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અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૫૬
પ્રાકૃત પ્રકાશ સટીક
: દ્રવ્ય સહાયક: કચ્છવાગડ દેશોદ્ધારક અધ્યાત્મયોગી પૂ. આ. શ્રી વિજય કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા. શિષ્યરત્ન
પૂ. આ. શ્રી મુક્તિચન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા પૂ. આ. શ્રી મુનિચન્દ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી સામખીયારી જૈન સંઘ- સામખીયારીના
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
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007
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
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श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
गुभ.
शुभ,
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
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274
414
400
320
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
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हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
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संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
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क्रम
181
182
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमलाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
192
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
पुस्तक नाम
काव्यप्रकाश भाग-१
काव्यप्रकाश भाग-२
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
183
184 नृत्यरत्न कोश भाग-१
185 नृत्यरत्न कोश भाग- २
186 नृत्याध्याय
187 संगीरत्नाकर भाग १ सटीक
188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक
189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो
193 न्यायविंदु सटीक
194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
195 शीघ्रबोध भाग-६ थी १०
196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग - १६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक
200 | छन्दोनुशासन
201 मग्गानुसारिया
कर्त्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
उपा. यशोविजयजी
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री
नृपति
श्री अशोकमलजी
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
नारद
-
-
-
श्री हीरालाल कापडीया
पूज्य धर्मोतराचार्य
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य गंभीरविजयजी
एच. डी. बेलनकर
श्री डी. एस शाह
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत
गुजराती
संस्कृत
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत/गुजराती
संपादक/प्रकाशक
पूज्य जिनविजयजी
पूज्य जिनविजयजी
यशोभारति जैन प्रकाशन समिति
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री वाचस्पति गैरोभा
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
मुक्ति-कमल जैन मोहन ग्रंथमाला
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
पृष्ठ
364
222
330
156
248
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448
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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________________
PAAAAAAAAAAAAAAAAA
॥ श्रीः ।।
HD
KAARAASAR
प्राकृतप्रकाशः।
भामहकृतः । श्रीमद्वररुचिप्रणीतप्राकृतसूत्रसहितः। स च डबरालोपाढेन उदयरामशास्त्रिणा
संशोधितः । टिप्पण्या च संयोजितः ।
HAMAAAAAAAAADHAARATARIAADHAARARIAKARARMARWARIAAHIRAAAAAAAAAAAMARANARink
21
4 सेठ श्रीहरिदासात्मजेन-जयकृष्णदास गुप्तेन मा
स्वकीय-- विद्याविलासनानि यन्त्रालये मुद्रयित्वा
प्रकाशितः ।
ORGANISARMARPAPRSANSARMACARBARDA
सूरि नंगर
PRAKRIT-PRAKASH
BY BHAMAHA A commentary on Bararuchis
Prakrit Sutras Edited By Pandit Uwaiya Ram
Shastree Dabral.
prasardar A
IA
Printed by Jaykrishna Dass Gupte, at the Vidya Vilas Press
Benar s. 1980
RARIA-MARAT
किया
analangana
Aho ! Shrutgyanam
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श्रीविश्वनाथः शरणम् ।
प्रास्ताविकम् । श्रीमद्वागदेवता ऽनुरजन विमलमतीनों प्रेक्षावतां सुविदितमेवै. तद् धर्मार्थकाममोक्षाणांचतुर्णावर्गप्राप्तये एव पतितव्यम् सः । तत्प्राप्त्युपायाश्चषहवो ऽसंख्यैः प्रबन्धैः प्रतिपादिता अपि मृदु बु. द्धीनां क्रीडनकमनोऽनुरागिणाम् न तथोपकर्तुं शक्ता पथादृश्यकाव्यानि-तानि हि झाडति दर्शनमात्रेणैवानन्दसन्दोह जनकानि सदुपदेश प्राहयन्ति । तदुक्तम् नाट्या ऽऽचार्येण श्रीमताभरत मुनिना नाट्यशास्त्रे प्रथमे ऽध्यायें
ब्रह्मो वाच "सर्वशास्त्रार्थ सम्पन्नं सर्वशिष्य प्रवर्तकम् । नाट्याख्यं पञ्चमं वेदं सेतिहासं करोम्यहम् ॥ १५ ॥ पुनश्च तत्रैव ब्रह्मणोदैत्यसान्त्वनावसरे"भवतां देवतानां च शुभाशुभ विकल्पकैः। कर्म भावान्वयापेक्षी नाट्यवेदोमयाकृतः ॥ ७२॥ नैकान्ततो ऽत्र भवतां देवानां चापि भावनम् । त्रैलोक्यस्यास्य सर्वस्य नाट्य भावानुकीर्तनम् ।। ७३ ॥ धर्मा धर्मप्रवृत्तानां कामाः कामार्थविनाम् । निग्रहं दुर्विनीतानां मत्तानां दमन क्रिया ॥ ७५ ॥ देवाना मसुराणां च राज्ये लोकस्य चैव हिं। महर्षीणां च विज्ञयं नाट्यं वृत्तान्त दर्शकम् ॥ ८४॥ धर्म्य यशस्य मायुज्यं हितं बुद्धि विवर्धनम् । लोको पदेशजननं नाट्य मेतद्भविष्यति ॥८६॥ इति । तानिय संस्कृतमयानि प्राकृतप्रयानि च भवन्ति तदाह मुनि:
"नानादेश समुत्थं हि काव्यं भवति नाटके" इति। - तत्र संस्कृत भाषापरिझानं पाणिनीयादिव्याकरणेन, प्राकृत क्षा. नायच वररुच्यादीनां प्रयत्नः। तच किमिति कुशीलवाधीनमेव । वयन्तु आचार्याणां वचनोपन्यासनैवोदास्महे
अत्र मुनिः"एतदेव विपर्यस्तं संस्कार गुणवर्जितम् । विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थान्तरात्मकम् ॥ १७ ॥ श्लो०२॥ तथा च वाक्यपदीय भर्तृहरिः
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दैवी वाक् व्यवकीर्णेय मशक्तै रभिधातृभिः । इति । कथमिय मशक्तिरिति तु न प्रयत्नावगम्यम् । "अम्बम्बेति यथावालः शिक्षमाणः प्रभाषत।" इत्यादिरीत्या देश काल भदेनैव प्रतीमहे ॥
घनमध्यपञ्चलादिदेशजानां परस्पर मेकस्यैव शब्दस्व जागरु. को महानुश्चारण भेद एव विप्रतिपन्नानां तुष्टिदो भविष्यति । हेमोऽपि-प्रकृतिः संस्कृतम्। तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् । इति । तथाच गीतगोविन्द रसिकसर्वस्वः
"संस्कृतात्प्राकृतम् इष्टं ततो उपभ्रंशभाषणम्” इति शस्तलायां शङ्करोऽपि संस्कृतात्प्राकृतं श्रेष्ठं ततो ऽभ्रंश भाषणम् इति प्रमाणत्वनोदाजहार-संस्कृताद श्रेष्ठं प्राकृतं जातम् ततोऽपभ्रंशः ।
कचित्तु प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धम् प्राकृतम् । ततश्च वैयाकरणः साधितं हि संस्कृत मित्यभिधीयते । अतो न सँस्कृतमूलकम् प्राकृतम । प्रत्युत प्राकृत मूलकमेव संस्कृतम् । इत्याहुः ।
अपरेतु वेदमूलकमिदम् । त्तनत्वनादिप्रत्ययानाम्, अम्हे अस्मे. आदि पदानां, लिङ्ग वचन विभक्त्यादीनाञ्च वैदिकैः प्रयोगैः साम्यदर्शनात् । एतन्मूलकं च संस्कृतम् । इति वदन्ति । ___ साम्प्रदायिकै स्तूभयमपि नाद्रियते-यदि स्वभावसिद्धम् प्राकसम्, तर्हि कोऽसौ स्वभावः कीदृशश्च येनेगव भाषणं स्यात् । किं समेवतश्च । जनसमवेतश्चेद "देवीवाग व्यवकीर्णेय" मित्यस्मदभि. तेपक्षपातः । पारमेश्वरे तु स्वभावे वैरूप्यं नापपद्यते-नह्यग्नो शैत्यं कचिदपिकदाप्युलभ्यत । एवम् तत्तद्भाषाभदः सुतरांनोपपद्यते। __ सर्वासामेव भिन्नानामपि पारमेश्वरस्वभावसिद्धत्वे तु भाषापरिक्षानिनां विदुषां महान् कोलाहला भविष्यति ।
अथ च यदीयं भाषा वेदभाषा समुद्भवा तत्समकालिका संस्कृताप्राचीना वा स्वीक्रियते तर्हि पाणिनीयव्याकरणस्याऽपूर्णतास्यात् तत्र प्राकृत स्याऽव्याकृतत्वात् । भगवतापाणिनिना च तत्र २ वाहुलकेनाऽपि वैदिकशब्दव्याकृत्या स्वव्याकरणस्य पूर्णता. याः प्रदर्शनात् । तथा च गावी गोणी-गोपातलिकेत्यादीनाम: पि असाधुशब्दत्वव्यवहारोनोपयुज्येत । प्रत्युत संस्कृताद्वितस्य प्राकृतस्येव प्राकृता द्विकृतस्य संस्कृतस्यै वा पभ्रंशव्यवहारापत्तिः स्यात् । न तथा व्यवहारस्तथान्युत्पन्नानामपीष्टः। न ह्यास्त राजाशा
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(३) "पाणिनीयादिव्याकृतस्य नाऽपभ्रंशव्यवहारः" इति ।
लिङ्गवचन साम्यन्तु न दृढतरं प्रमाणम् । नहि आङ्ग्लभाषायाः "फादर" इति, शब्दः उच्चारणसोकर्येणोश्चरितस्य पितृ शब्दस्य प्रकृतिरिति कोऽपि प्रेक्षावान् मनुते तथा च-"डाटर" इति शब्द दुहितृ शब्दस्य । नच कोऽपि, तात इत्युचारयितव्ये टाट इति रटन् भारतीयो बाल आभाषापाठकस्तद्देशीयोवागण्यते ।।
अतो युक्त मुत्पश्याम:-प्रकृतिः संस्कृतम् ततःप्राकृतमिति। तथा. च प्राकृत मज-म्-“व्याकर्तुं प्राकृतत्वेन गिरः परिणतिगताः" इति।
वेदमूलकत्वेऽपि न किमपि प्रमाणम् ।
अस्तु वा यदपि तज्ज्ञानायाऽवश्यं प्रयतितव्यम् । यतोऽत्रभाषायां सुललिताः प्रबन्धाः सन्ति । तदुक्तम्
"अहो तत्माकृतं हारि प्रिया यक्वेन्दु सुन्दरम् । सूक्तयो यत्र राजन्ते सुधानिष्यन्दनिझराः" इति ।
तश्च प्राकृतम् वररुचिमते-प्राकृतम् १ पैशाची २ मागधी ३ ॥ शौरसेनी ४ भेदेन चतुर्दा । तासु पैशाचीमागधी शौरसेनीवि. कृती प्रकृतिः शौरसेनीत्युभवत्र दर्शनात् । शौरसेनी संस्कृतविकृतिः प्राकृतवत् । प्रकृतिः संस्कृतम् ॥ इति दर्शनात् शौरसेन्यामनुक्तं कार्य नवभिः परिच्छदैः प्रतिपादितप्राकृतानुसारिभवति 'शेषं महाराष्ट्रीपद् इत्यत्र महाराष्ट्री पदेन तस्यैव ग्रहणात् । तथा च काव्यादर्श
महाराष्ट्राशयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः, इति हेमस्तु-चूलिकांपैशाचिकम् १ आर्ष प्राकृतम् २ अपभ्रंशम् ३ चेत्यधिकभेदैः सप्तधा विभजते ।
तथा च भेदप्रतिपादकानि सूत्राणि । आर्षम् । ८।१।३। ।
चूलिका पैशाचिके द्वितीयतुर्ययो रायद्वितीयौ। ८ । ४ । ३२५ । स्वगणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे । ८।४ । ३२९ । इति ।
प्राकृत सर्वस्वकारमार्कण्डेयेन-भाषा १ विभाषा २ उपभ्रंश ३ पैशाची ४ भेदाद् भाषाश्चतुर्धा विभक्ताः ।
तत्र भाषा-महाराष्ट्री १ शौरसेनी २ प्राच्या ३ ऽवन्ती ४ मागधी ५ भेदेन पञ्चधा।
अर्द्धमागधी तु मागध्या मेवान्तर्भाविता । . विभाषा-शाकारी १ चाण्डाली २ शावरी ३ आभीरिकी ४
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(४) शाक्की ५ (शाखी) चेति पञ्चथा।।
अपभ्रंश:-आर्दी द्राविडी च विना सप्तविंशतिधा च विभक्तः ।
अन्या अपि तिनो भाषाः स्वीकृताः-नागर-भ्राचडोपनागरभेदेन । पैशाचीभाषा तिसृषु नागरभाषासु विभक्ता तद्यथा कैकेयी २ शौरसेनी २ पाञ्चाली३ च॥रामतर्कवागीशेनाऽपि एवमेव प्रकटितम् । सर्वैरपि प्राकृतवैयाकरणैर्महाराष्ट्री पैशाची मागधी शौरसेनी चेताः प्राकृतभाषाः स्वीकृताः । काव्यालङ्कारे रुद्रटः भाषाणांतिस्रोविधाः "प्राकृतं संस्कृतश्चैतदपभ्रंश इति त्रिधाः" इति
काव्यादर्श दण्डी च "तदेतद्वानयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा अपभ्रंशश्च मिथं चेत्याहु राप्ताश्चतुर्विधाः" ॥ १ । ३२ । चतुर्विधा हि ग्रन्थाः संस्कृनिवद्धाः कचिद्, प्राकृत निवद्याः केचिद् केचिदपभ्रंश निवद्धाः केचिदासां सारयेण निवद्धा मिश्रा इत्युच्यन्ते इत्यर्थः । संस्कृतं सर्गबन्धादि-प्राकृतं स्कन्धकादिकम् आसारादीन्यपभ्रंशो. माटकादिषु मिश्रकम् इति च ।
पुराण वाग्भट्टोऽपि वाग्भट्टालङ्कारे २।१ संस्कृत प्राकृतापभ्रंश भूतभाषितेति भेदेन चतुर्धाविभजते । ___ अर्वाचीनोऽपि अलङ्कारतिलके १५-३ ॥ एवम् रुद्रटश्च काव्यालङ्कारे २।१२ सूत्रे ॥ एवमपभ्रंशविचारस्यावश्यकत्वाद्वररुचिना. कथमुपेक्षित इति विप्रतिपसौ कश्चिद्-इयमपूर्णतैव धररुचेरिति ।
सां प्रादुर्भाव एवनेति त्वन्यः। अपरे तु-"वररुचिना दाढादयो बहुलम्" ४ । ३३ इति सूत्र करणादेवाऽपभ्रंशोपि संगृहीत एव । तस्य च भामहेन आदिशब्दो यं प्रका. रार्थः तेन सर्व एव देश संकेत प्रवृत्ताः भाषाशब्दाः परिगृहीताः । इति व्याख्यातत्वात् । अपभ्रंशश्च देशसङ्केतप्रवृत्ता एव भाषाः तदुक्तं वृद्धवाग्भट्टन-"अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम्" इति तथा च काव्यादर्श दण्डी-यदाच आभीयोदयादेशभाषाः काव्यनाटकेषु निषद्धास्तदाऽपभ्रंशपदेन व्यवहयन्ते, तदुक्तम् तेन-"शौरसेनी च गौडी च लाटी चान्या च तारशी । याति प्राकृतमित्येवं व्यवहारेषु सन्निधिम् ॥ १।३५ आभीरादिगिरः काव्यप्वपदंश इति स्मृताः शास्त्रेषु संस्कृतावस्यदपभ्रंशतयोदितम्" १ । ३६ । इति । यत्तु अपभ्रंश पदेन भारतीयाः प्रचलिता भाषा गृह्यन्ते ताश्च निषध्यन्ते का. व्यनाटकेषु। तदुक्तम नाट्यशास्त्रे भरत मुनिना "शौरसेनं समाश्रित्य
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( ५ )
भाषा कार्या तु नाटके अथवा छन्दतः कार्या देशभाषाप्रयोक्तृभिः” १७-४६ इति अधुना प्रचलित तत्तद्देशभाषास्वपि वङ्गदेशे यात्रा गन्धर्वगानम् नैपाले कूमांचले च हारचन्द्रादिनर्तनम् उपलभ्यते एव अतोऽपभ्रंशस्य प्राकृतपदेन गृहीतुमशक्यत्वा दुचित एव तदनुल्लेखः प्राकृत प्रकाशे इति तत्तु दण्डिविरोधादुपेक्ष्यम् ।
वररुचि समयेऽपभ्रंशस्य व्यवहारानुश्य इति तु न सम्यक् प्रतिभाति "त्रिविधं तश्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः । समानशब्देोर्विभ्रष्ठं देशी मतमथापि वा" इति भरतमुनिनाऽपि तस्य प्रदर्शितप्रायत्वात् । यथा "गौरित्यस्य गावी गोणी गोपोतलिकेस्येवमादयोबहवोऽपभ्रंशाः” । इति भगवता पतलिना महाभाष्येपभ्रंशस्य व्यवहृतत्वात् । स्वयं दांढत्यादि सूत्रप्रणयनाश्च स्यादेतत् । सर्वमेवैतद् प्राकृतम् तद्भवः | तत्समः । देशी चेति त्रिधा विभजन्ते सुरयः । तदाह दण्डी - "तद्भवस्तत्समोदेशत्यिनेक प्राकृत क्रमः" इति, तत्र यद्यपि तद्भव प्राकृत व्याकृत्यर्थमेव प्राकृत वैयाकरणानां प्रयत्नः तदुक्तम् "अथ प्राकृतम् । ८१ । १ । इति सूत्रे व्याख्यानावसरे हेमेन "संस्कृतानन्तरं प्राकृतस्याऽनुशासनं सिद्धसाध्यमानभेद संस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम् । संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणनैव गतार्थम्” इति । तथापि तत्तत्प्रदेशेषु बाहुलकेन दैशिकानामप्युल्लेखा हैशिकमपि प्रायस्तद्भवत्वेन स्वकुर्वन्ति । ४ । ३३ सूत्रव्याख्यानावसरे भामहेन देश सङ्केत त्यादिनै तस्यार्थस्य स्पष्ट मुक्तत्वात् ।
मोscore "गोणादयः" ८ । २ । ७४ गोणादयः शब्दा अनुक्त प्रकृति प्रत्ययलोपागमवर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते तद्यथा गौ:गोणी | गावी । त्रिपञ्चाशात्-तेवण्णा । त्रिचत्वारिंशत्-तेआलीसा" । इति । तत्समस्तु न संस्कृतात्पृथगिति न तद्विषयकः प्रयत्नः कस्यापि ।
अथ कोऽयं प्राकृत सूत्र प्रणेता वररुचिः कदासमभवत्कदाचैतत्सूत्राणि प्रणिनायेति वृत्तं सम्यक्तयानिश्चेतुं न शक्यते । ust वररुचिः सुप्रसिद्धविक्रमराज समानकालिकोऽप्युपलभ्यते तथाहि - "धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कबेतालभट्ट घटखर्पर का लिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य " इति ।
अन्यत्र " पाणिनिं सूत्रकारं च भाष्यकारं पतञ्जलिम् । वाक्य
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कारं वररुचिम्
इति पाणिनि समकालिकः कात्यायना ऽपराभिधः प्रतीयते । महाभाष्यकारैरपि "तेन प्रोक्तम्" ४ । ३ १०७ सूत्रे “वररुचिना प्रोक्तो ग्रन्थः वाररुचः" इति चोदाहृतम् । तथाच प्राकृत मञ्जाम"प्रमीदन्तु च धाचस्ता यासां माधुर्य मुच्छ्रितम् प्राकृतच्छद्मना चक्रे कात्यायन महाकविः व्याकर्तु प्राकृतत्वेन गिरः परिणति गताः। कोऽन्यः शक्तो भवेत्तस्मात्कवेः कात्यायनादृते" । इति । ___ अय मेव कात्यायनापराभिख्यः श्रौतसूत्रकारः पाणिनीय सूत्र वार्तिककारो रूपमाला प्रणेता वृहत्संहिता निमाता चेत्यत्र दृढतर प्रमाणा भावेऽपि विरोधं नाऽऽकलयन्ति सूरयः । कथा सरित्सागर कथा मर्यादावुपवर्णितोऽपि वररुत्रि विलक्षण प्रतिभाशालित्वेन नोक्तार्थे विरोध मवतारयतीति विवेचविवेचनीयम्।
अन्या वाप्ययं वररुचिः स्यात् । तथाप्येत प्रतोयते यदयं सर्वेषु प्राकृम वैयाकरणेषु प्रथम आचार्यः ।
एतत्सूत्रप्रकाश वृत्ति प्रणेता भामहः कदा समभवत् इत्यप्यति. दुरुहतांगतो निर्णेतुम् ।
भामह प्रणीत मलङ्कारलक्षणमप्यस्तीति यते । सच काश्मीरदेशीयः प्ररमप्राचीनश्चेति झल्लकीकरोपाख्यै मिनाचानिरूपि. सम् । एतेनापि वररुचेः परमपुराणता प्रतीयते। इत्यलम् पल्लवितेन । .. अन्यत्र प्राकृतसूत्रेषु भाषाबाहुल्येन-कार्यवैविध्येनच वररुचेः प्राचीनता प्रदश्यते। यच्चकार्य वरांचना बाहुलकेन आदिशब्देन च संगृहीतम् । तदर्थमपि अन्येषां सूत्रप्रणयन प्रयत्नः। आस्तामेतद्॥ हेमच. न्द्रसमयेहिविविधाभाषा: भिन्नरूपाः साता इति प्रतीयते-तथा च
प्राकृतप्राकशतो विशेषकार्याणां दिग्दर्शनम्. प्रत्यये जोर्नवा ८।३ । ३१ । नीली । नीला-३२-३३ ।
अणादि प्रत्यय निमित्तो छीस्त्रियां वा भवति । साहणी, कुरुत्ररी-साहणा, कुरुघरा ॥
धातवो ऽर्थान्तरेऽपि ८।४।२५९ ।।
उक्तादा दर्थान्तरेऽपि धातवोवर्तन्ते । बलिः प्राणने पठितः खादनेऽपि वर्तते । वलइ । खादति प्राणनं करोति वा । एवं कलिः संख्याने । संज्ञानेऽपि । कलइ । जानाति संख्यानं करोति वा॥ पिलप्युपालभ्यो झखः आदेशः । झङ्खद विलपति । उपालभते ।
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(७) भाषते था।
फक्कते स्थक्कः । थक्कर नीचां गतिं करोति विलम्बयति वा । नाहर पूरीषोत्सर्ग करोति ॥
बहुलम ८।१ । २ । बहुलमित्यधिकृतं वदितन्य मापादसमाप्तः। लुप्त य-र-घ-श-ष-प्ला दीर्घः ८।१।४३ ।
प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या उपर्यधोवा येषां शकार षकार. सकाराणां तेषा मादेः स्वरस्य दीर्घो भवति ।
शस्य-यलोपे, पश्यति पासइ । रलोप-विश्राम्यति, धीसमह । मिश्रम्-मीसं । वलोपे-अश्वः । आसो । विश्वासः।वीसासः। शलापे-दुश्शासनः । दूसासणो। षस्य यलोपे-शिष्यः । सीसो । रलोपे वर्षः । वासो । पलाप-विष्वक् वीसुं । षस्य-निषिक्तः नीसित्ता । सस्य यलोपे-लस्यम् सास कस्यचित् कासइ । रलापे-उस्रः ऊसा । बलोपेनिस्वः । नीसा । सलोपे-निस्सहा-नीसहो ॥
न दीर्घाऽनुस्वाराद् ८।२।८२। इति द्वित्वनिषेधः ॥
अवों यश्रुतिः ८।१।१८० । कगजेत्यादिना लुकि सतिशेषो. ऽवो ऽवणात्परोलघु प्रयत्नतरयकारश्रुति भवति। तित्थयरो-सयढं। नयर । इत्यादि काच दम्यतोऽपि इति । पियह।
इतः प्राचीन पुस्तकमाधकमशुद्धमासीद् श्रीमतां वाराणसीस्थराजकीय संस्कृत पुस्तकालयाध्यक्षाणां पाण्डतवर श्रीगोपांना. थ कविराजमहोदयानां म. म. विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवदिनां च साहाय्येन लिखितपुस्तकं जर्मन्देशीय काविल महोदयसम्पादित पुस्तकं च दृष्टा यथामति सावधान संशोधितम् । तत्सहायेनैव यत्र कचिद् टिपण्यापाठान्तरेणचसयोजितम् । द्वादश परिच्छेद वृत्तौ च सहाय्यं प्रापम् ।
छात्राणा मुपकाण्य पदसाधुत्वज्ञानार्थ तत्तत्कार्यप्रतिपादकसूत्रा. णाम् संख्या कोष्ठकान्तरे प्रदर्शिता । अन्यग्रन्थेभ्यः कार्यावशेषाश्च टिपण्यां प्रदर्शिताः। मानुष मात्र सुलभतया दृष्टि प्रमादा जाता. अनवधानताक्षन्तव्या विद्वद्भिरिति विज्ञापयते विदुषामनुचर:वैशाखशुक्ला .
पर्वतीय उदयराम डवरालः । एकादशी चि.सं.१९७७ ।।
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अथ नाट्याचार्य मुनिमतेन भाषाणां भेद प्रदर्शन पूर्वकविनियोगः प्रदश्यत--
मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्य मागधी। बाहीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः॥४८॥ शवरा भीर चण्डाल सचर विडोद्रजाः ॥ हीना धनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृता ॥४९॥ मागधी तु नरेन्द्राणा मन्तः पुर निवासिनाम । चेटानां राज पुत्राणां श्रीष्ठिना चार्द्ध मागधी ॥ ५० ॥ प्राच्या विदूषकादीनां धूर्तानामप्यवन्तिजा । नायिकानां (च सखीनां च सूरसेना विरोधिनी ॥ ५१ ॥ योधनागरकादीनां दाक्षिणात्याथदीव्यताम्। वाहोकभाषोदाच्यानां खसानां च स्वदेशजा ॥ ५२ ॥ शबराणां शकानीनां तत्स्वभावश्चयोगणः। । (श सकारभाषायोक्तव्या चण्डाली पुक्कसादिषु ।। ५३॥ अङ्गारकार व्याधानां काष्ठयन्त्रोपजीधिनाम् । योज्याशवरभाषातु किचिद्वानोकसीतथा ॥ ५४॥ गवाश्वाजाविकोष्ट्रादि घोषस्थाननिवासिनाम् । आभीराक्तिः शावरीवा द्राविडी द्रावडादिषु ॥ ५५ ॥ सुरङ्गा खनकादीनां सौण्डीकाराश्च (शौण्डिकानां) रक्षिणाम् । व्यसने नायकानां स्या दात्मरक्षासु मागधी । ४६ ॥ नघवर किरातान्ध्र द्रविडाद्यासु जातिषु ।। नाट्य प्रयोग कर्तव्यं काव्यं भाषा समाश्रयम् ॥ ५७ ॥ गङ्गासागरमध्ये तु ये देशाः श्रुतिमागताः। एकारबहुला तेषु भाषां तज्ज्ञः प्रयोजयेत् ॥ ५० ॥ बिन्ध्य सागरमध्येतु ये देशाः श्रुतिमागताः । नकार बहुलां तेषु भाषां तज्ज्ञः प्रयोजयेत् ।। ५९ ॥ सुराष्ट्रावन्तिदेशषु वेत्रवत्युत्तरेषु च । ये देशा स्तेषु कुर्वीत चकार बहुला मिह ॥ ६०॥ हिमवत्सिन्धुसौवीरा न्येच देशाः समाश्रिताः । उकार बहुलां तज्ज्ञ स्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥ ६१ ॥ चर्मण्वती नदीपारे ये चावुद समाश्रिताः। तकार बहुलां नित्यं तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥ ६२॥ एवं भाषा विधानं तु कर्तव्यं नाटकाश्रयम् । अत्र नोक्तं मयायच लोकाद् ग्राह्य बुधस्तु तद् ॥ ६३ ॥
इति शम्।
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श्रीगणेशाय नमः।
प्राकृतप्रकाशः।
जयति मदमुदितमधुकरमधुररुताकलनकूणितापाङ्गः। करविहितगण्डकण्डूविनोदसुखितो गणाधिपतिः॥१॥ पररुचिरचितप्राकृतलक्षणसूत्राणि लक्ष्यमार्गेण । बुद्ध्वा चकार वृत्तिं संक्षिप्तां भामहः स्पष्टाम् ॥२॥
आदेरतः ॥१॥ अधिकारोयम् । यदितऊर्धमनुक्रयिष्याम आदेरतः स्थाने तद्भवतीसेवं वेदितव्यम् । आदेरिखेतदा ऽऽपरिच्छेदसमा. सेः । अत इति च आकार विधानाव(१) । तकारग्रहणं स. वर्णनित्यर्थम् ॥१॥
आ समृद्ध्यादिषु वा ॥२॥ समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देष्वादेरकारस्याकारो भवति था। समिद्धी सामिद्धी(२)। (१-२८ ऋ-इ ३-१ दलोपः ३-५० द्विस्वम३-५१ धू-द५-१८ दीर्घः)। पअडं पाअडं (३-३ रलोपः २-२ कलोपः २-२० - ५-३० विन्दुः) अहिजाई आहि. जाई (२-२७ भू- २-२ तलोपः ५-१८ दीर्घः) मणसिणी, माणसिणी। (२-४२ - ४-१५ विन्दुः ३-३ व्लोपः२-४२
(१) कचिदू-आ आकार विधानाद् पा० (२) "अन्त्यस्य हलः" ४-६ इति सोलोपः एवं सर्वत्र सोलोपे बोध्यम् ॥
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प्राकृतप्रकाशे
न् ण) पडि(१)वा पाडिवआ । (३-३ रोपः २-१५ - २-२ दलोपः) सरिच्छं सारिच्छं । (१-३१ ऋ-रि २-२ दुलोपः ३-३० -च्छ् ५-३० विन्दुः) पडिसिद्धी पाडिसिद्धी । (३-३ रलोपः २-४३ = ३-१ दलोपः ३-५० द्वित्वम् ३-५१ धन्द ५-१८ दीर्घः) पमुत्तं पासुतं । (३-३ रलोपः ३-१ पलोपः ३-५० द्वित्वम् ५-३० विन्दुः) । पसिद्धी पासिद्धी । (३-३ रलोपः २-२ दलोपः ३-५० द्वित्वम् ३-५१ =द ५-१८ दीर्घः) अस्सो आसो(२)। (२-४३ श् म् ३-३ वलोपः ३-५८ द्वित्वम्(३) ५-१ ओ) समृद्धि, प्रकट, अभिजाति, मनस्विनी, प्रतिपदा(४) सदृक्ष, प्रतिषिद्धि,(५)प्रमुप्त, प्रसिद्धि, अश्व । आकृतिगणोयम् ॥२॥ इदीपत्पक्चस्वप्नवेतसव्यजनमृदङ्गाऽङ्गारेषु ॥ ३ ॥
ईषदादिषु शब्देषु आदेरतः स्थाने इकारादेशो भवति । वेति निवृत्तम् । इसि(६)(४-१ ई-इ २-४३ षम् ४-६ अन्त्यलोपः)
(१) प्रत्यादौडः ८ । १ । २०६ इति हेमसूत्रेण तोडः । कोचि. तु "प्रतिसरवेतसपताकासुडः” २-८ इतिसूत्रे प्रतिसरादयः प्र. त्यादीनामुपलक्षणमिति वदन्ति ॥
(२) न दीर्घाऽनुस्वारात् ८।२ । ९२ इतिहेमसूत्रेण द्वि. स्वनिषेधः॥
(३) द्वित्वा भाव पक्षे असो॥ . (४) क. पुस्तके प्रतिपद् पाठ-स्तत्र-(४-७ =आ)। (५) यत्र प्रतिस्यद्धि पाठस्तत्र (३-३७ स्प=सि)इति विशेषः (६) "इत्वमीषत्पदे कैश्चिदीकारस्यापि चेष्यते । इसि चुम्बिअमित्यादि रूपं तेन हि दृश्यते" । इत्यभियुक्ताः॥
हेमस्तु इसि इति मन्यते तथा च शाकुन्तले "ईसीसि चुम्बिआ. ई" इति प्रायोदीर्धादिर्लभ्यते ॥
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प्रथमपरिच्छेदः ॥
पिक्कं ( ३-३ क्लोपः ३-५० कलम ५-३० विन्दुः) सिवि णो (१) (३-३ वूलोपः ३ - ६२ विप्रकर्ष इकारताच २-४२ नू=णू ५- १ ओ) वेडिसो (२८ तू = ५-१ ओ) वअणो ( ३-२ यूलोपः २ - २ ज्लोपः २- ४२ नू ण् ५-१ ओ) मिहंगो (२) (१-२८ ऋ = ४-१७ बिन्दुः इंगालो (४ - १७ त्रिन्दुः २ - ३० =लू ५ - १ ओ) ॥ ३ ॥ लोपो ऽरण्ये ॥ ४॥
२-२ लोप:, ५ - १ ओ)
अरण्यशब्दे आदेस्तो लोपो भवति । रणं (३-२ यलोपः ३-५० द्विलम् ५-३० विन्दुः) ॥ ४ ॥
ए शय्यादिषु ॥ ५ ॥
शय्या इसेत्रमादिषु शब्देषु आदेरत एकारादेशो भवति । सेजा ( २ - ४३ शू=म् ३ – १७ थ्यू =ज् ३ - ५० द्वित्वम् ) सुरं । (४ - १७ बिन्दुः १-४४ औउ ३–१८ =र् ५-३० विन्दुः) उक्रो (३-१ लोपः ३-५० द्वित्व ५-१ ओ) तेरहों । ( ३-३ रलोपः २-२ य्लोपः ४-१ ओलोपः २-१४ द्=र् २-४४ = २-१ ओ) अच्छेरं (४--१ आ=अ (३) ३-४० श्च = छू ३-५० द्वित्वम् ३-५१ छ=च् ३-१८ =र् ५-३० विन्दुः) पेरन्तं (३-१८ = ५-३०
( १ ) स्वप्नीव्योर्वा ८ । १ । २५९ । सिमिणो । सिविणो । हे० ( २ ) इदुतौ वृष्टि वृष्ट पृथङ् मृदङ्ग नप्तू के ८।१ । १३७ तेणाहिलं गीअं मुइङ्गि करताडिय मिइङ्गं ॥ हे०
का. पु. मुइङ्ग पाठे १-२९ सूत्रेणोत्वं बोध्यम्, तत्र गणे आदि
ग्रहणाद् ॥
( ३ ) हस्वः संयोगे ८ | १ | ८४ । तित्थम् । हे । एवं सर्वत्र बोध्यम् ॥
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प्राकृतप्रकाशे
विन्दुः) । वेल्ली ( ३-३ लोपः ३५० द्विलम् ) । शय्यासीन्दयत्करत्रयोदशाश्चर्यपर्यन्तयः ॥ ५ ॥
ओ बदरे देन ॥ ६ ॥
बदरशब्दे दकारण सहादेरत ओवं भवति । बोरं (५-३०
1
Farg:) 11 & 11
लवणनच मल्लिकयोर्वेन ॥ ७ ॥
लवणनत्र मल्लिक पोरादेरतो वकारेण सह ओकारः स्यात् । लोणं (५-३० विन्दुः) गोमल्लिआ (२-४२ नू=ण् २-२ क्लोपः) ॥ ७ ॥
मयूरमयूखयोर्ध्वा वा ॥ ८ ॥
मयूर मयूख इत्येतयोर्यशब्देन सहादेरत ओवं वा भवति । मोरो, मऊरो । ( ५-१ ओ) मोहो, मऊहो । (२-२७ खू=हू ५-१ ओ) उभयत्र, पक्षे २-२ यलोपः ॥ ८ ॥
चतुर्थीचतुर्दश्योस्तुना ॥ ९ ॥
एतयोस्तुना सहादेरत ओत्वं भवति वा चोत्थी, चउत्थी । (३-३ र्लोपः ३-५० द्विलं ३-५१ थ्व, पक्षे २-२ तलोपो विशेष :) चोदही, चउद्दही (१) । (२ - ४४ शू = ह् शेषं पूर्ववद् ) ॥ ९ ॥ अदातो यथादिषु वा ॥ १० ॥
अत इति निवृत्तम् । स्थान्यन्तरनिर्देशात् । यथा इत्येवमादिषु आतः स्थाने अकारादेशो भवति वा । जह, जहा, तह, तहा । (२-२७ थू = हू ) | पत्थरो, पत्थारो । ( ३-३ रलोपः ३-१२ स्तु= ३५० थू द्वि० ३५१ = ५-१ ओ) पउअं, पाउअं । ( ३-३ रलो
(१)क. पु. चतुर्थी तत्र चोत्थी, चउत्थी । चतुर्दशी तत्र चोदही, चउद्दही । पा० ॥
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प्रथमपरिच्छेदः ॥
पः १-२९ - २-२ कतयोर्लोपः ५-३० विन्दुः) तलवेण्टअं, तालवण्टअं। (१-२८ ऋ=(१)१-१२इ=ए(२) ३-४५न्त=ण्ट २-२ कलोपः ५-३० वि) उखअं, उक्खाअं । (३-१ तलोपः ३-५० वि० ३-५१ ख- २-२ तलोपः ५-३० वि) धमरं,चामरं । (५-३०वि) पहरो, पहारो ।(३-३ रलोपः ५-१ ओ) चडु, चाडु । (२-२० टू-ड्) दवग्गी, दावग्गी । (३-२ नूलोपः ३-५० वि० ५-१८ दीर्घः) खइअं, खाइअं । (२-२ दलोपः । तलोपश्च ५-३० वि) संठविअं, संठाविअं । (८-२६ स्था-ठा ३-५६ द्वित्वनिषेधः२-१५- २-२ तलोपः ५-३० वि) हलिओ, हालिओ । (२-२ कलोपः ५-१ ओ)। यथा तथाप्रस्तारपाकृततालतकोत्खातचामरप्रहारचाटु दावाग्नि खादितसंस्थापितहालिकाः ॥ १० ॥
इत्सदादिषु ॥ ११ ॥ ___ सदा इत्येवमादिष्वात इकारो भवति वा । सइ-सा (२-२ दलोपः) एव मग्रिमेष्वपि । तइ, तआ । जइ, जआ । सदा, तदा, यदा, ॥ ११ ॥
इत एत् पिण्डसमेषु ॥ १२ ॥ पिण्ड इसेसमेषु इकारस्यैकारादेशो भवति वा । पेण्ड, पिण्डं । (५-३० वि) णेद्दा,णिद्दा। (२-४२ न=ण ३-३ रलोपः ३-५० वि०) सेंदूर,सिंदूरं । (४-१७ वर्गान्तर्वि५-३० वि) धम्मे. ल्लं, धम्मिल्लं । (५-३० बि) चेंध, चिंधं । (३-३४ न्हू-धू ५-३०
(१) ऋष्यादे राकृति गणत्वाद् ॥ (२) संयोगपरत्वेन पिण्डसमत्वात् । "इदेदोवृत्ते" ८।१ । १३९ । विण्ट, वेण्ट घोण्ट । हे०
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प्राकृतप्रकाशे वि) वेहू, विण्हू । (३-३३ष्ण- ५-१८ दीर्घः) पेट्ठं, पिढें (३-१० - ३-५० वि० ३-५१ - ५-३० वि) पिण्ड निद्रा मिन्दर धम्मिल्ल चिन्ह विष्णु पिष्टानि । समग्रहणं संयो. गपरस्योपलक्षणार्थम् ॥ १२ ॥
अन् पथिहरिद्रापृथिवीषु ॥ १३ ।। पथ्यादिषुशब्देषु इकारस्याकारो भवाते । पहो । (२-२७ थ्- ४-६ नूलोपः ५-१ ओ) हलद्दा। (२-३० रसल् ३-३ रलो. पः ३-५० द्वि०) पुहवी । (१-२९ ऋ=उ २-२७ थ्-ह) ॥१३॥
इतेस्तः पदादेः ॥ १४ ॥ पदादेरितिशब्दस्य यस्तकारस्तस्मात् परस्येकारस्य अकारो भवति । इअ (२-२ तलोपः) उअह(१), अण्णहा (३-२ यूलोपः २-४२ - ३-५० वि० २-२७ ह) वअणं (२-२ चलोपः २-४२ न=ण ५-३० वि) इअ, विमन्तीउ (२-२ कलोपः ५-२० जश्-उ) चिरम् । इतिपश्यतान्यथावचनम् । इति विकसन्त्यश्विरम् । पदादेरिति वचनादिह न भवति । पिओ. त्ति(२) । (३-३ रलोपः २-२ यलोपः ५-१ ओ ४-१ इलोपः) प्रिय इति ॥ १४ ॥
उदिक्षुवृश्चिकयोः ।। १५ ।। इक्षुश्चिकयोरित उत्वं भवति । उच्छू (३-३० -च्छ् ५-१८ दीर्घः) विच्छुओ (१-२८ ऋ-इ ३-४१ श्च्=च्छ् २-२ कलोपः ५-१ ओ) ॥ १५ ॥
(१) "उअ पश्ये” ८।२।२११ पक्षे देक्ख ॥ हे.
(२) इतेः स्वरात् तश्चद्विः । ८।१। ४२ पदात्परस्य इते रादे र्नुग् भवति, स्वरात्परश्चातकारो द्विर्भवति किन्ति जन्ति ॥ स्वरात्तहत्ति-झत्ति । पुरिसोत्ति । हे०
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प्रथमपरिच्छेदः ॥
ओ च द्विधा कृञः ॥ १६ ॥
कृञ्धातुप्रयोगे द्विधाशब्दस्यौ (९) कारो भवति चकारादुखं च । द्विधा कृतम् दोहाइअं दुहाइअं ( ३-३ वलोपः २-२७ धू=हू १-२८ ऋ = २-२ कायोर्लोपः ५-३० वि०) द्विधाक्रिपते दोहाइज्जर दुहाइज्ज ( ७-८ यक = इज्ज ४-१ इलोपः ३-३ रलोपः २-२ कलोपः ७ - १ = ३) ॥ १६ ॥
ईत सिंहजिह्नयोश्च ॥ १७ ॥
एतयोरादेरिकारस्य ईकारो भवति । सीहो ( २ ) ( ५-१ ओ ) (३) जीहा । ( ३-३ वलोपः) चकारो ऽनुक्तसमुच्चयार्थः, तेन वीसत्यो ( ३-३ वलोपः २-४३ = ३-१२ स्व= ३-५० द्वि० ३-५१ धू = ५-१ ओ) वीसंभो ( ३-३ रलोपः २-४३ शू= ४-१७ विन्दुः ५-१ ओ) इसेवमादिषु ईवं भवति ॥ १७ ॥ इदीतः पानीयादिषु ॥ १८ ॥
पानीय इत्येवमादिष्वादेरीकारस्य इकारो भवति । पा णिअं (२-४२ नू=णू २-२ यूलोपः ५-३० सोर्विन्दुः) अलिअं (२-२ कलोपः ५-३० विन्दुः) बलिअं (३-२ यूलोपः २-२ क्लोपः ५-३० त्रिं०) आणि (२-२ दलोपः २-४२ न्= ण् ४- १२ = विन्दुः ) करितो (२-४३ प्= ५- १ ओ) दुइअं ( ३-३ वलोय: ४-१ इ=उ २-२ तुलोपः । यलोपश्च ५-३० विन्दुः ) तइअं (१-२७= ऋ =अ २-२ तुयोर्लोपः ५-३० बिन्दुः ) गहिरं (२-२७ भू=६ ५-३० बिन्दुः) । पानीयाऽली कव्यलीकतदानीं करीषद्वितीयतृतीयगभीराः ॥ १८ ॥
( १ ) क. पु. इत इत्यधिकः पाठः ॥
( २ ) होघोऽनुस्वारात् ८ । १ । २६४ । सींहो सिंघो हे० (३) बाहुलकादनुस्वार निवृत्तिः साध्या ।
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प्राकृतप्रकाशे
एनीडापीडकीहगीदृशेषु ॥ १९ ॥ नीडादिष्वीकारस्यैकारो भवति । जेडं (१) २-४२ - ५-३० विन्दुः) आमेलो(२-५६ =म् २-२३ इ-ल् ५-१
ओ) केरिसो (१-३१ ऋ-रि २-२ दलोपः २-४३ शम् ५-१ ओ) एरिसो पूर्ववत् ।। १९ ॥
उत ओत् तुण्डरूपेषु ॥ २० ॥ तुण्ड इत्येवंरूपेषु आदेरुकारस्यौकारो भवति । तोण्डं (५-३० विन्दुः) मोत्ता (२-२ कलोपः ३-५० द्वित्वम) पोक्खरो (३-६९
क्व ३-५० द्वित्वं ३-५१ ख-क् ५.१ ओ) पोत्थओ (३-१२ स्त्-थ् ३-५० द्वि० ३-५१ थ्-त् ५-१ ओ) लो. दओ (३-३ वलोपः ३-५० वि० ३-५१५=द् ५-१ ओ) कोट्टिमं । (५-३० विन्दुः) तुण्डमुक्तापुष्करपुस्तकलुब्धककुष्टि मानि । रूपग्रहणं संयोगपरोपलक्षणार्थम् ॥ २० ॥
उलूखले ल्वा वा(२) ॥ २१ ॥ उलूखलशब्दे लेन सह उकारस्यौकारो भवति वा । ओखलं. उलखलं (५-३० विन्दुः) ॥ २१ ॥
अन्मुकुटादिषु ॥ २२ ॥ मुकुट इसवमादिष्वादेरुकारस्य स्थाने अकारो भवति(३) । मउडं (२-२ कलोपः २-२० - ५-३० वि०) मउलं (२-२ कलोपः ५-३० वि०) गरु(४) २-२ स्वार्थिकस्य लोपः ५-३०
(१) का. पु. गेहुं तत्र सेवादित्वाद्वित्वं ज्ञेयम् ॥ (२) क्वचिद् "उदूखले द्वावा" पा० उदूखलं ॥ (३) का. पु. वेति निवृत्तम् इत्यधिक पाठभेदः प्रदर्शितः॥ (४) ४-२५ सूत्रेण पाक्षिकः कः ।।
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प्रथमपरिच्छेदः॥ वि०) गरुई (३-६५ रस्यविप्रकर्ष उत्व(१)च) जहिठिलो (२-३१ यज् २-२७ धू-ह ३-१ ष्लोपः ३-५० वि० ३-५१
-ट् २-३.० - ५-१ ओ) सोअमल्लं (१-४१ औ=ओ २-२ कलोपः ४-१ आअ ३-२१ र्य-ल ३-५० वि० ५-३० विन्दुः) अवरि (२-१५ प्न्) मुकुट मुकुलगुरुगुर्वीयुधिष्ठिरसौ. कुमार्योपरयः ॥ २२ ॥
इत्पुरुषे रोः ॥ २३ ॥ पुरुषशब्दे यो रुस्तस्य उकारस्य इकारो भवति । पुरिमो २-४३ ष्=५-१ ओ ॥ २३ ॥
उदूतो मधूके ॥ २४ ॥ मधूकशब्दे ऊकारस्य उकारो भवति । महुअं (२-२७५ २-२ क्लोपः ५-३० विन्दुः) ॥ २४ ॥
अद् दुकूले वा लस्य द्वित्वम् ॥ २५ ॥ . दुकूलशब्दे ऊकारस्याकारो भवति वासयोगेन लकारस्य द्वित्वम् । दुअल्लं दुऊलं (२-२ क्लोपः ५-३० विन्दुः) ॥ २५ ॥
एन्नू पुरे ॥ २६ ॥ .. नूपुरशब्दे ऊकारस्य एकारो भवति । णेजरं (२-४२ =ण २-२ प्लोपः ५-३० विन्दुः) ॥ २६ ॥
ऋतो ऽत् ॥ २७ ॥ आदेकारस्याकारो भवति । तणं (२-४२ =ण ५-३० वि०) घणा ( २-४२ न=ण्) मअं (२-२ दलोपः) ५-३० वि०) कअं (पूर्ववत) बद्धो (३-१ दलोपः ३-५०
(१) तन्वीसमत्वात् । यद्वा, "अजातेः पुंसः" ८ । ३ । ३२ हेम . सूत्रानुसाराद् संस्कृतवद् ङीपि वा सिन्धौ बोध्यम् ।
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१०
प्राकृतप्रकाशे
द्वि० ३-५१ धू= ५-१ ओ) वमहो (२-४३ = २-२७ भू = ६ ५- १ ओ) तृणघृणा मृत कृतवृद्धवृषभाः ॥ २७ ॥
इदृष्यादिषु || २८ ॥
ऋष्यादिषु शब्देषु आदेऋकारस्य इकारो भवति । इसी (२-४३ = ५- १८ दीर्घः) विसी (पूर्ववत् ) गिट्टी (३-१० ष्ट्टू ३-५० द्वि० ३ ५१ टूटू ५-१८ दीर्घः ) दिट्ठी (पूर्ववत्) एवमुत्तरत्रापि । सिट्ठी । सिङ्गारो (२-४३ शू =स् ४-१७ वर्गान्तो वा ५ - १ ओ) मिअंको (२-२ गलोपः ४-१ आ= अ ४ - १७ वर्गान्तबिन्दुः ५- १ ओ) भिङ्गो (४-१७ = विं० ५-१ ओ) भिङ्गारो (पूर्ववत्) हिअअं (२ - २ दयोर्लोपः ५ - ३० विन्दुः ) विइन्हो ( २ - २ तलोपः ३-३३ ष्णू = ण्डू ५ - १ ओ) विहिअं ( २-२ तलोपः ५-३० विं) किसरो (२-४३ शू= ५-१ ओ) किच्चा (३-२७ त्य्=च् ३-५० द्वि०) विच्छुओ (१-१५ सू०स्प० (१) सिआलो (२-४३ शू=स् २-२ गलोपः ५-१ ओ) किई (२-२ तुलोपः ५- १८ दीर्घः) किसी । (२-४३ = ५- १८ दीर्घः) किवा (२-१५ पू= व्) ऋषिऋषीगृष्टिदृष्टिसृष्टिशृङ्गारमृगाङ्कमृङ्गभृङ्गारहृदयवितृष्णबृंहित कृशरकृत्यावृश्चिकशृगालकृतिकृषिकृपाः ।। २८ ।
उद्दत्वादिषु ॥ २९ ॥
ऋतु इत्येवमादिषु आदेर्ऋत उकारो भवति । उदू (२-७ तू = दू ५ - १८ दी ० ) मुणालो (२-४२ न्= ण् ५-१ ओ) पु·
( १ ) का० पु० विंचुओ इति पाठभेदे प्रदर्शित स्तत्र "वृश्चि के वे चुवा" ८ । २ । १६ छापवादः विञ्चुओ, विंचुओ । पक्षे विच्छिओ । इति हेमानुसारिणी प्रक्रिया ऽनु सर्तव्या ।
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प्रथमपरिच्छेदः ||
११
हवी (१-१३ सू० स्प०) वृंदावणं (४-१७ ०२-४२ नू=ण् ५ = ३० वि०) पाउसो (३-३ रलोपः वलोपश्च ४ - ११ धू=मू४ - १८ पुंवत् ५ - १ ओ) उत्ती (३-३ रलोपो वलोपश्च ३-१ तलोपः ३ ९० द्वि० ५-१८ दी०) णिउदं (२-४२नू = णू २-२ वलोपः २-१ तू =द् ५ - ३० त्रि०) संबुदं (२ - ७व= दू ५-३० वि०) बुदं (२-४२ नूणू ३-३ ग्लोपः ३-५०
द्वि० २-१ =द् ५-३०) बुत्तो (३-१ तलोपः ३-५० द्वि० ४-१ अ ४-१७ ०५-१ ओ) परहुओ (२-२७ भू=हू २-२ तुलोपः ५-१ ओ) माउओ (२-२ तुलोपः २ - २ क्लोपः ५-१ ओ) जापाउओ । (पूर्वत्रत) ऋतु, मृणाल, पृथिवी, वृन्दावन, प्रावृष्, प्रवृत्ति, निवृत, (१) संवृत, निर्वृत, वृत्तान्त, परभृत, मातृक, (२) जामातृक, इत्येवमादयः ।। २९ ।। ऋ रीति ॥ ३० ॥
वर्णान्तरेणायुक्तस्यादेर्ऋकारस्य रिकारो भवति । रिर्ण (५ - ३० विं०) रिद्धी (३-१ दुलोपः ३-५० द्वि० ३-५१ धू ५ - १ ओ) रिच्छो (३-३० क्षूछ शे० पू० (३) ॥ ३० ॥ कचिद्युक्तस्यापि ॥ ३१ ॥
वर्णान्तरेण युक्तस्यापि कचि दृकारस्य रिकारो भवति । =म् ५-१ ओ )
एरिसो (१-१९ ई = ए २-२ दुलोपः १-४३ सरसो, तारियो । एरिसोत् (४) ॥ ३१ ॥
(१) क० पु० विवृत्त पाठः । विउदं प्रा० |
( २ ) क० पु० भ्रातृक इत्यधिकः पाठः । भाउओ इति प्रा० । ( ३ ) क० पु० ऋण, ऋद्धं ऋच्छ इत्येवमादयः अ० पा० । केचिद् ऋक्षं पठन्ति ।
(४) क० पु० ईदृश, सदृश, तादृश, कीदृश इत्येवमादयः । केरिसो प्रा० ॥ अ० पा०
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प्राकृतप्रकाशे
वृक्षे वेन रुर्वा ॥ ३२ ॥
वृक्षशब्देवशब्देन सह ऋकारस्य रुकारो भवति वा । रुक्खो(३-२९ = व् ३-५० द्वि० ३-५१ खू-कू ५-१ ओ) वच्छ (१-२७ ऋ=अ३-३१ क्ष = छू शे० पू० ) व्यवस्थितविभाषाज्ञापनाच्छत्वपक्षे न भवति खत्वपक्षे तु नित्यमेव भवति ॥ ३२ ॥ ऌतः क्लृप्तइलिः ॥ ३३ ॥
क्लृप्तशब्दे लकारस्य इलीययमादेशो भवति । किलितं । (३-१ लोपः ३-५० द्वि० ५-३० वि०) तदेवमादेशान्तर - विधानात्माकृते ऋकारऌकारौ न भवतः ॥ ३३ ॥ · ऐन इछेदनादेवरयोः ॥ ३४ ॥
वेदनादेवरयोरेकारस्य इकारो भवति । विअणा (२-२ दूलोपः २- ४२ न्= ण् ) दिअरो । ( २-२ व्लोपः ५-१ ओ) वाग्रहणानुवृत्तेः क्वचिद् वेअणा, देअरो इसपि ॥ ३४ ॥ ऐतएत् ॥ ३५ ॥
आदेरैकारस्य एकारो भवति । सेलो (२-४३ शू=म् ५-१ ओ) सेच्चं (२-४३ शू=म् ३ - २७ त्य्=च् ३ - ५० द्वि० ५-३० विं०) एरावणो, केलासो ( ५- १ ओ) तेल्लोक | (३-३ ग्लोपः ३-५८ = द्वि० ३-२ यूलोपः ३-५० कूाद्र०) शैलशैस्यैररावण कैलास त्रैलोक्यानि ॥ ३५ ॥
दैत्यादिष्व ॥ ३३ ॥
१२
दैत्यादिषु शब्देषु ऐकारस्य अइ इत्ययमादेशो भवति । दइच्चो (३-२७ त्यू = ३-५० द्वि० ५-१ ओ) चइत्तो ( ३-३- रलोपः ३-५० द्वि० ५ - १ ओ) भइरवो (५ - १ ओ) सइरं ( ३-३ वलोपः ५ - ३० विन्दुः) वरं (५-३० वि०) वइदेसो (२-४३ शू=मू५-१ ओ) वइदेहो ( ५-१ ओ) कइअत्रो (२-२
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प्रथमपरिच्छेदः ॥
वलोपः ५-१ ओ) वइसाहो (२-४३ शम् २-२७ वह ५-१ ओ) वइसिओ २-४३ शस् २-२ कलोपः ५-१ ओ) वइसंपाअण(१) (२-४३ श-स् ४-१७ वि० २=२ यलोपः २-४२ न=ण्) ५-२७ ओत्वनिषेधः ४-६सोर्लोपः दैत्यचैत्रभैरवस्वैरवैरवैदेशवै. देहकैतववैशाखवैशिकवैशम्पायनाः । इत्यादयः ॥ ३६ ॥
दैवे वा ॥ ३७॥ दैवशब्दे ऐकारस्य अइ इत्ययमादेशो भवति वा । दइव(२) (५-३० वि०) देव्यं (पूर्ववत)। अनादेशपक्षे नीडादित्वाद् द्वित्वम् ॥ ३७॥
इत्सैन्धवे ॥ ३८ ॥ सैन्धवशब्दे ऐकारस्य इकारो भवति । सिंघवं (४-१७ न= वि० ५.३० वि०) ॥ ३८ ॥
ईद् धैर्ये ।। ३९ ॥ धैर्यशब्द ऐकारस्य ईकारो भवति । धीरं (३-१८ H=३० वि०) ॥ ३९ ॥
__ओतोद्वा प्रकोष्ठे कस्य वः ॥ ४० ॥
प्रकोष्ठशब्दे ओकारस्य अकारो भवति वा तत्संयोगेन च ककारस्य वचम् । पवट्ठो । (३-३ रोपः ३-१० ष्ट्-३-५० द्वि० ३-५१-ट् ५-१ ओ) पओट्टो (२-२ क्लोपः शेष पूर्वत) ॥ ४० ॥
औत ओत् ॥४१॥ औकारस्यादेरोकारो भवति । कोमुई (२.२ दलोपः) जो(१) क० पु० वइसम्पाइणो पा०।।
(२) क्वचिद् दइव्वं पाठः स तु भ्रममूलकः । विभाषासु व्यपस्थितविभाषाश्रयणादनादेश पक्षे नित्यमेव आदेशपक्षे नेति मूल एव स्फुटं वक्ष्यमाणत्वाद् ॥
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प्राकृतप्रकाशे
वणं (२-३१-ज् ३-५० वि० २-४२ =ण ५-३० वि) कोत्थुहो (३.१२ स्त-थ् ३-५० वि० ३-५१ थू-त् २.२७-ह ५-१ ओ) कोसंबी । (२-४३ श-स् ४.१७ वि० ४.१ इस्वः) कोमुदी, यौवनम्, कौस्तुभः, कौशाम्बी ॥ ४० ॥
पौरादिष्वउ ॥ ४२ ॥ पौर इत्येवमादिषु शब्देषु औकारस्य अउ इसयमा. देशो भवति । पउरो (५.१ ओ) एवमुत्तरत्र । कउरत्रो । परिमो (शेषं १-२३ सू० स्प०) पौरकौरवपौरुषाणि । आकृतिगणोऽयम् । कौशले विकल्पः । कोमलो, कउसलो । कौशलम्॥४२॥
.. आ च गौरवे ॥ ४३ ॥ गौरवशब्दे औकारस्य आकारो भवति । चकारादउलं. च ॥ गारवं गउरवं (५.३० विन्दुः) ॥ ४२ ॥
उत्सौन्दर्यादिषु ॥ ४४ ॥ ... इति वररुचिकृतप्राकृतसूत्रेषु अज्विधिर्नाम
प्रथमः परिच्छेदः ॥ सौन्दर्य इसेवमादिषु औकारस्य उकारोभवति । सुन्दरं(१-५मू० स्प०) मुआअणो(४-१७ पञ्चमः २-२ यलोपः २-४२५-ण ५-१
ओ)मुण्डो (२-४३ शम् ४.१७ पञ्चमः ५.१ ओ) कुक्खेअओ (३-२९ २ व ३-५० द्वि० ३-५१-व- २-२ यकयोर्लोपः ५-१ ओ) दुधारिओ (३.५२ =व्व्-२.२ क्लोपः ५-१ ओ) सौन्दर्यमौजायनशौण्डकौक्षेयकदौवारिकाः ॥ ४४ ॥
इति भामहविरचिते प्राकृतप्रकाशे प्रथमः परिच्छेदः ॥
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द्वितीयपरिच्छेदः॥
अथ द्वितीयः परिच्छेदः।
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अयुक्तस्यानादौ ॥ १ ॥ अधिकारो ऽयम् । इत उत्तरं यद्वक्ष्यामस्तदयुक्तस्यव्यअनम्यानादौवर्तमानस्य कार्य भवतीत्येवं वेदितव्यम् । वक्ष्याने कादीनां लोपः । मडं । (१-२२ सू०प०) अयुक्तस्येतिकिम् । अग्यो (३-३लोपः ३-५० वि० ३-५१ घ-ग् ५-१ ओ) अक्को(१) (पूर्ववद) आनादौ इति किम् । कमलं(२) । अयुक्तस्येत्यापरिच्छेदसमाप्तेः । अनादाविति च, आज(३)कारविधानात् ॥ १ ॥
कगचजतपयवां प्रायोलोपः ॥ २ ॥ __ कादीनांनवानांवर्णानामयुक्तानामनादौवर्तमानानांपायो पा. हुल्येनलोपो भवति(४) । कस्य तावत, मउलो (१-२२ सू० प० ५-१ ओ) पउलं । (२-४२ =ण ५-३० वि०) गस्य, सारो (५-१ ओ) "अरं । (२-४२ =ण ५-३० वि०) चस्य, वअणं (२-४२ न=ण ५-३० विन्दुः) सूई । जस्य, गओ (५-१ ओ) रअदं । (२-७ =द् ५-३० विन्दुः)
(१) क० पु० अर्घः । अर्कः । सं०। (२) क० पु० कंकणं । अ० पा० । (३) "आदेोजः" इति सूत्र पर्यन्तमित्यर्थः ॥ (४) प्रायो ग्रहणात्क्वचिदादेरपि । सपुनः- सउण । क्वचि. वस्यजः, पिशाची-पिसाजी । कस्यगः, एकत्वम्-एगत्वं । इत्यादी वाहुलकात् । आर्षे-आकुञ्चनम् । हे० ।
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१६
प्राकृतप्रकाशे तस्य, करं (१-२७ -अ५-३० विन्दुः) विआणं । (२--४२
=ण ५-३० बिन्दुः) दस्य, गआ । मओ । (५-१ ओ) पस्य, कई । (५-१८ दी०) विउलं (५-३० विन्दुः) मुउरिसो (१-२३ सू० स्प०) सुपुरुष इति यद्यपि उत्तरपदस्य - पुरुषशब्दस्यादि(१)स्तथापिलोपो भवतीत्यनेनज्ञापयति वृत्तिकार:-यथा "उत्तरपदादिरनादिरेवे"ति । यस्य, वाऊ (५-१८ दी०) णअणं । (२-४२ उभयत्रणत्वम् ५-३० विन्दुः) वस्य, जीअं(२) (५-३० विन्दुः ) दिअहो । (२-४७ म्ह ५-१ ओ) मुकुलनकुलसागरनगरवचनसूचीगजरजतकृतवितानगदामदकपिविपुलमुपुरुषवायु(३)नयनजीवदिवसाः । प्रायोग्रहणावत्र श्रुतिसुखमस्ति तत्र(४) न भवत्येव । मुकुसुमं (५-३० विन्दुः) पिअगमणं (३-३ रोपः २-४२ न=ण् ५-३० विन्दुः) सचावं। अवजलं । (२-१५ - ५-३० विन्दुः) अतुलं (५-३० वि०) आदरो (५-१ ओ) अपारो (५-१ ओ) अजसो (२-३१ य-ज् २-४३ श्-म् ४-१८ पुम्वत्-४-६-अन्त्यलोपः ५-१ ओ) सबहुमाणं (२-४२ =ण ५-३० वि०) मुकुसुमप्रियगमनसचापाऽपजलाऽतुलाऽऽदराऽपाराऽयशस्सबहुमानानि । अयुक्तस्येत्येव । (५)सको (२-४३ शस् ३-३ रोपः ३-५०
(१) क० पु० आदि र्य स्तथापि । अ० पा० । (२) क० पु० जीओ-पाठः। (३) क. पु० कायः। काओ। प्रा० ॥ अ० पा० । (४) क० पु० तत्र लोपो न भवत्येवेति । तेन- अ० पा०।
