Book Title: Parshwa Pattavali
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V पार्श्व-पट्टावली 56 ज्ञानसुन्दर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन इतिहास ज्ञान भानु किरण नम्बर २१ wwcomopमप्यतामायाKASE ॥श्री रत्नप्रभसूरिश्वर पादपदमेभ्योनमः ॥ प्राचीन जैन इतिहास भाग २१ वां [ पार्श्व पट्टावली ] ( कविता ) रचयिता२०१ ग्रन्थों के लेखक प्रखर वक्ता इतिहासप्रेमी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज - प्रकाशक. श्री रत्न-प्रभाकर ज्ञान-पुष्पमाला फलोदी (मारवाड़) वीर सं० २४६५ } प्रति १००० { ओसवाल सं० २३६५ .. की अमुल्य भेंट - . . मा श्री कैलाससागर मृरि शान मदिर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रबन्धकर्ताश्रीमान् मोतीलालजी हालाखंडी ब्यावर (राजपूताना) 35 पूज्यपाद प्रातः स्मरणीय इतिहास प्रेमी प्रखर वक्ता मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दरजी गुणसुन्दरजी महाराज साहब का सं० १६६५ का चातुर्मास ब्यावर (नयाशहर ) में हुआ। श्री संघ के अाग्रह से आप श्री ने महा प्रभाविक श्रीभगवती जी सत्र व्याख्यान में फरमाने का निश्चय किया। श्रीमान गणेशमलजी कोठारी ने सूत्रजी को अपने वहां ले जाकर पूजा प्रभावना रात्रि जागरण और वरघोड़ादि महोत्सव किया। तत्पश्चात श्री संघ ने शास्त्रजी की मुक्ताफल, सुवर्ण रजित व मुद्रिकानों से पूजन किया जिसके द्रव्य से यह पुस्तक छपवा कर सर्व साधारण की सेवा में उपस्थित की गई है। - प्रबन्ध कर्ता पं० रामनिवास शर्मा के प्रबन्ध से फाइन आर्ट प्रेस __ब्यावर में प्रकाशित - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORGAGOV. HARYA. भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा ___अर्थात् .. पार्श्व पट्टावली पार्श्वनाथ तेवीसवें, तीर्थेश क्या वर्णन करू । उपकार जिनका है महा, श्वासोश्वास उर में धरू । 'असि श्रा उ सा' मंत्र से, धरणेन्द्र बनाया नाग को। अहा-हा मैं वन्दन करू, त्रिय जग के महा भाग्य को ॥१॥ १-श्री शुभदत्त गणधर प्रदाता थे वे सुभ गति के. गणधर शुभदत्त जानिये। रचना द्वादशांग की जिन केरी, तत्व ज्ञान पहचानिये ॥ धर्म धुरन्धर सुभट विजयी, प्रकाश सूर्य सा किया। वन्दन किया उनके चरण में, धन्य था उनका जिया ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४). २-आचार्य श्री हरिदत्त सूरीश्वर हरिदत्त गत दृषण सभी, तृतीय पट्ट पर सूरि हुए। विनाशक वे अज्ञान के , ज्ञानोद्योत के कर्ता हुए। सहस्त्र शिष्य सह लोहित्य को, दीक्षित किया स्वधर्म में। जैन बनाये लाखों को, फिर स्थिर किये षट्कर्म में ॥३॥ ३-प्राचार्य श्री आर्य समुद्र मूरीश्वर आर्य समुद्र थे शान के, फिर दान सूरि ने दिया। प्रावन्ती उद्यान में जा, समवसरण जिसने किया। राट रानी कुंवर केशी, वे दीक्षित हुए वैराग्य से। डंका बजाया सत्धर्म का, प्रशस्त शासन राग से ॥४॥ ४-प्राचार्य श्री केशिश्रमण सूरीश्वर प्राचार्य :वर श्रमण केशि, तुर्य पट्ट सरदार थे। . अखण्ड थे ब्रती ब्रह्मचारी, तप तेज के नहीं पार थे। प्रदेश्यादि नृप बारह, और असंख्य नरनार थे । जैन बनाये उन सभी को, जिनका बड़ा उपकार थे ॥५॥ ___ भगवान वीर प्रभु का शासन भूप सिद्धार्थ मात त्रिसला, क्षत्री कुण्ड वर स्थान था। अवतार लिया श्री वीरप्रभु ने, तपधारी केवल ज्ञान था ॥ संध चतुर्विध करी स्थापना, अहिंसा झंडा फहराये थे। पार्श्वनाथ के थे सन्तानिय, वीर शासन में आये थे ॥६ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५-प्राचार्य श्री स्वयंप्रभ मरीश्वर स्वयंप्रभ सूरिगुण भूरि, वे विद्या के भंडार थे। ___ यक्ष बलो उन्मूल कारण, वर आपही कुठार थे। श्रीमाल नगर उद्यान में, समवसरण किया आपने । होने का था पशु यज्ञ जहां, उपदेश दिया था आपने। नब्बे सहस्त्र राजा प्रजा को, जैनी बनाये कर दया। सुन यज्ञ फिर पदमावती में सूरि पधारे कर मया ।। दे उपदेश मिथ्या तम छुड़ाया. घर पैंतालीस हजार को शान्त्यादि के मन्दिर बनाये, कब भूले उपकार को ॥८॥ ६-प्राचार्य श्री रत्नप्रभ सूरीश्वरवीर नि० सं० ५२ रत्न सदृश पट्ट षष्ठम्, श्री रत्नप्रभ सूरि ने लिया। उपकेशपुर में मायके, उपदेश तो जब्बर दिया ॥ देवी चंडा नृप मन्त्री, क्षत्री तो सवा लक्ष थे । दीक्षा शिक्षा जैन धर्म की, देकर लिया सत्पक्ष थे ॥६॥ वासक्षेप मंत्र विधि से, उन सबकी शुद्धि करी । महाजन संघ बनाय के, पुनः उसकी ही वृद्धि करी ॥ कालान्तर से हुआ नाम उपकेश, अब प्रसिद्ध प्रोसवाल है। ___ उपकारी गुरु चरण में, वन्दन सदा त्रिकाल है।१०॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊहड़ मन्त्री मन्दिर बनाया, निर्वाण वर्ष सीतर वीर को प्राकर कोरंट श्रीसंघ ने, विनती करी गुरुधीर को॥ लब्धि से दो रूप बनाकर, निज रूप उपकेश में रहै । व्योम मार्ग जाकर कोरंट में, एक नग्नमें प्रतिष्ठा कररहे ।। . ७-आचार्य श्री यक्षदेव सूरीश्वर सप्तम पट्ट सूरि हुए, यक्षदेव उनका नाम था । जैनधर्म प्रचार करना, यही उनका काम था । अंग बंग कलिंग मगध, आये पुनः मरुधर देश में । . सिन्ध धरा में पाप सिधारे शिष्य थे साथ विशेष में ॥ कष्ठ सहे फिर भूखे रहे, उपकर था रग रग में । शिकार जाते राज कुंवर को. बोध दिया सद् मग्ग में ॥ रूद्राट् राजा कुंवर प्रजा, जैनी तो सब वे बन गये । ..चमकादिया वहां धर्म को, है धन्य उन सूरि के भये ॥ -आचार्य श्री कक्क सूरीश्वर पट्ट आठवें कक्क सूरि ने, उद्धार किया निज देश का। __ अहिंसा की नीव डारी, उच्छेद किया अक्ष शेष का ॥ मंडित मन्दिरों से की धरा, भक्ति रंग खूब बरसाया था। उद्योत किया था जिन शासन का, मिथ्यात को मार भगाया था । -प्राचार्य देवगुप्त सूरीश्वर बलि होते की रक्षा करके, सूरि जिसको बनाये थे। देवगुप्त पट्ट नौवे होकर, झण्डे खूब फहराये थे । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) कच्छ सौरठ लाट मरुधर, पंचाल पावन कराये थे। : सिद्धपुत्र को जीत बाद में, अपना शिष्य बनाये थे ॥१५. १०-प्राचार्य सिद्धसूरीश्वरजी . सिद्ध बचन थे लब्धि उनके, दशवां पठ्ठ दिपाया था। सिद्ध सूरीश्वर नाम श्रापका बादी दल क्षोभाया था। लाखों जन को मांस छुडा कर; अहिंसा धर्म चमकाया था। पूर्वादि भू भ्रमण करके, जैन झण्डा फहराया था ॥१६ ११-प्राचार्य रत्नप्रभ सूरीश्वर जंगम कल्पतरु सम शोभित, चिन्तामणि कहलाते थे। रत्नप्रभ सुरी एकादश, पट्ट को श्राप दिपाते थे। द्रुतगति से मशीन शूद्धि की, आपने खूब चलाई थी। कठिन परिसह सहन करके, शासन सेवा बजाई थी ॥१७ १२-आचार्य यचदेव सूरीश्वर पट्ट बारहवें यक्षदेव की, भक्ति विबुध जन करते थे। बादी मानी और वितण्डी, देख देख कर जरते थे। उद्योत किया शासन का भारी, नये जैन बनाते थे। वीर प्रभु के शुभ सन्देश को, घूम घूम के सुनाते थे । १३-प्राचार्य कनक सूरीश्वर वी०नि० ३३६ पट्ट तेरहवें लब्धि भाजन, कक्कसरि अभिधान था। जैन बनाना शान्ति कराना, यही आपका काम था। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) उपकेश में उपद्रव हुआ जब, श्री संघ इन्हे बुलाया था । श्रेष्ठ तप करने से देवी, श्राकर शीश झुकाया था ॥ १६ ॥ पूज्यवर ! इन मूर्ख लोगों ने, शुभ प्रतिष्ठा का भंग किया । टांकी लगाकर ग्रन्थी छेदाई, जिसका ही यह फल लिया भवितव्या टारी नहीं टरती, रक्त धारा अब बन्द करो । विधि बताई वृहद शान्ति की, जिसको सब मिल जल्द करो ॥ तातेड़, बाफना, बलाद, करणावट, श्रीमाल, कुल मोरख थे । विरहट्ट, श्रेष्ठि, गौत्र, नव ये, दक्षिण दिशा सुरख थे | संवेति, आदित्यनाग, भूरि भाद्र, चिंचट कुमट कनौजिये थे । sिs लघुश्रेष्टि ये नव, वांमें पंचामृत लिये थे ॥ मंत्राक्षर और क्रिया विधि से, शांति स्नात्र भगाई थी । कृपा थी गुरुवर की जिसमें शांति सर्वत्र वरताई थी । ऐसे सद्गुरु का कोई सज्जन, शुद्ध मन ध्यान लगाता है ॥ इस लोक और परलोक में, मन वंछित फल पाता है । १४- प्राचार्य देवगुप्तमूरि चौदहवें पटधर देवगुप्त, सूरीश्वर यशः धारी थे । जिनके गुणों का पार न पाया, आप बडे उपकारी थे । श्रजैनों को जैन बनाकर, महाजन संघ बढ़ाया था । मन्दिरों की प्रतिष्ठा करके. जीवन शिखर चढ़ाया था । , Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) १५-प्रोचार्य श्री सिद्ध सूरीश्वर पट्ट पन्द्रहवे सिद्ध सूरीश्वर, चिंचट गौत्र कहलाते थे। आगम शानबल विद्या पूर्ण, जैन भण्ड फहराते थे। वल्लभी का भूप शिलादित्य, चरणे शीश झुकाते थे। .. सिद्धाचल का भक्त बनाया, जैनधर्म यश गाते थे। १६-प्राचार्य श्री रत्नप्रभ सूरीश्वर पट्ट सोलहवें अतिशय धारी, रत्नप्रभ सूरीश्वर थे। प्रतिभाशाली उग्र विहारी, अज्ञ हरण दिनेश्वर थे ।। प्रथम पूज्य का पढ कर जीवन, ज्योति पुनः जगाई थी। करके नत मस्तक बादी का, धर्म की प्रभा बढाई थी। १७-प्राचार्य श्री यक्षदेव सूरीश्वर वि० सं० ११५ सप्तदश श्री यक्षदेव सरि, दश पूर्व शान के धारी थे। . .. वज्रसेन के शिष्यों को दिना, मान बड़े दातारी थे। चन्द्र नागेन्द्र निवृति विद्याधर, कुल चारों के विधाता थे। उपकार जिनका है अति भारी,भूला कभी नहीं जाता है। १६-आचार्य श्री कक्कसरि वि० सं० १५७ .. पट्ट अठारहवें कक्क सूरीश्वर, अदित्य नाग उज्जारे थे। ... सहस्रों साधु और साध्वियां, जैसे चन्द्र संग तारे थे। बादी मानी अरू पाखण्डी देख दूर भग जाते थे। सुर नर पति जिनके चरणो में, मुकर शीश नमाते थे। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) १६ - आचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सं० १७४ श्रदित्यनाग कुल श्राप दिवाकर, देवगुप्त यश धारी थे । सरस्वती की पूर्ण कृपा, सद् ज्ञान विस्तारी थे ॥ दर्शन ज्ञान चरण गुण उत्तम, पुरुषार्थ में पूरे थे । वन्दन उनके चरण कमल में, तप तपने में सूरे थे ॥ २० - आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर बीसवें पट्टधर सिद्ध सूरीश्वर, बिद्या गुण भन्डारी थे । शासन के हित सब कुछ करते, चमत्कार सुचारी थे । ज्ञान दिवाकर लब्धि धारक, अहिंसा धर्म प्रचारी थे । उनके गुणों का पार न पाया, सुरगुरु जिभ्या हजारो थे । २१ - आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरीश्वर सं० १६६ श्रेष्टिकुल श्रृंगार अनोपम, पारस के अधिकारी थे । रत्नप्रभ सूरि गुण भूरि, शासन में यश धारी थे । योग विद्या में थी निपुणता, पढ़ने को कई आते थे । जैनों को जैन बनाये, जिनके गुण सुर गाते थे । २२ - श्रचाय श्री यक्षदेव सूरीश्वर संचेती गौत्र के थे वे भूषण, यक्षदेव बर सूरी थे। ज्ञान निधि निर्माण ग्रन्थों के, कविता शक्ति पुरी थे । प्रचारक थे जैन धर्म के, श्रहिंसा के वे स्थापक थे । उज्ज्वल यश श्ररु गुण जिनके, तीन लोक में व्यापक थे । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) २३-प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वर पट्ट तेवीसवें कक्कसूरीजी, अदित्य नाग कुल भूषण थे। जिनकी तुलना करके देखो, चन्द्र में भी दूषण थे। षट्दर्शन के थे वे साता, वादी लज्जित होजाते थे। अजैनों को जैन बना कर, नाम कमाल कमाते थे। २४-आचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वर चार बीस पट्ट मूरि शोभे, देव गुप्त यश धारी थे। कुमट गौत्र उद्योत किया गुरु, जैन धर्म प्रचारी थे। शुद्ध संयम अरु तप उत्कृष्टा. ज्ञान गुण भण्डारी थे। सुविहित शिरोमणि जिनकी सेवा, करते पुन्य के भारी थे। २५-आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर श्रेष्टिकुल अवतंस पच्चीसवें, सिद्ध सूरी विराजे थे। जैन धर्म के श्राप दिबाकर, गुण गगन में गाजे थे ॥ विद्या और सिद्धि ये दोनों, वरदान दिया यशधारी को। शासन का उद्योत किया गुरु, वन्दन हो उपकारी को॥ ___२६-आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरीश्वर पट्ट छबीसवें रत्नप्रभ सूरि, पंचम रत्न प्रवीण थे। जैसे पञ्चानन सिंह को देखे. बादी सब भये दीन थे। देश विदेश में विहार करके नये जैन बनाते थे। उग्र विहारी शुद्ध प्राचारी, संख्या खूब बढ़ाते थे । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) २७ - प्राचार्य श्री यक्षदेव सूरीश्वर पट्ट सतावीस यक्षदेव गुरु, भूरि गौत्र दिपाया था । तप जप ज्ञान अपूर्व करके, जैन झण्ड फहराया था । संघ चतुर्विध के थे नायक, सुरनर शीश झुकाते थे । सुन करके उपदेश गुरु का, मुमुक्षु दीक्षा पाते थे | २८ - श्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वर बीस पट्ट कक्कसूरि हुए, श्रेष्टि कुल उज्जारा था । बादी गंजन बन केसरी, जैन धर्म प्रचारा था ॥ जैन मन्दिरो की करी प्रतिष्ठा, दर्शन खूब दिपाया था । जिनके गुणों को कहे बृहस्पति, फिर भी पार न पाया था । २६ - आचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर श्री श्रीमाल गौत्र के भूषण, देवगुप्त सूरि था नाम । सुविहिताप थे पूर्वधर, धर्म-प्रचार करना था काम । कन्या कुब्ज देश का नायक, चित्रगेंद अधिकारी था । उनको जैन बनाया गुरु ने, सुवर्ण मन्दिर मणिका भारीथा । ३० -- श्राचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर तीसवें पट्ट घर सिद्धसूरीश्वर तप कर सिद्धि पाई थी । नत मस्तक बन गये बादीगण, विजय भेरी बजाई थी । किये ग्रन्थ निर्माण अपूर्व, प्रतिष्ठाएँ खूब कराई थी । अमृत पी कर जिन वाणी का करएक दीक्षा पाई थी । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ३१-आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर एकतीस पट्ट सूरि शिरोमणि, रत्नप्रभ उद्योत किया। षट्दर्शन के थे वे ज्ञाता, ज्ञान अपूर्व दान दिया। सिद्ध हस्त अपने कामो में, जैन-ध्वज फहराया था। देश देश में धवल कीर्ति, गुणों का पार न पाया था। - ३२-प्राचार्य श्री यक्षदेवसूरीश्वर . पट्ट बतीसवें यक्षदेव गुरु, त्यागी वैरागी पूरे थे। वीर गम्भीर उदार महा, फिर तप तपने में शूरे थे। धर्मान्ध म्लेच्छ मन्दिरों पर, दुष्ट आक्रमण करते थे। उनके सामने बद्धकटि से, बली हो रक्षा करते थे। म्लेच्छ आकर मुग्धपुर में, कई मुनियों को मार दिये। घायल कर डाले कई को पकड़ सूरि को कैद किये ॥ जबरन म्लेच्छ बनाया जैन को , उसने सूरि को छोड़ दिये। आये षटकूप धाम अकेले, श्राद्द निज पुत्रों को मेट किये। अहा,ह इन सूरीवर के गुण,महिमा कहांलों गाऊँ मैं।... प्राण प्रण से मन्दिर मूर्तियां, बचाये केती बताऊ मैं ।। श्रावक भक्त भी ऐसे थे वे, निज पुत्रोंको भेंट कर देते थे। सूरिवर के शिष्य बना कर, शासन सेवा फला लेते थे। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ३३-प्राचार्य श्री कनकसूरीश्वर पट्ट तेतीसवें कक्क सूरि ने, अदित्यनाग प्रभा बढाई थी। ___ योग विद्या स्वरोदय ज्ञान में, पूर्ण सफलता पाई थी॥ अर्बुदाचल जाते श्री संघ के, जीवन आप बचाये थे। __ सोमा शाह के बन्धन छूटे सहायक आप कहलाये थे। ३४-आचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वर वि० सं० ४६० चौतीसवें पट्टधर देवगुप्त थे, सूरि सूरि गुण भूरि थे। पूर्वधर थे ज्ञान दान में, कीर्ति कुबेर सम पूरि थे॥ देववाचक को दो पूर्व का. पद क्षमाश्रमण प्रदान किया। .. जिनने पुस्तकारूढ आगम कर,जैन धर्म को जीवन दिया। ३५-श्राचाय श्री सिद्धसरीश्वर वि० सं० ५२० पैतीसवें पट्ट धर सिद्धसूरीश्वर, विरहट्ट कुल के नायक थे। मान ध्यान तप संयम से, वे सर्व गुणों में लायक थे। सम्मत सिखर की करी यात्रा, पावापुरी पद दायक थे। - जैन धर्म प्रचारक पूरे, कई भूपति उनके पायक थे । पट्ट पैतीस पर्यन्त सरि के, पांच नाम क्रमशः आते थे। . रत्नप्रभ, यक्षदेव, कक्कसरि, देव सिद्ध कहलाते थे। उनके बाद भयि कई शाखा, दो नाम श्रादि के भण्डार किये। कक्क देव सिद्ध इन तीनों ने, सब शाखा में स्थान लिये। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६-आचार्य श्री कक्क सूरीश्वर पट्ट छत्तीसवें कक्कसूरि हुए, श्रेष्टि गौत्र के भूषण थे। करे कौन स्पर्धा इनकी, समुद्र में भी दूषण थे। प्रभाव प्रापका था अति भारी, भूपत शीश झुकाते थे। तप संयम उत्कृष्टी क्रिया, सुर नर मिल गुण गाते थे। ३७-प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सेतीसवें पट्टधर हुए सूरिवर, श्रेष्टि कुल के शृङ्गार थे। . देवगुप्त था नाम अापका, क्षमादिक गुण अपार थे। प्रतिबोध देकर भव्य जीवों का, उद्धार हमेशां करते थे। __ प्रतिष्टा की महिमा सुन के, पाखण्डी नित्य जरते थे। ३८-आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर अकृतीसवें वे पट्ट विराजे, सिद्धसूरि अतिशय धारी थे। शुद्ध संयमी रू कठिन तपस्वी, आप बड़े उपकारी थे। प्रचार गुरु ने किया अहिंसा, शिष्यों की संख्या बढ़ाई थी। सिद्ध हस्त थे अपने कामों में, अतुल सफलता पाई थी। ३६-आचार्य श्री कक्कवरीश्वर करुणा-सागर कक्कसूरीजी, नौ वाड शुद्ध ब्रह्मचारी थे। करते भूप चरण की सेवा. जैन धर्म प्रचारी थे। अनेक विद्याओं से थे भूषित, देव सेष नित्य करते थे। हितकारी थे संघ-सकल को, वे आशा सिर पर घरते थे। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ४० - आचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर वि०सं० ७१५ पट्ट चालीसवें देवगुप्त हुए, जिनकी महिमा भारी थी । श्रात्मबल अरु तप संयम से कीर्ति खूब विस्तारी थी । शिथिलाचारी दूर निवारी, श्राप उप्र विहारी थे । गुण गाते सुरगुरु भी थांके, शासन की हितकारी थे । ४१ - आचार्य श्री सिद्ध सूरीश्वर सं० ७४६ एकचालीस पट्टधर पारख, सिद्धसूरीश्वर नायक थे । उज्ज्वल गुण छत्तीस जिनमें, सूरि पद के लायक थे । घूम घूम कर जैन धर्म का, विजय डंका बजवाया था । जिन मन्दिरों की करी प्रतिष्ठा, संघ सकल हरषाया था । ४२ - श्राचार्य श्री कनकसुरीश्वर दो चालीस पट्ट कक्कसूरी, श्रार्य गौत्र उजारा था । किशोर वय में दीक्षा लेकर, स्याद्वाद प्रचारा था ॥ दीक्षा शिक्षा दी शिष्यों को संख्या खूब बढ़ाई थी । भू भ्रमण कर जैन धर्म की, शिखर ध्वजा चढ़ाई थी ॥ ४३ - प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर वि०सं० ८३० संचेती कुल तिलक भाप थे, पट्ट तेतालीस पाया था । देवगुप्त सूरीश्वर जिनका, देवों ने गुण गाया था । भूपतिः भ्रमर कमल चरणों में, झुक झुक शीश नमाते थे । विद्वता की धाक सुन कर, बादी जंन घबराते थे । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) ४४ - श्राचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर चौचालीसवें सिद्ध सूरीश्वर श्रेष्टि कुल दिवाकर थे । दर्शन ज्ञान चारित्र वारिधि, गुण सब ही लोकोत्तर थे ॥ थे वे जलनिधि करुणा रस के, पतित पावन बनाते थे । ऐसे महापुरुषों के सुन्दर, सुरवर मिल गुण गाते थे | ५७ महा प्रभाविक कृष्णाऋषि हुए, तप तपने में सूरे थे । सपाद लक्ष देश के अन्दर प्रभाव आपके पूरे थे | नागपुर नारायण श्रेष्ठ, राजा भी समकित पाया था । लाखों जैन बनाये गुरु ने, मन्दिर निर्माण कराया था ।। ४५ - श्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० ६१८ पैंतालीसवें कक्कसूरीन्द्रा, श्रार्थ गौत्र उज्जागर थे । चन्द्र समान शीतलता जिनकी, सद्ज्ञान के श्रागर थे । वीर बाणी उपदेशामृत से, भव्यों का उद्धार किया । प्रतिष्ठायें कई करवाई, मौलिक ग्रन्थ निर्माण किया । ४६ - आचार्य श्रीदेवगुप्त सूरीश्वर सं० ६६३ छचालीस पट्टधर शोभे, देवगुप्त सूरीश्वर थे । श्रवतंस थे चोरड़िया कुल के, ज्ञान के दिनेश्वर थे ॥ देश विदेश में धर्म प्रचार की, श्राज्ञा शिष्यों को करदी थी । नूतन जैन बनाये लाखों, जैन ज्योति चमका दी थी । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ४७ - आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर सं० १००८ संतालीसवें पट्ट प्रभाकर, सिद्ध सूरीश्वर नामी थे । दृढ थे दर्शन ज्ञान चरण में, शिवसुन्दरी के कामी थे । ग्रन्थ निर्माण किये पूर्व कई ग्रन्थ कोष थपाये थे । उन्नति शासन की करके, मन्दिरों पे कलश चढ़ाये थे || ६१ जम्बूनाग ज्योतिष विद्या में, सफल निपुणता पाई थी । लोद्रवा पट्टन में जाकर, विप्रों से विजय मनाई थी ॥ जो नहीं करने देते थे वहां, मन्दिर प्रतिष्ठा करवाई थी । ग्रन्थ किया निर्माण आपने, विद्वता की भेरी बजाई थी ।॥ ४८ - प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० २०५१ बाप्प नाग नाहटा जाति, जिनके वीर शिरोमणि थे । चालीसवें पट्ट बिराजे, कक्कसुरि सु गणि थे || भैंसाशाह का कष्ट मिटाया, छाणा सब सोना बनाया था । सिक्का चलाय जिससे जाति, नाम गढ़इया पाया था । ४९ – आचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सं० ११०= उन पचासवें पट्ट पारख वर देवगुप्त सुरीश्वर थे । सिद्धगिरी का संघ साथ में, भैंसाशाह अग्रसर थें ॥ अपमान किया माता का गुर्जर. बदला जिसका लिधा था । उद्योत किया शासन का सूरि श्रमर नाम सुभ किधा था । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०--आचार्य श्री सिद्ध सूरीश्वर सं० ११२८ पट्ट पचासवें सिद्धसूरीश्वर, गदइया जाति बडवीर थे । आत्म बली विद्या गुण पूरण, सागर जिसे गम्भीर थे ॥ वीर सूरि भावहड़ा गच्छ के, जिनका उपद्रव हटाया था। कदर्प ने चैत्य करवाया, प्रतिष्ठा कर यश पाया था । ५१-आचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० ११७४ पट्ट एकवान श्रेष्टि भूषण, भूमण्डल श्राप विचरते थे । राजा महाराजा जिन चरणों की, सेवा भक्ति करते थे। राजगुरु नामे कक्कसूरि, जेष्ठ गच्छ कहलाते थे। हेमचन्द्र गुरु कुमारपाल, चरणों में शीश झुकाते थे । स्वर्गवास हुआ सूरि का, सब प्राचार्य वहां आये थे। हेमचन्द्र सूरि गुण भूरि, सबको ऐसे सुनाये थे ॥ गया शेर आज दुनियां से. अरे हिरणों निश्चिन्त रहो। ____उनके हुँकारा मात्र से तृण, गिरते मुंह से थे यों कहो । वाचनाचार्य पद्मप्रभ था, त्रिपुरा देवी वरदान दिया। कलिकाल सर्वज्ञ सूरीजी, जिनके दिल को बस किया ॥ योग विद्या बतलाई राणी को, पाट्टण में उद्योत किया। डांबरेल नगर का था भूपत, यशोदित्य को मंत्र दिया ॥ - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ५२-आचार्य श्रीदेवगुप्त सूरीश्वर सं०१२११ पट्ट बावनवें देवगुप्त हुए, सूरि सदा जयकारी थे। ज्ञान भानु की तीव्र रश्मि से, मिथ्या अक्ष विडारी थे॥ चमत्कार था आत्मबल का, दुनियां शीश झुकाती थी। उज्ज्वल यश जगत में छाया, देवनारी गुण गाती थी।६८ ५३-प्राचार्य श्रीसिद्ध सूरीश्वर सं० १२२३ तेपनवें पट्ट सिद्ध सूरीश्वर, बलाह गौत्र चमकाया था। ___ म्लेच्छों ने उपकेशपुर में, उपद्रव खूब मचाया था । वीरभद्र थे शिष्य आपके व्योम मार्ग विहारी थे। प्राण प्रण से की तीर्थ रक्षा, गुरु ऐसे चमत्कारी थे ॥६६ ५४-प्राचार्य श्रीकक्क सूरीश्वर वि० सं० १२५२ पट्ट चोपनवें कक्कसूरीश्वर, जांघड़ा जाति के वीर थे। करते चरण कमल की सेवा, वे भवसागर के तीर थे । सिंह गर्जना सुन के वादी, गीदड़ जीव बचाते थे। देश देश में घूम सूरिजी शासन सितारा चमकाते थे ॥७० ५५-आचार्य श्रीदेवगुप्तसूरीश्वर सं० १२५६ पट्ट पचावन देवगुप्त हुए बोत्थरा गौत्र सितारे थे । स्वपर मत्त के थे वे मर्मज्ञ, वादी मद विडारे थे॥ जम्बर था प्रभाव प्रापका, नृपति पैरों में नमते थे। अप्रमत मन के थे स्वामी, शान ध्यान में रमते थे ॥७१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) ५६ - आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर सं० १२६० छपनवें पट्ट सिद्ध सुरीश्वर, जाति चोपड़ा उज्जारी थी। निमित स्वरोदय योग विद्या में, कीर्ति आपकी भारी थी कई मुमुक्षु श्राते पढने को, ज्ञान दान दातारी थे । क्षमाशील दया और शांति, शासन के हितकारी थे । ५७ - श्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० १२६५ पट्ट सतावन कक्कसूरीश्वर. छाजेड़ कुल के दीपक थे । सूर्य सदृश थी क्रान्ति आपकी, मोह शत्रु के जीपक थे व्याख्यान में मनुष्य तो क्या, देव मुग्ध बन जाते थे । उपकारी गुरु राज जिनके, सुर नर मिल गुण गाते थे । ५८ - श्राचार्य श्रीदेवगुप्तसूरी सं० १२७४ पट्ट अठावन देवगुप्तसूरि, संचेति कुल प्रभाविक थे। त्यागी वैरागी थे फिर तपस्वी, ज्ञान गुण स्वभाविक थे । देख श्रापकी प्रभा मानव, संसार समुद्र को तरते थे । हा - हा ऐसे गुरु देवन की, धन्य वे वन्दन करते थे । ५६ - आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर सं० १२७७ सिद्ध सूरीश्वर पट्ट गुणसठवें, चोरड़िया कुल दिपाया था । अथाह था जो ज्ञान श्रापका, कवि किरीट कहलाया था । राजसभा में उपदेश करके, कई भूपति समझाये थे । जिनके गुण गगन में गांजे, सुरनर पार न पाये थे । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ६० - आचार्य श्री कक्कसूरीश्वर से० १२८३ पट्ट साठवें कक्कसूरीश्वर, वीर नाहटा भारी थे । दिव्य ज्ञान तप संयम के गुण, खूब प्रतिशप धारी थे ॥ प्रभाविक थे जिन शासन के, सत्य धर्म प्रचारी थे । किया उद्धार अनेक भव्यों का, ऐसे पर उपकारी थे । ६१ - आचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर एक साठवें पट्ट देवगुप्तसूरि, बागरेचा भव तारक थे । कहां लों करू आपकी महिमा, अनेक गुणों कधारक थे | त्रिय शत नर और नारी सात सौ, दीक्षा दे उद्योत किया । निर्माण किये ग्रन्थों के भारी, ज्ञान पूर्व दान दिया ॥ ६२ - श्राचार्य श्री सिद्ध सूरीश्वर सं० १२८६ पट्ट बांसठवें सिद्धसूरीश्वर वैद्य मेहता कुल उजागर थे । छत्तीस सहस्र सुवर्ण मुद्रा से, ज्ञान पूजा रत्नाकर थे तीर्थ यात्रा संघ निकाला, प्रतिष्टायें आप करवाई थी । स्याद्वाद सिद्धान्त वीर का, उज्वल ज्योति जगाई थी ॥ ६३ - आचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० १२६६ पट्ट तेसठवें कक्कसूरिजी हत्थुडिये कुल के हीरे थे । वादी गंजन स्वमत्त मण्डन, धर्म प्रचारक धीरे थे | तप संयम शुद्ध क्रिया पात्र, कई दीक्षा दे उद्धार किया । कोटि बन्दन करते उनको जैन झण्ड फहराय दिया ॥ , Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) ६४-आचार्य श्रीदेवगुप्त सूरीश्वर सं०१३०५ पट्ट चौसठवें देवगुप्त सूरि, भद्र गौत्र उज्जागर थे। थे शिष्य विद्या के सागर, जैसे गुण रत्नाकर थे। साहित्य क्षेत्र की करी उन्नति, स्याद्वाद विस्तारा था। चमका दिया फिर जैन धर्म को, अहा-हाभाग्य हमारा था। वीरचन्द्र मुनि अदूभुत ज्ञानी, कई सूरि पढने को प्राते थे। प्रभाव था यंत्र मंत्र का, देव देवी सेवा पाते थे। मरुकोट क्षेत्रपाल का, उपद्रव श्राप मिटाया था। प्रल्हादनपुर की राजसभा में, कृष्णादत्त को नमाया था॥ देवचन्द्र को देवी सरस्वती, साक्षात् हो वरदान दिया। सप्त छत्रों ले धर्म रुचि को, जीत छत्रों को छीन लिया। तैलंग देश में धर्म कीर्ति था, दिगम्बर को परास्त किया। करणाटक के महादेव की, भक्ति से ग्रन्थ निर्माण किया ॥ ८३ उपाध्याय हरिश्चन्द्र अापके, चमत्कारी उपदेशक थे। कच्छ देश जाडेजा क्षत्री, कुँवारी कन्या के घातक थे। उपदेश देकर उस प्रथा को, आपने बन्द करवाई थी। और कई उपकार करके, यश की भेरी बजाई थी। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ६५-आचार्य श्रीसिद्धसूरीश्वर सं० १३३० पट्ट पैसठवें सिद्धसूरीश्वर, वैद्य मेहता कुल नायक थे। रत्ल खान से रत्न ही निकले, शिष्यगण भी सब लायक थे। कोट्याधीश थे भक्त आपके, संघपति पद के दायक थे। श्रेष्टि गौत्र दिवाकर देशल, समरसिंह भी पायक थे । उपाध्याय मुनि शिखर ने, ध्यान की धुन लगाई थी॥ शानी थे फिर तप करने में, लब्धि अनेकों पाई थी। वाचनाचार्य था नागेन्द्र, जो नागेन्द्र गुण गाते थे । लक्ष्मीकुमार और सोमचन्द्र, संघ को बहुत सुहाते थे। मंगल कुम्भ मुनीन्द्र जिसकी, विद्वत्ता जग जहारी थी। माण्डवगढ में अष्ठापद की, प्रतिष्ठा प्रभाकारी थी। हरदेव व विजयदेव ने, यात्रार्थ संघ निकाले थे। लक्ष मनुष्य था साथ संघ में; छ 'री' को वे पाले थे। तीर्थ यात्रा निमित्त देशल ने: विराट्संघ निकाले थे। कृपा थी गुरुवर की जिन पर, फिर उदार भाव निराले थे। चौदह करोड द्रव्य व्यय करके, सुयश खूब कमाया था ! . साधर्मियों के बन्धु बन कर सहायता आराम पहुचाया था। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) ८८ देशल अपने जेष्ट पुत्र को, देवगिरि को पठाया था। जिसने वहां के किले बीच में, मन्दिर जबर बनाया था । गुरुदेव से करी विनती, प्रतिष्ठा जाकर करवाई थी। राजा प्रजा भये अनुरागी, तैलंग में ज्योति जगाई थी ॥८७ अलाउद्दीन महा खूनी का, जुलम भारत में भारी था। जला दिये भण्डार ज्ञान के, ऐसा अत्याचारी था । महातीर्थ शत्रुञ्जय ऊपर, सेना लेकर आया था। तेरहसौ गुणन्तर सम्वत् , तीर्थ उच्छेद कराया था। मन्दिर और मूर्तियां सबको, दुष्ट नष्ट कर डाले थे। हा-हा कार हुआ भारत में, छाये बादल काले थे ॥ कृपा सिद्धसूरि की पाकर, देशल उद्धार कराया था। समरसिंह सा पांच पुत्रों ने, वैद्य कुल दिपाया था । महिपाला राणा आरासण, फलही खांन से दीनी थी। पूजा हीरा पन्ना मोती से, संघ बधा कर लीनी थी.॥ तेरहसौ इकोत्तर वर्षे, पाटण से संघ चलाया था। तीर्थ प्रतिष्ठा सिद्ध सूरि ने, करके मंगल मनाया था । भरतादि कई उद्धार करवाये, स्वाधीन सामग्री सारी थी। ... ... धर्मान्ध मुगलों के राज में, बात बड़ी यह भारी थी। वीर समरसिंह दो वर्षों में, तीर्थ स्वर्ग बनाया था। महा-हा धन्य समरसिंह, जिनके गुण सुर गाया था। १० १ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ६६-प्राचार्य श्री कक्क मरीश्वर सं० १३७१ पट्ट छांसटवे कक्कसूरीश्वर, गदइया कुल श्रृंगार थे। ___ संघपति हो सुवर्ण मुद्रा से, खूब किया सत्कार थे। होकर सूरि जैन धर्म का. डंका बजाया जोर से। .. अन्य निर्माण किये कई मौलिक, वादी हटाये शोर से ॥