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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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भाभ
प्राचीन लिपिमाला
जिसको
पण्डित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा सेक्रेटरी इतिहास कार्यालय राज मेवाड़ने भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रान्तोंसे मिले हुए समय समयके प्राचीन शिलालेख, दानपत्र आदिसे संग्रहकर
प्रकाशित किया
adeshh6666
उदयपुर
सज्जनयन्त्रालयमे आशिया चालकदानके
अन्धसे छपा
विक्रम संवत् १९५१.
THE
PALEOGRAPHY OF INDIA
BY
GAURISHANKAR HIRACHAND OJHA
OODEYPORE:
PRINTED AT THE SAJJUN PRESS.
I894.
Price Rs 8-10
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श्रनु 20
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श्री विशसागरजीतराम महाराज शास्त्रविक्षारस्जैनाचार्म' श्री १०८ श्री विजयधर्मरिज, महाराजके वरएसरोजमें सेवक गौरीशंकर हीराचं साझा की तरफ से सविनय प्राचीन लिपिमाला
भेट.
जमेर।
व.कृ.वि. जिसको
Alap)
ता.:- - पण्डित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा सेक्रेटरी इतिहास कार्यालय राज मेवाड़ने भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रान्तोंसे मिले हुए समय समयके प्राचीन शिलालेख, दानपत्र आदिसे संग्रहकर
प्रकाशित किया.
उदयपुर सज्जने यन्त्रालयमें आशिया चालकदानके
प्रबन्धसे छपा. विक्रम संवत् १९५१.
THE
PALLOGRAPHY OF INDIA.
BY
GAURISHANKAR HIRACHAND OJHA.
OODEYPORE:
PRINTED AT THE SUJJAX PRESS.
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INTRODUCTION
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Nothing is of greater importance to those interested in the recovery of the early history of our great country than a correct knowledge of its Palæography. It must be admitted that there are no systematic records of ancient India, yet archæological relics are not wanting, such as coins, inscriptions and copper plate grants, scattered over all parts, which may prove efficacious in removing the dark veil of mystery which has enshrouded the past centuries. In the various stages of the developement of Indian alphabets, the letters underwent a great change, and hence all knowledge of the older forms was lost. So these valuable sources of historic information-these true, though silent witnesses of ancient times-fell in importance, and assumed a mystic character in the eyes of the people. In this way the history of our country has suffered much from their ignorance of the art of palæography.
Since the establishment of the Asiatic Society of Bengal in 1784 A. D' the attention of European, as well as native, scholars well versed in Sanskrit, has been turned to inscriptions, coins, and copper plate grants. Their labours have been crowned with success, so that the history of various ancient. dynasties of the Indian kings is now brought to light.
The only draw back to the general cultivation of the art of palæography in India is that the books connected with this abstruse subject, containing facsimiles, transcripts, and translations of various inscriptions, are in English and in other European languages. Besides, they are voluminous and too expensive for general use. This is why they awaken interest in the minds only of a very limited number of the natives of India, rich enough to keep splendid libraries, or living in large cities. The generality of the people can not easily gain access to them. It is to be regretted that not even a single book on the science is found published in any of the vernacular languages of the country.
To supply this deficiency, I have brought out this book on Indian Paleography in the most wide spread vernacular tongue of our country. It contains much of what is needed to enable a man to learn this art without the assistance of a teacher.
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II
The book is divided into two parts. The first contains the following articles in brief :
I. A dissertation on the art of writing being known to the IndoAryans of the ancient times.
II. Indigenous origin of the Pâlî alphabets. III. Origin and existence of the Gåndhâra alphabets in India. IV. History of the deciphering of ancient inscriptions.
V. Epochs of various Indian eras as found in inscriptions &c. , as the Saptarshi, Kaliyuga, Nirvana of Buddha, Maurya, Vikrama, Shaka, Chedi, Gupta-Vallabhi, Harsba, Gângeya, Nevâra, Lakshmana Sena, Châlukya Vikrama, Simha and Kolama eras.
VI. Ancient numerals,
The second part consists of a series of 52 illustrative plates accompanied by short descriptions. Of these plates the first 24 give alphabets of Northern and Western India; Nos. 25 anil 26, Gândhára alphabets; from 27 to 37, alphabets of Southern India. Every one of these 37 plates contains in addition to the alphabets some lines of the original inscription or copper plate grant, from which it has been prepared. The plates Nos. 38 and 39 show ancient Tâmila alphabets; the 40th certain numerals from various inscriptions &c., given both in words and figures; 41 to 43, various numerical symbols of the ancient times, and 44 to 50, alphabets of different vernacular languages of India. Plate 51 shows the regular developement of the present Deva Nagari characters, and the last contains such letter3 as are not met with in the first 39 plates.
I have tried my best to make the book useful to my fellow country men and shall think myself amply rewarded if my labours contribute to arouse interest in their minds in the cultivation of the knowledge of what concerns them most-the early history of their father-land.
Victoria Hall, Oodeypore,
August 7th, 1894.
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भूमिका.
प्रकट है, कि भारतवर्ष के विद्वानोंने वेद, न्याय, व्याकरण, काव्य, साहित्य, गणित, वैद्यक आदि विषयों में जैसा उत्तमोत्तम श्रस किया, पैसा इतिहास विद्यामें नहीं पायाजाता है. क्योंकि मिसर, यूनान, चीन
आदि देशोंका, जैसा चार पांच हजार वर्ष पहिलेका शृंखलाबद्ध इतिहास मिलता है, वैसा इस देशका नहीं मिलता. बुद्धके पूर्व और कुछ उत्तर समयका अर्थात् सूर्य, चंद्र, नन्द, मौर्य, सुंग, काण्व, आंध्र, आदि राजबंशियोंका इतिहास महाभारत, रामायण, विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण, श्रीमद्भागवत, वायुपुराण आदि धर्म ग्रन्थों, और रघुवंश, मुद्राराक्षस आदि काव्य और नाटकके पुस्तकों में बिखरा हुआ मिलता है, परन्तु उनमें बहुधा शुद्ध ऐतिहासिक वृत्त धर्म कथाओं के साथ मिले हुए होने, और राजाओंके चरित्र मनमाने तौरपर अतिषयोक्तिके साथ लिखनेसे ऐसा गड़बड़ होगया है, कि उनके सत्यासत्यका निर्णय करना दुष्कर है, ठीक ऐतिहासिक रीतिसे लिखा हुआ पुस्तक केवल कश्मीरका इतिहास राजतरंगिणी है, जिसके रचनेका प्रथम प्रयास भी मुसल्मानोंके इस देश में आनेके पश्चात् ( शक संवत् १०७० = विक्रम संवत् १२०५ में ) कश्मीरके अमात्य चंपकके पुत्र कल्हणने किया था. इसके अतिरिक्त श्रीहर्षचरित, गांडवहो, विक्रमाङकदेवचरित, नवसाहसांकचरित, पृथ्वीराजविजय, कीर्तिकौमुदी, व्याश्रयकोश, कुमारपालचरित्र, हम्मीरमहाकाव्य आदि कितने एक ऐतिहासिक काव्य, और प्रबन्धचितामणि, प्रबन्धकोश आदि प्रबन्ध ग्रन्थ समय समयपर लिखेगये थे, परन्तु सारा भारतवर्ष एकही प्रबल राजाके अधिकार में न रहने, और अलग अलग विभागोंपर अनेक स्वतन्त्र राजाओंके राज्य होनेसे ये पुस्तक भी इस विस्तीर्ण देशके बहुत छोटे विभागका थोड़ासा इतिहास प्रकट करनेवाले हैं, सो भी अतिषयोक्तिसे खाली नहीं. तदुपरान्त भाषा कविताके रासा आदि ग्रन्थ, और बड़वा भाटों के बंशावलीके पुस्तक मिलते हैं, परन्तु ये सब इतिहास की दृष्टिसे लिखे न जाने, और आधुनिक समयके बने हुए होनेपर भी अधिक प्राचीन दिखलाये जाने के लिये इनमें बहुतसे कृत्रिम नाम भरदेनेसे अधिक उपयोगी नहीं हैं.
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धुद्धकै समयसे इधरका इतिहास जानने के लिये धर्मबुद्धिसे अनेक राजवंशी और धनाढ्य पुरुषोंके बनवाये हुए बहुतसे स्तूप, मन्दिर, गुफा, तालाब, वापी आदिपर लगाये हुए, तथा स्तंभ और मूर्तियोंके आसनमें प्रवुदे हुए अनेक लेख; और मन्दिर, विहार, मठ आदिके अर्पण कीहुई अथवा ब्राह्मणादिको दीहुई भूमिके दानपत्र, और अनेक राजाओं के सिक्के बहुतायतके साथ उपलब्ध होनेसे उनके द्वारा, जोकि साम्प्रतकालमें सत्य इतिहास जाननेके मुख्य साधन होगये हैं, बहुत कुछ प्राचीन इतिहास मालूम होसक्ता था, परन्तु उनकी ओर किसीने दृष्टि नहीं दी, और समयानुसार लिपियों में फेरफार होते रहनेसे प्राचीन लिपियोंका पढ़ना भी अशक्य होगया, अतएव सत्य इतिहासके ये अमूल्य साधन हरएक प्रदेश में उपस्थित होनेपर भी निरुपयोगी रहे.
दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुग़लक़ने ई० सन् १३५६ (वि० सं० १४१३ ) के करीब अशोककी धर्माज्ञा खुदा हुआ एक स्तंभ, जिसको फीरोजशाह की लाट कहते हैं, यमुनातटसे दिल्ली में मंगवाया था. उस. पर खुदे हुए लेखका आशय जाननेके लिये बादशाहने बहुतसे विद्वानोंको एकट्ठा किया, परन्तु वे उक्त लेखको न पढ़ सके. ऐसेही कहते हैं, कि बादशाह अक्षरको भी अशोकके लेखोंका आशय जाननेकी बहुत जिज्ञासा रही, परन्तु उस समय एक भी विद्वान ऐसा नहीं था, कि उनको पढ़कर बादशाहकी जिज्ञासा पूर्ण करसता. प्राचीन लिपियोंका पढ़ना भूल जाने के कारण वर्तमान समयमै जब कहीं प्राचीन लेख मिल. जाता है, तो अज्ञ लोग उसको देखकर अनेक कल्पना करते हैं, कोई उसके अक्षरोंको देवताओंके अक्षर बतलाते हैं, कोई गडे हुए धनका बीजक कहते हैं, और कोई प्राचीन दानपत्र मिलजावे, तो उसको सिद्धिदायक वस्तुमान उसका पूजन करने लगते हैं.
१५० वर्ष पहिले इस देशके प्राचीन इतिहासकी यह दशा थी, कि विक्रम, भोज आदि राजाओंके नाम किस्से कहानियों में सुनते थे, परन्तु यह कोई नहीं कहसक्ता था, कि भोज किस समय हुआ, और उसके पहिले उस वंशमें कौन कौनसे राजा हुए. भोज प्रबन्धके कर्ताको भी यह मालूम नहीं था, कि मुंज सिंधुलका बड़ा भाई था और उसके मरनेपर सिंधुलको राज्य प्राप्त हुआ, क्योंकि उक्त पुस्तकमें सिंधुलके मरनेपर मुंजका राजा होना लिखा है, तो विचारना चाहिये, कि उस समय सामान्य लोगोंको इतिहासका ज्ञान कितना होगा, जिसका अनुमान पादक स्वयं करसक्त हैं.
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भारतवर्ष में अंग्रेजोका राज्य होनेपर फिर विद्याका प्रचार हुआ, और इतिहासकी अपूर्णता मिटाने के लिये लेख आदिकी कद्र होने लगी. सन् १७८४ ई० में सर विलियम जोन्सके यत्नसे एशिया खण्डके इतिहास, शिल्प, साहित्य आदिका शोध करनेके लिये एशियाटिक सोसाइटी नामका समाज कलकत्ता नगरमें कायम हुआ, और उक्त समाजके जर्नलों (सामाजिक पुस्तकों) में अन्य अन्य विषयोंके साथ प्राचीन लेख,दानपत्र और सिके भी समय समयपर प्रसिद्ध होने लगे. कितनेएक वर्षों के बाद लण्डन नगरमें 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' कायम हुई,और उसकी शाखा बम्बई और सीलोनमें भी स्थापित हुई. ऐसेही समय समयपर जर्मन, फ्रान्स,इटली आदि युरोपके अन्य देशों तथा अमेरिकामें भी एशिया खण्ड सम्बन्धी भिन्न भिन्न विषयोंके शोधके लिये समाज कायम हुए, और उनके सामाजिक पुस्तकों में समय समयपर यहांके अनेक लेख, दानपत्र और सिके प्रकट होने लगे. भारतवर्षकी गवर्मेटने भी प्राचीन शोधके निमित्त प्रत्येक अहातेमें 'आकिया लॉजिकल सर्वे' नामके महकमे कायम किये. जिनकी रिपोर्टोसे भी अनेक प्राचीन लेख, दानपत और सिके प्रसिद्धि में आये. इसी उद्देशसे डॉक्टर बर्जेसने 'इण्डियन एण्टिक्केरी' नामका एक मासिक पत्र ई० सन् १८७२ से निकालना प्रारम्भ किया, जिसमें अबतक बहुतसे लेख आदि छपते ही जाते हैं. ई० सन् १८७९ में गवर्मेंट के लिये जेनरल कनिंगहामने अशोकके समयके समस्त लेखोंका एक उत्तम पुस्तक प्रसिद्ध किया, और ई० सन् १८८८ में कीट साहिबने गुप्त और उनके समकालीन राजाओंके लेखोंका एक अत्युत्तम पुस्तक तय्यार किया. .ई. सन् १८८८ से 'एपिग्राफिया इण्डिका' नामका एक लैमासिक पुस्तक भी केवल प्राचीन लेख और दानपत्रों को प्रसिद्ध करनेके निमित्त गवर्मेंटकी
ओरसे छपने लगा. इनके अतिरिक्त अनेक दूसरे पुस्तकोंमें भी कितने ही लेख, दानपत्र और सिक्के छपे हैं, जिनसे मौर्य (मोरी), तुरुष्क, क्षत्रप, गुप्त, हूण, लिच्छवि, मौखरी, वैश, गुहिल, परिव्राजक, यौद्धेय, प्रतिहार ( पडिहार ), राष्ट्रकूट (राठौड़ ), परमार, चालुक्य (सोलंखी), व्याघ्र. पल्ली ( बाघेला ), चौहान, कच्छपघात ( कछावा), तोमर (तंवर ), कलचुरि, चंद्रात्रेय (चन्देला), यादव, पाल, सेन, गुर्जर (गूजर), मेहर, शातकर्णी ( आंध्रभृत्य), अभीर, सुंग, पल्लव, कदंब, शिलारा, सेंद्रक, काकत्य, नागवंशी, शूरसेनवंशी, निकुम्भवंशी, गंगावंशी, पाणवंशी, सिंदवंशी आदि अनेक राजवंशियोंका बहुत कुछ इतिहास प्रकट हुआ है, परन्तु हमारे बहुतसे स्वदेशी बांधव, जो अंग्रेजी नहीं जानते, वे उक्त
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(४)
लेख आदिके अंग्रेजी पुस्तकों में ही छपनेके कारण उनसे कुछ लाभ नहीं उठासक्त, और प्राचीन लिपियोंका बोध न होनेके कारण न उनको पढ़सक्ते हैं. प्राचीन लिपियोंका बोध होनेके लिये आज तक कोई ऐसा पुस्तक स्वदेशी भाषामें नहीं बना, कि जिसको पढकर सर्व साधारण लोग भी अपने देशके प्राचीन लेख आदिका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके अतिरिक्त यह जानसकें, कि देशकी प्रचलित देवनागरी, शारदा, गुरुमुखी, बंगला, गुजराती, महाराष्ट्री, कनडी आदि लिपियें पहिले किस रूपमें थीं, और उनमें कैसा कैसा परिवर्तन होते होते वर्तमान रूपको पहुंची हैं. यह अभाव दूर करने के लिये 'प्राचीन लिपिमाला' नामका यह छोटासा पुस्तक लिखकर अपने देश बंधुओंकी सेवामें अर्पण करता हूं, और आशा रखता हूं, कि सज्जन पुरुष इसको पढकर मेरा श्रम सफल करेंगे.
इस पुस्तकका क्रम ऐसा रक्खा है, कि लिपिपलोंके पहिले इसमें कितनेएक लेख, जैसे कि भारतवर्ष में लिखनेका प्रचार प्राचीन समयसे होना, पाली और गांधार लिपियोंकी उत्पत्ति, और भूली हुई प्राचीन लिपियोंका फिरसे पढेजानेका संक्षेप हाल, लिखकर प्राचीन लेख और दानपत्रोंमें पाये जाने वाले सप्तर्षि संवत्, कलियुग संवत् (युधिष्ठिर संवत् ), बुद्धनिर्वाण संवत्, मौर्य संवत्, विक्रम संवत् (१), शक संवत्, चेदि संवत्, गुप्त या वल्लभी संवत्, श्रीहर्ष संवत्, गांगेय संवत् , नेवार संवत्, चालुक्यविक्रम संवत् , लक्ष्मणसेन संवत् , सिंह संवत् और कोलम संवत्के प्रारम्भ आदिका वृत्तान्त संक्षेपसे लिखा है, जिसका जानना प्राचीन लेखोंके अभ्यासियोंको आवश्यक है. तदनन्तर प्राचीन अंकोंका सविस्तर हाल लिख हरएक लिपिपत्रका संक्षेपसे वर्णन किया है.
अन्तमें ५२ लिपिपत्र (प्लेट) दिये हैं, जिनमेंसे १ से ३७ तकमें भारतवर्ष के भिन्न भिन्न विभागोंसे मिले हुए समय समयके लेख और दानपत्रोंसे वर्णमाला तय्यार की हैं. इन लिपिपत्रोंके बनाने में क्रम ऐसा रक्खा गया है, कि प्रथम स्वर, फिर व्यंजन, तत्पश्चात् स्वर मिलित व्यंजन और अन्तमें संयुक्ताक्षर सम्पूर्ण लेख या दानपत्रसे छांटकर दिये हैं, और उनपर वर्तमान देवनागरी अक्षर रक्खे हैं. जहां एकही अक्षर
-
. (१) इस पुस्तकमें जहां जहां 'विक्रम संवत् ' लिखा है, उसको चैत्रादि विक्रम संवत् समझना चाहिये.
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(५)
दो या अधिक प्रकारसे लिखा है, वहां केवल पहिलेके ऊपर देवनागरी अक्षर लिख दिया है, जैसा कि लिपिपत्र पहिलेमें 'अ ' दो प्रकारका है, ari पहिले ऊपर देवनागरीका 'अ' लिख दूसरेको खाली छोड़ दिया है. अन्तमें ४ या ५ पंक्तियें जिस लेख ( १ ) या दानपत्र से लिपि तय्यार कीगई है, उसमें से चाहे जहांसे देदी हैं. इन अस्ली पंक्तियोंका नागरी अक्षरान्तर, जहां लिपिपतोंका वर्णन है, कुछ बड़े अक्षरों में छपवा दिया है, जिसमें ऐसा नियम रक्खा है, कि अस्लमें कोई अशुद्धि है, तो उसका शुद्ध रूप ( ) में रख दिया है, और कोई अक्षर छूटगया है, उसको [ ] में लिखदिया है.
लिपिपल ३८ और ३९ में प्राचीन तामिळ लिपिकी वर्णमाला मात्र बनादी हैं. लिपिपत ४० में भिन्न भिन्न लेख और दानपत्रोंसे छांटकर ऐसी संख्या दी हैं, जो शब्द और अंक दोनोंमें लिखी हुई मिली हैं.
लिपिपत ४१, ४२ व ४३ में प्राचीन अंक, और ४४ से ५० तक में भारतवर्षकी वर्तमान लिपियें दर्ज की हैं. लिपिपत्र ५१ में अशोकके समयकी लिपि क्रम क्रम से परिवर्तन होते हुए वर्तमान देवनागरी लिपिका बनना बतलाया है, और ५२ में कई लेख, दानपत्र और सिक्कोंसे छांटकर कितने. एक अक्षर लिखे हैं, जो लिपिपत १ से ३९ तक में नहीं आये.
प्रथम ऐसा विचार था कि ऊपर वर्णन किये हुए प्रसिद्ध प्राचीन राजवंशियोंका संक्षेपसे इतिहास भी इस पुस्तकमें लिखा जाये, परन्तु लिपियों के साथ इतिहासका सम्बन्ध न रहने, और ग्रन्थ बढ़जानेके भयसे भी उसका लिखना उचित नहीं समझा. यदि साधन और समय अनुकूल हुआ, तो इस विषयका एक पृथक् पुस्तक लिखकर सज्जनोंकी सेवा में अर्पण करूंगा.
इतिहास प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजाओंकी मुख्य राजधानी उदयपुर नगरमें श्रीमन्महिमहेन्द्र यावदार्यकुलकमल दिवाकर महाराणाजी श्री १०८ श्री फतहसिंहजी धीरवीरकी आज्ञानुसार महामहोपाध्याय कविराज श्री श्यामलदासजीने राजपूताना आदिका 'वीरविनोद' नामका बड़ा इतिहास निर्माण किया, और उक्त इतिहास सम्बन्धी कार्यालयका सेक्रेटरी मुझे नियत किया, जिससे ऐतिहासिक ज्ञान संपादन करनेके उपरान्त प्राचीन लेख पढ़नेका अभ्यास, जो मैंने अपनी जन्मभूमि ग्राम रोहिडा इलाके सिरोही से बम्बई जाकर प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता पण्डित भगवानलाल
( १ ) इस पुस्तक में शिला लेखके वास्ते ' लेख ' शब्द रक्खा है.
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इन्द्रजीसे किया था, बढानेका अवसर मिला, जिसका मुख्य कारण कविराजजीकी गुण ग्राहकता थी. उक्त कविराजजीकी इच्छानुसार मैंने यह पुस्तक लिखना प्रारम्भ किया था, परन्तु खेदका विषय है, कि इस ग्रन्थके पूर्ण होने के पहले ही उनका परलोकवास होगया.
इस पुस्तकके तय्यार करने में लाला सोहनलालजीने लिपिपत्र लिखकर, जोधपुर निवासी मुनशी देवीप्रसादीने तथा कविराजा मुरारीदानजीके पुत्र गणेशदानजीने .मारवाड़के कितनेएक लेखोंकी छापें भेजकर और सज्जनयन्त्रालयके मैनेजर आशिया चालकदानजीने अपने सुप्रवन्धसे इस पुस्तकको शीघ्र और शुद्ध छपवा कर, जो सहायता दी है, उसके लिये मैं इन महाशयोंको और अन्य मित्रोंको, जिन्होंने इस कार्य में उत्तम सलाह और सहायता दी है, धन्यवाद देता हूं. ऐसेही अंग्रेज़ी, संस्कृत आदि अनेक नन्थ, जिनसे मुझे सहायता मिली है, और जिनके नाम यथास्थान नोदमें लिखे हैं, उनके कर्ताओंका भी मैं आभारी हूं.
विक्टोरियाहॉल, उदयपुर, वि० सं० १९५१ श्रावण शुक्ला ६, ता०७ ऑगस्ट सन् १८९४ .ई.
गौरीशंकर हीराचंद ओझा.
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सूचीपत्र.
गांधार लिपि..........
आशय.
पृष्ठ. भारतवर्ष में लिखनेका प्रचार प्राचीन समयसे होना........१-६. पाली लिपि आर्य लोगोंनेही निर्माणकी है..................७-११.
........................११-१२. प्राचीन लिपियोंका पढ़ाजाना....................................१३-१७. प्राचीन लेख और दानपत्रोंके संवत्..............................१८-४६.
सप्तर्षि संवत् (लौकिककाल )...........................१८-२०. कलियुग संवत् (भारतयुद्ध संवत् )..........२०-२२. वुद्धनिर्वाण संवत्.......... .....................२२-२३. मौर्य संवत्.............
......................२४. विक्रम संवत् (मालव संवत् )...........................२४-३०. शक संवत्"
........................३०-३३. कलचुरि संवत् (चेदि संवत्, वैकुट्य संवत् ).........३३-३४. गुप्त या वल्लभी संवत् .....................................३४-३६. श्रीहर्ष संवत्.............. गांगेय संवत...................................................३७-३८. नेवार संवत् (नेपाल संवत् )..........................३८-३९. चालुक्यविक्रम संवत्......
३९-४२. लक्ष्म णसेन संवत् .............................................४२-४५. मिट संवत......................................................४५-४६.
कोलम संवत्....................................................४६. प्राचीन अंक ........
........................"४७-५४. लिपिपत्रोंका संक्षिप्त वृत्तान्त.....................................५४-७९. लिपिपत्र............... ................................................... १-५२.
.........
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प्राचीन लिपिमाला.
भारतवर्षमें लिखनेका प्रचार प्राचीन समयसे चला आता है.
यह बात तो निर्विवाद है, कि प्राचीन समयमें भारतवर्ष निवासी ऋषि मुनि आदि आर्य लोगों ने विद्या विषयमें जितनी उन्नति की थी उतनी किसी अन्य देश वासियोंने उस समय नहीं की, परन्तु कितनेएक आधुनिक गुरोपिअन् विद्वान् और हमारे यहां के राजा शिवप्रसादका (१) कथन है, कि आर्य लोग प्राचीन समयमें लिखना नहीं जानते थे; पठन पाठन केवल कथन श्रवण द्वारा होता था. प्रोफेसर मैक्सम्यूलर तो यहां तक कहते हैं, कि पाणिनिके व्याकरण अष्टाध्यायी में एक भी शब्द ऐसा नहीं है (२), कि जिससे उक्त पुस्तककी रचनाके समयतक लिखने का प्रचार पाया जावे;
और प्रसिद्ध प्राचीन शोधक बर्नेल साहिषने निश्चय किया है, कि सन् ई० से ४०० वर्ष पहिले ही आर्य लोगोंने विदेशियों से लिखना सीखा था (३).
भारतवर्ष के प्राचीन लेख, और उनसे बहुत पहिले पने हुए ग्रन्थोंको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है, कि इन विद्वानों के अनुमान किये हुए समय से बहुत पहिले इस देश में लिखनेका प्रचार था. __ काग़ज़ (४), भोजप्रत्र (५), या ताड़पत्र (६) पर लिखे हुए पुस्तक
(१) इतिहास तिमिरनामक ( खण्ड ३ रा). (२) हिस्टरी आफ एनयट संस्कृत लिटरेचर ( पृष्ठ ५०७). (३) साउथ इंडिअन पेलोपोग्राफी (पृष्ठ १). ( 8 ) कागज पर लिखे हुए सबसे पुराने भारतवर्षकी नागरी लिपिके ४ संस्कृत पुस्तक मध्य एशियामें यार कन्द नगरसे ६० मील दक्षिण “ कुगिअर” स्थान में जमीनसे निकले हुए वेबर साहिबको मिले हैं, जिनका समय प्रसिद्ध विहान डाक्टर हौन ली साहिबने सन ई० को पांचवौं शताब्दी अनुमान किया है (बंगालको एशियाटिक सोसाइटीका. जर्नल जिल्द ६२, पृष्ठ ८).
(५) भोजपत्रपर लिखा हुपा सबसे पुराना संस्कृत पुस्तक पूर्वी तुर्किस्तान में “ कुचार" स्थान के पास जमीन से निकला हुआ बावर साहिबको मिला है, जिसका समय भी सन ई० की पांचवौं शताब्दी अनुमान किया गया है. यह पुस्तक गवर्मेण्ट की तरफसे डाक्टर होन ली छपवा रहे हैं. इसका पहिला हिस्सह सन १८८३ ई० में छपचुका है.
(६) विक्रम संवत् ११८८ का ताड़पत्रपर लिखा हुआ “ आवश्यक सूत्र” नामका जैन ग्रन्थ प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर बुलरको मिला है ( सन १८७२-३ ई० की रिपोर्ट ).
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हजारों वर्षतक नहीं रहसक्त, परन्तु उत्तम प्रकारके पत्थर या धातुपर बुदे हुए अक्षर यत्न पूर्वक रक्खे जावें, तो बहुत वर्षांतक बच सक्ते हैं. भारतवर्ष में सबसे प्राचीन लेख जो आजतक पाये गये हैं, वे चबान और पाषाण के स्तम्भोंपर खुदी हुई मौर्य वंशी राजा अशोक (प्रियदर्शी) की धर्माज्ञा हैं, जो पेशावरसे माइसौरतक, और काठियावाड़से उड़ीसातक कई एक स्थानों (१) में मिली हैं.
अशोक का राज्याभिषेक सन् ई० से .करीबन २६९ वर्ष पहिले हुआ था, और ये धर्माज्ञा राज्याभिषेक होने के पश्चात् १३ वें वर्ष से २८ वें वर्ष के बीच समय समय पर लिखी गई थीं. शहबाजगिरि और मान्सेराकी धर्माज्ञा गांधार लिपिमें खुदी हैं, जो फार्सीकी नाई दाहिनी ओरसे बाई ओरको पढ़ी जाती है। इनके अतिरिक्त सर्वत्र पाली अर्थात् राजा अशोकके समयकी प्रचलित देवनागरी लिपिमें हैं. प्रजाको राजकीय आज्ञाकी सूचनाके निमित्त वर्तमान समयमें जैसे गवर्मेण्ट या राजाओंकी तरफसे भिन्न भिन्न स्थानोंपर इश्तिहार लगाये जाते हैं, वैसेही ये धर्माज्ञा भी हैं, परन्तु चिरस्थायी रखने के लिये वे कठिन पाषाणोंपर खुदवाई गई हैं. उनकी भाषा सर्वत्र एक नहीं, किन्तु वे स्थान स्थानकी प्रचलित देशी (प्राकृत ) भाषामें लिखी गई हैं, जिसका यह कारण होगा, कि हरएक देशकी प्रजा अपनी अपनी मातृ भाषा होनेसे उनको पढ़कर सुगमतासे उन्हें समझ सके, और आज्ञानुसार धर्माचरण करे. इन आज्ञाओं के पढ़नेसे यह भी मालूम होता है, कि देवनागरीकी वर्णमाला उस समय में भी ऐसीही सम्पूर्ण थी, जैसी कि आज है, तो स्पष्ट है कि सन् ई० से करीवन् २५६ वर्ष पहिले भी करीब करीब सारे भारतवर्ष में लिखने पड़ने का प्रचार भली भांति था.
. बर्नेल साहिबके निश्चय किये हुए समय और इन लेखोंके समय में केवल १४४ वर्षका अन्तर है. जिस समय एक स्थानसे दूसरे स्थानतक जानेको
(१) शहबाजगिरि ( पंजाबके जिले यूसुफजई में ), मान्सेरा (सिन्धु नदीको पूर्व ओर पनाबमें ), खालसी (पश्रिमोत्तर देशके जिले देहरादून में ), दिल्ली, बैराट (रानपूतानहमें), लौरिया अरराज अथवा रधिया, और लौरिया नवन्दगढ़ अथवा मथिया ( चम्पारन जिला ब'गाल में ), रामपुरवा (तराई जिला चम्पारनमें ), बैराट (नयपालकी तहसौल बहादुरगजमें), इलाहाबाद, सहस्राम (बंगालके जिले शाहाबादमें ), रूपनाथ (मध्य प्रदेश के जिले जबलपुरमें), सांची ( मध्य प्रदेशके भोपाल राज्यमें ), गिरनार ( काठियावाड़ में), सोपारा ( बम्बई नगर से ३७ मील उत्तर में ), धौली ( डडीसाके जिले कटकमें ), जोगढ़ ( मद्रास प्रान्तकै गंजाम जिले में ), और माइसौर में ये धर्माज्ञा मिली हैं.
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(३)
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जैसे साधन न थे, ऐसी दशा में भारतवर्ष जैसे अति विस्तीर्ण देश में केवल १४४ वर्षके भीतर लिखने पढ़नेका प्रचार भली भांति सर्व देशी दोजाना, और देवनागरीकी वर्णमालाका भूमण्डलकी समस्त लिपियोंकी वर्णमालाओं से अधिक सरलता और सम्पूर्णताको पहुंचना सम्भव नहीं है.
66
सांची एक स्तूप ( १ ) में से पत्थर के दो गोल डिब्बे ( २ ) मिले हैं, जिनमें “ सारिपुत्र " और " महामोगलान" की हड्डियां निकली हैं. एक डिब्बेके ढक्कनपर " सारिपुतस " ( सारिपुत्रस्य ) खुदा है, और भीतर सारिपुत्र के नामका पहिला अक्षर सा" स्याहीसे लिखा हुआ है. दूसरेके ढक्कनपर " महामोगलानस " ( महामौद्गलायनस्य ) खुदा है, और भीतर " म अक्षर स्याहीका लिखा हुआ है. बौडोंके पुस्तकोंसे पाया जाता है, कि सारिपुत्र और मोगलान दोनों बुद्ध ( शाक्यमुनि) के मुख्य शिष्य थे. सारिपुत्रका देहान्त बुद्धकी मौजूदगी में होगया था, और मोगलानका बुद्धके निर्वाणके बाद यह स्तूप सन् ई० से पूर्व २५० वर्ष से भी पहिलेका बना हुआ है. उस समयके लिखे हुए स्याही के अक्षर मिलनेसे निश्चित है, कि इस देशमें लिखने के साधन पहिले से मौजूद थे.
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अशोक के दादा चन्द्रगुप्तके दर्षारमें सिरिआके राजा सेल्युकसका वकील मैगस्थनीस ई० सन् से ३०६ वर्ष पहिले आया था; वह लिख गया है, कि इस देश (भारतवर्ष ) में नये वर्ष के दिन पंचाङ्ग सुनाया जाता है (३), जन्मपत बनानेके लिये बालकोंका जन्म समय लिखा जाता है ( ४ ), और दस दस स्टोडिआ ( ५ ) के अन्तरपर कोसोंके पाषाण लगे हैं, जिनपर के
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( १ ) " स्तूप ” बौद्ध धर्मावलम्बियों का एक पवित्र स्थान मानाजाता है, जिसकी आकृति एल्ॡ ेषष्टको समान अथवा गुम्मट से मिलती जुलती होती है, प्राचीन समय में बौद्ध लोग बुद्धको अथवा अपने किसी बड़े प्रसिद्ध धर्मोपदेशकको हड्डी वगैरा पर स्मारक चिन्हको निमित्त ऐसे स्तूप बनवाते थे, और इसको एक बड़ा पुण्यका काम मानते थे, जब किसी राजा या धनाढ्यकी तरफ से बड़ा स्तूप बनाया जाता तो उसके खात मुहर्त पर बड़ा उत्सव होता था, और देश देशान्तर के बौद्ध धर्मावलम्बी, और धर्मोपदेशक लोग उस उत्सवपर एकत्र होते थे, जैसे कि हमारे यहांके मन्दिरोंमें मूर्ति प्रतिष्ठाके समय एकत्र होते हैं. भारतवर्ष में समय समयपर बने हुए अनेक स्तूप पाये गये हैं.
(२) मेलमा टोप्स ( पृ० २८५ - ३०८),
(३) मैगस्थनीस दू'डिका ( पृ० ८१ ).
( ४ )
( पृ० १९६ ).
(५) एक से डिअम् ३०६ फीट और ८ इच का होता है.
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(४) लेखोंसे आराम स्थान ( सराय ) और दूरीका पता लग सक्ता (१) है.
सन् ई० से ३२७ वर्ष पहिले यूनानके बादशाह सिकन्दरने इस देशपर हमला किया और सिन्धु नदीको पारकर आगे बढ़ आया था. उसके जहाज़ी सेनापति निआर्कसने लिखा है, कि यहांके लोग रुईको कूट कूट कर लिखने के लिये काग़ज़ बनाते हैं.
"ललित विस्तर" ग्रन्थमें बुद्धका लिपिशालामें जाकर विश्वामित्र अध्यापकसे चन्दनकी पाटीपर स्याहीसे लिखना सीखनेका (२) वर्णन है. इस ग्रन्थका चीनी भाषामें अनुवाद ई० सन् ७६ में हुआ था, जिससे इस ग्रन्थके प्राचीन होने, और इसके अनुसार बुद्धके समयमें लिपिशालाओंके होने में सन्देह नहीं है. युद्धके निर्वाणका समय भारतवर्षके प्रसिद्ध पुरा तत्त्ववेत्ता जेतरल कनिंगहामने ई० सन् से ४७८ वर्ष पहिलेका निश्चय किया है.