(५)क० पु० तेन-सको, मग्गो,अच्चा, अज्जुणो, अत्तवात्ता , रहो, सुद्दो, सप्पो, दप्पो, अजो, सुजो, गम्वो । शक्र, मार्ग, अर्चा, अर्जुन, आर्तवार्ता, रुद्र, शूद्र, सर्प, दर्प, आर्य, सूर्य, गर्व इति अ०पा०॥
* वाहुलकान हस्वः।
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द्वितीयपरिच्छेदः॥
द्वि० ५-१ ओ) मग्गो । (४-१ आ-अ ३-३ लोपः ३-५० द्वि०५-१ ओ) शक्रः । मार्गः । अनादावित्येव । कालो गन्धो । (५-१ ओ उभयत्र) कालः । गन्धः ॥ २॥
यमुनायां मस्य ॥ ३ ॥ यमुनाशब्दे मकारस्य लोपो भवति । जउणा (२-३१ य-ज् २-४२ =ण्) ॥ ३ ॥
स्फटिकनिकषचिकुरेषु कस्य हः ॥ ४ ॥
अनादाविति वर्तते । एषु कस्य हकारो भवति ॥ लोपापवादः । फलिहो (३-१मलोपः २-२२ =ल ५-१ ओ) णिहसो (२-४२ न=ण २-४३ =म् ५-१ ओ) चिहुरो (५-१ ओ) ॥ ४ ॥
शीकरे भः ॥ ५ ॥ शीकरपाब्दे ककारस्य भकारो भवति । सीभरो । (२-४३ श-स् ५-१ ओ) ॥ ५ ॥
चन्द्रिकायां मः ॥ ६ ॥ चन्द्रिकाशब्दे ककारस्य मकारो भाति । चीदमा (३-३ लोपः ४.१७ विन्दुः ३-५६ द्विनिषेधः) ।। ६ ॥
ऋत्वादिषु तो दः(१) ॥ ७ ॥ ऋतु इत्येवमादिषु तकरास्य दकारो भवति(२)। उद् (१-२९
(१) "ऋत्वादिषु" शौरसेनी मागधी विषय एव । प्राकृते तु रिऊ उऊ ।
( २ ) क. पु. तकारोपादानं जमादीनां जकारादे माभूदित्यर्थः ।
भ० पा०
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१८
प्राकृतप्रकाशे
०
सू० स्य०) । रअदं (२-२ लोपः ५-३००) आअहो (२-२ ग्लोपः ५-१ ओ) णिब्बुदी (२-४२ नूणू ३ - ३ रलोपः ३-५० द्वि० १ २९ ऋ = ५- १८ दी ० ) आउदी (२-२ वूलोप: १-२९ ऋ = ५-१८ दी ० ) मुंबुदी (प्रायोग्रहणात् वूलोपो न ० पू० ४- १२ मूविन्दुः ) सुइदी (२-२ कूलोपः १-२८ ऋ = ५ - १८ दी० एत्र मुत्तरत्रापि ) आइदी । हदो (५ - १ ओ) सअदो (२ - ३१ यू = ज् ५ - १ ओ) विउदं (२-२ बूलोपः १-२९ ऋ = उ ५ - ३० विन्दुः) सआदो (सदोषत) संपदि (४-१२ मूत्रिन्दुः ३-३ लोपः ३-५६ द्वित्वनिषेधः ) पांडवदी। ( ३-३ लोपः २-८ व= डू २ - १५ पू= ३-१ तुलोपः तकारस्य दकारेकृते ३५० द्वि० ५-१८ दी०) ऋतु रजतागतनिर्हत्या तिसंवृतिसुकृत्याकृतिहत संयतविवृतसंयात सम्प्रतिप्रतिपत्तयः ॥ ७ ॥
प्रतिसर वेतसपताकासु ङः (१) ॥ ८ ॥
एषु शब्देषुतकारस्य डकारो भवति । लोपापवादः पडिसरो (३-३ र्लोपः ५- १ ओ) वेडिसो (१ - ३ अ =इ ५ - १ ओ) पडा आ (२ - २ कूलोपः) ॥ ८ ॥
वसतिभरतयांहः ॥ ९ ॥
वसतिभरतशब्दयोः तकारस्य इकारो भवति । बसही (५ - १८दी ० ) भरहो ( ५ - १ ओ ) ।। ९ ।।
( १ ) प्रति वेतसपताकासु डः - प्रते, रुपसर्गस्य वेतसपताकयो । श्च य स्तकारस्तस्य डकारः स्यात् । पडिवाआ । पडिच्छन्दो पडिसरो | पडिकूलो | इत्यादि । कगजेति लोपापवादः । इति केचि पठन्ति ।
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द्वितीयपरिच्छेदः ॥
गर्भित णः ॥ १० ॥ गतिशब्दे तकास्य णकारो भवति । लोपः ३-५० द्वि० ३-५१ भू= ५-३०
ऐरावते च ॥ ११ ॥
ऐरावतशब्दे तकारस्य णकारो भवति । एरावणो (१-३५ ऐ - ए ५- १ ओ ) ।। ११ ॥
१९
गब्भिणं (३-३ र् विन्दुः ) ( ९ ) ॥ १० ॥
प्रदीप्तकदम्बदोहदेषु दो लः ॥ १२ ॥
एषु शब्देषु दकारस्य लकारो भवति । पलितं (३-३ रलोपः ४ - १ ई = ई ३-१ लोपः ३-५० द्वि०५-३० विन्दु:) कलंबो (४-१७०५-१ ओ) दोहलो (५ - १ ओ ) ॥ १२ ॥ गद्गदेरः ॥ १३ ॥
गद्गदशब्दे दकारस्य रेफादेशो भवति । गग्गरे। ( ३-१ दुलोपः-३-५० द्वि० ५ - १ ओ ) ।। १३ ।
संख्यायाञ्च ॥ १४ ॥
संख्यावाचिनि शब्दे यो दकारस्तस्य रेफादेशो भवति । एआर (२-२ क्लोपः २-४४ शू = हू) बारह (३-१ दुलोपः शेषं पूर्ववत्) तेरह (१-५ सूत्रेद्रष्टव्यम्) एकादश द्वादश त्रयोदश । अयुक्तस्येयेव । नेह चउद्दह (१–९ सू० स्प० ) ॥ १४ ॥ पो वः ॥ १५ ॥
पकारस्यायुक्तस्यानादिवर्तिनो वकारादेशो भवति । सावो २-४३ शू=म् ५- १ओ) सत्रहो ( २ - २७ थू-हू शे० पूर्व
( १ ) रुदिते दिना ण्णः ८ । १ । २०९ रुण्णं । हे०
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२०
प्राकृतप्रकाशे
वत) उलवो । ( ५-१ ओ) शापः शपथः उलपः । प्रायोग्रहणाद्यत्र लोपो (१) न भवति तत्रायं विधिः ॥ १५ ॥ आपीडेमः ॥ १६ ॥
अपशब्दे पकारस्य मकारो भवति । आमेलो (१-१९ ई = ए २-२३ इ=लू ५-१ ओ ) ।। १६ ।।
उत्तरीयानीययोर्जो वा ( २ ) ॥ १७ ॥
उत्तरीयशब्दे ऽनीयप्रत्ययान्ते च यस्य ज्जो भवति वा । उत्तरीअं (२-२ यूलोपः ५-३० नं०) एव मुत्तरत्रापि । उत्तरिज्जं । रमणीअं । रमणिज्जं । भरणीअं । भरणिज्जं ॥ १७ ॥ छायायांहः ।। १८ ॥
छायाशब्दे यकारस्य हकारो भवति । छाहा || १८ || कबन्धे बो मः ॥ १९ ॥
कबन्धशब्दे बकारस्य मकारो भवति । कमन्धी (४-१७ वि०५ - १ ओ ) ॥ १९ ॥
टो डः ॥ २० ॥
टस्यानादिवर्तिनोडकारोभवति । णडो (२-४२ न्=णू ५-१ ओ) विडवो (२ - १५ पू= ५ - १ ओ) नटः । विटपः ॥ २० ॥ सटाशकटकैटभेषु ढः ॥ २१ ॥
एतेषु टकारस्य ढकारो भवति । सढा, सअढो (२-२ कू
( १ ) कगजे त्यादिना प्लोप इत्यर्थः ।
( २ ) क. पु. उत्तरीयानीययो र्यस्य जो वा । सू० पा०| आरमणिजं, आकरणिजं । अ० पा० । उत्तरोथानीययो यो जो वा । इति केचित् ।
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द्वितीयपरिच्छेदः ॥ लोपः ५-१ ओ) कैढवो (१-३५ ऐ-ए२-२९ ५-१ ओ) ॥ २१ ॥
स्फाटके लः ॥ २२ ॥ स्फटिकशब्दे टकारस्य लकारो भवति । फलिहो (३-१ म. लोपः २-४ क्ह् ५-१ ओ) ॥ २२ ॥
डस्य च ॥ २३ ॥ डकारस्यायुक्तस्यानादिभूतस्य लकारो भवान । दालिमं (५-३० वि०) तलाअं (२-२ ग्लोपः ५-३० वि०) वलही । (९-२७ भू-ह) प्राय इत्येव(१)। दाडिमं (५-३० वि०) वडिमं (२-४३ शम् ५-३० वि०) णिविडो (२-४२ =ण ५-१ओ) दाडिमः । तडागः । वलभी । वडिशं । निविडं ॥ २३ ।।
ठो ढः ॥ २४ ॥ ठकारस्यायुक्तस्यानादिभूतस्य डकारो भवति । मढं (५-३० वि०) एवमग्रेऽपि-जढरं कढोरं । मठः । जठरं । कठोरं ॥ २४ ।।
अङ्कोले ल्लः ॥ २५ ॥ अङ्कल शब्दे लकारस्य ल्लकारो भवति । अकोल्लो ५-१ भो)(२) ॥ २५ ।।
फोभः ॥२६॥ फकारस्यायुक्तस्यानादिभूतस्य भकारो भवति । सिमा (२-४३ श=म् ) सेभालिआ (२-२ कूलोपः) सभरी (२-४३
( १ ) क्वचिल्लकारो न भवतीत्यर्थः ।
(२) क. पु० अङ्कोटेल:-अङ्कोटशब्दे टकारस्य लकारो भवति । अंकोलो।
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२२
प्राकृतप्रकाशे
शू=म् ) सभलं (५-३० ० ) (१) ॥ २६ ॥
खघथधभां हः ॥ २७ ॥
spons
खादीनाम्पञ्चानामयुक्तानामनादिवर्तिनां हकारो भवति । खस्य तावत्, मुहं (५ - ३० वि० ) मेहला । घम्य, मेहो, (५-१ ओ ) जहणं. (२-४२ नू=णू ५-३० वि०) स्य गाहा । सत्रहो (२-१५ सू० स्प० ) । धस्य, राहा । वहिरो (५ - १ओ) मस्य, सहा | रासहो ( ५-१ ओ) प्राय इत्येव, (२) पखलो (३-३ ग्लोपः ५-१ ओ) पलंघणो ( ३३ लोप: ४ - १७ वर्गान्त० २-४२ नू=णू ५ - १ ओ) अधी. रो (२-१ओ) अघणो (२-४२ = ५-१ ओ) उबलद्धभावो (२-१५ पू=व् ३–३ लोपः ३-५० वि० ३-५१६= द् मायोग्रहणात् न व्लोपः ५ - १ ओ) मुखम्, मेखला, मेघः, जघनं, गाथा, शपथः, राधा, बधिरः, सभा, रासभः, मखलः, मलङ्घनः, अधीरः अधनः उपलब्धभावः ।। २७ ॥
प्रथम शिथिलनिषधेषु ढः ।। २८ ।।
एतेषु ययोकारो भवति । पढमो ( ३-३ ग्लोपः ५-१ ओ) सिढिलो (२-४३ शू = ५ - १ ओ) सिदो (२-४२ पू=म् शे० पूर्ववत् ॥ २८ ॥
कैटभेवः ।। २९ ।।
कैटभशब्दे मकारस्य वकारो भवति । केद्रवो (१-३५ ऐ= ए २-२१ टू=द् ५-१ ओ ) ॥ २९ ॥
(१) क० पु० अयुक्तस्येति किम् । तव फलं । अनादाविति किम् | फलिहो । अ० पा०
( २ ) क्वचिदू हकारो नेत्यर्थः ।
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द्वितीयपरिच्छेदः॥ २३
हरिद्रादीनां रो लः ॥ ३०॥ हरिद्रा, इसेवमादीनां रेफस्य लकारो भवति । हलद्दा(११३ इ-अ ३-३ रोपः ३-५० वि० ५-२४ आत्वं वाहुल्यात्) चलणो (२-४२ नूण ५-१. ओ) मुहलो (२-२७ व= हु५-१ ओ) जहिडिलो (१-२२ सू० स्य०) सोमालो(१) (५-१
ओ) कलुणं (पायोग्रहणात्क्लोपाभावः ५-३० वि०) अङ्गुली (स्पष्टम) इंगालो (४-१७ वि० ५-१ ओ) चिलादो (२-३३ = च २-७त्-द-५-१ ओ) फालहा (२-३६ - २-२७ ख-ह्) फलिहो (५-१ ओ शे० पूर्ववत) हरिद्रा, चरण, मुखर, युधिष्ठिर, सुकुमार, करुण, अङ्गुरी, अङ्गार, किरात, परिखा, परिघ, इत्येवमादयः ॥ ३० ॥
आयोजः । ३१ । अनादेरिति निवृत्तम् । आदिभूतस्य यकारस्य जकारो भ. वति । जट्ठी (३-१० ष्ट्- ३-५० दि० ३-५१ -ट्५१८ दीर्घः) जमो (२-४३ श-४-६ मलोपः ४-१८ पुंस्त्वं ५-१ ओ) जक्खो । (३-२९ भूख ३-५० वि० ३-५१ ख-क- ५--१ ओ) यष्टिः, यशः यक्षः ॥ ३१ ॥
___ यष्ट्यां लः । ३२ । यष्टिशब्दे यकारस्य लकारो गवति लट्ठी (जीवत्) ॥३२॥
किरातेचः । ३३ । किरातशब्दे आदेर्वणस्य चकारो भवति । चिलादो (२-३० (१) नवा मयूख लवण चतुर्गुण चतुर्थ चतुर्दश चतुर्वार सुकुमार कुतूहलो दूखलो लूखले ८ । १ । १७१ मयूखादिष्वादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनन सह ओद् वा भवति । मोहो, मऊहो इत्यादि । हेम० । पक्षे-सुउमालो ।
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२४
प्राकृतप्रकाशे
सू० स्प०)(१) ॥ ३३ ॥
कुब्जखः ॥ ३४ ॥ कुब्जशब्दे आर्दवर्णस्य खकारो भवति । खुजो (२)(३-३०. लोपः ३-५० जांद्र० ५-१ ओ) ॥ ३४ ॥
दोलादण्डदशनेषुडः(३) ॥ ३५ ॥ एषु आदेर्वर्णस्य डकारो भवति । डोला। डंडो (५-१ ओ) डसणो (२-४३ शस् २-४२ न=ण् ५-१ ओत्व) ॥ ३५॥
__परुषपरिघपरिखासुफः(४)।। ३६ ॥
एतेषु आदेर्वर्णस्य फकारो भवति । फरुसो (२-४३ =म् ५-१ ओ) फलिहो, फलिहा (२-३० मू० स्प०)॥ ३३ ॥
पनसे ऽपि ॥ ३७॥ पनसशब्दे ऽपि पकारस्य फकारो भवति ) फणसो (२-४ २ न=ण ५-१ ओत्व) ॥ ३७ ॥
बिसिन्यां भः ॥ ३८ ॥ बिसिनीशब्दे आदेर्वर्णस्य भकारो भवति। भिसिणी । (२. ४२ =ण) स्त्रीलिङ्गनिर्देशादिह न भवति बिमं (२-४३ षस् ५-३० वि०) ॥ ३८ ॥
(१) चिलाओ, पुलिन्द एवायं विधिः । तेन कामरूपिणि नेष्यते । नमिमोहरकिराय-इति हे।
(२) क० पु० खजो । पा०
(३) दशन दष्ट दग्ध दोला दण्ड दर दाह दम्भ दर्भ क. दन दोहदे दो वा डः ८।१ । ११७ एषु दस्य डोवा भवति ॥ हे.
(४) परुष पलितारिखासु फा-इतिपाठे पलितेत्यपपाठः प्रतीयते । पलिते वा ८ । १ । २१२ पलिलं । पलिअ । हेम० इत्युदाहृतम् ।
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द्वितीय परिच्छेदः ॥
मन्मथेवः ॥ ३९॥ मन्मथशब्दे आदेर्वर्णस्य वकारो भवति । वम्महो (३-४३ मम् ३-५० वि० २-२७ श्= ५-१ओत्व) ॥ ३९ ॥
लाहले णः ॥ ४०॥ लाहलशब्दे आदेर्वर्णस्य णकारो भवति । णाहलो (ओत्वं पू०)॥ ४० ॥
षट्शावकसप्तपर्णानां छः॥४१॥ एतेषामादेवर्णस्य छकारो भवति । छट्टी (३-१० ष्ट्र- शे० २-३१ सू०प०)छम्मुहो (१०-५* =न ३-४३न्म-म् ३-५० द्वि०२-२७ वह ५.१ ओ०) छात्रओ (२-२ क्लोप: ५-१ ओ) छत्तवण्णो) ३-१ प्लोपः ३-५० द्वि०२-१५५-०३-३ लोपः ३-५० द्वि० ५-१ ओ)। षष्ठी षण्मुखःशावकः सप्तपर्णः॥४१॥
नो णः सर्वत्र ॥ ४२ ॥ __ आदेरिति निवृत्तम(१)। सर्वत्र नकारस्य णकारोभवति(२)। नई (२-२ दलोपः ५-१८ दीर्घः) कण (२-२ क्लोपः ५-३० वि०) वअणं (२-२ चलोपः २-४२ =ण ५-३० वि०) माणंसिणी (१-२ सू० स्य०) नदी । कनकं । वचनं । मनस्विनी ॥ ४२ ॥
शषोःसः ॥ ४३ ॥ सर्वत्र शकारपकारयोस्प्तकारो भवति । शस्य,सद्दो(३)३-३० . लोपः ३-५० वि० ५-१ ओ) णिसा (२-४२-ण अंसो(४) (५-१ ओत्वं)। षस्य, संठो (४.१७ वर्गान्त० २-२४ द--ओत्वं
* व्यत्ययात्प्राकृतेऽपि। (१) सर्वत्रेति ग्रहणात् । (२) अयुक्तस्येत्येव क्वचित्पाठः । अयुक्तस्येति किम्, कन्दरा अन्तरम्
(३) सदो, इति क्वचित् । (४) अङ्सो इति क्वचित् ।
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प्राकृत प्रकाशे
पू०३.५६द्वि०न) वसहो (१-२७ ऋ = २-२७ भू - ओवं पू० ) क- साअं ( २-२ - यूलोपः ५-३० वि०) शब्दः । निशा । अंशः ।
२६
षण्ढः । वृषभः । कषायम् || ४३ ॥
दशादिषु हः ॥ ४४ ॥ (१)
दश इत्येवमादिषु शकारस्य हकारो भवति । दह (स्पष्टं) एआरह (२-२ क्लोपः २ - १४ दूर) बारह (३-१ दुलोपः २१४ दूर) तेरह (१-५ सू० स्प०) दश, एकादश, द्वादश, त्रयोदश ।। ४४ ।।
संज्ञायां वा ।। ४५ ॥
संज्ञायां गम्यमानायां वा दशशब्दे शस्य हत्वं भवति । दहमुहो, पक्षे दसमुह (२-४३ शू=म् २-२७ खू= हू ५ - १ ओ) दहबलो दसबलो, (पूर्ववत् ) दहरहो दसरहो (२-२७ थू=हू ५-१ ओखम) दशमुखः, दशवलः, दशरथः ॥ ४५ ॥
दिवसेसस्य || ४६ ॥ (२)
दिवसशब्दे सकारस्य हकारो वा भवति । दिअहो दिअसो ( २-२ लोपः ५-१ ओ) दिवसः ॥ ४६ ॥ स्नुषायां ण्हः ॥ ४७ ॥ (३)
इति वररुचि कृत प्राकृत सूत्रेषु अयुत वर्ण विधिर्नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।
स्नुषाशब्दे पकारस्य हिकारो भवति । सोव्हा (१-२० ओम् ३-२ नकारलोपः ॥ ४४ ॥
इति भामहविरचिते प्राकृतमकशे द्वितीयः परिच्छेदः ॥
( १ ) दशपाषाणेहः | ८ | १ | २६२ ॥ दहमुहो, दसमुहोपाहाणी, पासाणो । हे० ।
( २ ) दिवसे सः । ८ । १ । २६२ दिवहो, दिवसो । हे० (३) स्नुषायां ण्हो न वा । ८ । १ । २६१ ॥ सुण्हा, सुसा । हे
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तृतीयः परिच्छेदः।
उपरिलोपः कगडतदपषसाम् ॥ १॥ कादीनामष्टानां युक्तस्योपरि स्थितानां लोपो भवति । कस्य तावत् भत्तं, (३-५० वि० ५-३० वि०) सित्थओ (३-५० थदि. ३-५१५= २-२ क्लोपः५-१ ओ)गस्य, मुद्धो (३-५०वि० ३-५१ धू-द् ५-१ओ) सिणिद्धो (२-४२ न=ण् ३-५९ अधिकारसूत्रात् विप्रकर्षः पूर्वस्वरता च ३-५० वि० ३-५१ धू- ओ० पूर्व०) डस्य, खग्गो ३-५० गद्वि० ओ-पू०) तस्य, उप्पलं (३-५० वि० ५-३० वि०) उप्पाओ (३-५० पृद्वि २.२ लोपः ५-१ ओ) दस्य, मुग्गा (३-५० वि० ५-११ दी० ५-२ जसोलोपः) मुग्गरो। (५-१ ओ शे० पू०) पस्य, मुत्तो(१)। ३-५० तद्वि०ओ०पू०) षस्य,गोट्ठी (३-५० द्रि० ३-५१ =) णिठुरो । (२-४२ न=ण ३-५० वि० ३-५१ - ५-१ ओ) सस्य, खलिअं (२-२ तलोपः ५-३० वि०) हो । (२-४२ नूण ५-१
ओ) भक्तम् सिक्थकम् मुग्धः स्निग्धः खड्गः उत्पलम् उत्पात: मुद्गाः मुद्गरः सुप्तः गोष्ठी निष्ठुरः स्खलितम् स्नेहः ॥ १ ॥
अधो मनयाम् ॥ २॥ मकारनकारयकाराणां युक्तस्याधः स्थितांना लोपो भवति । मस्य, सोस्स(२-४३ शू-म१-२०=ओ मूलोपे २-४३ ष-म्
(१) का० पु० पजत्तो, पर्याप्तः अ० पा० ।
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२८
प्राकृतप्रकाशे
३-५० सू० ५-३० त्रिं०) रम्सी (२-४३म् मलोपे ३-५० सूद्वि० ५ - १८ दीर्घः) जुगं । (२-३१ यू =ज् मूलोपे ३-५० द्वि०वि०पू० ) वग्गी, (४-१ आ= शे०पू० ५ - १८ दीर्घः) नस्य, नग्गो । (२-४२ नू = णू नलोपे ३-५० द्वि० ५ - १ओ) यस्य, सोम्मो (१-४१ औ = ओ यूलोपे (३-५० मद्रि० ओवं पृ० ) जोग्गो ( २ - ३१ यू = ज् शे० पूर्ववत् शुष्म, रश्मिः, युग्मम, वाग्मी, नग्नः, सौम्यः, योग्यः ॥ २ ॥ सर्वत्र लवराम् ॥ ३ ॥
लकारवकाररेफाणां युक्तस्योपर्यधः स्थितानां लोपो भवति । लस्य, उक्का (३-५० कूद्वि०) वक्कलं, विक्को (माय इति बलोपो न ५- १ ओ) वस्य लुद्धओ (३-५० धू= द्वि० ३-५१=द २- २ कूलोपः ५-१ ओ ) (१) पिक्कं । (१ - ३ सू० स्यष्ट) रस्य, अक्को (३-५० कूद्वि०५ - १ ओ) सक्को (२-४३ शू=म्, शे० पूर्व०) उल्का, वल्कलम, विक्लवः, पक्कम, अर्कः, शक्रः ॥३॥ द्रे रो वा ॥ ४ ॥ (२)
द्रशब्दे रेफस्य वा लोपो भवति । दोहो ५ - १ ओ) द्रोहो । चन्दो (३ - २६ द्वि० न शे० पू० ) चन्द्रों । रुद्दो ( ३-५० द्वि० ५-१ ओ) रुद्रो | द्रोहचन्द्ररुद्राः || ४ ||
सर्वज्ञतुल्येषुः ॥ ५ ॥
सर्वज्ञतुल्येषु अकारस्य लोपो भवति । सब्वज्जो । (३-३
( १ ) लोड़ओ इति कचित् तत्र तुण्डरूपसमत्वादोत्वम् । ( २ ) बाधो रोलुक् ८ । ४ । ३९८ अपभ्रंशे संयोगादधोवर्तमानो फो लुग्वा भवति । उदाहृतं लोपाभावे - जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु प्रियेण इति हे०
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तृतीयः परिच्छेदः ॥ २९ रकार लोपः ३-५० वजयोदि० ओत्वं पू०) इंगिअन्जो (४-१७ वर्गान्तोवा २-२ तलोपः अलोपे जद्वि० पू०) जानाते र्यान्येवं रूपाणि तत्र ब्लोपः(?) ॥ ५ ॥
श्मश्रुश्मशानयोरादेः ॥ ६॥ इमश्रुश्मशानयोरावर्णस्य लोपो भवति । मस्सु (२-४३ श-म् ३-३ रोपः ३-५० मद्रि०) मसाणं (२-४३ श-स् २-४२ न=ण ५-३० वि०)॥ ६ ॥
मध्याहे हस्य ॥ ७ ॥ मध्याह्नशब्दे हकारस्य लोपो भवति । मज्झण्णो(३-२८ ध्य= ३-५० अद्वि० ३-५१ झ- ४-१आ-अ २-४२ नूण ३-५० द्वि० ५-१ ओ) ॥ ७ ॥
हरह्मेषु नलमां स्थितिरूव॑म् ॥ ८॥ दहह्म इत्येतेषु अधः स्थितानां नकारलकारमकाराणां स्थि. तिरूव॑मुपरिष्टाद्भवति । ह्रस्य, पुब्बोहो । (४-१ पू-पु३-३
ोपः ३-५० वद्वि० २-४२ =ण ५-१ ओ) अवरोहो । (२-१५ - ४-१ रा-र शे० पू०) हस्य, अल्हादो । (४-१ आअ५-१ ओ) हमस्य, वम्हणो (३-३ लोपः ४-१ आ-अ५-१ ओत्वम्) ॥ ८॥
युक्तस्य ॥ ९॥ अधिकारो ऽयमापरिच्छेदसमाप्तः, यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो युक्तस्येत्येवं वेदितव्यम् । वक्ष्यति अस्थनि, अट्ठी (३-११ स्थू= ३-५० वि० ३-५१= ट् ५-१८ दीर्घः) अस्थिायुक्तग्रहणं हलो ऽन्त्यस्य मा भूत् ॥ ९॥ (१) क्र. पु० मणोजो 'अ० पा। सर्वज्ञङ्गितमनोशाः ।
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प्राकृतप्रकाशे
ष्टस्य ठः ॥ १० ॥ ष्ट इत्येतस्य युक्तस्य ठकारो भवति । लट्ठी (२-३२ य-ल शे० पू०)दिट्ठी (१-२८ सू०प० शे०पू०)यष्टिः, दृष्टिः॥१०॥
__ अस्थनि ॥ ११ ॥ __ अस्थियाब्दे युक्तस्य ठकारो भवति । अट्ठी (३-९ सू० स्प०॥ ११ ॥
स्तस्य थः ॥ १२॥ स्तशब्दस्य थकारो भवति । उपरिलोपापवादः । हत्थो (३-५० वि० ३.५१ थत् ५-१ ओ) समत्थो, ३-३ लोपः शे० पू०) थुई (२-२ वलोपः ५-१८ दीर्घः) थवओ (२-२मायो ग्रहणाद वलोपो न, क्लोपस्तु भवति ५-१ ओ) कोत्युहो । (१-४१ मू०स्पष्टं) हस्तः समस्तः स्तुतिः स्तवकः कौस्तुभः॥१२॥
स्तम्बे ॥ १३ ॥ स्तम्बशब्दे स्तकारस्य थकारो न भवति । तंबो (३-१म् लोपः ४-१७ वर्गान्त० ५-१ ओ) ॥ १३ ॥
स्तम्भे खः ॥ १४ ॥ स्तम्भशब्दे स्तकारस्य खकारो भवति । खंभो (४-१७ वर्गान्त० ओत्वं पू०)॥ १४ ॥
स्थाणावहरे ॥१५॥ स्थाणुशब्दे युक्तस्य खकारो भवति, अहरे हरेऽभिधेये न भवति । खाणू । (५-१८ दीर्घः) अहर इति किम् । थाणू (३-१ मलोपः शे० पू०) हरो (५-१ ओ) स्थाणु हरः ॥१५॥
स्फोटके ॥ १६ ॥ स्फोटकशब्दे युक्तस्य खकारो भतति ॥ खोडओ (२-२० टू-डू २-२ क्लोपः ५-१ ओ) ॥ १६ ॥
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तृतीयःपरिच्छेदः॥ र्यशय्याभिमन्युषु जः ॥ १७ ॥ र्य इत्यस्य शय्याभिमन्युशब्दयोश्च युक्तस्य जकारो भवति । कज्जं (४-१आ अ३-५० वि० ५-३० वि) सेज्जा (१-५ सू०पष्टं) अहिमज्जू(१) (२-२७ भू-ह ३-५० वि०५-१८दीघः) कार्यम्, शय्या, अभिमन्युः ॥ १४ ॥
तूर्यधैर्यसौन्दर्याश्चर्यपर्यन्तेषु रः ॥ १८ ॥
एतेषु शब्देषु यस्य रेफो भवति । तूरं (३-५४ रस्याद्र० न ५-३०वि) धीरं (१-३९ मू०पष्टं) मुंदेरं अच्छेरं पेरन्तं (१-५ सू० स्य०) ॥ १८ ॥
सूर्ये वा ॥ १९ ॥ मूर्यशब्दे र्यकारस्य रेफादेशो भवति वा। सूरो (५-१ ओत) सुज्जो(२) । पक्षे (४-१ ऊ-उ ३-१७ यज् ३-५० वि० ओ० पू०) ॥ १९॥
__चौर्यसमेषु रिअं ॥ २० ॥ चौर्यसमेषु शब्देषु यस्य रिअमित्यादेशो भवति । चोरिअं (१-४१ औ=ओ) सोरिअं वीरिअं (२-४३शम् शे० पूर्व०) चौर्यशौर्यवीर्याणि । समग्रहणादाकृतिगणोयम् ।। २० ॥
पर्यस्तपर्याणसौकुमार्येषु लः ॥ २१ ॥ एषु शब्देषु यस्य लकारोभवति(३)। पल्लत्थं (३-५० द्वि० ३-१२ स्तम्यू-३-५० द्रि० ३-५१ = ५-३० वि०)
(१) क० पु० शेषादेशयोईित्वमनादाविति द्वित्वम् । तत्र ज. कारस्य वर्ग तृतीयत्वेन युक्ताभावा "द्वर्गेषु युजः पूर्व” इत्यस्य न प्राप्तिः । अ० पा० (२) वाग्राहणात् “यशय्वादि" सूत्रेण जकारो पि । (३) लकारोभवति । क. पु० पा० ।
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३२
प्राकृत प्रकाशे
पल्ला (पूर्ववत्) सोअमल्लं (१-२२ सु०स्पष्टं ) ॥ २१ ॥ तस्य टः ॥ २२ ॥
र्त इत्येतस्य टकारो भवति । केवट्टओ (१-३४ ऐ =ए प्रायोग्रहणात वलोपो न ३ - ५० टूद्वि० २-२ कूलोपः ५ - १ओ) ओ, नहई (२- ४२ शे० पू०) कैवर्तक - नर्तकनर्तक्यः(१) ॥ २२ ।।
=
पत्तने ॥ २३ ॥
पत्तनशब्दे युक्तस्य टकारो भवति । पट्टणं (३-५० टूद्वि०) २-४२ नू=णू ५-३० वि० ) ॥ २३ ॥ धूर्तादिषु ॥ २४ ॥
धूर्त इत्येममादिषु त इत्येतस्य टकारो न भवति । धुत्तो ( ३-३ ग्लोपः ३-५० द्वि० ४-१ : ५-५ ओ) कित्ति (३-३ ग्लोपः ३-५० त्०ि ४-१ इत्रः ५-२९ हस्त्रः ) वत्तमाणं (३-३ र्लोपः ३-५० द्वि० २-४२ नू = ण् ५ - ३० विं) वत्ता (४-१ आ ३ - ३ लोपः शे० पू०) आवत्तो ( ५-१ ओ शे० पू० ) संवत्तओ ( ३-३ लोपः ३-५० द्वि० २-२ कूलोपः शे० पू० ) णिवत्तओ (२-४२ नू = ण्० शे० पू० ) वत्तिआ ( ३-३ रलोपः ३-५० द्वि० २-२ क्लोपः) अत्तो, कत्तरी मुत्ती (पूर्व लोपो हस्वादिकञ्च) धूर्त:, कीर्ति, वर्तमानम्, वार्ता, आवर्तः संवर्तकः, निवर्तकः, वर्तिका, आर्तः, कर्तरी, मूर्तिः ॥२४॥ गर्ते डः ॥ २५ ॥
गर्तशब्दे तस्य डकारो भवति । गड्डो (३-५० इद्वि० ५-१ ओ) ।। २५ ।।
( ४ ) वट्टई पाठे वर्तत इति कचिदधिकम् ।
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द्वितीय परिच्छेदः ॥ गर्दभसंमद(१)वितर्दिविच्छर्दिषु दस्य ॥ २६ ॥ एतेषु दस्य डो भवति । गड्डहो (३-५० वि० २-२७ भ-हू ५-१ ओ) (संमड्डो पूर्व०) विअड्डी (२.-२ तूलोपः ३-३ लोपः द्धि० पू० ५-१८ दीर्घः) विछड्डी (पूर्ववत् ) ॥ २६ ॥
त्ययद्यां चछजाः ॥ २७ ॥ त्यथ्य घ इत्येतेषां च छ जइसेते यथासंख्यं भवन्ति । त्यस्य, णिञ्च(२) (२-४२ =ण ३-५० वि० ५-३० वि०)पञ्च. च्छं । (३-३ रोपः ३-३० क्षु-छु ५-३० वि०) थ्यस्य रच्छा,मिच्छा पच्छे (३-५० छद्रि० ३-५१ =)यस्य,विज्जा (३-५० वि०) वेजो। (१-३४ ऐ-ए पू० वि० ५-१ ओ) नित्यम,प्रसक्षम,रथ्या,मिथ्या,पथ्यम,विद्या,वैद्यः ॥ २७ ॥
ध्ययोः ॥ २८ ॥ ध्य ह्य इत्येतयोझकारो भवति । ध्यस्य, मज्झं (३-५० द्वि० ३-५१ - ५-३० वि) अज्झाओ। (५-१ ओ शे० पू०) ह्यस्य, वज्झओ (४-१ आ-अ २-२ क्लोपः शे० पू०) गुज्झओ (पूर्ववत्) । मध्यः,अध्यायः, वाह्यकः, गुह्यकः ॥ २८ ॥
कस्कक्षा खः ॥ २९ ॥ कस्कक्षां खकारो भवति । कस्य, सुक्खं (३-५० वि० ३-५१ ख- ५-३० वि०) पोक्खरो (१-२० सू० स्प०) । . स्कस्य, खदो, खन्धो (४-१७ वर्गान्त० ५-१ ओ) क्षस्य, खदो
(१) क्वचिद् विमर्दइत्यधिकः पाठस्तत्र विमड्डेतिवोध्यम् ।
(२) क्वचित्सचं, पञ्चखं, पश्चञ्चं । सत्यं, प्रत्यक्षं, पाश्चात्यमित्य. धिकम् ।
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३४
प्राकृतप्रकाशे जक्खो (२-३१ मू० स्प०)(१) ॥ २९ ॥
अक्ष्यादिषुच्छः ॥ ३० ॥ अक्षि, इत्येवमादिषु क्षकारस्यच्छकारो भवति । अच्छी (३-५० वि०(२) ३-५१-चू ५-१८ दीघः) लच्छी (३-२ मलोपः शे० पू०) छुण्णो (५-१ ओ) छीरं (स्पष्टं) छुद्धो (३-३ ब्लोपः ३-५० द्रि० ३-५१ - ५-१ ओ) उच्छित्तो (३-१ तपयोर्लोपः ३-५० छाद्र० ३-५१ चत्वं ३-५० वद्वि० ५-१ ओस्त्र) सरिच्छं (१-२ सू० स्प०) उच्छू (१--१५ सू० स्पष्ट) उच्छा (५-४७ आत्मवत् कार्य शे० पू०) रिच्छो (१-३ऋरि ३-५० द्रि० ३-५१ छ्च् ५-१ ओ) मच्छिआ (२-२ क्लोपः शे० पू०) छुआं (२-२ ठूलोपः ५-३० वि०) छुरं (५-३० वि०) छत्तं (३-३
लोपः ३-५० वि० ५-३० वि०) वच्छो (३-५० छवि० ३-५१ छ् =च् ४-१८ पुं० ४-६ लोपः ५-१ ओ) दच्छो (पूर्ववत) कुच्छी (५-१८ दीर्घ शे० पू०)। अक्षि, लक्ष्मी, क्षुण्ण, क्षीर, क्षुब्ध, उत्क्षिप्त, सदृक्ष, इक्षु, उक्षन्, क्षार, ऋक्ष, मक्षिका, क्षुत,क्षुर(३), क्षेत्र, वक्षस् (४),दक्ष,कुक्षि, इत्येवमादयः(५)॥३०॥
क्षमावृक्षक्षणषु वा ॥ ३१ ॥ एतेषु क्षकारस्य छकारों भवति वा छमा खमा(६) (३-२९ (१) शुष्क, पुष्कर, स्कन्द, स्कन्ध, क्षत, यक्षाः।मुक्खमिति पाठे मुष्केति।
(२)चकाररहितच्छकार आदेशे बोध्यः। तैथव च छुण्णादिषु दृश्यते (३) भुरे विकल्पः, छुरो, खुरो इति पठन्ति केचित् । (४) वृक्ष इति केचित् । (५) आर्षे इक्खू , खीर, सारिक्ख मित्याद्यपि दृश्यते । हे०॥ (६) क्षमा पृथिवी, खमा क्षान्तिः । हे.
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तृतीयपरिच्छेदः ॥
क्ष-ख) वच्छो रुक्खो (१-३२ मू० स्पष्ट) छणं खणं (पक्षे ३-२९ श्रव ५-३० वि०) वृक्ष शन्दे ऋकारस्याकारे कृते क्षणशब्देचोत्सवाभिधायिनि छत्वमिष्यते(२) ॥ ३१ ॥
6प्रमपक्ष्मविस्मयेषुम्हः ॥ ३२ ॥ ष्म इत्येतस्य पक्ष्मविस्मयशब्दयोश्च युक्तस्य म्हकारो भवति मस्य, गिम्हो (३-३ रेफलोपः इस्वः संयोगे-ई-इ ५-१ओ) उह्मा(५-४७ आत्मवत् कार्य शे०पू०)पम्हो (५-१ओ शे०पू०) विम्हओ ॥ (२-२ यलोपः शे० पू०) ग्रीष्म, उष्मन् , पक्ष्मन, विस्मयः ॥ ३३ ॥
हस्नष्णक्षणश्नां पहः ॥ ३३ ॥ हादीनां ण्ड इत्ययमादशो भवति । हत्य, वण्ही, जण्डू ५-१८ दीर्घः) । स्नस्य, पहाणं (५-३० विं, पण्हुदं (३-३ लोपः १२-३(२) सन्द ५-३० वि) ष्णस्य, विण्हू (५-१८ दी०)कण्हो(३-६४ विभकर्षात अ५-१ओ)। क्ष्णस्य, सह(२-४३श-म विपक्षी बाहुलकेन लस्यात्वे५-३० वि०)ति ण्हं(हस्वः संयोगात शे० पू०)श्नस्य, पण्हो (३-३-लोपः ५-१ ओ) (२-४३ शम् शे० पू०) वह्निः, जड्नुः, स्नानम्, पणः, कृष्णः, श्लक्ष्णं, तीक्ष्णम,प्रश्नः, शिश्नः ॥३३॥
चिन्हे न्धः ॥ ३४ ॥ चिन्हशब्दे युक्तस्य न्ध इत्ययमादेशो भवति । चिन्ध(१-१२ सू. १०)॥ ३४ ॥
)क० पु० छणो क्षण उत्सव इत्यर्थः । अ० पा० १२) व्यत्ययात्प्राकृतेऽपि एवं खदो इत्यत्रापि बोध्यम् ।
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प्राकृतप्रकाशे
पस्य फः ॥ ३५॥ व इत्येतस्य फ इत्ययमादेशो भवति । पुप्फ (३-५० द्वि० ३-५१ फ्=प् ५-३० वि) सप्फ (२-४३ श्-स् शे० पू०) णिप्फाओ (२-४२ न=ण २-२ प्लोपः द्वित्वं पत्वं च पू० ५-१ ओ) पुष्पम, शष्पम, निष्पापः ॥ ३५ ॥
स्पस्य सर्वत्र स्थितस्य ॥ ३६॥ स्प इत्येतस्य सवत्र स्थितस्य फ इत्ययमादेशो भवति । फंसो (४-१५ विन्दुः ३-३ोपः २-४३ श-सू५-१ ओ) फंदणं । २-४२ नूण ५-३० वि शे० पू०) स्पर्शः, स्पन्दनम् ॥३६॥
सि च ॥ ३७॥ स्पस्य कचित् सि इत्ययमादेशो भवति । पाडिसिद्धी(१-२ सू० स्पष्टं) । प्रतिस्पर्धी ॥ ३७ ॥
बाष्पे अश्रुणि हः ॥ ३८ ॥ वाष्पशब्दे ष्प इत्येतस्य इकारो भवति अश्रुणि वाच्ये । बाहो । (५-१ ओ ३-५४ इष्ट्रि ) अश्रुणि किम् । बप्फो (४-१ वा-व ३-३५ प्- ३-५० दि० ३-५१ फ-प ५-१ ओ) उमा(१)। (५-४७ आत्मवत्) बाल उष्मा३८॥
कार्षापणे ॥ ३९ ॥ . कार्षापणशब्दे युक्तस्य हकारो भवति । काहावणो-१५ 4- २-४२०-५-१ओ) ॥ ३९ ॥
श्चत्सप्सां छः ॥ ४०॥ एतेषां छकारो भवति । श्वस्य, पच्छिमं (३-५० छाई
Ressical
(१) कचिदयं पाठो न दृश्यते ।
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तृतीयः परिच्छेदः ॥
३७
५१ छ-च ४-१२ वि) अच्छेरं । (१-५-सू०स्पष्टं) त्सस्य, घच्छो (५-१ ओ) बच्छरो। (३-५० वि० ३-५१ छ्-च ५-१ ओ) प्सस्य, लिच्छा, जुगुच्छा । (स्पष्टं) पश्चिमम, आश्चर्यम्, वत्सः, वत्सरः, लिप्सा जुगुप्ता ॥ ४० ॥
वृश्चिके छः ॥ ४१ ॥ वृश्चिकशब्देश्चकारस्य छ इसयमादेशो भवति । विच्छओ (शे० १-१५ सू० स्प०) ॥ ४१ ॥
नोत्सुकोत्सवयोः ॥ ४२ ॥ उत्सुक, उत्सव, इसेतयोः छकारो न भवति । श्चत्मप्स छ इति प्राप्ते प्रतिषिध्यते । उस्मुओ (२-२ क्लोपः ५-१ ओ) उस्सवो (३-१ तूलोपः ३-५० वि०) (२-२ मायोग्रहणात् लोपो न शे० पू०) ॥४२॥
न्मो मः॥ ४३ ॥ न्म इत्येतस्य म इत्ययमादेशो भवति । अधोलोपे प्राप्ते । जम्मो (३--५० मदि० ५-१ ओ) वम्महो (२-३९ सू०प०) जन्म, मन्मथः ॥ ४३ ॥
नज्ञपश्चाशत्पञ्चदशेषु णः ॥ ४४ ॥ म्न ज्ञ इसेनयोः पञ्चाशवपञ्चदशशब्दयोश्च युक्तस्य णका. रो भवति । म्नस्य, पज्जुण्णो। (३-३ लोपः ३-२७द्य्-ज् ३-५० जणयोर्द्वि० ५-१ ओ) ज्ञस्य(१), जण्णो (२-३१ = जू शे० पू०) विण्णाणं (३-५० द्वि० २-४२ न्-५-३० घि) पण्णासा (२-४३श-स् ४-9 -आ शे० पू०) पण्णरहो ।
(१) शोमः । ८।२। ८३ ॥ ज्ञः सम्बन्धिनोत्रस्य लुग् भवति । संजा, सण्णा । कचिन्न भवति विण्णाणं । हे०
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प्राकृतप्रकाशे
३-५० वि० २-१४ दर २-४४ शू-हू ५-१ ओ) प्रद्यु. म्नः, यज्ञः, विज्ञानम्, पञ्चाशत, पञ्चदश ॥ ४४ ॥
तालवृन्ते ण्टः ॥ ४५ ॥ तालवन्तेयुक्तस्यण्टइत्ययमादेशोभवति । तालवेण्ट अं(१-१० सू० स्पष्टं) ॥ ४५ ॥
भिन्दिपालेण्डः ॥ ४६ ॥ भिन्दिपालशब्दे युक्तस्य ण्ड इत्ययमादेशो भवति । भिण्डि. वालो (२-१५ १- ५-१ ओ) ॥ ४६॥
विह्वले भही वा(१) ॥ ४७ ।। विह्वलशब्दे युक्तस्य भकारहकारौ भवतो वा । बिब्भलो(२) (३-५० वि० ३-५१ भू-५-१ ओ) विहलो (३-५४ द्वित्वं न) विह्वलः ॥ ४७ ॥
आत्मनिपः ।। ४८ ॥ आत्मशब्दे युक्तस्य पकारो भवति । अप्पा (३-५० वि० ५-४६ अन्=आ) ॥ ४८ ॥
_ क्मस्य ॥४९॥ क्म इत्येतस्य पकारो भवति । रुप्पं (३-५० द्वि०५-३० वि) रुप्पिणी (पूर्व०)। रुक्म,रुक्मिणी । योगविभागो निसार्थः॥४९॥
शेषादेशयोदित्वमनादौ ॥ ५० ॥ युक्तस्य योशेषादेशभृतौतयोरनादौवर्तमानयोदित्वं भवति ।
(१) वा विह्वले वौ वश्च । ८ । २ । ५८ विह्वलेह्रस्य भो वाभवति, तत्सन्नियोगे च विशब्दे वस्य वा भो भवति । भिन्भलो । हे।
(२) क्वचिदू वेष्भलो तत्र पिण्डसमत्वादेत्वं बोध्यम् ।
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तृतीयः परिच्छेदः ॥
३९
शेषस्य तावत, भुतं ( ३१ कूलोपः ३-५० द्वि० ५-३० वि०) मग्गो । ( ३-३ लोपः ३-५० द्वि०५ - १ ओ) आदेशस्य, लट्ठी (२-३२ सू० स्प०) दिट्ठी (१-१८ सू० स्प०) हत्यो । ( ३- १२० स्प० ) अनादाविति किम् । खलिअं (३-१ स्लोपः २-२ तुलोपः ५-३० नं०) खंभो (३-१४ सू० प० ) थत्रओ (३ - १२ सू० स्प०) भुक्तम, मार्गः, यष्टिः, हस्तः, स्खलितम्, स्तम्भः स्तवः ॥ ५० ॥
,
वर्गेषु युजः पूर्वः ॥ ५१ ॥
युक्तस्य यो शेषादेशावनादि भूतौ तयोर्द्वित्वेपिविहिते अध ऊर्ध्वे (१) च यौ वर्गेपुनर्णोद्वितीयश्चतुर्थोवा (२) विहितस्तस्य पूर्वः प्रथमस्तृतीयो वा भवति । वर्गेषु युग्मस्य द्वितीयस्य प्रथमः, चतुर्थस्य तृतीयो द्विलेन विधीयते, अयुग्मयोः प्रथमतृतीयपञ्चपरूपयोः शेष|देशयोस्तु तावेव भवतः । शेषस्य, वक्खाणं (३-२ उभयत्र यूलोपः ४-१ इलः ३-५० द्रिले पूर्व० खूक २-४२ न्=ण् ५-३० वि०) अग्घो (३-३ लोप: ५-१ ओ) मुच्छा (४-१ :) णिज्झरो लुद्धो भिरो (पू० दूलोपादि) । आदेशस्य, दिट्ठी (१-२८ सूत्रतोऽनुसन्धेयम) लट्ठी (२- ३२ सूत्रे स्पष्टम् । ) वच्छो (३-३० सू० १० शेषमवदातम् ) विष्फरिस (३-३५ स्पू=फू ३-६२ विप्रकर्षः पूर्वस्वरतयारिकारश्च २-४३ श्=स् ५ - १ ओ.) णित्थारो (२-४२ नूणू ३-१२ स्तू=थ् शे० रूप०) जक्लो (१ - ३१ सूत्रोदाहरणे स्प०) लच्छी (३३० सूत्रे स्पष्टम) अट्ठी (३ - ११ सूत्रे स्प०) पुप्फं ( ३-३५
(१) क० पु० ऊण० । अ० पा०
(२) क० पु० " अवशिष्टो विहितो यः" अ० पा०
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४०
प्राकृतप्रकाशे सूत्रे स्प०) (सर्वत्र द्वित्वम् ३-५० सूत्रेणबोध्यम) । व्यारुपानम्, अर्घः, मूर्छा, निर्झरः, लुब्धः, निर्भरः, दृष्टिः, यष्टिः, वक्षः, विस्पर्शः, निस्तारः, यक्षः, लक्ष्मीः, अस्थि, पुष्पम, ॥५१॥
नीडादिषु ॥ ५२ ॥ नीड इसेवमादिषु अनादौ वर्तमानस्य च द्वित्वं भवाति(१)। गड्ढं (स्पष्टम) एनीडापीडेत्यादिना एवम् । सोत्तं(३-३ लोपः ४-६ अन्यलोपः५-३०विन्दुः) पेम्म(३-३ रोपः वाहुलकाद् उभयत्र ४-१८ प्रवृत्ति न शे० पूर्ववत्) वाहित्तं(२)(२-२ एलोपः १-२८ ऋ-३५-३० विन्दुः) उज्जुओ(३) (१-२९ ऋ- ५-१ ओ० २-२ क्लोपः ५-१ ओ) जण्णओ (१-४१ औ=ओ २-४२
=ण २-२ क्लोपः ५-१ ओ) जोवणं (१-४१ औ=ओ २-३१ य=ज् २-४२ नू=ण ५-३० वि०) नीडम्, स्रोतः, प्रेम, व्याहृतम् , ऋजुकः, जनकः, यौवनम् ॥ ५२ ॥
आम्रताम्रयोर्वः ॥ ५३॥ आम्र ताम्र इत्येतयोर्द्वित्वेनवकारोभवति । अव्वं, तव्वं(४) (४-१ इस्वः संयोगे ३-५० द्वि०५-३० वि०) ॥ ५३ ॥
न रहोः ॥ ५४ ॥ रेफहकारयोत्विं न भवति । धीरं (१-३९ सूत्रे स्प०) तूरं (१) अनादेशत्वादप्राप्तेविधिरयम् । (२) इत्कृपादौ । ८ । १ । १२८ हेम सूत्रे कृपाद्यन्तर्गतादावस्य पाठात।
(३) ऋणर्वृषभत्वृषौ वा ८ । १ । १४१ इति हेमानुसारतः रिज्जू । उज्जू।
(४) हेमस्तु “ताम्रानेम्वः” अनयोः संयुक्तस्य मयुक्तोवो भवति। अम्बं, तम्ब, इत्याह ।
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तृतीयःपरिच्छेदः ॥ (३-१८ मू० स्पष्टं) जीहा (१-१७ सू० द्रष्टव्यं) वाहो (३-३८ सू० स्पष्टं) । धैर्यम, तूर्यम्, जिह्वा, वाष्पः ॥ ५४ ।।
आङोज्ञस्य ॥ ५५ ॥ आङ उत्तरस्य ज्ञ इत्येतस्यादेशस्य द्वित्वं न भवति । आणा (३-४४ =ण ) आणत्ती । (पूर्ववत्=ण ३-१ प्लोपः३-५० दि० ५-१८ दीर्घः) आज्ञा, आज्ञप्तिः । आङइतिकिम् । सण्णा । (३-४४ जूण् ३-५० ण् द्वि०) संज्ञा ।। ५५ ।।
न बिन्दुपरे ॥५६॥ अनुस्वारेपरे द्वित्वं न भवति । संकतो (३-३ रेफलोपः ४१७ वर्गान्त०४.१हस्वः ५-१ओ) संझा (३-२८ ध्य-झ् ४-१७ वर्गान्त०)। सक्रान्तः, संध्या ॥ ५६ ॥
___ समास वा ॥ ५७ ।। समासे शेषादेशयोर्वा द्वित्वंभवति । णइग्गामो, ईगामो (२-४२ =ण २-२ दुलोपः ३-३ लोपः ४.१ ह्रस्वः, द्वित्वा भावेतुयथावदीकारः ५-१ ओ) कु घुमप्पअरो (३-३ रोपे २-२ क्लोपः ५-१ ओ) कुसुमपअरो (द्रित्वाभावः शे पू०) देवत्थुई, देवथुई (३-१२ स्त्-थ् ३-५१ थ्-त् २-२ तलोपः ५-१८ दीर्घः) आणालक्खंभो, अणालखंभो (४-२९ परिवृत्तौ आनाले जाते २-४२ न=ण ३-१४ स्तु:ख ३-५१ ख- ४--१७ वर्गान्त० ५--१. ओ) । नदीग्रामः, कुसुमप्रकरः, देवस्तुतिः, आलानस्तम्भः ॥ ५७॥
सेवादिषु च ॥ ५८॥ सेवा इसेवमादिषु चानादौ वा द्वित्वं भवति । सेवा, सेवा (२-२ प्रायोग्रहणावलोपोनशेषस्पष्टं) एक्कं, एरं (द्वित्वा
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४२
प्राकृतप्रकाशे
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भावे २-२ कूलोपः ५-३० वि०) क्खो (२--४२ नूणू द्विलपक्षे ३ - ५१ खू कू ५ - १ ओ) हो ( द्विलाभावे २-२७ खू=हू ५- १ ओ) देव्त्रं, दडनं (१ - ३७ सू० १०) असिव्त्रं, असि । तेलोक्कं (१-३५ सूत्रेस्प०) तेलअं (द्वित्वाभावे ३-१ कलो. प: शे० पू० ) णिहितो (२-४२ नू = णू द्वित्वे ५-१ ओ) णिहिओ (द्वित्वाभावे २-२ तलोपः शे० पू०) तुहको (३ - ३३ हस्वःसंयोगे, कस्यद्विले ५-१ ओ) तुहिओ (द्वित्वाभावे २- २ कलोपः शे० पू०) कण्णिआरो, कणिआरो ( ३-३ रलो. प २- २ कलोपः द्वित्वभावाभावाचपूर्ववत् ५-१ ओ) दिग्ध (३.३ रलोपः ३-५१ घ्=ग् ह्रस्वः संयोगेइतिदी = दि ५-३० वि०) दीहं (द्वित्वाभावेरलोपे च असंयोगरपरत्वातहस्वाभावः २–२७ धूहू शेषंस्पष्टं) रत्ती (३-३ रलोपः ४- १ ० ५ - १८ दीर्घः) राई (३ - १ तलोपः ३ - ३ रलोप० ) दुक्खिओ (खद्रित्वे ३-५१ खू=क् २-२ तलोपः ५- १ ओ ) दुहिओ (द्वित्वाभावे २-२७ खू=हू शे० पू० ) अस्सो असो (१२ सू० द्रष्टव्यं ) इस्सरो ( ३-३ वलोपः २.४३ शू = द्विले ह्रस्वः संयोगे ई = इ ५-१ ओ ) ईसरो (द्वित्वाभावे हस्वाभावः शे० पू० ) विस्सासो, वीसासो । णिस्सासो, णीसासो ( २-४२ न=णू शे० पू० ) रस्सी (३-२मलोपः २-४३ शू=म् द्वित्व ५- १८ दीर्घः) रसी (द्वित्वाभावः शे० पू०) मित्तो ( ३-३ रलोपः ५.१ ओ) मिओ (१) (द्वित्वाभावे ३-१ तलोपः शे०पू० )
( १ ) तर इन्दनिच्चिन्दोविहरतु अन्देउरभिम सोदाव | इन्दस्य तावमित्तंहवेसि महि - सामिआतुमयं इति कुमारपालचरिते ७ सर्ग ९३ । त्वयाइन्द्रो निश्चिन्तोविहरतु अन्तः पुरे स तावत् । इन्द्रस्य तावन्मित्रं भवसि महोस्वामिन् त्वम् । एतदनुसारेण सुहद्वाचकमित्रशब्दो नपुंसकः सूर्थ्य वाचकस्तु पुंलिङ्गो भवितुमर्हति ।
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तृतीयः परिच्छेदः ॥
पुसो (३-२ यलोपः २-४३ = ५-१ ओ) पुमो (द्वित्वाभावे पूर्ववदशेषं) सेवा, एकः, नखः, दैवम्, अशिवम, त्रलोक्यम्, निहितम्, तूष्णीकः, कणिकारः, दीर्घप, रात्रिः, दुःखितः, अश्त्रः, ईश्वरः, विश्वासः, निश्वासः, रश्मिः, मित्रम् पुष्यः । उभयत्र विभाषेयम् । सेवादीनामप्राप्ते (१) दीर्घादीनां च प्राप्ते ॥ ५८ ॥ विप्रकर्षः ।। ५९ ।।
४३
अधिकारो ऽयम् | आपरिच्छेद समाप्तेर्युक्तस्य विप्रकर्षो भवति ॥ ५९ ॥ क्लिष्ठश्लिष्टरत्नक्रियाशाङ्गेषु तत्स्वरवत्पूर्वस्य ॥ ६० ॥ क्लिष्टादिषु युक्तस्य विप्रकर्षो भवति विप्रकृष्टस्यचयः पूर्वो वर्णों निरर्थस्तस्य तत्स्वरता भवति तेनैव पूर्वेण स्वरेण पूत्र वर्णः सार्थोभनाते इसर्थः । किलिट्ठ (ष्टकारविप्रकर्षे लकारेण सह पूर्वस्वरतया चकिलिजाते ३.१० ष्ट=ठः ३.५० ठद्वि० ३ ५१ पूर्व= ५-३०) सिलिटं (२.४३ शू शे० पृ० ) अणं (विमकर्षाद (स्त) जाते ३-१ तलोपः २-४२ न्=ण् ५-३० वि०) किरिआ (२-२ यलोपः शेषं विश्कर्षादिकं पू० ) सारङ्गो ( २-४३ शू=म् ४ १७० २-१ ओ) ॥ ६० ॥ कृष्णे वा ॥ ६१ ॥
कृष्णशब्दे युक्तस्य वा विकर्षो भवति पूर्वस्य च तत्स्त्ररता । व्यवस्थितविभाषेयम् । तेनवर्णेनिसंविप्रकर्षः, विष्णौतुन भवत्येव । कसणो (१ - २७ ऋ = अ ष्णस्यविप्रकर्षे (षण) जाते २-४३ = २-४२ नूणू ५-१ ओ ) कहो (३-३३ सू० स्पष्टम् ) ।। ६१ ॥
( १ ) अनादेशत्वादशेषाश्चेति शेषः ।
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प्राकृतप्रकाशे
इःश्रीह्रीक्रीतक्लान्तक्लेशम्लान स्वस्पर्श हर्षार्ह गर्हेषु ॥ ६२ ॥
एषु युक्तस्य विप्रकर्षो भवति पूर्वस्य इकारः तत्स्वरता च भवति । सिरी (२-४३ = विप्रकर्षत्वे पूर्वस्य इत्वे तत्स्वरतायां च सिरी इति जानं ) ( एवं )हिरी | किरीतो ( १ ) | किलन्तो (विप्रकर्षे पूर्वस्ये ४- १७ वर्गान्तो विन्दु ५-१ ओ) किलेसो ( स्पष्टम् ) मिलाणं (पूर्ववत् इत्वं तत्स्वरता च २-४२ नू=ण ५-३० विं०) सित्रिणो (१- ३ सू० स्पष्टम) फरिसी ( ३-३५ स्प्=फ इत्रं तत्स्वरताच २-४३ श्= ५-१ ओ एवमुत्तरत्रापि ) हरि - सो । अरिहो । गरिहो ( स्पष्टाः) । श्रीः, ही:, क्रीतः, क्लान्तः, क्लेशः, म्लानम्, स्वप्नः, श्१र्शः, हर्षः, अर्हः, गर्हः ।। ६२ ।। अः क्षमाश्लाघयोः ॥ ६३ ॥
४४
क्ष्मा] श्लाघा इत्येतयोर्युक्तस्य विप्रकर्षोभवति, पूर्वस्य अकारस्तत्स्त्ररता च भवति । खमा (३ - ३९ क्षू = व् शे० स्पष्टम् ।) सलाहा (२-४३ श्=स् - विप्रकर्षः पूर्वस्याऽयं तव स्वरता च २-२७ घू=हू ) ॥ ६३ ॥
स्नेहे वा ॥ ६४ ॥
स्नेहशब्दे युक्तस्य विकर्षो वा भवति पूर्वस्य च अकारस्तत्स्वरताभवति । सणेहो ( पूर्ववत् विपकर्षादिकं २-४२नू= णू ५ - १ ओ) हो (३ - १ सूत्रे स्पष्ट ) ॥ ६४ ॥
उः पद्मतन्वी समेषु ॥ ६५ ॥ पद्मशब्दे तन्त्र इसेवंममेषुच युक्तस्यविप्रकर्षोभवनिपूर्वस्य च उकारस्तत्स्त्ररता च भवति । पउमं(२) (३-२ पलोपः शेषं
( १ ) प्रायोग्रहणान्न तलोपः ।
( २ ) ओल्प ८ । १ । ६१ । तेन पोम्मं । हे०
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चतुर्थः परिच्छेदः ॥ स्पष्टम्) तणुई (२-४२ न-ण उत्वादिपूर्ववत् वलोपश्च) । लहुई (२-२७ घ=ह शे० पु०) तन्त्री लनी ॥ ६५ ॥
ज्यायामीत् ॥ ६६ ॥ ज्याशब्दे युक्तस्य विप्रकर्षों भवति पूर्वस्य च ईकारस्तत्स्व. रता च जीआ (२-२ यलोपः) ॥ ६६ ॥(१)
इति प्राकृतप्रकाशे युक्तवर्णविधिर्नाम |
तृतीयः परिच्छेदः ॥
सन्धावचामलोप(२)विशेषा बहुलम् ॥ १ ॥
अचामितिप्रयाहारग्रहणम् अजिति च । सन्धौ वर्तमानानामचां स्थाने अविशेषा लोपविशेषाश्च बहुलं भवन्ति । अधिशेपास्तावत, जउणअडं जउणाअडं (२-३ सूत्रस्पष्टं जउणा, तटमिति२-२ तलोपः(३) २-२० टम् अत्र बहुलग्रहणात् 'णा'इत्यत्रहस्वत्वविकल्पेन ५-३० सोविन्दुः) णइसोत्तो पईसोत्तो (२-४२ नू-ण २.२ दलोपः हस्त्रविकल्पःपू० सोत्तो ३-५२ सूत्रेद्रष्टव्यः अत्र विशेषः ४-१८(४) पुं०) बहुमुहं बहूमूहं (२-२७ वह ५.३० वि० शे० पू०) कण्णउरं, कण्णऊरं (३-३लोपः ३-५० दि० २.२ पलोपः शे० पू०) सिरोवेअणा, (१) क० पु० "इवेव" ॥ ६७ ॥
__इव शब्दे व इति निपात्यते । पाण व्व धनं । अ० पा. (२) अयं पाठः का० पु० सम्मतः। इतः प्राचीनेषु अज्रूपविशेषा इति पाठः॥
(३) वृत्ता वय मनादिरेव गृह्यते । (४) ३-५२ सूत्रेतु व्यत्ययेन नपुंसकत्वम् ।
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प्राकृतप्रकाशे
सिरवेअणो (२-४३ श= ४६ मूलोपे अशेष ओसिरो इति वेणा १-३४ सू० स्प० शे पू०) पीआपीअं, पिआपिअं, सीआसीअं, सिसि ( २ २ तलोपः शेषं हस्वविकल्पादि पूर्ववत्) सोमु (३-३ रलोपः ओमकारस्य २ २७ =हू ५-१ ओ ) सबोमूओ (३-३ रलोपः २ १५= ओल्या हुलकात शे० पू० ) सरोरुहं, सररुहं । ( ४-६ स्लोपः ओत्वविकल्पः शे० स्पष्टं) लोपविशेषाः, राउलं, राभउलं (जलोपे विकल्पेनाऽलोपः २ -२ कलोपः ५-३० विं) तुहद्धं, तुहअद्धं ( ६-- ३१ तत्र = तुह विकल्पेन बाहुलकादकारलोपे ३ - ३ रकारलोपः ५ - ३० विं) महद्धं, महअद्धं ( ६-५० ममह शे० पृ०) वावडणं, वाअवडणं (२-१५ पू=बू २-२ दूलांपे वाहुलकाद विकल्पेन अकारलोपे वापतनमितिजाते पुनः २ - १५ = वावतन इतिजाते ८५१ त्= २-४२ नूणू ५-३० वि०, अलोपाभावे स्पष्ट० ) कुम्भारो, कुम्भआरो (अनादिग्रहणात् २-२ कलोपोन ४-१७ वर्गान्त० २-२ कलोपे ४ - १ भकारोत्तरवर्क्सकारलोपे ५-१ ओ, अलोपाभावे स्पष्टं) पत्रशुद्धअं पणउद्धअं । (प्राय इतिवलोपो न २- ४२ नू = ण् पूर्ववदकारलोपः पण्उद्धतमिनिजाते २-२ लोपः ५-३० वि०, अलोपाभावे पूर्ववत् ) यमुनातटं नदी श्रोतस् बहुमुखं, कर्णपूर, शिरोवेदना, पीतापीतं, सीनामीनं, (शीताशीतं ) सर्वमुखः, ( सर्पमुखः ) सरोरुहं, राजकुलं, तवार्द्ध, ममार्द्ध, पादपतनं, कुम्भकारः, पवनोद्धतम् ॥ संयोगपरे सर्वत्र पूर्वपाचो लोप:, (हस्त्रश्च । यथा णत्थि, सक्ती, णिक्कन्तो, अत्तो इत्यादयः) (५) । (स्पष्टाः) कचिन्नित्यं कचिदन्यदेव बहुलग्रहणात् । तेनान्यदपि लाक्षणिककार्य भवति ॥ १ ॥
"
( ५ ) ( ) एतत्कोष्टकान्तर्गतः पाठो न सार्वत्रिकः ।
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चतुर्थः परिच्छेदः ॥
उदुम्बरे दोर्लोपः ॥ २ ॥
उदुम्बरशब्दे दुइत्येतस्य लोपो भवति वर्गान्तः ५-३० सोर्विन्दुः || २ ||
४७
। उम्बरं (४-१७
कालाय से यस्य वा ॥ ३ ॥
कालायसशब्दे यस्य वा लोपो भवति । कालासं, कालाअसं (स्पष्टं) ।। ३ ।।
भाजने जस्य ॥ ४ ॥
भाजनशब्दे ज ( १ ) कारस्य लोपो वा भवनि । भाणं, भाजणं (२-४२ नूण् ५-३० वि० पक्षे २-२ सूत्रेणकेवलजकारलोपो भवति ।। ४ ।।
यावदादिषु वस्य ॥ ५ ॥
यावदियेवमादिषु व (२) कारस्य वा लोपो भवति । जा, जात्र ता ता (२-३१ य् = ज् ४-६ तुलोपः पक्षेस्पष्टं ) पाराओ पारावओ (२-२ तुलोपः ५-१ ओ, पक्षस्पष्टं) अणुतन्त, अणुवत्तन्त (२-४२ नू = णू लोपे ३ - ३ रलोपः ३-५० द्वि० ७-१० मान=न्त वलोपाभावे स्पष्टं) जीअं, जीविअं ( २-२ तलोपः ५-३० त्रिं० शे० स्पष्टुं०) एवं (३-५८ द्वित्वं ५-३० वि०) एवं (द्विलाभावे वलोप विकल्पः) (एम) एवं (स्पष्टं) कुअलअं कुत्रलअं (३) । (विकल्पेन स्वररहित वलोप २-२ यलोपः ५-३० वि०) यात्रत, तावत, पारावत,
(१) सस्वरस्य लोपोज्ञेयः हेमस्तु ८/९/२६७ सुत्रे सस्वरस्येतिपठत्येव ।
( २ ) सस्वरवलोपः क्वचिद्वाहुलकात्स्वररहितस्याऽपि । (३) क० पु० चक्काओ, चक्कषाओ । देउलं, देवउलं । अ० पा०
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४८
प्राकृतप्रकाशे
अनुवर्तमान, जीवितं, एवम, एव, कुवलय इसेवमादयः ॥ ५ ॥
अन्त्यहलः ॥ ६॥ वेतिनित्तम् । शब्दानायोन्त्योहलनस्यलोपोभवति । जसो (२-३१ यज २-४३ श-म् ४-१८ पुंस्त्वं ५-१ ओ) णहं (२-४२ न=ण ४-१९ पुंस्त्वाभावः, ५-३० वि०) सरो (जसोवत्) कम्मो ३-३ रलोपः ३-५० मद्वि० शे० पू०) जाव । ताव । (४-५ मू० द्रष्टव्यं) यशः, नमः, सरः, कर्म, यावत्, तावत् ॥ ६॥
स्त्रियामात् ॥ ७ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्यान्त्यहलआकरोभवति । सरिआ (स्पष्टं) पडिया (१-२ सू० स्पष्टं) वाआ (स्पष्टं) सरित्,प्रांतपद् वाक् ॥७॥
रोरा ॥ ८ ॥ स्त्रियामन्यस्यहलोरेफस्यराइत्ययमादेशो भवति । धुरा, गिरा । (स्पष्टं) ॥ ८ ॥
न विद्युति ॥९॥ विदयुच्छब्दे आकारो न भवति विज्जू (३-२७ - ४-६ वलोपः ३-५० जद्वि० ५-१८ दीर्घः) विद्युत् ॥ ९ ॥
शरदो दः ॥१०॥ शरच्छब्दस्यान्त्यहलो दो भवति । सरदो(१) (२-४३ ४-१८ पु० श-५-१ ओ) ।। १० ॥
दिक्प्रावृषोः सः ॥ ११ ॥ दिक्छब्दस्यान्त्यहलः प्रादृट्शब्दस्यापि सकारो भवति ।
(१) "शरदादेरत्" ८।१।१८ सरओ । शरद् । भिषओ । भिषक् ।
"क्षुधोहा" ८।१ । १७ छुहा । क्षुत् । हे.
