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जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि कृत.
॥ पूजा संग्रह।
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। श्रीमद् बुद्धिसागर सरिजी ग्रंथमाला ग्रंथांक ६० मणको.
-
शास्त्रविशारद योगनिष्ठ जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर
मूरिजी विरचित.
॥पूजा संग्रह।
साणंद संघ तथा गोधावी संघना जैन सद्गृहस्थोनी
द्रव्य सहायथी. छपावी प्रसिद्ध करनार, श्री अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंगल हा. वकील मोहनलाल हीमचंद.
मु. पादरा.
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आत्ति पहेली.
प्रत १०००.
संवत १९७९
सन १९२२ महावीर सं. २४४९, किंमत रु. १-०-०.
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आ पुस्तक मळवा- ठेकाj
वकील मोहनलाल होमचंद.
पादरा. (गुजरात)
तथा गांधी आतमाराम खेमचंद.
साणंद. (गुजरात)
श्री प्रजाहितार्थ मुद्रालय प्रेसमां पटेल, डाह्याभाइ दलप नरामे
छाप्यु. ठे० शाहापुर नवीपोळ-अमदावाद.
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निवेदन.
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अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडळ तरफ थी, श्रीमद् बुद्धिसागर ग्रन्थमालाना ६० मणका तरीके पूजा संग्रह ग्रन्थ के जेना रचयिता, शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिनी छे ते सं. १९७९ नी साला प्रारंभमां बहार पडयो छे. तेनी किंत रु. १-०-० राखवामां आवी छे. सूरिजी महाराज साहेबनी रखेली पूजाओं अपूर्व भाव रसवाळी अने अध्यात्मज्ञानभक्तिरसथी भरपूर छे. आ ग्रन्थ छपाववामां सद्गृहस्थ जैनो तरफथी भेट माथी किंमत जूज राखवामां आवी ले, आ मंडळ तरफथी सस्ती किंमते पुस्तको वेचाय छे, तेम जैन कोम सारी रोते जाणे छे. मंडळ तरफर्थी अनेक पुस्तक छपावीने बहार पाडवानी इच्छा थाय छे पग धनवंतोनी मदत विना ते कार्य बनी शके तेम नयी. मंडळनी पासे उत्तम फंड नथी. छतां ते सहायकारकोनी माथी उत्तम पुस्तकों बहार पाडया करे छे. जे जे गृहस्थोए आ पुस्तक छपाववामां धननी मदत करी ले तेओनां मुबारक नामोने अत्र धन्यवाद पत्रमा छपावामां आव्यां छे, तथा तेओए केटला रूपैयानी मदत करी छे पण धन्यवाद पत्रमां जणान्युं छे. अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल तरफ -
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४
थी तेओने धन्यवाद आपवामां आवे छे. जेओ अन्य पुस्तको छपावामां सहाय करशे तेओनो उपकार मानवामां आवशे अने पुस्तकोमां आपेला रुपैयानी यादी सहित तेओनां नामोने अक्षरदेहथी अमर करवामां आवशे.
मु. पादरा.
अध्यात्मप्रसारक मंडळ. सं. १९७९ कार्तिक पूर्णिमा.
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धन्यवाद.
आ पूजासंग्रह ग्रन्थ गुरुराजश्री शास्त्रविशारद जैनाचार्य योगनिष्ठ श्रीमद् बुद्धिसागरजी महाराज ज्यारे संमत १९७७ नी साधन चोमासु श्री संघना आग्रहथी साणंदमां रािजता हता, त्यारे महेता त्रिभुवनदास तथा चुनीलाल उमेद वगेरेए पोताना माइना स्मरणार्थे प्रसिद्ध करवा सहाय आपवानुं जणान्यायी तेमनी विनंतिथी मुरुमहाराजे रच्यो छे. केटलोक भाग साणंदमां, केटलोक भाम महेसाणामां अने केटलोक भाग गुरुराजश्रीए पोतानी जन्मभूमि विजापुर शहेरमा बनावेल छे. आ उपयोगी ग्रन्थना प्रकटार्थे नीचे जणावेल बंधुओ तरफथी द्रव्य सहाय मळी छे माटे ते आपनार अने अपावनार अने अपाक्वानी अनुमोदना करनार सर्वने धन्यवाद आपवामां आवे छे तथा द्रव्य सहायकोनी नोंच लेवामां आवे छे. सद्ज्ञानना प्रगटार्थे द्रव्य सहाय सर्वे करतां अति उत्तम अने प्रशंस. नीय छे, अने तेनुं फळ अनहद छे. ते दानवीरो जाणताज हशे. ३००-०-० महेता गोविंदजी उमेदभाइना स्मरणार्थे महेता त्रिभु.
वनदास तथा चुनीलाल तथा तेमना पुत्र दलसुख
भाइए आप्या. मु. साणंद १००-०-० महेता रायचंदभाइ रवचंदभाइए पोताना पुत्र त्रिभुवन
ना स्मरणार्थे मु. साणंह
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१९५-०-० बाइ मोघी महेता रायचंद करसनभाइनी पत्नीए
आप्या. मु. साणंद १८०-०-० गांधी वाडीलाल राघवजीनी व्हेन हरकोरे संवत्
१९७८ ना कारतक वदि ६ ना रोज गोधावीनो
संघ काढयो त्यारे आप्या ते. मु. साणंद ५०-०-एक ग्रहस्थ. मु. साणंद १५०-०-० शेठ छगनलाल गीगामाइ. मु. साणंद २५०-०-० शेठ भोगीलालमाइ वीरचंदभाइ जे. पी. गोधावी
हाल अमदावाद तथा मुंबई.
१०७५-०-०
उपत्नी विगते आ ग्रन्थमा मदद मळी छे. संवत १९७८ ना कारतक वदि ६ ना रोज वाडीलाल राघवजीए गोधावीनो संघ काढयो हतो, ते संघमां गुरुराजश्री पधार्या हता. ते वखते गोधावीमा साणंदथी आवेला संपने प्रेमजमण नवकारशी आपवामां आव्यु हतुं. अत्रे शेठ अमृतलाल केवळदासनी प्रेरणाथी पुस्तक प्रसिद्ध करवामां का. ५००) नी मदद मळी हती. जे पकी रु. २५०) नी नोंध आ अन्यमा लेवामां आवी छे, साणंदमां श्रीसागरगच्छमां घणाज वखतथी एक उपाश्रय नी खामी हती ते दूर करवा महेता रारचं कर.
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संवत १९७९
कार्तिक पूर्णिमा.
सनभाइनी विधवाए रु. १००००) दसहजारनी मदद आपवाथी बाकीना रुपीया श्रीसागर संघना काढी एक भव्य धर्मशाळा ( उपाश्रय ) बंधावेल छे. आ प्रमाणे आ पुस्तकना प्रसिद्ध करवा अर्थे जे जे बंधुओए सहाय आपी छे ते सर्वनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानवामां आवे छे. भविष्यामां आवा अनेक ग्रन्थो प्रगट करवामां तेओ सहायक बनो, एम अंतःकरणनी उंडी लामणीथी इच्छवामां आवे छे.
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लिं. अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडळ तरफथी. वकील शा. मोहनलाल हिमचंदभाइ.
मु. पादरा.
अने सद्गुरु चरणोपासक किंकर. शा. आत्माराम खेमचंद.
सु. खाणंद.
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॥ पूजा संग्रह उपोद्घात.॥
अनादिथी परमेश्वर के अने तेनी पूना पण अनादिकालथी छे. दरेक तीर्थकरनी अपेक्षाए आदि छे एम अपेक्षाए ज्ञानीओ जाणे छे. जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फल वगेरे पूजानां साधन वस्तुओ छे. अंगपूना, अग्रपूनामां साधन वस्तुओने उपचारे पूना कहेवामां आवे छे. द्रव्य पूजामां जलादि साधन पूजानो समावेश थाय छे. भावना, श्रद्धा, प्रीति, प्रभु गुणोनी स्तवना, तथा व्रतादि गुणोपडे प्रभुनी स्तवना करवी. प्रभुनी प्रभुना गुणो गाइ श्रद्धा पूर्वक भक्ति करवी, प्रभुना द्रव्य अने गाव अतिशयोनी स्तुति करवी. इत्यादि मानसिक सेवा भक्ति शुभ परिणामनो अने स्तुति पूजामय शब्दोनो भावपूजामा समावेश थाय छे. द्रव्यपूना अने भावपूना ए बे भेद पण प्रभुनी सेवा भक्तिरूप छे अने एवी सेवा भक्तिमां मतिश्रुत ज्ञान पण अंतरमा जाग्रत् होय छे, तेनी साथे चारिवनी भावनाओ पण उल्लसे छे झानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, जगत्मां अनादिकालथी सर्व देशमां अनेकरूपे होय छे. साधनभतिनी अपेक्षाए भावभक्तिना पण अनेक भेद पडे छे. दरेक धर्ममां भक्तिने प्रभुनी प्राप्तिनुं साधन मानवामां आव्युं छे. केटलाक मतवालाओ प्रभु परमात्माने साकार मानीने तेमनी भक्ति करे छे. मुसल्मानो अल्ला खुदाने अनंत नूरनो दरियो मानीने प्रभुनी भक्ति करे छे. वेदांतीओमा केटलाक मतवादीओ-रामानुज, रामानंद, मध्व,
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निबार्क, पल्लभाचार्य, स्वामीनारायण वगेरे परमेश्वरने साकार माने छ अने भक्तोना उद्धार माटे परमेश्वर वारंवार जन्म अवतार ले के एम माने छे. रामानुज वल्लभाचार्य मतवादीओ परमेश्वर सदा साकाररूपी रहे छ एम माने छे. शंकराचार्यवाळा वस्तुतः परमात्माने निराकार माने छे अने विवर्तवादनी दृष्टिए परमेश्वरनां अमुक प्रतीको कल्पीने तेने साकार इश्वर तरीके माने छे. नैयायिको अने वैशेषिको परमेश्वरने निराकार माने छे. पतंजलिए पातंजल योगदर्शनमां परमात्माने निराकार मान्यो छे. आर्य समाजीओ परमेश्वरने निराकार माने छे. स्त्रीस्तिओ परमेश्वरने साकार माने छे. बौद्धो परमेश्वरने साकार तथा निराकार माने छे. जैनो परमेश्वरने साकार तथा नि. राकार माने छे. हिंदुओ, मुसलमानो, स्विस्तिओ, जैनो, बौद्धो अनेक दृष्टिबिंदुओनी अपेक्षाए परमेश्वरनी द्रव्यपूजा तथा भावपूजाने माने छे. द्रव्य ते भावन कारण छे. साधनथी साध्यनी प्राप्ति थाय छ. ज्यां सुवी केवलज्ञानी परमात्माओ अघाती कर्मना योगे शरीरमा रहेला होय छे त्यां सुधी ते साकार परमेश्वरो छे, अने सर्व कर्मथी रहिन थै सि बुद्ध परमात्मा थाय छे त्यारे ते निराकार परमेश्वर तरीके गणाय छे. साकार परमेश्वरमां अरिहंत, जिन, आचार्य, उपाध्याय अने मुनि गुरुनो समावेश थाय छे. अष्टकर्म रहित सर्व शुद्धात्माओनो निराकार परमेश्वरमा समावेश थाय छे. आत्माना असंख्य प्रदेशो अने तेमा रहेल अनंतज्ञान ज्योति ने अनंत नूर तेज सागर कहेवामां आवे छे. श्रद्धामीति ज्यां छे त्यां अवश्य प्रतिमा
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पूजा आदि स्वयमेव प्रगटे छे. प्रेम त्यां प्रतिमा पूजा छे. साकारना प्रेम यी साकारनी पूजा थाय छे. अने निराकारना प्रेमथी निराकारनी पूजा थाय छे. साकारनी पूजा सिद्ध थया बाद निराकार प्रभुनी पूजा थइ शके छे. बाल जीवो, साकार प्रभुओनी भक्ति करीने हृदयनी शुद्धि करी शके छे. हृदयनी शुद्धि यया पछी ज्ञान प्रगटे छे अने ते ज्ञानथी निराकार प्रभुनी ध्यानरूप पूजा थाय छे. साकार पूजा ए प्रथम मोक्षमागर्नु पगथियुं छे. साकार पूजा करनार साकार प्रभु अने तेना वियोगमां साकार प्रभुनी तथा गुरुनी प्रतिमार्नु पूजन करे छ, तेनी दृष्टिमां प्रतिमामा साकार प्रभुनुं स्वरूप रमी रहे छे. - साकार प्रभुनी द्रव्य पूजाना अधिकारी गृहस्थो छे अने प्रभुनी भाव पूजाना अधिकारी मुनियो छे. जेवा प्रभुमां शुद्ध ज्ञानादि गुणो छ तेवा पोताना आत्मामांसत्ताए गुणो छे. प्रभुनी श्रद्धा प्रीतिथी प्रभुना गुणो प्राप्त करवा माटे प्रभु पूजानी आवश्यकता छे. प्रभुनी पूजा भक्ति करतां आत्मामा रहेला सद्गुणो प्रगटे छे अने आवरणो टळे छे, प्रभुना जे जे गुणोनुं बहु मान स्तवन करवामां आवे छे ते ते गुणो पोताना आत्मामां तिरोभावे-सत्ताए रहेला होय छे ते प्रगट थाय छे. प्रभुना गुणोर्नु बहु मान पूजा ते वस्तुतः पोताना आत्मानी पूजा छे, कारण के तेथी पोताना आत्मानी शुद्धि थाय छे अने गुणो प्रगटे छे. ___ ज्यारथी मनुष्यो छे त्यारथी गमे ते भाषामां अनेक रीते प्र. भुनी स्तुतिद्वारा पूजा करवानो रीवाज प्रवा करे छे श्री ऋषभदेव
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प्रभुयी ते श्री महावीर प्रभुनी पूजाओ ते ते कालमां ते ते देशमां प्रचलित भाषाद्वारा थती हती. पचनी पूजामां मुख्यभाव प्रेम होय के अने ते गये ते भाषाद्वारा बहार आवे छे. प्रभुना गुणोनी श्रद्धा श्रीति भावनाने भक्तो गमे ते भाषाद्वारा बहार प्रगट करे छे. पूर्वे संस्कृत भाषा अने प्राकृत भाषाद्वारा जैनो प्रभुनी पूजानां गाना गाता इता. संस्कृत प्राकृत भाषादिद्वारा प्रभुनी पूजा अने व्रतादि गुणोद्वारा थती प्रभु पूजाद्वारा जैनो प्रभुनी भक्ति करता हता. सोळमा या सत्तरमा सैकाथी गुजराती भाषामां प्रभुनी पूजाओ रचावा लागी. श्रीसकलचंद्र उपाध्याये श्री सत्तरभेदी पूजा रची ते पहेलांनी पूजाओ श्वेली न जाणत्रामां आवे त्यां सुधी गुजराती भाषामा प्रथम प्रजाना रचयिता श्री सकलचंद उपाध्यायजी गणावाना. श्रीसकलचंद्रजी उपाध्यायजी पश्चात श्रीयशोविजयजी उपाध्याय, श्रीज्ञानविमल सूरि, श्री विजयलक्ष्मी सूरि, श्री पद्मविजयजी पंन्यास, श्रीरुपविजयजी पंडित, श्री वीरविजयजी पंडित, आचार्यश्री विजयानंद सूरि, पन्यासश्री गंभीर विजयजी, श्रीमान हंसविजयजी, श्रीमान वल्लभविजयजी वगेरे आज सुधी पूजाओ रचनार थया छे. खरतरगच्छ, अंचलगच्छ वगेरेमां गुजराती भाषामां पूजाओना रचनार अनेक सूरि पंडित सुनिया के अने भविष्यमां घणा थशे. पूजाओ भणाववानो श्वेतांबर जैनोमां घणो रीवाज छे. सर्व पूजाओमां नव पदनी अने वीश स्थानकपदनी पूजाओ वधारे भणावाय छे. उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी, श्रीमद् देवचंद्र जी अने ज्ञानविपळजी सुरि ए त्रण
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नी नवपदनी स्तुतिनो संग्रह करीने कोइए नवपद पूजानी योजना करी छे. खरतरगच्छ अने तपागच्छ बन्नेमा ए नवपदनी पूजा भणावाय छे. श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत वीशस्थानकनी पूजानी जैनोमां घणी प्रसिद्धि छे. विद्वानो ते पूजाने भणावी विशेष हर्ष पामे छे. पूर्व पुरुष मुनिवरोर्नु अनुकरण करीने मारावडे प्रसंगोपात्त केटलीक पूनाओ रचाइ छे ते आ पूजा संग्रहनुं पुस्तक वाचतांज वांचको जाणी शकशे. __मारी बनावेली पूजाओ-चसो, विनापुर, साणंद, महुडी (मधुपुरी) मेसाणा, ए चार गाममा रचायेली छे, दरेकमां पूजा रच्यानो संवत् छे. विशेषमा गुरुपूजा अने प्रभु महावीर देवना यक्ष तरीके श्री घंटाकर्ण महावीरनी पूजाओ छे. त्रीजा, चोथा अने पांचमा परमेष्ठीमां गुरुतत्त्वनो समावेश थाय छे. श्रीमद् रविसागरजी गुरु महाराज अने श्रीमद् सुखसागरजी गुरु महाराज, ए बे परम उपकारी गुरुओना गुणनी पूजा रचवामां आवी छे. गुरुनी पादुका तथा मूर्ति आगळ अगर अन्यत्र गुरुनी स्थापना करी गुरु पूजा भणाववी. नवपदनी पूजामां अरिहंत, सिद्धनी पेठे आचार्य, वाचक, तथा साधुनी पूजा छे. गुरुमां आचार्य, वाचक, मुनिनो समावेश थाय छे, खरतरगच्छमां श्री जिनदत्त, तथा श्रीजिनकुशलमूरिनी पूजा भणवामां आवे छे. पूजाओनी चोपडीओमां दादानी पूजा प्र. सिद्ध छे, श्रीमद् रविसागरजी दादागुरु महा प्रभावक, चारित्रपात्र चूडामणि थया छे, माटे तेपनी पूजा रवेली छे, गुरुभक्तो गुरुगुण
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रागीओ गुरुनी पूजा भक्ति करे तेथी तेओना आत्मानी शुद्धि थाय a. श्री घंटाकर्ण महावीर ए जैनशासन देव छे, शांतिस्नात्रमां अष्टोचरी स्नात्रमां अने प्रतिष्ठा विधिमा श्री घंटाकर्ण वीरनी स्थाली यंत्रवाळी मंत्रीने वेदिका उपर स्थापवामां आवे छे. श्री सकलचंद्रजी उपाध्यायजीए प्रतिष्ठा विधिनी संस्कारित योजना करी छे. शांतिस्नात्र अने अष्टोत्तरी स्नात्र विधिनी योजना पण तेमना बखतमां तथा जगद्गुरु तपागच्छ गगनभानु समान श्री हीरविजयजीना बखतमां थरली छे अने ते वखते आचार्योए जैनशासन देवता तरीके श्री घंटाकर्ण महावीरनी प्रसिद्धि करी के अने ते परंपरा आज सुधी तपागच्छमां चाली आवे छे. श्री महुडी (मधुपुरी ) गाममां शासन यक्ष तरीके श्री पद्मप्रभु जिनेश्वर देवनी आगळ एक देरी करी श्री घंटाकर्ण महावीरनी मूर्तिनी अमोए प्रतिष्ठा करी छे. ते शासनयक्षनो चमत्कार प्रभावक सर्वत्र विस्तार पाम्यो छे. घंटाकर्ण कल्प वाचवाथ तेमनो प्रभाव समजाशे. जेटला शासन देवो अने देवीओ छे
ओ समकित धारी छे तेओ साघर्मिक बंधु तरीके छे. गृहस्थ थाबको जैनो तेमनी शासन प्रभावक साधर्मिक तरीके सेवा भक्ति करे अने तेथी शासनयक्ष देवो, गृहस्थ जैनोने धर्म साधतां संकट पडे छे ते काले सहाय करे छे. अमोए गृहस्थ जैनोने साधर्मिक देव तरीके तेमनी पूजा भणाववानो तेमनी मूर्त्ति आगळ अधिकार छे एवं जाणी तेओ माटे पूजा रचीछे के जेथी जैनो पोते, मिध्यात्वी देवो अने देवी
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ओनी सहाय छंडीने समकिती देवदेवीओनी सहाय पामी शके.- सम्म. दिही देवा दिंतु समाचि बोहिं च ( वंदितासूत्र ) ए वाक्यथी श्रावको सम्यग्दृष्टि देवोने कहाँ छे के हे सम्यग्दृष्टि देवो ! अपने समाधि अने बोधि- समकित आपो. सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जैनो सम्यग्दृष्टि देवदेवीना गुणोनुं स्तवन करी तेओनी द्रव्यपूजा करी शके छे. अष्टादश दोष रहित परमात्मा महावीर जिनेश्वरना सम्यग्दृष्टि देवो अने देवीओ सेवको छे अने ते जैनशासननी प्रभा'नामां मदत करे छे. तेमने साधर्मिक समकितदृष्टि देव तरीके मानवा पूजवामां दोष नयी. चक्रेश्वरी पद्मावती, माणिभद्र वगेरेनी देरासरोमां श्रावको पूजा करे छे तेम घंटाकर्ण वीरनी मूर्ति आगळ तेनी स्तुति करी तेनुं पूजन कर ए जैन शासननी सेवा करनार देवनी भक्ति छे. -
पूजा भणावनाराओए ज्ञानी मुनि वगेरेनी सेवा भक्ति करीने तेओनी पासेथी दरेक पूजाना अर्थ धारवा. दरेक पूजाना रागने धारवा. पूजाने सारी पेठे गातां शीखवं. पूजानां साहित्य तरीके जे जे वार्जित्र योग्य लागे ते वगाडतां शीखवुं, जे पूजा भणाववानी होय तेनो भावार्थ मथमयी समजी लेवो. एक सरखी रीते सर्व गानाराओए तालबद्ध गावुं. मुखे खेसनो छेडो राखवो पूजा एक सरस गानार उपाडे अने बीजा पाछळ ते पद्य गाय, बच्चे कोइ जातनी गरबड थवा न दे, बच्चे आडी अवळी वातो न करे, प्रभुना सन्मुख दृष्टि राखे, जे पूजामां जेवो भाव होय देवो परिणाम धारण
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करे, प्रभु वीतरागना गुणोनुं बहु मान करे अने आनंदथी गायतो पूजा भक्तिनुं वातावरण एq छवाइ जायके जेयी तहेतु अनुष्ठान अने अमृत अनुष्ठाननों आनंद रस प्रगटे. जिन मंदिरमा पूना भणावती वखते सर्व श्रावकोए नियमसर बेसवु. पूना भणाववामां विधिनो खप करवो अने आशातनाना दोषो टाळवा. वेठनी पेठे पूजा न भणाववी. मोक्ष माटे पूना भणाववी. सुन भक्त स्नात्रीयाओ करवा. पतासांनी लालचेज पूनामा सामेल थर्बु ते विषानुष्ठान छे, माटे पूजा भणाववामां, गावामां अने पूजा श्रवण करवामां खास लक्ष्य राखq. गातां आवडे, सारं गानारा गवैयाओ गाय, बाहिरनी सारी धामधूम देखाय; तेटला माटेज पूजामा जq ए, न धारयु. परंतु सारी रीते गावं. पूजाओ गातां तेना अर्थनो विचार करवो, आत्मामां प्रभु भक्तिनो हर्षोल्लास प्रगटाववो अने प्रभुवीतरागना गुणोने प्रगटाववा खास लक्ष्य राखी सर्व पूजानी साधन सामग्री सेववी अने साध्य लक्ष्यनो केन्द्रसमान उपयोग भूली न जवो. श्रीमद देवचंदजी महाराजे का छे के.
स्वामी गुण ओलखी स्वामीने जे भजे, दर्शन शुद्धता तेह पामे; ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीपी वाशे मुक्ति धामे, तार० ॥
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प्रभु महावीर देवना गुणोनो प्रथम जाणी अने पछी प्रभु महावीरादि देवनी जे पूजा सेवा करे छे ते आत्माना सम्यग् दर्शननी शुद्धता प्राप्त करे छे. सम्यग् दर्शननी शुद्धताना बळे ज्ञान चारित्र तप वीर्य गुणना उल्लासने प्रगटावीने ते आत्माना शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्र गुणने पामीने तथा अष्ट कर्मनो क्षय करीने मुक्ति धाममा वसे छे. प्रथम ज्ञान प्राप्त करीने पश्चात् पूजा वगेरेनी क्रिया करवी. गाडरीया प्रवाहनो त्याग करी प्रथम पूजाआनुं सारी रीते ज्ञान करवू. विद्वान साधु गुरु अने दक्ष श्रावक पासेथी पूजाओना अर्थ धारवा. एवी ते पूजाना गीतोद्वारा प्रभुनी पूजा करवाथी श्रावको मोक्षपदने पामे छे, त्यागी मुनियो प्रभुनी आगळ भावनाथी पूजाओ गाइ शके छे पण द्रव्य पूजा करता नथी. कारण के तेओए द्रव्य पूजानो त्याग करेलो छे. पूजा भणावतां आत्मोल्लासथी अनेक कमनी वर्गणाओनो क्षय थाय छे.
में यथाशक्ति पूजाओ रचवामां प्रयास कयों छे. समकित दृष्टिवाला जीवो श्री कृष्णनी पेठे तेमाथी गुण सार ग्रहण करशे अने मिथ्याष्टियो काकनी पेठे दोषो जोशे. गुणानुरागी जे भक्तो हशे तेओ अवश्य फल प्राप्त करशे.
वसो गामना संघना आग्रहथी पहेली अष्ट प्रकारी पूजा रचवामां आवी हती अने त्यां प्रथम देरासरमा भणावी हती. वास्तुक पूजा विजापुरमा वकील. शा. रीखवदास अमुलेख, दोशी. नथुभाइ
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मछाचंद वगेरेना आग्रहथी रचवामां आवी हती अने प्रथम शेठ. रखवदास अमुलेखना नवा घरमा भणाची हती. मोटी नवपदनी पूजा प्रथम महुडी गाममां श्रीपद्मप्रभुनी आगळे विजापुरनी अने साणंद श्रावकनी टोळीए सारी रीते भणावी हती. पूजासंग्रहमा आपेली पूजाओ जोवाथी मालुम पडशे के ते ज्ञानदर्शन चारित्ररूप मोक्ष मार्ग छे.. व्यवहारनय अने निश्चयनय एम बे नयनीस्या द्वादशैलीथी अनेकांतनय सहित पूजाओ रचेली छे, तेनो भाव उत्तम के. गीतार्थमध्यस्थभावी गुणानुरागी मुनियो पासे तेनो भावार्य धारवो. पूजाओमां रुचिभेदे कोइने कोइ रुचे छे अने कोइने कोइ रुचे छ. रुचिज्ञानमेदे जुदी जुदी पजाओ सर्वने रुचे छे. पूजानो सार ग्रहण करवो पजाओ पकी जेना जे अधिकारी हशे ते तेने ग्रहण करी भणावशे अने फल प्राप्त करशे. पूजासंग्रहने छपाववामां साणंद संघना श्रावकोए आगेवानीभर्यो भाग लीधो छे. शेठ गोविंदजी उमेदनी पाछळ तेमना भाइ त्रिभोवनदास तथा चुनीलाले तथा भाइ दलसुखभाइए धर्मदान करेलु, तेओए तेमनी नाम स्मृति माटे पूजाओ वगैरे रचवानो आग्रह कयों, तेथी निमित्त पामीने बाकीनी केटलीक पूजाओ रचाइ छे. पूजामंग्रह छपाववामां जे जे श्रावकोए धननी सहाय करी छे तेओने धन्यवाद आपवामां आवे छे. पूजासंग्रह प्रथमावृत्तिमा जे कंइ स्खलन, भूल, दोप रहेल जणाशे तेने द्वितीयावृत्तिमा सुधारी लेवामां आवशे अने बनशे तो वीजी पण केटलीक नवीन पूजाओ
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रची दाखल करवामां आवशे. पूजासंग्रहनां मुफ सुधारवामां मुनि कीर्तिसागरे मदत करी छे तेथी तेने धन्यवाद आपवामां आवे छे. जे कंइ वीतराग महावीर प्रभुनी आज्ञा विरुद्ध लखायु होय तेनो मिच्छामि दुक्कडं देवामां आवे छे. पूजा भणायनारा अने श्रवण करनाराओना हृदयमा सेवाभक्ति पूजाना परिणामनी वृद्धि शुद्धि थाओ.
इत्येवं ॐ अर्हमहावीरशांतिः ३
मु. महेसाणा.
सं. १९७९ कार्तिक सुदि शानपंचमी.
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१९
पूजासंग्रहनी प्रस्तावना, शास्त्रविशारद-कविराज, जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिकृत पूजासंग्रह खरेखर ज्ञान भक्तिरस अने चारित्र भावरसनो सागर छे. श्रीमद्नी रचेली पूजाओमां भाव मुख्य छे. जे जे विषयनी पूजा रचेली छे तेनु उत्तम हार्दिक स्वरूप चितयु छे, एटलुन नहि परंतु तेमां स्थळे स्थळे तेमना उद्गारो के जे ज्ञान भक्तिरसमय छे ते देखाय छे. कर्तार्नु ा हृदय नीतरे छे ते काव्य छे. आनंद रसना उभरा अने अनुभव ज्ञानना उभराओ ज्यां त्यां पूजाओमां वांचतां अनुभवाय छे ते सहृदय साक्षर पूजानुभवी भक्तो स्वयमेव जाणी शकशे. गुरुमहाराजे रागों के जे पूजाओमा प्रचलित छे तेमां पूजाओ रची छे. केटलीक पूजाओने रागणीओमां पण रची छे. पंचधा योग पूजा, अष्टांग योग पूजा, दानशीयल तपन्नाव पूजा, षडावश्यक पूजा, महावीर जन्म जयंती पूजा वगेरे पूजाओ के पहेला कोइए रची नहोती एवी पूजाओ रचीने तेमणे पूजारसिकोने नवीन पूजाओना आनंदरस आस्वादन प्रति आकर्ष्या छे. गुरुमहाराजनी रचेली पूजाओमां प्रासानुपास, झडझमक साथे आध्यात्मिक ज्ञान भक्ति चारित्र रसनो प्रवाह वह्या करे छे. तेपनी रचेली पूजाओ घणे ठेकाणे भणावधानी इच्छावाळा श्रा. चको ज्यां त्यां गामोगाम पूजासंग्रह बहार पडया पहेला अगाउथी
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मागणीओ कर्या करे छे. अष्टप्रकारी तथा वास्तुक पूजा आजसुधी घणा गामोमां शहेरोमां भणाववामां आवी छे. तेमनी रचेली नवपदनी मोटी पूजा पहेलवहेली विजापुर पासेना महुडी गाममां विजापुर तथा साणंदनी श्रावक टोळीए भणावी हती. गुरुश्रीए सत्तरभेदी पूजा एक दिवसमां पांच कलाकमां रची पूरी करी हती. पंचपरमेष्टी पूजा, षडावश्यक पूजा, अष्टांगयोग पूजा तथा पंचधायोग पूजा वगेरे पू. जाओ एकेक दिवसमां चार चार पांच पांच कलाकमां रची पूरी करी हती. गुरुमहाराज ज्यारे पूजा रचवा बेसे छे त्यारे गद्यना लखाणनी पेठे सपाटाबंध पूजाओ रची दे छे. शीघ्रकवि तरीके तेओ जाहेर छे. तेओए भजन पद्यसंग्रहना आठ भाग रची बाहेर पाड्या छे. तेमनी रचेली सत्तरभेदी पूजानो भावार्थ, आध्यात्मिक दृष्टिए उत्तम छे. वीश स्थानकनी पूजामां थोडी गाथाओमां घणो भाव समाव्यो छे. पहेलांनी अनेक पूजाओ छे. हाल पण केटलाक पंडित मुनिवरोए पूजाओ रखेली छे. भिन्न रुचिवाळा लोको छे तेथी आ पूजाओना रुचिवाळा जे लोको छे तेने आ पूजाओ भणावतां घणो भक्तिरस प्रगटशे तथा भविष्यमा जेओ आवी पूजाओनी रुचिवाळा जीवो प्रगटशे तेओने आ पूजाओ घणी उपयोगी थें पडशे. आचार्य महाराजजी भविष्यमां बीजी पूनाओ प्रसंगोपात्त रचे एवो संभव छे. आ पूजासंग्रहनी आत्ति खपी जतां बीजी आवृत्ति छपावतां भविष्यमां रचाशे ते पूजाओने पण आ पूजाओना सुधारा वधारा साथे दाखल करवामां आवशे.
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सज्जनो गुणानुरागी होय छे. दुर्जनो काकना जेवा दोष दृष्टिवाला छे. दुर्जन इालुओ तो छता गुणने पण अवगुण तरीके देखाडवानो प्रयत्न करे छे अने पयमांथी पूरा काढवा जेवी चेष्टा करे छे, एवा इालुओ उत्तम पूजाओ अने तेना रहस्यने दोषरूप देखाडवा प्रयत्न करे तेथी सज्जन गुणानुरागी समजु जनोने खराब असर यती नथी. जेओने सम्यग् दृष्टि प्रगटी होय छे तेओ तो श्री कृष्णनी पेठे ज्यां त्यां सारं देखे छे तेनी प्रसंशा करे छे अने गुणनारागी बने छे. जैन कोममा आचार्य महाराज साहेब जेवी प्रभावशाळी अल्प व्यक्तियो छे. तेमणे जैन कोमपर घणो उपकार कयों छ. जैनो अने हिंदुओ वगेरे सर्व कोमोमां, राजा रजवाडाओमां जैनाचार्य गुरु महाराजनी प्रतिष्ठा भारी छे, सर्व दर्शनवाळाओ ते. मना लेखोने ग्रन्थोने प्रेमभावथी वाचे छे, गुरु महाराजना रचेला अनेक ग्रन्थो छे. ग्रन्थमाळाना मणकामां आ अन्यथी वधारो थयो छे. तेमना हाथे विश्व लोकोनुं कल्याणथाय एवा ग्रन्थो हजीपणा लखाशे एवी इच्छा राखीए छीए. पूजाओमां ज्ञानदर्शन चारित्रादि गुणोनी भक्ति स्तुति अने ज्ञानादि गुणीओनी भक्ति करवामां आवे छे अने व्रत गुणोनी रुचि प्रगट थाय एवी भावना होय छे. आत्मानी शुद्धि करी आत्माने परमात्मा बनाववो अने अनंत जन्म जरा मरणना दुःखथी मुक्त थर्बु एज सर्व प्रकारनी पूजाओनो मूळ उद्देश अने उद्देश ग.मी 'पूजाओनो भावार्थ होय छे. वाचकोर पूजाओ गाइने बेसी न रहेवू पण तेनो भावार्थ ग्रहयो, सांभळी सांभळी फूटया कान-वाची वाची
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२२
फूटी आंख, गाइ गाइ थाक्युं मुख, एम गाडरिया प्रवाहे चालतां पूजानुं अने तेमां कहेवा भावनुं रहस्य समज्याविना आत्मानो आनंदरस प्रगटतो नथी. ज्ञानपूर्वक अने भावपूर्वक पूजाओ भणाववामां आवे छे तो वक्ताओने तथा श्रोताओने अत्यंत आल्हादभाव भक्तिरस प्रगटे के अने ज्ञानावरणीयादि कर्मोंनी निर्जरा थाय छे. आearni प्रभु भक्तिनो समाधिभाव प्रगटे हे तेथी प्रभुनो हृदयमां प्रगट भाव थाय छे. पूजाओ भणाववामां, श्रवण करवामां एकांत भक्तिनुं फल छे तेनो भावार्थ विचारी आत्मोल्लास प्रगटावतां उत्कृष्ट भावे क्षणमां मुक्ति थाय छे, भक्त जैनो आवी उत्तम पूजाओ भणावीने तथा श्रवण करीने प्रभु भक्तिना रसिया बनी आनंद रस पामो. एम इच्छं छं. सं. १९७९ का. सु ११ एकादशी. ॥
गुरुभक्त. लेखक. गांधी आत्माराम खेमचंद, महेता हरिलाल मंगळदास, मु. सानंद.
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प्रथांक
१
श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी ग्रन्थमाळामां प्रगट थयेला ग्रन्थो.
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क. भजन संग्रह भाग १ लो.
१
अध्यात्म व्याख्यानमाळा.
* २ भजनसंग्रह भाग २ जो.
* ३ भजनसंग्रह भाग ३ जो. * ४ समाधि शतकम्.
* ५ - अनुभव पच्चिशी, ६ आत्मप्रदीप.
** ७
भजनसंग्रह भाग ४ थो.
८ परमात्मदर्शन.
परमात्मज्योति.
* ९
* १० तत्त्वबिंदु.
* ११ गुणानुराग. [ आवृत्ति बीजी ]
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पृष्ठ
२००
२०६
३३६
२१५
६१२
२४८
३१५
३०४
नरक
५००
२३०
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२४
किंमत.
0-8-0
०-८-०
०-०८-०
०-८-०
०-८-०
०८-०
०-८-०
० - १२००
०-१२०
०-१-०
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२४ *. १२-१३. भजनसंग्रह भाग ५ मो तथा ज्ञानदीपिका.
१९० ०-६-.. * १४ तीर्थयात्रानुं विमान [आ. बीजी] ६४ ०-२-० * १५ अध्यात्म भजनसंग्रह
१९०
०-६-० * १६ गुरुबोध.
१७४ ०-४-० * १७ तत्त्वज्ञानदीपिका
१२४
०-६-० १८ गहुंलीसंग्रह भा. १
११२ ०.३-० * १९-२० श्रावकधर्मस्वरूप भाग १-२ [ आत्ति त्रीजी ]
४०-४०-१-० * २१ भजन पद संग्रह भाग ६ छो. २०८ ०.१२.० २४ वचनामृत.
०-१४.० २३ योगदीपक.
३०८ ०.१४.० २४ जैन अतिहासिक रासपाळा. ४०८ १-०-० * २५ आनन्दघन पदसंग्रह भावार्थ सहित. ८०८ २-०-० * २६ अध्यात्म शान्ति [ आवृत्ति बीजी] १३२ ०-३-० * २७ काव्यसंग्रह भाग ७ मो. १५६ ०-८-० * २८ जैनधर्मनी प्राचीन अने अर्वाचीन स्थिति.
०-२-० २९ कुमारपाल चरित्र (हिंदी)
०-६-०
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३००
२४०
०-४-० ०-४-० ०-४-०
१९६
११००-५-०
३० थी ३४ सुखसागर गुरुगीता. ३५ षड्व्व्य विचार. * ३६ विजापुर वृत्तांत. - ३७ साबरमती काव्य.
३८ प्रतिज्ञा पालन. ३०४ ३९-४०-४१ जैनगच्छमत प्रबंध
संघप्रगति जैनगीता. ४२ जैन धातुप्रतिमा लेख संग्रह ४३ मित्रमैत्री. ४४ शिष्योपनिषद्. ४५ जैनोपनिषद्. ४६-४७ धार्मिक गद्यसंग्रह तथा
सदुपदेश भाग १ लो. ४८ भजन संग्रह भा. ८ ४९ श्रीमद् देवचंद्र भा. १ ५० कर्म योग. ५१ आत्मतत्त्व दर्शन ५२ भारत सहकार शिक्षण काव्य.
१..०... ०-८-० ०-२-० ०.२-०
४८
९७६
९७६ १०२८
३-०-० ३-०-० २-०-० ३-०-० ०-१०-० ०.१०.०
१०१२
११२
१६८
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१९०
५३ श्रीमद् देवचंद्र भा. २ १२०० ३-८-० ५४ गहुली संग्रह भा. २
१३० ०-४-० ५५ कर्मप्रकृतिटीकाभाषांतर ८०० ३-०-२ ५६ गुरुगीत गुहलीसंग्रह
०-१२-० ५७-५८ आगमसार अने अध्यात्म गीता ४७०
०-६-. ५९ देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह. १७५ ___०-४-०
६० पूजासंग्रह ॐ आ नीशानीवाळा ग्रंथो सीलकमां नथी.
उपरनां पुस्तको मळवानु ठेका'.
वकील मोहनलाल हीमचंद.
(गुजरात) पादरा.
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जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिकृत पूजा संग्रह
विषयानुक्रमणिका.
स्नात्र विधि १ स्नात्रपूजा
लुण उतारण विधि....
आरती....
.
.
.
.
....
.
.
.
११७
मंगल दीवो २ नवपद बृहत्पूजा .... ३ पंचाचारपूजा.... .... ४ विंशस्थानक लघुपदपूजा ५ दशविधयति धर्मपूजा.... ६ चार भावनानी पूजा.... ७ दान शीयल तप भावनी पूजा ८ अष्टांग योगनी पूजा.... ९ नवा क्रियाभक्ति पूजा १० अष्टकर्म सूदनार्थ अष्टमकारी पूजा.... ११ षडावश्यक पूजा .... १२ अष्ट प्रकारी मोटीपूजा.... १३ वास्तुक पूजा १४ अष्टमकारी पूजा ....
१२९
१४९
११६ १२८ १४८ १७० १९० २०७ २३१
..
१७१
१९१
२०८
२३२
२४३
२४४
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२८
२७१
२८६
३०३
२५७ २७१ २८७ ३०३ . ३१४ ३३० ३३८
३१३ ३२९ ३३७ ३५०
.
.
.
१५ श्रीमद् रविसागर गुरुपूना १६ श्री सुखसागर गुरुपूजा.... १७ सत्तरभेदी पूजा १८ नवपद लघु पूजा . १९ पंचधा योगपूजा २० पंचपरमेष्ठी पूजा .... २१ महावीर जन्म जयंती पूजा ॥ २२ अष्टपकारी महावीर पूजा २३ घंटाकर्ण महावीर पूजा.... २४ घंटाकर्ण महावीर आरती २५ गुरुनी आरती २६ गुरु मंगल दीपक २७ जिनेश्वर आरती २८ मंगल दीपक
.
३५१
.
.
.
.
३६९ ३७८ ३७९ ३८० ३८१ ३८३
...
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२९
पूजासंग्रहनु अशुद्धि शुद्धि पत्रक, लीटी अशुद्धि
शुद्धि
घूनो
धूजो
गंधोदकथी
१६
.१४
१९
धोदकथी लह स्नात्रया भावरे जहजो अनंत बासना
३९
१४
स्नात्रीया भावेरे जेहजो अनंता वासना ओ ही
४८
१७
पुण्य
पुण्ये
तप पूजाना होरीना रागमां बीजा फ्रने अंते रे
अने तप एम बे सुधारीने वाचवू. २ कीधुं
दी) आस्रवने
आस्तव १६ लघि
लब्धि ज्यां ज्यां ब्रह्म होय त्वां ब्रह्म वांचवू. मैत्री भावनानी अरणिकवाळी देशी पूजामां बीना अने चोथा पदने अंते रे उमेरवो.
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पृष्ठ
११५
१४५
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१६०
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१८२
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२२४
लीटी
६
२
६
१३
३
१४
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१४
११
२
१०
२
१२
३
८
१२
११
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३०
अशुद्धि
करवा
शुद्धो
गुण न
शकियो
उपदर्शने
नानार
भवोद
तमोरेजो
सेवतारे
कथ्यां । र
बादीए
भाखमां
जयी
विकासरे
लाभार्य
परपुदल
पूजी
भवोदधिमा
बाघे
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शु
करवां
शुद्धो
गुण ने
शक्तियो
उपदेशने
नरनार
भवोदधि
तमोरजो
सेवनारे
कथ्यांसार
वांदीए
आंखमां
जेथी
विकासेरे
लाभार्थ
परपुद्गल
पूजा
भवोदधिमां
बांधेरे
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लीटी
३
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१५
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१
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१३
१५
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३१
अशुद्धि
मनमा
दीजी ऐ
द्रव्यार्थिकमये
शाश्वता
समकितदा
गुणंरगी
सबळा
पूजता
मारी
पुष्यं
टाळेरे
माहि
कया
कयां
कलश छे तेमांनो एक कलश भणाववो.
पूजतां
सारी
ग्राम
नैवेद्यं
निज
आखे
नमो
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शुद्धि
मनमां
दीजीए
द्रव्यार्थिकनये
शाश्वतां
समकितदाय
गुणरंगी
सवळा
पुष्पं
टाळे
मांहि
ग्राम
नैवेद्य. ॥
निज
आंखे,
नम्यो ||
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રૂર पृष्ठ लीटी
अशुद्धि
शुद्धि ३६१ १०
सद्सद् सदसद् ३६९ १२
भक्त छ
भक्त छ। ३७८ १७
स्मरतां समरंतां॥ सूचना-पूजा पूरी थतां ॐ ही श्री आदि मंत्र भणीने सत्तरभेदी तथा वीशस्थानकनी पूजा वगेरेमा पूर्वनी पूजाओनी पेठे संपूर्ण मंत्र मणवो. तथा अष्टमकारी पूजा विनानी बाकीनी पूनाओमा प्रत्येक पूजा दीठ अष्टपकारी पूजानो सामान ग्रहवो. वि० अन्य सूचनाओ वगेरे जे रही जती इशे ते द्वितीयात्तिमां दाखल करवामां आवशे.
इत्येवं ॐ अँह महावीर शांतिः ३
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जैनाचार्य बुद्धिसागर सूरिकृत स्नात्र तथा पूजा संग्रह.
पूजा संग्रह.
स्नात्र विधि. प्रथम दुध, दहि, घी, केशर, फुल अने जळनु पंचामृत करी बे कलश एक पाटली उपर चोखाना बे स्वस्तिक करी ते उपर मूकवा. कळशने महोडे नामाछमी बांधवी. एक त्रण बाजोठर्नु सिंहासन करी ते उपर प्रभुनी पधरामणीनुं सिंहासन मूको तेमां एक रकेबीमा केशरना बे स्वस्तिक करी, त्रण नवकार गणी एक धातुनी पंचतीर्थी प्रतिमाजी तथा एक सिद्धचक्रजीनी प्रतिमाजी पधराववां. प्रतिमा. जीनुं मुख उत्तर वा पूर्व तरफ राखी पधरावां. प्रतिमाजी नीचे एक पैसो मूकवो. सिंहासनना वचला बाजोठ उपर चोखानो एक स्वस्तिक करी एक फळ मूक. प्रतिमाजी पधराववाना सिंहासनना एक बेडे नाडाछमी बांधवी. एक रकेबीमा
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( २ )
थोमां बूटां फुल केशरवाला चोखा करी राखवा अने चामर, दर्पण, पंखो, घंट, विगरे सामान सिंहासन पासे राखवो. ज्यां वस्त्र चमाववानां आवे त्यां नाडाछमीनो ककको मूकवो, फूलनी अबत होय त्यां केशरवाळा चोखानो उपयोग करवो. स्नात्र जणाववावाळो माणस हाथमां फूल लइने उभो रहे अने विधि जणावनार माणस विधि शरु करे. कुसुमांजलि बोली 'फूल चढाव विधि जणावनार माणस कुसुमांजलि चढाववानुं कहे त्यारे जगवानने कुसुमांजलि चढाववी. सात वखत कुसुमांजलि चढावी रह्या पठो स्नात्रीयो हाथ जोगीने ऊभो रहे ने विधि जलावनार विधि बोल्ये जाय, ज्यारे 'शुभ लग्ने जन्म्या प्रभु' ए हो पूरो थाय त्यारे स्नात्रियो ऋण खमासमण देइ चैत्यवंदननी विधि प्रमाणे चैत्यवंदनं करे ते जयवीयरायनो पाठ ' आजव मखंमा ' सुधी कही हाथमां कळश लेइने उभो रहे ने विधि जणावनार
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(३) ज्यारे 'सौधर्मेन्द्रे पंच रूप करी' ए पद पूरूं बोली रहे त्यारे जळनो प्रभुने अनिषेक करे. पछी ते ढाळ पूरी थया पडी जगवानने सिंहासनमाथी बहार लश् चोखा पाणीथी न्हवण करावी अंगलूहांत्रण करी चन्दन पूजा करे. पछी आरति मंगल दीवो करवो.
आ विधि सामान्य प्रकारे लखी छे. परंतु ज्यां नामाबडी लखी छे त्यां उत्तम वस्त्रोनो उपयोग करे वा उत्तम उत्तम द्रव्यनो उपयोग शक्ति प्रमाणे करे तो ते उत्तम .
" अथ जैनाचार्य बुद्धिसागर सूरिकृत "
अथ स्नात्रपूजा प्रारंभ:
सर्वातिशये शोजता, प्रभु महावीर जिनेश, शासन नायक जगपति, प्रणमुं हुं विश्वेश. ॥१॥ प्रभु स्नाननी नावना, करतां शान्ति थाय; रोग शोक दूरे टले, स्नात्रपूजा महिमाय. ॥२॥
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( ४ )
कुसुमांजलि ढाळ. ऋषभदेव पूजा जाति कलशे न्हवरावे, इन्द्रो मनमां आ
नन्द पावे; प्रभु पूजा समकित प्रगटावे, प्रभु जाणी प्रभुने दिल लावे; कुसुमांजलिथी ऋषन पूजीजे, यही प्रभुगुण मन रीजी जे. ॥ १ ॥
( फूल चढाव . )
शान्ति जिनपूजा दुहो.
क्षायिक नव लब्धि प्रभु, शान्तिनाथ जगदेव; द्रव्यजावथी शान्तिने, पामो करीने सेव ॥ १॥
·
ढाळ.
सहजानन्द स्वावे शान्ति, केवल ज्ञाननी शोभे कान्ति; टाळे सर्व जीवोनी चान्ति, आपे तन्मय यातां क्षान्ति; चोसठ इन्द्रो सारे सेवा, पूजुं प्रणमुं शान्ति देवा ॥ २ ॥
( फूल चढाववुं. ४ )
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( ५ ) नेमिनाथ पूजा
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दुहा केवलज्ञानमां भासतुं, अणु सम विश्व सदाय,
ते नेमि प्रभु पूजीए, भाव ब्रह्म प्रगटाय. ॥ १ ॥
ढाल.
बाल्य की जे ब्रह्म व्रतधारी, अनन्त शक्तिमय अवतारी, केवलज्ञानथी जग हितकारी; मोह शत्रु हणी ए मोहारी, नेमि जिनेश्वरने पूजी जे, प्रभु स्वरूप थै प्रभु प्रणमीजे ॥ २ ॥
( फूल चढाव ३ )
पार्श्वनाथ पूजा
दुहा. पार्श्व प्रभु प्रमुं सदा, त्रेविसमा जिनराय; वन्दे पूजे भावथी, सिद्धे वांबित काज. ॥ १ ॥
ढाळ.
पार्श्वप्रभु जगमां जयकारी, परब्रह्म जगने सुखकारी; चोत्रिश अतिशयथी व्यवतारी, पांत्रिशवाणी
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गुणना धारी पार्श्व, पूजीजे ध्याने रहीजे, आत्मिक गुण प्रगटावी लीजे ॥ २ ॥ कुसुमांजलिए पूजा कीजे, प्रभु स्वरूप थावा दील कीजे ॥ २ ॥
( फूल चढाव. ४ )
वीरप्रभु पूजा.
डुहा. शासननायक जगधणी, परब्रह्म महावीर; सर्वदेवना देव जे, सर्वधीरमां धीर ॥ १ ॥
ढाळ.
प्रभु महावीर देव समरीजे, आविर्भावे आतम कीजे; वीर बनी महावीरने भजीए, कायरता दुर्गुएने तजीए. प्रभुचरणे कुसुमांजलि धरीए, धीर वीरता वेगे वरीए; देहाध्यास तजी वीर थायुं, ते माटे वीर गावुं ध्यावुं ॥ २ ॥
( फूल चढावतुं ५ )
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( ७ ) अथ सर्व जिनपूजा. सकल जिनेश्वर प्रेमे पूजो, अशुभ कर्मश्री भवि जन जो; कुसुमांजलि जिन चरणे धरीए, सहज स्वावे शिवपुर वरीए ॥ २ ॥ कुसुमांजलि पूजो सर्व जिनन्दा, तुज चरण कमल सेवे चोसठ इंदा.
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( फूल चढावुं. ६ ) इति चोवीशजिन पूजा.
सर्व जिन पूजा.
ढाळ.
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पन्नारक्षेत्रे अतीत कालमां, वर्तमानमां वर्त्तेजी, नाविकाले थाशे जे जिन; वीतराग गुण शर्तेंजी, एकसो ने सित्तेर तीर्थकर, उत्कृष्टा जे कालेजी. पूजुं बांडुं गावं ध्यावु, खातम जे अजवाले जो ॥ १ ॥ जन्मोत्सव कल्याणक उजवे, इन्द्रादिक बहुजावे जी; जन्मकाल तीर्थकर हुने, मेरुपर लेइ जावेजी; सर्व जाति कलशा अनिषेके, प्रेमे प्रभु न्हवरावेजी. एवा अरिहंता त्रण कालना, पूजीजे एक भावेजी ॥ २ ॥ ( फूल चढाववुं 3 )
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(८) आतम नक्ति मल्या केइ देवा. ए राग । त्रीजे नवे तीर्थकर कर्भने, बांध्यु वीरे नावे, द्रव्यभाव वरथानक तपथी, प्रशस्य रागना दावे, सर्व जीवोने धर्मी बनावं, सर्व विश्व उद्धारुं, रहे न जगमां को दुःखी, सर्व जीवोने तालं. ॥१॥ शुल उत्कृष्टा होंहासे, जिनवर नामने बांधे, अनन्त पुण्य ग्रहीने प्रभुजी, सकल जीव हित साधे, मानव आयुः पूर्ण करीने, दशमा स्वर्गमां जावे, पुष्पोत्तर वैमानिक सुरवर, स्वर्गतणां सुख पावे. ॥२॥ त्यांथी चवीने दक्षिण भरते, क्षत्रिकुंडपुरमांहे, त्रिशलासणी कुखमां आव्या, ज्ञातकुले उत्साहे, त्रिशला. माता स्वप्नो देखी, आनंद अतिशय पावे, नारतने उकरवा प्रगटया,प्रभुजी शक्ति प्रनावे ॥ ३ ॥ हाथी वृषजने केसरी सिंह, लक्ष्मी पुष्पनी माला, चन्द्र रवि ध्वज कलश मनोहर, सरोवर पूर्ण विशाला, सागर रत्ननी राशी अग्नि, निर्धूम चौद निहाळे, चौदे स्वप्ननो अर्थ सुणीने, आनंद जीधन गाळे,
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॥४॥ सिद्धारथराजाना हकमे, जोषीओ त्यां आव्या, पुर बाहिर सुरम्य सभामां,अर्थविचारे फाव्या, ज्योतिषियो भेगा थश्ने, बोले साची वाणी; तीर्थकर वा चक्रवर्ती तुज, पुत्र थशे गुणखाणी. ॥५॥ राजा राणी अति हरखायां, ज्योतिषी संतोष्या; दानादिकथी धर्मि लोको, याचकने संतोष्या; भारतमा सहु घरघर लोको, जाणी आनन्द पाया, त्रिशलामाता गर्भने पोषे, धरे निरोगी काया. ॥ ६ ॥ चैत्र शुदि तेरशना दिवसे, मध्यरीत्र थइ जाता; सर्व दिशाओ उज्वलशान्ति, आनन्दवाळी सुहातां; नव महिनाने सामा सातज, दिवस उपरे थातां; त्रिशलामाताए प्रभु जनम्या, त्रिलोके थक्ष शाता. ॥७॥ भारतदेशे घरघर मंगल, घरघर हर्ष वधाइ, सिद्धारथ राजा मन आनन्द, प्रगट्यो लोक न माय. ॥ ८॥ शुभ लग्ने जनम्या प्रभु, त्रणभुवन उद्योत; नारकी पण श्रानन्दीयां, जेनी अनंत ज्योत. ॥ ९ ॥
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(१०) हवे चैत्यवन्दन करवू तेनि विधि. वीर आसने बेसी बे हाथ जोमी प्रभुजी सामी दृष्टि राखी 'इच्छाकारेण संदिसह नगवन् चैत्यवन्दन करूं' इच्छं एम कही 'सकळ कुशळवा' कही जगचिन्तामणि कहे. पली जं किंचि नमथ्थुणं जावन्ति चेइयाई, जावन्त केविसाहु, नमोऽर्हत् कही उवसग्गहरं कहेवू, पनी आनवमखंमा सुधी अर्धा जयवीयराय कहेवा. आर्ह सुधि कही पली उभा थइ स्नात्रीआए कलश हाथमां लइ प्रभुजीना माबा अंग तरफ उन्ना रहेढुं पछी विधि करनार विधि भणे.
राग उपरनो. छप्पन दिक्कमरी तीहां आवे, प्रभु जन्मोत्सव हेते; प्रभु माताने प्रणमे प्रेमे, सूतिकर्म संकेते. आठे दिक्कुमरी वायुथी; कचरो करती दूरे, आठे कुमरी गंधोदकथी, सुगंध जलने पूरे ॥१॥ था कुमारी कलशा धारे, दर्पण आठे धारे; आठ कुमारी चामर
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(११) वींजे, भाव नक्ति अनुसारे. आठ कुमारी पंखा करती, रक्षा करती चारे; चार दीपकने धारे प्रेमे, निज बातमने तारे. ॥२॥ कदलीनां घर करी मनोहर, बाल प्रभुने लावे; पवित्र कर्मने करवा माटे, जल कलशे न्हवरावे; जलपुष्पे आचरणे पूजी, प्रभु शरीर शणगारे प्रभुना करमा राखी बांधी, (वधावी नाडाछमी मूकवी;) जय जय शब्दोच्चारे. ॥ ३॥ माता पासे प्रभुने मूकी, निज निज स्थानक जावे, इंद्रासन ते वखते कंपे, महा पुण्य सदनावे; अवधि ज्ञाने इंद्रे जाण्यो, प्रभु जन्म सुखकारी; सुघोषा
आदि घंटायो, वगमावे जयकारी. ॥ ४॥ पालक नाम विमानमा बेसी, इन्द्र बहु परिवार; अन्य वि. मानने वाहन बेसी, जि ऋद्धि अनुसारे; अन्य सुरोने देवीओ आवे, प्रभुने देखी वंदे, प्रभु अने प्रभु मात वधावी, इंद्र वदे गुण बंदे. ॥ ५॥ (फूल तथा केसर वाळा चोखाथी वधाववा.) जय जय माता जगमां जय जय, जय जय शब्दो बोले; त्हारो
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( १२ )
पुत्र जगतीर्थकर, को नहि तेना तोले; प्रतिबिंब मातानी पासे, मूकी प्रभु कर लीधा; पंचरूप इंद्रे निज कीधां, जावे कारज सिध्यां ॥ ६ ॥ मेरु उपर पांशुक वनमां, शिला सिंहासन ठावे; सौधर्मेंद्रे खोळा मांहि, प्रभु धर्याशुन जावे; चोसठ इन्द्रो, जाव धरीने, आव्या त्यां उल्लासे; निज निज शक्ति ऋद्धि जावे, इंद्रो पूर्ण विकासे ॥ ७ ॥ अच्युतेंद्रे औषधि तीर्थनी, माटी जल मंगाव्यां; आठ जातिना कलश भरीने, इंद्रो ए न्हवराव्या; फूल चंगेरी थाळ रकेबी, उपकरणो बहु जाति; प्रभुनी भक्ति करतां विध विध, निर्मल करता छाति ॥ ८ ॥ भुवनपति ने व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक बहु देवा, अच्युतपतिनी आज्ञा पामी, करता बहुविध सेवा; एक कोम ने साठ लाख सहु, कलशानो निषेक; अढीसे अनिषेक सहु मळी, सुर नहि चूके विवेक ॥ ९ ॥ (थोडो जळ अनिषेक करवो) इशान इन्द्रे करमांलीधा, प्रभुनी भक्ति कोधी; सौधर्मेन्द्र पंचरूप करी, भक्ति करी प्रसिद्धि; (संपूर्ण
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(१३) जळनो अनिषेक करवो.) पूष्पादिकथी प्रनु वधाव्या, श्रानंदना कल्लोले; मंगलदीवो आरति करोने, सुरवर जय जय बोले ॥१०॥ अनेक वाजिंत्रोने वजावे, अनेक नाचो नाचे, प्रभुनोजन्मोत्सव करीने, सर्व सुरासुर राचे; करमा धारण करीने प्रजुने, त्रिशला माता पासे; इन्द्रादिक बावीने बोले, पूरण हर्षोल्लासे ॥११॥ पुत्र तमारोप्रभु अमारो, सर्व विश्वाधार; तुज कुखे प्रभु जन्म्या माटे, विश्व मात निर्धार; पंच धाव सोंपी प्रभु क्रीमा,-करवा माटे बेश; बत्रीश कोटि रत्नादिकनी, वृष्टि करे हरे क्वेश. ॥१॥ (फूल केशरवाळा चोखा, नामाछमी विगरे प्रभु सन्मुख उछाळवं.) इंद्रादिक प्रभु वांदि पूजी, नन्दीश्वरमां जावे; अष्टान्हिका महोत्सव करीने, श्रानंद मंगल पावे; निज निज कल्प सधावे सुरवर, दीक्षोत्सव अनिलाषे; केवलज्ञान महोत्सव इच्छा,राखी हर्ष विकासे. ॥१३॥ प्रभु जन्मोत्सव भारत देशे, नक्ते कीधो नावे; घर घर आनंद मंगल वतों, स्नात्र महोत्सव दावे;
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(१४) सकल संघमां शांति वतों, इति उपद्रव शामो; स्नात्र महोत्सव सुणनाराने,-गानारा सुख पामो; ॥ १४ ॥ परब्रह्म महावीर प्रतापे, रोग टळो सहु जाति; पुष्ट देवना टळो उपद्रव, व्हेम टळो बहु भाति; गाम नगर पुर देशमा शांति, वतों प्रभु प्रतापे; आधि व्याधि संकट टळता, प्रभु महावीर जापे. ॥ १५॥ सर्व जगत्मा शान्ति वों, धर्मी बनो नरनारी, दोषो क्षय पामो नक्तिथी, जनो बनो उपकारी; झघमा युद्धो उपशम थायो, वृष्टि थशो मनमानी; पुण्य कर्म वधशो जगमांहि, वधशो शक्ति मानी. ॥ १६ ॥ तप गच्छ होर विजयसूरी जगगुरु, पट्ट परंपरधारी; पूज्य गुरु रविसागर प्रगटया, सर्वोपम जयकारी; शान्तिदायक सुखसागर गुरु, घर घर मंगलकारी; बुद्धिसागर सूरि आशीः, शान्ति लहो नरनारी ॥१७॥
फूल तथा केशरवाळा चोखाथी प्रभुने वधाववा.
पछी सिंहासनमांथी प्रभुजी तथा सिद्धचक्रजोने लश् चोखा पाणीयो पखाळ करी त्रण अंगबुहणां
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(१५)
करी केशर (चंदन) थी पूजा करी फूल चढाववां अने सिंहासन मध्येनी रकेबी मांथी पाणी काढी नांखी धोइ साफ करी फरी केशरना स्वस्तिक करी पधराववा. आरती मंगळदीवो प्रगटी बनेने नागाबकी बांधी एक रकेबी मां मूकी कंकुना छांटा नाखी चोखाथी वधाववा, रकेबीमां सोपारी तथा एक पैसो मूकी केबी बच्चे राखी स्नात्रियाने सन्मुख बेसामवो. केबीनी एक बाजु सात माटीनी कांकरी तथा सात मीठानी कांकरी लइ एक मीठानी कांकरी ने एक माटीन कांकरी ए रीते दरेक ढगलीमां मूकी सात ढगलीओ करवी. पछी बीजी तरफ जळनी कुंमी राखवी. स्नात्रियाने उभा पगे बेसामी मात्रा हाथ उपर जमणो हाथ रखावी विधि जपावनार माणस स्नात्रियाना हाथमां दरेक वखते एक मीठानी अने एक माटीनी कांकरी आपी ते साथे हथेलीमां चोखा पाणीना कलशमांथी थोकुं पाणी पे अने आरती मंगळ दीवानी रकेबी फरतुं लूप उतरावे. तेनी विगत.
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(१६) लुण उतारो जिनवर अंगे, निर्मल जलधारा मनरंगे. ॥ लुण ॥ १ ॥ जिम जिम तडतम लुण ज फ्टे, तिमतिम अशुन कर्म बंध त्रुटे. ॥ खुण ॥२॥ नयन सखुणां श्री जिनजीनां, अनुपमरूप दयारस भीनां. ॥ लुणा ॥ ३ ॥ रूप सलुएं जिनजीनुं दीसे, लाज्यु लुण ते जलमा पेसे. ॥ लुण ॥ ४॥त्रण प्रदक्षिणा देइ जलधारा, जल निखेवीए लुण उदारा ॥ लुण ५॥ जे जिन उपर दूमणो प्राणी, ते एम थाजो खुण ज्युं पाणी. ॥लुण ॥६॥अगर कृष्नागरु कुंदरु सुगंधे, धूप करीजे विविध प्रबंधे. ॥ लुण ॥७॥ एम सात वखत खूण उतारवं पली आरती उतारवी.
आरती. जय जय वीर जिनेश्वर देवा, सुर नर इन्द्र लहे सेवमेवा; बार गुणे गुणवंता प्यारा, त्रण जुवनना छो आधारा. जय जय. ॥१॥चोत्रीश अतिशय गुणगणधारी, पांत्रीश वाणी गुणे जयकारी. जय जय.॥२॥
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(१७) त्रिशलानंदन शिव सुखकारी, सिद्धारथ कुल शोनाकारी जय जय. ॥३॥ द्रव्य नावथी आरति करीये, मंगल माला सहेजे वरीये. जय जय.॥४॥ बुद्धिसागर प्रभु गुण लेवा, संघ चतुर्विध करे नित्य सेवा. जय. ॥५॥
पबी प्रजुजी न देखे तेवो रोते पडखे जश्ने अगर प्रभुजीना अने स्नात्रीया वच्चे अंतर पमदो राखी स्नात्र याना जमणा अंगुठा उपर कंकुनो चांमलो कराववो. पछी मंगळदीवो उतारवो. मंगळदीवो उतारतां कपुर लावेला होय ते सळगावी रकेबीमा मूकी मंगळदीवो उतारवो.
___ मंगळ दीवो. मंगलदीवो मंगलकारी, करीये जिन आगळ जयकारी, अरिहंत मंगल पहेलं जाणो. बाजु सिद्ध मंगल मन आणो. ॥१॥ साधु मंगल त्रीजुं लहीए, सद्गुण पामी शिवपुर वहीए. ॥०॥२॥ धर्म मंगल घो\ सुखकारी, चार मंगलनी छे बलिहारी. ॥ मंग
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( १८ )
||३|| भाव मंगल हेते चित्त धारी, मंगलदीप करे नरनारी ॥ मं० ॥ ४ ॥ बुद्धिसागर खानंदकारी, संघ चतुविध शोजाकारी ॥ मं० ॥ ५ ॥
इति स्नात्रपूजा समाप्त.
