणत्वमपि विकल्प्य वाच्यम् । कश्च प्रत्यक्षं प्रमाणं प्रतिपाद्यते ? न तावत् स्वात्मैव, प्रतिपादकत्वात् । परश्चेत् ? स कि प्रतिपन्नः प्रतिपाद्यते ? विप्रतिपन्नो वा ? न प्रतिपन्नः, प्रतिपन्नस्य प्रतिपादनवैयर्थ्यात् । विप्रतिपन्नश्चेत् ? पुरुषान्तरगता विप्रतिपत्तिश्च न प्रत्यक्षेण गम्यते । वचनलिङ्गन्नानुमीयते चेत् ? सिद्धं कार्यानुमानस्य प्रामाण्यम् ।
(न) अनुमानं प्रमाणमिति केन प्रमाणेन साध्यते ? प्रत्यक्षं विधिविषयम्, न कस्यचित् प्रतिषेधे प्रभवति । अनुपलब्ध्या गम्यते चेत् ? तमुनुपलब्धिलिङ्गकमनुमानं स्यात् । तथा चोक्तं सौगते.सभी को अप्रमाण मानने का कोई हेतु नहीं है । यदि भूत और भविष्य विषयक प्रत्यक्ष अथवा दूसरे पुरुष में रहनेवाले प्रत्यक्ष ये सभी प्रमाण हैं, तो फिर यह पूछना है कि यह कैसे निश्चय करते हैं कि 'वे सब भी प्रमाण हैं' यदि यह कहें कि (प्र.) अपने द्वारा ज्ञात प्रत्यक्षप्रमाण का सादृश्य उन ज्ञानों में देखा जाता है, अत: उन्हें भी प्रत्यक्ष प्रमाण समझते हैं' ( उ०) तो फिर आपने भी स्वभावलिङ्गक अनुमान को मान ही लेते हैं।
इसी प्रकार अनुमान प्रमाण के प्रसङ्ग में भी इस प्रकार के विकल्पों को उपस्थित कर पूछना चाहिए कि ( जिन अनुमानों को आप प्रत्यक्ष मानते हैं ) उन प्रत्यक्षों के द्वारा किसे समझाना है ? प्रतिपादन करनेवाला अपने को तो समझा नहीं सकता, क्योंकि वह स्वयं ही प्रतिपादक है। (प्रतिपाद्य और प्रतिपादक कभी एक नहीं हो सकता) यदि दूसरे को समझाना है तो इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि वह समझनेवाला प्रमाज्ञान से युक्त है ? अथवा भ्रमात्मकज्ञान से युक्त है ? प्रमाज्ञान से युक्त पुरुष को समझाना ही व्यर्थ है, क्योंकि वह स्वयं प्रतिपाद्य विषय को अच्छी तरह जानता है। अतः उसे समझाने का प्रयास ही व्यर्थ है | यदि उसे भ्रमात्मक ज्ञान से युक्त मानते हैं ( तो फिर इस प्रसङ्ग में यह पूछना है कि उस पुरुष में रहनेवाले भ्रम को आपने कैसे जाना? क्योंकि दूसरे पुरुष में रहनेवाले भ्रम का तो प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है । मदि उस पुरुष के वचन से उसके भ्रम को समझते हैं ? तो फिर कार्य हेतुक अनुमान का प्रामाण्य ही सिद्ध हो जाता है ।
___'अनुमान प्रमाण नहीं है यह आपकिम प्रमाण से सिद्ध करना चाहते हैं ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो केवल भाव विषयक है, उससे किसी का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। यदि अनुपलब्धि के द्वारा अनुमान के प्रामाण्य का प्रतिषेध करते हैं, तो फिर अनुपलब्धि लिङ्गक अनुमान को मानना ही पड़ेगा । जैसा कि 'प्रमाणेतर' इत्यादि वात्तिक के द्वारा बौद्धों ने कहा है
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६२३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विशेषदर्शनजमवधारणज्ञानं संशयविरोधी निर्णयः । एतदेव प्रत्यक्षमनुमानं वा। यद् विशेषदर्शनात् संशयविरोध्युत्पद्यते ।
विशेष विषयक ज्ञान से उत्पन्न एवं संशय का विरोधी अवधारण' रूप ज्ञान ही निर्णय' है। प्रत्यक्ष और अनुमिति दोनों निर्णय रूप ही
न्यायकन्दली
प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः।
प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ।। इति । प्रमाणतदभावसामान्यव्यवस्थापनात्, परबुद्धेरधिगमात्, कस्यचिदर्थस्य प्रतिषेधाच्च प्रत्यक्षात् प्रमाणान्तरस्य स्वभावकार्यानुपलब्धिलिङ्गस्यानुमानस्य सद्भाव इति वात्तिकार्थ इति ।
निर्णयं केचित् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रमाणान्तरमिच्छन्ति, तान् प्रत्याहविशेषदर्शनजमित्यादि। यत्र विशेषानुपलम्भात संशयः संजातः, तत्र विशेषदर्शनाज्जायमानमवधारणज्ञानं निर्णयः। स च संशयविरोधी, तस्मिन्नुपजायमाने संशयस्योच्छेदात् । यथाह मण्डनो विभ्रमविवेके
निश्चिते न खल स्थाणावर्ध्वत्वेन विशेरते । इति । __ संशेरत इत्यर्थः । यद्यपि सर्वमेव निश्चयात्मकं ज्ञानं निर्णयः, तथापि संशयोत्तरकालभावित्वेन प्रसिद्धिप्राबल्यात् संशयविरोधीत्युक्तम्--स्वोक्तं
प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमानादि नहीं इस प्रकार प्रत्यक्ष के प्रामाण्य की सत्ता से, एवं अनुमानादि के प्रामाण्य की असत्ता से, दूसरे पुरुष में रहने वाली बुद्धियों को समझने से एवं घटादि किसी भी विषय के प्रतिपेध से यह समझते हैं कि 'प्रत्यक्ष से भिन्न और भी प्रमाण है।
उक्त वात्तिक क' अभिप्राय है कि प्रमाण और प्रमाणाभाव की व्यवस्था से, दूसरे पुरुष को बुद्धि को समझने से एवं किसी वस्तु के प्रतिषेध से समझते हैं कि प्रत्यक्ष से भिन्न कोई दूसरा प्रमाण अर्थात् स्वभावलिङ्गक, कार्यलिङ्गक, एवं अनुपलब्धिलिङ्गक अनुमान प्रमाण भी अवश्य है ।
किसी सम्प्रदाय के लोग प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न एक 'निर्णय' नाम का अलग प्रमाण मानने की अभिलाषा रखते हैं, उन्हीं लोगों के मत का खण्डन करने के लिए विशेषदर्शनजम्' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । जहाँ असाधारण धर्म को अनुपलब्धि से संशय हो चुका है, वहाँ विशेषधर्म ( अपाधारण धर्म ) को उपलब्धि से उत्पन्न होनेवाला अवधारणात्मक ज्ञान हो 'निर्णय' है। यह सशय का प्रतिबन्धक है, क्योंकि इसके उत्पन्न होते हो संशय छूट जाता है। जैसा कि आचार्य मण्डन ने अपने विभ्रमविवेक नाम के ग्रन्थ में कहा है वि -( पुरोवत्ति पदार्थ का) जब 'यह स्थाणु है' इस आकार से निश्चय हो जाता है, तब फिर उसकी उंचाई ( साधार': धर्म के ) ज्ञान से "यह स्थाणु है ? या पुरुष ?" इस आकार का संशय किसी को भी नहीं होता। ( उक्त आधे श्लोक में
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे निर्णय
प्रशस्तपादभाष्यम् स प्रत्यक्षनिर्णयः । यथा स्थाणुपुरुषयोरूर्ध्नतामात्रसादृश्यालोचनाद् विशेषेष्व प्रत्यक्षेषुभयविशेषानुस्मरणात् , किमयं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयोत्पत्तौ शिरःपाण्यादिदर्शनात् पुरुष एवायमित्यवधारणज्ञानं प्रत्यक्षनिर्णयः। विषाणमात्रदर्शनाद् गौर्गवयो वेति संशयोत्पत्ती सास्नामात्रदर्शनाद् गौरेवायमित्यवधारणज्ञानमनुमाननिर्णय इति । होते हैं । अतः (१) प्रत्यक्ष निर्णय और (२) अनुमाननिर्णय भेद से निर्णय दो प्रकार का है। (१) (धर्मी के असाधारण धर्म रूप) विशेष के प्रत्यक्ष से जो संशय का विरोधी ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्षनिर्णय' कहते हैं। जैसे कि स्थाणु और पुरुष दोनों में साधारण रूप से रहनेवाली उच्चता ( उँचाई ) रूप सादृश्य के आलोचन ( साधारण ) ज्ञान से एवं स्थाणु और पुरुष दोनों के असाधारण धर्मों के ज्ञात न रहने के कारण केवल उन दोनों के असाधारणधर्म रूप विशेषों के स्मरण से यह स्थाणु है ? या पुरुष ?' इस आकार के संशय की उत्पत्ति होती है । इसके बाद ( केवल पुरुष में ही रहनेवाले शिर पैर प्रभृति ) पुरुष के असाधारण धर्मों के देखने से यह पुरुष ही है' इस आकार का जो निश्चय रूप ज्ञान उत्पन्न होता है वही 'प्रत्यक्ष निर्णय' है। (२) केवल सींग के देखने के कारण यह संशय होता है कि यह गो है या गवय ?' ( इसके बाद केवल गाय में ही रहनेवाली) सास्ना के देखने से जो 'यह गाय ही है' इस आकार का ज्ञान उत्पन्न होता है वही 'अनुमाननिर्णय' है।
न्यायकन्दली
संग्रहवाक्यं विवृण्वन्निर्णस्य प्रत्यक्षानुमानयोरन्तर्भावं दर्शयति-एतदेवेत्यादि। प्रत्यक्षविषये यदवधारणात्मकं ज्ञानं स प्रत्वक्षनिर्णयः । यच्चानुमानविषये ऽवधारणज्ञानं सोऽनुमाननिर्णय इति उपरितनेन ग्रन्थसन्दर्भण कथयति ।
प्रयुक्त ) 'विशेरते' इस पद का अर्थ है 'संशेरते' अर्थात् संशय का होना। यद्यपि सभी प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान निर्णय हैं फिर भी संशय के बाद होनेवाले निश्चयात्मक ज्ञान में ही निर्णय' शब्द का अधिकतर प्रयोग होता है, अतः निर्णय के लक्षणवाक्य में 'संशविरोधि' पद का प्रयोग किया गया है। 'एतदेव' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अपने हो संक्षिप्त लक्षण वाक्य की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने 'निर्णय' का प्रत्यक्ष और अनुमान में अन्तर्भाव दिखलाया है। ऊपर कहे हुए सन्दर्भ का संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का अवधारणात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष निर्णय' है, एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का जो अवधारणात्मक ज्ञान वह 'अनुमाननिणय' है।
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সকল )
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् लिङ्गदर्शनेच्छानुस्मरणाद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगविशेषात् पटवाभ्यासादर प्रत्ययजनिताच्च संस्काराद् दृष्टश्रृतानुभूतेष्व
लिङ्ग ( हेतु ) के दर्शन एवं इच्छा, स्मृति प्रभृति ( उद्बोधकों ) से साहाय्यप्राप्त आत्मा ओर मन के विशेष प्रकार के संयोग और संस्कार इन दोनों से उत्पन्न ज्ञान ही स्मृति है। यह प्रत्यक्ष, अनुमिति एवं शाब्दबोध के द्वारा ज्ञात विषयों की होती है, अतः स्मृति अतीत विषयक ही
न्यायकन्दली स्मृतिलक्षणां विद्यामाचष्टे-लिङ्गदर्शनेच्छेत्यादिना । लिङ्गदर्शनं चेच्छा. नुस्मरणं च। आदिशब्देन न्यायसूत्रोक्तानि प्रणिधानादीनि संगह्यन्ते, तान्यपेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगविशेषादिति स्मृतिकारणकथनम् । आत्ममन:संयोगस्य च लिङ्गदर्शनादिसहकारितैव विशेषः, केवलादस्मात् स्मरणानुत्पत्तः। लिङ्गदर्शनवत् संस्कारोऽपि स्मृतेनिमित्तकारणमित्याह-पटवाभ्यासादरप्रत्ययजनितात् संस्काराज्जायते पटुप्रत्ययः स्फुटतरप्रत्ययस्तस्मात् संस्कारो जायते । तेन गच्छत्तृणसंस्पर्शज्ञानात् क्वचित् पटुप्रत्ययोत्पादेऽपि ग्रहणयोग्यः संस्कारो न भवति । यथा साक्षात् पठितेऽनुवाके । तेन गृहीतस्यावृत्त्या-पुनःपुनर्गहणलक्षणोऽभ्यासः संस्कारकारणम्, तस्मिन् सत्यनुवाकस्य ग्रहणदर्शनात् ।
'लिङ्गदर्शनेच्छा' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा स्मृति' रूप विद्या (प्रमा) का निरूपण करते हैं । ( उक्त वाक्य में प्रयुक्त 'लिङ्गदर्शनेच्छानुस्मरण' शब्द से ) लिङ्गदर्शनञ्च, इच्छा च, अनुस्मरणञ्च' इस व्युत्पत्ति के अनुसार, लिङ्गज्ञान, इच्छा और बार बार स्मरण को, एवं उक्त वाक्य में ही प्रयुक्त 'आदि' शब्द से न्यायसूत्र ( अ० ३ आ. २ सू० ४४ ) में कथित स्मृति के प्रणिधानादि कारणों को संगृहीत समझना चाहिए । 'तान्यपेक्षमाणादात्ममनसो. संयोगविशेषात्' इस पूर्वानुवृत्तिवाक्य से स्पृति का कारण प्रदर्शित हुआ है। आत्मा और मन के संयोग को स्मृति के उत्पादन में जो कथित 'प्रणिधानादि' सहायकों की अपेक्षा होती है, वही उस संयोग का विशेष' है ( जो प्रकृत वाक्य में प्रयुक्त 'संयोगविशेष' शब्द के द्वारा व्यक्त किया गया है )। क्योंकि (प्रणिधानादि के न रहने पर) केवल आत्मा और मन के संयोग से स्मृति की उत्पत्ति नहीं होती है । 'पटवाभ्यासादरप्रत्ययजनित!त् संस्कारात्' इस वाक्य के द्वारा लिङ्गदर्शन की तरह संस्कार में भी स्मृति की निमित्तकारणता कही गयी है । ‘पटुप्रत्यय' शब्द का अर्थ है स्फुटतर ( उपेक्षान्य ) प्रत्यय, उससे ही संस्कार की उत्पत्ति होती है। 'पटुप्रत्यय' शब्द का स्फुटतर प्रत्यय रूप अर्थ इसलिए कर दिया गया है कि राह चलते हुए पुरुष को किसी तृण के स्पर्श का यद्यपि पटुपत्यय होता है, फिर भी उससे स्मृति के उत्पादन में क्षम
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम् थेषु शेषानुव्यवसायेच्छानुस्मरणद्वेषहेतुरतीतविषया स्मृतिरिति । होती है। ( स्मृतिजनक उक्त संस्कार ) अत्यन्तस्फुटज्ञान, अभ्यास और आदर से उत्पन्न होता है। वह ( स्मृति रूप ज्ञान ) अनुमिति, इच्छा, स्मृति और द्वेष का ( उत्पादक ) कारण है।
न्यायकन्दली क्वचिच्चात्यन्ताश्चर्यतरे वस्तुनि सकृदुपलब्धे कालान्तरे स्मृतिदर्शनादादरग्रहणमपि संस्कारनिमित्तम् । दृष्टश्रुतानुभूतेष्विति विषयसङ्कीर्तनं कृतम् ।
दृष्टेष्विति प्रत्यक्षीकृतेषु, श्रुतेष्विति शब्दावगतेषु, अनुभूतेष्वनुमि. तेष्वित्यर्थः । शेषानुव्यवसायेच्छास्मरणद्वेषहेतुरिति कार्यनिरूपणम्। शिष्यते परिशिष्यते इति शेषः' । 'अनु' पश्चाद् व्यवसितिः व्यवसायः। शेषश्चासावनुव्यवसायश्चेति शेषानुव्यवसायः, प्रथमोपजातलिङ्गज्ञानापेक्षया तदनन्तर्भाव्यनुमेयज्ञानम्, तस्य हेतुाप्तिस्मरणम् । सुखसाधनत्वस्मृतिरिच्छाहेतुः। प्रथमसंस्कार की उत्पत्ति नहीं होती है। जैसे कि पढ़े हुए भी अनुवाक के अध्ययन से स्मृतिक्षमसंस्कार की उत्पत्ति होती है । इसकी पटुप्रत्यय को आवृत्ति' अर्थात् बार बार ग्रहणरूप 'अभ्यास' भी संस्कार का कारण है, क्योंकि अभ्यास के रहने पर ही अनुवाक का स्मरण होता है। किसी अत्यन्त अदभुत वस्तु को एक बार देखने पर बहुत समय बाद भी उसकी स्मृति होती है, अत: 'आदरपूर्वकग्रहण' भी संस्कार का कारण है । किन प्रकार की वस्तुओं की स्मृति होती है ? इस प्रश्न का उत्तर 'दृष्टानुभतेषु' इस वाक्य के द्वार दिया गया है । 'दृष्टेषु' अर्थात् प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात वस्तुओं की, 'श्रुतेषु' अर्थात् शब्द प्रमाण के द्वारा ज्ञात विषयों को 'अनुभूतेषु' अर्थात् अनुमान प्रमाण के द्वारा ज्ञात विषयों की स्मृति उत्पन्न होती है, 'शेषानुव्यवसायेच्छास्मरणद्वेषहेतुः' इस वाक्य के द्वारा स्मृति से होने वाले कार्य दिखलाये गये हैं। प्रकृत 'शेष' शब्द 'शिष्यते परिशिष्यते इति शेषः' इस व्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न है। एवं प्रकृत 'अनुव्यवसाय' शब्द 'अनु पश्चात् व्यवसितिरनुव्यवसायः' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न है । एवं शेषानुव्यवसाय' शब्द 'शेषश्चानुव्यवसायश्च' इस (कर्मधारय ) समास से बना है। फलतः प्रकृत में 'शेष' और 'अनुव्यवसाय' ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं । ( वह अर्थ है) अनुमेय का ज्ञान ( अनुमिति ), क्योंकि ( अनुमिति के लिए प्रथम लिङ्गदर्शन से जो ज्ञानों की परम्परा है उसमें ) उक्त प्रथम लिङ्ग की अपेक्षा अनुमेयज्ञान अर्थात् साध्य का ज्ञान ही 'शेष' है अर्थात् अन्तिम है, एवं वह 'अनुव्यवसाय' भी है, क्योंकि लिङ्गज्ञान रूप व्यवसाय के बाद उत्पन्न होता है। इस प्रकार शेषानुव्यवसाय भी अर्थात् अनुमिति भी स्मृति का कार्य हैं, क्योंकि उक्त शेषानुव्यबसाय की उत्पत्ति व्याप्ति की स्मृति से होती है। किसी भी वस्तु में 'इससे सुख होगा' इस प्रकार की स्मृति के रहने पर उस विषय की इच्छा उत्पन्न होती है, अतः स्मृति इच्छा का भी कारण
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६२७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् आम्नायविधातृणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु वेदों की रचना करनेवाले महर्षियों को उनके विशेष प्रकार के पुण्य से आगमग्रन्थों में कहे हुए या उनमें न कहे हुए भूत, भविष्य
न्यायकन्दली पदस्मृतिद्वितीयपदानुस्मरणहेतुः। दुःखसाधकस्मरणं द्वषहेतुः। तदित्येव स्मृतेराकारः, तत्र चार्थस्यातीतत्वं पूर्वानुभूतत्वं प्रतीयत इत्यतीतविषया स्मृतिः । अत एव न प्रमाणम्, तस्याः पूर्वानुभवविषयत्वोपदर्शनेनार्थं निश्चिन्वत्या अर्थ परिच्छेदे पूर्वानुभवपारतन्त्र्यात् । अनुमानज्ञानं तूत्पत्तौ परापेक्षम, स्वविषये स्वतन्त्रमेव, स्मृतिरिव । तस्मात् पूर्वानुभवानुसन्धानेनार्थपतीत्यभावात् । यथाहुस्तन्त्रटीकायां सर्वोत्तरबुद्धयो गुरव:----
पूर्वविज्ञानविषयं विज्ञानं स्मृतिरिष्यते।
पूर्वज्ञानाद् विना तस्याः प्रामाण्यं नावगम्यते ।। इति । यथा चेदमाहुः कारिकायाम
तत्र यत पूर्वविज्ञानं तस्य प्रामाण्यमिष्यते ।
तदुपस्थानमात्रेण स्मृतेश्च चरितार्थता ।। इति । है । एक वाक्य में प्रयुक्त एक पद की स्मति से उसी वाक्य में प्रयुक्त दूसरे पद की 'पश्चात्स्मृति' की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार स्मृति ‘अनुस्मरण' का भी कारण है । दुःख देनेवाली किसी वस्तु का स्मरण उस वस्तु में 'द्वेष' का भी कारण है। 'वह था' स्मृति का यही आकार होता है। इस आकार से स्मृति के विषय का अतीत होना और पहिले से अनुभूत होना लक्षित होता है, अतः भाष्यकार ने स्मृति को 'अतीतविषया' कहा है। यही कारण है कि स्मृति को प्रमाण नहीं माना जाता, क्योंकि वह पूर्व में अनुभूत विषय को हो पुनः निश्चित करती है, अतः स्मृति अपने विषय को निश्चित करने में अपने कारण पूर्वानुभव के अधो। है। यद्यपि अमिति भी अपनी उत्पत्ति के लिए परामर्शादि दूसरे ज्ञानों के अधीन है। किन्तु साध्य रूप अपने असाधारण विषय के ज्ञापन में उसे किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं है (अतः अनुमान उत्पत्ति में परापेक्ष होने पर भी ज्ञप्ति में परापेक्ष नहीं है, अतः वह प्रमाण है ) क्योंकि अनुमिति से साध्य की प्रतीति में स्मृति की तरह किसी (स्वविषयविषयक) पूर्वानुभव की अपेक्षा नहीं है । जैसा कि तन्त्रटीका में लोकोत्तरबुद्धिमान् गुरु ने कहा है कि
_ जिस विज्ञान में पर्वानुभव का विषय ही विषय हो उसी विज्ञान को स्मृति' कहते हैं, उस पहिले ज्ञान के प्रामाण्य के बिना स्मृति प्रमाण नहीं होती। उन्होंने ही (इलोकवातिक में इस प्रसङ्ग में ) कहा है कि 'कारणीभूत पूर्वानुभव में जो प्रामाण्य है, उसी का व्यवहार स्मृति से होता है, स्मृति का इतना ही काम है कि अपने कारणीभूत पूर्व विज्ञान के विषय को उपस्थित कर दे ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे आर्षज्ञान
प्रशस्तपादभाष्यम् धर्मादिषु ग्रन्थोपनिबद्धेष्वनुपनिबद्धेषु चात्ममनसोः संयोगाद् धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिभं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत् तु प्रस्तारेण देवर्षीणाम् , कदाचिदेव लौकिकानाम् , यथा कन्यका ब्रवीति 'श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयति' इति । और वर्तमान ( तीनों कालों में से किसी में भी रहनेवाले ) अतीन्द्रिय धर्मादिविषयक एवं उनके स्वरूप के परिचायक जो 'प्रातिभ' ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'आर्ष' कहते हैं । यह प्रायः देवताओं और महर्षियों को ही होता है। कदाचित् ही साधारण जन को यह ज्ञान होता है। जैसे कि बालिका कहती है कि, मेरा मन कहता है कि 'कल मेरे भाई आयेंगे।
न्यायकन्दली ये त्वनर्थजत्वात् स्मृतेरप्रामाण्यमाहुः, तेषामतीतानागतविषयस्यानुमानस्याप्रामाण्यं स्यादिति दूषणम्।।
आर्ष व्याचष्टे--आम्नायविधातणामिति । आम्नायो वेदस्तस्य विधातारः कर्तारो ये ऋषयस्तेषामतीतेष्वनागतेषु वर्तमानेष्वतीन्द्रियेषु धर्माधमदिक्कालप्रभृतिषु ग्रन्थोपनिबद्धष्वागमप्रतिपादितेष्वनुपनिबद्धष्वागमाप्रतिपादितेषु चात्ममनसोः संयोगाद् यत् प्रातिभं ज्ञानं यथार्थनिवेदनं यथास्वरूपसंवेदनं संशयविपर्ययरहितं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते विद्वांसः। इन्द्रियलिङ्गाद्यभावे यदर्थप्रतिभानं सा प्रतिभा, प्रतिभैव प्रातिभमित्युच्यते तत्र भवद्भिः।
जो सम्प्रदाय स्मृति को इस हेतु से अप्रमाण मानते हैं कि वह अर्थ जनित नहीं है ( अर्थात् उसके अव्यवहित पूर्वक्षण में विषय की सत्ता नहीं रहती है, अतः वह प्रमाण नहीं है ) उनके मत में भूत और भविष्य विषयक अनुमान में अप्रामाण्य रूप दोष होगा।
_ 'आम्नायविधातृ णाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'आष' विद्या की व्याख्या करते हैं ! वेदों को 'आम्नाय' कहते हैं। उसके जो 'विघातागण' अर्थात् रचना करनेवाले ऋषि लोग, उन्हें अतीत, अनागत और वर्तमान काल के 'अतीन्द्रिय' वस्तुओं का अर्थात् धर्म, अधर्म एवं दिशा और काल प्रभृति पदार्थो का, एवं 'ग्रन्थोपनिबद्ध' अर्थात् आगमों के द्वारा कथित, एवं 'ग्रन्थानुपनि वद्ध' अर्थात् आगम के द्वारा अप्रतिपादित अर्थों का जो आत्मा और मन के संयोग से 'प्रातिभ' 'यथार्थनिवेदन' रूप अर्थात् संशय और विपर्यय से भिन्न विषयानुरूप ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे विद्वान् लोग 'आर्ष' कहते हैं। इन्द्रिय एवं हेतु प्रभृति यथार्थ ज्ञान के साधनों के न रहते हुए भी जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'प्रतिभा' कहते हैं। इस 'प्रतिभा' को ही आदरणीय विद्वद्गण 'प्रातिभ'
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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प्रयत्नपूर्वक मञ्जन -
सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरम्, कस्मात् ? पादलेपखड्गगुलिकादिसिद्धानां दृश्यद्रष्टृणां कृष्टेष्वर्थेषु यद् दर्शनं तत् प्रत्यक्षमेव । अथ दिव्यान्तरिक्ष भौमानां प्राणिनां
सूक्ष्मव्यवहितविप्र
६२६
(सिद्धजनों के अस्मदादि से विलक्षण ज्ञान रूप ) 'सिद्धदर्शन' नाम का कोई ( प्रत्यक्ष और अनुमिति से) भिन्न ज्ञान नहीं है, क्योंकि यत्नपूर्वक ( विशेष प्रकार के ) स्नान, पैर में विशेष प्रकार के लेप, खड्ग गुलिका ( आदि पद से मण्डूकवशाञ्जन ) से ( विशेषदर्शन का सामर्थ्य रूप ) सिद्धि से युक्त पुरुषों को सूक्ष्म, व्यवहित एवं अत्यन्त दूर की वस्तुओं का जो ( अस्मदादिविलक्षण ) ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष ही है । दिव्यलोक, न्यायकन्दली
तस्योत्पत्तिरनुपपन्ना कारणाभावादित्यतु ( प ) योगे सति इदमुक्तम् - - धर्मविशेषादिति । विशिष्यते इति विशेषः, धर्म एव विशेषो धर्मविशेषः, विद्यातपः समाधिजः प्रकृष्टो धर्मस्तस्मात् प्रतिभोदयः । तत्तु प्रस्तारेण बाहुल्येन देवर्षीणां भवति, कदाचिदेव लौकिकानामपि । यथा कन्यका ब्रवीति -- श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति । न चेदं संशयः, उभयकोटिसंस्पर्शाभावात् । न च विपर्ययः, संवादादतः प्रमाणमेव ।
सिद्धदर्शनमपि विद्यान्तरमिति केचिदिच्छन्ति तन्निवृत्त्यर्थमाह - सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरम् । एतदेवोपपादयति — कस्मादित्यादिना । प्रयत्नपूर्वकहते हैं । इस प्रसङ्ग कोई आक्षेप कर सकता है कि ( यदि इन्द्रिय या लिङ्ग उसका कारण नहीं है तो फिर ) कारण के न रहने से उसकी आपत्ति ही सम्भव नहीं है ? इसी आक्षेप का समाधान 'धर्मविशेषात्' इस वाक्य के द्वारा दिया गया है । 'विशिष्यते इति विशेषः, धर्म एव विशेषः धर्मविशेष:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार विद्या, तपस्या और समाधि से उत्पन्न प्रकृष्टधर्म ही उक्त 'धर्मविशेष' शब्द का अर्थ है । इस प्रकृष्टधर्म से ही प्रातिभ ज्ञान की उत्पत्ति होती है । तत्तु प्रस्तारेण' अर्थात् यह प्रातिभ ज्ञान 'प्रस्तार' से अर्थात् अधिकतर देवर्षियों को ही होता है । लौकिकव्यक्तियों (साधारण मनुष्यों) को कदाचित् ही होता है । जैसे कि कभी कोई बालिका कहती है कि 'मेरा मन कहता है, कल मेरे भैया आयेंगे' यह ज्ञान संशय रूप नहीं है, क्योंकि इसमें उभयकोटि का सम्बन्ध नहीं है । यह विपर्यय भी नहीं है, क्योंकि इस ज्ञान के अनुसार काम देखा जाता है ।
किसी सम्प्रदाय के लोग 'सिद्धदर्शन' नाम का एक अलग उन लोगों के मत का खण्डन ही 'सिद्धदर्शनं न ज्ञानान्तरम्' किया गया है । 'कस्मात्' इत्यादि
प्रमाज्ञान मानते हैं, इत्यादि सन्दर्भ से सन्दर्भ के द्वारा इसी का विवरण देते हैं । 'प्रयत्न
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे सिद्धदर्शन
प्रशस्तपादभाष्यम् ग्रहनक्षत्रसञ्चारादिनिमित्तं धर्माधर्मविपाकदर्शनमिष्टम् , तदप्यनुमानमेव । अथ लिङ्गानपेक्षं धर्मादिषु दर्शनमिष्टं तदपि प्रत्यक्षार्षयोरन्तरस्मिन्नन्तर्भूतमित्येवं बुद्धिरिति ।
अनुग्रहलक्षणं सुखम् । स्रगाद्यभिप्रेतविषयसान्निध्ये सतीष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् धमाद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगाद अन्तरिक्षलोक तथा भूलोक में रहनेवाले प्राणियों को ग्रहों और नक्षत्रों की विशेष प्रकार की गति देखकर जो धर्म, अधर्म और उनके परिणामों का ( अस्मदादि से विलक्षण ) ज्ञान होता है, उसे भी यदि सिद्धदर्शन कहना इष्ट हो तो वह भी वस्तुतः अनुमान ही है । यदि हेतु की अपेक्षा के बिना ही धर्म ( अधर्म एवं इनके परिणामों ) का ज्ञान माने ( तो वे यह अनुमान नहीं होंगे ) फिर भी प्रत्यक्ष या आर्षज्ञान में अन्तर्भूत हो जाएंगे। इस प्रकार विद्यारूप बुद्धि ( मूलत: चार प्रकार की ही ) है।
जिसका अनुभव अनुकूल जान पड़े वही 'सुख' है ( विशदार्थ यह है कि ) माला प्रभृति अभिप्रेत विषयों का सान्निध्य होने पर ( मालादि उन)
न्यायकन्दली कमजनपादलेपादिसिद्धानां दृश्यानां दर्शनयोग्यानां स्वरूपवतां पदार्थानां द्रष्टारो ये ते सिद्धाः' उच्यन्ते। तेषां दृश्यद्रष्टणामञ्जनादिसिद्धानां सूक्ष्मेषु व्यवहितेषु विप्रकृष्टेषु यद् दर्शनमिन्द्रियाधीनानुभवस्तत् प्रत्यक्षमेव । अथ दिव्यान्तरिक्षभौमानां प्राणिनां ग्रहनक्षत्रसञ्चारनिमित्तं धर्माधर्मविपाकदर्शनं सिद्धज्ञानमिष्टं तदप्यनुमानमेव, ग्रहसञ्चारादीनां लिङ्गत्वात् । अथ लिङ्गानपेक्षं धर्मादिषु दर्शनमिष्टं तत् प्रत्यक्षार्षयोरन्यतरस्मिन्नन्तर्भूतम् । यदि धर्मादिदर्श. पूर्वकमञ्जनपादलेपादिसिद्धानाम्' इत्यादि सन्दर्भ में प्रयुक्त 'दृश्यद्रष्टणाम्' इस पद की यह व्युत्पति है कि 'दृश्यानाम् ये द्रष्टारः, तेषां दृश्यद्रष्ट्रणाम् । इस व्यत्पत्ति के अनुसार देखने योग्य (घटादि स्थूल) वस्तुओं के देखनेवाले पुरुष ही उक्त 'दृश्यद्रष्ट्र' शब्द से अभिप्रेत हैं । वे ही जब प्रयत्नपूर्वक ( मण्डूकवशाजन, पादलेपादि के द्वारा) विशेष सामर्थ्य रूप 'सिद्धि' को प्राप्त करते हैं, तो वे 'सिद्ध' कहलाते हैं। उन्हें भी जो अत्यन्त सूक्ष्म, या दीवाल प्रभृति से घिरे हुए या अतिदूर के वस्तुओं का इन्द्रियों से अनुभव होता है वह तो 'प्रत्यक्ष' ही है, यदि 'सिद्धदर्शन' शब्द से धर्म, अधर्म और उनके विपाकों के वे ज्ञान ही अभीष्ट हों, जो दिव्यलोक में, अन्तरिक्षलोक में या भूमि में रहनेवाले सिद्धों को ग्रहसञ्चारादि को समझकर होता है, तो फिर ये सिद्धदर्शन रूप सभी ज्ञान अनुमान ही हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति ग्रहसञ्चारादि लिङ्गों से
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
नुग्रहाभिष्वङ्गनयनादिप्रसादजनकमुपद्यते तत् सुखम् । अतीतेषु विषयेषु स्मृतिजम् । अनागतेषु ङ्कल्पजम् । यत्तु विदुषामसत्सु इष्ट विषयों का ज्ञान, उन विषयों के साथ ( त्वक् घ्राणादि ) इन्द्रियों के संनिकर्ष, एवं धर्म से साहाय्य प्राप्त आत्मा और मन के संयोग इन सबों से धर्म की उत्पत्ति होती है। यह ( सुख स्वविषयक ज्ञान रूप ) अनुग्रह, अनुराग एवं नयन ( मुख ) प्रभृति की विमलता इन सबों का कारण है। बीते हुए विषयों का सुख उन विषयों की स्मृति से उत्पन्न होता है, एवं होनेवाले
न्यायकन्दली नमिन्द्रियजं तदा प्रत्यक्षम् । अथेन्द्रियानपेक्षं तदार्षमित्यर्थः । उपसंहरति-एवं बुद्धिरिति । एवमनन्तरोक्तेन क्रमेण । बुद्धिरिति बुद्धिाख्यातेत्यर्थः । इतिशब्दः परिसमाप्ति सूचयति।
बुद्धिकार्यत्वात् सुखं बुद्धधनन्तरं व्याचष्टे--अनुग्रहलक्षणं सुखमिति । अनुगृह्यतेऽनेनेत्यनुग्रहः, अनुग्रहलक्षणमनुग्रहस्वभावमित्यर्थः । सुखं ह्यनुकूल. स्वभावतया स्वविषयमनुभवं कुर्वन् पुरुषान्तरमनुगृह्णाति । एतदेव व्याचष्टेस्रगादीति। स्रक्चन्दनवनितादयो येऽभिप्रेता विषयास्तेषां सान्निध्ये सति होती है। ( अत: धर्मादि के उक्त ज्ञान अनुमान में अन्तर्भूत हो जाते हैं )। अर्थलिङ्गानपेक्षं धर्मादिषु दर्शनमिष्टं तत्प्रत्यक्षार्षयोरन्यतरस्मिन्नन्तर्भूतम्' अर्थात् यदि धर्माधर्मादि के उक्त ज्ञान इन्द्रियों से होते हैं, तो वे प्रत्यक्ष ही हैं। यदि उन ज्ञानों को इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है, तो फिर वे 'आषंज्ञान' ही हैं। एवं बुद्धिः' इस वाक्य के द्वारा बुद्धि निरूपण का उपसंहार करते हैं। ‘एवम्' अर्थात् कथिन क्रम से 'बुद्धिः' अर्थात् बुद्धि की व्याख्या की गयी है । उक्त वाक्य का इति' शब्द प्रकरण समाप्ति का सूचक है।
सुख यतः बुद्धि से उत्पन्न होता है, अतः बुद्धि निरूपण के वाद 'अनुग्रहलक्षणं सुखम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सुख का निरूपण करते हैं। (प्रकृत) सन्दर्भ का 'अनुग्रह' पद 'अनुगृह्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न हैं। तदनुसार 'अनुग्रहलक्षण' शब्द का अर्थ है 'अनुग्रहस्वभाव' । सुख स्वभावतः ( जीव को प्रिय होने के कारण उसके ) अनुकूल है। अतः सुख अपने अनुभव के द्वारा पुरुष को अनुगृहीत करता है। 'स्रगादि' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा इसी की व्याख्या करते हैं । माला, चन्दन, स्त्री प्रभृति जितने भी प्रिय विषय हैं, उनका सान्निध्य रहने पर अर्थात् उनका सम्बन्ध रहने पर, उन अभिप्रेत विषयों की उपलब्धि एवं इन्द्रियों का उन अर्थों के साथ सम्बन्ध प्रभृति कारणों के द्वारा धर्म के साहाय्य से जिसकी उत्पत्ति होती है वही 'सुख' हैं । विषय अभिप्रेत भी हो उसका सान्निध्य भी हो किन्तु भोक्ता का चित्त यदि दूसरे विषय
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
प्रशस्तपादभाष्यम् विषयानुस्मरणेच्छासङ्कल्पेष्वानिर्भवति तद् विद्याशमसन्तोषधर्मविशेषनिमित्तमिति ॥ विषयों से यह उन विषयों के संकल्प से उत्पन्न होता है। आत्मतत्त्वज्ञानियों को जो सुख बिना विषयों के, विषयों के स्मरण के न रहने पर भी बिना इच्छा और बिना संकल्प के ही उत्पन्न होता है, उस पुरुष का आत्मतत्त्वज्ञान, शम, सन्तोष एवं विशेष प्रकार के धर्म उस सुख के कारण हैं।
न्यायकन्दली सन्निकर्षे सतीष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् धर्माद्यपेक्षादि यदुत्पद्यते तत् सुखम् । सन्निहितेऽप्यभिमतेऽर्थे विषयान्तरव्यासक्तस्य सुखानुत्पादादिष्टोपलब्धेः कारणत्वं गम्यते । वियुक्तस्य सुखाभावाद् विषयसन्निकर्षस्यापि कारणत्वावगमः। धर्मादीत्यादिपदेन स्वस्थतादिपरिग्रहः। अनुग्रहाभिष्वङ्गनयनादिप्रसादजनकमिति कार्योपवर्णनम् । अनुग्रहः सुखविषयं संवेदनम् । अभिष्वङ्गोऽनुरागः, नयनादि. प्रसादो वैमल्यम् । आदिशब्दान्मुखप्रसादस्य ग्रहणम् । एतेषां सुखं जनकम् । सुखेनोत्पन्नेन स्वानुभवो जन्यते, स एवात्मनोऽनुग्रहः, सुखे चोपजाते मुखादीनां प्रसन्नता स्यात् । सुखसाधनेष्वनुरागः सुखाद् भवति । अतीतेषु स्मृतिजम् अतीतेषु सुखसाधनेष्वनुभूतेषु सुखं पूर्वानुस्मरणाद् भवति । अनागतेष्विदं मे भविष्य
में लगा रहे तो उसे विषय से उत्पन्न होनेवाला सुख नहीं मिलता, अतः सुख के प्रति इष्ट विषय की उपलब्धि को भी कारण माना गया है । और सभी कारणों के रहने पर भी यदि स्रगादि विषयों के साथ पुरुष का सम्बन्ध नहीं है, तो फिर विषय से वियुक्त उस पुरुष को सुख नहीं मिलता, अतः सुख के प्रति भोक्ता और विषय के संनिकर्ष को भी कारण मानना पड़ेगा। कथित 'धर्मादि' पद में प्रयुक्त आदि' पद से स्वास्थ्य प्रभृति सहायकों को समझना चाहिए। 'अनुग्रहाभिष्वङ्गनयनादिप्रसादजनकम्' इस वाक्य के द्वारा सुख से होनेवाले कार्यों का वर्णन किया गया है। सुख का प्रत्यक्ष ही प्रकृत 'अनुग्रह' शब्द का अर्थ है। भभिष्वङ्ग' शब्द से अनुराग अभिप्रेत है। 'नयनादिप्रसाद' शब्द से आँखो की स्वच्छता को समझना चाहिए । 'नयनाविप्रसाद' शब्द में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से मुंह की प्रसन्नता प्रभृति को समझना चाहिए। इन सबों का कारण सुख है। सुख उत्पन्न होकर अपने आश्रयीभूत आत्मा में जो अपने अनुभव का उत्पादन करता है, वही आत्मा के साथ सुख का अनुग्रह है। सुख के उत्पन्न होने पर मुख पर प्रसन्नता छा जाती है। सुख के कारणों में जो अनुराग उत्पन्न होता है, उसका कारण भी सुख हो है । 'अतीतेषु स्मृतिजम्' अर्थात् पूर्व में
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भाषानुवादसहितम
६३३
प्रशस्तपादभाष्यम् उपघातलक्षणं दुःखम् । विषाद्यनभिप्रेतविषयसानिध्ये सत्यनिष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसन्निकर्षादधर्माद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगाद् यदमर्षोपघातदैन्यनिमित्तमुत्पद्यते तद् दुःखम् । अतीतेषु सर्पव्याघ्रचौरादिषु स्मृतिजम् । अनागतेषु सङ्कल्पजमिति ।
उपघातस्वभाव अर्थात् प्रतिकूलवेदनीय ही दुःख है। वह विष प्रभृति अनभिप्रेत विषयों के सामीप्य, उनके साथ इन्द्रियों का संयोग, एवं अधर्म सहकृत आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होता है। वह असहिष्णुता, दुःख का अनुभव एवं दीनता का कारण है । अतीत सर्प, व्याघ्र एवं चोर इत्यादि से जो दुःख उत्पन्न होता है, उसका कारण उनकी स्मृतियाँ हैं। एवं भविष्य में आनेवाले विषयों से जो दुःख उत्पन्न होता है, उसका कारण उन ( अनभिप्रेत ) विषयों का सङ्कल्प है।
न्यायकन्दली तीति सङ्कल्पाज्जायते । यत्तु विदुषामात्मज्ञानवतामसत्सु विषयानुस्मरणसङ्कल्पेध्वसति विषयेऽसति चानुस्मरणे असति च सङ्कल्पे चाँविर्भवति तद् विद्याशमसन्तोषधर्म विशेषनिमित्तमिति । विद्या आत्मज्ञानम्, शमो जितेन्द्रियत्वम्, सन्तोषो देहस्थितिहेतुमात्रातिरिक्तानभिकाङ्कित्वम्, धर्मविशेष: प्रकृष्टो धर्मो निवर्तकलक्षणः, एतच्चतुष्टयनिमित्तम् ।
ये तु दुःखाभावमेव सुखमाहुस्तेषामानन्दात्मनानुभवविरोधः, हितमा. प्स्यामि, अहितं हास्यामीति प्रवृत्ति विध्यानुपपत्तिश्च । '
सुखप्रत्यनीकतया तदनन्तरं दुःखं व्याचष्टे-उपधातलक्षणं दुःखम् । अनुभूत के अतीतसाधनों में सुख की स्मृति से अनुराग उत्पन्न होता है । 'यह मुझे मिलेगा' इस आकार के संकल्प से सुख के भविष्यसाधनों में अनुराग उत्पन्न होता है। विदुषाम्' अर्थात् आत्मज्ञानी विद्वानों में 'असद्विषयानुस्मरण संकल्पेषु' अर्थात् विषयों के न रहने पर, अनुस्मरण के न रहने पर, एव संकल्प के न रहने पर भी जो दिव्य सुख का आविर्भाव होता है वह 'विद्याशमसन्तोषधर्म विशेषनिमित्तम्' अर्थात् विद्या, शम, सन्तोष, और प्रकृष्ट धर्म ये सब उसके कारण हैं । 'विद्या' है तत्त्वज्ञान, शम' है इन्द्रियों का जय करना, जितने धन से शरीरयात्रा चले उससे अधिक धन की आकाङ्क्षा न करना ही 'सन्तोष है। 'धर्मविशेष' शब्द से निवृत्ति रूप प्रकृष्टधर्म अभीष्ट है। इन चारों कारणों से आत्मज्ञानियों में उक्त सुख की उत्पत्ति होती है।
जो सम्प्रदाय दुःखाभाव को ही सुख मानते हैं उनके मत में इन दोषों की मापत्ति होगी । एक तो आनन्द का सभी जनों को जो अनुभव होता है, वह विरुद्ध होगा। एवं 'मैं हित को प्राप्त करूँ एवं 'अहित को छोड़” ये दो प्रकार की जो प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे अनुपपन्न हो जाएंगी।
दुःख सुख का विरोधी है, अतः सुख के निरूपण के बाद 'उपघातलक्षणं दुःखम्'
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणनिरूपणे इच्छाप्रशस्तपादभाष्यम् स्वार्थ परार्थं वाऽप्राप्तप्रार्थनेच्छा । सा चात्ममनसोः संयोगात् सुखाद्यपेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद् वोत्पद्यते । प्रयत्नस्मृतिधर्माधर्महेतुः ।
अपने लिए या दूसरों के लिए अप्राप्तवस्तु को प्रार्थना ही 'इच्छा' है। यह ( इच्छा ) सुख अथवा स्मृति से साहाय्यप्राप्त आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होती है। वह प्रयत्न, स्मृति, धर्म और अधर्म का कारण है
न्यायकन्दली उपहन्यतेऽनेनेत्युपघातः, उपघातलक्षणम् उपधातस्वभावम् । दुःखमुपजातं प्रतिकूलस्वभावतया स्वात्मविषयमनुभवं कुर्वदात्मानमुपहन्ति । एतद् विवृणोति-- अनिष्टोपलब्धीत्यादिना। अमर्षोऽसहिष्णुता द्वेष इति यावत् । उपघातो दुःखानुभवः, दैन्यं विच्छायता, तेषां निमित्तम् । दुःखे सति तदनुभवलक्षण आत्मोपघातः स्यात् । अतीतेषु सर्पादिषु स्मृतिजम्, अनागतेषु सङ्कल्पजमिति पूर्ववद् व्याख्यानम्।
स्वार्थं परार्थं वाऽप्राप्तप्रार्थनेच्छा। अप्राप्तस्य वस्तुनः स्वार्थ प्रति या प्रार्थना इदं मे भूयादिति, परार्थं वा प्रार्थना अस्येदं भवत्विति सेच्छा। सा चात्ममनसोः संयोगात् सुखाद्यपेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद् वोत्पद्यते। अनागते
इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा दुःख की व्याख्या करते हैं। प्रकृत में 'उपघात' शब्द 'उपहन्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति के द्वारा सिद्ध है। 'उपघातलक्षण' अर्थात् दुःख उपघातस्वभाव का है । दुःख की उत्पत्ति ही अपने आश्रयीभूत आत्मा की इच्छा के प्रतिकूल होती है, अतः वह अपनी उत्तत्ति के द्वारा आत्मा का 'उपहनन' करती है । 'अनिष्टोपलब्धि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उसी का विवरण देते हैं । 'अमर्ष' शब्द का अर्थ है असहिष्णुता, फलतः द्वेष । 'उपघात' शब्द का अर्थ है दुःख का अनुभव । दैन्य शब्द का अर्थ है दीनता । दुःख इन सबों का कारण है । दुःख के रहने पर आत्मा का दुःखानुभव रूप उपघात होता है । अतीत साँप प्रभृति वस्तुओं से उनकी स्मृति के द्वारा दुःख उत्पन्न होता है। अनागत अनिष्ट वस्तुओं के संकल्प से दुःख उत्पन्न होता है। इस प्रकार सुख प्रकरण में कथित रीति से यहाँ भी व्याख्या करनी चाहिए।
स्वार्थ परार्थं वाऽप्राप्तप्रार्थनेच्छा' अर्थात् अपने लिए या दूगरों के लिए किसी अप्राप्त वस्तु की जो 'प्रार्थना' अर्थात् यह मुझे मिले' या 'यह इस व्यक्ति को मिले' इस प्रकार की जो प्रार्थना वही 'इच्छा' है । 'सा चात्म मनसोः संयोगात् सुखाद्यपेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद्वोत्पद्यते" सुख के साधनीभूत भविष्य वस्तु की इच्छा होती है, अतः उस विषय से होनेवाला सुख
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प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितत्
प्रशस्तपादभाष्यम् कामोऽभिलाषः, रागः सङ्कल्पः, कारुण्यम्, वैराग्यमुपधा भावः इत्येवमादय इच्छामेदाः। मैथुनेच्छा कामः । अभ्यवहारेच्छामिलापः। पुनः पुनर्विषयानुरञ्जनेच्छा रागः। अनासन्नक्रियेच्छा सङ्कल्पः। स्वार्थमनपेक्षा परदुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम् । दोषदर्शनाद्
काम, अभिलाषा, राग, संकल्प, वैराग्य, उपधा एवं भाव प्रभृति इच्छा के ही भेद हैं । ( जैसे कि ) मैथुन की इच्छा ही 'काम' है। भोजन करने की इच्छा ही 'अभिलाषा है । बार बार विषयों को भोगने की इच्छा ही 'राग' है । शीघ्र किसी काम को करने की इच्छा ही 'संकल्प' है । अपने कुछ स्वार्थ के बिना दूसरों के दुःख को छुड़ाने की इच्छा ही 'कारुण्य' है। दोष के ज्ञान से विषय को छोड़ने की इच्छा ही 'वैराग्य' है। दूसरे
न्यायकन्दली सुखसाधने वस्तुनीच्छा उपजायते, तदुत्पत्तौ च तद्विषयसाध्यं सुखमना गतमपि बुद्धिसिद्धत्वानिमितकारणम् । यदाह न्यायवात्तिककार:--"फलस्य प्रयोजकत्वात्" इति । अतिक्रान्ते सुखहेताविच्छोत्पत्तेः स्मृति: कारणम् । प्रयत्नस्मृतिधर्माधर्महेतुः। उपादानेच्छातस्तदनुगुणः प्रयत्नो भवति, स्मरणेच्छातः स्मरणम्, विहितेषु ज्योतिष्टोमादिषु फलेच्छया प्रवृत्तस्य धर्मो जायते। प्रतिषिद्धेषु रागात् प्रवृत्तस्याधमः। कामादयोऽपि सन्ति ते कस्मान्नोक्ताः ? अत आह-- काम इत्यादि।
___ कामादय इच्छाप्रभेदाः, न तत्त्वान्तरमिति यदुक्तं तदेव दर्शयतिभी अना त ही रहता है ( वर्तमान नहीं) फिर भी वह भविष्य सुख भी बुद्धि के द्वारा सिद्ध होने के कारण इच्छा का निमित्तकारण होता है। जैसा कि न्यायवात्तिककार ने 'फलस्य प्रयोजकत्यात्' इत्यादि ग्रन्थ से कहा है कि सुख के कारणोभूत विषयों के नष्ट हो जाने पर भी जो उन विषयों की इच्छा होती है, उस इच्छा के प्रति उन विषयों की स्मृति कारण है। 'प्रयत्नस्मृतिधर्माधमहेतुः' विषयीभूत वस्तु की इच्छा से उसे प्राप्त करने या त्याग करने के उपयुक्त प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार इच्छा प्रयत्न का भी कारण है)। स्मरण की इच्छा से भी स्मृति होती है। स्वर्गादि के लिए वेदों से निर्दिष्ट ज्योतिष्टोमादि यागों में स्वर्गादि फलों की इच्छा से पो प्रवृत्ति होती हैं, उस इच्छा से धर्म होता है। एर्व राग से जो प्रतिषिद्ध हिंसादि में किसी की प्रवृत्ति होती है, उससे अधर्म की उत्पत्ति होती है, उस अधर्म के प्रति उक्त राग रूप इच्छा कारण है । इस प्रकार इच्छा प्रयत्नादि का हेतु है)।
___काम प्रभृति गुण भी तो है, वे क्यों नहीं कहे गए ? इसी प्रश्न का उत्तर 'कामः' इत्यादि सन्दर्भ से दिया गया है। यह जो कहा है कि "कामादि इच्छा के ही
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६३६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणनिरूपणे इच्छा
प्रशस्तपादभाष्यम् विषयत्यागेच्छा वैराग्यम् । परवचनेच्छा उपधा। अन्तर्निगूढेच्छा भावः । चिकीर्षा जिहीत्यादिक्रियाभेदादिच्छाभेदा भवन्ति । को ठगने की इच्छा ही 'उपधा' है। भीतर छिपी हुई इच्छा ही 'भाव' है। ( इसी प्रकार ) चिकीर्षा ( कुछ करने की इच्छा ) जिहीर्षा (छोड़ने की इच्छा ) इत्यादि भी ( अपने अन्तर्गत ) क्रियाओं के भेद के रहने पर भी ( वस्तुतः ) इच्छा के ही प्रभेद हैं।
न्यायकन्दली मैथुनेच्छा काम इति । निरुपपदः कामशब्दो मैथुनेच्छायामेव प्रवर्तते, अन्यत्र तस्य पदान्तरसमभिव्याहारात् प्रवृत्तिः, यथा स्वर्गकामो यजेत इति । अभ्यवहारेच्छा अभिलाषः । अभ्यवहारो भोजनम्, तत्रेच्छा अभिलाषः । पुनः पुनविषयानुरञ्जनेच्छा रागः। पुनविषयाणां भोगेच्छा राग इत्यर्थः । अनासन्नक्रियेच्छा सङ्कल्पः । अनागतस्याथस्य करणेच्छा सङ्कल्पः । स्वार्थमनपेक्ष्य परदुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम् । स्वार्थप्रयोजनं किमप्यनभिसन्धाय या परदुःखप्रहाणे अपनयने इच्छा सा कारुण्यम् । दोषदर्शनाद् दुःखहेतुत्वावगमे विषयाणां परित्यागे इच्छा वैराग्यम् । परवञ्चनेच्छा परप्रतारणेच्छा उपधा। अन्तनिगूढच्छा लिङ्गराविर्भाविता येच्छा सा भावः । चिकीर्षा जिहीर्षा इत्यादिक्रियाभेदादिच्छाभेदा भवन्ति । करणेच्छा चिकीर्षा, हरणेच्छा जिहीर्षा गमनेच्छा जिगमिषेत्येवमादय इच्छाभेदाः क्रियाभेदाद् भवन्ति । प्रभेद हैं, स्वतन्त्र गुण नही" उसी का उपपादन "मैथुनेच्छा कामः' इत्यादि सन्दर्भ से करते हैं। बिना विशेषण का केवल 'काम' शब्द मैथुन की इच्छा में ही प्रयुक्त होता है, दूसरी तरह की इच्छाओं में 'काम' शब्द की प्रवृत्ति दूसरे पदों के साथ रहने से ही होती है । जैसे कि 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि । 'अभ्यवहारेच्छा अभिलाषः' इस वाक्य के 'अभ्यवहार' शब्द का अर्थ है भोजन, उसकी इच्छा ही 'अभिलाष' शब्द से कही जाती है । 'पुनः पुनविषयानुरञ्जनेच्छा रागः' अर्थात् विषयों को बार बार भोगने की इच्छा हो राग' है। 'अनासन्न क्रियेच्छा संकल्पः' अर्थात् भविष्य काम को करने की इच्छा ही 'संकल्प' है। 'स्वार्थमनपेक्ष्य दुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम्' अपने किसी प्रयोजन के साधन की अभिसन्धि के बिना जो दूसरों को दुःख से छुड़ाने की इच्छा, उसे ही 'कारुण्य' कहते हैं । दोषदर्शनात्' अर्थात् दुःख के कारणों को अनिष्ट समझने पर विषयों को छोड़ने की इच्छा ही वैराग्य' है। 'परवञ्चनेच्छा' दूसरों को ठगने की इच्छा को हौ 'उपधा' कहते हैं । 'अन्तनिगूढेच्छा' अर्थात् लिङ्गो से ही ज्ञात होनेवाली इच्छा को 'भाव' कहते हैं । 'चिकीर्षा' जिहीर्षा' इत्यादि क्रियाभेदादिच्छाभेदा भवन्ति' काम करने की इच्छा को ही 'चिकी' कहते हैं। किसी की वस्तु को अपहरण करने की इच्छा को ही 'जिहीर्षा' कहते हैं ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रज्वलनात्मको द्वेषः । यस्मिन् सति प्रज्वलितमिवात्मानं मन्यते स द्वेषः। स चात्ममनसोः संयोगाद् दुःखापेक्षात् स्मृत्य पेक्षाद् वोत्पद्यते । यत्नस्मृतिधर्माधर्मस्मृतिहेतुः । क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमाऽमर्ष इति द्वेषभेदाः ॥
द्वेष प्रज्वलन रूप है। ( अर्थात् ) जिसके रहते हुए प्राणी अपने को जलता हुआ सा अनुभव करे वही द्वेष' है। दुःख या स्मृति से सापेक्ष आत्मा और मन के संयोग से यह उत्पन्न होता है। प्रयत्न, स्मृति, धर्म और अधर्म का यह कारण है। क्रोध, द्रोह, मन्यु, अक्षमा और अमर्ष ये ( पाँच ) द्वेष के प्रभेद हैं।
न्यायकन्दली
प्रज्वलनात्मको द्वेष: । एतद् विवृणोति--यस्मिन् सतीत्यादिना । तद् व्यक्तम् । स चात्ममनसोः संयोगाद् दुःखापेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद् वोत्पद्यते । अतीते दुःखहेतौ तज्जदुःखस्मृतिजो द्वेषः । प्रयत्नधर्माधर्मस्मृतिहेतुः । एनमहं हन्मीति प्रयत्नो द्वषात्, वेदार्थविप्लवकारिषु द्वेषाद् धर्मः, तदर्थपरिपालनपरेषु द्वषादधर्मः। स्मृतिरपि द्वेषादुपजायते, यो यं द्वेष्टि स तं सततं स्मरति । क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमाऽमर्ष इति द्वेषभेदाः। शरोरेन्द्रियादिविकारहेतुः क्षणमात्रभावी द्वषः क्रोधः । अलक्षितविकारश्चिरानुबद्धापकारावसानो द्वषो द्रोहः ।
जाने की इच्छा ही 'जिगमिषा' है। क्रियाओं की इस विभिन्नता से ही ये इच्छायें विभिन्न होती हैं।
'प्रज्वलनात्मको द्वेषः' इस लक्षण वाक्य की ही व्याख्या 'यस्मिन् सति' इत्यादि से किया गया है। 'स चात्ममनसोःसंयोगाद् दुःखापेक्षात् स्मृत्यपेक्षाद्वा उत्पद्यते' जहाँ दुःख के कारणों का नाश हो गया रहता है ऐसे स्थलों में उन कारणों से उत्पन्न दुःख की स्मृति से ही उन कारणों में द्वेष उत्पन्न होता है। 'प्रयत्नधर्माधर्मस्मृतिहेतुः' 'मैं इसे मारता हूँ इस प्रकार का प्रयत्न द्वेष से उत्पन्न होता है। वेदों से प्रतिपादित अर्थों को विपरीत दिशा में ले जानेवाले के ऊपर किये गये द्वेष से धर्म उत्पन्न होता है । वेदों को आज्ञा पालने वाले के ऊपर द्वेष करने से अधर्म उत्पन्न होता है । द्वेष से स्मृति भी उत्पन्न होती है, क्योंकि जिस के ऊपर जिसे द्वेष रहता है, उसे उसका सदा स्मरण होता रहता है । "क्रोधो द्रोहो मन्युरक्षमामर्ष इति द्वेषभेदाः' एक क्षण मात्र रहनेवाले 'द्वेष' का नाम ही 'क्रोध' है, जिससे शरीर एवं इन्द्रियादि अपने स्वरूप से च्युत दोख पड़ते हैं। जिससे शरीरादि में विकार परिलक्षित न हो, किन्तु जिसका बहुत दिनों के बाद अपकार में पर्यवसान हो, उस द्वेष को ही 'द्रोह' कहते हैं। 'मन्यु' उस 'द्वेष'
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६३८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे प्रयत्न
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रयत्नः संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः। स द्विविधः-जीवनपूर्वकः, इच्छाद्वेषपूर्वकश्च । तत्र जीवनपूर्वकः सुप्तस्य प्राणापानसन्तानप्रेरकः, प्रबोधकाले चान्तःकरणस्येन्द्रियान्तरप्राप्तिहेतुः। अस्य जीवनपूर्वकस्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्माधर्मापेक्षादुत्पत्तिः । इतरस्तु हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थस्य व्यापारस्य हेतुः शरीरविधारकश्च । स चात्ममनसोः संयोगादिच्छापेक्षाद् द्वेषापेक्षाद् वोत्पद्यते ॥
- प्रयत्न, संरम्भ, उत्साह ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं। यह (प्रयत्न ) (१) जीवनपूर्वक ( जीवनयोनि) और (२) इच्छाद्वेषपूर्वक भेद से दो प्रकार का है। प्राणियों की सुप्तावस्था में प्राणवायु अपानवायु प्रभृति ( शरीरान्तर्वर्ती) वायु समूह को ( उचित रूप से ) प्रेरित करनेवाला एवं अन्तःकरण (मन ) को दूसरी इन्द्रियों से सम्बद्ध करनेवाला प्रयत्न ही जीवनपूर्वक प्रयत्न है। धर्म और अधर्म से साहाय्य-प्राप्त आत्मा और मन के संयोग से इस (जीवनपूर्वक प्रयत्न ) की उत्पत्ति होती है। दूसरा ( इच्छा द्वेष मूलक ) प्रयत्न हितों की प्राप्ति एवं अहितों का परिहार इन दोनों की उपयुक्त क्रिया एवं शरीर की स्थिति इन दोनों का कारण है। यह ( इच्छाद्वेषमूलकप्रयत्न ) इच्छा या द्वेष से साहाय्य प्राप्त आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होता है।
न्यायकन्दली अपकृतस्य प्रत्यपकारासमर्थस्यान्तनिगूढो द्वेषो मन्युः । परगुणद्वेषोऽक्षमा। स्वगुणपरिभवसमुत्थो द्वषोऽमर्षः।
प्रयत्नः संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः । स द्विविधो जीवनपूर्वक इत्यादि । सदेहस्यात्मनो विपच्यमानकर्माशयसहितस्य मनसा सह संयोगः सम्बन्धो जीवनम्, तत्पूर्वकः प्रयत्नः कामर्थक्रियां करोति ? इत्यत आह--तत्र
का नाम है, जो प्रतीकार करने से असमर्थ व्यक्ति में अत्यन्त गूढ़ रूप से रहता है। दूसरे के गुण के प्रति द्वेष को ही 'अक्षमा' कहते हैं। अपने गुण के पराजय से जो द्वेष उत्पन्न होता है उसे 'अमर्ष' कहते हैं ।
'प्रयत्न: संरम्भ उत्साह इति पर्यायाः, स द्विविधो जीवनपूर्वक इत्यादि' देहसम्बद्ध आत्मा का मन के साथ उस अवस्था का संयोग अर्थात् सन्बन्ध ही 'जीवन' है, जिस अवस्था में वर्तमानकालिक विपाक से युक्त कर्माशय की सत्ता उसमें रहे । जीवनपूर्वक प्रयत्न से कौन सा विशेष कार्य होता है । इसी प्रश्न का समाधान 'तत्र जीवनपूर्वकः' इत्यादि से किया गया है । ( जीवनपूर्वक प्रयत्न का साधक यह अनुमान है कि ) सोते
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भावानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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६३६
न च
जीवनपूर्वक इति । सुप्तस्य प्राणापानक्रिया प्रयत्नकार्या क्रियात्वात् । तदानीमिच्छाद्वेषौ प्रयत्नहेतू सम्भवतः, तस्माज्जीवनपूर्वक एव प्रयत्नः प्राणापानप्रेरको गम्यते । न केवलं जीवनपूर्वक एव प्रयत्नः प्राणापानप्रेरकः, किन्तु प्रबोधकालेऽन्तःकरणस्येन्द्रियान्तरप्राप्तिहेतुश्च । विषयोपलम्भानुमि तान्तः करणेन्द्रिसंयोगः प्रयत्नपूर्वकान्तःकरणक्रियाजन्यः, अन्तःकरणेन्द्रियसंयोगत्वात्, जागरान्तः करणेन्द्रियसंयोगवदिति प्रयत्नपूर्वकतासिद्धिः । अस्य जीवनपूर्वकस्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्माधर्मापेक्षादुत्पत्तिः, धर्माधर्मापेक्ष आत्ममनसोः संयोगो जीवनम् तस्मादस्योत्पत्तिरित्यर्थः ।
इतरस्तु इच्छाद्वेषपूर्वकश्च हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थस्य व्यायामस्य व्यापारस्य हेतुः शरीर विधारकश्च । गुरुत्वे सत्यपततः शरीरस्येच्छापूर्वकः प्रयत्नो विधारकः । स चात्ममनसोः संयोगादिच्छाद्वेषापेक्षादुत्पद्यते । हितसाधनोपादानेषु प्रयत्न इच्छापूर्वकः, दुःखसाधनपरित्यागे प्रयत्नो द्वेषपूर्वकः ।
हुए पुरुष की प्राणक्रिया और अपान क्रिया भी यतः क्रिया हैं, अतः वे भी प्रयत्न से ही उत्पन्न होती हैं । सोते समय की उन क्रियाओं की उत्पत्ति इच्छा और द्वेष से नहीं हो सकती, अतः यह सिद्ध होता है कि जीवनपूर्वक यत्न हो उन क्रियाओं का कारण है । जीवनपूर्वक प्रयत्न से केवल उक्त प्राणापानादि को प्रेरणा देनेवाली क्रियायें ही नहीं होती हैं, किन्तु उससे सोकर उठते समय मन का और इन्द्रिय का संयोग भी उत्पन्न होता है । विषय की उपलब्धि से अन्तःकरण का अन्य इन्द्रियों के साथ संयोग का अनुमान होता है । यह अन्तःकरण एवं अन्य इन्द्रियों का अनुमित संयोग भी जाग्नत अवस्था के अन्तःकरण एवं इन्द्रियसंयोग की तरह अन्तःकरण और इन्द्रिय का संयोग ही है । अतः इसकी उत्पत्ति भी प्रयत्न से उत्पन्न अन्तःकरण की क्रिया से ही होती है । अतः प्रबोधकालिक अन्तःकरण और इन्द्रियों के प्रबोधकालिक संयोग का भी प्रयत्न से उत्पन्न होना सिद्ध होता है । 'अस्य जीवनपूर्वकस्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्माधर्मापेक्षादुत्पत्तिः अर्थात् धर्म और अधर्म से उत्पन्न आत्मा और मन का संयोग ही जीवन है । इस जीवन से ही उक्त प्रयत्न की उत्पत्ति होती है ।
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'इतरस्तु' अर्थात् ( जीवनयोनि यत्न से भिन्न ) इच्छा और द्वेष उत्पन्न प्रयत्न 'हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थस्य व्यापारस्य हेतुः शरीरविधारकश्च' । शरीर में ( पतन के कारण ) गुरुत्व के रहने पर भी जो शरीर का पतन नहीं होता है उसमें इच्छा जनित प्रयत्न ही कारण है, ( इस प्रकार इच्छापूर्वक प्रयत्न विधारक है ) । ' स चात्ममनसोः संयोगादिच्छ द्वेषापेक्षा दुत्पद्यते' इनमें हित को साधन करनेवाली वस्तुओं के ग्रहण का इच्छा-जनित प्रयत्न कारण है, एवं दुःख के कारणों को हटाने में द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न कारण है ।
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणनिरूपणे गुरुत्व
प्रशस्तपादभाष्यम्
गुरुत्वं जलभूम्योः पतनकर्मकारणम् । अप्रत्यक्षं पतनकर्मानुमेयं संयोग प्रयत्न संस्कारविरोधि । अस्य चावादिपरमाणुरूपादिवन्नित्या नित्यत्वनिष्पत्तयः ।
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जिससे पृथिवी और जल में पतनक्रिया की उत्पत्ति हो, वही गुरुत्व है । पतन क्रिया रूप हेतु से इसका अनुमान ही होता है, इसका प्रत्यक्ष नहीं होता । यह संयोग, प्रयत्न और संस्कार का प्रतिरोधक है । जलादि के परमाणु और जलादि कार्यद्रव्य में रहनेवाले रूपादि के नित्यत्व और अनित्यत्व की तरह गुरुत्व के नित्यत्व और अनित्यत्व की स्थिति समझनी चाहिए ।
न्यायकन्दली
गुरुत्वं जलभूम्योरित्याश्रयकथनम् । पतनकर्मकारणमिति तस्य कार्यनिरूपणम् । अप्रत्यक्षमिति स्वभावोपवर्णनम्, न केनचिदिन्द्रियेण गुरुत्वं गृह्यत इत्यर्थः ।
द्रव्यस्य
ये तु त्वगिन्द्रियग्राह्यं गुरुत्वमाहुः, तेषामधः स्थितस्य स्पर्शोपलम्भवद् गुरुत्वोपलम्भप्रसङ्गः त्वगिन्द्रियस्यार्थोपलम्भे स्वसन्निकर्षव्यतिरेकेणान्यापेक्षा सम्भवात् । यत्तूपरिस्थितस्य गुरुत्वं प्रतीयते, तद्धस्तादीनामधोगमनानुमानात् । अतीन्द्रियं चेत् कथमस्य प्रतीतिः ? इत्यत आह-पतनकर्मानुमेयमिति । यदवयविद्रव्यस्य पतनं तेन यदेकार्थसमवेतासमवायिकारणं तदेव
'गुरुत्वं जलभूभ्यो:' इस वाक्य में प्रयुक्त 'जलभूम्यो:' इस पद से गुरुत्व के आश्रय दिखलाये गये हैं । पतनकर्मकारणम्' इस वाक्य से गुरुत्व के द्वारा होनेवाले कार्यों को दिखलाया गया है। 'अप्रत्यक्षम्' इस पद से गुरुत्व का ( अतीन्द्रियत्व रूप ) स्वभाव दिखलाया गया है । अर्थात् गुरुत्व का ग्रहण किसी भी इन्द्रिय से नहीं होता ।
जिस सम्प्रदाय के लोग त्वगिन्द्रिय से गुरुत्व का प्रत्यक्ष मानते हैं, उनके मत में जिस प्रकार नीचे रक्खे हुए द्रव्य के स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है, उसी प्रकार उस द्रव्य के गुरुत्व विषयक स्पार्शनप्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। क्योंकि त्वगिन्द्रिय से प्रत्यक्ष के लिए उसका त्वगिन्द्रिय के साथ सम्बन्ध को छोड़ कर और किसी के साहाय्य की अपेक्षा मानना सम्भव नहीं है । ( तब रहा यह प्रश्न कि उसी द्रव्य को ऊपर उठाने पर गुरुत्व की उपलब्धि किस प्रमाण होती है ? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि ) द्रव्य उठानेवाले हाथ प्रभृति द्रव्यों का ( उस अवस्था में ) नीचे की तरफ जाने से उस द्रव्य के गुरुत्व का अनुमान होता है । जिस अवयवी रूप द्रव्य का पतन होता है, उस पतन के साथ एक अर्थ ( उसी अवयवी द्रव्य ) में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले ( पतन का ) समवायिकारण ही 'गुरुत्व' है । किसी सम्प्रदाय के लोग अवयवी में गुरुत्व नहीं मानते
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्यत्वं स्यन्दनकर्मकारणम् । त्रिद्रव्यवृत्ति । तत्तु द्विविधम् ।
जिस गुण से स्यन्दन ( अर्थात फैलने की ) क्रिया उत्पन्न हो वही 'द्रवत्व' है । यह (१) सांसिद्धिक ( स्वाभाविक ) और (२) नैमित्तिक
न्यायकन्दली
हि नो गुरुत्वम् । एतेनैतत् प्रत्युक्तं यदुक्तमपरैः--''अवयविगुरुत्वकार्यस्यावनतिविशेषस्यानुपलम्भादवयविनि गुरुत्वाभावः" इति, अवयविनः पतनाभावप्रसङ्गात् । अथावयवानां गुरुत्वादेव तस्य पतनम् ? तदावयवानामपि स्वावयवगुरुत्वात् पतनमिति सर्वत्र कार्ये तदुच्छेदः । अथ व्यधिकरणेभ्यः स्वावयवगुरुत्वेभ्योऽवयवानां पतनासम्भवात् तेषु गुरुत्वं कल्प्यते, तदा अवयविन्यपि कल्पनीयम्, न्यायस्य समानत्वात् । यत् पुनरवयविगुरुत्वस्य कार्यातिरेको न गृह्यते, तदवयवावयविगुरुत्वभेदस्याल्पान्तरत्वात् । यथा महति द्रव्ये उन्मीयमाने तत्पतितसूक्ष्मद्रव्यान्तरगुरुत्वकार्याग्रहणम् ।
है, क्योंकि अवयवों के गुरुत्व से जितनी अवनति होती है, उन अवयवों से बने अवयवी के द्वारा उससे अधिक अवनति नहीं देखी जाती है, अतः अवयवों में ही गुरुत्व है, अवयवी में नहीं । गुरुत्व के उक्त लक्षण से उनके उक्त मत का भी खण्डन हो जाता है ( क्योंकि उस लक्षण में गुरुत्व को अवयवी में रहना मान लिया गया है ) क्योंकि अवयवी में गुरुत्व यदि न मानें तो अवयवी का पतन न हो सकेगा। यदि अवयवों के गुरुत्व से ही अवयवी का भी पतन मानें, तो फिर उन अवयवों का पतन भी उनके अवयवों से ही होगा। उनमें भी गुरुत्व का मानना व्यर्थ होगा। फलतः किसी भी कार्य द्रव्य में गुरुत्व का मानना सम्भव न होगा। यदि यह कहें कि एक अधिकरण में रहनेवाले गुरुत्व से उससे भिन्न द्रव्य में पतन का होना सम्भव नहीं है, अतः अवयवों में गुरुत्व मानते हैं (क्योंकि अवयवों से उसके अवयव भिन्न हैं ) तो फिर इसी युक्ति से अययवी में भी गुरुत्व का मानना अनिवार्य है, क्योंकि अवयवों के अवयव भी तो अपने अवयवी से भिन्न हैं, अतः अवयवों में रहनेवाला गुरुत्व अवयवों से भिन्न अवयवी में पतन का उत्पादन कैसे कर सकता है ? यह जो आक्षेप किया गया है कि अवयवों के गुरुत्व कार्य अवनति-विशेष से अवयवी के कार्य अवनतिविशेष में कोई अन्तर उपलब्ध नहीं होता। अतः अवयवों में ही गुरुत्व है अवयवी में नहीं ) इस आक्षेप के उत्तर में कहना है कि अवयवी के गुरुत्व से अवयवों के गुरुत्व में अत्यन्त अल्प अन्तर है, अतः उन दोनों से होनेवाले कार्यों का अन्तर गृहीत नहीं हो पाता। जैसे किसी भारी द्रव्य को दूसरी बार तौलने पर उससे कुछ कणों के झड़ जाने के बाद भी उसके गुरुत्व के कार्य अवनतियों में कोई अन्तर उपलब्ध नहीं होता है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे द्रवस्व
प्रशस्तपादभाष्यम्
सांसिद्धिकम्, नैमित्तिकं च । सांसिद्धिकमपां विशेषगुणः। नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोः सामान्यगुणः। सांसिद्धिकस्य गुरुत्ववनित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । सङ्घातदर्शनात् सांसिद्धिकमयुक्तमिति चेन्न, दिव्येन तेजसा संयुक्तानामाप्यानां परमाणनां परस्परं संयोगो द्रव्यारम्भकः सङ्घाभेद से दो प्रकार का है। इनमें सांसिद्धिकद्रवत्व जल का विशेषगुण है और नैमित्तिकद्रवत्व पृथिवी और तेज का सामान्यगुण है। द्रवत्व के नित्यत्व और अनित्यत्व का निर्णय गुरुत्व की तरह समझना चाहिए। (प्र०) ( जल में भी) सङ्घात अर्थात् काठिन्य देखा जाता है, अत: यह कहना अयुक्त है कि जल का द्रवत्व सांसिद्धिक है।
न्यायकन्दली संयोगप्रयत्नसंस्कारविरोधि । गुरुत्वस्य संयोगेन प्रयत्नेन वेगाख्येन च संस्कारेण सह विरोधो विद्यते, तैः प्रतिबद्धस्य स्वकार्याकरणात् । तथा च दोलारूढस्य संयोगेन प्रतिबन्धादपतनम्, प्रयत्नेन प्रतिबन्धादपतनं च शरीरस्य, वेगेन प्रतिबन्धादपतनं बहिःक्षिप्तस्य शरशलाकादेः ।
अस्य चाबादिपरमाणुरूपादिवन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः। यथाप्यपरमाणरूपादयो नित्यास्तथा पार्थिवाप्यपरमाणुष्वपि गुरुत्वम् । यथा चाबादिकार्यद्रव्ये कारणगुणपूर्वप्रक्रमेण रूपादयो जायन्ते, आश्रयविनाशाच्च विनश्यन्ति, तथा गुरुत्वमपि।