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चतुर्थःपरिच्छेदः ॥ दिमा(१) (स्पष्टम् ।) पाउसो (१-३० मू० प०) ॥ ११ ॥
मो बिन्दुः ॥ १२ ॥ अन्त्यस्य हलोमकारस्यबिन्दुर्भवति । अच्छं (४-२० विकल्पेनपुंसिमि ५-३ अमोऽकारस्य लोपः शे० ३-३० मू० स्प०) वच्छं (स्पष्टम) भई (३-३ रलोपः ३-५० दद्रि० शे० पू०) (अग्गिं ३-२ नलोपः ३-५० गद्रि० शे० पू०) दह्र (३-१० ष्ट्= ३-५० वि० ३-५१ - शे. पू.) वर्ण, धणं(२) (२-४३न्=ण शे० पू०) ॥ १२ ॥
अचि मश्च ॥ १३ ॥ __ आंचपरतोमो(३)भवतित्रा । फलमयहरइ, फलंअवहरइ(४) (स्प०) ॥ १३ ॥
नोहलि ॥ १४ ॥ नकारनकारयालिपरतोविन्दुर्भवति मकारश्च । नस्य, अंसो अम्सो (५-१ ओ शे. स्प.) । कंसो, कम्सो । अस्य, वंचणीअं, वरचणीअं (२-४२ न=ण २-२ यलोपः ५-३० वि०शे०५०) विझो, विमझो(५) (३-२८ ध्य्-झ नकारस्यविन्दौमकारेच ३-५६ सूत्रण द्वित्वादिबाधः) ॥ १४ ॥
वक्रादिषु ॥ १५॥ वक्रादिषुशब्देविन्दुरागमोभवति । वकं (३-३ रलोपः (१) आपि कृते दिशाशब्दः प्रकृतिः । क्वचिद् दिशा, प्रावृड् इति संस्कृतदर्शनात्।
(२) अक्षः, वत्सः, भद्र, अग्निः , दष्टः, वनं, धनम् । (३) क० पु० विन्दुः पा०। (४) फलमपहरति । (५) अन्सः कन्सः, वश्वनीयं विन्ध्यः ।
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प्राकृत प्रकाशे
५-३० वि०) तंसं ( ३-३ रकारयोर्लोपः ३-२ यलोपः शे. स्प.) हंसो ( ३-३ रेफलोपः लोपश्च ५-१ ओ) अंमू ( ३-३ रलोप । ३-४३ शू= ५-१८ उदीर्घः) मंत्र ( ३-६ शूलोपः २-४३ श्= ३-३ रलोपः ५-१८ दीर्घः) गुंठी (१ - २९ऋ = उ ३-१० = ५-१८ दीर्घः) मंथं (१-२२ =अ- (१) ३-१२ स्तू =थू ५-३० वि०) मणंसिणी (१-२ सू. स्प.) दंसणं ३-३ रलोपः २-४३ शू=म् २-४२ नू - ण् ५-३० वि०) फंसो ( ३-३६ सू० स्प.) बंण्णो ( ३-३ रलोपः ३ - ५० द्वि० ५-१ ओ) पडिमुदं ( ३-३ रलोपः २ - ८ तू = डू २-४३ शू=म् ३-३ रलोपः १२-३ त- ५-३० वि. २-४२ शू=म् ५ - १ ओ) अंसो (स्पष्टम् ) अहिर्मुको (२) (२-२७६ ३-१ तलोपः ५१ ओ ) । वक्र, व्यस्त्र, इस्त्र, अश्रु, श्मश्रु, गृष्टि, मुस्त, मनस्विनी, दर्शन, स्पर्श, वर्ण, प्रतिश्रुत, अंश, अभिमुक्त, इत्यादयः ||१५||
मांसादिषु वा ॥ १६ ॥
मांसादिशब्देषु वा बिन्दुः प्रयोक्तव्यः । मंसं, मासं । (स्पष्टं ) कहं, कह । (२-२७ थ् =हू शे. स्प.) णूणं, णूण । (स्प.) तहि, तहि (स्प०) असुं असु, (३) (स्प०) तदयमपठितोमांसादिर्गणः । यत्रक्क चिट्टत्तभङ्गभयावत्यज्यमानः क्रियमाणश्चविन्दुर्भवति स मांसादिषुद्रष्टव्यः ॥ १६ ॥
५०
(१) मुकुटादे राकृतिगणत्वात् ।
(२) शक्त मुक्त, रष्ट, रुष्ण, मृदुत्वे कोवा ८ । २ । २ मुक्को-मुक्तो sको दट्ठो लुको लुग्गो भाउ भाउत्तणं इति हे० अत्र अहिर्मुको इत्यत्र न विन्दु परे इत्यनेन द्वित्वनिषेधो शेयः ।
(३) क० पु० मांसः, कथम्, नूनम, तर्हि, असु अ० पा० ।
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चतुर्थः परिच्छेदः ॥
यपि तद्वर्गान्तः ॥ १७ ॥
ययिपरतोविन्दुस्तद्वर्गान्तोवाभवति । सङ्का (२-४३ शू= शे. स्प.) सङ्घो (५-१ ओ. शे. पूर्व) अङ्को । अङ्गं । ( स्प ) सञ्चरइ (७-१ ति=इ शे० रूप०) सण्ठो (२-४३ =म्) सन्तरइ (स्प०) सम्पत्ती (५-१८ दीर्घः शे. स्प.) । ययीति किम् । अंसो | ( ४ - १४ सूत्रेस्प.) वाधिकारात् पंकं, बिंदू, संका संखा (१) । (सुगमानि ॥ १७ ॥
नसान्तप्रावृदूसरदः पुंसि ॥ १८ ॥
नकारान्ताःसकारान्ताश्चमादृशरदौ च पुंमिप्रयोक्तव्याः । नान्ताः, कम्मो (४-६ अन्यनकारलोपः ३-३ रलोपः ३-५० मद्वि० ५-१ ओ) जम्मो (३-४३ सू० स्प ) वम्मो । ( ३-३ रलोपः ३-५० मूद्वि० ४-६ नलोपः ५-१ ओ) सान्ताः जसो ( २ - ३१ सू० स्प० ) तमो ४-६ स्लोपे पुस्त्वे च ५-१ ओ) मरो, पाउसो (१-३०सू०स्प०) सरदो ( २ ) ॥ १८ ॥ न शिरोनभसी ॥ १९ ॥
५१
शिरम्, नभम् सलोपः ५-३० विं) हं ॥ १९ ॥
इत्यतौ नपुंसिप्रयोक्तव्यौ । सिरं (४-६
पृष्ठाक्षिप्रश्नाः स्त्रियां वा ॥ २० ॥
एते स्त्रियां वाप्रयोक्तव्याः । पुट्ठी (१-२९ ऋ = ३-१०
(१) शङ्काः, शङ्खः, कन्सः, अङ्कः, अङ्ग, सञ्चरति, षण्ढः, सन्तरति, सम्पत्तिः, अन्स, पङ्कं विन्दुः ।
(२) कर्म्मन्, जर्मन, वर्मन्, यशस्, तमस्, सरस्, प्रावृष्, शरदः । यच्च सेयं वयं सुमणं, सम्मं, चम्ममिति दृश्यते तद्वाहुकाधिकारात् इति हेमः ।
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प्राकृतप्रकाशे
ट-ठः ३-५० वि० ३-५१ -ट् स्त्रीत्वे ई) (एवम) अच्छी, अच्छं । अच्छो (अक्षस्य तु ३-३० -छ द्वित्व चत्वे ५.१ ओ) पहा, पण्हो (३-३ लोपः ३ ३३ श्न-ह स्त्रीत्वे आत्वं, पुस्ते ५.१ ओ)। पृष्टम, अक्षि, प्रश्नः ॥ २० ॥
ओदवापयोः ॥ २१ ॥ अब, अप, इसे तयोरुपसर्गयोर्वा ओत्वं भवति । ओहासो, अ. वहासो । ओमारिअं, अवसारिश्र (२-२ तलोपः ५-३० वि०) । अवहासः, अपसारितम् ॥ २१ ।।
तलत्वयोर्दात्तणी* ॥ २२ ॥ तलाइसेतयोः प्रत्यययोर्यथासंख्यं दा, तण इत्येतावादेशी स्त । पीणदा (२-४२ =ण) मूढदा (१२-३ त्-द) पीणत्तणं । मूढत्तणं (५-३० वि) ॥ २२ ॥
कऊण :(१) ॥ २३ ॥ क्वाप्रययस्यऊणइत्ययमादेशोभवति । घेऊण (८-१६ ग्रहघेत) सोऊण (३-३ रलोपः २-४३ श्-म् उ=ओ गुणेन(२) काऊण (८-१७ कृञ्-का) दाऊण । (स्पष्टं) गृहीत्वा, श्रुत्वा, कृत्वा, दत्त्वा ॥ २३ ॥
तृण(३) इरः शीले ॥ २४ ॥ शीलेयस्तृन् प्रत्ययोविहितस्तस्यइर इत्ययमादेशोभवति । * त्वतलोः प्पणः ८।४।४३७ अपभ्रंश । इति हे० । (१) का० पु० पा० 'उण्' इति पा० ।
(२) युवर्णस्य गुणः ८ । ४ । २३७ । धातोरिवर्णोवर्णस्य कित्यपि गुणः । जेऊण, नेऊण, नेइ, नेन्ति, उड्डुइ, उडेन्ति, मोत्तण सोऊण । क्वचिन्न नीओ-उड्डीणो इ० हेमच।
(३) का० पा० तृन् ।
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चतुर्थः परिच्छेदः ॥
५३
भ्रमणशीलो भ्रमिरो (१) । हसनशीलो हसिरो ( ५-१ ओ स्पष्टप्राये ) ।। २४ ।।
आल्विल्लोल्लालवन्तेन्तामतुपः ॥ २५ ॥
आलु, इल्ल, उल्लु, आल, चन्त, इन्त, इत्येत आदेशामतुपःस्थानेभवन्ति । आलुस्तावव, ईसालू ( ३-३ रलोपः २-४३ = आलुकृते ५- १८ दीर्घः) णिद्दालु । (२-४२ नूणू ३ - ३ रलोपः ३-५० दृद्वि० शे० पू० ) इल्लः, विअरिल्लो (२) (२-२ कलोपः इल्ले कृते ५ - १ ओ) मालाइल्लो । ( ५-१ ओ शे० रु१०) उल्लः, बिआरुल्लो (२-२ कलोपः शे० १०) । आल: ( ३ ), घणालो (२-४२ नू=ण् ५--१ ओ) सद्दालो ( ३-३ बूलोपः ३-५० द्वि० ५-१ ओ) । मन्तः, धणवन्तो (रूप०) जोवणत्रन्तो (२-३१ यू = जू प्राय इति वलोपो न २-४२ नू = ण् ५-१ ओ) । इन्तः (४), रोसाइन्तो (५) (२-४३ =स् ५ - १ ओ) पाणाइन्तो ( ३-३ रलोपः शे० पूर्व० ) (६) । यथादर्शनमेते प्रयोक्तव्याः, न सर्वे सर्वत्र । इर्षाव निद्रावत, विकारवव, मालावत्, धनवत्, शब्दवत्, यौवनवत्, रोषवत् प्राणवत् ।
,
[" कचिदा मतुपो ऽन्त्यस्य मन्तोवादृश्यते कचित् ।
हणुमा, हणुमंतो (२-४३ तू = णू मतुपो ऽन्यस्यात्वं ) ( पक्षेमन्तादेशः ५-१ ओ ) ॥
इल्लोल्ला परे प्रायः शैषिकेषु प्रयुञ्जते" ||
,
पौरस्त्यं पुरोभवं - पुरिल्लं (पुरम् अत्र ४-६ सलोपे च शैषिक इल्ल प्रसये ४-१ अलोपे ५-३० विं) । आत्मीयं
(१) क्वचिद् भमिरो पा० । (२) का० पा० विआर इल्लः । (३) का० पा० अल्लुः । (४) का० पा० इतः । (५) का०पा० रोसः । (६) एषु सर्वत्र लोपादिकमविशेष कार्य ४-१ सूत्रेण बोध्यम् ।
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५४
प्राकृतप्रकाशे
अप्पुल्लं ॥ (३-४८ त्म-प् ३-५० पद्वि० ४-६ नलोपः ४--१ अलोपः उल्लप्रत्ययः ५-३० वि०)॥
"परिमाणीकमादिभ्योभवन्तिकेदहादयः ।।
केदह, केत्ति। जेद्दह, जेत्ति । तेहं, तेत्तिअं । एदहं, एत्तिभं । (किमः केदह, केत्ति । यदो जेदह, जेत्ति । तदो तेदह, तेत्ति । एतद एद्दश्र, एत्तिा । इत्यादेशाः भवन्तीयर्थः ५-३० विन्दुः सर्वत्र)
कृत्वसो हुत्तमित्यन्ये देशीशब्दः स इष्यते" ॥
सअहुत्तं (२-४३ शम् २-२ तलोपेकृत्वमोहुत्तादेशे ५-३० वि०) सहस्सहुत्तं (३-३ रलोपः ३-५० द्रि० शे० पूर्ववत्) । जातौ वा स्वार्थिकः कः *(१) ॥ जातौ स्वार्थ ककारः प्रयोक्तव्यः](२) (पद्म, पदुपअं, पक्षे पदुमम्(३)(४) ॥ २५ ॥
विद्युत्पीताभ्यां वा(५)लः ॥ २६ ॥ विदयुत्पीतशब्दाभ्यां परतः स्वार्थे लपत्ययो भवति । विज्जू (३-२७ छ् ज् ३-५० जद्वि० ५-१८ दीर्घः) विज्जुली (इवन्तः स्त्रिया शे० पू०) पीअं (२-२ तलोपः ५-३० वि०) पीअलं(६) (स्पष्टं) ॥ २६ ॥
- वृन्दे वो रः ॥ २७ ॥ वृन्दशब्देवकारात्परःस्वार्थेरेफोवाप्रयोक्तव्यः । वन्दं (१(१) केचिद् सूत्र रूपेण पठन्ति । (२) क. पु० न दृश्यते [ ] कोष्ठकान्तर्गतः पाठः। (३) ( ) कोष्ठान्तर्गतः पाठः प्रायस्त्रुटित एव ।
(४) अतो. तुलः ८।४४३५ । अपभ्रंशे इदं किं यत्तदेतद्भ्यः परस्य अतोः प्रत्ययस्य उत्तुल इत्यादेशो भवति । एत्नुलो-केतुलो जेत्तुलो तेत्तुलो एत्तुलो ॥ इति हेमः।
(५) वेतिसार्वत्रिको न । (६) क. पु० विघुत्, पीतवर्ण इत्यर्थः अ० पा०
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चतुर्थःपरिच्छेदः॥
२७ ऋ-अ, वकारात्परेरेफेकृते ४-१७ वर्गान्तः ५-३० वि०) वंदं(१) (१-२७ ऋ=अ शे० स्प०) ॥ २७ ॥
करेण्वां रणोः स्थितिपरिवृत्तिः ॥ २८ ॥ करेणुशब्दे रेफणकारयोःस्थितिपरिवत्तिर्भवति । कणेरू । पुंसि न भवति*(२)। करेणू (५-१८ दीर्घः) ॥ २८ ॥
आलाने लनोः ॥ २९ ॥ आलानशब्देलकारनकारयोहल्मात्रयोःस्थितिपरित्तिर्भवति । आणालखंम्भो (३-५७ मू० स्प०) ॥ २९ ॥
बृहस्पतो बहोर्भो ॥ ३० ॥ बृहस्पतिशब्द वकारहकारयोर्यथासख्यं भकाराकारौ भवतः । भअप्फई(३) (१-१७ -अ बह-इत्यस्य भअकृते ३-३५ स्प- ३-५१ वि० २-२ तलोपः ५-१८ दीर्घः) ॥ ३० ॥
मलिने लिनोरिलो वा ॥ ३१ ॥ मलिनशब्देलिकारनकारयोर्यथासंख्यामकारलकारोवाभवतः। " मइलं, मलिणं (पक्षे २-४२ न=ण ५-३० वि०) ॥ ३१ ॥
गृहे घरोऽपतौ ॥ ३२ ॥ गृहशब्देघरइत्ययमादेशोभवति । पतिशब्दे परतो न भवति । घरं (५-३० वि०) भवनम् । अपताविति किम् । गहबई(४)(११८ ऋ-अ२-१५ प्- २-३ दलोपः ५-१८ दीर्घः) ॥३२॥
(१) वृन्दं विन्दं क्वचित्पाठः। (२) क्वचिद् करेण्वामिति स्त्रीलिङ्गनिर्देशात् । अ० पा० ।
(३) का. पा० भअप्पई । सूत्रे हयौ इतिपाठे हयप्पई इत्युदा हार्यम् ।
(४) गृहपतिः ।
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प्राकृतप्रकाशे
दाढादयो बहुलम् ।। ३३ ।। दाढाइसेत्रमादयः शब्दाबहुलानिपात्यन्तेदंष्ट्रादिषु । दंष्ट्रा, दाढा । इदानीं, एहि । दुहिता, धीआ, धूदा(१) । चातुर्य, चातुलअं । मण्डूकः, मण्डूरो । गृहनिहितं, घरेणिहितं । उत्पलं, कन्दो8ो । गोदावरी, गोला । ललाटं, णिडालं । भूः, भुमआ(२) । वैदृये, वेलुरिअं। उभयपात्र, अत्रहोवासं । चूना, माइंदो, माअंदो। (दंष्ट्रादिषुदाढादयोनिपातसिद्धाःशब्दाःसंस्कृत शब्दानुमारेणदेशसंकेतप्रवृत्तभाषाशग्दानुसारेणचयथायलिङ्गेषु. प्रयोज्या:स्पष्टाश्चैतेऽतोऽलंविस्तरेण) । आदिशब्दोयं प्रकारे तेन सर्व एव देश संकेतपत्तभाषाशब्दा पारगृहाताः ।। ३३ ॥
इति प्रकृतप्रकाशे संकीर्णविधिर्नाम __चतुर्थः परिच्छेदः ॥
अथ पञ्चमः परिच्छेदः ।
अत ओत् सोः ॥ १ ॥ अकारन्ताच्छब्दात्परस्य सोः स्थाने ओत्वं भवति । वच्छो (१-३२ । ३-३० । ३-३१ सूत्रेषु स्पष्टम्) वसहो (१-२७ । २-४३ मू० १०) पुरिसो (१-२३ सू० स्प०) वृक्षः, षमः, पुरुषः ॥ १ ॥
जश्शसोलापः ॥ २ ॥ अत इत्यनुवर्तते । आकारान्तस्यानन्तरंयौजश्शसौतयो(१) का० पा० दिधी, धिया, दिट्ठी, धूआ। (२) का० पा० भूमआ।
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पञ्चमः परिच्छेदः
लोपोभवति । वच्छ।सोहंति । जश्शमङत्यांमुदीर्घ इतिदीर्घकृते पश्चाल्लोपोजसः (१-२७ ऋ-अ ३-३१ छत्वविकल्प:(१) ३-५० द्वि० ३--५१ छ- ५-११ जति दीर्घकृते लोपः, सोहंति इति २-४३ श-स् २-२७ = ७-४ न्ति,)। वृक्षाः शोभन्ते । वच्छेणिअच्छह । ए च मुपीत्येवे कृते शसो लोपः । (पूर्ववत् वृक्षवच्छ ५-१२ एत्वे कृते शसोलोपः, गिअ इति २-४२ - २-२ यलोपः ७-१८त्-ह) क्षात्रियच्छत ॥२॥
___ अतो मः ॥ ३ ॥ अकारान्तस्यानन्तरंयोऽमद्वितीयैकवचनमतदकारस्यलोपो भवति । वच्छं पेक्खइ (४-१२ मोवि०) (वृक्षं पश्यति) ॥ ३ ॥
टामोर्णः ॥ ४ ॥ ___ अतोनन्तरंटामोस्तृतीयैकवचन षष्ठीबहुवचनयोर्णकारो भवति। बच्छेण । ए च सुपीत्येवम् । (५-१२ एत्वे कृतेटा-प) वच्छाण जश्शम्ङस्यांसु दीघइति दीर्घः (क्षेण, वृक्षाणाम) ॥ ४ ॥
भिसोहिं ॥ ५ ॥ अतोनन्तरस्य भिमो हिं भवति । वच्छेहिं । ए च मुपयित्वम् (५-१२ एवं शे० स्प० =ः ) ॥ ५॥
उसेरादोदुहयः ॥ ६ ॥ अतोनन्तरस्य डसेः पञ्चम्येकवचनस्य स्थाने आ, दो दु, हि, इसेतआदेशा भवन्ति । वच्छा, बच्छादो, वच्छादु, वच्छाहि । श्शमङस्यांसु(२)दीर्घत्वम् । (स्पष्टाः वृक्षात) ॥ ६ ॥
सो हितो सुंतो ॥ ७॥ अतोनन्तरस्य भ्यसो, हितो, सुंनो, इत्येतावदेशौ भवतः । (१) वत्सशब्दप्रयोगे तु ३-४० त्स=छ । (२) का० पा० जस्भ्यस्ङस्यां सु
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प्राकृतप्रकाशे
वच्छाहितो, वच्छासुन्तो । ए च सुपीति चकारेण दीर्घत्वम् (स्पष्ठेवृक्षेभ्यः )॥ ७॥
स्सो उसः॥८॥ अतोनन्तरस्य डसः स्स इत्यादेशो भवति । वच्छस्स (प. वृक्षस्य) ॥ ८॥
डेरेम्मी ॥९॥ अतोनातरस्य : ए, म्मि इत्यादेशौ भवतः । वच्छे । वच्छमिम । कचिन्डसिङयोर्लोपः । इत्यकारलोपः । (१०=वृक्षे) ॥९॥
सुपः सुः ॥ १० ॥ अतोनन्तरस्य मुपः सु इत्यादेशोभवति । वच्छेसु (क्षेषु) (एवं वत्सशब्दरूपाण्यपि बोध्यानि) । ए च सुपीयेत्वम् ॥१०॥
जयशस्ङस्यांसु दीर्घः ॥ ११ ॥ जसादिषु परतो तोदी|भवति । वच्छा सोहंति । जश्शमोर्लोप इति जसो लोपः, (५-२ सू० स्पष्ट, वत्सा शोभन्ते)। वच्छादो, वच्छादु, वच्छाहि, आगदो (वत्साव,) ङसेरादोदुहयः । चच्छाण । (वत्सेन) टामोर्णः ॥ ११ ॥
एच सुप्पङिङसोः ॥ १२ ॥ अशोकारस्यैत्वं भवति मुपि परतो डिङसौवर्जवित्वा । च. कारादीर्घश्च । वच्छे (वत्सान) पेक्खह । जश्शसोर्लोपः। (१२१८ दृश-पेक्ख८-१९ य-ह-पश्यत) वच्छेण । टामोर्णः । (-वत्सेन) वच्छेहि (-वत्सः) । बच्छेमु (वत्सेषु)। चकारादीर्घश्चेति । वच्छाहितो, वच्छा मुतो (वरसेभ्यः) । भ्यसो हितो, मुंतो। अङिङसोरीित किम् । वच्छम्मि (वत्से)।वच्छस्स(वत्सस्य)॥१२॥
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पञ्चमः परिच्छेदः ५९ क्वचिद् ङसिङयोर्लोपः ॥ १३ ॥ अतो ङसि, कि इसेतयोः परतः कचिल्लोपो भवति । वच्छा आगदो । डसेरादोदुहय इति आ । (आगदो इति आङ्पूर्वकगमेः क्तान्तस्य १२-३ त ५-१ ओ) वच्छठि अं (वत्से स्थितम् डेरेम्मी इत्येत्वम् (ठिअं० स्था=ठ शेष संस्कृतवद्)॥१३॥
इदुतोः शसो णो ॥ १४ ॥ इदुददन्तयोः शसो णो भवति । अग्गिणो पेक्खह (४-१२ सूत्रे अग्गि इत्यत्र निष्पादिताद् शसो-गो=अग्नीन) बाउणो पेक्ख (२-२ यलोपः शे० पू० =वायून्, 'पेक्ख' इति शौरसन्यां दृशेः पेक्खादेशोभवति तस्याश्च "प्रकृति संस्कृतम्", इति संस्कृत. वहेलुकभवति) ॥ १४ ॥
उसो वा ॥ १५॥ इद्दन्तयोर्डसो वा णो भवति । अग्गिणो, अग्गिरस (स्पष्टे) वाउणो, वाउस्स (२-२यलोपेकृतेङसो णो, पक्षे ५-८-स्स) अग्नेः वायोः ॥ १५ ॥
जसश्च ओ यूत्वम्(१) ॥ १६ ॥ इदुदन्तयोर्जस ओकारादेशो भवति । इदुतोश्च ईत्वं, ऊत्त्रं वा चकाराद् णो च । अग्गीओ, वाऊओ। अग्गिणो, वाउणो (स्पष्टानि-अग्नयः, वायत्रः) ॥ १६ ॥
(१) जस ओ वो वाऽत्वं यूत्वं च । द्दुदन्तयोः शब्दयोर्जस ओ वो इत्यादेशौ भवतः। अत्वं, ईत्वं, ऊत्वं च विकल्पेन । चकारातू णोऽपि । पक्षे अदन्तवत् । अग्गीओ, अग्गीवो, अग्गवो, अग्गी । वा ऊओ । जसश्च ओ यूत्वं । का० पा०
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प्राकृतप्रकाशे
21 OTT || 29 || इहुदन्तयोष्टाविभक्तेः णा इययमादेशो भवति । अग्गिणा, त्राउणा (स्पष्टे अग्निना - वायुना ) ॥ १७ ॥ सुभिस्सुप्सु दीर्घः ॥ १८ ॥
६०
इदुदन्तयोः सु, भिम् सुप् इत्येतेषुदीर्घोभवति । सु, अग्गी (३-२ नलोपः ३-५० द्वि० ४-६ सोर्लोपः शे०प० अग्निः) बाऊ (२-२ यलोपः शे० स्प० त्रायुः) भिस्, अग्गीहिं (४-६ सोर्लोपः ५-६ मिम् = =ि अग्निभिः) वाऊहिं । (२-२ यलोपः शे० पू० = युभिः) सुप्, अग्गीमु (३-२ नलोपः ३-५० गद्वि० दीर्घः २-४३५ == अग्निषु) बाऊ (२-२ यलोपः दीर्घः २-४३षु ॥ १८ ॥
स्त्रियां इस उदतौ (१) ॥ १९ ॥
स्त्रियां वर्तमानस्य शस उतू ओत् इत्येतावादेशौ भवतः । मालाउ, मालाओ | (स्पष्टे = माला :) गाईड, ईओ (२-२ नूण् २- २ दलोपः शे० स्प० नदी:) | बहूउ, बहूओ (२-२७ धू =हू शे० स्प० वधूः ॥ १९ ॥
जसो वा (२) । २० ॥
जसः स्त्रियाम् उत् ओत् इत्येतावादेशौ वा भवतः पक्षे अदन्तवत् । मालाउ, मालाओ । माला (स्प०, अदन्ते ५२ जसो लोपः = मालाः) ॥ २० ॥
अमि ह्रस्वः ॥ २१ ॥
अमि परत: स्त्रियां ह्रस्वो भवति । मालं ( ह्रस्वेजाते ५-३
(१) स्त्रियां जश्शसोरुदोतौ । का० पा० (२) ङसो वा । का० पा०
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पञ्चमः परिच्छेदः अकारलोपः ४-१२ मकारविन्दुः मालाम्) गई (२-४२ =ण् २-२ दलोपः ४-१ अगो ऽकारलोपः ४-१२ विनदीम) ब. हुं (२-२७ ध-ह शे० पूर्व०) वधूम् ॥ २१ ॥
टाङडीनामिदेददातः(१) ॥ २२ ॥ टा, डम् , ङि, इयेतेषां निगम इत्, एत्, अत, आत इत्येतआदशाभवन्ति । टा, गईई, णईए, णईअ, गईआ कअं । (५-२१ मू० नकारस्य ण् , दलोपश्च दर्शितःशे० स्प=नद्या) (कअं इति १-२७ मू० स्प०=कुनम) डम्, गईइ, ईए, णईअ, गईआ, वणं । (गई पूर्ववत् अन्यत्स्पष्टःनन्याः) (वणं इति ४-१२ सू० स्प०) ङि, णईइ. गईए, णईअ, णईआ ठिअं (पूर्ववत् णईशब्दः शे० सुगम-नयां) (ठिअं इति ५-१३ मू स्पष्टं स्थितम्) ॥२२॥
नातोऽदातो ॥ २३ ॥ आत-आकारान्तस्यस्त्रीलिङ्गस्यानन्तरंटाङमङीनाम् अत् , आत, इत्येतावादेशौन भवतः । पूर्वणप्राप्तो निषिध्यते । मालाइ, मालाए कअं, धण. ठिअं । (५-२२ सूत्रादिदेतावेवभवतः, अ० स्प०-मालया) ॥ २३ ॥
आदीतौ* बहुलम् ।। २४ ॥ स्त्रियामाकारान्तादातः स्थाने आत् ईत् इत्येतो बहुलं प्र. योक्तव्यौ । सहमाणा, सहमाणी । (२-४२ =ण शे० स्प०) हलद्दा, हलद्दी । (१-१३ सूत्रेद्रष्टव्ये) सुप्पणहा, सुप्पणही । (३३ रलोपः ३-५० पद्वि० ४-१ हम्नः २-४२न् =ण २-२७ खशे०प०) छाहा, छाही । (२-१८ मू०द्रष्टव्यं शे०प०)(२)॥२४॥
(३) टाङसिङसङीनामिदेददातः । का० पा० * आदितौ-अदितौ । का० पा० (१) यत्तत्किमः।
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प्राकृतप्रकाशे
न नपुंसके (१)॥ २५ ॥ प्रथमैकवचरने नपुंमके दीर्घत्वं न भवति । सौदीर्घः पूर्वस्येत्यनेन इददुन्तयोः प्राप्त पूर्वस्यदीर्घत्वं न नपुंसके इत्येनन बाध्यते(२) दिहं (५-३० मोविन्दुः शे० स्प०) महुँ (२-२७धूह शे० स्प०) हवि । (४ ६ प्लोपः २-२ पायो ग्रहणात् वलोपोन शे० पू०) दधि, मधु, हविः । २५ ॥
इजरशसोघंश्च ॥ २६ ॥ नपुंसके वर्तमानयोर्जशमोःस्थान इदादेशो भवति पूर्वस्य चदीर्घः । वणाइ (२-४२ न=ण जश्शसोरिदादेशः पूर्वस्य दीर्घः वनानि) दहीइ । महूइ । (पू०) ॥२६॥
नामन्त्रणे सावोत्वदीर्घबिन्दवः ॥ २७ ॥
आमन्त्रणे गम्यमाने सौपरतओत्वदीर्घ बिन्दवो न भव. न्ति । "आओत्सो"रित्योत्वंप्राप्तम् । “मुभिस्सुप्सु दीर्घ" इति दीर्घः । “सोबिन्दुनपुंसक"इतिविन्दुःमाप्तः । हे वच्छ, हे अग्गि, हे बाउ, हे बण, हे दहि, हे महु(व्याख्यातप्रायाः पूर्वमेव, विशेषकृसं सुस्पष्टम्) ॥ २७ ॥
स्त्रियामातएत् ॥ २८ ॥ स्त्रियामामन्त्रणेआत:स्थानेएत्वंभवात मौ परतः । हे माले हे साले । (स्पष्टे) “अन्त्यस्य हल" इति मोर्लोपः ॥ २८ ॥ ___ बहुलमित्यनुवर्तते यत्तत्किमित्येतेषु परतः आतः स्थान ईत्य. यमादेशोभवति । स्त्रियामित्यनुवर्तते । प्रथमैकवचनवर्ज ए आदेशश्चबहुलवचनात् । जीए, तीए, कीए, जीहिं, तीहिं, कीहिं । प. क्षे । जाए, ताए, जाहिं, काहिं । यस्याः तस्याः, कस्याः, याभिः ता. भिः, काभिः । इति क्वचिदधिकः पाठः । का० पा०
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पञ्चमः परिच्छेदः ।
ईदूतोहस्वः ॥ २९ ॥ आमन्त्रणे ईदूतोई स्वोभवति । हे गइ, हे बहु ॥ २९ ॥
सोबिन्दुनपुंसके ॥ ३० ॥ नपुंसके वर्तमानस्य सोबिन्दुर्भवति । वणं, दहि, महुँ । (स्प०) ॥ ३० ॥
ऋत आरः सुपि(१) ॥ ३१ ॥ ऋकारान्तस्य सुपि परत आर इयादेशो भवति । भत्तारो सोहइ (३-५० तद्वि० ५-१ओ=भर्ता) (२-४३ श्-स् युवर्ण. स्य गुण २-२७ -ह ७-१ त-इ-शोभते) भत्तारं पेक्खमु (५-३ अमोऽकारलोपः ४-१२ मवि० शे० पू० भर्तारं) (१२१८ दृश-पेक्ख ७-४ मु=पशामः) भत्तारेण कअं (५-१२ एत्वं ५-४ टाकण) ॥ ३१ ॥
मातुरात् ॥ ३२ ॥ मातृमम्बन्धिन ऋकारस्याकारो भवति । माआ (२-२ तलोपः) सोहइ (२-४३ श-स् सोहन्तिवत गुणः ७-१ इ3 शोभते) मा पेक्खमु (३-३ तलोपः इम्बः ५-३ अमो ऽकारलोपः ४-१२ वि० । अस्प०) माआइ माआए (२-२ तलोपः आत्वेकृते ५-२२ कअं ॥ ३२ ॥
उर्जरशस्टाङस्सुप्सु वा(२)॥ ३३ ॥ जश्सम्टाङस्मुप्सुपरत ऋकारस्यस्थानेउकारादेशोभवति वा। जस, भत्तुणो (३-३ रलोपः ३-५० तद्वि० ५-१६ णो) भत्तारा । (५-३१ ऋ-आर ५-११ दीर्घः ५-२ जसो (१) सौ । का० पा० (२) उण जश्शस्टाङसिङस्सु वा । का० पा०
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६४
प्राकृतप्रकाशे
लोपः शे० पू० ) शम्, भत्तुणो (५ - १४ शसो=णो शे० पू० ) भत्तारे | (५-३१ आर ५- १२ एवं ५-२ शसोलोपः शे० पू० ) टा, भत्तुणा ( ५- १७ टाणा शे० पू० ) भत्तारेण । (पू० ० रलोपादिकं ५ - ३१ आर ५- १२ एव ५-४ टा-ण) ङ, भत्तुणो (५-१५ णो शे० पू०) भत्तारस्स (रलोपे तद्विले चकृते५-३१ आर ५-८ ङसः सः) सुप्, भत्तू (५-११ दीर्घः शे० रुप०) भत्तारेसु । (५-१२ एवं शे० पू० ) ॥ ३३ ॥ पितृभ्रातृजामातृणामरः ॥ ३४ ॥
पित्रादीनां सुपि परत ऋतोऽरो भवति । आरापवादः । पिअरं ( २-२ लोप: ५-३ अपोऽकारस्यलोपः ४ २२ मोविन्दुः पिअरेण (५-१२ एत्वं ५-४ ट= शे० पू०) भाजरं, भाअरेण । जामाअर, जामाअरेण (पूर्ववत्) । ३४ ॥
आ च सौ (१) ॥ ३५ ॥
पित्रादीनामाकारोभवति सौ परतः । चकारादरश्च । पिआ (स्पष्टं) पिअरो ( ५-१ ओ शे०प०) मात्र, भाअरो। जामाआ, जामाअरो ॥ ३५ ॥
राज्ञश्च ।। ३६ ॥
राजन् शब्दस्य आ इत्ययमादेशो भवतिसौ परतः । राआ (स्पष्टं ॥ ३६ ॥
आमन्त्रणे वा बिन्दुः ॥ ३७ ॥
राजन् शब्दस्य आमन्त्रणे वा बिन्दुः स्यात् । हेराअं ( ४-६ नू लोपः २ - ३ जलोपः शेषमदन्तवत्) हरा (५-२७ विन्दुर्न ॥३७॥ जश्शस्ङसां णो ॥ ३८ ॥
राज्ञ उत्तरेषां जम् शम् ङस् इत्येतेषां णो इत्ययमादेशो भ(१) आश्च सौ । का० पा०
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पश्चमापरिच्छेदः ॥
वति । राआणो (पूर्ववत् नलोपेकृते ५ ४४ ज=आ शे० स्प०) पेक्खंति (पूर्ववत् दृशेः पेक्ख आदेशे झिस्थाने ७-४न्तिा-राजानः पायन्ति) राआणो पेक्ख (शसिरूपमेनस्पष्टं पूर्ववत् राज्ञः पश्य) राइणो धणं (४.६ नलोपः २२ जलोपः ५४३ इ. राज्ञः) रणो (धणं २-२ जलोपः ५.४२ पद्वि० अन्त्यलोपश्च अलोपो हस्वश्व संयोगे ४-१ सूत्रे द्रष्टव्यम् ॥ ३८ ॥
शस एत् ॥ ३९॥ राज्ञः परस्यशस ए इत्ययमादेशोभवति । राए पेक्ख (नजयोः पूर्ववल्लोपः ४.१ आलोप: राज्ञः) (पूर्ववत् पैक्खादेशः पश्य) राआणो पेक्ख (पूर्वसूत्रस्पष्टम) ॥ ३९ ॥
आमो णं ॥ ४० ॥ राज्ञ उत्तरस्यामः षष्ठीबहुवचनस्य णं इसयमादेशो भवति । राआणं (४-६ नलोपः ५-४४ ज=आ-राज्ञाम) ॥ ४० ॥
टाणा ॥ ४१ ॥ राज्ञ उत्तरस्याः टाविभक्तेः णा इत्ययमादेशः स्यात् । राइणा (४-६ नलोपे ५.४३ ज-इ शे० स्प०=राज्ञा) ॥ ४१ ।।
ङसश्च द्वित्वं वान्त्यलोपश्च* ॥ ४२ ॥ राज्ञ उत्तरस्य ङलादेशस्य टादेशस्य च वा विकल्पेन द्वित्वं भवति । अन्त्यस्य च लोपः । रणो (५-३८ सूत्रे स्पष्टं) रा
* ङस् असि टाम् णोणी डण् २ २५९ । राजन् शब्दस्य अना सहितस्य जस्य, ङस् , उसि, टावचनानां णो, णा इत्यादेशौ, तयोः परयो ईण् इत्यादेशो वा भवति । टिलोपः। रण्णा । राजन् णा कृते 'अन्त्यहल' इति नकार लोपे जस्य डण राकारस्याकारस्य टिलोपे च कृते रण्णा इति रूपं भवति । इति वाल्मीकिः०
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प्राकृतप्रकाशे इणो धणं । (५-४१ सूत्रे स्प०) रण्णा, राइणा कअं । (४-६ नलोपः ५-४१ टा=णा द्वित्वे अन्त्यजलोपे इस्त्रे च) ॥ ४२ ॥
इदद्वित्वे ॥ ४३ ॥ वेति निवृत्तम् । ङसादेशस्य टादेशस्य च अकृते द्वित्वे राज्ञ इत्वं भवति । राइणा,राइणो।(स्प०) कृते द्वित्वे स्वित्वं न भवति रण्णा, रणो (५-४२ सू० ५-३८ मूत्रे च स्पष्टं) ॥४३ ॥
आ णोणमोरङसि ॥ ४४ ॥ णोणमोः परयो राज्ञो जकारस्य आकारादेशः स्यात् । अङसि । षष्ठयेकवचने न भवति । राआणो कावन्ति । राआणो पेक्ख । (५-३८ सूत्रे व्याख्याताः) । राआणं घणं (५-४० सू.स्प०)। अङतीति किंम् । राइणो, रणो धणं । शेषमदन्तवत् । राअं, राएहि । राआ, राआदो, राआदु । राआ। (५-६ सूत्रेण दो-दु-हयः डसे: स्थाने प्रयुज्यन्ते शे० स्प०) राआहितो, आसुतो(५-७ भ्यसः हितो-संतो-आदेशौ) राअम्मि, राए (५-२ ङे ए-म्मि) राएमु । (५-१२ एत्वे शे० स्प०) राजानं, राजभिः, राज्ञः, राजभ्यः, राज्ञि, राजसु ॥ ४४ ॥
आत्मनो ऽपाणो वा ॥ ४५ ॥ आत्मनोऽपाण इत्यादेशो भवति वा । अप्पा अपाणो (४-६ न् लोप० शे० १०) ॥ ४५ ॥
इत्वद्वित्ववर्ज राजवदनादेशे ॥ ४६ ॥ आत्मनोऽनादेशे राजवत्कार्यस्यादिद्वित्वे वर्जयित्वा । आप्पा, अप्पाणो, अप्पणा, अप्पणो । (५-३८ सूत्रानुसारतः जसादीनां गोत्वादिकं सर्व राजवत) आत्मा, आत्मानः, अत्मना, आत्मनः ॥ ४६॥
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षष्ठ परिच्छेदः॥
ब्रह्माद्या आत्मवत्(१)॥४७॥ ब्रह्माद्याः शब्दा लक्ष्यानुसारेणात्मवत् साधवो भवन्नि । बह्मा, बह्माणो । (३-३ रलोपः ४-६ नलोपः शे० लक्ष्यानु सारेणात्मनो रादवत्कार्यं भवत्यतः ५-३६ सू० आत्वं,ब्रझा, एव मुत्तरत्रापि) जुवा, जुवाणो (२-३१ य-ज् ४-६ नलोपः शेषमात्मवत) अद्धा, अद्धाणो । (३-३ वलोपः ३-५० द्वि० ३-५१ =द् ४-६ न्लोपः शेषमात्मवत) ब्रह्मन, युवन, अध्वन, एवमादयो लक्ष्यानुसारेणावगन्तव्याः ॥ ४७ ॥
इति प्राकृतप्रकाशे लिङ्गविभक्त्यादेशः
पञ्चमः परिच्छेदः॥
अथ षष्ठः परिच्छेदः।
सर्वादेर्जस एत्वम् ॥ १॥ सर्वादेरुत्तरस्य जस एवं भवति(२)। सब्बे (३-३ रलोपः ३-५० वद्वि०) जे (२-३१यज वएमग्रेऽपिज्ञेयम्) ते (४-६ दलोपः) के (६-१३ किम्-क) कदरे । (१२-३ त=दः) सर्वे । ये । ते । के । कतरे ॥ १ ॥
(१) पुंस्यन आणो राजवञ्च ८ । ३ । १६ ।
पुंलिङ्गे वर्तमानस्यान्नन्तस्य आण इत्यादेशोवा भवति । पक्षे यथा दर्शनं राजवत् कार्य भवति । हे०
(२) अकारान्ताद्भवति । तथा च हेमः अतः सर्वादेर्डेजसः । ८। ३। ५८ अतः किम् सव्वाओ रिद्धीओ इति ।
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प्राकृतप्रकाशे
___ङः सिम्मित्था:(१) ॥२॥ हैः सप्तम्यकवचनस्य मर्वादिपरस्थितस्य स्थाने स्मि, भिम, स्थ इत्येतादेशा भवीन्न । सबरिस, सबम्मि, सब्बत्थ (पूर्ववत् रलोपो वद्रित्वं च शे० स० ) इअरस्मि, इअरम्मि, इअरस्थ । (२-२ तूलोपः शे० स्प०) सर्वस्मिन् । इतस्मिन् ॥ २ ॥
इदमेतत्कियत्तभ्यष्टा इणा वा ॥ ३ ॥ इदम्, एनद्, किम्, यद्, तद् इत्येतेभ्यः टा इत्यस्य इणादेशो भवति वा । इमिणा (६-१४ इदम्-इम ४-१ अलोपः शे० स्प०) एदिणा (४-६ दलोपः १२-३ तुन्द् ४-५ अलोप) किणा (६-१३ किम्-का-४-१ अलोपः) जिणा तिणा । (२-३१ य-ज् ४-६ दलोपः) पक्षे इमेण, एदेण, केण, जेण, तेण । (६-१४ इदम् इद ५-४ सूत्रोदाहृत(वच्छेण)वददन्तकार्याणि पक्षान्तरे ज्ञेयानि-एवमुत्तरत्रापि) अनेन, एतेन, केन, येन, तेन ॥ ३ ॥
आम एसिं ॥ ४ ॥ इदमादिभ्य उत्तरस्य आम एसिं इत्ययमादेशो वा भवति । इमप्ति (पूर्ववदददन्त ४-१ अलोपः शे० स्प०) इमाण (५-४ आम्=ण ५-११ दीघः शे० स्प०) एदेसि (४-६ दलोपः एत इति जाते १२-३ तद शे० स्प.) एदाण (५-४ आम्=णा ५-११ दीर्घः) केसि (६-१३ किम्-क ४-१ अलोपः शे० स्प०) काण (५-४ आम् -ण ६-११ दीर्घः) जेसि (२--३१ य-ज ४-६ दलोपः ३-१ अलोपः शे० स्प०) जाण (५-४ आम=ण ५-११
(१) डेः स्सि म्मित्था:-के स्सं । का० पा०
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षष्ठः परिच्छेदः ॥
६९
दीर्घः) सिं (पूर्ववददन्तत्वमकारलोपश्च शे० स्पष्टं) ताण (१) (५-४ आमू=ण ५-११ दीर्घ० शे० पू० एषाम् - आसाम् । एतेषाम् एतासाम, केषाम, कासाम्, येषामू, यासाम, तेषाम, तासाम् ॥ ४ ॥
पित्तदृभ्यो उस आसः ॥ ५ ॥
किम यद्, तद्, एभ्य उत्तरस्य ङस आस इत्ययमामादेशो भवति वा । कास, कस्स । जास, जस्स । तास, तस्स (२) । ( ५-८ स एवमुत्तरत्रापि, अदन्तत्वमकारलोपादिकं च पूर्ववत्कार्य्यं ॥ ५ ॥ इदुभ्यः स्सा से (३) ॥ ६ ॥
ईकारान्तेभ्यः किमादिभ्य उत्तरस्य ङसः स्सा से इसेनावा देशौ भवतः । किस्सा, कीसे, कीआ, कीऐ, कीअ, कीइ । जिस्सा, जीसे, जीआ, जीए, जीअ, जीड़ । तिस्सा, तीसे, तीआ तीरे, तीअ, तीइ । (स्त्रियां ४-६ किकः स्त्रीपत्ये आपि जाते ५-२४ बाहुलकात आले ईले च कृते ङः स्ाःगेहस्वः एवमेव यत्तद्भ्यामपि पक्षे ५-२२ सूत्रेण उसः स्थोने
,
(१) स्त्रीलिङ्गेऽप्यतानिरूपाणि । इमांसि । पदांसि । कांसि । जासि । तासि । तथाच वाल्मीकिः ।
किं यत्तदोऽस्वमामि सुपि० ७-७-४० सु अम्, आम् वर्जिते सुपि परे किं यत्तद्भो ङीव् वा स्यात् पक्षे यद् । तेनैतानि रूपाणि सिद्ध्यन्ति । वा० ।
(२) किं यत्तदोऽस्यमामि ८ । ३ । ३३ - सिम् - अम्-आम् वर्जिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां ङीर्वा भवति ॥ हे०
(३) ङसः स्सा सो स्त्रियाम् । इकारान्तभ्यश्चाकारान्तेभ्यश्च स्त्रियां कि मादिभ्य उत्तरस्य उसः स्लासोइत्यादि -ङस्ग्रहणेन. ङसि ङि ग्रहणम् का० अ० पा० ।
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प्राकृतप्रकाशे
इदादयो यथायथं प्रत्येकं योज्याः, कस्याः यस्याः तस्याः ) ||६|| ङेर्हि ॥ ७ ॥
"
किमादिभ्य उत्तरस्य डे: हिं इत्ययमादेशो भवति वा । क हिं, कस्सि कम्पि, कत्थ । जहिं, जसि, जम्मि, जत्थ । तर्हि, तस्सि तम्मि, तत्थ (६ - २डिसि, म्पि, स्थ=कस्मिन्, यस्मिन् तस्मिन् ॥ ७ ॥
,
आइआ काले ॥ ८ ॥
७०
किंयत्तद्भ्यो ङेः काले आहे, इआ इत्यादेशौवाभवतः । काहे, जाहे, ताहे । कइआ जइआ, तइआ (पूर्ववददन्तत्रं, ४-१ अकारलोपः शे०स्प०) की इत्यादयो ऽपि । कदा यदा तदा || ८|| तो दो उसेः ॥ ९ ॥ (१)
किंनज्योङतेः तो दो इयेतावादेशौ भवतः । कत्तो, कदो । जतो, जदो । तत्तो, तदो । (स्पष्टान्येतानिपदानि ) ( ६-७ । ६-२ सूत्रत्रिहिताः प्रत्यया अपि काले प्रयोक्तव्याः यथा = कस्मिन्काले कदा, कहिं, कस्सि इत्यादिज्ञेयम् ॥ ९ ॥ तदओश्व ॥ १० ॥
तद उत्तरस्य ङसेरोकरादेशो भवति वा । तो । अदन्तत्वे त इति जाते ४-१ अलोपः ततो ङः ओतो तो तत्तो, तदो ( ६-९ ङसे तो, दो ) ॥ १० ॥
ङसासे ॥। ११ ॥
वेति वर्तते । तदो ङसा सह से इत्ययमादेशो भवति पक्षे
(१) ङले म्ह ८ । ३ । ६६ ॥ किं यत्तद्भूयः परस्यङसेः स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भवति । कम्हा | जम्हा । पक्षे काओ, जाओ, ताओ ॥ हेमः ॥
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षष्ठ परिच्छेदः ॥
यथाप्राप्तम् । से ()(स्प०) तास (६-५ङस आसादेशः ४-१ तइत्यस्याकारलोपः) ॥ ११ ॥
आमासिं ॥ १२ ।।* तद आमा सह सिं इत्ययमादेशो वा भवति । सिं (स्प०) ताण(२) (६-४ मू० स्प०) तेषाम् तासाम् ॥ १२ ॥
किमः कः ॥ १३ ॥(३) किंशब्दस्य मुपि परतः क इत्ययमादेशो भवति । को । (४-१ अलोपः ५-१ ओ) के । (४-१ अलोप ६-2 एत्वं) केण । (५-११ एतनं ५-४ टा=ण) केहिं । (५-१२ ए ५-५ भिम् हिं-का, के, केन, कैः) ॥ १३ ॥
इदम इमः ॥१४॥ सुपि परत इदम इम इसयमादेशो भवति । इमो (४-१ अ. लोपे ५-१ ओ) इमे (६-१ जमए शे० पू०) इमं (५-३ अ. मोऽकारलोपः ४-१२ वि० शे०प०) इमेण (५-१२ अ-ए४ टा=ग) इमेहिं (५-५ भिम्-हिं शे० पू०) ।। ३४ ॥
स्सस्सिमोरवा ॥ १५ ॥ स्स स्सिमोः परत इदमोऽदादेशो वा भवति । अस्म । इमस्स । (१) तस्य तस्याः । स्त्रियामपि से तिस्सा। ङस्ग्रहणेङसिग्रहणं से तत्तो । का० पा
(२) ताण । स्सिताणा | सिंताण, तेसिं । हेमचं-सिंइत्येव । का० पा०।
* वेदं तदेतदो डसाम् भ्यां से सिमौ ८।४।८१ ॥ इति हेमस्तु इदमेतदोरपीच्छति ।
(३) किमः किं ८ । ३ । ८० किमः क्लीवे वर्तमानस्य स्यम्भ्यां सह किं भवति । किं कुलं तुह । हेमः ॥
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प्राकृतप्रकाशे (५--८ ङस्-स्स शे०प०) अस्सि । इमस्सि (६-२ सि शे० स्प०) ॥ १५ ॥
डेन हः ॥ १६ ॥ इदमा दकारेण सह डेः स्थाने हकारादेशो वा भवति । इह । (१०) पक्षे अस्सि, इमरिंस, इमम्मि (पूर्ववद्) ॥ १६ ॥
न स्थः ॥ १७ ॥ इदमः परस्य डेः स्थ इसयमादेशो न भवति । “ङः सि. म्मि स्था" इति प्राप्तेप्रतिषिध्यते । इह, ऑस्स, इमस्सि, इमम्मि, (शे०६-१६ मू० द्रष्टव्यानि ॥ १७ ॥
नपुंसके स्वमो रिदमिणमिणमो ॥ १८ ॥ नपुंसकलिङ्गे इदमः स्वमोः परतः सविभक्तिकस्य इदं इणं इणमो इसते त्रय आदेशा भवन्ति । इदं, इणं इणमो, धणं (स्पष्टानि इदं ज्ञानम् ) ॥ १८ ॥
- एतदः सावोत्वंवा ॥ १९ ।। एतच्छन्दस्य सौ परतः ओत्वं वा भवति । निसे प्राप्त विकल्प्यते । एस । एमो (४-६ दलोपः ६-२२ त स एषः ॥१९॥
तो(१) ङसेः ॥ २० ॥ एतदः परस्य ङसेः तो इत्ययमादेशो भवति । एत्तो (सं. स्कृतानुसारं ४-६ सूत्रा द्वादलोपे एत इति जाते ६-२० ङसित्तो ६-२१ तलोपः) एदादो, एदादु एदाहि । ४-६ दलोपः १२-३ =द) ५-११ दीर्घ० ५-६ ङसि-दो, दु, हि) एतस्मात् ॥ २० ॥
(१) तो-एतो का० पा० ।
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षष्ठः परिच्छेदः।
त्तोत्थयोस्तलोपः ॥ २१ ॥ एतदस्तकारस्यत्तोत्थयोः परतो लोपोभवति । एत्तो । एत्थ (६-२ डिस्थ अन्यत् पू०एतस्मिन्) ॥ २१ ॥
तदेतदोसः सावनपुंसके ॥ २२ ॥ तच्छब्दस्य एतच्छब्दस्य यस्तकारस्तस्य सकारादेशो भवति । अनपुंसके सौ परतः । सो पुरिसो । सा महिला(१) । एस, एसो। एमा । (४-६ दलोपे-६-१९ ओत्वविकल्पः, स्त्रीत्वे-५२४ आत्वं, महिलाशब्दस्तत्समः) साविति किम् । एदे । ते (४-६ दलोपः१२-३ त-द६-१ जम्-ए-एते।से) एदं । तं । (४-६ दलोपः५-३ अमोऽकारलोपः ४--१२ वि० एतम, एनम् । =तम्) अनपुंसक इति किम् । तं एवं धणं (नपुंसकत्तानतकारस्यसकारः ५-३० सोविदुः पूर्ववदन्यत्त देतद्धनम्) ॥ २२ ॥
अदसो दो मुः ॥ २३ ॥ अदसो दकारस्य सुपि परतो मु इसयमादेशो भवति । अमू पुरिसो। अमू महिला(२)। (४-६ मलोपे अमु जाते ५-१८ दीर्घः-४-६ सोर्लोपः) अमूओ पुरिसा | अमूओ महिलाओ(३)। (५-१६ जम्=ओ स्त्रियाम् ५-२० जस ओवं पूर्ववत् दीर्घादि) अमुं वणं अमूइ बणाइ (५-३ अमोऽकारस्यलोपः ४-१२ वि०, ५-२६ जम==पूर्वस्य दीर्घ: अदोवनम् । अमूनि वनानि
हश्च सौ* ॥ २४ ॥ अदसो दकारस्य सौ परतो हकारादेशो भवति । अह पुरिसो ।
(१) सः पुरुषः । सा महिला । (२) असौ पुरुषः । असौ महिला । (३) अमी पुरुषा । अमू महिलाः । * म्मावये औ वा ८ । ३ । ८९ । अदसोऽन्त्यव्यञ्जनलुकि द
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७४
प्राकृतप्रकाशे
अह महिला । अह वर्ण(१) । (४-६ अदसः सलोपः) हादेशो ऽयमोत्तात्वबिन्दुन् विष्वपि लिनेषु परत्वादु बाधते ॥ २४ ॥
पदस्य ॥ २५ ॥ अधिकारोऽयमआशब्दविधानात्(२) । यदितऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः पदस्य तद्भवतीसेवेदितव्यम् । तच्च (३)तत्रैवोदाहरिष्यामः ॥ २५ ॥
युष्मदस्तंतुमं(४) ॥ २६ ॥ सावित्येव । युष्णदः पदस्य सौ (५)परतः तं तुम इसतावादेशौ भवतः । तं आगदो । तुमं आगदो(६) (आयूर्वकतान्तस्यगमेः १२-३ तद शौरसेन्यां २-२ सूत्रवाधेन न लोपः ५-१ ओ) ॥ २६ ॥
तुं चामि ॥ २७ ॥ युष्मदःपदस्य अमि परतः तुंइत्यादेशो वा गवति तुमं च । तुं पेक्खामि तुम पेक्खामि(७) (१२-१- दृश्=पेक्ख ७-३ मि ७-३० आत्वं)॥ २७॥ कारान्तस्य स्थाने ङ्यादेशे म्मौ परत अय-इअ इत्यादेशौ वा भ. वतः। अयम्मि इम्मि । पक्षे अमुम्मि । हे० । अमुस्मिन् । अत्यत्र ६ । २३ मु कृते यथाप्राप्तं विभक्त्यादेशाः।
(१) असौ पुरुषः । असौ महिला । अदोवनम् । (२) 'दुर्दो' ५४ सूत्रात्प्रागित्यर्थः। तदुक्तम्
'पदस्येत्यधिकारोऽयं द्विशब्दस्य विधेरधः ॥ (३) तत्र तत्र विधिसूत्रेषदाहरणानि द्रष्टव्यानीत्यर्थः । (४) युष्मद स्तं, तुं तुवं, तुह, तुमं सिना ८ । ३।९० ॥ सिना सह एते पञ्च आदेशा भवति ॥ हे । (६)'सौ'इति सप्तम्यन्तनिर्देशस्तु विषयविभागार्थमाएवं मुत्तरत्रापि (६) त्वम् आगतः । (७) त्वां पश्यामि ।
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षष्ठः परिच्छेदः ।
तुझे तुझे जसि ॥ २८ ॥
युष्मदः पदस्य जसि परत: तुझे, तुझे इत्येतावादेशौ - भवतः । तुझे आगदा, तुझे आगदा (१) ॥ २८ ॥ वो च शसि ॥ २९ ॥
७५
शसि युष्मदः पदस्य वो इत्यादेशो भवति चकारात् तुज्झे तुझे च । वो पेक्खामि । तुज्झे, तुझे पेक्खामि (२) । ( पेक्खामि ६ - २० सू० १० ) ।। २९ ।।
टाङयोस्तइ तए तुम तुमे ॥ ३० ॥
युष्मदुत्तरयोः टा, ङि इत्येतयोः तइ, तर, तुमए, तुमे, इत्यतआदेशा भवन्ति । टाइ, तर, तुमए, तुमे कथं (३) । ङितर, तए, तुमए, तुमे ठिअं ( ४ ) ( पूर्ववत् स्पष्टानि ) ॥ ३० ॥
-xx
ङसि तुमो तुह तुज्झ तुझ तुम्माः ॥ ३१ ॥ युष्मदः पदस्य ङसि तुमो, तुह, तुज्झ, तुझ, तुम्म इसेतआदेशा भवन्ति । तुमो पदं । तुह, तुज्झ, तुझ, तुम्म पर्द (५) । ॥ ३१ ॥
आङि च ते दे ॥ ३२ ॥
आङि तृतीयैकवचने चकाराद ङसि च परतो युष्पदः पदस्य ते, दे इत्येतावादेशौ भवतः । ते कथं । देकअं(६) । ते घणं देणं (७) ।। ३२ ॥
(१) यूयं आगताः ।
(२) युष्मान पश्यामि । (४) त्वयिस्थितं ।
(३) त्वयाकृतम् ।
(५) तवपदम् । पदशब्दः संस्कृतसमोविकाराभाववान् महिला शब्दवत् 'तत्समास्ते येषु न विकारः' इति प्राकृतव्याकरणनियमः । (७) तवधनम् ।
(६) त्वयाकृतम् ।
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प्राकृतप्रकाशे
तुमाइ च ॥ ३३ ॥ आङि युष्मदः पदस्य तुमाइ इत्ययमादेशोभवति । तुमाइ. क(१) ॥ ३३ ॥
तुज्ञहिं तुझेहिं तुम्मेहिं भिसि ॥ ३४ ॥ भिमि परतो युष्मदः पदस्य तुज्झहि, तुमहिं, तुम्मेहि इत्येतआदेशा भवन्ति । तुज्ञहिं, तुह्मोह, तुम्मेहिं करं(२) ॥ ३४ ॥ ङसौ तत्तो तइत्तो तुमादो तुमादु तुमाहि ॥ ३५ ॥ ___ ङसौ परतो युष्मदः पदस्य तत्तो, तइत्तो, तुमादो, तुमादु तुमाहि इसेतआदेशा भवन्ति । तत्तो आगदो । तइत्तो, तुमादो, तुमादु, तुमाहि आगदो । त्वदागतः(३) ॥ ३५ ॥
तुह्माहिंतो तुह्मासुन्तो भ्यासि ॥ ३६ ॥ युष्मदः पदस्य पञ्चमी बहुवचने भ्यसि तुह्माहिंनो, तु. मासुन्तो इत्येतावादेशौ भवतः । तुह्माहितो, तुह्मामुन्तो आगदो(४) ॥ ३६॥
वो भे तुज्झाणं तुह्माणमामि ॥ ३७ ॥
आमि परतो युष्मदः पदस्य वो, भे, तुज्ज्ञाणं, तुह्माणं इत्येतआदेशा भवन्ति । वो धणं । भे धणं । तुज्ज्ञाणं, तुह्माणं धणं()॥ ३७॥
डौ तुमम्मि ॥ ३८ ॥ युष्मदः पदस्य ङौ परतः तुमम्मि इत्यादेशो भवति ।
(१) त्वयाकृतम् । (३) त्वत्-आगतः। (५) युष्माकंधनं।
(२) युष्माभिः कृतम् । (४) युष्मदागतः।
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षष्ठः परिच्छेदः।
तुमम्मि ठिअं(१)। पूर्वोक्ताश्च । तइप्रभृतयश्चत्वारोऽप्यादेशा भवन्ति ।। ३८ ॥
तुज्ज्ञसु तुम्हेसु सुपि ॥ ३९ ॥ युष्मदः पदस्य सप्तमीबहुवचने तुज्झमु, तुह्मेसु इसेताबादेशी भवतः । तुज्झेमु ठिअं। तुझेमु ठिअं(२) ॥ ३९ ॥ - अस्मदो ह मह महरं सौ ॥ ४० ॥
अस्मदः पदस्य सौ परतो हैं, अहं, अह अं इत्येतआदेशा भवन्ति । हं, अहं, अहअं करेमि(३) (१२-१५ कृञ्क र ७-३ मि ७-३४ एत्वं) ॥ ४० ॥ .
