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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम संख्या -
काल
६०६७ ८१.२ (महावीर सपने
खण्ड
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परम ज्योति महावीर
[ करुण, धर्मवीर एवं शान्त रस प्रधान महाकाव्य ]
रचयिता धन्यकुमार जैन 'सुधेश'
नागौद (म० प्र०)
(सर्वाधिकार लेखकाधीन)
प्रकाशकश्री फूलचंद जवरचंद गोधा जैन ग्रंथमाला
८, सर हुकमचंद मार्ग
इन्दौर नगर
प्रथम संस्करण।
१२००
__जून सन् १९६१
{मूल्य ७)
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दी इलाहाबाद ब्लाक वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड जीरोरोड, इलाहाबाद |
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प्रकाशकीय वक्तव्य
जैन समाचार पत्रों में श्री कविवर 'सुवेश' की प्रकाशित नवीन - रचना 'परम ज्योति महावीर' नामक महाकाव्य के समाचार पढ़कर हमने 'सुधेश' जी को लिखा कि क्या वे अपने महाकाव्य को
इन्दौर की किसी
उन्होंने तुरन्त स्वी
- ग्रन्थमाला की ओर से प्रकाशित कराना चाहते हैं कार कर लिया और बड़े ही निस्पृह भाव से अपनी महाकृति देखने मेज - दी | मैंने और श्री जवरचंद फूलचंद गोधा जैन ग्रन्थमाला इन्दौर के ट्रष्टी श्री जैन रत्न सेठ गुलाब चंद जी टोंग्या और श्री सेठ देव कुमार सिंह जी कासलीवाल एम० ए० ने उक्त महाकाव्य को पढ़ा । ग्रन्थमाला के अध्यक्ष श्री सेठ फूलचंद जी गोधा की सम्मति से ट्रष्ट कमेटी की -बैठक बुलाकर उक्त रचना प्रकाशित करना निश्चित कर लिया गया और छपाने का सब भार 'सुधेश' जी ने अपने ऊपर ले लिया । श्राज यह महत्व पूर्ण कृति पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हुए हमें बड़ा हर्ष हो रहा है ।
के
'परम ज्योति महावीर' वास्तव में महाकाव्य है । इसमें महाकाव्य लक्षण और गुण तो पाये ही जाते हैं, पर अभी तक भगवान महावीर के जीवन सम्बन्धी जो ग्रन्थ प्रकाशित हुये हैं, उनमें यह अपना अपूर्व और विशिष्ट स्थान रखता है । 'सुधेश' जी ने इसे गम्भीर और खोज पूर्ण अध्ययन करके लिखा है। इसकी रचना शैली और नैसर्गिक कवित्व से आकृष्ट होकर ही यह शीघ्र प्रकाशित किया गया है ।
भगवान महावीर के गर्भ, जन्म, तप, शान और मोक्ष इन पाँचों कल्याणकों का क्रमशः घटना रूप में विवेचन करते हुये कवि ने नगर,
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( IV ) महाराज, महारानी, प्रजा, ऋतु आदि का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। संवाद एवं कथोप कथन भी रोचक और मनोवैज्ञानिक हैं । तत्कालीन स्थिति का वर्णन करते हुये कवि पर देश के आधुनिक वातावरण का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहा। ___ ग्रन्थमाला की ओर से पहले स्व० मा० दरयाव सिंह जी सोधिया द्वारा लिखित 'श्रावक धर्म संग्रह' का दूसरा संस्करण और प्राचार्य दुर्ग देव कृत 'रिष्ट समुच्चय' का प्रो० नेमिचंद जी एम० ए० ज्योतिषाचार्य श्रारा द्वारा लिखित हिन्दी अनुवाद तथा सितम्बर १६५६ में श्री ज्ञान चंद्र जी 'स्वतन्त्र' सूरत की 'हम कैसे सुधरें ?' पुस्तिका प्रकाशित हो चुकी है। इनमें प्रथम ग्रन्थ में श्रावक धर्म का सांगोपांग वर्णन है। जिसे सोधिया जो ने गृहस्थ धर्म सम्बन्धी अनेक शास्त्रों का स्वाध्याय कर लिखा है । दूसरे ग्रन्थ 'रिष्ट सम्मुचय' में मरण संबन्धी शकुन व सूचनाएँ हैं, जो मरण की जानकारी और समाधि मरण के लिये उपयोगी हैं । तीसरी में नैतिक जीवन के सुधार की प्रेरणात्मक घटनाएँ हैं।
ग्रन्थ माला से इन तीनों ग्रन्थों के पहिले प्राचार्य योगीन्द्र देव की प्राकृत रचना 'श्रात्म दर्शन' का नाथूराम जी द्वारा रचित पद्यानुवाद और 'परमात्म छत्तीसी, लधु रचना प्रकाशित की गयी थी। ___ ग्रन्थ माला का उद्देश्य जैन धर्म के सिद्धान्तों का देश विदेश में प्रचार एवं प्रसार करना है । अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्तों को जानकर जनता सुख और शान्ति का अनुभव कर सके ऐसी सरल और आधुनिक शैली में लिखी गयी पुस्तकें हम चाहते हैं और चाहते हैं अभी तक प्रकाश में नहीं आया साहित्य, जो जैन वाङ मय का गौरव बढ़ाये । वर्तमान में आत्मबोध और नैतिक
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होती। भगवान उसकी सारी बात सुनकर कहते हैं- "जब तक हरिकेश के साथ आसन बदल कर ओणिक निम्न श्रासन पर नहीं बैठते उन्हें कैसे गूढ़ ज्ञान प्राप्त हो सकता है ?" राजा जब चांडाल मुनि को दर देता है तभी उसकी विद्या पूरी होती है ।
भगवान बुद्ध ने बहुत सोच विचार के बाद महा प्रजापति गौतमी को प्रव्रज्या दी थी किन्तु भगवान महावीर ने सहज भाव से अपने चतुर्विधि संघ में स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया । भगवान जब कौशाम्बी जाते हैं तो उनका हृदय कारागृह में पड़ी, बेड़ियों से जकड़ी, सिर मुड़ी हुई कौशाम्बी के नगर श्रेष्ठ की दासी चन्दन बाला के दुःख से द्रवित हो उठता है । भगवान कई दिनों तक कौशाम्बी में भिक्षा ग्रहण नहीं करते और जब करते हैं तो दासी चन्दन बाला के हाथों
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से । यही दासी भगवान महावीर की प्रथम शिष्या और उनके "भिक्षुणी संघ की प्रथम अधिष्ठात्री बनी। (चुलवग्ग) प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ में चन्दन बाला के प्रसंग का मार्मिक वर्णन कवि ने किया है।
भगवान महावीर के राजशिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म की शिक्षा का विधिवत् प्रचार करने के लिये अपने धर्म दूत यूनानी सम्रान्तिोकस, मिस्र के सम्राट टालेभी, मैसिडोन के राजा श्रन्तिगोनस साइरीन सम्राट मारगस और एपिरो नरेश अलेक्जेंडर के पास भेजे । मिस्र की राजधानी काहिरा से एक हजार मील दूर रेगिस्तान के बीच में बसे हुये नगर साइरीज में भी जैन धर्म के प्रचारक पहुँचे ।
भगवान महावीर मानव भावनाओं से परिपूर्ण मानव धर्म के महान प्रचारक थे जिनके जीवन और जिनकी शिक्षा के ऐतिहासिक महत्व के आगे उनका पौराणिक महत्व अधिक मूल्य नहीं रखता । श्राज का युद्ध सन्तप्त मानव, संसार के कल्याण के लिये, भगवान महावीर की शिक्षाओं की ओर श्राशापूर्ण दृष्टि से देख रहा है क्योंकि उन्हीं शिक्षाओं
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में विश्व कल्याण निहित है । इसीलिये श्राज भगवान महावीर के जीवन और उनकी शिक्षाओं के वैज्ञानिक अध्ययन का महत्व बढ़ गया है।
हमें विश्वास है कवि का यह श्रेष्ठ प्रयत्न, भगवान महावीर का पावन जीवन प्रसंग हमारे हृदयों में वह प्रेरणा पैदा करेगा जिससे हम आज के युग में लोक-कल्याण की भावना से भगवान के सच्चे अनुयायी होने का दावा पेश कर सकें। अाजाद स्क्वायर,
विश्वम्भरनाथ पांडे इलाहाबाद, १५-५-१६६१
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शुभाशीर्वाद एवं सन्देश
श्री १०५ तुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी ( सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक जैन सन्त)
आपकी प्रतिमा का हमें छात्रावस्था से ही परिचय है, आपने कवित्व में अच्छी विशेषता का परिचय दिया है। आपकी आत्मा उन्नत पद को प्राप्त हो, यही शुभ आशीर्वाद है । शांतिनिकेतन, ईसरी
गणेशवणी १६-५-६० श्री डा. राजेन्द्रप्रसाद जी (राष्ट्रपति भारत)
आपके प्रयास की सफलता के लिए राष्ट्रपति जी अपनी शुभ कामनाएँ मेजते हैं। राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली-४
राजेन्द्रलाल हांडा १५-७-६०
(राष्ट्रपति जी के प्रेस सचिव)
श्री सर राधाकृष्णन् ( उपराष्ट्रपति भारत)
I am glad to know that you are bringing out a book called "Paramjyoti Mahavir" I wish your endeavours success. New Delhi
S. Radhakrishnan June 4. 1960
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मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि आप "परम ज्योति महावीर" नामक पुस्तक प्रकाश में ला रहे हैं। मैं आपके सत्प्रयत्न की सफलता चाहता हुँ। नई दिल्ली
सर राधाकृष्णन ४-६-४०
श्री अजित प्रसाद जी जैन(भूतपूर्व खाद्य मत्री भारत)
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तीर्थंकर महावीर की जीवनी पर आपने “परम ज्योति महावीर" नामक एक महाकाव्य की रचना की है। भगवान महावीर के अहिसा के महान उद्देश्य को लोग कुछ भूले जा रहे थे। महात्मा गाँधी ने पुनः उसे जीवित किया और उसी के साथ जनसाधारण के मन में भगवान महावीर के प्रति और भी श्रद्धा बढ़ी। कविता की रचना करके आपने देश की बड़ी सेवा की है और इसके लिए मेर धन्यवाद स्वीकार कीजिये । नई दिल्ली
अजितप्रसाद जैन १६-७-६०
श्री राष्ट्रकवि मैथिलीशरण जी गुप्त (सदस्य राज्य सभा)
भगवान महावीर पर अापने काव्य रचना की है, यह जानकर बड़ा हर्ष हुआ, आशा है उसका प्रकाशन फल प्रद होगा ।
मेरी शुभकामना स्वीकार कीजिये । ८-६-६०
मैथिलीशरण श्री मिश्री लाल जी गंगवाल (वित्त मंत्री मध्यप्रदेश)
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपने तीर्थकर महावीर पर “परम ज्योति महावीर" महाकाव्य दो हजार पाँच सौ उन्नीस छन्दों में पूर्ण कर
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लिया है। काव्य की रूप-रेखा देखने के पश्चात् ही मैं सन्देश के रूप में विशेष कुछ कह सकँगा। वैसे मेरा आशीर्वाद तथा शुभ सन्देश इत प्रकाशन के लिये है ही।
अापके इस पुण्य प्रयास के लिये बधाई । पँचमढ़ी
मिश्रीलाल गंगवाल ७-६-६०
श्री दशरथ जी जैन(उपमन्त्री लोक निर्माण एवं विद्युत मध्यप्रदेश) ___ श्रापका महाकाव्य “परम ज्योति महावीर" प्रकाशित होने जा रहा है यह जानकर प्रसन्नता हुई। यह महाकाव्य भगवान महावीर के विषय ' में जन साधारण को न केवल पर्याप्त जानकारी ही देगा प्रत्युत उसको पढ़कर लोगों के जीवन में एक महान क्रान्ति श्रावेगी वे सत्य और अहिंसा के अपने आपको अधिक निकट पावेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है । भोपाल
दशरथ जैन २०-५-१६६० श्री साहू शान्ति प्रसाद जी जैन कलकत्ता(सुप्रसिद्ध उद्योगपति)
भगवान महावीर के सम्बन्ध में आपने चिन्तन किया है और उनका गुणानुवाद गाया है यह अपने आपमें भव्य प्रयत्न है। कलकत्ता
__शान्तिप्रसाद जैन २६-५-६० श्री कैप्टेन सर सेठ भागचंद जी सोनी (अध्यक्ष भा० दि० जैन महासभा)
श्री धन्यकुमार जी जैन 'सुधेश' ने हाल ही में "परम ज्योति महावीर" नामका भगवान महावीर के ऊपर एक सुन्दर काव्य लिखा है जो कि शीघ्र ही छपने जा रहा है।
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( १२ )
भी 'सुधेश' जी की कविताएँ जैन पत्रों में समय-समय पर प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी प्रतिभा से उनकी कविता को पढ़ने वाले प्रभावित हुये बिना नहीं रहते । ये जैन समाज के उदीयमान कवि हैं ।
मैं उनके इस सुन्दर प्रयास की सराहना करता हूँ और श्राशा करता हूँ कि उनकी यह रचना सभी के हृदयों में भगवान महावीर के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का संचार करेगी ।
अजमेर
१६-६-६०
भागचन्द
श्री यशपाल जी जैन (सम्पादक 'जीवन साहित्य' )
मैं "परम ज्योति” महाकाव्य का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ । मुझे विश्वास है कि पाठकों को उसके द्वारा स्वस्थ एवं उपयोगी सामग्री प्राप्त होगी । वस्तुतः ऐसी कृतियों की श्राज बड़ी आवश्यकता है जो चरित्र-निर्माण की प्रेरणा दे सकें। आपका महाकाव्य इस उद्देश्य की पूर्ति करेगा ।
नई दिल्ली
यशपाल जैन
१६-६-६०
श्री कामता प्रसाद जी जैन ( संचालक अखिल विश्व जैन मिशन ) यह जाकर परम हर्ष है कि भाई सुधेश जी का महा काव्य प्रकाशित हो रहा है । सुधेश जी की कवि रूप में ख्याति उनकी जन्म जात काव्य प्रतिभा का प्रमाण मात्र है। तीर्थकर सदृश महापुरुष के विशाल जीवन को शब्दों में उतार लाना मनीषियों का ही काम है । उनका काव्य संसार के कोने-कोने में ज्ञान ज्योति का दिव्य प्रकाश फैलाये यही कामना है ।
अलीगंज (उ० प्र०)
१-८-६०
कामता प्रसाद
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श्री विदुषीरल प० परिडता चन्दाबाई जैन (संचालिका जैन बाला विश्राम भारा)
“परम ज्योति महावीर" नामक महाकाव्य की रचना का आयोजन जानकर प्रसन्नता हुई श्री अन्तिम तीर्थकर महावीर प्रभु की दिव्य ज्योति ही आज इस पंचम काल में जैन धर्म को प्रकाश प्रदान कर रही है एवं उनकी दिव्य वाणी ही जैनों के जैनत्व को कायम रख रही है। इन महाप्रभु के चरित्र को पद्यमय रचकर अलंकृत करने का प्रयास श्री 'सुधेश' जी का सफल हो और यह रचना स्वाध्याय प्रेमियों के लिये व्यवहार तथा निश्चय दोनों दृष्टिकोणों से मोक्ष मार्ग दर्शाने में समर्थ हो। धर्मकुञ्ज, बारा
चन्दाबाई
श्री पं० जगमोहन लाल जी शास्त्री (प्रधान मंत्री भा० दि. जैन संघ) ___ हमें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपने इस युग के महान ऐतिहासिक और धर्मतीर्थ प्रवृत्ति के संचालन करनेवाले भगवान महावीर स्वामी के सम्बन्ध में एक महाकाव्य का निर्माण किया है जो कि महाकाव्य के समस्त लक्षणों और अंगों से परिपूर्ण तथा सर्वाङ्ग उपयोगी है। इस काव्य का निर्माण कर आपने एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति की है। श्रापका प्रयास अापके कवि जीवन को सफल बनाने का महान् प्रयास है हमें विश्वास है आपकी सरल-सरस और सुन्दर काव्य रचना भगवान महावीर के पवित्र जीवन चरित्र के आश्रय को पाकर जनता के हृदय में धर्म सुधा का सिंचन करेगी। भावी युग में धार्मिक एवं नैतिक चरित्र को आगे बढ़ाने में यह एक बहुत बड़ा प्रयास सिद्ध होगा। कटनी
___ जगमोहनलाल शास्त्री
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श्री पं० पत्रालाल जी जैन साहित्याचार्य (मंत्री मा० दि० जैन विद्वत्परिषद् )
श्राप सुकवि हैं, आपके द्वारा लिखित “परम ज्योति महावीर" साहित्यिक क्षेत्र में अच्छा आदर प्राप्त करेगा।
सागर २०-५-६०
पन्नालाल
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समर्पण
करुण, धर्मवीर एवं शान्तरस प्रधान
यह महाकाव्य समर्पित
उन्हें जो किसी भी दुखी को देख करुणा से द्रवीभूत हो उठते हैं, जो मानव-धर्म पालने में ही जीवन की सार्थकता अनुभव
करते हैं,
___ और जो केवल व्यक्तिगत हो नहीं समाष्टिगत शान्ति के लिये
भी प्रयत्नशील रहते हैं।
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कृति की कथा माध्यमिक शाला में अध्ययन करते समय ही काव्यानुरक्ति की बेलि मेरे हृदय में अंकुरित हो उठी थी, फलतः सरस काव्यों का रसास्वादन एवं उनके गुण दोषों का विवेचन मेरा दैनिक व्यसन सा बन चला। यह व्यसन केवल यहीं तक सीमित नहीं रहा, अपितु काव्य रचना का रोग भी वाल्यावस्था से ही लग गया।
हिन्दी साहित्य के पाठ्य अन्यों के रूप में जय श्री राष्ट्र कवि मैथिली शरण जी गुप्त का 'साकेत' तथा महा कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी की 'कामायनी' आदि हिन्दी के ख्याति प्राप्त महाकाव्य पढ़ने को मिले, तब उनको महत्ता से प्रभावित मेरे हृदय में यह मावना जागृत हुई कि जैन धर्म के चरम तीर्थ कर परम ज्योति महावीर के सम्बन्ध में भी एक ऐसा महाकाव्य अविलम्ब रचा जाना चाहिये, जिसमें उनके जीवन से सम्बन्धित समस्त घटनाओं के साथ तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का भी यथा स्थान चित्रण हो, जिसको पढ़कर पाठक का हृदय करुण, धर्मवीर एवं शान्त रस की त्रिबेणी में अवगाहन कर पावन हो उठे । जिसमें केवल कवित्व का प्रदर्शन, प्रतिभा का चमत्कार एवं बुद्धि का व्यायाम ही न हो, अपितु चरित्र नायक द्वारा प्रतिपादित तत्वों एवं दर्शन का भी यथा स्थान विवेचन हो । इसके साथ ही सर्वत्र जैन धर्म की मौलिक मान्यताओं की सुरक्षा का भी पूर्ण ध्यान रखा जाये।
उक्त विशेषताओं से युक्त महाकाव्य की आवश्यकता केवल मैने ही अनुभव की हो, ऐसी बात नहीं । मुझ जैसे अनेक परम ज्योति
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महावीर के श्रद्धालु काव्यानुरागियों को यह अभाव खटकता रहा है। कुछ कर्मठ कवि इस अभाव की पूर्ति का प्रयास भी कर रहे थे। मेरा भावुक कवि-हृदय भी उन्हीं दिनों ऐसा महाकाव्य लिखने को ललचा उठा था, पर तब मेरी काव्य साधना घुटनों के बल चलना ही जानती थी । इस हिमालय के शिखर तक पहुँच सकना उसके सामर्थ्य के बाहर था । अतः मन की साध मन में लिये ही रह जाना पड़ा।
अाज से १४ वर्ष पूर्व मैंने ललितपुर के सहृदय कवि श्री हरिप्रसाद जी 'हरि' से इस विषय में लिखे जाने वाले महाकाव्य के कुछ छन्द सुने थे और तब उन्हें सुनकर मुझे श्राशा हो गयो थी कि उक्त अभाव की पूर्ति अविलम्ब होने जा रही है, पर दोर्घ समय तक श्री 'हरि' जी के महाकाव्य के पूर्ण होने के समाचार प्राप्त नहीं हुये, यह देखकर आशा की वह सुकोमल लता मुरझा चली।
जुलाई, सन् १९५१ में भारतीय ज्ञान पीट काशी से श्री 'अनूप' जी शर्मा का 'वर्द्धमान' महाकाव्य प्रकाशित हुआ । जब उसका विज्ञापन समाचार पत्रों में देखा तो मन मयूर हर्षावेग में नृत्य कर उठा । मैंने वह ग्रन्थ मँगाकर श्राद्योपान्त ध्यान पूर्वक पढ़ा । पढ़ने पर प्रसन्नता संकुचित हो गयी, इसका कारण यह था कि मैंने अपने मास्तिष्क में श्री महावीर सम्बन्धी महाकाव्य का जो रेखा चित्र खींचा था, उसके दर्शन इस १६६७ छन्दों के विशाल महाकाव्य में भी नहीं हुये।
इसमें सन्देह नहीं कि श्री 'अनूप' जी शर्मा ने इस महाकाव्य के प्रणयन में यथा शक्ति परिश्रम किया था और उनका यह साहस केवल प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी था। फिर भी कुछ ऐसे कारण इस महाकाव्य में विद्यमान थे, जिससे उसको उपयोगिता
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( १६ ) उतनी अधिक नहीं मानी जा सकी जितनी मानी जानी चाहिये। इसमें महावीर सम्बन्धी घटनाओं का क्रमवार इतिहास भी देखने को नहीं मिलता, जिसकी आवश्यकता सर्वोपरि थी। इसके अतिरिक्त इसकी रचना के लिये श्री 'अनूप' जी ने संस्कृत वृत्त को अपनाया इसमें अन्त्यानुप्रास का सर्वथा अभाव होने के कारण प्रवाह भी उतना नहीं श्रा पाया जितना आना चाहिये था। अन्य में प्रायः सर्वत्र संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग बहुलता से किया गया है, जिससे रचना के प्रसाद एवं माधुर्य गुण को बाधा पहुँची है एवं श्रमसाध्य होने पर भी उक्त महाकाव्य साधारण पाठक के लिये रूचि पूर्वक पठनीय नहीं रह गया । कवि के ब्राह्मण होने के कारण अनायास ही ब्राह्मणत्व की कुछ ऐसी मान्यताएँ भी उक्त महाकाव्य में आ गयीं है जो जैन सिद्धान्तों के विपरीत हैं। यह सब होते हुये भी मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि श्री 'अनूप' जी ने तीर्थकर.वर्द्धमान पर महाकाव्य रचकर अपनी लेखनी को पावन किया है। केवल यही नहीं, अपितु भावी कवियों के लिये उन्होंने एक रुद्ध मार्ग का उद्घाटन कर दिया है । मुझे स्वयं श्री 'अनूप' जी के महाकाव्य से इस महाकाव्य को लिखने की प्रेरणा मिली है और एतदर्थ उनका श्राभार स्वीकार करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ।
जब 'वर्द्धमान' महाकाव्य को मैंने भावना के अनुरूप नहीं पाया, तब मैंने आवश्यक शक्ति और साधनों का अभाव रहते हुये भी इस साहित्यिक अनुष्ठान को सम्पन्न करने की भावना की और 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार भाद्रपद शुक्ला अष्टमी वीर निर्वाण संवत् २४८० (वि० सं० २०११) तदनुसार ५ सितम्बर, सन् १९५४ को महाकाव्य लिखने का संकल्प कर शुभारम्भ कर दिया।
अन्य का शुभारम्भ मैंने जिस उल्लास के साथ किया, वह उल्लास अबाध रूप से अपने संकल्प को मूर्तिमान करने में निरन्तर सक्रिय
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( २० ) नहीं रह पाया। श्रेयांसि बहु विनानि, के अनुसार अनेक विन पाते गये, अतः इन्छा रहते हुये भी मैं अपने इस उद्देश्य की पूर्ति उठने शीघ्र नहीं कर पाया जितने शीघ्र हो सकती थी (Better late than never) के अनुसार बिलम्ब से ही सही चैत्र कृष्णा दशमी वीर निर्वाण संवत् २४८६ (वि० सं० २०१६) तदनुसार २२ मार्च, १९६० को अपना यह मनोरथ मूर्तिमान कर मैंने अपने में एक अनिवर्चनीय आनन्द का अनुभव किया।
शुभारम्भ के दिन से लेकर परिसमाप्ति तक की अवधि यद्यपि ५ वर्ष ६ मास १७ दिन होती है, पर इस दीर्घ अवधि में प्रस्तावना तथा २३ सर्ग क्रमशः ४ + २३ + १७ +१०+१६+१३+६+७+ ५+४+४+४+२+ +५+५+५+४+४+४+८.४ +४+६=१७२ दिनों अर्थात् ५ मास २२ दिनों में लिखे गये हैं। इस प्रकार ५ वर्ष २५ दिन ऐसे रहे जिनमें एक भी छन्द नहीं लिखा गया । यों रचना के दिनों का औसत ११.६१ प्रतिशत रहा ।
यह महाकाव्य वीर निर्वाण संवत् २४८६ में परिपूर्ण किया गया है अतएव इसमें वन्दना के २ तथा तेईस सर्गो के १०८-१०८ छन्द इस प्रकार छन्द संख्या (२३४१०८+२= ) २४८६ रखी गयी है, जो इस बात की सूचिका है कि जिस समय यह महाकाव्य पूर्ण किया गया, उस समय परम ज्योति महावीर का निर्वाण हुये २४८६ वर्ष हो चुके थे। इन २४८६ छन्दों के अतिरिक्त ३३ छन्दों की प्रस्तावना पृथक् से है, यो कुल मिलाकर २४८६ + ३३-२५१६ छन्द हैं।
मनुष्य क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से संरम्म, समारम्भ, श्रारम्भ, इन तीन पूर्वक से मन, वचन, कर्म इन तीन की सहायता से कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन रूप अर्थात्
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४४३४३४३%D१०८ प्रकार से पाप किया करता है, अतएव पाप के इन १०८ प्रकारों से बचने के लिये जप की माला.में १०८ दाने रखे जाते हैं । इसी उद्देश्य से इस महाकाव्य में भी प्रत्येक सर्ग में १०८ छन्द रखे गये हैं।
सर्गो की संख्या इस महाकाव्य में २३ रखी गयी है, जो इस बात की सूचिका है कि जैन धर्म के प्रवर्तक वीर्य कर महावीर नहीं थे. अपितु इनके पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके थे, जिन्होंने अपने अपने समय में जैन धर्म का प्रचार किया था।
काल दोष से परम ज्योति महावीर के अनुयायी दो भागों में विभक्त हो गये, १--दिगम्बर और २-श्वेताम्बर । इस विभाजन के कारण जैन धर्म को अनेक हानियाँ उठानी पड़ों, परस्पर के संघर्ष में दोनों की शक्तियों का तो अपव्यय हुआ हो, पर इससे वीर-चाणी के यथार्थ रूप पर भी कुठाराघात हुआ, जिससे साहित्य में भी यत्र तत्र परस्पर विरोधी कथनों का समावेश हो गया। ऐसी स्थिति में तथ्य के निणय हेतु दोनों सम्प्रदायों के कयनों पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना
आवश्यक हो गया । इन समस्त विवाद ग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक लिखने से एक स्वतन्त्र अन्य ही रच जायेगा, अतएव इस विषय में मौन रहना ही ठीक समझा है, पर इस प्रसंग में इतना लिख देना आवश्यक समझता हूँ कि इस कृति को यथा सम्भव प्रामाणिक और उपयोगी बनाने की भावना से मैने दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के उन सभी ग्रन्थों का गम्भीरता पूर्वक मनन किया है जो मुझे उपलब्ध हो सके हैं । एवं दोनों सम्प्रदायों के अन्यों में मुझे जो कुछ सत् , शिव, सुन्दर प्राप्त हुआ है, उससे इस महाकाव्य को अलंकृत करने का प्रयल किया है । इसमें कोई भी बात पर मोह या ईर्ष्या की भावना से नहीं लिखी गयी, अतः इस सम्बन्ध में पूर्ण सावधान रहने पर भी यदि कहीं कोई दोष निष्पच विद्वानों को
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( २२ ) दृष्टि गोचर हो तो उसे सूचित करने का कष्ट करें। श्रागामी संस्करण में उसे दूर करने का प्रयास किया जायेगा।
यद्यपि कृति में प्रायः सभी प्रमुख घटनाओं का समावेश करने का प्रयास किया गया है, तदपि ग्रन्थ का कलेवर बढ़ जाने के भय से अनेक प्रसङ्गों को संक्षेप रूप में ही लिखना पड़ा है।
यह ग्रन्थ केवल काव्य मर्मज्ञों के ही पठन की वस्तु न बन जाये, अतः ग्रन्थ में सर्वाधिक प्रचलित छन्द का ही प्रयोग किया गया है। जिससे कि सभी पाठक सुचारु रूप से प्रवाह के साथ इसे पढ़ सके। जिस प्रकार हमें परम ज्योति महावीर के जीवन में सर्वत्र एक ही रूप वीतरागता के दर्शन होते हैं, उसी प्रकार इस महाकाव्य में भी सर्वत्र एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है । प्रत्येक छन्द प्रसाद और माधुर्य गुण से युक्त हो यह दृष्टि श्रायोपान्त रहने के कारण सरल, सुबोध और सर्व प्रचलित शब्दावली हो उपयोग में लायी गयी है । फिर भी प्रसगवश अनेक पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग करना पड़ा है । अतएव ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट संख्या १ में २८६ शब्दों का एक संक्षिप्त पारिभाषिक शब्द कोष भी दे दिया है। इससे सर्व साधारण भी महाकाव्य पढ़ते समय उन पारिभाषिक शब्दों के सम्बन्ध में साधारण जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। इसके निर्माण में 'वृहत् हिन्दी कोष' और 'वृहत् जैन शब्दार्णव' से सहायता प्राप्त हुई है, अतः में उक्त दोनों शब्द कोषों के विद्वान सम्पादकों का आभारी हूँ।
परम ज्योति 'महावीर' के विहारस्थलों का परिचय देने की दृष्टि से परिशिष्ट संख्या २ में ६२ विहारस्थलों का एक संक्षिप्त विहारस्थल नाम कोष भी दे दिया है । इसके निर्माण में श्रमण महावीर, पुस्तक से सहायता मिली है अतः इसके लेखक पं० कल्याण विजय जी गयी का भी आभार स्वीकार करता हूँ।
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________________
विषय
प्रस्तावना
वन्दना
१- भारत भव्यता
२ - विदेह विभव
३- कुण्डग्राम - गरिमा
- सिद्धार्थ-शासन
४-
५- त्रिशला देवी
६ - दाम्पत्य-दिव्यता
१ -- स्वर्ग-व्यवस्था २ -- श्रमरेन्द्र श्राज्ञा
३- अलकेश - प्रयाण
४ - रत्न वृष्टि
५-
- राज दम्पति का राग
६- श्रच्युतेन्द्र - श्रवतरण - त्रिशला - निद्रा
७
विषय-क्रम
१ - निशीथ-तम २ - षोड़श स्वप्न
पहला सर्ग
दूसरा सर्ग
तीसरा सर्ग
Pv
: :
...
...
::
...
...
::
पृष्ठ संख्या
३६
૪૨
परागार
५३
५५.
५७
५८
६४
७०
७७
८१
८५
८६
૨૨
૭
१०५
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________________
३ – गर्भागम
४-- प्रभात - प्रकाश
- त्रिशला - जागृति
६ - दासियों का अनुरोध ७- - त्रिशला का सामायिक
८-- शरीर-सज्जा
-M
१ -- सिद्धार्थ - सभा
-स्वप्न कथन
३--फल-श्रवण ४ -- छप्पन दिक्कुमारियाँ - त्रिशला - सेवा
१-- शरद शोभा
२-- सिद्धार्थ - स्वागत
३ – सिद्धार्थ - सम्बोधन
-- त्रिशला के तर्क
४-
५ - शयन
६ – गर्भ गौरव
-- हेमन्त
८ - विशेष -व्यवस्था
७-
१- अरुणोदय २- प्रश्नोत्तर
( २६ )
चौथा सर्ग
पाँचवाँ सर्ग
छठा स
:
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
...
१११
११२
११५
११६
११८
१२१
१२५
१२७
१३०
१३७
१४०
१४६
१५१
१५१
१५६
१६२
१६४
१६६
१६८
१७३
१७७
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________________
१८६ १८६
१६१
१६२
१६७
१६८
( २७. ) ३--त्रिशला की धार्मिकता ४-वसन्त-विभव ५--जिनेन्द्र-जन्म ६-प्रकृति पर प्रभाव ७-दासियों द्वारा बधाई ८-सिद्धार्थ सौख्य
सातवाँ सर्ग १--नगर सज्जा २-उत्सव-व्यवस्था ३-सिद्धार्थ-औदार्य ४-उत्सव-प्रारम्भ ५--सङ्गीत-प्रभाव ६--अन्य प्रायोजन ७- धार्मिक समारोह ८.-अमरेन्द्र आगमन ६--जिनेन्द्र दर्शन १०-अभिषेकार्थ गमन ११-अभिषेक १२-इन्द्राणी कृत शृङ्गार १३-इन्द्रकृत संस्तुति १४-प्रत्यागमन
पाठवाँ सर्ग १-नाटकारम्भ २--अभिषेकोत्सव दृश्य ३--पूर्वभव
२०२ २०३ २०५ २०६
२०६
२१. २१३
२१६
२१७
२२१ २२३ २२४
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________________
४- ताण्डव नृत्य
५- नृत्य - प्रभाव ६ - शिशु-सौन्दर्य
७- नामकरण सुत-संवर्धन
८
६ - वर्धमान का विवेक १० - दर्शन-प्र
- प्रभाव
१- इन्द्र-सभा २- देव - परीक्षा
३- बाल मित्रों का भय
४ - सन्मति का साहस
५- महावीर नामकरण ६- निरंकुश गज
७-गज- कोप
८ - वीर को विजय ६- बुद्धि वैशिष्ट्य १० - यौवन - प्रारम्भ ११ - एकान्त - चिन्तन
१- मातृ - ममता २- वीर विरक्ति
३ - त्रिशला का प्रस्ताव
४ - विवाहाथ' - प्रेरणा
५- वीर की हड़ता
( २८ )
नवाँ सर्ग
दसवाँ सर्ग
:::
...