काय नवपद पूजा प्रारंभः ॥ प्रथम अरिहंतपद पूजा ॥
नमुं स्तवं अरिहंतने, गेय ध्येय कारिहंत. प्राप्य प्रभु पद एह छे, जेना रागी संत. ॥१॥ विश स्थानमां कोइ पण, एकाराधन योग तीर्थकर पद संपजे, अनंत पुण्यनो जोग. ॥२॥ त्रीजे जव आराधना, अरिहंत आदि थाय; शुभ उंचा परीणामयी, अर्हत् पद बंधाय ॥३॥ सर्व जीवो उद्धारवा, धर्मी करवा काज; उत्कृष्टा परिणामथी, बांधे पद जिनराज. ॥४॥ तीर्थकर परमातमा, त्रण कालना जेह अरिहंत ते सर्व बे, घाती हल्याथी एह. ॥५॥
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(१९) श्री अरिहंत पद गाइए, भ्याइजे सुखकाररे; अरिहंत जेवा थाइए, दोष रहे न लगाररे. श्री अरिहंत० ॥१॥ नमण उवण द्रव्य भावथी, अरिहंत गातां ध्यातारे; बातम अरिहंत पद वरे, कर्म सकल दूर जातारे. श्री अरिहंत० ॥२॥ वीश स्थानकने सेवतां, द्रव्य भावथी भावरे; तीर्थकर कर्म बंध ए, पूर्व त्रीजा भव थावेरे. श्री अरिहंत० ॥३॥ वींश स्थानमय आतमा, भावथी हर्षोल्लासेरे; उज्ज्वल शुभ परिणामथी, अर्हत् पदवी प्रकाशेरे. श्री अरिहंतः ॥ ४ ॥ अरिहंत नामना जापथी, स्थापनामां प्रभु ध्यावरे, द्रव्य भाव चे नेदची, बातम जिनवर आवेरे. श्रीअरिहंत० ॥ ५॥ तीर्थकर नाम कर्मने, बातम ज्यारथी बांधेरे, द्रव्य तीर्थकर त्यारथी, क्षीण मोही गुण साधेरे. श्री अरिहंत० ॥६॥ जन्ममकी त्र ज्ञान छे, मति श्रुत अवधि प्रमाणोरे, चोधुं दीक्षा ग्रहे थके, मन पर्यव दिव बालोरे.धी अरिहंत ॥७॥ण स्थानक योगायकी वाल्मा
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( २० )
पर्यंत जाणोरे, द्रव्यथी तीर्थकरपणं, आलंबन शुभ आणोरे श्री अरिहंत० ॥ ८ ॥ उपशम क्षयोपशम
ने, क्षायिक समकित भावेरे; चरणमां क्षयोयशम पणुं, द्रव्य तीर्थकर दावेरे. श्री अरिहंत० ॥ ९॥ भावथी तीर्थकर प्रभु, समवसरणमां सोहेरे; क्षायिक नवलब्धि धणी, भव्योनां मन मोहेरे. श्री अरिहंत• ॥ १० ॥ अंतर क्षायिक भाव छे, यदयिक कर्मे प्रवर्तेरे; आत्मपणुं परीणामथी, आराधीए शुभ रीतेरे. श्री अरिहंत० ॥ ११ ॥ प्रारब्ध कर्म
घातियां, तीर्थकर भोगवतारे, जीवन्मुक्त जिनेश्वरा, ध्यातां कर्मों टळतारे. श्री अरिहंत० ॥ १२ ॥ बार गुणे प्रभु शोभता, विश्वोद्धारक देवारे, असंख्य देवोने देवीओ, करती प्रभुनी सेवारे. श्री अरिहंत ॥ १३ ॥ निश्चय अरिहंत आतमा, राग द्वेषने हणतारे; क्षयोपशम उपशमक्षये, शुद्धातम पद वरतांरे; वीर जिनेश्वर उपदिशे, आतम अरिहंत देवारे; बाहिरमां मुंझो नहीं, निज निजनी दिलसेवारे. वीर०
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(२१) ॥ १४॥ निश्चय समकित चरणथी, आपोआप प्रकाशेरे. असंख्य योगनोजेपति,आतम ज्योते विलासेरे. वीर० ॥१५॥ शुझ ब्रह्म निजातमा, असंख्य प्रदेशी पोतेरे; सेवा भक्ति ज्ञानथी, प्रगटे अनंती ज्योतेरे. वीर० ॥ १६ ॥ आतम ते अरिहंत छे, प्रेमे गावो ध्यावोरे, बुद्धिसागर आतमा, अनंत आतम पावोरे. वीर० ॥ १७ ॥
अर्हत्पदं नौमि गुणैर्युतं च। स्वाभाविकं शुद्ध मनन्तरूपम्॥ पूज्यंपरब्रह्म जिनेश्वरं च ।
द्रव्येणभावेनचपूजयामि ॥ १॥ ॐ अपरमेश्वराय सर्व देवाधिदेव पूजितायच श्रीमते जिनेन्द्राय जलं, चंदनं, पुष्प, धूप, दीपं अक्षतं, तण्मुलं, नैवेद्यं, फलं, च यजामहे स्वाहा ॥
॥ इति अर्हत्पूजा समाप्ता ॥
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(२२) द्वितीया सिद्धपूजा. अरिहंत उपदेशथी जेह जाण्या, नमुं (सद्ध ते शुद्धरूपे प्रमाण्या; अतःआदिमां पूज्य अरिहंत देवा, पलीथी करुं सिद्धनी शुद्ध सेवा. ॥१॥ अनंता थया सिद्ध थाशे अनंता, परब्रह्म ज्योति स्वरूपी भदंता, परिपूर्णज्ञाने थया जेह सिद्धा; अयोगी अनोगी अवेदी प्रबुद्धा.॥२॥
त्रीजे नव वरथानकतपकरी. ए राग. कर्मातीत निरंजन निर्मल, निःसंगी निष्कामी; सापेक्षाए रूपी अरूपी, वर्ते आतमरामीरे, नविका सिद्ध प्रभु आराधो, यातम शद्धि साधोरे. भविका, सिद्ध० ॥१॥ एक समयमा सर्व द्रव्यना, गुण पर्यायने जाणे; देखे यानंद नोगे वर्ते, व आत्मिक प्राणेरे. नविका. सिद्ध० ॥२॥ द्रव्यथी सिद्धो शोले अनंता,सिद्ध क्षेत्रे प्रसिद्धा;एकसिद्धने आश्रयोआदि, अनंत गुण समृद्धारे. नविका. सिद्ध ॥३॥ अंतर रहितने अजर अमरजे, नहीं मन वाणी काया;
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(२३) संसारी जीवोना जेओ, अनंत जागे सुहायारे. भविका. सिक० ॥४॥ क्षायिक भावे सिद्ध थया जे, पुद्गल संगथी न्यारा; परिणामिक भावे जीवनता, जेहने नहीं थाकारारे. भविका. सिद्ध० ॥५॥ वर्ण गंध रस स्पर्श रहित जे, आप स्वरूपे रुपी; पुद्गल रूपेजेह अरूपी, वर्ते रूपारूपीरे. भविका. सिद्ध०॥६॥
आठे कर्मनो नाश करीने, आठ गुणे जे शोभे; व्यतिरेकी एकत्रिंश गुणी जे, भविजननां मन थोभेरे. भविका. सिद्ध ॥७॥ अनंत गुण पर्याये जेओ, आविर्भावे सुहावे; प्रणमुं गावं ध्यावं सिद्धो, मोह टळे सुख थावेरे. भविका. सिद्ध० ॥ ८॥ अनंत सिद्धनी ज्योतिमांही, अनंत सिद्धो ज्योते; त्रण कालमां नित्य जे जेओ, जीवे भावोद्योतेरे. भविका, सिद्ध० ॥९॥ सिद्ध स्वरूपी बातम भावी, सिघानंदने पामे; एक समयमा ऊर्ध्वगातथी, सिद्ध स्थानमो जामेरे. भाविका. सिझ०॥ १० ॥ आत्मिक शुद्ध समाधि प्रकटे, मुक्तिनुं सुख प्रगटे; निर्विकल्प समा. धि ज्ञाने, सर्वावरणो विघटेरे. भविका. सिद्ध० ॥११
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(२४)
नाम स्थापना दव्यने भावथी, सिद्धो वंदो ध्यावो; आपोआप स्वरूपे सिद्धो, परमानंदने पावोरे. भविका. सिद्ध० ॥ १२ ॥
वीर जिनेश्वर उपदिशे. ए राग. प्रभु महावीर उपदिशे, त्रण भुवननो राणोरे; अनंत गुण पर्यायी बे, आतम प्रभु घट मानोरे, प्रभु० ॥ १३ ॥ निज आतम ते सिद्ध बे, जीव बे ते शिव जाणोरे; शुद्धोपयोगे आतमा, परब्रह्म प्रमाणोरे प्रभु० ॥ १४ ॥ आरोपितपुद्गल दशा, तेथी आतम न्यारोरे; शुद्धातम उपयोगथी, सिद्ध स्वयं आधारोरे. प्रभु० ॥ १४ ॥ अनंत ज्ञानानन्दनो, आविर्भाव स्वभावेरे; बुद्धिसागर आतम, परमेश्वर निजभावेरे. प्रभु० ॥ १६ ॥
विरहितानपि कर्मभिरष्टभिः सहजसिद्ध गुणाष्टक धारिणः । समयदेशपदान्तरमस्पृशः, सकल सिद्धि गतान्परिपूजये ॥ १ ॥ ॐ ही श्री परम
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(२५) तृतीया आचार्यपद पूजा. बत्रीशी छत्रीशी गुण व सूरिपद सुखकार; गातां पूजतां ध्यावतां, सूरिपणुं निर्धार. ॥ १ ॥ द्रव्य क्षेत्रने कालथी, भावथी सूरि महंत; तीर्थेश्वर पाबळ प्रभु, राजा शोभे संत ॥ २ ॥ जिन शासन साम्राज्यमां, संघ चतुर्विध भूप; वर्तमानमां संघना, प्रभु जे धर्म स्वरूप ॥३॥
धन्य धन्य संप्रति साचो राजा. ए राग. प्रेमे प्रणमुं श्री सूरीश्वर, जैनधर्मना धोरीरे; चार प्रकारे संघोन्नतिनी, जेना हाथमां दोरीरे. प्रेमे. ॥ १ ॥ सूरि मंत्रनो जाप करने, धर्माचार प्रचारेरे; पंचाचारने पाळे पळावे, संघनुं श्रेय विचारेरे, प्रेमे. ॥ २ ॥ द्रव्यादिक अनुसारे वर्ते, संघने जे वर्तावे रे; बत्रीश उपमा जेने छाजे, धर्मने रक्षे भावेरे. प्रेमे. ॥ ३ ॥ गौणने मुख्यपणे सहु आशय, सर्व धर्म समजावेरे, सर्वनयोनी सापेक्षाय, स्वाधिकार जपावेरे प्रेमे० ॥ ४ ॥ द्रव्यजावथी सर्व संघनी, प्रगतिने
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(२६) उपदेशेरे; कार्यों करता निलेपी थे, रहे न मनमा क्लेशेरे, प्रेमे ॥ ५॥ त्यागी गृहस्थी बन्ने संघने, उत्सर्गने अपवादे; धर्माचार विचार जणावे, आ. स्मिक सुखने आस्वादेरे. प्रेमे० ॥६॥ तीर्थपति समसंप्रतिकाले, धर्म करावे बोधेरे; तीर्थकरसम आज्ञाकारक, संघने रहे अक्रोधेरे. प्रेमे० ॥ ७ ॥ द्रव्यने भावथी संघ जीवनने, शासन उन्नति काजेरे, जे काले जे क्षेत्रे करवं, आज्ञा करी जग गाजेरे, प्रेमे० ॥ ८ ॥ प्रतिरूपादिक चौद . गुणोना, धारक योगी ज्ञानीरे; क्षमा प्रमुख दश धर्मना धारक, समभावोने ध्यानीरे. प्रेमे ॥ ९॥ बार भावना चार भावना, भावे विकथा वारीरे; चार अनुयोगने वर्तावे, सर्व प्रमादने वारीरे. प्रेमे० ॥ १० ॥ करवू करावने अनुमोदबुं, जे जे योग्य ते करतारे; गामरीया प्रवाहे न चाले, स्वतंत्रता दिल धरतारे. प्रेमे ॥ ११ ॥ सूत्रो शास्त्रो ग्रन्थो आदि, परंपरा सहु जाणेरे; अनुभवथी एक निश्चयधारी, संघर्नु
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( २७ )
शैक्य जे मानेरे. प्रेमे० || १२ || निश्चयने व्यवहारे बसें, संघना क्यने सधिरे; एवा आचोरोने विश्वारो, आपी गुणोथी वाघेरे, प्रेमे० ॥ १३ ॥ सारण वारण चोयणने जे, पडिचोयण गुणधारीरे; जे श्रुत केवली स्वपर समयना, ज्ञाता गुणगण धारीरे. प्रेमे० ॥ १४ ॥ तीर्थकर सम सूरि करे ते, क्षेत्रने कल्पानुसारेरे; धर्माचारमां जेह सुधारो, करता स्वाधिकारेरे, प्रेमे० ॥ १५ ॥ पडया पडता क्षुद्र प्रभेदो, टाळे उदार विचारेरे; बाह्यराज्यसम धर्मराज्यना, उन्नति हेतु धारेरे, प्रेमे० ॥ १६ ॥ चार निक्षेपे सूविर पूजो, वंदो गावो ध्यावोरे, बुद्धिसागर परम प्रभुता, परमानंदने पावोरे, प्रेमे० ॥ १७ ॥
आतम ते आचार्य छे, उपादान स्वभावेरे, क्षयोपशमने उपशमे, क्षायिक गुणगणदावेरे. आत्म० ॥ १८ ॥ पूजो वंदो जावथी, गावोने मन ध्यावोरे, आत्मस्वभावे सहजथी, शुद्धोपयोगे सुहावोरे, आतम० ॥ १९ ॥ आतमना
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(२८) एकतानथी, सर्व शक्तियो उल्लसेरे, बुद्धिसागर आतमा, सूरिपद गुणथी विकसेरे. आतम ॥२॥
स्वपरशास्त्ररहस्य निवेदिनः चरितपञ्चविधाचरणानपि, जिनसुधर्मधुरीणतया स्थितान्, सकल सूरिवरान्परिपूजये ॥ ॐ है। श्री परम० स्वाहा.
चोथी उपाध्याय पद पूजा. पंचविंशति सद्गुणे, उपाध्याय भगवंत, भणे भणावे शास्त्रने, पूजो वंदो संत० ॥ १॥ गुणो अने आचारथी, आत्म शुद्धि करनार, उपाध्याय जगमां जया, युवराजा जयकार ॥२॥ उपाध्यायन। भक्तिथी, प्रगटे दर्शनज्ञान, वाचंयम पाठक नमो, पूजो धरी एक तान० ॥ ३ ॥
सिद्धचक्रनी सेवा को जे. ए राग.
उपाध्यायनी सेवा कीजे, विद्यमान सुखकारीजी, विद्यमान पाठकनो भक्ति, करतां तरे नरनारी, भविजन सेवोजी, त्यागी सर्व प्रमाद, ल्हावो लेवोजी० ॥ १॥ अंग उपांगना पाठकज्ञानी, भणे भणावे
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(२९) भावजी, जैनधर्म फेलावे जगमा, पुण्ये दर्शन थावे. भवि० ॥ ५ ॥ ज्ञानावरणी आदि को, अनंत क्षय झट थातांजी. पाठक प्रभुना वैयावच्चथो, आत्मस्वभावे सुहातां. भवि० ॥ ३ ॥ वर्तमानमा तरतमयोगे, वर्ते पाठक जेवाजी, गुणनी दृष्टि धारी घटमां, करीए भावे सेवा. भवि० ॥ ४ ॥ विनयने बहुमानथी सेवा, चार निक्षेपे करीएजी, जीवता वाचंयम सेवो, समकित चारित्र वरी ए. भवि० ॥५॥ निश्चयथी निश्वयमा वतें, व्यवहारे व्यवहरताजी; उत्सर्गने अपवाद विचारी, क्षेत्रकाळ अनुसरता. भवि०॥३॥पंच समिति त्रण गुप्ति धारे, जैन धर्म विस्तारेजी, निज निज अधिकारे सहु वर्णने, राखे स्थिर आचारे. भवि० ॥७॥ सर्व संघनी द्रव्यभावथी-चढती हेतु प्ररुपेजी; कर्म करे सहु अक्रिय थैने, निष्कामी निज रूपे. भवि०॥८॥ शासन सेवा संघनी सेवा, करता अर्पाइ जाताजी; वेष क्रिया कुल्लक मत भेदे, संघभेदे न रहाता. भवि० ॥९॥ भव्य जीवोनी द्रव्य भावथी, आतम शुद्धि करताजी; ज्ञानक्रिया
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(३०) भक्तिने समाधि, अनेक योगने धरता. नवि० ॥१०॥ सूरिजी राजाने मंत्री, पाठक संघना हेतेजी, पूजी वंदी स्तवीने ध्याइ, रहीए शिव संकेते. भवि० ॥११॥ तरतम योगे द्रव्यनावयुत. उपाध्यायने नजीएजी; पंचमकालने क्षेत्रानुसारे, वर्तताने यजीए, भवि॥१॥
निज आतम निश्चय प्रभु, पाठक जाणीध्यावीरे; उपाध्याय ते तमा, अंतरमा लय लावोरे, निज ॥ १३ ॥ अनंत गुणी आतमप्रभु, अनंतlवी पोलेरे, धारणा ध्यान समाधथी, वर्ते आनंद ज्योतेरे. निज ॥ १४ ॥ शुद्धातम उपयोगथी, सहजे आत्मस्वभावेरे, सर्व करे निर्बध जे, मोहनी वृत्ति हगवेरे, निजण ॥१५॥ अशक्य कांइ न आत्मने, अनंत शक्ति स्फुरा. कोरे, बुद्धिसागर आतमा,श्रद्धाभकिथीजाबोरे, नि०१६
जडिमधौर्यविनेयगणेषु ये। प्रचित्तबुष्टिक्साश्च गतस्मयाः ॥ शुखसुमसुधारसवाहिनः । प्रतिदिने प्रणमामि सुपामकान् ॥
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( ३१) पंचम साधुपद पूजा.
दोहरा. अप्रतिबद्ध जे विश्वमां, कर्म योगी निष्काम; साधे आतम साधना, रमता आतमराम. ॥१॥ मुनि तपसी अनगारी जे, साधु संयत नाम; यति ऋषि त्यागी श्रमण, आर्य भिक्षुक गुणधाम. ॥॥ थाश्रव त्यागी महंत जे, अनेक जेनां नाम; वंदो पूजो प्रेमथी, संत प्रनु विश्राम. ॥ ३ ॥ ॥ श्रोधवजी संदेशो कहेजो श्यामने ए राग ॥
प्रीतलमीने सांधो साधु साथमां, साधु संगते प्रभुनां दर्शन थाय जो, पंचम आरे दुर्लभ साधु संगति, मुनि भजतां जन्म जरा दुःख जाय जो,प्रीतलडी० ॥१॥ साधु संगतथी समकित प्रगटे खरु, ज्ञान अने चारित्र भलु प्रगटायजो, संतनी संगे रहीए श्रद्धा प्रेमथी. एक पलकमां धार्य निश्चय थाप जो. श्रीललडी ॥२॥ पंचम आरे मुनिनी श्रद्धा प्रीतडी, करतो आतम परमातम झट थार
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(३२) जो, संस्कारी भव्योने जक्ति सांपडे, गुण रागे सवळी बुद्धि प्रगटाय जो, प्रीतलडी० ॥ ३ ॥ यम नियमने आसन प्राणायामथी, प्रत्याहारने धारणा ध्यानथी जहजो, आत्म समाधि योगे घटमां वर्तता, निष्कामीने सम ने वनने गेहजो, प्रीतलडी० ॥ ४ ॥धीरे धीरे मनने साधे साधुजी, सद्गुण साधे करता दुर्गुण त्यागजो, आसक्ति वण आचारोमा वर्तता, मुनिपर धारो स्वार्पण करीने रागजो, प्रीतलडी० ॥४॥ श्रात्मशुद्धि हेते सापेक्षे साधना, गौणने मुख्यपणे जाणे जे योगजो, उत्समेंने जे अपवादे वर्तता, निर्लेपी थै भोगवे सुख दुःख भोगजो, प्रीतलमी० ॥६॥
आपत्काले आप धर्मे वर्तता, बाह्य संगमांजे दिलमा निःसंगजो, ध्येयपणे निज दिलमां प्रभु प्रगटावता, प्रगटे मुनिनी संगे बातम रंगजो; प्रीतलडी० ॥ ७ ॥ अंतर बाह्यनी ग्रन्थिमां ममता नहीं, गुरु आज्ञाए सर्वे कर्ता कर्मजो. निर्भय खेदरहित अद्वेषी साधुजी, समताभावे अनुभवे शिव
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(३३) शर्मजो. प्रीतलडी ॥८॥ समभावे मुक्ति छे सहु दर्शन विषे, क्रिया पंथ मत बाह्यथकी पण होयजो, तो पण मुनिभावे निश्चय समकितवडे, समभावीने नडे न बाह्यतुं कोयजो. प्रीतलडी० ॥ ९॥ गच्छनी निश्राए स्थविरो वर्ते सदा, गच्छोमा समभावे मुक्ति होयजो, सापेक्षाए हठ कदाग्रह त्यागीने, मुख्यपणे आतम उपयोगी जोयजो. प्रीतलडी० ॥ १०॥ जे काले जे क्षेत्रे जे करवू घटे, स्वपर जीवोना धर्म हितार्थे जेहजो, तेह करावे करे अने अनुमोदता, अल्पदोषने धर्म घणो करे तेहजो, प्रीतलडी० ॥११॥ सूरि गुरुनी याज्ञाए वर्ते मुनि, थता कषायो रोधे साधे धर्मजो; यात्मराज्यनी स्वतंत्रता जे साधता, करे कर्म पण उपयोगे जे अकर्मजो. प्री. ॥ १२ ॥ पूर्णानंदी आतम ज्ञाने अनुजवे, साधक बाधक कृत्याकृत्य विवेकजो; जैनधर्म उपदेशे नक्तोने भलो, रहे समाधि एवी धारे टेकजो. प्री. ॥ १३ ॥ पूजो वंदो गावो मुनिपदने नर्बु, निश्चयदृष्टिने धारी
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(३४) व्यवहारजो; बुद्धिसागर मुनि सेवाभक्तिबळे, क्षणमां प्रपद पामे नरने नारजो. प्री. ॥ १४ ॥
साधु ते निज आतमा; शुझातम उपयोगेरे; शुं मुंम शुं लोचथी, त्यागे शुं बाह्यनोगेरे. साधु. ॥ १४ ॥ शुद्धातमरमणी मुनि, मोहनी वृत्ति रोकेरे; हर्षे नहि जे बाह्यमां, रहे न बाह्यमां शोकेरे. साधु० ॥ १६ ॥ समनावी नव मुक्तिमा, सहजानंदना जोगीरे; रागने त्यागथी जिन्न जे, आतम देखे योगोरे. साधु० ॥ १८ ॥ निःसंगी निष्कामी जे, घटमां सिद्धि प्रकाशेरे; आनंदथी उनराश्ने, प्रसन्नताए विकासेरे. साधु०॥ १९ ॥ आशा तृष्णा कामना, तेथी गणे निज न्यारोरे, बुद्धिसागर आतमा, सिद्ध बुद्ध निर्धारोरे. साधु ॥ २० ॥
स्वपर कार्य सुसाधनतत्परान् । शिवभवस्थितिसाम्यसमन्वितान् ॥ विदितपञ्चमहावतधारिणः । प्रणिध प्रति साधु मतल्लिकान्
श्री परम.
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(३५) षष्ठी दर्शनपद पूजा. शुद्धातम दर्शन थतुं, निश्चय दर्शन तेह; देव गुरुने धर्मनी, श्रद्धा दर्शन एह. ॥१॥ दर्शन छे व्यवहारथी, निश्चयथी सुखकार; समसठ बोले अलंकयु, धारो नरने नार. ॥३॥ दर्शन पाम्यो श्रातमा, निश्चय मुक्ति जाय; जडचेतन सम्यक्पणे, जाणी नहि मुंझाय. ॥ ४ ॥ ___ ए गुण वीरतणो न विसारु. ए राग.
सम्यग् दर्शन जग जयकारी, सर्व जीव हितकारीरे; प्रभु महावीर जिन उपदेशे, पामो नरने नारीरे. सम्यग् ॥ १॥ द्रव्यनाव बे नेदे दर्शन, निश्चयने व्यवहारेरे; देव गुरुने धर्मनी श्रद्धा, दे त्रण्य प्रकारेरे. सम्यग् ॥ २॥ श्रातम ते निश्चयथी देवज, आतम ते गुरु जाणोरे, बातममांदी सत्य धर्म छे, निश्चय दर्शन मानोरे. सम्यग् ॥३ मुनिभावे जे निश्चय समकित, रत्नत्रयी अनेदेरे, सापेक्षाए जाणी पामो, रहो न आतम खेदेरे, सम्य.
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( ३६ )
गू० ॥ ४ ॥ मुनिजावे समकितपणुं छे, आचारांगे भाख्युंरे; उत्कृष्टे क्षणमां छे मुक्ति, एवं प्रभुए दाख्युंरे. सम्यग्० ॥ ५ ॥ दर्शनथी ज्ञान चारित्र प्रगटे, तेथी मुक्ति नक्कीरे; माटे दर्शन पामो भव्यो, राखो श्रद्धा पक्की रे. सम्यग्० ॥ ६ ॥ गुरुने सेवे दर्शन प्रगटे, जिनवाणी सांजळतारे; साधुसंत गुरु सेवा करतां, दर्शन कारण फळतांरे; सम्यग्० ॥ ७ ॥ श्रद्धा प्रीतिथी गुरु सेवे, जिन प्रतिमा अवलंबेरे, समकित दर्शन पामे जक्तो, प न मिथ्या का चंनेरे. सम्यग् ० ॥ ८ ॥ तमयी मिथ्यात्व टळे तेम, श्रद्धा साची. प्रगटेरे; आत्मानुभव यातां पूर्वे, मिथ्या मोहनी विघटेरे. सम्यग् ० ॥ ९ ॥ सर्व संघनी सेवा भक्ति, करतां हर्षोल्लासेरे; तम समकित पामे निश्चय,
विवे विकासेरे सम्यग्० ॥ १० ॥ सम्यग् दर्शनीनो संग करशो, समकितीनी करो भक्तिरे; बुद्धिसागर तम सम्यग् दर्शन प्रगटे शक्तिरे. सम्यग्० ॥ ११ ॥
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( ३७ )
सांजळशो मुनि संयमरागे, ए राग. निश्चयथ दर्शन ते आतम, उपशमने क्षयोपशमेरे; क्षायिक दर्शनरूपी श्रतम, पडो न मिथ्या जमेरे. नि० ॥ १२ ॥ आत्मप्रतीति अनुभव यावे, जलपंकजवत् न्यारोरे; निर्लेपी आतम गुण खेले, आनंद अपरंपारोरे नि० ॥ १३ ॥ निकाचित जे कर्मना जोगो, त्यां नहीं शोकने प्रीतिरे; निर्जरतो कर्मोंने जोगे, खतम सुख प्रतीतिरे. नि• ॥ १४ ॥ पंचवार उपशम घट प्रगटे, क्षायोपशमी असंख्यरे; एकवार क्षायिक सम कितनी, प्राप्ति थतां निःशंकरे; नि० ॥ १५ ॥ चार निक्षेपे सात नयोथी, सम्यगदर्शन समजोरे; बुद्धिसागर आत्मस्वनावे; श्रद्धा प्रेमे रमजोरे; नि० ॥ १६ ॥ सकृदपि प्रतिपत्तिरहो नृणां । भवति यस्य जवस्थिति मापिका || शिवसुखं प्रतिकन्दलतां दधत् । नमत तद्गुरु दर्शनमादरात् ॥ ँ हूँ। श्री परम.
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(३८)
सप्तमी ज्ञानपद पूजा. ज्ञान ते आत्मस्वरूप छे, चेतन गुण जे ज्ञान झान विना नहीं मुक्तिछे, वीर कहे भगवान् . ॥१॥ ज्ञानथी यानंद उपजे, ज्ञानथी विश्व प्रकाश; ज्ञान विना जगजीवमा, पग पग पुःखी दास. ॥२॥ज्ञानीने पूजो भवी, सेवो नरने नार; ज्ञानावरणना नाशथी; व्यक्त ज्ञान सुखकार. ॥३॥
ध्यान क्रिया मनमा आणीजे. ए राग
ज्ञानने सेवो ज्ञानीने सेवो, ज्ञान जणोने नणावोरे; ज्ञानान्यासीने स्हाय करोभवी, शास्त्रो लखावो छपावोरे. ज्ञान ॥१॥ जैनधर्म जगमा फेलावो, ज्ञा. नीओ प्रगटावीरे; ज्ञान विना नहि शासन चाले, ज्ञानछे मुक्तिनी चावीरे. ज्ञान ॥२॥ श्रुत केवली केवली सम जाणो, ज्ञानथी धर्म प्रचारोरे; जोवंता तीथों ज्ञानीओ, जैनधर्म आधारोरे. ज्ञान ॥३॥ ज्ञान विनानुं जीवन जमछे, आत्म जीवन छे ज्ञानेरे;
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(३९) ज्ञानी ज्यान समाधि पामे, वर्ते शुद्धातम तानेरे;ज्ञानण ॥४॥ ज्ञानीनो जे वनय न सेवे, तेने छे अतिचाररे; ज्ञानीनी आशातना टाळो, सफळ करो अवताररे. ज्ञान० ॥ ५॥ जानु आगळ तम नहि रहेतुं, ज्ञानी आगळ अज्ञानरे; ज्ञानी घटमा दोष रहे नहीं, ज्ञान स्वतंत्र प्रमाणरे. ज्ञान ॥६॥ ज्ञानथी चारित्र प्रगटे साधु, ज्ञान छे श्रेष्ठ पवित्ररे; स्वपर प्रकाशक ज्ञान डे सुंदर, तेथी वशमां ले चित्तरे. ज्ञान० ॥७॥ ज्ञानीनी याज्ञाए हलाहल, पीतां मुक्ति थातीरे; अज्ञानी वचने अमृतने, पीतां न शांति सुहातीरे. ज्ञान० ॥८॥ पिंडस्थादिक ध्यानने ध्यावे, धर्म शुकल बे ध्यावेरे; ज्ञानी ध्याननी सूक्ष्म क्रियाथी, क्षणमा मुक्ति पावरे. ज्ञान ॥ए॥ ज्ञाननी दासी सर्व क्रिया बे, ज्ञानी पासे किरियारे; ज्ञाने जगमां अनंत नव्यो, भवसागरने तरियारे. ज्ञान ॥ १० ॥ असंख्य योग छे मुक्तिना हेतु, ज्ञानयोग सहु मोटोरे; ज्ञानीनी सेवा नक्तिथी, रहे न कोई बोटोरे. ज्ञान० ॥ ११ ॥ झानीने पूजो ज्ञानी ने वंदो, ज्ञानी छे अप्रमादीरे;
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(४०) शुष्कज्ञानी एकांतवादी, क्रियाजमी उन्मादीरे. ज्ञान० ॥१॥ परोक्ष प्रत्यक्ष ज्ञान बे भेदे, श्रुत स्वपर उपकारी रे; बुद्धिसागर सद्गुरु संगे, रहेशो नरने नारी रे. ज्ञान० ॥१३॥
वीर जिनेश्वर उपदिशे, ज्ञान सकल उपकारी रे; चार निदेपे ज्ञानने, समजो नर अने नारी रे. वीरण ॥१४॥ मति अठ्ठावीश भेदे बे, श्रुत ले चउदश जेदेरे; अवधि असंख्य प्रकार बे, रूपी वस्तु वेदेरे. वीर० ॥१५॥ मन पर्यव बे लेदे डे, मननां पुद्गल जाणेरे; केवल रूपारूपीना, सहु पर्याय पिलाने रे. वीर० ॥१॥ अध्यातमज्ञाने भवी, केवलज्ञानने पामोरे, बुद्धिसागर आतमा, परम प्रभु थै जामोरे. वीर० ॥१७॥
सकल वस्तुसमूह विभासनं । प्रचितकर्म विनाशनकर्मठम् ॥ युगलनावगतं मतिमुख्यकं । विरतिदं रतिदं प्रणिदध्महे ॥१॥ ॐ हूँ। श्री परम.
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(४१) अष्टमी चारित्रपद पूजा. सदाचार सद्गुणमयी, चारित्र छे सुखकार; गावो ध्यावो आचरो, नावे नरने नार. ॥१॥ द्रव्य. भाव चारित्र छे, निश्चयने व्यवहार; स्वर्गने मुक्तिफळ मळे, तजो दुर्गुण याचार. ॥५॥
सिद्धिये नमो सिद्ध अनंता ए राग.
चारित्र एवं मळो सुखकारी, जाउ चारित्रीनी बलिहारीरे; चारित्र० समनावे जग सघळु लागे, रागद्वेष न, मनमा जागेरे. चारित्र० ॥ १॥ परतावे रस रीझ न आवे, रीझ लागे आत्मस्वभाव रे; चारित्र. क्रोध उपर क्रोध जागे ज्ञाने, मन रहेतुं नहीं अनिमानेरे. चारित्र० ॥ २ ॥ निर्दल निलोन नावे रहे, सुख दुःख समन्नावे सहेबुरे; चारित्रण देशविरति सर्व विरति भेदे, आठ बार कषाय न वेदेरे. चारित्र० ॥ ३ ॥ रांक जीवो पण चरित्र पाळी, पाम्या मुक्ति वधू लटकाळीरे; चारित्र० शुक्ल शु
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( ४२ )
कूल परिणाम वर्धता, एतो अनुभवे ज्ञानी संतारे. चारित्र ॥४॥ मैत्री प्रमोदने माध्यस्थजावे, करुणाए हृदय शुद्ध थावेरे; चारित्र० निर्मम निरहंकारे प्रणामे, सत्य प्रतिबद्धता जामेरे, चारित्र ॥ ५ ॥ अस्तेय ब्रह्मचर्य संतोषे, तजी व्यसनने सद्गुण पोषेरे. चारित्र मित्र शत्रुपर राग न रोष, नहीं निन्दक दृष्टिनो दोषरे. चारित्र ॥ ६ ॥ तृण मणिपर समभावनी वृत्ति, रहे मनमां न विषयासक्तिरे; चारित्र०
वे अनुभव सुखनी खुमारी, थाय कर्मों सकल उपकारीरे. चारित्र ॥ ७ ॥ थाय परमार्थनी योग प्रवृत्ति, दोष अपने बहुधर्मनीतिरे. चारित्र कर्म करे पण मोहे न एमां, फल आशा रहे नहीं तेमांरे, चारित्र ॥ ८ ॥ अतिचार दोष प्रगट्या वारे, मळ्यो मानव जव नहीं हारेरे. चारित्र० शुद्ध उपयोगथी आत्म प्रकाशे, शुभ अशुभ न मनमां भासेरे. चारित्र ॥ ९ ॥ पूजो गावोने मनमां ध्यावो, लेवो चारित्रनो सत्य
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(४३) ल्हावारे; चारित्र संयमीनां दर्शन दुःखहारी, सेवो चारित्रीने नरनारीरे. चारित्र ॥ १० ॥ समकीतीने चारित्रनी इच्छा, करी पुरुषार्थ ग्रहे दीक्षारे. चारित्र. धर्म शुक्ल ध्याने आतमऋद्धि, बुद्धिसागर मंगल सिद्धिरे. चारित्र० ॥ ११ ॥ माया कारमीरे माया न करो चतुरसुजाण ए राग. ___ बातमगुणो विनारे, होळी राजा सरखो वेष, भवोभव जीवडारे, पाम्या आधिव्याधि क्लेश. गुणवण आडंबर शा खपनो, बाह्य क्रिया व्यवहारेरे; वेष क्रिया छे गुणने माटे, जाणे ते निज तारे. आतमण ॥ १२ ॥ मोह वने नहि मनडुं भमतुं, ध्यान समाधि योगेरे; जममां सुखनी रहे न इच्छा, आतम सुखने जोगे. बातम ॥ १३ ॥ दुर्गुण दोषो टाळी सघळा, आत्मगुणो प्रगटावोरे; चिदानंद उपयोग रमणता, चारित्रज ते च्हावो. आतम० ॥१४ ॥ मोहनो उपशम क्षयोपशमने, क्षायिकनाव जे करवोरे; निर्विकल्प समाधि योगे, परमानंदने वरवो. आतम ॥ १५॥ आत्मोपयोगे आत्मरमणता, निश्चयश्री
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(४४) चारित्ररे; बुद्धिसागर पूर्णानन्दी, बातम पूर्ण पवित्र. आतम ॥ १६ ॥
रमणतात्मगुणेषु हि यत्रच । विगतनूतनकर्मपथं च यत् ॥ जगति जीवसमूहसुवसभं ।
सुललितं चरणं हृदि धारये ॥१॥ ऊँ ह्री श्री परम.
__ नवमी तपपद पूजा. द्रव्यभारथी तप तपे, सकल विघ्न दूर जाय; पञ्चाशः लब्धि उपजे, जय जय तप-महिमाय. ॥१॥ तप तपतां कष्टो, दळे, दुःखो दूरे जाय; सर्व कर्म दूरे टळे, पग पग मंगल थाय. ॥२॥ तपना भेद अनेक , तपना बार प्रकार: पूजो वंदो तपस्वीने, तप तपशो नरनार. ॥३॥
नमोरे नमो श्री शत्रुजय गिरिवर. पूजो वंदो तप गुण धारी, तप तपशो जयकारे, तपातपतां अठाकीशः पञ्चास, लब्धि प्रगटे सा
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ररे. पूण ॥१॥सर्व शुनाशुभ इच्छा राधक, तपथी शक्ति प्रकाशेरे; निष्कामी थै कार्यों करतां, तप छे जाणो पासेरे. पू० ॥ २॥ देव गुरुने संघनी सेवा, भक्ति तप छे बेशरे; धार्मिक कर्म करंता संकट-सहवां दुःखो कलेशर.पू०॥शाआस्मार्थे परमार्थे प्रवृत्ति,करतां भय नहि खेदरे; द्वेष न प्रगटे तप ए तपतां, नासे मोहना भेदरे. पू०॥ ४॥ मन वाणी कायानी शुद्धि, धरवी तप जयकाररे सर्व शुभाशुभ फलनी इच्छात्यागथी तप उदाररे. पू० ॥ ५॥ तीर्थकर त्रिज्ञानी पण जे, ते भव मुक्ति जाणरे; तप तपता जाणीने भव्यो, तप तपशो गुण खाणरे. पू०॥६॥ मरण जीवनपर नहीं आसक्ति, सर्व समर्पण थायरे; परमाथे जीवननी करणी, शुद्धोपयोगे सुहायरे. पू० ॥७॥ सर्व जीवोना हितने माटे, काया मननी प्रवृत्तिरे; जैनधर्मनी सेवा नक्ति, करवानी ने रीतिरे. पू॥ ८॥ सर्व लोकनां दुःखो हणवा, सहेजे समपोइ जायरे; सुख दुःख आवे हर्षे न शोचे, साक्षी
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(४६) भाव सुहायरे. पू० ॥९॥ नामने रूपमा मोह रहे नहीं, कर्तव्योज करायरे; ज्ञानानिमा मोहने होमी, मुक्ति क्षणमा पायरे. पू० ॥१०॥ मान पूजानी होय न वृत्ति, धार्मिक होय प्रवृत्तिरे; बाह्माभ्यंतर तपने तपतां, प्रगटे अनंती शक्तिरे. पूण् ॥ ११ ॥ आतमने परमातम करवा, तप डे साधन सत्यरे; बुद्धिसागर मंगल पामो, तपथी करी शुज कृत्यरे. पूजो० ॥ १५॥
वीरकुमरनी वातडी कोने करीए. ए राग.
बासनारोधक तप तपो नरनारी, मनथी इच्छायो निवारी करो आत्म शुद्धि जयकारी, शुनाशुभ परिणति वारी, रहो आत्म मगन्न, वासना.॥ १३ ॥ निश्चय तप क्षण मात्रमा शिव आपे, शुद्ध केवल ज्ञाने नापे; पूर्ण आनंद घटमां व्यापे, रहो तपथी प्रसन्न. वास० ॥ १४ ॥ कामादिक मोह वृत्तियो सहु टाळो, शुद्ध आत्म स्वरूप निहाळो; भेदभावनी वृत्ति बाळो, राखो निर्मल मन. वास० ॥१५॥
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(४७) आत्मज्ञानने ध्यानथी जे समाधि, टळे बाधि व्याधि उपाधि; लहो मुक्ति तप आराधी, बनो जीवन्मुक्त. वास० ॥ १६ ॥ निश्चय तप पुरुषार्थथी भवी पामो, बनी निर्विषयी दुःख वामो; परब्रह्म बनी ठरोगमे, बुद्धिसागर बेश. वास० ॥ १७ ॥
गीत. गायां गायारे एम नवपद भावथी गायाँ; प्रभु महावीर देवे प्रकाश्यां, ते में भावथी घ्यायोरे. एम. चार निक्षेपे सातनयेजे, नवपदनुं करे झान; सिद्ध चक्र ाराधी ध्या, पोते बने भगवाने. एम०॥१॥
आंबिल ओळी आदितपथी, नवपदने आराधे. पदपद मंगल ऋद्धिसिद्धि, मुक्तिने ते साधेरे. एम०॥२॥ गुरुगम यंत्रने मंत्र ग्रहीने, जप जपतां एकताने. जे जे भावे आराधे ते ते, नावे फळे ले ज्ञानेरे. एमण ॥३॥ संवत् योगणिश सत्तोत्तरनी, साले आश्विन मासे, विजया दशमी घढता पहोरे, पूजा रची उहा
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(४८) सेरे. एम० ॥ ४॥ सानंद शहेरे आनंद ल्हेरे, चोमासु कयु भावे. संघनी सेवा भक्ति सारी, नवपद पूजा नणावेरे. एम० ॥ ५॥ तपगच्छहीरविजय सू. रिपाटे, सहज सागर उवझाय, पट्ट परंपर योगी महासिद्ध, नेमि सागर गुरुरायरे. एम० ॥ ६॥ सागर शाखामा रवि सरखा, रविसागर गुरुराज. गुर्जर देशी संघ सुधार्यो, जेना उत्तम काजरे. एम ॥७॥ तेमनी पाटे वैयावच्ची, धर्म क्रियामा धोरी. श्री सुख सागर गुरुजी वंदु, ज्ञाननी हाथमां दोरीरे. एम० ॥८॥गुरु सुखसागर पूर्ण कृपाथी, नवपद महिमा गायो, बुद्धिसागर सूरिए नावे, सिद्ध चक्र वधायोरे. एम० ॥ ९॥
दहति यत्किल कर्म निकाचितं, विविध सिद्धि विधायकमप्य हो; जिनवरैरपि सेवितमादरात्, हृदि वहामि तपो बहु भेदकम् ॥ १॥ उँ हूँ। श्री परम
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(४९) पंचाचारपूजा प्रारंन.
मङ्गलम्, प्रभु महावीर जिनवरा, तीर्थकर जयकार; सर्व विश्व शासन प्रभु, परब्रह्म सुखकार. ॥ १॥ प्रणमी वंदी पूजीने, गावं पंचाचार, पंचाचारे वर्ततां, मुक्ति लहे नरनार. ॥२॥ द्रव्यभाव आचार बे, साधन साध्य प्रकार; सापेक्षे साधन सकल, आत्मशुद्धि करनार. ॥३॥
प्रथम ज्ञानाचार पूजा.
दुहा. मोहनजी मोकलोरे मोसाळु अथवा शोहि जिन पूजीए
मनरंगे-ए राग. प्रभु महावीर जगहितकारी, प्रतिबोध्यां नरने नारी, धन्य महावीर जग उपकारीरे, आज मनोरथ
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(५०) मुज फळीया. मनवंबित मेळा मळियारे. आज ॥२॥ ज्ञानाचारने समजाव्यो, ते में मनमांही लाव्यो. द्रव्यने भावथको भाव्योरे. आज० ॥ २॥ काल विनयने बहुमाने, गुरुगम पामी उपधाने, अनि हवताना तानेरे. आज ॥३॥ शब्दार्थ तदुनय धारो, श्रुत जणतां सुख निर्धारो, तजीए आठे अतिचारोरे, आज ॥ ४ ॥ आगम शास्त्र श्रवणयोगे, गुरुसेवा स्वार्पण भोगे, ज्ञान वधे मन आरोग्येरे, आज० ॥ ५॥ गुरु श्रद्धा प्रीति भक्ति, प्रगटे ज्ञान तणो शक्ति, प्रगटे परम प्रभु व्यक्तिरे. आज ॥६॥ ज्ञानावरण सकल दूर नासे, आगम अनुभव अभ्यासे, भावथी आतम उल्लासेरे. आज ॥७॥ तुज आगम गुरुमुख सुणतां, कर्म सकल वेगे टळतां, बुद्धिसागर, अनुसरतारे. आज० ॥८॥
ॐ ही श्री परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरामृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय ज्ञानाचारपूजनाय.
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( ५१ )
जलादिकं यजामहे स्वाहा.
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द्वितीय दर्शनाचार पूजा. दुहादर्शनाचारने पाळीए, आठ तजी अतिचार; द्रव्यभाव बे भेदयो, समजो दर्शन सार, ॥ १ ॥ निश्चयने व्यवहारथी, दर्शनना बहु भेद; दर्शनना, याचारने, पाळी टाळो खेद, ॥२॥ देवगुरुने धर्मनी, भक्ति करतां भव्य, आत्मिकदर्शन प्रगटतुं, करतां शुभ कर्तव्य, ॥ ३ ॥
विनति धरजो ध्यान जगपति विनति ए-राग.
दर्शनना याचार, भवी भजो, दर्शनना आचार निःशंकित थे निःकांक्षित थे, रुडो धरो व्यवहार. भवी० ॥ १ ॥ वितिमिच्छा दोष निवारी, साधीए धर्माचार. भवी० मूढपणानी दृष्टि त्यागी, धरो प्रभुपर प्यार. भवी० ॥ २ ॥ उपबृंहणथी दर्शन पुष्टि,
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(५२) जिनशासन जयकार. भवी. सकल संघनी सेवा भक्ति, निष्कामि आचार, भवी० ॥३॥ जिनशासनना आठ प्रभावक, सेवो नरने नार, भवी. उपयोगी थै दर्शनाचारे; रहेतां कर्म संहार. भवी० ॥४॥ लज्जा खेदने द्वेष निवारी, निर्भय थैने उदार. भवी तनमन धननु अर्पण करवू, संघोन्नति हितकार. जवी ॥ ५॥ अर्पाइ जायोने जैनो, त्यागी देहाध्यास, भवी० देवगुरुने जैन धर्मनो, तजो नहीं विश्वास. भवी० ॥ ६॥ स्थिर करीए धर्मे सर्वने, यथाशक्ति नरनार, भवी साधर्मिकनी भक्ति करीए, करी प्रभावना सार. नवी० ॥७॥ निश्चय शुद्धातम अनुभवतां, रहे न दर्शन दोष, भवी बुद्धिसागर दर्शन पामे, सहु रीते संतोष. भवी० ॥ ८॥ तृतीया चारित्राचार पूजा.
उहा. द्रव्यभाव चारित्र छे, निश्चयने व्यवहार, चारित्राचारे रमो, आठ तजी अतिचार. ॥१॥
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(५३) पांच समिति त्रण गुप्तिनो, उत्तम जगमां योग, जे योगे रमतां थकां, आतम होय अयोग. ॥२॥ अपवादे समिति कही, उत्सर्गे त्रण गुप्ति; गुप्ते गुप्ता मुनिवरा, पामे क्षायिक शक्ति, ॥३॥ ___ सांभळजो मुनि संयमरागे-ए राग.
प्रभु महावीर जिन उपदेशे, समिति गुप्ति साचीरे, असंख्य योगनी प्रवचन माता, रहेशो तेमां राचीरे ॥ प्रभु ॥ १ ॥ज्ञानने नक्ति कर्म उपासना, हठयोगादिक योगोरे, त्रण गुप्तिमां सर्व समाता, जेथी रहे नहीं लोगोरे ॥ प्रभु॥ २ ॥ गृहस्थ त्यागी बेने हितकर, योग क्षेत्र प्रदातारे, सिया सिजशे सिद्धे तेओ, पाळी प्रवचन मातारे ॥ प्रभु ॥३॥ भावथको त्रण गुति साधे, मुक्ति अनुभव आवेरे, द्रव्यने नावथकी निज मुक्ति, सहजानंद सुहावरे ॥ प्रभु ॥ ४ ॥ रागद्वेष संकल्प विकल्पो, दूर थतां मन गुप्तिरे, निर्विकल्प स्वभावे समाधि, केवल प्रगटे शक्तिरे ॥ प्रभु ॥ ५॥ आतम ज्ञानोपयोगे रहेतां,
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( ५४ )
समिति गुप्ति पासेरे, ज्ञानी सर्वे कर्मों करतो, ज्ञाने गुप्ति उपासेरे ॥ प्रभु ॥ ६ ॥ ज्ञानी समिति धारे ज्यां त्यां, द्रव्यभावथी जाणीरे, उत्कृष्टानंगे क्षण मुक्ति, भाखे केवल ज्ञानीरे ॥ प्रभु ॥ ७ ॥ समिति गुति साधे सर्वे, योग सधाता जाणोरे, बुद्धिसागर आत्म उजागर, प्रगटे भाव प्रमाणोरे ॥ प्रभु ॥८॥ चतुर्थी तपआधार पूजा. जुहा.
बार भेदे तप भलो, बाह्य अभ्यंतर बेश; तप तपतां नासे घणा, कर्म निकाचित कलेश. ॥ १ ॥ अशुभ शुभ इच्छा सकल, सर्व क्रिया फलत्याग. निश्चय तप ते जाणवुं तपता महा सौभाग. ॥ २ ॥ बारे अतिचारो तजी, धारो तप आचार, दुःख सही तम चहो, तप तपशो नरनार ॥ ३ ॥ चोमासी पारणं आवे - ए राग.
प्रभु महावीर जिनजयकारी, तप तपिया बन । - नगारी, बन्या केवली जगहितकारी, भाख्युं तप वर्तन सुखकारीरे, तप सेवो सकल नरनारी, जाउ तपि -
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(५५) यानी बलिहारीरे, तप० ॥१॥ द्रव्यभावथी तप आचरवू, भवसागर वेगे तरचुं, निश्चय निज गुणमा नळवं, समन्नावे रही सहु करवूरे, तप० ॥२॥ परपुद्गल मोह न धरवो. निश्चय तप गुण ए वरवो, द्रव्यनाव काम संहरवो, प्रभु पूजी तपदिल करवोरे. तप०॥३॥ द्रव्य जाव तपस्वीसेवा, करवा प्रगटे दिल हेवा; एतो अनुभव अमृत मेवा; तपसीनी सहाये देवारे. तप० ॥४॥ जे जे कर्म उदयमां
आवे, सुख दुःखपणुं दर्शावे; शुनाशुभ बुद्धि नहीं लावे, रहे ज्ञानी सम तप भावरे. तप ॥ ५॥ नाम रूपमा मोह न धारे, करे कर्मने स्वाधिकारे; उपकारमा जीवन गाळे, संघ सेवा तपते भारेरे. तप० ॥ ६॥ करे सद्गुरु साधु भक्ति, कोइमां नहीं धारे आसक्ति; राखे नहीं सात जातनी भीति, एवी ज्ञानी तपस्वी रीतिरे. तप० ॥ ७॥ शुद्ध उपयोग छे तपभारी, पामे ज्ञानी जन संस्कारी; ध्यान सहज समाधि सारी, रहे वृत्ति न कोइ विकारीरे. तप०॥८॥ पुरुषार्थथी तप आचरशो, यथाशक्ति भावथी
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( ५६ )
करशो; लब्धि सिद्धि प्रकटता करशो, बुद्धिसा - गर मंगल वरशोरे तप० ॥ ९ ॥
पांचमी वीर्याचार पूजा. दुहा
यतम शक्ति फोरवो, त्रण तजी अतिचार, सर्व प्रमादो पहिरो, धर्म करो नरनार, ॥ १ ॥ देव गुरुने धर्मना, आराधनमां शक्ति, फोरवतां शक्ति वधे, प्रगटे प्रभुपद व्यक्ति, ॥२॥ टींटोमी उत्साहथी, अनंत गुणो, उत्साह, धारी यातम शुद्धिनो, राखो मनमां चाह ॥ ३ ॥
ध्यान क्रिया मनमां आणी जे-ए रागं. प्रभु महावीर जिन उपदेशे, वीर्याचारने धारोरे. धर्ममां शक्ति फोरवो लोको, करशो पर उपकारोरे. प्रभु ॥१॥ दुःख पडतां नहिं मुंझाशो, परनी व्हारे धाशोरे, संकट पमता भागी न जाशो, करवा धर्म
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(५७) उजाशोरे॥ प्रभु० ॥२॥ व्रत तप भक्तिमा ढीला न थाशो, उत्साहे सुख पाशोरे; कायर थै थाओ नहीं दासो, चूको न निज विश्वासोरे. प्रभु० ॥ ३ ॥ अनंत शक्तिनो स्वामी आतम, कायरथो न पमातोरे; जीवंतां मरजीवा ज्ञानी, तेथी यात्म लहातोरे. प्रभु० ॥ ४ ॥ देहाध्यासथी मरतां मुक्ति, पडे न पाछा नीतिरे, शूराजननी एवी रोति, धरे न क्यांये भीतिरे. प्रभु०॥५॥ गोपवो नहीं बलवीर्यने धर्म, उत्साही सत्करे; थैने रहेशो आतम शर्मे, पडो न मिथ्या भमरे. प्रभु० ॥६॥ भावीभाव हशे ते थाशे, कर्मे लख्युं ते थाशेरे; एकांत मिथ्या एवी बुद्धि, टाळी रहो उल्लासेरे; प्रभु०॥७॥यातमना पुरुषार्थे सर्वे, थातुं निश्चय राखोरे; प्राण पडे पण कार्य न मूको, आतम सुखने चाखोरे. प्रभु०॥८॥ वीर्याचारे कर्म टळे सहु, आतम शक्तियो प्रगटेरे; आतम ते परमातम थावे, मिथ्या कों विघटेरे. प्रभुः ॥ ९॥ सर्व प्रकारे धर्म प्रवृत्ति, करतां धैर्यने
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(५८) धारोरे, बुद्धिसागर थानंद मंगल, सिद्ध प्रभु निर्धारोरे. प्रभु०॥ १०॥
कलश. गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो
पंचाचार सदाचार जगमां, ते गातां हरखायो; वीर प्रनु वचनामृत पीतां, तृप्ति न मनमां पायोरे. महावीर० ॥१॥ पंचाचारनाधारक पूजो, पंचमी गति सुखकारी; वीर प्रजुए समकित पामी, पाळ्या दुर्गति हारीरे. महावीर० ॥२॥ दर्शन ज्ञानने चारित्रमाही, पंचाचार समाया; पंचाचारने पाळे मुक्ति, सहजानंद सुहायारे. महावीर० ॥ ३॥ अंतर बातम पंचाचारे, पूजी वीरने भावे; परमातम पोते घट थावे, ध्याता ध्येय सुहावरे. महावीर० ॥४॥ सानंद शहेरे यानंद ल्हेरे, पूजा रची गुण दावे;ओगणीश सतोत्तेर आशो वदि, बीज दिने बहु नावरे. महावीर० ॥५॥ जणतां गणतांने सांभळतां, पामो शिव नरनारी; संघ
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( ५९ )
चतुर्विध मंगल पामो, समकिती व्रती अवतारी रे. महावीर० ॥ ६ ॥ चउनिक्षेपे सातनये में, पंचाचारने जाण्या; गुरु सुखसागर पूर्ण कृपाथी, घटमां भावे खाण्यारे. महावीर ||७|| गावो जाणो मनमां आणो, आचारने आचारो; बुद्धिसागर यानंद मंगल, ऋद्धि वृद्धि अपारोरे. महावीर० ॥ ८ ॥
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( ६० ) अथ विंशतिस्थानक पद लघुपूजा प्रारंभ. प्रथम अरिहंतपद पूजा.
श्री महावीर जिनेश्वरा, चोवीशमा जिनराज; त्रिशलानंदन जयकरा, प्रणमुं जिन शिरताज ॥ १ ॥ बहुविध तपशास्त्रो जण्यां, कर्म दुरित हरनार; विंशति स्थानक तर वडुं, सहु तपमां शिरदार. ॥ २ ॥ विशस्थानक पूजा रचुं पूज्यपणुं दातार; पूज्यनी पूजा भक्तिथी, तीर्थकर पद सार, ॥ ३ ॥
प्रथम अरिहंत पदपूजा.
परमेष्ठी मां प्रथम बे, अरिहंत जगवंत नय निक्षेपे ध्याइए, आविर्भावे संत. ॥ १ ॥
संभव जिनवर विनति. ए राग.
प्रभु अरिहंत जिन पूजोए, बारगुणे जयकारीरे, चोत्रीश अतिशयवंत जे, केवलज्ञानना धारीरे ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ पांत्रीश वाणी गुणोवमे, जग बोधे
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सुखकारीरे; त्रणकाल अर्हन् विभु, सर्व जगत् उपकारीरे. प्रभु० ॥२॥ क्षायिक नव लब्धि धणी, तारण तरण झहाजरे. तीर्थ प्रवचन संघने, स्थापे भवी हितकाजरे. प्रचु० ॥३॥ इन्द्र असंख्य सुरासुरा, सेवे प्रजु हितकारीरे; घाती कर्म चउ क्षय करी, जाव प्रभुता धारीरे. प्रभु० ॥४॥ दोष अढार रहित प्रभु, सर्व शुभोपम छाजेरे. बुद्धिसागर ध्यावतां, आतम जगमां गाजेरे. प्रभु० ॥५॥
द्वितीया सिद्ध पदपूजा. सकल कर्मने क्षय करी, सिद्धया सिझशे जेहा त्रिकरणयोगे पूजीए, वंदीजे गुण गेह. ॥१॥
ध्याइए भ्याइए ध्याइए- सिद्ध परमातम प्रभु भ्याइए; आठ कर्म क्षये आठ गुणोथी. सिद्ध थया दिल लावीए. व्यतिरेकी एकत्रीश गुणो जे. अस्ति नास्तिमय जावीए. सिद्धः ॥१॥ जन्म जरा नहीं
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( ६२ )
मृत्यु न जेने, हृदय धरीने रीजीए. शुद्ध गुणो पर्यायो अनंता, आविर्भावे ते लीजीए. सिद्ध० ॥ २ ॥ पूर्णानंदमयी परमेश्वर, आदि न अंत न पाइए, आतम सत्ताए परमातम. सत्ताध्याने सुहाइए. सिद्ध० ॥ ६ ॥ तम गुण पर्यायथ अस्तिनास्ति परनी जाणीए उत्पत्तिव्यय ध्रुवतारामी, समये समये चित्त आणीए सिद्ध० ॥ ४ ॥ सिद्ध प्रभुखो गावो ध्यावो, प्रभु आज्ञा शिर धारी ए. बुद्धिसागर सिद्ध प्रभु विभु, थैने जन्म सुधाारी ए. सिद्ध० ॥५॥
तृतीया प्रवचन पदपूजा.
प्रवचन पूजतां वदतां ध्यावतां मंगलमाल. प्रवचन पद दिलमां वस्युं - सर्व पाप हणनार ॥१॥ विमला नव करशो उच्चाट ए-राग.
प्रेमे प्रवचन पूजो गावो मनमां धारशोरे. भावे तीर्थ संघ सेवाथी, संकट टाळशोरे. प्रेमे० संघ
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(६३) चतुर्विध सेवा भक्ति. करतां प्रगटे सघळी शक्ति. करीने शासन सेवा. आतमने उझारजोरे ॥ प्रेमे० ॥ १॥ तीर्थकर पण तीर्थने नमता, तीर्थ नमे ते भव नहि जमता. भावे प्रवचन श्रुतने मनमांही अवधारशोरे. प्रेमे ॥२॥ धर्मक्षेत्र साते शुभ पोषो, टाळो शंसय आदि दोषो. आतम उपयोगी थे कर्म कटक संहारशोरे. प्रेमे० ॥३॥ जैन धर्म फेवावो करशो, तीर्थकर गणधर पद वरशो. प्रभुनी वाणोने जगमा सर्वत्र प्रचारशोरे. प्रेमे० ॥४॥ प्रवचन सेवा माटे सर्वे, मळ्युं गणो नहि रहेशो गवे.चावे बुद्धिसागर थाप तरो परतारशोरे. प्रेमे० ॥ ५
अथ चतुर्थ आचार्य पद पूजा. नमो नमो श्री सूरिवर, गणधर संघ प्रधान; तीर्थकर पाछळ प्रभु, अर्हन्सम भगवान् . ॥१॥
जीवलमा घाट नवा शीद घंमे. ए राग.
सूरिवर शासन नक्ति भर्या, हृदयमा ते में अंगीकर्या, देशकाल अनुसारे शासन, धर्म प्रचारक
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(६४) खरा. छत्रीशी बत्रीशी गुणे करी, आतम गुणथी भर्या. हृदयमां० ॥१॥ देशकाल तरतम गुण किरिया, शोभे जे जयकरा; बत्रीश उपमा जेने बाजे, गीतार्थ ज सुखकरा. हृदयमां० ॥ २ ॥ धर्मशास्त्रना अर्थ प्रकाशे, शासन शोभा वर्या; स्वतंत्रताए वर्ते जगमां, अनंत ज्योते भळ्या. हृदयमांग ॥३॥ सर्व शास्त्रनी एक वाक्यता, करता अनुभव भर्या; आतम उपयोगे सहु करणी, करता ध्याने ठर्या. हृदयमां० ॥४॥ ध्यान समाधि योगे योगी, कदि न जावे मर्या; बुद्धिसागर सूरि सेवा, भक्ति मंगल धर्या. हृदयमांग ॥ ५॥
अथ पंचम उपाध्याय पद पूजा. पच्चीश गुणथी शोजता, उपाध्याय जक्कार; भणे भणावे साधुने, युवराजा सुखकार. ॥ १ ॥
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(६५) आत्तम नक्ति मळ्या केइ देवा. ए राग.
वाचक पद पूजो नरनारी, स्वयं बनो जग तेवा; पुरुषार्थे वाचक पद प्रगटे, कर्म क्षये गुण लेवा. वाचक० ॥१॥ जीवंता वाचक सहु पूजो, द्रव्यथी भावथी जावे; गुणीनी संगे गुणीना ध्याने, गुण निज घटमां आवे. वाचक० ॥२॥ वाचक वैयावच्च करीने, मानव भव ल्यो ल्हावो; सर्व स्वार्पण करीने भक्ति, करतां गुण प्रगटावो. वाचक० ॥३॥ मिथ्या संशय तर्क वितर्को, तजोने वाचक सेवो; लोक विषय संज्ञाने त्यागो, वाचक सेवा मेवो. वाचक० ॥४॥ अनेक सद्गुणदरिया वाचक, सेवो नरने नारी. बुद्धिसागर वाचक पदनी, जाउं हुं बलिहारी. वाचक० ॥५॥
पंचमस्थविरपद पूजा. स्थिर करता मुनि आदिने, जैन धर्ममा जेह; स्थविरोने सेवो सदा, स्थिरतादिक गुण गेह. ॥१॥
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(६६) श्रुतपद नमिये भावे नविया. ए-राग.
स्थविर मुनि जगमा उपकारी, मुनिजन स्थिरता कारीजी; स्थविर साधुनी संगति करतां, चंचलता टळनारी; स्थविरने जजीएजी, पशुने करता देव, स्थविरने यजीएजी ॥१॥ वीश वर्ष दीक्षा पर्यायी, साठ वर्ष वय धारीजी; आचार आदि अंगना ज्ञाता, श्रुतस्थविरा सुखकारी. स्थविर ॥२॥ बालक ग्लान संशयी चंचलने,धर्मविषे स्थिरकारीजी; परिणामिक बुद्धि अनुभवी जे, बाल मुनि हितकारी. स्थविर० ॥ ३ ॥ प्रभु महावीरे मेघ कुमरने, संयममां स्थिर कीधाजी; गणांगे दश स्थविरा भाख्या, बातम रमणी प्रसिद्धा. स्थविर० ॥४॥ ज्ञानी ध्यानी मुनिवरा जे, खपर समयना दरियाजी; बुद्धिसागर स्थविर मुनि शुभ, तारे ने जे तरिया. स्थविर ॥ ५॥
सप्तम साधु पद पूजा. आत्म स्वनावे जे रमे, परोपकारी महान् ; सत्तावीश गुण धारका, प्रणमो मुनि गुणखाण. ॥१॥
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( ६७ )
ए गुण वीर तणो न विसारुं ए राग. मुनिवर देखी प्रणमो वंदो, पूजो घ्यावो भावोरे; मुनिवरनी संगत करवामां श्रद्धा प्रीति लावोरे. मुनिवर० ॥ १ ॥ वर्तमानमां तरतम योगे, वर्ते साधु जेहरे; तेनी सेवा भक्ति करतां, थाशो स्वयं गुण गेहरे. मुनिवर० ॥ २ ॥ मुनि आशातना -हेलना त्यागो, वर्ततानी संगरे; करशो गुणरागी थै
लोको, गुणनो धरो मन रंगरे. मुनिवर० ॥ ३ ॥ सर्व जीव उपकारी साधु, क्षांति यदि धरे धर्मरे; शुद्धातम उपयोगे वर्ती, करता धर्मनां कर्मरे. मुनिवर० ॥ ४ ॥ प्रतिबद्धपणे जे वर्ते, गुरु निश्राओ संतरे; बुद्धिसागर मुनिवर सेवा, अनंत पुण्य मळंतरे. मुनिवर० ॥ ५ ॥
अष्टम ज्ञानपद पूजा. ज्ञानने पूजो विजना, सकल धर्म आधार; ज्ञान प्रकाशी यातमा, परमातम निर्धारं ॥ १ ॥
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(६८) सिद्धचक्र पद सेवा कीजे. ए-राग. सर्व गुणोमा ज्ञान छे मोटुं, ज्ञाने परमानंदोजी; आत्मज्ञान हे सर्वमां मोटुं, टाळे जे भवफंदो; ज्ञानने भजीएजी, ज्ञान ने आतम रूप; निजगुण सजीएजी. ॥ १ ॥ ज्ञानोपयोगे आत्मरमणता, स्वरूप क्रिया ले साचीजी; ज्ञानोपयोगे ध्यान क्रियाथी, रहेशो निजगुण राची. ज्ञान ॥२॥ ज्ञानो पयोगे सहज समाधि, निलेपे सहु करणीजी; नयनिक्षेपे ज्ञानने जाणो, जे छे.भवमा तरणी. ज्ञान ॥३॥ निजपरने उपकारी श्रुत डे, जाणे छे स्याद्वादीजी; अनेकान्तपणे सहु जाणो, थायो नहीं उन्मादी. ज्ञान ॥ ४ ॥ ज्ञाने सर्व कर्म क्षय क्षणमां, करे उतां नहि कर्ताजी; बुद्धिसागर सद्गुरु सेवो, ज्ञानी नवोदधि तरता. ज्ञानने ॥ ५॥
नवमी दर्शनपद पूजा. द्रव्य जाव दर्शन नमु, निश्चयने व्यवहार, सम्यग् दर्शन पामीने, मुक्ति लहे नरनार. ॥१॥
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(६९) तपपदने पूजीजे हो प्राणी. ए राग. दर्शन दिल प्रगटावो हो सुखकर, दर्शन दिल प्रगटावो।उपशम क्षयोपशमने क्षायिक, द्रव्यने नाव सुहावो; व्यवहार निश्चय समकित पावो, अजरामर थइ जावो हो. सुखकर ॥दर्शन ॥१॥ सम्यग् दर्शन योगे मिथ्या, शास्त्रो पण होय सवळां. मिथ्या दर्शन योगे सम्यक्-शास्त्रो पण होय अवळां हो. सुखकर॥ दर्शन ॥ २॥ सम्यकपणे सघळु परिणमतुं, समकितीने नावे. अल्पबंधने निर्जरा झाझी, प्रवृत्तिमा थावे हो. सुखकर । दर्शन ॥३॥ सात थाठ त्रण चार भघोमां, समकिती लहे मुक्ति. उत्कृष्टुं अंत मुहूर्तमां, पामे मुक्ति झटिति हो. सुखकर. दर्शन ॥४॥ समकितीनी सेवा नक्ति, करवा स्वार्पण करवू. बुद्धिसागर आतम शुद्धि, मंगल पदने वर, हो. सुखकर. दर्शन० ॥५॥
दशमी विनयपद पूजा. बाह्यान्यंतर विनयने, सेवो नरने नार. सर्व धर्मनुं मूळ , समुणमां शिरदार ॥१॥
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( ७० )
जीवलडा घाट नवा शीद घडे. ए राग.