____ अहम्मिरमि च ॥ ४१ ॥ अमि परतो ऽस्मदः पदस्य अहम्मि इत्ययमादेशो भवति सौ च । अहम्मि पेक्ख । अहम्मि करेमि । मां प्रेक्षस्त्र । अहं करोमि ।। ४१॥
मं ममं ॥ ४२ ॥ अमीति वर्तते । अस्मदः पदस्य अमि परतो मं ममं इत्येता. वादेशौ भवतः मं, ममं पेक्ख(४) ॥ ४२ ॥
अह्मे जश्शसोः ॥ ४३ ॥ अस्मदः पदस्य जश्शमोः परतः अह्मे इत्ययमादेशो भव. ति । अह्मे आगदा(५) । अह्मे पेक्ख(६) ॥ ४३ ।।
__णो शसि ॥४४॥ अस्मदः पदस्य शसि परतो णो इत्ययमादेशो भवति । णो (१) त्वयिस्थितम् । (२) युष्मासुस्थितम् । (३) अहं करोमि । (४) मां प्रेक्षस्व । (५) वयमागताः। (६) अस्मान् प्रेक्षस्व, पश्य वा।
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प्राकृतप्रकाशे पक्ख । अस्मान् प्रेक्षस्व ॥ ४४ ॥
आङि मे ममाइ ॥ ४५ ॥ अस्मदः पदस्य आडि परतो मे, ममाइ इत्येतावादेशी भवतः । मेकअं । ममाइकअं(१) ॥ ४५ ॥
डौ च मह मए ॥ ४६ ॥ अस्मदः पदस्य ङौ परतौ मइ मए इत्येतावादेशौ भवतः । चकारात्तृतीकवचने च । मइ, मएठिअं(२)। मइ, मए क(३)
अह्महि भिसि ॥ ४७॥ अस्मदः पदस्य भिसि अमेहिं इत्ययमादेशो भवति । अ. महिं करं(४) ॥ ४७ ॥ मत्तो महत्तो ममादो ममादु ममाहि ङसौ ॥ ४८ ॥
अस्मदः पदस्य उमौ परत एते आदेशा भवन्ति । मत्तो गदो । मइत्तो, ममादो, ममादु, ममाहि गदो(५) । (स्पष्टानि, क्तान्तस्यगमेः १२-३ तन्द ५-१ ओ) ॥४८॥
अह्माहितो अह्मासुंतो* भ्यसि ॥ ४१ ।। अस्मदः पदम्य भ्यसि परतो अह्माहितो, अझासुन्तो इत्येतावादेशौ भवतः । अह्माहितो, अह्मामुन्तो गदो(६)॥ ४१ ॥
मे मम मह मज्झ सि ॥ ५० ॥ अस्मदः पदस्य ङसि परत एत आदेशा भवन्ति । मे धणं (१) मयाकृतम् । (२) मयिस्थितं । (३) मयाकृतम्। (४) अस्माभिः कृतम् । (५) मत् गतः। * अम्हहिंतो अम्हेसुन्तो । का० पा० (६) अस्मद् गतः।
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षष्ठः परिच्छेदः ।
मम, मह, मज्झ घणं (१) ॥ ५१ ॥
मज्झणो (२) अह्म अह्माण मझे आमि ॥ ५१ ॥
७९
अस्मदः पदस्य आमि परत एतआदेशा भवन्ति । मज्झगो, अह्म, अह्माणं, अह्मे धणं । अस्माकं धनम् ।। ५१ ॥ ममम्मि ङौ ॥ ५२ ॥
अस्मदः पदस्य ङौ परतो ममम्मि इत्यादेशो भवति । मममिठ (३) । पूर्वोक्तौ मइ, मए इत्येतौ च ॥ ५२ ॥ अह्मेसु सुपि ॥ ५३॥
अस्मदः पदस्य सप्तमीबहुवचने सुपि परतः अतु इसयमादेशो भवति । अह्मेसु ठिअं (४) ॥ ५३ ॥
छेदों ॥ ५४ ॥
पदस्योत निवृत्तम् । सुपीति वर्तते द्विशब्दस्य दो इत्ययमादेशो भवति सुपि परतः । दोहिं ( प्राकृतद्विवचनंनास्तीति नियमात् (५) द्विशब्दात् भिसः स्थाने ५-५ हिं शे० स०) दोस्र द्वाभ्याम् द्वयोः || ५४ ॥
त्रेस्ति ।। ५५ ।।
त्रिशब्दस्य सुपि परतः ति इत्यादेशो भवति । तहिं । तीसु (५-१८ दीर्घः ५-५ भिम् = हिं) त्रिभिः । त्रिषु ॥ ५५ ॥ तिष्णि (६) जश्शस्भ्याम् ॥ ५६ ॥ त्रिशब्दस्य जशसुभ्यां सह तिणि इत्यादेशो भवति ।
(१) मम धनम् । (२) मज्झाणो । का० पा० (३) मपि स्थितम् । (४) अस्मासु स्थितम् । (५) एवं सर्वत्र बोध्यम् । (६) तिस्म - तिणा - तिणि-तिस्ति-तिणि । का० पा०
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प्राकृतप्रकाशे तिणि आगदा । तिणिपेक्ख । (स्पष्टानि) त्रय आगताः । त्रीन प्रेक्षस्व ॥ ५६ ॥
उर्दुवे दोणि वा ॥ ५७ ।। द्विशब्दस्य जमशम्भ्यां सह दुवे, दोणि इत्येताबादेशौ भवतः । दुवे कुणन्ति । दोणि कुणन्ति । पक्षे दो कुणन्ति । द्वौ कुरुनः । दुवे पेक्ख । दोणि पेक्ख । पक्षे । दो पेक्ख (८-१३ कुन-कुण द्विवचनाभावनियमात् ४७-४ झिन्ति=कुणान्त शे०प०) द्वौ प्रेक्षस्व ॥ ५७ ॥
चतुरश्चत्तारो चत्तारि ॥ ५८ ॥ चतुश्शब्दस्य जश्मम्भ्यां सह चत्तारो, चत्तारि इत्येतावादेशी भवतः । चत्तारो, चत्तारि पुरिसा कुगन्ति(१) । (१-२३रुरि ५-११ दीर्घः ५-२ जसो लोपः) चत्तारो पुरिसे पेक्ख(२)* (५-१२ अ-ए ५-२ शसोलोपः अन्यत् पूर्ववत्) ॥५८॥
एषामामो हं ॥ ५९॥ एषां द्वित्रिचतुःशब्दानामामः स्थाने हं इत्ययमादेशो भवति । दोण्हं धणं (६-५४ द्वि-दोशे० स्प०) तिण्हं धणं (६-५५ त्रि=3 ति० शे० स्प०) चतुण्डं(३) धणं (४-६ रलोपः शे० स्प० ॥५९॥
शेषो ऽदन्तवद् ॥ ६० ॥ शेषः(४) मुब्बिधिरदन्तवद्भवति । अकारान्ताद् भिसो हि इययमादेश उक्त इकारोकारान्तादपि भवति । अग्गीहि । वाहिं (५-१८ मू० स्प०) एवं मालाहि । णईहिं बहूहिं । अग्गिस्स (३२ नलोपः ३-५० गद्वि०५-८ उस्स्स बाउस्स (२-२ यलोपः (१) चत्वारः पुरुषाः कुर्वन्ति । * भिसादौरफतकारयोर्लोपः। तेन चऊहिं । का० पा० (२) चतुरः पुरुषान् पश्य । (३) चतुण्हं-चउण्हं । का० पा० (४) शेषेषुविधि । का० पा०
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षष्ठःपरिच्छेदः॥
शे० पू०) अग्गीदो । वाऊदो । (५-६ इसि-दो) अग्गी वाऊमु (पूर्ववत् यलोपदीघौं०) एवं दोहिं (६-५४ द्वि-दो-५-५ भिस-हिं) तीहिं (६-५५त्रि=ति ५-१८ दीर्घः) चहि (४-६ रलोपः २-२तलोपः ५-१८ दीर्घः शे० पू०) ॥ ६० ।।
न ङिङस्योरेदातौ ॥ ६१ ।। इकाराकारोन्तानां ङिङस्योरदन्तवद् एकाराकारौ न भवतः । अग्गिीम्म (६-५२ ङि-म्मि शे० अग्गिस्सेतिवत्) वाउम्मि (२-२ यलोपः शे० स्प०) अग्गीदो वाऊदो अग्गीदु चाऊदु अग्गीहि वाजहि (५-६ डांसदो, दु, हि शे० पू० १०) ॥ ६१॥
ए भ्यसि ॥ ६२॥ नेत्यनुवर्तते भ्यास परत इकारोकारान्तयोरदन्तवदेत्वं न भवति । अग्गीहितो वाऊहिंतो अग्मीसुन्तो वाऊमुन्तो (५-६, १२ मूत्रयोर्वाधः ५-११ दीर्घः ५-७ भ्यस् हितो, मुंतो शे० पू०)॥६२ ॥
द्विवचनस्य बहुवचनन् ॥ ६३ ॥ सर्वासां विभाक्तीनां मुपां तिडां च द्विवचनस्य बहुवचनं प्रयोक्तव्यम् । वृक्षौ, वच्छा । वृच्छाभ्याम, वच्छेहिं । वच्छाहितो। वृक्षयोः, वच्छेसु । वच्छाण । (स्पष्टंपञ्चमपरिच्छेदेव्याख्याताः) तिङां यथा, तिष्ठतः चिट्ठन्ति (१२-१६ स्था-चिट्ट ७-४ झि=न्ति) ॥ ६३ ॥
चतुर्थ्याः षष्ठी ॥ ६४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेषु षष्ठः परिच्छेदः ॥
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८२
प्राकृतप्रकाशे चतुर्थीविभक्तेः स्थाने षष्ठीविभक्तिर्भवति(१) । बह्मणस्स देहि (३-३ रलोपः ५-१० डम्=स्स देहीति संस्कृतसमः) बह्मणाणं देहि । ब्राह्मणाय देहि । ब्राह्मणेभ्यो देहि (५-११ आमिदीर्घः ५-४० आम=णशे०प०) ॥ ६४ ॥
इति प्राकृतप्रकाशे सर्वनामपरिच्छेदः षष्ठः॥
(१) तादर्थ्यङेर्वा ८।३।१३२ तादर्थ्यविहितस्य अॅश्चतुर्थ्य कवचनस्य स्थाने षष्ठी वा भवति ॥ देवस्स देवाय । देवार्थ मित्यर्थः । रिति किम् देवाण ॥ .. वधाडाइश्चवा ८ । ३। १३३ वधशब्दात्परस्य तादर्थ्यर्डिद् आइः षष्ठी च वा भवति । वहाइ,वहस्स, वहाय । वधार्थमित्यर्थः ।।
क्वचिद् द्वितीयादेः ८।३। १३४ । द्वितीयादीनां बिभक्तीनास्थाने षष्ठी भवति क्वचिद् । सीमाधरस्स वन्दे । तिस्सा मुहस्स भरिमो। अत्र द्वितीयायाःषठी । घणस्स लद्धो धनेनलब्ध इत्यर्थः । चिरस्स मुक्का चिरेण मुक्तेत्यर्थः । अत्र तृतीयायाः ॥ ___चोरस्स वीह । चोराद्विभतीत्यर्थः अत्र पञ्चम्याः ॥ पिट्ठीए केस-भारो अत्र सप्तम्याः॥ .
पञ्चम्यास्तृतीया च ८।३।१३६ । पञ्चम्याः स्थाने क्वचित । तृतीया सप्तम्यो भवतः । चोरेण वीहइ । चोराद्विभेतीत्यर्थः । अन्तेउरे रमिउ मागओ राया। अन्त पुराद् रन्वा गतइत्यर्थः॥
द्वितीयातृतीययोः सप्तमी ८ । ३ । १३५ । द्वितीया तृतीययोः स्थाने क्वचि त्सप्तमी भवति ॥ नयरे न जामि । अत्र द्वितयिायाः ॥
तिसु तेसु अलं किआ पुहवी । अत्रतृतीयायाः ॥
सप्तम्या द्वितीया ८।३ १३७ । सप्तम्याःस्थाने क्वचिद् द्वितीयाभवति विज्जोयं भरइ रत्तिं ॥
आर्षे तृतीयाऽपि दृश्यते । तेणं कालेणं तेणं समयेण ।तस्मि. न् काले तस्मिन्समय इत्यर्थः॥
प्रथमायाअपि द्वितीया दृश्यते । चउवीसं पि जिणवरा । चतु विशतिरपि जिनवराइत्यर्थः ॥ इति हेमः ।
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सप्तमः परिच्छेदः ॥
८३
अथ सप्तमः परिच्छेदः ।
ततिपोरिदेतो ॥ १ ॥
त तिपू इत्येतयोरेकस्य स्थाने इतू एत् इत्येतावादेशौ भचतः । पढइ (२-२४ ठूढ शे० स्प०) पढए सहइ सहए । ( यथाक्रमं तपः तस्य ए) पठति । पठतः । सहति । सहते || १ || थास्सिपोः सि से ॥ २
थाम सिपू इत्येतयोरेकैकस्य स्थाने सि से इयेतावादेशौ भवतः । पढसि । पढने । सहसि सहसे । (पूर्ववत् ढ अन्यत्सु
गमम् || २ ||
इमिपोमिः ॥ ३ ॥
इट् मि इत्येतयोः स्थाने मिर्भवति । पढामि । इसामि (१) । - ३० आत्वम्) || ३ |
सहामि
न्तिहेत्थामोमुमा बहुषु ॥ ४ ॥
बहुषु वर्तमानेनि तिङांस्थाने न्ति, ह, इत्था, मा, मु, म
(१) अदन्ताद्धातोम्मौपरे अत आत्वं वा भवति ५ । ५ ॥ प्राकृतव्याकरणम् तथाच तत्रैव अकारान्ताद्धतोममुमेषु परेषु अत इत्व आत्तञ्च भवति, कचिदेत्वमपि । ५-६ || हसिमो, हसामो, हसेमो, हसिम, हसेमु इत्यादि । इति अत्वं, इत्वं आत्वं एत्वं च प्रतिपादित मकारान्तधातोः ।
"
* प्रथम पुरुषस्यन्ति, मध्यमस्य ह, इत्था । उत्तमस्य मो, मु, म, इति विवेकः । तथाच हेम:
बहुष्वाद्यस्यन्ति, न्ते, हरे ८ । ३ । १४२ | मध्यमस्येत्था, हचौ । ८ । ३ । १४३ | तृतीयस्य मो, मु, माः । ८ । ३ । १४४ । इति ।
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प्राकृतप्रकाशे
इत्येतआदेशा भवन्ति । प्रथमपुरुषस्य, रमंति पढति । हति । (२ - २४ ठूढ झिन्ति कृते ४-१७ वि० अ० स्प०) मध्यमस्य, रमह पढह हमह पढित्था ( १ ) | ( मध्य० थ=ह, इत्थ इति द्वावादेशौ शे०प०) उत्तमस्य पढामो पढमु पढम (उत्तमस्य, मो, मु, म इत्येत आदेशाः ७-३० आत्वविकल्पः शे० स्प० ) ॥ ४ ॥ अत ए से ॥ ५ ॥
८४
नित्यार्थं वचनं यतो विशेषणम् ततिषोः सिप्यासोर ए से इत्यादेशात एव परौ (२) भवतो नान्यस्मात् । ततिपोः, रमए । पढए । सिधासोः रमसे पढसे । (रम् - = ए = रपए । २–२४ ठ–ढ-पढ-ति=एपढए । रम् - थाम् = से = रमसे | पढ - सिपू = से = पढसे) अत इति किम् । होइ (८-१ भू-हो ७ - १ ति= ३) भवति ॥ ५ ॥
अस्ते(३)र्लोपः ॥ ६ ॥
अस्तेर्धातोः थास्तिपोरादेशयोः परतो ( ४ ) लोपो भवति । सुत्तोसि (७ - २ सिप्= सिशे० ३ - १ सू० स्प०) पुरिसो सि । ( १ - २३ सू० स्प०) सुप्तो ऽसि । पुरुषो ऽसि ।। ६ ।।
मिमोमुमानामधो हश्च ॥ ७ ॥
मिमोमुमानामस्तेः परेषामधो हकारः प्रयोक्तव्यः | अस्तेश्च लोपः । गओ म्हि गअ म्हो, गभ म्हु गअ म्ह । (२-२ तलोपः ५- १ ओ) (७-२ मि७ि-३ मम्मा, मुम, ५-२ जसो - लोपः ) गतो ऽस्मि गताः स्मः ॥ ७ ॥
(१) पढीत्था, पदित्थ । का० पा० (२) नित्यं भवतः । का० पा० (३) असेर्लोपः । का० पा०
(४) परयोः । असेर्धातोः परतः थास्सिपोर्लोपः । का० पा०
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सप्तमः परिच्छेदः॥
यक ईअइजौ ॥८॥ यकः स्थाने ईअ इज्ज इसादेशौ भवतः । पढी। पढि जइ । सहीअइ । सहिजइ । (स्प०) पठ्यते । सह्यते ॥ ८ ॥
नान्त्यवित्वे ॥९॥ धातोरन्त्यद्वित्वे सति यक ईअ इज्ज इत्यादेशौन भवतः । हस्सइ । गम्मइ(१) (८-५८ गमादीनां द्वित्वं)॥ हस्यते । गम्यते । गमादीनां विकल्पेन[द्वित्वविधातात] द्वित्वविधाने उक्तावादेशौ न भवतः द्वित्वाविधाने तु भवत एव । गमीअइ गमिजइ (पक्षे ७-८ ईअ इज्ज-आदेशौ शे० पू० स्प०) ॥९॥
न्तमाणौ शातृशानचोः॥ १० ॥ शात शानच् इयेतयोरेकैकस्य न्त, माण इसेतावादेशो भवतः । पठन्तो । पठमाणो। हसन्तो । हसमाणो (पूर्ववत् पढ, शत-न्तजाते ५-१ ओ एवं शानचोऽपिमाण आदेशः ५-१ ओत्वंच) ॥ १० ॥
ई च स्त्रियाम् ॥ ११ ॥ स्त्रियां वर्तमानयोः शतृशानचोरीकारादेशो भवति, तमाणौ च । हसई, हसन्ती, हसमाणा । बेबई, बेवंती, बेबमाणा (वेप० २-१५ प=शे० स्प० ई, न्ती, माणा) ॥ ११ ॥
धातोर्भविष्यति हिः ॥ १२ ॥ भविष्यति काले धातोः परो हिशब्दः प्रयोक्तव्यः । होहिइ(२) (८-१ भू-हो ७-१ ति=इ) हसिहिइ (७-३३ अ-इ
(१) "त्यादेः ८।१।९ तिवादीनां स्वरस्य स्वरेपरेसन्धिर्न । हेम० एवं सर्वत्र सन्ध्यभावो बोध्यः ।।
[] अयं पाठो न सार्वत्रिका (२) होहीइ । का० पा०
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प्राकृतप्रकाशे शे० पूर्ववत्) होहिति । हसिहिति । (७-४ झि=न्ति ४-२७ वि० शे० पूर्व०) भविष्यति । हसिष्यति । भविष्यन्ति । हसिष्य. न्ति ॥ १२॥
उत्तमे स्सा हा च ॥ १३ ॥ भविष्यत्युत्तमे स्सा हा इसेतो प्रयोक्तव्यौ चकाराद् हिश्च । होस्मामि होहामि होहिमि होस्सामो होहामो होहिमो(१) (७-३ मिप्=मि, मस्= मो । शे० स्सा, हा, हि आदेशाः ७-३० इ, आ। शे० मुगमम्) इत्यादि । भविष्यामि भविष्यामः ।। १३ ॥
मिना स्सं वा ॥ १४ ॥ भाविष्यत्युत्तमे मिना सह धातोः परः स्संशब्दः प्रयोक्तव्यो वा । होस्सं । पक्षे होस्सामि होहामि होहिमि(२) (८-१ भू-हो धातोः मिनासह सं, पक्षेधातोः उत्तमेपरे ७-१३ सू० स्प० ॥१४॥
मोमुमैहिस्सा हित्था ॥ १५ ॥ भविष्यतिकाल उत्तमे बहुवचनादेशस्य मो मु म इत्येतैः सह हिस्सा हित्था इत्येतावादेशौ वा भवतः । होहिस्सा हो. हित्था हसिहिस्सा हसिहित्था । एवं मुमयोरपि इसादि (७-४ सूत्रविहित मोमुमैः सह । शे० स्प०) भविष्यामः हसिष्यामः । पक्ष होहिमो होस्मामो(३) होहामो हसिहिमो हसिस्तामो हसिहामो । (पक्षे ७-१३ सूत्रविहितरूपाणि द्रष्टव्यानि सेहतधातोरपि तथैव हि-स्सा, हा इसते प्रयोक्तव्याः एवं ७-४ सूत्र शिष्टयोर्मुमयोरपि प्रयोगः-यथा होहिमु-होहिम इत्यादयः) ।। १५ ।।
(१) म, मु, होस्सामु । का० पा० (२) हसिस्सं इत्यादयः । का० पा० (३) होहिस्सामो । का० पा०
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ससमापरिच्छेदः ॥
कृदाश्रुवचिगमिदृशिविदिरूपाणां काहं दाहं सोच्छं .. वोच्छं गच्छं रोच्छं दच्छं वेच्छं ॥ १६ ॥
भविष्यति कालउत्तमैकवचने कृमादीनां स्थाने यथासंख्यं काहं प्रभृतय आदेशा भवन्ति । काहं, करिष्यामि । दाहं, दास्यामि, सोच्छं, श्रोष्यामि । वोच्छं, वक्ष्यामि । गच्छं, गमिष्यामि । रोच्छं, रोदिष्यामि । दच्छं, द्रक्ष्यामि । वेच्छं, वेत्स्यामि । इसादि(') ॥ १६ ॥ इब्रादीनां त्रिष्वप्यनुस्वारवर्ज हिलोपश्च वा ॥ १७ ॥
श्रुइत्येवमादीनां प्रथममध्यमोत्तमेषु त्रिष्यपि पुरुषेषु प. रतो भविष्यति काले सोच्छं इत्यादय आदेशा भवन्ति । अनुस्वारं विहाय हिलोपश्च वा । सोच्छिइ, सोच्छिहिड । श्रोष्यति । सोच्छिति सोच्छिहिति श्रोष्यन्ति (सोच्छादेशे ७-३३ अ=इ ७-१ ति, त=इ पक्षे ७-१२ हि ७-४ झि=न्ति ४-१७ वि० शे० पू०) । सोच्छिसि सोच्छिहिसि । श्रोष्यसि (७-२ सिप्, थाम्=सि शे० पू०) सोच्छित्था सोच्छिहित्था । श्रोष्यथ । (७-४ थ=इत्था) पूर्ववत्-हि) सोच्छिमि सोच्छिाहामि श्रोष्यामि (७-३ मिप मि शे० पू०) सोच्छिमो सोच्छिहिमो सोच्छिमु सोच्छिहिमु सोच्छिम सोच्छिहिम सोच्छस्सा मो सोच्छिस्मामु सोच्छिस्साम(२)। श्रोष्यामः । (७-४ मम्मा मु, म एव ७-१२ हि प्रयोग । ७-१३ स्साप्रयोगे मोमुमानां प्रयोगश्चऽन्ते कार्यः) एवं वोच्छादिपि॥१७॥
(१) रूपग्रहणाादन्यत्रापि। यथा मोछं,पेछ । मोक्ष्यामि,प्रेक्ष्यामि |का.पा. (२) सोछिहामो,मु म सोछिस्सा सोछिहित्था, बोछिहिस्सा । का.पा.
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८८
प्राकृतप्रकाशे
उ सुमु विध्यादिष्वेकस्मिन् ॥ १८ ॥ विध्यादिष्कस्मिन्नुत्पन्नस्य प्रत्ययस्य यथासंख्यम् उ, मु, मु इत्येतआदेशा भवन्ति । हसउ । हसमु । हसमु । (स्पष्टं ७-१ सूत्रस्य वाधः) हसतु । हस । हसानि ॥ १८ ॥
न्तुहमो बहुषु ॥ १९ ॥ विध्यादिषु बहुपूत्पन्नस्य प्रत्ययस्य यथासंख्यं न्तु ह मो इखेतआदेशा भवन्ति ! इसन्तु हसह हसामो (७-४ सूत्रस्यबाधा शे० स्प०) ॥ १९ ॥
वर्तमान भविष्यदनद्यतनयोर्ज जावा ॥ २० ॥
वर्तमाने भविष्यदनद्यतने विध्यादिषु चोत्पन्नस्य प्रत्ययस्य ज, ज्जा इत्येतावादशौ वा भवतः । पक्षे यथाप्राप्तम् । वर्तमाने तावत,होज । होजा हसेज्ज । हसेजा। पक्षे होइ हसइ । इत्यादि । (८-१ भू-हो पक्षे ७-१ ति=इ एवं हसघातोरीपज्ञेयम्) भविष्यदनद्यतने, होज्ज । होजा । पक्षेहोहिइ इत्यादिविध्यादिष्वेवम्(१) । (भविष्याप होजेत्यादि पूर्व० पक्षे ७-१२ मू० स्प० विध्यादिष्पाप होज, होजा पक्षे होउ, सु, मु • इसा०) ॥ २० ॥
मध्ये च ॥ २१ ॥ वर्तमानभविष्यदनद्यतनयोर्विध्यादिषु च धातुप्रत्यययोर्मध्ये ज, ज्जा इत्येतावादेशौ वा भवतः । वर्तमाने, होज्जइ होजाइ । पक्षे यथाप्राप्तम् । विध्यादिषु होजउ होज्जाउ (विकरणस्थाने अत्रादेशौ बोध्यौ शे० स्पष्ट०) भवेदित्यादि ॥ २१॥
(१) पुरुषत्रयेऽपि एकवचन बहुवचन रूपाणि बोध्यानि। काल्पा०
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सप्तमः परिच्छेदः ।
८९
नाकाचः ॥ २२ ॥
वर्तमान भविष्यदनद्यतनयोविध्यादिषु चानेकाचो धातोः प्रत्यये परे मध्ये ज्ज ज्जा इत्येतावादेशौ न भवतः किन्वन्त एव भवतः । इसइ (७ - १ सूत्रे स्प० ) तुबरइ । ( ८-४ नित्बरा=तुबर ७ - १ त ३) । अन्ते यथा, हसेज्ज । हसेज्जा । तुवरेज्ज । तुवरेज्जा । ( ७ - ३४ अ = ए = हसे, एवमेव भविष्य द्विध्यादिषु ज्ञेयं) एवमन्ये ऽप्युदाहर्तव्याः || २२ ॥ ईअ (१) भूते ॥ २३ ॥
भूते काले धातोः प्रत्ययस्य ईअ इत्ययमादेशो भवति । हुवीअ । हसीअ । ( ८- १ भूडुब - ति = ईअ. एवमग्रे ) अभवत् । अहसत् ।। २३ ।
एकाची हीअ ॥ २४ ॥
भूते काले एकाचो धातोः प्रत्ययस्य हीअ इत्ययमादेशो भ वति । होहीअ । (स्पष्टं) अभूत् ॥ २४ ॥
अस्तेरासिः ॥ २५ ॥
अस्तेर्भूते काले एकस्मिन्नर्थे आसि इति निपात्यते (२) । आसि राआ । आसि बहू । राआ ५ - ३६ मु०प०वहू ५-१९ सू० रूप० शे० सुगपं) आसीद्राजा । आसीद्वधूः ॥ २५ ॥
(१) इअं अं । इअभूते-भूते वर्तमानाद्धातोः प्रत्ययस्य ईअ आदेशः स्यात् । आसीअ, गहीअ, हसीअ, पढ़ीअ । आसीत्, अग्रहीत्, - अहसत्, अपठत् इत्यादयः । का० पा०
(२) तेनास्ते रास्यसी । ८ । ३ । १६४ । अस्तेर्धातो स्तेन भूताधैन प्रत्ययेन सह आसि, अहेसि इत्यादेशौ भवतः । आसि सो, तुम, अहं वा । जे आसि । ये आसन्नित्यर्थः । अहं अहसि ॥ हे०
१२
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प्राकृतप्रकाशे
णिच एदादेरत आत् ॥ २६ ॥ - णिच्प्रत्ययस्य एकारादेशो भवतिधातोरादेरकारस्य च आत्वं भवति । कारेइ हासेइ पाढेइ । (८-१२ कुञ्-कर,णि-ए ७-१ ति=इ शे०प० एवं हासेइ प्रभृतयः) कारयति । हासयति । पाठयति ॥ २६ ॥
आवे च ॥ २७ ॥ _ णिच आवे इत्ययमादेशो भवति चकारात् पूर्वोक्तं च । क. रावेइ । हसावेइ । पढावेइ । कारावेइ इसादि (णिचआवे कृते घातोरादेरकारस्यात्वं वा भवाति, उदाहतपदेषुतादृशकार्यदर्शनात शे० स्प०) ॥ २७॥
आविः क्तकर्मभावेषु वा ।। २८ ॥ णिच आविरादेशो भवति वा तमक्तये परतो भावकर्मणोश्च । कराविरं । हसाविअं। पढाविरं । (८-१२ कुज-कर, णिच् आधि २-२ तलोपः ५-३० सो विदुः =कारितं-एव मग्रेऽपि) कारिअं । हामि । पाढिअं। (पक्षेसंस्कृतानुसारं कारितमिति सिद्धे ३-२ तलोपः ५-३० वि पाढित मत्र २-२४४-ढ शे० पू०) भावकर्मणोश्च, कराविज्जइ । हसाविज्जइ । पढाविज्जइ । णिच आवि ७-१ त-इकृते ७-२१ यकःस्थाने ज्ज-एव मग्रे) कारिज्जइ । हासिज्जइ । पाढिज्जइ । (णिचि-कारितिजाते ७-२१ यक:-ज्ज एत्र मग्रे) कारितम् । हासितम् । पाठितम् । कार्यते । हास्यते । पाठ्यते ॥ २८ ॥
नैदावे ॥ २९ ॥ क्तभावकर्मसु णिच्प्रत्ययस्य एवं आवे इत्येतावादेशौ न भवतः । कारिअं (णिचिम्कारि २-२ तलोपः ५-३० वि) के
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सप्तमः परिच्छेदः ।
९१
राविअं (७-२८ सूत्रे द्रष्टव्यं ) कारिज्जई काराविज्जई (७-२७ सूत्रात चकारातुकर्षणात पक्षे तत्पूर्वसूत्रानुसारं थातोरादे रकारस्यात्वं भवति शेषं ७ - २८ सू० द्रष्टव्यं ॥ २९ ॥ अत आ मिपि वा ॥ ३० ॥ अकारान्ताद्धातोर्मिपि परत आकारादेशो भवति वा । ६सामि, हसमि । (स्पष्टे) ॥ ३० ॥
इच्च बहुषु ॥ ३१ ॥
मिपो बहुषु परतो ऽत इकारादेशो भवति चकारादाकारश्च । इसिमो, इसामो, हसिमु सामु (१) । ( ७-४ झिमो, मु शे० स्प० ) ।। ३१ ।।
क्ते ॥ ३२ ॥
क्पत्यये परतो ऽत इर्भवति । हसिअं ( २ - २तलोपः शे० स्प० ५ - ३० वि० ) पढिअं (२) (२-२४४= शे० पू० ) ॥ ३२ ॥ एच क्त्वातुमुन्तव्यभविष्यत्सु ॥ ३३ ॥
क्त्वा, तुमनू, तव्य इयेतेषु भविष्यति काले च अत एवं भवति चकारादिश्च । इसेऊण | हसिऊण । (४-२३ काऊशे० रूप०) इसे । इसिउं । (२- २ तुमः सलोपः ४-१२ सर्वि० शे० पूर्व०) हसेअव्वं हसिअव्वं (२-२ तलोपः ३-५० द्वि० ५ - ३० सोर्विन्दुः शे० स्प०) हसेहिइ हसिहि ( २ ) । ( ७ - १२ घोतोः परो हि प्रयोगः शे० रूप० ) ॥ ३३ ॥
लादेशे वा ॥ ३४ ॥
इतिवररुचि कृत प्राकृतसूत्रेषु सप्तमः परिच्छेदः ॥
(१) हसामः । (२) हसितं - पाठ । (३) हसित्वा - हसितुम् - हसितव्यम् ।
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. प्राकृतप्रकाशे
१. लकारादेशे वा परतो ऽत एत्वं भवति वा । इसेइ, हसइ । पढेइ, पदइ । (७-१ ति=इ शे० स्प०) हसत, इसति (७-४ झि=न्ति ४-१७ वि०) हसेउ, इसउ(१) । (७-१८ ति-उ बो० स्प०)॥ ३४ ॥
इति प्राकृतप्रकाशे तिविधिर्नाम ।
सप्तमः परिच्छेदः ॥
अष्टमः परिच्छेदः ।
भुवो होहुवो ॥१॥ ___ भू सत्तायाम् एतस्य धातो हो, हुव इसतावादेशौ भवतः । होइ (७-५सू० स्प०) हुबइ (७-१ ति=इ) होति, हुवन्ति(२) (७-४ झिन्ति ४-१७ विशे० स्प०)॥१॥
के हु(३) ॥२॥ भुवः क्तमत्यये परतो हु इसादेशो भवति । हुअं(४) (-२ तलोपः ५-३० वि०) ॥२॥
प्रादेर्भवः ॥३॥ प्रादेरुत्तरस्य भुवो भव इययमादेशो भवति । भवइ (३-३ रलोपः ७-१ ति=इ) उन्भवइ (३-१ दलोप० ३-५० भवि० ३-५१ भू-वो० पू०) सम्भवइ, परिभवइ(१)(४-१७ वर्गा- (१) हसति-पठति-हसन्ति-हसतु । (२) भवति भवन्ति ।
(३) तेहः ८।४।६४ । हूअं अणुहूअं पहूअं अविति हुः ८।४। ६१ विद्वर्जे । हुंन्ति-हुन्तो । हेम०
(४) भृतम्, तः। (५) प्र, सम् , परि,भवति। . .
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अष्टमः परिच्छेदः। न्त यो० स्प०)॥३॥
स्वरस्तुवरः ॥ ४॥ मित्वरा संभ्रभे अस्य धातो स्तुवर इययमादेशो भवति । तुवरइ(१) (७-१। त-इ शे० स्प०)॥४॥
. ते तुरः ॥ ५॥ क्तमत्यये तुर इत्यममादेशो भवति । तुरि(२) (७-३२ अ-३-२-२ तलोप ५-३० वि०)॥५॥
घुणो घोलः ॥६॥ घुण, घूर्ण भ्रमणे अस्य धातो ?ल इत्ययमादेशो भवति । घोलइ(३) (७-१ ति=इ ॥ ६॥
णुदो णोल्लः(४) ॥ ७ ॥ णुद प्रेरणे अस्य धातोर्णोल्ल इत्ययमादेशो भवति । गोल्ल. इ । पणोल्लइ(५) (३-३ प्र-इसस्यरेफलोपः शे० पू० स्प०)॥७॥
दृङो दूमः ॥८॥ दुङ् परितापे अस्य धातोमादेशो भवति । मइ(६) (स्पष्टम) ॥८॥
पटेः फलः ॥९॥ पट गतौ अस्य धातोः फल इत्ययमादेशो भवति । फलिअं (७-३२ अइ २-२ तलोपः ५-३० वि०) (१-२८ सू०
(१) त्वरते। (२) त्वरितम्। (३) घोणते-घूर्णते ।
(४) नुदो लोणः। नुदप्रेरण अस्य धातो लोण इत्यादेशोभवति । ल्लोणइ पल्लोणइ । नुदेर्लोण-लोणाइ पल्लोणाइ । णुदो गोल:-णोलइ-णोल्लइ गमादित्वात् द्वित्वं-नुदोल्लोणः । लोणइ पलोणइ का० पा०। (५) नुदति-नुदते । (६) दूयते-दुनोति ।
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९४
प्राकृतप्रकाशे
स्प०) हिअअं(२) ॥९॥
‘पदेः पालः ॥१०॥ पद गतौ अस्य धातोः पाल इत्ययमादेशो भवति । पाले. इ(२) (७-३४ अ=ए ७-१ ति=इ) ॥ १० ॥
घृषकृषभूषहृषामृतो ऽरिः ॥ ११ ॥ वृषादीनामृतः स्थाने अरि इत्यादेशो भवति । परिसइ । करिसइ । मरिसइ । हरिसइ(३) । (२-४२ ष-स ७-४ ति-इ एवमुत्तरत्रापि छप, मृष, मृश-हृष) ॥ ११ ॥
__ ऋतोऽरः ॥ १२ ॥ ऋकारान्तस्य धातोक्रनः स्थाने अर इत्यादेशो भवति । मृ,मरइ । स्ट, सरइ । , वरइ(४) (७-१-इ शे० स०) ॥१२।।
कृत्रः कुणो वा ॥ १३ ॥ डुकृञ् करणे अस्य धातोः प्रयोगे कुणो वा भवति । कुणइ, करइ(५) ॥ (पूर्ववत स्प०) ॥ १३ ॥
ज़भो जंभाअः ॥ १४ ॥ जभि, भी गात्रविनामे अस्य धातार्जभाअ इत्ययमादेशो भवति । जंभाअइ(६) (स्पष्टम) ॥ १४ ॥
__ आहेर्गेण्हः ॥ १५ ॥ ग्रह उपादाने अस्य धातोर्गेण्हो भवति । गेण्हइ(७) (१) पटितं हृदयम् ।
(२) पद्यते । (३) वर्षति । कर्षति । मृष्यति । हृष्यति-भौवादिकस्य हर्षति ।
(४) मृयते । सरति-ससति । वरति । सानुबन्धकयोः वृणोतिवृणुते । वृणीते।
(५) करोति-कुरुते । (६) जम्भते-जृम्भते ।(७) गृह्णाति-गृह्णीते।
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अष्टमः परिच्छेदः। ९५ (स्पष्टम्) ॥ १५॥
घेत् क्त्वातुमुन्तव्येषु ॥ १६ ॥ अहेर्घत इत्ययमादेशो भवति क्त्वातुमुन्तव्येषु परतः घेत्तूण (४-२३ त्का-ऊण । ३-५० द्वि०) घेत्तुं (३-५० तद्वि० २-१२ मर्वि) घेत्तव्यं(२) (पूर्ववत्तलोपताद्व० ३-२ यलोपः ३-५० वद्वि० ५-३० वि०) ॥ १६ ॥
कृतः का भूतभविष्यतोश्च ॥ १७ ॥ भूतभविष्यतोः कालयोः कृनः का इसयमादेशो भवति । चकारात् क्त्वातुमुन्तव्येषु परतः । काहीअ (७-२४ भूते-क्ततवतोः स्थाने अथवा भूतभविष्य दर्थकलस्थाने हीअ इयादेशः) काहिइ (७-१२ भवि० धातोः परः हि भवति ७-१ति-इ) काऊण (४-२३ क्त्वा-ऊण) काउं (२-२ तलोपः ४-१२ मवि०) काअन्(२) (२-२ तलोपः- ३-२ सलोपः ४-१२ मवि०) ॥ १७ ॥
स्मरतेभरसुमरौ ॥ १८ ॥ स्मृ चिन्तायाम् अस्य धातो भर,सुमरौ भवतः । भरइ । सुमरइ(३) (७-१ ति=इ शे० स्प०) ॥ १८ ॥
भियो भावीहौ ॥ १९ ॥ भिभी भये अस्य धातो र्भा, बीहौ भवतः। भाइ, बीहइ(४)। (पू० ति=इ शे० स्प०) ॥ १९ ॥
(१) गृहीत्वा गृहीतुम् । गृहीतव्यम् । (२) चकार-चक्रे कृतम्-कृतवान्-अकर्षीत्-अकृत । करिष्यति करिष्यते । कृत्वा । कर्तुम् । कर्तव्यमित्यादि ।
(३) स्मरति-स्मृणोति। (४) विभेति-विभीते ।
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प्राकृतप्रकाशे
जिघ्रतेः पा पाऔ ॥ २० ॥ घ्रा गन्धग्रहणे अस्य धातोः पा, पाअ इत्यादेशौ भवतः । पाइ, पाअइ (१०) ॥ २० ॥
म्लै वा वाऔ ।। २१ ॥ म्लै हर्षक्षये अस्य धातो र्वा, वाऔ भवतः । वाइ, वाअइ(१)। (पू० १०) ॥ २१ ॥
पास्थिपः ॥ २२॥ तृप तृप्ती अस्य धातोस्थिपो भवति।पिंपइ(२)(पू०प०)॥२२॥
ज्ञो जाणमुणौ ।। २३ ।। ज्ञा अवबोधने अस्य धातो र्जाण, मुणौ भवतः । जाणइ, मुणइ(३) । (पू० स्प०) ॥ २३ ॥
जल्पेलो मः ॥२४॥ जल्प व्यक्तायां वाचि अस्य धातोर्लकारस्य मकारोभवति । जंपइ(४) ॥ २४ ॥
ठाध्यागानां ठाअ झाअ गाआः ॥ २५ ॥
ठा गतिनिहत्तौ ध्यै चिन्तायां गै शब्दे एतेषां ठाअ, झाअ, गाअ इसेत आदेशा भवन्ति । ठान्ति, झान्ति, गाअन्ति(५) ॥ २५॥ ठाझागाश्च वर्तमान भविष्यविध्यायेकवचनेषु ।। २६॥
ठाध्यागानां ठा, झा, गा इसादेशा भवन्ति, चकारात् पूर्वो
(१) म्लायति। (२) तृप्यति-तृप्नोति-तृपति-तृप्यति ।
(३) जानाति । (४) जल्पति । (५) तिष्ठन्ति । ध्यायन्ति । गायन्ति । इत्यायुह्यम् ।
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अष्टमः परिच्छेदः। ९७ ताश्च वर्तमान भविष्यद्विध्यायेकवचनेषु परतः । ठाइ, ठाइ, गहिइ, ठ। अहिइ, ठाउ, ठाअउ । झाइ झाअइ, शाहिइ, झाअहिइ, झाउ, झा अउ । गाइ, गाभा, गाहिइ, गाअदिइ, गाउ, गा. अउ(१) ।। २६ ।।
खादिधाव्योः खा धौ ॥ २७ ॥ खाद भक्षणे, धावु नवे एतयोर्धातोः खा, धा इसादेशौ भबतो वर्तमान भविष्यद्विव्यायेकवचनेषु । खाइ (७-१ ति=इ) खाहिइ (७-१२ धातोः परो हि शे० पू०) खाउ । घाइ, धाहिद धाउ(२) (७-१८ ति= श० स० ) ॥ २७ ॥
ग्रसेर्विसः ॥ २८ ॥ असु ग्लम् अदने अस्य धातोविसो भवति । विसइ(३) (७-१ ति-इ प०) ॥ २८ ॥
चिनश्चिणः ॥ २९ ॥ चिञ् चयने अस्य धातोश्चिणो भवति । चिणइ(४) (१०)॥२९॥
क्रियाकिणः ॥ ३० ॥ डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये अस्य धातोः किणो भवति । कि. गइ(५) (इति स्प०)॥ ३० ॥
के च ॥ ३१ ॥ वेरुत्तरस्य क्रीजः के आदेशः किणादेशश्च भवति । विक्केइ, (१) तिष्ठति-स्थास्यति-तिष्ठतु-तिष्ठत्-एवंध्यै-गैइत्यादीनपि । (२) तिष्ठन्ति-ध्यायन्ति-गायन्ति ।
खादधावोलक ८ । ४ । २२८ इत्यत्र बहुलाधिकाराद्वर्तमानभ. विष्य द्विध्यायेकवचन एव भवति । तेनेह न भवति । खादन्ति, धावन्ति क्वचिन्न भवति । धावइ पुरओ इति । हे । खादति-खादि. ज्यति-खादतु खादेत् एवं धावतीत्यादीनि । (३) ग्रसते-ग्लसते ।
(४) चिमोति-चिनुने । (५) क्रीणाति-क्रीणीते ।
१३
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९८
प्राकृतप्रकाशे
विकिण (पू० (१०) विक्रीणीते ॥ ३१ ॥
उदूध्म उदूधुमा ॥ ३२ ॥ मा शब्दाग्निमंयोगयोः अस्य धातोरुत्पूर्वस्य उदूधुमा भवति । उदूधुमाई (१) (७-१३) ॥ ३२ ॥ श्रदो धो दहः ॥ ३३ ॥
श्रच्छब्दादुत्तरस्य डुधाञ् धारणपोषणयोः अस्य धातोर्दहादेशो भवति । सद्दह (२-४३ शूस ३-३ रलोपः ३-१ तूलोपः ३–५० दद्वि० ७-१ त ४) सद्दहि अं (२) (सद्दांत पूर्ववद ७-३२ अ=इ २-२ सलोपः ५-३० सोनि० ) ॥ ३३ ॥ अवाद् गाहेबहः || ३४ ॥
गाहू विलोडने, अस्य धातोरवादुत्तरस्य वाहादेशो भवति । ओवाह(३) (४-२१ ७१ = शे०प०) (पक्षे (४)) अववाह (प्रायोग्रहणात् २-२ वलोपो न शे०प०) ॥ ३४ ॥ कासेर्वासः ॥ ३५ ॥
अत्रादित्यनुवर्त्तते । कास्ट शब्दकुत्सायाम्, अस्य धातोरवादुत्तरस्य वासो भवति । आत्राम, अत्रवास ( ५ ) (४-२१ अत्र= ओ शे० पू० स्प० ) ॥ ३५ ॥
निरो माङोमाणः ॥ ३६ ॥
माङ् माने, अस्य धातोर्निरुत्तरस्य माणादेशो भवति । णिम्माणइ (६) (३-३ लोप ३-५० मद्रि० शे० पू० ) ॥ ३६ ॥ क्षियो झिजः || ३७ ॥
क्षि क्षये, अस्य घातो झिज्जो भवति । झिज्जर ( ७ ) ( स्पष्टं)
३७॥
(१) उद्धमति । (२) श्रद्धते । श्रद्धितम् । (३) अवगाहते । (४) आत्वाऽभाव पक्षे इत्यर्थः ।
(५) अवकासते । (६) निर्मिमीते । (७) क्षिणोति, क्षयति ।
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अष्टमः परिच्छेदः । ९९ भिदिच्छि दोरन्त्यस्य न्दः ॥ ३८ ॥ भिदिर (१), छिदिर(२) एतयोरन्यस्य दो भवति । भिन्दइ । छिन्दइ(३) (४-१७ वर्गान ७-१ ति-इ) ॥ ३८॥
क्यथः ॥ ३९ ॥ कवथ निष्पाके, अस्य धातोरन्त्यस्य दो भवति । कढइ(४) (पू० स्प०) ॥ ३९ ॥
वेष्टेश्च(५) ॥ ४० ॥ वेष्ट वेष्टने, अन्य धानोरन्यस्य ढो भवति । वेड्ढइ(6) (= आदेशत्वात् ढद्वि० ३-५१ - ७-१ नि-इ) । योगविभाग उत्तरार्थः ॥ ४० ॥
उत्समोलः ॥ ४१ ॥ उत्संभ्यामुत्तरस्य वेष्टेरन्त्यस्य लो भवति । उल्लइ, सं. वेल्लइ(७) (३-१ तलोपः ३-५० वद्रिः ष्टल, आदेशत्वात ३-५० लाद्व० शे० पू०) ॥ ४१ ॥
रुदेवः ॥ ४२ ॥ रुदिर् अस्य धातोरन्यस्य वो भाति । रूपइ(८) (इरिट दु: व ७-१ति-इ)॥ ४२ ॥
उदो विजः ॥ ४३ ॥ उत्पूर्वस्य विजेरन्यस्य वकारो भवति उभिवइ(१) (२-२ तलोपः ३-५० वद्वि० शे० पू०प०)॥ ४३ ॥
(१) पूर्वापरशैलोदर्शनात् (विदारणे) इत्यर्थनिर्देशोले खसम्रमा त्रुटितः स्याद् इति प्रतीयते । (२) अत्रापि (छेदने) इत्युचितः।
(३) भिनत्ति, भिन्ते । छिनत्ति, न्ते (४) क्वथति,। (५) कचित् चकारात ठो भवति टश्च । वेढइ, वेउइ, वेट इत्युदारणानि इत्याधिकः ।
(६) वेष्टते । (७) उद्वेष्टते। (८) रोदिति। (२) उद्विजते ।।
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प्राकृतप्रकाशे
वृधेः ॥ ४४ ॥
वृधु वेधने अस्य धातोरन्यस्य दो भवति । बडूढइ (१) (१-२७ ऋ =अ (धू) तस्य आदेशत्वात् ३ २० द्वि० शे० पू० ||४४ || हन्तेः ॥ ४५ ॥
इन्तेरन्यस्य म्मो भवति । हम्म (२) (स्पष्टम् ) ।। ४५ ।। रुषादीनां दीर्घता ॥ ४६ ॥
१००
रुषादीनां दीर्घता भवति | रूमइ । तूमइ | सूसइ (२-४३ स एवं सर्वत्र शे० स० पू० ) । रुष्यति, तुष्यति, शुष्यति ||४६ || वो व्रजनृत्योः ॥ ४७ ॥
व्रज, नृती, अनयोरन्त्यस्य चो भवति । वच्चइ (३) (३-३ रलोपः शे० पू० ) णचर (४) (१-२७ ऋ =अ २--४२ नू=णू शे० स्प० ति = इ पू० ) ॥ ४७ ॥
युधबुध्योः ॥ ४८ ॥
युध संप्रहारे, बुधअवगहने, अनयोरन्त्यस्य झो भवति । जुज्ज्ञइ । बुज्झइ(५) (धू=झू, आदेशलात् ३-५० झद्वि० ३-५१ ब्लू =ज् शे० स्प० ) ॥ ४८ ॥
रुभौ (६) । ४९ ॥
रुधिर् [अस्य* धातो] रन्त्यस्य न्धुम्भौ भवतः । रुन्ध, रुम्भ ( 9 ) (इरिघ्= पर्यायेण व म्भ- १-१ तिर ४-१७ वर्गान्त० ) ॥ ४९ ॥ •
(३) ब्रजति, (४) नृत्यति, (६) रुघेर्धस्सौ=सम्सइ । का० पा० । (७) रुणद्धि, रुन्धे ।
(२) हन्ति ।
(१) वर्द्धते । (५) युज्यते, यते । * [ ] अयं पाठो न लभ्यते ।
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अष्टमः परिच्छेदः। १०१
मृदो लः ॥ ५० ॥ मृद क्षालने, अस्य धातोरन्यस्य लो भवति । मलइ(१) (स्पष्टं) ॥ ५० ॥
शदलपत्योर्डः ॥ ५१ ॥ शदल शातने, पल पतने, अनयोरन्त्यस्य डो भवति । सड (२)। पडइ (शे० १०) ।। ५१ ॥
शकादीनां द्वित्वम् ॥ ५२ ।। शक्ल शक्ती, इत्येवमादीनां द्वित्वं भवति । सक्कह । (७-१ ति=इ स्पष्टं) लग्गड़ । (७-१ति=इ शे० स्प०) शक्नोति । ल. गति ॥ ५२ ॥
स्फुठिचल्योर्वा ॥ ५३ ॥ स्फुटविकसने, चल कम्पने, अनयोरन्त्यस्य वा द्वित्वं भवति । फुटइ, (३-१ सलोपः, टद्रि० ७-शत-३) फुडइ (द्वित्ताभावे २-२० ट=ड शे० पू०) चल्लइ, चलइ(३) ॥ ५३ ॥
प्रादेर्मीलः ॥ ५४ ॥ प्रादेरुत्तरस्य द्वित्वं भवति वा । पगिल्लइ(४) (स्प० पू०) पमीलइ (३-३ रलोपः इससः संयोगे इतिहेमसूत्रात् मी=मि शे० पू०) (५०) ॥ ५४॥
भुजादीनां कातुमुन्तव्येषु लोपः ॥ ५५ ॥
भुज इसेवमादीनां क्वातुमुन्तव्येषु परतोन्त्यस्य लोपो भवति । भोत्तूण (जलोपे ३-१ कलोपे गुण(५) ३-५० तद्वि० ४-२३
(१) मृद्भाति । (२) शीयते । पतति । (३) स्फोटते, स्फुटति । चलति। (४) प्रमीलति । (५) युवर्णस्य गुणः । ८।४। २३७ हेम सुत्रेणगुणः । एतमुत्तरत्र । वस्तुनस्तु-"रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य"८ । ४ । २१२-एषा
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१०२ "प्राकृतप्रकाशे क्वः शेषस्य वस्यस्थाने ऊणादेशः) भोत्तुं, भोत्तव्यं । विदः, वेत्तूण (दलोपे ३-१ कलोप ३-५० तद्वि० ४-२३ वा-ऊण, गुणः पूर्ववत) वेत्तु (पूर्ववदगुणे कृते जलोपे च शेषभूत तुमनस्त कारस्य ३-५० द्वि० ४-१२ मत्रि०) वेत्तव्यं (३-२ यलोप: ३.५० वद्वि० ४-१२ मवि०) । रुदः, रोतूण, रोत्तुं (भोत्तुंभोत्तव्यं वत) रोत्तव्य() (भोत्तूसावा) ॥ ५५ ॥
श्रुहुजिलूधुवां णोऽन्त्ये ह्रस्वः(१) ॥ ५६ ।।
श्रु श्रवणे, हु दानादाने(२), जि जये, लून छेदने(३), धून कम्पने, इसनेषामन्ते णः प्रयोक्तव्यः दीर्घस्य इस्त्रो भवति । मुणइ । (२-४३ श्न ३-३ रलोपः ७-१ ति=इ शे० स्प०) हुणइ । जिणइ । लुणइ । धुणइ(४) (स्पष्टाः पू०) ॥५६॥
भावकर्मणोर्वश्च ॥ ५७ ॥ एषां भावकर्मणोरन्त्ये व्य शब्द: प्रयोक्तव्यः चकारात् ण. श्च । मुम्बइ, (२-४३ श-स ३-३ रलोपः बायोगे संयोग ८ । ८ । २२७ हेम. मु. इस्त्र. ७-१ तिम्इ) मुणिज्जइ (८-५६ णत्वे हवे च कृते ७-३३ अ-इ, इति मुण==मुणिजाते ७-२१ धातु प्रत्यययो मध्येज ७-१ त=३) । हुबइ, हुणिज्जइ । जिम्बइ, जिणिज्जइ । लुबड, लुमन्त्यस्य का, तुम्, तव्येषु तो भवति । एषः प्रकारः शोभन: प्रतिभाति व ऊणः इति का-ऊण, पुनस्तकारस्य द्वित्वादि सर्व सुघटमिति । रोदितुम्-रोदितव्यम् ।
(१) श्रु हुजि मुधु णो ह्रस्व श्च । का० पा०। (२) हुदानादनयोः । का० पा० (३) मुङ शब्दे इत्यधिकः मुणह-मवते । का० पा.