बुद्धसे पहिले पाणिनिने व्याकरणका ग्रन्थ अष्टाध्यायी लिखा था, जिसमें "लिपि" और "लिधि" (३) शब्द दिये हैं, जिनका अर्थ "लिखना" (४) होता है, और “लिपिकर" (लिखनेवाला) शब्द बनानेके लिये नियम लिखा है (३). ऐसेही “ यवनानी" (५) शब्द भी दिया है. जिसका अर्थ कात्यायन और पतञ्जलिने “ यवनोंकी लिपि" किया है, इससे स्पष्ट है, कि पाणिनिके समयमें यवनोंकी लिपि आर्य लिपिसे भिन्न थी. उसी अष्टाध्यायीमें "ग्रन्थ" (६) (पुस्तक वा किताब) शब्द, लिङ्गानुशासनमें “पुस्तक" (७) शब्द, और धातुपाठमें (८) "लिख" (.९) (अक्षर लिखना) धातु भी दिया है. इनके अतिरिक्त " रेफ" (अर्धरकारका चिन्द, जो अक्षरके ऊपर लगाया जाता है ) और स्वरित (१०)
(१) मैगस्थनीस इडिका ( पृ० १२५-२६ ). (२) ललित विस्तर अध्याय १० वां (अंग्रेजी अनुवाद पृ० १८१-८५). (३) दिवा विभानिमाप्रभाभास्करान्तानन्तादिबहुनान्दोफिलिपिलिविवलि० ( ३।२।२१).
(४) लिपिंकरो ऽतरचणो ऽक्षरचुञ्च च लेखके ॥ लिखिताक्षरविन्यासे लिपिलि विरुभेस्त्रियौ ॥ ( अमरकोश, काण्ड २, क्षत्र वग १५१६).
(५) इन्द्रवरुणभव रुद्रमडहिमारण्ययवयवन० (४।१४८).
(६) समुदाभ्यो यमोऽग्रन्थ (११३।७३ ). अधिकृत्य कृते ग्रन्थ (४।३।८०), कृते अन्य (४।३।११६).
(0) कण्टकानीकसरकमोदकचषकमस्तकपुस्तक. (पुल्लिङ्ग सूत्र २८). (८) लिख अक्षरविन्यासे (तुदादिगण ). (e) लिखानुशासन और धातुपाठ भी पाणिनिके बनाये माने जाते हैं. (१०) स्वरितेनाधिकार : (१।३।११).
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के चिन्हका भी उल्लेख किया है. रेफ और स्थरितके चिन्ह लिखे हुए अक्षरोंपर ही लगसक्ते हैं. अष्टाध्यायीके छठे अध्यायके ३ रे पादके ११५ वें सूतसे ऐसा पायाजाता है, कि पाणिनिके समयमें चौपायोंके कानपर ५ व ८ के अंक, और स्वस्तिक ( साथिया) आदि चिन्ह (१) किये जाते थे. उसी ग्रन्थसे यह भी मालूम होता है, कि उस समयमें "महाभारत" (२) और आपिशलि (३), स्फोटायन (४), गार्य (५), शाकल्य (६), शाकटायन (७), गालव (८), भारद्वाज (९), और काश्यप (१०)प्रणीत व्याकरणके ग्रन्थ भी उपलब्ध थे, क्योंकि इन ग्रन्थों मेंसे पाणिनिने नियम उद्धत किये हैं. वेदोंके पुस्तक भी पाणिनिके समयमें मौजूद होंगे, क्योंकि अष्टाध्यायीके ७ वें अध्यायके पहिले पादका ७६ वां सूत्र "छन्दस्यपिदृश्यते" ( वेदों में भी दीख पड़ता है ) है; " दृश" (देखना ) धातुका प्रयोग, जो वस्तु देखी जाती है, उसके लिये होता है, इसवास्ते इस सूत्रका तात्पर्य वेदके लिखित पुस्तकोंसे है.
ब्राह्मण ग्रन्थों में "काएड" और "पटल" शब्द मिलते हैं, जिनका अर्थ " पुस्तक विभाग" है. ये शब्द ब्राह्मण ग्रन्थोंकी रचनाके समयमें भी पुस्तकोंका होना बतलाते हैं.
शतपथ ब्राह्मण (११) में लिखा है, कि " तीनों वेदों में इतनी पंक्तियां दोधारह हैं, जितने एक वर्षमें मुहूर्त होते हैं ". एक वर्षके ३६० दिन,
और एक दिन में ३० मुहूर्त होते हैं, इसलिये एक वर्ष में ३६०४३० = १०८०० मुहर्त होते हैं, अर्थात् तीनों वेदोंमें १०८०० पंक्तियां दोबारह हैं. इतनी पंक्तियोंकी गणना उस हालतमें होसक्ती है, जब कि तीनों वेदोंके लिखित पुस्तक पाम हों.
(१) कर्ण लक्षणस्याविष्टाष्टपञ्चमणि भिन्नच्छिन्न च्छिद्र सुवस्वस्तिकस्य (६।३।११५). (३) महान् व्रीहपरागृष्टीध्वासजाबालभारभारत० (६।२।३८), (३) वासुम्यापिशले : (६।१४९२). (४) अवङ स्फोटायनस्य ( ६।१।१२३). (1) ओतोगार्थ स्य (८।३।२०). (६) लोपः शाकल्यस्य (८३।१०). (७) लङ : भाकटायनस्यैव (३।४।१११). मद्रास प्रसिडेन्सी कालेजके प्रधान संस्कृत अध्यापक डाक्टर आपटने 'भाकटायनका व्याकरण अभयचन्द्रसूरीको टीका सहित छपवाया है, (८) इकोस्खोऽयोगालवस्य (६।३।५१), (2) ऋतो भारद्वाजस्य ( ७२१६३), (१०) दृषिधिकृशः काश्य पस्य (१।२।२५). (११) शतपथ ब्राह्मगा काण्ड १० वां (पृ. ७८६).
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यजुर्वेदमें (१) एकसे लगाकर परार्धतककी संख्या दी है, जिसपर विद्वान् लोग विचार करसक्ते हैं, कि अंकविद्या म जानने वालोंको इतनी संख्याका बोध होना कैसे सम्भव होसक्ता है ? ग्रीक लोग जब लिखनेसे अज्ञ थे तब वे अधिकसे अधिक १०००० तक संख्या जानते थे. इसी प्रकार रोमन लोग उक्त दशामें केवल १००० तक जानते थे, और यदि आज भी देखाजावे, तो जो जातियां लिखना नहीं जानतीं, उनमें १००००० तककी गिनती भली भांति जानना दुस्तर है.
लिखना न जाननेकी दशामें भी छन्दो बद्ध ग्रन्थ बनसक्ते, और बहुत समयतक कण्ठस्थ रहसक्ते हैं, परन्तु ऐसी दशामें गयका पुस्तक बनही नहीं सक्ता, क्योंकि गद्यका पुस्तक रचने के लिये कर्ता को अपना आशय क्रम पूर्वक लिखना पड़ता है, यदि ऐसा न कियाजावे, तो पहिले दिन अपना आशय जिन शब्दों में प्रकट किया हो, ठीक वेही शब्द दूसरे दिन याद नहीं रहसक्त. कोई व्याख्यान दाता शब्दश: अपना व्याख्यान उसी दिन पीछा नहीं लिखा सक्ता, तो बिना लिखना जानने के ग्रन्थके ग्रन्थ गद्य में बनाना, और वर्षांतक उनको शब्दश: याद रखलेना क्योंकर सम्भव होसक्ता है ? प्राचीन समयमें यहां लिखनेका प्रचार भली भांति होनेका सुबूत गद्यके पुस्तक देते हैं. वैदिक पुस्तकों में बहुतसा हिरसह गया होनेसे स्पष्ट है, कि उनके बननेके समयमें लिखनेका प्रचार अवश्य था. ____ऊपर लिखे हुए प्रमाणोंसे भारतवर्ष में बहुत प्राचीन समयले लिखनेका प्रचार होना स्पष्ट पायाजाता है. इनके अतिरिक्त रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, पुराण आदि अनेक पुस्तकों में इस विषयके कई प्रमाण मिलते हैं, परन्तु विस्तारके भयसे यहांपर नहीं लिखेगये.
प्रोफेसर रॉथने वेदोंका अभ्यास करके इस विषयमें अपनी यह अनुमति प्रकट की है, कि लिखनेका प्रचार भारतवर्ष में प्राचीन समयसे ही होना चाहिये, क्योंकि यदि वेदोंके लिखित पुस्तक मौजूद न होते, तो कोई पुरुष प्रातिशाख्य न बनासक्ता.
गोल्डस्ट्रकर (२) साहिबने भी प्राचीन समयमें लिखनेका प्रचार होना प्रकट किया है.
(१) इमामे ऽग्नऽइष्ट काधेनव : सन्ख का च दश च दश च शत च शत च सहस्र च सहन चायुत' चायुत' च नियुत च नियुत च प्रयुत चाव॒दं च न्यर्बुद च समुद्रश्य मध्य चान्त क्ष पराधश्चता मे अग्नऽ इष्टकाध नवः सन्तमुत्रामुहिमलोके (शुक्लयजुर्वर सहिता ११२).
(२) मानवकल्पसूत्रकी अंग्रेजी भूमिका ( पृ० १५).
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(७) "पाली” (१) लिपि आर्य लोगोंनेही निमान की है,
भारतवर्षके प्राचीन लेख और सिकोंसे पाया जाता है, कि इस देश में पहिले दो लिपि प्रचलित थीं, अर्थात् "गांधार" और "पाली". गांधार देशके (२) सिवा सर्वत्र पालीका प्रचार होने, और उनीसे बहुधा इस देशकी समस्त प्राचीन और वर्तमान लिपियोंके बनने के कारण यहांकी मुख्य लिपि “पाली" ही मानना चाहिये. ___जब कितनेएक यूरोपिअन विद्वानोंने यह प्रकट किया, कि आर्य लोग पहिले लिखना नहीं जानते थे, तो यह भी शंका होनेलगी, कि राजा अशोककी धर्माज्ञाओं में जो “पाली" लिपि मिलती है, वह आर्य लोगोंने ही निर्माण की है, या अन्य देश वासियोंसे सीखी है.
___ इस विषयमें आर० एन० कस्ट साहिब (३) लिखते हैं, कि एशिया खण्डके पश्चिममें रहनेवाले फ़िनीशियन लोग सन् ई० से ८०० वर्ष पहिले भली भांति लिखनेकी विद्या जानते थे, उनका वाणिज्य सम्बन्ध इस देशके साथ रहने, तथा उन्हींके अक्षरोंसे ग्रीक ( यूनानी), रोमन, व सेमिटिक (४) भाषाओंके अक्षर बननेसे अनुमान होता है, कि पाली अक्षर भी फिनीशियन अक्षरोंसे बने होंगे.
सर विलिअम् जोन्स, प्रोफेसर कॉप्प, प्रोफेसर लिपसिस, डॉक्टर जिस्लर और ई० सेनार्ट आदि विद्वान् भी सेमिटिक अक्षरोंसेही हमारे यहांके अक्षरोंका बनना बतलाते हैं
(१) राजा अशोककी धर्माज्ञाओंकी भाषा पाली भाषासे मिलती हुई होने के कारण उनकी लिपिका नाम " पाली” रक्खा गया है, वास्तव में यह लिपि देवनागरीका पूर्व स्पही है, परन्त, “ पाली " नाम प्रसिद्ध होगया है, इसलिये यहांपर भी यही नाम रक्खा है, इस लिपिको “इडियन पालो" "साउथ ( दक्षिणी) अशोक ” और “ लाट" लिपि भी कहते हैं(दूस लिपिके वास्ते देखो लिपिपत्र पहिला),
(२) अफगानिस्तान और पश्चिमी पंजाब दोनों मिलकर गांधारदेश कहलाता था. इस समय अफगानिस्तान भारतवर्षसे अलग है, परन्तु प्राचीन समयमें यह भी इसीमें शामिल था. (३) रायल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल (जिल्द १६, पृष्ठ ३२६, ३५८ ). (४) हिब्रु, फिनौभियन, अरामिअन, आसीरिअन, अरबी, एथिोपिक आदि पश्चिमी एगिया और आफ्रिका खण्डकी भाषाओंको " सेमिटिक' अर्थात् “ नूह " के पुत्र " शेम' की सन्ततिको भाषा कहते हैं,
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(८)
डॉक्टर औटफ्रिड मूलरका अनुमान है, कि सिकन्दरके समय में यूनानी लोग हिन्दुस्तान में आये, उनसे भारतवासियोंने अक्षर सीखे हैं:
डॉक्टर स्टिवन्सन ( १ ) का अनुमान है, कि हिन्दुस्तानके अक्षर या तो फ़िनीशियन या मिस्र देशके अक्षरोंसे बने हैं.
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डॉक्टर पॉल गोल्डस्मिथ (२) लिखते हैं, कि फ़िनीशियन अक्षरोंसे सीलोन ( सिंहलद्वीप या लंका ) के अक्षर बने, और उनसे हिन्दुस्तान के; लेकिन डॉक्टर ई० म्युलर ( ३ ) का कथन है, कि सीलोन में लिखनेका प्रचार होनेके पहिले से हिन्दुस्तान में लिखनेका प्रचार था.
बर्नेल ( ४ ) साहिबने यह निश्चय किया है, कि फ़िनीशियन से निकले हुए “ अरामिजन " अक्षरोंसे पाली अक्षर बने हैं; लेकिन आइज़क टेलर (५) लिखते हैं, कि अरामिअन और पाली अक्षर परस्पर नहीं मिलते.
एम० लेनोमेंट कहते हैं, (६) कि फ़िनीशियन अक्षरोंसे अरबके हिम्यारिटिक् अक्षर और उनसे पाली अक्षर बने हैं.
इस प्रकार कईएक यूरोपिअन विद्वान् पाली अक्षरोंकी उत्पत्ति के विषयमें अनेक कल्पना करते हैं, परन्तु किसीने भी फ़िनीशियन, अरामिअन, हिम्यारिटिक् आदि लिपियोंसे ऐसे पांच दश अक्षर भी नहीं बतलाये, जो उन्हीं उच्चारणवाले पाली अक्षरों से मिलते हों.
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प्रगट है, कि किसी दो भाषाओंकी वर्णमालाओंको मिलाकर देखा जावे, तो दो चार या अधिक अक्षरोंकी आकृति परस्पर मिलही जाती है, चाहे उच्चारणमें अन्तर हो. जैसे पालीको उर्दू से मिलावें, तो “ र ” | ( अलिफ़ ) से, “ज” १ ( ऐन ) और "ल J (लाभ) से मिलते जुलते मालूम होते हैं. ऐसे ही अंग्रेज़ी अक्षरोंको पालीसे मिलावें, तो A (ए) 66 ग से, ( डी ) " ध" से, E (ई) "ज" से, | ( आई ) " र " से, J (जे) ल" से, L (एल ) " उ से, T (टी- उलटा 1 ) “न” से, U (यू ) " प "
77
46
77
से, O (ओ ) से, X ( एक्स )
(6
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( १ ) बोम्ब े ब्रेच रायल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल ( जिल्ह ३, पृ० ७५ ).
( २ ) अकेडमी ( सन् १८७७ ता० ८ जन्वरी ),
(३) रिपोर्ट आन एन्श्यट इन्स्क्रिप्शन्स आफ सीलोन ( पृ० २४ ).
४ ) साउथ इण्डियन पॅलिओग्राफी ( पृ० १ ),
(५) आल्फाबेट (जिल्द २, पृ० ३१३ ).
( ६ ) ऐसे आन फिनीशियन अल्फाबेट ( जिल्द १, पृ० १५० ).
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"क" से, और Z (जेद् ) "ओ" से (१) बहुत कुछ मिलता है. इस प्रकार उर्दूके ३, और अंग्रेजीके ११ अक्षर पालीसे मिलने पर भी हम यह नहीं कहसक्ते, कि उर्दू अथवा अंग्रेजीसे पाली अक्षर बने हैं, या पालीसे उ अथवा अंग्रेजीके अक्षर बने हैं.
सन् ई० से अनुमान ७०० वर्ष पहिले किनीशियन अक्षरोंसे ग्रीक ( गूनानी ) अक्षर बने, और पश्चिमी ग्रीक अक्षरोंसे पुराने लाटिन, और उनसे अंग्रेज़ी अक्षर बने हैं. २५०० से अधिक वर्ष गुजरनेपर आज भी अंग्रेजी अक्षरोंको फिनीशियन अक्षरोंसे मिलाकर देखें, तो, A (ए), B (बी), C (सी), F (एफ), । (आई), K (के), L (एल), M (एम), N (एन), P (पी), २ (क्यु), R ( आर ), और T ( टी) अक्षर ठीक उन्हीं उच्चारण वाले फ़िनीशियन अक्षरोंसे बहुत कुछ मिलते हैं (२). ___ इसी प्रकार गांधार लिपिको (३) फिनीशियनसे मिलायें, तो “अ, क, ट, न, फ, ब, र, और ह" अक्षर उन्हीं उच्चारण वाले फिनीशियन अक्षरोंसे मिलते जुलते मालूम होते हैं, जिसका कारण यह है, कि गांधार लिपि फ़िनीशियनसे निकली हुई ईरानकी लिपिसे बनी है. ..
यदि पाली अक्षर फिनीशियन, अरामिअन, या हिम्यारिठिक आदि किसीसे बने हों, तो अंग्रेज़ी और गांधार अक्षरोंकी नाई पालीके कितनेएक अक्षर अपनी मूल लिपिके साथ आकृति और उच्चारणमें अवश्य मिलने चाहिये, परन्तु उनका परस्पर मिलान करनेसे पाया जाता है कि:
मिस्र देशके अक्षरों (४) मेंसे एक भी अक्षर समान उच्चारण वाले पाली अक्षरसे नहीं मिलता.
फिनीशियन (४) वर्णमालाके २२ अक्षरों मेंसे केवल एक अक्षर "गिमेल" (ग) पालीके "ग" से मिलता है.
हिम्यारिटिक (५) अक्षरोंमेंसे केवल “द" और "ब" बाची दो अक्षर पालीके "द" और "ब" से कुछ २ मिलते हैं.
अरामियन (६) अक्षरों से एक भी अक्षर पालीसे नहीं मिलता,
-
(१) पाली अक्षरों के लिये देखो लिपिपत्र पहिला. (२) वेबस्स दू'टर नेशनल डिक्शनरी ( पृ० २०११). (३) गांधार लिपिके लिये देखो लिपिपत्र २५ वा. (४) एनसाइक्लो पोडिया ब्रिटानिका (नवौं बार छपा हुआ , जिल्द १, पृ० ६००). (५) बोम्ब ब्रच रायल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल (जिल्द २, पृ०६६ के पास की प्लेट). (६) प्रिन्सेस इंडिअन ऐंटी क्विटीज ( एडवर्ड टामस साहिबकी छपवाई हुई, जिल्द २, पृ. १६८ के पासको प्लट),
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(१०)
सिवा इसके कि यदि " जावे, तो वह पालीके
হা " के स्थानापन्न अक्षरको उल्टा करके देखा श " से कुछ कुछ मिलता है.
"
इससे स्पष्ठ है, कि जैसे अंग्रेज़ी और गांधार अक्षर फ़िनीशियन से मिलते जुलते हैं, वैसे पाली फ़िनीशियन आदिसे नहीं मिलते.
पाली और गांधार लिपियोंका परस्पर बिल्कुल न मिलना भी साबित करता है, कि ये दोनों लिपि एकही मूल लिपिकी शाखा नहीं हैं, अर्थात् गांधार लिपि सेमिटिक वर्गकी है, और पाली सेमिटिकसे भिन्न है.
फिनीशियन से निकली हुई समस्त लिपियोंमें स्वरके चिन्ह अलग नहीं है, किन्तु अक्षर ही उनका काम देते हैं, और पालीमें व्यंजनके साथ स्वरका चिन्ह मात्रही रहता है.
ग्रीक, अंग्रेज़ी, हिम्यारिटिक, मेंडिअन, एथिआपिक, अरबी, कूफी, पहलवी, आदि, जितनी लिपियें फ़िनीशियनसे बनी हैं, उन सबकी वर्णमालाका क्रम लग भग फ़िनीशियन क्रम ( अ-ब-ग - द ह आदि) से मिलता है, परन्तु पालीकी वर्णमालाका क्रम ( अ आ इ ई आदि ) वैसा नहीं है.
फिनीशियन वर्गकी कोई वर्णमाला ऐसी सम्पूर्ण नहीं है, कि जिससे पाली लिपिके समस्त अक्षरोंके उच्चारण प्रकट किये जा सकें.
इन प्रमाणोंसे प्रतीत होता है, कि पाली लिपि फिनीशियन या उससे निकली हुई किसी अन्य लिपिसे नहीं बनी, किन्तु आर्य लोगों की निर्माणकी हुई एक स्वतन्त्र लिपि है, जिससे भारतवर्षके अतिरिक्त सीलोन, जावा आदिकी और तिब्बतसे मंगोलिया तक मध्य एशिया की ( १ ) लिपियें बनी हैं.
इस विषय में एडवर्ड टॉमस साहिब (२) लिखते हैं, कि पाली अक्षर भारतवर्ष के लोगोंने ही बनाये हैं, और उनकी सरलतासे उनके बनाने वालोंकी बड़ी बुद्धिमानी प्रकट होती है.
( १ ) वेबर साहित्र को कुगिअर स्थान से ( देखो पत्र पहिलेका नोट ४) जो त्रुटित मंस्कृत पुस्तक मिले हैं, उनमें से ४ पुस्तक भारतवर्षकी गुप्त लिपिके हैं, और ५ पुस्तक मध्य एशियाकी प्राचीन संस्कृत लिपिके हैं मध्य एशियाको प्राचीन लिपि यहांको लिपिसे मिलती हुई है, परन्तु अक्षरोंकी आकृति चौखंटी है, और कोई कोई अक्षर विलक्षण भी हैं. एक पुस्तक में अनुखारके हिन्दू दो दो हैं, और उसकी भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है, अर्थात् कितने एक शब्द संस्कृत हैं, और कितनेएक और हौ भाषाके हैं. ( एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल, जिल्द ६२, हितह १, पृष्ठ ४ -८, प्लेट ३ ).
(२) न्यूमिस्मैटिक क्रानिकल (सन १८६३ ई०, नम्बर ३ ),
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जेनरल कनिंगहाम (१) लिखते हैं, कि पाली लिपि भारतवर्षके लोगोंकी निर्माण कीहुई एक स्वतन्त्र लिपि है.
इसी तरहका अभिप्राय प्रोफेसर क्रिश्चियन लैसन (२), प्रोफेसर जॉन डाउसन (३), और प्रोफेसर गोल्डस्ट्रकरका भी है.
“ गांधार" लिपि. राजा अशोकके समय गांधार देशमें पालीसे सर्वथा भिन्न प्रकारकी एक लिपि प्रचलित थी, जो उक्त देशके नामसे “गांधार" (४)लिपि कहलाती है. राजा अशोककी शहबाजगिरि और मान्सेराकी धर्माज्ञा, तुरुष्क (५) वंशी राजा कनिष्क और हुविष्कके लेख, और कितनेएक छोटे छोटे अन्य लेख भी इस लिपिमें पाये गये हैं. इस लिपिका एक ताम्रपत्र बहावलपुरसे ४० मील दक्षिण एक स्तूप (६) में से मिला है, जिसके चारों किनारोंपर राजा कनिष्कके ११ वें वर्षका ४ पंक्तिका लेख है. इन लेखोंके अतिरिक्त बाक्ट्रियासे (७) नासिक तक देशी और विदेशी राजाओंके बहुतसे ऐसे सिक्के भी मिले हैं, जिनमेंसे किसीपर एक तरफ ग्रीक और दूसरी ओर गांधार लिपिके, किसीपर गांधार और पालीके,
और किसीपर दोनों ओर गांधार लिपिके अक्षर हैं. पंजाबसे पूर्वमें इस लिपिका कोई लेख नहीं पाया गया, परन्तु उस तरफ बहुतसे सिक्के मिले हैं, जिनपर गांधार और ग्रीक लिपिके अक्षर हैं. वे सिके बाट्रियाकी तरफ़से आये हुए ग्रीक (यूनानी) और क्षत्रप (८) वगैरह विदेशी राजाओंके हैं. (१) कार्पस इन्स्क्रिप्शनम् इंडिकेरम् ( जिल्द १, पृष्ठ ५२), (२) Indische Alterthumskunde 2nd Edition i. p. 1006 (1867). (8) रायल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल, (जिल्द १३, पृष्ठ १.२, सन् १८८१ ई० ).
(४) " ललित विस्तर" के १० वे अध्यायमें ६४ लिपियों में दूसरी "खरोष्टी"(खरोष्ट्री) लिपि लिखी है, वह यही लिपि है. इसको “ बाट्रियन,” " बाट्रियन पालो " "पारियन पाली”, “ नार्थ ( उत्तरी) अशोक ” और “ काबुलिअन” लिपि भी कहते हैं.
(५) कनिष्क और छुविष्कको कल्हण पडितने तुरुष्क (तुर्क) लिख हैं. (राजतरङ्गिणी तरङ्ग १, श्लोक १७०).
(६) एप्रियाटिक सोसाइटी बंगालका नर्नल (जिल्द ३९, हिसह १, पृष्ट ६५-७०, प्लेट२).
(७) हिन्दूकुश पर्वत पोर आक्सस नदी बीचके दपाका नाम " बाकट्रिया" था. (८) क्षत्रप (सत्रप) वंभके राजाओंने ईरानको पोरसे आकर इस देशमें अपना राज्य अमाया था. क्षत्रपोंको दो भाखाओंका होना पाया जाता है, जिनमें एक तो चरी
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यह लिपि आर्य लोगोंकी निर्माण कीहुई नहीं है, क्योंकि इसके अक्षर पालीसे न मिलने, इसके लिखनेका क्रम सेमिटिक लिपियोंकी नाई दाहिनी ओरसे बाईं ओरको होने, और कितनेएक अक्षरोंकी आकृति
और उच्चारण ईरानकी प्राचीन लिपिसे मिलते हुए होनेसे अनुमान होता है, कि सन् ई० से करीबन ५०० वर्ष पहिले जब ईरानके पादशाह डारिअस प्रथमने इस देशपर हमला करके पंजाबके पश्चिमी हिस्सह तकका मुल्क दवा लिया था, उस समय ईरानकी लिपि गांधार देशमें प्रवेश हुई होगी, परन्तु वह पाली जैसी सम्पूर्ण न होनेके कारण उसमें नवीन अक्षर
और स्वरोंआदिके चिन्ह मिलाकर इस देशकी भाषा स्पष्ट रीतिसे लिखीजानेके योग्य बनानी पड़ी होगी.
इस लिपिका प्रचार इस देश में कबतक रहा, यह निश्चय करना कठिन है. पंजतारसे मिले हुए एक लेखमें (१) संवत् १२२ है, जो शक संवत् अनुमान किया गया है। इससे उस लेखका समय विक्रम संवत् २५७ होता है. हश्तनगरसे मिली हुई मूर्ति (२) के नीचे "सं २७४ पोठवदस मसस दिवसंमि पंचमि ५" ( सं २७४ प्रोष्टपदस्य (३) मासस्य दिवसे पंचमे ५) खुदा है. यदि यह भी शक संवत् मानाजावे, तो यह लेख विक्रम संवत् ४०९ का ठहरता है, परन्तु भक्षरोंकी आकृतिसे वह इस समयसे पहिलेका प्रतीत होता है.
सिकों में तो इस लिपिका प्रचार विक्रम संवत्की तीसरी शताब्दीके पूर्वाईसेही छूट गया था, और इसके एवज़ पालीका प्रचार होगया था. इसलिये विक्रम संवत्की तीसरी शताब्दीके उप्सराई या पांचवीं शताब्दीके पूर्वाईमें गांधार लिपिका प्रचार इस देशमे उठगया होगा.
अर्थात् मथुराकी, और दूसरी पश्चिमी अर्थात् काठियावाड़ ( सौराष्ट्र ) की. मथुराकी शाखा के लेख और सिक्के बहुत नहीं मिले, परन्तु सौराष्ट्रको भाखाके लेख और सिक्के इतने मिले हैं, कि एनसे क्रम पूर्वक २७ राजाओं के नाम मालम हुए हैं. इस भाखाका स्थापन करने वाला "नहपान" था, जिसको "कुसल पतिक" नामने शक राजाने सारे उत्तरी भारतवर्षको विजयकर दक्षिणके विजयको भेजा था. इसके जमाई उषवदात ( ऋषभदत्त ) के नाशिक के लेखोंसे पाया जाता है, कि " नहपान" बड़ा प्रतापी राजा था, और इसका राज्य दूर दर सक फैला हुआ था, इसके निःसंतान मरने पर इसका राज्य समोतिकके पुत्र चष्टनको मिला. सौराष्ट्र के चत्रप राजाओं के बहुतसे सिक्कों में (पक ) संवत दिया हुआ है.
(१) प्राकि यालाजिकल सर्व आफ इण्डिया-रिपोर्ट (जिल्द ५, पृष्ठ ३१, प्लेट १६).
(२) एभियाटिक सोसाइटी बंगालका जनल (जिल्द ५८, हिस्सह १, पृष्ठ १४५, प्लेट १०).
(३) “प्रोष्ठपद” भाद्रपद मासका नाम है,
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प्राचीन लिपियोंका पढ़ाजाना
सन् १७८४ .ई० ता० १५ जन्वरीको सर विलियम जोन्सकी प्रेरणासे एशिया खण्डके इतिहास, शास्त्र, कारीगरी (शिल्प), तथा साहित्य आदिका शोध करनेके निमित्त “ एशियाटिक सोसाइटी" नामका एक समाज कलकत्ता नगरमें स्थापन हुआ, जिसमें बहुतसे विद्वान् शामिल होकर अपनी अपनी रुचिके अनुसार भिन्न भिन्न विषयोंमें समाजका उद्देश सफल करनेको प्रवृत्त हुए. कितनेएक विद्वानोंने ऐतिहासिक विषयों के शोधमें लगकर प्राचीन लेख, दानपत्र, सिक्के, तथा ऐतिहासिक पुस्तकोंका टटोलना प्रारम्भ किया. इस प्रकार प्रथम भारतवर्षकी प्राचीन लिपियोंपर विद्वानोंकी दृष्टि पड़ी.
__ सन् १७८५ ई० में चार्ल्स विल्किन्स साहियने दीनाजपुर ज़िलेके पदाल स्थानके पास मिला हुआ एक स्तम्भपरका लेख पढ़ा, जो यंगालके राजा नारायणपालके समयका था (१), उसी वर्षमें पंडित राधाकान्त शर्माने दिल्लीकी फीरोजशाह लाटपरके चौहान राजा वीसलदेव अर्थात् विग्रहराज (२) के समयके लेख पढ़े. इन लेखोंकी लिपि देवनागरीसे बहुत मिलती हुई होनेके कारण ये आसानीके साथ पढ़ेगये, परन्तु इसी वर्ष में जे० एच० हेरिंग्टन साहिबने बुद्धगयाके पासवाली " नागार्जुनी" और "बराबर" की गुफाओंमें इनसे अधिक पुराने, मौखरी वंशके (३) राजा
(१) सन् १७८१ ई० में विल्किन्स साहिब ने " मंगेर" से मिला हुआ, बंगालके राजा देवपालका एक दानपत्र पढ़ा था, परन्तु वह भी सन् १७८८ ई० में छपा (दूसरी बार छपी हर एशियाटिक रिसर्चज, जिल्द १, पृष्ठ ११० - १७).
(२) यह राजा अच्छा विहान् था. इसने (विक्रम ) संवत् १२१. में "हरकेलि” नाटक रचा था, जिसका कुछ हिस्सह शिलापर खुदा हुआ अजमेरको ढाई दिनके झंपड़े में रक्खा हुआ है. इसका बनाया हुआ एक श्लोक वल्लभदेवने सभापितावली में दिया है ( सुभाशितावली, पृष्ठ १९५, श्लोक १११२).
(३) जेनरल कनि गहामको मिट्टी की एक मुद्रा ( मुहर ) गयासे मिली है, जिसपर पाली पक्षरोंमें “ मोखलीणां” ( मौखरीणां) पढ़ा जाता है ( कार्पस इस्क्रिपशनम् इरिकेरम्, जिल्द तीसरीकी भूमिका, पृष्ठ १४), जिससे इस वंशका बहुत प्राचीन होना पाया जाता है. बाणभट्टने हर्षचरितमें श्रीहर्षकी बहिन राज्यौका विवाह इसी वपके राजा अवन्तिवर्माके पुत्र ग्रहवर्माके साथ होना लिखा है (बम्बईका छपा हुआ हर्षचरित, उच्छवास ४, पत्र १५६ ). देव बर्नारकसे मिले हुए एक लेखमें शर्व वर्मा के बाद अवन्तिवर्माका नाम है, जो इसी ग्रहवर्माका पिता होगा (आर्किथालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया-रिपोर्ट, जल्द १६, पृष्ठ ७४, ७८).
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अनन्तवर्माके ३ लेख पाये, जिनकी लिाप गुप्त (१) लिपिसे मिलती हुई होने के कारण उनका पढ़ना कठिन प्रतीत हुआ. परन्तु चार्ल्स विल्किन्सने ई० सन् १७८५ से ८९ तक श्रमकर तीनों लेख पढ़लिये. इससे गुप्त लिपिकी अनुमान आधी वर्णमालाका ज्ञान होगया. - इसी प्रकार दक्षिणमें डॉक्टर बी० जी० बैकिंग्टनने मामल्लपुरके कितनेएक संस्कृत और तामिळ भाषाके प्राचीन लेख पढ़कर सन् १८२८.ई. में उनकी वर्णमाला (२) तय्यार की.
वाल्टर इलियट साहिबने प्राचीन कनडी अक्षरोंको पहिचाना, और सन् १८३३ ई० में उनकी वर्णमाला प्रकट की. .
सन् १८३४ ई० में कप्तान ट्रॉयर इस उद्योगमें लगे, और इलाहाबाद ( प्रयाग) के स्थम्भपरके समुद्रगुप्तके लेखका कुछ हिस्सह पढ़ा (३). इसी वर्ष में डॉक्टर मिलने इस लेखको पूरा पढ़ सन् १८३७ ई० में भिटारीके स्तम्भपरका स्कन्दगुप्तका लेख (४) भी पढ़लिया.
सन् १८३५ ई० में डब्ल्यू० एच० वॉथनने वल्लभीके कितनेएक दानपत्र पढ़े (५). __सन् १८३७-३८ .ई० में जेम्स प्रिन्सेपने दिल्ली, कहाऊं, और एरणके स्थम्भों, तथा सांची और अमरावतीके स्तूपों, और गिरनार पर्वतपरके गुप्ताक्षरोंके लेख पढ़े (६). कप्तान ट्रॉयर, डॉक्टर मिल, और प्रिन्सेप साहिवकै श्रमसे चार्ल्स विल्किन्सकी गुप्ताक्षरोंकी अधूरी वर्णमाला पूर्ण होगई, और गुप्त राजाओंके समयतकके लेख, दानपत्र, और सिके पढ़ने के लिये सुगमता हुई.
पाली लिपि- यह लिपि गुप्त लिपिसे भी बहुत पुरानी होनेके कारण इसका पढ़ना बड़ा दुस्तर था. सन् १७९५ ई० में सर चार्ल्स मेलेटने इलोराकी गुफाओंके कितनेएक छोटे छोटे लेखोंकी छाप तय्यारकर सर विलियम जोन्सके पास भेजी. उन्होंने ये लेख विल्फ़र्ड साहिबके पास भेजे, परन्तु जब उक्त साहिबसे वे नहीं पढ़े गये, तो एक पण्डितने कितनीएक
(१) गुप्त वंशी राजाओंके समयको प्राचीन देवनागरी लिपिको "गुप्त लिपि " कहते हैं ( इस लिपिके वास्ते देखो लिपिपत्र तीसरा, चौथा, और पांचवां)
(२) ट्रेन्ज क्शन्स पाफ रायल एशियाटिक सोसाइटी (जिल्द २, पृष्ठ २६४-१८प्लेट १३, १५, ११, १८). (३) एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जनल (जिल्द ३, पृष्ठ ११८).
(जिल्द६, पृष्ठ १).
(जिल्द ४, पृष्ठ ४७६). (६) " " (जिल्द ६,७).
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(१५)
प्राचीन लिपियोंकी वर्णमालाका पुस्तक उनको बतलाकर इन लेखों को अपनी इच्छा के अनुसार कुछका कुछ पढ़ादिया बिल्कर्ड साहिबने इस तरह पढ़े हुए वे लेख अंग्रेज़ी भाषांतर सहित सर विलियम जोन्स के पास पीछे भेजदिये. बहुत वर्षोंतक इन लेखोंके शुद्ध पढ़ेजाने में किसी को शंका नहीं हुई, परन्तु पीछेसे उनका पढ़ना और भाषांतर बिल्कुल कपोल कल्पित ठहरे.