...
...
:::
: : :
...
...
...
...
...
...
...
...
...
२२८
२२६
२३२
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२३६
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૨૪
२४५
२४५
२४६
२४८
२५०
२५२
२५३
२५५
२५६
२५६
२६०
२६६
२७१
२७३
२७५
२८१
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२८२ २८४
२८८
२६३
२६६ २६७
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३०७ ३१२
( २६ ) ६-मातृ-प्रति उत्तर ७-उद्देश्य सूचना ८-क्षमा याचना
ग्यारहवाँ सर्ग १-वीर का ब्रह्मचर्य २---सिद्धार्थ-प्रस्ताव ३-राज्यहेतु अनुरोध ४-चीर की अस्वीकृति ५-शासन-स्वरूप ६-वैराग्य-वृद्धि
बारहवाँ सर्ग १-पूर्वभव स्मरण २--अतीत का सिंहावलोकन ३-अनुप्रेक्षा-चिन्तन ४- अनुमति-याचना ५.-सिद्धार्थ-सम्बोधन ६-वीर का उत्तर ७---पुनः सिद्धार्थ के तर्क ८-वीर द्वारा समाधान ६-त्रिशला का प्रयास १०-वीर की अटलता
तेरहवाँ सर्ग १-वीर का वैराग्य २-सर्वस्वदान
३१७ ३१८ ३२१
३२६
३३१
३३१
mr
m
mr
३३५ ३३६ . ३३७
३४२
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________________
३ - लौकान्तिक - देव - श्रागमन
४ - वैराग्य - प्रशंसा
५- - वासना पर विजय
६ -- वैभव त्याग
७ - अन्य परिग्रह त्याग
- विरागता
८
६-वन-गमन
१० - जगल में मङ्गल ११ - दीक्षा
-
१ — ध्यान २- निडरता
३ - निर्मोह
४- प्रथम पारणा
५- समरसता
६ - गोप का कोप ७ - उपसर्ग पर विजय
८ - पहला चतुर्मास
.- श्रात्म साधना
१० - दृष्टिविष विषधर ११ - वीर की एकाग्रता
१२ - नाग का कोप त्याग १३ -चरण रेखा की महिमा
१ – दूसरा चतुर्मास
( ३० )
चौदहवाँ सगँ
पन्द्रहवाँ स
:
:
३४३
३४३
३४६
३५१
३५३
३५.३
३५५
३५७
३५६
३६५
३६६
३६८
३६६
३७२
३७४
३७५
३७६
३७७
३७८
३७६.
३८२
३८३
३८६
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________________
२ - गोशालक पर प्रभाव १२- नालन्दा से विहार
४ --- भविष्य कथन
५. - भ्रमण
६- तीसरा चतुर्मास
७- चौथा चतुर्मास
८- श्रग्नि- उत्पात
६ - स्वयमेव शमन
१० - राढ़भूमि की ओर विहार
११ - - पाँचवाँ चतुर्मास
१२ - तप- प्रभाव
१३ - छठा चतुर्मास १४- सातवाँ चतुर्मास १५ - श्राँठवाँ चतुर्मास १६ - नवाँ चतुर्मास
१ - सिद्धार्थपुर से बिहार
२ - - तिल-चुप-प्रसङ्ग
३ -- कैवल्य - साधना
( ३१ )
४ - दसवाँ चतुर्मास ५- देव कृत परीक्षा
६ - वीर का धैर्य
७- देव का सन्तोष
सोलहवाँ सर्ग
८-देवाङ्गनाओं का प्रयास
६ - राग प्रदर्शन
...
...
..
...
३८६
३६-१
३६४
३६५
३६७
३६८
३६६
४०१.
४०३
४०४
४०४
४०७
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४०६
४१०
४१३
४१३
४१६
४१७
४२०
४२१
४२२
४२७
४२८
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( ३२ )
१०-अन्य उपाय ११-पूर्णअसफलता १२--ग्यारहवाँ चतुर्मास
४२६ ४३१ ४३४
mr
१३६
m
४३६
४४४
सत्रहवाँ सर्ग १-वीर का उपवास २-श्रेष्ठि प्रमुख की निराशा ३-वीर का अभिग्रह ४-रानी मृगावती की चिन्ता ५-प्रयत्नों की विफलता ६-चन्दना से सेठानी की ईर्ष्या ७-चन्दना द्वारा आहार दान ८-चन्दना और मृगावती का मिलन ६-चन्दना-प्रशंसा १०-बारहवाँ चतुर्मास ११-वाले की अधमता १२-ऋजुकूला-तट १३- कैवल्य प्राप्ति
अठारहवाँ सर्ग १- सोमिलाचार्य का यश २-~-ग्यारह विद्वान ३-~-परिचय ४-इन्द्र का छल ५-इन्द्रभृति पर प्रतिबन्ध ६--इन्द्रभूति का समवशरण में प्रवेश ७-मण्डप की मनोरमता
:::::::::::::
४४७ ४४६ ४५१ 6५२ ४५२
४५५
:::::::
४६५
४६६
४७१
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३३
)
.
૪૦૨
( ८-अंकित श्रेष्ठि का परिचय ६-इन्द्रभूति का निवेदन १०-जीव तत्व निरूपण ११-इन्द्रभूति की दीक्षा
४८१
४८५
४८६
४६१
૪.૨ ४६३
४६४
उन्नीसवाँ सर्ग १-अग्निभूति का श्रागमन २-अग्निभूति की शङ्का ३-वीर कृत समाधान ४-~-अमिभूति की दीक्षा ५- वायुभूति की शङ्का ६-वायुभूति की दीक्षा ७--आर्यव्यक्त की-शङ्का ८-श्रार्यव्यक्त की दीक्षा E-सुधर्म की शङ्का १०-सुधर्म की दीक्षा ११-मण्डिक की शङ्का १२~-मण्डिक की दीक्षा १३--मौर्यपुत्र की शङ्का १४-मौर्यपुत्र की दीक्षा १५-अकम्पिक की शङ्का १६-~-अकम्पिक की दीक्षा
बीसवाँ सर्ग १-अचल भ्राता की शङ्का २-अचल भ्राता की दीक्षा ३-मेतार्य की शङ्का
४६८
५०१
५०४ ५०५
५०६
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________________
५११
५१२
( ३४ ) ४-मेतार्य की दीक्षा . ५-प्रभास की शङ्का ६-प्रभास की दीक्षा ७-केवल ज्ञान-प्रभाव ८-राजगृह की ओर गमन ६-वनपाल का विस्मय १०-श्रेणिक को सूचना ११---वन्दनार्थ-प्रस्थान १२–वीर के प्रति विनय १३-अष्ट प्रतिहार्य १४-धर्मोपदेश १५-अात्मा की अविनश्वरता
:: :: :: :: :: ::
५१८
५२२
५२३
५२५
५२७ ५२८
इक्कीसवाँ सर्ग
mr
m
شعر
عر
ur
५३८ ५४०
५४१
१-नर पर्याय के कष्ट २-जीव की भ्रान्ति ३-आत्म बल ४~-अहिंसा सामर्थ्य ५--मोक्ष-सौख्य की महत्ता ६-नर भव की दुलभता ७-तेरहवाँ चतुर्मास ८--उपदेश-प्रभाव ६--राजगृह से प्रस्थान १०-चौदहवाँ चतुर्मास ११- कौशाम्बी में प्रभावना १२--पन्द्रहवाँ चतुर्मास
५४३
५४३ ५४६
५४८
५४८ ५५०
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________________
::::
५५१ ५५२. ५५३
५५४
५५७ ५५८.
પૂર
५६० ५६१
(३५ ) १३--सोलहवाँ चतुर्मास १४-वीर की विख्याति १५-सत्रहवाँ चतुर्मास १६-अठारहवाँ चतुर्मास
बाईसवाँ सर्ग १. श्रोणिक पर प्रभाव २--युवराजों की दीक्षा ३--उन्नीसवाँ चतुर्मास ४-बीसवाँ चतुर्मास ५- इक्कीसवाँ चतुर्मास ६--बाईसवाँ चतुर्मास ७-स्कन्दक की दीक्षा ८-तेईसवाँ चतुर्मास ६-चौबीसवाँ चतुर्मास १०-पच्चीसवाँ चतुर्मास ११-चम्पा के राजवंश पर प्रभाव १२- छब्बीसवाँ चतुर्मास १३- सत्ताईसवाँ चतुर्माम १४-शिव राजर्षि पर प्रभाव १५-अहाईसवाँ चतुर्मास १६---उन्नतीसवाँ चतुर्मास १७-शाल और महाशाल की दीक्षा १८-तीसवाँ चतुर्मास १६-इकतीसवाँ चतुर्मास २०-बत्तीसवाँ चतुर्मास
५६५.
५६६
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५६७ ५६७
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५६६
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५७२
५७३
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५७६ ५७७
५८१ ५८१ ५८१ ५८२ ५८२ ५८३
( ३६ ) २१-तैतीसवाँ चतुर्मास २२–चौंतीसवाँ चतुर्मास २३-पैंतीसवाँ चतुर्मास २४-छत्तीसवाँ चतुर्मास
तेईसवाँ सर्ग १-मगध की ओर गमन २- सैंतीसवाँ चतुर्मास ३-अड़तीसवाँ चतुर्मास ४--उनतालीसवाँ चतुर्मास ५-चालीसवाँ चतुर्मास ६-इकतालीसवाँ चतुर्मास ७प्रचार-प्रभाव ८-बयालीसवाँ चतुर्मास ६-पावापुर में स्वागत १०-धर्मोपदेश का प्रभाव ११- अन्तिम दिन १२-निर्वाणोत्सव १३-दीपावलि १४-जग की भ्रान्ति १५--वीर के स्मारक १६-श्रुत केवली १७--उत्तर भारत का अकाल १८-श्वेताम्बर-उत्पत्ति १६-वीर-वाणी का ग्रन्थीकरण २०-~-परिसमाप्ति
: :: :: :: :: :: ::
५८५ ५८५
५८७
५८६ ५६० ५९३ ५६५
५६६
५६८
:: :: ::
-
-
-
-
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( ३७ ) परिशिष्ट संख्या १ (पारिभाषिक शब्द कोष) ... परिशिष्ट संख्या २ (विहार स्थल नाम कोष) .. परिशिष्ट संख्या ३ (प्रमुख शिष्यों एवं भक्तों का परिचय )
६४३ ६५९
चित्र-सूची
२१०
१-परम ज्योति महावीर २-विशाल के १६ स्वप्न ३-जिनेन्द्र को लेकर इन्द्रणी का निर्गमन ४-देव-परीक्षा ५-महावीर की दीक्षा ६-दृष्टिविष विषधर ७-देवाङ्गनाओं द्वारा परीक्षा ८-चन्दना का आहारदान
३६१ ३८०
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प्रस्तावना
उनके ही मन की करुणा सी, उनकी यह करुण कहानी है। यह मसि से लेख्य नहीं, इसको, लिखता कवि हग का पानी है ।।
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प्रस्तावना
जिनने न कभी उलझाये हंग, नारी के श्यामल केशों में। जिनने न कभी उलझाये दृग, उनके अंचल के रेशों में ॥
जिनने न कभी भी रास रचाजिनने न कभी होली खेली। जिनने न कभी जल क्रीड़ा की,
जिनने न कभी की रैंगरेली ॥ जिनने फागुन की रातों में, गाये उन्मादक गान नहीं । जिनने सावन की संध्या में, छेड़ी वंशी की तान नहीं ॥
जिनका परिचय तक हो न सका, रागोद्दीपक श्रृंगारों से । जो रहे अपरिचित आजीवन,
श्रालिंगन से अभिसारों से ॥ भोगों की गोदी में पल भी, जिनका मन बना न भोगी था। योगों के साधन से वञ्चितरह भी जिनका मन योगी था ।
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प्रस्तावना . .
जिनका यह पौरुष देख स्वयं, अभिमानी के भी भाल झुके । जिनका यह साहस देख स्वयं, सेनानी के भी भाल झुके ।।
जिनकी मुद्रा में अङ्कित थे, जग के सब प्रश्नों के उत्तर । जिनके नयनों से बहता था, करुणा का अमृतमय निर्धार ।
जिनकी दृढ़ता को देख चकितथा अम्बर तल का ध्रुवतारा । जिनकी पावनता से चिन्तित , रहती थी गङ्गा की धारा ।।
जो चित्र 'निजरा' का लिखतेथे लिये तपस्या की तूली । इतना भी ध्यान न देते थे, कब आयी ऊषा गोधूली !
जिनके वचनों में 'सत्य' बसा, भावों में 'शिव' तन में 'सुन्दर' । जिनकी सेवा में शान्ति स्वयं, तल्लीन रही नित जीवन मर ।।
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परम ज्योति महावीर
कैवल्य साधना तक में भी, जिनको न कभी सन्देह हुवा । चरणों पर पड़ी सफलता से, जिनको न कभी भी स्नेह हुवा ।।
जिनकी छाया में बाघिन की, छाती से चिपटे मृगछोने । सिहों के बच्चों को निर्भय,
पय पान कराया गौत्रों ने ।। जिनके दर्शन को चले सदा, अहि नकुल सङ्ग ही झाड़ी से | जिनके दर्शन को चले सदा, गज सिँह के सङ्ग पहाड़ी से ।।
जीवन का अन्तिम लक्ष्य मुक्तिपा जिनका पौरुष धन्य हुवा । जिनके सम पुरुष महीतल पर, उस दिन से अभी न अन्य हुवा ।।
अब तक भी जिनका मुक्ति दिवस, हर वर्ष मनाया जाता है । गृह गृह में दीपावली जला, जिनका यश गाया जाता है।
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जो कभी न लोचन उलझाते, संसूति की श्यामल अलकों में । पर सदा भूलते रहते चो, भक्तों की पुलकित पलकों में ॥
जिनको न सुला पाती सन्ध्या, जिनको न जगा पाती ऊषा । जिनको है दूषण से भूषण, जिनको हैं भूसा सी भूषा ।।
जो कभी पुजारी की थाली, को भी स्वीकार नहीं करते । जो कमी अनाड़ी की गाली-- को अस्वीकार नही करते ॥
जिनकी सब पर समदृष्टि सदा, सुर पर, नर पर, पशु-कीटों पर । दोनों के जर्जर चिथड़ों पर,
भूपों के रत्न-किरीटों पर ।। अभिमान 'अहिंसा' को जिन पर, है 'सत्य' 'शील' को स्वाभिमान । अब तक 'अपरिग्रह' के मन पर, छाया है जिनका गुण-वितान ।।
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जिनको कुछ 'सन्मति' कहते हैं, कुछ कहते जिनको 'वर्द्धमान' । कुछ 'महति' या कि 'अतिवीर' 'वीर' कह कर गाते
है यशोगान ॥
कुछ कहते हैं ' कुण्डनपुर प्रकाश' कुछ कहते हैं 'सिद्धार्थ-लाल' । कुछ जिनको 'त्रिशला - नन्दन' कह, निज भाल झुकाते हैं त्रिकाल ||
यों अपने अपने प्रिय नामोंसे जिनको भजते धर्मवीर | पर जिनके इन सब नामों से
भी अधिक लोकप्रिय 'महावीर' ||
परम ज्योति महावीर
उनके ही मन की करुणा सी, उनकी यह करुण कहानी है । यह मसि से लेख्य नहीं, इसको, लिखता कवि-ग का पानी है ॥
नहीं कवित्व-प्रदर्शन है, यह प्रतिभा का उपहार नहीं । यह नहीं बुद्धि का कौशल है, यह कविता का शृंगार नहीं ॥
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परम ज्योति महावीर
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उनके ही मन की करुणा सी, उनकी यह करुण कहानी है। यह मसि से लेख्य नहीं इसको, लिखता कवि दृग का पानी है ॥
(पृष्ठ ४६)
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पहला सर्ग
कृषि नहीं सूखने पाती थी, थी सुविधा सभी सिंचाई की !
प्रत्येक योजना
जनता को पूर्ण
बनती थी, भलाई को ॥
उनके शासन की रीति नीति,
शीतल थी तरु की छाया सी !
को,
श्रावाल बृद्ध नर नारी प्रिय थी अपनी ही काया सी ॥
गीतकार निज गीतों में,
हर उनकी गुण गरिमा गाता था । हर चित्रकार निज चित्रों में,
उनका शुभ रूप बनाता था ||
हर व्यक्ति उन्हें ही निज युग का, सौभाग्य-विधाता
कहता था ।
वह युग भी उनको ही निर्भय, अपना निर्माता कहता था ॥
सामन्त उन्हें,
जाने कितने शिर बारम्बार नवाते थे । जाने कितने श्रीमन्त उन्हें, उत्तम उपहार चढ़ाते थे |
६३
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________________
६४.
सर्वत्र चतु दिक ही उनकी, सत्कीति कौमुदी फैली थी । श्री राम राज्य सी दोष रहित, उनके शासन की शैली थी ॥
वे इन्द्र सदृश थे, थीं उनकी— रानी त्रिशला इन्द्राणी सीं । जिन धर्म सदृश वे सुखकर थे, वे सुखदा थीं जिनवाणी सीं ॥
अवयव में,
सुषमा उनके हर चञ्चल शिशु सी इठलाती थी । तुलना करने पर काम-वधू, से सुन्दर वे दिखलाती थीं ॥
परम ज्योति महाबीर
अन्तर भी वैसा मधुरिम था, जैसा बहिरङ्ग सलोना था । लगता था मानो प्राणवान्, हो उठा सुगन्धित सोना था ||
श्रृंगारों से,
सजाती थीं ।
जब वे षोडश
अपना सर्वाङ्ग
तो उन्हें मानवी कहने की, सामर्थ्य नहीं रह जाती थी ।
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________________
पहला
सर्ग
उन सम कोमलता कभी कहीं, देखी न गयी क्षत्राणी में । केवल कोमल अणु. . लगे हुयेथे तन में, मन में, वाणी में ॥
अधिकार पूर्ण
वे सारी ललित
अध्यक्षा
होती
वे महिला - लोक
उनमें नवीनता इतनी थी, जितनी रहती हैं ऊषा में । पावनता इतनी थी जितनी, रहती निष्काम सुश्रूषा में ॥
विज्ञाता थीं,
कलाओं की ।
थीं प्रायः,
सभाओं की ॥
था ज्ञात पाक विज्ञान उन्हें, नित नव मिष्टान्न बनातीं थीं । कौशल से प्रिय को विस्मित कर प्रति दिवस प्रशंसा पातीं थीं ॥
यौवन का उनको गर्व न था, सुन्दरता का अभिमान न था । माया का किंचित् बोध न था, छलना का भी परिज्ञान न था ।.
શ
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________________
६६
स्वस्थ वे रहतीं थीं,
सर्वदा होता न उन्हें था रोग कभी । अतएव न करना पड़ता था, श्रौषधियों का उपयोग कभी ||
मन का सहवास न तजता था, संयम में भी उल्लास कभी । अधरों का वास न तजता था, निद्रा में भी मृदु हास कभी ||
तुल्य गहन,
यद्यपि थीं दर्शन पर लगतीं सरस कहानी सी । तत्काल अपरिचित लगने लगतीं पहिचानी सी ॥
दर्शक को
परम ज्योति महावीर
उनको था अन्य न कोई भय, केवल पार्पो से डरतीं थीं ।
वे श्रार न कुछ भी हरतीं थीं, बस प्रियतम का मन हरतीं थीं ॥
धरतीं थीं,
डग नहीं एक भी प्रिय इच्छा के प्रतिकूल कभी । किंचित् भी देर न करतीं थीं, निज धर्म- क्रिया में भूल कभी ॥
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________________
पहला सर्ग
उत्साहित
होकर उत्सव से,
हर धार्मिक पर्व मनातीं थीं ।
सत्पात्र दान का अवसर पा वे फूली नहीं
समाती थीं ॥
प्रिय सरल वेष था उनको, वे
--
esम्बर अधिक न रखतीं थीं । तो भी स्वाभाविक सुषमा से, वे विश्व सुन्दरी लगतीं थीं ॥
रखतीं सदैव यह ध्यान, किसीसे कोई दुर्व्यवहार न हो । मन-वचन-कर्म से कभी किसीका कोई भी अपकार न हो ॥
उपहास कदापि न
वे गूँगे, लँगड़े,
कल्याण मनाया
भव-वन में भटके
यदि पति का शिर भी दुखता तो, उपचार स्वयं वे करतीं थीं । उनको सप्रेम खिला कर ही, आहार स्वयं वे करती थीं ॥
करतीं थीं, लूलों का । करतीं थीं,
भूलों का ||
૬.
Page #50
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________________
८
कर्मठता,
तव कार्य कुशलता, नैतिकता पर विश्वास मुझे । श्रतएव कार्य यह तुमसे ही, करवाने का उल्लास मुझे ||
श्री, सबको ज्ञात तुम्हारी निज,
',
कर्त्तव्य पालने की शैली । बस, इसी हेतु तव कीर्त्ति-कलाभी दशों दिशाओं में फैली ॥
इसके -
एवं है तुममें हो सम्पादन की भी शक्ति सभी । इसके अतिरिक्त अबाधित है, तव धर्म - - भावना भक्ति सभी ॥
अतएव अधिक दिखता है कोई
परम ज्योति महावीर
समझाने में,
सार नहीं |
को,
आशा है, मेरे वचनों तुम समझोगे गुरु भार नहीं ||
केवल इतना ही नहीं, अपितु - हो मेरे तुम्हीं प्रधान सखा ।
हर समय तुम्हां ने मेरी हर
चिन्ता हरने का ध्यान रखा ||
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दूसस सर्व
अब अच्युतेन्द्र को छ: महीनेही रहने का अधिकार यहाँ । जो रहा मनस्वी इतने दिन, बन सुरपुर का शृङ्गार यहाँ ॥
इसके उपरान्त सुरेश्वर यह, निज वर्तमान तन छोड़ेगा ।
औ, कुण्ड ग्राम की महिषी से
जननी का नाता जोड़ेगा ॥ पर राज पुत्र भी हो जीवन, सुख में न व्यतीत करेगा यह । निज वीतरागता से रविपतिको भी भयभीत करेगा यह ॥
हो साधु पुनः कैवल्य-कला, पायेगा त्रिशला नन्दन यह । पा इसे शान्ति की गीता को, गायेगा ताप निकन्दन यह ॥
जन जन तक पावन धर्मामृत, पहुँचायेगा जगदीश यही । करुणा की विजय पताका भी, फहरायेगा योगीश यही ॥
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यह युग का अन्तिम तीर्थंकर, सब जगती इसको पूजेगी । श्रौ, कीर्ति कोकिला तो इसकी, युग युग तक जग में कूजेगी ॥
तव सखे ! तुम 'कुण्ड ग्राम, - की ओर प्रयाण करो सत्वर । जा वहाँ रत्न बरसाओ नित 'सिद्धार्थ, नृपति के प्राङ्गण पर ||
जिससे जिनवर का जन्म निकट, समझे सारा संसार वहाँ I हर व्यक्ति जान ले तीर्थंकर, का होना है अवतार यहाँ ||
परम ज्योति महाबीर
अब गमन करो, शुभ कार्यों में— देरी उपयुक्त नहीं होती । इन कल्प पादपों से ले लो, मरकत, माणिक, मँगा मोती ॥,
इन शब्दों पूर्वक सुरपति ने; पूरे अपने उद्गार किये } श्रौ, 'एवमस्तु' कह धनपति ने सम्पूर्ण वचन स्वीकार किये ॥
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दूसरा सर्ग
तत्काल स्वर्ग से भूतल को, मारुत गति से अलकेश चला । • नभ पथ में लगा सुरेश्वर काही मूर्ति मान श्रादेश चला ॥
'भारत' के पावन अम्बर में, श्राते ही प्रथम 'विदेह' दिखा ।
पश्चात् दिखा वह 'कुण्ड ग्राम'
• तदनन्तर भूपति-गेह दिखा ॥ यह देख प्रदक्षिण देने को, त्रय बार चतुर्दिक वह घूमा । सिद्धार्थ-सौध का शिखर पुनः उसने अति श्रद्धा से चूमा ।।
यो क्षण भर आत्म विभोर रहा, औ, उसे न कुछ भी चाह रही उसकी जीवन की श्वास श्वास, थी अपना भाग्य सराह रही ॥
कर सुखद कल्पना भावी की, होता था उसको तोष नहीं । क्षणभर कर्तव्य न पाला पर इसमें था उसका दोष नहीं ।
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पर सेवक धर्म न उसकी इस
सका ।
भावुकता को भी देख जो कभी न अपने से गुरुतर, ममता, माया को लेख
सका ||
उसने,
पा
कर्तव्य - प्रेरणा को किंचित भी तो देर नहीं ।
प्राङ्गण में रत्नों की वर्षा द्रुत करने लगा कुबेर वहीं ॥
'ऐरावत' की ही शुराड सदृश, गिरती थी रत्नों की धारा । वह दृश्य विषय था नयनों का, कथनीय नहीं शब्दों द्वारा ||
परम ज्योति मोर
वह रत्न राशि जिस समय वहाँ, आती थी अम्बर से नोचे । लगता, त्रिशला के श्राशा-वन, रत्नों से जाते हों सींचे ॥
या 'अच्युतेन्द्र' के श्राने को सोपान लगाया जाता हो । अथवा अम्बर से श्रवनी तक परिधान चिछाया जाता हो ॥
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तीसरा सर्ग
रजनी का अन्तिम प्रहर लगा, रजनीकान्त हुये ।
निष्प्रभ से
तारापति की यह दशा निरख, तारागण भी प्रति क्लान्त हुये ॥
तम बढ़ा और प्रत्येक वस्तु, हो गयी पूर्णतः काली थी ।
या सृष्टि किसी
रँगरेजिन ने
काले रंग में रंग
डाली थी ॥
पर ।
लगता था, सूख रहीं श्यामल-साड़ी नदियों के कुलों सो रही भ्रमरियों की सेना, जगती भर के सब फूलों पर ॥
महित्रों की परिषद बैठी हो सारे औौ' तारकोल हो कोई सम्पूर्ण निकेतों
ही जैसे खेतों में ।
नभ को मसिभाजन समझ किसी
ने काली स्याही घोली हो । ली पहिन दशों दिग्वधुनों ने काली मखमल की चोली हो ॥
पोत गया,
# ||
१०१
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परम ज्योति महावीर
विपिनों में जैसे शेषनागकी सारी प्रजा विचरती हो । सुरपुर से श्यामल भूषा में परियों की पंक्ति उतरती हो ।
होते हों जैसे सम्मेलन, पथ में जग भर के चींटों के। श्यामा की शरण पधारे हों, दल श्याम वर्ण के कीटों के ॥
गौएँ महिषों सी दिखती थों, कौत्रों से दिखते थे तोते । मृग ऐसे दिखते, ज्यों भालूकाले कम्बल पर हों सोते ॥
यों भू पर श्यामा के श्यामल तम का शासन सा छाया था। जिसने नर-पशु-कृमि कीटों को,
भी तो घनश्याम बनाया था । सब सुख-निद्रा में सोये थे, बस अन्धकार ही जगता था । जो निशि की रक्षा में तत्पर कटि बद्ध सुभट सा लगता था ।
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तीसरा सर्ग
१०३
पष्ठी का चन्द्र नभाङ्गण में, चुपचाप दीप सा जलता था। अतएव न उसकी किरणों से भूमण्डल का तम गलता था ।
ध्रुवतारा सिवा सभी तारोंकी प्राभा घटती जाती थी। जो अपनी भावी मनोव्यथाका ही सङ्कत बताती थी।
रजनी को बिदा कराने को, अब आने वाली डोली थी। अतएव न उसको सूझ रही, अब कोई और ठिठोली थी॥'
छा गयी पूर्ण नीरवता थी, कोई भी स्वर न सुनाता था। मारुत भी मौन हुवा, तरु केपल्लव तक वह न हिलाता था ।
शय्या पर 'त्रिशला' लेटी थीं, श्रानन पर कान्ति निराली थी। शिर से अञ्चल था सरक चुका, बिखरी केशावलि काली थी।
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परम ज्योति महावीर
शय्या पर पड़ी पँखुडियाँ थीं, जुड़ा से शिथिलित फूलों की। थी सुरभि व्याप्त शयनालय में, इत्रों से सिक्त दुकूलों की ॥
नीलम मणि दीपो की आभा, कोने-कोने तक फैली थी। अतएव दुग्ध सी शय्या भी उस समय भामती मैली थो ॥
इतने में ही घड़ियाली ने, टन टन टन तीन बजाया था। अथवा स्वप्नों को श्राने का, उपयुक्त समय बतलाया था ।
उसका संकेत समझ स्वप्नीको कर्तव्यों का बोध हुवा । षोड़श स्वर्गों से सङ्ग चले, आपस में नहीं विरोध हुवा ॥
दे चले सूचना भावी की, वे निज सांकेतिक भाषा में । त्रिशला से बोले-'फल लगनेवाले हैं तव अमिलाषा में ॥'
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तीसरा सर्ग
यह सुनते ही 'त्रिशला ' रानी के
मन में अभिनव अनुभूति हुई । यों लगा कि उनके सम्मुख ही, एकत्रित स्वर्ग-विभूति हुई ||
ये दृष्य नींद में दिखते, या मैं जगती हूँ, यह भूलीं थीं । जाने उन स्वप्नों की स्रष्टा किस कलाकार की तूलीं थीं ॥
या किसी शची ने 'त्रिशला' को वे दृश्य बनाकर भेजे थे । स्वप्नों ने चुपके से श्रा जो, रानी को स्वयं
सहेजे थे |
6 ू
यह सब उनने चुपचाप किया, जिससे निद्रा भी भङ्ग न हो । सब दृश्य देख लें महिषी, परबाधित कोई भी श्रम न हो ॥
कारण वे बनने वालीं थीं, उन तीर्थंकर की माता अब | जिनके चरणों में माथा नित हर करुणाभक्त मुकाता अव ॥
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परम ज्योति महावीर
वे स्वप्नों की मोहकता से, मन में फूली न समातीं थीं । थे नयन मुंदे पर अधरों से, वे मन्द मन्द मुसकातीं थीं।
कारण, विलोक वह स्वप्नावलि, निज अहोभाग्य ही माना था। नारी की महिमा गरिमा को, उनने उस ही दिन जाना था ।।
हर सुमन एक से एक रुचिर, देखे स्वप्नों की माला में । उसके उपरांत न जागा वह सौभाग्य किसी नव बाला में ||
जाने कितने ही पुण्यों के फल से उनको यह योग मिला । जो दुर्लभ है इन्द्राणी को, उनको वह पावन भोग मिला ||
आश्रो, हम भी लें देख उन्हें, 'त्रिशला' जो स्वप्न निरखती थीं। जिनकी कमनीय कसौटी पर वे अपना भाग्य परखती थीं ॥
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ये शब्द दासियों के सुनकर, 'त्रिशला' को प्रति श्रानन्द हुवा | वे उठीं, वहाँ की दीपावलि - का शुचि प्रकाश भी मन्द हुवा ||
फिर खोला द्वार शयनगृह का, दासी को नहीं पुकारा भी । पर हुई उपस्थित, आायीं होंज्यों खिंचकर चुम्वक द्वारा ही ॥
श्री शीघ्र किसी ने फेंक दिये, शय्या के बासी फूल सभी । दी पोछ किसी ने
प्रत्येक वस्तु की
कौशल से,
धूल सभी ॥
परम ज्योति महावीर
सब सावधान थीं, रानी कोहो सकी न किंचित् भी बाधा | जब कक्ष स्वच्छ हो गया तभी, उनने सामायिक को साधा ॥
वे लगीं सोचने, 'भववन में, निज जन्म अनन्त विताये हैं । कर्मों के वश में रह मैंने, अगणित दुख भार उठाये हैं ||
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तीसरा सर्ग
पर नहीं आज तक कभी मुझे, निज श्रात्म रूप का बोध हुश्रा । शुभ अशुभ प्रास्रवों के आने, में कभी न गति-अवरोध हुवा ।।
बढ़ सकी मुक्ति की ओर नहीं, परित्याग मोह के बन्धन को। इंधन हित रही जलाती हा! मैं सदा मलयगिरि चन्दन को ।।
यों अपनी ही जड़ता से चारोंगतियों के मध्य भटकती हूँ।
औ' पाप-पुण्य के तरुनों केविषमय मधुमय फल चखती हूँ।
जो पाप-पुण्य से रहित हुये, सचमुच वे ही बड़ भागी हैं। जिनने विषयाशा को त्यागा वे ही तो सच्चे त्यागी है।
मैं भी सब बन्धन त्याग सकूँ, भगवन् ! इतना सौभाग्य मिले । अब तक हर भव में राग मिला अब परभव में वैराग्य मिले ॥"
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परम ज्योति महावीर
यों आत्म शुद्धि के लिये स्वयं, बैराग्य भावना भातों' थीं। डूबीं थीं इतनी भावों में, प्रतिमा सी शान्त दिखातीं थीं ।।
इस श्रात्म-चिन्तवन में उनको अनुपम आत्मिक अनुभूति हुई । यों लगा कि जैसे करतल गत, शुद्धात्मानन्द विभूति हुई ।।
'मैं 'कुण्ड प्राम' की महिषी हूँ', यह भी वे क्षण को भूल गयीं। अविकार सिद्ध की मुद्रा भी उनके नयनों में झूल गयी ॥
निज पूर्व सुनिश्चित क्षण में फिर, क्रमशः यह चिन्तन भंग हुवा । रानी का उठना, सखियों का
आना दोनों ही संग हुवा ।। 'सिद्धार्थ-वल्लभा' को कोईभी वस्तु पड़ी न मँगानी थी। उनकी हर प्रकृति सदा से ही, हर दासी की पहिचानी थी।
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तीसरा सर्ग
15
५
उनको जब जो भी इष्ट हुई,
तत्काल उन्हें वह वस्तु मिली । आ गयी वहीं सामग्री स्वच, पर उनकी जिह्वा भी न हिली ॥
वे स्वप्न फलों को सुनने कीमन में थीं श्राज उमंग लिये । अतएव शीघ्रता से पूरे, दिन चर्या के वे श्रङ्ग क्रिये ॥
पश्चात् स्नान कर नव भूषा, धारण की श्राज निराली थी । चेरी ने कौशल से गूँथी, उनकी केशावलि काली थी ।!