(४) शृणोति । जुहोति । जयति । लुनाति । लुनीते धुनोति । धवते । इत्यादयः।
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णिज्जइ । धुन्बइ, द्धिर्ज्ञेया ॥ ५७ ॥
अष्टमः परिच्छेदः ।
१०३
धुणिज्जड़ (१) पूर्ववत् सर्वेषां सि
गमादीनां द्वित्वं वा ॥ ५८ ॥
गमादीनां धातूनां द्वित्वं वा भवतेि । गम्म, ( स्पष्टं ) गमज्जइ । (७-३३ भविष्यति गमोऽकारस्येत्वं ७ - २१ मध्येज्ज ७- १ =३ एत्रमुत्तरत्रापिज्ञेयम्) रम्मइ, रमिज्जइ । हस्पइ, इसिज्ज | गम्यते रम्यते हस्ते ।। ५८ ।।
लिहेर्लिज्झ (२) || ५९ ॥
लिह आस्वादने अस्य धातोर्लिज्झो भवति भावकर्मणोः । लिज्झइ (३) (रूप० ७-१० = ३) ॥ ५९ ॥
कोहरकीरौ ॥ ६० ॥
हृञ् हरणे, डुकञ् करणे अनयोर्होरकीरौ भवतोभावकर्मणोरर्थयोः । हीरइ | की रई ( ४ ) ( स्प० पू० ) ॥ ६० ॥ ग्रहदों वा (५) ॥ ६१ ॥
aaaaa भवति भावकर्मणोरर्थयोः गाहिज्जइ, गहिज्जइ ( ६ ) (३-४ रलोप विकल्पेनदीर्घकृते अग्रे गमिज्जइत्रत ) ॥ ६१ ॥
(१) श्रूयते - ह्रयते-जीयते - लूगते, धूयते । (२) लिहेर्ज :- लिज्जइ । का० पा० (३) लिह्यते ।
(४) हियते - क्रियते ॥ कचित् "ज्ञो णजणवी वा" शाइत्यस्य धाताः णज, णव इत्यादेशौ भवतः भावकर्मणोः । णजइ । णवइ । पक्षे जाणिजइ-तुणिजः । ज्ञानृत्योपजणहौ । अनयो र्भावे णज णट्टौ भवतः । णजइ । णट्टइ । ज्ञायते । नृत्यते । का० पा० इत्यधिकः । (५) ग्रहेर्वा वेत्थ | वेत्थइ - गोहिजइ-गृह्यते । (६) गृह्यते ।
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प्राकृतप्रकाशे
केन दिण्णादयः (१) ॥ ६२ ॥ दिण्ण, इत्येवमादयः क्तप्रत्ययेन सह निपात्यन्ते । दाने, दिण्णं । (स्प०) रुदिर, रुग्ण । (पूर्व० स्प० ) त्रसी (२), दित्थं (३) । (१०) दद्द, दर्द (४) । रञ्जि, रसं (५) । (पू० स्प०) ।। ६२ ।।
१०४
खिर्विरः ॥ ६३ ॥
खिद दैन्ये, अस्य विनूरो भवति । विरह । (स्पष्टं अवोदाहरणमूतेप्राकृतपद्यखण्डे 'विरहण, बाला, इत्येतौशब्दौ संस्कृते प्राकृतसमो शेषो महिलावत ) विरहेण त्रिमूर बाल। (६) ।। ६३ ॥
क्रुधेर्जूरः (१) ॥ कुत्र कोपे, अस्य जुरो भवति ।
शे० स्प० ) ।। ६४ ॥
चर्चे चंपः ॥
चर्च अध्ययने, अस्य धातो
( स्पष्टम) ॥ ६५ ॥
६४ ॥
जुरई ( ८ ) ( पू० ति, त
६५ ॥
पो भवति । चंपई (२)
ब्रसेर्वज्जः ॥ ६६ ॥
त्रसी उद्वेगे, अस्य धातोर्वज्जो भवति । वज्जइ (१०) (५०
(१०) ।। ६६ ।।
(१) दिणादय इत्यपि दिणं रुणं । का० पा०
(२) त्रास तित्थं तत्थं । का० पा०
(३) (हित्यंव्रीडितभीतयोः) ।
(४) दट्ठे - इढढं-ढं । का०पा०
(५) रन्तं - रतं - रज्जं । दत्तं रुदितं- त्रस्तं दग्धं रक्तं । का० पा०
( ७ ) झूट |
( ८ ) कुद्ध्यति ।
(६) खिद्यति । (९) चर्चयते ।
( १० ) त्रस्यति त्रसति ।
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अष्टमः परिच्छेदः ।
मृजेर्लुभसुपौ(१) ॥ ६७॥
मृजू शुद्ध अस्य धातो लुभ, सुप इत्यादेशौ भवतः । लुभ । सुपर (२) (स्प० ) || ६७ ॥
१०५
बुहखुप्पी मस्जेः (३) ॥ ६८ ॥
जो शुद्ध अस्य धातोर्बुजुनौ भवतः । बुट्टइ खुइ (४) ( पू० स्प० ) ॥ ६८ ॥ दृशेः
: पुल अणिअक्कअवक्खाः (५) ।। ३९ ।। दृशिर प्रेक्षणे अस्य पुलअ, णिअक्क, अवक्खा भवन्ति । णिअक्कर | अवक्खइ ( ६ ) ( स्पष्टं ) ॥ ६९ ॥
शकेस्तरवअतीराः ॥ ७० ॥
शक्ल शक्तौ अस्य धातोः तर, वअ, तीर इथेत आदेशा भवन्ति । तर, वअइ, तीरइ ( 9 ) ॥ ७० ॥
शेषाणामदन्तता ॥ ७१ ॥
इति वररुचि कृतप्राकृत सूत्रेषु अष्टमः परिच्छेदः ।।
शेषाणां लुप्तानुबन्धानामदन्तता भवति । भगई। चुंबई (८)॥ ७१ ॥ [* एवमन्येऽपि क्रियाशब्दादेशाः ज्ञेया यथा मृजेः जामड़ पिवतः पाडड़ ] ।
इति भामहविरचिते माकृतप्रकाशे धात्वादेशपरिच्छेदो ऽष्टमः (९) ॥
(१) मृजेर्जू सबुसौ - जुसइ-बुसइ । का० पा० (२) मार्ष्टि । (३) बुत्त, बुत्था । बुत्तइ, व्युत्थइ । (४) मज्जति । (५) दृशेदस पुलणि छणि अछावखाः, दीसह, पुलइ - पिछर, अवक्वइ । दृश्यते । का० पा० (६) पश्यति । (७) शक्नोति । (८) । भ्रमति । चुम्वति । * [ ] अयं पाठो न सार्वत्रिकः । (९) अत्र प्रकरणान्ते ग्रन्थान्तरभ्य आवश्यकतया धातुविहितप्रत्ययादेशा धात्वादेशाश्वोल्लिख्यन्ते संक्षपेण तत्र पूर्वे धातुविहितप्रत्ययाऽऽदेशाः
१४
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प्राकृतप्रकाशे
सिनास्तेः सिः । ८।३।१४६ । सिना द्वितीयत्रिकादेशेनसह अस्तेः सिरादेशोभवति ॥ निहरो जं सि । सिनेति किम् । से आदेशे सति अस्थि तुमं । गुर्वादेविर्वा । ८ । ३ । १५० । गुर्वादेणैः स्थाने अवि इत्यादेशो वा भवति । शोषितम् । सोसविरं । सोसिअं । तोषितम् । तासविरं। तोसिअं । भ्रमेराडो वा । ८।३। १५१ । भ्रमेः परस्य णे राड आदेशो वा भवति॥ भमाडेह । पक्षे भामेइ । भमावइ । भमावेइ । (श्रमयति)। दुसु मु विध्यादिष्वेकस्मि त्रयाणाम् । ८।३।१७३।
विध्यादिश्वर्थत्पन्नानामेकत्वेऽर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपित्रि. काणां स्थाने यथासंख्यं दु, सु,-मु, इत्येते आदेशा भवन्ति ॥
हसउ सा । हससु तुम । हसामु अहं । दकारोश्चारणं भाषान्तरार्थम् ।
सोहिर्वा ! ८१३ । १७४। पूर्व सूत्र विहितस्य सोः स्थाने हिरादेशो वा भवति ॥ देहि । देसु। अत इजस्विजही जे-लुको बा । ८.३ । १०५ ।
अकारात्परस्य सोः इजसु, इजहि, इजे इत्येते लुक् च आदेशा घा भवन्ति । हसेजसु । हसेजहि । हसेजे । हस । पक्षे हससु ! अत इति किम् । होसु।
क्रियातिपत्तः । ८।३। १७९ । क्रियातिपत्तेः स्थान ज, जावादेशौ भवतः। होज, होजा ! अभविष्यदित्यर्थः । जइ होज वणणिजो। न्त-माणौ । ८।३।८०। क्रियातिपत्तेः स्थाने न्त, माणी आदेशौ भवतः। होन्तो । होमाणी । अभविष्यदित्यर्थः। क्याडो ये लुक । ८ । ३ । १३८ । फ्यङन्तस्य क्यजन्तस्य वा सम्बन्धिनोयस्य लुग भवति ।
गरु आइ । गरु आअइ । अगुरुगर्भवति । गुरुरिवाचरतिवेत्यर्थः । क्यच : लोहिआइ । लोहिआ अइ ।
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अष्टमः परिच्छेदः ।
ते।८।३ । १५६ । ते परत अत इत्वं भवति । हसिकं । पढि अं। अदेल्लुक्यादेरत आः । ८।३। १५३ । णेरदेल्लोपेषु कृतेषु आदरकारस्थ आ भवति । अति, पाडइ । मारइ । एति, कारइ । खामेइ । लुकि, कारिअं। खामि । काअिइ । खामी । कारिजइ। खामिजइ। अदल्लकीतिकिम् ।
कराविजइ । करावीअइ । आदेरिति किम् । सङ्गामेह । इह. व्यवहितस्य मा भूत् । कारिअं । इहान्त्यस्य मा भूत् । अत इति किम् । दूसेइ।
केचित्तु आवे आव्यादेशयोरप्यादेरत आस्वमिच्छन्ति । कारा. वेद । दासाविओ जणो सामलीए ।
णरदेदावावे । ८।३। १४९ ।
णेः स्थाने अतु, एत्, आव, आवे एते चत्वारआदेशा भवन्ति । दरिसइ । कारेइ । करावइ । करावेइ । हासेइ । हसावइ । हसावेइ । घडलाधिकारात । कचिदेनास्ति । जाणावेइ । कचिद् आवे नास्ति ।
पाएइ । भावेइ। दृशिवचे डोंस-डुच्चं । ८ । ३ । १६१ ।
दृशेर्वचेश्च परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीस दुरुच इत्या. देशौ भवतः । ईअ इजापवादः । दीसइ । बुच्चइ ।
सी-ही-हीअ भूतार्थस्य । ८।३ । १६२।
भूतेर्थेविहितोऽद्यतनादिः प्रत्ययो भूतार्थः। तस्य स्थाने-सीही-हीअ इत्यादेशा भवन्ति । उत्तरत्र व्यञ्जनादीअ(१) विधानात्स्व. रान्तादेवायं विधिः । कासी । काही । काही । ____अकार्षीत् । अकरोत् । चकारवेत्यर्थः । एवं ठाली । ठाही । ठाही।
कृदोहं । ८।३ । १७०। (१) "व्यअनादी" इत्यनेन-हुवीअ ! (अभूत्-अभवत्-वभूव) । अच्छीअ । (आसिष्ट आस्त-आसां चके) इत्यादिषु व्यञ्जनान्ता दी. .अ विधानं वेदितव्यम् । प्राकृत प्रकाशे चैतद् ७-२३ सूत्रे स्पष्ठम् ।
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प्राकृतप्रकाशे
करोते ददातेश्च परोभविष्यति विहितस्य म्यादेशस्य स्थाने हंवा प्रयोक्तव्यः । काहं । दाहं । करिष्यामि । दास्यामीत्यर्थः । पक्षे कादिमि । दाहिमि । इत्यादि ।
अधुना धात्वादेशाः प्रदश्यन्तेभुवेहो-हुव-हवाः । ८।४। ६० । भुवोधाता), हुव, हव इत्येते आदेशा वा भवन्ति(१) । होइ । होन्ति । हुवइ । हुवन्ति । हवइ । हवन्ति । पर्छ। भवइ । परिहीण विहवो । क्वचिदन्यदपि । उन्भुअइ । भत्तं । भुत्तं । अवितिहुः । ८४।६१॥ विद्वर्जे प्रत्यये भुवो हु इत्यादेशो वा भवति। हुन्ति । भवन् (भुवन्) हुन्तो । अवितीति किम् । होइ । पृथक् स्पष्टे णिव्वडः । ८।४।६२॥ स्थक् भूते स्पष्टे च कर्तरि भुवो णिव्वड इत्यादेशो भवति । णिव्वड । पृथक् स्पष्टो वा भवतीत्यर्थः ।
प्रभो हुप्पो वा । ८।४।६३॥ प्रभुकर्तृकस्य भुवो हुप्प इत्यादेशो वा भवति । प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्यै वार्थः । अङ्गच्चिअ न पहुप्पा । पक्षे पभवेइ ।
सम्भावे रासङ्घः ॥ ३५ ॥ आसवइ । सम्भावई। कथे बजर-पजर-उप्पाल-पिसुण-सड-बोल्ल-चव-जम्पसीस-साहाः ॥ ८॥२॥
वजरइ । पजरइ । उप्पालइ । पिसुणइ । सबइ। वोल्लह । च. घर। जम्पद । सीसइ । साहइ । पक्षे कहइ ।
एते चाऽन्यैर्देशीषु पठिता अपि अत्र धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययषु प्रतिष्ठन्तामिति-तथाच-वजरिओ, कथितः । वज्जरि. ऊण, कथयित्वा । वज्जरणं, कथनम् । वज्जरन्तो, कथयन् । वज्जरिअव्वं, कथयितव्यम् । इतिरूपसहस्त्राणि सियन्ति । संस्कृत धातुवच्च प्रत्यय लोपागमादिविधिः (२)
(१) 'भवते हों, हुवौ स्याताम्' इति प्राकृत सर्वस्वम् । (२) 'शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति'इति हेमः।
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अष्टमः परिच्छेदः।
दुःखे णिव्वरः॥३॥ णिव्वरइ । दुःखं कथयतीत्यर्थः । जुगुप्से झुण-दुगुच्छ-दुगुञ्छाः ॥ ४ ॥
झुणइ । दुगुच्छइ । दुगुञ्छइ । पक्षे जुगुच्छइ । गलोपे दुउच्छइदुउञ्छइ । जुउच्छइ ।
बुभुक्षि-वीज्यो ी रव-वोज्जौ ॥ ५॥
बुभुक्षे राचारक्विवन्तस्य च वीजेः ॥ णीरवइ । बुभुक्खा । घोज्जइ । वीजइ ॥
उदो ध्मो धुमा ॥८॥ उधुमाइ। श्रदो धो दहः ॥९॥ सहहइ । सद्दहमाणो जीवो। पिवेः पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोहाः ॥ १० ॥ पिज्जइ । डल्लइ । पट्टइ । घोट्ट । पक्षे पिअइ । उद्वाते रोरुम्मा वसुआ ॥ ११ ॥ आरुम्माइ । वसुआइ । उव्वाइ। निद्राते रोहीरोङन ॥ १२॥ ओहीरइ । उइ । निदाइ । आधे राइग्घः ॥ १३॥ आइग्वइ । अग्घाइ । आजिघ्रतीत्यर्थः । स्नाते रभुत्तः ॥ १४॥ अभुत्तइ । पहाइ। समः स्त्यः खाः॥ १५ ॥ संखाइ। स्थष्ठा-थक-चिट्ठ निरप्पाः ॥ १६ ॥ ठाइ । ठाअइ । ठाणं । पहिओ । उहिओ। पठ्ठाविओ । उहाविओ।
थक्कइ । चिट्टइ । चिट्ठिऊण । निरप्पा । वहुलाधिकारात्वचिन्न । भवति । थिअं । थाणं । पत्थिओ । उत्थिओ । थाऊ ।
उदष्ठ-कुक्कुरौ ॥ १७ ॥ उठछ । उकुक्कुरइ ।
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प्राकृतप्रकाशे
म्ले -पवायौ ॥ १८ ॥ वाइ । पवायइ । मिलाइ । म्लायत इत्यर्थ ॥ निर्मो निम्माण-निम्मावौ ॥ १९ ॥ निम्माणइ । निम्मवइ ।
क्षणिज्झरोवा ॥२०॥ णिज्झरइ । पक्षे झिज्जद । छदेणेणु-नृम-सन्नुम-ढकौम्बाल-पव्यालाः ॥ २१ ॥
णुमइ । नूमइ । णत्वे णूमइ । ढकइ । ओम्बालइ । पव्वालइ । छाय॥
निविपत्यो र्णिहोडः ॥ २२॥ निवृषः पतेश्च ण्यन्तस्य । णिहोडइ । पक्षे । निवारेइ । पाडेइ ॥ धवले र्दुमः ॥ २४॥
ण्यन्तस्य । दुमा । धवलइ । दीर्घत्वमपि(१) । दूमिअं । धर्व लितमित्यर्थः॥
तुलेरोहामः॥ २५ ॥ ण्यन्तस्य । ओहामइ । तुलइ ॥ मिश्रींसाल-मेलवौ ॥२८॥ ण्यन्तस्य । वासालइ । मेलवह । मिस्सह ॥ भ्रमेस्तालिअण्ठ-तमाडौ॥३०॥
ण्यन्तस्य ॥ तालिअण्टइ । तमाडइ । भामेइ । भमाडेइ । भ. मावे॥
दृशेव-दस-दखवाः ॥ ३२ ॥ ण्यन्तस्य । दावइ । दंसह । दक्खवह । दरिसह ॥ स्पृहः सिहः ॥ ३४॥ ण्यन्तस्य । सिहए। यापे जवः॥४०॥ जवइ । जावेद ॥ प्लावे रोम्बालावालौ॥४१॥ ण्यन्तस्य ओम्बालइ । पव्वालइ । पाघेइ । विकोशेः पक्खोडः ॥ ४२ ॥ (१) 'स्वरणां स्वराः' इति वाहुलका इति भावः ॥
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अष्टमः परिच्छेदः ।
ण्यन्तस्य । पक्खोडइ । विकोसइ |
रोमन्थे रोगाल रंगोली ॥ ४३ ॥
नामधातोर्ण्यन्तस्य । अंग्गालइ । वग्गोल | रोमन्थइ ।
दोले रङ्खोलः ॥ ४८ ॥ स्वार्थे ण्यन्तस्य । रङ्खोलइ । दोलइ |
वेष्टेः परिआलः ॥ ५१ ॥ ण्यन्तस्य । परिआलेइ | वेढेइ ।
क्रियः किणो वस्तु च ॥ ५२ ॥ fers | विक्कs | विकिपर ।
भियां भा-वीहो ॥ ५३ ॥
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भाइ | भाइअं | वीहइ । वीहि । बहुलाधिकाराह । भीओ ॥ भालीङोऽल्ली ॥ ५४ ॥
अल्लियइ । (अल्ली अइ) अलीणो ।
निलीङ णिलीअ - णिलुक - णिरिग्घ-लुक- लिक्क हिक्काः ॥५५॥ णिली अइ । णिलुक्कइ । णिरिग्घर | लुक्कर | लिक्कइ | ल्हिकइ | निलिज्जइ । (णिलिजइ)
विली विरा ॥ ५६ ॥
विराइ | विलिजइ ।
रुते रुञ्ज - सण्टो ॥ ५७ ॥
संतेः । रुञ्जइ । रुण्टइ | रवइ ।
शुटेर्हणः ॥ ५८ ॥
हणइ | सुणइ ॥ धूञे धुवः ॥ ५९ ॥
धुवइ | धुणइ ॥
काणेोचिताणआर ॥ ६६ ॥
१११
काणेक्षित विषयस्य कृञो णिआर इत्यादशी वा भवति । णिआरइ । काणेक्षितं करोति ॥
कृञः कुणः ॥ ६० ॥
कुणइ | करइ ॥ श्रमे वावम्फः ॥ ६८ ॥
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प्राकृतप्रकाशे
वावम्फा । श्रमंकरोति ॥ मन्युनौष्ठमालिन्येणिव्वोलः ॥ ६९ ॥ गिबोलई । मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति ।
शैथिल्यलम्बने पयल्लः ॥ ७० ॥ पयल्लइ । शिथिली भवति । लम्बते वा। क्षुरेकम्मः ॥ ७२ ॥ कम्मइ । क्षुरं करोतीत्यर्थः ॥ चाटौ गुललः ॥ ७३ ॥ गुललइ । चाटुकरोतीत्यर्थः । निष्पतनविषयस्य तु णीलुञ्छ । स्मरेझर-झूर-भल लठ-विम्हर-सुमर-पपर वम्हुहाः ॥ ७४ ॥
झरइ । झूगइ । भरइ । भलइ । लठइ । विम्हरइ । सुमरइ । पयरइ । पम्हुहइ । सरइ ॥
चिपूर्वकस्य तु पम्हुसइ । विम्हरह । वीसरह ।। व्याहः कोक्कापक्की ॥ ७६ ॥ कोक्का । इस्वत्वे तु कुक्का । पाका । पक्ष वाहरइ ।। प्रसरेः पयल्लोवल्लौ ॥ ७७ ॥ पयल्लइ । उवेल्लइ । पसरइ । गन्धविषये तु महमहइ मालई । मालई गन्धो पसरह ॥ जाग्रे जग्गः ।। ८०॥ जग्गइ ! पक्षे । जागरइ ॥ व्याप्रेराअडुः ॥ ८१ ॥ आअहुइ । वावरेइ॥ आहङः सन्नामः ॥ ८३॥ सन्नामइ । आदरइ॥ अवतरतेस्तु ओहइ । ओरसइ । ओअरह ॥ पचेः सोल्ल पहल्लौ ॥ ९०॥ सोल्लइ । पउल्लइ । पयः॥ मुचेश्च-छड्डइ । अवहेडइ । मेल्लइ । उस्सिका । रेअवइ । णिलुछइ । धंसाडइ । पक्षे । मुअइ ॥
दुःखेः णिव्वलः ॥९२ ॥ णिवलेइ । दुःखं मुञ्चतीत्यर्थः ॥
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अष्टमः परिच्छेदः ।
११३
वञ्चे स्तु-वेहवइ । वेलवइ जूरवइ । उमच्छ । वश्चइ ॥ सिञ्चेश्व-सिञ्चइ । सिम्पइ । सेअइ॥ गर्जेधुंकः ।। ९८ ॥ बुक्कइ । गजइ । वृष ढकः ॥ ९९ ॥ ढिका । वृषभोगर्जतीत्यर्थः । राजेः रग्घ-छ ज-लह-रीर-रेहाः ॥ १००॥ अग्घद । इत्यादि ॥
मस्जे राउड्ड-णि उडु-शुद्ध-खुपाः ॥ १०१ ॥ आउड्डइ । इत्यादि। पक्षे । सजइ॥
पुओसरोल वमालो ।। १०२ ॥ आरोलइ । इत्यादि । तिजेरोसुकः ॥ १०४ ॥ ओलुवाद ।।
मृजे साघुस-लु - छ-धूम-:-पुस-सुह-सुल--रोसाणाः ॥ १०५ ॥ उग्घुसइ । इत्यादि । पक्ष । मजद।
भने र्वमय-मसुर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्ज-करञ्ज-नीरजाः ॥ १०६॥ वेमयइ इत्यादि पशे-भाइ। अत्रजेस्तु पडि अम्गाद। अणुकच्चइ ॥
युजो जुन-जुज-जपाः ॥ १०९ ॥ जुाद । इत्यादि ॥
भने भुज-जिग-जेल-कलापह-समाण-चम-वाः ॥११०॥ गुज । ३ दि उन युक्तस्य तु कम्मवइ । उपलुसर ॥ घटे। गढ । घडइ । सम्पूर्वस्य तु सङ्गलइ । सडइ ॥
हासेन स्फुरे मुरः ॥ ११४ ॥ मुरइ । हासेन स्फुटतीत्यर्थः ॥
तुडे स्ताड-तुझ खुः-खुद-उलुङ-उल्लुक-णिलुक-लुकउल्लूराः ॥ ११६ ॥ ताडद इत्यादि । पक्ष तुडद॥
धू! घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः ॥ ११७ ॥ घुलइ इत्यादि । ग्रन्थेः- गण्ठइ । गण्ठी ॥
मन्थे घुसल-विरोलौ ॥१२१॥ पक्षे मन्थह ॥ हादेः-अवअच्छद । हादते । हादयति वा ॥ खिद्यते-जूरइ । विसूरह । रिवज ॥
नेः सदो मजः ॥ १२३ ॥ निपूर्वस्य सदो मज इत्यादेशो भवति । अत्ता एत्थ णुमजइ॥हे.
छिदे र्दुहाव-णिछल-णिझोड-णिबर-णिल्लूर-लूराः ॥ १२४॥ दुहावइ । इत्यादि । पक्ष। छिन्दइ ।। आङ् पूर्वस्य तु ओअन्दइ । उद्दालइ॥
मृदो मल-मढ-परिहद-खड्डु-चड-मड-पन्नाडाः ॥१२६॥ मल।। इत्यादि ॥ स्पन्देः-चुलुचुलइ । पन्दइ । विसंवदेः-विअट्टइ । विलो.
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प्राकृतप्रकाशे
दृइ । फतह । विसंवयइ ॥ शीयतेः-झडइ । पश्खोडद ॥ आक्रन्देःणीअहरइ । अक्कन्दइ ॥ खिद्यतेः-जूरह । विसूरइ । खिजाइ ॥
रुधे रुत्थङ्गः ॥ १३३ ॥ उत्थवइ । रुन्धइ ॥ निषेधतेः-हकाइ । निसहइ ॥ तने-तडइ । तडुइ। तडवइ । विरल्लइ । तणइ ॥ उपसर्पःअल्लि अइ । उपसप्प ॥ __ संतपे झटः ॥१४०॥ झाइ । पक्षे । संतप्पा ॥ ओअग्गइ । वावेइ । व्याप्नोतीत्यर्थः॥
क्षिपेलत्थ-अडुक्ख-साल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल-परीघत्ताः ॥ १४३ ।। गलत्थइ । परीइ । इत्यादि । पक्षे । खिव ॥
उत्क्षिपे गुलगुञ्छ-उत्थ-अलुत्थ-अभुत-उस्तिक-हकखुवाः॥ १४४॥ आक्षिपे स्तु-णीरवइ । दिखबइ ।
स्वपः कमवस-लिस-लोट्टाः ॥१४६ ॥ पक्षे सुअइ ॥ वेपेःआयम्वइ । आयज्झइ । वेव ॥ विलपझंड-वडवडी ॥१४८॥ पक्षे विलवइ ॥ कृपः-अवहावेइ । कृपांकरोतीत्यर्थः ॥
प्रदीप स्तेअव-सन्दुम-सन्धुक-अभुत्ताः ॥ १५२ ॥ तेअवइ । इत्यादि । पक्षे । पलीव ॥ लुभेः-सम्भावइ । लुब्भइ ॥ क्षुभेःखउरइ । पड्डुहइ । खुभइ । उपालम्भे झङ्ख-पच्चार-वेलवाः ॥१६॥ पक्षे उवालम्भइ ॥ अवे जम्भो जम्भा ॥ १५७ ॥ जम्भे जम्भा इत्या. देशो भवति । वस्तु न भवति । जम्भाइ । जम्भाअइ । अवेरितिकिम् । केलि-पसरो विअम्भइ ॥ नमः-णिसुठइ । भाराकान्तो नमतीत्यर्थः ॥ मण्डे:-चिश्चइ । चिञ्चिअइ । चिञ्चिल्लइ । रीडइ। टिवि. डिकइ । मण्डइ ॥
विश्राम्यतेः-णिव्वाइ । वीसमइ ॥ आक्रमतेः-ओहावइ । उत्थारइ । छुन्दइ । अकमइ ॥
भ्रमेष्टिरिटिल्ल-दुदुल्ल ढण्ढल्ल-चकम्म-भम्मड-भमड-भभाड-त. लअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी-पराः॥१६॥ . भ्रमे रेते ऽष्टादशादेशा वा भवन्ति ॥ टिरािटल्लइ । इत्यादि । पक्षे । भमइ।।
गमे रई-अइच्छ-अणुवज-अवजस-उक्कुस-अक्कुस-पञ्चहुपच्छन्द-णिम्मह-णी-णीण-णीलुक-पदअ-रम्भ-परिअल्ल-वोल-4. रिअल-णिरिणास-णिवह-अवसह-अवहराः॥ १६२ ॥
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अष्टमः परिच्छेदः।
११५
गमे रेते एक विंशति रादेशा वा भवन्ति । अईइ । णी। इ. त्यादि। पक्षे गच्छइ ॥ हम्मइ । णिहम्मइ । णीहम्मद । आहम्मद । पहम्मइ । इत्येते तु हम्म गती वित्यस्यैव भविष्यन्ति ॥ हे ० । आइ पूर्वकस्य गमेः अहिपञ्चुअइ ॥ सम्युक्तस्य-अभिहुइ ॥ अम्याङ् पूर्वस्थ-उम्मथइ । अभि मुख मागच्छतीत्यर्थः ॥ प्रत्याङ् पूर्वस्यपलोहइ ॥ प्रत्यागच्छतीत्यर्थः ।।
शमेः-पडिसाइ । पडिसामइ । समइ ॥
रमेः संखुट्ट-खेड्ड उम्भाव-किलिकिञ्च-कोटुम-मोट्टाय-णीस. र-रेल्लाः ॥ १६८ ॥ संखुड्डछ । इत्यादि । पक्षे रम ॥
पूरे-रग्घाड-अग्धव-उधुम-अङ्गम-अहिरेमाः ॥ १६९ ॥
अग्घाडइ। इत्यादि । पक्षे पूरइ । पूरयतीत्यर्थः ॥ त्वरतेः-जअडइ । इत्यधिकः॥ क्षरः खिर-झर-पज्झर-पड-णिच्चल-
णिआः। १७३॥ खिरइ । इत्यादि ॥ उच्छलतेः-उत्थलइ॥ विगलेः थिप्पड ॥ दले विसद ॥ वले वस्फइ ॥ पक्षे । विगलइ । दलइ । बलइ॥
भ्रंशेः फिड-फिट्ट-फुड-फुट्ट-चुक्क-भुल्लाः ॥ १७७ ॥ फिड । इत्यादि । पक्षे भसइ ॥ नशेर्णिरनास-णिवह-अवरोह-पडिसा-सेहावहराः ॥ १७८ ॥
पक्षे नस्सइ ॥ संदिशतेः-अथाहइ । संदिसइ । अवात्काशः-ओ. वास।
दृशो निअच्छ-पेच्छ-अवयच्छ-अवयज्झ-बज्ज-सव्यव-देवखं. ओअख-अबक्ख-अब अक्खइ-पुलोअ (पुलाए ) निअ-अव आसपासाः ॥१८१॥ निअच्छइ । इत्यादि । निझाअइ इति तु निध्यायतेः।
स्पृशः फास-फल-फरिस-छिव-द्विह-आलुख-आलिहाः॥१८२॥
फासइ । इत्यादि । प्रविशः-रिअइ । पविशद ॥ प्रमृशतेः प्रमुष्णाते श्च-पम्हसा ॥
पिषे णिवह-णिरिणास-णिरिणज-रोञ्च-चडः॥ १८५ ॥ णिवहा । इत्यादि । पक्षे। पीसइ ॥भषेः-भुकाइ । भलइ॥ कृषः कढ़-साअद-अञ्च-अणच्छ-अयञ्छ-आइञ्छाः ॥ १८७॥
कडुइ । इत्यादि । पक्षे करिसइ ॥ आस विषयस्य तु अक्खोडइ (अश्खोड) असिं कोशात्कर्षतीत्यर्थः॥
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प्राकृतप्रकाशे
गषेष टुंण्डुल-ढण्ढोल-गमेस-घत्ताः ॥ १८९ ॥ ढुण्दुल्लइ । इत्यादि । पक्षे। गवसइ ।
शिलष्यतेः-सामग्गइ । अवयासइ । परिअन्तइ । सिलेसइ॥ म्रक्षेः-चोप्पडइ । मरख। ।। काले राह-आंहेलङ्घ-अहिलस-वच-वम्फ~-मह-सिहविलुम्पाः ( विलुम्फाः ) ॥ १९२ ॥ आहइ । इत्यादि । पक्षे । कसद ॥
प्रतीक्षः सामय-विहीर-विरमालाः ॥ १९३ ।। सामयइ । इत्या. दि। पक्षे पडिदखइ॥
तक्षे स्तच्छ-चच्छ-रम्फाः ॥ १९४ ॥ तच्छइ । इत्यादि । पक्षे। तक्खइ ॥ विकलेः-कोआसइ । वोसह । विअसइ ॥ हसे:-गुञ्जह। हसइ ॥ संसेः-ल्हसइ । परिल्ह सइ सलिलचसणं । हे० । डिम्भइ-संसइ॥
सेर्डर-वोज-वजाः ॥ १९८ ॥ डरइ । इत्यादि । पक्षे । तसइ । न्यसो णिम-गुगौ ॥ ११९ ॥ णिमइ । णुतइ ॥ पर्यसस्तु-पलोदृ । पट । पलहत्थइ ॥ निश्चलेः-शाद। नीसह ॥
उल्लसे रूसल-ऊतुम्भ-मिल्लल-गुलआल----गुचोल्ल-आरोआः ॥ २०२ ॥ ऊसलइ । गुल्ल३ । ह्रस्वत्व-गुजुलुइ । इत्याहि । पक्षे। उल्लसइ ॥ भाले:-भिसइ । भासद ॥ ग्रसश्च-घिसइ । गसइ ॥ ओवाहइ। ओगाहइ । अवगाहत इत्यर्थः ॥ आरोहतेः-च. डई । बलगइ । आरुहइ ॥ मुहे गुम्म-गुमगडौ । २०७॥ पक्षे मुझ॥
दहे रहिऊल-आलुचौ ॥ २०८ ॥ पक्षे डहाइ॥
ग्रहो वल-गेण्ह-हर-पङ्ग-निरुवार-अहिपच्चुआः ॥२०९ ॥ वलइ । गण्हइ । गिण्हइ, इत्यादि ॥
वचो वात् ॥ २११॥ का तुमुन् तव्येषु ॥वोत्तण ।वोत्तं।वोत्तव्यं ॥ दृश स्तन ः ॥ २१३ ॥ दृशोऽन्त्यस्य तकारण सह द्विरुक्त कारो भवति ॥ दळूण । दछु । देब्वं ॥
आः कृगो(१) भूत-भविष्यतोश्र ॥ २१४ ॥ काहीअ । काहिह । काऊग । काउं । कायव्य ॥
छिदि-भिन्दोन्दः ॥ २१६ ॥ छिन्दइ । भिन्दइ ॥ (१) कृत्रः संज्ञेयम् ।
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अष्टमः परिच्छेदः।
११७
युध-बुध-गृध- क्रुध-सिध-मुहांज्झः ॥ २१७ ॥ जुज्झइ । बुज्झइ गिज्झइ । कुन्झइ । सिज्झइ । मुज्झइ ॥
समो लः ॥ २२२ ॥ स पूर्वस्य वेष्टते रन्त्यस्य द्विरुक्तोलो भवति । सवेल्लइ ॥
वोदः ॥ २२३ ॥ उदः परस्य तु वा भवति ॥ उज्वेल्लइ । उव्वेढइ॥
उवर्णस्यावः ॥ २३३ ॥ धातो न्रयस्योवर्णस्य अबादेशो वा भवति ॥ हुङ् । निण्हवइ॥ हु। निइवइ ॥ च्यु । च्युवइ ।। रु । रवइ ॥ कु । कवइ ॥ सू । सवइ । पसवइ ॥
स्वराणां स्वराः ॥ २३८ ॥
धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा वहुलं भवन्ति ॥ हवइ । हिवद ॥ चिणइ । चुणइ ॥ सहहणं । सहहाणं॥ धावइ । घुवइ॥ रुवइ । रोवइ ।। कचिनित्यम् । देइ । लइ । विहेइ । नासइ ॥ आर्षे । वेमि ॥
व्यञ्जनाददन्ते ॥ २३९ ॥ व्यञ्जनान्ताद्धातो रन्ते अकारो भवति । भमद । इलइ । कुगइ । चुम्बइ। भणः । उवसमाइ । पावइ । सिञ्चइ । रुन्धइ । मुसइ । हरइ । करइ । शवादीनां प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥
स्वरादनतो वा ॥ २४० ॥ अकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातो रन्ते अकारागमो वा भवति ॥ पाइ। पाअ । धाइ। धाअइ ॥ जाइ । जाअइ || झाइ झाइ ॥ जम्भाइ । जम्माअइ॥ उम्वाइ उव्वाअइ । मिलाइ । मिलाअइ । विक्के । विकेअइ ॥ होऊण । होअऊण (हाइऊण) अनत इतिकिम् । चिइच्छइ । हुगुच्छद्र ॥
जानातेः कर्मभावे-णध्वइ । ण । पक्षे जाणिजइ मुणिजइ ॥ णाइजइ ॥ नञ् पूर्वकस्य-अणाइज ॥ व्याहाः कर्मभावे-वाहिप्पइ । वाहरिजइ ॥ आरभेः कर्मणि-आढप्पइ, आढवीअइ॥ स्निह, सिचोः कर्मणि-सिप्पड ॥ ग्रहेः कर्मणि-घेप्पइ । गिहिजइ ॥स्पृशेः कर्मणिःछिप्पइ । छिविजय ॥
जीहइ । लजइ । लजत इत्यर्थः ॥ विरेचयतेः-ओलुण्डइ । उल्लुण्डइ । पल्हत्थइ । विरेअइ ॥ ताडयतेः-आहोडइ । विहोडइपक्षे-ताडेइ । उद्धृलयतेः-गुण्ठइ । उद्धृलेइ ।। नाशयतेः-विउडइ । नासवइ । हारवइ । विगालइ । पलावइ । नासइ ॥ उत्पूर्वस्य घटे य॑न्तस्य-उग्गइ। उग्घाड ॥ सम्भावयते:-आसवइ । सम्भावः ॥ उत्थवद । उल्लालइ । गुलगुञ्छइ । उप्पेलइ । उन्नावइ । उत्पूर्वस्य
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११८
प्राकृतप्रकाशे
नमे य॑न्तस्यैते प्रयोगाः॥
पटवइ । पेण्डवइ । पहावइ । प्रस्थापयतीत्यर्थः ।
अर्पयते:-अल्लिवइ । चस्चुप्पड । पणामइ । अप्पेइ ॥ कमेः प्रयोगौ ॥ णिहुवइ-कामेइ । इति ॥ ___ प्रकाशयतेः-णुबइ । पयालेइ ॥ विच्छोलइ । कम्पेइ । कम्प. यतीत्यर्थः ॥ आरुहे पर्यत्तस्य-वलइ । आरोवेइ ॥रले पर्यन्तस्यरावेइ । रओइ ॥ घटयते:-परिवाडेइ । घडे ॥ रचयतेः-उग्गहइ । अवहइ । विडविडुइ । रयइ ॥ सम्पूर्वस्य तस्य-उवहत्थइ । सारवड । समारइ । केलायइ । समारयइ ।।
अफुण्णादयः शब्दा स्क्तेन सह निपात्यन्ते तद्यथा___ अफुण्णो । आक्रान्तः ॥ उक्कोसं । उत्कृष्टम् ॥ फुडं । स्पष्टम् ॥ वोलीणो। अतिक्रान्तः॥ लग्गो। रुग्णाः ॥ विढत्त । वेढतं । अर्जि. तम् ॥ निमि। स्थापितम् ॥ चक्खि । आस्वादितम् ॥ हीसमणं । हषितम् । इत्यादि ॥
धातवो ऽर्थान्तरेऽपि ॥ २५९ ॥
उक्तादर्था दर्थान्तरेऽपि धातयो वर्तन्ते ॥ वलिंः प्राणने पठितः, खादनेऽपि वर्तते । बलइ । खादति, प्राणनं करोति वा ॥ एवम् फलिः संख्याने, सज्ञानेऽपि । कलइ। जानाति, संख्यानं करोति वा ॥ रिगि गतौ, प्रवेशेऽपि । रिगइ । (रिग्गइ, रिंगइ) प्रविशति, गच्छति वा । काङ्गते म्फ आदेशः प्राकृते । वम्फइ । अस्यार्थः । इच्छति, (पृच्छति) खादति वा । फकते स्थक आदेशः । थका। नीचा गात करोति, विस्चयति वा ॥ विलप्युपालम्यो झड आदशः । झाइ । विल पति, उपालभते, भाषते वा ॥ एवं पडिवालइ । प्रतीक्षते,रक्षति वा ॥ केचित् कैश्चिदुएसगै नित्यम् । हरइ । युध्यते ।। सहरइ । संवृणोति ॥ अणुइरइ । सदृशीभवति ॥नीहरइ । पुरायोत्सर्गकरोति ॥ विहरइ । क्रोडति ॥ आहारइ । खादात ।। पडिहरइ । पुनः पूरयति ॥ परिहरइ । त्यजाते ॥ उवहरइ । पूजयति ॥ वाहरइ । आव्हयति ॥ पवसइ । दशान्तरं गच्छति ॥ उच्चुपइ । चटति ॥ उल्लुहइ । निःसरति ॥ इति(२) ॥ प्रयोऽत्र हेमानुसार्यादेशाना मुल्लेखः ॥
(१) अत्र सूत्र संख्या हेमचन्द्राभिधस्य शब्दानुशासनस्य परिशिष्टरूपस्याऽष्टमाध्यायस्थ चतुर्थ पदान्तर्गताऽवगन्तव्या ॥
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नयमः परिच्छेदः।
Taapsong
अथ नवमः परिच्छेदः ।
निपताः ॥ १ ॥ अधिकारोऽयम् । वक्ष्यमाणा निपातसंज्ञका वेदितव्याः । संस्कृतानुसारेण निपातकार्य वक्तव्यम् ॥ १ ॥
हुं दानपृच्छानिर्धारणेषु ॥ २ ॥ हुँ इत्ययं शब्दो दानपृच्छानिर्धारणेष्व निपासंज्ञो भ. वति। दाने यथा, हुं गेण्ड अप्पणो जीअं । (नेह ८-१५० स० अपणो ५-५५ मू० स्प० जीअं २-२ । ४-५ मू० म० शे० सुगा) पृच्छायाम हुँ, कहि साहुसु सबमात्र । (कहि इति १२--३ शौरसेन्यायच ७-१८ विध्यादायकत्वे सिप-सुकृते(१)७-३४ लादेशे सति एत्वं । मध्यमे २-२७५- २-४३ ष-स् । अन्त्ये ३-२ दलोपः ३-५० भद्रि० ३-५१ भूप्राय इति २-२ बलोपोन ५-३ अमोऽकारलोपः ४-१२ मवि०) निर्धारणे, हुं हुवस्तु तुण्डिको (८-१ भू-हुब ७-१८ सिप्सु । अन्त्यः ३-५८ सू० द्रष्टव्यः) हुं गृहाणातगनो जीवम् । हूं कथय साधुषु सद्भावम् । हुं भव तूष्णीकः ॥ २ ॥
विअ अ अवधारणे(२) ॥ ३ ॥ विअ, वेभ इत्येताववधारणे निपातसंज्ञौ भवतः । एवं विभ। एवं वेअ । (एवं संस्कृतसमः शे० स्प०) एत्रमेव ॥ ३ ॥
(१) “सोहिर्वा" ८।३। १७४ हेम० सू० सोहिः। (२) विअ चेअ चिाहं चित्र, तुमंचि। अहमेव-त्वमेव । का०पा०
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१२०
प्राकृतप्रकाशे ओ सूचनापश्चात्तापविकल्पेषु ॥ ४ ॥ ओ इत्ययं शब्दः सूचनापश्चात्तापविकल्पेषु निपातसंज्ञो भ. वति । ओ चिरअसि । (२-२ यलोप ७-२ सि) गाथामु द्रव्य व्यः ॥४॥
इरकिरकिला अनिश्चिताख्याने ॥ ५ ॥ इर, किर, किल इयेते शब्दा अनिश्चिताख्याने निपातसंज्ञका भवन्ति । पेक्ख इर तेण हदो (आदिमः ६-५१ मू० द्रष्टव्यः । तेण ४-६ तदोन्यलोपः ५-१२ एत्वं ५-४ टा=ण(१) । अन्त्यः ४-६ हनोऽन्त्यलोपः १२-३ त-द ५-१ ओ) अज किर तेण वसिओ । (व्यवसित इत्यत्र ३-२ यलोपः प्राय इति २-२ बलोपो न २-२ तलोपः ५-१ ओशो० स्प०) अअं किल सिविणओ (२-२ यलोप ४-१२ मा शे० स्प० । अन्यं १-६ मृ० द्रष्टव्यं) । प्रेक्षस्व किल रोन हतः । अद्य किल तेन व्यवसितः । अयं किल स्वप्नः ॥ ५ ॥
हुँ क्खु निश्चयक्तिकसम्भावनेषु ॥ ६ ॥ __ हुं, क्खु इसेतो निश्चयवितर्कसम्भावनेषु निपातसंज्ञको भवतः। हुँ रक्खसो । (हुं स्प० ३-२९ क्ष-ख ३-५० खद्वि० ३-५१ व-क् ४-१ इस्वः ५-१ ओ) गुरुओ क्खु भारो (५-१ आत्वम् अन्यत्स्पष्टम)। हुं राक्षसः । गुरुः खलु भारः ॥ ६ ॥
‘णवरः केवले ॥ ७॥ णवरः इत्यय शब्द: केवलेर्थे निपातसंज्ञो भवति । णवर अ. णं (अन्न शब्दस्य २-४२ नग ४-१२ मवि०(२) ॥ ७ ॥ (१) तेनेत्यत्र २-४२ इति णत्व मात्रमिति केचित् ।
(२) केवलमन्नमित्यर्थः । केचित्तु अन्य, शब्दस्य ३-२ यलो. पः २-४२ न=ण ३-५० णद्वि० शे० पू०)
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भवमः परिच्छेदः।
आनन्तर्ये वरि ॥ ८॥ गरि इसयं शब्द आनन्तर्ये निपातसंज्ञो भवति । णवरि (स्पष्ट) ।। ८॥ .