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विनयनी वाटे जे जन चडे, जगत्मां पाछो ते
नहीं पडे. देव गुरुने संत विनयथी, मारग धर्मनो जडे: विनये विद्याज्ञानने पामे, संसारे नहि समे. विनयनी ॥ १ ॥ पांचने दशविध तेरने बावन, भेदे विनयने करे. शमदम आदि गुणने पामे, वांछित वेळा वळे. विनयनी ॥ २ ॥ आहारी पण उपवासी छे, विनयी मुक्ति वरे. गुरु विनये ज्ञानादिक पामे, श्रद्धा प्रीति बळे. विनयनी० ॥ ३ ॥ सर्व संघ गुणीजनना विनये, मोहनी वृत्ति टळे. शुद्धातम उपयोगे करणी, थावे निजगुण जळे. विनयनी ॥ ४ ॥ सर्व शक्तिनुं मूळ विनय छे, जक्तोने सांपडे. बुद्धिसागर मंगल माला, अनंत सुखमां मळे. विनयनी ॥ ५ ॥
.
अग्यारमी चारित्रपद पूजा.
सर्वगुणी चारित्रथी, मुक्ति लहो नरना, चारित्र सम जग को नहीं, पूर्ण मुक्ति दातार. ॥ १ ॥
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(७१) कानुमो न जाणे मोरी प्रीत. ए राग.
चेतन धारी ले चारित्र, दुर्गुण दोष हरीनेरे, चेतन|| द्रव्यने जावथी धारे, कर्मों सघळां संहारे; एवं रुडं धर चारित्र, शाने मोह धरे छे रे. चेतन ॥१॥ सर्व प्रमादो वारी, चेती ले यात्म सुधारी; ग्रही वा त्यागीनु चारित्र, धरी ले स्वाधिकारेरे. थेतन. ॥२॥ मोह कादवमा खूच्यो, मूंडनी पेठे मुंझ्यो, रागद्वेषे पडियो मूंढ, शीदने निज विसरेछेरे. चेतन० ॥३॥ हजी के हाथमां बाजी, हारे शुं थेने पाजी; जीवो मुक्ति पाम्या अनंत, शाने वार करेछेरे. चेतन० ॥४॥ शुद्ध स्वनावमा रमई, एथी न नवमां जमवू; बुद्धिसागर गुरु चारित्र, पामी जव्य तरेडेरे. चेतन० ॥५॥
बारमी ब्रह्मचर्य पद पूजा. रत्न मणिमय मंदिरो, प्रतिमाओ करनार; तेथी अनंतु फल लहे, ब्रह्मचर्य धरनार. ॥१॥
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(७२) धनधन ते जगमां नरनार, विमलाचलके
जानेवाले. ए राग. धन्य धन्य जगमा ते नरनार, निर्मल ब्रह्मचर्य धरनार, पूजो ब्रह्मचारी नरनार, धारो ब्रह्मचर्य सुखकार ॥ रत्नमणि कंचननी प्रतिमा, चैत्य करावणहार; अनंत गणुं फल तेथी पामे, ब्रह्मचर्य धरनार. धन्य० ॥१॥ सहस चोराशी मुनिवरदाने, जे फल नक्की धनार; ते फल विजयने विजयाजक्ते, अयुं धन्य अवतार. धन्य० ॥२॥ द्रव्यथी कायिक वीर्यनी रक्षा, आत्म रमणता सार; भावथी ब्रह्मचर्य छे एवं, सहु शक्ति दातार. धन्य० ॥ ३ ॥ सर्व प्रकारे विषयनी वांग, त्यागी जे रहनार; अनासक्तिए करे कृत्य सहु, ब्रह्मचारी शिरदार, धन्य० ॥४॥ देश थकी ने सर्वथकी जे, ब्रह्मचर्य धरनार; इन्द्रादिक तेना पद पूजे, देवो स्हाये थनार, जय० ॥५॥ दिव्य औदारिक त्रिकरण योगे, सर्व काम हरनार, बुद्धिसागर ब्रह्मचर्यनी, अनंत शक्ति उदार, धन्य० ॥६
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(७३) त्रयोदशमी क्रियापद पूजा. बातमज्ञानथी सत् क्रिया, करता कर्म विनाश; साम्योपयोगे साधना, आपे सिद्धि विलास. ॥१॥
ध्यान क्रिया मनमा आणी जे. ए राग.
धर्मक्रिया करीए उपयोगे, निजपरने हितकारीरे, यावश्यक जे धर्मनां कार्यों, करीए फर्ज विचारी रे. धर्म० ॥ १॥ निजपर उपकारक शुभ कार्यों, सर्व संघ उपकारी रे; करतां मरतां मोह न धरीए, फलनी इच्छा निवारी रे. धर्म ॥२॥ निजपर उपकारक छे प्रवृत्ति, व्यवहारे व्यवहरीऐरे. क्रियाउत्थापे संघ रहे नहीं, समजी सर्वे करीऐरे. 'धर्म० ॥ ३ ॥ शुन परिणामे शुन फल थातुं, आत्मोपयोगे मु. क्तिरे; व्यवहारिक धार्मिक कर्तव्यो, करवां व्यवहार री तरे. धर्म• ॥ ४ ॥ ध्यान क्रिया ध्यानी घट धारे, निज उपयोगे सुधारेरे; ज्ञानी बाह्यान्यंतर किरिया, करतो धर्म वधारेरे. धर्म ॥५॥ अशुन क्रिया
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(७४) ध्यान वारी संतो, करता थालम शुद्धिर, बुद्धिसागर सहज स्वनाबे, रमतां धानंद ऋद्धिरे. धर्मः ॥६॥
॥चौदामी तपपद पूजा. ॥ तपथी प्रगटे लब्धियो, अठ्ठावीश पच्चाश; कर्म तपावे चीकणां, तप ते तपशो खास. ॥१॥ फाग रंग मच्यो जिन दरबाररे चालो खेलीए होरी.
ए-राग. तप तपशो नरनाररे, तप छे सुखकारी; तपथी अनंती शक्तिरे, प्रगटे हितकारी ॥ बाह्याभ्यंतर तप बहु भेदे, जन्म मरण दुःखहारी; फल इच्छानो रोध कर्याथी, कर्म खरे बहु भारी रे. तप छे सुखकारी. तप०॥१॥कर्म निकाचित क्षय बहु थातां, करो कर्तव्य विचारी; धर्म करतां दुःख सहन तप, परपरिणति संहारी रे. तप० ॥ २ ॥ परीषद उपसर्गोने सहीने, कार्य करो उपकारी; मन वाणी कायानी प्रवृत्ति, परमार्थे जयकारी रे. तप० ॥ ३ ॥ जव मुक्तिमा सम परिणामी, थाशो मोहने मारी; उत्कृष्टुं तपनुं फल ए छे, मुक्ति निश्चय धारी रे. तप ॥ ४॥ तप त
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(७५) पिया शासनना प्रभावक, वंदु वार हजारी; बुद्धिसागर मंगल माला, पद पद आनंद कारी रे. तप०॥५
पन्नरमी गोयम पद पूजा. वर्तमान जे वर्तता, साधु श्रमणी जेह; दान दियंतां तेहने, पामो स्वर शिव गेह. ॥१॥
ए व्रत जगमां दीवो मेरे प्यारे. ए राग.
भावथी दानने दोजे हो, नविजन ! जावथी दानने दीजे॥ अनय सुपात्रबे दान प्रभावे, आतम उज्वल कीजे. हर्षोल्लासे तीर्थकर पद, बांधी मुक्ति वरीजे हो. नविजन ॥१॥ संघ चतुर्विध सेवाजक्ति, करतां निश्चय मुक्तिदानथी त्यागने त्यागथी शिवपद, आतम शुद्धि प्रयुक्तिहो. भविजनः ॥ २॥ अांखे अश्रु रोमांच विकसित, हृदये हर्ष न मावे; गदगद वाणी दानी एवो, सर्वोत्कृष्ट कहावे हो. भविजन ॥ ३ ॥ स्वार्पण भावे दानने देता, शिवपद सहेजे थावे; सात क्षेत्रमा दान दियंतां,
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( ७६ )
भविजन ०
॥ ४ ॥
परमानंदपद पावे हो. दान दीधुं तेने सघलुं कीधुं; दान करो नरनारी. बुद्धिसागर ऋद्धिवृद्धि, पामो शिव वधू सारी हो.
न विजन० ॥ ५ ॥
सोळमी जिनपद पूजा. नमो नमो जिनपद भलुं, पूजो ध्यावोचित्त; दोष ढार रहित प्रभु, परमातम जे पवित्र ॥ १ ॥
श्री श्रेयांस जिन अंतर्यामी. ए राग. जिनपद गावो जिनपद ध्यावो, आतम तेवो भावोरे. सोळ कषायो जीते जिन, ते जिनपद घट प्रगटावोरें. जिनपद ० ॥ १ ॥ श्रुतज्ञानी अवधि मन नाणी, छद्मस्था वीतरागीरे; जिनपद आराधकने पूजो, आतम रंगी त्यागीरे जिनपद० ॥ २ ॥ विद्यमान आचार्यने वाचक, बालस्थविरने मांदारे; वैयावृत्य करो बहु भावे, होय न भक्तिमां वांधारे, जिनपद० ॥ ३ ॥ वैयावच्च फल नाश यतो नहीं,
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(७७) वैयावच्ची न पमतोरे; सकल संघनी वैयावच्चे, कोइ न भवमा रखडतोरे. जिनपद० ॥ ४ ॥ चढता भावे जिनपद साधक, सर्व जैननी सेवारे; करतां महा पापी पण मुक्ति, पामे निश्चय देवारे. जिनपद० ॥५॥ जैनोमां जिनपदने भावो, बातमने जिन करशोरे; बुद्धिसागर आतम जिनवर, पोते थै शिव वरशोरे. जिनपद ॥६॥
सप्तदश संयमपद पूजा. शुद्धातम गुण रमणता, संयम छे सुखकार; धारण ध्यान समाधिमय, साधो नरने नार. ॥१॥
त्रीजे नव वरथानक तप करी. ए राग.
संयम थाराधो नरनारी, बातम शुद्धिकारी; ध्यान समाधिमय संयम छे, निज परने उपकारीरे. भविजन ! संयमने प्रगटावो, लेशो नरजव ल्हावोरे. भविजन ॥१॥ द्रव्य समाधियी भाव समाधि, अनंत गुणी.हितकारी; विकल्पक विकल्प रहित जै,
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(७८) सेवो समाधि विचारीरे. भविजन ॥॥ हठ आदि अज्ञान समाधि, वीश दोष परिहरीए; गृहस्थने त्यागी भेदे संयम, व्यवहार निश्चय धरीएरे. नविजनम् ॥ ३॥ चार निक्षेपे सात नये नव, तत्व सामायिक धारो; मन वश करतां आत्मसमाधि, शुद्ध थता आचारोरे. भविजन० ॥४॥ संयमीनी सेवा भक्तिथी, शक्तियोप्रगटावो; बुद्धिसागर आतम संयम, आविर्भावे लावोरे. जविजन ॥५॥
अष्टादशमी अभिनवज्ञानपद पूजा. प्रतिदिन अभिनवज्ञानने, पामो नरने नार; अभिनव ज्ञान विना कदा, रहीए नहि क्षणवार. १
सिद्धचक्र पद सेवा कोजे. ए राग.
अभिनव ज्ञान भणो भवी भावे, गुरुगम लही सुखकारीजी, स्वर्ग अने शिवसुख झट लहीए, स्वाध्याय पंचविध धारी; श्रुतने भणिएजी-त्यागी सर्व प्रमाद, नव श्रुत गणीएजी. ॥ १॥ बुद्धिना
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(७९)
गुण आठ वधारो, आठ दोषने टाळोजी; सर्वथकी आराधक ज्ञानी, क्रिया रहित पण नाळो, श्रुतने. त्यागी० ॥२॥ देश आराधक किरिया भाखी, ज्ञाननी किरिया दासीजी; ज्ञानि ज्ञान आशातना टाळो, शुद्ध स्वरूप उल्लासी. श्रुतने. त्यागी ॥३॥ ज्ञानथी आतम शुद्धि अनंती, कार्य करता थावेजी; अज्ञानी संवरने यात्रवने-रूपे मन प्रणमावे.श्रुतने. त्यागी. ॥ ४ ॥अनुनव ज्ञानी सूरि वाचक मुनि, संगे निशदिन रहेशोजी; बुद्धिसागर आत्म प्रभुता, चिदानंदपद लेशो. श्रुतने. त्यागी० ॥ ५॥
___ आगणिशमी श्रुतपद पूजा.
पंच ज्ञानमां श्रुत -स्वपरोपकारक बेश, चड मुंगां श्रुत बोलतुं, टाळे सर्वे क्लेश. ॥ १॥ चंद्र प्रभुजीसे ध्यानरे मोंये लाग। लगनवा,
ए राग. श्रुत स्वपर उपकारीरे, भवी भावथी सेवो-नवी भावथी सेवो; जगमां ने जयकारीरे. नवी० केवलज्ञा
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(८०)
नीना मुखनी वाणी, चउदने वीश प्रकाररे. जवो. नव तत्त्वज षड् द्रव्य प्रकाश्यां, नयनिक्षेपे उदाररे. भवी० ॥१॥ तत्त्व फरे नहीं त्रयकालमां, फरता रहे आचाररे. नवी दुःषमकाले श्रुत छे जानु, भणो भणावो साररे. भवी० ॥२॥ श्रुतज्ञानी केवली सरखो, सेवो नरने नाररे. नवी० बत्रीश दोष रहित आगम छे, वर्ते जगदाधाररे. जवी० ॥३॥ वीरप्रभुए अर्थ प्रकाश्या - सूत्र रच्यां गणधाररे. जवी० श्रुत केवली आदि मुनियोए, शास्त्र रच्यां जयकाररे. जवी० ॥४॥ श्रुतज्ञानीनो विनय करो बहु, प्रेमे करो सत्काररे. जवी० बुद्धिसागर शुद्धातम पद, हेते स्याद्वादधाररे. जवी० ॥ ५ ॥
" वीशमी तीर्थपद पूजा
संघ चतुर्विध तीर्थ छे, सर्व विश्व सुखकार; रिहा नमता तीर्थने, तीर्थ जजो नरनार ॥१॥
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( ८१ )
वीरकुमरनी वातकी कोने कहीए. ए. राग.
संघ चतुर्विध तीर्थ डे जयकारी, पंच परमेष्ठी हितकारी); सर्व विश्वविषे उपकारी, सेवो नरने नार. संघ० ॥ १ ॥ जंगम तोर्थ आराधना शिवकारी, श्रद्धा प्रीतिथी सेवा सारी; जाउ संघनी जग बलिहारी, सेवे नासे पाप संघ० ॥ २ ॥ स्थावर तीर्थने रक्षतो संघ शक्तें, रहो संघनी निशदिन न; संघथ | जैन शासन वर्ते, जीवो संघना हेत. संघ० ॥ ३ ॥ स्थावर जंगम तीर्थपर प्रेम लावो, मोति पुष्प संघ वधावो; जावे तीर्थंकर पद पात्रो, बनो संघना दास. संघ० ॥ ४ ॥ सूरि वाचक मुनि सेवजो सुखकारी, करी स्वार्पणने दोष वारी; बुद्धिसागर तीर्थनी यारी करे मंगलमाल. संघ० ५
"
कलश.
गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो. ए राग.
गायुं गायुंरे वीशस्थानक पद तप गायुं; गातां पूजतां ध्यातां दिलमुं, आनंदथी उजरायुंरे. वीश.
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(८२) बातममां वीश स्थानक जाएयां, अनुनवमां एम श्राव्यु; साधन योगे साध्यनी सिद्धि, जाणंतां मन जाव्युरे. वीश० ॥ १॥ एकमां वीशने वीशमा एकज, एक साधे वोश साध्यां; साध्योपयोगे साधन सफळां, भावथको आराध्यारे. वीश० ॥२॥ आतममां वीश द्रव्यने नावे, निश्चयने व्यवहारे; शुद्धातम उपयोगे घटमां, गुण पर्याय प्रकारेरे. वीश० ॥३॥ वीश स्थानक पैकी एक स्थानक, आराधंतां जावे; तीर्थकर पद पामे भव्यो, मुक्ति अनंता पावरे. वीश० ॥ ४॥ सिद्धया सिझशे जीव अनंता, एकेक पद आराधे; गुण एक सेवे गुण अनंता, प्रगटे साधन साधेरे. वीश० ॥५॥. योगणिश सत्तोत्तर श्राश्विननी, चोथ वदि गुरुवारे; सानंद शहेरे चोमासुं करी, पूजा रची भवीतारेरे. वीश० ॥६॥ पूर्ण प्रतापी तप गच्छ नायक, जग गुरु बिरुद धराया; हीर विजयसूरि प्रणमुं पाया, अकबरे गुण गण गायारे. वीश० ॥७॥ सहज
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(८३) सागर पाठक जयकारी, सागर शाखा धार); पट्ट परंपर रविसागर गुरु, रविसम प्रगटया भारीरे. वीश० ॥ ८॥ पूर्ण प्रतापी सुख सागर गुरु, करुणा आशोः प्रभावो; बुद्धिसागर पूजा रची शुभ, संघमा थाओ वधावोरे. वीश० ॥ ९ ॥ ॐ ह। श्री तीर्थ पूजार्थ जलादिकं यजामहे स्वाहा.
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(८४) अथ दशविधयति धर्मपूजा प्रारंभ. प्रणमुं श्री परमातमा, महावीर जगदाधार; चोवीशमा तीर्थकरा, शासनपति सुखकार. ॥१॥ जेणे संघने स्थापियो, सर्व धर्म आधार; प्रभु महावीर जग जयो, अनंत गुण दातार. ॥२॥ यति धर्म दशविध कह्यो, यात्मशुद्धि करनार; जगजय श्री महावीर जिन, वंदु वार हजार. ॥ ३॥ सम. वसरणमां बेसीने, कीधो तीर्थ प्रचार; जंगम तीर्थ ते मुनिवरा, तेना दश गुण धार. ॥ ४ ॥ दश गुणथी मुनि शोभता, पूजो देश विध धर्म, दश विध धमें यात्मनु, प्रगटे ज्ञान ने शर्म. ॥५॥ ते माटे दश धर्मनी, रचुं पूजा सुखकार; अष्ट प्रकारे पूजशो, वीर प्रभु जयकार. ॥ ६ ॥
प्रथम क्षमापूजा. प्रजु महावीर भाखता, धर्म क्षमा सुखकार; धाराधो भवो नावथो, अनंत सुख दातार. ॥१॥
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(८५) सहियर सुपिएरे भगवती सूत्रनी वाणी. ए राग.
प्रभु महावीर विभु उपदेशे, सर्व जगत् हितकारी; धर्म क्षमा धारो नरनारी, क्रोधकषायने वारी. ____ आत्म स्वभावनेरे, समजी क्षमा गुण धारो; क्षमावंत साधुरे, बाकी वेषाचारो. आत्म० ॥१॥ अपकारे उपकारे क्षमाने, धारे बहुला लोको; धर्म क्षमा सहजे घट प्रगटे, ज्ञाने क्रोधने रोको. आत्म. ॥२॥ कूरगमु खंधकना शिष्यो, धन्य मेतार्य मुनोन्द्रा; काने गोपे खीला मार्या, सहिया वीर जिनेन्द्रा. यात्म ॥३॥ अच्चंकारी भट्टा मोटी, धन्य क्षमा गुण दरिया; अहंवृत्ति ममता नहि जेने, क्षमा गुणी मुनि तरिया. आत्म० ॥ ४॥ वेष क्रिया तप जप सहु साधन, धर्म क्षमाथी सफळां; शुभ अशुभ वृत्ति नहि रहेता, साधन नहि छे खपनां. आत्म० ॥ ५॥ देहादिक अभ्यासो छंमी, आतमना उपयोगे; रहेतां धर्म क्षमा गुण प्रगटे, समताना संयोगे. आत्म० ॥ ६ ॥ चिदानंद
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( ८६ )
आतम प्रगटावो, असंग यात जावो; बुद्धिसागर पूर्णानंदे, रमता मुनिवर ध्यावो. आत्म० ॥ ७ ॥ ॐ ह्री श्री अर्ह परम पुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय क्षमा लाभार्थ जलं, चंदनं पु० धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, यजामहे स्वाहा ॥
द्वितीया मार्दव धर्मपूजा.
द्रव्यभाव अहंकारना, त्याग थकीछे त्यागः मुनि श्रमणी लघुता धरो, धावो प्रभु वडभाग. ॥ १ ॥ आठ जातिना मद तजी, थावो निरहंकार;
गुरु लघु निज आतमा, समजीने सुखकार. ॥२॥ मान अने अपमानमां, वर्ततां समभाव, अनंत गुण प्रगटे खरा, साधो मार्दवदाव ॥ ३ ॥
श्रावक व्रत सुरतरु फळियो. ए राग. परमेश्वर वीर उपदेशे, रहो न मुनि रागद्वेषे; मान तजे ते सुख खेशेरे, मुनिवर मान परिहरशो
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(८७) क्षण क्षण बातम गुण स्मरशोरे, मुनिः नवसागर वेगे तरशोरे. मुनिवर० ॥ १॥ आठ जाति मद परि हरता, आतम शुद्धि ते करता; परम ब्रह्म वेगे वरतारे. मुनिवरण ॥२॥ रावण मानथकी हार्यों, नीमे फुर्योधन मार्यो; मन पेसे मद अणधार्योरे. मुनिवर० ॥३॥ ज्ञानने ध्यानना अहंकारे, तरे नहीं पर नहि तारे;गारवे जोव करे भारेरे. मुनिवर० ॥४॥ उंच नीच नेदे आवे, अज्ञान मनमां फावे; मद केफे निज नूलावेरे. मुनिवर० ॥ ५॥ हुँ मारं ज्यां नही जागे, त्यांथी मद दूरे भागे; जयडको घटमां वागेरे. मुनिवर० ॥ ६॥ हुं त्यांथी प्रभु छे आघा, बाहुबली समजी जाग्या; केवल ज्ञानी वीतरागारे. मूनिवर० ॥ ७॥ मद वण मनहुँ रहे ज्यारे, आत्म प्रभु प्रगटे त्यारे; आप तरे मुनि पर तारेरे. मुनिवर० ॥ ८ ॥ प्रक्षु महावीर कथे एबुं. समजी लक्ष्य विष देवू; बुद्धिसागर सुख लेबुरे. मुनिवर० ॥९॥ ॐ ह्री श्री. प० मार्दव गुण लाभाथै जलं०-यजामहे स्वाहा ॥
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( ८८ )
तृतीया यार्जव धर्म पूजा.
द्रव्यभाव आर्जव गुणे. रमतां केवलज्ञान; मुनिवर आर्जव गुण रमो, स्वयं थशो भगवान् ॥१॥ जन मन रंजन स्वाथथी, कपट क्रियाओ थाय; मानादिकना त्यागथी, आर्जव गुण प्रगटाय ॥२॥ मल्लिनाथ पूरवभवे, कपटे स्त्री अवतार, पाम्या जाणी मुनिवरो, धरो सरलता सार ॥३॥
जीरण शेठ जावना भावेरे, महावीर प्रभु घेर आवे. ए रांग.
प्रभु महावीरने दिल धारो, प्रजुने क्षण क्षण संभारो; उपयोगे आत्म सुधारो, घर आर्जव गुण नित्र ताशेरे; एवो वीरप्रभु उपदेशो, माया त्यागी मुनि शव लेशोरे. एवी० ॥ १ ॥ निष्कपटे कहेतुं ने रहे, दुनियानुं क सहु रहेतुं; मान पूजामा लक्ष्य न दे, जेवुं तर बाहिर तेर्बुरे. एवो० ॥ २ ॥ माया त्यागे प्रभु दिल्ल आवे, अन्य दोषो वेगे जावे;
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(८९) शोभे आतम आविर्नावे, शुद्ध सरलता आत्म स्वभावरे. एवो० ॥३॥ दुनिया भले वंदे निंदे, करे हेलना रागी छंमे, वध बंधन मारवा मंडे, होये पडशो नहीं मुनि फंदेरे. एवो० ॥ ४ ॥ मर्या पहेला माया मारो, निर्मायी बनी निज तारो; मळ्यो मानव भव नहि हारो, मन कपटवृत्ति संहारोरे. एवो० ॥५॥ माया संगे क्षण क्षण मरवू, कदि दंनथी होय न तर माया मारी जीवन धरवं, पछी मर नहीं अवतरवुरे. एवोः॥६॥ त्यागो सर्व प्रकारे माया, बूरा तेना छे पमनाया; माया त्यागथी प्रभु घटनाया, समजी संतो सुख पायारे. एवो० ॥७॥ वसे कपट त्यां दुःखना दरिया, माया त्यागी मुनि गुण भरिया; बुद्धिसागर मुनि केशरिया, निष्कपटी केवल वरियारे. एवो० ॥८॥ॐ ही श्री-आर्जवप्राप्त्यर्थ जलादिकं. यजामहे स्वाहा ॥
चतुर्थी मुक्तिधर्म पूजा. लोन तजे सर्वे तज्यु, लोभ टळंतां मुक्ति; जम लोभे नहीं मुंझता, तेने नहीं छे भोति. ॥१॥ लोभ
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(९०) तज्याथी जीवतां, मुक्ति अनुभव थाय; जीवंतां मुक्ति नहीं, देह तजे शुं ? पाय. ॥ २ ॥ सर्व प्रकारे लोननो, कीबो जेणे त्याग; जीवंता ते मुक्त छे, सिक बुद्ध वडनाग. ॥३॥
वीरकुमरनी वातमी कोने कहीए. ए राग.
वीरप्रभु परमातमा जयकारी, जेछे विश्वविषे उपकारी प्रतिबोध्यां नरने नारी, नजो मुक्ति हेत; लोभ तजीदो साधुओ सुखकारी. ॥१॥ लोभथी मुक्त ते मुक्त जे नरनारी, तजो लोभने महा दुःखकार; रहो निःसंग मनडुं धारी, रही जग समन्नाव. लोनः ॥ २ ॥ मूर्छा परिग्रह जाणशो वीर बोले, नहीं संतोषना कोई तोले; चमशो नहीं लोभ हिंचोळे, मुनि मुक्त स्वतंत्र. लोज० ॥ ३॥ सर्व जगस्ना संगथा नहि संगी, अनासक्तिए आत्म सुरंगी. होय धनी पण चित्त निःसंगी, जममां नहीं मोह. लोभ० ॥ ४ ॥ जम वस्तुनी लालचे जीव जटक्यो,
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(९१) लाख घोराशीमा लटक्यो; संत पासे जतां पण अटक्यो, धयों नहि प्रभु प्रेम. लोभ० ॥ ५॥ लोभे लक्षण जाय डे सत्य नासे, दुर्बुद्धि रहे दिल पासे; हिंसादिक पाप प्रकाशे, लोभे सर्व विनाश. लोभ० ॥ ६ ॥ लोभी पापो सहु करे एम जाणो, अनासक्तिने मनमां बाणो; धरो संतोष दिल मझानो, करो उपयोगी काज. लोन० ॥७॥ देवगुरु संघ भक्तिनो लोभ करशो, निज फर्ज अदा करी फरशो; धर्म्य लोनने पहेला धरशो, पढी निर्लोभभाव.लोभ० ॥८॥ मुक्तिने भवमा समपणुं दिल धारो, सर्व संगे छतां लोभ वागे; शुद्ध आतम परिणति धारो, बुद्धिसागर गाय. लोभ० ॥९॥ ॐ हैं। श्री परम० मुक्ति गुण प्राप्त्यर्थ जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥
__ पंचमी तपोधर्म पूजा. मोह टळे शुद्धि वधे, तपतेधर्मने मान; दुर्गुण दोषो सहु टळे, तप करवं गुण खाण. ॥ १ ॥ परो
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(९२) कारी साधुना, तप रूपी सहु काज; सर्व दुःख सहेवां समे, तप ते गुण शिरताज. ॥ २ ॥ बाह्यान्यंतर तपथकी, शक्ति प्रगटे अनंत; तपने पूजो श्रादरो. भ्यावो मुनिवर संत. ॥३॥
कर्म परीक्षा करण कुमर चल्योरे ए राग.
निष्कामे तप तपशो मुनिवरारे, भाखे वीर जिनेश; कर्म निकाचित क्षणमां क्षय थतारे, नासे सघळा क्लेश. निष्कामे० ॥१॥ परोपकारी कर्मों तप कह्यारे, विश्व जीवोनी सेव; सर्व शुभाशुभ अभिलाषा विनारे, वर्ते थाओ देव. निष्कामे ॥२॥ संघनी सेवा भक्ति तप भबुंरे, वैयावच्चने ध्यान; प्रायश्चित्तने विनये राचशोरे, करो स्वाध्यायथी ज्ञान. निष्कामे० ॥ ३ ॥ देहाध्यासविना आतम प्रभुरे, देखाता भगवंत; बाह्य तपो पण आत्म विशुद्धिनारे, हेते छे गुणवंत. निष्कामे. ॥४॥ ज्ञानी मुनिने तप सहु कार्यमारे, जोगविषे पण योग;
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(९३) भोगो पण सहु रोग समा गणेरे, वर्ते योगे अयोग. निष्कामे ॥ ४ ॥ कार्य करे पण अक्रिय जे रहेरे, पणे यातम उपयोग; सर्व विषयनो वांछावण रहेरे, शोचे न हर्षे भोग. निष्कामे ॥ ६ ॥ मुनिने मन दमतां तप छे सदारे, करतां सर्व प्रवृत्ति; अन्तर तप अज्ञो नहि जाणतारे, मनमां नहीं आतकि. निष्कामे ॥ ७ ॥ मुनिनी सर्व प्रवृत्ति तपमयोरे, क्षेत्रकाल अनुसार; बाह्यथी अंतर अनंत गणु भलंरे. टाळे कर्म विकार. निष्कामे० ॥ ८ ॥ ज्ञानोने सहु बंधन कारणोरे, निर्जरहेते थाय; बुद्धिसागर तपसो पूजतारे, ध्यातां तप प्रटाय. निष्कामे० ॥९॥ ॐ ह्री श्री प० तपोगुण लाभार्थ जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥
छठी संयम धर्म पूजा. संयम साधो संयमी, वश करी मन वच काय; संयमयो झट सिद्धि छे, लब्धि सकल प्रगटाय.
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( ९४ )
२
॥ १ ॥ आत्मिक बल संयम जनुं, टाळे आठे कर्म; संयम क्षणमां मुक्ति पद, पामे शाश्वत शर्म ॥ ॥ धारणा ध्यान समाधिमय, संयम बे सुखकार; संयम धर्मनी पूजना, करशो नरने नार. ॥ ३ ॥
गंगातट तपो वनमांरे बनी रचना भारी. ए राग. साधो संयम साधुरे, के तम उपयोगे; पडों नहि मोह वनमांरे, रहो मन वैराग्ये. साधो० ॥ २ ॥ (साखी) लीन बनो निज आत्ममां, गुण पर्यायने ध्याइ; मोद परिणति वारतां प्रगटे मुक्ति वधाइ; यातम श्रद्धा प्रेमेरे, के मस्तदशा प्रगटे; निजशक्ति अनंतीरे, प्रकटे तम विघटे. साधो• ॥ २ ॥ (साखी) क्षण पण संयमी संगवण, जीवो नहि नरनार; संयम साधन साध्य बे, आत्मशुद्धता सार. पंच समतिने गुतिरे, के साधन जेह वरे; पूर्णानन्दी आतमरे, अनुभव तेह करे. साधो० ॥ ३ ॥ व्रतं तर्प जपद्म साधनो, सापेक्षे छे सत्य; मुनिवरनां संयममयी, सघळां जाणो कृत्य.
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( ९५) भक्ति कमने ज्ञानरे, संयम शक्ति वधे; शुद्ध आत्मो पयोगरे, साधन सत्य सधे. साधो० ॥ ४॥ उपचारिक धर्मज भलो, संयम रूपी सर्व; तेमां पण संय: मीजनो, करो न क्यारे गर्व. हठ धर्म निवारीरे, संयम सहेजे सजो; बुद्धिसागर प्रेमेरे, महावीर देव भजो. साधो ॥ ४ ॥ ॐ ही श्री. संयम लाभार्थ जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥
सप्तम सत्यधर्म पूजा. द्रव्यभाव सापेक्षथी, सत्य असंख्य प्रकार; सत्य समो नहीं धर्म , सत्य ग्रहो नर नार. ॥१॥ सत्य वदोने आचरो, जैन धर्म के सत्य, प्राणांते नहि ठंडशो, सत्य धर्मनां कृत्य. ॥२॥ ज्ञानथकी साचुं ग्रहो, करो असत्यनो त्याग; पक्षपात बंडी करी, धरो सत्यनो राग. ॥३॥
तेजे तरणिथी वडोरे. ए राग. वीर प्रभुए भाखियोरे, सत्य धर्म जयकार; मिथ्या जूठने परिहरोरे, सत्य धरो श्राचार हो भवि
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जन !!! सत्य धर्मने धारजोरे, मानव जव नहि हारजोरे, समजो सत्य प्रकार. ॥१॥ सत्य वसे त्यां शक्तियोरे, देवो करता सहाय; देशने सर्वथी सत्यनेरे, स्वाधिकारे ग्रहाय हो. भविजन॥ सत्य० ॥ २॥ क्रोध मान माय लोभधारे, कामथी जूठ वदाय; प्रभु वीतरागी यातमारे, बोले सत्य सदायहो. भविजन। ॥३॥ सत्य ते सेवा नक्ति डेरे, सत्य समो नहीं शक्तिः; सत्य समुं बळ नहि कश्युरे, सत्य समी नहि नीति हो. जविजन ॥ ४॥ भयने हास्यथी जूठनेरे, बोलंतारे अधर्म; स्वार्थे अज्ञाने जनारे, बांधे अशाता कर्म हो. भविजन ॥ ५ ॥ दुःख पमे प्राण जो परेरे, लोषण बंडो न सत्य; उपसर्गो थातां घणारे, बंडो न साचां कृत्य हो. नविजन ॥६॥ ज्ञान अने माध्यस्थथी रे, सत्य तत्त्व समजाय. बलिहारी सत्यवादोनी रे, जूगथी दूर जाय हो. भविजन०॥७॥ सत्य ग्रहो मुनियोगोओरे, पाम्या पामशे मक्ति, अनंत महिमा सत्यनारे, रविथी अनंती युति हो.
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(९७) भविजन ॥ ८॥ सत्य वदो सत्य आदरोरे, पुःख सहीने अनंत; सुवर्ण पेठे कसोटीएरे, चढीने थावो भदंत हो. भविजन० ॥९॥ रवि पहेला ते उगतारे, सत्यवाद। नरनार; बुद्धिसागर आतमारे, पूणानन्द अपार हो. लविजनः ॥ १० ॥ ॐ सत्य लाभार्थ जलादिकं यजमहे स्वाहा ॥
अष्टमी शौच धर्म पूजा. द्रव्यभाव व्यवहारने, निश्चय शौच छे धर्म, भाव शौच सेव्याथकी, विघटे सर्वे कर्म. ॥१॥ द्रव्यथी जाव अनंत गुण, आत्मशुद्धि करनार; उपादान निमित्तथी, समजी ग्रहो नरनार. ॥२॥
आत्मशुद्धिकर शौच छे, लक्ष्य न भूलो लेश; साध्योपयोगे शौचने, भरतां टळता क्लेश. ॥ ४ ॥ श्रुतपद नमिये जावे भविया, श्रुत बे जगत
आधारजी. ए राग. समवसरणमां बेसी वीरजिन, केवलज्ञाने प्रकाशेजा; नाव शौचथी निश्चय मुक्ति, परमानंद
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(९८) विलासे; शौचने धारोजी, तजी पर परिणति टेवं, आत्म सुधारोजी०॥१॥ सात नयोने चउनिक्षेपे, शौच धर्मने जाणोजी; देहनी शुद्धि बाह्य शौच , अंतर शुद्धता श्राणो. शौच० ॥ २ ॥ द्रव्ययकी पण भाव शौच छे, अनंत गुणो हितकारीजी; काय थको मननीज अनंत गुण, शुचिता छे सुखकारी. शौच० ॥३॥ भाव शौच ज्यां छे त्यां दर्शन, ज्ञान चरण जयकारीजी; भाव शौच धरता मुनि वंदो, पूजो जग उपकारी. शौच० ॥ आतम ज्ञौच विना कायाना-शौचथी थाय न मुक्तिजी, हिंसादिक क्रोधादिक दोषो, टळतां शौचनी रीति. शौच॥५॥ आंतरमळ मन मोहने टाळो, पवित्र करी मन म्हालोजो; बाहिर शौच कदाग्रह ठगलो, अंतरने अजवाळो. शौच० ॥ ६ ॥ मननो मेल टळ्याथी मुक्ति, जेनी तेनी थातीजी; एकली पंडिताइ न खपनी, निर्मल करशो छाती. शौच० ॥ ७ ॥ रागद्वेष मलीनता टाळो, दोष प्रगटता खाळोजी; का
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( ९९ )
मवासना बीजंने बाळो, प्रभु जिन यतम भाळो. शौच० ॥ ८ ॥ भाव शौचत्रण वेषाचारे, मुंझो नहीं नरनारीजी, खतम शुद्धि करे ते शौच छे, समजो प्रांति निवारी. शौच० ॥ ९ ॥ शौच धर्मथी साधु अनंता, मुक्त याने थाशेजी; बुद्धिसागर आत्मरमणता, करतां शौच छे पासे. शौच० ॥१०॥ ॐ० - शोच धर्म लाभार्थं जलादिकं यजामहे स्वाहा.
नवमी अकिंचन धर्म पूजा.
मूर्छा परिग्रह ग्रहथकी, मुक्त थतां बे मुक्ति; अकिंचन ते धर्म बे, त्यागीनी ए रीति. ॥१॥ द्रव्यभाव परिग्रहथकी, न्यारा वर्ते संत; आत्मानंद रस अनुभवे, नमो नमो गुणवंत ॥ २ ॥ मूर्च्छावण न परिग्रही, उपयोगी मुनिराज; उपधि देहादिक छतां, निःसंगी शिरताज ॥ ३ ॥
दान सुपात्रे दिजेहो भवियां, दान सुपात्रे दीजे, एराग. परिग्रह मूर्च्छा त्यागी हो मुनिवर, परिग्रह
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(१००) मूर्छा त्यागी; अंतर बाहिर ममता रहित थै, वर्ते छे वडभागो हो. मुनिवर ॥ परिग्रहः ॥१॥ नवविध परिग्रहमां नहि ममता, वर्ते सकल पर समता; देहादिक गच्छ संगी उतां पण; निःसंग ज्ञाने रमता हो. मुनिवर० ॥२॥ साधन उपयोगी उपधि सहु, ज्ञानी न त्यां बंधाता; तास तरे जेम सरवरमांही, संवर नावे सुहाता हो. मुनिवरण ॥ ३ ॥ मूर्छा ए छे सर्वे उपाधि, मूर्छावण निरुपाधि; ज्ञानीने आस्रव पण संवर, उपयोगे नहि आधि हो. मुनिवर० ॥ ४ ॥ जडमां शुनाशुभ भाव रहित जे, ते नहि जग बंधातो; बाह्य परिग्रह तेने करे शुं ? जे नहीं पुद्गले रातो हो. मुनिवर ॥५॥ ममतावण नहीं कर्मबंध छे, ममता त्यागे त्यागी; जडनी ममता त्यागी सुज्ञाने, थाशो आतमरागी हो. मुनिवर० ॥ ६ ॥ यावत् मूर्छा अंतर तावत्, कोइ न मुक्ति पामे, मूळवण मणि पर्वत उपर, बेठो ठरे शिव ठामे हो. मुनिवरण ॥ ७॥ परिग्रह त्यागी मुनिवर सेवा,
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( १०१) भक्ति करो बहु जावे; क्षण एक साधुनी संगत करतां, निश्चय मुक्ति थावे हो. मुनिवर० ॥ ७॥ अणुसम गृहीने मेरु सरीखा, मुनिवर मोटा जाणो; संतोषे नहीं कोनी परवा, आनंद भोगी मानो हो. मुनिवरण ॥ ९॥ निश्चयने व्यवहारथी त्यागी, सेवो पूजो ध्यावो; बुद्धिसागर शुद्धातम पद, पूर्णानंदी पावो हो. मुनिवर ॥ १०॥ ॐ0-अकिंचन धर्म लाभाय जलादिकं यजामहे स्वाहा.
दशमी ब्रह्मचर्य धर्म पूजा. ब्रह्मचर्य सम को नहीं, सर्व धर्ममां श्रेष्ठ, द्रव्यभाव ब्रह्म आगळे, अन्य सकल डे हेठ. ॥१॥ नेमि सुदर्शन जंबुने, स्थूलिभद्रज अनगार; गावो पूजो जावथी, ध्यावो नरने नार. ॥२॥ ब्रह्म मळे ब्रह्मचर्यथी, भाखे वीर जिनेश; द्रव्यभावथो धारतां, नासे सघळा क्लेश. ॥३॥
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( १०२ )
ए व्रत जगमां दीवो मेरे प्यारे, ए व्रत जगमां दीवो. ए राग.
ब्रह्मचर्य सुखकारी हो जगमां, आतम आनंदकारी; ॥ द्रव्यथकी देहवीर्यनी रक्षा, स्त्री मैथुन परिहारी; जावथकी पर परिणति त्यागे, ब्रह्मव्रती जयकारी हो. जगमां, ब्रह्मचर्य सुखकारी ॥ १ ॥ पांचे इन्द्रिय वीश विषयो, शुभ अशुभ नहीं लागे; स्वप्ने पण नहीं कामनी वृत्ति, ब्रह्मजाव घट जागे हो. जगम ॥ २ ॥ मैथुन जोगे सुख नहीं शांति, आधि व्याधि उपाधि, जाणी मुनिवर ब्रह्मस्वरूपे, वर्ते वे निरुपाधि हो. जगमां० ॥३॥ कामी व्य निचारी महादुःखी, रूप राग जरमाया; हडकाया कूतरनी पेठे, क्यांये सुख नहीं पाया हो. जगमां० ॥ ४ ॥ कामभागथी थाय न शांति, उलटी कामनी वृद्धि; जाणी कामनी वृत्ति शमावो, पामो आत्मिक ऋद्धिहो. जगमां० ॥ ५॥ चामडी रागी जन चाममिया, यतमना नहि प्रेमी; तमरागी जग वैरागी, क्र्ते योगी क्षेमी हो.
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( १०३ )
जगमां० || ६ || आतमरागी प्रेमी ज्ञानी, भक्त संत मुनिराया; शुद्ध ब्रह्ममां निशदिन रमता, प्रणमो तेना पाया हो. जगमां० ॥ ७ ॥ बिराकार शुद्धातम ब्रह्ममां, रमवुं ब्रह्म डे जावे, पूर्णानंदनी मोझे रमतां, पोते प्रभुजी सुहावे हो. जगमा० ॥ ८ ॥ ब्रह्मरसे रसिया मुनिवरजी, बाह्यरसे दूर खसिया; एकवार आतम यानंदरस, पाम्या ब्रह्म उल्लसिया हो. जगमां० ॥ ९ ॥ ब्रह्मचर्यथी शक्ति अनंती, नासे दूरे रोगो, ब्रह्मचर्य छे सर्वनुं जीवन, एथी सबळा योगो हो. जगमां० ॥ ११ ॥ द्रव्यथी भाव अनंत गुण उत्तम, कारणे कार्यनी सिद्धि, अष्ट सिद्धि नवनिधियो प्रगटे, आत्मिक क्षायिक लब्धि हो जगमां० ॥ ११॥ इन्द्रादिक सहु देवो पूजे, ब्रह्मचारीने रागे; मुनिवर सेवा भक्ति करतां, ब्रह्मव्रत दिल जागे हो. जगमां० ॥ १२ ॥ जाव ब्रह्मधारी उपकारी, भोगी जेह अजोगो; बुद्धिसागर ब्रह्म अलखने, पूर्ण जगावे योगी हो. जगमां० ॥ १३ ॥ ॐ० ही ० - ब्रह्मचर्य लाभाय जलादिकं यजामहे स्वाहा.
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(१०४) कलश गीत.
गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो॥ दश विध साधुधर्मनी पूजा-पुष्पे प्रभुजी वधायो. त्रिशला नंदन वंदन करता, सहजानंदने पायोरे. महावीर० ॥१॥ ओगणिश सत्योत्तर आश्विन वदि, छठ शनिवार शुहायो; दशविध मुनिवर धर्मनी पूजा, रचतां हर्षे उमाह्योरे. महावीर० ॥२॥ सानंदमां
आनंदनी ल्हेरे, दशविध धर्मने ध्यायो; संघनी भक्तिए चोमासामां, मंगल जय वर्तायोरे. महावीर० ॥३॥ सदसद्भूत ज बातम धर्मनो, अनुभव निश्चय आयो; आपोआप स्वरूपे खेली, जन्मी जगा फाव्योरे. महावीर० ॥ ४ ॥ तपगच्छहीरविजय सूरि जगगुरु, धर्मना तेजे सवायो; पट्ट परंपर रविसागर गुरु, झळहळ ज्योति सुहायोरे. महावीर० ॥५॥ दर्शन ज्ञानने चारित्रमयश्री, सुखसागर गुरु रायो; तेना चरणकमळमां ब्रमर सम, थातां
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( १०५ )
ब्रह्म जगायोरे, महावीर ॥६॥ गुरु कृपाने आशीर्वादे, जगमां धर्म फैलायो; बुद्धिसागर आनंदमंगल, जंगम संघ वधायोरे. महावीर० ॥ ७ ॥
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(१०६)
चार नावनानी पूजा. परम ब्रह्म परमातमा, प्रभु महावीर देव, सर्वे सुरासुरनत विभु, इन्द्रो करता सेव. ॥१॥ प्रभु महावीरे कह्यो, चार भावना बोध; भावे चारे जावना, थातो मोह निरोध. ॥२॥ चार भावना भावतां, प्रगटे आतम शुद्धि; ते कारण चउ भावना-पूजानी ने सिद्धि. ॥ ३ ॥ मैत्री मुदिता नावना, नाव मध्यस्थ विचार; करुणा चोथी नावना, नावंतां भवपार. ॥ ४ ॥ अष्ठ प्रकारी पूजना, प्रत्येक पूजा दीठ; प्रभु महावीर पूजतां, प्रगटे सम्यग् दृष्टि. ॥५॥ चार भावना लावतो, त्यागी गृही नर नार; क्षणमां केवल ज्ञानने, पामंता निर्धार. ॥ ६ ॥
प्रथम मैत्री भावना पूजा. अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी. ए राग.
चरम जिनेश्वर महावीर पूजीए, जेणे तार्या नरनार; भावना चारेरे जेणे उपदिशी, नावे शिव निर्धार.
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(१०७) मैत्रीभावना जावो भविजना. ॥ ॥१॥ सर्व जीवोने मित्रसमा गणो, छंडो वैर विरोध;शत्रु दृष्टिरे दिलथी परिहरो, एवो प्रजुनोरे बोध. मैत्रीण ॥२॥ बातम सरखारे सर्वे जीव , कर्मवडे परतंत्र; अज्ञाने ते रे सत्य न जाणता, जपता मोहनो मंत्र. मैत्री० ॥३॥ कर्म प्रमाणेरे सुख दुःख संपजे, जीवो निमित्त होय; कर्म विना कोइ निमित्त नहीं यतुं, शत्रु न मानोरे कोय. मैत्री० ॥ ४ ॥ सम्यग्दृष्टिने सवळीबुद्धिथी, सर्व जीवो होय मित्र; आत्मोन्नतिमारे हेतु परिणामे, कोई न होय अमित्र. मैत्री० ॥ ५॥ सातनयोथोरे मैत्रीभावना, चनिक्षेपेरे जाण; द्रव्यने नावरे निश्चय व्यवहारे, प्रगटे केवल ज्ञान. मैत्री ॥६॥ जेना मनमारे मित्र जगत् बन्यु, ते छे जगनोरे मित्र; जव बंधनथीरे मुक्त प्रभु थयो, ज्ञानी संत पवित्र. मैत्री० ॥७॥ खमो खमावारे सर्वे जीवने, टाळी रागने रोष; जैनधर्मनोरे ए व्यवहार छे, करवो आतम पोष. मैत्री० ॥ ८॥ मैत्रीनावना
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( १०८ )
वर्तन आदरो, टाळी मोहनी वृत्ति; दुःख सहीनेरे सघळा जीवनी, करशो प्रेमेरे नक्ति मैत्री० ॥ ९ ॥ परमातम सत्ताए सहु जीवो, आतममां एम भाव, बुद्धिसागर मैत्रीभावना, जवसागरमारे नाव. मैत्री० ॥ १० ॥ ॐ - मैत्रीभाव लाभाय ज० य० स्वाहा.
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द्वितीया प्रमोदजावना पूजा.
प्रमोद भावना पुष्पथी, पूजो वीर जिनेन्द्र प्रमोद जावे जे रहे, थाता तेह महेन्द्र ॥ १ ॥ दोष दृष्टिने टाळवा, प्रमोद जावना बेश; निंदादिक दूरे टळे, नासे मिथ्या कलेश. ॥ २ ॥ गुणने गुणीने देखतां, मनडुं हर्षित थाय; ए छे मुदिता जावना, आचरतां दुःख जाय. ॥ ३ ॥
.
ते जे तरणिय बमोरे. ए राग.
वंदु प्रभु महावीरनेरे, जेणे ओळखाव्यो धर्मः उपकारी नहीं तुज समोरे, टाळ्यो मिथ्या नर्म हो.
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(१०९) दलमां. मुदिता भावना नावीएरे, आत्म प्रभु प्रगटावीएरे. टाळी दोषनी दृष्टि. ॥ १ ॥ कर्म वशे सहु प्राणियारे, दोषी काल अनादि; अचरिज शुं त्यां मानवुरे, गुण देखो निरुपाधिहो. दिलमां मुदिताण ॥ २॥ सर्व संसारी जीवमारे, दोषने गुण बे साथ; गुण देखी चित्त रीझीएरे, रीझे त्रिभुवन नाथ हो. दिलमां मुदिता० ॥ ३ ॥ परगुण परमाणु समारे, जाणी गिरिसम चित्त; खुशी थता जग सज्जनारे, करता आत्म पवित्र हो. दिलमां मुदिता. ॥४॥ कृष्णे श्वानना दंतनेरे, प्रशंस्या धरी राग; गुण रागे प्रगटे गुणोरे, जीव बने महानाग हो. दिलमां मुदिता ॥५॥ नय निक्षेपे जाणीनेरे, आदरशो नरनार; समकितवंता जीवनोरे, एवो ने आचारहो. दिलमा मुदिता० ॥ ६॥ मिथ्यादृष्टिपणुं टळेरे, टळती दोषनी दृष्टि; सर्व गुणो प्रगटाववारे, पुष्करा वर्तनी वृष्टि हो. दिलमा मुदिता ॥७॥ निन्दा थती नहीं कोइनीरे, सद्गुण लेश जणाय; सर्व जी
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(११०) वोनी साथमारे, आतम भाव सुहायहो. दिलमां मुदिता० ॥ ८॥ सर्व कषायो उपशमेरे; क्षयोपश क्षय थाय; आत्म स्वभावे तमारे, प्रणमे सुख प्रगटाय हो. दिलमां मुदिता ॥ ९ ॥क्षपक श्रेणि चढे आतमारे, समन्नावे वर्तमान; क्षीण मोही अंतरातभारे, पामे केवल ज्ञान हो. दिलमां मुदिता० ॥ २० ॥ कोटि दोष छतां गुणोरे, देखंता संत धार; दोष त्यजी गुण हर्षथोरे, राचो नरने नार हो. दिलमां मुदिता ॥ ११॥ शत्रुना पण गुण जुवोरे, करो न नामथी निंद, प्रभु महावीरना बोधयोरे, गुण गुणी मानो वंद्य हो, दिलमां मुदिता ॥ १२॥ जैन धर्मनी नावनारे, गुण रागे प्रगटाय; बुद्धिसागर आतमारे, ज्योति ज्योते सुहाय हो. दिलमां मुदिता० ॥ १३ ॥ ॐ-प्रमोद भाव लाभाय. ज० यः स्वाहा.
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( १११ ) तृतीया माध्यस्थ भावना पूजा.
दुहा. माध्यस्थ त्रीजी भावना, आदरे जे नरनार; सर्व प्रकारे सत्यने, पामे शांति अपार ॥ १ ॥ मिथ्या दुर्बुद्धि टळे, पक्षपात दूर जाय; दुराग्रहो सर्वे टळे, रागने रोष पलाय. ॥ २ ॥ ज्यां त्यां सत्य प्रकाशतुं, रहे नहीं अज्ञान; नय निक्षेपे धर्मने, जाणतां बे
ज्ञान ॥ ३ ॥
धन धन संप्रति साचो राजा. ए राग.
जेम जेम राग ने द्वेष विघटे, तेम प्रगटे समजावरे ; दृष्टि रागनो त्याग थतां दिल, प्रगटे मध्यस्थ जावरे वीर प्रभुए ए गुण जाख्यो, श्रादरो नरने नाररे; मध्यस्थ भावे सत्य प्रकाशे, आनंद अपरंपाररे. वीर० ॥ १ ॥ पक्षपात थाय रागने द्वेषे, मानव स्वार्थे अन्धरे; मिथ्याबुद्धियोगे लोको, अवळी दृष्टिए बन्धरे. वीर० ॥ २ ॥ सर्व कदाग्रह
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(११२) दूरे नासे, प्रगटे सत्य प्रकाशरे; सत्यने माटे सर्व समर्पण, शुझातम विश्वासरे. वीर० ॥३॥ द्रव्य क्षेत्रने कालने भावथी, सत्यासत्य जणायरे; सत्यनां सर्वे दृष्टि बिंदुओ, प्रगटे सत्य ग्रहायरे. वीर० ॥४॥ सत्यने न्याय ग्रहे मध्यस्थी, पकमे न गद्धापुच्छरे; जूतुं ते साचुं नहीं माने, सत्य आगळ सहु तुच्छरे. वीर० ॥ ५॥ नय निक्षेपने जंग प्रमाणे, जैन धर्म जे सत्यरे; सर्व नयोनी सापेक्षाए, समजो दर्शन कृत्यरे. वीर ॥ ६ ॥ ज्ञानी संतनी सेवा नक्ति, करतां मध्यस्थ नावरे, प्रगटे सर्व कर्म व्यवहारे, समजाता सत्य दावरे. वीर० ॥७॥ काल स्वभावने नियति कमें, उद्यमे थातुं काजरे; पंचनासमवाये छे कार्यनीसिद्धिन साम्राज्यरे. वीर० ॥ ८॥ माध्यस्थभावे वों लोको, करशो धार्मिक कर्मरे; सुणशो वांचशो जोशो चिंतशो, दिलमा प्रगटशे शर्मरे. वीर. ॥९॥ सर्व बाजुथी सत्य तपासो, करो मध्यस्थे काजरे; दर्शन ज्ञान चरणनी प्राप्ति, प्रगटे शिव साम्राज्यरे.
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(११३) वीर० ॥ १० ॥ मध्यस्थ नावे वोर प्रभुने, पूजो ध्यावो हमेशरे; बुद्धिसागर शुद्धातम पद, पामो अलख प्रदेशरे. वीर० ॥ ११ ॥ ॐo-माध्यस्थ भाव लाभाय ज० य० स्वाहा.
चोथी करुणा भावना पूजा.
दुहा.
चोथी करुणा भावना, सर्व धर्मनुं मूल; करुणा वण समकित नहीं, सर्व धर्म अनुकूल. ॥ १॥ दया धर्ममां सत्यने, दान शीयल तप माय; सर्वे धर्म समाय छे, करुणामां सुखदाय. ॥२॥ प्रभु महावीर प्रकाशियो, दया धर्म दिलनाव, भवोदधि तरवा खरं, करुणा उत्तम नाव. ॥३॥ सांभळशो मुनि संयमरागे उपशम श्रेणि चढियारे.
ए-राग. प्रभु महावीर जग उपकारी, तीर्थकर जयकारीरे, करुणा भावने उपदेश्यो शुभ, आदरशो
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( ११४ )
नरनारीरे प्रभु ॥ १ ॥ द्रव्य करुणा सर्व जीवोनां, दुःख दूरे करवां रे; सर्व जीवोना प्राणनुं रक्षण, कर कर्म यचरवांरे. प्रभु० ॥ २ ॥ यथाशक्ति उपकारो करवा, रोगादिकने हरवारे; द्रव्य करुणा एवो पहेली, भावी गुण अनुसरवारे. प्रभु० ॥३॥ भाव करुणा निज आतमपर, कर्म शत्रु संहरवारे; सर्व लोकने आतमज्ञाने, प्रतिबोधी उद्धरवारे. प्रभु ॥ ४ ॥ जैनधर्म जगमां फेलावे, भाव करुणा थातीरे; निजपर खतम शुद्धि. माटे, भाव दया प्रगटातीरे प्रभु ॥ ५ ॥ सात नये करुणाने जाणी, कहेणी रहेणीए रहेवुंरे, शत्रु उपर पण करुणा बुद्धि, राखी दुःखने सहेतुंरे. प्रभु० ॥ ६ ॥ ज्ञानथकी करुणा घट प्रगटे, हिंसा बुद्धि विघटेरे; ज्यां करुणा त्यां प्रभु छे निकटे, आतम भवमां न भटकेरे. प्रभु० ॥ ७ ॥ नेमि प्रभुए परणवा जातां मृगनी करुणा कीधीरे; वीरप्रभुए चंडकौशिकपर, करुणा कीधी प्रसिद्धिरे प्रभु ॥ ८ ॥ द्रव्य दयाथी नाव
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(११५) दया छ, अनंत गुण हितकारीरे; जे जे भावे करवी घंटे ते, करशो समय विचारीरे. प्रभु ॥९॥ दया विनानो धर्म नहीं छे, धर्म न हिंसा कमेरे; रागने द्वेष विना निष्कामी, रहे आवश्यक धर्मेरे. प्रभु० ॥१०॥ अल्प दोषने धर्म महा लाभ, दया कर्म आचरवारे; स्वाधिकारे तरतमयोगे, कर्म विवेके करवारे. प्रभु ॥ ११ ॥ प्रभु महावीर श्रद्धा नक्ति, पामी करुणा करशोरे; बुद्धिसागर परमब्रह्मने, शुद्ध बनीने वरशोरे. प्रभु० ॥१॥
कलश गीत. गाया गायारे प्रभु महावीर प्रेमे ध्याया॥ चारे भावना पुष्पथी प्रज्या, वीर जिनेश्वर राया; आतम ते महावीर प्रभुजी, घटमां व्यक्त सुहायारे. प्रभु ॥१॥ चार भावना द्रव्यने जावे, भावंतां प्रभु पाया; आत्म सरोघं जग सहु भास्यं, अनुजव रंग वधायारे. प्रभु० ॥ २ ॥ संवत् ओगणिश सत्योतरमां,
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(११६) साणंद रही चोमासुं; आश्विन वदि सातम रविवारे, पूजा रची सुख भास्युरे. प्रभु० ॥ ३ ॥ चारे भावना भावतां घटमां, आनंद अनुभव आयो; प्रमु महावीर देवने भावे, भावना भावी वधायोरे. प्रभु० ॥ ४॥ महावीर पट्ट परंपर तपगच्छ, हीरविजय सूरिरायो; जगगुरु पदवी पाम्या साची, अकबरशाहे वधाव्योरे. प्रनु० ॥ ५ ॥ वाचक सहज सागर गुरु पट्टनी, परंपराए अाव्या; श्री रविसागर गुरु महंता, जगमां प्रसिद्धि पायारे. प्रजु० ॥ ६ ॥ तस शिष्य वैयावच्चीशिरोमणि, चारित्री शिर राजा; श्री सुखसागर शांत सुधाकर, क्रियावंत शिर ताजारे. प्रजु० ॥७॥ गुरु सुखसागर पूर्ण कृपाथी, पूजा रची सुखकारी; भणे गुणे जे सांभळे ते सुखपामो मंगल भारीरे. प्रजु० ॥ ८॥ आत्मोपयोगी भावना जावी, आतम शुद्धिकारी;बुद्धिसागर ऋद्धि वृद्धि; शांति लहो नरनारीरे. प्रभु० ॥ ९ ॥ ॐ करुणा लाभाय ज० य० स्वाहा ॥
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( ११७ )
दान शोयल तप भावनी पूजा.
प्रथम दान पूजा.
जय जगमां महावीर जिन, सर्व विश्व आधार; परम ब्रह्म तीर्थंकरा, परमेश्वर जयकार. ॥१॥ केवलज्ञानी जिनपति, सुरनर पूजे पाय; वीतराग परमातमा, सेवंतां सुख थाय ॥ २ ॥ समवसरणमां बेसीने, सत्य जणाव्यो धर्म; दान शीयल तप भावन, सत्य जणाव्यां मर्म ॥ ३ ॥ दान शीयल तप भावथी, मुक्ति लहे नरनार, एमां शंसय नहिजरा, समजाव्यं निर्धार ॥ ४ ॥ ते माटे पूजा रचुं दान शीयल तपभाव; द्रव्यजावथी पूजतां प्रगटे गुण सद्भाव. ॥ ५ ॥
प्रथम दान पूजा.
दान समो नहि धर्म जग, दान दियो नरनार, दानी जावे त्याग बे, दानथी जग उपकार . ॥१॥ दीक्षा ग्रहतां पूर्वे, तीर्थकर दे दान दानथी निश्चय
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(११८) मुक्ति पद, नाखे जे भगवान्. ॥ २ ॥ दान सुपात्रे वापरो, धारी सत्य विवेक; दान विना नहीं सिद्धि बे, दाने समकित टेक. ॥ ३ ॥
सांभळशो मुनि संयम रागे. ए राग.
नमो नमो महावीर उपकारी, जगमांही जयकारी रे. दानस्वरूप प्रकाश्युं साचुं, द्रव्यभाव सुखकारीरे. नमो० ॥१॥ अन्नय सुपात्र उचित अनकंपा, कीर्ति पांच ए भाख्यारे; यथायोग्य सेवे नरनारी, उत्तम फल तस दाख्यार. नमो० ॥२॥ अन्न वस्त्रने औषधदाने, परोपकार कगतोरे; ज्ञानदान सहु दानमां मोटुं, महिमा न वर्णव्यो जातोरे. नमोण ॥३॥ भावथी समकित दान अभय छ, चारित्रादिक जाणोरे; जन्ममरणथी बूटे आतम, दान ते नाव प्रमाणोरे. नमो० ॥४॥ ममता टळतां दान ज थातुं, अगियारमो प्राण थापेरे; सर्व प्राणार्पण ज्यां दाने, त्यां प्रनु प्रगटी व्यापेरे. नमो ॥ ४ ॥राचे
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(११९) माचे दान करीने, ते उत्तम पद पामेरे; बातम गुण बातमने आपे, ते परतो शिव ठामेरे. नमो० ॥६॥ दानथकी गुण सर्वे प्रगटे, दुर्गुण दोषो टळतारे; वैरोजन पण व्हाला थाता, वांबित मेळा मळतारे. नमो० ॥७॥ सातनयेने चउ निक्षेपे, दानस्वरूप विचारोरे; सर्व धर्ममां दान छे पहलं, त्रिकयोगे ते धारोरे. नमो ॥ ८॥ दानने देतां सर्वे दीg, धन धन जगमां दानीरे; दाने तीर्थकर पद बांधे, समजे धर्मी ज्ञानीरे. नमो० ॥ ए ॥ संघ चतुर्विध शासन जक्ति, दानने देतां थातीरे, देव गुरुने संतनी सेवा, तरतमयोगे सुहाती रे. नमो० ॥ १०॥ अरस्परस उपकारक हितकर, दान समुं नहीं कोइरे; प्रभु महावीर देवे प्रकाश्युं, आदरशो शुन्न जोइरे.नमो. ॥ ११ ॥ द्रव्यने नावथी धर्मदानथी, दानीनो बलिहारीरे; बुद्धिसागर दानने आपो, धर्मी नरने नारीरे. नमो० ॥ १२॥
ॐ ही श्री०परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मजरामृत्यु
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( १२० )
निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय दान लाजाय जलं चंदनं पुष्पं धूपं दीपं अक्षतं नैवेद्यं फलं यजामहे स्वाहा ॥
द्वितीया शीयल तप पूजा.
शीयल सम नहीं धर्म कोइ, सकल कर्म हरनार. शीयल सागर सम जलु, अन्य नदी सम धार. ॥ १ ॥ शीयल पाळे पाळ्युं सहु, पाळ्या व्रत आचार, शीयलवंताने नमो, पूजो नरने नार ॥ २ ॥ शीयलत्रतथी मुक्ति बे, स्वर्ग तो सहेजे होय; दुष्ट उपद्रव झट टळे, नडे न निजने कोय. ॥ ३ ॥
श्री जिनजाषित वचन विचारीए - ए राग. आत्म प्रभु महावीरने पूजीए, ध्याइ जे बहु भाव - ज विकजन; प्रभु गुण लेतां प्रभुसम शोभिए, लक्ष्य न चूको एह दाव. जविकजन० शोयलने पाळो साचा जावथी० ॥ १ ॥ सीतादिक सतीयो संभारीए, ध्याइए तीर्थकर यदि, भविक० ॥ शेठ
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( १२१) सुदर्शन जंबुने स्मरो, कामनी वारोरे व्याधि. भावकशीयल० ॥ १ ॥ धन्य धन्य स्थूलीभद्र महंत जे, शीयलधारीमांही श्रेष्ठ, नविक ॥ कामना घरमां पेसी कामने, पाडयो पटकीर हेठ. भविक. शोयला ॥३॥ विजयने विजयाने धन्य धन्य छे, टाळ्यु कामनुं मूळ; भविकण॥ शीयलवंतां नरने नारीओ, टाळो कामनुं शूळ. भविक. शीयल० ॥ ४ ॥ शीयलधारी जनने पूजीए, वंदोए करीने संग; भविक, संगे रंग प्रगटतो दिलविणे, प्रभुवचने दृढ रंग. नविक. शीयल० ॥५॥ सातनयोने चन निक्षेपथी, जाणी शीयलनुं रूप; भविक. द्रव्यभावथी सेवे शिव मळे, नासे भव भय धूप. भविका शीयलग ॥६॥ द्रव्य ते नाव- कारण जाणवं, कारणे कार्यनी सिद्धि; भविक०॥ कायिक वीर्यनी रक्षा धारतां, प्रगटे बाह्यनी ऋद्धि. भविक. शीयल० ॥ ७॥ पतिव्रता पत्नी व्रत शीयल छे, गृही आश्रम हितकार; भविक. द्रव्य भावथी शीयल छे त्यागोने, दुर्गुणनो परिहार.