वे,
इसके उपरान्त विभूषण पहिने रुचि के अनुरूप स्वयं । प्रायः ही जिन्हें पहनने का श्राग्रह करते थे भूप स्वयं ॥
श्राभरण पहिन कर मांग भरी, खींची यो रुचि से सब दर्पण में निज मुख देखा फिर H
सिन्दूरी रेखा फिर । शृङ्गार किये,
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ફ૨૨
परम ज्योति महावीर
कुछ अंश पोंछकर ठीक किया, अधरों की ललित ललामी को । वे चाह रहीं थीं, सज्जा मेंकोई त्रुरि दिखे न स्वामी को ।।
हर वस्तु ठीक कर राजा से, मिलने रानी सोल्लास चली। याँ लगा, इन्द्र से मिलने को, इन्द्राणी उनके पास चली ।।
आयो, हम भी चल राजसभा-- में सात्विक स्वप्न विधान सुनें । 'त्रिशला' माँ के गर्भाशय मेंसंस्थित शिशु का गुण गान सुनें ।।
-
X
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चौथा सर्ग
वे बिना परिश्रम त्रिभुवन-पति---- का भार उठातीं जातीं थीं । निज कुक्षिमध्य युग-स्रष्टा का श्राकार बनातीं जातीं थीं ॥
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चौथा सर्ग
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'सिद्धार्थ' सिँहासन पर बैठेथे आनन पर अति श्रोज लिये। ऊपर को भाल उठाये औ' नीचे को चरण-सरोज किये ।। .
बहुमूल्यमयी नव भूषा से, शोभित थे अनुपम अंग मभी । उनकी परिमार्जित अभिरुचि के,
सूचक थे जिसके रंग सभी ।। निज नियत आसनों पर सविनय अासीन सभी अधिकारी थे। जो अपने अपने पद के ही, अनुरूप रूप के धारी थे।।
उस राज सभा की नियमावलिको भंग न करता था कोई । सबके अन्तस् में अनुशासनकी नव बीजावलि थी बोयी ।।
प्रहरी गण भी थे मौन खड़े, परिषद् गृह के हर कोने में । सम्राट-प्रताप मलकता था, उनके यों तत्पर होने में ।
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परम ज्योति महावीर जिस ओर वहाँ पर देखो, बस सुखदायी शान्ति दिखाती थी । जो नृप की शांति-व्यवस्था कोही बारम्बार बताती थी ।
जितने जन वहाँ उपस्थित थे, अणुमात्र किसी को खेद न था। अधिकार यथोचित सबको थ,
पर पक्षपात औ' भेद न था । इतने में 'त्रिशला' श्रा पहुँची, समयोचित नव शृंगार किये । नृप के श्रासन में समभागीबनने का भी अधिकार लिये ।।
सामन्त, सभासद, सेनापति, सब ही उनको पहिचान गये । कारण विशेष है पाने का,
यह भी वे सहसा जान गये ।। अविलम्ब खड़े हो सबने ही, उनको निज शीश मुकाया भी। निज विनय प्रदर्शन से महिषीके प्रति सद्भाव दिखाया ही ।।
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चौथा सर्ग
भूपति ने भी उठ स्वयं उन्हें, निज वामासन पर बैठाया । श्रागमन-प्रयोजन सुनने को, उनका अन्तस् था ललचाया ॥
श्रतएव प्रेम से बोले वे, 'श्राने का हेतु बताभो अब । मैं उसे जानने को उत्सुक, इससे मत देर लगाश्रो अब ॥'
यह सुन 'त्रिशला' ने कहा-'नाथ ! मैं सब कुछ अभी बताती हूँ। हैं श्राप समुत्सुक सुनने को, मैं कहने को ललचाती हूँ |
जब तक न आप से कह लूगी, होगा मुझको भी तोप नहीं । जो गुप्त प्रापसे हो, ऐसामेरे भावों का कोष नहीं ।।
तो सुनें, यामिनी में मैंने, है सोलह स्वप्नों को देखा। पर उनका क्या है फलादेश, मैं लगा न पायी यह लेखा ।।
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१२८
श्रतएव शरण में आयी हूँ,
मैं अपने भाग्य विधाता की । अपने मतिमान वृहस्पति की, अपने
जीवन-निर्माता
की ॥
अब आप कृपा कर स्वप्नों के, सोलह दृश्यों के नाम सुनें ।
व्यापक प्रज्ञा में,
ही परिणाम गुने ||
सुन अपनी
उन सब का
हैं आप स्वयं ही विज्ञ, अतः
मैं नाम
मात्र ही
हाँ, आप कहेंगे
जो
फल उसे अवश्य
सँजो
बोलूँगी |
विस्तृत -
लँगी !!
परम ज्योति महावीर
उन दृश्यों के क्रम को नहीं अभी, तक मेरी संस्मृति भूली भी, कारण न अल्प भी पड़ने दी । उन पर विस्मृति की धूली भी ।।
वे सोलह ये गजराज, वृषभ, हरि, लक्ष्मी का संस्नान तथा । माला, शशि, रवि, युग मीन, कलश, सर, सिन्धु, सिँहासन, यान तथा ॥
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चौथा सर्ग
नागेन्द्र निकेतन, रत्न राशि, निर्धूम अग्नि अभिराम यही । स्वप्नों में दिखे हुये सोलहदृश्यों के हें नाम यही ||
अवलोक श्राप निज प्रज्ञा में,
इनका सब फल बतलायें अब ! निद्रा ने स्वप्न दिखाये हैं, फल आप मुझे दिखलायें अब ||
यों निज विचार कह चुकने पर, 'त्रिशला ' मन में उल्लास लिये । दो गयीं मौन, उन स्वप्नों काफल सुनने की अभिलाष लिये ।
सच लगे देखने नृप का मुख, ज्यों ही वह वचन प्रवाह रुका । 'सिद्धार्थ' कथित फल सुनने को, सबके मन का उत्साह झुका ||
पर भूपति क्षण भर लीन रहे, जाने किन सुखद विचारों में ।। तदनन्तर व्यक्त लगे करने, स्वप्नों का फल उद्गारों में ||
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परम ज्योति महावीर
बोले-'लो सुनो, सभी स्वप्नोंका फल मैं तुम्हें सुनाता हूँ। तुम भी प्रमोद से फूल उठो, मैं फूला नहीं समाता हूँ।
सब सविस्तार बतलाता हूँ, मुझको जो कुछ भी ज्ञात हुवा । जिसकी कि कल्पना करने से, रोमाञ्चित मेरा गान हुवा ।।
इस युग के अन्तिम तीर्थकर, तव कान्त-कुक्षि में श्राये हैं। उनके गरिमामय गुण ही इन, स्वप्नों ने हमें बताये हैं ।।
अब मैं क्रमशः सब स्वप्नों के मुखकर रहस्य को खोलगा , प्रत्येक स्वप्न का फलादेश,
मैं पृथक् पृथक् ही बोलँगा ॥ षोडस् स्वप्नों के हित प्रयोग, होगा बस घोड़स छन्दों का। इतने में ही सब समाधान, होगा तव अन्तर्द्वन्दों का ॥
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चौथा सर्ग
जो,
गज ऐरावत सा देखा उसका फल उत्तम जानो तुम ।
इस क्षण से एक सुलक्षण सुत - की माता निज को मानो तुम ||
अब सुनो, स्वप्न में
जो बात विशेष
वह सुत की धर्म
की ही सामर्थ्य
तदनन्तर जो वह सिंह दिखा, उसने भी यही बताया है । निस्सीम शक्ति की धारक उस, गर्भस्थित शिशु की काया है ।।
दृष्ट वृषभ, बताता है ।
धुरंधरता -
दिखाता है ।
पश्चात् दिखी जो लक्ष्मी है, वह भी देती सन्देश यही । होगा चिर मुक्ति स्वरूपा उस लक्ष्मी का भी प्राणेश यही ॥
सुरभित सुमनों की माला ने, भी यह ही निस्सन्देह कहा । जग में प्रसिद्ध हो पायेगा, वह जगती भर का स्नेह महा ||
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१३२
इसके उपरान्त
दिखी तुमको
जो पूर्णाकृति रजनीश कला ।
वह सूचित करती मोह- तिमिरको देगा वह योगीश जला ||
तदनन्तर
दिया दिखायी जो द्य ुति शाली दिव्य दिनेश स्वयं । वह कहता ज्ञान-प्रकाशन कर,
होगा वह सुत ज्ञानेश स्वयं ||
फिर मीन युगल भी जो तुमको, सपने में अपने पास दिखा । तुम समझो उसके छल से ही, सन्तति का भाग्य विकास दिखा ||
परम ज्योति महावीर
जो जल मय पूर्ण कलश देखे, उनने भी यही बताया है । वह सुख की प्यास बुझाने को, अमृत-घट बन कर आया है ||
जो दिखा सरोजमयी सरवर, उसने भी बारम्बार उसको सहस्र से आठ अधिक,
श्रद्दा |
शुभ लक्षण का श्रागार कहा |
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चौथा सर्ग
पश्चात् दिखा वह सागर भी कहता मुझसा गम्भीर महा । होगा गम्भीर विचारक सुत' मर्यादा पालक धीर महा ॥
इसके उपरान्त तुम्हें जो वह, सिंहासन दिखा निराला है। वह कहता पुत्र तुम्हारा वह, त्रिभुवन पति बनने वाला है ।।
जो देव विमान दिखा तुमको, उसका फल यही विचारा है। वह जीव तुम्हारे गर्भाशय - में सुर पुर त्याग पधारा है ।।
फिर नाग भवन जो देखा है. उसका भी अर्थ सुहाना है। उस सुत को तीनों ज्ञान लिये ही जन्म जगत में पाना है।
तदनन्तर तुम्हें दिखायी दी, जो रत्न राशि मनहारी है। वह सम्यक सूचित करती है सुत श्रेष्ठ गुणों का धारी है ।
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परम ज्योति महावीर
जो अग्नि दहकती हुई दिखी, उससे भी होता ज्ञान यही । तप रूप अग्नि में वसु कर्मोंको होमेगी सन्तान यही ॥
यों मुझे तुम्हारे स्वप्नों का, जो अर्थ ज्ञान में श्राया है। वह विशद रूप से पृथक पृथक, भी मैंने तुम्हें बताया है ।।
अब फलीभूत ही समझो तुम, दम्पति-जोवन की आशा को। निज हृदय-देश से निर्वासनदे दो अविलम्ब निराशा को ।।
लो मान, हमारी चिन्ताओंका आज इसी क्षण अन्त हुवा ।। पतझड़ की अवधि समाप्त हुई, अब प्राप्त प्रशस्त बसन्त हुश्रा ।।
हे देवि ! तुम्हारा पुण्य महा, गर्भस्थित जो जिनदेव हुये । वह मुक्ति तरसती है जिनको, वे प्राप्त तुम्हें स्वयमेव हुदै ।।
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चौथा सर्ग
है सत्य वचन यह अक्षरशः, इसमें किंचित् सन्देह नहीं । उस सिद्ध शिला के राही से, पावन होगी यह गेह-मही ॥
अतएव ध्यान से गर्भवतीका हर कर्त्तव्य निभानो तुम । अनुकुल क्रियाओं को करनेमें मत आलस्य दिखानो तुम ।।
कारण, अब तक तुम जाया थीं, अब जननी-पद भी पाना है। इस अभिनव पद के योग्य अतः, अपने को तुम्हें बनाना है ।।
इस हेतु त्याग कर चिन्ता-भय, निश्चिन्त बनो, निर्भीक बनो । बन वीर-प्रसविनी वधुओं को, अनुपम आदर्श प्रतीक बनो ।
अब मुझे आज की परिषद् यह करना सत्वर ही भंग अभी। इससे न करूंगा बात अधिक, इस समय तुम्हारे संग अभी।
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कल से श्रष्टाहिक मह पूजन, इस वर्ष विशेष मनाना है ।
श्री सिद्धचक्र का पूजन हर जिन मन्दिर में
करवाना है |
अतएव यहाँ से जा कर तुम विश्राम अभी सामोद करो । या अपना मन बहलाने को, सखियों से मनोविनोद करो ||
यो विशद विवेचन मधु स्वर मेंकर पूर्ण मौन नरराज हुये । सुन जिसे ध्यान से महित्री के हर ङ्ग प्रफुल्लित आज हुये ।।
परम ज्योति महावीर
वक्तव्य पूर्ण कर जैसे ही. 'सिद्धार्थ' -- विचार - प्रवाह रुका । 'त्रिशला' का मस्तक भी उनके, पद पंकज पर सोत्साह मुका ||
सविनय प्रणाम कर प्रियतम को, वे उठीं और सोल्लास चलीं । उस राज सभा से बाहर था, वे सखियों सँग रनिवास चलीं ॥
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चौथा सर्ग
इस नव प्रसंग में षट्पश्चाशत् दिक्कुमारियाँ लीला से । निज छद्मवेश में श्रा बोलीं, सविनय उन लजाशीला से ।।
"हम अायीं ले तव चरणों की-~ सेवा करने का लोभ शुभे । दें शरण, हमारी सेवा से, होगा न श्रापको दोभ शुभे ।
हम नहीं करेंगी कपट कभी, हे देवि ! श्राप विश्वास रखें । यह कार्य प्रमाणित कर देगा, कुछ दिन बस अपने पास रखें ।
हम सब भी तो परिचर्या की, हर विधि में पूर्ण प्रवीणा भी। हम गा भी सकती हैं और बजासकतीं हैं वंशी वीणा भी ।।
हम नयी कलामय विधियों से, कर सकती हैं शृङ्गार सभी । तन की हर पीड़ा बाधा का कर सकतीं हैं उपचार सभी ।
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शोभामय सुन्दर शैली से,
हम शयनागार सजा सकतीं । नित नूतन बन्दनवार बना, हम हर गृह द्वार सजा सकतीं ||
अनुरूप सजावट कर सकतीं, पर्वों के विविध प्रसंगों पर । अति मुग्ध आप हो जायेंगी, सज्जा करने के ढंगों
पर ||
प्रिय लगें आपको जैसे भी,
सकती हम वैसे
हार बना ।
भूषण भी
प्रकार बना ||
सुमनों के सुन्दर
सकती है विविध
परम ज्योति महावीर
कह सकर्ती मन बहलाने को, प्रति दिवस नवीन पहेली भी । दासी भी बन कर रह सकतीं, रह सकतीं बनी सहेली भी ॥
इसके अतिरिक्त हमें स्वामिनि ! हे ज्ञात पाक विज्ञान सभी ।
सकतीं,
हम छप्पन भोग बना मिष्टान्न सभी पक्वान सभी ।।
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चौथा सर्ग
अभ्यस्त हमें हैं है कुशले !
प्रायः सच ललित कलाएँ भी । कण्ठस्थ न जाने हैं कितनी, कमनीय कथा कविताएं भी ॥
गार्हस्थ्य-शास्त्र
की ज्ञाता हम,
श्राता है हर गृह कार्य हमें । गृहणी के सारे कर्त्तव्योंको सिखा चुके श्राचार्य हमें ||
हम नयी प्रणाली
हैं गूँथ आप के
अविलम्ब सदा ही
कर सकतीं तव
से सकतीकेशों को ।
कार्यान्वित,
श्रादेशों को ॥
श्रतएव नियुक्त हमें अपनीसेवा में निस्सङ्कोच करें | हम पारिश्रमिक में क्या लेंगी ? इसका मत किंचित सोच करें ||
तव कृपा दृष्टि का पाना ही, है अलका पति का कोष हमें । जो श्राप स्नेह से दे देंगी, उससे ही होगा
तो हमें ||
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४.
परम ज्योति महावीर. पर कभी आपकी इच्छा के, विपरीत न निज मुख खोलेंगी। हर समय विनय में घुली हुई, मधुवाणी हम सब बोलेंगी।"
यो उनने त्रिशला देवी को, सूचित अपने उद्गार किये । सुन जिनको महिषो ने उनको परिचर्या के अधिकार दिये ||
यह स्वीकृति पाकर मुदित हुई वह दिक्कुमारियों की टोली । उस क्षण से उनकी सेवायोंका लक्ष्य बनी रानी भोली ।।
अब वे त्रिशला की सेवा में, करती थीं समय व्यतीत सभी । सिद्धार्थ-प्रिया को भी उनमें,
आलस्य हुवा न प्रतीत कभी ।। प्रत्येक कार्य के करने मेंउनका चातुर्य दिखाता था। मन में अभिलाषा करते ही, इच्छित पदार्थ श्रा जाता था ।।
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चौथा सर्ग
कोई प्रभात में लिये खड़ी, रहती थी मञ्जन दाँतों का । कोई भर नीलम-चषकों में, देती जल स्वर्ण-परातों का |
कोई उनके मृदु अङ्गों में, उत्तम उबटना लगाती थी। कोई बल वर्धक तैल लगा,
उनके कर चरण दबाती थी। कोई कञ्चन के कलशों के, जल से उनको नहलाती थी। कोई उनके मृदु पद तल भी, थो फूली नहीं समाती थी।
कोई कोमल अंगुलियों से उनकी केशावलि धोती थी। कोई दुकूल मट लेती थी,
कोई कञ्चुकी निचोती थी। कोई तन का जल में पोंछ नये, परिधान उन्हें पहिनाती थी। कोई द्रुत केश-प्रसाधन को, कंघी, दर्पण ले पाती थी॥
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परम ज्योति महावीर कोई तो सुरभित तैल लगा, मृदु केशावली भिगोती थी। कोई तो उनकी वेणी में, गंधा करती मणि मोती थी।
कोई उनके युग नयनों में, अञ्जन अभिराम लगाती थी। कोई नव माँग बना उसमें,
सिन्दूर ललाम लगाती थी। कोई झट लगा महावर ही, चरणों को लाल बनाती थी। कोई सौभाग्य-तिलक माथेपर भी तत्काल बनाती थी।।
कोई सतर्कता से उनकीठोड़ी पर तिल को लिखती थी। कोई उनके कर-पल्लव में, मिहदी ही रचती दिखती थी ।।
कोई साड़ी के अञ्चल में, अति सुरभित इत्र लगाती थी। कोई मुख मण्डल में सुरभित, सित चूर्ण पवित्र लगाती थी ।।
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चौथा सर्ग
कोई आभरण मँजूषा ला, पहिनाती भूषण अङ्गों में । अत्यन्त दमकते थे जिनकेनग अपने अपने रजों में ?
कोई पहिनाकर शीश फूल, उनका शिर भाग सजाती थी। कोई पहिनाकर कर्णफूल, कों की कान्ति बढ़ाती थी।
कोई नासा में पहिनानेको नथ अविलम्ब उठाती थी । कोई उनके कमनीय कण्ठमें हीरक हार पिन्हाती थी।
कोई कमनीय भुजाओं में, भुज बन्ध बाँधती धीरे से। कोई कर में पहिनाती थी,
नव वलय जटित मणि हीरे से ।। कोई उनकी मृदु अंगुलियों में, पहिनाती स्वर्ण-अँगूठी थी । कोई कसने लगती उनकीकटि में मेखला अनूठी थी।
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परम ज्योति महाबीर
कोई नूपुर पहिनाती थी उनके मृदु चरण सरोजों को । कोई पहनाती पुष्प हार, जो लेते घेर उरोजों को ॥
कोई उनके मृदु अधरों में रँग हलका लाल लगाती थी। कोई उनकी दन्तावलि में, मिस्सी तत्काल लगाती थी॥
कोई पूजन का समय समझ, पूजन सामग्री लाती थी। कोई वसु द्रव्यों को थालीमें विधिवत् शीघ लगाती थी॥
जिनराज भारती को कोई, शुचि मणि मय दीप जलाती थी। कोई स्वर्णिम धूपायन में अंगारे कुछ सुलगाती थी।
जब रानी पूजा पढ़ती थी तो, कोई सँग में कहलाती थी। कोई शुभ नृत्य किया करती, कोई मधु वाद्य बजाती थी।
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चौथा सर्ग
पूजन समाप्ति पर कोई
जप माल उन्हें दे देती
कोई स्वाध्याय पुराण
तत्काल उन्हें दे देती
फिर,
थी ।
उठा,
थी ॥
भोजन शाला
में,
कोई रह पावन पकवान पकाती थी ।
ताम्बूल वाहिनी बन
कोई,
मधुरिम ताम्बूल लगाती
थी ॥
कोई उनको
पहुँचाने को,
विश्राम कक्ष तक चलती थी ।
कोई उनके
विश्राम - समय
में बैठी पंखा
फलती थी ॥
कोई
गृह —— पुष्प - वाटिका में भ्रमणार्थ उन्हें ले जाती थी । श्र' निशारम्भ में ही
कोई,
उनका शयनाङ्क बिछाती थी ।
कोई अपनी संगीत के द्वारा उन्हें रिझाती कोई निद्रा श्रा जाने उनके पद युगल दबाती थी ॥
तक
कला-
थी ।
સ્
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१४६
परम ज्योति महावीर
यों रहती उनकी सेवा में, वह दिक्कुमारियों की टोली। जिनकी हर गर्भ-शुश्रूषा से, प्रमुदित रहतीं रानी भोली ।।
वे बिना परिश्रम त्रुिभुवन पति-- का भार उठाती जाती थीं । निज कुक्षि मध्य युग स्रष्टा काश्राकार बनाती जातों थीं।
नव मास उदर में रखना था, उन नव-युग भाग्य विधाता को । उन जैसा यह सौभाग्य पुनः कब मिला किसी भी माता को ।।
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पाँचवाँ सर्ग
होते निमित्त भर सिन्धु सीप, स्वयमेव पनपता मोती है। शिशु स्वीय पुण्य से बढ़ता है, माँ गर्भ भार भर ढोती है।।
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पाँचवा सर्ग
पावस ने मधु जल सिंचित कर वसुधा की काया धो दी थी। हो गयी शरद् के धारण केउपयुक्त धरा की गोदी थी॥
अतएव शरद् के आते ही, निर्मल नदियों का नीर हुवा । उनकी उद्धतता शान्त हुई, एवं प्रवाह गम्भीर हुवा ।।
हो गया अगस्त्योदय नभ में रह नहीं पथों में पङ्क गया। हो गयीं दिशाएँ भी निर्मल, मेघों का भी आतङ्क गया ।
मिट गया तड़ागों का कल्मष, कमनीय कुमुद भी फूल चले। जिन कुमुद वनों में विहरण कर कलहंस विगत दुख भूल चले ।।
नव शरत्पूर्णिमा आते ही, सबको नूतन अनुभूति हुई । निज पूर्ण रुप में विकसित सी उस दिन सब प्रकृति विभूति हुई ।
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२५०
परम ज्योति महावीर
उस तिथि का वातावरण अतः हर जन को मोहन मन्त्र बना । हर प्रिय प्रेयसि से मिलने की अभिलाषा से परतन्त्र बना ।।
दिन पति के जाते ही नभ में, अवतरित प्रपूर्ण मयंक हुवा । शरदेन्दु-छटा की निधियों से, सम्पन्न मही का अङ्क हुवा ।।
हर प्रियतम अपनी प्रेयसि पर बिखराने अपना राग चला। निज प्रिय के दर्शन का कौतुकहर प्रेयसि में भी जाग चला ।।
'सिद्धार्थ नृपति ने भी सोचा, क्यों विफल आज की रात करूँ ? क्यों नहीं पहुँच कर अन्तःपुर, 'त्रिशला' से जी भर बात करूँ ?
क्षण में निश्चय कर रानी के श्रालय की ओर नरेश चले । मानो कि रमा से मिलने को उत्कण्ठित स्वयं रमेश चले ।।
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१५६
परम ज्योति महावीर
___ यो निज विचार जब महिषी से
कह मौन हुये भूपाल स्वयं । तब उनका उत्तर देने को, रानी बोलीं तत्काल स्वयं ।।
"प्राणेश ! श्राप निष्कारण ही, क्यों मेरा मान बढ़ाते हैं ! क्यों व्यर्थ प्रशंसा कर मेरी, मुझको अत्यधिक लजाते हैं ?
बलवीर ! आपके तर्क प्रबल, एवं हूँ अबला बाला मैं । हे चतुर ! कहाँ से श्राप सदृश, पाऊँ चातुर्य निराला मैं ।
धामान् ! आपके सदृश मुझ वक्त त्व-कला का बोध नहीं । स्वामी के वचनों का दासी, कर सकती नाथ ! विरोध नहीं ।।
अतएव सोच में पड़ी हुई, तव सम्मुख अब क्या बोलूँ मैं ? जब हैं प्रसन्न स्वयमेव देव, क्यो अनुनय को मुख खोलें मैं !
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पाँचवाँ सर्ग
है श्रेय आपको ही उसका, जो मिला महा सौभाग्य मुझे | आराध्य ! आपके श्राराधन-से मिले जगत् श्राराध्य मुझे ||
आपकी
श्रतएव
के लिये सदा
अनुकम्पा --
आभारी हूँ ।
प्रभो मेरे,
श्रापकी नारी हूँ |
यह प्राची सूर्य
कहाँ से दे,
प्रभात नहीं ।
होवे यदि स्वर्ण यदि रहे न सरसी में जल तो,
दे सकती वह जल जात नहीं ॥
नर हो आप मैं मात्र
बस, यही समझ नत करने दें, मुकको अपना यह भाल सदा । औ' दया दृष्टिनिज श्राप रखें,
मुझ पर हर क्षण भूपाल सदा ||
पुष्पाञ्जलि मुझे
चढ़ाने दें
अपने ममतामय
भावों की ।
इति करें कृपाल ! कदापि नहीं, अपनी कमनीय कृपाओं की ॥
१५७
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परम ज्योति महावीर यदि भाव आपको मानें, तोअपने को कहती भाषा मैं । यदि आप किमिच्छिक दानी तो - हूँ याचक की अभिलाषा मैं ॥
यदि न्याय देवता आप प्रभो ! तो मैं हूँ पहिली भूल स्वयं ।। हृदयेश ! श्राप यदि पूजनीय,
तो मैं तब पद की धूल स्वयं ॥ यदि आप काम के रूप स्वयं, तो मैं उसकी प्रिय भूषा हूँ । यदि श्राप सुशील दिवाकर तो मैं लजाशीला उषा हूँ ॥
यदि आप इन्द्र-वक्षस्थल तो मन्दार-कुसुमकी माला मैं । राकेश श्राप यदि हैं तो हूँ,
रमणीय रोहिणी वाला मैं ।। अतएव धन्य वह पुण्योदय, जिसने यह योग मिलाया है। है धन्य कर्म भी वह जिसने, हमको अनुरूप बनाया है ।।
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पाँचवाँ सर्ग
१५
जिस विधि की मैं हूँ वसुंधरा, बस आप उसी विधि मेंह मिले । है यही हेतु जो हमको ये दुर्लभ फल निस्सन्देह मिले ।।
होते निमित्त भर सिन्धु सीप, स्वयमेव पनपता मोती है। शिशु स्वीय पुण्य से बढ़ता है,
माँ गर्भ भार भर ढोती है । पर धार उदर में निजपति को, है मुझे अभी से मोद अहा । पर कहाँ समायेगा यह तब जब लँगी उनको गोद श्रहा ।।
वैसी पहिले है हुई नहीं, जैसी इन दिनों उमंग मुझे । हूँ लिये त्रिलोकीपति को पर, हलके लगते निज अङ्ग मुझे ।।
गुरु भार वहन यह जाने क्यों लघु लगता मुझ सुकुमारी को ? आलस्य नहीं वह, जो रहता-- है गर्भवती हर नारी को।
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परम ज्योति महावीर
यों सुलभ वस्तुएँ भोगों औ' उपभोगों के उपयुक्त सभी। अब और बताऊँ क्या-क्या ? होपातीं न यही उपभुक्त सभी ।।
कारण कि मुझे इन भोगों से अब आज अधिक अनुरक्ति नहीं। लगता है भोगाराधन तज, मैं करूँ जिनेश्वर-भक्ति यहीं ।।
इन नश्वर इन्द्रिय-विषयों में, अब रहा अधिक अनुराग नहीं । लगता कि धर्म में लीन रहूँ, तू राग रन में भाग नहीं ।।
बस, 'पार्श्वनाथ' का ध्यान करू, जगते सोते दिन रात सदा । दूं बिता उन्हीं के वन्दन में, हर सन्ध्या और प्रभात सदा ।।
अध्यात्मवाद के ग्रन्थों को पढ़ने में प्रायः लीन रहूँ। जीवन की एक घड़ी में भी, में नाय ! न संयमहीन रहूँ ।।
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१७.
छठा सर्ग
पश्चात् स्वामिनी की अनुमतिपा बैठी हो निर्भीक सभी।
औ' लगीं खोजने जिज्ञासारखने का अवसर ठीक सभी ।
चुप उन्हें देख कर 'त्रिशला' ने, निज मौन स्वयं ही भंग किया । संकोच त्याग सब कहने का उनको उपयुक्त प्रसंग दिया ।
बोलीं-"प्रश्नों के करने में, तुम नहीं कदापि प्रमाद करो। भय की कोई भी बात नहीं, तुम निर्भय सब सम्वाद करो ।।
कर सकती मैं हर शंका काभी समाधान सामोद यहीं। चातक की प्यास बुझा सकताक्या जल से पूर्ण पयोद नहीं !
यह बात असम्भव अाज कि अब, हो शान्त तुम्हारी प्यास नहीं । कारण हर शंका का उत्तर प्रस्तुत है मेरे पास यही ॥
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परम ज्योति महावीर
मेरे समीप में रहतीं जो, उसका कुछ तो उपयोग करो। अवकाश काल में तुम अभिनव, ज्ञानार्जन का उद्योग करो ॥
कारण, सहचारियो ? मत् चर्चा से है अतीव अनुराग मुझे । एवं विशेषतः रुचता है, गोष्ठी में लेना भाग मुझे ॥
अतएव तुम्हारी जिज्ञासामें होगा गति-अवरोध नहीं । तब तक तुमको समझाऊँगी, जब तक कि तुम्हें हो बोध नहीं |
चाहे तुम जितने प्रश्न करो, श्रायेगा मुझको रोष नहीं । स्वयमेव तुम्हें मम उत्तर मे
हो जायेगा परितोष यहीं ॥ 'त्रिशला' के इस आश्वासन से उनके अन्तस् की लाज गयी। यों तो पहिले से प्रस्तुत ही-- थीं दिक्कुमारियाँ श्राज कई ॥
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छठा सर्ग
कह उठी एक 'ये प्राणी क्यों पाते हैं नाना क्लेश यहाँ ?”
महित्री बोलीं- 'पापोदय
से
ही मिलते दुःख
शेष यहाँ ?
फिर प्रश्न हुवा - 'दुख सह कर भी
विवेक नहीं ?
क्यों जगता ज्ञान उत्तर थाया -- मोहोदय
के,
रहते
जाता अविवेक
नहीं ॥"
मोहासुर
शंका उपजी -- ' इस को क्यों तजता संसार नहीं ।
था
समाधान - 'वैराग्य विना दिखता निज हित का द्वार नहीं ॥'
सुन पूँछ उठी कोई — 'कब तक, होती वैराग्य - प्रसूति नहीं? 'जब तक होती है
बतलाया
सच्ची आत्मिक अनुभूति नहीं ॥'
फिर प्रश्न हुवा -- 'क्या हमें अभी-मिल सकता मुक्ति प्रसङ्ग नहीं ।' उत्तर था - 'मुक्ति प्रदायक तप-कर सकते नारी -- अङ्ग नहीं ॥'
१७७५:
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परम ज्योति महावीर
कह उठी एक-'क्या नारी केहोते नर जैसे हाथ नहीं? स्वर आया-होते' पर नर साबल होता मन के साथ नहीं ।'
सुन कहा किसी ने-'यो ही क्या--- हम बनी रहेगी हीन सभी ? रानी बोली--'मिल जायेगी, नर की पर्याय नवीन कभी।।'
बोली कोई-'पर्याय न क्यों मिलती मन के अनुकूल हमें ?' उत्तर था-'नहीं बबूलों सेमिल सकते चम्पक फूल हमें ।।
फिर पँछ उठी कोई--'कैसे --- हो तत्वों की पहिचान अभी ?' यह ज्ञात हुवा-'सहकारी है जिन तत्वों पर श्रद्धान अभी!'