'संयोगप्रयत्नसंस्कारविरोधी' । गुरुत्व का विरोध ( अर्थात् अपने आश्रय के अधःपतन रूप कार्य में अक्षमता) संयोग, प्रयत्न, और वेगाख्यसंस्कार इन तीन गुणों से होता है । क्योंकि इनमें से किसी के साथ भी सम्बन्ध रहने पर गुरुत्व से पतन की उत्पत्ति नहीं होती है । संयोग से प्रतिरुद्ध होने के कारण हो पालकी पर चढ़े हुए मनुष्य का पतन नहीं होता है। प्रयत्नरूप प्रतिबन्धक से ही शरीर का पतन नहीं होता है । केवल वेग के ही कारण बाहर फेंका हुआ तीर ( कुछ देर तक ) रुका रहता है।
'अस्य चाबादिपरमाणुरूपादिवन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः' अर्थात् जिस प्रकार जलीय परमाणुओं के रूपादि नित्य होते हैं, उसी प्रकार पार्थिवपरमाणु और जलीयपरमाणु का गुरुत्व भी नित्य है। जैसे कार्य रूप जल में कारणगुणकम से रूपादि की उत्पत्ति होती है, एवं आश्रय के विनाश से उनका विनाश होता है, उसी प्रकार कार्य रूप पाथिव द्रव्य और जलीय द्रव्य इन दोनों के गुरुत्व भी कारणगुण क्रम से ही उत्पन्न होते हैं, और आश्रय के विनाश से ही विनष्ट होते हैं।
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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६४३
द्रवत्वं स्यन्दनकर्मकारणम् । यत् स्यन्दनकर्मकारणं तद् द्रवत्वमित्यर्थः । त्रिद्रव्यवृत्ति पृथिव्युदकज्वलनवृत्तीत्यर्थः । तत्तु द्विविधमिति । गुरुत्वमेकविधं द्रवत्वं तु द्विविधमिति तुशब्दार्थः । नेमित्तिकं सांसिद्धिकं च । निमित्तं च वह्निसंयोगः, तस्येदं कार्यमिति नैमित्तिकम् । सांसिद्धिकं च स्वभावसिद्धम्,
संयोगानपेक्षमिति यावत् । सांसिद्धिकमपां विशेषगुणः, अन्यत्राभावात् । नैमित्तिक पृथिवोतेजसोः सामान्यगुणः, साधारणत्वात् । सांसिद्धिकस्य द्रवत्वस्य गुरुत्ववन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । यथा नित्यद्रव्यसमवेतं गुरुत्वं नित्यम्, अनित्यद्रव्यसमवेतं च कार्यकारणगुणपूर्वक माश्रयविनाशाद् विनश्यतीति तथा सांसि - द्विकं द्रवत्वमपि ।
अत्र चोदयति-सङ्घातदर्शनात् सांसिद्धिकद्रवत्वमयुक्तमिति चेत् आप्यस्य हिमकरकादेर्द्रव्यस्य सङ्घातदर्शनात् काठिन्यदर्शनादपां स्वभावसिद्धं द्रवत्व
'द्रवत्वं स्यन्दनकर्मकारणम्' अर्थात् प्रसरण क्रिया का जो कारण वही 'द्रवत्व' है । 'त्रिद्रव्यवृत्ति' अर्थात् पृथिवी, जल और तेज इन तीन द्रव्यों में द्रवत्व रहता है । 'तत्त् द्विविधम्' इस वाक्य में प्रयुक्त 'तु' शब्द से यह सूचित किया गया है कि गुरुत्व तो एक ही प्रकार का है, किन्तु द्रवत्व दो प्रकार का है । 'नैमित्तिकं सांसिद्धिकञ्च' इस वाक्य में 'प्रयुक्त 'नैमित्तिक' शब्द 'निमित्तस्येदं कार्यं नैमित्तिकम्' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न है, एवं इस 'निमित्त' शब्द का अर्थ है वह्नि का संयोग । ( फलतः वह्निप्रभृति तैजस द्रव्य के संयोग रूप निमित्त से उत्पन्न द्रवत्व ही नैमित्तिक द्रवत्व है) स्वाभाविक द्रवत्व को सांसिद्धिक द्रवस्व कहते हैं । फलतः वह्नि प्रभृति तैजस पदार्थों के संयोग के बिना हो जो द्रवत्व उत्पन्न हो उसे सांसिद्धिकद्रवत्व कहते हैं । 'सांसिद्धिकोऽयं विशेषगुणः सांसिद्धिकद्रवत्व जल का विशेष गुण है, क्योंकि वह अन्य द्रव्यों में नहीं है। नैमित्तिकं पृथिवी तेजसोः सामान्यगुण: ' नैमित्तिकद्रवत्व पृथिवी और तेज का सामान्य ही गुण हैं. क्योंकि वह दो द्रव्यों में समानरूप से रहता है । 'सांसिद्धिकस्य' अर्थात् सांसिद्धिद्रवत्व का गुरुत्ववन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः' अर्थात् जिस प्रकार नित्यद्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला गुरुत्व नित्य ही होता है, और अनित्यद्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला गुरुत्व कारणगुणक्रम से उत्पन्न होनेवाला कार्य होता है. एवं आश्रय के विनाश से विनाश को प्राप्त होता है, उसी प्रकार द्रवत्व में भी समझना चाहिए । ( अर्थात् नित्य द्रव्य में रहनेवाला द्रवत्व भी नित्य है, एवं कार्य द्रव्य में रहनेवाले द्रवत्ल की उत्पत्ति कारणगुणक्रम से होती है, एवं विनाश आश्रय के विनाश से होता है ) 1
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'संघात दर्शनात् सांसिद्धिकद्रवत्वमयुक्तम्' इस सन्दर्भ के द्वारा आक्षेप किया गया है कि हिम, करका प्रभृति जलीय द्रव्यों में 'संघात' अर्थात् काठिन्य देखा जाता है, अतः जल में रहनेवाले द्रवत्व को स्वाभाविक मानना ठीक नहीं है । दिव्येन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उक्त आक्षेप का समाधान करते हैं। सभी जलों में स्वाभाविक द्रवत्व को
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६४४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे द्रवत्व
प्रशस्तपादभाष्यम् ताख्यः, तेन परमाणुद्रवत्वप्रतिबन्धात् कायें हिमकरकादौ द्रवत्वानुत्पत्तिः।
नैमित्तिकं च पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजम् । कथम् ? सर्जितुमधूच्छिष्टादीनां कारणेषु परमाणुष्वग्निसंयोगाद् वेगापेक्षात् कर्मोत्पत्तौ तज्जेभ्यो विभागेभ्यो द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशात् कार्यद्रव्यनिवृत्तावग्निसंयोगादौष्ण्यापेक्षात् स्वतन्त्रेषु परमाणुषु द्रवत्वमुत्पद्यते,
(उ०) यह बात नहीं है, क्योंकि दिव्यतेज के साथ संयुक्त परमाणुओं में द्रव्य का उत्पादक संयोग ही सङ्घात रूप होता है ( अर्थात् उक्त परमाणुओं का ही संयोग कठिन होता है) इसी से जल का स्वाभाविक द्रवत्व प्रतिरुद्ध हो जाता है, जिससे जल से उत्पन्न होनेवाला पाला और बरफ में सांसिद्धिक द्रवत्व की उत्पत्ति नहीं हो पाती।
अग्नि के संयोग से पृथिवी और तेज ( इन दोनों ही ) में नैमित्तिक द्वत्व की उत्पत्ति होती है । (प्र०) किस प्रकार ? ( इनमें नैमित्तिक द्रवत्व की उत्पत्ति होती है ? ) ( उ०) घृत, लाह, मोम (मच्छिष्ट) प्रभृति द्रव्यों के उत्पादक परमाणुओं में बेग की सहायता से अग्निसंयोग के द्वारा क्रिया की उत्पत्ति होती है। उस क्रिया से परमाणुओं में विभाग उत्पन्न होते हैं । इस विभाग से उक्त परमाणुओं में रहनेवाले ( द्वयणुक के ) उत्पादक संयोग का विनाश होता है । इस (संयोगविनाश ) से घृतादि कार्य द्रव्यों के नाश हो जाने के बाद उष्णता की सहायता से अग्निसंयोग के द्वारा स्वतन्त्र (परस्परासम्बद्ध ) परमाणुओं में द्रवत्व की उत्पत्ति होती
न्यायकन्दली मित्ययुक्तम् । समाधत्ते--दिव्येनेति । सर्वत्रोदके स्वभावसिद्धस्य द्रवत्वस्योप. लम्भादपां स्वभावसिद्धमेव द्रवत्वं तावनिश्चितम् । यत्र तु हिमकरकादौ कार्ये द्रवत्वानुत्पत्तिस्तत्र दिव्येन तेजसा सम्बद्धानामाप्यपरमाणूनां परस्परसंयोगो उपलब्धि होती है, इससे समझते हैं कि जल का द्रवत्व स्वाभाविक ही है। हिम कारकादि जलीय द्रव्यों में द्रवत्व की जो उत्पत्ति नहीं होती है उसका हेतु यह है कि दिव्य तेज के साथ उन द्रव्यों के उत्पादक परमाणु सम्बद्ध रहते हैं, अतः उन परमाणुओं के द्रव्योत्पादक संयोग संघातात्मक होते हैं, जिससे हिमकरकादि के सांसिद्धिकद्र वत्व प्रतिरुद्ध हो जाते हैं। (प्र०) 'तेज के संयोग से सांसिद्धिक द्रवत्व का प्रतिरोध होता है' यह किस प्रमाण से समझते हैं ? ( उ० ) अनुमान के द्वारा समझते हैं, क्योंकि हिमकरकादि से भिन्न
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६४५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् ततस्तेषु भोगिनामदृष्टापेक्षादात्माणुसंयोगात् कर्मोत्पत्तौ तज्जेम्यः संयोगेभ्यो द्वयणुकादिप्रक्रमेण कार्यद्रव्यमुत्पद्यते, तस्मिंश्च रूपाधुत्पत्तिसमकालं कारणगुणप्रक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यत इति ।
स्नेहोऽपां विशेषगुणः। संग्रहमृजादिहेतुः । अस्यापि गुरुत्ववन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । है। इसके बाद भोग करनेवाले जीवों के अदृष्ट की सहायता से आत्मा और मन के संयोग से ( उन स्वतन्त्र परमाणुओं में ) क्रिया की उत्पत्ति होती है। इस क्रिया से (द्रवत्व से युक्त परमाणुओं में द्रव्योत्पादक ) संयोग की उत्पत्ति होती है। इस संयोग से द्वयणुकादि क्रम से कार्यद्रव्य की उत्पत्ति होती है। इस कार्यद्रव्य में जिस समय रूपादिगुणों की उत्पत्ति होती है, उसी समय द्रवत्व की भी उत्पत्ति होती है।
केवल जल में ही रहनेवाला विशेषगुण 'स्नेह' है। वह संग्रह सत्तू प्रभृति चूर्ण द्रव्यों को गोले का आकार बनाने का, एवं मर्दन प्रति क्रिया का हेतु है। उसके नित्यत्व और अनित्यत्व की व्यवस्था गुरुत्व की तरह जाननी चाहिए।
न्यायकन्दली द्रव्यारम्भकः सङ्घाताख्यः, तेन हिमकरकारम्भकाणां परमाणूनां द्रवत्वप्रतिबन्धात् । तेज:संयोगेन परमाणूनां द्रवत्वं प्रतिबद्धमित्यन्यत्राप्यद्रव्यस्य लवणस्य वह्निसंयोगेन द्रवत्वप्रतिबन्धदर्शनादनुमितम् । लवणस्याप्यत्वमपि हिमकरकादिवत् कालान्तरेण द्रवीभावदर्शनादवगतम् । विलयनं तु हिमकरकादेभौ माग्निसंयोगाद् यद् विलयनं कठिनद्रव्यस्य, तद् वह्निसंयोगादवगतम, यथा सुवर्णादीनाम् । हिमकरकादिविलयनमपि विलयनमेव । तस्मादिहापि दृष्टसामर्यो वह्निसंयोग एव निमित्तमाश्रीयते।
लवणरूप द्रव्य में वह्नि के संयोग से (सांसिद्धिक) द्रवत्त का प्रतिरोध देखा जाता है, अतः लवण रूप दृष्टान्त से तेज के संयोग में सांसिद्धिक द्रवत्व के प्रतिरोध की जनकता का अनुमान करते हैं। हिम, करकादि की तरह कुछ समय के बाद लवण को पिघलते देखा जाता है, अतः समझते हैं कि लवण भी जलीय द्रव्ध है। वह्नि संयोग से कठिन द्रव्य का पिघलना सुवर्णादि द्रव्यों में प्रत्यक्ष देखा जाता है। हिम, कारकादि का पिघलना भी कठिन द्रव्य का पिघलना ही है, अतः समझते हैं कि वह वह्नि के संयोग से ही पिघलता है। तस्मात् पिघलने की कारणता जिसमें प्रत्यक्ष के द्वारा निश्चित है, उसी वह्निसंयोग में हिम, करकादि के पिघलने की भी कारणता स्वीकार कर लेते हैं ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुणनिरूपणे संस्कार
प्रशस्तपादभाष्यम् संस्कारस्त्रिविधः-वेगो भावना स्थितिस्थापकश्च । तत्र वेगो मूर्तिमत्सु पञ्चसु द्रव्येषु निमित्तविशेषापेक्षात्
() वेग ( २ ) भावना और ( ३ ) स्थितिस्थापक भेद से संस्कार तीन प्रकार का है। इनमें वेग मूर्त्तद्रव्यों में ही विशेष प्रकार के निमित्तकारणों की सहायता से क्रिया के द्वारा उत्पन्न होता हैं। वह ( वेग) किसी
न्यायकन्दली सांसिद्धिकं द्रवत्वं व्याख्याय नैमित्तिकं व्याचष्टे--नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजमिति । कथमित्यज्ञेन पृष्ट: सन्नुपपादयति--सपिरित्यादिना । सपिर्जतुमधूच्छिष्टानां पाथिवानां कारणषु परमाणुष्वग्निसंयोगात् क्रियोत्पत्तौ सत्यां कर्मजेभ्यो विभागेभ्यः सपिराद्यारम्भकसंयोगविनाशात् सपिरादिद्रव्यनिवृत्तौ सत्यां स्वतन्त्रेषु परमाणुषु वह्निसंयोगाद् द्रवत्वमुत्पद्यते । तदनन्तरमुत्पन्नद्रवत्वेषु परमाणुषु भोगिनामदृष्टापेक्षादात्मपरमाणुसंयोगात् क्रियोत्पत्तौ सत्यां कर्मजेभ्यः परमाणूनां परस्परसंयोगेभ्यो द्वयणुकादिप्रक्रमेण कार्यद्रव्ये जाते रूपाद्युत्पत्तिकाले एव कारगद्रवत्वेभ्यो द्रवत्वमुत्पद्यते। हिमकरकादिविलयनेऽप्येवमेव न्यायः।
स्नेहोऽपां विशेषगुण: संग्रहमृजादिहेतुः । संग्रहः परस्परमयुक्तानां
सांसिद्धिक द्रवत्व की व्याख्या करने के बाद 'नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोरग्निसंयोगजम' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अप क्रमप्राप्त नैमित्तिक द्रवत्व की व्याख्या करते हैं। 'कथम्' अर्थात् नैमित्तिकद्रवत्व की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, किसी अज्ञ के द्वारा यह पूछे जाने पर 'सपिः' इत्यादि से उस प्रश्न का उत्तर देते हैं। घृत,लाह, एवं माम प्रभृति (नैमित्तिक द्रवत्व वाले पार्थिव अवयवी द्रव्यों के) कारणीभूत परमाणुओं में अग्नि के संयोग से क्रिया उत्पन्न होती है, क्रियाओं से परमाणुओं में विभाग उत्पन्न होते हैं । कर्मजनित इन विभागों से परमाणुओं में रहनेवाले (द्वथणुकों के) उत्पादा पूर्वसंयोगों का नाश होता है। इन संयोगों के विनाश से घृतादि अवयवी द्रव्यों का परमाणुपयन्त विनाश हो जाता है । इस प्रकार उन परमाणुओं के स्वतन्त्र हो जाने पर इन स्वतन्त्र परमाणुओं में वह्नि के संयोग से द्रवत्व की उत्पत्ति होती है । भोग जनक अदृष्ट की सहायता से आत्मा और परमाणु के संयोग से (द्रवत्वयुक्त) परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति होती है। फिर परमाणुओं के कर्मजनित इन संयोगों से द्वथणुकादि क्रम से कार्य द्रव्यों की उत्पत्ति होती है, फिर आगे के क्षण में रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है. उसी क्षण में समवायिकारणों में रहनेवाले द्रवत्वों से कार्यद्रव्यों में द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। हिमकरकादि में द्रवत्वविलय के प्रसङ्ग में भी इसी रीति का अनुसरण करना चाहिए।
स्नेहोऽपां विशेषगुणः संग्रहमृजादिहेतुः' । 'संग्रह' उस विशेष प्रकार के संयोग का नाम है, जिससे परस्पर असंयुक्त सत्तू प्रभृति द्रव्यों का गोला बन जाता है।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्मणो जायते नियतदिक्रियाप्रबन्धहेतुः स्पर्शवव्यसंयोगविशेषविरोधी क्वचित् कारणगुणपूर्वक्रमेणोत्पद्यते ।
भावनासंज्ञकस्त्वात्मगुणो दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानहेतुर्भवति ज्ञानमददुःखादिविरोधी । पटवभ्यासादरप्रत्ययजः। नियमित देश में ही क्रियासमूह का कारण है। स्पर्श से युक्त द्रव्यों का विशेष प्रकार का संयोग उसका विनाशक है। कहीं वह अपने आश्रय के समवायिकारण में रहनेवाले वेग से भी उत्पन्न होता है।
(२) पहिले देखे हुए, सुने हुए, एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात अर्थों की स्मृति और प्रत्यभिज्ञा का कारणीभूत संस्कार ही 'भावना' है। ज्ञान, मद एवं दुःखादि से उसका नाश होता है। पटु, अभ्यास, आदर और
न्यायकन्दली सक्त्वादीनां पिण्डीभावप्राप्तिहेतुः संयोगविशेष मृजा कायस्योद्वर्तनादिकृता शुद्धिः। आदिशब्दान्मृदुत्वं च, तेषां हेतुः । स्नेहस्यापि गुरुत्ववन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । गुरुत्वं च परमाणुषु नित्यम्, कार्ये च कारणगुणपूर्वकमाश्रय. विनाशाद् विनाशि, तथा स्नेहोऽपीति ।।
संस्कारस्त्रिविधो वेगो भावना स्थितिस्थापकश्चेति । तत्र वेगो मूर्तिमत्सु पञ्चद्रव्येषु निमित्तविशेषापेक्षात् कर्मणो जायते । पञ्चसु द्रव्येषु पृथिव्यप्तेजोवायुमनस्सु कर्म वेगं करोति नान्यत्र, स्वयमभावात् । नोदनाभिघातादि'मृजा' शब्द से शरीर की वह शुद्धि अभिप्रेत है, जो शरीर में (उबटन प्रभृति के) मर्दन से प्राप्त होती है । आदि शब्द से मृदुत्वादि को समझना चाहिए । 'स्नेह' इन सबों का कारण है। 'स्नेहस्यापि गुरुत्ववन्नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः अर्थात् गुरुत्व जिस प्रकार परमाणुओं में नित्य है, उसी प्रकार स्नेह भी परमाणुओं में नेत्य है । जिस प्रकार कार्यद्रव्य में 'गुरुत्व' कारणगुणक्रम से उत्पन्न होता है, एवं आश्रय के विनाश से विनाश को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कार्य द्रव्य में स्नेह भी कारणगुणक्रम से उत्पन्न होता है, एवं आभय के विनाश से विनाश को प्राप्त होता है।
संस्कारस्त्रिविधो वेगो वना स्थितिस्थापक श्चेति, तत्र वेगो मूत्तिम.सु पञ्चद्रव्येषु निमित्तविशेषापेक्षात् कर्मणो जायते ।' पाँच द्रव्यों में अर्थात् पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन इन पाँच द्रव्यों में क्रिया से वेग को उत्पति होती है, और किसी वस्तु में नहीं, क्योंकि इन पांच द्रव्यों को छोड़कर क्रिया स्वयं अन्यत्र कहीं नही है। क्रिया को वेग के उत्पादन में नोदन या अभिघात प्रभृति कारणों का साहाय्य आवश्यक है, वह स्वतन्त्र होकर केवल अपने ही बल से वेग का उत्पादन नहीं कर सकती. क्योंकि मन्दगति
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम् [गुणनिरूपणे संस्कार
प्रशस्तपादभाष्यम् पटुप्रत्ययापेक्षादात्ममनसोः संयोगादाश्चर्येऽथें पटुः संस्कारातिशयो जायते । यथा दाक्षिणात्यस्योष्ट्रदर्शनादिति । विद्याशिल्पव्यायामादिघभ्यस्यमानेषु तस्मिन्नेवार्थ पूर्वपूर्वसंस्कारमपेक्षमाणादुत्तरोत्तरस्मात् प्रत्ययादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते । ज्ञान से इसकी उत्पत्ति होती है। पटु ( अनुपेक्षात्मक ) ज्ञान एवं आत्मा और मन के संयोग से अद्भुत विषयों में 'पटु' नाम के विशेष प्रकार के संस्कार की उत्पत्ति होती है। जैसे कि दक्षिण देश के रहनेवाले को ऊँट के देखने से ( ऊँट का पटु संस्कार होता है )। विद्या, शिल्प एवं व्यायाम प्रभृति वस्तुओं का बार बार अभ्यास करते रहने से उन्हीं विषयों के पूर्वपूर्व संस्कारों से उत्पन्न प्रतीतियों (स्मृतियों ) के कारण आत्मा और मन के संयोग से एक विशेष प्रकार के संस्कार की उत्पत्ति होती है।
न्यायकन्दली निमित्तविशेषापेक्षं न केवलम्, मन्दगतौ वेगाभावात् । नियतदिकक्रियाप्रबन्धहेतुः। यद्दिगाभिमुख्येन क्रियया वेगो जन्यते तद्दिगभिमुखतयैव क्रिया. सन्तानस्य हेतुरित्यर्थः। स्पर्शवदिति । विशिष्टेन स्पशवद्व्यसंयोगेनात्यन्तनिबिडावयववृत्तिना वेगो विनाश्यते, यः स्वयं विशिष्टः। मन्दस्तु वेगः स्पर्शवद्रव्यसंयोगमात्रेण विनश्यति, यथातिदूरं गतस्येषोस्स्तमितवायुप्रतिबद्धस्य । क्वचिदिति । बाहुल्येन तावद्वेगः कर्मजः, क्वचिद् वेगवदवयवारब्धे जलावयविनि कारणवेगेभ्योऽपि जायते।
___ भावनेत्यादि । भावनासंज्ञकस्तु संस्कार आत्मगुण: । दृष्टश्रुतानुभूतेरूप क्रिया के रहने पर भी वेग की उत्पत्ति नहीं होती है। 'नियतदिक्रियाप्रबन्धहेतुः' वेग नियत दिशा में ही क्रियासमूह का उत्पादक है। अर्थात् जिस दिशा की तरफ क्रिया से वेग उत्पन्न होता है, उसी दिशा की तरफ क्रियासमूह को वेग उत्पन्न करता है। 'स्पर्शवदिति' स्पर्श से युक्त द्रव्य के विशेष प्रकार के एवं निबिड़ अवयव के द्रव्य में रहनेवाले संयोग से तीब्र वेग का विनाश होता है। मन्द वेग का विनाश तो स्पर्श से युक्त किसी भी द्रव्य के संयोग से हो जाता है, जैसा कि अन्यत्र दूर गये हुए बाण के वेग का विनाश मन्द गति के वायु से भी हो जाता है । 'क्यचिदिति' अर्थात् अधिकांश वेगों की उत्पत्ति तो क्रिया से ही होती है, किन्तु कुछ वेगों की उत्पत्ति आश्रायीभूत द्रव्य के अवयवों में रहनेवाले वेग से भी होती है, जैसे कि जल में कारणगुणक्रम से भी वेग की उत्पत्ति होती है।
__'भावनेत्यादि' अर्थात् भावना नाम का जो संस्कार वह आत्मा का गुण है। 'दृष्टानुभूतेषु' इस वाक्य के द्वारा इस संस्कार से उत्पन्न होनेवाले कार्यों को दिखलाया
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प्रकरणम् ]
६४६
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
ष्विति । दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु स्मृतेः प्रत्यभिज्ञानस्य च हेतुरिति तस्य कार्यकथनम् । दृष्टश्रुतानुभूतेष्विति विपर्ययावगतोऽप्यर्थो बोद्धव्यः, तत्रापि स्मृतिदर्शनात् । ज्ञानेति । प्रतिपक्षज्ञानेन संस्कारो विनाश्यते। द्यूतादिव्यसनापन्नस्य पूर्वाधीतविस्मरणात् । मदेनापि संस्कारस्य विनाशः, सुरमित्तस्य पूर्वस्मृतिलोपात् । मरणादिदुःखादपि संस्कारो विनश्यति, जन्मान्तरानुभूतस्मरणाभावात् । आदिशब्देन सुखादिपरिग्रहः, भोगासक्तस्य कुपितस्य वा पूर्ववृत्तस्मृत्यभावात् । पटवभ्यासेति । पटुप्रत्ययादभ्यासप्रत्ययादादरप्रत्ययाच्च संस्कारो जायते। पटुप्रत्ययापेक्षादात्ममनसोः संयोगविशेषादाश्चर्यऽर्थ पटुः संस्कारो जायते।
यथेति। उष्ट्रो दाक्षिणात्यस्यात्यन्ताननुभूताकारत्वादाश्चर्यभूतोऽर्थः। तद्दर्शनात् तस्य पटुः संस्कारो जायते, कालान्तरेऽप्युष्ट्रानुभवस्मृतिजननात् । अभ्यासप्रत्ययजं संस्कारं दर्शयति-विद्याशिल्पेत्यादि । विद्या शास्त्रागमादिका, शिल्पं पत्त्रभङ्गादिक्रिया, व्यायाम आयुधादिश्रमः, तेष्वभ्यस्यमानेषु तस्मिन्नेवार्थे गया है कि इससे प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात अथं को स्मृति और प्रत्यभिज्ञान नाम का विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है। 'दृष्टानुभूतेषु' इस पद से ( केवल प्रत्यक्ष प्रमा और अनुमानप्रमा के द्वारा ज्ञात अर्थ ही नहीं, किन्तु ) विपर्यय के द्वारा ज्ञात अर्थों का भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उनके विषयों को भी स्मृति होती है । 'ज्ञानेति' विरोधिज्ञान से संस्कार का विनाश होता है, क्योंकि जूआ प्रभृति व्यसनों में लगे हुए व्यक्ति को पहिले के अधीत विषयों का विस्मरण हो जाता है । मद से भी संस्कार का विनाश होता है, क्योंकि सुरापान से मत्त व्यक्ति के पूर्वस्मृति का लोप देखा जाता है । मरणादि दुःखों से भी संस्कार का नाश होता है, क्योंकि दूसरे जन्म की बातों का स्मरण नहीं होता । ('ज्ञानमददुःखादि' पद में प्रयुक्त) 'आदि' पदसे सुखादि का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि भोग में आसक्त पुरुषों को या अत्यन्त क्रुद्ध पुरुषों को पहिले की बातों की विस्मृति हो जाती है। 'पट्वभ्यासेति' पटुप्रत्यय से, अभ्यासप्रत्यय से एवं आदरप्रत्यय से संकार की उत्पत्ति होती है । ‘पटुप्रत्यायादाम मनसोः संयोगविशेषादाश्चर्येऽर्थे पटुः संस्कारो जायते यथेति'।
(दक्षिण देश में ऊँट नहीं होता, अतः) दाक्षिणात्यों को ऊँट का कभी अनुभव नहीं रहता, अतः कभी देखने पर अत्यन्त आश्चर्य होता है; जिससे ऊँट को एक बार देखने पर भी उसे ऊँट विषयक 'पटुसंस्कार' ही उत्पन्न होता है । अतः बहुत दिनों के बाद भी ऊंट की उन्हें स्मृति होतो है। विद्याशिल्पेत्यादि इस सन्दर्भ के द्वारा अभ्यासप्रत्यय से उत्पन्न संस्कार का निरूपण किया गया है। इस सन्दर्भ के 'विद्या' शब्द से शास्त्र एवं आगम प्रभृति अभिप्रेत हैं। 'शिल्प' शब्द से पत्रभङ्गादि' क्रियाओं को समझना चाहिए। 'व्यायाम' शब्द से अस्त्रशस्त्रादि चलाने का श्रम लेना चाहिए। इन सबों का अभ्यास करने पर, 'तस्मिन्नेवार्थे' अर्थात् पहिले अनुभूत उसी अर्थ में ( संस्कार की उत्पत्ति होती है )। 'पूर्वपूर्वेत्यादि' यत: वह संस्कार बहुत दिनों
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न्यायकन्दली संचलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
पूर्वगृहीते । पूर्वेत्यादि । यतः सुचिरमनुवर्तते, स्फुटतरं च स्मरणं करोति । न ह्याद्यानुभव एव संस्कारविशेषमाधत्ते, प्रथमं तदर्थस्मरणाभावात् । नाप्युत्तर एव हेतु:, पूर्वाभ्यासवैयर्थ्यात् । तस्मात् पूर्वसंस्कारापेक्षोत्तरोत्तरानुभवाहिताधिकाधिक संस्कारोत्पत्तिक्रमेणोपान्त्यसंस्कारापेक्षादन्त्यानुभवात् तदुत्पत्तिः ।
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[ गुणनिरूपणे संस्कार
इदं त्विह निरूप्यते । विद्यायामभ्यस्यमानायां किं तदर्थो वाक्येन प्रतिपाद्यते ? किं वा स्फोटेन ? कुतः संशयः ? विप्रतिपत्तेः । एके वदन्ति स्फोटोर्थं प्रतिपादयतीति । अपरे त्याहुर्वाक्यं प्रत्यायकमिति । अतो युक्तः संशयः । किं तावत्प्राप्तम् ? स्फोटोऽर्थप्रत्यायक इति । यदि हि वर्णानतिरिक्तं पदम् पदानतिरिक्तं च वाक्यम्, तदार्थप्रत्यय एव न स्यादिति । तथा हि न वर्णाः प्रत्येकमर्थविषयां धियमाविर्भावयन्ति, शेषवर्णवैयर्थ्यात् । समुदायश्च तेषां न सम्भवति, अन्त्यवर्णग्रहणसमये पूर्वेषामसम्भवात् । नित्यत्वाद् वर्णानामस्ति समुदाय इति चेत् ? तथापि न तेषां प्रतीतिरनुवर्तते, अप्रतीयमानानां च प्रत्यायकत्वे सर्वदार्थप्रतीतिप्रसङ्गः । नहि प्रतीत्य अप्रतीयमानानां सर्वथा अप्रतीयमानानां च कश्चिद् विशेषः । पूर्वावगता वर्णाः स्मृत्यारूढाः प्रतीतिहेतव
तक रहता है, एवं अत्यन्त स्पष्ट स्मृति का उत्पादन करता है । पहिले बार के ही अनुभव से विशिष्ट संस्कार की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि उस संस्कार से स्मृति की उत्पत्ति नहीं होती हैं। केवल आगे के अनुभव ही संस्कार के उत्पादक नहीं हैं, क्योंकि ( ऐसा मानने पर ) पहिले के सभी अभ्यास व्यर्थ हो जाएँगे । 'तस्मात् ' पूर्व संस्कार से युक्त आत्मा में आगे के अनुभवों से संस्कारों की उत्पत्तिको धारा चलती है, इस प्रकार उपान्त्य ( अर्थात् अन्तिम संस्कार से अव्यवहितपूर्व वृत्ति) संस्कार की सहायता से अन्तिम अनुभव के द्वारा विशिष्ट संस्कार की उत्पत्ति होती है ।
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इस प्रसङ्ग में इस विषय का विचार उठाता हूँ कि शास्त्र या आगम रूप कथित विद्या के अभ्यास से जो उनके अर्थों का प्रतिपादन होता है, वह वाक्य से उत्पन्न होता है ? या स्फोट से उत्पन्न होता है ? ( प्र० ) यह संशय ही उपस्थित क्यों हुआ ? ( उ० ) परस्पर विरोधी मतों के कारण संशय उपस्थित होता है । किसी सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि स्फोट से अर्थ की प्रतीति होती है । दूसरे सम्प्रदाय के लोग कहते हैं कि वाक्य से ही अर्थ का बोध होता है। तो फिर इस प्रसङ्ग में क्या होना उचित है ? ( पू० ) स्फोट से हो अर्थ की प्रतीति उचित है। क्योंकि पदों का समूह ही वाक्य है । एवं वर्णों का समूह ही पद है, इस वस्तुस्थिति के अनुसार वाक्य के अर्थबोध का होना सम्भव नहीं है । (विशदार्थ यह है कि वाक्य के ) हर एक वर्ण अर्थविषयक बोध के उत्पादक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा मानने पर उनमें से किसी एक ही वर्ण से अर्थ विषयक बोध का सम्पादक हो जाएगा फिर अवशिष्ट वर्णों का प्रयोग व्यर्थ हो जाएगा। वर्णों का एक समुदाय होना सम्भव ही नहीं है, क्योंकि अन्तिम वर्ण के
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दलो इति चेत् ? यदि हि स्मृतिरपि क्रमभाविनी ? तदा नास्ति वर्णसाहित्यम्, तृतीयवर्णग्रहणकाले प्रथमवर्णस्मृतिविलोपात्, युगपदुत्पादस्तु स्मृतीनामनाशङ्कनीय एव, ज्ञानयोगपद्यप्रतिषेधात् ।
____ अथ प्रथममाद्यवर्णज्ञानम्, तदनु संस्कारः, तदनु तृतीयवर्णज्ञानम्, तेन प्राक्तनेन संस्कारेणान्त्यो विशिष्टः संस्कारो जन्यत इत्यनेन क्रमेणान्ते निखिलवर्णविषयः संस्कारो जातो निखिलवर्णविषयामेकामेव स्मृति युगपत् करोतीत्याश्रीयते, तदा कमो हीयेत । क्रमो हि पौर्वापर्यम्, तच्च देशनिबन्धनं कालनिबन्धनं वा स्यात्, उभयपि तद्वणेषु नावकाश लभते, तेषां सर्व
प्रत्यक्ष के समय पूर्व के सभी वर्गों का रहना सम्भव नहीं है । (प्र०) वर्ण तो नित्य हैं, अतः सभी गमयों में उनकी सत्ता सम्भावित है, सुत राम् वर्णों । समुदाय असम्भव नहीं है। (उ०) फिर भी किसी एक समय में सभी वणों का ग्रहण सम्भव नहीं है। वर्ण गृहीत होकर ही अर्थप्रत्यय के कारण है। यदि वर्ण स्वरूपतः अर्थप्रत्यय के कारण हों, तो फिर उनसे नर्वदा अर्थ की तोति होनी चाहिए, क्योंकि एकबार ज्ञात वर्ण के अज्ञान में और वर्णों के सर्वया अज्ञान में कोई अन्तर नहीं है । अतः इस प्रकार भी वर्ण समूह से सर्वप्रत्यय का उपपादन नहीं किया जा सकता।
(प्र०) पद या वाक्य के जितने वर्ण पहिले ज्ञात हैं, वे सभी पुनः स्मृतिपथ में आकर अर्थ बोध का उत्पादन करते हैं। (उ०) (इस प्रसङ्ग में पूछना है कि पद या वाक्य के प्रत्येक वर्ण को अलग २ स्मृति होती है ? या सभी वर्गों का एक ही स्मरण होता है ?) इनमें यदि यह प्रथमपक्ष माने कि पद या वाक्य के प्रत्येक वर्ण की स्मृति क्रमशः होती है, तो फिर स्मृति में भी वर्गों का एकत्र होना सम्भव नहीं है, क्योंकि तीसरे वर्ण की स्मृति के समय प्रथम वर्ण की स्मृति अवश्य ही विनष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्णविषयक सभी स्मृतियों का एक ही समय उत्पन्न होना तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि एक समय अनेक ज्ञानों को उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि इस प्रकार की कल्पना करें कि (प्र.) पहिले प्रथम वर्ण का ज्ञान होता है, उसके बाद उस वर्ण विषयक संस्कार की उत्पत्ति होती है, उसके बाद तृतीय वर्ण का ज्ञान, इसके बाद उसी क्रम से पहिले पहिले के संस्कारों से अन्तिम वर्णविषयक विशेष प्रकार के संस्कार की उत्पत्ति होती है । अन्त में सभी वर्गों के इस एक ही सस्कार से एक ही समय सभी वर्णविषयक एक ही स्मृति की उत्पत्ति होती है । (उ०) तो फिर वर्गों में क्रम ही नहीं रह जाएगा, क्योकि पूर्वापरीभाव (एक के बाद दूसरा) को ही क्रम कहते हैं। यह क्रम दो प्रकारों से सम्भव है (१) देशमूलक और (२) क. लमूलक । वर्गों में इन दोनों में से एक भी प्रकार के क्रम की सम्भावना नहीं है। क्योंकि वर्ण व्यापक हैं, इस लिए दैशिक पूर्वापरीभाव रूप क्रम सम्भव नहीं है । वर्ण नित्य (अविनाशी) हैं, इसीलिए कालिक पूर्वापरीभान की मम्भावना भी नहीं है । अतः वर्गों में क्रम की उपपत्ति का एक ही मार्ग बच
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे स्फोट
न्यायकन्दली गतत्वान्नित्यत्वाच्च । बुद्धिक्रमनिबन्धनस्तु वर्णानां क्रमो भवेत्, स चैकस्यां स्मृतिबुद्धौ परिवर्तमानानां प्रत्यस्तमित इत्यक्रमाणामेव प्रतिपादकत्वम् । अतश्च सरो रसो वनं नवं नदी दीनेत्यादिष्वर्थभेदप्रत्ययो न स्याद्, वर्णानामभेदात्, क्रमस्य प्रतीत्यनङ्गत्वाच्च । अस्ति चायं प्रतीतिभेदः सवर्णेष्वनुपपद्यमानः ? तयतिरिक्तं निमित्तान्तरमाक्षिपतीति स्फोटसिद्धिः ।
ननु स्फोटोऽपि नानभिव्यक्तोऽथ प्रतिपादयति, सर्वदार्थोपलब्धिप्रसङ्गात् । अभिव्यक्तिश्च न तस्य नणेभ्यः सम्भवति, उक्तेन न्यायेन तेषामेकैकतः समुदितानां चासामर्थ्यात्, तस्मात् स्फोटादपि दुर्लभा अर्थप्रतीतिः ।
अत्र वदन्ति । प्रयत्नभेदानुपातिनो वायवीया ध्वनयः प्रत्येकमेव तद्वर्णात्मकतया स्फोटमस्फुटमभिव्यञ्जयन्तः पूर्वं विषयसंस्कारसाचिव्यलाभादन्ते स्फोटमाभासयन्ते । तथा चान्ते प्रत्यस्तमितनिखिलवर्णविभागोल्लेखक्रममजाता है कि बुद्धिक्रम के अनुसार वर्णों का क्रम मानें । किन्तु सभी वर्गों का एक ही संस्कार मान लेने से वह मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है। अतः इस पक्ष में यह आपत्ति आ खड़ी होती है कि 'बिना क्रम के ही वर्णों से अर्थ का बोध होता है। जिससे 'सर' शब्द और 'रस' शब्द से, एवं 'वन' शब्द से और 'नव' शब्द से अथवा 'नदी' शब्द से और 'दीन' शब्द से समानविषयक बोधों की आपत्ति होगी, क्योंकि दोनों शब्दों के वर्ण समान ही हैं, क्रम को बोध का कारण मान नहीं सकते। किन्तु उन दोनों शब्दों के समुदायों में से प्रत्येक पद के द्वारा विभिन्न बोध ही होता है। अतः समान वर्ण के उक्त पदों से विभिन्न प्रकार की उक्त प्रतीति की उपपत्ति स्फोट के बिना नहीं हो सकती, अतः 'स्फोट' का मानना आवश्यक है।
(प्र) स्फोट भी तो ज्ञात होकर ही अर्थ विषयक बोध का उत्पादन कर सकता है, यदि ऐसा न माने, स्वरूपत. ही स्फोट को अर्थबोध का कारण मानें तो सर्वदा अर्थ विषयक बोध की आपत्ति होगी। (अब यह देखना है कि स्फोट की अभिव्यक्ति किससे होती है ? ) दर्गों से स्फोट की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि पद या वाक्य के प्रत्येक वर्ण से यदि स्फोट की अभिव्यक्ति मानेंगे, तो अवशिष्ट वर्ण ही व्यर्थ हो जाएंगे। यदि वर्ण समुदाय से स्फोट की अभिव्यक्ति मानें, तो सो भी सम्भव नहीं है, क्योंकि सभी वर्गों में दैशिक या कालिक साहित्य सम्भव ही नहीं है । तस्मात् स्फोट से भी अर्थ का बोध सम्भव नहीं है।
इस आक्षेप के प्रसङ्ग में स्फोट से अर्थवोध माननेवालों का कहना है कि स्फोट पहिले से ही रहते हैं, किन्तु अनभिव्यक्त रहते हैं, किन्तु तत्तद्वर्णों के उच्चारण के उक्त प्रयत्न से निष्पन्न (कोष्ठय) वायु की ध्वनियां उक्त अनभिव्यक्त स्फोट को ही पहिले तत्तद्वणं स्वरूप से अस्फुट रूप में अभिव्यक्त करती हुई पश्चात् अर्थविषयक संस्कार की सहायता से अति स्फुट रूप से भी अभिव्यक्त करती हैं। यही कारण है कि अन्त में वर्गों के अलग अलग स्वरूप नहीं रह जाते, एवं वर्णों का अलग अलग उल्लेख भी नहीं रह जाता, इन सबों से अलग
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प्रकरणम् }
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली नवयवमेकं विस्पष्टमर्थतत्त्वमनुभूयते । यदि हि वर्णा एव पदम् ? न तदेकबुद्धि - नियमिति अनालम्बना बुद्धिः पर्यवस्यति । 'शब्दादर्थं प्रतिपद्यामहे' इति च व्यपदेशो न घटते । तस्माद् वर्णव्यतिरिक्तः कोऽपि सम्भवत्येको यस्मादर्थः स्फुटीभवतीति ।
___ एवं प्राप्तेऽभिधीयते। गुणरत्नाभरणः कायस्थकुलतिलकः पाण्डुदास इत्यादिषु पदेषुच्चार्यमाणेषु क्रमभाविनो वर्णाः परं प्रतीयन्ते न त्वन्ते वर्णव्यतिरिक्तस्य कस्यचिदर्थस्य संवेदनमस्ति । यदि हि तस्य पूर्व वर्णात्मकतया संविदितस्यान्ते स्वरूपसंवेदनम्, पूर्वज्ञानस्य मिथ्यात्वमवसीयते रजतज्ञानस्येव शुक्तिकासंवित्तौ। न चैवं प्रतिपत्तिरस्ति 'नायं वर्णः, किं तु स्फोटः' इति । या चेयमेकार्थावमशिनी बुद्धिः, सापि नार्थान्तरमवभासयति, किन्तु वन
एक सम्पूर्ण और अत्यन्त स्पष्ट अर्थ तत्त्त का बोध होता है। यदि वर्गों का समुदाय ही पद हो (वर्गों का कोई एक स्फोठ न हो) तो फिर पद में एकत्व की प्रतीति न हो सकेगी, अत: 'एक पदम्' इत्यादि बुद्धियाँ निदिषय के हो जाएंगी। एवं 'शब्दात अर्थ प्रतिपद्यामहे' (एक अखण्ड शब्द से अर्थ को हम समझते हैं, यह व्यवहार न हो सकेगा (किन्तु बहुत से शादों से हम अर्थ को समझते हैं' इस प्रकार का व्यवहार होगा)। अतः वर्णों से भिन्न कोई एक वस्तु है, जिससे अर्थ 'प्रस्फुटित' होता है (उसी को अन्वर्थसंज्ञा 'स्फोट है)।
इन सब युक्तियों से स्फोट की सत्ता की सम्भावना उपस्थित होने पर सिद्धान्तियों का कहना है कि 'गुण रत्नाभरणः कायस्थकुलतिलकः पाण्डुदासः' (अर्थात् पाण्डुदास कायस्थ कुल के तिलक रूप हैं एवं गुण रूपी रत्न ही उनके भूषण हैं) इन सब वाक्यों के उच्चारण करने पर क्रमशः उत्पन्न होनेवाले वर्षों की ही प्रतीति होती है, किन्तु उच्चारण के अन्त में इन वर्षों से भिन्न किसी (स्फोट रूप) अर्थ का भान नहीं होता है। यदि ऐसा कहें कि (प्र०) प्रथमतः वर्ण का जो भान होता है, वह वस्तुतः स्फोट का ही वर्ण रूप से भान होता है और अन्त में स्फोट का स्फोटत्व रूप से भान होता है । (उ.) तो फिर जैसे कि शुक्तिका में रजत ज्ञान को मिथ्या मानना पड़ता है, वैसे ही स्फोट में वर्णत्व विषयक प्रथम ज्ञान को मिथ्या ही मानना पड़ेगा। (किन्तु आगे) यह बाधज्ञान भी नहीं होता कि 'ज्ञात होनेवाला यह वर्ण नहीं है, किन्तु स्फोट है' । वर्गों के समुदाय में जो एकत्व की प्रतीति होती है, उस प्रतीति का भी विषय उन वर्गों के समुदाय से भिन्न कुछ भी नहीं है, जैसे कि 'यह वन है' इस प्रतीति का विषय वृक्षसमुदाय से भिन्न स्वतन्त्रवन नाम की कोई व तु नहीं है। 'शब्दादथं प्रतिपद्यामहे' यह पञ्चमी एकवचन से युक्त वाक्य का प्रयोग भी उन वर्गों के समुदाय को ही एक वस्तु मान कर किया जाता है ।
प्रत्यक्ष के द्वारा जिसका सर्वथा ज्ञान होना ही असम्भव है उस (स्फोट ) का अन्य प्रमाणों के द्वारा निरूपण सम्भव नहीं है, क्योंकि उसके ज्ञान का कोई दूसरा उपाय
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
रूपणे स्फोट
न्यायकन्दली प्रत्ययवद वर्णसमुदायमात्र गवलम्बते । 'शब्दादर्थं प्रतिपद्यामहे' इति वर्णसमुदायमेवोररीकृत्य लोकः प्रयुङ्क्ते ।।
न च प्रत्यक्षेणाप्रतीयमानः प्रमाणान्तरतः शक्यो निरूपयितुम, उपायाभावात् । अर्थप्रतीत्यन्यथानुपपत्तिस्तदुपाय इति चेत् ? किमप्रतीयमानः स्फोटोs
र्थाधिगमे हेतुः समथितो भवद्भिः ? प्रतीयमानो बा? अप्रतीयमानस्य हेतुत्वे सर्वदार्थप्रतीतिप्रसङ्गः। प्रतीतिश्च तस्य नास्तोत्युक्तम्, अर्थप्रत्ययो वनामेव तद्धावभावितामनुगच्छति, तेनैषामेव वरं व्युत्पत्त्यनुसारेणार्थप्रतिपादने कश्चिदुपाय आश्रीयताम्, न पुनरप्रतीयमानस्य गगनकुसुमस्येव कल्पना युक्ता। न चेदं वाच्यं वर्णानां प्रतिपादकत्वे कमभेदे कर्तृ भेदे व्यवधान च प्रतीतिप्रसङ्ग इति। नहि ते विपरोतक्रमाः कर्तृ भेदानुपातिनो देशकाल. व्यवाहतास्तेदर्थधियः कारणम्, कार्योन्नया हि शक्तयो भावानाम, यथा तेभ्यः कार्य दृश्यते, तथैव तेषां शक्तयः कल्प्यन्ते । यथोपदिशन्ति सन्तः
यावन्तो यादृशा ये च यदर्थप्रतिपादने। वर्णाः प्रज्ञातसामर्थ्यास्त तथैवावबोधकाः ।। इति ।
ही नहीं है। अर्थ की प्रत। ति से वर्गों में हो उसके अन्वय और व्यतिरेक का आक्षेप होता है, अतः वर्णों से ही अर्थ की प्रतिपत्ति के लिए कोई उपाय ढूढ़ निकालना ही युक्त है । यह अनुचित है कि इसके लिए आकाश कुसुम की तरह सर्वथा अप्रतीत होनेवाले किसी (स्फोट रूप) अथं की कल्पना को जाय । (वणों से ही अर्थ का बोध मानने के पक्ष में) इन दोषों का उद्भावन करना अयुक्त है कि (प्र०) ( वर्गों से ही यदि अर्थ की प्रतीति हो तो) (१) विभिन्न क्रम से पठित शब्दों से अर्थात् रस सर, वन नव, नदी दीन, प्रभृति शब्दयुगलों से समान अर्थविषयक बोध की आपत्ति होगी, क्योंकि दोनों में समान ही वर्ण है। (२) एवं विभिन्न कर्ताओं से उच्चरित विभिन्न वर्गों से (अर्थात् देवदत्त से उच्चरित 'घ' और यज्ञदत्त से उच्चरित 'ट' शब्द से घट विषयक) बोध की आपत्ति होगी। एवं (३) व्यवहित वर्णो से (अर्थात् 'घ' के उच्चारण के बाद ककारादि वर्गों का उच्चारण और उसके बाद उच्चरित 'द' वर्ण से) घट विषयक बोध की आपत्ति होगी। (उ०) ये आपत्तियां इसलिए नहीं हैं कि उक्त विभिन्न क्रमों से पठित, या विभिन्न कत्र्ताओं से पठित या व्यवहित होकर पठित वर्णों को समान अर्थविषयक बोध का कारण ही नहीं मानते, क्योंकि किस प्रकार की वस्तुओं में किसकी कारणता है ? यह केवल कार्य से ही अनुमान किया जा सकता है। जिन वस्तुओं से जिन प्रकार के कार्यों को उत्पत्ति देखी जाती है, उन वस्तुओं को ही उन कार्यों का कारण माना जाता है। जैसा कि विद्वानों का उपदेश है कि जितने एवं जिन वर्णों के जिस प्रकार के विन्यास में जिन अर्थों के बोध का सामर्थ्य (कार्य से) निश्चित है,
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली सर्वगतत्वान्नित्यत्वाच्च वर्णानां क्रमभावः। अत एव नदीदीनेत्यादिष्वर्थभेदः, क्रमभेदात्। वर्णेषु क्रमो नास्ति स कथमेषामङ्गं स्यादिति चेन्न, तेषामुत्पत्तिभाजामव्याप्यवृत्तीनां देशकालकृतस्य पौर्वापर्यस्य सम्भवात् । यच्चेदमुक्तम् प्रत्येकशः समुदितानां च न सामर्थ्यमिति, तदपि न परस्य मतमालोचितम् । यद्यपि वर्णा अनवस्थायिनस्तथापि तद्विषयाः क्रमभाविनः संस्काराः संभूय पदार्थधियमातन्वते । यद्वा पूर्ववर्णवे ही वर्ण उसी विन्यास-क्रम से उग अर्थ के बोधक हैं।"
अत एव इसी क्रमभंद के कारण नदं शब्द से और दोन शब्द से विभिन्न विषयक बोध होते हैं। (प्र०) वर्ण नित्य और व्यापक हैं, अतः उनका क्रम ही सम्भव नहीं है, फिर शब्दों का क्रम शब्द बोध का अङ्ग कैसे होगा ? (उ०) नहीं, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि वर्ण उत्पत्तिशील हैं, और अव्याप्यवृत्ति हैं (अर्थात् अपने आश्रयीभूत आकाश में कहीं किसी प्रदेश में रहते हैं, और किसी प्रदेश में नहीं) अतः उनमें कालिक और दैशिक दोनों ही प्रकार के क्रम हो सकते हैं । यह जो कहा गया था कि (प्र०) पद या वाक्य घटक प्रत्येक वर्ष में अर्थबोध की हेतुता मानने से अवशिष्ट वर्गों का प्रयोग व्यर्थ हो जाएगा, एवं वर्गों के समुदाय में अर्थबोध की जनकता सम्भव नहीं है क्योंकि सभी वर्गों की कहीं एकत्र स्थिति ही सम्भव नहीं है फिर उनका समुदाय हो कैसा ? इस प्रकार वर्ण न प्रत्येकशः ही अर्थबोध के कारण हो गकते हैं, न समहापन्न होकर ही (अत: स्फोट हो अर्थबोध
१. यहाँ मुद्रित न्यायक दलो पुस्तक का पाठ कुछ अशुद्ध और व्यत्यस्त मालूम पड़ता है। 'एवं प्राप्तेऽभिधीयते' इत्यादि वाक्यों से स्फोट का खण्डन और 'वाक्य से ही अर्थबोध की उत्पत्ति का सिद्धान्त' उपपादित हुआ है, जिसका उपसंहार ‘यावन्तो या हशा:' इत्यादि श्लोकवात्तिक के श्लोक को उद्धत कर किया गया है। इसके बाद 'सवंगतत्वान्नित्यत्वाच्च वर्णानां क्रमभाव.' ऐसी पङक्ति है। यहीं कुछ त्रुटि मालूम होती है, क्योंकि वर्णों का सर्वगतत्व उनके क्रमभाव का वाधक है, जिसका अनुपद ही 'क्रमो हि पौर्वापर्यम्' इत्यादि से उपपादन किया गया है। तदनुसार वर्णों का असर्वगतत्व
और अनित्यत्व ये ही वर्गों के क्रमभाव के ज्ञापक होंगे। अतः उक्त पक्ति को यदि सिद्धान्तपक्षीय मानें तो 'सर्वगतत्वात्' इत्यादि पाठ के स्थान पर उसके विरुद्ध 'अनित्यत्वादसवंगतत्वाच्च वर्णानां क्रममावः' ऐसा पाठ मानना पड़ेगा। दूसरा उपाय वह है कि उक्त पङ्क्ति को सिद्धान्तपक्षीय न मान कर पूर्वपक्षीय ही मान लें, और उस वाक्य के 'क्रमभावः' इस पद को क्रमाभावः' में परिवर्तित कर दें। तदनुसार "सर्वगतत्वानित्यत्वाच्च वर्णानां क्रमाभाव: । अत एव" इतने अंश को 'वर्णेषु क्रमो नास्ति' इस पूर्वपक्षवाक्य के पहिले पाठ करें। एवं 'पावन्तो यादृशा ये च' इस श्लोक के नीचे सिद्धान्त पक्ष का 'नदीदीनेत्यादिधर्थ भेदः क्रमात इतना ही रक्खें । इनमें द्वितीय पक्ष के अनुसार ही मैंने अनुवाद किया है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणनिरूपणे संस्कार
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रयत्नेन मनश्चक्षुषि स्थायित्वाऽपूर्वमर्थ दिदृक्षमाणस्य विद्युत्सप्रयत्न के द्वारा मन को चक्षु में सम्बद्ध कर विशेष प्रकार की वस्तु को देखने
न्यायकन्दली संस्कारस्मरणयोरन्यतरसापेक्षोऽन्त्यो वर्णः प्रत्यायकः, यथा चानेकसंस्काराः संभूय स्मरणं जनयन्ति तथोपपादितं द्वित्वे । अथ मन्यसे वर्णविषयात् संस्कारादर्थप्रतीतिरयुक्ता, संस्कारा हि यद्विषयोपलम्भसम्भावितजन्मानस्तद्विषयामेव स्मृतिमाधातुमीशते न कार्यान्तरम्। यथाह मण्डनः स्फोटसिद्धौ
___ संस्काराः खलु यद्वस्तुरूपप्रख्याविभाविताः ।
__ फलं तत्रैव जनयन्त्यतोऽर्थे धीन कल्प्यते ॥ इति । तदप्यसमीचीनम् । यतः पदार्थप्रतीत्यनुगुणतया प्रत्येकमनुभवैराधीयमाना वर्णविषयाः संस्काराः स्मृतिहेतुसंस्कारविलक्षणशक्तय एवाधीयन्ते, के कारण हैं, वर्ण नहीं) । (उ०) यह कहना भी वर्ण को ही अर्थबोध का कारण माननेवाले प्रतिपक्षी के मत की आलोचना किये बिना ही मालूम होता है। यह ठीक है कि वर्ण चिरस्थायी नही हैं (क्षणिव हैं ) फिर क्रमशः उत्पन्न उनके सभी संस्कार मिलकर पदार्था षयक बोध को उत्पन्न करेंगे। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि पहिले पहिले वर्ण के संस्कार अथवा पहिले पहिले वर्ण की स्मृति इन दोनों में से किसी एक के साहाय्य से केवल अन्तिम वर्ण से भी अर्थ का बोध मान सकते हैं। अनेक संस्कार मिलकर एक ही स्मरण को जिस रीति से सम्पादन करते हैं. वह रीति द्वित्वनिरूपण के प्रसङ्ग में लिख आये हैं। यदि यह कहना चाहते हों कि (प्र०) जिस विषयक अनुभव से जिस संस्कार की उत्पत्ति होगी, वह संस्कार उसी विषयक स्मृति को उत्पन्न कर सकती है, जिससे एक विषयक संस्कार से अपर विषयक स्मृतिरूप भी दूसरा कार्य नहीं हो सकता । अतः वर्णविषयक संस्कार से अर्थविषयक बोध रूप दूसरे कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? ( क्योंकि वर्णविषयक संस्कार से तो वर्ण विषयक स्मृतिरूप कार्य ही उत्पन्न हो सकता है )। जैसा कि आचार्य मण्डन ने अपने 'स्फोटसिद्धि' नामक ग्रन्थ में कहा है कि संस्कार जिन विषयों की प्रख्या' अर्थात् अनुभव से उत्पन्न होंगे, उन्हीं विषयों में वे स्मृति को उत्पन्न कर सकते हैं, अत: वर्णविषयक संस्कारों से अर्थविषयक धी' अर्थात् बोध उत्पन्न नहीं हो सकता । ( उ० ) किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ( अन्यत्र स्मृति और संस्कार के कार्यकारणभाव में समानविषयत्व का नियम यद्यपि ठीक है तथापि ) पदों में या वाक्यों में प्रयुक्त होनेवाले वर्षों के हर एक अनुभव से आत्मा में जिस संस्कार का आधान होता है, वह संस्कार स्मृति के कारणीभूत संस्कारों से कुछ विलक्षण प्रकार का होता है, जिस संस्कार में पद के अर्थविषयक अनुभव कराने की शक्ति होती है. उस संस्कार के कार्य
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६५७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् म्पातदर्शनवदादरप्रत्ययः तमपेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते । यथा देवहदे राजतसौवर्णपद्मदर्शनादिति । की इच्छावाले पुरुष को विद्युत सम्पात के देखने की तरह ( उक्त विशेष वस्तु में ) आदरबुद्धि उत्पन्न होती है। इस आदरबुद्धि एवं आत्मा और मन के सयोग, इन दोनों से विशेष प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है। जैसे देवताओं के सरोवर में चाँदी और सोने के कमलफूल देखने से ( विशेष प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है )।
न्यायकन्दली तथाभूतानामेव तेषां कार्येणाधिगमात् । सन्तु वा भावनारूपाः संस्कारास्तथापि तेषामर्थप्रतिपादनसामर्थ्यमुपपद्यते, तद्भावभावित्वात् । यो हि स्फोटं कल्पयति, तेन स्फोटस्यार्थप्रतिपादनशक्तिरपि कल्पनीयेति कल्पनागौरवम् । उभयसिद्धस्य संस्कारस्य सामर्थ्यमात्रकल्पनायां लाघवमस्तीत्येतदेव कल्पयितुमुचितम् । यथोक्तं न्यायवादिभिः
यद्यपि स्मृतिहेतुत्वं संस्कारस्य व्यवस्थितम् ।
कार्यान्तरेऽपि सामर्थ्य न तस्य प्रतिहन्यते ॥ इति । तदेवं वर्णेभ्य एव संस्कारद्वारेणार्थप्रत्ययसम्भवादयुक्ता स्फोटकल्पनेति ।
से ऐसा ही निश्चय करना पड़ता है। मान लिया कि वह भावनात्य संस्कार है ( जिससे सामान्य नियम के अनुसार समानविषयक स्मृति ही हो सकती है) तथापि पदार्थबोध के साथ उसके अन्वय ( और व्यतिरेक ) से इस संस्कार में अर्थ को प्रतिपादन करने की शक्ति की कल्पना अयुक्त नहीं कही जा सकती। जो कोई स्फोट नाम की अतिरिक्त वस्तु को कल्पना करते हैं, उन्हें उस वस्तु की कल्पना और स्फोट नाम की उस वस्तु में अर्थबोध के सामर्थ्य की कल्पना, ये दो कल्पनायें करनी पड़ती हैं। स्फोट न माननेवाले को वर्णविषयक संस्कार में अर्थविषयक बोध के सामर्थ्यरूप धर्म की कल्पना करनी पड़ती है, क्योंकि वर्णविषयक संस्कार रूप धर्मी को तो दोनों पक्षों को मानना ही है । अतः लाघव की दृष्टि से भी वर्गों से ही अर्थविषयक बोध का मानना उचित है। जैसा कि न्यायवादियों ने ( भट्टकुमारिल ने) कहा है कि "यद्यपि यह निर्णीत है कि संस्कार स्मृति का कारण है, फिर भी उसमें दूसरे कार्य की शक्ति का निराकरण नहीं किया जा सकता" । तस्मात् वर्गों से ही उनके संस्कार रूप व्यापार के द्वारा अर्थबोध हो सकता है, अतः स्फोट की कल्पना अयुक्त है।
८३
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे संस्कार
प्रशस्तपादभाष्यम् स्थितिस्थापकस्तु स्पर्शवद्र्व्येषु वर्तमानो घनावयवसन्निवेशविशिष्टेषु कालान्तरावस्थायिषु स्वाश्रयमन्यथाकृतं यथावस्थितं स्थापयति । स्थावरजङ्गमविकारेषु धनुःशाखाशृङ्गदन्तास्थिसूत्रवस्त्रा
स्पर्श से युक्त द्रव्यों में रहनेवाले संस्कार का नाम स्थितिस्थापकसंस्कार' है, जो कालान्तर में भी रहनेवाले एवं अवयवों के कठिन संयोग से उत्पन्न अपने आश्रय द्रव्य को दूसरे प्रकार की स्थिति से अपनी स्वरूपस्थिति में ले आता है। स्थितिस्थापक संस्कार का यह ( अपने आश्रय को पूर्वस्थिति में ले आने का ) कार्य टेढ़े किये हुए स्थावर या जङ्गम द्रव्यों के
न्यायकन्दली आदरप्रत्ययजं संस्कारं दर्शयति-प्रयत्नेनेत्यादिना। आदरः प्रयत्नातिशयः, तस्मादपूर्वमर्थं द्रष्टुमिच्छतो यद् विद्युत्सम्पातदर्शनवदर्थदर्शनं तदादर. प्रत्ययः, तमेवापेक्षमाणादात्ममनसोः संयोगात् संस्कारातिशयो जायते, चिरकालातिकमेऽपि तस्यानुच्छेदात् । अत्रोदाहरणम्-यथा देवहदे इत्यादि। देवह्रदे चैत्रमासस्य चित्रानक्षत्रसंयुक्तायां पौर्णमास्यामर्धरात्रे राजतानि सौवर्णानि च पद्मानि दृश्यन्त इति वार्तामवगम्य तस्यां तिथौ दिदक्षया मिलितानां सन्निधीयमानेऽर्धरात्रे प्रयत्नातिशयाच्चक्षुषि मनः स्थापयित्वा स्थितानामुत्थि. तेषु पद्मषु क्षणमात्रदर्शनादादरप्रत्ययात् संस्कारातिशयः कालान्तरेऽपि स्फुटतरस्मृतिहेतुरुपजायते ।
स्थितिस्थापकं कथयति-स्थितिस्थापकस्त्विति। अस्पर्शवद्रब्यवृत्तेर्भावनाख्यात् संस्कारात् स्पर्शवद्रव्यवृत्तित्वेन स्थितिस्थापकस्य विशेष
'प्रयत्नेन' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'आदरप्रत्यय' से उत्पन्न होनेवाले संस्कार का निरूपण करते हैं । प्रकृत में 'आदर' शब्द का अर्थ है विशेष प्रकार का प्रयत्न । इस आदर के द्वारा अपूर्व वस्तु को देखने की इच्छा से युक्त पुरुष को गिरती हुई बिजली को देखने की तरह जिस वस्तु का ज्ञान हो, वह ज्ञान ही 'आदर प्रत्यय' है। इसके साहाय्य से ही आत्मा और मन के संयोग से वह विशेष प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है, जो चिरकाल तक विनष्ट नहीं होता। इसी का उदाहरण 'यथा देवह्रदे' इत्यादि से दिखलाया गया है । 'चैत्रपूर्णिमा की आधी रात को यदि चित्रा नक्षत्र पड़ता है, तो उस समय देवह्रद में चाँदी और सोने के कमल दीख पड़ते है' यह सुनकर उन कमलों को देखने के लिए उस रात को उस समय विशेष प्रयत्न के द्वारा मन को चक्षु में सम्बद्ध कर जो देवह्रद के किनारे खड़ा रहता है, वह यदि एक क्षण भर भी उन कमलों को देख लेता है, फिर भी उसका यह देखना यतः 'आदरप्रत्यय' है, अतः इससे होने वाला संस्कार चिरकाल में भी स्मृति को उत्पन्न कर सकता है।
___ स्थितिस्थापकस्तु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा 'स्थितिस्थापक' संस्कार का निरूपण करते हैं। भावना नाम के संस्कार के आश्रय में स्पर्श नहीं है, और स्थितिस्थापक
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६५९ प्रशस्तपादभाष्यम् दिषु भुग्नसंवर्तितेषु स्थितिस्थापकस्य कार्य संलक्ष्यते। नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयोऽस्यापि गुरुत्ववत् । कार्यरूप धनुष, शाखा, शृङ्ग, दाँत, अस्थि, सूत्र एवं वस्त्र प्रभृति वस्तुओं को सीधा होने पर लक्षित होता है। गुरुत्व के सदृश ही इसके नित्यत्व और अनित्यत्व के प्रसङ्ग में भी जानना चाहिए।
न्यायकन्दली माख्यातं तुशब्दः। ये घना निविडा अवयवसन्निवेशाः तैविशिष्टेषु स्पर्शवत्सु द्रव्येषु वर्तमानः स्थितिस्थापकः स्वाश्रयमन्यथाकृतमवनामितं यथावत् स्थापयति पूर्ववदुजं करोति। ये प्रत्यक्षतोऽनुपलम्भात् स्थितिस्थापकस्याभावमिच्छन्ति तान् प्रति तस्य कार्येण सद्भावं दर्शयन्नाह-स्थावरजङ्गमविकारेष्विति । भुग्नाः कुब्जीकृताः संवर्तिताः पूर्वावस्था प्रापिताः, भुग्नाश्च ते संवर्तिताश्चेति भुग्नसंवर्तिताः, तेषु स्थितिस्थापकस्य कार्य लक्ष्यते। किमुक्तं स्यात् ? धनु:शाखादिष्ववनामितविमुक्तेषु यत् पूर्वावस्थाप्राप्तिहेतोराद्यस्य कर्मणः एकार्थसमवेतमसमवायिकारणं स स्थितिस्थापक: संस्कारः, अन्यस्यासम्भवात् । अन्ये तु भुग्नसंवर्तितेष्विति सूत्रवस्त्रादिष्विति अस्येदं विशेषणमिति मन्यमाना भुग्नानि संस्कार स्पर्श से युक्त द्रव्यों का गुण है, आश्रयों के ( अस्पर्शवत्व और स्पर्शवत्त्व ) इन दोनों अन्तर के द्वारा दोनों संस्कारों में अन्तर दिखलाने के लिए प्रकृत सन्दर्भ में 'तु' शब्द का प्रयोग किया गया है। अवयवों के 'घन' अर्थात् कठिन संनिवेशयुक्त स्पर्शवाले द्रव्य में विद्यमान 'स्थितिस्थापक' संस्कार 'अन्यथा कृत' अर्थात् नमाये हुए अपने आश्रयभूत द्रव्य को 'यथावत्स्थापन' अर्थात् पहिले की तरह सीधा कर देता है। जो समुदाय प्रत्यक्ष न होने के कारण 'स्थितिस्थापक' संस्कार को मानना ही नहीं चाहते, उन्हें कार्यहेतुक अनुमान के द्वारा स्थितिस्थापक संस्कार की सत्ता को समझाने के लिए ही 'स्थावरजङ्गमविकारेषु' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। 'भुग्न' शब्द का अर्थ है टेढ़ा किया हुआ (तिर्यक्कृत), और संवत्तित' शब्द का अर्थ है पहिली अवस्था को प्राप्त । प्रकृत सन्दर्भ का भुग्नसंवत्तितेषु' पद 'भुग्नाश्च ते संवर्तिताश्च भुग्नसंवत्तिताः, तेषु' इस प्रकार के समास से निष्पन्न है। इस शब्द के द्वारा स्थितिस्थापक संस्कार से उत्पन्न कार्य दिखलाये गये हैं। इससे फलितार्थ क्या निकला ? यही कि धनुष या वृक्ष की डोल प्रभृति जब अवनमित होकर फिर जिन क्रियाओं के द्वारा पहिली अवस्था को प्राप्त होते हैं, उन क्रियाओं में से पहिली क्रिया का असमवायिकारण एवं उस क्रिया के साथ ( उसके आश्रय रूप ) एक अर्थ में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाला संस्कार ही स्थितिस्थापक संस्कार' है। क्योंकि अवनमित शाखादि की पुनः पूर्वावस्था की प्राप्ति का कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता। कुछ अन्य लोग इस सन्दर्भ के 'भुग्नसंवत्तितेषु' इस पद को इसी सन्दर्भ के 'सूत्रवस्त्रादिषु' इसका विशेषण
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६६.
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् धर्मः पुरुषगुणः। कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः, अतीन्द्रियोऽन्त्यसुखसंविज्ञानविरोधी पुरुषान्तःकरणसंयोगविशुद्धाभिसन्धिजः, वर्णाश्रमिणां प्रतिनियतसाधननिमित्तः। तस्य तु साधनानि श्रतिस्मृतिविहितानि वर्णाश्रमिणां सामान्यविशेषभावेनावस्थितानि द्रव्यगुणकर्माणि ।
धर्म पुरुष (जीवात्मा ) का गुण है। वह अपने उत्पादक जीव के प्रिय, हित और मोक्ष का कारण है, एवं अतीन्द्रिय है। अन्तिम सुख और तत्त्वज्ञान इन दोनों से इसका नाश होता है। पुरुष और अन्तःकरण ( मन ) के संयोग और संकल्प इन दोनों से इसकी उत्पत्ति होती है। वर्णों और आश्रमियों के लिए विहित कर्म ( भी ) उसके साधन हैं। वेद एवं धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों में वर्णों और आश्रमियों के साधारण धर्मों और विशेषधर्मों के साधन के लिए कहे गये द्रव्य, गुण और कर्म भी इसके कारण हैं।
न्यायकन्दली यानि सूत्रादीनि संवतितानि तेष्विति व्याचक्षते । तस्य नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयो गुरुत्ववत् । यथा गुरुत्वं परमाणुषु नित्यं कार्येष्वनित्यं कारणगुणपूर्वकं च, तथा स्थितिस्थापकोऽपीत्यर्थः ।
धर्मः पुरुषेति। यो धर्मः, स पुरुषस्य गुणो न कर्मसामर्थ्यमित्यर्थः । कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः । प्रियं सुखम्, हितं सुखसाधनम्, मोक्षो नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदस्तेषां हेतुः । कर्तुः प्रियादीनामेव यो हेतुः स धर्म मानते हैं, (तदनुसार इस वाक्य का ऐसा अर्थ करते हैं ) कि संवत्तित जो सूत्रादि, उनमें रहनेवाला संस्कार ही 'स्थितिस्थापक संस्कार' है। 'तस्य नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयो गुरुत्ववत्' अर्थात् जैसे कि परमाणुओं में रहनेवाला गुरुत्व नित्य है, एवं कार्यद्रव्यों में रहनेवाला गुरुत्व अनित्य है, उसी प्रकार 'स्थितिस्थापक संस्कार' को भी समझमा चाहिए। ( अर्थात् परमाणुओं में रहनेवाला स्थितिस्थापक संस्कार नित्य है, एवं कार्यद्रव्यों में रहनेवाला अनित्य)।
___ 'धर्मः पुरुषेति' । अर्थात् धर्म (नाम का) जो गुण है वह 'पुरुष' का अर्थात् जीव का ही गुण है, ( ज्योतिष्टोमादि) क्रियाओं का शक्तिरूप नहीं है। 'कर्तुः प्रियहितमोक्षहेतुः' ( इस वाक्य में प्रयुक्त ) प्रिय शब्द का अर्थ है सुख, 'हित' शब्द सुख के साधनों को समझाने के लिए लिखा गया है, एवं 'मोक्ष' शब्द जीव के बुद्धि प्रभृति नौ विशेषगुणों का अत्यन्त विनाश रूप अर्थ का बोधक है। इन सबों का हेतु ( ही 'धर्म' है )। 'कर्तुः
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६६१ न्यायकन्दली इति व्याख्येयम् । न तु कर्तुरेव यः प्रियादिहेतुः स धर्म इति व्याख्या, पुत्रेण कृतस्य श्राद्धस्य पितृगामितृप्तिफलश्रवणात् । वृष्टिकामेन कारीयाँ कृतायां तदन्यस्यापि समीपदेशतिनो वृष्टिफलसम्बन्धदर्शनात् ।
स्वर्गकामो यजेतेत्यादिवाक्ये यागेन स्वर्ग कुर्यादिति कर्मणः श्रेयःसाधनत्वं श्रूयते। यश्च निःश्रयसेन पुरुषं संयुनक्ति स धर्मः, तस्माद् यागादिकमेव धर्मः, न पुरुषगुणः । तथा हि, यो यागमनुतिष्ठति तं धार्मिकमित्याचक्षते । एतदयुक्तम् । क्षणिकस्य कर्मणः कालान्तरभाविफलसाधनत्वासम्बन्धात् । अथोच्यते। क्षणिकं कर्म, कालान्तरभावि च स्वर्गफलम्, विनष्टाच्च कारणात् कार्यस्यानुत्पत्तिः, श्रुतं च यागादेः कारणत्वम्, तदेतदन्यथानुपपत्या फलोत्पत्त्यनुगुणं किमपि कालान्तरावस्थायि कर्मसामयं कल्प्यते, यवारेण कर्मणां श्रुता फलसाधनता निर्वहति। तच्च प्रमाणान्तरागोचरत्वादपूर्वमिति व्यपदिश्यते।
प्रियहितमोक्ष हेतुः' इस वाक्य की व्याख्या इस रीति करनी चाहिए कि (धर्मजनक क्रियाओं के ) कर्ता के 'प्रियादि' का जो हेतु वही 'धर्म' है । इस प्रकार की व्याख्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पुत्र के द्वारा अनुष्ठित श्राद्धरूप क्रिया से पिता में ही प्रीतिरूप फल का होना शास्त्रों में उपलब्ध होता है। एवं वृष्टि की कामना से 'कारीरी' नाम के याग के अनुष्ठान से जो वृष्टिरूप फल उत्पन्न होता है, उससे याग करनेवाले और उनके समीप के और लोग भी प्रीति का लाभ करते हैं ।।
(प्र. ) 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों से याग' के द्वारा स्वर्ग का सम्पादन करना चाहिए' इस प्रकार यागादि श्रेय कर्म ही स्वर्गादि इष्टों के साधक के रूप में सुने जाते हैं। 'धर्म' उसी का नाम है जो पुरुष को श्रेयस् के साथ सम्बद्ध करे । तस्मात् यागादि कर्म ही धर्म हैं, धर्म जीव का गुण नहीं है । एवं जो यागादि कर्मों का अनुष्ठान करता है उसे ही लोग 'धार्मिक' कहते भी हैं ।
( उ० ) किन्तु यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म क्षण भर ही रहते हैं, उनसे बहुत काल बाद होनेवाले स्वर्गादि का सम्पादन सम्भव नहीं है। यदि यह कहें कि (प्र०) यागादि क्रियायें क्षणिक हैं। उनके स्वर्गादि फल उनसे बहुत समय बाद होते हैं। यह भी निर्णीत है कि विनाश को प्राप्त हुए कारणों से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। फिर भी यागादि क्रियाओं में स्वर्गादि फलों की हेतुता वेदों से श्रुत है। किन्तु यह हेतुता तब तक उपपन्न नहीं हो सकती, जब तक की यागादि के बाद और स्वर्गादि की उत्पत्ति से पहिले तक रहनेवाले किसी व्यापार की कल्पना न कर लें, जिससे यागादि में वेदों के द्वारा श्रुत स्वर्गादि जनकता का निर्वाह हो सके। वही व्यापार और किसी प्रमाण के द्वारा गम्य न होने के कारण 'अपूर्व' कहलाता है।
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यथोक्तम्
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम् न्यायकन्दली
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[ गुणनिरूपणे धर्म
फलाय विहितं कर्म क्षणिकं चिरभाविने । तत्सिद्धिर्नान्यथेत्येतदपूर्वमपि कल्प्यते ॥ अत्रोच्यते । न कर्मसामर्थ्यं क्षणिके कर्मणि समवैति, शक्तिमति विनष्टे निराश्रयस्य सामर्थ्यस्यावस्थानासंभवात् । स्वर्गादिकं च फलं तदानीमनागतमेव, न शक्तेराश्रयो भवितुमर्हति । यदि त्वनुष्ठानानन्तरमेव स्वर्गो भवति ? अपूर्वकल्पनावैयर्थ्यम्, तदुपभोगश्च दुर्निवारः । विशिष्टशरीरेन्द्रियादिविरहादननुभवश्चेत् ? तर्ह्ययं तदानीमनुपजात एव स्वर्गस्योपभोग्यैकस्वभावत्वात् । अनुपभोग्यमपि सुखस्वरूपमस्तीति अदृष्टकल्पनेयम् । तस्मान्न फलाश्रयमपूर्वम् । न चाकाशादिसमवेतादपूर्वादात्मगामिफलसम्भवः । वस्तुभूतं च कार्यमनाधारं नोपपद्यते, तस्मादात्मसमवेतस्यैव तस्योत्पत्तिरभ्यनुज्ञेया । तथा सति न तत्कर्मसामथ्यं स्यात्, अन्यसामर्थ्यस्यान्यत्रासमवायात् । अथान्यस्याप्यन्यसमवेता शक्तिरिष्यते, तस्याः कार्यानुमेयत्वादिति चेत् ?
