Book Title: Pramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Author(s): Rashmi Pant
Publisher: Ilahabad University
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुख जैनाचार्यों का संस्कृत काव्यशास्त्र योगदान इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पी० एच० डी० उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध प्रस्तुतकों रश्मि पन्त निर्देशक डा० सुरेशचन्द्र पाण्डे प्राध्यापक संस्कृत - विभाग APALL QUOT संस्कृत - विभाग इलाहाबाद - विश्वविद्यालय १९९२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन सामान्यतया कवि के कर्म को काव्य कहा जाता है। अत: सर्वप्रथम काव्य के साथ शास्त्र पद जोड़कर काव्यशास्त्र नाम प्रयुक्त हुआ है। काव्यशास्त्र विषयक गन्यो' को भामह, रूट, वामन आदि आचार्यों ने "काव्यालंकार' संज्ञा से अभिहित किया। अत: कालान्तर में अलंकारशास्त्र का भी प्रयोग होने लगा। पैकि शब्द तथा अर्थ के साहित्य (सहितयो: भावः साहित्यस) का नाम काव्य है। अत: इसे साहित्यशास्त्र भी कहा जाता है। इस प्रकार काव्यशास्त्र, अलंका रशास्त्र और साहित्यशास्त्र नाम एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये जाने से पर्याय ही हैं। साहित्य का बहुत व्यापक अर्थ है। इसमें सर्जनात्मक और अनुशासनात्मक या समीक्षात्मक साहित्य सभी कुछ आ जाता है। अनुशासनात्मक साहित्य सर्जनात्मक साहित्य का नियामक है। अलंका रशास्त्र का सम्बन्ध इसी अनुशासनात्मक या समीक्षात्मक साहित्य से है। अत: इसका ज्ञान अत्यावश्यक है। अद्यावधि जिन अलंकारशास्त्रों का शोध-दृष्टि से अध्ययन किया गया है, उनमें जैनाचार्यों द्वारा रचित अलंकारशास्त्रों की गफ्ना स्वल्प है, अत: उनकी शोध - खोज आवश्यक है जिससे सुधीजनों को जैनाचार्यो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की काव्यशास्त्रविषयक मान्यताओं पर विचार करने का अवसर प्राप्त होगा। प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध "प्रमुख जैनाचार्यों का संस्कृतकाव्यशास्त्र में योगदान* इसी दिशा में एक विनम प्रयास है। ___जैनधर्म प्रारम्भ से ही बहुव्यापी तथा बहुजीवी धर्म रहा है उसकी परम्परा आज भी अविच्छिन्न रूप ते विद्यमान है। साहित्य की प्रत्येक विधा को न्यूनाधिक रूप से जैन - मनीषियों ने अपनी प्रतिभा द्वारा संवारा है। धर्म - दर्शन तथा आचार - नियम के अतिरिक्त व्याकरप, साहित्य, कोश आदि विषयों पर अनेक ऐसे गन्थ उपलब्ध हैं, जिनके रचयिता जैन थे। काव्यशास्त्र जैसे गम्भीर विषय पर भी जैनाचार्यो द्वारा महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है। जैनाचार्यों की मूल भाषा प्राकृत है, परन्तु कालान्तर में उन्होंने संस्कृत भाषा को अपनी भावा भिव्यक्ति का साधन बनाया क्योंकि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में संस्कृत - भाषा का प्रचार - प्रसार था। इस भाषा का अध्ययन व चिन्तन - मनन न करने वालों के लिये अपने विचारों को सुरक्षित रख पाना कठिन हो गया था। भारतीय दार्शनिक दर्शन सम्बन्धी गट तत्वों को अपने ग्रन्थों में संस्कृत भाषा में ही संजोते थे। साथ ही तत्कालीन समाज में संस्कृत भाषा में लिखना तथा शास्त्रार्थ आदि में संस्कृत - भाषा का प्रयोग करना विद्वत्ता का प्रतीक बन गया था। तर्क, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षप तथा साहित्य उस युग की महा विद्यायें थी तथा इस महत्त्रयी का पाण्डित्य राजदरबार तथा जनसमाज में अग्रगण्य होने के लिये आवश्यक था। अत : जैनाचार्यों ने अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने व प्रतिभा को कसौटी पर कसने हेतु संस्कृत भाषा को भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं द्वारा पल्लवित व पुष्पित किया जिनमें काव्यशास्त्र भी एक है। प्रस्तुत शोध - प्रबन्ध को सप्त अध्यायों में विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय, "संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख जैनाचार्य व्यक्तित्व व कृतित्व में छ: जैनाचार्यो'- आचार्य वाग्भट प्रथम, हेमचन्द, रामचन्द्रगुपचन्द्र, नरेन्द्रप्रभसरि, वाग्भट द्वितीय व भावदेवतरि का ऐतिहासिक क्रम से परिचय है, जिनमें उनके माता-पिता, गुरू, कुल - गोत्र व समय आदि पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। साथ ही उनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए उनके अलंकारशास्त्र विषयक ग्रन्थों का सामान्य परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्याय “काव्य-स्वरूप, हेतु व प्रयोजन" में सर्वप्रथम काव्यस्वरूप पर विचार करते हुए विभिन्न आधारों पर काव्य के भेद किये गये हैं। काव्य-भेदों के अन्तर्गत महाकाव्य के स्वरूप व उसके वर्षनीय विषयों का उल्लेख है। इसी प्रसंग में काव्य के अन्य भेद-आख्यायिका, कथा, चम्प, ": Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 व अनिबद (मुक्तक) पर विशेष रूप से विचार किया है। तत्पश्चात् ध्वनि के आधार पर मान्य काव्य-भेद, ध्वनि-भेद, काव्य-हेतु व काव्य-प्रयोजन पर क्रमश: प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्याय "जैनाचार्यों की दृष्टि में रस - स्वरूप विवेचन * मैं पूर्वकथित छः प्रमुख जैनाचार्यों की रस विषयक मान्यताओं पर विचार किया गया है। इसमें सर्वप्रथम रस का महत्त्व व उसके स्वरूप पर प्रकाश डाला है। आ. रामचन्द्र - गुपचन्द्र की रस विषयक इस मान्यता की कि " रस सुख-दुःखात्मक है" की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। इसी क्रम में रसों के सभी भेदों पर पृथक-पृथक विचार किया है तथा अनुयोगद्वारसूत्रकार द्वारा भयानक रस के स्थान पर मान्य व्रीडनक रस का विवेचन किया है। तत्पश्चात विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव, सात्त्विकभाव, स्थायिभाव व रसाभास व भावाभास पर विचार किया है। चतुर्थ अध्याय "दोष - विवेचन" में दोष का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए जैनाचार्यों द्वारा मान्य पददोष, पदांशदोष, वाक्यदोष, उभयदोष, अर्थटोष व रसदोषों पर पृथक-पृथक विचार किया गया है। तत्पश्चात् दोष परिहार का भी उल्लेख है । पंचम अध्याय "गुण-विवेचन व जैनाचार्य " में गुण सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए गुप के स्वरूप व भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा मान्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप-भेदों पर प्रकाश डाला गया है। षष्ठ अध्याय "अलंकार-विवेचन व जैनाचार्य" में अलंकार के सामान्य स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। तत्पश्चात शब्द व अर्थ की प्रधानता को ध्यान में रखकर अलंकार के शब्दालंकार आदि भेदों पर विचार किया गया है तथा अन्त में प्रकृति के आधार पर मान्य अर्थालंकारों के वर्गीकरप का विवेचन है। सप्तम अध्याय "नाट्य का समावेश" में नाट्यशास्त्रीय तत्वों पर विचार किया गया है। इनमें जैनाचार्यो द्वारा रचित अलंकारशास्त्रों में पाये जाने वाले नाट्य तत्त्व ही प्रमुख हैं। नाट्य की उत्पत्ति, नाट्यशास्त्रीय प्रमुख ग्रन्थों का परिचय, नायक-स्वरूप उसके सात्विक गुप तथा उसके भेद, प्रतिनायकस्वरूप, नायक के अन्य सहायक पात्रों - विदूषक आदि, नायिका - स्वरूप, नायिका-भेद, नायिका के सत्त्वज अलंकार, प्रतिनायिका तथा नाट्य वृत्तियां विवेच्य विषय हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रस्तुतीकरप में, मैं अदेय गुरूवर्य डा. सुरेशचन्द्र जी पाण्डे (प्राध्यापक, संस्कृत - विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) की हृदय से आभारी है, जिनके कुशाल - निर्देशन, कृपा व सज्जनता से यह शोध - प्रबन्ध अनुपाणित हुआ है। साथ ही मैं श्रद्धय गुरूवर्य डा. सुरेशचन्द्र जी श्रीवास्तव (अध्यक्ष, संस्कृत - विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय) की भी हृदय से आभारी है जिन्होंने अपनी कृपा व स्नेह Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पात्र मुझे सर्वदा समझा । इस प्रसंग में, मैं अपने समस्त गुरूजनों की भी ह्रदय ते कृतज्ञ हूँ जिनकी सद्भावना व स्नेह मेरे अवलम्ब रहे। 6 मुझे अपने मित्रों से सदा इस कार्य को सम्पन्न करने हेतु प्रेरणा तथा उत्साह प्राप्त होता रहा, जिसकी अभिलाषा मुझे सर्वदा ही रहेगी। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के निदेशक आदरणीय डा. सागरमल जी जैन व अधिकारियों तथा केन्द्रीय पुस्तकालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अधिकारियों की भी मैं आभारी हूँ, जिनकी कृपा से अनेक ग्रन्थों के अवलोकन तथा उपयोग करने की सुविधा मिली। इलाहाबाद दि. - 9.7.1992 रश्मि पन्त Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमपिका पृष्ठ संख्या प्राक्कथन | - 6 प्रथम अध्याय संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख जैनाचार्य व्यक्तित्व व कृतित्व आचार्य वाग्भट प्रथम वाग्भटालंकार आचार्य हेमचन्द्र काव्यानुशासन आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र नाट्यदर्पप आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि अलंकारमहोदधि आचार्य वाग्भट द्वितीय काव्यानुशासन आचार्य भावदेवतरि काव्यालंकारप्तार द्वितीय अध्याय काव्यस्वरूप, हेतु, प्रयोजन काव्यस्वरूप काव्य-भेद 46 - 123 46 - 56 46 - 1 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या ध्वनि के आधार पर काव्य-भेद जैनाचार्यों के अनुसार ध्वनि-भेद विवेचन काव्य-हेतु काव्य-प्रयोजन 71 - 78 79 - 97 98 - 112 112 - 123 तृतीय अध्याय जैनाचार्यों की दृष्टि में रस-स्वरूप विवेचन रस-स्वरूप रस-भेद 124 - 139 140 - 146 146 - 157 161 - 163 भंगार रस हास्य रस करूण रत रौद्र रत वीर रस भयानक रस वीभत्स रस 170 - 171 172 - 173 173 - 177 अदभुत रस शान्त रस स्थायिभाव विभाव 177 - 183 183 - 184 185 - 188 अनुभाव व्यभिचारिभाव सात्त्विक भाव 188 - 198 198 - 200 रसाभास व भावाभास 200-203 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय दोष - विवेचन 204 - 278 204 - 206 206 - 276 208 - 216 216 दोष - स्वरूप दोष - भेद पददोष पदांशगत दोष वाक्य - दोष उभय - दोष अर्थ - दोष रस - दोष दोष - परिहार 217 - 234 234 - 246 247 - 262 262 - 276 276 - 278 पंचम अध्याय गपविवेचन व जैनाचार्य 279 - 309 गप - विचार गुप - भेद - 286 286 - 309 षष्ठ अध्याय अलंकार विवेचन व जैनाचार्य 310 - 348 310 - 314 314 अलंकार स्वरूप अलंकार संख्या अलंकार वर्गीकरप शब्दालंकार विवेचन अर्थालंकार विवेचन 315 315 -325 325 -348 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या सप्तम अध्याय नाट्य का समावेश 349 -390 349 - 352 352 - नाट्य की उत्पत्ति पात्र विधान नायक-स्वरूप नायक के सात्विक गुप नायक के भेद 354 357 355 - 357 357 - 363 अन्य नायक 364 प्रतिनायक अन्य सहायक पात्र नायिका स्वरूप नायिका भेद प्रतिनायिका नायिकाओं के अलंकार नाट्यवृत्तियां 364 - 365 365 - 366 366 367 - 375 375 376-382 383-390 391 संक्षिप्त सकेत सूची सहायक ग्रन्थ सूची 392 - 398 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्यायः संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख जैनाचार्य व्यक्तित्व व कृतित्व जैनाचार्यों ने जहां न्याय, व्याकरप, कोश आदि विविध विषयों पर मौलिक गन्थों की रचना की है, वहीं, काव्यशास्त्र जैसे लोकोपयोगी विषयों पर भी गन्धों का प्रपयन किया है, जिससे उनके काव्यशास्त्रीय ज्ञान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यापि इन काव्यशास्त्रीय गन्थों की गफ्ना स्वल्प रही है तथापि इनमें कतिपय गन्धरत्न ऐसे हैं जिसमें उन्होंने अपनी कुछ विशिष्ट मान्यताएं प्रतिपादित की हैं। अत: संस्कृत काव्यशास्त्र में जैनाचार्यों की देन महत्वपूर्ण है। काल की दृष्टि से प्रथम जैनाचार्य आर्यरक्षित ईसा की प्रथम शताब्दी के हैं। तथा अन्तिम आचार्य सिद्विचन्द्रगपि ईसा की षोडश शती के हैं, इसके अतिरिक्त कई टीकाकार है, जिनकी परंपरा अष्टादश ती तक विस्तृत है। आर्य रक्षित यधपि विशुद्ध आलंकारिक नहीं हैं तथापि इनके द्वारा रचित 'अनुयोगदारसूत्र' से उनके अलंकारशास्त्रीय ज्ञान की झलक मिलती है। तत्पश्चात् एक लम्बी अवधि तक जैनाचार्यों द्वारा रचित अलंकारशास्त्रों का अभाव है। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में किसी अज्ञातनामा जैनाचार्य द्वारा प्राकृत भाषा में निबद्ध "अलंकारदप्पप" नामक गन्ध मिलता है। प्रथम शती के आर्यरक्षित व एकादश पाती के अलंकारदप्पपकार के अनन्तर वाग्भट प्रथम से प्रारम्भ होने वाली जैन आलंकारिकों की परंपरा मेहम प्रविष्ट होते हैं, जो द्वादश शताब्दी से अविच्छन्न चलती है। ___आचार्य वाग्भट प्रथम के "वाग्भटालंकार' में काव्यशास्त्रीय विषयों का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र कृत "काव्यानुशासन' गन्ध । उनका अलंकारविषयक एकमात्र गन्ध है। इस ग्रन्थ में अलंकारशास्त्रीय गुप-दोष, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलंकार आदि विषयों के अतिरिक्त नाट्यशास्त्रीय नायक - नायिका दि विविध विषयों का संभवतः प्रथमतः वर्णन मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र विरचित "नाट्यदर्पप" तो नाट्यशास्त्रीय ज्ञान हेतु दर्पण ही है, इसमें अनेक नवीन मान्यताओं को स्थान दिया गया है। आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि कृत "अलंकारमहोदधि आठ तरंगों में विभक्त है, जिसमें अलंकारशास्त्रीय समस्त विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। अमरचन्द्रतरि की “काव्यकल्पलता - वृत्ति व विनयचन्द्रसरि की "काव्य-शिक्षा" ये दोनों गन्ध काव्य - रचना के इच्छुकों हेतु अत्युपयोगी हैं। दस परिच्छेदों में विभक्त विजयवी की “श्रृंगारार्पवचन्द्रिका अलंकारविषयक गन्थ है। अजितसेन द्वारा रचित "अलंका रचिन्तामपि पाँच परिच्छेदों में विभक्त है, इसके द्वितीय, तृतीय, व चतुर्थ परिच्छेदों में केवल अलंकारों का विवेचन किया गया है, जो अजिततेन के अलंकारशास्त्रीय गंभीर ज्ञान का सूचक है। आचार्य वाग्भट द्वितीय ने भी "काव्यानुशासन" नाम से एक गन्थ की रचना की है, इसमें अधिकांश सामग्री हेमचन्द्राचार्य के “काव्यानुशासन" के आधार पर विवेचित है। मंडनमन्त्री का "अलंकारमण्डन और भावदेवतरि का "काव्यालंकारतार" - ये दो अलंकारशास्त्रीय लघु गन्थ हैं, जिनमें प्राचीन पद्धति का अनुसरप किया गया है। पदमसुन्दरगपि का "अकबरताश्रृिंगारदर्पप' नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ है, इसमें विविध महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन है। सिद्विचन्द्रगपि का "काव्यप्रकाशखण्डन' आचार्य मम्मट के प्रसिद्ध गन्ध "काव्यप्रकाश के खण्डन की दृष्टि से लिखित है। ___उपर्युक्त गन्थों के अतिरिक्त अन्य अनेक ग्रन्थ व टीकाएं भी हैं, जो यत्र-तत्र विभिन्न गन्ध-भण्डारों में उपलब्ध हैं अथवा जिनका यत्र-तत्र गन्थों में उल्लेख मात्र मिलता है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में उक्त जैनाचार्यों में से, छ: प्रमुख जैनाचार्योआचार्य वाग्मट प्रथम, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र , आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि, आचार्य वाग्भट द्वितीय एवं आचार्य मावदेवतरि के गन्थों - क्रममाः “वाग्भटालंकार', "काव्यानुशासन", "नाट्यदर्पप", "अलंकारमहोदधिः, "काव्यानुशासन एवं "काव्यालंकारसार' - के आधार पर संस्कृत काव्यशास्त्र मैं उनके योगदान का उल्लेख किया गया है। आचार्य वाग्भट प्रथम संस्कृत काव्यशास्त्र के क्षेत्र में आचार्य वाग्भट प्रथम की प्रसिद्धि उनके द्वारा प्रपीत गन्ध वाग्भटालंकार" के कारण है। इनके सम्बन्ध में इतना तो निस्सन्दिग्ध है कि ये जैनधर्मानुयायी थे। "वाग्भटालंकार' का प्रारम्भ मंगल जैनधर्म तथा जनदर्शन के पति वाग्भट की आस्था व मनस्तुष्टि का परिचायक है।' यद्यपि आचार्य वाग्भट प्रथम एवं आचार्य हेमचन्द्र दोनों समका लिक हैं तथापि काल की दृष्टि से वाग्भट प्रथम हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं, किन्तु वाग्भट प्रथम की अपेक्षा आचार्य हेमचन्द्र को अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई है, इसलिये कुछ विद्वानों ने आचार्य हेमचन्द्र को पूर्व में स्थान दिया है एवं वाग्भट प्रथम को पश्चात में।2 "वाग्भटालंकार' प्रपेता वाग्भट को वाग्भट प्रथम कहना आवश्यक है क्योंकि इसी नाम के एक और आलंकारिक हो चुके हैं जिन्होंने"काव्यानुशासन" 1. "त्रियं द्विशत वो देवः श्रीनामेय जिन ः सदा। ___ वाग्भटालंकार, 1/1 द्रष्टव्य - संस्कृत साहित्य का इतिहास - अनमंगलदेव शास्त्री , पृ. 468 हटव्य - अलंकार धारपा विकास व विश्लेषप, पु. 224 व पू. 229 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की रचना की है। इन्हें अभिनव वाग्भट अथवा "वाग्भट द्वितीय" के नाम ते अभिहित किया जाता है। एगलिंग (Eggeling ) ने भ्रांतिवश इन दोनों लेखकों को एक ही व्यक्ति समझकर उसे दोनों ग्रन्थों का रचयिता मान लिया है। किन्तु काव्यानुशासनकार वाग्भट द्वितीय द्वारा अपने ग्रन्थ में स्वयं वाग्भट प्रथम का उल्लेख दोनों के परस्पर भिन्न होने किंवा भिन्न भिन्न अलंकार - ग्रन्थों के प्रणयन करने का एक प्रामाणिक संकेत है जिसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। आयुर्वेद के प्रकरण ग्रन्थ "अष्टांगहृदय" के रचयिता भी "वाग्भट " नाम के ही आचार्य हो चुके हैं किन्तु इन्हें "वाग्भटालंकार" के प्रपेता वाग्भट प्रथम से अभिन्न नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों की वंश-परम्परा भिन्न भिन्न है तथा दोनों का कार्यकाल भी एक नहीं । - वाग्भट प्रथम ने अपने वंश के सम्बन्ध में कुछ थोड़ा सा संकेत "वाग्भटालंकार" में किया है जिससे ज्ञात होता है कि इनका प्राकृत नाम "बाहड" तथा पिता का नाम सोम था। 3 1. संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास लेखक - सुशील कुमार डे अनुवादक श्री मायाराम शर्मा - - पृ. 176-77 4 2. * दण्डिवा मनवा रटा दिपपीता यां काव्यगुणाः । वयं तु माधुर्यौज : प्रसादलक्षणांस्त्रीनेव गुणान्मन्यामहे । काव्यानुशासन, पृ० 31 3. बम्भण्डसुत्तिसम्पुडमुक्तिअमणिपो पहासमूह व्व । सिरिवाहड त्ति तणओ आति बुहो तस्स सोमन्स ।। ब्रह्माण्ड शक्तिसम्पुट मौक्तिकमणे: प्रभासमह इव । श्रीवाहड इति तनय आसीदबुधस्तस्य सोमस्य । । वाग्भटालंकार, 4 / 147 पृ. 95 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाग्भटालंकार के व्याख्याकार श्री सिंहदेवमणि ने भी यही निर्देश किया है।' इनके अतिरिक्त व्याख्याकार जिनवर्धनसरि एवं क्षमहंसगणि ने भी इसकी पुष्टि की है। प्रभावकचरित में कई स्थलों पर वाहड के स्थान पर थाहड का प्रयोग प्राप्त होता है तथा ज्ञात होता है कि वाग्भट प्रथम धनवान तथा उच्चकोटि के श्रावक थे। एक बार इन्होंने स्वयं द्वारा किसी प्रशंसनीय कार्य मे धन व्यय करने हेतु गुरू से आशा माँगी । गुरूने जिनमंदिर बनवाने में व्यय किये गये धन को सफलीभूत बतलाया था, तद्नंतर गुरु की आज्ञानुसार वाग्भट ने एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया था जिसमें विराजमान वर्धमान स्वामी की प्रतिमा अद्भुत शोभा से युक्त थी, जिसके तेज से चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त मणि की प्रभा फीकी पड़ गई 3 थी। " वाग्भटालंकार" के उदाहरणों में कर्णदेव के पुत्र अनहिलपट्टन के चालुक्यवंशी राजा जयसिंह की स्तुति पायी जाती है।" इससे यह निश्चित हो 1. "इदानीं ग्रन्थकारः इदमलंकारर्तृत्वरव्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवेर्महामात्यस्य तन्नाम गा ययैकया निदर्शयति । * 5 2. वाग्भटालंकार, पृ. 95 अथासितो थाडो नाम धनवान् धार्मिका गुणी : प्रभावकारित वादिदेवसरिचरित, 67 प्रभावक वादिदेवसरिचरित, 67-70 30 4. (क) जगदात्मकीर्तिनं जनयन्नुद्दामधामदो : परिधः | जयति प्रतापपूषा जयसिंह क्षमाभूदधिनाथः । । वाग्भटालंकार 4-45 अलहिल्लपाटकं पुरमवनिपति: कर्पदेवनृप सूनुः । TO 4-131 श्री कलशनामधेय : करी च जगतीह रत्नानि ।। (ख) इन्द्रेण किं यदि स कर्पनरेन्द्रसूनु:, एरावतेन किमहो यदि तद्विपेन्द्रः दम्भोलिनाप्यलमूलं यदि तत्प्रतापः, स्वर्गोऽप्ययं ननुमुधा यदि तत्पुरी सा वहीं, 4/75 - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है कि आचार्य वाग्भट प्रथम राजा जयसिंह के समकालीन थे। राजा जय सिंह का राज्यकाल वि0सं0 1150 ते ।।११ (1093 ई. ते ।।43 ई.) तक माना जाता है। अत: वाग्भट प्रथम का भी यही काल प्रतीत होता है। वाग्भट प्रथम के उपर्युक्त कार्यकाल की पुष्टि प्रभावकचरित के इस कथन से भी होती है कि वि0सं0 1178 में मुनिचन्द्रसरि के समाधिरमण होने के एक वर्ष पश्चात देवतरि के द्वारा थाड (वाग्भट) ने मर्ति प्रतिष्ठा कराई। इस प्रकार वाग्भट का काल पूर्वोक्त राजा जयसिंह का ही काल ज्ञात होता है। 1. जैनाचार्यों का अलंका रशास्त्र में योगदान, पु, 7 -गपर्श त्र्यंबक देशपाण्डेने वाग्भट का लेखनकाल रिटर. 1122 से 1156 माना है। (पृ. 135, भारतीय साहित्यशास्त्र ) 2. तिकादशके साष्टासप्ततौ विक्रमार्कतः। वत्सरापां व्यतिकान्ते श्रीमुनिचन्द्रसूरयः।। आराधना विधिप्रेष्ठं कृत्वा प्रायोपवेशनम्। शमपीयूषकल्लोलप्लुतात्ते त्रिदिवं ययुः।। वत्सरे तत्र चैकत्र पर्षे श्री देवसरिभिः। श्रीवीरस्य प्रतिष्ठा प्त थाडो कारयन्मदा।। -प्रभावकचरित - वादिदेवतरिरचरित, 71-73 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाग्भटालंकार उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार वाग्भट प्रथम का एकमात्र आलंकारिक गन्य "वाग्भटालंकार' ही प्राप्त है। रसिकलाल पारी का कथन है कि यह कृति जय सिंह के मालवा विजय (1136 ई.) तथा उसकी मृत्य (1143 ई.) के मध्यवर्ती काल में समाप्त हुई होगी क्योंकि इसमें उस विजय का उल्लेख तो है परन्तु कुमारपाल की प्रशंसा मे उसमें एक भी प्रलोक नहीं है।' वाग्भटालंकार की अनेक प्राचीन टीकाएं हैं जो जैन विद्वानों के अतिरिक्त जैनेतर विद्वानों द्वारा भी लिखी गई हैं। इनमें पाँच प्रसिद्ध है -- । 828 838 जिनवर्धनतरिप्रपीत टीका। सिंहदेवगपिपपीत टीका। क्षेमहंसगपिप्रपीत टीका। अनन्तभट्टतुत गपेशप्रणीत टीका। राजहतोपाध्याय प्रपीत टीका। 358 इतनी अधिक टीकाओं से इस गन्थ की महत्ता सिद्ध होती है। 1. महामात्य वस्तुपाल का साहित्यमण्डल, से उद्धत पृ. 21 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वाग्भटालंकार" पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें कुल मिलाकर 260 पद्य हैं। अधिकांश पथ अनुष्टुप में हैं। परिच्छेद के अंत में कतिपय अन्य छंदों में रचे गये हैं। प्रथम परिच्छेद में, मंगलाचरण के पश्चात् काव्य-स्वरूप, काव्य-प्रयोजन, काव्यहेतु, काव्य में अर्थ-स्फूर्ति के पांच हेतु - मानसिक आह्लाद नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि, प्रभातवेला, काव्य-रचना में अभिनिवेश तथा समस्त शास्त्रों का अनुशीलन आदि का निरूपण किया गया है। तदनन्तर कवि समय का वर्णन किया गया है, इसके अन्तर्गत लोकों व दिशाओं की संख्या निर्धारण, यमक, श्लेष एवं चित्रबन्ध के अनुस्वार तथा विसर्ग की छूट आदि का सोदाहरण वर्णन किया गया है। 8 - - द्वितीय परिच्छेद में, काव्य शरीर निरूपप के अनंतर काव्य की रचना इन चार भाषाओं में की जा सकती है, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा भूतभाषा यह वर्णित है। काव्य के छन्द - निबद्ध तथा गंध निबदु - ये दो तथा गद्य, पय एवं मिश्र ये तीन प्रकार के भेद किये गये हैं। इसके बाद पद और वाक्य के आठ दोर्षों के लक्षण का उदाहरणों के साथ विवेचन करके अर्थ - दोषों का निरूपणं किया गया है। - तृतीय परिच्छेद में, औदार्य, समतादि दस काव्यगुणों का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि वाग्मटालंकार में सर्वत्र पद्यों का प्रयोग किया Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है तथा पि ओजगुप ( 3.14 ) का उदाहरप गय में प्रस्तुत किया गया है। ___ चतुर्थ परिच्छेद में, प्रथमतः अलंकारों की उपयोगिता पर प्रकाश डालने के अनंतर चित्रादि चार पब्दिालंकारों एवं जाति आदि पैंतीस अर्थालंकारों का सोदाहरप वर्पन किया गया है। तत्पश्चात गौडीया एवं वैदर्भी - इन दो रीतियों का विवेचन किया गया है। पंचम व अंतिम परिच्छेद में, रस-स्वरूप, सभेद श्रृंगारादि नौ रस और उनके स्थायी भाव, अनुभाव तथा भेदों एवं नायक-नायिकाओं के भेद तथा तत्सम्बन्धी अन्य विषयों का निरूपप किया गया है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -10 आचार्य हेमचन्द्र - भारतवर्ष के प्राचीन विद्वानों में बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न जैन पवेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्रतरि का अत्यन्त उच्च स्थान है। पं0 शिवदत्त शर्मा के अनुसार संस्कृत साहित्य और विक्रमादित्य के इतिहास में जो स्थान कालिदास का, श्रीहर्ष के दरबार में बापट्ट का है, प्रायः वही स्थान ईसवी सन की बारहवीं सदी के चालुक्यवंशी सुपसिद्ध गुर्जर - नरेन्द्रशिरामपि सिद्धराज जयसिंह के इतिहास में हेमचन्द्र का है।' आचार्य हेमचन्द्र ने अपने युगान्तकारी तथा युगसंस्थापक व्यक्तित्व के आधार पर तत्कालीन गजरात के सामाजिक, साहित्यिक तथा राजनीतिक इतिहास के निर्माण में अद्भुत योग दिया। ___जर्मन विद्वान् स्वर्गीय डा. बल्डर ने अपने "लाइफ आफ हेमचन्द्र नामक गन्ध (हि. अनुवादक - कस्तूरमल बांठिया) में आचार्य हेमचन्द्र के जीवन का आलोचनात्मक विवरप प्रस्तुत किया है। हेमचन्द्र के जीवन का विवाद विवेचन करने में डा. बल्डर ने जिन चार गन्थों की सहायता ली है वे इस प्रकार हैं - 1. हेमचन्द्राचार्य जीवनचरित्र - अनु0 कस्तरमल बांठिया 2. हेमचन्द्राचार्य जीवनचरित्र - अनु० कस्तूरमल बांठिया Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. मेरुतुंगकृत प्रबन्धचिन्तामणि 3. राजशेखर का प्रबन्धकोश जिनमण्डन उपाध्याय का कुमारपाल प्रतिबोध ! 4. प्रभाचन्द्रवरि का प्रभावकारित इन विभिन्न ग्रन्थों ते तहायता लेने के अतिरिक्त स्वयं हेमचन्द्र द्वारा रचित द्वयाश्रय काव्य, सिदुहेमव्याकरण की प्रशस्ति, "त्रिषष्टिशलाका पुरूषचरितान्तर्गत", महावीरचरित" आदि से भी डा बूल्हर ने हेमचन्द्र के जीवन के साक्ष्य एकत्रित किये हैं। इनके अतिरिक्त हेमचन्द्र के जीवन पर प्रकाश डालने वाले निम्न ग्रन्थ भी सामने आये हैं - 1. 2. 11 सोमप्रभ सूरिकृत “कुमारपाल प्रतिबोध" यशपालकृत मोहराजपराजय 3. पुरातनप्रबन्धसंग्रह (अज्ञात) उपर्युक्त तीन ग्रन्थों में प्रथम दो हेमचन्द्र के समकालीन ग्रन्थ हैं अंतिम " पुरातन प्रबन्ध संग्रह अनेक विवरणों का एकत्र संकलन मात्र है। पूर्वोक्त ग्रन्थों में सोमप्रभसूरिकृत "कुमारपालप्रतिबोध" हेमचन्द्र की समसामयिक रचना होने के कारण उनकी जीवनविषयक प्रामाणिक सामग्री दे सकती थी पर लेखक स्वयं ही इस बात को स्वीकार करता है कि उसने हेमचन्द्र तथा कुमारपाल के जीवन से सम्बद्ध उन्हीं घटनाओं को लिया है जिनका संबंध Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 . उनके जैनधर्म स्वीकार करने के बाद के जीवन से है। अत : हेमचन्द्राचार्य का जीवन - चरित्र लिखते तम्य श्री सोमप्रभसूरिकृत "कुमारपालपतिबोध को आधार मानकर, अन्य लेखकों द्वारा निर्दिष्ट सामग्री का उपयोग करना भी आवश्यक प्रतीत होता है जीवनचरित्र - आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात में अहमदाबाद ते साठ मील दूर दक्षिप - पश्चिम में स्थित "धुन्धुका नगर में वि. सं. 1145 (1088 ई.)कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में हुआ था।' संस्कृत ग्रन्थ में इते "धुक्कनगर" या "धुकपुर" भी कहा गया है। यह प्राचीनकाल में सुप्रसिद्ध व समृदिशाली नगर था। इनके माता - पिता मोढवंशीय वैश्य ये तथा पिता का नाम चाचिग व माता का नाम पाहिणी देवी था। इनकी कुलदेवी “चामुण्डा' और कुलयक्ष "गोनस था। माता - पिता ने देवता - प्रीत्यर्थ उक्त दोनों देवताओं के आधन्तक्षर लेकर बालक का नाम चांगदेव रखा। अतः आचार्य हेमचन्द्र का मलनाम चांगदेव पड़ा। डा. मुसलगांवकर के अनुसार आचार्य हेमचन्द्र के पिता व्यापारी तथा देव व गुरू की उपासना करने वाले शव थे पर इनकी माता एवं मामा नेमिनाग जैन धर्मावलम्बी थे। - - - I. 2. 3 + आचार्य हेमचन्द्र पृ. १ लेखक - डा, वि.भा. मुसलगांवकर वही, पृ, 9-10 आचार्य हेमचन्द्र - पृ. 10 आचार्य हेमचन्द -पृ. 11-12 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 हेमचन्द्र के जन्म के पूर्व ही उनकी भवितव्यता के लक्षप प्रकट होने लगे थे। जब वे गर्भ में ही थे, तभी उनकी माता ने एक सुन्दर तथा आश्चर्यजनक स्वप्न देखा था। इस सन्दर्भ में विविध ग्रन्थों - "कुमारपालप्रतिबोध', "प्रबन्धकोश", एवं प्रभावक चरित” आदि में अनेक प्रकारसेउल्लेख मिलता है। डा. मुसलगांवकर ने भी इसकी विस्तृत चर्चा "आचार्य हेमचन्द्र' नामपुस्तक में की है। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चांगदेव धार्मिक प्रवृत्ति का बालक था। माता के साथ नित्यप्रति मंदिर जाना, प्रवचन सुनना, गुरूजनों के प्रति श्रद्धाभाव रखना, धार्मिक क्रियाकलाप आदि उसके दैनिक कार्य थे। मतुंगतरिकृत "प्रबन्ध चिन्तामपि" के अनुसार एक बार देवचन्द्राचार्य अपहिलपन्तन से प्रस्थान कर तीर्थयात्रा के पंसग में धन्धुका पहुँचे। वहाँ वे जब मोढवंशियों के जैन - मंदिर में देवदर्शन कर रहे थे तभी आठ वर्षीय बालक चांगदेव अपने बालचापल्य स्वभाव से देवचन्द्राचार्य की गद्दी पर जा बैठा। उसके अलौकिक राम-लक्षपों को देखकर आचार्य बालक को प्राप्त करने की इका से चाचिंग के निवास स्थान पर पगे। उस समय चायिग बाहर गये थे अतः देवचन्द्र ने उनकी पत्नी से बालक चांगदेव को प्राप्त करने की अभिलाषा प्रक्ट की । पाहिपी देवी ने आचार्य के प्रस्ताव का हृदय से स्वागत करते हुए मी गृहपति की अनुपस्थिति में बालक को देने में असमर्थता व्यक्त की। पर बाद में उपस्थित जन समुदाय का अनुरोध स्वीकार करते हुए अपने गुपी पुत्र को Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 आचार्य देवचन्द्रसूरि को सौंप दिया। आचार्य ने बालक ते पूछा "वत्स! तू हमारा शिष्य बनेगा? चांगदेव ने उत्तर दिया "जी हाँ अवश्य बनूँगा । इस उत्तर ते आचार्य अति प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक को कर्णावती में उदयन मन्त्री के पास रख दिया जो उस समय जैन संघ का सबसे बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति था। चाचिग ने घर लौटकर जब वृतान्त सुना तो वह पुत्र दर्शन की इच्छा से आचार्य के पास गया। उसके मन की बात जानकार उसका मोह दूर करने के लिये आचार्य ने उसे समझाया तथा मंत्रिवर उदयन को भी अपने पास बुलाया। उदयन मंत्री ने उसे अपने घर ले जाकर सत्कारादि के अनंतर उसकी गोद में चांगदेव को बैठाकर पञ्चांग सहित तीन दुशाले एवं तीन लाख रूपये भेंट किये तथा पुत्र की याचना की। तब स्नेह विहवल चाचिग ने कहा"मेरा पुत्र अमूल्य है, किन्तु आपका भक्तिभाव अपेक्षाकृत अधिक अमूल्य है। अतः इस बालक के मूल्य में अपनी भक्ति ही रहने दीजिये । आपके इस द्रव्य को मैं शिवनिर्माल्य के समान स्पर्श भी नहीं कर सकता। चाचिग के कथन को सुनकर उदयन मंत्री बोला "आप अपने पुत्र को मुझे सौंपेंगे, तो उसका कुछ भी अभ्युदय नहीं हो सकेगा", परन्तु यदि इसे आप पूज्यपाद गुरू देवचन्द्राचार्य के चरणों में समर्पित करेंगे तो वह गुरूपद प्राप्तकर बालेन्दु के समान त्रिभुवन में पूज्य होगा।" तब चाचिग ने "आपका वचन ही प्रमाण है, मैंने अपने पुत्र रत्न को गुरूजी को भेंट कर दिया। ऐसा कहकर अपने पुत्र को देवचन्द्रसूरि को सौंप दिया तभी उसका दीक्षा महोत्सव मंत्री Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सहयोग से चाचिग ने सम्पन्न किया। गुरू के द्वारा दिये गए हेमचन्द्र नाम से प्रसिद्ध यह 36 सरिगुपों से अलंकृत तरिपद पर अभिषक्त हुआ। यही वृतान्त किंचित रूपांतर के साथ सोमपभतरिकृत "कुमारपाल प्रतिबोध (वि. सं. 1241), प्रभाचन्द्रतरिकृत "प्रभावकचरित (वि. सं. 1334), जिनमंडनउपाध्यायकृत "कुमारपाल प्रबन्ध (वि. सं. 1392) में तथा राजशेखर सूरि ने प्रबन्धकोश (वि. सं. 1405) में प्रस्तुत किया है जिसकी चर्चा डा. मुसलगांवकर द्वारा की जा चुकी है। सोमप्रभतरि के अनुसार चांगदेव मामा नेमिनाग की अनुमति से देवचन्द्राचार्य के साथ स्तम्मतीर्थ (सम्भात) पहुंचा जहां जैनसंघ की अनुमति से चांगदेवको दीक्षा दी गई तथा उसका नाम सोमचन्द्र रक्या गया। अपार ज्ञानराशि संचित कर लेने पर उन्हें श्रमपों का नेता गान्धार अथवा आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। सोमचन्द्र का शरीर सुवर्प के समान तेजस्वी एवं चन्द्रमा के समान सुन्दर था इसलिये वे हेमचन्द्र कहलाये।' 1. आचार्य हेमचन्द्र, पृ. 13-16 2. आचार्य हेमचन्द्र, पृ. 12 व 16 आचार्य हेमचन्द्र पु. 13 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृष्पमाचा रियर के अनुसार एक बार सोमचन्द्र ने शक्ति प्रदर्शन के लिये अपने बाहु को अग्नि में रख दिया। लेकिन आश्चर्यजनकरूप से सोमवन्द्र का जलता हाथ सोने का बन गया। इस घटना के पश्चात् सोमचन्द्र हेमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हो गये। डा. मुसलगांवकर ने कुमारपाल प्रबन्धादि के निर्देशानुसार तथा ज्योतिष की काल गफ्नानुतार (माघशुक्ल चतुर्दशी, शनिवार को वि. Ho || 54 में) बतलाते हुए, चांगदेव का दीधासंस्कार तुर्विध संघ के समक्ष स्तम्भतीर्थ के पार्श्वनाथ चैत्यालय में देवचन्द्राचार्य द्वारा चाचिग की उपस्थिति में ही होना सिद्ध किया है। साथ ही कर्णावती के स्थान पर "खम्भात" में ही दीक्षा हुई - ऐसा स्वीकार किया है। दीक्षानाम सोमचन्द्र रखा गया था, बाद में हेमचन्द्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। काव्यानुशासन की प्रस्तावना से भी इसी निष्कर्ष की पुष्टि होती है। उपर्युक्त विवेचन ते यह ज्ञात हो जाता है कि आचार्य हेमचन्द्र के गुरू आचार्य देवचन्द्रतरि थे। आचार्य हेमचन्द्र ने स्वयं त्रिषष्ठिशलाकापुरूषचरित" के दसवें पर्व की प्रशस्ति में अपने गुरू का स्पष्ट उल्लेख किया है आचार्य हेमचन्द्र पृ. 13 ते उद्भूत "To demonstrate his powers he set his arms in a blazing fire and his father found to his surprise the flashing arm tumed in to gold" - History of Classical Sanskrit Literature - Krishanmacharior, Page 173-174 2. आचार्य हेमचन्द, पृ. 17 3 काव्यानुशासन - हेमचन्द्र, पो0 पारीय की अंग्रेजी प्रस्तावना Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 तथा अपने विद्याध्ययन का तम्पूर्ण श्रेय हेमचन्द्र अपने गुरू को देते हैं।' आचार्य देवचन्द्रसूरि से दीक्षित होने के पश्चात् आ. हेमचन्द्र ने तर्क, लक्षप तथा साहित्य उसयुभी जो महाविधायें थी पर अल्प अवधि में ही प्रवीपता प्राप्त कर ली। तत्पश्चात उन्होंने अपने गुरू के साथ विभिन्न स्थानों में भ्रमण करते हुए अपने शास्त्रीय व व्यावहारिक ज्ञान में काफी वृद्धि की। आचार्य हेमचन्द्र की साहित्य साधना दो महान् राजाओं की त्रछाया में परिवदित व विकसित हुई - सिद्धराज जयसिंह तथा समाट कुमारपाल। वे इन दोनों राजाओं के राजगुरू थे। जय सिंह सिद्धराज का शासनकाल वि. सं. ।।51-11११ (1093 से 1143 ई.) तक रहा। आचार्य हेमचन्द्र तथा उनके आश्रयदाता सिद्धराज जयसिंह समकालीन ही नहीं समवयस्क भी थे। राजा जयसिंह से उनका प्रथम परिचय ।। 36 ई. में मालव विजयोत्सव के समारोह के अवसर पर हुआ था। उस समय उनकी अवस्था 46 वर्ष की थी। इसके बाद 7 वर्ष तक राजा जयसिंह सिदराज के साथ उनका सम्बन्ध रहा। इन सात वर्षों के थोड़े से काल में राजा जयसिंह के प्रोत्साहन व पेरपा ते उन्होंने विपुल तथा महत्वपूर्ण साहित्य की रचना की है। 1. शिष्यस्तस्य च तीर्थमकमवने पावित्रयकृज्जंगमम्। सर रितपः प्रभाववसतिः श्री देवचन्द्रोऽभवत्। आचार्यो हेमचन्द्रोऽभूतत्पादाम्बुजषट्पदः तत्प्रसादादधिगतज्ञानसम्पन्न महोदयः।। त्रि.श. पुण्च प्रशास्ति श्लोक 14, 15 आचार्य हेमचन्द्र पृष्ठ 19 से उद्धृत 2. काव्यानुशासन - हेमचन्द्र, प्रो0 पारीख की अंग्रेजी प्रस्तावना, पृ. 266 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 तिद राज जय सिंह की मृत्यु के अनंतर विoo ॥११ (समय 11431173 ई.) में कुमारपाल राज्याभिषिक्त हुआ, जिसके साथ आ. हेमचन्द्र का 30 वर्ष तक सम्बन्ध रहा। आचार्य हेमचन्द्र का कुमारपाल के साथ गुरू शिष्य सदृश संबंध था। कुमारपाल की प्रार्थना पर आचार्य हेमचन्द्र ने “योगशास्त्र", "वीतरागस्तुति" एवं "त्रिषष्ठिशाला कापुरुषचरित पुराप की रचना की। संस्कृत में दयाश्रयकाव्य के अंतिम सर्ग तथा प्राकृत दयाश्रय कुमारपाल के समय में ही लिये गये। "प्रमापमी माता' की रचना इसी समय में हुई। कुमारपाल ने 700 लेखकों को बुलाकर हेमचन्द्र के गान्ध लेसब्द करवाये।' वि0सं0 1229 (117ई.) में 84 वर्ष की अवस्था में आ. हेमचन्द्र ने अपनी ऐहिक लीला समाप्त की पभावकचरित के अनुसार राजा कुमारपाल को आचार्य का वियोग अतब्य रहा तथा छ: मास पश्चात वह भी स्वर्ग सिधार गया। आचार्य हेमचन्द्र की साहित्य साधना अत्यन्त विशाल तथा व्यापक है। उन्होंने व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, दर्शन, पुराप, इतिहास आदि विविध विषयों पर सफलता पूर्वक साहित्य सृजन किया है। साहित्यसृजन की असाधारप क्षमता तथा अलौकिक प्रतिभा मानो एकाकार होकर आचार्य हेमचन्द्र के रूप में मर्तरूप हो गई थी। उनकी साहित्य सेवा को देखकर विद्वानों 1. आ. हेमचन्द्र, पृ. 36 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 ने उन्हें 'कलिकाल सर्वस, जैती उपाधि से विभाषित किया है। ___ शब्दानुशासन, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, दयाश्रय महाकाव्य, योगशास्त्र, द्वात्रिंशिकार, अभिधान चिन्तामपि तथा त्रिषष्टि शाला - कापुस्षचरित - ये उनकी प्रमुख रचना है। काव्यानुशासन संस्कृत अलंकार गन्थों की परम्परा में काव्यानुशासन" आचार्य हेमचन्द्र द्वारा प्रपीत अलंकार विषयक एकमात्र गन्थ है। इसकी रचना वि. सं0 1196 के लगभग हुई है। यह गन्य नियतागर प्रेस, बम्बई की "काव्यमाला" गन्थावली में स्वोपज्ञ दोनों बृत्तियों के साथ प्रकाशित हुआ था। फिर महावीर जैन विद्यालय बम्बई से सन् 1938 में प्रकाशित हुआ। जिसमें डा. रसिक लाल पारिय की प्रस्तावना एवं आर.व्ही. आठवले की व्याखा है। "काव्यानुशासन में सूत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। काव्यप्रकाश के पश्चात रचे गये प्रस्तुत गन्थ में ध्वन्यालोक, लोचन, अभिनवभारती, 1. हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर इएम, विन्टरनिट्स वाल्यूम सेकेण्ड, पृ. 282 2. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग 5, पृ. 100 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 . काव्य-मी मीसा तथा काव्यप्रकाश से लम्बे - लम्बे उद्धरण पस्तुत किये गये है। फलतः कतिपय विद्वान इते संग्रह - गन्थ की कोटि में परिगपित करते हैं, किन्तु कत्तिपय नवीन मान्यताओं का प्रस्तुत गन्ध में विवेचन मिलता है। आचार्य मम्म्ट ने 67 अलंकारों का उल्लेख किया है जबकि हेमचन्द्र ने मात्र 29 अलंकारो का उल्लेख कर शेष का इन्हीं में अन्तर्भाव कर दिया है। मम्मट काव्यप्रकाश को दस उल्लासों में विभक्त करके भी उतना विषय नहीं दे पाये है, जितना हेमचन्द्राचार्य ने काव्यानुशासन के मात्र आठ अध्यायों में प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्राचार्य ने अलंकारशास्त्र में सर्वप्रथम नाट्यविषयक तत्वों का समावेश कर एक नवीन परम्परा का प्रपयन किया जिसका अनुकरप परवर्ती आचार्य विश्नाथ आदि ने भी किया है। "काव्यानुशासन” के तीन प्रमुख भाग हैं - 1. सूत्र (गद्य में,),2. व्याख्या तथा 3, वृत्ति। “काव्यानुशासन मे कुल सूत्र 208 हैं। इन्हीं सूत्रों को “काव्यानुशासन" कहा जाता है। सूत्रों की वयाख्या हेतु अलंकारचूपामपि तथा इस व्याख्या को अधिक स्पष्ट करने हेतु उदाहरणों सहित “विवेक" नामक वृत्ति लिखी गयी है। तीनों के कर्ता आचार्य हेमचन्द्र ही हैं। यह गन्य आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 25 सूत्र हैं। सर्वप्रथम मंगलाचरप के पश्चात् आचार्य ने काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु, कवि-समय, काव्य-लक्षप, गुप-दोष का सामान्य लक्षप, अलंकार का सामान्य लक्षप, अलंकारों के गहण तथा त्याग का नियम, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स्वरूप, लक्ष्य तथा व्यंग्य अर्थ का स्वरूप, पब्दिशक्तिमूलक व्यंग्य में नानार्थनिबन्धन, अर्थशक्तिमल व्यंग्य के वस्तु तथा अलंकार इन दो भेदों तथा इसके पद वाक्य तथा प्रबंध के अनेक भेदों का विवेचन किया है। साथ ही अर्थशक्त्युत्भव ध्वनि के स्वत : संभवी, कविप्रोटोक्तिमात्र निष्पन्न शरीर, इन अथवा कविनिबद्धवक्तृपोढोक्तिमात्रनिष्पनशारीर इन भेदों के कथन को अनुचित बताया गया है। द्वितीय अध्याय में 59 सूत्र हैं, जिनमें रत-विषयक सांगोपांग विवेचन किया गया है। र स-स्वरूप, रस-भेद, रत की अलौकिकता रतांगों का विशद विवेचन, रसाभात व भावाभास आदि इत अध्याय के प्रमुख विवेच्य हैं। अन्त में काव्यभेद - निरूपप के साथ अध्याय की समाप्ति की गई है। तृतीय अध्याय में 10 सूत्र हैं। यह अध्याय काव्य-दोषों से सम्बद्ध है। इसमें काव्य के रतगत, पदगत, वाक्यगत, उभयगत तथा अर्थगत दोषों पर विचार किया गया है। अन्त में तीन सूत्रों में दोष-परिहार की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्याय में १ सूत्र हैं। काव्यगुणों से सम्बद्ध इस अध्याय में, माधुर्य, ओज एवं प्रसाद इन तीन गुणों के सभेद लक्षण तथा उदाहरप व तत्-तत् गुपों में आवश्यक वर्षों का गुम्पन किया है। पंचम अध्याय में, १ सूत्र हैं, जिसमें अनुपास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति तथा पुनरूक्तवदाभास - इन छ: शब्दालंकारों के सभेद लक्षप तथा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरपों का विवेचन किया गया है। पाठ अध्याय में, 3। सूत्र हैं जिसमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना दीपक, अन्योक्ति, पर्यायोक्त, अतिशयोक्ति, आक्षेप, विरोध, सहोक्ति, समासोक्ति, जाति (स्वभावोक्ति), व्याजस्तुति, श्लेष, व्यतिरेक, अर्थान्तरन्यास, सप्सन्देह, अपह्नुति, परिवृत्ति, अनुमान, स्मृति, भान्ति, विषम, सम, समुच्चय, परिसंख्या, कारपमाला वाकर - इन 29 अर्थालंकारों का विवेचन किया गया है। सप्तम अध्याय में 52 सूत्र हैं। इसमें नायक का स्वरूप, उसके आठ सात्त्विक गुण, नायक के भेद तथा लक्षण, अवस्थाभेद से नायक के भेद, प्रतिनायक का स्वरूप, नायिका का स्वरूप, नायिका के भेद, स्त्रियों के सत्वज अलंकारों का सलक्षप सोदाहरप निरूपप तथा प्रतिनायिका आदि की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत की गई है। ____ अष्टम अध्याय में 13 सूत्र हैं। इसमें प्रबन्धात्मक काव्य भेदों का निरूपप किया गया है। सर्वप्रथम प्रबन्धकाव्य के दो भेद- दृप्रय तथा अव्य, पुनः मय के दो भेद - पाश्य तथा गेय, तत्पश्चात् पाल्य के नाटक, प्रकरप नाटिका, समवकार, ईहामृग, डिम, व्यायोग, उत्सृष्टि कांक, प्रहसन, भाप, वीथी तथा स्टक आदि भेदों का लक्षप किया गया है। इसी श्रृंखला में गेय के डोम्बिका, भाप, प्रस्थान, शिंगक, भापिका, प्रेरप, रामक्रीड, हल्ली तक, रासक, गोष्ठी, श्रीगदित, राग तथा काव्य का लक्षप दिया गया है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनंतर महाकाव्य ,आख्या यिका, कथा आख्यान, निदर्शन प्रवाहिका, मतल्लिका, मणिकुल्या, परिक्या, खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा, बृहत्कथा तथा चम्पू इन अव्य काव्यों का सलक्षप विवेचन किया गया है। अन्त में मुक्तक, सन्दा नितक, विशेषक, कलापक, कुलक व कोश का सलक्षप विवेचन है। इस प्रकार काव्य शास्त्र के सभी अंगों का सविस्तार विवेचन "काव्यानुशासन में प्राप्त होता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचन्द्र गुपचन्द्र तंत्कृत साहित्य में आचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र का नामोल्लेख प्रायः साय - साय होता है। जहाँ तक इन विद्वानों के माता - पिता तथा वंश इत्यादि का प्रश्न है, इसके विषय में कोई प्रमाप उपलब्ध नहीं है। "नाट्यदर्पप" के प्रत्येक विवेक की अन्तिम पुष्पिका में प्राप्त उल्लेखानुसार "नाटयदर्पप" रामचन्द्र-गुणचन्द्र के सम्मिलित प्रयास का प्रतिफल है।' काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र के सम्मान में लिखे गये इसी गन्य के अन्तिम श्लोक से इनके हेमचन्द्र के शिष्य होने की बात स्पष्ट होती है। इसकी पुष्टि रामचन्द्र की अन्य कृतियों में प्राप्त उल्लेखों से भी होती है।' प्रभावकचरितानुसार एक बार राजा जयसिंह हेमचन्द्र के उत्तराधिकारी के दर्शनार्थ हेमचन्द्र के पास गये थे। इस समय हेमचन्द्र ने अपने प्रतिभाशाली शिष्य रामचन्द्र को अपना उत्तराधिकारी बताया था एवं उसी समय यह मी कहा कि उसको में आज के पूर्व ही आपको दिखा चुका हूँ तथा उस समय उत्तने आपकी अपूर्व ढंग से स्तुति भी की थी। 1. इति रामचन्द्रगुपचन्द्रविरचितायां स्वोपज्ञनाट्यदर्पपविवृतौ नाट कनिर्पयः प्रथमो विवेक :11हि . नाट्यदर्पप, पृ. 198 शब्द-प्रमाप-साहित्य-न्दोलक्ष्मवियायिनासा श्रीहेमचन्द्रपादानां प्रसादाय नमो नमः ॥ हि नाट्यदर्पप, पृ. 409 अन्तिम प्रशस्ति, पध। 38क सजणारः दत्त: श्रीमदाचार्यहमचन्द्रस्य शिष्येप रामचन्द्रप विरचित नलविलासा भिधानमाधं रूपकमभिनेतुमादेश : नलविलास, पृ. 18 ४ख श्रीमदाचार्य हेमचन्द्रविष्यस्य प्रबन्धः कर्तुर्महाकवेः रामचन्द्रत्य भयांसः प्रबन्धाः । - निर्भयभीमव्यायोग, पृ. । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 इसते विदित होता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने राजा जय सिंह द्धिराज के सामने ही अर्थात अपनी मृत्यु से लगभग 40-42 वर्ष पूर्व ही रामचन्द्र को अपना उत्तराधिकारी व प्रमुख शिष्य घोषित कर दिया था। आचार्य रामचन्द्र बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे। एक बार राजा जय सिंह सिद्धराज द्वारा अपने पारिषदों से यह पूछे जाने पर कि गर्मी मे दिन लम्बे क्यों हो जाते हैं। लोगों ने भिन्न प्रकार के उत्तर दिए। आचार्य रामचन्द्र से पूछे जाने पर उन्होंने अपनी कवित्वप्रतिभा एवं तत्कालीन सामंती परम्परा के अनुरूप ही उत्तर दिया।' इसी प्रकार किसी अन्य अवसर पर सिद्धराज ने रामचन्द्र से "अपाहिलपट्टन" नगर का तत्काल वर्णन करने को कहा। रामचन्द्र ने तनिक सी देर मे ही पद्य - रचना करदी12 उनकी असा धारप प्रतिमा व कवि-कर्मकुशलता से प्रसन्न होकर जयसिंह सिद्धराज ने रामचन्द्र को 'कविकटारमल्ल' की उपाधि से अलंकृत किया। 1. देव श्री गिरिदुर्गमल्ल! भवतो तिग्जैत्रयात्रोत्सवे, धावदवी रतुरंगनिष्ठुरतुरखुरपक्षमा मण्डलात। वातोद्धतरजो मिलत्सुरसरित्संजातपंकस्थली - दूर्वाचुम्बनचञ्चुरारविह्यास्तेनातिवृद्ध दिनम्।। हिन्दी नाट्यदर्पप भूमिका से उत, पृ. १३ एतस्यात्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यता निर्जिता, मन्ये नाथ! सरस्वती जडतया नीरंवहन्ती स्थिता। कीर्तिस्तम्भमिषोच्चदण्डरूचिरामुत्सृज्य वाहावलीतन्त्रीकां गुरूसिदभपतिसरस्तुम्बी निजां कच्छपीम।। हिन्दी नाट्यदर्पप, भूमिका से उधृत, पृ. १३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 महाकवि रामचन्द्र समत्यापूर्ति करने में भी निपुप थे। एक बार काशी से विश्वेश्वर नामक विद्वान् अपहिलपट्टन आर तथा वे आचार्य हेमचन्द्र की सभा में गए। वहां आचार्य हेमचन्द्र को आशीर्वाद देते हुए शलो काई पढ़ा पातु वो हेम! गोपालः कम्बलं दण्डम्वन्। वहां पर हेमचन्द्राचार्य सहित आस - पास की सभी मंडली जैन थी अत: "कृष्प तुम्हारी रक्षा करे" यह बात उतनी रूचिकर नहीं मालूम पड़ी। उस समय कवि रामचन्द्र भी वहां पर उपस्थित थे उन्हें कृष्ण का यह रक्षा करने का गौरव पसन्द नहीं आया उन्होंने तुरन्त ही शेष आधे लोक की पूर्ति इस प्रकार कर दी - षड्दर्शनपशुगामं चारयन पैन गोचरे आचार्य रामचन्द्र की विद्वत्ता का परिचय उनकी स्वलिखित कृतियों में भी मिलता है। "रघुविलास" में उन्होंने अपने को “वियात्रयीचपम् कहा है। इसी प्रकार नाट्यदर्पप विवृति की प्रारंभिक प्रशास्ति में "विषवेदिनः' तथा अंतिम प्रशस्ति में व्याकरप-न्याय तथा साहित्य का ज्ञाता कहा है। 1. नाट्यदर्पप, भूमिका, पृ. 10 2. वही, प्रारंभिक प्रशस्ति ,१ पृ. 7 एवं अंतिम प्रशस्ति 4, पृ. 409 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 आचार्य हेमचन्द्र के विध्यत्व तथा राज सम्बन्धों के नैस्तर्य को ध्यान में रखते हुए यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि इनके भी जीवन का कार्यक्षेत्र गुजरात तथा निवास गुज रात प्रान्त की समसामयिक राजधानी "अपखिलपट्टन" में रहा होगा। यह तो ज्ञात ही है कि आचार्य हेमचन्द्र तथा जयसिंह समकालीन थे तथा उस समय तक रामचन्द्र अपनी अताधारप प्रतिभा के कारप प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। दि राज जयसिंह ने सं0 1150 से सं0 1199 (ई. सन् 1093 - 1142) पर्यन्त राज किया था। मालवा पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में तिदुराज का स्वागत समारोह वि.सं. 1193 (1136 ई) में हुआ था, तभी हेमचन्द्र का सिद्धराज से प्रथम परिचय हुआ था।' सिद्धराज की मृत्य सं0 1199 में हुयी थी। इसी बीच रामचन्द्र का परिचय सिद्ध राज ते हो चुका था तथा प्रतिदि भी प्राप्त कर चुके थे। सिद्धराज जय सिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने सं० 1193 -1230 तथा उसके भी उत्तराधिकारी अजयदेव ने सं0 1230 से 1233 तक गुर्जर भूमि पर राज्य किया था। इसी अजयदेव के शासनकाल में रामचन्द्र को राजाज्ञा द्वारा ताम-पट्टिका पर बैठाकर मारा गया था। उपर्युक्त विवेचन से अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार्य रामचन्द्र का साहित्यिक काल वि. सं. 1193 से 1233 के मध्य रहा होगा। १. हिन्दी नाट्यदर्पप, भूमिका, पृ. 3 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 महाकवि रामचन्द्र "प्रबन्धशतकर्ता" नाम से विख्यात हैं। उन्होंने स्वयं अनेक ग्रन्थों में अपने को सो गन्यों का निर्माता बतलाया है। किंतु दुर्भाग्य से उनके समस्त ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। रामचन्द्र ने "नाट्यदर्पप" में स्वरचित ।। रूपकों का उल्लेख किया है। इतकी सूचना प्राय: "अस्मदपज्ञे ...... इत्यादि पदों से दी गई है। जिनके नाम निम्न हैं-(1) सत्यहरिश्चन्द्र नाटक, (2) नलविलास नाटक, ( रघुविलात नाटक, (4) यादवाभ्युदय, (5) राघवाभ्युदय, (6.) रोहिपी मृगांक प्रकरप, (7.) निर्भयभीमव्यायोग, (8) कौमुदी मिनापन्द - प्रकरप, (90 सुधाकलां, (10) मल्लिकामकरन्द प्रकरप तथा(वनमाला - नाटिका। कुमारविहारशतक, द्रव्यालंकार, और यदुविलास ये उनके अन्य प्रमुख गन्य हैं। इसके अतिरिक्त छोटे - छोटे स्तव आदि तक को मिलाकर इस समय तक उनकी केवल 39 कृतियाँ उपलब्ध हैं।' आचार्य गुपचन्द्र के विषय में कुछ अधिक परिचय नहीं प्राप्त होता है। केवल इतना विदित होता है कि ये रामचन्द्र के सहपाठी, घनिष्ठ मित्र तथा आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने अपने तीसरे साथी वर्धमानगपि के साथ सोमप्रभाचार्यविरचित "कुमारपाल प्रतिबोध" का श्रवप किया था। इन गुपचन्द्र ने रामचन्द्र के साथ मिलकर दो गन्थों की रचना की है। एक तो "नाट्यदर्पप' ही है तथा द्वितीय "द्रव्यलकारवृत्ति” गन्य है। इसके अतिरिक्त गुपचन्द्र की और . हिन्दी नाट्यदर्पप, भूमिका, पृ. 16 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई कृति उपलब्ध नहीं होती है। नाट्यदर्पण 29 नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में नाट्यदर्पण का महत्वपूर्ण स्थान है। यह वह श्रृंखला है जो धनंजय के साथ विश्वनाथ कविराज को जोड़ती है। यद्यपि इसकी रचना भरतमुनि के "नाट्यशास्त्र" के आधार पर की गई है तथापि इसमें अनेक विषय महत्वपूर्ण तथा परंपरागत सिद्धान्त से विलक्षण हैं। आचार्य प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्वाचार्य स्वीकृत नाटिका के साथ प्रकरणिका नामक नवीन विधा का संयोजन कर द्वादशं रूपकों की स्थापना की है। इसी प्रकार रस की सुख-दुःखात्मकता स्वीकार करना इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है ।। इसमें नौ रसों के अतिरिक्त तृष्णा, आर्द्रता, आसक्ति, अरति तथा संतोष को स्थायीभाव मानकर क्रमशा: लौल्य, स्नेह, व्यसन, दुःख तथा सुख रस की · भी संभावना की गई है। इसमें शान्त रस का स्थायिभाव श्रम स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थों मे ऐसे अनेक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है जो अद्यावधिं • उपलब्ध हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में दो भाग पाये जाते हैं प्रथम कारिकाब्दु मूलग्रन्थ तथा द्वितीय उसके ऊपर लिखी गई स्वोपज्ञ विवृति । कारिकाओं मैं ग्रन्थ का लाक्षणिक भाग निवद है तथा विवृति में तद्वविषयक उदाहरण व कारिका का स्पष्टीकरण । 1. स्थायीभावः श्रितोत्कर्षो विभाव्यभिचारिभिः स्पष्टानुभावनिश्चैयः सुखदुः खात्मको रस।। हि नाट्यदर्पण, 3/7 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 नाट्यदर्पण का प्रतिपाय विषय रूपक भेद ही है। यह चार विवेकों में विभक्त है। प्रथम दिवेक में मंगलाचरप के पश्चात् रूपक प्रकार, रूपक के प्रथम भेद नाटक का स्वरूप, नायक के चार भेद, वृत्त चरित के सच्य, प्रयोज्य, अभ्यय कल्पनीय एवं उपेक्षपीय नामक चार भेद तथा कुछ अन्य भेदों के । सायं काव्य में परित निबन्धन विषयक शिक्षाओं का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात अंक, अर्थप्रकृति, कार्यावस्था, अर्थोपक्षेपक, सन्धि व सन्ध्यंग का विवेचन है। द्वितीय विवेक में, नाटक के अतिरिक्त प्रकरप, ना टिका प्रकरपी, व्यायोग, समवकार, भाण, प्रहसन, डिम, उत्सृष्टिकांक, ईहामृग तथा वीथि नामक शेष ।। रूपकों का लक्षपोदाहरप सहित विवेचन है। पुनः वीथि के 13 अंगों का भी प्रतिपादन है। तृतीय विवेक में भारती, सात्वती, कैशिकी व आरटी नामक चार वृत्तियों का विवेचन है, पुनः रस स्वरूप, उसके भेद, काव्य में रस का सन्निवेश, विरुद्ध रसों का विरोध तथा परिहार, रसदोष, स्थायीभाव, व्यभिचारिभाव, अनुभाव तथा वाचिक, आंगिक, सात्विक तथा आहार्य नामक चार अभिनयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। ___ चतुर्थ विवेक में, समस्त रूपकों के लिये उपयोगी कुछ सामान्य बातों को प्रस्तुत किया गया है। इसमें नान्दी, धुटा का स्वरूप, रसके प्रादेशिकी, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नष्कामिकी, आक्षेपिकी, प्रासादिकी व आन्तरी नामक 5 भेदों का सोदाहरप प्रतिपादन, पुरुष तथा स्त्री पात्रों के उत्तम, मध्यम तथा अधम भेदों का कथन, मुख्य नायक का स्वरूप, उसके आठ गुप, नायक के सहायक, नायिका-स्वरूप, उसके मुराधा, मध्या तथा प्रगल्भा - तीन सामान्य भेद तथा प्रोषितपतिका दि आठ प्रसिद्ध भेद तथा स्त्रियों के बीस अलंकारों का विवेचन किया गया है। पुनः नायिकाओं का नायक से सम्बन्ध, नायिकाओं की सहायिका तथा पात्रों के सम्बोधन प्रकारादि का विवेचन है। अन्त में, 12 रूपकों के अतिरिक्त सट्टक, श्रीगदित, दुर्मिलिता, प्रस्थान, रासक, गोष्ठी, हललीसक, शम्पा, प्रेषणक, नाट्य-रासक, काव्य, भाप तथा भापिका नामक । 3 अन्य रूपकों का संक्षिप्त लक्षप किया है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेन्द्रप्रभतरि नरेन्द्रप्रभतरि हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य नरचन्दतरि के शिष्य थे। इनके गुरू न रचन्द्रतरि न्याय, व्याकरण साहित्य तथा ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे।' तेरहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में मुघ रात के धोलका नामक नगर के वाघेला - वंशीय राजा वीरधवल के महामात्य वस्तुपाल एक विद्या - मण्डल का संचालन करते थे, जिसने संस्कृत साहित्य के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। विद्यामंडल के संपर्क में अनेक विद्वान थे, उनमें नरचन्द्रसरि भी एक थे। महामात्य वस्तुपाल तथा नरचन्द्रतरि में प्रगाढ़ मैत्री थी। एक बार वस्तुपाल ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर नरचन्द्रसरि ते निवेदन किया कि अलंकारविषयक कुछ गन्थ विस्तृत तथा दुर्बोध हैं, कुष्ट संक्षिप्त तथा दोषपूर्ण है, दूसरे कुष्ट ग्रन्थों में विषयान्तर की भी बहुत बातें हैं और वे कठिनाई से ही समझे जा सकते हैं, ऐते काव्य-रहत्य निर्दय से रहित अनेक गन्यों को सुनते सुनते मेरा मन ऊब गया है। अतः कृपाकर मुझे ऐसे शास्त्र का ज्ञान कराइए जो अत्यन्त लम्बा न हो, जिसमें अलंकार का सार हो।' तथा जो साधारण बुद्धियों के द्वारा भी गाय हो। वस्तुपाल की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर नरचन्द्रसरि ने अपने सुयोग्य शिष्य नरेन्द्रप्रभसूरि को उक्त प्रकार का गन्य रच्ने की आज्ञा दी। गुरू के आदेशानुसार नरेन्द्रप्रभसूरि ने वस्तुपाल की प्रसन्नता हेतु 1. दृष्टव्य - महामात्य वस्तुपाल का साहित्य मण्डल तथा संस्कृत साहित्य में उसकी देन विभाग2, अध्याय 5, पृष्ठ 1024 2. अलं कारमहोदधि - प्रारंभिक प्रशस्ति, 1/17-18 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 "अलंका रमहोदधि" नामक गन्ध की रचना की थी। इसका रचना काल वि. सं. 1280 (ई. सन् 1223) है एवं इतकी स्वोपज्ञ टीका का लेखनकाल वि.सं. 1282 (ई. सन् 1225) है। अत : नरेन्दप्रभसरि का समय विक्रम की 13वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध निश्चित होता है। अलंकारमहोदधि के अतिरिक्त मी, नरेन्द्रप्रभसरि ने 'काकुत्स्थकेलि नामक एक अन्य गन्थ की भी रचना की थी, ऐसा राजशेखरसरि की न्यायकन्दलीपंजिका से उद्धृत प्रलोक से ज्ञात होता है। यह एक नाटक था जिसकी कोई प्रति अद्यावधि मिली नहीं है। इसके अतिरिक्त नरेन्द्रप्रमसरि द्वारा रची हुई वस्तुपाल पर दो स्तुतियाँ "वस्तुपाल प्रशस्ति भी हैं। साथ ही गिरनार के वस्तुपाल के एक शिलालेख के श्लोक भी नरेन्द्रप्रभतरि रचित हैं। 1. "तेषां निर्देशादथ सद्गुरूपां श्रीवस्तुपालस्य मुदे तदेतत् । चकार लिप्यक्षरसंनिविष्टं सरिनरेन्द्रपभनामधेय ः।। वही, 1/19 जैन साहित्य का बहद इतिहास, भाग 5, पृ. 109 3 नयन-वसु-सर 1282 वर्षे निष्पलायाः प्रमापमेतस्याः । अनि सहस्त्रचतुष्ट्यमनुष्टुभामुपरि पञ्चाती ||1|| - अलंकारमहोदधि गन्धान्तप्रशस्ति, पृष्ठ. 340 + तत्य गुरोः प्रिय शिष्य ः प्रभुनरेन्द्रप्रभा प्रभावाट्यः । योडलंका रमहोदधिमकरोत काकुरस्थकेलिं च ।। महामात्य प्रस्तुपाल का साहित्यमण्डल व संस्कृत साहित्य में उसकी देन, विभाग2 अध्याय5,(पृ. 104) 5. महामात्य वस्तुपाल का सा. व संस्कृत सा. में उसकी देन, विभाग 2,अ.5 पृ. 106 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 इनके धार्मिक विषयों पर भी, दिवेक - पादप तथा विवेककलिका नाम के दो सुभा धित तंगह है, जिनते ज्ञात होता है कि इनका कवि उपनाम “विवुधचन्द्र" था।' अलंकारमहोदधि आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि द्वारा प्रपीत ग्रन्थों में सर्वोच्च, यह एक अलंकार विषयक गन्थ है। लेखक द्वारा इस गन्य की मौलिकता का कोई दावा नहीं किया गया है। वह कहता है कि ऐसी कोई बात नहीं है कि जिस पर अलंकारशास्त्री पूर्वागों ने नहीं विवेचन किया और इसलिये यह रचना उनकी उक्तियों का चयन मात्र ही है।2 “अलंकारमहोदधि पर काव्यप्रकाश की छाया प्रतीत होती है। अत: डा. भोगीलाल साडेतरा का यह कथन कि "अलंका रमहोदधि" का सम्पूर्ण तृतीय तरंग काव्यप्रकाश के चौथे अध्याय का एक लम्बा तथा सरलीकृत संस्करण है., उचित ही है। उपर्युक्त कथन यह भी स्पष्ट करता है कि "अलंकारमहोदधि" "काव्यप्रकाश जैते कुह गन्ध की अपेक्षा सरल है। 1. वही, पृ. 106 2. नास्ति प्राच्यैरलंकारकारैराविष्कृतं न यत्। कृतिस्तु तदचः सारसंगहव्यसनादियम्।। अलंकारमहोदधि, 1/21 महा. वस्तु. कासा. व संस्कृत सा. मैं उसकी देन, विभाग 3, अध्याय 14, पृ. 225 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ पर हेमचंद्राचार्य के काव्यानुशासन का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है। कवि शिक्षा प्रसंग में " काव्यानुशासन" की स्वोपज्ञ "अलंकारचूणामपि नामक टीका का एक सम्पूर्ण अंश ही प्रायः उद्धत कर लिया गया है। लेकिन इसके साथ ही "अलंकारमहोदधि में कतिपय ऐसी विशिष्टतायें प्राप्त होती है जो उसे काव्यप्रकाश तथा काव्यानुशासन से पृथक् सिद्ध करती हैं। उदाहरणार्थ "काव्यप्रकाश" में 61 अर्थालंकारों तथा "काव्यानुशातन" में मात्र 35 का समावेश किया गया है जबकि "अलंकारमहोदधि में 70 अर्थालंकारों का समावेश किया गया है। इसी प्रकार काव्यप्रकाश में कुल मिलाकर 603 उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं, जबकि अलंकारमहोदधि" में 982 । लेखक ने कतिपय आनुषंगिक बातें भी इसमें जोड़ दी है जो काव्यप्रकाश में अप्राप्य थीं । इससे इस ग्रन्थ का आकार भी बहुत विस्तृत हो गया है। 35 प्रस्तुत ग्रन्थ आठ तरंगों में विभक्त है। ग्रन्थ की रचना कारिका तथा वृत्ति में हुई है। कारिकाएं अनुष्टुप छन्द में हैं तथा प्रत्येक अध्याय का अंतिम श्लोक भिन्न छन्द में है। कारिकाएं कु 296 हैं। प्रथम तरंग में, सर्वप्रथम मंगलाचरण तथा गुरुपरम्परा का अनुसरण करते हुए महामात्य वस्तुपाल तथा तेजपाल का यशोगान किया गया है । तदनन्तर I. तुलनीय - अलंकारमहोदधि 1/10 की टीका तथा काव्यानुशासन 1 / 10 की स्वोपज्ञ अलंकारचूणामपि टीका । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ग्रन्थ रचना के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। पुनः काव्यप्रयोजन, काव्य हेतु, कवि - शिक्षा, काव्य लक्षण तथा उसके भेदों का निरूपण किया गया है । - द्वितीय तरंग में शब्द स्वरूप, शब्द - शक्तियाँ यथा अभिधा, लचणा तथा व्यञ्जना का सफेद विवेचन करते हुए संयोगादिकों का निरूपण किया गया है। तृतीय तरंग में सर्वप्रथम अर्थवैचित्र्य का सफेद निरूपण, रस-स्वरूप उसके भेद-प्रभेद, स्थायीभाव, सात्त्विक -भाव, व्यभिचारिभाव आदि का विवेचन किया गया है। इसी क्रम में शब्द - शक्तिमला तथा अर्थशक्तिमला ध्वनि के स्वरूप तथा भेद - प्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है। चतुर्थ तरंग में गुणीभूत व्यंग्य काव्य के भेदों का सोदाहरण निरूपप किया गया है तथा अन्त में ध्वनि का द्वितीय स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। पंचम तरंग में, काव्य-दोषों का सामान्य स्वरूप, पद-दोष, वाक्य दोष, उभयदोष, अर्थदोष, वक्ता आदि की विशेषता से दोषों का भी गुण होना तथा रत-दोषादि का सभेद निरूपण किया गया है। अन्त में, रसविरोध परिहार का निरूपप है। षष्ठ तरंग में, काव्य के तीन गुणों - माधुर्य, ओजस् तथा प्रसाद का विवेचन किया गया है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम तरंग में, अनुपात, यमक, श्लेष तथा वक्रोक्ति नामक चार शब्दालंकारों का तभेद - प्रभेद विवेचन किया है। अष्टम तरंग में, अतिशयोक्ति आदि 70 अर्थालंकारों का सलक्षपोदाहरप सभेद - प्रभेद निरूपप किया है। अन्त में, अलंकारदोषों का विवेचन करते हुए गन्य समाप्त हुआ है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 वाग्भट द्वितीय अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान वाग्भट द्वितीय के विषय में पूर्वोक्त जैनाचार्यों की अपेक्षा कम जानकारी उपलब्ध होती है। इन्होंने "काव्यानुशासन" नामक अलंकार गन्थ की रचना की थी। ये अभिनव वाग्भट के नाम से भी जाने जाते है। आचार्य प्रियव्रत शर्मा ने भिन्न - भिन्न विद्वानों द्वारा मान्य अनेक वाग्भटों की सूची प्रस्तुत की है, जिसमें "काव्यानुशासन" तथा "छन्दोनुशासन आदि के कर्ता बैन कुलोत्पन्न नेमिकुमार के पुत्र वाग्भट का भी उल्लेख किया है। इसी प्रकार पं0 नायराम प्रेमी ने चार वाग्भटों में से एक को"काव्यानुशासन तथा उन्दोनुशासन' का कर्ता स्वीकार किया है। वाग्भट द्वितीय का समय विक्रम की 14वीं शताब्दी है, क्योंकि उन्होंने उदात्तालंकार के प्रसंग में स्वोपज्ञ “अलंकार तिलक" नामक टीका में "अलंकार-महोदधि से एक पमें उद्धत किया है, जो "अलंका रमहोदधि के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं पाया जाता है। अलंकार-महोदधि का लेखन समाप्ति काल वि. सं. 1282 है। इसी प्रकार पं. आशाधर जी की रचना "राजीमती दिपलम्भ' अथवा 'राजीमती परित्याग" के कुछ पद्यों का उल्लेख मी इसमें किया गया है।° पं. आशाधर जी के अनगारधर्मामृत की भव्यकमदचन्द्रिका नामक टीका का लेखनकाल वि.सं0 1300 है। अतः वाग्भट दितीय का 1. तीर्थंकर महावीर तथा उनकी आचार्य परम्परा, चतुर्थ खंड, पृ. 37 2. वाग्भट विवेचन, पु. 281 3. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान से उद्धत, पृ. 39 + वही. पृ. 40 5 वही, पृ. 40 6. तीर्थंकर महावीर तथा उनकी आचार्य परम्परा, चतुर्थ संड, पृ. 39 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय उपर्युक्त विद्वानों के पश्चात विक्रम की 14वीं शताब्दी मानना युक्ति संगत प्रतीत होता है। "काव्यानुशासन तथा उत्तकी टीका से ज्ञात होता है कि वाग्मट द्वितीय भेदपाट ( मेवाड़ ) निवासी नैमिकुमार के पुत्र तथा मवकलप तथा म्हादेवी के पौत्र थे।' इनके ज्येष्ठ माता का नाम श्री राहड था, जिनके प्रति वाग्भट को अगाध श्रद्धा थी। इनके पिता नेभिकुमार ने अपने द्वारा अर्जित किये गये धन से राहडपुर में उत्तुंग शिखर वाला भगवान नेमिनाथ एवं नलोटकपुर में 22 देवकुलिकाओं से युक्त आदिनाथ का मंदिर बनवाया था।' आचार्य वाग्भट द्वितीय ने अनेक नवीन तथा सुन्दर नाटकों एवं महाकाव्यों के अतिरिक्त छन्द तथा अलंका रविषयक गन्धों का निर्मापं किया है। काव्यानुशासन के अतिरिक्त उनकी दो अन्य रचनाएँ भी उपलब्ध है1. ऋषभदेवरित महाकाव्य तथा, 2. छन्दोनुशासन। इसका उल्लेख काव्यानुशासन में मिलता है। 1. काव्यानुशासन - वाग्भट द्वितीय, अलंकारतिलक, वृत्ति, पृ.१ 2. वही, पृ. । 