यह प्रश्न उठा-क्या श्रद्धा भर--- से हो सकता उत्थान स्वयं उत्तर अाया-'त्रय रत्नों में--- है प्रमुख तत्व-श्रद्धान स्वयं।'
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ear सर्म
बोली कोई -- 'क्या तत्वों पर हो सकता कोई सन्देह नहीं ?”
सुन पड़ा - 'जिनेश - विवेचन में, शंका रच सकती गेह नहीं ।"
फिर कहा किसी ने - 'क्यों सच हीहोती है उनकी बात सभी ?" उत्तर था - ' केवल ज्ञान करा -- देता उनको विज्ञात
सभी '
फिर प्रश्न हुवा - क्या क्रम क्रम सेयह ज्ञान कराता बोध उन्हें ?” सुन पड़ा - 'ज्ञान हो जाता है, सब एक साथ अविरोध उन्हें ।'
शंका उठ पड़ी--' विवेचन में-होती न कहीं क्या भूल कभी ?" उत्तर श्राया--'ध्वनि खिरती है, सत्यार्थ - धर्म --- अनुकूल सभी ॥ "
फिर प्रश्न उठा -- 'क्या जिनवर को
होती न किसी से
ममता है ?"
वीतराग-
था समाधान - - ' उन
को रहती सबमें समता है ?'
१७६
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१८०
परम ज्योति महावीर. बोली कोई-क्या कभी उन्हें श्राता प्रभुता का मान नहीं ? स्वर आया--'उन्हें प्रतिष्ठा से श्राती तक भी मुसकान नहीं ।'
फिर कहा किसी ने-'क्या उनको-- पूजक से होता मोह नहीं ? उत्तर था-'मोह न पूजक सेनिन्दक से रहता द्रोह नहीं ॥'
फिर पूंछ उठी कोई-'लगती-- क्या उन्हें भूख और प्याम नहीं ? बतलाया-'ऐन्द्रिय विषयेच्छा, जा सकती उनके पास नहीं ।
कह उठी अन्य--'क्या का या सेभी रखते हैं व राग नहीं ? ममझाया--तन क्या ? जीवन सेभी रखते वे अनुराग नहीं ?
फिर कोई पँछ उठी-- 'उनको-- होता न कहीं क्या रोग कभी ? सुन कहा-'जन्मतः होते हैं, उनके शुचि अङ्ग निरोग सभी।'
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- १८१
छठा सर्ग
की प्रकट किसी ने जिज्ञासा 'क्या उनको आता क्रोध नहीं ?' झट उत्तर मिला--"किसी से वेरखते ही वैर विरोध नहीं ॥'
फिर बोल उठी कोई-~-'उनकोक्या मोह न सकती रम्भा भी ?' उत्तर दे दिया कि 'मानेंगे-- वे उसे शुष्क तरु खम्भा सी ।'
फिर किया किसी ने प्रश्न---'न क्या वे होते चिन्तालीन कभी ?' बोलीं.-'होते कृतकृत्य, अतः जगती इच्छा न नवीन कभी ।'
फिर कहा किसी ने-'क्या हमको दे सकते वे सुख क्लेश नहीं ? बतलाया कि किसी भी प्राणी को
देते सुख दुःख जिनेश नहीं।' फिर तर्क उपस्थित हुवा कि 'तब क्यों उन्हें पूजता लोक सभी ! उत्तर था-'उनका गुण चिन्तन देता चिन्ताएँ रोक सभी।'
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परम ज्योति महावीर
यो समाधान सुन रानी से, जिनवाणी पर विश्वास हुवा । है गर्भ हेतु इस प्रज्ञा का, ऐसा उनको आभास हुवा ॥
यो चलता रहता श्राध्यात्मिकचर्चा का सौम्य प्रवाह सदा । जिनमें त्रिशला तो प्रमुख भागमचि से लेतीं सोत्साह सदा ।।
दिखता, महिषी के गर्भ सदृशही उनका ज्ञान विशाल बढ़ा । मानो अदृश्य रह जननी को, दिन रात रहे हों लाल पढ़ा ॥
परिणाम विशेष पवित्र हुये, सम्यक्त व विशेष विशुद्ध हुवा । श्रद्धा न विशेष समृद्ध हुवा, सद्ज्ञान विशेष प्रबुद्ध हुवा ।।
अतएव श्रावकाचार-नियमपालन में भी उत्माह बढ़ा । श्री 'पार्श्वनाथ' के दर्शन श्री' पूजन में भक्ति प्रवाह बढ़ा ॥
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· अज सर्ग
करतीं न उपेक्षित किंचित् भी, कोई भी धर्म-प्रसङ्ग कभी । उनकी तत्परता बतलातेथे दिनचर्या के ढङ्ग सभी ॥
प्राशुक जल के ही द्वारा वे, प्रातः प्रति दिवस नहातीं थीं। औ' बिना प्रयोजन चुल्लू भर, भी पानी नहीं बहातीं थीं।
लघु अन्तराय का कारण भी, पाते उनके गृह सन्त नहीं । वे रहतीं कितनी सावधान ? था इसका कोई अन्त नहीं ।
स्वयमेव स्वकर से देकर वे सत्पात्रों को आहार मधुर । उनकी संस्तुति में कहतीं थीं, अति बिनय भरे उद्गार मधुर ॥
यों धर्म-प्रसङ्ग बने रहनेसे नहीं समय का भान हुवा । श्रा गया बसन्त, सुशोभित अब 'त्रिशला' का राजोद्यान हुवा ॥
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परम ज्योति महावीर
महिषी ने देखा, बेलों का मलयागत पवन नचाता है। वह उन्हें समझ कर अबला ही, निर्भय उत्पात मचाता है।
नव प्राण मिले हैं वन-श्री को, मञ्जरित प्रफुल्लित श्राम हुये । पा नये मौर के सौरभ को, ये उपवन अति अभिराम हुये ॥
तज शोक अशोको के तरुवर, सुमनावलि पाकर झूम रहे । झुक शरणागत लतिकात्रो के, मुख मण्डल सहसा चूम रहे ॥
सन्ताप-निकन्दन सुमनो से, चित्रित चन्दन के अङ्ग हुये । अतएव स्वयं ही तो उनके, वन्दन में व्यस्त विहङ्ग हुये ।।
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मँडराती चपल तितलियाँ भी नव रंग बिरंगी कलियों पर। खग-चहक रहे हर क्यारी पर, सब कुञ्जों पर सब गलियों पर ।।
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छठा सर्ग
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पिकियों के पञ्चम गायन से, गुंजित अवनी श्राकाश हुवा । यों लगा कि ज्यों वे कहती हों, अवतरित मधुर मधुमास हुवा ॥
आरक्त पलाशों की छवि पर, अनुरक्त सुकोमल कीर दिखे । पिक अाम्र-मञ्जरी का मादक, मधु पीने हेतु अधीर दिखे ॥
नव कलियाँ दिखी लताओं में, सरसी में अभिनव पद्म दिखे । मकरन्द पिपासु भ्रमरियों को ये मौरभमय मधु-सद्म दिखे ॥
मतवाले वानर व्यस्त दिखे, निज उछल कूद के खेलों में । उनको न दिखा आकर्षण था, विटयों से लिपटी वेलों में ॥
पर मधुप-लली आसक्त दिखीं, माधवी-कली के गालों पर । गौरय्या गाती गीत दिखीं, विकसित कदम्ब की डालों पर ॥
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छठा सर्ग
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अतएव परस्पर वे नृप के गुण गातीं हुई सहास चलीं । राजा की भेंट दिखाने को, अब वे रानी के पास चलीं ॥
अतिशय कृतज्ञता भूपति केप्रति टपक रही थी अङ्गों से । तन लदा भूषणों द्वारा था,
औ' मन था लदा उमङ्गों से ॥ 'सिद्धार्थ' आज सिद्धार्थ हुये, था अतः हर्ष का अन्त नहीं । सोत्साह करायी जन्मोत्सवकी विधि प्रारम्भ तुरन्त बहीं ॥
शुभ समारोह करवाने के, सामन्तों को अधिकार दिये ।। सङ्गीत, नृत्य औ' नाटक के श्रायोजन विविध प्रकार किये ॥
शुभ कार्य क्रमों की सब रचना, शुभ अवसर के अनुकूल हुई । की गयी व्यवस्था अति उत्तम, उसमें न कहीं कुछ भूल हुई ॥
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१६४
आरम्भ कहीं पर नृत्य हुवा, आरम्भ कहीं पर गान हुवा | हर कलाकार का स्वीय कला दिखलाने को श्राह्वान हुवा ||
परम ज्योति महावीर
अब चलो विलोकें 'कुण्डग्राम'
श्रृङ्गार
कैसा उसका हुवा ? देखें कि वहाँ जन्मोत्सव का कैसा क्या क्या
संभार हुवा ?
हो जाओ, प्रस्तुत शीघ्र सुहृद् । अविलम्ब लेखनी चलती है । देखो, जन्मोत्सव की शोभा, कैसे छन्दों में ढलती है ?
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सातवाँ सर्ग
जलधारा शिर पर गिरती थी पर कैंपे वीर-भगवान नहीं। अबला होकर भी 'त्रिशला' नेथी जनी अबल सन्तान नहीं ।
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१६७
सातवाँ सर्ग
श्रा उधर गर्भ से प्राची के, दिनकर ने व्योम सजाया था।
औ' इधर भाग्य पर अपने अब, वह 'कुण्ड ग्राम' मुसकाया था ।
था सजा न केवल राज भवन, सब नगर सजा बाजार सजे । सब चौक सजे, सब मार्ग सजे, सब गेह सजे, सब द्वार सजे ।।
सब उपवन सब उद्यान सजे, सब वृक्ष सजे सब डाल सजी । कहने का यह सारांश वहाँ, कण कण अवनी तत्काल सजी ।।
अति कुशल शिल्पियों ने कौशलसे नगर सजा सब डाला था। मानों, अलका की सुषमा को, इस 'कुण्ड ग्राम' में ढाला था ।
सर्वत्र शुक्लता सदनों पर, चूने से गयी चढ़ायी थी। बन्दनवारों से दारों कीसुन्दरता गयी बढ़ायी थी ।
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१६८
परम ज्योति महावीर
रच गये अनेक विचित्र चित्र, भीतों पर चतुर चितेरे थे।
आँगन में चौक बना वधुत्रोंने विविध प्रसून बिग्वेरे थे ।
धूपायन में दी गयी जला, थी दिव्य दशांगी धूप अहो । रख दिये गये थे ठौर ठौर, नव मंगल कलश अनूप अहो ।
पथ दिये गये थे भींच, अतः उड़ती दिखती थी धूल नहीं । एवं न मलिन हो पाते थे, दर्शक के दिव्य दुक्ल कहीं ।
शुभ अगरबत्तियाँ जलने से, था हुवा समीर पुनीत वहाँ । पाँचों अङ्गलियों के थापोंसे युक्त हुई हर भीत वहाँ ।।
सुन्दरतम सदनों के शिखरोंपर ध्वजा गयीं फहरायीं थीं। जो शीतल मन्द सुगन्ध पवन, के झोंकों से लहरायीं थीं ॥
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सातवाँ सर्ग
चौराहों पर अभिनव अभिनय
शालाएँ गयीं बनायीं थी ।
बिरङ्गी मालाओं
सजायीं थीं ॥
जो रङ्ग के द्वारा गयीं
थे जिनमें दर्शक मण्डल की, सुविधार्थ सौम्य सोपान बने । औ' धूप निवारण करने को, थे विविध विशेष वितान तने ॥
सुन सकें गीत सब, इसका भी - पर्याप्त मनोज्ञ प्रबन्ध हुवा | महिलाएँ पृथक् विराज सकें, इसका भी योग्य प्रबन्ध हुवा ॥
अति भव्य व्यवस्था त्रुटि का न कहीं भी अवलोक जिसे हर मन में आश्चर्य महान हुवा ||
यों किसी नागरिक ने न नगरकी सजा हेतु प्रमाद किया 1 नृप ने अत्यन्त उदार हृदयसे सूचित निज श्रह्लाद किया ||
हुई सभी, भान हुवा | दर्शक के,
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२००
परम ज्योति महावीर.
तत्क्षण ही कारागारों से, सब बन्दी बन्धन मुक्त किये । पिंजड़ों से कोयल, तीतुर औ' तोता, मैना, उन्मुक्त किये ॥
ऋणियों पर जितना भी ऋण था, वह सब का सब भी त्याग दिया । औ' नहीं किसानों से मिलनेवाला भी कृषि का भाग लिया ।
दस दिन के लिये समस्त करोका लेना बन्द कराया था। बहुमूल्य पदार्थों का भी तो, अतिशय ही मूल्य घटाया था ।।
इन सुविधाओं से लाभ हुवा-- सिद्धार्थ-राज्य में लाखों को । नृप की उदारता देख सफल, माना सबने निज आँखों को ।
हर याचक हेतु किमिच्छिक भी-- धनदान दिया सोल्लास गया । अाशा से बढ़कर पा लौटा, जो याचक उनके पास गया ॥
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सासका सर्ग
२.
धनदान निरन्तर होने से, निर्धनतापूर्ण विलीन हुई। सिद्धार्थ राज्य के गृह गृह में, लक्ष्मी देवी श्रासीन हुई ।
छाया प्रहर्ष का राज्य, राज्य-- से निर्वासित दुख क्लेश हुवा । सम्पत्ति रमा पा राजा से, हर निधन व्यक्ति रमेश हुवा ॥
श्री' यथा योग्य उपकरणों से सम्मानित हर विद्वान हुवा । हर गीतकार हर नृत्यकार-- का राजकीय सम्मान हुवा ।।
उन्मुक्त हृदय औ' मुक्त हस्तसे यह धनदान प्रवाह चला। अवलोक जिसे ही जन मन गण, नृप का औदार्य सराह चला ॥
पकवान परोसे गये मधुर हर गौ को हर गौशाला में। मीनों को लघु मिष्टान्न बँटे, हर सरिता में हर नाला में।
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२०२
च ओर बिखेरे गये चने,
चुगने को विविध विहंगों को । सुस्वादु खाद्य सामाग्री भी, भिजवायी गयी कुरङ्गों को ||
1
नर से बढ़कर भी वानर दलको दिये गये फल केल्वे थे । वे भी इतने जितने वे, खा सकते नहीं अकेले थं ॥
'खाजा' 'खाजा' कह श्वानों को
भी गये खिलाये खाजा थे ।
चिटियों को
राजा थे ॥
निज सम्मुख चींटों चीनी चंद्रवाते
परम ज्योति महावीर
थं गये सिचाये वृक्ष, लता
शीतल जल भर भर गगरी में ।
नर से तरु तक कोई न
रहा,
भूखा प्यासा उस नगरी
प्रभावों को,
जनता के सभी नृप ने यो प्रथम भगाया था । फिर अन्य महोत्सव करने में,
अपना शुभ ध्यान लगाया था ||
में ॥
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मतवाँ सर्ग .
अब तक सुन्दरतम शैली से जा चुका नगर सिंगारा था । अति कुशल शिल्पियों ने उसका, सौन्दर्य विशेष निखारा था |
अतएव वहाँ प्रारम्भ नये, जिनवर के यश के गीत हुये । सुन जिन्हें सभी श्रोताओं के,
युग कर्ण विशेष पुनीत हुये ॥ मधु ध्वनि से अम्बर के अञ्चल, औ' वसुन्धरा की गोद भरी । णरुत लहरों पर लहर गयी, स्वर लहरी यह अामोद भरी ॥
वाद्यों से निकले नादों से, गुञ्जित सम्पूर्ण दिगन्त हुये । निज सपरिवार भी जिनको सुन, प्रमुदित 'त्रिशला' के कन्त हुये ॥
तज वसन रजक हो गये खड़े, "गण्डकी नदी के घाटों पर । रोगी तक राग-विमोहित हो, उठ कर बैठे निज खाटों पर ॥
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२०४
परम ज्योति महावीर
हो नाद मधुरता पर मोहित, पशुओं ने त्यागा तृण चरना । पनघट पर की पनिहारिन भी, भूली गागर में जल भरना ॥
यह मधुर रागिनी सुनने का, सबके ही मन में चाव हुवा । सत्वर ही गान सभाओं में, जाने का सबको भाव हुवा ।।
नीरम से नीरस अन्तम में, स्वर-रस पीने की चाह जगी । हर नर उत्साहित हो भागा, हर नारी भी सोत्साह भगी।
ध्वनि सुन निकटस्थ तपोवन से, भगकर आये मृग छोने सब । कर गान-सुधा का पान, लगेवे अपनी सुध बुध खोने अब ।।
पुर भरा नारियों नर से औ, पशुओं से पुर के रछो भरे । सब राज मार्ग औ' चौक सभी, मनुजों से चारों ओर भरे ।।
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सातवाँ सर्ग
वहाँ,
सबने श्रति श्रद्धा सहित
जिनवर के यश के छन्द सुने ।
नये,
हो मुग्ध विलोके नृत्य
' विविध वाद्य
सानंद सुने ||
यो इधर अवनि नभ गूँज उठे, नव जात जिनेश्वर की जय से ।
औ' उधर सौरिगृह गूँज उठा, मधु सोहर गीतों की लय से ॥
स्वयं,
गा मधुर झूमरी राग कुछ नर्तकियाँ थीं झूम रहीं । थीं जिनके सङ्ग विमोहित हरदर्शक की आँखें घूम रहीं ॥
..
कुछ ठुमक ठुमक कर ठुमरी गा, सोल्लास सलास ठुमकतीं थीं । फिर जातीं फिर फिर फिरकी सी, चपला सी चमक चमकती थीं ॥
नर्तन को,
डोरी थी ।
नट और नटी के
श्राबद्ध कहीं पर जिस पर नटिनी निज नृत्य दिखा,
गा रही मधुरतम लोरी थी ॥
२०५
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२०६
अभिराम अखाड़े मध्य कहीं, बलशाली मल्ल उतरते थे । कुछ तो व्यायाम दिखाते थे, कुछ मुष्टि युद्ध भी करते थे ।
नव नृत्य वानरी भालू के, दिखलाते कहीं मदारी थे । जिनको अवलोक कुतूहल से बच्चे भरते किलकारी थे |
परिहास प्रवीण विदूषक निज, प्रहसन भी कहीं दिखाते थे । दर्शक जिनकी लीलाओं से, हँसते हँसते थक जाते थे |
परम ज्योति महाबीर
हो रही कहीं थी धर्म कथा, होते थे सत् उपदेश कहीं ।
हो रही कहीं थीं शास्त्र सभा, होते थे पाठ
विशेष
कहीं ॥
हो रही कहीं थी जिन पूजा, होते थे विविध विधान कहीं । जा रहे पढ़े थे स्तवन कहीं, होते थे जिन गुण गान कहीं ।
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सातवाँ सर्ग
यों हर मन्दिर
चैत्यालय में,
बही ।
धर्मामृत की रसधार साक्षात् तीर्थ सी ज्ञात हुई, तीर्थकर की अवतार - मही ॥
यों नहीं मात्र उस 'कुण्ड ग्राम' - में ही उत्सव की धूम रही। देवेन्द्रपुरी तक उस अवसर -- में थी उन्मद सी भूम रही ||
--
अतएव शीघ्र ही 'कुण्ड ग्राम' - की ओर सुरों के नाथ चले । गन्धर्व, अप्सरा, गज, तुरंग, वृषभ भी साथ चले ॥
नर्तक, रथ,
इस सात भाँति की सेना ने, जो गमन समय जय नाद किया । उसने हर देव तथा देवी -- के मन को अति श्राहाद दिया ||
'उर्वशी' 'मेनका' 'रम्भा' सब, सुरराज संग सस्नेह चलीं । निज दिव्य बधाई देने को, सज धज 'त्रिशला' के गेहू चलीं ॥
२०७
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परम ज्योति महावीर आँगन में उनके आते ही, अति चकित सभी के नेत्र हुये । देवागम द्वारा देव धामसे 'कुण्ड ग्राम' के क्षेत्र हुये ॥
कर दिव्य देवियों का दर्शन, हर दर्शक को आनन्द हुआ । हर दृष्टि-भ्रमर ने तृष्णा से, उनकी छवि का मकरन्द छुपा ।।
उनने गायन औ' वाद्य सहित, प्रारम्भ नृत्य व्यापार किया । अपनी नर्तन शैली से हर, नर-तन-मन पर अधिकार किया ।
उनके नैपुण्य समेत किसीने अपना पुण्य सराहा था । निज पुण्य समेत किसी ने तो, उनका नैपुण्य सराहा था ॥
निज पूत रूप में 'जगपिता'को पाकर रानी पूत हुई । प्रभू के प्रभवन से राजा की, प्रभुता, प्रभु-शक्ति प्रभूत हुई ।
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सातवाँ सर्ग
आये थे,
यह सोच चढ़ाने सुर श्रद्धा के दो फूल उन्हें । विभु की पूजा भी करनी थी, निज वैभव के अनुकूल उन्हें ॥
पर प्रभु-दर्शन की प्रबल चाहथी जगी शची के हग-मन में ।
अतएव नहीं वे सिद्धार्थ - भूप के
जा गुप्त रूप से सौरि सदनमें अवलोका जिन माता को । उनके समीप में ही लेटे, नव युग के नव निर्माता को ॥
•
श्रतएव जिनेश्वर की जननीको सुला दिया द्रुत माया से ।
शिशु अन्य लिटाया मायामय, चिपटा कर उनकी काया से ||
अधिक रुकीं, में ॥
श्रांगन
उन दोनों का दर्शन कर उनका मन फूला नहीं समाता था । उन नव कुमार के लेने को,
उनका करतल ललचाता था |
२०६
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२१०
परम ज्योति महावीर
फिर मृदु हथेलियों में उनने, वह सद्यः जात कुमार लिया । निज लोचन चषकों से उनका, रूपामृत बारम्बार पिया ।।
पश्चात् उन्हें ले सौरि-सदन, से बाहर वे सामोद चलीं । कुछ नहीं किसी को ज्ञात हुवा, वे प्रभु से भर निज गोद चलीं ॥
जिनपति का दर्शन कर सुरपतिका भी अन्तस्तल मोहा था । तत्काल शची से बालक ले, सुरपाल अधिकतम सोहा था ॥
अब जिनवर का अभिषेकोत्सव, करने की उन्हें उमङ्ग हुई । सत्वर 'सुमेरु' की ओर चले, सुर-सेना उनके सङ्ग हुई।
सब देव जिनेश्वर का तन ही, अब बारम्बार निरखते थे। वे निर्निमेष निज नयनों से, उनका रूपामृत चखते थे।
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जिनेन्द्र को लेकर इन्द्राणी का निर्गमन
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RAINRIT
SH
।
पश्चात् उन्हें ले सौरि सदन, से बाहर वे सामोद चलीं । कुछ नहीं किसी को ज्ञात हुवा, वे प्रभु से भर निज गोद चलीं ।
(पृष्ठ २१
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सातवाँ सर्ग
उन वीतराग का दर्शन करभी सबके मन में राग हुवा । उन महा भाग के भाग्योदय-- में सब का कुछ कुछ भाग हुवा ।।
ये गोद लिये 'सौधर्म नामके सुरपुर के सुरराज उन्हें । 'ईशान' स्वर्ग के इन्द्र स्वयंथे छत्र लगाये आज उन्हें ।।
सित चमर दुराते 'सानत्' औ, 'माहेन्द्र' स्वर्ग के राजा थे। थीं नाच रही किन्नरियाँ औ, गन्धर्व बजाते बाजा थे ।
मङ्गलमय गीतों को गातीं, चल रहीं सङ्ग इन्द्राणी थीं। सोल्लास निकलती सब देवोंके मुख से 'जय' 'जय' वाणी थी।
पर उधर कहाँ क्या होता है ? यह नहीं जानतीं रानी थीं। उनने क्या ? नहीं किसी ने भी, यह बात अभी तक जानी थी।
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२१२
परम ज्योति मह
औ' इधर सभी वे उस 'सुमेरु' के 'पाण्डुक' वन को देख रुके । थे जहाँ अनेक जिनेन्द्रों के हो पुण्य जन्म-अभिषेक चुके ।
अभिषेक प्रसाधन प्रस्तुत थे, उस अवसर के अनुरूप वहाँ ! थी पाण्डुक शिला बनीं जिसपर, सिंहासन था मणि रूप वहाँ ।
उस पर ही गये विराजे थे, वे तीर्थकर भगवान अहो ।
औ' अगल बगल सुरनायक थे, 'सौधर्म' और 'ईशान' अहो ।
ध्वज, छत्र, चमर, घट, मुकुर, व्यजन, ठौना औ' मारी नाम मयी । इन आठों मङ्गलमय द्रव्योंसे हो वह शिला ललाम गयी ।
इस सब उत्सव के केन्द्र बिन्दु, 'त्रिशला' के राज दुलारे थे। उनके ही लिये सुरों ने ये, उपकरण जुटाये सारे थे।
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uraat a
बज रहे दुन्दुभी
बाजे थे,
कर रहीं सुरीं थीं
लास मधुर ।
मण्डप में,
हो रही व्याप्त थी कालागुरु की शुभ वास मधुर ॥
'सौधर्म' इन्द्र ने निज कर में,
व प्रथम कलश सोल्लास लिया । ईशान इन्द्र ने भी वैसाही अन्य कलश सविलास लिया ||
उस समय वहाँ
जो हर्ष हुवा,
वह जा सकता किस भाँति लिखा ? सब वर्णन वह ही लिख सकता, जिसको वह सब प्रत्यक्ष दिखा |
पर वर्णन कल्पित मत मानें, सब कुछ सम्भव सुर-लीला को । चाहे तो क्षण में सोने का - कर दें मिट्टी के टीला को ||
आरम्भ हुई अभिषेक किया, पर प्रभु को पहुँचा क्लेश नहीं । बाठको ! हमारे से निर्बलथे उनके देह-प्रवेश नहीं ||
२१
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३१४
जल धारा शिर पर गिरती थी,
पर कँपे वीर भगवान
नहीं |
'त्रिशला' ने -
सन्तान नहीं ॥
अबला होकर भी
थी जनी अवल
गिर वह पवित्र,
प्रभु के तन पर जल राशि विशेष पवित्र हुई । निज सँग अशोक दल गिरने से, उसकी छवि चित्र विचित्र हुई ||
विशाल हुये ।
अष्टाधिक एक सहस्र कलशसे यों अभिषेक पर नहीं अल्प भी क्षोभित वे, 'त्रिशला ' माता के लाल हुये ॥
परम ज्योति महावीर
द्वारा चन्दनादि
फिर देवों की अग्नि जलायी शुद्ध गयी । जिसकी पावनतम ज्वाला में, डाली भी धूप विशुद्ध गयी ||
पश्चात् इन्द्र ने अष्ट द्रव्यसे पूज पूर्ण अभिषेक किया । तदनन्तर उन शुभ परम ज्योति'को गोदी में साविवेक लिया ||
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सातवाँ सर्ग
इन्द्राणी ने उनके तन पर,
शुचि लेप भक्ति के साथ किया । ' तिलक लगा कर अति शोभित, उन 'लोक तिलक' का माथ किया ||
उन प्रभुवर के,
' त्रैलोक्य मुकुट' मस्तक पर मुकुट पिन्हाया फिर ।
उन जग के चूड़ामणि के शिरपर चूड़ामणी लगाया फिर ॥
नयनों में
नाँजा पर
वे नहीं अल्प
भी क्षुब्ध हुये ।
कर्णो में कुन्डल
पहिनाये,
पर वे न अल्प भी लुब्ध हुये ॥
मणिहार कण्ठ में डाला पर, उससे न उन्हें कुछ क्षोभ हुवा | कटि में कटि सूत्र पिन्हाया पर, उसका न उन्हें कुछ लोभ हुवा ||
श्रृंगार शची ने पर हुवा नाथ को
भय भय के मारे श्राया था,
उन निर्भय प्रभु के पास नहीं ||
पूर्ण किया, त्रास नहीं ।
२१५
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२१६
परम ज्योति महावीर
प्रनु-काया स्वतः मनोहर थी, अब और मनोहर ज्ञात हुई । उसकी सुषमा सुरनायक कोभी तो विस्मय की बात हुई ।।
इससे उनने संख्या सहस्र की तत्क्षण अपनी आँखों की । पर समझा इस छवि-दर्शन को, पर्याप्त न आँखें लाखों भी ।।
उन 'परम ज्योति' की काया कीसुन्दरता का था अन्त नहीं । अतएव तृप्त हो पाये थे, वे इन्द्राणो के कन्त नहीं ।।
उनने श्रद्धा से गद्गद हो, संस्तुति करते इस भाँति कहा । 'हे नाथ ! जगत के सब जीवोंको सुखद आपका जन्म अहा ॥
ले गोद श्रापको धन्य हुईहै आज हमारी गोद प्रभो । औ' मना जन्म कल्याणक यह, हो रहा हमें अति मोद प्रभो ॥
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araat सर्म
अभिषेक आपका कर
जल से
चाह रही ।
हो गयी पूर्ण, जो शृंगार श्रापके तन का कर,
इन्द्राणी भाग्य
सराह रही 11
हे विभो ! हमारी गिरा सफल,
हो गयी आपकी 'जय' 'जय' कह |
हो गया आपके श्रागम से, पावन 'सुमेरु' गिरि निश्चय यह ॥
चुका,
इसी --
पर्याप्त समय हो क्षण 'कुण्ड ग्राम' को जाना है ।
तर यहाँ अब और अधिक, दो क्षण भी नहीं लगाना है |"
यह कह 'ऐरावत' पर उनने, प्रभु को बैठा प्रस्थान किया । अविराम पहुँच कर 'कुण्ड ग्राम',
राजाङ्गण
शोभावान
किया ||
रानी की,
सौंप दिया ।
द्रुत इन्द्राणी ने
निद्रा हर बालक
औ कहा - " न व्यापे पुत्र - विरह,
इससे मैंने यह छद्म किया ||
૪
૨૦
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परम ज्योति महावीर
जगवन्द्य आप हैं क्यों कि श्राप-- ने जग को यह जगदीश दिया । योगीश योगियों हेतु दिया ॥ विद्वानों को वागीश दिया ॥
अभिषेक हेतु यह छह्म हुवा, इसमें न श्राप सन्देह करें इन 'परम ज्योति' की पुण्य ज्योति से ज्योतिम य निज गेह करें।
यह कह इन्द्राणी मौन हुई, सुन रानी को आनन्द हुआ। श्रानो । अब देखें सुरपति काजो नाट्य वहाँ सानन्द हुवा ॥
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आठवाँ सर्ग
लगता था, धर्म स्वयं उनके मन वचन कम पर बसता है।
औ जन्म काल से ही जीवनसंगिनी बनी समरसता है ।।
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आठवाँ सर्ग
होगा सुरपति का नाटक यहचर्चा बिजली सी फैल गयी ।
क्षण भर में राजभवन से यह, हर मार्ग गयी हर गैल गयी ॥
जहाँ पर जैसे थे
जो व्यक्ति वे शीघ्र वहाँ से भाग चले । द्विज पोथी पत्रा छोड़ चले, क्षत्रिय सि, चरछी त्याग चले ॥
निज ग्राहक तज कर वैश्य भगे, श्रौ' शुद्ध चाकरी तज भागे । सब यही सोचते थे कैसेमैं पहुँचूँ सबसे ही आगे ||
वधुएँ उतावली में अपने, शिशु तक तो लेना भूल गयीं । कुछ भूषण उलटे पहिन गयीं, कुछ उलटे पहिन दुकूल गयीं ॥
कटिसूत्र मेखला का भी तो, कुछ समझ सकीं थीं भेद नहीं । काजल का तिलक लगा कर भी, कुछ को न हुवा था वेद कहीं ||
२२१
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२२२
परम ज्योति महावीर
थीं बनी दर्शिका, दर्शनीय-- पर बन उनके ही भेष गये। था बँधा घाँघरा चोटी से, नीबी से बाँधे केश गये ।
यो सजकर गयीं युवतियाँ थीं, सजित हो युवक समाज गया । कारण, था उसका जन्म विफल, जो नहीं वहाँ था आज गया ।
भर गया अखिल राजाङ्गण था, जनता अब नहीं समाती थी। पर दृष्टि जहाँ तक जाती थी, आती ही भीड़ दिखाती थी।
कुछ ही क्षण में अति शीघ्र वहाँ, लग गया विलक्षण मेला था । मानो नर गति के चित्रों का
संकलन हुवा अलबेला था । निश्चित क्षण में सुरपति का वह, नाटक श्रारम्भ समोद हुवा । जिससे शिक्षा भी मिली, साथही सात्विक मनोविनोद हुवा ॥ .
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आठवाँ सर्ग
हो चित्र लिखित से देख रहे -
थे सारे दर्शक मौन
वहाँ ।
यह नहीं किसी को चिन्ता थी,
हैं मेरे परिजन कौन कहाँ ?
प्यारी
प्यारे
प्यारे को भूली
का भूली प्यारी
बेटा
बेटा भूली
भूला महतारी
पलकें न एक भी बार गिरें, सब का था मात्र प्रयास यही । कारण ऐसा सौभाग्य पुनः मिलने का था विश्वास नहीं ||
थी,
थी ।
को,
महतारी थी ॥
सब सुरपति कृत अभिषेकोत्सव -- के दृश्य समक्ष निरखते थे । अवलोक जिन्हें यों लगता था, मानों प्रत्यक्ष निरखते थे |
बस, यही सोचकर सब ही ने, सुस्थिर अपना हर योग किया । मन वचन काय में से न किसी-का भी अन्यत्र प्रयोग किया ||
२२३
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परम ज्योति महावीर
देखा, कैसे उस सौरि सदनसे बाहर बे जिनराज गये । देखा, कैसे 'ऐरावत' पर, बैठा कर ले सुरराज गये ॥
अभिषेक-अनतर कैसे सब, शृंगार किया इन्द्राणी ने ? कैसे आये वे 'कुण्ड ग्राम !