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जैसा कहा गया है कि 'बहुत दिनों बाद होनेवाले स्वर्गादि फलों के लिए जो क्षण मात्र रहनेवाले यागादि का विधान किया गया है, वह विधान तब तक उपपन्न नही हो सकता, जब तक कि 'अपूर्व' की कल्पना न कर ली जाय । अतः 'अपूर्व' को कल्पना करते हैं । ( उ० ) इस प्रसङ्ग में हम लोगों का कहना है कि यह कर्म का सामर्थ्य रूप अपूर्वं ( जिसे स्वर्गसाधत पर्यन्त रहना है ) यागादि क्रियाओं में तो रह नहीं सकता, क्योंकि क्षणिक हैं । अतः उनके नाश हो जाने पर बिना आश्रय के अपूर्व ( स्वर्गोत्पादन पर्यन्त ) की अवस्थिति ही सम्भव नहीं है । स्वर्गादि फल भी अपूर्व के आश्रय नहीं हो सकते, क्योंकि अपूर्व की उत्पत्ति के समय स्वर्गादि भविष्य के गर्भ में ही रहते हैं । यदि यागादि के अनुष्ठान के तुरंत बाद ही स्वर्गादि को उत्पत्ति ( आश्रय को उपपन्न करने के लिए ) मानें, तो उनका उपयोग भी ( उसी समय ) मानना पड़ेगा | यदि ऐसा कहें कि उस समय ( यागादि के अनुष्ठान के तुरंत बाद ) स्वर्गादि भोगों के उपयुक्त शरीर या इन्द्रियां नहीं हैं इसी से स्वर्ग की उत्पत्ति नही होती है, तो फिर यही मानना पड़ेगा कि स्वर्गादि उस समय उत्पन्न ही नहीं होते, क्योंकि स्वर्गादि उपभोगस्वभाव के ही हैं । यह कल्पना अभूतपूर्व होगी कि स्वर्ग की सत्ता तो उस समय भौ है, किन्तु वह स्वर्ग उपभोग्य नहीं है । यह भी सम्भव नहीं है कि ( पुरुष से भिन्न ) आकाशादि कोई भी वस्तु उसके आश्रय हों, क्योंकि आकाशादि में रहनेवाले अपूर्व से आत्मा में स्वर्ग की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह भी सम्भव नहीं है कि अपूर्व रूप कार्य की उत्पत्ति बिना आश्रय के ही हो, क्योंकि वह भावरूप कार्य है । अतः अपूर्व को यदि मानना है, तो उसकी उत्पत्ति आत्मा में ही माननी पड़ेगी । यदि ऐसा कहें कि ( प्र० ) हम यह भी मान लेंगे कि एक वस्तु की ऐसी भी शक्ति हो सकती है, जो समवाय सम्बन्ध से दूसरी वस्तु में रहे, क्योंकि शक्ति की सत्ता तो उससे उत्पन्न कार्यरूप
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यथोक्तम्
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भाषांनुवादसहितम् न्यायकन्दली
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शक्तिः कार्यानुमेया हि यद्गतैवोपलभ्यते । तद्गतैवाभ्युपेतव्या स्वाश्रयान्याश्रयापि च ॥ इति ।
६६३
कारणत्व
तदयुक्तम् । विनष्टे शक्तिमति तन्निरपेक्षस्य शक्तिमात्रस्य कार्यजनक - त्वानुपलम्भादेव । तेनैतदपि प्रत्युक्तम् । यदुक्तं मण्डनेन विधिविवेके - " तदाहितत्वात् तस्य शक्तिरिति" यागेनाहितत्वादपूर्वं यागस्य कार्यं स्यान्न तु शक्तिः, अपूर्वोपकृतात् कर्मणः फलानुत्पत्तेः, तस्माच्चिरनिवृत्ते कर्मणि देशकालावस्थादिसहकारिणोsपूर्वादेव फलस्योत्पत्तेरपूर्वमेव श्रेयः साघनम् । श्रुतिस्तु यागादरपूर्वजननद्वारेण न साक्षादिति प्रमाणानुरोधादाश्रयणीयम् । तथा सति युक्तं धर्मः पुरुषगुण इति । योऽपि यागादौ धर्मव्यपदेशः, सोऽप्यपूर्वसाधनतया प्रीतिसाधन इव स्वर्गशब्दप्रयोगः । स्वर्गसाधने हि चोदितस्य ज्योतिष्टोमस्य निरन्तरं प्रीतिसाधनतयार्थवादेन स्तुतेश्चन्दनादौ च प्रीतियोगे सति प्रयोगात्, तदभावे चाप्रयोगात्, प्रीतिनिबन्धनः स्वर्गशब्दः,
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लिङ्ग के द्वारा ही अनुमित हो सकती है । जैसा कहा गया है कि " कार्यरूप हेतु से अनुमित होनेवाली शक्ति जहाँ जिस आश्रय में उपलब्ध होगी, उसी में उसकी सत्ता माननी पड़ेगी" अतः उस कारण को शक्ति उसी कारण में ही रहेगी, कभी उससे भिन्न आश्रय में नहीं रह सकती । उ० ) किन्तु यह भी अयुक्त ही है, क्योंकि शक्ति के आश्रय का विनाश हो जाने पर उस आश्रय से सर्वथा निरपेक्ष केवल शक्ति से कार्य की उत्पत्ति की उपलब्धि नहीं होती है। आगे कहे हुए इस समाधान से आचार्य मण्डन मिश्र की विधिविवेक ग्रन्थ की यह उक्ति ( याग से ) जिस लिए कि 'उसका' अपूर्व का शक्ति कहलाती है ।" क्योंकि याग से 'आहित'
भी खण्डित हो जाती हैं कि "उससे आधान होता है, अतः 'अपूर्व' याग की अर्थात् उत्पन्न होने के कारण अपूर्व याग
से उत्पन्न हुआ कार्य है । अपूर्व याग की शक्ति नहीं है, क्योंकि ऐसी बात नहीं है कि
अपूर्व याग का साहाय्य
याग से ही स्वर्ग की उत्पत्ति होती है, और इस उत्पादन कार्य में करता है ( क्योंकि स्वर्ग की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्व क्षण में याग की सत्ता ही नहीं है, फिर अपूर्व किसका साहाय्य करेगा ? ) 1 तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि यागादि कर्मों के नाश हो जाने के बहुत पीछे उनसे उत्पन्न अपूर्व से ही स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति होती है, जिसमें उसे उपयुक्त देश कालादि का भी सहयोग प्राप्त होता है । अतः प्रमाण के द्वारा इसी पक्ष का अवलम्बन करना पड़ेगा कि अपूर्व ही स्वर्गादि श्रेयों का साक्षात् कारण है । यागादि क्रियाओं में जो स्वर्गादि फलों के हेतुत्व की चर्चा श्रुतियों में है वह हेतुता 'अपूर्व का उत्पादक होने से परम्परया यागादि भी स्वर्गादि के साधन हैं, इसी अभिप्राय से समझना चाहिए। तस्मात् भाष्य की यह उक्ति ठीक है कि 'धर्म पुरुष काही गुण है' । यागादि क्रियाओं में जो 'धर्म' शब्द का व्यवहार होता है, उसे अपूर्व या धर्म के साधनरूप अर्थ में लाक्षणिक समझना चाहिए।
जैसे कि प्रीति के चन्दन
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशास्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणनिरूपणे धर्म
यस्य यथालक्षणया प्रीतिसाधने प्रयोगः प्रीतिमात्राभिधानेऽपि तस्मात् प्रीतिसाधनप्रतीत्युत्पत्तेरुभयाभिधानशक्तिकल्पनावयर्थ्यात् । एवं धर्मशब्दस्यापि लक्षणया तत्साधने प्रयोगः, एकाभिधानादेवोभयप्रतीतिसिद्धेरुभयाभिधानशक्तिकल्पनानवकाशादिति तार्किकाणां प्रक्रिया |
अतीन्द्रियः केनचिदिन्द्रियेणायोगिभिर्न गृह्यत इत्यतीन्द्रियो धर्मः । अन्त्यसुखसं विज्ञानविरोधी । धर्मस्तावत् कार्यत्वादवश्यं विनाशी, न च निर्हेतुको विनाशः कस्यचिद् विद्यते । अन्यतस्ततो विनाशे चास्य नियमेन फलोत्पत्तिकालं यावदवस्थानं न स्यात् । फलं च धर्मस्य कस्यचिदनेकसंवत्सर सहस्रोपभोग्यम्, तस्य यदि प्रथमोपभोगादपि नाशः, कालान्तरे फलानुत्पादः । न चैकस्य निर्भागस्य भागशो नाशः सम्भाव्यते, तस्मादन्त्यस्यैव । सम्यग्विज्ञानेन धर्मो विनाश्यते । ये तु
वनितादि साधनों में 'स्वर्ग' शब्द का प्रयोग किया जाता है । स्वर्ग के साघनीभूत अपूर्व के लिए विहित ज्योतिष्टोमादि क्रियाओं का जो धर्मशब्द से नियमित व्यवहार होता है, वह उसका स्तुति रूप अर्थवाद है । एवं चन्दनादि साधनों में जब प्रीति का सम्बन्ध रहता है तभी 'स्वर्ग' शब्द का प्रयोग होता है, जब जिसे उन साधनों से ख नहीं मिलता है, तब उससे चन्दनादि में स्वर्गशब्द का प्रयोग नहीं होता । अतः यही समझना चाहिए कि प्रीति के साधनों में स्वर्गशब्द लाक्षणिक है, और प्रीति में ही उसकी अभिधा शक्ति है । क्योंकि प्रीति और उसके साधन इन दोनों में स्वर्गशब्द की अभिधा की कल्पना व्यर्थ है । इसी प्रकार धर्म के ज्योतिष्टोमादि साधनों में धर्मशब्द का प्रयोग लक्षणा के द्वारा ही होता है । क्योंकि धर्म को अपूर्वरूप एक ही अर्थ में अभिधा मान लेने से ही अपूर्वरूप उसके मुख्यार्थं का और ज्योतिष्टोमादि रूप लक्ष्यार्थं दोनों के बोध की उपपत्ति हो जाएगी । अपूर्व में और अपूर्व के कारण ज्योतिष्टोमादि, दोनों में धर्म शब्द की अभिधा शक्ति की कल्पना व्यर्थ है । यहीं तार्किक लोगों की रीति है ।
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'अतीन्द्रियः' अर्थात् योगियों से भिन्न कोई भी साधारण पुरुष धर्म को किसी भी इन्द्रिय से नहीं देख सकता, अतः धर्म अतीन्द्रिय' है । 'अन्त्य सुखसं विज्ञान विरोधी' धर्म यतः उत्पत्तिशील वस्तु है, अतः वह विनाशशील भी है । किन्तु कोई भी विनाश बिना किसी कारण के नहीं होता । यदि अन्त्यसुख और संविज्ञान इन दोनों से भिन्न किसी से धर्म का विनाश मानें तो नियमपूर्वक स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति से पहिले तक उसकी सत्ता नहीं रह सकेगी। ( यदि किसी भी उपभोग से धर्म का विनाश मानें तो ) किसी किसी धर्म के फल का उपभोग हजारों साल चलता है, अतः उनमें पहिले उपभोग से ही उसका विनाश हो जाएगा, आगे उससे उपभोग ही रुक जाएगा। यह भी सम्भव नहीं है कि एक अखण्ड वस्तु में उसके किसी एक भाग का विनाश हो ( और अवशिष्ट भाग बचा रहे ), तस्मात् अन्तिम सुख हो धर्म का नाशक
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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६६५
नित्यं धर्ममाहुस्तेषां प्रायेणानुपपत्तिः, धर्माधर्मक्षयाभावात् । पुरुषान्तःकरणेति । आत्मविशेषगुणत्वात् सुखादिवत् । विशुद्धेति । विशुद्धोऽभिसन्धिः दम्भादिरहितः संकल्पविशेषः, तस्माद्धर्मो जायते । वर्णाश्रमिणामिति । वर्णा ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः । आश्रमिणो ब्रह्मचारिगृहस्थवानप्रस्थयतयः । तेषां धर्मः प्रतिवर्णं प्रत्याश्रमं चाधिकृत्य विहितः साधनैर्जन्यत इत्यर्थः । अतीन्द्रियस्य धर्मस्य साधनानि कुतः प्रत्येतव्यानि, तत्राहतस्य त्विति । विशिष्टेनानुष्ठानेनाचार्यमुखाच्छ्रयत एव न लिखित्वा गृह्यत इति श्रुतिवेदः, स्मृतिर्मन्वादिवाक्यम्, ताभ्यां विहितानि प्रतिपादितानि वर्णाश्रमिणां सामान्यविशेषभावेनावस्थितानि द्रव्यगुणकर्माणि सामान्यानि धर्मसाधनानि । तत्र सर्वेषां वर्णाश्रमिणां च सामान्यरूपतया धर्मसाधनानि कथ्यन्ते । धर्मे श्रद्धा धर्मे मनःप्रसादः | अहिंसा भूतानामनभिद्रोहसंकल्पः । प्रतिषिद्धस्याभिद्रोहस्य निवृत्तेरधर्मो न भवति, न धर्मो जायते । अनभि
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है (अवान्तर सुख नहीं ) संविज्ञान अर्थात् सम्यग् विज्ञान ( तत्त्वज्ञान ) से भी धर्म का नाश होता है । जो कोई धर्म को नित्य मानते हैं, उनके मत में मोक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि उसके लिए धर्म और अधर्म दोनों ही का विनाश आवश्यक है, जो धर्म को नित्य मानने से सम्भव नहीं है । 'पुरुषान्त:करणेति' ( धर्मं पुरुष और अन्तःकरण के संयोग से उत्पन्न होता है क्योंकि ) वह भी सुखादि की तरह आत्मा का विशेषगुण है । विशुद्धेति' विशुद्ध जो अभिसन्धि अर्थात् दम्भादि से रहित जो विशेष प्रकार का संकल्प, उससे धर्म की उत्पत्ति होती है । 'वर्णाश्रमिणामिति' 'वर्ण' शब्द से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र अभिप्रेत हैं । 'आश्रमी' हैं-- ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थो और संन्यासी । अर्थात् इन सबों के तथ्यतः प्रत्येक वर्ष के मनुष्यों के लिए एवं प्रत्येक आश्रम के मनुष्यों के लिए शास्त्रों में विहित जो साधन हैं, उनसे धर्म की उत्पत्ति होती है । धर्म तो अतीन्द्रिय है, फिर उसके कारणों का ज्ञान कैसे होगा ? इसी प्रश्न का उत्तर 'तस्य तु' इत्यादि से दिया गया है। विहित विशेष प्रकार के अनुष्ठान से आचार्य के मुख से जिसे सुना हो जाता है, अर्थात् जिसका लिप्यादि से ज्ञान नहीं होता, वही है 'श्रुति' अर्थात् वेद । 'स्मृति' शब्द से मन्वादि ऋषियों के वाक्य अभिप्रेत हैं। श्रुति और स्मृति इन दोनों से 'विहित' अर्थात् प्रतिपादित जो सभी वर्गों और सभी आश्रमवाले पुरुषों के लिए सामान्यभाव और विशेषभाव से स्थित द्रव्य, गुण और क्रिया, वे सभी धर्म के सामान्य साधन हैं। इनमें सभी वर्णों और सभी आश्रमियों के लिए समान रूप से जो धर्म के साधन हैं, उनका निरूपण 'धर्म' श्रद्धा' इत्यादि से करते हैं। धर्म के प्रसङ्ग में चित्त की प्रसन्नता ही धर्म में श्रद्धा है। सभी प्राणियों
प्रति द्रोह न करने का संकल्प अहिंसा हैं । जो द्रोह निषिद्ध हैं, उस द्रोह के न करने से इतना ही होता है कि 'अधर्म' नहीं होता । किन्तु उससे धर्म की उत्पत्ति नहीं होती
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६६६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्र सामान्यानि-धर्मे श्रद्धा, अहिंसा, भूतहितत्वम्, सत्यवचनम्, अस्तेयम्, ब्रह्मचर्यम् अनुपधा, क्रोधवर्जनमभिषेचनम्, शुचिद्रव्यसेवनम्, विशिष्टदेवतामक्तिरुपवासोऽप्रमादश्च ।
उन ( सामान्यधर्मों के और विशेषधर्मों के साधनों ) में धर्म में श्रद्धा, अहिंसा, प्राणियों का उपकार, सत्यवचन, अस्तेय ( दूसरे की वस्तु को विना उसकी आज्ञा के न लेना) ब्रह्मचर्य, दूसरे को ठगने की अनिच्छा ( अनुपधा ) अक्रोध, स्नान, पवित्रवस्तुओं का सेवन, इष्ट देवता में भक्ति, उपवास और अप्रमाद ये ( १३ ) सभी वर्गों और सभी आश्रमियों क लिए समान रूप से धर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली द्रोहसंकल्पस्य विहितत्वात् स्यादेव धर्मसाधनम् । भूतहितत्वं भूतानामनुग्रहः । सत्यवचनं यथार्थवचनम् । अस्तेयमशास्त्रपूर्वकं परस्वग्रहणं मया न कर्तव्यमिति संकल्पः, न तु परस्वादाननिवृत्तिमात्रमभावरूपम्। ब्रह्मचर्यम् स्त्रीसेवापरिवर्जनम् । एतदपि संकल्परूपम् । अनुपधा भावशुद्धिः, विशुद्धनाभिप्रायेण कृतानां कर्मणां धर्मसाधनत्वात् । क्रोधवर्जनं क्रोधपरित्यागः, सोऽपि संकल्पात्मक एव । अभिषेचनं स्नानम् । शुचिद्रव्यसेवनं शुचीनां तिलादिद्रव्याणां क्वचित् पर्वणि नियमेन सेवनं धर्मसाधनम् । विशिष्टदेवताभक्तिः त्रयीसंमतायां देवतायां भक्तिरित्यर्थः। उपवास एकादश्यादिभोजननिवत्तिसंकल्पः। अप्रमादो नित्यनैमित्तिकानां कर्मणामवश्यम्भावेन करणम् । एतानि सर्वषामेव समानानि है। द्रोह न करने का कथित जो संकल्प है उससे अवश्य ही धर्म उत्पन्न होगा. क्योंकि उसका विधान किया गया है। 'भूतहितत्व' शब्द से प्राणियों के प्रति अनुग्रह अभीष्ट है। 'सत्यवचन' शब्द का अर्थ है सच बोलना । 'दूसरे व्यक्ति के जिस धन क लेना शास्त्र में विहित नहीं है, वह धन मुझे नहीं लेना चाहिए' इस प्रकार का संकल्प ही 'अस्तेय' है। अस्तेय शब्द से दूसरे के धन का न लेना' केवल यह अभावरूप अर्थ नहीं है। 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अर्थ हैं, 'स्त्री से उपभोगसम्बन्ध का परित्याग' यह भी संकल्प रूप ही है। 'अनुपधा' शब्द से 'अभिप्रायशुद्धि' अभीष्ट है, यत: विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अनुष्ठित कर्म ही धर्म के कारण हैं। 'क्रोधवर्ज।' है क्रोध का परित्याग, यह भी संकल्प रूप ही है । 'अभिधेचन' है स्नान । शुचिद्रव्य का सेवन' अर्थात् किसी विशेष पर्व में तिल प्रभृति पत्रि द्रव्यों का सेवन धर्म का कारण है । 'विशिष्ट देवता में भक्ति' अर्थात् तीनों वेदों के द्वारा प्रतिपादित किसी देवता में भक्ति । 'उपवास' शब्द से एकादशी प्रभृति विशेष तिथियों में भोजन न करने का संकल्प अभिप्रत है। 'अप्रमाद' शब्द का अर्थ है, 'नित्य एवं नैमित्तिक कर्मो का अवश्य अनुष्ठान करना' ये सभी वर्गों और सभी आश्रमों के व्यक्तियों के लिए धर्म के साधन हैं। 'इज्या' शब्द
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प्रकरणम् भाषानुवादसहितम्
६६७ प्रशस्तपादभाष्यम् ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यानामिज्याध्ययनदानानि
ब्राह्मणस्य विशिष्टानि प्रतिग्रहाध्यापनयाजनानि, स्ववर्णविहिताश्च संस्काराः।
यज्ञ, वेदों का अध्ययन, और दान ये तीन ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ( द्विजों ) इन तीनों वर्गों के लिए समान रूप से धर्म के साधन हैं।
प्रतिग्रह, अध्यापन ( वेदों का पढ़ाना ) यज्ञ कराना ( याजन ) अपने वर्ण ( ब्राह्मण ) के लिए विहित संस्कार, ये सभी ब्राह्मणों के लिए विशेषधर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली धर्मसाधनानि । इज्या यागहोमानुष्ठानम् । अध्ययनं वेदपाठः । दानं स्वद्रव्यस्य परस्वत्वापत्तिसंकल्पविशेषः। शूद्रस्यापि दानमस्त्येव, तेन यज्ञादिषु यहानं तदभिप्रायेणेदं त्रैवणिकानां विशिष्टं धर्मसाधनमुक्तम्।
ब्राह्मणस्य विशिष्टान्यसाधारणानि धर्मसाधनानि प्रतिपादयतिप्रतिग्रहाध्यापनयाजनानि। प्रतिग्रहो विशिष्टाद् द्रव्यग्रहणम् । अध्यापनं तु प्रसिद्धमेव । याजनमात्विज्यम् । एतानि ब्राह्मणस्य धर्मसाधनानि, तस्यामीभिरेवोपायजितानां द्रव्याणां धर्माधिकारात्। स्ववर्णविहिताश्चाष्ट चत्वारिशत् संस्काराः वैदिककर्मानुष्ठानयोग्यतापादनद्वारेण ब्राह्मणस्य धर्मसाधनम् । से याग एवं होम का अनुष्ठान समझना चाहिए । 'अध्ययन' शब्द का अर्थ है वेदों का पाठ । 'दान' शब्द से वह विशेष प्रकार का संकल्प अभीष्ट है, जिससे अपने स्वत्ववाले धन में दूसरे के स्वत्व की उत्पत्ति हो सके। यज्ञादि में जो दान किये जाते हैं, यहां उन्हीं दानों को समझना चाहिए, यदि ऐसी बात न हो, किन्तु दान शब्द से सामान्यतः सभी दान अभीष्ट हों ( तो फिर ) त्रैमणि कों के लिए निदिष्ट विशेष धर्मों में इसकी गणना असङ्गत हो जाएगी, क्योंकि के बल दान तो शद्रों के लिए भी धर्म का साधन है ही।
ब्राह्मणों के विशिष्ट' अर्थात् असाधारण धर्म के जो साधन हैं ( अर्थात् जो साधन केवल ब्राह्मणों में ही धर्म का उत्पादन कर सकते हैं ) उनका प्रतिपादन प्रतिग्रहाध्यापनयाजनानि' इत्यादि सन्दर्भ से किया गया है। विहित एवं विशेष व्यक्ति से दान का ग्रहण ही 'प्रति ग्रह' शब्द से लेना चाहिए। अध्यापन शब्द का अर्थ प्रसिद्ध ही है। याजन' शब्द का अर्थ है ऋत्विक् का कार्य करना । 'एतानि ब्राह्मणस्य धर्मसाधनानि' ब्राह्मणों को इन्हीं उपायों से प्राप्त धन के द्वारा धर्म सम्पादन का अधिकार है। 'स्ववर्णविहिताश्च संस्काराः' अर्थात् ब्राह्मणों के लिए विहित अड़तालिस प्रकार के संस्कार भी उनमें वेदों स निद्दिष्ट अनुष्ठान करने की योग्यता सम्पादन के द्वारा धर्म के साधन है।
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६६८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
रणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम्
क्षत्रियस्य सम्यक् प्रजापालनमसाधुनिग्रहो युद्धेष्वनिवर्त्तनं स्व. कीयाश्च संस्काराः।
वैश्यस्य क्रयविक्र पकृषिपशुपालनानि स्वकीयाश्च संस्काराः ।
अच्छी तरह प्रजा का पालन करना, दुष्टों का दमन, युद्ध से न लौटना ( अनिवत्ति) और अपने ( क्षत्रियों ) के लिए शास्त्रों में विहित संस्कार ये सभी क्षत्रियों के लिए विशेष धर्म के साधन हैं।
खरीद, बिक्री, खेती करना, पशुओं का पालन, अपने वैश्यों के ) लिए शास्शों के द्वारा विहित संस्कार ये सभी वैश्यों के लिए विशेष धर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली क्षत्रियस्य विशिष्टानि धर्मसाधनानि। सम्यक् प्रजापालनं न्यायवत्तीनां प्रजान परिरक्षणम् । असाधुनिग्रहः, दुष्टानां यथाशास्त्रं शासनम् । युद्धेष्वनिवर्त्तनं युद्धेषु विजयावधिः प्राणावधिर्वा आयुधव्यापारः। स्वकीयाश्च संस्काराः।
वैश्यस्य क्रयविक्रयकृषिपशुपालनानि। मूल्यं दत्त्वा परस्माद् द्रव्यग्रहणं क्रयः, मूल्यमादाय परस्य स्वद्रव्यदानं विक्रयः,। कृषिः परिकर्षिताय, भूमौ बीजस्य वपनं रोपणं च, पशुपालनं गोऽजाविकादिपरिरक्षणम् । एतानि वैश्यस्य धर्मसाधनानि, तस्यामीभिरेवोपायैरजितानां धनानां धर्माङ्गत्वात् ।
शूद्रस्य पूर्वेषु वर्णेषु पारतन्त्र्यममन्त्रिकाश्च क्रिया धर्मसाधनम् ।
'क्षत्रियस्य विशिष्ट नि धर्मसाधनानि' । 'सम्यक प्रजापालन' अर्थात् उचित न्याय की रीति से चलनेवाली प्रजाओं का पालन करना, असाधुनिग्रह' अर्थात् शास्त्रों में कही गयी रीति के अनुसार दुष्टों को दण्ड देना, युद्धष्वनिवर्त्तनम्' अर्थात् जब तक विजय प्राप्त न हो जाय, या जब तक प्राण रहे तब तक अस्त्र शस्त्रों को चलाते रहना, एवं क्षत्रियों के लिए विहित संस्कार, य सभी क्षत्रियों के लिए धर्म के साधन है।
'वैश्यस्य क्रयविक्रय कृषिपशुपालनानि'। मूल्य देकर दूसरों से द्रव्य लेना 'क्रय' कहलाता है । मूल्य लेकर दूसरे को अपना द्रव्य देना ही 'विक्रय है। जोती हुई भूमि में बीजों को बोना या रोपना ही 'कृषि' है। गाय बकरी प्रभृति को पालना ही पशुपालन' है। ये सभी वैश्यों के लिए ही धर्म के साधन हैं। इन्हीं उपायों से प्राप्त धन वैश्यों के धर्म के साधक हैं।
'शूद्रस्य पूर्ववर्णेषु पारतन्त्र्यममन्त्रि काश्च क्रियाः' अर्थात् पहिले कहे हुए ब्राह्मणादि वर्णों की अधीनता, बिना मन्त्र के ही विवाहादि क्रियाओं के अनुष्ठान प्रभृति ही शूद्रों के धर्म के साधन हैं।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् शूद्रस्य पूर्ववर्णपारतन्त्र्यममन्त्रिकाश्च क्रियाः।
आश्रमिणां तु ब्रह्मचारिणो गुरुकुलनिवासिनः स्वशास्त्रविहितानि गुरुशुश्रूषाग्नीन्धनभैक्ष्याचरणानि मधुमांसदिवास्वप्नाञ्ज. नाभ्यञ्जनादिवर्जनं च ।
कथित तीनों वर्गों की पराधीनता, एवं बिना मन्त्र की क्रिया, ये शूद्रों के विशेष धर्म के सान हैं।
आश्रमियों में गुरुकुलनिवासी ब्रह्मचारियों के लिए शास्त्रों में विहित गुरु और अग्नि की सेवा, ( होम के लिए ) लकड़ी लाना, भिक्षा माँगना, एवं मधु, मांस, दिन की निद्रा, अञ्जन और अभ्यङ्ग ( मालिश), इन सबों को छोड़ना ( ये सभी ) उनक विशेष ( असाधारण ) धर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली आश्रमिणां तु धर्मसाधनमुच्यते । ब्रह्मचारिणो गुरुकुलनिवासिन इति । उपनीय यः शिष्यं साङ्ग सरहस्यं च वेदमध्यापयति स गुरुः, तस्य कुले गृहे वसनशीलस्य ब्रह्मचारिणः स्वशास्त्रविहितानि ब्रह्मचारिणमधिकृत्य शास्त्रण विहितानि। गुरुशुश्रूषा गुरोः परिचर्या, गुरुशुश्रूषा च अग्निश्चेन्धनं च भक्ष्यं च तेषामाचरणानि। गुरुशुश्रूषाभक्ष्ययोः करणमेवाचरणम् । अग्नेराचरणम्, प्रत्यहमग्नौ होमः, इन्धनस्याचरणमग्न्यथं वनादिन्धनस्याहरणमिति विवेकः ।
गहस्थस्य धर्मसाधनं कथयति--विद्यावतस्नातकस्येति । यो वेदा
'ब्रह्मचारिणो गुरुकुलनिवासिनः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वार। अब आश्रमियों के धर्म का साधन कहते हैं । यहाँ 'गुरु' शब्द से उस विशिः पुरुष को समझना चाहिए जो शिष्य का उपनयन संस्कार कर कर अङ्गों सहित वेदों के रहस्य को समझावें । ऐसे 'गुरु' के गृह में सम्पूर्ण अध्ययनकाल तक नियमतः निवास कर अध्ययन करनेवाले 'ब्रह्मचारी' के लिए 'स्वशास्त्रविहितानि' अर्थात् विशेषकर ब्रह्मचारी के लिए ही शास्त्रों में विहित ( जो 'गुरुशुश्रूषादि' ) । 'गुरुशुश्रूषाग्नीन्धनभैक्ष्याचरणानि' यह वाक्य 'गुरुशुश्रूषा च अग्निश्चेन्धनञ्च भैक्ष्यं च तेषामाचरणानि' इस प्रकार की व्युत्पत्ति से सिद्ध है । गुरु की शुश्रूषा ( सेवा ) करना ही गुरुशुश्रूषा का आचरण है। भिक्षा माँगता ही भिक्षाचरण है। प्रतिदिन अग्नि में होम करना ही अग्नि का आचरण है। होम के लिए वन से लकड़ी लाना ही इन्धनाचरण है। इस प्रकार का विभाग प्रकृत में जानना चाहिए।
'विद्याव्रतस्नातकस्य' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा गृहस्थाश्रमी के लिए जो धर्म के साधन हैं, वे कहे गये हैं। 'विद्यावतस्नातक' शब्द से वे पुरुष अभिप्रेत हैं, जिन्होंने
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् विद्याव्रतस्नातकस्य कृतदारस्य गृहस्थस्य शालीनयायावरवृत्त्युपार्जितैरथैर्भूतमनुष्यदेवपितृब्रह्मालानां पञ्चानां महायज्ञानां सायम्प्रातरनुष्ठानम् ; एकाग्निविधानेन पाकयज्ञसंस्थानां च नित्यानां शक्तौ विद्यमानायामग्न्याधयादीनां च हवियज्ञसंस्थानामग्निष्टोमादीनां सोमयज्ञसंस्थानां च । ऋत्वन्तरेषु ब्रह्मचर्यमपत्योत्पादनं च ।
शालीनवृत्ति एवं यायावरवृत्ति के द्वारा उपाजित धन से प्रातःकाल और सायंकाल भूतयज्ञ ( काकादि प्राणियों के लिए अन्न उत्सर्ग करना ), मनुष्ययज्ञ ( अतिथिसेवा ), देवयज्ञ ( होम ), पितृयज्ञ ( नित्य श्राद्ध ), ब्रह्मयज्ञ ( वेदपाठ ) एवं सामर्थ्य के रहने पर एकाग्निविधान ( विवाह के समय गृहीत अग्नि ) से पाकयज्ञसंस्थाओं ( अष्टका, पार्वणी, चैत्र्य, आश्वयुज्य प्रभृति ) का अनुष्ठान, अग्निहोत्र एवं विशेष प्रकार के हविर्यज्ञ संस्था के ( दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, एवं आग्रयण प्रभृति ) इष्टियों का, सोमयज्ञ संस्था के । अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिराव एवं आप्तोर्याम ) यज्ञों का अनुष्ठान एवं ( पत्नी के ) ऋतुकाल से भिन्न समय में ब्रह्मचर्य का पालन एवं पुत्र का उत्पादन, ये सभी विद्याव्रतस्नातक ( वेदाध्ययन के लिए स्वीकार किये गये व्रतों को अध्ययन के समाप्त हो जाने के कारण छोड़ देनेवाले ) विवाहित गृहस्थों के विशेष धर्म के साधन हैं।
न्यायकन्दली ध्ययनार्थं गृहीतं व्रतमधीते वेदे विजितवान् स विद्याव्रतस्नातकः, तस्य कृतदारस्य कृतपत्नोपरिग्रहस्य गृहस्थस्य शालीनयायावरवृत्त्युपार्जितैरथैर्भूतमनुष्यदेवपितृब्रह्माख्यानां पञ्चानां महायज्ञानां सायं प्रातरनुष्ठानम् । यावता धान्येन कुशूलपात्रं कुम्भीपात्रं वा परिपूर्यते, व्यहमेकाहं वा वर्तनं भवति, तावन्मात्रस्य परेण स्वयनानीयमानस्य श्रद्धया दीयमानस्य यः परिग्रहः सा शालीना वृत्तिः । परस्मादप्रतिग्रहगतश्चक्रमादाय यत् प्रत्यङ्गनं भिक्षाटनं सा यायावरवृत्तिः । ताभ्यामुपाजितैरर्थः पञ्चानां महायज्ञानां सायं प्रातरपराले चानुष्ठानं वेदाध्ययन का व्रत लिया हो, एवं वेदाध्ययन के सम्पन्न हो जाने पर ही उसकी समाप्ति की हो। वे ही जब 'कृतदार' हो जाँय अर्थात् विवाह कर लें, ऐसे गृहस्थों के लिए ही जो धर्म के साधन हैं, वे 'शालोनयायावर इत्यादि सन्दर्भ से गिनाये गये हैं। जितने अन्न से एक कुशूलपात्र ( कच्ची मिट्टी की कोठी ) या एक घड़ा भर जाय, अथवा तीन दिनों तक या एक ही दिन का भोजन चल सके, उतने ही अन्न को स्वयं ले आने पर या श्रद्धापूर्वक दूसरों के देने पर जो ग्रहण किया जाता है, उस वृत्ति को 'शालीना वृत्ति' कहते हैं।
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प्रकरणम्
६७१
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
गृहस्थस्य धर्मसाधनम् । भूतेभ्यो बलिदानं भूत यज्ञ: । अतिथिपूजन मनुष्ययज्ञः। होमो देवयज्ञ.। श्राद्धं पितृयज्ञः । ब्रह्मयज्ञो वेदपाठः । एकाग्निविधानेन पाकयज्ञसं थानामिति । अनुष्ठानम्। एकाग्निरिति औपासनिकः । तस्य विधानं विवाहकाले परिग्रह. । तेन पाकयज्ञसंस्थानां पाकयज्ञविशेषाणामष्टकापार्वणीचेत्र्याश्वयुज्यादीनां नित्यानामवश्यकरणीयानां सति सामर्थ्यऽनुष्ठानम् । अग्न्याधेयादीनामिति अनुष्ठानं धर्मसाधनम्, अग्न्याधेयशब्देनान्याधानस्याभिधानम्, यद् ब्राह्मणेन सन्ते क्रियते। हविर्यज्ञसंस्था हविर्यज्ञविशेषा दार्शपौर्णमासचातुर्मास्याग्रायणादिका इष्टयः कथ्यन्ते। अग्निष्टोमादीति अग्निष्टोमोक्थ्यषोडशीवाजपेयातिरात्राप्तोर्यामाः सप्तसोमयज्ञविशेषाः सोमयज्ञसंस्था उच्यन्ते। ऋत्वन्तरेष्विति। ऋतुकालादन्यकालेषु ब्रह्मचर्य व्रतरूपेण स्त्रीसेवापरिवर्जनं धर्मपाधनम् : अपत्योत्पादनमपि धर्मसाधनम्, पुत्रेण लोकाञ्जयतीति श्रुतेः ।
दूसरों से प्रतिग्रह न लेकर बारी-बा। से प्रत्येक आंगन में भिक्षा मांगने को ‘यायावरवृत्ति' कहते हैं। इन दोनों वृत्तियों से ही उपाजित धन के द्वार। सायङ्काल, प्रात काल और अपराल काल में पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान गृहस्थों के लिए धर्म का साधन है। काकादि प्राणियों के लिए बलि देने को 'भूतयज्ञ' कहते हैं। अतिथियों की पूजा को ही 'मनुष्य यज्ञ' कहते हैं। होम ही 'देवयज्ञ' है । श्राद्ध को 'पितृयज्ञ कहते हैं। वदो का पाठ ही 'ब्रह्मयज्ञ' है । 'एकाग्निविधानेन पाकयज्ञसंस्थानाम्' अर्थात् इनके अनुष्ठान भी गृहस्थों के धर्म के साधन हैं । 'एकाग्नि' शब्द से औपासनिक अग्नि को समझना चाहिए. जिसका ग्रहण विवाह के समय किया जाता है। उस अग्नि के द्वारा 'पाकयज्ञसंस्था' के होमों का अर्थात् अष्टका, पार्वणी, चैत्र्य , एवं आश्वयुज्। प्रभृति नित्यकर्मों का अर्थात् अवश्य करणीय कर्मों का सामर्थ्य रहने पर जो अनुष्ठान । वे धर्म के साधन हैं ), 'अग्न्य धेयादीनाम्' अर्थात् अग्न्याधेयादि के अनुष्ठान भी गृहस्थों के धर्म के साधन हैं । 'अग्न्याधेय' शब्द से अग्नि का आधान समझना चाहिए. जो वसन्त क समय ब्राह्मणों के द्वारा अनुष्ठित होता है। 'हविर्यज्ञसंस्था' शब्द से विशेष प्रकार के दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्नायण प्रभृति इष्टि याँ कही जाती है। 'अग्निष्टोमादीति अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोड़शी, वाजपेय, अति रात्र और आप्तोर्याम ये सात विशेष प्रकार के सात सोमयज्ञ ही 'सोमयज्ञसंस्था' कहलाते हैं । अत्यन्तरेषु' स्त्री के ऋतुकाल से भिन्न समय में व्रतरूप से 'ब्रह्मचर्य' का अर्थात् स्त्रीसङ्ग का त्याग भी धर्म का साधन है। पुत्र को उत्पन्न करना भी धर्म का साधन है, क्योकि 'पुत्रेण लोकान् जयति' यह श्रुति है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वा ग्रामानिर्गतस्य वनवासो वल्कलाजिनकेशश्मश्रुनखरोमधारणं च; वन्यहुतातिथिशेषभोजनानि वानप्रस्थस्य ।
__ त्रयाणामन्यतमस्य श्रद्धावतः सर्वभूतेभ्यो नित्यमभयं दत्त्वा, संन्यस्य स्वानि कर्माणि, यमनियमेष्वप्रमत्तस्य षट्पदार्थप्रसंख्यानाद् योगप्रसाधनं प्रव्रजितस्येति । दृष्टं प्रयोजनमनुद्दिश्यैतानि साधनानि भावप्रसादं चापेक्ष्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्मोत्पत्तिरिति ।
ग्रामों को छोड़ कर वनों में रहना, वल्कल, अजिन, केश, दाढ़ीमुंछ, नख और रोम इन सबों को धारण करना ( कभी त्याग न करना) एवं वनों के कन्द मूल फलों एवं होम से और अतिथियों से अवशिष्ट अन्नों का भोजन करना, ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम दोनों में से किसी भी आश्रम से वानप्रस्थ लिए हुए सभी जनों के लिए विशेषधर्म के साधन हैं।
ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम इन तीनों में से किसी भी आश्रम से कोई भी श्रद्धाशील पुरुष ( जब ) सभी प्राणियो को सदा के लिए अपनी ओर से अभय देकर अपने ( और ) सभी कर्मों से छूट जाते हैं, फिर भी यमनियमादि का बिना प्रमाद के पालन करते रहते हैं । वे ही ) परिव्राजक ( कहलाते हैं उनके लिए ( इस शास्त्र में वर्णित ) षट् पदार्थों के तत्त्वज्ञान के द्वारा योग का अनुष्ठान ही विशेष धर्म का साधन है। धर्म के ये साधन ( लाभ पूजादि ) दृष्ट प्रयोजनों के बिना अनुष्ठित होने के बाद विशुद्ध अभिप्राय की सहायता से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा धर्म को उत्पन्न करते हैं ।
न्यायकन्दली वनस्थस्य धर्मसाधनं कथयति ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वेति “यदहरे। वास्य श्रद्धा भवति तदहरेवायं प्रव्रजेत्” इति श्रवणात सति श्रद्धोपनये ब्रह्मचारिणो वनवासो भवति । गृहस्थस्य वा तस्य वानप्रस्थव्रतमाचरतो वल्कलाजिनकेशश्मश्रुनखरोमधारणम्, वन्यस्य फलमूलस्य भोजनं हुतशेषभोजनम्,
'ब्रह्मचारिणो गृहस्थस्य वा' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा वानप्रस्थाश्रमियों के धर्म के साधन कहे गये हैं । 'यदहरेवास्य श्रद्धा भवति तदहरेवायं प्रव्रजेत्' ऐसी श्रुति है, तद्नुसार उपयुक्त श्रद्धा के उत्पन्न होने पर ब्रह्मचर्याश्रम से भी सीधे वानप्रस्थाश्रम में जा सकता हैं इसी अभिप्राय से 'ब्रह्मचारिणः ऐसा कहा गया है । 'गृहस्थस्य वा' अर्थात् यदि गृहस्थ वानप्रस्थाश्रमी हो जाय तो 'वल्कलाजिनकेशश्मश्रुनखरोमधारणम्' अर्थात् वल्कल और अजिन का परिधान एवं केश और दाढ़ी मूछों का रखना ये सभी गृहस्थवानप्रस्थाश्रमियों के धर्म के समान हैं । एवं 'वन्य' जो फलमूल उसका भोजन, होम से बचे हुए हवि का भोजन, एवं अतिथि को देकर उससे बचे हुए अन्न का भोजन ( वान
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अतिथिशेषभोजनं च धर्मसाधनम्। यः प्राजापत्यामिष्टि निरूप्य सर्वस्वं दक्षिणां दत्त्वात्मन्यग्नि समाधाय पुत्रे भार्या निक्षिप्य प्रवजितः, न तस्य होमो न तस्यातिथिपरिग्रहः। यस्तु सह पत्न्या सहैवाग्निना वनं प्रस्थितः, तस्य हुतशेषभोजनमतिथिशेषभोजनं च धर्मसाधनम्।
यतिधर्म निरूपति- त्रयाणामिति । यत्याश्रमपरिग्रहेऽपि नियमो नास्ति, श्रद्धोपगमे सति ब्रह्मचार्यव यतिर्भवति, गृहस्थो वा भवति, वानप्रस्थो वेत्यनेनाभिप्रायेणोक्तं त्रयाणामन्यतमस्येति । श्रद्धावतः चित्तप्रसादवतः सर्वभूतेभ्यो नित्यमभयं दत्त्वा भूतानि मया न जातु हिसितव्यानोति अद्रोहसङ्कल्पं गृहीत्वा, स्वानि कर्माणि काम्यानि संन्यस्य परित्यज्य यमनियमेष्वप्रमत्तस्य । अहिंसा-सत्यादयो यमाः । यथाह भगवान् पतञ्जलिः-अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा इति । तपः शौचादयस्तु नियमाः। यथाह स एव भगवान्-शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा इति। न्यायभाष्यकारस्तु प्रत्याश्रमं विशिष्टं धर्मसाधननियममाह। तेष्वप्रमत्तस्य ताननतिक्रमतः। षट्पदार्थप्रस्थियों के ) धर्म के साधन हैं । जो गृहस्थ प्राजापत्य नाम की इष्टि करके अपने सर्वस्व को दक्षिणा रूप में देकर एवं पत्नी का भार पुत्र को सौंप कर वानप्रस्थ को ग्रहण करते हैं उनके लिए होम और अतिथि की सेवा निर्दिष्ट नहीं हैं ( अतः उनके लिए ये दोनों धर्म के साधन नहीं हैं )। जो पत्नी और अग्नि को साथ लेकर ही वानप्रस्थाश्रम को ग्रहण करते हैं, उनके लिए ही होम से बचे हुए हवि का भोजन और अतिथि से बचे हुए अन्न का भोजन ये दोनों धर्म के साधन हैं।
'त्रयाणाम्' इत्यादि ग्रन्थ से यतियों ( संन्यासियों ) के धर्म का निरूपण करते हैं । सन्यासाश्रम ग्रहण करने का भी कोई नियम नहीं है (कि किस आश्रम से संन्यास ग्रहण करे ) क्योंकि उपयुक्त श्रद्धा के रहने पर ब्रह्मचारी और गृहस्थ ये दोनों ही संन्यास ले सकते हैं। वानप्रस्थाश्रमी तो ले ही सकते हैं, इसी नियम को दृष्टि में रखकर लिखा गया है कि 'प्रयाणामन्यतमस्य'। 'श्रद्धावतः' चित्त प्रसाद से युक्त पुरुष के लिए 'सर्वभूतेभ्यो नित्यमभयं दत्त्वा' अर्थात् मुझसे किसी प्राणी की हिंसा न हो' इस प्रकार से अद्रोह का संकल्प करके 'स्वानि कर्माणि' अर्थात् अपने काम्य कर्मों को 'संन्यस्य' अर्थात् छोड़कर, 'यमनियमेष्वप्रमत्तस्य' इनमें अहिंसा सत्य प्रभृति 'यम' कहलाते हैं । जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने कहा है कि :-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( ये पांच ) 'यम' हैं । प्रकृत में 'नियम' शब्द से तपस्या शौंच प्रभृति इष्ट है। जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने ही कहा है कि-शौच सन्तोष तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वर का प्रणिधान (ये पाँच ) 'नियम' हैं । न्यायभाष्यकार ने प्रत्येक आश्रम के लिए निर्दिष्ट धर्म के नियमित अनुष्ठान को ही मियम बतलाया है। 'तेष्बप्रमत्तस्य' अर्थात् यम और नियम के विरुद्ध आचरण न करनेवाले
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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[ गुणनिरूपणे धर्म
प्रसंख्यानात् षण्णां पदार्थानां तत्त्वज्ञानाद् योगस्यात्मज्ञानोत्पादन समर्थस्य समाधिविशेषस्य प्रसाधनमुत्पादनं प्रव्रजितस्य धर्मसाधनम् । यथैतानि धर्मं साधयन्ति, तथा कथयति - दृष्टं चेति । लाभ पूजादि प्रयोजनमनुद्दिश्यानभिसन्धाय देतानि साधनानि क्रियन्ते, तदेतानि साधनानि भावप्रसादं चाभिप्रायविशुद्धि चापेक्ष्यात्ममनसोः संयोगाद् धर्मोत्पत्तिरिति ।
प्रत्यहं दु:खैरभिहन्यमानस्य तत्त्वतो विज्ञातेषु दुःखेकनिदानेषु विषयेषु विरक्तस्यात्यन्तिकं दुःखवियोगमिच्छतः "आत्मख्यातिरविप्लवा हानोपायः " 'तस्याश्च समाधिविशेषो निबन्धनम्' इति श्रुतवतः "संन्यस्य सर्वकाम्यकर्माणि समाधिमनुतिष्ठामः" तत्प्रत्यनीकभूयिष्ठं ग्रामं परित्यज्य वनमाश्रितस्य यमनियमाभ्यां कृतात्मसंस्कारस्य समाध्यभ्यासान्निवर्त्तको धर्मो जायते । तस्मादस्य प्रकृष्टः समाधिस्ततोऽन्यः प्रकृष्टतरो धर्मः, तस्मादप्यन्यः प्रकृष्टतमः समाधिरित्यनेन क्रमेणान्त्ये जन्मनि स तादृशः समाधिविशेषः
पुरुषों के लिए ये आचरण धर्म के साधन हैं । 'षट्पदार्थ प्रसंख्यानात् ' द्रव्यादि छः पदार्थों के तत्वज्ञान के द्वार योग का अर्थात् आत्मज्ञान में पूर्ण क्षम विशेष प्रकार के समाधि का जो उत्पादन वह 'प्रत्रजितों' के लिए धर्म का साधन है । 'दृष्टञ्च' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा यह उत्पादन करते हैं कि ये साधन किस प्रकार धर्म का सम्पादन करते हैं । अर्थात् 'दृष्ट' लाभ पूजादि प्रयोजनों का उद्देश्य न रखकर जब यमनियमादि साधनों का अनुष्ठान किया जाता है, उस समय ये साधन 'भावशुद्धि' अर्थात् अभिप्राय की विशुद्धि के साहाय्य से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा धर्म का उत्पादन करते हैं |
जिस पुरुष का चित्त दुःखों से प्रतिदिन अभिहत होता रहता है, उसे यदि दुःखों के कारणीभूत विषय यथार्थ रूप से ज्ञात हो जाते हैं तो फिर उन विषयों से उसे वैराग्य हो जाता है | ऐसा पुरुष दुःखों से सदा के लिए छूटने की इच्छा करता है । (अन्वेषण करने पर ) उसे यह ज्ञात होता है कि 'आत्मा का तत्त्वज्ञान ही दुःख के आत्यन्तिक निवृत्ति का अर्थ साधन है, एवं वह तत्त्वज्ञान विशेष प्रकार की समाधि' से ही प्राप्त हो सकता है । तो फिर सभी काम्य कर्मों का त्याग कर मैं समाधि का ही अनुष्ठान करूँ वह ऐसा संकल्प करता है । फिर समाधि के अधिकतर विघ्नों
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युक्त होने के कारण वह ग्राम को छोड़ देता है, और वन का आश्रय ले लेता है । ऐसा पुरुष यम और नियम से आत्मा को सुसंस्कृत कर लेता है । ऐसी स्थिति में जब वह समाधि का अभ्यास करता है, तो उससे ( संसार को निबृत्त करनेवाले ) निवर्त्तक धर्म की उत्पत्ति होती है । इस निवर्त्तक धर्मं के द्वारा पहिले की समाधि से उत्कृष्ट समाधि की उत्पत्ति होती है ।। इस उत्कृष्ट समाधि से उत्पन्न निवर्तक धर्म से उत्कृष्टतर निवर्त्तक धर्म की उत्पत्ति होती है । इस उत्कृष्ट निवर्त्तक धर्म से उत्कृष्टतम समाधि की उत्पत्ति होती है, इस
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प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम्
६७५ न्यायकन्दली परिणमति, यो द्वन्द्वेनाप्यभिभवितुं न शक्यते । दृष्टो हि किञ्चिदभिमतं विषयमादरेणानुचिन्तयतः तदेकानीभूतचित्तस्य सन्निहितेषु प्रबलेष्वपि विषयेषु संबाधः, यथेषुकार इषौ लब्धलक्ष्याभ्यासो गच्छन्तमपि राजानं न बुद्धयते । तथा च भगवान् पतञ्जलिः -- 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः' इति । एवं परिणते समाधावात्मस्वरूपसाक्षात्कारिविज्ञानमुदेति । यथाहः कापिलाः
एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम्।
अविपर्ययाद् विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ इति । अत आत्मज्ञानार्थिना यतिना योगसाधनमनुष्ठीयते। ज्ञानं ज्ञेयादिप्राप्तिमात्रफलम्, श्रौतात्मज्ञानेनाप्यात्मस्वरूपं प्राप्यते, किमस्य ध्यानाभ्यासात् प्रत्यक्षीकरणेनेति चेत् ? न, परोक्षस्य प्रत्यक्षसाधने सामर्थ्याभावात् । स्वरूपतस्तावदात्मा न कर्ता, न भोक्ता, किन्तूदासीन एव । तत्र देहेप्रकार अन्तिम जन्म में वह समाधि इतनी उत्कृष्टता को प्राप्त कर लेती है कि वह पुरुष ( शीतोष्ण रूप ) द्वन्द्व से भी अभिभूत नहीं होता । यह तो सांसारिक इष्ट विषय को आदर के साथ चिन्तन करते हुए पुरुषों में भी देखा जाता है कि अत्यन्त समीप के प्रबल विषयों को भी वे नहीं देख पाते हैं। जैसे कि तोर का अभ्यास करता हुआ पुरुष आगे से जाते हुए राजा को भी नहीं देख पाता है। जैसा कि भगवान पतञ्जलि ने कहा है कि 'अभ्यास और वैराग्य इन दोनों स चित्तनिवृत्ति रूप योग निष्पन्न होता है।' इस प्रकार जब समाधि का परिपाक हो जाता है. तब उससे आत्मा का साक्षात्कार रूप विज्ञान उदित होता है। जैसा कि सांख्य शास्त्र के आचार्यों ने कहा है कि--
"इस तत्त्व के अभ्यास से 'ये विषय मेरे नहीं हैं' मैं इन विषयों से सम्बद्ध नहीं हूँ' इस आकार का विपर्य यरहित केवल (प्राकृत विषयों से असम्बद्ध) आत्मा का ज्ञान होता है।" यही कारण है कि आत्मज्ञान की इच्छा से यती लोग योग का अभ्यास करते हैं । (प्र०) ज्ञान का तो एक मात्र यही फल है कि उससे ज्ञेष विषय की प्राप्ति हो । श्रुति के द्वारा जो आत्मा का ज्ञान होता है उससे भी उसके विषय आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति तो होगी ही. फिर ध्यान और अभ्यास के द्वारा आत्मा को प्रत्यक्ष करने की क्या आवश्यकता है ? (उ०) यतः प्रत्यक्षात्मक ज्ञान से ही सांसारिक विषयो का प्रत्यक्ष रूप मिथ्याज्ञान निवृत्त हो सकता है। श्रुति से उत्पन्न आत्मा का ज्ञान परोक्ष है, अतः आत्मा के प्रत्यक्ष की आयश्यकता होती है, जिसके लिए ध्यान और अभ्यास की पूरी आवश्यकता है। आत्मा तो स्वयं उदासीन है, न वह कर्ता है, न भोक्ता। उसमें जव शरीर, इन्द्रिय प्रभृति विषयों का सम्बन्ध होता है, तभी उसे 'अहं कर्ता, अहं भोक्ता' इत्यादि ज्ञान होने लगते हैं वे 'जो जहाँ नहीं है वहीं तद्विशेषणक' होने के कारण मिथ्याज्ञान होते हैं । इस मिथ्याज्ञान से ही अनुकूल विषयों में राग और प्रतिकूल विषयों में द्वेष उत्पन्न होता है। राग और द्वेष इन दोनों से ही क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति उत्पन्न होती हैं ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणनिरूपणे धर्म
न्द्रियसम्बन्धाद्युपाधिकृतोऽहं ममेति कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रत्ययो मिथ्याऽतस्मिंस्तदिति भावात् । एतत्कृतश्चानुकूलेषु रागः प्रतिकूलेषु द्वेषः ताभ्यां प्रवृत्तिनिवृत्ती, ततो धर्माधर्मे, ततश्च संसारः । यथोक्तं सौगतैः
आत्मनि सति परसंज्ञा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषौ । अनयोः संप्रतिबद्धाः सर्वे भावाः प्रजायन्ते || अनादिवासनावासित इति प्रबलो निसर्गबद्धः सर्वः सांव्यवहारिकः प्रत्यक्षेणैवैष प्रत्ययः । श्रीतमात्मतत्त्वज्ञानं क्षणिकमनुपलब्धसंवादं परोक्षं च । न च दृढतरः प्रत्यक्षावभासः परोक्षावभासेन शक्यते निषेद्धुम् । नहि शतशोऽपि प्रमाणान्तरावगते गुडस्य माधुर्ये दुष्टेन्द्रियजः तिक्तप्रतिभासस्तत्कृतश्च दुःखावगमो निवर्तते तस्मात् प्रत्यक्षज्ञानार्थं समाधिरुपासितव्यः । प्रचिते समाधौ तत्सामर्थ्यात् कर्त्तृत्वभोक्तृत्वपरिपन्थिन्यात्मतत्त्वे स्फुटीभूते समाने विषये विद्याविद्ययोविरोधादहङ्कार-ममकारवासनोच्छेदे सन्नपि प्रपञ्चो नात्मानं स्पृशति । तथा च कापिलैरुक्तम्
तेन निवृत्तप्रसवार्थवशात् सप्तरूपविनिवृत्तौ । प्रकृतिं पश्यति पुरुषः प्रेक्षकवदवस्थितः स्वस्थः ॥
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विहित विषयों में प्रवृत्ति से धर्म और निषिद्ध विषयों की प्रवृत्ति से अधर्म, एवं विहित विषयों की निवृत्ति से अधर्म और निषिद्ध विषयों की निवृत्ति से धर्म की उत्पत्ति होती है । धर्म और अधर्म इन्हीं दोनों से संसार की उत्पत्ति होती है । जैसा बौद्धों ने भी कहा है किआत्मा को सत्ता मान लेने पर ही 'पर' इस नाम का व्यवहार होता है । 'स्व' और 'पर' का जो यह व्यवहार है, उसी से राग और द्वेष उत्पन्न होता है | धर्माधर्मादि सभी भाव राग और द्वेष इन्हीं दोनों के साथ सम्बद्ध हैं । अनादि वासना से वासित होने के कारण ये सभी स्वाभाविक मिथ्याप्रत्यय संवृति (अविद्या) से उत्पन्न होते हैं, एवं वे प्रत्यक्षात्मक हैं। श्रुति से जो आत्मा का क्षणिक ज्ञान होता है, उसका प्रमात्व निर्णीत नहीं है, एवं वह परोक्ष भी है । अतः उससे दृढ़तर एवं प्रत्यक्षात्मक मिथ्याज्ञान की निवृत्ति नहीं हो सकती । जिस पुरुष की जिह्वा में दोष आ गया है, उसे यदि सैकड़ों प्रमाणों से गुड़ की मधुरता को समझावें, उससे उसे जो गुड़ में तिक्तता का भान है, एवं इस भान से जो दुःख होता है, इन दोनों से वह छूट नहीं सकता । तस्मात् आत्मा के प्रत्यक्ष के लिए समाधि की पूरी आवश्यकता । इस प्रकार समाधि की वृद्धि हो जाने पर, उसके सामर्थ्य से ( बन्धन के प्रयोजक ) कर्तृत्व और भोक्तृत्व के विरोधी आत्मतत्त्व का स्फुट प्रतिभास होता है । तद्विषयक मिथ्याज्ञान ( अविद्या ) और तद्विषयक यथार्थज्ञान ( विद्या ) ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, अतः आत्मविषयक तत्त्वज्ञान रूप विद्या की उत्पत्ति हो जाने पर आत्मा का कर्तृत्व भोक्तृत्वादि रूप से जितने भी मिथ्याज्ञान एवं तज्जनित वासनायें रहतीं हैं, वे सभी नष्ट हो जातीं हैं, जिससे प्रपश्व की ( किसी प्रकार की ) सत्ता
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
६७७
प्रशस्तपादभाष्यम् अधर्मोऽप्यात्मगुणः । कर्तुरहितप्रत्यवायहेतुरतीन्द्रियोऽन्त्यदुःखसंविज्ञान विरोधी। तस्य तु साधनानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि
अधर्म भी आत्मा का ही गुण है । वह (अधर्माचरण करनेवाले ) कर्ता के दुःख और दुःख के साधनों का कारण है। वह अतीन्द्रिय है। एवं अन्तिम दुःख और तत्वज्ञान इन दोनों से उसका नाश होता है। शास्त्रों में निषिद्ध
न्यायकन्दली तेन तत्त्वज्ञानेन सता निवृत्तप्रसवां निवृत्तोपभोगजननसामर्थ्याज् ज्ञानधर्मवैराग्यैश्वर्याधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्येभ्यः सप्तरूपेभ्यो विनिवृत्तां प्रकृति पुरुषः प्रेक्षकवदुदासीनः स्वस्थो रजस्तमोवृत्तिकलुषतया बुद्धया असम्भिन्नः पश्यतीत्यर्थः । यद्यप्यनादिरियं मोहवासना आदिमांश्च तत्त्वसाक्षात्कारः, तथाप्यनेन सा निरुद्धचते, तत्त्वावग्रहो हि धियां परमं बलम् ।
___ अधर्मोऽप्यात्मगुणः । न केवलं धर्मोऽधर्मोऽप्यात्मगुणः । कर्तुरिति । कर्तुरहितं दुःखसाधनम्, प्रत्यवायो दुःखम्, तयोरधर्मों हेतुः। अन्त्यदुःखसंविज्ञानेति । अन्त्यस्य दुःखस्य सम्यग विज्ञानं तेन विनाश्यते। तस्य साधनानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि धर्मसाधनविपरीतानि हिंसानृतस्तेयादीनि। हिंसा परारहने पर भी आत्मा को वे छू नहीं सकते । जैसा सांख्यशास्त्र के आचार्यों ने 'तेन निवृत्तप्रसवाम्' इत्यादि आर्या के द्वारा कहा है कि-'तेन' अर्थात् उस तत्त्वज्ञान से 'निवृत्तप्रसवाम्' उपभोग के सामर्थ्य से रहित प्रकृति 'अर्थवशात्' पुरुष के अपवर्ग रूप प्रयोजन से वशीभूत होकर 'सप्तरूप विनिवृत्ति' को प्राप्त होती है, अर्थात् ज्ञान अज्ञान, धर्म, अधर्म, वैराग्य, अवैराग्य, ऐश्वर्य और अनैश्वर्य इन अष्टविध भावों में से ज्ञान को छोड़कर सृष्टिजनक अज्ञानादि सातों प्रकार के भावों से निवृत्त हो जाती है। इसी प्रकार की प्रकृति को 'पुरुष' प्रेक्षक की तरह अर्थात् उदासीन को तरह 'स्वस्थ' होकर अर्थात् रजोगुण और तमोगुण की कलुषित वृत्तियों से सर्वथा असम्बद्ध रहकर देखता है । यद्यपि यह ठोक सा लगता है कि मिथ्याज्ञानरूप मोहरूप वासना अनादि है, और तत्त्वज्ञान उत्पत्तिशील है, (अतः वासना ही बलवती है) फिर भी सादि भी तत्त्वज्ञान से अनादि मिथ्याज्ञान का नाश होता है, क्योंकि तत्त्व का ग्रहण करना हो ज्ञानों का सबसे बड़ा बल है।
'अधर्मोप्यात्मगुण:' अर्थात् केवल धर्म ही आत्मा का गुण नहीं है, किन्तु अधर्म भी आत्मा का गुण है ( इसी अर्थ की अभिव्यक्ति प्रकृत वाक्य के 'अपि' शब्द से हुई है)। 'कर्तुरिति' कर्ता का जो 'अहित' अर्थात् दुःख का साधन एवं प्रत्यवाय अर्थात् दुःख, अधर्म इन दोनों का 'हेतु' है । 'अन्त्यदुःखसंविज्ञानेति' अन्त्य अर्थात् अन्तिम दुःख और 'संविज्ञान' अर्थात् सम्यग्विज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान इन दोनों से अधर्म का विनाश होता है। 'तस्य तु साधनानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि धर्मसाधनविपरीतानि हिंसानृतस्तेयादीनि' दूसरों के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुणनिरूपणेधर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् धर्मसाधनविपरीतानि हिंसानृतस्तेयादीनि। विहिताकरणं प्रमादश्चैतानि दुष्टाभिसन्धिं चापेक्ष्यात्ममनसोः संयोगादधर्मस्योत्पत्तिः ।
__ अविदुषो रागद्वेषवतः प्रवर्तकाद् धर्मात् प्रकृष्टात् स्वन्पाधर्मसहिताद् ब्रह्मेन्द्र प्रजापतिपितृमनुष्यलोकेष्वाशयानुरूपैरिष्टशरीरे. न्द्रियविषयसुखादिभिर्योगो भवति । तथा प्रकृष्टादधर्मात् स्वल्पधर्मएवं धर्म साधन के विरोधी हिंसा, असत्य प्रभृति इ के साधन हैं। शास्त्रों में अनुष्ठान के लिए निर्दिष्ट कामों को न करना एवं प्रमाद ये दोनों भी अधर्म के हेतु हैं। ( अधर्म के ) ये सभी हेतु एवं कर्ता के दुष्ट अभिप्राय इन सबों की सहायता से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा अधर्म की उत्पत्ति होती है।
प्रवृत्तिजनक उत्कृष्ट धर्म के द्वारा थोड़े से अधर्म की सहायता स ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजापतिलोक, पितृलोक एवं मनुष्यलोक में उपयुक्त भोग के अनुरूप इन्द्रिय, विषय एवं सुखादि के साथ तत्त्वज्ञान से रहित एवं राग और द्वेष से युक्त पुरुष का सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार थोड़े से
न्यायकन्दली भिद्रोहः। अनतं मिथ्यावचनम्। स्तेयमशास्त्रपूर्व परस्वग्रहणम् । एवमादीनि धर्मसाधनविपरीतानि शास्त्रे प्रतिषिद्धानि यानि, तान्यधर्मसाधनानि । विहिताकरणं विहितस्यावश्यंकरणीयस्याकर्तव्यता। प्रमादोऽबुद्धिपूर्वकोऽतिक्रमः, एतदपि द्वयमधर्मसाधनम् । यथैतेभ्यो धर्मस्योत्पत्तिस्तद् दर्शयति-एतानीति। यत्र कामनापूर्वकमधर्मसाधनानुष्ठानं तत्र दुष्टोऽभिसन्धिरधर्मकारणम् । अकामकृते तु प्रमादेनास्य हेतुत्वम् ।
साथ अभिद्रोह करना ही 'हिंसा' है । मिथ्याभाषण ही 'अनृत' शब्द का अर्थ है। शास्त्रों में कहे हुए उपायों से विपरीत उपायों के द्वारा दूसरे के धन का ग्रहण करना ही 'स्तेय' है । धर्म के साधनों के विरुद्ध एवं शास्त्रों से निषिद्ध जो हिंसादि उपाय हैं, वे ही अधर्म के साधन हैं । शास्त्रों के द्वारा अवश्य करने के लिए निर्दिष्ट कर्मों का न करना ही 'विहिताकरण' है। अनजान में शास्त्रीय मर्यादा के अतिक्रम को ही 'प्रमाद' कहते हैं। (विहिताकरण और प्रमाद ) ये दोनों भी अधर्म के साधन हैं। 'एतानि' इस वाक्य के द्वारा इन साधनों के द्वारा किस रीति से अधर्म की उत्पत्ति होती है ? वह दिखलायी गयी है। जहाँ किसी कामना के वशीभूत होकर अधर्म के साधनों का अनुष्ठान किया जाता है, वहाँ 'दुष्टाभिसन्धि' अधर्म का कारण है। जहाँ अधर्म के साधनों का अनुष्ठान अनजाने होता है, वहाँ प्रमाद के द्वारा उन साधनों में हेतुता आती है ।
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६७६ प्रशस्तपादभाष्यम् सहितात् प्रेततिर्यग्योनिस्थानेष्वनिष्टशरीरेन्द्रिय विषयदुःखादिभिर्योगो भवति । एवं प्रवृत्तिलक्षणाद् धर्मादधर्मसहिताद् देवमनुष्यतिर्यनारकेषु पुनः पुनः संसारचन्धो भवति । धर्म से युक्त बड़े अधर्म से प्रेत, तिर्यग्योनि में भोग के उपयुक्त शरीर, इन्द्रिय, विषय और दु:ख के साथ ( उक्त पुरुष ) का सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार थोड़े से अधर्म से युक्त प्रवृत्तिस्वरूप धर्म के द्वारा देव तिर्यग्योनि एवं नारकीय शरीरों के सम्बन्ध से जीव को बारबार संसार रूप बन्धन मिलता है।
न्यायकन्दलो एवमधर्मस्य साधनमभिधाय संप्रति साध्यं कथयति-- अविदुष इत्यादिना। यः कर्ता भोक्तारतीत्यात्मानमभिमन्यते, परमार्थतो दुःखसाधनं च बाह्याध्यात्मिकविषयं सुखसाधनमित्यभिमन्यते सोऽविद्वान् । स च स्वोपभोगतृष्णापरिप्लतः सुखसाधनत्वारोपिते विषये रज्यते, तदुपरोधिनि च द्विष्टो भवति । तस्य प्रवर्तकाद् धर्माद् देवो वा स्यां गन्धर्वो वा स्यामिति पुनर्भवप्रार्थनया कृताद् धर्मात् प्रकृष्टात् फलातिशयहेतोराशयानुरूपैः कर्मानुरूपरिष्टशरीरादिभिः सम्बन्धो भवति, ब्रह्मन्द्रादिस्थानेऽपि मात्रया दुःखसम्भेदोऽस्ति। न चाधर्मादन्यद् दुःखसंवेदोऽस्ति । न चाधर्मादन्यद् दुःखस्य कारणमतः स्वल्पाधर्मसहितादित्युक्तम्। यस्य प्रकृष्टो धर्मस्तस्य प्रकृष्टानि शरीरादीनि भवन्ति, यस्य प्रकृष्टतरो धर्मः, तस्य प्रकृष्टतराणि भवन्ति,
उक्त सन्दर्भ के द्वारा अधर्म के साधनों को कहने के बाद 'अविदुष' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अधर्म से होनेवाले कार्यों का निरूपण करते हैं। 'अविद्वान्' उस ( मूढ़) पुरुष को कहते हैं, जो अपने को हो कर्ता और भोक्ता समझता है, एवं दुःखों के बाह्य एवं आन्तरिक साधनों को सुखों का साधन समझता है । वह ( अविद्वान् पुरुष ) अपनी उपभोग की तृष्णा के वशीभूत होकर दुःख के जिन साधनों को सुख का साधन समझता है, उन विषयों में अनुरक्त हो जाता है, और उसके विरोधी विषयों के साथ द्वेष रखने लगता है । 'प्रवर्तकाद्धर्मात्' अर्थात् 'मैं देव हो जाऊ, मैं गन्धर्व हो जाऊं इस प्रकार की हेतुभूत पुनर्जन्म की वासना से किये गये प्रवर्तक एवं उत्कृष्ट फलों के हेतु उत्कृष्ट धर्म के द्वारा ( कुछ अधर्म की सहायता से ) आशय के अनुरूप अर्थात् पहिले किए हुए कर्म के अनुरूप अभीष्ट शरीरादि के साथ वह जीव सम्बद्ध होता है । ब्रह्मा प्रभृति के शरीर धारण करने पर भी थोड़ा सा दुःख का सम्बन्ध रहता ही है । बिना अधर्म के दुःख का अनुभव नहीं होता, एवं अधर्म को छोड़कर दुःख का भी कोई दूसरा ( असाधारण ) कारण नहीं है, अतः 'स्वल्याधर्मसहितात्' यह वाक्य जोड़ा गया है । 'आशयानुरूपैः' यह वाक्य इस तारतम्य को समझाने के लिए लिखा गया है कि जिसका धर्म उत्कृष्ट रहता है. उसे उत्कृष्ट शरीर मिलता है, जिसका धर्म उससे उत्कृष्टतर
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६८०
भ्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे धर्म
प्रशस्तपादभाष्यम् ज्ञानपूर्वकात्त कृतादसंकल्पितफलाद् विशुद्धे कुले जातस्य दुःखविगमोपायजिज्ञासोराचार्यमुपसङ्गाम्योत्पन्नषट्पदार्थतत्त्वज्ञानस्याज्ञाननिवृत्तौ विरक्तस्य रागद्वेषाद्यभावात् तज्जयोर्धर्माधर्मयोरनुत्पत्तौ
ज्ञानपूर्वक किये हुए निष्काम कर्मों के अनुष्ठान के द्वारा उत्पन्न धर्म से जीव विशुद्ध कुल में जन्म लेता है। इससे पुरुष को दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति के उपाय को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह आचार्य के चरणों में बैठकर उनसे षट् पदार्थों के तत्त्वज्ञान का लाभ करता है। जिससे अज्ञान निवृत्ति के द्वारा उसे वैराग्य
न्यायकन्दली
यस्य प्रकृष्टतमो धर्मस्तस्य प्रकृष्टतमानीति प्रतिपादयितुमाशयानुरूपैरिस्युक्तम् । इष्टशब्दः प्रत्येकं शरीरादिषु सम्बद्धयते, द्वन्द्वानन्तरं प्रयोगात् । तथा प्रकृष्टादधर्मात् प्रेतयोनीनां तियग्योनीनां च स्थानेष्वनिष्टः शरीरादिभिर्योगो भवति । प्रेतादिस्थानेऽपि मनाक् सुखमस्ति, तच्च धर्मस्य कार्यम्, अतः स्वल्पधर्मसहितादित्युक्तम् । उपसंहरति—एवमिति ।
एवं धर्मात् संसारं प्रतिपाद्यापवर्ग प्रतिपादयति-ज्ञानपूर्वकात् त्विति। "स्वरूपतश्चाहमुदासीनो बाह्याध्यात्मिकाश्च विषयाः सर्व एवैते दुःखसाधनम्" इति यस्य ज्ञानमभूत्, स दृष्टानुश्रविकविषयसुखवितृष्णः "एबमहं
होता है, उसे उस शरीर से भी अच्छा शरीर मिलता है, एवं जिसका धर्म इन दोनों प्रकार के धर्मो से उत्कृष्टतम रहता है, उसे तदनुरूप ही शरीर भी उत्कृष्टतम मिलता है । प्रकृत वाक्य का 'इष्ट' शब्द द्वन्द्वसमास के अन्त में प्रयुक्त है, अत: उसके पहिले के 'शरीरादि' प्रत्येक शब्द के साथ उसका अन्वय है। इसी प्रकार प्रकृष्ट अधर्म से प्रेत तिर्यग योनि के अनिष्ट शरीरादि के साथ आत्मा सम्बद्ध होता है। प्रेतलोक प्रभृति में भी थोड़ा सा सुख का सम्बन्ध है, एवं सुख धर्म से ही उत्पन्न होता है, अतः 'स्वल्पधर्मसहितात्' ऐसा लिखा गया है । 'एवम्' इत्यादि से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
इस प्रकार धर्म से संसार की उत्पत्ति का वर्णन कर 'ज्ञानपूर्वकात्त' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा धर्म से मोक्ष की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। "मैं वस्तुतः अपने यथार्थरूप में उदासीन हूँ, एवं बाह्य और अभ्यन्तर जितने भी विषय है, वे सभी दुःख के ही साधन है" इस प्रकार का ज्ञान जिस पुरुष को हो जाता है वह 'दृष्ट' चन्दनवनितादि जनित सुखों से एवं 'आनुश्रविक' स्वर्गादि सुखों की तष्णा से निवत्त
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली भूयासमिति मे भूयासुः" इति फलाकाङ्क्षया विना निवृत्तसाधनतया विहितमपरं चावश्यकरणीयं कर्म करोति । तस्मात् कर्मणो ज्ञानपूर्वकात् कृतादस्य विशुद्धे कुले जन्म भवति । अकुलीनस्य श्रद्धा न भवति । न चाश्रद्दधानस्य जिज्ञासा सम्पद्यते। न चाजिज्ञासोस्तत्त्वज्ञानम् । तद्विकलस्य च नास्ति मोक्षप्राप्तिः । अतो मोक्षानुगुणमसंकल्पितफलं कर्म विशुद्धे कुले जन्म ग्राहयति, विशुद्धे फुले जातस्य प्रत्यहं दुःखैरभिहन्यमानस्य दुःखविगमोपाये जिज्ञासा सम्पद्यते "कुतो नु खल्वयं मम दुःखोपरमः स्यात्” इति । स चैवमाविर्भूतजिज्ञास आचार्यमुपगच्छति, तस्य चाचार्योपदेशात् षण्णां पदार्थानां श्रौतं तत्त्वज्ञानं जायते । तदनु श्रवणमनननिदिध्यासनादिक्रमेण प्रत्यक्षं भवति । उत्पन्नतत्त्वज्ञानस्याज्ञाननिवृत्तौ सवासनविपर्ययज्ञाननिवृत्तौ विरक्तस्य विच्छिन्नरागद्वेषसंस्कारस्य रागद्वेषयोरभावात् तज्जयोधमाधर्मयोरनुत्पादः। क्लेशवासनो. पनिबद्धा हि प्रवृत्तयस्तुषावनद्धा इव तण्डुलाः प्ररोहन्ति । क्षीणेषु क्लेशेषु निस्तुषा इव तण्डुलाः कार्यं न प्रतिसन्दधते । यथाह भगवान् पतञ्जलि:
हो जाता है। फिर भी 'अहं भूयासम्', 'मे भूयासुः' ( मैं बराबर रहूँ और मेरे इष्ट विषय बराबर मुझे प्राप्त होते रहें) इस प्रकार की भावना बनी ही रहती है। फलाकाङ्क्षा की इस भावना से प्रेरित होकर वह नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान करता ही रहता है, क्योंकि उनको छोड़ने का कोई हेतु तब तक उपस्थित नहीं रहता। ये ही कर्म जब उक्त पुरुष के द्वारा ज्ञानपूर्वक किये जाते हैं, तो उस पुरुष को विशुद्ध कुल में जन्म प्राप्त होता है। क्योंकि अकुलीन पुरुष में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती, एवं बिना श्रद्धा के जिज्ञासा नहीं होतो । जिसे जिज्ञासा नहीं, उसे तत्त्वज्ञान प्राप्त होना असम्भव है । बिना तत्त्वज्ञान के मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अतः निष्कामकर्म मोक्ष का सहायक है। तस्मात् वह पुरुष विशुद्ध कुल में जन्म लेता है। विशुद्ध कुल में उत्पन्न वह पुरुष जब प्रतिदिन के दुःख से पीड़ित होने लगता है, तो उसे दुःखनाश के कारणों के प्रसङ्ग में यह जिज्ञासा उठती है कि 'किन साधनों से इन दुःखों की निवृत्ति होगी? जब पुरुष में इस प्रकार की जिज्ञासा उठती है तो वह आचार्य के पास जाता है। आचार्य के उपदेश से उसे वेदवाक्यों के द्वारा आत्मतत्त्व का (परोक्ष ) ज्ञान होता है । फिर श्रवण के बाद मनन और मनन के बाद निदिध्यासन, इस रीति से उसे आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है। प्रत्यक्षात्मक इस आत्मतत्त्वज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर संसार के निदान भूत विपर्यय (मिथ्याज्ञान ) का जड़मल से विनाश हो जाता है। जिससे विषयों से वैराग्य उत्पन्न होता है। विरक्त पुरुष के राग और द्वेष के संस्कार भी घट जाते हैं। राग और द्वेष के छूट जाने पर
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१८२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे मोक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् पूर्वसञ्चितयोश्चोपभोगानिरोधे सन्तोषसुखं शरीरपरिच्छेदं चोत्पाद्य रागादिनिवृत्तौ निवृत्तिलक्षणः केवलो धर्मः परमार्थदर्शन सुखं कृत्वा निवर्त्तते । तदा निरोधात् निर्वीजस्यात्मनः शरीरादिनिवृत्तिः, पुनः शरीराद्यनुत्पत्तौ दग्धेन्धनानलवदुपशमो मोक्ष इति । होता है। विरक्त पुरुष में राग और द्वेष की सम्भावना न रहने के कारण राग और द्वेष से होनेवाले धर्म और अधर्म की आगे उत्पत्ति रुक जाती है। पहिले से सञ्चित धर्म और अधर्म का उपभोग से नाश हो जाने के बाद सन्तोषात्मक सुख एवं शरीरपरिच्छेद ( शरीर के प्रति घृणा ) इन दोनों की उत्पत्ति होती है। इनसे रागादि की निवृत्ति होती है। इसके बाद निवृत्तिजनक केवल ( अधर्म से सर्वथा असम्बद्ध ) धर्म आत्मतत्त्वज्ञान की सहायता से ( परम ) सुख को उत्पन्न कर स्वयं भी निवृत्त हो जाता है। निवृत्तिलक्षण उस धर्म की निवृत्ति से उस समय आत्मा संसार के बीज (धर्माधर्मादि ) से रहित हो जाता है, अतः उसके उपभोग के पूर्व-आयतन ( वर्तमान शरीर ) की निवृत्ति हो जाती है, एवं आगे शरीर की उत्पत्ति रुक जाती है। लकड़ी के जल जाने के कारण अग्नि की निवृत्ति की तरह उस समय शरीर का फिर से उत्पन्न न होना ही मोक्ष है।
न्यायकन्दली “सति मूले तद्विपाको जात्यायु गाः" इति । यथाह भगवानक्षपादः-"न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय होनक्लेशस्य" इति । पूर्वसञ्चितयोश्च धर्माधर्मयो. निरोध उपभोगात, निवृत्तिफलहेतोश्च कर्मान्तरात्। सन्तोषसुखं शरीरपरि. च्छेदं चोत्पाद्य रागादिनिवृत्तौ निवृत्तिलक्षणः केवलो धर्मः परमार्थदर्शनजं सुखं इन दोनों से उत्पन्न होनेवाले धर्म और अधर्म की उत्पत्ति भी रुक जाती है । जिस प्रकार छिलके से युक्त धान से ही अङ्कुर उत्पन्न होता है उसी प्रकार क्लेश और वासना से युक्त प्रवृत्ति से हो जन्म रूप कार्य की उत्पत्ति होती है। प्रवृत्तियों से जब वासना और क्लेश का सम्वन्ध छूट जाता है, तब उससे आगे जन्म का कार्य उसी प्रकार रुक जाता है, जिस प्रकार छिलके के न रहने से धान के द्वारा अकुर का होना रुक जाता है। जैसा कि 'न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्य' इस सूत्र के द्वारा भगवान् अक्षपाद ने भी कहा है।
पूर्वसञ्चितों का अर्थात् पूर्वसञ्चित धर्म और अधर्म का 'निरोध' उपभोग से होता है । संसारनिवृत्ति रूप फल के कारणीभूत (निवृत्ति रूप) धर्म का विनाश दूसरे धर्म से होता है। 'सन्तोषसुखम्' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त 'निवृत्ति' शब्द 'निवर्त्यते संसारोऽनया' इस
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली कृत्वा निवर्त्तते । निवर्त्यते संसारोऽनयेति निवृत्तिः, निवृत्तिलक्षणं यस्यासौ निवृत्तिलक्षणो निवृत्तिस्वभावो धर्मो रागादिनिवृत्तौ भूतायां केवलो व्यवस्थितः सन्तोषसुखं शरीरपरिच्छेदं चोत्पाद्य परमार्थदर्शनजमात्मदनिजं सुखं करोति, तत्कृत्वा निवर्तते। आभिमानिककार्यविनिरोधात् तदा निर्बोजस्यात्मनः शरीरादिनिवृत्तौ पुनः शरीराद्यनुत्पत्तौ दग्धेन्धनानलवदुपशमो मोक्षः । यदा परमार्थदर्शनं कृत्वा निवृत्तो धर्मः, तदा निर्बीजस्यात्मनः शरीरादिबीजधर्माधर्मरहितस्यात्मन उत्पन्नानां शरीरादीनां कर्मक्षयानिवृत्तौ भूतायामनागतानां कारणाभावादनुत्पत्तौ यथा दग्धेन्धनस्यानलस्योपशमः पुनरनुत्पादः, एवं पुनः शरीरानुत्पादो मोक्षः।
इदं निरूप्यते। किं ज्ञानमात्रान्मुक्तिः ? उत ज्ञानकर्मसमुच्चयात् ? ज्ञानकर्मसमुच्चयादिति वदामः । निवृत्तेतराभिलाषस्य काम्यकर्मभ्यो निव. तस्यापि नित्यनैमित्तिककर्माधिकारो न निवर्त्तते, तानि ह्यपनीतं ब्राह्मणमात्रमधिकृत्य विहितानि । मुमुक्षुरपि ब्राह्मण एव, जातेरनुच्छेदात् । स यद्यधिकाव्युत्पत्ति के द्वारा निष्पन्न है (जिसका अर्थ है कि संसार की निवृत्ति जिससे हो)। इस प्रकार से निष्पन्न निवृत्ति शब्द के साथ 'लक्षण' शब्द का 'निवृत्तिर्लक्षणं यस्य असो निवृत्तिलक्षणः' इस प्रकार का समास है, अर्थात् निवृत्तिस्वभाव का जो धर्म वह रागादि की निवृत्ति होने पर केवल' अर्थात् व्यवस्थित हो जाता है । वह (केवल धर्म) सन्तोषसुख और शरीरसञ्चालन इन दोनों का उत्पादन कर 'परमार्थदर्शनजम्' अर्थात् आत्मज्ञान जनित सुख को उत्पन्न कर स्वयं भी निवृत्त हो जाता है, क्योंकि आभिमानिक सभी कार्यों का वह विरोधी है। 'तदा' इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं कि यह निवृत्तिस्वभाव का धर्म जब आत्मज्ञान जनित धर्म को उत्पन्न कर स्वयं निवृत्त हो जाता है 'तदा निर्बीजस्य' अर्थात् तब शरीरादि के उत्पादन के बीज प्रवृत्तिलक्षण धर्माधर्मादि से रहित आत्मा के शरीरादि का कर्मक्षय से नाश हो जाता है, और कारणों के न रहने से आगे होनेवाले शरीरादि की उत्पत्ति रुक जाती है। जिस प्रकार लकड़ी के जल जाने के बाद अग्नि का भी नाश हो जाता है, और पुनः उत्पत्ति भी नहीं होती है, उसी प्रकार शरीर का पुनः उत्पन्न न होना ही 'मुक्ति' है।
अब इस विषय का विचार करते हैं कि केवल ज्ञान से ही मुक्ति होती है ? अथवा ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर मोक्ष का सम्पादन करते हैं ? हम लोग तो कहते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर ही मोक्ष का सम्पादन करते हैं। क्योंकि जिन्हें सांसारिक विषयों की अभिलाषा नहीं है, वे यद्यपि काम्य कर्म से निवृत्त हो जाते हैं, फिर भी वे अपने नित्य और नैमित्तिक कर्मों की अवश्यकर्तव्यता से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि नित्य और नैमित्तिक कर्मों का विधान उपनीत सभी ब्राह्मणों के लिए किया गया है। मोक्ष के इच्छुक भी ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि जाति का कभी नाश नहीं
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे मोक्ष
न्यायकन्दली रित्वे सत्यवश्यकरणीयान्यतिक्रमेत् प्रत्यवायोऽस्य प्रत्यहमुपचीयेत, तदुपचयाच्च बद्धो न मुच्यते । यथोक्तम् -
यानि काम्यानि कर्माणि प्रतिषिद्धानि यान्यपि ।
तानि बध्नन्त्यकुर्वन्तं नित्यनैमित्तिकान्यपि ॥ इति । विहिताकरणमभावः, न चाभावो भावस्य हेतुरपि, अतो नास्मात् प्रत्यवायोत्पत्तिरिति चेत् ? न, विहिताकरणेऽन्यकरणात् प्रत्यवायस्य सम्भवात् । अभावस्य हि स्वातन्त्र्येण हेतुत्वं नेष्यते, न तु भावोपसर्जनतया। न च शरीरी सन्ध्यादिकाले कायेन वाचा मनसा वा किञ्चिन्न करोति, शरीरधारणादीनामपि करणात् । यथोक्तम्
कर्मणां प्रागभावो यो विहिताकरणादिषु । न चानर्थकरत्वेन वस्तुत्वान्नापनीयते ।। स्वकाले यदकुर्वस्तत् करोत्यन्यदचेतनः।
प्रत्यवायोऽस्य तेनैव नाभावेन स जन्यते ॥ इति । अभावेन केवलेन नासौ जन्यत इत्यर्थः। प्रतिषिद्धाचरणात् प्रत्यवायः, होता। यदि अधिकार रहने पर भी अपने अवश्य कर्तव्य (नित्य नैमित्तिक ) कर्मों का अनुष्ठान वे नहीं करते, फिर उनका प्रत्यवाय बढ़ता ही जाएगा। प्रत्यवाय को इस वृद्धि के कारण बद्ध पुरुष कभी मुक्त नहीं होगा । जैसा आचार्यों ने कहा है कि
जितने भी काम्य, निषिद्ध, नित्य और नैमित्तिक कर्म हैं, सभी अनुष्ठान न करनेवाले अधिकारी को संसार में बाँधते हैं ।
(प्र०) विहित कर्मों का न करना अभाव पदार्थ है, अभाव किसी का कारण नहीं हो सकता, अतः विहित कर्मों के न करने से प्रत्यवाय की उत्पत्ति नहीं हो सकती। ( उ०) यह कोई बात नहीं है, जिस समय अधिकारी विहित कर्म का अनुष्ठान न करेगा उस समय कोई दूसरा कर्म तो करेगा ही, इस दूसरे कर्म ( रूप भाव पदार्थ) से ही प्रत्यवाय की उत्पत्ति होगी। अभाव स्वतन्त्र होकर ही किसी का कारण नहीं होता, किन्तु भाव पदार्थ रूप कारण का उपसर्जन तो होता ही है। जितने भी शरीरी हैं, वे सन्ध्यावन्दनादि के समय ( उसके न करने पर भी) शरीर से बचन से या मन से कोई न कोई काम अवश्य ही करते हैं। क्योंकि शरीर को धारण करना भी तो कर्म ही है, जैसा कि आचार्यों ने कहा है
विहित कर्म का न करना यतः कर्मो का प्रागभाव है, अतः भाव पदार्थ न होने के कारण वह प्रत्यवाय के उत्पादन से सर्वथा विरत नहीं हो सकता, क्योंकि मूढ़ भी विहित कर्म के काल में उसे न करने पर भी अन्य कोई कर्म अवश्य ही करता है, उस दूसरे कर्म से प्रत्यवाय की उपत्ति होती है, विहिताकरण रूप प्रागभाव से ही नहीं।
___ अर्थात् केवल उक्त प्रागभाव से प्रत्यवाय की उत्पत्ति नहीं होती है। (प्र.) निषिद्ध कर्मों के आचरण से प्रत्यवाय होता है, शरीर धारण रूप कर्म तो निषिद्ध नहीं है,
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शरीरधारणादिकं च न प्रतिषिद्धम् । तत्कुर्वन्नपि यदि संध्यया योगमभ्यस्यति को दोष इति चेत् ? न, तत्काले विहितस्यावश्यकर्त्तव्यताविधेरर्थात् केवलस्य शरीरधारणादे: करणं प्रतिषिद्धमिति । तदाचरतो भवत्येव प्रतिषिद्धाचरणनिमित्तः प्रत्यवायः । अथोच्यते । दीर्घकालादरनरन्तर्यसेवितभावनाहितविशदभावमात्मज्ञानमेव रागद्वेषौ मोहं च समूलकाषं कषद्विहिताकरणनिमित्तं प्रत्यवायमपि कषतीति चेत् ? तदयुक्तम् । यत्र ह्यभ्यासः प्रसीदति, तत्र तत्त्वग्रहो जातः संशयविपर्ययौ व्युदस्यति, न त्वस्य वस्त्वन्तरनिर्वहणे सामर्थ्य दृष्टपूर्वम् । यदि पुनरात्मज्ञानं कर्माणि निरुणद्धि उपारूढफलभोगमपि कर्म निरन्ध्यात्, ततः सुदूरं गता जीवन्मुक्तिः ? तत्त्वदर्शनानन्तरमेव विलीनाखिलकर्मणो देहपातात् । अस्ति चायं परमार्थदृष्टिनिरुद्धाखिलाविद्योऽपि चित्रलिखितमिवाभासमात्रेण सर्वं जगत् पश्यन्नेकत्राप्यनारूढाभिनिवेशः प्रारब्धफलं कर्मविशेषमुपभुञ्जानः कुलालव्यापारविगमे चक्रभ्रान्तिवत् संस्कारवशादनुवर्तमानस्य देहपातमुदीक्षमाणः । तथा च श्रुतिः
फिर विहिताकरण के समय शरीर धारण से प्रत्यवाय की उत्पत्ति क्यों कर होगी ? शरीरधारण करते हुए यदि संध्या वन्दन के समय कोई योग का ही अभ्यास करता है, तो उसे प्रत्यवाय क्यों होगा ? (प्र०) 'सन्ध्यावन्दन अवश्य करे' यह विधान है, इस विधान से ही इस प्रतिषेध का भी आक्षेप होता है कि उस समय केवल-शरीर का धारण न करे (सन्ध्यावन्दन से युक्त शरीर का ही धारण करे ) अतः उस समय केवल-शरीर का धारण प्रतिषिद्ध है । सुतराम् उससे प्रत्यवाय होना उचित है। यदि यह कहें कि (प्र.) दीर्घकाल से आदरपूर्वक किये गये अभ्यास के कारण आत्मा का विशद तत्त्वज्ञान जिस प्रकार राग, द्वेष, मोह प्रभृति को मूल सहित विनष्ट कर देता है, उसी प्रकार वही आत्मतत्त्वज्ञान विहित सन्ध्यावन्दनादि के न करने से होनेवाले प्रत्यवाय को भी विनष्ट कर देगा। । उ०) तो उक्त कथन भी सङ्गत नहीं होगा, क्योंकि उपयुक्त अभ्यास केवल विषयों के तत्त्व को ही पूर्ण रूप में समझा सकता है, जिससे उसमें जो संशय या विपर्यय रहता है, उसका विनाश हो जाय । अभ्यासजनित तत्त्वग्रह में यह सामर्थ्य कहीं उपलब्ध नहीं है कि किसी दूसरी वस्तु को भी वह उत्पन्न करे। यदि यह मान भी लें कि आत्मज्ञान से कर्मों का नाश होता है, तो फिर उससे सारे प्रारब्ध कर्मों का भी नाश हो जाएगा, जिससे जीवन्मुक्ति की बात ही छोड़ देनी पड़ेगी। क्योंकि तत्त्वज्ञान के बाद ही प्रारब्ध सहित सभी कर्मों का नाश हो जाएगा, जिससे कि आत्मज्ञान वाले पुरुष के शरीर का भी नाश हो जाएगा। किन्तु ऐसे महापुरुषों की सत्ता अवश्य है जिनको सभी अविद्यायें आत्मतत्त्वज्ञान से नष्ट हो चुकी हैं, जो सम्पूर्ण विश्व को चित्रलिखित आभासमात्र की तरह देखते हैं, किसी भी एक विषय में अभिनिवेश न रखकर, अपने प्रारब्ध को भोगते हुए संस्कार के कारण कुम्हार के चाक के भ्रमण की तरह देहपात की प्रतीक्षा करते हैं। जैसा श्रुति
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जीवन्नेव कापिला:
न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
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हि विद्वान् संहर्षायासाभ्यां विप्रमुच्यते इति ।
[ गुणनिरूपणे मोक्ष
तथा चाहु:
सम्यग्ज्ञानाधिगमाद् धर्मादीनामकारणप्राप्तौ । तिष्ठति संस्कारवशाच्चक्रभ्रमवद् धृतशरीरः ।। इति । धर्मादीनामकारणप्राप्ताविति तत्त्वज्ञानेनोच्छिन्नेषु सवासनक्लेशेषु धर्मादीनां सहकारिकारणप्राप्त्यभावे सतीत्यर्थः । अलब्धवृत्तीनि कर्माणि तत्त्वज्ञानाद् विलीयन्त इति चेत् ? न तेषामपि कर्मत्वादारब्धफलकर्मवज् ज्ञानेन विनाशाभावात् । योऽपि 'क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे' इत्युपदेशः, तस्याप्ययमर्थः -- ज्ञाने सति अनागतानि कर्माणि न क्रियन्त इति । न पुनरयमस्यार्थःउत्पन्नानि कर्माणि ज्ञानेन विनाश्यन्त इति । तथा चागमान्तरम् 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि' इत्यादि । ज्ञानं यदि न क्षिणोति कर्माणि ? अनेकजन्म सहस्रसञ्चितानां कर्मणां कुतः परिक्षयः ? भोगात् कर्मभिश्च । तदर्थं कहती है कि 'आत्मज्ञानी पुरुष शरीर को धारण करते हुए भी हर्ष और शोक से विमुक्त रहते हैं" इसी प्रसङ्ग में सांख्यदर्शन के आचार्य ने भी कहा है कि-
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'सम्यग्ज्ञान ( आत्मतत्त्व ज्ञान ) की प्राप्ति से धर्मादि से संसार के उत्पादक सहकारी ( वासनादि ) नष्ट हो जाते हैं, फिर भी संस्कार के कारण कुम्हार के चाक के भ्रमण की तरह तत्त्व ज्ञानी शरीर को धारण किये ही रहते हैं ।
उक्त आर्या में प्रयुक्त 'धर्मादीनामकारण प्राप्ती' इस वाक्य का अर्थ है कि 'तत्त्वज्ञान से जब वासना सहित सभी क्लेशों का नाश हो जाता है, जब संसार के कारणीभूत धर्मादि भावों के सहकारी नष्ट हो जाते हैं, उस समय ' | ( प्र० ) तत्त्वज्ञान के द्वारा प्रारब्ध से भिन्न सभी कर्मों का विनाश हो जाता है । ( उ० ) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रारब्ध कर्म की तरह वे भी कर्म ही हैं अतः तस्वज्ञान से उनका भी नाश नहीं हो सकता । 'क्षीयन्ते चास्य कर्माणि' इत्यादि वाक्य का जो यह उपदेश है कि " आत्मतत्त्वज्ञान के हो जाने पर उसके सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं" उसका इतना ही अभिप्राय है कि ज्ञान हो जाने के बाद कर्म की धारा रुक जाती है । फिर भविष्य में कर्म अनुष्ठित नहीं होते । उसका यह अर्थ नहीं है कि जो कर्म उत्पन्न हो गये हैं, तत्त्वज्ञान से उनका भी विनास होता है । जैसा कि दूसरे आगम के द्वारा कहा गया है कि बिना भोग के कर्मों का नाश नहीं होता है, चाहे सौ करोड़ कल्प ही क्यों न बीत जाय । (प्र०) ज्ञान से यदि कर्मों का नाश नहीं होता है, तो फिर कई हजार वर्षों से सश्चित कर्मों का नाश किससे होता है ? ( उ० ) भोग से और नाशक दूसरे कर्मों से ही ( उन सश्चित कर्मों का ) नाश होता है । ( प्र० ) कर्मनाश के लिए विहित कर्मों से अनन्तजन्मों से सश्चित कर्मों ( उ० ) ऐसी कोई बात नहीं है,
का एक ही जन्म में विनाश किस प्रकार होगा ! कर्मक्षय के लिए काल का कोई नियम नहीं है । जिस
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली चोदितैरनन्तानां कथमेकस्मिन् जन्मनि परिक्षय इति चेत् ? न, कालानियमात् । यथैव तावत् प्रतिजन्म कर्माणि चीयन्ते, तथैव भोगात् क्षीयन्ते च। यानि स्वपरिक्षीणानि तान्यात्मज्ञेनापूर्व सञ्चिन्वता च क्रमेणोपभोगात् कर्मभिश्च नाश्यन्ते । यथोक्तम्
कुर्वन्नात्मस्वरूपज्ञो भोगात् कर्मपरिक्षयम् ।
युगकोटिसहस्रण कश्चिदेको विमुच्यते।। इति । तदेवं विहितमकुर्वतः प्रत्यायोत्पत्तस्तस्य च बन्धहेतुत्वादन्यतो विरामाभावात्, प्रत्यवायनिरोधार्थ मुक्तिमिच्छता योगाभ्यासाविरोधेन भिक्षाभोजनादि. वद् यथाकालं विहितान्यनुष्ठयानि, यावदस्यात्मतत्त्वं न स्फुटीभवति । स्फुटीकृतात्मतत्त्वस्यापि जीवन्मुक्तस्य तावत्कर्माणि भवन्ति, यावद्यात्रानुवर्तते । आत्मैकप्रतिष्ठस्य त्वभ्यर्णमोक्षस्य परिक्षीणप्रायकर्मणः तानि नश्यन्त्येव, बहिः संवित्तिविरहात् । परिणतसमाधिसामर्थ्य विशदीकृतमुपचितवैराग्याहितपरिपाकपर्यन्तमापादितविषयाद्वैतमुन्मूलितनिखिलविपर्ययवासनमेकाग्रीकृतान्त:करणकारणमात्मतत्त्वज्ञानमेव केवलं तदानीं सजायते, न बहिःसंवेदनम्, प्रकार प्रत्येक जन्म में कर्म का सञ्चय होता है उसी प्रकार भोग से उनका विनाश भी होता रहता है। उनमें जितने कर्म भोग से बच जाते हैं, उन कर्मों को आगे आत्मज्ञ पुरुष अपूर्व कर्मो का सञ्चय करते हुए ही भोग से और (प्रतिरोधक) कर्म से क्रमशः नष्ट कर देते हैं। जैसा कहा गया है कि
आत्मज्ञान से भोग के द्वारा कर्मों का नाश करते हुए हजारों कोटियुगों में कोई एक पुरुष मुक्त होता है।
___ इन सब कारणों से यह मानना पड़ता है कि यतः विहित कर्मों को न करने से प्रत्यवाय होता है, एवं प्रत्यवाय बन्ध का कारण है, इस प्रत्यवाय की निवृत्ति विहित कर्मों के अनुष्ठान के बिना सम्भव नहीं है, अतः जिन्हें मुक्ति पाने की अभिलाषा हो, उन्हें योगाभ्यास को क्षति पहुँचाये बिना विहित कर्मों का अनुष्ठान तब तक करते रहना चाहिए, जब तक आत्मतत्त्व पूर्ण रूप से अवगत न हो जाय। जैसे कि ज्ञान न हो जाने तक भिक्षा भोजन प्रभृति कर्मों का अनुष्ठान अन्त तक करना पड़ता है। आत्मा का परिस्फुट ज्ञान हो जाने पर भी यदि वे जीवनमुक्त हैं, तो जब तक यह शरीर है, तब तक नित्य नैमित्तिक कर्मों का अनुष्ठान उन्हें भी करना पड़ेगा। जिस महापुरुष को केवल आत्मा का ही ज्ञान रह जाता है, और इस कारण जो परम मुक्ति के समीप पहुँच जाते हैं, उनसे कर्म स्वयं छूट जाते हैं, क्योंकि उन्हें बाह्य विषयों का ज्ञान हो नहीं रह जाता । उन्हें तो केवल आत्मा का ही विशिष्ट ज्ञान रह जाता है। परिणत समाधि के द्वारा उत्पन्न होने के कारण जिस आत्मज्ञान में पूरी स्वच्छता आ गयी है, तीव्र वैराग्य से जिसमें पूरी परिपक्वता आ गयी है। एवं जिस आत्मज्ञान में दूसरे सभी विषयों का सम्बन्ध पूर्णतः समाप्त हो गया है। जिससे सभी विपर्यय रूप मिथ्या ज्ञान का
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न्यायकन्दलीसंवलिप्तप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे मोल
न्यायकन्दली बाह्येन्द्रियव्यापारोपरमात् । तत्र कः संभवः कर्मणाम् ? तथा च श्रुतिः-'न शृणोतीत्याहुरेकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकोभवतीत्यादि' । तदा चाकरणनिमित्तः प्रत्यवायोऽपि नास्ति सन्ध्येयमुपस्थितेत्यादिकमजानतो ब्राह्मणोऽस्मीति प्रतीतिरहितस्य कर्माधिकारपरिभ्रंशात् । यथोक्तम्
ब्राह्मणत्वानहमानी कथं कर्माणि संसृजेत् ॥ इति । न चास्योपरतसमस्तव्यापारस्य काष्ठवदवस्थितस्यापि प्राणिहिंसापि संभवति । यत् पुनरस्य दृष्टद्रष्टव्यस्य क्षीण तव्यस्य वशीकृतमनसो विषयावबोधस्मरणसंकल्पसुखदुःखबहिष्कृतस्य ब्रह्मलग्नसमाधेरपि शरीरं कियन्तञ्चित ( कालमनुवर्तते ) तच्छरीरस्थितिमात्रहेतोरायविपाकस्य कर्मग्रन्थेरनुच्छेदात् । यदा तु यावन्तं कालमायुविपाकेन कर्मणा शरीरं धारयितव्यं तावत्कालप्राप्तिरभूत्, तदा स्वकार्यकरणात् कर्मसमुच्छेदे तत्कार्यस्य शरीरस्य निवृत्तिः।
विनाश हो गया है। जिस आत्मज्ञान की उत्पत्ति एकाग्र अन्तःकरण से होता है। ऐसे आत्मज्ञानवाले पुरुष को केवल आत्मा का ही ज्ञान उस समय होता है। बाह्य किसी विषय का भान उन्हें नहीं रह जाता, क्योंकि बाह्य विषयों के साथ उनकी इन्द्रियों का सम्बन्ध हो नहीं रह जाता है। ऐसी स्थिति में उनसे कर्म सम्पादन की कौन सी आशा की जा सकती है ? इसी स्थिति को अति ने 'न शृणोतीत्याहुरेकीभवति' इत्यादि वाक्यों से कहा है। उस समय उनसे विहित कर्मों का अनुष्ठान न होने पर भी उन्हें प्रत्यवाय नहीं होता। क्योंकि जिन्हें कर्माधिकार का सूचक 'अभी सन्ध्या उपस्थित हो गयी, मैं ब्राह्मण हूँ' इत्यादि ज्ञान नहीं है, उनका कर्म करने का अधिकार भी छूट जाता है। जैसा कहा गया है कि-- - 'मैं ब्राह्मण हूँ' जिनको इस प्रकार का अहङ्कार नहीं है, वे ब्राह्मणोचित कर्म के साथ कैसे सम्बद्ध हो सकते हैं ?