3. वही, पृ. । + क - श्रीमन्नेमिकुमारस्य नंदनो विनिर्मितानेकनव्यभव्यनाट कच्छन्दो - लंकारमहाकाव्यप्रमुखमहाप्रबन्धबन्धुरो पारतरशास्त्रसागरसमुत्तरपतीर्थायमानशेषमुषीसमन्यस्तसमस्तानवध विद्या विनोदकन्दलितसकलकलाकलापसंपदुटो महाकविः श्रीवाग्भटो भीष्टदेवतानमस्कारपूर्वमपक्रमो। काव्या. पृ. 1-2 - नव्यानेकमहाप्रबंधरचनाचातुर्यविस्फर्जित्स्फारोदारयशःप्रचारस्तत व्याकीपवित्रवत्रयः श्रीमन्नेमिकुमारसनखिलपज्ञालच्डामपिः काव्यानामनुशासनं वरमिदं चकेकविर्वाग्भट :।। वही, पृ. 68 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यानशासन "काव्यानुशात्न" की रचना सूत्र शैली में की गई है। इस पर आचार्य वाग्भट द्वितीय ने अलंकारतिलक नामक स्वोपज्ञवृत्ति की भी रचना की है। इस पर हेमचन्द्रकृत् काव्यानुशासन की छाया प्रतीत होती है। साथ ही काव्यमीमांसा तथा काव्यप्रकाश का भी इसमें उपयोग किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पाँच अध्यायो में विभक्त है - प्रथम अध्याय में, काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु, काव्य-शिक्षा, काव्य-स्वरूप, महाकाव्य, मुक्तक, रूपक, आख्यायिका तथा कथा आदि का स्वरूप निरूपण किया गया है। 40 द्वितीय अध्याय में सर्वप्रथम 16 शब्द दोषों का विवेचन है जो पद तथा वाक्य दोनों में होते हैं। पुनः विसंधि आदि वाक्य दोषों तथा कष्टअपुष्ट आदि अर्थ - दोषों का निरूपणं किया गया है। अन्त में, कान्ति तौकुमार्यादि दप्त गुणों का विवेचन कर तीन गुणों के सम्बन्ध में अपना स्पष्ट अभिप्राय तथा तीन रोतियों का उल्लेख है। तृतीय अध्याय में, जाति, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि 63 अर्थालंकारों का सभेद निरूपण है। इसमें अन्य अपर, आशिष आदि विरल अलंकारों का समावेश किया गया है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 चतुर्थ अध्याय में, चित्र, प्रलेष, अनुप्रास, वक्रोक्ति, यमक तथा पुनरूक्तवदाभास नामक शब्दालंकारों का भेद - प्रभेद सहित विवेचन है। पंचम अध्याय में, सर्वप्रथम नव रतों का तांगोपांग निरूपप है । तत्पश्चात रस-दोष, नायक के धीरोदात्तादि चार भेद, धीरललित के अनुकूल, पाठ, पृष्ठ तथा दक्षिप नामक चार प्रद, नायक के गुप, नायिकाभेद, स्त्री की आठ अवस्थाएँ, दस कामावस्थाएँ तथा कालादि-औचित्यों का विवेचन किया गया है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भावसरि आचार्य भावदेव सूरि कालिकाचार्य- संतानीय खंडिलगच्छीय परंपरा के आचार्य जिनदेवसूरि के शिष्य थे। इनका समय 14वीं शताब्दी का पूर्वार्ध प्रतीत होता है, क्योंकि इन्होंने पार्श्वनाथ चरितं की रचना वि. सं. 1412 मे श्रीपत्तन नामक नगर में की थी, जिसका उल्लेख पार्श्वनाथ-चरित" की प्रशत्ति में किया गया है। आचार्य भावदेवसूरि ने "काव्यालंकारसार" इस अलंकारविषयक ग्रन्थ के अतिरिक्त अन्य कितने ग्रन्थों की रचना की, यह स्पष्टरूपेण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन ग्रन्थों में, परस्पर एक दूसरे का कहीं भी उल्लेख नहीं है, किन्तु "पार्श्वनाथचरित?, "जड़ दिपचरिया (प्रतिदिनचर्या) 3 और कालिकाचार्यकथा" नामक ग्रन्थों मे कालिकाचार्य सन्तानीय भावदेवसूरि का 1. तेषां विनेयविनयी बहु भावदेव सूरिः प्रसन्न जिनदेवगुरूप्रसादात् । श्रीपतनारव्यनगरे रवि विश्ववर्षे पाश्र्वाप्रभोख्यचरित रलमिदं ततान । । पार्श्वनाथचरितप्रशस्ति, 14 ("जैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान' पृ. 43 से उद्धृत 1 ) "जैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान " पृ. 44 से उद्धत । 2. 3. तिरीका लिकसूरीपं वसव्यव भावदेवसूरी हूिँ । संकलिया दिपचेरिया एसा योवमइजणे (ई ) जोग्गा । । - 42 यतिदिनचर्या - प्रान्त, गा० ( अलंकारमहोदधि प्रस्तावना, पृ. 17 ) 4. तत्पादपद्ममधुपा : विज्ञ, श्रीभावदेवसूरीपा: श्री कालकाचरितं पुनः कृतं यैः स्वर्गः पूर्त्या ।। जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग 14, किरण2, ए. 38 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 स्पष्ट उल्लेख किया गया है, अत: यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त गन्यों के रचयिता मावदेवसरि ही होंगे। अगर चन्दनाहटा के एक लेख से ज्ञात होता है कि भावदेवतरि पर एक रात की रचना की गई। रात में यह कधित है कि सं0 1604 में भावदेवसरि को प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त उक्त लेख से यह भी विदित होता है कि अनूप संस्कृत लाइबेरी से सरि जी के शिष्य मालदेव रचित “कल्पान्तर्वाच्य नामक गन्य की प्रति उपलब्ध है जिसकी रचना सं0 1612 या ।4 में की गई है, उसकी प्रशस्ति के एक पध में "कालकाचरित' का उल्लेख है इत्यादि। उक्त रास के नायक भावदेवतरि को सं0 1604 में प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी तथा पार्श्वनाथ चरित' के रचयिता भावदेवसरि ने "पापर्व नाथ चरित' की रचना सं0 1412 में की है। इन दोनों तिथियों में पर्याप्त अन्तराल है। अत: उक्त दोनों आचार्यो को एक ही मानना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता है। संभवत : प्रशस्ति बाद में जोड़ी गई हो तथा लिपिकार ने भावदेवतरि की प्रसिद्धि के कारण प्रमा दवशात का लायरित का उल्लेख करने वाले उक्त पपं का समावेश कर दिया हो। 1. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान पृ. ५५ ते उत्त 2. तत्यादपामधुपा:---स्वर्गाः पत्र्ये । जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग 14, किरण 2, पृ:38 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 काव्यालंकारमार काव्यालंकारसार नामक गन्य की रचना आ.भावदेवतरि ने पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में की।' इस पद्यात्मक कृति के प्रथम पध में इसका "काव्यालंकारसंकलना* , प्रत्येक अध्याय की पुष्पिका में "अलंकारतार और आठवें अध्याय के अंतिम पद्य में "अलंका रसंगह' नाम से उल्लेख किया गया है। यह ग्रन्थ संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण है। इसमें आचार्य ने प्राचीन ग्रन्थों से सारभूत तत्वों को गृहप कर संगहीत किया है। 2 आठ अध्यायो में विभक्त इस गन्य की विषयवस्तु इस प्रकार है - प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु तथा काव्य-स्वरूप का निरूपण किया गया है। ___द्वितीय अध्याय में, मुख्य लाक्षपिक तथा व्यंजक नामक तीन शब्द-भेद, उनके लक्षपा तथा व्यंजना नामक तीन अर्थमद तथा वाच्य, लक्ष्य तथा व्यंग्य नामक तीन व्यापारों का संक्षेप में विवेचन किया गया है। तृतीय अध्याय में, श्रुतिक्टु, च्युतसंस्कृति आदि 32 पद - दोषों का निरूपप किया गया है। ये 32 दोष वाक्य के भी होते हैं। तत्पश्चात अपुष्टार्थकष्टादि आठ अर्थदोषों का नामोल्लेख कर किंचित विवेचन किया गया है। 1. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग 5, पृ. ।।१ 2. आचार्य मावदेवेन प्राच्यशास्त्र महोदधेः आदाय साररत्नानि कृतोऽलंकारसंगह: 8/8 काव्यालंका रसार, 8/8 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 चतुर्थ अध्याय में, सर्वप्रथम वामन सम्मत दस गुपों का विवेचन कर भामह तथा आनन्दवर्धन सम्मत तीन गुपो का विवेचन किया गया है। पुनः शोभा, अभिधा, हेतु, प्रतिषेध, निरूक्ति, मुक्ति, कार्य व सिद्धि नामक आठ काव्य-चिन्हों का विवेचन किया है। ___पंचम अध्याय में वक्रोक्ति, अनुपात, यमक, श्लेष, चित्र तथा पुनरूक्तवदाभास नामक छः शब्दालंकारों का सोदाहरण निरूपप किया गया है। षष्ठ अध्याय में, उपमा, उत्प्रेक्षा रूपक आदि 50 अर्थालंकारों का विवेचन किया गया है। सप्तम अध्याय में, पांचाली, लाटी, गौडी तथा वेदी नामक चार रीतियों का निरूपप किया गया है। अष्टम अध्याय में, भाव, विभाव, अनुभावादि का मात्र नामोल्लेख Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 द्वितीय अध्याय - काव्य स्वरूप, हेतु, प्रयोजन : काव्यत्वरूप संस्कृत काव्य-चिंतकों ने काव्य के सर्वसम्मत निर्दष्ट एवं सार्वभौम लक्षण प्रस्तुत करने का प्रयात प्रारंभ से ही किया है, पर उनके विचारों में इतनी भिन्नता रही है कि इस प्रश्न को लेकर छः संप्रदायों की सृष्टि हुई एवं प्रत्येक ने परस्पर विरोधी मान्यतायें स्थापित की। मानसिक आधार पर अवलम्बित किसी भी वस्तु का लक्षण प्रस्तुत करना अत्यंत दुष्कर है। सामान्यत: वस्तु का स्वरूप तब तक पूर्णत: शुद्ध नहीं माना जाता है, जब तक कि वह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव इन दोषों से रहित न हो। अत : जित स्वरूप में उपर्युक्त दोषों का अभाव होगा वही शुद्ध स्वरूप माना जायेगा। प्राचीनकाल से अद्यावधि काव्य के स्वरूप पर विभिन्न आचार्यों ने विचार किया है। उपलब्ध काव्य-स्वरूपों में भामह-कृत काव्य-स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन है। आचार्य भामह के समय काव्यस्वरूप विषयक अनेक धारपायें थीं। कोई आचार्य केवल शब्द को व कोई आचार्य केवल अर्थ को काव्य की संज्ञा से अभिहित करते थे जैसा कि वक्रोक्तिकार के उल्लेख से स्पष्ट होता है। 1. केषाश्चिन्मतं कविकौशलकल्पितकमनीयतातिशय : शब्द एव केवलं काव्यमिति। केषांचिद् वाच्यमेव रचनावैकियचमत्कारकारि काव्यमिति। वक्रोक्तिजीवित ।/। वृत्ति Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी द्वन्द्व को समाप्त करने के उद्देश्य से आचार्य भामह ने "शब्दार्थो सहितौ काव्य" । यह काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया। अर्थात् उन्होंने शब्द एवं अर्थ दोनों के सहभाव को काव्य माना। वे सहभाव या "सहितौ" शब्द का क्या अर्थ ग्रहण करते हैं इसकी व्याख्या उन्होंने नहीं की। पर उनका अभिप्राय यह है कि जिस रचना में वर्णित अर्थ के अनुरूप शब्दों का प्रयोग हो या शब्दों के अनुरूप अर्थ का वर्णन हो वे शब्द तथा अर्थ ही "सहित पद से विवक्षित हैं। लेकिन यह काव्य स्वरूप मनीषियों को अधिक ग्राहय न हो सका क्योंकि यह अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त था तथा इसमें सामान्य गद्य-पद्य रचना का भी समावेश सम्भव था। आ. दण्डी ने भामहकृत काव्यलक्षण का परिष्कार करते हुए काव्य स्वरूप निरूपण इस प्रकार किया अभिलषित अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली पदावली का नाम काव्य है। 2 दण्डी ने मामह के "सहितौ" पद का अर्थ स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम काव्य के शरीर की ही बात की है। काव्यात्मा के विषय मे उन्होंने कोई विचार नहीं किया है। अतः भामह तथा दण्डी के काव्यस्वरूप में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। दण्डी के अभिलषित अर्थ व पदावली ( शब्द समूह ) तथा भामह के शब्द व अर्थ में लगभग एक ही बात का कथन किया गया है। यह भी अतिव्याप्ति दोषयुक्त काव्य है। 1. काव्यालंकार 1/16 2. 47 - शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली । काव्यादर्श, 1/10 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 इस समय तक विद्धानों का ध्यान केवल काव्य-शरीर तक ही सीमित था। वामन ने सर्वप्रथम काव्यशरीर में आत्मा की बात की उन्होंने रीति को काव्य के आत्मभूत तत्व के रूप में प्रतिपादित करके भामह व दण्डी आदि के द्वारा प्रतिपादित काव्यशरीर में प्रापप्रतिष्ठा करने का प्रयत्न किया। "री तिरात्मा काव्यस्य" (अर्थात रीति ही काव्य की आत्मा है) यह उनका काव्य-लक्षप या मलसिद्धान्त है। वह लिखते है कि काव्य अलंकार के योग से ही उपादेय है तथा वह काव्य शब्द, गुप तथा अलंकार से सुसंस्कृत शब्द तथा अर्थ का ही बोधक है। 2 इस प्रकार वामन ने "री तिरात्मा काव्यस्य' लिखकर काव्य की "आत्मा" क्या है, एक नया प्रश्न उठा दिया। इसी लिये अगले विचारक आनन्दवर्धनाचार्य के समक्ष काव्य की आत्मा के निर्धारण करने का प्रश्न काव्यपवन बन गया। रीतियों को वे केवल संघटना या अवयव-तस्थान के समान ही मानते हैं, उनको काव्यात्मा वे नहीं मानते। उन्होंन "ध्वनि" को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया। उनके अनुसार ध्वनि ही काव्य का जीवनाधायक तत्व है। उनका ध्वनि-स्वरूप निश्चित ही एक 1. काव्यालंकारसूत्र, 1/2/6 2. काव्यं ग्राह्यमलंकारात। काव्य शब्दोऽयं गुपालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वतते। वही, 1/1/1, वृत्ति 3 काव्यात्यात्मा ध्वनिः. ध्वन्यालोक ।/। यत्रार्थः शब्दोवा तमर्थमुपसर्जनी कृतस्वार्यो। व्यक्त : काव्यविशेषः सध्वनिरिति सारिभि: कथितः।। वही, 1/13 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चस्तरीय काव्य का संकेतक है। दे ध्वनि को वस्तु, अलंकार तथा रत ध्वनि भेद ते तीन प्रकार का बताते हुए रतध्वनियुक्त काव्य को सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। उन्होंने लिया कि “सह्दयों के हृदय को आनंदमग्न करने वाला, रसा भिव्यक्ति करा देने वाला शब्दार्थयुगल काव्य है।' ध्वनितत्त्व की दृष्टि से यह नक्षप महत्वपूर्ण व आदर्शभूत है पर इसमें गुप, दोर, अलंकारादि विशेषपों की चर्चा नहीं की गई है तथा यह चित्रकाव्यादि को अपने अंदर समाहित नहीं कर सकता, अत: अत्याप्ति दोषयुक्त है। राजशेखर ने काव्यपुरुध की कल्पना करके काव्य-स्वरूप में शब्द, अर्थ, गुण, रस व अलंकार सभी का सामंजस्य करने का प्रयास किया। वक्रोक्तिका र कुन्तक ने भी यपि "वको न्ति : काव्यनी वितम् यह मानते हुए विदग्धगीभणिति को ही काव्य बतलाया तथापि काव्य-स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसके सभी अंगों की ओर ध्यान दिया। तदनन्तर काव्य लक्षण में समन्वय की प्रवृत्ति बढ़ती रही। एक भोज राज ने काव्य को गुपों से युक्त अलंकारों से अलंकृत व रतों से रामन्वित माना तो दूसरी ओर ओर 1. सहदयहृदयाक्षादि शब्दार्थमयत्वमेव काव्यलक्षपम वडी, 1/I, वृत्ति 2. काव्यमीमांसा, तृतीय अध्याय 3. निर्दोष गपवत्काव्यमलंकारेलकृतम्। रसान्वितं कविः कुर्वन की ति प्रीतिं च विन्दति।। सरस्वती कण्ठाभरप 1/2 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेमेन्द्र ने "औचित्य को ही काव्य का प्राप" कहा। इन तमस्त लक्षणों का समन्वित रूप आचार्य मम्मट के काव्य-स्वरूप दृष्टिगत होता है। काव्य-स्वरूप निरूपण करते उन्होंने लिखा कि - ( काव्यत्व विघातक) दोष रहित, (माधुर्यादि) गुण सहित तथा कहीं-कहीं स्फुट) अलंकार रहित साधारणत: अलंकार सहित शब्द तथा अर्थ समूह काव्य हैं।' इस लक्षण में आचार्य मम्मट ने शब्दार्थयुगल के "अदोषों" "सगुपौ आदि विशेषण प्रस्तुत करके निश्चय ही श्लाघनीय कार्य किया है। उनका काव्य लक्षण सामाजिक तथा कवि दोनों की दृष्टि से पूर्ण है, कृति तथा अनुभूति ते सम्बन्ध रखने वाला है। इसमें अलंकारवादी, रीतिवादी, वक्रोक्तिकार व ध्वनिवादी सभी सम्प्रदायों के काव्यलक्षण आ मिलते हैं। सरस्वतीकण्ठाभरण के 'निर्दोष गुणवत.' आदि का स्वरूप के साथ इसका अत्यधिक साम्य है। यद्यपि साहित्यदर्पणकार तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने इसकी कटु आलोचना अवश्य की है, किन्तु वे इससे अधिक व्यापक तथा सर्वग्राह्य काव्य न दे सके। वस्तुत: काव्य तो लोकोत्तर- वर्षना निपुण कविकर्म है। उसे लक्षण 1. तददोषी शब्दार्थो सगुपावनलइ. कृती पुनः क्वापि ।। काव्यप्रकाश 1/4 वाक्यं रसात्मकं काव्यस "साहित्यदर्पण 1 / 3 2. - 3. रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम् 1 रसंगाधर (काव्यमाला) पृ. 4-5 50 - - लक्षण Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा परिभाषा की सीमाओं में कैसे बांधा जा सकता है? संक्षेप में, विश्वनाथ तथा पण्डितराम जगन्नाथ सदृश स्वतंत्र चिंतक आचार्यों के अतिरिक्त शेष आचार्यों के काव्य-स्वरूप पर प्राय: आ. मम्मट का प्रभाव दृष्टिगत होता है। प्रायः समस्त जैनाचार्य मम्मटानुगामी हैं जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने काव्य स्वरूप पर विचार करते लिखा है कि - ( औदार्यादि) गुप तथा (उपमा दि) अलंकारों से युक्त, (वैदर्भी आदि ) स्पष्ट रीति व (श्रृंगारादि) रसों से युक्त साधु शब्द अर्थ सन्दर्भ काव्य कहलाता है। आचार्य वाग्भट प्रथम ने मम्मट के काव्य-स्वरूप में एक-दो नवीन तत्वों का समावेश किया है, जिसमें रीति प्रमुख है। किंतु सामान्यतः विद्वान् रीति को काव्य में आवश्यक नहीं मानते हैं। साथ ही इन्होंने काव्य में अलंकार की स्थिति अनिवार्य मानी है। 51 आचार्य हेमचन्द्र ने मम्मट की कठिन तथा व्याख्यापेक्ष शैली को सरल करते हुए, शब्दविन्यास में कुछ परिवर्तन करके मम्मट के काव्यलक्षण को प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं- "दोषरहित, गुपान्वित तथा अलंकारयुक्त शब्दार्थ काव्य है। 2 किन्तु कभी अलंकाररहित शब्दार्थ भी काव्य कहलाता है इस बात को उन्होंने "चकार" मात्र से कह दिया तथा वृत्ति में निरलंकार 1. - साधुशब्दार्थसन्दर्भ गुणालंकारभूषितम् स्फुटरी तिरसोपेतं लव्यम वाग्भटालंकार, 1/21 475781 2. अदोषौ सगुणौ तालंकारौ च शब्दार्थौ काव्यम् । काव्यानुशासन 1/11 - ALLAHATA Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ को काव्य के रूप में स्वीकार करने की बात कही है।। आचार्य हेमचन्द्र ने काव्य में गुणों की सत्ता अनिवार्य मानी है। काव्य में गुणों की सत्ता का अर्थ है रससम्पत्ति से युक्त होना। इस प्रकार हेमचन्द्र का आग्रह है कि ऐसे शब्दार्थ ही जो दोषरहित तथा रससमन्वित हैं, काव्य की संज्ञा से सुशोभित हो सकते हैं। गुणों की अनिवार्यता को सिद्ध करते हुए स्वयं कहा है कि ऐसा शब्दार्थयुगल जो अलंकारो से मण्डित नहीं है लेकिन गुपबहुल है तो लोग उसका रसास्वादन करेंगे। अर्थात् वह उत्तम काव्य होगा। किन्तु वही शब्दार्थयुगल अलंकारों से मण्डित होते हुए भी जब गुणों से हीन होगा तो कोई उसका रसास्वाद नहीं करेगा अर्थात् वह काव्य न होगा। 2 हेमचन्द्राचार्य ने गुपयुक्त काव्य का उदाहरण, जिसमें अलंकारों का सर्वथा अभाव है, "शून्यं वासगृहं विलोक्य" इत्यादि श्लोक प्रस्तुत किया है तथा अलंकृत होते हुए भी गुणरहित काव्य का उदाहरण * स्तनकर्परपृष्ठस्था" इत्यादि दिया है। 3 lo 2. 52 चकारी निरलंकारयोरपि शब्दार्थयो: कवचित्काव्यत्वरव्यापनार्थः । काव्यानु वृत्ति, पृ० 33 अनेन काव्ये गुणानामवश्यंभावमाह स्वदते । काव्यानु, विवेक टीका, पृ. 33 ....... तथा हि अलंकृतमपि गुणबहव: अलंकृतमपि निर्गुणं न स्वदते । 3. काव्यानुशासन, पृ, 33-34 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत प्रकार आचार्य हेमचन्द्र का काव्य-लक्षण संक्षिप्त होकर भी सारगर्भित है। मम्मट की तुलना में भले ही कोई नवीन बात इसमें नहीं कही गई है तथापि उसे परिमार्जित व सपतिष्ठित करने का श्रेय आवार्य हेमचन्द्र को अवश्य है। आ. रामचन्द्र गुणचन्द्र ने अपने नाट्यदर्पप में यधपि प्रमुखत : नाट्यशास्त्रीय विषयों का ही उल्लेख किया है तथापि इसमें आनुषंगिक रूप से रूपकेतर काव्यशास्त्रीय प्रसंगों पर भी प्रकाश डाला गया है। आचार्य रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार - अभिनेय (अर्थात् दृश्य काव्य)तथा अनभिनय (श्रव्य काव्य) उभयविध काव्य का शब्दार्थ शरीर है, रस पाप है।' विभावानुभावसंचारी - रूप कारपों के द्वारा यह काव्य सङ्दयों के हृदय तक पहुंचता है। अत: कवियों को चाहिए कि वे रस - निवेश के विषय में अधिक सौहार्द्र से तल्लीन रहें, जिससे कि अनायास रस निवेश के साथ-साथ अलंकार भी उसका अंग - उपकारक बन जाय। तभी वह काव्य सहदयों के हृदय में चमत्कार का आधान कर सकता है। इसके उदाहरप रूप में वे "कपोले पत्राली.... इत्यादि उदाहरप प्रस्तुत करते हैं। 1. अर्थ शब्दवपुः काव्यं रतैः प्रापैर्वितर्पति। हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/21 2. हिन्दी नाट्यप, विवरप (वृत्ति) भाग, पृ. 318 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने उपरोक्त कथन को और स्पष्ट करते वे कहते हैं कि नवीननवीन अर्थों को प्रकाशित करने वाले शब्दों की रचना कर देना मात्र ही काव्य नहीं कहलाता है। क्योंकि न्याय तथा व्याकरणादि में भी यह हो सकता है। किंतु चमत्कारजनक, रस से पवित्र शब्द तथा अर्थ का सन्निवेश ही काव्य कहलाने योग्य होता है। जैसे परिपाक हो जाने के कारण सुन्दर दृष्टिगत होने वाला भी आम्रपल रसशून्य होने पर बुरा लगता है । ' आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने मम्मट सम्मत काव्य-स्वरूप में कुछ अपनी दोषरहित, गुण, अलंकार व व्यंजना बात का समावेश करते लिखा है कि सहित काव्य कहलाता है। 2 आगे वे लिखते हैं कि जहां अलंकार की अस्फुट 1. 2. - 54 न हि नवनवार्थव्युत्पन्नशब्दगथनमेव काव्यं तर्क- व्याकरणयोरपि तथा भावप्रसंगात् । किन्तु विचित्र रसपवित्रशब्दार्थ निवेश: । विपाककमनीयमपि यमकश्लेषादीनामेव निबन्धमर्हति । हिन्दी नाट्यदर्पण, विवरण भाग, पृ. 320 निर्दोषः सगुणः सालंकृत: सव्यंजन स्तथा । शब्दश्चार्यश्च वैचित्र्यपात्रतां हि विगाहते ।। अलंकारमहोदधि 1/13 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अस्पष्ट ) प्रतीति होती है वहाँ भी निर्दोषता, सगुणता तथा व्यंजना का तमावेश होने पर काव्यत्व की हानि नहीं होती। जैसे - गेयं श्रोत्रैकपेयं... इत्यादि में। आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने मम्मट के काव्य-स्वरूप में " सव्यंजनस्तथा" यह एक विशेषण जोड़ा है जो सर्वथा मौलिक है। लेकिन यहां पर यह विचारणीय है कि काव्य के सभी प्रकारों में व्यंजना का समावेश तो नहीं होता । स्वयं नरेन्द्रप्रभसूरि ने काव्य के अवर काव्य नामक तृतीय भेद के रूप में व्यंजना की अनिवार्यता का उल्लेख नहीं किया है। 2 जिससे उनका यह काव्य-स्वरूप अव्याप्ति दोष से ग्रसित है। अतः उक्त विशेषण सदोष है। - वाग्भट द्वितीय ने आचार्य मम्मट के काव्यस्वरूप की पुनरावृत्ति मात्र करते हुए काव्यलक्षण दिया कि "दोषरहित, गुणसहित तथा प्राय: अलंकार युक्त शब्दार्थ समूह काव्य है। 3 इसके उदाहरणरूप में "शून्यंवासगृहं विलोक्य ...." इत्यादि उदाहरण प्रस्तुत किया है। 1. यत्राप्यस्फुटत्वं तत्रापि चमत्कारिण्यपरत्रये निर्दोषत्व सगुणत्व - सव्यजंनत्वलक्षणे सति न काव्यता परिहीयते । " वही, वृति, पृ. 11 55 2. यत्र व्यंजनवैचित्र्यचारिमा कोऽपि नेक्ष्यते । काव्याध्वनि सदाऽध्वन्यैस्तत् काव्यमवरं स्मृतम् ।। अलंकारमहोदधि, 1/17 3. शब्दार्थों निर्दोषौ सगुणी प्रायः सालंकारी काव्यस काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 14 - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार आचार्य भावदेवतरि - सहदयों के लिये इष्ट, दोष - रहित, सद्गुपों तथा अलंकारों से युक्त शब्दार्थ - समूह को काव्य मानते हैं।' इस काव्य - स्वरूप के मल में भी आ. मम्मट के काव्य-लक्षप की ही भावना प्रधान है। इस प्रकार इन क्त समस्त जैनाचार्यों ने काव्य- स्वरूप में प्रारम्भ से चली आई परम्परा को अधुण्प बनाये रखने का सफल प्रयास किया है तथा काव्य-स्वरूप पर विभिन्न दष्टिकोपों से विचार कर कतिपय नवीन तथ्यों का समावेश करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया है। काव्य-भेद काव्य के भेद - प्रभेदों पर प्राचीनकाल से ही विचार किया जाता रहा है।भामहाचार्य ने काव्य के दो भेद किये थे - गय काव्य तथा पघ काव्य। उन्होंने वृत्तबन्ध तथा अवृत्तबन्ध दो प्रकार की रचना की द्वष्टि से ये भेद किये थे। रीतिवादी आचार्य दामन ने भी काव्य के इन 1. शब्दार्थों च भवेत काव्यं तौ व निर्देष सद्गपौ। सालंकारी सता मिष्टावत एतन्निरूप्यते काव्यालंकारसार - 1/5 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो पकारों का निरूपप करके ज्य तथा पद्य के भी रचनानुसार अनेक प्रभेद किये। उन्होंने प्राचीन कवियो की "गचं कवीनां निकष वदन्ति" यह उक्ति देकर गद्य को प्राथमिन्ता दी तथा गध-पप रूप काव्य के भी दो भेद किये - प्रबन्ध तथा मुक्तक2 । उन्होंने प्रबन्धकाव्यों में दस प्रकार के रूपक नाटकादि को श्रेष्ठ बतलाते हुए कहा - "सन्दर्भेषु दशरूपकं प्रेय :- 3 आचार्य दण्डी ने “ग” तथा “पय" नामक दो काव्य - मेदों में "मित्र" नामक तीसरा भेद और जोड़ दिया।' उन्होंने गद्य-पय मिश्रित नाटकों का काव्य में अन्तर्भाव करने के लिये "मित्र' नामक काव्य-भेद की उदभावना की, यद्यपि प्राचीनकाल मे ही भरतमुनि नाटक को "काव्य" बता चुके भामह तथा दण्डी ने भाषा के आधार पर भी काव्य के तीन भेद किये - संस्कृत काव्य 2. प्राकृत काव्य 3 अपभंश काव्य। 1. काव्यं गई पचंच, काव्यालंकारसत्र 1.3-21 2. तदनिब्द्धं निबद्धंच __वही, 1.327 3. वही, 1. 3. 30 4. काव्यादर्श 1/11 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 रूट ने इनमें तीन प्रकार और जोड़ दिये - + मागध काव्य पैशाचकाव्य 6 शौरतेन काव्य इसी प्रकार अलंकार तथा रीति सम्पदाय आचार्यों ने काव्य के अन्य भी भेद प्रभेद किये, जिनमें महाकाव्य, कथा, आख्यायिका, चम्प तथा नाटक व प्रकरप आदि विविध रूपकों का उल्लेख किया गया था। ध्वनिवादी आचार्यों ने काव्य के इस भेद-पभेद की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया तथापि आचार्य अननन्दवर्धन ने प्राचीन आचार्यों के अभिम्त अनेक काव्य-प्रभेदों का उल्लेख किया है - मुक्तक, सन्दा नितक, विशेषक, कलापक कुलक, पर्यायबा, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, सर्गबन्ध, अभिनय, आख्यायिका तथा कथा।' उन्होंने इन काव्य-भेदों की रचना संस्कृत, प्राकृत व अपगंश में स्वीकार की है। जिससे उनके द्वारा भाषा को आधार मानकर काव्य -भेदों की ओर संकेत मिलता है। 1. ध्वन्यालोक, 3/7 वृत्ति । 2. ध्वन्यालोक, 3/7 वृत्ति । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम ने भाषा को ध्यान में रखकर कुछ जैनाचार्य वाग्भट उदार दृष्टि अपनाई तथा उन्होंने काव्य रचना हेतु पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के अतिरिक्त भूतभाषा पैशाची, को भी समान रूप से स्थान दिया है।' इसका कुछ कुछ संकेत दण्डी के इस कथन में भी मिलता है कि विचित्र अर्थों वाली बृहत्कथा भूतभाषा में है। 2 - - वाग्भट प्रथम ने छन्द के आधार पर तीन भेद किए हैं। मिश्र । 3 1. वाग्भटालंकार, 2/1 2. काव्यादर्श, 1/38 3. वाग्भटालंकार, 2/4 4. - पाठ्य आचार्य हेमचन्द्र ने इन्द्रियों की ग्राहकता को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम दो भेद किए हैं - प्रेक्ष्य तथा श्रव्य । प्रेक्ष्य के दो भेद है तथा गया पुनः पाठ्य के 12 भेद हैं नाटक, प्रकरण, नाटिका, समवकार, ईहामृग, डिम, व्यायोग, उत्सृष्टिकांक, प्रहसन, भाण, वीथी तथा सट्टक । गय के 13 भेद हैं डोम्बिका, भाष, प्रस्थान, शिंगक, माणिका, प्रेरण, रामक्रीड, हल्लीसक, रासक, गोष्ठी, श्रीगदित, राग और काव्य आदि। 4 काव्यानुशासन, 8/1-4 ---- गद्य, पद्य तथा 59 - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि पद से शम्पा, छलित तथा द्विपदा आदि का ग्रहण किया गया है। । द्विपदी तथा शम्पा का उल्लेख इससे पूर्व भामह ने भी किया है। 2 आचार्य हेमचन्द्र ने श्रव्य के पाँच भेद किये हैं महाकाव्य, आख्यायिका, कथा, चम्पू और अनिबदु 31 नाट्यदर्पणकार ने अपने ग्रन्थ में काव्य के भेदों का मात्र कथा आदि का मार्ग अलंकारों से कोमल हो जाने के कारण सुखपूर्वक संचरण करने योग्य है" इतना ही उल्लेख किया है तथा रूपक के 12 भेद बताये हैंनाटक, प्रकरण, नाटिका, प्रकरणी, व्यायोग, समवकार, भाष, प्रहसन, डिम, उत्सृष्टिकांक, ईहामृग तथा वीथी। 5 - आचार्य वाग्भट द्वितीय ने गद्य, पद्य तथा मिश्र तीन भेदों का ही उल्लेख किया है। ' पुनः वाग्भट द्वितीय ने पद्म के महाकाव्य, मुक्तक, संदानितक, विशेषक, कलापक तथा कुलक ये छ: भेद, गद्य का आख्यायिका मात्र एक भेद तथा मिश्र के रूपक, कथा, व चम्पू ये तीन भेद किए हैं। पुनः 1. भादिग्रहणात् शम्पाच्छ लित द्विपधादि परिग्रहः । वही, 8/4 वृत्ति | 2. 3. 4. - 5. 6. 60 - काव्यालंकार 1/24 श्रव्यं महाकाव्यमाख्यायिका कथा चम्पूरनिबद्धं च । काव्यानुशासन, 8/5 हि. नाट्यदर्पण, श्लोक 3, प्रथम विवेक हि. नाट्यदर्पण, श्लोक 1/3 काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 15 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपक के अभिनय तथा गेय ये दो भेद किए है। इनके अनुसार अभिनेय की संख्या दत है, जो हेमचन्द्र सम्मत पाठ्य के 12 मेदों में से ना टिका तथा स्टक को छोड़कर शेष दस हैं। गेय हेमचन्द्रसम्मत ही है।' भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाटकादि दृश्य - काव्यों का बृहद रूप में उल्लेख किया है, अतः प्रस्तुत में केवल अव्य-काव्य के भेद - महाकाव्य आख्यायिका, कथा, चम्पू तथा अनिबद्ध - 5 भेदों का ही निरूपप किया जा रहा है - महाकाव्य - जीवन की समग घटनाओं का जहाँ एक साथ विस्तृत विवेचन किया जाता है, ऐसी पद्यमयी रचना का नाम महाकाव्य है। आचार्य मामह ने सर्वप्रथम महाकाव्य का स्वरूप निरूपप करते हुए लिखा है कि - जो सर्गबन्ध हो, जिसमें महापुरुषों का चरित निबद्ध हो, बड़ा हो, ऐसा ग्राम्य - शब्दों से रहित, अर्थसौष्ठव सम्पन्न, अलंकार युक्त, सज्जनाश्रित, मंत्रपा, इतसम्प्रेषप, प्रयाप, युद्धनायक के अभ्युदय तथा पंचसन्धियों से समन्वित अनतिव्याख्येय (अक्लिष्ट), वैभव - सम्पन्न, चतुर्वर्ग का निरूपप करने पर भी अधिकता अर्थोपदेश की हो तथा जो लोकाचार तथा समस्त रसों से युक्त हो, वह महाकाव्य कहलाता है। दण्डीकृत महाकाव्य के स्वरूप में कतिपय अन्य बातों का भी समावेश है। यथा - इसका प्रारंभ - 1. काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 15-19 2. काव्यालंकार, 1/19-21 3 काव्यादर्श 1/14-19 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वाद, नमस्कार अथवा कथावस्तु के निर्देश ते होता है। इसमें सभी सर्गों के अन्त में छन्दों की भिन्नता तथा लोकानुरंजन आदि प्रमुख हैं। इस लक्षण की एक और अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि जहाँ भामह ने महाकाव्य मे वर्ण्य कुछ ही विषयों का उल्लेख किया है, वहाँ दण्डी ने निम्न अठारह विषयों का उल्लेख किया है - नगर, समुद्र, पर्वत, अतु, चन्द्रोदय, सूर्योदय, उद्यान, जलकीडा, मधुपान, प्रेम, विप्रलम्भ, विवाह, कुमारोत्पति, मंत्रपा, इत-प्रेषप, प्रयाप, युद्ध तथा नायकाभ्युदय। इनमें से अन्तिम पाँच का उल्लेख भामह ने इसके पूर्व किया है। जैनाचार्य हेमचन्द्र ने महाकाव्य का स्वरूप निरूपप करते हुए लिया है कि - संस्कृत, प्राकृत अपभंश तथा गाम्यभाषा में निबद्ध, सर्ग के अन्त में भिन्न छन्दों से युक्त सर्ग, आश्वास, सन्धि और अवस्कन्धकबन्ध में विभक्त, उत्तम सन्धियों से युक्त, तथा शब्दार्य - वैचित्र्य सम्पन्न पद्यमयी रचना का नाम महाकाव्य है।' इसके अतिरिक्त आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि संस्कृत भाषा में निबदु महाकाव्य में सर्ग के स्थान पर यदि आश्वासक का भी प्रयोग किया जाये तो कोई हानि नहीं है तथा सम्पूर्ण महाकाव्य में प्रारम्भ से लेकर - -- - - - - - 1. पचं प्रायः संस्कृतप्राकृतापभंशगाम्यभाषानिबद्ध भिन्नान्त्यवृत्तसर्गापवाससंध्यवस्कन्धकबन्धं सत्सन्धि शब्दार्थवैचित्र्योपेतं महाकाव्यम्। काव्यान. 8/6 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 समाप्तिपर्यन्त एक ही छन्द का प्रयोग भी किया जा सकता है।' आचार्य वाग्भट द्वितीय का महाकाव्य-स्वरूप आचार्य हेमचन्द्र के सूत्ररूप में निबद्ध महाकाव्य के स्वरूप और वृत्ति में किये गये व्याख्यान के सम्मिश्रप का पुनः स्त्र रूप में निबदु परिष्कृत रूप है।2 1. प्रायोगहपात संस्कृत भाषयाऽप्याश्वासकबन्धो हरिप्रबोधादौ न दुष्यति। प्रायोगहपादेव रावपविजयहरिविजयसेतुबन्धेन्वादित : समाप्तिपर्यन्तमेकमेवं छन्दो भवतीति। काव्यानु, 8/6 वृत्ति 2. तत्र प्रायः संस्कृतप्राकृतापभंशगाम्यभाषानिबद्ध भिन्नान्त्यवृत्तसर्गा श्वासकसंध्यवस्कन्धकबन्धम, मुखपतिमुखगर्भविमर्शनिर्वहफ्रूपसंधिपंचकोपेतम्, असंक्षिप्त गन्थम, अविषमबन्धम, अनतिविस्ती परस्परसंबद्ध सर्गम, आशीर्नमष्त्यिावस्तुनिर्देशोपक्रमयुतम, वक्तव्यवस्तुप्रतिज्ञाततप्रयोजनोपन्यासकविप्रशंसा सज्जनदुर्जनचिन्ता दिवाक्योपेतम्, दुष्करीचित्रायेकसगांकितम, स्वभिप्रेतवस्त्वंक्तितर्गान्तम्, चतुर्वगफ्लोपेतम्, चतरोदात्तनायकम, प्रसिद्धनायकचरितमु, नगनागरतागरतचन्द्राकॊदयास्तसमग्रोधान जलके लिमपानसरतमन्त्रदततैन्यावासपयापा जिनायकाभ्युदय विवाहविपलम्भाश्रमनद्यादिवर्पनोपेतं महाकाव्यम्। काव्यानु., वाग्भट, पृ. 15 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 - -- - आख्यायिका - आख्यायिका का तात्पर्य है, ऐतिहासिक वृत्त। आ. मामझुसार "संस्कृत भाषा में निब्ध गद्यमयी रचना आख्यायिका कहलाती है। उसमें शब्द, अर्थ तथा समाप्त अक्लिष्ट एवं भ्रव्य हो, विषय उदात्त हो और उच्छ्वातों में विभक्त हो, इसमें नायक आत्मवृत्त स्वयं कहता है। समय - समय पर भविष्य में होने वाली घटनाजों के सूचक वक्त्र तथा अपरवक्त्र नामक छन्द रहते हैं। वह कवि के किन्हीं अभिप्रायपूर्प कथनों से अंकित, कन्याहरप, संगाम, विपलम्भ और अभ्युदय के वर्णनों से युक्त होती है।' आख्या यिका में आत्मवृत्त नायक ही कहे यह दण्डी आवश्यक नहीं मानते। वे कथा तथा आख्यायिका को एक ही जाति के दो नाम मानते हैं। इसके अतिरिक्त दण्डी के मत में कन्याहरण आदि भी कथा अथवा आख्यायिका के विशिष्ट गुप न होकर सर्गबन्ध की तरह सामान्य गुप ही है तथा कविस्वभावकृत चिन्ह विशेष कहीं भी दूषित नहीं होते हैं। जैनाचार्य हेमचन्द्र ने आख्यायिका के लिए भामह सम्मत 5 बातों का उल्लेख किया है। उनके अनुतार - जिसमें नायक आत्मवृत्त स्वयं कहता हो तथा भविष्य में होने वाली घटनाओं के सूचक वक्त्रादि छन्दों से युक्त, उच्वासों में विभक्त, संस्कृत भाषा में निब्द गद्य - पद्यमयी रचना - - - - - - - - - - - - - 1. काव्यालंकार, 1/25-27 2. काव्यादर्श, 1/25-30 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 आख्यायिका कहलाती है। यहां पर आख्यायिका गयमय न होकर गध से युक्त होती है, ऐता जो कहा गया है, उसमें हेमचन्द्र का युक्त के ग्रहप से तात्पर्य यह है कि यदि आख्यायिका के बीच - बीच में अत्यल्प रूप से पद्य का निबन्धन हो जाय तो इसते आख्यायिका दूषित नहीं होगी, जैते - बापविर चित हर्षचरित। वाग्भट - द्वितीय आख्यायिका में मिनादि के मुख से वृतान्त कहलाने की छूट देते है तथा बीच-बीच में पद्य रचना को आवश्यक मानते हैं। शेष बातें प्रामह-सम्मत ही उन्हें मान्य हैं। इस प्रकार जैनाचार्य प्रायः भामहसमर्थक है। कथा : कथा में सामान्यत: कविकल्पनापसत वर्पन किया जाता है। भामह के अनुसार इसकी रचना संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में होती है, इसमें वक्त्र तथा अपरवक्त्र नामक छन्दों तथा उच्छवासों का अभाव होता है। 1. नायकाख्यातस्ववृत्ता भाव्यर्थशंसिवक्त्रादिःसोच्छवाता संस्कृता गद्ययुक्ताख्यायिका। काप्यानुशासन, 8/7 2. काव्यानु, 8/7 3. तत्र नायिकाख्यातस्ववृत्तान्ताभाव्यतिनीसोच्छवासा कन्यका पहारसमागमाभ्युदयभाषिता मिदिमख्याख्यातवृत्तान्ता अन्तरान्तराप्रविरलपघबन्धा आख्यायिका। काप्यानु वाग्मट, पृ. 16 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके अतिरिक्त उसमें नायक अपना चरित स्वयं नहीं कहता, अपितु किसी अन्य व्यक्ति ते कहलाता है, क्योंकि कुलीन, व्यक्ति अपने गुण स्वयं कैसे कहेगा । । दण्डी कथा तथा आख्यायिका में कोई मौलिक भेद " न मानकर एक ही जाति के दो नाम मानते हैं? उनके अनुसार कथा की रचना सभी भाषाओं तथा संस्कृत में भी होती है। अद्भुत अर्थों वाली बृहत्कथा भूतभाषा में है। 3 आनन्दवर्धन ने भी काव्य के भेदों में पटकथा, खंडकथा तथा सकलकथा का उल्लेख किया है। 4 जैनाचार्य हेमचन्द्र ने कथा का स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि जिसमें धीरप्रशान्त नायक हो तथा जो सर्वभाषाओं में निबदु हो, ऐसी गद्य अथवा पथमयी रचना कथा कहलाती है। इनके अनुसार संस्कृत प्राकृत, मागधी, शौरसेनी, पैशाची तथा अपभ्रंश में भी कथा का निबन्धन, किया जा सकता है।' आ. हेमचन्द्र ने कथा के दस भेद किए हैं - आख्यान, निदर्शन, प्रवह्निका, मतल्लिका, मणिकुल्या, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा तथा बृहत्कथा'। प्रत्येक का स्वरूप निम्न प्रकार ह 1. काव्यालंकार - 1/28-29 काव्यादर्श 1/28 वही, 1/38 2. 3. 4. ध्वन्यालोक, 3/7 वृत्ति 5. • धीरशान्तनायका गधेन पद्येन वा सर्वभाषा कथा | काव्यानु - 8/8 6. काव्यानु, 8 / 8 वृत्ति 7. वही, 8/8 वृत्ति 66 ---- Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यान - प्रबन्ध के मध्य में दूसरे को समझाने के लिए नलादि उपाख्यान के समान उपाख्यान का अभिनय करता हुआ, पढ़ता, गाता हुआ जो एक ग्रन्थिक (ज्योतिषी ) कहता है, वह गोविन्द की तरह आख्यान कहलाता है। ' निदर्शन पशु पक्षियों अथवा तदृभिन्न प्राणियों की चेष्टाओं के द्वारा जहाँ कार्य अथवा अकार्य का निश्चय किया जाता है, वहाँ पंचतन्त्र आदि की तरह तथा धूर्त, विट, कुट्टनीमत, म्यूर, मार्जारिका आदि के समान निदर्शन होता है। प्रवह्निका वह अर्धप्राकृत में चेटकादि के समान प्रवह्निका है। 3 - 67 2. प्रधान नायक को लक्ष्य करके जहाँ दो व्यक्तियो में विवाद हो, - मतल्लिका प्रेत (भूत) भाषा अथवा महाराष्ट्री भाषा में रचित लघुकथा, गोरोचना अथवा अनंगवती आदि की भांति मतल्लिका होती है, जिसमें पुरोहित, अमात्य अथवा तापस आदि का प्रारम्भ किये गये कार्य को समाप्त न कर पाने के कारण उपहास होता है, वह भी मतल्लिका कहलाती है। 4 1. प्रबन्धमध्ये परप्रबोधनार्थं नलापाख्यानमिवोपाख्यानमभिनयन् पठन् गायन यदैको ग्रन्थिकः कथयति तद् गोविन्दवदाख्यानम् । वही, 8 / 8 वृत्ति । तिरश्चामतिरश्चां वा चेष्टाभिर्यत्र कार्यमकार्य वा निश्चीयते तत्पंचतन्त्रादिवत्, धूर्त विटकुट्टनीमतम्पूरमार्जारिकादिवच्च निदर्शनम् । वही, 8 / 8 वृत्ति ! 3. प्रधानमधिकृत्य यत्रद्वयोर्विवादः सोऽर्धप्राकृत रचिता पेटका दिवत् प्रवहिका । वही 8/8 वृत्ति। 4. प्रेत महाराष्ट्रभाषया क्षुद्रकथा गोरोचना अनंगवत्था दिवन्मतल्लिका । यत्यां पुरोहितामात्यतापसादीनां प्रारब्धानिर्वाहि उपहास : तापि मतल्लिका । वही, 8 / 8 वृत्ति | Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 मापिकुल्या - जितमें पहले वस्तु लक्षित नहीं होती, किन्तु बाद में प्रकाशित होने लगती है, वह मत्स्वसित आदि की तरह मपिकुल्या है।' परिकथा - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से किसी एक को लक्ष्य करके विभिन्न प्रकार से उनन्तवृत्तान्त-दर्पन-प्रधान टिकादि के समान परिकथा होती है। यण्डकथा - अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध इतिवृत्त को मध्य ते अथवा अन्त ते ग्रहण कर जिसमें वर्पन किया जाता है, वह इन्दुमती आदि की तरह खण्डकथा कहलाती है। सुकलकथा - चतुर्पुरुषार्यों को लेकर जहाँ इतिवृत्त का वर्पन हो, वह समरादित्य की तरह सकलकथा कहलाती है। 1. यत्या पूर्व वस्तु न लक्ष्यते पश्चात्तु प्रकाश्येत सा मत्स्यहसिता - दिवन्मपिकुल्या। काव्यानु. 8/8 वृत्ति 2. एकं धर्मादिपुरुषार्थमुद्दिश्य प्रकारचियेपानन्तवृतान्तवर्पनपधाना शतका दिवत परिकथा। वही, 8/8 वृत्तिा 3 मध्यादुपान्ततो वा गन्थान्तरप्रसिद्ध मितिवृत्तं यत्या वय॑ते वा इन्दुमत्यादिवत यण्डकथा। वही, 8/8 वृत्ति । + समस्तफ्लान्ततिवृत्तवर्पना समरादित्यादिवत् सकलकया। वही, 8/8 वृत्तिा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकथा - जहाँ प्रसिद्ध कथान्तर का किसी एक पात्र में उपनिबन्धन किया जाता है, वह उपकथा है ।। यथा चित्रलेखादि । बृहत्कथा के समान बृहत्कथा होती है। 2 कथा के इतने अधिक उपभेदों का उल्लेख किसी भी अन्य आचार्य ने नहीं किया है। गध चम्पू : चम्पू का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य दण्डी ने किया है। उनके अनुसार पद्यमय मिश्र शैली में निबदु रचना चम्पू कहलाती है। 3 1. - लम्भों से अंकित अद्भुत अर्थवाली नरवाहनदत्त आदि के चरित जैनाचार्य हेमचन्द्र चम्पू का स्वरूप निरूपण करते लिखते हैं कि साङ्क, तथा उच्छ्वासों में विभक्त गद्य पद्यमयी रचना चम्पू है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में होती है। चम्पूकाव्य का उदाहरण वासवदत्ता अथवा दमयन्ती हैं। वाग्भट द्वितीय ने चम्पू का हेमचन्द्रसम्मत स्वरूप ही प्रस्तुत किया है। 40 3. काव्यादर्श, 1/31 5. 2. लम्भांकिताद्भुतार्था नरवाहनदत्तादिपरितवढ बृहत्कथा । वही, 8 / 8 वृत्ति | - एकतरचरिताश्रयेण प्रसिद्ध कथान्त रोपनिबन्ध उपकथा | वही, 8 / 8 वृत्ति। 69 गधपद्यमयी सांका सोच्छ्वासा चम्पूः । काव्यानु, 8/9 गद्यपद्यमयी सांका सोच्छ्वासा चम्पूः । काव्यानु, वाग्भट, पृ. 19 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिबद्ध - अनिदद का अर्थ है जो निब्द न हो अर्थात् स्वतन्त्र। भामह ने इते अनिबटु की संज्ञा हीदी है, किन्तु परवर्ती आचार्य दण्डी, आनन्दवर्धन, अग्निपुरापकार तथा विश्वनाथ आदि ने इते मुक्तक कहा है। मामह वको क्ति तथा स्वभावोक्ति से युक्त गाथा अथवा प्रलोकमात्र को अनिबद्ध मानते हैं।' दण्डी ने इसे (मुक्तक) और इतकअन्य मेद कुलक, कोश तथा संघात को भी सर्गबन्ध के अंश रूप में स्वीकार किया है। इती प्रकार वामन अग्नि के एक परमापु की तरह अनिब्द रचना को शोभायमान नहीं मानते हैं, किन्तु आनन्दवर्धनने मुक्तक को दिशेष महत्ता प्रदान की है। उनके अनुसार प्रबन्ध की तरह मुक्तक में भी रस का सन्निवेश करने वाले कवि दृष्टिगत होते हैं। यथा अमरूक कवि के मुक्तक श्रृंगार रस को प्रवाहित करने वाले प्रबन्ध की तरह प्रसिद्ध ही हैं। उन्होंने अनिबटु के मुक्तक, सन्दा नितक, विशेषक, कलापक, कुलक तथा पर्यायबन्ध इन F: मेदों का उल्लेख किया है। 1. काव्यालंकार, 1/30 2. काव्यादर्श, 1/13 3. काव्यालंकारसूत्र, 1/3/29 + मुक्तकेषु प्रबन्धेष्विव रसबन्धाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते। यथा हिअमरूकस्य कवेर्मुक्तकाः शृंगाररसत्यन्दिनः प्रबन्धायमानाः प्रस्दिा एव। - ध्वन्यालोक, 30 वृत्ति 5. वही, 3/7 दृत्ति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य हेमचन्द्रानुसार मुक्तक आदि अनिबद्ध हैं।' आनंदवर्धन सम्मत अनिबटु के उक्त छ : मेद इन्हें भी मान्य हैं। हेमचन्द्र ने वाक्यसमाप्ति को ध्यान में रखकर प्रत्येक का लक्षप करते हुए लिखा है कि एक छन्द में वाक्य समाप्त होने पर मुक्तक, दो में संदानितक, तीन में विशेषक, चार में कलापक, तथा पांच से चौदह पर्यन्त छन्दों में वाक्य समाप्त होने पर कुलक कहलाता है। अपने तथा दूसरे के द्वारा रचित सूक्तियों का संगह कोश है।' वाग्भट द्वितीय पांच से बारह छन्दों पर्यन्त वाक्य समाप्त होने पर कलक मानते हैं। शेष भेदों के लपप हेमचन्द्रसम्मत हैं। ध्वनि के आधार पर काव्य-भेदः आ. आनन्दवर्धन द्वारा ध्वनि की स्थापना के पश्चात ध्वनि को आधार मानकर भी काव्य-भेदों की गपना होने लगी। सर्वप्रथम स्वयं ध्वनिकार ने तीन भेद किए - ध्वनिकाव्य, गुपीभूत-व्यंग्य तथा 1. काव्यानुशासन, 8/10 2. काव्यानुशासन, 8/12 वही, 8/13 4. काव्यानु, वाग्भट, पृ. 16 5. यत्रार्थ : शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थो। __व्यंङ्क्तः काव्यविशेष: स ध्वनिरिति तरिभि: कथित :।। ध्वन्यालोक, 1/13 6. प्रकारोऽन्यो गुपीमतव्यंग्य : काव्यस्य दृश्यते। यत्र व्यंग्यान्वये वाच्यचारूत्वं स्यात् प्रकर्षवत्।। वही, 3/35 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रकाव्य'। उन्होंने ध्वनि काव्य को भेद-प्रभेद एवं उदाहरण-पत्युदाहरप के माध्यम ते विविध रूपों में प्रस्तुत किया है, गुपीभूत व्यंग्य काव्य का सामान्य विवेचन किया है तथा चित्रकाव्य के दो भेद किये हैं - शब्दचित्र तथा अर्थचित्र । आचार्य मम्मट ने इसी आधार पर काव्य के तीन भेद किए हैं - उत्तम, मध्यम तथा अधमा वाच्य की अपेक्षा व्यंग्यार्थ जिसमें अधिक चमत्का रजनक हो वह उत्तम काव्य है।' व्यंग्याय के वैसा चमत्कार जनक न होने पर गुम्मत व्यंग्य नामक मध्यमकाव्य' तथा व्यंग्यार्थरहित शब्दचित्र तथा अर्थकि इन दो भेदों वाला अधमकाव्य है। मम्म्ट के अनुसार मध्यमकाव्य के आठ मेद हैं - अगढ, अपरांग, वाच्यतिदयंग, अस्फुट, संदिग्ध-प्रधान्य, तुल्य-प्रधान्य, काक्वाक्षिप्त तथा असुन्दर । 1. प्रधानगुपभावाभ्यां व्यंग्यत्यैवं व्यवस्थिते। काव्ये उभे ततोऽन्यथत तच्चित्रमभिधीयते।। वही, 3/42 2. ध्वन्यालोक, 3/43 ॐ इदमुत्तममतिशयिनि व्यंग्ये दाच्याद ध्वनिर्बुधै :कथितः काव्यपकाश, 1/4 4. अतादृशि गुपीमतव्यंग्ये तु मध्यमम्। काव्यप्रकाश 1/5 5. पब्दिचित्रं वाच्यचिमव्यइ. ग्यं त्ववरं स्मृतम्।। काव्यप्रकाश 1/15 वही, 5/45-46 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 आचार्य हेमचन्द्र ने भी काव्यानुशासन के द्वितीय अध्याय में ध्वनि ( व्यइ. ग्य) के आधार पर काव्य के तीन भेद माने हैं - उत्तम, मध्यम तथा अवर। उनके अनुसार व्यइ. य की प्रधानता होने पर उत्तमकाव्य होता है।' इसे व्याख्यायित करते हुए वे लिखते हैं कि जब वाच्य अर्थ से वस्तु-अलंकार एवं रत रूप व्यंग्य अर्थ की प्रधानता होती है तो वह उत्तम काव्य कहा जाता है। यथा - वाल्मीक: किमुतोद्धतो गिरिरियत्कस्य स्पृशेदाशयं त्रैलोक्यं तपसा जितं यदि मदो दोष्पा किमेतावता। सर्व साध्वथ वा रूपत्ति विरहक्षामस्य रामस्य चेद त्वद्वदन्ताङ्कितवालिकवरूधिरक्लिन्नाग्रपङ्गु शरम्।। यहाँ पर दन्ताङ्कित'इत्यादि पदों से बालि द्वारा पराभव को प्राप्त करके उसकी काँख मे दबाये जाते हुए चार समुदों तक भमप उसका प्रतिकार न कर पाने पर भी इस प्रकार का अभिमान दर्प इत्यादि वस्तु अभिव्यक्त हो रही है। ___ व्यंग्य के असत्प्राधान्य, सन्दिग्धप्राधान्य व तुल्यप्राधान्य होने से उक्त नामों वाला तीन प्रकार का मध्यमकाव्य होता है। - - - - - 1. व्यंग्यस्य प्राधान्ये काव्यमुत्तमम् काव्यानु, 2/57 2. असत्संदिग्धतुल्यप्रधान्ये मध्यम श्रेधा काव्यानु, 2/58 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 असत्प्राधान्य - उनके अनुसार व्यइ. ग्यार्य का उत्कर्ष न होने पर अतत्प्राधान्य नामक काव्य होता है।' यथा - वापीरकुडंगुट्टी पसउफिकोलाहलं सुपंतीर। घरकम्मवावडाए बहए तीयंति अंगाई।। वानी रकुञोडीनशंक निकोलाहलं शृण्वन्त्याः । गृहकर्मव्यापृताया वध्वाः सीदन्त्यंगानि।।2 यहाँ पर 'दत्तसंकेत कोई पुरुष लतागृह में प्रविष्ट हो गया' इस व्यंइ. यार्थ से "वध के अंग शिथिल हो रहे हैं - इस वाच्यार्थ की ही अतिशयता (प्रधानता है। इस संदिग्ध प्रधान्य - जहाँ पर वाच्यार्थ अथवा व्यंइ ग्यार्थ की प्रधानता संदिग्ध होती है अर्थात् यह निश्चय नहीं हो पाता कि वाच्यार्थ प्रधान है अथवा व्यइम्पार्थ प्रधान है तो वह संदिग्ध प्राधान्य नामक मध्यम काव्य होता है। यथा - महिलासहस्समरिए तुह हियर सुदय सा अमायन्ती। अपदिण्मपण्पकम्मा अंग तपुयं पि तणुएइ।।' - - - । तत्रासत्प्राधान्यं क्वचिद्राच्याद्नु त्कर्षेप। ___ काव्यानुशासन, 2/57 की वृत्ति 2. वही, पृ. 152 3. वही, पृ. 155 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 ( महिला सहभारिते तव हृदये सुभग सा अमान्ती। अनुदिनमनन्यकांग तन्वपि तनयति।।) यहाँ पर "वह नायिका अपने धीप अंगों को भी क्षीप बना रही है" यह वाच्यार्थ अथवा 'अत्यधिक कृधाता से कहीं वह मृत्यु को न प्राप्त कर ले, अत: दुर्जनता को छोड़कर उसको समय रहते मना लो' यह व्यंइल्यार्य प्रधान है, इस बात का निश्चय न हो पाने से यह संदिग्ध प्राधान्य व्यंग्य का उदाहरप माना गया है। गहुँ तुल्य प्राधान्य - जहाँ पर व्यंइग्यार्य एवं दाच्यार्य दोनों की समान प्रधानता होती है, वहाँ तुल्य प्राधान्य नामक मध्यम काव्य होता है। यथा - बाहमापातिकमत्यागो भवतामेव भतये। जामदग्न्यस्तथा मित्रमन्यथा दुर्मनायते।।' यहाँ पर (जूद हो जाने पर)परशुराम "सभी क्षत्रियों की भांति राक्षतों का संहार कर देंगे इस व्यंइ-मार्य एवं "बुद्ध हो जायेंगे" इस वाच्यार्य की समान प्रधानता है। I. काव्यानुशासन, पृ. 156 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने पुन: अतत्प्राधान्यकाव्य के चार उपभेद किए हैंक्वचित्वाच्यादनुत्कर्ष, क्वचित्परांगता और क्वचिदस्फुटता और क्वचिदतिस्फुटता।' संदिग्धप्राधान्य व तुल्य प्राधान्य के कोई उपभेद नहीं किये हैं । आ. हेमचन्द्र का काव्य-विभाजन आनन्दवर्धन और मम्मट के ही समान है, परन्तु मध्यमकाव्य के प्रभेदों में मम्मट तथा हेमचन्द्र में बहुत अंतर है। आ. हेमचन्द्र ने स्वसम्मत मध्यमकाव्य के तीन भेदों का प्रतिपादन करते हुए मम्मट सम्मत 8 भेदों का खण्डन किया है। 2 $38 व्यंग्य से रहित काव्य को हेमचन्द्र ने अवर काव्य की संज्ञा दी है3 तथा प्रायः सभी आचार्यों की भांति उन्होंने भी 1. अधमकाव्य अवर (अधम ) काव्य के दो भेद किये हैं - (1) शब्दचित्र और ( 2 ) अर्थ 4 चित्र | शब्दगत तथा अर्थगत वैचित्र्य के पृथक् पृथक् उदाहरण उन्होंने दिए 2. 76 काव्यानुशासन, 2/57, वृत्ति इति त्रयो मध्यमकाव्यभेदा न त्वष्टौ । वही, 2/57, वृत्ति 3. अव्यंग्य मवरम् 4. ast, 2/58 शब्दार्थवैचित्र्यमात्रं व्यंग्य रहितं अवरं काव्यम्। वहा, 2 / 58 वृत्ति - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। यथा - शब्द - वैचित्र्य से युक्त काव्य - "अघौघं नो नृसिंहत्य घनाघनघनध्वनिः। हताद दयुरुघराघोषः सुदीर्घो घोरघर्घरः।।' यहाँ पर अनुपास शब्दालंकार की प्रधानता होने से, शब्द वैचित्र्य मात्र से युक्त होने के कारप यह अधम काव्य का उदाहरप है। अर्थवचित्र्य युक्त काव्य, यथा - ये दृष्टिमात्रपतिता अपि कस्य नात्र धोभाय पक्ष् मलदृशामलकाः खलाश्च । नीचाः सदैव सविलासमली कलग्ना ये कालता कुटिलतामिव न त्यन्ति।। 2 यहाँ उपमा प्रलेषादि अर्थालंकार की प्रधानता है। आ. हेमचन्द्र व्यंग्य रहित काव्य के संदर्भ में लिखते हैं कि यद्यपि काव्य के अन्त में सर्वत्र विभावादि रूप से रस में ही पर्यवसान होता है तथापि स्फुट रस का अभाव होने से अव्यंग्य अवर काव्य को कहा गया है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र ने प्वनि को आधार मानकर काव्य का त्रिधा विभाजन काव्यानुशासन के द्वितीय अध्याय में ही प्रस्तुत कर दिया है। काव्यानुशासन के अष्टम अध्याय में जो काव्यभेदों का निरूपप 1. 2. वही, पृ. 157 वही, पृ. 157-158 यापि सर्वत्र काव्येऽन्ततो विभावादिरूपतया रसपर्यवसानम, तथापि स्फुटस्य रसत्यानुपलम्भा दव्यंगात्कात्यमुक्तम्। काव्यानुशासन, पृ. 158 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है उसका तात्पर्य प्रबन्धात्मक काव्य-भेदों से है ।। आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने भी मम्स्ट सम्मत उत्तम, मध्यम तथा अधम ये तीन काव्य-भेद ही किये हैं। 2 साथ ही इन्होंने मध्यम काव्य के, आ. मम्मट द्वारा स्वीकृत आठ उपभेदों का ही उल्लेख किया है। 3 इस प्रकार हम देखते हैं कि आनन्दवर्धन ने काव्य के जिन तीन भेदों का निरूपण किया है, उन्हें परवर्ती आचार्य विश्नाथ तथा पण्डित राज जगन्नाथ को छोड़कर प्रायः अन्य सभी आचार्यों ने समान रूप से मान्यता प्रदान की है। I. 2. वाच्यवाचकयोरन्यद् विचित्रत्वं तिरोदधत् । व्यंजकत्वं स्फुरे यत्रतत् काव्यं ध्वनिरुत्तमम् । । अलंकारमहोदधि 1/15 3. 4. अथ प्रबन्धात्मककाव्यभेदानाह... ...I वही, पृ. 432 5. तयोर्यत्रान्यवैकियाद व्यंजकत्वस्य गौषता । तन्मध्यमं गुणीभूतव्यंग्यं काव्यं निगद्यते । । वही, 1/16 यत्र व्यंजनवैचित्र्यचारिमा कोऽपिनेक्ष्यते । काव्याध्वनि सदाऽध्वन्यैस्तत् काव्यमवरं स्मृतम्।। वही, 1/17 अगूढत्वास्फुटत्वाभ्यामसुन्दरतया तथा । तिद्वयंगत्वेन वाच्यस्य काक्वाक्षिप्ततयाऽपि च । । संदिग्धतुल्यप्राधान्यतयाऽन्यागतथाऽपि च। गुणीभूतमपिव्यंग्यं यत् किंचिच्चारिमात्पदम् || अलंकारमहोदधि 4/1-2 आ. विश्वनाथ ने काव्य के दो छेद माने काव्यं ध्वनिर्गुणीभूतत्यंग्यं वेति द्विधामतम् । साहित्यदर्पण, 4/1 पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के 4 भेद माने हैंतच्चोत्तमोत्तमोत्तममध्यमाधमभेदाच्चतुर्धा | - CEOगर 78 77.21 - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 जैनाचार्यो के अनतार ध्वनि-भेद विवेचन अलंकारशास्त्र के प्रारंभिक काल में ध्वनि - सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त नहीं थी। in : उसकी प्रतिष्ठा आचार्य आनंदवर्धन ने की! पुनः ।।वीं शता. ई. में आ. महिमभट्ट ने ध्वनि-सिद्धान्त को अनुमान के अन्तर्गत स्वीकार किया तथा ध्वनि का सयुक्तिक खण्डन किया। किन्तु पररर्ती आचार्य मम्मट व हेमचन्द्र ने महिमभट्ट के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए ध्वनि-द्धिान्त की पुनः प्रतिष्ठा की, जिसते ध्वनि तिद्धान्त को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। जैनागर्य हेमचन्द्र ने ध्वनि का लक्षण करते हुए लिखा कि मुख्य आदि (आदि पद से गौष और लक्ष्यार्थ) के अतिरिक्त प्रतीयमान व्यंग्या ध्वनि है।' नि शब्द का प्रारंभ से ही -1) सामान्यत : व्यंग्य अर्थ को सम्झाने के लिये एवं (2) काव्य विशेष को सम्ाने के लिये - इन दो अर्थो में व्यवहार होता रहा है। जैनाचार्यों ने प्रथम अर्थ को ही ध्यान में रखकर विवेचन किया है जबकि आनन्दवर्धन ने द्वितीय अर्थ को ध्यान में रखकर ध्वनि-स्वरूप निरूपप किया है। 1. मुख्यातिरिक्तः प्रतीयभानो व्यंग्यो ध्वनिः। कायानुशासन, 1/19 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 आनंदवर्धनने तर्वप्रथम ध्वनि के तीन भेदों - वस्तुध्दनि, अलंकार ध्वनि व रसध्वनि को स्वीकार किया है। प्रथम दो भेद संलक्ष्यक्रमव्यंग्य हैं और अंतिम भेद असंल यक्रमव्यंग्य। जैनाचार्य हेमचन्द्र' व आ. नरेन्द्रप्रभतरि2 ने भी सर्वप्रथम ध्वनि के वस्तु, अलंकार व रसध्वनि नगमक उक्त तीन भेदों को स्वीकार दिया है। आ. हेमचन्द्र ने वस्तु: वनि के तेरह भेदों को सोदाहरप प्रस्तुत किया है तथा पह स्टि किया है कि प्रतीयमानार्थ वाच्यार्य ते भिन्न व विविध प्रकार का हो सकता है। उनके अनुसार कहीं वाच्यार्थ विधिरूप होता है व प्रतीयमानार्थ निषेधप। यया - भम धम्मिय दीसत्यो सो सुपो भज्ज मारिओ तेण। गोलापड़ कर कुडंगवातिपा दरियसीहेप ।। कहीं वाच्यार्थ निषेधपरक होता है व प्रतीयमानार्थ विधिरूप। यथा - अत्था एत्य तु मज्जई एत्य अहं दियसयं पुलोएसु। मा पहिय रत्तिध्य तेजार मई न मज्जिहाति।। 1. अयं च वस्त्वलारसा दिभेदात्त्रेधा। काव्यानुशासन, पृ. 47 2. यधप्यनेकधा व्यंग्यं व्यंज का दिदिभेदतः। तथापि वस्त्वलंकार-रसात्मत्वात विधैततत्।। ___ अलंका रमहोदधि, 3/6 3. काव्यानु. पृ. 47 4. वही, प. 53 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विध्यन्तर रूप । यथा - कही मुख्यार्थ विधिपरक होता है और प्रतीयमानार्थ निषेधान्तर रूप । यथा बहलतमाहयराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुन्नं । तह जग्गिज्ज सयज्झय न जहा अम्हे मुसिज्जामो । । ' 1. कहीं वाच्यार्थ निषेध रूप होता है और प्रतीयमानार्थ 3. F विधि की प्रतीति होती है, यथा आताइयं आपाएप जेत्तियं तेत्तियण बंधदिहिं । 2 ओरम वसह इण्डिं रक्खिज्जई गहवईच्छितं । । होती है। यथा - कहीं वाच्यार्थ न विधिरूप है और न निषेध रूप, फिर भी महुए हिं किंव पंथियजई हरति नियंतणं नियंबाओ । साहेमि कस्स रन्ने गामो दूरे अहं एक्का 113 वही, पृ. 53 2. वही. पृ. 54 - कहीं विधि व निषेध के न होने पर भी निषेध की प्रतीति - जीविताशा बलवती धनाशा दुर्बला मम। गच्छ वा तिष्ठवा कान्त स्वावस्था तु निवेदिता ।।4 81 काव्यानुशासन, पृ. 54 वही, प्र. 54 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है। यथा कहीं विधि व निषेध के रहने पर भी विध्यन्तर की प्रतीति होती है नियदइयसपुक्त्ति पहिय अन्नेष वच्चतु पहेप गववधूआ दुल्लंघवाउरा इह हयग्गामे । । ' होती है। यथा - कहीं विधि व निषेध ते निषेधान्तर की प्रतीति - उच्चित पडियकुसुमं मा धुप तेहालियं हलियतु । एस अवतापबिरसो ससेण सुभ वलयसद्वदो । । 112 - कहीं वाच्यार्थ विधि रूप होने पर भी अनुभयरूप प्रतीत यथा - सषियं वच्च किसोयरि पर पयन्तेष ठवसु महिवट्ठे । भज्जिहिति वत्थयत्थपि विहिषा दुक्खेण निम्मविया । 3 82 1. वही, पृ. 55 2. वही, पृ. 55 3. काव्यानुशासन, पृ. 55 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 कहीं वाच्यार्य निषेधरूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनभयरूप होता है। दे आ पतिम निअन्तत मुहसस्लिोण्हाविलुत्ततमो निवहे। अहिसारिआप विग्र्ष करेति अण्पापवि यासे।।' कहीं वाच्यार्य के किव निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनभयरूप होता है। यथा - वच्च महं चिझ एक्काए होंतु नोसासरोइअव्वाई। मा तुझ वि तीर विपा दक्मिण्पयस्स जायतु।।2 कहीं वाच्यार्थ के न विधि और न निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनुभयरूप होता है। यथा - पमुहपता हिअंगो निदाघुम्मंतलोअपो न तहा। जह निव्वपाहरो तामलंग मे सि मह टिअयं ।।। कहीं वाच्यार्थ ते प्रतीयमानार्थ विभिन्न विषय वाला भी हो सकता है, यथा - कस्स व न होइ रोसो दळूप पिझाइ सव्वपं अरे। सभमरपउमग्याइरि वारिअवामे सहत इण्डिं।। 1. वही, पृ. 55 2. वही, पृ. 56 वही, पृ. 56 + काव्यानुशासन, पृ. 57 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने वाच्य ते भिन्न स्वरूप वाली वस्तुध्वनि के तेरह उदाहरणों को प्रस्तुत कर ध्वनि का प्रबल समर्थन किया है । अलंकार महोदधिकार नरेन्द्रप्रभसरि ने भी ध्वनि की सिद्धि के लिये विधि से निषेध, निषेध ते विधि, विधि से विध्यन्तर, निषेध से निषेधान्तर, विधि से अनुभय, निषेध ते अनुभय, संशय से निश्चय, निन्दा से स्तुति और वाच्य ते विभिन्न विषय रूप अनेक भेदों का सोदाहरण विवेचन किया है, जिनमें अधिकांशत: हेमचन्द्र सम्मत हैं। संलक्ष्य क्रमव्यंग्य : संलक्ष्यक्रमव्यंग्य के सामान्यतः तीन भेद माने जाते हैं-शब्दशक्तिमूलक व्यंग्य, अर्थशक्तिमूलक व्यंग्य तथा उभयशक्तिमूलक व्यंग्य | पर आचार्य हेमचन्द्र उभयशक्तिमूलक व्यंग्य को शब्दशक्तिमूलक व्यंग्य ते पृथक् नहीं मानते हैं क्योंकि वहां पर प्रधानरूपेण शब्द की ही व्यंजना होती है। 2 आ. नरेन्द्रप्रभरि 3 ने उक्त तीनों ही भेद स्वीकार किये हैं। शब्दशक्तिमूलकव्यंग्य : आ. हेमचन्द्र के अनुसार अनेकार्थक मुख्य शब्द का संसर्गादि नियामकों द्वारा अभिधा रूप व्यापार के नियंत्रित हो जाने पर 1. अलंकारमहोदधि, पृ. 116-118 2. काव्यानुशासन, पु, 57 3. अलंकारमहोदधि, पृ. 116-118 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 मुख्य शब्द वन्तु व अलंकार का व्यंजक होता है, अत: शब्दशक्तिमलक व्यंग्य माना जाता है। इसी प्रकार अमुख्य अर्थात गौप और लाक्षणिक का मुख्यार्थ बाधा आदि के द्वारा लक्षणारूप व्यापार के नियंत्रित हो जाने पर अमुख्य शब्द वस्तु का व्यंजक होता है, अत : वहां भी शब्दशक्तिमालक व्यंग्य होता है। ये दोनों पद और वाक्य के भेद ते दो-दो प्रकार के होते हैं।' संसर्गादि का ज्ञान कराने हेतु हेमचन्द्र ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय ते दो कारिकाएं उद्धत की है -- संसर्गो विप्रयोगश्च सायं विरोधिता। अर्थ: प्रकरपं लिंग शब्दत्यान्यस्य सन्निधिः।। सामर्थ्यमौ चिती देशः कालो व्यक्ति : स्वरादयः। शब्दार्थत्यानवच्छेदे विशेषमतिहेतवः।।2 संसर्ग : यथा - "वनमिदमभय मिदानीं यत्रास्ते लक्ष्मपान्वितो रामः" यहाँ लक्ष्मण के योग से दशरथि राम व लक्ष्मण का ज्ञान हो रहा है। विपयोग : यथा - "बिना सीतां रामः प्रविशति महामोहतरणिम्" यहाँ सीता के वियोग से दशरथि राम का ज्ञान हो रहा है। - - - - - - - - 1. काव्यानुशासन 1/23 2. वही, 1/23 वृत्ति। वाक्यपदीय 2/315-16 3 काव्यानुशासन, पृ. 64 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहचर्य बुध और भौम के परस्पर साहचर्य से है । । विरोध यथा 1 यथा 2. "रामार्जुनव्यतिकर: साम्प्रतं वर्तते तयो: " यहां परस्पर विरोध से भार्गव व कार्तवीर्य का ज्ञान हो रहा है। 2 3. - अर्थ - ( प्रयोजन ) - यथा प्रयोजन से अश्व का ज्ञान हो रहा है। 3 - 5. यथा * बुधो भौमश्च तस्थो च्चैरनुकूलत्वमागतो" यहाँ विशेष का ज्ञान हो रहा - - पकरप "अस्माद्भाग्यविपर्ययाद्यदि पुनर्देवो न जानाति तम्" यहाँ प्रकरण ते अनेकार्थक देव शब्द युष्मद् (आप) अर्थ में नियंत्रित है। प्रकरण शब्द रहित होता है और अर्थ (प्रयोजन) शब्दवान्, यही इन दोनों में अन्तर है। 4 1. वही, पृ.64 वही, पृ. 64 वही, पृ. 64 4. वही, पृ. 64 वही, प. 64 ग्रह - 86 - लिंग (चिह्न) - यथा - "कोदण्डं यस्य गाण्डीवं स्पर्धेत कस्तमर्जुनम्" यहां गांडीव इस लिंग (चिह्न) से अर्जुन का ज्ञान हो रहा है। 5 "सैन्धवमानय, मृगयां चरिष्यामि यहां Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दान्तरसन्निधि - " किं साक्षादुपदेशयष्टि रथवा देवस्य श्रृंगारिणः " यहां शृंगारी इस शब्दान्तर के संनिधान ते देव का अर्थ कामदेव है। सामर्थ्य यथा - * क्वपति मधुना मत्तश्चेतोहरः प्रिय कोकिल : " यहाँ सामर्थ्य ते मधु का अर्थ वसन्त प्रतीत हो रहा है। 2 "तन्ध्या यत्सुरतान्तकान्तनयनं वक्त्रं रति व्यत्यये । औचित्य - यथा तत्त्वा पातु चिराय.... यहाँ औचित्य के कारण पालन प्रसन्नतारूपी अनुकूलता अर्थ में नियंत्रित है। 3 ANM fi देशा यथा से राजा का बोध हो रहा है। 4 काल - यथा हो रहा है। 5 1. - 2. - 3. 5. 6. - यथा - - व्यक्ति यथा - यहाँ व्यक्ति विशेष ते मित्र शब्द सुहत् अर्थ में नियंत्रित है । ' 87 " महेश्वरस्यास्य कापि कान्ति" यहाँ राजधानी रूप देश "चित्रभानुर्विभात्यह्नि" यहां काल विशेष से सूर्य का ज्ञान " मित्रं हन्तितरां तमः परिकरं धन्ये दृशौ मादृशाम् * काव्यानुशासन, पृ. 64 काव्यानुशासन, पृ. 64 काव्यानुशासन, पू. 63 काव्यानुशासन, पृ. 63 काव्यानुशासन, पृ. 63 वही, पु. 65 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 उदात्त आदि स्वर ते अर्थ विशेष का ज्ञान काव्य में अनुपयोगी है।' परन्तु काकु रूपी स्वर अपना पृथक् महत्व रखता है। जेते - मध्नामि कौरवशतं समरे न कोपात्" यहाँ काकु रूप स्वर ते अर्थ विशेष का ज्ञान होता है। आदि पद से अभिनय, अपदेश. निर्देशा. संज्ञा. इंगित और आकार को गहप किया गया है।2 अभिनय - यथा - "इतने बड़े स्तनों वाली, इतने बड़े नेत्रों ते, मात्र इतने दिनो में, इस प्रकार हो गई। अपदेश - यथा - यहाँ से सम्पत्ति को प्राप्त किया हुआ वह राक्षस यहाँ ही विनष्ट होने योग्य नहीं है। विषा:- वृक्ष का भी पालन-पोषप कर उसे अपने द्वारा ही काटना उचित नहीं है।* निर्देश - यथा - "राजकुमारीजी । भाग्य से हम लोग ठीक है कि यहाँ पर ही कोई किसी का रहा है, यह हमको अंगुली के संकेत से कह रहे हैं। 1. वही, पृ. 65 2. वही, पृ. 65 वही, पृ. 65 + वही, पृ. 65 5. वही, पृ. 65 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 संज्ञा - यथा - "जब शिवजी वार्तालाप के प्रसंग में (पार्वती जी से) इधर-उधर की बातों का उत्तर मांगते तो पार्वती जी दृष्टि घुमाकर तथा सिर हिला कर उत्तर देती थीं।' इंगित - यथा - "हम लोगों का मिलन कब होगा इस प्रकार जनाकी के कारप कहने में असमर्थ नायक को जानकर नायिका ने क्रीडाकमल को सिकोड़ दिया। आकार - यथा - अपने उष्ण निःप्रवास पूर्वक जो निवेदन दिया है, उसने मेरा मन संशय को ही प्राप्त हो रहा है, क्यों कि तुम्हारे योग्य ही कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता है, पुनः जिते तुम चाहती हो वह तुम्हे अलभ्य कैसे होगा। इस प्रकार संतर्गादि से नियंत्रित अभिधा में जो अर्थान्तर प्रतीति होती है, वह व्यंजना - व्यापार से ही होती है। अमुख्य शब्द में भी मुख्यार्य - बाध आदि के नियंत्रित हो जाने पर प्रयोजन का बोध व्यञ्जना व्यापार से ही होता है। 1. वही, पृ. 66 2. वही, पृ. 66 3 वही, पृ. 66 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने भी भर्तृहरि की 'संतो विप्रयोगश्च ...? इत्यादि उक्त कारिकाओं को उद्धृत कर के संतर्गादि के उदाहरप दिए हेमचन्द्राचार्य ने शब्दशक्तिमलकव्यंग्य के सर्वप्रथम तीन भेद किए है - मुख्य, गौप व लक्षक। पुनः मुख्यशब्दशक्तिमलकव्यंग्य के वस्तुध्वनि व अलंकारध्दनि - ये दो भेद कर दोनों के पृथक्-पृथक् पदगत व वाक्यगत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। शेष दो गोपशाब्दशाक्तिमलकव्यंग्य और लक्षकशब्दशाक्तिमलकव्यंग्य भेदों के प्रभेद वस्तुध्वनि के पदगत व वाक्यगत उदाहरप प्रस्तुत किए हैं। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने शब्दशक्तिमलकव्यंग्य के सर्वप्रथम दो भेद किए हैं -- वस्तुध्वनि व अलंकारध्वनि। पुनः दोनों में अर्थान्तरसंक्रमित वाच्य व अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य - ये दो - दो भेद किए हैं। ये नारों पद व वाक्यगत भी होते हैं। अर्थशक्तिमूलकव्यंग्य - आ. हेमचन्द्र ने वक्ता आदि के वैशिष्ट्य से अर्थ की भी व्यंजक्ता स्वीकार की तथा वक्ता, प्रतिपाध, काकु,वाक्य, वाच्य, अन्यासक्ति, प्रस्ताव, देश, काल, व चेष्टा के वैशिष्टय से ध्वनित होने वाले अर्थ की मुख्य, अमुख्य व व्यंग्य रूपी अर्य की व्यंजकता ।. द्रष्टव्य, अलंकारमहोदधि, 3/33-34 सवृत्ति 2. वक्त्रा दिवैशिष्ट्यादर्थस्यापि व्यञ्जकत्वम। काव्यानुशासन, 1/29 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 का तोदाहरण वर्षन किया है।' इसी प्रकार वक्ता आदि दो (या अधिक) के योग से भी व्यंजक्ता स्वीकार की है। नरेन्द्रप्रभारि ने हेमचन्द्र के समान ही वक्ता व बोद्धा आदि के वैशिष्ट्य ते अर्थ की व्यंजकता को स्वीकार करते हुए सोदाहरप प्रतिपादन किया है तथा वक्तादि दो (या अधिक) के योग से भी अर्थ की व्यंज कता स्वीकार की है। हेमचन्द्र ने अर्थशक्तिमलकव्यंग्य के सर्वप्रथम दो भेद किए हैं -- वस्तु और अलंकार। पुनः वस्तु के वस्तु से वस्तु और वस्तु से अलंकार तथा अलंकार के अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार नामक दो - दो भेद किए हैं। उनके अनुसार ये चारों भेद पद, वाक्य व प्रबन्धगत भी होते हैं। आ. हेमचन्द्र ने अर्थशक्तिमूलकव्यंग्य के स्वत: संभवी, कविप्रौदो क्तिमात्र निष्पन्न और कविनिबद्धवक्तपौदोक्तिमात्र निष्पन्न - इन तीनों भेदों का कथन उचित नहीं माना है, क्योंकि प्रौढोक्तिनिष्पन्नमात्र से ही १. वही, 1/21, वृत्ति , पृ. 58-63 2. वही, पृ. 62 . 3. अलंकारमहोदधि, 3/7-8 वृत्ति। ५. वही, पृ. 