यह सब देखा हर प्राणी ने ॥ सुरपति ने प्रभु के पूर्व जन्मदिखलाना फिर प्रारम्भ किया । वे किस किस गति में हो पाये ? बतलाना यह प्रारम्भ किया ।
दिखलाया, पिछले भव में ये, 'पुरुखा' भील कहलाये थे। मुनि के सम्मुख तज मांस जन्म'सौधर्म' स्वर्ग में पाये थे ।
पश्चात् 'भरत' के सुत हो ये, उस समय 'मरीचि' कहाये थे । कर सांख्य-प्रचार वहाँ, पञ्चमब्रह्माख्य स्वर्ग में आये थे।
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rai सर्ग
श्र पुनः वहाँ से 'कपिल' नामके ब्राह्मण को सन्तान हुये । वय पाने पर परिवाजक हो, सुरपुर में देव महान हुये ||
तदनन्तर
में पुत्र
रूप में
हो सांख्य यती वे 'सौधर्म' स्वर्ग में
पश्चात् यहाँ श्रा पुत्र रूपमें 'अग्निभूति' के गृह जनमें । हो साधु पुनः उत्पन्न हुये, वे स्वर्गलोक के आँगन में ॥
'भारद्वाज' भवन
ले जन्म 'साङ्कलायन' के गृह अति पावन उसका धाम किया । कर ग्रहण त्रिदण्डी दीक्षा फिर ब्रह्माख्य स्वर्ग श्रभिराम किया ||
आये थे ।
जन्म पुनः पाये थे ॥ -
फिर इनने 'गौतम' ब्राह्मण के -- गृह में आकर अतवार लिया । कर सांख्य प्रचार यहाँ भी तो, फिर सुरपुर का शृङ्गार किया ||
२२५
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२२६
पर सुरपुर से भी तो 'नगोद' में ले इनका दुर्भाग्य गया ।
एकेन्द्रिय काय
ले या फिर
वनस्पति में,
सौभाग्य नया ॥
पश्चात् 'राजगिरि' नगरी में, 'शाण्डलि' के विप्रकुमार हुये ! 'माहेन्द्र' नाम के सुरपुर में, जाकर फिर देवकुमार हुये ॥
कर आयु पूर्ण फिर 'विश्वभूति' राजा के राजकुमार हुये । तप के प्रभाव
से फिर दसवें -
सुरपुर के ये
श्रृङ्गार हुये ||
परम ज्योति महावीर
जनमे
'पोदनपुर' - राजा
के,
नारायण पद अभिराम मिला ।
पर विषयलीनता से
फिर से,
सातवें नरक का धाम मिला ||
गङ्गा तट के 'वनि सिंह' अचलमें इनको सिंह- शरीर मिला ।
हिंसा फल से फिर प्रथम नरक
की बैतरिणी का नीर
मिला ||
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पाठवाँ सर्ग
तदनन्तर 'हिमगिरि' पर इनको, वनराज-देह का लाभ हुवा । सम्यक्त्व यहाँ पा स्वर्ग गये, सुर 'सिंह केतु' अमिताभ हुवा ।।
फिर जनमे 'पंख' खगेश्वर के, 'कनकाजवल' नाम ललाम हुवा। तप तप कर देह तजी, इनसे.
शोभित 'लानत्व' सुरधाम हुवा ।। फिर 'अवधपुरी' में 'वज्रसेन'
औ' 'शीलवती' के लाल हुये ।। कर पुनः समाधि मरण, दसवेंसुरपुर में देव विशाल हुये ।।
फिर 'पुण्डरीकिणी' में इनको, चक्री का पद सविलास मिला। जिसको तज कर तप तपने से, द्वादशम स्वर्ग में वास मिला |
पश्चात् 'नन्दिवर्धन' नृप के, सुत हुये 'नन्द' शुभ नाम हुवा । तीर्थकरत्व बँध गया, पुनःयोभित 'अच्युत" सुरधाम हुवा ॥
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परम ज्योति महावीर
इस समय वहीं से श्राकर यह, त्रिशला-गृह किया पुनीत अहा । यो सबने देखा, कैसा इनप्रभुवर का अखिल अतीत रहा ।
अवलोक पूर्वभव उनके सब, मन में अानन्द अपार हुवा । समझा, कितने भवधारण कर,
यह तीर्थकर-अवतार हुवा ? तदनन्तर ही प्रारम्भ किया, सुरपति ने ताण्डव नृत्य स्वयं । अवलोक जिसे हर दर्शक ने, निज दृग माने कृतकृत्य स्वयं ।।
। अति भावपूर्ण मुद्राओं मय, - इस अोर नृत्य व्यापार चला।
उस ओर हरेक प्रशंसाकर, मन ही मन बारम्बार चला ।।
जो नर्तन करते दिखते थे, क्षण पूर्व एक सुरपाल वहाँ । वे वैसे ही होकर अनेक, दिखने लगते तत्काल वहाँ ।।
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साठवाँ सर्ग
कुछ किन्नरियाँ भी तो नर्तनकरती थी उनके पास वहीं । कुछ महिला मण्डल के सम्मुख, थीं नाच रहीं सोल्लास वहीं ।।
भू पर नर्तन करने वाली, उड़ दिखने लगती अम्बर में। फिर वही नाचने लगती थी,
अवनी पर आकर क्षण भर में || कुछ तडित् रूप में नर्तन कर, नयनों को अधिक लुभातों थीं। कुछ इन्द्र-अँगुलियों पर स्वनाभि-- रख नचतीं हुई दिखातीं थीं।
उनके इस कौशल से सबने, स्वर्गीय सुखों का भान किगा। नरगति में रहते हुये सुरोंके अति सुख का अनुमान किया ।
इस इन्द्र-प्रदर्शित नर्तन ने, हर मन पर पूर्ण प्रभाव किया ।। कुछ ने तो अधिक प्रभावित हो, सुर बनने तक का भाव किया ।।
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परम ज्योति महावीर पर राज दम्पती को सब से, बढ़ हर्ष हुवा अनुभूत अहो । कारण, इस सभी महोत्सव का, कारण था उनका पूत अहो ॥
'सिद्धार्थ'-मोद का आज नहीं, कोई भी तो परिमाण रहा । अवलोक जन्म कल्याणक को, माना उनने कल्याण महा ॥
अपना मातृत्व विशेष सफल, माना था 'त्रिशला' माता ने । निज माता उन्हें बनाया था, नव युग के नव निर्माता ने ॥
इससे सुख से उन दोनों का, मन फूला नहीं समाता था । सुर पूज्य नरोत्तम से उनका, अत्यन्त निकट का नाता था ।
नाती स्वरूप पा तीर्थकर, 'चेटक' को हुवा प्रमोद स्वयं । सोचा, 'त्रिशला' का पूत खिला, मैं पूत करूँगा गोद स्वयं ॥
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अाठवाँ सर्ग
वह ताण्डव नृत्य निरखने की, सबको थी और उमङ्ग अभी । सब चाह रहे थे, यह नर्तन - क्रम चले, न होवे भङ्ग अभी ।
पर उनकी चाह अपूर्ण रही, क्रमशः नर्तन-गति मन्द हुई ।
औ' गन्धर्वो के वाद्यों की, ध्वनियाँ भी क्रमशः बन्द हुई ॥
प्रायः समाप्त सा ही था अब, देवों का नियत नियोग सभी । पर चित्र लिखित से खड़े हुयेथे अभी वहाँ पर लोग सभी ।
हाँ, अभी इन्द्र को तीर्थकरका पुण्य नाम भी रखना था । जो भी तो हर नर-नारी को, श्रद्धा से अभी निरखना था ।
ताकाल 'वीर' इस संशा से, शोभित वे जिन राज हुये। यो निज नियोग कर पूर्ण सभी, गमनोद्यत वे सुरराज हुये।
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परम ज्योति महावीर
गन्धर्व-अप्सरा-नर्तक सँग, वे सुरपुर के सम्राट चले । अब यहाँ नरों के द्वारा कृत, जन्मोत्सव विविध-विराट चले ॥
जिनको विलोक कर लोचन निज, सफलित मानेहर प्राणी ने । पर जिनके सारे वर्णन में, ली मान हार कवि वाणी ने ॥
ऐसे अनेक प्रायोजन थे, चलते रहते दिन रात वहाँ । सम्बन्धी आते रहते थे, ले ले सुन्दर सौगात वहाँ ।
पाते ही प्रथम बधाई सब, देते थे राजा रानी को फिर अपलक देखा करते थे, उन भावी केवल ज्ञानी को।
कारण, न विलोका था कोई, बालक इतना अभिराम कहीं। लगता था त्रिभुवन की सुषमाने बना लिया हो धाम यहीं ॥ .
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अाठवाँ सर्ग
२३३
नख से लेकर शिख तक के सब, अङ्गों का रूप निराला था । पर निर्विकार मुख मण्डल तो, अत्यन्त मोहने वाला था ॥
जिसने भी दर्शन किया, उसीने अपनी दृष्टि सराही थी। उन 'परम ज्योति' से निज गोदी ज्योतिर्मय करनी चाही थी।
'सिद्धार्थ' सदृश ही था उनके, नयनों भौंहों का रूप अहो । पर अधर, भाल, हनु लगते थे, 'त्रिशला' के ही अनुरूप अहो ।
उनके तन की कोमलता कीउपमा के योग्य सरोजन थेउन जैसी सुन्दर अन्य वस्तुकी कवि कर सकते खोज न थे।
हर समय विहँसते रहते थे, वे नहीं कभी भी रोते थे। चिन्तित चन उनका दर्शन कर, अपनी चिन्ताएँ खोते थे।
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२३४
परम ज्योति महावी
शुभ नियत समय पर जात कर्मसम्पन्न सविधि सोल्लास हुवा । फिर चन्द्र, सूर्य के दर्शन का, भी शुभ उत्सव सविलास हुवा ।।
दस दिन तक यों ही महोत्सवोंके ये अभिराम प्रवाह चले। अवलोक जिन्हें आबाल-वृद्ध, अपना सौभाग्य सराह चले ।
वह 'कुण्ड ग्राम' ही नहीं, अपितुथी सजी पुरी 'वैशाली' भी । वह थी निसर्ग से सजी किन्तु, अब हुई विशेष निराली ही ।।
बारहवें दिन 'सिद्धार्थ' नृपतिने मबका किया निमन्त्रण था । प्रिय सुहृद्-स्वजन-सामन्तों से, भर गया सकल राजाङ्गण था ।।
नृप ने भोजन ताम्बूल वसनसे सबका अति सत्कार किया । तदनन्तर सबके सम्मुख यों, घोषित निज उद्गार किया ।।
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२३५
आठवाँ सर्ग
"यह पुत्र गर्भ में आते ही, मम कुल में वैभव कोष बढ़ा । धन धान्य स्वर्ण की वृद्धि हुई, औ' गोधन का भी धोष बढ़ा ।।
इससे ही इसको 'वर्धमान' कहना उपयुक्त दिखाता है। कारण, गुण के ही सदृश नाम,
भी रखना मुझको भाता है ॥ यदि मेरा सोचा हुवा नाम, यह श्राप सभी को उचित लगे। सबको ही इसका उच्चारण
करना प्रिय एवं ललित लगे ॥
यौ' अर्थ व्याकरण द्वारा भी यह सबको सार्थक जान पड़े। निर्दोष कहें यदि इसको सब, इस परिषद् के विद्वान् बड़े ॥
तो नामकरण हो इसका यह, जो मैंने अभी सुझाया है । अब सब दें अपनी सम्मति यदि यह नाम सभी को भाया है।"
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२३६
इतना कह नृप चुप हुये, सभी
ने कहा - " नाम यह सुन्दरतम ।
हो 'वर्धमान' ही नाम करण, करते समोद अनुमोदन हम ||
सब की सहमति पा नामकरणहो गया, सभी सन्तुष्ट हुये । वे 'वर्धमान' संवर्धित हो. क्रमशः अतिशय परिपुष्ट हुये ।।
वय संग हुई थी वर्धमान, उनके तन की सुन्दरता ग्रव । थे मति, श्रुति, अवधि जनमते ही, पर इनमें हुई प्रखरता अत्र |
परम ज्योति महाव
सित चन्द्रकला सा उनका नित-बढ़ना सबको सुखदाता उन 'वर्धमान' के वर्धन
नृप-वैभव बढ़ता जाता
उनकी परिचर्या हेतु नियत-थी पाँच धात्रियाँ, दास कई ।
मित्र,
खेला करते थे
हर समय उन्हीं के
पास कई ||
बाल
था ।
से,
था ||
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आठवाँ सर्ग
वे सदा प्रफुल्लित रहते थे, मुख होता कभी उदास न था। सुर पुर से आने के कारण, रोने का भी अभ्यास न था ।।
इससे ही उन्हें खिलाने में, थकती न एक भी दासी थी। खो देती उनकी सुस्मिति में,
हर दासी निजी उदासी थी ।। क्रमशः निज कोमल घुटनों के~ बल चलने वे जगदीश लगे । प्रिय मधुर वाक् में कहने निज भावों को वे वागीश लगे ॥
जिस दिन 'त्रिशला' ने प्रथम बार उनको भूपर चलते देखा । उस दिन की उनकी पुलकन का
कवि श्राज लगाये क्या लेखा ? उनका संस्पर्शन तक तत्क्षण, श्रामोद विलक्षण देता था । इससे समोद ही गोद उन्हें, हर सजन परिजन लेता था ।
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२३८
वे
वे जो क्रीड़ाएँ
होतीं निर्मल निर्दोष
सभी ।
मानो शैशव में ही उनकोथा मिला ज्ञान का कोष सभी ॥
करते,
वैभव की गोदी में पलनेपर भी तो उनमें दम्भ न था । प्रिय अधिक परिग्रह था न उन्हें, रुचता भी अति आरम्भ न था ।।
की धरणी
वे सदा सामने को देख चरण निज धरते थे ।
श्र' नहीं किसी भी बाल मित्रके सङ्ग कलह वे करते थे ॥
परम ज्योति महावीर
उनके मुख से कटु शब्द कभी, सुन पायी कोई धाय नहीं । श्रौ' उन्हें किसी के सङ्ग कभी, करते देखा अन्याय
नहीं ॥
वे किसी वस्तु के पाने कोभी नहीं कदापि श्रधीर दिखे । निज शैशव में भी वृद्धों सम, अतिधीर वीर गम्भीर दिखे ॥
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श्राठवाँ सर्ग
२३६
था गया जन्म में नाम धरा, फिर धरा किसी ने नाम नहीं । पाया न किसी भी बालक में, उन सम स्वभाव अभिराम कहीं ॥
उठते थे उनके अन्तस में, शुभ उच्च विचार पुनीत सदा । अतएव हीनता का अनुभव,
उनमें होता न प्रतीत कदा ॥ जो बने किसी को दुख कारक, रुचता वह मनो विनोद न था । जो बने किसी का सुखहारक, भाता ऐसा श्रामोद न था ।
वे नहीं तोड़ते कलियाँ तक, निष्फल न बहाते पानी तक । करते न कभी विकथाएँ तक,
कहते न असत्य कहानी तक ॥ उन पुण्यवान् को छू न सकाथा साधारण भी पाप कदा। उनको चेष्टाएँ सब शुभ, होती थीं अपने आप सदा ॥
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२४०
परम ज्योति महावोर
हिंसात्मक वृत्ति न सपने मेंभी आती उनके पास कभी । वे चरणों से न कुचलते थे, उद्यानों की भी घास कभी ।
निपुणों के बिना सिखाये ही, उनमें पाया नैपुण्य अहो । गुणियों से शिक्षा लिये बिना वे हुये स्वयं ही गुण्य अहो ।
उनकी वय के ही सङ्ग स्वय, सम्यक्त व ज्ञान भी बढ़ता था । उनके तन के हो सङ्ग स्वयं, संयम ऊपर को चढ़ता था ॥
लगता था, धर्म स्वय उनके, मन वचन कर्म पर बसता है ।
औ' जन्म काल से ही जीवन
सङ्गिनी बनी समरसता है ॥ जन देख सुरुचि उनको अँगुलीनिज दाँतों तले दबाते थे। एवं दयालुता देख सभी, आश्चर्य चकित रह जाते थे।
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ठवाँ सर्ग
श्रतएव अल्प वय में भी वे,
प्रख्यात, प्रवीण, प्रबुद्ध हुये । जिसने भी उनका दर्श किया, उसके परिणाम विशुद्ध हुये ||
उनके समक्ष श्रा जाते ही, विभ्रम संशय सब भगता था । सुस्पष्ट विषय हो जाता था, सत्यार्थ ज्ञान भी जगता था ॥
मित्र जनों
निर्भय ।
वे एक बार निज के सङ्ग खेलते थे इतने में श्राये दो चारण, मुनिनायक 'संजय' और 'विजय' ॥
इनको जीवों के
पुनर्जन्म
में था विभ्रम का मान
हुवा |
उनका यह संशय हरने में, असफल था हर विद्वान हुवा ॥
पर 'वर्धमान' के दर्शन का, उन पर अति प्रबल प्रभाव हुवा | मति का भ्रम मिटा, मिली सन्मति, सुस्पष्ट स्वयं सब भाव हुवा ||
२४१
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२४२
परम ज्योति महावीर यह दे उन्होंने 'वर्धमान'-- का नाम सभक्ति रखा 'सन्मति । निःसंशय हो फिर चले गये, गन्तव्य दिशा को दोनों यति ॥
इस घटना से अति मुदित हुये, 'सिद्धार्थ' पिता, त्रिशला' माता । प्रायः यों सुत का पुण्य निरख.
दोनों का अन्तस हर्षाता ॥ यो क्रमशः बढ़ कर आठ वर्षके अब वे 'वीर कुमार हुये । लो, देखो, देव-परीक्षा-नद, किस कौशल से वे पार हुये ॥
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नवाँ सर्ग
विद्यालय में बिना प्रविष्ट हुये, विद्या वारिधि वे 'वीर' हुये । गुरु बिना 'जगद्गुरु बने तथा, जिन धर्म-धुरंधर-धीर हुये ॥
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नवाँ सर्ग
निज देव-सभा में
सुख से देवेन्द्र
प्रीं नाचती
एक दिवस,
विराजे थे ।
थीं सम्मुख,
बजे रहे मधुरतम बाजे थे |
को,
थीं ।
' अन्य देवियों देवों संग,
सुन रहीं गीत
की वाणीं थीं ॥
संगीत सुधा
बैठी भी इन्द्राणी
रस पीने
कुछ समय अनन्तर ही गीतोंकी गति पर पूर्ण विराम लगा । औौ' पारस्परिक सुचर्चा से, मुखरित होने वह धाम
लगा ॥
सुरपति ने बालक 'सन्मति' की सन्मति श्र' शक्ति सराहीं थी । सुन जिसे परीक्षा 'सङ्गम' सुरने उनकी लेनी चाही थी ||
अतएव पहुँच कर 'कुण्ड ग्राम' एवं निज सर्प शरीर बना । वह आया वहाँ जहाँ क्रीड़ाकरते थे वे गम्भीर मना ||
२४
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देव-परीक्षा
FORUM
अतएव उतर करवे उसके, फण पर निर्भय आसीन हुये। जननी की शय्या सम उस पर, क्रीड़ा करने में लीन हुये ॥
(पृष्ठ २४८)
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नयाँ सर्ग
मम भार स्वतन पर होने से,
इसका मन अतिशय क्षुब्ध हुवा । लगता है ऐसा जैसे वह हो मम साहस पर लुब्ध हुवा ||
अतएव लौट अव श्राश्रो सब देगा न तुम्हें यह त्रास यहाँ । यह सुन कर सहचर लौट तुरत, श्री गये वीर के पास वहाँ ॥
वीर नहीं,
ये 'वीर' नाम के यह 'संगम' सुर को ज्ञात हुवा | उनका गुरु भार सहन करनेमें अक्षम उसका
गात हुवा ||
यह नहीं सहन कर यह देख 'वीर' वे औ' बोले-'भागो शीघ्र उधर,
पाता अब, उतर पड़े ।
मन भी तुम्हारा जिधर पड़े || "
- रूप
यह सुनते ही निज देव -- में परिवर्तित वह उरग हुवा | कुछ समय पूर्व का काल नाग, सुर रूप सुदर्शन सुभग हुवा ||
१६
-
૨૪૨
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परम ज्योति महावीर
श्री' बोला--वीर शिरोमणि ! तव चरणों में शीश झुकाता हूँ। मैं यहाँ परीक्षक बन पाया, औ' बना प्रशंसक जाता हूँ।
सुन तव सराहना सुरपति से, सुर पुर से था तत्काल चला । तव शक्ति--परीक्षा लेने को, ही था मैं ऐसी चाल चला ।।
पर तव बल सिद्ध सुरेश्वर केकहने के ही अनुकूल हुवा ।
और शक्ति परीक्षा लेने का मेरा सारा मद धूल हुवा ॥
तुम 'वीर' नहीं हो 'महावीर' मैं यह ही नाम रखाता हूँ। जो भूल हुई वह क्षमा करें, अब निज निवास को जाता हूँ ।"
यो उसने 'सन्मति' की संस्तुति-- में प्रकट किये उग्दार स्वयं । हो अन्तर्धान पुनः सुरपुर-- को किया तुरन्त विहार स्वयं ।।
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नवौं सर्ग
२५१
इस घटना द्वारा हुवा सभीको उनके बल का निश्चय था । सब समझ गये उन 'महावीर' - का हृदय पूर्णतः निर्भय था ।
था समय अधिक हो चुका श्रतःसब नगरी को स्वच्छन्द चले । थी 'वीर' कृपा से विपद् टली, अतएव सभी निन्द चले ।
मित्रों ने कर दी प्रकट नृपति-- से वह सब घटना जाते ही। नृप ने भी सुत--पुरुषार्थ सुना, छाती से उन्हें लगाते ही ॥
यह बात नगर में फैल गयी, जनता उनका बल जान गयी। वह 'वीर' समझती थी अब तक, पर 'महावीर' अब मान गयी ॥
वे इसी नाम से ख्यात हुये, घटना का यह परिणाम हुवा । जनता को उनके सब नामोंसे बढ़ कर प्रिय यह नाम हुवा ।।
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२५२
परम ज्योति महावीर
यों उनको इन्द्र"जनक मुनि"सुर'से नाम अभी थे चार मिले । संभव है पञ्चम नाम उन्हें, अब सत्वर इसी प्रकार मिले ।
वे महापुरुष थे जन्मजात, शैशव से करुणा धारी थे। थी अभी कुमारवस्था हो, पर अद्वितीय उपकारी थे।
मुन पड़ा एक दिन उन्हें-“एकमतवाला गज स्वाधीन हुवा । हो पूर्ण निरंकुश जनता को, पीड़ा देने में लीन हुवा ।।
उसके उत्पातों से नगरी--- के सारे व्यक्ति अधीर हुये । हे नहीं किसी में साहस जो,
उसका विकराल शरीर छुये ॥ चरणों से कुचल अनेक पुरुष, उसने अतिशय अन्धेर किया । कर जीवन से खिलवाड़, पथों-- पर लगा शवों का ढेर दिया ।।"
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नवाँ सर्ग
सुनते ही वे भय हरने को
मतवाले हस्ती
वश करने
नागरिकों का -
सन्नद्ध
हुये ।
को अपने,
को कटिवद्ध हुये ||
सत्र बोले- “गज मतवाला है, अतएव न जाएँ नाथ ! वहाँ । निश्चिन्त विराजे राजभवनमें हम सुभटों के साथ यहाँ ।
पर 'महावीर' अति निर्भय थे, उनमें भय का तो नाम न था । पर कष्ट देखते हुये उन्हें, भाता सुख से विश्राम न था ।।
गज
इससे न किसी की बात सुनी, निर्भय उस गज के पास गये । निज संग न अन्य लिये सैनिक, एकाकी ही सोल्लास गये ||
उन्हें
देखते ही सहसा,
अत्यन्त
उम्र हो कुपित हुवा ।
आ रहे उसी के पास स्वयं,
यह देख द्विरद कछ चकित हुवा ||
२५३
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२५४
था ज्ञान न उसको 'महावीर'की महावीरता का, बल का ।
सोचा, 'मेरा क्या कर सकता, यह राजकुमार ग्रभो कल का ?"
इनमें देवों से अधिक शक्ति, इनका न उसे था बोध अभी ।
वह समझा था साधारण नर, इससे विशेष था क्रोध अभी ॥
यह सोच वेग
अतएव हुवा अब
पहले
से -
बबूला
था।
भी बढ़कर श्राग 'मैं अभी पछाड़े देता हूँ',
यह
सोच हृदय में फूला था ॥
पर 'महावीर' उस क्षण पुरुषार्थ वे अनुकरणीय
से झपटा वह,
निर्भीक रहे ।
पराक्रम के
परम ज्योति महावीर
सोचा, 'यम के ही सम्मुख लेआया इसका दुर्भाग्य इसे | अब मृत्यु-गोद में सोने का, मिल जायेगा सौभाग्य इसे ॥
,
प्रतीक रहे ||
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नवौं सर्ग
२५५.
हस्ती ने अपनी शुण्ड उठा,
आक्रमण किया उन ‘सन्मति' पर । उस समय उन्हें श्रा गयी हँसी, उस पशु की पशुता दुर्मति पर ।।
वह शुण्ड पकड़कर ही उस पर, चढ़ने वे 'वीर' कुमार लगे। यह देख दूर से ही दर्शक,
करने उनकी जयकार लगे ॥ वे बैठ गये गज-मस्तक पर, जनता ने फेंकी मालाएँ । वातायन से उन पर पुष्प वृष्टि, कर चलीं नगर की बालाएँ ।
यों शत्रु बना जो हस्ती था, वह ही अब उनका मित्र बना । जो हिंस्र वृत्ति अपनाये था, वह करुणा सिक्त पवित्र बना ।।
यह घटना सुनकर 'त्रिशला' नेमी अनुभव अति प्रामोद किया। ज्यों अन्तःपुर में आये वे, त्यों उन्हें उठा निज गोद लिया ।
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परम ज्योति महावीर
उस दिन से ही 'अतिवीर' नामभी उनके लिये प्रयुक्त हुवा । जो उनके अति वीरत्व हेतु, अतिशय ही तो उपयुक्त हुवा ।।
यों प्रायः नित्य असाधारण, गुण प्रकटित होते रहते थे । जो उनके भावी जीवन की, पावन गरिमा को कहते थे ।
या अद्वितीय ही शान उन्हें, श्रागम का और पुराणों का। अविरोध विवेचन करते थे, हर नय का, सकल प्रमाणों का ।
अवलोक योग्यता उनकी यह, विद्वान् सभी , चकराते थे । बन जाते उनके चेला जो, उनके गुरु बनने पाते थे।
तत्वों की व्याख्या करने कीथी उनकी रीति निराली ही। इससे न मात्र वह 'कुण्डग्राम', पर गर्वित थी 'वैशाली' भी ।।
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२५७.
नवाँ सर्ग
पटुतर्क शास्त्रियों ने उनके, तर्कों को स्वयं सराहा था। दार्शनिकों ने उनसे दर्शनशास्त्रों को पढ़ना चाहा था ।
लगता था, मानों सरस्वतीको ही उनसे थी प्रीति हुई। हैं मेरे प्राणाधार यही, थी ऐसी उसे प्रतीति हुई ।।
था हेतु कदाचित यही कि जो, स्वयमेव उन्हें गुण लाभ हुये । संगीत, काव्य औ' चित्रकलासब में पटु वे अमिताभ हुवे ।।
इतिहास गणित के ज्ञाता भी, वे 'त्रिशला' माँ के लाल हुये । उन 'स्वयं बुद्ध' की बुद्धि देख
आनन्दित अति भुपाल हुये ।। निर्दोष वाक्य वे कहते थे, लिपि भी अति सुन्दर लिखते थे ।
औ' वाद्य बजाने में भी तो वे अद्वितीय ही दिखते थे।
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२६६
देवी देवों तक के
में भी फैला अन्धेर
नाले
पुजते हैं नद रवि, शशि, पत्थर
स्वरूप-
यहाँ ।
पर्वत,
के ढेर यहाँ ।।
सर्वत्र मान है नर
पाती न समादर
औ' मात्र भोग
समझी जाती
यो वीर सोचते रहते थे, जाकर निर्जन में नित्य कहीं । देखो, अस्ताचल मध्य अधिक, अब टहरेगा श्रादित्य नहीं ||
-×
परम ज्योतिः सहाचीर
का ही,
नारी है ।
सामग्री ही,
है ।
बेचारी
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दसवाँ सर्ग
थे युवक हुये पर ज्ञात अभी, उनको यौवन का मर्म न था । उनसे विवाह की चर्चा भीकरना साधारण कर्म न था ।
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दसवाँ सर्ग
जग दशा सोच यों 'सन्मति' में, सन्मति जग रही । अनूठी थी।
औ' उधर पुत्र के ; परिणय को, माता की ममता रूठी थो ॥
निज भावी पुत्र-वधू चुननेमें ही आता आनन्द उन्हें । सपने में दिखने लगते थे
मन के ये अन्तर्द्वन्द उन्हें ॥ निज सम्मुख राजमुताओं को देखा करतीं मुद्रित पलकें । कुछ की होती पतली कटि श्रो, कुछ की होती लग्बी अलकें ।
पर 'महाबीर' से गुप्त अभी, वे रखतीं ये व्यापार सभी । कारण, उनको ही करना था, इस पर कुछ और विचार अभी ।
निज सुता 'वीर' को देना, थेकह चुके अभी नर पाल कई ।
औ'नित्य सामने आती थी, चित्रावलि प्रातःकाल नयो ।
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१७
परम ज्योति महावीर
सुन्दर चित्रों का ढेर लगारहता था उनके पास सदा । जिनके गुण दोषों पर चिन्तन वे करतीं थीं सोल्लास सदा॥
अतएव किसी को अस्वीकृतकरना थी लवुतम बात उन्हें । कारण, तन रचना-सुषमा का वैशिष्ट्य सभी था ज्ञात उन्हें ।
राजाओं के सन्देशे मो, मिलते थे बारम्बार उन्हें । पर स्वयं टालती रहती थीं, कौशल से किसी प्रकार उन्हें ।।
केवल न भूप ही उत्सुक थे, मोहित थीं उनकी बालाएँ। वे भावुकता में गूथ लिया--
करतीं थीं नित वर मालाएं ।। अभिलाष उन्हीं की कर करतींथी 'मोहनीय' का बन्ध कई । करना न चाहती थीं उनके अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध कई ।।
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दसवाँ सर्म
पर वे न जानती थी, हमसे - है रुष्ट हमारा भाग्य हुवा । केवल न हमीं से, हर नारीसे 'सन्मति' को वैराग्य हुवा ॥
वे मुक्ति मोहनी पर मोहित, इसका न उन्हें था भान हुवा । अनभिज्ञ 'वीर' के मन से. रह उनका मन था अनजान हुवा ।
कुछ 'महावीर' की सुषमा सुन--- ही उन पर अधिक लुभायीं थीं। पर उनकी दशा बिलक्षण थी, जो उन्हें निरख भर पायीं थीं ॥
पर 'वीर' कभी सुन्दरियों की, सुन्दरता पर न लुभाये थे। उनने नारी के चित्रों की-- भी ओर न नेत्र उठाये थे ।
नारी में आकर्षण होता; इसका न उन्हें आभास हुवा । इस अनासक्ति को देख स्वयं, श्राश्चर्य नमग्न विलास हुवा ।
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२७२
क्या रूप वासना
का होता !