एशियाटिक सोसाइटी बंगालके संग्रह में दिल्ली, और इलाहाबाद के स्तम्भों, तथा खएडगिरिके चट्टानपर खुदे हुए लेखोंकी छाप ( नकुल ) आगई थीं, परन्तु विल्र्ड साहिबका यत्न निष्फल होनेसे कितनेएक वर्षांतक उन लेखों के पढ़नेका उद्योग न हुआ. प्रिन्सेप साहिबको इन लेखोंका वृत्तांत जानकी जिज्ञासा लग रही थी, जिससे सन् १८३४-३५ ई० में उन्होंने इलाहाबाद, रधिया और मथियाके स्तंभोंके लेखोंकी प्रति मंगवाई, और उनको दिल्लीकें लेखसे मिलाकर देखने लगे, कि इनमें कोई शब्द एकसा है वा नहीं. इस प्रकार चारों लेखोंको पास पास रखकर मिलाने से तुरन्त ही यह पाया गया, कि ये चारों लेख एक ही हैं, जिससे उनका उत्साह अधिक बढ़ा, और उन्हें अपनी जिज्ञासा पूर्ण होनेकी दृढ़ आशा बंधी. पश्चात् इलाहाबादके लेख से भिन्न भिन्न आकृतिके अक्षरोंको अलग अलग छांटने लगे, तो गुप्ताक्षरोंके समान उनमें भी कितनेएक अक्षरोंके साथ स्वरोंके पृथक् पृथक् पांच चिन्ह लगे हुए पाये, जिनको एकत्र कर प्रसिद्ध किया ( १ ). इससे कितनेएक विद्वानोंको उक्त अक्षरों के यूनानी होने का जो भ्रम था वह दूर होगया. स्वरोंके चिन्ह पहिचाननेके पश्चात् मिस्टर प्रिंसेप अक्षरोंके पहिचाननेका उद्योग करने लगे, और इस लेखके प्रत्येक अक्षरको गुप्त अक्षरोंसे मिलाना, और जो मिलता जावे उसको वर्णमाला में क्रमवार रखना प्रारम्भ किया. इस प्रकार उक्त साहिबने बहुतसे अक्षर पहिचानलिये.
प्रिन्सेप साहिबकी नाई पादरी जेम्स स्टिवन्सन भी इसी शोध में लगे हुए थे. उन्होंने इस लिपिके “ क, ज, प और ब" अक्षरोंको ( २ ) पहिचाना, तत्पश्चात् इन अक्षरोंकी सहायता से लेख पढ़कर उनका भाषान्तर करने के उद्योगमें लगे, परन्तु कुछ तो अक्षरोंके पहिचानने में भूल होजाने, कुछ वर्णमाला पूरी न होने ( ३ ), और इसके अतिरिक्त
(१) एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल (निल्द ३, पृष्ठ ११७, प्लेट ५ ). (२) एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल (जिल्द ३, पृष्ठ ४८५ ).
66
( ३ )
न" को " र " पढ़लिया था, और " द” को पहिचाना नहीं था.
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(१६) उन लेखोंकी भाषाको संस्कृत मानकर, उसी भाषाके नियमानुसार पढ़नेसे वह उद्योग निष्फल हुआ, परन्तु प्रिंसेप साहिब निराश न हुए. सन १८३६ ई० में प्रोफेसर लैसनने एक वाट्रियन सिक्केपर इन्हीं अक्षरोंमें आगेथोक्लीस ( Agathocles ) का नाम पढ़ा. सन् १८३७ ई० में मिस्टर प्रिंसेपने सांचीसे मिले हुए स्तम्भोंपरके कई एक छोटे छोटे लेख एकत्र करके उन्हें देखा, तो उन सबोंके अन्तमें दो अक्षर एकसे दिखाई दिये, और उनके पहिले प्रायः "स" अक्षर पाया गया, जिसको प्राकृत भाषाकी षष्ठि विभक्तिके एक वचन का प्रत्यय मानकर यह अनुमान किया, कि ये सब लेख अलग अलग पुरुषोंकी भेट प्रगट करते होंगे, और अन्त के दोनों अक्षर, जो पदे नहीं जाते, उनमें पहिलेके साथ आकारकी मात्रा (चिन्ह ) है, और दूसरेपर अनुस्वार है, इसलिये पहिला अक्षर " दा" और दूसरा “ नं" (दानं ) ही होगा. इस अनुमानके अनुसार “ द" और "न" के पहीचाननेपर वर्णमाला सम्पूर्ण होगई, और दिल्ली, इलाहाबाद, सांची, मथिया, रधिया, गिरनार, धौली, आदि स्थानोंके लेख सुगमता पूर्वक पढ़लिये गये, जिससे यह भी निश्चय होगया, कि उनकी भाषा जो पहिले संस्कृत मानलीगई थी, वह अनुमान असत्य था, बरन उनकी भाषा उक्त स्थानोंकी प्रचलित देशी (प्राकृत) भाषा थी. इन पाली अक्षरोंके पढ़ेजानेसे पिछले समयके सारे लेख पढ़ना सुगम होगया, क्योंकि भारतवर्षकी संपूर्ण प्राचीन लिपियोंका मूल यही लिपि है.
गांधार लिपि-कर्नेल टॉडने एक बड़ा संग्रह पाट्रियन और सीथियन (१) सिक्कोंका एकत्र किया था, जिनके एक ओर ग्रीक और दूसरी
ओर गांधार लिपिके अक्षर थे. जेनरल वंटुराने सन् १८३० ई० में मानिक्यालाके स्तूपको खुदवाया (२), तो उसमेंसे कई एक सिक्के और दो लेख इस लिपिके मिले. इनके अतिरिक्त सर अलेग्जेंडर वर्क्स आदि कितनेएक प्राचीन शोधकोंने भी बहुतसे ऐसे सिके एकत्र किये, कि जिनके एक
ओरके ग्रीक अक्षर पढ़े जासक्ते थे, परन्तु दूसरी ओरके गांधार अक्षरोंके पढ़ने के लिये कोई साधन नहीं था. इन अक्षरों के लिये भिन्न भिन्न कल्पना होने लगी. सन् १८२४ ई० में कर्नेल टॉडने कडफिसस ( Kadphises ) के सिकेपरके इन अक्षरोंको “ ससेनियन" प्रकट किया. सन् १८३३ ई० में
(१) सीथियन (तरुष्क) राजा तातारको तरफसे इस देशमें आये थे, उनमें कनिष्क बड़ा प्रतापी हा. (सौथियन राजाओंके सिक्कोंके लिये देखो टामस साहिबकी छपवाई हुई " प्रिन्सेस एन्टिक्विटोन", जिल्द १, प्लेट २१-२२). (२) मिन्स एप एन्टिक्विटीज (जिल्ट १, पृष्ठ ८३-१८),
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ऐपोलोडॉटस ( Apollodotos ) के पाट्रियन सिक्केपरके इन्हीं अक्षरोंको मिस्टर प्रिन्सेपने पहलघी अनुमान किया, और एक सीथियन सिक्केपरकी इसी लिपिको व ऐसेही मानिक्यालाके लेखोंकी लिपिको भी पाली बतलाया, और उनकी आकृति टेढ़ी होनेसे ऐसा अनुमान किया, कि छापे और महाजनी लिपिके नागरी अक्षरों में जैसा अन्तर है, वैसाही दिल्ली आदिके लेखोंकी पाली लिपि और इनकी लिपिमें है, परन्तु पीछे से स्वयं उनको अपना अनुमान असत्य भासने लगा. सन् १८३४ ई० में कप्तान कोर्टको एक स्तूपमेंसे इसी लिपिका एक लेख मिला, जिसको देखकर मिरटर प्रिन्सेपने फिर इन अक्षरोंको पहलवी माना. मिरटर मेसनको, जो अफगानिस्तानमें प्राचीन शोध कर रहे थे, जब यह मालूम होगया, कि एक ओर ग्रीक अक्षरों में जो नाम है, ठीक वही दूसरी तरफ़ गांधार लिपिमें है, तो मिनेन्द्रो ( Menandrou), ऐपोलोडोटो ( Apollodotou ), अरमेओ ( Ermaion ), बेसिलेअस ( Basileos ), और सोटेरस ( Sotercs) शब्दोंके पहलवी चिन्ह पहिचानकर मिस्टर प्रिन्सेपको लिख भेजे, मिस्टर प्रिन्सेपने उन चिन्होंके अनुसार सिक्के पढ़कर देखे, तो शुद्ध प्रतीत हुए, और ग्रीक अक्षरोंके अनुसार इन अक्षरों को पढ़नेसे क्रम क्रमसे १२ राजाओंके नाम, और ६ खिताब पढ़लिये गये. ऐसे इस लिपिके बहुतसे अक्षरोंका बोध होकर यह भी ज्ञात होगया, कि ये अक्षर दाहिनी ओरसे बाई ओर को पढ़े जाते हैं. इससे उनको पूर्ण विश्वास हुआ, कि ये अक्षर सेमिटिक वर्गके ही हैं, और पहलवीका एक रूप है, परन्तु इसके साथ ही उनकी भाषा, जो वास्तव में प्राकृत थी उसको पहलवी मानली. इस प्रकार ग्रीक अक्षरोंके सहारेसे कितनेएक अक्षर मालूम होगये, किन्तु पहलवी भाषाके नियमोंपर दृष्टि रखकर पढ़नेका उद्योग करनेसे अक्षरोंके पहिचानने में अशुद्धता होगई, और उनका शोध आगे न पढ़सका. सन् १८३८ ई० में प्राचीन पाक्ट्रिया राज्यकी सीमामें मिले हुए कितनेएक सिक्कोंपर पाली अक्षर देखते ही, उन लेखोंकी भाषाको पाली मान उसी भाषाके नियमानुसार पदनेसे उनका शोध आगे बढ़सका, और मि० प्रिन्सेपने १७ अक्षर पहिचाने. मि० प्रिन्सेपकी नाई मिस्टर नौरिस भी इस शोधमें लगे हुए थे, उन्होंने ६ अक्षर पहिचाने,
और प्रिन्सेप साहिबके विलायत चले जानेपर कनिंगहाम साहिबने शेष ११ अक्षरोंको पहिचानकर वर्णमाला पूर्ण करदी, और संयुक्ताक्षर भी पहिचान लिये.
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(१८)
प्राचीन लेख और दानपत्रोंके संवत् (१).
भारतवर्षके प्राचीन लेख और दानपत्रों में विक्रम संवत्, शक संवत्, गुप्त संवत् आदि नामके कई संवत् पाये जाते हैं, जिनके प्रारंभ आदिका हाल संक्षेपसे यहां लिखाजाता है. ___सप्तर्षि संवत्-इसको लौकिक काल, लौकिक संवत्, शास्त्र संवत्, पहाड़ी संवत् , या कच्चा संवत् भी कहते हैं. यह संवत् २७०० वर्षका एक चक्र है. इसके विषयमें ऐसा मानाजाता है, कि सप्तर्षि नामके ७ तारे अश्विनीसे रेवती पर्यंत २७ नक्षत्रोंपर क्रम क्रमसे सौ सौ वर्षतक रहते हैं (२). इस प्रकार २७०० वर्ष में एक चक्र पूरा होकर दूसरे चक्र का आरंभ होता है. जहां जहां यह संवत् प्रचलित है, वहां नक्षत्रका नाम नहीं लिखा जाता, परन्तु केवल १ से लगाकर १०० तकके वर्ष लिखे जाते हैं. १०० वर्ष पूरे होने पर शताब्दीका अंक छोड़कर फिर से प्रारंभ करते हैं. कश्मीरके पंचांग और कितनेएक पुस्तकों में प्रारंभसे भी वर्ष लिखे हुए मिलते हैं. कश्मीरमें इस संवत्का प्रारंभ कलियुगके २५ वर्ष पूरे होनेपर (२६ वें वर्षसे ) मानते (३) हैं, परन्तु पुराण और ज्योतिषके ग्रन्थोंसे इसका प्रचार कलियुगके पहिलेसे होना पाया जाता है. जेनरल कनि
(१) “ संवत्" संवत्सर प्रब्दका संक्षिप्त रूप है, जिसका अर्थ वर्ष है. इस शब्दको बहुधा विक्रम संवत् बतलानेवाला मानते हैं, परन्तु वास्तवमें ऐसाही नहीं है. यह शब्द महर्षि सवत्, विक्रम संवत्, गुप्त सवत् आदिमेंसे हरएक संवत्के लिये आता है, कभी कभी विक्रम, शक, वल्लभी आदि ५०द भी “ संवत्" के पहिले लिखे हुए पायेजाते हैं (विक्रम सवत्, वल्लभी सवत् आदि), परन्तु बहुधा केवल " संवत्" या उसका संक्षिप्त रूप
“स” लिखा हुआ मिलता है, इसके स्थान में वर्ष, अन्द, शक आदि इसी अर्थ वाले . मम्द भी पाते हैं.
(२) एकैस्मिन्नूक्ष पतं पूतं ते ( मुनयः ) चरन्ति वर्षाणाम् ( वाराही सहिता, अध्याय १३, भोक ४). सप्तर्षीणांतुयो पूर्वी दृश्यते उदितौ दिवि । तयोस्तु मध्ये नक्षत्र दृश्यते यत्सम निशि ॥ तेनेत ऋषयो युक्ता स्तिष्टं पर शत नृणाम् ( श्रीमद्भागवत, स्कंध १२, अध्याय २, श्लोक २७-२८. विष्णुपुराण, अश ४, अध्याय २४, श्लोक ५३-५४).
पुराण और ज्योतिषके कितनेएक ग्रन्थोंमें इस प्रकारको गति होना लिखा है, परन्तु कमलाकर भट्ट इस बातको नहीं मानते ( अद्यापि कैरपिनरेगतिरार्य व ष्टा न यात्र कथिता किल सहितास । तत्काव्यमेव हि पुराणवदत्र तकशास्तमेव तत्व विषय गदितु प्रवृत्ताः ॥ सिद्धान्ततत्व विवेक, भग्रहयुत्यधिकार, श्लोक ३२).
(३ ) कलेगते : सायकनेत्र ( २५ ) वर्षे : सप्तर्षि वस्ति दिव प्रयाताः । लोके हि संवत्सरपत्रिकायां सप्तर्षिमान प्रवदन्ति सन्तः ( डाक्टर बुलरका कश्मीरका रिपोर्ट', पृष्ठ ६० ).
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गहाम इस संवत्का सन् .ई० से ६७७७ वर्ष पहिले ( १ ) से होना मानते हैं.
(क) राजतरङ्गिणीमें कल्हण पंडितने लिखा है (२), कि इस समय लौकिक कालका २४ वां वर्ष प्रचलित है, और शक संवत्का १०७० वां गत वर्ष (३) है. इस हिसाबसे लौकिक संवत् ० शक संवत् (१०७०-२४ % ) १०४६ गतके मुताषिक होता है, और इस संवत्का प्रत्येक पहिला वर्तमान वर्ष शक संवत्की हरएक शताब्दीके ४७ वें गत वर्षके मुताषिक है ( ४७, १४७, २४७, ३४७ आदि ). विक्रम संवत्से १३५ वर्ष पीछे शक संवत् प्रारम्भ हुआ है, इसलिये इस संवत्का प्रत्येक पहिला वर्तमान वर्ष विक्रम संवत्की प्रत्येक शताब्दीके ( ४७+ १३५ = १८२)८२ वें गत वर्षके मुताबिक होता है (८२, १८२, २८२, ३८२ आदि).
(ख) चम्बासे मिले हुए एक लेखमें (४) विक्रम संवत् १७१७, शक
(१) इंडियन ईराज ( पृष्ठ ४).
(२) लौकिकान्दे चतुर्वि भककालस्य साम्प्रतम् । सप्तत्याभ्यधिकं यात सहस्र परिवत्सरा : ( राजतरङ्गिणी, तरङ्ग १, श्लोक ५२).
(३) ता. ७ एप्रिल सन् १८८४ ई० के दिन उत्तरौ हिन्दुस्तान में जो विक्रम संवत्का नया वर्ष प्रारभ हुआ है, उसको हम लोग विक्रम सम्वत् १८५१ वर्तमान, और ता. ६ एप्रिल के दिन को वर्ष पूरा हुमा उसको विक्रम सम्वत् १९५० गत (गुजरा हुआ) मानते हैं, जब " सम्वत् १९५१ चैत्र शुक्ला १” लिखते हैं, तब हम यह समझते हैं, कि सम्वत् १८५० गत होगया याने गुजर गया, और १८५१ का यह पहिला दिन है, परन्तु ज्योतिषको गणनावे अनुसार इसका अर्थ ऐसा होता है, कि सम्वत् १८५१ तो पूरा होचुका, और प्रगले सं. १८५२ का यह पहिला दिन है, अर्थात जो अंक हैं उतने वर्ष पूरे होगये वास्तव में ऐसा ही होना ठीक से क्यों कि व्यवहार में भी जब किसी कार्य को इए एक वर्ष पूरा होकर दूसरे वर्षका १ दिन जाता है, तब हम उसके लिये १ वर्ष, १ दिन लिखते हैं, न कि २ वर्ष, १ दिन. इससे स्पष्ट है, कि अंक गुजरे हुए वर्ष ही बतलाते हैं, न कि वत मान वर्ष.
प्रचलित भूलका कारण ऐसा पाया जाता है कि प्राचीन समय में बहुधा वर्ष के साथ गतेषु, अतीतेषु आदि “ गुजरे हए" अर्थ वाले शब्द लिख जाते थे, परन्तु ऐसे शब्दोंका लिखना छूट जाने से उनको लोग वर्तमान मानने लग गये होंगे. प्राचीन लेख और दानपत्र
आदि में जो सम्वत् के प्रत होते हैं, वे बहुधा गत वर्ष हैं, परन्तु जहां कहीं वर्तमान वर्ष लिख हैं, तो एक वर्ष अधिक रखा है. मद्रास इहात के दक्षिण विभागमें आज भी ज्योतिष के अनुसार वर्तमान वर्ष लिख जाते हैं, इसलिये वहांका सम्वत् हमारे सम्वत्से एक वर्ष मागे रहता है, वतमान उत्तरी विक्रम सम्बत् १९५१ में हम शक सम्वत् १८१६ लिखते हैं, जो ज्योतिषके हिसाब से १८१६ गत है, अतएव वहां वाले १८१७ वर्म मान लिखते हैं,
(४) श्रीमन्न पति विक्रमादित्यसंवत्सरे १७१० श्रीशालिवाहन शके १५८२ श्रीपास्व संवत्मरे ३६ वैशाख वदि वयोदश्यां बुधवासरे मेषिक सक्रांती (इंडियन एंटिक्केरी, जिल्द २०, पृष्ठ १५२),
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( २० )
संवत् १५८२, शास्त्र संवत् ३६ वैशाख कृष्णा १३ बुधवार लिखा है. इससे भी शास्त्र संवत् १ ( १७१७ ३६ = १६८१ ) विक्रम संवत् १६८२ और शक संवत् ( १५८२ ३६ = १५४६ ) १५४७ में आता है, जो ठीक उपरकी गणना के अनुसार है. इस लेखमें विक्रम और शक संवत् वर्तमान है या गत यह स्पष्ट नहीं लिखा, परन्तु गणितसे दोनों संवत् गत पाये जाते हैं.
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(ग) पूनाके दक्षिण कालेजके पुस्तकालय में शारदा ( कश्मीरी ) लिपिका " काशिका वृत्ति" पुस्तक है, जिसमें गत विक्रम संवत् १७१७, सप्तर्षि संवत् ३६, पौष कृष्णा ३ रविवार और तिष्य ( पुष्य) नक्षत्र ( १ ) लिखा है. इसमें स्पष्ट लिखदिया है, कि विक्रम संवत् १७१७ गत हैं, इससे भी इस संवत्का पहिला वर्ष ( १७१७ ३६ = १६८१ ) विक्रम संवत्की १७ वीं शताब्दी के ८२ वें वर्ष में आता है ( २ ).
यह संवत् चैत्र शुक्ला १ से आरम्भ होता है, और इसके महीने पूर्णि मान्त ( ३ ) हैं. प्राचीन समयमें यह संवत् कश्मीर से सिन्धतक प्रचलित था, परन्तु अब कश्मीर और उसके आस पासके पहाड़ी इलाकों में कहीं कहीं लिखा जाता है.
कलियुग संवत् - इसका प्रारंभ विक्रम संवत् से. ( ४९९५ - १९५१ = ) ३०४४, और शक संवत् से ( ४९९५ - १८१६ = ) ३१७९ वर्ष पहिले माना जाता है. पंचांगों में इस संवत् के गत और वर्तमान वर्ष दोनों लिखे जाते हैं.
दक्षिण के चालुक्यवंशी राजा पुलिकेशि दूसरेके समयका एक लेख कलाडगी ज़िले (दक्षिण) में एहोळेकी पहाड़ीपरके जैन मंदिर में मिला है, जिसमें लिखा है, कि भारत के युद्ध से ३७३५, और शक संवत् के ५५६ वर्ष ( ४ )
(१) श्रीनृपविक्रमादित्यराज्यस्य गतान्दा : १७१७ श्री सप्तर्षिमते सम्वत् ३६ पौ [ व ]ति ३ रवौ तिष्यनक्षत्रे (इंडियन एंटिक्करी, जिल्द २०, पृष्ठ १५२ ).
( २ ) ( क ), ( ख ), और ( ग ) में सप्तर्षि सम्वत्को वर्ष वर्तमान, और विक्रम तथा शक संवत् गत हैं.
गुजरात से उत्तर वाले
(३) भारतवर्ष में महीनोंका प्रारंभ दो तरह से माना जाता है, अपने महौनोंका प्रारम्भ कृष्णा १ को, और अन्त पूर्णिमाको मानते हैं, इसलिये उनको महीने पूर्णिमांत कहलाते हैं. गुजरात व दक्षिण वाले शुक्ला १ से आरम्भ और अमावास्याको अन्त मानते हैं, जिससे उनके महीने अमांत कहे जाते हैं.
(४) त्रिंशत् त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादित : सप्ताब्द भतयुक्त षु प्र ( ग ) ते ष्वब्देषु पञ्चसु ( ३०३५ ) पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च ( ५५६ ) समास समतीतास शकानामपि भूभुजां (इंडियन ए'टिक्क री जिल्द ८, पृष्ठ २४२ ).
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(२१) व्यतीत होनेपर (अर्थात् जब शक संवत्का ५५७ वां वर्ष प्रचलित था), यह मंदिर बनाया गया है. इस लेखसे ज्ञात होता है, कि भारतका युद्ध शक संवत्से (३७३५-५५६ % ) ३१७९ वर्ष पहिले हुआ था. कलियुगका प्रारंभ भी शक संवत्से ठीक इतने ही वर्ष पहिले माना जाता है, जैसा कि उपर लिखा है. इससे स्पष्ट है, कि कलियुग संवत् और भारतयुद्ध (१) संवत् एक ही है. भारतके युद्ध में जय पाने से राजा युधिष्ठिरको राज्य मिला था, अतएव भारतयुद्धसंवत् युधिष्ठिरसंवत्का ही नाम है.
कलियुगके प्रारम्भके विषयमें पुराण और ज्योतिषमें विवाद है विष्णुपुराण ( २ ) और भागवत ( ३ ) में लिखा है, कि श्रीकृष्णने स्वर्गप्रयाण किया तभीसे (अर्थात् भारतका युद्ध हुए पीछे ) कलियुगका प्रारम्भ हुआ, और परीक्षितके समय (कलियुगके प्रारंभ) में सप्तर्षि मघा नक्षत्रपर थे (४).
ज्योतिषके आचार्य युधिष्ठिरके राज्य समय सप्तर्षियोंका मघा नक्षत्र पर होना तो मानते हैं, परन्तु कलियुगका प्रारंभ भारतके युद्धसे बहुत वर्ष पहिले हुआ मानते हैं. वराहमिहर वाराही संहितामें वृद्धगर्गके मतानुसार लिखते हैं, कि राजा युधिष्ठिरके राज्य समयमें सप्तर्षि मघा नक्षत्रपर थे,
और उक्त राजाके संवत्के २५२६ वर्ष व्यतीत होने पर (५) शक संवत् चला. इससे तो महाभारतका युद्ध कलियुगके (३१७२-२५२६ % )६५३ वर्ष व्यतीत होनेपर मानना पड़ता है, परन्तु वाराही संहिताके टीकाकार भद्दोत्पलने वृद्धगर्गके पुस्तकसे, जो श्लोक उद्धृत किया है, उससे ऐसा पाया जाता है, कि वृद्धगर्ग द्वापर और कलियुगकी संधिमें सप्तषियों को मघा नक्षत्रपर मानते (६) थे, अर्थात् भारतका युद्ध बापरके अन्त में हुआ मानते थे, न कि कलि युगके ६५३ वर्ष वीतनेपर. (१) महाभारत का कौरव पाण्डवोंका संग्राम, (२) यदेव भगवहिष्णोरंभो यातो दिवहिज । वसदेवकुलोडू तस्तदैव कलिरागत (विष्णुपुरागा, अभ 8, अध्याय २४, श्लोक ५५).
(३) विष्णुभंगवतो भानु : कृष्णाख्योऽसौ दिवंगत :। तदाविशत्कलिलोक पापयरमतेजन' (श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १२, अध्याय २. श्लोक २८)
(8) ते त्वदीये हिजाः ( सप्तर्षयः) काले अधुना चाश्रिता मघाः ( श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १२, अध्याय २, लोक २८). ते ( सप्तर्षय : ) तु पारिक्षिते काले मघाखासन् दिजोत्तम (विष्णु पुराण, अश ४, अध्याय २४, श्लोक ५४),
(५) आसन्मघास मुनयः भासति पृथ्वौं युधिष्ठिरे नृपतौ । षड हिकपञ्चहियुतः भककालस्तस्य राज्यस्य ( वाराही महिमा, सप्तर्षिचार, श्लोक ३).
(६) तथाच वृद्धगर्गः: । कलिहापरसधौ तु स्थितास्ते पितृदेवत (मघाः) । मुनयो धर्मनिरताः प्रजानां पालने रताः (भट्टोत्पलकत वाराही महिताको टीका, सप्तर्षिचार, श्लोक ३).
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(२२) पराशरने (१) कलियुगके ६६६ - आर्यभट्ट ( १ ) ने ६६२२, और राजतरंगिणीके कर्ता कल्हण पण्डित (२) ने ६५३ वर्ष व्यतीत होनेके पश्चात् भारतका युद्ध होना माना है.
___ इस तरह भारतयुद्धसंवत् अर्थात् युधिष्ठिरसंवत्के विषयमें भिन्न भिन्न मत हैं, परन्तु उपरोक्त जैन मन्दिरके लेखके अनुसार कलियुग संवत् और भारतयुद्ध संवत् एक ही सिद्ध होता है.
आर्यभटके समयतक ज्योतिषके ग्रन्थों में कलियुग संवत् लिखा जाता था, परन्तु वराहमिहरने उसके स्थानपर शक संवत्का प्रचार किया. प्राचीन लेख और दानपत्रों में कलियुग संवत् बहुत कम मिलता है.
घद्धनिर्वाण संवत्- शाक्य मुनिक निर्वाण (मोक्ष ) से बौद्ध लोगोंने, जो संवत् माना है, उसको “घुद्धनिवाण संवत्" कहते हैं. गयाके सूर्यमन्दिरमें सपादलक्षके (३) राजा अशोकचल्लके समयका एक लेख है, जिसमें बुद्धके निर्वाणका संवत् १८१३ कार्तिक वदि १ बुधवार लिखा है (४), परन्तु उसके साथ कोई दूसरा संवत्' न देने, और बौद्धोंमें निर्वाणके समयमें मत भेद होने के कारण इस संवत्का ठीक ठीक निश्चय नहीं होसक्ता.
सीलोन (५) अर्थात् सिंहलद्वीप, ब्रह्मा और स्याममें (६) बुद्धका निर्वाण सन् ई० से ५४४ (विक्रम संवत्से ४८७) वर्ष पहिले मानाजाता है, और आसामके राज गुरु भी ऐसाही मानते हैं (७). पेगू
(१) इडियन ईराज ( पृष्ठ ८), (२) भारतं हापरान्त ऽभूहात येति विमोहिताः । केचिदेतां मृषा तेषां कालसङ्ख्यां प्रचक्रिरे ॥ तेषु षट स सार्द्धषु त्राधिकेषु च भूतले । कलेग तेषु वर्षाणामभवन्कुरुपाण्डवाः ( राजतरङ्गिणो, तरङ्ग १, श्लोक ४८.५१).
(३) “ सपादलक्ष” या “ सवालक " सिवालिक पहाड़ियों का नाम है. प्राचीन काल में कमाऊ के राजा अपनेको “ सपादलक्ष नृपति” कहते थे ( इंडियन एण्टिकरी, जिल्द ८, पृष्ठ ५८, नोट ६).
1) भगवप्ति परिनिर्वते सवत् १८१९ कार्तिक वदि १ बुधे ( ईडियन एण्टिक्केरी, जिल्द 1०, पृष्ठ ३४३). (५) कार्पस दून स्त्रियशनम डिकेरम (जिल्द १ की भूमिका, पृष्ठ ३), (६) प्रिन्सेस एण्टि क्विटीज़ (जिल्द २, युसफुल टेबल्स, पृष्ठ १६५). (७)
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और चीन (१) वाले सन् ई० से ६३८ (विक्रम संवत्से ५८१) वर्ष पहिले मानते हैं.
चीनी यात्री फाहियान जो ई० सन् ४०० में यहां आया था, वह लिखता (२) है, कि इस समय निर्वाणसे १४९७ वर्ष गुजरे हैं. इससे निर्वाणका समय ई० सन् से पूर्व (१४९७-४०० % ) १०९७ के निकट आता है. दूसरा चीनी यात्रीहुएत्संग, जो ई० सन् ६२९ से ६४५ तक इस देशमें रहगया था, उसने कश्मीरके वृत्तान्तमें निर्वाणसे १०० वें वर्ष में अशोकका राज्य दूर दूर तक फैलना लिखा है (३).
सहस्राम, रूपनाथ, और पैराटकी अशोककी धर्माज्ञाओंमें निर्वाण संवत् २५६ दिया है, जिसपरसे डॉक्टर बुलरने सन् ई० से पूर्व ४८३-२ और ४७२-१ के बीच निर्वाणका निश्चय किया है (४).
प्रोफेसर कर्न (५) ने सन् ई० से ३८८ (वि० सं० से ३३१), फर्गसन साहिबने (५) सन् ई० से ४८१ (वि० सं० से ४२४ ), जेनरल कनिंगहाम ने (६) सन् .ई० से ४७८ (वि० सं० से ४२१), प्रोफेसर मैक्सम्यूलरने (७) ई० सन से ४७७ (वि० सं० से ४२०), और पण्डित भगवानलाल इन्द्रजीने उपरोक्त गयाके लेखके अनुसार सन् ई० से ६३८(वि० सं० से ५८१ ) वर्ष पहिले निर्वाणका निश्चय किया है (८).
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(१) प्रिन्सेप्स एण्टिविटीज (मिल्द २, युसफुल टेबल्स, पृष्ठ १६५). (२) पुहिएरेकर्ड आफ दो वेसन वल्र्ड (जिल्द १ की भूमिका, पृष्ठ ५.).
(जिल्द १, पृष्ठ १५०), (४) दण्डियन एण्टिक्केरी (जिल्द , पृष्ठ १५४). (५) साइक्लोपीडिया आफ इण्डिया (जिल्द १, पृष्ठ ४९२). (६) कार्पस इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिकरम् (जिद १ की भूमिका, पृष्ठ ८). (0) हिरी आफ एन्श्यण्ट संस्कृत लिटरेचर ( पृष्ठ २९८ ).
(८) अशेकचलके छोटे भाई दशरथका एक लेख लक्ष्मणसेन संवत् ७४ का मिला है (इण्डियन एण्टिक्केरौ, जिल्द १०, पृष्ठ १४६), जिसके पाधार से गया के लेख में निर्वाणका समय कौनमा माना है, उसका निश्चय प्रसिद्ध प्राचीन गोधक पण्डित भगवानलाल इन्द्रजीने इस तरह किया है :___लक्ष्मणसेन संवत् का प्रारम्भ ई० सन् १९०८ में होना सही माना जावे, तो लक्ष्मणसेन संवत् ७४ + ११०८ = ११८२ ईसवी सन् होता है. लक्ष्मणसेन संवत् वाला लेख अशोकचल्लके छोटे भाई कुमार दशरथके समयका, और निर्वाण संवत् वाला लेख अशोकचल्लो समयका है, जिसमें दसरथका नाम नहीं है, किन्तु दभरथने लेखमें उसको अशोकचनका क्रमानुयायी लिखा है. इससे इन दोनों भाइयों का समकालीन होना, और दोनों लेखोंका समय भी करीबन पास पासका होना चाहिये. दशरथके लेखके अनुसार निर्वाणका समय १८१३ - ११८२ = ६५१ वर्ष सन् ... से पूर्व के लगभग पाता है.
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मौर्य संवत्- उदयगिरिपरकी हाथीगुफामें राजा खारवेलका एक प्राकृत भाषाका लेख मिला है, जिसका संवत् पंडित भगवानलाल इन्द्रजीने "मुरियकाल (मौर्यकाल )१६५ वर्तमान, और १६४ गत" पढ़ा है (१)जेनरल कनिंगहामने कार्पस इनस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम्की जिल्दी में इस लेखकी जो, छाप दी है ( प्लेट १७), उसमें “ मुरियकाल " स्पष्ट नहीं पदा जाता, किन्तु (--यकाल )"य"के पहिलेके अक्षरोंकी जगह खाली छोड़ दी है. मिस्टर प्रिन्सेप (२) और डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्र (३)ने इस लेखके भाषान्तर किये हैं, परन्तु उनमें भी ये अक्षर छोड़ दिये हैं. केवल पंडित भगवानलाल इन्द्रजीने ही ये अक्षर निकाले हैं.
___ मौर्य संवत्के प्रारंभका कुछ भी पता नहीं लग सका, क्योंकि उपरोक्त लेखके सिवा किसी दूसरे लेखमें यह संवत् नहीं पाया गया.
राजा अशोककी गिरनार, शहवाजगिरि और खालसीकी १३ वीं धर्माज्ञासे विदित होता है, कि उसने लाखों मनुष्योंका नाश कर कलिंगदेश विजय किया था. यह लेख कलिंगदेशमें होनेसे ऐसा अनुमान होता है, कि कदाचित् अशोकने कलिंगदेश जय किया उसकी यादगारमें उसी समयसे यह संवत् वहां चला हो. यह देश अशोकके राज्याभिषेकसे८वें वर्षमें विजय हुआ था, इसलिये यदि अशोकका राज्याभिषेक सन् ई० से अनुमान २६९वर्ष पहिले माना जावे (४), तो उपरोक्त अनुमानके अनुसार इस संवत्का प्रारंभ सन् ई० से पूर्व (२६९-८= ) २६१ वर्षके लगभग होना संभव है.
विक्रम संवत् ( मालव संवत् )-इसके प्रारंभके विषयमें ऐसा प्रसिद्ध है, कि मालवाके राजा विक्रम (विक्रमादित्य) ने शक (सीथियन या तुरुष्क)
अशोकचलका लेख दशरथके लेखसे कुछ पहिलेका होना सम्भव है, और उसके अनुसार निर्वाणका संवत् गवालोंके मतानुसार ( सन् ई. से ६३८ वर्ष पूर्व ) आता है, और कार्तिक वदि १ बुधवार, विक्रम संवत् १२२७ व १२१३ में अर्थात् ता. २८ अक्टोबर सन् १९७० व ता.२० अक्टोवर सन् ११७६ ई. को पाता है, पेग और ब्रह्मा वाले। असर उस जगह (गया) पर आये, और वहां मन्दिर भी बनवाये हैं, तो पूर्ण सम्भव है, कि इस लखका संवत् ईसवी सन् ११७६ के मुताबिक होगा, अतएव उस लेख में निर्वाण संवत् सन् ई० से ६३८ वर्ष पहिले का है ( इण्डियन एण्टिक्करो, जिवद १०, पृष्ठ ३४७). (१) बौम्बे गेज टियर (जिन्द १६, पृष्ठ ६१३). (२) कापस इन्स्क्रिपशनम् इण्डिकेरम् (जिन्द १, पृष्ठ ८८-१०१, १३२, १३४). (३) एशियाटिक सोसाइटी बङ्गालके प्रोमोडिंग्ज (शुलाई सन् १८७७ ई०, पृष्ठ १६६-६७). (४) इस्क्रिप्शन्स आफ. पियदसि ( प्रसिद्ध विद्वान् ई० सेना के फ्रेंच पुस्तकका अंग्रेजी अनुवाद, जी. ए. मोयस न साहिबका किया हुआ, जिल्द २, पृष्ठ ८६).