52 5. काव्यानुशासन, 1/24 सवृत्ति Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 साध्य की सिद्धि हो जाती है। प्रोटोक्ति के अतिरिक्त स्वत: संभवी अर्थहीन है और कविप्रोटोक्ति ही कविनिबद्धवक्तपौढोक्ति है, अत: उन्हें अधिक प्रपंच अभीष्ट नहीं है।' आ. नरेन्द्रप्रभसरि ने अर्थशक्तिमलकव्यंग्य के सर्वप्रथम स्वतः सिद्ध और कवि प्रौढोक्तिसिद्ध - ये दो भेद किए हैं। पुनः प्रत्येक के वस्तु व अलंकार - ये दोरो भेद किए हैं। तत्पश्चात वस्तु के वस्तु ते वस्तु और अलंकार - ये तथा अलंकार के अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार नामक दो - दो भेद किए हैं। उनके अनुसार ये आठों भेद पद, वाक्य और प्रबन्ध में समानरूप ते पाये जाते हैं। उभयशक्तिमूलक व्यंग्य - हेमचन्द्राचार्य ने इसे शब्दशक्तिमूलकव्यंग्य ही माना है। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने उभयशक्तिमलकव्यंग्य का वाक्यगत एक ही भेद माना है। असंलक्ष्यकमव्यंग्य - जिस व्यंग्य के क्रम की प्रतीति न हो वह असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य कहलाता है। अर्थात असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य में वाच्यार्थ से व्यंग्यर्थ के मध्य में होने वाले समय का ज्ञान नही होता है। इसमें रता दि ही व्यंग्य होते हैं, अतः इसे रसध्वनि के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। ।. वही, 1/24 वृत्ति , पृ. 72-74 2. अलंकारमहोदधि, 3/59-60 - वही, 3/16 + वाक्य एवोभयोत्थः स्यात् ...। वहीं, 3/16 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुत: रस की निष्पत्ति में विभावादि के क्रम की प्रतीति झटिति (शीघ्रता से ) होने के कारण उसके क्रम का बोध नहीं हो पाता है । अत: इसे असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य कहा गया है। इसको स्पष्ट रूप ते समझने के लिए काव्यशास्त्रियों ने उत्पलप्रति पत्र भेदन्याय का सहारा लिया है। अर्थात जिस प्रकार सौ कमल पत्रों के समूह में एक साथ सुई चुभाने ते कमलपत्रों का क्रमप ही भेद होता है, किन्तु शीघ्रता के कारण पूर्वापर की प्रतीति नहीं होती है। उसी प्रकार असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य में क्रम के होने पर भी भेद की प्रतीति नहीं होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य के रसभावादि के भेद है अनन्त भेद संभव है, किन्तु आचार्यों ने अगणनीय होने से प्रायः एक ही भेद माना है। । इत सम्बन्ध में हेमचन्द्राचार्य का यह कथन है कि रस, भाव, रसाभास, भावाभास, भावशान्ति, भावोदय, भाव स्थिति, भावसन्धि, भावशबलता 1. काव्यप्रकाश, पृ, 162 93 अलंकारमहोदधि, पृ. 103-104 - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 आदि अर्थशक्तिमलकव्यंग्य हैं।' इस प्रकार उन्होंने रतादि को अर्थशक्तिमलव्यंग्य ही माना है। 'रतादिश्च इप्त सूत्र में वकार का ग्रहण पद, वाक्य व प्रबन्ध में समावेश के लिए किया गया है। रसादि सदा व्यंग्य ही होते हैं, वे कभी भी वाच्य नहीं होते हैं, इसलिये रता दि की प्रधानता बताने हेतु पृथक् सूत्र कहा गया है। क्योंकि वस्तु व अलंकार तो वाच्य भी होते हैं। 2 ___ इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य ने संक्षेप मे शब्दशक्तिमलकव्यंग्य के 8 भेद और अर्थशक्तिमूलकव्यंग्य के 15 भेदों को मिलाकर ध्वनि के कुल 23 भेद कहे हैं। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने रसादि असंलक्ष्यकमव्यंग्य का अगणनीय एक ही भेद माना है।' पुनः यह पद, वाक्य, प्रबन्ध, पदान्त, रचना व वर्ग के भेद से छ: प्रकार होता है। 1. रसभावतदाभासभावशान्ति भावोदयमावस्थितिभावसन्धिमावशबलत्वानि अर्थशक्तिमला नि व्यंग्यानि। काव्यानुशासन, 1/25 2. काव्यानु. 1/25 3 एकैव हि रसादीनामगण्यत्वाद भिधा भवेत्। अलंकारमहोदधि, 3/16 . + वही, 3/62-63 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु | पद वाक्य आ. हेमचन्द्रकृत् ध्वनिविभाजन के स्पष्टीकरण हेतु निम्न तालिका द्रष्टव्य है मुख्य शब्दशक्ति मलक गौप अलंकार | पद | पद वाक्य वाक्य + लक्षक व्यंग्य (ध्वनि) ↓ पद 2 वाक्य वस्तु वस्तु वस्तु से अलंकार पुन: प्रत्येक के पद वाक्य व प्रबन्धगत शब्दशक्ति मलकव्यंग्य के 8 भेद अर्थशक्तिमूलकव्यंग्य 15 भेद वस्तु 6 + अलंकार छ + रस 3 = 15 23 कुल ध्वनि भेद अर्थशक्ति मलक अलंकार | अलंकार से वस्तु 2 अलंकार से अलंकार पुनः प्रत्येक के पद, वाक्य व प्रबन्धगत 95 रस ↓ पद, वाक्य और प्रबन्धगत Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि के अनुसार अब तक शब्दशक्तिमूलकव्यंग्य के 8 भेद, अर्थशक्तिमूलकव्यंग्य के 24 भेद और उभयशक्ति मलकव्यंग्य का एक भेद मिलाकर संलक्ष्यक्रमव्यंग्य के कुल 33 भेद हुए तथा असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य के छः भेद मिलाने पर 39 भेद । इन 39 भेदों की 39 के साथ संसृष्टि होकर 1521 भेद होते हैं। पुनः तीन प्रकार का संकर होकर 4563 भेद होते हैं। इस प्रकार 1521 संसृष्टि के और 4563 संकर के मिलाने पर 6084 मिश्रित भेद हुए । इनके 39 शब्द भेद मिला देने पर ध्वनि के कुल 6123 भेद होते हैं। ' 1. संसृष्टे रेकरूपायास्त्रिरूपात सङ्करादपि । सिद्ध भिन्मीलनाच्च स्युस्ता विश्वार्क रसोर्मिताः ।। - वही, 3/64 96 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 इसके स्पष्टीकरप हेतु निम्न तालिका द्रष्टव्य है -- ध्वनि संलक्ष्यक्रमव्यंग्य असंलक्ष्यकमव्यंग्य (पद,वाक्य, प्रबन्ध, पदान्त, रचना व वर्ष के भेद ते 6 भेद ) शब्दशक्तिमल अर्थशक्तिमल उभयशक्तिमल (वाक्य में केवल एक भेद - - - - अलकार कान्तवाच्य ।अर्थान्तरसंक्रान्तवाच्य स्वत:दि कविप्रोटोक्तिसिद रस्कृतवाच्य अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य पद और वाक्य दोनों में (4 x 2 = 8 भेद) अलंकार वस्त । वस्तु से वस्तु । अलंकार से अलंकार 2 वस्तु से अलंकार 2 अलंकार से वस्तु अलंकार । वस्तु से वस्तु । अलंकार से अलंकार 2 अलंकार से अलंकार 2 अलंकार से वस्तु प्रत्येक के पद, वाक्य और प्रबन्धगत भी (8x3 = 24 भेद) संलक्ष्यक्रमव्यंग्य भेद - 33 असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यभेद - 6 + 9 भेद संसृष्टि 39 के साथ 39 की, 39 x 39 - 1521 संकर तीन प्रकार का, 1521 x 3 = 4563 6084 मिश्रित भेद + 39 शुदभेद Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 काव्य - हेतु कवि की विलक्षप कृति इस काव्य का उदभव कैसे होता है? कवि के व्यक्तित्व में कौन सी विशेष बात होती है जिसप्त सहदयों को आहलादित करने वाले काव्य का स्फरप हो जाता है। इस प्रश्न का भारतीय काव्याचार्यों ने अत्यन्त वैज्ञानिक विवेचन किया है तथा काव्यनिर्माप के कारणों पर विचार करते हुए अलंकारिकों ने परस्पर विरोधी मत व्यक्त किए हैं तथा उनमें मतैक्य नहीं दृष्टिगत होता। संबद्ध विषय की दो प्रकार की विचार पद्धतियाँ प्रदर्शित होती हैं। एक मत के अनुसार काव्य का कारप एक मात्र प्रतिमा होती और व्युत्पति तथा अभ्यास उसके संस्कारक तत्व होते हैं, पर अन्य मत इस विचार का पोषक है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास तीनों समष्टिरूप से ही काव्य-निर्माप के हेतु हैं। सर्वप्रथम आ. भामह ने काव्य - हेतुओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि गुरू के उपदेश ते मर्य लोग भी शास्त्रों का अध्ययन करने में समर्थ हो सकते हैं पर काव्य तो किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति में यदाकदा स्फुरित । होता है। काव्य - सर्जना हेतु व्याकरप, छन्द, कोशा, अर्थ, इतिहासाश्रित कथा, लोकज्ञान, तर्कशास्त्र तथा कलाओं का काव्य-सर्जना हेतु मनन करना चाहिए। पब्दि और अर्थ का विशेष रूप से ज्ञान करके काव्य-प्रपेताओं की उपासना तथा अन्य कवियों की रचनाओं को देखकर काव्य - सर्जना में Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 प्रवृत्त होना चाहिए।' यहाँ भामहागर्य ने काव्यहेतु के तीनों साधनों - प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास का निरूपप किया है। उन्होंने व्युत्पत्ति तथा अभ्यास की अपेक्षा प्रतिभा पर अधिक बल दिया है। तात्पर्य यह है कि वे प्रतिभा को अनिवार्य व प्रमुख हेतु मानते हैं। आ. दण्डी स्वाभाविक प्रतिभा, अत्यन्त निर्मल विद्याध्ययन एवं उसकी बहु - योजना को ही काव्य हेतु मानते हैं। उन्होने भामह की गुरूपदेशादध्येतुं शास्त्रं जडधियोऽ प्यलम्। काव्यं तु जायते जातु कथंचित् प्रतिभावताम्।। शब्दाछन्दोऽभिधानार्था इतिहाताश्रयाः कथाः। लोको युक्तिः कलापचेति मन्तव्या काव्यगमी। शब्दा भिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विपासनाम। विलोक्यान्य निबन्धाश्च कार्य : काव्यकियादरः।। - काव्यालंकार, 1/15, 9-10 2. नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्। अमन्दाचा भियोगोऽत्याः कारपं काव्यसम्पदः।। - काव्यादर्श, 1/103 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 भांति प्रतिभा पर अधिक बल न देकर तीनों का समान रूप से महत्व स्वीकार किया है। इसके ठीक आगे वह लिखे हैं कि यदि वह अदभुत प्रतिभा न भी हो तो भी शास्त्राध्ययन व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से दाणी अपना दुर्लभ अनुगह प्रदान करती है। कवित्व शक्ति के कृश होने पर भी परिश्रमी व्यक्ति विद्वानों की गोष्ठी में विजय प्राप्त करता वामन ने काव्यहेतुओं के लिये काव्यांग प्रॉब्द का प्रयोग किया है। इनके अनुसार काव्य के तीन हेतु हैं - लोक, विद्या तथा प्रकीप।2 यहाँ लोक से तात्पर्य लोक-व्यवहार से है। विद्या के अन्तर्गत शब्दशास्त्र, छन्दःशास्त्र, कोश, दण्डनीति आदि विद्याएं आती हैं। प्रकीर्प के अंतर्गत लक्ष्य ज्ञान, अभियोग, वृद्धतेवा, अवेक्षप, प्रतिभान तथा अवधान आते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वामन ने प्रतिभा को कवित्व का बीज माना है, जिसके बिना काव्य-रचना संभव नहीं है और यदि संभव भी 1. न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागपानुबन्धि प्रतिभानमद्भुतम्। अतेन यत्नेन च वागुपासिता धुवंकरोत्येव कमप्यनुग्रहम्।। कृषकवित्वेऽपि जनाः कृतश्रमा विदग्धगोष्ठीषु विहर्तुमीशते।। वही, 1/104-105 2. लोको विद्या प्रकीपं च काव्यांगानि - काव्यालंकारसूत्रवृत्ति ।/3/1 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 है तो उपहासास्पद हो जाती है। परन्तु उन्होंने उसे वांछित गौरव नहीं दिया तथा प्रतिभा का उल्लेख काव्य के तृतीय अंग प्रकीर्प के अन्तर्गत किया है। आ. आनन्दवर्धन ने प्रतिभा का महत्व स्वीकार करते हुए लिखा है कि उस आस्वादपूर्व अर्थतत्व को प्रकाशित करने वाली महाकवियों की वापी अलौकिक स्फुरपशील प्रतिभा के वैशिष्ट्य को प्रक्ट करती है। इतना ही नहीं उन्होंने अव्युत पत्तिजन्य दोष को प्रतिभा के द्वारा आच्छादित होना भी स्वीकार किया है अर्थात आनन्दवर्धन प्रतिभा के प्रबल समर्थक हैं। लोचनकार ने प्रतिभा की व्याख्या करते हुए लिया है कि अपूर्व वस्तु के निर्माप में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिमा कहते हैं।' 1. सरस्वती स्वाद तदर्थवस्तुनिष्यन्दमाना महतां कवीनाम। अलोकतामान्यमभिव्यनक्ति प्रतिस्फुरन्तं प्रतिभा विशेषम्।। - ध्वन्यालोक, 1/6 2. अव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्त्या संवियते कवेः। यस्त्वशक्तिकृतस्तस्य स झटित्यवभासते।। - ध्वन्यालोक, 1/6 3 अपूर्ववस्तु निर्माणमा प्रज्ञा (प्रतिभा) - वही, लोचन, पृ. 171 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 राजशेखर प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति दानों को काव्य का प्रेयस्कर हेतु मानते हैं।' आ. मम्म्ट ने प्राक्तन परंपराप्रवाह का समावेश करते हुए काव्य-कारप प्रसंग में लिखा है कि शक्ति, लोक(व्यवहार)शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुपता तथा काव्य (की रचनाशैली तथा आलोचना पद्धति) को जानने वाले गुरु की शिक्षानुसार (काव्य - निर्माप)अभ्यास (ये तीनों) मिलकर समष्टि रूप से उत ( काव्य) के विकास (उद्भव) के हेतु हैं।2 मम्मट ने अपने इन काव्यहेतुओं मे हेतु : इस एकवचन का प्रयोग किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास - ये तीनों मिलकर काव्योदभव में हेतु है, पृथक् - पृथक् नहीं।' --- - 1. प्रतिभाव्युत्पती मिथः समवेते श्रेयस्यो इति यायावरीयः, - काव्यमीमांसा, अ. पृ. 3। 2. शक्तिर्निपुपता लोकशास्त्रकाव्याघवेक्षपात। __काव्यज्ञ शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदभवे।। - काव्यप्रकाश, 1/3 3. इति त्रयः समदिताः, न तु व्यस्ताः, तत्य काव्यस्योदभवे निषि समुल्लाते च हेतुर्न तु हेतवः। - काव्यप्रकाश, 1/3/ वृत्ति Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है तथा शेष व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को क्रमशः विशेष शोभाजनक तथा शीघ्र काव्य निर्माप में सहायक कहा है।' पुनः तीनों का स्वरूप निरूपित करते लिखा है कि - प्रसादादि गुणों वाले रमपीय पदों से, नदीन व चमत्कारपूर्ण अर्थ की उदभावना करने में समर्थ तथा स्फुरपशीला, सत्कवि की सर्वतोमुखी बुद्धि का नाम प्रतिभा है। 2 गुरूपरम्परा से प्राप्त शब्दशास्त्र, श्रुति - स्मृति - पुरापा दि धर्मशास्त्र तथा वात्स्यापन - प्रणीत कामसूत्रादि जो अनेक शास्त्र हैं उनमें परम्परा से प्रवृत्त रहने वाली अताधारण प्रतिपत्ति ही व्युत्पत्ति कही गयी हैं। 3 १. प्रतिभाका रपं तत्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् । भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्याधकवितङ्कया।। वाग्भटालंकार, 1/3 2. प्रसन्नपदनव्यार्थयुक्त्युदोधविधा यिनी। स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी। वही, 1/4 3. शब्दधर्मार्थकामा दिशास्त्रेष्वानायपूर्विका। प्रतिपत्ति रसामान्या व्युत्पत्तिरभिधीयते॥ वही, 1/5 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा योग्य गुरु के चरणों में बैठकर निरन्तर अबाध गति से काव्यरचना हेतु जो परिश्रम किया जाता है उते "अभ्यास" कहते हैं। ' इसमें अभ्यास के प्रकारों में बतलाया गया है काव्य रचना हेतु सर्वप्रथम रमणीय सन्दर्भ का निर्माण करते हुए अर्थशून्य पदावली के द्वारा समस्त छन्दों को वश में कर लेना चाहिए। 2 आगे वे कहते हैं कि यद्यपि प्रारंभिक अभ्यास ते काव्य में नूतन अर्थों की उद्भावना नहीं हो सकती किन्तु प्रतिदिन के वाग्व्यवहार में अर्थ तत्वों के संग्रह का अभ्यास करना काव्य - रचना करने वालों के लिये आवश्यक है । 3 1. 2. अनारतं गुरूपान्ते यः काव्ये रचनादरः । तमभ्यासं विदुस्तस्य क्रमः कोऽप्यपुदिश्यते । । - • वही, 1/6 विभत्या बन्धचारुत्वं पदावल्यार्थशून्यया वशीकुर्वीत काव्याय छदांति निमित्यपि । । वही, 1/7 3. अनुल्लसन्त्यां नव्यार्थयुक्तावभिनवत्वत: । अर्थसङ्• लनातत्त्वमभ्यस्येत्सङ्कथास्वपि ।। क - वही 1/10 - 104 - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र के काव्य - हेतु तम्बन्धी विचार अपने पूर्ववर्ती आचार्यो - राजशेखर, आनन्दवर्धन और मम्म्टादि से प्रभावित हैं। प्रायः सभी आचार्यों ने काव्य के तीन हेतु - प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास माने हैं जिसमें किसी ने प्रतिभा को प्रधानता दी है तो किसी ने व्युत्पत्ति और अभ्यास को। आचार्य हेमयन्द्र ने प्रधानरूप से प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है तथा व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को प्रतिमा का संस्कारक माना है। प्रतिभा दो प्रकार की होती है --- (1) सहजा (जन्मजाता), और (2 ) औपाधिकी ( कारपजन्य )। इनमें सावरण धयोपशम मात्र से होने वाली सहजा कहलाती है। इसी को स्पष्ट करते काव्यानुशासनकार कहते हैं - आत्मा सूर्य के १. प्रतिभात्य हेतुः । - काव्यानुशासन, 1/4 2. व्युत्पत्त्यभ्याताभ्यां संस्कार्या। वही, 1/7 3 सा च सहजौपाधिकी चेति द्विधा। काव्यानुशासन 1/4 वृत्ति 4. सावरपक्षयोपशममात्रात सहजा।। काव्यानशासन, 1/5 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान स्वयंप्रकाश है। जिस प्रकार प्रकाशस्वभाव "सूर्य" के अमर आवरण के रूप में मेघपटल छा जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मों के सम्पादन स्वभाव आत्मा के ऊपर अज्ञानावरण पड़ा रहता है जब के कारण प्रकाश इस अज्ञानावरण का नाश (क्षय) होता है अथवा इसका उपशम हो जाता है - 1 तब प्रतिभा स्वत: अपनी पूर्णविभूतियों के साथ आविर्भूत होती है। जब यह आविर्भाव स्वत: सम्पन्न होता है तो उसे सहजा प्रतिभा कहते हैं। द्वितीय औपाधिकी प्रतिभा मन्त्रादि से उत्पन्न होने वाली है। 2 अर्थात् जब वाय उपायों, जैसे देवता की कृपा से, मंत्र के बल से, किसी महापुरूष के अनुग्रह ते यह कार्य सम्पन्न होता है तो उसे औपाधिकी प्रतिभा कहते हैं। 3 106 1. रुवितुखि प्रकाशस्वभावत्यात्मनोऽ भ्रपटलमिव ज्ञानावरणीयायावरपम्, तस्योंदितस्य वयेऽनुदितस्योपशमे च यः प्रकाशा विर्भावः सा सहजा प्रतिभा । 2. काव्यानुशासन, 1/5, वृत्ति मंत्रारोपाधिकी वही, 1/6 3. मन्त्रदेवतानुग्रहा दिपभवोपाधिकी प्रतिभा । इयमप्याचरणक्षयोपशमनिमित्ता, एवं दृष्टोपाधिनिबन्धनत्वात्तु औपाधिकीत्युच्यते । वही, 1/6, वृत्ति - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 चैकि आ. हेमचन्द्र ने व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को प्रतिभा का संस्कारक माना है, अतः व्युत्पत्ति तथा अभ्यास काव्य के साक्षात हेतु नहीं है, क्योंकि प्रतिभारहित व्युत्पत्ति तथा अभ्यास विफल देखे गये हैं।' यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने यद्यपि दण्डी का साक्षात उल्लेख नहीं किया है तथापि उक्त कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने दण्डी के "न विद्यते यद्यपि पूर्ववासना ... ।" इत्यादि कयन का खण्डन अवश्य किया है। व्युत्पत्ति का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए आ. हेमचन्द्र ने स्थावरजंगमात्मक लोकवृत्त में शब्द, छन्द नाममाला, श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, आगम, तर्क, नाट्य, अर्थशास्त्रादि ग्रन्थों में तथा महाकवि 1. अतएव न तो काव्यस्य साक्षात्कार प्रतिभोपकारिपौ तु भवतः। दृश्यते हि प्रतिभाहीनस्य विफलौ व्युत्पत्यभ्यासौ। वही, 1/7 वृति 2. जैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान - डा. कमलेशकुमार जैन पृ. 75 से उदधृत | Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 प्रपीत महाकाव्यों में निपुपता को ही व्युत्पत्ति कहा है।' अभ्यास का विवेचन करते वे लिखते हैं कि किसी काव्यवेत्ता के पास रहकर उसकी शिक्षा के द्वारा काव्य-रचना के लिये पुनः प्रयास करना ही अभ्यात है। आ. हेमचन्द्र की मान्यता है कि अभ्यास द्वारा परिमार्जित की गई प्रतिभा काव्यरूपी अमृत को प्रदान करने वाली कामधेनु की भांति है।' इतकी पुष्टि हेतु उन्होंने आ. वामन का मत उद्धृत करते हुए - - - - - 1. लोकशास्त्रकाव्येपु निपुणता व्युत्पत्तिः। लोके स्थावरजङ्गमात्मके लोकवृत्ते च शास्त्रेषु शब्दच्छन्दोनशासना झिज्ञानकोश श्रुतिस्मृतिपुरापेतिहासागमतर्कनाट्या कामयोगा दिगन्येषु काव्येषु महाकवि प्रपीतेषु निपुपत्वं तत्त्ववेदित्व व्युत्पत्ति: लोकादि निपुपता। काव्यानु. 1/8 तथा वृति। 2. काव्यविच्क्षिया पुनः पुनः प्रवृत्तिरभ्यास: वही, 1/9 3. अभ्याससंस्कृता हि प्रतिभा काव्यामृतकामधेनुर्भवति। वही, हत्ति पृ. 14 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है कि अभ्यास ही कर्म में कौशल लाता है। पत्थर पर गिराई गई जल की एक बूंद गहराई को प्राप्त नहीं होती, किन्तु वही बूंद बार-बार- गिराई जाय तो पत्थर पर भी गड्ढा कर देती है । । आ. हेमचन्द्र ने अभ्यास के प्रसंग मे "शिक्षा" का जैसा विशद विवेचन सोदाहरण प्रस्तुत किया है, वैसा पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलता। इसके लिये उनकी वृत्ति तथा टीका दोनों महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार विद्यमान होते हुए भी किसी वस्तु का वर्णन न करना, अविद्यमान का काव्य में निबन्धन कर देना, नियम ( कवि समय आदि), छाया आदि का उपजीवन ( ग्रहण करना शिक्षा है। 2 इस प्रसंग में छाया का उपजीवन चार प्रकार से बतलाया गया है (1) प्रतिबिम्बकल्पतया, ( 2 ) आलेख्यप्रख्यतया, ( 3 ) तुल्यदेहितुल्यतया तथा ( 4 ) परपुरप्रवेशप्रतिमतया । इनमे से ध्वन्यालोककार ने प्रथम तीन भेदों का संकेत किया है। 3 राजशेखर ने भी अपनी काव्य मीमांसा में इसकी संक्षिप्त चर्चा की है। आचार्य हेमचन्द्र ने आदिपद ते पदपाद आदि का दूसरे काव्यों से औचित्य के 2. 109 1. "अभ्यासो हि कर्मसु कौशलमावहति । न हि सकृन्निपतितमात्रे पौदबिन्दुरपि ग्रावणि निम्नतामादधाति इति । वही, पृ.14 सतोऽप्यानबन्धोऽसतोऽपि निबन्धो नियम छायाद्युपजीवनादयश्च शिक्षा : । काव्यानु, 1/10 - - 3. ध्वन्यालोक 4/12-13 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 अनुसार गहप करना, तमस्यापूर्ति करना आदि को भी छाया का उपजीयन बतलाया है।' ___आ. रामचन्द्र-गुपचन्द्र का दृष्टिकोप यद्यपि काव्य' या नाट्य-हेतु का विस्तृत विवेचन करना नहीं है, तथापि प्रकारान्तर से गन्यारम्भ में काव्यनाट्य-निर्माण पर चलता सा प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं कि जो कवि निर्धन से लेकर राजा तक की "औचिती' अर्थात उनके सामान्य व्यवहार से अवगत न होते हुए भी काव्य - निर्माण की कामना करते हैं, वे विद्वज्जनों के उपहास के पात्र बनते हैं। तथा जो नाटककार न तो गीत, वाप, नृत्य आदि जानते हैं, न लोकस्थिति से परिचित है, और न प्रबन्धों अर्थात, नाटकों का अभिनय ही कर सकते हैं वे भी नाट्य-रचना के अधिकारी नहीं है। यहाँ दो काव्यहेतुओं की प्रकारान्तर से चर्चा हुई है : गीत, वाघ, 1. काव्यानुशासन, वृत्ति, 14, 16 2. आर.काद भपतिं यावदौचितीं न विदन्ति ये। स्पृह्यन्ति कवित्वाय, येलनं ते सुमेधसाम।। नाट्यदर्पप, 1/8 3 न गीतवाधनृत्तज्ञाः, लोकस्थितिविदो न ये अभिनेतुं च कर्तु च प्रबन्धास्ते बहिर्मुखाः ।। नाट्यदर्पप, 1/4 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत ( नृत्य ) अभिनय आदि का क्रियात्मक ज्ञान तथा रंक से राजा पर्यन्त लोक व्यवहार के परिचिति । इन दोनो हेतुओं को अधिकांश सीमा तक व्युत्पत्ति कह तकते हैं। पूर्व सीमा तक इसलिये नहीं कि उन आचार्यों ने व्युत्पत्ति तथा निपुपता के अन्तर्गत लोक-व्यवहारज्ञान के अतिरिक्त काव्यग्रन्थों एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का पठन-पाठन भी सम्मिलित किया है। पर आचार्य रामचन्द्र - गुणचन्द्र के पूर्वोक्त कथन ते यह नहीं समझना चाहिए कि उन्हें केवल व्यवहार ज्ञान को ही काव्यहेतु मानना अभीष्ट होगा तथा शेष दो - प्रतिभा व अभ्यास को नहीं । नाट्यदर्पण के तृतीय विवेक में रस विवेचन के प्रसंग में, नाट्यदर्पणकार कवि की शक्ति अर्थात्, प्रतिभा को ही काव्य का प्रधान हेतु मानते प्रतीत होते हैं। वे लिखते हैं कि जो कवि, नट आदि का शक्ति कौशल है, ये चमत्कारविशेष ही कवि व सहृदयों की लेखन व प्रेक्षण प्रवृत्ति को प्रेरित करते हैं । । - 1 2. - आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि' एवं वाग्भट द्वितीय हेमचन्द्राचार्य की भांति व्युत्पति तथा अभ्यास ते संस्कृत प्रतिभा को ही काव्य का हेतु मानते हैं। कारण प्रतिमेवास्य व्युत्पत्यभ्यासवासिता । बीजं नवांकुरस्येव काश्यपी - जल संगतम् । । अलंकारमहोदधि 1/6 11 - 1. "... अनेनैव च सर्वांगह्लादकेन कविनट-शक्तिजन्मना चमत्कारेण विप्रलब्धा:परमानंदरूपतां दुःखात्मकेष्वपि करूपादिषु सुमेधसः प्रतिजानीते । एतदास्वादलौल्येन प्रेक्षका अपि एतेषु प्रवर्तन्ते । " नाट्यदर्पण, पृ. 291 3. व्युत्पत्यभ्या संस्कृता प्रतिभास्य हेतु: काव्यानुशासन वाग्भट - पृ.2 - - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 आचार्य भावदेवतरि मम्मट का अनुसरप करते हुए प्रतिभा, व्युत्पति तथा अभ्यास के सम्मिलित रूप को काव्य का हेतु मानते हैं।' पूर्वोक्त काव्य-हेतु विवेचन को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि भावदेवसरि को छोड़कर अन्य उल्लिखित समस्त जैनाचार्यो ने व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से संस्कृत प्रतिभा को ही काव्य-हेतु स्वीकार किया है। जिसका समर्थन परवर्ती विद्वान् पंडितराज जगन्नाथ ने किया काव्य - प्रयोजन काव्य - प्रयोजन - विचार की परम्परा अलंकारशास्त्र की एक प्राचीनतम परम्परा है। यहाँ कला कला के लिये की बात को नहीं माना गया और न आधुनिक उपयोगितावाद को ही काव्यभूमि में प्रतिष्ठित किया गया है अपितु काव्य के दृष्ट तथा अकृष्ट दोनों प्रकार के प्रयोजन माने गये हैं। नाट्य के अथवा काव्य के प्रयोजन पर सर्वप्रथम भरतमुनि ने ( तृतीय शताब्दी ) विचार किया था। उनका कथन है कि लोक का 1. शक्तिर्युत्पत्तिरभ्यासस्तस्य हेतुरिति त्रयम् । काव्यालंकारया।/2 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 मनोरंजन व शोकपीड़ित तथा परिश्रान्त जनों को विश्रान्ति प्रदान करना? आगे उन्होंने धर्म, यश, आयु, हित, बुद्धि-वर्धन तथा लोकोपकारी उपदेश को नाट्य (काव्य) का प्रयोजन बताया है। __ भरतमुनि के पश्चात् ज्यों ज्यों साहित्यिक विवेचना का विकास होने लगा त्यों त्यों काव्य के प्रयोजन का भी विशद विवेचन किया गया। अलंकारिक आचार्य भामह के अनुसार सत्काव्य का अनुशीलन (I) धर्म, अर्थ, काम तथा मोs नामक पुरूषार्थचतुष्टय एवं कलाओं में निपुपता, ( 2 ) यश प्राप्ति तथा (3) प्रीति का कारण है।' महाकवि द:खाानां श्रमाानां शोकानां तपस्विनास। विश्रामजननं लोके नाटयमेतद भविष्यति।। - नास्मशास्त्र 1/113 2. धम्यं यश त्यमायुष्यं जिंबुदिविवर्धनम्। लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् विष्यति ।। नाटयशास्त्र, I/I15 3. धर्मार्थकाममोक्षेषु वैक्षण्यं कलातु च। प्रीति करोति कीर्ति च साधुकाव्यनिबन्धनम्।। काव्यालंकार, 1/2 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डी ने काव्य-प्रयोजन की चर्चा अलग से न करके काव्य लक्षप में ही संक्षिप्त रूप से कर दी है। दण्डी ने भामह के द्वारा प्रतिपादित "चतुर्वर्गफलप्राप्ति" को ही काव्य-प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है।' साथ ही उनका कथन है कि काव्य लोकरंजक होना चाहिए। रीतिवादी आचार्य वामन ने भामह प्रतिपादित काव्य-प्रयोजनों में से केवल प्रीति तथा कीर्ति को ही काव्य-प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है तथा पीति ( आनन्दानुभूति) को दृष्ट प्रयोजन तथा कीर्ति (यश)को अदृष्ट प्रयोजन बतलाया है।' दृष्ट तथा अदृष्ट रूप में काव्य-प्रयोजन के विभाजन का श्रेय निश्चित ही वामन को है। तदनन्तर ध्वनियादी आचार्य आनन्दवर्धन (१वीं शताब्दी) ने भी प्रीति को ही काव्य का प्रधान प्रयोजन स्वीकार किया - "तेन ब्रूमः सझदयमन ः प्रीतये तत्स्वरूपम् । किन्तु ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन 1. काव्यादर्श, 1/15 2. लोकर-जनम काव्यम् - वही, 1/19 3 काव्यं सद दृष्टादृष्टा प्रीतिकी तिहतुत्वात्। काव्यालंकारसूत्र, 1/1/5 वन्यालोक: 1/1 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 तथा आT. अभिनवगुप्त की प्रीति की व्याख्या रीतिवादी आचार्यों की व्याख्या से भिन्न है। यह तो उस विलक्षप आनन्द का नाम है जो सह्दयों के उदय की अनुमति का विषय है, अथवा रसवादी आचार्य जिते रसास्वादन या रसानुभूति कहते हैं। ध्वनिवादियों द्वारा प्रतिपादित काव्य के इस मुख्य प्रयोजन को बाद के आचार्यों ने अपना आदर्श वाक्य सा बना लिया। नवीन वक्रोक्तिवाद का उद्घाटन करते हुए भी आचार्य कुन्तक ने प्रीति को ही काव्य का महत्वपूर्ण प्रयोजन बताया जिसका अभिप्राय सहृदय का आहलाद है।' इसी प्रकार रस-तात्पर्यवादी काव्याचार्य भोज राज (10वीं ।।वीं शताब्दी) के अनुसार “की ति" और "प्रीति" ही काव्य के तात्त्विक प्रयोजन है । और "प्रीति" का अभिप्राय काव्यार्थतत्त्व की भावना से संभत "आनन्द" है जैसा कि "सरस्वतीकण्ठाभरप" के व्याख्याकार रत्नेश्वर (14वीं शताब्दी) का विश्लेषप है। आचार्य मम्म्ट ने 1. धर्मादिताधेनोपायः सकुमा रकमोदितः। काव्यबन्धोऽभिपातानां हदयाहा दका रक:।। वकोक्तिजीवित, |.4 2. कवि .... कीर्ति प्रीति च विन्दति सरस्वतीकंठाभरप, 1.2 3. प्रीति : सम्पूर्पकाव्यार्थस्वादसमुत्थ आनन्दः, काव्यार्थभावनादशायां कवेरपि सामाजिकत्वांगीकारात् स.क. रत्नदर्पप - 1.2 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 काव्य-पयोजन-विषयक विभिन्नवादों का समन्वय करते हुए अधिकतम छ: प्रकार के प्रयोजन स्वीकार किये हैं -(1) यश की प्राप्ति, (2) धनलाभ, (3) व्यवहारज्ञान, (4) अकल्याप का विनाश, (5) काव्यपाठ के साथ - साथ शीघ्र ही उच्चकोटि के आनन्द की प्राप्ति तथा कान्तासम्मित उपदेश।' ये विभिन्न आचार्यों द्वारा मान्य काव्य - प्रयोजन कुछ कवि के लिए हैं तथा कुछ पाठक के लिए। इसके अतिरिक्त कुछ प्रयोजन ऐते भी हैं जो कवि तथा सडदय दोनों को समान रूप से हितकारी हैं। यथा मम्मट - निर्दिष्ट अकल्याप का विनाशरूप प्रयोजन। इस प्रसंग में जैनाचार्यों द्वारा मान्य काव्य - प्रयोजन निम्न प्रकार हैं -- जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने केवल यश को ही काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है जो केवल कविनिष्ठ ही है जबकि अन्य समस्त आचार्यों ने प्रायः आनन्दरूप प्रयोजन को न केवल स्वीकार किया है, अपितु सर्वश्रेष्ठ तथा उभयनिष्ठ (कवि व सहृदय) भी घोषित किया है। अत: 1. काव्यं यश सेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये। सधः परनिर्वतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।। काप्यप्रकाश, 1/2 2. काव्यं कुर्वीत कीर्तय। वाग्भटालंकार 1/3 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न उत्पन्न होता है कि आचार्य वाग्भट प्रथम ने आनन्दरूप प्रयोजन का उल्लेख क्यों नहीं किया? पर जहाँ तक वाग्भेट आनन्दरूप प्रयोजन के उल्लेख न करने की बात है उस सम्बन्ध में ये कहा जा सकता है कि उनके अनुसार पाठक का प्रयोजन पढ़ने के साथ ही स्वयंसिद्ध है अत: उसका कोई उल्लेख नहीं किया है। चूँकि कवि की रचना उसकी कीर्ति में प्रायः कारण होती है, अतः वाग्भट - प्रथम द्वारा यश को ही काव्य का प्रयोजन मानने का औचित्य ठहरता है। · 2. - आ. हेमचन्द्र ने मम्मट सम्मत छ ः काव्य-प्रयोजनों में से काव्य के तीन ही प्रयोजन स्वीकार किए हैं आनन्द, यश तथा कान्तासम्मित उपदेश।' हेमचन्द्र के अनुसार आनन्द का अर्थ रसास्वाद ते उद्भूत होने वाली वेद्यान्तर सम्पर्कशून्य ब्रह्माम्वाद सविध प्रीति है। 2 आनन्द को उन्होंने अन्य काव्य प्रयोजनों का उपनिषद्भूत मुख्य प्रयोजन बताया है। क्योंकि यश तथा व्युत्पति के द्वारा भी आनन्द का सम्पादन होता है। जैसा कि कहा गया है - "कीर्तिस्वर्गफलमाडु: "3 - प्रथम द्वारा I. काव्यमानन्दाय यशते कान्तातुल्योपदेशाय चा काव्यानुशासन, 1/3 सद्योरसास्वादजन्मा निरस्तवेद्यान्तरा ब्रह्मास्वादसदृशी प्रीतिरानन्दः । काव्यानु, 1/3 की वृत्ति 117 3. यशोव्युत्पत्तिफलत्वेऽपि पर्यन्ते सर्वत्रानन्दस्यैव साध्यत्वात् । तथाहि कवेस्तावत् कीर्त्यापि प्रीतिरेव संपाद्या । यदाह (1)* कीर्ति: स्वर्गफ्लामाहुः ।' काव्यानुशासन, विवेक टीका, पृ. 3 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 स्वर्ग से तात्पर्य आनन्द से है। चारो वर्गों की व्युत्पत्ति का भी पार्यन्तिक तथा मुख्य फल आनन्द ही है।' आ. हेमचन्द्र के अनुसार आनंद की प्राप्ति कवि तथा सहृदय दोनों को होती है। सहदयों को रसानुभूति होती है, इसे तो प्राय: सभी आचार्यों ने निर्विरोध स्वीकार किया है। रही बात कवि की तो कवि भी जब भावुक की स्थिति में आता है तो उसे भी काव्य की भावना करने पर अलौकिकानन्द की अनुभूति होती है। अभिनव गुप्त ने भी लोचन के मंगलाचरप मे लिखा है - "सरस्वत्यास्तत्त्वं कवि सहृदयाख्यं विजयते।' अर्थात जिसका कवि तथा सहृदय में निरन्तर "ख्यान' अर्थात स्फुरण होता है - वह सरस्वती का तत्त्व(काव्य) विजयी हो। 1. चर्तुवर्गव्युत्पत्तेरपि चानन्द एव पार्यन्तिकं मुख्य - फल मिति । वही, विवेक टीका, पृ. 4 2. इदं सर्वप्रयोजनोपनिषदमात कवितहदययोः काव्यप्रयोजनम्। वही, 1/3 वृत्ति Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 हेमचन्द्राचार्यानुसार यशः प्राप्ति केवल कवि को होती है।' सहदयों को कान्तासम्मित उपदेक्षा की प्राप्ति होती है। प्रभुसम्मित उपदेश शब्द प्रधान, मित्रसम्मित उपदेश अर्थप्रधान होता है तथा कान्तासम्मित उपदेश में शब्द तथा अर्थ दोनों का गुपीभाव होकर रस की प्रधानता हो जाती है। कान्ता की भांति रसप्रधान विलक्षप काव्य सरसता के सम्पादन द्वारा जो उपदेश प्रदान करता है, वही सहदयों का प्रयोजन है।2 मम्मटादि ने जो धनागमादि को काव्य के प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है, उसका मण्डन करते हुए हेमचन्द्र लिखते हैं कि धन प्राप्ति अनैका न्तिक है अर्थात काव्य से धन प्राप्ति हो भी सकती है और नहीं भी। व्यवहारज्ञान शास्त्रों से भी संभव है तथा अनर्थ निवारण प्रकारानार मन्त्रानुष्ठान आदि ते भी हो सकता है, अत: इनका 1. यशस्तु कवेरेव। यत इयति संतारे चिरातीता अप्यघ यावत् कालिदासादयः सहदयेः स्तयन्ते कवयः। वही, 1/3, वृत्ति 2. प्रभुतुल्येभ्यः शब्दप्रधानेभ्यो वेदागमा दिशास्त्रेभ्यो मित्रतभितेभ्यो - ऽर्थप्रधानेभ्यः पुरापपकरपादिभ्यश्च शब्दार्थयोपभावे रसप्राधान्ये च विलक्षणं काव्यं कान्तेव सरसतापादनेन संमुखीकृत्य रामादिवत वर्तितव्यं न रावपादिवत इत्युपदिशतीति सहृदयानां प्रयोजन। वही, 1/3, वत्ति Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 हमने उल्लेख नहीं किया है।' किन्तु उनका यह तर्क समुचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि काव्य का प्रयोजन मम्मट के मत में धन ही न होकर धन भी है। डा. देवेन्द्रनाथ शर्मा के अनुसार अनैकान्तिकता का आधार लेकर हेमचन्द्र द्वारा स्वीकृत यश का भी खण्डन किया जा सकता है, क्योंकि यश का एकमात्र हेतु काव्य नहीं है। आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने ग्रन्थारम्भ में ही नमस्कारात्मक मंगलपरक प्रलोक द्वारा ही नाट्य(काव्य)के प्रयोजन का उल्लेख कर दिया है।इन्होंने चतुर्वर्ग धर्मार्थकाममोक्ष पल वाला नाटक माना है।' इनके अनुसार जिस व्यक्ति के लिए जो पुरुषार्थ अभीष्ट है वही उसका प्रधान फल है, तदितर गौप फल है। आगे वे कहते हैं कि यद्यपि 1. धनमनैकान्तिकं व्यवहारकौशलं शास्त्रेभ्योऽप्यनर्थनिवार । प्रकारान्तरेपापीती न काव्यप्रयोजनतयात्माभिरूक्तमः । वही, पृ. 5 2. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान - पृ. 69 3 चतुर्वर्गफ्लां नित्यं जैनी वाचमुपास्महे। नाट्यदर्पण ।। ५. इष्टलक्षपत्वाच्च फ्लत्य यो यस्य पुरुषार्थोऽभीष्ट : स तत्य प्रधानं, अपरो गौपः। नाट्यदर्पप ।/। की वृत्ति Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 साक्षात्प से नाटकादि धर्म, अर्थ तथा काम इन तीनों में से ही किसी एक फल को ही प्रदान करने वाले होते हैं तथापि राम के समान आचरण करना चाहिए रावप के समान नहीं इस प्रकार की हेय तथा उपोदय के परित्याग तथा गृहप परक होने से नाटकादि मोध के प्रति भी परम्परया कारप हो सकते हैं। इतलिये भी मोक्ष को उनका फल कहा जा सकता है तथा धर्म के भी मोक्षजनक होने से परम्परा से मोक्ष भी नाटकादि का फ्ल हो सकता है।' हाँ मोक्षप्राप्तिरूप फल धर्म की अपेक्षा गौप फल होता है। आगे दे लिखते हैं कि नाटकादि नायक तथा प्रतिनायक के नीतिपरक तथा अनीतिपरक कार्य-पनों को दिवाकर प्रवृत्ति-निवृत्ति का उपदेश प्रदान करते हैं।' 1. यद्यपि साक्षात धर्म-अर्थ-कामफ्लान्येव नाटकादीनि तथापि "रामवद वर्तितव्यं न रावणवद' इति हेयोपादेय - हानोपादानपरतया, धर्मस्य च मोक्षहेततया मोधोऽपि पारम्पर्येप फ्लस। हि. ना. द., पृष्ठ ।। 2. मोक्षस्तु धर्मकार्यत्वात गौपं फ्लम्। ना. द पृष्ठ 2 नायकपतिनायकयोहि नयानयफ्लोपदशनेन नाटकादिभिईदान्तचेतसां न्यायादनपेते कृत्ये प्रवृत्तिर्व्यवस्थाप्यते। ना. द पृष्ठ 12 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 आचार्य नरेन्द्रप्रभतार ने हेमचन्द्राचार्यसम्मत आनन्द, यश तथा कान्तासम्मित उपदेश के अतिरिक्त धर्म, अर्थ तथा कामरूप सातिय (निरर्गल )त्रिवर्ग को काव्य-प्रयोजन माना है।' आचार्य वाग्भट द्वितीय ने प्रमोद (दृर्ष), अनर्थ-निवारप, व्यवहारज्ञान, त्रिवर्ग फल प्राप्ति, कान्तासम्मित उपदेश तथा कीर्तिरूप : काव्य-प्रयोजनों को स्वीकार किया है। मावदेवतरि इष्ट तथा अनिष्ट का ज्ञान करके उसमें प्रवर्तन और निर्वतन, गुरू तथा मित्र के सदृश कार्य-साधक, कल्यापकारी यश तथा धन-प्राप्ति रूप प्रयोजन मानते हैं। 1. अमन्दोद्गतिरानन्दस्त्रिवर्गपच निरर्गलः। कीर्तिपंच कान्तातुल्यत्वेनोपदेशश्च तत्फलम।। अलंकारमहोदधि, 1/5 2. काव्यम् । प्रमोदामानर्थपरिहाराय व्यवहारज्ञानाय त्रिवर्गफललाभाय कान्तातुल्यतयोपदेशास कीर्तये च। काप्यानु. वाग्भट, पृ. 2 3 इष्टानिष्टेषु तज्ज्ञानं प्रवर्तन - निवर्तनात् काव्यं गुरू - सुहत् - तुल्यं कार्य अयो.यशः श्रिये ॥ काव्यालंकारमार।/2 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 पूर्वोक्त विभिन्न जैनाचार्यों द्वारा निरूपित काव्य- प्रयोजनों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि पुरुषार्थ - चतुष्ट्य जिसका सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया है, उसे जैनाचार्यों में नरेन्द्रप्रभतरि (त्रिवर्ग) तथा वाग्भट द्वितीय (त्रिवर्ग) ने भी मान्यता प्रदान की है। आचार्य हेमचन्द्र ने ययापि मम्मट सम्मत अर्थप्राप्ति आदि तीन प्रयोजनों का खण्डन किया है तथापि मम्मट की भांति आनन्दरूप प्रयोजन को सर्वश्रेष्ठ माना है। वाग्भट द्वितीय ने मम्मट के अर्थप्राप्ति के स्थान पर त्रिवर्ग फल - प्राप्ति रूप प्रयोजन माना है, शेष पाँच प्रयोजन मम्मट सम्मत ही है। भावदेवसरि प्रायः मम्मट के समर्थक हैं। अस्तु समस्त काव्य प्रयोजनों का सम्यकृतया विवेचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि जैनाचार्यों ने पूर्वाचार्यो द्वारा कथित काव्य - प्रयोजनों को आधार मानकर अपना मत प्रस्तुत किया है तथापि वाग्भट-प्रथम द्वारा मान्य एकमात्र यशरूप प्रयोजन अपनी मौलिकता प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने मम्मट स्वीकृत छ: काव्य-प्रयोजनों में से तीन का खण्डन कर एक नवीन विचार प्रस्तुत किया है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 तृतीय अध्याय - जैनाचार्यों की दृष्टि में रतस्वरूप विवेचन रस - सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का अत्यन्त प्राचीन तथा प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। यह भारतीय साहित्यशास्त्र का मेरुदण्ड ही नहीं, उसकी महत्तम उपलब्धि भी है। सामान्यतः रस शब्द का प्रयोग श्रृंगारादि काव्य रत, कषाय, तिक्त, कटु आदि आसाथ पदार्थ, घृतादि चिकने पदार्थ तथा विष, जल, निर्यात वृक्षों ते चने वाला तरल पदार्थ पारद, राग और वीर्य में होता है।' काव्यशास्त्र में रस शब्द का प्रयोग पारिभाषिक अर्थ में हुआ है, अतः जो आस्वादित हो वह रत है। काव्य के पठन, प्रवप या दर्शन ते जित आनंद का अनुभव होता है, वही आनन्द "रस" कहलाता है। __ "नहि रताद ते कश्चिदर्थः प्रवर्तते आचार्य भरत के इस कथन से रस का सर्वाधिक महत्व एवं काव्य तथा नाट्य में इसका अपरिहार्यत्व सुस्पष्ट हो जाता है। नादय की रचना को रसकल्लोलसंकुल होने के कारप ही कठिन कहा गया है। पर वह रस ही नाट्य या काव्य का प्रापभूत तत्व है अतएव रससिद्ध कवियों की सर्वत्र प्रशंसा की गई है। वही वास्तविक कवि है, तथा उसी के काव्य के पढ़ने से मर्त्यलोक के वासी मनुष्य भी काव्यरत रूपी सुधा का पान - - - - 1. श्रृंगारादो कषायादी घृतादो च विषे जले । नियति पारदे रागें वीर्येऽपि रस इष्यते।। - जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पृ. ११ से उद्धेत 2 अलंकारमृदः पन्थाः कथादीनां सुसभ्यरः। दुःस चरस्तु नादयस्य रसकल्लोलसंकुल :।। - नाटयदर्पप, 1/3 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 करने वाले बन जाते हैं, जिसकी वापी रसोर्मियों में टकराती हुई नाट्य में नृत्य करती है।' नाट्य अथवा काव्य में वर्णित ज्ञात भी कथा, रसाय से नवीन सी लगती है। आचार्य मम्मट ने रसास्वादन से समुद्भूत विगलित वेधान्तर आनन्द को सकलप्रयोजनमौलिभत कहा है। रसादि के आश्रय ते परिमित काव्यमार्ग मी अनन्तता को प्राप्त हो जाता है।* रसवादी एवं ध्वनिवादी आचार्यों ने काव्य में रस को सर्वोच्च स्थान देते हुए इसकी प्रतिष्ठा काव्य की आत्मा के रूप में ही की है। इसके अभाव में अलंकारादि - - - - - - 1. स कविस्तस्य काव्येन मा अपि सुधान्धसः। रसो मिर्पिता नाट्ये यत्त्य नृत्यति भारती ।। वहीं, 1/5 2. द्वन्टपूर्वा अपि यर्थाः काव्ये रसपरिगृहात। सर्वे नवा इवा भान्ति मधुमास इव दुमाः।। ध्वन्यालोक 4/4 3. सकलप्रयोजमौलिभतं तमनन्तरमेवरसास्वादनसमुदभूतं विगलित क्यान्तरमानन्दस। __ काव्यप्रकाश, पृ. + युक्त्यानयानुसर्तव्यो रसादिर्बहुविस्तरः। मितोऽप्यनन्ततां प्राप्तः काव्यमार्गों यदाश्रयात्।। ध्वन्यालोक, 4/3 5. तेन रस एव वस्तुतः आत्मा, वस्त्वलड कारध्वनिस्तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवत्येते इतिअभिनवगुप्त, ध्वन्यालोकलोचन, पृ. 85 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 से युक्त भी काव्य हास्यास्पद हो जाते हैं।' काव्य के ऐसे महत्वपूर्ण तत्व की अभिव्यक्ति के लिये कवि का सर्वात्मना प्रयत्नशील होना सर्वथा अपेक्षित है। रस-सिद्धान्त का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में किया है यद्यपि यह नाट्यशास्त्र की रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में विद्यमान रहा है। पर भरतमुनि ने अब तक जो रस-स्वरूप अनिश्चिय के हिंडोले में इधर उधर झूल रहा था, उसे निश्चित स्थान पर बैठाकर रस को सुव्यवस्थित रूप से परिभाषित करते लिखा कि - "विभाव अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।' रस-सिद्धान्त का यह प्रथम सत्र उत्तरवर्ती आचार्यों के लिये आधारशिला बना । इसमें प्रयुक्त "निष्पत्ति" शब्द को लेकर बहुत विवाद हुआ तथा परिपामस्वरूप भट्टलोल्लट के उत्पत्तिवाद, शैकुक के अनुमितिवाद, मट्टनायक के मुक्तिवाद तथा अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद नामक सिद्धान्तों का प्रादुर्भाव हुआ। इनकी विस्तृत व्याख्या अभिनवगुप्तकृत “अभिनवभारती में 1. श्लेषालंकारभाजोऽपि रता नित्यन्दकर्कशाः। दर्भगा इव कामिन्यः पीपन्ति न मनो गिरः।। नाट्यदर्पप, 1/7 व्यंग्यव्यजकमावेऽस्मिन्विविधै सम्भवत्यापि। रसादिमय एकस्मिन्कविः स्यादवधानवान् ।। ध्वन्यालोक 4/5 3 नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय, पु. 71 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलती है। आचार्य मम्मट ने उसे अपने "काव्यप्रकाश" तथा आचार्य हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में परिष्कृत तथा समुचित रूप में समाहित किया है। उक्त चार आचार्यों में जहां अभिनवगुप्त द्वारा प्रस्तुत भरत रस-सूत्र की व्याख्या को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है वहीं भट्टलोल्लट की व्याख्या को हेय दृष्टि से देखा गया। पर इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि रस-सूत्र की व्याख्या तथा रस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा का मार्ग भट्टलोल्लट ने ही खोला । भट्ट लोल्लट विभाव, अनुभाव तथा संचारिभाव के संयोग से रस की उत्पत्ति मानते हैं। इस मत को मानने वाले उनके अतिरिक्त अन्याचार्य भी हैं। 2 भरत रतं सूत्र के द्वितीय व्याख्याकार शंकुक के अनुसार सामाजिक अनुमान के द्वारा रसास्वादन करता है। 3 तृतीय व्याख्याकार है- भटटनायक । इन्होंने भावकत्व तथा भोजकत्व नामक दो नवीन व्यापारों की कल्पना की है तथा निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति तथा संयोग का अर्थ भोज्यभोजकभाव सम्बन्ध किया है। 4 रस-सूत्र के चतुर्थ व्याख्याकार अभिनवगुप्त ने अपनी व्याख्या में सामाजिक को रसानुभूति का आश्रय स्वीकार किया है तथा रस को अलौकिक आनन्दरूप कहा है। 5 आचार्य मम्मट ने रस-स्वरूप निरूपित करते लिखा है कि लोक में जो 1. द्रष्टव्य - 127 काव्यप्रकाश, कृ. पृ. 101-12 काव्यानु, टीका, पृ. 89-103 2. काव्यानुशासन, पु, 89 3. काव्यानुशासन, पृ. 90-93 - 4. काव्यानुशासन, पृ. 96 5. काव्यानुशासन, पृ. 102 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रति आदि स्थायीभावों के कारण, कार्य तथा सहकारिभाव पाये जाते हैं, वे ही यदि नाट्य या काव्य में प्रयुक्त होते हैं तो विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव कहलाते हैं और उन्हीं विभावादि भावों से अभिव्यक्त होने वाला रत्यादिरूप स्थायिभाव रस कहलाता है । ' जैनाचार्यों के रस - स्वरूप का उपजीव्य प्रायः भरत रस-सूत्र ही रहा है। आचार्य वाग्भट प्रथम रस की महत्ता प्रतिपादित करते अपने ग्रन्थ में लिखते हैं कि जिस प्रकार उत्तम रीति से पकाया हुआ भोजन भी नमक के बिना स्वादहीन रहता है उसी प्रकार रसहीन काव्य भी अनास्वाद्य होता है। 2 इसी क्रम में वे रस को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव और सात्त्विक भावों से परिपोष को प्राप्त करवाये गये स्थायिभाव को रस कहते हैं। 3 128 आचार्य हेमचन्द्र भरत रख-सूत्र व उसके व्याख्याकार आ. अभिनवगुप्त विभाव, अनुभाव का अनुसरण करते हुए रस को परिभाषित करते लिखते हैं कि तथा व्यभिचारिभावों से अभिव्यक्त स्थायिभाव ही "रस" कहलाता है । " वृत्ति में - 1. काव्यप्रकाश, 4/27-28 2. साधुपाकेऽप्यनास्वार्थं भोज्यं निर्लवर्षं यथा । तथैव नीरत काव्य मिति ब्रूमो रसानिह ।। वाग्भटालंकार, 5/1 3. विभावैरनुभावैश्च साति वकैर्व्यभिचारिभिः । आरोप्यमाप उत्कर्ष स्थायी भावो रसः स्मृतः। । वही, पृ. 5/2 विभावानुभावव्यभिचारिभिरभिव्यक्तः स्थायी भावो रसः । काव्यानुशासन 2/1 4. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 रत-सूत्र को व्याख्यायित करते वे लिखते हैं कि - वा चिक आदि अभिनयों ते युक्त जिनके द्वारा स्थायी और व्यभिचारिभाव विशेष रूप से जाने जाते है वे काव्य और नाट्यशास्त्र में प्रसिद्ध ललना, आदि आलम्बन और उधानादि उद्दीपन स्वभाव वाले विभाव कहलाते हैं। स्थायिभाव और व्यभिचारिभाव रूप चित्तवृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए सामाजिक लोग जिन कटाक्ष व भुजाक्षेप आदि द्वारा साक्षत्कार करते हैं तथा जो कार्यरूप में परिपंत होते है, वे अनुभाव कहलाते हैं। विविध रूप से रस की ओर उन्मुख होकर विचरप करने वाले धृति, स्मृति आदि व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। ये विभावादि स्था यिभाव के अनुमापक होने से लोक में कारप, कार्य व सहकारी शब्दों से सम्बोधित किये जाते हैं। ये मेरे हैं, ये दूसरे के हैं, ये मेरे नहीं है, ये दूसरे के. नहीं है। इस प्रकार सम्बन्ध विशेष को स्वीकार अथवा परिहार करने के नियम का निश्चय न होने से साधारप रूप से प्रतीत होने वाले तथा विभावादि से अभिव्यक्त होने वाले सामा जिलों में वासना रूप से स्थित रत्यादि स्थायिभाव है। यह स्थायिभाव नियत प्रमाता (सहृदय विशेष)में स्थित होने पर भी विभावादि के साधारपीकरप के कारण सभी सहृदयों की समान अनुमति का विषय बना हुआ, आस्वादमात्र स्वरूप वाला, विभावादि की भावना पर्यन्त रहने वाला, अलौकिक चमत्कार को उत्पन्न करने के कारण परबहमास्वादसहोदर तथा निमीलित नेत्रों से कवि व सदयों द्वारा आवाघमान, स्वसंवेदन सिद रत कहलाता है।' 1. वही, 2/ वृत्ति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 आचार्य हेमचन्द्र ने रस को अलौकिक कहा है। उसकी अलौकिकता सिद्ध करते वे लिखते हैं कि विभावादि के विनाश होने पर भी रस की स्थिति संभव होने से वह रस विभावादि का कार्य नहीं है और उस सिद्रत का अनुभव के पूर्व अभाव होने से वह रस ज्ञाप्य भी नहीं है।' आचार्य हेमचन्द्र का उक्त कथन आचार्य मम्मट के कथन से शब्दश: मिलता है। दोनों ही आचार्यो का मन्तव्य है कि यदि रस को विभावादि ( कारपों) का कार्य मान लें तो विभावादि ही उसके कारप कहे जायेंगे और लोक में जैते दण्ड चक्रादि कारप के नष्ट होने पर भी घटरूप कार्य बना ही रहता है वैसे काव्य में विभावादि कारप के न रहने पर रस रूप कार्य नहीं रह सकता है। अतः रस को विभावादि के कार्य रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार रस ज्ञाप्य भी नहीं है क्योंकि उस सिद् रत के अनुभव होने के पूर्व उस रस का अभाव रहता है। यथा-घटादि पदार्य अधरे में रहते हैं तभी तो दीपका दि के द्वारा प्रकाश्यमान होने पर ज्ञाप्य होते हैं। उनका पहले ते अभाव हो तो दीपकादि के द्वारा वह कैसे हाप्य हो सकते हैं। अर्थात नहीं हो सकते। इस प्रकार की स्थिति रस के विषय में नहीं है। क्योंकि विभावादि के पूर्व रस की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभावादि के । स च न विभावादेः कार्यस्तद्विनाशेऽपि रससंभवप्रसंगात। नापि ज्ञाप्यःसिदत्य तस्याभावात्। ___काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 103 - तुलनीय, काव्यप्रकाश, वृत्ति, पृ. 10 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्वणायोग्य होने पर, रसास्वादन के समय ही उसकी सत्ता रहती है । ' उनका कथन है कि यदि कोई कहता है कि लोक में कारक और ज्ञापक हेतुओं के अतिरिक्त अन्य कौन सा हेतु देखा गया है तो इसका उत्तर है कि कहीं नहीं। यह तो रस के अलौकिकत्व की सिद्धि में भूषण ही है, दूषप नहीं है। 2 आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावये तीनों सम्मिलित रूप से रस के व्यंजक होते हैं, अलग-अलग नहीं क्योंकि अलग-अलग हेतु मानने पर व्यभिचार दोष उत्पन्न होगा। 3 भाव ये है कि किसी भी विभाव आदि का किसी एक रस के साथ नियत साहचर्य नहीं होता । यथा "व्याघ्र' आदि विभाव भयानक रस के समान वीर, अनुपात आदि अनुभाव करूप के समान अद्भुत और रौद्ररस के भी होते हैं। श्रृंगार व भयानक रस के भी होते हैं। इसी प्रकार चिन्ता आदि व्यभिचारिभाव करूण के समान श्रृंगार, वीर व भयानक रस के भी होते हैं। 4 1. विभावादिभावनावधिरलौ किचमत्कारका रितया काव्यानु, वृत्ति, पृ. 88 कारकज्ञापकाभ्यामन्यत् क्वदृष्टमिति चेन्न क्वचिदृष्टमित्यलौकिकत्व सिद्धेभूषणमेतन्त्र दूषणम्। वही, वृत्ति, पृ. 103, तुलनीय काव्यप्रकाश अ.म विभावादीनां च समस्तानामभिव्य-जकत्वं न व्यस्तानाम् व्यभिचारात् काव्यानु, वृत्ति, पू, 1038 4. व्याघ्रदयो हि विभावा भयानकस्यैव वीरात्भुत रौद्रणाम्। अनुपातादयोऽ नुभावाः करूपस्येव श्रृंगारभयानकयो श्चिन्तादयो व्यभिचारिणः करूपस्येव भंगारवीरभयानकानाम्। 2. 3. 131 .... इत्यादि । वही, वृत्ति, पृ, 103 तुलनीयः काव्यप्रकाश, वृत्ति पृ. 113 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिये विभावादि को व्यस्त ( अलग-अलग रूप ते रसाभिव्यक्ति का कारण मानना असंगत है, जबकि इन्हें सम्मिलित रूप से कारण मानने पर कोई दोष नहीं रह जाता है। जैसे- प्रियमरण आदि विभावरोदन आदि अनुभाव एवं चिन्ता आदि व्यभिचारी भाव ये तीनों मिलकर करूप रस की ही अभिव्यक्ति करते हैं, अन्य रस की नहीं। इसलिये इन तीनों को समस्त रूप में रसाभिव्यक्ति का हेतु माना गया है, व्यस्त रूप में नहीं। यदि काव्य में कहीं विभावादि (विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव ) में से किसी एक अथवा दो का ही वर्पन होता है तो भी अन्य एक अथवा दो भावों का आक्षेप उपचार से कर लिया जाता है।' उदाहरणार्थ "केली क दलितस्य'.. ' इत्यादि में केवल सुन्दरी रूप आलम्बन विभाव का ही वर्णन है, किन्तु यह विभाव अन्य अनुभाव व व्यभिचारि भावों को आक्षिप्त करके सम्मिलित रूप से ही रताभिव्यक्ति का हेतु बनता है। इसी प्रकार "यद्विश्रम्य 3... इत्यादि देखने की विचित्रता, अंगों की कृशता, वैवर्य आदि अनुभावों का वर्णन किया गया है, अन्य विभाव व व्यभिचारी भावों का आक्षेप से बोध होता है तथा 'दूरादुत्सुकमागते... इत्यादि में औत्सुक्य, लज्जा, हर्ष, क्रोध, अनुसूया व प्रसाद आदि व्यभिचारिभावों का ही वर्णन है, फिर भी उनके (व्यभिचारी भावों के) औचित्य से अन्य दो भावों (विभाव, अनुभाव ) का आश्वैप हो जाता है। 1. 2. 3. 4. 4" वही, टीका, पृ. 105 वही, पृ, 104 वही, पृ. 104 , 104 वही, 132 " Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य के अनुसार विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारीभाव मिलकर रसाभिव्यक्ति करते है, इस नियम में कोई व्यभिचार नहीं होता है। 133 आचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र की रसस्वरूप विषयक मान्यता अन्य सभी आचार्यों से विलक्षण है। उनके अनुसार विभाव और व्यभिचारीभाव आदि के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त होने वाला तथा स्पष्ट अनुभावों के द्वारा प्रतीत होने वाला, स्थायिभाव ( रूप ही ) सुखदुः रवात्मक रस होता है।' प्रस्तुत स्वरूप की व्याख्या में प्रतिक्षण उदय और अस्त धर्म वाले अनेक व्यभिचारिभावों में जो अनुगतरूप से अवश्य विद्यमान रहता है वह "स्थायिभाव" कहलाता है। अर्थात् स्थायिभाव के रहने पर ही उसके रहने तथा न रहने पर व्यभिचारिभावों के न रहने ते व्यभिचारिभावरूप ग्लानि के प्रति इत्यादि निश्चित रूप स्थायिभाव होता है। उपर्युक्त व्यभिचारिभाव आदि सामग्री के द्वारा परिपाक को प्राप्तकर रसरूप रत्यादि भवतीति भाव:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार भाव कहलाता है। विभाव अर्थात् ललना उद्यानादि आलम्बन व उद्दीपन विभावरूप वाह्य कारणों द्वारा पहले से विधमान स्थायिभाव का ही अविर्भाव होने से तथा सहृदयों के मन में विद्यमान ग्लानि आदि व्यभिचारिभावों के द्वारा परिपुष्ट होने के कारण, उत्कर्ष को प्राप्त अर्थात साक्षात्कारात्मक अनुभूयमानावस्था को प्राप्त, यथासंभव सुख-दुःखोभयात्मक, 1. स्थायी भावः श्रितोत्कर्षो विभाव-व्यभिचारिमः । स्पष्टानुभावनिश्चयः सुखदुःखात्मको रसः ।। हिन्दी नाट्यदर्पण 3/7 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 * रस्यते इति रस:" इस व्युत्पत्ति ते आस्वाद्यमान होने से वही स्थायिभाव रस कहलाता है । ' उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाट्यदर्पणकार रस को सुख-दुःख : रूप उभयात्मक मानते हैं। अतः यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे सम्पूर्ण नौ रसों को सुख-दुःखात्मक मानते हैं? अथवा कुछ रसों को सुखात्मक मानते हैं तथा कुछ को दुःखात्मक। इसी को स्पष्ट करते वै लिखते हैं कि इष्ट विभावादि के द्वारा स्वरूप सम्पत्ति को प्रकाशित करने वाले श्रृंगार, हास्य वीर, अद्भुत तथा शान्त ये पाँच सुखात्मक रस हैं तथा अनिष्ट विभावादि के द्वारा स्वरूप लाभ करने वाले करूण, रौद्र वीभत्स तथा भयानक ये चार दुःखात्मक रस हैं। 2 उनका कथन है कि कुछ आचार्यों के द्वारा जो सब रसों को सुखात्मक बतलाया गया है व प्रतीति के विपरीत है। क्योंकि वास्तविक करूषादि विभावों की तो बात ही जाने दो, उससे तो दुःख होगा ही, किन्तु काव्य नाटक आदि मैं नटों के द्वारा अवास्तविक रूप में प्रदर्शित अभिनय में प्राप्त विभावादि से उत्पन्न भयानक, वीभत्स, करूप अथवा रौद्र रस का आस्वादन करने वाला व्यक्ति अवर्षनीय कष्ट का अनुभव करता है। अतएव भयानकादि दृश्यों से सामाजिक उद्विग्न हो जाते हैं। यदि सब रस सुखात्मक ही होते तो सुखास्वाद से किसी को उद्वेग नहीं होता है, इसलिए करूपादि रस दुःखात्मक ही होते हैं। और.. 1. हिन्दी नाट्यदर्पण, 3/7 वृत्ति । 2. इष्ट विभावादिग्रथितस्वरूपसम्पत्तय: श्रृंगार- हास्य-वीर अद्भुत शान्ताः सुखात्मानः। अपरे पुनरनिष्ट विभावाद्युपनीतात्मानः करूप-रौद्र-वीभत्स - भयानकाश्चत्वारो दुःखात्मानः । हिन्दी नाट्यदर्पण, पू, 290 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 करूपादि रसों से भी सहृदयों में चमत्कार दृष्टिगत होता है, वह रसास्वाद के समाप्त हो जाने पर यथास्थित जैसे-तैसे पदार्थों को दिखलाने वाले कवि तथा नट के शक्ति कौशल से होता है क्यों कि वीरता के अभिमानी जन भी एक ही प्रहार में सिर को काट डालने वाले, प्रहार-कुशाल शत्रु के कौशॉल को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। और इसी सांग आनन्दानुभति से कवि और नटगत शक्ति से उत्पन्न चमत्कार के द्वारा ठगे हुए से द्विान् दुःयात्मक करूपा दि रतों में परमानन्दरूपता का अनुभव करते हैं। इसी आस्वाद के लोभ से दर्शक भी इनमें प्रवृत्त होते हैं।' कविगप तो सुख दुःखात्मक संसार के अनुरूप ही रामादि चरित्र की रचना करते समय सुख-दुःखात्मक रतों से युक्त ही काव्य नाटकादि की रचना करते है और जिस प्रकार पानक-रस का माधुर्य तीक्ष्प आस्वाद से और अधिक अच्छा लगता है, उसी प्रकार करूपादि दुःख प्रधान रसों में दुःख के तीखें आस्वाद से मिलकर सुयों की अनुमति और भी अधिक आनन्ददा यिनी बन जाती है। नाटकादि में सीता के हरप, द्रौपदी के केशा एवं वस्त्राकर्षप, हरश्चिन्द्र की चाण्डाल के यहाँ दासता, रोहिताश्व के मरण, लक्ष्मप के शापित-भेदन, मालती के मारने के उपक्रम आदि के अभिनय को देखने वाले सहदयों को सुखास्वाद कैसे हो सकता है। अतः करूपादि रसों को सुखात्मक मानना उचित नहीं है। इसी के समर्थन में आगे युक्ति देते कहते हैं कि नट के द्वारा करूपादि प्रसंगों में किया जाने वाला अभिनय दुःखात्मक ही है। यदि अनुकरप में उसे सुखात्मक मानेंगे तो वह सम्यक् अनुकरप नहीं होगा। 1. हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/1 वृत्ति 2. हि नाट्यदर्पण 3/7 वृत्ति Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 अपितु विपरीत होने से आभास हो जायेगा। जो इष्टजनों के वियोग से दुःखी व्यक्तियों के सामने करूपा दि के वर्णन अथवा अभिनय से सुखानुभूति होती है, वह भी यथार्थ में दुःयानमति ही है। क्योंकि दुःखी व्यक्ति दुखियों की वार्ता से सुख जैसा अनुभव करता है और प्रमोदकारी वार्ता से दुखित होता है। अत: करूपादि रस दुःखात्मक ही हैं।' ___ रतों को सुखात्मक और दुःखात्मक स्वीकार करने वाले प्रथम आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र नहीं हैं। इनसे पूर्व भी कुछ इस प्रकार के स्पष्ट कथन मिल जाते हैं। पर नाट्यदर्पप रामचन्द्र गुपचन्द्र का रससिद्धान्त अन्य आचार्यों के सिद्धान्त विलक्षण ही है। वह यह कि अन्य आचार्यों ने रस को अलौकिक माना है। लोक मे होने वाली स्त्री-पुरुष की परस्पर रति को अन्य आचार्यो ने रस नहीं माना है। काव्य नाटक में होने वाले विभावादि को ही उन लोगों ने विभावादि शब्द से कहा है। उनके मत में विभावा दि शब्द मी लोक के नहीं काव्य नाटक के क्षेत्र में सीमित शब्द हैं। जबकि नाट्यदर्पपकार ने लौकिक स्त्री पुरुष आदि को भी "विभावादि' शब्दों से और उनकी रति आदि को भी "रस' शब्द से निर्दिष्ट किया है। इसलिये उन्होंने सामान्य विषयक तथा विशेष विषयक द्विविध रसों की स्थिति मानी है। इसी को स्पष्ट करते ग्रन्थकार लिखते हैं कि जहाँ (अर्थात लोक में ) वास्तविक रूप में ह. नाइपरपण, आकृति 2. क- अभिनवभारती भाग 1, पृ. 219-20 ( नगेन्द्र ) - रसस्य सुखदुःवात्मकतया तमयलक्षपत्वेन उपपद्यते, अतएव तदुभयजनकत्वम् । -रसकलिका। रूद्रभट्ट नम्बर आफ रसाज पृ. 155 हिन्दी नादयउर्पप पृ. 84 से उधत ग- रसा हि सुखदःवरूपाः श्रप्र. 2यभाग पृ. 369 हिन्दी नाट्यदर्पप पृ. 84 से उत्त Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थित विभाव (सीता राम आदि) निश्चित व्यक्ति विशेष में (रत्यादिरूप) स्थायिभाव को रसरूपता को प्राप्त कराते हैं वहाँ रस का आस्वाद नियत व्यक्तिविशेष में होता है। जैसे कि लोक में कोई युवक किसी युवति को लेकर उसके विषय में अपनी रति को श्रृंगाररस के रूप में आस्वादन करता है। यहाँ रस की प्रतीति विशेष विषयक व लौकिकी हुई। जहाँ लोक में वास्तविक रूप मैं स्थित, पर) अन्य में अनुरक्त वनिता को ( अर्थात् परकीया नायिका को ) लेकर अनेक व्यक्तियों में सामान्य विषयक रति परिपोषण होता है, वहाँ नियत व्यक्ति विशेष से सम्बद्ध रूप श्रृंगाररस का आस्वाद नहीं होता है अर्थात् एक स्त्री से अनेक व्यक्तियों को सामान्यरूप से श्रृंगारानुभूति होती है क्योंकि ऐसे उदाहरणों में स्त्री आदि रूप विभावों से सामान्य रूप से अनेक व्यक्ति विषयक . रति आदि स्थायिभाव का आविर्भाव होने से सामान्य विषयक ही रसास्वाद होता है। इसी प्रकार अपने किसी प्रिय बन्धु के वियोग से पीड़ित युवतिको रोते देखकर देखने वाले अनेक व्यक्तियों को सामान्य विषयक ही करुणरस का आस्वाद होता है। इसी प्रकार अन्य रसों में भी दोनों प्रकार की स्थिति होती है।' किन्तु काव्य तथा नाटक में विभावादि वास्तविक रूप मैं विद्यमान नहीं होते है केवल काव्य तथा अभिनय के द्वारा समर्पित होते है। इसलिये उनसे विशेष विषयक रसानुभूति न होकर सामान्य विषयक रसानुभूति ही होती है। 2 1. हिन्दी नाट्यदर्पण, पू, 296-97 2. हिन्दी नाट्यदर्पण, पू, 297 137 - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचन्द्र गुणचन्द्र के अनुसार रसानुभव के 5 आधार होते हैं: 1. लौकिक स्त्री-पुरुष 2. 3 4. नट काव्य तथा नाटक का श्रोता कवि एवं नाट्य का अनुसन्धाता, और 5. सामाजिक - 138 अनुकार्य, अनुकर्ता, श्रोता व अनुसन्धाता में रस की प्रतीति प्रत्यक्ष रूप में एवं सामाजिक को परोक्ष रूप में होती है। सामाजिक में स्थित र लोकोत्तर होता है और अन्यत्र स्थित लौकिक । रस मुख्य रूप से किसमें रहता है? इसके उत्तर में नाट्यदर्पण कार का कथन है कि चित्तवृत्तिरूप रस का आविर्भाव सामाजिक ही होता है और काव्यार्थपरिशीलनकर्ता सामाजिक चिन्तवृत्तिरूप रस का आस्वादन अपने आन्तरिक सुख की तरह करते हैं, न कि वाह्य वस्तु जन्य सुख की तरह । जैसे मोदकादि वाह्य वस्तु से सुखास्वाद होता है, उससे विलक्षण काव्यार्थ भावना जन्य रस का आस्वाद है।' इसलिये रस का आस्वादक सामाजिक I. श्रितोत्कर्षो हिचेतोवृत्तिरूपः स्थायी भावो रसः, स चाचेतनस्य काव्यस्यात्माधेयो वा कथं स्यात् १ ततः काव्यार्थप्रतिपत्तैरनन्तरं प्रतिपतृणां रसाविर्भावः । प्रतिपत्तारश्चात्मस्थं सुखमिव रसमास्वादयन्ति । न पुन:र्बहिःस्थं र मोदकमिव प्रतियन्ति । अन्यो हि मोदकस्यास्वादोऽन्यश्च प्रत्यया रसस्य । हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ. 302 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 ही है, नट - अनुवर्ता या अनुकार्य रामा दि नहीं है।' नरेन्द्रप्रभतरि ने विभाव अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों से अभियक्त होने वाले रत्यादि स्थायिभाव को रस कहा है। तत्पश्चात भरत - रस - सूत्र को प्रस्तुत करते हुए आचार्य मम्मट के सदृशा मट्टलोल्लट, शैकुक, भट्टनायक व अभिनवगुप्त के रमविषयक मतों का प्रतिपादन किया है।' ___ आचार्य वाग्भट द्वितीय ने विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों से अभिव्यक्त होने वाले स्थायिभाव को रस कहा है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि अन्याचार्यों के समान जैनाचार्यों ने भी प्रायः भरत-रस-सूत्र को आधार मानकर अपना रस-स्वरूप निरूपप किया है। - - - - - - - - - - - - - - - - काव्ये नटेऽन्यत्रवा रसत्यासत्वात असतश्चापि प्रत्यये अह्दयस्यापि प्रतीतिः स्यात्। ततो विभावयतिपादककाव्यपतिपत्तेरनन्तरं प्रतिपत्तुरेव स्थायी रसो भवति। हिन्दी नाट्यदर्पप, पृ. 303 2. विभावैरनुभावैधच व्यक्तोऽय व्यभिचाभिः । स्थायी रत्यादिको भावो रसत्वं प्रतिपद्यते।। __ अलंकारमहोदधि 3/12 3. अलंकारमहोदधि, 3/12 वृत्ति + काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 53 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 रस - भेद रस - भेदों के सन्दर्भ में साहित्यशास्त्रीय प्राचीन आचार्यों में बहुत मतभेद रहा है। कतिपय आचार्य श्रृंगार हास्य, करूप, रौड़, वीर, भयानक, वीभत्स व अमृत इन आठ रस - मेदों को स्वीकार करते हैं। अन्य आचार्य उपर्युक्त रस के आठ मेदों में शान्तरस का समावेश करते हुए रसों की संख्या नौ मानते हैं तथा कुछ लोग नाटक में शान्तरस की स्थिति नहीं मानते हैं। नाट्यशास्त्र के प्रपेता भरतमुनि ने श्रृंगार - हास्य आदि आठ रसों को नाट्य में स्वीकार किया है।' आचार्य मम्मट ने भरतमुनि की कारिका को यथावत् उद्धत करते हुए 9वें शान्तरस की परिगफ्ना अलग से की है। संभवत: इसका कारण यह है कि "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः' नाट्यशास्त्र के इस कारिकांश को लेकर बहुत विवाद रहा है। भामह व दण्डी आदि ने 8 रसों का प्रतिपादन कर शान्तरस नहीं माना है। उमट, आनंदवर्धन व अभिनवगुप्त ने स्पष्ट रूप से शान्तरस का प्रतिपादन किया है। धनंजय व धनिक ने शान्तरस का खण्डन करते हुए लिखा है कि नाट्य में शान्तरस होता ही नहीं है। 1. श्रृंगारहात्यकरूपरौद्रवीरभयानकाः । वीभत्सान्भुतसंज्ञा घेत्यष्टौ नाट्ये रताः स्मृता।। नाट्यशास्त्र 6/15 काव्यप्रकाशं 4/29 3 वही, 4/35 ५. काव्यप्रकाश, आचार्य विश्वेश्वर, पृ. ।।6 5. शममपि केचित्पाहुः पुष्टिर्नाट्येषु नैतत्य। दशरूपक 4/33 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 भरतमुनि के समकालीन जैनाचार्य अनुयोगद्वारसूत्रकार आर्यरक्षित ने पुराने आठ रतों में नवां प्रशान्त रस सम्मिलित करते हुए नौ रसों का उल्लेख किया है।' डा. कमलेश कुमार जैन ने इन नौ रसों के नाम इस प्रकार बताये है -1) वीर, (2) श्रृंगार, (3) अद्भुत, (4) रौद्र, (5) बीडनक, (6) वीभत्स, ( 7 ) हास्य, ( 8 ) करूप व(७) प्रशान्त। इसके साथ ही उन्होंने अनुयोगद्वारसूत्र ते कारिका भी उद्धत की है। इस प्रकार यहाँ एक नवीन बात ये दृष्टिगत होती है कि आचार्य आर्यरक्षित ने भरता दि आचार्यो दारा उल्लिखित भयानक रत के स्थान पर वीडनक्र रस का उल्लेख किया है। किन्तु इसकी सत्ता में सन्देह है क्योंकि इसे परवर्ती आवार्यो द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हुई है। इसी लिये डा. दी. राघवन आदि आधुनिक काव्यशास्त्री वीडनक को स्वतंत्र रस की सत्ता नहीं देते हैं। जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने श्रृंगार, वीर, करूप, हास्य, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभत्स और शान्त इन नौ रतों को स्वीकार किया है। 4 1. गटव्य - द नम्बर आफ रसाब, पृ. 24 2. वीरो सिंगारो अब्भओ अ रौढ्दो अ होइ बोदव्वो। वेलपओ बीभच्छो, हासो कलपो पंसतो अ ।। अनुयोगद्वारसत्र प्रथम भाग, पु, 828, “जैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान" पृ. 105 से उद्धत। 