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(१२२) भविक. शीयल० ॥८॥ सदवर्तन चारित्र ते शीयल छे, उत्तम गुणना आचार; भविक. दोष व्यसन दुर्गपना त्यागथी, शोयल छे सुखकार. नविक.शोयल. ॥९॥ द्रव्यने भाव शोयल पूजावडे, पूजो महावीर देव; भविक. आत्म महावीर प्रगटे आत्ममां, निज गुण पर्याय सेव. भविक. शीयल० ॥ १० ॥ आतम शुद्ध उपयागे वर्तीए, भाव शीयल ऐ बेश. भविक. बुद्धिसागर परमानंदनी, प्राप्ति होय हमेश. भविक० शीयल ॥११॥ ॐ शीयल लाजाय ज० यः स्वाहा ।
तृतीया तप पूजा. तप पूजो भवी जावथी, सेवो ध्यावो बेश; तपथी प्रगटे सिकियो, नासे सघळा क्लेश. ॥१॥ अनेक जातनां तप भलां, द्रव्यभाव व्यवहार; कार्यसिद्धि पुरुषार्थता, दुःख सहन तपसार. ॥२॥ तन मन धनना जोगथी, करतां शुभ पुरुषार्थ; संकट पुःखोने सहे, तप प्रगटे परमार्थ. ॥३॥
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(१२३) ओधवजी संदेशो कहेजो श्यामने. ए-राग.
द्रव्यभावथी तप तपशो नरनारीओ, कार्यनी सिद्धि तप वण कोइ न होय जो; मोहपरिणति रोधक निश्चय तप भवं, कर्तव्यो करतां सहेजे तप जोयजो. द्रव्य० ॥१॥ बाहिर तप षड्नेदे सुखकर छे सदा, भव्यजीवो तेनो धरता व्यवहारजो; अन्यंतर तप षम्भेदे ले निर्मलं, शुद्धातम कारक ते छे सुखकारजो. द्रव्य. ॥२॥ देवगुरुने संघनी सेवा नक्तिमां, सर्व समर्पण कर तप ए बेशजो; निष्कामे निज अधिकारे फों अदा-करतां तप ते पमता सहेवा कलेशजो. द्रव्य० ॥३॥ प्राण पमे पण धर्म कर्म नहीं मूकवां, निर्जय निश्चल भावे रहे चित्तजो; सर्व शुभाशुभ भावविषे समभावना, धरवी तप ए जाणो श्रेष्ठ पवित्रजो. द्रव्य० ॥४॥ दुर्गुण दोषने सर्व व्यसनने टाळवां, उपकारी कमों करवां सही दुःख जो; लाभालाभमां मान अने अपमानमां, समताए रहीए ने सहीए नूखजो. द्रव्य० ॥ ५॥ रोगी आदि जीवोनां दुःख टाळवा, तनमन
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( १२४ )
धन शक्तिनो देवो भोगजो; परमार्थों करवामां स्वार्थी होमवा, एवो साचो दुष्कर तपनो योगजो. द्रव्य० ॥ ६ ॥ फलनी इच्छा राख्या वण परमार्थनां, करवां कृत्यो त्यागी भयने द्वेषजो; खेद विना शुभ धर्म प्रवृत्ति धारीए, साध्योपयोगे मुक्तिनो उद्देशजो द्रव्य० ॥ ७ ॥ नामरूपमां निर्मोही बनी वर्ततुं, सर्व शुभाशुभ इच्छानो कर रोधजो; अर्पाइ जावुं गुरु यदि भक्तिमां, योग्यजनोने देवो घटतो बोधजो द्रव्य० ॥ ८ ॥ प्रायश्चित्तने विनये, वैयावृत्यथी, स्वाध्याय ध्यानथी प्रकटे आतम शुद्धिजो; देहादिकमां निर्मोही थै वर्ततां प्रगटे आतमनी नव क्षायिक लब्धिजो द्रव्य० ॥ ९ ॥ मनवाणीने कायाथी तप योग छे, तपथी शुद्ध करो आचार विचारजो; बुद्धिसागर प्रभु महावीर देवनो, जाख्यो तप एवो छे जग सुखकारजो. द्रव्य० ॥ १० ॥
ॐ तपो लाजाय ज० य० स्वाहा || चोथी भाव पूजा. भावथकी क्षणवारमा, प्रगटे केवलज्ञान;
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(१२५) क्षणमा नावथी मुक्ति छे, वीर कथे भगवान् ॥१॥ वोरो शाळवी भाव वण, पाम्यो काया क्लेश; नाव रुचि रस प्रेमथी. विघटे रागने द्वेष. ॥२॥ भाव विना किरिया सकल, निष्फळता देनार; हर्षोल्लासे जावना, भावो नरने नार. ॥६॥
जीरण शेठ भावना भावेरे. महावीर प्रभु घेर
आवे-ए राग. महावीर प्रनु जयकारी, नावे उपदेशे सुखकारी; जावथी सर्व सिद्धि थनारी, भाव दिलमां धरो नर नारीरे; जावनी जगमा बलिहारी, जाव अमृत आनंदकारीरे. नाव. ॥१॥
चकी भरते भावना जावी, क्षणमा घाति कर्म हगव); थे केवली मुक्तिने पावी, जाव; नक्तिनी छे चावीरे. जाव० ॥१॥ जावे जावना भावतां ज्ञानी, थया आषाढा मुनि ध्यानी; थया क्षणमां केवल
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(१२६ ) झानो, रही खप नहीं बीजा कशानीरे. जाव० ॥२॥ वांस उपर नाटक करता, इला पुत्रजी ध्यान धरंता; नावथा श्रेए संचरंता, एक क्षणमां केवल वरतारे. भाव० ॥३॥ प्रनु महावीर पारणं आवे, जीरण शेठ भावना भावे; पूरण घेर दानने पावे, जीरण शेठ स्वर्ग सिधावेरे. भाव ॥४॥ नावथी धर्म कोइ न मोटो, भाव रसवण सर्वमा तोटो; थाय व्रत तप मांही गोटो, भाव वण आडंबर खोटोरे. भाव० ॥ ५॥ भाव आनंद रस रुचि प्रीति, जेमां द्वेष नहीं खेद भौति; हर्षोल्लासनी उत्तम रीति, उज्वल परिणाम प्रवृत्तिरे भाव० ॥ ६॥ नाववण कोइ मुक्ति न पामे, भाववण नहीं शक्तिथी झामे; कोश किरीया न आवे कामे, भाववण वळतुं नहि दामेरे. भाव०॥७॥ भाव चढतीरसनी धारा, सेवा नक्तिथी सुखकारा; वहे आनंद अपरंपारा, रस वेधक सिद्धि उदागरे. भाव० ॥ ८॥ श्रद्धा प्रीतिवडे नाव आवे, शुष्कज्ञानीन जम शुं पावे; सत्य आनंद रस उप
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( १२७ )
जावे, तेनी घेंन खुमारी न जावेरे. जाव० ॥ ९॥ जेथी नाव वधे ते करशो, एवं सांभळी व्रत आचरशो; भावर ज्यां त्यां मन धरशो, तेथी आतम जीवन वरशोरे भाव० ॥ १० ॥ शुद्धभाव आनंद रस व्यापे, क्षणमां मुक्तिरस छापे; कर्म अनंत भवनां कापे, बुद्धिसागर आनंद पेरे. भाव० ॥ ११॥ ॐ जाव लाजाय ज० य० स्वाहा ॥
गीत कलश. गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो.
दान शीयल तपभाव पूजाए, अतिशय आनंद पायो; द्रव्य पूजाने भाव पूजानो, ए अधिकार रचायोरे, महावीर ॥ १ ॥ द्रव्य पूजाने नाव पूजानो, गृहस्थ छे अधिकारी; भाव पूजाना अधिकारी मुनि, शुद्धातम सुखकारी रे. महावीर० ॥२॥ दानशीयल तप जावना योगे, मुक्ति लहे नरनारी; सर्व साधारण धर्म वे जगमां, सर्व जीव हितकारी रे.
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(१२८) महावीर० ॥ ३॥ एक दिवसमा पूजा रची शुभ, सर्व भवी उपकारी; आश्विन वदि आठम सामवारे, वर्ते जग जयकारी र. महावीर. ॥ ४ ॥ोगणिश सत्तोत्तरमा साणंद, चोमासु कर्यु भावे; संघनी भक्तिए उपदेश, रहेतां आनंद दावेरे. महावीर० ॥५॥ प्रभु महावीर पट्ट परंपर, तपगच्छ संघना राजा; जगगुरु हीर विजय सूरि शोने, सर्व गच्छ शिरताजारे. महावीर० ॥६॥ तपगच्च सागर पट्ट परंपर, रविसम पूर्ण प्रतापी; रविसागर गुरु प्रेमे प्रणमुं, जगमां कीर्ति व्यापीरे. महावीर. ॥७॥ तश शिष्य चारित्री शिर शेखर, सुख सागर गुरु धीरा; शांतने दांत महत मुनीश्वर, सर्व मुनिमा वीरारे. महावीर. ॥ ८॥ गुरु सुखसागर पूर्ण कृपा. थी, आत्मामृतरस पीधो; बुद्धिसागर आनंद मंगल, पामी पूर्ण प्रसिकोरे. महावीर० ॥ ९ ॥
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( १२९ ) अष्टांग योगनी पूजा.
प्रणमुं तीर्थकर विभु, चोवीशमा जिनराज; परमेश्वर महावीर देव, योगेश्वर सम्राट. ॥ १ ॥ योगनां अंगो आठ छे, तेह प्रकाश्यां बेश; समवस रणमां बेसीने, दीघो शुभ उपदेश ॥ २ ॥ इवनां कांगो चार बे, राजनां अंगो चार; निश्चय ने व्यवहारथी, समजी ग्रहो नरनार ॥ ३ ॥ दर्शन ज्ञानने चरणमा, अंगो आठ समाय; पंचाचारने समितिमां, गुप्तिमांही सुहाय ॥ ४ ॥ स्याद्वादी समकितीनेसम्यकपणे प्रणमाय; साधननी उपयोगिता, स्वाधिकारे जाय. ॥ ५ ॥ त्यागी गृहस्थने योगनुं, आराधन सुखकार; असंख्य योग वीरे कह्या, मुक्ति हेतु निर्धार ॥ ६ ॥ ज्ञानी गुरुगमने लही, जैन शास्त्र अनुसार; योगाष्टक पूजा रचुं स्वर्गने शिव दातार. ॥७
प्रथम यम योग पूजा.
हिंसा सत्य यम कथ्या, अस्तेय छे जयकार;
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( १३० )
ब्रह्मचर्य संतोषने, आदरतां शिव सार ॥१॥ पाप कर्मने रोधतो, यम ते संवर जाए; आदरतां आस्रव टळे, प्रगटे अनुभव ज्ञान. ॥२॥ सर्व योगनुं मूल छे, सर्व योग धार; प्रथम पगथियुं मुक्तिनुं, पाळो नरने नार ॥ ३ ॥
देखो गति दैवनी रे. ए राग.
प्रणमो पूजो वीरनेरे, जेने जणाव्यो योग; पंच महाव्रत यमथकी रे, नासे कर्मनो रोग. भवी यम आदोरे, टाळी दुःखकर भोग. भवी यम आदरोरे. ॥ १ ॥ हिंसा दुःखनी वेलडी रे, अहिंसा सुखखाण; वैर विरोध रहे नहींरे, मुक्तिनुं छे प्रमाण जवी० ॥ २ ॥ सत्य समो नही धर्म बे रे, सत्य जगत् आभार; सत्यथी धर्मो प्रगटतारे, सत्य ग्रहो धरी प्यार. जवी० ॥ ३ ॥ सर्व प्रकारनी चोरीथीरे, विरमे शांति सुहाय; चोरी करतां प्राणियारे, सुख शांति नहि पाय. भवी० ॥ ४ ॥ द्रव्यथी मैथुन त्यागतांरे, नववाडो घरी बेश; आधि व्याधि उपाधिनेरे, नासे
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( १३१ )
रोगने क्लेश. जवी० ॥ ५ ॥ भावयकी ब्रह्मचर्य छेरे, मोह परिणति त्यागः शुद्धब्रह्ममां म्हालबुंरे, सर्वयाग शिर याग. भवी० ॥ ६ ॥ मूर्च्छा परिग्रह त्यागथोरे, मन चंचलता जाय; द्रव्य परिग्रह पण टळेरे, आत्मानुनव थाय. भवी० ॥ ७ ॥ जोगोपभोगथी विरमतांरे, पाप कर्मनो अंत; यमवमे प्रभु पूजोनेरे, मुक्तिवर्या बहु संत भवी० ॥ ८ ॥ देहनी शुद्धि यमथकीरे; मनवच कायनी शुद्धि, बुद्धिसागर आत्मनोरे, प्रगटे चिदानंद ऋद्धि भवी० ॥ ९ ॥ ॐ ०५० यमयोग लाजायज० य० स्वाहा ॥
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द्वितीया नियम पूजा.
बोजी नियमनी पूजना, करतां दुःखनो नाश; मन इन्द्रिय वशमां रहे, नियम ते जाणो खास. ॥ १ ॥ जे जे उपाये मन तनु, आतम वश वर्ताय; नियम ते जाणो सही, पाळंतां सुख थाय ॥ २ ॥ नियम योगने चादरी, पाम्या मुक्ति अनंत; नियम
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( १३२ )
सिद्धि छे यमथकी, जाखे वीर जदंत ॥ ३॥
सुत सिद्धारथ भूपनोरे, सिद्धारथ भगवान् - ए राग.
शुभ नियम बहु जातनारे, द्रव्यने भावथी जाए; मोह पशुबळ झट टळेरे, आदरतां गुण खाणरे; नियमने पाळशो, टाळी विषय कषायरे, दोषो टाळशो. ॥ १ ॥ बाह्याभ्यंतर तप तपेरे, षड् आवश्यक कर्म; सहज कर्म सदोषीनेरे, करतो साधे धमेरे नियम० ॥ २ ॥ घोर अभिग्रह धारतोरे, गुर्वादिकनीरे जक्ति; परोपकारी कार्यमांरे, फोरवतो निज शक्तिरे. नि० ॥३॥ देवगुरुने साधुनांरे, दर्शननी शुभ टेक; आवश्यक सहु फर्जनेरे, धारे धरीने विवेकरे. नियम० ॥ ४ ॥ सकल साधन नियमनांरे, द्रव्यने भावथी जेह, साध्योपयोगे धारतोरे, देह छतां निर्दे हरे. नियम ० ॥ ५ ॥ द्रव्यभावथी शौचनेरे, धारे मन संतोष; निन्दादिक दुर्गुण त्यजेरे, घरी गुण दृष्टि पोषरे. नियम० ॥ ६ ॥ धर्म कर्म करवां घटेरे,
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( १३३ )
ते ते करतोरे सर्व; दुष्ट जे कामनी वासनारे, टाळे प्रगटयो गर्वरे नियम० ॥ ७ ॥ सूरिवाचक मुनि सेवतारे, करतो हर्षोल्लास; जिन प्रतिमा अवलंब - तोरे, प्रभु वचने विश्वासरे नियम० ॥ ८ ॥ समकितवण हठयोगथी रे, पामे नहि कोइ मुक्ति; सम्यग्ज्ञाने नियमनीरे, पाळे जे शुभ रीतिरे. नियम० ॥९॥ हठयोगी अज्ञानथीरे, निष्कामी नहीं थाय; सम्यग् ज्ञानी नियमनेरे, पाळंतो शिव जारे नियम० ॥ १० ॥ द्रव्यक्षेत्रने भावथी रे, सातनयो धीरे जेह; जाणी नियमने आदरेरे, सिद्ध बने छे तेहरे नियम० ॥ ११ ॥ पाळो नियमना योगनेरे, जेथी यात्रत्र जाय; बुद्धिसागर आतमारे, 'परमेश्वर पद पायरे. नियम० ॥ १२॥ ॐ ०प० नियम योगलाजाय ज य० स्वाहा ॥
तृतीया श्रासन योग पूजा. सनथी आरोग्यता, देहनी पुष्टि थाय; रोगादिक दूरे टळे, देहथी धर्म सधाय ॥ १ ॥ ते
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(१३४) माटे आसन घणां, जेने घटे जे तेह; करतां देहy बळ वधे, निमित्तसाधन एह. ॥ २॥ आसन जय करीने जनो, सेवा भक्ति योग; साधे पंचाचारने, टाळे कर्मना रोग.॥३॥
___ इडर यांबा थाबलीरे, ए राग.
आसन जयथी योगनोरे, भूमि शुद्धि थाय; देह आरोग्यता संपजेरे, वायु रोगो जायरे; नविजन !!! आसन जयने साध्य, तेवडे प्रभु आराध्यरे. नविन ॥१॥ गोउहिकासनथी प्रभुरे, वीरजिने कर्यु ध्यान; पर्यकासन बेसीनेरे, वीर लह्या निर्वाणरे. भवि० ॥२॥ काउसग्गना आसनेरे, कीधां अनेके ध्यान; पद्मासनथी साधुओरे,लह्या घणा निर्वाणरे.नविण॥३॥ योग वहन देव वंदनेरे, आसननो उपयोग; प्रतिक्रमणने मंत्रनीरे, साधनामांहि योग्यरे. भवि० ॥४॥ कायिक आसन जय करेरे, वायु रोगो जाय; अनेक रोगो न उपजेरे, धर्म साधनमां सहायरे. भवि०
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। १३५] ॥ ५॥ भावथ। आसन जाणवुरे, आतम स्थिर परीणाम; आशावण मन ध्येयमारे, वर्ततां स्थिर धामरे. भवि० ॥६॥ मननी चंचलता मटेरे, ठरी रहे स्थिर गम, भाव आसन ते जाणवुरे, निश्चलता निष्कामरे० वि० ॥७॥ पद्मासन बेठा प्रभुरे, वंदो पूजो नव्य; बुद्धिसागर योगर्नुरे, साधो झट कर्तव्यरे. भवि०॥८॥ ॐ ०प० आसन योगलानाय ज० य स्वाहा.
__ चतुर्थ प्राणायाम पूजा. प्राणायामथी प्राणनो, मन तनु शुद्धि थाय; अष्टधा प्राणायामना, नेद कह्या गुणदाय. ॥१॥ जैन शास्त्रमा भाखिया, ते रीते नरनार प्राणायामने साधीने, मनोजयने वरनार, ॥२॥ द्रव्यनावथी जाणतां, करतां प्राणायाम; सहज योगनी पुष्टिर्नु, साधन छे परिणाम. ॥ ३ ॥
कुंबखडानी देशी. प्राणायामनी साधनारे, करशो नरने नार; प्रभु
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( १३६ )
पद पूजीए. रेचक पूरक कुंभकेरे, प्राणनी शुद्धि थनार. प्रभु पद पूजीए, पूजीए जिनवर पूजी एरे, यानंद प्रगटे अपार प्रभु पद० ॥ १ ॥ प्राणायामना ज्ञानथी रे, शुभ अशुभ जणाय, प्रभु ॥ इडा पिंगला नामीयोरे, सुषमणा बोध थाय. प्रभु० ॥ २ ॥ अष्टधा प्राणायामथी रे, टळता रोग अनेक प्रभु वायु ने पित्त कफतणारे टळता महाउद्रेक. प्रभु० ॥ ३ ॥ प्राणायामना जयथकी रे, प्रगटे बाहिर सिद्धि. प्रभु ॥ वीर्यादिक रक्षण यतुंरे, आयुष्य बलनी ऋद्धि. प्रभु० ॥ ४ ॥ मन तनु वाणी शक्तियोरे, विकसे सात्विक बुद्धि. प्रभु ॥ बाह्य शक्ति कारणपणेरे, आतम शक्तिनी वृद्धि. प्रभु० ॥ ५ ॥ भाव प्राणायाम साधनारे, सम्यग् ज्ञानीने होय. प्रभु ॥ दुष्ट संकल्प विकल्पनोरे; रेच करे सुख जोय. प्रभु० ॥६॥ धर्म शुकल ध्याने पूरतोरे, पूरक प्राणायाम. प्रभु || शुद्ध स्वावे स्थिरतारे. कुंभकना परीणाम. प्रभु० ॥ ७ ॥ अशुद्धनुं रेचन करेरे, शुद्ध पूरण
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( १३७ )
पुरुषार्थ प्रभु ॥ निज गुणथी पूरण थरे, पूरकनुं परमा. प्रभु ॥ ८ ॥ अष्ट कर्मने आत्मथीरे, कर्षवां रेचक नाव. प्रभु ॥ उपशम क्षयोपशम क्षयेरे, पूरा पूरक दाव. प्रभु० ॥ ९ ॥ क्षायिकनावे आत्ममांरे, स्थिरता रमणता जेह. प्रभु ॥ कुंभक भावथी जाणीनेरे, आदरशो धरी स्नेह प्रभु० ॥ १० ॥ भाव प्राणायाम योगयी रे, क्षणमां केवल सिद्धि. प्रभु ॥ द्रव्यथकी भाव जाणवोरे, अनंत गुण प्रद ऋद्धि. प्रभु० ॥ ११ ॥ द्रव्य ते भावनो हेतु छेरे, कारणे कारज था, प्रभु ॥ बुद्धिसागर आत्मनीरे, शुद्धता हेते उपाय. प्रभु० ॥ १२ ॥ ॐ ०प० प्राणायाम योगला - भाय ज० य० स्वाहा ॥
पंचम प्रत्याहार योग पूजा.
बाहिर जाती वृत्तियो, रोधवी प्रत्याहार; अनासक्ति विषयो विषे, राग रीस परिहार ॥ १ ॥ वीश विषयोमां थतो, राग रीस परिणाम; तेथी विमुख यतुं भलं, निर्विषयी मन ठाम. ॥२॥
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( १३८ । सकल शुभाशुभ वृत्तियो, रोका प्रत्याहार, धारी समकितीजनो, पामे नवोदधिपार. ॥ ३ ॥
तेजे तरणीथो वडोरे, ए राग. प्रजु महावीर पूजीएरे, वंदीए धरी भाव. प्रत्याहार प्रकाशियोरे, जेथी वधे गुणदावहो. भविका० प्रत्याहारने धारशोरे, मननी मलीनता टाळशोरे. शुक थशो नरनारण ॥१॥ मोहनी वृत्तियो बाह्यमारे, जातां रोकवी योग; बाहिर वृत्ति जीवमारे, पामे शोकने रोगहो. ॥ भविका ॥२॥ बाह्म परिणति वृत्तिएरे, गुणश्रेणि न चढाय; अंतरंगपरिणामथीरे, क्षायिक गुणमां जवाय हो. भविका ॥३॥ उत्तरोत्तर उज्जवलपणेरे, ज्ञानादिक परिणाम; उत्तरोत्तर गुणस्थानकोरे, पामे मन विश्राम हो. नविका० ॥ ४ ॥ शुभ अशुभता नहीं रहेरे, दृश्य अदृश्य मझार; प्रत्याहारनी सिझतारे, निजगुण निजमां धार हो. भविका० ॥ ५॥ दुर्गुण दोषो.
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( १३९ )
सहु टळेरे, नासे व्यसनो दुष्ट; प्रत्याहारनी सिद्धिएरे, तम निर्मल पुष्ट हो. जविका० ॥ ६ ॥ रात्री दिवस क्षण क्षण विषेरे, करतां कर्माचार; मन वाणी काय प्रवृत्तिमांरे, धरशो प्रत्याहार हो० भविका० ॥ ७ ॥ सम्यग्ज्ञानीने सहजधीरे, थातो प्रत्याहार, योगपणे घट परिणमेरे, प्रारब्धनो व्यवहार हो. भविका० ॥ ८ ॥ सम्यग्ज्ञानोपयोगथीरे, सुख दुःखमां समभाव; निजगुण निजमां खेचतोरे, एवो
विर्भाव हो. जविका० ॥ ९ ॥ प्रत्याहारे जे परिमेरे, ग्रहे न छंमे जेह; बुद्धिसागर आत्मनीरे, पूर्णता पामे तेह हो० भविका० ॥ १० ॥ ॐ ०प० प्रत्याहार योगलाभाय ज० य० स्वाहा ॥
छठी धारणायोग पूजा. दुहा.
अरिहंत महावीर धारणा, धारो नरने नार.. शब्दथी अर्थनी धारणा, धरतां शक्ति अपार ॥ १ ॥ श्रद्धा प्रेमथी धारणा, धरता जे निष्काम; शुद्धि करी
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( १४० )
निज हृदयनी, पामे शिवपुर ठाम ॥ २ ॥ नव पदनी दिल धारणा, धरतां केवलज्ञान; बाह्यांतर त्राटक भळे, धारणमां गुणखाण. ॥ ३ ॥
सनेही संत ए गिरि सेवो. ए राग.
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द्रव्य भावथी धारणा धरीए, प्रभु महावीर दिलमां स्मरीए अन्य परिणतिने परिहरिए, निज तम शुद्धता करीए; प्रभु महावीरने दिल धरीए, एव धारणाए प्रभु वरोए. प्रभु० ॥ १ ॥ प्रभु ध्येयनी धारणा धारो, पट चक्रोमां निर्धारी; प्रभु धारणमां मन वाळो, तेथी घटमां थतो उजियारो. प्रभु० ॥ २ ॥ बाह्य आंतर त्राटक करीए, दुर्ष्यानने झट परिहरीए; उपयोगे रहीए फरीए, प्रभुमय थै प्रजुने वरी. प्रभु० ॥ ३ ॥ प्रभु महावीरमां मन राखो, मुखे महावीर नामने भाखो; मोह शत्रुने मारी नाखो, आतम आनंद रस चाखो. प्रभु ॥ ४ ॥ प्रभु महावीरमय थे जाशो, बीजुं सघलुं भूली जाशो;
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( १४१ )
सिद्धियोमां नहीं लोभाशो, सत्य धर्म कमाणी कमाशो. प्रभु० ॥ ५ ॥ खातां पीतां हरतां फरतां.. उपयोगे कर्मों करतां; प्रजुनी घट धारणा धरतां, नरनारी संयम वरतां. प्रभु० ॥ ६ ॥ पहेली साकार धारणा आवे, पछी निराकार सुहावे; प्रभु नवधा भक्ति प्रभावे, भक्त योगी शिवपद पावे. प्रभु० ॥७॥ सर्व जापो धारणा माटे, वळो वहेला शिवपुर वाटे; मुक्ति मळे छे शिरने साटे, मळे धारणा ज्ञानोना हाटे. प्रभु० ॥ ८ ॥ मनथी मोह दूर हवावो, शुद्ध आतम महावीर भावो; धारणाए वीर वधावो, भाव अनहद तान वजावो. प्रभु० ॥ ९ ॥ गुणस्थानक चढवा निसरणी, धारणा भवसागर तरणी; बुद्धिसागर अमृत सरणी, धरो मनमां धारण करणी० ॥ प्रभु० ॥१०॥ ॐ ०प० धारणा योगलाभाय ज० य स्वाहा ॥
सप्तमी ध्यानयोग पूजा. धर्म ध्यानने शुक्लथी, मुक्ति सहेजे थाय; निरा
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[ १४२ )
कार साकार बे, ध्यानथी कर्मों जाय. ॥ १ ॥ अरिदंत आदि ध्ययमां, मन एकाग्र प्रधान; यातां क्षायिकभावथी, प्रगटे केवलज्ञान ॥ २॥ चार प्रकारे ध्यान बे, आत्म शुद्धि करनार; ध्यानथी प्रभुमय जतां प्रगटे प्रभु निर्धार ॥ ३ ॥
सांजळशो मुनि संयम रागे उपशम श्रेणि चढियारे. ए राग.
धन्य महावीर जिन उपकारी, जगमांही जयकारीरे; ध्यान धरीने केवल पामी, मुक्तिवर्या सुखकारीरे. धन्य० ॥१॥ सर्व प्रकारनां ध्यान प्रकाश्यां, उपदेश्यां नरनारीरे; आर्त रौद्रने धर्म शुकल चउ, समजो गुरुगम धारीरे. धन्य० ॥ २ ॥ पिंस्थने पदस्थने ध्यावो, रूपस्थथी लय लावोरे; रुपातीतना ग्याने केवल - ज्ञानने क्षणमां पावोरे. धन्य० ॥ ३ ॥ ध्येयमां अंतर्मुहूर्त ध्यानज. यातां जीवन्मुक्तिरे; आत्मानंद रसोदधि प्रगटे, विषयोमां न आसक्तिरे. धन्य० ॥ ४ ॥ अंतर्मुहूरत ध्यान प्रतीते, आत्म समाधि प्रगटेरे; खातां पीतां कार्य करंतां, शुद्ध
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(१४३) स्वरूप न विघटेरे. धन्य० ॥ ५॥ श्रुतज्ञानी ध्याने अधिकारी, आत्मार्थी अविकारीरे; बातमरंगी ध्यानी संगी, निःसंगी नरनारीरे. धन्य० ॥ ६ ॥ मुरुकुलवासी गुरुना भक्तो, सर्व स्वार्पणकारीरे; लोकादि संज्ञा परिहार, ध्यानी बने गुणधारीरे. धन्य० ॥७॥ धर्म शुकल बे लावना भावो, अशुभ ध्यान हठावोरे; शुद्धातम उपयोग जमावो, परमातम प्रगटावोरे. धन्य० ॥८॥ अशुभ ध्यान गण त्रेसठ वारो, शुद्ध स्वरूप विचारोरे; मानव भवनी क्षण नहि हारो, आतम गुणने सुधारोरे. धन्य० ॥ ९ ॥ साकार ध्यान निराकार ध्यान बे, अनुक्रमथी भवी भ्यावोरे; बुद्धिसागर आतमशुद्धि, करवा लगनी लगावोरे. धन्य ॥१०॥ ॐ "पण ध्यान योगलानाय ज० य० स्वाहा ॥
अष्टमी समाधियोग पूजा. ध्यानतणा अभ्यासथी, प्रगटे आत्म समाधि; राग द्वेषने कामनी, होय नहीं मन आधि ॥१॥
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( १४४ )
आतममां मन स्थिर थतां, शुद्ध समाधि थाय; मोहात्मक संकल्पने, विकल्प उपशमी जाय ॥ २ ॥ ज्ञानोपयोगे सहज बे, आत्म समाधि व्यक्त. परमानंद रस स्वादथी, बाहिर नहि व्यासक्ति ॥ ३ ॥
चौद लोकके पार कहावे ए राग - वा. जिनपद जगमां जाचं जाणो - ए राग.
सहज समाधियोगे महावीर, केवलज्ञानने पाम्याजो. अप्रमत्त दशा प्रगटावी, घाती कर्मने वाम्या; जिनवर नमी एजी, त्यागी मोह स्वजाव, निज गुण रमीएजी ॥ १ ॥ उपशमने क्षय क्षयोपशमथी, आत्म समाधि प्रकाशेजी; मोहाजावे सहज समाधि, यातम आनंद जासे, जिनवर० ॥ २ ॥ ब्रह्मरन्ध्रमां प्राण चढतां व समाधि कथातीजी; तेनी किंमत कोमी सरखी, शुद्धोपयोगे जणाती. जिनवर० ॥ ३ ॥ द्रव्य समाधि ज्ञान विनानी, शाता वेदनी भोगेजो ; भाव समाधि सहजानंदे, आतमना
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(१४५) उपयोगे. जिनवर० ॥ ४॥ द्रव्य समाधिकर्मने करवां, भाव समाधि पामोजो; शुद्धोपयोग छे सहज समाधि, आतम गुण विश्रामी. जिनवर० ॥५॥ शुभ उपयोग छे द्रव्य समाधि, शुन कषाय प्रणामेजी; शुभथी शुद्ध उपयोगमा रमतां, आतम मुक्ति पामे. जिनवर० ॥ ६॥ यावत् रागने द्वेष विना मन, आतम निज उपयोगीजो; तावत् शुद्ध समाधि वर्ते, बातम आनंद लोगो. जिनवर ॥७ उदये आव्यां कर्म शुनाशुन, ज्ञानी त्यां समनावीजी; आतमनो उपयोग न चूके, देतो मोह ह. गवी. जिनवर० ॥ ८॥ निर्विकल्प समाधिमांहो, मोह विचार न आवेजी; मोह विकल्पो प्रगटे त्यारे, सविकल्प कहावे. जिनवर० ॥ ९ ॥शुद्धातम महावीर प्रभु एक, स्थिर उपयोगे प्रकाशेजी; एकता लीनता समता प्रगटे, मोहनुं द्वैत प्रणाशे. जिनवर० ॥ १० ॥ मिथ्या ज्ञानीने जे समाधि, मिथ्याभावे ते कहीएजी; भव मुक्तिमा समपरिणामे, केवल ज्ञानने लहीए. जिनवर ॥ ११ ॥ कर्म योगीने
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( १४६ )
चक्ने ज्ञानी, शुद्ध समाधि पामेजी; असंख्य योग यता अहीं भेळा, घाती कर्म विरामे जिनवरण ॥ १२ ॥ ज्ञानानंदे शुद्ध समाधि, पामे केवल प्रगटेजी; बुद्धिसागर आनंद मंगल, पामे माया विघटे. जिनवर० ॥ १३ ॥
कलश गीत.
गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो
अष्टांग योगनी पूजा रचीने, वीर जिनेश्वर ध्यायो; अष्टांग योगना भाव पूजनथी, आतम शुद्धि पायोरे, महावीर, ॥ १ ॥ सम्यग् ज्ञानीने आठे
गो, प्रणमे सम्यग् भावे; मिथ्यात्वीने मिथ्या स्वरूपे, निज दृष्टिना स्वभावेरे. महावीर० ॥ २ ॥ जैना गम अनुसारे अंगो, हेमसूरिए प्रकाश्यां; ज्ञानी गुरुगमथी ग्रहतां ए, सम्यग्भावे विकास्यांरे. महावीर || ३ || देशथकी गृही बे अधिकारी, सर्वथकी मुनि त्यागी; गुरुगमथे । अधिकार लहीने, थाशो योगना रागीरे. महावीर० ॥ ४ ॥ पाशव आसुरी
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( १४७ )
बलने हवा, योगांगो हितकारी; सत्ताए श्रातम परमातम, व्यक्त करे निर्धारी रे. महावीर० ॥ ५ ॥ तिरोजावीय ज्ञानादि गुण, आविर्भावने माटे; योजे निजगुणमां ते योगो, धूर छे तेमां आवेरे. महावीर० ॥ ६ ॥ आतम गुणने आतममां जे, योजे ते योग कहेवो; ज्ञानादि शकियो योगज, सम्यग अर्थने लेवोरे. महावोर० ॥ ७ ॥ अनंत ज्ञानानंदनी प्राप्ति - कारक योग ते जाणो; सात नयोथो योगने जाणी, निश्चय अनुभव आणोरे. महावीर ॥ ८ ॥ निमित्त उपादान वे भेदे, द्रव्यने भावथी जाणी; शुद्धतम प्रगटावो संतो, एवी वीरनो वाणो रे. महावीर ॥ ९ ॥ म्हारेतो गुरु सेवा पसाये, सम्यग् यनुभव आव्यो; नय निक्षेपादिकथी तत्वो, जाणी स्याद्वाद जाव्योरे. महावोर० ॥ १० ॥ प्रभु महावोर पट्ट परंपर, श्वेतांबर मुनिराया, तपगच्छ जगगुरु हीर विजय सूरि, अकबरे पूज्या पायारे. महावोर० ॥ ११ ॥ तस पट्टसागर शाख परंपर, रविसागर गुरुराया; तस शिष्य संत शिरोमणि गुरुवर, सुख
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(१४८) सागर नमुं पायारे. महावीर० ॥ १२ ॥ ओगणिश सत्तोत्तर आश्विननी, वदि दशमो बुधवारे; पूजा रचीने पूरण कीधी, लाभ घटिका सवारेरे. महावीर० ॥ १३ ॥ संघनी श्रका प्रीति नक्ति, आग्र. हथी चोमासुं; सानंद शहेरे की, भावे, धर्म स्वरूप प्रकाश्युरे. महावीर० ॥ १४ ॥ योगनी पूजा नणे ने गणे ते, पामो उत्तम शक्ति; बुद्धिसागर संघमां मंगल, प्रगटो ऋद्धि भक्तिरे. महावीर. ॥ १५॥
ॐ ०प० समाधि योगलानाय ज० या स्वाहा ॥
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( १४९ )
अथ नवधा क्रिया भक्ति पूजा.
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परम प्रभु परमातमा, चोवीशमा जिनराज; वर्धमान महावीर नमुं, विश्वपति शिरताज ॥ १ ॥ नवधा भक्ति पूजना, पूज्यनी करतां सार; पूजक पूज्यपशुं वरे, पूज्य बनो निर्धार ॥ २ ॥ नवधा भक्तिनी जली, पूजा शिवदातार; आतम ते परमातमा, व्यक्त बने नरनार ॥ ३ ॥ जक्तिनी पूजा रंचं हृदय शुद्धि करनार, शुद्ध हृदयर्थी ज्ञाननी, प्राप्ति छे जयकार ॥ ४ ॥ देवगुरुने धर्मनी, संघनी भक्ति बेश; करतां मुक्ति थाय छे, नासे सघळा क्लेशं ॥ ५ ॥
प्रथम श्रवण क्रिया पूजा.
प्रभु महावीर देवनां वचन सुणो नरनार; गुरु संत उपदर्शने, सुणतां ज्ञान थनार ॥ १ ॥ श्रवणकी श्रुत ज्ञान बे, श्रुति ते हेत कथायः प्रभु वचनामृत सांजळे, सम्यग्ज्ञान सुहाय ॥ २ ॥ ब्राह्मी सुंदरी मुखथको, सुणी वचनामृत सार;
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। १५०) बाहुबली जिन केवलो, बन्या धन्य अवतार. ॥३॥ श्रवण करे जे शास्त्रने, ते पामे श्रुतज्ञान. माटे श्रवण क्रियावडे, पूजो प्रभु जगवान्. ॥४॥
राग केदारो अथवा आशावरी. प्रभु महावीरनां वचन सुणो जवी, जेथी प्रगटे ज्ञानरे, रोहिणीयो जेम स्वर्गने पाम्यो, सफल करो निज कानरे. प्रभु० ॥१॥ प्रभु गुरु वचनामृत सुणतां जे, धारे मन बहुरागरे; समकिती ते मिथ्यात्वने छंडे, पामे साचो त्यागरे. प्रभु० ॥२॥ इन्द्रभूति आदि गणधर मुनिवर, सांनळी प्रभु उपदेशरे, प्रतिबुध्या चारित्र धरी शुभ, टाळ्या कर्मना कलेशरे. प्रभु० ॥३॥ चंड कोशियो स्वर्गने पाम्यो, श्रवण करी प्रभु बोधरे; श्रवण क्रियावण मुक्ति नहीं छे, श्रवणे कर्मनो रोधरे. प्रनु० ॥४॥ विनय अने बहुमान सुरागे, सांभळो प्रभुनी वाणीरे; सर्व प्रमादो दूर करीने, सांभळो थाशो
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(१५१) ज्ञानीरे. प्रभु० ॥ ५॥ गुरुसंत मुखथी प्रभु वाणीने, सांजळतां जे ज्ञानरे; वाचन करतां अनंतगणुं फळ, श्रवण करे श्रुति मानरे. प्रभु० ॥ ६॥ मिथ्या कषायो निंदा न सुणशो, सुणशो धर्मनो बोधरे; तन मन धनने तुच्छ गणीने, सुणतां मोहनो रोधरे. प्रभु० ॥ ७ ॥ जांगुली यादि मंत्र श्रवणथी, सर्पा दिक विष जायरे; गुर्वा दिकनो बोध सुणंतां, मोहन विष पलायरे. ॥ ८॥ मोरली सुणतां नाग हरण जेम, भूले तनुनुं जानरे; अर्पाइ जातां तेम जव्यो, श्रवण करो जिनवाणरे. प्रभु० ॥ ९ ॥ प्रतिदिन क्षण क्षण गुर्वा दिकनी, सेवा करी सुणो धर्मरे; बुद्धिसागर आत्म महोदय, पामो ज्ञानने शर्मरे. प्रभु ॥ १० ॥ ___ ॐ ह्रीं श्री परम पुरुषाय, परमेश्वराय, जन्म जश मृत्यु निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय, श्रवण पूजार्थ जलं, चंदनं, पुष्पं, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, यजामहे स्वाहा
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(१५२) अथ द्वितीया कीर्तन क्रिया पूजा.
अर्हत् सिद्धने सूरिनी, कीर्ति करो नरनार; वाचक साधु आदि नव, पद स्तवतां सुखसार. ॥ १ ॥ गुर्वादिक गुण गावतां, खरे अनंतां कर्म; अनंत गुण प्रगटे दिले, अनंत प्रगटे शर्म. ॥२॥ देव गुरुने धर्मनी, कीर्ति करी नरनार; पूज्यपणुं पामे सही, विघटे दुःख अपार. ॥३॥ कीर्तन पूजाथी प्रभु, पूजो धरी मन प्यार; द्रव्यथी भावथी सिद्धि छे, आत्म शुद्धि निर्धार. ॥ ४ ॥
न्हवणन पूजारे निर्मल तमारे. ए राग.
कीर्तन पूजारे करो जिनगजनी रे, भाव धरी नरनार; अरिहंत महावीर कोर्ति गावतारे, पामो भवोद पार. कीर्तन ॥ १॥ सिद्धने सूरिवाचक साधुनु, कोर्तन गुणनुं बेश; गुरु गुणीजन- कीर्तन मन थको रे, करतां राग न द्वेष. कीर्तन ॥२॥ तपसी पन्नरसे त्रणने बोधियारे, गोतम लब्धि प्रयोग;
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(१५३) अनुमोदन कीर्तनथी ते वर्यारे, केवल ज्ञाननो योग; कीर्तन० ॥ ३ ॥ कीर्तन करतां रावणे बांधियुरे, श्री तीर्थकर नाम; नामने रूपनो मोह त्यजी घणारे, पाम्या शिवपुर धाम. कीर्तन० ॥४॥ अपकीर्ति अपयश अवगुण टळेरे, दोषनी दृष्टि पलाय, गुणने गुणीनी एकता झट थती रे, कर्मनो नेद हणाय. कीर्तन ॥ ४ ॥ गुणनी स्तवनाथी समकित मळेरे, प्रगटे सम्यग् ज्ञान, क्षपक श्रेणिए चारित्री चढेरे, थाय न मान अमान. कीर्तन०॥६॥कीर्तन करतां क्षणमां केवली रे, असंख्य थयां नरनार; गुणनी स्तुति अवगुण ढांकवारे, कीर्तन पूजा सार. कोर्तन ॥७॥ सत्यादिक गुण वृन्दनी कीर्तनारे, प्रभुनी पूजा एह; शुद्धातम करवा प्रभु प्रार्थनारे, स्तवना छे गुण गेह. कोर्तन० ॥ ८॥ द्रव्यने नावथी प्रभु कीर्तन करोरे, प्रभुने गावो नव्य; बुद्धिसागर शुद्धातम प्रभुरे, भक्तिनुं कर्तव्य. कीर्तन० ॥९॥
ॐ ०५० कीर्तन पूजार्थ ज० य० स्वाहा ॥
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( १५५) तृतीया मेवन क्रिया पूजा. अरिहंत आदिनी करो, द्रव्यत्नावथी सेव; सेवक बनी उपयोगथी, सेव्य बनो स्वयमेव. ॥ १॥ सात नयोथी सेवना, आत्मशुद्धिने हेत; गुर्वादिकनी सेवना, यात्म मुक्ति संकेत. ॥ ॥ श्रवण अने कीर्तनथकी, सेवाभाव सुहाय; सेवाथी सहु सिद्धियो, प्रगटती घटमांह्य. ॥३॥
पुख्खलवइ विजयेजयोरे. ए राग. प्रभु महावीर सेवीएरे, श्रद्धा प्रीति धरी मान; विनये वैयावृत्यथीरे, पामो केवल ज्ञानरे; भविजन !!! सेवा करो धरी भाव, लेजो नरभव ल्हावरे. भवि. जनम् ॥ १॥ स्वार्पण करी गुरु सेवीएरे, रही अंतर निष्काम; सेवा फल नहीं इच्छीएरे, अधिकारे करो कामरे. भविजन ॥२॥ तमोरेजोगुण सेवनारे, त्यागी सात्विक सेव; करतां शुद्ध उपयोगथीरे, बनो प्रभु जिनदेवरे. नविजन० ॥३॥ संघ चतुर्विध सेवनारे, आतम सेव ते जाण; गुणीजन दश सेवा
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(१५५) थकीरे, प्रगटे आतम ज्ञानरे. नविजन० ॥४॥ सेवा योग छे आयमारे, सकल धर्मनुं बीज; खेद रहित निर्नय दशारे, अद्वेष सात्विक रीझरे. नविजन. ॥ ५॥ संशयने निंदा त्यजीरे, त्यागो सर्व आसक्ति; उपकारी जोवन धरी रे, पामो प्रलुपद व्यक्तरे. भविजन० ॥ ६ ॥ प्रभुमय थइ प्रजु सेवीएरे, दया सत्य धरी टेक; संकटमां धीरज धरोर, चूको न धर्म विवेकरे. भविजन ॥ ७ ॥ दुःख पडे नहीं शोचीएरे, सुख थतां नहीं हर्ष; मानामानमां समपणुंरे, त्यागो चित्त अमर्षरे. भविजन ॥८॥सत्ताए सहु जीवनेरे, सिद्धसमागणो चित्त; चारे भावना भावी नेरे, सेवा करतां पवित्ररे. नविजन ॥९॥ दीन दरिद्री दुःखीनी रे, धर्म हीणानी सेव; फर्ज अदा करो सर्वदारे, त्यागी दुर्गुण टेवरे. भविजन ॥ १०॥ चढते भावे सेवनारे, करतां आतम शुद्धि; बुद्धिसागर मंगलोरे, पगले पगले समृद्धिरे. भविजन ॥ ११ ॥
ॐ ०प० सेवन क्रियालाभार्थ जण य० स्वाहा.
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( १५६ )
चतुर्थी वचन क्रिया पूजा.
वाचिक शक्ति पूजीए, प्रभु महावीर जिणंद; वीरे वाचिक शक्तिथी, टाळ्या भवना फंद ॥ १ ॥ प्रभु वाणीने पूजीए, सेवीए सुखकार; प्रभु वचन समज्याथको, पामो भवनो पार ॥ २ ॥ सत्य असत्य जे वचन छे, समजो तेना भेद; निश्चयने व्यवहारथी, समजे नासे खेद ॥ ३ ॥
सुमतिनाथ गुणशुं मलीजी. ए राग.
सत्य वचनने यादरोजी, भावधरी नरनार; धर्म संघ परमार्थमांजी, करवो वचन व्यापार; महावीर प्रभुए, सत्य वचन कथ्यां ॥ १ ॥ निजपर उन्नति काजमांजी, देवा धर्मोपदेश; सदुपयोगे वचननेजी, वापरशो सही क्लेश. महावोर० ॥ २ ॥ जूठां वचनो नहीं वदोजो, सत्यवचननो प्रकाश; सत्य असत्यना जेदनेजो, जाणीने करशो विकास. महावीर० ॥ ३ ॥ मृत्यु यदि भय त्यजीजी,
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( १५७ । क्रोधादिक त्यजी दोष; हिंसादिक अव्रत तजीजी, सत्य वचन करो पोष. महावीर ॥ ४ ॥ स्वाधिकारे सत्य वचनने, वदतां धर्म अपार; सापेक्षाए जाणशोजी, सत्यासत्य प्रकार. महावीरण ॥ ५॥ सत्यअसत्य वचन सकळजी, देश कालादिसापेक्षा अधिकार समज्या विनाजी, वचन सकल निरपेक्ष. महावीर० ॥ ६ ॥ अनेकनयनी दृष्टिएजी, वदो सापेक्ष वचन: वचन भलामा वापरोजो, आशय शुभ धरो मन्न. महावीर० ॥७॥ परमार्थे उपयोगथीजी, सर्वदा वचन व्यापार; करशो निर्भयता धरीजी, करशो जग उपकार. महावीर० ॥ ८॥ द्रव्य नावथी देवगुरुनी-धर्मनी सेवा काज; बुद्धिसागर सत्य वचनने, वदतां सुख साम्राज्य. महावीर० ॥९॥ ॐ ०प० वचनक्रिया लाभाय जण यण् स्वाहा.
पंचमी वन्दन क्रिया पूजा. अरिहतादिक वंदतां, भावथो मुक्ति थाय;
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(१५८) नवपदने वंदन करे, अपकीर्ति दुःख जाय. ॥ १ ॥ द्रव्यने नावथी वादीए, गुरुने धरी बहुप्रेम; ज्ञान चरण यानंद गुण, प्रगटे योगने क्षेम. ॥ २ ॥ सात्विक वंदन श्रेष्ठ छे, मोहनी करे चकचूर; वंदक वंद्यपणुं वरे, सुख पामे भरपूर ॥३॥ संभव जिनवर बोनति. अवधारो गुण
ज्ञातारे-ए राग. प्रभु महावीर वंदना, द्रव्यने नावथो होशोरे; मारे एक तुं शरण छे, म्हारो एक भरोसोरे. प्रभु० ॥१॥ वन्दन आवश्यक क्रियां, केवल ज्ञाने प्रकाशीरे; देवगुरुने वंदतां, नासे सकल उदासीरे. प्रभु० ॥ २॥ सातनये छ वंदना, चार निक्षेपे धारोरे; शुद्धोपयोगे घटविषे, प्रगटे छे उजियारोरे. प्रभु० ॥३॥ श्रद्धा प्रीति उल्लासथी, विनयने बहुमानेरे; गुर्वा दिकने वंदता; भक्तो शोने
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(१५९) ज्ञानेरे. प्रभु० ॥४॥ एकवार जो भावथो, प्रभुने वंदन थावेरे; तो क्षणमां घाती हणो, केवलघट प्रगटावेरे. प्रन्नु० ॥५॥ प्रभु महावीरमय बनी, बातम महावीर जाणोरे, शुद्धोपयोगे वंदता, आतम केवल ज्ञानी रे. प्रभु० ॥६॥ अरिहंतादिक वंदना, आतम प्रति ते होवरे; आपो आपने वंदना, आपो आपने जोवेरे. प्रभु० ॥ ७ ॥ व्यवहार निश्चय पूज्यने, पूर्ण प्रेमे वधावोरे; गीतार्थादिक संतने, वंदन करी ल्यो ल्हावारे. प्रभु० ॥८॥ रोमराजी विकसे घणी, हैडे हर्ष न मावेरे; आनंद अश्रु आंखमां, गद गद वाण। सुहावरे, प्रभु० ॥ ९॥ पूज्यथी एक स्वरूपता, आनंदोदधि प्रगटेरे; ध्येय ध्यातानी एकता, थातां को विघटेरे. प्रभु० ॥ १० ॥ एकवार महावीरने, अमृत वंदन थावेरे बुद्धिसागर आतमा, सहजानंदने गवरे. प्रभु० ॥११॥ ॐ ७० वन्दन क्रियालाजाय ज० य० स्वाहा.
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( १६० ) षष्ठी ध्यान क्रिया.
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आत्म शुद्धि जेथी यती, ते छे उज्वल ध्यान; धर्म शुक्ल बे ध्यानथी, प्रगटे केवलज्ञान. ॥ १ ॥ मनथी ध्यान क्रिया थती, ध्यानथी कर्म विनाश; कर्म विनाशथी मुक्ति छे, मुक्ति अनंत सुखवास ॥ २ ॥ पिंकस्थादिक ध्यानथी, अक्रिय थावो जव्यः रागद्वेषादिक विना, अक्रियता कर्तव्य. ॥ ३ ॥
ध्यान क्रिया मनमां आणी जे. ए-राग.
ध्यान करो भवी भाव धरीने, प्रभु महावीर प्रकाशेरे; अरिहंत यादि ध्यान धरंतां, गुण पर्याय विकासरे, ध्यान० ॥ १ ॥ ध्याता ध्येयने ध्याननी एकता, योगे पूर्ण समाधिरे; नामने रूपनो मोह रहे नहीं, विघटे उपाधि आधिरे. ध्यान० ॥ २ ॥ शुद्धोपयोगे प्रभु महावीर, रंगरसे जे रसियोरे; क्षण क्षण प्रभुरसरंगे रीझे, चढता जावे उल्लसि
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( १६१ ) यारे. ध्यान० ॥ ३ ॥ कर्म करे पण अक्रिय खातम, शुद्धोपयोगे रसियोरे; पर परिणतिने दूर करोने, निज तममां वसियोरे, ध्यान० ॥ ४ ॥ पिंडस्थादिक चार प्रकारे, ध्याने आत्मखुमारीरे; घटमां प्रगटे स्वाद न उतरे, ध्यानीनो वलिहारी रे. ध्यान० ॥ ४ ॥ क्षण क्षण ध्यानीने छे महोत्सव, आनंदनी हे हेलीरे; जीवन्मुक्ति प्रभुमय जीवन, करतो निजगुण के लिरे. ध्यान० ॥ ६ ॥ बाहिर अंतर सर्व - मयी ते, सर्वथकी ते न्यारोरे; कर्ता अकर्ता योमी अयोगी, जोगी अजोगी धारोरे. ध्यान० ॥ ७ ॥ जलपंकजवत् निर्लेपज्ञानी, आतममां मस्तानी रे; रहे दशा नहीं प्रगटी छानी, अनुभव ज्ञाननी वापीरे. ध्यानं• ॥ ८ ॥ अंतरमां मन राखी वर्ते, होय न लेश उदासी रे; कर्मविपाके सुख दुःख वेदे, आत्मानंद विलासी रे. ध्यान० ॥ ९ ॥ श्रुतज्ञाने ध्यानने ध्यातां, आतम ज्ञान प्रकाशेरे; कर्म विपाको दधिपर तरतो, आपोआप विलासेरे. ध्यान०
११
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(१६२) ॥ १०॥ बातम लय लागी छे जेने, ते ध्यानी जयकारी रे, बुद्धिसागर ध्यानानुनव, प्रगटयो आनंदकारी रे. ध्यान. ॥ १० ॥ ॐ ध्यानक्रिया लानाय जलं० य० स्वाहा ॥
सप्तमी लघुता क्रिया पूजा.
दुहा. लघुताथी प्रभुता मळे, टळे दोष अभिमान; बाहुबलि लघुता धरी, पाम्या केवलज्ञान. ॥१॥ लघुता गुणनी वेलडी, लघुता मुक्तिद्वार; नवोदधिपर तुंबीवत्, तरतां नरने नार. ॥२॥ कर्मनार हलको थतो, आतम नहीं लेपाय; लघुता पूजाथी प्रभु, पूजंतां सुख थाय. ॥ ३॥ उत्तम फल पूजा कीजे, मुनिने दान सदा दीजे.
ए राग. वीर प्रभु पूजो ध्यावो, सेवक बनी लेवो ल्हावो; लघुताए प्रभुने नाबोरे, प्रभु उपदेशे मन
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(१६३) लावो. लघुताए प्रभुता पावोरे. लघु ॥१॥ आठ प्रकारे मद त्यागो, देहाध्यास तजी जागो; शुद्धातम जावे लागोरे, लघुता ॥ २ ॥ सेवक ते स्वामी थावे, ए अनुक्रम ज्ञानी पावे; मानदशा मन नहीं लावेरे. लघुता० ॥ ३॥ जडपुद्गलमदमां मुझे, तेने प्रभु दिल नहीं सूजे, आत्मप्रभुने शुं पूजेरे. लघुता० ॥ ४ ॥ रस ऋद्धि गारव पडिया, शातागावे लडडिया, जीवोने प्रभु नहीं जडियारे. लघुता ॥ ५ ॥ इन्द्रादिकपदंवी सर्वे, रहेवू नहीं तेहना गर्वे; प्रभु मळता नहि मन भर्मेरे. लघुता०॥६॥ गुरुता लघुता जममाया, मोहदशाना पमछाया, अगुरु लघु आतमरायारे. ॥ लघुता० ॥७॥ अगुरु लघु गुण उपयोगी, षट्कारक आतमयोगी, थातां न मोहे संयोगीरे. लघुता. ॥८॥ यावत जमगुरुता आवे, तावत लघुताना नावे, रहेशो अगुरुलघु दावेरे. लघुता० ॥ ९॥ दीनभाव लघुता छंडो, यात्मप्रभुता रढ मंडो, मो मानतणो झंडोरे. लघुता ॥१०॥
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( १६४) सापेक्षे लघुता समजो, मान अहंवृत्ति दमशो, बुद्धिसागर दिल रमशोरे. लघुता० ॥ ११ ॥
ॐ लघुता लाभार्य ज० या स्वाहा ॥
__ अष्टम एकता क्रियापूजा.
वीर प्रभुथी एकता, भावो नरने नार; क्य करी प्रभु साथमां, लहो जवोदधिपार. ॥१॥ संग्रह नय सत्तावमे, सर्व जीवो छे एक; आतम सत्ता ध्यावतां, प्रगटे व्यक्ति विवेक. ॥२॥ जम्थी न्यारो पातमा, गुणपर्यायाधार; एकता जावे भावतां, कर्म रहे न लगार. मेरुशिखर न्हवरावे हो सुरपति मेरुशिखर न्हवरावे.
ए राग. आतम एकता घ्यावो हो, नविजन !!! आतम एकता ध्यावो; प्रभुमा लयलीन थावो हो, नविजन! आतम एकता ध्यावो॥ एकता भावना जावो विवेके, नय सापेक्ष प्रमाणे; द्रव्यार्थिकथी एकता ध्याता
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निर्विकल्पता जाणे हो. नविजन ॥१॥ गुणपर्याये अनेकता आतम,-मांही समावे ध्याने; राग रीस रूप मनहुँ मरेने, शोने केवलज्ञाने हो. भविजन। ॥ २ ॥ ज्ञाताज्ञेयने ध्याताध्येयनी, एकता अनुभव थातां; पूरण आत्म प्रतीति प्रगटे. कर्मो सकल दूर जातां हो. भविजन० ॥३॥ सत्ताए महावीर प्रभुनी, साथे एकता ताने; रहेतां आतम आनंद स्वादो, अनुभव अनुभवी जाणे हो. भविजन ॥४॥ रागद्वेषनुं द्वैत टळ्याथी, निज गुण पर्याय योगे; आतम एकता थावे नक्की, रहे न भिन्नता भोगे हो. भविजन ॥ ५॥ जड द्रव्योना गुण पर्यायो, तेथी आतम न्यारो; आपोआप स्वभावे खेले, एकता एह विचारो हो. नविजन० ॥६॥ अनंत ज्ञानानन्दथी आतम, एक स्वरूप सुहायो; गुणगुणीनी एकता एवी, लीनता आनंद थायो हो. नविजन० ॥ ७॥ आदि अंत न थातम एवो, भावो ध्यावो गावो; परमातम महावीर प्रभुथी,
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(१६६) एकमेक थइ जावो हो. भविजन ॥ ८॥ एकलो आव्यो एकलो जाशे, कोइ न साथे जाशे; प्रभु महावीर जिन उपदेशे, चेते ते सुख पाशहो. भविजन ॥ ९॥ तत्त्वमसिसोऽहं पदध्याने, अकता अनुभव आवे; बुद्धिसागर आत्ममहावीर, आपोथाप सुहावेहो. भविजन० ॥ १०॥ ॐ एकता लाभार्थ ज० यण स्वाहा ॥
नवमी समताक्रिया पूजा. समताथी पूजो प्रभु, विभुमहावीर जिनेश; ज्यां समता प्रगटी खरी, त्यां नहि रागने द्वेष. ॥१॥ सकल साधना सिद्धता, समता प्रगटे थाय; क्षा. यिक समता प्रगटतां, बाकी न कार्य रहाय.॥२॥
आतम ते परमातमा, समभावे प्रगटाय; आपो आपनी पूजना, अकता अनुभव पाय. ॥ ३ ॥ मेतारज मुनिवर धन्य धन्य तुम अवतार.
ए राग. समतारस सागर प्रभुजी, वीर जिनेश्वर देव
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( १६७ ) समभावे प्रभु सेवतांजी, नासे कर्म कुटेव.
समता
महावीर जिनेश्वर, धन्य धन्य तुम उपदेश, ॥ १ ॥ जडचेतनमय विश्वमांजी, समभावे उपयोग; विषमपणुं प्रगटे नहींजो, आनंद जोग. महावीर० ॥ २ ॥ खंधक शिष्यो पांचशेजी, प्राणांते समभाव, मोहने मार्यो छेवटेजी, धन्य से समता दाव. महावीर० ॥ ३ ॥ मुनि मेतायें समपर्णुजी, धायें छंडयो देह, शुभाशुन बुद्धि विनाजी, पाम्यां मुक्तिगेह. महावीर० ॥ ॥ ४ ॥ समता भावने यदयजी, गज सुकुमाल मुनीश, देहनी ममता परिहरीजी, सोमिलपर नहि रीस. महावीर० ॥ ५ ॥ अन्य तीर्थियो पण लहेजी, समता जावेरे मुक्ति, समता ते पाम्या पछीजी, नहीं तप किरिया रीति. महावीर० ॥ ६ ॥ दर्शन ज्ञान चरण सकलजी, समतामांही सुहाय, समता प्रगटे सिद्धताजी, अक पलकमां थाय. महावीर० ॥ ७ ॥ काने खोला मारि
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(१६८) माजी, पगपर रांधीरेखीर; तो पण समभावे रह्याजी, परमेश्वर महावीर, महावीर० ॥८॥ पार्श्व प्रभु समता धरीजी, कमठे कोधोरे रोष; नासापर जल आवियुंजी, तोपण रोष न तोष. महावीर० ॥९॥ वृत्ति शुनाशुभ नहीं रहेजी, प्रगटे केवलज्ञान; आपोआप प्रभु विभुजी, चिदानंद भगवान्. महावीर ॥१०॥ ग्रहण त्याग इच्छा नहींजो, वर्ते पूर्व प्रयोग, समभावे शुद्धातमाजी, चिदानंद गुणभोग. महावीर० ॥ ११ ॥ शुभाशुल वृत्ति विनाजी, कर्म निकाचित लोग; जोगवतां तनु वर्ततांजी, केवळ ज्ञाननो योग. महावीर ॥१२॥ हर्षशोक सुखःखमांजी, समता भावेरे वर्त; बुद्धिसागर आत्ममांजी, अनंत आनंद शर्त. महावीर ॥ १३ ॥
कलश-गीत. गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो. नवविध किरिया भक्तिथी पूज्यो, आतम अनु
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( १६९ )
भव पायो; एकता लीनता समतायोगे, सहज स्त्रजावे सुदायोरे. महावीर ॥ १ ॥ श्रद्धाप्रीति पूजन अर्चन, स्पर्शनजाव लहायो; दास्यने सख्यने आतमऔक्ये, अमृत किरियाए छायोरे. महावीर ॥२॥ नवधाभक्ति सापेक्षाए, अनेकभेदे घ्यायो; अनेदजावे अद्वैतभक्ति, करतां सुख प्रगटायोरे, महावोर ॥३॥ सम्यग्दृष्टिए भक्तिनां अंगो, ग्रहाने सापेक्षभावे; आत्मशुद्धि करीए रंगे, सहेजे आत्मस्वनावेरे. महावीर ॥ ४ ॥ भक्तिना तानमां भेद न भासे, यातमज्ञाने प्रकाशे; नवविध किरिया का क्रियपदने, आपे परमोलासेरे. महावीर ॥ ५ ॥ अन्यो अन्यने विषगरलथी, विश्वभ्रमणता थावे; तद्धेतु अमृत किरिया योगे, परमानंद सुहावेरे. महावीर ॥ ६ ॥ म्हारे तो गुरुकृपा पसाये, अमृत आनंद आयो; आपोआप स्वरूप सुहायो, अक्रिय अनुभव पायोरे. महावीर ॥ ७ ॥ ओगणिश अठोत्तरनी साले, ज्ञान पंचमी शुक्रवारे; नवधा किरिया पूजा रचो शुभ,
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( १७०) जव्य जीवोने तारेरे. महावीर ॥८॥ सानंद संघनी शुभ भक्ति, कर्यु चोमासुं नावे; पूजा रचंतां अनुभव आनंद, प्रगटयो भक्ति प्रजावेरे. महावीर० ॥ ९ ॥शासन नायक वीर जिनेश्वर, श्वेतांबर मुनि राजा; तपगच्छ जगगुरु हीर विजय सूरि, संयमी गुण शिरताजारे. महावीर० ॥ १० ॥ पट्टपंरपरा श्री नेमिसागर, रविसागर गुरुराया; श्रीसुखसागर समता दरिया, संवेगी शिरसुहायारे. महावीर० ॥ ११ ॥ गुरु कृपा पूजा रची शुज, संघ सकल हितकारी; बुद्धिसागर मंगल माला, यानंदघन अवतारीरे. महावीर०॥१॥ * समता लाभार्थ जयस्वाहा॥
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( १७१ )
अष्टकर्मसूदनार्थ ष्ट प्रकारी पूजा. परमेश्वर महावीर जिन, तीर्थकर जगदेव; परमप्रभु परमातमा, भावे करीये सेव ॥ १ ॥ अष्ट कर्मना नाशहेत, पूजा अष्ट प्रकार; रचतां गुण ठ संपजे, प्रगटे शांति अपार ॥ २ ॥ ते माटे पूजा रचं, संक्षेपे हितकार, प्रभु महावीर देशना, अनुसारे सुखकार ॥ ३॥
प्रथम ज्ञानावरणीय सूदनार्थ जलपूजा. न्हवणनी पूजारे निर्मल आतमारे, ए राग.
न्हवणनी पूजारे नवि भावे करोरे, प्रभु महावीरनी सत्य; ज्ञानविना यज्ञाने प्राणियारे, करता श्रास्रव कृत्य. न्हवण० ॥ १ ॥ ज्ञानावरणे ज्ञान न संपजेरे, भवमां भमनुं थाय; ज्ञानावरणनी पांच प्रकृतिछेरे, ज्ञानाच्छादन न्याय न्हवण० ॥ २ ॥ क्षयोपशमने क्षायिक जावथीरे, ज्ञानावरण विनाश; मति श्रुत अवधि मनपर्यव अनेरे; प्रगटे केवल खास.
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(१७२) न्हवण० ॥ ३ ॥ मति अठ्ठावीश भेदेछे तथारे, त्रणशे चालीश भेद; श्रुतछे चउद अने वोश भेदथीरे, प्रगटे नासे खेद. न्हवण ॥४॥ असंख्य प्रकारे अवधिज्ञानछेरे, मनपर्यव बे नेद; केवल ज्ञान ते एक प्रकारलेरे, प्रगटेडे निवेद. न्हवण ॥ ५॥ ज्ञानावरणी ज्ञानने रोधतुरे, तेनो नाश जो थाय; तो प्रगटेछे ज्ञान प्रकाशतारे, नहि अज्ञान रहाय. न्हवण ॥ ६ ॥ ज्ञानने ज्ञानी सेवा नक्तिथीरे, वसतां गुरुकुल वास; ज्ञानावरणी कर्म विनाश डेरे, टळतां मोह विलास. न्हवणः ॥७॥ ज्ञानीनी निंदा आशातनारे; तजजो नरने नार; श्रुत. ज्ञानी गुरुना भक्तो बनोरे, प्रगटे ज्ञान उदार. न्हवण. ॥ ८॥ नणो भणावो श्रुतने जविजनारे, अनुमो. दो द्यो दान; बुद्धिसागर आतम शुद्धतारे, प्रगटे केवल ज्ञान. न्हवणः ॥९॥ ॐ ह्री श्री प० ज्ञान वरण सूदनार्थ जाय स्वाहा॥
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द्वितीया दर्शनावरणीयकर्मसूदनार्थ जलपूजा दर्शनावरण हठाववा, चंदनपूजा सार; दर्शनावरणनी प्रकृति, नव कोजे परिहार. ॥१॥ चक्षुधादि चारना, आवरणो छे चार; पांचे निद्रा त्यागतां, दर्शन गुण जयकार. ॥ २॥ देवगुरुने धर्मनी, आशातनथी कर्म, बंधातां ते जाणीने; सेवो जिनवर धर्म. ॥३॥
सांजळशो मुनि संयम रागे-ए राग.