इस प्रकार सभी कर्म छूट जाने के कारण जो काठ की तरह हो गये हैं, उनसे किसी भी प्राणी की हिंसा सम्भव नहीं है। जिन्होंने जानने योग्य सभी विषयों को जान लिया है, छोड़ने योग्य सभी विषयों को छोड़ दिया है । जिन्होंने मन को वशीभूत कर विषयों के अनुभव, स्मरण, संकल्प, सुख एवं दुःख सभी से छुटकारा पा लिग है, वे यदि ब्रह्म के ध्यान में समाधिस्थ भी हैं तथापि उनकी शरीर की अनुवृत्ति जो थोड़े समय के लिए भी चलती है, उसका कारण वह कर्मग्रन्थि रूप विपाक है जो केवल शरीर स्थिति का ही कारण है। जितने समय के आयु तक उक्त कर्मविपाक से शरीर की स्थिति आवश्यक है, वह समय जब समाप्त हो जाता है, तब अपना कर्त्तव्य समाप्त होने के कारण कर्म भी समाप्त हो जाता है । कर्म की समाप्ति से शरीर की समाप्ति, और शरीर की समाप्ति से तत्त्वज्ञान की भी समाप्ति हो जाती है, जिससे आत्मा को कैवल्य प्राप्त होता है।
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६८६
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तनिषत्तौ तत्कार्यस्य तत्त्वज्ञानस्यापि विनाशादात्मा कैवल्यमापद्यते। तत्रात्मतस्वज्ञानस्य विहितानां च कर्मणां बन्धहेतुकर्मप्रतिबन्धव्यापारादस्ति सम्भूयकारिता। शरीरादिविविक्तमात्मानं जानतश्च तदुपकारापकारावात्मन्यप्रतिसन्दधानस्याहङ्कार-ममकारयोरुपरमे सत्युपकारिण्यपकारिणि च रागद्वेषयोरभावादुदासीनस्याप्रवृत्तावनागतयोः कुशलेतरकर्मणोरसञ्चयात्, सञ्चितयोश्चोपभोगेन कर्मभिश्च परिक्षयाद् विहिताकरणनिमित्तस्य प्रत्यवायस्य च विहितानुष्ठानेनैव प्रतिबन्धात् । क्षीणे कर्मण्यैहिकस्य देहस्य निवृत्तौ कारणान्तराभावादामुहिमकस्य देहस्य पुनरुत्पत्त्यभावे सत्यात्मनः स्वरूपेणावस्थानम् । यथोक्तम्
नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरितक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥
अभ्यासात् पक्वविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः ।। इति । तथा परैरप्ययं गृहीतो मार्गः।।
कर्मणा सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानेनात्मविनिश्चयः ।
भवेद् विमुक्तिरभ्यासात् तयोरेव समुच्चयात् ॥ इति । इस प्रकार आत्मतत्त्वज्ञान और विहितकर्मों का अनुष्ठान ये दोनों मिलकर (ज्ञानकर्मसमुच्चय ) ही बन्ध के कारणीभूत कर्मों के प्रतिरोध करने की क्षमता रखते हैं । जिस पुरुष को 'शरीरादि से आत्मा भिन्न है' इस प्रकार का ज्ञान और शरीरादि में किये गये उपकार और अपकार को आत्मा का उपकार और अपकार न समझने की बुद्धि है, उस पुरुष के अहङ्कार और ममकार का विलोप हो जाता है। फिर उपकारी के प्रति राग और अपकारी के प्रति द्वेष ये दोनों भी स्वतः निवृत्त हो जाते हैं। जिससे आत्मा की प्रवृत्ति रुक जाती है, और वह उदासोन हो जाता है। जिससे आगे पाप और पुण्य का प्रवाह रुक जाता है, और पहिले किये गये ( सञ्चित ) पापपुण्य का भोग और दूसरे कर्मों से विनाश हो जाता है। एवं विहित कर्मों के न करने से जो प्रत्यवाय होगा, उसका प्रतिरोध विहित कर्मों के अनुष्ठान से ही हो जाएगा। इस प्रकार सभी कर्मों का विनाश हो जाने पर इहलोक का शरीर तो नष्ट हो ही जाएगा, और कारणों के न रहने पर पारलौकिक शरीर भी उत्पन्न नहीं होगा। ऐसी स्थिति में आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाएगा। जैसा कहा गया है कि
नित्य और नैमित्तिक कर्म के अनुष्ठान से सभी पापों को नष्ट करते हुए ज्ञान को स्वच्छ कर लेना चाहिए। इसके बाद अभ्यास के द्वारा उक्त स्वच्छ ज्ञान को परिपक्व कर लेना चाहिए । इस प्रकार अभ्यास से परिपक्व ज्ञानवाले पुरुष को ही कैवल्य प्राप्त होता है।
अन्य सम्प्रदाय के लोगों ने भी इस मार्ग को अपनाया है, जैसा कि इस श्लोक से स्पष्ट है
कर्म से अन्तःकरण की शुद्धि होती है और ज्ञान से आत्मा का ( साक्षात्कारात्मक) विनिश्चय होता है । इस प्रकार ज्ञान और कर्म दोनों के ही अभ्यास से मुक्ति प्राप्त होती है।
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.६०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुण निरूपण मोक्ष
न्यायकन्दली किं पुनरात्मन: स्वरूपं येनावस्थितिमक्तिरुच्यते ? आनन्दात्मतेति केचित् । तदयुक्तम् । विकल्पासहत्वात् । स किमानन्दो मुक्तावनुभूयते वा ? न वा ? यदि नानुभूयते ? स्थितोऽप्यस्थितान्न विशिष्यते, अनुपभोग्यत्वात् । अनुभूयते चेत् ? अनुभवस्य कारणं वाच्यम् । न च कायकरणादिविगमे तदुत्पत्तिकारणतां पश्यामः । अन्तःकरणसंयोगः कारणमिति चेत् ? न, धर्माधर्मोपगृहीतस्य हि मनसः सहायत्वात्, तदखिलशुभाशुभबीजनाशोपगतं नात्मानुकल्येन वर्तते। योगजधर्मानुग्रहादात्मानमनुकूलयति चेत् ? योगजोऽपि धर्मः कृतकत्वादवश्यं विना. शीति तत्प्रक्षये मनसः कोऽनुग्रहीता ? अथ मतम्-अचेतनस्यात्मनो मुक्तस्यापि पाषाणादविशेषः, सोऽपि हि न सुखायते न दुःखायते । मुक्तोऽपि यदि तथैव, कोऽनयोविशेषः ? तस्मादस्त्यात्मनः स्वाभाविको चितिः, सा यदेन्द्रियैर्बहिराकृष्यते, तदा बहिर्मुखीभवति । यदा विन्द्रियाण्युपरतानि भवन्ति, तदा स्वात्मन्येवानन्दस्वभावे निमज्जति ।
आत्मा का वह कौन सा स्वरूप है जिस स्वरूप से आत्मा की स्थिति मुक्ति कहलाती है ? (इस प्रश्न का उत्तर) कुछ लोग इस प्रकार देते हैं कि वह स्थिति आत्मा की आनन्दस्वरूपता ही है । किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष के सम्भावित कोई भी विकल्प युक्त नहीं ठहरता । (पहिला विकल्प यह है कि) मुक्तावस्था में इस आनन्द का अनुभव होता है ? अथवा नही ? यदि अनुभव नहीं होता है, तो फिर उस आनन्द का रहना और न रहना दोनों बराबर है। क्योंकि उस आनन्द का उपभोग नहीं किया जा सकता। यदि कहें कि उस आनन्द का अनुभव होता है ? तो फिर उस अनुभव का कारण कौन है.यह कहना पड़ेगा। शरीर एवं इन्द्रियादि के नष्ट हो जाने पर और किसी को उस अनुभव का कारण मानना सम्भव नहीं है । (प्र.) अन्तःकरण ( मन ) का संयोग उसका कारण होगा ? ( उ० ) सो भी सम्भव नहीं है, क्योंकि धर्म और अधर्म से प्रेरित मन ही अनुभव का सहायक है । जिसके सभी धर्म और अधर्म नष्ट हो चुके हैं, उसके मन से आत्मा को दुःख का अनुभव नहीं हो सकता। (प्र०) योगज धर्म के साहाय्य से वह मन आत्मा के अनुकूल होता है ( अर्थात् आत्मा के सुखानुभव का उत्पादन करता है)। ( उ०) किन्तु योगज धर्म भी तो उत्पत्तिशील हो है, अतः उसका भी अवश्य नाश होगा, फिर उसके नष्ट हो जाने पर मन का सहायक कौन होगा ? यदि यह कहें कि ( प्र. ) मुक्त भी हो यदि उसमें चैतन्य न रहे, तो फिर पत्थर के समान ही होगा, क्योंकि पत्थर में भी सुख दुःख की चेतनायें नहीं होती। यदि मुक्त पुरुष को भी सुख और दुःख की चेतनाओं से रहित मान लिया जाय, तो पत्थर और मुक्त आत्मा में क्या अन्तर रहेगा ? अतः यह मानना पड़ेगा कि आत्मा में एक स्वाभाविक चैतन्य होता है। वह चैतन्य जब इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों की तरफ खींचा जाता है, तब वह चैतन्य बहिर्मुख होता है (अर्थात् बाह्य विषयक ज्ञान में परिणत होता है)। जब इन्द्रियां
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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६६१
कारणान्तर
अयं हि चितेरात्मा यदि यं कश्विदवभासयति, यदि पुनरियं मुक्तावस्थायामुदास्ते, तहिं स्थितोऽप्यस्थित एव । वरमात्मा जड एव कल्प्यतामिति चेत् ? अत्रोच्यते - किं चितेरानन्दात्मता स्वाभाविकी ? जन्या वा ? न तावदवभासकारणं मुक्तावस्ति, कायकरणादीनां तत्कारणानां विलयादित्युक्तम् । स्वाभाविकी चेत् ? संसारावस्थायामप्यानन्दोऽनुभूयेत, चितिचैत्ययोरुभयोरपि सम्भवात् । अविद्याप्रतिबन्धादननुभव इति चेत् ? न, नित्यायाश्चितेरानन्दानुभवस्वभावायाः स्वरूपस्याप्रच्युतेः कः प्रतिबन्धार्थः ? प्रच्युतौ वा स्वरूपस्य का नित्यता ? तस्मान्नित्य आनन्दो नित्यया चित्या चेत्यमानो द्वयोरप्यवस्थयोरविशेषेण चेत्यते । न चैवमस्ति संसारावस्थायामुत्पन्नापवगिणो विषयेन्द्रियाधीनज्ञानस्य सुखस्यानुभवात् । अतो नास्त्यात्मनो नित्यं
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अपने व्यापार से निवृत्त हो जाती हैं, उस समय वह (चैतन्य) अपने आनन्द स्वभाव में ही निमग्न रहता हैं । चित्स्वरूप इस आत्मा का यह स्वभाव है कि किसी को भासित करे। यदि मुक्तावस्था में वह इस काम से उदासीन हो जाता है, तो फिर उस समय चैतन्य का उसमें रहना और न रहना बराबर है। इससे अच्छा है कि आत्मा को जड़ ही मान लिया जाय । इस प्रसङ्ग में हम लोगों (सिद्धान्तियों) का कहना है कि आत्मा में जो आनन्द की अभिन्नता है वह स्वाभाविक है ? या किसी दूसरे कारण से उत्पन्न होती है ? ( यदि कारणान्तरजन्य मानें तो ) मुक्तावस्था में वे कारण नहीं हैं। क्योंकि कह चुके हैं कि अवभास के कारण शरीर इन्द्रियादि का उस समय विलय हो जाता है । यदि उसको स्वाभाविक मानें तो फिर संसारावस्था में भी उसका अवभास होना चाहिए, क्योंकि उस समय भी अवभास्य और अवभासक दोनों विद्यमान हैं । ( प्र० ) संसारावस्था में अविद्या रूप प्रतिबन्धक के कारण उस आनन्द का भान नहीं होता है । ( उ० ) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चिति नित्य है, एवं आनन्द उसका स्वरूप है, अतः चिति अपने उस आनन्द स्वरूप विच्युत हो ही नहीं सकती । फिर उक्त प्रतिबन्ध के लिए कोई अवसर ही नहीं रह जाता। यदि चिति कभी (संसारावस्था में) अपने आनन्दस्वरूपता से प्रच्युत हो सकती हैं, तो फिर वह नित्य ही नहीं रह जाएगी । तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि आनन्द भी नित्य है, एवं नित्य चिति के द्वारा हो उसका अनुभव होता है । यदि ऐसी बात है, तो फिर संसार और अपवर्ग दोनों ही अवस्थाओं में समान रूप से नित्य आनन्द का अनुभव होना चाहिए। किन्तु सो नहीं होता क्योंकि संसारावस्था में जब तक अपवर्ग की प्राप्ति नहीं होती, तब तक विषय एवं इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान और सुख का ही अनुभव होता है । तस्मात् आत्मा का नित्यसुख नाम का कोई गुण ही अनुभव में नहीं आता । अतः आत्मा का नित्यसुख नाम का कोई गुण नहीं है । सुतराम् नित्यसुख के अनुभव की अवस्था मुक्ति नहीं है । आत्मा के सभी विशेष
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम् श्रोत्रग्राद्यः, क्षणिकः,
शब्दोऽम्बरगुणः विरोधी, संयोगविभागशब्दजः प्रदेशवृत्तिः,
,
आकाश का गुण ही शब्द है । वह क्षणिक है, एवं उसके कार्य और उसके
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[ गुणनिरूपणे शब्द
कार्य कारणोभयसमानासमानजातीय
उसका प्रत्यक्ष श्रोत्र से होता हैं । कारण दोनों ही उसके विनाशक हैं ।
न्यायकन्दली
सुखं तदभावान्न तदनुभवो मोक्षावस्था, किन्तु समस्तात्म विशेष - जोन्छेबोपलक्षिता स्वरूपस्थितिरेव । यथा चायं पुरुषार्थस्तथोपपादितम् । शब्दोऽम्बरगुणः आकाशगुणः । ननु संख्यादयोऽप्याकाशगुणाः सन्ति, कथमिदं शब्दस्य लक्षणं स्यादत आह— श्रोत्रग्राह्य इति । श्रोत्रग्राह्यत्वे सत्यम्बरगुणो यः स शब्द इत्यर्थः । परस्य विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थमाहक्षणिक इति । आशुतरविनाशी शब्दो न तु नित्यः, उच्चारणादूर्ध्वमनुपलम्भात् । सद्भावे प्रमाणाभावेन व्यञ्जकत्वकल्पनानवकाशात् । प्रत्यभिज्ञानस्य ज्वा लादिवत् सामान्यविषयत्वेनोपपत्तेस्तीव्रमन्दतादिभेदस्य च व्यक्ति भेदप्रसाधकत्वात् । कार्यकारणोभयविरोधी आद्यः शब्दः स्वकार्येण विरुध्यते । अन्त्यः स्वकारणेनोपान्त्यशब्देन विरुध्यते, अन्त्यस्य विनाशकारणस्याभावात् । मध्य
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गुणों के आत्यन्तिकविनाश से युक्त आत्मा की स्वरूपस्थिति ही मोक्ष' है । यह अवस्था पुरुष के लिए काम्य क्यों है ? इसका उपपादन ( मङ्गलश्लोक की व्याख्या में ) कर चुके हैं ।
'शब्दोऽम्ब र गुणः' अर्थात् आकाश का गुण ही शब्द है । संख्यादि भी तो आकाश के गुण हैं, फिर आकाश का गुण होना शब्द का लक्षण कैसे हो सकता है ? इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'श्रोत्रग्राह्य' पद का उपादान किया गया है । अर्थात् जो थोत्र के द्वारा ग्रहण के योग्य हो, और आकाश का गुण भी हो वही 'शब्द' है । शब्द में नित्यत्व पक्ष के निराकरण के लिए ही 'क्षणिक : ' यह पद प्रयुक्त हुआ है । अर्थात् उत्पत्ति के बाद शब्द अतिशीघ्र विनष्ट हो जाता है, अतः वह नित्य नहीं है क्योंकि उच्चारण के बाद फिर उसकी उपलब्धि नहीं होती है । ( प्र ० उच्चारण के बाद शब्द की अभिव्यक्ति का कोई साधन नहीं रहता, अतः शब्द की उपलब्धि नहीं होती, किन्तु उस समय भी शब्द है ही । ( उ०) उच्चारण के बाद शब्द की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, अतः शब्द के व्यञ्जक की कल्पना करने का कोई अवकाश नहीं है । 'सोऽयं गकारः ' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा को सादृश्यमूलक मान लेने से भी काम चल सकता है । एवं शब्दों में एक दूसरे में तीव्र और मन्द का व्यवहार होता है । ( वह भी नित्यस्व पक्ष में उपपन्न नहीं होता ) इससे अनेक शब्दों की कल्पना आवश्यक होती है । 'कार्यकारणोभयविरोधी' अर्थात् प्रथम शब्द अपने द्वारा उत्पन्न द्वितीय शब्द से विनष्ट होता हैं,
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ছিল ।
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् कारणः । स द्विविधो वर्णलक्षणो ध्वनिलक्षणश्च । तत्र अकारादिवर्णलक्षणः, शङ्खादिनिमित्तो ध्वनिलक्षणश्च । तत्र वर्षसंयोग, विभाग और शब्द ( इन तीनों में से किसी ) से उसकी उत्पत्ति होती है। वह अपने आश्रयद्रव्य के किसी एक देश में ही रहता है। वह अपने समानजातीय (शब्द) और विजातीय ( संयोग और विभाग इन दोनों) से उत्पन्न होता है। यह (१) वर्ण और ( २) ध्वनि भेद से दो प्रकार का है। उनमें अकारादि शब्द वर्णरूप हैं, और शङ्खादि से उत्पन्न शब्द ध्वनिरूप हैं ।
न्यायकन्दली वर्तिनस्तुभयथा विरुध्यन्ते । संयोगविभागशब्दजः । आद्यः शब्दः संयोगाद् विभागाच्च जायते, तत्पूर्वकस्तु शब्दादिति विवेकः ।
प्रदेशवृत्तिः अव्याप्यवृत्तिरित्यर्थः। एतच्चोपपादितम् । समानासमान. जातीयेति। शब्दजः शब्दः समानजातीयकारणः। संयोगजविभागजश्च अस. मानजातीयकारणः । स द्विविधो वर्णलक्षणः, ध्वनिलक्षणश्च । अकारादिवर्णलक्षणः, शङ्खादिनिमित्तो ध्वनिलक्षणः। तत्र तयोर्मध्ये, वर्णलक्षणस्योत्पत्तिरुच्यते। आत्ममनसोः संयोगात् पूर्वानुभूतवर्णस्मृत्यपेक्षात् तत्सदृशवोंउचारण कर्तव्ये इच्छा भवति । ततः प्रयत्नस्तं प्रयत्नं निमित्तकारणमपेक्षमाणादात्मवायुसंयोगादसमवायिकारणात् कौष्ठ्यवायौ कर्म जायते । स च वायुरूवं गच्छन् कण्ठादीनभिहन्ति हत्कण्ठताल्वादीन् प्रदेशानभिहन्ति । ततोऽ एवं अन्तिम शब्द अपने कारणीभूत अपने से अव्यवहितपूर्व के शब्द से विनष्ट होता है, क्योंकि अन्तिम शब्द के विनाश का कोई और कारण नहीं हो सकता। बीच के जो पब्द है, कार्य शब्द और कारणीभूत शब्द दोनों ही उनके विरोधी हैं । 'संयोगविभागसन्दजः' अर्थात् प्रथम शब्द ( कभी संयोग से और कभी) विभाग में उत्पन्न होता है, अतः उनके दोनों ही कारण हैं। मध्य के सभी शब्द शब्द से ही जन्म लेते हैं। प्रदेशवृत्तिः' अर्थात् शब्द अव्याप्यवृत्ति है ( अपने आश्रय के सभी देशों में नहीं रहता )। 'शब्द किस प्रकार अव्याप्यवृत्ति है' इसका उपपाटन ( शब्द के साधर्म्यप्रकरण में ) कर चुके हैं। 'समानासमानजातीयेति' शब्द से जिस शब्द की उत्पत्ति होती है, वह समानजातीयकारणक है। संयोग और विभाग से जिन शब्दों की उत्पत्ति होती है, उनके कारण शन्द के असमानजातीय हैं।
___'स द्विविधो वर्णलक्षणो ध्वनिलक्षणश्च' अकारादि वर्णलक्षण शब्द है, एवं शङ्ख प्रभृति से जो शब्द उत्पन्न होते हैं, वे ध्वनिलक्षण शब्द हैं । 'तत्र' अर्थात् उनके दोनों प्रकार के शब्दों में वर्णलक्षण शब्द की उत्पत्ति ( को रीति ) कहते हैं। अनुभत वर्ण की स्मृति के साहाय्य से आत्मा और मन के संयोग के द्वारा सर्वप्रथम उस वर्ग के
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
लक्षणस्योत्पत्तिरात्ममनसोः संयोगात् स्मृत्यपेक्षाद् वर्णोच्चारणेच्छा, तदनन्तरं प्रयत्नः, तमपेक्षमाणादात्मवायुसंयोगाद् वायौ कर्म जायते । वर्णात्मक शब्द की उत्पत्ति इस प्रकार होती है कि स्मृतिसहकृत आत्मा और मन के संयोग के द्वारा वर्ण के उच्चारण की इच्छा उत्पन्न होती है । इसके बाद तदनुकूल प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । इस प्रयत्न के द्वारा आत्मा एवं वायु के संयोग से वायु में क्रिया उत्पन्न होती है ।
न्यायकन्दली
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[ गुणनिरूपणे शब्द
भिघातानन्तरं स्थानस्य कण्ठादेः कौष्ठयवायुना सह यः संयोगस्तन्निमित्तकारणभूतमपेक्षमाणात् स्थानाकाशसंयोगात् समवायिकारणाद् वर्णोत्पत्तिः ।
अवर्णलक्षणोऽपि भेरीदण्डसंयोगाद् दण्डगतं वेगमपेक्षमाणाद् भेर्याकाशसंयोगादुपजायते । भेर्याकाशसंयोगोऽसमवायिकारणम्, मेरीदण्डसंयोगो दण्डगतश्च वेगो निमित्तकारणम् । वेणुपर्वविभागाद् वेण्वाकाशविभागाच्च शब्दो जायते । शब्दाच्च शब्दनिष्पत्ति कथयति - शब्दात् संयोगविभागनिष्पन्नाद् वीचीसन्तानवच्छब्द सन्तानः, यथा जलवीच्या तदव्यवहिते देशे वीच्यन्तरमुपजायते, ततोऽप्यन्यत्, ततोऽप्यन्यदित्यनेन क्रमेण वीचीसन्तानो भवति, तथा शब्दादुत्पन्नात् तदव्यवहिते देशे
समानवर्ण के उच्चारण की इच्छा होती है । इसके बाद 'प्रयत्न' अर्थात् समानवर्ण के उच्चारण के अनुकूल प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । उस प्रयत्न रूप निमित्त कारण के साहाय्य से आत्मा और वायु के संयोग रूप असमवायिकारण के द्वारा पुरुष के कोष्ठगत वायु में क्रिया उत्पन्न होती है । वह सक्रिय वायु ऊपर की तरफ आते हुए कण्ठादि स्थानो में आघात उत्पन्न करता है अर्थात् हृदय, कण्ठ तालु प्रभृति वर्णों के जो उच्चारणस्थान है, वहाँ आघात करता है । इस अभिघात के वाद कौष्ठय वायु के साथ कण्ठादि स्थानों का जो संयोग होता है, उस संयोग रूप निमित्त कारण के साहाय्य से कण्ठादि स्थान और आकाश इन दोनों के संयोग रूप असमवायिकारण के द्वारा वर्ण रूप शब्द की उत्पत्ति होती है ।
अवर्णरूप शब्द ( ध्वनि ) भी दण्ड में उत्पन्न वेग के साहाय्य से भेरी और आकाश के संयोग के द्वारा उत्पन्न होता है । ( अर्थात् इस ध्वनि रूप शब्द के प्रति ) भेरी और आकाश का संयोग असमवायिकारण है, एवं भेरी और दण्ड का संगोग और दण्ड में रहनेवाला वेग, ये दोनों निमित्त कारण हैं । बाँस और उसके गाँठ इन दोनों के विभाग एवं बाँस और आकाश के विभाग, इन दोनों से भी शब्द की उत्पत्ति होती है ।
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'शब्दात् संयोगविभागनिष्पन्नाद्वीची सन्दान वच्छन्द सन्तान:' इस सन्दर्भ से शब्द - जनित शब्द का निरूपण करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार जल के एक तरस से उसके अति निकट के जल प्रदेश में दूसरा तरङ्ग उत्पन्न होता है, उसी प्रकार ( संयोग और
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
६९५ प्रशस्तपादभाष्यम् स चोर्ध्व गच्छन् कण्ठादीनभिहन्ति, ततः स्थानवायुसंयोगापेक्षमाणात् स्थानाकाशसंयोगात् वर्णोत्पत्तिः । __ अवर्णलक्षणोऽपि भेरीदण्डसंयोगापेक्षाद् मेर्याकाशसंयोगादुत्पद्यते । वेणुपर्व विभागाद् वेण्वाकाश विभागाच्च शब्दाच्च संयोगविभागनिष्पन्नाद् वीचीसन्तानवच्छब्दसन्तान इत्येवं सन्तानेन श्रोत्रप्रदेशमागतस्य यह सक्रिय वायु ऊपर की तरफ जाते समय कण्ठ में अभिघात को उत्पन्न करता है। इसके वाद ( कण्ठादि ) स्थान और वायु का संयोग, एवं ( कण्ठादि ) स्थान और आकाश के संयोग इन दोनों संयोगों से वर्णात्मक शब्द की उत्पत्ति होती है।
भेरी (प्रभृति ) और दण्ड ( प्रभृति ) का संयोग एवं भेरी (प्रभृति ) और आकाश का संयोग, इन दोनों संयोगों से अवर्ण ( ध्वनि ) रूप शब्द की उत्पत्ति होती है। बाँस और उसकी सन्धि ( गाँठ ) के विभाग एवं बाँस और आकाश का विभाग इन दोनों विभागों से शब्द की उत्पत्ति होती है। संयोग और विभाग से निष्पन्न शब्द के तरङ्गों के समूह की तरह शब्द से भी शब्द के तरङ्गों के समूहों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार शब्द के
न्यायकन्दली शब्दान्तरम्, ततोऽप्यनयोर्गमनागमनाभावात् प्राप्तस्यैवोपलब्धिरिति, ततोऽप्यन्यत्, ततोऽप्यन्यदित्यनेन क्रमेण शब्दसन्तानो भवति । एवं सन्तानेन श्रोत्रदेशे समागतस्यान्त्यशब्दस्य ग्रहणम्।।
नन्वेषा कल्पना कुतः सिद्धयतीत्यत आह-श्रोत्रशब्दयोरिति । न धोत्रं शब्ददेशमुपगच्छति, नापि शब्दः श्रोत्रदेशम्, तयोनिष्क्रियत्वात् । अप्राप्तस्य ग्रहणं नास्ति, इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वात् । प्रकारान्तरेण चोपलब्धिर्न घटते । दृष्टा च वीचीसन्ताने स्वोत्पत्तिदेशे विनश्यतामपि स्वप्रत्यासत्तिमपेक्ष्य तदव्यवहिते देशे सदृशकार्यारम्भपरम्परया देशान्तरप्राप्तिः, तेन शब्दसन्तानः कल्प्यते। न चानवस्था, यावदूरं निमित्तकारणभूतः कौष्ठ्यवायुरनुवर्तते, तावरं शब्दसन्तानानुवृत्तिः। अत एव प्रतिवातं शब्दानुपलम्भः, कौष्ठयविभाग से उत्पन्न ) शब्द के द्वारा उसके अति समीप के आकाश प्रदेश में दूसरे तत्सदृश शब्द की उत्पत्ति होती है। (यह इसलिए मानना पड़ता है कि ) श्रोत्र और शब्द दोनों ही ( यतः हव्य नहीं है ) अतः अन्यत्र नहीं जा सकते, एवं जब तक इन्द्रिय के साथ बिषय का सम्बन्ध नहीं होगा तब तक विषय का ग्रहण सम्भव नहीं है। अत: दूसरे शब्द से तीसरे शब्द की उत्पत्ति, तीसरे शब्द से चौथे शब्द की उत्पत्ति, इस प्रकार शब्दसन्तान ( समूह ) की उत्पत्ति होती है। इस सन्तान का अन्तिम शब्द श्रोत्र प्रदेश में जब उत्पन्न होता है, तब उस सन्तान के उसी अन्तिम शब्द का ग्रहण होता है । इस प्रकार के शब्दसन्तान की कल्पना क्यों आवश्यक होती है ? इसी प्रश्न का समाधान 'श्रोत्रशब्दयोः'
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणनिरूपणे शम्द
प्रशस्तपादभाष्यम् ग्रहणम् । श्रोत्रशब्दयोगमनागमनाभावादप्राप्तस्य ग्रहणं नास्ति, परिशेषात् सन्तानसिद्धिरिति ।
इति प्रशस्तपादभाष्ये गुणपदार्थः समाप्तः । ( उक्त समूहों के द्वारा ) श्रोत्रप्रदेश में पहुँचने के बाद श्रोत्र के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है। यतः श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द इन दोनों में से कोई भी पतिशील नहीं है, और श्रोत्र से असम्बद्ध शब्द का प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, अतः परिशेषानुमान से ( शब्दजनित ) शब्दसन्तान ( समूह ) की सिद्धि होती है। प्रशस्तपादभाष्य में गुणों का निरूपण समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली वायुप्रतिघातात् । अतीवायं मार्गस्ताकिकः क्षुण्णस्तेनास्माभिरिह भाष्यतात्पर्यमानं व्याख्यातम्, नापरा युक्तिरुक्ता।
गुणोपबद्धसिद्धान्तो युक्तिशुक्तिप्रभावितः ।
मुक्ताहार इव स्वच्छो हृदि विन्यस्यतामयम् ।। इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां गुणपदार्थः
__ समाप्तः । इत्यादि से किया गया है। अर्थात् न शब्द ही श्रोत प्रदेश में जा सकता है, और न श्रोत्र ही शब्द प्रदेश में आ सकता है, क्योंकि दोनों ही क्रिया से सर्वथा रहित हैं। यतः इन्द्रियाँ विषय के साथ सम्बद्ध होकर ही विषय को ग्रहण करती हैं ( यही इन्द्रियों का प्राप्यकारित्व है)। अतः शब्दसन्तान की कल्पना के बिना शब्द की उपलब्धि उपपन्न नहीं हो सकती। जल के तरङ्ग अपनी उत्पत्ति के प्रदेश में विनाशप्राप्त होने पर भी उससे अव्यवहित उत्तर प्रदेश में अपने सदृश हो दूसरे तरङ्गव्यक्ति को उत्पन्न करते हुए देखे जाते हैं। इसी दृष्टान्त के बल से शब्दसन्तान की कल्पना करते हैं। इसमें अनवस्था दोष भी नहीं है, क्योंकि शब्द के निमित्तकारण कोष्ठ सम्बन्धी वायु की अनुवृत्ति जितनी दूर तक रहेगी, उतनी ही दूर तक शब्दसन्तान की अनुवृत्ति की कल्पना करेंगे। यही कारण हैं कि प्रतिकूल वायु के रहने पर शब्द की उपलब्धि नहीं होती है, क्योंकि कोष्ठ सम्बन्धी वायु उससे प्रतिहत हो जाता है। इस मार्ग को ताकिकों ने अनेक प्रकार से रौंद डाला है, अतः हम लोगों ने भाष्य का तात्पर्य मात्र ही लिखा, कोई दूसरी युक्ति नहीं दिखलायी।
मोती के माला की तरह (गुणनिरूपण रूप) यह स्वच्छ हार विद्वान् लोग हृदय में धारण करें। यह हार युक्ति स्वरूप शुक्तिका में उत्पन्न मोतियों से बना है, एवं सिद्धान्त सिद्धगुण (डोरी में) गुंथा हुआ है।
भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रची गयी एवं पदार्थों को समझानेवाली न्यायकन्दली टोका का गुणपदार्थों का विवेचन समाप्त हुआ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् अथ कर्मपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् उत्क्षेपणादीनां पञ्चानामपि कर्मत्वसम्बन्धः। एकद्रव्यवत्त्वं क्षणिकत्वं मूर्तद्रव्यवृत्तित्वमगुणवत्वं गुरुत्वदवत्वप्रयत्नसंयोगवत्वं स्वकार्यसंयोगविरोधित्वं संयोगविभागनिरपेक्ष
(१) कर्मत्व जाति के साथ सम्बन्ध, (२) एक समय एक ही द्रव्य में रहना, ( ३ ) क्षणिकत्व, ( ४ ) मूर्त द्रव्यों में ही रहना, (५) गुणरहितत्व, (६) गुरुत्व, द्रवत्व, प्रयत्न और संयोग इन चार गुणों से उत्पन्न होना, (७) अपने द्वारा उत्पन्न संयोग से नष्ट होना, (८) किसी और के साहाय्य के बिना संयोग और विभाग को उत्पन्न करना, (६) असमवायिकारणत्व, ( १० ) अपने आश्रय रूप द्रव्य एवं उससे भिन्न द्रव्य इन दोनों में
न्यायकन्दली
जगदकुरबीजाय संसारार्णवसेतवे ।
नमो ज्ञानामृतस्यन्दिचन्द्रायार्धेन्दुमौलये ॥ उत्क्षेपणादीनां च परस्परं साधर्म्यमितरपदार्थवैधर्म्य च प्रतिपादयन्नाहउत्क्षेपणादीनामिति । कर्मत्वं नाम सामान्यम्, तेन सह सम्बन्ध उत्क्षेपणा. वीनामेव । एकद्रव्यवत्त्वम् एकदा एकस्मिन् द्रव्ये एकमेव कर्म वर्तते, एकं कर्म एकत्रेव द्रव्ये वर्तत इत्येकद्रव्यवत्वम् । यद्यकस्मिन् द्रव्ये युगपद् विरुद्धोभयकर्मसमवायः स्यात्, तदा तयोः परस्परप्रतिबन्धाद् दिग्विशेषसंयोगविभागानुत्पत्तो संयोगविभागयोरनपेक्षं कारणं कर्मेति लक्षणहानिः स्यात् । अथाविरुद्धकर्मद्वयसमा
उन अर्द्धचन्द्रशेखर शिव जी को मैं नमस्कार करता हूँ जो जगत् रूप अङ्कर के बीज, संसार समुद्र से पार उतरने के सेतु एवं ऐसे चन्द्रमा के स्वरूप हैं जिनसे ज्ञान रूप अमृत अनवरत स्रवित होता रहता है।
उत्क्षेपणादि कर्मों के परस्पर साधर्म्य और द्रव्यादि पदार्थों के वैधयं का प्रतिपादन करते हुए 'उत्क्षेपणादीनाम्' यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् कर्मत्व नाम की जो जाति है, उसके साथ उत्क्षेपणादि सभी कर्मों का सम्बन्ध है। 'एकद्रव्यवत्व' शब्द से यह अभिप्रेत है कि एक समय तक द्रव्य में एक ही क्रिया रहती है एवं एक क्रिया एक ही द्रव्य में रहती है ( इसलिए एक द्रव्यवत्त्व सभी कर्मों का साधयं है ) एक ही समय यदि विरुद्ध दो कर्मों की सत्ता एक द्रव्य में मानें, तो 'संयोग और विभाग का इतर निरपेक्ष कारण ही कर्म है' कर्म का यह लक्षण न हो सकेगा, क्योंकि (दो क्रियाओं के परस्पर प्रतिरोध के कारण) किसी विशेष दिशा के साथ उस क्रियाश्रय द्रव्य का संयोग नहीं हो सकता। यदि (विरुद्ध दो क्रियायें न मानकर ) अविरुद्ध दो क्रियाओं की सत्ता एक ही समय एक द्रव्य में मानें, तो उनमें से एक ही क्रिया से अभिमत देश के साथ क्रियाश्रयद्रव्य का संयोग या विभाग उत्पन्न हो ही जाएगा,
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ कर्मनिरूपण -
स्वपराश्रयसमवेतकार्यारम्भकत्वं प्रतिनियतजातियो
कारणत्वमसमवायिकारणत्वं समानजातीयानारम्भकत्वं गित्वम् । दिग्विशिष्टकार्यारम्भकत्वं च विशेषः ।
द्रव्यानारम्भकत्वं च
समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले ( संयोग और विभाग ) वस्तुओं को उत्पन्न करना, (११) अपने समानजातीय वस्तु को उत्पन्न न करना ( १२ ) ( प्रत्येक क्रिया में ) नियमित उत्क्षेपणत्वादि जातियों का सम्बन्ध ( १३ ) एवं दिग्विशिष्ट कार्य का कर्तृत्व ये तेरह उत्क्षेपणादि पाँचों कर्मो के असाधारण धर्म हैं ।
न्यायकन्दली
वेशः, तदैकस्मादेव तद्देशद्रव्यसंयोगविभागयोरुपपत्तेः द्वितीयकल्पनावैयर्थ्यम् । एवमेकं कर्म नानेकत्र वर्त्तते, एकस्य चलने तस्मात् कर्मणोऽन्यस्य चलनानुपलम्भात् । क्षणिकत्वमाशुतरविनाशित्वम् । मूर्तद्रव्यवृत्तित्वम् अवच्छिन्नपरिमाणद्रव्यवृत्तित्वम् । अगुणवत्त्वं गुणवत्त्वरहितत्वम् । गुरुत्वद्रवत्वप्रयत्नसंयोगजत्वम् । स्वकार्येति । स्वकार्येण संयोगेन विनाश्यत्वं न विभागविनाश्यत्वम्, उत्तरसंयोगाभावप्रसङ्गात् ।
संयोगविभागेति । यथा वेगारम्भे नोदनाभिघातविशेषापेक्षत्वं नैवं संयोगविभागारम्भे नोदनाद्यपेक्षत्वमित्यर्थः । असमवायिकारणत्वम्, यथा गुणानां निमित्तकारणत्वमपि नैवं कर्मणाम्, किं त्वसमवायिकारणत्वमेवेत्यर्थः । स्वपराश्रयेति । स्वाश्रये पराश्रये च व्यासज्य समवेतं यत् कार्यं संयोगविभागलक्षणं
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दूसरी क्रिया की कल्पना व्यर्थ होगी । एक ही कर्म अनेक आश्रयों में भी नहीं रहता है, क्योंकि जिस क्रिया से आश्रयीभूत एक द्रव्य का चालन होता है, उसी क्रिया से दूसरे द्रव्य का चालन कहीं नहीं देखा जाता । उत्पत्ति के बाद अतिशीघ्र विनष्ट होना ही 'क्षणिकत्व' है। किसी अल्पपरिमाणवाले द्रव्य में रहना ही 'मूर्त्तद्रव्यवृत्तित्व' हैं। गुणवत्व का अभाव ( फलतः गुणों का न रहना ही ) 'अगुणवत्त्व' है । यह गुरुत्व, द्रवश्व प्रयत्न और संयोग इनमें से किसी से उत्पन्न होता है । 'स्वकार्येति' यह संयोग रूप अपने कार्य से ही विनष्ट होता है, विभाग रूप अपने कार्य से नहीं । यदि ऐसा मानेंगे तो क्रियाश्रय द्रव्य का उत्तरदेश के साथ संयोग न हो सकेगा । 'संयोगविभागेति' अर्थात् क्रिया को वेग के उत्पादन में जिस प्रकार विशेष प्रकार के नोदनसंयोग या अभिघात संयोग की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार संयोग और विभाग के उत्पादन में उसे नोदनादि किसी और वस्तु की अपेक्षा नहीं होती है । 'असमवायिकारणत्वम्' अर्थात् गुण असमवायिकारण होने के साथ-साथ निमित्तकारण भी हो सकता है, क्रिया में यह बात नहीं है, वह केवल असमवाविकारण ही होती है । 'स्वपराश्रयेति' क्रिया अपने आश्रयीभूत द्रव्य और उससे भिन्न द्रव्य में समवायसम्बन्ध से रहनेवाले एक ही
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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तत्रोत्क्षेपणं शरीरावयवेषु तत्सम्बद्धेषु च यदूर्ध्वमाग्भिः संयोगकारणमघोभाग्भिश्च प्रदेशैर्विभागकारणं कर्मोत्पद्यते गुरुत्व प्रयत्न संयोगेभ्यस्तदुत्क्षेपणम् ।
प्रदेशैः
इनमें उत्क्षेपण ( कहते हैं, जो कर्म ) शरीर के अवयव एवं उनसे संयुक्त और द्रव्यों का ऊपर के देश के साथ संयोग का कारण हो, एवं नीचे के प्रदेशों के साथ उन्हीं के विभाग का भी कारण हो, एवं गुरुत्व, प्रयत्न और संयोग से उत्पन्न हो, उसी कर्म को 'उत्क्षेपण' कहते हैं ।
न्यायकन्दली
तदारम्भकत्वम् । समानेति । कर्मणः कर्मान्तरारम्भे गच्छतो गतिविनाशो न स्यात् । इच्छाप्रयत्नादिविरामादन्ते गतिविराम इति चेत् ? तच्छाप्रयत्नादिकमेवोत्तरोत्तरकर्मणामपि कारणम्, न तु कर्म । विवादाध्यासितं कर्म कर्मकारणं न भवति, कर्मत्वात् अन्त्यकर्मवत् । अथवा विवादाध्यासितं कर्म कर्मसाध्यं न भवति, कर्मत्वादाद्यकर्मवत् । द्रव्येति । उत्तरसंयोगान्निवृत्ते कर्मणि द्रव्यस्योत्पादनम् । प्रतिनियतेति । उत्क्षेपणादिषु प्रत्येकमुत्क्षेपणत्वादियोग इत्यर्थः । एतत् सर्वमपि पञ्चानां साधर्म्यम् ।
दिग्विशिष्टकार्यकर्त्ता त्वमेव कथयति -- तत्रेति ।
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कार्य अर्थात् व्यासज्यवृत्ति संयोग और विभाग रूप कार्य का कारण है । 'समानेति' अर्थात् क्रिया यदि दूसरी क्रिया को उत्पन्न करे, तो फिर एक बार जो चल पड़ेगा वह बराबर चलता ही जाएगा, उसकी क्रिया कभी रुकेगी ही नहीं। क्योंकि उसकी गति का कभी विनाश नहीं होगा । ( प्र० ) चलने की इच्छा या तदनुकूल प्रयत्न इन सबों के विराम से गति का विराम होगा ? ( उ० ) तो फिर वह इच्छा या प्रयत्न ही उस दूसरी क्रिया का भी कारण होगा, कर्म नहीं । तदनुकूल यह अनुमान भी है कि जैसे अन्तिम क्रिया किसी भी क्रिया का कारण नहीं होती है, उसी प्रकार कोई भी क्रिया केवल क्रिया
।
'द्रव्येति' उत्तरदेश
होने के नाते ही दूसरी क्रिया को उत्पन्न नहीं करती । अथवा यह भी सकता है कि जैसे क्रिया से पहिली क्रिया को उत्पत्ति नहीं होती है, केवल क्रिया होने से ही किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकती है 'साथ संयोग के उत्पन्न होने पर जब क्रिया का नाश हो जाता है, तभी द्रव्य की उत्पत्ति होती है । 'प्रतिनियतेति' उत्क्षेपणादि प्रत्येक क्रिया में उत्क्षेपणत्वादि जाति का सम्बन्ध ( भी ) कर्म का साधर्म्य है । ये सभी पाँचों कर्मों के साधर्म्य हैं । 'दिग्विशिष्टेति ।
'तत्रोत्क्षेपणम्' इत्यादि से दिग्विशिष्ट कार्यों के कर्त्तव्य का विवरण देते हैं । उत्क्षेपण
अनुमान किया जा
वैसे ही कोई क्रिया
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७०. न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपणप्रशस्तपादभाष्यम् तद्विपरीतसंयोगविभागकारणं कर्मापक्षेपणम् ।
ऋजुनो द्रव्यस्याग्रावयवानां तद्देशैविभागः संयोगश्च, मूलप्रदेशैर्येन कर्मणावयवी कुटिलः सञ्जायते तदाकुञ्चनम् ।
तद्विपर्ययेण संयोगविभागोत्पत्तौ येन कर्मणावयवी ऋजुः सम्पद्यते तत् प्रसारणम् ।
यदनियतदिप्रदेशसंयोगविभागकारणं तद् गमनमिति ।
संयोग और विभाग के ( अन्यानपेक्ष) कारणीभूत ( एवं उत्क्षेपण के ) विपरीत क्रिया को ही 'अपक्षेपण' कहते हैं।
कोमल द्रव्य के आगे के अवयवों का उनके आश्रय प्रदेश के साथ विभाग और मल प्रदेशों के साथ संयोग जिस क्रिया से हो ( अर्थात् ) जिस क्रिया से अवयवी टेढ़ा हो जाय उसी को 'आकुञ्चन' कहते हैं।
जिस क्रिया से उक्त संयोग के विपरीत संयोग और उक्त विभाग के विपरीत विभाग की उत्पत्ति होने पर ( कुटिल ) अवयवी सीधा हो जाय उसी क्रिया को प्रसारण' कहते हैं :
जो क्रिया अनियमित रूप से जिस किसी दिक् प्रदेश के साथ संयोग और विभाग को उत्पन्न करे, उस क्रिया को गमन कहते हैं।
न्यायकन्दली शरीरावयवेषु हस्तादिषु तत्सम्बद्धेषु मुसलादिषु च यदूर्ध्वभाग्भिः प्रदेशैः संयोगकारणम्, अधोभाग्भिश्च विभागकारणं गुरुत्वसंयोगप्रयत्नेभ्यो जायते तदुत्क्षपणम्।
तद्विपरीतेति । अधोदेशसंयोगकारणमूर्ध्वदेशविभागकारणं कर्मापक्षेपणमित्यर्थः।
ऋजुन इति। तद्देशैर ग्रावयवसम्बद्धराकाशादिदेशैः सञ्जायते इति, येन कर्मणेति सम्बन्धः ।
अग्रावयवानां मूलप्रदेशविभागादुत्तरदेशसंयोगोत्पत्तौ सत्यामित्यर्थः । उसे कहते है जिससे शरीर के हाथ प्रभृति अवयवों में एवं हाथ से युक्त मुसल प्रभृति द्रव्यों में ऊपर के देशों के साथ संयोग की उत्पत्ति हो, और वह स्वयं गुरुत्व, संयोग और प्रयत्न से उत्पन्न हो।
___तद्विपरीतेति' अर्थात् नीचे के देशों के साथ संयोग का कारण और ऊपर के देशों से विभाग का कारण कर्म ही 'अपक्षेपण' है।
'ऋजुन इति' इस वाक्य में प्रयुक्त 'तद्देशः' इस शब्द के द्वारा 'आगे के अवयवों से सम्बद्ध आकाशादि देशों के साथ संयोग उत्पन्न होता है जिस क्रिया से" ऐसा अवय
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम
प्रशस्तपादभाष्यम् एतत् पञ्चविधमपि कर्म शरीरावयवेषु तत्सम्बद्धेषु च सत्प्रत्ययमसत्प्रत्ययं च । यदन्यत् तदप्रत्ययमेव तेष्वन्येषु च, तद् गमनमिति । कर्मणां जातिपञ्चकत्वमयुक्तम्, गमनाविशेषात् । सर्व हि क्षणिकं कर्म गमनमात्रमुत्पन्नं स्वाश्रयस्योर्ध्वमस्तिर्यग्वाप्यगुमात्रैः प्रदेशैः संयोगविभागान् करोति, सर्वत्र गमनप्रत्ययो
ये पाँचो ही प्रकार के कर्म शरीर के अवयवों में एवं उनसे सम्बद्ध दूसरे द्रव्यों में भी प्रयत्न से ( सत्प्रत्यय ) और बिना प्रयत्न के ( असत्प्रत्यय) के भी उत्पन्न होते हैं। इन दोनों से भिन्न सभी प्रकार के कर्म 'अप्रत्यय' कम हैं । ( अर्थात् ) शरीर के अवयवों या उनसे भिन्न द्रव्यों में रहनेवाले ये सभी अप्रत्यय-कर्म गमन रूप ही हैं।
(प्र०) यतः सभी क्रियाओं में गमनत्व की प्रतीति समान रूप से होती है, अतः क्रियाओं में उत्क्षेपणत्वादि पाँच जातियों का सम्बन्ध मानना अयुक्त है। ( अर्थात् ) कियायें सभी क्षणिक हैं, वे प्रथमत: गमन रूप ही उत्पन्न होती हैं। उत्पन्न होने के बाद अपने आश्रयद्रव्यों के ऊपर के प्रदेश, नीचे के प्रदेश या पार्श्वप्रदेश के साथ संयोगों और विभागों को उत्पन्न करती हैं। किन्तु सभी कर्मों में 'यह गमन है' इस प्रकार की प्रतीति समान रूप से होती है । अतः सभी क्रियायें गमन रूप ही हैं।
न्यायकन्दली सत्प्रत्ययमिति । प्रयत्नपूर्वकमप्रयत्नपूर्वकं च भवतीत्यर्थः । यदन्यदिति । एतेषु शरीरावयवेषु मुसलादिष्वन्येषु वा द्रव्येषु यत् तदप्रत्ययजं कर्म जायते सत्प्रत्ययादन्यत् तद् गमनमेव। चोदयति-कर्मणामिति उत्क्षेपणादीनां कर्मणां जातिपञ्चकत्वमयुक्तम्, गमनात् सर्वेषामविशेषादभेदादिति चोदनार्थः । सर्वेषां गमनादविशेषमेव कथयति-सर्वं होत्यादिना । उत्क्षेपणासमझना चाहिए। अर्थात् आगे के अवयवों का मूल प्रदेश के साथ विभाग से जिस स्थिति में उत्तर देश संयोग की उत्पत्ति होती है उस स्थिति में ।
___ 'सत्प्रत्ययमिति' अर्थात् ( कर्म दो प्रकार से उत्पन्न होते हैं) एक तो प्रयत्न से उत्पन्न होता है, दूसरा बिना प्रयत्न के ही उत्पन्न होता है । 'यदन्यत्' अर्थात् शरीर के अवयवों में एवं मूसल प्रभृति द्रव्यों में अथवा अन्य ही द्रव्यों में प्रयत्नजनित क्रिया से भिन्न जिस क्रिया की उत्पत्ति होती है, वह क्रिया गमन रूप ही है।
_ 'कर्मणाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा आक्षेप करते हैं। आक्षेप ग्रन्थ का यह आशय है कि उत्क्षेपणादि में रहनेवाली उत्क्षेपणत्वादि पांच जातियों का जो उल्लेख
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७०२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
ऽविशिष्टस्तस्माद् गमनमेव सर्वमिति । न, वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनात् । इहोत्क्षेपणं परत्रापक्षेपणमित्येवमादि सर्वत्र वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्ती दृष्टे, तद्धेतुः सामान्य विशेषभेदोऽवगम्यते । तेषामुदाद्युपसर्गविशेषात् प्रतिनियत दिग्विशिष्टकार्यारम्भत्वादुपलक्षण
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[ कर्मनिरूपण
( उ ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि उत्क्षेपणादि सभी क्रिया के समूहों में विभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीतियाँ ( समानजातीय प्रतीति ) एवं व्यावृत्तिप्रतीतियाँ होती हैं । ( विशदार्थ यह है ) कि 'यहाँ उत्क्षेपण क्रिया है' और 'दूसरी जगह अपक्षेपण क्रिया है' इस प्रकार प्रत्येक क्रिया में भिन्नभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीति और व्यावृत्तिप्रतीति उपलब्ध होती है । इससे यह सिद्ध होता है कि उन विभिन्न प्रतीतियों के सामान्य और विशेष के भेद ही कारण हैं, अर्थात् गमनत्व रूप सामान्य जातियों और उत्क्षेपणत्वादि रूप विशेषजातियों की विभिन्नता ही कारण है । उत्क्षेपणादि शब्दों के 'उद्'
न्यायकन्दली
दिषूर्ध्वं गच्छति, अधो गच्छतीति प्रत्ययदर्शनात् सर्वमेवेदमुत्क्षेपणादिकं गमनमेव । समाधत्ते-नेति । यत् त्वयोक्तं तन्न, उत्क्षेपणादिषु वर्गश: प्रतिवर्ग प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्त्योदर्शनात् । गोवर्गे अश्वादिवर्गव्यावृत्या प्रत्ययानुगमदर्शनाद गोत्वं कल्प्यते यथा, तथोत्क्षेपणादिषु प्रतिवर्गमितरवर्गव्यावृत्त्या प्रत्ययानुगमदर्शनादुत्क्षेपणत्वादिसामान्य कल्पनेत्यभिप्रायः । अस्य विवरणं सुगमम् ।
तेषामिति । उपलक्षणभेदोऽपीत्यपिशब्दः कार्यारम्भादित्यस्मात् परो व्यक्तिरनयेत्युपलक्षणं
द्रष्टव्यः 1
उपलक्ष्यतेऽन्यविलक्षणतया
प्रतिपाद्यते
किया गया है, वह अयुक्त है, क्योंकि 'गमन' रूप क्रिया से उत्क्षेपणादि शेष चार क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं है । 'सर्व हि' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा उत्क्षेपणादि क्रियाओं में गमन का जो अभेद कहा गया है उसका समर्थन करते हैं । अर्थात् 'ऊपर की तरफ जाता है, नीचे की तरफ आता है' इसी प्रकार की ही प्रतीतियाँ उत्क्षेपणादि की भी होती हैं, इससे समझते हैं कि उत्क्षेपणादि सभी क्रियायें वस्तुतः गमन रूप ही हैं । 'न' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उसका समाधान करते हैं । अर्थात् तुमने जो उत्क्षेपणादि क्रियाओं को गमन रूप क्रिया से अभिन्न कहा है, वह ठीक नही है, क्योंकि 'वर्गश:' अर्थात् उत्क्षेपणादि प्रत्येक वर्ग को क्रियाओं में समान आकार की प्रतीतियाँ ( अनुवृत्तिप्रत्यय ) होती हैं । एवं उक्त वर्ग की उत्क्षेपणादि प्रत्येक व्यक्ति में अपक्षेपणादि अपर वर्ग की क्रिया से भिन्नत्व की प्रतीति रूप व्यावृत्तिबुद्धि भी होती है । जैसे कि गो वर्ग की प्रत्येक व्यक्ति में 'अयं गौ:' इस आकार की समानकारक प्रतीति होती है, एवं अश्वादि वर्ग के प्रत्येक
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् भेदोऽपि सिद्धः। एवमपि पञ्चैवेत्यवधारणानुपपत्तिः। निष्क्रमणप्रवेशनादिष्वपि वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनात् । यद्युत्क्षेपणाएवं 'अप' प्रभृति उपसर्ग, एवं उन क्रियाओं के द्वारा किसी विशेष प्रदेश में ही नियम से किसी विशेष प्रकार के कार्यों का उत्पादन करना भी 'उपलक्षणभेद' अर्थात् उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के साधक हैं।
(प्र० ) तब फिर कर्म पाँच ही हैं। यह नियम भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि निष्क्रमण एवं प्रवेशन प्रभृति क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीतियाँ और व्यावृत्तिप्रतीतियाँ होती हैं। यदि उत्क्षेपणादि प्रत्येक क्रियासमह में विभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीति और व्यावृत्तिप्रतीति से उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों की कल्पना करते हैं, तो फिर
न्यायकन्दली जातिः। तदयमत्रार्थः-न केवलमनुवृत्तिव्यावृत्तिप्रत्ययदर्शनादुत्क्षेपणापक्षेपणादीनां जातिभेदः सिद्धः, उदाधुपसर्गभेदात् प्रतिनियतदिग्विशिष्टकार्यारम्भादपि सिद्धः । अपरे तु तेषामुत्क्षेपणादीनामुदाद्युपसर्गविशेषाद् दिग्विशिष्टकार्यारम्भादुपलक्षणभेदोऽपि प्रतिपत्तिभेदोऽपि सिद्ध इति । अभेदे हि यथोत्क्षेपणमूर्घसंयोगविभागहेतुरेवमपक्षेपणादिकमपि स्यात् । पुनश्चोदयति एवमपीति । यदि प्रतिवर्ग प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनादुत्क्षेपणादिषु सामान्यमभ्युपेयते, तदा निष्क्रमणादिष्वपि प्रतिवर्ग प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनानिष्क्रमणत्वादिकमभ्युपेयम्, ततश्च व्यक्ति से भिन्नत्व की प्रतीति भी होती है, इन्हीं दोनों प्रतीतियों से 'गोव' जाति की कल्पना करते हैं, उसी प्रकार उत्क्षेपणत्वादि बातियों की भी कल्पना करते हैं। इस भाष्य ग्रन्थ की व्याख्या सुबोध है। 'तेषाम्' इत्यादि सन्दर्भ के 'उपलक्षणभेदोऽपि' इस वाक्य में जो 'अपि शब्द है उसका पाठ 'कार्यारम्भात्' इस वाक्य के बाद ही समझना चाहिए (अर्थात् कार्यारम्भादप्युपलक्षणभेदः-वाक्य का ऐसा स्वरूप समझना चाहिए)। 'उपलक्ष्यते अन्यविलक्षणतया प्रतिपाद्यते व्यक्तिरनया' अर्थात् ('उपलक्षित हो' अर्थात् व्यक्ति दूसरों से भिन्न रूप में समझी जाय जिससे' ) इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'उपलक्षण' शब्द से यहाँ 'जाति' ही विवक्षित है। केवल अनुवृत्तिप्रत्यय ( अर्थात् सभी उत्क्षेपण क्रियाओं में 'यह उत्क्षेपण है' इत्यादि एक आकार की प्रतीति) एवं व्यावृत्तिप्रत्यय ( अर्थात् उत्क्षेपणादि प्रत्येक व्यक्ति में उससे भिन्न अपक्षेपणादि क्रियाअं से भिन्नत्व की बुद्धि ) ही उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के साधक नहीं हैं, उद्, अप प्रभृति उपसर्ग के भेद एवं विभिन्न नियत देशों में ही कार्यों को उत्पन्न करना भी उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के साधक हैं। किसी सम्प्रदाय के लोग 'तेषामुदाद्यपसर्गविशेषात्' इत्यादि सन्दर्भ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि 'तेषाम्' अर्थात
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् दिषु सर्वत्र वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिदर्शनाज जातिमेद इष्यते, एवं च निष्क्रमणप्रवेशनादिष्वपि कार्यभेदात् तेषु प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्ती इति चेत् ? न, उत्क्षेपणादिष्वपि कार्यभेदादेव प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिप्रसङ्गः। अथ समाने वर्गशः प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तिसद्भावे उत्क्षेपणादीनामेव जातिभेदो न निष्क्रमणादीनामित्यत्र विशेषहेतुरउसी युक्ति से निष्क्रमण और प्रवेशनादि क्रियाओं में भी विभिन्न जातियों की कल्पना करनी होगी। यदि (ऊपर के देश के साथ संयोगादि रूप) कार्य की विभिन्नता से । उनमें विभिन्न ) अनुवृत्तिप्रतीतियाँ और व्यावृत्तिप्रतीतियाँ होती हैं, तो फिर कार्य की विभिन्नता ही उन प्रतीतियों का कारण होगी (जाति की विभिन्नता नहीं)। उत्क्षेपणादि समान क्रियाओं के समूहों में अनुवृत्ति और व्यावृत्ति के कारण उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों की कल्पना की जाय, और निष्क्रमण प्रवेशनादि क्रियाओं में ठीक वही युक्ति रहने पर भी विभिन्न जातियों की कल्पना न की जाय, इसमें कोई विशेष युक्ति नहीं है।
(उ० ) ऐसी बात नहीं है, ( अर्थात उत्क्षेपणत्वादि जातियाँ मानी जाँय और निष्क्रमणत्वादि जातियाँ नहीं, इसमें विशेष युक्ति है) यदि
___न्यायकन्दली पञ्चैवेत्यवधारणानुपपत्तिः । अथ निष्क्रमणादिषु कार्यभेदात् प्रत्ययभेदो न जातिभेदात, तदोत्क्षेपणादिष्वपि तथा स्यादित्याह-कार्यभेदात् तेष्विति । समाधत्ते नेति । यदि निष्क्रमणत्वादिजातय इष्यन्ते, तदा जातिसङ्करप्रसङ्गः। उत्क्षेपणादि का 'उ' 'अप' प्रभृति विभिन्न उपसर्गों के कारण एवं विशेष दिशाओं में कार्योत्पादक होने के कारण 'उपलक्षणभेदोऽपि' अर्थात् प्रतिपत्ति (प्रतीति ) का भेद भी सिद्ध होता है ( एवं प्रतिपत्ति के भेद से बस्तुओं का भेद सुतराम् सिद्ध है )। उत्क्षेपणादि सभी कर्म यदि अभिन्न हों तो फिर जिस प्रकार उत्क्षेपण क्रिया ऊर्ध्वदेश में ही संयोग और विभाग को उत्पन्न करती है, वैसे ही अपक्षेपणादि क्रियायें भी ऊध्वंदेश में ही संयोगादि को उत्पन्न करतीं। 'एवमपि' इत्यादि से पुन: आक्षेप करते हैं । आक्षेप करने. वालों का यह अभिप्राय है कि यदि उत्क्षेपणादि प्रत्येक वर्ग में अलग अलग अनुवृत्तिप्रत्यय और व्यावृत्तिप्रत्यय के कारण उत्क्षेपणादि अलग अलग जातियों की कल्पना करें, तो फिर निष्क्रमण ( जाना ) और प्रवेशन (आना) प्रभृति प्रत्येक वर्ग के भी उक्त अनुवृत्तिप्रत्यय और व्यावृत्तिप्रत्यय विभिन्न प्रकार के हैं ही। अतः उनमें भी अलग अलग जाति का मानना आवश्यक होगा। जिससे 'पञ्चैव कर्माणि' यह अवधारण असङ्गत हो जाएगा। 'कार्यभेदात् तेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस प्रसङ्ग में उपपत्ति देते है कि यदि निष्क्रमण प्रवेशन प्रभृति की प्रतीतियों की विभिन्नता जातिभेदमूलक न
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भाषानुवादसहितम्
७०५
प्रशस्तपादभाष्यम् स्तीति । न, जातिसङ्करप्रसङ्गात् । निष्क्रमणादीनां जातिभेदात् प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्तौ जातिसङ्करः प्रसज्यते । कथम् १ द्वयोर्द्रष्ट्रोरेकस्मादपवरकादपवरकान्तरं गच्छतो युगपन्निष्क्रमणप्रवेशनप्रत्ययौ उत्क्षेपणत्वादि की तरह निष्क्रमणत्वादि जातियाँ मानी जाँय तो इसमें साङ्कर्य दोष होगा। ( विशदार्थ यह है कि ) निष्क्रमणादि क्रियाओं में यदि विभिन्न जातियों के कारण अनुवृत्ति की प्रतीति और व्यावृत्ति की प्रतीति मानें तो इसमें साकर्य दोष होगा। (प्र० ) किस प्रकार ? ( साकर्य दोष होगा? )। ( उ० ) दो द्वारों को पार करते हुए किसी एक व्यक्ति के एक हि गमनकर्म को देखनेवाले दो पुरुषों में से एक को एक ही समय उसी गमन कर्म में निष्क्रमण की प्रतीति और दूसरे को प्रवेशन की प्रतीति होती है । जैसे कि एक ही द्वार में जाते
न्यायकन्दली एकस्यां व्यक्तौ विरुद्धानेकजातिसमवायः प्रसज्यत इत्यर्थः ।
कथमिति पृष्टः सन्नाह-द्वयोर्द्रष्ट्रोरिति । द्वयोर्द्रष्ट्रोरेकस्मादपवरकादपवरकान्तरं गच्छत: पुरुषस्य यौ द्रष्टारौ तयोरेकस्यां व्यक्तौ निष्क्रमणप्रवेशनप्रत्ययौ दृष्टौ। यतोऽपवरकात् पुरुषो निर्गच्छति तत्र स्थितस्य निर्गच्छतीति प्रत्ययः,
मानकर कार्यभेदमूलक मानें तो फिर विभिन्न उत्क्षेपणादि विषयक प्रतीतियों की उपपत्ति भी उन प्रतीतियों को कार्यभेदमूलक मान कर की जा सकती है।
'न' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उक्त आक्षेप का समाधान करते हैं । अभिप्राय यह है कि ( उत्क्षेपणत्वादि की तरह यदि ) निष्क्रमणत्वादि जातियां भी मानी जाये तो 'जाति सङ्करप्रसङ्ग' होगा, अर्थात् एक ही व्यक्ति में विरुद्ध अनेक जातियों का समवाय मानना पड़ेगा। 'कथम्' इस पद के द्वारा पूछे जाने पर ( अर्थात् यह साङ्कर्य क्यों कर होगा ? ) 'द्वयोर्द्रष्ट्रोः' इस सन्दर्भ के द्वारा उक्त साङ्कर्य दोष का उपपादन करते हैं। 'द्वयोर्द्रष्ट्रोः ' अर्थात् एक प्रकोष्ठ से दूसरे प्रकोष्ठ में जाते हुए पुरुष को जो दो देखनेवाले पुरुष हैं, उन दोनों में से एक पुरुष को उक्त गमन रूप क्रिया में निष्क्रमणत्व की और दूसरे पुरुष को प्रवेशनत्व' की प्रतीति होती है। इस प्रकार एक ही क्रिया में दोनों की प्रतीति होती है, अर्थात् जिस प्रकोष्ठ से वह पुरुष जाता है, उस प्रकोष्ठ में रहनेवाले पुरुष को उससे जानेवाले पुरुष में 'निष्कामति' इस आकार की प्रतीति होती है, एवं जिस प्रकोष्ठ में वह पुरुष जाता है, उस प्रकोष्ठ में रहनेवाले को
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७.०६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् दृष्टौ, तथा द्वारप्रदेशे प्रविशति निष्क्रामतीति च । यदा तु प्रतिसीराघपनीतं भवति, तदा न प्रवेशनप्रत्ययो नापि निष्क्रमणप्रत्ययः, किन्तु गमनप्रत्यय एवं भवति । तथा नालिकायां वंशपत्रादौ पतति बहूना द्रष्टणां युगपद् भ्रमणपतनप्रवेशनप्रत्यया दृष्टा इति जातिसरहुए एक ही व्यक्ति में ( विरुद्ध दिशाओं में खड़े हुए दो व्यक्तियों को) क्रमशः 'यह प्रवेश करता है' एवं 'यह निकलता है। इन दोनों प्रकार की प्रतीतियाँ होती हैं। ( जब जाते हुए व्यक्ति के बीच की ) प्रतिसीरा ( प ) उठा दी जाती है, तब उन्हीं दोनों व्यक्तियों को न निष्क्रमण की प्रतीति होती है और न प्रवेशन की प्रतीति, केवल गमन की ही प्रतीति होती है। इसी प्रकार बहती हुई नाली में जब बाँस प्रभृति के पत्ते गिरते हैं, तब उन पत्तों में एक ही समय बहुत से देखनेवालों में से किसी को भ्रमण की प्रतीति होती है और किसी को प्रवेशन की प्रतीति होती है। अतः निष्क्रमणत्वादि जातियों के मानने पर जातिसङ्कर दोष होगा। उत्क्षेपणादि क्रियाओं में इस प्रकार का साङ्कर्य नहीं देखा जाता। अतः उत्क्षेपणादि क्रियाओं में अनुवृत्ति की प्रतीति और व्यावृत्ति की प्रतीति उत्क्षेपणत्वादि जातियों के भेद से होती हैं, किन्तु निष्क्रमणादि क्रियाओं में उक्त दोनों प्रतीतियाँ कार्यों की विभिन्नता