किणो प्रश्न(१)॥१॥ किणो इसयं शनः प्रश्ने निपातसंज्ञो भवति । किणो धु. बसि (८-५७ य-व्च ७-२ थाम-सि) किणो हससि । (किणो सप० ७-२ सिप-सि) किन्नु धूयसे । किन्तु हससि ॥ ९ ॥
अब्बो(२) दुःखसूचनासंभावनेषु ॥ १० ॥
अब्बो इत्ययं शब्दो दुःख सूचनासम्भावनेवु निपातसंज्ञो भव ति । दुःखे, अब्बो कज्जलरसरंजिएहिं अच्छीहि(३) (अब्बो १० कजलरसेति संस्कृतसमः शब्दः-रजितेयस्य २-२तलोपः५-१२ अ-ए ५-५ भिम् हि । अन्त्ये २-३० क्ष-छ ३-५० क्ष द्व० ३-५१ च-छ् ४-२० स्त्रीत्वेई ५-५ भिम् हिं) । सूचनायाम्, अन्वो अबरं विअ । (२-२५ प ५-३ अमो. Sकारलोपः। ४-१२ मवि० ०९-३ मू० स्प०) सम्भावने, अब्बो णमित्र अत्तुं । (३-१ दलोपः ३-५० तद्वि० ४-१२ मवि०) अहो कज्जलरसरभिताभ्यामक्षिभ्याम् । अहो अपरमिव । अहो एनमिवात्तुम् ॥ १० ॥
___ अलाहि निवारणे ॥ ११ ॥ अलाहि इसयं शब्दो निवारणे निपातसंज्ञो भवति । अ. लाहि कलहलेसेण । अलाहि कलहबन्धेण । (सस्कृतसमौ
(१) किणो कीस किमु परिप्रश्ने । का० पा० (२) अद्यो अब्बो, वो। अथो दुःखसूचना भाषणेषु । का पा० (३) प्राकृते द्विवचनाभावात् वहुवचनम् ।।
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१२२
प्राकृतप्रकाशे कलहो बन्धश्च २-४३ श्-स् ५-४ टा=ण ५-१२ ए शे०५०) अलं कलहलेशेन । अलं कलहबन्धेन ॥ ११ ॥
अइ बलेसंभाषणं ॥ १२ ॥ अइ, वले इयतौ शब्दौ निपातसज्ञको भरतः । अइ मुलं पसूमइ (अइ १० मूलं संकृतसमः शे० ३-३ रलोपः २-४३ श, षस ३-२ यलोपः ८-४६ उदीर्घः ७-३१ ति=इ) वले किं कलेमि । (वलेस्प० किं संस्कृतसमः ६) २-२ यलोपः ७-२ सिप-सि ७-३४ एवंकले श० स्प०) अबले अपि मुलं पशुपति । वले किं कलयसि अबले ॥ १२ ॥
णवि वैपरीत्ये ॥ १३ ॥ णषि इत्ययं शब्दो वैपरीसे निपातसंज्ञो भवति । वि तह पहसइ बाला । (नह १-१० मू० स०३-३ रलोप:७-१ति-इ वाला इति संस्कृतममः) विपरीत तथा प्रहसति वाला ॥ १३ ।।
म कुत्सायाम् ॥ १४ ॥ म् इत्ययं शब्दः कुत्मायां -निपातसंज्ञो भवति । स सिविणो । (मिविणो १-३ सू० प०) धिक् सप्तः ।। १४ ।।
रे अरे हिरे संभाषणरतिकलहाक्षेपेषु ॥ १५ ॥
रे, अरे, हिरे इत्येते शब्दाः सम्भाषण, रति, कलहा, क्षेपेषु निपातसंज्ञा भवन्ति यथासंख्या । रे मा कहि । णाओसि अरे। दिट्ठोसि हिरे (रेस्प० संस्कृतसमो मा शब्द, १२-१५कृञ्-कर ७-३४ एवं १२-२७ ३ पदं, संस्कृतवत् लोटः से हिः । (२-४२ =ण २-२ ७-६ स्प० सि, | अरे १०) (१-१८ ऋ-३३-१० - ३-५० ठांद्र० ३-५१ ठ-ट ५-१ ओ)। रे मा कुरुप्प । नागोसि अरे । दृष्टोऽसि हिरे ॥१५॥
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दशमः परिच्छेदः ।
मिवमिवविआ इवार्थे ॥ १६ ॥
म्मित्र, मन, विअ, इसेते शब्दा इवार्थे निपातसज्ञका भवन्ति । गअणं मित्र - अणं मित्र - अनं त्रिअ कसणं (२-२ गलो |ः २-४२ नू= ५ - ३० वि० ) अन्त्ये ३ - ६१ वर्णे नित्यं वित्रकर्षः । पूर्वस्य तत्स्वरता च ) । गगनमित्र कृष्णम || १६ || अज आमन्त्रणे ।। १७ ।।
अज्ज इत्ययं शब्द आमन्त्रणे निपात्यते । अज्ज महाणुभाव किं करेसि (अज्ज स्प० । २-४२ नू = २-२७ भ=हू माय इति २ - २ वलोपो न ) (७-२ मि, शेषं ९-१५- सू० स्पष्टम) । अहो महानुभाव किं करोषि ॥ १७ ॥
१२३
शेषः संस्कृतात् ॥ १८ ॥
उक्तादन्यः शेषः । प्रत्ययममामतद्धितलिङ्गवर्णादिविधिः शेषः संस्कृतादवगन्तव्यः । इह ग्रन्थविस्तरभयान्न दर्शितः ॥ १८ ॥
इति प्राकृतप्रकाशे निपातसंज्ञाविधिर्नाम
नवमः परिच्छेदः ॥
१०:--
अथ दशमः परिच्छेदः ।
पैशाची ॥ १ ॥
पिशाचानां भाषा पैशाची, सा च लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते (१) ॥ १ ॥
प्रकृतिः शौरसेनी ॥ २ ॥
अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी । स्थितायां शौरसेन्यां
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१२४
प्राकृतप्रकाशे
पैशाची लक्षणं प्रवर्त्तयितव्यम् (१) ॥ २ ॥
वर्गाणां तृतीयचतुर्थयोरयुजोरनाद्योराद्यौ (२) ॥ ३ ॥
वर्गाणां तृतीयचतुर्थयोर्वर्णयोरयुक्त योरनादौ वर्तमानयोः स्थाने आद्य प्रथमद्वितीयौ भवतः । गकनं ५-३० सोविं० २-२ सूत्रवाघः एवं अग्रेऽपि यथास्थानेषु पूर्वसूत्राणां बाधोज्ञेयः । ) मेखा । राचा । णिच्छरो | टिसं । दसवतनो | माथको । गोर्वितो केमवो | सरफसं । सलफो । ( णिज्झरो ३ - ५१ सू० स्प० अत्र जू= च्, झू छ । वडिस २-२३ सू० स्प० अत्र डट शे० स्प० । दसवतन केसव सलफ इत्येतेषु २-४३ शस अन्यत्सर्वं स्पष्टम् । विभक्तयः पञ्चमपरिच्छेदस्थ सूत्रैर्यथालक्षणम साधनीयाः । शे० स्प०) अयुजोरिति किम | संगामो ३- ३ रलोपः ३ -२० गद्वि०५ - १ ओ = संग्रामः ) वग्धो, इत्यादि । (३-२ यलोपः ३-३ रलोपः ३-५० घद्वि० ३-५१ घ्ग् ४- १ इति ह्रस्वः ५ - १ ओ) अनादाविति किम् । गमनं (१०) इत्यादि । गगनम्, मेघः, राजा, निर्झरः, वडिशम, दशवदनः माधवः, गोविन्दः, केशवः, सरभसम्, शलभः, संग्रामः, व्याघ्रः, गमनम् ॥ ३ ॥
इवस्य षिवः ॥ ४ ॥
इवशब्दस्य स्थाने पित्र इत्ययमादेशो भवति । कमलं पि
(१) इति वेदितव्यमिति शेषः ।
(२) केचित् 'अनादा वयुजः' इति विभज्य अनादौ वर्तमानाः वर्णाः सर्व असयुक्ताः प्रयोक्तव्याः । कसणो । पणयं ॥ कृष्णः । पण्यम् ॥ ततः
'तथयो दधो' || ( उक्तोऽर्थः ) इति योगविभागतध्याचख्युः ।
का० पा० ॥
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दशमः परिच्छेदः। १२५ व मुखं (कमलं, मुखं सस्कृतसमौशब्दोशे० स्प०) ॥ ४ ॥
णो नः ॥५॥ णकारस्य स्थाने न इसयमादेशो भवति । तलुनी । (स्प०) तरुणी(१) ॥ ५ ॥
ष्टस्य सटः ॥ ६॥ ष्ट इत्यस्य स्थाने सट इत्ययमादेशो भवति । कमटं ममबट्टा (५-३० वि० । मम तत्समः । ३-२२ तस्य टः३-५० टद्वि० ७-१ त-इ) कष्टं मम वर्तते ॥ ६॥
लस्य सनः ॥७॥ स्न इत्यस्य स्थाने सन इत्ययमादेशो भवति । सनानं । सनेहो (स्प० पू० विभक्तिः साध्या) । स्नानम् । स्नेहः ।। ७॥
यस्य रिअः ॥ ८॥ र्य इत्यस्य स्थाने रिअ इत्ययमादेशो भवति । भारिआ। भार्या ॥ ८॥ .. . ज्ञस्य ः ॥९॥ ... ज्ञ इत्यस्य स्थाने अ इसयमादेशो भवति । विजातो (५-१ ओ शे० स्प०) साओ । (३-३ रलोपः ३-५० वद्वि० शे० स्प० पू०) विज्ञातः । सर्वज्ञः ॥९॥
कन्यायां न्यस्य ॥ १० ॥ कन्याशब्दे न्यस्य स्थाने अ इत्ययमादेशो भवति । कक्षा (स्पष्टं) ॥ १०॥
(१) र-सोल-शौ ॥ ८।४ । २८८
मागध्यां रेफस्य दन्त्यशकारस्य च स्थाने यथासंख्यं लकार. स्तालव्यशकारश्च भवति ॥ हे । बाहुलकाद् पैचाच्यामपि भवति ।
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प्राकृतप्रकाशे
ज च ॥११॥ जशब्दस्य शौरसेनीसाधितस्य च इत्ययमादेशो भवति । कञ्चं । (१)कार्यम् ॥ ११ ॥
राज्ञो राचि टाङसिङडिंषु वा ॥ १२ ॥
राजनशब्दस्य ढा, डसि, डम, ङि,इत्येतेषु परतो राचि इसयमादशो वा भवति । राचिना (५-४१टा=णा कृते१०-५णा= ना(२)शे० प०) रक्षा (राज्ञा अत्र १०-२ ज्ञा-आहस्वः संयोग इति हस्वः एवमग्रेऽपि) । राचिनो (५-३८ ङसि, सम्=णो(३) १०-५ णोनो) रनो राचिनि, रनि । (राचि-ड ५-३८ डि णो यो० पू०) राज्ञः । एतेष्विति किम् । राचा । राचान । रओ (राजा इत्ययुक्तस्य १०-३ मू० जा=चा एवं राजानं=राचानं । राज्ञः १०-९ ज्ञ-अ ॥ १२ ॥
वस्तूनं ॥ १३ ॥ स्थापत्ययस्य स्थाने तूनं इसयमादेशो भवति ॥ १३ ॥
दातूनं (दाधातोः क्त्वास्थाने तुनमादेशः) कातूनं (८१७ कञ्-का शे० पू०) घेतूनं (८-१६ग्रह-येत शे०५०)
हृदयस्य हितअकं ॥ १४ ॥ इति वररुचिकृते प्राकृतसूत्रेषु दशमः परिच्छेदः ॥ हृदयशब्दस्य हितअकं निपात्यते । हितअकं हरसि मे तलुनि (१-२७ऋ-अ ७-२ थाम्, सिप्ससि । मे, तत्समः तलुनि - (१)३-१७ प्रतिपादितस्येत्यर्थः तत्र ज इति पाठान्तरं दृश्यते । प्राकृतस्य शौरसेनी व्यवहारस्य प्रायशो दर्शनाचा
(२) लक्षणिकस्याऽपोति साम्प्रदायिकाः। (३) तत्र उस ग्रहणान्ङसे रपि ग्रहणं ।
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दशमः परिच्छेदः ।
१२७
५-२९ हस्तः शे० १०-५ सू० १०) ॥ १४ ॥
इति भामहकृते प्राकृनप्रकाशे पैशाचिको नाम
___ दशमः परिच्छेद:(१)॥ (१) ज्ञाञः पैशाच्याम् ८ । ४ । ३०३ ॥ अभि म । पुनकम्मो । पुजाहं । कञका । लोलः ॥ ८१४। ३०८ ॥ लकारस्य लकार एव । सोलं । कुलं । सलिलं ॥ नकगजादिषट्शम्यन्तसूत्रोक्तम् ८ । ४ । ३२४ । इति सूत्रणप्रायो द्वितीय परिच्छेदस्थ कार्याभावोऽत्रज्ञेयः। यथा सुबुसा। क्वचित्तृतीयस्यापि । तेन भगवती पव्वतीत्यादौ न तलोपः। पताका । वेतसो इत्याद्यपि चसिद्ध्यति । तथा च मकरकेतू-सगरपुत्तपयनं । विजयमेनेनलपितमित्यादिसङ्गच्छते । शपोः सस्तु भवात “शषोः सः" ८।४।३०९ । इति पुनः सूत्राऽऽरम्भाद् ।
हृदयेयस्य पः ८ । ४ । ३१० । हितपकं । किंपि किंपि हितपके अत्थं चिन्तयमानी। टोस्तु वी ८।४ । ३११ । कुतुम्बकं-कुटुम्बकं ।
धून त्थूनौ ष्टुः ८ । ४ । ३१३ नळू-नत्थून । तधून तत्थुनर्य-स्न-टां रिय-सिन-सटाः काचत् । ८।४।३१४ ॥ यथा संख्यम् । भार्या । भारिया ॥ स्नातम् । सिनातम्॥ कष्टम् कसटम् ॥ काचदिति किम् सुजो-सुनुला-तिहो इत्यादि । सूर्यः । स्नुषा । दिष्टम् । ___ याहशादे र्दु स्ति,-८ । ४ । ३१७-यातिसो-तातिसो-केतिलोएतिलो-युह्माातसो-अह्मातिसो । यादृशः। तादृशः। कीदृशः । एताहशः । युस्मादृशः । अस्मादृशः। अन्याहशस्य तु असा शो इति
शेषं शोरसेनीवदवगन्तव्यम् । हमस्तु पैशाची, शुद्ध चूलिका भेदेन द्विधा भित्त्वा
वर्गाणा मिति प्रतिपादितं कार्य चूलिका विषयकं मन्यते । पैशाच्यां दकारस्य तकार विधानार्थ 'तदोस्तः' ८ । ४ । ३०७ सूत्र मेव पठितवान्, मतन परवसो मदन परवशः। इति। अत एवपैशाच्यां संगर पुत्तवचनं । भगवती त्याशुदाजहार । तत्र रस्य लोवेति भेद-मेकमित्थ मुदाजहार । 'उच्छलन्ति समुदा सइला नि. पतन्ति तं हलं नमथ' इति । अन्यत् पूर्ववत् ।
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प्राकृतप्रकाशे
अथैकादशः परिच्छेदः ।
___ मागधी ॥ १ ॥ मागधानां भाषा मागधी, लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्कुटीक्रियते ॥१॥
प्रकृतिः शौरसेनी ॥२॥ अस्या मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनी(१) इति वेदितव्यम् ॥२॥
षसोः शः ॥ ३ ॥ पकारसकारयोः स्थाने शो भवति । माशे । विलाशे। (स्प०) मापः । विलासः ॥ ३ ॥
जो यः ॥ ४ ॥ जकारस्य यकारो भवति । यायदे । (पायो ग्रहणात् २-२ यलोपो न १२-३ त-द) जायते ॥ ४ ॥
चवर्गस्य स्पष्टता तथोच्चारणः ॥ ५ ॥ चवों यथा स्पष्टस्तथोच्चारणो भवति । पलिचए(रसोलशौ ८ । ४ । २८० हेम० स० -ल २-२ यलोप एत्वं पूर्ववत्) गहिदच्छले (२-२७ -अ १२-३ तद शे० पू० ) वियले (११-४ ज=य शे० पू०) णिज्यले । एत्वं पूर्ववत शे० ३-५१ मू० स्प०) परिचयः । गृहीतच्छलः । विजलः । निर्झरः ॥५॥
हृदयस्थ हडक्कः ॥६॥ हदयस्य स्थाने हडको भवात । हडक्के आलले मम (स्पष्ट०) हृदये आदरो मम ॥ ६॥
यजयोर्य:(२) ॥७॥ (२) प्राकृतस्याप्यत्र ग्रहणं वेदितव्यम् । (२) कचिद् ज, इति पाठ स्तन्मते । कजं दुजनो इति ।
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एकादशरिच्छेदः। र्यकारजकारयोः स्थाने स्पो भवति । कय्ये (संयोगेहस्वः ११-१० एत्सम) दुय्यणे । (२-४२ =ण पूर्ववत् एत्वम्) कार्यम् । दुर्जनः ॥७॥
क्षस्य स्कः ॥ ८ ॥ क्षस्य स्थाने स्ककारो भवति । लस्को। दस्के (पलिचएषत् रस्क ११-३ स-श एवं माशेवत् एवं दस्के) । राक्षसः । दक्षः ॥८॥
. अस्मदः सौ हके हगे अहके ॥ ९ ॥
अस्मदः स्थाने सौ परतो हके, हगे, अहके इमेत आदेशा भवन्ति । हके, हगे, अहक भणामि । (१०) अहं भवामि ॥९॥
अत इदेतो लुक् च(२) ॥ १० ॥ सावित्यनुवर्तते अकारान्ताच्छन्दात्सौ परत इकारैकारो भवतः पक्षे लोपश्च । एशि (एतत्सूत्रेण इकारैकारौ पक्ष लुप्यते ११-३ ष-श-) लाआ (राजा इत्पत्र रसोर्लचौ इति हेम० व्याकारणानुसारं रम्ल क्षे० ५-३६ ५० स्प०) एशे (एशिवत् शकारः यो० स्प०) पुलिशे (लाभावत् लकारः शे० पू०)। एष राजा । एष पुरुषः ॥ १० ॥
क्तान्तादुश्च ॥ ११ ॥ तप्रत्ययान्ताच्छन्दात्सो परतः उकारश्च भवति । चकाराद इदेतो लुक् प । हशिदु, हशिदि, हशिद, । (अकारः पूर्ववत् शे० प० पू०) हसितः ॥ ११ ॥
उसो हो वा दीर्घत्वं च ॥ १२॥ खसः षष्ठयेकवचनस्य स्थाने हकारादेशो वा भवति तत्संयोगे च दीर्घत्वम् । पुलिशाह (पुलिशवत् र=ल शकारश्च शे० स्प०)
१७
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प्राकृतप्रकाशे धणे (२-४२ =ण् एत्वं माओवत्) [पक्षे] पुलिशश्शा धणे। (५-८ डम्स्प्स ११-३ स्स श शे० पू०) पुरुषस्य धनम् ॥ १२ ॥
अदीर्घः संबुद्धौ ॥ १३ ॥ अदन्तादित्येव अदन्ताच्छब्दादकारो दीर्घा मवतिसंबुद्धौ । पुलिशा आगच्छ । माणुशा (२-४२ न्-ण ११-३ ष-श५-२ जप्तो लोपः) आगच्छ । संबुद्धाविति किम् । वह्मणश्श धणे । (५-४७ सू०प० शे० पुलिशश्शवत्)। ब्राह्मणस्य धनम् ॥१३।।
चिट्ठस्य चिष्ठः ॥ १४ ॥ चिट्ठस्य(१) स्थाने चिष्ठ इत्ययमादेशो भवति । पुलिशे चिष्ठदि । (पुलिो व्याख्यातः १२-१३ चिटठ-चिष्ट १२-३ ति-दि) पुरुषस्तिष्ठति ॥ १४ ॥
कृमृङ्गमां क्तस्य डः ॥ १५ ॥ डुकुञ् करणे, मृङ्माणत्यागे, गम्ल गतौ एतेषां क्तप्रत्ययस्य स्थाने डकारो भवति । कडे । मडे । गडे । (१-२७ ऋ-अ एत्वं सोलॊपश्च माशेवत् शे० स्प०) कृतः। मृतः । गतः ॥१५॥
को दाणिः ॥ १६ ॥ __ क्त्वाप्रययस्य स्थाने दाणि इत्ययमदेशो भवति । शहिदाणि गडे । (२-३ स-श ७-३३ इत्वं शे० स्प० । कारिदाणि (१२-१५ कृञ्-कर इकारः पू० शे० स्प०) आअडे । (२-२ गलोपः शे० पू०) सोढ्वा गतः । कृत्वा ऽऽगतः ॥ १६ ॥ शृगालशब्दस्य शिआलाशिआलकाः ॥ १७॥
इत्येकादशः परिच्छेदः ।। (१) “स्थाश्चिट्ठ" इति साधितस्येत्यर्थः ॥
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एकादशपरिच्छेदः। १३१ शृगालशब्दस्य स्थाने शिआलादय आदेशा भवन्ति । शिआले आअच्छदि । शिआलके आअच्छदि (आङपूर्वकगमेः २-६ गलोपः १२ । स्प०) शृगाल आगच्छति ॥ १७ ॥ - इति पाकनकाशे मागध्याख्य एकादशः परिच्छेदः(१) ॥ (१) अत एत् लौ पुंलि मागध्याम् ८ । ४ । २८७ ॥
मागो भाषायां सौ परे अकारस्य एकारो भवति पुंल्लिङ्गे । एष मेषः । ऐशे मेशे । एशे पुलिशे करोमि भदन्त । करेमि भन्ते ॥ अत इति किम् । णिही । कली। गिली ॥ पुंसीतिकिम् ॥ जलम् ॥ [रसोर्लशौ] र । नले । कले ॥ स । दंशे । उभयोः ॥ शालशे । पुलिशे।
स-षोः संयोगे सोऽग्रीमे ८।४।२८९ ॥ मागध्यां सकार षकारयोः संयोगे धर्तमानयोः सो भवति ग्रीष्म शब्दे तु न भवति ॥ उर्ध्वलोपाद्यपवादः ॥ स,पस्खलदिहस्ती । वुहस्पदी । मस्कली । ष, सुस्फदालुं । कस्टं । विस्नु । शस्प कवले । उस्मा। निस्फल । धनुस्खण्ड ॥ अग्रीष्म इति किम् । गिम्ह घाशले ॥ पृष्ठयोः स्टः ८।४।२९० ॥ द्विरुक्तस्य टस्य षकाराका. न्तस्य च ठकारस्य मागध्यां सकाराकान्तः स्टकारो भवति ॥ ह, भस्टालिका । भस्टिणी ।। ष्ठ, शुस्टु कदं । कोस्टागालं ॥ स्थ,थयोस्तः ८।४ २९१ ॥ स्थ, र्थ इत्येतयोः स्थाने मागध्यां स. काराकान्त स्तो भवति । स्थ । उपस्तिथे । शुस्तिदे ॥ र्थ । अस्त घदी। शस्त वाहे॥
जधयां यः ८। ४ । २९२ मागध्या ज,द्य,यां स्थाने यो भवति । ज। यणवः ॥ छ । मय्यं । अय्य किल विय्या हले आगदे ॥ यस्य यत्व विधानम् आदेर्योजः ८।१। २४५ इति वाधनार्थम् ॥
ब्रजोञ्जः॥ ८।४ । २९४ ॥ मागध्यां व्रजेर्जकारस्य ओ भवति । यापवादः ॥ वञ्जति ॥ छस्यश्चोनादौ ॥८।४। २९५ ॥
मागध्या मनादौ वर्तमानस्य छस्य तालव्यशकाराकान्तश्चो. भवति ॥ गश्च । पिश्चिले । पुश्चदि ॥ लाक्षणिकस्यापि । आपनव. त्सलः। अवनवश्चले ॥ तिर्थक्, तिरिच्छि । तिरिश्चि ॥ अनादाविति
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१३२
प्राकृतप्रकाशे।
अथ द्वादशः परिच्छेदः।
शौरसेनी ॥१॥ अस्मिन् परिच्छेदे सर्वत्र वृत्त्यनुलब्धिर्वतते । तत्र मया यथामति भामहानुस्मृतांशैली मवलम्ब्य वृत्तिर्वितन्यते ।
शुरसेनानां भाषा शौरसेनी । सा च लक्ष्य लक्षणाम्यां स्फुटी क्रियते । इति वेदितव्यम । अधिकार सूत्र मेतदा परिच्छेद समाप्तेः ॥ १॥
प्रकृतिः संस्कृतम् ॥ २॥ शौरसेन्यां ये शब्दा स्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् ॥ २॥
. अनादावयुजोस्तथयोदधौ ॥ ३(१) । किम् । छाले ॥ स्कः पेक्षा चक्षोः ८।४ । २९७ मागध्या प्रेक्षे राच. क्षेश्च क्षस्य सकारा क्रान्तः को भवति ॥ जिह्वामूलीयापवादः । पेस्कदि । आचस्कदि।
अवर्णा छा ङसो डहः॥८।४।२९९ ॥
मागध्या मवात्परस्य डसो डित् आह इत्यादेशो वा भवति । हगे न एलिशाह कहि काली ॥ पक्षे हिडिम्बाए घडुक्कय शोके ण उवशमदि॥
आमो डाह वा ८।४।३००॥
मागध्या मवर्णा त्परस्य आमोऽनुनासिकान्तोडित आहादेशो वा भवति ॥ शय्यणांह सुहं । पक्षे । नलिन्दाणं । व्यात्ययात्प्राकृते ऽपि ताहँ तुम्हाहँ । अम्हाहँ । सरिआह । कम्माहं ॥
अह वयमोहगे ८।४।३०१ मागध्यामहं वयमोः स्थाने हगे इत्यादेशो भवति ॥डगे शकावदालविस्त णिवाशी धीवले। हगे शंपत्ता॥शेषं शौरसेनीवत् ॥ इति हेमः।
(१) अधिकारो ऽयम् । अत्र केचिद् "अनादावयुजः" अनादौ वर्तमाना वर्णाः सर्व असंयुक्ताः प्रयोक्तव्याः॥ कसणो । पणयं । कृष्णः । पण्यम् । इति । ततः "तथयोर्दधौ" इति च छेदेन व्याख्यातवन्तः। का० पा०
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द्वादश परिच्छेदः । अनादौ वर्तमानयो रसंयुक्तयो स्तथयो दधौ भवतः । तस्य, मारुदिना मन्तिदो (त=द मो० संस्कृतवतू-३-३ रलोपः ५-१ ओ) यस्य, करेध (१२-१५क-कर७-३४ एत्वं) तथा प०) असंयुक्तयोरित्येव । तेन अजउत्त-हला सउन्तले इ. त्यादौ न । अनादाविति किम् । तस्स । मारुतिना मन्त्रिता । कुरुथ । तथा । आर्यपुत्र । हला माकुन्तले । तस्य ॥ ३ ॥
व्याप्ते डः ॥ ४ ॥ व्यापृतशब्दे तस्य डोमवति । पूर्वमूत्रापवादः । वावडो (३-२ यलोपः २-१५ ५ ५-१ ओ) व्यापूतः ॥ ४ ॥
पुत्रेपि कचित् ॥५॥ कचित् पुत्राब्दे ऽपि तस्य डो भवति । पुडो-(३-३रलो. पः) पक्षे पुत्तो(३-३रलोपः ३-५० तद्वि० ५-१ ओ) ॥ ५ ॥
इगृध्रसमेषु ॥६॥ गृध्रसमेषु ऋकारस्य इ भवति । गिद्धो (३-३ रलोपः (३-१ दलोपः-३-५० वि० ३-५१ धन्द ५-१ ओ) गृद्धः॥ ६ ॥ ब्रह्मण्यविज्ञयज्ञन्यकानां ण्यज्ञन्यानां जो वा ॥ ७॥
एतेषां ण्य न्याना ओ वा भवात । पैशाच्यां तु नित्यमिति विशेषः ब्रम्हओ (३-३ रलोपः ३-८ ह्मस्य विपर्ययः ५-१ ओ) विओ जो-का, (एते १०-९ । १०-१० सूत्रयोः स्प०) पक्षे-वह्मणो-विण्णो, कण्णा ३-४४ सू० द्रष्टव्यम् ॥ ७ ॥
सर्वज्ञेङ्गितज्ञयोर्णः ॥ ८॥ एतयोः संयुक्तस्यान्सयो ! भवति । सवण्णो (३-३ रलोपः ३--३ वणौ द्वि० ५-१ ओ) इंगिअण्णो (२-२ तलोपः यो० पूर्व०) ॥ ८॥ ..
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प्राकृतप्रकाशे
कत्व इ.(१) ॥९॥ क्वा इत्यस्य इअ आदेशः । भणि । भविभ। (स्पष्ट) भणित्वा । भूत्वा ॥९॥
कृगमोदु:(२) ॥ १० ॥ आभ्यां परस्य कापत्ययस्य दुअ. इत्यादेशः । कदुअकृत्वा । गदुअ-गत्वा (स्प०)॥ १० ॥
णिजश्शसोर्वा ल्लीवे स्वरदीर्घश्च ॥ ११ ॥
नपुंसके जश्शसो णिर्भवति पूर्वस्य स्वरस्य दीर्घश्च । वणाणि-धणाणि-वनानि धनानि (२-४२ =ण शे० स्प०)॥११॥
भी भुवस्तिऊि ॥ १२ ॥ भूधातो भी भवाति तिडि । भोमि-भवामि ॥ १२ ॥
नलटि ॥ १३ ॥ भूधातो लंटि भो न भवति-भचिस्सिदि, भविष्यति ॥१३॥
ददातेर्दै(३) दहस्स लटि ॥ १४ ॥ (१) सिद्ध हेमस्तु "क्त्व इय दूणौ । ८।४।२७१ । भवतः । भोरण | भविय। हविय । होदूण ॥ पठिय पठिण | रमिय-रन्दण । पक्षे भोला । होता । पठित्ता । रन्ता इति"।
सा अहं ब्रह्मणो भविअ दाणिं भवन्तं सीसेण पडिअ विष्णेमि । तदहं ब्राह्मणो भूत्वेदानी भवन्तं शीर्षेण पतित्वाविज्ञापयामि ।
(२) गमो ड डुअ । ८।४।२७२ कडुअ । गडुअ पक्षे करिय, करिदूण । गच्छिय, गच्छिदूण।
(३) अत्र केचित् सूत्रद्वयं लिखितवन्तः। “तदस्तेदे"। तच्छन्दस्य तेदे आदेशो भवति । तेदो गदो । तेदं पुच्छ । तेदेण किदं । इति ततः "ददातेदस्य लटि" । दा धातोः दकारस्य लटि परतो दे आदेशो भवति । देस्सदि । इति च । का0 पा० ।
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द्वादशपरिच्छेदः।
१३५ दाधातो र्दे आदेशो भवति तिलि, दास्स इति लटिच ।। देमि=ददामि दास दास्यामि ॥ १४ ॥
डुकृषः करः ॥ १५ ॥ डुकृञ् धातोः कर आदेशो भवति । करेमि (६-४१ सू०१०) ॥ १५ ॥
स्थाश्चट्ठः ॥ १६ तिङि। एशे चालुदत्ते रुक्खवाडि आए चिढदि । स्प०)॥१६॥
स्मरतेः सुमरः ॥ १७ ॥ तिङि, स्मृधातोः केवलं मुमर इसादेशो भवति । स्मरते भरमुभरौ प्राप्तौ तदेकं भरादेशं निवर्तयति । मुमरइ-स्मरति ८-१४ सू० प० ॥ १७ ॥
दृशे पेक्खः ॥ १८ ॥ दृश् धातोः पेक्खादेशस्तिङि । पेक्ख पश्य । अरेरे पेक्ख पेक्स ओहारिओ पवहणो वच्चइ मझेण राअमग्गस्स । एदं ताव विआरह कस्स कहिं पवसिओ पवहणोत्ति ॥ १८ ॥
अस्तेरच्छः ॥ १९॥ असूधातो स्तिडि अच्छादेशो भवति ॥ १९ ॥
तिपात्थि(१) ॥ २० ॥ अस्ते स्तिपासह त्थि इत्यादेशो । भवति । अस्थि अस्ति । पसंसि, गास्थि मे वाआविहवो । प्रशंसितुं नास्ति मे वा. विभवः ॥ २० ॥
(१) "मिपि थः" । मिपिपरतः अस् धातोः थ आदेशो भवति । थम्मि । इति केचित् । का० पा० ॥
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प्राकृतप्रकाशे
भविष्यति मिपा स्सं पा स्वरदीर्घत्वं च ॥ २१ ॥
अस्ते मिपा सह सं इत्यादेशः पक्षे-धातोः स्वरदीर्घत्वं च । सं, आरसं-भविष्यामि ॥ २१ ॥
स्त्रियामित्थी ॥ २२ ॥ स्त्री शब्दस्य स्थाने इत्थी इयादेशो भवति।पी-स्त्री॥२२॥
एषस्य जेव्व ॥ २३ ॥ स्पष्टम् । जेव्य-एव ॥ २४ ॥
. इषस्य विअ ॥ २४ ॥ मुगमम् विभइर ।। २४ ॥ ____ अस्मदो जसा अं च ॥ २५ ॥
अस्मदो जसासह वयं इत्यादेशः । चकारीत् अम्हे ऽपि भवति । वरं । अह्मे-अयम् ॥ २५ ॥
सर्वनामा डेः सित्वा(१) ॥ २६ ॥ सर्वनानां : सप्तम्येकवचनस्य स्थाने सित्वा इत्यादेशो भवति सव्वासित्वा-इदरमित्वा-सर्वस्मिन्-इतरस्मिन् ॥ १६ ॥
धातोभीकर्तृकर्मसु परस्मैपदम् ॥ २७ ॥ शौरसेन्या मेव । भावे-सासासि । किदाणि दासीएपुत्ता ? दुभिक्त्वकाले रुढरको विअ उदकं सासासि ऐसा सा सत्ति । किमिदानी दास्याः पुत्र ? दुर्भिक्षकाले वृद्धरत इव ऊर्द्धक शासायसे, एषा सा सेति । कतारे अज वन्दामि-आर्य वन्दे
(१) केचित्"सर्वनामा डे" सर्वनाम शब्दानां चतुर्थंकवचनस्य व इत्यादेशो भवति । सव्वव। कवरं । महवरं । तुहव। स.
स्मै । कस्मै । मह्यम् । तुभ्यम् । ततः "सिल्वो र्धात्वो"रित्यादि इत्याहुः । का० पा०॥
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द्वादशःपरिच्छेदः।
१३७
कर्मणि-कामीदि अदोज्जब कामादि-अतएव काम्यते ॥२७॥
अनन्त्य(१) एच ॥ २८ ॥ अन्त्यभिनेवणे एत्वं च भवति । करेदि ॥ २८॥
मिपो लोहि च ॥ २९ ।। मिपश्चैत्वं पति लोटि परत:(२) ॥ २९ ॥
आश्चर्यस्याचरिअं ॥ ३० ॥ आश्चर्य इत्यस्य अच्चरिभ मियादेशः ॥ ३० ॥ अहह, अञ्चरिमं अचरिअं।
प्रकृत्या(३) दोलादण्डदशनेषु ॥ ११ ॥ दोलादिषु प्रकविवद्भायो भवति ॥ ३१॥ ५
शेषं महाराष्टीवत्(४) ॥ ३२॥ अनुक्त कार्यमहाराष्ट्रावनेयम् । पहाराष्ट्री पदेनाप्राकृतस्य ग्रहणं वोध्यम् ।।२२ ॥ (इत्यभिनवायां पत्तौ द्वादशः परिछेदः) ।। इति प्रकृतपका पनोरमाया रचौ मानहविरचिता शौरसेनीलक्षणं नाप द्वादशः परिच्छेदः ॥
समाप्तोयं प्रन्यः ॥
शुभम् । (१) "अम्त्ये पव" सिस्वोर्धातोर्भावादिषु विहितं पद परस्मेपएं तदन्त्य वर्णस्य एव मवति । इति केचित् । का. पा.॥ गच्छा. दे। गच्छदि । हे।
(२) "मिपो लोटिच" लोटि परतऽन्त्येमिप एव भवति, यह करवामि अहं गच्छामि । अहं करवाणि गच्छानि इति केचिद् व्याचख्युः । का० पा०॥ .
(३) प्राकतो-हति प्राकृतः शादः प्रयोक्तव्यः इति च वाच. ख्युः। का. पा.
(४) पूर्वस्य पुरवः ८।४। २७०
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प्राकृतप्रकाशे
शीरसेम्यां पूर्वशब्दस्य पुरव इत्यादेशोवा भवति । अपुरवं नाजयं । अपुरवागदं । पक्षे । अपुण्यं पवं । अपुव्यागं ॥
१३८
हिरियोः ८ । ४ । २७३
स्यादीना माद्यत्रयस्याद्यस्ये थे वो ८ | ३ | १३९ । इति विद्दितयारि चे घोः स्थाने वि र्भवति षेति निवृत्तम् । नेदि । देदि । मोदि । होषि
मतोदेध ८ । ४ । २७४ | अकरात्परयोरिचेधयोः स्थाने वेधकारा विश्व भवति । अच्छरे । अच्छदि ॥ गच्छवे । गच्छषि ॥ रमरमर || किनरे । किज्जवि । अत इति किम् । वसु आदि । मेदि । मोदि ।
भविष्यति हिसः | ८ |४| २७५ शौरभ्यां भविष्यय विहिते प्रत्यये परे रिस र्भवति हिस्साहामपवादः ।
इदानीमोदाणि | ८|४ । २७७ शौरसेन्या मिशनीमः स्थाने दाणि मित्यादेशो भवति । अनन्तर करणीयं दाणि आणवेदु अय्यो । व्यत्ययात्प्राकृतेऽपि अन दार्णि बोहिं ॥
तस्माप्ता ८ । ४ । २७८ ॥
शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशो भवति ता जाव पविसामि । ता अलं पविणा माणेण ॥
मोरयाण्णवेदेतोः ८ । ४ । २७९ । शौरसेन्या मध्यान्मकारात्परदेतोः परयोर्णकारागमो वा भवति ॥ इकारे, जुत्तं णिमं जुतमिणं । सरिसं णिमं । सरिसं मिणं । एकारे, किं णेवं किमेवं । एवं दं । मेदं ॥ एवार्थेय्येव । २८० | स्पष्टम् । ममय्येव वम्भणस्स ॥ इटा हाने । २८१ । शौरसेन्यां घेठ्याहाने हमें इति निपातः प्रयोक्तव्यः । हखे चदुरिके ॥
हीमाणहे विस्मय निर्वेदे २८२ शौरसेन्यां हीमाणहे इत्ययं निपातो विस्मये निर्वेदेचप्रयोक्तव्यः । विस्मये, हीमाण जीवन्त वचा मे जणणी ॥ निर्वेद, होमाणहे पलिस्सन्ता हगे परेण निंयविधिणो दुब्ववसिदेण ॥
णं मन्वर्थे २८३ ।
शौरसेन्यां नन्वर्थेणमिति निपातः प्रयोक्तव्यः । णं अफलोदया । र्ण अय्यमिस्सेहिं पुठमं येव आणत्तं । णं भवं मे अग्गदो चलदि ।
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द्वादशःपरिच्छेदः।
आर्षे वाक्यलङ्कारपि दृश्यते । नमोत्थु णं । जयाणां । तयाणं । ___ अम्महे हः । २८४ । शौरसेन्याम् अम्महे निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः। अम्महे एआए सुम्मिला र सुपलि गठिदो भवं ॥ ही ही विदूषकस्य । २८५ । शौरसेन्या ही ही इति निपातो विषकाणां हर्षे पोत्ये प्रयोक्तव्यः ॥ ही ही-भो सम्पन्ना मणोरधा पिय पयस्सस्स ।
इह इचो ईस्य ।
इह शब्द सम्बन्धिनो "मध्यमस्येत्था हचौ" (८.३। १५३) इति विहिनस्य हच व हकारस्य शौरसेन्यां धोवाभवति ॥ष । होध । परित्तावध । पक्षे इह । होइ । परितायह॥
नवार्योग्यः ८।४।२६६ ।
शौरसेम्यां पस्य स्थान प्यो वा भवति ॥ अय्य उत्त पय्याकुली. कक्ष । पक्षे । अजो । पजाउलो । कज्ज परवमो ॥
शेष प्राकृतवत् ॥ २८६ ॥ इति हेमः,
.
अथ मार्कण्डेमुनीन्द्रकृत प्राकृत सर्वस्वानुमारि•
सौरसेनी विशेषकार्याणि प्रदपर्यन्तेवेदसो, अङ्गारो। इवभाषा-घेतसः, अनारः । वअळवणं,लावरण्यं,चउट्ठी,चउद्दही,मऊरो,महूओ ओदभावः जधा, तघा, कुमारी । इस्वा भावः पिण्डं इत्यादि पदभाषः॥ किंसुओ केसुओ-किंशुकम् ॥ तुण्डम्, इत्यादिषु ओवाभावः ....
मोती-मुक्का । पोक्सारम्-पुष्करम् । पोखरिणी पुष्करिणी ॥ उलूहको। ओदभावः ॥ ईदिसं, कीदिसं । एदभाव:
पुरुषो, इभाषः ॥ जुटिरो उपरि अदभाषः अणा, देभरो, इदभावः॥
पओठो, षत्वाभावः । देव्वं, अइत्वा भाषः । गोरचं गउरषं । पोरवो मोरयो अउत्स्वा भावः ॥ आदभावः । कचित् भवति पउरकं ॥
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१४०
प्राकृतप्रकाशे। आदिसं तादिसं । मिओ-मृतः ॥ पिदणा-पृतना ॥ रुक्लोम्वृक्षः नतु पच्छो
सीअरो (भ) चन्दिा (म) न । पताकाव्यावृत गर्भितेभ्योऽज्यस्य तस्य दः॥
पायो-पापः । कयन्यो-कबन्धः । (५०, म०, न) अउन्वं, अवरवं अपूर्वम॥
जधा। भरधो । सोदामिणी, बहुलं न दलोपः । कचित् । हि. भअं। ध,मौ यदुखायौ मधुरं । (उ० मदुरं) रस्य लः कचित् ।। हलिहा, महुरो।
महलसफलम् । रहरी-सफरी । पासाणो । (५०, १० न) दस, दा-दश नाम्नि दसरहो । एआरह । वारह । सावो । (छ. न)।
मङ्गलं । लोहरू । लंगूलं णत्वाभावः । अछीन्यष्ठी लत्वाभावः ॥ किरातो चत्वाभावः ॥ अज्झमाणो-वद्यमाणः। फोडओ-स्फोटकः । खत्वाभावः॥ उत्थिदो । ठत्वाभावः ॥ खणो खीरं सरिक्खं छत्वाभावः ॥ सम्महो गदको उत्वामावः । कुराहण्डो हवाभावः अहिमण्णजधाभावः ॥ अण्णसेणो-यक्षसेनः । इनिअजो इतिहः॥ चिण्हम् ,ग्धाभावः।
घाहो व०को वाष्पः ॥ भिन्दिवालो। भिण्डिवालो । भिन्दिपालः॥ अश्वनघणं अम्वाज अग्रह्मण्यम् ॥ कण्णआ कजआ कन्याः लो. पाभाव (सन्धौ ४-१ वत) कोदूहलं, थुलं द्वित्वाभावः । कालाअसो भाअणम् अलुक् इवाणि इदाणि लुक्वा मंसं । गृणं । कथं ॥
विहप्फदी वृहस्पतिः भाऽभावः॥पहुतणम्-त्तमभावः ॥ उसेः दो एव कचित् अवन्तादा अपि तव कारणा किलिटि सो जणों' ॥ अदत्ता डे रे:-रुकने । इदुद्भया केम्मिा -अगिम्मि वाउम्मि । इदुद्भा जसो वो आदेशाभावः कणो कअओ । भाणुओ। भाणओ॥ स्त्रियां जस उदभावः । मालाओ । गईओ, बहूओ ॥ टा, सि, उम्डीनामेत्वालाए । नईए । बहुए ।
द्वितीयाय मातु:मादरं किमादेः स्त्रीया मीत्वाऽभावः का। आ। ताए । इमाए ॥ क्लीवे शसो णि वा वणाणि-वणाई॥ इदमारे राम पसि मभावः । तथा श्रमासह इदमा सिमभावः ॥ इमाणं । काणं । जापं । ताणं, एदाणं, एतेसां । आस, स्सा, त्तो,
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द्वादशः परिच्छेदः ।
१४१
इति विभयादेशाः से इति पदादेशश्च न भवति ॥ कस्स । जस्स । तहल, काए । ताए । इमाए । एदाए । कदो. जदो । तदो, इमादो ॥
कुदो । इदो इति तु भवतः । आहा, हुआ, आहे. इत्यादयस्तु न भवन्ति ॥ करिस कहि कत्थ तरिस तर्हि तत्थ । म्मि र्न भवति ॥ इन्द्रह | इवं वनं, इणं धणं । इति द्वे क्लीषे । इअं घाला । मयं रुखो || एसो जणो ॥ असश्वाऽदा भाषः । अमु जणो । अमु ।
हू । अमु षणं ॥ एतदवसोर्ड सिखरम्याम् अदो । अदो कारणादो || तुमं (त्वं त्वां धा) ॥ तुम्हे ( यूयम्, युष्मान् घा) त ( त्वया त्वयि ) | तुम्हे हिं= (युष्माभिः) तुम्हे हिम्तो = ( युष्मभ्यम्, युष्मान् ) । तुम्हाणं= युष्काकम् | तुम्हेसु=युष्मासु, तुमादोत् ॥ से. दे, तुम्ह = ( तव ) बो = ( युष्मान् युष्माकाम् ) अहं = अहं । पअं वयम् अम्हे=वयम्, - अस्मान् वा = | मए (मया) म=मयि । ङसा मज्झादेशा भाव:, (मत्) मे, मम, मह ॥ अम्हं, बम्हाणं = (अस्माकम् ) ॥ मतो, ममादो अन्ये न भवन्ति ॥
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धातोः । परस्मैपदमेव ॥ त्रिष्वपिकालेषु लडेव प्रायेण ॥ त्यादे स्तस्य षः गच्छ, भोदि, इत्यादि बहुत्वे तस्य धः ॥ उत्तमे म्हः ॥ उत्तमे मिपा सह इसमेव गमिस्सं इ० ॥ धातुतिको मध्यविहिता ख, जा, हा इति त्रयः, तिङां स्थाने ज जा इत्युभौ च, सोच्छं घोच्छं इत्यादयश्च न भवन्ति ॥ देहि । भोदि । करिस्सदि इत्यादि ॥ भू=भोहो=भोदि, भाषिस्सदि । के भूः । भूदं ॥ दृशे पेच्छ= पेच्छदि= ध्रुवो बुधबुधदि । कथेः कधः कधेदि घ्रातेः जिग्धः = जिग्धदि । भाते र्भाभादि । सृजे फुंसः फुंसदि । घूर्णेः घुम्मः घुम्मदि । स्तोतुः थुणः थुणदि । भियो भा=भादि । सुजतेः पसः । पसदि । लटि दामः दस्सदि । चर्चेः चण्षः चण्वदि प्रदे र्गेण्डः गण्डदि प्रहे र्थपा सह गेज्झ-घेप्पौ-गेज्झदि, घेप्पदि ॥ शक्नोतेः सक्कु raको सक्कुणादि । सक्कदि । स्लायो मिआअदि । उदासह तिष्ठतेः उत्थः = उत्थेदि || दक्षपेः सुमः सुअदि ॥ श्रीङः सुआदि । रुधे, रोगदि । रुदेः रोददि ॥ मज्जेः- बुडुबि
दुहादीनां या सह दुव्भाइयो न दुहीअदि । वही अदि, लिही अदि ॥
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१४२
प्राकृतप्रकाशे
भिप्फो (भीष्मः) ससुग्घो (शत्रुघ्नः) जत्तिकं यावत्) तेत्तिकं । पत्तिकं । भट्टा । धूदा । दुहिदिया । इत्थी । भादा, भादुओ। जमादा, जामादुओ इत्यादयः ॥
उत्तिन्द्राग् । मखु निश्चये विन्दुतः परे तु खु इत्येव । तं खु भणामि इत्यादि । व-इव | चन्दो छ । जेव एघार्थे ॥ विन्मो परे, संजेध । तंव्य इति ॥ णं-मनु ॥ पिअहव॥
इति शम्
सपासो ऽयं ग्रन्थः सटिप्पणः
शुभं भूयात् ।
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परिशिष्टम् ।
१४३
अथ कर्पूरमञ्जरी, सेतुबन्ध, कुपारपाल चरितादि प्राकृत निबन्ध ज्ञानाय गन्थान्तरेभ्योऽपभ्रंशादि भाषा प्रपञ्चाय परिशिष्टम् पारभ्यते
अथाऽपभ्रंशविचारः।
युस्मदः सौ सुहुं । ८ । ४ । ३६८ ॥ अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तुष्टुं इत्यावशो भवति ॥ तुटुं । स्वम् ।
जम्-शालो स्तुम्हे तुम्हां । ८।४ । ३६९ ॥ अपभ्रंशे युष्मदः । असि शसि च प्रत्येकं तुम्हे, तुम्हई इत्यादेशो भवतः । तुम्हे तुम्हा जाणह, पेच्छा ॥
टा-उधमा पर सई। ४ । ३७० ॥ अपनशे युप्मदः टा-डि-अम् इत्येतैः सह पई, तई इत्यादेशौ भवतः ॥ टा-पई मुक्का । एवं तई । जिन्ना "पई मई हिंविण्णगयहिं को अय सिरि तकेइ । केसहि लेप्पिणु जम घरिणि भणसुष्टु को थकेद" ॥ एवं सई । अमा सह
पई मेल्लन्ति हेमा मरणु मई मेल्लन्त हो तुज्झु । सारस जसु जो वेग्गला सो विकृदन्त हो सज्नु ॥ एवं तसं सर्वत्र । मिसा तुम्हेहिं ८।४ । ३७१। अपभ्रंशे युष्मदो भिसा सह तुम्हे हि इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हे हिं । युस्माभिः ॥
असि उस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र ॥ ८।४।३७२ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो असि सुभ्यां सह तउ, तुज्झ, तुभ्र इत्येते प्रय आदेशा भवन्ति ॥ असिना, तउ होसउ आगदो, तुज्झन्तउ आगदो । तुध्र होन्तउ आ. गयो । ङसा-तउ गुण-सम्पइ । तुज्न मदि तुभ्र अणुस्तरनन्ति जा उप्पत्ति अन्नजण महि मण्डलि सिक्खन्ति । एवं तुध ॥ तव॥
भ्यसाम्भ्यां तुम्हई ८ । ४ । २७३ ॥
अपभ्रंशे युष्मदो भ्यस आम् इत्येताभ्यां सह तुम्हई इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हइं होन्तउ आगो ॥ तुम्हहं केरउं-धणु ॥
तुम्हासु सुपा ८।४ । ३७४ ॥
अपभ्रशे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशो भवति ॥ तुम्हा. सु ठिअं॥
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१४४
प्राकृतप्रकाशे
मदो एवं ८ । ४ । ३७५
अपभ्रंशे अहमद। सौ परे हउं इत्यादेशो भवति ॥ तदजं कलि जुगि दुछदहो ||
जस्-शसारम्हे अम्हई || ८ | ४ | ३७६ ॥
अपभ्रंशे अस्मदो जसि शसि च परे प्रत्येकम् अम्हे - अम्हां हत्यादेशौ भवतः । जसि, अम्दु, अम्हणं, घयम् । शसि, अम्हे - अम्हां पेक्खद्द | अस्मान् ॥
टा रूपमा मई ८ | ४ | ३७७ ॥
अपभ्रंशे अस्मदः टा-डि-अम् इत्येतेः सह मई इत्यादेशो भवति ॥ मई | मया-मयि, माम् । टा, मइ जाणिउं पिन विरहि अहं काविवर होइ विमालि । णवरमिमङ्कुवितिहत्तर जिहरिणावरु खय गालीममा मह मेलन्तहो, तुज्झ ॥
अम्देहिं भिसा ८ | ४ | ३७८ ॥
अपभ्रंशे अस्मदो भिसा सह अम्देहि इत्यादेशो भवति ||
तुम्हाह अम्हहिं ज कियउं ॥
महु मज्नु ङसिडस्भ्याम् ८ । ४ । ३७९ ॥
अपभ्रंशे मस्मदो असिना उसा च सह प्रत्येकं मधु ज्यु प्रत्यादेशी । भवतः । महु, मझु, मत्-मम । उसिना महू, हॉन्त उ, गदा मोन्त | हसा-मञ्जु पिपण । एवं महु |
अम्मदं म्यलाम् भ्याम् । ८ । ३८० ॥
अपभ्रंशे बस्मदोभ्यला मामा च सह अम्दहं इत्यादेशो भवति ॥ अम्बई - अस्मत्, अस्माकम् ॥ आमा -महवग्गा अम्दहं तणा ।
सुपा अम्हासु ८ । ४ । ३८१ ।।
अपभ्रंशे अस्मदः सुपा सह अम्हासु इत्यादेशो भवति ॥ अम्हासु ठियं ॥
स्यादौ दीर्घ इस्वी । ८ । ४ । ३३० । अपभ्रंशेमानोऽन्तस्य दीर्घ इहवी स्यादी प्रायो भवतः ।
मोरस्योत् ८ । ४ । ३३१
अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयो रुकारो भवति ॥
बहमु भुषण - भयंकरु तोसिअ लङ्करु णिग्गड रहवरि चडिअउ चउमुडु छंमुडु झारविएक्कडिलाइविणादहवें घडिअउ ।
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परिशिष्टम् ।
असे हेहू। ८।४।३३६ ॥ अकारात्परस्य उसे हे हु इत्यादेशौ भवतः॥ वच्छहे, हु॥ भ्यसो हूं,। ४ । ३३७ ॥
अपभ्रशेऽकारात्परस्यभ्यसः पञ्चमीवहुवचनस्य हुँ इत्यादेशोभवति ॥ जिह गिरिसिङ्गहुं पडिभ सिलअन्नुविचूरुकरेइ।
ऊसः सु-हो-स्सुवः ८।४ । ३३८
अपभ्रंशे अकारात्परस्य ङसः स्थाने सु हो-स्सु इति आदेशा. भवन्ति ॥ जो गुणगोइ अप्पणा पयडा करइ परस्स । तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहो वलिकिज सुअण्णस्सु॥
आमो हं। ८।४ । ३३९ ॥ अपभ्रंशे अकारात्परस्यामोह मित्यादेशो भवति ॥ तणहं । हुंचे दुग्याम् ।४।३४०॥
अपभ्रंशे इकारो काराभ्यां परस्यामो हुं हं चोदशौ भवतः । त रुटुं, सउणिहुं । प्रायोऽधिकारात्कचित्सुपोऽपि हुँ । दुहं दिसिह
उसि भ्यस्-ङीनां हे-हुं हयः ॥ ८१४ : ३४१॥
अपभ्रंशे इदुद्भयं परेषां ङसि-भ्यम्-डि इत्येतेषां यथासंख्यं हे-हुं-हि इत्येतेत्रय आदेशा भवन्ति ॥ ङसि, गिरिहसिलायलु तरुहे फलपेप्पइनीसावेन्नु । भ्यम्, तरुहुँविवकलु फलु मुणिविपरिहणु असणु लहन्ति सामिहुं एसिउ अग्गल आयरु भिच्चु गृहन्ति । डे-अहविरलपहाउ जि कलिहि धम्मु । . स्यम्-जस्-शसां लुक् । ८।४। ३४४। । ___ अपभ्रंशे सि-अम् जस-शम् इत्येतेषां लोपो भवति । पइति घोडा एह थलि इत्यादि-अत्र स्मम् जसा लोषः । जिव जिव वकिम लोअणहं णिरु सामलि लिक्खे। तिव तिववम्मा निअय-साखर पत्थरि तिक्खेइं। अत्र स्मम् शसां लोपः।
षष्टयाः ८।४ । ३४५॥ प्रायो लुग भवति ।। सगर-सएहि जु वपिणअइ देखु अह्मराकन्तु ।
अहमत्सहं चत्ता सह गय कुम्भई दारन्तु ॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसारार्थः।
धामन्त्र्ये जसो होः। ८।४।४४६ ॥ अपभ्रंशे आमन्ध्यर्थे वर्तमानाभाम्नः परस्प जसो हो इत्यादेशो
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प्राकृतप्रकाशे भवति ॥ लोपापयायः ॥ तरुणहो तरुणिहो मुणिउ महं करहु म अप्पाहो घाउ
भिस्सुपो हि ॥ ३४७ गुणहि न संपइ किन्तिपर ॥ सुप्-भाईरहि जिव भारद मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टा ॥
स्त्रियां जस शसी रुदोत् ॥ ३४८ ॥ लोपापवादौ
जसः, अङ्गलिउ उजरियाओ नहेण । शलः-सुन्दर-सम्वङ्गाउ विलासिणीमा पेच्छताण ॥
___ट ए ॥ ३४९ ॥ निम-मुहकरहिं वि मुख कर अन्धारहपडि पेक्वाइ।
समि-मण्डल-चन्दिमए पुणु काई न दूरे देक्खा ॥ जहिं मरणय-कन्तिए संबलिअंहुस् अस्यो हे ८।४।३५०॥
अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परयो म सि इत्येतयो ई . स्यादेशो भवति ॥ कुला-तुच्छ मशझहे जपिरहे । इसेः-फोडेन्ति जे हि यडर्ड अप्पणउं ताहं पराइ कवण घण । रक्वजहु लोअहो अप्पणा वालहे जाया घिसम थण ।
म्पसामो हुः ८ । ४ । ३५१ ॥ .
अपभ्रंशे खिर्या वर्तमाना मान्नः परस्य भ्यस-मश्च हु इत्यादेशो भवति ।। भल्ला हुआ जी माटिआ वहिणि महारा कन्तु । लजेजं तु षयासह जइ भग्गा घरु एन्तु। वयस्याभ्यो-वयस्यानां वेत्यथ:
हेहि ८।४। ३५२ ॥
अपभशेस्त्रियां वर्तमाना भाम्नः परस्य हि(हिं)इत्यादेशो भवति । अद्धा वलया महिहिगय अशा फुट तहति ।
क्लीये जस्-शसोरिं॥ ३५३ ॥ कमला मेल्लवि अलि-उलई करि-गण्डाई महन्ति ॥ कान्तस्याति उस्यमोः ८।४। ३५४ ॥
अपभ्रंशे क्लीवे वर्तमानस्य ककारान्तस्य नानो यो कारस्तस्य स्यमोः परयो रं इत्यादेशो भवति ॥ तुच्छउं, भग्गउं, पसरिअउं,
सर्वादे सेही ८।४। ३५५॥
अपभ्रंशे सर्वादे रकारन्तात्पस्य असेही इत्यादेशो भवति ॥ जहां-तहां।
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परिशिष्टम् । १४७ किमो डिहवा ८।४ । ३५६ ॥
अपभ्रंशे किमोऽकारान्तारपरस्य अन्सेर्डिहे इत्यादेशो वा म. धति ॥ किहो।
३५६ तं कि हे वङ्कोहि लोअणेहि जोइज ७ सय-वार ॥ . पत्तत्किभ्यो रुसो डासुर्नया ८।४। ३५८ ।।
अपभ्रंशे यत्तत्किम्म्योऽकारान्तेभ्यः परस्य ङसो डासु इत्यावे. शोधा भवति ॥
केहिं ३५७ सादे रकारान्तत्परस्य इत्येव ।
जहिं कप्पिजइ सरिण सरु छिनइ खग्गिण खग्गु । तहिं तेहा भडघड निवहि कन्तु पयासइ मग्गु ॥ एक्कहिं अखिहिं सावणु अन्नहिं भवउ । माहउ महिअल-सत्थरि गण्डत्थले सरउ । अनिहिं गिम्हसुहच्छी तिल घणि मग्गसिरु ॥ तहे मुद्धहे मुहपङ्कइ आषालिउ सिसिरु । हिअडा फुट्टि तत्ति करिकाल क्खेवे काई ॥ देखउं हय विहि काहं ठवइ पइं विणु दुःख सयाई ॥
यत्तात्कम्भ्यो उसो डासुन वा ८ । ४ । ३५८ इत्येतेभ्यः परस्प उसो डासु इत्यादेशो भवति । कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छई असा जाम । त्थिहि सथिहिंवि ठाउवि फेडइ तासु । जीविउ. कासु न घल्लह धणु पुणु कासु न इछ । दोण्णिवि अवसर निचाड आई तिणसम गण विसिठ्ठ॥
खियां रहे ८।४। ३५९ ॥
अपभ्रथे स्त्रीलिङ्गे वर्तमानेभ्यो यत्तत्किम्म्यः परस्य ङसो डहे इत्यादेशो वा भवति ।। जहे, तहे-कहे-केरउ
वत्सद : स्यमा ध्रु ८।४।३६० ॥
अपभ्रंशे यत्तदोः स्थान स्यमोः परयो यथा संख्यं धं त्रं इत्या. देशौ वा भवतः ॥ प्रणि चिढदि ना हो-ध्रुवं रणि करदि न भ्रन्ति । पक्षे तं बोल अइ जु निव्वहा ।
इदम इमुः। क्लीवे ८।४। ३६१ ॥ स्यमोः परयोरित्येष ॥ इमु कुलु तुह तणउं । इमु कुलु दे । एतदः स्त्री पुं-क्लीवे पह-एहो-एहु ॥ ८।४। ३६२ ॥
अपभ्रंशे स्त्रियां पुंसि नपुंसके वर्तमानस्येतदः स्थाने स्यमोः परयो यथासंख्यं पह-एहो-एहु इत्यादेशा भवन्ति ॥
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प्राकृतप्रकाशे। , एइ जस् शसोः ८।४ । ३६३ ॥
‘अपभ्रंशे एतदो जसू शसोः परयो रंड इत्यादेशो भवति ॥ जसा. ए इति घोडा एह थलि । शस्-एइ पेच्छ ।
अदस ओइ ८।४। ३६४ ॥ अपभ्रंशे अदसः स्थाने जम् शसोः परयो रोइ इत्यादेशो भवति॥ इदम आयः ८।४।३६५॥
अपभ्रंशे इदम् शब्दस्य स्यादैा आय इत्यादेशो भवति ॥ आयई लोअहो लोअणई जाई सरई न भन्ति । अप्पिए दिए मालि अहिं पिए दिइ विहसन्ति । सोसउ म सोसउश्चिम उअही बडवानलस्स किं तेण । जं जलइ जले जलणो आएणवि किं न पजतं । आयहो वड्ढकलेवरहो जं वाहिउ तं सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह अह उज्मा तो छारु ।
सर्वस्य साहो वा ८।४। ३६६ ॥ अपभ्रंशे सर्वशब्दस्य साह इत्यादेशो वा भवति ॥ किम काई कवणी घा८।४। ३६७॥ अपभ्रंशे किमः स्थाने काई, कवण इत्यादेशौ बा भवतः॥ त्यादेराद्य त्रयस्य बहुत्वे हिं न वा। ८।४।३८२॥
त्यादीना माधत्रयस्य सम्बन्धिनो बहुवर्थेषु वर्तमानस्य वचन. स्यापभ्रंशे हिं इत्यादेशो वा भवति ॥ मुह कवरिबन्ध तहे सोह धरहिं नं मल्ल जुज्झ ससि राहु करहिं । तहे सहहिं कुरल भमर उल तुलिअ नं तिमिर डिम्भखल्लन्ति मिलिअ ।
मध्यत्रयस्याधस्य हिः । ८।४।३८३ ।। त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदाधं वचनं तस्यापभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति ॥
पछुत्वे हुः।८।४।३८४॥
त्यादीनां मध्यमत्रयस्य सम्बन्धि वहुवर्थेषु घर्तमानं यद्वचनं तस्यापभ्रंशे हु इत्यादेशो भवति ॥ बाल अम्भस्थणि महु महणु लहुई हुआ साई । जब इच्छहु वत्तरणउं वेहु म मग्गहु कोइ । पक्षे इच्छह इत्यादि ।
अन्त्यत्रयस्याद्यस्य उं। ८।४।३८५। त्यादीना मन्त्यत्रयस्य यदाधं वचनं तस्याऽपभ्रंशे इत्यादेशो
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परिशिष्टम् ।
१४९'
वा भवति ॥
बहुत्वे हुं । ८।४ । ३८६ ॥ त्यादीना मन्त्यत्रयस्य सम्बन्धि बहुप्वर्थेषु वर्तमानं यद्वचनं तस्य हुं इत्यादेशो भवति ॥ वग्ग घिसाहिउं जहिं लहडें पिय तहिं देसाहिं जाहुं । रणदुभिक्खें भग्गाई विणु जुज्झें न घलाई । पक्षेलहिमु इत्यादि। हिस्व योरिदुदेत् ॥ ८।४।३८७ ॥
पञ्चम्यां-(लोडादेशस्य संज्ञेयम् ) हिस्वयो रपभ्रंशे इ-उ-ए, इ. त्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति ।।
वत्स्येति-स्यस्य सः।८।४:३८८॥
अपभ्रंशे भविष्यदर्थ विषयस्य त्यादेः स्यस्य सो वा भवति ॥ दिअहा. जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि । जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि । पक्षे-होहिहि
क्रिये कीसु ८।४। ३८९ ॥ ' क्रिये इत्येतस्य क्रिया पदस्यापभ्रंशे कीसु इत्यादेशो वा भवति ॥ सन्ता भोगं जुपरिहरइ तलु कन्तहो वलि कीसु । तसु दइवेणवि मुण्डियउं जसु खल्लिहडउं सीसु । पक्षे-साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृत शब्दादेषः प्रयोगः । घलिकिज सुअ.
भुवः पर्याप्तौ हुश्च ॥ ८।४। ३९० ॥ 'अपभ्रंशे भुवो धातोः पर्याप्ता वथैवर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशो भवति ॥ अइ तुङ्गत्तणु जं थणहं सा च्छेयउ न हु लाहु । सहि जइ केवा तुडिवलेण अररि पहुचाइ नाहु ॥
गो बुवो घा८।४।३९१ ॥ अपनंश-वूगो 'वूषः' धातो धुंब इत्यादेशो वा भवति ॥
ब्रजे बुंः । ८। ४ । ३९२ ॥ वह सुहासिउ किंपि । पक्षे-इत्तउं व्रोप्पिणु सउणिहिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि। .