चंदनपूजाए प्रभु चर्चा, निजआतमने अर्थोरे, दूर करो झट कर्मनो फडचो; राखो न भेदनो कर्यो रे. चंदन ॥ १॥ दर्शनावरणना क्षयोपशमथी, क्षायिकथी गुण प्रगटेरे; चक्कु अचक्षु अवधि केवल, दर्शनथी दुःख विघटेरे. चंदन ॥२॥ दर्शननु आवर्ण करे ते, दर्शनावरणी जाणोरे; दर्शनावरणने हणवा माटे, सेवाभक्ति प्रमाणोरे, चंदन ॥३॥ गुरुनो श्रद्धा प्रीतियोगे; आशातनने वियोगेरे; सद्गुण गणना पूर्णप्रयोगे, वर्ते न हर्षे शोकेरे. चंदन ॥४॥
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(१७४। दर्शनावरण टळे छे क्षणमां, ज्ञानने ध्यानाच्यासेरे; समतानावे कर्म करंतां, दर्शनशक्ति प्रकाशेरे. चंदन ॥ ५॥ पांच प्रकारनी निद्रादयथी, दर्शनगुण झट प्रगटेरे; आतमदर्शन अनुभव आवे, मिथ्याबुद्धि विघटेरे. चंदन ॥ ६॥ चंदनसम दर्शन शीतलता, जावे आतम पूजोरे; निंदा विकथा परपरिणतिथी, मनमा लेश न मुंझोरे. चंदन ॥ ७॥ जिनवर पूजा ते निजपूजा, शुद्धातम उपयोगेरे; केवलज्ञानने केवलदर्शन, प्रगटे निजगुण नोगेरे. चंदन ॥ ८॥ दर्शनावरणीय कर्मने हणवा, स्थिर उपयोगे रदेशोरे. बुद्धिसागर आनंदमंगल, परम प्रभुता लेशोरे. चंदन ॥ ए॥ ॐ पण् दर्शनावरणीय कर्म सूदनार्थ चंदनं य० स्वाहा॥
तृतीयवेदनीय कर्म सूदनार्थ पुष्प पूजा.
शाताअशाता वेदनी, सुखदुःख फलदातार, सुखदुःख वेदे सर्व जीव, लक्षचोराशो मझार, ॥१॥ सुखपुःख मोहथी वेदतां, थातो कर्मनो बंध, सुख
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(१७५) दुःखमां समभावथी, बातमछे निबर्ध.॥२॥आतम सुखनं वेदवा, पुष्पे पूजो राज; आत्ममहावीर प्रगटतां, सफळा सर्वे काज. ॥ ३ ॥
इडर आंबा आबलीरे. ए राग. पूजो प्रभु महावीरनेरे, जेणे जणाव्यो धर्म; पुष्पमाल प्रजु कंउमारे, स्थापंतां शिवशमरे. भविजन. पूजो महावीर देव, फळती प्रभुनी सेवरे, भकि जन!!! पूजो० ॥१॥ शाताअशाता वेदतारे, समभाव पुष्पनी माळ, धारतां प्रभु कंठमारे, रहे न मोहनी जाळरे. भविजन पूजो० ॥ २॥ छाया ताप परे आवतुरे, सुखदःख वाराफेर: पुण्यपापको फळेरे; करो न राग न वैररे. नविजन! पूजो महावीर देव ॥३॥ सुखःख वेदे समपणेरे, अधिकारे करे काज; सहज समाधि ते योगछेरे, प्रगटे शिव साम्राज्यरे. भविण पूजो० ॥ ४॥ शुद्धोपयोगे वर्ततारे, वर्णादिक करे कर्म; बाहिर व्यवहार साधतारे, वर्ते आतम धर्मरे. भवि. पूजो० ॥ ५॥ बाहिर वर्ते बाह्यमारे, अंतरमा
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( १७६) उपयोग; निबंध आतम वर्ततोरे, जोगवतो सहु जोगरे. जवि० पूजो ॥ ६ ॥ सुखदुःख वेदनी नोगमारे, धरे न सुखःख बुद्धि; बातममां सुख अनुनवेरे, प्रगटे सिद्धनी ऋद्धिरे. नवि० पूजो ॥ ७ ॥ सुख आवे हर्षे नहींरे, दुःख प्रगटे नहीं शोक; सुख पुःख बुद्धि न भोगमारे, तेने पूरण योगरे. भविजन पूजो ॥८॥ कर्म निकाचित प्रगटतारे, सुखदुःख जोगवेरे जोग; जोगी अनोगी अंतरविषेरे, योगे वतें अयोगरे. नविजन! पूजो० ॥ ९॥ चक्री इन्द्रादिक भोगमारे, रहे म सुखनी वृत्ति; आतम सुख अनुनव थतारे, जीवंतां निर्वृत्तिरे. भविजन! पूजो० ॥१०॥ प्रभु महावीर देवनोरे, अवो बे उपदेश; बुद्धिसागर आतमारे, आनंदरूप हमेशरे. जविजन! पूजो ॥११॥
ॐ प0 वेदनीय कर्म सूदनार्थ पुष्पं य० स्वाहा ॥
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(१७७) चतुर्थ मोहनीयकर्मसूदनार्थ धूपपूजा.
दर्शनचारित्र मोहनी, सर्वकर्म शिरदार; मोह टळे कर्मों सकल, विणसंतां निर्धार. ॥१॥ मोह तणा परिणामथी, आठकर्म बंधाय; निर्मोही आतम पणे, शुद्धातम प्रगटाय. ॥ २॥ ध्यानधूप प्रजु थागळे, करतां नहि दुर्गध; आतम आत्मपणे रमे, आतम वर्ते अबंध. ॥३॥
दशमे देशावगाशिकेरे, चउद नियम संखेव-ए राग
धन्य महावीर जगधणीरे, केवलज्ञानी देव; आतमध्यानना धूपथीरे, साधु ताह्यर सेव हो. जिनवर० बातमसुखने आपशोरे, रोमे रोमे व्यापशोरे; ताह्यरो रहो उपयोग. ॥१॥ दर्शन मोहनी नाशथीरे, प्रगटे समकित धर्म; चारित्र मोहनी नाशथीरे, प्रगटे आतमशर्म हो. जिनवर॥ आतम॥२॥ अहावीश मोह प्रकृतिरे, क्षयोपशम तस होय; उपशम क्षायिकभावथीरे, शुद्ध परिणति जोय हो.
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( १७८ )
जिनवर ॥ आतम ॥ ३ ॥ सकल कर्ममां मोहनुंरे, अनंतगणुं छे जोर; मोह टळे बीजां टळेरे, नासे छे जेम चोर हो. जिनवर आतम. ॥ ४ ॥ निर्मोहभावे वर्तर्बुरे, आतमधर्म छे एह; आतम शुद्धोपयोगथीरें, रहे न मोहनीरेह हो. जिनवर तम० ॥ ५ ॥ अत्रततजी व्रत आदरोरे, धारो संवर भाव, निर्जराहेतु च्यादरोरे, तमशुद्धि दावहो. जिनवर आतम ॥ ६ ॥ श्रातमज्ञानने पामतारे, प्रगटेछे वैराग्य;
तमना उपयोगधीरे, वर्ते सहेजे त्यागहो. जिनवर आतम० ॥ ७ ॥ जिनआगम गुरु संगतिरे, करतां संतनो संग; निर्मोहभावे आतमारे, परिणमतो जिनरंगहो. जिनवर० श्रातम० ॥८॥ देवगुरुने धर्मनेरे, राधे मोह जाय: रवि उगे परभातमारे, तम तो दूर पलायहो० जिनवर ० त० ॥ ९ ॥ गृही त्यागी दशाविषेरे, करतां व्यवहार कर्म; निमोहे नहीं कर्मछेरे, प्रगटे मुक्ति शर्महो, जिनवर० आतम० ॥ १० ॥ ज्ञानक्रियाथी मोहनोरे, क्षय क्षण
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(१७९) मांहे थाय; नामरूपनिर्मोहथीरे, केवल ज्ञान सुहायहो. जिनवर० आतमः ॥११॥ आतम यातमने दियेरे, प्रभु भक्त निज मुत्ति; बुद्धिसागर आत्मनारे, उपयोगे नहि भोतिहो. जिनवर आ० ॥१२॥ ॐ प० मोहनीय कर्मसूदनार्थ धूपं य० स्वाहा ॥
पंचम आयुःकर्मसूदनार्थ दीपपूजा.
सुरनर तिर्यच नरकनु, आयुः चार प्रकार: चार गतिमा आयुथी, तनु स्थिति निर्धार. ॥१॥ चारगतिमा आयुथी, बंधावानु थाय; अनंतजोवन पामतां, आयु बंधन जाय.॥ २ ॥ ज्ञानदोप प्रगटाबीने, पूजो प्रभु जिनराज; अनंत शाश्वत जोवनने, पामो सिद्धे काज. ॥ ३॥
मल्लिजिननाथजी व्रतलोजेरे ए राग. प्रभु महावीरपर धरो प्रीतिरे, टाळो दुष्टाचार अनीति. प्रजु द्रव्य दीपक धरी भाव दीवोरे, प्रगटावी अनंतुं जोवोरे; प्रभु वचनामृतने पोवो. प्रभु
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( १८० )
॥ १ ॥ पुण्ययोगे सुरनर आयरे, प्रायः तिर्येच आयु बंधायरे, पापे नरकतिरि गति थाय प्रभु० ॥ २ ॥ आयुः कर्मतणीए मायारे, जेवा पाणीमां पडबायारे; ज्ञानी जक्तो नहीं मुंझाया. प्रभु० ॥ ३ ॥ स्थिति अनंत पामीने ठरवुंरे, पढी जन्म मरण नहि करबुंरे; एवं शुद्धातम पद वर प्रभु० ॥ ४ ॥ मोह योगेछे आयुष्य बंधरे, निमहे वर्ते अबंधरे; परभावनी होय न गंध. प्रभु० ॥ ५ ॥ पूर्व कर्म निकावित जोगोरे, तेवा मळता सर्व संयोगोरे; वर्ते अंतरमां योगो. प्रभु० ॥ ६ ॥ ज्ञानीने जे श्रस्रव कमरे, परीणमे ते संवर धर्मोरे टळे ज्ञाने मिथ्याभर्मो. प्रभु ॥ ७ ॥ श्रुत दीपकथी प्रभु पूजेरे, शुद्धआत्म स्वरूप झट सूजेरे; पामी आतम मन नहीं मुंझे. ॥ ८ ॥ शुद्ध आत्मस्वरूपना रसियारे, गति छतां न गतिमांहि वसियारे; कर्मयोगी कर्म उल्ल सिया. प्रभु ॥ ९ ॥ गति आयुछे बंदिखानुंरे, तनु हेडसमुं न मझानुंरे; त्यांतो ज्ञानोने रुचे शानुं ? प्रभु०
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( १८१ )
॥ १० ॥ मनुजवां थायछे मुक्तिरे, ज्ञान वैराग्य व्रत धरो नीतिरे; टळे सर्व प्रकारनी जीति प्रभुष ॥११॥एवी प्रभु महावीरनी वाणीरे, ज्ञानवैराग्यथी दिल आणीरे; प्रभुपूजा करो गुणखाणी. प्रभु० ॥ १२ ॥ ज्ञानानन्द अनंतपद वरवारे, जवपायोधि वेगे तरवारे; बुद्धिसागर गुरु अनुसरवा. प्रभु० ॥ १३ ॥ ॐ० प० आयुः कर्म सूदनार्थ दीपं य० स्वाहा ||
षष्टनाम कर्म सूदनार्थ अक्षत पूजा. नामकर्मनी प्रकृति, एकसोत्रण वे सर्व देहादिकमां मोह वा, करवो नहि कंइ गर्व ॥ १ ॥ नाम कर्मना क्षयथकी, अरूपपद प्रगटाय; रुपीपणुं नहि आत्मनुं, रूपादिक जडमांद्य ॥ २ ॥ क्षयरूप छे आतमा, अक्षत करवा हेत; व्यवहारे अक्षतथकी, प्रभु पूँजा संकेत. ॥ ३ ॥
सनेही संत एगिरि सेवो. चउदभुवनमां तीर्थ न एवो. - ए राग.
प्रभु महावीरजी जयकारी, पूजो अक्षतथो
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(१८२) सुखकारी. प्रभु ॥ प्रकृतिरस स्थिति प्रदेश, चारेभेदे बंध न लेश; सत्ता उदीरणा नहीं कलेश, टाळया राग अने मन द्वेष. प्रभु० ॥१॥ टाळया कर्मविपाको सर्वे, रही शुकलध्याने अग; रह्या नहीं परपुद्गल भर्मे, मुंइया नहि मिथ्याजडशमें. प्रभु ॥२॥ नामरूपमा निर्मोह नावे, रहे जे कोइ साक्षीना भावे; नाम कर्मथी बूटो थावे,शुद्ध अरूपपद निज पावे. प्रजु० ॥३॥ नाम कर्म प्रारब्धना भोगो, अनासक्तिए वर्ते योगो; थाय नहीं कंइ हर्ष न शोको, थाय विषम न प्रकटे रोगो. प्रभु० ॥४॥ थतां केवल नाम रहेछे, आयु पर्यंत तेह वहेडे; समजावे ज्ञानी सहेछे, शुद्ध आत्मरमणता चहेछे. प्रभु०॥५॥ प्रभु सरखा थावा माटे, वळो केवल ज्ञानोनी वाटे; माल वेचायछे गुरु हाटे, लेजो स्वार्पण करी शिरसाटे. प्रभु० ॥ ६॥ नामरूप अध्यासने त्यागो, शुद्ध आतम भावे जागो; त्याग ग्रहणमां मनथी न लागो, मोहनावथो दूरे नागो. प्रभु०
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( १८३) ॥७॥ नामकर्म अघाती जाणो, ज्ञान प्रगटे अबंध प्रमाणो; निर्मोही बातमराणो, निजगुणथी खेले मझानो. प्रभु० ॥८॥ नाम कर्मने परोपकारे, वापरो जैन धर्म प्रचारे; वापरे ते धर्म न हारे, करो कर्तव्य निज अधिकारे. प्रभु० ॥९॥ एवी वीर प्रभुनी वाणी, सर्व नयथी यथातथ्य जाणी; श्रद्धा प्रीतिए मनमां पाणी, कर्म तलने पीलवा घाणी. प्रभु० ॥ १० ॥ नामरूपमां नहीं मुंझाशो, शुद्ध उपयोगथी सुख पाशो; बुद्धिसागर दिल हरखाशो, चिदानंद स्वरूप प्रकाशो. प्रभु० ॥ ११ ॥ * प० नाम कर्म नाशार्थ अक्षतं यः स्वाहा ॥
सप्तमी गोत्रकर्मसूदनार्थ नैवेद्यपूजा,
उच्च नीच व्यवहारथी, निश्चयथी नहीं कोय; उच्चनीच जडमोहथी, आत्मस्वरूपे न जोय. ॥१॥ उच्चने नीच बे गोत्रछे, यश अपयश करनार; मान अने अपमानना, हेतुछे व्यवहार. ॥२॥प्रभु महा
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( १८४ )
वीर बोधथी, उच्च नीच बे भेद; बेमां समजावे रहे, ज्ञानीनें निर्वेद ॥ ३ ॥ उच्च नीच वे प्रकृति, तेमां निर्मोह हेत; नैवेद्य पूजानो भलो, संकेत. ॥ ४ ॥
द्रव्यजात्र
प्रभु प्रतिमा पूजीने पोसह करीए. - ए राग.
महावीर जिनवर पूजीने गुण लीजेरे; उच्चने नीचनो भेद विसारीए निज तमनुं शुद्ध स्वरुप विचारोरे, पुद्गलनी माया जूठी धारीए, आतमछे सरखा मन अवधारोए, कुलादिक मदने प्रगटयो वारीए. ॥ १ ॥ उच्चपणाना माने हर्ष न धरोएरे, जातिना अभिमानेरे धर्म न हारीए; सत्ता विद्या लक्ष्मी आदि मोहेरे, भूलंतां भानरे निज नहि तारीए. आतम० ॥ २ ॥ कर्मनी माया पाणीना पडबायारे, उंचने नीचना भेद नहीं खरा; समज्या ते मुंझाया नहि भरमायारे, पाम्यारे आनंद अमृतना झरा. आतम० ॥ ३ ॥ चडती पडती उच्च नोच अवतारे, संसारे एह अवस्था सर्वनी; परने पोतानुं
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( १८५ )
मानी शुं फूलोरे, छाजे नहि कोइ व्यवस्था गर्वनी. उमदे भरिया जोव दुःखने वर
म० ॥ ४ ॥ यारे, स्वप्नानी वाजीरे जूठी जागतां; उच्चने नीच पणुं स्वप्नानी बाजीरे; आतमरे अगुरुलघु घट लागतां श्रतम ॥ ५ ॥ कुल विद्या लक्ष्मी सत्ता हिए। पूरे, पामंतां हर्ष न उद्वेगे रहो; उच्च नीचनी . माया स्वप्ना जेवीरे, जाणीरे समभावे जीवन वहो. आतम० ॥ ६ ॥ मान ने अपमानने लाजाला - नेरे, समताने धारी कर्तव्यो करो; योगी भक्तजीवन एवं तमनुंरे, परमातम प्रगटावी मुक्ति वरो. आतम० ॥ ७ ॥ उच्चने नीचना भेदे नहि मुंझाशोर, खत्तारे खाशो पडती पामशो; आतमने कदि नीच न मानो भव्योरे, बाहिरनी वृत्तिकी विरामशो. आतम० ॥ ८ ॥ उच्चने नीचनी ब्रांति कर्मनी दृष्टेरे,
तमनी दृष्टिएकशुं बे नहीं; आतम दृष्टि जीवनथी संचरशोरे, परमानंद पामोरे अधिकारे वही. आतन ० ॥ ९ ॥ उच्चनीचना नंदे सुखदुःख वृत्तिरे, स्वप्नामां एछे जागंतां नहीं; कर्म अन्रथो उंचा ज्ञानी जाग्यारे,
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( १८६ )
स्वप्नामां नेद खेद प्रगटे सही. यातम० ॥ १० ॥ अगुरु लघुछे खतम निजअनुभवतोरे, तेनीरे श्रागळ कर्म ते शुं करे; बुद्धिसागर आतम रविझळहळतोरे, केवलज्ञानज्योतेरे प्रभुपदने वरे. आतम ॥ ११ ॥ ॐ ० प० गोत्र कर्म विनाशाय नैवेद्यं य० स्वाहा ॥
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अष्टम अंतरायकर्म सूदनार्थ फल पूजा.
तणां
दान लाजने जोगने. वीर्य ने उपभोग; पांच वर्णने, हणतां निजगुण योग. ॥ १ ॥ अंतराय हणवा भवी, फलथी पूजो देव द्रव्य भावथो शक्तिने, पामो करी जिन सेव ॥ २ ॥ दानादिक आवर्णनो, क्षयोयशम क्षय थाय, दानादिक निज शक्तियो, प्रगटे धर्म सुहाय ॥ ३ ॥
*E
वाजां वाग्यांरे प्रभु दरवाररे. मोहन वाजां वागियां.
ए राग.
मुक्तिफल पामवा हेतेरे, फले प्रभु पूजीए
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(१८७) सर्व इच्छायो करीने निरोधरे, निजातम रीजीए; गुणपर्यायदान निज दीजीए, चिदानंदनो लाभज निजरे. फले॥गुणपर्याय भोगोपनोगमां, परपुद्गलनी नही खीजरे. फले० ॥ १॥ शुद्ध आतमबल प्रगटावीए, दुष्ट टाळोए पशुबळ वेगरे. फले।मन इन्द्रि योमा पशुबल वसे, तेथी करीए नहिं अविवेकरे. फले०॥२॥ लब्धि शक्तिओने प्रगटावीए, नहीं रीजीए खीजीए बाझरे. फले. परमार्थमां तनमन वापरो, करो विश्वमा सारां काजरे. फले० ॥ ३ ॥ जैन धर्मने संघनी उन्नति, करवामां होमशो सर्वरे, फले० अणशक्तिए खेद न कीजीए, होय शक्ति छतां नहि गर्वरे. फले० ॥४॥ देवगुरुने धर्मनी भक्तिमां, मृत्यु थतां न हीए लगाररे, फले. ॥ खेद भय अने द्वेषने त्यागीए, करो परमार्थो नरनाररे. फले० ॥ ५॥ समभावथी कर्मातरायनो, क्षयोपशमे क्षय झट थायरे, फले.॥ दानलानादि वापरो नावथी, थतां निष्काममुक्ति सुहायरे. फलेण ॥ ६॥ जोक
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(१८८) अजीव उपकार सहजछे. एतो थाय परस्पर जाणरे. फले. दानादिक प्रवृत्तिनिवृत्तिमां, शुद्ध उपयोग दृष्टि प्रमाणरे. फले० ॥७॥ देशो तेवुज नक्की पामशो, वावो तेवु फले निर्धाररे, फले.॥ बाह्यफल मिष शिवफल पामवा, लहो सहज समाधि साररे. फले० ॥ ८॥ ज्ञानपरमानंद फल जीवतां, लही मुक्ति अनुनव थायरे. फले. सर्व कर्तव्य कर्मों कर्या करो, तेथी शक्तियो प्रगटी सुहायरे. फले० ॥९॥ शुद्ध बातम प्रनु महावीरछे, एवा निश्चयथी जाय दु:खरे, फले. बुद्धिसागर शुद्ध प्रभु विभु, आपोआप अनंतु सुखरे. फले० ॥१०॥
कलश ॥ गायो ध्यायोरे महावीर जिनेश्वर गायो, अष्टकर्म निषूदनहेते, अष्टधा पूजा गायोरे. महावीर आतम साथे काल अनादि, कर्मबंध व्यवहारे; कर्मनो कर्ता जोक्ता आतम, रागद्वेष विकारेरे. महाबोर० ॥१॥ बंध उदय उदीरणा सत्ता, कर्मभेद
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(१८९) व्यवहारे, प्रारब्ध संचितने क्रियमाणज, अशुद्धनय उपचारेरे. महावीर ॥ २॥ सम्यग्ज्ञान वैराग्यन त्यागे, वर्ते साक्षी भावे; कर्म शुभाशुन सुखदुःख फळने, वेदो समता दावेरे. महावीर ॥ ३ ॥ ज्ञान ध्यानथी क्षणमां मुक्ति, निर्मोह कर्म करंतां; गृही त्यागी निज अधिकारे, गुण कमें विचरंतारे. महावीर० ॥४॥ द्रव्यार्थिक शुद्धनय दृष्टिए, कर्मनो कर्ता न हर्ता; आतम सत्ताए निर्लेपी, बे नय समजे. संतारे. महावीर० ॥ ए ॥ व्यवहारने निश्चय बेनयथी, सापेक्षाए जाणो; निश्चयदृष्टिना उपयोगे, रहीने अनुभव म्हाणोरे. महावीर० ॥ ६॥ पुण्य पाप बे भेदमा आवे, कमों समाइ जातां, आस्रवमांही पुण्य पाप बे, अंतर्नावी थातारे. महावीर० ॥७॥ तमो रजो गुण सवनी वृत्ति, मोहनीमांही समाती; मोहनी जीते जीत्यां बाकी, सम्यग्दृष्टि सुहातीरे. महावीर ॥ ८॥ रागरीस अरिजीत्या अरिहंत, महावीर केवल ज्ञानी; प्रभुए कर्म स्वरूप
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( १९० )
प्रकाश, समजे समकीती ज्ञानोरे. महावीर० ॥ ९ ॥ पुनर्बंधक नहींछे ज्ञानी, नहीं पुद्गल अभिमानी; अल्पबंध] महानिर्जरा करतो, निर्मोहभावे ध्यानीरे. महावीर० ॥ १० ॥ सम्यग्ज्ञाने बळियो यातम, ज्ञाने बळियुंछे कर्म कर्म निकाचित प्रारब्ध भोगमां, उपयोगे तम शर्मरे. महावीर० ॥ ११ ॥ ओगणित ाठोत्तर कार्तिक सुदि, याम मंगलवारे; पूजी रचीने आनंद पाम्यो, प्रभुदाणोना प्यारेरे. महावीर० ॥ १२ ॥ सानंद शहरमां चोमासुं कर्यु, संघनी भक्तिछे सारी; प्रभु महावीर पट परंपर, तपगच्छ जंग जयकारीरे. महावीर० ॥ १३ ॥ जगगुरु हीर विजयसूरि राजा, पट परंपर छाजे, श्री
मिसागर रविसागरजी, सुखसागर गुरु गाजेरे. महावीर० ॥ १४ ॥ गुरु कृपाए पूजा रची शुभ, संघमां नंदकारी, बुद्धिसागरसूरि मंगल, जिनशासन जयकारीरे. महावीर० ॥ १५ ॥
ॐ ० प० अंतराय नाशार्थं फलं य० स्वाहा ॥
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( १९१ ) षडावश्यक पूजा.
श्री परमेश्वर वीरजिन, चोवीशमा जिनराज; त्रिशलानंद जगधणी, सर्वदेव शिरताज ॥ १ ॥ समवसरणमां बेसीने, भाख्यो साचो धर्मः षट् आवश्यक भाखियां, गृही साधुनां कर्म ॥ २ ॥ षट् यावश्यक कर्मथी, चित्तनी शुद्धि थाय. मनशुद्विधी आतमा, केवल ज्ञानने पाय. ॥ ३ ॥ सामायिक चउविश जिन, स्तव गुरुवंदन बेश; प्रतिक्रमण आवश्यके, नासे कर्मना कलेश. ॥ ४ ॥ कार्योत्सर्गने आदरे, करतां प्रत्याख्यान; आत्मशुद्धिथी प्रग
तुं, सहेजे केवलज्ञान ॥ ५ ॥ षडावश्यकनी रचु, पूजा द्रव्यने भाव; नेदे उपयोगे भली, जवोदधिमां नाव ॥ ६ ॥ अष्टप्रकारे पूजना, प्रत्येक पूजा दीठ; आत्मानुभव पामवा, ज्ञान क्रियाथी मिष्ट. ॥ ७ ॥
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प्रथम सामायिक आवश्यक पूजा. सामायिक करतां थकां रागद्वेष विनाश; क्ष
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(१९२) णमां केवल उलवे, नासे भाव उदास ॥१॥ अनंतजीवो पामिया, समता योगे मुक्ति; समतावण मुक्ति नहीं, साधे कोटि युक्ति. ॥ २॥ सर्व धर्म मत पंथमां, समत्वथी छे मोक्ष; समत्वपणुं सहु धर्ममां, मुक्तिभाव परोक्ष. ॥३॥ सर्व व्रतादिक सार बे, समता धारो भव्य; समत्व सामायिक भर्बु, थावश्यक कर्तव्य. ॥ ४ ॥ नयव्यवहारथी बे घडी,
आराधो नरनार; निश्चय समता हेतुछे, सेवो नवि सुखकार. ॥ ५॥ चउनिक्षेपे धारीए, सातनये ते जाण; द्रव्यभावथी सेवतां, प्रगटे सम्यग् ज्ञान. ॥६॥ समताभावः सर्वदा, त्यागी निश्चय नाव: समता ते चारित्रछे, उपयोगे दिल लाव. ॥ ७॥
प्रभु पडिमा पूजीने पोसह करीएरे-ए राग.
समताभावे सामायिकमा रहीएरे, सामायिक योगे शिवसुख थायजे; समभावे रहेवाथी अनुभव जागेरे, स्थिरताना योगे तत्त्व जणायडे, अंतरना
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(१९३) उपयोगे धर्म ग्रहाय छे, चंचळता मननी दूरे जाय छे; वैराग्ये भाव भलो परखाय डे, धन्य धन्यरे समताभाव सुहाय छे. अंतर॥१॥गुरुमुखथी सामायिक उच्चरे श्रावकरे, लाखचोराशी जीवयोनिने खमावतो; दश मनना दश वचनना द्वादश कायारे, बत्रीश दोषो टाळी आतम जावतो. अंतर० ॥२॥ पिंडस्थादिक चार ध्यानने धरीएरे. वरीएरे धर्म शुकल ब ध्यानने; आर्त रौद्र बे ध्यान बूरां परिहरीएरे, तजोएरे माया ममता मानने. अंतर० ॥३॥ धर्मग्रंथने जणीए गणोए भावरे, विकथानी वातो लेश न कीजीए; द्रव्य गुण पर्याये वस्तु विचारीरे, वस्तु स्वजाव धर्म ग्रहीने रीझीए. अंतर० ॥ ४ ॥ स्थिर उपयोगे ध्यान समाधि वरीएरे, झळकरे ज्योति आतमरामनी; श्वासोश्वासे अजपाजापे स्मरीएरे, वाटेरे चालो अविचळ धामनी. अंतर ॥५॥ आत्मज्ञानथी सत्य समाधि पामोरे, वामोरे रागद्वेष बे दोषने; मैत्री प्रमोद करुणा माध्यस्थ विचारोरे; ૨૩
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धारोरे निरुपाधि सुखपोषने. अंतर० ॥ ६॥ नय निक्षेपे सामायिकने समजीरे, कोजीये सामायिक शिववेलमी; समतामृत भोजनथी प्रगटे शान्तिरे, समतानी आगेरे झुंडे ? शेलमी. अंतर ॥७॥ सिद्ध समा समताथी सर्वे जीवोरे, जटकेरे कर्मथको संसारमां; कर्मदोष त्यां जाणी जीव खमावोरे, समतानो ल्हावोरे मनु अवतारमां. अंतर ॥८॥ जाग ! जाग! चेतन तुं सामायिकमारे, मुंझीश नहि मुसाफर मायाजाळमां; बुद्धिसागर सामायिक उपयोगेरे, गाळोने जीवन सहु कल्याणमां. अंतर० ॥ ९॥ __सामायिक निजातमा, समता परिणतियोगेरे; परमानंदना नोगमां, वर्ते निज उपयोगेरे; वीर जिनेश्वर नाखता,आत्म स्वजावे रहेशोरे; विषम स्वजावे नहीं रहो, शुद्ध परिणति वहेशोरे. वीर० ॥१॥ ॐ ह्री श्री परम सामायिकाथै जलं चंदनं पुष्पं धूपं दोपं अक्षतं नैवेद्यं फलं यजा
महे स्वाहा.
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(१९५) द्वितीया चतुर्विंशतिस्तव पूजा. चोवीश जिनवरने नमो, वंदो प्रजो भव्य, स्तवो नक्ति बहमानथी. ए बीजं कर्तव्य. ॥१॥ चोवीश तीर्थकर प्रभ, वीतराग भगवंत: स्तवतां ध्यातां आतमा, पामे भवनो अंत. ॥२॥ चंद्र समा निर्मल सदा, रविथी अनंत प्रकाश; एवा चोवीश विभु, ध्यातां आत्मविलास. ॥३॥ सागरवत् गंभीर जे, सिद्ध गति दातार; प्रभुमयथै प्रभुने स्तवे, स्वयं प्रभु निर्धार. ॥४॥
हे सुखकारी आ संसार थकोजो मुजने उद्धरे.
ए राग. जग उपकारी चोवीश तीर्थकर मुज मनमाही वस्या, प्रभु जयकारी शुद्धातम उपयोगे अंतर उसस्या, चोविश जिनस्तव नावे करतां, अंतांउपयोगे वरता, घातोको वेगे खरता, नरनारी केवल पद वरतां. जग ॥१॥ एकतान प्रभु साथे जागे,
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( १९६) मनडुं वर्ते प्रभुना रागे; श्रद्धा प्रीतिलय जो लागे, मनहुं वर्ते भव वैराग्ये. जग० ॥२॥ प्रभु ज्ञेय स्वभावे घट आवे, कर्तव्य सकल योगे थावे; आतम निलेपपणुं जावे, आतम परमातम थै जावे. जग ॥३॥ परमातमने दिलमां धारो, आविर्भावे घट जजियारो; नहीं नामरूपनो अहंकारो, कर्तव्य करे आवे पारो. जग० ॥ ४ ॥ चोवीश जिनवर साथे प्रीति, तेथी नासे सघळी भीति; प्रगटे जगमा साची नीति, प्रामाणिकता साचो रीति. जगा ॥ ५ ॥ मुजध्याने ध्येयपणे आवो, मुज ज्योते हो आविर्भावो; एकमेक स्वरूपेछे ल्हावो, परमानंदे प्रगटे दावो. जग० ॥६॥ सर्वे जिनवर पूजा गावो, वंदो प्रणमो प्रेमे ध्यावो; ध्येयाकारे घट प्रणमावो; प्रभुसम निज आतम प्रकटावो. जग ॥ ७ ॥प्रभु स्तवतां केवलने मुक्ति, भक्ति आवश्यकनी रीति; प्रभु स्तवतां प्रगटे गुण नीति, आचारे रहे नहि दुर्नीति. जग• ॥८॥ प्रभुरूपे अकय बनी
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( १९७) भळवू, प्रभु ज्योते ज्योतथकी मळवू; पछी जगमां नहि अवतरवू, प्रभु प्रार्थी निश्चय पद वरवं. जगण ॥९॥ प्रभु वोर बोध मनमां वसियो, चोविश जिन स्तवनानो रसिया; बुद्धिसागर प्रभु उल्लसियो, शुद्धातम नावे विकसियो, जग०॥१०॥ * प० चतुर्विंशति स्तव आराधनार्थ जलं. य० स्वाहा॥
तृतीया गुरुवन्दन आवश्यक पूजा.
दुहा. आवश्यक गुरुवन्दना, प्रतिदिन त्रण्ये काल, करतां ज्ञानादिक गुणो, प्रगटे मंगलमाल. ॥१॥ श्रद्धा प्रीति नावथी, गुरु वंदंतां ज्ञान; गुरुवण ज्ञान न थाय , गुरुवण होय न सान. ॥२॥ विधिपूर्वक गुरुवन्दना, करतां नाले कर्म; शुद्धातम घट उल्लसे, प्रगटे साचो धर्म. ॥ ३ ॥ गुरुदीवो गुरुदेव बे; गुरुनो सत्याधार; गुरुवण मुक्ति न कोश्नी, समजो नरनेनार. ॥ ४ ॥ वंदो पूजो सद्गुरू, प्रणमो वारंवार; सूरिवाचक यतिसंघनी, भक्ति सदा फळनार.॥५॥
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(१९.८) गुरुवंदन आवश्यके, पाम्या मुक्ति अनंत; चउनिक्षेपे नये नला, सेवो सद्गुरु संत. ॥ ६॥ क्षणपण सद्गुरु संगति, टाळे रागने रीस; समकितप्रद गुरु नक्तिथी, मुक्ति विश्वावीस. ॥ ७॥
ध्यानक्रिया मनमा आणीजे. ए राग.
जगगुरु महावीर जिन जयकारी, वंदुवार हजारीरे; गुरु वंदन आवश्यक नाख्यु, जेथी तरे नरनारीरे. जग० ॥१॥ गुरुवंदनमा मुज मन राचे, गाजे घन मोर नाचेरे; रीझे नहि मन कुगुरु काचे, स्वार्पणता साचेरे. जग० ॥ २॥ गुरूवंदनथी केवल वरिया, अनंत जीवो तरियारे; लघुता विनयवडे संचरिया, गुरुभक्ते जे भरियारे. जग ॥ ३ ॥ सद्गुरू रागे गुण सहु आवे, दुर्गुण सघळा जावेरे; गुरू. पदेशे श्रद्धा नावे, शक्ति सकल प्रकटावेरे. जग ॥४॥ सर्व खमा कृत अपराधो, सद्गुरु जगमां लाध्योरे; तुज कृपाए अनुजव वाध्यो, साधनको प्रभु
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( १९९ )
साध्योरे. जग० ॥ ५ ॥ विधिपूर्वक गुरुवंदन होशो; दुर्गुण रहामुं न जोशोरे; माफ करो गुरु म्हारा दोषो, मुज आतमने पोषोरे. जग० ॥ ६ ॥ एवी रीते गुरु वंदन करता, गुरु सदा अनुसरतारे; समकिती गृही त्यागी गुण वरता, भव पाथोधितरतारे. जग० ॥७॥ दोषदृष्टि त्यागी गुरु रागी, शिष्य जक्त वमनागीरे; बुद्धिसागर सद्गुरु वंदन करतां लगनी लागीरे. जग० ॥ ८ ॥ ॐ प० गुरु वन्दन आराधनार्थ ज० य० स्वाहा ॥
चतुर्थी प्रतिक्रमणावश्यक पूजा.
दुहा. प्रतिक्रमण करवाथकी, आतम शुद्धि थाय. आत्माजिमुख भावथी, प्रतिक्रमण कहेवाय. ॥ १ ॥ अतिचारादिक दोषथी, पाछा फरवुं जेह; पापतं कर नहीं, प्रतिक्रमण छे तेह ॥ २ ॥ पंच प्रतिक्र मां कथ्य, आत्म शुद्धि हेत; द्रव्यजाव करतां थकां, मुक्तिनो संकेत. ॥ ३ ॥ प्रतिक्रमणने जाणता,
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(२००) सातनयोथी जेह; चउनिक्षेपे आदरे, दोष रहे नहि रेह. ॥ ४ ॥ निंदो गहों दोषने, खमो खमावो जीव, कर्म भेद दूरे टळे, पामे आतम शिव. ॥ ५॥
ए व्रत अगमां दीवा मेरे प्यारे, ए व्रत जगमां दोवो.
ए राग. महावीर प्रभु जयकारीहो, जगपति ! महावीर प्रभु जयकारी, प्रतिक्रमण आवश्यक भाख्युं, सर्व जीव हितकारी, दुर्गुण दोषथी पाछा फरवू, प्रतिक्रमण जयकारी हो. जगपति महावीर० ॥१॥ गृहो त्यागी व्रत समकितमाही, अतिचारादिक ला. ग्या; निंदे गहें फरी करे नहीं, प्रतिक्रमणे तेह जाग्याहो. जगपति० ॥२॥ क्षयोपशमो समकित चारित्रे, वारंवार छे दोषा; तेमाटे प्रतिक्रमणावश्यक, करो आतम गुण पोषोहो. जगपति० ॥ ३ ॥ दोषने गुण निरोक्षा करतां, प्रायश्चित्तने धरतां, निंदो गर्हो निजगुण वरतां, भवि नरनारी तरता हो. जगपतित
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( २०१ )
॥ ४ ॥ मोहीना मन मीठो कहेणी, पण कडवीछे रहेणी; कणी प्रमाणे यातां रहेणी, चढशो मुक्ति निसरणी हो. जगपति० ॥ ॥ मनवचनकाया प्रतिक्रमणथी, मनवचन काया शुद्धि; क्षण क्षण उपयोगे पडिक्कमणं, करतां चिदानंद ऋद्धिहो. जगपति० ॥ ६ ॥ आतमना उपयोगे ध्याने, नहि आवश्यक करणी; शुभाशुभपरीणाम निवृत्ति, जवपाथोधितरणीहो. जगपति० ॥ ७ ॥ चउनिक्षेपे सातनयोथी, प्रतिक्रमण अवधारौ निज निज अधिकारे प्रतिक्रमतां, शुद्ध यता आचाराहो. जगपति० ॥ ८ ॥ अप्रशस्य कषाय प्रवृत्ति, प्रतिक्रमता संसारी; प्रतिक्रमणयो क्षणमां मुक्ति, पाम्या घणा नरनारीहो. जगपति० ॥ ९ ॥ पंच पडिकमणां व्यवहारे, निश्चय निज उपयोगे; जाणीने वर्ते जे भावे, रहे न जवभय रोगेहो. जगपति० ॥ १० ॥ पश्चात्तापथी भूलो खमावो, खमो दुर्गुणने हठावो; बुद्धिसागर सद्गुरु संगे, आनंद मंगल पावोहो. जगपति० ॥ ११ ॥ ॐ० प० प्रतिक्रमणाराधनार्थ ज० य० स्वाहा ॥
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( २०२ ) पंचमी कायोत्सर्गावश्यक पूजा.
देह छतां जेने जरा, रहे न देहाध्यास; कायो
तम ध्यानाभ्यास. ॥ १ ॥ द्रव्य
रसर्गज जाणवो, भावथी जावं, कायोत्सर्ग स्वरूप; आवश्यक विधि योगथी, नासे भवभय धूप ॥ २ ॥ शुद्धातम उपयोग बे, कायोत्सर्ग प्रमाण; निश्चयनयथी आदरे, प्रगटे केवलज्ञान ॥ ३ ॥ व्यवहारे विधिथी करो, टाळो मनना दोष दर्शन ज्ञानने चरणनी, शुद्धि प्रगटे पोष ॥ ४ ॥
हम मगन जये प्रभु ज्ञानमां. ए राग.
प्रभु महावीर जिनवर ध्याइए, ध्याइए ध्याइए ध्याइए, प्र० । कायोत्सर्ग करो गुण हेते, आवइकदिल धारिये; देहादिक जम वस्तुथी न्यारो, यातम शुद्ध विचारिये. प्रभु० ॥ १ ॥ देह छतां नहि देहनी ममता, धर्मे तनु व्यापारीए; शुद्धातम उपयोगे रहने, परमानंदमां म्हालीए. प्रभु० ॥ २ ॥ दर्शन ज्ञान चरणनी शुद्धि, काउसग्गयोगे कीजीए;
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(२०३) देहादिक मोहसागर उपर, ज्ञाने तरंतां रीझीए. प्रभु० ॥३॥ काउसग्ग योगे क्षणमां केवल, मुक्ति अनंता पामिया; शुभ अशुन परिणाम त्यजीने, शुद्ध स्वरूपे जामिया: प्रभ०॥४॥ शुद्धातम उपयोगे रहेता, सर्व प्रभुने ध्याश्या; निश्चयनयथा एकातममां, सर्व जिनेश्वर आविया. प्रभु ॥५॥ व्यवहारथी विधि काउसग्ग करवो, एम सापेक्ष विचारीये; बातम शुद्धि हेते साधन, हकदाग्रह वारिये. प्रभु०॥६॥द्रव्यभाव व्यवहारने निश्चय, नयसापेक्षे जाणीए; सांज सवारे यावश्यकने, रहेणीमांही आणीए. प्रनु०॥७॥ मोहादिक कमों झट विण से, मानव जव नहि हारिए; प्रभुनी साथे तन्मय थेने, मोही मनडुं मारीए. प्रभु ॥ ८॥ गृही त्यागीने आवश्यक छ, नित्यनी करणी कोजीए; बुद्धिसागर मंगलमाला, परमानंद पद लीजीए. प्रनु० ॥९॥ ॐ० प० कायोत्सर्गाराधनार्थ जा य० स्वाहा ॥
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(२०४) छठी प्रत्याख्यानावश्यक पूजा. छट्टे यावश्यक करो, नावे प्रत्याख्यान; द्रव्यनाव बे कर्मनो, नाश थतो भवी जाण. ॥१॥ सर्व शुभाशुन्न वांछना, त्याग ज प्रत्याख्यान; निश्चयथी ए आदरे, प्रगटे केवलज्ञान. ॥२॥ आसक्तिनो त्याग ते, निश्चय प्रत्याख्यान; रागद्वेषने परिहरे, प्रत्याख्यान प्रमाण.॥३॥द्रव्यथी प्रत्याख्यानना अनेक भेदो जोय; साध्यतणा उपयोगथी, साधन सफळां होय. ॥ ४ ॥ आतम ताबे मन थतां, वर्ते प्रत्याख्यान; ग्रहणत्याग बुद्धि विना, सहजयोगथी मान. ॥ ५॥
श्रीपालना रासनी देशनो. जिमतरु फूले नमरो बेसे. ए राग. प्रभु महावीरने वंदो पूजो, गावो प्रणमोध्यावो, प्रत्यास्थान जिणे उपदेश्यु, भावथी मनमां लावोरे, नविका, प्रत्याख्यानने धारो, थाय सफळ अवता
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(२०५) रोरे. नविका० ॥१॥ व्यवहारथी पच्चखाणने क. रिये, मनपर काबू धरिये; गुरु पासे पञ्चखाण उच्चरिये, कर्म निकाचित हरियरे. भविका० ॥२॥ अशनादिक श्वा संवरीये, सुख दुःख समता वरिये, कर्म अनंतां क्षण निर्जरीए, बातमने उद्धरिएरे. भविका० ॥ ३ ॥ पापकर्म इच्छाओ त्यागो, आतम नावे जागो; परपरिणामथो दूरे नागो, पर पुद्गल नहीं मागोरे. भविका० ॥ ४ ॥ भोगादिक इच्छायो बंडो, निज आतम रढ मंडो; काढो मोहतको पग दंडो, छंडो मिथ्या घमंडोरे. भविका० ॥५॥ दुष्टेच्छाओ दूर निवारो, कामेच्छाओ वारो; हिंसादिक वृत्ति संहारो, आतममां प्रेम धारोरे. भविका० ॥६॥ कायिक सुख माटे जे लोगो, निश्चय तेह छे रोगो; तेना जे प्रगटे संयोगो, वेदो निर्वेद योगोरे. नविकास ॥७॥ आतमवण अन्य इच्छा सर्वे, ते त्यागे पच्च खाणो, निकाचित भोगो भोगवतां, विषमभाव न आणोरे. नविका० ॥८॥ जीवो अनंता मुक्ति पाम्या,
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( २०६ ) प्रत्याख्यानना योगे; बुद्धिसागर आनंद मंगल, वर्तो निजगुण भोगे हो. जविका० ॥ ९ ॥
कलश.
गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो.
..
त्रिशलानंदन यानंदवर्धन, वर्धमान जिनरायो, चोवोशमा तीर्थकर ईश्वर, परमब्रह्म सुह योरे. महावीर० ॥ १ ॥ षडावश्यक पूजा रचीने, पूज्याप्रभु हरखायो; आनंदमंगल घटमां पायो, शुद्धोपयोगे रमायोरे. महावीर० ॥ २ ॥ श्रोगशि ाठोत्तर कार्तिक सुदि, नवमी बुध सुहायो; सानंद शहरमां आनंद ल्हेरे, पूजा रची गुण पायोरे. महावीर० ॥३॥ वीर जिनेश्वर पट्ट परंपर, तपगच्छी गुरुराजा; हीर विजयसूरि शासन धोरी, भारतमुनि शिरताजारे. महावीर० ॥ ४ ॥ वाचक सहज सागर गुरु मोटा, पट्ट परंपर राजे; श्री नेमिसागर रविसागरगुरु, मेघपरे जग गाजेरे. महावीर० ॥ २ ॥ श्रीरविसागर शिष्यसनूरा, पटधर गच्छना राजा; श्री
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( २०७) सुखसागर सद्गुरु प्रणमुं, सागर पेठे माझारे. महावीर० ॥६॥ गुरु कृपाथी पूजा रची शुन, सर्व जीव सुखकारी; बुद्धिसागर आनंद मंगल, शांति तुष्टि करनारीरे. महावीर० ॥७॥ षडावश्यक पूजा सुणे जे, नणे भणावे जावे; सकल संघमां आनंद मंगल, घर घर शांति थावरे. महावीर० ॥८॥ ॐ० प० प्रत्याख्यानाराधनार्थ ज० य स्वाहा ॥
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(२०८) अष्टप्रकारी पूजा.
दुहा. श्री संखेश्वर पार्श्वजी, पुरीसादाणी जेह; पद पंकज नमी तेहना, रचना रचुं गुणगेह. ॥१॥ पूजा अष्टप्रकार छे, आद्य न्हवण जयकार; चंदन कुसुमने धूपनी, पंचम दीप मनोहार. ॥२॥ अक्षत नैवेद्य फुल इम, पूजा अष्टप्रकार; करतां शिवसुख संपजे, पामीजे भवपार. ॥३॥ द्रव्य भाव भेदे करी, पूजे जे जिनराय; पूजा करतां प्राणिया, पूजक प. दवी पाय. ॥ ४ ॥शुभ सिंहासनमां प्रभु, पमिमा स्थापी सार; समय विधि अनुसारथी, पूजीजे सुखकार. ॥ ५॥
१ जलपूजा. अनिहारे जिनमंदिर रलियाम[रे-ए देशी.
बहुभावे सुरवरकोडाकोडी मिलीरे, प्रजुने सुरगिरि लइ जाय; आउजाति कलशा भरीरे, प्रभुन्ह
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(२०९) वण करे सुरराय. सुरवरकोमा० ॥१॥ बहु भावे नाचे राचे जिन प्रेमथीरे, अभिषेक करी हरखाय; तिम प्रभुपूजा करतांथकारे, जव्यातम निर्मल थाय. सुरवरकोमा० ॥ २ ॥ बहुभावे विश्वधू जल रेमतीरे; जिनपमिमापर सुखकार; स्वर्गादिक सुख पामतीरे; तिम भवियण वो सार. सुरवरकोमा ॥ ३ ॥.
धन धन संप्रति साचो राजा-ए देशो.
शमजलथी निज चेतन निर्मल, थाय कहे जिनवाणीरे; शमजलथी शुद्ध चेतन अर्चन, करतां भव. जय हाणीरे. शमजलपूजा चेतन करीए. ॥१॥ मिथ्यात्वाविरति कषायने योग, तेथो कर्म बंधायरेः चारगतिमा भटके चेतन, विविध पुःखने पायरे. शम० ॥२॥ गज सुकुमालजी शमजल पूजा, करना बहु सुख पाम्यारे; स्कंधक सूरिना शिष्यो तेमज, कर्मपंक झट वाम्यारे. शम० ॥ ३ ॥ मुनिमेतायें शमजल जा, चेतनन जिम कीधीरे; भाव न्हवणशन चेतन अर्चन, करतां शिवफल सिद्धिरे. शम
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(२१७ ) ॥४॥ भावपूजा साधु अधिकारी, द्रव्य भाव दोय श्राद्धरे; बुद्धि शिवसुख पामे शाश्वत, होवे निराबाधरे. शम० ॥ ५॥ ____ ॐ ही श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्मरा
मृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेंद्राय जलं यजामहे स्वाहा.
२ चंदनपूजा.
हा.. बोजी चंदन पूजना, करतां पाप पलाय; मिथ्यादोष अनादिनो, टळतां शिव सुख थाय. ॥१॥ पुद्गल संगे श्रातमा, दुर्गधियुत जाणं; सुगंधे जिन पूजतां, सुवासित मन थाण. ॥२॥
सुण बहेनी पियुमो परदेशी-ए देशी..
चंदन पूजा करो शुन भावे, जिनवरनी सुख काजेरे; चंदनसम घेतन शीतलता, थातां शिवसुख बाजेरे. चंदनः ॥ १॥ केसर-चंदन घसी जयणाये,
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(२११) माहे घनसार मिलावोरे; रजत कचोलीमाहे ठवोने प्रभु पूजा विरचावोरे. चंदनः ॥२॥ चंदनपूजा योगे जयसुर, शुन्नमति शिवसुख पामेरे; तिम भवि. जण चंदन पूजाथी, ठरता अविचल ठामेरे. चंदन०३
वीर जिनेश्वर उपदिशे.-ए देशी. चंदनसमकित भावथी, पूजन चेतन कीजेरे; मिथ्यामल दूरे करी, अविचल पदवी लीजेरे. चंदन० दोष अढार रहित प्रभु, देव तत्त्व मन थाणोरे; सुसाधु गुरुतत्व छे, द्रव्य क्षेत्र काल जाणोरे. चंदन ॥ २ ॥ जिनवर जाषित सत्य छे, धर्मतत्व चित्त लावोरे: द्रव्य समकित अवलंबता, भावसमकित गुण पावोरे. चंदन ॥ ३ ॥ क्षायिक समकित चंदने, जे नवि चेतन वासेरे; मिथ्यामत दूर वासना, तेहथकी दूर नासेरे. चंदनः ॥ ४॥ द्रव्य समकित छमीने, नावसम्यक्त्व जे थापेरे; ते तस खप करतां थकां, किम करी नवभय कापेरे. चंदन ॥ ५॥ समकित गुणे पूजना. चेतननी जे करशेरे, बुद्धिसागर सुख
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( २१२) लही, मुक्तिवधू झट वरशेरे. चंदन० ॥ ६॥ ॐ ही श्री परम पुरुषाय० चंदनं यजामहे स्वाहा.
३ कुसुमपूजा.
दुहा. पूजा त्रोजी पुष्पनी, करीए आणी भाव; पूजा थी पूजकपणुं, लहीए आप स्वनाव. ॥१॥सुवासित सुक्षेत्रथी, उपन्यां पुष्प रसाल; लावी अर्चा जिन करो, होवे मंगलमाल. ॥२॥
साहेल डियांनी देशी. कुसुम पूजा जिननी करो, सुखकारिका. जिम जवभय दूर थाय; दुःखवारिका. चंपक-मालतीकेतकी, सुख,-सुगंधी फुल लाय. दुःख॥०कुसुम॥१॥ कीटक खाधुं न लीजीए, सुख० भूमि पडयुं निरधार; दुःख. विविध जाति फुलथी, सुख. पूजा पुण्य प्रकार. दुःख. कुसुम० ॥२॥ मोगरो-जासुलपुष्पथी, सुख. षरूतुनां फुल; दुःख. प्रशस्य आगमे जे
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( २१३ )
कह्यां, सुख. ते लहिये अनुकुल दुःख. कुसुम ० ॥ ३ ॥ वणिक सुता लीलावती, सुख. पामी जिम शिवस्थान, दुःख तिम भवि भावे कोजीए, सुख. पूजा श्री जगवान् दुःख. कुसुम० ॥ ४ ॥
वोर जिणेसर उपदिशे - ए देशी.
सत्य शौच कुसुमे करी, जे निज चेतन पूजेरे; - कर्म कलंक अनादिनुं, तेहथकी झट जेरे. सत्य० ॥१॥ सत्य जे आत्मस्वरूपनी, श्रद्धा मनमां को जेरे; उपनीतादिक भेदने, जाणो सत्य वदीजेरे. सत्य० | २ || कूडकपट त्यागी करी, आप स्वभावे रही एरे; त्याग कर परभावनो, शिवसुख सहेजे लहो एरे. सत्य० ॥ ३ ॥ मन व्यापार निवृत्तिथी, शान्ति चेतन पामेरे; आत्म अनुभव जागतां, कर्मरोग झट वामेरे. सत्य० ॥ ४ ॥ परपुद्गल संयोगथी, चेतन चउगति जटकेरे; तेहतणा त्यागे करी, जमतो चेतन अटकेरे. सत्य० ॥ ५ ॥ स्त्रगुणे करी सत्यछे, आत्म
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(२१४) राय भवि जाणोरे; बुद्धिसागर सुख लही, होवे शिवपुर राणोरे. सत्य० ॥६॥ ॐ ह्रीँ श्री परम पुण् कुसुमं यजामहे स्वाहा.
४ धूपपूजा.
दुहा. चोथी पूजा धूपनी, दशांगादिक जाण; कर्मे न्धनने बाळवा, करता जविक सुजाण. ॥१॥ धूप करो प्रभु श्रागळे, शास्त्र वचन अनुसार; करतां सुख बहु लीजीए, तरीए भवजलपार. ॥ २ ॥ अनिहारे जिनमंदिर रळियामणुंरे-ए राग.
भवि भावे धूपपूजा जिननी करोरे, जिम जावे जव जयरोग; चूरण शुद्ध दशांगथीरे, धूप करतां नासे शोग. धूपपूजा. ॥ १ ॥ नवि भावे धपधाएं वामांगे वोरे, अगरतुरुक्कघनसार; कुंदरुचंदन उखे. वतारे, पामीजे भवजलपार. धूपपूजा० ॥ २ ॥ भवि जावे शास्त्र विधि अनुसारथीरे, करिये धूपपूजा शुद्ध, खर्गतणां सुख पामियेरे, वळी लहीए शिवपद बुद्ध.
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(२१५) धूपपूजा० ॥३॥ भवि भावे विनयंधर सुख पामतोरे, धूपपूजाथी विस्तार; तिम जवि भावे करतां थकारे, बुद्धि शिवसुख निरधार. धूपपूजा० ॥४॥
गिरुआरे गुण तुमतणा-ए देशी. ध्यानधूपनी पूजना, करीए भविजन भावेरे, परपुद्गलदुर्गधता, तेहथकी दूर जावरे. ध्यानधूप प्रग टावोए ॥१॥ आर्त्त-रौद्र दुर्ध्यान छे, धरतां दुःख बह लहीएरे, तेनो त्याग करी भवि, याप स्वभावे रहोएरे. ध्यान० ॥ २ ॥ धर्मध्यान शुनगति दीए, शुक्लध्यान शिव आपेरे; गुणठाणे गुण उपजे, नवो भवनां दु:ख कापेरे. ध्यान० ॥३॥ आत्मध्यान धरतां थका, पुगेधी दूर नासेरे; योग समाधि लगा. वतां, चढोए मोक्ष श्रावासेरे. ध्यान ॥४॥ अस्थिर आ संसारमा, जीवे बहु दुःख सहियारे; नरकतणां दुःख जोगव्यां, ते नवि जाए कहियारे.ध्यान ॥ ५॥ चेतन नरक-निगोदमां, वार अनंतो नमियोरे; चारगति संसारमां, अज्ञाने जीव रमियोरे.
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(२१६) ध्यान० ॥ ६॥ पुद्गलजामा पहेरीने, चेतन नाटक करतोरे; राजा कबहु रंक थइ, पुद्गल संगे फरतोरे. ध्यान० ॥ ७ ॥ रुवे नाचे खेलतो, हसतो खातो रोगीरे; कबहु चेतन जोगी ने, कबहु वियोगी शोगीरे. ध्यान० ॥८॥ कमें करी ए सब· हुवे, कर्म दूर जब थावरे, बुद्धिसागर सुख लही, चिदानंद कहावेरे. ध्यान ॥ ९॥ ___ ॐ ह्री श्री परम धूपं यजामहे स्वाहा.
५ दीपपूजा.
दुहा. दीपक पजा जिननी, करीए आणी भाव; आस्मगुण हितकारिका, नवजलमां जिम नाव. ॥१॥ प्रज्जु आगळ दीपक धरो, दक्षिण पास रसाळ द्रव्य दीपकनी पूजना, करतां मंगळमाळ. ॥ २ ॥
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( २१७ )
सुतारीना बेटा तुने विनंबुरे लोल-ए देशी.
जवि भावे दीपकनी पूजनारे लोल, जिन आगळ करीए नित्यजो; मिथ्यात्व अनादि निवारीएरे लोल, प्रभु पूजीए चोखे चित्तजो. प्रभु दीप पूजा रळियामणीरे लोल, ज्युं पूजा करे सुर - इंद्रजो तिम पूजो जवि जिनचंदजो, लहो शाश्वत शिव सुख कंदजो. प्रभु० ॥ १ ॥ धूम अज्ञान नासे वेगलुंरे बोल, शुद्ध आत्मरूप प्रगटायजो; रजत - कनक - ताम्रनां कोडियांरे लोल, तेमां घृत धरो हित लायजो. प्रभु० ॥ २ ॥ जिनमंदिर वासण मां जियेरे लोल, घृत कोडिया मांजिये खासजो; दीवा उघाडा नवि मूकीएरे लोल, चित्त होय जो शिवसुखाशजो. प्रभु० ॥ ३ ॥ दीपपूजाथ जिनमति धन सिरिरे लोल, जिम पामी शाश्वत सुखायजो; तिम भक्तिनावे जिन पूजीएरे लोल, इम बुद्धिसागर गुण गायजो. प्रभु० ॥ ४ ॥
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( २१८ )
कोइलो पर्वत धुंधलोरे लोल - ए देशी. भाव दीपक ते ज्ञान बेरे लाल, भविजन अति सुखकाररे; हुं वारीलाल. मति अठ्ठावीश नेदछेरे लाल, त्रणसे चालीश तिम धाररे. हुं. जाव० ॥ १ ॥ चौद वीश जेद श्रुतनारे लाल, पामंतां सुख थापरे; हुं. श्रुतज्ञानी केवली समोरे लाल, प्रेमे प्रणमो पाय रे. हूं. जाव० ॥ २ ॥ अवधि असंख्य प्रकारबेरे लाल, मुख्य भेद षट् धाररे; हूं. मनः पर्यव भेद दो कह्यारे लोल, केवल एक उदाररे. हुं. भाव० ॥ ३ ॥ केवलज्ञान प्रत्यक्ष छेरे लाल, तेहथी सर्व जणायरे; हुं. तीर्थकर ते गुण वरीरे लाल, उपदेश दे सुखदा यरे. हुं. भाव० ॥ ४ ॥ ज्ञानसहीत किरिया कहीरे लाल, साचो मोक्ष उपायरे हूं. वस्तु एकांते जे ग्रहे रेलाल, भवमां ते भटकायरे. हुं. जाव० ॥ ५ ॥ विनय करो ज्ञानीतणोरे लाल, ज्ञानीतणुं बहुमानरे; हुं. भलो भणावो ज्ञाननेरे लाल, लखो लखावो ज्ञानरे हुं, जाव० ॥ ६ ॥ शासन चाले ज्ञानथीरे लाल, उपदेश ज्ञानथी थायरे; हुं. समकित प्रगटे ज्ञा
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(२१९) नथीरे लाल, मिथ्यात्व दूरे जायरे. हुं. नाव० ॥७॥ पंचमकाले आधार छेरे लाल, ज्ञान श्रुत निरधाररे हुं. वरजो आशातना श्रुततणीरे लाल, पामो ज्यु नव पाररे. हुं. भाव० ॥८॥ ज्ञान क्रिया अंतर सु. णोरे लालः खजया नानु समानरे हैं. नाव० ॥९॥ महिमा ज्ञाननो अति घणोरे लाल, नाख्यो ते नवि जायरे; हुं. आत्मस्वरूप समजो भवीरे लाल, पामो शिवपुरगयरे. हुं भाव० ॥ १० ॥ किरियारहित ज्ञान पांगळुरे लाल, आंधळी किरिया तेमरे, हुं. थातां संगम दोउनोरे लाल, थावे शिवसुखक्षेमरे. हुं. नव० ॥ ११ ॥ आलंबन प्रभुनुं ग्रहीरे लाल, पूजो चेतन द्रव्यरे; हूं. बुद्धिसागर सुख लहीरे लाल, पामे शिवपुर भव्यरे. हुं. भाव ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं श्री-परम दीपं यजामहे स्वाहा.
६ अक्षतपूजा.
दुहा. समकित निर्मल कारिका, अक्षतपूजा एह; भवि जन भावे कीजोए, लहीए शिवपुरगेह. ॥ १ ॥ उ
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( २२० )
'तमक्षेत्रे नीपन्या, अखंड नयनानंद; उज्ज्वल तंडुल पूजना, करीए श्री जिनचंद ॥ २ ॥
मेरुशिखर न्हवराव हो सुरवर, मेरु० -- ए देशी.
-
अक्षत पूजा की जेहो भविका, अक्षतपूजा कीजे, - शुभतंडुल उज्ज्वल शुभक्षेत्रे, नोपन्या तेहीज लही ए; गोधूम पण तिम पूजा कीजे, शुभभावे गहगहीए हो. भविका० अ० ॥ १ ॥ चारगतिचूरकस्वस्तिक प्रभु आगे कीजे भावे; त्रणपुंज रत्नत्रयी वरवा, करतां भव दुःख जावे हो भविका. अ० ॥ २ ॥ सिशिला उपर एक योजन, चोवीसमा तस जागे; - मोक्ष शिव सिद्ध पदने हेते, सिद्धशिला करो आगे हो भविका. अ० ॥ ३ ॥ भवभवनां पुनरावर्त्त हरवा, चरवा शिवपटराणी; नंदावर्त्त करो भवि भावे, होवे जवजयहाणी हो भविका. ० ॥ ४ ॥ कीरयुगले जिम अक्षत पूजा करतां सुख बहु लोधुं; बुद्धिसागर शिवसुख संपदा, पामवा मनमुं कीधुं हो भ विका. ० ॥ ५ ॥
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( २२१ ) कयुं जाण्यं कयुं बनी याबही - ए देशो.
शुभ परिणाम ते जावथी, अक्षत पूजा सारहो जविक; भावरोग दूर टाळवा, औषधसम चित्त धारहो भविक जावपूजा अतिसुख दोए० ॥ १ ॥ हिंसा जूठ चोरी तजो, परनार निरधारहो भविक; तनु धनममता परिहरो, रयणीजोयण अंधकारहो भविक भाव० ॥ २ ॥ दिसिगमननो नियम करो, चौद नियम नित्य धारहो भविक; बत्रीश अनंतकाय तिम, अजक्ष्य बावीस निवारहो जविक. जाव० ॥३॥ कषाय मद विकथा वळी, विषय निद्रा त्यागहो
विक; चित्त संतापना हेतु जे, तेथी न धरीए रागहो भविक भाव० ॥ ४ ॥ अहं मम मोह मंत्रनो, त्याग करो गुणवंतहो भविक; विपरीत मंत्र मनन थकी, या शाश्वत सुखवंतहो जविक भाव०॥५॥ अनंतरत्नत्रयी गुणे, चेतनद्रव्य विचारहो भविक; कर्म विनाशथी संपजे, स्थिति सादि पारहो भविक. भाव. ॥ ६ ॥ अक्षताक्षयसुखमणी, भावपूजा सुर
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(२२२) सालहो भविक; बुद्धि शिवसुखसंपदा, पामे मंगलमालहो भविक. जाव. ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्राँ-परमअक्षतं यजामहे स्वाहा.
७ नैवेद्यपूजा.