3 दी नम्बर आफ रसाप, वी, राघवन, पृ. 143 + वाग्भटालंकार - 5/3 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 आचार्य हेमचन्द्र ने भी नौ रस स्वीकार किये हैं पर उनका क्रम इस प्रकार है - श्रृंगार, हास्य, करूप, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत व शान्त।' इस क्रम को अपनाने में उनका एक विशेष प्रयोजन है। उनका कथन है कि रति ( श्रृंगार रस का स्थायीभाव) के सभी प्राणियों में सुलभ होने से, सबके अत्यन्त परिचित होने से एवं सबके प्रति आझादक होने के कारप सर्वप्रथम श्रृंगार रस का गृहप किया गया है। श्रृंगार का अनुगामी होने के कारप तत्पश्चात् हास्य रस को रखा गया है। निरपेक्ष भाव होने के कारण उस हास्य के विपरीत करूप को हास्य के बाद रखा गया है। तत्पश्चात् करूप-रस का निमित्तभूत तथा अर्थप्रधान रौद्ररत का उल्लेख हुआ है। इस प्रकार कामप्रधान एवं अर्थप्रधान रसों का उल्लेख करने के पश्चात काम और अर्थ के धर्ममलक होने के कारण धर्मप्रधान वीररस को रखा गया है। वीररस का "भीतों को अभय प्रदान करना" रूप प्रयोजन होने से इसके बाद भयानक रस का कथन है। भयानक रस के समान ही वीभत्स रस के विभाव होने से भयानक के पश्चात वीभत्स रस को ग्रहण किया गया है, जो वीररस के द्वारा आक्षिप्त है। वीररस के अन्त में अदभुत रस की प्राप्ति होती है, अत : अद्भुत रस का ग्रहण किया गया है। इसके पश्चात धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग के साधनभूत प्रवृत्ति-धर्मों से विपरीत निवृत्ति धर्म - प्रधान मोक्ष रूप फल वाला शान्त रस होता है, अत: उसका गहए किया गया है। ठीक इसी प्रकार का विवेचन अभिनवभारतीकार आ, अभिनवगुप्त ने श्री आचार्य हेमचन्द्र से पूर्व । • काव्यानुशासन, 2/2 2. काव्यानुशासन, 2/2 वृत्ति Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 किया है। ___ आचार्य हेमचन्द्रानुसार ये नौ रत परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। अतः आद्रता रूप स्थायिभाव वाले स्नेह को रस मानना उनकी दृष्टि में असंगत है क्योंकि उसका रत्यादि भावों में अन्तर्भाव हो जाता है। उसी प्रकार युवकों का मित्र के प्रति स्नेह रति में, लक्ष्मपादि का भाई के प्रति स्नेह धर्मवीर में और बालकों का माता-पिता आदि के पति स्नेह का भयानक - रस में अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार तुद का पुत्रादि के प्रति स्नेह के विषय में समझना चाहिए तथा गंध स्थायिभाव वाले लौल्य रस का हास, रति अथवा अन्यत्र अन्तर्भाव सम्झना चाहिए। इसी प्रकार भक्तिरस का अन्तर्भाव भी अन्य रसों में किया जा सकता है। 1. तत्र कामस्य सकलजातिसलमतयात्यन्तपरिचितत्वेन सर्वान प्रतियतेति पूर्व श्रृंगारः। तदनुगामी च हास्यः । निरपेक्षभावत्वात् तापिरीतस्ततः करूपः। ततस्तन्निमित रौद्रः। स चार्थप्रधानः। ततः कामार्थयोधर्ममलत्वाद वीरः। स हि धर्मप्रधानः। तस्य च मीतामयपदानसारत्वात। तदनन्तरं भयानक:। तद्विभावसाधारण्यसम्भावनात ततो वीभत्स इति। वीरत्य पर्यन्तेऽद- . भतः। यदीरेपा क्षिप्त फ्लमित्यनन्तरं तदपादानम । ... ततस्त्रिवर्गात्मकप्रवृत्तिधर्मविपरीत - निवृत्ति धर्मात्मको मोक्षफ्ल: शान्ति। - अभिनवभारती, पृ. 432 2. काव्यानुशासन, 2/2 वृत्ति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 उक्त कथन से ये प्रतीत होता है कि कुछ लोग स्नेह, लौल्य एवं भक्ति रस को भी स्वीकार करते थे, किन्तु इन रसों को अलग से स्वीकार करना हेमचन्द्र को मान्य नहीं। अतः उन्होंने उक्त रसों का खंडन करके अंगारादि रतों में ही उनका अन्तर्भाव किया है। आचार्य रामचन्द्र गुपचन्द्र ने नौ रतों का उल्लेख किया है।' उन्होंने श्रृंगारादि रसों को उसी क्रम से प्रस्तुत किया है, जो क्रम हेमचन्द्र ने अपनाया है तथा इनके रखने में भी वही हेतु प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें हेमचन्द्र ने स्वीकार किया है। इसके अतिरिगत आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि श्रृंगारादि नौ रस विशेष रूप से मनोरंजक एवं पुरुषार्थों में उपयोगी होने से पूर्ववर्ता आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट किये गये है किन्तु इनसे भिन्न और रत भी हो सकते हैं। जैसे तृष्णा (लालच)रूप स्थायिभाववाला लौल्य, आर्द्रतारूप स्थायिभाव वाला स्नेह, आसक्ति रूप स्या यिभाववाला व्यसन, अरति रूप स्थायिभाव वाला दुःस और संतोष रूप स्थायिभाववाला सुख - इत्यादि अन्य रस भी हो सकते हैं। कुछ लोग इन्हैं रस तो मानते हैं, किंतु अन्तर्भाव पूर्वोक्त नौ रतों में ही कर लेते हैं। 1. हिन्दी नाट्यदर्पप 3/2 2. वही 3/9वृत्ति 3. वही, 3/१, वृत्ति Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने श्रृंगारादि नौ रतों को स्वीकार किया है।' इन्होंने रसकम में आचार्य हेमचन्द्र का ही अनुकरप किया है तथा अपने इस क्रम को अपनाने के लिये उन्होंने जो हेतु प्रस्तुत किए हैं वे हेमचन्द्रसम्मत ही हैं। उन्होंने आर्द्रता रूप स्थायिभाव वाले स्नेहादि सभी रसों का रत्यादि ( श्रृंगारादि) रतो में ही अन्तर्भाव किया है। उन्हें शान्तरस की स्थिति नाट्य में भी स्वीकार थी, ऐता उनके 'नवनाट्ये रसा अमी 'कथन ते स्पष्ट होता है। आचार्य वाग्भट द्वितीय ने भी श्रृंगार, हास्य, करूप, रौद्र, वीर भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवं शान्त - ये नव रस स्वीकार किये हैं। जिनका क्रम हेमचन्द्र सम्मत ही हैं। आचार्य भावदेवसरि ने यमपि नौ रसों की गपना स्पष्ट रूप से नहीं की है तथापि उनके द्वारा प्रतिपादित नौ विभावों की गणना से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्हें नौ रस- मेद ही मान्य है। 1. श्रृंगार-हास्य करूपा रौद्र-वीर-भयानकाः। वीभत्साह तशान्ताच नव नाट्ये रसा अमी।। ___ - अलंकारमहोदधि, 3/13 2. वही 3/13 वृत्ति । ॐ काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 53 +. काव्यालंकारसार.8/3 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता हैद कि जैनाचार्य वाग्भटप्रथम, हेमचन्द्र, रामचन्द्र-गुपचन्द्र, नरेन्द्रप्रभतरि, वाग्भट द्वितीय व भावदेवतरि नौ रस - मेदों के समर्थक हैं। हेमचन्द्र, रामचन्द्र-गुपचन्द्र व नरेन्द्रप्रभसरि ने रस - क्रम - निरूपप में वे ही हेतु स्वीकार किए हैं जो अभिनवगुप्त को मान्य थे। नरेन्द्रप्रभसरि ने स्पष्ट रूप से शान्त रस की स्थिति नादय में स्वीकार की है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किया गया रस-भेद विवेचन भरतपरम्परा का अनुसरण करते हुए भी अनूठा है। श्रृंगारादि आठ या नौ रतों को सभी आचार्य स्वीकार करते हैं, जो इस प्रकार है - श्रृंगार रस - अंगार रस का स्थायिभाव रति है। आचार्य भरतानुसार ये उत्तम प्रकृति वाले नायक-नायिका में होता है। इसके दो भेद हैं - संभोग श्रृंगार व विप्रलम्भ श्रृंगार। संभोग - श्रृंगार, ऋतु, माला, अनुलेपन, अलंकार धारप, इष्टजन, सामीप्य, विषय, सुन्दर भवन का उपभोग, वनागमन तथा अनुभव करने, सुनने, प्रिय के देख्ने तथा कीडा और लीलादि विभावों से उत्पन्न होता है। किन्तु जब नायक-नायिका एक दूसरे से विद्युड़कर दुःखानुभति करते हैं तब विप्रलम्भ श्रृंगारकी अपत्ति होती है। • नाट्यशास्त्र, 6/45 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 आचार्य धनंजय ने अंगार के तीन भेद किए हैं - - अ योग, विप्रयोग तथा संयोगा' मम्मट ने श्रृंगार रस के भरत-सम्मत ही उक्त दो भेद करके संयोग - श्रृंगार के परस्पर अवलोकन, आलिंगन, अधरपान, चम्बनादि अनन्त भेद होने से अगपनीय एक ही भेद गिना है तथा विप्रलंभ श्रृंगार के अभिलाष, विरह, ईया, प्रवास और शाप के कारप 5 भेद माने हैं। जैनाचार्य वाग्भट - प्रथम के अनुसार - स्त्री और पुरूष का परस्पर प्रेम भाव श्रृंगार है। यह दो प्रकार का होता है- संयोग और विप्रलम। स्त्री - पुरुष का मिलन संयोग श्रृंगार है और उनका वियोग विपलम्म श्रृंगार है। पुनः श्रृंगार के दो भेद उन्होंने और किए हैं- प्रच्छन्न तथा प्रक्ट।। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार (अव्य काप्य में) सुने जाते हुए अथवा नाट्य अभिनय आदि में) देखे जाते हुए आलम्बन एवं उद्दीपन रूप स्त्री-पुरूष एवं परस्पर उनके उपयोगी माल्य, ऋतु, शल, नगर, महल, नदी, चन्द्र, पवन, उद्यान, बावड़ी, जल एवं क्रीडा इत्यादि विभाव वाली एवं जुगुप्ता, आलस्य तथा उग्रता से रहित अन्य (समस्त तीस) व्यभिचारि भाव वाली, स्थिर अनुराग वाले एवं संभोग सुख की इच्छा वाले तरूप कामी एवं कामिनी की परस्पर विभा विका बनी हुई तथा उन दोनों (तरूप एवं तरूपी)में एक 1. हिन्दी दशरूपक, पृ, 268 । काव्यप्रकाश, पृ. 121-123 वाग्भटालंकार - 5/5-6 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 रूप से प्रारंभ (परस्पर अनुराग) से लेकर फल (संभोग ) पर्यन्त व्याप्त रहने वाली अलौकिक सुख प्रदान करने वाली आशाबन्धात्मिका रतिरूप जो स्थायी भाव है, वही चर्यमाप होता हुआ शृंगार रस कहलाता है।' संक्षेप में - कामी युगल में एक रूप से व्याप्त रहने वाला, आस्वापमान होता हुआ रतिरूप स्थायीभाव ही श्रृंगार रस है। इस रति के स्त्री, पुरूष माल्यादि विभाव होते हैं तथा जुगुप्ता, आलत्य एवं उगता को छोड़कर अन्य सभी तीस व्यभिचारीभाव हो सकते हैं। श्रृंगार रस की दो अवस्थाएं हैं- संभोग एवं विप्रलम्भा आचार्य हेमचन्द्र की धारपा है कि संभोग और विप्रलम्भ ये श्रृंगार के दो भेद नहीं है अपितु शाबलेय (चितकबरा) व बाहुलेय ( काला)गोल्व की भांति श्रृंगार की दो प्रकार की दशा ही हैं। दोनों के साथ श्रृंगार उसी तरह प्रयुक्त होता है, जेते - गाम के एक देश को भी गाम कहा जाता है। उनका कथन है कि विप्रलम्भ में भी अविच्छिन्नरूप से संभोग की कामना रहती है। निराश हो जाने पर तो करूप रस ही होगा, विप्रलम्भ नहीं। संभोग श्रृंगार में भी यदि वि रह की आशंका नहीं होगी तो प्रियजन के निरन्तर अनकल रहने पर अनादर ही होगा; क्योंकि काम की गति वाम होती है। जैसा कि भरतमुनि ने कहा है -"प्रतिकूल विषय के प्रति जो उत्कट अभिलाषा होती है, तथा उससे जो निवारण किया जाता है और जो नारी की दुर्लभता होती है 1. काव्यानुशासन, पृ. 108 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 वह कामी की गाद रति है।' अर्थात रति का परिपोष निरन्तर कामना के बने रहने पर ही संभव है। इसलिए दोनों दशाओं - संभोग व विपलंभ के मिलन में ही श्रृंगाररस का अतिशय चमत्कार है। जैसे - "एकत्मिन् शायने. इत्यादि। यहाँ पर ईा विपलम्भ एवं सम्भोग के सम्मिलन ते दम्पति के विभाव, अनभाव व व्यभिचारी भावों के द्वारा अतिशय रस की अनुभति होती है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार सुखमय धृति आदि व्यभिचारिभावों व रोमांचादि अनुभावों वाला संभोग श्रृंगार है।* लज्जा इत्यादि के द्वारा निषिद्ध होते हुए भी इष्ट जो प्रिय दर्शन आदि है, वे ही कामीयुगल के द्वारा जहाँ सम्यक्पेप भोगे जाते हैं, उसे ही संभोग कहते हैं, और यह सुखमय होता है। धृति आदि व्यभिचारिभाव होते हैं। रोमांच, स्वेद, कम्प, अश्रु, मेखला - स्खलन, श्वसित, विक्षोम, केशाबन्धन, वस्त्र-संयमन, वस्त्राभरप, माल्यादि के विचित्र प्रकार से सम्यक् निदेर्शन में क्षपिक चाटुकारी आदि वा चिक, कायिक व मानसिक व्यापार के लक्षण वाला अनुभाव होता है। इस प्रकार इसके परस्पर अवलोकन, आलिंगन व चुम्बन आदि अनन्त 1. यद्वामाभिनिवेशित्वं यतश्च विनिवार्यत। दर्लमत्वंच यन्नार्याः कामिनः सा परा रतिः।।। ना.शा.अ. 22 श्लोक 193, नि. सा. काव्यानुशासन, पृ. 108 से उत्त काव्यान. पू. 108 3 वही, पृ. 108-109 पर वही, पृ. 109 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 भेद होते हैं। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने आचार्य मम्मट 2 की भांति अनंत भेद संभव माने हैं तथा दृष्टान्त रूप में "दृष्ट्वैकासनसंगते... 3. इत्यादि श्लोक को प्रस्तुत किया है जिसमें नायिका के चुम्बन का वर्णन होने से संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति हो रही है। विप्रलंभ श्रृंगार का लक्षण देते हुए हेमचन्द्र लिखते हैं - शंकादि व्यभिचारिभावों व संतापादि अनुभावों वाला विप्रलंभ अंगार है। 4 उनके अनुसार सम्भोगजन्य सुखास्वाद के लोभ से व्यक्ति इसमें विशेष रूप से ठगा जाता है, इसलिये इसे विप्रलम्भ कहते हैं। 5 विप्रलम्भ श्रृंगार में शंका, औत्सुक्य, मद, ग्लानि, निद्रा, सुप्त, प्रबोध, चिन्ता, असूया, श्रम, निर्वेद, मरण, उन्माद, जड़ता, व्याधि, स्वप्न एवं अपस्मार आदि व्यभिचारिभाव होते हैं। और संताप, जागरण कृशता, प्रलाप, क्षीणता, नेत्र एवं वापी की वक्रता, दीन संचरण, अनुकरण, कृति, लेख - लेखन, वाचन, स्वभाव निह्नव, वार्ता, प्रश्न, स्नेह - निवेदन, 1. स च परस्परावलोकना लिंगनचुम्बन पानाद्यनन्तभेदः । वही, पृ. 109 2. 3. 150 ما तत्रायः परस्परावलोकना लिंगना धरपानपरिचुम्बनाद्यनन्तभेदत्वादपरिच्छेद्य इत्येक एव गण्यते । काव्यप्रकाश, वृत्ति, 121 पृ० काव्यानुशासन, पृ. 110 वही, पृ. 110 5. संभोगसुखाभ्वादलोभेन विशेषिष पलभ्यते ( आत्माऽत्रेति विप्रलंभः । वही, पृ. 110 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 सात्त्विक, अनुमान, शीत - सेवन, भरपोयम तथा संदेश आदि अनुभाव होते हैं।' यह विपलंभ श्रृंगार तीन प्रकार का होता है - (1) अभिलाष विप्रलम्भ, (2) मान विप्रलंभ एवं (३) प्रवास विप्रलंभ। आ. हेमचन्द्र का कथन है कि उपर्युक्त तीन प्रकार के विप्रलम्भ के अतिरिक्त और कोई विप्रलम्भ नहीं होता है। यदि कोई करूण विप्रलम्भ को विप्रलम्भ श्रृंगार के अन्तर्गत मान लेता है तो यह अनुचित है क्योंकि करूपविप्रलंभ तो वास्तव में करूप ही है। उदाहरपार्थ- "हृदये वसती ति.... इत्यादि करूण विपलम्भ का उदाहरप है जिससे वास्तव में करूप रत की ही प्रतीति हो रही है। । अभिलाष विप्रलम्भ दो प्रकार का होता है - देवदश विपलंभ। इसका उदाहरप - "शैलात्मना पि..:' इत्यादि आचार्य ने दिया है। इसमें विपलम्म देववशात हुआ है। द्वितीय भेद है - पारवश्य विप्रलम्भ। जिसका उदाहरप "स्मरनवनदीपूरेपोटा.... इत्यादि पद्य है। 1. वही, पृ. ।।। 2. काव्यानुशासन, पृ. ।।। 3 वही, पृ. ।।। वही, पृ, ।।। - वही, पू, 11-112 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 328 मान विपलंम भी दो प्रकार का होता है- (1) प्रपय-जन्य मान और(2) ईाजन्य मान।। प्रेमपूर्वक वशीकरप को प्रपय कहते हैं अर्थात प्रेम का परिपक्व रूप ही प्रपय है और उस प्रपय के भंग हो जाने पर जो मान होता है, वह प्रपयमान कहलाता है। यह प्रपयमान स्त्री (नायिका) का भी हो सकता है, पुरूष ( नायक) का भी हो सकता है और स्त्री-पुरुष दोनों का भी हो सकता है। उदाहरपार्थ - "प्रपयकुपिता..." इत्यादि पप नायिका के प्रपयमान का, "अस्मिन्नेव लतागृहे.... इत्यादि नायक के प्रफ्यमान का एवं "पपयकुवियाफ..5. इत्यादि पध उभयगत प्रपयमान का उदाहरप है। ___ईामान केवल नायिकागत ही होता है। "संध्यां यत्प्रपिपत्य.. इत्यादि इसका उदाहरप है। १४ प्रवास विप्रलम्भ तीन प्रकार का होता है-( क ) कार्यवश विप्रलम्भ (ख) शापवंश विप्रलम्भ, (ग) संभमवश विपलम्भार - - --- - 1. वही, पृ. 112 2. काव्यानुशासन, पृ. 112 प्र वही, पृ, 112 + वही, पृ. 12 5. वही. पृ. 112 वही. पु. ॥3 __ वही. प. ।।3 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 क 8 १ ख १ ग कार्यवश विप्रलम्भ लिए प्रवास (दूसरे स्थान पर जाता है, ऐसी दशा में होने वाले विप्रलम्भ को कार्यवश विप्रलम्भ कहते हैं । यथा "याते द्वारवती -" इत्यादि पद्य में किसी कार्यवश श्रीकृष्ण के द्वारिका चले जाने पर राधा का विरह वर्णित हुआ है। 3. - शापवर्श विप्रलम्भ शाप के कारण दीर्घकाल तक प्रियतम के प्रवास रहने से उत्पन्न विरहावस्था को शापवश विप्रलम्भ कहते हैं। इसके लिये हेमचन्द्र ने कालिदासकृत मेघदूत काव्य को ही उदाहरण बनाया है। 2 - जब किसी कार्यवश प्रियतम दीर्घकाल के - I. वही, पृ. 113 2. वही, पृ. 113 वही, पृ. 113 संभ्रमवश विप्रलम्भ - विप्लववश होने वाली व्याकुलता को संभ्रम कहते हैं यथा * किमपि किमपि 3. इत्यादि पद्य में मकरन्द के 153 युद्ध मैं सहायतार्थ गये हुए माधव की विह्वलता वर्पित है। सोदाहरण विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने विप्रलंभ श्रृंगार के भेद - प्रभेदों का Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 आचार्य रामचन्द्र- गुपचन्द्र के अनुसार सम्भोग व विप्रलंभात्मक दो प्रकार का श्रृंगार रस होता है। उनमें से प्रथम अर्थात संभोग श्रृंगार अनन्त प्रकार का होता है एवं विपलम्भ श्रृंगार -(1) मान, (2) प्रवास, (3) शाप, (4) ईर्ष्या तथा (5) विरहरूप पाच प्रकार का होता है।' आगे वे लिखते हैं एक दूसरे के अनुकूल पड़ने वाले तथा एक दूसरे को प्रेम करने वाले (स्त्री-पुरूष रूप) दो विलासियों का जो परस्पर दर्शन, स्पर्शन आदि है वह संभोग शृंगार कहलाता है। परस्पर अनुरक्त होने पर मी परतन्त्रता आदि के कारप दोनों विलासियों का परस्पर मिलन न हो सकना अथवा चित्त का विलग हो जाना विप्रलंभ श्रृंगार है। संभोग में भी विप्रलंभ की संभावना बने रहने और विपलम्म में भी मन में संभोग का इच्छात्मक सम्बन्ध विद्यमान रहने से शृंगाररस उभयात्मक होता है। किन्तु किसी एक अंश की प्रधानता के कारप संभोग भंगार विपलम्म मगार कहा जाता है। दोनों अवस्थाओं के सम्मिश्रप का वर्णन होने पर विशेष चमत्कार होता है। जैसे - "एकस्मिन शयने" इत्यादि क्या इसमें ईर्ष्या विप्रलम्भ तथा 1. सम्भोग - विपलम्मात्मा अंगारः प्रथमोबहुः । मान-प्रवास-शापेच्छा-विरहै: पंचधाऽपरः। हि. नाट्यदर्पप, 3/10 2. हि. नाट्यदर्पप, पृ. 306 3 हि. नाट्यदर्पप, पृ. 306 ५. हिन्दी नाट्यदर्पप, पृ. 107 5 वही, पृ. 107 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 संभोग दोनों की एक साथ मिश्रित रूप में विभावादि के कारप अत्यन्त चमत्कारयुक्त प्रतीति होती है। ___ इसी प्रकार "किमपि किमपि मन्दं इत्यादि पन में संभोग अंगार के अनेक रूपों का प्रदर्शन किया गया है। विप्रलंम अंगार के 5 मेदों में से ईर्ष्या अथवा प्रपय-कलह के कारण होने वाला वैमनस्य मान कहलाता है। यथा “याते दारवती इत्यादि पघ। समीपस्थ रहने वाले का भी अन्य रूप करा देना "शाप" कहलाता है। जैसे "कादम्बरी' में महाश्वेता के द्वारा वैशम्पायन को शुक बना देना। माता-पिता आदि के परतंत्र होने के कारप इस समय जिन दो प्रेमियों का मिलन नहीं हो पा रहा है किन्तु आगे जिनका प्रथम मिलन होने वाला है उनकी परस्पर मिलन की इच्छा अभिलाष कहलाती है। उसके कारप दो प्रेमियों का जो मिलन का अभाव है वह अभिलाषजन्य विपलम्म कहलाता है। जैसे - "उद्वच्छो पियइ. इत्यादि पध। जिनका सम्मिलन पहले हो चुका है इस प्रकार के प्रेमियों का मातापिता आदि के प्रतिबन्ध के बिना भी अन्य कार्यो के कारप परस्पर मिलन न हो सकना विरह कहलाता है। जैसे - "अन्यत्र बजतीति का खलु इत्यादि पध। 1. वही, पृ. 107 2. वही, पृ. 107-8 3- हिन्दी नाट्यदर्पण, 308 वही, पु, 308 5 वही, पृ. 309 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग तथा विप्रलम्भ रूप दोनों प्रकार के श्रृंगार के विभाव तथा अनुभावों का वर्णन करते रामचन्द्र गुपचन्द्र लिखते हैं कि शृंगार रस में नायक नायिका आलम्बन विभाव तथा काव्य, गीत, बसन्त चन्द्रोदय, उद्यानादि, उद्दीपन विभाव होते हैं। परस्पर नयन वदन, प्रसाद - स्थिति, मनोज्ञअंगविकारादि अनुभाव होते हैं और उत्साह, सन्तापाश्रुपात, मन्यु, ग्लानि, चिन्ता हर्षादि संचारी ( व्यभिचारि) भाव होते हैं। संयोग श्रृंगार में जो तापाश्रु, ईर्ष्या, ग्लानि आदि संचारी भाव होते हैं वही विप्रलम्भ में अनुभाव होते हैं।। विप्रलम्भ श्रृंगार में आलस्य, उग्रता और जुगुप्ता 2 को छोड़कर निर्वेदादि दुःखमय पदार्थ भी संचारी भाव होते हैं। -- आचार्य नरेन्द्रप्रभरि ने सर्वप्रथम श्रृंगार के दो भेद किए हैं संभोग और विप्रलम्भ | पुनः संभोग के परस्पर अवलोकन, आलिंगन, चुम्बन आदि अनन्त भेद माने हैं। 3 विप्रलम्भ के पाँच भेद किये हैं। स्पृहा, शाप, वियोग, ईर्ष्या और प्रवासजन्य । " आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने यद्यपि संभोग श्रृंगार के अनन्त भेद माने हैं तथापि पाँच प्रकार के विपलम्भ के पश्चात् होने वाले संभोग के कारण संभोग - श्रृंगार भी पाँच प्रकार का माना है स्पृहानन्तर, शापानन्तर, वियोगानन्तर, ईर्ष्यानन्तर एवं प्रवारान्तर । ' 1. हि नाट्यदर्पण, 3/11 एवं विवरण 2. हि. नाट्यदर्पण, 3 / 11 एवं विवरण 3. स च परस्परावलोकना लिंगन अलंकारमहोदधि - 3/15 की वृत्ति अलंकारमहोदधि, 3/16 4. 5. वही, 3/16 वृत्ति । 156 - चुम्बन - पानाद्यनन्तभेदः । - -- Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 नरेन्दपभसरि ने आ.हेमचन्द्र की तरह करूप - विपलम्म को करूप रत ही माना है।' आ. वाग्भट द्वितीय ने हेमचन्द्र के समान ही श्रृंगार - रस - भेद विवेचन किया है। दोनो में अन्तर मात्र इतना है कि वाग्भट द्वितीय ने प्रवास के - कार्यहतुक, शाप-हेतुक, दैववशात एवं परवशाल ये चार भेद माने हैं जबकि हेमचन्द्र ने प्रवास के तीन भेद किए हैं -- कार्यहतुक, शाप-हेतुक तथा संभम। इन जैनाचार्यो द्वारा किया गया श्रृंगार रस विवेचन प्राय: भरतपरम्परा का अनुसरप करते हुए भी आ. हेमचन्द्र व नरेन्द्रप्रभसरि द्वारा करूपविप्रलम्भ को करूप-रस स्वीकार करना उनकी नवीनता का परिचायक है। हास्य रस : हास्य रस का स्थायिभाव हास है। आचार्य भरत ने विकृत वेष, अलंकारादि विभावों से इसकी उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार हास्य छः प्रकार का होता है - स्मित, हस्ति, विदृसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित। प्रथम दो प्रकार का हास्य उत्तम पुरुषों में, मध्यम दो प्रकार का हास्य मध्यम पुरूषो में तथा अन्तिम दो प्रकार का हास्य अधम पुरुषों - - - - - - - - 1. वही, 3/16 वृत्ति । 2. काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 53-54 - वही, पृ. 54 + नाट्यशास्त्र, 6/48, पृ. 74 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 में पाया जाता है।' यह आत्मन्य व परस्थ भेद से दो प्रकार का होता है। जब किसी भी वस्तु के दर्शनादि से स्वयं हतता है तब आत्मस्थ कहलाता है और जब दूसरे को हंसाता है, तब वह परस्थ कहलाता है। आ. वाग्भट प्रथम के अनुसार प्रायः चेष्टा, अंग और वेषज नित विकार से हास्य की उत्पत्ति होती है। यह उत्तम, मध्यम व अधम । प्रकृति भेद से तीन प्रकार का होता है। सज्जनों अर्थात उत्तम व्यक्तियों के हास्य में मात्र नेत्र तथा कपोल प्रफुल्लित हो उठते हैं पर उनके ओष्ठ बन्द रहते हैं। मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों के हात्य में मुख खुल जाता है और अधमजनों का हास्य शब्दयुक्त होता है। आ. हेमचन्द्र के अनुसार विकृत वेषादि विभाव वाला, नासा स्पन्दन आदि अनुभाव वाला तथा निद्रादि व्यभिचार भाव वाला हात नामक स्थायिभाव अभिव्यक्त होने पर हास्य रस कहलाता है। देश, काल, वय और वर्ण के विपरीत केशबन्धादि विकृत वेश कहलाता है। आदि शब्द से नर्तन अन्य गति आदि का अनुकरप, असत्प्रलाप, भूषप आदि विभाव ।. वही, 6 - 52 - 53 2. नाट्यशास्त्र, 6/48, पृ. 74 3 चेष्टांगवेषवैकृत्यादच्यो हास्यस्य चोदवः। वाग्भटालंकार 5/23 + वही, 5/24 5. विकृतवेषादिविभावो नातास्पन्दनायनुभावो निद्रादिव्यभिचारी हासो हास्यः! काव्यानुशासन, 2/9 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नासा, ओष्ठ, कपोल • स्पन्दन, दृष्टि-व्याकोश, आकुंचन स्वेदास्यराग, पार्श्वग्रहणादि अनुभाव तथा निद्रा, अवहित्था, त्रपा, आलस्यादि व्यभिचारिभाव का समावेश किया गया है। उन्होंने हास्य को आत्मस्थ व परस्थ दो प्रकार का माना है। 2 पुनः आत्मस्थ हास्य रस स्मित, विहसित व अपहसित भेद से तीन प्रकार का बताया है जो क्रमशः उत्तम, मध्यम व अधम प्रकृति में पाया जाता है। 3 उन्होंने स्मितादि के लक्षण हेतु भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की कारिकाओं को उद्धृत किया है। 4 1. 2. परस्थ हास्य, उनके अनुसार स्मितादि की संक्रान्त अवस्था है। इसके भी तीन भेद हैं हरित, अपहसित व अतििहसित' यह भी क्रमशः उत्तम, मध्यम व अधम प्रकृतियों में पाया जाता है।' उक्त हतितादि के लक्षण के लिए भी हेमचन्द्र ने भरत कारिकाओं को उद्धृत किया है। 7 - 4. 5. 6. 7. वही, 2/ 9 की वृत्ति । स चात्मस्थ: परस्थश्च । काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 114 3. उत्तममध्यामा धमेषु स्थित विहसितापहसितै : स आत्मस्थस्त्रेधा । वही, 2/10 - वही, पृ. 114 वही, पृ. 114 159 वही, पृ. 114 हि. नाट्यदर्पणं, 3/12 एवं विवरण Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 रामचन्द्र-गुपचन्द्र का कथन है कि विकृत आकार, वेश - भषा दि, आचार - अवस्था विशेष से और विकृत - वागादि चेष्टा विशेष से और विकृत अंगों के विकृत वेशभूषादि के विस्मयोत्पादक धृष्टता व लौल्यभावादि से तथा गीवा, कर्प, डा, मीसा दि की विकृत केटा विशेष इन स्वगत तथा परगत भावों ते हात स्थायिक हास्य-रस व्यक्त होता है। इसमें नासिका, गण्ड, ओष्ठादिकों का स्पन्दन, आकुंचन प्रसारपादि, अनु, नेत्र विकार, जरठगह, पापर्वप्रदेश का ताडनादि अनुभाव होते हैं और अवहित्या, हर्षोत्साह, विस्मयादि व्यभिचारिभाव होते हैं।' हात्य के स्मित, दृसित, विहस्ति, उपहतित अपहसित और अतिहसित ये छ: भेद होते हैं। उत्तम पुरुषों के स्मित तथा हतित, मध्यमों के विहसित तथा उपहसित तथा अधमों के अपहतित तथा अतिहसित हास्य होते हैं। रामचन्द्र-गुपचन्द्र का क्यन है कि यह हास्य रत अधिकतर अधम प्रकृति में ही देखा जाता है। मनुष्यों में अपने वर्ग की अपेक्षा स्त्रियों में और पुरुषों में अपने वर्ग की अपेधा अधम प्रकृति में यह अधिकतर पाया जाता है। क्योंकि इन्हीं में ये करूप, विमत्स, भयानका दि रस व अधिकतर शोक, हात, भय, परनिन्दादि देखे जाते हैं और थोड़ी सी विचित्र बात में उन्हें काफी विस्मय हो जाता है। 1. हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/12 एवं विवरण 2. हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/13 एवं विवरण 3. हिन्दी नाट्यदर्पप, विवरप पृ. 312 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने भी विकृत वैषादि, नासास्पन्दन आदि से हास्य रस की उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार निद्रा, अवहित्थ, त्रपा, आलस्यादि इसके व्यभिचारी भाव होते हैं। यह आत्मस्थ व परस्थ भेद से दो प्रकार का होता है। वाग्भट द्वितीय ने हास्य के तीन भेद किए हैंस्मित, विहसित व अपहसित जो क्रमशः उत्तम, मध्यम व अधम प्रकृति में पाया जाता है। 2 उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि इन जैनाचार्यों ने हास्य रस की उत्पत्ति विकृत वेषादि से ही स्वीकार की है तथा हास्य के भेद भी वही स्वीकार किए हैं जो अन्याचार्यों द्वारा मान्य हैं। 161 करूण रस : करुण रस का स्थायिभाव शोक है। इष्ट वस्तु के नाश अथवा अनिष्ट की प्राप्ति होने पर इस करुण रस का आविर्भाव होता है। आचार्य भरत ने शाप, क्लेश, विनिपात, इष्टजन-वियोग, विभाव-नाश, वध, बन्ध, विद्रव, उपघात और व्यसन आदि विभावों से करूप रस की उत्पति मानी है। 3 - जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने शोक से उत्पन्न रस को करूण कहा है। जिसमें पृथ्वी पर गिरना, रूदन, पीलापन, मूर्च्छा, वैराग्य, प्रलाप और अश्रुओं का वर्णन किया जाता है। 4 1. अलंकारमहोदधि, 3 / 17 एवं वृत्ति 2. काव्यानुशासन, वाग्भट - पृ. 55 3. नाट्यशास्त्र, 6/61, पृ. 75 वाग्भटालंकार, प / 22 4. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 हेमचन्द्राचार्य के अनुसार इष्टविनाश आदि विभाव वाला, देवोपालम्म आदि अनुभाव तथा निर्वेद-ग्लानि आदि दुःसमय व्यभिचारिभाव वाला शोक नामक स्थायिभाव चर्वपीयता को प्राप्त होने पर करूप रप्त कहलाता है| आदि पद से इष्टवियोग,अनिष्ट संपयोग, विभाव, देवोपालम्भ, निःश्वासता, नवमुसशोषप, स्वरभेद, अश्रुपात, वैवर्ण्य, प्रलय, स्तम्भ, कम्प, भलुण्ठन, अंगों का ढीला पड़ जाता तथा आक्रन्दन आदि अनुभाव तथा निर्वेद, ग्लानि, चिन्ता, औत्सुक्य, मोह, श्रम, त्रास, विषाद, दैन्य, व्याधि जड़ता, उन्माद, अपस्मार, आलस्य, भरप प्रभृति दुःखमय ये व्यभिचारिभाव हैं। 2 करूपरत के उदाहरप रूप में उन्होंने कुमारसंभव का "अयि जीवितनाथ'.... " इत्यादि लोक प्रस्तुत किया है। रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार - मृत्यु - बंधन - धन शादि इष्ट वस्तु के नाश तथा शाप - दिव्य प्रभाव वालों का आक्रोश विशेष और व्यसन - अनादि जो अनिष्ट की प्राप्ति है। इन विभावों से उत्पन्न होने वाला - शोक स्थायिक करूप रस होता है। इसमें वाष्प, अ, 1. इष्टनाशा दिविभावो देवोपालम्भाउनुभावो दुःखमय व्यभिचारी शोक :करूपः।। ___काव्यानुशासन, 2/12 2. वही, वृत्ति , पृ. ।।6 3. वही, पृ. ।।6 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवर्णता, निश्वास, गात्र शिथिलतादि अनुभाव होते हैं। निर्वेद ग्लानि, चिन्तादि व्यभिचारी भाव होते हैं । । आ. नरेन्द्रप्रभसूरि भी इष्ट-नाश, अनिष्ट संयोगादि से उत्पन्न दैवोपालम्भ, निःश्वास, अश्रुकन्दनादि अनुभावों, निर्वेद-ग्लानि, दैत्यादि व्यभिचारिभावों से युक्त शोक रूप स्थायिभाव वाला करूण रस मानते हैं। 2 163 आ. वाग्भट द्वितीय ने आचार्य हेमचन्द्र के समान ही करूण रस का विवेचन किया है जिसमें करुण रस के विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी भावों का उल्लेख करते हुए उसके स्थायिभाव पर प्रकाश डाला है। 3 रौद्र रस : रौद्ररस का स्थायिभाव क्रोध है। शत्रु द्वारा किये गये अपकार ते इसकी उत्पत्ति होती है। आचार्य भरत इसे राक्षस, दानव और उदुत पुरुषों के आश्रित मानते हैं। यह रस क्रोध, घर्षण, अधिक्षेप, अपमान, झूठ बचन, कठोर वाणी, द्रोह व मात्सर्य आदि विभावों से उत्पन्न होता है। 4 - जैनाचार्य वाग्भट प्रथम के अनुसार शत्रु द्वारा तिरस्कृत होने पर रौद्र रम उत्पन्न होता है।' इसका नायक भीषण स्वभाववाला, उग्र और क्रोधी होता है। अपने कन्धे को पीटना, आत्मश्लाघा, अस्त्रादि का फेंकना, 1. हि. नाट्यदर्पण, 3/14 व विवरण 2. अलंकारमहोदधि, 3/18 व वृत्ति 30 काव्यानुशासन वाग्भट, पृ. 55 40 नाट्यशास्त्र, 6/63, पृ. 75 5. वाग्भटालंकार, 5/29-30 - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रुकुटि चढ़ाना, शत्रुओं की निन्दा तथा मर्यादा का उल्लंघन ये उसके अनुभाव हैं। हेमचन्द्र ने स्त्री हरप, आदि विभाव, नेत्रों की लालिमा आदि अनुभाव और उग्रतादि व्यभिचारिभावों से युक्त क्रोधरूप स्थायिभाव वाला रौद्र रस कहा है।' आदि पद से स्त्रियों का अपमान, देश, जाति, अभिजन, विद्या, कर्म, निन्दा, असत्यवचन, स्वभृत्य अधिक्षेप, उपहास, वाक्यपारूष्य, द्रोह, मात्सर्य आदि विभाव, नयनराग, भृकुटीकरण, दन्तोष्पीडन, गण्डस्फुरण, हाथों को रगड़ना, मारना, दो टुकड़े कर देना (पाटन), पीडन, प्रहरण, आहरण, शस्त्रसंपात, रूधिर निकाल देना, छेदन आदि अनुभाव तथा उग्रता, आवेग, उत्साह, विबोध, अमर्ष व चपलता आदि व्यभिचारिभावों को समाविष्ट किया गया है। 2 164 - शत्रु के प्रति शस्त्रादि व्यापार, असत्य, बध, बन्ध, वाक्पारुष्यादि और परगुणों के असूया असहनजन्य मात्सर्य - विशेष, विद्या, कर्म, देश, जात्यादि की निन्दा व अपनीति आदि विभावों से क्रोध स्थायिक रौद्र रस होता है। इसका अभिनय अपने ही दांतों ते ओष्ठों को काटने, भुजाओं को ठोकने, चीरफाड़ करने, शस्त्र प्रहार करने, मस्तक, भुजा, कबन्ध और कन्धों को हिलाने, मारने, पीटने, टुकड़े कर डालने, रक्त निकालने, भौंहें चढ़ाने, हाथ मलने आदि अनुभावों के द्वारा किया जाता है। उगता, 1 2. 1. दारापहारादिविभावो नयनरागाद्यनुभाव औग़यादि व्यभिचारी क्रोधो रौद्रः काव्यानुशासन, 2 / 13 वही, वृत्ति, पृ. 116 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 अमर्ष, रोमांच, वेपथु, स्वेद, चपलता, मोह, आवेग, कम्पना दि इसके व्यभिचारी भाव होते हैं। नरेन्द्रप्रभसरि आ. हेमचन्द्र के समान रोद्र रस का वर्णन करते . लिखते हैं कि स्त्री-हरपादि विभाद, नेत्र लालिमा आदि अनुभाव, उगता आदि व्यभिचारी भावों से युक्त कोध रूप स्थायिभाव वाला रौद्र रस होता है। ___ वाग्भट द्वितीय का रौद्र रत विवेचन हेमचन्द्र का अनुगामी इस प्रकार रौद्ररस सम्बन्धी विवेचन में सभी आचार्यों में साम्य द्रष्टिगत होता है। वीर - रस : वीररस का स्थायिभाव उत्साह है। आचार्य भरत ने उत्साह नामक स्थायिभाव को उत्तम प्रकृतिस्थ माना है। उनके अनुसार वीर रस की उत्पत्ति अंसमोह, अध्यवसाय, नीति, विनय, अत्यधिक पराक्रम, शक्ति, प्रताप और प्रभाव आदि विभावों से होती है। I. हि. नाट्यदर्पप, 3/15 व विवरप 2. अलंकारमहोदधि, 3/19 3 काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 55 +.' नाट्यशास्त्र, 6/66 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 वाग्भट प्रयम के अनुसार उत्साह नामक स्थायिभाव वाला वीररस तीन प्रकार का होता है-- धर्मवीर, युद्दीर व दानवीर। उन्होंने दी ररत के नायक को समस्त श्लाघनीय गुपों से युक्त माना है।' आ. हेमचन्द्र ने वीररस का लक्षप व उसके भेदों की गणना करते हुए लिया है कि नय (नीति) आदि विभाव वाला, स्थैर्य (स्थिरता) आदि अनुभाव वाला तथा धृत्यादि व्यभिचारि भाव वाला उत्साह नामक स्था यिभाव चर्वपीयता को प्राप्त होने पर, धर्मवीर, दानवीर और युद्धवीर भेद से तीन प्रकार का वीररस कहलाता है। आदि पद से गाय विभावादि का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने वृत्ति में प्रतिनायकवर्ती नय, विनय, अंसमोह, अध्यवसाय, बल, शक्ति, प्रताप, प्रभाव, विक्रम, अधिक्षेप आदि विभाव, स्थैर्य, धैर्य, शौर्य, गांभीर्य, त्याग, वैशास्य आदि अनुभाव तथा धृति, स्मृति, उग्रता, गर्व, अमर्ष, मति, आवेग, हर्ष आदि व्यभिचारिभाव की परिगणना की है। नय विनय आदि का स्वरूप विवेक टीका में प्रस्तुत किया है।' तथा वीररत के तीन प्रकार के भेदों की पुष्टि में नाट्यशास्त्र की कारिका - 'दानवीरं धर्मवीरंयुद्धवीरं तथैव च। रसं दीरमपि प्राह बद्दमा त्रिविधमेव हि।।' प्रस्तुत की है। उन्होंने तीनों भेदों का एक ही उदाहरण"अजित्वा सार्पवामुर्वीममनिष्ठा...." इत्यादि उधत किया है।' 1. वाग्भटालंकार, 5/21 2. काव्यानुशासन, 2/14 - वही, वृत्ति , पृ. 117 + वही, टीका, पृ. 117 5 वही, वृत्ति , पृ. 118 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 अन्त में वे रौद्र तथा वीररस का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं।' रामचन्द्रगुपचन्द्र का कथन है कि पराक्रम-शत्रुमण्डलादि में आक्रमण, बल-सेना समुदाय, न्याय-सामादि उपायों का सम्यक् प्रयोग, यश-सर्वत्र । शौर्य जन्य ख्याति, तत्त्वविनिश्चय - यथार्थ बातों का या वीरोचित बातों का निर्पय आदि विभावों से उत्साह स्थायिक वीररस उत्पन्न होता है। इसमें धैर्य-धोर संक्ट आने पर भी अविचलित रहना या निर्भीक रहना अथवा बुद्धिबल सन्तुलन रखना, सहायान्वेषणादि - अनुभाव हैं और धृति - मति - गर्व-स्मृति, तर्क रोमांचादि व्यभिचारी भाव हैं। इन्होंने वीररस के निश्चित भेद नहीं माने हैं, अपितु युद्ध, धर्म, दान आदि गुपों तथा प्रतापाकर्षपं आदि उपाधि भेदों से इसके अनेक भेद स्वीकार किए हैं।' नरेन्सभरि का वीररत विवेचन आ. हेमचन्द्र के समान है।' वाग्भट द्वितीय का वीररस विवेचन भी हेमचन्द्र सम्मत है। 1. इह चापत्यकनिमग्नतां स्वल्पसंतोष मिथ्याज्ञानं चापास्य यस्तत्तव निरूपोऽसंमोहाध्यवसायः स एव प्रधानतयोत्साहहेतु ः। रौद्रं तु . ममताप्राधान्याशास्त्रितानुचितयुदाधपीति मोहविस्मयप्राधान्य मिति विवेकः। वही, वृत्ति , पृ. 118 2. हि. नाट्यदर्पप, 3/16 3. वही, 3/16 विवरण + न्यायादिबोध्यः स्थैर्यादिहेतुर्धत्याधुपस्कृत:। उत्साहो दान-युध-धर्मभेदो वीररसः स्मृतः।। अलंकारमहोदधि, 3/20 5. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 56 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयानक रस: भयानक रस का स्थायिभाव भय है। इसकी उत्पत्ति भयानक दृश्यों को देखने से होती है। आचार्य भरत ने विकृत ध्वनि, भयानक प्राणियों के दर्शन, सियार और उल्लू के द्वारा त्रास, उद्वेग, शून्य - गृह अरण्य - प्रवेश, भरण, स्वजनों के वध अथवा बन्धन के देखने सुनने या कथन करने आदि विभावों से उसकी उत्पत्ति मानी है। ' " जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने भयानक वस्तुओं के दर्शन से भयानक रस की उत्पत्ति मानी है। यह रस प्रायः स्त्रियों, नीच व्यक्तियों तथा बालकों में वर्णित किया जाता है। 2 • 1. नाट्यशास्त्र, 6/68 168 - हेमचन्द्राचार्य के अनुसार विकृत स्वर का श्रवण आदि विभाव, कर - कम्पन आदि अनुभाव व शंकादि व्यभिचारिभाव वाला भय नामक स्थायिभाव अभिव्यक्त होने पर भयानक रस कहलाता है। 3 हेमचन्द्र का यह कथन भरतमुनि से प्रभावित है। आदि पद से पिशाचादि का विकृत स्वर श्रवण, उसका देखना, स्वजनबध बन्धन आदि का दर्शन, श्रवण, ॉन्यगृह, अरण्यगमन आदि विभाव, करकम्पन, चलदृष्टि निरीक्षण, हृदय, पाद स्पन्दन, शुष्क औष्ठ, कण्ठ, मुखवैवर्ण्य, स्वरभेद आदि अनुभाव तथा शैका वाग्भटालंकार, 5/27 - 2. 3. विकृतस्वरश्रवणादिविभावं करकम्पाद्यनुभावं शंका दिव्य भिचारि भयं भयानकः । । काव्यानुशासन, 2/15 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169 अपस्मार, मरप, त्रास, चापल, आवेग, दैन्य, मोहादि व्यभिचारिभाव का समावेश किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र की मान्यतानुसार स्त्रियों व नीच प्रकृति के लोगों में भय स्वाभाविक रूप में और उत्तमप्रकृति के लोगों में कृतक (बनावटी) रूप में पाया जाता है।' आचार्य मम्मट के समान आचार्य हेमचन्द्र ने भी "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" से "गीवाभंगा भिरामं ... इत्यादि पलोक उद्धत करके भयानक रस के उदाहरप के रूप में प्रस्तुत किया रामचन्द्र गुपचन्दानुसार पताकारूपी कीर्ति से युक्त भीषप-संगाम, विकृत शब्द, पिशाचा दि का दर्शन, गाल, उलूक आदि का ब्द, भय, घबराहट, निर्जन वन, चोर व अन्य भंयकर दोषों के प्रवप दर्शनादि विभावादिकों से भयानक रत अभिव्यक्त होता है। स्तम्भ, कम्पन व रोमांचा दि इसके अनुभाव हैं। मुख व दृष्टि विकार, वैवर्ण्य, मादि भी इसके अनुभाव हैं। शंका, मोह, दैन्यावेग, चपलता त्रास आदि इसके व्यभिचारी भाव है। नरेन्द्रप्रभतरि का कथन है कि कूर-स्वर अवपादि विभाव, कम्पनादि अनुभाव व शंकादि व्यभिचार भावों से युक्त भय नामक स्थायिभाव वाला • काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 118 2. हि. नाट्यदर्पण, 3/17 3 हि नाट्यदर्पप, विवरप, पु, 315-316 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयानक रस होता है।' उनका ये भयानक रस- विवेचन हेमचन्द्र ते प्रभावित है। इस प्रसंग में वाग्भट द्वितीय ने भी हेमचन्द्र सम्मत विवेचन ही प्रस्तुत किया है। 2 उपर्युक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि जैनाचार्यों द्वारा किया गया भयानक रस विवेचन भरत परम्परा का ही पोषक है। - - - वीभत्स रस : इसका स्थायिभाव जुगुप्सा है। वीभत्स दृश्यों के दर्शन से इसकी उत्पत्ति होती है । आचार्य भरत ने भयानक रस की उत्पत्ति अय और अप्रिय पदार्थों को देखने, अनिष्ट वस्तु के श्रवण, दर्शन और परिकीर्तन आदि विभावों से मानी है । 3 170 जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने जुगुप्सा नामक स्था विभाव ते इसकी उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार अह्य वस्तु के श्रवण अथवा दर्शन इसमें विभाव एवं थूकना व मुख विकृति आदि इसके अनुभाव हैं। उनका कथन है कि इन थूकना आदि अनुभावों का वर्णन उत्तम जनों के सम्बन्ध में नहीं किया जाता है। 4 1. कम्पादिकारणं करस्वरश्रुत्याद्युदंचितं भयंभवति शंकादिव्यभिचारी भयानकः ।। अलंकारमहोदधि, 3/12 2. काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 56 3. नाट्यशास्त्र, 6/72 ho वाग्भटालंकार, 5/31 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 हेमचन्द्र ने अध दर्शनादि विभाववाली, अंगसंकोच आदि अनभाव वाली, अपस्मार आदि व्यभिचारिभाववाली जुगुप्सा, चर्वपीय दशा को प्राप्त होने पर वीमत्स रस कहलाती है। ऐसा माना है। आदि पद से उल्टी, घाव, पीप, कृमि - कीटादि का दर्शन, श्रवप आदि विभाव, अंगर्सकोच, हल्लास, नासा, मुख-विकूपन, आच्छादन, निष्ठीवन आदि अनुभाव तथा अपस्मार उगता, मोह, मद आदि व्यभिचारिभाव का समावेश किया गया है। इसके उदाहरपरूप में आ. हेमचन्द्र “उकृत्योत्कृत्य कृत्तिं.... इत्यादि उदाहरप प्रस्तुत किया है। रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने वीभत्स रस की अभिवयक्ति अय, अप्रिय, अपवित्र एवं अनिष्ट वस्तुओं के दर्शन, प्रवप व उद्वेजन अर्थात शरीर के हिलाने आदि रूप विभावों से होती है। अपने सभी अंगों का संकोचन, थकना, मुख फेर लेना, नाक दबाना, आपस में अनजाने ही पैरों को पटकना, आँखों को टेढ़ा करना आदि इसके अनुभाव हैं और व्याधि, मोह, आवेग, अपस्मा रादि व्यभिचारी भाव हैं। नरेन्द्रप्रभसरि' एवं वाग्भट द्वितीय' दोनों का वीभत्स-रत विवेचन हेमचन्द्र सम्मत है। 1. काव्यानुशासन, 2/15 2. वही, वृत्ति , पृ. 119 3 हि. नाट्यदर्पप, पृ. 316 + अरम्यालोकनायुत्या संकोचादिनिबन्धनम् । वीभत्सा स्याज्जगप्साऽपत्मारादिव्यभिचारिणी।। ___ अलंकारमहोदधि, 3/22 .5 • काव्यानुशासन, वाग्मंट, पृ. 56-57 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 अदभत रस : इसका स्थायिभाव विस्मय है जिसकी उत्पत्ति आश्चर्य -जनक वस्तुओं के दर्शन से होती है। भरतमुनि ने इसकी उत्पत्ति दिव्य वस्तुओं के दर्शन, इच्छित वस्तु की प्राप्ति, उत्तम वन एवं देवालय में आने, विमान, माया, इन्द्रजालादि के दर्शन आदि विभावों से मानी है। वाग्भट प्रथम ने विस्मय स्थायिभाव वाले अदभूत रस की उत्पत्ति असंभव वस्तु के दर्शन अथवा अवप से मानी है।2 हेमचन्द्र के अनुसार दिव्य-दर्शनादि विभाव वाला, नयनविस्तारादि अनुभाववाला और हर्षा दि व्यभिचारिभाववाला, विस्मय नामक स्थायिभाव चर्वणीयता की स्थिति को प्राप्त होने पर अद्भुत रस कहलाना है।' आदि पद से दिव्य-दर्शन, ईप्सित मनोरथ की पाप्ति, उपवन, देवकुल आदि गमन, सभा, विमान, माया, इन्द्रजाल अतिशा यि शिल्पकर्म आदि विशाव, नयन-विस्तार, अनिमिष-प्रेक्षण, रोमांच, अशु, स्वेद, साधुवाद, दान हाहाकार, वेलांगुलिभमण आदि अनुभाव तथा हर्ष, आवेग, जड़ता आदि 1. नाट्यशास्त्र, 6/74, 2 वाग्भटालंकार, 5/25 3 काव्यानुशासन, 2/16 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 व्यभिचारिभाव का समावेश वृत्ति में मिया गया है। रामचन्द्र-गुपचन्द्र अद्भुत रस की उत्पत्ति दिव्य विभूतियों इन्द्रजाल अथवा सुन्दर वस्तुओं के दर्शन तथा अभीष्ट सिद्धि से मानते हैं। 2 नयन - विस्तार, गद्गद् वचन, गात्र - वेपथु, - कम्पनादि अनुभावों ते ये अभिनय होता है। आवेग, जड़ता, संभम, चपलता, उन्माद, रोमांचा दि इसके व्य भिवारिभाव होते हैं। नरेन्द्रप्रभतरि का अद्भुत - रस - विवेचन हेमचन्द्र के ही समान है' व वाग्भट द्वितीय का विवेचन भी हेमचन्द्र से प्रभावित है। -- शान्त रस : शान्तरस बहुत विवादास्पद है। नाट्य में इसकी सत्ता को तो स्वीकार ही नहीं किया जाता। इसलिये भरतमुनि द्वारा कथित आठ रतों को गिनकर आचार्य मम्मट ने इसकी गपना अलग से की है। धनंजय तो शान्तरस को मानते ही नहीं है। आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, मम्मट आदि आचार्यों ने काव्य में शान्तरस की सत्ता को स्वीकार किया है। शान्तरस I. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. ।।9-20 2. हि. नाट्यदर्पप, 3/19 3 वही, विवरप, पृ. 316 4. दिव्यरूपावलोकादिस्मेरो हर्षाधलंकृतः। दूरं नेत्र विकासादिकारपं विस्मयोऽभूतः।। अलंकारमहोदधि, 3/23 5. काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 57 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 के स्थायी भाव के सम्बन्ध में भी वैमत्य है। कुछ लोग इसका स्थायिभाव शम मानते हैं तथा कुछ निर्वेद। नाट्यशास्त्र के एक प्रक्षिप्त पाठ के अनुसार आचार्य भरत ने शम नामक स्थायिभाववाले शान्तरस को मोक्षप्रवर्तक कहा है। इसकी उत्पत्ति तत्त्वज्ञान, वैराग्य और चित्तशुदि आदि विभावों के द्वारा होती है।' __जैनाचार्य वाग्भट प्रथम सम्यग्ज्ञान से शान्तरस की उत्पत्ति मानते हैं। इसका नायक ( पुत्रधनादि ) की इच्छा से रहित होता है। यर्थार्थ ज्ञान की उत्पत्ति रागद्वेषादि के परित्याग से ही होती है। आ. हेमचन्द्र ने शान्तरस को नौ रसों में ही परिगपित किया है तथा उसका सोदाहरप लक्षण निरूपित किया है। वे लिखते हैं कि वैराग्यादि विभावों वाला, यम आदि अनुभावों वाला और धृत्यादि व्यभिचारिभावों वाला शम नामक स्थायिभाव चर्वपीयता को प्राप्त होने पर शान्त रत कहलाता है। आदि पद से वैराग्य, संतार-भीरूता, तत्वज्ञान, वीतरागपरिशीलन, परमेश्वर अनुगह आदि विभाव, यम, नियम अध्यात्मशास्त्र चिंतन 1. नाट्यशास्त्र, बाबलाल शुलशास्त्री, पृ. 350-351 2. वाग्भटालंकार, 5/32 3 वैराग्या दिविभावो यमाचनुभावो धृत्या दिव्यभिचारी शमः शान्तः। काव्यानुशासन, 2/17 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 आदि अनुभाव तथा धृति, स्मृति, निर्वेद, मति आदि व्यभिचारिभाव का समावेश वृत्ति में कर लिया गया है।' आ. हेमचन्द्र ने तृष्पाक्षय को ही शम कहा है। इस सन्दर्भ में उनकी विवेक टीका भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने शम की व्युत्पत्ति तथा विशेष अर्थ स्पष्ट किया है तथा भरतमनि के द्वारा उपात्त निर्वेद स्थायिभाव की मान्यता का खण्डन करते हुए शम को ही शान्तरस का स्थायिभाव सिद्ध किया है। उनकी मान्यता है कि शम और शान्त को एकार्थक नहीं समझाना चाहिए। हास और हास्य की भांति उसकी साध्यता सिद्ध होती है । उन्होंने लिखा है कि लौकिक और अलौकिक एवं साधारप और असाधारप के वैलक्षण्य ते दोनों अलग - अलग सिद्ध होते हैं। आ. हेमचन्द्र शान्तरस को अन्य रसों से पृथक, तिन करते हुए लिखते हैं कि इसका विषय जुगुप्सा रूप होने से उसका वीभत्स में अन्तमाव करना उचित नहीं है क्योंकि शान्तरस की जो जुगुप्सा (वैराग्य या संसार से विरक्ति) है, वह व्यभिचारिरूप से होती है। स्थायीरूप में नहीं। यदि जुगुप्सा को स्थायी मानकर पलपर्यन्त उसका निर्वाह किया जाएगा तो शान्तरस का समल विनाश हो जाएगा । अतः शम व जुगुप्सा दोनों भिन्न 1. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 120 2. तृष्पाक्षयरूपः शमः - वही, वृत्ति, पृ. 121 3. काव्यानुशासन, टीका, पृ, 121-123 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, जुगुप्सा में शम का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार धर्मवीर में भी इसका अन्तभाव करना उचित नहीं है, क्योंकि उसका स्थायी भाव उत्साह अभिमानयुक्त होता है और शम में अहंकार का प्रथम रूप रहता है अर्थात् अहंकार का अभाव होने पर ही शम कहलाता है। यदि दोनों को एक ही रूप में कल्पित किया जाय तो वीर और रौद्र में भी अन्तर नहीं रह जाएगा, वहां भी ऐसा ही प्रसंग आ जाएगा। इसलिए धर्मवीरादि चित्तवृत्ति विशेष के सर्वथा अहंकाररहित होने पर ही शान्तरस का पृथकत्व सिद्ध है। ऐसा न होने पर वीररस का प्रभेद ही सिद्ध होगा, इसमें भी कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार 9 अलग-अलग रस होते हैं। - रामचन्द्र-गुणचन्द्र के अनुसार देव मनुष्य - तिर्यकू ( पशु - पक्षी) रूप परिभ्रमण ही संसार है, ऐसे असार संसार ते भयभीत होना, वैराग्य विषयों से विमुख होना, तत्त्व पुण्यापुण्य या जीवाजीवादि का शास्त्रानुसार चिन्तन करना, इत्यादि विभावों से शम स्थायिक शान्त रस होता है। - इसमें सुख - दुःखादि द्वन्द्वों का सहन करना, क्षमा जीवाजीव अर्थात् जड़ व चैतन्य का विचार रूप ध्यान करना, मैत्री 1. वही, वृत्ति, पृ, 123 - 124 176 - करूपा मुद्रित Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उपेक्षादि उपकार अनुभाव है। निर्वेद-मति - स्मृति-धृति आदि इसके व्यभिचारिभाव है । ' नरेन्द्रप्रभतर 2 एवं आ. वाग्भट द्वितीय का शान्त-रत विवेचन हेमचन्द्र के समान है। स्थायिभाव : सामान्यतः स्थायिभाव उन्हें कहा जाता जो सहृदय के हृदय में सदैव विद्यमान रहते हैं। इनके स्थायी रूप से विद्यमान रहने के कारण ही इन्हें स्थायिभाव कहा जाता है। ये ही विभावादि का संयोग पाकर रसानुभूति कराते हैं। अन्य भावों से स्थायिभावों की यही महती विशेषता है कि अन्य सभी भावों का आगमन (उदय) होता है और एक निश्चित समय तक उपस्थित रहकर पुनः विलीन हो जाते हैं, किन्तु स्थायिभाव सदैव सहृदय के हृदय में विद्यमान रहते हैं। उनका यह स्थायित्व ही उन्हें स्थायिभाव की संज्ञा से विभूषित कराता है। आचार्य भरत के अनुसार जिस प्रकार मनुष्यों में राजा और शिष्यों में गुरू श्रेष्ठ होते हैं, उसी प्रकार समन्त भावो में स्थायिभाव महान होता है। 4 उसके अनुसार 1. हि. नाट्यदर्पण, 3/20 व विवरण 2. वैराग्यादिविभावोत्थो यम्प्रभृतिकार्यकृत् निर्वेदप्रमुयोर्जस्वी, शमः शान्तत्वमश्नुते अलंकारमहोदधि, 3/24 3. 4. 177 काव्यानुशासन नाट्यशास्त्र, 7/8 - वाग्भट. पृ. 57 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 उनके अनुसार स्थायिभावों की संख्या आठ है - रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा व विस्मय।' धनंजय के अनुसार जो भाव अपने विरोधी अथवा अविरोधीभावों के द्वारा विच्छिन्न नहीं होता है, अपितु, लवपाकर (समुद) की तरह अन्य भावों को अपने सना बना लेता है, वह स्थायिभाव है। 2 उन्होंने भरत सम्मत आठ स्थायिभावों को ही स्वीकार किया है तथा अन्याचार्यो द्वारा कहे गये शम की नाट्य में पुष्टि न होने से उसे स्वीकार नहीं किया है। इसी प्रकार निर्वेद को भी स्थायिभाव मानना उन्हें अभीष्ट नहीं है। जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने नौ स्थायिभावों का उल्लेख किया है - रति, हास, शीक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्ता, विस्मय व शमा ये नौ स्थायिभाव हेमचन्द्र रामचन्द्रगुपचन्द्र', नरेन्द्रप्रभसरि, वाग्भट द्वितीय' को भी समान रूप से मान्य हैं। 1. वही, 6/17 2. हि. दशरूपक, 4/34 3 वही, 4/35 + वही, 4/36 5. वाग्भटालंकार, 5/4 6. काव्यानुशासन, 2/18 7. हि नाट्यदर्प, 3/24 8. अलंकारमहोदधि, 3/25 १. 'काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 53 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 स्थायिभावों के प्रसंग में मावों का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने स्थायी और व्यभिचारी - दो प्रकार के भावों की चर्चा की है। वे लिखते हैं कि - चित्तवृत्तियां ही अलौकिक, वाचिक आदि अभिनय की प्रक्रिया के मारूद होने पर अपने को लौकिक दशा में अनास्वाध होकर भी आस्वाद के योग्य बनाती है अथवा सामाजिक के मन में व्याप्त रहती है और मन को भावित करती हैं अत: भाव कहलाती हैं। ___आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि प्रत्येक पापी में जन्म से ही ये नो चित्तवृत्तियां रहती हैं। उन्म से ही प्रत्येक प्राणी इनके ज्ञान से युक्त रहता है, क्योंकि वह दुःर का विदेष करता है सुख को चाहता है और रमप करने की इच्छा से व्याप्त रहता है। इसमें वह अपने को उत्कर्षशाली मानकर परम उपहास करता है, उत्कर्ष का अभाव या विनाश होने की का से शोक करता है, अपाय (विनाश) के प्रति क्रोधित होता है, अपाय के हेतुओं का परिहार होने पर उत्साहित रहता है, विशेष पतन के भय से डरता है, अपने को कुछ अयुक्त मानकर जुगुप्सा करता है, अपने और दूसरों के द्वारा करने योग्य उन - उन वैचित्र्यपूर्व दर्शनों से विस्म्य करता है। कुछ छोड़ने की इछावाला वह वैराग्य के कारप शम का सेवन करता है। इतने प्रकार की वासनाओं (इच्छाओं ) से शुन्य या चित्तवृत्तियों से रहित प्रापी नहीं होता है। केवल किसी में कोई चित्तवृत्ति अधिक होती है, कोई कम। किसी में Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 उचित विषय में नियंत्रित होती है, किसी में अन्य प्रकार से होती है। उनमें से कोई कोई ही चित्तवृत्ति पुरुषार्थोपयोगिनी होने से उपदेश्य होती है। उसी के विभाग के कारण ही उत्तम, मध्यमादि प्रकृति का व्यवहार प्रापियों में होता है।' ___आ. हेमचन्द्र नौ प्रकार के स्थायिभावों का स्वरूप इस प्रकार tha. रति - स्त्री - पुरूषो में परस्पर आशाबन्धवाली रति कहलाती है। हास - चित्त का विकास हास है। शोक - वैर्यता शोक है। क्रोध - तेक्षण्यप्रबोध क्रोध है। उत्साह - संरम्भ स्येयको उत्साह कहते हैं। भय- - विकलता ही भय है। जुगुप्सा - अंगादि का संकोच ही जुगुप्सा है। विस्मय - चित्त का विस्तार विस्मय है। शम - तुष्पा का क्षय ही शम है। __ ये लक्षप अतिसंक्षिप्त रूप से ही प्रस्तुत किये गये हैं जो कि मात्र पर्यायवाची ही प्रतीत होते हैं, किन्तु अपने आप में परिपूर्ण है। आचार्य 1. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 124-125 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 हेमचन्द्र ने शान्त रस का स्थायिभाव शम मानते हुए कहा है कि यद्यपि कहीं - कहीं शम की अप्रधानता होती है फिर भी वह, व्यभिचारित्व रूप को प्राप्त नहीं होता, सर्वत्र स्वभावत्वेन स्थायित्व रूप में ही रहता है।' आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने पूर्वोक्त नौ स्थायिभानों का स्वरूप निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया है। रति - स्त्री और पुरूष के परस्पर प्रेम, जिसका पर्यायवाची आस्था -बन्ध भी है को रति कहते हैं। यह (रति) कामावस्था से युक्त, अभिलाष मात्र व्यभिचारात्मक रति तथा देवता, बन्धु और मनोहर वस्तु में होने वाली प्रीति रूप रति से विलक्षप है। हास - रंजन व उन्माद से संयुक्त चित्त का विकास हास है। शोक - निर्वेदानुविद दुःख ही शोक है। क्रोध - अपकार करने की इच्छा और घृपा का कारप तथा परिताप का आवेश क्रोध है। उत्साह - धर्म, दान व युद्धादि कार्यो में आलस्य न करना उत्साह 1. शमस्य तु यद्यपि क्वचिदपाधान्यम तथापि न व्यभिचारित्वं सर्वत्र प्रकृतित्वेन स्थायितमत्वात । ___काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 126 2. हि नाट्यप 3/24 विवृत्तिा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 भय - चित्त की विकलता ही भय है। जुगुप्सा - कुत्सित का निश्चय हो जाना जुगप्ता है। विस्मय - उत्कृष्ट का निश्चय हो जाना विस्मय है। पाम - कामना का अभाव शम है। नरेन्द्रप्रभसरि ने रति के नैसर्गिकी, सांसर्गिकी, औपमा निकी आध्यात्मिकी, आभियोगिकी साम्पयोगिकी,अभिमानिकी तथा पशब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पांच मेदों वाली वैषयिकी रति का सोदाहरप उल्लेख किया है।' रति का इस प्रकार सभेद विवेचन अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है। इसी प्रकार उन्होंने हास आदि स्थायिभवों के भी स्मित, विहसित, अपहसित आदि भेदों की संभावना की है। वे स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभाव के अन्तर को स्पष्ट करते लिखते हैं कि अपने अपने रस से अन्यत्र ( दूसरे रस में) न जाने से तथा प्रत्येक समय (सर्वकाल) अपने (रस) में रहने से और अव्यभिचारि होने से रत्यादि भाव स्थायित्व की संज्ञा को प्राप्त होते हैं अर्थात स्थायिभाव कहलाते हैं तथा हर्षादि भाव इसते विपरीत स्वभाव वाले होने से व्यभिवारिभाव कहलाते इनने I. अलंकारमहोदधि, 3/25 वृत्ति 2. एवं हातादीनामपि हिमत - विहसितापहसितादयः कतिचिद् भेदःसम्भवन्ति। वही, 3/25 वृत्ति स्वस्वरसादन्यत्रानभिगामित्वात सर्वकालमात्मनः सब्रह्मचारित्वाच्च रत्यादीनां स्थायित्वस, हर्षादीनां तु तदिपरीतत्वाद व्यभिचारित्वम्। .. दही, 3/25 वृत्ति Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 शान्तरस का था यिभाव निर्वेद को न स्वीकार कर शम को माना है, जो यथार्थता के सन्निकट है। नरेन्द्रप्रभसरि ने रति के जिन नैसर्गिकी आदि बारह भेदों को स्वीकार किया है, वे अन्यत्र अनुपलब्ध हैं। विभाव - विशेष प्रकार के भाव का नाम विभाव है, यह रत्यादि स्था यिभावों की उत्पत्ति में कारप है। आचार्य मरत ने विभाव का अर्थ विज्ञान किया है तथा कारप, निमित्त और हेतु को विभाव का पर्यायवाची कहा है।' जिसके द्वारा वाचिक, कापिक तथा सात्त्विक अभिनय विभाजित किये जाते हैं, वह विभाव कहलाता है। 2 जैनाचार्य वाग्मट प्रथम ने कुछ रसों के विभावों की गपना की है। हेमचन्द्र ने लिखा है कि वाचिक, कायिक तथा सात्त्विक अभिनयों के द्वारा जो स्थायी और व्यभिचारी चित्तवृत्तियों को विशेष रूप से ज्ञापित करते हैं, वे विभाव कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं - आलम्बन विभाव तथा उद्दीपन विभावा ललनादि आलम्बन और उद्यानादि उद्दीपन विभाव है।' रामचन्द्रगुपचन्द्र के मत में - वासना रूप से स्थित, रसरूपता को प्राप्त होने वाले 1. नाट्यशास्त्र, पृ. 80 2. वही, पृ. 80 3 बहवोऽर्था विभाव्यन्ते वांगंगाभिनयाश्रितः। अनेन यस्मात्तेनायं विभाव इति संज्ञितः।। वही, 1/4 + काव्यानुशासन, 2/। वृत्ति Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 रत्यादि स्थायिभाव को विशेष रूप से भावित करते हैं अर्थात् विशेष रूप से आविर्भूत करते हैं वे ललना और उद्यानादिरूप क्रमशः विभाव कहलाते हैं। आ. नरेन्द्रप्रभरि का कथन है कि युवक व युवती के सामने उपस्थित होने पर जिसको आलम्बन करके स्थायी और व्यभिचारीरूप भावों का जो क्षणभर में अनुभव कराते हैं, वे आलम्बन विभाव कहलाते हैं। 2 इसी प्रकार ज्योत्स्ना, उद्यानादि समृद्धि को आश्रय करते हुए स्थायी और व्यभिचारिरूप भावों को जो अत्यधिक उद्दीपित करते हैं, वे उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। 3 वाग्भट द्वितीय ने प्रत्येक रस के लक्षणप्रसंग में तदसम्बन्धी रतविषयक विभावों का उल्लेख मात्र किया है। भावदेवसूरि ने विभाव को रस का कारण बतलाते हुए नौ विभावों का एक पद्य में संग्रह करके विभावों का संकेत मात्र किया है। # I. वासनात्म्या स्थितं स्थायिनं रसत्वेन भवन्तं विभावयन्ति अविर्भावना विशेषेष प्रयोजयन्ति इति आलम्बन - उद्दीपनरूपाललनोद्यानादयो विभावाः । हि. नाट्यदर्पण, 3/8 विवृत्ति 2. अलंकारमहोदधि, 3/26 3. वही, 3/27 4 काव्यालंकारसार, 8 / 2-3 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185 अनभाव - अनुभाव का शाब्दिक अर्थ है - भाव के पश्चात उत्पन्न होने वाला। भरतमुनि के अनुसार अपने - अपने कारप से उबुद्ध इत्यादि को प्रकाशित करने वाला भाव "अनुभाव' कहलाता है। अनुभाव स्थायी से जन्य होता है। जैसे - विभाव स्थायी का कारण होता है, उसी प्रकार अनुभाव स्थायी का कार्य कहलाता है। भरतमुनि के अनुसार - ये अभिनय को वापी, अंग और सात्त्विक भावों के द्वारा अनुभूति योग्य बनाते हैं, अत: अनुभाव कहलाते हैं - अनुभाव्यते नेने वागंगमत्वकृतोऽभिनय इति ।' धनंजय ने रत्यादि स्थायिभावों के संतूचक विकारों को अनुभाव कहा है। जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने कुछ रतों के अनुभावों का उल्लेख किया है। हेमचन्द्र ने अनुभाव का लक्षप इस प्रकार दिया है कि - स्थायिभाव और व्यभिचारिभावरूप सामाजिक सहृदय की चित्तवृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए जिनके द्वारा साक्षात्कार किया जाता है, वे कटाक्ष-पात और भगाक्षेपादि अनुभाव कहलाते हैं। इस प्रसंग में रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि अनु । अर्थात लिंग के निश्चय के बाद (रत को) मावित अर्थात बोधित करने वाले होने से (कार्यरूप) स्तम्भादि रस का कार्य अनुभाव कहलाते हैं। फिर आगे 1. हिन्दी नाट्यशास्त्र, पृ. 374 2. हिन्दी दशरूपक, 4/3 3- काव्यानुशासन, 2/1 वृत्ति + हिन्दी नाट्यदर्पण, 3/8 विवृत्तिा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( दे रसों के स्थायिभावों व व्यभिचारिभावों के कार्यभूत अनुभावों का प्रतिपादन करते लिखते हैं -- वेपधु (कम्प), स्तम्भ, रोमांच, स्वरभेद, अश्रु, मूर्च्छा, स्वेद और वैवर्ण्य आदि रस से उत्पन्न होने के कारण अनुभाव कहलाते हैं।। आदि शब्द से प्रसन्नता, उच्छ्वास, निश्वास, रोना-चिल्लाना, उल्लुकसन) बाल नोचना, भूमि खोदना, लोटना-पोटना, नाखून चबाना, भुकुटि, कटाक्ष, इधर-उधर या नीचे देखना, प्रशंसा करना, हँसना, दान, चापलूसी और मुख का लाल पड़ जाना आदि अनुभाव भी गृहीत होते हैं। उनके अनुसार कहीं स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभाव भी अनुभाव हो सकते हैं। रसों के स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभावों के और अनुभावों के भी यथायोग्य सहस्त्रों अनुभाव हो सकते हैं। 2 पूर्वकथित वेपथु आदि आठ अनुभावों का लक्षण वे इस प्रकार देते 186 वेपथु - भयादि के द्वारा शरीर का किंचित् विचलित हो जाना है। 3 स्तम्भ हर्षादि के कारण यत्न करने पर भी अंगों की क्रिया का न होना तथा विषादूसूचक "हा" इत्यादि शब्दों का होना स्तम्भ है। 4 1. हि. नाट्यदर्पण, 3/45 2. हि. नाट्यदर्पण विवरण पृ. 348 3. भयादेर्वेपथुर्गात्रस्पन्दो वागादिविक्रियः । वही, 3/46 4. यलेऽप्यंगा क्रिया स्तम्भो हषदिः, हा! विषादवान् ।। वही, 346 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्पर्शादि करना रोमांच है। रोमांच - प्रिय के दर्शनादि से रोमों का खड़ा होना तथा अंगों स्वरभेद भेद है, यह हर्ष व हास्य को उत्पन्न करने वाला होता है। 2 - अश्रु - शोकादि के कारण उत्पन्न नयनजल अश्रु है, यह नथुने के फड़कने तथा नेत्रों के पोंछने के द्वारा अभिनेय है। 3 मूर्च्छा - प्रहार या कोपादि के कारण उत्पन्न इन्द्रियों की असमर्थता मूर्च्छा कहलाती है। इसमें व्यक्ति भूमि पर गिर जाता है। 4 मद आदि के कारण होने वाली शब्द की भिन्नता स्वर - 2. स्वेद श्रम आदि के कारण उत्पन्न होने वाला रोमजल का प्राव स्वेद है। पंखा झलने आदि के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। 5 वैवर्ण्य 6 है। इधर उधर देखने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । " - 1. रोमांचः प्रियदृष्ट्यादेः रोमहर्षोऽगमार्जनै: हि. नाट्यदर्पण 3/47 स्वरभेदः स्वरान्यत्वं मदादेर्हर्ष - हास्कृत वही 3/47 तिरस्कारादि के कारण उत्पन्न, मुख का विकार वैवर्ण्य 187 33 अश्रु नेत्राम्बु शोकाद्यैर्नासास्पन्दा विरूक्षपैः । हि. नाट्यदर्पण, 3/48 4. मूर्च्छनं घात - कोपापै रवग्ला निर्भूमिपात कृत । वही, 3/48 5. स्वेदो रोमजलतावः श्रमादेर्व्यजनगृहे:! वही, 3/49 6. छायाविकारो वैवर्ण्य पादेदिनिरीक्षणैः । हि. नाट्यदर्पण 3/49 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 नरेन्द्रप्रभसरि अनुभावों की गपना करते कहते हैं कि - जो कटाक्ष - पात, भुजाक्षेप, भभमण, मुख-भमप आदि घोर भावलीला आदिरूप जो स्तम्मादि सात्त्विक भाव हैं तथा जिनके द्वारा सामाजिक स्थायिभावों व संचारिभावों का अनुभव करते हैं, वे मेखला - स्खलन, श्वास, सन्ताप, जागरप, नथुनों का फड़कना और देवोपालम्भ आदि सभी अनुभाव हैं।' इस प्रकार इन्होंने उन्हीं आठ सात्विक भावों को गिनाया है जो रामचन्द्रगुपचन्द्र द्वारा पूर्वोल्लिखित हैं। अन्तर मात्र ये है कि नरेन्द्रप्रभसरि ने प्रत्येक सातिपक भाव (अनुभाव ) का केवल उदाहरप प्रस्तुत किया है लक्षप नहीं जबकि रामचन्द्रगुपचन्द्र ने केवल लक्षण प्रस्तुत किया है उदाहरप नहीं। ___ वाग्भट दितीय ने प्रत्येक रस के लक्षप पतंग में उस - उस रस के अनुभावों का उल्लेख किया है। मावदेवतरि ने भी रसों के अनुसार नौ अनुभावों का नामोल्लेख किया है। व्यभिचारिभाव - लौकिक जगत में जो स्थिति सहकारिभावों की होती है वही स्थिति काव्य जगत में व्यभिचारिभावों की होती है। व्यभिचारिभावों का दूसरा नाम संचारीभाव है। संचरपशील होने से इनकी संचारिभाव क्षा सार्थक ही है। आचार्य भरत ने व्यभिचारिमाव की क्याख्या करते हुए लिया है कि "अभि इत्येतावुपसर्गो। चर गतौ धातुः। पात्वर्यवागंगसत्वोपेतान विविधमभिमुखेन रतेषु चरन्तीति व्यभिचा रिपः। तात्पर्य यह है कि जो 1. अलंकारमहोदधि - 3/28-29 2. नाट्यशास्त्र, 2/27 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विशेष रूप से रस के चारों ओर उन्मुख होकर गतिशील होते हैं, वे व्यभिचारिभाव कहलाते हैं, इनका संचरण, वाणी, अंग और सत्वादि के द्वारा होता है। उनके अनुसार व्यभिचारिभावों की संख्या तैतींस है निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, ब्रीडा, चलपता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, प्रबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क । । 189 जैनाचार्य हेमचन्द्र ने व्यभिचारिभाव का जो स्वरूप प्रस्तुत किया हैउसका तात्पर्य यह है कि "विविध धर्मों की ओर उन्मुख होकर संचरणशील होने के कारण तथा अपने धर्म का अर्पण करके स्थायिभावों का उपकार करने वाले व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। 2 भरतमुनि की परंपरा का अनुकरण करते हुए हेमचन्द्र ने 33 प्रकार के व्यभिचारिभावों का प्रतिपादन किया है जो इस प्रकार हैं धृति, स्मृति, मति, व्रीडा, जाइय, विषाद, मद, व्याधि, निद्रा, सुप्त, औत्सुक्य, अवहित्था, शैका, चपलता, आलस्य, हर्ष, गर्व, उगता, प्रबोध, ग्लानि, दैन्य, श्रम, उन्माद, मोह, चिन्ता, अमर्ष, त्रास I. नाट्यशास्त्र, 6 / 18-21 2. विविधाभिमुख्येन स्थायिधर्मोपजीवनेन स्वधर्मापयेन च चरन्तीति व्यभिचारिणः । काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 128 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपस्मार, निर्वेद, आवेग, वितर्क, असूया और मरण । आ. हेमचन्द्र ने पर्यायवाची शब्दों के द्वारा इनका अर्थ स्पष्ट किया है और वही इनके लक्षण कहे जा सकते हैं। उनके अनुसार धृति संतोष है। स्मृति स्मरण है । मति अर्थ का निश्चय करना है। चित्त का संकोच मन का सन्ताप है। मन का डा है। अर्थ की अप्रतिपत्ति ही जड़ता है। विषाद मन की पीड़ा को कहते हैं । मद - आनन्दसंमोहभेद है। व्याधि संमीलन ही निद्रा है । निद्रा की गाढावस्था ही सुप्त है। काल की अक्षमता औत्सुक्य है। आकारगोपन ही अवहित्था है। अनिष्ट की उत्प्रेक्षा ही शंका है। चित्त का अनवस्थान चपलता है । पुरुषार्थों में अनादर ही आलस्य है । चित्त का प्रसन्न होना ही हर्ष है। दूसरे की अवज्ञा गर्व है। चण्डत्व ही उगता है। निद्रा समाप्ति ही प्रबोध है। बल का अपचय ग्लानि है। अनोजस्य ही दैन्य है । खद ही श्रम है। चित्त का विप्लव उन्माद है । मढ़ता ही मोह है। ध्यान करना ही चिन्ता है। प्रतिचिकीर्षा ही अमर्ष है । चित्त का चमत्कार ही त्रास है। आवेश ही अपस्मार है। स्वावमाननस ही निर्वेद है। संभ्रम ही आवेग है। संभावना ही वितर्क है। अक्षम ही असूया है। मरपता मृति या मरप है । ' - 1. काव्यानुशासन, 2/19 190 - हेमचन्द्र ने उपर्युक्त तैतींस व्यभिचारिभावों में ही अन्य व्यभिचारिभावों का अन्तर्भाव कर लिया है। यथा - दम्भ का अवहित्था में, उद्वेग का निर्वेद में, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 क्षुधा - तृष्पा आदि का ग्ला नि ।। उन्होंने तैतींत प्रकार के व्यभिचारिभावों को स्थिति, उदय, प्रशम, संधि व शबलता धर्म वाला बतलाकर सभी के पृथक् पृथक उदाहरप प्रस्तुत किये है तथा आगे के तैतीस सूत्रों में उनके विभाव और अनुभावों को सोदाहरण प्रतिपादित करते हुए व्यभिचारिभावों के स्वरूप का विवेचन किया है। 