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(२५) लोगोंका पराजय कर अपने नामका संवत् चलाया. इसका प्रारंभ कलि. शुगके (४९९५-१९५१ % )३०४४ वर्ष व्यतीत होने पर मानाजाता है, जिससे इस संवत्का पहिला वर्ष कलियुग संवत् ३०४५ के मुताबिक होता है. विक्रम संवत्की आठवीं शताब्दी तक के किसी पुस्तक, लेख, या दानपत्रमें विक्रमका नाम संवत्के साथ लिखा हुआ (विक्रम संवत् ) अबतक नहीं पाया गया (१). धौलपुरसे मिले हुए चौहान चंडमहासेनके लेख में (२) पहिले पहिल विक्रम संवत् ८९८ लिखा हुआ मिला है, तत्पश्चात् इस संवत्की प्रवृत्ति दिनोंदिन अधिक होती रही...
कुमारगुप्त पहिले के समयके मंदसोरके सूर्यमंदिरके लेखमें संवत् इस तरह लिखा है:
मालवानां गणस्थित्या यात(ते)शतचतुष्टये त्रिनवत्यधिके ब्दानाम्र (मृतो सेव्य घनस्व(स्त)ने ॥ सहस्यमास शुक्लस्य प्रशस्ते हि लयोदशे ( ३ ). ___ "मालवगण( मालवजाति) की स्थितिसे गत वर्ष ४९३ सहस्य (पौष) शुक्ला १३".
मन्दसोर ही से मिले हुए यशोधर्मके लेखमें भी संवत् इसी तरह दिया है:
पञ्चसु शतेषु शरदा यातेष्वेकान्नवतिसहितेषु । मालवगणस्थितिवशात्काल ज्ञानाय लिखितेषु (४).
" मालवगणकी स्थितिसे गत वर्ष ५८९".
(१) डाक्टर बुलरने काठियावाड़से मिला हुआ एक दानपत्र इण्डियन एण्टिकेरीको जिल्द १२ वौं के पृष्ठ १५५ में छपवाया है, जिसमें विक्रम संवत् ७९४ कार्तिक कृष्णा अमावास्या, आदित्यवार, ज्येष्ठा नक्षत्र, और सूर्य ग्रहण लिखा है, परन्तु उक्त तिथिको रविवार, ज्य ठा नक्षत्र और सूर्य ग्रहण गणितसे सावित न होने, और उसकी लिपि इतनो पुरानो न होनेके कारण प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता फ्लोट साहिब ( इण्डियन एण्टिकरी, जिद १६, पृष्ठ १८७-८८), और डाक्टर कोलहानने (इण्डियन एण्टि केरो, जिल्द १५, पृष्ठ ३७०-७१) उस दानपत्रको कृत्रिम (नाली) ठहराया है.
(२) वसनव [अ]ष्टी वर्षा गतस्य कालस्य विक्रमाव्यस्य (1) वैशाखस्य सिताया (यां) रविवारयुतहितीयायां । चन्द्र रोहिणिसंयुक्त ( युक्ते ) लम सिंघ (६)स्य भोभने योगे ( इण्डियन एण्टिक्केरौ, जिल्द १८, पृष्ठ ३५).
(२) कार्पस इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिीरम् ( जिल्द ३, पृष्ठ ८३ ). (४)
" (जिल्द ३, पृष्ठ १५४ ).
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इन दोनों लेखोंमें, जो संवत् है, वह मालवजाति (१) की स्थिति होनेपर चला हुआ प्रतीत होता है, न कि विक्रमके समयसे.
इलाहाबाद के स्तंभपरके राजा समुद्रगुप्तके लेखसे पाया जाता है, कि उक्त राजाने मालव, यौद्धेय आदि बहुतसी जातियोंको आधीन की थी (२). जयपुर राज्य में नागर ( कर्कोटक नगर ) से मिले हुए कितनेएक सिक्कोंपर "मालवानां जय:" पढ़ा जाता है, और उनके अक्षरोंकी आकृतिसे जेनरल कनिंगहामने उनका काल ई० सन् से पूर्व २५० वर्षसे ई० सन् २५० के बीचका अनुमान किया है (३).
मंदसोरके दोनों लेख और इन सिक्कोंसे यह अनुमान होता है, कि मालव जातिके लोगोंने अवन्ती देश विजय कर उसकी यादगारमें अपने नामका "मालव संवत्", और उपरोक्त सिक्के चलाये होंगे. इन्हीं लोगोंके बसनेपर अवन्ती देश "मालव" ( मालवा ) कहलाया है, क्योंकि देशों के नाम बहुधा उनमें बसने वाली जातियों के नामसे प्रसिद्ध होते हैं, जैसे कि गुर्जर (गूजर ) जातिसे “गुर्जरदेश" (गुजरात) आदि,
कुमारगुप्त पहिलेके लेख [गुप्त] संवत् ९६, ९८, ११३, और १२९ के मिले हैं (४), और उसके दो सिक्कोंपर [गुप्त] संवत् १२९ और १३० के अंकोंका होना जेनरल कनिंगहाम प्रकट करते हैं (५). गुप्त संवत् १ उत्तरी (चैत्रादि) विक्रम संवत् ३७७ के मुताबिक होनेसे उक्त राजाका राज्यकाल विक्रमी संवत् ४७२ से ५०६ तकका आता है, और मंदसोरके सूर्यमन्दिरके लेखसे इस राजाका मालव संवत् ४९३ में विद्यमान होना पाया जाता है. इससे स्पष्ट है, कि मालव संवत् और विक्रम संवत् एकही है, जैसे कि गुप्त और वल्लभी संवत्. आठवीं शताब्दी तक के लेखों में संवत्के साथ विक्रमका नाम न होने, और उसके पूर्व मालव
(१) "मालवानां गणस्थित्या" और "मालवगणस्थितिवमात् " में "गण" शब्द का अर्थ " जाति" है, जैसे कि यौवयोंके सिक्कोंपरके लेख ( आर्कि यालाजिकल सर्वे आफ इण्डियारिपोर्ट, जिल्द १४, पृष्ठ १४१) “मय यौद्वेषगणस्य” में है.
(२) कार्पस इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम् (जिल्ट ३, पृष्ठ ८). (१) आर्कि यालाजिकल सबै आफ इण्डिया-रिपोर्ट (दि.ल्द ६, पृष्ठ १८२),
(४) कार्पस इन्स्क्रिपशनम् इण्डि कैरम (जिल्द ३, पृष्ठ ४०-४७, पट । हो, ५, ६ ए. और एपिग्राफि या दूहिका, जिद २, पृष्ठ २१०, नम्बर ३८).
(५) आकि यालाजिकल सर्वे अाप इण्डिया रिपोर्ट ( जिल्द , पृष्ठ २६, नेट ५, नम्बर ६, ७).
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संवत् लिखे जानेसे प्रतीत होता है, कि यह संवत् प्रारंभमें मालव लोगोंने चलाया था, परन्तु पीछेसे उसके साथ विक्रमका नाम किसी कारणसे मुड़कर विक्रम संवत् कहलाने लग गया (१), जैसे कि गुप्त राजाओंने अपने नामसे गुप्त संवत् चलाया, परन्तु उनका राज्य अस्त होकर वल्लभीके राज्यका उदय होनेपर वही संवत् "वल्लभी संवत्" कहलाने लग गया.
यदि यह संवत् विक्रम राजाने ही चलाया होता, तो विक्रमका नाम अन्य स्थानोंके लेखों में नहीं रहते भी मालवाके लेखों में तो प्रारंभसे ही मिलना चाहिये था.
जो वराहमिहरके समयमें यह संवत् सर्वत्र प्रचलित होता, और आज विक्रमको जैसा प्रतापी, यशस्वी, और परदुःख भंजन मानते हैं, वैसाही उस समयके लोग भी मानते होते, तो संभव नहीं, कि वराहमिहर अवन्ती (२) देश (मालवा ) काही निवासी होकर ऐसे प्रतापी स्वदेशी राजाका संवत् छोड़, शक जातिके विदेशी राजाका संवत् (शकसंघत् ) अपने पुस्तकों में दर्ज करे. वराहमिहरके ज्योतिषके पुस्तकोंमें कलियुग संवत्के स्थानपर शक संवत् लिखनेका कारण यह है, कि उनके समय में मालव (विक्रम ) संवत् केवल मालवामें, और कहीं कहीं राजपूताना व मध्यहिन्द में लिखा जाता था, और शक संवत् प्रायः सारे भारतवर्ष में प्रचलित था, इसलिये उनको अपने पुस्तकों में सर्वदेशी संवत् ही लिखना पड़ा.
गुप्तवंशी राजा चन्द्रगुप्त दूसरेके कितनेएक सिक्कोंपर उसके नामके
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(१) ग्यारिसपुर से मिले हुए सं० ८३६ के लेख में “मालवकालाच्छरदां षटपसंयुतेव्यतीतेषु । नवस शतेषु” लिखा रहने से (आकि यालाजिकल सर्व आफ इंडिया-रिपोर्ट, जिल्द १०, पृष्ठ ३३. प्लेट ११) पाया जाता है, कि “ विक्रम संवत् ” लिखने का प्रचार होने बाद भी कहीं कहीं यह संवत् अपने असली नाम (मालव सवत् ) से लिखा जाता था. कोटा नगरसे उत्तर में करवा (कणवाश्रम) के शिवमन्दिरके लेख में [ संवत्सरशा तैः सपचनपत्याग लेः सप्तभि ( ७८५ )लिवेशानां मन्दिरं धूर्जटः कृतं ॥ इण्डियन एण्टिक्केरौ, जिद १८, पृष्ठ ५० ], और मैनालगढ़ (इलाके मेवाड़ ) के महलोंके उत्तरी दर्वा जेके एक संभपर खुदे हुए चौहान राजा विग्रहराजके क्रमानुयायी पृथ्वीराज दूसरे (पृथ्वीभट या पृथ्वौदेव )के समयके लेखमें [मालवेशगतवत्सर(२)पत : हादश्चषविंग ( १२२६ ) पूर्व केः ॥ एशियाटिक सोसाइटी बंगालका जर्नल जिल्द ५५, हिस्सह १, पृष्ठ १६] इस संवत्को मालदेश (मालवाके राजाका ) संवत् लिखा है,
(२) आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोध : कापित्यक सविन्धवरप्रसादः । आवंतिको मुनिमतान्यवलोक्य सम्यधोरां वराहमिहरो रुचिरां चकार (बृहज्जातक, अध्याय २८, श्लोक ९).
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( २८ )
साथ "विक्रमांक" या "विक्रमादित्य” (१), और कितने एक पर एक ओर चन्द्रगुप्तका नाम और दूसरी ओर “ श्रीविक्रमः "," अजित विक्रम : ", " सिंह विक्रमः ", " प्रवीर : ", " [वि] क्रमाजित: ", या " विक्रमादित्यः " ( २ ) लिखे रहने से स्पष्ट है, कि उसका दूसरा नाम विक्रम या विक्रमादित्य था. इससे कितने एक विद्वानों का यह अनुमान है, कि उसीके नामसे शायद मालव संवत्को विक्रम संवत् कहने लग गये होंगे ( ३ ). वास्तव में यह अनुमान ठीक भी पाया जाता है.
" ज्योतिर्विदा भरण" के कर्ताने उक्त पुस्तक के २२ वें अध्यायमें अपनेको उज्जैन के राजा विक्रमादित्यका मित्र और रघुवंश आदि तीन काव्यों का बनाने वाला कवि कालिदास प्रकट कर ( ४ ) गत कलियुग संवत् ३०६८ ( वि० संवत् २४ ) के वैशाख में उस पुस्तकका प्रारंभ, और कार्तिक में समाप्त होना लिखा ( ५ ) है, और राजा विक्रमादित्यका वृत्तांत इस तरह दिया है:
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उसकी सभा में शंकु, वररुचि, मणि, अंशुदत्त, जिष्णु, त्रिलोचनहरि, घटखर्पर, और अमरसिंह आदि कवि, तथा सत्य, वराहमिहर, श्रुतसेन, बादरायण, मणित्थ, और कुमारसिंह आदि ज्योतिषी थे ( ६ ). धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहर और वररुचि ये नव उसकी सभा में रत्न ( ७ ) गिने जाते थे. (१) रायल एमियाटिक सोसाइटीका जर्नल ( जिल्द २१, पृष्ठ १२० - २१ ). जिल्द २१, पृष्ठ १६ - ९१ ).
( २ ) (३) फर्ग्युसन साहिबका यह अनुमान था, कि विक्रमका सवत् प्रारम्भसे नहीं चला, किन्तु करके युद्ध में विक्रमादित्य अर्थात् उज्जैन के राजा हर्ष विक्रमने ई० स० ५४४ में शक लोगोंको विजय किया, तबसे विमक्र संवत् चला है, अर्थात् वि० सं० १ को ६०१ लिखा है.
( ४ ) पंक्कादिपण्डितवराः कवयस्त्वनेका ज्योतिर्विदः समभवं श्ववराहपूर्वा । श्रविक्रमार्क'नृपसंसदि मान्यबुद्धि: स्तेरप्यहं नृपसखा किल कालिदास : ( २२ । १८) काव्यश्रयं समतिकृद्रषुपूर्व ततो च्छ्रतिकर्मवाद: । ज्योतिर्विदाभरणकाल विधानशास्त्र श्रीकालिदास - कवितो हि ततो बभूव ( २२।२० ),
(५) वर्षे सिंधुरदर्शनांवर गुणे ( २०६८ )र्याते : कलौ सम्मिते माझे माधवसंज्ञि क्रियोपक्रमः। नाना कालविधान शास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरादू ग्रन्थसमाप्तिरत्र विचिता ज्योतिर्विदां प्रीतये (२२/२१ ).
( ६ ) शंकुः सुवाग्वररुचिर्मणिरंशदत्तो जिष्णुस्त्रिलोचनहरी घटखर्पराख्यः । अन्येऽपि सन्ति कवयो ऽमरसिंहपूर्वा यस्यैव विक्रमन्नृपस्य सभासदोऽमी (२२८) सत्यो वराहमिहरः श्रुतसेन - मामा श्रीबादरायणमणित्यकुमार सिरहा । श्रीविक्रमार्क नृपस सदि सति चैते श्रीकाल तंत्रकवयः परे महाया : (२२/८ ).
( ७ ) धन्वन्तरिः क्षपणको मर सिंह शंकू वेतालभट्टघटखर्पर कालिदासाः । ख्यातो वराहमिहरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्मव विक्रमस्य ( १२।१० ),
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उसके पास ३००००००० पैदल, १०००००००० सवार, २४३०० हाथी, और ४००००० नाव थीं. उसने ९५ शक राजाओंको मार अपना शक अर्थात संवत् चलाया, और रूम देशके शक राजाको पकड़ उज्जैन में लाया, परन्तु फिर उसको छोड़ दिया ( १ ) आदि.
यदि उपरोक्त वृत्तान्त सत्य हो, और वास्तव में यह पुस्तक कलियुगके ३०६८ (वि० सं० के २४) वर्ष व्यतीत होने पर बना हो, तो प्रारंभसे ही यह संवत् विक्रमने चलाया ऐसा मानना ठीक है, परन्तु इस पुस्तक पूर्वापर विरोधसे पाया जाता है, कि विक्रम संवत्के ६४० वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् किसी समय यह पुस्तक कालिदास के नामसे किसीने रचा है, क्योंकि उसमें अयनांश निकालने के लिये ऐसा नियम दिया है, कि "शफ संवत्मेंसे ४४५ घटाकर शेषमें ६० का भाग देनेसे अयनांश आते हैं (२)".
विक्रम संवत्के १३५ वर्ष व्यतीत होनेपर शक संवत् चला है, इसलिये यदि इस पुस्तक के बनने का समय गत कलि युग संवत् ३०६८ (वि. सं० २४) सत्य मानाजावे, तो इसमें शक संवत्का नाम नहीं होना चाहिये. शक संवत्में से ४४५ घटाना, और शेषमें ६० का भाग देना लिखनेसे स्पष्ट है, कि शक संवत् ४४५+६० =५०५ (वि० सं ६४०) गुज़रने बाद किसी समयपर यह पुस्तक बना है. इसी प्रकार प्रभधादि संवत्सर निकालने के नियम में भी शक संवत्का ( ३ ) उपयोग किया है.
विक्रमादित्यकी सभाके विद्वानोंके जो नाम इस पुस्तकमें दिये हैं, उनमेंसे जिष्णु और वराहमिहरका समय निश्चय होगया है. जिष्णुके
(१) यस्याष्टादशयोजनानि कटके पादातिकोटित्रयं वाहानामयुतायुतं च नवतेविताकृति. ( २४३००) हस्तिनां। नौकालक्षचतुष्टयं विजयिनी यस्य प्रयाणभवत् सोयं विक्रमभूपतिविजयते नान्यो धरित्रीतले (२२/१२). येनास्मिन्वसधातले भकगणान् सर्वा दिशः संगरे हखा पञ्जनवप्रमान् कलियुगे भाकप्रवृत्ति : कृता० (२२।१३) यो रूमदेशाधिपति के प्रवरं जौला पहोलोनयनौं महाहवे। आनीय संन्नाम्य मुमोच तं बहो स विक्रमार्क : समसद्यविक्रम : ( २२॥१७).
(२) पाक : मराम्भोधियुगानितो (४५) हृतो मानं खत (६०) रयनांयका : स्मृता : (१।१८).
(३) नगै (७) नखे : (२०) सन्निहतो हिधाशक : स खत्रिपक्रो (१४३० ) ऽक्षयमाङ्ग (६२५ ) भाजितः । गता : स तसवणको भ्रषट (६०) हृतो ऽवशेषके स्यु : प्रभवादिवत्सरा: (१।१६).
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(३०) पुत्र ब्रह्मगुप्तने शक संवत् ५५० (वि० सं० ६८५) में स्फुट ब्रह्मसिधान्त रचा (१), और वराहमिहरका मृत्यु ई० सन् ५८७ में (२) हुआ. अतएव उक्त पुस्तक में दिया हुआ उसकी रचनाका समय, और राजा विक्रमादित्य. का वृत्तान्त सत्य नहीं है, और न कविता कालिदासकी प्रतीत होती है.
इस संवत्का प्रारम्भ ( ३ ) उत्तरी हिन्दुस्तान में चैत्र शुक्ला ? से, और गुजरात व दक्षिण कार्तिक शुक्ला १ से माना जाता है, इसलिये उत्तरी (चैत्रादि ) विक्रम संवत्, दक्षिणी (कार्तिकादि) विक्रम संवत्से ७ महीने पहिले बैठता है. कहीं कहीं गुजरात व काठियावाड़में इसका प्रारम्भ आषाढ़ शुक्ला ? से, और राजपूतान हमें श्रावण कृष्णा १ (पूर्णिमान्त) से मानते हैं.
शक संवत् (शक )- इसके प्रारम्भ के विषयमें ऐसा प्रसिद्ध है, कि दक्षिणके प्रतिष्ठानपुर (पैठण ) के राजा शालिवाहनने यह संवत् चलाया. कितने एक इसका प्रारम्भ शालिवाहनके जन्म दिनसे मानते (४), ओर कितने एक कहते हैं, कि उज्जैनके राजा विक्रमादित्यने शालिवाहनपर चढ़ाई वी, परन्तु शालिवाहनने उसको हराया, और तापी नदीके दक्षिणका देश
(१) यौचापवं गतिलके श्रीव्याघ्रमुख नृप शकतृपकालात् । पञ्चाशरभंयुक्त वर्ष मते : पञ्चभि - रतोते : ॥ ब्राहा : स्टसिद्धान्त : सज्जनगणितगोलपित्मोत्ये । त्रिशण कृतो सिनद्रह्मगुप्त न ( स्फुट आर्यसिद्धान्त, अध्याय २४, पार्यो ७, ८). (२) रायल एशियाटिक सोसाइटीका नर्नल (न्युमौरीको जिल्ट १, १९४.७).
जनके ज्योतिषियोंने ज्योतिषके आचार्यों के नाम व समयको फिहरिस्त, जो डक्टर डबल्य १ इंटरको हो यो, उसमें वराहमिहरका समय शक संवत् १२७ लिखा है ( कोलब्र का मिथे लेनियस एसेज, जिल्द २, पृष्ठ ४१५ ). डाक्टर थोबोने वराहमिहरके “ पञ्चसिद्धान्तिका" बनाने का समय ई० सन्की छठी भताब्दीका मध्य नियत किया है ( पञ्चसिद्धान्तिका की पंग्रेजो भूमिका, पृष्ठ ३० ).
(३) वास्तवमें विक्रम संवत्का प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला । से, और शक संवत्का चैत्र शुल्ला १ से है, परन्तु उत्तरी हिन्दुस्तान वालोंने पौईसे विक्रम संवत्का प्रारम्भ भो पक संवत के साथ साथ रैत्र शुक्ला १ को मानलिया है. वि. स. को वौं शताब्दी मे १४ वौं सताब्दी तक राजपूताना, तुन्देलखण्ड, पश्चिमोत्तरदेश, ग्वालियर, और बिहार प्रादिके लेखों में कार्मिकादिका प्रचार वादिसे अधिक रहा पायाजाता है, पौईसे बहुधा चैत्रादिका हो प्रचार छुआ. गुजरात और दक्षिण में अबतक यह सवत् अपने अस्ली प्रारम्भ ( कार्तिक शुक्ला १) से चलाता है,
(४) केन्द्र (१४८३ ) प्रमिते वर्षे शालिवाहनजन्मत: । कृतस्तपसि मातडीःयमल जायतूद्गत : ( मुहर्त मार्तड, अलङ्कार, शोक ३),
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लेकर संधि कारनेके पश्चात् यह संवत् चलाया (१). प्रसिद्ध मुसल्मान ज्योतिषी अलबेरुनी, जो महमूद गजनवीके साथ इस देशमें आया था, वह लिखता है, कि विक्रमादित्यने शक राजाको पराजयकर यह संवत् चलाया है (२). इस प्रकार इसके प्रारंभके विषयमें भिन्न भिन्न बातें प्रसिद्ध है.
शक संवत्की ११ वीं शताब्दीतकके किसी लेख या दानपत्र में शालिवाहनका नाम नहीं पाया जाता, किन्तु"शककाल", "शक समय", "शकनृपतिसंवत्सर", "शकनृपतिराज्याभिषेकसंवत्सर", आदि शब्द इसके लिये मिलते हैं, जिनसे पाया जाता है, कि किसी शक राजाके राज्याभिषेक से या विजय आदि किसी प्रसिद्ध कारणसे यह संवत् चला है.
शालिवाहनका नाम पहिले पहिल देवगिरि (दौलताबाद ) के यादव राजा रामचन्द्र के शक संवत् ११९४ के दान पत्रमें मिला है ( ३ ). उस समयसे पहिलेके अनेक लेख और दानपत्र मिले हैं, जिनमें शक संवत्के साथ शालिवाहनका नाम न रहनेसे यह शंका उत्पन्न होती है, कि ११०० वर्षतक तो यह संवत् शक राजाके नामसे चलता रहा, और पीछेसे इसके साथ शालिवाहनका नाम केसे जुड़ गया?
शालिवाहन नामके पर्याय "शाल","साल", "हाल", "सातवाहन", "सालाहण" आदि हैं (४). सातवाहन (आंध्रभृत्य)वंशके राजा इस संवत्के प्रारम्भके पहिलेसे दक्षिणमें राज्य करते थे, जिनका वृत्तान्त वायुपुराण, मत्स्यपुराण (५), विष्णुपुगण (६), और भागवतमें (७) मिलता है, और उनके कितने एक लेख नानाघाट, कालिं, और नाशिककी गुफाओंमें तथा अन्य स्थानों से मिले हैं. ( १ ) प्रबन्धचिन्तामणि ( बाईको छपी हुई, पृष्ठ २८ और ३० का नोट ). (२) अनोखने.न इंडिया ( अरबौ किताब “ तारीख अलबेनी” का अंग्रेजो तर्जुमा, साक्टर एडवड से चूका किया हुआ, जिल्द २, पृष्ठ ६ ). (३) श्रौ मालिवाहन शके ११८४ अंगिरासंवत्सरे आश्विन शुद्ध १५ रवी ( इण्डियन एरिट - री, जिल्द १२, पृष्ठ २१४). (४) “ भालो हाले मत्स्य भेद ", " हाल : सातवाहन पार्थिवे” ( हैम अनेकार्थकोश). साखाहणम्मि हालो (देभी नाममाला, वर्ग ८, श्लोक ६६). हालो सातवाहनः (देशीनाममाला, वर्ग ८, श्लोक ६६ को टौका). शालिवाहन, भालवाहन, मालवाहण, सालवाहन, सालाहणा, सातवाहन, हालेत्य कस्यनामानि (प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ २४ का नोट). (५) मत्स्यपुराण ( अध्याय ३७३, श्लोक २-१७). (६) विष्णु पुराण ( अंग ४, अध्याय २४, श्लोक १७-२१). (७) बीमद्भागवत (वन्ध १२. अध्याय १, श्लोक २२-२८).
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(३२)
प्रतिष्ठान पुरके राजा सातवाहन (शालिवाहन ) ने “ गाथासप्तशती" नामका पुस्तक रचा है, जिसकी समाप्तिमें सातवाहनके हाल और शतकर्ण ( शातकर्णी ) आदि उपनाम होना लिखा है ( १ ). वासिष्ठी - पुत्र पुळुमायिके १९ वें वर्ष के नाशिक के लेख में ( २ ) शातकर्णी राजा के वृत्तान्तनें लिखा है, कि वह असिक, सुशक, मुळक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर, और अवन्ति देशका राजा था, उसके अधिकार में विन्ध्य, ऋक्षवत्, पारियात्र, सहा, कृष्णगिरि, मंच, श्रीस्थान, मलय, महेन्द्र, षगिरि और चकोर पर्वत थे. बहुत से राजा उसके आज्ञावर्ती थे, उसने शक, यवन, और पल्हवोंका नाशकर सातवाहन वंशकी कीर्ति पुनः स्थापन की, और खखरात ( क्षहरात ) वंशको ( ३ ) निर्मूल किया.
गाथासप्तशतीका कर्ता सातवाहन - शतकर्ण ( शातकर्णी ) और उपरोक्त लेखका गौतमीपुत्र शातकर्णी एकही राजा होना चाहिये. महा प्रतापी और शक लोगोंका नाश करनेवाला होनेसे ऐसा अनुमान होता है, कि शक संवत् के साथ जो शालिवाहनका नाम जुड़ा है, वह इसी राजाका नाम होगा, परन्तु वास्तवमें शक संवत् इस राजाने नहीं चलाया, क्योंकि गौतमीपुत्र शातकर्णी शक राजाके प्रतिनिधि नहपान ( क्षत्रप ) से राज्य छीनने के पश्चात् प्रतापी राजा हुआ था. नहपानके जमाई उषवदात ( ऋषभदत्त ) और प्रधान अय्यमके लेखोंसे पायाजाता है, कि शक संवत् ४६ तक राजा नहपान विद्यमान था, तो स्पष्ट है, कि शातकर्णीका प्रताप शक संवत् ४६ से कुछ पीछे बढ़ा है. इसलिये शातकर्णी शक संवत्का प्रारम्भ करने वाला नहीं हो सक्ता ( ४ ). इसके पीछे इसी वंश
( १ ) इति श्रोमस्कुन्तल जनपदेवर प्रतिष्ठानपत्तनाधी प्रशतकर्णोपनामक दीपिकर्णात्मनमशयवतीप्राणप्रिय 'हालाद्युपनामक श्री सातवाहननरेन्द्रनिर्मिता विविधान्योक्तिमय प्राज्ञगौगुम्फिता चिरप्रधाना काव्योत्तमा सप्तशत्य ७०० वसानमगात् ( प्रोफेसर पीटर्स मका ई० सन् १८८४-८६ का रिपोर्ट, पृष्ठ ३४० ),
(२) आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ उवेटनं दूडिया ( जिल्द ४, पृष्ठ १०८, ८)
22
(३) नहपान के जमाई उषवदात ( ऋषभदस्त ), पुत्री दक्षमित्रा, और प्रधान अय्यम के लेखोंमें नहपानको “ चहरात चत्रप " लिखा है, गौतमीपुत्र शातकर्णीको “ खखरात ( चहरात ) वंशका निर्मूल करने वाला लिखनेसे पायाजाता है, कि उसने नहपानको वंशका नाश कर उसका राज्य कौन लिया था.
( ४ ) प्रसिद्ध भूगोल वेत्ता टॉलेमीने ई० स० १५१ में भूगोलका पुस्तक लिखा था, जिसमें पैठण राजाका नाम श्रीपुच्छुमाथि ( Siro polemios ) लिखा है, जो गौतमीपुत्र शातकर्णीक क्रमानुयायी था. इससे पुळुमाथिका ई० स० १५९ ( प्र० स० ०३ ) के पहिले से राज्यकरना पायाजाता है.
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(३३)
के राजाओं के लेखों में शक संवत् न होने, किन्तु अपना अपना राज्याभिषेक काल दिये जानेसे यह पाया जाता है, कि शक संवत् इस वंशके किसी राजाका चलाया हुआ नहीं है, और शालिवाहनका नाम इस संवत् के साथ पीछे से जुड़ गया है.
शक राजा कनिष्क के [शक] संवत् ५ से २८ (१) तक के, उसके क्रमानुयायी हुविष्क के ३३ से ६५ तकके, और वासुदेवके ८० से ९८ तक के लेख मिलने से कितनेएक विद्वानोंका यह अनुमान है, कि शक राजा कनिष्कने यह संवत् चलाया होगा.
पंडित भगवानलाल इन्द्रजीने क्षत्रपोंके समस्त लेख और सिक्कोंपर [शक] संवत् होनेसे यह अन्तिम अनुमान किया है, कि " नहपान " ने शातकर्णीको विजयकर उसकी यादगार में अपने स्वामी शक राजा के नामसे यह संवत् चलाया (१) हो ऐसा संभव है.
वास्तव में यह संवत् शक जातिके किसी विदेशी राजाका चलाया हुआ है, चाहे वह कनिष्क हो या कोई अन्य इस संवत्का प्रचार भारतवर्ष में सब संवतों से अधिक रहा है, और इसका प्रारंभ सर्वत्र चैत शुक्ला १ से माना जाता है. यह संवत् कलियुग के ( ४९९५- १८१६ = ) ३१७९ (विक्रम संवत् के १३५ ) वर्ष व्यतीत होनेपर प्रारंभ हुआ है, इसलिये इसका पहिला वर्ष कलियुग सं० ३१८० ( वि० सं० १३६ ) के मुताबिक हैं. जैसे उत्तरी हिन्दुस्तान में विक्रम संवत् लिखा जाता है, वैसे ही यह संवत् दक्षिण में लिखा जाता है, और जन्मपत, पंचांग आदिमें विक्रम संवत् के साथ भारतवर्ष में सर्वत्र लिखा जाता है.
इसका
कलचुरि या चेदि संवत् - यह संवत् किस राजाने चलाया, कुछ भी पता नहीं लग सक्ता, किन्तु " कलचुरि संवत् " लिखा हुआ मिलने, और कलचुरि (हैहय ) वंश के राजाओंके लेखों में बहुधा यही संवत् होनेसे ऐसा अनुमान होता है, कि कलचुरि वंशके किसी राजाने यह संवत् चलाया होगा. इस संवत् के साथ दूसरा कोई संवत् लिखा हुआ आजतक किसी लेख या दानपत्रमें नहीं मिला, कि जिससे इसके प्रारंभका सुगमता से निश्चय होसके.
चेदि देश के कलचुरि राजा गयकर्णदेवके लेख में चेदि संवत् ९०२
•
(१) रायल एशियाटिक सोसाइटीका ई० स० १८८० का जर्नल ( पष्ठ ६४२ )
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है (१), और उसके पुत्र नरसिंहदेवके समयके दो लेख [चेदि] संवत् ९०७ और ९०९ के (२), और एक लेख [विक्रम संवत् १२१६ का ( ३)मिलनेसे स्पष्ट है, कि विक्रमी संवत् १२१६ चेदि संवत् ९०९ के निकट होना चाहिये. इससे चेदि संवत् का प्रारंभ विक्रम संवत् (१२१६-९०९% )३०७ के आस पास में आता है.
प्रथम जेनरल कनिंगहामने ई० स० १८७९ में इस संवत्का पहिला वर्ष ई० स० २५० में होना निश्चय किया था (४), परन्तु डॉक्टर कीलहार्नने बहुतसे लेख और दानपत्रोंके महीने, तिथि, और वार आदिको गणितसे जांचकर ईसवी सन् २४९ ता० २६ अगस्ट, अर्थात् विक्रम सं० ३०६ आश्विन शुक्ला १ से इस संवत्का प्रारम्भ होना निश्चय किया है (५). इस संवत्के महीने पूर्णिमान्त हैं.
मध्यहिन्दके कलचुरि राजाओंके सिवा गुजरातके चालुक्य (६) और गुर्जर राजाओंके कितनेएक दानपत्रोंमें यह संवत् दर्ज है.
कितने एक विद्वानोंका यह भी अनुमान है, कि कूटक राजाओंके दानपत्रों में जो " कूटक संवत्" लिखा है वही यह संवत् है (७).
गुप्त या बल्लभी संवत्-गुप्त संवत् गुप्तवंशके राजा चन्द्रगुप्त पहिलेका चलाया हुआ प्रतीत होता है. गुप्तों के बाद बल्लभीके राजाओंने यह संवत् जारी रक्खा, जिससे काठियावाड़में पीछेसे यही संवत् "वल्लभी
(१) इण्डियन एण्टिक्करौ (जिल्द १८, पृष्ठ २११), (२) एपिग्राफिया इण्डिका (जिल्द २, पृष्ठ १-११) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्ट १८, पृष्ठ २११-१३). (३) इण्डियन एगिट केरौ (जिद १८, पृष्ठ २१३-१४). ( ४ ) आक्रियालाजिकल सर्व आफ इण्डिया-रिपोर्ट ( जिल्द ८, पृष्ठ १११-१२ ). इण्डि-- यन ईराज ( पृष्ठ ३०).
(५) इण्डिरान एण्टिक्के रो ( जिल्द १०, पृष्ठ २१५,२२१). एपिग्राफिया इण्डिका ( जिन्द २, पृष्ठ २८.).
(१) दक्षिणके चालुक्य राजा पुलिकेभी पहिले के पुत्र कौति वर्मा पहिले से निकली हुई गुजरात की शाखाके राजा,
(७) कलचुरि संवत् का प्रचार राजपूतानामें भी होना चाहिये, क्योंकि जोधपुर राज्यके इतिहास कार्यालय में " दधिमतो माता" के मन्दिरका संवत् २८३ श्रावण द० १३ का लेख रक्खा हुपा है, जिसमें कौनसा संवत् है यह नहीं लिखा, परन्तु अक्षरोको आकृतिपरसे अनुमान होता है, कि उस लेख में “ कलचुरी संवत् ” होर .
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संवत्" कहलाने लगा (१). मुसल्मान ज्योतिषी अलबेरुनीने लिखा है, कि " वल्लभी संवत् शक संवत्से २४१ वर्ष पीछे शुरू हुआ है. शक संवत् से ६ का धन और ५ का वर्ग ( २१६+२५ % २४१ ) घटा देते हैं, तो शेष वल्लभी संवत् रहता है. गुप्त संवत्के लिये कहा जाता है, कि गुप्त लोग दुष्ट और पराक्रमी थे, और उनके नष्ट होने बाद भी लोग उनका संवत् लिखते रहे. गुप्त संवत् भी शक संवत्से २४१ वर्ष पीछे शुरू हुआ है. श्रीहर्ष संवत् १४८८, विक्रम संवत् १०८८, शक संवत् ९५३, और वल्लभी तथा गुप्त संवत् ७१२ ये सब परस्पर मुताबिक हैं" (२).
इससे गुप्त संवत् और विक्रम संवत्का अन्तर (१०८८-७१२=) ३७६, और इसका पहिला वर्ष विक्रम संवत् ३७७, और शक संवत् २४२ के मुताबिक होता है.