दुहा. नैवेद्यपूजा सातमी, दुःखदोहग हरनार; सुरनर शिवसुख पामवा, कल्पवृक्षसम सार. ॥१॥ विविध दुःखमृग-सिंहसम, शान्ति तुष्टि करनार; प्रभुपूजाथी रोग शोग, ए सहु दूर थानार. ॥२॥
(तेजे तरुणीथी वडोरे-ए देशी.) नैवेद्यपूजा सातमीरे, करीए आणी प्रेम; भवजल तरवा नाविकारे, आपे शिवसुखक्षेमहो भविका. नैवेद्यपूजा कीजीएरे. जिनाणा शिर दीजीयेरे, जन्ममरण दूर जाय. ॥१॥ मोदक लापसो दैथरांरे, बरफी पेंडा कुलेर; घेबर घारी सांकलीरे, विधिये करी निज घेरहो. न. नै. ॥२॥ पापड पूरी रेवडीरे,
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( २२३ )
खुरमां खाजां सार; फेणी जलेबी खीरथोरे, पूजा करो मनोहारहो ज. नै. ॥ ३ ॥ गुंदवडां ने रेवडीरे, शाल दाल घृत गोळ; प्रभु भक्तिथी पूजी एरे, होवे ज्युं रंग चोलहो भ नै ॥ ४ ॥ दलीय पुरुषपरे पूज. नारे, जे करशे नरनार, बुद्धि शिवसुखसंपदारे, पामी लहे भवपारहो भ. नै. ॥ ५ ॥
•
( वोर जिणेसर उपदिशे - ए देशी. )
जावनापूजा जावथी, नैवेद्यन। जे करशेरेः प्रवइणसम छे भावना, भावे ते शिव वरशेरे. भा. ॥१॥ आ संसार अनित्य छे, संध्यारंगसम देखोरे; तेमां जन्ममरण कर्या, आवे नहि तस लेखोरे. भा. ॥२॥ शरण नहि संसारमां, मरता जीवने कांइरे; मृत्युवश थया जीवने, नहि कोइ जगमां सखाइरे. जा. ॥३॥ त्रण भुवनमां प्राणियो, भटक्यो अनंतिवाररे; माता ललनापणे हुवे, पिता पुत्र विचाररे. जा. ॥ ४ ॥ पुरुष त्रपणे थावतो, ए संसारस्वरूपरे; संसारमां जे राचशे, ते पमशे भवकूपरे जा. ॥ ५ ॥ पुत्र ।
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( २२४ ) परिवारने, मारुं मारुं मानेरे; सत्यवचन जिनवरतणां, सांभळतो नहि कानेरे. जा. ॥ ६ ॥ शरीरपंजरमां रह्यो, चेतन एक मन आणरे; एकलो थाव्यो एकलो, जाइश परभव जाणरे. भा. ॥ ७ ॥ तन धन मंदिर माली, पुत्र कलत्रने भारे; ताराथी ए भिन्न छे, जूठी तास सगाइरे. ना. ॥ ८॥ सातधातुथी नोपनी, अशुधिमय छे कायारे; विष्टा मूत्र शरीरमां, करवी शी? तस मायारे. ना. ॥ ९॥ जीव माताना पेटमां, मलमूतरमा रहियोरे, मुख अनंतु त्यां सा, पवित्र शुं? हवे थइयोरे. ना. ॥ १० ॥ समये समये कर्मने, रागादिकथी बाधेरे; शिवसुखकारण धर्मने, केम मनथी नवि साधेरे. भा. ॥१॥ जेथी कर्म रोकाय छे, तेहीज संवर जाणोरे; करवो आदर तेहनो, एहीज धर्म वखाणोरे. ना. ॥१२॥ तप द्वादश चित्त धारीऐ, लोकस्वभावने समजोरे; यापस्वभावे स्थिर थर, परपुद्गल मत रमजोरे. भा. ॥ १३ ॥ बोधिधुर्सभ जाणीने, जिनशाणा शिर
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( २२५ )
वही एरे; अरिहंत जाषित धर्म छे, सत्यधर्म जिन कहो एरे. भा. ॥ १४ ॥ जड पुद्गलथी भिन्न छे, अरूपी आत्मस्वरूपरे; बुद्धिसागर ध्यावतां, यात्रे शिवपुरनूपरे. भा. ॥ १५ ॥
ॐ हूँ। श्री - परम० नैवेद्यं यजामहे स्वाहा.
८ फलपूजा.
डुहा.
आठमी फलनी पूजना, करिए जवि हित लाय; फलपूजाथी पामीए, शिवफल अतिसुखदाय. ॥ १ ॥ उत्तम वृक्षतां ग्रही, फळ रमणिक मनोहार; प्रेमे पूजो भविजना, होवे जयजय
कार. ॥ २ ॥
( ऋषज जिणंदशुं प्रोतलडी - ए देशी. ) फळपूजा जिनराजनी, जवि कीजे हो भावे सुखकार; शास्त्रविधि अनुसारथी, लहो शुभ फळ
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( २२६ )
हो पामो भवपार. फळ. ॥ १ ॥ श्रीफळ आम्र बदामने, सीताफळ हो दाडीम हितकार; केळां पिसतां नीमजां, रायणफळ हो मेवो जयकार. फळ. ॥२॥ काळ अनादि जीवने, नहीं तृप्ति हो मनमांही लगार; विविधफळ भक्षण करी, जीव रझळ्यो हो चउगति मोझार. फळ. ॥ ३ ॥ जीव लालचियो लॅपटी, फळभक्षणथी हो नहि विरम्यो लगार; पापजय नहीं चित्त गएयो, भक्ष्याभक्ष्यनो हो नवि करियो विचार. फळ. ॥ ४ ॥ जिनशासन अंगी - करी, प्रभु यागे हो करूं विनति एम फळमू उतारतो, प्रभु आगे हो वुं आणी प्रेम. फळ. ॥ ५ ॥ आपो शिवफळ जिनवरा, जे पामी हो भवनां दुःख जाय; बुद्धिसागर सुख लहो, पामे शिवफळ हो जे यतिसुखदाय. फळ. ॥ ६ ॥
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( सांभळजो मुनि संयम रागे - ए देशी. ) शाश्वत शिवपद स्वाद लहो भवि, जैनधर्म
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( २२७ ) चित्तधारीरे; द्रव्यभावथी धर्म जे जाणे, जाउं तेनी बलीहारोरे. शा. ॥१॥ सातनयो उत्तर तस भेदो, आगमथी जे जाणेरे; सप्तरंगी जे शुद्धि जाणे, ते मुक्तिसुख माणेरे. शा. ॥ २ ॥ षद्रव्यगुणपर्याय जाणे, जाणे आत्मस्वरूपरे; उपादेय तमने जाणे, ते न पडे भवकूपरे. शा. ॥ ३ ॥ नवतत्त्व जिनेश्वर जाखे, बोध तास जे करशेरे; हेय ज्ञेय उपादेय समजी, समकित - श्रद्धा वरशेरे. शा. ॥ ४ ॥ श्रद्धाथी समकित शुद्धं प्रगटे, तेथी विरंति लहियेरे; विरतिथी क्षय कर्मनो करतां, शिवपुरमारग वहियेरे. शा. ॥ ५ ॥ बाहिर अंतर परम ए तीन, आत्म परिणति समजोरे; परमातम पद लक्ष्य विचारी, अंतर आतम रमजोरे. शा. ॥ ६ ॥ शरीर वाणी मनथी जूदो, आत्मद्रव्य चित्त धरतोरे; - रूपी निःसंग आतम निर्मल, तास ध्यान मन करतोरे. शा. ॥ ७ ॥ राग द्वेष मोहरायना योद्धा, तेहनी साथै वढतोरे; यातमा याप स्वरूपे खेली, क्ष
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( २२८ ) पक श्रेणीए चढतोरे. शा. ॥ ८ ॥ वीर्योल्लास वधे गुण प्रगटे, कर्मकलंक खपावेरे; शुक्लध्यानपायाए चढतो, केवलज्ञान गुण पावेरे. शा. ॥ ९ ॥ आयुष्य स्थिति पूर्ण करीने, शरीरसंग दूर करतोरे; जन्ममरणना फेरा टाळी, सादिअनंत स्थिति वरतोरे. शा. ॥१०॥ दुःखाभावरूपमुक्ति माने, नैयाविकमतवादी रे; सर्वव्यापकमुक्ति माने, ते पण छे उन्मादी रे. शा. ॥११॥ स्वामीसेवकजाव स्वीकारे, मुक्तिमां ते खोटारे कर्म खप्याथी सर्वे सरखा - माने ते जीव मोटोरे. शा. ॥ १२ ॥ गमनागमन मुक्तिमां माने, मतवादी अज्ञानीरे; गमनागमन रहित छे मुक्ति, जाणे स्यादवादज्ञानीरे. शा. ॥१३॥ अनंतसुखमयमुक्तिफलने, पामे भवि नरनारीरे; बुद्धिसागर शिवसुख पामे, चिदानंदपद धारीरे. शा. ॥ १४ ॥
ॐ हूँ। ॐ परम-फलं यजामहे स्वाहा.
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( २२९ ) सर्वोपरी गीतं.
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( नमो नमोभवियण भावशुं ए-ए देशी. )
अष्टप्रकारी पूजना ए, द्रव्य भाव मनोहार; भविजन पूजीए ए. जिनप्रतिमा जिनसारिखी ए, जाखी शास्त्रमजार. जवि ॥ १ ॥ दर्शन दीठे देवनुं ए, पापपंक दूर थाय; भवि. जगवतीमांहो मुनिवराए, प्रतिमावंदन जाय. भावि ॥ २॥ नामनिक्षेपो उच्चरेए, स्थापना किम न मनाय; भवि. शुद्धभावथी पूजताए, जन्ममरण दूर जाय. जवि ॥३॥ सांकळचंदसुत जाणीएए, चुनीलाल उदार; जवि. नथुनाइसुत जाणीएए, जेठाजाइ हितकार. भवि ॥ ४ ॥ जेठालाल नरोत्तम कारणेए, मूळचंदभाइना काज; भवि. डाह्याभाइनी विनतिए, करतां शिवसुख राज. जवि ॥ ५ ॥ शासन वीर जिनेश्वराए, होरविजय सूरि राय; जवि सहेजसागर उपाध्यायजीए, तास शिष्य वखणाय भवि. ||६|| तास शिष्य उपाध्याय
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( २३० )
जीए, जयसागर जयकार; भवि. पाटपरंपर शोजताए, नेमसागर सुखकार भवि ॥ ७ ॥ तस शिष्य रविसागर गुरुए, संवेग । अनगार; जवि. तस शिष्य सुखसागर गुरु ए, गामोगाम विहार, जवि ॥ ८ ॥ वसोनगर पधारियाए, संघ सकल हरखाय; भवि. ऋषभदेवतीर्थकराए, निरखी आनंद थाय. भवि. ॥९॥ तास पसाये ए र बीए, पूजा अष्टप्रकार; जवि. जो जावो सांभळो ए, भावथकी नरनार. भवि. |१०| मेरुपरे ए स्थिर थइए, करजोजविमन वास; भवि. चंद्र सूर्य जब लग रहेए, जगमां करता प्रकाश.
वि. ॥११॥ तब लग पूजा विस्तरो ए, शांति तुष्टि करनार, भवि. ऋद्धि वृद्धि सुख संपदा ए, पूजाथी शिवनार. भवि ॥ १२॥ संवत ओगणीस उपरे ए, ओग'उनी साल; भवि. फागण वदि एकादशी ए. ॐर्ण विशाल. भवि. ॥१३॥
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(२३१) कलश.
एम सकलसुखकर द्रव्य जावे, पूजा अष्टप्रकारी ए; भणे जणावे सुणे जे गवी, ते शिवसुख लहे नारी ए. तपगच्छशाखा गगनमंडळ-दिवाकरपेरे छाजता; वैराग्यरंगे व्याप्युं जस मन, महिमा जग जस गाजता. ॥१॥ रविसागर गुरु प्रेमे प्रणमुं, संवेगो सिरदारए; जस नाम देतां सकलमंगल, पामे भवीनरनार ए. तस पदपंकज गसम श्री-सुखसागरगुरुबाल ए; एम बुद्धिसागर शिव सनातन, पामे मंगलमालए. ॥२॥
इति अष्टप्रकारीपूजा संपूर्णा.
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(२३२) वास्तुकपूजा.
दुहा. श्री संखश्वरपार्श्वनाथ, त्रेवीसमा जिनराय; घरमेंद्र पद्मावती, पूजे जेहना पाय.॥१॥ पार्श्वयक्ष जस शोजतो, सेवा करे चित्त लाय, पुरिसादाणी पार्श्वनाथ, ध्याता शिवसुख थाय.॥२॥ वास्तुकपूजा घरतणी,करतां सुख विशाल, ऋद्धि वृद्धि जय संपजे, कीर्ति मंगलमाल.॥३॥पंच पंच वस्तुथको, संखेश्वरप्रभुपास, पूजो भवो नावे करी, सफळ होवे मन थाश. ॥ ४॥ चिंतामणिसम पार्श्वनाथ, पार्श्वमणि समनाम; ध्यातां गातां प्राणोनां, सिद्धे सघळां काम.॥ ५॥
प्रथमपूजा. (मलिजिन वंदीए नवी भावेरे-ए राग.)
संखेश्वरपासप्रभु नित्य गावोरे, शाश्वत शिवकमळा पावो,संग काशीदेश वणारसीगामरे, विश्वसेन
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(२३३) राजा अनिरामरे; वामामाता सुखविश्राम. संखेश्वर. ॥१॥ प्रभुमातकुखे जब आयारे, इंद्र चोसठ सुरगिरि लायारे; सुरासुर मनमा हरखाया. संखेश्वर. ॥ २॥ एक लाखने साठ हजाररे, आठजाति कळश मनोहाररे; प्रभु न्हवण करे जयकार. संखेश्वर. ॥ ३ ॥ इंद्राणोयो हस्ती गातीरे, जिनदर्शन करो हरखातीरे; नाटक करी मनमा माती. संखेश्वर. ॥ ४ ॥ एवा पार्श्वप्रभु घर लावोरे, शुभ सिंहासन पधरावोरे; प्रभु न्हवण करी सुख पावो. संखेश्वर.॥५॥ रोगशोग सहु दूर नासेरे, प्रभुश्रद्धा मनभां वासेरे; शाश्वतपद बुद्धि नासे. संखेश्वर. ॥६॥
मंत्रम्-ॐ नमो भगवते श्री संखेश्वरपार्श्वनाथाय ही धरणेद्रपद्मावतीसहिताय जन्मजरामृत्युनिवारणाय छुद्रोपद्रपशमनाय जलं, चंदनं, पुष्पं, धूपं, दोप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, यजमाहे स्वाहा.
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(२३४) द्वितीयपूजा.
स्नात्र भणावी पार्श्वनु, पूजा कीजे सार; पूजक पूज्यनी पूजना, समजीजे सुखकार. ॥ १॥ बेड पासे वीजीए, चामर चारु उमंग; दर्पण प्रभु आगळ धरो, होवे जयजय रंग. ॥ २ ॥ (सुतारीना बेटा तुने विनवुरे लोल-ए देशी.)
प्रजु पार्श्वजिनेश्वर गावीऐरे लोल, श्री संखेश्वर प्रभु नामजो, तुज नामथी नवनिधि संपजेरे लोल, मनवांछित सिद्धे कामजो; नाम रु९ संखेश्वर पास-रे लोल, मिथ्यात्वदशा दूर थायजो; शुद्ध श्रका हृदय प्रगटावजो. नाम रुकुं..॥ १॥ पूजा वास्तुक दोय प्रकारनीरे लोल, शुभ अशुभ नेद कहायजो; द्रव्य वास्तुकपूजाना ए कह्यारे लोल, तेह हरखे कहुं चित्त लायजो. नाम रुडुं. ॥ २॥ घर महेल करावी तेडियेरे लोल, ब्राह्मण होमादिक वा. सजो; वेद गायत्री मंत्र भणावीएरे लोल, ब्राह्मण
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( २३५ )
जमाडीए खासजो. नाम रुरुं ॥ ३ ॥ देवदेवी ब्रह्मादिक पूजियेरे लोल, पाडाबुद्धिए कोलुं कपायजो; मरी नरकतणां दुःख भोगवेरे लोल, मिथ्या वास्तुकपूजा कथायजो. नाम रुडुं ॥ ४ ॥ फल श्रीफल प्रमुखने होमतांरे लोल, पंचेन्द्रिय हिंसा थायजो;: अपमंगल एह खरुं कर्धुरे लोल, अशुभ वास्तुकपूजा कहायजो. नाम रु. ॥ ५ ॥ शुभ वास्तुक-पूजा वर्णवुरे लोल, जेनुं रुरुं विशाल स्वरूपजो, बुद्धि शाश्वत संपदा पामीएरे लोल, पास नाम ते मंगल रूपजो. नाम रु. ॥ ६॥
मंत्रम् - ॐ नमो भगवते - जलं, चंदनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, यजामहे स्वाहा.
तृतीयपूजा.
दुहा.
शुभ वास्तुकपूजा कहुं, आणी अतिशय भाव; स्वर्गादिक सुख पामोए, होवे शिवसुख दाव. ॥१॥
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( २३६ )
देव अरिहंत जाणीए, दोषरहीत अढार; गुरु सुसाधु महाव्रती, पाळे पंचाचार ॥ २ ॥ जिनवरभापित सत्य छे, जैनधर्म जगजोय; सुख दुःख होवे कर्मथी, अवर न कर्ता कोय. ॥ ३ ॥
( निहारे न्हवण करो जिनराजने रे - ए देशी. )
निहारे वास्तुकपूजा शुभ कीजीऐरे, तजी अवर देवनी आश; सत्पात्रे दानने दीजी ऐरे, सूत्रश्रवणरुचि का जिलाष, श्री संखेश्वर प्रभु पासजीरे. ॥ १ ॥ भवी जावे द्रव्यार्थिकमये करीरे, शाश्वत बे लोकालोक, कर्ता तेहनो को नहिरे, केम कर्ता मानीऐ फोक. श्री संखे. ॥२॥ उंचो नीचो एवा तीरबा लोकनीरे, स्थिति बे अनादिअनंत; कर्ता तेहनो को नहींरे, एम जाखे श्री भगवंत श्री संखे. ॥३॥ नवतत्त्व षकद्रव्य छे नित्य शाश्वतारे, द्रव्य गुणपर्यायस्वरूप, बेनेदे जीव दाखियारे, तस लक्षण छे चिद्रूप. श्री संखे ॥ ४ ॥ परिणामी पुद्गल जीव दो जाणी एरे, अनादि संबंध विचार; कर्ता कर्मनो
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(२३७) आतमारे, तेम भोक्ता हृदये धार. श्री संखे. ॥५॥ शुनाशुभकर्म ग्रही भोगी आतमारे, वेदे शाता अशाता दोय; देव मनुज नारक तिरिरे, चउगतिमां भटके जोय, श्री संखे. ॥६॥ जोवे कोधां पुण्य पाप ते भोगवेरे, परपुद्गलसंगे खास; राच्यो माच्यो पुद्गलमां वस्योरे, बन्यो पुद्गलनो जोव दास; श्री संखे. ॥ ७ ॥ प्रभुपूजा करतां प्राणिया सुख लहेरे, नासे कर्माष्टकपाश; स्वामीवच्छल नवकारशीरे, हेतु सुखनां दीसे खासः श्री संखे. ॥८॥ शुभभावे नैवेद्य थाळमां मूकीनेरे, प्रभु थागळ धरीए चंग; रत्नत्रयो कमळा वरेरे, बुद्धिशाश्वतपदरंग. श्री संखे. ॥ ९ ॥ मंत्रम्-ॐ नमो जगवते-जलं, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं यजामहे स्वाहा.
चतुर्थपूजा.
शरीरपुद्गलमां वस्यो, पुड्गल मानो गेह; परजव साथ न आवतुं, क्षणमां नाशी तेह. ॥१॥ देह
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( २३८ )
अनंतां छंडियां, जटकी या संसार; लाख घोराशी हुं भम्यो, तार तार प्रभु ! तार. ॥२॥
( सांभळजो मुनि संयम रागे, उपशम श्रेणि चढी रे - ए राग. )
श्रीसंखेश्वर पार्श्वप्रभु नित्य, मनमंदिरमां धरीएरे; ध्यावी गावी पाप गमावी; श्रद्धा समकित वरी एरे. श्री संस्खे ॥१॥ यादवलोकनी जरा निवारी, षड्दर्शन विख्यात रे; वामानंदन, जगजन रंजक नमतां पावन गारे. श्री संखे. ॥२॥ परपरिणतिथी अष्टकर्म ग्रही, परभोगी पर कर्तारे; अतुलबली पण कर्मपिंजर मां, बसियो निजगुण धरतारे. श्री संखे. ॥३॥ श्रदारिक वैक्रिय आहारक, तैजस कार्मण पंचरे: पंचशरोर घर मानी वसियो, करतो कर्मनो संचरे. श्री संखे. ॥४॥ सुरापानी बकतो फरे वळी, धत्तुरनक्षक जेमरे, वली परिणतिथी हो तम, स्वरूप भूल्यो तेमरे. श्री संखे. ॥ ५ ॥ भवमां जमतां पुण्योदयथी, सद्गुरु सहजे मळियारे; बुद्धि शिवसुख पाने अविचल, सकळ मनोरथ फळियारे. श्री संखे. ॥६॥
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( २३९ ) मंत्रम्-ॐ नमो जगवते-जलं, चंदनं, पुष्प, धूपं.दीपं,
अक्षतं, नैवेद्यं, फलं यजामहे स्वाहा.
पंचमपूजा.
दुहा. सद्गरु पंचमहावतो, पंचमहावत धार; नावथी वास्तुकपूजना, कहेवे अतिसुखकार. ॥१॥ पुद्गलद्रव्यथी जिन्न दे. अचल अमल गुणवान् ; शुद्ध बुद्ध परमातमा, चिदानंद भगवान्. ॥२॥ घर आतमनुं
ओळख्युं, जेनो रुडो महेल; वास खरो मुज एहमां, वसतां शिवसुख सहेल. ॥३॥ (नमोरे नमो श्री शत्रुजय गिरिवर-ए राग.)
वास्तुकभावपूजा निजजावे, चेतननो शुद्ध दाखी रे; वास वासे चेतन जे मध्ये, तेहनी पूजा भाखीरे. श्री. संखेश्वरपासजी गावो. ॥१॥ असंख्यप्रदेश पातमना जाणो, शुद्धवास जीव होयरे; गुणपर्याय स्वजाव अनंता, एकेक प्रदेशे जोयरे. श्री संखे. ॥२॥ ज्ञाता ज्ञेय ने ज्ञान त्रिभंगो, आतम
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(२४०) मांही समायरे; अस्ति नास्ति समकाले लाधे, एवो आतमरायरे. श्री संखे. ॥ ३ ॥ धर्माधर्मने पुद्गला. काश, तेहतणा प्रदेशरे; गुणपर्यायधर्म तसकेरा, नहि एक जीव लेशरे. श्री संखे. ॥४॥शुद्ध बुद्ध परमात्मस्वरूपी, अव्याबाध अभंगरे, अविनाशो अकलंक अजोगी, भोगो अयोगो असंगरे. श्री संखे. ॥५॥ नित्यानित्यने शेकानेक, सदसत् भाव विचाररे; वक्तव्यावक्तव्य ए आठ-पक्षतणो आधाररे. श्री संखे.॥६॥ शुद्धस्वरूपी ज्ञानानंदी, चेतनवास कहायरे; सुख अनंतु चेतनघरमां, वचनअगोचर थायरे. श्री संखे. ॥७॥ श्रात्मथको छूटे जब कर्म, तब पामे शिवस्थानरे; शाश्वतअमलअचलपद नावे, वास्तुकपूजा मानरे. श्री संखे. ॥८॥ एणोपेरे वास्तुकपूजा करशे, ते तरशे संसाररे बुद्धिसागर क्षायिकसमकित, पामी लहे भवपाररे. श्री संखे. ॥९॥
कलश.
स्तुकपूजा गाइ, अचल अमल अजंग महोदय, शुद्धसत्ता निज ध्यायी; समकितदा
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( २४१ )
कहते पूजा, करतां हर्ष वधाइरे. ए वास्तुकपूजा गाइ ॥ १ ॥ मिथ्यापरिणति नाशक तारक - आत्मस्वनावे सुहाइ; परमातम पद प्रातिकारक, सुखकर समकितदारे ए वास्तुक. ॥ २ ॥ धरणेंद्र पद्मावती देवी, जेहनी सारे सेव; सुरपति यतितति भूपति पूजित, श्री संखेश्वर देवरे. ए वास्तुक. ॥३॥ तास पसाये पूजा रची ए, हर्ष अति दिल लायो; जयजय मंगळ माळा कमळा, आतममां प्रगटाइरे. ए वास्तुक. ॥ ४ ॥ जन्मभूमि विजापुरगामे, मासकल्प करो सार; ओगणिश साठ माघ सुदि बारस रचतां जयजयकाररे. ए वास्तुक. ॥५॥ विद्यादायक धर्म सहायक, गंभीर श्रद्धावत; दोशी नथुजाइ मंबाराम - हेते एह रचंतरे ए वास्तुक. ॥ ६ ॥ शेव बगनलाल बेचराजे, कीधी रचना जावे; संघ सकलमां आनंद मंगल, ऋद्धि वृद्धि सुख थावेरे. ए वास्तुक. ॥ ७ ॥ तपगच्छमंडन हीरविजयसूरि, जस गुण सुरनर गाया; तास शिष्य श्री सहेजसागरजो,
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(२४२) उपाध्याय कहायारे. ए वास्तुक. ॥ ८॥ पाटपरंपर नेमसागरजी, क्रियावंत महंत; तास शिष्य श्री रवि. सागरजी, वैरागी गुणवंतरे. ए वास्तुक. ॥९॥ संवेगी आतमगुणंरंगी, सुखसागर गुरुराया; गामोगाम विहार करंता, विद्यापुरमा आयारे. ए वास्तुक.॥१०॥ चढते नावे हर्ष उबासे, कीधी रचना एह; जव्य जोवने अमृतसम ए, चातकने जेम मेहरे. ए वास्तुक. ॥ ११ ॥ शांति तुष्टि सुखसंपदा थावे, रोग शोग दूर जाय; बुद्धिसागर शाश्वतपद लहो, मुक्तिवधू सुख पायरे. ए वास्तुक. ॥ १२ ॥ श्री संखेश्वरपास प्रभुजो, गातां सुख विशाल; श्री विद्यापुर सकल संघमा, होवे मंगल मालरे. ए वास्तुक. ॥१३॥ मंत्रम्-ॐ नमो जगवते-जलं, चंदनं, पुष्प, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं यजामहे स्वाहा.
वास्तुकपूजा विधि. दरेक वस्तु पांच पांच लेवो, अष्टप्रकारी पू. जानो सामान लेवो, बाठ नात्रीया करवा.
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(२४३) एक कळश ग्रहण करे, बीजो केशरनी वाटकी ग्रहण करे, त्रीजो फुलनो हार वा बुटां फुल ग्रहण करे, चोथो धूप, पांचमो दीपक, बगो रकेबीमा अक्षतनो स्वस्तिक लश्ने उभो रहे, सातमो नैवेद्य लइ उभो रहे, काठमो फळ लइ उभो रहे. दरेक पूजाए अभिषेक करी पूजा करवो.
५ कळश, ५ केशरनी वाटकी, ५ फुलना हार, धूपधाएं, ५ दोपक, ५ चोखाना साथीआ, ५ नैवेद्य, ५ फळ.
वास्तुकपूजा जेनुं घर करे, अने तेमा प्रवेश करे ते भणावे. तेने घेर आ पूजा भणावतां आनंद मंगळ थाय. रोग, शोक, वहेम सर्वे नाश पामे. नवस्मरण, कुंचनी स्थापना करी अने दीवो करी जणवां. शक्ति होय तो स्नात्रीयाने जमामवा. इंद्राणीयो छोकरीओने करे तो करवी.
इति वास्तुकपूजा संपूर्ण
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( २४४ )
अष्टप्रकारी पूजा. परमेश्वर महावीर जिन, तीर्थकर गुणधाम; चोवीशमा श्री जिनपति, सर्वजीवविश्राम. ॥ १ ॥ अनंतगुण उपकारीजे, शासन नायक देव; द्रव्यभावथी पूजतां, प्रगटे आनंद मेव ॥ २ ॥ द्रव्यभावथी पूजना, अष्टप्रकारी बेश; करतां नरने नारीओ, दूर करे सहु क्लेश. ॥ ३ ॥ महावीरदेवे पूजना, भाखो भवी हितकार; ते कारण पूजा रचुं मनशुद्धि करनार. ॥ ४ ॥ कारण कार्यनी सिद्धि छे, द्रव्यथी भाव सधाय; जक्तिमंता धर्मीजन, पूजाथी शिव पाय. ॥ ५ ॥
प्रथम जल पूजा.. सांभळरे सहियां हमारी ए देशोनी चोपाया चाल. प्रभु महावीर जग जयकारी, परमेश्वर जिन उपकारी; द्रव्य भावथी स्नात्र करीजे, प्रभु उपर प्रेम धरीजे. तेथी निजनी पूजावरोजेरे, द्रव्यभावथ पूजा सारी; मोहवृत्तिने हरनारी. प्रभु ॥ १ ॥
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(२४५ )
5.
मेरु उपर प्रभुने लाव्या, जलथी इन्द्रे न्हवराव्या; पंचरूप धरी गुण गायारे, तेम स्नात्र करी नरनारी, करे समकित शुद्धि अपारी. प्रभु ॥ २ ॥ जाव समकित जल अभिषेके; मिथ्यामेल रहे न विवेके; पूजो महावीर जिनने टेकेरे, त्यजी जूठी दुनियादारी; प्रभु शरण ग्रही हितकारी प्रभु ॥ ३ ॥ मोंघाकाले नयने दीग, लाग्या श्रातमरूपे मीठा; थया कुदेव मोही अनीवारे, लागी तुजथको एक तारी; लागी तारी मूर्ति प्यारी. प्रभु ॥ ४ ॥ तुज उपर जब सहु वारी, प्रभु ताह्यरो साची यारो; मरुं मर्या पहेलां मोह मारीरे, एवी पूजा बनो हितकारी; करो करुणा हवी सारी. प्रभु ॥ ५ ॥ प्रभु पूजा करूं प्रभुरंगे, निज आतम शुद्ध उमंगे; कदि पहुं न मिथ्या ढंगेरे, बुद्धिसागर प्रभु अवधारी; लही आतम सुखनी खुमारो प्रभु ॥ ६ ॥
ॐ हूँ। श्री प० जलं यजामहे स्वाहा ॥
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(२४६) द्वितीया चंदनपूजा. चंदनथी प्रभु पूजता-आतम शोतल थाय. भावथी समताचंदने, पूजे ते शिवपाय ॥१॥ हर्षभाव केशर भळे, लाली प्रगटे अंग. श्रद्धा प्रेम सुवाप्तथो, प्रगटे थानंद रंग ॥२॥
रहों गुरुजी फागण चोमासुंरे, ए राग.
प्रभु महावीर जिनवर मळियारे, म्हारा मनना मनोरथ फळियारे. प्रभु ॥ समताचंदन घसी रंगेरे, अर्चु महावीर प्रभु अंगेरे; दिख चढता नाव ऊमंगेरे. प्रभु ॥ २॥ शुद्ध अमृतरसनी क्यारीरे, रह्या मोही जगत नरनारीरे; सत्य सद्भूतमूर्ति प्यारोरे. प्रभु ॥३॥ प्रभु दोठे ब्रमणा नागोरे, सम्यक्त्वदशा घट जागीरे, रोमेरोम थयो तुजरागीरे. प्रजुः ॥ ४ ॥ प्रभु मळिया आविर्नावरे-निजसद्भूत आत्मस्वभावेरे. शमचंदने पूज्या सुहावरे. प्रभु. ॥ ५॥ प्रनु दिलमांधरी प्रभु थारे, प्रभु चंदन पूजाभावुरे; बुद्धिसागर जिनवर गावुरे. प्रभु ॥ ६ ॥
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(२४७) ॐ ही श्री. परम चंदनं, य० स्वाहा॥
तृतीया पुष्प पूजा. द्रव्यजावथी पुष्पनी, पूजा प्रभुनी बेश; करतां दुर्गुण दुःखडां, नासे सघळा क्लेश. ॥१॥ जावथो पंचाचार छे. गुणकरपुष्प प्रधान; तेथी जिनवर पूजतां, बनो स्वयंभगवान् ॥ २ ॥काल अनादि न ओळख्यो,ओळख्यो ज्ञाने आज, पंचाचारना पुष्पथी, पूजुङ्गे जिनराज ॥३॥ सांभळजो मुनि संयम, रागे-नपशम
श्रेणि चढियारे ए. राग. पूनुं महावीर जिन जयकारी, चिदानंदरूपधारीरे; तुज उपयोगे क्षणक्षण जीवं, भक्तिभाव व. धारीरे. पूजें ॥१॥ ज्ञानने दर्शन चरणाचारे, तपने वीर्याचारेरे; रहेतां द्रव्यने भावथी आतम, धर्मसुगंधी प्रसारेरे. पूर्जुः ॥ २ ॥ क्षयोपशमने उपशम क्षायिक, भावनी शुद्धि वधारेरे; पंचाचार सुपुष्पे पूजा, करतां
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(२४८) शिवपद धारेरे. पर्जु ॥३॥ मैत्रीप्रमोद मध्यस्थ करुणा, सात्विक पुष्पनी माळारे; प्रजुना कंठे प्रेमे चढावी, पीवं प्रभुरस प्यालारे. पूजें. ॥४॥ प्रभु गुण गावे समरे घ्यावे, आतम प्रभुरूप थावेर; जेवी जावना तेवी सिद्धि, अंतरमा सुख पावरे. पूर्नु. ॥५॥ हाथे चढियो आंख देखायो, हवे न छोड़ें क्यारेरे; बुद्धिसागर आत्मउजागर, उपयोगे निज. तारेरे. पूजें ॥ ६ ॥ __ ॐ हो श्री प० पुष्पं य• स्वाहा.
चतुर्थ धूप पूजा. द्रव्य भाव बे भेदथी, धूपनी पूजा श्रेष्ठ; क. रतां आतम बळ वधे, पडतुं पशु बल हेव. ॥१॥ चारे ध्यानना धूपथी, पूजतां जिनराज; मोहनी दुर्गधी टळे, सिद्धे शिवपद काज. ॥ २ ॥ भावथो प्रभुनी पूजना, आतम पूजा जाण; सम्यग्दृष्टि जी. वनी, करणी सर्व प्रमाण. ॥ ३ ॥
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(२४९)
झुमखमानी देशी. धन्य प्रभु महावीरनेरे, सत्य जणाव्यो धर्म; महावोर पूजीए; बार वर्षना ध्यानथीरे, टाळ्यां घा. तोकर्म. महावीरः ॥१॥ पिंमस्थने पदस्थथीरे, रूपस्थ रूपातीत; महावीर. चारध्यानरूप धपथीरे, आतम शुद्ध प्रतीत. महावीर. ॥२॥ आत रौद्रदुर्गधनेरे, टाळो वेगे दूर, महावीर. एकता लीनतायोगथीरे, प्रभुजी हजराहजूर. महावीर. ॥ ३ ॥ धर्म शुक्ल वे ध्यानथीरे, आपोआप प्रकाश; महावीर. ध्यानधूपे प्रनु पूजारे, व्यक्तानंद विलास. महावीर. ॥ ४ ॥ इयल ब्रमरी संगथीरे, ब्रमरीरूप सुहाय. महावीर. बुद्धिसागर यातमारे, प्रभुध्याने प्रभु थाय. महावीर, ॥ ५॥ ॐ ह्री श्री० प० धूपं० यजामहे स्वाहा
पंचमी दीपक पूजा. पंचमी दीपक पूजना, करतां आत्मप्रकाश; मतिश्रुत ज्ञानना दीपके, मिथ्यातमनो नाश ॥१॥
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(240)
सम्यग् ज्ञानी जीवने, सवलुं सहु व ते परिश्रवपणे, थावे आतममां मी ज्ञाननो, दीपक जो प्रगटाय; श्रातम जाणे वि-
श्वनो, ज्ञानी निश्चय थाय. ॥ ३ ॥
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प्रणमाय; आस॥ २ ॥ दीपक
•
जिनपद जगमां याचं जाणो स्वरूप रमण सुविलासी ए राग.
धन्य प्रभु महावीर जिनेश्वर, अनंतगुणा उप-कारीजी; जेनुं संप्रति शासन वर्ते, जावदया भंगदारी, जिनवर भजीएजी, पामी सम्यग्ज्ञान, दीपके यजीएजी. ॥ १ ॥ दर्शनमोह टळ्याथी सम्यग् - भावे ज्ञान प्रकाशेजी; मतिश्रुत अवधिने मनपर्यत्र, केवलज्ञान विकासे जिन० ॥ २ ॥ मति अट्टावशि त्रणसो चालीश, भेदे वीरे प्रकाश्युंजी; चउद वीश श्रुत जेद प्रकाश्या, समकितीने विकास्युं. जिन० ॥ ३ ॥ - वधि असंख्य प्रकारे प्रगटे, मनपर्यव बे भेदेजी; क्षयोपशमजावे ए चारे, ज्ञान ज तमने छेदे. जिन
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(२५१) ॥ ४ ॥ लोकालोक प्रकाशक केवल, ज्ञान ते व्यापक एकजी; मतिश्रुत दीपकी प्रभु पूजे, प्रगटे धर्म विवेक. जिन० ॥ ५॥ द्रव्य भावथी दीपक पूजा, गृही यतिने अधिकारेजो; बुद्धिसागर बातमशुद्धि, निश्चयने व्यवहारे. जिन ॥ ६ ॥ ॐ हूँ। श्री० परम दीपं यजामहे स्वाहा.
षष्ठी स्वस्तिकपूजा ॥ स्वस्तिक प्रभुनी आगळे, करतां स्वस्ति थाय; द्रव्यभाव स्वस्तिक करे, नव्यो शिवपद पाय ॥१॥ चतुर्गतिरूप साथीयो, करीने मागो एम सिद्ध शिलानी उपरे, शिवस्थानक सुखक्षेम॥२॥चारकषायथो चउगति, कोधां भ्रमण अनंत; स्वस्तिक करी प्रभु आगळे, पामो शिवपद संत ॥३॥ विमलाचलवासी मारा व्हाला सेवकने विसारो नहीं विसारो नहीं. ए राग.
महावीर जिनेश्वर पाये पहुं, तुजरूप बनुं रूपबर्नु; समभावे रही एकरूप बनो उपयोगे भणुं योगे
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(२५२) जणुं; चतुर्गतिरूप स्वस्तिक आगळ, दर्शन ज्ञानचारित्र; त्रण्य पुंजने सिद्ध शिलापर, मुक्तिनुं चिह्न पवित्र; प्रभुतुजरूप. म० ॥१॥ चारे सामायिक स्वस्तिकथी, रत्नत्रयीज पमाय; तेथी सिद्धशिलापर मुक्ति, भक्तयोगी झट पाय. प्रभु तुज. म० ॥२॥ चारे प्रकारे संघनो स्वस्तिक, मंगलरूप सदाय. पा. मी त्रिपदी ज्ञान करीने, जक्तयोगी शिवपाय. प्रभु. म ॥३॥ चार महायम स्वस्तिकरूपी, त्रण गुप्ति जे पाय; पूरण आत्मसमाधि पामी, पूर्ण सुखी झट थाय. प्रभु. म० ॥ ४ ॥ आध्यात्मिक संकेते ज्ञानो, प्रभुने पूजो एम; बुद्धिसागर क्षायिक जावे, पामे योगने क्षेम. प्रभुतुज. म ॥ ५ ॥ ॐ ह्रो श्री परमा स्वस्तिकं यजामहे स्वाहा॥
__ सप्तमी नैवेद्यपूजा.
द्रव्यभाव नैवेद्यथी, प्रभुने पूजे जेह; प्रभु स्वरुपे थै रहे, देह बता वैदेह. ॥१॥ अनुभवनैवेद्य
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( २५३ ) भली, आतम पुष्टि थाय; आत्मरसी यातम बनी, बाह्यरति नहि थाय. ॥ २ ॥ जडरस नैवेद्य मूकीने, आतमरस नैवेद्य; पामवुं ते प्रभु पूजना, तेथी रहे नहि वेद. ॥ ३ ॥
कहाला वीर जिनेश्वर जन्म जरा निवारजोरे, ए राग.
व्हाला आतम वीर जिनेश्वर पूजूं भावथोरे, सहेजे श्रानंदनैवेद्ये पूजु गुणदावथी रे; यातम रस प्रगटातो ज्यारे, बाह्यमां रसनी चांति न त्यारे; जडमां बंधन मुक्ति सहजजाव उपयोगथोरे. व्हाला. सहेजे० ॥ १ ॥ तुजरसमां रंगाया जेखो, पछोथी नहि जडरसिया तेओ; एवी नैवेद्य पूजाए पूजूं उमंगधीरे, व्हाला. स०॥२॥ तुज मुज अंतर्वेद ज भागे, यतम यापस्वरूपे जागे; पढीथी शांति तुष्टि पुष्टि सहज स्वभावथी रे. व्हाला० ॥ ३ ॥ एवी पूजा यातां सारो, प्रगटे आनंद पूर्ण खुमारी; पढी थी दुःख रहे नदि जडवस्तुना श्रमावधीरे व्हाला● ॥ ४ ॥ जीवन्ती प्रभु पूजा एवी, उपयोगे अंतर मां
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( २५४ )
लेवी ; पामे बुद्धिसागर यानंद आत्मस्वभावथी रे.
- व्हाला० ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री० य० नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥
अष्टमी फलपूजा.
मुक्ति फलने पामवा, फलथी पूजुं देव; फलथ | फल निश्चय मळे, नासे मोहनी टेव ॥ १ ॥ द्रव्यभाव बे भेदथी, निश्चयने व्यवहार, सापेक्ष फल पूजना, उपयोगे सुखकार ॥ २ ॥ विनयने बहुमानयी, श्रद्धा प्रीतियोग; फलपूजा जिनराजनी, क. रतां शिवसंयोग ॥ ३॥
उत्तम फलपूजा कीजे, ए राग.
धन्य महावीर उपकारी, त्रिशलानंद जयकारी; सिद्धारथकुल मनोहारीरे, लगनी तुज साधे लागी. भाग्य दशा पूरण जागीरे ॥ लगनी ॥ तुजरूपे थइयो रागीरे, लगनी ॥ १ ॥ पूरणरागे घट धार्यो, नागे मोह घणं हायों; मरुं न हवे कोथी मार्योरे.
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(२५५) लगनी. ॥२॥ फलपूजा करतां भावे, उपयोगे शिवफल पावे: भक्ति नकामी नहि जावेरे. लगनी. ॥ ३ ॥ समकितानी सहु करणी, मोदमहेलनो निःसरणी; पूजादिक निर्जर वरणीरे. लगनी.॥४॥ तुज श्रद्धा प्रीति साची, जडनी माया सह काची; माची रह्यो तुजमां राचोरें लगनी. ॥ ४॥ निष्कामे सेवानक्ति, करतां प्रभु प्रगटे शक्ति; बुद्धिसागर प्रभुव्यक्तिरे. लगनो. ॥६॥
कलश. गायो गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो, त्रिशलानंदन शासन नायक; परमेश्वर जगरायो; अष्टप्रकारो पूजा रचीने, नावथी गायो भ्यायोरे. महाचोर. ॥ १॥ चउनिक्षेपे सातनयोथो, पूजा पूज्यने जाणी; द्रव्यने भावथी पूजा करतां, पामे मुक्ति निशानीरे ॥ महावीर. ॥ २ ॥ सम्यग् दृष्टिने द्रव्यने भावथी, पूजा शिवसुखकारी; चढतेभावे निर्जरा
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( २५६ )
कारी, मुक्ति अनुजवधारीरे. महावीर ॥ ३ ॥ नक्तः जनो भक्तिरस पावे, भावे ते चित्तलावे; जक्तिथी चित्त शुद्धिने ज्ञाने, क्षणमां मुक्ति सुहावेरे, महावीर. ॥ ४ ॥ श्रद्धा प्रीति सेवानक्ति, करनारां नरनारी; निश्चयमुक्ति पदने पामे, उपयोगे गुणधारीरे. महावीर ॥ ५ ॥ वीर जिनेश्वर। परंपर, तपगच्छी सूरिराया; जगगुरु हीर विजय सूरि मोटा, नरपतिसुरपति गायारे. म. ॥ ६ ॥ पट्टपरंपर सागर शाखे, रविसरखा गुरुराया. रविसागर गुरु पूर्णप्रतापो, जारतसंत सुहायारे. म. ॥ ७ ॥ तस शिष्य संवेगी मुनिशेखर, सुखसागर गुरुराया; तास कृपाए पूजा रवीने, यानंद अतिशय पायारे. म. ॥ ८ ॥ ओगपिश अव्योत्तर चैत्रीसुदि, नवमीने गुरुवारे, विजापुरमां चढता पहोरे, पूजा रची प्रजुप्यारेरे. महावीर ॥ ए॥ प्रभुमय मनवच काया थाशो, भक्तिगुण प्रगटाशो; शुद्धतम महावीरोपयोगे, आयु एम वहाशोरे. म. ॥ १० ॥ अनुभव आनंद प्रगटयो न
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(२५७) छूपे, छूपे न नानु छूपायो; बुद्धिसागर आनंद मंगल, तम तेजे सुहायोरे. म. ॥ ११ ॥
ॐ प. महावीर जिनेन्द्राय फलं य. स्वा.
महागुरु श्री रविसागर गुरुपूजा.
प्रथम सद्गुरु संगति जलपूजा. परमेश्वर महावीर जिन, चोवीशमा जिनदेव; परमब्रह्म परमातमा, तीर्थकर करं सेव. ॥१॥ गणधर गुणवंता गुरु, श्री सुधर्म प्रधान; गणधर पद परंपरा, श्वेतांबर गुणवान्. ॥२॥ वडगबथो तपगबनी, परंपरा वर्ताय; जगगुरु हीरविजयसूरि, थया महागुरु राय. ॥ ३ ॥ विद्यासागर मुनिवरा, सहज सा• गर मुनिराजा पट्ट परंपर शोभता, संवेगो शिरताज. ॥४॥ नेमिसागर मुनिवरा, व्रताचार गुणवंत; तास शिष्य गुण गणधरा, रविसागरजी संत. ॥५॥ गुरु पूजा रचु नावथी, मुनि परमेष्ठी जेह; गुणी गुण गातां नावतां, पवित्र मनवच देह. ॥६॥
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( २५८ )
॥ मेतारज मुनिवर धन्य धन्य तुम अवतार ॥
मरुदेशे शुभ पाली नगरे, श्रावक कुलमांही चंद; श्रेष्टी राघवजी गुणवंता, पत्नी माणिक गुणवंत; तस कुखे जन्म्या रवचंद पुत्र उदार ॥ १ ॥ अनंत पुण्ये श्रावक कुलमां, जन्म जवोनो थाय; अनंत पुण्ये संत समागम, धर्मरुचि प्रगटाय; श्री जैन धर्मनो जगमां छे आधार ॥२॥ मात पितानी साथै याव्या, आजीविका हेत; नेमिसागर गुरुजी मळिया, पूर्व पुण्य संकेत; शुभ साधु संगति भवी जीवने हितकार. ॥ ३ ॥ साधु संगे देवगुरुने, धर्मनी श्रद्धा थाय; मिथ्या बुद्धि झट टळेने, सत्यबुद्धि प्रगटाय. शु. ॥ ४ ॥ गुरु सेवा भक्ति करेजी, विनय धरी बहुमान; बुद्धिसागर सद्गुरु संगे, प्रगटे कोटि कल्याण. शुभ० ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री गुरुपद पूजाय जलं. य. स्वाहा ॥
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(२५९) द्वितीया चंदन पूजा गुरुमुख आगमश्रवण.
दुहा. गुरुपासे नित्य सांभळे, आगम शास्त्र प्रमाण; जिनवर वाणी सांभळे, प्रगटे मतिश्रुतज्ञान. ॥१॥
पुखलवइ विजय जयोरे ए राग. विनय अने बहुमानथीरे, करी गुरुनी सेव; जे गुरुवाणी सांभळेरे, ते पामे शिवमेवरे भविका; सुणजो गुरुगमशास्त्र. ॥१॥ गुरुमुखे बागम सांभळेरे, ते धन्य धन्य नरनार; धर्मशास्त्रना बोधीरे, सफल मनु अवताररे. ज० ॥ २ ॥ गुरुसेवा नक्ति बळेरे, सम्यग् प्रकटे ज्ञान; नगुरा नास्तिक प्राणियारे, धारे दिल अज्ञानरे. ज० ॥ ३ ॥ गोतार्थ गुरुगमवडेरे, विघटे मिथ्याबुद्धि; वैयावच्ची प्रेमथोरे, करतो हृदयनी शुद्धिरे. न० ॥ ४॥ गुरुमुखे तत्त्वने सांभळेरे, ज्ञाननी वृद्धि थाय; गुरुश्रद्धा प्रीतिबळेरे, सवळ सहु प्रणमायरे. न०॥५॥ गुरुमुखथी शास्त्रो सुणीरे, पाम्या रवचंद ज्ञान; देवगुरुने धर्मनीरे, श्रद्धा
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( २६० )
प्रगटी प्रमाणरे. भ० ॥ ६ ॥ नयगम भंग प्रमाणथीरे, खतम ज्ञान सुहाय; बुद्धिसागर गुरुमुखेरे, धर्म सुणे शिव थायरे. भ० ॥ ७ ॥
ॐ ह्री श्री श्रागम श्रवणार्थं गुरुपद भक्तये चंदनं. य० स्वाहा ||
सम्यक्त्वग्रहणरूपा तृतीया पुष्पपूजा.
गुरु आगम आलंबने, समकित श्रद्धा थाय; उपशम क्षयोपशम तथा, क्षायिक घट प्रगटाय. ॥ १ ॥ व्यवहारे समकिततणां, कारण जेह गणाय; ते अवलंब्या भविजना, समकित भाव सुहाय ॥२॥ समकित पाम्यो आतमा, कर्मोदये जटकाय; उच्च नीच जव पामतो, अंते मुक्ति पाय. ॥ ३ ॥
कानुको न जाणे मारी प्रीत. ए राग. समकित पामो नरने नार, गुरुमुख बोध ग्रहीनेरे. समकित० देवगुरुपर रुचि, समकित प्रगटयां थावे; प्रगटे पूरण श्रद्धा प्रेम, ब्रह्मनो बोध वहीनेरे.
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( २६१ ) समकित ॥ १ ॥ द्रव्यथी भाव जे यावे, व्यवहारे निश्चय यावे; कारणयोगे कार्य सधाय, यातमधर्म स्वजावेरे. समकित० ॥ २ ॥ सम्यग्जावे जाणे, समकिती श्रातमज्ञाने; आस्रव हेतु जेने थाय, संवरभावे सुतानेरे. समकित० ॥ ३ ॥ मिथ्याशास्त्रो पण सवळां, कोइ न थातां अवळां; सम्यग्दृष्टियोगें हेतु, - सर्वे थाता सबळारे. समकित० ॥ ४ ॥ समकितमां छे शक्ति, प्रगटावे केवल व्यक्ति; जडमां प्रगटयो मोह विजावं, टाळे झट आसक्तिरे. समकित० ॥ ५ ॥ सद्गुरु संगे प्रगटे, मिथ्याबुद्धि झट विघटे; नगुरा नास्तिक मूढालोक, मिथ्याज्ञाने भटकेरे. समकित ॥ ६ ॥ नेमिसागरजी बोधे, रखचंद तवो शोधे, पाम्या द्रव्यजाव समकित मोहनी वृत्ति रोधेरे. समकित० ॥ ७ ॥ व्यवहारे समकित ग्राहियुं, यांतर जावे वहिर्युः सम्यग् दृष्टिए अध्यात्मरूपज अंतर लहियुरे. समकित० ॥ ८ ॥ देवगुरुपर भक्ति, धर्मनी साचो प्रीति; बुद्धिसागर गुण सम्यक्त्व, प्रगटे धर्मनी रीतिरे. समकित ॥ ९॥
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(२६२) देशविरति व्रतग्रहणरूपा चतुर्थी धूपपूजा.
समकित परिणति बलवडे, विरति प्रगटे खास; विरतिथी होय निर्जरा, कर्मक्षये शिववास. ॥ १॥ समकितवण व्रततपवडे, मळे न साचीमुक्ति, सम्य ग्दृष्टिजीवनी, सफळी सर्व प्रवृत्ति. ॥२॥ समकित योगे उपजे, मनमा विरतिभाव; भावविरति, समकितीने, प्रगटे निमित्तदाव ॥ ३ ॥
सांभळशो मुनि संयमरागे ए राग.
श्रावकव्रतनी छे बलिहारी, धर्मीने हितकारोरे; गुरुपासे उच्चरी नरनारी, पामे भवोदधि पारोरे. श्रावक. ॥१॥ पंचमगुण स्थानक देशविरति, देश उपाधि हगवेरे; जे जे अंशे निरुपाधिकता, ते अंशे. सुख थावरे. श्रावक. ॥ २ ॥ सम्यग्दृष्टिने व्रतकि रिया, मुक्तिहेते थावरे; समकितदायक गुरुनक्तिए, मुक्ति अनुभव आवरे. श्रावक. ॥ ३॥ नेमिसागर गुरुनी पासे, रवचंद भावे रहियारे; श्रावकनां व्रत
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(२६३) बारे ग्रहियां, शुजभावे गहगहियारे. श्रावक. ॥४॥ षडावश्यक भावे साधे, गुरुने मुनि आराधेरे; चढता जावे निशदिन वाधे, प्रगट्या गुण न विराधेरे. श्रावक. ॥ ५॥ देवगुरुने धर्मनी सेवा, करता मुनि व्रत इच्छारे; गुरुने विनवे आपो मुझने, सर्व विरतिनी दोदारे. श्रावक. ॥ ६ ॥ सर्व विरति लेवानो इच्छा, श्रावकने होय नकोरे; बुद्धिसागर बातमबळथी, पामे दोक्षा पक्कीरे. ॐ हूँ। श्री अहंसद्गुरुभक्तये, धूपं. य. स्वाहा ॥
पंचमहावत सर्वविरतिग्रहणरूपा पंचमोदोपपूजा.
देशथी सर्व विरतिविषे, अनंती आतमशुद्धि, प्रगटे आत्मानंदता, क्षयोपशमगुणऋद्धि. ॥१॥ छठ्ठागुणस्थानकतण), क्रिया द्रव्य चारित्र; भावथ) विरतिपरिणति, प्रगटे आत्मपवित्र. ॥ २॥ गृहस्थ. थको त्यागी मुनि, अनंतगुण छे महान् ; क्या सर्षपने सुरगिरि, चारित्रगुण बलवान् ॥ ३ ॥ व्यव.
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(२६४) हारे मुनिसद्गुरु, जैनागमथी प्रमाण; सर्वविरति चारित्रथी, प्रगटे केवलज्ञान. ॥ ४ ॥ द्रव्यत्नाव चारित्रनी, इच्छा जेने होय; समकिती देशविरति, भावथको ते जोय. ॥५॥ गृहस्थभावे भावना, मुनि पद लेवा काज; अवसर बल प्रगटे तदा, दीक्षा ले शिवसाज. ॥६॥
सिद्धिएनमो सिद्ध अनंता, ए राग.
धन्य धन्य मुनि अनगारी, सर्वविरति चारित्र धारी; जेह सर्वजोव उपकारोरे, संयमी गुरुजी नमो गुणकारी. नमो आतम उपयोग धारोरे, संयमो. ॥१॥ द्रव्यने नावथो हिंसाटाळे; जेह उत्सर्ग अपवादे चाले, सत्य वदता अस्तेयने पाळेरे. संयमो. ॥ ॥ द्रव्यजाव ब्रह्मचर्यनाधारी, नवविध परिग्रहना जे निवारी, रात्री भोजनना परिहारोरे. सं. ॥ ३ ॥ चारित्र एवं धरे व्यवहारे, निश्चयथो निज उपयोग म्हाले, नेमिसागर गुरु कलिकालेरे. संयमी. ॥ ४ ॥ संवत ओगाणसे सातनी साले, मौन एकादशो
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(२६५) शुभवारे, गुरुपासे दीक्षा ग्रहो म्हालेरे. सं. ॥ ५॥ नाम थापियुं रविसागर मुनिराया, गुरुराजना निशदिन सेवें पाया, बुद्धिसागर गुरु गुण गायारे. संयमी. ॥६॥ ॐ हूँ। श्री अँहगुरुपूजार्थ दीपं. य. स्वाहा.
गुरु कुलवास वैयावृत्य विनय करणरूपा.
॥ बने अक्षतपूजा ॥ गुरुकुल वासी गुरुवरा, पामे जगमां मान; ए. कल विहारोने नहि, तप संयम जप ध्यान. ॥१॥ गुरुपासां जे सेवता, रही गुरुनी पास; शिष्य धर्म जे पालता, बनी गुरुना दास. ॥ २॥ गुरुकुलवास रह्या मुनि, संयममां स्थिर थाय; बहुश्रुत अनुभव पामता, ब्रष्टपणुं नहि पाय. ॥ ३ ॥ जवि तुम वंदोरे सातमुं पद भलंरे. ए राग.
गुरुकुल वासोरे मुनि गुरुवंदारे, आतम शुद्धि थाय: गुरुने स्वार्पणभावे जे सेवतारे, स्वर्ग अने शिव
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(२६६) पाय. गुरु० ॥१॥ आचारांगने दश वैकालिकेरे, गुरु कुल वास वखाण; उत्तराध्ययने वैयावच्चोनोरे, पडतो थाय न जाण. गुरु० ॥ २ ॥ गुरु वैयावच्च योगे गुण वधेरे, गुण प्रगट्या नहि जाय; गुरुना विनय अने बहुमानथोरे, मति श्रुत वृद्धि थाय. गुरु० ॥ ३ ॥ गुरुनी आपी शिक्षाओ ग्रहेरे, गुरु आशय सहु जा. ण; अवळामांथी पण सवलं ग्रहेरे, समतादिक गुण खाण. गुरु० ॥ ४ ॥ आतम उपयोगे करणो करेरे, चढता भावे सदाय; गुरु आज्ञामा अर्पा जतोरे, गुरुपर श्रद्धा प्यार. गुरु० ॥ ५॥ द्रव्यने गुण पर्यायथ! आतमारे, नयथा जाणे तय; आतम शुद्ध स्वरूपे परिणमेरे, पामे उत्तम सव. गुरु० ॥६॥ गुरुनी श्रद्धा प्रीतियोगधीरे, प्रगटे आतमज्ञान; स्वाभाविक ए जगमां कायदोरे, पाळे ते गुणवान्. गरु. ॥ ७॥ नेमिसागर गुरुनो पासमारे, रविसागर मुनिराज; रहीने गुरुनी सेवानक्तिथीरे, साध्या आ. तम काज. गुरु० ॥ ८॥ गुरु आज्ञामां धर्मने जाण)
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(२६७) नेरे, साधे आतम धर्म; बुद्धिसागर गुरुनी महेरथीरे, प्रगटे मुक्तिशर्म. गुरु० ॥ ९॥
ॐ गुरुपदपूजार्थ अक्षतं य० स्वाहा ॥ सप्तमी चारित्राराधनरूपा नैवेद्यपूजा
__ दोहरा. गुरु आज्ञाए वर्ततां, संयमयोग सधाय; आत्रवना पण हेतुयो, संवर हेतु थाय.॥१॥ आतमना उपयोगथी, कर्मोदयमा धर्म; थातो निश्चयभावथी, करतां बाहिर कर्म. ॥ २॥ आतमगुणमा रमणता, ते चारित्र सुहाय; आत्मरमणता कारणा, ज्ञानोने सहु थाय. ॥ ३ ॥
तेजे तरणिथो वमोरे. ए राग. ग्राम नगर पुर विचरतारे, पाळे पंचाचार; चारित्र लहीने पाळवुरे, शूरानो व्यवहार हो. जगमां, चारित्र पाळवं दोहिलंरे. ॥ १॥ गुर्जर सोरठ देशमारे, विचरे दे उपदेश; तप तपता नणे आगमोरे,
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(२६८) सहे परिषह ने क्लेश हो. जगमा चा• ॥२॥ नेमि सागर गुरुवरेरे, निजपट्टे गुणी जाण; थाप्या रविसागर गुरुरे, सर्व समय सावधान हो. जगमां चा० ॥३॥ धर्म क्रिया योगी मुनिवरारे, सागरवर गंभोर, सिंहनो पेठे पराक्रमीरे, मेरुपेठे धोर हो. जगमा चा० ॥ ४ ॥ मूळ उत्तर चारित्रनोरे, धरता शुभ व्यवहार; धर्म प्रभावना बहु करेरे, सुधरावे आचार हो. जगमां चा ॥५॥ कहेणी रहेणी जेहनीरे, सरखो मुनि शिरदार; ते कालनामुनिवृन्दमारे; उ. त्कृष्टा अनगार हो. ज. चा०॥ ६॥ भावसागरजी नामनारे, शिष्य कर्या अनगार; बोजा सुखसागर कर्यारे, समता गुणभंडार हो. ज. चा ॥७॥ जाणे गुरुर्नु सहु गुरुरे, गुरुथी जेह अनिन्न; बुद्धिसागर सद्गुरुरे, समभावे लयलीन हो. ज० चा ॥७॥
ॐ गुरुपदपूजार्थ नैवेद्यं यः स्वाहा ॥
अष्टमो ध्यानसमाधिरूपा फलपूजा. ध्यान समाधि योगथी, प्रगटे सहजानन्द; स. हजानन्दने पामवा, धर्म प्रवृत्ति वृन्द. ॥ १ ॥ दर्शन
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( २६९ ) ज्ञानने चरणमां, वर्ते सहज समाधि; यतम यानदफलता, स्वादे रहे नहि आधि ॥ २ ॥ तम आनन्द पामवा, ध्यान समाधि योग; उपादान कारण करूं, निमित्त गुरु संयोग ॥ ३ ॥
जिनपद जगमां जाचुं जाणो - ए राग.
सर्व विरतिधर गुरु जयकारी, नमुं पूजुं उपकारोजी, समकित चारित्रदायक गुरुनो, जगमां बे बलिहारी; गुरुजी नजीए जी, पामी गुरु उपदेश, मोहने तजीए जो ॥१॥ आर्त रौद्रने प्रगटयां त्यागे, धर्मध्यानमां जागेजी; वर्ते यातमगुणना रागे, रहेता जे वैराग्ये. गुरु० ॥ २ ॥ वर्ते आतमगुण उपयोगे, आतम आनंदभोगेजी; दिलमां रहे नहि हर्षे. शोके, क्षण न रहे जे ढोंगे. गुरु० ॥ ३ ॥ आतमना. उपयोगे म्हाले, आतम गुण अजुवाळेजी; मोहासक्तिनां बी बाळे, चारित्र एवं पाळे. गुरु० ॥ ४॥ ध्यानसमाधि योगे रमता, मोहवने नहि भमताजी;
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( २७० )
सर्व कार्य करतां समता, ज्ञाने मोहने दमता. गुरुव ॥ ५ ॥ क्षयोपशम आनंदने पामे, अंतरमां विश्रामे जी; निश्चय ठरता अनुभव ठामे, पडे न मिथ्या भामे; गुरु. ॥ ६ ॥ तम सुख फल पूजाए जे, परम प्रभुने पूजेजी, गुरु रविसागर गुरु सुखसागर, पूजंतां मोह जे. गुरु ॥७॥ मेसाणामां वृद्धपणामां, रहीने श्रातमध्यावेजी; सुडतालीश वर्षतक संयम, पाळी मोह हठावे. गुरु ॥८॥ संवत् योग शिचोपन साले, वदि एकादशी वेजी; जेठ मासमां चढ़ता प्रहरे, गुरुजी स्वर्ग सिधावे. गुरु ॥ ९ ॥ आत्मोपयोगे जड चितनमां, समजावे परिणामीजी; बुद्धिसागर सद्गुरु बंदु, अतिजावे शिरनामी. गुरु ॥ १० ॥
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कलश.
गाया गायारे एम गुरुगुण भावथी गाया. नेमिसागरजी रविसागरजी, सुखसागरगुरु गाया; द्रव्यजावथी गुरुपद पूजा करतां जाव चढायारे. एम. ॥१॥ तपगच्छजगगुरुही र विजयसूरि, पट्ट परंपराया;
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( २७१ )
समकित चारित्र गुण प्रगटाया, यातम अनुजव पायारे. एम. ||२|| गुरुने गातां गुरुगुण प्रगटे, निश्चय एह जणाया; ओगणिश अय्योतर चैतरनी, पूर्णिमा पूजा रचायारे. एम. ॥ ३ ॥ गुर्जरदेश विजापुरमांही, पूजारची सुखकारी; संघ चतुर्विध मंगलकारों, शांति पुष्टि करनारी रे. एम. ॥ ४ ॥ गुरुने गातां प्रगटीखुमारी, उतरे ते न उतारी; बुद्धिसागर गुरु जयकारी, पूजो जवी नरनारी रे. एम. ॥ ५ ॥
श्री सद्गुरु सुखसागर गुरुपूजा. प्रथम सेवारूप जलपूजा. दोहरा.
प्रणमुं श्री परमातमा, तीर्थंकर महावीर; गौतम आदि सूखिरा, अनेकगुण गंभीर ॥ १ ॥ श्वेतांबर तपगच्छमां, अनेक मुनि गुणवंत; संप्रति जे जग विचरता, तेमां उत्तम संत ॥२॥ श्री सुखसागर मुनि गुरु, थया जगत् विख्यात; सर्व गच्छ
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( २७२ ) मुनिवृन्दथी, वखणाया जगात ॥ ३ ॥ गुरु गातां स्तवतां थकां पूजंतां सुख याय; ते कारण गुरु पूजना, रचतां मुक्ति सुहाय ॥४॥ गुरु चरग स्थापी करी, पूजा अष्ट प्रकार ; द्रव्य भावय। जे करे, ते तरतां नरनार ॥ ५ ॥
मेरु शिखर न्हवरावे हो सुरपति, ए राग.
सद्गुरु जग उपकारी हो, सद्गुणी; सद्गुरु जग उपकारी; समकित चारित्र दायक सद्गुरु, जगमां तुज बलिहारी; सर्वजावे तुजमां अर्पावुं, सद्गुरु सेवा ए सारी हो. सद्गुणी. स• ॥ १ ॥ नाम रूपनो मोह निवारी, यातम जाव समारो; व्हालुं सहु तुज उपरे वा, सेवा करूं सुखकारी हो. स० ॥ २ ॥ पवित्र सेवा जलथी पूजुं, तुज चरण उपकारी; पुष्ट निमित्त गुरुजी कलिकाले, आतम शुद्धिकारी हो. स० ॥ ३ ॥ कुंने बांधयुं वारि रहे पण, घटवण होय न पाणी; ज्ञाने मनवश पण गुरु मळतां, ज्ञान प्रगट
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( २७३ )
गुणखाणी हो. स० ॥ ४ ॥ गुरुजी मळिया फेरा टळिया, गुरुसेवामां हाळया; सुखसागर गुरु पूजा करतां, बुद्धि वंछित फळियां हो. स० ॥ ५ ॥ ॐ अर्ह श्री सद्गुरु चरण पूजार्थ जलं. य. स्वाहा ॥
द्वितीया गुरु समतारूपा चंदनपूजा.
तमने शीतल करे, समता चंदन मान; समता चंदन पामोने, पूजुं गुरु गुणखाण. ॥ १ ॥ भवदव ताप शमाववा, समता चंदन बेश; गुरु हृदयमां जो वसे, तो प्रगटे नहि क्लेश ॥ २ ॥
धुवपद गोडी राग.
लगनी श्री सद्गुरुथी लागी, जाति चमणा भागीरे; रंगायो रागी थै रंगे, जोयुं हवे घट जागीरे. लगनी० ॥ १ ॥ मुखथी महावीर जाप जपंता, यातमना उपयोगी रे. सरल हृदयने समता गुणमय, भासक निजगुणजोगीरे, लगनी ० ॥ २ ॥ प्रेम येने परख्या पूरा, निश्चय निर्मलनूरारे; सत्ताए पर
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(२७४) मातम सद्गुरु, संयमपालन शूरारे. लगनी० ॥३॥ आतमअसंख्यप्रदेशे समता, चंदनपूजा करतारे, बुद्धिसागर आतम सद्गुरु, पामी नवी शिव वरतारे. लगनी. ॥४॥
ॐ ह्री श्री अर्ह सद्गुरु चरणपूजार्थ चंदनं, यजामहे स्वाहा ॥
तृतीया गुरुगुणराग ग्रहणरूपा पुष्पपूजा.