इसकी न उन्हें अनुभूति हुई । उनमें श्रासक्ति जगाने में, असफल साम्राज्य विभूति हुई ||
भोग
उन्हें,
घेरे रहते सुख पर बन न सके वे भोगी थे।
योगों के साधन के अभाव -
थे, पर वे मन से योगी थे ॥
चौबीस वर्ष की आयु हुई, पर मुख शिशु जैसा भोला था । जाता न जननि के सिवा किसी नारी से उनसे
बीला था ॥
परम ज्योति महावीर
अभी
था ।
थे युवक हुये, पर ज्ञात उनको यौवन का मर्म न उनसे विवाह की चार्च भीकरना साधाण कर्म न था ॥
वे दृढ़ थे अपने
निश्चय पर
करते थे कभी
प्रमाद
नहीं |
रहे
जहाँ ।
चाहे जो होता उनको था हर्ष विषाद नहीं ||
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२७
दसवाँ सर्ग
यह वीतरागता 'त्रिशला' को जैसे ही सहसा भान हुई । वैसे ही उनकी आशा की, अधखिलीकली कुछ म्लान हुई ।
पर कहा मोह, ने माता का-- कहना अवश्य वह मानेगा। जननी की इच्छा के विरुद्ध, कोई भी कार्य न ठानेगा ॥
इस नव विचार के आते ही, मन फूला फिर न समाया था । तत्काल उन्होने महावीर,को पास बुला बैटाया था ।
पश्चात् कहा--"रह गयी शेष अब थोड़ी श्रायु हमारी है । अतएव चाहती कहना वह जो मैंने बात विचारी है।
यों तो चाहे कहती न इसे, पर मान रहा है मोह नहीं । यह मेरा कोमल अन्तस् भीतो मातृ-हृदय है लोह नहीं ॥
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परम ज्योति महावीर
मुझको है शात, इसी भव में - पाना है निश्चित मोक्ष तुम्हें । हो तीन ज्ञान के धारक तुम, इससे कुछ भी न परोक्ष तुम्हें ।
बस, यही विचार दबाये थी, मन में ही स्वीय उमङ्ग अभी ।
औ' अब तक नहीं उठाया था, मैने यह दिव्य प्रसङ्ग कभी ।।
इसको कहने का लोभ किन्तु, मन आज सका है त्याग नहीं । अतएव मौन रह पाता है, मेरे मन का अनुराग नहीं ।।
श्री' तोड़ श्राज अब बन्धन सब, मुखरित मेरा यह प्यार हुवा । जो नहीं चाहिये कहना, वहकहने को व्यग्र दुलार हुवा ॥
विश्वास मुझे है तुमको भी यह अपनी माता प्यारी है। हो भले ज्ञान में हीन किन्तु जननी तो यही तुम्हारी है।
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दाँ
समे बस, यही सोच तव सम्मुख मैं, अपनी अभिलाषा रखती हूँ।
औ' श्राज इसी के द्वारा अब, तव जननी-भक्ति परखती हूँ।
तो सुनो ध्यान से, बेटा ! अब, निज मां के मुख्य मनोरथ को। स्वीकार करो तुम 'आदि नाथ'के द्वारा प्रचलित ही पथ को ।
परिणयन 'सुनन्दा' 'सुमंगला'से कर उनसे अनुराग किया । दे दो कन्या सौ पुत्र उन्हें, दोनों का सफल सुहाग किया ।
यों प्रथम बने वे रमा-रमण, तदनन्तर उनने राज्य किया । फिर रमा तथा साभ्राज्य उभय, परित्याग पूर्ण वैराग्य लिया ।
यह मार्ग उन्हीं का अपना अब, तुम सुख दो मेरे प्राणों को । यदि कहो उपस्थित अभी करूँ, मैं ऐसे अन्य प्रमाणों को।
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परम ज्योति महावीर निज कन्या देना चाह रहे,
मको अगणित राजा रानी । अगणित कन्याएँ चाह रही, मैं बनूँ तुम्हारी पटरानी ॥
एवं सुख भोग गृहस्थी के, मुनि बनना रीति पुरानी भी। इससे न चाहिए तुमको अब, करना कुछ आनाकानी भी ॥
मैं चिर से प्राश लगाये हूँ, अतएव मुझे न निराश करो। परिणय की स्वीकृति दे बेटा ! पूरी मेरी अभिलाष करो ॥
यह बात मान लो तो मैं भी, तव जननी भक्ति सराहूँगी । जो तुम्हें रुचेगी उससे ही, मैं तुमको शीघ्र विवाहूँगी ॥
यों मैं निश्चित कर चुकी एक, कन्या अनुरूप तुम्हारे ही । गुण औ' स्वभाव सुन्दरता में, अभिराम अनूप तुम्हारे सी ॥
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दसवाँ सर्ग
विश्वास मुझे, हो जायेगातुमको भी उससे प्रेम स्वयं । औ' प्रकृति मिलेगी दोनों की, होगा दोनों का क्षेम स्वयं ॥
वह नत्र से शिख तक सुन्दर है, काया का रङ्ग मनोहर है । श्राकार करू क्या वर्णित मैं, उसका हर अङ्ग मनोहर है ॥
उसमें नारी के लावण्य, शील औौ'
रुचि भी अत्यन्त
मोहक रहती तन
सुगुण सभी, लज्जा भी ।
परिष्कृत है,
सज्जा भी ॥
उस जैसी छवि की अन्य सुता, मिल सकती कहीं न लाखों में । जिस दिन से देखा, उस दिन वे, वह झूल रही मम श्रांखों में ||
ही आकर्षक,
होते अतीव उसके सब क्रिया कलाप स्वयं । यदि तुम उसको लो देख, पड़े, तो तुम पर उसकी छाप स्वयं ।
- २७७
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२७८
तन जैसा मन भी निर्मल है, करती है वार्तालाप मधुर । मुख से मोती सी झरती है शब्दावलि अपने आप मधुर ॥
मैंने उसके ही संग अभी, परिणय की बात चलायी है । औ' उसकी माता तथा पिता-की भी तो स्वीकृति श्रायी है ।।
'जितशत्रु' कलिंग महीपति हैं उनकी है राजदुलारी यह । 'औ' नाम 'यशोदा' द्वारा ही, विश्रुत है राजकुमारी यह ||
परम ज्योति महावीर
श्रतएव इसी के सँग परिणय, स्वीकृत ऐ मेरे लाल ! करो । वर रूप बनाकर चलो तथा स्वीकृत उसकी वरमाल करो ॥
सर्वोत्तम है,
सम्बन्ध यही स्वीकार इसे सोल्लास करो । सन्देह करो मत इसमें कुछ, मम बातों पर विश्वास करो ||
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दसवाँ सर्ग
२८५
उद्देश्य पूर्ण वह करना है, जो लेकर जग में आया हूँ। जो धर्म प्रचारण करने को, यह तीर्थकर पद पाया हूँ ।
कुण्ठित सी दया अहिंसा को, है केवल मुझसे आशा यह । मैं उनकी पीड़ा दूर करू, हर पीड़ित की अभिलाषा यह ॥
हो रहा पतन नैतिकता का, इसको भी मुझे उठाना है । निज प्रेम न केवल एक प्रिया, हर प्राणी हेतु लुटाना है ।
देखो कि 'नेमि' ने पशुओं काकन्दन सुन त्यागे थे कङ्गण । इस भाँति मौर को फेंका था, मानो हो विषधर का ही फण ॥
'श्री कृष्ण' न उनको रोक सके, समझा यदुवंशी थके कई । पर लिया 'द्वारिका'-राज्य नहीं, श्रो' वरी न 'राजुल' रूप मयी ॥
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२८६
परम ज्योति महावीर
___ थी सुनी सारथी के मुख से,
उनने पशुओं की करुण कथा । देखी न लोचनों द्वारा थी, वह उनकी अन्तिम मरण व्यथा ।।
पर इतने से ही विरत हुये, माना न किसी का भी कहना ।
औ' क्षण भर के भी लिये नहीं,
स्वीकार किया गृह में रहना ।। पर आज निरन्तर पशुओं का चीत्कार सुनायी देता है। उनके रोदन सँग मन्त्रों का उच्चार सुनायी देता है ।।
यह देख मुझे भी लगता है यह राज भवन अब कारा सा । मेरा ही पौरुष अब मुझको, प्रायः करता धिक्कारा सा ॥
मैं नहीं चाहता सदा रहूँ, इस पिंजड़े का ही कीर बना । उन्मुक्त विचरने को रहताहैं मेरा हृदय अधीर बना ।।
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२९७
दसवाँ सर्ग
इससे परिणयन कराना अब, मेरे पथ के अनुकूल नहीं । मैं अतः किसी भी कन्या केदृग में डालूँगा धूल नहीं ॥
निज पथ में मान रहा, नागिनके सम नारी के केशों को । इससे हे माँ ! मैं पूर्ण नहीं,
कर पाता तव आदेशों को ॥ मेरा जो कुछ भी निश्चय था, वह मैंने निस्सङ्कोच कहा । करना अब पुनर्विचार नहीं, सब कुछ सम्यक ही सोच कहा ॥
लो मान, किसी भी कान्ता काबनना है मुझको कन्त नहीं । करना निवास इस राजभवनमें भी जीवन पर्यन्त नहीं ॥
इससे अब हार मँगाएँ मत, गहने भी आप गढ़ायें मत । औ' मुझे विवाह कराने का, भी पाठ कदापि पढ़ायें मत ॥
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२८
परम ज्योति महावीर
वर की भूषा में मुझे नहीं, देखेगा कुण्डन नगर कभी ।
औ' नहीं कहेंगे 'प्रिये' किसीको भी मेरे ये अधर कभी ॥
कह नहीं रहा भावुकता वश, पालूगा ये उद्गार सदा । कर रहा आपके सम्मुख प्रण,
रहने के हेतु कुमार सदा ।। दें श्राप अशीष हिमाचल सा, मैं अपने प्रण पर अचल हूँ। निज पथ से रवि शशि टलें भले, पर मैं निज पथ पर अटल रहूँ॥
कुछ कष्ट आपको यदि मेरे, निश्चय ने पहुँचाया हो।
औ' ध्यान विनय का रहते भी, यदि कुछ अप्रिय कह पाया हो ।
तो क्षमा करें औ' पुत्र वधूपाने को अब ललचाये मत, अवलोक कुमार मुझे अपना, सुकुमार शरीर सुखाएं मत ।।
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२८९
दसवाँ सर्ग
हे माँ! न अाज तक कभी श्रापने मेरी कोई हठ टाली। विश्वास अतः, गत अन्य हठोंसी यह हठ जायेगी पाली ॥
यों 'महावीर' ने 'त्रिशला' से, सूचित निज सकल विचार किये । जो कई दिनों से सोच रहेथे प्रकट वही उद्गार किये ॥
माता की ममता विफल हुई, सुन सुत के नये विचारों को। माना उस समय वृथा उनने, अपने सारे अधिकारों को ॥
छिन गया हृदय से क्षण भर में, सासू बनने का चाव सभी । लुट गये पुत्र हित नवल वधूले पाने के भी भाव सभी॥
औ' व्यर्थ राजकन्याओं केवे सुन्दर सुन्दर चित्र लगे। निष्फल विवाह हित सञ्चित वे, श्राभरण, वसन औ' इत्र लगे ॥
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३०४
'सिद्धार्थ' कथन को सावधान
हो सुनते रहे
विरागी वे ।
पर द्रवित न
राज्य - प्रलोभन से
हो सके श्रहो !
बड़भागी वे ॥
-
अपना
वक्तव्य समाप्त सभी
कर ज्यों ही चुप नरराज हुये ॥ त्यों उनसे निज निश्चय कहनेको उद्यत वे युवराज हुये ॥
बोले कि "आपको मम वचनों-से होगी यदपि निराशा ही ! पर मुझे उचित ही लगता है, कह देना निज अभिलाषा भी ॥
परम ज्योति महावीर
हे तात ! राज्य के भगों से, है मुझे अल्प भी प्रीति नहीं । औ' क्षणिक चञ्चला लक्ष्मी पर मुझको मात्र प्रतीति नहीं ||
में
अतएव राज्य - संघर्षो करना न शक्ति अवरुद्ध मुझे । कारण, पाना है मोक्ष राज्य, कर निज कर्मों से युद्ध मुझे।
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बारहवाँ सर्ग
इस राज्य रमा से नहीं किन्तु है मुक्ति रमा से प्रेम मुझे ।
औ' प्राप्त उसे ही करने में, दिखता है अपना क्षेम मुझे ॥
ये राज्य-भोग सब लगते हैं, मुझको प्राणान्तक रोगों से । इससे मुझको किंचित भी तो, अनुराग नहीं इन भोगों से ||
इस राजभवन में रहना भी, अब मुझे भार सा लगता है। निर्ग्रन्थ दिगम्बर बनने को मन बारम्बार उमंगता है।
निज का पर का हित करने को, मेरा अन्तस् अकुलाता है। नर-पशु का कन्दन रोदन यह अब मुझसे सुना न जाता है ।
अजमेध-यज्ञ की बेला में, जब बलि के अज चिल्लाते हैं । तब मुझको ऐसा लगता है, मानो वे मुझे बुलाते हैं।
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३०६
जब अश्वमेघ के समय अश्व,
करते हैं करुण विलाप कहीं । तो मुझको लगता, इसी समय ---- जा रोकूँ मैं यह पाप
वहीं ॥
मानवता थर थर काँप
मानव के क्रिया कलापों
श्रतएव श्रहिंसा का प्रचार-
करने की है श्रभिलाष
मुझे ।
अविलम्ब
रोकना
यज्ञों में
होने वाला पशु-नाश
मुझे !
राज्यासन पाने
से मेरा चित्तं
परम ज्योति महावीर
सुकुमार हिंसा झुलस हिंसाल के सन्तापों
की लिप्सा-
मलीन नहीं ।
इससे कदापि सिंहासन पर
मैं होऊँगा श्रासोन नहीं ||
रही,
से ।
रही,
से ॥
है यही हेतु, जो भाते हैंमुमको ये भोग विलास नहीं । औ' राजमुकुट को लेने की को किंचित् भी प्यास नहीं ॥
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३००
म्बारहवाँ सम
सिंहासन क्या ? इन्द्रासन भी,, कर सकता मुझको लुब्ध न अब । यह 'कुण्डग्राम' क्या ? अलका का, वैभव कर सकता क्षब्ध न अब ।।
ध्रुव सत्य मान लें आप इसे, साम्राज्य कदापि न लूँगा मैं ।
औ' अधिक दिनों इस, राजमवन,
में भी अब नही रुकूँगा मैं || यह राज्य त्याग वैराग्य-राज्यअब मैं अविलम्ब सम्हालँगा । दे हर प्राणी को अभयदान, षट् काय प्रजा को पालँगा ।
राजा बन नहीं मिटाया जासकता जनता का क्लेश कभी। कारण, न किसी को सच्चा सुख, दे सकते राज्यादेश कभी ॥
जिस राज्य-सम्पदा को सुख का, श्रावास सममता लोक स्वयं । मैं मान रहा हूँ, उसको हीमधु लिप्त खड्ग की नोक स्वयं ।।
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परम ज्योति महावीर
पा राज्य न कोई तृप्त हुवा, इनसे पनपा है लोभ सदा । श्री मात्र राज्य सत्ताओं से, ॥ ही बढ़ा प्रजा में क्षोम सदा ॥
प्रोत्साहन भीषण युद्धों को, भी मिलता इनके द्वारा है। जिनमें लाखों की हत्या से'
बहती शोणित की धारा है ॥ छल, कपट, प्रवञ्चन बढ़ते हैं, आश्रय विश्वास न पाता है। सुख भोग विलास पनपते हैं, तप संयम पास न आता है ॥
इनकी छाया में हो पाता मानवता का निर्वाह नहीं । पर सुख से क्रीड़ा रत रहतीहै दानवता सोत्साह यहीं ।
यह ही न सगे भ्राताओं में-- बढ़ता रहता विद्वष यहाँ । स्वयमेव पिता की हत्या कर बनते हैं पुत्र नरेश यहाँ ।
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म्यारहवाँ सर्ग
जीवन अशान्त कर देते हैं, उठ अगणित अन्तर्द्वन्द यहाँ । दुर्व्यसन सभी श्री दुर्गुण सब, जम कर रहते सानन्द यहाँ ||
निज स्वार्थ-सिद्धि ही करने में, लगती है सारी शक्ति यहाँ,
दारिद्रय, क्षुधा, निष्क्रियता की,
ये ही करते अभिव्यक्ति यहाँ ।।
राजसिंहासन
बनते हैं,
यां जनता को कटु अभिशाप यहाँ । राजा के हर अन्याय उसे, सहने पड़ते चुपचाप
यहाँ ॥
दूँ एक वाक्य में कह, तो यह - पापों की ही चटशाला है । इसके भीतर तम ही तम, बस, बाहर दिख रहा उजाला है |
राजमुकुट
अतएव अलंकृत से करना तात ! न शीश मुझे । इस 'कुण्ड ग्राम' का नहीं, अपितु - बनना जग का जगदीश मुझे ||
२०६
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परम ज्योति महावीर अपने चेतन का सब कल्मष, धो बनना चिन्मय शुद्ध मुझे।
और रज्य शत्रु से नहीं, श्रात्मरिपुओं से करना युद्ध मुझे ।।
इससे ले राज्य स्वयं पथ में, फैलाऊँगा मैं शूल नहीं । अपने ही हाथों मैं अपने
दृग में डालँगा धूल नहीं ॥" युवराज 'वीर' का निश्चय सुन, राजा को दुःख विशेष हुवा । रानी की इच्छा जैसा ही-, असफल उनका उद्देश हुवा ।।
अब किन्तु उपाय न था कोई, इससे धारण की समता ही। प्रभु-हृदय प्रभावित करने की, उनमें न रही थी क्षमता ही ।।
कारण, कुमार के कहने में, उनको यथेष्ट था सार दिखा । अतएव उन्हें अब और अधिक, समझाना भी निस्सार दिखा ।।
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ग्यारहवाँ स
श्रतएव उन्होंने
पुनः नहीं,
छेड़ा यह राज्य प्रसङ्ग कभी । कारण, न 'वीर' पर चढ़ सकताथा कोई भी तो रङ्ग कभी ॥
यों गृह में रहते हुये बीते उनतीस बसन्त
अभी ।
माँ और पिता के कारण पर वे बन न सके थे सन्त अभी ॥
वे एक दिवस थे
माथे पर दायाँ हाथ
इतने में मूक रुदन सुनकर, उनका सा उनका साथ स्वयं ॥
बैठे रख
स्वयं ।
उन्हें
वे क्षण भर में ही समझ गये, पशु बलि दी जाती हाय ! कहीं । कुछ मूकों दीन निरीहों पर होता अनुचित अन्याय कहीं ॥
देवी की भेंट चढ़ाने को होता है अज - संहार कहीं । जगदम्वा को सन्तति के शिर जा रहे दिये उपहार कहीं ॥
३११
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३१२
मानव ने निर्बल पशुओं के, शोणित से खेली होली है । बलिदान हुई मख – वेदी जीवित पशुओं की टोली है ||
में,
यह समझ दया से सिहर उठे, सोचा, मैं कैसा क्षत्रिय हूँ ? क्यों त्राण क्षतों का करने को मैं बना न अब तक सक्रिय हूँ ?
इस नव विचार के आते हो,
उनका अन्तस् संक्षब्ध
हुवा ॥
वैराग्य--कमल
-मधु पीने को,
उनका मन मधुकर लुब्ध हुवा ||
परम ज्योति महावीर
अब राजभवन द्रुत तजने मेंही दिखा स्वयं का क्षेम उन्हें । निस्सार लगा 'सिद्धार्थ' --- पिता' 'त्रिशला ' - माता का प्रेम उन्हें ॥
सत्र भौतिक बन्धन व्यर्थ लगे, उनको इतना था क्षोभ हुवा | प्रत्येक परिग्रह से मन पूर्णतया निर्लोभ हुवा ॥
उनका-
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बारहवाँ स
जिन-मुनि-मुद्रा अपनाने में-
दिखा |
ही उन्हें स्वपर का त्राण श्र' पञ्च महाव्रत पालन मेंही उन्हें स्वपर कल्याण दिखा ॥
वे क्यों कि परिग्रह द्वारा हरसकते थे जग का त्रास नहीं । जलनिधि निज जल से हर सकताहै किसी पुरुष की प्यास नहीं ॥
सब भूषण दूषण से भासे, भूषा भूसा सी ज्ञात हुई। निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि बननाअत्र उन्हें सरलतम बात हुई ||
२०
――――――
अपने पावन कर्त्तव्यों
था
किया ।
आज उन्होंने ज्ञान अपने अभीष्ट को पाने सम्यक् पथ था पहिचान लिया ||
किया ।
करुणा की
उनके मानस से ऐसी निर्झरिणी जिसकी गति कुण्ठित कर सकते --
श्राज बही ।
थे विघ्नों के गिरिराज नहीं !!
का
V
३१३
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परम ज्योति महावीर
देखो, वैराग्य बढ़ाने को क्या क्या विचार अब आते हैं ? निज अवधिज्ञान में उन्हें पूर्व भव कैसे आज दिखाते हैं ?
किस भाँति भावना द्वादश का वे मन में चिन्तन करते हैं ? किस भाँति विरक्ति-किशोरी में, यौवन के चिन्ह उभरत हैं ?
संक्षेप रूप में ही कवि को, यह सारा वर्णन करना है। प्रभु-चिन्तन-सागर को छन्दोंकी लघु गागर में भरना है ।
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बारहवाँ सर्ग
किसका रहता यह राज्य
राजा भी रहता कौन चलता रहता है सत्र देखा करते मौन यहाँ ||
काल चक्र,
विभव ?
यहाँ ?
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बारहवाँ सर्ग
३१७
एकाकी 'वीर' विराजे थे, नासा पर दृष्टि झुकाये थे। इस समय उन्हें संस्मरण स्वतः, निज पूर्व जन्म हो आये थे।
या भील-जन्म से अब तक का, हर जन्म उन्हें तत्काल दिखा । था मोहक देव स्वरूप दिखा,
नारको रूप विकराल दिखा । 'नन्दन वन' का भी दृश्य दिखा, 'वैतरिणी' की भी कीच दिखी। पर्याय उन्हें प्रत्येक उच्चसे उच्च नीच से नीच दिखी ।।
देखा, तज स्वर्ग निगोद गया, .
औ' कई बार ही कीट हुवा । कर साठ लाख यो जन्म मरण,
'नारायण' धार किरीट हुवा ।। हो सिंह निरन्तर हत्या की, 'चक्री' हो जय षट् खण्ड किया । "क्षेमङ्कर' मुनि से प्राप्त पुनः मैने यह रत्न कण्ड किया ।।
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परम ज्योति महावीर
तीर्थकरत्व का बन्ध किया, फिर मैं सोलहवे स्वर्ग गया । देवेन्द्र हुवा, फिर प्राप्त यहाँ, यह तीर्थकर पद किया नया ।।
यों देखा, पुण्य-सुधा भी पी, औ' पापों का भी गरल पिया । देखा विमान भी सुरपुर का, अनुभव नरकों का पटल किया ।।
उनकी विरागता और बढ़ी, इन पूर्व भवों की गाथा से । वैराग्य-दिवाकर की किरणेंसी निकलीं उनके माथा से ।।
वे लगे सोचने निज मन में, मैं देख चुका भूगोल सभी ।
औ' पाप-पुण्य के द्वारा मैं,
ले चुका दुःख सुख मोल सभी ॥ दुर्गन्ध नरक की भी सँघी, सूघी मन्दार-सुगन्ध तथा । बाँधी 'निगोद' की आयु, कियातीर्थकरत्व का बन्ध तथा ॥
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३१६
बारहवाँ सर्ग
हो सिंह जीव-हत्याएं की, मैंने गंगा के घाटों पर हो चको भी साम्राज्य किया, बत्तिस सहस्र सम्राटों पर ।
चरणों से कुचला गया कभी मैं होकर पथ की घास अहो । श्रौ' कभी बैठ इन्द्रासन पर
सुख भोगे हैं सोल्लास अहो । सुर, नर, पशु, नर्क चतुर्गति में, अब तक अनादि से घूम चुका । सह चुका यातना नरकों की औ' मचा स्वर्ग में धूम चुका ।
हो हिंसक निर्मम जीव कभी, मैंने की हिंसा घोर अहो ।
औ' कभी अहिंसक मुनि होकर मैं बढ़ा दया की ओर अहो ।।
क्रमशः ये दृश्य सभी उनके, शुचि अवधि ज्ञान में चमक गये । गत सभी भवों के दृश्य उन्हें, चल चित्र सदृश ही झलक गये ।
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३२०
वे लगे सोचने, कर्मों नेये क्या क्या नाच नचाये हैं ?
मैंने
जग-नाटकशाला में
----
ये क्या क्या स्वाँग रचाये हैं ?
पापोदय से 'पुरुखा' भीलकिया ।
परम ज्योति महावीर
हो मैंने पापाचार श्र' पत्नी सहित अहिंसा व्रत -- मैंने मुनि से स्वीकार किया ॥
व्रत फल स्वरूप मैं 'भरत' नाम-के चक्री की सन्तान हुवा | मम पिता 'भरत' को दीक्षा के लेते ही केवल
ज्ञान हुवा ||
मम चाचा
'बाहुबली' ने भी शिवनगरी को प्रस्थान किया । मम बाबा 'ऋषभ' जिनेश्वर ने -- भी शोभित मोक्षस्थान किया ||
पर मुनि के पद से डिगने से मेरी अब तक यह रही दशा । अब तक इन आठों कर्मों ढ़तम बन्धन में श्रहो फँसा
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बारहवाँ स
इस चिन्तन से उनकी विरक्ति-
का रूप और अवदात हुवा | पर राग, द्वेष औ' ममता पर सहसा ही उल्कापात
हुवा ॥
भय के मारे मोहादिक सब दुर्भाव सर्वथा दूर हुये ।
भय, गर्व, अरति, आश्चर्य, खेद, चिन्तादिक चकनाचूर हुये ॥
द्वादश अनुप्रेक्षा भाने में, अब लगी न किंचित देर उन्हें । कोई भी बाधक तत्व नहीं' पाये इस क्षण में घेर उन्हें ॥
सोचा, अमरत्व नहीं पाते-हैं अमर कहा भी देव कभी ।
हो जाते नष्ट सुरेश्वर औ' चक्रो आदिक स्वयमेव सभी ॥
हो जहाँ न मैंने ऐसा है कोई देश
रह नहीं सका मैं इन्द्र सदा, रह सका सदैव नरेश नहीं ॥
१ - श्रनित्यानुप्रेक्षा
जन्म लिया,
नही ।
३२१
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३२२
श्रौ' नहीं रहेगा
चना सदा,
मेरा यह सुन्दर देह हो ।
अन्यत्र अलभ
सुन्दरता का,
जो है लोकोत्तर गेह हो ॥
श्रदीश जन्म में
जिनने रत्नों की
वे कहाँ गये
षट् मास मिला
कोई इसको न बचा सकता,
इसमें
किंचित् सन्देह नहीं ।
विपदा की बेला ने पर
दिखलाता
कोई स्नेह नहीं ||
बरसायी,
धार यहीं ।
प्रभुवर को,
आहार नहीं ॥
जब
परम ज्योति महावीर
जिन 'रामचन्द्र' ने 'सीता का " 'रावण' - गृह से उद्धार किया । उस गर्भवती को उनने ही वन भेज क्रूर व्यवहार किया ||
अतएव सकल सांसारिक सुख, मधु से लिपटी असिधारा है । इससे सुख की श्राशा करना, अतिशय अज्ञान हमारा है ॥ २. शरणानुप्रेक्षा । ३ संसारानुप्रेक्षा ।
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बारहवाँ सर्ग
जैसे
अमृत का दान कभी,
दे सकता विषधर नाग नहीं ।
वैसे सच्चा सुख दे सकता, सांसारिक सुख का राग नहीं ||
४ निश्चय ही
पुरजन परिजन
प्राणी,
इनमें फँसने से ही चारों गतियों में नाच रहा । श्रौ' सच्चा हीरा समझ जुटा
हर भव में कच्चा काँच रहा ॥
क्षणभङ्ग ुर यह का नाता है ।
यह जीव अकेला ही श्राता
है
तथा अकेला जाता है |
हर पुण्य यह स्वयं
वह यहाँ अकेला
ही भोगा
करता है दुख - श्रानन्द सभी । औ' स्वयं अकेले ही गाताहै विरह-मिलन के छन्द सभी ॥
पाप की पोथी को,
अकेले पढ़ता है ।
सब अशुभ तथा शुभ कर्मों की हर मूर्ति अकेले गढ़ता है ॥ ४. एकत्वानुप्रेक्षा ।
३२३
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परम ज्योति महावीर १ ज्यों सौरभ पृथक स्वतन्त्र वस्तु, परतन्त्र बना पर फूलों में । त्यों तन से चेतन पृथक वस्तु, नर एक समझता भूलों में ॥
चेतन ज्यों का त्यों रहता है, तन मात्र बिगड़ता बनता है। पर इसकी अन्य विकृति अपनी
ही विकृति समझती जनता है । तन त्यों ही बदला करता है, बदला करता नर बाना ज्यों। जब यही नहीं है अपना तो, फिर इससे प्रीति लगाना क्यों ?
६ यह तो अत्यन्त अपावन है, पद-नख से शिर के बालों तक । पुजने वाले पद से, चूमे
जाने वाले मृदु गालों तक || भीतर यह महा भयानक है, बाहर दिखता अलबेला है । भीतर प्रदर्शिनी मज्जा की, वाहर सज्जा का मेला है॥ ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा । ६. अशुच्यानुप्रेक्षा ।
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बारहवाँ सर्ग
प्रतिदिन मल मल कर धोते हैं, बाहर के मल को भोले जन । पर यदि भीतर का मल बाहरहो तो न नयन भी खोले जन ||
*मिथ्यात्व-मद्य को पीने सेही हुवा महा उन्माद इसे । कर रहे निमग्न भवोदधि में,
व्रत हानि, कषाय प्रमाद इसे ॥ यह जीव बृथा ही औरो को, निज महा शत्रु है मान रहा । वास्तविक शत्रु तो अाश्रव है, पर इसे न यह पहिचान रहा ॥
यह श्रास्रव रोक मुझे करना निज कर्मों को उन्मूल स्वयं । भव सागर-पार पहुँच - पाना
है मुक्ति नाम का कूल स्वयं ॥ 'अतएव बनूँगा निर्मोही, अविलम्ब त्याग कर मोह सभी । अनुराग किसी से नहीं, किसीसे नहीं करूँगा द्रोह कभी ॥ ७. श्रासवानुप्रेक्षा । ८. संवरानुप्रेक्षा ।
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३२६
परम ज्योति महावीर
मैं समिति, महाव्रत, इन्द्रिय-जय मन वचन कर्म के संयम से । कर्मों के प्रास्रव का संवर, प्रारम्भ करूँगा निज श्रम से ॥
अनुप्रेक्षा, धर्म, परीषद-जय, धारण करना उपयुक्त मुझे । कारण, ये ही तो कर्मों से,
कर सकते क्रमशः मुक्त मुझे ॥ संबर से होगा नहीं नयेकमा का मुझसे योग पुनः । पूर्जित कर्मों के क्षय का, करना होगा उद्योग पुनः ॥
अति घोर तपस्या करने से, हो जायेगा यह कार्य सरल । अविपाक निर्जरा होने से
भागेंगे सारे कर्म निकल । मैं एक एक कर अाठों ही कर्मों को शीघ्र खिराऊँगा । इनका अब तक अातिथ्य किया, अब इन्हें निकाल भगाऊँगा । ६. निर्जरानुप्रेक्षा।
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बारहवाँ सर्ग
१°चिरकाल लोक में मुझको इन, कर्मों ने भ्रमण कराया है। सुर नर पशु नर्क चतुर्गति में, मुझको अब तक भटकाया है।
पर इन्हें खिरा अब देने पर, धरना होगा न शरीर पुनः। औ' नहीं मरण की चिन्ता से,
होगा मम चित्त अधीर पुनः ॥ देवेन्द्र नरेन्द्र नहीं बननाहोगा फिर बाँध किरीट कभी। बनना न नारकी भी होगा, होना न पड़ेगा कीट कभी ॥
५'अगणित ही बार यहाँ मुझको दुर्लभ मानव का रूप मिला । नारायण - पद भी प्राप्त हुवा,
चक्री पद चारु अनूप मिला ॥ पर मैंने न किया अब तक भी, रत्नत्रय का संकलन कभी। औ' आत्म बोध के अमृत से की दूर न भव की जलन कभी ।। १० लोकानुप्रेक्षा ११ बोधि दुर्लभनुप्रेक्षा
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३२८
परम ज्योति महावीर अतएव शीघ्र हो अब तो मैं, आध्यात्म ज्ञान का लाभ करूँ। इस परम ज्योति की आभा से, अब अपने को अमिताभ करूँ ॥
१२ इस युग में 'ऋषम' जिनेश्वर ने,
जो मुनि का धर्म चलाया है । जो परम्परा से तब से ही,
अब तक भी चलता आया है ।। है आज वही अपनाने में, भेरी वास्तविक भलाई अब । इस धम-कवच को बाँध अतः, कर्मों पर करूँ चढ़ाई अब ।।
उत्तम क्षमादि दश योद्धा ले, कर्मों पर जय सोल्लास करूं। कैवल्य प्राप्ति के लिये सतत,
तप-संयम का अभ्यास करूँ।। द्वादश-अनुप्रेक्षा-चिन्तन से, अवशिष्ट ममत्व विलीन हुवा । तत्क्षण वैराग्य वहाँ उसकेसिंहासन पर आसीन हुवा ॥ १२. धर्मानुप्रेक्षा
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बारहवाँ सर्ग
इससे ही उसने राजभवनको तृण समान ही लेखा था ।
तन के वसनों श्राभरणों को, प्रति तुच्छ दृष्टि से देखा था ॥
अविलम्ब उन्हें तज
वन में जा दीक्षा लेना
भव- सिन्धु कूल पर जाने निज जीवन नौका खेना था ॥
अतएव पिता औ' माता से, श्राज्ञा लेने वे वीर गये । अति कोमल वाणी में बोले, इस भाँति वाक्य गम्भीर नये ||
राजभवन,
था ।
को,
66
'अब ग्राज मुझे जग के वैभव-से है विशेष निर्वेद हुवा | उनतीस वर्ष जो खोये है, उनका अतिशय ही खेद हुवा ॥
इतना जीवन खो दिया वृथा, धारा अब तक मुनिवेश नहीं ।
त्यागे तन के परिधान नहीं, स्वयमेव उखाड़े केश नहीं ॥
२१
३२९
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३३०
अब तक अनेक ही बार यदपि, मेरे मन में यह द्वन्द चला ।
पर बिना आपको श्राज्ञा के, मैं नहीं कभी स्वच्छन्द चला ॥
जब
तक न तपस्या करता में, तब तक है मेरी कुशल नहीं । इससे इस मेरी अभिलाषा को आप करें अब विफल नहीं ||
दीक्षा लेने की
श्राज्ञा
पाने दें अत्मिक शान्ति मुझे |
श्रौ' सत्य, हिमा के द्वारा करने दें धार्मिक क्रान्ति मुझे ||
परम ज्योति महावीर
तप को ज्वाला
में सोने सा,
होने दें निर्मल शुद्ध मुझे । निर्वाण लाभ हित करने दें, आठ कर्मों से युद्ध मुके ॥”
'त्रिशला ' के नन्दन मौन पुनः; इन शब्दों के ही साथ हुये । उनके समझाने को उद्यत, अब 'कुण्डग्राम' के नाथ हुये ||
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बारहवाँ सर्ग
बोले - "जो कुछ तुम कहते हो, वह निराधार निस्सार नहीं । पर तव वियोग को सहना तो, मेरे मन को स्वीकार नहीं ||
इससे मेरा यह कहना है, तुम राज्य अभी सोत्साह करो । रह राजभवन में ही अपने, व्रत नियमों का निर्वाह करो ||
कर रहे शीघ्रता क्यों इतनी ? जब निश्चित मिलना सिद्धि तुम्हें । स्वयमेव प्राप्त हो जाना है, इस भव में मुक्ति-समृद्धि तुम्हें ॥।
श्रतएव नहीं तुम कर्मों के, क्षय करने का कुछ सोच करो । यह राज्य सम्हालो, मन में मत, किंचित् भी तो सङ्कोच करो ॥”
सुन प्रभु ने कहा- " उठायें फिर, वह ही प्राचीन प्रसङ्ग नहीं । इस राज्य - प्रलोभन का मेरेमन पर चढ़ सकता रङ्ग नहीं ||
३३१
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परम ज्योति महावीर
यह राजपाट क्षणभंगुर है, यह नहीं सदैव ठहरता है । निज पुण्य क्षीण हो जाने पर, क्षण में सब ठाट विखरता है ।।
भूगोल यही बतलाता है, बतलाता है इतिहास यही । जाने कितनों ने राज्य किया, पर रहा किसी के पास नहीं ।
षट् खण्ड जिन्होंने राज्य किया, सम्राट 'भरत' वे आज कहाँ ? उन पर भी जय पाने वाले, वे बाहूबलि नरराज कहाँ ?