गुजरातके चौलुक्य राजा अर्जुनदेवके समयके वेरावल के एक लेखमें हिजरी सन् ६६२, विक्रम संवत् १३२०, वल्लभी संवत् ९४५, सिंह संवत् १५१ आषाढ़ कृष्णा १३ रविवार लिखा है (३). इस लेखके अनुसार वल्लभी संवत् और विक्रमी संवत्का अन्तर (१३२०-९४५%) ३७५ आता है, परन्तु यह लेख काठियावाड़का है, इसलिये इसमें विक्रमी संवत् कार्तिकादि होना चाहिये नकि चैतादि. इस लेखमें हिजरी सन् ६६२ लिखा है, जो विक्रम संवत् १३२० मृगशिर शुक्ला २ को प्रारम्भ हुआ, और वि० सं० १३२१ कार्तिक शुक्ला १ को समाप्त हुआ था. इसलिये हिजरी सन् ६६२ में, जो आषाढ़ मास आया वह चैत्रादि विक्रम संवत् १३२१ का, और कार्तिकादि १३२० का था. इसलिये चैत्रादि विक्रम संवत् और गुप्त या वल्लभी संवत्का अन्तर सर्वदा ३७६ वर्षका, और कार्तिकादि विक्रम संवत् और गुप्त या वल्लभी संवत्का अन्तर चैत्र शुक्ला १ से आश्विन कृष्णा अमावास्या ( अमान्त ) तक ३७५ वर्षका, और कार्तिक
(१) वल्लभी के राजाओंने कोई नवीन संवत् नहौं चलाया, किन्तु गुप्त सवत्को ही लिखते रहे होंगे, क्योंकि इस वका स्थापन करने वाला सेनापति भटार्क था, जिसके तीसरे पुत्र अवसेन पहिलेके दानपत्र में [वसभी संवत् २०७ (इण्डियन एण्टिकरौ जिल्द ५, पृष्ठ २०४-७) होनसे स्पष्ट है, कि वसभी संवत् वल्लभीके राजाओंने नहीं चलाया, किन्तु पहिले से चला आता हुआ कोई संवत् है, (२) अलबरुनौज इण्डिया-मूल अरबी किताब (प्रकरण ४८, पृष्ठ २०५-६), (३) रसूलमहमदसवत् ६६२ तथा श्रीनृप[वि] क्रम में १३२० तथा श्रीमहलभौस १४५ तथा श्रीसि हस १५१ वर्ष आषाढ वदि १३ रवावद्य ह. ( इण्डियन एण्टिक्केरी जिल्द ११, पृष्ठ २४२).
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शुक्ला १ से फाल्गुन कृष्णा अमावास्या ( अमान्त ) तक ३७६ वर्षका रहता है (१).
इस संवत्का प्रारम्भ चैत्र शुक्ला १ से, (२) और महीने पूर्णिमान्त हैं.
प्राचीन समयमें इस संवत्का प्रचार नेपालसे काठियावाड़ तक रहा था.
श्रीहर्ष संवत्- यह संवत् थाणेश्वरके राजा श्रीहर्ष ( हर्षवर्धन या हर्षदेव ) ने चलाया है. अलबेरुनीने लिखा है, कि "मैंने कश्मीरके एक पंचाङ्ग में पढ़ा था, कि हर्षवर्धन विक्रमादित्यसे ६६४ वर्ष पीछे हुआ (३)".
- यदि अलबेरुनीके लिखनेका अर्थ ऐसा समझा जावे, कि विक्रम संवत् ६६४ में श्रीहर्ष संवत्का पहिला वर्ष था, तो विक्रम संवत् और श्रीहर्ष संवत्का अन्तर ६६३ (ई० स० ६०६-७) होता है.
(१) टामस साहिने गुप्त संवत् १ के मुताबिक ई० स० ७८-७०, जेनरज कनिंगहामने ई. स. १६७-६८, और सर लाईव व लेने ई० स० १९१-८२ होना अनुमान किया था, परन्तु ई० स० १८८४ में फ्लोट साहिबको कुमारगुप्त पहिले के समयका मालव संवत् ४५३ का लेख मिला, जिससे इन विद्वानों का अनुमान पसत्य ठहरा, क्योंकि इसो कुमारगुप्तके दूसरे लेखों में [गुप्त] संवत् ८६,८८, ११३, और १२८ दर्ज हैं (देखो पृष्ठ २६, नोट ४), जो मालव (विक्रम ) सवत् ४६३ के निकट होने चाहिये, परन्तु उक्त विद्वानों के अनुमानके अनुसार ऐसा नहौं होसक्ता.
(२) गुजरात वाजोंने इस सवत्का प्रारम्भ पौईसे विक्रम सबके साथ कार्तिक शुक्ला । को मानना शुरू कर दिया हो ऐसा पायाजाता है. वल्लभीके राजा धरसेन चौथ का एक दान पत्र खड़ासे मिला है, जिसमें [वमभौ] सवत् ३३० हितोय मार्गशिर शुक्ला २ लिखा है (इंण्डियन एण्टिक्केरौ जिल्द १५, पृष्ठ ३४०). वल्लभी संवत् ३३. विक्रम संवत् (३३.+३०६ =) ७०६ के मुताबिक होता है. विक्रम सवत् ७०६ में कोई अधिक मास नहीं था, परन्तु ७०५ में अधिक मास आता है, जोकि गणितकी प्रचलित रीतिके अनुसार कार्तिक, और मध्यम मानसे मार्गशीर्व होता है. इसलिये वल्लभी सवत् ( ७०५ -३७६ = ) ३२९ में मार्गशीर्ष अधिक होना चाहिये, परन्तु उक्त दानपत्र में [वल्लभी] संवत् ३३० में मार्गशीर्ष अधिक लिखा रहने से अनुमान होता है, कि गुजरात वालोंने वल्लभी संवत् ३३. के पहिले किसी समय चैत्र शुक्ला १ को वल्लभी संवत्का प्रारम्भ कर ७ महीनोंके बाद फिर कार्तिक शुक्ला १ को दूसरे वल्लभी वत्का प्रारम्भ करदिया होगा, अर्थात् एकही उत्तरी विक्रम संवत्में दो वल्लभी स'वतोंका प्रारम्भ माना होगा, जिससे वल्लभौ संवत् ३२८ के स्थान ३३० होसक्ता है, या फरफार काठियावाड़ में वल्लभी सवत् ८४५ तक नहीं हुआ था.
(३) अलवरुनौज इण्डिया-डाक्टर एडवर्ड सेच का किया हुआ अलब स्नोको अरबी किताबका अंग्रेजी भाषान्तर (जिल्द २, पृष्ठ ५),
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नेपालके राजा अंशुवर्माके लेखमें [श्रीहर्ष] संवत् ३४ प्रथम पौष शुक्ला २ लिखा है (१). कैम्ब्रिजके प्रोफेसर एडम्स और विएनाके डाक्टर श्रामने श्रीहर्ष संवत् ० % ई० स०६०६ (वि० सं० ६६३) मानकर (२) गणित किया, तो ब्रह्मसिद्धान्तके अनुसार ई० स० ६४० अर्थात् विक्रम संवत् ६९७ में पौष मास अधिक आता है (३). इससे विक्रम संवत् और श्रीहर्ष संवत्का अन्तर (६९७-३४ = ) ६६३, और इस संवत्का पहिला वर्ष विक्रम संवत् ६६४ (ई० स० ६०७-८) के मुताबिक होता है. इस संवत्का प्रचार बहुधा पश्चिमोत्तर देशमें था, और ठाकुरी वंशके राजाओंके समय में नेपालमें भी हुआ था.
अलबेरुनीने विक्रम संवत् १०८८ के मुताबिक श्रीहर्ष संवत् १४८८ होना लिखा है ( देखो पृष्ठ ३५), वह श्रीहर्ष संवत् इस संवत्से भिन्न है. उसका पता किसी लेख, दानपत्र, या पुस्तकसे आज तक नहीं लगा, केवल अलबेरुनीने ही उसका उल्लेख किया है.
गांगेय संवत्-दक्षिणसे मिले हुए गंगावंशकी पूर्वी शाखाके राजाओंके कितनेएक दानपत्र फ्लीट साहिबने इंडियन एण्टिक्केरीमें (४) छपवाये हैं, जिनमें “गांगेय संवत्" लिखा है.. यह संवत् गंगावंशके किसी राजाने चलाया होगा. इस संवत् वाले दानपत्रोंमें संवत्, मास, और दिन दिये हैं, वार किसी नहीं दिया, जिससे इस संवत्के प्रारम्भका ठीक ठीक निश्चय नहीं होसक्ता. महाराज इन्द्रवर्माके [गांगेय] संवत् १२८ पाले दानपत्रके हाल में फ्लीट साहिषने लिखा है, कि “गोदावरी जिलेसे मिले हुए राजा पृथ्विमूलके दानपत्र में (५)लिखा हुआ, युद्ध में दूसरे राजाओंके शामिल रहकर इन्द्रभहारकको खारिज करनेवाला
(१) सेसिल बण्डारस जर्नी इन नेपाल एण्ड नार्धनं इण्डिया ( पृष्ठ ७४-६).
(२) जेनरल कनिंगहामने अलबेस्नीके अनुसार श्रीहर्ष सबत् ० = ईसवी सन् ६०६ निश्चय किया है ( बुक आफ इण्डियन ईराज, पृष्ठ ६४). (३) इण्डियन एण्टिक्करौ (जिल्द १५, पृष्ट ३३८).
सूर्य सिद्धान्त के अनुसार वि. स. ११७ (पक सं०५६२) में भाद्रपद मास अधिक आता है. जेनरल कनिंगहामने भी अपने पुस्तक “बुक आफ इण्डियन ईराज" में वि. स. ६९७ में भाद्रपद अधिक लिखा है,
(४) इण्डियन एण्टिक्केरौ ( जिल्द १३, पृष्ठ ११८-२४, २७३-७६. जिल्द १४, पृष्ठ १०-१२, जिल्द १६, पृष्ठ १३१-३४. जिल्द १८, पृष्ठ १४३-१४५). - (५) बोम्बे बेच रायल एशियाटिक सोसाइटीका जर्नल (जिल्द १६, पृष्ठ ११४-२०).
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(३८) अधिराज इन्द्र, और इस दानपत्रका महाराज इन्द्रवर्मा एकही होना संभव है. यह इन्द्रभहारक उक्त नामका पूर्वी चालुक्य राजा होना चाहिये, जो जयसिंह पहिले (शक सं० ५४९ से ५७९ या ५८२ तक ) का छोटा भाई, और विष्णुवर्द्धन दूसरे ( शक सं० ५७९ से ५८६, या शक सं० ५८२ से ५९१ तक ) का पिता था" (१). यदि क्लीट साहिबका उपरोक्त अनुमान सत्य हो, तो इन्द्रवर्माका शक संवत् ५८० के आस पास विद्यमान होना, उसके दानपत्रका गांगेय संवत् १२८ शक संवत् ५८० से कुछ पहिले या पीछे आना, और गांगेय संवत्का प्रारम्भ (५८०-१२८ = ४५२) शक संवत्की पांचवी शताब्दी में होना सम्भव है.
नेवार संवत् ( नेपाल संवत् )-नेपालकी वंशावलीमें लिखा है, कि "दूसरे ठाकुरी वंशके राजा अभयमल्लके पुत्र जयदेवमल्लने नेवारी संवत्' चलाया, जिसका प्रारम्भ ई० स० ८८० से है. जयदेवमल्ल कान्तिपुर और ललितपहनका राजा था, और उसके छोटे भाई आनन्दमल्लने भक्तपुर या भाटगांव तथा वेणिपुर, पनौती, नाला, धोमखेल, खडपु, चौकट,
और सांगा नामके ७ शहर बसाकर भाटगांवमें निवास किया. इन दोनों भाईयोंके राज्य में कर्णाटक वंशको स्थापन करनेवाले नान्यदेवने दक्षिणसे आकर नेपाल संवत् ९ या शक संवत् ८११ श्रावण शुदि ७ को समग्र देश ( नेपाल ) विजयकर दोनों मल्लों (जयदेवमल्ल और आनन्दमल्ल) को तिरहुतकी ओर निकाल दिये (२)".
ऊपरके वृतान्तसे पाया जाता है, कि नेपाल संवत् ९ शक संवत् ८११ में था, जिससे शक संवत् और नेपाल संवत्का अन्तर (८११-९% ) ८०२, और विक्रम संवत् व नेपाल संवत्का (८०२+१३५ = ) ९३७ आता है. उसी वंशावलीमें फिर आगे लिखा है, कि सूर्यवंशी हरिसिंहदेवने शक संवत् १२४५ या नेपाल संवत् ४४४ में नेपालदेश विजय किया (३).
इससे शक संवत् और नेपाल संवत्का अन्तर (१२४५-४४४ = ) ८०१, और विक्रम संवत् व नेपाल संवत्का (८०१+१३५ %3 ) ९३६ आता है.
प्रिन्सेप साहिबने नेपालके रेजिडेन्सी सर्जन डाक्टर बामलेसे मिले. हुए वृतान्तके अनुसार लिखा है, कि नेवार संवत् अक्टोबर ( कार्तिक )
(१) इण्डियन एण्टिक्केरी ( जिल्द १३, पृष्ठ १२० ). (२) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १३, पृष्ठ ४१४). (३) प्रिन्सेस एण्टिविटीज--युसफुल टेबल्स (जिल्द २, पृष्ठ १६६).
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(३९)
में शुरू होता है, और इसका ९५१ वां वर्ष . ई० स० १८३१ में समाप्त होता है ( १ ). इससे ई० स० और नेवार संवत्का अन्तर (१८३१ - ९५१ = ) ८८० आता है.
डॉक्टर कीलहार्नने नेपालके लेख और पुस्तकों में इस संवत् के साथ दिये हुए मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र आदिको गणित से जांचकर . ई० स०८७९ ता० २० अक्टोबर अर्थात् विक्रम सं ९३६ कार्तिक शुक्ला १ को इस संवत् का पहिला दिन अर्थात् प्रारम्भ होना निश्चय किया है ( २ ) इस संवत् के महिने अमान्त हैं ( ३ ).
66
चालुक्यविक्रम संवत् - दक्षिणके पश्चिमी ( १ ) चालुक्य राजा विक्रमादित्य छठे ( त्रिभुवनमल्ल ) ने शक संवत्की एवज़ अपने नामसे विक्रम संवत् चलाया, जो " चालुक्यविक्रमकाल " या चालुक्य विक्रमवर्ष ', नामसे प्रसिद्ध था. इसका प्रारम्भ विक्रमादित्य छठेके राज्याभिषेकसंवत्से माना जाता है. शक संवत् ९९७ में सोमेश्वर दूसरे का देहान्त होनेपर उसका छोटा भाई विक्रमादित्य छठा राजा हुआ था. येवूरके एक लेख में “ चालुक्यविक्रम वर्ष दूसरा पिंगल संवत्सर श्रावण शुक्ला १५ रविवार चन्द्रग्रहण " लिखा है ( ४ ). बार्हस्पत्य मानका पिंगल संवत्सर दक्षिणकी गणना के अनुसार ( ५ ) शक संवत् ९९९ में था.
१ ) इण्डियन एण्टिक्क रौ ( जिल्द १०, पृष्ठ २४६ ),
( २ ) नेपालको वंशावली में नेवार संवत् राजा जयदेवमल्लने चलाया लिखा है, परन्तु इस का प्रारम्भ दक्षिणी विक्रम संवत्को नांई कर्तिक शुक्ला १ से, और इसके महीने भी दक्षिण के अनुसार अमान्त होनेके कारण ऐसा अनुमान होता है, कि यह संवत् दक्षिण से आनेवाले नान्यदेवने अपने विजयको यादगार में चलाया होगा.
(३) दक्षिणके चालुक्य राजा कौर्ति वर्माके तीन पुत्र थे- पुलिकेभी, विष्णुवर्धन, और जयसिंह, कौर्ति वर्मा के देहान्त समय ये तीनों कम उम्र होने के कारण इनका पितृव्य मंगलौश राजा हुआ, मंगलीश अपने बड़े भाईके पुत्र, जो राज्य के पूरे हकदार थे मौजूद होनेपर भी अपने बाद अपने पुत्रको राज्य देनेका यत्न करने लगा, जिससे विरोध खड़ा होकर शक स ं० ५३२ में मंगलीश मारा गया, बाद चालुक्य राज्य के दो विभाग हुए पुलिकेशौ पश्चिमी विभागका और विष्णुवर्द्धन ( कुब्जविष्णुवर्धन ) पूर्वी विभागका राजा हुआ, उस समय से दक्षिणके चालुक्योंको पश्चिमी और पूर्वी दो शाखा हुई.
(४) इण्डियन एण्टिक रौ ( जिल्द ८, पृष्ठ २० - २१ जिल्द २२, पृष्ठ १०८ ),
(५) मध्यम मानसे वृहस्पतिके एक राशिपर रहने के समयको बार्हस्पत्य संवत्सर कहते हैं (बृहस्पतेर्मध्यमरा भिभोगात्स'वत्सर' सांहितिका वदन्ति - सिद्धान्त शिरोमणि ११३० ), बर्हस्पत्य स वत्सर ३६१ दिन, २ घड़ी, पौर ५ पलका होता है, और सौरवर्ष ३६५ दिन, १५ घड़ी
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(४०) इसलिये चालुक्यविक्रम संवत् २ शक संवत् ९९९ के मुताबिक, और शक संवत् और इस संवत्का अन्तर ९९७ वर्षका है.
३१ पल, और ३० विपलका होता है, इसलिये बाईसत्य संवत्सर सौरवर्ष से ४ दिन, १३ घड़ी, २६ पल छोटा होता है, जिससे प्रत्येक ८५ वर्ष पूरे होने पर एक संवत्सर क्षय होजाता है. बाईसत्य मान ६० वर्षका चक्र है, जिसके नाम क्रमसे ये हैं:
१ प्रभव, २ विभव, ३ शुक्ल, ४ प्रमोद, ५ प्रजापति, १ अङ्गिरा, ७ श्रीसुख, ८ भाव, युवा, १० धाता, ११ ईश्वर, १२ बहुधान्य, १३ प्रमाथौ, १४ विक्रम, १५ वृष, १६ चित्रभानु, १७ सभानु, १८ तारण, १९ पार्थिव, २० व्यय, २१ सर्व जित्, २२ सर्व धारी, २३ विरोधी, २४ विकृति, २५ खर, २६ नन्दन, २० विषय, २८जय, २६ मन्मथ, ३० दुर्मुख, ३१ हेमलम्ब, ३२ विलम्बी, ३३ विकारी, ३४ भारी, ३५ प्लव, २६ शुभकत, ३७. शोभन, ३८ क्रोधी, ३९ विश्वावस, ४० पराभव, ४१ प्लवन, ४२ कोलक, ४३ सौम्य, ४४ साधारण. ४५ विरोधकत्, ४६ परिधावी, ४७ प्रमादी, ४८ अानन्द, ४५ राक्षस, ५० अनल, ५१ पिङ्गल, ५२ कालयुक्त, ५३ सिद्धार्थी, ५७ रौद्र, ५५ दुर्मति, ५६ ९दुभि, ५७ रुधिरोद्गारो, ५८ रहाक्षी, ५८ क्रोधन, और ६. क्षय.
- वराहमिहरने कलियुगका पहिला वर्ष विजय सवत्सर माना है, परन्तु ज्योतिषतत्वकारने प्रभव माना है. उत्तरी हिन्दुस्तान में इसका प्रारम्भ हहस्पतिके राश्यतरसे माना जाता परन्त व्यवहार में चैत्र शला १ से नया संवत्सर लिखते हैं. विक्रम व के पंचनामें परामव संवत्सर लिखा है, जो पैत्र शुक्ला १सेचैत्र कृष्णा अमावास्या तक (एक वर्ष ) माना जायेगा, परन्तु उसी पंचाङ्ग में लिखा है, कि (सष्टमानसे) विक्रम संवत् १९५१ के प्रारम्भसे ६ महीने, १६ दिन, ४५ घड़ी, और ३६ पल पूर्व पराभव संवत्सरका प्रारम्भ होगया था ( काशौके ज्योतिषप्रकाश यन्त्रालयका छपा हुआ वि० सं० १९५१ का पंचाङ्ग).
वराहमिहरके मतसे उत्तरी बाईसत्य वर्ष का नाम निकालनका नियम यह है:
इष्ट गत शक संवत्को ११ से गुणो, गुणनफलको ४ से गुण उसमें ८५८५ जोड़ दो, फिर योग; ३०५० का भाग देने से जो फल पावे उसको इष्ट शक संवत्में जोड़दो, योगमें ६० का भाग देनसे. जो शेष रहे वह प्रभवादि गत संवत्सर होगा ( गतानि वर्षाणि केन्द्र कालाइतानि रुद्रगुणधेच्चतुर्भि: । नवाट पञ्चाष्टयुतानिकृत्वा विभाजयच्छन्यगरागरामैः । फलेन युक्त शकभूपकाल सगोध्यशष्ठया............भेषाः क्रमश : समास्यु : ॥ वाराही सहिता पध्याय ८, श्लोक २०-२१).
उदाहरण- विक्रम संवत् १८५१ में बाईसत्य संवत्सर कौनसा होगा? विक्रम संवत् १९५१ = शक संवत् (१९५१-१३५ = ) १८२६ गत. १८१६४११ = १८८७६x४ = ७६८.४+६५८८ = ८८४८३:३०५० = २३२२ २३+१८१६% १८३८
६०) १८३८ (३. १८. ३८ गत सवरपर, वर्तमान ४० वां पराभव,
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कुर्तकोटिके एक लेखमें “
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दक्षिण में बार्हस्पत्य स ंवत्सर लिखा जाता है, परन्तु वहां इसका बृहस्पति की गति से कोई सम्बन्ध नहीं है. बाईस्सत्य वर्षको सौर वर्ष के बराबर मानते हैं, जिससे चय संवत्सर मानना नहीं पड़ता, और केवल प्रभवादि ६० संवत्सरोंके नामसेहो प्रयोजन रहता है, और कलियुगका पहिला वर्ष प्रमाथी संवत्सर मानकर प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला १ से क्रम पूर्वक नवीन संवत्सर लिखा जाता है,
श०
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दक्षिणी वार्हस्पत्य संवत्सर का नाम निकालनेका नियम नोचे अनुसार
दृष्ट गत शक संवत् में १२ जोड़ ६० का भाग देन् से, जो शेष रहे, वह प्रभवादि वर्तमान संवत्सर होगा; या दृष्ट गत कलियुग स ंवत् में १२ नोड़ ६० का भाग देन से, जो शेष रहे, वह प्रभवादि गत संवत्सर
उदाहरण--शक्र सौंवत् १८१६ में बार्हस्पत्य संवत्सर कौनसा होगा ? १८१६+१२= १८२८
६.) १८२८ (३
१८०
स ं० १८१६
६०) ५००० (८३
85.
२०७
१८०
H
( ४१ )
चा० वि० वर्ष ७ दुंदुभि संवत्सर पौष
२८वां जय संवत्सर वर्तमान.
कलियुग संवत् (१८१६+३१७९
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=
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२० गत संवत्सर, वर्तमान २८ वां जय संवत्सर,
( प्रमाथी प्रथम वर्ष कल्पादौ ब्रह्मणा स्मृतं । तदादि षष्ठिहृच्छाके शेषं चांद्रोत्र वरकरः ॥ व्यावहारिकस ंज्ञौयं काल : स्मृत्यादिकर्मसु । योज्य : सर्वत्र तत्रापि जेवो वा नर्मदोत्तरे - पतामह सिद्धान्त ).
उत्तरी हिन्दुस्तान के प्राचौन लेखों में बार्हस्पत्य संवत्सर लिखने का प्रचार बहुत कम था, परन्तु दक्षिण में अधिक था.
इसके अतिरिक्त एक दूसरा बार्हस्पत्य मान भौ है, जो १२ वर्षका चक्र है, जिससे सत्रों के नाम चत्रादि १२ महीनों के अनुसार हैं, परन्तु बहुधा महिनोंके नामके पहिले " लगाया जाता है, जैसे कि महाचैत्र, महावैशाख आदि.
महा
सूर्य समीप आनेसे बृहस्पति अस्त होकर सूर्य के आगे निकल जानेपर जिस नक्षत्र पर फिर उदय होता है, उस नक्षत्र के अनुसार संवत्सरका नाम नौचे अनुसार रक्खा जाता है:कृतिका या रोहिणीपर उदयहोतो महाकार्तिक; मृगशिर या आर्द्रापर महामाघ पुनर्वसु या पुष्यपर महापौष, अश्लेषा या मघापर महामाघ पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी या हस्तपर महाफाल्गुन; चित्रा या स्वातिपर महाक्षेत्र, विशाखा या अनुराधापर महावैशाख, ज्येष्ठा या मूलपर महान्येष्ठ; पूर्वाषाढा या उत्तराषाढापर महाप्राषाढ़ श्रवण या धनिष्ठापर महाश्रावण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा या उत्तराभाद्रपदापर महाभाद्रपद, और
) ४८८५+१२ = ५०००
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शुक्ला ३ रविवार उत्तरायण संक्रान्ति और व्यतीपात" लिखा है (१). दक्षिणी गणनाके अनुसार दुंदुभि संवत्सर शक संवत् १००४ में था (२), इससे भी शक संवत् और इस संवत्का अन्तर (१००४-७ = ) ९९७ आता है.
इसलिये इसका पहिला वर्ष शक संवत् ९९८ (विक्रम संवत् ११३३ = ई० स०१०७६-७७ ) के मुताबिक होता है. इसका प्रारम्भ चैत्र शुक्ला १ से है. इस संवत्का प्रचार दक्षिणमें ही रहा था.
लक्ष्मणसेन संवत्-बंगाल के सेनवंशी राजा बल्लालसेनके पुत्र लक्ष्मणसेनने यह संवत् चलाया था. इसका प्रारम्भ तिरहुतमें माघ शुक्ला ? से मानाजाता है. इसके प्रारम्भका निश्चय करने के लिये जो जो प्रमाण मिलते हैं, वे एक दूसरेके विरुद्ध हैं.
१- तिरहुतके राजा शिवसिहदेवके दानपलमें "ल० सं० ( लक्ष्मणसेन संवत् ) २९३ श्रावण सुदि ७ गुरौ" लिख अन्तमें “सन् ८०१ संवत (त् ) १४५५ शाके १३२१" लिखा है (३), जिससे यदि इसका प्रारम्भ
रेवती, अश्विनी या भरणीपर उदय हो तो महापाखयुज संवत्सर कहलाता है (नक्षत्रण सहोदयमुपगच्छति येन देवपतिमन्त्री । तस्संसं वक्तव्यं वर्षे मासक्रमेणव । वर्षाणि कार्तिकादौन्याज्ञेयाहयानुयोगीनि । क्रमशस्तिभं तु पञ्चममुपान्त्यमन्त्यं च यहर्षम्-वाराही संहिता अध्याय ८ श्लोक १-२).
इस बार्हस्पत्य मानके संवत्सर प्राचीन दानपत्र प्रादिमें बहुत कम मिलते हैं. परिव्राजक महाराज हस्तौके दानपत्रोंमें महाचैत्र, महावैशाख, महापाट युन, और महामाध; परिव्राजक महाराज संक्षोभके एक दानपत्र में महामाघ, और कदम्बवशी मंगेशवर्माके दानपत्र में वैशाख और पौष म'वत्सर लिख हुए मिले हैं.
(१) इण्डियन एण्टिक्केरौ (बिद ८, पृष्ठ १९.. जिल्द २२, पृष्ठ १०८). (२) जेनरल कनिगहाम्स बुक आफ इण्डियन ईराज (पृष्ठ १९३). (३) जी० ए० ग्रियर्सन साहिबने यह दानपत्र विद्यापति और उसके समकालीन पुरुषोंने हालमें छपवाया है (इण्डियन एण्टिकरौ जिद १४, पृष्ठ १८०-८१), जिसमें ल• सं० २८३ छपा है, परन्तु उसके आगे “ अब्दे लक्षमणसेनभूपतिमिते दतिय हव्यजिते (२८३)" दिया है, जिससे स्पष्ट है, कि उक्त दानपत्र में लक्षमणसेन संवत् २८३ है, न कि २८३. ऐसे ही " सन् ८०७" छपा है, वह भी ८०१ होना चाहिये, क्योंकि शक संवत् १३२१ श्रावण मदि ७ को हिजरी सन् ८०१ ता. ६ निलकाद था, शक संवत् १३२१ के मुताबिक [विक्रम] संवत् १४५५ दिया है, जो दक्षिणी विक्रम संवत् है, क्योंकि हिजरी सन् ८०१ उत्तरी विक्रम सं० १४५५ प्राखिन एका २ को प्रारम्भ, पौर १४५६ आश्विन शुक्ला १ को समाप्त हुआ, अतएव
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(४३)
माघ शुक्ला १ से मानाजावे, तो ल० से० संवत् ० = शक संवत् १०२७-२८ ( विक्रम संवत् १९६२-६३ ) आता है, जिससे संवत् १ शक संवत् १०२८-२९, विक्रम संवत् १९६३-६४ के मुताबिक़ होता है.
२- द्विजपत्रिकाके ता० १५ मार्च सन् १८९३ के अंक में लिखा है, कि "बल्लालसेन के पीछे उनके बेटे लक्ष्मणसेनने शक संवत् १०२८ में बंगाल के सिंहासन पर बैठ अपना नया शक चलाया. वह बहुत दिन तक चलता रहा, और अब सिर्फ मिथिला में कहीं कहीं लिखा जाता है". इस लेख के अनुसार वर्तमान लक्ष्मणसेन संवत् १ शक संवत् १०२८-२९ के मुताबिक होता है.
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३
. ई० स० १८७८ में डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रने लिखा है, कि तिरहुतके पंडित इसका प्रारम्भ माघ शुक्ला १ से मानते हैं, अतएव इसका प्रारम्भ ई० स० ११०६ के जनवरी ( वि० सं० १९६२, शक सं० १०२७ ) से होना चाहिये ( १ ) " मुनशी शिवनन्दन सहायने " बंगालका इतिहास " नामक पुस्तक के पृष्ठ २० में लिखा है, कि "लक्ष्मण बंगाल में नामी राजा हुआ. इसके नामका संवत् अबतक तिरहुत में प्रचलित है. माघ शुक्ल पक्ष से इसकी गणना होती है. जनवरी सन् १९०६ ई० (वि० सं० १९६२ माघ ) से यह संवत् पहिले पहिल प्रारम्भ हुआ".
इससे इस संवत्का पहिला वर्तमान वर्ष शक संवत् १०२७-२८, विक्रम संवत् १९६२-६३ के मुताबिक होता है.
४- मिथिला के पंचांगों में शक, विक्रम, और लक्ष्मणसेन संवत् तीनों लिखे जाते हैं, परन्तु उनके अनुसार शक संवत् और लक्ष्मणसेन संवत्का अन्तर एकसा नहीं आता, किन्तु लक्ष्मणसेन संवत् १ शक संवत् १०२६-२७, १०२७-२८, १०२९-३०, और १०३०-३१ के मुताबिक आता है ( २ ). ऊपर लिखे हुए प्रमाणोंसे इस संवत्का प्रारम्भ शक संवत् १०२६ से १०३१ के बीच किसी संवत् में होना चाहिये.
५- अबुल फ़ज़लने अकबरनामे में तारीख इलाही प्रचलित करने के फर्मान में लिखा है, कि " बंगदेशमें लछमनसेन के राज्यके प्रारम्भसे संवत्
हिजरी सन् ८०१ में, जो श्रावण मास आया, वह उत्तरी वि० सं० १४५६ का, और दक्षिणी वि० स ं० १४५५ का था, इससे पायाजाता है, कि वि० सं० की १५ वौं शताब्दी में बङ्गाल में विक्रम संवत् दक्षिणी गणना के अनुसार चलता रहा होगा.
(१) एशियाटिक सोसाइटी बङ्गालका जन ले ( जिल्द ४०, हिस्ता १, पृष्ठ ३८८ ), (२) बुक आफ इण्डियन ईराज ( पृष्ठ ०६-७९ ).
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(४४)
गिनाजाता है. उस समयसे आजतक ४६५ वर्ष हुए हैं. गुजरात और दक्षिण में शालिवाहनका संवत् है, जिसके इस समय १५०६, और मालवा तथा दिल्ली आदि में विक्रमादित्यका संवत् चलता है, जिसके १६४१ वर्ष व्यतीत हुए हैं" ( १ ) इससे शक संवत् और इस संवत्का अन्तर कितनेएक महिनों तक ( १५०६ - ४६५ = ) १०४१ आता है.
६- डॉक्टर राजेन्द्रलाल मिलने “ स्मृतितत्वामृत " नामक हस्तलिखित पुस्तक के अन्तमें " ल० सं ५०५ । शाके १५४६ " होना लिखा है ( २ ), जिससे शक संवत् और इस संवत्का अन्तर अबुल फ़ज़लके लिखे अनुसार ही आता है.
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राजा शिवसिंहदेव के दानपत्र और पंचाङ्ग वगैरह से इस संवत्का प्रारम्भ शक संवत् १०२८ के आस पास और स्मृतितत्वामृत व अबुल फ़ज़लकें लिखे अनुसार शक संवत् १०४१ में आता है.
डॉक्टर कीलहार्नने एक लेख और पांच पुस्तकों में लक्ष्मणसेन संवत् के साथ दिये हुए महीने, पक्ष, तिथि, और वार आदिको गणितसे जांचकर देखा, तो मालूम हुआ, कि गत शक संवत् १०२८ मृगशिर शुक्ला ? को इस संवत्का पहिला दिन अर्थात् प्रारम्भ मानकर गणित कियाजावे, तो उन ६ में से ५ तिथियों के वार तो ठीक मिलते हैं (३), परन्तु गत कलियुग संवत् १०४१ कार्तिक शुक्ला १ को इस संवत्का पहिला दिन, और महीने अमान्त मानकर गणित किया, तो छओं तिथियों के वार आमिलते हैं ( ४ ) यदि अबुल फ़ज़लका लिखना सत्य मानाजावे तो, पंचांगों का संवत् बिल्कुल असत्य ठहरता है, और राजा शिवसिंहका दानपत्र जाली मानना पड़ता है, परन्तु उक्त दानपत्रको जाली ठहरानेके लिये कोई प्रमाण नहीं मिला, बरन उसकी तिथिको गणितसे जांचा जावे तो गुरुवार भी आमिलता है ( ५ ).
अबुल फ़ज़लने लक्ष्मणसेनका राज केवल ८ वर्ष माना है ( ६ ), परन्तु
""
(१) एशियाटिक सोसाइटी बङ्गालका जर्नल (जिल्द ५७, हितह १, पृष्ठ १-२ ). हिनरो सन् १२८६ का लखनऊका कृपा हुआ अकबरनामा ( जिल्द २, पृष्ठ १४ ),
(२) नोटिसीज़ आफ संस्कृत मेनुस्क्रिप्ट्स (जिल्द 4, पृष्ठ १३ )..
(३) इण्डियन एण्टिक्क रौ ( जिल्द १९, पृष्ठ ५ ). (जिल्द १८, पृष्ठ ६),
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(8)
(५) बुक आफ इण्डियन ईरान (पृष्ठ ७८), इण्डियन एण्टिकेरी (जिल्द १८, पृष्ठ ५-६ ) (६) एशियाटिक सोसाइटी बङ्गालका जर्नल (जिल्द १४, हितह १, पृष्ठ १३० ),
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लक्ष्मणसेनके मन्त्री हलायुधने अपने " ब्राह्मणसर्वस्व" नामक पुस्तक में लिखा है, कि " लक्ष्मणसेनने मेरी बाल्यावस्थामें मुझे राजपंडित, युवावस्थामें प्रधान, और वृद्धावस्थामें धर्माधिकारी बनाया" (१). हलायुधकी बाल्यावस्थासे वृद्धावस्था तक लक्ष्मणसेन राजा विद्यमान था,जिससे उसका राज्य ८ वर्ष नहीं, किन्तु अधिक वर्षों तक होना चाहिये. इससे स्पष्ट है, कि अबुलफज़ल भी लक्ष्मणसेनके इतिहाससे भलीभांति वाकिफ नहीं था. ऐसी दशामें जब तक अधिक तिथियें न मिलें, और उनको गणितसे जांचकर न देखाजावे, तब तक अबुलफज़लके लेखपर ही भरोसाकर शिवसिंहदेवका दानपत्र, जो अधुलफज़ल से बहुत पहिलेका है, जाली नहीं कहसक्ते. पंचांगोंके अनुसार इस संवत्का प्रारम्भ जो १०२६ से १०३१ के बीच आता है, सो भी उक्त दानपत्रसे करीब करीब आमिलता है.
सिंह संवत्-यह संवत् सौराष्ट्रके मंडलेश्वर सिंहने अपने नामसे प्रचलित किया था.
१- चौलुक्य राजा कुमारपालके समयके मांगरोलके एक लेखमें विक्रम संवत् १२०२ और सिंह संवत् ३२ आश्विन वदि १३ सोमवार लिखा है (२). इस लेखका विक्रम संवत् कार्तिकादि नहीं, किन्तु आषाढ़ादि है. इस लेखके अनुसार विक्रम संवत् और सिंह संवत्का अन्तर ( १२०२-३२ = ) ११७०, और सिंह संवत् १ आषाढ़ादि विक्रम संवत् ११७१ के मुताबिक होता है.