2 रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि - रसोन्मुख स्था यिभाव के प्रति विशेष रूप से अनुकूल आचरप करने वाले (स्थायिभाव के पोषक) व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। अथवा स्थायिभाव के विधमान होने पर भी कभी कोई व्यभिचारिभाव नहीं होता है इसलिये व्यभिचारी होने से व्यभिचारिभाव कहलाते हैं अर्थात अपने विभाव के होने पर भी न होने से और न होने पर भी होने से ये अपने विभावों के व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। इनके अनुसार व्यभिचारिभावों की संख्या तैतीस है। किन्तु आगे वे लिखते हैं कि इनके अतिरिक्त अन्य व्यभिचारिभाव भी हो सकते हैं, जैसे - क्षुधा, प्यास, मैत्री, मुदिता, श्रद्धा, दया, उपेक्षा, रति, सन्तोष, क्षमा, मुदता, सरलता, दाक्षिण्य आदि तथा स्थायिभाव तथा 1. वही, 2/19 वृत्ति 2. वही, 2/20-52 3 सोन्मुखं स्थायिनं प्रति विशिष्टेनाभिमख्येन चरन्ति वर्तन्ते इति व्यभिचारिपः यद्वा व्यभिचरन्ति स्थायिनि सत्यपि केऽपि कदापि न भवन्तीति व्यभिचारिणः, स्वस्वभावव्यभिचारिषः भावे भावात. अभावे भावाच्च।। हि नाट्यदर्पण, विवरण, पु, 3034 • वही 3/25-27 . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 अनभाव भी व्यभिचारिभाव हो सकते हैं।' पूर्वोक्त तैतीस व्यभिचारिभावों का आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने इस प्रकार लक्षण प्रस्तुत किया है - निर्वेद - तत्त्वज्ञान परक चित्तवृत्ति का नाम निर्वेद है। वह क्लेशों से उत्पन्न विरसता के कारप होता है और श्वास तथा ताप का कारप होता निर्वेद के वर्पन - प्रसंग में नाट्यदर्पपकार, आचार्य मम्मट द्वारा जो निर्वेद को व्यभिचारिभाव स्वीकार करने के साथ-साथ, शान्त रस का स्थायिभाव स्वीकार किया गया है - उसका सण्डन करते लिखते हैं कि - "मम्मट ने तो व्यभिचारिभावों के निरूपप के प्रसंग में निर्वेद को शान्त रत का स्थायिभाव कहा है और रस-दोष प्रसंग में प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण करना दोष है" इस प्रकार कहकर शान्त रस के प्रति निर्वेद रूप व्यभिचारिभाव का गृहप करके स्वयं ही अपने कथन का खण्डन कर लिया है। यहाँ नाट्यदर्पपकार 1. वही, 3/27, विवरप, पृ. 331 2. हि नाट्यदर्पप, 3/28-44 मम्मटस्तु व्यभिचारिकथनप्रस्तावे निवेदव्यशान्तरसं प्रति स्थायितां, प्रतिकलविभावादिपरिग्रहः' इत्यत्रत तमेव प्रति व्यभिचारितां च, बवापः स्ववचन विरोधेन प्रतिहत इति। वही, विवरप, पृ. 332 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 के कयन का अभिप्राय मात्र इतना है कि स्थायिभाव के लिये स्थायित्व अपेक्षित है और व्यभिचारिभाव के लिए नहीं। अत: जो स्थायिभाव है वह व्यभिचारिभाव नहींहो सकता क्यों कि स्थायित्व व्यभिचारिभाव का लक्षण नहीं है और जो व्यभिचारिभाव है वह स्थायिभाव नहीं हो सकता क्यों कि अस्थायी रहना स्थायिभाव का लक्षप नहीं है। अतः निर्वेद शान्तरस का स्थायिभाव नहीं अपितु केवल व्यभिचारिभाव ही है। उस दशा में शान्तरस का स्थायिभाव शम होगा। ग्लानि : पीडा का नाम ग्लानि है। वह वाक्य व श्रमादि विभावों से उत्पन्न होती है और कृशता तथा कम्पादि अनुभावों को उत्पन्न करने वाली होती है। अपस्मार : पिशचा दिप गहों तथा वातपित्तादिरूप दोषों की विषमता से उत्पन्न बैचैनी अपस्मार कहलाती है और वह गर्हित व्यापारों से युक्त होता है। शंका : अपने या दूसरे के कुकर्मों से मन का कम्पन शका कहलाती है। और वह श्यामता आदि को उत्पन्न करने वाली होती है। असया : देषादि के कारण सद्गुणों को (दसरे के )सहन न कर सकना असूया है और वह सदा दूसरे के दोषों को देखने वाली होती है। मद : ज्येष्ठादि में मधजन्य और निद्रा, हात्य तथा रोदन को उत्पन्न करने वाला आनन्द "मद' कहलाता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1944 श्रम : रमप करने आदि के कारण उत्पन्न थकावट को श्रम कहते है और वह प्रवेद तथा श्वासादि के कारण होता है। चिन्ता : इष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने ते अथवा अप्रिय की प्राप्ति से उत्पन्न मानसी पीड़ा को चिन्ता कहते हैं। वह इन्द्रियों की विकलता श्वास और कृशतादि की जननी होती है। चपलता : रागद्वेषादि के कारप बिना विचारे जो कार्य करने लगता है वह चपलता है। और वह स्वेच्छाचारिता आदि की जननी होती ___आवेग : अकस्मात उपस्थित हो जाने वाले इष्ट या अनिष्ट से उत्पन्न धोभ आवेग कहलाता है और शरीर मन तथा वाणी में विकार का जनक होता है। मति : शास्त्र तथा तर्क से उत्पन्न होने वाली नवनवोन्मेशशालिनी प्रज्ञा मति कहलाती है। और वह प्रमोच्छेदन आदि की जननी होती है। व्याधि : दोषों से उत्पन्न शारीरिक या मानसिक क्लेश व्याधि कहलाता है और वह अतिस्वर तथा कम्पादि का जनक होता है। स्मृति : मिलते - जुलते सदृश पदार्थ को देखने आदि से उत्पन्न पूर्ववैट अर्थ का ज्ञान स्मृति कहलाता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 धृति : ज्ञान अथवा इष्ट प्राप्ति आदि ते उत्पन्न सन्तोष प्रति है। और वह शरीर की पुष्टि आदि का करने वाला होता है। ____ अर्म : तिरस्कारादि के कारप उत्पन्न बदला लेने की इच्छा अमर्ष कहलाती है। इसमें कम्पनादि अनुभाव होते हैं। मरप : व्याधि आदि के कारप मरने की इच्छा करना मरप कहलाता है और वह इन्द्रियों को विकल करने वाला होता है। मोह : प्रहारादि से उत्पन्न अर्थतन्य "मोह" कहलाता है। इसमें चक्कर आना आदि होता है। निद्रा : थकावट आदि से उत्पन्न इन्द्रियों के व्यापार का अभाव निद्रा कहलाती है। इससे सिर हिलने लगता है। ___ सुप्त : प्रबलनिद्रा का आना सुप्त नामक व्यभिचारिभाव है। इसमें बर्राना (स्वप्नास्ति) और मन सहित सब इन्द्रियो का विषयों से अत्यन्त मुख्य ( मोहन )हो जाता है। उगता : अपराध के कारप दुष्ट पुरूष के प्रति वध-बन्धादि दारा जो निर्व्यता का प्रकाशन है वह उगता कहलाती है। ___ हर्ष : इष्ट की प्राप्ति के कारप मन की प्रसन्नता हर्ष होता है। इसमें स्वेद, अश्रु और गदगना हो जाती है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 विषाद : इष्ट वस्तु के न मिलने से चित्त का अनुत्साह "विषाद' कहलाता है। निःप्रवास तथा चिन्ता के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। उन्माद : (भूतपिशाचादिरूप)गह तथा (वात पित्तादि रूप)दोषों के कारप मन का पयमष्ट हो जाना 'उन्माद" कहलाता है और उसमें अनुचित कार्य करने लगता है। दैन्य : आपत्तियों के कारप मन की विकलता दैन्य कहलाती है। ( चेहरे की) कृष्पता व टकने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। वीडा : पश्चात्ताप अथवा माता-पितादि गुरूजनों की उपस्थित के कारप पृष्टता न करना, क्रीडा कहलाती है। त्रास : भयंकर वस्तु को देखकर चकित हो जाना त्रास' कहलाता है। शरीर के सिकोड़ने व कापने के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। तर्क : वाद आदि के द्वारा एक पक्ष की संभावना तर्क कहलाती है। उससे अंगों का नचाना रूप अनुभाव उत्पन्न होता है। गर्व : विद्यादि के कारण अन्यों की अवज्ञा करके अपने को बड़ा सम्झाना "गर्व कहलाता है। औत्सुक्य :(इष्ट के) स्मरप आदि के कारण इष्ट के प्रति शीघता आदि से अभिमुख प्रवृत्त होना औत्सुक्य कहलाता है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवहित्था : धृष्टता आदि से उत्पन्न विकार को छिपाने का यत्न अवहित्था कहलाता है। इसमें (आकार - विकृति को छिपाने के लिए) दूसरी क्रिया की जाती है। को जाड्य : इष्टादि से (अर्थात् इष्ट प्राप्ति की प्रसन्नता में ) कार्य है। मौन तथा टकटकी लगाकर देखने के द्वारा इसका जाना जाड्य अभिनय किया जाता है। भल आलस्य : श्रम आदि के कारण कार्य में उत्साह का न होना आलस्य कहलाता है। जम्भाई आदि के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। 197 विबोध : शब्दादि के कारण होने वाला निद्राभंग "विबोध" कहलाता है। तथा अंगड़ाई आदि अनुभाव होते हैं। इस प्रकार ये नाट्यदर्पणकार द्वारा वर्णित तैतींस व्यभिचारिभाव नरेन्द्रप्रभरि को आ. हेमचन्द्र सम्मत व्यभिचारिभाव की व्याख्या अभीष्ट है।' उन्होंने तैतीस व्यभिचारिभावों का नामोल्लेख करते हुए प्रत्येक का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत किया है। 2 आ. वाग्भट द्वितीय ने तैतींस 1. विविधमा भिमुख्येन स्थायिधर्माणामुपजीवनेन स्वधर्माणां समप्यपेन च चरन्तीति व्यभिचारिणः अलंकारमहोदधि, 3/33 वृति वही, 3/31-50 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 व्यभिधारिभावों का नामोल्लेस किया है।' भाददेवतरि ने "निर्वेदायास्त्रयस्त्रिंशद भावास्तु व्यभिचारिपः' मात्र कहकर व्यभिचारिभावों का उल्लेख दिया है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किये गये उक्त व्यभिचारिभाव - विवेचन में कुछ नवीनतायें दृष्टिगत होती है। यथा - आ. हेमचन्द्र तथा रामचन्द्र-गुपचन्द्र को भरतमुनि सम्मत तैंतीस व्यभिचारिभावों के अतिरिक्त कछ अन्य व्यभिचारिभाव भी स्वीकार है। आचार्य मम्मटनेजो निर्वेद को व्यभिचारिभाव के अतिरिक्त स्थायिभाव भी स्वीकार किया है, वह रामचन्द्र-गुणवन्द्र को अभीष्ट नहीं है। सात्त्विक भाव : मरतमुनि ने मन से उत्पन्न होने वाले को सत्व कहा है और वह समाहित (एक निष्ठ) मन से उत्पन्न होता है तथा मन की एकनिष्ठता से सत्त्व की निष्पत्ति होती है। ' अत : जिसकी उत्पत्ति में सत्त्व कारप हो वह तात्त्विक भाव कहताता है। ये आठ प्रकार के होते हैं - स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग , वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय। 1. काव्या, वाग्भट - पृ. 57 2. काव्यालंकारतार 8/6 3 नाट्यशास्त्र, 7/93 ५. वही, 7/93 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 इन सात्त्विक भावों में अनुभावत्व भी है, क्योंकि अनुभावों के सदश ये भी नायक - नायिका दि आश्रय के विकार हैं। तथापि इनकी गणना पृथक् की गई है - जैनाचार्य हेमचन्द्र ने सात्त्विक भाव का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ प्रस्तुत करते हुए भरत के मन्तव्य का अनुकरप किया है। वे लिखते हैं कि "सीदत्यस्मिन् मन इति व्युत्पतेः सत्त्वगुपोत्कर्षात्साधुत्वाच्च प्रापात्मकं वस्तु सत्त्वस तत्र भवाः सात्त्विका: अर्थात इसमें मन खिन्न होता है तथा सत्त्वगुणों के उत्कृष्ट और श्रेष्ठ होने से प्रापात्मक वस्तु सत्व है, उससे उत्पन्न होने वाले सात्त्विक भाव कहलाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने भरतमुनि सम्मत आठ प्रकार के सात्त्विक भावों का ही विवेचन किया है। आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र ने भी सात्विक भाव के पूर्वोक्त आठ भेद ही स्वीकार किये हैं किन्तु आठ भेदों को अनुभाव कहा है। तथा इनका उल्लेख अनुभावों के प्रसंग में किया है। नरेन्द्रप्रभसरि ने सात्त्विक भाव के हेमचन्द्र सम्मत उक्त आठ भेद ही स्वीकार किए हैं। वाग्भट द्वितीय ने भी आठ सात्त्विक भावों की गपना की है। 1. जैनाचार्यो काअलंकारशास्त्र में योगदान, पृ. 134 2. काव्यानुशासन, 2/53 वृत्ति। 3 वही, 2/54 + हि नाट्यदर्पप, 3/45 5 अलंकारमहोदधि 3/30 6. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 58 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 इस प्रकार सभी आचार्यों को सात्विभाव के उक्त आठ प्रकार ही मान्य है। साथ ही उनके द्वारा प्रतिपादित सात्त्विकभाव और उसके भेदों के स्वरूप में भी साम्य प्रतीत होता है। मात्र रामचन्द्र-गुपचन्द्र की अपनी एक विशिष्टता है कि उन्होंने उक्त सात्त्विकभावों को अनुभावों की प्रेपी में रक्या है। यद्यपि उक्त आठ भावों को बहुआचार्यों ने सात्विक भावों की ही संज्ञा दी है तथापि यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाये तो इनमें अनुभावों की भी परिभाषा पूर्णतः घटती है। क्योंकि नायक-नायिका में। परस्पर होने वाले दर्शनादि के पश्चात ही उक्त भावों के चिन्ह प्रतीत होते हैं। अत: अनुभावों के प्रसंग में रामचन्द्र-गुपचन्द्र दारा यदि उक्त मावों की गपना की जाती है तो यह उनकी सूक्ष्म व तीक्ष्म दृष्टि का ही प्रतिफल है।' रसाभास, भावाभात - भरतमुनि प्रभृति काव्य-नाट्य विद्वानों ने रस तथा भाव आदि की अभिव्यंजना हेतु कुछ नियम निर्धारित किये हैं। वे नियम शास्त्र मर्यादा या लोक - मर्यादा को ध्यान में रखकर निश्चित किये गये हैं। इसी से मुनिपत्नी - विषयक रति आदि का वर्षन प्रतिषिदु या वर्जित माना गया है। इसी प्रकार अन्य रसों में भी कुछ वर्षन प्रतिषिद्ध माने जाते हैं। यहाँ पर शस्त्र तथा लोक का उल्लंघन करने वाले प्रतिषिविषयक वर्षन ही अनुचितरूप में प्रवृत्त होने वाले कहे गये हैं। जो रस या भाव अनुचित रूप में प्रवृत्त होते है वे ही रसाभात या भावाभात कहलाते हैं। यह अनौचित्य अनेक प्रकार का . द्रष्टव्यः जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पृ, 135 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 हो सकता है। उसका निर्णय सदय पुरुषों की व्यवस्थानुसार ही हो सकता है. जैसे, रति के विषय में ही अनौचित्य के अनेक रूप हो सकते हैं। एक स्त्री का एक पुरूष के प्रति प्रेम उक्ति है, परन्तु यदि एक स्त्री का अनेक पुरूषों के पति प्रेम का वर्पन किया जाय तो वह अनुचित होने से "रसाभास* की कोटि में आयेगा। इसी प्रकार गुरू आदि को आलम्बन बनाकर हाय रत का प्रयोग, अथवा वीतराग को आलम्बन बनाकर करूप आदि का प्रयोग, मातापिता विषयक रौद्र तथा वीररस का प्रयोग, वीरपुरुषगत भयानक का वर्पन, यज्ञीय पशु आदि को आलम्बन बनाकर वीभत्स को, ऐन्द्रनालिक आदि विषयक अदभूत और चाण्डाल आदि विषयक शान्तरत का प्रयोग भी अनुचित माना गया है, इसलिये वे सब रसाभास के अन्तर्गत होते हैं।' साहित्यदर्पपकार ने भी इसी प्रकार का वर्पन किया है।2 इस प्रकार जहाँ रस का आभात मात्र हो, वह रसाभात कहलाता है। वहाँ वास्तविक रस का अभाव होता है। इसी प्रकार जहाँ भाव आभात 1. काव्यप्रकाश, विश्वेश्वर - पृ. 141-42 2. उपनायकसस्थायां मनिगरूपत्नीगतायां च। बहुनायकविषयायां रतौ तथानुभयनिष्ठायाम्।। प्रतिनायनिष्ठत्वे तददधपात्र तिर्यगादिगते। अंगारेऽनौचित्यं रौद्रे गुर्वादिगते कोपे।। शान्ते च हीननिष्ठे गर्वाधालम्बने हास्ये। बङ्मवधापुत्साधमपात्रगते तथा वीरे।। उत्तमपात्रगतत्वे भयानके यमेवमन्यत्र। साहित्यदर्पप, 3/263-266 का पूर्वार्द Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 मात्र हो, वह भावाभास कहलाता है। वहाँ वास्तविक भाव का अभाव होता है। आचार्य मम्मट ने देवादिविषयक रति को भाव कहा है तथा आदि पद से मुनि, गुरू, नृप, पुत्रादि विषयक रति का गहए किया है। वे केवल कान्ता विषयक रति की अभिव्यक्ति को ही श्रृंगार मानते हैं। इसी प्रकार का विवेचन जैनाचार्य हेमचन्द्र ने किया है। वे लिखते है कि "देवमुनिगुरूनृपपुत्रादिविषया तु भाव एव न पुना रसः। 2 आ. हेमचन्द्र ने आ. मम्मट का ही शब्दशः अनुकरप किया है। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार इन्द्रियरहित तथा तिर्यगादि में क्रमशः संभोगादि रस तथा भाव का आरोप करना रताभास तथा भावाभास कहलाता है। इसी प्रकार संभोगादि रसों एवं भावों के अनुचित रूप से वर्णन अर्थात परस्पर अनुराग का अभाव होने पर भी अनुरक्ति वर्पन इत्यादि को भी रताभास व भावाभास कहा है।* 1. रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाऽणित : भावः प्रोक्तः। आदि शब्दान्मुनिगरूनृपपुत्रादिविषया, कान्ता विषया तु व्यक्ता अंगारः। काव्यप्रकाश, वि0 4/35 व वृत्ति 2. काव्यान, वृत्ति, पृ. 107 3 निरिन्द्रयेषु तिर्यगादिक्षु, चारोपाद्रत भावाभासो। वही, 2/54 + वही 2/55 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 वैते तो आ. मम्म्ट व मा. हेमचन्द्र का रसाभास व भावाभास विषयक विवेचन मिलता जुलता ही है किन्तु आ. हेमचन्द्र की प्रतिपादन शैली व उदाहरप द्वारा किया गया निरूपप मम्मट की तुलना में अधिक प्रेयस्कर तथा महत्वपूर्ण है। इतने अधिक उदाहरप अन्य किसी भी आचार्य ने नहीं दिये हैं। आ. हेमचन्द्र ने रताभास व भावाभास को समासोक्ति, अर्थान्तरन्यास, उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा, प्रलेष, आदि अलंकारों का जीवित तत्त्व माना है।' नरेन्द्रप्रभतरि का रसाभास - भावाभास विवेचन हेमचन्द्रागर्य के समान है। हेमचन्द्राचार्य व नरेन्द्रप्रभसरि द्वारा अनौचित्य पद का प्रयोग, आनंदवर्धन के "अनौचित्यादृते नान्यद रसभंगत्य कारपस कथन से प्रभावित प्रतीत होता है। अस्तु, उक्त जैनाचार्यों द्वारा रस के प्रत्येक अंग पर विचार किया गया है जो कतिपय विशिष्टताओं से युक्त होते हुए भी सामान्यतः भरतपरम्परा का निर्वाहक है। ।• रसाभासस्य भावाभासस्य च समासोक्त्यर्थान्तरन्यासोत्प्रेक्षारूपकोपमाश्लेषादयो जीवितम् ।। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 149 2- आभास रत - भावानामनौचित्यपवर्तनात। आरोपात तिर्यगाथेषु वर्जितश्विन्द्रियेरपि।। अलंकारमहोदधि 3/53 . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 चतुर्थ अध्याय : दोष विवेचन 204 यद्यपि काव्य में दोषों का अभाव ही माना गया है, अतः काव्याम के रूप में दोषाभाव की ही विवेचना होनी चाहिए किन्तु अभाव का ज्ञान अमाव के प्रतियोगी के ज्ञान के बिना संभव नहीं है, अतः दोषाभाव के ज्ञान के लिये दोषों का ज्ञान आवश्यक है। अतएव समी काव्यशास्त्र के आचार्य अपने ग्रन्थों में काव्य - दोषों का भी विवेचन करते चले आए हैं। दोष - विवेचन सर्वप्रथम आचार्य भरत के नाटयशास्त्र में मिलता है।' आ. भामह सदोष काव्य को कुपुत्र के सदृश निन्दनीय कहते हैं। आचार्य दण्डी काव्य में अल्प-दोष को भी मानव शरीर में कुष्ठ-दाग के समान मानते है। इसी प्रकार जैनाचार्य वाग्भट - प्रथम ने अष्ट काव्य को यश तथा स्वर्ग प्राप्ति का साधन कहा है। दोष - स्वरूप : भरतमुनि गुप को दोष का विपर्यय मानते हैं। जबकि आचार्य वामन दोष को गुप का विपर्यय मानते हैं। आधुनिक विद्वान डा0 रेवाप्रसाद दिवेदी का कथन है कि गुपों को ही दोषों का विपर्यय कहना वैज्ञानिक है, 1. नाट्यशास्त्र, 17/88-95 2. काव्यालंकार, 1/11 3 काव्यादर्श, 1/7 + वाग्भटालंकार, 2/5 5. स्त एव विपर्यस्ता गपाः काव्येषु कीर्तिताः नाट्यशास्त्र, 17/95 - गुपविपर्यासात्मानो दोषाः। १५काव्यालंकारसूत्र, 2/2/1.. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 दोषों को गपों का विपर्यय कहना एक विपरीत किया है।' ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन अनौचित्य को ही काव्य-दोष स्वीकार करते हैं। 2 आ. मम्मट आनन्दवर्धन का ही अनुकरप करते हुए लिखते हैं कि - जिससे मख्यार्य का अपकर्ष होता है वह दोष है, और काव्य में रस भावादि ही मुख्यार्य है। परवर्ती आचार्यों ने इसी दोष स्वरूप का प्राय : अनसरप किया है। जहाँ तक जैनाचार्यों द्वारा दोषस्वरूपादि विवेचन का प्रश्न है, तो उन्होंने इसका वर्णन इस प्रकार किया है - जैनाचार्य हेमचन्द्र की विचारधारा मम्मट की विचारधारा से बहुत साम्य रखती है। मम्मट की भांति उन्होंने भी पहले दोष का सामान्य लक्षप दिया है। उन्होंने गुण और दोष इन दोनों का एक ही कारिका के द्वारा सामान्यतया लक्षप दे दिया है। वे "रस के अपकर्षक हेतुओं को दोष कहते हैं अर्थात जिसके द्वारा रसानुभूति में बाधा उपस्थित होती है, उते काव्य-दोष कहते हैं। ये दोष रस के ही आश्रित होते हैं, किन्तु गौफरूप से वे शब्द और अर्थ के भी अपकर्षक होते हैं। क्योंकि शब्द और अर्थ रस के उपकारक होते हैं, अतएव परस्पर या शब्द और अर्थ के भी अपघातक को 1. पैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान से उधत, पु. 141 2. अनौचित्यादते नान्यद रसभंगस्य कारपस। ध्वन्यालोक, पृ. 259 : मुख्याहतिर्दोषो रसश्च मुख्य ः काव्यप्रकाश, 7/49 + रसत्योत्कर्षापकर्षहेतु गुपदोषो, भक्त्याशब्दार्ययोः - काव्यानशासन, 1/12 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 दोष कहते हैं। आ. नरेन्द्रप्रभसार वैफिय के लोप को दोष मानते हैं, वह विशेष रूप से रस की क्षति होने पर होता है और गौप रूप से शब्द और अर्य की क्षति होने पर ।' दोष - मेद : काव्यगत दोषों की संख्या में उत्तरोत्तर विकास हुआ है। सर्वप्रथम आचार्य मरत ने दस दोषों का उल्लेख किया है - गूदार्थ, अर्थान्तर, अर्थहीन, भिन्नार्थ, एकार्य, अभिप्लुतार्य, न्यायदोत, विषम, विसन्धि एवं शब्दच्युत 12 इसके पश्चात आचार्य भामह ने अपने काव्यालंइ. कार में चार स्थलों पर दोषों का निरूपप करते हुए सर्वप्रथम छ: काव्य दोषों को गिनाया है - नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिमत और गढशब्दाभिधान । तदनन्तर श्रुतिदष्ट, अर्थदुष्ट, कल्पनादुष्ट और श्रुतिकष्ट - ये चार वापी दोष कहे हैं । इसी क्रम में मेधावी के अनुसार हीनता, असंभव, लिंगभेद, वचनभेद, विपर्यय, उपमानाधिक्य और असदर्शता नामक सात दोषों का विवेचन किया है । तत्पश्चात् काव्यसौन्दर्य के घातक अठारह प्रकार के दोषों का उल्लेख किया है- अपार्य, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपकम, शब्दहीन, यतिमष्ट, 1. वैचित्र्यध्याहतिर्दोषः सा च भम्ना रसधतेः। तद पूर्व रस एवैषः भक्त्या शब्दार्थयोः पुनः।। अलंकारमहोदधि, 5/1 2. नाट्यशास्त्र, 17/88 काव्यालंकार, 1/37 + वही, 1/47 काव्यालंकार, 2/39-40 3. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 भिन्नदत्त, वितन्धि, देशविरोधी, कालविरोधी, कलाविरोधी, लोक विरोधी, न्यायविरोधी, आगमविरोधी, प्रतिज्ञाहीन, हेतुहीन और टूटान्तहीन ।। इस प्रकार आचार्य भरत की तुलना में भामह ने काव्य - दोषों की संख्या में वृद्धि की है, जबकि मामहाचार्य के ही समकालीन आचार्य दण्डी ने मात्र दस दोषों का ही विवेचन किया है जिसका भामह ने पहले ही प्रतिपादन कर दिया था। दण्डी के दस दोष है - अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपक्रम, शब्दहीन, यतिमष्ट, भिन्नवृत्त, विसन्धि, और देश - काल - कला - लोक - न्याय - आगम विरोधी । अतः दोष-प्रसंग में दण्डी ने कोई नवीन बात नहीं कही है। ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने श्रुतिहटत्व, ग्राम्यत्व और असभ्यत्व इन तीन दोषों का विभिन्न प्रसंगों में नामोल्लेख किया है तथा पाँच रत - दोषों का भी विवेचन किया है, किन्तु अनौचित्य को उन्होंने रस - भंग का सबते पमुख दोष माना है।' आचार्य मम्मट का दोष - विवेचन सर्वाधिक विस्तृत है। काव्य सम्बन्धी जितने अधिक दोष संभव हो सकते थे प्रायः उन सभी को आचार्य मम्मट ने गिना दिया है। उनके द्वारा प्रतिपादित लगभग सत्तर 8708 दोष है जिन्हें उन्होंने कई भागों में मिक्त करके प्रतिपादित किया है - 1. वही, 4/1-2 2. काव्यादर्श, 3/125-126 3. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान पृ. 146 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। पुनः शब्ददोष के तीन भेद किए हैं - पददोष' पदांश दोष और वाक्यदोष। इस प्रकार मम्मटसम्मत समस्त दोषों को पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - 81 पददोष, 12पदांशदोष, 38 वाक्यदोष, १५ अर्थदोष और 58 रसदोष। यद्यपि परवर्ती जैनाचार्य मम्म्टानुगामी है तथापि किसी - किसी जैनाचार्य, विशेषतः हेमचन्द्राचार्य ने पद और वाक्य में सम्मिलित उभयदोषों को भी स्वीकार किया है। अतः इन समस्त दोषों का विवेचन कम इप्स प्रकार वर्पित करना सम्यक् होगा - 818 पददोष, 28 पदोश-दोष, 33 वाक्य - दोष, 43 उभय-दोष, 853 अर्थ - दोष और १०१ रस - दोष। पद दोष: सुप् अथवा तिड. प्रत्यय से युक्त शब्द पद कहलाता है, ' और उस पद में रहने वाले दोषों को पददोष कहते हैं। आचार्य मम्मट ने अपने काव्य प्रकाश के सप्तम उल्लास में सर्वप्रथम सोलह पददोर्षों का उल्लेख किया है - 813 श्रुतिकटु, 28 च्युतसंस्कृति, 3 अप्रयुक्त, १५ असमर्थ, {5 निहतार्थ, 868 अनुचितार्थ, 878 निरर्थक, 888 अवाचक, 98 अश्लील, 103 संदिग्ध, 11 अप्रतीत, 8128 ग्राम्य, 3138 नेयार्थ, 1148 क्लिष्ट, 15 अविमृष्ट विधेयांश, और 168 विरुद्धमतिकृत 12 I. "सुप्तिडन्तं पदसा' - अष्टाध्यायी ।/4/14 लघुसिदान्तकौमुदी से उपत 2 काव्यप्रकाश, 7/50-51 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 जैनाचार्य वाग्भट - प्रथम ने आठ पद-दोषों का उल्लेख किया है- । अनर्थक, 828 श्रुतिकटु, १४ व्याहतार्थ, ६५४ अलक्षप, 5 स्वसंकेतप्रक्लृप्तार्थ, 363 अप्रसिद्ध 378 असम्मत, और 8 गाम्य ।' इनके लक्षण इस प्रकार है - 18 अनर्यक : जो पद प्रस्तुत विषय के अनुकूल न हो उसे अनर्थक कहते है। यथा - मैं लम्बोदर गपेशजी की स्तुति करता हूँ। 2 यहाँ पर विनायक गपेशजी के प्रसंग में "लम्बोदर' विशेषप अनुपयुक्त होने के कारप काव्य में अनर्यक नामक दोष उत्पन्न करता है। 328 श्रुतिकटु : काव्य में अत्यन्त कर्पकटु अक्षरों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाले दोष को आचार्यों ने "श्रुतिक्टु' कीसँजा प्रदान की है। यथा - इस सुन्दरी को सृष्टा (बमा)ने एकाग्रचित से माया है, ऐसा मैं मानता हूँ। यहाँ "सृष्टा पद में टकार और रकार का प्रयोग दूषित है क्योंकि ये दोनो कर्कश वर्ष है। 13 व्याहतार्थ : ऐसे पद का प्रयोग जिससे इष्टार्थ के अतिरिक्त, अन्य अर्थ का प्रतिपादन होता है और वह अन्य अर्थ इष्टार्य में बाधा डालता हो "व्याहतार्थ नामक दोष कहलाता है। यथा - हे राजन् । मात्र आप ही पृथ्वी के उपकार मतलोपकृतो में लगे हैं। यहाँ "भूतलोपकृती' पद • वाग्भटालंकार, 2/6-7 2. वही, 2/8 , वही, 2/9 + वही, 2/10 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 •पापियों के विनाश में लगे हैं" इस विपरीत अर्थ का भी बोधक होने से व्याहतार्थ दोष है। 148 अलक्षप : जो पद व्याकरपविरुद्ध हो उसे "अलक्षप दोष कहते हैं। यथा - "मानिनी स्त्रियों के मान-मर्दन करने वाले चन्द्रमा की विजय हो । ययेन्दुर्विजयत्यताह । यहाँ विजयति पद का प्रयोग व्याकरप - शास्त्र के विरुद्ध होने से अलक्षप दोष है। 15६ स्वसंकेतप्रक्लुप्तार्य : जहाँ किसी प्रसिद्ध एवं सर्वविदित अर्थ के विपरीत कवि स्वकल्पित अर्थ में किसी पदविशेष को प्रयुक्त करता है। यथा - यह पर्वत पुष्पराशिमण्डित वानरध्वज अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित हो रहा है। "वानरध्वज' शब्द साधारपतया पाण्डुपुत्र अर्जुन के लिये ही रूद है, किन्तु यहाँ कवि ने उसे स्वकल्पित अर्जुन नामक वृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त किया है। अतएव यहाँ :: "स्वसंकेतप्रक्लुपतार्य' नामक दोष है। 868 अप्रसिद्ध : अप्रसिद एवं अप्रचलित अर्थ में किसी पद को प्रयुक्त करने से अप्रसिद्ध नामक दोष उत्पन्न होता है। यया - हे राजेन्द्र । आप की सुकीर्ति चारों समुद्रों तक जा चुकी है। राजेन्द्र भवतः कीर्तिश्चतुरो हन्ति वारिधीन। • वाग्भटालंकार, 2/11 2. वही, 2/12 ॐ वही, 2/13 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि व्याकरण शास्त्र में हन् धातु हिंसा और गमन न् हिंसागत्योःð इन दोनों अर्थों में पठित है किन्तु कवियों द्वारा हन् धातु का प्रयोग हिंसा अर्थ में ही प्रसिद्ध होने से यहाँ अप्रसिद्ध दोष है। - 878 असम्मत : जो पद किसी अर्थ को प्रकट करने में समर्थ होते हुए भी सर्वमान्य नहीं होता उस पद का प्रयोग "असम्मत" नामक दोष की उद्भावना करता है। यथा सूर्य की रश्मियाँ अम्भोज अन्धकार के कीचड़ अथवा अंधकार रूप कीचड़ को धोती हैं । यहाँ यद्यपि "अंभोज पद कीचड़ का बोध कराने में समर्थ है, " तथापि अंभोज पद का यह अर्थ सर्वसम्मत नहीं है। अतः यहाँ असम्मत दोष है। - 211 888 ग्राम्य : जहाँ कोई पद प्रसंग विशेष में अनुचित होने पर भी प्रयुक्त हो वहाँ "ग्राम्य" दोष समझना चाहिए। यथा देवताओं को पुष्पों से आच्छादित करके मैं उनके आगे धान्य - हविष् इत्यादि फेंकता हूँ। 2 यहाँ देवताओं को पुष्पों से ढंकना और सामने धान्य फेंकना दोनों ग्राम्य प्रयोग होने से ग्राम्य दोष हैं। - १। निरर्थकत्व, और 828 असाधुत्व 13 आचार्य हेमचन्द्र ने मात्र दो पद - दोषों को स्वीकार किया है 1. वही, 2/14 2 वही, 2/15 3. निरर्थका साधुत्वे पदस्य । काव्यानुशासन, 3/4 - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 818 निरर्थकत्व पापूर्ति हेतु "च", "हि" इत्यादि पदों का प्रयोग निरर्थक पददाष कहलाता है । मम्मट की भांति आचार्य हेमचन्द्र ने इसका यथावत प्रतिपादन किया है। पदांश की निरर्थकता का उदाहरण भी आचार्य हेमचन्द्र ने इसी के साथ प्रस्तुत कर दिया है जो कि मम्मट से मिलता है 12 उन्होंने प्रत्युदाहरण प्रस्तुत करने के बाद यह भी स्पष्ट किया है कि यमकादि अलंकार में निरर्थक दोष नहीं होता ऐसा किसी ने माना है । 3 828 - - असाधुत्व व्याकरण शास्त्रविरूद्ध पदों का प्रयोग करना असाधुदोष है।" जैसे - " उन्मज्जन्मकर भुजा भ्यामाजघ्ने विषमविलोचनस्थ वक्षः पद्य में "आजघ्ने" पद असाधु हैं क्योंकि न् धातु अकर्मक है। यह आत्मैनपद में अप्राप्त है। आचार्य मम्मट ने जिसे च्युतसंस्कृति नाम से प्रतिपादित 212 किया है उसी को हेमचन्द्राचार्य ने असाधु नाम दिया है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार अनुकरण में असाधुदोष नहीं रहता है, जैसे - "पश्यैष च गवित्याह । * -5 1. तत्र चादीनां निरर्थकत्वम् । वही, वृत्ति पृ. 199 तुलनीय - काव्यप्रकाश, कृ. पृ. 268 2. काव्यप्रकाश, पृ. 296 एवं काव्यानुशासन, कृ. पृ. 200 3. यमकादौ निरर्थकत्वन दोष इति केचित् । काव्या. वृत्ति, पृ. 2008 4. शब्दशास्त्रविरोधोडसाधुत्वम् । वही, पृ. 201 5. काव्यानु, वृत्ति, पृ. 201 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने तीन पद दोषों का विवेचन किया है18 असंस्कार व्याकरप संस्कार सहित, 28 असमर्थ एवं 33 अनर्थक ।' इनके लक्षप इनके नाम से ही स्पष्ट हैं। ___आचार्य वाग्भट द्वितीय ने सोलह शब्ददोषों का उल्लेख किया है, उनके अनुसार ये शब्द-दोष पद और वाक्य दोनों में समान रूप से पाये जाते हैं। ये इस प्रकार है - । निरर्थक, 323 निर्लक्षप, 38 अश्लील, 148 अप्रयुक्त, 858 असमर्थ, 168 अनुचितार्थ, 178 अतिकटु, 88 क्लिष्ट, ३१ अविमृष्टविषयांश, 108 विदबुद्धिकृत, | नेयार्य, 312 निहतार्थ, 8138 अप्रतीत, 148 गाम्य, 3158 संदिग्ध, 168 अवाचक । ये सोलह शब्द - दोष वे ही हैं जिन्हें मम्मट ने केवल पद - दोष माना है। इनके लक्षप इस प्रकार है - । निरर्थक : प्रकृतानुपयो गि निरर्थ क शब्द दोष कहलाता है।' 28 निर्लक्षप : आचार्य मम्मट के च्युतसंस्कृति नामक दोष के स्थान पर वाभट द्वितीय ने निर्लक्षप नामक दोष माना है। इन दोर्षों में अन्तर यह है कि च्युतसंस्कृति दोष वहीं पर होता है जहाँ व्याकरण विरूद्ध पद का प्रयोग 1. अलंकारमहोदधि, 5/2/पूर्वार्द 2 काव्यानुशासन वाग्भट, पृ. 19 3 वही, पृ. 19 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया हो, किन्तु वाग्भट द्वितीय के अनुसार निर्लक्षण दोष व्याकरण विरूद्ध पद के प्रयोग करने पर तो होगा ही, साथ ही छन्द शास्त्र आदि के विरुद्ध पद का प्रयोग करने पर भी होगा ।। यहां आदि पद से अन्य किन किन शास्त्रों का ग्रहण किया गया है यह उनकी वृत्ति से स्पष्ट नहीं होता है क्योंकि वृत्ति में व्याकरण शास्त्र विरुद्ध और छन्दः शास्त्र विरुद्ध दोषों के ही उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । 2 - 838 अश्लील : लज्जा, अमंगल व घृषा को प्रकट करने के कारण अश्लील शब्द दोष तीन प्रकार का होता है । 3 $58 848 अप्रयुक्त : कवियों द्वारा अनादूत ( निषिद या उपेक्षित ) शब्द दोष अप्रयुक्त है 14 214 असमर्थ : 18 868 अनुचितार्थ : अनुचित रूप से प्रयुक्त अनुचितार्थ शब्द दोष है । 78 श्रुतिकटु : कर्षकटु वर्षों का प्रयोग श्रुतिकटु शब्द दोष है । 7 Xx क्लिष्ट : उस अर्थ के प्रतिपादन में अक्षम असमर्थ शब्द दोष है 15 8 विवक्षित अर्थ की प्रतीति में विलम्ब क्लिष्ट शब्द दोष 1. वही, पृ. 19 2 वही, वृत्ति, पृ. 19-20 3. वही, पृ. 20 4 वही, पृ. 20 5. वही, पृ. 21 ho वही, पृ. 21 7 वही, पृ. 21 वही, पृ. 22 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 898 अविमुष्ट विधेयांश : जहाँ विधेयरूप वाक्यांश का प्रधानतया निर्देश नहीं किया जाता । 108 विरूद्ध बुद्धिकृत : विपरीत अर्थ की प्रतीति कराने में समर्थ 12 ।। नेयार्थ : लक्षितार्थ का जहाँ बोध होता है वह नेयार्थ है । 3 8128 निहतार्थ : उभयार्थवाचक शब्द रहने पर भी अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग करना निहतार्थ दोष है 14 जैसे *यावकरसार्द्रप्रहारशोणित इत्यादि पद्य में शोणित शब्द रूधिर अर्थ में प्रसिद्ध होने से दोषयुक्त है। 8138 अप्रतीत : आगम में ही प्रसिद्ध अप्रतीत है 15 8148 ग्राम्य : असंस्कृत जन में प्रचलित उक्ति ग्राम्य है । " 8158 संदिग्ध : एक पद के दो अर्थों का बोधक होने पर जो अन्य अर्थ के 7 प्रतिशासन से संशय होता है वह संदिग्ध शब्द दोष है । है । 215 - 16 अवाचक : अभीप्सित अर्थ के प्रतिपादन में असमर्थ अवाचक शब्द दोष 8 इस प्रकार पद दोषों के इस क्रम में आचार्य मम्मट ने सोलह, वाग्भट प्रथम ने आठ, हेमचन्द्राचार्य ने दो, नरेन्द्रप्रभसूरि ने तीन व वाग्भट द्वितीय I. Entitratntntnitiv - Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने सोलह पद दोषों का विवेचन किया है। इन सभी जैनाचार्यों ने प्रायः - आचार्य मम्मट द्वारा वर्षित दोषों का अनुकरण करते हुए ही अपना दोष - विवेचन प्रस्तुत किया है। अतः पद दोषों के प्रसंग में जैनाचार्यों ने कोई नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं किया है। पदांशगत दोष - - काव्यप्रकाशकार मम्मट ने पदशगत दोषों श्रुतिकटु निहतार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध व नेयार्थ - का उल्लेख करते हुए इन्हें सोदाहरण प्रस्तुत किया है। 216 जैनाचार्य हेमचन्द्र व नरेन्द्रप्रभरि ने पदैक देश पदांगशत 8 दोषों को पद - दोष ही स्वीकार किया है। 2 आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने पदांशगत दोषों को पदगत दोष मानते हुए भी मम्मटोक्त सात पदशतगत दोषों में ते अश्लील को छोड़कर छः दोषों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। 3 ये उदाहरण वही हैं, जिन्हें आचार्य मम्मट ने प्रस्तुत किया है। वाग्भट - द्वितीय ने पदशगत दोषों का कोई उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त जैनाचार्य प्रायः पदांश दोषों को पृथक मानने के पक्ष में नहीं है। 1. काव्यप्रकाश, पृ. 295 - 300 - 2. "पुदैकदेशः पदमेव " अलंकारमहोदधि, पृ. 153 3. अलंकारमहोदधि, पृ. 153-154 काव्यानु, पृ. 200 एवं पदैकदेशोऽपि पदमेव " - Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्य दोष : वाक्य दोषों को प्रायः सभी आचार्यों ने समानरूप से स्वीकार किया है। आचार्य मम्मट ने 21 प्रकार के वाक्यदोषों का विवेचन किया है18 प्रतिकूलवर्षता, 828 अपहुतविसर्गता, 838 लुप्तविसर्गता, 848 विसंधि, {58 हतवृत्तता, 868 न्यूनपदता, 878 अधिकपदता, १88 कथितपदता, ।। अर्दान्तरैकवाचकता, 8128 १११ पतत्प्रकर्ष, 8108 समाप्तपुनरात्तता अभवन्मतसम्बन्ध, 8 138 अनभिहितवाच्यता, 8148 अस्थानपदता, 8 158 अस्थानसमासता, 8168 संकी र्पता, 8178 गर्भितता, 8188 प्रसिद्धि - विरोध, 198 भग्नप्रक्रमता 8208 अक्रमता और 8218 अमतपरार्थता । - जैनाचार्य वाग्भट - 217 प्रथम ने 8 वाक्य दोषों का उल्लेख किया है 1 1 १। खण्डित, 828 व्यस्तसम्बन्ध, 838 असम्मित, 848 अपक्रम, 858 छन्दोभ्रष्ट, 68 रीतिभ्रष्ट, 878 यतिभ्रष्ट, और 888 असत्क्रिया क्रिया पद रहित हूँ 2 इनके लक्षण इस प्रकार हैं : 1. काव्यप्रकाश, 7/53-55 2. वाग्भटालंकार, 2/17 3. वही, 2/18 १।४ खण्डित एक वाक्य के अन्तर्गत अन्य वाक्यांश के आ जाने से प्रथम वाक्य में जहाँ विच्छेद उत्पन्न हो जाता है, वहाँ "खण्डित" नामक दोष माना जाता है। यथा " वे जिन स्वामी जिनकी स्तुति सदैव इन्द्र भी करते रहते हैं, आप लोगों की रक्षा करें। यहाँ जिनकी स्तुति इन्द्र भी करते हैं, इस वाक्य के मध्य में प्रवेश करने से वण्डित दोष है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 28 व्यस्त सम्बन्ध- किन्ही दो पदों में परस्पर सम्बन्धी पटों के N Ho दर-दर रहने पर "व्यस्त सम्बन्ध" नामक दोष उत्पन्न होता है। यथा - अर्हता में अगगण्य तत्त्ववेत्ता (जिन) देव आप लोगों को सम्पत्ति धन - धान्य प्रदान करें ।। इस वाक्य में "आध:" और "अर्हताम्" इन दोनों पदों का परस्पर सम्बन्ध होने पर भी दूर - दूर स्थित होने से व्यस्तसम्बन्ध- दोष है। १४ असम्मित - जहाँ शब्द और अर्थ संतुलित न हो, वहाँ पर विद्वज्जन असम्मित नामक दोष मानते हैं। यथा - मानसरोवर में निवास करने वाला पक्षी ( हंस) जिसका वाहन है उन (ब्रह्माजी ) के आसन (कमल) को समान लोचनों वाले (अर्थात कमल - नयन जिनदेव) आप लोगों को अन्धकार के शत्रु (सूर्य) के विपधी (राहु) के शत्रु (विष्प) की प्रिया (लक्ष्मी) अर्थात श्री - सम्पत्ति प्रदान करें। इस श्लोक में कमलनयन हेतु "मानतोकपतथानदेवासनविलोचनः और लक्ष्मी के लिये "तमोरिपुविपक्षारिप्रियां इन दो लम्बे-लम्बे पदों का प्रयोग होने से अतम्मित दोष है। 148 अपक्रम - विभिन्न कार्यों के पूर्वापर कम की लोक प्रतिद मान्यता का उल्लंघन करके जहाँ पर क्रम में उलट फेर कर दिया जाता है, • वही, 2/19 2 बाग्भटालड कार 2/20-21 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ पर "अपक्रम" नामक दोष माना जाता यथा - (वह ) भोजन करके स्नानोपरान्त गुरूजनों व आचार्यों की वन्दना करता है। यहाँ लोक व्यवहार में प्रसिद्ध सर्वप्रथम स्नान, पुनः गुरूओं व देवताओं की वन्दना तत्पश्चात अन्य भोजनादि क्रिया - इस क्रम का उल्लंघन करने से अपक्रम नामक दोष है। - $58 छन्दोभ्रष्ट छन्दःशास्त्र के विरूद्ध वाक्य का प्रयोग छन्दोभ्रष्ट कहलाता है। यथा— सजयतु जिनपति:' इस श्लोकाई में अनुष्टुप छन्द का पाद है - किंतु इसमें छन्दः शास्त्रनिर्दिष्ट अनुष्टुप छन्द क लक्षण नहीं है, क्योंकि अनुष्टुय का लक्षण है - " श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्" इत्यादि । 868 रीतिभ्रष्ट 219 इस नियमानुसार उपर्युक्त उदाहरण में जो षष्ठ वर्ष "न" है उसे गुरु होना चाहिए था न कि लघु, जैसा कि यहाँ पर है। अतः यहाँ छन्दो भ्रष्ट दोष माना गया है। - जहाँ वाक्य में रीति विशेष का यथेष्ट निर्वाह न रीतिभ्रष्टमनिर्वाहो यत्र रीतेर्भवेद्यथा । किया गया हो, यथा जिनो जयति स श्रीमानिन्वाद्यमरवन्दितः ॥12 1. वाग्भटालॅंड कार, 2/23 2 वही, 2/24. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 यहाँ पूर्वाई में असमस्तपदी वैदर्भी तथा उत्तरार्दु में समस्तपदी गौडी रीति का प्रयोग होने से रीतिभाट - दोष है। 178 यतिलष्ट - जिस वाक्य के पद के मध्य में ही यतिभड. हो जाय उसमें यतिमष्ट दोष समझना चाहिये। यथा - "नमस्तत्म जिन - - स्वामिने सदा नेमयेऽहते।' (उन अर्हत नेमिनाथ जिनेन्द्रदेव को सदा नमस्कार हो) यहाँ "जिनस्वामिने यह पूरा पद है, अतः इसके पश्चात ही यति होनी चाहिये थी, किन्तु "जिनस्वामी' के पश्चात ही पद के मध्य में यति होने से यतिमष्ट दोष है । 188 असतिक्रया - जिस वाक्य में कोई क्रियापद ही न हो उसमें "असत्किया' नामक दोष होता है। यथा - "यथा सरस्वती पुष्पैः श्रीखण्डेसपैः स्तवैः ।। 2 (पुष्पों से, श्रीचन्दन से, केशर से, स्तोत्रों से सरस्वती की पूजा करता हूँ)। यहाँ "अर्चयामि' इस उचित क्रिया के अभाव में असत्क्रिया दोष है। हेमचन्द्राचार्य ने 13 प्रकार के वाक्य - दोषों का उल्लेख किया है - (I) विसन्धि, 12) न्यूनपदता, (3) अधिकपदता, (4) उक्तपदता, (5) अयानस्थपना, (6) पतत्प्रकर्षता, (7) समाप्तपुनरात्तता, (8) अविसर्गता, (१) हतवृत्तता, (10) संकीर्पता, (II) गर्मितता, (12) भग्नपकमता और (13) अनन्वितता । • वही, 2/25 - वही, 2/26 3 काव्यानुशासन 3/5 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 १६ विसन्धि - पदों के मेलरूप सन्धि-कार्य से द्रव और द्रव्यों की तरह स्वरों का समवाय सम्बन्ध सन्धि है अथवा कपाटों की तरह स्वरों और व्यञ्जनों का प्रत्यासक्तिमात्र या संयोगमात्ररूप सन्धि है। उस सन्धि का विश्लेषता, अश्लीलता व कष्टता ते विरूपता को प्राप्त हो जाना विसन्धि है। जहाँ सन्धि न करू इस प्रकार स्वेच्छा से एक बार भी सन्धि नहीं की जाती अथवा प्रकृतिवद भाव प्राप्त होने पर बार - बार सन्धि कार्य नहीं होता है, वहां विश्लेष के कारप वैरूप्य होता है। जहां पदों की सन्धि करने पर उनसे बीडा, जुगुप्सा और अम इ. लार्य की प्रतीति हो वहाँ अश्लीलल दोष होता है।' इसी प्रकार जहाँ सन्धि होने पर पदों के पारुष्य का बोध होता है, वहाँ कष्टत्व दोष होता है। आ. हेमचन्द्र के अनुसार वक्तादि के औचित्य से दुर्वचकादि में वक्ष्यमाप होने से दोष नहीं होता। जैसा कि कहा गया है - "शुकस्त्रीबालापां मुखतंस्कारसिदये। प्रहासातु च गोष्ठीषु वाच्या दुर्वचकादयः ।। 1. वही, पृ. 20 2. वही, वृति, पृ. 20 3 वही, वृत्ति , पृ. 201-202 + वही, वृत्ति , पृ. 202 5 वही, पृ. 202 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 न्यनपदता - आवश्यक पद का न कहना न्यूनपदता या न्यनपदत्व दोष है। यथा - "तथाभूतां दृष्ट्वा ' इत्यादि पद्य में "अस्माभिः' पद का तथा खिन्नम से पूर्व "इत्थं पद का कथन आवश्यक है, किन्तु ये पद नहीं कहे गये हैं, अत: न्यूनपदता दोष है।' आ. हेमचन्द्र ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। उपमा की न्यूनता का उदाहरण प्राकृत में “संयचक्का - अजा---' इत्यादि दिया है। इसमें उपमान के रूप में कमल व मृपाल की उक्ति होने पर भी उपमेयमत मुख और मुजा का उल्लेख न होने से न्यूनपदत्व दोष है। इसके साथ - साथ उन्होंने कहीं पर न्यूनपदत्व के गुण हो जाने का उदाहरप दिया है - - - 'गादालिंजनवामनीकृत - - -' इत्यादि तथा कहीं पर न गुप और न दोष होने का उदाहरप - "तिष्ठेत कोपवशात' इत्यादि प्रस्तुत किया है। अधिकपदत्व - अधिक पद का होनाही अधिकपदत्व दोषं है । यथा - "स्फटिकाकृतिनिर्मल : प्रकामं प्रतिसंक्रान्त निशातशास्त्रतत्वः । अनिरूद्धसमन्वितो क्तियुक्तिः प्रतिमल्लास्तमयोदयः स कोऽपि ।। यहाँ "आकृत शब्द अधिक होने से दोषं है। इसके अतिरिक्त आ. हेमचन्द्र 1. वही, वृ. पृ. 202 - वही, कृ. पृ. 205 3 वही.. पु. 205 + वही, तु, पू, 205-206 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 223 के अधिकपदत्व के प्रत्ययांश ( पदोश) आदि के अनेक उदाहरप प्रस्तुत किये हैं, यथा - समासादि के आश्य से ही उत्त अर्थ की प्रतीति हो जाने पर भी पत्यय आदि की अधिकता तथा उपमा, रूपक, समातोक्ति अन्योक्ति आदि अलंकारों में अधिक पदों का प्रयोग आदि। साथ ही उन्होंने कहीं पर गुण हो जाने का उदाहरप भी "यदचना हितमति" इत्यादि प्रस्तुत किया है। इसमें दसरा "विदन्ति' पद अन्ययोगव्यवछेद के लिये है।' 14 उक्तपदत्व - किसी पद का दो बार प्रयोग करना उक्तपदत्व दोष है। जैसे - "अधिकरतलतल्यं .. ' इत्यादि उदाहरप में "लीला" पद का दो बार प्रयोग । आचार्य हेमचन्द्र ने इसके गुप हो जाने के उदाहरप भी प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार उक्तपदत्व दोष लाटानुपात में, शब्दशक्तिमल ध्वनि में और कहीं विहित अनुवाद में गुप हो जाता है। तीनों के उदाहरप क्रमशः 'जयतिक्षुण्पतिमिर", "ताला जायन्ति गुपा जाला । एवं "जितेन्द्रियत्वं इत्यादि दिये हैं।' 5 अन्यानस्थपदता - जहाँ पर पर्दो की स्थिति अनुचित स्थान पर होती है। वहीं पर यह दोष होता है। जैसे - "प्रियेण संगथ्य विपक्षसंनिधो निवेशितां वक्षति पीवरस्तने । मजं न काचिद विहौ जलाविला वसन्ति हि प्रेम्पि गुणा न वस्तुनि।' • काव्यानु, वृति पृ, 209 - वही, वृत्ति , पृ. 209 . वही, वृत्ति , पृ. 209-210 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ "ज काचिन्न जहाँ इस प्रकार प्रयोग करना उचित था।' 168 पतत्प्रकर्ष - जहाँ पर क्रमशः उत्कर्ष का हाप्त हो जाता है वहाँ पतत्प्रकर्ष नामक दोष होता है। यथा कःक:कुत्र न घुर्धरायितधुरीघोरो पुरेत्करः क :क :कं कमलाकरं विकमलं कर्तुं करी नोधतः। के के कानि वनान्यरण्यमहिषा नोन्मलयेयुर्यतः, सिंहीस्नेहविलासबदुवसतिः पञ्चाननो वर्तते।। यहाँ कम से अनुप्रास की घनता आवश्यक है। सूकर की अपेक्षा सिंह के प्रतिपादन में अधिकतर कठोरवर्पता होनी चाहिए किंतु ऐसा न होने से उक्त दोष है। उक्त दोष के गुप होने का उदाहरप आ. हेमचन्द्र ने 'प्रागपाप्त - निशुम्म' इत्यादि प्रस्तुत किया है जिसमें क्रोध का अभाव होने पर प्रतत्प्रकर्ष नहीं है। समाप्तपुनरात्त - जहाँ पर का, किया, कर्म आदि के सम्बन्ध से वाक्य की समाप्ति हो जाती है और पुनः उस वाक्य से संबंधित अन्य पदों का प्रयोग कर दिया जाता है तो वहाँ समाप्तपुनरात्त 1. वही, वृत्ति , पृ. 210 2 वही, वृत्ति , पृ. 213 3. वही, वृत्ति , पृ. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 दोष होता है। यथा "ज्योत्स्नांलिम्पति चन्दनेन स पुमान् सिञ्चत्यती मालती माला गन्धनलैमधनि कुरुते स्वादन्यौ फाणितः । यस्तस्य प्रथितान गुपान प्रश्यति श्रीवीरचूडामपे - स्तारत्वं स च शापया मृगयते मुक्ताफलानामपि ।। यहाँ "चूडामणेः' पर वाक्य समाप्त हो जाने पर तारत्वम्" इत्यादि का पंछ की तरह पुनः गृहप चमत्कारोत्पादक नहीं है।' यह कहीं - कहीं न गुप होता है न दोष। जैसे - "प्रागप्राप्त' इत्यादि उदाहरपार 388 अवितर्गता - उत्वादि के द्वारा रकार का लोप होने तथा विसर्ग का लोप प्राप्त होने पर विसर्ग का जो अभाव होता है उत्ते अविसर्गता दोष कहते हैं। यथा "वीरो विनीतो निपुपो वराकारो नृपोत्रप्सः । यस्य भृत्या बलोसिक्ता मस्ता बदिप्रभानियताः ।। यहाँ पर प्रथम पंक्ति में विसर्ग का लोप हो पाने से लुप्तवितर्गता और दितीय पंक्ति में विसर्ग का “ओ हो जाने से उपहतवितर्गता दोष है । • वही, वृत्ति , पृ. 213 2. वही, वृत्ति , पृ. 214 3 वही, वृत्ति , पृ. 214 + वही, वृत्ति , पृ, 214 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 हतत्तता - यह दोष पाँच प्रकार से संभव है - (!) छन्दःशास्त्र के लक्षप से रहित, (2 ) यतिभष्ट, (3) लक्षप का अनुसरप करने पर भी अग्रव्य, (4) अन्त लघु के गुरुभाव को प्राप्त न होना और (5) रसानुकल छन्द न होना। छन्दःशास्त्रलक्षपरहित, यथा - “अयि पश्यसि सौधमाश्रितामविरलसमतो मालभारिपीम। यहाँ वैतालीय छन्द के युग्म पाद में छः लघु अक्षरों का निरन्तर प्रयोग निषिद होने से लक्षणहीन हतवृत्तता है। इसी प्रकार अन्य चार प्रकारों के भी दृष्टान्त हेमचन्द्राचार्य नेदिये हैं।' 1108 संकीर्पता - एक वाक्य के पदों का दूसरे वाक्य के पदों में मिल जाना। यथा कायं वायइ पुडिओ करं घल्लेइ निब्रं रूठो । सुष्यं गेहई कण्ठे हक्केइ अ नत्तिों थेरो ।।2 यहाँ "काकं- क्षिपति कर बादति कण्ठे नप्तारं गृह्णाति पवानं मेषयति" इस प्रकार कहना उचित था। उक्ति प्रत्युक्ति में यह दोष कहीं - कहीं गुप हो जाता है। जैसे -"बाले, नाथ, विमय मानिनि" इत्यादि । 1. वही, वृत्ति , पृ. 214 - 215 2. वहीं, वृत्ति , पृ. 215 3 वही, वृत्ति पृ. 215 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 गर्मितता - एक वाक्य के मध्य में अन्य वाक्य का प्रविष्ट हो जाना। यथा - परापराकरनिरतर्जनैः सह संगतिः । वदामि भवतस्तत्त्वं न विधेया कदाचन ।।। यहाँ तृतीयपाद अन्यवाक्य के मध्य में प्रविष्ट होने से दोष है। इसके गुप होने का उदाहरप आ, हेमचन्द्र ने "दिडरमातं इप्टा" इत्यादि प्रस्तुत किया है। {128 भग्नप्रक्रमत्व - प्रस्तुत का भंग होना भग्नप्रकृमत्व दोष है। जैसे - एवमुक्तो मन्त्रिमुख्यैः पार्थिवः प्रत्यभाषत ।' यहाँ पर "उक्त : इस पद का प्रयोग होने के पश्चात् "प्रत्यभाषत" पद का प्रयोग हुआ है। अतः प्रकृति के भड़. (वन से भाष)हो जाने पर मग्नप्रक्रमत्व दोष है। प्रत्यभाषत के स्थान पर प्रत्यवोचत कहना उचित था। 8138 अनन्वितता - पदार्थों का परस्पर असम्बद्ध होना अनन्वितता दोष है। यथा - तरनिबद्धमुष्टे :कोशनिषण्पत्य सहलमलिनस्य । कृपपत्य कृपापस्य च केवलमाकार तो भेदः ।। 1. वही, वृत्ति , पृ. 215 - वही, वृत्ति , पृ. 216 3 वही, वृत्ति , पृ. 216 + वही, पृ. 223 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 यदि यहाँ आकार शब्द का अवयव संस्थान (आकृति) अर्थ विवक्षित है तब तो परस्पर परिहार की स्थिति वाले दोनो अर्थों में यह मेद सिद ही है, अतः कथन व्यर्थ है। यदि आकार से "आ" वर्ष विशेष लिया जाता है तो वर्ष नियत होने से कृपप ओर कृपाप रूप अर्थो के साथ उसका सम्बन्ध संभव नहीं है। अतः अनन्वितता दोष है। मम्मटाचार्य ने इष्ट सम्बन्ध के अभाव को अभवमतदोष कहा है। आचार्य मम्मट तथा हेमचन्द्र के वाक्यदोषों में मौलिक रूप से प्रायः समानता है परन्तु इनके क्रम तथा कुछ नामों में अन्तर है। जैसे - मम्मट के कथित पदता को आचार्य हेमचन्द्र ने उक्तपदत्व कहा है। इसी प्रकार अस्थानपता को अस्थानस्थपदत्व, उपहतवितर्गता को अविसर्गत्व कहा है। अनन्वितत्व नामक वाक्य - दोष का मम्मट ने उल्लेख नहीं किया है, यह नाम नया है। मम्मट का अभवन्मत सम्बन्ध दोष अनन्वितत्व के बहुत निकट है। लुप्तविसर्ग और ध्वस्तविसर्ग को हेमचन्दाचार्य ने अविसर्गत्व के अन्तर्गत ही माना है तथा विसन्धि के तीन भेदों को पृथक् - पृथक् न मानकर एक ही भेद माना है। इस प्रकार मम्मट के 21 वाक्यदोषों के स्थान पर आ. हेमचन्द्र ने तेरह ही वाक्य-दोषों को स्वीकार किया है। . काव्यप्रकाश, पृ. 312 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 नरेन्द्रप्रमसरि ने 23 वाक्यदोषों का उल्लेख किया है - ।। रसायनुचिताधर, (2) लुप्त-विसन्ति, (3) ध्वस्त-विसर्गान्त, (4) इष्ट सम्बन्धवंचित, (अनन्वित अथवा अभवन्मत सम्बन्ध ),(5) समाप्तपुनरारब्धता, ( 6 ) भग्नपक्रमता, (7) अकमता, (8) न्यूनपदता, (१) अन्तिरस्थैकपदता, (10 संकीर्पता, (II) गर्भितता, (12) दुर्वृत्तता, (13) सन्धिविश्लेषता, (14)तन्धिकष्टता, (15) सन्धिमलीलता, (16) अनिष्टान्यार्थ, (17) अस्त्यान-समा सदुःस्त्यित, (18) अस्थानपद दुःस्थित, (19) पतत्प्रकर्ष, (20) अप्रोक्तवाच्य, (21) त्यक्तपसिदि, (22) पुनरूक्तपदन्यास और (23) अतिरिक्तपदता । यहाँ नरेन्द्रप्रभसरि ने मम्मटाचार्य सम्मत 21 वाक्यदोषों को ही स्वीकार किया है। कि नरेन्द्रप्रभसरि ने विसन्धि के तीन भेदों की पृथक-पृथक् गफ्ना की है, अत: इनके अनुसार वाक्य-दोषों की संख्या 23 हो जाती है, मलता दोनों में अभिन्नता है। हेमचन्द्राचार्य ने जिन 13 वाक्यदोर्षों का उल्लेख किया है, उनमें लुप्तविसर्ग तथा ध्वस्तविसर्ग को उन्होंने अविसर्गता के अन्तर्गत ही माना है तथा विसन्धि के तीन भेदों को पृथक्-पृथक् न मानकर केवल एक ही भेद माना है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र के प्रसंग में 13 वाक्य-दोषों (अविसर्ग के दो तथा विसन्धि के तीन भेदों सहित६)दोषों का विवेचन तो पहले ही किया ।. अलंकारमहोदधि, 5/2-6 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा चुका है। शेष जिन 7 दोषों - रसाद्यनुचिताक्षर, अक्रमता, अर्द्धान्तिरस्थैकपदता, अनिष्टान्यार्थ, अस्थानसमासदुः स्थित, अप्रोक्त वाच्य और व्यक्त-प्रसिद्धि को आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने मम्मटाचार्यानुसार स्वीकार किया है, उनके लक्षण व उदाहरण निम्न प्रकार से हैं रसाधनचिताक्षर यथा - यथा - अक्रमता - जहाँ पर क्रम का अभाव हो । - रस के प्रतिकूल वर्षों का प्रयोग | "अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्णमाकण्ठं कलकण्ठि माम् । कम्बुकण्ठ्याः क्षणं कण्ठे कुरू कुण्ठार्तिमुदुर ।। यहाँ शृंगार रस के प्रतिकूल टवर्ग का प्रयोग होने से दोष है। - तुरङ्गमथ मातंगं प्रयच्छास्मै मदालसम् । कान्ति-प्रतापौ भवत: सूर्याचन्द्रमसो: समो || 2 यहाँ "मातंगमथ तुरंगम्" और "क्रान्ति-प्रतापी भवतः समौ चन्द्र विवस्वतो: " कहना उचित था, किन्तु इसके विपरीत कहने से दोष है। 1. अलंकारमहोदधि, पृ. 131 2. वही, पृ. 135 230 - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्द्धान्तरस्थैकपदता - जहाँ पूर्वार्द्ध से सम्बद्ध एक पद उत्तरार्द्ध में स्थित हो। यथा - अनिष्टान्यार्थ यथा - यथा मावदर्थपदां वाचमेवमादाय माधवः । विरराम महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः ।। ' यहाँ ' विरराम' इस पद को पूर्वार्द्ध में रखना उचित था । 1. 2. 3. - होने से दोष है। - जहाँ अन्यार्थ प्रकृत रस के विरूद्ध हो । राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशाचरी । गन्धवद्द् रूधिरचन्दनोचिता जीवितेश्वसतिं जगाम सा ।। 2 अस्थानासमास दुःस्थित यहाँ प्रकृत वीभत्स रस के विरूद्ध शृंगार रस का व्यञ्जक अन्यार्थ - वही, पृ. 136 वही. पृ. 136 वही. पृ. 139 अनुचित स्थान पर समाप्त करना । अद्यापि स्तनशैलदुर्गविषमे सीमन्तिनीनां हदि । स्थातुं वाञ्छति मान एवं धिगिति क्रोधादिवालोहितः ।। प्रोद्यद्दूरतरप्रसारितकरः कर्षत्यसौ तत्क्षणात् । फुल्लत्कैखको शैनिस्सरदलिश्रेणीकृपापं शशी 113 231 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 यहाँ कुड ( चन्द्रमा) की उक्ति में समास नहीं किया है और कवि की उक्ति में किया है, अत: दोष है। अपोक्तवाच्य - अवश्य कथनीय को न कहना । यथा - अप्राकृतस्य चरिता तिशयैश्च दृष्टै रत्यत् तैर्मम हतत्य तथाऽ प्यनाथा। कोऽप्येष वीरशिशुकाकृतिरप्रमेयमाहात्म्यसारसमुदायमयः पदार्थ।।' यहाँ "मम हृतस्य" के स्थान पर "अपमृतोऽस्मि इस रूप में विधि का कथन करना चाहिए था, क्योंकि तथाऽपि' इस पद का द्वितीय वाक्य में ही प्रयोग किया जाना संभव है। अतः प्रथम वाक्य को द्वितीय से पृथक करने के लिए उक्त प्रकार से अवश्य कथनीय को न कहने से दोष है। त्यक्त्तपसिद्धि - प्रसिद्धि का अतिक्रमप करना । यथा - रपन्ति पक्षिपः वेडं चक्रीवन्तो वितन्वते। इदं बंहितमश्वानां ककुदमानेष हेषते ।। यहाँ मंजीर आदि में रपित, पक्षियों में कृषित, सूरत में स्वनित - मपित आदि तथा मेघों में गर्षित आदि की प्रतिदि का अतिक्रमप होने से दोष है। 1. वही, पृ. 140 2. वही, पृ. 140 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 आचार्य वाग्भट द्वितीय ने चौदह वाक्य - दोष माने हैं।। आ. हेमचन्द्र द्वारा स्वीकृत तेरह वाक्य - दोषों में हतवृत्तता को छोड़कर शेष बारह उन्हें समानरूप से मान्य हैं। इनके अतिरिक्त अर्थान्तरैकवाचक और अभवन्मतयोग - ये दो मम्मट सम्मत दोष भी उन्हें मान्य होने से उनके अनुसार चौदह वाक्य - दोष हैं। इनके लक्षप व उदाहरप प्रायः पूर्वस्वीकृत ही हैं। आचार्य भावदेवतरि ने 32 वाक्य दोष माने हैं, जो इस प्रकार है - (1) श्रुतिकटु, (2) च्युतसंस्कृति, (3) शिथिल, (4) अनुचितः, (5) नेयार्थ, (6) असमर्थ, (7) क्लिष्ट, (8) निरर्थक, (१) गाम्य, (10) संदिग्ध, (II) कथित, (12) विकृत (13) निहतार्थ, (14) विरुद्धमतिकृत, (15) समाप्तपुनरात्त, (16) अपलील, (17) अपयुक्त, (18) अविमृष्ट विधेयांश, (19) पतत्प्रकर्ष, (20 ) उपहृत - विसर्ग, (21) लुप्तविसर्ग, (22) विसंधि, (23) कुसंधि, (24) हतवृत्त, (25) न्यून, ( 26 ) अधिक, (27) अस्थानत्य, (28) भग्नप्रकम, (29) गर्भित, (30) अप्रसिद, (31) संकीर्प और (32) अक्रमा2 इनके लधप नामानुरूप 1. काव्यानुशासन - वाग्भट - पृ. 24 2 काव्यालंकारसार - 3/1-5 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 अभी तक उक्त इन वाक्य - दोषीं के विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि इन जैनाचार्यों ने मम्मट का अनुसरप करते हुए भी अपनी मान्यतानुसार न्यनाधिक विवेचन किया है। आ. वाग्भट प्रथम ने 8, हेमचन्द्र ने 13, नरेन्द्रप्रभसरि ने 23, वाग्भट - द्वितीय ने 14 व मावदेवतरि ने 32 वाक्य - दोषों का उल्लेख किया है। आ. हेमचन्द्र को प्रायः मम्म्ट का अनुयायी कहा जाता है पर उन्होंने केवल तेरह वाक्य-दोषों का उल्लेख कर निश्चय ही मम्मट से भिन्न अपनी मान्यता स्थापित की है। उभयदोषः - पद तथा वाक्य दोनों में एक साथ पाये जाने वाले दोषों को उभय - दोष कहा गया है। आ. मम्मट ने यद्यपि “उभय-दोष नाम का प्रयोग नहीं किया है तथापि पद तथा वाक्य में समानरूप से रहने वाले दोषों का विवेचन किया है। मम्मटानुसार इस प्रकार के तेरह दोष हैं(।) अतिक्टु, (2) अप्रयुक्त, (3) निहतार्थ, (4) अनुचितार्थ, (5) अवाचक (6) अपलील, (7) संदिग्ध, (8) अपतीत, (9) ग्राम्य, (10) नेयार्य, (II) अविमृष्टविधेयांश और (13) विरुद्धमतिकृत - ये तेरह दोष पदों के अतिरिक्त वाक्यगत भी होते हैं। मम्मट ने इन सबके पदगत उदाहरप देने के बाद वाक्य गत उदाहरप भी दिये हैं। इनमें से लगभग छः दोषं पदांशगत भी हैं।' • काव्यप्रकाश, 7/52 । पदगत उदाहरप-काव्यप्रकाश पृ. 267-280, वाक्यगत उदाहरण पु. 281 -294 व पदांझंगत उदाहरणं - पू. 295-300 । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 235 हेमचन्द्राचार्य ने उभय - दोषों का स्वतन्त्ररूप से विवेचन किया है। उनके अनुसार उभयदोष 8 प्रकार के हैं -(1) अप्रयुक्त, (2 ) अश्लील, ( 3 ) असमर्थ, (4) अनुचितार्य (5) श्रुतिकटु. (6) क्लिष्ट, (7) अविमृष्टविधेयांश और (B) विरुदबुद्धिकृत।' उनपयुक्तत्त्व - कवियों द्वारा अनादत अपयुक्त दोष है। यह लोकमात्र - प्रसिद्ध और शास्त्रमात्रप्रसिद्ध भेद से दो प्रकार का होता है। लोकमात्रप्रसिद्धपद दोषं जैसे - "कष्टं कर्य रोदिति थत्कृतेयम्।। यहाँ "यूत्कृता" यह पद लोकमात्र में प्रसिद्ध होने से पद - दोष है। वाक्यदोष, यथा - ताम्बलभृतगल्लोऽयं भल्लं जन्पति मानुषः। करोति खादनं पानं सदैव तु यथा तथा ।।' यहाँ गल्ल, भल्ल आदि अनेक शब्द लोकमात्र में प्रसिद्ध होने से वाक्य - दोष हैं। इसे मम्मट ने वाक्यगत ग्राम्यत्व दोष का उदाहरप माना आचार्य हेमचन्द्र ने लोकमात्र प्रसिद्ध अप्रयुक्तदोष के पदगत और वाक्यगत दोनों के कहीं - कहीं गुप हो जाने के उदाहरप भी क्रमशः 1. काव्यानुशासन, 3/6 2. वही, पृ. 226 3 वही, पृ. 227 + काव्यप्रकाश, पृ. 285 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "देव स्वस्तिवयं” इत्यादि और "फुल्लुक्करं कलमकरसमं वहन्ति" इत्यादि प्रस्तुत किये हैं। यथा साथ जैसे शास्त्रमात्रप्रतिदु पददोष, यहाँ ' देवत' शब्द पुल्लिंग में लिंगानुशासन में ही प्रसिद्ध है। अतः दोष है। अथवा “सम्यग्ज्ञानमहाज्योति" इत्यादि मैं आशय शब्द वासना के पर्याय रूप में योगशास्त्र में ही प्रसिद्ध है। इसी प्रकार से धातुपाठ और अभिधानकोश में प्रसिद्ध पदों के उदाहरण भी दिये हैं। इनके कहीं पर गुण होने का उदाहरण "सर्वकार्यशरीरेषु" इत्यादि तथा श्लेष में उसके न गुण होने और न ही दोष होने का उदाहरण "येन ध्वस्तमनोभवेन इत्यादि - यथाऽयं दारुणाचरः सर्वदैव विभाव्यते । तथा मन्ये दैवतोऽस्य पिशाचो राक्षसोऽथ वा ।। साथ प्रस्तुत कर दिये हैं। शास्त्रमात्र प्रतिद्ध वाक्यगतदोष, 236 तस्याधिमात्रोपायस्य तीव्रसंवेगताजुषः । दृढभूमिः प्रियप्राप्तो यत्नः सफलितः सरवे ॥12 1. काव्यानुशासन, पृ. 227 22 वही, पृ. 229 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 यहाँ अधिमात्रोपाय आदि शब्द योगशास्त्र मात्र में प्रसिद्ध होने से दोष है। इसके कहीं - कहीं गुप होने का उदाहरप, यथा “अस्माकम्य - हेमन्ते' इत्यादि। अश्लीलत्व - तीदा, जगप्सा तथा अमंगल व्यजकतारुप भेद से ये तीन प्रकार का होता है। वीडाभिव्यजक पदगत, यथा - साधनं सुमल्यस्य यन्नान्यस्य विलो क्यते। तस्य धीशालिनः कोऽन्यः सहेतारालितां भुवम् ।। यहाँ पर “साधन शब्द पुरुष का लिंगवाचक होने से वीडाभि व्य-जक है। वाक्यगत, यथा - भूपतेल्पतर्पन्ती कम्पना वामलोचना। तत्तत्पहफ्नोत्साहवती मोहनमादधौ ।। यहाँ प्रपन, उपसर्पप और मोहन शब्द वीडादायक होने से दोष है। इसी प्रकार जगप्सा और अमंगलव्यजक अश्लीलत्व के भी पदगत और वाक्यगत दोष के उदाहरप आ, हेमचन्द्र ने दिये हैं। साथ ही कामशास्त्र . वही, पृ. 229 2. वही, पृ. 229 3 वही, पृ. 230 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 और रामकथाओं में उनके गुण होने के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। असमर्थत्व - अवाचक होने से कल्पितार्थ होने से और सन्दिग्धता होने से विवक्षित अर्थ को न कहने की शक्ति ही असमर्थ दोष है। पदगतदोष का उदाहरप, यथा - हा धिक् सा किल तामती शशिमुसी दृष्टा मया यत्र सा, तदिच्छेदजाऽन्धका रितमिदं दग्र्य दिन कल्पितम् किं कुर्मः, कुशले सदैव विधुरो घातां न घेत्तामयं, तादृग्यामवतीमयो भवति मे नो जीवलोकोऽधुना।।' यहाँ दिन स पद प्रकाशमय अर्थ को कहने में अवाचक (असमर्थ) वाक्यगत, यथा - विजन्ते न ये भूपमालभन्ते न ते श्रियम्। आवहन्ति न ते दुःसे प्रस्मरन्ति न ये प्रियाम्।।2 यहाँ विभन ति (विभाग) सेवन को आलमति (विनाश)लाभ को आवहति (करोति - करता है)धारप को और प्रस्मरति (विस्मरप) स्मरप अर्थ को कहने मे अवाचक( असमर्थ है। 1. 2 वही, पृ. 231-232 वही. पृ. 236 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पित अर्थ होने से असमर्थता किमुच्यतेऽस्य भूपाल मौलिमालामहामणैः । सुदुर्लभंवचो बाणैस्तेजो यस्य विभाव्यते ।। । वाक्यगत, यथा - यहाँ "वच: " शब्द ते "गी" शब्द लक्षित होता है, अतः कल्पितार्थत्व होने से असमर्थ दोष है । मम्म्ट ने यहाँ पदांशगत नेयार्थता दोष माना है। 2 - सपदि पंक्ति विहंगमनाम्भृत्तनय संविलितं बलशालिना । विपुलपर्वतवर्षिशितैः शरैः प्लवगसैन्यमुलुक जिता जितम् ।। 3 - इसका पदगत उदाहरण यहाँ पंक्ति दस संख्या का बोधक है। विहंगम का अर्थ है चक्र, उस नाम को धारण करने वाला (चक्रभृत्) रथ। अर्थात दस रथ जिसके हैं (दशरथ), उसके पुत्र राम लक्ष्मण उलूकजिता - इन्द्र को जीतने वाले हैं। इस प्रकार कल्पित होने से असमर्थत्व दोष है। 1. वही, पृ. 236 2. काव्यप्रकाश, पू, 300 3. काव्यानु, पृ, 236 संदिग्धार्य होने से असमर्थ दोष इसका पदगत उदाहरण - अलिङ्गितस्तत्र भवान्सम्पराये जयश्रिया । आशी: परम्परां वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुरु । 114 काव्यानुशासन, पृ, 237 239 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 यहाँ पर "वन्यां" पद दन्दी के सप्तमी विभक्ति एकवचन में पयक्त होकर बन्दी बनायी गयी महिला का बोधक है अथवा आशी: परम्परां, का विशेषप एवं द्वितीया विभक्ति एक - वचन में प्रयुक्त होकर पज्या का बोधक है, इसमें संदेह है। वाक्यगत, यथा - सुरालयोल्लासपरः प्राप्तपर्याप्तकम्पनः । मार्गपप्रवपो भास्वद मतिरेष विलोक्यते ।।' यहाँ पर सुर, कम्पना, मार्गप एवं मास्वमति क्रममाः देव, सोना, बाप और विभूति अर्थ के वाचक हैं अथवा क्रमशः मदिरा, कम्पन, मिक्षा एवं रात आदि अर्थ के वाचक हैं, इसमें संदेह है, अतएव असमर्थता दो है। आचार्य हेमचन्द्र ने मम्मट सम्मत अवाचकता, प्रसिद्धितता, नेयार्यता व संदिग्धता नामक दोषों का अन्तर्भाव असमर्थत्व दोष में कर लिया है। अनुचितार्थता दोष - पदगत यथा, तपस्विभिर्या सुचिरेप लभ्यते प्रयत्नतः सत्रिमिरिष्यते च या। प्रयान्ति तामाशु गतिं यशस्विनो रपाश्वमेधे पशुपागताः।।' वही, पृ. 237 काव्यान, विवेक टीका, पृ. 229 वही, पृ. 238 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 यहाँ पर पशु पद कातरता की अभिव्यक्ति कर रहा है जो कि अनचित है। (यहाँ पर वीरों की शूरता का वर्णन होना चाहिए) अतएव अनुचितार्थ नामक दोष है। वाक्यगत, यथा - कुविन्दस्त्वं तावत्पय्यति गुपगाममभितो। यशो गायन्त्येते दिशि दिशि वनस्थास्तव विभो।। शारज्ज्योत्स्नागौरस्फुटविकट सर्वांग सुमगा। तथापि त्वत्कीर्तिमति विगतासादनामिह।।' यहाँ कुविन्दादि शब्द जुलाहापरक अर्थ के भी वाचक होने से स्तूयमान राजा के तिरस्कार को व्यंजित करते हैं, अत: दोष है। श्रुतिकटुत्व - परूषवर्ष को श्रुतिकटु दोष कहते हैं। पदगत, यथा - अनंगमंगलगृहापांग मातरंगितः। आलिङ्गितः स तन्वइ.ग्या कातायं लभते कदा।। यहाँ "कातार्य पद श्रुतिकटु होने से दोष है। वाक्यगत, यथा - अचरच्चण्डि कपोलयोस्ते कान्तिडवं डाग्विशद शशांकः।। - - 1. वही, पृ. 29 2. वही, पृ. 240 है वही, पृ. 240 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोष है। यहाँ "चण्डि" और "दाग" आदि पदों में श्रुतिकटुता होने आचार्य हेमचन्द्र ने इसके वक्ता आदि के औचित्य ते गुप होने के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। जैसे - वैयाकरण के वक्ता और प्रतिपाद्य होने से क्रमश: दीधी. वी. समः" इत्यादि तथा " यथा त्वामहमद्राक्षै इत्यादि । सिंह में वाच्य होने से परूष शब्दों के गुण होने का उदाहरण, "मार्तंङ्गाः किमु वल्गितैः "इत्यादि दिया है। वीभत्स में व्यङ्ग्ग्य होने पर गुप होने का उदाहरण तथा क्रोधी व्यक्ति के तिर धुनने आदि की स्थिति में इसके गुप होने का उदाहरण भी दिया गया है। कहीँ कहीँ पर यह दोष न गुण होता है और न दोषं । जैसे शीर्णघ्राणाद्रिपाणीन्" इत्यादि । क्लिष्टत्व व्यवधानपूर्वक अर्थ का बोध कराने वाला क्लिष्टत्व दोष है। पदगत, यथा दक्षात्मजादयितवल्लभवेदिकानां । ज्योत्स्नाजुषा जललवास्तरलं पतन्ति ।। 242 1 1. वही, पृ, 241 - इसमें दक्ष की आत्मजा तारा, उसका दयित ( प्रिय) चन्द्रमा, उसकी वल्लभायें चन्द्रकान्तमपियां, उसकी वेदिकाओं की चाँदनी के साथ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 संयोग से चंचल जलकण गिर रहे हैं। यहाँ अर्थ की प्रतीति व्यवधानपूर्वक होने से दोष है। झटित्यर्थ की प्रतीति में गुप होता है। जैते - काचीगुप - स्थानमनिन्दितायाः क्लिष्टदोष का वाक्यगत उदाहरण - धम्मिलत्य न कत्य प्रेक्ष्य निकामं कुरंगशावाक्ष्याः। रज्यत्यपूर्वबन्धव्युत्पत्तेमानस शोभाम् ।।' यहाँ केशपाश की शोभा देखकर किसका मन रजित नहीं होता है। इस प्रकार दरस्थित सम्बन्ध में क्लिष्टता दोष है। अविमृष्टविधेयांश - जहाँ प्रधानरूप से विधेयांश का कथन न किया गया हो वहाँ ये दोष होता है। पदगत, यथा - वपुर्विरूपाक्षमलक्ष्यजन्मता दिगम्बरत्वेन निवेदितं वतु। वरेषु यद बालमृगाधि मृग्यते तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने।।