न्यायकन्दली यत्र प्रविशति तत्र स्थितस्य प्रविशतीति प्रत्ययः । यदि जातिकृताविमौ प्रत्ययौ दृष्टौ तदैकस्यां व्यक्तौ परस्परविरुद्धनिष्क्रमणत्वप्रवेशनत्वजातिद्वयसमावेशो दूषणं स्यात् । तथा द्वारप्रदेशे प्रविशति निष्क्रामतीति यथैकस्मिन्नेव बहुप्रकोष्ठके गृहे प्रकोष्ठात् प्रकोष्ठान्तरं गच्छति पुरुषे पूर्वापरप्रकोष्ठस्थितयोद्रष्ट्रोरप्रदेशे निर्गच्छति प्रविशतीति प्रत्ययौ भवतः। यदा तु प्रतिसीराद्यपनीतं मध्यस्थितं जवनिकाद्यपनीतं भवति, तदा न प्रवेशनप्रत्ययो नापि निष्क्रमणप्रत्ययः, उसी पुरुष में 'प्रविशति' यह प्रतीति होती है। यदि निष्क्रमण और प्रवेशन क्रियाओं की प्रतीतियाँ निष्क्रमणत्वादि जाति मूलक हों, तो फिर एक ही व्यक्ति में परस्पर विरुद्ध निष्क्रमणत्व और प्रवेशनत्वादि जातियों का समावेश रूप साङ्कर्य दोष की आपत्ति होगी। 'तथा द्वारदेशे प्रविशति निष्कामतीति' उक्त भाष्य सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि जैसे बहुत सी कोठरियों वाले भवन में यदि एक पुरुष एक कोठरी से दूसरी कोठरी में जाता है, तो जिस कोठरी से वह जाता है उस कोठरी में रहनेवाले दूसरे पुरुष को उस जानेवाले पुरुष में 'यह निकलता है। इस प्रकार की प्रतीति होती है और जिस कोठरी में वह जाता है, उस कोठरी में रहनेवाले दूसरे पुरुष को उसी पुरुष में 'यह आता है' इस प्रकार की प्रतीति होती है। 'यदा तु प्रतिसीराद्यपनीतम्' अर्थात् जब बीच का पर्दा (या दीवाल जिससे कोठरियाँ बनती हैं ) हटा दिया जाता है, उस समय उसी पुरुष में न निकलने' की और न 'आने' की प्रतीति होती है, केवल 'चलने' की ही प्रतीति होती है। अतः वह 'गमन' रूप क्रिया ही है, उसी में उपाधि भेद से
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७०७ प्रशस्तपादभाष्यम् प्रसङ्गः। न चैवमुत्क्षेपणादिषु प्रत्ययसङ्करो दृष्टः। तस्मादुत्क्षेपमादीनामेव जातिभेदात् प्रत्ययानुवृत्तिव्यावृत्ती, निष्क्रमणादीनां तु कार्यभेदादिति । कथं युगपत् प्रत्ययभेद इति चेत् ? अथ मतं यथा जातिसङ्करो नास्ति, एवमनेककर्मसमावेशोऽपि नास्तीत्येकस्मिन् कर्मणि युगपद् द्रष्ट्रणां भ्रमणपतनप्रवेशनप्रत्ययाः कथं भवन्तीति ? अत्र ब्रमः-न, अवयवावयविनोदिंगविशिष्टसंयोग विभागानां भेदाद् । यो से होती हैं । (प्र०) एक ही समय (एक हि क्रिया में ) उक्त विभिन्न प्रतीतियाँ कैसे होती हैं ? ( विशदार्थ यह है कि ) जिस प्रकार (उत्क्षेपणत्वादि जातियों के मानने में ) जातिसङ्कर रूप दोष सम्भव नहीं है, ( उसी प्रकार ) एक ही समय एक ही वस्तु में ( निष्क्रमण प्रवेशनादि ) अनेक कर्मों का रहना भी सम्भव नही है, फिर एक ही समय एक ही द्रव्य में अनेक देखनेवाले को ( भी ) भ्रमण, पतन और प्रवेशन विषयक प्रतीतियाँ कैसे हो सकती हैं ? ( उ० ) इस प्रश्न के समाधान में हम लोगों का कहना है कि नहीं, ( अर्थात् उक्त प्रतोतियाँ असम्भव नहीं हैं ) क्योंकि एक ही वस्तु में एक ही समय भ्रमणादि की उक्त प्रतीतियाँ नाली में गिरे पत्ते प्रभृति अवयवी और उनके अवयवों को विभिन्न दिशाओं में उत्पन्न हुए संयोग विभागादि कार्यों की विभिन्नता से होती हैं। देखनेवालों में से जो व्यक्ति पार्श्व से क्रमशः प्रदेश के अवयवों का दिक्प्रदेशों के साथ संयोगों और विभागों को
न्यायकन्दली किन्तु गमनप्रत्यय एव भवति । तस्माद् गमनमेव, तत्रोपाधिकृतश्च प्रत्ययभेद इत्यभिप्रायः ।
उदाहरणान्तरमाह-तथा नालिकायामिति । नालिकेति गर्तस्याभिधानम्। स्वपक्षे विशेषमाह-न चैवमिति। उपसंहरति-तस्मादिति । एकदेकस्मिन् द्रव्ये तावदेकमेव कर्म भवति, तत्र कथं युगपदनेककर्मप्रत्यय 'निष्क्रमण' प्रत्यय और 'प्रवेशन' प्रत्यय प्रभृति विभिन्न प्रत्यय होते हैं । 'तथा नालिकायाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रसङ्ग में दूसरा दृष्टान्त दिखलाया गया है। 'नालिका' गड्ढे को कहते हैं।
'न चैवम्' इत्यादि से पूर्व पक्ष की अपेक्षा अपने सिद्धान्त पक्ष में अन्तर दिखलाते हैं । 'तस्मात्' इत्यादि सन्दभ के द्वारा इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं । 'कथम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा यह आक्षेप करते हैं कि यदि एक समय एक द्रव्य में एक ही क्रिया हो सकती है, तो फिर एक ही समय अनेक कर्मों की प्रतीति कैसे होगी ! 'अथ मतम्
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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम्
हि द्रष्टा अवयवानां पार्श्वतः पर्यायेण दिक्प्रदेशैः संयोगविभागान् पश्यति तस्य भ्रमणप्रत्ययो भवति, यो ह्यवयविन ऊर्ध्वप्रदेशैर्विभागमधः संयोगं चावेक्षते तस्य पतनप्रत्ययो भवति । यः पुनर्नालि कान्तदेशे संयोगं बहिदेशे च बहिर्देशे च विभागं पश्यति, तस्य प्रवेशनप्रत्ययो भवतीति सिद्धः कार्यभेदान्निष्क्रमणादीनां प्रत्ययभेद इति । भवतृत्क्षेपणादीनां जातिभेदात् प्रत्ययभेदः, निष्क्रमणादीनां तु कार्यभेदादिति ।
देखता है, उसे उनमें भ्रमण की प्रतीति होती है । जो पुरुष अवयवी का ऊपर के देशों के साथ विभाग और नीचे के प्रदेश के साथ संयोग इन दोनों को देखता है, उसे उनमें पतन क्रिया की प्रतीति होती है । जो पुरुष उस अवयवी का नाली के भीतर के प्रदेश के साथ संयोग एवं ऊपर के देश के साथ विभाग को देखता है, उसे उसी अवयवी में प्रवेशन की प्रतीति होती है । इस प्रकार कार्यों के भेद से विभिन्न प्रकार की अनुवृत्ति की प्रतीतियाँ और व्यावृत्ति की प्रतीतियाँ होती हैं । अतः उत्क्षेपणादि क्रियाओं में उत्क्षेपण - त्वादि जातियों की विभिन्नता से ही विभिन्न प्रकार की अनुवृत्तिप्रतीतियों और व्यावृत्तिप्रतीतियों के होने पर भी निष्क्रमणादि क्रियाओं में कार्यों की विभिन्नता से ही अनुवृत्ति की प्रतीतियाँ और व्यावृत्ति की प्रतीतियाँ होती हैं ।
न्यायकन्दली
इत्याह- कथमिति । तद् विवृणोति- - अथ मतमित्यादिना । अत्र ब्रूम इति सिद्धान्तोपक्रमः । यत् त्वयोक्तं तन्न, अवयवानामवयविनश्च दिग्देशविशिष्टानां संयोगविभागानां भेदात् । अस्य सुगमं विवरणम् । अवयवकर्मसु पार्श्वतः संयोगविभागकारणेषु भ्रमणप्रत्ययः, अवयविक्रियायां कार्यभेदात् पतनप्रवेशनप्रत्ययावित्यर्थः ।
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इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी 'आक्षेपग्रन्थ' का विवरण देते हैं । 'अत्र ब्रमः' इत्यादि ग्रन्थ से इस प्रसङ्ग में अपना सिद्धान्त करने का उपक्रम करते हैं । अर्थात् तुमने जो आक्षेप किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि विभिन्न दिग्देशों में विद्यमान अवयवों और अवयवियों के संयोग और विभाग भी विभिन्न ही होते हैं । इस भाष्यग्रन्थ की व्याख्या सुलभ है । अभिप्राय यह है कि अवयवों के संयोग और विभाग इन दोनों की कारणीभूत क्रियायें जब पार्श्व में होती हैं तो उनमें 'भ्रमण' का व्यवहार होता है । एवं अवयवी की क्रिया से होनेवाले विभिन्न कार्यों से उसी में 'पतन प्रवेशनादि' की प्रतीतियाँ भी होती हैं ।
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अथ गमनत्वं किं कर्मत्वपर्यायः १ आहोस्विदपरं सामान्यमिति ? कुतस्ते संशयः ? समस्तेषूत्क्षेपणादिषु कर्मप्रत्ययवद् गमनप्रत्ययाविशेषात् कमत्वपर्याय इति गम्यते । यतस्तूत्क्षेपणादिवद् विशेषसंज्ञयाभिहितं तस्मादपरं सामान्यं स्यादिति ।
(प्र०) गमनत्व शब्द और कर्मत्व शब्द ये दोनों क्या एक ही अर्थ के वाचक हैं ? या गमनत्व नाम की ( कर्मत्व व्याप्य ) अलग स्वतन्त्र जाति है ? ( उ० ) तुम्हें यह संशय ही क्यों कर हुआ ? (प्र० ) यतः उत्क्षेपणादि सभी क्रियाओं में यह कर्म है' इस आकार की प्रतीति की तरह सभी क्रियाओं में समान रूप से गमनत्वकी भी प्रतीति होती है, इससे ऐसा आभास होता है कि कर्मत्व और गमनत्व ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। एवं यतः उत्क्षेपणादि की तरह 'गमन' नाम की भी एक अलग क्रिया कही गयी है, अतः यह भी अनुभव होता है कि उत्क्षेपणत्वादि की तरह गमनत्व नाम की भी कर्मत्व व्याप्य एक स्वतन्त्र जाति ही है।
__ न्यायकन्दली
भवतूत्क्षेपणादीनां जातिभेदात् प्रत्ययभेदः । अथ गमनत्वं किं कर्मत्वपर्यायः, आहोस्विदपरं सामान्यमिति। सिद्धान्ती पृच्छति—कुतस्ते संशयः ? संशयोऽत्रानुपपन्न इत्यभिप्रायः। परः संशयमुपपादयति-समस्तेष्विति । उत्क्षेपणादिषु सर्वेषु यथा कर्मप्रत्ययश्चलनात्मकताप्रत्ययस्तथा तेषु गमनप्रत्ययः, ऊध्वं गच्छत्यधो गच्छति मूलप्रदेशं गच्छत्यनदेशं गच्छतीति प्रत्ययो भवतीति। तेन गमनत्वं कर्मत्वपर्याय इति गम्यते, समस्तभेदव्यापकत्वात् । यतस्तूत्क्षेपणादिवद् गमनमपि पृथगभिहितं विशेषसंज्ञया, तस्माद् गमनत्वमपरं सामान्यं स्यात्,
पूर्वपक्षवादी 'अथ गमनत्वम्' इत्यादि सन्दर्भ से पूछते हैं कि मान लिया कि उत्क्षेपणादि कर्मों की विभिन्न प्रतीतियाँ उत्क्षेपणत्वादि विभिन्न जातियों के कारण ही होती हैं, किन्तु यह 'गमनत्व' कौन सी वस्तु है ? क्या यह कर्मत्व जाति का ही दूसरा नाम है ? अथवा कर्मत्व जाति से भिन्न यह कोई अलग ही जाति है ? 'कुतस्ते संशयः ?' इस वाक्य के द्वारा सिद्धान्ती पूर्वपक्षवादी से पूछते हैं कि तुम्हें यह संशय ही क्यों कर हुआ ? अर्थात् यह संशय यहाँ युक्त नहीं है । 'समस्तेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा पूर्वपक्षवादी अपने संशय का उपपादन करते हैं। अभिप्राय यह है कि उत्क्षेपणादि सभी क्रियाओं में जैसे कि 'कर्मप्रत्यय' अर्थात् चलनस्वरूपता की प्रतीति होती है, उसी प्रकार 'गमनप्रत्यय' अर्थात् ऊपर की ओर जाता है, नीचे की ओर जाता है, मूलप्रदेश में जाता है, अग्न प्रदेश में जाता है, इत्यादि गमनविषयक प्रतीतियां भी होती हैं, अतः
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् न, कर्मत्वपर्यायत्वात् । आत्मत्वपुरुषत्ववत् कर्मत्वपर्याय एव गमनत्वमिति। अथ विशेषसंज्ञया किमर्थं गमनग्रहणं कृतमिति ? न, भ्रमणाचा रोधार्थत्वात् । उत्क्षेपणादिशब्दैरनवरुद्धानां भ्रमणपतनस्पन्दनादी
(उ०) नहीं (अर्थात् उक्त संशय का यहाँ कोई हेतु नहीं है), क्योंकि गमनत्व और कर्मत्व दोनों ही शब्द एक ही जाति के वाचक हैं। जैसे कि आत्मत्व और पुरुषत्व ये दोनों ही शब्द एक ही जाति के वाचक हैं, उसी प्रकार गमनत्वशब्द और कर्मत्वशब्द दोनों एक ही जाति रूप अर्थ के वाचक हैं। (प्र०) फिर ( उत्क्षेपणादि की तरह 'गमन' रूप) विशेष नाम के द्वारा गमन का उपादान क्यों किया गया है ? ( उ० ) नहीं, ( अर्थात गमन शब्द से गमन रूप क्रिया का अभिधान गमनत्व को कर्मत्वव्याप्य अतिरिक्त जाति रूप समझाने के लिए नहीं है, किन्तु ) भ्रमणादि क्रियाओं के संग्रह के लिए है। (विशदार्थ यह है कि ) उत्क्षेपणादि नामों के द्वारा संगृहीत
न्यायकन्दली अवान्तरभेदनिरूपणावसरे तस्य संकीर्तनात् । एवमुपपादिते परेण संशये सति मुनिः प्राह-नेति । न कर्तव्यः संशयः, कुतः ? गमनत्वस्य कर्मत्वपर्यायत्वात् । एतद् विवृणोति-आत्मत्वपुरुषत्ववत् कर्मत्वपर्याय एव गमनत्वमिति । यथात्मत्वस्य पर्यायः पुरुषत्वं समस्तभेदव्यापकत्वात्, तथा गमनत्वं कर्मत्वस्य पर्यायः । अथ किमर्थं विशेषसंज्ञया पृथग् गमनग्रहणं कृतम् ? इति चोदयति-अथेति । समझते हैं कि कर्मत्व का ही दुसरा नाम गमनत्व है। अर्थात् गमनत्व और कर्मत्व एक ही वस्तु है। क्योंकि क्रियाओं के जितने भी प्रकार हैं, उन सबों में गमनत्व को प्रतीति होती है, अतः गमनत्व और कर्मत्व एक ही वस्तु हैं । 'गमनत्व और कर्मत्व दोनों विभिन्न जातियाँ हैं' इस प्रसङ्ग में यह युक्ति है कि उत्क्षेपणादि विभिन्न क्रियाओं की पङ्क्ति में ही 'विशेष' नाम के द्वारा गमन रूप क्रिया का भी अलग से उल्लेख किया गया है, अतः समझते हैं गमनत्व नाम की कोई कमत्वव्याप्य अलग हो जाति है ( अतः उक्त संशय होता है)। क्योंकि क्रियाओं के अवान्तर भेदों का जहाँ निरूपण किया गया है, वहीं गमन का भी उल्लेख है।
इस प्रकार पूर्वपक्षी के द्वारा संसय का उपपादन किये जाने पर 'न' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा (प्रशस्तदेव ) मुनि ने अपना उत्कृष्ट उत्तर कहा है कि उक्त प्रकार से संशय करना युक्त नहीं है, यतः गमनत्व और कमत्व ये दोनों ही एक ही जाति के विभिन्न नाम हैं । 'आत्मत्वपुरुषत्ववत् कर्मत्वपर्याय एव गमनत्वम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी का विवरण देते हैं । अर्थात् जिस प्रकार पुरुष के जितने भी भेद हैं, उन सबों में आत्मस्व का व्यवहार होने के कारण आत्मत्व और पुरुषत्व एक ही जाति के दो नाम हैं, उसी प्रकार गमनत्व और कर्मत्व भी एक ही जाति के दो नाम हैं। 'अर्थ' इत्यादि
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् नामवरोधार्थ गमनग्रहणं कृतमिति । अन्यथा हि यान्येव चत्वारि विशेषसंज्ञयोक्तानि तान्येव सामान्य विशेषसंज्ञाविषयाणि प्रसज्येरनिति ।
अथवा अस्त्वपरं सामान्यं गमनत्वम् , अनियतदिग्देशन होनेवाले भ्रमण, पतन, स्पन्दनादि क्रियाओं के संग्रह के लिए ही 'गमन' शब्द का उपादान किया गया है। यदि ऐसी बात न होती-भ्रमणादि क्रियाओं के संग्रह के लिए 'गमन' शब्द का उपादान न किया जाता तोजो भी चार कर्म उत्क्षेपण, अपक्षेपण आकुञ्चन, और प्रसारण इन चार नामों से कहे गये हैं, उतने ही कर्म समझे जाते ( फलतः उत्क्षेपणादि चार क्रियाओं से भिन्न भ्रमणादि क्रियाओं का अभाव ही समझा जाता)। अथवा ( कर्मत्व से भिन्न ) गमनत्व नाम का अलग सामान्य ही मान लें, जो अनियमित दिशाओं और अनियत देशों में संयोगों और विभागों के उत्पादक
न्यायकन्दली उत्तरमाह-नेति । उत्क्षेपणादिशब्दैरनवरुद्धा न संगहीता भ्रमणादयः । यदि गमनग्रहणं न कियेत, तदा तेषां कर्मत्वेन संग्रहो न स्यात् । किन्तु विशेषसंज्ञयोद्दिष्टानामुत्क्षेपणादीनामेव परं कर्मत्वसंज्ञाविषयत्वं भवेत् । भ्रमणादयोऽपि च कर्मत्वेन लोकप्रसिद्धाः, अतस्तेषां परिग्रहार्थं पृथग् गमनग्रहणं कृतमिति ग्रन्थार्थः।
अथवा अस्त्वपरं सामान्यं गमनत्वम्, तत् केषु वर्तते, तत्राह-अनियतेति । पक्ति से पूर्वपक्षी यह आक्षेप करते हैं कि (उत्क्षेपणादि की तरह) विशेष नाम के द्वारा गमन का उल्लेख क्यों किया गया है ? 'न' इत्यादि से इसी आक्षेप का उत्तर दिया है। अर्थात् यदि गमन शब्द का उल्लेख ( उत्क्षेपणादि शब्दों को पङ्क्ति में) न किया जाता तो जिन भ्रमणादि क्रियाओं का अवरोध ( संग्रह) उत्क्षेपणादि शब्दों के द्वारा सम्भव नहीं है, उन सबों का कम में संग्रह न हो सकता। (गमनशब्दाघटित उक्त वाक्य से केवल ) उत्क्षेपणादि क्रियाओं का ही संग्रह होता। किन्तु उत्क्षेपणादि से भिन्न भ्रमणादि क्रियाओं में भी कर्मत्व का व्यवहार लोक में होता है । अतः उन सबों के संग्रह के लिए ही गमन' शब्द का उल्लेख किया गया हैं। यही उक्त ( सिद्धान्त भाष्य ) ग्रन्थ का अभिप्राय है ।
_ 'अथवा अस्त्वपर सामान्यं गमनत्वम्' (अर्थात् गमनत्व को भी उत्क्षेपणत्वादि की तरह कर्मत्व का अवान्तर सामान्य ही मान लें, तब भी कोई क्षति नहीं है)। यह गमनत्व (कर्मत्वव्याप्य ) जाति किन कर्मों में रहती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'अनियत' इत्यादि सन्दर्भ से दिया गया है। तो फिर उत्क्षेपणादि कर्मों में गमन की प्रतीति
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७१२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगविभागकारणेषु भ्रमणादिष्वेव वर्तते, गमनशब्दश्चोत्क्षेपणादिषु भाक्तो द्रष्टव्यः, स्वाश्रयसंयोगविभागकर्तृत्वसामान्यादिति । भ्रमणादि क्रियाओं में ही नियमित रूप से रहता है। भ्रमणादि क्रियाओं में अभिधावृत्ति के द्वारा प्रयुक्त होनेवाले 'गमन' शब्द का जो प्रत्क्षेपणादि क्रियाओं में भी प्रयोग होता है, उसका कारण है दोनों क्रियाओं में समान रूप से संयोग और विभाग को उत्पन्न करने की स्वतन्त्रक्षमता, इसी क्षमता या कर्तृत्व रूप सादृश्य के कारण ही उत्क्षेपणादि में भी गमन शब्द का प्रयोग होता है। अतः उत्क्षेपणादि क्रियाओं में गमन शब्द का प्रयोग गौण है।
__ न्यायकन्दली कुतस्ता क्षेपणादिषु गमनप्रत्ययः ? अत आह-गमनशब्दश्चेति । गमनशब्दग्रहणस्योपलक्षणार्थत्वाद् गमनप्रत्यय उत्क्षेपणादिषु भाक्तो द्रष्टव्यः । उपचारस्य बीजमाह-स्वाश्रयसंयोगविभागकर्तृत्वसामान्यादिति। गमनं स्वाश्रयस्य संयोगविभागौ करोति, उत्क्षेपणादयोऽपि कुर्वन्ति, एतावता साधयेणोत्क्षेपणादिषु गमनव्यवहारः। अनेन साधयेण गमने कस्मादुत्क्षेपणादिव्यवहारो न भवति ? पैङ्गल्यपाटलत्वादिसाधम्र्येण वह्नावपि माणवकव्यवहारः
क्यों कर होती है ? इस प्रश्न का समाधान 'गमनशब्दस्तु' इत्यादि से किया गया है। अर्थात् उत्क्षेपणादि कर्मों में प्रयुक्त गमन शब्द उपलक्षणार्थक है, अतः उत्क्षेपणादि के प्रत्ययों के लिए गमन शब्द के प्रयोग को गौण (लाक्षणिक) ही समझना चाहिए । 'स्वाश्रयसंयोगविभागकर्तृत्वसामान्यात्' इस वाक्य के द्वारा प्रकृत में लक्षणा का प्रयोजक धर्म ( लक्ष्यतावच्छेदक ) दिखलाया गया है। अर्थात् जिस प्रकार गमन अपने आश्रयीभत द्रव्य में संयोग और विभाग को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उत्क्षेपणादि क्रियायें भी अपने आश्रयीभूत द्रव्यों में संयोगों और विभागों को उत्पन्न करती हैं, इस सादृश्य के कारण ही उत्क्षेपणादि क्रियाओं में भी गमन शब्द का गौण प्रयोग होता है।
(प्र०) तो फिर इसी साधयं के कारण गमन में उत्क्षेपणादि शब्दों का भी गौण प्रयोग क्यों नहीं होता ? ( उ० ) 'अग्निर्माणवकः' इत्यादि प्रयोग के द्वारा जिस प्रकार माणवक में अग्नि पद का गौण व्यवहार तेजस्वित्वादि धर्मों के कारण होता है, उसी प्रकार पिङ्गलवर्ण और रक्तवर्ण रूप सादृश्य के कारण अग्नि में माणवक का गौण व्यवहार भी क्यों नहीं होता ? यदि इसका यह परिहार उपस्थित करें कि केवल हेतु है, अतः उपचार की कल्पना नहीं की जाती, किन्तु उपचार या व्यवहार रहने पर ही कारण की कल्पना की जाती है ( अतः लोक में अग्नि में माणवक शब्द का व्यवहार न होने के
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प्रकरणम्॥
भाषानुवादसहितम्
७१३
प्रशस्तपादभाष्यम् सत्प्रत्ययकर्मविधिः । कथम् ? चिकीर्षितेषु यज्ञाध्ययनदानकृष्यादिषु यथा हस्तमुत्क्षेतुमिच्छत्यपक्षेप्तुं वा, तदा हस्तवत्यात्मप्रदेशे प्रयत्नः सञ्जायते । तं प्रयत्नं गुरुत्वं चापेक्षमाणादात्महस्तसंयोगाद्धस्ते कर्म भवति, हस्तवत् सर्वशरीरावयवेषु पादादिषु शरीरे चेति ।।
सत्प्रत्य य अर्थात् प्रयत्न से उत्पन्न क्रिया की उत्पत्ति की विधि कहते हैं । (प्र.) कैसे ? अर्थात् यह सत्प्रत्यय रूप कर्म किस प्रकार उत्पन्न होता है ? ( उ० ) यज्ञ, अध्ययन, दान अथवा कृषि प्रभृति कर्म के उत्पादन की इच्छा होने पर हाथ को नीचे या ऊपर करने के लिए आत्मा के हाथवाले प्रदेश में प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार इस प्रयत्न. गुरुत्व एवं आत्मा और हाथ के संयोग इन तीनों कारणों से हाथ में क्रिया की उत्पत्ति होती है । हाथ की तरह शरीर के पैर प्रभृति अवयवों में एवं शरीर रूप अवयवी में भी क्रिया की उत्पत्ति होती है ।
न्यायकन्दली कस्मान्न भवति ? अथोच्यते । न कारणसद्भावे सत्युपचारकल्पना, किन्तु स्थिते व्यवहारे कारणकल्पनेति । एवं चेदत्रापि स एव परिहारः।
सत्प्रत्ययकर्मविधिः-प्रयत्नपूर्वककर्मप्रकारः कथ्यत इत्यर्थः । कथमिति पृष्टः सन्नाह-चिकीर्षितेष्विति। यज्ञादिषु कर्तुमभिप्रेतेषु सत्सु यदा पुरुषो हस्तमुत्क्षेप्तुमिच्छति, तदा हस्तवत्यात्मप्रदेशे प्रयत्नो जायते। तं प्रयत्नं निमित्तकारणभूतमपेक्षमाणादात्महस्तसंयोगादसमवायिकारणाद्धस्ते कर्म भवति ।
कारण उक्त प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता)। (उ०) तो फिर प्रकृत में मेरे लिए भी यही परिहार है। अर्थात् लोक में उत्क्षेपणादि क्रियाओं में गमन का व्यवहार होता है, अतः उस व्यवहार के लिए हेतु की कल्पना करते हैं। गमन में उत्क्षेपणादि का व्यवहार लोक में नहीं होता है, अतः उसके लिए किसी चर्चा की आवश्यकता नहीं है ।
'सत्प्रत्ययकर्मविधिः' अर्थात् प्रयत्न के द्वारा उत्पन्न कर्म की उत्पत्ति की रीति कहते हैं । 'किस प्रकार ?' यह पूछे जाने पर 'चिकीषितेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा उसका उपपादन करते हैं। यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान पुरुष को अभिप्रेत रहने पर उसके लिए वह जिस समय हाथ को ऊपर की ओर उठाता है, उस समय आत्मा के हाथवाले प्रदेश में प्रयत्न उत्पन्न होता है। इस प्रयत्न रूप निमित्तकारण से हाथ में क्रिया उत्पन्न होती है, जिसका असमवायिकारण आत्मा और हाथ का संयोग है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्सम्बद्धेष्वपि कथम् ? यदा हस्तेन मुसलं गृहीत्वेच्छां करोति 'उत्क्षिपामि हस्तेन मुसलम्' इति, तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणा(प्र० )शरीर और उनके अवयवों से संयुक्त द्रव्यों में कैसे ? ( क्रिया उत्पन्न होती है ? ) ( उ० ) जब मूसल को हाथ में लेकर कोई यह इच्छा करता है कि 'मैं हाथ से मूसल को ऊपर की ओर उछाल' उसके बाद प्रयत्न की उत्पत्ति होती है । इस प्रयत्न और हाथ एवं आत्मा के संयोग इन दोनों से उसी
न्यायकन्दली सत्यपि प्रयत्ने गुरुत्वरहितस्य उत्क्षेपणापक्षेपणयोरशक्यकरणत्वाद् गुरुत्वस्यापि कारणत्वम् । हस्तवत्सर्वशरीरावयवेषु पादादिषु शरीरे चेति । पादे कर्मोत्पत्तौ पादवत्यात्मप्रदेशे प्रयत्नो निमित्तकारणम्, पादात्मसंयोगोऽसमवायिकारणम् । एवं सर्वत्र शरीरावयवनियोत्पत्तौ द्रष्टव्यम्। शरीरक्रियोत्पत्तावपि शरीरात्मसंयोगोऽसमवायिकारणम्, शरीरवदात्मप्रदेशे प्रयत्नो निमित्तकारणम् ।
तत्सम्बद्धेषु शरीरसम्बद्धेष, शरीरावयवसम्बद्धष्वपि कथं कर्मोत्पत्तिरिति प्रश्नार्थः । यदा हस्तेन मुसलं गृहीत्वेच्छां करोति 'उत्क्षिपामि हस्तेन मुसलम्' इति, तदनन्तरं तस्या इच्छाया अनन्तरम्, प्रयत्नः हस्तेन मुसलमूर्ध्वमुत्क्षिपामोति हस्तमुसलयोर्युगपदुत्क्षेपणेच्छातः प्रयत्नो जायमानस्तयोर्युगपदुत्क्षेपणप्रयत्न के रहते हुए भी गुरुत्व से सर्वथा रहित द्रव्य का ऊपर उठना या नीचे गिरना नहीं होता, अतः गुरुत्व भी उसका कारण है। 'हस्तवत् सर्वशरीरावयवेषु पादादिषु शरीरे चेति' अर्थात् पैर में जो क्रिया की उत्पत्ति होगी, उसमें आत्मा के पादवाले प्रदेश में उत्पन्न प्रयत्न निमित्तकारण होगा और पैर और आत्मा का संयोग असमवायिकारण होगा। इसी प्रकार शरीर के सभी अवयवों में क्रिया की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में समझना चाहिए। इसी प्रकार यह भी समझना चाहिए कि शरीर ( रूप अवयवी ) में जो क्रिया की उत्पत्ति होगी, उसका असमवायिकारण शरीर और आत्मा का संयोग ही होगा और आत्मा के शरीरवाले प्रदेश में उत्पन्न प्रयत्न उसका निमित्तकारण होगा।
'तत्सम्बद्धेषु' इत्यादि प्रश्न शाक्य का अभिप्राय यह है कि शरीर के साथ और उसके अवयवों के साथ सम्बद्ध अन्य द्रव्यों में क्रिया की उत्पत्ति किस क्रम से होती है ? 'यदा हस्तेन मुसलं गृहीत्वेच्छां करोति-उत्क्षिपामि हस्तेन मुसलमिति' अर्थात् जिस समय हाथ में मूसल को लेकर पुरुष यह इच्छा करता है कि 'मैं मसल को ऊपर की तरफ उछालू' 'तदनन्तरम्' अर्थात् उसके बाद 'प्रयत्नः' अर्थात् 'हाथ से मूसल को लेकर मैं ऊपर की तरफ उछालं' हाथ और मसल को एक ही समय ऊपर की तरफ उछालने की इस आकार की इच्छा से उत्पन्न होने वाला प्रयत्न, हाथ और मूसल को एक
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७१५
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम
प्रशस्तपादभाष्यम् दात्महस्तसंयोगाद् यस्मिन्नेव काले हस्ते उत्क्षेपणकर्मोत्पद्यते, तस्मिन्नेव काले तमेव प्रयत्नमपेक्षमाणाद्धस्तमुसलसंयोगान्मुसलेऽपि कर्मेति । ततो दूरमुत्क्षिप्ते मुसले तदर्थेच्छा निवर्तते। पुनरप्यपक्षेपणेच्छोत्पद्यते । तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणाद् यथोक्तात संयोगाद्धस्तमुसलयो
युगपदपक्षेपणकर्मणी भवतः, ततोऽन्त्येन मुसलकर्मणोल्खलसमय हाथ में क्रिया उत्पन्न होती है । एवं उसी समय प्रयत्न और हाथ एवं यूसल के संयोग इन दोनों से मूसल में भी क्रिया उत्पन्न होती है । इसके बाद उस मसल के दूर फेंके जाने पर उस मूसल विषयक इच्छा का नाश हो जाता है। फिर उसी के अपक्षेपण (निचे ले आने) की इच्छा उत्पन्न होती है । इसके बाद प्रयत्न एवं उक्त ( आत्मा और हाथ के ) संयोग इन दोनों से एक ही समय हाथ और मूसल दोनों में ही अपक्षेपणरूप क्रिया उत्पन्न होती है । मूसल की इस अन्तिम क्रिया से ऊखल में मूसल का अभिघात नाम का संयोग उत्पन्न होता है । उस कर्म और
न्यायकन्दली समर्थो विशिष्ट एव जायते । तं प्रयत्नं विशिष्टं निमित्तमपेक्षमाणादात्महस्तसंयोगात् समवायिकारणाद् यस्मिन्नेव काले हस्ते उत्क्षेपणकर्मोत्पद्यते, तस्मिन्नेव काले तमेव प्रयत्नमुभयार्थमुत्पन्नमपेक्षमाणाद्धस्तमुसलसंयोगादसमवायिकारणान्मुसलेऽपि कर्म भवति, कारणयोगपद्यात् । ततो दूरभुत्क्षिप्ते मुसले तदर्थेच्छा निवर्तते उत्क्षेपणेच्छा निवर्तते। पुनरप्यपक्षेपणेच्छोत्पद्यते हस्तेन मुसलस्यापक्षेपर्णच्छोपजायत इत्यर्थः। तदनन्तरं प्रयत्नः सोऽपि जायमान उत्क्षेपणप्रयत्नवद् विशिष्ट एव जायते । तं च प्रयत्नमपेक्षमाणाद् यथोक्तात् संयोगद्वयाही समय ऊपर की ओर उछालने के सामर्थ्य से युक्त ही उत्पन्न होता है। उस प्रयत्न रूप विशेष प्रकार के निमित्त कारण से जिस समय आत्मा और हाथ के संयोग रूप असमवायिकारण के द्वारा हाथ में उत्क्षेपण कर्म की उत्पत्ति होती है, उसी समय हाथ और मूसल दोनों की क्रिया के लिए उत्पन्न उक्त प्रयत्न रूप निमित्तकारण से ही हाथ और मसल के संयोग रूप असमवायिकारण के द्वारा मूसल में भी कर्म की उत्पत्ति होती है, क्योंकि एक ही समय हाथ और मूसल दोनों में ही क्रियोत्पत्ति के सभी कारण वर्तमान हैं। 'ततो दूरमुत्क्षिप्ते मुसले तदर्थेच्छा निवर्तते' अर्थात् उत्क्षेपण की इच्छा नहीं रह जाती। 'पुनरप्यपक्षेपणेच्छोत्पद्यते' अर्थात् हाथ से मूसल को नीचे की ओर ले आने की इच्छा उत्पन्न होती है। तदनन्तरं प्रयत्नः' यह अपक्षेपण का प्रयत्न भी उत्क्षेपण के उक्त प्रयत्न की तरह (एक ही समय हाथ और मूसल को नीचे की ओर ले आने के सामर्थ्य से ) युक्त ही उत्पन्न होता है। उक्त विशिष्ट
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् मुसलयोरभिघाताख्यः संयोगः क्रियते, स संयोगो मुसलगतवेगमपेक्षमाणोऽप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म करोति । तत्कर्माभिघातापेक्षं मुसले संस्कारमारभते। तमपेक्ष्य मुसलहस्तसंयोगोऽप्रत्ययं हस्तेऽप्युत्पतनकर्म अभिघात इन दोनों से मूसल में संस्कार की उत्पत्ति होती है । इस संस्कार के साहाय्य से मूसल और हाथ के संयोग के द्वारा हाथ में 'अप्रत्यय' अर्थात् बिना प्रयत्न के ही उत्क्षेपण क्रिया की उत्पत्ति होती है । यद्यपि पहिले का संस्कार नष्ट हो गया रहता है, फिर भी मूसल और उलूखल का संयोग पटु ( संस्कारजनक ) कर्म को उत्पन्न करता है । वह संयोग ही अपनी विशिष्टता के कारण
न्यायकन्दली दात्महस्तसंयोगाद्धस्तमुसलसंयोगाद्धस्तमुसलयोर्युगपदपक्षेपणकर्मणी भवतः । ततोऽन्त्येन मुसलकर्मणोलूखलमुसलयोरभिघाताख्यः संयोगः क्रियते । अपक्षिप्तस्य मुसलस्यान्येन कर्मणा उलूखलमुसलसमवेतो मुसलस्योत्पतनहेतुः संयोगः क्रियत इत्यर्थः। स संयोगो मुसलगतवेगमपेक्षमाणोऽप्रत्ययमप्रयत्नपूर्वकं मुसले उत्पतनकर्म करोति । वेगो निमित्तकारणम्, मुसलं समवायिकारणम्। तत्कर्माभिघातापेक्षं मुसले संस्कारमारभते उत्पतनकर्म स्वकारणाभिघाताख्यं संयोगमपेक्षमाणं मुसले वेगमारभते । तं संस्कारमपेक्ष्य हस्तमुसल.
प्रयत्न रूप निमित्तकारण के साहाय्य से कथित दोनों संयोग रूप असमवायिकारण के द्वारा अर्थात् आत्मा और हाथ के संयोग एवं हाथ और मूसल के संयोग इन दोनों संयोगों से एक ही समय दो अपक्षेपण क्रियायें ( अर्थात् हाथ और मूसल दोनों को नीचे की ओर ले आने की दो क्रियायें ) उत्पन्न होती हैं । "ततोऽन्त्येन मुसलकर्मणा उलूखलमुसलयोरभिघाताख्यः संयोगः क्रियते” अर्थात् अपक्षेपण क्रिया से युक्त मूसल की अन्तिम क्रिया से उलूखल और मूसल इन दोनों में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले उस संयोग की उत्पत्ति होती है, जिससे मूसल का उत्पतन होता है । वह संयोग मुसल में रहनेवाले वेग के साहाय्य से अप्रत्यय' अर्थात् बिना प्रयत्न के ही उस उत्पतन क्रिया को उत्पन्न करता है, जो मूसल में रहती है। इस ( अप्रत्ययक्रिया का ) वेग निमित्तकारण है और मूसल समवायि कारण है। 'तत्कर्माभिघातापेक्ष मुसले संस्कारमारभते' अर्थात् वह उत्पतनरूपा क्रिया अपने कारणीभूत उक्त अभिघात नाम के संयोग के द्वारा मूसल में वेग को उत्पन्न करती है। इसी ( वेगाख्य ) संस्कार के साहाय्य से हाथ और मसल का संयोग रूप असमवायिकारण हाथ में भी 'अप्रत्यय' अर्थात् प्रयत्न से निरपेक्ष क्रिया को उत्पन्न करता है । (प्र.) मसल में पहिले की अपक्षेपण क्रिया से उत्पन्न वेग नाम का संस्कार
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
योऽसौ प्राक्तनोऽपक्षेपणसस्कार HTTPारभते? अपेक्षाकोरणाभावादत आह
प्रशस्तपादभाष्यम् करोति । यद्यपि प्राक्तनः संस्कारो विनष्टस्तथापि मुसलोलूखलयोः संयोगः पटुकर्मोत्पादकः संयोगविशेषभावात् तस्य संस्कारारम्भ साचिव्यसमर्थो भवति । अथवा प्राक्तन एव पटुः संस्कारोऽभिधातादसंस्कार के उत्पादन का मुख्य अधिष्ठाता है। अथवा पहिले का ही विशेष कार्यक्षम संस्कार अभिघात नाम के संयोग से नष्ट न होने के कारण
न्यायकन्दलो संयोगोऽसमवायिकारणभूतोऽप्रत्ययमप्रयत्नपूर्वकं हस्तेऽप्युत्पतनकर्म करोति । योऽसौ प्राक्तनोऽपक्षेपणसंस्कारो मसलगतः सोऽप्यभिघाताद विनष्टः, तदभावे कथं मूसले प्रत्ययमूत्पतनकमोत्पतनसंस्कारमारभते । अपेक्षाकारणाभावादत आहयद्यपि प्राक्तनः संस्कारो विनष्टः, तथापि मुसलोलूखलसंयोगः पटुकर्मोत्पादकः संस्कारजनककर्मोत्पादकः। कुतः ? संयोगविशेषभावात् संयोगविशेषत्वात् । किमतो यद्येवम् ? तत्राह-तस्य कर्मणः संस्कारारम्भे कर्तव्ये साचिव्यसमर्थो भवति, साहाय्ये समर्थो भवति । अस्मिन पक्षे हस्तमुसलयोरुत्पतनकर्मणी क्रमेण भवतः । आशुभावाच्च योगपद्यग्रहणम् ।
प्रकारान्तरमाह-अथवा प्राक्तन एव पटुः, संस्कारोऽभिघातादविनश्यन्नवस्थित इति विशिष्टकारणजत्वादतिप्रबलः संस्कारः स्पर्शवद्रव्यसंयोगेनापि अभिघातसंयोग के द्वारा विनष्ट हो चका है। उस संस्कार के न रहने पर मूसल की वह प्रयत्ननिरपेक्ष क्रिया मसल में उत्पतन क्रिया से उत्पन्न होनेवाले संस्कार को कैसे उत्पन्न कर सकती है ? क्योंकि (प्राक्तन संस्कार रूप) आवश्यक कारण वहाँ नहीं है। इसी प्रश्न का समाधान 'यद्यपि प्राक्तनः संस्कारो विनष्टः' इत्यादि से दिया गया है। इस सन्दर्भ के 'पटुकर्मोत्पादकः' इस वाक्य के द्वारा यह कहा गया है कि (मसल और उलूखल का संयोग ) ऐसे कर्म का उत्पादक है कि जिसमें ( वेगाख्य) संस्कार को उत्पन्न करने की शक्ति है। कुतः ?' अर्थात् संयोग में ही संस्कार को कारणता क्यों है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'संयोगविशेषभावात्' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् यतः वह संयोग अन्य संयोगों से विशेष प्रकार का है, ( अतः उससे संस्कार की उत्पत्ति होती है)। उक्त संयोग में यदि विशिष्टता है भी तो इसका प्रकृत में क्या उपयोग है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'तस्य संस्कारारम्भे' इत्यादि से दिया गया है। अर्थात् उस संयोग में यही विशिष्टता है कि उसमे कम के द्वारा वेग ( सस्कार ) के उत्पादन में साहाय्य करने का सामर्थ्य है। इस पक्ष में हाथ में और मूसल में उत्पतन क्रियायें क्रमशः उत्पन्न होती हैं . ( युगपत् नही )। 'हस्तमुसलयोयुगपदपक्षेपणकर्मणी' इत्यादि वाक्य में जो योगपद्य का ग्रहण किया गया है, उसका अर्थ केवल शीघ्रता है ( अर्थात् दोनों में अतिशीघ्र उत्पतन कर्म की उत्पत्ति होती है।
'अथवा प्राक्तन एव पटुःसंस्कारोऽभिघातादविनश्यन्नवस्थिन इति' इस सन्दर्भ के द्वारा उक्त प्रश्न का ही दूसरे प्रकार से समाधान किया गया है। अभिप्राय
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् विनश्यनवस्थित इति । अतः संस्कारवति पुनः संस्कारारम्भो नास्त्यतो यस्मिन् काले संस्कारापेक्षादभिधातादप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म, तस्मिन्नेव काले तमेव संस्कारमपेक्षमाणान्मुसलहस्तसंयोगादप्रत्ययं हस्तेऽप्युत्पतनकर्मेति । ।
पाणिमन्बु गमनविधिः, कथम् ? यदा तोमरं हस्तेन गृहीत्वोक्षेतुमिच् पद्यते, तदनन्तरं प्रयत्नः, तमपेक्षमाणाद् यथोक्तात् तब तक विद्यमान रहता है। अतः एक संस्कार से युक्त वस्तु में पुन: दूसरे संस्कार की उत्पत्ति की सम्भावना न रहने पर भी जिस समय संस्कार और अभिघात ( संयोग ) इन दोनों से बिना प्रयत्न के मूसल में उत्पतन ( उत्क्षेपण) क्रिया उत्पन्न होती है, उसी समय उसी संस्कार और मूसल एवं हाथ के संयोग इन दोनों से अप्रत्यय (प्रयत्नाजन्य ) उत्पतन ( उत्क्षेपण) क्रिया उत्पन्न होती है।
(प्र० ) हाथ से फेंकी हुई वस्तुओं में गमन क्रिया किस प्रकार उत्पन्न होती है ? ( उ०) जिस समय तोमर को हाथ में लेकर उसे उछालने की इच्छा ( पुरुष को ) होती है, उसके बाद प्रयत्न उत्पन्न होता है। आत्मा और हाथ के संयोग एवं हाथ और तोमर के संयोग इन दोनों संयोगों के द्वारा उक्त प्रयत्न के साहाय्य से तोमर और हाथ में एक ही समय दो आकर्षणात्मक
न्यायकन्दली
न विनश्यति । अतः संस्कारवति संस्कारान्तरारम्भो नास्ति, यतः प्राक्तनापक्षेपणसंस्कारो न विनष्टः, अतः प्राक्तनसंस्कारवति मुसले संस्कारान्तरारम्भो नास्तीति प्रतीयते। यस्मिन् काले संस्कारापेक्षादभिघातादप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म, तस्मिन्नेव काले तमेव संस्कारमपेक्षमाणाद्धस्तमुसलसंयोगादप्रत्ययं
यह है कि यह वेगाख्य संस्कार (अन्य वेगाख्य संस्कारों के कारणों से ) विशेष प्रकार के कारणों से उत्पन्न होता है। अतः अत्यन्त बलवान होने के कारण ( अन्य संस्कारों के विनाशक) स्पर्श से युक्त द्रव्य के संयोग से भी वह विनष्ट नहीं होता। यही कारण है कि उससे दूसरे संस्कार की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि पहिले अपक्षेपण क्रियाजनित संस्कार का विनाश नहीं हुआ है। इससे यह समझते हैं कि पहिले के संस्कार से युक्त मूसल में दूसरे संस्कार की उत्पति नहीं होती है। “यस्मिन् काले संस्कारापेक्षादभिघातादप्रत्ययं मुसले उत्पतनकर्म, तस्मिन्नेव काले तमेव संस्कारमपेक्षमाणाद्धस्तमुसलसंयोगादप्रत्ययं हस्तेऽप्युत्पतनकर्मेति" इस पक्ष में हाथ और मूसल दोनों
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
७११ प्रशस्तपादभाष्यम् संयोगद्वयात् तोमरहस्तयोर्युगपदाकर्षणकर्मणी भवतः। प्रसारिते च हस्ते तदाकर्षणार्थः प्रयत्नो निवर्तते। तदनन्तरं तिर्यगूल दूरमासन्नं वा क्षिपामीतीच्छा सञ्जायते । तदनन्तरं तदनुरूपः प्रयत्नस्तमपेक्षमाणस्तोमरहस्तसंयोगो नोदनाख्यः! तस्मात् तोमरे कर्मोत्पन्न नोदनापेक्षं तस्मिन् संस्कारमारभते । ततः संस्कारनोदनाभ्यां तावत् क्रियायें उत्पन्न होती हैं। हाथ को पसार लेने पर आकर्षण का कारण वह प्रयत्न नष्ट हो जाता है। इसके बाद 'इसको किसी पार्श्व में, या ऊपर बहुत दूर, या निकट में ही फेंक दूं' यह इच्छा उत्पन्न होती है। फिर ( इच्छाविषयीभूत ) उस क्रिया के अनुकूल प्रयत्न उत्पन्न होता है। इसके बाद इस प्रयत्न के साहाय्य से तोमर और हाथ में नोदन नाम के संयोग की उत्पत्ति होती है। नोदन नाम के संयोग से तोमर में उत्पन्न क्रिया उस नोदन की
न्यायकन्दली हस्तेऽप्युत्पतनकर्मेति । अस्मिन् पक्षे हस्तमुसलोत्पतनकर्मणोर्वास्तवमेव योगपद्यम् ।
पाणिमुक्तेषु गमनविधिः कथम् ? पाणिमुक्तेषु द्रव्येषु गमनविधिः गमनप्रकारः कथमुत्पद्यत इति प्रश्ने कृते सत्याह-यदा तोमरमिति । युगपदाकर्षणेति, अनाकृष्योत्क्षेप्तुमशक्यत्वात् । प्रयत्नो निवर्तत इति तयोहस्ततोमरयोराकर्षणप्रयोजनप्रयत्नो निवर्तते, तद्विरोधिप्रसारणप्रयत्नोत्पादादित्यर्थः । तदनन्तरमिति । प्रसारणानन्तरम् । तीर्यगूज़ वा दूरमासन्नं वा क्षिपामीतीच्छोत्पद्यते। तदनन्तरं तदनुरूपः प्रयत्नः, तिर्यक्षेपणेच्छायां तिर्यक्षेपणप्रयत्नो में ही उत्पन्न कर्म वास्तव में एक ही समय उत्पन्न होते हैं (पहिले पक्ष की तरह यहाँ योगपद्य का शोघ्रतामूलक गौण प्रयोग नहीं है)।
'पाणिमुक्तेषु गमनविधिः कथम्' ? हाथ से फेके हुए द्रव्यों की 'गमनविधि' गमन की रीति अर्थात् गमनक्रिया को उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? यह प्रश्न किये जाने पर 'यदा तोमरम्' इत्यादि से समाधान किया गया है। 'युगपदाकर्षणेति' क्योंकि बिना आकर्षण के फेंकना सम्भव नहीं हैं। 'प्रयत्नो निवर्तत इति' अर्थात् हाथ और तोमर इन दोनों के आकर्षण रूप प्रयोजन का सम्पादन कर प्रयत्न निवृत्त हो जाता है। क्योंकि आकर्षण का विरोधी और प्रसारण का हेतुभूत प्रयत्न उत्पन्न हो गया रहता हैं । 'तदनन्तरम्' अर्थात् प्रसारण के बाद, टेढ़ा करके फेंके या ऊपर की ओर अथवा दूर फेंके अथवा समीप में फेंके, इस प्रकार की इच्छायें उत्पन्न होती हैं। 'तदनन्तरं तदनुरूपः प्रयत्नः' इसमें प्रयुक्त 'अनुरूप' शब्द के द्वारा यह अर्थ व्यक्त होता है कि
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७२०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्माणि भवन्ति यावद्धस्ततोमरविभाग इति । ततो विभागानोदने निवृत्ते संस्कारादूर्ध्व तिर्यग् दूरमासन्नं वा प्रयत्नानुरूपाणि कर्माणि भवन्त्यापतनादिति ।
तथा यन्त्रमुक्तेषु गमनविधिः कथम् १ यो बलवान् कृतव्यायामो वामेन करेण धनुर्विष्टभ्य दक्षिणेन शरं सन्धाय सहायता से तोमर में संस्कार को उत्पन्न करती है। इसके बाद संस्कार
और नोदन से तोमर में तब तक क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं, जब तक हाथ और तोमर का विभाग उत्पन्न नहीं हो जाता। इसके बाद विभाग से जब नोदन नाम के संयोग का नाश हो जाता है, तब उस संस्कार ( वेग ) से पतन के समय तक पार्श्व में, दूर में, या समीप में फेंकी जाने की क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं।
___इसी प्रकार यन्त्र (धनुषादि ) के द्वारा फेंकी हुई ( शरादि ) वस्तुओं में भी गमन क्रिया की रीति जाननी चाहिए। (प्र०) कैसे ? ( उ० )
न्यायकन्दली जायत इति। ऊर्ध्वक्षेपणेच्छायामूर्ध्वक्षेपणप्रयत्नो जायते। दूरक्षेपणेच्छायां महान् प्रयत्नः, आसन्नक्षेपणेच्छायां च शिथिलः प्रयत्नो जायत इति तदनुरूपशब्दार्थः। तमपेक्षमाणस्तोमरहस्तसंयोगो नोदनाख्यो नोद्यस्य तोमरस्य नोदकस्य च हस्तस्य सहगमनहेतुत्वात् । तस्मान्नोदनाख्याद् यथोक्तादिच्छानुरूपप्रयत्नापेक्षात् तोमरे कर्मोत्पन्नम् । तत् कर्म नोदनापेक्षम्, तस्मिन् तोमरे संस्कारमारभते। ततः संस्कारेति । तोमरस्य पतनं यावत् संस्कारात् तदनुरूपाणि कर्माणि भवन्तीत्यर्थः।
__कृतव्यायामः कृतायुधाभ्यासो वामेन करेण धनुर्विष्टभ्य गाढं गृहीत्वा दक्षिणेन शरं सन्धाय ज्यायां शरं संयोज्य सशरां ज्यां शरेण सह वर्तमानां टेढ़ा कर फेंकने की इच्छा के होने पर प्रयत्न भी तदनुकूल हो उत्पन्न होता है। एवं ऊपर की ओर फेंकने की इच्छा होने पर ऊपर फेंकने के अनुकूल ही प्रयत्न भी उत्पन्न होता है । दूर फेंकने की इच्छा होने पर बहुत बड़ा प्रयस्न उत्पन्न होता है। समीप में फेंकने की इच्छा होने पर शिथिल प्रयत्न उत्पन्न होता है । 'तमपेक्षमाणस्तोमरहस्तसंयोगो नोदनाख्यः' क्योंकि नोद्य जो तोमर एवं नोदक जो हाथ, इन दोनों के साथ साथ ही वह गमन का भी कारण है। 'तस्मात्' अर्थात् कथित उस नोदन नाम के संयोग के द्वारा उक्त इच्छानुरूप प्रयत्न के साहाय्य से तोमर में क्रिया की उत्पत्ति होती है । यही क्रिया नोदन संयोग की सहायता से तोमर में संस्कार ( वेग को) उत्पन्न करती है। 'ततः संस्कारैति' अर्थात् जब तक तोमर का पतन नहीं हो जाता, तब तक वेग से उसमें नोदन के अनुरूप क्रियाओं की उत्पत्ति होती है ।
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७२१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सशरां ज्यां मुष्टिना गृहीत्वा आकर्षणेच्छां करोति, सज्येष्वाकर्षयाम्येतद् धनुरिति । तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणादात्महस्तसंयोगादाकर्षणकर्म हस्ते यदैवोत्पद्यते तदैव तमेव प्रयत्नमपेक्षमाणाद्धस्तज्याशरसंयोगाद् ज्यायां शरे च कर्म, प्रयत्नविशिष्टहस्तज्याशरसंयोगमपेक्ष. माणाम्यां ज्याकोटिसंयोगाभ्यां कर्मणी भवतो धनुष्कोटयोरित्येतत धनूषादि चालन में निपुण व्यक्ति जिस समय बायें हाथ से धनुषादि को जोर से पकड़ कर दाहिने हाथ से उसमें तीर को लगाता है और तीर सहित धनुष की डोरी को मुट्ठी से पकड़ कर उसे खींचने की इस प्रकार की इच्छा करता है कि मैं शर और डोरी सहित धनुष को खीचूँ' उसके बाद प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। आत्मा और हाथ के संयोग एवं उक्त प्रयत्न इन दोनों से जिस समय आकर्षणात्मक क्रिया की उत्पत्ति होती है, उसी समय उस प्रयत्न और हाथ का डोरी से संयोग और डोरी का तीर के साथ संयोग इन दोनों संयोग प्रभूति कारणों से डोरी और तीर दोनों में ही क्रियायें उत्पन्न होती हैं। धनुष के दोनों कोणों के साथ डोरी के दोनों संयोगों से धनुष के दोनों कोणों में दो क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। इन दोनों क्रियाओं की उत्पत्ति में प्रयत्न से युक्त हाथ के साथ डोरी और तीर के
न्यायकन्दली ज्यां मुष्टिना गृहीत्वा इच्छां करोति सज्येष्वाकर्षयाम्येतद् धनुरिति । ज्येति धनुर्गुणस्याख्या, इषुरिति शरस्याभिधानम्। ज्या च इषुश्च ज्येष, सह ज्येषुभ्यां वर्तत इति सज्येषु धनुरेतदाकर्षयामीतीच्छाया आकारो दर्शितः । तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणादात्महस्तसंयोगादाकर्षणकर्म हस्ते यदैवोत्पद्यते, तदैव तं प्रयत्नमपेक्षमाणाद्धस्तज्याशरसंयोगाद् ज्यायां शरे च कर्म हस्तशर. संयोगात्। प्रयत्नविशिष्टज्याहस्तसयोगमपेक्षमाणाभ्यां ज्याकोटिसंयोगाभ्यां
जो पुरुष अस्त्र चलाने का अभ्यास किया हो वही पुरुष 'कृतव्यायामः' शब्द से अभिप्रेत है । 'वामेन करेण धनुर्विष्टभ्य' अर्थात् वह जब बायें हाथ से धनुष को दृढ़तापूर्वक पकड़कर 'दक्षिणेन शरं सन्धाय' अर्थात् धनुष की डोरी में तीर को लगा कर, 'सशरा ज्याम्' अर्थात् तीर में लगी हुई डोरी को, 'मुष्टिना गृहीत्वा' अर्थात् मुट्ठी से पकड़ कर इच्छा करता है कि 'सज्येष्वाकर्षयाम्येतद्धनुरिति' धनुष की डोरी का नाम 'ज्या' है। 'इषु' शब्द शर (तीर ) का वाचक है। 'सज्येषुधनुः' यह शब्द 'ज्या च इषुश्च ज्येषू, सह ज्येषुभ्यां वर्तत इति सज्येषु धनुः' इस प्रकार की व्युत्पत्ति से निष्पन्न है । 'एतदाकर्षयामि' इस वाक्य के द्वारा प्रकृत इच्छा का आकार दिखलाया गया है । 'तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणादात्महस्तसंयोगादाकर्षणकर्म हस्तशरसंयोगात्, प्रयत्न. विशिष्टज्याहस्तसंयोगमपेक्षमाणाभ्यां ज्याकोटिसंयोगाभ्यां कर्मणी धनुष्कोट्योरित्येतत् सर्व
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७२२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
नरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् सर्व युगपत् । एवमाकर्णादाकृष्टे धनुषि नातः परमनेन गन्तव्यमिति यज्ज्ञानं ततस्तदाकर्षणार्थस्य प्रयत्नस्य विनाशस्ततः पुनर्मोक्षणेच्छा सजायते, तदनन्तरं प्रयत्नस्तमपेक्षमाणादात्माङ्गलिसंयोगादङ्गलिकम, तस्माज्ज्याङ्गुलि विभागः, ततो विभागात् संयोगविनाशः, तस्मिन् विनष्टे प्रतिबन्धकाभावाद् यदा धनुषि वर्तमानः स्थितिस्थापकः संस्कारो मण्डलीभूतं धनुयथावस्थितं स्थापयति, तदा संयोग भी सहायक हैं। ये सभी काम एक ही समय होते हैं। इस प्रकार कान तक धनुष के खींचे जाने पर 'इसको इससे आगे नहीं जाना चाहिए' इस आकार का ( संकल्पात्मक ) ज्ञान (उत्पन्न होता है )। इस ज्ञान से आकर्षण के कारणीभूत प्रयत्न का विनाश हो जाता है। फिर उसे छोड़ने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसके बाद तदनुकूल प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। आत्मा और अङ्गुलि के संयोग से अङ्गुलि में क्रिया की उत्पत्ति होती है, जिसमें उक्त प्रयत्न का साहाय्य भी अपेक्षित होता है। अगुलि की इस क्रिया से डोरी और अङ्गुलि में विभाग उत्पन्न होता है। इस विभाग से । डोरी और अगुलि के ) संयोग का विनाश होता है । उस संयोग के नष्ट हो जाने पर किसी प्रतिबन्धक के न रहने के कारण धनुष
न्यायकन्दली
कर्मणी धनुष्कोटयोरित्येतत् सर्वं युगपत्, कारणयोगपद्यात् । एवमाकर्णादाकृष्टे धनुषि नातः परमनेन हस्तेन गन्तव्यमिति यद् ज्ञानं तस्मात् । तदाकर्षणार्थस्येति धनुराकर्षणार्थस्य प्रयत्नस्य विनाश इति ।
ततः शरस्य गुणस्य च मोक्षणेच्छा च । तदनन्तरं प्रयत्नो मोक्षणार्थः, तमपेक्षमाणादात्मागुलिसंयोगादगुलिकर्म । तस्माद् ज्याङ्गुलिविभागः, शरगुणाभ्याम । युगपत्' क्योंकि सब को सामग्री एक ही समय उपस्थित है । 'एवमाकर्णादाकृष्टे धनुषि नातः परमनेन हस्तेन गन्तव्यमिति यज्ज्ञानम्' अर्थात् उसी ज्ञान से 'तदाकर्षणार्थस्य' धनुष को अपनी ओर खींचने के लिए जो प्रयत्न था उसका विनाश होता है।
___ इसके बाद तीर और डोरी को छोड़ देने की इच्छा होती है, उसके बाद छोड़ने के अनुकल प्रयल की उत्पत्ति होती है 'तमपेक्षमाणादात्मागुलिसंयोगादङ्गुलिकम, तस्माज्ज्याङ्गुलिविभागः' अर्थात् डोरी का शर से और अगुली का डोरी से विभाग उत्पन्न होता है। इस विभाग से शर का और डोरी का संयोग और डोरी के
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
तमेव संस्कारमपेक्षमाणाद् धनुर्ज्या संयोगाद् ज्यायां शरे च कर्मोत्पद्यते । तत् स्वकारणापेक्षं ज्यायां संस्कारं करोति । तमपेक्षमाण इषुज्यासंयोगो नोदनम् तस्मादिषावाद्यं कर्म नोदनापेक्षमिपौ संस्कारमारभते । तस्मात् संस्कारानोदनसहायात् तावत् कर्माणि भवन्ति यावदिषुज्याविभागः, विभागान्निवृत्ते नोदने कर्माण्युत्तरोत्तराणीषु
।
में रहनेवाला ( स्थितिस्थापक ) संस्कार नमे हुये उस धनुष को पहिली अवस्था में ले आता है । उसी समय इस स्थितिस्थापक संस्कार एवं धनुष और डोरी के संयोग इन दोनों से तीर में क्रिया उत्पन्न होती है । यह क्रिया अपने कारणीभूत ( धनुष और डोरी के संयोग ) के साहाय्य से डोरी में ( वेगाख्य ) संस्कार को उत्पन्न करती है । इस संस्कार के द्वारा तीर एवं डोरी इन दोनों में 'नोदन' नाम के संयोग की उत्पत्ति होती है । इस नोदन संयोग के साहाय्य से तीर की पहिली क्रिया तीर में ( वेगाख्य ) संस्कार को उत्पन्न करती है । यह संस्कार उक्त नोदनसंयोग की सहायता से तब तक क्रियाओं को उत्पन्न करता रहता है, जब तक डोरी और तीर का
न्याय कन्दली
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७२३
ततो विभागाच्छ्रगुणाङ्गुलिसंयोगविनाशस्तस्मिन् संयोगे विनष्टे प्रतिबन्धकाभावाद् यदा धनुषि वर्तमानः स्थितिस्थापकः संस्कारो मण्डलीभूतं धनुर्यथावस्थितं स्थापयति । तं संस्कारमपेक्षमाणाद् धनुर्ज्या संयोगाद् ज्यायां शरे च कर्मोत्पद्यते । तत् कर्म स्वकारणापेक्षं धनुर्ज्या संयोगापेक्षं ज्यायां संस्कारं वेगाख्यं करोति तं च संस्कारमपेक्षमाण इषुज्यासंयोगो नोदनम्, नोद्यस्येपोर्नोदकस्य गुणस्य सहगमनहेतुत्वात् । तस्माद् नोदनादिषावाद्यं कर्म संस्कारमारभते । तस्मात् संस्काराद् नोदनसहायात् तावत् कर्माणि भवन्ति यावदिषुज्याविभागः । साथ अङ्गुली का संयोग इन दोनों संयोगों का विनाश हो जाता है । इन संयोगों के विनष्ट होने पर जिस समय धनुष में रहनेवाला स्थितिस्थापक संस्कार किसी प्रतिबन्धक के न रहने के कारण नमे हुये धनुष को अपनी पहिली अवस्था में ले आता है, ( उसी समय ) इस स्थितिस्थापक संस्कार के साहाय्य से ही धनुष और डोरी के संयोग के द्वारा डोरी में और शर में क्रिया उत्पन्न होती है । 'तत्' अर्थात् वह कर्म 'स्वकारणापेक्षम्' अर्थात् धनुष और डोरी के संयोग का साहाय्य पाकर डोरी में संस्कार को अर्थात् वेग नाम के संस्कार को उत्पन्न करता है । उसी वेग से तीर और डोरी का 'नोदन' संयोग उत्पन्न होता है, ( वह संयोग नोदन रूप इसलिए है कि ) नोद्य ( प्रेर्य ) जो तीर और नोदक ( प्रेरक ) जो डोरी इन दोनों में साथ साथ गमन क्रिया के उत्पादन का हेतु है । इस नोदन संयोग के साहाय्य से पहिली क्रिया तीर में संस्कार को उत्पन्न करती
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [कनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् संस्कारादेवापतनादिति । बहूनि कर्माणि क्रमशः कस्मात ? संयोगबहुत्वात् । एकस्तु संस्कारः, अन्तराले कमणोऽपेक्षाकारणाभावादिति । विभाग उत्पन्न नहीं हो जाता। विभाग से नोदन नाम के संयोग के विनष्ट हो जाने पर तीर के वेग नाम के संस्कार से ही आगे की क्रियायें तीर के गिरने तक होती रहती हैं। (प्र. ) बहुत सी क्रियायें क्रमशः क्यों उत्पन्न होती हैं ? ( उ० ) यतः संयोग बहुत से हैं। किन्तु संस्कार उसमें एक ही रहता है, क्योंकि बीच में (संस्कार के उत्पादक प्रथम ) कर्म को अपेक्षित अन्य कारणों का ( सहयोग प्राप्त) नहीं है।
न्यायकन्दली
विभागान्निवृत्ते नोदने कर्माणि उत्तराणि संस्कारादेव वेगाख्याद् भवन्ति यावत् पतनम्, इषोरेतस्य च पातो गुरुत्वप्रतिबन्धकसंस्कारक्षयात् ।
अत्र चोदयति-बहूनि कर्माणि क्रमशः कस्मादिति। ज्याविभक्तस्येषोरन्तराले क्रमशो बहूनि कर्माणि भवन्तीति कस्मात् कल्प्यते ? एकमेव कर्म कुतो न कल्पितमित्यभिप्रायः । समाधत्ते-संयोगबहुत्वादिति। उत्तरसंयोगान्तं कर्मत्यवस्थितम् । क्षिप्तस्येषोरन्तराले बहवः संयोगा दृश्यन्ते । तेन बहूनि कर्माणि भवन्तीत्याश्रीयते । एकस्तु संस्कारः, अन्तराले कर्मणोऽपेक्षाकारणाभावात् । नोदनाभिघातयोरन्यतरापेक्षं कर्म संस्कारमारभते न कर्ममात्रम्, वेगाभावात् ।
है। नोदन से साहाय्यप्राप्त उस संस्कार से ही तब तक क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं, जब तक कि तीर और डोरी का विभाग उत्पन्न नहीं हो जाता। इस विभाग से जब उक्त नोदन संयोग का नाश हो जाता है, तब 'संस्कार' से ही अर्थात् वेग नाम के संस्कार से ही तब तक क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं जब तक कि तीर का पतन नहीं हो जाता। यह पतन गुरुत्व के प्रतिबन्धक संस्कार के नाश से उत्पन्न होता है ।
'बहूनि कर्माणि क्रमशः कस्मात्' इस वाक्य के द्वारा फिर आक्षेप करते हैं। उक्त आक्षेपभाष्य का यह अभिप्राय है कि डोरो से विभक्त तीर में मध्यवर्ती अनेक क्रियाओं की कल्पना किस हेतु से की जाती है ? एक ही कर्म की कल्पना क्यों नहीं की जाती ? 'संयोगबहुत्वात्' इत्यादि से उक्त आक्षेप का समाधान करते हैं । यह निश्चित है कि क्रिया की सत्ता उत्तरदेश संयोग तक रहती है । एवं फेके हुए तीर के बीच में बहुत से संयोग देखे जाते हैं। अतः यह कल्पना करते हैं कि कर्म भी बहुत से उत्पन्न होते हैं। 'एकस्तु संस्कारोऽन्तराले कर्मणोऽपेक्षाकारणाभावात्' नोदनसंयोग हो या अभिघातसंयोग हो इन दोनों में से किसी एक का साहाय्य पाकर ही कर्म संस्कार को उत्पन्न करता है, केवल कर्म से बेगाख्यसंस्कार की उत्पत्ति नहीं होती। बीच में न नोदनसंयोग की
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प्रकरणम्]
भाषांनुवादसहितम्
प्रशस्तपादभष्यम् एवमात्माधिष्ठितेषु सत्प्रत्ययमसत्प्रत्ययं च कर्मोक्तम् । अनधिष्ठितेषु बाह्येषु चतुर्यु महाभूतेष्वप्रत्ययं कर्म गमनमेव नोदनादिभ्यो भवति । तत्र नोदनं गुरुत्वद्रवत्ववेगप्रयत्नान् समस्त.