२- चौलुक्य राजा भीमदेव दूसरेके दानपत्रमें विक्रम संवत् १२६६ और सिंह संवत् ९६ मार्गशिर शुदि (३) चतुर्दशी गुरुवार लिखा
(१) बाल्ये ख्यापितराजपण्डितपद : श्वेतांशबिम्बोज्वलच्छास्त्रोसितमहामहस्तनुपदं दत्वा नवे यौवने । यस्मै यौवनशेषयोग्यमखिलझापालनारायण : श्रीमान् लक्षणसेन देवनृपतिर्धाधिकारं ददौ ॥ (ब्राह्मणसर्वस्व).
(२) श्रीमहि क्रमसंवत् १२०२ तथा श्रीसिहसवत् ३२ आश्विनवदि १३. सोमे (भावमगरप्राचीनशोधसंग्रह भाग १, पृष्ठ ७)
(३) “शुदि" या “ सुदि” और “ बदि " या "वदि" का अर्थ “शुकपच" और "रुषापच " माना जाता है, परन्तु वास्तवमें इनका पर्थ “ शकपक्षका दिन” और “कापक्षका दिन" है. ये खास शब्द नहीं है, किन्तु दो दो शब्दोंके संक्षिप्त रूप मात्र हैं. प्राचीन लेखों के देखने से प्रतीत होता है, कि पहिले बहुधा संवत्, ऋतु (पैम, वर्षा, और हेमन्त प्रत्येक चार चार माछ या ८ पक्षकी), मास या पक्ष, और दिन लिखनेका प्रचार था, परन्तु पौईसे सवत्, मास, पक्ष और दिन अर्थात् तिथि लिखने लगे.,जिनको कभी कभी पूरे शब्दों में, और कभी कभी संक्षेपसे भी लिखते थे, जैसे कि संवत्सरको " संवत् ", " " या
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है ( १). इस दानपत्रके अनुसार भी विक्रम संवत् और सिंह संवत्का अन्तर (१२६६-९६ ) ११७० आता है.
३- चौलुक्य ( वाघेला ) अर्जुनदेवके समयके वेरावलके लेख में विक्रम सवत् १३२० और सिंह संवत् १५१ आषाढ कृष्णा १३ लिखा है ( देखो पृष्ठ ३५, नोट ३). इस लेखका विक्रमी संवत् कार्तिकादि है. (देखो पृष्ठ ३५) जो चैत्रादि विक्रम संवत् १३२१ होता है. इससे विक्रम संवत् और सिंह संवत्का अन्तर ( १३२१-१५१ %3D ) १२७०, और सिंह संवत् १ विक्रम संवत् ११७१ के मुताबिक होता है. इस संवत्का प्रारम्भ आषाढ़ शुक्ला १ से है. इसका प्रचार काठियावाड़में ही रहा था.
___कोलम संवत् (कोलम्ब संवत् )-यह संवत् मलबार और कोचीनकी ओर कहीं कहीं लिखाजाता है. इसका प्रारम्भ शक संवत् ७४७ से मानाजाता है (२).
"#" ग्रीष्मको" नि" या "र", वर्षाको "व", हेमन्तको "हे", शुकपक्षको " शु", बहुल ( कृष्णा ) पक्षको “ब”, और दिवसको “दि", कभी कभी ऋतु और मासके लिये केवल ऋतुके नामका पहिला अक्षर, और पक्ष व दिन के लिये पक्ष नामका पहिला अक्षर लिखते थे, जैसे कि “ हेमन्तमासे प्रथमे " के लिये “ हे १", और “थावणबहुल पक्षदिवसे प्रयोदशे" के लिये " श्रावण ब १३" आदि. इसी प्रकार पक्ष और दिन को संक्षेपसे लिखने से शुक्लपक्ष या शुद्धके लिये "शु", और “ दिवसे " के लिये "दि” (शु दि ) लिखा जाता था. महानाम न तो बुद्द ग्याके लेख में “ सवत् २०० ६.८ ( = २६.) चैत्र शु दि ७” लिखा है. उक्त लेख में “ शु" और " दि" अक्षर स्पष्ट अलग अलग लिख हैं. भारतवर्ष में शब्दों के बीच जगह छोड़कर लिखने का बहुधा रिवाज़ न होनेके कारण वाक्यक क ल भब्द साथ लिख दिये जाते थे. ऐसे ही ये दोनों अक्षर (शु दि) भी शामिल लिख जाने लगगये, जिससे “ शदि” बना . भाषामें "श" के स्थान “स” लिखते हैं, जिससे “ शुदि” के स्थान पर “ सुदि" भी लिखने लगगये.
ऐसे ही बहुल (शा) पक्ष का “ब” और दिवसका “दि" शामिल लिख जाने से " बदि" बना है, और “ बदि" को " वदि" भी लिखते हैं ( वबयोर क्यम् ).
विक्रम सम्वत्की ११ वौं शताब्दी तक ये शब्द “ शुक्लपक्ष ” और “कृष्ण पक्ष” के स्थानपर तिथियों के पहिले लिखे हुए अबतक नहीं पाये गये ( श्रावण सदि पञ्चम्यां तियो ) परन्तु पीकेसे इस तरह भूलसे लिखने लगाये हैं, "शुदि पौर बदि" में दिवस भब्द होने के कारण फिर तिथि लगाना अशुद्ध है. “स दि ओर वदि" के बाद केवल अंक आना चाहिये.
(१) श्रीविक्रमसंवत् १२६६ वर्षे श्रीमहसवत वर्ष.........मार्गशुदि १४ गुरी ( इण्डियन एण्टिक्केरौ जिल्द २२, पृष्ठ १०८).
(२) दूसको परशुराम संवत् भी कहते हैं, और १००० वर्ष का चक्र मानते हैं. वास्तवमै यह चक्र नहीं किन्तु संवत्ही है, जिसका प्रारम्भ ई० स० ८२५ ता० २५ अगस्त से है,
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(४७) प्राचीन अङ्क.
प्राचीन लेख और दानपत्र आदिके अंकोंके देखनेसे ज्ञात होता है, कि प्राचीन और अर्वाचीन लिपियोंकी तरह अंकोंमें भी अन्तर है. यह अन्तर केवल उनकी आकृतिमें ही नहीं, किन्तु लिखनेकी रीतिमें भी पाया जाता है. वर्तमान समयमें १ से ९ तक अंक, और शून्यसे अंकविद्याका सम्पूर्ण व्यवहार चलता है, और हरएक अंक एकाई, दहाई, सैंकड़ा, हजार, लाख आदिके स्थानोंमें आसक्ता है. स्थानके अनुसार एक ही अंकसे भिन्न भिन्न संख्या प्रकट होती हैं, जैसे ११११११ में छओं एकके ही अंक हैं, परन्तु पहिलेसे १०००००, दूसरेसे १००००, तीसरेसे १०००, चौथेसे १००, पांचवेसे १०, और छठेसे १ समझा जाता है; और खाली स्थान बतलाने के लिये शून्य लिखते हैं. लेखों के सम्बन्ध में इसको नवीन क्रम कहना चाहिये, क्योंकि प्राचीन क्रम इससे भिन्न था.
प्राचीन क्रममें शून्यका व्यवहार नहीं था, और न एकही अंक एकाई, दहाई, सैंकड़ा आदि भिन्न भिन्न स्थानोंपर आसक्ता था, क्योंकि उक्त क्रममें भिन्न भिन्न स्थानों के लिये भिन्न भिन्न चिन्ह थे, अर्थात् १ से ९ सकके ९ चिन्ह, और १०, २०, ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०, १०० व १००० इनमेंसे प्रत्येकदो लिये भी एक एक चिन्ह नियत था. इस प्रकार ९ एकाईके, ९ दहाईके, १ सौ का, और १ हजारका मिल कुल २० चिन्ह या अंक थे, जिनसे ९९९९९ तककी संख्या लिखी जासक्ती थी. लाख, करोड़, अरब आदिके लिये कैसे चिन्ह थे, उनका पता आज तक नहीं लगा, क्योंकि किसी लेख, दानपत्र आदिमें लाख या उससे आगेका कोई चिन्ह नहीं मिला है.
इन अंकोंके लिखनेका क्रम १ से ९ तक तो ऐसाही था, जैसा कि आज है. १० के लिये १ और • नहीं, किन्तु १० का नियत चिन्ह मान लिखा जाता था; ऐसेही २०, ३०, ४०, ५०, ६०,७०, ८०, ९०, १०० और १००० के लिये भी अपना अपना चिन्ह मान लिखा जाता था ( देखो लिपिपत्र ४१, ४२, ४३ ). ११ से ९९ तकके लिखने का क्रम ऐसा था, कि पहिले दहाई का अंक लिख, उसके आगे एकाईका अंक रक्खा जाता था, जैसे कि १५ के लिये पहिले १० का चिन्ह लिख उसके आगे ५, ऐसेही ३५ के लिये ३० और ५, ६२ के लिये ६० और २ आदि.
२०० के लिये १०० का चिन्ह लिख उसकी दाहिनी ओर
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(४८) कुछ नीचेको झुकी एक छोटीसी लकीर लगादी जाती थी. ३०० के लिये १०० के चिन्ह के साथ ऐसीही दो लकीरें लगाते थे . ४०० से ९०० तकके लिये १०० का चिन्ह लिख उसके साथ क्रम पूर्वक ४ से ९ तकके अंक एक छोटीसी लकीरसे जोडदेते थे. १०१ से १९९ के बीचके अंकोंके लिये यह नियम था, किं १०० का अंक लिख उसके आगे दहाई और एकाईके अंक लिखे जाते थे, जैसे कि १८९ के लिये पहिले १०० का अंक लिख उसके आगे ८० और ९, और ऐसेही ३८६ के लिये ३००, ८०, और ६ लिखते थे. ऐसे अंकोंमें दहाईका कोई अंक न हो, तो सैंकडाके अंकके साथ एकाईका अंक लिखते थे, जैसे कि १०१ लिखने हो तो १०० के साथ १ का अंक लिखा जाता था. (देखो लिपिपत्र ४३ वां).
२००० के लिये १००० के चिन्ह की दाहिनी ओर उपरको छोटीसी एक सिधी लकीर , और ३००० के लिये ऐसीही दो लकीरें लगाते थे 5. ४००० से ९००० तक, और १००००, २००००, ३००००, ४००००, ५००००, ६००००,७००००, ८०००० व ९०००० के लिये १००० के चिन्हके आगे क्रमसे ४ से ९ तकके, और १०, २०, ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८० व ९० के चिन्ह छोटोसी लकीरसे जोड देते थे (देखो लिपिपत ४३ थां).
११००० के वास्ते १०००० लिख पासही १००० लिखते थे. ऐसेही २१००० के लिये २०००० और १०००, २४००० के लिये २०००० और ४०००,
और ९९००० के लिये ९०००० व ९००० लिखते थे. इसी प्रकार ११५८२ के वास्ते १००००, १०००, ५००, ८० व २; और ९९९९९ के लिये ९००००, ९०००,९००, ९० और ९ लिखते थे.
प्राचीन अंकोंके देखनेसे प्रतीत होता है, कि उनमेंसे बहुतसे वास्तवमें अक्षर हैं, जिनमें भी समयके साथ अक्षरोंकी नांई फर्क पड़ता गया है. १, २, और ३ के लिये तो क्रमसे -, = और = आडी लकीरें हैं. ६ का अंक 'फ'; ७ का 'न'; २० का 'थ'; ३० का 'ल'; ४० का 'प्स'; १०० का 'सु', 'शु' या 'श'; २०० का 'शू' या 'सू'; और १००० का 'नौ' तथा 'ध्र' अक्षर होना स्पष्टही पाया जाता है. पाकीमें से ४ का अंक "xक" (जिह्वामूलीय और 'क' ), ५ का 'तु', ८ का'', ९ का 'ओ' (जैसा कि 'ई' में लिखा जाता है), और १० का अंक 'ळ' अक्षरसे मिलता जुलता है. ८० और ९० के अंक उपध्मानीय और जिह्वामूलीयके चिन्हसे हैं. नेपालके लेखोंमें, कन्नोजके राजा महेन्द्रपाल और विनायकपालके दानपत्रोंमें, तथा महानामनुके बुद्धगयाके लेखमें अंकोंके
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६३, ४, ४ और
सु, आ, लू और घू. और स्ता.
(४९)
स्थानपर उस समयकी प्रचलित लिपिके अक्षर लिखे हैं (१ ). पण्डित भगवानलाल इन्द्रजीने नेपालमें कितनेएक ताड़पत्र और कागज़ पर लिखे - हुए ग्रन्थोंके पत्रोंपर एक किनारे अंक, और दूसरे किनारेपर उन्हीं अंकों को बतलानेवाले अक्षर लिखे हुए पाये, जो बहुधा प्राचीन अंकोंके चिन्हों से मिलते हुए हैं. इसी प्रकार अंक और अक्षर दोनों लिखे हुए ताडपत्रके बहुत से जैन पुस्तक खंभातमें शांतिनाथ के भंडारमें तथा अन्य अन्य स्थानों में भी हैं.
भिन्न भिन्न पुस्तकों में अंकोंके लिये नीचे अनुसार अक्षर व चिन्ह पाये गये हैं:
१ = ए, स्व और उ. म: ४ = एक, पर्क, कर्क, और र्ट. ६ = फ्रु, र्फ, फु, फु, ८ = ह्र, ई, ह्रा और द्र. १० = र्ल, ल, अ और सी.
३० =ल, डा और लां. ४० = त, से, प्ता और म. और णू. ६० = धु, धुं, धुं,
धू, घे, घु, घु, चु, बु और बु. थू, चू और र्त. ८० = ७, W, O, O, Q और पु.
१०० = सु, सू, अ और लु. ३०० =स्ता, सा, सु, सुं और सू.
२ = द्वि, स्ति और न. क, क, पु, के और फ्रं. पु, व्या, भ्र और कृ. ९ = ओं, र्ड, र्ड, २० = थ, था, र्थ, र्था,
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३ = त्रि, श्री और ५ = ट, र्त, र्ट, ह ७ = ग्र, मा और ग्र. जं, उं, अ और र्नु. घ, र्घ, प्व, व और ई. ५० = 6, 6, ६, ji ७०= घू, थू,
९० = 88,
= सू, सू, ४०० = स्तो
२००
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१, २ और ३ के लिये क्रमसे ए, द्वि, त्रिः स्व, स्ति, श्री और र्ड, न, मः, लिखते हैं, जो प्राचीन क्रमसे नहीं है. ए, द्वि और त्रि तो उन्हीं अंकवाची शब्दोंके पहिले अक्षर हैं, परंतु स्व, स्ति, श्री; और र्डे, न, मः, ये नवीन कल्पित है. एक ही अंक के लिये भिन्न भिन्न अक्षरोंके होनेका कारण ऐसा पाया जाता है, कि कुछ तो प्राचीन अक्षरोंके पढ़ने में, और कुछ पुस्तकोंकी नकुल करनेमें लेखकोंने गलती की है, जैसे कि १०० का चिन्ह 'सु', प्राचीन लिपिमें ' अ ' से बहुत कुछ मिलता हुआ है, जिसको गलती से ' अ ' लिखने लगगये. नैपालके लेखों में १०० का चिन्ह
(१) इण्डियम एष्टिको रौ ( जिल्द २, पृष्ठ १६३ - १८२ ) सेसिल बेण्यास जर्नी इन नेपाल एण्ड नार्धन इण्डिया ( पृष्ठ ७२-८१ ) इण्डियन एटिकरी (जिल्द १५, पृष्ठ ११२१३. १४० - ४१ ), कापूस इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द ३, पृष्ठ २७६-७० ).
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(५० )
4
अ ' लिखा है, जिसका कारण 'सु' को ' अ ' पढ़नाही है. इसी तरह २० का चिन्ह 'थ' है, जिसकी आकृति पुराणे पुस्तकोंमें 'घ' से मिलती हुई होनेसे लेखकोंने 'थ' को 'घ', फिर 'घ' को 'व', ', और 'व' को ' व ' लिखा है. इसी प्रकार ५ के चिन्ह 'तृ ' को ' हृ ' और ' ' भी लिखा है. ऐसेही दूसरे अंकोंके लिखनेमें भी गलती हुई है.
पुस्तकों में अक्षरोंके साथ कभी कभी १ से ९ तक के लिये अंक, और खाली स्थानके लिये ० भी लिखते थे, और लेखोंकी नांई संख्या सूचक अक्षर और चिन्हों को एक पंक्ति में नहीं, परन्तु बहुधा एक दूसरे के नीचे लिखते थे, जैसे कि:
१५ =
२१ =
ܨܢ
थ
स्व
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,
२२ =
थ
स्ति'
३३ = लुगु, १९ =डा, ४७ = अ, १५ =
ग्र
८६=
६= कु, ९५=६, १०० = ठ
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१२ = श्री, २७ =
'
१६=७८=
ड्रॉ
सु
सु
सु १०२=०, १२७= प्व, १३१ = ला, २
ग्र
१
स्ता
,
थ
ग्री
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सु
सु
सृ
सु
सू
१४५ = म, १५० = 6, १९६ = ६३, १९८ = १३, २०९ = ०, ३१३=
०
६
हूा
सू
स्तो
स्तो
३१४ =ल, ४६३ = घु, ४७६ = घू, आदि.
पक
,
लेख और दानपत्रों में विक्रम संवत्की छठी शताब्दी तक तो प्राचीन क्रम बराबर चलता रहा, परन्तु उस समयके पहिले दीसे ज्योतिषके पुस्तकोंमें नवीन क्रमका प्रचार होगया था, जिसकी अत्यन्त सरलता के कारण सातवीं शताब्दीसे लेख आदि में भी उस क्रमका प्रवेश होने लगा. [चेदि] संवत् ३४६ (विक्रम संवत् ६५३ ) का गुर्जर राजा दद्द तीसरेका दानपत्र, जो प्रसिद्ध प्राचीन शोधक हरिलाल हर्षदराय भुवने प्रसिद्ध किया है ( १ ), उसमें पहिले पहिल प्राचीन अंकोंके स्थान पलटे हुए पाये गये हैं, अर्थात् एकाईके अंक ३ को ३०० के स्थानपर, और ४ को ४० के स्थानपर रक्खा है. इस तरह ७ वीं शताब्दीसे नवीन क्रमका प्रवेश होकर ९ वीं शताब्दी के समाप्त होते होते प्राचीन क्रम विस्कुल लुप्त होगया, और सर्वत्र नवीन क्रमसे अंक लिखे जाने लगे. यद्यपि बौद्ध और जैन पुस्तकों में
(१) एपिग्राफिया इण्डिका ( जिल्द २, पृष्ठ १८ - २० ).
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(५१)
१२ वीं या १३ वीं शताब्दी तक प्राचीन क्रमसे अक्षर लिखनेका प्रचार रहा, तथापि उन्हीं पुस्तकों से पाया जाता है, कि उस समय केवल "मक्षिका स्थाने मक्षिका " की नांई प्राचीन पुस्तकोंके अनुसार नकल करते थे, परन्तु प्राचीन कमको सर्वथा भूले हुए थे.
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ज्योतिषके ग्रन्थोंकी पथ रचना में बहुत से अंक एकल लानेमें कठिनता रहती है, जिसको दूर करनेके निमित्त ज्योतिषियोंने कितने एक अंकों के लिये निम्नलिखित सांकेतिक शब्द नियत किये:
० = ख, गगन, आकाश, अंबर, अभ्र, वियत्, व्योम, अंतरिक्ष, नभ, शून्य, पूर्ण, रंध्र आदि.
१ = आदि, शशी, इन्दु, विधु, चन्द्र, शीतांशु, सोम, शशाक, सुधांशु, अब्ज, भू, भूमि, क्षिति, धरा, उर्वरा, गो, वसुंधरा, पृथ्वी, क्ष्मा, धरणी, वसुधा, कु, इला आदि.
२ = यम, यमल, अश्विन, नासत्य, दस्र, लोचन, नेत्र, अक्षि, दृष्टि, चक्षु, नयन, ईक्षण, पक्ष, बाहु, कर, कर्ण, कुच, ओष्ट, गुल्फ, जानु, जंघ, द्वय, द्वंद्व, युगल, युग्म, अयन आदि.
३= राम, गुण, लोक, भुवन, काल, अग्नि, वन्हि, पावक, वैश्वानर, दहन, तपन, हुताशन, ज्वलन, शिखी, कृशानु आदि.
४ = वेद, श्रुति, समुद्र, सागर, अब्धि, जलनिधि, अंबुधि, केंद्र, वर्ण, आश्रम, युग, सूर्य, कृत आदि.
५= बाण, शर, सायक, इषु, भूत, पर्व, प्राण, पांडव, अर्थ, महाभूत, तत्व, इन्द्रिय आदि.
६ = रस, अंग, ऋतु, दर्शन, राग, अरि, शास्त्र, तर्क, कारक आदि. ७ = मग, अग, भूभृत्, पर्वत, शैल, अद्रि, गिरि, ऋषि, मुनि, वार, स्वर, धातु, अश्व, तुरग, वाजि आदि.
८ = वसु, अहि, गज, नाग, दंति, दिग्गज, हस्ती, मातंग, कुंजर, द्विप, सर्प, तक्ष, सिद्धि आदि.
९ = नन्द, अंक, निधि, ग्रह, रन्ध्र, द्वार, गो आदि.
१० = अंगुलि, दिशा, आशा, दिकू, पंक्ति, ककुप् आदि.
१३ = विश्वेदेवा.
११ = रुद्र, ईश्वर, हर, ईश, भव, भर्ग, शूली, महादेव, आदि.
१२ = अर्क, राधे, सूर्य, मार्तंड, थुमणि, भानु, दिवाकर, मास, राशि,
आदि.
१४ = मनु, विद्या, इन्द्र, शक्र, लोक, आदि.
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- (५२) १५%तिथि, घस्र, दिन आदि. १६% नृप, भूप, भूपति, अष्टि आदि. १७= अत्यष्टि. १८%धृति. १९% अतिधृति.
२० = नख, कृति. २१% उत्कृति, प्रकृति. २२= कृती. २३% विकृति. २४ =जिन, अर्हत, सिद्ध आदि. २५= तत्व २७% नक्षत्र, उडु, भ आदि. ३२= दंत, रद आदि. ३३% देव, अमर, विदश, सुर आदि. ४९% तान.
इन शब्दोंसे संख्या लिखनेका क्रम ऐसा है, कि पहिले शब्दसे एकाई, दूसरेसे दहाई, तीसरेसे सैंकड़ा, चौथेसे हज़ार आदि ( अंकानां वामतो गातः), जैसे कि संवत् २९३ के लिये " अब्दे....."यनिग्रहव्यकिते" लिखा है. (देखो पृष्ट ४२, नोट ३).
___ इस प्रकार शब्दोंसे संख्या लिखनेका प्रचार पहिले पहिल ज्योतिषके पुस्तकोंमें हुआ. ग्रन्थकर्ता अपने ग्रन्थकी रचनाका समय, और लेख आदि के संवत् भी कभी कभी इसी शैलीसे लिखते थे, परन्तु सामान्य व्यवहारमें यह रीति प्रचलित नहीं थी.
प्रत्येक अंकके लिये एक एक शब्द लिखनेसे शब्दों की संख्या पदजानेके कारण प्रत्येक अंकके लिये एक एक अक्षर नियतकर एक शब्दसे दो, तीन या अधिक अंक प्रकट होसके ऐसा 'कटपयादि' नामका एक क्रम भी बनाया गया, जिसमें ९ तक अंक और शून्य के लिये निम्नलिखित अक्षर नियत है:
४
|
|
4
घ
5
|
|
|ठ |
ढ
ण
त
थ
द
ध | न
इस क्रममें भी उपरोक्त शब्द क्रमकी नाई पहिले अक्षरसे एकाई, दूसरेसे दहाई, तीसरेसे सैंकड़ा आदि प्रकट होता है. व्यंजनके साथ जुडा हुआ
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स्वर, और संयुक्ताक्षरमेंसे जिसका उच्चारण पहिले होता हो, वह निरर्थक समझा जाता है.
तिरकुरंगुडिके विष्णु मन्दिरके घंटपरके लेखमें कोलंब संवत् ६४४ के लिये " भवति" शब्द लिखा है (१), जिसमें भ%D४, व=४ और ति= ६, मितकर ६४४ निकलते हैं. ऐसेही कन्याकुमारीसे १० मीलपर सुचिन्द्रंके शिव मन्दिरके लेखमें शक संवत् १३१२ के लिये “राकालोके" लिखा है (२). ___आर्यभट्टने अपने पुस्तक आर्यसिद्धान्तमें "कटपयादि" क्रमसे अंक दिये हैं, परन्तु पहिले अक्षरसे एकाई, दूसरेसे दहाई आदि क्रम नहीं रक्खा, किन्तु जैसे वर्तमान समयमें अंक लिखेजाते हैं, उसी क्रमसे अंकोंके लिये अक्षर लिखे हैं (३), और संयुक्त व्यंजन भी दो दो अंकोंके लिये दिये हैं (४).
गांधार लिपिके अंक-- गांधार लिपि फारसीके समान दाहिनी औरसे पाई ओरको लिखी जाती है, परन्तु इसके अंक फारसी अंकोसे उलटे अर्थात् दाहिनी ओरसे घाई ओरको लिखेजाते हैं, जिसका कारण यह है, कि फारसी अंकोंकी नाई ये अंक भारतर्वषके अंकोंसे नहीं, किन्तु फिनीशियन अंकोंसे बने हैं. प्राचीन फ़िनीशियन अंकोंका क्रम ऐसा था, कि १ से ९ तकके लिये क्रम पूर्वक १ से ९ खडी लकीरें, तथा १०, २० और १०० इनमेंसे प्रत्येकके लिये एक एक चिन्ह नियत था, परन्तु पीछेसे १ और ९ के पीचके अंकोंमें कुछ परिवर्तन होकर अधिक लकीरें लिखनेकी तकलीफ़ कम करदीगई थी, जैसे कि पल्माइरावालोंने पांचकी पांच खडी लकीरें मिटाकर उनके स्थानपर एक नया चिन्ह नियत किया
(१) श्रमकोलबर्ष भवति गुणमणिगिरादित्यवर्मा वचो पालो विशाख : प्रभुरखिलकलावल्लभ : पर्यवधनात् ( इण्डियन एण्टिक्के रौ जिद २, पृष्ठ ३६० ).
(२) राकालोके शकाब्द सुरपतिसचिवे सिंहयाते तुलायामारूढे पद्मिनी शे व्यदितिदिनयुते भानुवारे च शभो: । काडातन् मार्तण्ड वा श्रियमतिविपुलां कीर्तिमायुश्च दो स्थाने मानी शुचौन्दू समक्त सभां केरलक्ष्मापतौन्द्र : ( इण्डियन एण्टिक्करौ जिल्द २, पृष्ठ ३६१).
(३ ) सप्तर्षीणां कणवझझझिला १५५८४-८ मदयसिनधा ५८१७०८ यनास्यस्य । त्रैरापि कन साध्य | गणाद्यहिल तु कल्पगतात् ( आर्य सिद्धान्त अधिकार २, आर्या ८),
( ४ ) क्लकणेः १०१५ सरधै ७२६ विभजेदगण ( आर्य सिद्धान्त अधिकार १, आर्या ४० ) ताने ६० लिसा : शोध्या योज्यास्तात्कालिका : क्रमात्स्युस्ते । स्फटभुक्तौ क्य ११ त १० ने खने ५० र भिसे २४७ ईते बिबे ( अधिकार ५।५ ).
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था, ऐसेही सीरियावालोंने दो और पांचके लिये एक एक नया चिन्ह मान लिया था (१).
शहबाज़गिरिपरकी अशोककी पहिली धर्माज्ञामें १ के लिये एक (।) और २ के वास्ते दो (॥) खडी लकीरें खुदी हैं. ऐसेही १३ वीं आज्ञामें ४ के लिये चार (m), और तीसरीमें पांचके वास्ते पांच (m) खडी लकीरें दी हैं, जिससे पाया जाता है, कि १ से ९ तक गांधार अंकोंका क्रम अशोकके समयमें फिनीशियन क्रम जैसाही था. तुरुष्क राजा
ओंके समय में केवल १, २ और ३ के लिये क्रमसे।, ॥ और ॥ खडी लकीरें लिखते थे, और ४ के लिये लिखना छूटकर x चिन्ह लिखा जाता था (२).
तुरुष्क राजाओंके समयमें और उसके बाद गांधार लिपिमें १, २, ३, ४, १०, २० और १०० के लिये एक एक चिन्ह था (देखो लिपिपत्र ४३ वां). इनसे ९९९ तक अंक लिखे जासक्त होंगे. १००० या उसके आगेके अंकोंके चिन्ह अबतक किसी लेख आदिसे ज्ञात नहीं हुए. ५ से ९ तक अंकोंके लिखनेका क्रम ऐसा था, कि ५ के लिये ४ का चिन्ह (X) लिख उसकी बाई ओर एकका चिन्ह रखते थे (ix). इसी प्रकार ६ के लिये ४ और २ (ux); ७ के लिये ४ और ३ (x); ८ के लिये ४ और ४ (XX); और ९ के लिये ४, ४, और १ (IXx) लिखते थे.
ऐसेही ११ के लिये १० और १, २६ के लिये २०, ४ और २, २८ के वास्ते २०, ४ और ४३८ के लिये २०, १०,४ और ४, ६१ के वास्ते २०, २०, २० और १; तथा ७४ के लिये २०, २०, २०, १० और ४ लिखते थे ( देखो लिपिपत्र ४३ वां).
१०० के लिये एक, और २०० के लिये दो खडी लकीरें लिख उनकी घाई ओर १०० का चिन्ह लिखते थे. ऐसेही ३०० आदिके लिये भी होना चाहिये. १२२ के लिये १००, २० व २ तथा २७४ के वास्ते २००, २०, २०, २०, १० और ४ लिखते थे ( देखो लिपिपत्र ४३).
(१) एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका-नवौंबार छपा हुआ (जिल्द १७, पृष्ठ ६२५).
(२) खालसोको तैरहवौं धर्माज्ञामें ४ के लिये x चिन्ह लिखा है ( कास इनस्क्रिपशनम् इण्डिकेरम्, जिल्द १, प्लेट ४, पक्ति ५ ), जो पाली लिपिका ४ का अंक नहौं, किन्तु गांधार लिपिका है. पाली लिपिके लेख में, गांधार लिपिका अंक भूलसे लिखा होगा, परन्तु इससे पाया जाता है, कि अशोकके समय तक के लिये चार खड़ी लकौरे', और x चिन्ह दोनों लिखने का प्रसार था, किन्तु तुरुष्क राजाओं के समय लकौरोंका लिखना बिल्कुल कू टगया था.
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(५५) लिपिपत्रोंका संक्षिप्त वृत्तान्त.
लिपिपत्र पहिला. यह लिपिपत्र गिरनार पर्वतपर खुदे हुए मौर्यवंशी राजा अशोकके लेखकी छाप (१) से तय्यार किया है. भारतवर्षमें अशोकसे पहिलेका कोई लेख अबतक नहीं मिला, इसलिये अशोकके लेखोंकी लिपिको उपलब्ध लिपियों में सबसे प्राचीन कहना चाहिये (इस लिपिके समयके लिये देखो प्रष्ठ २). अशोकके समस्त पाली लेखोंकी लिपि करीब करीब इस लिपिसी है, जिसका कारण यह है, कि ये सब लेख अशोककी राजकीय लिपिमें लिखे गये हैं, क्योंकि इसी समयके पास पासके भाघिप्रोलके स्तृपसे मिले हुए लेखों (२), और नाना घाट आदिके लेखोंकी लिपि और इस लिपिमें बहुत कुछ अन्तर है.
इसलिपिमें 'आ' का चिन्ह एक छोटीसी आडी लकीर-है, जो व्यंजनकी दाहिनी ओरको लगाई जाती है ( देखो खा, जा, मा, रा, आदि ). 'इ' का चिन्ह | समकोणसा है (कभी कभी समकोणके स्थानपर गोलाई भी करदेते हैं ), जो व्यंजनके सिरपर दाहिनी ओर को लगता है (देखो खि, टि, मि, नि आदि). 'ई' का चिन्ह ।। है, जो 'इ' के चिन्ह के समान लगता है (देखो पी, मी). 'उ' और 'क' के चिन्ह क्रमसे एक- और दो- आडी या खडी लकीरें हैं, जो व्यंजनके नीचेको लगाई जाती हैं. जिन व्यंजनोंका नीचेका हिस्सा गोल या आडी लकीर वाला होता है, उनके साथ खडी, और जिनका खडी लकीरवाला होता है, उनके साथ आडी लगाई जाती हैं (देखो तु, नु, कू, जू,). 'ए' और 'ऐ' के चिन्ह क्रमसे एक-और दो-आडी लकीरें हैं, जो व्यंजनकी बाई ओर ऊपरकी तरफ़ लगाई जाती हैं (देखो दे, थै ). 'ओ' का चिन्ह दो आडी लकीरें--हैं, जिनमें से एक व्यंजनकी दाहिनी ओरको, और दूसरी बाई ओरके सिरपर या बीचमें कभी कभी समान रेखामें, और कभी कभी ऊंचे नीचे भी लगाई जाती हैं (देखो गो, मो, नो). 'औ' का चिन्ह इस लेख में नहीं है, किन्तु उसमें 'ओ' के चिन्हसे इतनी विशेषता है, कि बाईं ओरको दो
(१) डाक्टर बजे सकी छाप-पार्कि यालाजिकल सर्वे आफ वेसन इण्डियाको रिपोर्ट आन एण्टिक्विटोज माफ काठियावाड एण्ड कच्छ (प्लेट १०-१४), (२) एपिग्राफिया इण्डिका (जिल्द २, पृष्ठ ३२३-२८),
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आडी लकीरें होती हैं, जैसे कि लिपिपत्र दूसरेके 'पौ' में हैं. अनुस्वारका चिन्ह एक बिन्दु है, जो अक्षरकी दाहिनी ओरको या ऊपर रक्खा जाता है. संयुक्त व्यंजनों में बहुधा पहिले उच्चारण होनेवाला ऊपर,
और दूसरा उसके नीचे जोडा जाता है (देखो म्हि, स्ति), परन्तु इस लेखमें पहिले उच्चारण होनेवाले 'व' को बहुधा दूसरेके नीचे लिखा है ( देखो व्य), जो लेखककी गलतीसे होगा. पीछे उच्चारण होनेवाले 'ट' और 'र' को पहिले लिखे हैं (देखोला, प्रि, स्टि, स्टा), और'र' के लिये c चिन्ह रक्खा है, जो केवल इसी लेखमें पाया जाता है. 'क' और 'ब्र' में 'र' का चिन्ह अलग नहीं लगा, किन्तु 'क' और 'ब' की आकृतिमें ही कुछ फ़र्क कर दिखा दिया है (देखो क्र, ब्रा). इस लेखकी भाषा प्राकृत होने के कारण इसमें 'ड', 'श' और 'ष' नहीं है, परन्तु खालसीके लेख में 'श' (M) पाया जाता है
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर. ___ इयं धमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राना लेखापिता इधन किंचि जीवं आरभिप्ता प्रजूहितव्यं न च समाजो कतव्यो बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानं प्रियो प्रियदसि राजा अस्ति पितुए कचा समाजा साधुमता देवानं प्रियस प्रियदसिनो राम्रो पुरा महानसम्हि देवानं प्रियसा प्रियदसिनो राम्रो अनु दिवसं बहूनि प्राणि सतसहस्रानि आरभिसु सूपाथाय से अज यदा अयंधम लिपी लिखिता ती एव प्राणा आरभदे सूपाथाय हो मोरा एको मगो सोपि मगो न धुवो एतेपि त्री प्राणा पछा न आरभिसंदे(१).