2 यहाँ अलक्ष्यता अनुवाप नहीं है, अपितु विषय है, अतः "अलक्षिता जनिः' यह कहना चाहिए था । 1. वही, पृ, 242 2. वही, पृ. 242 , Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्यगत, यथा 1 शय्या शाद्बलमासनं शुचिशिला सद्द्मद्रुमापामध: शीतं निर्झरवारि पानमशनं कन्दाः सहाया मृगाः ।। इत्यप्रार्थितसर्वलभ्य विभवे दोषोऽप्यमेको वने । कष्टप्रापार्धिनि यत्परार्थघटनाबन्ध्यैर्वृथा स्थीयते । ।' 1 यहाँ " शाद्दल" इस अनुवाद वाक्य से " शय्या" आदि विधेय है। दोष ही है, वाक्यार्य नहीं । यहाँ शब्द रचना विपरीत करने से वाक्य विरूद्ध बुद्धिकृत पदगत, यथा वाक्यगत, यथा - गोरपि यद्वाहनतां प्राप्तवतः सोऽपि गिरिसुता सिंहः । सविधे निरहङ्‌कारः पायादः सोऽम्बिकारमपः 11 2 - यहाँ अम्बिका रमण का अर्थ गौरीरमप विवक्षित है, किन्तु मातृरमण इस प्रकार विरुद्धबुद्धि उत्पन्न होने से दोष है। 1. वही, पृ. 242 22. वही, पृ. 260 3. वही, पृ. 260 अनुत्तमानुभावस्य परैरपिहितौजसः । अकार्य सुदोऽस्माकमपूर्वास्तव की तय 113 244 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 यहाँ "अकार्यों में मित्र" "बुरे कामों में मित्र" तथा"अपूर्व कीर्ति" में अपर्वक की ति अर्थात अकीर्ति रूप विरुद्ध अर्थ की प्रतीति होने से दोष है । इसके कहीं - कहीं गुम होने का उदाहरप "अभिधाय तदातदपियं" इत्यादि दिया है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अनेक उदाहरणों द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया तथा एक - एक दोष से संबंधित सभी बातें एक साथ ही कह दी हैं। आचार्य मम्मट के निहतार्थ, अवाचक, संदिग्ध, अप्रतीत, गाम्य और नेयार्य को आचार्य हेमचन्द्र ने अलग से स्वीकार नहीं किया है, अपितु इनका समावेश स्वीकृत दोषों में ही कर लिया है। असमर्थ नामक उभयदोष में अवाचक, कल्पित तथा संदिग्ध को समाहित कर लिया है। उन्होंने जिन दोषों को जिसके अन्तर्गत स्वीकार किया है उसमें तत् - तत दोषों के उदाहरप दिये हैं। साथ ही दोषों के अन्तर्भाव का यत्र - तत्र स्वोयज्ञ विवेक टीका में उल्लेख दिया है। आचार्य मम्मट ने तेरह दोष पदगत और उनमें क्लिष्ट, अविमृष्टविधेयांश तथा विरुद्धमतिकृत इन तीन को मिलाकर 16 दोष समासगत माने है। इसी प्रकार इन 16 में से च्युतसंस्कार, असमर्थ और निरर्थक इन तीन दोषों को छोड़कर शेष 13 वाक्यगत दोष माने हैं तथा इन्हीं में से 6 को पदांशगत दोष के उदाहरप के रूप में भी प्रतिपादित किया है। परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने इस Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 पकार का विभाजन नहीं किया है अपितु उपर्युक्त 8 दोषों को स्वतंत्ररूप ते प्रतिपादित किया है जो पद तथा वाक्य दोनो में समानरूप से पाये जाते हैं। नरेन्द्रप्रभसरि ने 15 वाक्यदोषों का उल्लेख किया है। (1) ग्राम्य, (2) संदिग्ध, (3) दुःप्रव, (4) अप्रतीत, (5) अयोग्यार्थ (अनुचितार्थ), (6) अप्रयुक्त, (7) अवाचक, (8) जुगुप्ताजनक अश्लील, (१) अमंगलजनक अश्लील, (10) वीडाजनक अश्लील, (11) नेयार्थ, 12) निहतार्थ, (13) विरुद्धमतिकृत, (14) अविमृष्टविधेयांश और (15) संक्लिष्ट।' ___ इनमें से 8 दोषों का विवेचन हेमचन्द्राचार्य के उभय-दोष वर्णन के प्रसंग में किया जा चुका है। जुगुप्ता, अमंगल और दीडाजनक - इन तीनों को हेमचन्द्र ने एक अश्लील दोष के अन्तर्गत माना है। इसी प्रकार अपयुक्त में गाम्य, अप्रतीत, अप्रयुक्त और निहतार्थ तथा असमर्थ में संदिग्ध, अवाचक और नेयार्थ का अन्तर्भाव किया है। नरेन्द्रप्रभतरिकृत उभयदोषों के लक्षणों व उदाहरों में कोई नवीनता नहीं है। आ. वाग्भट-द्वितीय ने निरर्थक आदि 16 शब्ददोष माने हैं।2 उनके अनुसार ये सभी शब्द-दोष पद और वाक्य में समान रूप से पाये जाते है तथा इनका उल्लेख पहले पद-दोष प्रसंग में किया जा चुका है। 1. अलंकारमहोदधि, 5/6 - 8 काव्यानुशासन, वाग्भट -पु. 12 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 अर्थदोष - विभिन्न कारपों के द्वारा अर्थ के दूषित होने को अर्थदोष कहते हैं। मम्म्टाचार्य ने 23 अर्थदोषों का उल्लेख किया है -(1) अपुष्ट, ( 2 ) कष्ट, (3) व्याहत, (4) पुनरूक्त, (5) दुष्कम, (6) ग्राम्य, ( 7) संदिग्ध, (8) निर्हेत, (१) प्रसिद्धिविरुद्ध, (10) विद्या विरुद्ध, (11) अनवीकृत, (12) सनियम - परिवृत्त, (13) अनियम - परिवृत्त, (14) विशेष - परिवृत्त, (15) अविशेष - परिवृत्त, (16) आकांक्षा, (17) अपयुक्त, (18) सहचर-भिन्न, (19) प्रकाशितविरूद, (20) विध्ययुक्त, (21) अनुवादायुक्त, (22) त्यक्तपुनः स्वीकृत और (23) अवलीला' आचार्य वाग्भट प्रथम ने अर्थदोषों के सम्बन्ध में मात्र इतना लिखा है कि - बिना किसी कारप के देश, काल, आगम, अवस्था और दव्यादि के विरुद्ध अर्थ का गुम्पन नहीं करना चाहिए। यथा - चैत्र मास के प्रारंभ में विकसित कुटज पुष्पों की पंक्ति ते मुस्कराती हुई दिशाओं में हिम - कप के सृदश उष्प सूर्य के अति प्रचण्ड हो जाने पर मरुस्थल के सरोवर में जलक्रीडा के लिये आए हुए मद के कारप अन्ध हाथियों के बच्चों को विषम- बापों के प्रहार से योगीजन बेध रहे हैं। यहाँ बसन्त ऋतु में कुटज पुष्पों का पुष्पित होना, कालविरुद्ध, सूर्य में हिमकप के समान शीतलता. द्रव्यविरुद्ध, मस्थल के सरोवर में जलक्रीड़ा देशविरुद, हाथियों के बच्चों का मद के • काव्यपकाश, 7/55 - 57 2. वाग्भटालंकार, 2/27 3 वाग्भटालेंकार, 2/28 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 कारण अन्ध हो जाना अवस्थाविरुदु और योगीजनों द्वारा बापों से हाथी मारना आगमविरुद्ध होने से दोष है। हेमचन्द्राचार्य ने प्रायः मम्मट का अनुसरप करते हुए 20 अर्थ - दोषों को स्वीकार किया है - (1) कष्ट, (2) अपुष्ट, (3) व्याहत, (4) ग्राम्य, (5) अश्लील, (6) साकांक्ष, (7) संदिग्ध, (8) अकम, (१) पुनरूक्त, (10) सहचरभिन्न, (11) विरूदव्यंग्य, (12) प्रसिद्धि विरुद्ध, (13) विद्याविरुद्ध, (14) त्यक्तपुन रात्त, (15) परिवृत्तनियम, (16) परिवृत्त - अनियम, (17) परिवृत्त - सामान्य, (18) परिवृत्त - विशेष, (19) परिवृत्त - विधि और (20) परिवृत्त - अनुवाद।' इसके सोदाहरप लक्षप उन्होंने इस प्रकार दिये हैं - 14 कष्ट - “कष्टावगम्यत्वात्कष्ट त्वर्थत्य' अर्थात् अर्थ का कष्टपूर्वक ज्ञान होना कष्टत्व दोष कहलाता है। यथा - सदामध्ये यासाममतरसनिष्पन्दसरसा सरस्वत्युददामा वहितबहुमायां परिमलम्। प्रसादं ता एता धनपरिचयाः केन महतां महाकाव्यव्योम्नि स्फुरितरूचिरायां तु रूचयः।।2 • काव्यानुशासन, 3/7 2. काव्यानुशासन, पू, 261 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात जिन कवि - रूचियों के प्रतिभारूप प्रभावों के मध्य में बहुत मार्गवा सुकुमार, विचित्र और मध्यम रूप मार्गत्रय वाली सरस्वती चमत्कारपूर्वक प्रवाहित होती रहती है, वे कविरूचियां सर्गबन्ध लक्षण रूप महाकाव्याकाश में परिचयगत होकर दृश्य काव्य की भांति कैसे प्रसन्नता उत्पन्न करा सकती है' ? तथा जिन सूर्यप्रभाओं के मध्य में त्रिपथगा प्रवाहित होती है, वे आदित्य प्रभाएं मेघ से परिचित होने वाली कैसे प्रसन्न हो सकती है ? इस प्रकार यहाँ पर दृश्य काव्य की अपेक्षा महाकाव्य की रचना कठिन होती है। इस अर्थ की प्रतीति बहुत कठिनाई से होती है, अतः कष्टत्व दोष है। $28 अपुष्टार्थता – “प्रकृतानुपयोगोऽपुष्टार्थत्वम्" अर्थात् प्रकृति में अनुपयोगी होना । यथा - तमालश्यामलं क्षारमत्यच्छमतिफेनिलम् । फालेन लंघयामास हनूमानेष सागरम् । । यहाँ " तमालश्यामल" आदि के ग्रहण न करने पर भी प्रकृत अर्थ की प्रतीति में कोई बाधा न होने से उक्त दोष है। 249 138 घातक होना व्याहतत्व दोष कहलाता है । व्याहत - * पूर्वापरव्याघातो व्याहतत्वं" अर्थात् पूर्वापर अर्थ का 1. वही, पृ. 261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 यथा - जाहि शत्रुकलं कृत्स्नं जय विश्वंभिरा मिमास। न च ते कोऽपि विद्वेष्टा सर्वभूतानुकम्पिन।।' यहाँ विद्वेष के अभाव में शत्रुवध पूर्वापर विरूद्ध होने से उक्त दोष १५६ गाम्य - "अवैदग्ध्यं गाम्यत्वं' अर्थात अविदग्धा (चातुर्य का अभाव) गाम्यत्व दोष है। यथा स्वपिति यावदयं निक्टो जनः स्वपिमि तावदह किमपेति ते। इति निगय निरनुमेखलं ममकरं स्वकरेप स्रोध सा ।।2 15 अपलील - "वीडादिव्यजकत्वमलीलत्वं. अर्थात लज्जा आदि की व्यजकता अमलील दोष है। जैसे - हन्तुमेव प्रवृत्तस्य स्तब्धत्य विवरैषिपः। यथाशु जायते पातो न तथा पुनरून्नतिः ।। दुष्ट व्यक्ति के लिये प्रयुक्त उपर्युक्त पर से पुरुष जननेन्द्रिय - - - - - - १. वही, पृ. 262 2. वही, पृ. 262 , वही, पृ. 262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 की श्री प्रतीति होती है, अत: अश्लीलत्व दोष है। 368 साकाइ.४ - साकासत्वम् अर्थात आकांक्षायुक्त होना ही साकाङ्क्षत्व दोष है। यथा अर्थित्वे प्रक्टीकृतेऽपि न फलप्राप्तिः प्रभो प्रत्युत, द्वान् दाशरथि विरुद्धचरितो युक्तस्तया कन्यया। उत्कर्षञ्च परस्य मानयशसो विसंतनं चात्मनः, स्त्रीरत्नञ्च जगत्पतिशमुखो देवः कयं मृष्यते।।' यहाँ "स्त्रीरत्न के पश्चात "उपेक्षित" इस पद की आकांक्षा रहती है। परस्यका "स्त्रीरत्न से सम्बन्ध करना उचित नहीं है, क्योंकि "परस्य" का सम्बन्ध उत्कर्ष के साथ पहले ही हो चुका है। इसी प्रकार - . गृहीतं येनाप्तीः परिभवमयान्नोचितमपि प्रभावाधात्याभून्न सुलु तव कश्चिन्न विषयः। परित्यक्तं तेन त्वमति सुतोकान्न तु मयाद विमोक्ष्ये शस्त्र। त्वामहमपि यतः स्वस्ति भवते।।2 . वही, पृ. 262 - वही, पृ. 263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 यहाँ पर शस्त्रत्याग में हेतु की आकांक्षा बने रहने से दोष है। इते आ. मम्मट ने निर्हेतुत्व के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।। ___ "जहाँ आकांक्षा नहीं रहती वहां दोष नहीं रहता है। इसका उदाहरप “चन्द्रं गता पदमगुपान्न भुङ्क्ते' इत्यादि हेमचन्द्र ने मम्मट के सदृशा ही दिया है। 2 यहाँ रात्रि में कमल का संकोच और दिन में चन्द्रमा की कान्तिरहितता लोकप्रसिद्ध है। 'न मुक्ते" के लिये हेतु की अपेक्षा नहीं रहती है। मम्मट ने नित नामक एक पृथक् अर्थदोष स्वीकार किया है। आचार्य हेमचन्द्रानुसार निर्हेतु का साकांक्षता में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अलग ते मानना उचित नहीं है। 3178 संदिग्धता - "संघायहेतुत्वं सन्दिग्धत्वं' अर्थात् संशय के हेतु को संदिग्ध दोष कहते हैं। यथा मात्सर्यमुत्सार्य विचार्य कार्यमार्याः समर्यादमदाहरन्तु। रम्या नितम्बाः किम मधरापामुत स्मरस्मेर विलासिनीनाम्।। यहाँ प्रकरप के अभाव में सन्देह होने से दोष है। शान्त अथवा श्रृंगार किसी एक का कथन करने पर अर्थ निश्चित हो सकता है। • काव्यप्रकाश, पृ. 330 - काव्यानुशासन, पृ. 263 3 काव्यानु टीका, पृ. 263 + वही, पृ। 263 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 253 18 अक्रमत्व - “प्रधानन्यार्थस्य पूर्व निर्देशाः क्रमस्तभावोऽ क्रमत्वम्" अर्थात प्रधान अर्थ का पूर्व निर्देशा करना क्रम है और उसका अभाव अक्रमत्व दोष कहलाता है। मम्म्ट ने इते दुष्कम कहा है। इसका उदाहरप हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रकार दिया है - "तुरगमयदा मातडं में प्रयच्छ मदालसम्' यहाँ “मातगं"का पहले निर्देश करना उचित था । अथवा कम के अनुष्ठान का अभाव अक्रमत्व है ( कमानुष्ठानाभावो वाक्रमत्वम") यथा - 'कारा विक्रम राउरं - इत्यादि। आचार्य हेमचन्द्र ने कहीं - कहीं अतिशयोक्ति में इसके गुप हो जाने का उदाहरप भी साथ - साथ दिया है। जैसे - "पश्चात्पर्यत्य किरपानुदीपं चन्द्रमण्डलम्” इत्यादि। 2 ११४ पुनरूक्तत्व - "द्विरभिधानं पुनरूक्तम अर्थात एक ही अर्थ का दो बार कथन करना पुनरूक्त दोष कहलाता है। यथा प्रसाधितस्याथ मधुद्विषोऽभदन्यैव लक्ष्मी रिति युक्तमेतत्। वपुष्यशेषेऽखिललोककान्ता सानन्यकाम्या झुरतीतरा तु ।।* इस प्रकार कहकर इसी अर्थ को पुनः दूसरे लोक द्वारा कहते - - - - - - - - - - - 1. वही, पृ. 264 2. वही, पृ. 264 * काव्यानु, वृत्ति, पृ. 264 * वही, पृ. 26 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 कपाटविस्तीपमनोरमोरः स्थलस्थितश्रीललनस्य तस्य। आनन्दिता शेषनना बभव सांगतंगिन्यपरैव लक्ष्मीः ।।' अतः यहाँ एक ही अर्थ का दो बार कथन होने से दोष है। इसके कहीं - कहीं गुप होने का उदाहरप आ. हेमचन्द्र ने "प्राप्ताः प्रियः सकलकाम” इत्यादि दिया है। यह निर्वेद के वशीभूत (उदासीन ) व्यक्ति का कथन होने से शान्तरस की पुष्टि करता है। अतः यहाँ पुनरूक्तत्व दोष गुण हो गया है। आचार्य मम्मट ने अनवीकृतत्व नामक एक अन्य अर्थदोष माना है और उसी के उदाहरफरूप में प्राप्ताः श्रियः' यह उदाहरप प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार यहाँ एक ही अर्थ का पुनः पुनः कयन किया गया है, अत: कोई नवीनता नहीं है। इसलिये अनवीकृतत्व दोष है। 3310 भिन्नसहचरत्व - "उचित सहचारिभेदों भिन्नतहचरत्वम् अर्थात उचित सहचर की भिन्नता भिसहचरत्व दोष है। यथा - श्रुतेन बुद्धिर्व्यसनेन मर्मता मदन नारी सलिलेन निमगा। निशा शशाङ्केन धृतिः समाधिना नयेन वालकियते नरेन्द्रता।।' यहाँ श्रुति - बुद्धि आदि उत्कृष्ट सहचरों से व्यसन - मीता रूप निकृष्ट सहचर की भिन्नता भिन्नसहचरवि दोष है। 1. वही, पृ. 264 ३ वही, 267 3 काव्यप्रकाश, उदा. 272 + काव्यानुशासन, पृ. 267 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 1108 विरुद्धव्यंग्यत्व - "विल्दं व्य जयं यस्य तदावो विरूद्रव्यंग्यत्वम्" अर्थात विरुद्ध व्यंग्य का भाव ही उक्त दोष है। यथा - "लग्नं रागावृता गया - - - - - - - - - - -- ।' इत्यादि में "विदितं तेऽस्तु' (तुम्हें मालूम होना चाहिए) इससे “लक्ष्मी उसको छोड़ रही है। इस विरूद्ध व्यंग्य की प्रतीति हो रही है, अतः यहाँ विरुद्धव्यंग्यत्व दोष है। 1128 प्रसिद्धिविरुदत्व - "प्रसिदया विद्या भिश्च विरुद्धत्वम्। तत्र प्रसिद्धि विद्वत्वं" अर्थात प्रसिद्धि के विरुद्ध कथन करना उत दोष है । यथा - इदं ते केनोक्तं कथय कमलाताघदने, यदेतस्मिन् हेम्नः क्टकमिति धत्से सुलु धियस। इदं तद दुः साध्यक्रमपपरमास्त्र स्मृतभुवा, तव प्रीत्या चक्रं करकमलमले विनिहितम्।।2 यहाँ काम का चक्रलोक में अप्रसिद्ध होने से दोष है। अथवा "उपपरितरं गोदावर्याः ----- ।' इत्यादि में पैरों के प्रहार से अशोक में पुष्पों का निकलना ही कवियों में प्रसिद्ध है, अंकुरों का निकलना नहीं । अत : अंकुरोद्गम • कान्यानु, पृ. 267 2. वही, पृ. 267 3 वही, पृ. 268 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 के वर्षन में प्रसिद्धि - विस्तुदोष है। अथवा अनुपात में, यथा - "चक्री चक्रारपंक्ति ------' इत्यादि उदाहरण में कत्र्ता और धर्म के प्रतिनिधि रूप में स्तुति का वर्णन अनुपात के अनुरोध से ही किया गया है। पुराप, इतिहास में उस प्रकार की प्रसिद्धि नहीं है। अतः उक्त दोष है। विद्या विरुदुत्व - "कलाचतुर्वर्गशास्त्राणि विद्या कलाश्च गीतनृत्तचित्रकर्मादिकाः। अर्थात कला, चतुर्वर्ग शास्त्र विद्या है और गीत, नृत्त चित्रकर्मादि कलाएं हैं। गीतविरुद्ध, यथा - श्रुतिसमधिकमुच्चैः पञ्चमं पीडयन्तः तततममहीनं भिन्नकीकृत्य षड्जम् । प्रपिजगदुरकाकु प्रावक स्निग्धकण्ठा: परिपतिमिति रात्रेर्मागधा माधवाय।।2 यहाँ संगीतशास्त्र विरूद कथन होने से गीतविरुद्ध (वियाविरुद्ध ) दोष है। आ. हेमचन्द्र ने धर्मशास्त्रविस्टु,अर्थशास्त्रविरुद, कामशास्त्र विरुदु और मोशास्त्रविरुद्ध उदाहरण वृत्ति में पृथक् - पृथक् प्रस्तुत किये हैं। 1. वही, पृ. 268 - वही, पृ. 269 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 257 14 त्यक्तपुनरात्तत्व - यथा - "लग्नं रागावृतां गया ----- यहाँ "विदितं तेऽस्तु" इस प्रकार उपसंहार होने पर भी तेन” इत्यादि के द्वारा पुनः गृहप करने ते दोष है।' इसके गुप हो जाने का उदाहरप "शीतांशोरमृतच्छटा यदि -- इत्यादि उन्होंने प्रस्तुत किया है। 1158 परिवृत्त - नियम - "परिवृत्तो विनिमयितौ नियमा नियमों सामान्यविशेषो विध्यनुवादौ च यत्र । तदावस्तत्वम्। जिसका नियमपूर्वक कहना उचित हो उसे बिना किसी नियम के कह देने में उक्त दोष होता है। यथा - यत्रानुल्लिखितार्थमद निखिलं निपिमेत दिधेरूत्कर्षप्रतियोगिकल्पनमपि न्यक्कारको टिः परा । भाताः प्रामभृतां मनोरथगतीरूल्लंघ्य यत्सम्पदस्तस्याभातमणीकृताश्मनु मपेरधमत्वमेवो चितम।।2 यहाँ छाया मात्र से मपि बने हुए पत्थरों में उस मपि को पत्थर रूप में ही गफ्ना करना उचित था, यह नियम होने पर उसका आभास यह अनियम कहा है, अतः परिवृत्तनियम दोष है। मम्मट ने इसे सनियम परिवृत्त कहा है। • काव्यानुशासन, पृ, 267 है. वही, पृ, 271 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 1165 परिख़त्त - अनियम - "परिवृत्तोऽनियमो नियमेन" अर्थात जिसका नियमपूर्वक कथन उचित न हो किन्तु सनियम कथन हो तो उक्त दोष होता है। यथा - वक्त्राम्भोजं सरस्वत्यधिवसति सदा शोष एवाधरस्ते, बाहुः काकुत्सथवीर्यस्मृतिकरपपटुर्दधिपस्ते समुद्रः । वाहिन्यः पाश्र्वमता: धपमपि भवतो नैव मुञ्चत्य भीक्षणं स्वच्छेऽन्तर्मानसेऽस्मिन्कथमवनिपते! तेऽम्बुपाना भिलाषः ।।' यह शोप यह अनियम वाच्य होने पर “शोप एव" यह नियम कहा है। अतः परिवृत्त - अनियम दोष है। 1178 परिवृत्त - सामान्य - "परिवृत्तं सामान्य विशेषण" अर्थात सामान्य की अपेक्षा विशेष वाचक शब्द का प्रयोग करना, यथा - कल्लोलवेल्लितदृषत्परूष्पहारैः . रत्नान्यमनि मकराकर] मावमंस्थाः । कि कौस्तभेन विहितो भवतो न नाम, याश्याप्रसारितकरः पुरुषोत्तमोऽपि।।2 यहाँ "एकेन किं न विहितो भवतः स नाम इस सामान्य के वाच्य होने पर "कौस्तुभेन' इस विशेष का क्यन होने से परिवृत्त सामान्य दोष है। 1. वही, पृ. 271-72 - वही, पृ. 272 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 1183 परिवृत्त - विशेष - "परिवृत्तो विशेषः सामान्येन" अर्थात विशेष की अपेक्षा सामान्यवाचक शब्द का प्रयोग करना। यथा - - - - - प्रयामां श्यामलिमानमानयत मोः सान्दैर्मधीक चकैः, मन्त्रं तन्त्रमय प्रयुज्य हरत श्वेतोत्पलानां मितम्। चन्द्रं चूर्पयत क्षपाच्च कपाः कृत्वा शिलापट्टिके येन दृष्टुमहं क्षमे दश दिशस्तद्वक्त्रमुद्राङ्किता।।' यहाँ "ज्योत्सनाम्" इस विशेष के वाच्य होने पर "श्यामाम्" इस सामान्य का कथन करने से उक्त दोष है। 8198 परिवृत्त विधि - "परिवृत्तो विधिरनु वादेन' अर्थात् विधि की अपेक्षा अनुवाद कथन करना। यथा - अरे रामाहस्ताभरप] मधुपप्रेषिशरप! समरक्रीडाद्रीडाशमन विरहियापदमन! सरोहतोत्तंस] प्रचलदलनीलोत्पलसखे। सखेदोऽहं मोहूं पलथय कयय क्वेन्दुवदना।। यही विधि के वाच्य होने पर "विरझिापदमन" रूप अनुवाद का कथन होने से परिवृत्तविधि दोष है। • वही, पृ. 272 - वही, पृ. 272 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8208 परिवृत्त अनुवाद अनुवाद की अपेक्षा विधि का कथन करना । यथा - - *परिवृत्तोऽनुवादो विधिना" अर्थात् - प्रयत्नपरिबोधित: स्तुतिभिरद्य शेषे निशां, अकेशव पाण्डवं भुवनमध निः सोमकम् । इयं परिसमाप्यो रपकथाऽद्य दो: शालिनां, अपैतु रिपुकाननातिगुरूरह भारो भुवः । । । 1. वही, पृ. 273 260 यहाँ "शपित" इस अनुवाद के वाच्य होने पर "शेष" इस विधि का कथन करने से परिवृत्त - अनुवाद दोष है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र ने मम्मट के 23 अर्थदोषों के स्थान पर 20 अर्थदोष माने हैं। अधिकांश उदाहरणों में तथा कतिपय उदाहरणों के प्रतिपादन में साम्य दृष्टिगत होता है। मम्मट ने जिन अन्य तीन अर्थ दोषों - 'निर्हेतु, अनवीकृतत्व व अपयुक्तता को माना है, उनमें से निर्हेतु का अन्तर्भाव हेमचन्द्राचार्य ने साकाइक्ष में किया है तथा अनवी कृतत्व का जो उदाहरण मम्मट ने दिया है उसे आ. हेमचन्द्र ने पुनरूक्त दोष के गुण होने के उदाहरणरूप में प्रस्तुत किया है। निष्कर्षत: आ. हेमचन्द्र ने मम्मट के आधार पर ही दोषं - निरूपण प्रस्तुत किया है, किन्तु विवेचन तथा उदाहरणों के क्षेत्र में उनकी विचार - सूक्ष्मता व पाण्डित्य स्पष्ट परिलक्षित होता है। - Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 आ. नरेन्द्रप्रभसरि ने मम्मट द्वारा उल्लिखित 23 अर्थदोषों का ही विवेचन किया है।' उनके उदाहरप भी प्रायः काव्यानुशासन व काव्यप्रकाश ते गृहीत हैं। आ. वाग्भट द्वितीय ने 14 अर्थदोषों का उल्लेख किया है। जिनके नाम इस प्रकार है - (I) कष्ट, (2 ) अपुष्ट, (3) व्याहत, (4 ) ग्राम्य, (5) अश्लील, (6) साकांक्ष, (7) संदिग्ध, (8) अकम, (१) पुनरूक्त, (10) सबरभिन्न, (11) विदुव्यंग्य, ( 12 ) प्रसिद्धिविरुद्ध, (13) विद्याविरुद्ध और (14) निर्हेतु। इसके अतिरिक्त उन्होंने लिया है कि परिवृत्त नियम, परिवृत्त - अनियम, परिवृत्त सामान्य, परिवृत्त विशेष, परिवृत्त विधि और परिवृत्त - अनुवाद आदि दोष काव्यपकाश में कहे जाने पर मी पूर्वोक्त दोषों में उनका अन्तर्भाव हो जाता है अतः हमने उनका उल्लेख नहीं किया है।' मावदेवसरि ने आठ अर्थदोषों का उल्लेख किया है- (1) अमुष्टार्य, (2) कष्ट, (3) व्याहत, (4) विरुद्ध, (5) अनुचित, (6) गाम्य, (7) संदिग्ध और (8) पुनरूक्त / अनुचितार्य को जिसे पूर्वाचार्यों ने पदगत 1. अलंकारमहोदधि, 5/11-14 2. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 27 3 परिवृत्तनियमा नियमसामान्य विशेष विघ्यनुवादादयः काव्यप्रकाशादावुक्तावपि पूर्वोक्तेष्वेवान्तर्भवन्तीत्यस्माभिर्नोक्तः। - काव्यानुशासन - वाग्भट, स्वोपज्ञ - अलाकार तिलक टीका-पृ. 29 ५. काव्यालङ्कारसार, 3/19 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोष माना है - भावदेवसूरि ने अर्थदोष माना है। इस प्रकार अर्थदोषों के प्रसंग में विचार करने से यही प्रतीत होता है कि प्राय: सभी जैनाचार्यों ने आचार्य मम्मट को ही आधार मानकर दोष निरूपण किया है। रस दोष रसवादी आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा, जीवनाधायक तत्त्व माना है। एवंभूत रस के दूषित हो जाने से काव्यत्व की हानि निश्चित है। अतः रसदोषों के परिहार हेतु उनका ज्ञान होना अत्यावश्यक है। 1. - 1 आचार्य मम्मट ने दस प्रकार के रसदोषों का उल्लेख किया है (1) स्वशब्दवाच्यता अर्थात् व्यभिचारिभावों, रतों और स्थायिभावों का स्वशब्द ते कथन करना, ( 2 ) अनुभाव तथा विभाव की कल्पना से अभिव्यक्ति, ( 3 ) रस के प्रतिकूल विभावादि का ग्रहण, ( 4 ) एक ही रस की पुनः पुनः दीप्ति, (5) अनवसर में रत का विस्तार, ( 6 ) अनवसर में रस का विच्छेद, ( 7 ) अङ्ग रस का अतिविस्तार, ( 8 ) अंगी रस का भूल जाना, ( १ ) प्रकृतियों का विपर्यय और, ( 10 ) अनङ्ग, (अनुपयोगी ) रस का कथन | 2 2 262 प्रथम मैं तीन और द्वितीय में दो भेदों को दोष होते हैं। इन्हें अलग-अलग मानने भेद हो सकते हैं। आचार्य विश्वेश्वर ने 13 भेदों को गिनाया है। काव्यप्रकाश, 7/60-62 मिलाकर गिनने से दस पर दस के स्थान पर तैरह काव्यप्रकाश के पृ. 357 पर Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य हेमचन्द्र रस- दोषों के विवेचन प्रसंग में सर्वप्रथम लिखते हैं कि रसादि का स्वशब्द से कथन करना, कहीँ कहीं संचारिभाव को छोड़कर सदोष कहलाता है। ' उन्होंने वृत्ति में आदि पद से रस के अतिरिक्त स्थायिभाव व व्यभिचारिभाव को भी परिगणित किया है तथा सभी के उदाहरण दिये हैं। रस के साथ श्रृंगारादि के स्वशब्द से कथन का उदाहरण " श्रृंगारी गिरिजानने सकरूपो...... 12 इत्यादि तथा स्थायि और व्यभिचारिभावों के स्वशब्द से कथन के उदाहरण पृथक् पृथक् दिये हैं। यथा - " संप्रहारेप्रहरणैः. 13 इत्यादि एवं "सव्रीडा दयितानने.. ..14. इत्यादि | उनके अनुसार कहीं कहीं संचारी भाव के शब्दतः कथित होने पर भी दोष नहीं होता है इसका उदाहरण उन्होंने "औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा.. 15 - प्रस्तुत किया है। - 3. वही, पृ. 160 4. वही, पृ, 160 इसके पश्चात् विभावादि की प्रतिकूलता नामक रतदोष का विवेचन अलग से करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि रस के बाधित होने पर आश्रय के एक्य होने पर, निरन्तरता होने पर और अनङ्गता होने पर · 6 विभावादि की प्रतिकूलता नामक रसदोष होता है। यथा "प्रसादे वर्तस्व 1. रसादे: स्वशब्दो क्तिः: कवचित सञ्चारिवर्ज दोषः काव्यानुशासन, पृ. 159,371 2 वही, पृ, 159 263 - 5. वही, पृ. 160 6. अबाध्यत्वे आश्रयैक्ये नैरन्तर्येऽनङ्गत्वे च विभावादिपातिकूल्यम् वही, 3/2 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।' इत्यादि में पकृत श्रृंगार रस के प्रतिकूल शान्त रस के प्रकटय• • • • • अनित्यता प्रकाशन रूप विभाग का ग्रहण किया गया है तथा उससे प्रकाशित निर्वेद भी आस्वादित हो रहा है, अतः दोष है। 264 किन्तु यही विभावादि जब बाधित रूप में कथित होते हैं तो दोष नहीं होता अपितु प्रकृत रस का परिपोष होता है, यथा- क्वाकार्य शशलक्ष्मणः 12 इत्यादि। इसी प्रकार "सत्यं मनोरमाः शमा : ....13 इत्यादि भी । ... इसी प्रकार आश्रयैक्य विरोध, नैरन्तर्य विरोध व अनङ्गत्व विरोध भी होता है। आश्रयैक्य विरोध उसे कहते हैं, जहाँ एक ही आश्रय में वीर और भयानक जैसे दो विरोधी रसों का वर्णन हो। इस प्रकार का दोष एक रस का प्रतिनायकगत वर्णन कर देने से समाप्त हो जाता है। 4 जहाँ एक ही आश्रय में बिना किसी व्यवधान के दो विरोधी रसों का वर्णन हो तो उसे नैरन्तर्य विरोध कहते हैं। उदाहरण शान्त व श्रृंगार ये दो विरोधी रस एक साथ किसी व्यक्ति में उत्पन्न नहीं होते हैं। अत: 1. वही, पृ. 161 2. वही, पृ. 162 3. वही, पृ. 162 4. वही, पृ, 162 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 265 रेमा वर्णन करने पर नैरन्तर्य विरोध होता है। किन्तु शान्त तथा श्रृंगार के मध्य अन्य रस का वर्णन करने से विरोध समाप्त हो जाता है।' इसी प्रकार जब दो विरोधी रस अङ्गी रूप में अभिहित हो तो दोष होता है, किन्तु जब एक रस किसी दूसरे प्रधान रस का अंग हो जाता है तो दोष समाप्त हो जाता है।2 ___ तदनन्तर निम्नलिखित 8 रसदोषों का आ. हेमचन्द्र ने विवेचन किया है - (I) विभाव और अनुभाव की कष्टकल्पना से अभिव्यक्ति, (2) एक ही रस की पुनः पुनः दीप्ति, (3) अनवसर में रस का विस्तार, (4) अनवसर में रस का विच्छेद, (5) अंग का अतिविस्तार से वर्पन, (6) अंगी (रस) की विस्मृति, (7) अनंग का वर्णन और (8) प्रकृति व्यत्यय। इनका विवेचन इस प्रकार है - है। विभावानुभाव की कष्टकल्पना द्वारा अभिव्यक्ति - इनमें विभाव, यथा परिहरति रति मतिं लुनीते स्खलतितरां परिवर्तते च भय ः। इति बत विषमा दशात्य देहं परिभवति प्रसमं किमत्र कुर्मः।। 1. वही, पृ. 162 2. वही, पृ. 164 ॐ वही, 3/3 + वही, पृ. 169 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 यहाँ पर वर्णित रति परिहार आदि अनुभावों के करूण इत्यादि * भी संभव होने से कामिनी रूप आलम्बन विभाव की प्रती ति बड़ी कठिनता से होती है, अत: दोष है। इसी प्रकार अनुभाव की कष्टकल्पना का उदाहरप - कर्परधलिधवलयुतिपूरधतदिङमण्डले शिशिरसोचिषि तत्य यूनः। लीला शिरोंऽशुकनिवेशविशेषक्लप्तिव्यक्त स्तनोन्नतिरभन्नयनावनौ सा।।' यहाँ उद्दीपन (चन्द्रमा) और आलम्बन रूप (नायिका) श्रृंगार योग्य विभाव, अनुभाव में पर्यवसित रूप में स्थित न होने से अनुभाव की कष्टपूर्वक अभिव्यक्ति हो रही है। 28 रत की पुनः पुनः दीपित - अंगभूत रस का परिपोष हो जाने पर भी बार - बार उसे उद्दीप्त करना दोष है, यथा - कुमारसंभव के रतिविलाप में 12 83 अनवसर में रस का विस्तार - उदाहरणार्थ - "वेणीसंहार" के द्वितीय अंक में भीष्मादि अनेक वीरों के युद्ध में विनाश के अवसर पर दुर्योधन का श्रृंगार वर्षन अनवसर में रस का विस्तार है।' • वही. पृ. 170 2. वही, पृ. 170 - वही, पृ. 170 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 848 अनवसर में रस का विच्छेद उदाहरणार्थ "वीरचरित" नाटक के द्वितीय अंक में राम तथा परशुराम के युद्धोत्ताह में अविच्छिन्न रूप से प्रवृत्त होने पर राम की यह उक्ति - "कङ्कषमोचनाय गच्छामि' अनवसर में ही रसास्वादन में विच्छेद कराने वाली है, क्योंकि इससे रामगत वीररस की प्रतीति में बाधा पड़ती है । । 850 अङ्ग- ( अप्रधान ) रस का अतिविस्तार से वर्णन " हयग्रीव दोष है। 2 - - अनंग का वर्णन - - यथा वध में हयग्रीव (प्रतिनायक) का विस्तार से वर्णन 1. वही, पृ, 171 2 वही, पृ. 171 3. वही, पृ. 172-173 वही, पृ, 172 - 868 अंगी (प्रधान) की विस्मृति यथा - "रत्नावली" के चतुर्थ अंक में बाभ्रव्य के आगमन से नायक वत्सराज द्वारा सागारिका ( अंगी) की विस्मृति दोष है, क्योंकि स्मृति सहृदयता का सर्वस्व है। यथा "तापसवत्सराज " मे छ: अंकों में भी वासवदत्ता विषयक प्रेम सम्बन्ध कथावशात् विच्छेद की आशंका होने पर भी निबद्ध किया गया है। 3 267 878 अनङ्ग अर्थात प्रकृत रस के अनुपकारक का वर्णन होने पर भी दोष होता है। यथा - "कर्पूरमंजरी" मैं राजा द्वारा नायिका और अपने द्वारा किए बसन्त वर्षन की उपेक्षा कर बन्दियों द्वारा वर्णित बसन्त की प्रशंसा करना । " 4 - Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 प्रकृतिव्यत्यय - (पात्रों का विपर्यय ) हेमचन्द्राचार्य के अनुसार प्रकृति सात प्रकार की होती है (1 ) दिव्या, ( 2 ) मानुषी, (3) - दिव्यमानुषी, (4) पातालीया, ( 5 ) मर्त्यपातालीया, (6) दिव्य पातालीया, ( 7 ) दिव्यमर्त्यपाता लिया । । वीर, रौड, श्रृंगार और शान्तरस प्रधान काव्यों में क्रमश: धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित व धीरप्रशान्त नायक होते हैं, ये चारों उत्तम, मध्यम और अधम के भेद से तीन तीन के होते हैं। प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की मान्यतानुसार रति, हास्य, शोक और अद्भुत को मानुषोत्तम प्रकृति की तरह दिव्यादि प्रकृतियों में भी निबद्ध करना चाहिए, किन्तु संभोग श्रृंगाररूप उत्तम देवता विषयक रति का वर्णन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका वर्णन माता पिता के संभोग वर्पन की तरह अत्यन्त अनुचित है। कुमारसंभव में जो शंकर -पार्वती के संभोग का वर्णन किया गया है, वह कवित्व से युक्त प्रतिभासित नहीं होता है। क्रोध का भी भृकुटि आदि विकार शक्ति के तिरस्कार से अधिक दोषों 2 वही, पृ. 173-174 268 - - रहित शीघ्र फलदायक रूप में निबद्ध करना चाहिए। स्वर्ग - पाताल गमन, समुद्र लंघन आदि के उत्साह का वर्णन मनुष्यों से भिन्न दिव्यादि प्रकृतियों में करना चाहिए । मनुष्यों में जितना पूर्व चरित्र प्रसिद्ध है या उचित है उतना ही वर्णन करना चाहिए। इससे अधिक असंभव वर्पन करने पर Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 269 असत्यता की प्रतीति होती है और "नायक की भांति आचरप करना चाहिए, प्रतिनायक की भाँति नहीं इस उपदेश में पर्यवसित नहीं होता है। इस प्रकार कही गई पकृतियों का अन्यथारूपेप वपन प्रकृतिव्यत्यय है।' आगे वे लिखते हैं कि "तत्रभवन", "भगवन्" इन सम्बोधनों का उत्तम नायक के द्वारा प्रयोग किया जाना चाहिए, अधम के द्वारा नहीं, वह भी मुनि आदि में, राजा आदि में नहीं। "भट्टारक" सम्बोधन का प्रयोग (उत्तम के द्वारा) राजा आदि मे नहीं करना चाहिए। परमेश्वर सम्बोधन का प्रयोग मुनि प्रभृति में नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने पर प्रकृति व्यत्यय दोष होता है। इसके समर्थन में उन्होंने रूइट की दो कारिकायें भी उद्धत की हैं। इसी प्रकार देश, काल और जाति आदि के वेष - व्यवहारादि का समुचित रूप से औचित्य के आधार पर निबन्धन करना चाहिए।' इसका सोदाहरप विवेचन विवेक टीका में उन्होंने प्रस्तुत किया है। यह विवेचन काव्यामीमांसा से बहुत कुछ मिलता है। आचार्य मम्मट तथा हेमचन्द्र के रसदोष विवेचन में पर्याप्त साम्य है। दोनों ही आचार्यों ने रसदोषों के नाम प्रायः एक से ही दिये हैं। मात्र उनके वर्पन क्रम में अन्तर है। 1. वही, पृ, 176 - 178 2. वही, पृ. 178 ॐ वही, वृत्ति , पृ. 178 . + वही, टीका, पृ. 179 - 198 . Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 आ. रामचन्द्र - गुपचन्द्र ने 5 रसदोषों का उल्लेख किया है(1) रसों का अनौचित्यपूर्ण वर्पन, (2) अंगों की उगता अर्थात् प्रधानमत रस का प्रधान रस की अपेक्षा विस्तारपूर्वक वर्पन, (3) मुख्य रस की पुष्टि का अभाव, (4) मुख्य रस का आवश्यकता से अधिक विस्तार और (5) अंगी (प्रधान) रस को भुला देना। 318 रतों का अनाचित्यपूर्वक वर्णन करना - सहदयों के मन शंका या संदेह उत्पन्न करने वाला कर्म अनौचित्य कहलाता है, और वह अनेक प्रकार का हो सकता है। यह रस का अनौचित्य - एक का भावादि के वर्पन रूप होता है। चैते - व्यजत मानमलं ... ।' इत्यादि। ख कहीं बेमौके विस्तार कर देना भी रत दोष होता है जैसे वेपीसंहार के द्वितीयांक में धीरोद्त प्रकृति के नायक होने पर भी भीष्मादि लायों वीरो का नाश कर डालने वाले भीषण युद्ध के प्रारम्भ होने पर भी भानुमती के प्रति श्रृंगार का वर्पन अकाण्ड - प्रथन रूप रसदोष का उदाहरण है। " दोषोइनौटित्यसकोगय अपोषोत्युक्तिरी अमित 2. सहृदयानां विचिकित्साह्तु कर्मानौचित्यं तच्यानेकधा, 3. वही, पृ, 324 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271 म कहीं अवसर के बिना ही रस का विच्छेद कर देना, यथा - महावीरचरित में राम व परशुराम के मध्य वीर रस के पूर्ण प्रवाह पर आ जाने पर राम का "कङ्कपमोचनाय गच्छामि यह कथन। प! कहीं उत्तम, अधम तथा मध्यम प्रकृतियों का विपरीत रूप में वर्पन (प्रकृति - विपर्यय नामक रसदोष है) । ड.४ मध्य तथा अधम प्रकृति के नायकादि के साथ अगाम्य अर्थात् शुद्ध श्रृंगार, दीर, रौड़ तथा शांतरस के प्रकर्ष का वर्पन । चहूँ उत्तम प्रकृतियों में भी दिव्य पात्रों के श्रृंगार का वर्णन करना, माता - पिता के श्रृंगार रस के वर्पन के समान होने से अनुचित है। ४६ देवताओं को छोड़कर उत्तम प्रकृतियों में भी तुरंत फल देने वाले क्रोध, स्वर्ग या पाताल में गमन, समुद्रलंघनादि के उत्साह का वर्पन भी प्रकृति व्यत्यय नामक रसदोष है। च धीरोदात्त, धीरोदुत, धीरललित व धीरशांत रूप उत्तम प्रकृतियों में भी वीर, रौद्र, श्रृंगार तथा शांत रसों का वर्णन न करना अथवा विपरीत वर्णन प्रकृति-विपर्यय नामक रस-दोष होता है और मध्यम तथा अधम प्रकृतियों में तो इन धीरोदात्तादि में Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 वीरादि रसों के प्रकर्य का वर्णन मी अनुचित होने से प्रकृति विपर्यय नामक रसदोष में आता है। कहीं वर्षों तथा समासों का रस के विपरीत रूप में अन्यथा प्रयोग भी रसदोष है। न कहीं उत्तम प्रकृति के नायक की उत्तम नायिका के प्रति व्यभिचार संभावना भी अनौचित्य मानी जाती है। ट! कहीं नायिका के पामहारादि से नायक के कोप का वर्पन करना भी अनौचित्य है। ६ कहीं आयु, वेष, देश, काल, अवस्था तथा व्यवहारादि का अन्यथा वर्पन भी अनौचित्य माना जाता है। ड यमक, इसी प्रकार अनुचितरूप से प्रयुक्त घलेष, चित्र, ऋतु, समुद्रादि, सूर्य तथा चन्द्र के उदयास्तादि जो कि रस के अंग नहीं है उनके प्रकर्ष का वर्णन मी अनौचित्य है।' अङ्गों की उगता - अर्थात मुख्य रस के पोषक होने से अवयव रूप की उगता अत्यन्त विस्तार के कारण उत्कट हो जाना भी दोष है। ___ जैसे - कृत्यारावप में जटायु के वध, लक्ष्मप के शक्ति लगने और सीता • नाट्यदर्पण, पृ. 324-326 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 273 सीता की विपत्ति को सुनने पर रामचन्द्र के बार - बार करूप विलापादि का अधिक्य।। १४ अपोष अर्थात - मुख्य रस की पुष्टि का अभाव होने पर यह रसदोष होता है, यथा - "वीभत्ता विषया...12 इत्यादि उदाहरपा यह अपरिपोष (1) प्रधान रस का अथवा (2) मुक्तकों में स्वतंत्र रूप से वर्पित का होता है। अंगभूत का अपरिपोष दोष नहीं होता है। 148 मुख्य रत का आवश्यकता से अधिक विस्तार - "अत्युक्ति" नामक रसदोष कहलाता है। जैसे - कुमारसंभव में रति के विलाप में। 358 “अङ्गिभित' अर्थात् प्रधान रस को भुला देना रस का अपरिपोष जनक "अङ्गिभित" नामक दोष कहलाता है। जैसे - रत्नावली के के चतुर्थ अंक में बाभव्य के आगमन पर सागरिका की विस्मृति।' नाट्य दर्पपकार का कथन है कि उक्त 5 दोषों में से प्रथम अनौचित्य को छोड़कर अंगों की उग्रता आदि शेष चारों दोष यथार्य में अनौचित्य के • वही, पृ. 326-27 2. वही, पृ. 327 3 वही, पृ. 327-328 + वही, पृ. 328 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ही अन्तर्गत आ जाते है, किन्तु मात्र सहदयों को अनौचित्य के अनेक भेदों का ज्ञान कराने के लिए सोदाहरप प्रतिपादन किया है।' रामचन्द्र - गुपचन्द्र का कथन है कि कुछ लोग जो व्यभिचारिभाव, रस तथा स्थायिभावों के नामत: गहप (स्वशब्द वाच्यत्व ) को भी रसदोष मानते हैं, यह उनके मत में उचित नहीं है क्योंकि व्यभिचारिभाव आदि के वाचक अपने पदों (नामों ) का प्रयोग होने पर भी विभावादि की पुष्टि होने पर रस की अनुभूति होती ही है। उसमें कोई बाधा नहीं होती है। इसलिये व्यभिचारिभाव की स्वशब्द - वाच्यता कोई दोष नहीं है। यथा'इरादुत्सुक - मागते विवलितं...।" इत्यादि उदाहरण में उत्सुकता आदि रूप व्यभिचारिभावों के स्वशब्दवाच्य होने पर भी रस की उत्पत्ति होने से यह व्यभिचारिभावादि की स्वशब्दवाच्यता दोष नहीं होता। ___आगे वे लिखते हैं कि इसी प्रकार दो रतों में समान रूप से पाये जाने वाले विभावादि वाचक पदों से किसी एक नियतरत के विभावादि की कठिनता से प्रतीति भी (जिसे कि मम्मटादि ने रसदोषों में गिनाया है वह रसदोष न होकर) संदिग्धत्वरूप वाक्यदोष ही है।' 1. हि नाट्यदर्पप, पु, 328 2. केचित्त व्यभिचारि - रस - स्थायिनां स्वशब्वाच्यत्वं रसदोषमाहः, तयुक्तम्। व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपद प्रयोगऽपि विभावपुष्टो। हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ. 328 उभ्य रस साधारप विभावपदानां कष्टेन नियतविभावाभिधायित्वाधिगमोदापि संदिग्धत्वलक्षपो वाक्यदोष एव । वही, पृ. 329 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 था - "परिहरति रतिं मतिं लुनीते ... । इत्यादि में रति का परियण आदि रूप विभाव श्रृंगार की तरह करूपादि में भी हो सकते हैं इसलिये उनके अंगार के प्रति भाव होने में संदेह है।' अत: यहाँ संदिग्धता रूप वाक्य दोष है। जबकि मम्मट ने यहाँ कामिनी रूप विभाव की प्रतीति कष्टपूर्वक होने से विभाव की कष्टकल्पना रूप रसदोष माना है, जो नाट्यदर्पकार के मत मे संभव नहीं है। आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने आ. मम्मट सम्मत ही दस रसदोषों का उल्लेलं किया है। ___इस प्रकार रस - दोषों पर समग रूप से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि ये जैनाचार्य आचार्य मम्मट से प्रभावित है। आचार्य हेमचन्द्र ने यद्यपि 8 रसदोषों का विवेचन किया है तथापि आ. मम्मट ने स्वीकृत रसादि की स्वशब्दवाच्यता एवं प्रतिकूल दिभावादि के गहप रूप - रसदोषों को भी अस्वीकार करने में कोई कारण प्रस्तुत नहीं किया है। अपितु इन दो दोषों का विवेचन भी किया है। रामचन्द्रगुपचन्द्र ने 5 रसदोषों को स्वीकार करते हुए भी प्रथम भेद अनौचित्य में ही अन्य चार रसदोषों का अन्तर्भाव माना है तथा इस प्रकार उन्होंने ध्वन्यालोककार ------- • वही, पृ. 329 - अलंकारमहोदधि, पृ. 5/18-20 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 आनन्दवर्धन के “अतौचित्या दृते नान्यस्य रसम ङ्गस्य कारणम* कथन का अनकरण करते हुए उनके मत का समर्थन किया है। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने आ. मम्म्ट का ही अनुकरप किया है। शेष वाग्भट - प्रथम, वाग्भट - द्वितीय एवं भावदेवसरि ने रसदोषी का कोई उल्लेख नहीं किया है। दोष-परिहार - पूर्वोल्लिखित दोषों में से कतिपय दोष वक्तादि के औचित्य से दोषामावरूप या गुण बन जाते हैं। इसी को दोष-परिहार कहा गया है। ___आचार्य मम्मट ने दोष-परिहार का विवेचन करते हुए लिग है कि प्रसिद्ध अर्थ में नितुता दोष नहीं होता है और अनुकरप में सभी श्रुतिकटु आदि दोषों की अदोषता संभव है। इसी प्रकार वक्तादि के औचित्य से दोष कहीं गुप हो जाते हैं और कहीं न दोष होते हैं और न गुणा' जैनाचार पायः मम्मट को आधार बनाकर अपना दोष परिहार विवेचन किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने तत्तदोषों के प्रत्युदाहरपों की चर्चा दोष - निरूपप प्रसंग में एक साथ की है। साथ ही अन्त में निष्कर्षतया तीन सूत्रों द्वारा उनका अलग से प्रतिपादन किया है। वे लिखते हैं कि अनुकरप करने • काव्यप्रकाश, 7/59 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर निरर्थक आदि शब्द .. प्रतिपाद्य विषय, व्यंग्य, वाच्य व प्रकरणादि की विशेषता के कारण दोषं कहीं - कहीं न गुण होते हैं और न दोष 2 तथा कहीं वक्ता आदि की विशेषता होने पर दोष गुप हो जाते हैं। 3 अर्थ दोष नहीं होते हैं। इसी प्रकार वक्ता, 1 1. आ. नरेन्द्रप्रभसूरि का कथन है कि वक्तादि के औचित्य ते दोष कहीं - कहीं गुण भी हो जाते हैं।" उदाहरणस्वरूप में उन्होंने असंस्कार, निरर्थक, भग्नप्रक्रम, अक्रम, न्यूनता, संकीर्णता, गर्भितता, सन्धिकष्टता, पतत्प्रकर्षता, व्यक्तप्रतिद्धि पुनरूक्त पदन्यास पदाधिक्य, ग्राम्यता, तन्दिग्धता, दुःश्रवता, अप्रतीत, अयोग्यादि, अप्रयुक्त और निहतार्थ, अश्लील, संवीत, विरूद्धमति और क्लिष्टता इन शब्दोषों की गुफ्त व "नानुकरणे । अनुकरणविषये निरर्थकादयः शब्दार्थदोषा न भवन्ति । उदाहरण प्रावैदर्शितम् । " 277 काव्यानु, 2. 3/8, वृत्ति, पृ. 273 "वक्त्राद्यौचित्ये च । वक्तुप्रतिपाद्यव्यं यवा च्यप्रकरपादीनां महिम्ना न दोषो न गुणः । तथादाहतम्" । वही, 3/10, वृत्ति, पृ. 273 3. "क्वचिद् गुणः । वक्त्राद्यौचित्ये क्वचिद्गुण एव तथैवदोहृतम् । " वही, 3/90, कृ. पृ. 273 4. अलंकारमहोदधि 5/17 5. वही, पृ. 166-175 - - Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 कम पुनरूक्त, अश्लील, और विमुक्तपुनराकृत इन अर्थदोषों की गुप्ता पदर्शित की है। तथा समाप्तिपुनरारब्ध, न्यूनता एवं दुःअवता इन अर्थदोषों की दोषाभावता प्रदर्शित की है। रसदोषों के परिहार हेतु उनका कथन है कि विरूद्ध संचारिभाव आदि का बाध्यत्वेन कथन, विरूद्ध रतों का भिन्न आय में वर्पन, मध्य में रस का समावेश, स्मृति रूप में वर्षना अथवा अंगा गिभाव रूप में वर्पन आदि होने पर रसदोषों का निराकरण हो जाता है। यहाँ इन पर आ. मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है। आ. वाग्भट द्वितीय ने दोष - परिहार का पृथक् विवेचन न करके दोष - विवेचन के ही प्रसग में जहाँ उचित समझा है, विवेचन किया है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किया गया रस-दोषे विवेचन, पूर्वाचार्यों का अनुकरप होते हुए भी उनके काव्यशास्त्रीय ज्ञान का परिचायक 1. वही, पृ. 175-176 2. वही, पृ. 177 3. वही, पृ. 5/21-23 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय : गुण विवेचन व जैनाचार्य - काव्य - विवेचना के प्रारंभिक काल से ही काव्य गुणों का उल्लेख होता रहा है। भरतमुनि ने "माधुर्य" तथा "औदार्य" आदि का उल्लेख किया है तथा ओज का स्वरूप भी बतलाया है। प्रथम अलंकारवादी आ. भामह के पश्चात् तो गुणों के स्वरूप तथा संख्यादि विवेचन का युग ही आरम्भ हो गया था, किन्तु उस समय गुण तथा अलंकारों का स्वरूप विवेक नहीं हो पाया था । आ. दण्डी के गुप निरूपण में भी गुप तथा अलंकार का भेद स्पष्ट नहीं हुआ था। इसी लिये भट्टोदभट ने गुण तथा अलंकारों के भेद को परंपरागत ही बतलाया था। उनके मत में ग्रुप तथा अलंकार में कोई भेद नहीं है।' लौकिक गुण तथा अलंकारों में तो यह भेद किया जा सकता है कि हारादि अलंकारों का शरीरादि के साथ संयोग - - - 279 सम्बन्ध होता है, और शौर्यादि गुणों का आत्मा के साथ संयोग नहीं अपितु समवाय सम्बन्ध होता है किन्तु काव्य मैं तो ओज आदि गुण तथा अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार दोनों की ही समवाय सम्बन्ध से स्थिति होती है, इसलिये काव्य मेंउनके भेद का उपपादन नहीं किया 1. उद्भटादिभिस्तु गुणालंकाराणां प्रायशः साम्यमेव सूचितम। अलंकार सर्वस्व, पृ. 19 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 जा सकता है। उनमें जो लोग भेद मानते हैं, वह केवल भेड़चालमात्र है।' उद्भट के परवर्ती आचार्यों ने नित्यता तथा अनित्यता को लेकर गुप तथा अलंकारों में भेद प्रदर्शन किया तथा निष्कर्षस्वरूप गुपों की कसौटी नित्यता व अलंकारों की कसौटी परिवर्तनशीलता स्वीकार की है। सर्वप्रथम री तिवादी आ. वामन ने गुप तथा अलंकारों का भेद करने का प्रयास किया तथा स्पष्टत: लिखा - काव्य के शोभाकारक धर्म गुप हैं और उत्त काव्य-शोभा की वृद्धि करने वाले (चमत्कारक) धर्म अलंकार हैं। उनके अनुसार काव्य में गुपों की स्थिति अपरिहार्य है, परन्तु अलंकारों की स्थिति अपरिहार्य नहीं है। तदनन्तर ध्वनिवादी आ. आनंदवर्धन ने गुप के स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन किया तथा यह बतलाया कि गुप शब्दार्थ अथवा शब्दविन्यास आदि के धर्म नहीं अपितु काव्य की आत्मा अर्थात रस के धर्म हैं। उन्होंने गुप तथा 1. समवायवृत्त्या शौर्यादयः संयोगकृत्या तु हारादयः गुपालंकारापां भेदः, ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्तया स्थितिरिति गइडलिकाप्रवाहेपैवेषां भेदः। काव्यप्रकाश, पृ. 384 2. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः। तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः। काव्यालंकारसूत्र, 3/1/I-2 3न्यालोक, 2/6 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 281 अलंकार के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि काव्य के आत्मभत रसादिरूपध्वनि के आश्रित रहने वाले धर्म गुप होते हैं और अलंकार काव्य के अंगभत शब्द तथा अर्थ के धर्म होते हैं। इस प्रकार आनन्दवर्धनाचार्य ने गणों को रताश्रित तथा अलंकारों को शब्द तथा अर्थ के आश्रित धर्म मानकर उनके भेद का उपपादन किया है।' आ. मम्मट ने इनका ही अनुसरण किया है तथा उभट व वामन से पृथक गुणों को रस के स्थिर ( अचल ) धर्म माना है। गुप का लक्षप देते हुए वे लिखते हैं कि - आत्मा के शौर्यादि धर्मो की तरह काव्य में जो प्रधान रस के उत्कर्षाधायक तथा अचल स्थिति वाले होते हैं, वे गुण कहलाते हैं। प्रायः काव्यप्रकाशकार का अनुसरप करते हुए आ. हेमचन्द्र ने रस का उत्कर्ष करने वाले हेतुओं को गुप कहा है। ये गुप उपचार( गौपरूप) से शब्द और अर्थ के उत्कर्षाधायक होते हैं। 1. तमर्थमवलम्बन्ते येऽपि.गनं ते गुपाः स्मृताः। अंगाप्रितास्त्वलंकारा मन्तव्याः क्टकादित्।। ध्वन्यालोक, 2/6 2. ये रसत्याइिगनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः। उत्कर्षहतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुपाः।। काव्यप्रकाश, 8/66 3. रसत्योत्कर्षापकर्षहित गुपदोषौ भक्या शब्दार्थयोः। काव्यानुशासन, 1/12 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 आशय यह है कि गुप मुख्यतः रस के ही धर्म हैं, गौफरूप से वे उस रस के उपकारक शब्द और अर्थ के कहे जाते हैं। यहाँ पर गुण व दोष का रसाश्रयत्व सिद्ध करते हुए हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं कि गुप तथा दोष का रसाभ्रित होना अन्वय व्यतिरेक के विधान से भी सिद्ध है। जहाँ दोष रहते हैं वही गुप भी रहते हैं और वे दोष रसविशेष में रहते हैं, शब्द और अर्थ में नहीं। यदि वे शब्द और अर्थ के दोष होंगे तो वीभत्स रस में कष्टत्वादि तथा हास्यादि रसो में अश्लीलत्वादि दोष गुप नहीं हो पाएंगे। क्योंकि ये अनित्य दोष हैं, कमी दोष रहते हैं, कभी नहीं भी रहते और कभी-कभी गुण भी हो जाते हैं। जिस अंगी रस के वे दोष होते हैं उसके अभाव में वे दोष नहीं रह जाते, उसके रहने पर दोष रहते हैं। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक के द्वारा गुण और दोष का रसाश्रयत्व ही दि होता है, शब्दार्था प्रितत्व नहीं। गौपरूप में भले ही वे गुप और दोष शब्दार्थ के कहे जायें किन्तु वास्तविक रूप में वे रसा श्रित धर्म हैं।' हेमचन्द्राचार्य ने अंग के आश्रित रहने वाले धर्मो को अलंकार कहा है। तथा अपनी विवेक टीका में पूर्वाचार्यों के विचारों का खण्डन I. "रसाश्रयत्वं च गपदोषयोरन्वयव्यतिरेकानुविधानात।.... यदि हि तयोः त्यस्ता वीभत्सादौ कष्टत्वादयो गुपा न भवेयुः, हास्यादौ चाशलीलत्वादय:। ... रस एवाश्रयः। वही, 1/12 वृत्ति 2- अइ.गा पिता अलंकाराः । वही, 1/13 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 प्रस्तुत करते हुए गुपालंकार विवेक । का प्रतिपादन किया है। इसमें भट्टोद्भट के अभेदवादी मत व वामन के भेदवादी मत का खण्डन और स्वमत का प्रतिपादन किया है। जिसमें मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है। जैसा कि पूर्वकथित है कि भट्टोद्भट ने गुण व अलंकार में कोई भेद नहीं माना है। उनके इस मत को हेमचन्द्राचार्य ने निरस्त कर दिया है। 2 उनका कथन है कि काव्य के सन्दर्भ में अलंकारो को ही रक्खा व हटाया जाता है, गुणों को नहीं तथा अलंकारो को त्याग करने से न तो वाक्य दूषित होता है न ही उनके ग्रहण ते पुष्ट ।' इसे उन्होंने उदाहरण द्वारा पुष्ट किया है तथा यह भी कहा है कि गुणों का तो त्याग व ग्रहण करना सम्भव ही नहीं है। " इस प्रकार गुण व अलंकार दोनों अलग-अलग 1. अंगाश्रिता इति । ये त्वंगिनि रते भवन्ति ते गुणाः । एष एव गुपालंकारविवेक: । काव्यानुशासन, विवेक टीका, पृ. 34 2. एतावता शौर्यादिसदृशा गुणाः केयूरादितुल्या अलंकारा इति विवेकमुक्त्वा संयोगसमवायाभ्यां शौर्यदीनामस्ति भेदः । इह तूभयेषां समवायेन स्थितिरित्यभिधाय तस्माद गडरिकाप्रवाहेण गुपालंकार भेद इति भामहविवरणे यद भट्टोमटोऽभ्यधात्, तन्निरस्तम्। वही, टीका, पृ. 34-35 3. तथा हि-कवितारः संदर्भेष्वलंकारान् व्यवस्यन्ति न्यस्यन्ति च, न गुणान्। नचालंकृतीनाम्पोद्वाराहाराभ्यां वाक्यं दुष्यति पुष्यति वा। वही, टीका, पृ. 35 गुणानाम्पोद्वाराहारौ तु न संभवत इति, वही, पृ. 36 4. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 तत्त्व है। इन दोनों का आश्रय भी भिन्न भिन्न है। अत : भट्टोदभट का अभेदवादी मत अनुचित है। आगे वे वामन के भेदवादी मत को भी उधृत करते हुए व्यभिचारयुक्त बताते हैं तथा तर्क व उदाहरण प्रस्तुत कर स्वमत की पुष्टि करते हैं। यह भी पूर्वोल्लिखित है कि वामन ने गुप व अलंकार में भेद माना है। पर हेमचन्द्र इसका एंडन सोदाहरप निरूपप करते हुए लिखते हैं कि "गतोऽस्तमर्को भातीन्दुर्यान्ति वासाय पक्षिपः' इत्यादि में प्रसाद, पलेष, समता, माधुर्य, सौकुमार्य, अर्थव्यक्ति आदि गुपों का सदभाव होने पर भी उसकी काव्य, व्यवहार में प्रवृत्ति नहीं हो रही है। तथा - "अपि काविता वार्ता तत्यौन्निप्राविधायिनः। इतीव प्रष्टुमायाते तस्याः कान्तमीक्षपे।।। इस पध मे उत्प्रेक्षा अलंकार मात्र होने पर - तीन चार गुपों के अविवक्षित होने पर भी काव्य व्यवहार होता ही है। अत: वामन के मत में भी व्यभिचार आ जाता है। अत: अलंकार अंगाश्रित व गुप रसाश्रित होते हैं यह हमारा मत ही प्रेयस्कर है।' I. ..... वामनेन यो विवेकः कृतः सोऽपि व्यभिचारी।.... तस्माधचोक्त एव गुपालंकार विवेकः श्रेयानिति। वही, टीका, पृ. 36 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 आ. नरेन्द्रप्रभतरि का गुप - स्वरूप आ. आनंदवर्धन व मम्मट के गप - स्वरूप का मेल है। उन्होंने गुण के लिए आवश्यक और पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत सभी उत्कृष्ट तत्वों को नहप कर गुप - स्वरूप निरूपप किया है। वे लिखते हैं कि - जिस प्रकार शौर्यादि गुण आत्मा के आश्रित रहते हैं, उसी प्रकार जो रस के आश्रित रहते हैं, अकृत्रिम हैं, नित्य हैं तथा काव्य में वैकिय के उत्पादक हैं, वे गुण कहलाते हैं।' इसी को और स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि - जिस प्रकार प्रापी के शौर्य - स्थैर्य आदि गुण आत्मा के ही आश्रित रहते हैं, आकार में नहीं, उसी प्रकार माधुर्यादि गुप भी रस के ही आश्रित रहते हैं। ये गुप रस के ही धर्म हैं, वर्ष समूह के नहीं। यही अलंकारों से गुप का भेद है। क्योंकि गुपों के अभाव में अलंकारो से युक्त रचना मी काव्य न हो सकेगी। जैसा कहा भी गया है कि यदि यौवनशन्य स्त्री के शरीर की तरह गुपों से शून्य काव्यवापी हो, तो निश्चय ही लोकप्रिय अलंकार भी धारप करने पर अच्छी नहीं लगती है।' 1. शौर्यादय इवात्मानं रसमेव श्रयन्ति ये। गुपास्ते सजा काव्ये नित्यवैफियकारिपः।। अलंकारमहोदधि, 6/1 2. वही, 6/I वृत्ति 3 वही, पृ. 187 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 वाग्भट - प्रथम, वाग्भट - द्वितीय व भावदेवतरि - इन जैनाचार्यों ने गुप विवेचन तो किया है पर गुण-स्वरूप पर प्रकाश नहीं डाला है। गुष्य-भेद सर्वप्रथम आ. भरत ने दस गुपों का उल्लेख किया है-(1) श्लेष (2) प्रसाद, (3) समता, (4) समाधि, (5) माधुर्य, (6) ओज, (7) पदसौकुमार्य, (8) अर्धा भिव्यक्ति, (१) उदारता और (10) कान्ति।' इन्हीं का अनुसरण करते हुए आ. दण्डी 2 व वामन' ने भी दस गपों का उल्लेख किया है, जिनके नाम भरत निर्दिट ही हैं। इनके अतिरिक्त वामन ने दस अर्थगुपों का भी उल्लेख किया है, जिससे उनके मतानुसार गुपों की संख्या 20 है। इन दस अर्थगुपों के नाम तो वही है, जो शब्दगुणों के हैं, किन्तु इनके स्वरूप में अन्तर है। इस प्रकार दण्डी को पूरूपेप एवं वामन को आंशिक रूप में भरत का अनुयायी कहा जा सकता है।' -- • लेषः प्रसादः समता समाधिः माधुर्यमौजः पदसौकुमार्यम्। अर्थस्य च व्यक्तिरूदारता च कान्तिश्च काव्यस्य गुमा देशीः।। - नाट्यशास्त्र, 17/96 2. काव्यादर्भ 1/41 3 काप्यालंकारसूत्र, 3/1/4 4. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पृ. 189 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 287 दतरी परंपरा में दे आचार्य है, जिन्होंने मार्य, ओज और पसाद - इन तीन गुपों का उल्लेख किया है। इसमें मामह आनंदवर्धन, मम्मट और आचार्य हेमचन्द्र को रखा जा सकता है। आ. मम्ट ने वामनसम्मत शब्द और अर्थगुपों का खण्डन करते हुए लिखा है कि कुछ गुप दोषाभावरूप है, कुछ दोषप हैं और शे का अन्तर्भाव माधुर्य, ओज और प्रसाद में ही हो जाता है। अतः गुपों की संख्या तीन है, दप्त नहीं।' तीसरी परम्परा में उन समस्त आचार्यों को रखा जा सकता है जिन्होंने दस अथवा तीन से न्यूनाधिक गुपों का उल्लेख किया है। इसमें अग्निपुराणकार, भोज, आचार्य हेमचन्द्र व जयदेव द्वारा उल्लिखित अज्ञातनामा आचार्य है। अग्निपुराणकार ने गुपों की संख्या 18 मानी है, जो शब्द, अर्थ और उभयगुणों में विभाजित है। भोज ने सामान्यत: गुपों की संख्या 24 मानी है। जिनमें उक्त भरतसम्मत दस गुपों के अतिरिक्त उदात्तता, औ पित्य, प्रेय, सुशध्दता, सौम्य, गांभीर्य, विस्तार, संछिप, संमितत्व, भाविकत्व, गति , रीति उक्ति और प्रोदि - ये 14 गुप हैं। 1. काव्यप्रकाश, 8/72 2. अग्निपुराणका काव्यशास्त्रीय भाग, 10/5-6, 12/18-19 सरस्वतीकण्ठाभरप, 1/60-65 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 उन्होंने 24 गुणों को वाय, आभ्यन्तर और वैशेषिक में विभाजित कर यो की संख्या 72 स्वीकार की है, जो अन्याचार्यों की अपेक्षा सर्वाधिक है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा उल्लिखित अज्ञातनामा आचार्य के अनुसार गुणों की संख्या 5 है- ओज, प्रसाद, मधुरिमा, साम्य और औदार्य।' इसी प्रकार जयदेव द्वारा उल्लिखित अज्ञातनामा आचार्य के अनुसार गुपों की संख्या 6 है - न्यास, निर्वाह प्रौदि, औचिति, शास्त्रान्तररहत्योक्ति व संग्रह। जैनाचार्यों में सर्वप्रथम वाग्भट प्रथम ने दस गुपों का विवेचन किया है, जो भरतमुनि सम्मत है। प्रत्येक का सोदाहरप स्वरूप निम्न प्रकार है औदार्य - अर्थ की चारूता के प्रत्यायक पद के साथ वैसे ही अन्य पदों की सम्मिलित योजना को उदारता" नामक गुप कहते हैं।' 1. काव्यानुशासन, 4/ विवेकवृत्ति। चन्द्रालोक, 4/12 3 वाग्भटालंकार, 3/2 + पदानामर्थचारूत्वपत्यायकपदान्तरः। मिलितानां यदाधानं तदौदार्य स्मृतं यथा।। वही, 3/3 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा गन्भविमा जितधाम लक्ष्मीलीलाम्बकत्रम्पात्य राज्यस्। क्रीडागिरी रेवतके तपांति श्रीनेमिनायोऽत्र घिर चकार।।' इस लोक में चास्तापत्यायक 'गन्ध' शब्द के साथ अन्य सुन्दर पद "इम', लीलाम्छुज शब्द के साथ "त्र और कीडा शब्द के साथ 'गिरीद अर्थ में चारुता का आधान करते हैं। अतः इसमें औदार्य नामक गुण है। समता और कान्ति - रचना की अविषमता (अनकलता) समता है तथा रचना की उज्जवलता कान्ति समता, यथा - कुचकलशविता रिस्फारलावण्यधारामनुवदति यदंगासंगिनी हारवल्ली। असदभमहिमा तामनन्योपमेयां कथय क्यमई ते चेतति व्यस्यामि।।' यहाँ पर 'कुचके साथ कलश, वितारि के साथ फार आदि अविषम पदों का प्रयोग होने से समता गुप है। 1. वाग्भटालंकार, 3/4 - बन्यस्य यदवैषम्यं समता सोच्यते बुधः। यदुज्जवलत्वं तस्येव सा कान्तिरक्षिा यथा।। वही, 3/5 3 दही, 3/6 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति, यथा - फलै : क्लुप्ताहारः प्रथममपि निर्गत्य सदनादनासक्तः सौख्ये क्वचिदपि पुरा जन्मनि कृती। तपत्यन्नश्रान्तं ननु वनभुवि श्रीफ्लदलैरवण्डैः खण्डेन्दोधिचरमकृत पादार्चमनतौ ।।। यहा विरुद्ध सन्धि के त्याग से फ्लैः क्लुप्ताहारः' में विसर्गों के अलोप है और समासहीन होने से इस ग्लोक में “कान्ति' नामक गुप है। अर्थव्यक्ति - जहाँ पर अर्थ को समझने में किसी तरह का विघ्न नहीं रहता वहाँ अर्थव्यक्ति* गुप सम्झना चाहिए। यथा त्वतन्यस्व ता सूर्ये लुप्ते रात्रिरमदिवा।।' सूर्यास्त होने से रात्रि का आगमन स्वाभाविक है। इसको समझने के लिये किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। अतएव इस पध में अर्थव्यक्ति नामक गुप है। • वाग्भटालंकार, 17 ॐ यज्ञेयत्वमर्थन्य सार्यव्यक्तिः स्मता यथा। वही, 3/8 का पूर्वार्द 3 वही, 3/8 का उत्तराई Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 291 पसन्नता - जिस गुप के कारप शीघ्र पढ़ते ही अर्थावबोध हो जाता है उसे "प्रसन्नता अथवा प्रसक्ति कहते हैं।' यथा कल्पद्म इवाभाति वा सितार्थपदो जिनः। 2 यहाँ, यह कहने से कि जिनदेव कल्पतरू की भांति अभिलषित फल के देने वाले हैं उनकी दानशीलता तुरंत स्पष्ट हो जाती है। अत: यहाँ पर प्रसन्नता नामक गुण है। समाधि - जहाँ पर एक वस्तु के गुप का आधान अन्य वस्तु के साथ किया जाता है, वहाँ समाधि नामक गुप होता है।' यथा - यथाश्रुभिररिस्त्रीपा राज : पल्लवित यशः।।* 1. अटित्यार्पकत्वं यत्प्रसप्तिः सोच्यते बुधैः। ____3/10 का पूर्वार्द 2. वही, 3/10 का उत्तराई 3 स समाधिर्यदन्यत्य गुपोऽन्यत्र निवेश्यते। __ वही, 3/n का पूर्वार्ट ५. वही, /॥ का उत्तरार्द्ध Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लवित होना लतावृक्षादि का गुण है, न कि यश का किन्तु कवि ने पल्लवित होने की विशेषता को राजा के यश में नियोजित करके समाधि गुप उत्पन्न कर दिया है। श्लेष और ओजस् - अनेक पदों का परस्पर गुम्फित होना श्लेष है और समात का बाहुल्य ओज । समास बहुला पदावली गद्य में ही शोभित होती है, पद्म मे नहीं। यथा - मुदायस्योद्वगीतं सह सहचरी भिर्वनचरै : श्रुत्वा हेलोतधरपिभारं भुजबल । दरोद्भगच्छद्दर्भाङ्कु- रनिकरदम्भात्पुलकिताचमत्का रौद्रेकं कुल शिखरिस्तेऽपि दधिरे । । 2 यहाँ समस्त पद एक सूत्र मे गंधी गई मषियों के सदृश परस्पर गुम्फित है, अतः श्लेष गुण है। ओज, यथा - समरा जिस्फुरदरिनरेशकरिनिकरशिरः सरससिन्दूरपूरपरिचयेनेवारूपितकरतलो देव ।। 3 292 1. श्लेषो यत्र पदानि स्युः स्यूतानीव परस्परम् । ओजः समासभस्त्वं तद्ग्येष्वतिसुन्दरम् ।। वही, 3/12 2 वही, 3/13 3. वही, 3/14 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 293 यह गांश समासबहुल होने ते "ओज' गुप का उदाहरप हैं। मार्य और तौकुमार्य - सरत अर्थ के बोधक पदों का प्रयोग माधुर्य गुप है और कोमल-कान्त - पदावली कामयोग सौकुमार्य गुपं है।' माधुर्य, यथा - फपिमणिकिरपालीत्यतकचन्निचोल :। कुचकलशनिधानत्येव रक्षाधिकारी उरति विशदहारस्फारतामुज्जिहानः । किमिति करसरोजे कुण्डली कुण्डलिन्याः।।2 यहाँ श्रृंगाररत के अनुकूल सरत अर्थ के बोधक पद होने से माधुर्य गुष है। सौकुमार्य, यथा - प्रतापदीपाचनरा जिरेव देव! त्वदीयः करवाल एषः। नो चोदनेन द्विषतां मुनानि श्यामायमानानि कर्य कृतानि।।' यहां कोमलकान्त पदावली होने से सौकुमार्य गुण है। 1. सरतार्थपदत्वं यत्तन्माधुर्यमुदादास। अनिष्ठुरारित्वं यत्तीकुमार्यमिई यया।। पही, 3/15 . वाग्भटालंकार /16 , वाग्म्टाकार, 3/17 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. हेमचन्द्र ने माधुर्य, ओज तथा प्रसाद इन तीन गुणों को स्वीकार करते हुए। अन्य सभी गुणों का खण्डन किया है। आ, मम्मट द्वारा किये गये खण्डन की अपेक्षा आ. हेमचन्द्र का खण्डन- मण्डन अधिक व्यापक है । आ. मम्मट ने केवल वामनसम्मत दस गुणों का ही खण्डन किया है जबकि आ. हेमचन्द्र ने स्वोपज्ञ विवेक टीका में विस्तारपूर्वक दसवादी आचार्यों के अतिरिक्त अज्ञातनामा आचार्यसम्मत, ओज, प्रसाद, मधुरिमा, ताम्य और औदार्य नामक 5 गुण का भी खण्डन किया है? तथा उनका भी खण्डन किया है जो छन्द विशेष के आधार पर गुणों की शोभा मानते हैं, स्रग्धरा आदि छन्दों में ओजो गुण आदि। 3 उनकी मान्यता है कि जैसे 1. माधुयज : प्रसादास्त्रयो गुणाः ।। काव्यानुशासन 4/1 294 - 2 ओज : प्रसादमधुरिमापः साम्यमौदार्य च पंचत्यपरे । तथा हियददर्शित विच्छेदं पठतामोजः, विच्छ्यि पदानि पठतां प्रसादः, आरोहावरोहतरं गिपि पाठे, माधुर्य, सप्तौष्ठवमेव स्थानं पठतामौदार्य अनुच्चनीचं पठतां साम्यमिति । तदिदमली कल्पनातन्त्रम्। यद्विषयविभागेन पाठनियमः स कथं गुणनिमित्तमिति । काव्यानुशासन, 4/1 / टीका 3. छन्दो विशेष निवेश्या गुणसंपत्तिरिति केचित् । तथा हि सग्धरादिष्वोज: । वही, 4/1 विवेक टीका Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 295 लक्षण में व्यभिचार होने से, उच्यमान तीन ही गुपों में अन्तर्भाव होने ते या दो - परिहार के रूप में स्वीकृत होने से अन्य गुपों को नहीं माना जा सकता। अतः उनके अनुसार गुप तीन ही हैं, दस अथवा पाच नहीं।' इस सन्दर्भ में उनकी विवेक टीका अति महत्वपूर्ण है जिसमें । उन्होंने दस गुपों के अतिरिक्त पांच गुणों का उल्लेखपूर्वक खण्डन किया है जो कि उनके व्यापक अध्ययन का परिचय प्रस्तुत करता है। हेमचन्द्राचार्य द्वारा स्वीकृत माधुर्य, ओज व प्रसाद गुप का विवेचन इस प्रकार है - माधुर्य - माधुर्यगुप संभोग श्रृंगार में दुति का हेतु है। अर्थात द्रुति का हेतु और संभोगश्रृंगार में रहने वाला जो धर्म है वह माधुर्य कहलाता है। दुति का अर्थ है आर्द्रता अर्थात् चित्त का द्रवीभाव। श्रृंगार के अंगभत हास्य और अद्भुत आदि रतों में भी माधुर्य गुण होता है। अत्यन्त इति का कारण होने से यह मार्थ्यगुप शान्त, करूप और विपलम्भ गार में भी अतिशययुक्त • त्रयो न तु दश पञ्च वा। लक्षपव्यभिचाराच्यमानगुफेवन्तर्भावात्। दोष्परिहारेप स्वीकृतत्वाच्या 'वही, वृत्ति , पृ. 274 इतिहेतु मार्य श्रृंगारे। काव्यान, 4/2 3 इतिरार्दता गलितत्वमिव चततः। अंगारेडातभोगे। श्रृंगारस्य च ये हास्यास्मतादयो रसा अँगा नि तेषामपि माधुर्य गपः। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 289 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 ( चमत्कारोत्पादक) होता है। मार्य के इस स्वरूप विवेचन में मम्मट का ही प्रभाव परिलक्षित होता है, परन्तु मम्मट ने मार्य को इतिहेतु के अतिरिक्त आझादस्वरूप वाला भी कहा है। साथ ही करूप, विपलभ तथा शान्त में माधुर्य को उत्तरोत्तर चमत्कारजनक कहा है। जबकि आ. हेमचन्द्र ने इस क्रम को बदलकर शान्त, करूण और विपलम्म कर दिया है। जहाँ आचार्य मम्मट ने तीनो गुपों का स्वरूप बतलाकर बाद में उसके व्यजक वर्षादि की चर्चा की है वही आ. हेमचन्द्र ने ऐसा न करके । एक-एक गुप से संबंधित समी बातों पर विचार किया है। मार्ण गुण के स्वरूप - विवेचन के बाद वे उसके व्यचकों का निरूपप करते हुए लिखते हैं कि अपने अन्तिम वर्ष से युक्त, ट वर्ग को छोड़कर अन्य सभी वर्ग, हस्व रकार तथा पकार और समातरहित (या अल्पतमान वाली) कोमल - रचना मार्य व्यजक है।' 1. शन्तकरूपविपलम्भेषु सातिश्यमा। - काव्यानुशासन, 4/3. 3 आहलादकत्वं माधुर्य अंगारे दुतिकारपस।। काव्यप्रकाश, 8/68 का उत्तरार्द 3 रूपे विप्रलम्भे तकान्ते चातिश्यन्वितम्। काव्यप्रकाश, 8/69 का पूर्वार्द + तत्र निपान्त्याकान्ता अटवर्मा वर्गा स्वान्तरितो रपावतमातो मुदरचना च। काव्यान, 4/4 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 297 इसमे आ. हेमचन्द्र ने पायः मम्मद का अनुसरण करते हुए मार्य गुप के व्यजक वर्ष, तमात और रचना का प्रतिपादन किया है।' इत्ति में उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अपने वर्ग के (अन्तिम) प-यम वर्ष ड. भ प न म - से युक्त, शिर के वर्ष सहित (क वर्ग, च वर्ग, आदि) अटवर्ग अर्थात ट वर्ग रहित - ट ठ ड ट रहित वर्ग और हत्व से व्यवहित रेफ और फार - ये वर्ष और असमास अर्धाद समास का अभाव या छोटे छोटे समास वाली तथा मुटु रमा मार्य गुप की व्यंजक होती है। यथा - शिजानमञ्जुमजी राश्चारूकाञ्चनकाञ्चयः। कडू-पाक मुजा भान्ति जितानड. तवाङ्ग-नाः।।' - 1. तुलनीयः मानि वर्गान्त्यगाः स्पर्शा अटवर्गा रपो लघ। अवृत्तिमध्यवृत्तिर्वा माधुर्ये घटना तथा ॥ काव्यपकाश, 8/74 निजेन निजवर्गसम्बन्धिनान्त्येन अपनमलक्षपेन भिरत्याकान्ता अटवर्गाः टठडटरहिता वर्गा हस्वान्तरितो च रेफसकारौ। असमास इति। समासमायोड ल्पसमासता वा, मुदी च रचना। तत्र माधुर्ये माधुर्यस्य व्यजिकेत्यर्थः। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 289 3 वही, पृ. 289 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 प्रस्तुत रचना में अधिकांशतः वर्ग के पंचम वर्षों का प्रयोग किया गया है। अत: यह रचना मार्यगुप की व्यजक है। इसी प्रकार - दारूपरपे रपन्तं करिदारपकार कृपापं ते। रमपकृते रपरपकी पश्यति तरूपीजनो दिव्यः।।' इस उदाहरप में रेफ व पकार की बहुलता होने से ये वर्षादि माधुर्य गुप के व्यञ्जक हैं। किंतु इससे भिन्न ट वर्गादि से युक्त रचना मार्यगुप की व्यञ्चक नहीं होती, यथा - अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्णमाकण्ठं कलकण्ठिमास। कम्बुकण्ठयावर्ष कण्ठेकुरू कण्ठार्तिमुद्र।। यहाँ श्रृंगार रस के प्रतिम्ल वर्षों का समायोजन होने से माधुर्य गुप नहीं है। इसे मम्म्ट ने प्रतिकूलवर्पता नामक वाक्यदोष 1. वही, पृ. 