'कैलाश' उठाने वाले वे, 'रावण' लंका के ईश कहाँ ?
औ' उन्हें हराने वाले भी, वे 'रामचन्द्र' जगदीश कहाँ ?
यों इस भू पर जाने कितनेही भूपों के अधिकार हुये । यों इस नभ के नीचे जानेकितनों के जय जयकार हुये ।।
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बारहवाँ सर्ग
यह अवनि किसी की नहीं, किसीका भी तो यह आकाश रहा । शासक कहलाने वालों पर, भी शासन करता नाश रहा ।।
मैं भी नारायण, चक्री का, पद पाया, सब अनुकूल हुवा । पर पलक सदा को मुँदते ही, सव कुछ पल भर में धूल हुवा ||
किसका रहता यह राज्य विभव, राजा भी रहता कौन यहाँ ? चलता रहता है काल-चक्र , सब देखा करते मौन यहाँ ।।
अनुमति दें, तप-तरणी से, में पार करूँ भवसागर यह ।" हो मौन विशेष प्रशान्त हुये, इतना वे शान-दिवाकर कह ।।
सुन राजा राज्य-विषय पर फिर. कह सके अन्य उद्गार नहीं । पर उनके मन की ममता ने, मानी अब भी थी हार नहीं ।।
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परम ज्योति महावीर
कह उठे-"न लो यह राज्य किन्तु, सोचो पुनरपि इस निश्चय पर । बस, एक बार दो और ध्यान, मेरे कहने के श्राशय पर ।।
सोचो, यदि तुम वन चले गये, माँ नित्य भिगोयेंगी अञ्चल । कारण, बस तुम ही हो इसकी--
इस वृद्धावस्था के सम्बल ॥ इसका तुम पर है मोह अधिक, इसको पीड़ा पहुँचायो मत । बस, सोच दशा भर इसकी ही, तुम राज भवन से जाअो मत ॥"
हो पिता न सुत के अन्तस् को-- उनने अब तक पहिचाना था। अब तक न 'वीर' की हिमगिरि सी--
दृढ़ता को उनने जाना था ।। सम्भवतः इस ही कारण से इन शब्दों का उच्चार किया। उत्तर में 'सन्मति' ने यो फिर सूचित अपना उद्गार किया ।।
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परम ज्योति महावीर
३४२
माँ लगीं सिखाने बच्चों को, करना प्रभुवर का वन्दन यों। कर जोड़ नवाना शीश तुरत, निकलें वे त्रिशला-नन्दन ज्यो ।।
अति भक्ति भाव से गद्गद हो करना जयकार समादर से । बरसाना उन पर पुष्पों की पंखुड़ियाँ गृह की छत पर से ।।
यों इसी विषय की चर्चा थी, नगरी की सभी दिशाओं में । जो बिजली जैसी फैल रहो-- थी पास पास के गाँवों में ।।
औ' इधर 'वीर' मुँह माँगा धन, देते जाते थे दीनों को । श्रीमन्त बनाते जाते थे, वे आज सभी श्रीहीनों को ।।
कर डाला दीन दरिद्रों का, दारिद्रय सर्वथा दूर सभी । दे डाले तन के भूषण तक कण्ठी, कुण्डल, केयूर सभी॥
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तेरहवाँ सर्ग
श्रतएव अलौकिक दृश्य यहाँ, उस दिन दिखलायी देता था । सुख भोग त्याग पर तुला हुवा, वह योग-मार्ग का नेता था।
यह जान वन्दना करने को,
आये लौकान्तिक देव वहाँ । कर वन्दन 'त्रिशला नन्दन' का वे बौले यों स्वयमेव वहाँ ।।
"था अभी आपकी सत्ता से, यह राजभवन ही धन्य प्रभो । अब किन्तु आपको पाकर होजायेगा धन्य अरण्य प्रभो ॥
क्षयशील विनश्वर अम्बर ही थे अब तक नव परिधान विभो । अब अक्षय अम्बर-अम्बर से होवेंगे शोभावान विभो ।।
जब आप त्याग कर चल देंगे, • यह जन्म भूमि का धाम प्रभो । तब नहीं रोक भी पायेगा, यह 'कुण्ड' नाम का ग्राम प्रभो ।।
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परम ज्योति महावीर
हैं धन्य आप, जो इस वय में, निग्रन्थ वेष को धारेंगे । कोमल तन से कर तप कठोर चेतन का रूप निखारेंगे ।
औ' 'कुण्ड ग्राम' के ही न अपितु, त्रिभुवन के नाथ कहायेंगे । केवल न यहाँ के पुरजन ही, शत इन्द्र स्वमाथ नवायेंगे ।।
हम अतः आपका यह दीक्षा-- कल्याण मनाने आये हैं। निज मार्ग प्रदर्शक प्रति श्रद्धासे शीश झुकाने आये हैं ।
जिन-मुनि को मुद्रा धारण कर, होवेंगे श्राप मुनीश प्रभो । कर श्रात्म योग का साधन फिर
हो जायेंगे योगीश प्रभो ।। इस युग का है सौभाग्य महा, जो मिला आपसा नेता है। जिसने सिंहासन त्यागा है, जो सच्चा काम-विजेता है।
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तेरहवा सर्ग
वैराग्य आपका धन्य कि जो, है रहा किसी से स्नेह नहीं।
औ' आज रोकने पाता है, यह राज्य नहीं, यह गेह नहीं ॥
अतएव आपके दर्शन कर अति धन्य हमारे नेत्र हुये। देवों के द्वारा पूज्य सदाको कुण्ड ग्राम' के क्षेत्र हुये ।।
कथनीय नहीं वह शब्दों से, जो आज हमें श्रानन्द हुवा । हे ज्ञान सूर्य । तव दर्शन कर अज्ञान-निशाकर मन्द हुवा ।।
निश्चय तब धर्म-प्रचारण से, सारी जगती सुख पायेगी। हिंसा का पतझड़ बीतेगा, करुणा की मधु ऋतु प्रायेगी ।।
अत्यन्त मन्द हो जायेगा, पापों का भो व्यापार यहाँ। औ' श्रात्म धर्म हो जायेगा, हर आत्मा में साकार यहाँ।। २२
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परम ज्योति महावीर
३६०
शूलों से रक्षा हेतु रस्त्रीं-- तक नहीं पादुका चरणों में । श्रौ' गिना उन्होंने छतरी तक-- को भी बाधक उपकरणों में ।
वस्त्रों की कौन कहे ? तन पर, तागा तक नहीं बचाया था। हो जात रूप निज काया को, उनने निम्रन्थ बनाया था ।
कोई न बनाया गुरु अपना,
औ' बने नहीं भी चेले वे । स्वयमेव बनाने को निज पथ, उद्यत हो गये अकेले वे ॥
चिमटा भी उनने लिया नहीं, बाँधा न कहीं मृग छाला भी। श्रौ' नहीं कण्ठ में डाली थी,
उनने रुद्राक्षी माला मी ॥ यों विधिवत् चौदह अन्तरङ्ग, दश वाह्य परिग्रह छोड़े थे। पश्चात् विनय से सिद्धों को, अपने दोनों कर जोड़े थे ।।
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महावीर की दीक्षा
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सपOTINE
शिरपर के केश लगे उनको, निज पथ के बाधक कण्टक से । इससे उखाड़ कर पञ्चमुष्टिसे दूर किया निज मस्तक से ॥
(पृष्ठ ३६१)
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३६१
तेरहवा सर्ग
फिर अन्तर्मुखी स्वदृष्टि बना, उनने भीतर को झाँका था। तन का बैभव तज चेतन का, अविनश्वर वैभव आँका था ।
शिर पर के केश लगे उनको, निज पथ के बाधक कण्टक से। इससे उखाड़ कर पञ्च मुष्टिसे दूर किया निज मस्तक से ।
टल गये केश, आ गयी अतः, अब और विशेष अटलता थी। एवं प्रारम्भ परिग्रह की-- रह गयी न शेष विकलता थी ।।
जिस जिसको समझा पर पदार्थ, उस उसको दूर हटाया था । निज के अठाइस मूल गुणोंसे निज चैतन्य सजाया था ।
मन, बचन, काय को शुद्ध बना, बैठे निश्चल परिणाम किये। दर्शक स्व वास को लौट चले,
मन में संस्मृति अभिराम लिये ।। २३
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३७८
परम ज्योति महाबीर
चाहे विपत्ति जो भाये, सब--- सह लेते थे वे समता से । निज निश्चय नहीं बदलते थे, डर कर पथ की दुर्गमता से ।
गोपों ने उन्हें सचेत किया, “यह मार्ग निरापद सरल नहीं। रह रहा दृष्टि विप सर्प यहाँ, सकता कोई भी निकल नहीं ।।
कारण, उसकी विष-ज्वाला को, कोई न कभी सह पाया है । जो गया हठात् इधर होकर, जीवित न निकल वह पाया है ।।
जो भी जन वहाँ पहुँचता है, डस लेता उसको साँप वहीं । इससे इस पथ से होकर अब, प्रस्थान कीजिये आप नहीं ।।"
यह सत्य सूचना सुनकर भी प्रभु ने त्यागा उत्साह नहों ।
औ' विषम दृष्टि विष विषधर से डर कर बदली निज राह नहीं ।
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चौदहवाँ सर्ग
वे उसी मार्ग से चल उसके बिल के समीप आसीन हुये । वह सर्प जहाँ पर रहता था, वे वहीं ध्यान में लीन हुये ॥
जब सर्प वहाँ पर आया तो, उसको ध्यानस्थित सन्त दिखे। उनके से निर्भय व्यक्ति उसे, थे नहीं अाज पर्यन्त दिखे ॥
निज राज्य-क्षेत्र में देख उन्हें, हो रहा उसे अति संशय था । यह पुरुष नहीं साधारण है, हो गया उसे यह निश्चय था ।।
फिर भी उस विषधर ने उनसेमानी न सहज ही हार स्वयं । विषमयी दृष्टि से देख उन्हें, छोड़ी विषमय फुकार स्वयं ।।
पर जाने क्यों अब आज बिफल उसका यह दृष्टि-प्रहार रहा । फेंकी फिर दृष्टि अनेक वार फल किन्तु वही हर बार रहा ।।
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३८०
परम ज्योति महावीर
इतने पर भी उस नागराज, का साहस आज न हारा था । काटा तत्काल अँगूठे में, या विष से चरण पखारा था ।।
पर नहीं वीर ने नयन खोल उस अहि की ओर निहारा था । उनकी इस दृढ़ता से विषधर, पर चढ़ा क्रोध का पारा था ।।
फण पुनः चलाया कई बार, जो सहे उन्होंने शान्ति सहित । यों पूर्ण शक्ति व्यय कर भी अहि, कर सका न उनका ग्राज अहित ।।
पा नहीं सका जय महानाग उन 'महावीर' पर हिंसा से । पर 'महावीर' ने महानागपर जय की प्रास अहिंसा से ।।
यह अपनी प्रथम पराजय उस, विषधर को बनी पहेली अब । सोचा, यह कौन पुरुष ? जिसने ये मेरी चोटें झेली सब ॥
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दृष्टि विष विषधर
*", .
.
पा नहीं सका जय महानाग, उन 'महावीर' पर हिंसा से । पर 'महावीर' ने महानागपर जय की प्राप्त अहिंसा से ॥
(पृष्ठ ३८०)
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३६६
अतएव कहीं रुकते न अधिक, हर ग्राम शीघ्र ही तजते थे ।
प्रायः जा विजन तपोवन में, वे 'सोऽहं ' 'सोऽहं'
भजते थे ॥
यदि विघ्न्न
पारणा में श्राता, सन्ताप न थे !
करे,
तो भी करते कोई कितना उपसर्ग पर देते वे अभिशाप न थे ।।
इससे कुछ दुष्ट अकारण ही, उनको दिन रात सताते थे । कुछ तप से उन्हें डिगाने को सम्मुख उत्पात मचाते थे !!
परम ज्योति महावीर
पर किंचित् कुपित न होते थे, वे करुणा के अवतार कभी श्रौ' पास न आने देते थे, वे कोई शिथिलाचार कभी ॥.
तो प्रमाद
उनमें कोई भी होता था कभी प्रतीत नहीं । उनका क्षण मात्र असंयम में होता था नहीं व्यतीत कभी ॥
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पन्द्रहवाँ सर्ग
पैदल सदैव ही चलते थे, तो भो न कभी वे थकते थे। पथ के कङ्कण औ' कण्टक भी तो उनको नहीं खटकते थे ।
यों चल वे 'ब्राह्मण ग्राम' रुके, फिर 'चम्पा' को प्रस्थान किया । कर चातुर्मास तृतीय यहीं,
उनने निज प्रात्मोत्थान किया । औ' दो दो मास क्षपण के दोतप किये न किन्तु उदास हुये । यों हुई पारणा केवल दो, और पूरे चारों मास हुये ।।
इस चतुर्मास में क्लिष्टासनसे किया उन्होंने अात्म मनन । एवं विशेषतः रुद्ध रखी, मन वचन काय की हलन चलन ।।
पश्चात् वहाँ से कर विहार "कालाय' ग्राम वे नाथ गये । श्रौ' 'गोशालक' भी छाया से उन विश्व बन्धु के साथ गये ।
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३६८
परम ज्योति महावीर
वे रात खण्डहर में ठहरे, प्रस्थान किया फिर प्रात समय । अविलम्ब 'पत्तकालय' पहुँचे, ईर्या से चलते हुये सदय ।।
तदनन्तर सत्वर आगे कोचल पहुँचे ग्राम 'कुमारा' वे । जनता के श्रद्धापात्र यहाँ
भी बने गुणों के द्वारा वे ।। पश्चात् वहाँ से कर विहार, पहुँचे 'चोराक' यशस्वी वे।
औ' यहाँ गुप्तचर समझ लियेथे गये महान् तपस्वी वे।।
वस्तुस्थिति किन्तु समझते ही, सम्मान हुवा उन त्यागी का । फिर नहीं किसी ने रोका पथ, उन जग से पूर्ण विरागी का ।।
उनने कुछ दिन रुक वहाँ 'पृष्ठचम्पा' की ओर प्रयाण किया । कर चौथा वर्षावास वहीं, निज आत्मा का कल्याण किया ।
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पन्द्रहवाँ सर्ग
अति कठिन आसनों से
तप किया तथा शुभ ध्यान
रह चार मास फिर
की ओर पुण्य
दुर्धर -
किया ।
'कयंगला'
प्रस्थान किया ||
कुछ ठहर वहाँ फिर
'श्रावस्ती'
जाकर धारण निज योग किया । नगरी के बाहर ध्यान लगा, सुस्थिर अपना उपयोग किया ||
कर ध्यान प्रपूर्ण
की ओर बढ़ाये स्वीय
पुर निकट एक तरु तले
कर ठहर गये वे
'इलिदुग पुर'
चरण |
पहुँच
महाश्रमण ||
―
―
कुछ अन्य यात्रियों ने भी तो,
श्रा की व्यतीत वह
रात वहीं ||
' अग्नि जलायी, संग्रह करतरुत्रों के सूखे पात वहीं ॥
वैसी ही जलती अग्नि छोड़, वे गये कि ज्यों ही प्रात हुवा | पर इस प्रमाद से ध्यानस्थित, प्रभु पर भीषण उत्पात हुवा ||
Le
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४००
कुछ ही क्षण में वह अग्नि फैल
हो और अधिक विकराल गयी ।
बढ़ते बढ़ते वह
ध्यानमग्न-
प्रभु के समीप तत्काल गयी ॥
यह प्रभुवर ने,
उपसर्ग जान दृढ़ मेरु समान शरीर किया । वह अग्नि ज्वाल सह लेने को मन सागर सा गम्भीर किया ||
वह अग्नि और भी अरुण हुई, वह दृष्य और भी करुण हुआ। यह सहनशीलता देख स्वयं, श्राश्चर्य चकित सा वरुण हुवा ||
परम ज्योति महावीर
'गोशालक' उठ कर भाग गया, पर नहीं 'वीर' का रोम कँपा । उनकी इस दृढ़ता को विलोक, यह धरा कँपी, यह व्योम कँपा ||
सारी शक्ति लगा,
विशेष सुरङ्ग हुई |
ज्वाल,
हुई ||
अत्र मानो
वह अग्नि
अत्यन्त निकट श्रा गयी
पर 'वीर' समाधि न भङ्ग
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पन्द्रहवाँ सर्ग
४.१
उस समय वहाँ का करुण दृश्य, अति हृदय विदारक लगता था । इस तेज पुञ्ज से डर भी वह, तेजस्वी किन्तु न भगता था ।
हो गया हताश हुताश निरख, तप-तेज-प्रकाश विलक्षण यह । अवलोक 'वीर' की शान्ति स्वयं, हो गया शान्त फिर तत्क्षण वह ।।
सब घास पत्तियाँ राख हुई
औ' रही न शेष ललामी अब । निज नयन खोल इस भाँति उठे, उस समय वहाँ से स्वामी अब ।।
जैसे कि अग्नि ज्वालात्रों ने, हो उनसे प्यार दुलार किया। या बन्धु समझ उन तेजस्वी
का हो स्वागत सत्कार किया । पश्चात् 'नंगला' गये वहाँसे चल 'सिद्धार्थ-दुलारे' वे । कुछ समय वहाँ पर रुक कर फिर, "श्रावत्ता' ग्राम पधारे वे॥
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४०२
कुछ ठहर वहाँ भी 'कलंबुका' - को फिर वे त्रिशला - लाल गये । पुर के निवासियों पर अपनेतप का प्रभाव सा डाल गये ||
वह स्वयं प्रभावित होता, जो उनका दर्शन कर लेता था । कारण उस समय न कोई भी, उन सा उपसर्ग-विजेता था ||
कुछ भेंट चाहते देना नर, पर वे कणमात्र न लेते थे ।
निर्ग्रन्थ पूर्ण रह भवसागरमें जीवन-नौका
खेते
थे ॥
परम ज्योति महावीर
कर यथाशीघ्र निर्जरा उन्हें, कैवल्य प्राप्त कर लेना था । हो प्राप्त घातिया कर्मों कोभी तो समाप्त कर देना था ||
बस,
इसी हेतु वे समता से सह लेते सारे क्लेश सदा । श्रौ' अपने चरणों से नापा - करते प्रत्येक प्रदेश सदा ||
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पन्द्रहवाँ सर्ग
थे किये अभी तक 'आर्यभूमि'~~ में ही सब वर्षावास यहीं । एवं 'अनार्य' में जाने का, अब तक था किया प्रयास नहीं ।।
पर कर्म क्ष्यार्थ वहाँ जानेका अब इस बार विचार किया । श्रौ' राढ़ भूमि की ओर उन्हों-- ने अब इस बार विहार किया ।
अविवेक अनार्यों का विलोक--- भी हुये न तुब्ध विवेकी वे ! उनने अनेक उत्पात किये, पर टिके रहे दृढ़ टेकी वे ।।
औ' कभी अनार्यों के कार्यों-~ से उन्हें हुवा उद्वेग नहीं । विनों के अड़े हिमालय पर हारा उनका संवेग नहीं ।।
यों वहाँ भ्रमण कर 'श्रार्य देश'में उनने पुण्य प्रवेश किया । अपने विहार से अति पावन, वह 'मलय' नाम का देश किया ।।
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परम ज्योति महावीर
वर्षागम हुवा कि चार मासतक को सस्थगित विहार किया। निज पञ्चम वर्षावास यहीं, 'भद्दिलपुर' में इस बार किया ।।
पर कभी पारणा करने को, वे नहीं नगर की ओर गये । रह चार मास तक निराहार, तप किये निरन्तर घोर नये ॥
अति जटिल तपस्या थी फिर भीतो शिथिल न उनके अङ्ग हुये । हर दर्शक को विस्मय कारक, उनके आसन के ढङ्ग हुये ।।
हर ग्राम ग्राम में फैल गयी, उनके तप की यह करुण-कथा । जनता ने ऐसा तप करता,
देखा कोई भी तरुण न था ।। सब उन्हें निरखने लगते थे पथ से जब कभी निकलते वे । लगता, जैसे तप चलता हो जिस समय मार्ग पर चलते वे ॥
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पन्द्रहवाँ सर्ग
उनका तप दर्शन सा दुरूह, थी किन्तु सरलता कविता सी । वाणी प्रिय चन्द्र कला सी थी, मुख पर आभा थी सविता सी ||
भत समझो, कवि यह अपने मनसे गढ़ गढ़ कर सब कहता है । विश्वास रखो, ध्रुव सत्य छन्द-में पिघल पिघल कर बहता है ||
यों कठिन आसनों से करते निज ध्यान अनेक प्रकार सदा । करते उपाय हर, करने कोश्रात्मा से दूर विकार सदा ||
तन तप करता, पर चेतन का - सौन्दर्य निखरता जाता था । श्रौ' कर्म-वृक्ष से क्रमशः ही,
हर पल्लव झरता जाता था ||
पर ।
रच रहे तीर्थ थे वे संयम-तप-ब्रह्मचर्य के संगम हो रही सफलता मोहित थी, उन तीर्थकर के विक्रम पर ॥
४०५...
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४०६
उपवास अधिक वे करते थे,
पर तन -सामर्थ्य न
घटता था ।
श्री' चार घातिया कर्मों का, बन्धन क्रम क्रम से कटता था ।
जय निराहार ही तप
पूरे हो महिने चार तत्र पारणार्थ मध्याह्न में वे सिद्धार्थ कुमार गये ||
समय
आहार ग्रहण कर चले पुनः, श्र 'कलि' ग्राम को जाना था । कारण, उनने निज जीवन में, आगे बढ़ना ही
ठाना था ।।
परम ज्योति महावीर
करते,
गये ।
फिर 'जम्बूसंड' पहुँचने को उनने निज चरण बढ़ाये थे । पश्चात् वहाँ से चल कर वे 'तंबाय' ग्राम में आये थे ॥
औ' अधिक दिनों तक उन्हें कहीं
रुकना लगता था ठीक नहीं ।
उचित,
श्रतएव समझते जहाँ जाते थे वे निर्भीक
वहीं ॥
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पन्द्रहवाँ सर्ग
४०
फिर 'कूपिय' पहुँचे, तदनन्तर, 'वैशाली' को प्रस्थान किया । कुछ टहर वहाँ ग्रामाक गये, फिर 'शालिशीर्ष जा ध्यान किया ।।
चल पुनः 'भद्दिया' में करने - को वर्षावास पधारे थे । यह छठवाँ चातुर्मास यहाँ, करते सिद्धार्थ-दुलारे थे ।
चातुर्मासिक तप किया, यहाँभी ग्रहण कि या अाहार नहीं । रह निराहार ही बिता दिये, वर्षा के महिने चार वहीं ।।
कर चातुर्मास समाप्त पुनः, चल 'मगध' ओर वे नाथ गये। 'गोशालक' भी अनुगामी से, उन स्वामी प्रभु के साथ गये ।
औ' वहीं शीत ऋतु प्रातप ऋतुका समय बिता इस बार दिया। फिर 'श्रालंभिया' पहुँचने को, उनने अविलम्ब बिहार किया ।
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परम ज्योति महावीर
औ' नियत समय पर उम नगरीमें पहुँचे करते हुये भ्रमण । रुक चार मास के लिये वहाँ, तप लीन हुये वे महाश्रमण ।।
चातुर्मामिक तप से सार्थक, यह सप्तम चातुर्मास किया । जल नहीं एक भी बँद पिया, औ' नहीं एक भी ग्रास लिया ||
जब चतुर्मास हो गया, तभीश्राहार लिया उन त्यागी ने । 'कुण्डाक' अओर प्रस्थान किया, फिर उन सच्चे वैरागी ने ॥
तदनन्तर वे 'मद्दना' गये, 'बहुसाल' पहुँच फिर ध्यान किया ।। फिर 'लोहार्गला' नगर जानेको उनने था प्रस्थान किया ।
'जित शत्रु' भूप ने वहाँ किया । सम्मान स्वयं उन ध्यानी का । फिर 'पुरिमताल' की ओर गमन, हो गया शीघ्र उन शानी का ।।
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पन्द्रहवाँ सर्ग
आ वहाँ नगर के बाहर रुक,
कुछ समय रहे वे
ध्यान निरत ।
पश्चात् वहाँ से श्रये वे चलते
'राजगृही'
ये सतत ॥
आठवाँ चतुर्मास,
कर यहीं उनने तप-योग विराट् किया । रह चार मास तक निराहार, गणित कर्मों को काट दिया ||
यों क्रमशः क्षय होते जाते
थे ।
थे, जितने कर्म पुराने करते न पुण्य औ' पाप अब नूतन कर्म न श्राने थे ||
तः,
फिर भी जो शेष रहे उनके -- क्षय की उनको अभिलाष हुई । अतएव 'अनार्य प्रदेशों में, जाने की फिर से प्यास हुई ||
इस हेतु 'राद' की वज्रभूमि'-- में गये वहाँ से वे प्रभुवर ।
श्रौ, वहाँ परीषद विविध सहीं,
उनने मानस में समता घर ॥
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परम ज्योति महावीर वर्षागम देख किया अपनावह नवमा चातुर्मास वहीं ।
औ' कर्म निर्जरा हेतु किये, दुष्कर अनेक उपवास वहीं ।।
छह मास वहाँ रह 'आर्य' भूमिको पुनः प्रशस्त विहार किया। बन सका जहाँ तक उनसे निज, चेतन का रूप निखार लिया ।।
श्राओ, अब देखें यहाँ और, क्या क्या तप करते 'वीर' अभी । वे भावी अग्नि परीक्षाएँ, सहते किस भाँति सधीर सभी ॥
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सोलहवाँ सर्ग
उनने निकाल कर दूर किया, निज कोमल तन का मोह सभी । औ' किये पराजित दृढ़ता से, पाषाण वज्र श्र' लोह सभी ॥
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सोलहवाँ सर्ग
इस लघुतम घटना ने भी तो, उस पर प्रभाव अति डाला था। सब का जन्मान्तर सम्भव यह, सिखलाया ज्ञान निराला था।
फिर भी प्रभु के श्रादर्श सभी, वह जीवन में न उतार सका । छह वर्ष शिष्य सा रह कर भी, कर नहीं अात्म उद्धार सका ।।
श्री' यश-लिप्सा से प्रेरित हो, करने स्वतन्त्र प्रस्थान लगा । तेजोलेश्या की प्राप्त पुनः, करने निमित्त का ज्ञान लगा ।।
छह दिशाचरों से पढ़ निमित्त, वह इस विद्या में दक्ष हुवा । इस कारण कुछ ही दिवसों में, वृद्धिंगत उसका पक्ष हुवा ॥
अब अपने को प्राचार्य मान, वह प्रभु से रहता दूर सदा । 'श्राजीवक' मत का नेता बन, रहता था मद में चूर सदा ।।
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परम ज्योति महावीर
उसका महत्त्व था अभी क्यों कि, प्रभुवर उपदेश न देते थे । औ' अभी किसी को शिष्य बना, वे अपना वेश न देते थे ।।
कारण कि नहीं था पूर्ण हुवा, उनका प्रशस्त उद्देश अभी । औ' जीत घातिया कर्मों को, थे बने न 'वीर' जिनेश अभी ।।
अतएव मौन रह विचरण वे, करते थे अभी प्रदेशों में । कैवल्य-प्राप्ति के लिये देहको तपा रहे थे क्लेशों में ॥
वे बनना चाह रहे थे द्रुत, सम्पूर्णतया निर्दोष स्वयं । श्रौ' बनना चाह रहे थे द्रुत, वे विश्व ज्ञान के कोष स्वयं ।।
अतएव निरन्तर चलता था, उनका यह अनुसन्धान अभी । तिल मात्र न आने देते थे, इसमें कोई व्यवधान अभी ॥
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सोलहवाँ सर्ग
उनकी इच्छा थी सर्व प्रथम, निज आत्मा का उद्धार करूँ ।
हेतु
धर्म-प्रचार करूँ ॥
पश्चात् जगत्-उद्वार
श्राजीवन
'सिद्वार्थ पुरी' से चलकर फिर 'वैशाली' नगर पधारे वे । पुर के बाहर ध्यानार्थ वहाँ, सिद्वार्थ-दुलारे
बैठे
वे ॥
तदनन्तर चल 'वैशाली' से, 'वाणिज्य ग्राम' वे नाथ गये । पथ में ग्रामीण पुरुष उनके पद पर नत करते माथ गये ||
'वाणिज्य ग्राम' से 'श्रावस्ती'की ओर उन्होंने किया गमन । कर दसवाँ वर्षावास वहीं, निर्विघ्न किया निज श्रात्म मनन ||
यह
चतुर्मास हो जाने पर
चल दिया, वहाँ से उसी समय । श्री' पहुँच 'सानुलडिय' पुर में कर्मों से पाने हेतु विजय ॥
४१७
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४१८
परम ज्योति महावीर
सोलह उपवास निरन्तर कर, विधिवत् शुभ ध्यान जमाया था । दिन रात खड़े ही रहे गात, हद मेरु समान बनाया था ।
इस दीर्घ अवधि में ध्यानी वे, सम्पूर्णतया ही मौन रहे । इस नश्वर स्वर से उनकी यह अविनश्वर महिमा कौन कहे ?
उनने निकाल कर दूर किया, निज कोमल तन का मोह सभी ?
औ' किये पराजित दृढ़ता से, पाषाण, बज्र औ लोह सभी ॥
कर पुनः विहार वहाँ से चल, 'दृढ़ भूमि' गये निर्मोही वे। ध्यानस्थ चैत्य में हुये लक्ष्य
कर अपने चेतन को ही वे || अहम तप धारण कर रजनीभर किये रहे अनिमेष नयन । वे रहे जागते उस क्षण भी, जब करता था सब देश शयन ।
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४१E
सोलहवां सर्ग
इतनी तन्मयता से उनने इस बार वहाँ पर ध्यान किया । सुरपति ने देख जिसे उनकेतप की महिमा का गान किया ।
वे बोले देवों के सम्मुख"उन तुल्य न कोई ध्यानी है। शत जिह्वा से भी अकथनीय,
उनकी यह ध्यान-कहानी है ।। सुर तक भी डिगा न सकते हैं उनने ऐसा अभ्यास किया । यह सत्य बात भी सुन न एकसुर ने इस पर विश्वास किया ।।
उसको तत्काल हुई इच्छा, उनको प्रत्यक्ष निरखने की।
औ' बना योजना ली उसने प्रभुवर का ध्यान परखने की ।।
वह पूछ इन्द्र से चला तथा थे वे 'त्रिशला' के लाल जहाँ । निज बल से उन्हें डिगाने को, वह पहुँच गया सत्काल वहाँ ।
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४२०
दन्तावलि बाहर को निकाल, ग-युग लोहित सा लाल किया ।
श्र' लगा भाल पर सींगों को, निज रूप बना विकराल लिया ||
चिल्लाया, 'पर डरे 'वीर'
यों रुद्र रूप धर और मचा
कर विविध उपद्रव क्लेश दिया । माया से
घोर भयानक वह,
सारा निकटस्थ प्रदेश किया ||
गरजा,
चिंघाड़ा,
भगवान नहीं |
उत्पात सामने होते थे,
पर तजते थे वे ध्यान नहीं ||
परम ज्योति महावीर
जब उसने देखा,
मेरे ये
मारे प्रयत्न हो गये विफल । तो अन्य उपायों से उनको, तपच्युत करने को हुवा विकल ॥
माया से उसने भीलों की सेना ली बना नवीन वहीं | जो उन्हें डराने लगी किन्तु, चे रहे ध्यान में लीन वहीं ॥
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सोलहवाँ सर्ग
यह देख देव
ने
सोचा यह
इनसे न डरे हैं
'वीर' श्रभी ।
मेरे इन सभी
उपायों से,
हैं डिगे न ये गम्भीर अभी ||
मैंने हैं विषम
प्रयत्न किये,
समता है ।
पर तजी न इनने क्या इनको अपनी काया से, रह गयी न किंचित् ममता है ?