लिपिपल दूसरा. यह लिपिपत्र क्षत्रपराजा बदामाके गिरनार पर्वतपरके लेखकी (१) इयं धर्मलिपी देवानां निधण प्रियदर्शिना राज्ञा लेखिता इह न कञ्चित् जीवं आलभ्य महोतव्य न च समाज : कत्तं व्यो बहुक हि दोष समाजे पश्यति देवानां प्रिय : प्रियदर्षी राजा अस्ति पित्रा छताः समाजा । साधुमता देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राज्ञः पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्षि नो राज्ञो ऽनुदिवस' बहनि प्राणिशतसहस्राणपालभिषत सूपार्थाय नदद्य यदेयं धर्म लिपी लिखिता त्रय एव प्राणापालभ्यन्ते सूपार्थाय दोमयूरावको मृग : सो पि मगो न ध्रुव एतेपि त्रयः प्राणा : पश्चान्नालपस्यन्त।
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मतिभिः
(५७)
छापसे (२) तय्यार किया है. उक्त लेखसे पायाजाता है, कि रुद्रदामा के समय [शक] संवत् ७२ मृगशिर कृष्णा १ को महावृष्टि से सुदर्शन तालाबका बन्द टूट गया, जिसको पीछा बनवाकर रुद्रदामाने यह लेख खुदवाया था. रुद्रदामा का देहान्त शक संवत् ९० के आस पास हुआ था, जिससे इस लेखका समय शक संवत्की पहिली शताब्दी ठहरता है. इसमें अ, क, ख, ग, घ, च, ड, त, द, ब, भ, म, य, र, ल, व और ह आदिमें, तथा व्यंजनके साथ जुडे हुए स्वरोंके चिन्हों में कितनाक परिवर्तन हुआ है, जिसका कारण कुछ तो समयका अंतर, और कुछ भिन्न भिन्न वंश के राजाओं के यहांकी लेखन शैलीकी भिन्नता है. इस समय अक्षरोंके सिर बांधने लग गये थे, परन्तु सिरमें लंबाई नहीं थी. विसर्ग के दो बिन्दु अक्षरके आगे लगाये हैं, और हलंत व्यंजन पंक्ति से कुछ नीचे लिखा है. 'नौ' और 'मौ' में 'औ' का चिन्ह भिन्न ही प्रकारका है. लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
परम लक्षण व्यजनैरुपेतकान्तमूर्त्तिना स्वयमधिगत महाक्षत्रपनाम्नां नरेद्रकन्यास्वयंवरानेकमात्यप्राप्तदाम्ना महाक्षत्रपेण रुद्रदाम्ना वर्षसहत्राय गोब्राह्म थे धर्मकीर्त्तिवृद्धयर्थं च अपीडयित्वा करविष्टिप्रणय क्रियाभिः पौरजानपदं जनं स्वस्मात्कोशा [[ ] महता धनौघेन अनतिमहता च कालेन त्रिगुणदृढतरविस्तारायामं सेतुं विधाय नग "सुदर्शनतरं कारितमिति स्मिन्नर्थे महाक्षत्रपस्य मतिसचिवकर्मसचिवैरमात्यगुणसमुद्युक्तेर प्यति महत्वा द्वेदस्य (स्या) नुल्लाह विमुख
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लिपिपत तीसरा.
यह लिपिपत्र इलाहाबादके किलेके भीतर के स्तंभपर अशोक के लेखके पास खुदे हुए गुप्तवंशके राजा समुद्रगुप्तके लेखकी छापसे ( २ ) तय्यार किया है. उक्त लेख समुद्रगुप्तके मृत्युके बाद उसके पुत्र चन्द्रगुप्त दूसरेके समय में खुदा था.
चन्द्रगुप्त दूसरेका राज्य गुप्त संवत् ९५ तक रहा था, जिससे यह
( १ ) किया लाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इण्डिया रिपोर्ट ग्राम एण्टिक्विटीज़ आफ काठियावाड़ एण्ड कच्छ ( प्ल ेट १४ ).
(२) कार्पस इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द ३, प्लेट १ ),
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(५८) लेख गुप्त संवत्की पहिली शताब्दीका है. इस पत्रकी लिपि लिपिपत्र पहिलेसे अधिक मिलती है. इ, उ, ण, न, म, स और ह में आधिक परिवर्तन पायाजाता है. व्यंजनों के साथ जुडे हुए स्वरोंके चिन्ह कुछ कुछ वर्तमान चिन्होंसे हैं, और 'औ' का चिन्ह त्रिशूलसा है.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर.
महाराजश्रीगुप्तप्रपौत्रस्य महाराजश्रीघटोत्कचपौत्रस्य महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तपुत्रस्य लिच्छविदौहित्रस्य महादेव्या कुमारदेव्यामुत्फ(त्पन्नस्य महाराजाधिराजश्रीसमुद्रगुप्तस्य सर्वप्टथिवीविजयजनितोदयव्याप्तनिखिलावनितलाकीर्तिमितस्त्रिदशपतिभवनगमनावाप्तलळितमुखविचरणामाचक्षाण इव भुवो बाहुरयमुच्छ्रित : स्तम्भः यस्य । प्रदानभुजविक्क
लिपिपत्र चौधा. यह लिपिपल कुमारगुप्तके समयके मालव संवत् ४९३ और ५२९ के मन्दसोरके लेखकी छापसे तय्यार किया है (१). इसमें 'इ', 'थ', 'ब' आदि कितनेएक अक्षरों में पहिलेसे कुछ फर्क है. 'इ''ई' और 'ए' के चिन्ह, और 'ल' के साथ 'ओ' का चिन्ह पहिलेसे भिन्न प्रकारका है. उपध्मानीयका चिन्हं , और जिह्वामूलीयका इसी लिपिके 'म' अक्षरसा है. अक्षरोंके सिरोंकी लंबाई कुछ कुछ बढ़ी
लेखकी अस्ली पक्तियोंका अक्षरान्तर. ___ वत्सरशतेषु पंचसु विश(विंश)त्यधिकेषु नवसु चाब्देषु । याते वभिरम्यतपस्यमासशुक्ल द्वितीयायां ॥ स्पष्टैरशोकतरुकेतकसिंदुवारलोलातिमुक्तकलतामदयंतिकानां । पुष्पोदमैरभिनवैरधिगम्य नूनमैक्यं विज़ंभितशरे हरपूतदेहे ॥ मधुपानमुदितमधुकरकुलोपगीतनगनैकाथुशाखे । काले नवकुसुगोद्गमदंतुरकांतप्रचुररोड्रे।
लिपिपत्र पांचवा. यह लिपिपत्र मंदसोरसे मिले हुए राजा यशोधर्म (विष्णुवर्द्धन ) के (१) कार्पस दूनिस्क्रप्शनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द १, प्लेट १९ ).
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(५९)
समय मालव ( विक्रम ) संवत् ५८९ के लेखकी छापसे ( १ ) तय्यार किया है. इसमें अ, आ, औ, ण, भ और स की आकृतिमें विशेष फ़र्क है. स्वरोंके चिन्ह वर्तमान स्वरचिन्हों से मिलते जुलते हैं. हलंत व्यंजन पंक्ति से कुछ नीचे लिखा है, और उसका सिर उससे अलग रखा है (देखो न् म् ). इस लिपिका 'ओ' लिपिपत १६ के ' ओ' जैसा होना चाहिये.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
षष्ट्या सहस्रैः सगरात्मजानां खातः खतुल्यां रुचमादधानः अस्योदपानाधिपतेश्वराय यशान्तिपायात्पयसां विधाता ॥ अथ जयति जनेन्द्रः श्री शोधर्मनामा प्रमदवनमिवान्त: शल्ल (त्लु ) सैन्यं विगाह्य व्रणकिसलयभङ्गैय्यङ्गभूषां विधत्ते तरुणतरुलतावद्वीर कार्त्तिर्विनाम्य ॥
लिपिपल छठा.
यह लिपिपत्र वाकाटक राजा प्रवरसेन दूसरे के दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसमें संवत् नहीं दिया, किन्तु अक्षरोंके ढंग से पांचवीं या छठी शताब्दीकी लिपि प्रतीत होती है ( ३ ) इसमें हरएक अक्षरका सिर चतुरस्र बनाया है. इसके अक्षर और स्वरोंके चिन्ह लिपिपत चौथे अक्षर व चिन्हों से अधिक मिलते हैं.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
दृष्टम् सिद्धम् ॥ अग्निष्टोमाप्तोर्य्यामोक्त्थ्य षोडश्यातिरात्रवाजये (पे) बृहस्पति सवसाद्यस्क्रचतुरश्वमेधयाजिन: विष्णुवृद्धसगोत्रस्य समूट् (म्राडू)वाकाटकानाम्महाराज श्रीप्रवरसेनस्य सूनो : सूनो : अत्यन्तस्वामिमहाभैरवभक्तस्यं अन्सभारसन्निव (वे) शित शिवलिंगो दहन शिव सुपरितुष्टसमुत्पादितराजवन्शानाम् पराक्रमाधिगतभागीरत्थ्या [स्थ्य ] मलजलमूर्द्धाभिषिक्तानाम् दशाश्वमेधावभृथस्नातानाम्भारशिवानाम्महा
(१) कार्पस इन्स्क्रिप्सनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द ३, प्लेट २२ ).
(२) कार्य स इन्स्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द ३, प्लेट ३५ ).
(३) इस दानपत्र में प्रवरसेन दूसरेको माता प्रभावतीगुप्ताको देवगुप्तकी पुत्री लिखा है. यदि देववर्नाfरक लेखमें आदित्य सेन देवके बाद देवगुप्तका नाम ठीक ठीक पढ़ाजाता हो, और वही प्रभावतीताका पिताहो, तो इस दानपत्रका समय विक्रम संवत्को आठवीं शताब्दी
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लिपिपत्र सातवां. यह लिपिपत्र वाकाटक राजा प्रवरसेनके ही दूसरे दानपत्रकी छाप से (१) तय्यार किया है. इसकी लिपिलिपिपत्र छठेकी लिपिसे मिलती जुलती है, परन्तु अक्षरोंके सिर और लिखनेकी शैलीमें उससे फर्क है. इसमें 'इ' और 'ई' के चिन्होंका भेद ठीक ठीक नहीं बतलाया.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः- '
वाकाटकानाम्परममाहेश्वरमहाराजश्रीप्रवरसेनस्यवचना[त्]भोजकटराज्ये मधुनदीतटे चाङ्क नामग्राम : राजमानिकभूमिसहस्त्रैरष्टाभिः ८००० शत्र(त्रु)नराजपुत्रकोण्डराजविज्ञा(ज्ञ)प्त्या नानागोत्रचरणेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः सहस्त्राय दत्त : यतोस्मत्सन्तका[:]सर्वाद्ध्यक्षाधियोगनियुक्ता आज्ञासञ्च(ञ्चा)रिकुलपुत्राधिकता भटाच्छा[च्छा]त्राश्च विश्रुतपूर्वयाज्ञयाज्ञपयितव्या विदित--
लिपिपत्र आठवां. यह लिपिपत्र गुर्जर (गूजर) वंशके राजा दद्द दूसरेके शक संवत् ४०० के दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसमें अ, आ, ए, ख, ङ, ज, थ, ब, ल और श अक्षरों में पहिलेसे कुछ फर्क है, और हलंतका चिन्ह एक आडी लकीर है, जो व्यंजनके नीचे लगाई गई है (३).
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ॐ स्वस्ति विजयविक्षेपात् भरुकच्छप्रहारवासक(का)त् सकलघनपटलावनिर्गतरजनिकरकरावबोधतकुमुदधवलयश[:] तापस्थगितनभोमंडलोनेकसमरसंकटप्रमुख गतनिहतशत्रुस(सा)मंतकुला(ल)वधु(धू)प्रभातश(स)मयरुदितफलोदीयमानविमलनिस्त(स्लिं)शप्रतापो देवद्विजातिगुरु
होना चाहिये उक्त लेख को, जो छाप फलौट साहिबने कार्पस इन्स्क्रिपणनम् इण्डिकरम् की जिल्द ३ रौको प्लेट २८ में दी है, उसमें तो देवगुप्तका नाम बिल्कुल नहीं पढ़ाजाता. (१) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १२, पत्र २४२-४५ के बीच की प्लेट), (३) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द ७ पृष्ठ ६२-६३ के बीचको प्लेट). (३) इस दानपत्रको लिपि इस लिपिपत्र में लिखअनुसार है, परन्तु इसके अन्त में राजाने अपने हस्ताक्षरोंसे " स्वहस्तीयं मम श्रीवि(वी)तरागशु(स)नो[:] श्रीप्रम(गां)तरागस्य" लिग्दा है, जिसकी लिपि वर्तमान देवनागरीसे बहुतही मिलती जुलती है. इससे पाया जाता है,
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(६१) चरणकमलप्रण(णा)मोघृष्टवज्जा(ज)मणिकोटिरुचिरादि(रदी)धितिविराजितम(मु)कुटोद्भासितशिराः दि(दी)नानाथातुर(रा)भ्यागतार्थिजनस्लि (क्ति)ष्टपरि
लिपिपत्र नवां. यह लिपिपत्र नेपाल के राजा अंशुवर्माके [श्रीहर्ष] संवत् ३९ (विक्रम संवत् ७०२) के लेखकी छापसे (१) तय्यार किया है. अ, आ, इ, ए और ख अक्षर, जो उक्त लेखमें नहीं मिले, वे उससे कुछ पिछले समयके नेपालके ही लेखोंमे लिये हैं.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
ई स्वस्ति कैलासकूटभवनादनिशि निशि चानेकशास्त्रार्थविमर्शावसादितासदर्शनतया धर्माधिकारस्थितिकारणमेवोत्सवमनतिशयम्मन्यमानो भगवत्पशुपतिभट्टारकपादानुगृहीतो बप्पपादानुध्यात : यंशुवर्मा कुशली पश्चिमाधिकरणवृत्तिभुजो वर्तमानान्भविष्यतश्च याहङ्कुशलमाभाष्य समाज्ञापयति विदितम्भवतु भवताम्पशु
लिपिपत्र दसवां. यह लिपिपत्र वल्लभीके राजा धरसेन दूसरंके [वल्लभी]संवत् २५२
कि उस समयमें भी दो प्रकार की लिपियें प्रचलित थौं; एक तो पुस्तक, लेख, दानपत्र आदि. में बहुत सष्ट लिखी जाने वाली प्राचीन अक्षरों को, और दूसरी चीटियां आदि व्यवहारिक कार्यों में बरारी लिखी जाने वाली, प्राचीनसे निकली हुई, वर्तमान देवनागरीसे मिलती जुलती. इसी दानपत्रसे दो लिपियोंका होना प्रतीत होता है ऐसाह नहौं, किन्तु मथुरासे मिले हुए तुरुष्क राजाओंके समयके मक संवत्को पहिलो शताब्दीके लेखों में भी 'य' दो प्रकारसे लिखा है. जहां अकेला भाया है, वहां तो अशोकके समयके 'य' से मिलता जुलता है, परन्तु संयुक्ताक्षरों में जहां कहीं आया है, वहां वर्तमान देवनागरीके 'य'साही है. ऐसे ही गुप्त राजाओंके, और अन्य अन्य लेखों में भी संयुक्ताक्षरों में जहां कहौं 'य' आया है, वहां देवनागरीका ही है, राष्ट्रकूट ( राठौड़ ) राजा गोविन्द ( प्रभूतवर्ष ) के शक संवत् ७३० ( विक्रम संवत् ८६५) के दानपत्रकी लिपि स्पष्ट देवनागरीसौ है, और उससे केवल ४२ वर्ष पहिलेको वल्लभीके राजा शिलादित्य छठेके [ वल्लभी ] संवत् ४४७ (विक्रम संवत् ८२३ ) के दानपत्रमें बिल्कुल प्राचीन 'लिपि है, इसलिये पालौसे बनी हुई त्वरासे लिखीजाने वाली नागरीसे मिलती हुई एक प्रकारको लिपि शक संवत्के प्रारंभसे ही अवश्य प्रचलित थी.
(१) इण्डियन एण्टिक्करौ (जिल्द 8. पृष्ट १७० के पासको प्लेट.)
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(विक्रम संवत् ६२८ ) के दानपत्रकी छापसे (१) तय्यार किया है. इसमें ख, ङ, अ, ड और ब की आकृतिमें कुछ फर्क है, और जिह्वामूलीयका चिन्ह 'म' जैसा है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
स्वस्ति वलभि(भी)त : प्रसभप्रणतामित्राणांमैत्रकाणामतुलबलस(सं)पन्नमण्डलाभोगसंसक्तसंप्रहारशतलब्धप्रताएः प्रतापः प्रतापोपनतदानमानार्जवोपार्जितानुरागो(गा)नुरक्तमौलभूतमित्रश्रेणीबलावाप्तराज्यश्रिः (श्रीः) परमम(मा)हेश्वर : श्रि(श्री)सेनापतिभटार्कस्तस्य सुतस्तत्पादरजोरुणावनतपवित्रि(त्री कृतशिरा : शिरोवनतशत्रुचडामणिप्रभाविच्छुरितपादनवपंक्तिदि(दी)धितिदि(ही)नानाथरूपणजनोप
___ लिपिपत्र ११ वा. यह लिपिपत्र उदयपुर के विक्टोरिया हॉलके प्राचीन लेख संग्रहमें रक्खे हुए मेवाड़के गुहिल राजा अपराजितके समयके [विक्रम संवत् ७१८ के लेखसे तय्यार किया है. इसमें आ, इ और ई, के चिन्ह कहीं कहीं भिन्न ही प्रकारसे लगाये हैं (देखो ना, ला, धि, री, ही ). लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
राजाश्रीगुहिलान्वयामलपयोराशौ स्फुरदीधितिध्वस्तध्वान्तसमूहदुष्टसकलव्यालावलेपान्तकृत् । श्रीमानित्यपराजित : क्षितिभृतामभ्यर्चितोभूर्धभि (भि)त्तिस्वच्छतयेव कौस्तुभमणिर्जातो जगद्भूषणं ॥ शिवात्मजो खण्डितशक्तिसंपद्धर्य : समाक्रान्तभुजङ्गशत्रुः] । तेनेन्द्रवस्कन्द इव प्रणेता । वृतो महाराजवराहसिंह : जनगृहीतमपिक्षयवर्जितं धवलमप्यनुरन्जित
लिपिपत्र १२ वा. यह लिपिपत्र राजा दुर्गगणके समयके झालरापाटनके लेखकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र ११ वें से अधिक
(१) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द, ८, पृष्ठ ३०२ के पासको प्लेट ). (२) इण्डियन एण्टिक्वरी (जिल्द ५, पृष्ठ १८०-८१ के बीचको प्लेट).
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(६३) मिलती है, और कितनेएक अक्षर देवनागरीके से हैं. इसमें जिह्वामूली. यका चिन्ह इसी लिपिके 'व' सा है, तथा 'व' और 'ब' में भेद नहीं है.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:__ श्रीदुर्गगणे नरेन्द्रमुख्ये सति संपादितलोकपालवृत्ते । अवदातगुणोपमानहेतौ सर्वाश्चर्यकलावि श्चितीह ॥ यस्मिन्प्रज्ञा : प्रमुदिता विगतोपसर्गा: स्वैx कर्मभिर्विधति स्थितिमुर्चरेशे । सत्व(त्वा)ववो (बो)धविमलीकृतचेतसश्च विप्राः पदं विविदिषन्ति परं स्मरारे ः ॥ य : सर्वावनिपालविम्मयकर : सत्वप्रवृत्त्युज्व(ज्ज्वलज्वालादग्धतमाक्षतारितिमि
लिपिपत्र १३ वां. यह लिपिपत कोटाके पाससे मिले हुए, राजा शिवगणके मालय संवत् ७९५ के लेखकी छापसे (?) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र ११ वें और १२ वें से मिलती हुई है. . लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
नम: शिवाय नम :(म)स्सकलसंसारसागरोत्तारहेतवे । तमोग भिसंपातहस्तालम्बाय शम्भवे ॥ श्वेतदीपानुकारा X क्वचिदपरिमितेरिन्दुपादै : पतद्भिनित्यस्थैरसान्धकार : क्वचिदपि निभृतै : फाणिपैोगभागैः सोष्माणो नेत्त्रभाभिः क्वचिदतिश(शि)शिरा जनुकन्याजलो(लो) धैरित्थं भावैविरुद्धैरपि जनितमुद:
लिपिपत्र १४ वां. यह लिपिपत्र गुजरातके राष्ट्रकूट ( राठौड़ ) राजा कर्कराजके शक संवत् ७३४ के दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र ७ वे से बहुत मिलती हुई है (३).
(१) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १८, पृष्ठ ५६ के पासकी प्लेट). (२) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १२, पृष्ठ १५८-६१ के बीच की प्लेटे). (३) इस दानमत्र में राजाके हस्ताक्षरको लिपि दानपत्रको लिपिसे भिन्न दक्षिणको लिपि है, और इन्तमें ४ पंक्ति भिन्नही लिपिको हैं, जिनमें से मुख्य मुख्य अक्षर छांट [ ] के भीतर रख हैं.
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दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ईस वोव्याद्वेधसा येन (?) यन्नाभिकमलतं । हरश्च यस्य कान्तेन्दुकलया समलङ्कृतं । स्वस्ति स्वकीयान्वयवशकर्ता श्रीराष्ट्रकूटामलवशजन्मा । प्रदानशूरः समरैकवीरो गोविन्दराजः क्षितिपो बभूव ॥ यस्या मात्रजयिन : प्रियसाहसस्य क्षमापालवेशफलमेव बभूव सैन्यं । मुक्त्वा च शङ्करमधीश्वरमीश्वराणां नावन्दतान्यममरे
लिपिपत्र १५ वां (१). यह लिपिपत्र राजीम (मध्य प्रदेशमें ) से मिले हुए राजा शिवरदेवके दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसकी लिपि और अक्षरोंके सिरकी आकृति लिपिपत्र छठेसे मिलती है. इसमें 'इ' और 'ई। के चिन्होंका भेद स्पष्ट नहीं है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ई जयति जगत्र(त्व)यतिलक[:] क्षितिभृत्कुलभवनमङ्गलस्तत्र त्रि (श्री)मत्तिवरदेवो धौरेय[:] सकलपुण्यकता(तां) स्त(स्व)स्ति श्रि(श्री)पुरासमधिगतपञ्चमहाशब्दानेकनतनृपतिकिरि(री)टकोटिघृष्टचरणनखदर्पणोद्भासितोपि कण्ठदुन्मुखप्रकटरिपुराजलक्ष्मि(क्ष्मी)केशपाशाकर्षणदुर्ललितपाणिपल्ल[वो]निशितनिस्तृ(स्त्रि)शघनघातपातितारिद्विरदकुम्भमण्डलगलब()हलशोणितसदासिक्तमुक्ताफलप्रकरमण्डितरणाङ्गणदि(वि)विधरत्नसंभारलाभलोभविजृम्भमाणारिक्षारवारिवाड
लिपिपत्र १६ वां. यह लिपिपत्र मारवाड़के पडिहार (प्रतिहार) राजा कक्कुअ (ककुक) के विक्रम संवत् ९१८ के लेखकी दो छापें, जो जोधपुरके प्रसिद्ध इति. हासवेत्ता मुन्शी देवीप्रसादजीने भेजी, उनसे तय्यार किया है. इसमें 'अ' और 'आ' विलक्षण हैं, तथा 'ई' और 'ओ' भी हैं.
(१) १४ वां लिपिपत्र छपजाने बाद यह लिपिपत्र तय्यार करना उचित समझा गया, जिससे इसको यहां रक्खा है, नहीं तो यह लिपिपत्र छठे के बाद रक्खा जाता,
(२) कार्पस इन्स्क्रिप मनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द ३, नेट ४५ ),
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लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
ई सग्गापवग्गमगं पढमं सयलाण कारणं देवं । णीसेसदुरिअदलणं परमगुरुं णमह जिणण(णा)हं ॥रहुतिलओ पडिहारो आसी सिरिलक्वणोति रामस्स । तेण पडिहारवन्सो समुण्णई एत्य सम्पत्तो ॥ विप्पो सिरिहरिअन्दो भज्जा आप्तित्ति खत्तिआ भद्दा । अणसु (१)
लिपिपत्र १७ वा. यह लिपिपल मोरपी ( काठियावाड़में) से मिले हुए राजा जाइंकदेवके गुप्त संवत् ५८५ के दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसमें 'व' और 'य' का कुछ भेद नहीं है.
दानपतकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
पष्टिवरिष(वर्ष)सहस्राणि स्वर्गे तिष्ठति भूमिदः । आछेत्ता [चा]नुमंता च तान्येव नरकं वसेत् ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेतु(तु) वसुंधरां । गवां शतसहस्रस्य हंतु : प्राप्नोति किल्विषं ॥ विंध्याटवीष्वतोया[सु] शुष्ककोटरवासिनः । महाहयो
लिपिपत्र १८ वां. यह लिपिपल राजा विजयपालके समयके [विक्रम संवत् १०१६ के अलवरके लेखकी दो छापोंसे तय्यार किया है, जिनमेंसे एक काव्यमाला संपादक पण्डित दुर्गाप्रसादजी( महामहोपाध्याय )ने वि० सं० १९४५ में भेजी थी, और दूसरी अलवरके पण्डित रामचन्द्रजीकी भेजी हुई फ़तहलालजी महतासे मिली. इसकी लिपि देवनागरीसे बहुत कुछ मिलती
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ई स्वस्ति ॥ परमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीक्षितिपालदेवपादानुध्यातपरमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीविनयपालदेवपादा
(१) स्वर्गापवर्गमार्ग प्रथमं सकलाना कारण देव । निःशेषदुरितदलन परमगुरु' नमत जिननाथ रघुतिलक : प्रतिहार पासीत् श्रीलक्षमण इति रामस्य । तेन प्रतिहारवंभ : समु. न्नतिमत्र प्राप्त: । विप्र : श्रीहरिचन्द्रो भार्या पासीत् इति क्षषिया भद्रा । (२) इण्डियन एण्टिकरी ( मिल्द २, पृष्ठ २५८ के पासको मेंट),
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नामभिप्रवर्द्धमानकल्याणविजयराज्ये सम्वत्सरशतेषु दशतु षोडशोत्तरकेषु माघमाससितपक्षत्रयोदश्यां शनियुक्तायामेवं सं १०१६ माघशुदि १३ श
लिपिपत्र १९ वा. यह लिपिपत हैहयवंशके राजा जाजल्लदेवके समयके [चदि] संवत ८६६ के लेखकी छापसे (१) तय्यार किया है. इसमें 'इ' और 'ई' अक्षर पहिलेसे भिन्नही प्रकारके हैं. 'व' तथा 'ब' में भेद नहीं है, और बाक़ीके अक्षर देवनागरी जैसे हैं.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
तवंश्यो हैहय आसीद्यतो जायन्त हैहयाः। ..........."त्यसेनप्रियासती ॥ ३ ॥ तेषां हैहयभूभुजां समभवद्वंसेशे) स चेदीश्वर : श्रीकोकल्ल इति स्मरप्रतिकृतिचिव(श्च)प्रमोदो यत: । येनायंत्रितसौ(शौर्य .........."मेन मातुयशः स्वीयं प्रषितमुच्चकैः कियदिति व्र(ब्रह्मांडमन्तः क्षिति ॥ ४ ॥ अष्टादशास्य रिपुकुंभिविभंगसिंहाः पु--
लिपिपत २० वा. यह लिपिपत्र चौहाण राजा चाचिगदेवके समयके [विक्रम संवत् १३१९ के लेखकी एक छापसे तय्यार किया है, जो मेरे मित्र जोधपुरनि. वासी मुनशी देवीप्रसादजीने भेजी थी. इसकी लिपि जैनग्रन्थोंकी देवनागरी है, जो बहुधा यति लोग लिखा करते हैं.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
आशाराजक्षितिपतनय : श्रीमदालादनाह्वो जज्ञेभूभृद्धवनविदितवाहमानस्य वंशे । श्रीनड्डूलेशिवभवनकर्मसर्वस्ववेत्ता यत्साहाय्य प्रतिपदमहो गूर्जरेशश्च कांक्ष ॥ ३२ ॥ चंचत्केतकचंपकप्रविलसत्तालीत. मालागु(ग)रुस्फूर्जञ्चंदनना
लिपिपत्र २१ वां. यह लिपिपत बंगालके सेनवंशी राजा विजयसेनके समयके लेखकी
(१) एपिग्राफ़िया इण्डिका ( निल्द १, पृष्ठ २४ के पासको नेट)...
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छापसे (१)तय्यार किया है. इसमें कोई संवत् नहीं दिया, परन्तु लक्ष्मणसेन संवत् चलानेवाला लक्ष्मणसेन इसी विजयसेनका पौत्र था, जिससे उक्त लेखका समय विक्रम संवत्की १२ वीं शताब्दीका मध्य ठहरता है. इसमें '' और 'व' का भेद नहीं है. इसी लिपिसे प्रचलित बंगला लिपि बनी है.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
तस्मिन सेनान्ववाये प्रतिसुभटशतोत्सादनब(ब्रह्मवादी स ब(ब)ह्मक्षत्रियाणामजनि कुलशिरोदामसामन्तसेन : उद्गीयन्ते यदीयाः स्खलदुदधिजलोल्लोलशीतेषु सेतो : कच्छान्ते प्वप्सरोभिईशरथतनयस्पईया युद्धगाथा ः॥ यस्मिन् सङ्गरचत्वरे पटुरटत्तूर्योपहूतद्विषदर्गे येन रूपाण
लिपिपत्र २२ वा. यह लिपिपत्र बंगालके राजा लक्ष्मणसेनके दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है, जिसमें उक्त राजाका संवत् ७ लिखा है. इसकी लिपि लिपिपत्र २१ से मिलती हुई है. इसमें भी 'घ' और 'व' का भेद नहीं है, और अक्षरों के सिरकी आकृतिमें फर्क है.
दानपत्रकी अस्ली पक्तियोंका अक्षरान्तरः
स खलु श्रीविक्रमपुरसमावासित[:] श्रीमज्जयस्कन्धावारात् महाराज(जा)धिराजश्रीव(ब)लालसेनदेवपादानुध्यातपरमेश्वरपरमवैष्णवपरमभट्टारकमहाराज(जा)धिराजश्रीमल(ल्ल)क्ष्मणसेनदेवः कुशली । समुपगताशेषराजराजन्यकराज्ञीराणकराजपुत्रराजामात्य
लिपिपत्र २३ वां. यह लिपिपत्र चितागौंगसे मिले हुए राजा दामोदरके समयके शक सं० ११६५ के दानपत्रकी छापसे (३) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र २१ वें से मिलती जुलती है. इसमें 'ब' और 'व' का भेद नहीं है.
(१) एपिग्राफिया इण्डिका (जिल्द १, पृष्ठ ३०८ के पासको प्लेट ).
(२) एशियाटिक सोसाइटी बगालका जर्नल (जिल्द ४४, हिस्सा १, पृष्ठ ३ के पासकी प्लेट).
(३) एशियाटिक सोसाइटो बगालका जर्नल (जिल्द ४३, हिस्सा ?, पृष्ठ ३१८ के पासको प्लेट)
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(६८)
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ई शुभमस्तु शकाब्दा : ११६५ ॥ देवि प्रातरवेहि नन्दनवनान्मन्दः कदम्बानिलो वाति व्यस्तकरः शशीति कतकेनालाप्य कौतुहली। तत्कालस्खलदङभङिमचलामालिङच लक्ष्मी बलादालोलानवविम्व (बिम्ब)चुम्ब(म्ब)नपर : प्रीणातु दामोदर : ॥ अम्भोजश्रीहरणपिशुन : प्रेमभू : कैरवाणां
लिपिपत्र २४ वा. यह लिपिपत्र उड़ीसाके राजा पुरुषोत्तमदेवके दानपत्रकी छापसे (१) तय्यार किया है. उक्त दानपत्र में पुरुषोत्तमदेवका राज्याभिषेक वर्ष ५ लिखा है. उक्त राजाका राज्याभिषेक ई० सन् १४७८ में हुआ था, इस. लिये इस दानपत्रका समय वि० सं० १५४० आता है. इसी लिपिसे प्रचलित उड़िया लिपि बनी है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः___श्री जय दुर्गायै नमः । वीर श्री गजपति गउडेश्वर नव कोटि कर्नाटकलवर्गेश्वर श्रीपुरुषोत्तमदेव महाराजङ्कर । पोतेश्वर भटङ्कु दान शासन पटा । ए ५ अङ्क मेष दि १० अं सोमवार ग्रहणकाले गङ्गागर्भ पुरुषो (२)
लिपिपत २५ वां. यह लिपिपत्र मौर्य राजा अशोकके शहषाज गिरिपरके गांधार लिपिके लेखकी छापसे तय्यार किया है. इस लिपिमें 'आ', 'ई', 'ऊ', 'ऐ' और 'औ', तथा उनके चिन्ह नहीं हैं. 'इ' का चिन्ह तिरछी लकीर है, जो व्यंजनको काटती हुई आधी ऊपर और आधी नीचे रहती है ( देखो कि, ति, लि, मि). 'उ' का चिन्ह एक छोटीसी आडी लकीर है, जो व्यंजनकी बाई ओर नीचेको लगाई जाती है ( देखो गु, तु, हु), और कभी कभी उक्त लकीरको घुमाकर गांठ भी पनादेते हैं (देखो जु). 'ए' का चिन्ह एक छोटीसी खड़ी, आड़ी या तिरछी लकीर है, जो बहुधा
- (१) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १, पष्ठ ३५४ के पासको प्रेट).
(२) इस दानपत्रको भाषा संस्कृत मिमित उड़िया है, इसलिये भन्द छट छट रख हैं,
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व्यंजनके ऊपरकी तरफ लगती है (देखो दे, ये, ते). 'ओ' का चिन्ह एक छोटीसी तिरछी लकीर है, जो व्यंजनकी बाई बाजूपर लगती है ( देखो नो, मो, यो). अनुस्वारका मुख्य चिन्ह v है, जो अक्षरके नीचेको लगता है (देखो अं, व, षं), परन्तु कितनेएक अक्षरोंके साथ भिन्न प्रकार से भी लगाया हुआ पायाजाता है, जैसा कि, 'कं, म, यं, शं और हं' में बतलाया गया है. जैसे वर्तमान देवनागरी लिपिमें क्र, ल, प्र, व्र, आदि संयुक्ताक्षरोंमें 'र' का चिन्ह एक आडी लकीर है, वैसेही गांधार लिपिके संयुक्ताक्षरों में भी 'र' का चिन्ह आडी लकीर है, जो पूर्व व्यंजन की दाहिनी ओरको लगाई जाती है ( देखो त, द्र, ध्र, प्रि आदि ). संयुताक्षरमेंसे पहिला अक्षर ऊपर, और दूसरा नीचे लिखाजाता है ( देखो स्त), परन्तु कहीं कहीं इससे विपरीत भी पाया जाता है (देखो ह्य), जो लिखने वालेका दोष है. 'धर्मलिपि' को 'भ्रमलिपि', 'प्रियदर्शी' को प्रियद्रशि' लिखा है, सो भी लेखक दोषही है. लेखकी अस्ली पंक्तियोका अक्षरान्तर:
अयं धमलिपि देवनं प्रिअस रनो लिखपित हिद नो किचि जिवे आर - - प्रयेातवे नो पि च समज कटव बहुक हि दोष समयस देवनं प्रियो प्रियद्राश रय - खति अठि पिचअ कतिअ समय सेस्तमते देवनं प्रिअस प्रिअद्रशिस रनो पुरे महनससि देवनं प्रियस प्रियदशिस रत्रो अनुदिवसो बहुनि प्र--तसहसनि (१)
लिपिपत्र २६ वा. यह लिपिपत्र तुरुष्कवंशी राजा कनिष्कके समयके, [शक संवत् ११ के गांधार लिपिके ताम्रपतकी छापोंसे (२) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र २५ की लिपिसे बहुत मिलती हुई है, परन्तु 'अ', 'इ', 'क' आदि कितनेएक अक्षरोंके बीचका हिस्सा दबा हुआ और नीचेका
(१) इय' धर्म लिपि वानां प्रियस्य राज्ञो लेखिता इह नो किञ्चिज्जीव आनभ्य महोतव्य नो अपि च समाजा: कर्तव्या बढ़का हि दोषाः समाजस्य देवानां प्रियो प्रियदर्षी राजा पश्यति अस्ति पित्रा कृता : समाना: श्रेष्ठमता : देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनो राजपुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्भि नो राशो ऽनुदिवस' बहनि प्राणशतसहस्राणि
(२) एभियाटिक सोसाइटी बङ्गालका जर्नल (जिन्द ३८, हिला १, पृष्ठ ६८ के पासकी नेट). इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १०, पृष्ठ १२४ के पासको लेट).