सद्गुरु गुणरागी बनो, गुरुगुणनो फेलाव; करी ए विनयने मानथी, एछे पूजनल्हाव. ॥१॥ गुरुरागे गुण संपजे, गुरु निंदे गुण जाय; गुरुनी श्रद्धा प्रीतिथी, गुरुना गुण ग्रहवाय. ॥२॥ गुरुनी श्रद्धा प्रीतिथी, गुरुनो बोध ग्रहाय; सेवा जक्ति संपजे, सगुराने समजाय. ॥३॥
निशानी कहा बतावरे-राग, __गुरुनी करुणा सारो रे, जेथी थतो रंक राय. गुरुनी. गुरु करुणा गुरु रागथीरे, तनमन अप्ये प्राण; जेओ प्रभुपद पामियारे, गुरु कृपा त्यां जाण. गुरु.॥१॥
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(२७५) गुरुनी रीझमां विश्वनी रे, खोज न गणवी लगार; गुरुरागे रंगाइयारे, ते धन्य धन्य नरनार, गुरु, ॥२॥ नगुरा नास्तिक लोकथीरे, जेह नहीं भरमाय; शिरमाटे गुरु सेवनारे, पामे करुणा सहाय. गुरु ॥ ३॥ गुरु कृपा ते जन लहेरे, गुरूरूप थै जाय; निष्कामी थै गुरु जजेरे, गुरुथी अलगो न थाय. गुरु ॥४॥ गुरुरागी गुरुगुण ग्रहीरे, सुखसागर महाराज गुरुगुणप्रेमसु पुष्पथीरे, पूजे शिव साम्राज्य. गुरु ॥ ५ ॥ द्रव्यभाव गुरु रागियारे, करता तमशुद्धि; बुद्धिसागर यातमारे, आविर्भावे ऋद्धि. गुरु. ॥ ६ ॥ ॐ ह्र । हे सद्गुरुपद पूजार्थ पुष्पं यजामहे स्वाहा ||
चतुर्थी गुरुनाम मंत्रजापरूप धूपपूजा. सद्गुरुनामने स्थापना, द्रव्यभाव निक्षेप; साचा ते अवलंबतां, रहे न कर्मनो रेख. ॥ १ ॥ सद्गुरु नामना जापथी, मोह न यावे पास प्रभु महावीर नामना, जापे सद्गुण वास ॥ २ ॥ सद्गुरु, नामना
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(२७६) जापथी, बातमशुद्धि थाय; द्रव्यभावथी धूपनी, पूजा छे शिवदाय. ॥३॥
सारंगराग. रीझीए रीझीए रीझीए, गुरुनाम जपो दिल रीझीए; गुरुसंगीरसिया थैरागे, बातमरसने पीजीए. गुरु. ॥१॥ गुरुना द्वेषी नास्तिकजननी, संगति क्यारे न कीजीए; गुरुना रागी भक्तनी संगे, आतमरसने लीजीए. गुरु. ॥२॥ समकिती चारित्री गुरुपर, शंकादि न धरीजीए; कडवी शिक्षा अमृतसरखी, मानी क्यारे न खीजीए. गुरु. ॥३॥ आतम सर्व गुरुने निवेदी, गुरुभक्तिरस पीजीए; गुरुनिन्दक प्रतिपक्षी वचनपर, विश्वास क्यारे न दीजीए, गुरु. ॥४॥ गुरुनाम जापनी धूपपूजाथी, दुर्गधमोह हरीजीए; बुद्धिसागरसद्गुरुजापे, प्रभुपद सहेजे वरीजोए. गुरु०॥५॥ ॐ ही श्री अँई गुरुपद पूजार्थ धूपं यजामहे स्वाहा.॥
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(200) पंचमी गुरुगम ज्ञानरूप दीपकपूजा.
गुरुथी ज्ञान प्रकाश छे, गुरुवण छे अज्ञान; गुरुगम वण शास्त्रो भणे, थाय न सम्यग्ज्ञान. ॥ १ ॥ जैनागम शास्त्रो सकल, गुरुगमथी समजाय; गुरुनी सेवा जक्तिथी, सवळं सहु प्रणमाय ॥ २ ॥ नयगम भंग निक्षेपथी, षड्द्रव्यादिक ज्ञान; गुरुमुखथी श्रव सुणी, करीए प्रगटे सान ॥ ३ ॥
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ध्यानक्रियां मनमां आणीजे ए राग.
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गुरुनी सेवा भक्ति करंतां, सम्यग्ज्ञान लहीजेरे; सम्यग् मति श्रुत ज्ञान प्रगटतां, आतमरूपे वही जेरे; गुरुगम ज्ञान करो नरनारी ॥ १ ॥ गुरु विनये ने गुरु बहुमाने, गुरु आणाने पाळेरे; गुरुमाटे स्वार्पण भक्तिए, प्रगटे ज्ञान सुचालेरे. गुरु ॥ २ ॥ गुरु कृपाथी सम्यग्दृष्टि, प्रगटे सर्व के सबळुरे; गुरु कृपा वण आपमतिने, मिथ्यादृष्टिए अवळुरे. गुरु. ॥ ३ ॥ गुरुकृपा प्रगटे एम वर्ते, विनयी जे नर
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( २७८ )
नारीरे; परमातमपद वेगे पामी, मुक्ति लहे अवि
कारी रे. गुरु. ॥ ४ ॥ मतिश्रुतथी अवधि मनपर्यव केवलज्ञान प्रकाशेरे; गुरुसुखसागर पूर्णकृपाथी, बुद्धि प्रभुपद पालेरे गुरु ॥ ५ ॥
ॐ गुरुपद पूजार्थ दीपं यजामहे स्वाहा ||
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षष्ठी पंचाचारपालनरूपा अक्षतपूजा. पंचाचारना अक्षते, अक्षत यातमरूप; पूजी जे बहुप्रेमथी, नासे भवजय धूप० ॥ १ ॥ गुरु चरणने अक्षते, पूजतां शिव थाय; स्वस्तिक गुरुनी आगले, करतो पाप पलाय. ॥ २॥ पंचाचारने पाळवा, अक्षतपूजा एह; भावथी पूजा पूज्यनी, प्रगटावे शिवगेह. ॥ ३ ॥
कान्हरो.
अक्षतपूजा यानंदकारी, द्रव्यने भावथी ठे जयकारी; दर्शन ज्ञानने चरणाचारी, तप वीर्ये गुरु जग उपकारी अक्षत. ॥ १ ॥ स्वस्तिक करतां स्व
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(२५९) स्तिभारी, जयजयगुरु तुज जग बलिहारी; द्रव्यनावथी पंचाचारी, उपयोगी गुरुजी हितकारी. अक्षत. ॥ २॥ पंचमहाव्रत पालनकारी, प्रतिबोध्यां बहुलां नरनारी; एकांते गुरुजी सुखकारी, अंतर यात्मप्रदेश विहारी. अक्षत.॥३॥ आतम सुखसागर गुरुयारी, रोमेरोमे लागी यारी; बुद्धिसागरगुरु अनगारी, आनंद मंगलप्रद अविकारो. अक्षत. ॥४॥
ॐ अँई महावीरजिनेश्वरपट्ट परंपर प्रवर्तित श्री गुरुपूजार्थ अक्षतं यजामहे स्वाहा ॥
सप्तमी ध्यानरूपा नैवेद्यपूजा. ध्यानरूप नैवेद्यथी, गुरुपूजा करनार; उपशम क्षयोपशम अने, क्षायिकगुण वरनार. ॥१॥ असंख्य प्रदेशी आतमा,प्रतिप्रदेशे अनंत; गुणपर्यायनाध्यानथो, प्रगटे शिवपदकंत. ॥२॥ बाह्य नैवेद्यना रसवडे, नित्य तृप्ति नहि थाय; आतमरस नैवेद्यथी, जडरस रुचि विणशाय. ॥३॥
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(२८०) जिनदर्शन मोहनगारा, ए रागनी चाल.
गुरुदर्शन छे सुखकारी, गुरुसंतनी जे बलिहारीरे. गुरु. द्रव्यगुणपर्याय विचारी, ध्यान समाधिधारी; आतमरसियाने अविकारी, गुरुनी गति के न्यारीरे. गुरु. ॥१॥ बातम असंख्यप्रदेश विहारी, द्रव्यजावव्यवहारी; षडावश्यक धर्माचारी, उत्कृष्टा अन गारी रे; गुरु. ॥२॥ अंतरथी नहीं जडनीयारी, आतम परिणति प्यारी; क्रियायांगी साचा उपकारी, संत सदा जयकारी रे. गुरु. ॥३॥ गुरुमूर्ति द्रव्यत्नावथो प्यारी, शुद्धप्रदेशी सारी; कर्म करे पण निर्बध भारी, सर्वजीव आधारो रे. गुरु.॥४॥ गुरुनी अकलकला सहु न्यारी, समजे नहि अविचारी;बुद्धिसागरध्याननैवद्य-धरतां सुख निर्धारीरे. गुरु. ॥५॥ ___ ॐ है। श्री अर्ह महावीर परमेश्वर पट्ट परंपर शोभित गुरुपद ध्यानार्थ नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥
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( २८१ ) अष्टमी ज्ञानानन्दानुभवरूपा फलपूजा.
आतम आनंद पामीने, जडरस पेलीपार; आरमदशाना अनुभवी, जय जय गुरु सुखकार. ॥ १ ॥ आतम अनुभवफलतो, आनंदरस छे अनंत; आतमरसी ज्ञानी गुरु, पामे भवनो त्र्यंत. ॥ २ ॥ द्रव्यभाव फल पामवा, फलथी पूजे जेह; जक्त शिष्य सुखरस लहे, पके न पाढो तेह ॥ ३ ॥
निशदिन जोउ व्हारी वाटडी, घेर आवाने ढोला.
ए राग.
तम अनुभव फलवडे, गुरु पूजीए भावे, द्रव्य थकी भाव संपजे, निज गुण रस आवे. खतम. ॥ १ ॥ संत गुरुनी पूजना, नहीं निष्फल जाती; कारणे कार्यनी सिद्धि छे, प्रभुता परखाती. आतम. ॥ २ ॥ गुरु हृदयमां छे प्रभु, तेम गुरु प्रभु जाणो; गुरु पूजे प्रभु पूजिया, श्रद्धा प्रेमे प्रमाणो. आतम
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( २८२ )
॥ ३ ॥ गुरुथी सिद्धता संपजे, गुरु प्रभुने जणावे; निमित्त गुरुथी श्रात्मनी, गुरुता जवी पावे. श्रातम. ॥ ४ ॥ गुरु सेवा भक्तिवमे, थाती हृदयनी शुद्धि; आतम ज्ञान ज संपजे, नवक्षायिक ऋद्धि. आतम ॥ ५ ॥ गुरुथी तमरस मळे, जमरस टळे चांति; गुरुथी आतमरस लह्यो, मळी आतम शांति. आतम. ॥ ६॥ अनुभव फलधी पूजिया, गुरुजी जयकारी; बुद्धिसागर सद्गुरु, प्रभु विश्वोपकारी.
आतम ॥ ७ ॥
ॐ हे परमप्रभु परब्रह्म परमात्ममहावीर तीर्थंकरदेव पट्टपरंपरवर्त्ति सद्गुरुचरणानुनव फल पूजार्थ फलं, य. स्वाहा ॥
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कलश.
गुरु पूजा गाइ गुणकारी, मंगलदायी शिवसुख कारी. गुरु याधि व्याधि उपाधिहारो, गुरु पूजाथी तरे नरनारी.. गुरु ॥ १ ॥ श्रगणिश अव्योतरनी
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(२८३) साले, चैत्र वदि बीजने गुरुवारे. गुरु. मधुपुरी (महुडी) मां भक्ति विचारे, पूजा रची शुभ भावविशाले. गुरु. ॥२॥ गुरु पूजा जे भणे नरनारी, पामो मंगल ऋद्धि अपारी; घर घर आनंद प्रगटो भारी, गुरु पूजाथी शांति थनारी. गुरु.॥३॥ गुरु नक्तोनी चढती थाशो, धर्म कमाणी सत्य कमाशो; गुरुभक्त दुःखो दूर जाशो, गुरु नामे ए श्राशी सुहाशो. गुरु. ॥४॥ द्रव्यथीभावथीमहा उपकारी,श्री सुखसागरजी हित कारी. बुद्धिसागर गुरु बलिहारी, व्हारे आवी बे. डली तारी. गुरु. ॥५॥
कलश.
गाइ गाइरे गुरुपूजा नावथी गाइ. ए टेक. __द्रव्य जावथी मुनि गुरुपूजा, आनंद मंगलदायी; श्रोता वक्ता घर घर मंगल, संघमां शांति वधारे. गुरु. ॥१॥ ओगणिश अव्योत्तर चैत्रनी, वदि बीजने गुरुवारे; मधुपुरी (महुमी) मांही गुरु
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( २८४) भक्तिथी, पूजा रची नवी तारेरे. गुरु.॥२॥ गुरुजक्तिथी पातिक शापो, आधि व्याधि प्रणाशो; गुरुभक्तिथी संघमां घर घर, मंगल सुखडां प्रकाशोरे. गुरु. ॥३॥ गुरुन्नक्तिथी नक्तजनोनी, वळशो सुखनी वेळा; गुरु भक्तिथी प्रभुपद पामो, मळशो वांछित मेळारे. गुरु. ॥४॥ गुरुजक्तिरसियां नरनारी, सुखसागर गुरु धारी; बुद्धिसागर ऋद्धि वृद्धि-कीर्ति जयपदकारीरे. गुरु.॥५॥
गुरुपूजा भणाववानी विधि. उपाश्रयमां अगर बीजी जग्याए गुरुनां पगलां स्थापनां; केशरचंदननी बेपादुकाकरवी, अगरचोखानी पण वे पादुका करवी. गुरुनी छबी होयतो ते स्थापवी, स्नात्र जणाववानी जरूर नथी; जलपूजानो कलश, जलपूजा नणावीने आगल स्थापन करवो. पाषाणधातु आदिनी गुरुमूर्ति होयतो तेनापर जलनो अभिषेक करवो, तथा चंदननी पूजा वगेरे जिनप्र
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(२८५) तिमानी माफक करवी, पगलां पाषाणनां होयतोते पर जल अनिषेक तथा चंदन पुष्प वगेरे प्रतिमानी पेठे चढाववां, धूपदीप आगल करवो. पगलां अगर मूर्तिनी आगळ, स्वस्तिक नैवेद्यफलने ढोकवा; केशरचंदननी पादुका करी होयतो तेनी आगळ जल कसशादिक मूकवा. जिनमन्दिरमा गोखलामा गुरुमूर्ति अगर पादुका होयतो श्रीजिनप्रतिमानो मूळ गजारो बंध करीने गुरु पादुका अगर मूर्ति आगळ पूजाभणाववी, अरिहंत जेम परमेष्ठी के तेन आचार्य उपाध्याय अने मुनि ए त्रण पंचपरमेष्ठीमां छे तेथी तेमनी मूर्ति पादुका डे ते जिनमूर्ति वा पादुकानी पेठे पूजवा योग्य छे जे दिवसे सूरिवाचक साधुए देहोत्सर्ग कयों होय ते दिवसे गुरुपूजा जणाववी. स्नात्रियाओने जमामवा. तेमने लाडु आदिनी प्रजावना करवी. पूजामां आवनार सर्वनी प्रभावनाथी भक्ति करवी. शक्ति होयतो जमण पण कर. पादुका अगर मूर्ति आगळ उत्सव करवो. सांजरे
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(२८६) टोळी बेसाडी गुरुजक्तिनां गायनो स्तवनो गावां. गुरुनी भक्तिना निमित्ते वर्तमान साधु साध्वीनी सेवा नक्ति करवी. गुरुचरित्रनुं व्याख्यान सांजळ्बु, ते निमित्ते धार्मिक पुस्तको छपाववां. गुरुनो महिमा वधारवो. गुरुना उपदेशोनुसारे वर्तवू. गुरुपादुकानो वा मूर्तिनी सुगंधी पुष्पथी पूजा करवी.
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(२८७) अथ सत्तरजेदी पूजा. प्रभु महावीर जिनपति, तीर्थकर जगदेव; श्री जिनवाणी सद्गुरु, प्रणमी करु शुभ सेव. ॥१॥ सत्तरजेदी पूजा नली, द्रव्य नाव सुखकार, श्रावकने बे नेदथी, यतिने नावथी सार. ॥२॥ आगम शास्त्राधारथी, पूजा भवि हितकार; श्रद्धा प्रीतिभक्तिथो, आत्मशुद्धि करनार. ॥ ३ ॥
प्रथम न्हवणपूजा. ॥ ध्रुवपदं, गोडीरागेण गीयते ॥ जिनपतिने न्हवरावेहो सुरपति, मेरुशिखर न्हवरावेरे; उज्वल शुभ आतमपरिणामे, जिनगुण भावना भावेरे. जिन ॥ १॥ प्रभु तुज उपरे श्रद्धा नीति, न्हवण पूजा में धारोरे; दुनियानी खोज दूर निवारी, तुज पर जन सहु वारीरे. जिन ॥२॥ तुज भक्तिमां मुज मन प्रणम्यु, तुज रागे रंगायोरे, तुज रागे समकित गुण निश्चय, तन्मयभावे सुहा.
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( २८८ )
योरे. जिन० ॥ ३ ॥ गंगादिक निर्मल जल स्नाने, भावथी भक्तिकामेरे; बुद्धिसागर पूजा करतां, आतम निज गुण पामेरे, जिन० ॥ ४ ॥
द्वितीया चंदनविलेपनपूजा. द्रव्यजावथी कीजीए, चंदनपूजा बेश; जावथो समदनवमे, पूजे विघटे क्लेश. ॥ १ ॥ धन्याश्री रागेण गीयते.
द्रव्यने भाषथी चंदनपूजा, जिनवरनी जयकाररे; सत्य सुगंधी चूर्ण विलेपन, समता चंदन साररे. द्रव्य • ॥ १ ॥ प्रभु नवअंगे चंदन चर्चे, भाव धरी नरनाररे; श्रद्धा प्रीति प्रभुपर वधतां, परपरियति परिहाररे. द्रव्य० ॥ २ ॥ तुजमां राचुं तुजपर माचुं, जूली दुनिया भानरे; बुद्धिसागर प्रजुमय जोवनः रंगे थयो गुल्तानरे द्रव्य० ॥ ३ ॥
तृतीया चक्षुर्युगलपुजा.
द्रव्य भावथी चक्षुनी, युगलपूजा सुखकार; चढता प्रीति भावथी, करतां शिवसुख सार. ॥१॥
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( २८९ ) दीपचंदी ताल सोरठ. जिनदर्शन मोहनगारा, ए राग.
तुज मूरति प्रभु !!! मुज व्हाली, आंखे देखी देखी धारीरे तुज० सम्यग् मति श्रुत चक्षु युगलथी, प्रभु पूजा जयकारो; केवल दर्शन ज्ञान प्रगटतां, पूजा पूर्ण प्रकारोरे तुज० ॥ १ ॥ शब्दनये तुज मूरति प्यारी, देखे तस बलिहारी; नयव्यवहारे स्थापना सारी, जविजीवने हितकारीरे तुज० ॥ २ ॥ तुज भक्ति शिवपुरनी बारी, मिथ्यामत संहारो, सम्यमू दृष्टिी करनारी, अनंत कर्म संहारीरे. तुज० ॥३॥ भावथी पूजंतां नरनारी, आनंदनी लहे क्यारी; बुद्धिसागर जिनगुण धारी, पूजा छे सुखकारीरेतुज० ॥ ४ ॥
चतुर्थी वासपूजा ॥
चंदन घसी घनसारने, मेळवी पुष्प सुवास; वासथकी प्रभु पूजीए, जावथकी विश्वास. ॥ १ ॥
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(२९०) गीत राग-मालवी गोडी. वासथकी प्रभु पूजा सारी, भक्तजनोने प्यारीरे; गुणीनी सेवा प्रकट करे गुण, प्रभुगुणनो बलिहारोरे. वास० ॥१॥ समकित वासे प्रभु पूजंतां, गुणगण प्रगटे भारीरे; प्रभुगुणवासे वासित आतम, शुद्धातम निर्धारीरे. वास ॥ २॥ सर्व विरति संयमगुण वासे, मोहनी धुगंध नासेरे; समकितवासे प्रभु निज पासे, आपोआप प्रकाशेरे. वास० ॥ ३ ॥ निमित शुद्ध उपादान वासे, चढतां भाव वधारीरे; बुद्धिसागर आत्मविकासो, प्रभु पूजी नरनारीरे. वास०॥४॥
पंचमी पुष्पपूजा. द्रव्यजावसुपुष्पथी, पूजंतां जिनराज; अंतर आतम उल्लसे, प्रगटे प्रभु साम्राज्य.॥॥ प्रभु निर्मल दर्शन कीजीए ए-राग.
सारंगरागण गीयते. पूजीए पूजीए पूजीए, जिनराजने प्रेमे पूजीए,
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( २९१) प्रभुगुण अमृत पीजीए, जिनराजने प्रेमे पूजाए; अव्यथकी शुजगंधी पुष्पे, प्रभुनी पूजा कोजीए, जावयकी व्रतपंचाचारना, पुष्पे पूजीने रोझीए. जिनराज० ॥१॥ क्षयोपशम उपशमने क्षायिक, आतमगुणे प्रकटीजीए; बातमगुण अनुयायी चेतना, प्रगटावी सुख लीजोए, जिनराज ॥२॥ प्रभु तुजयी मुज लगनी लागी, मुज पर करुणा कोजीए; बुद्धिसागर आप्तम आनंद, रसनर प्याला पीजीए. जिनराज ॥३॥
षष्ठी पुष्पमाला पूजा. पुष्पमालथो पूजता, प्रभु गुण प्रकटे अंग; ईयल भमरी ध्यानयो, चमरी पद लहे रंगः ॥१॥
चेतन अब मोहे दरिशन दोजे. ए राग..
प्रभुजी महावीर तुज रढ लागी, थयो तुज गुण अंतर रागी. प्रनुजी० तुज गुण गणतां पार न आवे, कोटी वर्ष वही जावे; तुज अनुभव झांवो
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(२९२) घट प्रगटे, थानंद जगमां न मावे. प्रभु० ॥१॥ आतमगुण पंच पुष्पनी माला, नावथो पूजा प्यारी; जिनपूजा ते आतमपूजा, निश्चयथो सुखकारी. प्रभुजी० ॥ २ ॥ आतम द्रव्यना गुण पर्याये, आ. मोपयोग समारी; बुद्धिसागर आविर्भावे, प्रभु प्रकटे जयकारी. प्रभुजी.॥३॥
सप्तमो कुसुम थांगी रचनारूपपूजा. देव गुरुने धर्मनी, श्रद्धा भक्ति प्रकार; कुसुम आंगी पूजाभली, करतां नवी नरनार. १
राग बिरुयो अथवा पोलु ॥ सोवे सोवे सारी रेंन गुमाश्. ए राग. कुसुम यांगीनी पूजा सारो, द्रव्य भावथी नवि हितकारी. कु० समकित सड सठ बोल विचारी, कुसुमनी आंगो मलपरिहारी. कु० ॥१॥ देव गुरुने धर्मनी नक्ति, करतां प्रगटे आतम शक्ति. कुछ समकित वण व्रत तप जप रोति, तेथी टळे नहि
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( २९३ )
भवनो जीति कु० ॥ २ ॥ तुज श्रागमनी श्रद्धा
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धारी, तुजपर तन मन जाउ वारी; कु• ॥ तुज संतोनी साची यारी, बाकी जूठी दुनियादारी. कु० ॥ ३ ॥ श्रावक साधु गुणगण भारी, जावथी पूजा ए निर्धारी; कु० ॥ बुद्धिसागर भक्ति प्यारी, भावथकी शिवसुख देनारो कु० ॥ ४ ॥
अष्टम चूर्ण पूजा.
घनसारादिक चूर्णथी, जिनपति पूजा एह; भावथी उपराम चूर्णथी, पूजे जिनवर तेह. ॥ १ ॥ ध्रुवपद काफी रागेण गोयते.
प्रभु तुज दर्शननो बलिहारी, दर्शननी बलिहारी. प्रभु० द्रव्यने जावथ। दर्शन पामे, धन्य ते नरने नारी; द्रव्यंभाव चूरणथी पूजा, करता तस बलिहारी. प्रभु० ॥१॥ क्रोध मान मायाने लोननो, उपशम जेटलो थावे; तेटलो प्रभु गुण अनुभव यावे, समकितीने ए सुहावे. प्रभु० ॥ २ ॥ आनंद
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(२९४) ज्ञाननी प्रकट प्रभुता, प्रलु भक्ति तेह भावे; क्षयो पशम उपशमना भावे, प्रमटे अनुजव आवे. प्रजु० ॥३॥ सातनयाथी दर्शन पूजा, सेवा साची जाण; बुद्धिसागर प्रभुनो पूजा, आपोआप प्रमाणी. प्रभु० ॥४॥
नवमी ध्वजपूजा. द्रव्यभाव बे भेदथी, ध्वजपूजा सुखकार; धजथी जिनवर पूजतां, भक्ति बधे जयकार. ॥ १ ॥
नमुं रविसामर गुरु राया, जिन शासन जय बाया. ए राग.
घन घटा भुवन रंग छाया. ए राग. ध्वजपूजा जयकारी, जिन शासन शोभा कारी. ध्वज ॥ प्रभु धर्मने जग फैलावे, ध्वज पूजा भावना दावे; जाणे लेनी बलिहारी. ध्वज जिन ॥१॥ जे थया प्रजावक सारा, तेणे प्रभु पूज्या प्यारा; ध्वज पूजा एहवी धारी, ध्वज. जि० ॥२॥
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(२९५) जिन शासन जे शोजावे, ते भावथी पूजा पावे, प्रभु भक्तनी ले बलिहारी. ध्वज. ॥३॥ प्रभु पूजाथी प्रभु प्रगटे, चढता भावे मल विघटे; बुद्धिसागर सुखकारी. ध्वज. ॥ ४ ॥
दशमी आजूषणपूजा. द्रौपदीने सूर्याभनी, पेठे पूजे जेह; द्रव्यथी भावना पूजना, निश्चय पामे तेह.
श्री श्रेयांसजिन अंतरजामी. ए राग.
श्री जिनवरनी पूजा प्यारी, सुख आपे निर्धा रीरे; द्रव्यभावथी पूजा सारी, करतां नरने नारीरें श्री० ॥१॥ नयनिक्षेपे पूजा विचारी, सम्यग. दृष्टि धारीरे; द्रव्यनाव पूजा याचारी, हर कदाग्रह वारीरे. श्री० ॥२॥ बारने चार वे नावना भूषण, निश्चयने व्यवहारीरे; बुद्धिसागर नावना पूजा, प्र. गटी घट सुखकारीरे. श्री ॥३॥
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(२९६) एकादशमी कुसुमगृहपूजा कुसुम गृहे प्रभु थापीने, जे पूजे नरनार; ते मुक्तिवेगे वरे, सम्यग्दृष्टि उदार ॥ १॥ आज सखी मोये वाल्हमा, मुज मंदिर आये. ए राग.
मारु वा.॥ अथवा उत्सव रंग वधामणां. ए राग. वेलावल. ॥
परम प्रभु परमातमा, मुज दिल दर्शायो; बा. झांतर स्वरूपथी, पूरण परखायो. परम ॥१॥स. म्यग्दृष्टि जीवनी, सहु करणी लेखे; अल्पबंध बहु निर्जरा, करे सम्यग् पेखे. परम ॥२॥ बाह्याभ्यं. तर अतिशय,-पुष्य घरमां बिराजो; असंख्यप्रदेशी पुष्पना, घरमांही छाजो. परम० ॥३॥ द्रव्यने चावथी पुष्पy, घर कर जिन थापे; बुद्धिसागर आतमा, प्रभु छापे व्यापे. परम० ॥ ४॥
बारमी कुसुम मेघपूजा. द्रव्यथी कुसुमना मेघथी, प्रभुपूजा सुखकार; जावथी प्रजु उपदेशना, मेघथी पूजा सार. ॥ १॥
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(२९७) राग फाग-सिद्ध जजो भगवंत, प्राणी पूर्णानन्दो.
ए राग. जिनवर छे जयकार, नवी; भावथी पूजो; द्रव्यने भावथको जिनपूजा, अमृतरस धरनार. भवी० आतम गुण पर्यायस्वनावे, धर्म प्रगट करनार. भवी ॥१॥ जिनवर वाणीपुष्पनामेघे, बातम शांति थनार. भवी अनुलवपुष्पना मेहुला वरसे, सुगधनी बहु म्हार. भवो० ॥२॥ मोहनी पुगंध दूरे नासे, समता शीतलता सार. भवी० मुजमन तुज उपदेश स्वरूपी-मेघे मोडं अपार. भवो० ॥३॥ पुष्पना मेघो तुज शिर उपर, वर्षावू धरी व्हाल. जवी बुद्धिसागर मुजपर वर्षों, जिनवाणी मेघ अपार. भवो० ॥ ४॥
त्रयोदशमी अष्टमाङ्गलिक पूजा. स्वस्तिक ने श्रीवस्त , घट नद्रासन चार; नंदावतने वर्धमान, मीनयुग दर्पण सार. ॥१॥
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( २९८ )
ष्ट ए मंगलची प्रभु, पूजे पाप पलाय, पद पद मंगल संपजे, लब्धि सिद्धि प्रगटाय. ॥ २ ॥
॥ ध्रुवपद गोडी रागेण गीयते ॥ प्रभुनी आगळ आठे मंगल, पुण्यातिशये चालेरे; द्रव्यथी मंगल आलेखे जे, जावमङ्गल ते जाळेरे. प्रभु० ॥१॥ सहज गुण जे चार ते स्वस्तिक, दर्पण ज्ञानने धारोरे; सम्यग्दृष्टि कुंभ विचारो, विरति श्रीवच्छ प्यारोरे प्रभु० ॥ २ ॥ संयम भद्रासन नंदावर्त, अनुभव आनंद पामोरे; आत्म समाधि वर्धमान छे, भाव मंगलथी जामोरे. प्रभु० ॥ ३ ॥ मीन युगलते ज्ञानने दर्शन उपयोगे जयकारीरे; बुद्धिसागर प्रभुनी पूजा, द्रव्यजाव हितकारीरे. प्रभु० ॥ ४ ॥
॥ चतुर्दश धूपदीपक पूजा ॥ द्रव्यभावथी धूपने, दीपक पूजा सार; जिनचरनी जे जन करे, पामे शर्म अपार.
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(२९९) पिथा निज महेले पधारोरे, करी करुणा महाराज फ्यिा.
ए राग मारु.॥ प्रभु तुज प्रीतमी लागारे, प्रगटयूं रुचिरसपूर. प्रभु० ॥१॥ ध्याता ध्येयने ध्याननीरे, एकतामांहि न जेद; निर्विकल्प समाधिमारे, जोति द्वेष न खेद. प्रभु० ॥१॥ आतमना उपयोगमारे, प्रजु तुं छे मुज पास; ध्यान धूपने ज्ञाननारे, दीपकनो २ प्रकाश. प्रभु० ॥॥ कोटि वर्ष सम ताह्यरोरे, क्षणविरहो न खमाय; बुद्धिसागर प्रेमथोरे, पूजा करे ज जीवाय. प्रभु० ॥३॥
पनरमी गीत पूजा. प्रभु गुण पर्याय गीतथी, प्रभुने पूजे जेह; चढता भावोवासथी, प्रभुपद पामे तेह. नाथ कैसे गजको बंध छुडायो-ए राग. सारंग. ॥
प्रभु तुज गान घणुं गुणकारी, आतम आनंदकारी. प्रभु० वीणादिक तालमानने ताने, प्रभु
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( ३०० ) गुण गान उमाह्यो; नरघां मरदंग तान सुनाने, आनंद रस रंगायो प्रभु ॥ १ ॥ प्रभु तुज सन्मुख चेतना करवा, उपयोगथी हर्षायो; प्रभु तुजगाने भान न जगनुं, यातम झांखी पायो. प्रभु० ॥ २ ॥ प्रभुने गातां सुखनी खुमारी, प्रगटंती जयकारो; पूर्णानंदी प्रभुने पूजो, गीतवमे नरनारी. प्रभु० ॥ ३ ॥ परापश्यंती मध्यमागाने, अनहदगीत सुताने; बुद्धिसागर प्रभुरसपाने, नक्त प्रभु घट माने.
प्रभु० ॥ ४ ॥
सोळमी नृत्यपूजा.
प्रभु आगळ जावे करे, नृत्यनी पूजा जेह; तमशुद्धि ते करे, पामे शिवपुर गेह. ॥ १ ॥ अवसर बेरबेर नहि यावे. ए राग. आशावरी.
शुभंकर जिनपूजा जयकारी, द्रव्यभावथी नृत्यनी पूजा, आतम आनंदकारी. शुभंकर. ॥ एक शता देवकुमरने, सुर कुमरी शुभ नाचे;
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(३०१) सुरनर नृत्य करीने माचे, आत्मरसी थै राचे. शुभंकर० ॥१॥ चढते भावे धर्म रसीला, प्रभु प्रेमे उल्हसिया; सुर नरनारी हर्षे नाचे, श्रद्धाजक्तिमा वसिया. शुभंकर. ॥ २॥ भकिए रोम रोम जस विकसे, दिलमां हर्ष न मावे, भावथी नवरसना शंगारे, अंतरनाचे सुहावे. शुभंकर. ॥ ३ ॥ भक्तिरसे गुल्तान बनीने, गुणपर्याये नाचुं; बुद्धिसागर आत्ममहावीर, सहज स्वभावे राचुं. शुभंकर.॥४॥
__सत्तरमी सर्ववाद्यपुजा. सर्वजाति वाजिंत्रथी, चढता भावोल्लास; नरनारी प्रभु पूजतां, पामे शिवसुख खास ॥१॥
राग. प्रभात. समवसरणमां वाजा वाजे, अंबरतलमा गाजेरे; देवदुंदुभि वाजी बाजे, जिनपति महिमाए राजेरे. सम० ॥१॥ सारंगी शरणाइ जूंगळ, भेरी न फेरी वीणारे; जबरी ढोल ने वंशळी वाजे, सुरकुम
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( ३०२) रीना स्वर झीणारे. सम० ॥२॥ मुरजः कंसालांने मृदंगमे, पणवादिक वाजीत्ररे; जिनवर पूजा भत्रि जन करता; मोह शत्रुने जीतेरे. सम० ॥ ३ ॥ सुरनर वाजिंत्रे जिनपूजा, भावथी करी नर नारीरे. तीथैकर आदि पद पावे, निजपरिणतिने समारोरे. सम० ॥ ४॥ योगाभ्यासे अंतरवाजां, वाजे अनहद तानेरे; शुक्ल शुक्ल उज्वल परिणामे, धर्म ध्यान निज मानेरे. सम ॥५॥ आत्मोल्लास रस वाजिंत्रे प्रभु, पूजामां थइ रसियोरे; बुद्धिसागर आत्म स्वनावे, आनंद ल्हेरे उल्ललियोरे. सम ॥६॥
कलश-धनाश्री.
गाया गायारे प्रभु महावीर गुणगण ध्यायी, सत्तर नदी पूजाथी प्रभु, गाता मुक्ति वधाइरे. प्रभु महाबोर. ॥१॥ द्रव्य नाव प्रभुपूजा रचीने, आतम आनंद पायो; ओगणिश अव्योतर चैतर वदि, दशमी जय वर्तायोरे. प्रजु० ॥२॥ जिनवर
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(३०३ ) महावीर पट्ट परंपरा, तपगच्छ सागर शाखे, रविसागर गुरु सुखसागर गुरु, जिन आणा दिल राखेरे प्रभु० ॥ ३ ॥ मधुपुरीमां पद्मप्रभु जिन, गुरुनी पूर्ण कृपाए; यानंद मंगल ऋद्धि सिद्धि, पूजा करंतां थारे प्रभुः || ४ || घर घर संघमां यानंद मंगल, पूजाथी सुख भारी. बुद्धिसागरसूरि ऋद्धि, वृद्धि कीर्ति जयकारीरे. प्रभु० ॥ ५ ॥
अथ नवपद लघु पूजा. प्रथम अरिहंत पद पूजा.
परम प्रभु परमातमा, परब्रह्म महावीर; शासनपति अरिहंत जिन, सर्व धीर महाघीर. ॥. १. ॥ वंदी पूजी ध्याइने, नव पद पूजा सार; रचुं स्वपरहित कारणे, आत्म शुद्धि करनार ॥ २ ॥ तीर्थंकर सर्वे प्रभु, अर्हतु पदमां समाय; चार निक्षेपे जाएतां, पूजे शिव सुख थायः ॥ ३ ॥
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( ३०४ ) राग. सोरठ. अरिहंत द्रव्यभाव सुखकार ।, साची लागी अरिहंत यारी. शुद्धतम उपकार. अरिहंत. चोत्रीश अतिशय धारी जिनेश्वर - बारगुणे जयकारी; पांत्रीश वाणी गुणना धारण - तीर्थकर हितकारी. - रिहंत ॥ १ ॥ संघ चतुर्विध तीरथ स्थापक, -केवल ज्ञानी विहारी; विश्वोद्धारक कर्म संहारक, शुद्धानंदना धारी. अरिहंत. ॥ २ ॥ तुजपर पूरण प्रीति प्रगटी, कोथी न उतरे उतारी; निश्चयथी अरिहंत निजातम, जाण्युं उपयोग धारी. अरिहंत. ॥ ३॥ सत्ता व्यक्तिनावे अरिहंत, निश्चय नय व्यवहारी; बुद्धिसागर अरिहंत आतम-शुद्ध बुद्ध अविकारी. अरिहंत ॥ ४ ॥
ॐ ह्री परम • अन् पद पूजार्थ जलं० - य० स्वाहा.
द्वितीया सिद्धपद पूजा.
पूजुं प्रभु गुण भावयों, सिद्ध सदा जयकार; अष्टगुणी परमातमा, एकत्रिंश गुणधार ॥ १ ॥ अनंत
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(३०५) ज्योते झळहळे, अनंत आनंद धाम; निराकार परब्रह्मने, हो उपयोगे प्रणाम. ॥ २ ॥
नाथ कसे गजको बंध छुडायो. सारंग वा.
राग-आशावरी. निरंजन सिद्धप्रभु सुखकारी, कर्म रहित. जयकारी. निरंजन क्षायिक नवलब्धि गुणधारी, निराकार निर्धारी; अनंत ज्योते झळहळता विभु, पूर्णानंदी अपारी. निरंजन० ॥१॥ अलख अरूपी जन्म मरण नहीं, गुणपर्यायाधारी; शुद्धातम परब्रह्म अखंमित, अविनाशी अविकारी. निरंजन० ॥२॥ सकल सिद्धने वंदु पूजें, शुद्धोपयोग समारी; सत्ताए निज आतम सिद्ध छ; समरंतां सुख भारी. निरंजन० ॥ ३ ॥ सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्रना, शुद्धोपयोगे विहारी, बुद्धिसागर सिद्ध स्वयं थै, पामे शिव नरनारी. निरंजन ॥४॥
ॐ=॥ सिद्धपद पूजार्थ जलं. य० स्वाहा ॥
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तृतीया आचार्यपद पूजा. द्रव्यभाव व्यवहारथो, निश्च यथी सूरिराज; वंदतां पूजतां ध्यावतां, प्रगटे शिवसाम्राज्य. ॥१॥ सोवे सोवे मारी रेनगुमाइ. राग. विरुयो.
अथवा पोल्लु. वंदु पूनुं सूरिवर रागे, ज्ञानादिक गुण अंतर जागे-वंदु. ॥ छत्रीशो उत्रीशो गुणगण मंडित-समनावे वर्ते वैराग्ये. वंदु. ॥ १ ॥ धर्मना रक्षक धर्म प्रवर्तक-जेहथो मोहनी दूरे भागे. वंदुः। द्रव्य क्षेत्र काल भावने जाणे-विषयोमा नहि वर्ते रागे. वंदु. ॥ २॥ जिनवाणीनो अर्थ जणावे. द्रव्यने भावथो वर्ते त्यागे. वंदु. । ज्ञानी ध्यान योगो सनूरा-म्हा. ले आतम गुणना बागे. वंदु. ॥३॥ निश्चयथी सू. रिवर निज आतम-शुद्ध परिणति भावमा लागे; बुद्धिसागर ब्रह्मसूरि घट- प्रगटतां जय डंको वागे. वंदु.॥४॥
ॐo-आचार्य पद पूजार्थ जलं० या स्वाहा ॥
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( ३०७ ) चतुर्थी उपाध्याय पद पूजा.
द्रव्य भाव वाचक नमुं, पूजुं जग हितकार; ज्ञानी पंच महाव्रती, सेवंतां सुखकार ॥ १ ॥
आज सखो मुज व्हालमा, मन मंदिर आये. ए राग. वेलावल ॥
वाचक पदने वंदीए, पूजीए जयकारी; वाचक सेवा भक्तिथो, निज शुद्धि यनारी. वाचक. ॥ १ ॥ द्रव्य क्षेत्र काल भावथी, वर्ते जयकारी; निश्चय दृष्टि दिल धरी, वर्ते व्यवहारी. वाचक. ॥ २ ॥ धर्म शास्त्र पाठक प्रभु, विश्वजीत्रोपकारी; यानम उपयोगे रहे, ब्रह्म वाचक धारी. वाचक. ॥ ३ ॥ निश्चय वाचक आतमा, पञ्च्चोश गुण धारी; बुद्धिसागर धर्मना - वाहक हितकारी. वाचक. ॥ ४ ॥
ॐ हो०- प० वा त्रक पदपूजार्थ जलं० य० स्वाहा ॥
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(३०८) पंचमी साधु पद पूजा. चउनिक्षेपे साधुपद, क्षेत्रकाल अनुसार; वं. दतां सेवतां पूजता, ध्यातां शर्म अपार.
मेरुशिखर न्हवरावेहो सुरपति. ए राग.
साधु सदा उपकारी हो जगमां, साधु सदा उपकारी.॥ व्यवहारथी जे पंचाचारी, पंच महाव्रत धारी; साधुसंगतनी बलिहारी, जेथो तरे नरनारी हो. जगमां. साधु. ॥१॥ द्रव्यादिक प्रतिबंध निवारी, रागने रोष संहारी; व्यवहारथी व्यवहारे वर्ते, निश्चय उपयोग धारी हो. जगमां. ॥ २ ॥ साधु संतनी सेवा करीए, दोषनी दृष्टि निवारी; वेषाचारथी अनंत उत्तम, गुण लेजो नर ना हो. ॥३॥ आतम ते साधु परमातम, उपयोगे ल्यो धारी; बु. द्धिसागर साधु सेवा, अनंतगुणी गुणकारी हो. ज. गमां. ॥४॥ ॐ ह्री-प०-साधु पद पूजार्थ जलं० य० स्वाहा ॥
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(३०९) षष्ठी दर्शनपद पूजा. सम्यग् दर्शन पद नमुं, पूनुं ध्या, सत्य, सम्यग् दर्शन पामतां, सफलां धर्मनां कृत्य. राग. गोडी. निशानी कहा बतावुरे. ए लय. ॥ __ अनुभव दर्शन पामोरे, गुरुगमथी नरनार. अनुभव०॥
देवगुरुने धर्मनीरे, श्रद्धा प्रीति थाय; सडसठ बोले अलंकयुरे, प्रगटे दिलमां जणाय. अनुभव. ॥१॥ द्रव्यजाव व्यवहारथीरे, निश्चय समकित जाण; सातनयोथी जाणतारे, रहे नहीं अज्ञान. अ. नुन्जव. ॥ २ ॥ दर्शन ज्ञान चरित्रनीरे, एकपरिणति थाय; निश्चय दर्शन आतमारे, शुद्धोपयोगे सुहाय. अनुत्लव. ॥ ३॥ सम्यग् दर्शन पामतारे, निश्चय मुक्ति थाय; बुद्धिसागर आतमारे, परमातम पद पाय. अनुनव. ॥४॥
ॐ ही० प० दर्शनार्थ जलं. यः स्वाहा ॥
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(३१०)
सप्तमी ज्ञान पूजा. द्रव्य भावथी ज्ञानने, बंदु पूजु बेश, सम्यग् ज्ञानने पामतां, नासे सघळा क्लेश. ॥ १ ॥
- राग मालवी. गोडी.
सम्यग झान लहो नर नारी, नहि कोइ ज्ञान समानरे; ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमा कर्मने, टाळी लहे निर्वाणरे. सम्यग् ॥ १॥ मतिश्रुत अवधि ने मन पर्यव, केवल पांचमुं ज्ञानरे; दर्शन पामे मतिश्रुत, जावथी, सम्यग् ज्ञान प्रमाण रे. सम्यग्. ॥२॥ आतम अनुभव ज्ञानोपयोगे, क्षणमा मुक्ति सुहाय रे; ज्ञानविना कोई ध्यान न पावे, ज्ञाने आनंद थाय रे. सम्यग् . ॥ ३ ॥ स्वपर प्रकाशक ज्ञान ते यातम, गुण गुणीरूप प्रमाण रे, बुद्धिसागर आतम ज्ञाने, प्रगटे केवल ज्ञान रे. सम्यग्. ॥ ४ ॥
ॐ ह्री० प०-ज्ञानार्थ जलंय० स्वाहा.
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(३११)
अष्टमी चारित्र पद पूजा. द्रव्य नाव चारित्रथी, आतम शुद्धि थाय, प्रगटे परमानन्दता, यातम सिद्ध सुहाय.॥१॥ कीजीए कीजीए कीजीए प्रभु निर्मल दर्शन
कोजोए. राग. सारंग. पामीए पामीए पामीए, शुद्ध चारित्र पदने पामीए, वामीए वामीए वामीए; मोहनावने दूरे वामीए. ॥ पामोए. ॥व्रत वेष तप जप त्यागाचारथी, द्रव्य चारित्रमा झामीए; सम परिणामे आत्मोपयोगे, नावचरण विश्रामीए. शुद्ध. ॥१॥ द्रव्य ते नाव- कारण जाणो, जाख्यु महावीर स्वामोए; जम विषयोमा रागने द्वेषनो, परिणतिथको विरामीए. शुभ. ॥ २॥ आत्मस्वभावे रमई चरण छ, चारित्रीने शिर नामीए; चारित्रमा अर्पा जाता, पूर्णानन्दे श्रारामीए. शुद्ध. ॥३॥ व्यवहार निश्चय चारित्र वरवा, गुरुगम ज्ञानने पामोए; बुद्धिसागर
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(३१२) श्रातम आनंद, प्रगट चारित्र प्रणामीए. शुद्ध. ॥४॥
ॐ ह्री० प० चारित्र पूजार्थ जलंग-य. स्वाहा ॥
नवमी तपपद पूजा. द्रव्य भावथी तप तपे, आठे कर्म विनाश; ज्ञान अने निष्कामथी, थावे शिवपुर वास. ॥१॥
॥ ध्रुवपद काफी रागण गीयते ॥ महावीर तपगुणनी बलिहारी, तपगुणनो ब. लिहारी. महावीर० ॥ तपथी लब्धियो प्रगटे जारी, मनडुं बने अविकारी; सुख दुःखमां समभावता धारी, अहंपणुं न लगारो. महावीर० ॥ १॥ बाह्य अभ्यंतर तप जयकारी, पुद्गलनो नहि यारी; राग द्वेषनी वृत्ति संहारी, पर परिणति परिहारी.महावीर० ॥ ॥ धन्य धन्य वीर जगजयकारी, सह्या परिषद भारी; प्रगटाव्युं घटमांही केवल, वंदु वार हजारी. महावीर० ॥३॥ तप ते आतम निश्चय धारी, त
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(३१३) पशो नरने नारी; बुद्धिसागर शुद्धातम रस,-स्वाद लह्यो तपधारी. महावीर ॥ ४ ॥
कलश.
__ गाइ गारे नवपदनी पूजा गा०॥ ओगणिश अव्योत्तर आश्विन बीज, मेसाणामां रचाइरे, नवपदनी पूजा गाइ ॥ वीर प्रभुनी पट्ट परंपर, श्वेतांबर सुखदायी; तपगच्छ हीरविजय सूरि जगगुरु, पट्ट परंपरा आइरे. नव०॥ १॥ नेमिसागर रविसागर गुरु, सुखसागर गुरु ध्यायी; नवपद पूजा रचतां ऋद्धि, वृद्धि कीर्ति सुहाइरे. नव० ॥२॥ घट घट नवपद ऋद्धि सिद्धि, सत्ताए रही छे सुहाइ; बुद्धिसागर पुर्णानन्दनी, प्रगटो घटमां वधाइरे. नव०॥३॥
ॐ प० तपः पदपूजार्थ जलं० य० स्वाहा ॥
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( ३१४) अथ पंचधा योग पूजा.
परम प्रभु परमातमा, प्रभु महावीर जिनेश; परमब्रह्म परमेश्वरा, प्रणमुं विभु विश्वेश ॥ १॥ पंच योग पूजा रचुं खातम शुद्धि काज; अष्टप्रकारे पूजना, करतां शिव साम्राज्य. ॥ २ ॥ अध्यातमने जावना, ध्यानने समता चार; वृत्तिसंक्षययोगथी, पूर्ण शुद्धि सुखकार ॥ ३ ॥ योगनो भूमिका प्रथम, अनुक्रमे पांचे योग, सुणतां ध्यावतां संपजे; यातम शिव सुख भोग. ||४|| आतम सुख निश्चय थता, योग रुचि प्रगटाय, पंच योगनी साधना; कर्मविनाशक थाय. ॥ ५॥ महावीर देवे प्रकाशिया, असंख्य योग सर्व मुख्य दर्शन ने, ज्ञान चरण छे उदार. ॥ ६ ॥ तेमां सहु योगो शमे, तोपण जवि हितकार; पंचयोग दर्शा विया, तस पूजा सुखकार ॥७॥
प्रकार,
प्रथम योग भूमिका पूजा.
प्रभु महावीर जिनेश्वर भाखे, योग भूमिका सारजी; योग भूमिका शुद्धि करतां, मन शुद्धि नि
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(३१५) र्धार. योगने धारोजी; प्रथम गुरु देव सेव, धरीए याचारोजी. ॥ १॥ ओघे देव गुरु वृद्ध सेवा, पूजन थाय सुरागजो, सदाचार प्रवृत्ति प्रगटे, तपनी वृत्ति त्याग. योगने. ॥ २ ॥ उपकारीनी सेवा थावे, प्रभु दर्शन गुणरागजी; चारिसंजीवन दृष्टांते, धर्म कर्म वैराग्य. योगने. ॥ ३ ॥ देव गुरुनी निन्दा न थाती, थाय सुपात्रे दानजी; परोपकार प्रवृत्ति थावे, गुण
तान. योग. ॥ ४ ॥ प्रभुता पामे गर्व न थातो, सत्य पथ्य हित बोलजी; सत्य तत्वनी हा प्रगटे, सत्यासत्यनो तोल. योग. ॥५॥ साधु संतनी सेवा भक्ति, रुचे धर्मोपदेशजी; मार्गानुसारी नीतिरीत, मुक्तिपर नही द्वेष. योग. ॥ ६ ॥ प्रमा.. णिक व्यवहार प्रवृत्ति, सत्यप्रतिज्ञा पळायजी; चोरी व्यभिचार व्यसन निवृत्ति, कुलाचार वर्ताय. योग. ॥७॥ मांस मदिरा त्यागने सजन,-रीतिनो व्यवहारजी; मात पिता गुरु वर्गनी आज्ञा, ऐवो सदाचार धार, योगने. ॥८॥ नास्तिक दुष्टनी संग
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(३१६) न रुचे, रुडा प्रगटे विचारजो; योगनी दृढ नूमिका एवी, दंभतणो परिहार. योगने. ॥ ९॥ अनन्य विषगरलनी निवृत्ति, तद्धेतु शुभ थायजी; समकित पूर्वक ज्ञानथो अमृत, शुभ अनुष्ठान सुहाय. ॥१०॥ योगनी पूर्व सेवा योगनूमि, चरमावर्ते पायजी; बुद्धिसागर योगना योग्य ज, नरनारी ते गणाय. योग. ॥ ११ ॥
ॐ ह्री श्री परम पुरुषाय, परमेश्वराय, जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, योगभूमिका सेवार्थ जलं, चंदनं, पुष्यं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फलं, यजा महे स्वाहा ॥
प्रथमा अध्यात्मयोग पूजा ॥ प्रभु वचनानुसारथी, तत्त्वनी चिंता थाय; गृही. त्यागी व्रत युक्तने, मैत्र्यादि भाव सुहाय. ॥ १॥ बातमज्ञानने यात्मनी, शुद्धिनुं अनुष्ठान, द्रव्यभाव अध्यात्मनो, योग जलो गुण खाण. ॥२॥
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( ३१७ ) द्रव्य क्षेत्रकाल भावथी जाणी, अध्यातम योग धारोजी; आतमज्ञानीने योगथी सिद्धि, राग रोष परिहारो. योगने घरीएजी. टाळी मोहनी टेव; शिवसुख वरीएजी ॥ १ ॥ देव मंत्रने जपीए विधिये, अशुभ वृत्ति निवारीजी; श्रासन जय प्राणायामाभ्यासथी, देहशुद्ध हितकारी योग ॥ २ ॥ अध्यात्मयोगनी आगळं हठनी, किंमत जाणो कोमीजी; आतम ज्ञानीओए दिल्मां, शुद्धातम प्रीत जोमी . योग० ॥ ३ ॥ आत्मस्वरूप विचारणा करवी, मनवच तनु वंश राखीजो; गृहस्थ त्यागी व्रत गुण पालन, प्रारब्धे यतुं साक्षी. योग० ॥ ४ ॥ मनवच काया अशुभ प्रवृत्ति, त्यागी शुजने भजीएजी, शुभ थकी शुद्धभावमां प्रणमो, प्रकटपणे गुण सजीए. योग० ॥ ५ ॥ सुख दुःख यावे हर्ष न शोक ज, देव गुरुने वंदोजी प्रत्याख्यानथी इच्छाओ रोधो, प्रगटे ते दोषने निंदो. योग० ॥ ६ ॥ देह ममत्व निवारी तम, उपयोगी यै रहेवुंजी, आवश्यक धर्म कर्मने
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(३१८) करवां, अंतरमा चित्त देवू. योगः ॥ ७ ॥ मैत्री प्रमोद' मध्यस्थ करुणा, भावना नावीए चारजी, सा. धनथी साधतां साध्यज, नासे मोह विकार. योग० ॥८॥ अध्यात्मयोगथा आतम शुकि, क्षणमां थावे मुक्तिजो, बुद्धिसागर आतम आनंद, प्रगटे अनुभव युक्ति. योग० ॥ ९॥ ॐ ह्री० अध्यात्म योग पूजार्थ जलं० य० स्वाहा ।।
द्वितीया भावनायोगपूजा ॥ बातम स्वरूप विचारणा, वारंवार जे थाय; मन समाधि सहित ते, भावना योग नणाय० ॥१॥ बातमना उपयोगनो, पुनः पुनः अभ्यास; भावना योगे संपजे, आतम शुद्ध प्रकाश० ॥ २ ॥
दशमे देशावगासीएरे. ए राग. धन्य प्रभु महावारनेरे, साध्यो पूरण योग; बातम परमातम कोरे, पाम्या अनंत सुख भोग हो.
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(३१९) घटमां, महावीर प्रभुने लावीएरे, भावना योगने नावीएरे; कर्म रिपुने हरावीएरे, प्रगटे परमानन्द० ॥१॥ पहेली श्रुतनो भावनारे, सुणीए धर्म सिद्धांत; वांचीए श्रुत शास्त्रो भलारे, गुरुगमथी निन्त हो. घटमां, भावना० ॥२॥ आतम जड बे तत्वनोरे, निश्चय करीए सत्य, बातम ज्ञानथी आत्मनारे, करीए धर्मनां कृत्य हो. घटमां, भावना०॥३॥ श्रुतज्ञाने संशय टळेरे, आतम अनुभव थाय; आतम ते परमातमारे, निश्चय दिल प्रगटाय हो. घटमांग ॥ ४॥ बीजी तपनी भावनारे, भावीए थे निष्काम; सर्वेच्छाओ रोधवीरे, तप ते आतमराम हो. घटमांग ॥५॥ सर्व विषयनी कामनारे, टाळे ते तप बेश; सर्वशुभाशुल वृत्तियोरे, तेना शमता क्लेश हो. घटमां० ॥६॥ त्रीजी सत्वनी भावनारे, आतम शक्ति अनंत; बातम सत्वे मोहनोरे, आवे क्षणमा अंत हो. घटमां ॥७॥ परिषह संकट वेठतारे, रहेQ आतममां स्थिर; सुख दुःखमां चलवू नहींरे, मेरु पेठे
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(३२०) थर्बु धीर हो. घटमां ॥८॥ आतमना उपयोगीरे, अप्रतिबद्ध विहार; निःसंग वनवास निर्ममेरे, ध्यान समाधिधार हो. घटमां ॥९॥ इन्द्रादिक सुख ब्रांति छेरे, आतम सुखनी पास; आत्म स्वतंत्रता धारवीरे, कर्म हणीने खास हो. घटमां० ॥१०॥ चोथी एकत्व छ नावनारे, नावीए धरी उल्लास; जड जगमा नहीं जीव-रे, कोइ पोतानुं खास हो. घटमां० ॥११॥ पांचमी तस्वनी नावनारे, जीवादिक नव तत्व; षड् द्रव्योने विचारतारे, प्रगटे निजं एकत्व हो. घटमांग ॥ १२ ॥ बातम तत्वने जाणतारे, जाण्या सर्व पदार्थ; बुद्धिसागर नावनारे, जावे शिव परमार्थ हो. घटमां० ॥ १३ ॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीं परम भावना योग पूजार्थ जलं० य० स्वाहा ॥
(३) तृतीया ध्यान पूजा ॥ ज्ञान प्रमाणे ध्यान छे, गुरुगमथी छे ध्यान,
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( ३२१ )
संघम स्थिरता संपजे, ध्यानथी केवल ज्ञान. ॥ १ ॥ ध्याननो भेद समाधि छे, मति श्रुतज्ञाने ध्यान; साकारी उपयोगथी, अंतर्मुहूर्त प्रमाण ॥ २ ॥ आतम आदि तमां, उपयोगे एकतान; अंतर्मुहूर्त ध्यान बे, ध्यान प्रवाह बहु मान. ॥ ३ ॥ आर्तरौद्र बे परिहरी, धर्म शुक्ल वे ध्यान; ध्याइए उपयोगथी, जीव बने भगवान् ॥ ४ ॥
हे सुखकारी आ संसारथकी जो मुजने उद्धरे.
ए राग.
महावीर प्रभु तुज ध्याने लय लागी बीजुं नह्रीं मे; हें ध्यान धर्यु बार वर्ष लगी तेमां मुज आतम रमे, रहें ध्याने केवल प्रगटाव्युं; मुज मनमां ध्यान ते शुभ भाव्युं, ध्याने प्रगटे सुख समजायुं. महावीर ॥ १ ॥ वायु व दीप शिखापरे, खातम ध्याने आनंद ल्हेरे; रहेवुं शुद्धातम निज च्हेरे. म.
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(३२२) हावीर. ॥ २ ॥ मेरुपरे स्थिर ध्याने थावं, अंतरमा साक्षो थै जावू; ध्याने आतम पोते ध्यावं. महावीर. ॥३॥ पिंडस्थ पदस्थ बे ध्याइजे, रूपस्थने दिसमां पाश्जे; रूपातीतथी शिव पाइजे. महावीर. ॥४॥ आतम ध्याने लगन लागे; ऋद्धि सिद्धि लब्धि जागे, घातीकमों वेगे भागे. महावीर. ॥ ५॥ शु. द्धातम उपयोगे रहीए, आनंन्दोहासे गहगहीए; जीवंतां मुक्ति सुख लहीए. महावीर. ॥६॥ खेद उद्वेग ब्रमने परिहरीए, उत्थानने क्षेपने झट ह. रीए; आसंग त्यजी ध्यान ज धरोए. महावीर. ॥७॥ अन्यत्र प्रेमने नहीं करीए, रोगोदयमां स्थिरता धरीए; संकल्प विकल्पने परिहरीए. महावीर. ॥ ८॥ शुजव्याननी जावना भावीए, बातम लाली प्रगटावोए, बातम गुणपर्याय ध्यावोए. महावीर. ॥९॥ म. नवचतनुनी स्थिरता करोए, कदि मोहना मार्या नहीं मरोए; आतम महावीरदशा वरीए. महावीर. ॥१०॥ ध्याने ज्ञानादिक गुण सिद्धि, क्षायिक नव
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( ३२३ ) प्रगटे घट लब्धि; बुद्धिसागर आनंद ऋद्धि. महा
वोर ॥ ११ ॥
य० स्वाहा.
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ॐ ह्रीं श्री परम० ध्यानयोग पूजार्थ, जसं ०
चतुर्थी समता योग पूजा.
समताथ शिव संपजे, आठ कर्म दूर जाय; समता प्रगव्या वण क दि, कोइ न मुक्ति पाय. ॥१॥ सर्व योगशिरोमणि, समतायोग महान्, राग रोष
विषमता, त्यजे स्वयं भगवान् ॥ २ ॥ सर्वधर्म दर्शन विषे, समभावे छे मुक्ति; समता दिलमां धारीए, सर्वयोग वम रोति ॥ ३ ॥
वगडानो वाशीरे मोरशिद मारियो ए राग.
प्रभु महावीर समतागुणना दरियारे, रागने रोष विषमता परिहरी; समता गुणथी भरिया जोवो तरियारे, ममताने त्यागेरे समता छे खरी. समताने धारेरे शिवसुख थाय छे, ममता ने अहंता दूरे जाय
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( ३२४) बे; आतम ते परमातमपद पाय छे, भातस एक आपोआप सुहाय बे. ॥१॥ जडविषयोमा शुभ अशुभ नहीं वृत्तिरे, सुख दुःखमां हर्ष न शोक जरा रहे, लाभालानमां मरण जोवनमा समतारे, आत. मना उपयोगे साक्षीपणुं वहे. समताने ॥२॥ शुजाशुभपणुं जगमां नहीं कल्पातुंरे, आतम जम निज निज भावे जणाय छे, जडमां सुख दुःख विषमप. णानी ब्रांतिरे, थाती नहीं आतम निःसंग थाय छे. समताने॥३॥ कम अने धरणेंद्र उपर समभावोरे, धन्य धन्यरे पार्श्वप्रभो!! त्हारी दशा; चंडकोशिया सं. गम इन्द्रनी उपरेरे, समताना योगीरे महावीर दिल वस्या. समता० ॥ ४ ॥ समतानावे स्कंधक सूरिना शिष्योरे, रहियारे क्षणमा मुक्तिपद वर्या; अञ्चकारी भट्टा अनिकापुरे, सद्गतिने साधोरे नक्सामर तर्या, समताते ॥५॥ दमदंतने नमि राजर्षि शिव पाम्यारे, मेतारज समताए मुक्ति लह्या; गज़ सुकुमाले समता घटमां धारोरे, एम अनेक समताप शिवपद् वह्या. समताने० ॥६॥ नामरूप. शास्त्रार
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( ३२५ )
दिक वासना टाळीरे, लोकादिक संज्ञारे टाळेरे सम पंचेन्द्रिय विषयोनी कामना टळतांरे, मनमांरे प्रगटे नहीं विषमीपणं. समताने० ॥ ७ ॥ समताएं तमनुं सुख अनंतुंरे, तेनीरे यागळ जडसुख नहीं कर; अहंपणं ममता टाळंतां ज्ञानेरे, ज्ञानीना दि ल्मां अनुभव सुख वस्युं. समताने० ॥ ८ ॥ जम तनमा समजावी उपयोगी रे, एवोरे तम हुं साक्षी रह्यो कर्म विपाकमा मुंकुं नहीं समजावेरे, उपयोगे एवो निश्चय में लह्यो. समताने० ॥ ९ ॥ प्रभु महावीर !!! हुं तुज समता अनुसरतोरे, शुद्धातम महावीर पदने पामशुं; आतमज्ञाने शिवपुर दोतुं मीठुरे, पामीशुं योगथकी त्यां झामशुं. समताने० ॥ १० ॥ समतायोगने उपयोगे दिल धरोएरे, वरीएरे मुक्ति दशा ओव्याढते. बुद्धिसागर समतासंगी रंगोरे, मुक्तिरे सर्व धर्म समताछते. समताने० ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्री परम • समतायोग पूजार्थ जलं० य० स्वाहा ॥
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( ३२६ ) पंचमी वृत्तिसंक्षययोग पूजा.