290 2. वही, पृ. 290 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299 के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। आ. हेमचन्द्र ने एक और प्रत्युदाहरण प्रस्तुत कर श्रृंगार के प्रतिकूल वर्षों को दिखाया है। यथा बाले मालेयमुच्चैर्न भवति गगनव्यापिनी नीरदानां । कि त्वं पक्ष्मान्तवान्तैर्मलिनयति मुधा वक्त्रम श्रपवाहैः ।। एषा प्रोत्तमत्तद्वि पकट कषणक्षण्णवन्ध्योपलाभा । दावाग्नेर्व्योम्नि लग्ना मलिनयति दिशां मण्डलं धमलेखा । । । यहाँ दीर्घ समास से युक्त, परूष वर्षों वाली रचना विप्रलम्भ श्रृंगार के विरूद्ध है। 828 ओजस चित्त की दीप्ति अर्थात् उज्जवलता या विस्तार में जो कारण हो वह ओजगुण कहलाता है। यह वीर, वीभत्स और रौद्ररस मैं क्रमश: अधिक अतिशयान्वित होता है, अर्थातु वीर की अपेक्षा वीभत्स और वीभत्स की अपेक्षा रौद्ररस में तथा रौद्र के अंगभूत अद्भुत रस में भी ओजगुण क्रमश: अधिक अतिशययुक्त होता है। 2 ओजगुण के विवेचन में भी मम्मट का प्रभाव स्पष्ट है। 3 आ. हेमचन्द्र ने मात्र "तेषामगेऽदसते च - 1. वही, पृ. 290 2. "दी प्तिहेतुरोजो वीरबीभत्सरौद्रेषु क्रमेणाधिकस । दीप्तिरजज्वला, चित्तस्य विस्तार इति यावत् । क्रमेणेति वीराद् बीभत्से ततोऽपि रौद्रे तेषामगेऽसते च सातिशयमोज: । * काव्यानु, 4/5, कु. पू. 290 3. तुलनीय : काव्यप्रकाश 8/69 व 70 का पूर्वार्द्ध Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक कहा है। व्यजकों के निरूपण में भी मम्मट से पूर्ण समानता है । ' आ. हेमचन्द्र लिखते हैं कि वर्ग के प्रथम और तृतीय वर्षों का क्रमश: द्वितीय और चतुर्थ वर्ष के साथ योग, रेफ और तुल्यवर्ष से युक्त वर्ष तथा ट वर्ग और श, ष, वर्ष, दीर्घसमासवाली और कठोर (उद्धत ) रचना ओजगण की व्यञ्जक है। 2 आगे उन्होंने लिखा है कि प्रथम वर्ष द्वितीय वर्ष तथा तृतीय वर्ष मे चतुर्थ वर्ष के मिले हुए वर्ष, नीचे उमर या दोनों जगह किसी भी वर्ष के साथ रेफ का संयोग, तुल्यवर्षों का संयोग, पकाररहित ट वर्ग ( ट ठ ड ढ ) श, ष का संयोग और दीर्घसमासवाली कठोर रचना ओजगुण की व्य-जक है। 3 1. "योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययो रेप तुल्ययो: । टादिः वृत्तिदैर्ध्य गुम्फ उद्धत ओजति ।। " 300 काव्यप्रकाश, 8/75 2. "आधतृतीयाक्रान्तौ द्वितीयतुर्यो युक्तो रेफस्तुल्यश्च टवर्गशषा वृत्तिदैर्घ्यमुदुता गुम्पश्चात्र । । काव्यानुशासन, 4/6 3. आधेन द्वितीयन्तृतीयेन चतुर्थ आकान्तो वर्षस्तथाथः उपरि उभयत्र वा येन केनचित्संयुक्तो रेफस्तुलयश्च वर्षो वर्षेन युक्तस्तथा टवर्गोऽर्थापिका रवर्ज, शो चा दीर्घः समाप्तः, कठोरा रचना च । अत्रौजसि । ओजसौ व्यजिकेत्यर्थः । काव्यानु, वृत्ति, पृ. 291 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 आ. हेमचन्द्र ने ओजगुप के उदाहरफप मे निम्न पद्य प्रस्तुत किया है - म मुदत्तकृत्ताविरलगलगलद्रक्तसंसक्तधारा। धौतेशा डिप्रपसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नास।। कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदोदरापादोषपां चैषां किमेतत्फ्लामह नगरीरक्षपे यत्प्रयासः।। यहां उपर्युक्त वर्षों की संरचना और दीर्घ समासादि के होने से ओजगुप की अभिव्यक्ति हो रही है। आ, मम्मट ने इसे अविमृष्ट विधेयांश नामक तमासगत दोष के उदाहरप रूप में भी उद्भूत किया है। उपर्युक्त कथित वर्षों से विपरीत वर्षों वाली रचना ओजगुप की व्यजक नहीं होती है। जैसे - देशः सोडमरातिशी फितवलयस्मिन्दा:पूरिताः। धादेव तथाविधः परिभवस्तातस्य केशगहः।। तान्यैवाहितशस्त्रयस्मरगुरुण्यस्त्रापि भावत्ति नो। यद्रामेप कृतं तदेव कुस्ते द्रोपात्मन: गोधनः।।' 1. वही, पृ. 291 - द्रष्टव्यः काव्यप्रकाशं वि, उदाहरप 350 3 वही, पृ. 291 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 इसमें उक्त प्रकार के वर्षों का अभाव है तथा समात - रहित अनुदुत रचना होने से ओजोगुप विरुद्ध है। 138 प्रसाद - विकास का हेतु प्रसाद गुप सभी रतों में होता है। शक ईंधन में अग्नि की भांति तथा स्वच्छ जल की तरह चित्त में सहप्ता व्याप्त होने वाला तथा समस्त रतों में पाया जाने वाला प्रसाद गुप है।' प्रायः यही मत आ. मम्मट का भी है। 2 अवपमात्र से अर्थबोध कराने वाले वर्ष, समात और रचनायें प्रसाद्गुप की व्यञ्जक हैं।' यथा - दातारो यदि कल्पशारिवभिरल यद्यर्थिनः किंतपैः। सन्तश्चेदमृतेन कि यदि लास्तत्कालक्टेन किस। किं कर्परशलाकया यदि शोःपन्थानमेति प्रिया, संसारेऽपि सतीन्द्रनालमपरं यद्यस्ति तेनापि किम्।।' 1. "विकासहेतुः प्रसादः सर्वत्र। विकासः शुष्कन्धनाग्निवत्स्वजलवच्च सहसव चेत सां व्याप्तिः । सर्वत्रोति सर्वेषु रतेषा. काव्यानुशासन, 4/7, पृ. 291 - काव्यप्रकाश 8/70 3 "इह श्रृतिमात्रेपार्थप्रत्यायका वर्पवृत्तिगुम्पाः ।। श्रुत्यैवार्थपती तिहेतवो पर्पसमासरचनाः। काव्यानशासन 4/ पृ. 291 + वही, पृ. 192 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 माधुर्य, ओज व प्रसाद के व्यञक वर्षों को क्रममाः उपनागरिका, परूषा व कोमला नामक वृत्ति कहा गया है और अन्य आचार्य इन्हें ही वैदर्भी, गोद्री और पा चाली रीति कहते हैं। जैसा कि कहा गया है - माधुर्यव्यजकैवरूपनागरिकेष्यते। ओज : प्रकाशकत्तेऽस्तु परूषा कोम्ला परैः।। केषाञ्चिदेता वैदर्भीपमुवा रीतयोमताः।।' वृत्ति, रीति, मार्ग , संघटना तथा शैली प्रायः समानार्य है। वृत्ति शब्द का प्रयोग उद्भट ने किया है। उन्होंने अपने 'काव्यालंकारसारसंग्रह' मे उपनागरिका, परूषा तथा कोमला नामक तीन वृत्तियों का विवेचन किया है। इन्हीं तीन वृत्तियों को वामन ने तीन प्रकार की रीतियों के रूप में, कुन्तक तथा दण्डी ने तीन प्रकार के मार्गों के रूप में और आनन्दवर्षन ने तीन प्रकार की घटना के रूप में माना है। अत: उदमट की वृत्तियां, वामन की रीतियां, दण्डी और कुन्तक के मार्ग तथा आनन्दवर्धन की संघटना एक ही भाव को व्यक्त करती है। - 1. वही, पृ. 192 . 2. आ. विश्वेश्वरः काव्यप्रकाश, पृ, 405 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 हेमचन्द्राचार्य के अनुसार पूर्वोक्त गुपों में ययपि वर्ष, रचना, तमासादि नियत (निश्चित), तथापि कहीं कहीं वक्ता, वाच्य (प्रतिपाय विषय ) तथा प्रबन्ध के औचित्य से दर्पादि का अन्य प्रकार का पयोग भी उचित माना जाता है।' कहीं कहीं वक्ता तथा प्रबन्ध दोनों की उपेक्षा करके केवल वाच्य के औचित्य से ही रचना होती है। जैसे - "मन्यायस्तार्पवाम्मः .... इत्यादि। कहीं वक्ता तथा प्रबन्ध दोनों की उपेक्षा करके केवल वाच्य के औचित्य से ही रचनादि होती है। जैसे - प्रोटछेदानुरूपोळल...।' इत्यादि, तथा कहीं कहीं वक्ता तथा वाच्य की उपेक्षा करके प्रबन्ध के औचित्य के अनुसार रचनादि होती है, यथा - आख्यायिका में श्रृंगार के वन में कोमल वर्षादि प्रयुक्त नहीं होते है, कथा में रौद्ररस में अत्यन्त उद्धत वर्परचनादि प्रयुपत नहीं होते हैं और नाटकादि में रौद्ररत में भी दीर्घसमासादि प्रयुक्त नहीं होते हैं। इसी प्रकार अन्य औचित्यों का भी अनुसरण करना चाहिए।' 1. "वक्तृवाच्यप्रबन्धौचित्याद्रपदीनामन्यथात्वमपि।। काव्यानुशासन, 4/9 2. वही, पृ. 292 , वही, पृ. 293 + वही, पृ. 292 - 294 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 305 आ. नरेन्द्रप्रभसरि ने वामन सम्मत दस अंदगुपों तथा दस अर्थगणों का वण्डन करके आ. मम्मट तथा हेमचन्द्र आदि द्वारा स्वीकृत मार्यादि तीन गुपों की स्थापना की है।' उनका कथन है कि वामन ने जो समास रहित पदों वाली रचना को माधुर्य गुप कहा है, वह “अस्त्युत्तरस्यार इत्यादि पध में विधमान है, पुनः उत्ते अर्थश्लेष का उदाहरप प्रस्तुत कर अर्थश्लेष को अलग से गुप मानना ठीक नहीं है। इसी प्रकार रचना की अकठोरता रूप शब्दसौकुमार्य, कोमलकान्तपदावली रूप अर्थसौ कुमार्य, अर्थ का दर्शन रूप अर्थ समाधि और घटना का श्लेष रूप अर्थशलेष नामक जो गुप है, इनका हमें जो मार्य गुप का स्वरूप अभीष्ट है, उसमे अन्तर्भाव हो जाता है। अत: उक्त गुपों को पृथक् - पृथक, मानना ठीक नहीं है। रचना की गादता ओज नामक शब्दगुण, अर्थ की प्रादि ओज नामक अर्थगुण, अनेक पदों का एक पद के समान दिखाई देना शब्दालेष, आरोह और अवरोह का क्रम भब्दसमाधि, बन्ध की विकटता उदारता नामक शब्दगुप, बन्धु की उज्जवलता कान्ति नामक शब्दगुप और रचना 1. गुपश्चान्ये जगुः शब्दगतान दशार्यगान। माधुयोजः प्रसादास्तु सम्मतास्त्रय एव नः।। अलंकारमहोदधि, 6/3 - अलंकारमहोदय, पृ. 190-91 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 में रसों की दीप्ति कान्ति नामक अर्थगुष कहलाता है। इन गुपों के मल में वित्त के विस्तार रूप दीप्ति विद्यमान है, जो ओजोगुप का स्वरूप है अतः इनका अन्तर्भाव ओजोगुण में हो जायगा।' ओजोगुण मिश्रित रचना की शिथिलता प्रसाद नामक शब्दगुप, अर्थ स्पष्टता रूप प्रसाद नामक अर्थगुप, शीघ्र ही अर्थ का बोध कराने वाली रचना अर्थव्यक्ति नामक शब्दगुप और जो रचना वस्तु के स्वभाव का स्पष्ट रूप से विवेचन कराये वह अर्थव्यक्ति नामक अर्थ गुप कहलाता है। इनका अन्तर्भाव हमें अभीष्ट लक्षप वाले प्रसादगुप में हो जाता है।' काव्य में निबद्ध रचना शैली का अन्त तक परित्याग न करना समता नामक शब्दगुप, प्रक्रम का अभेद रूप अविषमता नामक अर्थगुप और रचना में गाम्यता का अभाव उदारता नामक अर्थगुप कहलाता है। समता तथा उदारता ये दोनों कमा: भग्नपक्रम व ग्राम्यदोष का अभावमात्र है। इस प्रकार वामन ने जो दस शब्दगुप व दस अर्थगप माने हैं वे ठीक नहीं है, क्योंकि उनका माधुर्य, ओज और प्रसाद नामक तीनों गुणों में अन्तर्भाव हो जाता है। पुन: आ, नरेन्द्रप्रभरि ने अपने द्वारा स्वीकृत इन माधुर्यादि 1. वही, पृ, 194 - 195 - वही, पृ. 195 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 तीन गुपों का लक्षणसहित उदाहरपपूर्वक विवेचन किया है। तथा आ. हेमचन्द्र के समान प्रत्येक गुप के उदाहरप के साथ उसका प्रत्युदाहरप भी प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही रसों में गुपों की तरतमता व गपों के व्यजक वर्ष - विशेषों का भी निर्देश किया है।' ___आ. वाग्भट - द्वितीय ने सर्वप्रथम भरतमुनि सम्मत दत काव्यगुपों के नामोल्लेखपूर्वक लक्षप प्रस्तुत किए है, किन्तु इन्होंने स्वयं केवल मार्यादि तीन गुपों को ही स्वीकार किया है तथा शेष का अन्तर्भाव इन्हीं तीन गुपों में माना है। आ. भावदेवसरि ने गुपवर्पन प्रसंग में पहले मरतादि - सम्मत श्लेष, प्रसाद आदि दस गुपों का नामोल्लेख किया है तथा प्रत्येक का लक्षप व संधप में उदाहरप भी प्रस्तुत किया है। इसी - - - - - - - - - - - 1. वही, 6/15-28 2. दण्डिवामनवाग्भटादिपपीता दशकाव्यगपाः। वयं तु माधुर्योज : प्रसादलक्षपास्त्रीनेव गुपान्मन्यामहै। शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति। काव्यानु, वाग्भट, टीका, पृ. 39 3 काव्यालंकारसार - 4/2-7 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 कम में माधुर्यादि तीन गुपों का भी परैः पद से उल्लेख किया है। जो अन्य मत का घोतक है। अत: उनके अनुसार दस गुप ही मानना चाहिए। इस पतंग में भावदेवतरि ने शोभा, अभिमान, हेतु, प्रतिषेध, निरूक्त, युक्ति, कार्य और प्रसिद्धि - इन आठ काव्य चिन्हों (काव्य - लधपों) का भी उल्लेख किया है। जो इस प्रकार है - 1 828 38 शोभा - दोष का निषेध। यथा जहाँ तुम हो वहाँ कलियुग भी शुभ है। अभिमान - वस्तुविषयक उहापोह। यथा - यदि वह चन्द्रमा है तो उष्पता कैसे? हेतू - अन्यदेको क्ति का त्याग हेतु है। यथा - 'न इन्दुर्नार्कोगुरूझौं। प्रतिषेध - निषेध । यथा - तुमने युद्ध से नहीं, माँह से ही शत्रुओं को जीत लिया। निरूक्त - निर्वचन। यथा - उन दोनों को मैं इस प्रकार समझता है, किन्तु आप दोभाकर है। ६४ 5 I. वही, 4/8 - काव्यालंकारतार - 4/9. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 309 16 71 युक्ति - विशिष्टता । यथा - तुम नवीन जलद हो, जो सोने की वर्षा करते हो। कार्य - फलकथन। यथा - रात्रिरूपी स्त्री से विशिष्ट यह चन्द्रमा (आप दोनों के) अच्छेद (संयोग) के लिये उदित हो रहा है। प्रसिद्धि - प्रसिद वस्तुओं में तुल्यता का कथन - यथा - समुद्र जल से महान है और आप बल से महान हैं। 188 ___ इस प्रकार इस सम्पूर्प विवेचन से स्पष्ट होता है कि इन सभी जैनाचार्यों ने अलंकारशास्त्र की परम्परा का अधुण्परूप से निर्वाह करते हुए अपनी शैली मे गुप-स्वरूप आदि विषयों पर विवेचन प्रस्तुत किया है। आ. हेमचन्द्र ने जो अतिरिक्त पांच काव्यागुणों का उल्लेखपूर्वक खण्डन किया है, वह अन्य किसी आचार्य द्वारा निर्दिष्ट न किये जाने के कारप उल्लेखनीय है। आ. वाग्भट प्रथम, भावदेवतरि - ये जैनाचार्य भरत तथा वामन आदि के अनुयायी है, क्योंकि इन्होने दप्त गुपों का समर्थन किया है। आ. हेमचन्द्र, नरेन्द्रप्रसार व वाग्भट द्वितीय ये तीन जैनाचार्य आनन्दवर्धन व मम्म्टादि के समर्थक हैं क्योंकि इन्होंने माधुर्यादि तीन गुपों को ही स्वीकार किया है तथा शेष का इन्ही में अन्तर्भाव किया है। इस प्रकार निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि इन सभी जैनाचार्यों ने पूर्वाचार्यो द्वारा मान्य किसी एक विचारधारा को स्वीकार कर, शेष का युक्तिपूर्वक खंडन किया है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 कठ अध्याय : अलंकार विवेचन द जैनाचार्य भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकारों का अत्यधिक महत्व है। इसकी महत्ता इस बात से भी घोषित होती है कि काव्यशास्त्र अलंकारशास्त्र के ही नाम से अभिहित किया जाता रहा है। काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने इसकी महिमा का आख्यान करते हुए इसे वेद का सातवां अंग माना है। उनके अनुसार अलंकार वेद के अर्थ का उपकारक होता है तथा अलंकारों के अभाव में वेदार्थ की अवगति नहीं हो सकती है।' "अलंकरोति इति अलंकारः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार काव्य के शोभावर्धक तत्वो को अलंकार कहते हैं तथा “अलंक्रियतेऽनेन इति अलंकारः" इस व्युत्पत्ति के आधार पर जिनके द्वारा काप्य अलंकृत किया जाय उसे अलंकार कहते हैं। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार अलंकार काव्य के स्वाभाविक धर्म हैं और द्वितीय के अनुसार अस्वाभाविक या साधनमात्र। अलंकारों का वास्तविक विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में भी उपलब्ध नहीं होता है। इन्होंने केवल चार अलंकारों - उपमा, रूपक, दीपक और यम का उल्लेख किया है।2 शनैः शनैः अलंकारशास्त्र का विकास होता 1. उपकारकत्वात् अलंकारः सप्तमइगमिति यायावरीयः। ते च तत्स्वरूपपरिज्ञानात वेदार्थानवगतिः। काव्यमीमांसा द्वितीय अध्याय, पृ. 5 2. नाट्यशास्त्र, 17/43 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 311 गया, अलंकार विषयक मान्यतायें दृढ़ होती गई अलंकारो की संख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई तथा अलंकारशास्त्र कई सम्प्रदायों में विभक्त हो गया, जिनमें अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्पदाय, रत सम्प्रदाय, ध्वनि-सम्प्रदाय, और वक्रोक्ति सम्पदाय प्रमुख हैं। यह सम्पदाय क्रमशः अलंकार,रीति, रस, ध्वनि व वक्रोक्ति को ही काव्य का सर्वस्व मानते थे। अलंकार सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य भामह थे। आचार्य भामह ने अलंकार को इतनी महत्ता प्रदान की कि सम्पूर्ण काव्यशास्त्र ही अलंकारशास्त्र इस संज्ञा से अभिहित होने लगा, पर अलंकारों का महत्व विभिन्न आचार्यों की दृष्टि में विभिन्न प्रकार से निरूपित हुआ। आचार्य दण्डी ने काव्य की शोभा बढ़ाने वाले सभी धर्मों को अलंकार कहा है। साथ ही आचार्य दण्डी ये भी स्पष्ट लिखते हैं कि दूसरे ग्रन्थों में जो सन्धि, सन्ध्यंग, वृत्ति, कृत्यंग तथा उनके लधपों आदि का वर्णन किया है, उन्हें हम अलंकारो के अन्तर्गत ही मानते हैं। आचार्य वामन ने काव्य में सौन्दर्य के आधायक सभी तत्वो' को अलंकार स्वीकार किया है।' ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन ने ये स्वीकार किया कि जिस प्रकार कटक, कुण्डलादि लौकिक अलंकार कामिनी के शरीर को सुशोभित I. काव्यादर्श, 2/1 2. काव्यादर्श, 2/367 3 काव्यालंकारसूत्र, 1/1/2-3 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 करते हैं उसी प्रकार यमक, उपमा दि अलंकार काव्य-शरीर को सुशोभित करते हैं।' आनंदवर्धन का अनुसरप करते हुए आचार्य मम्मट ने रमपी के हारादि आभूषपों की भांति काप्य में शब्द और अर्थ का अंगरूप ते कभीकमी उपकार करने वाले अनुपात उपमा दि को अलंकार के रूप में स्वीकार किया है। जैनाचार्य वाग्भट प्रथम लिखते हैं कि जिस प्रकार अलंकारों के अभाव मे स्त्री का रूप सुशोभित नहीं होता है, उसी प्रकार अलंकारों से रहित काव्य भी सुशोभित नहीं होता है। ___आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि अंगी रस के जो अंगमत शब्द और अर्थ हैं उनके आश्रित रहने वाले धर्म अलंकार कहलाते हैं। वे अलंकार रस के रहने पर कभी-कभी उपकार करते हैं और कभी-कभी नहीं भी करते। रत का अभाव होने पर तो वे वाच्य वाचक मात्र के चमत्कार में ही सीमित रह जाते हैं। इसलिये आगे वे रसोपकारक अलंकार - प्रकारों का विवेचन करते 1. तमर्थमवलम्बन्ते ये दि. गर्न ते गुपाः स्मृताः। अंइ. गाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्याः कटकादिवत्।। ध्वन्यालोक 2/6 2. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽइ. गदारेप जातचित्। हारादिवदलइ. कारास्तेऽनुपासोपमादयः।। __काव्यप्रकाश, 8/67 3 स्त्रीरूपमिव नो भाति त बुवेऽलंछियोध्ययम्। वाग्भटा. 4/I . 4. अइगाश्रिता अलंकारा। . . . . ! काव्यानुशासन 3. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 313 हुये लिखते हैं कि रसपरक होने पर अलइन्कार का यथासमय ग्रहण और यथासमय त्याग कर देने पर तथा अलङ्कार का अत्यन्त निर्वाह न करने पर या अंगत्व में निर्वाह किये जाने पर अलइ. कार रस के उपकारी होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र की मान्यतानुसार अलङ्कारों का सन्निवेश रस के उपकारक रूप में ही होना चाहिये, बाधक या तटस्थ रूप में नहीं । अलइन्कारों का सन्निवेश अंग में भी हो तो समय पर ही हो तभी वह रतोपकारी होता है, अन्यथा नहीं। ग्रहीत अलड़. कार को यथासमय छोड़ देने पर भी अलङ्कार रतोपकारी होता है, यथासमय न छोड़ने पर वह रतोपकारी नहीं होता। अलङ्कारों का अत्यन्त निर्वाह भी नहीं किया जाना चाहिये और यदि निर्वाह किया भी जाये तो अङ्गत्वेन ही किया जाना चाहिये । अङ्गत्व में अलङ्कार के निर्वाह न होने पर वह रसोपकारी नहीं होता है। 2 इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अलङ्कारों के सन्निवेश और उनके रतोपकारी प्रकारों का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। 1. "तत्परत्वे काले ग्रहत्या गयोर्ना ति निवहिप्यइगत्वे रसोपकारिणः । काव्यानु, 1/14 2. " तत्परत्वं रसोपकारकत्वेनालइ कारम्य निवेशो, न बाधकत्वेन, नापि ताटस्थ्येन । अङ्गत्वेऽपि कालेऽवसरे ग्रहणं । गृहीतस्याप्यवसरे त्यागो। नात्यन्तुं निर्वाहो । निर्वाऽिप्यङ् गत्वं । वही, वृत्ति व उदाहरण पृ. 35-41 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि शौर्यादि के सदृश आत्मा के आश्रित रहने वाले गुणों से विपरीत हारादि अलंकारों की तरह आहार्य ( ग्रहण करने और त्यागने योग्य) अनुपात और उपमादि को अलंकार मानते हैं।' इस प्रकार जैनाचार्य वाग्भट प्रथम, हेमचन्द्र व नरेन्द्रप्रभतरि ने अलंकार व उसके महत्त्व के संबंध में आचार्य आनन्दवर्धन व मम्म्टाचार्य का ही अनुसरण किया है। अलंकारों की संख्या : सर्वप्रथम भरतमुनि ने केवल 4 अलंकारों का उल्लेख किया। तत्पश्चात भामहाचार्य ने 38 अलंकारों का उल्लेख किया, दण्डी ने 37, वामन ने 31 और उदमट ने 41 अलंकारो का प्रतिपादन किया। रूट द्वारा प्रतिपादित अलंकारों की मुख्य संख्या 54 तथा मिश्रित संख्या 73 है। भोजराज ने 72, अग्निपुरापकार ने 16 तथा रूय्यक ने 82 अलंकार माने हैं। मम्म्टाचार्य ने 67 अलंकारों का प्रतिपादन किया है। जैनाचार्य वाग्भ्ट प्रथम ने 39, हेमचन्द्राचार्य ने 35, आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने 77, आचार्य वाग्भट दितीय ने 69 एवं भावदेवतरि ने 58 अलंकारों का प्रतिपादन किया है। 1. अयन्तोऽपि रसं सन्तं जात तेभ्यो विपर्ययम्। ये तु विभत्यलंकारास्तेऽनपासोपमादयः।। अलंकारमहोदधि, 6/20... Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 315 अलंकारों का वर्गीकरप : यत: अलंकार शब्दार्याश्रित होते हैं, अत: उन्हें प्रमुख रूप से शब्दालंकार और अर्थालंकार के भेद से द्विधा विभाजित करके प्रतिपादित किया गया है। सामान्यतया शब्दों पर आ प्रित रहने वाले अलंकारों को शब्दालंकार व अर्थो पर आश्रित रहने वाले अलंकारों को अर्थालंकार कहा जाता है। कतिपय आचार्यो मम्म्टादि ने शब्द और अर्थ पर समान रूप से आ प्रित रहने वाले अलंकारों को उभयालंकार कहा है। आचार्य मम्मट ने अलंकारों के विभाजन का मापदण्ड अन्वय - व्यतिरेक स्वीकार किया है। अलंकारों के विभाजन का मापदण्ड अन्वय - व्यतिरेक तो हेमचन्द्राचार्य ने भी स्वीकार किया है, 2 पर उन्होंने उभयालंकारों के वर्ग को स्वीकार नहीं किया है। शब्दालंकार : जहाँ शब्दगत चमत्कार पाया जाय वह शब्दालंकार है। शब्दालंकार में शब्द परिवर्तन संभव नहीं है क्योंकि शब्दों का परिवर्तन होने पर काव्यगत सौन्दर्य विनष्ट हो जाता है। अत: शब्दालंकार में शब्दों की विशेष महत्ता होती है। शब्दालंकारो की संख्या के विषय में आचार्यों में मतभेद रहा है। भरतमुनि ने मात्र यमक को शब्दालंकार कहा है।' भामहाचार्य ने अनुपात 1. काव्यप्रकाश, पृ. 423 - काव्यानुशासन, पृ. 401 . नाट्यशास्त्र, 17/62 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 व यमक - इन दो का उल्लेख किया है। दण्डी ने यमक और किालंकार को उपमा रूपका दि से पृथक शब्दालंकार स्वीकार किया है। सर्वप्रथम रूट ने स्पष्ट रूप से वक्रोक्ति, अनुपात, यमक, प्रलेष और चित्र को शब्दालंकार कहा है। आचार्य मम्मट ने शब्दालंकार के अन्तर्गत वक्रोक्ति, अनुपात, यमक, श्लेष, चित्र व पुनरूक्तवदाभास का प्रतिपादन किया है, परन्तु उनके म्त में प्रथम पांच ही मलत: शब्दालंकार हैं। अन्तिम पुनरूक्तवदाभास को वे उभयालंकार के रूप में मानते हैं। इसी लिये उन्होंने उत्ते शब्दालंकारों के अन्त मे तथा अर्थालंकारों के विवेचन से पूर्व रखा है। जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने चित्र, वक्रोक्ति, अनुपात और यमक इन + अलंकारों को शब्दालंकार कहा है। उन्होंने चित्र के एक स्वरचित्र आदि अनेक भेद प्रस्तुत किए हैं। वक्रोक्ति के केवल दो ही भेद किए हैंतभंगवलेषवको क्ति और अभंगश्लेषकको क्ति'। अनुप्रास के - कानपास व लाटानुपास ये दो भेद किए हैं तथा यमक के 24 मेदों का सोदाहरप 1. द्रष्टव्यः जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पृ. 206 2. वक्रोक्तिरनपासो यमकं श्लेषस्तथा परं चित्रम्। शब्दस्यालंकाराः श्लेषोऽर्थस्यापि सोऽन्यस्तु।। स्ट-काव्यालंकार, 2/13 3 काव्यप्रकाश - नवस उल्लास + वही, पृ. 439 5 चित्र वक्रोक्त्यनुपातो यमकं ध्वन्यलंकिया वाग्भटालंकार, 4/2.. & वही, 4/9 - 13 7. वही: 4/15-16 & वही, 4/17 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 317 विवेचन किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्टतः 6 शब्दालंकारों का प्रतिपादन किया है - अनुपास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति और पुनरूक्तवदाभासा वे उभयालंकार नहीं मानते हैं। पुनरूक्तवदाभास को उन्होंने शब्दगत अलंकार माना है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार 6 शब्दालंकारों का विवेचन इस प्रकार है 31 अनुपात : "व्यंजनात्यावृत्तिरनुपात:" अर्थात व्यंजन की आवृत्ति अनुपास है। व्यंजनों की यह आवृत्ति कई प्रकार की हो सकती है, जैसे - एक व्यंजन की अनेक बार, अनेक व्यंजनों की एक या अनेक बार। सभी प्रकार की आवृत्ति के पृथक् - पृथक उदाहरप दिए गये हैं। "तात्पर्यमात्रमेदिनो नाम्नः पदत्य वा लाटानाम।' अर्थात मात्र तात्पर्य के भेद से होने वाली नाम अथवा पद की आवृत्ति लाटानुपास है। आशय यह है कि शब्दार्थ के अभेद होने पर भी अन्वय मात्र से भिन्न नाम अथवा पद की एक अथवा अनेक की एक बार या अनेक बार आवृत्ति लाट सम्बन्धी अर्थात लाट देश के लोगों को पिय होने से लाटानुपास कहलाती है। - 1. वाग्भटालंकार - शब्दालंकारापां षण्पां तावदाह। षण्पामिति। अनुप्रासयमकचित्रश्लेषवकोक्तिपुनरूक्ताभासानाम्। काव्यानु, वृत्ति, टीम, पृ, 295 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 आचार्य मम्म्ट ने अनुप्रास का विवेचन करते हुए वर्षों की समानता या आवृत्ति को अनुपास कहा है। उन्होंने ठेकगत और वृत्तिगत भेद से उसे दो प्रकार का माना है। परन्तु आचार्य हेमचन्द्र इन दोनों को अलग - अलग न मानकर एक ही भेद मानते हैं, वे वृत्त्यनुपात को नहीं मानते। उनका लाटानुपास का प्रतिपादन लगभग मम्म्ट की तरह ही है, किन्तु उन्होंने मम्मट के लाटानुपात के (1) एक समास में, (2) भिन्न समातों में अथवा (3) समास और असमास में प्रातिपदिक पद (नाम)की आवृत्ति - इन भेदों को नहीं माना है, तथापि एक नाम की आवृत्ति एक बार तथा अनेक बार और अनेक नाम की आवृत्ति एक बार तथा अनेक बार के पृथक् - पृथक उदाहरप दिए हैं तथा पद की आवृत्ति के भी एक बार, अनेक बार, अनेक पदों की आवृत्ति एक बार तथा अनेक बार के उदाहरण दिये हैं। 12 यमक : “सत्य न्यार्थानां वपीना अतिक्रमक्ये यमकम्।। अर्थात अर्थ के होने पर भिन्न अर्यवाले वर्षों की कमशः श्रुति (प्रवप ) यमक है। यमक का स्वरूप प्रायः आ. मम्मट के समान है। यमक के भेद - प्रभेदों के सन्दर्भ में मम्मट तथा हेमचन्द्र में पर्याप्त भिन्नता है। मम्मट ने यमक के ।। पादन मेदों का उल्लेख किया है। जबकि आ. हेमचन्द्र ने यमक को 1. वर्षसाम्यमनपातः। ठेकवृत्तिगतो द्विधा। काव्यप्रकाश 9/103-104 2. अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्षगां सा पुनः श्रुतिः। यमकम। वही, १/416 3. वही, वृत्ति, पृ. 10 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 319 पादा और भागज भेद है. द्विधा विभक्त कर' पादज के 15 मेदों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार मम्म्ट ने पाद को दो भागो मे तिक्त करने पर 20, तीन भागों में विभक्त करने पर 30 और चार भागों मे विभक्त करने पर 40 भेदों का उल्लेख किया है 3 परन्तु आवार्य हेमचन्द्र ने कमश: 28, 42 और 56 भेद बतलाए हैं। 4 3. चित्र : आ. हेमचन्द्र ने चित्रालंकार का जो स्वरूप पस्तुत किया है उसते उनकी चित्रालंकार भेदविषयक मान्यता भी स्पष्ट होती है। उन्होंने लिखा है कि "स्वरव्यंजनस्थानगत्याकारनियमच्युतगटादि चित्रम् अर्थात स्वर, व्यंजन, स्थान, गति, आकार, नियम, च्युत और गूढ चित्र है। इसमें भोज के लक्षण का प्रभाव स्पष्ट है। इस सन्दर्भ मे आ. मम्मट ने लिखा है कि जहाँ जिस बन्ध में वर्षों की रचना खड्ग आदि की आकृति का हेतु हो जाती है, वह चित्र अलंकार कहलाता है। 1. तत्पादे भागे वा। ___ काव्यानु. 5/3 2. तद यमकं पादे तस्य च भागे भवति। तत्र पाजं पंचदशधा। वही, . पु. 300 - काव्यप्रकाश, वृत्ति. पृ. 4।। + तथा भागजस्य द्विधा विभक्ते पादे प्रथम पादा दिभाग: पर्वव द्वितीया दिपादादिभागेष। अन्तभागोऽन्तभागेष्वित्यष्टाविंशतिभेदाः। श्लोकान्तरे हि न भागावृत्ति: संभवति। त्रिधा विभक्ते द्वाचत्वारिंधात्। चतुर्धा विभक्ते षट्पंचाशत। काव्यानु वृत्ति, पृ. 302, 304 5. तुलनीय - सरस्वती कण्ठामरप 2/1 6 तच्चित्रं यत्र वनां रुझायाकृतिहेतुता। काव्यप्रकाश, १/120 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 आचार्य हेमचन्द ने स्वरचित्र के "हस्व-एक-स्वर" का उदाहरप “जयमदनग्जदमन" इत्यादि वृत्ति में देकर दीर्घ एक स्वर, द्वित्वर, त्रिस्वर आदि स्वरनियमों के उदाहरप मी विवेक टीका में दिये हैं तथा व्यंजन नियम का एक उदाहरण “ननोननुन्नो नुन्नोनो" इत्यादि देकर टीका में अनेक उदाहरप दिये हैं और स्थान-नियम के भी अनेक उदाहरण टीका में दिये हैं। गतप्रत्यागत आ दि गतिचित्र को भी अनेक प्रभेदों में विभक्त किया है, जैसे - पदगत प्रत्यागत के अतिरिक्त, अर्धगतपत्यागत, श्लोकगतप्रत्यागत, सर्वतोभद्र, अर्धभम, तुरंगपदागत, गोमत्रिका-पादगोमत्रिका, अर्धगोमत्रिका, श्लोकगोमत्रिका आदि।' इन सभी के उदाहरप भी विवेक टीका में दिये गये हैं तथा कहा गया है कि आदिपद से गज-पद, रथ-पद आदि को समझना चाहिए। खड्ग मुरजबन आदि आकृति को आकार के अन्तर्गत प्रतिपादित किया गया है तथा उदाहरप भी दिए गए हैं। इसी प्रकार मुसल, धनुष, बाप, चक, पद्म आदि आकार के उदाहरप टीका मे दिए गए हैं। च्युत को + प्रकार का बतलाया गया है -- मात्राच्युत, अर्द्धमात्रच्युत, बिन्दुच्युत और वर्पच्युत।' आचार्य हेमचन्द्र ने इनके उदाहरण वृत्ति मे ही प्रस्तुत किये हैं। गढचित्र को भी किया गट, कारकगढ़, सम्बन्धगट और पाद्गूट मेद से चार प्रकार का बतलाकर ' सोदाहरप प्रतिपादन किया है। I. काव्यानुशासन, टीका, पृ. 310-313 2. आदिगृहपादराजपदरथपदादी नि ज्ञातव्यानि। दही, पृ. 313 3 च्युतं मात्रार्धम्मात्रा बिन्दुवर्षगतत्वेन तुर्धा। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 321 १५.५ इलेष : “अर्थभेदभिन्नानां शब्दानां भइ. गाभइ. गाभ्यां यगपदाक्ति : श्लेष:" अर्थात अर्थभेद वाले भिन्न - भिन्न शब्दों की मंग से अथवा अभंग ते युगपद् उति को पलेष कहते हैं। आ. हेमचन्द्र का श्लेष अलंकार का यह स्वरूप आ. मम्मट के लक्षप' की अपेधा संक्षिप्त और सरल है। आ. हेमचन्द्र ने इलेष के 8 मेद बतलाए है - वर्ष, पद, लिंग, भाषा, प्रकृति, प्रत्यय, विभक्ति और वचन श्लेष। मम्म्ट ने प्रकृति, प्रत्यय आदि का भेद न होने से 8 प्रकार के सभंगश्लेषों से भिन्न अभंगश्लेष रूप नवम् भेद भी माना है, जबकि आ. हेमचन्द्र ने आठों भेदों को भंग से और अभंग ते द्विधा विभक्त कर दिया है। आ. हेमचन्द्र द्वारा किया गया माषाश्लेष के 57 मेदों का कथन अन्य आचार्यों की तुलना में सर्वाधिक है। यह भेद बहुत महत्वपूर्ण हैं। संस्कृत-प्राकृत भाषाश्लेष का उदाहरप वृत्ति में देकर संस्कृत-मागधी, संस्कृत-पैशाची, संस्कृत-भारतेनी, संस्कृत-अपभ्रंश के श्लेषगत उदाहरण विवेक टीका में दिये हैं। 358 वक्रोक्ति : आ. हेमचन्द्र ने लिखा है - "उक्तस्यान्येनान्यधाउलेषाक्तिर्वक्रोक्ति:- अर्धाद वक्ता के द्वारा कही हुई बात को लेष के 1. वाच्यभेदेने भिन्ना यद युगपभाषणस्पृशाः। पिलष्यन्ति शब्दाः श्लेषो सावक्षरादिभिरष्टधा।। काव्यप्रकाश 9/118 2. स द वर्षपदलिंगभाषाप्रकृतिपत्यविभक्तिवचनरुपापा शब्दाना भंगादर्भगाच्च देधा भवति। काव्यानु. वृत्ति, पृ. 324 3 काव्यप्रकाश, वृत्ति, पृ. 416 तथा वही, 9/119 यदक्तमन्यथावाक्यमन्यथाऽन्येन योज्यते। श्लेषेप काक्वा वाया मा कोक्तिस्तथा द्विधा।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 द्वारा जब प्रोता दूतरे ही ढंग से लेता है तो दह वक्रोक्ति कहलाती है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र का वको क्ति का स्वरूप मम्मट । की ही भांति है, किन्तु अपेक्षाकृत सरल है। वक्रोक्ति के प्रसंग में उन्होंने काक-वक्रोक्ति को अलंकार नहीं माना है, अपितु उसे मात्र पाठधर्म कहा है। इसके समर्थन में उन्होंने राजशेखर की पंक्ति "अभिप्रायवान् पाठधः काकुः स कथमलंकारीस्यादिति यायावरीयः" उधृत कर स्वमत की पुष्टि की है। अत: मम्मट से इस विषय में हेमचन्द्र की विचारधारा भिन्न है। काकु को उन्होंने केवल गुपीमतव्यंग्य का भेद माना है और ध्वनिकार की कारिका भी उधृत की है। आ. हेमचन्द्र ने काकु को साकांक्षा और निराकांक्षा भेद से दो प्रकार का प्रतिपादित किया है और उसके विषय को 3 प्रकार का कहा है - अर्थान्तर, तदर्थगत एवं विशेष और तदर्थाभाव। 368 पुनरूक्ताभास : आ. हेमचन्द्र पुनरूक्ताभास को मात्र शब्दालंकार ही मानते हैं। उनके अनुसार "भिन्नाकृते: शब्दत्यैकार्थतव पुनरुक्ताभासः अर्थात भिन्न आकृति वाले शब्द की एकार्थता ही पुनरूक्ताभाप्त है। आगे वे लिखो हैं कि भिन्न रूप से सार्थक और कहीं-कहीं दोनों या एक के 1. यदुक्तमन्यथावाक्यमन्यथाऽन्येन योज्यते। श्लेषण का क्वा वा ज्ञेया सा वको क्तिस्तथा दिधा।। वही, 9/102 2. गुपीभूतव्यंग्यप्रभेद एवं चायम। शब्दस्पुष्टत्वेनार्थान्तरप्रती तिहेतुत्वात्। यदाह ध्वनिकारः - अर्थान्तरगतिः काक्वा या चैषा परिदृश्यते। सा व्यंग्यस्य गुणीभावे प्रकारमिममा प्रिता।। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 333 3 सा च काकुर्द्विविधा - साकांक्षा निराकांक्षा च । वाक्यस्य साकांक्ष निराकासत्वात । विषयोऽपि विविधः-अर्थान्तरं तदर्थगत एव विशेषः तंदर्याभावो मा। -नहीं.प्र.336 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 323 अनर्थक शब्दो में आपाततः समानार्थकता की प्रतीति जहां होती है वह पनरूक्ताभास है। पुनरूक्तवद् आभास होने से पुनरूक्ताभास कहते हैं। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने अनुपात, यमक, चित्र, पलेष, वको क्ति और पुनरूक्तवदाभास - इन : शब्दालंकारों को स्वीकार किया है। इन्होंने सर्वप्रथम अनुपात के चार भेद - श्रुति, ठेक, वृत्ति एवं लाट किए हैं।' तत्पश्चात - श्रुति के पुद, संकीर्प और नागर - ये तीन भेद किए हैं। 2 ठेकानुप्रास कमशाली, विपर्यस्त, वेपिका एवं गर्भित चार प्रकार का बताया है। इनके अनुसार समान वर्गों के अक्षरों की आवृत्ति वृत्त्यनुपात है, यह कवित्व का प्रापभूत है तथा यह बारह प्रकार का होता है - कांटी, कौन्तली, काँगी, कौंकपी, वानवातिका, त्रावपी, माधुरी, 1. अलंका रमहोदधि 7/2 2. वही, 7/4 कमशाली विपर्यस्तो वेणिका गर्भितस्तथा। क्रमशाली कमोपेतः, विपर्यस्तः कमात्ययी।। आवाक्यान्तगतानकेवावृत्तिस्तु वेणिका। गर्भितस्त्वपरो वर्पस्तोमो यत्रान्यगर्भितः।। वही, 7/14 यदि वा यत्र वापां वयरावर्तनं निजैः। वत्यनपासमिच्छन्ति तं कवित्वैकजीवितम।। वहीं, 1/14 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 मात्सी, मागधी, तामलिप्तिका, उंड्री और पौण्ड्री।' वृत्यनुपात के ये बारह भेद भोजसम्मत हैं। आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने इसी प्रकार स्वभावतः, उपचारवशात वीप्सा से आभीक्ष्ण्य से, कषादि धातुओं से मुल प्रत्यय करने पर उसी धातु के उपपद रहने ते और सम्भम से जो पदों की आवृत्ति होती है, उन्हें लाटानुपात के भेद कहा है। भोज ने इन्हें नामद्विरूक्ति अनुप्राप्त कहा है। इन्होंने संभंगश्लेष के वर्प - पदादि आठ भेदों की तरह अभंगश्लेष के भी आठ भेदों की संभावना की है। साथ ही प्रलेष को अर्थगत भी स्वीकार किया है। इन्होंने पुनरूक्तवदाभास को शब्दालंकार भी कहा है और शब्दार्थालंकार भी।' आ. वाग्मट द्वितीय ने चित्र, प्रलेष, अनुपात, वक्रोक्ति, यमक और पुनरूक्तवदाभास - इन छ: अलंकारो को शब्दालंकार स्वीकार 2. ला 1. वही, पृ. 212 - 213 द्रष्टव्य, सरस्वतीकण्ठाभरप, 1/79-80 3. अलंकारमहोदधि, 7/17-18 4. द्रष्टव्य, सरस्वतीकण्ठाभरण, 2/99 5. अभंगश्लेषोऽप्यष्टधैव यथासंभव हयः। अलंकारमहोदधि, पृ. 222 6. शब्दानामामुखे यस्मिन्नेकार्थत्वावभासनमा पुनरूक्तवदाभासं शब्द - शब्दार्थगामितत्।। वही, 7/24 . ... Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 325 किया है। आ.भावदेवतरि ने भी इन्हीं छ: शब्दालंकारों को स्वीकार किया संक्षेप में, जैनाचार्यों द्वारा किये गये उक्त शब्दालंकार विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि आचार्य वाग्भट प्रथम ने केवल चित्र, वक्रोक्ति, अनुपात और यमक - इन चार अलंकारों को शब्दालंकार माना है। हेमचन्द्राचार्य, आ. नरेन्द्रप्रभसरि, वाग्भट द्वितीय और भावदेवसरि ने - प्रलेष तथा पुनरूक्तवदाभास - इन दो अन्य अलंकारों को उपरोक्त चार अलंकारों में समाविष्ट कर : शब्दालंकारों को स्वीकार किया है। आ. वाग्भट प्रथम ने पुनरूक्तवदामास का उल्लेख ही नहीं किया है तथा प्रलेष को अर्थालंकार माना है। आ. हेमचन्द्र, नरेन्द्रप्रमतरि, वाग्भट द्वितीय व भावदेवसरि ने श्लेष को शब्दालंकार व अर्थालंकार दोनों स्वीकार किया है। अर्थालंकार : अर्थालंकार वह है जहां अर्थगत चमत्कार पाया जाता है। अर्थालंकार में शब्द परिवर्तन होने पर भी अर्थ के कारप चमत्कार विद्यमान रहता है। अतः इसमें अर्थ की प्रधानता रहती है। विभिन्न आचार्यों की अलंकार सम्बन्धी धारपा में एकरूपता नहीं है। आचार्य मम्मट ने 61 प्रकार के अर्थालंकारों का विवेचन किया है -1) उपमा, (2) अनन्वय, (3) उपमेयोपमा, (4) उत्प्रेक्षा 1. चित्रश्लेषानपासवक्रोक्तियुक्तियमकपुनरूक्तवदाभासाः षट् शब्दालंकाराः। ___ कायानु., वाग्भट, पृ. 46 2. स्याद वक्रोक्तिरनुप्रासो यमकं श्लेष इत्यपि । 'निं पुनरूक्तवदाभास भब्देष्वलंकृतिः।। काव्यालकारसार,5/। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 ( 5 ) ससन्देह, (6) रूपक, ( 7 ) अपह्नुत्ति, (8) पलेष (9) समातोक्ति , (10) निदर्शना, (11) अपस्तुत प्रशंसा, (12) अतिशयोक्ति, (13) प्रतिवस्तूपमा, (14) दृष्टान्त, (15) दीपक, (16) तुल्ययोगिता, (17) व्यतिरेक (18) आक्षेप, (19) विभावना, (20) विशेषोक्ति, (21) यथासंख्य, (22) अर्थान्तरन्यास, (23) विरोधाभास, (24) स्वभावो क्ति, (25) व्याजस्तुति, (26) सहोक्ति, (27) विनो क्ति, (28) परिवृत्ति, (29) भाविक, (30) काव्य लिइ.ग, (31) पर्यायोक्ति, (32) उदात्त, (33) समुच्चय, (34) पर्याय, (35) अनुमान, (36) परिकर, (37) व्याजो क्ति, (38) परिसंख्या, (39) 'कारपमाला, (40) अन्योन्य, (41) उत्तर, (42) सूक्ष्म, (43) सार, (५५) असंगति, (45) समाधि, (46) सम, (47) विषम, (48) अधिक, (५१) प्रत्यनीक, (50) मी लित, (51) एकावली, (52) स्मृति, (53) भान्तिमान (54) प्रतीप, (55) सामान्य, (56) विशेष, (57) सद्गुप, (58) अतद्गुप, (59) व्याघात, (60) संसृष्टि और (61) संइ. कर।' जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने पैतीस अर्थालंकार स्वीकार किए हैंजाति, उपमा, रूपक, प्रतिवस्तूपमा, प्रान्तिमान, आक्षेप, संशय, दृष्टान्तु, व्यतिरेक, अपहनुति, तुल्ययोगिता, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, तमासोक्ति, 1. आ. विश्वेश्वरः काव्यप्रकाश, पृ. 441 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 विभावना, दीपक, अतिशय, हेतु, पर्यायो क्ति, समा हित, परिवृत्ति, यथासंख्य, विषम, तहोक्ति, विरोध, अवसर, सार, इलेश, समुच्चय, अप्रस्तुतप्रर्शता, एकावली, अनुमान, परिसंख्या, प्रश्नोत्तर और संकर।' इनमें जाति अलंकार स्वभावोक्ति का पर्यायवाची है। आ. वाग्भट प्रथम ने उपमा के - उपमेयोपमा, अनन्वयोपमा, अनेकोपमेयमलोपमा और अनेकोपमानमलोपमा - इन भेदों का उल्लेख किया है। इनमे अनेकोपमेयमलो पमा के अतिरिक्त शेष उपमेयोपमा, अनन्वयोपमा और अनेकोपमानमलोपमा क्रमशः आ. मम्मटादि - सम्मत उपमेयोपमा, अनन्वय व मालोपमा अलंकार आ. वाग्भट प्रथम ने किसी एक आचार्य को आधार नहीं माना है, अपितु जिस आचार्य का जो लक्षप उन्हें सम्पन प्रतीत हुआ है, उसे उन्होंने अपने शब्दों में उल्लिखित किया है। उनका सहोक्ति लक्षप' रूम्यक के सहोक्ति के एक उपभेद "कार्यकारपप्रतिनियमविपर्ययरूपा सहोक्ति' पर आधत है। इसी प्रकार वाग्भट प्रथम के दीपकालंकार पर भरत व - - - - - - - - - - - I. वाग्भटालंकार, 4/2-6 2. वही, 4/54-57 3. सहोक्तिः सा भवेद् यत्र कार्यकारपयोः सह। समुत्पत्तिकथा हेतोर्वक्तुं तज्जन्मशक्तताम।। वाग्भटालंकार, 4/19 ५. दृष्टय , अलंकारसर्वस्व , पृ.298 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 भामह, पत्ततपर्शता, प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्त पर भामह, अन्तिरन्यास,तुल्ययोगिता, हेतु और समाहित पर दण्डी, समुच्चय और अवसर पर रूट, जाति और व्यतिरेक पर रूप्यक, रूपक, उत्प्रेक्षा, पर्यायो क्ति, अतिशोक्ति, आक्षेप, विरोध, विषम, परिसंख्या, संकर व एकावली पर मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है। वाग्भट प्रथम, जहाँ अनेक अलंकारों का सम्मेलन हो, उसे संकरालंकार मानते हैं।। आचार्य हेमचन्द्र ने मात्र 29 अर्थालंकारों का प्रतिपादन किया हैं -(1) उपमा, (2) उत्प्रेक्षा, (3) रूपक, ( 4 ) निदर्शन, (5) दीपक, (6) अन्योक्ति, (7) पर्यायोक्त, (8) अतिशयोक्ति, (७) आक्षेप, (10) विरोध, (11) सहोक्ति, (12) समासोक्ति, (13) जाति, (14) व्याजस्तुति, (15) श्लेष, (16) व्यतिरेक, (17) अर्थान्तरन्यास, (18) सन्देह, (19) अपह्नुति, (20) परिवृत्ति, (21) अनुमान, (22) स्मृति, (23) भान्ति , (24) विषम, (25) सम, (26) समुच्चय, (27) परिसंख्या, (28) कारपमाला और (29) संकर। इनका विवरप इस प्रकार है - । उपमा - "यं साधर्म्यमुपमा उपमा के इस लक्षण में आचार्य हेमचन्द्र ने "यं ' कहकर अलंकार के सौन्दर्य पर्व पर विशेष बल दिया है। 1. वाग्भटालंकार, 4/144. 2 काव्यानुशासन, टीका, पृ. 339 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताधर्म्य पद का प्रयोग मम्मट ने भी किया है।' आ• हेमचन्द्र के अनुसार साधर्म्य आहलादजनक होगा तभी वह उपमा अलंकार होगा, अन्यथा नहीं। उनकी मान्यता है कि अलंकार रसोपकारक हो तभी वह काव्य मैं उपादेय है, अन्यथा नहीं। इसलिये उपमा को साधर्म्य ह होना ही चाहिये। " सहृदय ह्दयाह्लादका रि" कहकर उन्होंने हृद्यं का अर्थ स्पष्ट किया है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र के अनुसार सह्रदय के हृदय को आह्लादित करने वाले उपमान और उपमेय के साय का कथन उपमा अलंकार है । मम्मट ने उपमा के लक्षण में "भेदे" पद का प्रयोग किया है जो अनन्वय अलंकार को स्वतन्त्र रूप से मानने में सहायक होता है, परन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने अपने उपमालक्षण में भेदे पद का समावेश नहीं किया है, क्योंकि वे मालोपमा, रशनोपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय और उत्पाद्योपमा को उपमा से पृथक नहीं मानते। 2 अधिकांश आचार्य उपमा को ही अर्थालंकारों का मूल मानते हैं और प्रायः सभी ने सर्वप्रथम उपमालंकार का ही निरूपण किया है, इसलिये सर्वप्रथम उपमा का प्रतिपादन करना उचित एवं परम्परागत है। आचार्य हेमचन्द्र ने उपमा का सोदाहरण विस्तृत विवेचन तीन सूत्र और उनकी वृत्ति में किया है। उन्होंने अन्य सभी अलंकारों का प्रतिपादन क्रमश: एक - एक सूत्र में किया है। 1. साधर्म्यमुपमा दे 329 काव्यप्रकाश 10/124 2. मालोपमादयस्तूपमाया नातिरिच्यन्त इति न पृथग लक्षित: । काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 346 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 828 उत्प्रेक्षा "असद्मसंभावनमिवादिद्योत्योत्प्रेक्षा" अर्थात् असदर्भ की सम्भावना इवादि के द्वारा पोतित होने पर उत्प्रेक्षा कहलाती है। मम्मट' और हेमचन्द्र का उत्प्रेक्षा अलंकार का स्वरूप मूलत: समान ही है। उत्प्रेक्षा के द्योतक इव, मन्ये, शके ध्रुवं प्रायः, नूनम् इत्यादि शब्द हैं। 838 * सादृश्ये भेदेनारोपो रूपकमेकानेक विषयम्" अर्थात् सादृश्य के होने पर भेद द्वारा आरोपित एकविषयक और अनेकविषयक रूपक अलंकार होता है । मम्मट के अनुसार उपमान और उपमेय का अभेद वर्णन रूपक है। 2 अतः दोनों आचार्यों के लक्षणों मे अन्तर है। रूपक 330 - 3. 848 निदर्शन "इष्टार्थसिद्धये दृष्टान्तो निदर्शनम् " अर्थात् इष्टार्थ की सिद्धि के लिये जो दृष्टान्त का निर्देश किया जाता है वह निदर्शनालंकार है। इसमें मम्मट सम्मत दृष्टान्त अर्थान्तरन्यास और निदर्शन के लक्षणों का एकदेश समावेश किया गया है। आ. हेमचन्द्र ने निदर्शन और अर्थान्तरन्यास का अन्तर स्पष्ट करते हुये लिखा है कि जहाँ सामान्य अथवा विशेष का विशेष के द्वारा समर्थन किया जाता है वहाँ निदर्शना अलंकार होता है और जहाँ विशेष का सामान्य के द्वारा समर्थन किया जाता है वहीँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। 3 आ. मम्मट उक्त दोनों 1 1. सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । काव्यप्रकाश 10/136 2. तदूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः । वही, 10/138 यत्र सामान्यस्य विशेषस्य वा विशेषेण समर्थनं तन्निदर्शनम् । यत्र तु विशेषस्य सामान्येन समर्थनं सोऽर्थान्तरन्यासः । काव्यासह टीका, पृ. 353 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 331 स्थितियों मे अर्थान्तरन्यात ही मानते हैं।। 358 दीपक - "प्रकृताप्रकृतानां धर्मैक्यं दीपकम्” अर्थात प्रकृत और अपकृत (उपमेय-उपमान) के धर्मों का एक्य दीपकालंकार है। यह मम्म्ट के दीपकालंकार के लक्षप पर ही आधारित प्रतीत होता है। 2 आ. हेमचन्द्र ने कारकदीपक को लक्षित नहीं किया है, क्योंकि "स्विति कुपति वेल्लति विचल ति" इत्यादि में जाति का ही चमत्कार होता है कारक दीपक का नहीं। 868 अन्योक्ति : “सामान्येविशेष कार्ये कारपे प्रस्तुते तदन्यत्य तुल्ये तुल्यस्यचोक्तिरन्योक्ति:' अर्थात सामान्य, विशेष, कार्य और कारप के प्रस्तुत होने पर तथा तुल्य के प्रस्तुत होने पर दूसरे तुल्य का कथन करना अन्योक्ति है। यह मम्मट के अप्रस्तुतपर्शता के बहुत समीप है।' जिसे मम्मट ने अप्रस्तुतप्रशंसा कहा है वस्तुत: वही आ. हेमचन्द्र के मत में अन्योक्ति है। - - 1. सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समथ्यत। यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधयेपेतरेप वा।। काव्यप्रकाश, 10/164 2. वहीं, 10/155 3. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 353 + तुलनीय-काव्यप्रकाश 10/150, 151 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 171 पर्यायोक्त - "व्यंग्यत्यो क्तिः पर्यायोक्तम्” अर्थात् व्यंग्य का पर्याय से कथन करना पर्यायोक्त है। यह लक्षप भी मम्मट से मिलताजुलता है।' 388 अतिशयोक्ति - “विशेषविवक्ष्या भेदाभेदयोगायोगव्यत्ययो - ऽतिशयोक्ति : अर्थात् विशेष विवक्षा से भेद, अभेद, योग और अयोग का विपरीत वर्पन अतिशयोक्ति है। वे इसके चार भेदों को मानते हैं - भेद में अभेद, अभेद में भेद, सम्बन्ध में असम्बन्ध और सम्बन्ध में सम्बन्ध। ११ आक्षेप - "विवक्षितस्य निषेध इवोपमानस्याक्षेपश्चाक्षेपः" अर्थात जो बात कहना चाहते हैं उसका निषेध और इव-उपमान का आक्षेप या तिरस्कार कर देना आक्षेप कहलाता है। इसीप्रकार मम्मट मी आक्षेप को दो प्रकार का मानते हैं- वक्ष्यमाण का निषेध और उक्त विषय का निषेध (इवोपमान का आक्षेप)2 8108 विरोध - "अर्थानां विरोधाभासो विरोधः" अर्थात् अर्थों के विरोध का आभास विरोध अलंकार है। मम्म्ट और हेमचन्द्र के प्रतिपादन में कोई अन्तर नहीं है। हेमचन्द्र ने भी मम्मट के समान जाति, गुण, क्रिया और द्रव्यरूप पदार्थों का सजातीय अथवा विजातीय के साथ 1. तुलनीय – काव्यप्रकाश 10/174 2. वही, 10/166 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 स्तविक विरोध न होने पर भी पारस्परिक विरोध का आभास मात्र होना विरोध अलंकार माना है। मम्मट ने इसप्रकार इसके 10 भेद सम्भव बतलाये हैं।। ।। सहोक्ति - “सहार्थबलादमत्यान्वयः सहोक्ति:" अर्थात सह अर्थ के सामर्थ्य ते धर्म का अन्वय सहोक्ति है। आशय यह है कि जहाँ सह शब्द के अर्थ की सामर्थ्य से एक पद दो का वाचक हो वह सहोक्ति 8128 समासोक्ति - "पिलष्टविशेषरूपमानधीः समासोक्तिः" अर्थात शिलष्ट विशेषपों के द्वारा उपमान का कथन समास अर्थात संक्षप से प्रकृत और अप्रकृत दोनों का म्यन होने से समाप्तोक्ति कहलाता है। मम्मट और हेमचन्द्र दोनो आचार्यों का समातो क्ति का स्वरूप समान है।2 8138 जाति - "स्वभावाख्यानं जाति:' अर्थात स्वभाव का कथन करना जाति है। यह स्वभावोक्ति का ही पुराना नाम है। मम्म्ट ने इसे स्वभावोक्ति ही कहा है। मम्मट के स्वभावो क्ति और आचार्य हेमचन्द्र के जाति अलंकार में समानता है। हैं 14 व्याजस्तुति - "स्तुतिनिन्दयोरन्यपरता व्याजस्तुति:' अर्थात स्तुति और निन्दा की अन्यपरता व्याजस्तुति है। स्तुति का 1. वही, 10/166 2 तुलनीय - परोक्तिर्भेदकैः श्लिष्टै: समासोक्तिः। वही, 10/147 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 निन्दा में और निन्दा का स्तुति में पर्यवसान क्रमशः व्याजरूपास्तुति और व्याज से स्तुति दोनों अर्थ ते व्याजस्तुति कहलाता है। इसके विवेचन में मम्मट से पूर्व साम्य है। 8158 पलेष - "वाक्यस्यानेकार्थता श्लेषः' अर्थात् वाक्य की अनेकार्थता श्लेष है। आशय यह है कि पदों की एकार्थता होने पर भी जहां वाक्य की अनेकार्थता हो वह प्लेष नामक अर्थालंकार कहलाता है। 1168 व्यतिरेक - "उत्कर्षापकर्षहत्वोः साम्यस्य चोक्तावनुक्तो चोपमेयत्याधिक्यं व्यतिरेक : अर्थात उपमेय का उपमान से अधिक वर्पन करना व्यतिरेक है। आचार्य हेमचन्द्र ने मम्मट का ही अनुकरप करते हुए इसके भेद-प्रभेदी पर विचार किया है। 1178 अर्थान्तरन्यास - "विशेषस्य सामान्येन साधर्म्यवैधाभ्यां समर्थनमर्थान्तरन्यासः' अर्थात जहाँ विशेष का सामान्य के द्वारा साधर्म्य अथवा वैधर्म्य पूर्वक समर्थन किया जाता है वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। यह मम्मट का एकदेश अनुकरप है। मम्मट सामान्य का विशेष से और विशेष का सामान्य से दोनों का समर्थन साधर्म्य और वैधर्म्य पूर्वक मानते हैं। 1. तुलनीय - काव्यप्रकाश 10/168 2. सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समयत। यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधम्र्येक्तरेष वा ।। वही, 10/164 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8198 अपहनुति “प्रकृताप्रकृताभ्यां प्रकृतापलापोऽपह्नुति : " अर्थात् जहाँ प्रस्तुत से प्रस्तुत का अथवा अप्रस्तुत से प्रस्तुत का अपलाप किया जाय वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है । मम्मट ने प्रस्तुत का निषेध करके अप्रस्तुत की सिद्धि को अपनति कहा है। तथा प्रकट हुये वस्तु के स्वरूप को छलपूर्वक छिपाने के वर्णन को व्याजोक्ति | 2 परन्तु आ. हेमचन्द्र ने अपहनुति के उपर्युक्त लक्षण में मम्मट सम्मत अपह्नुति और व्याजोक्तिइन दोनों के स्वरूपों को स्थान दिया है। वे व्याजोक्ति को पृथक् अलंकार मानने के पक्ष में नहीं हैं। 335 परिवृत्ति $200 * पर्यायविनिमयौ परिवृत्तिः " अर्थात पर्याय का विनिमय परिवृत्ति है। आशय यह है कि एक पद का अनेक जगह अनेक का एकत्र क्रमशः वृत्ति है। सम के द्वारा सम का उत्कृष्ट रूप से निकृष्ट का निकृष्ट के द्वारा उत्कृष्ट रूप से व्यतिहार विनिमय है। अतः पदार्थों का समान या असमान (उत्तम अथवा हीन पदार्थों ) के साथ जो परिवर्तन का वर्पन है वह परिवृत्ति है। - $218 अनुमान " हेतोः साध्यावगमोऽनुमानम्" अर्थात् कारण से कार्य का ज्ञान करना अनुमान है। अन्यथानुपपत्ति के एकमात्र लक्षण हेतु से साध्य कार्य या जिज्ञासित अर्थ की प्रतीति का जहाँ वर्णन किया जाय वहाँ अनुमान है। 1. काव्यप्रकाश, 10/145 2. वही, 10/183 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 337 इसप्रकार आ. हेमचन्द्र ने 29 प्रकार के अर्थालंकारों का सोदाहरण प्रतिपादन किया है। अलंकार विवेचन में भी पूर्ववर्ती आचार्यो का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है। आ. हेमचन्द्र ने किसी आचार्य विशेष को पूर्ण मान्यता नहीं दी है, अपितु जिस आचार्य की जो उक्ति उचित समझी है उसे तर्क की कसौटी पर कतकर स्वीकार किया है। अलंकार विवेचन के सन्दर्भ में उनकी कसौटी यह है कि कुछ अलंकारों का अन्तर्भाव हो जाता है, कुछ अलंकार दोषाभाव रूप हैं और कुछ अलंकार कहलाने योग्य ही नहीं हैं। इसी कसौटी पर उनका अलंकार विवेचन आधारित है। आ. मम्मट सम्मत अधिकांश अलंकारों को आ. हेमचन्द्र ने छोड़ दिया है, उनपर कोई विचार ही नहीं किया है। छोटे अथवा कम महत्व के अलंकारों को महत्वपूर्ण अलंकारों में समाविष्ट कर लिया है। रस तथा भाव से संबंधित रसवत्, प्रेयस, उत्वित और समाहित अलंकारों को मम्मट की भांति छोड़ दिया है। उन्होंने स्वभावोक्ति के लिए जाति तथा अप्रस्तुतप्रशंसा के लिये अन्योक्ति शब्द का प्रयोग किया है। विवेक टीका में उन्होंने सरस्वतीकण्ठाभरपकार भोज एवं अन्य अलंकारिकों द्वारा निर्दिष्ट सभी अलंकारो की चर्चा की है और कुछ अलंकारों को स्वीकृत अलंकारों में समाविष्ट कर लिया है या कुठ को अलंकार ही नहीं माना है।' हेमचन्द्र की अपेक्षा मम्मट ने जिन अलंकारो को अधिक कहा है वे निम्नलिखित हैं - 1. काव्यानुशासन, टीका, पृ. 405 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 अनन्वय, उपमेयोपमा, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, तुल्ययोगिता, विभावना, विशेषोक्ति, यथासंख्य, विनोक्ति, भाविक, काव्यलिंग, उदात्त, पर्याय, परिकर, व्याजोक्ति, अन्योन्य, उत्तर, सूक्ष्म, सार, असङ्गति, समाधि, अधिक, प्रत्यनीक, मीलित, एकावली, प्रतीप, सामान्य, विशेष, तद्गुण, अतद्गुण, व्याघात और संकृष्टि आदि। आ. हेमचन्द्र की मान्यता है कि पुनरुक्ताभास और अर्थान्तरन्यास शब्दार्थोभयगत हैं, तथापि कम्पाः शब्द वैचित्र्य एवं अर्थ वैचित्र्य को उत्कट देखकर प्रथम को शब्दालंकारों मे तथा द्वितीय को अर्थालंकारों में कहा है। परिकर, अपुष्टार्थत्व दोषाभाव रूप और यथासंख्य भग्नप्रक्रमता दोषाभाव रूप है। विनोक्ति तो चमत्कारशून्य है, अतः वह अलंकार रूप में मान्य नहीं है । भाविक अलंकार तो भूत एवं भावी पदार्थों का प्रत्यक्ष करना है जो विष्कम्भक एवं प्रवेशकों के द्वारा प्रदर्शन कराया जा सकने के कारण अभिनेय होने से नाटकादि में उपयोगी है। उदात्त यदि समृद्धिशाली वस्तु लक्षणरूप अवस्था में है तब वह अतिशयोक्ति या स्वभावोक्ति से भिन्न नहीं है। आशी : तो प्रियोक्ति मात्र है, यदि स्नेहातिशय से ऐसी इच्छा ही आशी : है तब चित्तवृत्ति रूप वह प्रधान होने पर भावध्वनि है, गुणीभूत होने पर गुणीभूतव्यंग्य है। प्रत्यनीक, प्रतीप आदि मानोत्प्रेक्षा के प्रकार ही हैं। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _339 अत: यह सब अलंकार मान्य नहीं है।' इसप्रकार आ. हेमचन्द्र ने जिन अलंकारों का विवेचन किया है उनमे प्रायः पूर्वाचार्यो की मान्यताओं को भी प्रमुखरूप ते स्थान दिया है तथा जिन अलंकारों को स्वीकार नहीं किया है उनका युक्तिपूर्वक खण्डन किया है। 1. "यद्यपि पुनरूक्तवदाभासार्थान्तरन्यासादयः केचिदुभयान्वयव्यतिरेका नुविधा यिनोऽपि दृश्यन्ते तथापि तत्र शब्दत्यार्यस्य वा वैचित्र्यमुत्कटमित्युभयालंकारत्वमनपेक्ष्यैव पाब्दालंकारत्वेनार्थालंकारत्वेन चोक्ताः । इह चापुष्टार्थत्वलक्षणदोषाभावमात्र साभिप्रायविशेषपोक्तिरूपः परिकरो भग्नपक्रमतादोषाभावमात्रं यथासंख्यं दोषा भिधानेनैव गतार्थम् । विनोक्तिस्तु तथा विधयत्वविरहात । भाविकं तु भतभा विपदार्थप्रत्यक्षीकारात्मकमभिनयप्रबन्ध एव भवति । यधपि मुक्तकादावपि दृश्यते तथा पि न तत स्वदते । उदात्तं तु ऋद्धिम्दस्तुलक्षपं अतिशयोक्तेजीतेर्वा न भिद्यते । महापुरुषवर्षनारूपं च यदि रसपरं सदा ध्वनविषयः । अथ तथा विधवर्षनीयवस्तुपारं तदा गुपीभतव्यंग्यत्येति नालंकारः । रसवत्प्रेयसीजस्विभावसमाहितानि गुपीमतव्यंग्यप्रकारा एव । आशीस्तु पियो क्तिमात्र, भावज्ञापनेन गुपीभतव्यंग्यस्य वा विषयः । प्रत्यनीकं च प्रतीयमानोत्प्रेक्षाप्रकार एवेति नालंकारान्तरतया वाच्यम्। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 401-405 2. काव्यानुशासन, टीका, पृ. 402 - 405 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 आचार्य नरेन्द्रसमसरि ने 71 अर्थालंकारों का विवेचन किया है - अतिशयोक्ति, सहोक्ति, उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मरप, संशय, भान्तिमान, उल्लेख, रूपक, अपनुति, परिणाम, उत्पेषा, तुल्ययोगिता, दीपक, निदर्शना, प्रतिवस्तुपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विनोक्ति, परिकर, समासोक्ति, अप्रस्तुतपर्शता, पर्यायोक्त, आप, व्याजस्तुति, श्लेष, विरोध, असंगति, विशेषोक्ति, विभावना, विषम, सम, अधिक, विचित्र, पर्याय, विकल्प, व्याघात, अन्योन्य, विशेष, कारपमाला, सार, एकावली, मालादीपक, काव्यलिंग, अनुमान, यथातथ्य, परिवृत्ति, परिसंख्या, अर्थापत्ति, समुच्चय, समाथि प्रत्यनीक, प्रतीप, मी लित, सामान्य, तद्गुप, अतद्गप, उत्तर, सूक्ष्म, व्याजोक्ति, स्वभावोक्ति, उदान्त, रसवद, पेय, उर्जास्ति, समाहित, संसृष्टि व संकर'। इस प्रकार नरेन्द्रप्रभतरि ने किसी नवीन अलंकार की उन्नावना नहीं की है तथा मम्मट सम्मत अलंकारों के अतिरिक्त स्यूयका दि - सम्मत अलंकारों को भी स्वीकार किया है रसवदादि अलंकारों को इन्होंने सिद्धान्त रूप में स्वीकार नहीं किया है क्योंकि कुछ विद्वानों ने प्रतिपादन किया है अतः उन्होंने भी उल्लेख कर दिया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आ. नरेन्द्रप्रभसूरि ने आ. वाग्मट प्रथम द्वारा उल्लिखित हेतु, अवसर और प्रश्नोत्तर नामक तीन अलंकारों को स्वीकार नहीं किया है। 1. आलंकारमहोदधि अष्टम तरंग 2 अलंकारमहोदधि 8/85-86 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 341 प्रायः सभी आचार्यों ने अर्थालंकारों के वन - प्रसंग में, उपमा को अर्थालंकारों का मूल स्वीकार करते हुए सर्वप्रथम उती पर विचार किया है पर आ. नरेन्द्रप्रमतरि ने सर्वप्रथम अतिशयोक्ति का विवेचन किया है तथा उते ही समस्त अलंकारों का प्रापभत कहा है।' जैनाचार्य वाग्भट - द्वितीय ने 63 अर्थालंकारों का विवेचन किया है - जाति, उपमा, उत्प्रेधा, रूपक, दीपक, सहोक्ति, आषेप, विरोध, अर्थान्तरन्यास, घ्याजस्तुति, व्यतिरेक, ससन्देह, अपझुति, परिवृत्ति, अनुमान, स्मृति, भान्ति, विषम, सम, समुच्चय, अन्य, अपर, परिसंख्या, कारपमाला, निदर्शन, एकावली, यथासंख्य, परिकर, उदात्त, समाहित, विभावना, अन्योन्य, मी लित, विशेष, पूर्व, हेतु, सार, हम, लेश, प्रतीप, पिहित, व्याघात, असंगति, अहेतु, श्लेष, मत, उत्तर, उमयन्यास, भाव, पर्याय, व्यापोक्ति, अधिक, प्रत्यनीक, अनन्वय, तद्गप, अतटूगुप, संकर और आशीः। इन अलंकारों की गफ्ना करने के पश्चात अन्त में आ. वाग्भट द्वितीय 'प्रतय : पद का प्रयोग करते हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त कुछ अन्य अलंकार भी मान्य थे, पर उन्होंने उनका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। आ. मम्मट द्वारा कथित - उपमेयोपमा, प्रतिवस्तुपमा - - - 1. सर्वालंकारचतन्यमतत्वात प्रथममतिश्योक्ति विशेषतो लक्ष्यति। अलंकारमहोदधि, पृ. 227 2. काव्यानु - वाग्भट, पृ. 32 3 आभीः प्रायोऽलिकारा। वही, पृ. 32 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 दृष्टान्त, तुल्ययोगिता, विशेषोक्ति, विनोक्ति, भाविक, काव्यलिंग, समाधि, सामान्य और संतृष्टि - इन ग्यारह अलंकारों का आ. वाग्भ्ट द्वितीय ने कोई उल्लेख नहीं किया है तथा अन्यो क्ति, अन्य, अपर, समाहित, पर्व, हेत, लेश, पिहित, अहेतु, मत, उभयन्यास, भाव और आशी: - इन 13 अन्य अलंकारों का उल्लेख किया है।' 1. इन अलंकारो के लथप कमा: इस प्रकार है - उपमेयस्यैवोक्तावन्यप्रतीतिरन्योक्ति : काव्यान, वाग्भट, पृ. 35 अनेकेषामेका निबन्धस्त्वन्यः। वही, पृ. पा गुपक्रियायां युगपदभिधानपरः। वही, पृ. । कार्यमारभमापत्य देवापायसंपत्ति: समी हितस। वही, पृ. 42 अर्वाचीनत्यार्थस्य पृथगभिधान पूर्वस। वही, पृ. 43 कार्यकारपयोरमेदो हेतुः। वही, पृ. 43 कार्यतो गुणदोषविपर्ययो लेशा वही, पृ. 43 एक्वाधारे यत्रायव्यत्यकेन पिधीयते तत्पिहितमा वही, पृ. 43 विकारहेतावप्यविकृतिरहेतुः। वही, पृ. ५ प्रकृतमक्षिप्य वक्ता यदन्यथा मन्यते तन्मतम्। वही, पृ. सामान्य सामान्येन यत्समध्यंत स उभयन्यासः। वही, पृ. यत्र प्रतीयमानोऽर्थो वाच्योपयोगी स भावः। वही, पृ. ५ इष्टार्थस्याशासनमाशी । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 आ. वाग्भट दितीय ने जो उपमा अलंकार का लक्षप दिया है उसमें उन्नाट का प्रभाव दृष्टिगत होता है।' अर्थान्तरन्यास का लक्षप देते हए उन्होंने सामान्य से विशेष के समर्थन को अर्थान्तरन्यास कहा है - उनका यह लक्षप हेमचन्द्राचार्य का अनुकरप करता है। इसी प्रकार व्याजस्तति, परिवृत्ति, अनुमान, भान्ति, विषम, सम, परितख्या, कारपमाला, इलेष और संकरादि अलंकारों के लक्षपों पर भी आ, हेमचन्द्र का प्रभाव है।' भावदेवसरि ने 52 अर्थालंकारों का उल्लेख किया है - उपमा, उत्पेक्षा, रूपक, जाति, व्यतिरेक, दीपक, आक्षेप, अप्रस्तुतपशेसा, विभावना, अर्थान्तरन्यास, व्याजस्तुति, समाधि, परिवृत्ति, तुल्ययोगिता, श्लेष, वक्रोक्ति, व्याजोक्ति, विनोक्ति, सहोक्ति, पर्यायोक्ति, हेतु, विरोध, असंगति, दृष्टान्त, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, अत्युक्ति, भान्ति, स्मृति, सन्देह, अपहुति, विषम, देवक, उत्तर, उदात्त, सार, अन्योन्य, समुच्चय कारपमाला, आयि, यथाप्तख्य, तद्गुप, एकावली, रसवत, पेय, परिसंख्या I. चमत्कारि साम्पमुपमा । - काव्यानु, वाग्म्ट, पृ. 33 तुलनीय - काव्यालंकारसारसंगह, उमट, 1/15, पृ. 280 2. विश्वस्य सामान्येन समर्थनमर्थान्तरन्यासः। सापर्येप वैधयेप च। - काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 38 3 दटव्य - काव्यानुशासन - वाग्म्ट, पृ. 39-45 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 सक्ष्म, उल्लेख, विशेष, प्रतीप, संसृष्टि और भाविका' वक्रोक्ति का उल्लेख आ. भावदेवतरि ने शब्दालंकारों में भी किया है और अर्थालंकारों में भी। इनका अलंकार - विवेचन अत्यंत संधिप्त है अत: उसके विष्ष्य में कछ विशेष कथनीय नहीं है। अस्तु जैनाचार्यों ने अपने अलंकार - विवेचन में किती एक आचार्य को आदर्श न मानकर, जिस आचार्य के कथन को सम्यक समझा है उन्हें स्वीकार किया है। साथ ही अलंकारों की संख्या के विषय मे इनमें आपस में साम्य नहीं है। तथापि समगत: जैनाचार्यों दारा वर्पित अलंकार स्वरूप व भेदों के मल में आचार्य भामट, दण्डी, रूपयक, भोज व मम्म्ट आदि का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रारंभ में अलंकारों का वर्गीकरण शब्दालंकार व अर्थालंकार तक ही सीमित था। तत्पश्चात उभ्यालंकार नामक तृतीय वर्ग माना गया तथा संतुष्टि व संकर - इन दो अलंकारों के मिश्रप को लेकर चतुर्थ मिश्रालंकार की भी कल्पना की गई। कालांतर में अर्थालंकारों के वर्गीकरप के सम्बन्ध में सर्वप्रथम आ. रूट ने एक नवीन दृष्टि से विचार किया, जिसमें अलंकारों के स्वरूप को ध्यान में रखकर उसके मल में विद्यमान सामय, विरोथ, श्रृंखला आदि को आधार - - 1. काव्यालंकारसार - 6/1-5 - द्रष्टव्य, वही, 5/1, 6/2 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानकर अलंकारों के वैज्ञानिक वर्गीकरण का प्रयास किया था। उन्होंने वास्तव, औपम्य, अतिशय व श्लेष, इन चार मूलतत्त्वों को अलंकारविभाजन का आधार बनाया था। " सहोक्ति, समुच्चय, जाति, यथासंख्य, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, दीपक, परिकर, परिवृत्ति, परिसंख्या, हेतु, कारणमाला, व्यतिरेक, अन्योन्य, उत्तर, सार, सूक्ष्य, लेश, अवसर, मीलित और एकावली | 2 वास्तवमलक वर्ग स्मरण | औपम्यमूलक वर्ग उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अपहनुति, संशय, समासोक्ति, मत, उत्तर, अन्योक्ति, प्रतीप, अर्थान्तरन्यास, उभयन्यास, भान्तिमान, आक्षेप, प्रत्यनीक, दृष्टान्त, पूर्व, सहोक्ति, समुच्चय, साम्य और अतिशयमूलक वर्ग 3 - पूर्व, विशेष, उत्प्रेक्षा, विभावना, अतद्गुण, अधिक, 4 विरोध, विषम्, असंगति, विहित, व्याघात और अहेतु ।' 2. 1. अर्थस्यालंकारा वास्तवमौपम्यमतिशयः श्लेषः एषामेव विशेषा अन्ये तु भवन्ति, निःशेषाः ।। काव्यालंकार - रूट, 7/9 40 WID 345 वही, 7/11-12 3. वही, 8/2-3 वही, 9/2 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 लेषालक वर्ग - अविशेष, विरोध, अधिक, वक, व्याज, उचित, असम्भव, अवयव, तत्व और विरोधाभासा' आ. स्ययक ने अर्थालंकारों को प्रमुखतः 5 वर्गों में विभाजित किया है -(1) साट्नयमूलक, (2) विरोधमलक, ( 3) अखलामूलक, (4) विशिष्टवाक्यसन्निवेशमलक, (5) लोकन्यायमूलक और (6) गटार्यप्रतीतिमलका अनाचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने अर्थालंकारों को छ: वर्गों में विभाजित किया है -(1) अतिशयोक्तिमलक, ( 2) विरोधमलक, (3) श्रृंखलामलक, (4) लोकन्यायमलक और (5) रसवदादि। अतिशयोक्तिमूलक - अतिशयोक्ति, सहोक्ति, उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मरप, संशय, भान्तिमान, उल्लेख, रूपक, अपहनुति, परिपाम, उत्प्रेधा, तुल्ययोगिता, दीपक, निर्भाना, प्रतिवस्तुपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विनोक्ति, परिकर, समातोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, पर्यायोक्त, आक्षेप, व्याजस्तुति व श्लेषा 1. वही, 10/2 2. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पृ. 227 3 द्रष्टव्य, अलंकारमहोदय, Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 128 विरोधमलक - विरोध, असंगति, विशेषोक्ति, विगावना, विषम, सम, अधिक, विचित्र, पर्याय, विकल्प, व्याघात, अन्योन्य व विशेषा 33 श्रृंखलामलक - कारपमाला, तार, एकावली, मालादीपक, काव्यर्लिंग व अनुमान। 14 विशिष्टवाक्यसन्निशमलक - यथासंख्या, परिवृत्ति, परिसंख्या, अर्थापत्ति, समुच्चय व समाधि। 358 लोकन्यायमूलक - प्रत्यनीक, प्रतीप, मी लित, सामान्य, तद्गुप, उत्तर, सूक्ष्म, व्याजोक्ति, स्वभापोक्ति, भाविक और उदात्त। रसवदादि - रसवत्, प्रेयस, उर्जन्वी, समाहित, संतृष्टि व संकर। आ. नरेन्द्रप्रमतरि अतिश्योक्ति वर्ग में आए हुए प्रारंभिक 28 अलंकारों को कोई नाम नहीं दिया है पर उन्हें अतिशयोक्तिमूलक माना है।' अपने समर्थन में उन्होंने भामह के काव्यालंकार ते एक कारिका उद्धृत की है। शेष वर्गों का विभाजन उन्होंने नामोल्लेखपूर्वक व्यिा है। 1. तामेता समिप्यतिशयोक्ति वदन्ति विदांतो बवते। अलंकारमहोदधि, पृ. 231 2. सैषा सर्वाऽपि वक्रोक्तिरनयाsों विभाव्यते। यत्नोऽत्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया बिना।। वही, पृ. 231 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 आ. नरेन्द्रप्रभरि का अलंकार वर्गीकरण स्पृयक ते प्रभावित है।' अन्तर मात्र ये है कि स्पयक ने जिन अलंकारों के मल में सादृश्य को स्वीकार किया है, वहीं नरेन्द्रयसरि ने उनके मूल में अतिशयोक्ति को माना है। यक ने रसवदादि अलंकारों को अवर्गीकृत रक्खा है, किंतु नरेन्द्रप्रमसरि ने उन्हें रसवदादि की संज्ञा से अभिहित किया है। 