इस प्रकार आत्मा से अधिष्ठित द्रव्यों के प्रयत्नजनित और अप्रयत्नजनित दोनों ही प्रकार के कर्म कहे गये हैं। आत्मा की अध्यक्षता के बिना बाह्य चारों महाभूतों में बिना प्रयत्न के केवल नोदनादि से गमन रूप क्रिया की ही उत्पत्ति होती है (उत्क्षेपणादि क्रियाओं की नहीं)। यहाँ (कथित) 'नोदन' उस संयोग विशेष का नाम है जो कभी गुरुत्व, द्रवत्व, वेग और प्रयत्न सम्मिलित इन चार गुणों से, कभी इनमें से एक दो या तीन गुणों से उत्पन्न होता है। यह विभाग को उत्पन्न न करनेवाले कर्म
न्यायकन्दली न चान्तराले नोदनं नाप्यभिघातः, तस्मादेक एव शरज्यासंयोगापेक्षेण शरकर्मणा कृतो विशिष्टः संस्कारो यावत् पतनमनुवर्तते । यथा यथा चास्य कार्यकरणाच्छक्तिः क्षीयते, तथा तथा कार्य मन्दतरतमादिभेदभिन्नमुपजायते । यथा तरोस्तरुणस्य फलं प्रकृष्यतेऽपकृष्यते च जीर्णस्य ।
उपसंहरति-एवमिति । अनधिष्ठितेषु बाह्येषु चतुर्ष महाभूतेष्वप्रत्ययं गमनमेव नोदनादिभ्यो भवति । आत्मना असाधारणेन सम्बन्धिनानधिष्ठितेषु बाह्येष्वप्रयत्नपूर्वकं गमनाख्यमेव कर्म भवति, नोत्क्षेपणापक्षेपणादिकमित्यर्थः । महाभूतेषु नोदनादिभ्यः कर्म भवतीत्युक्तम् । अथ कि नोदनमत आहउत्पत्ति होती है, न अभिघातसंयोग की। अतः तीर और डोरी के एक ही संयोग के साहाय्य से तीर की क्रिया के द्वारा जिस विशेष प्रकार के वेगाख्य संस्कार की उत्पत्ति होती हैं, वही तीर के पतन होने तक बराबर बना रहता है। जैसे जैसे उससे कार्य होते जाते हैं, उसकी शक्ति क्षीण होती जाती हैं, एवं कार्य भी ( शक्ति की क्षीणता से) क्रमशः मन्द; मन्दतर और मन्दतम होते जाते हैं। जैसे कि तरुणवृक्ष का फल बढ़िया होता है, और जीर्णवृक्ष का फल घटियो।
___'एवम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। अनधिष्ठितेषु बाह्येषु चतुर्यु महाभूतेष्वप्रत्ययं गमनमेव नोदनादिभ्यो भवति'। अर्थात् आत्मा रूप असाधारण आश्रय से असम्बद्ध पृथिव्यादि बाह्य चारों द्रव्यों में बिना प्रयत्न ( अप्रयत्नपूर्वकम् ) के ( नोदनादि संयोगों के द्वारा) गमन नाम का कर्म ही उत्पन्न होता है, उत्क्षेपण या अपक्षेपण प्रभृति कर्म नहीं।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ कर्म निरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् व्यस्तानपेक्षमाणो यः संयोगविशेषः । नोदनमविभागहेतोरेकस्य कर्मणः कारणम् , तस्माच्चतुर्वपि महाभूतेषु कर्म भवति । यथा पङ्काख्यायां पृथिव्याम् । का ही कारण है। इस (संयोग) से चारों महाभूतों में क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। जैसे कि पङ्क नाम की पृथिवी में (नोदन संयोग से क्रिया की उत्पत्ति होती है)।
न्यायकन्दली तत्र नोदनं गुरुत्वद्रवत्वप्रयत्नवेगान् समस्तव्यस्तानपेक्षमाणो यः संयोगविशेषः । कथं संयोगविशेषो नोदनमुच्यते, तत्राह-नोदनमविभागहेतोः कर्मणः कारणमिति । नोद्यनोदकयोः परस्परविभागं न करोति यत् कर्म तस्य कारणं नोदनम् ।
किमुक्तं स्यात् ? अनेन संयोगेन सह नोदको नोद्यं नोदयति नान्यथा, तेनायं नोदनमुच्यते । नोदनं तु क्व कर्मकारणमत्राह-यथा पङ्काख्यायां पृथिव्यामिति । यदा पङ्कस्योपरि मन्दव्यवस्थापिता प्रस्तरगुटिका क्रमशः पङ्कन सममधो गच्छति, तदा गुरुत्वापेक्षः प्रस्तरपङ्कसंयोगो नोदनम् । यदा प्रयत्नेन दूरमुत्थाप्य प्रस्तरेणाभिहन्यते पस्तदा गुरुत्वप्रयत्नवेगापेक्षः संयोगो नोदनम्, यदा जलेनाहन्यते तदा समस्तापेक्षः संयोगो नोदनमिति यथासम्भवमूह्यमिति ।
अभी कहा है कि पृथिव्यादि महाभूतों में नोदनादि से क्रिया की उत्पत्ति होती है, अतः प्रश्न उठता है कि यह 'नोदन कौन सी वस्तु है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'तत्र नोदनं गुरुत्वद्रवत्वप्रयत्नवेगान समस्तव्यस्तानपेक्षमाणो यः संयोगविशेषः' इस वाक्य से दिया गया है। उक्त विशेष प्रकार के सयोग को ही नोदन क्यों कहते हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर 'नोदनमविभागहेतोः कर्मणः कारणम्' इस वाक्य से दिया गया है। नोद्य और नोदक इन दो द्रव्यों में जिस क्रिया से विभाग की उत्पत्ति नहीं होती है, नोदन ही उस क्रिया का हेतु है। इससे क्या निष्कर्ष निकला ? यही कि नोदन रूप संयोग के साथ ही नोदक अपने नोद्य का नोदन करता हैं, अन्यथा नहीं। इसी कारण यह संयोग 'नोदन' कहलाता है। नोदनसंयोग से क्रिया की उत्पत्ति कहाँ होती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'यथा पत्राख्यायां पृथिव्याम्' इस वाक्य के द्वारा दिया गया है । जिस समय पङ्क के ऊपर धीरे से रक्खा हुआ पत्थर का टुकड़ा क्रमशः पङ्क के साथ नीचे की ओर जाता है, वहाँ पत्थर और पङ्क का संयोग रूप नोदन केवल गुरुत्व से उत्पन्न होता है। जिस समय प्रयत्न के द्वारा पत्थर को दूर उछाल कर पङ्क को आघात पहुंचाया जाता है, वहाँ जिस नोदन संयोग की उत्पत्ति होती है, उसका गुरुत्व, प्रयत्न और वेग ये तीनों कारण हैं। जिस समय वही पङ्क जल के द्वारा आहत किया जाता है, वहाँ का नोदन उन सभी कारणों से उत्पन्न होता है । इसी प्रकार जहाँ जिस प्रकार की सम्भावना हो उसके अनुसार कल्पना करनी चाहिए।
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-७२७
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् वेगापेक्षो यः संयोगविशेषो 'विभागहेतोरेकस्य कर्मणः कारणं सोऽभिधातः । तस्मादपि चतुर्षु महाभूतेषु कर्म भवति, यथा पाषाणादिषु निष्ठुरे वस्तुन्यभिपतितेषु, तथा पादादिभिनुद्यमानायामभिहन्यमानायां वा। पङ्काख्यायां पृथिव्यां य: संयोगो नोदनाभिघातयोरन्यतरापेक्ष उभयापेक्षो वा स संयुक्तसंयोगः, तस्मादपि पृथिव्यादिषु कर्म भवति । ये च प्रदेशा न नुद्यन्ते नाप्यभिहन्यन्ते तेष्वपि कर्म जायते ।
अभिघात' उस विशेष प्रकार के संयोग का नाम है जो वेग की सहायता से विभाग को उत्पन्न करनेवाले कर्म का कारण हो। अभिघात नाम के संयोग से भी चारों महाभूतों में क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। जैसे कि पत्थर प्रभृति कठिन द्रव्यों पर गिरे हुए द्रव्यों में ( क्रिया की उत्पत्ति होती है ) एवं पैर प्रभृति से केवल छुये जाने पर या अभिहत होने पर पङ्क नाम की पृथिवी में ( कथित ) नोदन और अभिघात नाम के दोनों संयोगों से या दोनों में से किसी एक संयोग से जिस संयोग की उत्पत्ति होती है, उसे 'संयुक्तसंयोग' कहते हैं। इस सयुक्तसंयोग से भी पृथिव्यादि भूतों में क्रिया की उत्पत्ति होती है। जो प्रदेश किसी से छुये नहीं जाते, या
न्यायकन्दली वेगापेक्षो यः सयोग एकस्य विभागकृतः कर्मणः कारणं सोऽभिघातः, अभिघात्याभिघातकयोः परस्परविभागो यतः कर्मणो जायते तस्यैवैकस्य हेतुर्यः संयोगविशेषः सोऽभिघातः। तस्मादपि चतुर्षु महाभूतेषु कर्म भवति । यथा पाषाणादिषु निष्ठुरे वस्तुन्यभिपतितेषु। नोदनं परस्पराविभागहेतो. रेवैकस्य कर्मणः कारणं न परस्परविभागहेतोः, एवमभिघातोऽपि परस्परविभागहेतोरेवैकस्य कर्मणः कारणं न परस्पराविभागहेतोरिदमुक्तमेकस्य कर्मणः कारणम् ।
"वेगापेक्षो यः संयोग एकम्य f भागकृतः कर्मण: कारणं सोऽभिधातः" अर्थात् अभिघात्य और अभिघातक इन दोनों में परस्पर विभाग की उत्पत्ति जिस एक क्रिया से हो, उस क्रिया का कारणी धुत विशेष प्रकार का संयोग ही 'अभिथात' है । 'तस्मादपि चतुषु महाभूतेषु कर्म भवति, यथा पाणादिषु निष्ठुरे वस्तुन्यभिपतितेषु' ( जिस प्रकार ) परस्पर विभाग के अकारणीभूत एक क्रिया का ही कारण 'नोदन' है, परस्पर विभाग के कारणीभूत एक क्रिया का कारण नोदन नहीं है। उसी प्रकार ( ठीक उससे विपरीत ) अभिघात भी परस्पर विभाग के हेतुभूत एक क्रिया का ही कारण है, वह परस्पर विभाग के अहेतुभूत एक क्रिया का कारण नहीं है।
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.७२८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् पृथिव्युदयोगुरुत्वविधारकसंयोगप्रयत्नवेगाभावे सति गुरुत्वाद् यदधोगमनं तत पतनम् । यथा मुसलशरीरादिपूक्तम् । तत्राद्यं गुरुत्वात्, द्वितीयादीनि तु गुरुत्वसंस्काराभ्याम् । अभिहत नहीं है ते, उनमें भी क्रिया की उत्पत्ति होती है।
___गुरुत्व के विरोधी संयोग, प्रयत्न और वेग इन सबों के न रहने पर भी पृथिव्यादि द्रव्य केवल गुरुत्व के द्वारा जो नीचे की तरफ गिरते हैं, उस क्रिया को ही पतन' कहते हैं। जैसा कि मुसल और तीर प्रभृति द्रव्यों में कह आये हैं। उनमें पहिली क्रिया गुरुत्व से उत्पन्न होती है और दूसरी क्रियायें गुरुत्व और वेग दोनों से उत्पन्न होती हैं।
न्यायकन्दली संयुक्तसंयोगं व्याचष्टे-पादादिभिर्नुद्यमानायामिति। एकत्र पृथिव्यां पादेन नुद्यमानायामभिहन्यमानायां वा ये प्रदेशा न नुद्यन्ते नाप्यभिहन्यन्ते तेष्वपि कर्म दृश्यते। तत्र चलतां प्रदेशान्तराणां नुद्यमानाभिहन्यमानभूप्रदेशैः सह संयुक्तप्रदेशसंयोगः कारणम् । यत्राभिघातक द्रव्यं भूप्रदेशमभिहत्य किञ्चिदधो नीत्वोत्पतति, तत्र प्रदेशान्तरक्रियायामुभयापेक्षः संयुक्तसंयोगो हेतुः।
गुरुत्वस्य कर्मकारणत्वमाह-पृथिव्युदकयोर्गुरुत्वविधारकसंयोगप्रयत्नवेगाभावे गुरुत्वाद् यदधोगमनं तत् पतनम् । यथा मुसलशरीरादिषक्तम् । गुरुत्वप्रतिबन्धकस्य हस्तसंयोगस्याभावे मुसलस्य यदधोगमनं तत् पतनं गुरुत्वाद् भवति । एवं गुरुत्वविधारकप्रयत्नाभावे शरीरस्य पतनम्, क्षिप्तस्येषोरन्तराले
'पादादिभिर्नु द्यमानायाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा संयुक्तसंयोग' की व्याख्या करते हैं। पृथिवी का एक देश पैर के द्वारा छुये जाने पर या अभिहत होने पर ( उस देश से सम्बद्ध) पृथिवी के अन्य प्रदेशों में भी-जो पैर से न छुवे गये है, और न अभिहत ही हुए हैं-क्रिया देखी जाती है। उस क्रिया का कारण वह संयुक्त संयोग है, जो क्रिया से युक्त भूप्रदेश के साथ पैर से छुए हुए या अभिहत हुए दूसरे भूप्रदेश का है। जहाँ अभिघात करनेवाला द्रव्य भूप्रदेश में अभिघात को उत्पन्न कर थोड़ा सा नीचे जाकर ऊपर की ओर उठता है । वहां जो दुसरे भूप्रदेश में क्रिया को उत्पत्ति होती है, उसका कारण (वेग और संयोग) इन दोनों से साहाय्यप्राप्त संयुक्तसंयोग ही है।
___ 'पृथिव्युदकयोः' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा गुरुत्व से कर्म की उत्पत्ति कही गयी है। मसल में हाथ का जो संयोग है, वह गुरुत्व का प्रतिबन्धक है। उसके न रहने पर ही मसल नीचे की ओर जाता है, मसल की वह पतन क्रिया गुरुत्व से उत्पन्न होती है। गुरुत्व एवं शरीरधारण के उपयुक्त प्रयत्न का अभाव, इन दोनों के रहने पर जो शरीर का पतन होता है, उसका कारण भी गुरुत्व ही है। इसी प्रकार फेंके हुए तीर में वेग के
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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स्रोतोभूतानामपां
स्थलान्निम्नाभिसर्पणं
तद्
द्रवत्वात् स्यन्दनम् । कथम् १ समन्ताद् रोधः संयोगेनावयविद्रवत्वं प्रतिबद्धम्, अवयवद्रवत्वमध्येकार्थसमवेतं तेनैव प्रतिबद्धम् उत्तरोत्तरावयवद्रवत्वानि संयुक्तसंयोगैः प्रतिबद्धानि । यदा तु मात्रया सेतुभेद:
७२६
यत
धारा रूपी जल का अपने आश्रय रूप स्थल से नीचे की ओर फैलना ही 'स्यन्दन' नाम की क्रिया है, जो द्रवत्व से उत्पन्न होती है । ( प्र० ) किस प्रकार ? ( उ० ) नदी के जल किनारों के सभी अवयवों के साथ पूर्ण रूप से संयुक्त रहने के कारण अवयवी (रूप जल ) का द्रवत्व प्रतिरुद्ध हो जाता है । उस अवयवी के सभी अवयवों के द्रवत्व भी उस अवयवी में एकार्थसमवाय सम्बन्ध से रहने के कारण किनारों के उसी संयोग से प्रतिरुद्ध रहते हैं । उन अवयवों के आगे आगे के अवयवों के द्रवत्व भी उक्त संयुक्तसंयोगों से प्रतिरुद्ध रहते हैं । जब थोड़ा सा भी बाँध काट दिया
न्यायकन्दली
वेगाभावात् पतनं गुरुत्वात् । तत्राद्यं कर्म गुरुत्वात्, द्वितीयादीनि तु गुरुत्वसंस्काराभ्याम् । तेषु मुसलादिष्वाद्यं कर्म गुरुत्वाद् भवति तेन कर्मणा संस्कारः क्रियते, तदनन्तरमुत्तरकर्माणि गुरुत्वसंस्काराभ्यां जायन्ते, द्वयोरपि प्रत्येकमन्यत्र सामर्थ्यावधारणात् ।
द्रवत्वस्य कारणत्वं कथयति -- स्रोतोभूतानामपां स्थलान्निम्नाभिसर्पणं यत् तद् द्रवत्वात् स्यन्दनम् । अपां यत्र स्थलान्निम्नाभिसर्पणं तत् स्यन्दनं द्रवत्वादुपजायत इत्यर्थः । कथमिति प्रश्नः । समन्तादित्युत्तरम् । समन्तात्
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न रहने पर बीच में ही जो पतन हो जाता है, उसका कारण भी गुरुत्व ही है। इनमें पहिला कर्म गुरुत्व से उत्पन्न होता है और बाद के कर्म गुरुत्व और वेगाख्य संस्कार इन दोनों से उत्पन्न होते हैं । इनमें मूसल की पहिली क्रिया उसके गुरुत्व से उत्पन्न होती है । उस क्रिया से मूसल में वेग उत्पन्न होता है। इसके बाद की मूसल की क्रियायें गुरुत्व और वेग इन दोनों से ही होती हैं क्योंकि इन दोनों में से प्रत्येक में क्रिया को उत्पन्न करने का सामर्थ्य अन्यत्र निश्चित हो चुका है ।
'स्रोतोभूतानामपाम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा द्रवत्व से स्यन्दन रूप क्रिया की उत्पत्ति की रीति कही गयी है। किसी ऊँची जगह से जल जो नीचे की ओर फैलता है, उसे 'स्यन्दन' कहते हैं, यह स्यन्दन रूप क्रिया द्रवत्व से उत्पन्न होती है । 'कथम्' यह पद प्रश्न का बोधक है, और 'समन्तात्' इत्यादि से इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है ।
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७३०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् कृतो भवति, तदा समन्तात् प्रतिबद्धत्वादवयविद्रवत्वस्य कार्यारम्भो नास्ति । सेतुसमीपस्थस्यावयवद्रवत्वस्योत्तरेषामवयवद्रवत्वानां प्रतिबन्धकाभावाद् वृत्तिलाभः । त.. क्रमशः संयुक्तानाजाता है, उस समय सभी किनारों के साथ संयुक्त रहने के कारण अवयवी के द्रवत्व प्रतिरुद्ध रहते हैं, अतः अपना (स्यन्दन) क्रिया रूप काम नहीं कर सकते। अत: कोई प्रतिबन्ध न रहने के कारण बाँध के समीप में रहनेवाले जलावयवों के द्रवत्व हा अपने कार्य करने को उन्मुख रहते हैं। उसके बाद बाँध से संयुक्त जलावयवों में ही 'अपसर्पण' ( नीचे की तरफ फैलने की ) क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। इसके बाद पहिले द्रव्य का विनाश
न्यायकन्दली सर्वतो रोध:संयोगे कूलसंयोगे सति अवयविनो द्रवत्वं प्रतिबद्धं स्यन्दनं वा न करोति । अवयवद्रवत्वमप्येकार्थसमवेतं तेनैव प्रतिबद्धम्, यस्मिन्नवयवे साक्षाद् रोधःसंयोगोऽस्ति तदवयवगतद्रवत्वं तेनैव रोधःसंयोगेन प्रतिबद्धम, उत्तरोत्तराणि स्ववयवद्रवत्वानि संयुक्तसंयोगैः प्रतिबद्धानि, रोधःसंयुक्तेनावयवेन सह संयोगादवयवान्तरस्य द्रवत्वं प्रतिबद्धमिति । तत्संयोगादपरस्य प्रतिबद्धमित्यनेनैव न्यायेनोत्तरोत्तरद्रवत्वानि प्रतिबद्धानि । यदा तु मात्रया सेतुभेदः कृतो भवति, तदा समन्तात् प्रतिबद्धस्यावयविद्रवत्वस्य कार्यारम्भो नास्ति, दीर्घतरेण सेतुना समन्तात् प्रतिबद्धस्यावयविनो महापरिमाणस्यैकदेशकृतेनाल्पीयसा मार्गेण निर्गमाभावात् । सेतुसमीपस्थस्य 'समन्तात्' अर्थात् सभी कूल के अवयवों में 'रोधःसंयोगेन' दोनों किनारे के साथ जल का संयोग उसके द्रवत्व को प्रतिरुद्ध कर देता है। 'अवयवद्रवत्वमप्येकार्थसमवेतं तेनैव प्रतिबद्धम्' जिस अवयव का किनारे के साथ साक्षात् संयोग है, उस अवयव में रहनेवाला द्रवस्व भी अवयव और किनारे के संयोग से ही प्रतिरुद्ध हो जाता है । 'उत्तरोत्तराणि स्ववयवद्रवत्वानि संयुक्तसंयोगैः प्रतिबद्धानि' अर्थात् किनारे से संयुक्त अवयव के साथ संयोग के कारण ही अन्य अवयवों का द्रवत्व भी प्रतिरुद्ध होता है। उस अन्य अवयव के संयोग से तीसरे अवयव का द्रवत्व प्रतिरुद्ध होता है। इसी रीति से अन्य अवयवों के द्रवत्व भी प्रतिरुद्ध होते हैं। 'यदा मात्रया सेतुभेद: कृतो भवति तदा समन्तात् प्रतिबद्धस्यावविद्वत्वस्य कार्यारम्भो नास्ति' क्योंकि बहुत बड़े बांध से घिरे हुए उस महत् परिमाणवाले अवयवी रूप जल का किसी एक ओर बनाये गये छोटे मार्ग से निकलना सम्भव नहीं है। किन्तु उस बाँध के समीप में जो थोड़े से जल के अवयव हैं, उनका उस छोटे से मार्ग से निकलना सम्भव है। इस प्रकार जल के कुछ अवयवों
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प्रकरणम
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् मेवाभिसर्पणम् । ततः पूर्वद्रव्यविनाशे सति प्रबन्धेनावस्थितैरवयवैर्दीधैं द्रव्यमारभ्यते। तत्र च कारणगुणपूर्वक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते । तत्र च कारणानां संयुक्तानां प्रबन्धेन गमने यदवयविनि कर्मोत्पद्यते तत् स्यन्दनाख्यमिति । हो जाने पर संयुक्त रूप से अवस्थित जलावयवों से ही बड़े द्रव्य की उत्पत्ति होती है। इस बड़े द्रव्य में कारणगुणक्रम से द्रवत्व की उत्पत्ति होती है। वहाँ पर किनारों के साथ सम्बद्ध अवयवों का संयुक्त रूप से गमन होने पर जो अवयवी में क्रिया उत्पन्न होती है, उसी का नाम 'स्यन्दन' है।
न्यायकन्दली त्ववयवद्रवत्वस्य वृत्तिलाभो भवति, अल्पस्यावयवस्य तेन मार्गेण निर्गति. सम्भवात् । तस्य वृत्तिलामे चोत्तरेषामवयवद्रवत्वानामपि प्रतिबन्धकाभावाद् वृत्तिलाभः स्वकार्यकर्तृत्वं स्यात् । ततः क्रमशः संयुक्तानामेवाभिसर्पणम् । सेतुसमीपस्थोऽवयवः प्रथममभिसर्पति, तदनु तत्समीपस्थस्ततस्तत्समीपस्थ इत्यनेन क्रमेण सर्वेऽवयवा अभिसर्पन्ति । ते चाभिसर्पन्तो न परस्परभिन्नदेशा अभिसर्पन्ति, कि तु तथाभिसर्पन्ति यथा. परस्परसंयुक्ता भवन्तीत्येतदवद्योतनार्थमुक्तं संयुक्तानामेवाभिसर्पणम् । न पुनरस्यायमर्थोऽप्रच्युतप्राच्यसंयोगानामेवाभिसर्पणमिति, संस्थानान्तरोपलम्भात् । ततः प्राक्तनसंयोगविनाशे पूर्वद्रव्यविनाशे प्रबन्धेनावस्थितैरवयवैः संयुक्तीभावेनावस्थितैरवयवैर्दोघं द्रव्यमारभ्यते । तत्र च कारणगुणपूर्वक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते । अवयवद्रवत्वेभ्यो दीर्घतरेऽके द्रवत्व से कार्य करना सम्भव होने पर उत्तरेषामवयवद्रवत्वानामपि प्रतिबन्धकाभावाद् वृत्तिलाभः, अर्थात् अपने अपने कार्य करने में वे समर्थ होंगे। 'तत: क्रमशः-संयुक्तानामेवाभिसर्पणम्' अर्थात् पहिले बांध के समीप का अवयव निकलता है। उसके बाद उस अवयव के साथ संयुक्त दूसरा अवयव निकलता है। उनके बाद उस दूसरे अवयव के साथ सम्बद्ध तीसरा अवयव निकलता है। इसी क्रम से जल के सभी अवयव निकल जाते हैं। जल के वे अवयव ऐसे नहीं निकलते कि एक दूसरे से बिलकुल अलग होकर भिन्न देशों में चले जाँये, किन्तु इस प्रकार निकलते हैं कि जिससे परसर संयुक्त होकर ही निकलें। इसी वस्तुस्थिति को सूचित करने के लिए 'संयुक्तानामेवाभिसर्पणम्' यह वाक्य लिखा गया है । उक्त वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि पहिले के अविनष्ट संयोग से युक्त अवयवों का ही निःसरण होता है क्योंकि निःसरण के बाद दूसरे प्रकार के अवयवसंयोगों से युक्त अवयवियों की उपलब्धि होती है। 'ततः' अर्थात् पहिले के संयोग के विनष्ट हो जाने पर 'पूर्वद्रव्यविनाशे प्रबन्धेनावस्थितैरवयवैः' अर्थात् परस्पर संयुक्त होकर अवस्थित अवयवों से 'दीर्घ द्रव्यमारभ्यते, तत्र च कारणगुणपूर्वक्रमेण द्रवत्वमुत्पद्यते' अर्थात् अवयवों में रहनेवाले द्रवत्वों से बड़े अवयवी
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम्
चक्रादिव्ववयवानां
संस्कारात् कर्म इष्वादिपूक्तम् । तथा पार्श्वतः प्रतिनियत दिग्देश संयोगविभागोत्पत्तौ यदवयविनः संस्कातीर प्रभृति में संस्कार के द्वारा कर्म की उत्पत्ति कह चुक हैं । उसी प्रकार चक्र (मिट्टी के बर्त्तन बनाने की चक्की) प्रभृति में उनके
न्यायकन्दली
वयविनि द्रवत्वमुत्पद्यते । तत्र च कारणानां संयुक्तानां प्रबन्धेन गमने यदवयविनि कर्मोत्पद्यते द्रवत्वात् तत् स्यन्दनम् । तत्र तस्थिन् द्रवत्वे उत्पन्ने सति वारणानामवयवानां प्रबन्धन गमने पङ्क्तीभावेनाभिन्नदेशतया गमने यदवयविनि द्रवत्वात् कर्मोत्पद्यते तत् स्यन्दनाख्यम् ।
संस्कारात् कर्मेष्वादिषूक्तम् तथा चक्रादिषु । तथाशब्दो यथाशब्दमपेक्षते, यत्तदोनित्यसम्बन्धात् । यथा इष्वादिषु संस्कारात् कर्म कथितम्, तथा चक्रादिष्वपि भवतीत्यर्थः । एतदेव दर्शयति- अवयवानां पार्श्वतः प्रतिनियतदिग्देश संयोगविभागोत्पत्तौ यदवयविनः संस्कारादनियतदिग्देशसंयोगविभागनिमित्तं कर्म तद् भ्रमणम् । पाश्र्वतः प्रतिनियता ये दिग्देशास्तेः सहावयवानां संयोगविभागयोरुत्पत्तौ सत्यां यदवयविनः संस्कारादनियतदिग्देशैः सर्वतो दिक्कविभागसंयोगनिमित्तं कर्म जायते तद् भ्रमणम् । प्रथमं चक्रावयविनि दण्डसंयोगात् कर्मोत्पद्यते 1 उत्तरोत्तराणि कर्माणि
द्रव्य में द्रवत्व की उत्पत्ति होती है । 'तत्र च कारणानां प्रबन्धेन गमने यदवयविनि कर्मोपद्यते द्रवत्वात् तत् स्यन्दनम्' वहाँ बड़े द्रव्य में द्रवत्व के उत्पन्न होने पर 'कारणों का' अर्थात् उसके अवयवों का 'प्रबन्ध से' अर्थात् पङ्क्तिबद्ध होकर एक देश में गमन होने पर द्रवत्व से अवयवी में जो कर्म उत्पन्न होता है, उसी कर्म का नाम 'स्यन्दन' है ।
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'संस्कारात् कर्मेष्वादिषूक्तम्, तथा चक्रादिषु' । ' तथा ' शब्द 'यथा' शब्द की अपेक्षा रखता है, क्योंकि 'यत्' शब्द और 'तत्' शब्द परस्पर नित्यसाकाङ्क्ष हैं । तदनुसार उक्त भाग्यग्रन्थ का यह आशय है कि जिस प्रकार तीर प्रभृति में वेगाख्यसंस्कार के द्वारा कर्म की उत्पत्ति कही गयी है, उसी प्रकार चत्रादि में भी ( वेग से ही संस्कार की उत्पत्ति ) होती है । 'अवयवानां पाश्वतः प्रतिनियत दिग्देशसंयोगविभागनिमित्तं कर्म तद् भ्रमणम्' इस भाष्यसन्दर्भ के द्वारा इसी अर्थ का प्रतिपादन किया गया है । ( इस सन्दर्भ का अक्षरार्थ यह है कि ) अवयवी के चारों ओर नियत जो दिग्देश हैं, उन देशों के साथ उनके अवयवों के संयोग और विभाग उत्पन्न होते हैं, उनके उत्पन्न होने पर अवयवी में रहने वाले वेगाख्य संस्कार से अनियमित दिग्देशों के साथ अर्थात् सभी दिशाओं के साथ संयोग और विभाग की उत्पत्ति होती है. इस संयोग या विभाग से जिस कर्म की उत्पत्ति
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७३३
प्रशस्तपादभाष्यम् रादनियतदिग्देशसंयोगविभागनिमित्तं कर्म तद् भ्रमणमिति । एवमादयो गमनविशेषाः।
प्राणाख्ये तु वायौ कम आत्मवायुसंयोगादिच्छाद्वेषपूर्वकप्रयत्नापेक्षाजाग्रत इच्छानुविधानदर्शनात् , सुप्तस्य तु जीवनपूर्वकप्रयत्नापेक्षात् । अवयवों का अनियत दिशाओं के साथ संयोग और विभागों के जनक क्रियाओं की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार की क्रियाओं को 'भ्रमण' कहते हैं। ये सभी (स्यन्दन, भ्रमणादि) कर्म विशेष प्रकार के गमन रूप ही हैं।
__ जागते हुए व्यक्ति के प्राण नाम के वायु में आत्मा और वायु के संयोग से क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें ( उक्त संयोग को ) इच्छा या द्वेष से उत्पन्न होनेवाले प्रयत्न के साहाय्य की भी आवश्यकता होती है, क्योंकि जगे हुए व्यक्ति की सभी क्रियाओं में इच्छा ( या द्वेष ) का अन्वय और व्यतिरेक देखा जाता है । सोये हुए व्यक्ति के प्राणवायु की क्रिया ( यद्यपि आत्मा और वायु के संयोग से ही होती है, किन्तु उसे ) जीवनयोनियत्न का ही साहाय्य अपेक्षित होता है ( इच्छा पूर्वक या द्वेष पूर्वक प्रयत्न का नहीं)।
न्यायकन्दली नोदनादभिघातात् कर्मजात् संस्काराच्च भवन्ति । एवं वेगाद् दण्डसंयुक्ते चक्रावयवे आद्यं कर्म दण्डसंयोगात्, अवयवान्तरेषु च संयुक्तसंयोगात्, दण्डसंयुक्तस्यावयवस्योत्तरोत्तरकर्माणि संस्कारान्नोदनाच्च । अपरेषां संस्कारात्, संयुक्तसंयोगाच्च । दण्डविगमे तु चक्रे तदवयवेषु च संस्कारादेव केवलात् । उपसंहरति-एवमादयो गमनविशेषा इति ।
होती है वही 'भ्रमण' हैं । पहिले चक्र रूप अवयवी में दण्ड के संयोग से क्रिया की उत्पत्ति होती है । आगे आगे की क्रियायें कर्मजनित अभिघात या नोदन से और संस्कार से उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार वेग के कारण दण्ड से संयुक्त चक्र के अवयवों में पहिली क्रिया की उत्पत्ति दण्ड के संयोग से होती है। अन्य अवयवों में पहिलो क्रिया संयुक्तसंयोग से होती है। दण्ड के साथ संयुक्त चक्र के अवयव को आगे आगे की क्रियायें संस्कार
और नोदन से होती हैं । इससे भिन्न अवयवों को पहिली क्रिया संस्कार से और संयुक्तसंयोग से होती है। दण्ड के हटा लेने पर चक्र में और उसके अवयवों में जो क्रियायें होती रहती हैं, उनका कारण केवल संस्कार ही है। 'एवमादयो गमनविशेषाः' इस सन्दर्भ से गमन रूप क्रिया के प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
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७३४
न्यायकन्दलीसंवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
[ कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् आकाशकालदिगात्मनां सत्यपि द्रव्यभावे निष्क्रियत्वं सामान्यादिवदमूर्तत्वात् । मूर्तिरसर्वगतद्रव्यपरिमाणम् , तदनुविधायिनी
आकाश, काल, दिशा और आत्मा ये सभी द्रव्य होने पर भी क्रिया से रहित हैं, क्योंकि ये सभी सामान्यादि पदार्थों की तरह अमूर्त हैं। सभी द्रव्यों के साथ असंयुक्त ( कुछ ही द्रव्यों के साथ संयुक्त ) द्रव्य के
न्यायकन्दली प्राणाख्ये वायौ कर्म आत्मवायुसयोगादिच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्नापेक्षाद् भव. तीति । कथमिदं जातमत आह—इच्छानुविधानदर्शनात् । रेचकपूरकादिप्रयोगेष्विच्छानुविधायिनी प्राणकियोपलभ्यते । नासारन्ध्रप्रविष्टे रजसि तन्निरासाथ प्राणक्रिया द्वेषादपि भवति, अतः प्रयत्नपूर्विकेत्यवगम्यते। सुप्तस्य जीवनपूर्वकप्रयत्नापेक्षादात्मवायुसंयोगात् । सुप्तस्य प्राणक्रिया प्रयत्नकार्या प्राणक्रियात्वात् जाग्रतः प्राणक्रियावत् । स चेच्छाद्वेषपूर्वको न भवति, सुप्तस्येच्छाद्वेषयोरभावात् । तस्माज्जीवनपूर्वक एव निश्चीयते, प्राणधारणस्य तत्पूर्वकत्वात् ।।
चतुर्ष महाभूतेष्विवाकाशादिषु कस्मात् क्रियोत्पत्तिर्न चिन्तितेत्याहआकाशकालदिगात्मनामिति । क्रियावत्त्वं मूर्तत्वेन व्याप्तं मूर्तत्वं चाकाशादिषु
'प्राणाख्ये वायो कर्म आत्मवायुसंयोगादिच्छाद्वेषपूर्वकप्रयत्नापेक्षाद् भवतीति' प्राणवायु में उक्त प्रकार से क्रिया की उत्पत्ति कैसे होती है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'इच्छानुविधानदर्शनात' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् रेचक, पूरक प्रभृति प्राणायाम में प्राणवायु की क्रियायें इच्छा के अनुरूप देखी जाती हैं। इसी प्रकार नाक के छिद्र में जब धूल चली जाती है, तो उसे निकालने के लिए द्वष से भी प्राणवायु में क्रिया देखी जाती है। अतः यह समझते हैं कि प्राणवायु की क्रिया का प्रयत्न कारण है। सुप्तपुरुष के प्राणवायु की क्रिया आत्मा और वायु के संयोग से उत्पन्न होती है, जिसमें उस संयोग को जीवनयोनियत्न का साहाय्य भी अपेक्षित होता है। इस प्रसङ्ग में यह अनुमान भी है कि जिस प्रकार जाग्रत् पुरुष के प्राणवायु की क्रिया केवल प्राण की क्रिया होने के कारण ही प्रयत्न से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार सुषुप्त पुरुष के प्राणवायु की क्रिया भी प्रयत्न से उत्पन्न होती है, क्यों के वह भी प्राण की ही क्रिया है । सुषुप्त पुरुष के प्राणवायु में क्रिया का उत्पादक-प्रयत्न, इच्छा और द्वेष से उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि सुषुप्त पुरुष में इच्छा और द्वेष का रहना सम्भव नहीं है। अतः सुषुप्त पुरुष के प्राणवायु में क्रिया का उत्पादक जीवनपूर्वक प्रयत्न ही है। क्योंकि प्राण का धारण उसी प्रयत्न से होता है।
'आकाशकालदिगात्मनाम्' इत्यादि सन्दर्भ से इस प्रश्न का उत्तर दिया गया हैं कि जिस प्रकार पृथिवी प्रभृति चार द्रव्यों में क्रिया की उत्पत्ति का विचार किया है, उसी
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भाषावादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
च क्रिया, सा चाकाशादिषु नास्ति । तस्मान्न तेषां क्रियासम्बन्धोऽस्तीति । सविग्रहे मनसीन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थं जाग्रतः कर्म आत्ममन:संयोगादिच्छा द्वेषपूर्वक प्रयत्नापेक्षात्, अन्वभिप्रायमिन्द्रियान्तरेण विषयापरिमाण को 'मूर्ति' कहते हैं । यह मूर्त्ति' जहाँ रहती है, क्रिया वहीं होती है | यह ( मूर्ति ) आकाशादि द्रव्यों में नहीं है, अतः उनमें क्रिया का सम्बन्ध भी नहीं है ।
शरीर के सम्बन्ध से युक्त आत्मा और मन के संयोग से या द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न के साहाय्य
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७३५
जागते हुए व्यक्ति के मन की क्रिया उत्पन्न होती है, जिसमें उसे इच्छा की भी आवश्यकता होती है, क्योंकि
न्यायकन्दली
नास्ति, अत: क्रियावत्त्वमपि न विद्यत इत्यर्थः । एतदेव विवृणोतिमूर्त्तिरित्यादिना । तद् व्यक्तम् ।
मनसि कर्मकारणमाह- सविग्रह इति । जाग्रतः पुरुषस्य सविग्रहे मनसि सशरीरे मनसीन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थं कर्म आत्ममनः संयोगादिच्छाद्वेषपूर्वकप्रयत्नापेक्षाद् भवति । इच्छाद्वेषपूर्वकः प्रयत्नो जाग्रतो मनसि क्रियाहेतुरिति । कथमेतदवगतं तत्राह - अन्वभिप्रायमिन्द्रियान्तरेण विषयोपलब्धिदर्शनात् । जागरावस्थायामभिप्रायानतिक्रमेणेन्द्रियान्तरेण चक्षुरादिना विषयोपलब्धिदृश्यते । यदा रूपं जिघृक्षते पुरुषस्तदा रूपं पश्यति यदा रसं जिघृक्षते तदा रसं रसयति । न चान्तःकरणसम्बन्धमन्तरेण बाह्येन्द्रियस्य विषयग्राहकत्व
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प्रकार आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन चार महान् द्रव्यों में भी क्रिया की उत्पत्ति का विचार क्यों नहीं किया गया ? इस प्रश्न के उत्तरग्रन्थ का अभिप्राय है कि यह व्याप्ति है कि क्रिया मूर्त्त द्रव्यों में ही रहे. आकाशादि कथित चारों द्रव्य मूर्त्त नहीं हैं, अतः उनमें क्रिया भी नहीं है । 'मूत्तिः ' इत्यादि सन्दर्भ से इसी का विवरण दिया गया है । इस भाष्य ग्रन्थ का अर्थ स्पष्ट है ।
'विग्रहे' इत्यादि सन्दर्भ से मन में जो कर्म उत्पन्न होता है, उसका कारण दिखलाया गया है । जागते हुए पुरुष के 'सविग्रहे मनसि' अर्थात् शरीर सम्बन्ध से युक्त मन में इन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थ कर्म, आत्ममनः संयोगादिच्छाद्वेषपूर्वक प्रयत्नापेक्षात्' अर्थात् इच्छा या द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न ही जागते हुए पुरुष के मन में क्रिया का कारण है । यह कैसे समझा ? इसी प्रश्न का उत्तर 'अन्वभिप्रायमिन्द्रियान्तरेण विषयोपलब्धिदर्शनात्' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् जाग्रत अवस्था में इच्छा के अनुसार ही 'इन्द्रियान्तरेण अर्थात् चक्षुरादि इन्द्रियों से विषयों की उपलब्धि देखी
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७३६
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
न्तरोपलब्धिदर्शनात । सुप्तस्य प्रबोधकाले जीवन पूर्वकप्रयत्नापेक्षात । अपसर्पणकर्मोपसर्पणकर्म चात्ममनः संयोगादष्टापेक्षा ।
कथम् ?
यदा
जीवन सहकारिणोर्धर्माधर्मयो रुपभोगात प्रक्षयोऽन्योन्याभिभवो इच्छा के बाद ही इन्द्रियों से विषयों की उपलब्धि होती है । ( किन्तु ) सोते हुए व्यक्ति के जागने के समय ( उसके मन की क्रिया यद्यपि ) आत्मा और मन के संयोग से ही उत्पन्न होती है, किन्तु उसमें जीवनयोनियन का साहाय्य भी अपेक्षित होता है ( इच्छाद्वेष या जनित प्रयत्न का नहीं ) ।
मन की 'उपसर्पण' और 'अपसर्पण' नाम की दोनों क्रियायें आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होती हैं । जिसमें अदृष्ट का साहाय्य भी अपेक्षित होता है । ( प्र० ) किस प्रकार ? ( उ० ) जिस समय भोग से जीवन के सहकारी धर्म और अधर्म का विनाश हो जाता है, अथवा परस्पर एक दूसरे से ही दोनों की कार्योत्पादन शक्ति अवरुद्ध हो जाती है, उस समय जीवन के दोनों सहायकों के अभाव के कारण उनसे उत्पन्न होनेवाले प्रयत्न का भी विनाश हो जाता है । प्रयत्न के इस अभाव से ही प्राण का नाश होता है । इसके बाद अपने कार्य के उत्पादन में उन्मुख दूसरे धर्म और अधर्म से उस अपसर्पण नाम की क्रिया की उत्पत्ति होती है। जिससे ( ऐहिक
न्यायकन्दली
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[ कर्मनिरूपण
मस्ति । तस्मादिच्छाद्वेषपूर्व कात् प्रयत्नान्मनसि क्रिया भूतेति गम्यते । सुप्तस्येति । सुप्तस्य पुरुषस्येन्द्रियान्तरसम्बन्धार्थं प्रबोधकाले मनसि क्रिया जीवनपूर्वक प्रयत्नापेक्षादात्ममनसोः संयोगात् ।
अपसर्पणेति । एतदपि कथमित्यादिना प्रश्नपूर्वकं कथयति । विशिष्टात्ममनः संयोगो जीवनम् तस्य स्वकार्यकरणे धर्माधर्मो सहकारिणौ । यदा
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जाती है । पुरुष जिस समय रूप को देखना चाहता है, उस समय रूप को ही देखता है । एवं जिस समय रस का अस्वादन करना चाहता है, उस समय रस का ही आस्वादन करता है । अन्तःकरण ( मन ) के सम्बन्ध के बिना वाह्य इन्द्रियों में विषयों को ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं है । अतः समझते हैं कि इच्छा या द्वेष से उत्पन्न प्रयत्न से ही मन में त्रिया उत्पन्न होती है । 'सुप्तस्येति' अर्थात् सोते हुए पुरुष के मन में दूसरी इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध के लिए जागते समय जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह आत्मा और मन के संयोग से होती है, जिसे जीवनयोनियत्न के साहाय्य की भी अपेक्षा रहती है । 'अपसर्पणेति' मन में यह अपसर्पणादि क्रियायें किस प्रकार होती हैं ? यह प्रश्न कर उसका उत्तर देते हैं । आत्मा और मन का एक विशेष प्रकार
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् वा तदा जीवनसहाययोर्वैकल्यात् तत्पूर्वक प्रयत्नवैकल्यात् प्राणनिरोधे सत्यन्याभ्यां लब्धवृत्तिभ्यां धर्माधर्माभ्यामात्ममनःसंयोगसहायाभ्यां मृतशरीराद् विभागकारणमपसर्पणकर्मोत्पद्यते । मृत ) शरीर से मन का विभाग उत्पन्न होता है। इस विभाग के उत्पादन में उन्हें आत्मा और मन के संयाग के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है। इस विभाग से ही मन में 'अपसर्पण' नाम की क्रिया उत्पन्न होती है। उस
न्यायकन्दली तयोरुपभोगात् प्रक्षया विनाशोऽन्योन्याभिभवो वा परस्परप्रतिबन्धात् स्वकार्याकरणं वा, ततो जीवनसहाययोः धर्माधर्मयोर्वैकल्येऽभावे सति तत्पूर्वकप्रयत्नवैकल्याद् जीवनपूर्वकस्य प्रयत्नस्य वैकल्यादभावात् प्राणवायोनिरोधे सति पतितेऽस्मिन् शरीरे याभ्यां धर्माधर्माभ्यां देहान्तरे फलं भोजयितव्यं तो लब्धवृत्तिको भूतावैहिकशरीरोपभोग्यधर्माधर्मप्रतिबद्धत्वाद् देहान्तरभोग्याभ्यां धर्माधर्माभ्यां कार्य न कृतम् । यदा त्वैहिकशरीरोपभोग्यौ धर्माधमौ प्रक्षीणौ तदा देहान्तरोपभोग्यधर्माधर्मयोवृत्तिलाभः प्रतिबन्धाभावाज्जातः । ताभ्यां लब्धवृत्तिभ्यामैहिकदेहोपभोग्यात् कर्मणोऽन्याभ्यामात्ममन:संयोगसहायाभ्यां मृत शरीरान्मनसो विभागकारणमपसर्पणकर्मोत्पद्यते। का संयोग ही 'जीवन' है। इस जीवन से जो कार्य उत्पन्न होंगे, धर्म और अधर्म उनके सहकारिकारण हैं। जिस समय उपभोग से उनका 'प्रक्षय' अर्थात् विनाश हो जाएगा या 'अन्योन्याभिभव' अर्थात् परस्पर एक दूसरे के प्रतिरोध के कारण दोनों अपने काम में अक्षय हो जाते हैं, उस समय जीवन ( उक्त आत्ममनःसंयोग) के सहायक धर्म और अधर्म के 'वैकल्य' से अर्थात् अभाव के कारण 'तत्पूर्वकप्रयत्नवैकल्यात्' अर्थात् जीवन से उत्पन्न होने वाले प्रयत्न के अभाव से प्राणवायु का निरोध हो जाता है। जिससे इस शरीर का पतन हो जाता है। इस शरीर के पतन के बाद जिन धर्मों और अधर्मों से दूसरे शरीर के द्वारा उपभोग करना है, उन धर्मों और अधर्मों में कार्य करने की क्षमता आ जाती है। वर्तमान शरीर के द्वारा उपभोग के कारणीभूत धर्म और अधर्म से प्रतिरुद्ध होने के कारण हो वे धर्म और अधर्म अपने उन उपभोग रूप कार्यों से विरत रहते हैं, जिनका सम्पादन दूसरे शरीर से होना है। जिस समय ऐहिक शरीर के धर्म और अधर्म नष्ट हो जाते हैं. या असमर्थ हो जाते हैं, उस समय दूसरे शरीर के द्वारा उपभुक्त होनेवाले धर्म और अधर्म अपना कार्य प्रारम्भ कर देते हैं, क्योंकि उनका कोई प्रतिबन्धक नहीं रह जाता । ऐहिक शरीर से उपभोग्य इन धर्म और अधर्म से भिन्न, एवं जीवन रूप आत्ममन:संयोग के सहायक अथ प कार्यक्षम इन दूसरे धर्म और अधर्म से मन में अपसर्पण क्रिया उत्पन्न होती है, जिससे मृत शरीर से मन का विभाग उत्पन्न होता है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ कर्मनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् ततः शरीराद् बहिरपगतं ताभ्यामेव धर्माधर्माभ्यां समुत्पन्नेनातिवाहिकशरीरेण सम्बध्यते, तत्संक्रान्तं च स्वर्ग नरकं वा गत्वा आशयानुरूपेण शरीरेण सम्बद्धयते, तत्संयोगार्थ कर्मोपसर्पणमिति । शरीर से निकला हआ मन उन्ही धर्मों और अबों से उत्पन्न आतिवाहिक शरीर के साथ सम्बद्ध होता है । उस शरीर के साथ सम्बद्ध होकर ही मन स्वर्ग या नरक को जाता है और वहाँ जाकर स्वर्ग या नरक के भोगजनक धर्म और अधर्म के अनुरूप दूसरे शरीर के नाथ सम्बद्ध
न्यायकन्दली
अपसर्पणकर्मोत्पत्तावात्ममनःसंयोगोऽसमवायिकारणम. मनः समवायिकारणम्, लब्धवृत्ती धर्माधमौ निमित्तकारणम् । ततस्तदनन्तरं तन्मनो मृतशरीराद् बहिनिर्गतं ताभ्यामेव लब्धवृत्तिभ्यां धर्भाधर्माभ्यां सकाशादुत्पन्नेनातिवाहिकशरीरेण सम्बद्धयते । तत्संकान्तं तदातिवाहिकशरीरसंक्रान्तं मनः स्वर्ग नरकं वा गच्छति । तत्र गत्वा आशयानुरूपेण कर्मानुरूपेण शरीरेण सम्बद्धयते । स्वर्गे नरके वा यदुपजातं शरीरं तत्र तावन्मनःसम्बन्धेन भवितव्यम्, अन्यथा तस्मिन् देशे भोगासम्भवात् । न चात्मवदगत्वैव जनसो देहान्तरसम्बन्धोऽस्ति, अव्यापकत्वात् । गमनं च तस्यैतावद् दूरं केवलस्य न सम्भवति, महाप्रलया. नन्तरावस्थाव्यतिरेकेणारीरस्य मनसः कर्माभावात् । तस्मान्मृतशरीरप्रत्यासन्नमदृष्टवशादुपजातक्रियेरणुभिर्द्वघणुकादिप्रक्कमेणारब्धमतिसूक्ष्ममनुपलब्धियोग्यं
आत्मा और मन का संयोग मन की इस . अपसपण किया का असमवायिकारण है, एवं मन समवायिका रण है और कार्यक्षम धर्म और अधर्म उसके निमित्तकारण हैं। 'तत.' अर्थात् इसके बाद पृत शरीर से निकला हुआ वही मन अपने कार्य के उत्पादन में पूर्णक्षम उन्हीं धर्म और अधर्म से उत्पन्न आतिवाहिक शरीर के स य सम्बद्ध होता है । तत्सकान्तम्' अर्थात् आतिवाहिक शरीर के साथ सम्बद्ध मन स्वर्ग या नरक में चल! जाता है । वहाँ जाकर आशय के अनुरूप अर्थात् अपने कर्मों के अनुसार फल भोग के अनुरूप शरीर के साथ सम्बद्ध हो जाता है । शरीर की उत्पत्ति स्वर्ग में हो या नरक में । उस में मन का सम्बन्ध रहना आवश्यक है, उसके बिना स्वर्गादि देशों में भी भोग नहीं हो सकता । जिस .. कार विभु होने के कारण आत्मा स्वर्गादि देशों में न जाकर भी उन देशों में उत्पन्न शरीरों के साथ सम्बद्ध हो जाता है, उसी प्रकार से मन को बिना वहाँ गये उन दूसरे शरीरों के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि मन विभु नहीं है। इतनी दूर ( शरीर से असम्बद्ध ) केवल मन का जाना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि महाप्रलय को
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७३६
प्रशस्तपादभाष्यम् योगिनां च बहिरुद्रे चितस्य मनसोऽभिप्रेतदेशगमनं प्रत्यागमनं च, तथा सर्गकाले प्रत्यग्रेण शरीरेण सम्बन्धार्थ कर्मादष्टकारितम् । एवमन्यदपि महाभूतेषु यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यामनुपलभ्यमानकारणहोता है। इस शरीर के साथ मन के संयोग को उत्पन्न करनेवाली मन की क्रिया का नाम 'अपसर्पण' क्रिया है।
एवं बाहर ( विषय ग्रहण के लिए ) निकला हुआ योगियों का मन जो उनके अभिप्रेत देश में ही जाता है और वहीं से लौट आता है, मन की वह क्रिया अदृष्ट से उत्पन्न होती है। इसी प्रकार सृष्टि के आदि में शरीर के साथ मन का संयोग जिस क्रिया से होता है, उसका कारण
न्यायकन्दली शरीरं परिकल्प्यते । तच्च मृतशरीरमतिक्रम्य मनसः स्वर्गनरकादिदेशातिवाहनधर्मकत्वादातिवाहिकमित्युच्यते । मरणजन्मनोरन्तराले मनसः कर्म शरीरोपगृहीतस्येवोपपद्यते, महाप्रलयानन्तरावस्थाभाविमनःकर्मव्यतिरिक्तत्वे सति मनःकर्मत्वाद् दृश्यमानशरीरवृत्तिमन.कर्मवत् । आगमश्चात्र संवादको दृश्यत इति । तत्संयोगार्थं च कर्मोपसर्पणमिति । तेन स्वर्गे नरके वा प्रत्यग्रजातेन शरीरेण मनःसयोगार्थ कर्मोपसर्पणमिति । छोड़कर और किसी भी समय शरीर से अम्बिद्ध मन में क्रिया की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः स्थूल मृत शरीर के ही समीप में एक अति सूक्ष्म, उपलब्धि के सर्वथा अयोग्य, आतिवाहिक शरीर की कल्पना करते हैं, जिसकी उत्पत्ति सक्रिय परमाणुओं के द्वारा द्वयणुकादि क्रम से होती है। उन परमाणुओं में क्रिया की उत्पत्ति अदृष्ट से होती है। उस सूक्ष्म शरीर का अति वाहिक शरीर' यह अन्वर्थ नाम इसलिए है कि मन को इस मृतशरीर से छुड़ाकर स्वर्गादि देशों तक अतिवहन' कर ले जाता है। इस वस्तुस्थिति के उपयुक्त यह अनुमान है कि शरीर से सम्बद्ध मन में ही वर्तमान में क्रिया देखी जाती है ( महाप्रलय रूप एक ही ऐसा समय है, जिस समः शरीर से असम्बद्ध मन में क्रिया रहती है ), अतः अनुमान करते हैं कि मृत्यु के बाद और पुनः जन्म लेने से पहिले इस बीच मन में जो क्रिया उत्पन्न होती है, उस समय भी मन का किसी शरीर के साथ सम्बन्ध अवश्य रहता है, क्योंकि मन की यह क्रिया भी महाप्रलयकालिक क्रिया से भिन्न मन की ही क्रिया है। इस सिद्धान्त को शास्त्ररूप शब्द प्रमाण का समर्थ। भो पास है। तत्संयोगार्थञ्च कर्मोपसर्पणमिति' सद्यः उत्पन्न उस स्वर्गीय या नारकीय शरीर के साथ सम्बन्ध के लिए ही मन में 'उपसर्पण' नाम की क्रिया उत्पन्न होती है।
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७४०
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म्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
1:0:1
मुपकारापकारसमर्थं च भवति तदप्यदृष्टकारितम्, यथा सर्गादावणुकर्म, अग्निवाय्वोरूर्ध्व तिर्यग्गमने, महाभूतानां प्रक्षोभणम् । अभिषिक्तानां मणीनां तस्करं प्रति गमनम्, अयसोऽयस्कान्ताभिसर्पणं चेति । इति प्रशस्तपादभाष्ये कर्मपदार्थः समाप्तः ॥
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1:0:1
न्यायकन्दली
[ कर्मनिरूपण
भी अदृष्ट ही है । इसी प्रकार जीवों के उपकार या अपकार करनेवाली महाभूतों की जिन कियाओं के कारणों का बोध प्रत्यक्ष या अनुमान से नहीं होता है, वे सभी क्रियायें अदृष्ट से ही उत्पन्न होती हैं । जैसे कि सृष्टि के आदि में परमाणुओं की क्रियायें एवं अग्नि और वायु की ऊर्ध्वगति रूप क्रियायें, भूगोलकों की चलन क्रियायें एवं अभिमन्त्रित मणि जो चोर की ओर जाती है, या सामान्य लोह चुम्बकी ओर जो जाता है, ये सभी क्रियायें भी अदृष्ट से ही उत्पन्न होती हैं ।
प्रशस्तपादभाष्य में कर्मपदार्थ का निरूपण समाप्त हुआ ।
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योगिनां च बहिरुद्रेचितस्य बहिर्निःसारितस्य मनसोऽभिप्रेतदेशगमनं प्रत्यागमनं च । तथा सर्गकाले प्रत्यग्रेण शरीरेण सम्बन्धार्थं मनःकर्मादृष्टकारितम् । न केवलमेतावत् सर्वमन्यदपि महाभूतेषु यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यामनुपलभ्यमानकारणमुपकारापकारसमर्थं तदप्यदृष्टकारितम्, सर्गादावणुकर्म, अग्निवाय्वोर्यथासंख्यमुध्वं तिर्यग्गमने, महाभूतानां भूगोलकादीनां
यथा
'योगिनां च बहिरुद्रेचितस्य' अर्थात् योगी लोग जब अपने मन को पुनः अपने शरीर में लौट आने के लिए अभिप्रेत देश में जाने के लिए भेजते हैं ( उस समय ) उनके मन की क्रियायें अदृष्ट से उत्पन्न होती हैं । मन की केवल वे ही क्रियायें नहीं, 'अन्यदपि महाभूतेषु यत्प्रत्यक्षानुमानाभ्यामनुपलभ्यमानकारणमुपकारापकारसमर्थं तदप्यदृष्टकारितम्' ( अर्थात् पृथिव्यादि महाभूतों की ही ) अन्य उन क्रियाओं की उत्पत्ति भी अदृष्ट से हो माननी पड़ेगी, जिनके कारणों की उपलब्धि प्रत्यक्ष या अनुमान के द्वारा नहीं होती है. एवं जिनसे जिस किसी का कुछ उपकार या अपकार होता है । 'यथा सर्गादावणुकर्म, अग्निवाय्वोर्यथासंख्य मूर्ध्वतिय्र्यग्गमने' जैसे सृष्टि के प्रथम क्षण की परमाणु की क्रिया एवं अग्नि की ऊपर की ओर जलने की क्रिया अथवा वायु की टेढ़े-मेढ़े चलने की क्रिया ( अदृष्ट से 'महाभूतानाम्' अर्थात् भूगोल प्रभृति का 'प्रक्षोभण' अर्थात् चलन, समय 'अभिषिक्तानां मणीनां तस्करं प्रति गमनम् अर्थात् उपयुक्त
उत्पन्न होती हैं ) । चोरों की परीक्षा के मन्त्र से अभिषिक्त
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भाषानुवादसहितम् अथ सामान्यपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यं द्विविधम-परमपरं च । स्वविषयसर्वगत
'पर' और अपर' भेद से सामान्य दो प्रकार का है। वह अपने विषयों (आश्रयों) में रहता है। वह अभिन्नस्वभाव का है। एक, दो या बहुत सी वस्तुओं में एक आकार की बुद्धि का कारण है अपने एक
न्यायकन्दली च प्रक्षोभणं चलनम्, परीक्षाकालेऽभिषिक्तानां मणोनां तस्करं प्रति गमनम्, अयसोऽयस्कान्ताभिसर्पणं च सर्वमेतददृष्टकारितमिति ।
हिताहितफलोपायप्राप्तित्यागनिबन्धनम् ।
कर्मेति परमं तत्त्वं यत्नतः क्रियतां हृदि । इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां कर्मपदार्थः समाप्तः।
मणियों का चोर की ओर जाना, एवं 'अयसोऽयस्कान्ताभिसर्पणम्' अर्थात् साधारण लोह का चुम्बक की ओर जाना ये भी सभी क्रियायें अदृष्ट से होती हैं।। - सुख और उसके उपाय की प्राप्ति, एवं दुःख और उसके उपाय का परिहार, ये दोनों ही क्रिया से होते हैं, अतः इस क्रियातत्त्व को यत्न से हृदय में धारण करना चाहिए। भट्ट श्री श्रीधर की रची हुई पदार्थों को समझानेवाली न्यायकन्दली टीका का
- कर्मनिरूपण समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली जयन्ति जगदुत्पत्तिस्थितिसंहृतिहेतवः।
विश्वस्य परमात्मानो ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः॥ सामान्यं व्याचष्टे-द्विविधं सामान्यं परमपरं चेति । कृतव्याख्यानमेतदुद्देशावसरे । सर्वसर्वगतं सामान्यमिति केचित् । तनिषेधार्थमाहस्वविषयसर्वगतमिति । यत सामान्यं यत्र पिण्ड प्रतीयते स तस्य स्वो विषयः,
जगत् की उत्पत्ति के हेतु ब्रह्मा, एवं स्थिति के हेतु विष्णु और संहार के हेतु महेश्वर, विश्व के परमात्मस्वरूप इन तीनों की जय हो।
द्विविधं सामान्यं परमपरञ्च' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा सामान्य का निरूपण करते हैं। इस पङ्क्ति को व्याख्या पदार्थोद्देश प्रकरण में (पृ० २६ पं० ११) कर चुके हैं। किसी सम्प्रदाय का मत है कि सभी सामान्य सभी वस्तुओं में रहते हैं। इस मत के खण्डन के लिए ही 'स्वविषयसर्वगतम्' यह वाक्य लिखा गया है। जिस सामान्य की
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७४२
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[सामान्यनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् मभिन्नात्मकमनेकवृत्ति एकद्विबहुष्यात्मस्वरूपानुगमप्रत्ययकारि स्वरूपाभेदेनाधारेषु प्रबन्धेन वर्तमानमनुवृत्तिप्रत्ययकारणम् । कथम् ? प्रतिपिण्डं सामान्यापेक्षं प्रबन्धेन ज्ञानोत्पत्तावभ्यासप्रत्ययही स्वरूप से अपने सभी आश्रयों में बराबर ( बिना विराम के ) रहता हुआ 'अनुवृत्तिप्रत्यय' का, अर्थात् अपने आश्रय रूप विभिन्न व्यक्तियों में एक
न्यायकन्दली तत्र सर्वस्मिन् गतं समवेतम्, सर्वत्र तत्प्रत्ययात् । सर्वसर्वगतत्वाभावे त्वनुपलब्धिरेव प्रमाणम् । अभिन्नात्मकम्, अभिन्नस्वभावम् । येन स्वभावेनैकत्र पिण्डे वर्तते सामान्यं तेनेव स्वभावेन पिण्डान्तरेऽपि वतते, तत्प्रत्ययाविशेषादित्यर्थः । अनेकेषु पिण्डषु वृत्तिर्यस्य तदनेकवृत्ति । अभिन्नस्वभावमनेकत्र वर्तत इति च प्रतीतिसामर्थ्यात् समर्थनीयम् । नहि प्रमाणावगतेऽर्थे काचिदनुपपत्तिर्नाम। द्वित्वादिकमप्यभिन्नस्वभावमनेकत्र वर्तते, तस्मात् सामान्यस्य विशेषो न लभ्यते तत्राह-एकद्विवहुष्विति । सामान्यमेकस्मिन् पिण्डे द्वयोः पिण्डयोबहुषु वा पिण्डेष्वात्मस्वरूपानुगमप्रत्ययं करोति । एकस्य पिण्डस्य द्वयोर्बहूनां वोपलम्भे सति गौरिति प्रत्ययस्य भावात्, द्वित्वादिकं त्वेवं न प्रतीति जिस आश्रय में हो, वही उपका 'स्वविषय' है। वह सभी विषयों में 'गत' अर्थात् समवाय सम्बन्ध से रहता है. क्योंकि उन सभी विषयों में उस (सामान्य) की प्रतीति होती है। सामान्यं सर्वसर्वगत' (अर्थात् सभी मामान्य सभी सामान्य के विषयों में) क्यों नहीं है ? इस प्रश्न का यही उत्तर है कि सर्वत्र सभी सामान्यों की प्रतीति नहीं होती है। 'अभिनात्मकम्' शब्द का अर्थ है 'अभिन्न स्वभाव' अर्थात् जिस वरूप से वह अपने एक आश्रय में रहता है, उसी स्वरूप से वह अपने और आश्रयों में भी रहता है। क्योंकि एक आश्रय में सामान्य की प्रतीति में एवं दूसरे आश्रयों में उसी सामान्य की प्रतीति में कोई अन्तर उपलब्ध नहीं होता। 'अनेकवृत्ति' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है 'अनेकेषु वृत्तिर्यस्य' अर्थात् अनेक आश्रयों में जो रहे वही 'अनेकवृत्ति है। सामान्य 'अभिन्न भाव' का है, और अनेक आक्षयों में रहता है। इन दोनों बातों का समर्थन तदनुकूल प्रामाणिक प्रनीतियों से करना चाहिए। क्योंकि प्रमाण के द्वारा निर्णीत अर्थ में किसी प्रकार की अनुपपत्ति की शङ्का नहीं की जा सकती । द्वित्वादि (व्यासज्यवृत्ति गुण) भी अनेक वत्ति हैं, और अभिन्न स्वभाव के भी हैं, अतः द्वित्वादि में सामान्य लक्षण की अतिव्याप्ति का निवारण उन दोनों विशेषणों से नहीं हो सकता, अत: एकद्विबहुषु' इत्यादि वाक्य लिखा गया है। अर्थात् (द्वित्वादि से सामान्य में यही अन्तर है कि) 'सामान्य' अपने एक आश्रय में दो आश्रयों में, अथवा बहुत से आश्रयों में प्रतीत होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार एक ही गोपिण्ड में 'अयं गौः' इस प्रकार से 'सामान्य' की प्रतीति होती
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् संस्कारादतीतज्ञानप्रबन्धप्रत्यवेक्षणाद्
जनिताच्च तत् सामान्यमिति ।
तत्र
परस्पर विशिष्टेषु
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७४३
यदनुगतमस्ति
सत्तासामान्यं परमनुवृत्तिप्रत्ययकारणमेव । यथा
चर्मवस्त्र कम्बलादिष्वेकस्मान्नीलद्रव्याभिसम्बन्धान्नीलं
आकार की बुद्धि का कारण है । ( प्र० ) यह किस प्रकार समझते हैं ( कि अनेक वस्तुओं में एक ही सामान्य रहता है ) | ( उ० ) प्रथमतः अनेक पिण्डों में से प्रत्येक में सामान्य का ज्ञान होता है । यही ज्ञान जब बार बार होता है ( जिसे अभ्यासप्रत्यय कहते हैं), तब उससे (दृढतर ) संस्कार उत्पन्न होता है । इस संस्कार से उन ज्ञान समूहों का स्मरण होता है । इस स्मरण से ही समझते हैं कि इस स्मरण के विषयभूत सभी पिण्डों में अनुगत जो धर्म हं वही सामान्य ' है । इन ( पर और अपर सामान्यों ) में सत्ता नाम का सामान्य केवल
न्यायकन्दली
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भवतीति विशेषः । अनेकवृत्तित्वे सति यदेकद्विबहुष्वात्मस्वरूपानुगमप्रत्ययकारणं तत् सामान्यमिति लक्षणार्थः । एतदेव विवृणोति स्वरूपाभेदेनेति । एकस्मिन् पिण्डे यत् स्वरूपं तत् पिण्डान्तरेऽपि । तस्मादभेदेनाधारेषु प्रबन्धेनानुपरमेण पूर्वपूर्व पिण्डापरित्यागेन वर्तमान सदनुवृत्तिप्रत्ययकारणं स्वरूपानुगमप्रतीतिकारणं सामान्यम् । कथमिति परस्य प्रश्नः । कथमनेकेषु पिण्डेषु सामान्यस्य वृत्तिरवगम्यत इत्यर्थः । उत्तरमाह - प्रतिपिण्डमिति । पिण्डं पिण्डं है, उसी प्रकार दो गोपिडों में भी 'इमौ गावी' या बहुत से गोपिण्डों में भी 'इमे गाव ः ' इत्यादि श्राकार से 'सामान्य' की प्रतीतियाँ होती हैं । द्वित्वादि ( व्यासज्यवृत्ति गुणों ) में ऐसी बात नहीं है। उनकी प्रतोति उनके सभी आश्रयों में ही हो सकती है, तद्घटक किसी एक अभय में नहीं) द्वित्वादि से सामान्य में यही अन्तर है । (सामान्य के लक्षणवाक्य कासार मर्म यह है कि ) जो स्वयं एक होकर भी अनेक वस्तुओं में विद्यमान रहें, एवं ( अपने आश्रयीभूत) एक व्यक्ति में, दो व्यक्तियों अपने स्वरूप के द्वारा समान एवं अनुगत एक आकार के 'सामान्य' है । यही बात 'एनदेव' इत्यादि से कही गयी हैं। उस जाति की दूसरी वस्तु का स्वरूप से अपने सभी आश्रयों में के अपने आश्रय रूप पिण्डों को अनेक बस्तुओं में एक इत्यादि से प्रतिवादी का समझते हैं कि समान रूप के
में
अथवा बहुत से व्यक्तियों में प्रत्यय का कारण हो, वही एक वस्तु का जो स्वरूप है, भी वही स्वरूप है, सभी आश्रयों में अनुगत वह एक ही 'प्रबन्ध से' अर्थात् बिना विराम के फलतः पहिले पहिले बिना छोड़े हुए हो जो 'अनुवृत्तिप्रत्यय' का अर्थात् आकार की प्रतीति का कारण हो वही 'सामान्य' है । 'कथम् ' प्रश्न सचित किया गया है। जिसका अभिप्राय है कि यह कैसे सभी पिण्डों में एक ही जाति है ? प्रतिपिण्डम्' इत्यादि से
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[सामान्यनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् नीलमिति प्रत्ययानुवृत्तिः, तथा परस्परविशिष्टेषु द्रव्यगुणकर्मस्व विशिष्टा सत्सदिति प्रत्ययानुवृत्तिः । सा 'अनुवृति प्रत्यय' रूप कारण है । सत्ता नाम के परसामान्य की सिद्धि इस रीति से होता है कि जिस प्रकार नीलचर्म, नीलवस्त्र और नील कम्बलों में परस्पर विभिन्नता रहते हुए भी नील रङ्गके सम्बन्ध से उनमें से प्रत्येक में 'यह नील है' इस एक आकार की प्रतीतियाँ होती हैं, उसी प्रकार परस्पर विभिन्न द्रव्यों, गुणों और कर्मों में से प्रत्येक में यह सत् है' इस एक
न्यायकन्दली प्रति सामान्यापेक्षं यथा भवति, तथा ज्ञानोत्पत्तौ सत्यां योऽभ्यासप्रत्ययस्तेन यः संस्कारो जनितः, तस्मादतीतस्य ज्ञानप्रबन्धस्य ज्ञानप्रवाहस्य प्रत्यवे. क्षणात् स्मरणाद् यदनुगतमस्ति तत् सामान्यम् । किमुक्तं स्थात् ? एकस्मिन् पिण्डे सामान्यमुपलभ्य पिण्डान्तरे तस्य प्रत्यभिज्ञानादेकस्यानेकवत्तित्वमव. गम्यते । अत एव तत्र बाधकहेतवः प्रत्यक्षविरोधादपास्यन्ते ।।
यत् पूर्वमुक्तं परमपरं च द्विविधं सामान्यमिति तदिदानी विविच्य कथयति--तत्र परं सत्तासामान्यमनुवत्तिप्रत्ययकारणमेव । यद्यपि प्रत्यक्षेण प्रतीयते सत्ता, तथापि विपतिपन्नं प्रत्यनुमानमाह-यथा परस्परविशिष्टे
इसी प्रश्न का समाधान किया गया है । 'पिण्ड पिण्डं यथा स्यात्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत प्रतिपिण्ड' शब्द प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् प्रत्येक पिण्ड में जिस रीति से सामान्य का ज्ञान होता है, उसी रीति से जब सामान्य की 'अभ्यासप्रतीति' अर्थात् बार बार प्रतीति होती है, तब उससे सामान्यविषयक दृढ़ संस्कार की उत्पत्ति होती है। इस दृढ़ संस्कार से अतीत 'ज्ञानप्रबन्ध का अर्थात् ज्ञानसमूह का 'प्रत्यवेक्षण' अर्थात् स्मृति होती है, इस स्मृति के द्वारा ( विभिन्न व्यक्तियों में) जो अनुगत अर्थात् एक रूप से प्रतीत होता है, वही 'सामान्य' है। इससे निष्कर्ष क्या निकला ? ( यही कि ) एक वस्तु में सामान्य के प्रतीत होने पर दूसरी वस्तु में उसकी प्रत्यभिज्ञा होती है। इस प्रत्यभिज्ञा से ही समझते हैं कि एक ही सामान्य अनेक वस्तुओं में रहता है। अत एव सामान्य के इस स्वरूप को बाधित करनेवाले सभी हेतु प्रत्यक्षविरोधी होने के कारण स्वयं निरस्त हो जाते हैं।
पहिले कह चुके हैं कि पर और अपर भेद से सामान्य दो प्रकार का है। 'तत्र परं सत्ता' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अब उसी को विचार पूर्वक और स्तिारपूर्वक समझाते हैं कि उनमें 'सत्ता' पर सामान्य (ही ) है। अर्थात् केवल 'अनुवृत्तिप्रत्यय' अर्थात् विभिन्न व्यक्तियों में एकाकार प्रतीति का ही प्रयोजक है । सत्ता यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध
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प्रकरणम्)
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् चार्थान्तराद् भवितुमर्हतीति यत् तदर्थान्तरं सा सत्तेति सिद्धा । सत्तानुसम्बन्धात् सत्सदिति प्रत्ययानुवृत्तिः, तस्मात् सा सामान्यमेव । आकार की प्रतीति होती है। यह प्रतीति द्रव्य, गुण और कर्म इनसे भिन्न किसी वस्तु से ही होनी चाहिए। वही वस्तु है सत्ता'। इस सत्ता जाति के सम्बन्ध से 'यह सत् है, यह सत् है, इत्यादि आकारों के अतुवृत्तिप्रत्यय ही हो सकते हैं ( कोई भी व्यावृत्तिप्रत्यय नहीं ), अतः सत्ता सामान्य ही है, विशेष नहीं।
न्यायकन्दली
ष्विति । तद् व्यक्तम् । द्रव्यादिषु सत्सदितिप्रत्ययानुवृत्ति: व्यतिरिक्तप्रत्ययनिबन्धना, भिन्नेषु प्रत्ययानुवत्तित्वात्, चर्मवस्त्रादिषु नीलप्रत्ययानुवृत्तिवत् । यस्मात् सत्ता त्रिषु द्रव्यादिषु प्रत्ययानुवृति करोति न व्यावृत्तिम्, तस्मात् सामान्यमेव, न विशेष इत्युपसंहारार्थः । अपरं द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादि अनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्यं विशेषश्च भवति । द्रव्यत्वं द्रव्येष्वनुवत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यम्, गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तिहेतुत्वाद् विशेषः । गुणत्वं गुणेष्वनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यम्, द्रव्यकर्मभ्यो व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वाद् विशेषः । तथा
है, फिर भी जो कोई उसे प्रत्यक्षवेद्य नहीं मानते, उनके सन्तोष के लिए परस्परविशिष्टेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अनुमान भी उपस्थित करते हैं। इस अनुमान प्रयोग का अर्थ स्पष्ट है। जिस प्रकार नीलवस्त्र के नीलधर्म प्रभृति में एक नीलवर्ग के हो कारण 'यह नील' है, इस एक आकार की प्रतीतियाँ अनुवृत्तिप्रत्यय' रूप होती है, उसी प्रकार द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में 'यह सत् है' इस एक आकार की प्रतीति भी होती है, इन तीनों से भिन्न किसी वस्तु का ज्ञान उक्त प्रतीतियों का कारण है, क्योंकि उक्त सदाकारक प्रतीतियाँ भी अनुवृत्तिप्रत्यय हैं। (जिसका ज्ञान उक्त अनुवृत्तिप्रत्ययों का कारण है वही 'सत्ता' है) प्रकृत उपसंहार ग्रन्थ का यह अभिप्राय है कि यतः सत्ता द्रव्यादि तीनों पदार्थों में यह सत् है' इस आकार के अनुवृत्तिप्रत्यय का ही कारण है, किसी भी व्यावृत्ति ( प्रत्यय ) का नहीं, अतः ‘सत्ता' सामान्य ही है, विशेष नहीं। द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादि जातियाँ अनुवृत्तिप्रत्यय और व्यावृत्तिप्रत्यय दोनों के ही कारण हैं, अतः वे 'सामान्य' और विशेष' दोनों ही हैं। जैसे कि द्रव्यत्व जाति सभी द्रव्यों में यह द्रव्य है। इस अनुवृत्तिप्रत्यय का कारण है, अतः 'सामान्य' है । उसी प्रकार द्रव्य में ही 'यह गुण और कर्म से भिन्न है ( क्योंकि इसमें द्रव्यत्व है) इस व्यावृत्तिप्रत्यय का भी कारण है, अतः 'विशेष' भी है । एवं गुणत्व जाति सभी गुणों में 'यह गुण है' इस प्रकार की
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ सामान्यनिरूपण
अपरं द्रव्यत्वगुणत्व कर्मत्वादि अनुवृधिव्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्यं विशेषश्च भवति । तत्र द्रव्यत्वं परस्परविशिष्टेषु पृथिव्यादिष्वनुवृत्तिहेतुत्वात् सामान्यम्, गुणकर्मभ्यो व्यावृत्तिहेतुत्वाद् विशेषः । तथा गुणत्वं परस्परविशिष्टेषु रूपादिष्वनुवृत्तिहेतुत्वात् सामान्यम, द्रव्यकर्मभ्यो व्यावृत्तिहेतुत्वाद् विशेषः । तथा कर्मत्वं परस्परविशिष्टेषूत्क्षेपणादिष्वनुवृत्तिप्रत्यय हेतुत्वात् सामान्यम, द्रव्यगुणेभ्यो
द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्वादि जातियाँ अपर है । ये अनुवृत्तिप्रत्यय के कारण होने से 'सामान्य' और व्यावृत्तिप्रत्यय के कारण होने से 'विशेष' दोनों ही । इनमें द्रव्यत्व परस्पर विभिन्न पृथिवी प्रभृति नौ द्रव्यों में से प्रत्येक में 'यह द्रव्य है' इस एक आकर की प्रतीति के हेतु होने से सामान्य ' है, एवं उन्हीं नौ द्रव्यों में से प्रत्येक में 'यह गुण और कर्म से भिन्न है' इस व्यावृत्तिबुद्धि के हेतु होने से 'विशेष' भी है । इसी प्रकार गुणत्व भी रूपादि चौबीस गुणों में से प्रत्येक में "यह गुण है' इस एक आकार के प्रत्ययों का हेतु होने से 'सामान्य' है एवं 'ये रूपादि द्रव्य और कर्म से भिन्न हैं, इस व्यावृत्तिबुद्धि का कारण होने से 'विशेष' भी है । इसी प्रकार कर्मत्व जाति भी उत्क्षेपणादि विभिन्न क्रियाओं में से प्रत्येक में 'यह क्रिया है' इस अनुवृत्तिप्रत्यय का कारण होने से सामान्य है, एवं उत्क्षेपणादि क्रियाओं में से प्रत्येक में यह द्रव्य और गुण से भिन्न है' इस व्यावृत्तिबुद्धि का कारण
न्याकन्दली
कर्मत्वं परस्परविशिष्टेषूत्क्षेपणादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यं द्रव्यगुणेभ्यो व्यावृत्तिहेतुत्वाद् विशेषः । द्रव्यत्वादिवत् पृथिवीत्वादीनामप्यनुवृत्तिव्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यविशेषभावोऽस्तीत्याह - एवमिति । प्राणिगतानि सामान्यानि गोत्वाश्वत्वादीनि अप्राणिगतानि घटत्वपटत्वादीनि । किं द्रव्यत्वादीनां सामान्य
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अनुवृत्तिप्रतीति का कारण है. अतः सामान्य है । एवं द्रव्य और कर्म इन दोनों से 'गुण भिन्न है' ( क्योंकि वह गुण है ) इस व्यावृत्तिबुद्धि का भी कारण है, अत: 'विशेष' भी है । इसी प्रकार परस्पर विभिन्न उत्क्षेपणादि क्रियाओं में 'ये कर्म हैं' इस समान आकार की प्रतीति ( अनुवृत्तिप्रत्यय ) कर्मत्व से होती है, अतः वह सामान्य है और उन्हीं कर्मों में 'ये द्रव्य और गुण से भिन्न हैं' इस व्यावृत्ति बुद्धि की हेतु होने से 'विशेष' भी है । 'एवम्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा द्रव्यत्वादि जातियों की तरह पृथिवीत्वादि जातियों में भी कथित सामान्यविशेषभाव का अतिदेश करते हैं । गोत्व, अश्वत्व प्रभृति
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प्रेकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् व्यावृत्तिहेतुत्वाद् विशेषः। एवं पृथिवीत्वरूपत्वोत्क्षेपणत्वगोत्वघटत्वपटत्वादीनामपि प्राण्यप्राणिगतानामनुवृत्तिव्यावृत्तिहेतुत्वात् सामान्यविशेषभावः सिद्धः । एतानि तु द्रव्यत्वादीनि प्रभूतविषयत्वात प्राधान्येन सामान्यानि, स्वाश्रयविशेषकत्वाद भक्त्या विशेषाख्यानीति । होने से 'विशेष' भी है। इसी प्रकार प्राणियों में रहनेवाले और अप्राणियों में रहनेवाले पृथिवीत्व, रूपत्व, उत्क्षेपणत्व, गोत्व, घटत्व, पटत्व प्रभृति जातियों में भी अनुवृत्तिप्रत्ययजनकत्व हेतु से सामान्यत्व और व्यावृत्तिप्रत्ययजनकत्व हेतु से विशेषत्व की सिद्धि समझनी चाहिए। द्रव्यत्वादि जातियाँ सामान्य के पूर्णलक्षण से युक्त होने के कारण वस्तुतः सामान्य ही हैं। किन्तु अपने आश्रयों को अपने से भिन्न वस्तुओं से पृथक् रूप में समझाने की योग्यता भी उनमें किसी अंश में संघटित होती है, अतः उनमें 'विशेष' शब्द का भी गौणप्रयोग होता है।
न्यायकन्दली स्वरूपं वास्तवम् ? किं वा विशेषस्वरूपता ? आहोस्विदुभयस्वरूपता ? अत्राहएतानीति । समानानां भावः सामान्यमिति सामान्यलक्षणं द्रव्यत्वादिषु विद्यते, स्वाश्रयं सर्वतो विशिनष्टीति विशेष इति तु लक्षणं नास्ति। अत एतानि मुख्यया वृत्त्या सामान्यान्येव न विशेषाः, विशेषसंज्ञां तूपचारेण लभन्ते । विशेषो हि स्वाश्रयं सर्वतो विशिनष्टि, द्रव्यत्वादिकमपि विजातीयेभ्यः स्वाश्रयस्य विशेषणमित्येतावता साधयेणोपचारप्रवृत्तिः। प्राणियों में रहने वाली जातियां हैं. एवं घटत्व, पटत्व प्रभृति अप्राणियों में रहनेवाली जातियाँ हैं। (प्र. ) ( द्रव्यत्वादि सामन्य और विशेष दोनों कहे गये हैं) इस प्रसङ्ग में प्रश्न उठता है कि वे वास्तव में 'सामान्य' रूप हैं ? या वास्तव में वे 'विशेष' रूप ही हैं ? अथवा उनके दोनों ही स्वरूप वास्तव हैं ? इन्हीं विकल्पों का समाधान 'एतानि' इत्यादि ग्रन्थ से दिया गया है। अर्थात् 'समानानां भावः सामान्यम्' सामान्य का यह लक्षण द्रव्यत्वादि में पूर्ण रूप से है, किन्तु 'स्वाश्रयं सर्वतो विशिनष्टीति विशेषः' ( जो अपने आश्रय को इतर सभी पदार्थों से अलग करे, वही विशेष' है) विशेष का यह लक्षण द्रव्यत्वादि में नहीं है (क्योंकि दव्यत्वादि अपने आश्रयीभूत एक द्रव्य व्यक्ति से अपने आश्रयीभूत दूसरी द्रव्य व्यक्ति को अलग नहीं समझा सकता), अतः द्रव्य त्वादि जातियाँ 'सामान्य' शब्द के ही मुख्यार्थ हैं। उनमें 'विशेष' शब्द का लक्षणावृत्ति से ही प्रयोग होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार 'विशेष' पदार्थ अपने आश्रय को इतर सभी पदार्थों से अलग रूप में रखता है, उसी प्रकार द्रव्यत्वादि सामान्य भी अन्ततः अपने आश्रय
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[सामान्यनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् लक्षणभेदादेषां द्रव्यगुणकर्मभ्यः पदार्थान्तरत्वं सिद्धम् । अत एव च नित्यत्वम् ।
द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों से इसका स्वरूप (लक्षण) भिन्न है, अतः सिद्ध होता है कि यह सामान्य (द्रव्यादि की तरह) दूसरा ही (स्वतन्त्र) पदार्थ है। यतः लक्षणभेद के कारण द्रव्यादि से यह भिन्न है, अत: यह सिद्ध होता है, सामान्य नित्य है।
न्यायकन्दली द्रव्यत्वादीनि द्रव्यादिव्यतिरिक्तानि न भवन्ति, अतस्तेषां पृथक् कार्यनिरूपणमन्याय्यमित्यत्राह--लक्षणभेदादिति । अनुगताकारबुद्धिवेद्यानि द्रव्य. त्वादीनि, व्यावृत्तिबुद्धिवेद्याश्च द्रव्यादिव्यक्तयः, तस्मादेषां द्रव्यत्वादीनां लक्षणभेदात् प्रतीतिभेदाद् द्रव्यगुणकर्मभ्यः पदार्थान्तरत्वम् । अत एव च नित्यत्वम् । यत एव सामान्यस्य द्रव्यादिभ्यो भेदः, अत एव नित्यत्वम् । द्रव्याद्य. भेदे सामान्यस्य द्रव्यादिविनाशे विनाशस्तदुत्पादे चोत्पादः स्यात्, भेदे तु नायं विधिरवतिष्ठत इति ।
__ अत्रके वदन्ति । भिन्नेष्वनुगता बुद्धिः सामान्य व्यवस्थापयति । सा च प्रतिपिण्डं दण्डपुरुषाविव न स्वातन्त्र्येण सामान्यविशेषलक्षणे
को दूसरी जाति के आश्रयीभूत पदार्थों से तो अलग करते ही है, केवल इतने ही सादृश्य के कारण द्रव्यत्वादि सामान्यों में भी विशेष' शब्द का लाक्षणिक प्रयोग होता है।
किसी सम्प्रदाय का मत है कि द्रव्यत्वादि जातियाँ आश्रयीभूत द्रव्यादि व्यक्तियों से भिन्न नहीं हैं, अतः उनका अलग से निरूपण करना उचित नहीं है। इसी आक्षेप का समाधान 'लक्षणभेदात्' इत्यादि से किया गया है । अनुगत आकार की प्रतीति के द्वारा ही द्रव्यत्वादि सामान्य समझे जाते हैं। द्रव्यादि व्यक्तियों का बोध व्यावृत्तिबुद्धि से होता है । तस्मात् एषाम्' अर्थात् द्रव्यत्वादि सामान्यों के लक्षण (द्रव्यादि व्यक्तियों के) लक्षण से भिन्न हैं, अत एव द्रव्यत्यादि सामान्य द्रव्यादि व्यक्तियों से अलग स्वतन्त्र पदार्थ हैं। अत एव व नित्यत्वम्' अर्थात् द्रव्यत्वादि सामान्य यदि व्यादि व्यक्तियों से अभिन्न होते, तो फिर द्रव्यादि के विनाश से उनका भी विनाश होता, एवं उनकी उत्पत्ति से उनकी भी उत्पत्ति होती। यदि द्रव्यत्वादि सामान्य और द्रव्यादि व्यक्ति इन दोनों को भिन्न पदार्थ मान लेते हैं, तो यह स्थिति नहीं उत्पन्न होती है, ( अतः उनको नित्य मानते हैं )।
इसी प्रसङ्ग में किसी सम्प्रदाय के लोगों का कहना है कि (प्र.) विभिन्न व्यक्तियों में एक आकार की बुद्धि ( अनुवृत्तिप्रत्यय ) से ही सामान्य की सिद्धि की जाती है, किन्तु
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भाषानुवादसहितम्
७४६
न्यायकन्दली
द्वे वस्तुनी प्रतिभासयति । नापि तयोविशेषणविशेष्यभावः, गोत्वा' गोत्ववा. नित्येवमनुदयात् । किं तु तादात्म्यग्राहिणी प्रतितिरियम्, गौरयमित्येका. त्मतापरामर्शात्, उभयोरन्योन्यप्रहाणेन स्वरूपान्तराभावाच्च । अनुवृत्तता हि गोत्वस्येव सामान्यान्तरस्यापि स्वरूपम्, व्यावृत्ततापि गोव्यक्तेर्व्यक्त्यन्तराणामपि स्वभावः । सामान्यान्तरव्यावृत्तं तु गोत्वस्य स्वरूपम्, व्यक्त्यन्तरव्यावृत्तिश्च गोव्यक्तेः स्वभावः परस्परात्मतामन्तरेणान्यो न शक्यते निर्देष्टुम् ।
जिस प्रकार 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि विशिष्टबुद्धियों में दण्ड और पुरुष दोनों में से एक सामान्यविधया और दूसरा व्यक्तिविधया स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है, उस प्रकार से 'अयं गौः, अयं गौः' इत्यादि आकार के अनुवृत्तिप्रत्ययों में गोत्वादि सामान्य रूप से और गोप्रभृति विशेष (व्यक्ति) रूप से प्रतिभासित नहीं होते । एवं उक्त प्रतीतियों में गो विशेष्य रूप से और गोत्व विशेषण रूप से भी प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि ऐसी बात होती तो प्रतीति का अभिलाप "गौः गोत्ववान्' इस आकार का होता ('अयं गौः' इस आकार का नहीं )। तस्मात् 'अयं गौः' यह प्रतीति तादात्म्यविषयक है। क्योंकि 'अयम्' पदार्थ और 'गौः' पदार्थ दोनों के एकरूपत्व का ही उससे परामर्श होता है। दूसरी युक्ति यह भी है कि गो को छोड़कर गोत्व का कोई अपना स्वरूप नहीं है, एवं गोत्व को छोड़कर गो का भी कोई स्वरूप नहीं है। क्योंकि केवल अनुवृत्तत्व जैसे गोत्व जाति में है, वैसे ही अश्वत्वादि जातियों में भी है। एवं केवल व्यावृत्तत्व ( अर्थात् स्वभिन्नभिन्नत्व) जैसे गो व्यक्ति में है, वैसे ही अश्वादि व्यक्तियों में भी है, अतः गोत्व का ऐसा ही स्वरूप मानना पड़ेगा जो दूसरे सामान्यों में न रहे । एवं गोव्यक्ति
१. मुद्रित न्यायकन्दली में 'गोत्वा गोत्ववान्' ऐसा पाठ है। यह तो स्पष्ट है कि इसमें एक 'ए' का चिह्न छूट गया है। अतः ‘गोत्वो गोत्ववान्' ऐसा पाठ संशोधक को अभिप्रेत मालूम होता है । किन्तु सो भी ठीक नहीं जंचता, क्योंकि प्रथम विकल्प में कहा गया है कि 'अयं गौः' इस आकार की प्रतीति में गो का व्यक्तिविधया और गोत्व का जातिविधया भान नहीं होता है। इसके बाद 'नापि तः' इत्यादि से जो विकल्प किया गया है, उसमें द्विवचनान्त 'तयोः' पद से गो और गोत्व इन्हीं दोनों का ग्रहण समुचित जान पड़ता है। किन्तु तादात्म्यग्राहिणी' इत्यादि से इस विकल्प का खण्डन किया गया है कि 'अयं गौः' यह प्रतीति 'इदम्' पदार्थ में गो के तादात्म्य विषयक ही है। इससे भी इसी प्रतिषेध का आक्षेप होता है कि 'अयं गौः' यह प्रतीति गोविशेष्यक एवं गोत्वविशेषणक नहीं है। यदि ऐसी बात है तो फिर 'गौः गोत्ववान्' ऐसा ही पाठ उचित है। अतः तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली न च तस्य स एव स्वभावः स एव च सम्बन्धीत्युपपद्यते, निःस्वभावस्य सम्बन्धाभावात् । तस्माज्जातिव्यक्त्योः परस्परात्मतैव तत्त्वम् । एवं सति भेदाभेदवादोऽपि सिद्धयति । यथा हि शाबलेयो गौरित्येवं प्रतीयते तथा बाहुलेयोऽपि । न चास्ति कस्यचिद् बाधः शाबलेय एव गौर्न बाहुलेय इति । किन्तु सर्वेषामेकमतित्वमेव 'स गौरयमपि गौरिति'। तत्र प्रतीतिबलेन शाबलेयात्मकस्य गोत्वस्य बाहुलेयात्मकत्वे सिद्ध शाबलेयाद भेदोऽपि सिद्धयति । अयमेव हि सामान्यस्य पूर्वपिण्डाद् भेदो यत् पिण्डान्तरात्मकत्वम् । इदमेव च सामान्यरूपत्वं यदुभयात्मकत्वम् । भेदाभेदावेकस्य विरुद्धाविति चेत् ? न, युक्तिज्ञस्य भवतः साम्प्रतमेतदभिधातुम् । तद्विरुद्धं यत्र बुद्धिविपर्येति । यत्तु सर्वदा प्रमाणेन तथैव प्रतीयते, तत्र विरोधाभिधानमेव विरुद्धम् ।
अन्यत्रैवं न दृष्टमिति चेत् ? किं वै प्रत्यक्षमपि अनुमानमिव दृष्टमनुका स्वरूप भी ऐसा ही मानना पड़ेगा जो अश्वादि व्यक्तियों में न रहे। अतः इन दोनों स्वरूपों का उपयुक्त निर्णय तभी हो पायेगा, जब कि गोव्यक्ति और गोत्व जाति दोनों में तादात्म्य मान लें। अर्थात् ऐसा मान लें कि गोत्वाभिन्नत्व ही गोव्यक्ति का स्वभाव है, एवं गोव्यक्तियों से अभिन्न रहना ही गोत्व जाति का स्वभाव है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वही उसका स्वभाव भी हो, और वही उसका सम्बन्धी भी हो क्योंकि किसी स्वभाव से युक्त वस्तु में ही किसी का सम्बन्ध होता है। बिना स्वभाव के वस्तु में किसी का सम्बन्ध सम्भव नहीं है। तस्मात् 'जाति व्यक्तिस्वरूप है, और व्यक्ति भी जातिस्वरूप ही है' यही सिद्धान्त ठीक है । ऐसा मान लेने पर जाति और व्यक्ति में परस्पर भेद और अभेद दोनों की ही सिद्धि (प्रतीतियों के भेद से ) हो सकती है। जिस प्रकार शाबलेय गो में 'यह गो है' इस आकार की प्रतीति होती है, उसी प्रकार बाहुलेय नामके गो में भी यह गो है' इस प्रकार की प्रतीति होती है। ऐसी कोई बाधबुद्धि भी नहीं है कि शाबलेय ही गो है, बाहुलेय नहीं किन्तु यही सबों का अनुभव है कि 'शाबलेय' भी गो है, एवं 'बाहुलेय' भी गो है। इस स्थिति में शाबलेय गो के स्वरूप गोत्व में बाहुलेय गो की स्वरूपता जिस प्रकार सिद्ध होती है, उसी प्रकार गोत्व में शाबलेय गो के भेद की भी सिद्धि होती है। ( गोत्व रूप ) सामान्य में पूर्व पिण्ड ( शाबलेय गो रूप पिण्ड ) का भेद इसी लिए है कि सामान्य (गोत्व ) पिण्डान्तर (बाहुलेय गोरूप दूसरा पिण्ड ) स्वरूप है। सामान्यरूपता इस लिए है कि वह उभयात्मक है। ( उ०) एक ही वस्तु में एक ही वस्तु का भेद और अभेद दोनों का रहना परस्पर विरुद्ध' है ? (प्र०) युक्तियों से अभिज्ञ आप जैसे व्यक्ति का ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि विरुद्ध' वही कहलाता है जिसमें कि बुद्धि का विपर्यास हो । जो बराबर प्रमाण के द्वारा उसी प्रकार का प्रतात होता है, उसको विरुद्ध कहना ही 'विरुद्ध' है। यदि यह
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७५१
प्रकरणम् )
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली सरति ? हतं तीदमनवस्थया । अथेदं स्वसामर्थ्यात् प्रवर्तते ? तदा यथा यद् वस्तु यद् दर्शयति तथैव तत्, न त्वेतदन्यत्रादर्शनेन प्रत्याख्यानमर्हति सर्वभावप्रत्याख्यानप्रसङ्गात् । तस्मात् सामान्य व्यक्त्युत्पादविनाशयोरुत्पादविनाशवत्वाद् व्यक्त्यन्तरावस्थाने चावस्थानान्नित्यमनित्यं च, न पुननित्यमेव ।।
एवं प्राप्तेऽभिधीयते-कि जातिव्यक्त्योरविलक्षणमाकारं गृह्णाति तत्प्रतीतिः ? उत तयोरभेदं गृह्णाति ? आहोस्वित् परस्पर विलक्षणावाकारौ ? आये कल्पे तावदेकमेव वस्तु स्यात्, नोभयोरेकात्मकत्वम्, अविलक्षणाकारबुद्धिवेद्यत्वस्याभेदलक्षणत्वात् । द्वितीये तु कल्पे व्याहतिरेव, विलक्षणाकारसंवित्तिरेव हि भेदसंवित्तिः। तस्याः सम्भवे सति तयोरभेदप्रतिपत्तिरेव नास्ति, कथं भिन्नयोरभेदो व्यवस्थाप्यते ? कथं तहि तादात्म्यप्रतीतिः ? न कथञ्चिदिति बदामः ।
यदि तावदेक आकारोऽनुभूयते, एकस्यैव वस्तुनः प्रतीतिरियं नोभयोः । अथ द्वावाकारावनुभूयेते तदास्याः प्रतीतेरसम्भव एव । यत् पुनगौ रित्यय
कहें कि ( उ० ) एक ही वस्तु के भेद और अभेद इन दोनों की अवस्थित एक हो वस्तु में कहीं नहीं देखी जाती है। अत: उक्त भेदाभेद पक्ष अयुक्त है, (प्र.) तो इसके उत्तर के लिए यह पूछना है कि क्या अनुमान की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण को भी अपने विषय की सिद्धि के लिए उसका अन्यत्र देखा जाना आवश्यक है ? यदि ऐसी बात माने तो अनवस्थादोष के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण का ही लोप हो जाएगा। यदि प्रत्यक्ष अन्यत्र दर्शन की अपेक्षा न करके ) केवल अपने बल से ही अपने विषय को दिखाने के लिए प्रवृत्त होता है, तो फिर यही मानना पड़ेगा कि अपने जिस वस्तु को वह जिस रूप में दिखलाता है, वह वस्तु उसी रूप का है। इस वस्तुस्थिति का केवल इस हेतु से निरादर नहीं किया जा सकता कि 'अन्यत्र इस प्रकार से देखा नहीं जाता'। प्रत्यक्ष का यदि यह स्वभाव न मानें तो संसार से सभी वस्तुओं की सत्ता ही उठ जाएगी। तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि सामान्य यत: अपने आश्रय रूप व्यक्तियों के उत्पन्न होने पर ही उत्पन्न होता है, और उनके विनष्ट होने पर विनष्ट भी होता है, अतः 'अनित्य' है। एवं उस व्यक्ति के नाश के बाद भी उसी जाति की दूसरी व्यक्ति में रहता है, अतः वह नित्य' भी है। तस्मात् सामान्य नित्य एवं अनित्य दोनों ही है, केवल नित्य ही नहीं है।
( उ०) ऐसी स्थिति में हम (ताकिक ) लोग पूछते हैं कि (१) 'अयं गौः' यह प्रतीति जाति और व्यक्ति दोनों को ए ही आकार में ग्रहण करती है । (२) अथवा दोनों के अभेद का ग्रहण करती है ? (३) अथवा जाति और व्यक्ति दोनों को परस्पर विभिन्न आकारों में ग्रहण करती है ? इनमें यदि पहिला पक्ष मानें तो
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली मविभागेन संवेदनं तत् समवायसामर्थ्यात् । संयोगे हि द्वयोः संसर्गावभासः, समवायस्य पुनरेष महिमा यदत्र सम्बन्धिनावयःपिण्डवह्निवत् पिण्डीभूतावेव प्रतीयेते जातिरेव न च व्यक्तेः स्वरूपम् । तेन सत्यपि भेदे बदरादिवत् कुण्डस्य जातितो व्यक्तेः स्वरूपं पृथग न निष्कृष्यते । परस्परपरिहारेण तूपलम्भोऽस्त्येव, दूरे गोत्वाग्रहणेऽपि पिण्डस्य ग्रहणात् । पूर्वपिण्डाग्रहणेऽपि पिण्डान्तरे गोत्वग्रहणात् । तस्माद् व्यक्तेरत्यन्तं भिन्नमेव सामान्यमिति ताकिकाणां प्रक्रिया।
द्रव्यादिषु वृत्तिनियमात् प्रत्ययभेदाच्च परस्परतश्चान्यत्वम्, द्रव्यत्वाफिर जाति या व्यक्ति इन दोनों में से किसी एक का मानना ही सम्भव होगा दूसरे का नहीं, जाति और व्यक्ति एतदुभयात्मक किसी वस्तु की कल्पना सम्भव नहीं होगी, क्योंकि अभिन्नता का यही लक्षण है कि जो अविलक्षण आक.र की बुद्धि के द्वारा ज्ञात हो । यदि दूसरा पक्ष मानें तो परस्पर विरोध ही उपस्थित होगा। क्योंकि किन्हीं दो वस्तुओं का परस्पर विभिन्न आकारों से गृहीत होना ही उन दोनों के भेद का ज्ञान है । भेद का यह ज्ञान यदि सम्भव है, तो फिर उन दोनों में तादात्म्य की प्रतीति कैसी ? अतः हम लोग कहते हैं कि जाति और व्यक्ति इन दोनों के तादात्म्य की प्रतीति किसी भी प्रकार से नहीं होती, क्योंकि यदि एक ही आकार का अनुभव होता है तो फिर वह अनुभव एक ही वस्तु की प्रतीति होगी, दो वस्तुओं की नहीं। यदि दो आकारों का अनुभव होता है, तो फिर उस एक आकार की प्रतीति की सम्भावना ही मिट जाती है। 'गौरयम्' इत्यादि प्रतीतियों में जो गोत्वजाति और गोव्यक्ति विना अलग हुए से प्रतीत होते हैं, वह तो दोनों के समवाय का सामर्थ्य है। संयोग की प्रतीति में उसके प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों के सम्बन्धियों का भान होता है । समवाय की ही यह विशेष महत्ता है कि इसमें उसके दोनों सम्बन्धी (प्रतियोगी और अनुयोगी) परस्पर एक होकर ही प्रतीत होते हैं। जैसे कि वह्नि और अयःपिण्ड वस्तुतः पृथक् होते हुए भी एक होकर ही ज्ञान में भासित होते हैं। सुतराम् (व्यक्ति सम्बद्ध ) जाति की ही प्रतीति होती है, केवल व्यक्ति के स्वरूप की नहीं। अतः जाति और व्यक्ति में वस्तुतः भेद रहते हुए भी जैसे कि ( संयोग युक्त ) कुण्ड और बेर को अलग कर दिखलाया जा सकता है उस प्रकार जाति से व्यक्ति के स्वरूप को अलग नहीं किया जा सकता। कुछ स्थानों में जाति और व्यक्ति की प्रतीति एक दूसरे को छोड़कर भी होती है। जैसे दूर में गोपिण्ड ( व्यक्ति ) की प्रतीति तो होती है, (किन्तु यह गो हैं' इस प्रकार से ) गोत्व की प्रतीति वहाँ नहीं होती । एवं पूर्वपिण्ड का ग्रहण न रहने पर भी दूसरे पिण्ड में गोत्व का ग्रहण होता है। तस्मात् ताकिकों की रीति के अनुसार जाति और व्यक्ति अत्यन्त भिन्न हैं । (किसी भी प्रकार वास्तव में अभिन्न नहीं है)।
___ द्रव्यत्वादि सामान्य सतः नियमित रूप से द्रव्यादि तत्तत् आश्रयों में ही रहते हैं, एवं प्रत्येक सामान्य की प्रतीति भिन्न भिन्न आकार की होती है, अतः समझते हैं कि द्रव्यत्व गुणत्वादि सामान्य परस्पर भिन्न हैं। अभिप्राय यह है कि द्रव्यत्वादि सामान्यों
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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
७५३
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्यादिषु वृत्तिनियमात् प्रत्ययभेदाच्च परस्परतश्चान्यत्वम् । प्रत्येकं स्वाश्रयेषु लक्षणाविशेषाद् विशेषलक्षणाभावाच्चैकत्वम् । यद्यप्यपरिच्छिनदेशानि सामान्यानि भवन्ति, तथाप्युपलक्षणनियमात
द्रव्यत्वादि कोई भी सामान्य द्रव्यादि कुछ आश्रयों में ही नियत रूप से रहते हैं, एवं भिन्न रूप से प्रतीत भी होते हैं, अतः ( द्रव्यत्वगुणत्वादि ) सामान्य परस्पर विभिन्न हैं । एवं प्रत्येक सामान्य अपने आश्रयों में समान रूप से प्रतीत होता है, एवं उसको अनेक मानने में कोई प्रमाण भी नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि द्रव्यादि नियत आश्रयों में रहनेवाले द्रव्यत्वादि सामान्यों में से प्रत्येक सामान्य एक एक ही है । यद्यपि सामान्य अनन्त (प्रकार के ) आश्रयों में रहता है, फिर भी उसकी अभिव्यक्ति के कारणों की एक रूपता, और उसके आश्रयों की
न्यायकन्दली दयः प्रत्येक द्रव्यादिष्वेव नियताः। प्रत्ययभेदश्चैतेषु दृश्यते, तस्माद् द्रव्यादिषु वृत्तिनियमात् प्रत्ययभेदाच्च द्रव्यत्वादीनां परस्परतो भेदः ।
अभेदात्मकं सामान्यमिति पूर्व प्रतिज्ञामात्रेणोक्तं तदिदानी प्रमाणसिद्ध तस्य करोति-प्रत्येक स्वाश्रयेष्विति । लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणमनुगताकारज्ञानम् । प्रत्येकं प्रतिपिण्डमविशेषाद् वैलक्षण्याभावाद् विशेषे भेदे लक्षणस्य प्रमाणस्याभावाच्च सामान्यस्य स्वाश्रयेष्वेकत्वमभिन्न स्वभावमित्यर्थः । स्वविषये सर्वत्र सामान्य समवैति नान्यत्रेति यत् पूर्वमुक्तं तस्य कारणमाह-यद्यपीति । यद्यपि सामान्यानि यत्र तत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बन्धादपरिच्छिन्नदेशान्यनियतदेशानि, में से प्रत्येक सामान्य यतः द्रव्यादि व्यक्तियों में ही नियमित रूप से रहता है एवं इनमें इन की प्रतीतियां भी विभिन्न आकार की होती हैं। तस्मात् द्रव्यादि में ही नियमित रूप से रहने के कारण और उक्त प्रती त भेद के कारण समझते हैं कि द्रव्यत्वादि जातियाँ परस्पर भिन्न हैं।
'प्रत्येकं स्वाश्रयेषु' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा पहिले केवल प्रतिज्ञावाक्य के द्वारा सिद्धवत् कही हुई सामान्य को अभिन्नता को प्रमाण के द्वारा प्रत्येकं स्वाश्रयेषु' इत्यादि वाक्य से सिद्ध करते हैं। लक्ष्यते अनेन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत में 'लक्षण' शब्द का अर्थ है अनुगत एक आकार का ज्ञान । उसका 'प्रत्येक में' अर्थात् गोप्रभृति प्रत्येक व्यक्ति में 'अविशेष से' अर्थात् विभिन्नता के न रहने से, एवं 'विशेष में' अर्थात् द्रव्यत्वादि प्रत्येक जाति के भेद में अर्थात् अनेकत्व में 'लक्षण' अर्थात् किसी प्रमाण के न रहने से समझते हैं कि एक सामान्य अपने सभी आश्रयों में एक ही है, अर्थात् अभिन्नस्वभाव का है। पहिले जो यह कहा गया है कि 'सामान्य अपने विषयों अर्थात् आश्रयों में ही समवाय सम्बन्ध से रहता है, अन्यत्र नहीं' उसी के हेतु का प्रतिपादन 'यपि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा किया गया है ।
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७५४
न्यायकन्दली संवलित प्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
कारण सामग्री नियमाच्च स्वविषय सर्वगतानि । अन्तराले च संयोगसमवायवृन्यभावादव्यपदेश्यानीति ।
इति प्रशस्तपादभाष्ये सामान्यपदार्थः समाप्तः ।
1:0:1
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1:0:1
न्यायकन्दली
[ सामान्यनिरूपण
नियमित रूप से समान कारणों से उत्पन्न होना इन दोनों से समझते हैं कि सामान्य अपने सभी आश्रयों में समानरूप से रहता है । ( कार्योत्पत्ति के ) बीच के द्रव्यों में उस कार्य में रहनेवाले सामान्य का न संयोग सम्बन्ध है, न समवाय सम्बन्ध, अतः उनमें सामान्य का व्यवहार नहीं होता । अतः ( सन्निहित होने पर भी उनमें वह नहीं रहता है ) ।
प्रशस्तपाद भाष्य का सामान्यनिरूपण समाप्त हुआ ।
गोत्वस्य व्यञ्जकः,
घटत्वस्य,
तथाप्युपलक्षणस्याभिव्यञ्जकस्यावयवसंस्थान विशेषस्य नियमान्नियतत्वात् पिण्डोत्पादक कारणसामग्री नियमाच्च स्वविषये सर्वत्र समवयन्ति नान्यत्रेति । एतदुक्तं भवति - सास्नादिसंस्थानविशेषो केसरादिसंस्थानविशेषोऽश्वत्वस्य, विशिष्टग्रीवादिसंस्थान विशेषो प्रतीतिनियमात् । एते च संस्थानविशेषा न सर्वेषु पिण्डेषु साधारणाः, अपि तु प्रतिनियतेषु भवन्ति । तत्र यद्यपि सर्वं सामान्यं सर्वत्रोपजायमानेन स्वविषयेणैव पिण्डान्तरेणापि सम्बद्ध क्षमते, तथापि यस्याभिव्यञ्जकं यत्र यद्यपि सामान्य जहाँ तहाँ उत्पन्न पिण्डों के साथ सम्बद्ध होने के कारण 'अपरिच्छिन्न देश' में अर्थात् अनियत देशों में रहनेवाले हैं। फिर भी उसके 'उपलक्षण' अर्थात् अभिव्यञ्जक जो अवयवों के विशेष प्रकार के संयोग हैं, वे नियमित हैं । इस नियम के कारण और आश्रयीभूत पिण्डों के कारणों के नियमित होने से वे अपने ही विषयों में समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध होते हैं । इससे यह अभिप्राय निकला कि सास्ता प्रभृति अवयत्रों का विशेष प्रकार का संयोग ( संस्थान) ही गोत्व जाति की अभिव्यक्ति का कारण है । एवं केसर प्रभृति संस्थान अश्वत्व जाति अभिव्यक्ति का हेतु । इसी प्रकार विशेष प्रकार के ग्रीवादि संस्थान घटत्व के ज्ञापक हैं, क्योंकि नियमित रूप से तत्तत् संस्थान से युक्त पिण्डों में ही तत्तत् सामान्य का प्रतिभास होता है । ये कथित संस्थान सभी पिण्डों में समान रूप से नहीं रहते, किन्तु अपने नियमित पिण्डों में ही रहते हैं । इस प्रकार सभी सामान्य जिस प्रकार सभी जगह उत्पन्न होनेवाले अपने व्यक्तियों के साथ सम्बद्ध होंगे, उसी प्रकार दूसरे पिण्डों के साथ
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१. यहाँ 'स्वविषयेणैव' के स्थान में 'स्वविषयेणेव ' ऐसा इवकार' घटित पाठ ही उचित जान पड़ता है । अतः तदनुसार ही अनुवाद किया गया है ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली पिण्डे सम्भवति तस्य तत्रैव समवायो नान्यत्र । एवं सामग्रया नियमादपि सामान्यसम्बन्धनियमः। एष हि तन्त्वादीनां कारणानां स्वभावो यदेतैरुत्पद्यमाने द्रव्ये पटत्वमेव समवैति, नान्यत् । एष हि मृत्पिण्डादीनां महिमा यत् तैः क्रियमाणे द्रव्ये घटत्वमेव समवैति, नान्यत् ।
न तावत् सामान्यमन्यतो गत्वान्यत्र सम्बध्यते, निष्क्रियत्वात् । तत्रापि यदि पूर्व नासीत् ? तत्रोपजायमानेन पिण्डेनास्य सम्बन्धो न स्यात् । दृश्यते च सर्वत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बन्धः, तस्मात् सर्व सर्वत्रास्तीति कस्यचिन्मतं तन्निराकुर्वन्नाह–अन्तराले संयोगसमवायवृत्त्यभावादव्यपदेश्यानीति । अन्तरालमिति आकाशं वा दिगद्रव्यं वा स्तिमितवेगमूर्तद्रव्याभावो वा, तेषु गोत्वादिसामान्यानां न संयोगो नापि समवायः । न चासम्बद्धानामेव तेषामवस्थाने प्रमाणमस्ति । अतोऽन्तराले न सामान्यानि व्यपदिश्यन्ते न सन्तीत्यर्थः । कथं तहि तत्रोपजायमानेन पिण्डेन सम्बध्यन्ते ? भी जिन किसी सम्बन्ध से सम्बद्ध हो सकते हैं। फिर भी जिस सामान्य का ज्ञापक जो संस्थान है, उस संस्थान से युक्त पिण्ड में ही उस सामान्य का समवाय है, अन्य पिण्डों में नहीं । इसी प्रकार आश्रयोभूत किसी व्यक्ति के उत्पादक कारणसमूह के नियमन से ही सामान्य के समवाय रूप सम्बन्ध का भी नियमन हो सकता है, जैसे कि (पट के उत्पादक ) तन्तु प्रभृति कारणों का ही यह स्वभाव है कि इनसे उत्पन्न द्रव्य में पटत्व समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध होता है, अन्य सामान्य नहीं । एवं मिट्टी प्रभृति कारणों की ही यह महिमा है कि इनसे उत्पन्न द्रव्य में घटत्व का ही समवाय हो, किसी दूसरे सामान्य का नहीं ।
'सामान्य' यतः क्रिया रहित है. अतः एक जगह से दूसरी जगह जाकर अपने विषय के साथ सम्बद्ध नहीं हो सकता। ( व्यक्ति की उत्पत्ति के देश में उसके रहने पर भी उस व्यक्ति के साथ सम्बन्ध के प्रसङ्ग में यह प्रश्न उठता है कि ) सामान्य यदि उस देश में पहिले से नहीं था, तो फिर इस समय उत्पन्न हुए अश्वादि के साथ उसका सम्बन्ध नहीं हो सकता | किन्तु सभी देशों में उत्पन्न व्यक्तियों के साथ उसका सम्बन्ध होता है। तस्मात् यह मानना पड़ेगा कि सामान्य सभी स्थानों में है। किसी सम्प्रदाय के इसी सिद्धान्त का निराकरण करने के लिए अन्तराले' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है। प्रकृत में 'अन्तराल' शब्द आकाशादि का, स्तिमितवायु का, अथवा अमूर्त द्रव्य प्रभृति का बोधक है। इनमें से किसी में भी गोत्यादि सामान्यों का न समवाय सम्बन्ध है, और न संयोग सम्बन्ध है। 'गोत्वादि जातियाँ बिना किसी सम्बन्ध के ही रहती हैं' इस प्रसङ्ग में भी कोई प्रमाण नहीं है। अत: कथित 'अन्तराल' में गोत्वादि सामान्य का व्यवहार नहीं होता है। फलतः वह अन्तराल में नहीं है। (प्र०) तो फिर उन देशों में अपने गवादि विषयों ( व्यक्तियों) के साथ वे किस प्रकार सम्बद्ध होते
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली कारणसामर्थ्यात् । संयोगो ह्यन्यतः समागतस्य भवति, तत्रैवावस्थितस्य वा भवति । तस्माद् विलक्षणस्तु समवायो यत्र यत्रैव पिण्डोत्पत्तौ कारणानि व्याप्रियन्ते, तत्र तत्रैव कारणानां सामर्थ्यात् पिण्डेऽन्यतोऽनागतस्य तत्र स्थितस्यापि सामान्यस्य भवति, वस्तुशक्तेरपर्यनुयोज्यत्वात् ।
अत्राहः सौगता:-प्रतीयमानेषु भेदेषु मणिसूत्रवदेकस्याकारस्यानुपलम्भात् सामान्यं नास्त्येवेति । तदयुक्तम्, अनेकासु गोव्यक्तिष्वनुभूयमानास्वश्वादिव्यक्तिविलक्षणतया सामान्याकारप्रतीतिसम्भवात् । यदि शाबलेयादिषु परस्परभिन्नेष्वेकमनुवृत्तं न किञ्चिदस्ति, यथा गवाश्वव्यक्तयः परस्परविलक्षणाः संवेद्यन्ते तथा गोव्यक्तयोऽपि संवेद्याः स्युः । यथा वा गोव्यक्तयः सरूपाः प्रतीयन्ते तथा गवाश्वव्यक्तयोऽपि प्रतोयेरन, विशेषाभावात् । नियमेन तु गोव्यक्तयः प्रतीयमानाः सरूपाः स्ववर्गसाधारणहैं ? इसका यह उत्तर है कि व्यक्ति के उत्पादक कारणों के विशेष सामर्थ्य के द्वारा ही गोत्वादि सामान्य अपने ब्यक्तियों के साथ सम्बद्ध होते हैं। संयोग दूसरे देश से आये हुए व्यक्ति का, अथवा उसी स्थान में पहिले से विद्यमान वस्तु का होता है। किन्तु समवाय में संयोग से यह अन्तर है कि जिन जिन देशों में उनके विषयों के उत्पादक कारण अपने कार्य को करने के लिए क्रियाशील होते हैं, उन्हीं उन्हीं देशों में उन्हीं कारणों के विशेष सामर्थ्य के द्वारा उस सामान्य का सम्बन्ध हो जाता है, जो किसी दूसरी जगह से नहीं आता, उसी देश में विद्यमान रहता है । क्योंकि वस्तुओं की स्वाभाविक शक्तियाँ सभी अभियोगों के बाहर हैं ।
इस प्रसङ्ग में बौद्ध लोगों का कहना है कि (प्र०) सामान्य नाम को कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार मणियों के विभिन्न होते हुए भी उन सबों में एक माला का व्यवहार इसलिए होता है कि सबों को एक व्यवहार में लानेवाला सूत्र नाम का एक पदार्थ है, उस प्रकार विभिन्न गोव्यक्तिओं में एक प्रकार के व्यवहार के कारण गौओं से भिन्न किसी वस्तु की उपलब्धि नहीं होती। ( उ.) किन्तु उन लोगों का यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी गोव्यक्ति में 'ये गो हैं' इस एक प्रकार की प्रतीति होती है, जो अश्वादि व्यक्तियों में नहीं होती है। यदि परस्पर विभिन्न शाबलेय (बाहुलेय ) प्रभृति सभी गोव्यकित में समान रूप से रहनेवाली कोई वस्तु नहीं हैं, तो फिर जिस प्रकार गो और अश्व दोनों परस्पर विभिन्न रूप में प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार सभी गोव्यक्ति भी परस्पर विभिन्न रूप में ही प्रतीत होंगी। अथवा जिस प्रकार सभी गोव्यक्ति की प्रतीति एक रूप से होती है, उसी प्रकार गोव्यक्तियों और अश्वव्यक्तियों की प्रतीतियाँ भी एक रूप से होंगी, क्योंकि स्थितियों में अन्तर का कोई कारण नहीं है। किन्तु नियमतः सभी गोव्यक्ति एक ही आकार से प्रतीत होती हैं, अतः अश्वादि सभी व्यक्तियों में न रहनेवाले एवं सभी गोव्यक्तियों
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प्रकरणम्
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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मश्वादिव्यावृत्तं किश्विदेकं रूपमाक्षिपति, एकार्थक्रियाकारित्वादेकहेतुत्वाच्च । गोव्यक्तीनामेकत्वमिति चेत् ? नासति सामान्ये व्यक्तीनामिव व्यक्तिहेतूनां व्यक्तिकार्याणामपि परस्परव्यावृत्तानामेकत्वात् २ । किश्व, यद्येकहेतुत्वादेकत्वम्, भिन्नकारणप्रभवाणां व्यक्तीनामेकत्वं न स्यात् । दृश्यते चाभिन्नस्वभावानामपि कारणभेदो यथा वह्नेर्दारुनिर्मथनाद् विद्युत आदित्यगभस्तिक्षोभितात् सूर्यकान्तादपि मणेरुत्पत्तिः । एककार्यत्वादेकत्वे च विजातीयाना
७५७
में रहनेवाले किसी एक धर्म की कल्पना आवश्यक हो जाती है । ( प्र० ) सभी व्यक्ति यतः एक ही प्रकार के कार्यों के सम्पादक हैं. एवं एक ही प्रकार की सामग्रियों से उत्पन्न होती हैं, अतः सभी गोव्यक्ति एक ही हैं ( इसी एकत्व के कारण एकाकार की प्रतीतियाँ होती हैं ) | ( उ० ) जिस प्रकार सामान्य के न रहने पर व्यक्तियों की एकता सम्भव नहीं है, उसी प्रकार व्यक्ति रूप कार्यों और व्यक्ति के कारणों की एकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि व्यक्तियों की तरह उनके कार्य और उनके कारण भी तो परस्पर विभिन्न हैं, उनमें रहनेवाले सामान्यों के बिना उनमें भी एकत्व का सम्पादक कौन होगा ? दूसरी बात यह है कि यदि एक प्रकार की सामग्री से उत्पन्न होना ही
सामग्री से एक प्रकार के
व्यक्तियों में एकरूपता का कारण हो तो फिर भिन्न प्रकार की कार्य को उत्पत्ति न हो सकेगी, किन्तु सभी अग्नियों का एक प्रकार का स्वभाव होते हुए भी उनके कारण भिन्न भिन्न हैं, यतः कभी काष्ठों के मन्थन से कभी विद्युत् से और कभी सूर्य की किरणों से क्षुभित सूर्यकान्त मणि से वह्नि की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार यदि एक प्रकार के कार्यों के उत्पादक होने से ही व्यक्तियों में एकता मानी जाय तो कुछ विजातीय वस्तुओं में भी एकता माननी पड़ेगी, क्योंकि दोहन, वाहनादि क्रियायें समान रूप से गोप्रभृति व्यक्तियों से और महिषादि व्यक्तियों से भी उत्पन्न होती हैं । ( एवं एककार्यकारित्व को यदि एकता का प्रयोजक मानें तो फिर ) जिन गोव्यक्तियों से दोहन भारवाहनादि क्रियायें सम्पादित ही नहीं होतीं, उनमें
१. मुद्रित पुस्तक में ' रूपमाक्षिपति' इस वाक्य के आगे पूर्ण विराम नहीं है। 'एकाथ क्रियाकारित्वादेकहेतुत्वाच्च' इस वाक्य के आगे पूर्ण विराम है, जिससे सङ्गति ठीक नहीं बैठती है । अतः 'रूपमाक्षिपति' इसी वाक्य के आगे पूर्णविराम देकर और आगे के वाक्य को पूर्वपक्षियों के साधक हेतुओं का बोधक मानकर अनुवाद किया गया है ।
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२. इस सन्दर्भ में 'परस्परव्यावृत्तानामेकत्वात्' यह मुद्रित पाठ उचित नहीं जान पड़ता, इसे प्रथमान्त होना चाहिए। आगे के 'भिन्नकारणप्रभवाणामेकत्वम्' इस प्रथमान्त पाठ से यह और स्पष्ट हो जाता है । अतः उक्त पाठ को प्रथमान्त मान कर ही अनुवाद किया गया है ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली मप्येकत्वापत्तिः, दृष्टा हि वाहदोहनादिकिया गवादिव्यक्तीनामिव महिष्यादिव्यक्तीनामपि । या च गौर्न दुह्यते न च वाह्यते, सा गौर्न स्यात् ।
अपि च सामान्याभावे कोऽर्थः शब्दसंसर्गविषयः ? न तावत् स्वलक्षणम्, तस्य क्षणिकस्य सर्वतो व्यावतस्य सतविषयत्वाभावात् । नापि विकल्पः शब्दार्थः, तस्य क्षणिकत्वादसाधारणत्वाच्च । विकल्पाकारः शब्दार्थ इति चेत् ? किं विकल्पाकारो विकल्पव्यतिरिक्तः ? अव्यतिरिक्तो वा ? यदि भिन्नः, स किं सर्वविकल्पसाधारणः, किं वा प्रतिविकल्पं भिद्यते ? साधारणत्वे तावदेतस्य सामान्यादभेदः, यदि परम् ? तव ज्ञानधर्माऽयमस्माकं चार्थधर्मः (इति) बहिर्मुखतया प्रतीयमानत्वादिति (न) कश्चिद् विशेषः । यदि व्यतिरिक्तोऽयमाकारः प्रतिज्ञानं भिद्यते, अथवा ज्ञानादव्यतिरिक्त एव, उभयथापि न शब्दसंसर्गयोग्यता, ज्ञानवदशक्यसङ्केतत्वात् । विकल्पः पारम्पर्येण तदुत्पत्तिप्रतिबन्धाद् बाह्यात्मतया स्वाकारमारोप्य विकल्पयति, तत्रायं शब्दसंसर्ग एक आकार की कथित प्रतीति नहीं होगी। एवं जिस गाय से न दूध मिलता है और न माल ढोया जाता है वह गाय ही नहीं रह जाएगी।
दूसरी बात यह है कि यदि सामान्य नाम की कोई वस्तु ही न हो तो शब्दों का ( सङ्केत रूप ) सम्बन्ध कहाँ मानेंगे? घटादि विषयों के 'स्वलक्षण' में घटादि शब्दों का सम्बन्ध मान नहीं सकते, क्योंकि उक्त 'स्वलक्षण' तो क्षणिक है, एवं और किसी भी वस्तु में वह नहीं रहता है, अत: उसमें किसी भी शब्द का ( सङ्केत या ) सम्बन्ध नहीं हो सकता। उसका विकल्प भी शब्दसङ्केत का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि 'विकल्प' भी क्षणिक है, और साथ साथ असाधारण ( एकमात्र पुरुषवृत्ति) भी है। (प्र०) एक विकल्पव्यक्ति क्षणिक और असाधारण है, किन्तु विकल्पों के आकार तो असाधारण हैं, ( क्योंकि एक आकार के अनेक विकल्प अनेक पुरुषों में देखे जाते हैं, अतः विकल्प का आकार शब्दसङ्कत का विषय हो सकता है। ( उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि विकल्प का यह आकार विकल्प से भिन्न कोई स्वतन्त्र वस्तु है ? या यह विकल्प से अभिन्न ( वस्तुतः विकल्प ही ) है ? यदि पहिला पक्ष मानें ( कि विकल्प का आकार विकल्प से भिन्न स्वतन्त्र वस्तु है) तो फिर इस प्रथम पक्ष के प्रसङ्ग में भी यह पूछना है कि यह 'आकार' सभी विकल्पों में साधारण रूप से रहनेवालो एक ही वस्तु है ? या प्रत्येक विकल्प में रहनेवाला आकार अलग अलग है ? यदि सभी विकल्पों में साधारण रूप से रहनेवाले एक 'आकार' को स्वीकार कर लिया जाय, तो वह सामान्य से अभिन्न ही होगा। फलतः सामान्य स्वीकृत ही हो गया। थोड़ा अन्तर इतना रह जाता है कि उसे (आकार को आप ज्ञानों का धर्म मानते हैं, और हम लोग उसे बहिर्मुखतया प्रतीत होने से ( सामान्य को) विषयों का धर्म मानते हैं। यदि आकार को विकल्प से भिन्न मानें तो फिर वह ज्ञान से भिन्न ही होगा या ज्ञान स्वरूप ही होगा । दोनों ही स्थितियों में उनमें शब्दों के सम्बन्ध की सम्भावना नहीं रहेगी, क्योंकि ज्ञान की तरह ( उससे भिन्न या अभिन्न आकार भी क्षणिक होने के कारण ) शब्दसङ्केत
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
इति चेत् ? बाह्यत्वेनारोपितो विकल्पाकार एकाधीनस्वभावत्वाद् विकल्पे जायमाने जायमान इव, विनश्यति विनश्यन्निव प्रतीयमानः प्रतिविकल्पं भिन्न एवावतिष्ठते । न च भेदानुपातिनि सङ्केत प्रवृत्तिरित्युक्तम् ।
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७५९
अथोच्यते - यादृशमेको गोविकल्पे वाह्यात्मतया स्वप्रतिभासमारोपयति गोविकल्पान्तरमपि तादृशमेवारोपयति, विकल्पाश्च प्रत्येकं स्वाकारमात्रग्राहिणो न परस्परारोपितानामाकाराणां भेदग्रहणाय पर्याप्नुवन्ति, तस्योभयग्रहणाधीनत्वात् । तदग्रहणाच्च विकल्पारोपितानामाकाराणामेकत्वमारोप्य विकल्पानामेको विषय इत्युच्यते । तदेव च सामान्यं बहिरारोपितेभ्यो विकल्पाकारेभ्योऽत्यन्तभेदाभावेनाभावरूपं स्वलक्षणज्ञानतदाकारारोपितैश्चतुभिः सहोभिः समस्यार्द्धपञ्चमाकार इत्युच्यमानमारोपितबाह्यत्वं शब्दाभिधेयं शब्द
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का विषय नहीं हो सकता । (प्र०) वह परम्परया बाह्यविषयों के साथ भी है, अतः विकल्प स्वयं अपने में ही बाह्यत्व का आरोप कर अपने में बाह्यत्वाकार के विकल्प को भी उत्पन्न करता है । इसी बाह्यविषयक विकल्प में शब्दों का सङ्केत है । ( उ० ) बाह्यत्व विषयक यह आरोप प्रत्येक बाह्य विषय में अलग अलग ही मानना पड़ेगा। क्योंकि इस बाह्यविषयक विकल्प की उत्पत्ति केवल कथित आन्तर विकल्पमात्र से होती है, अतः इसके उत्पन्न होने पर वह वस्तुविषयक विकल्प उत्पन्न सा और विनष्ट होने
रविष्ट सा दीखता है । इस प्रकार वस्तुविषयक वह विकल्प असाधारण और क्षणिक भी होगा । पहिले ही कह चुके हैं कि सजातीय भिन्न व्यक्तियों में ही शब्द का सङ्केत हो सकता है, असाधारण किसी एक मात्र व्यक्ति में नहीं । ( प्र० ) एक गोविषयक विकल्प बाह्यत्वविषयक अपने जिस आकार को उत्पन्न करता है, गोविषयक दूसरा विकल्प भी उसी तरह के बाह्यत्व विषयक अपने आकार के विकल्प को उत्पन्न करता है । विकल्पों का यह स्वभाव है कि वे केवल अपने आकारों का ही आरोप करें। समान आकारों में जो आरोपित परस्पर भेद हैं, उन भेदों को ग्रहण कराने का सामर्थ्य उनमें नहीं है । क्योंकि भेद को समझने के लिए उसके प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों को समझना आवश्यक है । भेद के इस अज्ञान के कारण ही एक आकार के विकल्प से कल्पित आकारों में एकत्व का आरोप होता है । एकत्व के इसी आरोप के कारण 'इयं गौ: ' ' इस आकार के सभी विकल्पों का विषय एक ही है' इस प्रकार का व्यवहार होता है । इसी को वैशेषिकादि ) 'सामान्य' कहते हैं । किन्तु यह 'सामान्य' अभाव रूप है ( भाव रूप नहीं ) क्योंकि बाह्य वस्तुओं में, एवं आरोपित विकरूपों में जो परस्पर भेद है, उनका अत्यन्ताभाव ही वह सामान्य है । ( १ ) स्वलक्षण ( कम्बुग्रीवादिमत्त्व प्रभृति ), ( २ ) उसका ज्ञान ( ३ ) ज्ञान के आकार, एवं ( ४ ) आकार का बाह्यत्वारोप इन चार सहायकों के साथ मिलकर ( इन चारों से कुछ ही भिन्न होने के कारण ) उसे अर्द्धपञ्चमाकार' कहा जाता है । उसी अर्द्धपश्चमाकार वस्तु में शब्द
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७६०
ग्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली संसर्गविषयः। तदध्यवसाय एव स्वलक्षणाध्यवसायः, तदात्मतया तस्य समारोपात् । अन्यव्यावृत्तिस्वभावं भावाभावसाधारणं चेदम्, गौरस्ति नास्तीति प्रयोगात् । भावात्मकत्वे ह्यस्य गौरस्तोति प्रयोगासम्भवः, पुनरुक्तत्वात् । नास्तीति च न प्रयुज्यते, विरोधात् । एवं तस्याभावात्मकत्वे नास्तीति पुनरुक्तम्, अस्तीति विरुध्यते । यथोक्तम्
घटो नास्तीति वक्तव्यं सन्नेव हि यतो घटः।
नास्तीत्यपि न वक्तव्यं विरोधात् सदसत्त्वयोः ॥ इति । एतस्मादेव च भिन्नानामपि व्यक्तीनामेकतावभासः । इदं हि सर्वेषामेव विकल्पानां विषयोऽस्यैकत्वाद् विकल्पानामप्येकत्वम् । तेषामेकत्वाच्च तत्काका ( सङ्क्तरूप ) संसर्ग होता है। शब्द से उसी का व्यवहार होता है, एवं उसी का बाह्य अर्थ रूप में भी व्यवहार होता है, उसे ही 'स्वलक्षण' भी कहते हैं। इसी 'स्वलक्षणाध्यवसाय' रूप से उसका आरोप होता है। इस ( अर्द्धपञ्चमाकार ) का अध्यवसाय ही स्वलक्षणाध्यवसाय' कहा जाता है, क्योंकि विकल्प का इसी रूप से आरोप होता है । यह ( अपोह) अन्यव्यावृत्ति स्वभाव का है, अर्थात् इसका स्वभाव है कि अपने विषय को अन्यों से भिन्न रूप में समझावे । एवं भाव और अभाव दोनों प्रकार की वस्तुओं में समान रूप से रहना भी इसका स्वभाव है। क्योंकि 'गौरस्ति' और 'गौर्नास्ति' इन दोनों ही प्रकार के प्रयोग होते हैं। यदि यह केवल भाव रूप ही होता, तो फिर पुनरुक्ति के कारण 'गौरस्ति' यह प्रयोग सम्भव न होता। 'गौर्नास्ति' यह प्रयोग भी नहीं हो सकता, क्योंकि अस्तित्व और नास्तित्व दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। इसी प्रकार इसको केवल अभाव रूप ही मानें तो 'गौर्नास्ति' यह प्रयोग पुनरुक्ति के कारण नहीं हो सकेगा और 'गौरस्ति' यह प्रयोग विरोध के कारण असम्भव होगा । जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि
१“यतः घट सत् है अत: 'घटोऽस्ति' यह प्रयोग ठीक नहीं है, ( क्योंकि इससे पुनरुक्ति होती है)। 'घटो नास्ति' यह प्रयोग भी ठीक नहीं है, क्योंकि ( घटशब्द से बोध्य ) सत्त्व और ( नास्तिशब्द से बोध्य ) असत्त्व दोनों परस्पर विरोधी हैं।"
___इसी ( अर्द्धपञ्चमाकार ) से विभिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति होती है। यही सभी विकल्पों का विषय है, और इसी की एकता से सभी विकल्पों में भी एकता की प्रतीति होती है। विकल्पों के एकत्व से ही उसके कारणीभूत एवं प्रत्येक पिण्ड
१. यह श्लोक मुद्रित पुस्तक में 'घटो नास्तीति वक्तव्यम्' इस प्रकार से मुद्रित है। किन्तु विषय विवेचन की दृष्टि से 'घटोऽस्तीति न वक्तव्यम्' ऐसा पाठ उचित जान पड़ता है। यह पाठ पाठान्तरों की सूची में भी है। अतः तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
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७६१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली रणानां प्रतिपिण्डभाविनां निर्विकल्पकानामप्येत्कवम् । तेषामेकत्वाच्च तत्कारणानां व्यक्तीनामेकत्वावगमः । यथोक्तम्
एकप्रत्यवमर्षस्य हेतुत्वाद् धीरभेदिनी।
एकधीहेतुभावेन व्यक्तीनामप्यभिन्नता ॥ इति । एतदप्ययुक्तम् विकल्पानुपपत्तेः । विकल्पाकाराणां भेदाग्रहणादारोपितमैक्यं सामान्यमाचक्षते भिक्षवः । अत्र ब्रूमः । किमाकाराणां भेदाग्रहणमेवाभेदसमारोपः ? आहोस्विदभेदग्रहणमभेदारोप: ? न तावदाद्यः कल्पः, भेदसमारोपितस्यापि प्रसङ्गात् । यथा विकल्पाकाराणां भेदो न गाते, तद्वदभेदोऽपि न गृह्यते । तत्र भेदाग्रहणादभेदारोपवदभेदाग्रहणाद् भेदारोपस्यापि प्रसक्तावभेदोचितव्यवहारप्रवृत्त्ययोगात् । अभेदग्रहणमभेदारोप इत्यपि न युक्तम्, आत्मवादे एको ह्यनेकदर्शी तेषां भेदाभेदौ प्रत्येति । नैरात्म्यवादे त्वेकोऽनेकार्थद्रष्टा न कश्चिदस्ति, विकल्पानां प्रत्येकं स्वाकारमात्रनियतत्वात् । अस्तु
में उत्पन्न होनेवाले निर्विकल्पक ज्ञानों में भी एकता की प्रतीति होती है। निर्विकल्पक ज्ञानों की इस एकता से ही उनके कारणीभूत विभिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति होती है । जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि
___ एकत्व ज्ञान के कारण ही परस्पर विभिन्न व्यक्तियों में अभेद बुद्धि उत्पन्न होती है, एवं उस एकत्वविषयक बुद्धि को हेत होने से ही व्यक्तियों में अभिन्नता होती है।
(उ०) यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस पक्ष के सम्भावित सभी विकल्प अनुपपन्न ठहरते हैं । विकल्प के आकारों में जो परस्पर भेद है, उस भेद के अज्ञान से उनमें जिस एकत्व का आरोप होता है, उसे ही भिक्षुगण 'सामान्य' कहते हैं। इस प्रसङ्ग में सिद्धान्तियों का पूछना है कि-(१) आकारों के भेद का जो अग्रह क्या वही अभेद (एकत्व) का आरोप है ? या (२) अभेद के ग्रहण को ही अभेद का आरोप कहते हैं ? (१) इनमें यदि प्रथम पक्ष मानें तो जिन व्यक्तियों में परस्पर भेद निश्चित है, उन दोनों में भी अभेद व्यवहार की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि, जिस प्रकार विकल्प के आकारों में भेद का ज्ञान नहीं होता है, उसी प्रकार उन आकारों में जो अभेद है, उसका भी भान नहीं होता है। इस स्थिति में भेद के अज्ञान से अभेद के आरोप की तरह अभेद के अज्ञान से भेद का आरोप भी होगा। फिर विकल्प के आकारों में अभेद व्यवहार की कथित रीति अयुक्त हो जाएगी। (२) 'अभेद का ग्रहण ही अभेद का आरोप है' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'आत्मवाद' में अनेक विषयों का एक द्रष्टा स्वीकृत है, अतः उस पक्ष में एक ही पुरुष विकल्पों के भेद और अभेद दोनों
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
१. यह
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वाsनेकार्थदर्शो कश्चिदेकस्तथाप्येकं निमित्तमन्तरेण भिन्नेष्वाकारेषु नाभेदग्रहणमस्ति । भवद्वा गवाश्वमहिषाद्याकारेष्वपि भवेदविशेषात् । गवाकारेष्वप्यगोव्यावृत्तिरेकं निमित्तमस्तीति चेत् ? के पुनरगावो यद्वद्यावृत्त्या गवाका रेष्वेकत्व - मारोप्यते ? ये गावो न भवन्ति तेऽगाव इति चेत् ? गावः के ? ते येऽगावो न भवन्तीति चेत् ? गवाश्वस्वरूपे निरूपिते तद्वयावृत्तत्वेनागवां स्वरूपं निरूप्यते, अगवां स्वरूपे निरूपिते तद्वद्यावृत्त्या गवां स्वरूपनिरूपणमित्येकाप्रतिपत्तावितराप्रतिपत्तेरुभयाप्रतिपत्तिः । यथाह तत्रभवान् -
'सिद्धश्च गौरपोह्येत गोनिषेधात्मकश्च सः ।
[ सामान्यनिरूपण
को क्रमशः समझ सकता है। किन्तु 'नैरात्म्यवाद' में अनेक वस्तुओं को देखनेवाला कोई एक पुरुष स्वीकृत नहीं है, क्योंकि विकल्प केवल अपने अपने आकार मात्र में पर्यवसित हैं। अनेक वस्तुओं के एक द्रष्टा को यदि स्वीकार भी कर लें, फिर भी अनेक वस्तुओं में अभेद की प्रतीति तब तक नहीं हो सकती, जब तक उन अनेक वस्तुओं में रहनेवाले किसी एक निमित्त को न मान लिया जाय। बिना एक किसी
प्रतीति मानें तो गो, महिष प्रभृति क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । ( गोभिन्नभिन्नत्व ) रूप एक धर्म के
पदार्थ को माने भी यदि उक्त अभेद को आकारों में भी उक्त एकत्व की प्रतीति होगी, ( प्र० ) गो के सभी आकारों में 'अगोव्यावृत्ति' रहने से सभी गोव्यक्तियों में एकत्व का आरोप होता है ? ( उ० ) 'अगो' शब्द से कौन सब वस्तुएँ अभिप्रेत हैं, जिनकी व्यावृत्ति के कारण सभी गो व्यक्तियों में एकत्व का आरोप करते हैं ? ( प्र० ) गायों से भिन्न जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे ही प्रकृति में 'अगो' शब्द से अभिप्रेत हैं ? ( उ० ) 'गो' कौन सी वस्तु है ? यदि यह कहें कि ( प्र० ) वे ही गो हैं, जो गोभिन्न वस्तुओं भिन्न है ? ( उ० ) तो फिर गो, अश्व प्रभृति वस्तुओं का स्वरूप जब ज्ञात होगा, तब तद्भिन्नत्व रूप से 'गो' के स्वरूप का निर्णय होगा । एवं 'अगो' के स्वरूप का जब निर्णय होगा, तब उनकी व्यावृत्ति से गो के स्वरूप का निर्णय होगा । इस प्रकार इस ( अपोहवाद के ) पक्ष में एक के बिना दूसरे की प्रतिपत्ति न होने के कारण फलतः 'गो' और 'अगो' दोनों का ज्ञान ही असम्भव होगा |
से
जैसा कि इस प्रसङ्ग में 'तत्रभवान्' कुमारिलभट्ट ने कहा है कि
( किसी प्रमाण के द्वारा ) सिद्ध 'अगो' से ही सभी गोव्यक्ति में व्यावृत्ति बुद्धि उत्पन्न हो सकती है । किन्तु 'अगो' वस्तुतः गो का निषेध रूप है । किन्तु यह निर्वचन करना पड़ेगा कि 'अगो' शब्द में प्रयुक्त 'नन्' के द्वारा जिसका निषेध किया जाता है, वह 'गो' पदार्थ क्या है ?
पद्य श्लोकवार्त्तिक का है। मुद्रित न्यायकन्दली में इसका पाठ
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७६३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली तत्र गौरेव वक्तव्यो नना य: प्रतिषिध्यते ।
गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावे तु गौः कुतः ॥ इति __ अथान्यापोहः शब्दार्थोऽनारोपितबाह्यत्वम् ? तत्राप्युच्यते, कोऽयमपोहो नाम ? किमगोरपोहो भावोऽभावो वा ? यदि भावः, स कि गोपिण्डस्वभावोऽथागोपिण्डात्मकः ? गोपिण्डात्मकत्वे तावदस्यासाधारणता, न चासाधारणात्मकेऽथे शब्दप्रवृत्तिरित्युक्तम् । अगोपिण्डात्मकेऽप्ययमेव दोषो दूषणान्तरं चैतदधिकम् । यद् गोशब्दस्य गौरित्ययमर्थो न प्राप्नोति । यदि तु पिण्डव्यतिरिक्तमनेकसाधारणं वस्तुभूतमपोहतत्त्वमिष्यते ? शब्दमात्रविषया विप्रतिपत्तिः । अथापोहोऽन्यव्यावृत्तिरूपत्वादभावस्वभाव इष्यते ? तदास्य प्रत्ययत्वेन ग्रहणं न स्यात्, ज्ञानजनकस्यैव ग्राह्यलक्षणत्वात् । अभावस्य च समस्तार्थक्रियाविरहलक्षण
(फलतः) गो को सिद्धि के बिना 'अगो' को सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। एवं 'अगो' की सिद्धि के बिना ( तद्वयावृत्तिबुद्धि के विषय ) गो की सत्ता ही किस प्रकार सिद्ध की जा सकती है ?