मोहादिनी चित्तमां, प्रगटी वृत्ति निरोध; चि. तनी वृद्धि निरोधथी, प्रगटे केवल बोध. ॥ १ ॥ सर्व संकल्प विकल्प जे, मोहनी वृत्ति गणाय; तेना पूरण नाशथी, नवलब्धि प्रगटाय. ॥ २ ॥ तिरोभाव निज ऋद्धिनो, याविर्भाव जे थाय पूर्णयोग ते जाणवो, साध्य स्वरूप सुहाय ॥३॥ ज्ञान ध्यान समताथकी, मोहनी वृत्ति विनाश; ज्ञानावरणादिक टळे, निज गुणे शोने खास ॥ ४ ॥
चउमासी पारं आवे. ॥
धन्य महावीर प्रभु जयकारी, पूजुं ध्यावुं शिव सुखकारी; चित्तवृत्ति हणी जयकारी, वृत्ति संक्षय योगना धारीरे; महावीर प्रभु जयकारी. मोहवृत्ति हणो नरनारीरे. महावीर ॥१॥ सर्व शुज वृत्तिना त्यागे, देवगुरु धर्म उपरे रागे; शुभवृत्ति व्यापार ना लागे, योग प्रथमदशामां ए जागेरे. महावीर,
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( ३२७) ॥२॥धर्मार्थे शुज परिणामे, काया वाणी धर्ममा झामे; प्रशस्यकषायना गमे, शुभ दर्शन चारित्र ठामेरे. महावीर. ॥ ३ ॥ सेवाभक्ति शुभ प्रवृत्ति, शुभ योगे
आतम व्यक्ति, सात्विक परिणामनी शक्ति, शुनयोगमां शुभ आसक्तिरे. महावीर. ॥ ४ ॥ शुज वृत्ति टळे शुद्धनावे, शुद्ध उपयोग ध्यान प्रजावे; सवि कल्पता दूरे जावे, मनोवृत्ति व्यापार न थावेरे. महावीर. ॥ ५॥ टळे सर्व कषायो ज्यारे, प्रगटे केवल ज्ञान त्यारे; मनोवृत्ति रहे न लगारे, घाती कमों रहे नहीं चारेरे. महावीर. ॥ ६॥ शुभाशुन चित्तवृत्ति विनाशे, शुद्ध उपयोग वीर्योहासे; श्रुत उपयोगना थभ्यासे, शुद्ध बातम ज्ञान विकासेरे. महा. ॥७॥ सयोगी गुण स्थान सुहावे, पछे अयोगी थैशिव जावे; साधन योग अभाव ज थावे, सिद्ध बुद्ध परम प्रभु थावरे. महावीर. ॥ ८॥ एक एकज योगे अनंता, जीवो मुक्ति पदने वरंता; आतम शुद्धिमां सर्वे म. ळता, जाणे सापेक्षज्ञाने संतारे. महावीर. ॥ ९॥
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(३२८) क्षयोपशमे उपशम जावे, नाव क्षायिके चेतन थावे; शुद्ध परिणामे प्रणमे स्वभावे, निवृत्तिपणुं झट थावेरे. महावीर. ॥ १० ॥ पंच समिति त्रियुति पाळी, मन मोहनी वृत्तियो टाळो, देजो बातममा मन वाळी;; बुद्धिसागर थानंदलालीरे. महावीर. ॥११॥
कलश. गायोरे गायोरे महावीर जिनेश्वर गायो.॥ पंच प्रकारी योगनी पूजा, रचीने प्रभु गुण गायो; योगनी पूजा ते प्रभु भक्ति, करतां यानंद पायोरे. महावोर० ॥१॥ दर्शन ज्ञानने चारित्र योगमां, सर्वे योग समाया; पांच योग पंच समिति त्रिगुप्ति, असंख्य योग कथायारे. महावोर० ॥ २॥ चउदगुण स्थान अष्टांग योग ज, आतममांहो समाया; शुद्धातम उपयोगमा सर्वे, अंतर्भावने पायारे. महावीर० ॥३॥ आतममांही भेदाभेदे, सर्वे योग समाता; पातंजल आदि योग भेदो, पंचथी न्यारा न थातारे. महा
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(३२९) वीर० ॥४॥ गुरुगमथी योग साधता नव्यो, अनंत शैकि सुहाप्ता; चिदानंद अनुभवने पाता, सिद्ध बुद्ध थै जातारे. महावीर० ॥ ५॥ प्रनु महावीर पट्ट परंपरा, श्वेतांबर साम्राज्ये; तपगच्छ जगगुरु होरविजय सूरि, सूर्यनी पेठे बाजेरे. महावोर० ॥६॥ तसपट्ट सागरपट्ट परंपरा, नेमिसागर गुरुरायो; तस शिष्य रविसागर गुरु रविसम, भारत सुजश वायारे. महा वीर ॥७॥ तस शिष्य सुखसागर समतावंत, मुनि गणमांहि सवाया; तस शिष्य बुद्धिसागरसूरिए, योगथकी प्रभु ध्यायारे. महावीर ॥ ८॥ संवत् ओगणिश अव्योत्तरना-आश्विनमां जयकारी; वदि पांचम बुधवार सवारे, पूजा रची सुखकारीरे. महावीर० ॥ ९॥ जणशे गुणशेने सांजळशे, भावथकी आचरशे; नरनारी ते शिवपद वरशे, भवपायोधि तरशेरे. महावीर० ॥ ॥ मेसाणा संघ भक्तिथी कीg, चोमासु सुखकारी; बुद्धिसागर ऋद्धि वृद्धि, कीर्ति लहो नरनारीरे. महावीर० ॥ ११ ॥
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(३३०
पंचपरमेष्ठी पूजा. प्रणमुं प्रभु महावीर जिन, चोवीसमा थरिहंत; वर्तमान शासनपति, परमेश्वर शिवकंत. ॥१॥ परमेष्ठी पूजा रचुं, द्रव्यने नावथो बेश; जणतां सु. णतां आचरे, नासे सर्वे क्लेश. ॥ २॥ अर्हन् सिद्धने सूरिजी, वाचक मुनि जयकार; परमेष्ठी मंगलकरा, सुख शांति दातार. ॥ ३ ॥
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प्रथम अरिहंत पद पूजा. घउ निक्षेपे ध्यावतां, स्तवतां पूजतां सार; अरिहंत प्रभु वंदतां, कर्म टळे निर्धार. ॥१॥ अरिहंत छ अातमा, गुण पर्याये शुद्ध प्रज्जु भजतां निज यातमा, थावे प्रभु जिन बुद्ध, ॥२॥ दोष अढार रहित विभु, अरिहंत जिनराज; पूजंतां प्रगटे प्रभु त्रण भुवन शिरताज. ॥ ३॥
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( ३३१ )
राग वेलावल. मेरु शिखर न्हवरावे हो जिन पति. ए राग.
अरिहंत जिनपति भजीए हो भावे, अरिहंत जिनपति भजीए ॥ द्रव्यने जावथी वोशस्थानक पद हर्षोलासे आराधे; अनंतपुण्यमयी जिननामने, बांधी प्रभुपद साधे हो. अरिहंत जिनपति भजीए नावे० ॥ १ ॥ समवसरणमां जाव अरिहंत, नविजनने उपदेशे; त्रण्यकाल जिनवर पूजंतां; मनकुं न रहे वक्लेशे हो. अरिहंत० ॥ २ ॥ द्रव्य गुण पर्याय अरिहंत, श्रातम आप स्वरूपी; बुद्धिसागर प्रेम प्रतीते; चिदानंदफलरूपी हो. अरिहंत० ॥ ३ ॥ ॐ० प० अर्हत्पद पूजार्थ ज० य० स्वाहा.
द्वितीया सिद्ध पूजा.
उ निक्षेपे सिद्ध पद, सेवंतां नर नार; अष्ट कर्म क्षय झट करो, सिद्ध बने निर्धार. ॥ १ ॥ शु. द्ध बुद्ध परमातमा, सिद्ध प्रभु जगवंत; परब्रह्म पर
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( २) मेश्वस, पूजता भविसत. ॥ २ ॥ बातम गुण पर्यायनी, पूर्ण शुद्धि जे थाय; ते निज पर्यव सिद्धता, जातममांहि समाय. ॥३॥
प्रभु दर्शन मोहनगारा. ए राग. प्रभु परमातम रढ लागी, प्रनु सिद्धनी प्रीतडी जागीरे. प्रभु ॥ आठे कर्म रहित शुद्ध आतम, आधगुणे वडभामी; गुण एकत्रिंश अनंत गुणीजे, थयो प्रभुपद रागीरे. प्रभु. ॥ १ ॥ चउनिक्षेप सातनये सिद्ध, जाणतो लय लागो; आतम ते सिद्ध बुद्ध प्रभु छे, सत्ताए सौभागोरे. प्रजु. ॥२॥ आतम पूरण शुद्धि सिद्ध ते, पूर्जतां वैरागी; बुद्धिसागर निर्भय देशी, निमोही महात्यागीरे. प्रभु. ॥३॥
ॐ प० सिद्धपद प्रजार्य जए य. स्वाहा.
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( ३३३ ) तृतीया आचार्य पद पूजा.
बत्रीशी छत्रोशी गुणवमे, गुणी जे ज्ञानी महंत पंचाचारने पाळता, पूजु सूरि संत ॥ १ ॥ द्रव्यादिक अनुसारथी, श्री सूरि गुणवंत; जावघी आतम सूरि छे, पूजो प्रणमो संत ॥ २ ॥ नय निक्षेपथी सूरिपद, निजपरने हितकार; निश्चयने व्यवहारी, पूजो नरने नार. ॥ ३ ॥
सरा देशस्व.
जगत्मां सूरीश्वर जयकार. जिन शासन शोभाकारो, प्रभु पेठे उपकारी. जगत्. ॥१॥ छत्रोशी बत्रोशी गुणगण शोजित, पंचाचारी बिहारी; कलिकाले प्रभुपाटे प्रभुसम, संघ सकल धारी. ज. ॥ २ ॥ जैनधर्भ वर्तावे जगमां, निश्चयी जे व्यवहारी; शुद्धतम गुणध्यान समाधि, राता आनंदकारी. ज. ॥ ३ ॥ आत्मज्ञान) जे मस्तानो, आतम
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(३३४) आनंद धारी; बुद्धिसागर सद्गुरु सूरि, पूजंतां जवपारी. जगत् ॥ ४ ॥
ॐ० सूरिपद पूजार्थ ज० य. स्वाहा,
चतुर्थी उपाध्याय पद पूजा. पञ्चीश गुणथी शोभता, वाचक धर्माधार; भणे भणावे साधुने, सम्यक् श्रुत दातार. ॥ १॥ अनेक गुणथी शोजता, साधे धर्माचार; संयममां वर्ते सदा, साधु धर्म धरे सार. ॥२॥ श्रुतने चारित्र धर्मथी, बातम धर्म प्रकाश;-करता वाचक पूजतां, थावे कर्म विनाश. ॥३॥
सोवे सोवे सारी रेंन गुमाइ. ए राग. पोल्लु.॥ __ वाचकपद आतम गुण धारी, ज्ञानने दर्शन च. रण विहारी. वा० ॥ बातम शुभ परिणति जयकारी,
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( ३३५ ) वाचक पूजानी बलिहारी. वाचक० ॥ १ ॥ ज्ञानानुजवसुखनी क्यारी, पंच महाव्रत पंचाचारी. वा० मुनिगण पाठक जगहितकारी, श्रुतरसिया संयम गुणधारी. वाचक० ॥ २ ॥ पूजी वंदी वाचक पदने, आनंद पामौ नरनेनारी; बुद्धिसागर गुरु अवतारी, वाचक जगमां बे सुखकारी. वा० ॥ ३ ॥
ॐ वाचक पद पूजार्थ ज० य० स्वा०
॥ पंचमी साधुपद पूजा ॥
इन्द्र चन्द्र नागेन्द्रनी पदवी न इच्छं लेश; क्षण पण साधु संगति, इच्छं रहे न क्लेश० ॥ १ ॥ पूजुं मुनिपद प्रेमी, इच्तुं मुनिवर संग; क्षण पण साधु संगतें, प्रगटे ज्ञान तरंग ॥ २ ॥ संतथी प्रभु परखाय छे, विणसे मोहविलास; प्रभुदर्शन प्रभु प्राप्तिमां, साधु दलाल ज खास ॥ ३ ॥
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( ३३६)
राग वसंत. तुखो पाठक पदमन धर हो. रंगीले जिउरा ए राग, ___जीव मुनिवर संगत कररे, प्रभु रसिया प्यारा; जा चेतनसां जे समभावी, गुणोना गुण दिलमां धरहे. प्रभु० ॥१॥ श्रुतज्ञानी निजपर उपकारी, खेद द्वेष नहि जरी मररे. प्रभु० संतनां दर्शन ते प्रभु दर्शन, जेने नहीं धन नारी घररे. प्रभु० संतहृदय माहि प्रभुजी डे परगट, संत वचनामृत पान कररे. प्रभु ॥२॥ आधि व्याधि सर्व उपाधि, नासे मन न रहे चंचळरे. प्रभु. श्रद्धाप्रीतिथो स्वार्पण करो सहु, तुंतो साधुनी सेवा कररे. प्रभु० ॥३॥ शांति पमामे संत ते साधु, बहु विनय करो मन धररे. प्रभु साधु कृपाथकी प्रनु परगट दिल, मोहनावे न पालो फररे. प्रनु० ॥ ४ ॥ आतम गुण पर्यायनी शुद्धि, पंचपरमेष्ठी पद स्मररे. प्रभु बुद्धिसागर पू. नन्दी, उपयोगे घटमां विचररे. प्रभु० ॥ ५॥
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(३३७)
कलश. गाइ गाइरे पंच परमेष्ठी पूजा गाइ, ओगाणश अव्योत्तर अक्षयत्रीज, चढते प्रहरे रचाइ; शांति तुष्टि पुष्टि सिद्धि,-देनारी सुखदाइरे. पंच. ॥ १॥ प्रभु महावीर पट्ट परपंरा, तप गच्च जग सुखदायी जगगुरु हीरविजय सूरिराजा, सहुगच्छमाही सवारे. पंच० ॥२॥ सागर शाखा पट्ट परपंरा, रविसागर गुरुराजा; सर्व मुनि गणना शिरताजा, मुनि गुणगणनी माझारे. पंच. ॥ ३॥ रविसागर शिष्यगुरु सुखसागर, शांत दांत सुखदायी; गुरुकृपाने आशीर्वादे, बातम स्थिरता पाइरे. पंच. ॥४॥ पंच परमेष्ठी पूजा रची शुभ, आनंद मंगलदायी; बुद्धिसागर ऋद्धि वृद्धि, कीर्ति जयगुण छायोरे. पंच ५॥
* मुनिपद पूजार्थ० ज• य. स्वाहा.
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(३३८) अथ श्री महावीर जन्म कल्याणक जयंती
महोत्सव पूजा.
॥ दुहा ॥ परमेश्वर परमातमा, महावीर जिनराज; वी. तराग अरिहंतजी, सर्वदेव शिरताज ॥१॥चोवीशमा तीर्थकरा, सर्वविश्व आधार; केवलज्ञाने बोधीने, तार्या नरने नार. ॥ २॥ भारत आदि दे. शनो, कीधो धर्मोद्धार; वर्तमान शासन प्रभु, तीर्थकर अवतार. ॥३॥ जेना कल्याणक दिने, नरक विषे उद्योत; शातापामे विश्वजीव, अनंत निर्मल ज्योत. ॥ ४ ॥ कल्याणक पांचे भलां, च्यवन जन्म कल्याण; प्रभु महावीर देवना, गातां आनंद ल्हाण. ॥५॥ जन्मोत्सवने उजवे, जन्मादिक नहि थाय: प्रभुभक्तिथो भक्तनां,-दुःखो दूरे जाय. ॥६॥ द्रव्य भाव भक्तिथकी, बातम शुद्धि थाय; च्यवन ज. न्मने गावता, पुण्योदय प्रगटाय. ॥ ७ ॥ प्रभु ज. न्म कल्याणनो, पूजा विविध प्रकार; गातां स्तवतां
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(३३९) भक्त जन, सुख शांति लहे सार. ॥८॥ ते कारण पूजा रचुं, यानंद मंगल काज; घर घर पूजा गा. वता, स्तवतां सुख साम्राज्य. ॥९॥शुभ कार्यों करतां थकां, समकिती नरनार, वर्धमानपूजाबले, शांति लहे नरनार. ॥ १० ॥प्रभु महावीर देव. ना, जन्म गुणो गानार; शांति तुष्टि पुष्टिने, जय लक्ष्मी वरनार. ॥११॥ महावीर जन्मजयंती दिन, उत्सव जे करनार; पूजा जेह भणावशे, सुख लहेशे जयकार. ॥ १२ ॥ अनंत गुण उपकारोजे, विश्वोद्वारक देव; जन्म जयंती महोत्सवे, रसिया पामे सेव.
॥ प्रथमभवे समकितप्राप्ति पूजा ॥
पुखलवइ विजये जयोरे. ए राग. पश्चिम महाविदेहमारे, ग्रामपति नयसार; गुष्परागी विनयो भलोरे, ग्रा पतको आधाररे. चे.
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(३४०) तन ! समकित छे जयकार, जेथी सहो जव पाररे. चेतन. स० ॥१॥ एक दिवस वनमां गयोरे, काष्टादिकने काज; नूल्या पड्या एक साधुनेरे, दोधी प्रेमे साजरे. चेतन० ॥२॥ साधुनी सेवा करीरे, वहोराव्यो आहार; राच्यो माच्यो हर्षियोरे, धन्य गण्यो अवताररे. चेतन. स० ॥३॥ योग्य जाणीने साधुएरे, दीधो धर्मोपदेश; देवगुरुने धर्मनीरे, श्रद्धा प्रगटी बेशरे. चेतन. ॥४॥ त्रएय करण करी फरशियुरे, समकित मोक्षनुं द्वार; समकित पामें भव तणीरे, गणतरी छे निर्धाररे. चेतन. ॥ ५॥ नय. सारे बहुलावधीरे, मुनिना वंद्या पाय; संतनी सेवा चाकरीरे, निष्फल क्यारे न जायरे. चेतन० ॥ ६ ॥ मिथ्यादृष्टि टळ्या पछीरे, देवगुरुपर प्रेम; धर्म प्रेम वाधे घणोरे, प्रगटे योगने क्षेमरे. चेतन. ॥७॥ समकितवंता जोवमारे, कर्मोदये करे काज; अंतरथी न्यारा रहेरे, इच्छे शिवपुर राजरे, चेतन. ॥८॥ अंतर्मुहूर्त लगी रहेरे, उपशम समकित बेश; पण
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(३४१) ते नियमा जव करेरे, टाळे कर्मना क्लेशरे. चेतन. ॥९॥ क्षयोपशम समकित भलुरे, प्रगटे वार असंख्य; क्षायिक एकज वारथीरे, आतम करे निःशंकरे. चेतन. ॥ १०॥ यदा समकित प्रगटे तदारे, देव गुरुपर राग; धर्मराग श्रद्धा घणोरे, मिथ्याचा. रनो त्यागरे. चेतन. ॥ ११॥ साधु संतना योगथोरे, जद्रक गुणी नयसार; समकित पाम्यो अंशथीरे, बन्यो प्रभु अवताररे. चेतन. ॥१२॥ तीर्थकर महावीरनोरे, आतम चढ्यो गुण थान; ऋषभदेव पौत्रज थयोरे, पाम्यो बहुश्रुत ज्ञानरे. चेतन. ॥ १३ ॥ मरिधि नामे मुनि थयोरे, बीजा लह्या अवतार; एकवार समकित लहेरे, पडे त्होंये चढे साररे. चेतन. ॥१४॥ समकित चारित्र करणीएरे, भवनो निश्चय अंत; बुद्धिसागर वीरनारे, गुणग्रहो मतिमंतरे. चेतन. ॥ १५ ॥
ॐ ह्रीं श्री परम पुरुषाय, परमेश्वराय, जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्रीमते महावीर जिनेन्द्राय,
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( ३४२ ) जलं, चंदनं, पुष्पं, धूपं, दीपं, अक्षतं, नैवेद्यं, फल,
यजामहे स्वाहा ॥
द्वितोया तीर्थकर नाम कर्मबंधक पूजा.
धन्य धन्य महावीरनो, पच्चीशमो अवतार; भरत उत्रिका नगरीमां, जन्म्या जग हितकार ॥ १॥ जितशत्रु राजातणी, जद्रा राणी कूख; नन्दन नन्दन नामथी, जन्म्या जस बहु सुख. ॥ २ ॥ पोहिलसूरि उपदेशथी, ग्र ुह्यं चारित्र उदार; सम कितने चारित्रथी, निश्चय मुक्ति थनार ॥ ३ ॥ सम किसने पाम्या पबी, समकित जो टळी जाय; तोपण पालुं ते लही, चारित्री शिव पाय. ॥ ४ ॥ सर्वनयोनुं सार बे, द्रव्य जाव चारित्र; चारित्री निश्चय करे, सर्वकर्मने रिक्त. ॥ ५॥
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(३४३) सांभळजो सखियां हमारी ए चाल.
नमुं नंदन मुनि जयकारो, धन्य मुनिवरनी बलिहारी ॥ करे मास खमण तप भारी, बीस स्थानक सेवना सारी; थया उत्कृष्टा अनगारीरे, भावे भावना शुद्ध विचार); दल विश्वजीवो उद्धारी. नमुं. ॥१॥ करुं शासन रसो नरनारी, दुःख दृष्टि टळे दुःखकारी; सर्वजीवविषे उजियारी, करुं भावना एवी सारीरे; प्रगटी शुभ परिणति क्यारी, बांध्यु तीर्थकर पद भारो. नमुं. ॥ २॥ प्रत्यारव्यानी कषाय विरामे, दुष्ट संज्वल परिणति वामे; धर्म भ्यानावलंबन ठामे, वधता उज्ज्वलपरिणामेरे, छटा गुणस्थानकना धारी, धन्य धन्य मुनि अनगारी. नमुं. ॥३॥ रागद्वेषनी परिणति टाळे, समता सुखमांहि म्हाले; शुभ अशुभ बुद्धिने खाळे, निज आतममा मन वाळेरे; जेणे कंचन कामिनी टाळी, जडथी मूर्छा उतारी, नमुं. ॥४॥ क्षयोपशमी
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( ३४४ )
चारित्र पाळे, प्रगटया दोषो झट टाळे; षडावश्यके गुण जवाळे, करे मोहथी युद्धज मारेरे; नहीं दिलमां अरिनी यारी, उपयोगे रहे हितकारी. नमुं. ॥ ५ ॥ चार भावना दिलमां जावे, शुद्ध आतम रूपनेध्यावे; सहे उपसर्गो समभावे, एवा संत मळे शिव थावेरे; एवा सराग संयमधारी, धन्य नंदन मुनि सुखकारी. नमुं ॥ ६ ॥ धन्य चारित्री गुणधारी, द्रव्य गुणपर्याय विचारी; बन्या द्रव्य क्रिया व्यवहारी, जे निश्चय उपयोग धारोरे; बुद्धिसागर मुनि महाराजा, सुरपति नरपति शिरताजा. नमुं ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं प० श्रीमते महावीर जिनेन्द्राय, जलं, चंदनं पुष्पं, धूपं, दोपं, अक्षतं, नैवेद्यं च संयतगुणलाभाय य० स्वाहा ॥
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( ३४५) तृतीया प्राणांत स्वर्गगमनदशावर्णन पूजा.
आयु क्षये नंदन मुनि, दशमा स्वर्ग मझार, उपज्या वीश सागर उपम, आयुथी जयकार. ॥१॥ मति श्रुत अवधिज्ञानना,-धारक सुर सुखकार; पूर्व भवोने जाणता, शुभ परिणामो उदार. ॥२॥ जोगवे मनथी जोगने, पण नहि जोगी जेहः सम्यग्दृष्टि देवने, वर्ते नहि संदेह. ॥ ३॥
सांभळशो मुनि संयम रागे-ए राग. सांभळशो महावीर प्रभुनो, बबीशमो भव सारोरे; मतिश्रुत अवधिना उपयोगे, जातो सुर जन्मारोरे. सांभळशो ॥१॥ सराग संयम तप जप कमें, स्वर्ग गतिने पामेरे; सम्यग्दृष्टि, मुक्ति माटे, विचरे रहे विश्रामेरे. साजळशो० ॥२॥ वैक्रिय देही पुद्गल शक्ति,-धारक नक्तिधारीरे; धर्मीजीवोने सहाय करंता, कर्मयोगी उपकारीरे. सांग ॥३॥ शुक्ल
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(३४६) शुक्ल परिणामना धारी, कामी उतां जे अकामोरे; सम्यग्दृष्टियोगे सवळ, जाणे न धारे खामीरे. सांग ॥४॥ पुण्य भोग जोगवता विचरे, मुक्ति सुख अभिलाषीरे; सघरों आयुष्य पूरण करता, शुद्धातम विश्वासीरे. सांग ॥५॥ अनंत निर्जरे अल्पकर्मबंध, सम्यग्दृष्टि योगेरे; बाह्यथकी देवजवना सुखने, भोगवे उदयप्रयोगेरे. सां० ॥६॥ तीर्थकर पद बांध्यु जाणे, भावी जन्मने जाणेरे; एक समये चवतां नहि जाणे, उपयोग मुहूर्त प्रमाणेरे. सां० ॥७॥ शिव मारग विसामो सुरभव, वोरप्रभुनो जाणोरे; बुद्धिसागर प्रमुगुणभक्ते, जन्म सफल थयो मानोरे. सां०॥८॥ ___ॐ ह्रीं श्री परम पुरुषाय, परमेश्वराय, जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्रीमते महावीर जिनेन्द्राय, भक्तिलाभाथे ज० यण स्वाहा ॥
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(३४७) चतुर्थी च्यवन कल्याण पूजा. जारत माहन कुंगमां, ब्राह्मण ऋषभदास; देवानंदा ब्राह्मणी, पतिव्रता जे खास. ॥१॥ प्राणत स्वर्गथकी प्रभु, जोगवी सुरनुं आय; देवानंदा कुख विषे, प्रगट्या पुण्यपसाय. ॥२॥ चौद स्वप्नने देखती, देवानंदा मात; ऋषभदासना बोधथी, जाणी थै रळियात. ॥३॥
मेतारज मुनिवर धन्य धन्य तुम अवतार. ए राग.
कर्मोदयथी देवानंदा, कुखमां चवी प्रभु आय; ब्यासी रात्री दिवस त्यां रहिया, कर्मथकी न छूटाय; विज्ञानी प्रनुजी भोगवे कर्मना भोग. ॥१॥ क्षत्रिय कुंड नगरोमांही, सिद्धारथ गुणी राय; त्रिशला राणो तेनी कुखमां, आव्या प्रभु सुखदाय. त्रि ॥२॥ त्रिशला माता चौद स्वप्नने, देखी हर्षित थाय; जोषीयो बोले तीर्थकर,-प्रगटया छे
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(३४८) जगराय. त्रि० ॥३॥ राजा जोषीगण संतोषे, दाने अने सन्माने; त्रिशला माता प्रजुगुणतक्ते, आयु वहे ते न जाणे. त्रि० ॥४॥ गर्ने रहिया विज्ञान प्रभु, उपयोगे जिनराय; शाता वेदनो वेदे गर्नमां, गर्भकाल वीती जाय. त्रि०॥५॥ नव मासने उपर साडा-, सात दिवस वही जाय; बुद्धिसागर प्रभु महावीर, गर्भ गुफामां सुहाय. त्रि० ॥६॥ ___ॐ ह्रीं श्री. ५० महावीर च्यवन कल्याणक पूजार्थ जण य० स्वाहा ॥
-
॥ पंचमी श्री महावीर जन्म कल्याणक पूजा ॥
त्रिशला माता विधिथी, गर्भवहे सुखकार; शांति तुष्टि पुष्टिथी, आरोग्य ज धरनार. ॥१॥ चैत्री सुदि त्रयोदशी, मध्य रात्रीना योग; सर्व दिशा निर्मल छते, जन्म्या प्रभु गुण जोग. ॥ २॥ अजवाळु नरके थयुं, चौद भुवन उद्योत; सर्व जीव शा.
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(३४९) ता थइ, जेनी निर्मल ज्योत. ॥ ३ ॥ छप्पन दिशि कुमरी तुरत, आवी प्रभुने पास; सूति कर्म नावे कर्यु, माता हर्ष उल्लास. ॥ ४ ॥
॥ मेरु शिखर न्हवरावे हो सुरपति० ॥ए राग॥
प्रभु जन्म्या ते काले हो सुरपति, सघळा मळी झट आवे; प्रभुनी माता पासे आवी, प्रभु प्र. णमीने वधावे हो; सुरपति सघळा मळी तिहां श्रावे. ॥१॥ प्रज्जु बिंब मूकी प्रभुपासे, प्रभुने मेरु लेइ जावे; आठ जातिना कलश भरीने, स्नात्र करी गुण जावे हो; सुरपति प्रेमे प्रभु न्हवरावे. ॥२॥ चोसठ इन्द्रो प्रभु गुण गावे, हैडे हर्ष न मावे; त्र. ण्य जगत्ना नाथने ध्यावे, भक्ते उल्लसित थावे हो; सुरपति प्रेमे प्रभु न्हवरावे. ॥ ३॥ चार निकायना देव देवीओ, इन्द्रो असंख्य त्यां आवे; विधिए पूजी प्रभुने मातनी,-पासे मूकी जावे हो. सुरपति. ॥४॥ प्रातःकाले जन्मने जाणी, सिद्धारथ नृप जावे; प्रभु
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(३५०) जन्मोत्सव देश नगरने, घर घरमां विरचावे हो; प्रनुजी जन्म्या जग जयकारी. ॥ ५॥ शांति तुष्टि पुष्टि मंगल, वायु नारत वायो; भारतमाही सोना सूरज, उग्यो प्रगट सुहायो हो. प्रभुजो. ॥६॥ भारतमां सुख शांति वतों, रोग उपद्रव शामो; प्रभु कल्याणक योगे जगत्मा, सर्व जोवो सुख पामो हो. प्रजुजी. ॥ ७ ॥ ओगणोश अठ्योत्तर क्षेत्र सुदि, त्रयोदशो रविवारे, प्रभु महावीर जन्म महोत्सव, गायो हर्ष विचारे हो. प्रभुजी.॥ ८॥प्रभु महावीर गावो भावो, रत्नादिकथी वधावो, सकल संघमा आनंदमंगल, शांति पुष्टि थावो हो. प्रभुजी महावीर देव वधावो ॥ ९॥ जन्म कल्याणक पूजा गाइ, विजापूरमा सारी, बुद्धिसागर आनंद मंगस, पामो नरने नारी हो. प्रभुजी महावीर देव वधावो. ॥१०॥
ॐ प० श्री महावीर जिनेश्वर जन्म कल्याणक पूजाथै ज० य० स्वाहा. ॥
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(३५१) ॥ प्रभु महावोर तीर्थकर देवनी अष्ट
प्रकारी पूजा ॥ परब्रह्म परमातमा, चोवीशमा जिनराज; वि. श्वपति जिनपति विभु, सारो वंबित काज. ॥१॥ प्रणमुं महावीर जगपति, जिन शासन सुल्तान; अष्ट प्रकारे द्रव्यथी, प्रजुं तुज जगवान् ॥ २॥ म. नवच कायाथी कर्यु, प्रनु तुज शरणुं बेश; अर्पयो तुजमा प्रभु, जाग्यो असंख्य प्रदेश. ॥ ३ ॥ जडथी प्रीति टाळोने, धारी तुजपर प्रोत; तुजपर श्रद्धा धारतां, रही न नोति अनीति. ॥४॥ परोक्ष मति श्रुत ज्ञानथी, परोक्ष तुं परखाय; केवलज्ञाने तुं प्रभु, प्रत्यक्ष घट पेखाय. ॥ ५॥ तुज आगमना अनुनवे, अनुभव्यो जिनदेव; द्रव्यभाव पूजा रचो, करूं तुजरूपनो सेव. ॥ ६॥ अनंत गुण पर्यायनो, शुफि करवा काज; निज आतम तुज साथमा, योज्यो करो सनाथ. ॥७॥ तुज गुण
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(३५२) गातां ध्यावतां, स्तवतां सर्व प्रकार; निज आतमनी शुद्धता, पूज्यपणुं निर्धार. ॥ ८॥
प्रथमा जलपूजा. श्रद्धा प्रोति जलवडे, पूजो महावोर देव; स. म्यग् दृष्टि योगथी, नासे मिथ्या टेव. ॥१॥ श्रद्धा प्रेमने सत्यनी-, जल पूजा सुखकार; सम्यग् दृष्टि भक्तने, नक्ति शिव देनार. ॥२॥ द्रव्यभाव सम्यकत्वथी, तुज सेवक नरनार; निश्चय मुक्तिपद वरे, जमे नहीं संसार. ॥ ३ ॥
सब जन धरम धरम मुख बोले. ए राग.
प्रभु महावीर जगत् जयकार, तीर्थकर उपकारीरे. प्रभु ॥ तुजपर श्रद्धा प्रीति धारी, की, शरण तुज भारी; ॐ अर्ह महावीर प्रजुजी, जापे लगनो धारीरे. महावीर० ॥१॥ शुद्ध गुण पर्यायना योग, निज उपयोंगे सुधारी; प्रभु तुज साथे मळि.
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( ३५३ )
यो हळियो, लेजो झट उद्धारीरे. महावीर० ॥ २ ॥ तत्त्वमसि सोऽहं ने ओऽहं, एकता लोनता धारी; भूल्यो जडमाया तुज भाने, तुजपर जउ सहु वारी रे. महावीर० ॥ ३ ॥ प्रभु तुज रोझनी यागळ जगनो, खीज गणुं न लगारी; ज्यां देखूं त्यां तुंहि तुंहि तुहि, प्रगती धून भारीरे. महावीर० ॥ ४ ॥ लक्ष्मी सत्ताथी न पमातो, निराकार निर्धारी; श्रद्धा प्रीति उपयोगे प्रभु, मळतो तुं सुखकारीरे. महावीर० ॥ ५ ॥ श्रद्धा प्रीति जल पूजाथी, पूजुं जग हितकारी; ज्ञानानन्द जे अंशे प्रगटे, पूजाफल निर्धारीरे. महावीर० ॥ ६ ॥ जगनो माया मन पमछाया, मुंकुं नहीं त्यां लगारी; बुद्धिसागर प्रभुमहावीर, लेजो हवेतो उगारीरे. महावीर० ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्री परम पुरुषाय, परमेश्वराय, जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्रीमते महावीर जिनेन्द्राय, जलं यजामहे स्वाहा ॥
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(३५४) द्वितीया चंदन पूजा. प्रभु महावीर गुण घणा, वैखरीथी न कथाय; परा पश्यंती भासता, अनंत तुज महिमाय.॥१॥ धर्म क्षमा चंदनथको, पूजु प्रभु तुज अंग; जाणंतां तुज धर्मने, लाग्यो अविहमरंग. ॥२॥ एकवार तुज आगमे, जो प्रभ जाण्यो जाय: तो भवताप रहे नहीं, निश्चय ए निर्माय. ॥ ३ ॥
॥ प्रभु सुमतिरे सुमति आपो प्यारा, मुज
प्राणतणा आधारा ॥ ए राग. ॥ प्रभु महावोररे तुज साथे रंग लाग्यो, म्हारो अंतर महावीर जाग्यो; प्रभु गुरुगमथी तुं जणायोरे, पूरा प्रेमथको परखायोरे, धातोधातेरे मळियो आ. नंद पायो, रोमेरोमे प्रभु रंगायो. प्रभु. ॥१॥ लागे नहि तुजवण कोइ प्यारे, नहीं तुजवण को जग म्हारुरे; मोह मारेरे तुजथी मेळ सुहातो, भेद
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(३५५) जागे जाएयो जातो. प्रभु. ॥ २॥ गुण अनंत पर्याय दरियोरे, बोजा सात्विक गुणगण भरियोरे, उपदेशेरे तार्या जीव करोडो, जडे नहीं तुज जगमा जोडो. प्रभु. ॥ ३॥ प्रभु देह छतां साकारारे, देहातीत थतां निराकारारे; थया सिद्ध ज रे पूर्ण असंख्यप्रदेशो, अरिहंत अलख ब्रह्म देशी. प्रभु. ॥ ४ ॥ जे आतम नहि ते शुं ? मागुरे, मेंतो मागणपणुं हवे त्याग्युरे प्रभुपरखीरे निष्कामी थैजाग्यो, तुज लगनीएघट जाग्यो. प्रनु.॥५॥ पूर्ण प्रभुथी पूर्ण रंगायोरे, पूर्ण आनंद घटमां बायोरे; बुद्धिसागररे पूर्णन पूरण पूजा, उपयोगे महावोर पूज्या. प्रभु. ॥ ६ ॥
ॐ0 प० महावीर जिनेन्द्राय, चंदनं. य. स्वाहा.
॥ तृतीया पुष्पपूजा.॥ प्रभु महावोर जक्तिथी, मुक्ति लहे नरनार; प्रभु गुण पुष्पनी मालथी, पूजो प्रभु जयकार. ॥१॥
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( ३५६ ) जैनधर्म श्रद्धा धरो, सर्व संघनी सेवः प्रभु महावीर
देवनी, पूजानी ए टेव ॥ २ ॥ प्रभु महावीर उपदिश्यां षड् द्रव्यो नव तत्व; सत्य गणीने वर्त; ए. प्रभु पूजा सच ॥ ३ ॥
निशानी कहा बतावुंरे. ए राग.
प्रभु महावीर तुं प्यारोरे, सर्व विश्व आधार. प्रभु० ॥ १ ॥ तुज हृदयंथी प्रगटियोरे, जैनधर्म छे सत्य; सफल संघनी सेवनारे, तुज पूजानुं कृत्य. प्रभु० ॥२॥ केवलज्ञानी तुं प्रभुरे, तुज वचनानुसार; वर्तवुं पुष्पनी पूजनारे, घरवा धर्माचार प्रभु ॥२॥ मुज मन मन्दिरमां वसोरे, क्षण पण थाओ न दूर; तुज विरहो न खमी शकुंरे, रहेशो हजराहजूर. प्रभु० ॥ ३ ॥ नय निक्षेप प्रमाणधीरे, जैनागम अनुसार; प्रभु तुज ध्यान समाधिथीरे, प्रगट्यो रस जयकार. प्रभु० ॥ ४ ॥ अनेकांत सत्तामयीरे, अनंत
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( ३५७ )
गुण आधार; एक आधार प्रभु तुंहिरे, आनंदमय निर्धार. प्रभु० ॥ ५ ॥ सेवा आदि गुणमयीरे, साविक पुष्पनी माल; प्रभु महावीर कंठमारे, स्थापंता कल्याण. प्रभु० ॥ ६ ॥ तुज स्वरूप थइ तुज जुरे, चढता जावोल्लास; बुद्धिसागर आतमारे, आनंद अनुभव खास. प्रभु० ॥ ७ ॥
ॐ प० महावीर जिनेन्द्राय पु० य० स्वाहा ॥
चतुर्थी धूप पूजा.
देव गुरुने धर्मनी, श्रद्धा समकित खास; गुरु पासे समकित ग्रही, टाळो मिथ्यावास ॥ १ ॥ खेद भीति ने द्वेष वण, प्रजुने पूजे भक्त; देहादि जडसंगी पण, मन नहि जम नामना जापनो-धूप करी नरनार, प्रभुने पूजे प्रेमथी, कर्म टळे निर्धार ॥ ३ ॥
सक्त. ॥ २ ॥ प्रभु
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(३५८) एं गुण वीरतणो न विसारु, संगारु दिन रातरे.
ए राग.
ॐ अर्ह महावीर जिनेश्वर, जाप जपुं दिन रा. तरे; प्रभु वण बीजुं कांइ न इच्छं, मात पिता तुं जातरे. ॐ अहँ ॥१॥ परापश्यंती मध्यामा वैखरी, जापे टळे सहु पापरे; राग द्वेष न पासे आवे, जाप जपंतां अमापरे. ॐ अर्ह० ॥२॥ ज्यां त्यां अंतर बाहिर धारणा, त्राटक तुज उपयोगरे; जीभ न हाले मानस जापे, प्रगटे आनंद जोगरे. ॐ अर्ह ॥३॥ जड चेतन सहु विश्वमा प्रभुनी, सत्ता धारणायोगरे,
आत्ममहावीरसत्ता प्रगटे, थातो कर्म वियोगरे. ॐ अर्ह० ॥४॥ प्रभु तुज जापना धूपथी नासे, दु. बुद्धि दुर्गधरे; क्षण क्षण आतम शुद्धि वृद्धि, आ. तम थाय अबंधरे. ॐ अई ॥ ५॥ प्रभु जापे प्रभु घटमां प्रकाश्या, प्रगटो सुखनी खुमारोरे; बुद्धिसागर महावीर लगनो,प्रगटीन उतरे उतारीरे.ॐ अई॥६॥ ॐ प० महावीर जिनेन्द्राय-धूपं यजामहे स्वाहा ॥
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(३५९ )
॥ पंचमी दीपक पूजा ॥ __ मतिश्रुत ज्ञानना दीपके, पूजा महावीर देव; करता दुर्गुण दोष सहु, नासे वे ततखेव. ॥ १॥ मिथ्या तम दूरेटळे, दीपक पूजा योग; केवल ज्ञा. नने दर्शने, मुक्तिपुर। संयोग.॥२॥ तिरोभाव निज ऋछिनो, आवि व जे थाय; यात्ममहावीर सिद्धता, देहछतां सोहाय. ॥ ३ ॥
आशा ओरनको क्या कोजे. ए राग. आशाउरी.॥
घटमां महावोर जिनवर भास्या, आपो आप प्रकाश्या. घटमां० चौदलोक आकारे मनुष्यनु, तनु मन्दिर जयकारी; असंख्यप्रदेशी यात्ममहावीर, शोजंतुं सुखकारी. घटमांग ॥ १॥ गुरुगम ज्ञाननी कुंचीयोगे, समकित द्वार उघाडयुं; मतिश्रुत आखे अनंत ज्योति, प्रभुनुं रूप निहाळ्यु. घटमां० ॥२॥ अनहद नादनो घंट वगाडयो, खळी लळी नमो
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( ३६० )
प्रभु पाये; आनन्द प्रगटयो अतिशय जारी, ॠण्य भुवन न समाये. घटमां० ॥ ३ ॥ दिल फानस मन कोडीयामां, प्रीति घृत पूर्य सारुं; सद्विचार दीवेट करी शुज, ज्ञानाग्नि उजियारुं घटमां० ॥ ४ ॥ धर्म बुद्धिनो दीपक एवो, झळहळतो प्रभु ज्योते; प्रभु महावीर पासे शोभे, क्षयोपशम उद्योते. घटमां० ॥ ५ ॥ क्षयोपशमना ज्ञान दोपकथी, महावीर जिनवर पूज्या, बुद्धिसागर गुरुकृपाए, सत्य प्रकाशे सूज्या घटमां० ॥ ६ ॥
ॐ० प० महावोर जिनेन्द्राय - दीपं य० स्वाहा.
षष्ठी अक्षत पूजा.
अक्षत महावीर रूपनी, अनंत झळहळ ज्योत; अक्षतथ प्रभु पूजतां त्रय भुवन उद्योत ॥ १ ॥ दया दान दमशीलने, संतोषे महावीर; पूजंतां निज आतमा, शुद्ध बने महावीर ॥ २ ॥ सात्विकने जे
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( ३६१ )
सहज बे, जाणी गुणगण बेश प्रभु महावीर पूजत, रहे न मिथ्याकुलेश. ॥ ३॥
राग. आशावरी ॥
महावीर अकलकला प्रभु त्हारी, सर्व विश्वना परमेश्वर छो. सकल जगत् उपकारी महावीर० ॥ पृथ्वी थाळी भानु शशी बे, आरती मंगल भारी; महा मेघनां वाजां वागे, विजळी महिमा भारी. महावीर० ॥ १ ॥ वेदो आगमो महिमा गावे, ऋषियो ध्याइ गयारी; व्याप्यने व्यापक सद्सद्रूप, गुणपर्याय मयारी. महावीर० ॥ ॥ २ ॥ सद्गुणरूप के पंच महाभूत, ज्ञाने शोभी रह्यारी; अनंत गुण गणना तमे दरिया, या विजवे रह्यारी. महावीर० ॥ ३ ॥ चारगति चूरक स्वस्तिकने, रत्नत्रयी पुंज धारी; सिद्ध शिला सिद्ध चिह्न करीने, पूजूं भाव वधारो० ॥ ४ ॥ नयनिक्षेपा भंग
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( ३६२ ) विकल्पे, ध्यान दशा छे विचारी; बुद्धिसागर शुद्ध उपयोगे, महावोर जग जयकारी महावोर० ॥ ५ ॥
सप्तमी नैवेद्यपूजा.
बाह्यांतर तुज रूपने, जाणे भक्त गणाय; तुज पर श्रद्धा धारतां, मुज मन निर्मल थाय ॥१॥ चौद भुवनमां व्याथड्यो, पड्युं न क्यांये वेन; पण तुजमां मन धारतां, प्रगट । सुखनी घेंन ॥ २ ॥ वर्धमान महावीर तुं, एक खरो आधार; तुजपर स्वार्पण सहु कर्यु; तुज शरणं सुखकार. ॥ ३ ॥
नाथ कैसे गजको बंध तुमायो ए राग.
प्रभु तुज आनंदरस बलिहारो, तीर्थंकर अवतारी. प्रभु० अनंत भवमां ठाम न ठरियो, दुःख लह्यो बहु भारी; बाहिरजड रसथी रंगायो, तृप्ति थई न लगारी. प्रभु० ॥ १ ॥ परमातम तुज यानंद
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(३६३) रसियो, थातां प्रगटी खुमारी; कोटि प्रयत्नो कोइ करे पण, उतरे नहि ते उतारी. प्रभु तुज थानंद रस बलिहारी. ॥ २॥ तुज रस पामे विषयरस छूटे, मनडुं ठरे निर्धारी; सेवा भक्ति आतमज्ञाने, तुज रस मळतो भारी. प्रभु० ॥३॥ कोटि उपाय करे जन कोइ, सत्यानन्दने माटे; पण जड जगथो न आनंद पामे, आनंद छे तुज हाटे. प्रभु० ॥४॥ अमत आस्वाद्या पाविषना-पाननो प्रेम न जागे: एकवार तुज रसने पामे, मन न रहे जडरागे. प्रभु ॥५॥क्षयोपशम आतम रस पामी, क्षायिक आनंद माटे; सहेजे तुजमा मन रंगायुं, माल छे शिरने साटे. प्रभु०॥६॥ आनंदरस नैवेदो पूजु, बाह्य नैवेद्यथी पूजु; बुद्धिसागर महावीर पामी, बीजे क्यांये न मुंकु. प्रभु ॥७॥ * प० महावीर जिनेन्द्राय-नैवेद्यं यजामहे स्वाहा॥
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( ३६४ )
अष्टमी फलपूजा.
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महावीरमां मन घरी, चालतां व्यवहार;
सक्ति व यातमा, प्रभुपद पामे सार ॥ १ ॥ बाह्यांतर अतिशयी प्रभु, महावीर जिन परखाय; श्रद्धा प्रीति स्वार्पणे, मुक्ति ते याय. ॥२॥ प्रभु महावीर तुं धणी, सर्व विश्वनो देव; निष्कामे दिलमां घर, करुं ताहारी सेव ॥ ३ ॥
राम सारंग. प्रभु निर्मल दर्शन को जो ए. ए राग.
प्रभु वीर !!! थयो तुज रागियो, आत्मज्ञाने जागियो. प्रभु० इन्द्रादिक पद सुख नहीं इच्छु, तुज स्वरूपे लागियो; भव मुक्तिमां समवृत्ति थे, नहि त्यागी वैरागियो. प्रभु० ॥ १ ॥ जम जगमां त्याग ग्रहणनी वृत्ति, टळतां थयो सौनागियो; बुद्धिसागर प्रभु महावीर, परमानंद फल चाखियो. प्रभु० ॥२॥
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(३६५) विनतिपणे हुं विनवं, घेर आवोने ढोला. ए राग.
क्षयोपशम उपशम फले, प्रभु पूज्या स्वभावे; निमित्त साधन साधना, साधुं प्रोतिजावे. क्षयोपशम० ॥ ३॥ प्रभु पूजन फल ज्ञानने, आनंद रस लीधुं, प्रभु रीझे जग खीजमां, लेश चित्त न दीधुं. क्षयोपशम० ॥ ४ ॥ बाकी क्षायिक भावथी, पूजन फल रहियु; शुद्धातम तुज रंगमां, मुज मन गहगहियु. क्षयोपशम ॥५॥ उत्पत्ति व्यय ध्रौव्यथी, सर्व द्रव्य प्रमाएयां; सम्यग् दृष्टि योगथी, तुज वचनो जाएयां. क्षयोपशम०॥ ६॥ देव गुरुने धर्मनी, भक्ति,-व्यवहारे; रहियो प्रभु तुज आणथी, उपयोग विचारे. क्षयोपशम ॥७॥ साविक आदि मोहना, पडदामा रहेलो; बुद्धिसागर आतमा, देखी मळियो मेळो. क्षयोपशम ॥८॥
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( ३६६ ) कलश धन्याश्रो.
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कधी कधीरे प्रभु महावीर पूजा कोधी. या नंद मंगल लोला प्रगटी, भोगवी आतम ऋद्धिरे. प्रभु ॥ १ ॥ द्रव्यने जावथी गृहीने पूजा, त्यागीने जावथी सिद्धि; प्रभु गातां ध्यातां स्तवतां सुख, अष्ट सिद्धिनी समृद्धिरे. प्रभु० ॥ २ ॥ योग णिश अठयोत्तर वैशाखी, वदि चोथने सोमवारे; विद्या पुरमां पूजा रची शुभ, भवी जननां दुःखवारेरे. प्रभु० ॥ ३ ॥ प्रभु महावीर पूजायोगे, जैन संघोन्नति थाशो; जैन धर्म आराधी भव्यो, परमानंदने पाशोरे. प्रभु० ॥ ४ ॥ प्रभु पूजा भणतां ने गातां, थाशो संघ समृद्धि; बुद्धिसागर ऋद्धि वृद्धि, कोर्ति जय शिव सिद्धिरे. प्रभु० ॥ ५ ॥
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(३६७) श्री घंटाकर्ण महावीर पूजन विधि,
श्री शांति स्नात्र अष्टोत्तरी स्नात्र तथा प्रतिष्ठा प्रसंगे पूर्वाचार्य मुनियोए घंटाकर्ण महावीर मंत्रयंत्रनी थाळी थापवानुंजणाव्युं छे अने ते प्रमाणे वर्तमानमा प्रवृत्ति थाय छे. तथा देवप्रतिष्ठा शांति स्नात्र काले घंटाकर्ण महावीरना मंत्रनो १०८ वार जाप करीने सुखडीसहित मंत्रनी स्थाळी बांधी स्थापवामां आवे छे. घंटाकर्ण महावोरनी श्री महुडी (मधुपुरी) गाममांश्री पद्मप्रभु जिन मंदिरनी बहार देरी डे, तेमां घंटाकर्ण महावीरनी मूर्ति स्थापवामां आवो छे. घगा भक्तो. ना आग्रहथी वोरनी पूजा रचवामां आवो , तथा आरती रचवामां आवी छे. गुरुगम पूर्वक पूजा ज. णावत्री बने करवी. शासन रक्षक वीर तरीके पू.
चार्योए घंटाकर्ण महावीरने स्थाप्या . घंटाकर्ण महावीर कल्प बेत्रण जातिना छे. कलिकालमां शासन प्रभावक वोरना अनेक चमत्कारो थाय . स. म्यग दृष्टि वीर ते सम्यग दृष्टियोने स्वधर्मी तरीके
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( ३६८ )
नक्ति करवा योग्य बे. परमात्म महावीर देवना भक्त रागी वीरने स्वधर्मी तरीके मानवामां पूजवामां का तिचार नथी. स्वधर्मी तरीके श्री घंटाकर्ण महावीर - नी सहाय इच्छवानी जेओनी इच्छा होय तेओए घंटाकर्ण महावीरनी पूजा आदिथी आराधना करवी. मिथ्यात्वी देव देवीनी सहाय इच्छवा करतां सम्यग् दृष्टि स्वधर्मी देव वीरनी सहाय इच्छवी ते विशेष उत्तम बे. गीतार्थ आचार्य मुनि मंत्र ज्ञाताओनी पासे रही मंत्र, विद्या, देवोपासना वगेरेनुं रहस्य स. मजवुं. जेओने चारनिकायना स्वधर्मी देवादिनी सहायादिनी इच्छा न होय, तेखोने माटे तो वीरादिनुं पूजन नथी इत्यादि सर्व बाबत गुरु गमथी जाणवी.
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(३६९) जैन शासन भक्त श्री घंटाकर्ण महावीर पूजा.
परब्रह्म परमातमा, महावीर जिनराज; इन्दादिक पूजे सदा, सर्व देव शिरताज ॥ १॥ चोवीशमा तीर्थकरा, विश्वोकारक देव; सर्व देवने देवीओ, करती प्रेमे सेव ॥२॥ यक्षयक्षिणी योगिनी, प्रभु पद ध्यावे बेश; बावन वीरो सेवता, टाळे नविना क्लेश ॥३॥ सर्व वीरमां श्रेष्ठ जे, महावीर शिरदार; घंटाकर्ण विराजता, प्रभु लक्त अवतार ॥४॥ परमातम महावीरना, परमजक्त बलवंत; घंटाकर्ण प्रसिद्ध छे, साझ करे गुणवंत ॥ ५॥ प्रभु महावीर देवना, भक्तो नरनेनार; तेओनां संकट टळे, समरे स्हाय थनार ॥ ६॥ सम्यग्दृष्टि भक्त , घंटा. कर्णजी वोर; साधर्मिक चक्ति करे, प्रगटे आतम धीर ॥ ७॥ साधर्मिक महावीरनी, पूजा गृही नरनार; करतां समकित निर्मगुं, करतां धरी दिलप्यार. ॥८॥ त्यागी मुनिवर कारणे, धर्म प्रभावन हेत; मंत्र स्मरे गुण बोलीने, धर्मवृद्धि संकेत. ॥ ९ ॥
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( ३७० ) धर्मी रागी सम किती, वीर करंतो स्हाय; सम्यग्दृष्टि धर्मीने, संकट आव्यां जाय ॥ १० ॥ धूपने दोपक पुष्पनी, सुखडी पूजा सार, सुवर्ण आदि वरखथी, पूजा छे श्रीकार० ॥ ११ ॥
प्रथमा धूपपूजा.
कानुको न जाणे मोरी प्रीत. ए राग.
घंटाकर्ण महावीर देव, अद्भुत महिमा धारीरे. घंटाकर्ण • समरंतां चढता व्हारे, संकट-पडियां टाळे, व्हारो महिमा अपरंपार, जक्तना रोग निवारेरे. घंटाकर्ण ० ॥ १ ॥ घंटाकर्णना मंत्रे, श्रद्धाथी विधि यंत्रे; साधे सिद्धे सघळां काज, गुरुगम भाषित तंत्रेरे. घंटाकर्ण ० ॥ २ ॥ प्रत्यक्ष दर्शन आपे, भक्तोना मनमां व्यापे; आपे धर्म करणमां साज, कष्टनी कोट। कापरे. घंटाकर्ण० ॥ ३ ॥ त्हारा मंत्रोना जापे, श क्तियो दिलमां छापे: तजरागी नरनेनार, धर्मने ज
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( ३७१ ) गमां स्थापेरे. घंटाकर्ण ० || ४ || महिमा हारो जग गाजे, ज्यां त्यां जय डंको वाजे समरे रहेशो हजरा हजूर, त्हारु बिरुद न लाजेरे. घंटाकर्ण० ॥ ५ ॥ वनमां रणमां सागरमां, पृथ्वीतलमां अंबरमां; करोने धर्म कर्ममां साज, दरबारे ने घरमांरे. घंटाकर्ण ० ॥ ६ ॥ धूपे पूजी गुण गातुं, सम्यग् दृष्टि दिल लावुं; बुद्धिसागर शासन देव, जगमां स्थापी भावुरे. घंटाकर्ण० ॥ ७ ॥
मंत्र - ॐ घंटाकर्ण महावीराय, सर्व रोगोपद्रव शमनाय इष्ट लाभाय. शांति तुष्टि पुष्ट्यर्थे धूपं यजामदे स्वाहा.
द्वितीया दीपक पूजा.
सेवक अरज करे छे राज, अमने शिव सुख आपो. ए राग.
घंटाकर्ण महावीर बळिया धीर, शांति जगमां
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( ३७२) पसारो; त्हारो महिमा अपरंपार हो वीर!!! संघमा शांति प्रचारो. ॥ मागुं न मागणपेठे स्वाथे, बाधा मान्यता सर्वे; राखे ते नहीं जैनो भक्तो, तुज प्रेमे रहियो अगवे हो वोर ! संघमां० ॥१॥ स्वार्थथी मान्यता बाधा वण हूं, धर्मर्नु सगपण धारी; दोपक करीने प्रेमे पूजें, निष्काम नाव वधारो, वीर! संघ. मां० ॥ २॥ याचक थइ तुज पासे न याचु, आतम प्रेमे राचुं; शुद्ध प्रेमथी सगपण साचुं, परमार्थे नित्य माचुं हो वीर ! संघमां० ॥३॥ लाज न जावा देजे वीरा, सहायक वड धीरा; महिमा न जूठो पडवा देजे, समकिती गुण होरा हो वीर !!! संघमां० ॥४॥ धर्मी वीरा साथे रहेशो, धमें स्हायने देशो; परमार्थे पूजनने वहेशो, कोई ध्यानमां लेशो हो वीर ! संघमां० ॥ ५॥ सर्व जगत्मां महिमा छवायो, उग्यो रवि न छुपायो; साधर्मिक प्रीतिए सुहा यो, कलिमा जागतो गायो हो वीर ! संघमां० ॥६॥ जेम घटे तेम मित्रनी पेठे, धर्ममा साथी रहेशो; बु
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( ३७३) विसागर प्रत्यक्ष अनुभव, महावीरमो संदेशो हो कर!!! संघमा० ॥७॥ . ॐ घंटाकर्ण महावीराय शांति तुष्टि पुष्टयर्थ दीपं यजामहे स्वाहा ॥
तृतीया पुष्प पूजा. दशमे देशावगाशिकरे. ए राग. प्रभु महावोर शासनेरे, घंटाकर्ण सुवीर; शा. सन रसिया देव छोरे, टाळो जक्तनी पोम हो; जगमां. जैनधर्म प्रसरावजोरे, संघनी व्हारे आवशोरे; करशो समरे सहाय० ॥१॥ पुष्पनी माळा कंठमारे, स्थापी हरखं चित्त; साधर्मिक देव प्रीतिथीरे, दिलहुं थातुं पवित्र हो. जगमां ॥२॥ साधर्मिक देव रोति डेरे, प्रा. वण करे काज; धर्म कष्ट पडतां थकांरे, राखे स्वधर्मी लाज हो. जगमां ॥३॥ दिव्यौषधीथी महाबलीरे, देव कृपा सुखकार, मुक्ति पंचमां भक
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(३७४) नेरे, साज घणी करनार हो. जगमां ॥ ४ ॥ नरः नारी जे जे लावथीरे, नावे ते ते नाव; फल पामे भावे खरुरे, देख्या ते ते बनाव हो. जगमा० ॥५॥ प्रभु महावीर देवनारे, तुं वडनक्त छे वोर; विश्वमा सर्वत्र जागतोरे, सागरसम गंजोर हो. जगमां०॥६॥ प्रभु महावीरना संघनीरे, सेवामां लय लीन; बुद्धि. सागर भक्तिमारे, जलमां ज्युं वर्ते मीन हो. जगमां ॥७॥
ॐ घंटाकर्ण महावीराय जैनशासन रक्षकाय पुष्पं च पुष्पमालां यजामहे स्वाहा ॥
चतुर्थी सुखडी नैवेद्य पूजा. विमला नव करशो उच्चाट. ए राग.
घंटाकर्ण महावीर स्हाये व्हेला आवशोरे; प्रेमे धर्मीयोने स्हाय करीने सुहावशोरे-परमब्रह्म महावीर
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( ३७५ )
मामे, शरण करी जे ठरतो गमे; तेवा भक्तांनी जक्तिमा धून लगावशोरे. घंटाकर्ण ॥ १ ॥ श्रद्धा प्रीति प्रेर्या यादो, क्तिविना नथी कोइनो दावो; जयकर मंगलमाला, कीर्तिध्वज फरकावशोरे. घंटाकर्ण ॥२॥ क्षणमां पृथ्वीने डोलावो, क्षणमां मेरुने कंपावो; एवो महिमा व्हारो, शापने ताप शमावशोरे. घंटाकर्ण. ॥ ३ ॥ दुर्जन दुष्टोनेज हठावो, जैनधर्म जगमां फेलावो; प्रभुश्री महावीर नामना जपने जग प्रसरावशोरे. घंटाकर्ण ॥ ४ ॥ तुज प्रेमी घर मंगलमाला, पुत्रादिक धन ऋद्धि विशाला; आपी वांबित सहुने चित्त प्रसन्न सुहावशोरे. घंटाकर्ण ॥ ५ ॥ पुण्योदये तुज साधन मळतुं, श्रद्धा प्रीति योगे फ ळतुं; प्रगटी शासन सेवामांही चित्त लगाव शोरे. घंटाकर्ण ॥ ६ ॥ प्रत्यक्ष प्रेमे महावीर दीठा, शासन देवा लाग्या मीठा; बुद्धिसागर दिलमां प्रभु संदेश जपावशोरे. घंटाकर्ष. ॥ ७ ॥
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( ३७६) ॐ घंटाकर्ण महावीर जैन शासन रक्षकाय शां. तिं तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धि वृद्धिं कुरु कुरु नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥
पंचमी श्रीफल पूजा. आवशो आवशो आवशोरे मुज पासे महावीर आवशो. श्रद्धा प्रेमना जोरे पधारो, धर्ममां बुद्धि करावशोरे. मुज० ॥१॥ जैन धर्ममा स्वार्पण कारक,भक्तने प्रत्यद थावशोरे. मुज० उपर उपरनां लटक सलामियां, नास्तिक पासे न आवशोरे, मुज ॥२॥ नाम ने रूपना मोहे मरेला, भक्तोनी यांखे सुहावशोरे. मुज संतमा जक्ति पूर्ण धरीने, बातमभावे लय लावशोरे. मुजम् ॥ ३॥ शासन रागे धर्म प्रभा. वक-बनीने प्रभुने जावशोरे; मुजा सकल संघनी सेवा सारी, परम ब्रह्मपद पावशोरे. मुज० ॥४॥ तुज पूजाथी धर्मीजनोनी, धर्म बुद्धि स्थिर थावशोरे.
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( ३७७ ) मुज० बुद्धिसागर ऋद्धि वृद्धि, कीर्ति जय जग पा वश्प्रेरे. मुज० ॥ ५ ॥
कलश गीत.
गायो गायोरे एम शासन वीरने गायो, पंच प्रकारे पूजा रचीने, समकित शुद्धिए छायोरे. एम. ॥ १ ॥ घंटाकर्ण महावीर पूजा, कीर्तनश्री गुप्ण पाम्रो; सम्यग्दृष्टिदेवती स्तुति करतां हर्षे उमाद्योरे. एम० ॥ २ ॥ तपगच्छ सागर शाखा मांहि, नेमिसागर गुरु रायो; रविसागर गुरु सुखसागर गुरु, जैनधर्म फेखायोरे. एम० ॥ ३ ॥ साधु यदि सर्व संघती, वृद्धि थाशो पसायो; सर्व प्रकारे उन्नति वाशो, आशीर्वाद सुहायोरे, एम० ||४|| ओगणिश श्रव्योत्तर अक्षय त्रीज, विजापुर जयकारो; बुद्धिसागर चढ़ते पहोरे, सुख पामो नरनारीरे. एम० ॥ ५ ॥
ॐ ह्री घंटाकर्ण महावीराय, सर्व क्षुद्रापद्रव सेग निवारणाय, इष्ट फलाभाय फलं यजामहे स्वाहा ॥ ॐ अहँ महावीर शांतिः
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( ३७८) श्री घंटाकर्ण महावीरनी आरती घंटाकर्ण महावीर गाजे, जड चेतनजगमहिमा बगजे; मनवांछित पूरण करनारा, जक्तजनोना भय हरनारा. पं. आधि व्याधि उपाधि हरता, रोग उपद्रव दुःख संहरता. घं० ॥ १॥ ऋद्धि सिद्धि मं. गल करता, सत्वर सहाये पगला भरता. घ. तुज स्मरणथी वांछित मेळा, भक्तोनी थाती शुभ वेळा. घं ॥ २ ॥ घंटाकर्ण महावीर त्हारी, आरती करतां जे नर नारी; आरत चिंता शोक निवारी, धर्मी थातो दोषने टाळी. ६० ॥ ३ ॥ गाजी रह्यो जगमांही सघळे, घरमा सागरमा रणवगडे; हाय करतो वादे झघडे, दुष्टोथी कई शुभ न बगडे. घं० ॥४॥ देश नगर संघ वो शांति, भक्तजनोनी वधशो कांति; महामारी जय संकट नासो, आरोग्य आनंदे जग वासो. घं०॥५॥ मंगल माला घर घर प्रगटो, इति उपद्रव विघ्नो विघटो; शांति आनंदने प्रगटावो, स्मरतां झट व्हारे आवो. घं० ॥६॥
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( ३७९ ) श्रात्म महावीर शासन राज्ये, सेवा कारक जगमां गाजे; बुद्धिसागर श्रातम काजे, क्षण क्षण व्हेलो सहाये थाजे. घं० ॥ ७ ॥
गुरुनी आरती.
जय जय गुरुवर जग जयकारी, आरती करतां आनंद भारी. जय० मही थाळीमां शशी सूरजनी, रती कुद्रते प्रेमे उतारी. जय० ॥ १ ॥ पिंड अने ब्रह्मांडमां मति श्रुत, - आरती थाती जग उपकारी. जय० केवलज्ञाननो मंगल दीवो, थातो गुरुगम ज्ञान विचारी. जय० ॥ २ ॥ जम चेतन सौन्दर्य प्रसारी, सहेजे आरती करे हितकारी. जय० आरत टाळे आरती सारी, युगोयुग जीवो गुरु गुणकारी. जय० ॥ ३ ॥ आरती करनारां नरनारी, आनंद पामो मोह निवारी; समकित दाता गुरु सुखकारी, जग चिंतामणि जग उपकारी. जय० ॥ ४ ॥ सेवा भक्ति घृत
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(३८०) भर्यु जारी, कर्मयोग दोकेट ने सारी; धुद्धिसागर गुरु ध्यक्हारी, तासरी जाउं सदा बलिहारी. जय० ॥५॥
॥ मंगल दीपक ॥ जग गुरु जग जब मंगल दीवो, चतुर गुरु जग चिरंजीवो. जग० चन्द्र सूरज ग्रह फरता फेरा, गुरुना प्रकाशे रहे न अंधेरा. जग० ॥१॥ वेदागम तुज महिमा गावे, गुरु कृपावडे मुक्ति थावे. जग. निश्चय भावथी मंगलरूपी, सदसद्रूपी रूपारूपी. जगः ॥२॥ पंचभूत उपमा नहीं पावे, अलख कला नहीं समजी जावे; बुद्धिसागर मंगल माला, पामो ऋद्धि वृद्धि विशाला. जग० ॥३॥
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(३८१) जिनेश्वर देवनी थारती. अप्सरा करती आरती जिन धागे. ए राग.
जय जिनवर जिनराजजी जयकारी, परमेश्वर जग उपकारी; जग जीवोने हितकारी, तार्या नरने नार. जय० ॥ १॥ चन्द्र सूरज तुज आरती रूप शोभे, तुज महिमाए जग थोने; तुज महिमा अपार. जय० ॥२॥ तुज आणाए विश्वमां द्रव्य वर्ते, ज्ञान आज्ञाएज प्रवर्ते; कोइ लोपे न आण. जय०॥३॥ देव देवी नर नारीयो मळी नाचे, तुज रूप गुण देखी माचे; बनी जक्ति मगन्न. जय० ॥ ४ ॥ कोटि वर्ष कोटि जीभथी न गवाये, कोटि दिलमां न ध्यातां समाये; परा पश्यंती पार. जय० ॥ ५॥ घनगर्जे मोर टहुकतो मन हर्षे, खुशी चातक घन जब वर्षे तुज दर्शने मुज मन तरसे, देखी दिलडुं प्रसन्न. जय० ॥ ६ ॥ मही जलवायु अग्मिने नन पंच, तेनी उपमा न तुजने रंच; तुं तो निरुपम देव. जय० ॥७॥
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(३८२) सर्वमाही ने सर्वथी प्रभो न्यारा, सदसद् गुण प. र्यायाधारा; वीतरागने सर्वज्ञ प्यारा, सर्वदेवना देव. जय० ॥ ८॥ परमब्रह्म महावीरजी जगत्राता, तुहि माता पिता ने ब्राता; बुद्धिसागर यो सुख शाता, संघ मंगल माल. जय० ॥९॥
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( ३८३ ) मंगल दीपक.
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जय जिनवर तुज जग बलिहारो, विश्वोद्धारक जग उपकारी. जय० मंगलदीवो मंगलकारो, तेथी पूजुं जिन जयकारी. जय० ॥ १ ॥ द्रव्यभाव मंगल अवतारी, तुज भक्तें मंगल निर्धारी. जय० जगमां मोटो मंगल दीवो, विश्व जीवन तुं चिरंजीवो. जय० ॥ २ ॥ शक्ति अनंती अगम अपारा, सर्व जीव दिल्मां छो प्यारा; जय० नय निक्षेपथी निश्चय न्यारा, सर्व विश्वना छो धारा. जय० ॥ ३ ॥ गुणपर्याय अनंता दरिया, अनंत शक्ति स्वनावे जरिया. जय० नवग्रह इन्द्रादिक तुज बंदा, निशदिन सेव करे सूरचंदा. जय० ॥ ४ ॥ परब्रह्म महावीर गवाया, छारिहंत परमेश्वर जिनराया; जय० बुद्धिसागर मंगल राया, पूजी प्रेमे तुज गुण गाया. जय० ॥ ५ ॥
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