2 शेष विवेचन में प्रायः साम्य है। 3 1. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पू. 232 2. वही, पृ. 232 3. वही, पृ. 232 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय : नाट्य का समावेश नाटक संस्कृत साहित्य का एक गौरवपूर्ण अंग है। काव्य श्रवणमार्ग ते हृदय को आकृष्ट करता है । परन्तु नाटक नेत्रमार्ग ते हृदय को चमत्कृत करता है। काव्य में रसानुभूति हेतु अर्थ का सम्झना नितान्त आवश्यक होता है पर नाटक में इसकी आवश्यकता नहीं रहती । इसलिये नाटक की समता चित्र से की गई है। जिस प्रकार चित्र भिन्न-भिन्न रंगों के सम्मिश्रण ते सहृदय दर्शकों के चित्र में रस का स्रोत बहाता है, ठीक उसी प्रकार नाटक भी वेशभूषा, नेपथ्य, साजसज्जादि उचित संविधानों से दर्शकों के हृदय पर एक अमिट प्रभाव डालता है तथा उनके हृदय में आनन्द का उदय कराता है। इसीलिये आलंकारिक वामन ने काव्यों में रूपक को विशेष महत्व प्रदान किया है। नाट्य की उत्पत्ति 349 वैदिक काल से ही नाट्यकला के उद्भव का ज्ञान होने लगता है। विश्वसाहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋगवेद में, यत्र-तत्र नाट्यसंबंधी प्रचुर सामुग्री विकीर्प है। उषा के वर्पन पर्संग में उसकी उपमा एक नर्तकी से की गई है। पुरूरवा-उर्वशी, यम-यमी, इन्द्र-इन्द्राणी - वृषाकपि, सरमा-पणि आदि 1. काव्यालंकारसारसूत्र 1 / 330-31 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 अग्वेदोक्त संवादों में नाट्यकला की यथेष्ट सामग्री विद्यमान है। मैक्समलर, लेबी और ओल्डेनबर्ग प्रमृति विद्वानों ने वेदों में प्रयुक्त इस प्रकार के संवादात्मक सूक्तों को आधार मानकर भारतीय नाट्यकला की उत्पत्ति वैदिक युग से ही स्दि की है। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद में नाट्यसंबंधी विचारों का विस्तार से वर्पन मिलता है। यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता के एक प्रसंग से अवगत होता है कि यज्ञ के अवसरों पर नृत्य-गीतादि के लिए सूत और शैलष लोगों की नियुक्ति की जाती थी, जो कि नृत्य एवं संगीत द्वारा नाट्या भिनय करते थे। परवर्ती साहित्य, अष्टाध्यायी, रामायप, अर्थशास्त्र, बौद्धजातक और महाकाव्यों में हमे नाट्यकला के विभिन्न अंगो, उसके पात्रों व पारिभाषिक शब्दों का पूर्ण विवरप प्राप्त होता है। निर्माता के आचार्य भरत जो नाट्य-शास्त्र के रूप में स्मरप किये जाते हैं, उनके अनुसार - ब्रह्मा ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के आधार पर ही पंचम वेद - नाट्यवेद - की रचना की।' इस पंचम वेद में चार अंग पाये जाते हैं -- पाल्य, गीत, अभिनय तथा रस। इन चारों तत्वों को बह्मा ने क्रमशः ऋक्, साम, यजुष तथा अथर्ववेद से गृहीत किया।2 -- ।. नाट्यवेदं तत्वचके चतुर्वेदाइ-गसम्मतम् नाट्यशास्त्र, 1/16 2. जगाह पाठयमग्वेदात सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान रसमायर्वपादपि।। नाट्यशास्त्र ।/17 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 351 इस प्रकार नाट्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे यह मत भारतीय परंपरा है। दसरा मत उन सभी देशी व विदेशी आधुनिक विद्वानों का है, जिन्होंने लोकनत्यादि में उसका उत्स खोजा है। पाश्चात्य विद्वान मेक्डोनल नाच से ही नाटक की उत्पत्ति मानते हैं।' इसी प्रकार प्रो० पिशेल पुत्तलिका-नृत्य से भारतीय नाटकों की उत्पत्ति मानते हैं। 2 जैनाचार्यो ने नाट्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया भरतमुनि के उत्तरकाल में नाट्यशास्त्र के आधार पर मुख्यतः तीन नाट्यशास्त्रीय गन्थों की रचना हुई - (1) धनंजय द्वारा रचित दशरूपक, (2) तागरनन्दीकृत नाटकलक्षणरत्नकोश, (3) रामचन्द्रगुणचन्द्रकृत नाट्यदर्पप। नाट्यशास्त्र पर स्वतंत्र ग्रन्थ - लेखन की अविच्छिन्न परम्परा चलने पर भी भामह - दण्डी आदि आचार्यों द्वारा प्रपीत अलंकारशास्त्रों में नाट्यविषयक सिद्धान्तों का समावेश दृष्टिगत नही होता है, किन्तु संभवत: जैनाचार्य हेमचन्द्र ने सर्वप्रथम अलंकारशास्त्र के साथ नाट्य - तत्वों का भी समावेश किया है और आगे चलकर इसी परम्परा में विद्यानाथ (14वीं शताब्दी का प्रथम चरप) के "प्रतापरूद्रयशोभूषण', विश्वनाथ (14वीं शताब्दी) के "साहित्यदर्पप" व कामराज दीक्षित (ई. सन् 1700 के लगभग) के “काव्येन्दुप्रकाश आदि गन्य आते हैं। I. ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिट्रेचर - ए. मेक्डोनल, पृ. 346 2. संस्कृत ड्रामा - कीथ, पृ. 52 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 जैसा कि पूर्वोल्लिखित है कि चार वेदों में से संवाद, गीत, अभिनय तथा रस के गहण द्वारा नाट्य की रचना हुई। अतः इन विषयों तथा इनते। निक्ट का सम्बन्ध रखने वाले अन्य विषय नाट्य के अन्तर्गत आते हैं। यहां उन्ही का विवेचन अभीष्ट है। जहाँ तक रस का प्रश्न है तो उसका स्वतंत्र रूप से विवेचन प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के तृतीय अध्याय में किया जा चुका है। पात्र-विधान - नाटक की आत्मा नाट्य - रस है। उसे प्राप व गति प्रदान करने वाले नाटकीय पात्र, अर्थात नायक-नायिका दि ही होते हैं, जिनके द्वारा नाट्य-रस आस्वाघ होता है। नाटकीय पात्र के शील-स्वभाव, आहारव्यवहार तथा अवस्था एवं प्रकृति की विभिन्नता व विविधता की पृष्ठभूमि में ही नाटकीय कथा पल्लवित होती है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, सरस्वतीकण्ठाभरप व नाट्यदर्पपादि ग्रन्थों में प्रकृति के आधार पर पात्रों का वर्ग किया गया है। प्रकृति का अर्थ है प्रकृतिजन्यसहजातस्वभाव। जैनाचार्य हेमचन्द्र ने पुरुषों व स्त्रियों की उत्तम, मध्यम और अधमइन तीन प्रकृतियों की चर्चा करते हुए केवल गुपमयी प्रकृति को उत्तम, स्वल्पदोष व बहुगुपवाली प्रकृति को मध्यम तथा दोषयुक्त प्रकृति को अधम कहा है। इनमें से अधम प्रकृति में परिगपित किये जाने वाले नायक, नायिका Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 353 के अनुचर-विट, बेटी, विभक आदि को बतलाया है।' आचार्य रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार नाटकीय पात्र स्त्री हो या पुरुष, दोनों की उत्तम मध्यम तथा अधम तीन प्रकार की प्रकृति होती है। तथा अपने अपने गुपों के तारतम्य से उनमें से प्रत्येक के फिर तीन-तीन भेद हो सकते है।2 उत्तम प्रकृति का पात्र शरपागतों के रक्षप में साधु, अनुकल, त्यागी, लोकव्यवहार तथा शास्त्रों में निपुप, गंभीरता, धीरता, पराक्रम व न्याय विचार से युक्त होता है। जो न तो अधिक उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न होता है न ही अधिक निकृष्ट गुणों से सम्पन्न होता है तथा लोक-व्यवहार में चतुर कला, विद्वत्ता आदि गुपों से युक्त होता है, वह मध्यम प्रकृति का पात्र होता है। अधम या नीच प्रकृति का पात्र अत्यन्त पाप करने वाला, चुगलखोर, आलसी, कृतघ्न, झगड़ाल, पराक्रम विहीन, स्त्री - निरत व रूक्ष बोलने वाला होता है। 1. तत्र तावदुत्तममध्यमाधमभेदन पुंसां स्त्रीपां च तिसः प्रकृतयो भवन्ति। तत्र केवलगुपमपयुत्तमा। स्वल्पदोषा बहुगपा मध्यमा। दोषवत्यधमा। तत्राधमप्रकृतयो नायकयोरनुचरा विटचेटी विदूषकादयो भवन्ति। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 406 2. उत्तमा मध्यमा नीचा प्रकृति स्त्रियो स्त्रिधा। एकैकापि त्रिधा स्व-स्वगुपानां तारतम्यतः।। हि. नाट्यदर्पप, 4/3 3. वही, पृ. 370 + वही, पृ. 370 5 वही, पृ. 370 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 स्त्री-पात्र भी शील स्वभाव के कारण उत्तमा, मध्यमा व अधमा भेद ते तीन प्रकार की होती हैं।' नायक स्वरूप : विभिन्न आचार्यों ने विविध प्रकार से नायक का स्वरूप निरूपित किया है। दशरूपककार धनंजय के अनुसार विनीत आदि गुपों से युक्त नेता (नायक) होता है। जैनाचार्य वाग्भट-प्रथम ने नायक को रूपवान, धनवान, कुलीन, अन्द्रत, सत्य और प्रियभाषी तथा सद्गुणों से युक्त व यौवनसम्पन्न बताते हैं। हेमचन्द्राचार्य ने उत्तम व मध्यम प्रकृति वाले नायक का स्वरूप "समग्रगुपः कथाव्यापी नायक: प्रस्तुत किया है जिसका तात्पर्य यह है कि दशरूपककार द्वारा कथित विनीतादि गुणों व शोभादि 8 सात्विक गुणों से युक्त और सम्पूर्ण कथा प्रबन्ध में व्याप्त रहने वाला नायक कहलाता है। इस प्रकार आ. हेमचन्द्र धनंजयकृत स्वरूप के अतिरिक्त नायक को समग कथाव्यापी भी मानते हैं। 1. हि. नाट्यदर्पप, पृ. 371 2. नेता विनीतो मधुरत्यागी क्षः प्रियंवदः। रक्तलोक : शचिवाग्मी स्टवंशः स्थिरो युवा।। बुदयुत्साहत्मृतिपज्ञाकलामानसमन्वितः। भूरोि दृढपच तेजस्वी शास्त्रचक्षुच धार्मिकः।। क्षारूपक 2/1-2 3 काव्यानु, /1 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 आचार्य रामचन्द्रगुपचन्द्रकृत नायक-स्वरूप कुछ विशिष्ट है। उनके अनसार नायक प्रधान पल को प्राप्त करने वाला, स्त्री आदि के प्रति आसक्ति अथवा प्राण - हानि आदि रूप विपत्ति से रहित होता है।' आचार्य वाग्भट द्वितीय के अनुसार बुदि, उत्साह, स्मृति, प्रज्ञा, शारदीरता, गम्भीरता, धैर्य, स्थिरता, माधुर्य, कला, कुशलता, विनयशीलता, कुलीनता, नीरोगिता, शुचिता, अभिमा निता, नायिका - सम्मतता, मिष्टभा भित्व, लोकानुरंजकता, वाग्मिता, उच्चकुलोत्पन्नता, तेजस्विता, दता, तत्वशास्त्रज्ञता, अगाम्यता, श्रृंगारिता और सुगमता आदि नायक के गुप हैं। नायक के सात्विक गुप : नायक के अन्तर्गत आठ प्रकार के तात्विक गों की स्थिति होना आवश्यक है। जैनाचार्य हेमचन्द्र के अनुसार शोभा, विलास, ललित, माधुर्य, स्थैर्य, गाम्भीर्य, औदार्य और तेज - ये आठ सात्विक गुण हैं। ये सत्व गुपों से युक्त होने के कारप सात्विक गुप कहलाते हैं। आ. हेमचन्द्र के अनुसार इनका स्वरूप निम्न प्रकार है - ३।४ शोभा : “दाक्ष्यशौर्योत्साहनीजुगुप्तोत्तमस्पर्धागमिका शोभा" अर्थात 1. प्रधानफ्लसम्पन्नो व्यसनी मुख्यनायक : हिन्दी नाट्यदर्पप 4/7 2. काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 62 3. शोभा विलासललितमाधुर्यस्थैर्यगाम्भीयौदार्यतजा स्पष्टौ सत्वजास्तद्गपाः।। ... काव्यानुशासन, 1/2 th काव्यानुशासन, 7/2 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 दक्षता, शौर्य, उत्साह, नीच - जुगुप्सा और उत्तम स्पर्धा का ज्ञान कराने वाला सात्त्विक गुप शोभा है। आशय यह है कि शरीर विकार ते जो दक्षता आदि प्राप्त होती है वह शोभा है। 828 विलास : "धीरे गतिदृष्टिसस्मित वचो विलासः।। अर्थात धीरगति, धीरदृष्टि और मुस्कराते हुए बोलना विलास गुप है। 38 ललित : "मृद्धः शृइ.गारचेष्टा ललितम्” अर्थात कोमल शृङ्गारिक चेष्टायें ललित गुप है। 148 माधुर्य : "क्षोमेऽप्यनुल्वपत्वं माधुर्यम्' अर्थात् युद्ध नियुद्ध व्यायामादि मे क्रोध अाने पर या क्रोध का महान कारप उपस्थित होने पर भी मधुर आकृति होना माधुर्य गुप है। 35६ स्थैर्य : विघ्नेऽप्यचलनं स्थैर्यम् ।। अर्थात विघ्न उपस्थित होने पर भी विचलित न होना स्थैर्य गुप है। 168 गाम्भीर्य : "हादिविकारानुपलम्भकृत गांभीर्यम' ।। अर्थात हर्षादि विकारों का ज्ञान न होना गाम्भीर्य गुप है। आशय यह है कि जिसके प्रभाव से बाहरी हर्ष क्रोधादि के विकार का दृष्टि-विकास, मुवरागादि पर कोई असर नहीं पड़ता है वह देह का स्वभाव ही गाम्भीर्य गुप कहलाता है। 178 औदार्य : "स्वपरेष दानाभ्युपपत्तिसंभाषपान्यौदार्यम् ।। अर्थात अपने और दूसरे में भेदभाव न कर दान, अनुगह और, प्रियभाषप आदि करना औदार्य गुप है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 357 तेज : “पराधिपक्षेपाचसहनं तेज :"।। अर्थात दूसरे के द्वारा शत्रु द्वारा किए गए अपमान आदि का सहन न करना तेज गप है। ___ आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र ने भी उपर्युक्त आठ सात्विक गुपों का ही उल्लेख किया है। उपर्युक्त आठ सात्विक गुणों का ही विवेचन भरतमुनि 2 तथा धनंजय' ने भी किया है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सात्विक गुपों का विवेचन भी परंपरागत ही है। दारूपककार ने नायक के भेदों की चर्चा के बाद सात्विक गपों पर विचार किया है और आचार्य हेमचन्द्र ने गुपों एवं सात्विक गुपों की चर्चा करने के बाद नायक के भेदों का प्रतिपादन किया है। नायक के भेद : जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने नायक के चार भेद माने हैं - अनुकूल, दक्षिप, शठ व कृष्ट। उनके अनुसार जिसका प्रेम नीलवर्ष के समान गाद हो तथा जो अन्य स्त्री मे रत न हो व अनुकल नायक कहलाता है। और अन्य 1. तेजो विलासो मार्य शोभा स्थैर्य गंभीरता। ____औदार्य ललितं चाष्टौ गुणा नेतरि सत्वनाः।। हि. नाट्यदर्पप 4/8 2. नाट्यशास्त्र, 24/31-39 3 दशरूपक 2/10 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री मे अनुरक्त तो हो, किन्तु अपनी स्त्री पर भी स्नेह रखता हो वह दक्षिण नायक कहलाता है। जो बहिर्भूत क्रोधादि विकारों से रहित हो तथा अपनी पत्नी का अप्रिय करता हुआ भी प्रिय बोलता हो, वह नायक शठ कहलाता है। और जिसका अपराध प्रकट हो चुका हो तथा अपमानित होने पर भी जो लज्जित न हो, वह धृष्ट नायक कहलाता है। । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्रमुखतया नायक चार प्रकार के होते हैं-धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशान्त और धीरोद्धत | 2 818 धीरोदात्त : विनययुक्त (गूढगर्व), स्थिर, धीर, क्षमावान्, आत्मप्रशंसारहित, शक्तिशाली और दृदप्रतिज्ञ धीरोदात्त नायक कहलाता है। 3 जैसेराम आदि। {2} 358 धीरललित : ललित कलाओं में असक्त, सुखी, श्रृंगारिक चेष्टाओं वाला, कोमल हृदय वाला और निश्चिन्त रहने वाला धीरललित नायक कहलाता है। 4 जैसे वत्सराज आदि। - 838 कहलाता है। 5 जैसे माधव और चारूदत्त । धीरशान्त : विनय और शान्त स्वभाव वाला धीरशान्त नायक 1. वाग्भटालंकार, 5/8-10 2. धीरोदात्तल लितशान्तोदुतभेदात् स चतुर्धा । 4. काव्यानुशासन, 7/11 3. गूढगर्व: स्थिरो धीरः क्षमावानविकत्थनों महासत्वो दृढव्रतो धीरोदात्तः वही. 7/12 कलासक्त : सुखी इगारी मुदुर्निश्चिन्तो धीरलालत : वहीं. 7/13 5 विनयोपशमवान श्रीरखानाः Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 848 धीरोद्धृत: शूरवीर, ईर्ष्यालु, मायावी अर्थात् मन्त्रादि के बल ते अविद्यमान वस्तु का प्रकाशन करने वाला, छलकपट करने वाला, रौद्र और शौर्यादि मद ते युक्त धीरोद्धत नायक कहलाता है। जैसे - परशुराम, रावणादि । इन चार प्रकार के नायकों की पुष्टि हेतु आचार्य हेमचन्द्र ने भरतमुनि की निम्न दो कारिकायें प्रस्तुत की हैं - "देवा धीरोद्धता ज्ञेयाः स्युर्धीरललिता नृपाः । सेनापतिरमात्यश्च धीरोदात्तौ प्रकीर्तितौ ।। धीरप्रशान्ता विज्ञेया ब्राह्मणा वणिजस्तथा । इति चत्वार एवेह नायकाः समुदाहता: ।। 2 359 इसके बाद उपर्युक्त चारों प्रकार के नायक की श्रृंगारिक अवस्थाओं के आधार पर दक्षिण, धृष्ट, अनुकूल और ठ ये चार चार भेद बतलाये गये हैं - - 828 हो गया हो वह धृष्ट नायक कहलाता है। 818 दक्षिण : "ज्येष्ठायामपि सहदयो दक्षिणः" अर्थात कनिष्ठा नायिका मैं अनुरक्त रहते हुये ज्येष्ठण के प्रति भी सह्दयी दक्षिण नायक कहलाता है। धृष्ट : "व्यक्तापराधो धृष्टः " अर्थात् जिसका अपराध स्पष्ट -- 838 अनुकूल : " एकभार्योऽनुकूल:" अर्थात् एक नायिका में अनुरक्त अनुकूल नायक होता है। 1. "शूरो मत्सरी मायी विकत्थनाछद्मवान रौद्रोऽवलिप्तो धीरोदतः । काव्यानु, 7/15 2. वही, वृत्ति, पृ. 411 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ 360 360 १. शठ : “गदापराधः ठः अर्थात गूढ (भारी) अपराध करने वाला नायक शठ है। ___ उपर्युक्त नायक मेदों के लक्षण दशरूपककार से लगभग मिलते-जुलते हैं।' आ. हेमचन्द्र ने नायक के भेदों का निरूपप जो दिया है वह परम्परागत ही है। वे सर्वप्रथम नायक को चार प्रकार का बतलाकर प्रत्येक के चार-चार मेदों को यथावत स्वीकार करते है। इस प्रकार उन्हें नायक के 16 मेद मान्य है।2 दशरूपककार ने इन 16 मेदों के ज्येष्ठ, मध्यम और अधम भेद से 48 मेद बतलाये हैं।' इस दृष्टि से भी आ. हेमचन्द्र से समानता है क्योंकि वे भी पुरूष और स्त्रियों की उत्तम, मध्यम और अधम - ये तीन प्रकृतियां मानते ही हैं। यदि इन तीनों प्रकृतियों के पृथक - पृथक 16-16 मेद मान लिये जायें तो 48 मेद हो ही जाएंगे और दोनो आचार्यों में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। लेकिन दशरूपककार की भांति काव्यानुशासनकार ने ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। आचार्य रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार भी नायकों के धीर विशेषण ते युक्त उद्त, उदात्त, ललित और प्रशांत अर्थात, धीरोदत, धीरोदात्तः • तुलनीय - दशरूपक 2/3-7 2. "त इति नायकः । धीरशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। तेन धीरोदात्तो धीरललितो धीरशान्तो धीरोद्त इति। दक्षिपधृष्टानुकलपाठभेदादकैकप चतुर्धा। एते श्रृंगाररसाश्रयिपो भेदाः। इति षोडाभेदा नायकन्य। काव्यानु. व. पु. 410 - दशरूपक, 2/7, वृत्ति , पृ. 92 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 धीरललित व धीरप्रशांत चार प्रकार के स्वभाव होते हैं। ये स्वभाव केवल मध्यम तथा उत्तम दो रूपों में ही दर्पन करने चाहिए।। नाट्यदर्पपकार के अनुसार पूर्वोक्त चार नायकों में ते देवता धीरोदत स्वभाव सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त स्वभाव वपिक् तथा ब्राहमप धीरप्रशान्त स्वभाव तथा क्षत्रिय चारों प्रकार के स्वभाव वाले हो सकते हैं।2 आगे वे लिखते हैं कि जो विप्र परशुराम के अतिकूरत्व को सूचित करने के लिये धीरोदतत्व का वर्पन किया गया है वह "कहीं कार्यवश अर्थात् विशेष प्रयोजन से भाषा - प्रकृति और वेषादि विषयक नियमों का उल्लंघन भी किया जा सकता है इस अपवाद के विद्यमान होने से अनुचित नहीं है। देवताओं का यह धीरोद्त स्वभाव का नियम मनुष्यों की दृष्टि से है, अपनी दृष्टि से नहीं। क्योंकि देवताओं में भी शिव आदि धीरोदात्त तथा ब्रहमा आदि धीरशान्त नायक भी दृष्टिगत होते हैं। कारिका में उक्त “राजानः' पद से राजा का ही गृहप न करके क्षत्रियजाति मात्र का ग्रहण करना चाहिए। और राजानः" पद में बहुवचन के प्रयोग से व्यक्ति-भेद से नाटक के नेता चारों प्रकार के स्वभाव वाले हो सकते हैं, एक व्यक्ति में चारों प्रकार के स्वभाव नहीं हो सकते यह बात सूचित की है। क्योंकि एक व्यक्ति में ही चारों प्रकार के स्वभाव का वर्पन 1. उदुतोदात्त - ललित - शान्ता धीरविशेषणाः। वाः स्वभावाश्चत्वारो नेतृणां मध्यमोत्तमाः।। हि नाट्यदर्पप 1/6 .... 2. देवा धीरोटुता, जीरोदात्ता, सैन्येश - मन्त्रिपः। धीरशान्ता वषिम् - विद्या राजानस्तु चतुर्विधाः।। . वही. in Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 कर सकना असम्भव है। और यह नियम अर्थात् चारों प्रकार के स्वभाव का एक व्यक्ति में वपन नहीं किया जा सकता है केवल प्रधान नायक के विषय में ही है। गौप नायकों में तो पूर्व - स्वभाव को छोड़कर अन्य स्वभाव का वर्पन भी किया जा सकता है। जो नाटक के नायक को केवल धीरोदात्त ही मानते हैं वे भरतमुनि के सिदान्त को नहीं समझते हैं। और नाटकों में धीरललित आदि नायको' के भी पाए जाने से कवियों के व्यवहार से अपरिचित प्रतीत होते हैं।' अर्थात भरतमुनि के सिद्धान्त तथा कवियों के व्यवहार दोनो के अनुसार नाटकों में चारों प्रकार के नायकों का चित्रप किया जा सकता है। केवल धीरोदात्त ही नायक हो ऐसा बंधन नहीं है। इसके पश्चात् धीरोद्त आदि का अर्थ बतलाते आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र लिखते हैं कि धीरोद्धत नायक अस्थिर - चित्त, भयंकर, अभिमानी, छली, आत्म - पलाधी, धीरोदात्त नायक अत्यन्त गम्भीर, न्यायपिय, शोक - क्रोध आदि के वशीभूत न होने वाला, अमाशील और स्थिर, धीरललित नायक श्रृंगार प्रिय, गीत, वाधादि कलाओं का प्रेमी, राज्यभार को मंत्री को सौंपकर निश्चिंत हो जाने वाला सुखी व कोमल स्वभाव का तथा धीरप्रशान्त नायक सर्वथा अहंकाररहित, दयाल, विनयशील व नीति का अवलम्बन करने वाला होता है। आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार ये धर्म 1. हि. नाट्यदर्पण, वृत्ति, पृ. 27 2. धीरोदा चल५ चण्डी दी दम्भी विकत्थनः। धीरोदात्तोऽतिगम्भीरो न्यायी सत्वी क्षमी स्थिरः।। श्रृंगारी धीरललितः कलासक्त: सुखी मुदः। धीरशान्तोऽनहंकारः कृपानियी नयी ।। हि नाट्यदर्पप 1/8-9 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 363 केवल उपलक्षपमात्र हैं। इसलिये औचित्य के अनुसार धीरोदुत जादि नायको में अन्य धर्म भी समझ लेने चाहिए।' मध्यम तथा उत्तम के नायकत्व का कथन करने के साथ - साथ आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र यह भी स्पष्टरूपेप लिखते हैं कि इतिवृत्त के अनुरूप 'भाप" और पहसन" में तथा किसी वीथी में हास्यरस पूर्प कथानक होने से वहाँ अधम प्रकृति का भी नायक होता है। पैते - विदूषक, क्लीब, शकार, विट, 'किंकर आदि। ये सब नीच प्रकृति के पात्र होते हैं। आ. वाग्भट द्वितीय ने नायक के धीरोदात्त आदि चार भेद किये हैं। पुनः धीरललित के अनुकूल आदि चार भेद किए हैं। इनके लक्षप आ. हेमचंद्र सम्मत ही हैं। किंतु जहाँ पूर्वाचार्यों ने धीरोदात्तादि चार नायकों के अनुकूल आदि चार-चार उपभेद किए हैं, वहीं वाग्भट द्वितीय ने केवल धीरललित के ही अनुकल आदि चार भेद माने हैं। इस प्रकार नायक-मेदों के मल में आ. भरत तथा दशरूपककार के विभाजन को परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किया है। 1. उपलक्षपमात्र चैतत, तेनोद्धतादीनां ययौचित्यमपरेऽपि धर्मा दृष्टव्या इति। __वही, पृ. 28 2. नीचोडपीशः कथावशात। हि. नाट्यदर्पप 4/7 पूर्वाई . वही, 4/14 + काव्यानुशासन - वाग्भेट, पृ. 61 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 अन्य नायक : दशरूपककार ने मुख्य नायक के अतिरिक्त पताका नायक (जिसे "पीठमर्द' कहते हैं), गोप नायक (पताका व प्रकरी नायक) व प्रतिनायक मेद स्वीकार किये हैं। जैनाचार्य रामचन्द्रगुपचन्द्र ने भी इन्हीं का अनुसरप किया है। उनके अनुसार मुख्य नायक की अपेक्षा कुछ कम कथाभाग वाला अमुख्य नायक कहलाता है।' प्रधान फल की अपेक्षा अवान्तर अमुख्य फल का पात्र होने से इते 'अमुख्य कहा गया है। तथा बहुत बड़े कथाभाग में व्यापक होने से तथा नायक के सहायक के रूप में होने से उसका नायकत्व होता है।2 जैनाचार्य वाग्भट द्वितीय ने नायक के गुपों से युक्त तथा नायक के अनुचर को पीठमद कहा है। प्रतिनायक : काव्य में नायक के पश्चात सर्वाधिक प्रभावशाली पात्र प्रतिनायक होता है नायक की भांति यह भी सम्पूर्ण कथावस्तु में आद्योपान्त दृष्टिगोचर होता है। नायक का प्रतिद्वन्दी होने से यह उसकी अभीष्ट सिद्धि में पदे-पदे बाधक बनता है और नायक को सक्रिय बनाये रहता है। व्यावस्तु को आगे बढ़ाने में उसकी भूमिका अपरिहार्य है। धनंजय के लक्षप के समान आ. हेमचन्द्र ने भी प्रतिनायक का स्वरूप प्रस्तुत किया है - "व्यसनी पापकृल्लुब्धः स्तब्धो धीरोद्तः प्रतिनायक: " अर्थात व्यसनी, पापी, 1. अमुख्यो नायक : किंचनवृत्तोडगथनायकात। हि. नाट्यदर्पप, 4/13 पूर्वार्द 2. वही, विवृत्ति, पृ. 375 3. काव्यानु. वाग्भट, पृ. 62 + तुल0- "लुब्धो धीरोद्तः स्तब्धः पापकृदव्यसनी रिपुः। दारूपक 2/9 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभी, स्तब्ध गतिहीन अथवा कठोरह्दयी और धीरोद्धत प्रतिनायक कहलाता है। जैसे राम का प्रतिनायक रावण और युधिष्ठिर का प्रतिनायक दुर्योधन है। अन्य सहायकपात्र : उक्त के अतिरिक्त प्रधान नायक के सहायक अन्य पुरुष पात्र भी होते हैं। इनमें से जैनाचार्यों ने विदूषक, शंकार, विट व नर्मसचिव का उल्लेख किया है 1 विदूषक : नाटकादि में प्रधान नायक के मनोरंजन हेतु विविध प्रसंगो में अपने वेशभूषा, हाव-भाव अथवा भाषा वैचित्र्य के द्वारा जो हास्य उपस्थित करता है वह विदूषक कहलाता है। आ. धनंजय के अनुसार नाटकादि मैं हास्य को उत्पन्न करने वाला विदूषक है।' आ. रामचन्द्रगुणचन्द्र का कथन है कि विदूषक राजा के हास्य के लिए होता है। इसका हास्य अंग, वेशभूषा व वचनों के भेद से तीन प्रकार का होता है। 2 आ. वाग्भट द्वितीय के अनुसार मनोरंजन करने वाला विदूषक कहलाता है। 3 इसप्रकार जैनाचार्यों के विदूषक स्वरूप पर धनंजय का प्रभाव दृष्टिगत होता है। शकार : आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र के अनुसार विकृत हास्य के निमित्त राजा का नीचजातीय साला "शकार" कहलाता है। " 1. दशरूपक, 2/9 2. 365 हि. नाट्यदर्पण, 4/14 विवृति 3. काव्यानु वाग्भट, पृ. 62 4. हि. नाट्यदर्पण, 4/14 विवृति Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 विट : दशरूपककार ने विट को एक विद्या में निपुप माना है।' उन्हीं का अनुसरप करते हुए आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र ने राजा के उपयोगी नृत्य गीतादि किसी एक के ज्ञाता को विट कहा है।2 आ. वाग्भट द्वितीय ने भी एक विधा में निपुप को विट कहा है। नमसचिव : कुपित स्त्री को प्रसन्न करने वाला नर्मसचिव कहलाता है।* नायिका स्वरूप : काव्य में जो स्थान नायक का होता है वही स्थान नायिका का भी होता है। नायक की भांति नायिका भी सम्पूर्ण कथावस्तु में व्याप्त रहती है। आशय यह है कि काव्य में नायक - नायिका का समान महत्व है। दशरूपककार धनंजय ने नायकगत गुणों से युक्त स्त्री को नायिका कहा है।' उन्हीं का अनुकरण करते हुए आ. हेमचन्द्र ने लिखा है कि नायकगत विनयादि गुणों से युक्त नायिका कहलाती है। आशय यह है कि जिन गुपों से युक्त नायक होता है, उन्हीं से युक्त नायिका भी होती है। 1. दारूपक, 2/9 2. हि. नाट्यदर्पप, 4/14 विवृत्ति 3 काव्यानु. वाग्भट, पृ. 62 4. तत्र कुपित स्त्रीप्रसादको नर्मसचिवः। ____ काव्यानु, वाग्भट, पृ. 62 5. दशरूपक, 2/15 6. काव्यानु. 7/21 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायिका भेद : जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने नायिका के चार भेद माने हैंअनूढा (अविवाहिता), स्वकीया, परकीया व सामान्या । उन्होंने इनके लक्षणं इस प्रकार दिये हैं अनूढा स्वकीया परकीया 1. - 2. 3. 4. वेश्या (सामान्या ) - ठगने में चतुर व सर्वसाधारण की स्त्री वेश्या कहलाती है, उसका धन देने वाले के अतिरिक्त अन्य कोई प्रिय नहीं होता है। 4 367 नायक में अनुरक्त जो नायिका नायक के द्वारा स्वयं स्वीकार राजा दुष्यन्त की जाती है, वह अनूढा कहलाती है। यथा की शकुन्तला अनूढा नायिका है। । क्षमावान्, अतिगम्भीर प्रकृतिवाली, घोर चरित्रवान तथा देवता एवं गुरूजनों की साक्षीपूर्वक ग्रहण की गई स्वकीया नायिका है। 2 परकीया भी अनूढा की तरह होती है, किन्तु उन दोनों में तात्त्विक भेद है। परकीया काम के वशीभूत होकर स्वयं प्रिय ते अपना अभिप्राय प्रकट करती है व अनूढा सखियों के माध्यम से। 3 वाग्भटालंकार, 5/12 वही, वही, 5/14 वहीं, 5/15 5/13 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 आ. हेमचन्द्र ने दशरूपककार की भांति नायिका के भेद-प्रमेदों का निरूपप करते हुए सर्वप्रथम नायिका के तीन भेद बताये हैं - स्वकीया, परकीया और सामान्या।' स्वकीया नायिका : दशरूपककार के अनुसार शील, आर्जव आदि से युक्त स्वीया नायिका कहलाती है।2 आ. हेमचन्द्र ने इसके साथ स्वयमढा' विशेषण भी जोड़ा है तथा आदिपद से आर्जव, लज्जा, गृहाचार निपुपता आदि का गहण किया है। दोनों ही आचार्यों ने स्वकीया नायिका के तीन भेद - मुग्धा, मध्या और प्रौदा बतलाये हैं। आ. हेमचन्द्र ने अवस्था और कौशल के आधार पर ये भेद माने हैं। उन्होंने लिया है - 'क्यः कौशलाभ्यां मुग्धा मध्या प्रौदेति सा त्रेधा" अर्थात् अवस्था और कामकला में निपुपता के आधार पर स्वकीया नायिका तीन प्रकार की होती है- मुग्धा, मध्या और प्रौटा। पुनः मध्या और प्रौटा के तीन-तीन प्रकार बतलाये हैंधीरा, धीराधीरा और अधीरा।' इन छहों के ज्येष्ठा और कनिष्ठा भेद से बारह मेद हो जाते हैं।' प्रथम परिपीता को ज्येष्ठा 1. सा च स्वकीया, परकीया, सामान्या चेति त्रिधा। ___ काव्यानु कृ. पृ. 413 2. मुग्धामध्याप्रगल्भेति स्वीया शीलार्जवादियुक्। दशरूपक 2/15 3. स्वयमदा शीलादिम्ली स्वा। ___ काव्यान. 7/22 + वही, वृत्ति , पृ. 413 5. धीराधीराधीराऽधराभेदादन्त्ये त्रेधा। वही 7/24 6 षोढापि ज्येष्ठाकनिष्ठाभेदाद द्वादशधा। वही, 7/25 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 369 और पश्चात् परिपीता को कनिष्ठा कहा गया है।' मध्याधीरा उपडासपूर्ण कुटिलवापी ते, मध्याधी राधीरा ताने मार कर रोती हुई और मध्या अधीरा कठोरवापी के द्वारा अपना को अभिव्यक्त करती है। इसीप्रकार प्रौदाधीरा नायिका उपचार और अवहित्था के द्वारा प्रौदाधीराधीरा अनुकूलता और उदासीनता के द्वारा तथा प्रौदा अधीरा संतर्जन अर्थात मारपीट कर एवं आघात के द्वारा अपना क्रोध व्यक्त करती है। यह विवेचन प्रायः धनंजय की भांति है। परकीया नायिकाः परकीया नायिका दो प्रकार की होती है- किसी दूसरे की परिपीता स्त्री और कन्या (अविवाहिता)' अवरूद्ध को भी परस्त्री ही कहा जाता है। परकीया नायिका अंगी रस में उपका रिपी नहीं होती है इसलिये आ. हेमचन्द्र ने इस पर कोई विचार नहीं किया है। सामान्या नायिकाः तीसरी श्रेपी की नायिका साधारपस्त्री है। यह गपिका होती है, जो कलाचतुर, प्रगल्भा तथा धर्त होती है। आ. हेमचन्द्र ने भी गपिका को ही सामान्या कहकर प्रतिपादित किया है।' 1. "तत्र प्रथममढा ज्येष्ठा पश्चादा कनिष्ठा। काव्यानु. वृत्ति. पृ. 415 2. सोतपकास कोधत्या सवाष्पया वाक्पारुष्येप को धिन्यो मध्या धीराधाः। वही, 7/26 3 उपचारावहित्थाभ्यामानुकल्योदासिन्याभ्यां संतर्जनाधाताभ्यां प्रौटा धीराधाः वही, 1/27 + परोढा परस्त्री कन्या च। वही, 7/28 5. अवरूद्वापि परस्त्रीत्युच्यते। बही, . पृ. 417 6. साधारपस्त्री गापिका कलाप्रागल्भ्यधौर्ययुक। वही, 2/21 7. गणिका मामान्या च्यानु, 7/29 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 आ. रामचन्द्रगुणचन्द्र के अनुसार कुलजा, दिव्या, क्षत्रिया व वेश्या चार प्रकार की नायिका होती हैं। उनमें से अन्तिम अर्थात वेश्या नायिका ललितोदात्त ही होती है और प्रथम अर्थात कुलजा नायिका उदात्त होती है। घोष दोनों दिव्या और क्षत्रिया धीरा, ललिता व उदात्ता तीन प्रकार की होती है।' धीरप्रशान्त नायक के समान धीरशान्त नायिका दर्पनीय नहीं होती है। इन नायिकामों के विशेष भेद को बताते हुए नाट्यदर्पपकार लिखते हैं कि - प्रहसन से भिन्न रूपकों में गपिका नायिका अनुरागिपी ही निबद्ध करनी चाहिए। जैसे मृच्छकटिक में चारूदत्त की वसन्तसेना अनुरागिणी नायिका है। प्रहप्तन में अनुराग रहित गपिका नायिका भी हो सकती है। राजा और दिव्य नायकों के साथ गणिका नायिका का वर्णन नहीं करना चाहिए। कहीं - कहीं यह गपिका नायिका यदि दिव्य हो तो उसका राजा के साथ सम्बन्ध वर्पन हो सकता है। जैसे - उर्वशी पुरूरवा की नायिका है। इन कुलजादि नायिकाओं में से प्रत्येक के भुग्धा, मध्या व प्रगल्भा तीन-तीन भेद होते हैं। कुल मिलाकर बारह भेद हो जाते हैं। 1. नायिका कलजा दिव्या धत्रिया पण्यकामिनी। अन्तिमा ललितोदात्ता पूर्वोदात्ता त्रिधा परे।। हि नाट्यदर्पय 4/19. 2. रागिण्येवाप्रहसने नृपे दिव्ये च न प्रभौ। गपिका क्वापि दिव्यातु भवेदेषा महीभुजः।। हि, नाट्यदर्पप 4/20 3. मुग्धा मध्या प्रगल्भेति त्रिविधाः स्युरिमाः पुनः । वही, 4/21 पूर्वार्द्ध Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें यौवन तथा काम के उठाव पर स्थित स्वल्प मान वाली सुस्त व्यापार में प्रतिकूल नायिका मुग्धा कहलाती है। ' मध्यम आयु, मध्यम काम और मध्यम मान वाली सुरतकाल में मूर्च्छा पर्यन्त पहुँच जाने वाली मध्या नायिका होती है।' यह धीरा, अधीरा व धीराधीरा भेद से तीन प्रकार कीहोती है। 3 उनमें से प्रिय के अन्यस्त्री सम्बन्धरूप अपराधयुक्त होने पर व्यंग्यपूर्ण ताने देने वाली धीरा, रोते कठोर वचन कहने वाली अधीरा व रोते हुए व्यंग्य तथा कठोर ताने सुनाने वाली धीराधीरा होती है। 4 पूर्णरूप से दीप्त आयु, मान तथा काम वाली तथा प्रिय के स्पर्शमात्र से आनंदातिरेक ते मूर्छित हो जाने वाली प्रगल्भा नायिका कहलाती है। यह भी मध्या के समान धीरा, अधीरा व धीराधीरा भेद से तीन प्रकार की होती है। इनमें से धीरा प्रिय के अपराधी होने पर अपने आकार को छिपाते हुए प्रिय के प्रति आदर प्रदर्शित करती है पर 1. 2. मुग्धा वामा रते स्वल्पमाना रोह्द्वयः स्मरा।। वही, 4/21 3. मध्या मध्यवयः काम-माना मर्च्छान्तिमोहना । वही, 4/22 पूर्वाई एषा च धीरा अधीरा धीराधीरा चेति त्रिधा । वही, वृत्ति, पृ. 380 4. पृ. 380 5. प्रगल्भेदवयोमन्यु - कामा स्पर्शेऽप्यचेतना ।। वही, 4/22 371 - वही, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 सरत व्यापार में उदासीन हो जाती है। अधीरा प्रिय को डॉट फटकार करती है व ताडन तक करती है। धीराधीरा व्यंग्यपूर्ण ताने सुनाती है।' इस प्रकार नाट्यदर्पपकार ने नाट्योपयोगी दृष्टि से नायिका का विभाजन करते हुए भरत नाट्यशास्त्र की परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आ. वाग्भट द्वितीय ने हेमचन्द्राचार्य के समान नायिका की स्वकीया, परकीया व सामान्या तीन भेद किए हैं। पुनः उन्होंने केवल स्वकीया के ही मुग्धा, मध्या व प्रौटा तीन भेद किए हैं। तत्पश्चात् परकीया के दो भेद किए हैं - परस्त्री व कन्या। उपर्युक्त भेदों के अतिरिक्त श्रृंगारिक अवस्था को भी आधार मानकर प्रायः सभी आचार्यों ने नायिका - भेद प्रस्तुत किए हैं। आ. हेमचन्द्र ने मरतमुनि और धनंजय की भांति अवस्था भेद से स्वकीया नायिका की 8 अवस्थाओं का प्रतिपादन किया है - - - - - - - 1. वही, पृ. 381 2. नायिका त्रिधा - स्वकीया परकीया सामान्या च। काव्यानु. वाग्भट पृ. 62 ॐ मुग्धा-मध्या प्रौढामेदेन त्रिधा स्वकीया । वही, पृ. 62 + परकीया परस्त्री कन्या च । वही, पृ. 62 5. नाट्यशास्त्र 24/203-204 दशरूपक, 2/24-27 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 373 स्वाधीनपतिका, प्रोषितभर्तृका, पण्डिता, कलहान्तरिता, वासकतज्जा, विरहोत्कण्ठिता, विप्रलब्धा और अभितारिका।' 018 स्वाधीनपतिका : "रतिगुपाकृष्टत्वेन पार्वस्थितत्वात स्वाधीन आयस्तः पतिर्यस्याः सा तथा" अर्थात रति गुप में आकृष्ट होने से जिसका पति समीप और अधीन रहता है ऐसी नायिका स्वाधीनपतिका कहलाती 82 पोषितभर्तृका : "कार्यत पोषितो देशान्तरं गतो मा यत्याः सा तया" अर्थात् जिसका प्रति किसी कार्य विशेष से देशान्तर में चला गया हो, वह प्रोषित भर्तका कहलाती है। 3 वण्डिता : वनितान्तरव्या सगादनागते प्रिये दुःसंतप्ता पण्डिता अर्थात दूसरी स्त्री के साथ रमप करने से अनागत प्रिय में सन्तप्त खण्डिता नायिका कहलाती है। 348 कलहान्तरिता : ईकिलहेन निष्कान्तभर्तकत्वात्तरसंगमसुखेनान्तरिता कलहान्तरिता" अर्थात ईर्ष्या और कलह के द्वारा पति को निकाल देने वाली पुनः उसके समागम से सुखी होने वाली कलहान्तरिता नायिका कहलाती है। 1. काव्यानु. 7/30 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 858 वासकसज्जा : " इति नयेन वासके रतिसंभोगलालसतयाङ्गरागदिना सज्जा प्रगुणा वासकसज्जा" अर्थात् प्रिय आगमन को सुनकर रति-संभोग की लालसा से अपने को अंगरागादि के द्वारा सजाने वाली वासकसज्जा कहलाती है। 868 विरोत्कण्ठिता: प्रियंमन्या चिरयति भर्तरि विरहोत्कण्ठिता अर्थात प्रिय के अपराध न करने पर भी मात्र विलम्ब के कारण बेचैन रहती है अथवा चिरकाल तक पति को अन्य में प्रिय मानकर विरह से उत्कण्ठित रहने वाली विरहोत्कण्ठिता कहलाती है। $78 विप्रलब्धा : "दूतीमुखेन स्वयं वा संकेतं कृत्वा केनापि कारपेन वंचिता विप्रलब्धा अर्थात् दूती मुख से अथवा स्वयं संकेत करके किसी कारणवश नायक के मिलन से वंचित रहने वाली विप्रलब्धा कहलाती है। 888 अभिसारिका : "अभिसरत्यभिसारयति वा कामार्ता कान्तमित्यभिसारिका" अर्थात् जो स्वयं अभिसरण करती है या नायक को अपने पास बुलाकर अभिसरण कराती है वह काम से पीड़ित अभिसारिका नायिका कहलाती है। " की प्रकार इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने व्युत्पत्ति द्वारा ही आठों नायिकाओं के अर्थ स्पष्ट कर दिये हैं, अलग से लक्षण नहीं किये हैं। इन्हें ही उनके लक्षण समझना चाहिए। ये आठ अवस्थायें स्वकीया नायिका की हैं। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 375 इनमें से अन्तिम तीन अवस्थाओं को परस्त्री नायिका की भी जानना चाहिये। क्योंकि संकेत से पूर्व वह विरह के लिये उत्कंठित रहती है, बाद मे विपका दि के द्वारा अभिसरण करती है और किसी कारपवश संकेत स्थल पर नायक को न पाकर विपलब्ध रहती है। अत: ये तीनों अवस्थायें स्वकीया और परकीया दोनों की होती हैं। 2 ___ जैनाचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र व वाग्भट द्वितीय ने भी नायिका के उक्त आठ भेदों का उल्लेख इसी रूप में किया है। प्रतिनायिका - काव्य में प्रतिनायक के समान प्रतिनायिका भी महत्व है। यह नायिका की प्रतिपक्षिनी होती है तथा प्रायः प्रधान नायिका के प्रणय व्यापार में बाधक बनती है। अतः प्रधान नायिका द्वारा अनेक कष्टों को प्राप्त करती है। यह कथावस्तु को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रतिनायिका का स्वरूप निरूपप करते हुये लिखा है - "ईष्यहित : सपत्नी प्रतिनायिका' अर्थात ईर्ष्या के कारपभूत सौत (सपत्नी) प्रतिनायिका कहलाती है। जैसे रूक्मिपी की सत्यभामा है। आचार्य हेमचन्द्र ने नायिका की केवल प्रतिनायिका का स्वरूप प्रस्तुत किया है। क्योंकि दूती आदि तो लोक में प्रसिद्ध ही हैं। अत : उनका निरूपप नहीं किया है। 1. अन्यत्र्यवस्था परस्त्री। काव्यानुशासन, 7/31 2. वही, वृत्ति , पृ. 421 3. हि. नाट्यदर्पण, 4/23-26 4. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 63 5. “दत्यश्च नायिकानां लोकस्दिा एवेति नोक्ताः। काव्यानु. वृत्ति, पृ. 421 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 नायिकाओं के अलंकार : सामान्यत: स्त्रियों के 20 अलंकार माने गये हैं जो सत्त्व से उत्पन्न होने के कारपे स्तवन कहलाते हैं। ये नारी के सौन्दर्य के निखारने में सहायक होते हैं। यहाँ स्त्रीगत भावभंगिमा को ही अलंकार शब्द से अभिहित किया गया है। दशरूपककार ने स्त्रियों में यौवनावस्था में सत्त्वज स्वाभाविक जिन 20 अलंकारो को कहा है', उन्हीं को आ. हेमचन्द्र ने भी प्रतिपादित किया है। आ. हेमचन्द्र के अनुसार स्त्रियों के सत्त्व से उत्पन्न बीस अलंकार होते हैं। उन्होंने सत्व की व्याख्या करते हुये लिखा है कि जो संवेदन रूप से विस्तार को प्राप्त हो तथा अन्य देहधर्मता से ही थित हो वह सत्त्व कहलाता है। अपने इस कथन की पुष्टि में उन्होंने "देहात्मकं भवेत् सत्त्वं इस भरत-वचन को प्रस्तुत किया है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार ये अलंकार सत्व से उत्पन्न होने के कारण सत्वज कहलाते हैं, राजस और तामस प्रकृतिवाले शारीरों में इनका होना असंभव है। चाण्डालिनों में भी रूप और लावण्य दिखाई दो हैं किन्तु चेष्टादि अलंकार नहीं, और यदि उनमें पेष्टादि अलंकार होते भी हैं तो उत्तमता के ही सूचक है। अलंकार मात्रदेहनिष्ठ होते हैं, चित्तवृत्तिरूप नहीं। वे युवावस्था में स्पष्ट दिखाई देते हैं। बाल्यावस्था में वे अनुत्पन्न रहते हैं और वृद्धावस्था में तिरोहित हो जाते हैं। यद्यपि ये अलंकार पुरुषों के भी होते है, तथापि दशरूपक, 2/30-33 सत्वजा विंशतिः स्त्रीपामलंकाराः काव्यानुशासन, 7/33 3 संवेदनरूपात असतं यत्ततोऽन्यदेहधर्मत्वेनैव स्थितं सत्वम्। वही, वृरित, पृ. 425 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 377 स्त्रियों के ही वे अलंकार है, अत: तद्गत मानकर ही यहां उनका वर्णन किया गया है। पुरुष का तो उत्साह वर्षन अन्य अलंकार है और नायक के समस्त भेदों में धीरता विशेष रूप से कहा ही है, उसी ते आच्छादित तो भंगारादि धीरललित इत्यादि में धीर शब्द है। उन्होंने आगे विश्लेषण करते हुए लिखा है कि कुछ अलंकार क्रियात्मक हैं और कुछ स्वाभाविक गुप। कियात्मकों में भी कुछ पूर्वजन्म अभ्यस्त रतिभाव मात्र के द्वारा स्त्वोत्पन्न होने ते देहमात्र में होते हैं, वे अंगज कहलाते हैं। अन्य इस जन्म में समुचित विभावशात प्रस्फुटित रतिभावयुक्त देह में स्फुरित होते हैं वे स्वाभाविक कहलाते हैं अर्थात स्वयं के रतिभाव से हृदयगोचरीभूत होते हैं। जैसे किसी नायिका के कुछ अलंकार स्वभावदशात् होते हैं, अन्य नायिका के दूसरे और किसी नायिका के दो-तीन अथवा इससे भी अधिक स्वाभाविक होते हैं। भाव, हाव और हेला सभी भाव तत्व की अधिकता होने से समस्त उत्तम नायिकाओं में होते हैं। शोभा आदि सात अलंकार हैं। इसी प्रकार अंगज और स्वभावज क्रियात्मक हैं तथा शोभा आदि गुपात्मक होने से अयत्नज हैं आयासपूर्वक उत्पन्न होने से क्रियात्मक कहलाते हैं।' बीत अलंकारों का विवेचन इस प्रकार है तीन अंगज अलंकार - भाव, हाव और हेला - ये तीन अंगज अलंकार क्रमश: अल्प, अधिक और अत्यधिक विकारात्मक होते हैं। 2 1. काव्यानुशासन, वृत्ति. पृ. 422 2. भावहावहेलास्त्रयोऽइ.मना अल्पबहुभयो विकारात्मका:। काव्यानुवारतन, 7/34 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश स्वाभाविक अलंकार लीला आदि 10 स्वाभाविक अलंकार है । 818 लीला : " वाग्वेषचेष्टितैः प्रियस्यानुकृतिर्लीला" अर्थात् वाणी, वेष और चेष्टाओं के द्वारा प्रिय नायक का अनुकरण करना लीला कहलाता है। 828 838 848 15) 868 1. विलास : "स्थानादीनां वैशिष्ट्यं विलासः " अर्थात् प्रिय के स्थान आदि का वैशिष्ट्य विलास कहलाता है। आदिपद के ग्रहण से स्थान उर्ध्वता के अतिरिक्त बैठना, जाना, हाथ, भौंह, नेत्र कर्म आदि का वैशिष्ट्य भी विलास कहलाता है। विच्छित्ति : * गर्वादल्पा कल्पन्यास: शोभाकृद विच्छित्तिः " अर्थात् सौभाग्य के गर्व से अल्प आभूषणों का पहनना शोभावर्द्धक होने से विच्छित्ति कहलाता है। बिब्बोक : "इष्टेऽप्यवता बिब्बोकः " अर्थात् इष्ट वस्तु में अनादर बिब्बोक कहलाता है। सौभाग्य के गर्वादि से इष्ट वस्तु में भी आदर न करना बिब्बोक है। विभ्रम : "वागंगभूषणानां व्यत्यासो विभ्रमः " अर्थात् वाणी, अंग और आभूषणों का विपर्यय विभ्रम कहलाता है। किलिकिंचित : "स्मितह सितल दिनभय रोषगर्वदु: खश्रमाभिलाषसंकर : किलिकिंचितम्।" अर्थात मुस्कराना, हंसना, रोना, भय, क्रोध, लीलादयो दर्श स्वाभाविका: । लीलाविलासविच्छित्ति बिब्बोक विभ्रमकिलिकिंचितमोट्टायित कुट्ट मितल लित विहतनामान: । वही, 1/35, व. पृ. 424 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379 गर्व, दुःस, श्रम और अभिलाष का एक साथ होना किलिकिंचित कहलाता है। मोट्टायित : "प्रियकथादौ तदभावभावनोत्था चेष्टा मोट्टायितम् अर्थात् प्रिय की कथा आदि में उसके भाव से प्रभावित होने पर उत्पन्न चेष्टा मोट्टायित कहलाता है। 888 कुट्टमित : "अधरा दिग्रहाद दुःयेऽपि हर्षः कुट्ट मितम” अर्थात प्रियतम दारा अधरादि के गृहप से दुःख होने पर भी हर्ष का भाव कुट्टमित कहलाता है। ललित : “मतृपोऽइगन्यासो ललितम्' अर्थात कोमल अंगों का न्यात ललित कहलाता है। हाथ, पैर, भौंह, नेत्र, अधर आदि सुकुमार अंगों का विन्यास ललित है। 1108 विद्वत : "व्याजादेः प्राप्तकालस्याऽप्यवचनं विहतम्' अर्थात् अवसर प्राप्त होने पर भी मुग्धता, लज्जा आदि गुपों के कारप न बोलना विहत कहलाता है। विलास : "कर्तव्यवशादायाते एव हस्तादिकमपि यद वैचित्र्यं स विलासः' अर्थात कर्तव्यवशात नायक के आने पर ही हत्तादि के कार्यों में जो विचित्रता आती है, वह विलास कहलाता है। प्रकारान्तर से यह सातिशय ललित का ही स्वरूप है। आ. हेमचन्द्र ने “केचित आहुः' कहकर भोजराज के मत से क्रीडित और केलि इन दो अलंकारों को भी सोदाहरप प्रस्तुत किया है।' . केचित बाल्यकुमारयौवनसाधारपविहारविशेष की डितम, क्रीडितमेव च प्रियतम विषय केलि चालंकारौ आहुः। काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 428 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 सात अयत्नज अलंकार : शोभा आदि सात अयत्नज अलंकार कहलाते हैं।' शोभा, कीन्त और दीप्ति : 'ल्पयौवनलावण्यैः पुंभागोपबंहितमन्दमध्यतीवाइ.गच्छाया शोमा कान्तिदीप्तिपच अर्थात रूप, यौवन तथा लावण्य का पुरूष द्वारा उपभोग करने से वृद्धि को प्राप्त मन्द, मध्य और तीव्र अंगों की छाया क्रमश: शोभा, कान्ति और दीप्ति नामक स्त्रियों के अयत्नज अलंकार हैं। माधुर्य : "चेष्टामसृपत्वं माधुर्यम्” अर्थात् क्रोधादि में भी चेष्टाओं हाव-भावों की कोमलता माधुर्य है। धैर्य : "अचापला विकत्यनत्वे धैर्यम' अर्थात चंचलता और आत्मप्रशंसा का अभाव धैर्य है। औदार्य : प्रश्रय औदार्यम्' अर्थाद अमर्ष, ईर्ष्या, क्रोध आदि अवस्थाओं में भी प्रश्रय-शिष्टतापूर्ण व्यवहार औदार्य है। प्रागल्भ्य : "प्रयोगे निःसाध्वसत्वं प्रागल्भ्यम्” अर्थात प्रयोग-काम, चौसठ कला आदि के प्रयोग में निःसाध्वसत्व अर्थात भय आदि का न होना प्रागल्भ्य है। ___ आवार्य हेमचन्द्र के प्रतिपादन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन पर भरतमुनि का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है तथा उन्होंने आचार्य धनंजय का अनुकर प किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने विलास नामक स्वाभाविक अलंकार का स्वरूप 1. शोभादयः सप्तायत्नजाः। काव्यानुशासन 7/47, वृत्ति, पृ. 423 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 दो स्थान 7/37 और 7/45 पर प्रस्तुत किया है। द्वितीय स्वरूप को उन्होंने प्रकारान्तर से सातिशय ललित कहा है। शाक्याचार्य राहुल आदि आचार्यो ने मौग्ध्य ( मुग्धता), मद, भाविकत्व, परितपन आदि अलंकारों को भी कहा है, परन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने भरतमतानुसार ही उनकी उपेक्षा कर दी है।' अयत्नज अलंकारो के विषय में आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि शोभा, कान्ति, और दीप्ति बायरूपगत हैं तथा इनमे आवेग, चपलता, अमर्ष, त्रास का तो अभाव ही है। माधुर्य आदि तो स्त्रियों के धर्म हैं, चित्तवृत्ति स्वभाव रूप नहीं। इसलिए इनमें भावों की शंका करने के लिए कोई अवकाश नहीं है।2 आचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र द्वारा बीस अलंकारों के लक्षण भी पूर्ववत हैं।' नवीनता की दृष्टि से उनके द्वारा किया गया ललित व विलास 1. शाक्याचार्या राहुलादयास्तु मौग्ध्यमदभाविकत्व परितपनादीनप्यलंकारानाचक्षते। तेऽम्मा भिर्भरतमतानुसारिभिरूपेक्षिता।। काव्यानु., वृत्ति, पृ. 431 2. अत्र शोभाका न्तिदीप्तयो वायरूपादिगता एव विशेषा आवेग चापलामर्षत्रासानां स्वभाव एवं। माधुर्याया धर्मा न चित्तवृत्तिस्वभावा इति नैतेषु भावशंकावकाशः।। वही, 431 3 हिन्दी नाट्यदर्पप, 4/27-37 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 का अंतर उपादेय है। उन्होंने लिखा है कि – देखने योग्य वस्तु के न रहने पर भी दृष्टि फैलाना, गहप योग्य वस्तु के अभाव में भी हाथ आदि का चलाना जैसे निष्प्रयोजन व्यापार ललित हैं और सपयोजन व्यापार विलास है। यही इनमें अंतर है।' ___जैनाचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने स्त्रियों के उक्त बीस स्त्वज अलंकारों में से प्रथम तेरह को अप्राप्तसंभोगता में भी होने से अनुभाव भी माना है तथा शोभा कान्ति आदि अन्तिम सात को अलंकार मात्र।2 - - 1. कृटव्यं विना दृष्टिक्षेपो, ग्राह्ममृते हस्तादिव्यापृतिरित्येवं निष्प्रयोजनो ललितम्। सप्रयोजनस्तु व्यापारो विलास, इत्यनयोर्भेदः इति। वही, 4/33 वृत्ति 2. एते च भादादयो विशतिरलंकाराः स्त्रीपामित्युक्तमन्यैः। अस्माभिस्तु तेष्वायास्त्रयोदश अप्राप्तसंभोगतायामपि सम्भवन्तीत्यनुभावत्वेनापि प्रतिपादिताः। शोभा - कान्ति दीप्ति - माधुर्य - धैर्योदार्य प्रागल्भ्यनामानस्तु सप्त प्राप्तसंभोगमेव भवन्तीत्यलंकारा एव नानुभावतां भजन्तीति। अलंकारमहोदधि, पृ. 76-77 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 383 नाट्य वृत्तियां : यद्यपि वृत्ति शब्द का प्रयोग विविध अर्थों मे किया जाता है, किन्तु काव्यशास्त्र में यह विशिष्ट अर्थ का वाचक है। यहां - यह तीन विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है • प्रथम शब्दशक्ति में अर्थात अभिधा, लक्षणा, तात्पर्या और व्यंजना के रूप में, द्वितीय उपनागरिका परुषा व कोमला नामक अनुपात के प्रकारों के लिये तथा तृतीय कैशिकी, आरभटी, भारती व सात्त्वती आदि नाट्यवृत्तियों के लिए होता है। प्रस्तुत में नाट्यवृत्तियों को ही ध्यान में रखकर इनका विवेचन किया जा रहा है। नाट्य प्रयोग की दृष्टि से नायक-नायिकादि पात्रों की कायिक, वाचिक व मानसिक व्यापाररूप चेष्टा ही "वृत्ति" रूप में विवक्षित है। नाट्यवृत्तियों की उत्पत्ति : भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में इन वृत्तियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कथित है कि भगवान विष्णु नागशय्या पर शयन कर रहे थे। तदनन्तर शक्ति के मद में उन्मत्त मधु व कैटभ नामक असुरों ने विष्णु को युद्ध मैं ललकारा। उस समय असुरों के विनाश हेतु जिन चेष्टा - विशेषों का प्रदर्शन किया गया उन्हीं ते वृत्तियों की उत्पत्ति ' हुई। सर्वप्रथम विष्णु के द्वारा भूमि पर बलपूर्वक पैर रखने ते जब भूमि 1. नाट्यशास्त्र, 22/11-14 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 पर अत्यधिक भार पड़ा तब भारती वृत्ति उत्पन्न हुई। विष्णु की गतिशाली तीव, दीप्तिकर एवं शक्तिशाली तथा भयरहित चेष्टाओं से सात्वती वृत्ति की उत्पत्ति हुई। विष्णु के विचित्र आंगिक हावभावों व लीला के द्वारा शिण बंधन से के शिकी नामक वृत्ति की उत्पत्ति हुई. व प्रचण्ड आवेग के आधिक्य व विविध मुद्राओं से विष्प के द्वारा युद्ध करने से आरमटी नामक वृत्ति की उत्पत्ति हुई। ___ आचार्य भरत के एक अन्य उल्लेखानुसार ऋग्वेद से भारती वृत्ति, यजुर्वेद से सान्त्वती, सामवेद से कैशिकी व अथर्ववेद से आरटी वृत्ति की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार भरतमुनि ने उक्त चार प्रकार की वृत्तियों का निरूपप किया है। उक्त वृत्तियां प्रधान अंश की दृष्टि से परस्पर पृथक होते हुए भी एक दूसरे से संवलित भी होती है, क्योंकि वा चिक, मानसिक और शारीरिक चेष्टाई परस्पर मिलकर ही एक दूसरे को पूर्पता देती है। अभिनवगुप्तानुसार शारीरिक चेष्टा भी सक्ष्म मानसिक और वाचिक चेष्टाओं से व्याप्त रहती है। अभिनवगुप्त के उक्त मत के आधार पर जैनाचार्य रामचन्द्र-गुपचन्द्र का कथन है कि चार वृत्तियां 1. वही, 22/24 2. अभिनवभारती, भाग-3, पृ. । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 किसी एक वृत्ति के प्रधान होने के कारप ही होती हैं, अन्यथा अनेक पेष्टाओं से मिलता हुआ वृत्तितत्व एक ही है, क्योंकि नाटक या प्रबन्धादि में किसी भी वृत्तितत्व का दूसरी वृत्तियों के योग के बिना निष्पन्न होना संभव ही नहीं। यदि नाटक में विदूषक भी हास्य के लिये चेष्टा करता है तो वह भी मन या बुद्धि से सम्झकर ही करता है। अत: वृत्तियां एक दूसरे से संवलित होने पर भी अंश-विशेष की प्रधानता होने से भारती, सात्वती, कैशिकी व आरटी भेद से चार प्रकार की होती हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र अनभिनेय काव्य में भी वृत्तियों की स्थिति स्वीकार करते हैं, क्योंकि कोई भी वर्णनीय काव्य - व्यापार शून्य नहीं हो सकता।' उन्होंने वृत्तियों को नाट्य की माता स्वीकार किया है। भारती वृत्ति : नाट्यदर्पणकार के अनुसार, समस्त रूपकों में रहने वाली, आमुख तथा परोचना ते उत्थित (अर्थात् नाटक के प्रारंभिक भागों में विशेष रूप से उपस्थित) सम्पर्प रसों ते परिपूर्ण, तथा प्राय : मानसाचिकैपच व्यापारैः सम्भिधन्ते। शब्दोल्लिखितं मनः प्रत्ययं विना रुजकत्य कायव्यापारपरित्पन्दस्याभादात। तेनानभिनयऽपि काव्ये वृत्तयो भवन्त्येव। न हि मापारशन्यं किञ्चिद् वर्षनीयमस्ति। हि. नाट्यदर्पण, पृ. 274 2. भारती सात्वती कैशिक्यारभटी च वृत्तयः रस-भावाभिनयगाश्चतस्रो नाट्यमातरः।। यही, 3/1 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 संस्कृत भाषा का अवलम्बन करने वाली, वाग्व्यापार-प्रधान वृत्ति भारती वृत्ति कहलाती है।' भारतीवृत्ति की विशेषता ये है कि इसकी स्थिति अभिनय तथा अन भिनेय सभी प्रकार के काव्यों में सामान्यरूप से रहती है।2 का रिका में प्रयुक्त प्रायः शब्द का जो प्रयोग किया गया है। उसकी व्याख्या करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि यद्यपि भारती वृत्ति का मुख्य स्थान आमुख तथा प्ररोचना भागों को माना गया है किंतु इनते भिन्न स्थानों पर वीथी व प्रहप्तन में भी इसका स्थान पाया जाता है। इसी प्रकार मुख्य रूप से भारी वृत्ति में संस्कृत भाषा का ही प्रयोग होता है किन्तु वह अनिवार्य नहीं है। कभी - कभी संस्कृत से भिन्न प्राकृत भाषा का भी भारतीवृत्ति में अवलम्बन किया जा सकता है। सात्वती वृत्ति - जैनाचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र के अनुसार, मानसिक, वाचिक तथा का यिक अभिनयों से तचित, आर्जद, डॉट-फ्ट कार (आधर्ष) ।. सर्वरूपकगामिन्यामय - प्ररोचनोत्थिता। प्राय: संस्कृतनि: शेषरसादया वाचि भारती। वही, 3/2 2. वही, वृत्ति , पृ. 275 3 वही, वृत्ति , पृ. 276 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387 हर्ष व धर्य से युक्त तथा रौद्र, वीर, शान्त व अद्भुत रतों से सम्बद्ध मानस- व्यापार सात्वती वृत्ति कहलाता है।' इसी को व्याख्यापित करते वे लिखते हैं कि सत्त्व - मन से उत्पन्न होने वाली वृत्ति सात्वती वृत्ति है। यद्यपि संसार की सभी वस्तुएँ त्रिगुपात्मक है तथापि तात्त्वती वृत्ति त्रिगुपात्मक होते हुए भी स्त्त्वगुप प्रधान होती है। इसमें मानसिक, वाचिक तथा आंगिक अभिनय होने पर भी मानतिक व्यापार सत्व से नियंत्रित होते हैं।' मानसिक व्यापार की प्रधानता होने से आर्जव, आधर्ष, मृदु, धैर्य आदि भावों का वर्पन होता है। उक्त भावों से युक्त तथा वीर, रौद्र, शांत तथा अद्भुत रसों में रहने वाली वृत्ति सात्वीवृत्ति है।' - - - - - - 1. सात्वतो तत्व - वागंगाभिनयं कर्म मानतम्। सार्जवाधर्ष - मुद - धैर्य - रौद्र - वीर - शमादभुतम।। हि. नाट्यदर्पप 3/5 2. सत् सत्वं प्रकाशा तयत्रास्ति तत सत्वं मनः,तत्र भवा सात्त्वती। वही, वृत्ति , पृ. 286 3 अभिनयत्रय भिधानेऽपि मानसव्यापारस्य सत्वप्रधानत्वात सत्वाभिनय एवात्र प्रधानमितरौं' गौपौ। वही, वृति, पृ. 286 + वही, 3/5 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 आ. भरत धनंजय आदि आचार्यों के मत में सात्वती वृत्ति के सलाप उत्थापक, साइन्धात्य व परिवर्तिक ये चार अंग होते हैं। कैशिकी वृत्ति : नाट्यदर्पफकार के अनुसार, हास्य, श्रृंगार(नृत्य गीतादि रूप) नाट्य तथा (नर्म अर्थात विष्ट परिहासादि के भेदों से युक्त कैशिकी) वृत्ति होती है।' वे लिखते हैं कि अतिशय यक्त केश जिनके हों वे स्त्रियां कैशिका हुई अर्याव कैशिकी वृत्ति की उत्पत्ति केश शब्द से हुई है। लम्बे केशों से युक्त होने के कारण स्त्री को केशिका' कहा जाता है। उनका प्राधान्य होने से उनकी यह वृत्ति कैशिकी कहलाती है। स्त्रियों की प्रधानता होने से कैशिकी वृत्ति हास्य व श्रृंगारोचित क्रियाओं से युक्त होती है। इसमें नर्म-वाग, वेषं तथा चेष्टाओं से अग्राम्य परिहास भी रहता है। जैसे - कुमारसंभव के सातवें सर्ग में - - - - 1. नाट्यशास्त्र, 20/41 झारूपक, 2/537 ॐ कैशिकी हास्य - श्रृंगार - नाट्य नर्मभिदात्मिका। वही, 3/6 का पूर्वार्द्ध। + वही, विवृति, पृ. 287 5. वही, विवृति, पृ. 287 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 389 सखियों द्वारा पार्वती से किया गया परिहास पत्युः शिरश्चन्द्रकलामनेन...... इत्यादि नर्मवाक् परिहास है।' आरटी वृत्ति : आरटी वृत्ति का लक्षण करते हुए आ. रामचन्द्रगुणचन्द्र लिखते हैं कि अनृतभाषप, छल-पञ्च, द्वन्द्वयुद्ध तथा(रौदा दि) दीप्तरतों से युक्त (वृत्ति)आरमटी कहलाती है।2। इसी को स्पष्ट करते हुए वे आगे लिखते हैं कि “आर" अर्थात चाबुक ( अंकुशा ) के समान प्रहार करने वाले उद्धत पुरूष आरभट कहे जाते हैं और ये आरभेट जिस व्यापार मे संलग्न हो, वह आरटी' वृत्ति है। यह वीरों के क्रोधावेग, असत्यभाषप, प्रपंच, छल-जप, माया-इन्द्रजालादि के वर्णन तथा रौद्रादि-दीप्तरसों में प्रयुक्त होती है। यह का यिक, वाचिक व मानसिक सब प्रकार के अभिनयों से युक्त होती है। भरत तथा धनंजय आदि नाट्याचार्यो ने आरभटी के 1. वही, पृ. 287 2. आरमटपनत - द्वन्द्व--दीप्तरता न्किता।। वही, 3/6 3. वही, विवृति, पृ. 288 + हि. नाट्यदर्पप, वृत्ति, पृ. 288 5. वही, वृत्ति , पृ. 289 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 के कमश: संक्षिप्ति, अवपात, वस्तूत्थापन और सम्पेट चार अंग स्वीकार किये हैं। उक्त वृत्तियां रस भाव व अभिनय का अनुसरप करती हैं। अस्तु निष्कर्षत: यह कहना सम्यक् प्रतीत होता है कि जैनाचार्यों ने जहाँ काव्यशास्त्रीय तत्वों का सम गरूपेण विस्तृत विवेचन किया है वही नाट्यसम्बन्धी तत्वों का ही न केवल काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में समावेश किया है अपितु नाट्यशास्त्रीय स्वतंत्र गन्यों का भी प्रचलन किया है। इनमें वर्णित समग तत्व मरत-परंपरा के अनुगामी होने के . साथ ही साथ जैनाचार्यों की अपनी मौलिक विचारधारा से भी अनुप्राणित हैं। फलत: इनते काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों को एक नतन दिशा प्राप्त हुई है जो निश्चित ही जैनाचार्यों के महनीय योगदान की सूचक 같 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. आ. काव्या. T. . हि. वाग्भटा. संक्षिप्त संकेत सूची महा. वस्तु का सा. व सं. सा. में उसकी देन त्रि.श. पु. च. अध्याय आचार्य काव्यानुशासन 391 पृष्ठ वृत्ति हिन्दी वाग्भटालंकार महामात्य वस्तुपाल का साहित्यमंडल व संस्कृत साहित्य में उसकी देन त्रिशष्टि शैला कापुरूषचरित Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 सहायक गन्य - सची (।) अग्निपुराप का काव्यशास्त्रीय भाग संपादक - अन. डा. रामलाल शर्मा, प्रकाशक - नेशनल पब्लिशिंग हाउस. दिल्ली - 6, द्वितीय संस्करण, 1969 (2) अलंकार धारपाः विकास और विश्लेषप डा. शोभाकान्त मिश्र, प्रकाशक - बिहार हिन्दी गन्थ अकादमी, पटना - 3, प्रथम संस्करप, 1972 (3.) अलंकारमहोदधि : नरेन्द्रप्रभतरि, संपादक - लालचन्द्र भगवानदास गान्धी जैन पंडित. प्रकाशक - गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज, बड़ौदा, 1942 (4) आचार्य हेमचन्द - लेखक डा. वि. भा. मुसलगांवकर मध्यप्रदेश हिन्दी गन्थ अकादमी भोपाल, से प्रकाशित (5) (हिन्दी) अभिनवभारती : अभिनवगुप्त, भाष्यकार - आचार्य विश्वेश्वर, प्रकाशक - हिन्दी विभाग. दिल्ली विश्वविद्यालय, द्वितीय संस्करण, सन् 1973 16 हिन्दी अलंकारसर्वस्व : राजानक स्थयक, हिन्दी भाष्यानुवादकार-डा. रेवाप्रसाद द्विवेदी, चौखम्बा प्रकाशन, वारापसी, प्रथम संस्करप, सन् 1971 काव्यप्रकाश : मम्मट, व्याख्याकार - आ. विश्वेश्वर. सम्पादक - डा. नगेन्द्र, प्रकाशक - ज्ञानमण्डल लिमिटेड. वारापसी, प्रथम संस्करप, 1960 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 393 (By (हिन्दी) काव्यमीमांताः राजशेखर, व्याख्या - डा. गंगासागर राय.एम. ए. पी. एच.डी.. प्रकाशक - चौखम्बा विद्याभवन. वारापसी - 1. तृतीय संस्करप, वि.सं. 2039 (9) काव्यादर्श : दण्डी, अनुवादक - बज रत्नदास, बी. ए., प्रकाशक - श्री कमलमपि गन्थमाला कार्यालय, बुलानाला, काशी, वि. सं. 1988 (10) काव्यानुशासनः हेमचन्द्र, सम्पादक - रसिकलाल सी. पारिख, प्रकाशक - श्री महावीर जैन विद्यालय, बंबई, प्रथम संस्करप 1938 (11) काव्यानुशासनः वाग्भट द्वितीय, सम्पादक - पं0 शिवदत्त शर्मा और काशीनाथ पाण्डुरंग परब, प्रकाशक - तुकाराम जावजी, निर्पयसागरं प्रेस, बम्बई, द्वितीयावृत्ति, 1915 (12) काव्यालंकारः भामह, भाष्यकार - देवेन्द्रनाथ शर्मा, प्रकाशक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, शिष्टाब्द - 1962 (13) हिन्दी काव्यालंकारः रुद्रट, नमिताधकृत सं. टीका सहित, व्या. श्री रामदेव शुक्ल, पका. - चौखम्बा विद्याभवन, वारापसी - 1, प्रथम संस्करप 1966 (14) काव्यालंका रसारः भावदेवतरि (अलंकारमहोदधि के अंत में - पृ. 343 से 356 तक प्रकाशित) Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 (15) काव्यालंकारसारतगह एवं लघुवृत्ति की व्याध्या, उभट एवं प्रतिहारेन्दुराज, व्याख्या- डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी, प्रका0-हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, प्रथम संस्करम, सन् 1966 (16) हिन्दी काव्यालंका रसत्र : वामन, व्याख्या. आचार्य विश्वेश्वर, सम्पादक - डा. नगेन्द्र, प्रकाशक - आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली -6, सन् 1954 (17) चन्द्रालोकः पीयषवर्ष जयदेव, व्याख्या. नन्दकिशोर शर्मा, साहित्याचार्य, प्रकाशक - चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, बनारस, सन् 1937 (18) जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 5: पं0 अम्बालाल प्रे० शाह, प्रकाशक - पाश्र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी - 5, प्रथम संस्करप, 1969 (19) जैनाचार्यों का अलंका रशास्त्र में योगदान : डा. कमलेश कमार जैन प्रका. - पाश्र्वनाथ विपाश्रम शोध संस्थान. वारापसी -5, वि.सं. 2041 (20) तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, चतर्थ खण्डः डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक - अखिल भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत परिषद, प्रथम संस्करण, 1974 (21) हिन्दी दारूपकः धनञ्जय, व्याख्या. - डा. भोलाशंकर व्यास, प्रकाशक - चौखम्बा विद्या-भवन, बनारस, चतुर्थ संस्करप, 1973 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 395 (22) हिन्दी ध्वन्यालोक: आनंदवर्धन, व्याख्या - आचार्य विश्वेश्वर, प्रकाशक - गौतम बुक डिपो, नई सड़क, दिल्ली प्रथम संस्करप, अगस्त, 1952 (23) नल विलासनाटक : आचार्य रामचन्द्र, सम्पादक - जी. के. गोण्डेकर, प्रकाशक - गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज, सेन्ट्रल लाइबेरी, बड़ौदा, 1926 (24) हिन्दी नाट्यदर्पप : रामचन्द्र-गपचन्द्र, व्याख्या. - आचार्य विश्वेश्वर, प्रकाशक - हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, पथम संस्करप, तन् 1961 (25) नाट्यशास्त्र: भरतमुनि, संपादक - बटुकनाथ शर्मा, बलदेव उपाध्याय, प्रकाशक - चौखम्बा संस्कृत सीरीज भाफिस, बनारस सन् 1929 (26) हिन्दी नाट्यशास्त्रः भरतमनि, संपादक - एवं व्याख्या. बाबलाल शक्ल शास्त्री, चौखम्बा प्रकाशन, प्रथम संस्करण, सन् 1972 (27) निर्भयभीमव्यायोगः आचार्य रामचन्द्र, सम्पादक - पं0 श्रावक हरगोविन्ददास बेचरदास, प्रकाशक - हर्षचन्द्र भराभाई, धर्माभ्युदय प्रेस, वारापसी, दीर संवत 2437 (28) भारतीय साहित्यशास्त्र : गणेश यम्बक देशपाण्डे, प्रकाशक - पाप्युलर बुक डिपो, बम्बई - 7, प्रथम संस्करप, 1960 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 (29) महामात्य वस्तुपाल का साहित्य-गंडल भौर मैस्कृत साहित्य में उनकी देन: डा. भोगीलाल ज0 सांडेसरा, प्रकाशक - दलसर मालवणिया, मंत्री जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, दारापती - 5, प्रथम संस्करप, 1959 (30) रसगंगाधर : पंडितराज जगन्नाथ, संस्कृत व्या. - पं0 श्री बद्रीनाथ झा, हि. व्या. पं0 श्री मदनमोहन झा, चौखम्बा विद्याभवन, चौक बनारस - 1, 1955 (31) हिन्दी वक्रोक्तिजीवित: कन्तक, व्या. राधेश्याम मिश्र, चौगुम्बा पकाशन, वारापती प्रथम संस्करण, रान 1967 (32) वाग्भट विवेचनः आचार्य प्रियव्रत शर्मा, प्रकाशक - चौखम्बा विधाभवन, वारापती, प्रथम संस्करण, 1968 (33) वाग्भटाल्कारः वाग्भट प्रथम, सिंहदेवगणि टीका सहित, हि. व्याख्या. डा. सत्यव्रत सिंह, प्रकाशक - चौखम्बा विद्याभवन, चौक, वारापसी, सन् 1957 (34) संस्कृत शास्त्रों का इतिहास : आचार्य बलदव उपाध्याय, प्रदाञ्चक - शारदा मंदिर वारापती - 5, प्राईम संस्करप, सन् 1969 (35) संस्कृत साहित्य का इतिहासः सबी. कीथ. अन0 मंगलदेव शास्त्री, प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास, बहली, सन् 1960 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (36) (37) (38) (39) संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास : लेखक - डा. सुशील कुमार डे अनुवादक श्री मायाराम शर्मा प्रकाशक पटना, द्वितीय संस्करण, सितम्बर 1988 बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, - सरस्वती कंठाभरण भोज, व्या. डा. कामेश्वरनाथ मिश्र, प्रका. चौखम्बा ओरियन्टालिया, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1976 साहित्यदर्पण विश्वनाथ, डा. सत्यव्रत सिंह, प्रकाशक चौखम्बा विद्याभवन वारापती तृतीय संस्करण, वि. सं. 2026 व्याख्या. - हेमचन्द्राचार्य जीवनचरित्र - मल जर्मन लेखक डा. जी बइलर अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद कस्तूरमल बांठिया चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 प्रथम संस्करण, 1967 पत्रिका जैन तिद्वान्त भास्कर: संपाο- डा० ज्योतिप्रसाद जैन, STO नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक- देवकुमार जैन ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट जैन सिद्धान्तभवन, आरा, हीरक जयन्ती विशेषांक, भाग 23 किरप । एवं भाग 14 किरप 2 ENGLISH BOOKS 397 (1) History of Indian Literaturer: M.Wintemitz, Vol. II, University of Calcutta, Second Edition, 1972. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 2. A History of Sanskrit Literature: A Mecdonal, London william Heinemann, Second Edition 1905. 3. Kavyanusa sana, Volume II Introduction, by - R.C. Parikh, Pub. - Sri Mahavira Jaina vidyalaya, Bombay. First Edition, 1938. 4. The Number of Rasas : V. Raghavan, Pub. - The Adyar Library, Adyar, 1940. 5. Sanskrit Drama : A.B. Keith, Oxford University Press, 1923, Page #410 -------------------------------------------------------------------------- _