(प्र०) अपोह शब्द के द्वारा आरोपित बाह्यत्व से भिन्न किसी ऐसे अर्थ का बोध होता है जिसका बाह्यत्व रूप से आरोप न हो। ( उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि 'अगो' का यह 'अपोह' कोन सी वस्तु है ? भाव रूप है ? अथवा अभाव रूप है ? यदि भाव रूप है' तो फिर इस प्रसङ्ग में पूछना है कि (यह भाव रूप अपोह) गो व्यक्तिस्वभाव का है ? अथवा 'अगो' व्यक्तियों के स्वभाव का है ! यदि उसे 'गोव्यक्ति' स्वरूप मानें, तो यह अपोह 'असाधारण' (एक मात्र पुरुषग्राह्य ) होगा। पहिले कह चुके हैं कि असाधारण अर्थ में शब्द की प्रवृत्ति नहीं होती है। यदि 'अगो' पिण्ड स्वरूप माने तो फिर उक्त असाधारण्य रूप दोष तो है ही, यह दोष और अधिक है कि 'गो' शब्द से 'गो' रूप अर्थ का ग्रहण नहीं होगी । यदि सभी गो पिण्डों में रहने वाला अथ च गोपिण्डों से भिन्न कोई 'भाव' पदार्थ ही 'अपोह' हो तो फिर हम दोनों का विवाद 'सामान्य' शब्द और 'अपोह' शब्द के प्रसङ्ग में ही रह जाएगा। यदि अपोह को अन्यव्यावृत्ति रूप होने के कारण अभाव रूप मानें, तो फिर विज्ञानत्व रूप से उसका ग्रहण न हो सकेगा, क्योंकि विज्ञान वही है जो किसी ज्ञान का जनक हो। किसी भी अर्थक्रिया के सामर्थ्य से शुन्य को ही 'अभाव' कहते हैं। इस प्रकार अभाव रूप अपोह में किसी शब्द की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । ( अपोह में शब्दों की प्रवृत्ति मान लेने पर भी) श्रोता को उस शब्द
'सिद्धश्च गौरपोह्यत' इस प्रकार है। किन्तु विषयविवेचन की दृष्टि से 'सिद्धश्चागौरपोह्येत' ऐसा पाठ उचित है। चौखम्भा से मुद्रित श्लोकवार्तिक में ऐसा ही पाठ है भी। तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली त्वात् । न च प्रत्यक्षागृहीतेऽर्थे सङ्केतग्रहणमस्तीत्यभावे शब्दस्याप्रवृत्तिरेव । न च तस्मिन् प्रतीयमाने श्रोतुरर्थविषया प्रवृत्तिः स्यात्, भावाभावयोरन्यत्वादसम्बन्धाच्च ।
स्वलक्षणात्मकत्वेनाभावप्रतीतावविवेकेन स्वलक्षणे प्रवृत्तिरिति चेत् ? 'दश्यविकल्प्यावर्थावेकीकृत्यातत्सन्निवेशिभ्यो भ्रान्त्या प्रतिपत्तिः प्रतिपत्तणाम् इति । तदयुक्तम् । अप्रतीते तदात्मकतया अभावसमारोपानुपपत्तेः । न च श्रोतुस्तदानीमर्थप्रतिपत्तिरस्ति शब्दस्यातद्विषयत्वात् प्रमाणान्तरस्याभावात् । अस्ति च शब्दादर्थे प्रवृत्तिस्तस्मानाभावोऽपि शब्दार्थः । न चान्यदेकं निमित्तं किञ्चिदस्ति । सर्वमिदमर्थजातं परस्परव्यावृत्तं प्रतिक्षणमपूर्वमपूर्वमनुभूयमानं न शब्दात् प्रतीयते । नापि प्रत्यक्षाप्रतीतमपि हानोपादानविषयो भवेत्, अपरिज्ञातसामर्थ्यत्वात् । अस्ति च शाब्दो व्यवहारः, अस्ति च प्राण
से किसी भी भावार्थ में प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि (घटादि ) भाव और उनमें रहनेवाला ( अपोह रूप ) अभाव दोनों भिन्न हैं। एवं परस्पर विरोधी होने से अपोह एवं घटादि पदार्थ दोनों का सम्बन्ध भी सम्भव नहीं है । (प्र०) घटादि की स्वलक्षणा प्रतीति और अपोह को प्रतीति दोनों में भेद बुद्धि न रहने के कारण ( अपोह के वाचक घटादि शब्दों से घटादिविषयक) प्रवृत्तियाँ होती हैं। जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि
दृश्य अर्थ और समारोपित अर्थ जो वस्तुतः परस्पर सम्बद्ध नहीं हैं, उन दोनों को एक समझकर ही सुनने वाले की तद्विषयक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । ( उ० ) किन्तु यह कहना भी अयुक्त है । अज्ञात वस्तु ( भाव ) में अभिन्न रूप से अभाव ( अपोह) का आरोप भी नहीं किया जा सकता। उस समय (शब्द को सुनने के बाद) श्रोता को अर्थ का ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द प्रामाणिक ( गवादि ) अर्थों का बोधक प्रमाण नहीं है । एवं उस समय शब्द को छोड़ दूसरा प्रमाण उपस्थित भी नहीं है। किन्तु शब्द से (घटादि) अर्थों में प्रवृत्ति होती है । अतः ( घटादि शब्दों के घटत्वादि रूप से घटादि भाव ही अर्थ हैं, अपोह रूप से) अभाव नहीं । (घटत्वादि ) सामग्रियों को छोड़कर शब्दों का कोई एक ( प्रवृत्ति ) निमित्त नहीं है। यह कहना भी सम्भव नहीं है कि जितने भी अर्थ उत्पन्न होते हैं वे सभी परस्पर भिन्न हैं, और प्रतिक्षण नये नये ही उत्पन्न होते हैं, और उन्हीं अर्थों का शब्द से अनुभव होता है। एवं (सामान्य के न मानने पर) प्रत्यक्ष के द्वारा अज्ञात व्यक्तियों में प्रवृत्ति और निवृत्ति नहीं होगी, (किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात व्यक्ति के सजातीय ) उन
१. यहाँ मुद्रित पाठ को यथावत् मानना उचित नहीं जान पड़ता। अतः "दृश्यविकल्प्यो" इसके पहिले 'यथोक्तम्' इतना अधिक जोड़कर, एवं 'प्रतिपत्तिः' इसके स्थान में 'प्रवृत्तिः' ऐसा पाठ मानकर अनुवाद किया गया है। ये दोनों ही पाठभेद नीचे के पाठभेदों में भी मुद्रित हैं।
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७६५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् अथ विशेषपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अन्तेषु भवा अन्त्याः , स्वाश्रयविशेषकत्वाद् विशेषाः ।
'अन्त' में अर्थात् नित्य द्रव्यों में रहने के कारण इसको 'अन्त्य' कहते हैं। एवं अपने आश्रय को अपने से भिन्न पदार्थों से अलग रूप में
न्यायकन्दली भृन्मात्रानुवर्तिनी प्रत्यक्षपूर्विका हिताहितप्राप्तिपरिहारार्था लोकयात्रा । सैव च भिन्नासु व्यक्तिषु सामान्यमेकं व्यवस्थापयति । यद्विषयाः शब्दात् प्रत्यया: प्रवृत्तयश्चोपलभ्यन्ते, तज्जातीयत्वेन तदर्थक्रियोपयोग्यतां विनिश्चित्यापूर्वावगतेऽप्यर्थे लोकः प्रवर्तत इति ।
भिन्नेष्वनुगताकारा बुद्धिर्जातनिबन्धना ।
अस्या अभावे नैवेयं लोकयात्रा प्रवर्तते ॥ इति । इति भट्टश्रीश्रीधरविरचितायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
सामान्यपदार्थः समाप्तः ।।
अप्रत्यक्ष व्यक्तियों में भी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा अज्ञात अर्थ का शब्द से व्यवहार होता है, एवं सभी प्राणियों में प्रत्यक्ष से होनेवाली हित की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति से ही 'लोकयात्रा' का निर्वाह देखा जाता है। यह 'लोकयात्रा' ही भिन्न व्यक्तियों में एक जाति को सिद्ध करती है। (लोकयात्रा के निर्वाह में सामान्य की उपयोगिता इस प्रकार है कि ) जिस शब्द से जिस विषय को समझकर प्रवृत्ति होती है, उस जाति के और व्यक्तियों में भी केवल उस जाति के होने के नाते ही उस कार्य की क्षमता का बोध हो जाता है। इससे प्रथमतः ज्ञात उस जाति के दूसरे विषयों में भी लोक प्रवृत्त होता है। तस्मात
भिन्न व्यक्तियों में एक आकार की प्रतीति जाति से ही होती है। अतः इसके न मानने पर 'लोकयात्रा' का निर्वाह न हो सकेगा। भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रचित पदार्थों के बोध को उत्पन्न करनेवाली
न्यायकन्दली टीका का सामान्य-निरूपण समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली चतुर्युगचतुर्विद्याचतुर्वर्णविधायिने ।
नमः पञ्चत्वशून्याय चतुर्मुखभृते सदा ॥ सत्यादि चारों युगों, आन्वीक्षिकी प्रभृति चारों विद्याओं, ब्राह्मणादि चारो वर्णों की रचना करनेवाले और स्वयं चार मुखवाले ब्रह्मा जी को प्रणाम करता हूँ, जो इस प्रकार चतुष्ट्व संख्याओं से युक्त होने के कारण पञ्चत्व' शून्य हैं ( अर्थात् मृत्यु से रहित हैं )।
_ 'अन्तेषु भवा अन्त्याः' यह वाक्य विशेष पदार्थ की व्याख्या के लिए लिखा गया
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
विनाशारम्भरहितेषु नित्यद्रव्येष्वण्वाकाशकाल दगात्ममनस्सु प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतवः । यथास्मदादीनां समझने के कारण इसे 'विशेष' कहते हैं । सभी प्रकार के परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ये सभी द्रव्य यतः उत्पत्ति और विनाश से रहित हैं, अतः इन सबों में 'विशेष' की सत्ता माननी पड़ती है । क्योंकि इनमें से प्रत्येक को अपने सजातीयों और विजातीयों से भिन्न रूप में
न्यायकन्दली
विशेषव्याख्यानार्थमाह - अन्तेषु भवा अन्त्या इति । उत्पादविनाशयोरन्तेऽवस्थितत्वादन्तशब्दवाच्यानि नित्यद्रव्याणि तेषु भवाः स्थिता इत्यर्थः । स्वाश्रयस्य सर्वतो विशेषकत्वाद् भेदकत्वाद् विशेषाः । एतद् विवृणोति - विनाशारम्भरहितेष्वित्यादिना । विनाशारम्भर हितेष्वित्यन्त्यपदस्य विवरणम् । अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतव इति च स्वाश्रयस्य विशेषकत्वादित्यस्य विवरणम् । प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना इति । द्रव्यं द्रव्यं प्रत्येकैको विशेषो वर्तत इत्यर्थः । एकेनैव विशेषेण स्वाश्रयस्य व्यावृत्तिसिद्धेरनेकविशेषकल्पना वैयर्थ्यात् । यथा चेदं विशेषाणां लक्षणं भवति तथा पूर्वं व्याख्यातम् ।
ही रहते हैं ।
सिद्धे विशेषसद्भावे तेषां लक्षणाभिधानं युक्तं नासिद्धे, इत्याशङ्कय विशेषाणां सद्भावं प्रतिपादयितुं ग्रन्थमवतारयति - यथेत्यादिना । यथा है । ( 'अन्त्येषु भवा अन्त्याः' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न 'अन्त्य' शब्द में जो ) 'अन्त' शब्द है, उससे नित्यद्रव्य अभिप्रेत हैं, क्योंकि वे उत्पत्ति और विनाश के अन्त में रहते हैं । 'तेषु भवा अन्त्याः' अर्थात् विशेष नित्य द्रव्यों में इसका 'विशेष' नाम इस अभिप्राय से रक्खा गया है कि यह अपने आश्रय को और सभी वस्तुओं से अलग करता है । 'विशेष' पद का यही विवरण 'विनाशारम्भ रहितेषु' इत्यादि से किया गया है । उक्त वाक्य का 'विनाशारम्भ रहितेषु' यह अंश 'अन्त्य' पद का विवरण है, और 'अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवः' यह अंश 'स्वाश्रयस्य विशेषकत्वात् इस वाक्य का विवरण है । 'प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्त्तमानाः' अर्थात् प्रत्येक ( नित्य ) द्रव्य में एक एक विशेष है । एक नित्य द्रव्य में एक ही विशेष पदार्थ की कल्पना करते हैं, क्योंकि एक ही विशेष को स्वीकार कर लेने से हो उसके आश्रय द्रव्य में और सभी पदार्थों को व्यावृत्ति बुद्धि उत्पन्न हो जाएगी । अतः एक द्रव्य में अनेक विशेषों की कल्पना व्यर्थ है । ' अन्त्यद्रव्यवृत्तयो व्यावर्त्तका विशेषाः ' विशेष का यह लक्षण जिस प्रकार उपपन्न होता है इसका विवरण पहिले ही दे चुका हूँ ।
पहिले विशेष पदार्थ को स्वतन्त्र सत्ता में प्रमाण दिखला कर बाद में उसका लक्षण कहना उचित है, उससे पहिले नहीं । अतः विशेष पदार्थ की सत्ता में प्रमाण दिखलाने के लिए ही 'यथा' इत्यादि सन्दर्भ का अवतार हुआ है । अभिप्राय यह है कि
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[ विशेषनिरूपण
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७६७
प्रशस्तपादभाष्यम् गवादिष्वश्वादिभ्यस्तुल्याकृतिगुणक्रियावयवसंयोगनिमित्ता प्रत्ययव्यावृत्तिदृष्टा, गौः शुक्लः शीघ्रगतिः पीनककुमान् महाघण्ट इति । तथास्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याकृतिगुणक्रियेषु
समझानेवाला ( अत्यन्त व्यावृत्ति-बुद्धि का ) कोई दूसरा कारण नहीं है। जिस प्रकार हम साधारण जनों को गो में अश्व से कुछ सादृश्य के रहते हुए भी विशेष आकृति, विशेष गुण, विशेष प्रकार की क्रिया, एवं अवयवों के विशेष प्रकार के संयोगों के कारण ( गो में अश्व से ) ये व्यावृत्तिप्रत्यय होते हैं कि 'यह गो है, ( अश्व नहीं, क्योंकि यह ) विशेष प्रकार का शुक्ल है, यह विशेष प्रकार से दौड़ता है, या इसका ककुद् बहुत
न्यायकन्दली गवादिष्वश्वादिभ्यस्तुल्याकृतिनिमित्ता गौरिति, गुणनिमिता शुक्ल इति कियानिमित्ता शीघ्रगतिरिति, अवयवनिमित्ता पीनककुमानिति, संयोगनिमित्ता महाघण्ट इति, अस्मदादीनां प्रत्ययव्यावृत्तिष्टा। तथास्मद्विशिष्टानां योगिनां तुल्याकृतिगणक्रियेषु तुल्याकृतिषु तुल्यगुणेषु तुल्यक्रियेषु परमाणुषु मुक्तात्ममनस्सु चान्यनिमित्तासम्भवाद् येभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधारमयमस्माद् विलक्षण इति प्रत्ययव्यावृत्तिर्भवति तेऽन्त्या विशेषाः।
( योगियों से भिन्न ) साधारण पुरुषों को सभी गो व्यक्तियों में समान आकृति के कारण उनसे भिन्न अश्वादि सभी पदार्थों से भिन्नत्व (व्यावृत्ति ) की प्रतीति होती है । एवं उसी गो में 'शुक्ल:' इस आकार की व्यावृत्तिबुद्धि शुक्लवर्ण रूप गुण के कारण होती है। उसी गो में 'यह शीघ्र चलनेवाला है। इस आकार की व्यावृत्तिबुद्धि 'शीघ्रचलन' रूप क्रिया के कारण होती है। इसका ककुद् बहुत स्थूल है' इस आकार की व्यावृत्तिबुद्धि ककुद् रूप अवयव के कारण होती है, एवं 'यह बड़ा घण्टावाला है' इस प्रकार की व्यावृत्तिबुद्धि घण्टा के संयोग के कारण होती है। इसी प्रकार अस्मदादि से विशेष सामर्थ्यवाले योगियों को मादृश साधारण जनों से अत्यन्त दिव्य दृष्टि रूप वैशिष्ट्य के कारण समान आकृतिवाले, समान गुणवाले एवं समान क्रियावाले परमाणुओं में, मुक्त आत्माओं में और उनके मनों में जो परस्पर व्यावृत्ति की बुद्धियाँ होती हैं, आकृति भेद (गुणभेदादि) उनके कारण नहीं हो सकते । अतः (यह कल्पना करनी पड़ती है कि कथित परमाणु प्रभृति ) प्रत्येक आधार में 'यह इससे विभिन्न प्रकार का है' इस आकार की व्यावृत्ति बुद्धि जिन कारणों से होती है वे ही 'विशेष' हैं ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[विशेषनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् परमाणुषु मुक्तात्ममनस्सु चान्यनिमित्तासम्भवाद् येभ्यो निमित्तेभ्यः बड़ा है, या इसके गले में बहुत बड़ा घण्टा है। इसी प्रकार हम लोगों से सर्वथा उत्कृष्ट योगियों को सभी परमाणओं में नित्य एवं समान आकृति के रहते हुए भी यह परमाणु उस परमाणु से भिन्न है' इस प्रकार की व्यावृत्ति की प्रतीति जिस कारण से होती है, वही 'विशेष' है। मुक्त आत्माओं में सर्वथा
न्यायकन्दली
यथास्मदादीनां गवादिव्यक्तिषु प्रत्ययभेदो भवति, तथा परमाण्वादिष्वपि तद्दशिनां परस्परापेक्षया प्रत्ययभेदेन भवितव्यम्, व्यक्तिभेदसम्भवात् । न चास्य व्यक्तिभेद एव निमित्तम् । तदुपलम्भेऽपि स्थाण्वादिषु संशयदर्शनात् । निमित्तान्तरं च नास्ति, आकृतेर्गुणस्य क्रियायाश्च तुल्यत्वात् । न च निनिमित्तः प्रत्ययभेदो दृष्टः, तस्माद् यदस्य निमित्तं स विशेष इति । देशविप्रकर्षेण कालविप्रकर्षेण च दृष्टाः परमाणवः कस्यचित् प्रत्यभिज्ञाविषयाः सामान्यविशेषत्वाद् घटादिवत् । न च पूर्वदृष्टेऽर्थे प्रत्यभिज्ञानं विशेषावगतिमन्तरेण भवति, अतोऽस्ति तस्य निमित्तं विशेषः ।
अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार हम जैसे साधारण जनों को गो प्रभृति व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार की प्रतीतियां होती हैं, क्योंकि वे व्यक्तियां परस्पर विभिन्न होती हैं। इसी प्रकार परमाणु प्रभृति व्यक्तियों में भी परस्पर भेद रहने के कारण उन्हें प्रत्यक्ष देखनेवाले योगियों को उनमें से प्रत्येक में परस्पर व्यावृत्ति-बुद्धि होनी ही चाहिए। परमाणु प्रभृति में योगियों के इस व्यावृत्तिबुद्धि का कारण उनका परस्पर भेद नहीं हो सकता। क्योंकि स्थाणु प्रभृति में पुरुषादि का भेद उपलब्ध होने पर 'अयं स्थाणुः पुरुषो वा' इत्यादि संशय ही होते हैं । योगियों की उन व्यावृत्ति-बुद्धियों का कोई दूसरा कारण उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि परमाणु प्रभृति की आकृति और क्रिया प्रभृति समान है, ( अतः उनसे यहाँ व्यावृत्ति-बुद्धि उपपन्न नहीं हो सकती)। बिना विशेष कारण के प्रतीतियों की विभिन्नता कहीं उपलब्ध नहीं होती। तस्मात् योगियों की उन व्यावृत्ति-बुद्धियों के जो कारण हैं वे ही 'विशेष' हैं। ( इस प्रसङ्ग में यह अनुमान भी है कि) जिस प्रकार परसामान्य और विशेष (अपर सामान्य ) से युक्त होने के कारण किसी व्यक्ति की प्रत्यभिज्ञा के द्वारा घटादि ज्ञात होते हैं, उसी प्रकार एवं उन्हीं हेतुओं से विभिन्न स्थानों और विभिन्न समयों में देखे गये परमाणु भी किसी को प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही ज्ञात होते हैं। किसी 'विशेष' ज्ञान के बिना पहिले देखी हुई वस्तु का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता, अतः परमावादि विषयक प्रत्यभिज्ञानों का जो असाधारण कारण है, वही 'विशेष' है ।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७६६
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रत्याधारं विलक्षणोऽयं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः, देशकालविप्रकर्षे च परमाणौ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्त्या विशेषाः । यदि पुनरन्त्यविशेषमन्तरेण योगिनां योगजाद धर्मात् प्रत्ययव्यावृत्तिः प्रत्यभिज्ञानं च साम्य के रहते हुए भी 'यह आत्मा उस आत्मा से भिन्न है' इस आकार की व्यावृत्ति-प्रतीति जिस हेतु से होती है वही 'विशेष' है। इसी प्रकार सभी मनों में परस्पर सादृश्य के रहते हुए भी योगियों को जिस कारण से 'यह मन उस मन से भिन्न है। इस आकार की व्यावृत्ति-बुद्धि उत्पन्न होती है वही 'विशेष' है। इसी प्रकार विभिन्न समयों में या विभिन्न देशों में रहनेवाले परमाणुओं में भी 'यह वही है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा योगियों को जिन हेतुओं से होती है, वे अन्त्यों में रहनेवाले विशेष' ही हैं। योग से उत्पन्न केवल विशेष प्रकार के धर्म से ही योगियों की व्यावृत्ति की उक्त प्रतीति
न्यायकन्दली ___ अत्र चोदयति-यदि पुनरिति । यथा योगजधर्मसामर्थ्याद् योगिनामतीन्द्रियार्थदर्शनं भवति, तथा विशेषमन्तरेणैव प्रत्ययव्यावृत्तिः प्रत्यभिज्ञानं च भविष्यतीति चोदनार्थः।
समाधत्ते-नैवमिति । यथा योगिनामशुक्ले शुक्लप्रत्ययो न भवति, अत्यन्तादृष्टे च प्रत्यभिज्ञानं न स्यात् । यदि स्यात् ? मिथ्याप्रत्ययो भवेत् ।
__ यदि पुनः' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग में पुनः आक्षेप करते हैं । आक्षेप करनेवालों का अभिप्राय है कि जिस प्रकार योग से उत्पन्न विशेष धर्म रूप विशेष सामर्थ्य के कारण योगियों को परमाण्वादि अतीन्द्रिय विषयों का भी प्रत्यक्ष होता है, उसी विशेष सामर्थ्य के द्वारा योगियों को उक्त व्यावृत्तिबुद्धि और उक्त प्रत्यभिज्ञान दोनों ही हो सकते हैं, इसके लिए विशेष पदार्थ की कल्पना अनावश्यक है। 'नैवम्' इत्यादि से इसी का समाधान करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार योगियों को भी अशुक्ल द्रव्य में शुक्ल की प्रतीति नहीं होती है, उसी प्रकार पहिले बिना देखी हुई वस्तु की प्रत्यभिज्ञा योगियों को भी नहीं हो सकती। यदि होगी ( योगियों को शुक्ल में अशुक्ल की प्रतीति और अज्ञात वस्तु की प्रत्यभिज्ञा यदि होगी ) तो वह मिथ्या ही होगी। अतः योगियों को कथित परमाण्वादि में उक्त परस्पर यातुत्ति को प्रतीति 'विशेष' पदार्थ को माने बिना केवल योगजनित विशेष धर्म से नही हो सकती। योगज धर्म से योगियों के अतीन्द्रिय अर्थों के ज्ञानों में भी गोगजधर्म के अतिरिक्त विषयादि निमित्तों की अपेक्षा होती है।
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७७०
न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
स्यात् ? ततः किं स्यात् ? नैवं भवति । यथा न योगजाद् धर्मादशुक्ले शुक्लप्रत्ययः सञ्जायते, अत्यन्तादृष्टे च प्रत्यभिज्ञानम् । यदि स्यान्मिथ्या भवेत । तथेहाप्यन्त्य विशेषमन्तरेण योगिनां न योगजादू धर्मात प्रत्ययव्यावृत्तिः प्रत्यभिज्ञानं वा भवितुमर्हति ।
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[ विशेषनिरूपण
अथान्त्य विशेषेष्विव परमाणुषु कस्मान्न स्वतः प्रत्ययव्यावृत्तिः कल्प्यत इति चेत् ? न, तादात्म्यात् । इहातदात्मकेष्वन्यनिमित्तः प्रत्ययो और प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार शुक्ल रूप से शून् 4 द्रव्य में शुक्ल की प्रतीति एवं पहिले से न देखे हुए वस्तुओं में प्रत्यभिज्ञा ये दोनों ही योगियों को भी नहीं होती हैं, यदि हों तो वे मिथ्या ही होंगी । इसी प्रकार कथित स्थलों में भी व्यावृत्ति प्रतीतियाँ और प्रत्यभिज्ञा ये दोनों बिना अन्त्य - विशेष के केवल योगजनित को भी नहीं हो सकतीं ।
उत्कृष्ट धर्म से योगियों
( प्र० ) यह कल्पना क्यों नहीं करते कि अन्त्य - विशेषों की तरह उक्त परमाणुओं में भी व्यावृत्ति प्रतीतियाँ स्वतः ( बिना और किसी
न्यायकन्दली
तथा अन्त्यविशेषमन्तरेण प्रत्ययव्यावृत्तिः प्रत्यभिज्ञानं च न भवितुमर्हति । योगजाद् धर्मादतीन्द्रियार्थदर्शनं न पुनरस्मान्निनिमित्त एवं प्रत्ययो भविष्यतीत्यभिप्रायः ।
पुनश्चोदयति - अथान्त्यविशेषेष्विति । न तावदन्त्यविशेषेष्वपि विशेषान्तरसम्भवोऽनवस्थानात् । यथा च तेषु विशेषान्तरमन्तरेण स्वत एव प्रत्ययव्यावृत्तिर्भवति योगिनां तथा परमाणुष्वपि भविष्यति ? किं विशेषकल्पनयेत्यत्रोत्तरमाह - नेति । विवृणोति - इहेति ।
यत्त्वयोक्तं तन्न, कुतस्तादात्म्यात् ।
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एतदेव
'अथान्त्य विशेषेषु' इत्यादि ग्रन्थ से इसी प्रसङ्ग में पुनः आक्षेप करते हैं । अर्थात् कथित 'अन्त्य विशेषों' में दूसरे 'विशेष' की सम्भावना नहीं है, क्योंकि ( ऐसी कल्पना करने पर ) अनवस्थादोष होगा। यह जो आक्षेप किया गया है कि विशेषों में दूसरे विशेषों के न रहने पर भी जैसे कि स्वतः उनमें परसर व्यावृत्ति-बुद्धि योगियों को होती है. वैसे ही परमाणु प्रभृति में स्वतः ही व्यावृत्ति बुद्धि होगी। इसके लिए 'विशेष' नाम के स्वतन्त्र पदार्थ को मानने की क्या आवश्यकता हैं ? उसी ( आक्षेप ) के समाधान के लिए 'न' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । अर्थात् तुमने जो आक्षेप किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु प्रभृति में 'परस्पर तादात्म्य' है । इसी ' तादात्म्य' हेतु का
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७७१
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् भवति यथा घटादिषु प्रदीपात्, न तु प्रदीपे प्रदीपान्तरात् । यथा गवाश्वमांसादीनां स्वत एवाशुचित्वं तद्योगादन्येषाम, तहापि तादात्म्यादन्त्यविशेषेषु स्वत एव प्रत्ययव्यावृत्तिः, तद्योगात् परमाण्वादिष्विति । इति प्रशस्तपादभाष्येविशेषपदार्थः समाप्तः ।
-:०:
कारण के ही) होंगी। (उ०) यह नहीं हो सकतीं, क्योंकि परमाणु में परमाणु का तादात्म्य है। जो वस्तु जिस स्वरूप का नहीं है, उस वस्तु में उक्त अन्य वस्तु की बुद्धि उस वस्तु से भिन्न वस्तु रूप कारण से ही उत्पन्न होती है, जैसे कि घटादि की प्रतीति प्रदीप से होती है, किन्तु प्रदीप की प्रतीति के लिए दूसरे प्रदीप की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार गो और अश्व के मांसों में अशुचित्व स्वतः ( बिना किसी और सम्बन्ध के ही ) है, किन्तु उनसे सम्बद्ध वस्तुओं में उसी के सम्बन्ध से अशुचित्व होता है। उसी प्रकार यहाँ भी अन्त्य-विशेषों में तादात्म्य से अर्थात् और किसी के सम्बन्ध के बिना ही व्यावृत्ति-प्रतीति होती है, किन्तु परमाणुओं में अन्त्यविशेष के सम्बन्ध से ही व्यावृत्ति-प्रतीति होती है।
प्रशस्तपाद भाष्य में विशेष का निरूपण समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली
अतदात्मकेष्वन्यनिमित्तः प्रत्ययो भवति, न तदात्मकेषु । यथा घटादिष्वप्रकाशस्वभावेषु प्रदीपादेः प्रकाशस्वभावात् प्रकाशो भवति, न तु प्रदीपे प्रदीपान्तरात् प्रकाशः किन्तु स्वत एव । यथा गवाश्वमांसादीनां स्वत एवाशुचित्वम्, स्प्रष्टुः
विवरण ‘इह' इत्यादि ग्रन्थ से दिया गया है। अभिप्राय यह है कि जिन दो वस्तुओं में तादात्म्य नहीं है, उनमें से एक में अन्य दूसरे के सम्बन्ध के लिए अन्य कारण की अपेक्षा होती है। जो अभिन्न हैं उनमें से किसी में सम्बन्ध के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं होती है। जैसे कि घटादि प्रकाश-स्वभाव के नहीं हैं (प्रकाश के साथ उनका तादात्म्य नहीं है) अतः घट में प्रकाश के लिए प्रकाश-स्वभाव के प्रदीप रूप अन्य पदार्थ की अपेक्षा होती है। किन्तु प्रदीप के प्रकाश के लिए किसी दूसरे प्रदीप की अपेक्षा
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [विशेषनिरूपण
न्यायकन्दली प्रत्यवायकरत्वं तद्योगात् । तत्सम्बन्धादन्येषामशुचित्वम् । तथेहापि तादात्म्यादत्यन्तव्यावृत्तिस्वभावत्वादन्त्यविशेषेषु स्वत एव स्वरूपादेव प्रत्ययव्यावृत्तिर्न विशेषान्तरसम्भवात्। अतदात्मकेषु तु परमाणुषु सामान्यधर्मकेषु विशेषयोगादेव प्रत्ययव्यावृत्तिर्युक्ता न स्वरूपमात्रादिति ।
नित्यद्रव्येषु सर्वेषु परस्परसधर्मसु ।
प्रत्येकमनुवर्तन्ते विशेषा भेदहेतवः॥ इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
विशषपदार्थः समाप्तः ॥
नहीं होती है, क्योंकि प्रदीप में स्वतः प्रकाश होता है । इसी प्रकार गो, अश्व प्रभृति के मांस अपने तो वे स्वतः 'अशुचि' है, किन्तु निषिद्ध मांसों को छूनेवाले पुरुष में प्रत्यवाय की कारणता उन (मांसों) के स्पर्श से आती है। एवं उस पुरुष से सम्बन्ध रखनेवाली वस्तुओं में जो अशुचिता होगी, उसका कारण उन वस्तुओं के साथ उस पुरुष का सम्बन्ध है। इसी प्रकार प्रकृत में भी अत्यन्तव्यावृत्ति-स्वभाव के अन्त्य-विशेषों में व्यावृत्ति प्रत्यय 'स्वतः' अर्थात् उनके अत्यन्तव्यावृत्ति-स्वभाव के कारण ही होता है। इसके लिए दूसरे विशेष के सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं है। अतदात्मक' अर्थात् एक सामान्य धर्मवाले परमाणुओं में जो व्यावृत्तिबुद्धि होगी उसके लिए उनमें विशेष पदार्थ का सम्बन्ध ही कारण है । उसको उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती।
एक साधारण धर्म से युक्त सभी नित्य द्रव्यों में से प्रत्येक में परस्पर भेद (व्यावृत्ति) के लिए, उनमें से प्रत्येक में अलग विशेष का मानना आवश्यक है, क्योंकि वे ही उनमें व्यावृत्ति-बुद्धि के कारण हैं | भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रचित एवं पदार्थों के सम्यक् ज्ञान में समर्थ न्याय
कन्दली नाम की टीका का विशेषनिरूपण समाप्त हुआ।
१. यहाँ 'न विशेषान्तरसम्भवात्' इसके स्थान में] 'न विशेषान्तरसम्बन्धात्' ऐसा पाठ उचित जान पड़ता है, अतः तदनुसार ही अनुवाद किया गया है।
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___७७३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् अथ समवायपदार्थनिरूपणम्
प्रशस्तपादभाष्यम् अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्ध इहप्रत्ययहेतुः स समवायः । द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणां कार्यकारणभूतानामकार्यकारणभूतानां वाऽयुतसिद्धानामाधार्याधार
एक आश्रय एवं दूसरा आश्रित इस प्रकार के दो अयुतसिद्धों का जो सम्बन्ध 'यह ( आश्रित ) यहाँ । आश्रय में ) है' इस प्रकार के प्रत्यय का कारण हो, वही सम्बन्ध 'समवाय' है। ( विशदार्थ यह है कि ) द्रव्य गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन सभी पदार्थों ( में से जो दो वस्तु यथासम्भव ) कार्यकारणभावापन्न हों अथवा स्वतन्त्र ही हों. किन्तु अयुतसिद्ध
न्यायकन्दली अन्तर्वान्तभिदे विश्वसंहारोत्पत्तिहेतवे ।
निर्मलज्ञानदेहाय नमः सोमाय शम्भवे ॥ समवायनिरूपणार्थमाह-अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां कार्यकारणभूतानामकार्यकारणभूतानां य: सम्बन्ध इहप्रत्ययहेतुः स समवायः। तदेतत्कृतव्याख्यानमुद्देशावसरे । के ते अयुत सिद्धा येषां सम्बन्धः समवायो भवेत् ? अत आह-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणामिति । कार्यकारणभूतानामकार्यकारणभूतानामिति नियमकथनम् । अवयवावयविनामनित्यद्रव्यतद्गुणानां नित्यद्रव्यतत्समवेतानामनित्यगुणानां कर्मतद्वतां कार्यकारणभूतानां समवायः, नित्यद्रव्यतद्गुणानां सामान्य
अन्तःकरण के मालिन्य को समूल नाश करने वाले, एवं विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु, एवं विशुद्ध विज्ञान रूप शरीरवाले (क्षित्यादि आठ मूत्तिक शिवों में से ) सोममूत्ति स्वरूप भगवान् शम्भु को मैं प्रणाम करता हूँ।
'अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां यः सम्बन्ध इहप्रत्ययहेतः स समवायः' यह सन्दर्भ समवाय के निरूपण के लिए लिखा गया है। इस पङ्क्ति की व्याख्या इसी ग्रन्थ के उद्देश प्रकरण में कर दी गयी है। 'अयुत सिद्ध' कौन कौन से पदार्थ हैं ? जिनका सम्बन्ध समवाय होगा? इसी प्रश्न का उत्तर 'द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणाम्' इत्यादि से दिया गया है। इस वाक्य में 'किन वस्तुओं में समवाय सम्बन्ध होता है' इस प्रसङ्ग में 'नियम' को दिखलाने के लिए कार्यकारणभूतानामकार्यकारणभूतानाम्' यह वाक्य लिखा गया है। उक्त वाक्य के 'कार्यकारणभूतानाम' इस पद के द्वारा यह नियम दिखलाया गया है कि कारणों में कार्य का समवाय होता है, अर्थात् कार्यकारणभावापन्न वस्तुओं में से अवयव रूप कारणों में से अवयवी रूप कार्य का, एवं अनित्य द्रव्यरूप कारण और उनमें होनेवाले गुणों का एवं नित्य द्रव्य और उनमें उत्पन्न होनेवाले गुणों का एवं क्रियाश्रय और क्रिया का ही समवाय सम्बन्ध होता है। एक
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७७४
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
भावेनावस्थिताना मिहेदमिति बुद्धिर्यतो भवति,
यतश्चासर्व गताना
मधिगतान्यत्वानामविष्वग्भावः स
समवायाख्यः सम्बन्धः ।
कथम् १ यथेह कुण्डे दधीति प्रत्ययः सम्बन्धे सति दृष्टः, तथेह तन्तुषु हों, एवं आधार आधेय रूप हों उन दोनों में से एक ( आधेय ) का दूसरे ( आधार में ) 'यह यहाँ है' इस आकार का प्रत्यय जिससे हो वही ( सम्बन्ध ) 'समवाय' है । ( एवं ) नियमित देश में ही रहनेवाले एवं परस्पर भिन्न रूप में ज्ञात होनेवाले दो वस्तुओं की स्वतन्त्रता जिस सम्बन्ध से जाती रहे वही ( सम्बन्ध ) 'समवाय' है । ( प्र० ) इस सम्बन्ध की सत्ता में प्रमाण क्या है ? ( उ० ) ( यह अनुमान ही प्रमाण है कि ) जिस
न्यायकन्दली
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[ समवायनिरूपण
तद्वतामन्त्यविशेषतद्वतां चाकार्यकारणभूतानां समवायोऽयुत सिद्धानामिति नियमः । एवमाधार्याधारभावेनावस्थितानामित्यपि नियम एव । इहेदमिति बुद्धिर्यतः कारणाद् भवति यतश्चासर्वगतानां नियतदेशावस्थितानामधिगतान्यत्वानामधिगतस्वरूपभेदानामविष्वग्भावोऽपृथग्भावोऽस्वातन्त्र्यं स समवायः, भिन्नयोः परस्परोपश्लेषस्य सम्बन्धकृतत्वोपलम्भात् । एतदेव कथमित्यादिना प्रश्नपूर्वकमुपपा दयति-यथा इह कुण्डे दधीति प्रत्ययः कुण्डदघ्नोः सम्बन्धे सति दृष्टः,
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दूसरे का कार्य या कारण न होते हुए भी जिन वस्तुओं में समवाय सम्बन्ध होता है वे हैं सामान्य ( जाति ) और उनके आश्रय एवं अन्त्यविशेष और उनके आश्रय । ( इनमें भी समवाय सम्बन्ध होता है ) । समवाय के ये कार्यकारणभूत और अकार्यकारणभूत प्रतियोगी और अनुयोगी यतः 'अयुतसिद्ध ' हैं, अतः यह 'नियम' उपपन्न होता है - समवाय अयुत सिद्धों का ही सम्बन्ध है । इसी प्रकार 'आधार्याधारभावेनावस्थितानाम्' यह वाक्य भी नियमार्थक हो है । अर्थात् यतः विभिन्न दो वस्तुओं में विशेष्यविशेषणभाव की प्रतीति किसी सम्बन्ध से ही होती है अतः 'इहेदम्' यह प्रतीति जिस कारण द्वारा होती है ( वही समवाय है ), एवं जिसके द्वारा अव्यापक अथवा नियत आश्रय में रहनेवाले उन वस्तुओं में जिनमें कि परस्पर भेद पहिले से ज्ञात है, अर्थात् जिनके अलग अलग स्वरूप ज्ञात हैं उन्हें 'अविष्वग्भाव' अर्थात् अपृथग्भाव फलतः अस्वातन्त्र्य जिसके द्वारा हो वही 'समवाय' है । क्योंकि वस्तुओं का उक्त 'अविष्वग्भाव' किसी सम्बन्ध से ही देखा जाता है । यही बात 'कथम्' इस वाक्य के द्वारा प्रश्न कर 'यथेह कुण्डे' इत्यादि वाक्य से उत्तर रूप में कहते हैं । अर्थात् जिस प्रकार 'इस मटके में दही है' इस आकार की प्रतीति मटका और दही के देखी जाती है, उसी प्रकार 'इन तन्तुओं में पट है' इस आकार की प्रतीति भी होती है । इससे समझते हैं कि तन्तु और पट ( प्रभृति अयुतसिद्धों ) में भी कोई सम्बन्ध
सम्बन्ध रहने पर ही
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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
७७५ प्रशस्तपादभाष्यम् पटः, इह वीरणेषु कटः, इह द्रव्ये गुणकर्मणी, इह द्रव्यगुणकर्मसु सत्ता, इह द्रव्ये द्रव्यत्वम्, इह गुणे गुणत्वम्, इह कर्मणि कमत्वम्, इह नित्यद्रव्येऽन्त्या विशेषा इति प्रत्ययदर्शनादस्त्येषां सम्बन्ध इति ज्ञायते ।
न चासौ संयोगः, सम्बन्धिनामयुतसिद्धत्वात् अन्यतरप्रकार इस 'मटके में दही है' यह प्रतीति (दधि और मटके में संयोग) सम्बन्ध के रहते ही होती है, उसी प्रकार 'इन तन्तुओं में पट है, इन वीरणों ( तृणविशेषों ) में चटाई है, इस द्रव्य में गुण और कर्म हैं, द्रव्य गुण और कर्मो में सत्ता है द्रव्य में द्रव्यत्व है, गुण में गुणत्व है, कर्म में कर्मत्व है, इन नित्यद्रव्यों में विशेष है, इत्यादि प्रतीतियाँ भी होती हैं, अतः समझते हैं कि (प्रतीति के विषय इन आधार और आधेय में भी) कोई सम्बन्ध अवश्य है।
__ कथित प्रतीतियों की उपपत्ति संयोग से नहीं हो सकती, क्योंकि उन प्रतीतियों में विशेष्य और विशेषण रूप से भासित होनेवाले प्रतियोगी और अनुयोगी अयुतसिद्ध हैं, एवं अन्यतर कर्म या उभयकर्म या विभाग उस सम्बन्ध के
न्यायकन्दली तथेह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययानां दशनादस्त्येषां तन्तुपटादीनां सम्बन्ध इति ज्ञायते। इह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययाः सम्बन्धनिमितका अवधारितप्रत्ययत्वात, इह कुण्डे दधीतिप्रत्ययवत् ।।
नन्वयं संयोगो भविष्यतीत्यत आह-न चासौ संयोग इति । असौ तन्तुपटादीनां सम्बन्धो न संयोगो भवति, कुतः ? इत्यत्राह-सम्बन्धिनामअवश्य है। इससे यह अनुमान निष्पन्न होता है कि जिस प्रकार इस मटके में दही हैं' यह निश्चयात्मक प्रतीति दही और कुण्ड में संयोग सम्बन्ध के रहने पर ही होती है, उसी प्रकार ‘इन तन्तुओं में पट है' इस प्रकार की निश्चयात्मक प्रतीति भी उन दोनों में किसी सम्बन्ध के कारण ही उत्पन्न होती है ( वही सम्बन्ध समवाय है)।
(मटके और दही के संयोग की तरह ) 'तन्तुओं में पट है' इत्यादि प्रतीतियों का नियामक सम्बन्ध भी संयोग ही होगा? इसी प्रश्न का उत्तर 'न चासो संयोगः' इत्यादि से दिया गया है । 'असौ' अर्थात् तन्तु और पट का सम्बन्ध, संयोग क्यों नहीं है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'सम्बन्धिनामयुतसिद्धत्वात्' इस वाक्य के द्वारा दिया गया है । अर्थात् संयोगसम्बन्ध युतसिद्ध वस्तुओं में ही होता है, और यह (समवाय ) सम्बन्ध अयुतगिद्धों में होता है। क्योंकि संयोग अपने प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों में से एक के कर्म से होगा, या उक्त प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों
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७७६
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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
विभागान्तत्वादर्शनात्,
पदार्थान्तरं स्वाधारेषु
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कर्मादिनिमित्तासम्भवात्, कर्तव्ययोरेव भावादिति । स च द्रव्यादिभ्यः द्रव्यत्वादीनां
भाववल्लक्षणभेदात् ।
।
यथा भावस्य
आत्मानुरूपप्रत्यय
कारण नहीं हो सकते । एवं विभाग से इस सम्बन्ध का नाश भी नहीं देखा जाता एवं यह ( समवाय ) अधिकरण एवं आधेय रूप दो वस्तुओं में ही देखा जाता है, ( अतः उन प्रतीतियों की उपपत्ति संयोग से नहीं हो सकती ) ।
यह ( समवाय ) द्रव्यादि पाँचों पदार्थों से ( सर्वथा भिन्न ) स्वतन्त्र पदार्थ ही है, क्योंकि जिस प्रकार सत्ता रूप सामान्य या द्रव्यत्वादि रूप सामान्य स्वसदृश ( यह सद् है, यह द्रव्य है, यह गुण है ) इत्यादि प्रतीतियों के उत्पादक होने के कारण द्रव्यादि अपने आश्रयों से भिन्न हैं, उसी प्रकार
न्यायकन्दली
युत सिद्धत्वादिति । संयोगो हि युतसिद्धानामेव भवति । अयं त्वयुतसिद्वानामिति । तथा संयोगोऽन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजो वा स्यादिति । इह तु अन्यतरकर्मादीनां निमित्तानामभावो भावोत्पादककारणसामर्थ्य भावित्वात् । संयोगस्य विभागान्तत्वं विभागविनाश्यत्वं दृश्यते न समवायस्य । संयोगः स्वतन्त्रयोरपि भवति यथोर्ध्वावस्थितयोरगुल्योः । अयं त्वधिकराधिकर्तव्योरेव भवति, तस्मान्नायं संयोग:, किन्तु तस्मात् पृथगेव ।
एवं स्थिते समवाये तस्य द्रव्यादिभ्यो भेदं प्रतिपादयति-स च द्रव्यादिभ्यः पदार्थान्तरमिति । कुत इत्यत आह- भाववल्लक्षणभेदादिति ।
[ समवायनिरूपण -
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अधिकरणाधि
के कर्म से होगा, अथवा संयोग से ही होगा । तन्तु एवं पट के इस सम्बन्ध के लिए कथित अन्यतर कर्म प्रभृति कारणों में से किसी की भी अपेक्षा नहीं होती है । यह तो अपने आश्रयीभूत पदार्थों के उत्पादक कारणों की सत्ता से स्थिति को लाभ करता है । संयोग का अन्त अर्थात् विनाश विभाग से देखा जाता है, किन्तु समवाय विनाश का ही नहीं होता, (अतः संयोग से समवाय गतार्थ नहीं हो सकता ) एवं संयोग स्वतन्त्र (आधा राधेयभावानापन्न वस्तुओं में भी होता है, जैसे कि ऊपर उठी हुई दो अङ्गलियों में संयोग होता है । समवाय सम्बन्ध आधार और आधेयभूत दो वस्तुओं में ही होता है । तस्मात् समवाय संयोग नहीं है, उससे अलग ही वस्तु है ।
इस प्रकार संयोग से समवाय की स्वतन्त्र सत्ता के सिद्ध हो जाने पर 'स द्रव्यादिभ्यः पदार्थान्तरम्' इस वाक्य के द्वारा समवाय में द्रव्यादि पदार्थों के भेद का उपपादन करते हैं । समवाय द्रव्यादि-पदार्थों से भिन्न क्यों है ? इस
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७७७
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्तृत्वात् स्वाश्रयादिभ्यः परस्परतश्चान्तरभावः, तथा समवायस्यापि पञ्चसु पदार्थेविहेतिप्रत्ययदर्शनात् तेभ्यः पदार्थान्तरत्वमिति । न च संयोगवन्नानात्वम् , भाववल्लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्च । तस्माद् भाववत् सर्वत्रैकः समवाय इति । समवाय के अनुयोगी द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पाँचों पदार्थों में यथासम्भव 'यह यहाँ है' इस आकार की प्रतीतियाँ होती हैं, अतः समवाय भी द्रव्यादि पाँचों पदार्थो से भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ ही है। संयोग की तरह यह (समवाय) अनेक भी नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार द्रव्य, गुण और कर्म सभी में यह सत् है यह सत् है' इस साधारण आकार की प्रतीति होती है और इसी कारण द्रव्य गुण और कर्म इन तीनों में रहनेवाला 'सत्ता' नाम का सामान्य एक ही है, उसी प्रकार द्रव्यादि अपने अनुयोगियों में अपने प्रतियोगियों का यह यहाँ है' इस एक प्रकार की
न्यायकन्दलो
एतद् विवृणोति- यथेति । भाव इति सत्तासामान्यमुच्यते । द्रव्यत्वादीत्यादिपदेन गुणत्वादिपरिग्रहः । यथा भावस्य स्वाधारेषु द्रव्यगुणकर्मसु आत्मानुरूपः प्रत्ययः सत्सदितिप्रत्ययः, द्रव्यत्वस्य स्वाश्रयेषु द्रव्येष्वात्मानुरूपः प्रत्ययः द्रव्यं द्रव्यमितिप्रत्ययः, गुणत्वस्य स्वाश्रयेषु गुणेष्वात्मानुरूपः प्रत्ययो गुण इति प्रत्ययः, कर्मत्वस्य स्वाश्रयेषु कर्मसु आत्मानुरूपः प्रत्ययः कर्मेति
प्रश्न का उत्तर 'भाववल्लक्षणभेदात्' इस सन्दर्भ के द्वारा दिया गया है। इस सन्दर्भ के 'भावस्य' इस पद का 'भाव' शब्द सत्ता रूप जाति का बोधक है। एवं 'द्रव्यत्वादि' पद में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से गुणत्वादिजातियों का संग्रह समझना चाहिए । (तदनुसार उक्त सन्दर्भ का यह अभिप्राय है कि ) सत्ता रूप जाति का स्वाधार में अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में आत्मानुरूप प्रत्यय अर्थात् द्रव्य सत् है, गुण सत् है, कर्म सत् है इत्यादि आकार के ज्ञान होते हैं, एवं द्रव्यत्व का अपने आश्रय में अर्थात् सभी द्रव्यों में 'इदं द्रव्यम्' इस आकार की प्रतीति होती है, एवं गुणत्व जाति की 'आत्मानुरूप' प्रतीति अर्थात् सभी गुणों में 'यह गुण है' इस आकार की प्रतीति होती है। एवं कर्मत्व जाति का अपने आश्रय सभी कर्मों में 'आत्मानुरूपप्रत्यय' अर्थात् 'यह कर्म है' इस आकार की प्रतीति होती है। इन आत्मानुरूप
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७७८
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[समवायनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् ननु यद्येकः समवायः १ द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिविशेषणैः सह सम्बन्धैकत्वात् पदार्थसङ्करप्रसङ्ग प्रतीति का कारण होने से समवाय भी एक ही है। एवं समवाय में अवान्तर भेद का ज्ञापक कोई प्रमाण भी उपलब्ध नहीं होता है। अत: अपने सभी अनुयोगियों में रहनेवाला समवाय एक ही है।
(प्र.) ( यदि अपने सभी अनुयोगियों में रहनेवाला ) समवाय एक ही है, तो फिर द्रव्य गुण और कर्म इन तीनों में से प्रत्येक का द्रव्यत्वादि सभी विशेषों के साथ समवाय सम्बन्ध एक ही है, अत: द्रव्यादि में भी यह गुण हे या कर्म है इस प्रकार के अनियमित व्यवहार होने लगेंगे।
न्यायकन्दली
प्रत्ययः, तस्य कर्तृत्वाद् भावद्रव्यत्वादीनां स्वाश्रयादिभ्यः परस्परतश्चार्थान्तरभावः, तथा समवायस्यापि पञ्चसु पदार्थ विहेति प्रत्ययदर्शनात तेभ्यः पञ्चभ्यः पदार्थान्तरत्वम् । किमयमेक आहोस्विदनेक इत्यत्राह-न च संयोगवन्नानात्वमिति । यथा संयोगो नाना नैवं समवायः । कुत इत्यत्राह--भाववल्लिङ्गाविशेषाद् विशेषलिङ्गाभावाच्च । यथा सत्सदितिज्ञानस्य लक्षणस्य सर्वत्राविशेषादवैलक्षण्याद् विशेषे भेदे लक्षणस्य प्रमाणस्याभावाच्च सर्वत्रको भावः, तद्वदिहेति
प्रत्ययों का कर्त्ता रूप कारण होने से जिस प्रकार सत्ता और द्रव्यत्वादि जातियों में से प्रत्येक में परस्पर एक दूसरे से भेद की मिद्धि होती है, एवं उनके द्रव्यादि आश्रय से भी उन जातियो में भेद की प्रतीति होती है, उसी प्रकार समवाय भी द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पांच पदार्थों में 'इह प्रत्यय' का कर्ता रूप कारण है, अतः समवाय इन पाँचों पदार्थों से भिन्न पदार्थ है।
इस प्रकार से सिद्ध समवाय रूप स्वतन्त्र पदार्थ एक है ? या अनेक ? इसी प्रश्न का उत्तर 'न च संयोगवन्नानात्वम्' इस वाक्य से दिया गया है। अर्थात् संयोग की तरह समवाय अनेक नहीं है । क्यों अनेक नहीं है ? इस प्रश्न का उत्तर 'भाववल्लिनाविशेषाल्लिङ्गाभावाच्च' इन दोनों वाक्यों से दिया गया है । अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों में 'सत्' इस आकार का ज्ञान रूप लिङ्ग अर्थात् लक्षण समान रहने से जिस प्रकार तीनों में रहने वाली एक ही सत्ता जाति की सिद्धि होती है। एवं उन तीनों में रहनेवाली सत्ता जाति में परस्पर भेद के साधक किसी प्रमाण के उपलब्ध न होने से समझते हैं कि सत्ता जाति सर्वत्र एक ही है। उसी प्रकार द्रव्यादि पाँचों पदार्थों में कथित 'इह प्रत्यय' रूप लक्षण समान रूप से है एवं प्रत्येक में रहनेवाले समवाय में परस्पर भेद का साधक कोई प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है । अतः समझते हैं कि अपने
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प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् इति । न, आधाराधेयनियमात् । यद्यप्येकः समवायः सर्वत्र स्वतन्त्रः, तथाप्याधाराधेयनियमोऽस्ति । कथं द्रव्यष्वेव द्रव्यत्वम्, गुणेष्वेव (उ०) समवाय को एक मान लेने पर भी पदार्थों का उक्त सार्य नहीं होगा (क्योंकि एक ही समवाय सम्बन्ध से) कौन किसका आधार है और कौन किसका आधेय है ? ये दोनों नियमित हैं। विशदार्थ यह है कि द्रव्यादि सभी अनुयोगियों में यद्यपि एक ही समवाय स्वतन्त्र रूप से है फिर भी इस सम्बन्ध से आधेय और आधार नियमित हैं। (प्र०) सभी में
न्यायकन्दली
प्रत्ययस्य लक्षणस्य सवत्रावलक्षण्याद् भेदे प्रमाणाभावाच्च सर्वत्रैकः समवाय इति । उपसंहरति-तस्मादिति ।
चोदयदि-यद्येक इति । समवायस्यैकत्वे य एव द्रव्यत्वस्य पृथिव्यादिषु योगः, स एव गुणत्वस्य गुणेषु, कर्मत्वस्य च कर्मसु । तत्र यथा द्रव्यत्वस्य योगः पृथिव्यादिष्वस्तीति तेषां द्रव्यत्वम्, तथा तद्योगस्य गुणादिष्वपि सम्भवात् तेषामपि द्रव्यत्वम्। यथा च गुणत्वस्य योगो रूपादिष्वस्तीति रूपादीनां तथा, तद्योगस्य द्रव्यकर्मणोरपि भावात् तयोरपि गुणत्वं स्यात् । एवं च कर्मस्वपि पदार्थानां सङ्कीर्णता दर्शयितव्या। समाधत्ते-नेति । न च पदार्थानां सङ्कीर्णता, कुतः ? आधाराधेयनियमात् । न समवायसद्धावमात्रेण द्रव्यत्वम्,
सभी अनुयोगियों में रहनेवाला समवाय एक ही है। 'तस्मात्' इत्यादि वाक्य के द्वारा इसी प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं ।
'यद्येकः' इत्यादि वाक्यों के द्वारा एक ही समवाय के मानने पर यह आक्षेप किया गया है कि यदि समवाय एक ही है तो यह मानना पड़ेगा कि पृथिवी प्रभृति द्रव्यों में द्रव्यत्व का जो समवाय है, वही समवाय गुणों में गुणत्व का भी है। एवं कर्मों में कर्मत्व का भी है। ऐसी स्थिति मे जिस प्रकार पृथिव्यादि में द्रव्यत्व के समवाय रूप सम्बन्ध (योग) के कारण : पृथिव्यादि में) द्रव्यत्व की सत्ता रहती है, उसी प्रकार गुणादि में भी द्रव्यत्व का समवाय रूप योग के कारण गुणादि में भी द्रव्यत्व की सत्ता माननी पड़ेगी। एवं जैसे कि रूपादि में गुणत्व के समवाय रूप योग के कारण गुणत्व की सत्ता रहती है उसी प्रकार द्रव्य में और कर्म में भी गुणत्व की सत्ता माननी पड़ेगी, क्योंकि उनमें भी गुणत्व का समवाय है। इसी प्रकार कर्मादि पदार्थों में भी द्रव्यत्व कर्मत्वादि का सार्य दिखलाया जा सकता है । 'न' इत्यादि से इसी आक्षेप का समाधान करते हैं । अर्थात् समवाय को एक मानने पर भी पदार्थों का उक्त सायं दोष नहीं है, क्योंकि ( समवाय एक होने पर भी) उसका आधाराधेयभाव नियमित है।
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७८०
न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
गुणत्वम्, कर्मस्वेव कर्मत्वमिति । एवमादि कस्मात् १ अन्वयव्यतिरेकदर्शनात् । इहेति समवाय निमित्तस्य ज्ञानस्यान्वयदर्शनात् सर्वत्रैकः समवाय इति गम्यते । द्रव्यत्वादिनिमित्तानां व्यतिरेकदर्शनात्
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[ समवायनिरूपण
समवाय के एक होने पर नियम ( क्यों कर है ? ) यतः द्रव्यों में ही द्रव्यत्व है ( गुणादि में नहीं) गुणों में ही गुणत्व हे, एवं कर्मों में ही कर्मत्व
: ( प्र ० ) इस प्रकार का अवधारण किस हेतु से सिद्ध होता है ? ( उ०) प्रतीतियों के अन्वय और व्यतिरेक से ही उसकी सिद्धि होती है । (विशदार्थ यह है कि ) द्रव्यादि सभी अनुयोगियों में एक ही समवाय है' इसका हेतु है सभी अनुयोगियों में 'यह यहाँ है' इस एक प्रकार की आकार की प्रतीतियों की सत्ता या अन्वय, इस अन्वय से ही समझते हैं कि समवाय अपने सभी आश्रयों में एक ही है । एवं 'गुणादि में द्रव्यत्व है' इस प्रकार की प्रतीतियों के अभाव रूप व्यतिरेक से भी समझते हैं कि द्रव्यत्वादि
न्यायकन्दली
समवायश्च द्रव्ये एव न गुणकर्मसु अतो न तेषां व्याख्येयम् । एतत्सङ्ग्रहवाक्यं विवृणोतिस्वतन्त्रः संयोगवत् सम्बन्धान्तरेण न वर्तत
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किन्तु द्रव्यसमवायाद् द्रव्यत्वम्, द्रव्यत्वम् । एवं गुणकर्मस्वपि यद्यप्येकः समवाय इत्यादिना । इत्यर्थः । व्यक्तमपरम् । पुनश्चोदयति - एवमादि कस्मादिति । द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वं वर्तते, गुणेष्वेव गुणत्वम्, कर्मस्वेव कर्मत्वमित्येवमादि कस्मात् त्वया ज्ञातमित्यर्थः । गुणादि में द्रव्यत्व के समवाय के रहने से ही द्रव्यत्व की सत्ता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि ( द्रव्यत्व की सत्ता का नियामक ) द्रव्यानुयोगिक समवाय है, केवल समवाय नहीं । ( अतः गुणादि में केवल समवाय के रहने पर भी द्रव्यानुयोगिकत्वविशिष्ट समवाय के न रहने के कारण गुणादि में द्रव्यत्व की आपत्ति नहीं दी जा सकती ) इसी प्रकार द्रव्य में गुणकर्मादि के और कर्म में गुणद्रव्यादि के दिये गये साङ्कर्य दोष का भी परिहार करना चाहिए । ' यद्यप्येकः समवायः' इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा उक्त अर्थ के बोक ( यद्येकः समवाय इत्यादि ) संक्षिप्त वाक्य का हो विवरण दिया गया है । समवाय 'स्वतन्त्र' है अर्थात् संयोग की तरह किसी दूसरे सम्बन्ध के द्वारा अपने आश्रय में नहीं रहता है ( वह अपने स्वरूप से ही द्रव्यादि आश्रयों में रहता है ) । ( उक्त स्वपद वर्णन रूप भाष्य के ) और अंश स्पष्ट हैं । 'एवमादि कस्मात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रसङ्ग में पुनः आक्षेप करते हैं । अर्थात् किस हेतु से तुमने ये सब बातें समझों कि द्रव्यत्व द्रव्यों में ही रहता है, गुणत्व गुणों में ही रहता है, एवं
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
७८१
प्रशस्तपादभाष्यम् प्रतिनियमो ज्ञायते । यथा कुण्डदघ्नोः संयोगैकत्वे भवत्याश्रयाश्रयिभावनियमः। तथा द्रव्यत्वादीनामपि समवायैकत्वेऽपि व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिभेदादाधाराधेयनियम इति । समवाय सम्बन्ध से अपने द्रव्यादि आश्रयों में ही हैं, गुणादि में नहीं । जिस प्रकार कुण्ड और दधि दोनों में एक ही संयोग के रहते हुए भी आधार कुण्ड ही होता है दधि नहीं, एवं आधेय दधि ही होता है कुण्ड नहीं, उसी प्रकार द्रव्यत्वादि सभी (समवेत) वस्तुओं का समवाय एक होने पर भी कथित संयोग की तरह अभिव्यक्त करनेवाले एवं अभिव्यक्त होनेवाले की विभिन्न शक्ति के कारण प्रत्येक समवेत वस्तुओं का आधार आधेय भाव नियमित होता है।
न्यायकन्दली उत्तरमाह-अन्वयव्यतिरेकदर्शनादिति । द्रव्यत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य द्रव्येध्वन्वयो गुणकर्मभ्यश्च व्यतिरेकः, गुणत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य गुणेष्वन्वयो द्रव्यकर्मभ्यश्च व्यतिरेकः, तथा कर्मत्वनिमित्तस्य प्रत्ययस्य कर्मस्वन्वयो द्रव्यगुणेभ्यश्च व्यतिरेको दृश्यते, तस्मादन्वयव्यतिरेकदर्शनाद् द्रव्यत्वादीनां नियमो ज्ञायते । अस्य विवरणं सुगमम् । समवायाविशेषे कुत एवायं नियमो द्रव्यत्वस्य पृथिव्यादिष्वेव समवायो गुणत्वस्य रूपादिष्वेव कर्मत्वस्योत्क्षेपणादिष्वेव, नान्यत्र ? इत्यत आह-यथेति । संयोगस्यैकत्वेऽपि कुण्डदघ्नोराश्रयाश्रयिकर्मस्व क्रियाओं में ही रहता है। 'अन्वयव्यतिरेकदर्शनात्' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है। अभिप्राय यह है कि द्रव्यत्व के द्वारा उत्पन्न (द्रव्यत्व विषयक) प्रत्यय का 'अन्वय' (विशेष्यता सम्बन्ध से ) द्रव्यों में ही देखा जाता है, एवं द्रव्यत्व के उक्त प्रत्यय का 'व्यतिरेक' भी गुणकर्मादि में देखा जाता है। इसी प्रकार गुणत्वजनित ( गुणत्वविषयक ) प्रतीति का अन्वय गुणो में ही देखा जाता है, और द्रव्यकर्मादि में गुणत्वविषयक उक्त प्रतीति का व्य तिरेक भी देखा जाता है। एवं कर्मत्व से होनेवाली ( कर्मत्व विषयक ) प्रतीति का अन्वय कर्मों में ही देखा जाता है, और उक्त प्रतीति का ब्यतिरेक भी द्रव्यगुणादि में देखा जाता है । इन अन्वयों और व्यतिरेकों के दर्शन से समझते हैं कि द्रव्यादि तत्तत् आश्रयों में ही समवाय सम्बन्ध से द्रव्यत्वादि नियमित हैं। ( इहेति समवानिमित्तस्य इत्यादि स्वपदवर्णन रूप भाष्य का ) अभिप्राय समझना सुगम है। दव्यत्वादि सभी जातियों में यदि समवाय एक ही है तो फिर यह नियम किस प्रकार उपपन्न होगा कि व्रव्यत्व का समवाय पृथिव्यादि द्रव्यों में ही रहे, एवं गुणत्व का समवाय रूपादि गुणों में ही रहे, एवं कर्मत्व का समवाय उत्क्षेपणादि कर्मों में ही रहे, पृथिव्यादि से अन्यत्र द्रव्य त्व का समवाय न रहे, एवं गुणत्व
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७८२
___ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [समवायनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपि न संयोगवदनित्यत्वं भाववदकारणत्वात् । यथा प्रमाणतः कारणानुपलब्धेर्नित्यो भाव इत्युक्तं तथा समवायोऽपीति । नास्य किञ्चित् कारणं प्रमाणत उप
प्रतियोगियों और अनुयोगियों के अनित्य होने पर भी संयोग की तरह समवाय अनित्य नहीं है, क्योंकि सत्ता जाति की तरह उसके भी कारण नहीं दीखते हैं। (विशदार्थ यह है कि ) जिस प्रकार किसी भी प्रमाण से कारणों की उपलब्धि न होने से सत्ता जाति में नित्यत्व का व्यवहार
न्यायकन्दली भावस्य नियमो दृष्टः, शक्तिनियमात् । कुण्डमेवाश्रयो दध्येवाश्रयि । एवं समवायैकत्वेपि द्रव्यत्वादीनामाधाराधेयनियमो व्यङ्गयव्यञ्जकशक्तिभेदात् । किमुक्तं स्यात् ? द्रव्यत्वाभिव्यजिका शक्तिर्द्रव्याणामेव, तेन द्रव्येष्वेव द्रव्यत्वं समवैति, नान्यति । एवं गुणकर्मस्वपि व्याख्येयम् ।।
किं पुनरयमनित्य आहोस्विन्नित्यः ? इति संशये सत्याह-सम्बन्ध्यनित्यत्वेऽपीति । यथा सम्बन्धिनोरनित्यत्वे संयोगस्यानित्यत्वम्, न तथा समवायिनोरनित्यत्वे समवायस्यानित्यत्वं भाववदकारणत्वादिति । एतद् विवृणोतियथेत्यादिना। का समवाय रूपादि से अन्यत्र न रहे; और कर्मत्व का समवाय उत्क्षेपणादि से भिन्न वस्तुओं में न रहे। इन्हीं प्रश्नों का समाधान 'यथा' इत्यादि से किया गया है। अर्थात् मटका और दही दोनों में संयोग बराबर है, फिर भी मटका ही दही का आश्रय कहलाता है, एवं दही आधेय ही कहलाता है। इस सार्वजनिक प्रतीति से जिस प्रकार उक्त एक ही संयोग से मटके में आश्रयत्व व्यवहार को उत्पन्न करने की एक शक्ति और दही में आधेयत्व व्यवहार की उससे भिन्न शक्ति की कल्पना की जाती है। उसी प्रकार द्रव्यत्वादि सभी जातियों में यद्यपि एक ही समवाय है, फिर भी पृथिव्यादि में ही द्रव्यत्व की अभिव्यक्ति होती है, अन्यत्र नहीं। अतः पृथिव्यादि में ही द्रव्यत्व को अभिव्यक्त करने की शक्ति माननी पड़ती है, एवं पृथिव्यादि में द्रव्यत्व ही अभिव्यक्त होता है, अतः पृथिव्यादि में ही अभिव्यक्त होने की शक्ति को वल्पना व्यत्व में ही करनी पड़ती है। एवं गुणत्व की अभिव्यक्ति रूपादि में ही होती है, अतः गुणत्व को अभिव्यक्त करने की शक्ति रूपादि में ही माननी पड़ती है, अन्यत्र नहीं । एवं रूपादि में ही गुणत्व अभिव्यक्त होता है, अत: रूपादि में अभिव्यक्ति होने की शक्ति की कल्पना गुणत्व में करनी पड़ती है अन्य जातियों में नहीं। उपर्युक्त भाष्य को इस प्रकार से व्याख्या करनी चाहिए।
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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
पुनर्वृच्या द्रव्यादिषु समवायो वर्तते ?
लभ्यत इति । कया न संयोगः सम्भवति, तस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् । नापि समवायः, तस्यैकत्वात् । न चान्या वृत्तिरस्तीति ? न तादात्म्यात् ।
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७८३
होता है, उसी प्रकार समवाय में भी समझना चाहिए। (प्र०) समवाय कौन से सम्बन्ध से अपने अनुयोगी में रहता है ? अपने आश्रय के साथ संयोग सम्बन्ध तो उसका हो नहीं सकता क्योंकि संयोग गुण है, अतः संयोग केवल द्रव्यों में ही रह सकता है । समवाय सम्बन्ध से भी समवाय नहीं रह सकता, क्योंकि समवाय एक है. संयोग और समवाय को छोड़कर कोई तीसरा सम्बन्ध नहीं है ( अतः समवाय है ही नहीं ) | ( उ० ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि समवाय स्वरूप ( तादात्म्य ) सम्बन्ध से ही
न्यायकन्दली
युक्तो हि सम्बन्धिविनाशे संयोगस्य विनाशः, तदुत्पादे सम्बन्धिनोः समवायिकारणत्वात् । समवायस्य तु सम्बन्धिनौ न कारणम्, सम्बन्धिमात्रत्वात् । यथा न कारणं तथोपपादितम् । तस्मादेतस्य सम्बन्धिविनाशेऽप्यविनाशः, सत्तावदाश्रयान्तरेपि प्रत्यभिज्ञेयमानत्वात् ।
किमसम्बद्ध एव समवायः सम्बन्धिनौ सम्बन्धयति ?
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सम्बद्धो वा ?
यह समवाय नित्य है ? अथवा अनित्य ? इस संशय के उपस्थित होने पर ( उसकी निवृत्ति के लिए ) 'सम्बन्धनित्यत्वेऽपि ' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । अर्थात् जिस प्रकार संयोग के सम्बन्धियों ( अनुयोगी और प्रतियोगी ) के अनित्य होने पर संयोग भी अनित्य होता है, उसी प्रकार सम्बन्धियों के अनित्य होने पर समवाय अनित्य नहीं होता | क्योंकि भाव ( सत्ता जाति ) की तरह समवाय का भी कोई उत्पादक कारण नहीं है । 'यथा' इत्यादि सन्दर्भ से उक्त भाष्य सन्दर्भ की ( स्वपदवर्णन रूप ) व्याख्या की गयी है । यह ठीक है कि सम्बन्धियों के विनाश से संयोग का विनाश हो, क्योंकि वे ही संयोग के समवायिकारण हैं । समवाय के अनुयोगी और प्रतियोगी तो उसके केवल सम्बन्धी हैं, उसके कारण नहीं ( अतः उनके विनाश से समवाय का विनाश संभव नहीं है ) । ये समवाय के कारण क्यों नहीं हैं इस प्रश्न का उत्तर दे चुके हैं। अतः समवाय के सम्बन्धियों के विनष्ट होने पर भी समवाय का विनाश नहीं होता, क्योंकि जिस प्रकार सत्ता जाति के आश्रय के विनष्ट होने पर भी दूसरे आश्रयों में प्रतीति के कारण सत्ता जाति को अविनाशी मानना पड़ता है, उसी प्रकार समवाय के एक या दोनों आश्रयों के विनष्ट होने पर भी दूसरे सम्बन्धियों में होती है. अतः उसे भी अविनाशी मानना आवश्यक है ।
समवाय को प्रतीति
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
यथा द्रव्यगुणकर्मणां सदात्मकस्य भावस्य नान्यः सत्तायोगोऽस्ति ।
वृत्यात्मकस्य
समवायस्य
नान्या
एवमविभागिनो वृत्तिरस्ति, तस्मात् स्वात्मवृत्तिः । अत एवातीन्द्रियः
सत्ता
अपने सम्बन्धियों में रहता है । जैसे कि द्रव्य गुण और कर्म में सत्ता जाति के लिए दूसरे सत्तासम्बन्ध की आवश्यकता नहीं होती है, इसी प्रकार एक ही स्वरूप के एवं सम्बन्धाभिन्न समवाय की सत्ता के लिए दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं होती है । अतः यह स्वरूप सम्बन्ध से ही रहता है । यतः प्रत्यक्ष होनेवाले पदार्थो में सत्तादि सामान्यों की तरह कोई अलग सम्बन्ध नहीं है, अतः समवाय का प्रत्यक्ष नहीं होता है ।
न्यायकन्दली
न तावदसम्बद्धस्य सम्बन्धकत्वं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात् । सम्बन्धरचास्य न संयोगरूपः सम्भवति, तस्य द्रव्याश्रितत्वात् । नापि समवायः, एकत्वात् । न च संयोगसमवायाभ्यां वृत्त्यन्तरमस्ति । तत् कथमस्य वृत्तिरित्यत आहकया पुनर्वृत्त्या द्रव्यादिषु समवायो वर्तत इति । वृत्त्यभावान्न वर्तत इत्यभिप्रायः । समाधत्ते नेति । वृत्त्यभावान्न वर्तत इत्येतन्न, तादात्म्याद् वृत्त्यात्मकत्वात्
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[ समवायनिरूपण
'कया पुनर्वृत्त्या' इत्यादि ग्रन्थ से आक्षेप करते हैं कि क्या समवाय अपने सम्बन्धियों में किसी दूसरे सम्बन्ध से न रह कर ही अपने दोनों सम्बन्धियों को परस्पर सम्बद्ध करता है ? अथवा अपने सम्बन्धियों में किसी अन्य सम्बन्ध से रहकर ही ( संयोग की तरह ) अपने सम्बन्धियों को सम्बद्ध करता है ? इन दोनों में 'सम्बन्धियों में न रहकर ही उन्हें परस्पर सम्बद्ध करता है' यह पहिला पक्ष अति प्रसङ्ग के कारण ( अर्थात् पट और तन्तु की तरह कपास और सम्बद्ध हों इस आपत्ति के कारण असङ्गत है ) है । समवाय का अपने सम्बन्धियों में रहने के लिए सकता, क्योंकि संयोग द्रव्यों में ही हो सकता है । नहीं है, क्योंकि समवाय एक ही है । सम्बन्ध को ( सम्बन्धियों से भिन्न होना चाहिए, अतः एक ही समवाय सम्बन्ध और उसका प्रतियोगी दोनों नहीं हो सकता ) संयोग और समवाय को छोड़कर दूसरी कोई 'वृत्ति' ( सम्बन्ध ) नहीं है, तो फिर कौन सो 'वृत्ति' से समवाय की सत्ता द्रव्यादि में रहती है ? अर्थात् समवाय को रहने के लिए जब किसी सम्बन्ध को सम्भावना नहीं है तो समचाय है ही नहीं ।
पट एवं तन्तु और पट भी परस्पर क्योंकि सर्वत्र समवाय की असत्ता समान संयोग सम्बन्ध उपयोगी नहीं हो समवाय भी उसके लिए पर्याप्त
(पूर्व पक्षी से) 'पर' अर्थात् सिद्धान्ती उक्त आक्षेप का समाधान 'न' इत्यादि सन्दर्भ से करते हैं । अर्थात् द्रव्यादि में समवाय के रहने के लिए किसी सम्बन्ध की सम्भावना
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७८५
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् दीनामिव प्रत्यक्षेषु वृत्यभावात, स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्च । तस्मादिह बुद्धयनुमेयः समवाय इति । इति प्रशस्तपादभाष्ये समवायपदार्थः
समाप्तः॥ इसके प्रत्यक्ष न होने का यह हेतु भी है कि (संयोगादि की तरह अनुयोगी और प्रतियोगी से भिन्न रूप में इसका) भान नहीं होता है। तस्मात् 'यह यहीं है। इस कथित प्रतीति से समवाय का अनुमान ही होता है।
प्रशस्तपादभाष्य में समवाय पदार्थ का
निरूपण समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली स्वत एवायं वृत्तिरिति । कृतको हि संयोगस्तस्य वृत्त्यात्मकस्यापि वृत्त्यन्तरमस्ति, कारणसमवायस्य कार्यलक्षणत्वात् । समवायस्य वृत्त्यन्तरं नास्ति । तस्मादस्य स्वात्मना स्वरूपेणैव वृत्तिन वृत्त्यन्तरेणेत्यर्थः । अत एवातीन्द्रियः सत्ता. दीनामिव प्रत्यक्षेषु वृत्त्यभावात् । यथा सत्तादीनां प्रत्यक्षेष्वर्थेषु वत्तिरस्ति तेन ते संयुक्तसमवायादिन्द्रियेषु गृह्यन्ते, नैवं समवायस्य वृत्तिसम्भवः । अतोऽतीन्द्रियोऽयम्, संयोगसमवायापेक्षस्यैवेन्द्रियस्य भावग्रहणसामोपलम्भात् । नहीं है, इससे समवाय द्रव्यादि में नहीं है सो बात नहीं। क्योंकि समवाय में 'सम्बन्ध' का 'तादात्म्य' है, अर्थात् वह स्वयं 'वृत्त्यात्मक' है, फलतः समवाय स्वयं ही सम्बन्ध स्वरूप है। संयोग यतः उत्पत्तिशील वस्तु है, अतः सम्बन्धात्मक होने पर भी उसके रहने के लिए दूसरा सम्बन्ध आवश्यक है । क्योंकि उपादान में समवाय ही कार्य का स्वरूप है, अतः समवायिकारण रूप सम्बन्धियों में संयोग का समवाय रूप दूसरा सम्बन्ध न मानें तो संयोग समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाला कार्य ही नहीं रह जाएगा। समवाय तो नित्य है, उसके लिए दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है । अतः समवाय स्वात्मक सम्बन्ध से ही फलतः स्वरूपसम्बन्ध से ही अपने सम्बन्धियों में रहता है, किसी दूसरे सम्बन्ध से नहीं। 'अत एवातीन्द्रियः सतादीनामिव प्रत्यक्षेषु वृत्त्यभावात्' अर्थात् प्रत्यक्ष दीखनेवाले घटादि विषयों के साथ सत्तादि पदार्थों का ( स्वभिन्न समवाय नाम की) वृत्ति ( सम्बन्ध ) है, अतः संयुक्तसमवाय सन्निकर्ष से उनका प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार समवाय का कोई भी स्वभिन्न एवं प्रत्यक्षप्रयोजक सम्बन्ध अपने सम्बन्धियों के साथ नहीं है, अत। समवाय अतीन्द्रिय है। क्योंकि संयोग और समवाय इन दोनों में से किसी एक की सहायता से ही इन्द्रियों में किसी भावपदार्थ को ग्रहण करने का सामर्थ्य है। (प्र.) यदि समवाय का इन्द्रियों से
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [समवायनिरूपण
प्रशस्तपादभाष्यम् योगाचारविभूत्या यस्तोषयित्वा महेश्वरम् । चक्रे वैशेषिकं शास्त्रं तस्मै कणभुजे नमः ॥ इति प्रशस्तपादविरचितं द्रव्यादिपट
पदार्थभाष्यं समाप्तम् ॥ योग के अभ्यास से उत्पन्न अपनी विभूति के द्वारा उन्होंने महेश्वर को प्रसन्न कर वैशेषिकशास्त्र का निर्माण किया, उन कणाद ऋषि को मैं प्रणाम करता हूँ। प्रशस्तपाद के द्वारा रचित छ: पदार्थों के प्रतिपादक वैशेषिक सूत्रों का यह
भाष्य समाप्त हुआ।
न्यायकन्दली यदि समवायविषयमैन्द्रियकं संवेदनमस्ति ? सम्बन्धाभावाभिधानं प्रलापः । अथ नास्ति, तदेव वाच्यमित्यत्राह-स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्चेति । यथेन्द्रियेण संयोगप्रतिभासो नैवं समवायप्रतिभासः, सम्बन्धिनोः पिण्डीभावोपलम्भात्, अतोऽयमप्रत्यक्षः । उपसंहरति-तस्मादिति ।।
परस्परोपसंश्लेषो भिन्नानां यत्कृतो भवेत् ।
समवायः स विज्ञेयः स्वातन्त्र्यप्रतिरोधकः ।। इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां
__ समवायपदार्थः समाप्तः॥ ज्ञान होता है ? तो फिर यह कहना प्रलाप सा ही है कि अपने सम्बन्धियों के साथ उसका (प्रत्यक्ष के उपयुक्त ) सम्बन्ध नहीं है । यदि इन्द्रियों से उसका ज्ञान नहीं होता है, तो फिर यही कहिए कि समवाय अतीन्द्रिय है। इसी प्रश्न के उत्तर में 'स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्च' यह वाक्य लिखा गया है। अर्थात् जिस प्रकार इन्द्रियों से संयोग का ग्रहण होता है, उस प्रकार इन्द्रियों से समवाय का ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि उसके दोनों सम्बन्धियों की उपलब्धि ऐक्यबद्ध होकर ही होती है ( अर्थात् सम्बन्धियों में समवाय की सत्त्व दशा में सम्बन्धियों कीपृथक् से उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु सम्बन्ध के प्रत्यक्ष के लिए उसके दोनों सम्बन्धियों का स्वतन्त्र रूप से प्रत्यक्ष होना आवश्यक है, सो प्रकृत में नहीं होता है), अतः समवाय अतीन्द्रिय है। 'तस्मात्' इत्यादि से इसी प्रसङ्ग का उपसंहार किया गया है।
अपने सम्बन्धियों के स्वातन्त्र्य को अपहरण करनेवाला वही सम्बन्ध 'समवाय' कहलाता है, जिससे परस्पर भिन्न दो वस्तुओं का परस्पर अति नैकट्य का सम्पादन हो । भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रचित और पदार्थ को समझानेवाली न्यायकन्दली
टीका का समवायनिरूपण समाप्त हुआ।
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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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सुवर्णमयसंस्थानरम्या सर्वोत्तरस्थितिः । सुमेरोः शृङ्गवीथीव टीकेयं न्यायकन्दली ॥ १ ॥ अक्षीणनिजपक्षेषु ख्यापयन्ती गुणानसौ । परप्रसिद्ध सिद्धान्तान् दलति न्यायकन्दली ॥ २ ॥ आसीद् दक्षिणराढायां द्विजानां भूरिकर्मणाम् । भूरिसृष्टिरिति ग्रामो भूरिश्रेष्ठिजनाश्रयः ॥ ३ ॥ अम्भोराशेरिवेतस्माद् बभूव क्षितिचन्द्रमाः । जगदानन्दनाद् वन्द्यो बृहस्पतिरिव द्विजः ॥ ४ ॥
तस्माद् विशुद्धगुणरत्नमहासमुद्रो विद्यालतासमवलम्बनभूरुहोऽभूत् । स्वच्छायो विविधकीत्तिनदीप्रवाहप्रस्पन्दनोत्तमबलो बलदेवनामा ॥ ५ ॥
तस्याभूद् भूरियशसो विशुद्धकुलसम्भवा । अब्बोकेर्त्यचतगुणा गुणिनो गृहमेधिनी ॥ ६॥
७८७
( १ ) यह 'न्याय कन्दली' टीका सुमेरु के शृङ्गों की पङ्क्तियों की तरह मनोरम है, क्योंकि सुमेरु के शृङ्ग भी सुवर्ण (हिरण्य) के संस्थानों से रचित होने के कारण रमणीय हैं । यह टीका भी सुवर्णों अर्थात् सुन्दर अक्षरों के विन्यास से रचित होने के कारण अति रमणीय है । सुमेरु का शृङ्ग भी सभी वस्तुओं की अपेक्षा उत्तर दिशा में रहने के कारण 'सर्वोत्तर स्थिति' है । यह टीका भी ( प्रशस्तपाद भाष्य की ) अन्य टीकाओं से उत्कृष्ट होने के कारण 'सर्वोत्तरस्थिति' अर्थात् सर्वातिशायिनी है ।
( २ ) इस टीका का नाम 'न्यायकन्दली' इस लिए है कि इसमें कथित न्याय अपने सिद्धान्तों की पूर्ण रक्षा और विरोधी सिद्धान्तों का सम्यक् रूप से 'दलन' करते हैं । ( ३ ) राढ़ देश के दक्षिण भाग में 'भूरिसृष्टि' नाम का एक गाँव था, जिसमें अनेक सत्कर्मों के अनुष्ठान करनेवाले ब्राह्मणों का एवं अनेक सेठों का निवास था । चन्द्रमा स्वरूप एवं बृहस्पति के समान ( बुद्धिउत्पन्न आकाश के चन्द्रमा की तरह विश्व के के वन्दनीय थे ।
( ४ ) इसी गाँव में पृथ्वीतल के मान् ) एक द्विज उत्पन्न हुए जो समुद्र से सभी प्राणियों को सुख देने के कारण सभी
( ५ ) उन्हीं से अनेक प्रकार के यशों की नदी के सतत गतिशील प्रवाह से प्राप्त उत्कृष्ट बल से युक्त ( होने के कारण ) अन्वर्थ नाम के निर्मल अन्तःकरणवाले 'बलदेव' उत्पन्न हुए, जो विद्या रूपी लता के आश्रयीभूत वृक्ष के समान एवं विशुद्ध अनेक सद्गुण रूपी रत्नों के ( आकर ) महासमुद्र के समान थे ।
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( ६ ) अत्यन्त यशस्वी और गुणी उन्हीं ( बलदेव ) की अत्यन्त कुलीना, गुणानुरागिणी एवं गृहकार्यदक्षा 'अब्बोका' नाम की पत्नी थीं ।
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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उपसंहारः न्यायकन्दली सच्छायः स्थलफलदो बहुशाखो द्विजाश्रयः। तस्यां श्रीधर इत्युच्चरथिकल्पद्रुमोऽभवत् ॥७॥ असौ विद्याविदग्धानामसूत श्रवणोचिताम् । षट्पदार्थहितामेतां रुचिरां न्यायकन्दलीम् ॥ ८ ॥ त्र्यधिकदशोत्तरनवशतशाकाब्दे न्यायकन्दली रचिता श्रीपाण्डुदासयाचितभट्टश्रीश्रीधरेणेयम् ॥६॥
समाप्तेयं पदार्थप्रवेशन्यायकन्दली टीका।
समाप्तोऽयं ग्रन्थः॥
(७) उन्हीं से 'श्रीधर' उत्पन्न हुए जो ( इन सादृश्यों के कारण ) अथियों के लिए कल्पवृक्ष के समान थे। क्योंकि कल्पवृक्ष भी अपनी धनी छाया से अथियों के ताप को दूर करता है। इनसे भी अथियों के अनेक विघ्न ताप दूर होते थे। कल्पवृक्ष भी बहुत बड़े फल का दाता है, इनसे भी मोक्ष रूप महान् ( उपदेशादि के द्वारा ) फल प्राप्त होता था । कल्पवृक्ष की भी अनेक शाखायें हैं। उनके भी शिष्य प्रशिष्य की अनेक शाखायें थीं। कल्पवृक्ष भी अनेक द्विजों (पक्षियों) का आश्रय है, ये भी अनेक द्विजातियों के आश्रय थे।
(८) उन्हीं के द्वारा तत्त्वज्ञान को उत्पन्न करनेवाली ओर विद्याप्रेमियों के सुनने योग्य यह अतिरमणीय 'न्यायकन्दली' टीका रची गयी ।
(१) श्रीपाण्डुदास कायस्थ की प्रार्थना ( से प्रेरित होकर ) भट्ट श्री श्रीधर ने ६१३ शकाब्द में 'न्यायकन्दली' की रचना की। षट् पदार्थों के तत्त्वज्ञान को उत्पन्न करनेवाली न्यायकन्दली टीका
समाप्त हुई ॥
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अनादिनिधनं
अनाश्वासो ज्ञायमाने
अनित्यत्वं विनाशाख्यं
७८७
अक्षीण निजपक्षेषु अग्निहोत्रं त्रयो वेदाः ( टिप्पण्याम् ) ५११
अत एव च विद्वत्सु
२१३
अनयोः संप्रतिबद्धाः
६७६
१
५२५
४६
अन्तराले तु यस्तत्र
अब्बो केत्य चिगुणा अभावोऽपि प्रमाणाभावः
अभ्यास वैराग्याभ्यां अम्भोराशेरिर्वतस्मात् अर्थबुद्धिस्तदाकारा
अर्थापत्तिरियं त्वन्या
न्यायकन्दली समुद्धृतप्रमाणवचनानाम् अक्षरानुक्रमणी
अर्थेन घटयस्येनां
अविनाभावनियमो
अविपर्ययाद्विशुद्धं
असत्त्वान्नास्ति सम्बन्धः
असदकरणाद्
असम्बद्धस्य चोत्पत्तिम्
असिद्धेन कदेशेन
असौ विद्याविदग्धानां
अस्या अभावे नैवेयं
आत्मख्यातिरविप्लवा
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आत्मनि सति परसंज्ञा आधिक्येऽप्यविरुद्धत्वात्
आशामतृप्ता आसीद् दक्षिणराढायां
इतिकर्तव्यता साध्ये
उत्पत्तिमन्ति चत्वारि
एकत्र प्रतिषिद्धत्वात् एकधी हेतुभावेन
पृष्ठसंख्या
एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि
कर्मणा सत्त्वसंशुद्धिः
कर्मणां प्रागभावो यः
कर्मेति परमं तत्त्वं
कार्यकारणभावाद्वा
कार्यान्तरेऽपि सामथ्यं कुर्वन्नात्मस्वरूपज्ञो
४७५
७८७ | गुणोपबद्धसिद्धान्तो
५५२
६७५
७८७
३०४
५३६
२६७
૪૬૨
६७५
३४०
३४१
३४०
५६९
कोहि विप्रतिपन्नाया:
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चक्रे वैशेषिकं शास्त्र (भाष्ये )
छायायाः कर्ण्य मित्येवं
जगदङ्कुरबीना
जगदानन्दनाद्वन्द्यो
ज्ञानस्याभेदिनो भेद
ज्ञानात्मने
ज्ञानाद्वा ज्ञानहेतोर्वा
ज्ञानं च विमलीकुर्वन्
ज्ञापकत्वाद्धि सम्बन्धः
ततोऽपि विकल्पाद्
तत्र गौरेव वक्तव्यो
तत्र यत् पूर्व विज्ञानं
तत्सिद्धिर्नान्यथेत्येतत् तद्गतैवाभ्युपगन्तव्या
तदभावे च नास्त्येव (भाष्ये )
७८८
७६५
६७४
६७६ | तदभावेऽपि तन्नेति
६०२ तदुपस्थापनमात्रेण ३१३ तयोश्च न परार्थत्वं तस्माद् दृष्टस्य भावस्य तस्मात्प्रमेयाधिगतेः
७८७
४१६
१२१ तस्मान्नार्थेन विज्ञाने
३००
७६१
तस्माद्विशुद्धगुण
तस्माद्वैधर्म्य दृष्टान्तो
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पृष्ठसंख्या
६७५
६८६
६८४
૭૪૨
૪૨૨
६५७
६८७
६१६
६६६
७८८६
२५
६९७
७८७
३११
१
५६४
६८१
५१८
૪૪૨
७६३
६२७
६६२
६६३
४७८
४८२
६२७
५६४
૪
२६७
३००
७८८७
४८२
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६८४
५१८
५४०
२५
૨૫
५८५
तस्याभूद् भूरियशशो तस्यां यद्रूपमाभाति तस्यां श्रीधर इत्युच्चैः तानि बध्नन्त्यकुर्वन्तं तिष्ठति संस्कारवशात् तेन निवृत्तप्रसवां तेनासो विद्यमानोऽपि तेनैषां प्रथमं तावत् तेशां कर्तृ परीक्षार्थ त्र्यधिकदशोत्तरनवशत दूरासनप्रदेशादि देहानुवतिनी छाया यासत्त्वविरोधाच्च ध्यानकतानमनसे न च भासामभावस्य न चानर्थकरत्वेन न चार्थेनार्थ एवायं नमः पञ्चत्वशन्याय नमो ज्ञानामृतस्य न्दि नमो जलदनीलाय नहि तत्करणं लोके नहि स्वभावतः शब्दो नास्तीत्यपि न वक्तव्यं नित्य नैमित्तिकैरेव नियम्यत्वनियन्तृत्वे निर्मलज्ञानदेहाय निश्चिते न खलु स्थाणा पदार्थधर्मसंग्रहः परप्रसिद्धसिद्धान्तान् परस्परोपसंश्लेषो पूर्वविज्ञानविषयं प्रकृति पश्यति पुरुषः प्रणम्य हेतुमीश्वरं प्रतियोगिन्यदृष्टेऽपि प्रत्यक्षस्यापि पारायं
न्यायकन्दलीसमुद्धृतप्रमाणवचनानाम्
अक्षरानुक्रमणी पृष्ठसंख्या
पृष्ठसंख्या ७८७ प्रत्यवायोऽस्य तेनैव ४५६ प्रत्येकमनुवर्तन्ते
७७२ ७८८ प्रपद्ये सत्यसंकल्प प्रमाणपञ्चकं यत्र
५५२ ६८६ प्रमाणान्तरसद्भाव:
६२३ ६७६ प्रमाणेत रसामान्य
६२३ फलाय विहितं कर्म
६६२ फलं तत्र व जनयन्ति १२१
बुद्धिपौरुषहीनानां (टिप्पण्याम्) ५११ बुद्धः प्रतिसंवेदी पुरुषः ब्रह्माण्डलोके जीवानां ब्राह्मणत्वानहमानी
६८८ भवेद्विमुक्तिरभ्यासात्
६५९ भागः कोऽन्यो न दृष्टः स्यात्
४९५ भूरिसृष्टिरिति ग्रामो
७८७ भेदश्चाभ्रान्तिविज्ञाने ५४०
भ्रान्तस्यान्यविवक्षायां मुक्ताहार इव स्वच्छो
६६ ६६७ मूले तस्य ह्यनुपपन्ने
५७१ २२७ यत्रासाधारणो धर्मः
५८५ ४१६ यदनुमेयेन सम्बद्ध
४७८ ५११ यद्यपि स्मृतिहेतुत्वं
६५७ ७६०
यानि काम्यानि कर्माणि ६८४ यावच्चाव्यतिरेकित्वं
४१५ ६०५ यावन्ती यादृशा ये च
६५४ ७७३ युगकोटिसहस्रण
६८७ योगाचारविभूत्या यः
७८६ रसवीर्यविपाकादि ७८७ लक्ष्मीकण्ठग्रहानन्द
२२७ ७८६ वचनस्य परार्थत्वाद्
५६४ ६२७ वचनस्य प्रतिज्ञात्वं
५६६ वर्णाः प्रज्ञातसामर्थ्याः
६५४ वस्तु प्रत्यभिधातव्यं
६१६ ५३१ वाक्यमेव तु वाक्यार्थ
१४० विकल्पो वस्तुनिर्भासात्
४४६
७६५
६७६
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अक्षरानुक्रमणी
७९१
४८०
पृष्ठसंख्या
पृष्ठसंख्या विपक्षस्य कुतस्तावत्
४१५ षण्णां समानदेशत्वात् (टिप्पण्याम्) १०६ विपरीतमतो यत् स्यात् ४८० सच्छा यः स्थूल फलदो
७८८ विपरीते प्रतीयेते
६०५ | स ज्ञेयो जाङ्गलो देशो ( टिप्पण्याम् ) ६३ विरुद्धासिद्धसन्दिग्ध
समवायः स विज्ञेयः
७८६ विशुद्धविविधन्याय २२६ सम्यग् ज्ञानाधिगमात्
६८६ विश्वस्य परमात्मानो ७४१ सविकल्पकविज्ञान
५४० वैपरीत्यपरिच्छेदे ५७१ साध्याभिधानात् पक्षोक्तिः
५६६ व्यापकत्वगृहीतस्तु
सा बाह्यादन्यतो वेति
३०४ व्यावृत्तमिव निस्तत्त्वं
४५६ सामान्यवच्च सादृश्यं शक्तस्य शक्यकरणात् ३४१ सुवर्णमय संस्थान
७८७ शक्तस्य सूचकं हेतुः ५६६ सुमेरोः शङ्गवीथीव
७८७ शक्तिः कार्यानुमेया हि
६६३ सेव्यतां द्रव्यजलधिः शब्दान्तराण्यबुद्ध्वा
संज्ञा हि स्मर्यमाणापि
४५४ शब्दे कारणवर्णादि ५१६ संज्ञिनः सा तटस्था हि
४५४ शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं ४१२ | संस्काराः खलु यद्वस्तु
६५६ श्रीपाण्डुदासयाचित ७८८ स्वकाले यदकुर्वस्तत्
६८४ षट्केन युगपद्योगात् (टिप्पण्याम् ) १०६ स्वच्छाशयो विविधकात्ति
७८७ षटपदार्थ हितामेतां
७८८ | स्वल्पोदकतृणो (टिप्पण्याम् )
२२६
५४०
.
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अक्षपाद:
अत्रके वदन्ति
अपरैः
आचार्याः
उद्योतकरः
कापिलाः
कापिले:
कारिकायाम्
गुरुभिः
तत्त्वप्रबोधः
तत्त्वसंवादिनी
न्यायकन्दल्यामुद्धृतानां ग्रन्थानां ग्रन्थकाराणां च
अक्षरानुक्रमणी
तथागताः
तन्नटीकायाम्
धर्मोत्तरः
न्यायभाष्यम्
न्यायभाष्यकारः
न्यायवादिभिः
न्यायवार्त्तिककारः
पतञ्जलि:
परेः बार्हस्पत्या:
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पृष्ठसंख्या
६८२ | ब्रह्मसिद्धिः भट्टमिश्रा:
७४८
६४१
३१५
७१
६७५-६८६
६७६
६२७
३१३
१६७
१६७
५६६
६२७
१८४
५६७-६१०
६७३
६५७
५४६-५८६-६३५
१४२-४११-६७५-६८२
६८६
५१०
भावनाविवेकः
मण्डन मिश्र :
गुरुभिः
यथाह तत्र भवान्
यथाहुराचार्याः यथोपदिशन्ति गुरवः
यथोपदिशन्ति सन्तः
वार्तिकम्
वात्र्तिककार मिश्राः
विधिविवेकः
विभ्रमविवेकः
शाक्यादीनाम् शबरस्वामिशिष्याः
शाबरभाष्यम् ?
सौगताः
सौगतैः
सर्वोत्तरबुद्धयो गुरवः
स्फोटसिद्धिः
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पृष्ठसंख्या
५२५
५८५
५२५
१६-५२५-६२३-६५६
५३१
७६२
५६८
६०२
५६६-६५४
५५२-६२३
२१३- ४१५
६६३
६२३
५७४
५३१
५३१
४४८-७५६
६२३-६७६
६२७
६५६
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org मूल्यम् अभिनवप्रकाशनानि सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयस्य क्रम सं० ग्रन्थनाम 1. शुक्लयजुर्वेदकाण्वसंहिता | उत्तरविंशतिः ] संहितेयं सायणभाष्य सहिता प्रकाशिता विविधैः खलु गवेषणा प्रधानः भूमिका-टिप्पणपरिशिष्टेः समलङ्कता 26-25 2. वाक्यपदीयम् [वृत्तिसमुद्देशात्मकम् ] ग्रन्थरत्नमिदं हेलाराज प्रणीतया प्रकाशव्याख्यया तथा च प० रघुनाथशर्मविरचितया अम्बाक/टीकया विभूषितम् 65-50 3. वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा [ नागेशभट्टविरचिता ] ग्रन्थोऽयं सर्वतः प्रथमं सम्पादककृतविविधैः सारभूतैः टिप्पण भूमिका परिशिष्टः समलङ्कृत्य प्रकाशितः 36-00 4. प्रक्रियाकौमुदी [ भागद्वयात्मिका ] रामचन्द्राचार्यप्रणीतेयं प्रक्रियाकौमुदी सर्वतःप्रथमं शेषश्रीकृष्णपण्डितप्रणीतया प्रकाशव्याख्य या विभूष्य प्रकाशिता। तृतीयो भागोऽप्यचिरादेव प्राकाश्यमेष्यति / प्रथमभागस्य 52-00 | द्वितीयभागस्य 67-00 5. सरलत्रिकोणमितिः ज्यौतिषम् ] म० म० श्रीबापूदेवशास्त्रि विरचितोऽयं ग्रन्थो गवेषणापूर्णैः उपोद्घातपरिशिष्टः सम्भूष्य प्रकाशितः 26-00 6. प्रशस्तपादभाष्यम् [प्रशस्तपादाचार्यप्रणीतम् ] न्यायदर्शनस्य प्राणभूतमिदं ग्रन्थरत्नं श्रीधरभट्टकृतन्यायकन्दलीव्याख्यया, श्रीदुर्गाधरझाकृतहिन्दी भाषानुवादेन च समलङ्कृतं पुनः प्रकाशितम् 68-00 7. रसगङ्गाधरः [पण्डितराजजगन्नाथविरचितः] साहित्य शास्त्रग्रन्थोऽयं प० केदारनाथओझा-प्रणीतया रसचन्द्रिकाख्यया व्याख्यया विभूष्य प्रकाशितः। द्वितीयभागोऽपि किलाचिरादेव प्राकाश्यमेष्यति 22-00 8. नानकचन्द्रोदयमहाकाव्यम् | श्रीदेवराजशर्मविरचितम् ] गुरुनानक चरितमुपजीव्यत्वेनाङ्गीकृत्य प्रतिभावता देवराजशर्मणा महाकविना विरचितमिदं महाकाव्यं कामं संस्कृतवाङ्मयस्य श्रियं समेधयति 74-60 6. रसिकजीवनम् [ पण्डितश्रीरामानन्दपतित्रिपाठिविरचितम् / नायिकाभेदनिरूपणपरमिदं काव्यं सर्वतः प्रथम विस्तृतगवेषणात्मिकया प्रस्तावनया समलङ्कृत्य प्रकाशितम् प्रकाशकः-निदेश्यकः, अनुसन्धानसंस्थानम्, सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयः, वाराणसी-२२१००२. For Private And Personal