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(७०) हिस्सा बाई ओर नमा हुआ है, तथा ख, च, छ, ठ, त, ष और स, में थोड़ासा फर्क है. 'उ' का चिन्ह गांठसा बनाया है (देखो छु, नु, पु),
और अनुस्वारका चिन्ह है (देखो लिं, मं, रं, सं). - लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
महरजस्त रजतिरजस्त देवपुत्रस्त कनिष्कस्स संवत्सरे एकदशे सं ११ दइसिकस्त (१) मसस्त दिवसे अठविशे दि २८ अत्र दिवसे भिठुस्स नगदतस्त संवकटिस्स ( ? ) अचय्यदमत्रतशिष्षस्स अचय्यभवप्रशिष्षस्त यठिं अरोपयतो इह दमने विहरस्वमिनि उपसिकस अनंदिअ (२)
लिपिपत्र २७ वां. यह लिपिपत्र सातवाहन ( आंध्रभृत्य ) वंशके राजा पुलुमायिके समयके नासिककी गुफाके लेखकी छापसे (३) तय्यार किया है. उक्त लेखका समय विक्रम संवत्की दूसरी शताब्दीका प्रारम्भ होना चाहिये ( देखो पृष्ट ३२, नोट ४). यह लिपि अशोकके लेखोंकी लिपिसे बनी है, और दक्षिणकी बहुधा समस्त प्राचीन लिपियोंका मूल यही है. इस लिपिपत्रसे लगाकर लिपिपत्र ३९ तक दक्षिणकी ही लिपियें हैं.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
सिद्ध(ई) रो वासिठिपुतस सिरिपुळुमायिस संवछरे एकुनवीसे १९ गिम्हानपखे बितीये २ दिवसे तेरसे १३ राजरो गोतमीपुतस हिमवतमेरुमदरपवतसमसारस असिकसुसकमुळकसुरठकुकुरापरातअनुपविदभआकरावतिराजस विझछव (४)
(१) “दइसिक" (Dusius ) मकदूनियाके नवमें महीने का नाम है, (२) महाराजस्य राजातिराजस्य देवपुत्रस्य कनिष्कस्य संवत्सरे एकादशे स ११ दइसिकस्य मासस्य दिवसे अष्टाविंशे दि २८ अस्मिन्दिवसे भिक्षोर्नागदत्तस्य सांख्यकृतिन : (?) भाचाय्य दामत्रातशिष्यस्य आचार्यभवप्रशिष्यस्य अस्थि आरोपयत इह दमने विहारखामिन्या उपासि. काया आनन्याः --
(३) आर्कि यालाजिकल सर्वे आफ वेस्न इण्डिया ( जिल्द ४, प्लेट ५२, नम्बर १८), (४.) सिद्धं राज्ञो वासिष्ठीपुत्रस्य श्रीपुजुमायः संवत्सरे एकोनविंशे १८ प्रमाणां पते दितीये २ दिवसे योदरी १३ राबरालस्य गौतमीपुत्रस्य हिमवन्मेसमन्दरपर्वतसमसारस्थ असिकसुशकमुळ सुराष्ट्रकुकुरापरान्तानूप विदर्भाकरावन्तिराजस्य विन्ध्यव
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लिपिपत्र २८ वां. यह लिपिपल पल्लववंशके राजा विष्णुगोपवर्माके दानपत्रकी छापसे (१) तय्यार किया है. उक्त दानपत्र में कोई प्रचलित संवत् नहीं दिया, परन्तु अक्षरोंकी आकृतिपरसे विक्रम संवत्की ४ थी या ५ वीं शताब्दीकी लिपि प्रतीत होती है. इसको लिपिपत्र २७ वें से मिलाकर देखनेसे प्रत्येक अक्षरमें थोड़ा बहुत परिवर्तन पाया जाता है. अक्षरों के सिर छोटे छोटे चौखूटे बनाये हैं. 'औ, ख, घ, ङ, ठ, फ और ज्ञ' अक्षर जो इसमें नहीं मिले, वे पल्लवोंकेही अन्य दानपत्रोंसे छांटकर रक्खे हैं.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
जितं भगवता श्रीविजयपलक्कदस्थानात् परमब्रह्मण्यस्य स्वबाहुबलार्जितोर्जितक्षात्रतपोनिधेः विहितसर्चम-दस्य स्थितिस्थितस्यामितात्मनो महाराजस्य श्रीस्कन्दवर्मण : प्रपौत्रस्यार्चितशक्तिसिद्विसम्पन्नस्य प्रतापोपनतराजमण्डलस्य महाराजस्य वसुधातलैकवीरस्य श्रीवीरवर्म
लिपिपत्र २९ वां. यह लिपिपत्र जान्हवी (गंगा) वंशके राजा कोङ्गणी दूसरे के [शक] संवत् ३८८ के दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इस दान पत्रके संवत्को कितनेएक विद्वान शक मंवत् अनुमान करते हैं, परन्तु अक्षरों की आकृतिपरसे विक्रम संवत्की ९ वीं शताब्दीके पास पासकी लिपि प्रतीत होती है, इसलिये यदि इस दानपत्रका संवत् गांगेय संवत् हो तो आश्चर्य नहीं. इसकी लिपि लिपिपत्र २७ और २८ से बहुत भिन्न, और ३१ वें से मिलती हुई है. दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
ई स्वस्ति जितम्भगवता गतघनगगनाभेन पद्मनाभेन श्रीमद्जा(जान्हवीय - लामला(ल)व्योमावभ(भा)सनभाश्क(स्क)र : स्वखड्क(डैक)प्रह(हा)रखण्डितमहाशिलास्तम्भलब्धबलपराक्रमो दारणो(रुणा)रिगणविदारणोएलब्धव्रणविभूषणविभूषित[:] कण्वायनसगोत्रस्य श्रीमान्कोडाणिमहाधिराज[ः ॥
(१) इण्डियन एण्टिक्करी (जिल्द ५, पृष्ठ ५०-५३ के बीचको प्लेट'). (२) कुर्ग इन्स्क्रिप्शन्स ( पृष्ठ ४ के पासको प्लेट ).
.
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(७२)
लिपिपत्र ३० वा. यह लिपिपत्र चालुक्य वंशके राजा मंगलीश्वरके समयके शक संवत् ५०० के लेखकी छापसे (१) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र २८ से मिलती हुई है, परन्तु 'ख, ग, ट, त, न, य, श' आदि कितनेएक अक्षरों में फर्क है, और अक्षरोंके सिर चौखूटे नहीं, किन्तु छोटी लकीर से बनाये हैं.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः... स्वस्ति ॥ श्रीस्वामिपादानुध्यातानाम्मानव्यसगोत्राणाङ्हारिती(रीति) पुत्राणा - अग्निष्टोमाग्निचयनवाजपेयपौण्डरिकबहुसुवर्णाश्वमेधावभृथस्नानपवित्रीकृतशिरसा चल्क्यानां वंशे संभूत : शक्तित्रयसंपन्नः चल्क्यवंशाम्बरपूर्णचन्द्र : अनेकगुणगणालंकृतशरीरस्सर्वशास्त्रार्थतत्वनिविष्टबुद्धिरतिबलपराक्रमोत्साहसंपन्न : श्रीम
लिपिपत ३१ वां. यह लिपिपत्र पूर्वी चालुक्य वंशके राजा अम्म दूसरेके दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसमें संवत् नहीं दिया, परन्तु उक्त राजाका राज्य शक संवत् ८६७-९२ तक रहा था, जिससे इस दानपत्रका समय शक संवत्की ९ वीं शताब्दीका उत्तराई ठहरता है. इसकी लिपि लिपिपत्र २९ से कुछ मिलती हुई है, और 'र' अक्षर प्राचीन तामिळ 'र' से बना हुआ प्रतीत होता है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
स्वस्ति श्रीमतां सकलभुवनसंस्तूयमानमानव्यसगोत्राणां हारीतिपुत्राणां कौशिकीवरप्रसादलब्धराज्यानाम्मातृगणपरिपालितानां स्वामिमहासेनपादानुध्यातानां भगवन्नारायणप्रसादसमासादितवरवराह
लिपिपत्र ३२ वां. यह लिपिपत चालुक्य वंशके राजा पुलिकेशी पहिलेके दानपत्रकी छापसे (३) तय्यार किया है. इसमें शक संवत् ४११ लिखा है, परन्तु
(१) इण्डियन एण्टिकरी ( जिन्द ३, पृष्ठ ३०५ के पासको प्लेट ). (२) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द १३, पृष्ठ २४८ के पासको प्लेट). (३) इण्डियन एण्टिकरी ( जिल्द ८, पृष्ठ ३४० के पासको घटे).
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इसकी लिपि शक संवत्की ९ वीं शताब्दीसे पहिलेकी नहीं है, इसलिये यह दानपत्र जाली होना चाहिये. इसकी लिपि लिपिपत्र ३१ से मिलती हुई है, किन्तु अक्षरोंके सिरका ढंग निराला ही है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:- .
स्वस्ति जयन्त्यनन्तसंसारपारावारैकसेतव : महावीराह(है)त 8पू. ताश्चरणांबुजरेणव : श्रीमतां विश्वविश्वम्भराभिसंस्तूयमानमानव्यसगो. त्राणां हारि(री)तिपुत्राणां सप्तळो(लो)कमातृभिस्लप्तमातृभिरभिवहितानां कार्तिकेयपरिरक्षणप्राप्तकल्याणपरंपराणां
लिपिपत्र ३३ वां. यह लिपिपत्र पश्चिमी चालुक्य राजा विक्रमादित्य पहिलेके दानपत्रकी छापसे (१) तय्यार किया है. इसमें शक संवत् ५३३ लिखा है, परन्तु इसकी लिपि शक संवत्की नवमी शताब्दी के आस पासकी है, जिससे यह दानपत्र जाली होना चाहिये. इसकी लिपि लिपिपत्र ३२ से मिलती हुई है, और कहीं कहीं 'म' भिन्नही प्रकारका है. दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ई जयत्याविष्कतं विष्णोाराह(हं) क्षोपि(भि)तार्णवन्दक्षिणोनतद्रं(द)ष्ट्रायं(य)विश्रान्तं भुवनं वपुः श्रीमतां सकळ(ल)भुवनस्तूयमानमानव्यसगोत्राणां हारि(री)तिपुत्राणां सप्तलो[क]मातृभिस्सप्तमातृभिरभिवर्द्धितानां कार्ती(र्ति)केयपरिरक्षणप्राप्तकल्ल्याणपरंपराणान्नारायणप्र---
लिपिपत्र ३४ वा. ___ यह लिपिपत गंगावंशी राजा देवेन्द्रवर्मा (२) के गांगेय संवत् ११ के दानपत्रकी छापसे (३) तय्यार किया है. इसमें कहीं कहीं 'अ, ख, ग, ज, ड, म, य, श, ष और ह' पहिलेसे भिन्नही प्रकारके हैं.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:ई स्वस्ति अमरपुरानुकारिण[:] सर्वतु(तु)सुखरमणीयादिजयव
-
(१) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द ७, पृष्ठ २१८ के पासको प्लेट ). (२) लिपिमत्र ३४ वें के सिरेपर ' देवेन्द्र वर्मा ' के स्थानपर नरेन्द्रवर्मा ' कृपगया है, जो अशुद्ध है. (३) इण्डियन एण्टिक्करी ( जिल्द १३, पृष्ठ २७४ के पासको भेट).
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(७४) त[:] कलिङ्गा(ङ्गोनगरधिवासकात्]ि महेन्द्राचलामलशिखरप्रतिष्ठितस्य सचराचरगुरोः] सकलभुवननिर्माणैकसूत्रधारस्य शशाङ्कचूडामणि(णे)भगवतोगोकर्णस्वा
लिपिपत ३५ वां. यह लिपिपल गंगा वंशके राजा अरिवर्माके दानपत्रकी छापसे (१) तय्यार किया है. इस दानपत्रमें शक संवत् १६९ लिखा है, परन्तु अक्षरोंकी आकृतिपरसे इसकी लिपि शक संवतकी नवी शातब्दीसे पहिलेकी प्रतीत नहीं होती, इसलिये यह दानपत्र पीछेसे जाली बनाया हुआ होना चाहिये. इसमें 'अ, आ, ल और श्री' अक्षर भिन्नही प्रकारसे लिखे हैं.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियों का अक्षरान्तर:
स्वस्त(स्ति) जितम्भगवता गता(त)धनगगनाभेन पद्मनाभेन श्रीमद्जा(जा)न्हवे(वी)यकुल(ला)मलव्योमावभासनभासुरभास्कर[:] स्वखड़े(डै)कप्रह(हा)रखण्डितमहाशिळा(ला)स्तम्भलब्धबळ(ल)पराक्रमो दारणो(रुणा)रिगणविदारणोपलब्धव्रणविभूषणविभूषित[:] का(क)ण्वायनसगोत्रस्य श्रीमा
लिपिपत ३६ वा. यह लिपिपत्र पल्लव वंशके राजा नन्दिवर्माके दानपत्रकी छापसे (२) सय्यार किया है. इसमें कोई प्रचलित संवत् नहीं दिया, किन्तु अक्षरोंकी आकृतिपरसे शक संवत्की नवमी शताब्दीके आस पासकी लिपि पाई जाती है. इस लिपिको "प्राचीन ग्रन्थ लिपि" कहते हैं, जिसमें प्राचीन तामिळ लिपिका कुछ मिश्रण है. बहुतसे अक्षर पहिलेसे भिन्न प्रकारके है, और अनुस्वारका बिन्दु अक्षरके आगे रक्खा है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
श्री स्वस्ति सुमेरुगिरि]मूर्द्धनि प्रवरयोगबद्धासनं जगत्र(त्त्र)यविभूतये रविशशांकनेत्रद्वयमुमासहितमादरादुदयचन्द्रलत्ष्मी(क्ष्मी)प्रवम् सदा
(१) इण्डियन एण्टिक्वेरी (जिरुद ८, पृष्ठ २१२ के पासको प्लेट ). (१) इण्डियन एण्टिकरी (जिल्द ८, पृष्ठ २७४ के पासको प्लेट)..
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(७५) शिवमहन्नमामि शिरसा जटाधारिणम् । श्रीमाननेकरणभुवि(भूमि)षु पल्लवाय राज्यप्रद्र : पर
लिपिपत्र ३७ वा. यह लिपिपत्र काकत्य वंशके राजा रुद्रदेवके समयके शक संवत् १०८४ के लेखकी छापसे (१) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र ३३ से अधिक मिलती है, और इसीसे वर्तमान कनड़ी लिपि बनी है.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
श्रीमत्रि(त्रिभुवनमल्लो राजा काकत्यवंशसंभूत : । प्रबलरिपुवर्गनारीवैधव्यविधायकाचार्यः ॥ श्रीकाकत्यनरेंद्र(ई)दतिलको वैरींद्रहतापक : सत्पात्रे वसुदायकः प्रतिदिनं कांतामनोरंजकः दुष्कांताचयदूषकः पुरहर (र)श्रीपादपद्मार्च
लिपिपत्र ३८ वां. यह लिपिपल रविवर्माके दानपत्रकी छाप (२), और पर्नेल साहिबकी बनाई हुई साउथ इण्डियन पेलिओग्राफीकी प्लेट १७ से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि शक संवत्की ८ वीं शताब्दीक आस पासकी है, जिसको "प्राचीन तामिळ" या "वहेछुत्तु" कहते हैं. यह लिपि भारतवर्षकी अन्य लिपियोंकी तरह अशोकके लेखोंकी लिपिसे नहीं बनी, किन्तु भारतवर्षके दक्षिणी विभागके रहने वाले द्रविडियन लोगोंकी निर्माणकी हुई एक स्वतंत्र लिपि है, क्योंकि इसके अक्षर अशोकके लेखोंके अक्षरोंसे बिल्कुल नहीं मिलते (३), और इसमें केवल उतनेही अक्षर हैं, जो उन लोगोंकी भाषामें बोलेजाते हैं. इस लिपिके बननेका समय निश्चय करनेके लिये कोई साधन नहीं है, परन्तु आठवीं शताब्दीके पहिलेसे इसका प्रचार अवश्य था. दक्षिणकी लिपियों में इसका मिश्रण कुछ कुछ हुआ है, और इस लिपिके जो दानपत्र मिले है, उनकी भाषा मंस्कत और प्राकृतसे बिल्कुल भिन्न है, इसलिये अस्ली पंक्तियें नहीं दी गई.
(१) इण्डियन एण्टिकरौ ( जिल्द ११, पृष्ठ १२-१७ के बीचको प्लेटें ). . (२) इण्डियन एण्टिक्केरौ (जिल्द २०, पृष्ठ २९० के पासको प्लेट),
(३) कैवल “ई, प और र" कुछ कुछ अभोकके लेखोंको लिपिसे मिलते हैं,
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(७६) लिपिपल ३९ वां.
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इस लिपिपत में शक संवत्की ११ वीं से १४ वीं शताब्दी के बीच की तामिळ लिपि दर्ज की है. इसको लिपिपत्र ३८ से मिलाकर देखने से पायाजाता है, कि अशोकके लेखोंकी लिपिसे बनी हुई, दक्षिणकी लिपि - योंका कुछ अंश इसमें प्रवेश होनेसे अक्षरोंकी आकृति साथ जुडे हुए स्वर चिन्हों में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है. वर्तमान तामिळ लिपि बनी है.
और व्यंजनों के इसी लिपिसे
लिपिपत ४० वां.
इस लिपिपतमें भिन्न भिन्न लेख और दानपत्रोंसे छांटकर ऐसी संख्या रक्खी गई हैं, जो शब्द और अंक दोनों में लिखी हुई मिली हैं. वर्त्तमान देवनागरी अंकको ( ) में लिखकर उसके आगे अस्ली शब्द, और उसके बाद [ ] में अस्ली अंक रक्खा है.
अस्ली शब्दोंका अक्षरान्तरः
वितीये [२] ततिये [३]. चोथे [४].
पचमे [५] छठे [६]. सात मे [७]. अठ [८]. - ईशभि: [१०] त्रयोदश [ १०३ ]. पनरस [१० ५ ]. एकुनवी से [१०९] विंशति [२०]. पचविश [ २०५ ]. त्रिश [३०] सप्तपञ्चाशे [५० ७] द्विसप्ततितमे [ ७० २]. सत [ १०० ]. सतानि बे [२०० ]. शतत्रये एकनवत्ये [ ३०० ९० १]. शत चतुष्टये एक विशत्यधिके [४००२०१]. शतानि पंच [५०० ]. शतषट् के एकूनाशीत्यधिके [ ६००७०९] शतेषु नवसु त्वयस्त्रिंशदधिकेषु [ ९३३ ]. सहस्र [ १००० ] सहस्रानि बे [२०००] सहस्रानि त्रिणि [ ३००० ] सहस्रेहि चतुहि [ ४०००] सहस्रानि अठ [ ८००० ]. सहस्रैरष्टाभि: [ ८०००] सहस्राणि सतरि [ ७०००० ].
लिपिपत्र ४९ और ४२ वां.
इनमें पहिले देवनागरी लिपिका अंक लिख प्रत्येक अंकके सामने वही अंक भिन्न भिन्न प्राचीन लेख, दानपत्र और सिक्कोंकी छापों से छांटकर पृथक् पृथक् पंक्तियों में रक्खा है. अंतिम ३ पंक्तियों में पंडित भगवानलाल इंद्रजी के प्रसिद्ध किये अनुसार ( १ ) बौद्ध और जैन ग्रन्थों में पाये हुए, अंक बतलानेवाले अक्षर और चिन्ह लिखे हैं ( प्राचीन अंकोंके लिये देखो पृष्ठ ४७-५१).
(१) इण्डियन एण्टिक री ( जिल्द ६, पृष्ठ ४४-४५, पंक्ति ७, ८, ९ )
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(७७) लिपिपत्र ४३ वां.
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इस लिपिपतके ४ विभाग किये हैं, जिनमें से पहिले तीनमें तो लिपिपत ४१ और ४२ में, जो अंक लिखने बाक़ी रहगये, वे दर्ज किये हैं, और चौथे विभाग में गांधार लिपिके अंक भिन्न भिन्न लेखोंसे छांटकर रक्खे हैं, जो दाहिनी ओरसे बाई ओरको पढ़ेजाते हैं (गांधार लिपिके अंकों के लिये देखो पृष्ठ ५३-५४ ).
लिपिपत ४४ वा.
इस लिपिपत्र में वर्तमान कश्मीरी ( शारदा ) और पंजाबी ( गुरुमुखी) लिपियें दर्ज की है. कश्मीरी लिपिके बहुतसे अक्षर नागरी जैसे ही हैं, और थोड़े अक्षरों में फर्क है. 'घ, ङ, छ, ठ, ण, त, ध, फ, र, ल, ह' आदि अक्षर प्राचीन आकृतिसे अधिक मिलते हुए हैं. गुप्त लिपि में परिवर्तन होते होते यह लिपि बनी है.
पंजाबी लिपिके बहुत से अक्षर देवनागरीसे मिलते हैं. गुरु अंगदके पहिले पंजाब में बहुधा महाजनी लिपिही व्यवहारमें प्रचलित थी, और संस्कृत पुस्तक नागरीसे मिलती हुई लिपिमें लिखे जाते थे. महाजनी लिपि अपूर्ण होनेसे उसमें लिखा हुआ शुद्ध नहीं पढ़ा जासक्का था, इसलिये गुरु अंगद ने अपने धर्म पुस्तक के लिये संस्कृत पुस्तकोंकी लिपिसे वर्तमान पंजाबी लिपि बनाई, इसलिये इसको गुरुमुखी कहते हैं.
लिपिपत ४५ वा.
इसमें वर्तमान ताकरी और महाजनी लिपि दर्जकी हैं. ताकरी लिपि पंजाब के पहाड़ी हिस्सोंमें प्रचलित है, जिसके 'घ, च, छ, ज, ञ, ढ, ण, त, ध, न, फ, र और ल' प्रायः प्राचीन शैलीसे मिलते हुए हैं, और बाकीके अक्षरों में से बहुत से देवनागरीसे मिलते हैं.
महाजनी लिपि पश्चिमोत्तरदेश व पंजाब आदि में प्रचलित है. वहांके व्यापारी, जो शुद्ध लिखना नहीं जानते, अपना हिसाब, हुंडी, चिट्ठी आदि इसी लिपि में लिखते हैं. इसमें व्यंजनके साथ स्वरोंके चिन्ह नहीं लगाये जाते इसलिये इस लिपिमें लिखा हुआ शुद्ध नहीं पढ़ाजाता, किन्तु जिनको इसका अधिक अभ्यास होता है, वे अंदाजसे पढ़लेते हैं. यह लिपि नागरीसे बनी है, परन्तु शुद्ध लिखना न जानने वालोंके हाथ से ऐसी दशाको पहुंची है.
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( ७८) लिपिपत्र ४६ वां.
यह
इसमें वर्तमान कैथी और मैथिल लिपियें पश्चिमोत्तरदेश और बिहार में प्रचलित है. बनी है, और उससे बहुत ही मिलती हुई है. लिखा है सो भी प्राचीन 'अ' से ही बना है. लिखा है.
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दर्जकी है. कैथी लिपि लिपि देवनागरीसे ही
'
6
अ ' को ' श्र' जैसा
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,
ख' के स्थान पर 'ष
मैथिल लिपि बंगला से बहुत मिलती हुई है, जो सेन राजाओंके समयकी प्रचलित लिपिसे बनी है. इसका प्रचार मिथिला देशमें है, जहां के संस्कृत पुस्तक भी इसी लिपिमें लिखे जाते हैं.
लिपिपत ४७ वां.
इस लिपिपलमें वर्तमान बंगला और उड़िया लिपियें दर्जकी हैं. बंगलाका प्रचार सारे बंगालदेशमें है, और सेन राजाओंके समय के लेखों में, जो लिपि पाई जाती है, उसीसे यह बनी है.
उड़िया लिपि उड़ीसा देशकी है, जो लिपिपत २४ वें में दर्ज की ई लिपिसे बनी है.
लिपिपत ४८ वां .
इस लिपिषत्र में वर्तमान गुजराती और मोड़ी ( महाराष्ट्री ) लिपियें दर्ज की हैं. गुजराती लिपिके बहुतसे अक्षर देवनागरीसे मिलते हुए हैं, बाकी के अक्षरों में से कितनेएक स्वयं प्राचीन अक्षरोंसे बने हैं, और कितनेएक दक्षिणकी लिपियों से लिये हुए हैं.
मोडी लिपि महाराष्ट्रदेश में प्रचलित है. इसके भी बहुत से अक्षर तो देवनागरीसे मिलते हैं, और बाकीके दक्षिणकी लिपियोंसे बने हैं.
लिपिपत ४९ वां.
इसमें वर्तमान द्रविड और कनडी लिपियें लिखी हैं. द्रविड़ लिपि लिपिपत्र ३६ में दर्ज की हुई 'प्राचीन ग्रन्थ लिपि' से बनी है, और लिपिपत्र ३७ वें की लिपिसे कनडी बनी है.
लिपिपत ५० वां..
इसमें वर्तमान तुलु और तामिळ लिपियें हैं. तुळु लिपि भी द्रविड़ लिपिकी नाई लिपिपत ३६ वें की 'प्राचीन ग्रन्थ लिपि' से बनी है, और लिपिपत्र ३९ वें की लिपि तामिळ बनी है.
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लिपिपत्र ५१ वां. इस लिपिपत्र में अशोकके समयकी लिपिसे क्रमश: परिवर्तन होते होते वर्तमान देवनागरी लिपि कैसे बनी, यह बतलाया गया है. ऐसे ही भारतवर्षकी दूसरी वर्तमान लिपियें भी बतलाई जासक्ती हैं. ..
लिपिपत्र ५२ वां. इस लिपिपत्र में भिन्न भिन्न लेख, दानपत्र और सिक्कोंसे छांटकर ऐसे अक्षर दर्ज किये हैं, जो लिपिपत्र १ से ३९ पर्यन्तमें नहीं आये.
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लिपि पत्र दूसरा- सत्रप वंश के राजारुद्रदामा(गिरनारपर के लेख से (शक संकी पहिली शतादी) असा इ ए क ख गघ चछ ज ज टट डट ए त थ दधन प फ बमम य H A ROUT E६ COर ८ I 60 20.1 UR४४४ JW
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लिपिपत्र तीसरा- गुप्तवंशकेराजा समुद्रगुप्तके (अलाहाबादके) लेखसे(गुस सं. पहिलीश०)
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लिपिपत्र चौथा- गुप्तवंश के राजा कुमारगुप्त के समय के मंदसोर के लेख से मालव सं० ४८३ २६
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लिपिपत्र पांचवां-राजा यशोधर्मन और विषावर्द्धन के समय के मंदसोरकेलेखसे.मालवसं.५८६ अाइ उ ए ओ क ख ग घ ङ च छ ज ञ ट ठ ड ढ ण त अ. अ57 AMUC VळE CO र 32003 थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स है। 600 न LADम//oUNIAHWOn का ढा गा बा मा धियि की नी दु नु धु ह कूधू मू रु सू ते जै सै घ तोर्यो शो जो क' to LUD 0 0 1 नए नं १ मामले
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६.
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लिपि पत्र छठा- वाकाटक वंशके राजा प्रवरसेन दूसरे के दान पत्र से (वि.सं. की पांचवीं शताब्दी)
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लिपि पत्र सातवां- वाकाटक वंशके राजा प्रवरसेन दूसरेकेदान पत्र से (वि०सं की पांचवीं शताब्दी) अआइ ई उ क ख ग घड. च ज ज ट ठ ड ए तथ द्ध
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लिपि पत्र पाठवा- गुर्जर (गूजर) वंशके राजा दृद्द दूसरेके दानपत्रसे शक सम्वत् ४.० . त्रा उ ए क ख ग घ . च छ ज ज ट ठ ड एण त थ स ४ W +
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लिपियत्र नबमा-नेपालके राजा अंशु वर्मा के लेखसे (श्रीहर्ष) सम्बत ३६ क गऊ चनज टटडए त थ दधन पब भ म य र ल व श ष स ह
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लिपिपत्र दसवां- वल्लभीके राजा धरसेन दूसरेके दानपत्रसे (वल्लभी) सम्वत् २५२ नआइ उ ए क ख ग घ ङ च छ ज न र डण त थ द ध न प फ ब सd B00 राळ ८० द नर 001 ब भ म य र ल व श ष स ह ए मा रा भिमि की णी तुनु पु भु। DORY WITA स
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लिपिपत्र १९वां- मेवाडके हिलराजा अपराजित के समयके लेखसे (विकमी)सम्बत् ७१८ सई क ख ग घ च छ जभ ट ठ ड ए त थ ध न प फ ब भ म ५७ 10 ए रह (On हसारन मम य रल व श स स ह . का जा सलाधि निहि की री हो, गुनु रु मु AADMI JHANE, हर्ष (२८क) ६, नरम ये ले नै शै को मो म क्या था इच जिण्डि त्यं ध्वन्ध पू ब्धि व्या
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लिपिपत्र १२वां - राजा दुर्गगणके समय के झालरापाटन के लेखसे (विकमी) सम्बत् ७६ अ आई उ ए क ख ग घ च ज र ण त थ धन प फ म १९०७ 57 तह रहा हOरम ब भ म य र ल व श ष स ह जा पा ति दि ती मुदु मुरु भू. व टार रववनयम
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लिपि पत्र १३ वां- राजा शिवगणके समयके कोटा लेखसे. मालव सम्बत् ७४५ अ इ उ ए क ख ग घ ड'च छ ज झ ञ ट ठ ड र ण त थ द 67 कक खगटास 503
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७ नमः मवाया नमः ५/कली मेस र मगर हर रेहू ते । स गर्ने
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लिपिपत्र वा- गुजरात के राष्ट्रकूट (राठोड़) राजा कर्कराज के दानपत्रसे. शक सम्वत् ७३४ अ आ इ उ ए क ख ग घ ङ च छ ज ञ ट ठ ड ए त . खस
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लिपिपत्र १५ बां- राजा तिवरदेवके दानपत्रसे (वि.सं.की ७ वी या च्वीशताब्दी) प्राइ क ख ग घ च छ ज रज र
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लिपि पत्र १६वां- मारवाड़के पड़िहार राजा कक्कुन (कक्कुक केलेख से वि.सं. १८ । अ आ इ ई उ ऊ ए ओ क ख ग घ . च छ ज झ ट ठर
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सापटमाटर मालाकारणं यवं । जोसमारंभ रस परम गुरु चामल लाद, रऊहिल उ रिकार रा हामी (रिका ( रामम्{"on हिदारदमा ममुगु सम्याला ॥ हा सिर करिता शासक मिति नहि करता करण मु
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लेपिपत्र १७ वां- मोरखी (काठियावाड़) से मिलेहुश राजा जाकदेवके दानयत्रसे- गुप्तसं.५८५ श्रादू क ख ग घ ङ च छ ज ८ ड त थ द ध न अमरूद स
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दहा पावन वसेत्। सूर परदा वायदा ६ सुंदर। राती ११ स परसा : पायलिया। वटा वीस नाया सुधको ट र वासिनः। मोदी
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लिपि पन १० वां- राजा विजयपाल के समय के अलवरके लेखसे वि० सं० २०१६ अाइउ ए ऐ क ख ग घ च जन ₹४३ | तथ धन प 993 V कपन3 (64u बभ म य रलव यसह का जा णा ति चि ती ली वराम य र
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लिपिपत्र वां- हैहय वंशके राजा जाजलदेव के समयके लेखसे चेदिसं. ६
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लियि पत्र २० वा- चौहाण राजा चाचिगदेव के लेबसे विक्रमीसं० १३१८ असा इ म ए क ख ग घ च छ ज झ ट ठ डर ग त अधा उप क ख ग बसकटगत थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह ज्ञ ड एण
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या शारासादात पतनयः श्रीमदाजादनाहा जाज्ञ तू तुन वनविदितश्चाहमानयवशायीनहाल शिवसवन साधर्मस
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लिपिपत्र २१ वां- बंगाल के राजाविजयसेन के समय के शिलालेखसे (वि०१२वीं शतारी) अ आ इ उ ए क ख ग घ च छ ज ज र ठ ड र ण ते म मा छ दशहा छ ट द 3 रठ ड थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह थदन घर वन न म घर लनवलपषभ है
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लिपिपत्र २२ वां- बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के दानपत्र से. (लक्ष्मणसेन) सम्वत् ७
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लिपिपर २३ वां- राजा दामोदरके समय के चितागौंगसे मिलेहुए दानपत्रसे. शकसं० १९६५ र उ ए : क ख ग घ ङ च ज ज र ८ ग त थ द का उपक शाह F 35 ८१ 5थद धन प फ भ म य र ल व श ष स ह त ॐ न <नन प प म त् तन व लषम 5 2 का वि ली कु तु पु शु सु तू भू सू के ने कै रो लो को कन का विती । 5 पृसु हम (क (न के ला ला के 7 क सि स्मी गच्च छि ज्ञा म ज एड न्धु म्भो धौ भ्य श्री ए स्वस्त क वि. FIFE6233 / त्र (ला (ती ) जीवावृप। 55 मम् का घ8 2055 ।। (पनि पाठवतश्विरबतलाय? त दवाविना वारि कर४ ललाट कम (कना ताम) को हरना। 5 काल सातक मिठता माति) कम्मी बना घालावान वतिन मन पव४ जागा पाया ८8 ।। समाFत नविन (म (केरवानां
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लिपि पत्र २४ बां- उडीसा के राजा पुरुषोत्तम देव के दानपत्र से (बि.सं。की १६ वीं शताब्दी)
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लिपिपत्र २७वां-सातवाहनांप्रभत्य)बंशकराना पुळुमायिकेलेखसे.पुग्माधिकाराज्यवरवा.
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लिपि पत्र २८ वां- यम्लव वंश के राजा विष्णु गोय वर्मा के दान पत्रसे. (वि.सं की ४ थी शताब्दी) अ उ ए क ग च छ ज झ ट 3 m त यद धन परम सरळEGET LOR
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लिपि पत्र वां- जान्हवी (गंगा) वंश के राजा कोडणी दूसरेकेदान पत्रसे (शक)सं०३०८
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लिपिपत्र २ क- चालुक्य वंश के राजा मंगलीश्वर के समयके लेखमे. शक संवत् ५०० अ उ क ख ग . च छ ज ज ट ठ ड ग त यद
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लिपिपत्र ३१वां- चालुक्य (पूर्वी)वंश के राजा अम्म दूसरे के दानपत्रसे (श०सं०वींश०) अ आ इ उ ए क ख ग च छ ज ञ ट ठ एए. तथद
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लिपिपत्र श्वां चालुक्य(पश्चिमीवंशकराजा विक्रमादित्यपहिलेके(जाली)दानयासे. शक सं०५३३. अ आ इ ऋ ए क ख ग घ च ज ञ ट ठ ॥ त थ द धन OM Byd Ideo 23 Lod म ब भ म य र ल व श ष स ह कलर
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लिपिपत्र ३४ बां- गंगा वंश के राजा नरेन्द्रवर्मा के दान पत्र से. गांगेयसंवत् ५१.
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लिपिपत्र ३५वां-जान्हवी (गंगा)वंश के राजा अरिवर्माके (जालीदानपत्रसे शकसं १६९ अ श्रा उ ए ओ क ख ग घ उ. च ज ञ ट 3 ए त थ द
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लिपि पत्र ३७ जां- काकत्य वंश के राजा रुद्रदेवके लेखसे. शक संवत् १०८४. भाइ ई उ ए कख ग घ च अट उटण त थ द ध G60 2
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लिपिपत्र ३० वां- प्राचीन तामिळ (वहेलन) लिपि (शक संवत की ८ वीं शताब्दी ).
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लिपि पत्र ३ वां- तामिळ लिपि (शक संवत् की ११ वीं से १४ वीं शताब्दी तक की ) .
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लिपिपत्र • वां - शब्दों और अंकों में दी हुईसंख्या विविध लेख और दानपत्रोंसे.
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लिमि यत्र ४१वां- प्राचीन अंक. नानाघा आधभूत्यों के शवोंके लेख म्युराके गुप्ता के | नयपाल के वल्लभी केदान पल्लवों के विविध लेख और दान पुस्तकों से. टके लेख लेखोसे. व सिहोते. लेवामा लेखोसे.
पत्रोंसे. दानपत्रोंसे पत्रों से..
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लिपियत्र ४२वां- प्राचीन अंक. अंधभूत्यो क्षत्रपोंके लेख वामथुरालेख
नयपाल के बल्लभी के विविध लेख । पुस्तकोसे. केलेखसे. कलेवास सिक्कोंसे
| लेखों से. दान पत्रोंसे. और दानपत्रसे।
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नानाम्रा प्रभोगें राष्ट्रकूटों नय पाल टके ले के लेख के दान के लेरको
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गांधार लिपि के अंक. भिन्न भिन्न लेखों से
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ये अक उलटे (पढ़े जाते हैं.
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लिप पत्र ४३ वा- प्राचान अक.
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नाना घाट श्राभ्रभृ· अमीरी के वाकाटक के लेख• त्यों केलें लेख
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वां-कश्मीरी और पंजाबी वर्णमाला व अंक.
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लिपिपत्र ५ वां-टाकरी और महाजनी वर्णमाला व अंक
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लिपिपरवा-कैथी और मैथिल वर्णमालावअंक.
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लिपिपत्र ७ बा- बंगला और उडिया वर्णमाला व अंक. अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋटल ए ऐ ओ औ अं अः बालाज जा ३ मे २ ७ ७७ अ९ : उडिया य या 0 8३ ३३४३ अ.
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लिपि पत्र ४८ वां गुजराती और मोडी वर्णमाला व अंक.
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लिपिपत्र वां- द्राविड और कनडीवर्णमाला व अंक.
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लिपिपत्र ५० वां- तुलु और तामिळ वर्णमाला. आ इ ई उ ऋ ऋ ल ल ए ऐ
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लिपिपत्र ५१यां- वर्तमान देवनागरी लिपि की उत्पत्ति.
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लिपिपत्र ५२ बां-भिन्नभिन्नलेख, दानपत्र और सिक्कों से लिये हुऐ अक्षर .
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