६२ ६७-आचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सं० १४०६ पट्ट सड़सठवें देवगुप्त हुए चोरडिया जाति के वीर थे। प.रंगत थे सर्व आगम के, पुनः गुणों में गम्भीर थे। भ्रमन भूमण्डल में करके, धर्म खूब चमकाया था ॥ गज सभा में शास्त्रार्थ कर, विजय डंका फहराया था ॥६३ ६८- आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर सं० १४७५ अड़सठ पट्ट पर सिद्धसूरीश्वर, बोत्थरा कुल दिपाया था। वचन लब्धि और उपदेशक थे, धर्म को खूब बढ़ाया था। सूर्य सम था प्रकाश प्रापका, सुयश विश्व में छाया था । अल्प बुद्धि से महिमा कहां लौं, करू पार नहीं पाया था। • ६६-प्राचार्य श्री कनकसूरीश्वर सं० १४६८ नौसाठ पठ्धर ककसूरिजी, समदड़ियाशास्त्र उज्जागर थे। .: निर्मल ज्ञान पावन था, जीवन गुण गण के बे सागर थे। प्रचार किया था जैन धर्म का, क्रान्ति खूब फैलाई थी। मेवपाट नर नाथ के दिल में, ज्योति जैन जगाई थी। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता हुआ भस्म ग्रह ने, अशेष फटकार दिखाई थी। श्रीसंघ की राशि पे आया, धूम्रकेतु विग्रह फैलाई थी। संस्कृति यवनों की पाकर, लुम्पक था अन्याय किया। निज अपमान के कारण उसने, शासन को नुकसान दिया। जिन प्रतिमा जिनागम ये दोनो, शासन के दृढ स्थम्भ थे। हस्तक्षेप करके निकाला, मत अपना ही दम्भ थे । अज्ञलोग मिल उस अब को, देकर साथ बढ़ा दिया । अहा-हा कलिकाल तेरा, धन्य है इस जग में जिया ॥ ७०-प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सं० १५२८ देवगुप्त सूरि पट्ट सित्तरवें, नाबरिया जन मन भाया था। न करके परवाह राजमान की, सूरि-पद शोभाया था। • कम सूरा सो धर्मे ' सूरा, सत्य करके दिखलाया था। भूपति वादी चरण कमलों में,श्राकर शीश झुकाया था। ६६ ७१-प्राचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर सं० १५६५ पट्ट इकोत्तर सिद्धसूरिश्वर, छाजेड़ जाति के भूषण थे। सूरि पद का महोत्सव कीना, मन्त्री लाल नहीं दूषण थे । प्रभाविक थे जिन शासन के, शिष्यों की संख्या बढाई थी। लुम्पकों को जीते बाद में, विजय ध्वज फहराई थी। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) ७२-आचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० १५६४ बहोतर पट्ट कक्कसूरिवर, शाखा वैद्य दिवाकर थे। हस्तागत थी चित्र वेल्ली, सुकृत में दानेश्वर थे । त्रि सय नारी दीक्षा घारी, शत असी शिष्य बनाये थे। __उद्योत किया था जैन धर्म का, लुम्पक को समझाये थे। ...७३-आचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वर सं० १६३१ पट्ट तिहोत्तर देवगुप्त सूरि, श्रेष्टिकुल प्रभाकर थे। साथ पिता के दीक्षा ली थी, विद्या में विद्याधर थे । शुद्ध संयम अरु क्रिया पात्र, प्रभाव जिनका भारी था। कुमति हटाये भूप नमाये, नौ बाड़ शुद्ध ब्रह्मचारी थे। ७४-प्राचार्य श्री सिद्धसरीश्वर सं० १६५५ पट्ट चहोतर, सिद्ध सूरीश्वर, वाफणा गुण भण्डारी थे। देश देश में कीर्ति प्रापकी, शासन को हितकारी थे। अमृत था वाणी में जिनके. प्रखर उपदेश के दाता थे। ...: वादी नित नतमस्तक रहते, स्वपर मत के ज्ञाता थे। ५-छाचार्य श्री ककसरीश्वर सं० १६८६ पट्ट पचूतर कक्कसूरीश्वर, श्रेष्टि वीर यश धारी थे। उन पंचानन सिंह सामने, वादी बन गये छारी थे। भू भ्रमन कर नर नारी को, दीक्षा दी उपकारी थे। समार्ग कुमति को लाये, ऐसे वे हितकारी थे। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ७६-आचार्य श्री देवगुप्तसूरीश्वर सं० १७२७ । देवगुप्त छहोतर पट्ट सूरी, सूर्य सम प्रकाश किया। ___ थी बिजली शासन की उनमें, उदार वृत्ति से शान दिया। रक्षक थे वे स्वधर्म के, पतितों का उद्धार किया । जो भूले उपकार गुरु का, व्यर्थ गमाय उसने जिया ॥१०४ ७७-आचार्य श्री सिद्ध सूरीश्वर सं १७६७ . पट्ट सितोतर सिद्धसूरीश्वर, रांका शाखा दृढ़ धर्मी थे। बालपने अभ्यास मान का, जैन धर्म के मर्मी थे। सिद्धहस्त थे सब विद्या में, योग साधना पूरी थी। की थी सेवा जिन गुरुवर की, सिद्धि कभी नहीं दूरी थी ॥१०५ ७८-आचार्य श्री कक्क सूरीश्वर सं० १७८३ पट्ट इठन्तर हुए सूरीश्वर, कक्कमूरि बढ़ भागी थे। सुविहितों में आप शिरोमणि, जैन धर्म के रागी थे। अन्य गच्छों के मिल मुमुक्षु, पढने को नित्य आते थे। वात्सल्यता क्या कहू आपकी, हो दत्त चित्त पढाते थे ॥१०६ ७६-प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सं० १८०७ पट्ट गुणियासी, देवगुप्तसूरि, श्रेष्ठि वैद्य विचक्षण थे। सप संयम वैराग्य रंग में, जिनके रंग विलक्षण थे। शिथिलाचारी थे कई साधु, जिनको खूब फटकारा था। . · उग्र विहारी उनको बनाये, फिर लुम्पकों को ललकारा था। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) उपाध्याय था सहजसुन्दर, संवेग पक्ष उद्धार किया । कठिन क्रिया तप देख श्रापका, कई मुमुक्षु संयम लिया। आगम लोपक मूर्ति उत्थापक, जिनको भी अपनाय लिया। शुद्ध संवेगी उद्धारक शाखा, सत्यमार्ग प्रकाश किया ॥१०८ ८०-प्राचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर सं० १८४७ पट्ट असी पर सिद्ध सूरीश्वर, वैद्य मेहता कुल दीपक थे। अलिप्त थे जल कमल सम, मद कंदर्प के जीपक थे । विद्या मन्त्र के थे अधिकारी, यश दुनियां में छाया था। चमत्कार को नमस्कार था, कई भूपति शीश जुकाया था। .८१-प्राचार्य श्री कक्कसूरीश्वर सं० १८५१ पठ इक्यासी कक्कसूरिजी, वैद्य जाति उज्जारी थी। विद्वता आपकी थी अति नामी, यश की रेखा भारी थी। यति पंक्ति में रहने पर भी, निस्पृही शुद्धाचारी थे। . अहा-हा ऐसे श्रीपूज्य भी शासन के हितकारी थे ॥११० ८२-प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वर सं० १६०५ पट्ट बैयांसी देवगुप्त सूरि, वैद्य विचक्षण भारी थे। व्याकरण न्याय तर्क विभूति, सैद्धान्तिक जग जाहारी थे। मन्बेश्वर सरदार सिंह ने, महोत्सव खूब बनाया था। 'गुरु कृपा से उस मन्त्री ने, संघपति पद को पाया था॥१११ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) ८३- आचार्य श्री सिद्ध सूरीश्वर सं० १६३५ पट्ट तैयांसी सिद्ध सूरिजी श्रेष्ट वैद्य कहलाते थे । प्रतिभाशाली थे यशःधारी, जहां जाते श्रादर पाते थे ! बीकानेर नरेश भक्ति से, महाराव ने महोत्सव किना था । उपकेशगच्छ के अन्तिम सूरी, सुयश जीवन में लिना था ॥ ८४ - श्राचार्य श्रीकक्कसूरीश्वर सं० १६६५ पट्ट चौरासी योग्य समझ कर, कक्कसूरि को स्थान दिया । फिर भी नहीं थे लायक पद के अधिकार श्रीसंघ छीन लिया। व्यवहार सूत्र में थी यह श्राशा, श्रीसंघ जिसका पालन किया। वरदान था पूर्व सूरि का, भवितव्यता करके दिखा दिया । ११४ पार्श्वनाथ की शुद्ध परम्परा, निग्रन्थ गच्छ कहलाता था । स्वयंप्रभ सूरी थे विद्याधर, गच्छ विद्याधर कहाता था । रत्नप्रभ सूरि उपकेश पुर में, महाजन संघ बनाया था । उस प्रदेश में विहार करने से, गच्छ उपकेश कहलाया था । १९५ कुन्कुदाचार्य से भई शाखा, भीन्नमाल उसका नाम था ॥ खट कुंप से शाखा दूसरी, कलिकाल का यह काम था । चन्द्रावती में रहे जो साधु, चन्द्रावती शाखा था नाम । चतुर्थ शाखा श्ररु निकली, खजूर पट्टन था उसका धाम || Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) ११६ वीर शासन में गच्छ चौरासी, इनसे भी बहु अधिक लिया। ___ उन सब ने उपकेश गच्छ का, पूज्य भाव से प्रादर किया। जिसका कारण था वे उपकारी, जो महाजन संघ बनाया था। जेष्ठ गच्छथा कारण दूसरा, इनसे पूज्य भाव दर्शाया था। सुविहित हुए शुद्धाचारी, शासन सेवा बजाई थी। श्रीमाल पोरवाल बनाये, प्रोसवंश स्थापना कराई थी। जैनसमाज उन उपकारी का,विनय करे इसमें कौन नवाई है। कोटिश वन्दन चरण कमल में. शानसुन्दर सुखदाई है। सम्वत् उनीसे साल पचाणु, नयानगर है ब्यावर शहर। 'संघ आग्रह से किया चौमासा, आनन्द की बरताई लहर ॥ गुरु उपकार ने करी प्रेरणा, गुणसुन्दर का मिल गया साज । .. जान पंचमी गुरु गुण रचना, जन्म सफल बनाया आज ।। पृष्ट पद्य पंक्ति अशुद्ध संघ शुद्ध संघ ६ . १३ .१ उपकर उपकार १२ : ३८ ... ३. चित्रगेंद - चित्रांगद १४ .. ४६... ३.. सम्मत सम्मेत: ६६ ५२४ थांके थाके Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55555555555555555555555 अब केवल थोड़ी सी पुस्तकें और बची हैं। * मूल्य भी बहुत कम कर दिया है * - जल्दी मंगवालें वरना पछताना पड़ेगा - समय चले जाने पर चौगुनी कीमत से भी नहीं मिलेगी अतः समय हाथ से न जाने दें १-मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास और श्रीमान् लौंका शाह बडे ही परिश्रम और शोध खोज से यह ग्रन्थ लिखवाया गया है ऐतिहासिक प्रमाण और चित्रों से परिपूर्ण है आज पर्यन्त भी ऐसा ग्रन्थ कहीं भी नहीं छपा है पृष्ठ करीब 1000 प्राचीन चित्र 53 पक्की कपड़ा की दो जिल्दें / मूल्य 5) रुपये था उसका 3) रु० कर दिया है। २-जैन जाति महोदय सचित्र प्रथम खण्ड-जन धर्म एवं जैन जातियों का प्राचीन इतिहास अपनी शानी का यह एक ही ग्रन्थ है पृष्ट 1000 चित्र 43 पक्की जिल्द मूल्ए, '1) प्रा.परिस्का इतना रु० है। ३-समरसिछुपा है पृष्ठ करीब 1000 प्राचीनथ है, जिसके 1 कपड़ा की दो जिल्दें / मूल्य 5) तेहास का शान होगरु० कर दिया है। महोदय सचित्र प्रथम खण्ड'शा नवतियों का प्राचीन इतिहास मथा ग्रन्थ है कटरी बाजार -जोधपुर (मारवाड़) प्रमऊफफफफफफफफफफफफफफ जफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफफ़ PCD CICLICC