अपभ्रंशे बजते र्धातो र्बु इत्यादेशो भवति ॥ बुअइ, बुजेप्पि, बुप्पिणु।
हशेः प्रस्सः ८।४।३९३॥ . अपभ्रंशे शे र्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति । प्रस्सदि ॥
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प्राकृतप्रकाशे प्रहे गुणहः ८१४ । ३९४॥
अपभ्रंशे प्रहे र्धातो गुण्ह इत्यादेशो भवति ॥ पढ गुण्हेप्पिणु वतु। __ तक्ष्या हीना छोल्लादयः ८।४ । ३९५ ॥ .. अपभ्रंशे तक्षि प्रभृतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय आदेशा भवन्ति ॥
मादिग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलभ्यन्ते ते उदाहार्याः॥ .. अनादी स्वराइसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां,-ग-घ-द-धध-भाः ८।४। ३९६ ॥ अपभ्रंशेऽपदादो वर्तमानानां स्वरात्परेषा मसंयुक्तानां क-ख-त-ध-प-फां स्थाने ग-ध--ध-ध-भाः प्रायो भवन्ति ॥ कस्यगः-जं विउ सोम ग्गहणु असहहिहसिउ निस पिअमाणुस विछोह गहगिलिगिलि राहमयडः । खप घः ॥ अम्मीणि सत्थावत्यहिं सुधिं चिन्तिजा माणु । पिए दिहल्लो हलेण का चेअइ अप्पाणु । तथपफानां दधबभा:
सपधु फरेप्पिणु कधिदु मई तसु पर सभलउ जम्मु । अनादाविति किम् । लषध करेप्यिणु-अत्र कस्य गत्वं न । स्वराविति किम गिलिगिलि । असंयुक्तानां किम् एक्काह । प्रायः इति घ. . चिन अकिपा इत्यादि।
मोऽनुनासिको यो पा ८।४। ३९७ ।।
तथोक्तस्य मस्य अनुनासिको वकारो वा भवति ॥ कवल कमलु । भरु भमरु । लाक्षीणकस्यापि । जिवं, तिव जेवं तेथें । अनादावित्येव । मयणु । असंयुक्तस्येत्येव । तसु पर सभलउअम्मु ।
अभूतोऽपिकचिद् । ८।४।३९९ ॥
अपभ्रंशे कचिदविद्यमानोऽपि रेफो भवति ॥ वासु महारिसि एउ भणइ जासु सत्थु पमाणु । मायहचलण नवन्ताहं दिधिगङ्गाहाणु ॥ क्वचिदिति किम्, बासेणवि भारह खम्भि बद।
आद्विपत्सम्पदा दर ८।४। ४०० ॥
अपभ्रंशे आपद् विपद् सम्पदां द इकारो भवति ॥ आवइ । विवा संपइ । प्रायोधिकारात् गुणहिं न सम्पय कित्तिपर ॥
कथं-यथा-तथा थादेरेमेमेहेवाडितः । ८।४।४०१॥ अपभ्रंशे कथं यथा-तथा इत्येतेषां थादेरवयवस्व प्रत्येकम्
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परिशिष्टम् ।
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एम-इम-इह - इध - इत्येते डितश्चत्वार आदेशा भवन्ति ॥ कैम समप्पर दुरुदिणु किध रयणी छुडहो । नव वहुदंसण लालसउ वह मणोरह सोइ । ओगोरीमुहनिजिअउ वदलिलुक्कु मियङ्क । अन्नुविजा परिहविय तणु सो किवँ भवर निसङ्क । विम्बाहार तणु रयण वणु किह ठिउ सिरिभाणन्द । निरुपम - रसु पि पिचि जणुसेसहो दिष्णी । सुद्द एवं तिधजिधा बुदाहार्यौ । यादृक्ताडक्कीदृशदिशांदादेर्देहः ८ । ४ । ४०२ ॥
एषां दादेरवयवस्य डित एह इत्यादेशो भवति || महं भणिअउ चलिराय तुहं के हउ मग्गण पहु ॥
अहु तेहु नवि होइ वढ सां नारायणु एहु |
अतां डइसः ८ । ४ । ४०३ ॥
अदन्तानामेषां पूर्वोक्तानां दांदेरयवस्य इस इत्यादेशः । जसो तसो - असो ।
यत्र तत्रयो स्त्रस्य डिदेत्तु ८ । ४ । ४०४ ||
पतयो त्रस्य एत्थ अन्तु इत्यतौ डितौ भवतः ॥ जइसो घडदि प्रायवादी केत्युवि लेrप्पणु सिक्खु । जेत्थुवि तेथुवि पत्थु जगिभण तो तहि सारिक्खु ॥ जन्तु-ठिदो तसुठियो ।
एत्थुकुत्रात्रे ८ । ४ । ४०५ ॥
कुत्राश्यास्त्रस्य डित् पत्थु आदेशः ॥ केत्युवि, लेपिणु । सिक्खु ॥ जेथुषि, तेत्थविपत्थु जगि ।
यावत्तावतो वांदेमंड महिं । ८ । ४ । ४०६ ॥
अपभ्रंशे यावत्तावदित्यव्यययो वैकारादे रवयवस्य-म-उ-महिं इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति ॥ जाम न निवडइ कुम्भ यडि सीह चवेड चक्क । ताम समत्त मय गलहं पर पह वज्जेह ढक्का । तामहिं अच्छउ इयरुजणुसु-अणुवि अन्तरुवे ॥
वायस्तदांतो डेवडः ॥ ८ । ४ । ४०७ ॥
अपभ्रंशे यद् तद् इत्येतयो रत्वन्तयो यवित्तावतोर्वकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति ॥ जेवबु अन्तरु रावण रामहं सेवड अन्तर पट्टण गामहं ॥ पक्षे जेतुलो, तेतुलो ।
वेदं किमोर्यादेः ८ । ४ । ४०८ ॥
इयत्कियतो यकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा
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१५२
प्राकृतप्रकाशे
भवति ॥ एघड अन्तर । केवड अन्तरु । पक्षे एसलो केत्तुलो।
परस्परस्यादिरः ८।४।४०९॥ अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति । अवरोप्परु ॥ म्हो म्भो धा।८।४।४१२॥ अपभ्रंशे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इत्यादेशो भवति ॥
"झ इति पक्ष्म श्म म स्म हां म्हः" इति प्राकृत लक्षणविहिसोत्रगृह्यते सस्कृतेतदसम्भवात् । गिम्मो सिम्भो । वम्भते विरला केविनर जे सबङ्ग छइल्ल । जेवङ्का ते वञ्चयर जे उज्जुअ ते धइल्ल ।
प्रायसः प्राउ-प्राइव प्राइम्व पग्गिम्वाः ।८।४।४४४। प्रायस् इत्येतस्य-प्राउ-प्राइव प्राइम्व पग्गिम्व इत्येत आदेशाः भवन्ति ।
वान्यथोनुः ८।४।४१५॥ अन्यथा शब्दस्यनुर्वा ॥ कुतसः कउ कहन्तिहु । ८। ४ । ४१६ ॥ स्वष्टम् ॥ तत-स्तदो स्तोः ८।४।४१७॥ स्पष्टम् ॥
एवं-परं-सम-धुवं-मा-मनाक, एम्ब-पर-समाणु-बु-मं-म. णा ॥८।४।४१८।
एव मादीनाम् यथाक्रमाम् एम्वादय आदेशा भवन्ति । किला-ऽथवा-दिवा-सह-नहेः, किरा-हवइ-दिवं-सहुँ-नाहि । ८।४। ४२९ ॥ यथाक्रममादेशा शेयाः॥ विषण्णोक्त-वर्त्मनो बुल-वुत्त विच्चं।८।४।४२१
विषण्णादीनां यथाक्रमं वुन्नादय आदेशा भवन्ति ॥
शीघ्रादीनां वहिल्ला दयः। ८।४२२॥ . शीघ्रस्य वहिल्लः । झकटस्य घडलः । अस्पृश्यसंसर्गस्य-वि. हालः। भयस्य-द्रवकः । आत्मीयस्य अप्पणः। असाधारणस्य सड्ढ. लः। कौतुकस्व कोडुः। क्रीडायाः खेडुः । रम्यस्य खण्णः। अद्भुतस्प" ढकरि । हे सखीत्यस्य हेल्लिः । पृथक् गृथगिव्यस्य जुअं जुः । मूढस्य नालिअवढी । नवस्य नवखः । अवस्कन्दस्य दडवडः । सम्बन्धिनः केरतणौ मा भैषीरित्यस्य-मम्भीसेति । स्त्रीलिङ्गम् ।
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परिशिष्टम् ।
यघटतत्तदित्यस्य-जाइट्टिा ।
हुहुरु-घुग्घादयः शब्द-चेष्टाऽनुकरणयोः ८ । ४ । ४२३ ॥
अपभ्रंश हुहुर्वादय । शब्दानुकरण घुग्घादये श्चेष्टानुकरणे यथा संख्यंप्रयोक्तव्याः॥
घइमा दयोऽनर्थकाः ॥ ८।४।४२४ : मादि पदाद-खाई इत्यादयः ॥ तादर्थ्य केहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः ८ । ४ । ४२५ . एतेपश्च निपाता स्तादर्य प्रयोक्तव्याः । युष्मदादे रीयस्य डारः। ४ । ४३४ ।
अपभ्रंशे युप्मदादिभ्यःपरस्य ईय प्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवः ति । तुहार । त्वदीय ।
प्रस्य उत्तहे। ८।४। ४३६ ॥ .. अपभ्रंशे सर्वादेः सप्तम्यन्तात्परस्य श्र प्रत्ययस्य डेत श्यादे. शो भवति । तष्यस्य पइबउं एव्वउं पवा ८।४। ४३८ ।
अपभ्रंशे तव्यप्रत्ययस्य इएन्वर्ड एब्वउं एवा इत्येत आदेशा भवत्ति ॥
क इ-इउ-इवि-अवयः ८।४।४।४३९ ॥ काप्रत्ययस्य एतेचत्वार आदेशाः ॥ तुम एव मणाऽणहमणाहिं च ८।४।४० ॥
अपघ्रशे तुमः प्रत्ययस्य एवम् अण-अणहम्-अणहि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति ।
तृनोऽणअ ८।४।४४३ ।। अपभ्रंशे तृन् प्रत्ययस्य अणअ इत्यादेशो भवति ॥ इधार्थे नं-नउ-नाइ-नावह-जणि-अणवः । ८।४।४४४।। अपभ्रंशे इचार्थे एते षट् भवन्ति ॥ लिग मतन्त्रम् । ८।४।४४५ ॥ अपभ्रंशे लिन मतन्त्रं व्यभिचारि प्रायो भवति ॥ शौरसेनीवत् ८।४।४४६ ॥ अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति । व्यत्ययश्व ८।४।४४७
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प्राकृतप्रकाशे
प्राकृतादि भाषालक्षणानां व्यत्ययश्च भवति । यथा मागध्यां तिष्ठश्चिष्ठः इत्युक्तं तथा प्राकृतपैशाची शौरसेनीयपि भवति । चिष्ठदि । अपभ्रंशे रेफस्याधोवा लुगुक्तो मागध्यापि भवति । शद-माणुश-मंश-भालके । कुम्भशहश्र शाहे शंचिदे इत्याधन्यदपि द्रष्टव्यम् । न केवलं भाषालक्षणानां त्याद्यादेशानामपि व्यत्ययो भवति । येवर्तमानेकाले प्रसिद्धास्तेभूतेऽपि भवन्ति । अहपे.
छइरहुतणओ । अथप्रेक्षांचके इत्यर्थः । आभासा रयणीअरे । आषभासेरजनीचरानित्यर्थः । भूते प्रसिमा वर्तमानेऽपि । सोही एस वण्ठो। शृणोत्येष वण्ठ इत्यर्थः।
शेष संस्कृतवत्सिद्धम् । ८।४।४४८ । शेषं यदत्र प्राकृतभाषासु एमेनोक्तं तत्सप्ताध्यायीनिवद्ध संस्कृतवदेव सिद्धम् ।
हेट-ट्टिअ-सूर-निवारणाय छत्तं अहो इव वहन्ती । जयह ससे. सावराहसास दुरुक्खुय। पुहवी ॥ अत्रतुझं आदेशोनोक्तः सच संस्कृतवदेव सिद्धः। उक्तमपि क्वचित् सँस्कृतवदेव भवति । यथा प्राकृते उरस शब्दस्य सप्तम्येकवचनान्तस्य उरे उरम्मि इति प्रयोगौ भवतस्तथा कचिदुरसीत्यपि भवति । एवं सिरे सिरम्मि । सिरसि । सरे । सरम्मि । सरसि।
इति हेमानुशासनेऽपभ्रंशविचारः॥
- लाटी चूलिकादीनां विशेष मेदाऽभावान ग्रन्थ विस्तरो वित. म्यते मागध्याद्याः सविशेषं पूर्वमेवोक्ताः ॥
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परिशिष्टम् ।
अकारान्तः पुलिङ्गो (वच्छ =वत्स, वृक्ष शब्द :
प्र० वच्छो वत्सः । वृक्षो घा एवं सर्वत्र ए० वच्छा, । वच्छे= वत्साः । व० (१) ।
द्वि० वच्छं = वत्सम् । ए०६च्छा, घच्छे = वत्सान् । व०
तृ० वच्छण ( २ ) = वत्सेन । ए० वच्छा, वच्छेहिहिं, बच्छंहि=
वत्सः । ६० पं० वच्छादु, वच्छाहि षच्छाओत्सात् । ए० वच्छन्तो, धच्छाउ वच्छाहितो - इत्यादि क्वचित् वच्छार्हितो=वच्छ सुंतो, वच्छेहितो, सुंतो, वत्सेभ्यः । ६०
५० वच्छस्सवत्सस्य । ए० वच्छाण, वच्छाण = वत्सानाम् । ब० सं० वच्छे, षच्छेम्मित् प० वच्छेदि, हूं (३) वत्सेषु सं-वच्छ,
च्छो = हे वत्स | शेषं प्रथमावत् गोशब्दः पुंसि गावो, गावे-इत्याद्यदन्तवत् बच्छा । एव मे.
(१) प्राकृत भाषासु द्विवचनं चतुर्थी विभक्तिश्च भवति । "सर्व त्र षष्ठीव चतुर्थ्याः" इति क्रमदी वरः । यथा विप्पस्स देहि । (२) कल्पलतिकाकारमते घच्छे णं, वच्छाणं दामोरूपम् । (३) अपभ्रंशे सप्तम्या बहुवचने सुपि हुम्वाक्कचिद्भवति ।
१५५
कारौकारान्तादयः एवं देव
कसण इत्यादयः अकारान्ताः शब्दाः बोध्याः ॥
इकारान्तः पुल्लिङ्ग: ( अग्गि= अग्नि शब्दः)
प्र० अग्गी=अग्निः । ए० (१) अग्गीओ = अग्नयः । व० अग्गिणो (२)
ए०
द्वि० अग्गि=अग्निम् | प० अग्गी (३) अग्गिणो=अग्नीन् । व० तृ० अग्गणा=अग्निना । अग्गीहि, अग्गीहिं=अग्निभिः । व० पं० अग्गदुद्दि अग्गीदो=अग्नेः । ए० अग्गीसुंतो अग्गीर्हितो=अनिभ्यः । च०
० अग्गिस्स, अग्गिणो=अग्नेः । प० अग्गिण, (अग्गीणं) कचित् अग्गिणं=अग्नीनाम् । व० स० अग्गिम्मि=अनौ । अग्गीसु, सु = अग्निषु । प० संअग्गि = हे अग्ने ? । ए० एवं गिरि- अद्यादयः
प०
(१) अग्निशब्दस्य प्राकृते अग्गी, अग्गिणी इति द्वे रूपे भवतः इति केचित् ।
(२) क्रमदीश्वरः "जस ओरो रिणश्चात्" इति सूत्रेण अग्गओ, अग्गरो, साहओ, साहरो इत्येतानि साधितवान् ।
(३) अग्गिओ, अग्गि, गुरुओ, गुरु, इति केषाञ्चिन्मते शलि रूपं स्यात् ।
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प्राकृतप्रकाशे । उकारान्तः पुंल्लिगे वाउ- ए० पिअरेहि,हिपितृभिः । ३०
पं० पियरादो, दु, हिं (पिदुणो वायु, शब्दः
शौर०)=पितुः। ए० पिअरहितो, प्र० घाऊ = वायुः । ए० पाउणो,
सुतो पिदुहितो, सुंतो, = पितृधाउओ, घाउओघायवः । व०
भ्यः । १० वि० वाउंपायुम् । ए० घा-बपिअरस्स = (पिदुणोशोर। उणो-वायून् । व० घाउहू, पितुः ए. पिअराणं, ण पिदुणं = इं ( अपभ्रंशे)
पितृणाम् । घ० ४० पाउणाघायुना । ए० सपिअरे = पियरम्मि,पिदुम्मि पाऊहि,वाऊहि = वायुभिः।व० शौर० पिअरेसु सु-पितृषु पं० वाउदो,दु,हि % वायोः। ए० (पिदसु, सु शौर-) पितरि । ए० घाउहितो, सुतोवायुभ्यः ।
| सं० हे पिअ, पिअर = हपितः हे १० धाउस्स, बाउणोधायोः । पिअरा-हेपितरः एवं जामातृए० वाउणं, ण = वायूनाम् । २०
भ्रातृ प्राभृतयः। स० वाउम्मि चायौ । ए०
ऋकारान्तः पुंल्लिङ्गो (भत्तारबाऊसु, मुंवायुषु । २० सं० वाउ% हे वायो। ए० पाउ.
भर्त) शब्दः ओ-हे वायवः। एवं-कारु गुरु |
प्र० भत्तारोभर्ता । ए० भ. प्रभृतयः हेमचन्द्र मतानुसारेण
सारा, भत्तुणो= भारः । ब० सर्वे ईकारान्ता ऊकारान्ताश्च
द्वि० भत्तार = भर्तारम् । ए० प्राकृते स्वाः प्रयुज्यन्ते अतः ।
| भत्तारे, भनुणो= भर्तृन् । १० । अग्निवायुवत्तेषां रूपाणि भवन्ति ।
तृ० भत्तारेण,भसुणा= भाए. ऋकारान्तः पुल्लिङ्गः (पि. भत्तारोहिं भन्नुहि = भर्तृभिः। घ०
अर=षित) पं० भत्तारादु,हि, भतुणो भत्ताप्र० पिआ, (पिदा-शौर-) पि. रादोभर्तुः । ए० भतारहितो, अरो पिता । ए० पिरो, पि. सुंतो भसुहितो, सुतो= भर्तृअरा पितरः । ध
म्यः । ३० द्वि० पिअरं= (पिदरंशौर-) १० भत्तारस्स,भसुणो = भर्तुः। पितरम् । ए० पिदुणो, पिअरे ए० भताराणं, भत्तुणं भर्तृणा. पितृन् । ३० तृ० पिदुणा, पिअरेण पित्रा। स० भत्तारम्मि, भन्तुम्मि, भत्ता
म्
।
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परिशिष्टम् ।
रे-भर्तरि । ए० । भात्तारेसु, सुं। एतेषां मालावद्रूपाणि शेयानि । भत्तुसु, सु= भर्तृषु । घ० सं० हे भत्तार = हे भर्तः । ए० इकारान्त स्त्रीलिङ्गो (मति) हे भत्तारा: = हे भारः । ३० एवं
शब्दः कहूं होतृ प्रभृतयः ॥
प्र० मती=मतिः । मतिओ, उ, आवन्तःस्त्रीलिङ्गो (माला शाब्दः)
| मतीमतयः । २०
द्वि० मति मतिम् । ए० मतिप्र० माला-माला । ए० माला ओ, उ, मतीमतीः। घ० मालाउ, ओ, मालाः । घ०
तृ० मतीए, इ, आ, अमत्या। द्वि० माल = मालाम् । ए० मा ए० मतीहि, हिम्मतिभिः। व० लाउ, ओ, मालामालाः । ५०
पं० मतीअ, आ, । मतीए, इतृ० मालाइ, अ, आ मालाए %
मत्याः ए० मतीहितो, सुतोमालया । ए० मालाहि, माला
मतिभ्यः । व० हिमालाभिः । प०
१० मतीए, इ, आमत्याः । ए. पं० मालाए, मालादु,हि,माला
मतीणं, ण=मतीनाम् । व० दो मालायाः। ए० मालाहिंतो,
स० मतीए, इ, अ आमत्यां। संतोमालाभ्यः । २०
ए० मतीसु, सुं-मतिषु । सं हे प. मालाइ, मालाए =माला
मती- हेमति । ए० हे मती, याः। १० मालाणं, णमालाना.
आहेमतयः । १० एवं रुचि मू। ब०
बुद्धि प्रभृतयः समालाइ,मालाए %मालयाम्। एक मालासु, सुं,-मालासु । २०
धूआ। दुहिआ-दुहिता ॥ वहि. सं० हे माले-हे माले । एक
णी, भणी-भगिनी ॥ हे मालाओ-हे मालाः । व०
म्वत्रादेर्डा ८।३। ३५ स्वना. एवं वाला, लता, छाहा, हलद्दा प्रभृतयः। स्वस् ननान्द दुहित
देः स्रियां वर्तमानात् डाप्रत्ययो
भवति ॥ इत्येतेषां क्रमात ससा, नणंदा दुहिआ (१)इत्यादेशाः भवन्ति ।
मातृ-पितुः स्वसुः सिआ-छौ ८
मातृ पितृभ्यां परस्य स्वस (१) दुहित भगिन्यो धुंआ वहि- शब्दस्य सिआ छा इत्यादेशी ण्यौ ८।२। १२६॥
भवतः । माउ-सिआ माउ-छा, अनयोरेता,वादेशौ वा भवतः। पिउ-लिमा पिउ-छा । हे।
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१५८
प्राकृतप्रकाशे
ईकारान्तः स्त्रीलिङ्गो ( णाई%3 ५० धेहि, हिं धेनुभिः । ५० नदी) शब्दः
पं० घेणयो,इए,अ,आ धेन्धाः ।
ए० धेहितो,सुतोधेनुभ्यः। १० प्र० गाई, आ नई, आनदी। साधणए, इ, आधेन्वाः । ए० ए० णाईओ, मा मईओ, ओ3
घेणूणं, ण=धेनूनाम् । १० नद्यः । १०
स० घेणूए, इ, अ, आधेन्याम् वि० णाई नई = नदीम् । ए०
१० धेनूसु, सुं धेनुषु णाई, आ, आ नइ, आ, आ= नदीः। ध०
सं० हेधेणु, णू हे धेनु-शे० प्र. तृणईए, इ, अ, आ नईए, इ, थमावत् एवं तनु रज्जु प्रियङ्गु अ, आनधा। ए. ईहि-हि
प्रभृतयः नईहि, हिं नदीभिः । १० ऊकारान्तः स्त्रीलिङ्गो पं० णाईए, अ, ई, भा नईए, अ,
(वह-वधू) शब्दः इ. आ= नद्याः । ए० गाई, णाई
ड० घर पधूः । ए० घहू, बहू हितो, सुतो नई, नईहितो, सुं. हिता, सुता नई, नहाहता, सु ओ, उवधः। घ० तो-नदीभ्यः । व०
| द्वि० षहूं वधूम् । ए० घडव. षणाईए, ई, अ, आ नईए, ई,
ओ, उबधूः। घ. अ, आनधाः। ए० णाईण, ण |
तृ० बहूए, इ, अ, आवध्या नईण, ण नदीनाम् । व.
घडूहि, हिंघधूभिः । ३० सं०णईए, इ, अ, आ नईए, इ,
। पं० घहूदो,बहूए,अ,आइ-पध्वाः अ, आ =नद्याम् । ए० सई
। ५० वरहितो, सुंतोघधूम्यः । १० सु, सुनदीषु । २०
ष. यहए, इ, अ, आवध्वाः । सं० हे णाइ-शेषं, प्रथमावत् ।
ए० वरण, णं-घधूनाम । व० एवं गौरी छाही हलही प्रभृतयः। स बहूए, इ, अ, आ-वध्वाम् । उकारान्तः स्त्रीलिङ्गो बहूसु, सुंघधूषु
| सं हे बहू-हेवधु शे० प्रथमाधत् (धेनु) शब्दः प्र० घेणू = धेनुः । ए० धेणू घेणू.
एवं धामोरुप्रभृतयः ओ, घेणूउ% धेनवः ।३०
ऋकारान्तः स्त्रीलिङ्गो द्वि० धेणुधेनुम् । ए० घेणू (माअ-मातृ) शब्दः । धणूओ, उ, धेनुः। व० प्र० माआ = माता । ए० मा. तृ० घेणूए, इ, अ, आ% धेन्वा। आः-मातरः । ध.
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परिशिष्टम् । द्वि०, माअं (मादरं शौर) इकारान्त नपुंसक लिङ्गो मातरम् । ए० माए = मातृः । ३० (दहि-दधि) शब्दः । तृ माआइ, अ, आ, ए = मात्रा
प्र. दहि,दहि-दधि । ए. ए० माएहि, हिमातृभिः । २०
दहीणि, ई, = दधीनि य० । पं० मा आदो, ए, अ, आ=
द्वि० एवं द्वितीया सं० हे दहि = मातुः। ए० मा आहिं तो, सुतो=
हे दधि शे० प्रथमावत् शे० पु. मातृभ्यः । व०
लिङ्गेकारान्त शब्दवत् ॥ ष० माआइ, ए,अ, आ-मातुः ।
उकारान्त नपुंसक लिङ्गो ए० माआणं, ण=मातृणाम
स. मांआइ, ए, अ, आस्मात (महु-मधु) शब्दः। रि। ए० मा असु, सुं= मातृषु । प्र० महु, महु = । ए० महूणि, .
सं० हमाअ = हे मातः । हेमच महूइं, ई-मधूनि । न० एवं मातृशब्दस्य मा अरा, माई इति | द्वितीया सं० महु हे मधु. धो रूपद्वयमाबन्त मीवन्तञ्च पपाठ। शेष मुकारान्त पुंल्लिङ्गवज्ज्ञेयम् ॥ ओकारान्त स्त्रीलिङ्गगोशब्दस्य
नकारान्त पुंल्लिङ्ग आत्मन शब्दः। गावी, गाई, गोणी इति रूपाणि भवन्ति अतः ईकारान्त णवत्
प्र० अत्ताणो, अप्पा, णो,अत्तारूपाणिभवन्ति । गोपोतलिका रूपन्त्वाबन्त शब्दधज्ज्ञयम् ॥
अपाणा, णो,
आप्पा-आत्मानः अकारान्त नपुसंक लिङ्गो ।
अप्पा , (वण-बन) शब्दः
अप्पाणो। प्र० घणं = धनम् ए० घणणि
अप्पाण। षणाई, घणाघनानि । घ०
वि० अप्पाणं अप्पं, अप्प-आ. एवं द्वितीया। सं० हेवणं = हेवन
स्मानं शेष पुल्लिङ्गाकारान्तशब्दवत् ॥ एव धण कुल प्रभृतयः
अप्पणो अप्पाणो।
STIERI
अप्पाणु. अप्पु।
आत्मनः
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१६०
प्राकृतप्रकाशे
तृ० अप्पणइआ-अ.) द्वि० रायं राअं= राजनम् । प्पणा, अप्पीणा, अ
आत्मभि राया, रायाणो, राए = राक्षः। प्पोणण अपहो आत्म । ना अप्पाणोहि अपेहि ) | राआणो। पं० अप्पाणाओ अपणो, अप्पा.
तृ राणा, राएण, रण्णा, ओ अप्पादो, दु, हिआत्मनः ।
राचिना, अप्पाणाहितो, सुंतो, अप्पाहि
रना=राशा तो, सुन्तो-आस्मभ्यः। ष. अप्पाणस्स, अपणो%3
राईहिं, रापहि, रायाणेहि = रा. मात्मनः । अप्पाणाणं, अप्पाणे
जभिः
पं० रण्णो, रायाउ, राआदो, आत्मनाम्। स० अप्पाणम्मि,अप्पे-आत्मनि
दु, हिराक्षः अप्पाणेसु. सुं अप्पसु-आत्मसु ।
राईहिन्तो, सुन्तो, राआहिंतो=
राजभ्यः सं० हे अप्पं । इत्यादि(१)।
१० राइणो, रणो, राअस्स (राजन्-राअ-)
रायस्स = राशः प्र० राय = राआ(१) = राजा । राआणं राईणं,राआण्ण = राशाम राया, राआ, रायाणो, राआणो स० राइम्मि,रामम्मि, राए रा. राणा राजानः
शि= राशि राइसु, राएसु, सु(१) भगवत् भवच्छब्दयोः स. राजसु, राआ, राअं रायं हे म्बोधन क्रमदीश्वरो भगवं, भवं राजन् । लाचा-राजन् (२) इति।
एवं ब्रह्मन् , युवन् , अध्वन् , एवं (१) हेमचन्द्रेण विकल्पेन ना- मादयो यथा लक्ष्य मवगन्तव्याः। न्तस्य पुसि "आणो"आदेशो विहितः । यथा राआणो, राआ। (२) इदं पैशाच्या बोध्यम् , अ. क्रमदीश्वरेण-राइणा । राइण्णा, न्यत् समानम् । रण्णा, इति साधितम्।
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#
परिशिष्टम् ।
अथ सर्वनामानि । ( सर्व )
सव्वा =सर्वः सव्वे = सर्वे | १|| व्वं = सर्वम् । सर्व्व = सर्वान् । २ । स. सव्वेण = सर्वेण । सर्व्वहिं = सर्वैः । ३ । सर्व्वदोष, तो दुहि सर्वस्मात् । सवेहिंतो. सुतो = सर्वेभ्यः । ५ । सव्वइस = सर्वस्य । सवेसिं सव्वा
सर्वेषाम् । ६ । सव्वसि म्मि, स्थ, हिं = सर्वस्मिन् । स वेसु सुं सर्वे । ७ । स्त्रीलिङ्गे नपुसकेचादन्तवत्
(तत् =त )
प्र० स, लो, सु=सः ति, ते = ते
सा=सा
ता ताओ, ताउ, तीओ=नाः
त्रं, तं = तत्
द्वि० तं = तम् तं = ताम् । ते तान् तृ० णेण = तिणा तेण, तेणं, नेन = तेन
हिं, तेहि, तेहि = तैः णाए, तिथे, नाइ = तया ताहि = ताभिः पं० तम्हा तत्तो, ३-१० तहा, तदो ६-१०ता, ताओ = तस्मात् तत्तो ६-१० तो ६-१० तेभ्यः ष० तस्स, तसु, तासु = तस्य
२१
१६१
ताण, ताणं, ताल, तेसि = तेषाम् तहे, तास, ताप, तिस्सा, तीर, तीए, तीसे = तस्याः तसिं=तासाम्
तस्मि, तहिंस, तहिं ( = तस्मिद् तद्दआ = तदा ६-८ तस्मिन्काले
ताला ता काले
ताहि
= तस्याम्
तीए, तासुतासु ।
(त्रिषु लिङ्गषु यद् शब्दः )
प्र० जो, जुनयः । जे, जि = थे । जा, जी = या । जाओ, जीओ = - याः । ज, जु, (धु) अप० = यत् । जाई = यानि ।
द्वि० जं = यम् । जे = याम् । जं याम् ।
तृ० जिणा, जेण = येना जेहि, यः । जीस = यया ।
पं० जह्मा, जन्तो, दो, (जहां) काले जाओ = वस्मात् । जाहिन्तो, सन्तो. तुमत्तो, तुम्ह, तुम्हत्तो, तुरहा, जाओ (अप) जाहिन्तो, सुन्तो = येभ्यः ।
प० जसु, जाहं. जेसि, जस्ल = यस्य | जाण= यत्पाम् | जिस्सा, जीए, जीसे, जास, जासु जोसिं जाण= येषाम् अंहे = यस्याः । जाण=यासाम् ।
स० जम्मि, जसि, अहिं, =य
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१६२
प्राकृतप्रकाशे. स्मिन्, (जाला जाहे) जइआ। वि०वणं.इणमो इदं,इम,इमुदं (काले,जेसुम्येषु। जीए, जाहि= (शौर०) आयई = इमानि = अप०) यस्माम् । जासुम्यासु॥ इमण-इमम्, इमे, णे-इमान् (त्रिषुलिङ्गेषुकिम् शब्दरूपाणि) तृ० इमिणा इमेण, णेणं इमणं =
| अनेन इमेहि, पहि, हिं% एभिः प्र० को-कः । के-के ।
फाइमाइ, इमाए, इमीप-अनया का। किं-किम्। .
बाहिं, इमाहिं = आभिः द्वि० कं-कम् । के-कान् ।
पं० इदो, इमादो, इत्ता,= अस्माकाई-कानि।
न् इमेहिंतो, इम एभ्यः सुन्तो । किणा, के-केन । कहि, ब० अस्स, अयहो, इमस्सस% कोहि केः । काइ, काए, कोइ अस्य । इमाण, सिंशौर०%एषाम् । कीए-कया काहिं = काभिः। इमाइ = अस्याः सिं= आसाम् पं० कला, (कुदो शौ०) कुत्तो, अस्सि, इमम्मि इमस्सिअ. दो-कस्मात् काओ, किणो, स्मिन् । एसु= एषु । दो= इतः । किहे, कीस (कहां) अप० काहि तो, संतोकेभ्यः। १० कसु, कासु, कास. कस्स =
(अदम्-) कस्य। कास, केसि, काणं-केषा
प्र० अह-अलौ पुं० अह = असो म् । कास, काए, काइ, कह, स्त्री अह = अदः नं० अमू असौ किस्सा, कास, कीअ, की
पु० स्त्री अमुं-अदः मोइ = अमीकीइ, कीए, = कस्याः । काण -
आमून् अमुणा अमुना इम्मि कालाम्।
अमुष्मिन् अयम्मि= अमूसु-अ स० कस्मिन् ,कहिं कस्सि, कम्मि, मूषु अन्य रसुगकम् । कत्थ = कस्मिन् (कहा, कइया, काला-काले) केसु, सु = केषु ।
(एतत्-) काहे, काहिं, कीए = कस्याम् । प्र० इणम्, एस,एसो, एहो, एपः कासु, कोसुकासु । इणमो, एसा, एह, एही, - एषा
| एआएताः, एतं । (
त्रिषु लिन इदम्) द्वि० एअ, एद. एस. एह, एतत प्र० अयं = (अप०) इमो, इमे-अ-ए-एते यम् इमा, अं, इमिआ - इयम् एआईएतानि इमा- इमाः
। एडएतान्
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परिशिष्टम् ।
तृ० एएण, एदिणा= एतने प. अम्ह, अम्हं मह मज्झ, म. एयाए- एतया
| जमु, मज्झं, मम, मह, शर महं पं० एआओ= एतस्मात् | महु, (अप०) । मह्य = (भप०)मे एताहे, एत्तो एतेभ्यो वा। शोर०% मम अम्हं अम्हई अष० एअरस, एदस्य = एतस्य म्हाण = (शौर०) अम्हाणं, एदाह, एआण- एतेषाम् । | अम्हे, " (अप०) अम्हो , णे, को,
स अयम्मि, = एतस्मिन् ई. मज्झाण, मन्झाण, ममाण, णं स्मि, एअम्मि, एअस्सिं, एत्थ = | महाण, ण अस्माकम् एतस्मिन् एसु, एयेसु एतपु।
स. अहम्मि मह(=शौर० (अस्मद्=)
अप) मई, मए, - (शौर०) म.
ज्झाम्म, ममम्मि, महम्मि, ममाइ, प्र. अम्मि, अम्हि, अह, ही=
मि, मे मयि अम्हासु (अप०) शौर० अहयं. म्मि, हं, हउं,
अम्हेसु, (शौर०) मझेतु ममेसु (अप०) हगे, के% अहं, वयंवा%3D
महेसु अस्मासु (माग०)= अहम् अम्ह अम्हई अ. म्हे अम्हो, मे, मो, घअं, घयं = व.
(युष्मद्-) यम् शौर०
प्र० तं, तु, तुम-(शौर०) तुमयं, द्वि० अम्मि, अम्ह, अम्हि, अहं, णं, णे, मशैर० मई, अप०ममं
तुवं, तुह, तुहु मा (अपभ्रं०) त्व.
म् । उम्हे, तुज्झ, तुझे, तुब्भे मम्ह, मि, मिमं माम् अम्ह अम्हई, ई, अम्हे, (शौर)
तुम्ह = (माग०) तुम्हाइं= (अप०) अप) अम्हो, णे अस्मान् ।
तुम्हे-(शौर० अप०) तुम्हे, भे= . तृणे मह, (अप) मई, मए, म.
_ द्वि० तं, या= (अप०) तई = मए; ममं, ममाइ, मयाइ, मि, मे, अम्ह अम्हाहि अम्हेअम्हेहि = (शौ. (अप) तुए, तु = (शौर०) तुम र अप) अम्हेहि ६-४७ = अ
- मे, वं, ह, पई = (अप०) उ, टहे = स्माभिः
तुज्झ, तुज्झे, तुम्भे, तुम्हई, तुम्हे, 'पं० मइत्तो मत्य = (अप)मज्झतो. तुम्हाह, (अप०) तुम्हे, मेरो ममत्तो, महत्तोमज्झ, मत्ता( =शौ) युस्मान् । मह,-ममादो- (शौर)मत। तृ० तइ, तई, ए(शौर०) तुमइ,
अम्हत्तो अम्हह, अम्हहिंतो ए, तुमं, तुमाइ, तुमे, ते, दि, (अप०)
| दे, मई, भे, तइ, ए-त्वया
यूयम्।
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प्राकृत्तप्रकाशे। उज्झेहि, उम्हहिं उप्हहिं तुझे तु सु, तुहसु, तुहेसु; =युष्मासु हिं, तुम्भेहिं, तुम्हेहि,' तुम्हेहिं अथ संख्यावाचकाः शब्दा: भे शौर० पुस्माभिः पं० तइत्तो, ता, तउ, तहि. .
प्र० दुणि दोन्नि, दोणि, दुवे तो, तुज्झ, तुज्झत्तो तुज्झु, तुभ्र, तुब्भ, तुभत्तो, तउहों, त,
द्वितीया । दाहिं, हिन्द्वाभ्याम् अप० तध्रुहोन्त, ताहोल्त'
वेहिं विहि दोहिन्तो, सुन्तो, वे. तुवतो,तुहतो,तुम्हादो,(शौरत्वत्)
हितो, = द्वाभ्याम् । ६५ । दुण्ह, = उम्हत्तो, उम्हत्तो. तुज्झत्तो, तु
| द्वयोः वैण्णं दोसु वेसुद्वयोः धमत्तो, तुम्हत्तो, तुम्हई, तुम्ह | (अप)तुय्हत्तो, तुम्हाहिंतो,(शौर)
(त्रि) युष्मत् ॥
तिषिणप्रयः।१।
तिष्णि-श्रीन् । २। १० उज्ज्ञ, उब्भ, उम्ह. तव,
तीहिं-त्रिभि ३ । उयह, ए, तइ, तउ, तु, तुं, तुज्झ, ।
तीहितोत्रिभ्यः ५ तुज्झु, तुध, तुभ, तुम, तुमाइ,
तिप्णं त्रयाणाम् ६ तुम, मा. तुम्ह, हं (शौ) तुम्ह, तुत्र, तुह, तुह, ते(शौ) दि, दे %
तीसुत्रिषु (शौ) तह, (शौ) त्वत, उम्भाणं,
(चतुर) उम्हाण, णं, तु, तुज्झ, तुज्झं, चत्तारो चउरो,चत्तारिचत्वारः १ तुज्झ, तुज्झाण, णं तुब्भ, तुम्मा- चउहि = चतुर्भिः ३ चउहितो= णं, तुब्माण, णं, तुमाण, णं तुम्ह, चतुर्थ्यः ५ चउणं चतुर्णाम् ६ म्हं = (अप) तुम्हह, तुम्हा, णं | चउरु% चतुएं ७ (शौ) तुवाण, गं, तुहाण, तुहाणं (पञ्चन् ) भे, वो-युष्माकम् ॥
पञ्चे, पञ्चपञ्च, पञ्चे = पञ्च २ स. तइ ६-३० तइं, ए, तुज्भ- पञ्चेहिं पञ्चभिः ३ पञ्चेहितो म्भि, तुम्भमि, तुमए, तुमभि, तु- पञ्चभ्यः । ५ । पञ्चण्ह = पञ्चानामाइ. तुम, तुम्मि, तुम्हम्मि, तुव. म् । ६ । पञ्चेसु = पञ्चसु । ७: म्मि, पह-त्वयि तुझसु, तुज्ज्ञा- स्त्रीलिङ्गेनपुसकेचादन्तव द्रूगणि सु. तुज्ज्ञसु, तुब्भसु, तुब्भासु, वहुचनएव । तुम्मसु, तुमसु, तुम्हसु, तुम्हासु, इति प्राकृतप्रकाशे परिशिष्टे - (अप) तुम्हेसु, तुवसु, तुबेसु, शब्दरूप दिग्दर्शनम् ॥
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परिशिष्टम् ।
अथ दिमात्रेण धातुरूपाणि भविष्यति प्रदश्यन्ते ।
एक.
प्र० होहिइ, हवाहइ, होज, हो (भू-सत्तायाम् )
जा, होजहिइ, होजाहिइ, होसइ, वर्तमाने
होही, भविष्यति, भविता = प्र० एक० होइ, हुपद, होए, हुव- बहु० होहिन्ति, हुविहिन्ति = भ. ए, हवइ, हवति, हवेइ, भोदि, | विष्यन्ति, भवितारः होज्जा, होजा, होजाइ = भवति म. एक होहिहिसि, हुविहिभूयते च एव मन्यत्र ।
हि, हुविहिसि, होहिहि भवि. वहु० होन्ति हुवन्ति - भवन्ति | ष्यसि, भधितासि । म. होसि, से, हुवसि, से, ह वहु० होहित्था, होहिहु, हुविवेसि भवसि।
स्था, हविहिह = भविष्यथ, भबहु. होह, होहित्थ, हुवह, वितास्थ । हुवहि, त्थाम्भवथ ।
उ० एक० होस्सामि,होस्लामो, उ० एक० होमि हुवामि, हु. होहामि, होहिमि, होस्, हो. वमि-भवामि।
हिमो, भविष्यामि । भवितास्मि । बहु० होमो, मु, हुवामो, मु, भ.
| वहु होहिस्ला, होहित्था, होघामः%
हिओ, होहिमु, होहामो, मु, म,
होस्सामो, होस्सामु, म भविप्र० एक० होहिअ हुवीअ = | ष्यामः, भवितास्मः । अभवत् वभूव, अभुत वहु होहीअ, हुवीअ =अभवन् ,
विध्यादिषु वभूवुः, अभूवन् ।
प्र० एक० होउ, भोदु, होदु, म०, एक होहीअ हुधीअ अ.हुधउ, हुवदु, हुज, होज, होजउ, घः वभूबिथ, अभूः
होज, उभयतु, भवेत् । बहु० होहीअ, हुवीअ अभवत, बहु०होन्तु, हुवन्तु, हवन्तु,भ. वभूब, अभूत
वन्तु, मवयुः। उ. होहिअ, हुवीअ- अभघम्। म० एक० होसु, हुषेहि, हुवसु बभूव । अभूवम्।
हवेहि = भव, भवः । बहु० होहीम,बुधीअ - अभवाम, बहु० होह,हुवह इत्यादि. भ. वभूबिम, अभूम,
वत, भवेत
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१६६
प्राकृतप्रकाशे
उ० एक० होमु-हुवमु इत्यादि धा। काहिन्ति = करिष्यन्ति क. भवानि भवेयम्
तारो धा॥ बहु होमो, हुषमोम्सवाम भवेम म० काहिसि = कर्तासि, करि.
हेतुहेतुमद्भावे ष्य सि वा । काहित्था, काहिह = प्र० एक होज्ज, होजामाणअ करिष्यथ ॥ विष्यत् घहु० होज, जा, होहिन्ति उ० (काह) (काहिमि हेमः) हुविहिन्ति इत्यादि
करिष्यामि । काहिमो, मु, म. म. एक होज, उजा,-होहि करिष्यामः॥ हिसि, हुघि हिसि होमाणं विध्यादौ। इत्यादिअभविष्य
प्र० कुणउ० करउ% करोतु । बहु. होज्ज, जा-होहित्या होसाणा इत्यादि अभविष्यत
| कुणन्तु = करन्तु कुर्वन्तु ।।
म. कुणसु, कुणेसु कुण, करहि, उ० एक० होज, होजा अभवि.
करि, करे, कुरु करहा, करह, प्यम् होस्ला मो,होमाण इत्यादि।
कुणह-कुरत ।। पहु० हान्ता अभ मा, होज,
उ० 'कुणमु, करमु, करेमु, कअभविष्याम
| रवाणि । कुणमो, कमरो, करमो, (कृञ्, करणे वर्तमाने ।)
करवाम ॥ एवं लियपि ।। प्र० कुणइ, कइ = करोति ।
इ-करात । हेतु हेतु ममूद्भावे कुणज्ज, कुणन्ति, करोह = कुर्वन्ति ॥
ज्जा । करज्ज, ज्जा इत्यादि । म. कुणसि, करसि= करो। पि । कुणह, कणिस्था, करह का
णिचि ।
करावद, करावेइ, कारेइ-कार. रिस्थाः कुरुथ ॥
उ० कुणमो, मु, म, करमो, म, यति एवं सर्वत्र। म, करेमो, मु, म, कुर्मः॥ क.
कर्मणि । रोमि, करमि । कुणमि,करवं (हेम) किज्जदि, किज्जदे, कीरते, करोमि ।
कीरई-क्रियते इत्यादि । भूते।
ण्यन्तात्, करीअइ, करावीप्र० काहीस, (अकासि, कासी, |
अइ, कराविज्जइ, करावीज्जइ. काही, (हेमः)) चकार, अकोरो.
करिज्जइ, = कार्यते इत्यादि । त् , अकार्षीत् षा । एवं सर्वत्र ॥ कृत्सु, (क्त)(१) । भविष्यति ।
(१) शानचि, शतरि वा कीरन्ती प्र० काहिह = कर्ता, करिष्यति | इति हेमः ।
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परिशिष्टम् ।
कअ, कत, कद, कय, किआ | (गम् = १) कृतः । एवम् कारिअ, करावि भईई, अइच्छइ, इत्यादि । अ - कारितः।
(स्था%3 (२) क्वायाम् ।
ठाइ, थक्कर, चिट्ठइ, निरप्पइ, . कार्ड, (१) काऊणं, (२) कहुआ, इति । कहुय, करवि, करिउ, उं, करिय, | (स्ना = अभुत्त, (३) अ, करिवि, करेप्पि, करेविपणु, (मस्ज (४) करेवि, करेविणु- कृत्वा।
__आउड्ड६, णिउड्डा, बुड्डा, मजा,
खुप्पह। पध मन्येषा मपि रूपाणि स
सुप्पाः मुह्यानि।
। १०१। अथ कतिपय धातूना मादेशा
(जल्प = जम्प । हेमस्तु कथ् =जम्प) व्याकरणान्तरेभ्यः प्रदश्यन्ते---
(दश् = डस् (५) • भुज् (३)
(१) गमे रई-अइच्छाऽणुषज्जाऽ भञ्जद, जिमइ, जेमा, कम्मेह, बज्जसो-कुसाऽक्कुस-पच्चदुअण्हइ, लमाणइ, चमढइ, चडुइ, पच्छन्द-णिम्मह-णी-णीणणीइत्यादि।
लुक-पद-रम्भ-परिअल्ल-योप्र-विश् रिम,
ल-परिअल-णिरिणास-णिव हांरिअइ-प्रविशति इत्यादि । ऽवसंहाऽवहराः । ८।४। १६२ । (दृश (४)-निअ
आङा अहिपच्चुअ। ८।४।१६२। दसइ, सा, दावइ, दफ्खइ, | समा अभिडः।८।४। १६४। इत्यादि ।
अभ्याङा म्मत्थः। ८।४।१६५ । (आस् = अच्छ, (५) अच्छा प्रत्याङा पलोहः । ८।४।१६६ । इत्यादि।
(२) स्थष्ठा-थक्क-चिट्ट-निरप्पा: (१)८।१७।
। १६ । उदष्ठ कुक्कुरो। १७। उठई, (२) ४ । २३ । ।। ८ । १७। उपकुक्कुइंः। (३) भुजा भुञ्ज-जिम जेम-कम्मा (३) स्नातेरभुसः।१४। पह-समाण-चमढ-चढाः ।। (४) मस्जे एउडु-णिउड्डु-बुडु४।११०।०
(५) दंश-दहोः।२१८ । इति डः। (४) दृशेव-दस-दक्खवाः । शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण-मुंदुत्वे को ८।४। २२ । ण्यन्तस्य । हे वा। २।२। एसु संयुक्तस्य को (५) गमिष्ययमासां छः। ४ । वा भवति । दठ्ठ, डक, उह
| इति हे।
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१६८
प्राकृतप्रकाशे
प्राकृत (स्तू-थुण् (१)
(दह = उज्झ्, दह्) थुणिज्जह, थुन्वद् (२)
अहिऊलइ, आलुखइ (१) (१) चि जि-श्रुहु स्तू-लु पू.धूगां |
इति प्राकृतप्रकाशे परिशिष्टे धातु. णो हस्व श्च । ८ । २४१ ।
रूपाणा मादेशानाञ्च दिङ्. (२) न वा कम भावे व्वः क्यस्य
निदर्शनम् । च लुक् । २४२ । च्यादीनां कर्मणि
-~20:भावे च वर्तमानाना मन्ते द्विरुक्ता घकारागमो वा भवति । तत्सन्नि. योगे च क्यस्य लुक् । थुवन्त । (१) दहे रहिउलाऽऽलुखौ । ४। स्तूयमानः । हे।
। २०८ । हे०।
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१६९
परिशिष्टे सूत्रसूची अथाऽकारादिक्रमेण मूत्रमूची। अस्मदोजसावरं च १२२५
अयुक्तस्य रिः ११३० अइवले सम्भाषणे ९।१२
अयुक्तस्यानादौ २।१ अंकोले लः २.२५
अलाहि निवारणे ९।११ अः क्षमाश्लाघयोः ३६३
अवाद् गाहे वाहः ८१३४ अक्ष्यादिषु छः ३३०
अब्बो दुःख सूचना संभाव. अचि मश्च ४१३
नेषु ९:१० अज आमत्रणे ९.१७
अस्ते र्लोपः ७६ अत आ मिपि वा ७।३०
अस्ते रासिः ७४२५ अत इदेतो लुक् च १११०
अस्ते रच्छः १२०१९ अत एसे ७५
अहम्मिरमिच ६४१ अत ओत्लो ५१
आ. अतोमः ५३
आङिच तेदे ६३२ अत्पथि हरिद्रा पृथिवीषु ११३
आङि मे ममाइ ६४५ अदातो यथादिषु वा १।१०
आङोशस्य ३।५५
आच सौ ५।३५ अदलो दो मुः ६२३ । अदीर्घः सम्बुद्धौ ११।१३
आ णोणमोरङसि ५४४ अद्दुकूले वालस्य द्वित्वम् १।२५ |
आच्च गौरव ११४३ ११४३ अधोमनयां ३२
आत्मनि पः ३।४८
आत्मनोऽपाणो वा ५।७५ अन् मुकुटादिषु १२२ अन्त्यस्यहलः ४६
आदेरतः १११ अनादावयुजोस्तथयोदधौ १२१३
आदेयोजः २।३१ अनन्त्य एच १२।२८
आनन्तर्ये णवरि ९८ अमि हस्वः ५।२१
आदीतो बहुलं ५२४ अम्हे जश्शसोः ६४३
आपीडे मः २.१६ अम्हे हि भिसि ६।४७
आम एसि ४ अम्हाहिंतो अम्हासुन्तोभ्य- आमासिं ६।१२ सि ६.४९
आमन्त्रणे वाविन्दुः ५।३७ अम्हेसु सुपि ६५३
आमोणं ५४० आस्थिनि ३।११
आम्रताम्रयो वः ३१५३ अस्मदः सौ हके हगे अहके ११९ आलाने लनोः ४।२९ अस्मदो हमहमह सौ ६.४० । आल्विल्लोलवन्तेन्तामतुपः४।२५
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१७०
प्राकृतप्रकाशे
आवेच ७।२७ आविः क्त कर्मभावषु वा ७ २८ । ईअ भते ७२३ आश्चर्यस्याच्चरिअं १२.३०
ईच स्त्रियाम् ७ ११ आसमृद्ध्यादिषु वा १२२
इत्सिंहजिह्वयोश्च २०१७ आहे इआ काले ६८
ईदूतो हस्वः ५।२९
ईये १।३९ इ गृध्रसमेषु १२॥६ इञ्च बहुषु ७।३१
उदृतो मधूके १२४ इड् मिपो मिः ७३ इजश्शसो र्दीर्घश्च ५।२६
उदृत्वादिषु १२२९ इतएतूपिण्डप्लमेषु १।१२
उत्सौन्दर्यादिषु १४४ इतेस्तपदादेः १।१४
उत्तरीयाऽऽनीययो| घा २०१७ इत्सदादिषु ११११
उत्तमे स्साहाच ७।१३ इत्पुरुषेरोः १२३
उः पद्मतन्वीसमेषु ३।६५ इत्वद्वित्ववर्ज राजवदनादेशे५।४६
उर्जश्शस् टाङस्सुप्सु वा ५।३३ इसैन्धवै ११३८
उद्ध्म उधुमा ८।३२ इर किरकिलाऽनिश्चिताख्या.
उत आत्तुण्डरूपेषु १२२० ने ९।५
उत्समोलः दा४ इदम इमः ६१४
उदिक्षु वृश्चिकयोः १११५
उदुम्बरे दो र्लोपः । ४।२ इदुतोः शसोणो ११४
उदो विजः ८१४३ इः श्री ह्री क्रीत क्लान्त क्लेश म्
उपरि लोपः क ग ड त द प ष लान स्वप्न स्पर्श हर्षार्ह गर्हेषु ३।६२ इदमेतत्कियतझ्यष्टा इणावा ६३
साम् ३३१
उलूखलेल्वा वा ११२१ इझ्यः स्सासे ६६ इदद्वित्वे ५।४३
उसुमु विध्यादिष्धेकस्मिन् ७१८ इदीषत्पक्कस्वप्नवतसव्यञ्जन मृ. दङ्गाङ्गारेषु १।३
ऋतोऽत् ११२७ इदीतः पानीयादिषु ११८ ऋत्वादिषु सोदः २७ इदृष्यादिषु १।२८
ऋत आरः सुपि ५.३१ इवस्य पिवः १०४
ऋतोऽरः ८।१२ इवस्य विअ १५१२४
रीति ११३०
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परिशिष्टे सूत्रसूची। १७१
करेण्वां रणोः स्थितिपरि
वृत्तिः ४।२८ लतः क्लत इलिः ११३३
कार्षापणे ३३९ एकाचोहीअ ७२४
कालायसे यस्य वा ४३ एच स्वातुमुन् तब्य भविष्य
कासेर्वासः ८.३५
किणो प्रश्ने ९९ त्सु ७.३३
कुब्जे खः २०३४ ए च सुप्यङि उसोः ५.१२
किमः कः ६.१३ एत इवेदनादेवरयोः ११३४ एवस्य जेव्व १२।२३
किं यत्तद्धयो उस आस ६५ एशय्यादिषु १५
किराते च २१३३ एनीडा पीड कीदृगीदृशेषु १०१९
कृमः का भूतभविष्यतोश्च ८।१७
कृतः कुणो वा ८१३ एन्नूपुरे १।२६
कृञ् गृङ्गमा क्तस्यडः १०१५ एतदः सावोत्वं वा ६१९
कृगमो १अः १२०१० एषामामो ण्हं ६५९
कृदा श्रुवचि गमि रुदि हश एभ्यसि ६६२
विदिरूपाणां काहं दाहं साच्छं
वोच्छं गच्छं ऐच्छं दच्छं वेऐत एत् ११३५
उछं ७१६ ऐरावते च २०११
कैटभेवः २०२९ ओ
कृष्णे वा ३६१ मोबदरे देन २६
क्मस्य ३२४९ ओच विधाकृषः १११६
क्रीः किणः ८३० ओतोद्वा प्रकोष्ठे कस्य वः १२४० क्रुधेजूरः ८.६४ ओदवापयोः ४।२१
क इअः १२२९ ओ सूचना पश्चात्तापविकल्पे.
कत्व ऊणः ४.२३
कत्व स्तूनम् १०११३ षु ९४
तान्तादुश्च १११११ औ
के ७३३२ औत ओत् ११४१
तेहुः वार कग च ज त द प यां प्रायो तेतुर: ८५ लोप: २२
क्तेन-दिण्णादयः ८६२ कन्यायां न्यस्य १०।१० वो दाणिः १०१६ कबन्धे बो मः २०१९
कचिरक्तस्यापि ११३१
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१७२
प्राकृतप्रकाशे।
क्वचिद् ङसियोर्लोपः ५।१३ । उसो हो वा दीर्घत्वञ्च ११।१२ कथेढः ८१३९
ङसौ तत्तो तइत्तो तुमादो तु. क्लिष्टश्लिष्टरत्न क्रियाशातेषु त. मादु तुमाहि ६:३५ तत्स्वरत्पूर्वस्य ३६०
ङसा से ६:११ कृञ् मृङ्गमांक्तस्यड़ः ११११५ ङसोवा ५.१५ क्षस्य स्कः १२८
छः स्सि म्मित्थाः २ क्षमावृक्ष क्षणेषु वा ३३२ ● रेम्मी ५९ क्षियो झिजः ८:३७
हि ६७
हुदैन हः ६।१६ ख ध ध ध भांहः श२७ डौच मइ मए ६४६ खादि धाव्योः खाधो ८२७ ङो तुमम्मि ६३८ खिदेर्विसूरः ८६३
चर्चेश्चम्पः ८६५ गद्गदेरः २०१३
चन्द्रिकायां मः श६ गमादीनां द्वित्वं वा ८५८ चतुर्थी चतुर्दश्यो स्तुना १९ गर्भितेणः२।१०
चतुर्थ्याः षष्ठी ६६४ गर्तडः ३३२५
चतुरश्वतारो चत्तारि ६५८ गर्दभ संमर्द वित िपिछर्दिषु । चिअश्विणः ८।२९ दस्य ३।२६
चवर्गस्य स्पष्टतया तथोश्चागृहे घरोऽपतौ ४ ३२
रणः ११.५ . ग्रहे दी? वा ८.६१
चिट्ठस्य चिष्टः ११।१४ प्रहे गैण्हः ८।१५
चिन्हे धिः ३१३४ प्रसेर्विसः ८१२८
यो ब्रज नृत्योः ८४७
चौर्य समेषु रिअं ३२० घुणो घोलः ८६ घेत् का तुनुन् तव्येषु ८.१६ छायायां हः २०१८
डसश्च द्वित्वं वान्त्यलोपश्च ५।४२ / जल्पे | मः ८।२४ उसि तुमो तुह तुज्भ तुम्ह | जश्शसोर्लोपः ५२ तुम्हा : ६६३१
जश्शस्ङसां णो ५।३८ ङसेरादोदुहयः ५६ | जश्शमङस्यां सु दीर्घः ५।११
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जसश्च ओयुत्वम् ५.१६ जसोवा ५/२० जिघ्रतेः पा पाऔ ८२० भो जंभाः ८/१४
जोयः १९१४
ज्याया मीत् ३/६४ शस्यञ्जः २०१९
ज्ञो जाणमुणौ ८|२३
ञ
अ च १०/११
ट
टाङसिङसङीनामिदेददातः ५|२२| ङोस्त एतुम तुमे ६/३०
टाणा ५।१७
सटाणा ५/४१ टामो र्णः ५१४
टोड: २ । २०
परिशिष्टे सूत्रसूची ।
ठ
टोटः २२२४ ठाझागाश्च वर्तमान भविष्य द्विध्याद्येकवचनेषु ८२६
ड
डस्य च २/२३
हुकृञः करः १२/१५
ण
णवरः केवले ९/७
वि वैपरीत्ये ९ | १३ णिच पदादेरत आत् ७/२६ णिर्जश्शसोर्वा क्लीवे स्वर दी -
र्घश्च १२/११ दो पोलः ८७
णो नः १०/५ णो शसि ६/४४
त
ततिपो रिदेतो ७१
तद ओश्व ६।१०
तदेतदोः स सावनपुंसके ६।२२ तत् त्वयोर्दात्तणौ ४ २२ सालवृन्तेण्टः ३।४५ तुं चामि ६२७
तिष्णि जश्शेस्भ्याम् ६।५६ तिपात्थि १२/२०
तुझे तुम्हे जसि ६।२८ ॥ तुज्झेहि तुम्हेहिं तुम्मेहिं भि. सि ६/३४
तुझे तुम्हेसु सुपि ६३९
तुमाइ च ६।३३ तुम्हार्छितो सि ६/३६
तुम्हासुंतो भ्य
तूर्य धैर्य सौन्दर्याश्वर्य पर्यन्तेषु
रः ३ १८
तृणइरः शीले ४।२४
तृपस्थिः ८२२
तो उसेः ६।२०
तो दो ङसेः ६९ तोत्थयो स्तलोप ६ २१
१७३
स्ति ६५५ त्रसेर्वजः ८|६६
त्वर स्तुवरः ८४ त्ययद्यां चछजाः ३।२७
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१७४
प्राकृतप्रकाशे
नपुंसके स्वमादिदमिणमिण. थास्सिपोः सि से ७२ मो ६१८
मसान्त प्रावृट् शरदः पुंसि ।।१८ ददातेर्दै दइस्स लटि १२१४
नविद्युति ४९ दशादिषु हः २४४
नविन्दुपरे ३६५६ दाढायोवहुलम् ४।३३
नरहोः ३.५४ दिकप्रावृषोः सः ४।११
नशिरो नभसी ४.१९ दिवसे सस्य २०४६
न स्तंबे ३१३ दुङो दूमः ८८
नातोऽदातौ ५२३ दृशेः पुलअ णिअक्कअव
नान्त्यद्वित्वे ७९ क्खाः ८६९
नानकाचः ७२२ दृशेः पेक्खः १२।१८
नामन्त्रणे सावोस्वदीर्घविन्द.
व: ५।२७ दैत्यादिश्वर २६३६
निपाताः ९१ देवे वा ११३७
निरो माङो माणः ८।३६ दोला दण्ड दशनेषु उः २३५
नीडादिषु ३॥५२॥ द्रेरो वा ३४
मैदावे ७।२९ द्वे र्दो ६५४
नोणः सर्वत्र २२४२ द्वेर्दुवेदोणि वा ६५७
नोत्सुकोत्सवयोः ३६४२ द्विवचबस्य वहुवचनम् ६।६३
न्ति हे त्था मो मु मा बहुषु ७४
न्तमाणीशतृशानचोः ७१० धातो भवष्यिति हिः ७१२
न्तुहमो वहुषु ७१९ धातो र्भावकर्तृ कर्मसु परस्मैः ।
न्मोमः ३२४३ पदम् १२।२७ ध्यमो झः ३२८
पटे फलः ८१९
पत्तने ३१२३ नलटि १२॥१३
पदस्य ६२५ नङिङिस्योरेदातौ ६६१ पदेः पालः १० नोहलि ४।१४
पनसेऽपि २०३७ नत्थः ६१७
पर्यस्त पर्याण सौकुमार्येषु न धूतादिषु दा२४
लः ३२१ न नपुंसके ५।२५
परुष पलितपरिखासुफः २०३६
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म
परिशिष्टे सूत्रसूची। १७५ पितृ भ्रातृ जामातॄणामरः ५१३४ भिदिच्छिदोरन्त्यस्यन्द ८३८ पुत्रेऽपि कचित् १२१५ भियो भावीही ८१९ पुरुष परिघ परिखासु फा २३६ भिसो हिं ५५ पृष्ठाक्षि प्रश्नाः स्त्रियां वा ४१२.
भुजादीनां का तुमुन् तव्येषु पैशाची १०१
लोपः ८१५५ पोवः २०१५
भुवो हो हुवो ८१ पौरादिष्व उ१।४२
भोभुवस्तिाङ १२।१२ . प्रकृतिः शौर सेनी १०।२।११।२ भ्यसो हिंतो सुन्तो ५७ . प्रकृतिः सँस्कृतम् १२२ । प्रकृत्या दोला दण्ड दशन मज्झणो अम्ह भम्हाण मम्हे घु १२।३१
आमि ६५१ प्रतिसर वेतस पताकासुडः २।८
मत्तो मइत्तो ममादो ममादु. प्राप्त कदंब दोहदेषु दोलः २०१२ ममाहि सौदा प्रथमशिथिल निषधेषु ढः २२८ मध्यच ७२१ प्रादेर्भवः ८३
मध्यान्हे हस्य ३७ प्रादेर्मीलः ८५४
मन्मथ वः २।३४
ममम्मिडौ ६५२ फोभः २२६
मं ममं ६४२ मयूर मयूखयोर्वा वा ११८
मलिने लिनो रिलौ वा ४३१ बिसिन्यांभः २०३८
मागधी १०१ वुडखुप्पो मस्जेः ८६८ ब्रह्मण्यविज्ञकन्यकानां पयझन्या
मातुरात् ५।३२
मांसादिषु वा ४१६ नां ओ वा १२७
मिनास्सं घा १४ ब्रह्माधा आत्मवत् ५।४७॥
म्मिव मिवविआ इवार्थे ९।१६
मिपोलोटि च १२२२९ भविष्यति मिपास्सं वा स्पर- मिमो मुमानामघोहश्च ७७ दीर्घत्वञ्च १२२२१
मृजेलभसुपौ ८६७ भाजने जस्य ४।३
मृदो लः ८५० भावकर्मणोर्वश्च २०५७ में मम मह मन्झ ङसि ६५० भिन्दिपालेण्डः ३४६ मोविन्दुः४१२
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१७६
प्राकृतप्रकाशे
मो मुमैर्हिस्ला हित्था ७१५ विसिन्यां भः २।३८ । म्नश पञ्चाशत्पश्चदशेषुणः ३१४४ । वसति भरतयो हः २९ म्लै बावाऔ ८।२१
वर्तमान भविष्य दनतनयो ज
जावा ७२० यक ईअइजो ७८
वर्गेषु युजः पूर्वः ३६५१ । यमुनाया मस्य १३
वक्रादिषु ४१५ ययि तद्वर्गान्तः ४।१०
वर्गाणां तृतीय चतुर्थयोरयुजो.
रनाद्योराधो १०३ यष्टयां लः २०३२ युक्तस्य ३१९
वाप्पेऽश्रुणि हः ३३८
विप्रकर्षः ३१५९ युष्मदस्तं तुम ६२६ युधि बुयोझः ८१४७
विद्युत्पीताभ्यां लः ४१२६ याबादादिषु वस्य ४५
विअवेअ अबधारणे ९१३ राशश्च ५३६
विह्वले भही वा ३४७ रुदेवः ८१४२
वक्के च ८३१ रुधेधम्भौ ८१४९
वेष्टेश्च ८४० रुषादीनां दीर्घता ८।४६
वृक्षे वेन रुर्वा ११३२ रे अरे हिरे सम्भाषणरतिकल
वृहस्पतौ वहीऔ ४.३० हाक्षेपषु ९१५
वृश्चिकेञ्छः ३२४१
वृन्दे वोरः ४।२७ तेस्यटः ३२२२ राशो राचि टाङसिङङिषु ।
वृष कृष मृष हृषा मृतोऽरि:८११
वृधढः ८१४४ वा १०११२ रोरा ७८
वोभे तु ज्झाणं तुम्हाणं मा र्यशय्याभिमन्युषुजः ३५१७
मि ६:३७ र्यस्थरिः १०८
वोच शसि ६२९ र्ययोर्य्यः ११७
व्यापृते डः १।४
श, लवण नवमल्लिकयोर्वेन ११७ शकादीनां द्वित्वम् ८१५२ लादेश वा ७।३४
शकस्तरव अतीराः ८७० लाहले णः २०४०
शदल पत्योर्डः ८.५१ लिहेर्लिज्झ ८५९
शरदोदः ४।१० लोपोऽरण्ये ११४९
शषोः सः २।४३
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परिशिष्टे सूत्रसूची।
१७७
शस एत् ५।३९
सर्वत्र लवरी ३३ शाकरे भः २१५
सर्वज्ञ तुल्येषु नः ३५ शृगाल शब्दस्य शिआला शि. |
सर्वनाम्नां के सित्वा १२।२६ आले शिआलका ११११७ संख्यायां च २०१४ शेषः संस्कृतात् ९६१८ ।
संशायां वा १४५ शेषं महाराष्ट्रीवत् १२॥३२
संधावचा मज्लोपविशेषा ब. शेषादेशयो द्धित्वमनादौ ३१५०
हुलम् ४१ शेषाणामदन्तता ८७१
सुपः सुः ५.१० शेषोऽदन्तवत् ६६० ।
स्पस्य सर्वत्र स्थितस्य ८५३ शौर सेनी १२१
सिच १३७ श्रुगुजिल धुषां णोऽन्त्ये ह.
सुभिस्सुप्सुदीर्घः ५।१८ स्वः९८५६
सूकुत्सायाम् ९।१४ श्वत्सप्सां छः ३१४०
सूर्य वा ३३१५ श्मश्रुश्मशानयो रादेः श६ । श्वादीनां त्रिवप्यनुस्वार वर्ज
सेवादिषु च ३१५८ हिलोपत्र वा ७।१७
स्फटिक निकष चिकुरेषुकश्रदो धो दहः ८३३
स्यहः २४ स्फटिके लः २०२२
सस्सिमारद्वा६१५ एक स्कक्षां खः ३३२९
स्नुषायां ण्हः २४७ षट् शावक सप्तपर्णानां : २४१
स्तस्यथः ३११२ षसोशः १०३
स्तंभेखः ३।१४ धम पक्ष्म विस्मयेषु म्हः ३६३२
स्तम्ब ३३१३ ष्टस्य ठः ३।१०
स्फुटिचल्योर्वी ८५३ ष्टम्य सटः१०६
स्फुटि चल्यो, ८५३ ष्ठाध्यागानां ठाअझाअभाआ:८२५
स्थाणावहरे ३।१५ प्पस्य फः ३३५
स्फोटके ३१६
स्थ श्चिट्ठः १२०१६ सर्वज्ञङ्गितक्षयोर्णः १२८ स्मरतेः सुमरः १२ १७ समाले वा ३५७
स्नियामित्थी १२२२२ सटा शङ्कट कैटभेषु ढः २।४२ । सस्य सनः १०७ सर्वादेर्जस एत्यं ६१ सोर्षिन्दुर्नपुंसके ५।३०
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१७८
प्राकृतप्रकाशे
स्मरते भर सुमरौदा१४ अरेसम्भाषणादिषु ९।१५ स्त्रियामात ४७
अंकुसो-अंकुसः २४३ स्त्रियां शस उदोतौ ५।१९ अङ्को-अङ्कः ४।१७ स्त्रियामात एत् ५२८
अंकोल्लो-अडोठः, अङ्कोलः २०२५ स्नेहे वा ३६३
अंगुली-अगुरी २३० स्सो उसः ५८
अच्छ-अस्ति १२:१९
अच्छं-अक्षि ४.१२-२०) हरिद्रादीनां रोलः २।३० अच्छि -अक्षि ३३०-४।२०) हश्च सौ ६२४
अच्छीहि अक्षिभ्याम् ९।१० हन्ते मा४५
अश्चारिअं-आश्चर्यम् १२२३० हु दान पृच्छा निर्धारणेषु ९।२ | अच्छेरं आश्चर्यम्१५) २१८४० हुँ क्खु निश्चय वितर्क सम्भाव- अजसो-अयशसः २२ नेषु ९६
अजा अज-अहो ९।१७ आ. ह ह होघुनलमा स्थितिरुव३।८
र्य-अद्य हर ण ण इनों ण्डः ३३३३
अज्झामओ-अध्यायः ३२ हकोहरिकीरौ ८६०
अट्ठी-अस्थि ३११-५१ हृदयस्य हितअकम् १०।१४
| अणुत्तम्त, अनुवत्तन्त-अनुवर्तहृदयस्य हडकः १९६६
मान ४५ इति सूत्र सूची।
अण्णं-अन्यत् ९/७ -::
अण्णहवअणं-अन्यथा वचनअथाऽकारादि क्रमेण प्राक़त | म् ।१४।। प्रकाशस्थ पदानाममुकमिणिका
अत्तुं-अत्तुम् ९।१० शब्दरूपाणामन्यत्रोल्लेखावत्र न
अतुलं-अतुलम् २।२ प्रदर्यन्ते।
अत्ता, अत्ताणा, अप्पा, अप्पाणो,
आत्मा-आत्मानः ५४६) ३।७८) अ -अयं ९।५ अइ-अयि ९।१२
अत्तो-आतः ३।२४ अस्सू-अश्रु ४१५ असो अश्वः २२
अस्थि-अस्ति १२।२० अक्को-अर्कः २१)३-३
अद्धा अखाणो-अध्वा ५।४७ अग्गि-अग्निम् ४१२
अधीरो-अधीरः २।२७ अग्गिणी-अग्नीन् ५।१४ अपारो-अपारः २२२ अग्घोहो-अर्घः २१
अप्पुल्लं-आत्मीयम ४।२५
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अमू=मसी ६।२३ अवरं=अपरं ९।१०
परिशिष्ठे सूत्रसूची ।
अयं अत्यं-आम्र ३५३ अव = अहो खेदे ९/१० असो- अन्सः ४|१४
अह्न, अह्माणं, अह्म - अस्माकम् ६ । ५१ ।
अम्हे = वयं ६ |४३ अम्हे हिं- अस्माभिः ६४७. अम्हार्हितो - अस्मभ्यम ६ ४८ अम्हासुतो - अस्मात् ६ ४९ अम्हेसु - अस्मासु ६५३ अरिहो- अर्हः ३।६२ अरे-अरे ९/१५ अलाहि-अलम् ९/११ अलिअं - अलीकम् ९।११ अल्हादो - आल्हाद १।१८ अलहादो - आल्हाद ३३८ अवक्ख- पश्यति ८/६९ अबजलं -अपजलं २-२ अधरण्हो - अपरान्हः ३०८ अरि- उपरि १।२२ अववासह-अवकासते ८ ३५ अववाहइ - अवगाहते ८ ३४ अवर-अपहरति ४ १३ अवहासो - अवहासः ४ २१ अवहोवालअं - उभयपार्श्वम्४ ३३
अवसरिअं - अपसृतम् ४।२१५।१ अबतो- आवर्तः ३ ९४ अब्बो अहो ९ | १०
असिव, असिव्वअं = अशिवम् ३१५८
असु, सुं- आसु ४।१६ असो, आसां - अश्वः ३॥५४ अस्सा - अस्याः ६।१५-१७ अर्टिस अस्याम् अस्मिन् अस्सो- अश्वः ११३५८ अह - असौ - अदस् ६ २४ अहअं, अहं= अहम् ६।४० अहम्मि अहम्, मां ६ | ४१ अहके अहम् ११ । अहिजाई - अभिजातिः १/२ अहिमज्जू - अभिमन्युः ३ ११ अहिर्मुको-अभियुक्तः ४ १५
१७१
आ आभच्छदि= आगच्छति ११।१७ आउदो - आगतः २.७ आमडे : = आगतः ११।१६ आइदी-आकृतिः २ ७ आउदी - आवृतिः २/७ आणत्तिः - आज्ञप्तिः १/५५
आणा - आज्ञा ३१५५ आणालखंभो - आणालक्खभो=
आलामस्तम्भः ४ २९ ३।५७ आइरो - आदरः २ १
आपेलो, आमेलो = भापीडः १११ आसि-आसीत् ७/२५ आसो - अश्वः १।२ ३।५८ आसु, सु-आसु ४ १६ आहि जाई-अभिजातिः ११२ ओवाहइ = अवगाहने ८ ३४
इ
इअ - इति १ । १४
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________________
प्राकृतप्रकाशे
१८०
इअररिंस, इअरम्मि, इभरत्थ =
१/३ २/३०
इतरस्मिन् ६।२ इंङ्गालो - अङ्गारः इङ्गिअजो, इङ्गितज्ञः ३/५ इति अण्णो = इङ्गितज्ञः १२/८
इणअं इनअं इडम् = इदम् ६।१८ इट्ठी - स्त्री १२/२२ इमो - इदम् ६।१४ १५-१६ इमिणा, इमेण अनेन ६।३-१४ इमेसिं- एषाम् - आसाम् ६४ इस ईषत् ११३ इसि - ऋषिः १।२८ इस्सरो-ईश्वरः ३।५८ इह = अस्मिन् ६ । १६-१७ ईसि - इषत् ११३
ई
ईसालू- इर्षावान् ४ । २५ ईसा - ईश्वरः ३ । ५८
उअ, उअह = पश्य, पश्यत १।१४ उक्का-उक्का ५१३
उक्करो - उत्करः १ | ५ उक्खअं, उक्खा =
उत्खातम् १।१०
उच्छा-उक्षा ३३० उच्छित्तो- उत्क्षिप्तो ३/३०
उच्छ्र- इक्षुः १।१५ ३/३० उज्जुओ-ऋजुक ३।५२ उत्तरिजं, म् २।१९
उत्तरिअं - उत्तरीय
उडू - ऋतुः ११२९ २|७ उधुमाई - उद्धमति ८३२
उत्पलं - उत्पलम् ३|१ उब्भवई - उद्भवति ८३ उम्बरं - उदुम्बरम् १/२ उम्हा-उष्मा ३=३२ उपाओ - उत्पातः ३।१ उलवो - उलप: ५।१५ उलूहलं-उलूखलम् १।२१ उवई - उद्विजते ८ ४३ उबवेल - उद्वेष्ठते ८ ४९ उवसग्गो - उपसर्गः २ १५ उस्सवो - उत्सवः ३।४२ उस्सुओ-उत्सुकः ३।४२
ए
एअ- एव ४|५ एव्वं एवम् ४/५
एअं- एकम् एवम् ३।५८ ४५ एआरह - एकादश २ १४-४४ एक-एकम् ३।५८ एहि इदानीम् ४।४३३ एत्ति, पद्दहं एतावत् ४ २५ एतो - एतस्मात् ६ २९ २० एत्तह- एतस्मिन् ४।२१ एदं - एतद् एनम् ६५२ पदिणा - एदेण- एतेन ६ ३ एदेसिं, एदाणं, पदाण- एतेषाम् एतासाम् ६|४
परावणो - ऐरावतः १।३५ २ ११ एरिसो-ईद्दशः १/१९-३१
एव्व एव ४ । ५
एश, - एशि, एशे = एषः ११।१० एस, एसो = एषः ६ । १८-२२
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परिशिष्टे सूत्रसूची।
१८१
ओ ओक्खलं-उलूखलम् १ । २१ । ‘ओवाहई-अवगाहते ८।३४
ओवासई-अवकासते ८। ३५ ओसारिअं-अपसारितम् ४।२१ ओहासो-अवहासः ४ । २१
कअ-कृतम् १।२७ ४२३ ५।२२ कइअवो-कैतवः ११३६ कइआ-कदा ६८ कई-कपिः २२ कउरओ-कौरवः १।४२ कउसलो-कौशलम् १६४२ कश्यं-कार्यम् १०१११ का-कन्या १०१११ काजआ-कन्यका १२ । ७ कडे-कृतः ११ । १५। कढइ-कथति ८1८ कढोरं-कठोरम् २।२४ कणअं-कनकम् २॥ ४२ कणिआरो, कणिकर्णिकार:३।५८ कण्णऊरं, कण्णउरं-कर्णपूर
कत्थ, कम्मि, काहिं, कसिं-क. स्मिन् ६ । ७-८ कसणं-कृष्णम् ९।१६ कदोहो-उत्पलम् ४।३३ कमंधो-कबन्धः २ । १९ कम्मो-कर्म ४।६-१८ कंसो-कंसः ४ । १४. कय्ये-कार्यम् ११ । ७ कर-कृ८।१३ । १२ । १५ करेमिकरोमि ६ । ४०-४१ करिदाणि-कृत्वा ११ । १६ कारेइ ७।२६ करावेइ ७२७ करावि ७।२८७२९ कराविजइ ७।२८ कारि ७।२८।७२९ कारावेइ ७।२७ कारिजइ ७।२८ करिसइ-कर्षति ८ । ११ करिसो-करीषः१।१८ फलम्बो-कदम्बः २ । १२ कलुण-करुणम् २ । ३० कलहारं-कहारम् ॥ ३॥ ८ कलेसिकलयसि ९।१२ कसाअं-कषायम् २-४३ कह, कथम् ४ । १६ कहं, कहि-कस्मिन्,कदा ६७८ कहाअ% चकार, कृतवान् ८.१७ काऊण-कृत्वा ४।२३।८-१७ काउं = कर्तुम् ८१७ काअब्धं कर्तव्यम् ८१७
कणेरु-करेणुः ४ । २८ कण्हो कसणो कृष्णः ३।३३-६१ कत्तरि-कर्तरि ३ । २४ कत्तो, कदो-कस्मात् ६।९ कधेहि कथय ९।२ कदुअ-कृत्वा १२। १०
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૧૮૨
प्राकृतप्रकाशे
कातून-कृत्वा १०११३
कुछि -कुक्षिः ३६३० कालास कालासं कालायास. कुण-करोति, कुरते ४११३ म् ४।३
कुंभ आरो, कुंभारो=कुम्भकारः कास-कस्य, कस्याः ६५ काहं करिष्यामि ७१६ कुसुमप्परो, कुसुमपअरो=कु. काहावणो-कार्षापणः ६३९
सुमप्रकारः ३१५७ काहिआ-चकार ८१७]७-२४ केढवो-कैटभः २०२१-२९ काहे-कदा ६८
कत्तिकं, केहहं = कियत् ४।२५ किं किं ९।१२
केरिसो-कीदृशः १२१९ ११३१ किई-कृतिः १२४
केलासो-कैलासः १३५ किच्चा-कृत्या ११२८
केवओ-कैवर्तकः श२२ किणा-केन ६३
केसिम्केषाम् कासाम् ६४ किणइ-क्रीणाति ८१३०
को किणो-किन्नु ९९ कित्ति-कृतिः ३२४
कोट्टिमं-छुट्टिमम् ११२० किर-किलकिल ९५ कोत्थुहो-कौस्तुभः १२४१ ३३१२ किरिआ-क्रिया ३.६०
कोमुई-कौमुदी ११४१ किरीतो-क्रीतः ३१६२
कोसंबी-कौसाम्बी १.४१ किसित्थं क्लिष्टम् ३।६३
कोसलो-कौशलम् १४२ किलेसो-क्लेशः ३।६२
क्खु-खलु ९६ किलितं-क्लप्तम् ११३३
ख किवा-कृपा ११२८
खइ-खाइअं-खादितम् २१० किसरो-कृसरः १२८ किसी-कृषिः १२८
खग्गो-खड्गः ३१
खणं-क्षणम् ३३१ किस्सा-कायाः ६६
खदो-क्षतः ३.२९
खंदो-स्कन्दः ३३२९ कीअ, कीआ, कीड, प, कीस खंधो-स्कन्धः ३२२९ कस्याः ६६५।२४
खमा-क्षमा ३३१ ३६६३ कीरइ-क्रिते ८६०
खंभो-स्तम्भः ३३१४] ५० कुअल कुवलयम् ४।५ खलिअं-स्खलितं ३:१] ५० कुस्खेअओ-कौक्षयकः २४४ । खाइ-खादति ८।२७
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परिशिष्टे सूत्र सूची ।
खाणू - स्थाणु ३।१५ः खुजो- कुब्जः २।३४ खुप्पइ-मज्जति ८ ६८ | खोडओ===स्फोटकः ३।१६
•
ग
ग=गगनम् ९।१६
गया = गदा २/२ गउरवं =गौरवम् १।४२ गओ: गग्गरो - गद्गदः २ १३ गच्छं - गमिष्यामि ७/१६
= गजः २१२
गडे - गतः १९।१५
गड्डो - गतः ३।२५ हो--गर्दभः ३।२६
गदुअ- गत्वा १२/१० गभिणं - गर्भितम् २।१० गम्मद, गमिज, गमीअइ =
गम्यते ७१९] ८-५८
गरिहो = ग्रहः ३।६२
गरुभं - गुरु १।२२
गरुइ-गुर्वी ३।३५ गहवई = गृहपति ४।३२ गहिज्जर, गाहिज्जर- गृह्यते ८१६१
गहिरं गभीरम् १९८ गाइ, गाअं इति = गायति, गायन्ति ८/२५-२६
गारवं = गौरवम् ११४३
गाहा - गाथा २/२७ गित्थई = गृष्टिः १/२८ गिद्धो= = गृद्धः १२/६ गिम्हो = ग्रीठमः ३।३२
गिरा = गिर् ४|८
गुण्टी = गृष्टिः ४|१५ गुज्झओ = गुह्यकः ३/२८
गण्हइ = गृह्णाति ८/१५
गेह, गृहाण ९/२
गोट्ठी = गोष्ठिः ३१ गोला = गोदावरी ४ | ३३
घ
घणा = घृणा १।२७ घरं - गृहम् ४।३२-३३ घे, घेरत् ग्रह् ८|१६ घेऊण = गृहीत्वा ४।२३
१८३
घे = गृहीतुम् ८|१६ घेत्तव्वं = गृहीतव्यम् ८ १६ घेतण = गृहीत्वा ८ १६ घत्तूनं = गृहीत्वा १०|१३ घोर्लई = घूर्णते, घोणते ८६
च
चहत्तोः = चैत्रः १/३६ चउत्थी = चतुर्थी १९. चउद्दह = चतुर्दश २।१४ चउद्दही = चतुर्दशी १९ चऊहिं = चतुर्भिः ६६०
चडु-चाडु = चाटु १।१० चतुण्डं, चउण्हं = चतुर्णाम् ६।५९ चत्तारि, रो = चत्वारः चतुरः
६/५८
चंदिमा = चन्द्रिका २२६
चंदो- चंद्रो = चन्द्रः ३४ चमरं - चामरं = चामरम् १११०
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________________
१८४
प्राकृतप्रकाशे
चंपइ = चर्चयति ८६९ चलइ, चल्लह = चलति ८.५३ । जआ-जह % यदा १।११ चलणोचरणः २।३०
जाइमा यदा ६८ चातुलिअं= चातुर्यम् ६।३३ जाउणा अडं, जउण अडंय. चिट्ट = स्था १२२१६] ६६३] मुनातटम् ४१ ११।१४
जउणा-यमुना २६ चिणइ%चिनोति ८।२९ जखो -यक्षः २१३१]३।२९-५१ चिन्धं विद्धं चेद्धं,धं =चिन्ह जओ-यशः १२७ म् १२१२] ३:३४
जट्टी- यष्टिः २.३१ चिलादो-किरातः २।३०-३३ जढरंजठरम् २।२४ चिष्ठदि =तिष्ठति ११३१४ ।
जण्णओ= जनकः ३२५२ चिहुरो चिकुरो २४
जण्णो यक्षः ३६२४ चुं, वह, बह-चुम्बति ८८१ जण्ड - जन्हुः ३-३३ चोखी, चोद्धही= चतुर्थी, चतु.
जत्तो, जदो यस्मात् ६९ दशी ११९] २१४४
जंपद-जल्पति ८।२४ चोरिअं= चौर्यम् ३२०
जभाइ = जुम्भते ८।१४
जम्मो जन्म ३४३] ४१८ छत्थी= षष्ठी २४०
जलो-यशः २।३१]४१६-१८
जह-जहा=यथा ११० छणं =क्षणम् ३३१
जहणे-जहणं = जघन २।२७२ छत्तावण्णो-सप्तपर्णः १४१
जहित्थिलो-युधिष्ठिरः ११२२ छमा=क्षमा ३३१
२।३० छम्मुहो = षण्मुखः २०४२ छार-क्षारम् ३।३०
जा-यावत् ४५ छावओ-शावकः २४१ जाणE=जानाति ८१२३ छाहा-छाया २।१८५।२४
जामाउओ=आमातृकः १।२९ छिदइ-छिनत्ति ८१३८
जामाआ-जामाअरो-जामाता छीरंक्षीरम् ३३० छु क्षुतम् ३।३०
जावा यावत् ४५ छुपणोक्षुण्णः ३३०
जास यस्य ६५ छुरं-क्षुरः ३३०
जाहे-यदा ६८ द्वत्तंक्षेनुम् ३३०
जिणइ = जयति, ८५६-५७
५।३५
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परिशिष्टे सूत्रसूची।
. १८५
जिणा%येन ६३
णअरंनगरम् २०२ जिया जीयते ८५७] ७.९ णअइग्गामो, अइगामो नदी. जिस्माम्यस्याः ६.६
प्राम: ३.५७ जिअं जीविनम् २।२] ४५ ।। णअ इसोत्तो नदीश्रोतः ४:१) जीइ-जीए यस्थाः ६६] ५।२ । ३५२ जीआज्या ३६६
णई, - नदी २.४२] ५।१९-२२जीविजीवितम् ४५
२९) ६६० जीहा=जिह्वा १।१७ ३३४
णअउलं-नकुलम् २१२
णक्खो -नक्खः ३१५८ जुन्झइ = युद्ध चते ८४८
जग्गा-नग्नः ३२ जुगुच्छा-जुगुप्सा ३४०
णचइ-नृत्यति १४७ जुग्ग-युग्मम् ३२
णत्थि-नास्ति ४-१ टि. जुवा-जुवाणो युवा ५।४७ जूरह =कुध्यति ८६४
णत्तआन्नर्तकः, ३.२२ जेदह, जेत्तियावत् ४॥२५
णडो-नतः २०२०
णवर केवलम् ९७ जेव्व एव १२।२३ जोग्गो = योग्यः ३१२
णयरिआनन्तर्ये ९४८ जोवणवन्तो योषनवान् ४।२५
णविन,-अपि, विपरीतम् ९.१६ जोव्वणं = योवनम् १४१] ४१५२
जहं-नमस् ४।६-१९ णहोनखः३५८
जाहलो-लाहल २४० झाइ-झाति-ध्यायति, ध्या.
णिभक्कापश्यति ८।६९] यन्ति ८१२५
णिकन्तनिष्कान्तः ४-१ टिक झिज्जइ-क्षयति ८३७
णिश्च नित्यम् ३३२७
निज्मरो-निझरः ३५१ ठा-ठाअंति तिष्ठन्ति ८१२५
णित्थुरो निष्टुरः ३६१ ठिभंस्थितम् ५ । १३..२२
णिडालं-ललाटम्-४।३३
णिदा-निद्रा १२२ डण्डो दण्डः २२३५]१२ ३१ णिद्दालू-निद्रावान् ४।२५ दसणोदशनः २३५ णिप्फाओ=निष्पापः अः ३३५ डोला=दोला २१३५) १२२३ णिम्माण अनिर्माति ८।३६ ण
णिवत्तमो-निवर्तकः ३।२४ णमणं = नयनम् २२२
णिविडा-निविडः श२३
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१८६
णिव्वुदं = निर्वृतम् १।२९ णिबुदी = निर्वृत्तिः २७
णिसढो = निषेधः २ २८ णिसा = निशा २/४३ निस्सासो,
णीसासो = निः | १० | ३|४५
प्राकृत प्रकाशे
तंबो
= स्तम्बः ३|१३ तरह-तरह = शक्नोति ८ ७०
३।५८] ४।३३ गुणं-णूणं = नूनं ४|१६ उरं = नूपुरम् १।२६ डु = नीडम् ११९ ३/५२ णेड़ा = निद्रा १।१२ णेहो = स्नेहः ३१-६४ णो = नः अस्मान् ६ ४४-५१ णोमल्लिआ = नवमल्लिका २०७ णालइ = नुदति, ते ८७ ण्हाण = स्नानम् ३।४३ ( त )
श्वासः ३।५८
णिहसो = निवषः २।४ णिहिओ, णिहित्तो = निहितः | ६ ७
तआ, तइ = तदा १।११ तभाणि = तदानीम् १११८ तइअं = तृतीयम् १।१८ तइ-तए = त्वया - त्वयि ६ ३०
तइभ = तदा ६८
तइत्ती =त्वत् ६३५ तं = तद्-तम् ६।२२
सं=त्वम् ६।२६ तंसं = यत्रम् ४।१५
तलाअं = तडागः २.२३ तलघंठ अं= तालवृन्तकम् १|
तम = तृणम् १।२७ तणुई = तन्वी ३/६५ संघ = ताभ्रं ३।५३
तह-तहा = तथा १।१०
तहि, हिं= तस्मिन् तर्हि ४।१६]
|ता = ताबत् ४/५
तारिसी = तादृशः १।३१
तालवेण्ट अं= तालवृन्तकम्
१११०
ताव = तावत् ४।५-६
तास = तस्य ६।५-११
तांह = तदा ६८ तिणा = तेन ६।३ तिष्णि = त्रयः- श्रीन् ६ ५६ तिन्हं = तीक्ष्णम् ३३३
तिन्हं त्रयाणाम् ६।५६ तिस्सा- तीस-तीए, आ, अ,
इ = तस्याः ६।६ तीहिं- तीसु = त्रिभिः- त्रिषु ६। ५५-६०
तुज्झ, -तुम्म, तुम्ह = तव ६ ३१ तुज्झ = यूयम्- युष्मान् ६।२४-२९ २६/३८
तुहिओ को = तूष्णकिः ३१५८
3
દ્વાર
तुं तुमं = त्वं त्वाम् ६।२६-२७
तुमाह = त्वया ६।२३ तुमो- तुह = = तव ६।३१ तुरिअं = स्वरितम् ८५
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परिशिष्टे सूत्रसूची।
१८७
तुवरह = स्वरेत ८४ तुह अद्धं, तुहद्धं = तवार्द्धम् ४१ तूरं-तुर्यम् ३६१८-५४ तूस-तुष्यति ८१४६ ते-ते ६०२२ ते-तव-त्वया ६३३२ तेत्तिअं, तेहहम = तावत् ६.२५ तेरह, तेरहो= त्रयोदश ११५] २०१४-४४
तेलो, तैल्लोकं त्रैलोक्यम् ११३५] ३१५८ तेसिंषाम्-तासाम् ६४ ता, ततो, तदातस्मात् ६१० तोड-तुण्डः १२० त्ति इति १।१४-२७
दसरहो-दशरथः २।४५ दसवलोदशवलः २१४५ दहि = दधि ५।२५-३० दसके= दक्षः ११३८ दाऊण =दत्वा ४.२३ दाडिम= दाडिमम् २२३ दाढा-दंष्ट्रा ४ । ३३ दातूनं दत्वा १०११३ दालिमंदाडिमम् २०२३ दाहं-दस्यामि ७१६ दिअरो= देघरः ११३४ दिअहोदियसः २१२-४६ दिग्धं दीर्घम् ३१५८ दिट्ठी - दृष्टिः१।२८]३।१०।५०५१ दिण्णं - दत्तम् टा६२ दिसा-दिशा ४९१ दीहंदीघम् ३१५८ दुअल्लं-दुऊलं = दुकूलम् १२२५ दुइ द्वितीयम् ॥१८ ... दुक्खिओ-दुःखितः ३५८ दुटयणो दुर्जनः ११७ दुवे द्वौ ६५७ दुहारिओ-दौवारिकः १२४४ दुहाइअं, दुहाइजह, दोहाइअं दोहाइजर द्विधाकृतम्, द्विधाकियते १२१६ दुहिओ-दुःखितः ३५८ दूमइ%D दुनोति, दूयते ८८ देते-त्वया ६३२ दा १११४ देअरोदेवरः १३४ देवप्थुइ-ई-देवस्तुतिः ३१५७
थवओस्तवकः ३११२-५० थाणू स्थाणुः ३३१५ थिंपह-तृप्यति ८१२२ थुइ-स्तुति ३१२
दद्रद्यो- दैत्यः ११६६ दइवं दैवम् ११३७]३।५८ दसणं-दर्शनम् ४.१५ दास्सं%दास्यामि १२।१४ दच्छंद्रक्ष्यामि ७१६ दच्छाओ-दक्षः ३३० दद्रढं दग्धम् = ८६२ दहदष्टम्, दृष्टम् ४।१२ दवग्गी-दावाग्निः १।१०।। दसमुहो-दशमुखः २।४५
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१८८
प्राकृतप्रकाशे
देव्वं = देवम १।३७] ३१५८ पच्छिम = पश्चिमम् ३।४० देहि देहि ६.६४
पजत्तो पर्याप्तः ३१ दो, दोणि = द्वौ ६५७
पज्जुण्णोप्रद्युम्नः ३।४४ दोण्ह-द्वयोः ६५९
पट्टणं = पत्तनम् ३ । २३ दोहिद्वाभ्याम् ६३५४
पदाआ% पताका २४ दोहलो = दोहदम् २०१२
पडइ = पतति ८.५१ दोहो द्रोदो-द्रोहः ३४
पडिप्रति रा४ धणंम्धनम् ४१२५/३०
पडिसुदं प्रतिश्रुतम् ४।१५ धणवन्तो धणलोधनवाद्
प्रडिवआ%प्रतिपदा १४७ ४॥२५
पडिवाहप्रतिपत्तिः २२७ धम्भिल्लं,धम्मलं = धम्मिल्लः१।१२ पीडसरो=प्रतिसरः २८ धाइ-धाति ८२७
पडिसिद्धि प्रतिस्पद्धिन् १३२ धीआ-दुहिता ४।३३
३।३७ धीरं= धैर्यम् १३९]३॥१८-५४
पढमोप्रथमः २०२८ धुणइ =धूनौति ८५६
पण्णरहो पञ्चदशः ३६४४ धुत्तो-धुतः ३६२४
पण्हा , हो-प्रश्नः ३।३३।४।२० घुरा-धुर ४८
पण्हुदं प्रस्तुतम् ३३३ धुव्वीस-धुयसे ९९
पत्थरो, स्थारा प्रस्तरः१।१०
पभवर प्रभवति ८२ धुव्वइ, धुणिजइ, धूयते ८५७
पमिल्लइ पमील्लइ प्रमीलति ८५४ धुदा दुहिता ४ | ३३
पम्हो = पक्ष्म ३।३२
परहुआ = परभृतः १।२९ पअडं, पाअडं =प्रकटम ११२ परिभवह परिभवति ८३ पखलो प्रखल २२२७
पलंघणो । प्रलंघनः २२२७ पउभं-पाउअप्राकृतम् १२१०
पलित्तं प्रदीप्तम् २०१२ पउत्ति-प्रवृत्तिः।२९
पल्लत्थं पर्यस्तम् ३३२१ पउम = पद्मम् ३३६५
पल्लाणं = पर्याणम् ३२१ पउरो पौरः १२४२
पवट्ठो प्रकोष्ठः १४० पउरिसोपौरुषः १२४२ पवणुद्धअं, पवण उद्धप. पओत्थो-प्रकोष्ठः १४० वनोद्धतम् ४१ पञ्चक्खं प्रत्यक्षम् ३।२७ पमुत्तं प्रसुप्तम् १२ पच्छं% वथ्यम् ३२७
पसूसह प्रशुष्यति ९।१२
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परिशिष्टे सूत्रसूची।
१८९
३।३७
पहरो, हारो=प्रहरः ११० पेण्डं-पिण्डं =पिण्डम ११२ पहो पन्था ११३
पेम्म = प्रेम ३१५२ पाइ. पाअE% जिघ्रति ८२० पेरंतं = पर्यन्तम् १।१५।३।८ पाअवडणं = पादपतनम् ४१ पोक्खरो-पुष्करः १२२०]११।२९ पाउप्राकृतम् १।१०।। पोत्थओ= पुस्तकम् १२२० पाउसोप्रावृद ४।११-१८ ।
(फ) पाडिसिद्धी प्रतिस्पर्धी १२]
फंसो=स्पर्शः ६।३६] ४.१५ पाणाइन्तो-प्रागवान् ४।२५
फणसो- पनसः २।३७ पाणि= पानीयम् १११८
फंदंअं-स्पंदनम् ३।३६ पाराओ,पारावओ=पारावतः४५
फरिसो= स्पर्शः ३३६२ पालइ = पद्यते ८।१०
फरुसो-पुरुषः ॥३६ पावडणं = पादपतनम् ४.१ .
फलिअं= पटितम् ८.९ पिा-पिअरो-पिता ५:३५
फलिहा परिखा २।३०-३६ पिआ पिकंपीतापीतम्-४१
फलिहो = परिघः २।३९-३६ पिकं = पक्कम् १।३।३।३
फलिहोस्फटिकः २४-२२ पीणादा-पीणत्तणं-पु = पृष्ठः फुड, फुडइ = स्फुटति ८५६ . म् ४२०
(भ) पुडो, डो = पुत्रः १२५
भअफई-वृहस्पति ४।३० पुप्फ-पुष्पम् ३१६५-५०
भइरवोभरवः-११३६ पुरिल्ल - पौरस्त्यम् ४।२५
भत्तं भक्तम् ३३१ पुरिसो-पुरुषः १.२३
भत्तारो= भर्ता ५/३१-३३ पुलअइ = पश्यति ८६९
भई भद्रम् ४१२ पुलिशाह = पुरुषस्य ११११२ भमइ = भ्रमति, ८७१ पुष्वहण्हो = पूर्वाह्नः ३८ भमिरो =भ्रमणशीलः ४.२४ पुलो. स्सो-पुष्यः ५।८। भरह - स्मरति ते दा९८ पुहवि पृथवी १।१३-२९ ।
भरणिजं, भरणिभरणीयं पेक्खइ, पश्यति पेच्छते ५-३ २।२७ ५।१४।१२।१८
भरहो-भरतः २९ पेक्ख = पश्य प्रेक्षते ५-३९ ।। भाइविभेति विभीते ८:१९ पेत्थं-पिष्टम् १२१२ ....
भाअणंभाजनम् ४।४
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११०
प्राकृतप्रकाशे
मणंसिणी = मनस्थिती १/२/४ ५ मणोजा = मनोज्ञा ३२५ मण्डूरो = मण्डूकः ४ ३३
मंथं = मुस्तम् ४ । १५
भिण्डिवाला = भिन्दिपालः ३/४६ | मम्महो मन्मथः ३ | ४३
भाआ, भाअरो = भ्राता ५/३५ भारिआ = भार्या १०.८ भिंगारो = भृङ्गारः १।२८
भिंगो = भृङ्गः ११२८
भिन्दर = भिनत्ति ८ ३८ भिन्भलो ३-४७ टि० भिसिणी = विलिनी २२३८ भुत्तं = भुक्तम् ३।५० भोतुं = भोक्तुं ८१५५ भोतूण = भुक्का ८/५५ भोक्तव्वं = भोक्तव्यम् ८१५५
(म )
भअं = मृनम् १।२७ मइ - मए = मया - मयि ६ ४६-५२ महतो = मत् ६।४८
महलं = मलिनं ४ | मउड़ = मुकुटम् १/२२/२/१ मद्दल, लो = नुकुलम् ११२२/२/२
मऊरो = मयूरः ११८
मऊहो = मयूखः ११८
मओ = मदः २/२ मंसं = मानसम् ४ १६ मंसू = श्मश्रु ४|१५ मग्गो = मार्गः २ २] ३५० मच्छिआ = मक्षिका ३३० मज्झ = अस्मत् ६.५०-५ मज्झण्णां = मध्याह्नः ३ ७ मज्झ = मध्यम् ३२८ मडे = मृतः १९/५
मदं
= मठः २।२४
मं, मम = माम् ६ ४२ मरइ = म्रियते ८|११ मलइ = मृद्रति ८/१० मलिणं = मलिनम् ४।३१ मंसं -मांस = मासम ४|१६ मसाणं = श्मशानम् ३।६ मस्सू = श्मश्रु ३/६/४.१५ मह-मज्झ = मम ६।५० महअद्धं = ममार्द्धम् ४।१ महुअं = मधूकम् ११२४ महुं = सधु ५/२५-२७-३० मा अन्दो = माकन्दः ४।३३ माथा = माता ५ । ३२ माउओ = मातृकः १ । २९ मइन्दो = माकन्दः - चूनः ४३३ माणं सिणी = मनस्विनी १/२ ] ४१५
माणुसो = मनुष्यः २२४२ माला = माला ४।१९-२४] ६ ६० मास = मांसम् ४ १६ मिअंको = मृगाङ्क: ११२८ मिओ, मित्तो = मित्रः ३५८ मिच्छा = मिथ्या ३ २७ मिलानं = म्लानम् ३ ६२ मिष = इव ९१/६
महगो = मृदङ्गः ११३ मुक्खं = मुष्कः ३२४९
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परिशिष्टे सूत्रसूची।
मुग्गो मुद्रः ३१ । रमाणिज्ज, रमणिभं रमणीयम् गग्गा = मुद्रः ३१
२०१७ मुच्छा- मूी ३१५१
रमिजा, रम्मइ, रम्यते ८५८ मुझजाणो-मोजायन: १४४
रसी-रस्सी रश्मिः ॥२-५८ मुणह-जानाति ८.२३
राअउलं राउलं राजकुलम् ४१ मुणालो-मृणालः, नालः११२९
राआ=राजा ५३६-४४ मुत्ति मूर्तिः ३।२४
राइणो रणा राशः-५॥३८-४२ मुद्धा%= मुग्धः ३१
राई रात्रिः ३.५८ मुह = मुखं २२७
राचिना=राशा १०।११ मुहालो=मुखरः २०३०
रासहा रामभः २२२ मूढत्तणं% मूढत्वम् ४२२
राहा-राधा २०२७
रिच्छोरिक्षः ११३०]३.३० मूढदा-मूढता ४।२२ मेयुप्माकम् ६:३७
रिणं =ऋनम ११३ मेहलामखआ २२७
रिद्धोमणः ११३० मेहो मेघो २२०
रुषखो-वृक्षः १२३२३।११ मेखो मेघो १०३
रुण्णरुदितम् ८।६३ मोत्तामुक्ता १२०
रुद्दो-रुद्रो-रुद्रः ३४ मोरोमयूरः १८
रुप्पं रुक्मम् ३।४९ मोहो-मयूरखः १२८
रुप्पिकाक्मणी ३१४९ म्मिव= द्रवः ९।१६
रुन्धर, रुम्भारुणद्धि ८१४९ मिह-म्हो-म्हु, म्ह%स्मि-स्मः
रुवा%रादिति ८४२
कसा=रुप्यति ८४६ ७१७
रे-भो सम्भाषणादिषु ९२१५
रोच्छं-रोदिस्यमि ७।१६ रअण% रटनं ३६०
रोत्सब्वं = रोदित्तव्यम् वा५५ रमदं रजतम् २।२-७ रोसाइतो रोषवान् ४१२५ रच्छा%रथ्या ३२७
रोत्तु-रुदितुम् ८.५५ रणं = अरण्णम् ११४ रण्णो , ण्णा, राश-राशा ५।
लग्गइ लगति ८।५२ रत्तं रक्तम् दा६२
लच्छी-लक्ष्मी ३.३० रत्ति-रात्रिः ५८
लट्ठी- यष्टिः २२३२
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________________
१९२
प्राकृतप्रकाशे
लस्कशे =राक्षसः १११४ पच्छो वत्सः ३।४० वक्षः ३।३०] लहुई लध्वी ३६५
४।१८ लाला-राजा ११६१०
वच्छठियत्से स्थितं ५-१३ लिच्छा-लिप्सा ३४० वज अलतिथ६६ लिज्झइ-लिहते ८०५९ वज्झओवाहकः ३२८ । लुण-नातिलु ८५६ । वंचणि वञ्चनीयम्४।१४ लुबह-लुाणजालूयते ८५७ वडिसंवडिशम् २२२३ लुद्ध ओ लुब्धकः ३३
वड्ढ%वर्द्धते ८१४४ लुभामाष्टिं ८६७
वर्णवनम् ४।१२५-३० लोणं-लवणम् १२७
घण्णो वर्णः ४।१५ ।। लोद्धओ= लुब्धकः १।२०] ३३ वहि -वह्निः ३१६३
वत्तमाणे वर्तमानम् ३।२४ : व अइ%शक्नोति ८७०
वत्ता वार्ता ३१२४ वअणं = वशनम् २।२।४२ वत्तिा = वत्तिका३।२४ व -वयम् १२।२५
घद्धोवृद्धः १:२७ घइदेसो वैदेशः १३६ वंदं वृन्दम् ४।२७ वइदेहो वैदेहः ११३६ वप्फो= वापः उष्मा ३१३८ वरं% वैरम् ११३६
वंचणी:वश्वनीयम् ४१४ वइसंपाअणो = वैशम्पायनः१.३६ वरमहोमन्मथः ॥३९] ३४३ घइसाहो-वैशाखः १।३६
वम्मो%3वर्म ४१८ वासिओ वैशिखः ११३६ .
वम्हा-ब्रह्मण्यः १२२७ बक्कल वक्तलम् ३३
धम्हणो-ब्राह्मणः ३२८६६४ वग्गी-वाग्मी २३
वम्हा, वम्हाणोन्ब्रह्मा ५।४७ वकंवक्रम ४१५
वरह-वृणोति, वृणुते दा१२ वववजति ८४७
पलही = वडभी २२३ घच्छा:- वृक्षाः ५२
वलिअं% व्यलीकम् १११८ वच्छाणा= वत्सानां-वृक्षाणा५।४ वले = अयि, अवलं ९:१२ वच्छरो-वत्सरः ३।४०
वसही- वसतिः २९ वच्छेण = वत्सेन-वृक्षेण ५४ ।
वसहोवृषभः ११२७]२।४३ वच्छो -वृक्षः ११३२] ३६३१] | बहिरो-वधिरः २०२७ ५:१-१३-२७] ६०६३.
बहुमुई, वहूमुहं वहुमुखम् ४१
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परिशिष्टे शब्दसूची ।
धहू = वधू ५।१९-२१-२९]६.६० बहूहिं = वधूभिः ६६० वाइ, वाअइ = म्लायति ८/२१
घाओ = = वाच्
કા वाअवडणं = पादपतनम् = ४-१ घाऊ = वायुः ५।१४-९८-२७] ६/६०-६१
वाऊहिं = वायुभिः ६ ६० चाऊदो = वायोः ६।६० वाऊदो, दु, हि = वायोः ६ ६ १ वा उम्मि = वायौ ६ ६२
वाऊसु = वायुषु ६/६० वाऊहितो, सुतो = वायुभ्यः ६ । ६२ वाउस्स = वायोः ६ ६०
वाउणो, वाउस्स = वायोः ५/१५ चाउओ, वाउणो = वायवः ५|२६
वाउण = बायुना ५१७ वाकहिं = वायुभिः ५१८ वाऊसु = वायुषु ५।१८ वारह = द्वादशः २।१४-४४ वावडो = व्यापृतः १२४ वाहित्तं = व्याहृतम् ॥ ३।५२ वाहो =
= वाष्पः ३।३८-५४ विअ = इव ९/३ - १६] १२/२४ विअड्डी = वितार्दः ३२६ विअणा = वेदना १।३० बिअणो = व्यजनम् ११३ विआणं = वितानम् श२ विआरिल्लो, विआरुल्लोविकार
वान ४२५
विइण्हो = वितृष्णः १२८ विउदं = विवृत्तम् १।२९२/७
१९३
त्रिउलं = विपुलम् २।२ बिहिअ = वृंहितम् १२८ विवो = विक्लवः ३ ३ विकिण, विक्के = विक्रीणीते ८|३१
विच्छडो = विच्छर्दिः ३ २९ विजा = विद्या ३।२७ विज्जुली, बिज्जू=विद्युत् ४९
२६]
विच्छुओ, विञ्छुओ = वृश्चिकः १११५-२८/३/४१ बिञ्जो = विज्ञः १२७ विञ्जातो = विज्ञातः १००९ विमझो = विन्ध्यः ४ १४ विडवो = विरुपः २ २० विष्णाण = विज्ञानं ३।४४ विण्हू = विष्णुः १११२ ३।३३ विप्फरिसा = विस्पर्शः ३५१ विन्भलो =विह्वलः ३ ४७ विलाशे-विलासः ११/१ विसइ = ग्रसते ८|२८ विसं = विलम् २/३० विसी = वृषी १।२८ विसूरइ = खिद्यते ८/६३ बिस्सासा = विश्वासः ३२५८ वीरिअं = वीर्यम् ३ २९ वीसत्तो = विश्वस्तः १।१७. वीसम्भो = विश्रम्भः १।१७ वीसासो = विश्वासः ३२६८ विहओ = विस्मयः ३।३२ विहलो = विह्वलः ३४० बीहर = विभेति विभेति ८१९ बुज्झइ = बुध्यते ८ | ३८
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प्राकृतप्रकाशे
खुट्टइ-मजति ८ । ६८ खुत्तत्तोवृत्तान्तः १ । २९ बुंदावण = वृन्दावनम् १ । २९ वेअ-एव ९ । ३
अणा= वेदना १ । ३४] ११ वेच्छं = बेत्स्यामि ७ । १६ वेज = वैद्यम् ३ । २७ वेडिसोचेतसः १ । ३]२ । ८ घेडइ% वेष्टते ८।४० घेण्हू -विष्णुः १११२ वेत्तुंदितुम् ८५५ वेत्तन्वं वेदितव्यम् दा५५ घेत्तूण - विदित्वा ८५५ वेभलो विहूलः ३।४७ वेबइ = वेपन्ती ७।११ घेबन्ती% वेपन्ती ७११ घेवमाणाधेपमाना ७।११ घेलुरिअं-वैदूर्यम् ४।३३ वेल्ली-घल्लिः १२५ घोवः ६२७ २९-३७ घोच्छं वक्ष्यामि ७९६ घोरं बदरम १६ बंद- वृन्दम् ४।२७] ३।४
संइर= स्वैरम् = १॥३६ संवत्सोसम्बर्तकः ३।२४ संबुद-संवृत्तम् २१७ संबेल्लुइ-संवष्टते ८४१ संकेतोसंक्रान्तः ३६५६ संका-शङ्का ४।१७ संकंती=संक्रान्ति ४-१ टि. सका-शक्नोति ८५२ सको=शक्रः ३३ सग्गामोसंग्रामः १०३ सचावंसचापम् २१२ सजो षड्जः ३१ संजदो संयतः १७ संजादो-संयातः २१७ सढा= सटा २।२१ सडइ-शीयते ८५१ सणेहो-स्नेहः ३.४४ संडावि = संस्थापितम् ११० संठोसंढोषण्ढः २४३ सण्णा=संज्ञा ३.५५ सण्हं = श्लक्ष्णम् ३३३ सद्दालो=शब्दवान् २।४२ सहो-शब्दः २४२ सनानं = स्नानम् १०७ सनेहो% स्नेहः १०७ सप्फशष्पम् ३३३५ सभासद्भाव ९२ सभरिशफरी २२६ सभलं% सफलम् २१२६ समत्ता-समस्तः ३।१२ समिद्धी-समृद्धिः ११२
शहिदाणि = सोद्वा ११।१६ शिअला, शीआला, शिआल, शिआलके-शृगालः ११११७
सअढो= शकिटः २।२१ सअहुत्तं-शतकत्वः ४२५ सा, सह-सदा ११११
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परिशिष्टे शब्दसूची ।
संपत्ती = सम्पत्तिः ४.१७ संपदि = संप्रति २७ संभव = सम्भवः ८३ सम्प्रडो= सम्मर्दः ३|१२ सरइ = सरति, ते ८/१२ सरदो = शरद् ४।१०।१८ सरफ से = सरभसम् १०.३ सररुहं, सरोरुहं = सरोरुहम् ४.१
सरिआ = सरित् ४ ७
सरिच्छं = सदृशम् १ | २३ | ३० ]
१।३१
सरिसो = सदृशः १ ३१ सरो =
= सरम् ४।६-१८
' = शपथः २।१५-२७
सलफा = शलभः १०१३ सलाहा = श्लाघा ३१६३ वहो सवमुहओ = सर्वमुखः ४ । १ सवमूओ सर्पमुख ४।१ सवोमूओ = सर्वमुखः ४.१ सोमुओ = सर्पमुखः ४|१ सव्वजो = सर्वज्ञः १२/८ सब्वञ्जो = सर्वज्ञः १०/७ सवण्णो = सर्वज्ञः १२/८
सव्वे = सर्वे ६-१ सम्वत्थ, सम्बसि सव्वम्मि = सर्वस्मिन् ६२
सहमाणा, णी = सहमाना५|२४ सहस्वहुत्तं=सहस्रकृत्व सः४/२५ सहइ, ए = सहते ७/१
सहा = सभा २/२७ सहामि = सहे ७/३
१९५
सहीअइ = सह्यते ७८ सहिज्जइ = सह्यते ७/८
साअरो = सागरः २/२ सामिद्धी - समृद्धिः १/२ सारङ्गो =
= शारङ्गः ३।६० सारिच्छं = सदृक्षम् १.२ साले = शाले=५|१५
सि = असि ७६
सिआलो = शृगालः १।२८ सिआसिअं =सितासितम् ४१
सिङ्गारो = शुङ्गारः १।२८ सिठ्ठी = सृष्टिः ११२८ सिढिलो = शिथिलः २२ सिणिद्धो = स्निग्धः ३।१ सिन्हो = शिम्नः ३।३३ सित्थओ = सिक्थकम् ३ १ सिन्दूरं = सिन्दूरम् १।१२ सिन्धवः=सैन्धवम् ११३८ सिभा = शिफा २२६ सिं = तेषाम् - तासामू ६।१२ सिरं = शिरः ४।११ सिरवेअणं, सिरोवेअणं = शिरो वेदना ४।१
सिरी = श्रीः ३।६२ सिलित्थं = श्लिष्टम् ३।६० सिविणो = स्वप्रः २।३३।६२ सीआसीअं = सीतासीतम् ४।१ सीभरो = शीकरः २२५
सीहो = सिंहः १।१७
सुइदी = सुकृतिः २/७ सुडरिसो = सुपुरुषः २२
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________________
१९६
सुजो = सूर्यः ३।१०, सुणइ = शृणोति ८५
प्राकृनप्रकाशे
सुण्डो = शुराडः १४४ सुन्दरं = सौन्दर्यम् १ (५-४४ ]
३।१८
सुत्तो -सुतः ३|१] ७/६ सुपद्द = मार्ष्टि ८|६७ सुप्पणहा = सूर्पनखा ५|२४ सुमरइ = स्मरति, ते ८/१८ ]
१२/१७
सुवइ = श्रूयते ८/५७,७९
सू = धिक् ९।१४
सूई = सूची २२ सूरो = सूर्य्यः ३ । १९ सूसइ = शुष्यति ८४६ से = तस्य तस्याः ६११ सेच्छं = शैत्यम् १।३५ मेजा = शय्या १२५/३/११
सेंदूर = सिन्दूरम् ११२ सेभालिआ = सेफ.लिका २२६
सेवा, सेव्वा = सेवा ३३५८
सेलो = शैलः १/३५ सो =
= सः ६।२२
सोइहि = शोचति ५/३२ सोअमलं = सौकुमार्यम् १-२२]
६।२१
सोऊण, सोइहि = श्रुत्वा ४।२३ सोच्छं = श्रोष्यामि ७.१६ सोच्छिर, सोच्छिहिद्र = श्रोष्यति ७:१७
सोध्छति सोडिद्दिति = श्रो,
व्यन्ति ७११७
सोच्छिसि, सोच्छिहिंसि = श्री.
व्यति ७।१७
सोच्छ था, सोच्छिहित्था = श्रो
यथ ७ १७
सोत्तं = स्रोतम् ३।५२
सोमाला = सुकुमारः २३० सोम्मो = सौम्यः ३२ सोरिअं = शौर्यम् ३ २० सोस्सं = शुष्म ३२] ३।३२ सोहन्ति = शोभन्ते ५-२
ह
हके. हगे = अहम् ११९ (१)
(१) अ = वयं ६ । ४३ म = मया ६४६
ममाइ = मया ६१४५ अह्मेहि = अस्माभिः ६/४७
मत्त = मत् ६४८
मइत्तो = मत् ६|४८ ममादो, दु. हि = ६ ४८
अह्नाहितो, लुंतो = अस्मत् ६१४९
मे =
= मम, मे ६।५०
मम = मम, मे ६:५० मह = मम, मे ६५० मज्झमम मे ६ |'५० मज्झणो = अस्माकम् ६.५१ ममस्मि = मयि ६।५२ अह्मेषु = अस्मासु ६५ प्रसङ्गाद्युम्मपाण्यपि प्रदश्यते तुम्हे = यूयं, युष्मान् ६ २८,२९
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परिशिष्टे शब्दसूची।
हडक - हृदयम् ११६ हित्थं त्रस्तम् ८१९२-३७ हणुमन्तो, हणुमा= हनुमान्४.२९ हिरी= हीः ३६२ हत्थो-हस्तः ३११२०५०। हिरे= सम्भाषणादिषु २१९ हदा-हतः २७
हीरइ =हियते ८६० हं = अहम् ६४०५३
हुं पृच्छायाम् ॥२ निश्चय ९।६ हलो इस्वः ४।१५
हुअंभूतम् ८२ हम्मइ =हन्ति ८४५
हुणइ% जुहाति ८५६-५७ हरिसइ-हर्षति, हृष्यति ८१२ ।
हुबइभवति ८१ हरिसा = हर्षः ३६६२
हुम्वइ, हुणिजह % हूयते ८1५७ हलद्दा, हलद्दी-हरिद्रा ११३
हुत्त-हुतम् ४।२५ ५.२४३०
हुवीअ = अभवत् ७१२३ हलिओ= हालिकः १११०
हुवसु-भव ९।२ हवि-हविष सा२५]४१६
हाइ% भवति ८१ हशिदु, दि, दे, द= हलितः
होज होजा भवति भविष्यति ११।११
भवतु ७२० हसई = हसन्ती ७।११
होस्सं भविष्यामि ७।१४ हसंतो-हसन् ७।१०
होस्सामि, होहामि, होहिमि, भ. हसिरो= हसनशीलः ४।२४
विष्यामि ७।१४ हस्साइ, हसिज-हस्यते ७.९ ८५८
तुमए. तुमे = त्वया, त्वयि ६।३० हसंति-हसन्ति ७४ । तुझेहि, तुह्मोहि, तुम्महि = यु. हसमाणा % हसमानः ७।१०।।
ष्माभिः । ६।३४ हसह- हसथ ७४
तत्तो, = त्वत् ६।३५ हमिहिइ%= हसिष्यति, ते ७.१२ तुमादो,दु,हि त्वत् ६।३५ हसिहिति = हसिष्यन्ति ७१२ तुम्हाहितो, सुन्तो = युष्मत्६ ३६ हसमाणा-हसमाना ७११ में युष्माकम् ६।३७ हसिहिमो,मु,
महस्सिस्सामो तुज्झाण - युष्माकम् ६:३७ हसिहामो हसिष्यामः ७१५ । तुह्माणं- युष्माकम् ६।३७ हसिाहत्था = हसिष्यामः ७.१५ तुमम्मि = त्वयि ६३८ हालिओ= हालिकः १।१० तुज्झसुम्युमासु ६।३९ हिअ हृदयम् १।२८
तुह्मसु- युष्मासु ६।३९ हित अकं-हृदयम् १०११४ विस्तरस्त्वन्यत्र
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प्राकृतप्रकाशे
होहि = भविष्यति ७१२ गुरुओ= गुरुः होहिंति-भविष्यन्ति ७ १२ गोविंतो= गोविन्दः १०३ होहिमो, मुअ, होस्सामो, होहा. णाअ = नागः ९।१५ मो-भविष्यामः ७९५
णिच्छरोणिझरः १०३ होहित्था - होहिस्सा भविष्या. तलुनी = तरुणी १०५ मः ७:१५
दस्के= दक्षः ११३८ होहीअ = अभूतू ७।२४
दसवतनोदश वदनः १०३ होहिस्साम= भविष्यामः ७।१५ पलिचए = परिचयः ११ मुद्रण समयेऽप्राप्तांशाः । पिव = इव १०१२ आलले= आदरः ११६
पुलिशा-पुरुषाः ११।१२ इर = अतिश्चिता ख्याने पालशे-पुरुषः ।११।१४ ओ= सूचनादिषु
पुलिशश्श-पुरुषस्य ।११।१२ कजक्त रसरंजिएहिं =
माथवो =माधवः १०३ कजल रस रञ्जिताभ्याम् ९।१०।
माशेमाषः १११ कलह वंधेण = कलहवन्धेन९।११ यायते-जायते ११४ कसट = कम् ९६
रक्ख सो राक्षसः ९६ केसबो केशवः १०३
वग्धोव्याघ्रः १०॥३॥ क्खु खलु १०३
विलाशे%Dविलासः ११११। गकनम् = गमनम् ॥१०॥३ वियले-विजलः ११।५। गहिदच्छले = गृहीतच्छलः १२०५/ इति शम्
ORDNA
KOWANA
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