सम्भवतः अपने
पथ से
डिग पायेंगे न सरतला
से ।
विफल
पर मेरा भी देवत्व यदि टलते ये न अटलता से ||
ये
यह सोच सिंह औ' चीतों की सेना उसने सोत्साह रची । घमसान वहाँ मच गया सभी जीवों में चीख कराह मची ॥
भी न प्रभाव पड़ा,
पर कोई उन महातपी
उत्साही पर |
सुर की न एक भी युक्ति चली,
उन मुक्ति-मार्ग के राही पर ॥
૪ર
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४२२
श्रतएव धूल की वर्षा की, पर जमे रहे वे सन्त वहीं |
भू-नम पर धूल दिखाती थी दिखते थे और
दिगन्त नहीं ||
पद से शिर तक दब गये धूल
में, पर न ध्यान से 'वीर' हटे ।
पर,
यह देख नोर बरसाया वे रहे जहाँ के तहाँ डटे ।
यद्यपि यह दृढ़ता देख हुवा, उसको आश्चर्य महान वहाँ । पर सहसा श्राया ध्यान कि मैं आया मन में क्या ठान यहाँ ?
परम ज्योति महावीर
यह सोच पुनः निज माया से रच जन्तु विषैले त्रास दिया । अहि, वृश्चिक, कर्णखजूर श्रादिको छोड़ 'वीर' के पास दिया ||
फिर भी इनसे भयभीत नहीं, हो सके
मनःप
ज्ञानी ।
यह देख देव ने उन
प्रभु की,
धृति, शान्ति, वीरता
पहिचानी ||
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४२३
सोलहवाँ सर्ग
औ, अपनी माया को समेट, स्वयमेव शान्त वह अमर हुवा । इस अग्नि परीक्षा में तप कर प्रभु-तेज और भी प्रखर हुवा ।।
तदनन्तर कर प्रस्थान वहाँसे 'वीर' 'नालुका' आये थे। कुछ रुक 'सुभोग' 'सुच्छेत्ता' कोही ओर स्वपाद बढ़ाये थे ।
फिर 'मलय' और फिर 'हत्थिसीस' फिर 'तोसलि 'जाकर भ्रमण किया । 'पश्चात् पहुँच 'सिद्धार्थ पुरी" कर ध्यान आत्म का मनन किया ।।
'बज ग्राम' गये फिर, उस सुरनेभी अब तक था सहगमन किया । सर्वत्र विध्न थे किये, जिन्हेंप्रभु ने था निर्भय सहन किया ।।
इससे अब हो प्रत्यक्ष प्रगट, प्रभु की महिमा का गान किया । बोला कि "श्रापकी दृढ़ता को मैने सम्यक् पहिचान लिया ।
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परम ज्योति महावीर
षट मास अभी तक सँग रह कर, उपसर्ग आप पर घोर किया । पर सदा आपकी दृढ़ता ने, है मुझको हर्ष विभोर किया ।।
था देवराज ने ठीक कहा, हो गया मुझे अब निश्चय यह । तप से च्युत करने आया था,, अब जाता हूँ मैं जय जय कह ।।
यों की सराहना मुक्त कण्ठसे उनकी शान्ति अटलता की। श्री' बारम्बार प्रशंसा की, उनके तप की निर्मलता की ।
पश्चात् भक्ति से उनके पद-- पर अपना मस्तक टेक दिया ।
औ' कहा-"प्रभो ! वह क्षमा करें अब तक जो कुछ अविवेक किया ||"
यह कह कर उसने प्रभुवर केचरणों से भाल उठाया फिर ।
औ' होकर अन्तर्धान शीघ, वह स्वर्ग लोक में पाया फिर ।।
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सोलहवाँ सर्ग
सुरपति समक्ष जा
प्रकट किया,
"था नाथ ! आपने ठीक कहा ।
वे 'महावीर' हैं महाधीर, हैं महातपी, निर्भीक
महा ||
मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ, उनकी धृति और निडरता को ?
मैं तो विमुग्ध हो गया देखकर उनकी ध्यान- प्रखरता को ||
२७
मैंने तप से च्युत उन पर प्रति धूल उड़ायी
थी,
मिट्टी भी बरसायी पानी की झड़ी लगायी थी ।
करने को,
थी ।
अहि, वृश्चिक, कर्णं खजूरों को, उनकी काया पर डाला था । पर नहीं अल्प भी भङ्ग हुवा, उनका वह ध्यान निराला था ||
सब व्यर्थ हुये, तप-च्युत करनेके मैंने जितने न किये |
वे आत्म ध्यान में लीन रहे,
ढ़ मेरु सदृश निज अङ्ग किये || "
४२५
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४२६
परम ज्योति महावीर
इतना कह कर वह मौन हुवा, सबने प्रभु-ध्यान-प्रताप सुना । हर वाक्य देवियों ने भी तो, अति शान्ति सहित चुपचाप सुना ।।
फिर कहा-"आपने धूल-नीर बरसा कर उन्हें सताया है। कुछ कीड़ों और मकोड़ों को, उनके तन से चिपटाया है ।
पर यह सोचा भी नहीं कि तनसे रखते मोह यतीश नहीं। इससे ऐसे उद्योगों से, तजते स्वयोग योगीश नहीं ।।
इन पर तो रङ्ग चढ़ा सकतीहै मात्र वासना की तूली। अतएव अापने व्यर्थ वहाँजा कर बरसायी है धूली।।
इस कार्य हेतु तो हमसे बढ़, होते न आप सब दक्ष कभी। अब देखो, उन्हें परखतीं हैं हम जाकर वहीं समक्ष अभी ।।
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४२७
सोलहवाँ सर्ग
देखें, न मुग्ध कैसे होते, अवलोक हमारा चन्द्रवदन ? कैसे न मचाता है उनके अन्तर में अन्तर्द्वन्द मदन ?
यह कह वे चलीं तपस्या-च्युतकरने अपनी सुन्दरता से । अति दिव्य आभरण वसन पहिन, तन सजा लिया तत्परता से ॥
श्री 'वीर' समक्ष उन्होंने जा निज को सविलास दिखाया फिर । अति हाव भाव से निज छवि का वैशिष्ट्य सलास दिखाया फिर ॥
पर 'महावीर' ने एक बारभी उनकी ओर नहीं देखा । रस भरी स्वर्ग-सुन्दरियों को नीरस तरु-ठूठों सा लेखा ।।
जब नहीं मुग्ध वे हुये, उन्हेंतब निष्फल अपना देह लगा । भासा वह दिव्य स्वरूप विफल जो नर में सका न स्नेह जगा ॥
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४२८
परम ज्योति महावीर
रीझे न दिगम्बर वे जिन पर निष्फल से वे परिधान लगे। भूषण दूषण सम औ' दुकूल, अब उनको शूल समान लगे ॥
पर तत्क्षण आया ध्यान कि हमक्या कह कर यहाँ पधारी हैं ? हम इन्हें जीतने पायीं हैं, जा रहीं स्वयं पर हारी हैं ।
यह सोच नाचने लगीं और, गा चलीं प्रेम मय गान मधुर । पर प्रभु का हृदय न तान सकी, उनके गीतों की तान मधुर ॥
उनकी धुन में घुन नहीं लगा - पायी नूपुर की रुनन मुनन । यह देख लगे मुरझाने थे, उनकी आशा के सौम्य सुमन ।।
फिर भी वे नहीं निराश हुई
औ' रचा उन्होंने जाल नया । प्रभु को तप से च्युत करने को, सोचा उपाय तत्काल नया ।।
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सोलहवाँ सर्ग
बोली कि "श्रापको हम अपने श्राने का हेतु सुनाती हैं। अतएव ध्यान से उसे सुनें, हम सब जो बात बताती हैं ।
मुनिनाथ ! श्रापके इस तप से, हैं मुदित हुये सुरनाथ वहाँ । फलरूप श्रापकी सेवा में, भेजा हम सबको साथ यहाँ ।।
जिनकी अभिलाषा से ही तप करते हैं यहाँ मुनीश सभी । जिनके पाने को योगों का साधन करते योगीश सभी ॥
जिनकी इच्छा से युद्धों में, मरते हैं वीर अनेक यहाँ जिनकी वांछा से करते हैं, पूजक प्रभु का अभिषेक यहाँ ॥
वे स्वतः श्रापके प्राप्त हुई, इससे अब हमसे स्नेह करें।
औ' देकर अपना अङ्गदान अब सफल हमारी देह करें।
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१२
परम ज्योति महावीर
यह सुन भी प्रभु ने उन सुरियोंकी ओर उठाये नेत्र नहीं । कारण कि वासना से दूषितथे उनके अन्तस-क्षेत्र नहीं ।
उन पर निज रङ्ग चढ़ाने में, था अब भी विफल अनङ्ग हुवा । सुर भामिनियों के भ्र. भङ्गोसे भी प्रभु-ध्यान न भङ्ग हुवा ।।
उन पर उनकी चञ्चलता का, चल पाया रञ्च प्रपञ्च नहीं। बन सका राग का रङ्गस्थल, उनके मानस का मञ्च नहीं ।।
वे चिर उदार निज स्नेह दानके लिये बने थे महाकृपण । था यही हेतु जो इतने पर
भी मौन रहे वे महाश्रमण ।। पा उन्हें निरुत्तर उनने निज, माया से और उपाय किया। उनको उभारने हेतु रागउद्दीपक अध्यवसाय किया ।
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देवाङ्गनाओं द्वारा परीक्षा
RAMHERE
...
MHANS
४६.
उन पर निज रङ्ग चढ़ाने में था प्रबभी विफल अनङ्ग हुवा । सुर भामिनियों के भ्र भङ्गोंसे भी प्रभु-ध्यान न भङ्ग हुवा ॥
(पृष्ठ संख्या ४३०)
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सोलहवाँ सर्ग
नहीं,
पर जागा काम - विकार
निस्सार सकल व्यापार रहे ।
असफल हो वे पर 'वीर' पूर्ण
ही विकृत हुई, श्रविकार रहे |
बाँध,
श्राजानु बाहु के बाहु
पाये उनके भुजपाश नहीं । श्राशा तक उनको छोड़ चली, पर छोड़ी उनने आश नहीं ॥
सभी ।
बोलीं- "हमने था सुना श्राप, हरते दुखियों की पीर श्र' पर - उपकार - निमित्त लगादेते मन वचन शरीर सभी ॥
हम तो नवनीत
पर आप बज्र से
यह भी था सुना श्रापका मन, मृदु है शिरीष के फूल सदृश । पर श्राज यहाँ हम देख रहीं, वह है करील के शूल सदृश ||
समान बनी, बने रहे ।
हम झुकीं लता सी किन्तु आप, तो हैं खजूर से तने रहे ॥
४३१
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૪૨૨
अति व्यर्थ हमारा गात
हुवा,
अति व्यर्थ हमारी बात हुई ।
,
अति व्यर्थ कटाक्ष निपात हुवा अति व्यर्थ आज यह रोत हुई ||
अतएव चकित हो अंगुलियाँ, हम दाँतों तले दबातीं हैं । आयीं था हो आसक्त यहाँ, पर भक्त बनी अब जातीं हैं |
इतना कह 'त्रिशला नन्दन' का, अभिनन्दन बारम्बार किया । उन काम - निकन्दन के चरणों, का वन्दन बारम्बार बारम्बार किया ॥
परम ज्योति महावीर
फिर तत्क्षण अन्तर्धान हुई, औ' स्वर्ग गयीं सुरबाला वे ।
गयीं,
पहनाने थीं वरमाल श्रायीं गाते जयमाला
कारण कि वीर के नयन लुब्धथे हुये न उनके बालों पर । उन श्रात्म-रसिक के अधर लुब्ध, ये हुये न उनके गालों पर ॥
वे ॥
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सोलहवाँ सर्ग
अतएव
'वीर' के सदाचार
का आज उन्हें था बोध हुवा | एवं अपने उस कदाचारपर आज उन्हें था क्रोध हुवा ||
थीं मान रहीं यह तुच्छ कार्य, हमसे ही होगा सम्भव अब । अब माना प्रभु को च्युत करना, सब के ही लिए असम्भव अब ।।
जो कहा इन्द्र ने था, वह अबअक्षरशः सच प्रतिभात हुवा | जो गर्व रूप का करतीं थीं, उस पर था उल्कापात हुवा ||
अब वे सुखधुएँ
जब प्रभु ने ऐसा
तो उठे और
की ओर पुण्य
नहीं यहाँ, भान किया ।
चर्यार्थ नगरप्रस्थान किया ||
छह मास पूर्ण हो जाने परही थी उनकी यह भुक्ति हुई । उन निर्मोही का ऐसा तप, अवलोक विमोहित मुक्ति हुई ।।
४३३
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परम ज्योति महावीर
पश्चात् वहाँ से 'श्रावस्ती'की ओर चले वे महा श्रमण ।
औ' पहुँचे 'सेयविया' आदिकनगरों में करते हुये भ्रमण ॥ .
'श्रावस्ती' से चल ‘कौशाम्बी' फिर 'वाराणसी' गये 'सन्मति' । पश्चात् 'राजगृह' 'मिथला' हो, 'वैशाली' पहुँचे वे जिनपति ॥
वर्षागम देख किया उनने, ग्यारहवाँ चातुर्मास वहीं । अब देखो, कितने दिन तक वे, लेते न एक भी ग्रास कहीं ।
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सत्तरहवाँ सर्ग
ध्रुव सत्य कथन है यह कोई, उन्मत्त पुरुष की गल्प नहीं । यह सब यथार्थ का चित्रण है, इसमें न कल्पना अल्प कहीं ।।
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सतरहवाँ सर्ग
श्राहार हेतु बिनती
करते
थे 'वैशाली' के श्रेष्ठि प्रमुख |
पानी से
विमुख ||
पर 'वीर' अन्न श्रौ' रहते थे प्रतिदिन पूर्ण
-
इससे अनुमान किया, मासिक
तप है, इस कारण मूँद नयन । ये ध्यानारूढ़ सदा रद्दकर, करते रहते हैं श्रत्म मनन ||
सम्भवतः अब ये एक मासउपरान्त ध्यान यह त्यागेंगे । बस, तभी उसी दिन व मेरेये भाग्य कदाचित् जागेंगे ||
पर मास समाप्त हुवा, फिर भी प्रभु ने पुर को न प्रयाण किया । रह निराहार ही ध्यान मग्न उनने अपना कल्याण किया ||
की श्रतः कल्पना अब उनने --- होगा
दो
द्वैमासिक लगा ध्यान । मास श्रनन्तर पर उनको मिथ्या यह भी अनुमान लगा ।।
४३७
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परम ज्योति महावीर
क्रमशः त्रय मास समाप्त हुये, पर उठे नहीं वे दृढ़ ध्यानी । श्राहार दान के लिये बाटरह गये जोहते वे दानी ॥
जब चार मास हो गये पूर्ण, पूरा तब उनका योग हुवा । मध्यान्ह समय चर्यार्थ चले,
पर कुछ विचित्र संयोग हुवा ।। जो श्रेष्ठि प्रमुख गत चार माससे उनका मार्ग निरखते थे । औ' प्रायः उनके लिये शुद्धआहार बनाकर रखते थे ।।
जिनको आशा थी कि अाज, कर लँगा सफल मनोरथ को ।
औ' यही सोच जो देख रहेथे प्रभु के श्राने के पथ को ।।
उन तक आने के पूर्व कहीं, पड़गाह गये वे महा श्रमण । कारण कि जहाँ विधिवत् मिलता, कर लेते भोजन वहीं ग्रहण ॥
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सत्तरहवाँ सर्ग
४३६
वे वीतराग थे, निज भक्तों - से भी अनुराग न करते थे। इस वीतरागता का सपनेमें भी परित्याग न करते थे ॥
अन्यत्र पारणा हुई, श्रेष्ठिको सुन यह हुई निराशा थी। यद्यपि मन में रह गयी श्राज, उनके मन की अभिलाषा थी ॥
तो भी जिसने श्राहार दियाथा, उस पर व्यक्त न रोष किया । सौभाग्य सराहा उसका, निजदुर्भाग्य समझ परितोष किया ।
'वैशाली' से चल 'सूसुमार'
आये सिद्धार्थ-दुलारे वे। पश्चात् 'भोगपुर' गये, वहाँसे 'नन्दी ग्राम' पधारे वे ॥
फिर पहुँचे 'मेढिय गाँव' पुनः, 'कौशाम्बी' हेतु विहार किया।
औ' पौष-कृष्ण-प्रतिपदा-दिवस मह घोर अभिग्रह धार लिया ॥
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४४०
श्राहार उसी से लूँगा मैं, जो कन्या केश विहीना हो । बद्ध,
श्रृङ्खला
कुलीना हो ||
दासत्व प्राप्त, होकर भी सती
परम
जिसको त्र्य दिवस अनन्तर कुछ कोदों खाने को श्राया हो ।
तभी ग्रहण,
आहार करूँगा जब होंगी बातें इतनी सब |
देखो, उन प्रभु सम्मुख, श्राती है दुस्थिति कितनी अब ?
ज्योति महावीर
'औ' वही मुझे दे देने को, जिसका अन्तस् ललचाया हो ॥
यों निकल गये थे चार मास, उनको चर्यार्थ निकलते श्रव । पर नित्य लौट वे जाते थे, रह जाते निज कर मलते सब ॥
वे उक्त प्रतिज्ञा रख मन में, जाते नगरी की ओर सदा । पर कहीं प्रपूर्ण न होता था, पूर्वोक्त श्रभिग्रह घोर कदा ||
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सत्तरहवाँ सर्ग
अब तक श्राहार न होने से, भक्तों में बढ़ी विकलता थी। पर 'महावीर' के अनस्तल-- में पूर्व समान अटलता थी॥
अब भी तो इसी कसौटी पर, निज कर्म इधर वे कसते थे। श्राहार दान के हेतु उधर, सब श्रावक बन्धु तरसते थे।
पर 'वीर' कभी भी नहीं किसीसे स्वीय अभिग्रह कहते थे। ध्रुवतारे सी दृढ़ता अपना, वे शान्त भाव से रहते थे।
चिन्तित हो रानी 'मृगावती'ने राजा से यह बात कही। "हो रही पारणा नहीं, तथाहो रहा अभिग्रह ज्ञात नहीं ।
हा ! उन्हें हमारी नगरी मेंही मिलती विधि अनुकूल नहीं। श्रा रहे महीनों से हैं वे, पर होती प्रतिदिन भूल कहीं ॥
२८
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૪૨
क्यों पता लगाते नहीं ? उन्होंने लिया श्रभिग्रह कैसा है ?
क्यों नाथ ! हमारे हो रहा प्राज कल
शासन में,
ऐसा है ?
यदि यहाँ पारणा हुई न तो यह राज्य वृथा यह कोष वृथा । 'श्री' नहीं श्राज भर हमें सदा, जनता देवेगी दोष
वृथा ॥
हमको
अतएव अभिग्रह का अब सत्वर पता लगाना है । फिर तदनुसार ही शीघ्र हमें, साधन सम्पूर्ण
जुटाना है ||
परम ज्योति महावीर
इससे जैसे भी बने आप यह पता तुरन्त लगायें अब । जिससे कि हमारी नगरी से उपवासे सन्त न जायें अब ॥ "
-रानी ने राजा को सूचित - यों निज हार्दिक उद्गार किये । सुन जिन्हें भूप ने कहा कि अब होगा अवश्य श्राहार प्रिये ॥
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४४३
सत्रहवाँ सर्ग
सचिवों को शीन बुला कर मैं इस पर कर रहा विचार अभी । धर्माचार्यों से पूछ रहा, अनगारों का प्राचार सभी ॥
श्राहार दान की रीति पँछ, जनता को शीघ्र जता दूंगा। सब सावधान हो पड़गाहें, यह भी मैं उसे बता दूँगा ॥
यों तो स्वभावतः हे रानी ? धर्मज्ञ हमारी जनता है। पर जाने क्यों इतने दिन से, कोई भी योग न बनता है।
तुम धैर्य रखो मैं परामर्शकर उलझन को सुलझाता हूँ। उनके भोजन को हर सम्भव
श्रायोजन मैं करवाता हूँ॥" नृप 'शतानीक' ने यो रानीको प्रेम सहित समझाया था । पर वास्तव में क्या यत्न करें। यह नहीं समझ में आया था ।
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परम ज्योति महावीर
जो यत्न किये, सब विफल रहे, यह देख नरेश हताश हुये । जो श्राशावादी श्रावक थे, वे भी अब पूर्ण निराश हुये ॥
था नहीं अभिग्रह विदित हुवा, पञ्चम भी मास व्यतीत हुवा, छठवाँ भी क्रमशः बीत चला,
पर कोई गृह न पुनीत हुवा ।। श्राश्रो, अब उससे परिचित हों, जो बनने वाला दाता है। अब यहाँ उसी का लघु परिचय, इस समय कराया जाता है ।।
श्री 'वृषभसेन' के यहाँ क्रीत---- 'चन्दना' नाम की दासी थी। जो 'चेटक' नृप की कन्या थी, छवि में साक्षात् रमा सी थी॥
पर थी अभाग्य से पड़ी हुई, माँ और पिता से दूर यहाँ । उन उक्त श्रेष्ठि की गृहणी का शासन रहता था क्रूर जहाँ ।।
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परम ज्योति महावीर उस अपहृत अपनी भगिनी से, मिलने का श्राज नियोग हुवा । रह गयी न जिसकी आशा थी, उससे सहसा संयोग हुवा ।
अतएव 'चन्दना' को ले जा-- कर किया विविध आयोजन था । निज राज भवन में अपने सँग सस्नेह कराया भोजन था ।
औ' उसे पहिनने हेतु नये, निज तुल्य वसन श्राभरण दिये । तदनन्तर दोनो ने अतीतके व्यक्त कई संस्मरण किये ॥
सब कहा 'चन्दना' ने कैसे विद्याधर ने अपहरण किया ? किस भाँति बचाकर 'वृषभसेन'-- ने अपने गृह में शरण दिया ।।
यह भी बतलाया मैं कैसे करती सतीत्व का त्राण रही। हर समय शील की रक्षा में देने को तत्पर प्राण रही ॥
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परम ज्योति महावीर
फिर गये 'सुमङ्गल' 'सुच्छेता' 'पालक' सिद्धार्थ-दुलारे वे। बारहवें चातुर्मास हेतु फिर 'चम्पापुरी' पधारे वे॥
चातुर्मासिक तप धारण कर, वे वहाँ ध्यान में लीन हुये । उनके इस तप से भी जानेकितने ही कर्म विलीन हुये ।।
द्विज 'स्वातिदत्त' ने भी चर्चाकर मान उन्हें विद्वान लिया । कर चतुर्मास उन प्रभु ने फिर 'जभियपुर' को प्रस्थान किया ।।
औ' शीघ्र पहुँच कुछ समय वहाँ, उनने ध्यानार्थ निवास किया। फिर 'मिंढिय' हो 'छम्माणि' गये,
औं' ध्यान ग्राम के पास किया ।। उस समय ग्वाल ने कोप किया, ध्यानस्थ किन्तु श्री 'वीर' रहे । उसने जो जो भी कष्ट दिये, सब सहते वे गम्भीर रहे ।।
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हाँस
ग्वाले ने दुख दे हर्ष किया, प्रभु ने दुख सह न विषाद किया । उसने दुख देने में, प्रभु ने -- सहने में नहीं प्रमाद किया ||
प्रभु बारह
कष्टों को
जितने भी सत्र में चुप
ग्वाले ने अति निर्ममता की, पर जमे रहे वे समता से । उत्तम जन डिगते नहीं कभी म की अधमता से ||
वर्षों से ऐसे,
सहते आये थे ।
थे उपसर्ग हुये,
रहते श्राये थे ।
गत उपसर्गों सम इसको भी उनने समता से सहन किया । ग्वाले के जाने पर उठकर, 'मध्यमा' ग्राम को गमन किया || परीषद
'
इतने दिन सहे भेले उपसर्ग महान औ' एक दृष्टि से ही देखे,
सभी ।
सम्मान सभी अपमान सभी ॥
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यों साढ़े बारह
वर्ष चली,
तप की प्रति करुण कहानी यह ।
कर्मों से करता युद्ध रहा, इतने दिन तक सेनानी वह ||
इस दीर्घ अवधि में तीन शतक, उनचास दिवस आहार किया । अवशिष्ट दिनों में निराहार निर्जल रह श्रात्म विहार किया ||
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इस तप से जाने कितने हीतो कर्मों का संहार हुवा | जाने कितने ही श्रात्म गुणों
से भी उसका
शृङ्गार हुवा ||
Cit
परम ज्योति महावीर
कर पुनः 'मध्यमा' से विहार, चल पड़े स्वतन्त्र विहारी वे । देखो,
अत्र होने
सम्पूर्ण ज्ञान के
ईर्या से चलते हुये सतत, वे पहुँचे 'जंभिय' ग्राम निकट | देखा 'ऋजुकूला - सरिता तटपर एक 'साल' का वृक्ष विकट ||
वाले हैं,
धारी वे ॥
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सतरहवाँ सर्ग
उसके नीचे वे बैठ गये, निष्वेष्ट बना निज काया को ।
था पहिली बार दिखा ऐसा ध्यानी उस तरु की छाया को ।
प्रभु ने परिणाम विशुद्ध बना, नासा पर दृष्टि मुकायी थी । चढ़ 'क्षपक श्रेणि' पर शुक्ल ध्यान में सारी शक्ति लगायी थी ||
हो गये घातिया कर्म नष्ट, इतना उत्तम वह ध्यान किया ।
वैशाख शुक्ल की दशमी को, पा निर्मल केवल ज्ञान लिया ।।
तत्काल विकृति सब दूर हुई, सब प्रकृति स्वतः अनुकूल हुई । श्र' युगों युगों को वन्दनीय उस सरिता तट की धूल हुई ||
उस दिन की इस शुभ घटना की साक्षी अब भी ऋजुकूला है । उसको इस मङ्गल बेला का
शुभ दृष्य न अब तक भूला है ॥
४५६
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परम ज्योति महावीर.
कैवल्य-लाभ कर 'महावीर' अब विश्वशान के कोष हुये । यह देख न केवल यहाँ, स्वर्गमें भी उनके जयघोष हुये ।।
अब चरम दशा को पहुँच चुकाथा उनका दर्शन ज्ञान प्रखर । अतएव हुये थे निज युग के वे सर्वोपरि विद्वान प्रखर !!
अब उन्हें ज्ञान में तीन लोक
औ' तीनों काल दिखाते थे। कर तल गत से उन्हें स्वर्गभूतल-पाताल दिखाते थे।
यह अनुपम लाभ हुवा था पर, उनको न अल्प भी गर्व हुवा । कैवल्य-प्राप्ति का दिवस अतः जगती को मङ्गल पर्व हुवा ।।
सबने सोल्लास मनाया था, कैवल्य प्राप्ति का वह मङ्गल । 'जय महावीर' 'जय महावीर'-- की ध्वनि से गूंजा था जङ्गल ।।
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raat सर्ग
ध्रुव सत्य कथन है यह कोई, उन्मत्त पुरुष की गल्य नहीं । यह सब यथार्थ का चित्रण है, इसमें न कल्पना अल्प कहीं ॥
ज्योतिषी सुरों ने समवशरण, इतना अभिराम लगाया था । जिसको विलोक कर लगता, भूपर स्वर्ग उतर कर आया था ||
प्रवेश पा सकते थे,
सभी । सकते थे,
चण्डाल सभी ॥
उसमें
भूपाल सभी कङ्गाल
उसमें सहर्ष es ब्राह्मण
जिस भाँति वहाँ श्रा सकते थे पुण्यात्मा, धनपति, गुणी सभी । उस भाँति वहाँ आ सकते थे, पापी, निर्धन, निर्गुणी सभी ॥
नर के समान श्रा सकते थे, वृष, गज, तुरङ्ग, लंगूर वहाँ । निर्भय प्रवेश कर सकते थे, मैना, मधुघोष, मयूर वहाँ ॥
૨૩
૪:૦
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परम ज्योति महावीर
पर प्रभु की दिव्यध्वनि द्वारा, गंजे थे अभी दिगन्त नहीं । श्रतएव 'अवधि' से देवराजने सोचा हेतु तुरन्त वहीं ।
अब चलो, पाठको ! देखें हम श्रागे क्या घटना घटती है। किस भाँति द्विजोत्तम 'इन्द्रभूति'की जीवन-दिशा पलटती है ?
जो निज विद्वत्ता के मद में रहते थे प्रायः चूर अभी। प्रभु समवशरण में आ उनका मद कैसे होता दूर सभी ।।
-
-
-
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अठारहवाँ सर्ग
अहिंसा
पालन से,
परिपूर्ण व तक सत्रका निर्वाण हुवा | हिंसा के द्वारा किसी जीव
का नहीं कभी कल्याण हुवा ||
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अठारहवाँ सर्ग
रच यज्ञ 'सोमिलाचार्य' विप्र
ने बहु विद्वान जुटाये थे ।
द्विज,
वेदाङ्ग विज्ञ थे जितने वे सब यज्ञार्थ बुलाये थे ||
अधिकांश द्विजों के सँग उनकेप्रिय शिष्यों की भी टोली थी । अतएव अतिथियों की संख्या उस समय हजारों हो ली थी ॥
ग्यारह तो ऐसे थे, जिनकी -
प्रज्ञा का नहीं
ठिकाना था।
उत्सव की पूर्ण
सफलता का आना था ||
कारण उनका ही
उनने इस अपनी
विद्वत्ता
की छाप सभी पर डाली थी । वास्तव में विषय-विवेचन की, उन सबको रीति निराली थी ।
था बजा 'मध्यमा' में यद्यपि उनकी इस प्रतिभा का डङ्का । पर उन सबके भी अन्तस् में थी एक एक रहती
शंका ||
४६१
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४६२
परम ज्योति महावीर वे जिसे किसी को सूचित कर, भी नहीं पछते थे उत्तर । कारण, विद्वान् समझते थे, वे अपने को सबसे बढ़कर ॥
औ' नहीं किसी को साधारण लगते थे उनके तर्क कदा । यशों में सर्व प्रथम मिलता
था उनको ही मधुपर्क सदा ।। जब पढ़ते, लगता सरस्वती स्वर में स्वयमेव उतरती है। श्री' स्वयं वृहस्पति की प्रशाही उन्हें अलंकृत करती है ।
सब विप्र योग्यता उन जैसी, पाने के लिये तरसते थे । बन शिष्य सैकड़ों ही उनके, अपनी प्रतिभा को कसते थे ।।
था कारण यही, किसी को जोनिज शङ्का वे न बताते थे । थी ख्याति रोकती, अतः प्रश्न, करने में भी सकुचाते थे ।
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अठारहवाँ सर्ग
इन ग्यारह में श्री 'इन्द्रभूति' का होता सर्वाधिक श्रादर । जो वहाँ पधारे थे 'गोवरपुर' से आमन्त्रित हो सादर ॥
माना करते थे पाँच शतकचेले अपना आदर्श इन्हें । औ' जाने कितनों को लौटा
देना पड़ता प्रतिवर्ष इन्हें ।। श्री 'अग्निभूति' थे इनके हीभ्राता, जो शिक्षा देते थे।
औ' छात्र पाँच.सौ इनसे भी, वेदों की शिक्षा लेते थे ।
थे अनुज इन्हीं के 'वायुभूति' था इनका भी उद्देश्य यही । विद्यार्थी पाँच शतक इनके
मुख से सुनते उपदेश वही ॥ 'कोल्लाग'-निवासी विप्र 'व्यक्त' थे व्यक्त जिन्हें द्विज धर्म सभी । औ' शिष्य पाँच स । इनसे भी थे सीख रहे द्विज कर्म सभी ॥
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૪૭૦
जब मान स्तम्भ विलोका तो मानादि नष्ट सत्र क्षिप्र हुये । इस समव शरण की महिमा को, अवलोक चकित
च विप्र हुये ॥
उन्हें 'वीर' के वन्दन में
ही भासा अपना क्षेम स्वयं । संसर्ग --लाभ --
पारस मणि के
से लोह हुवा
था हेम स्वयं ||
जो गर्व श्राज तक उस पर मन ही मन
'श्री' 'महावीर' के में ही रहने का
किया आज क्षोभ हुवा |
समवशरणलोभ हुवा ||
परम ज्योति महावीर
माना, मिथ्या मद के पिशाच-
से आज हमारा त्राण हुवा | अब तक कल्याणाभास रहा ! वास्तविक श्राज कल्याण हुवा ||
इस समवशरण में शरण मिली-है आज हमें जग त्राता की । हमने विलोक ली यह विभूति, इन तीन लोक के शाता की ।।
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अठारहवाँ सर्ग
यों वहाँ सभी को शान्ति मिली, श्रो, नहीं किसी को प्राप्त हुवा । इससे कुछ प्रश्न वहाँ करनेका गौतम को उल्लास हुवा ।।
पूँछा- “यह मण्डप तो मुझको, होता मानव-कृत ज्ञात नहीं । कारण, ऐसी रचनाएँ तो, मानव के वश की बात नहीं ॥
इससे इसके निर्माता कापरिचय है मुझको ज्ञेय प्रभो । नयनाभिराम इस रचना का, किस शिल्पी को है श्रेय प्रभो ।।
सर्वत्र अलौकिकता दिखती, मण्डप के चारों ओर मुझे। जो अपनी दिव्य छटाओं से, करती है हर्ष विभोर मुझे ॥
अतएव आज मम विस्मय का, है नहीं कहीं भी अन्त अभी । इतनी सुन्दर उपदेश-सभा, देखी न आज पर्यन्त कभी ।।
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परम ज्योति. महावीर
शिल्पो का नाम बतायेंगे, है मुझे श्रापसे अाशा यह ।” इतना कह ज्यों ही मौन हुये, त्यों हुई कर्ण गत भाषा यह ।।
"जब 'चन्द्र' इन्द्र ने जाना यह अब बचे घातिया कर्म नहीं । तो समवशरण की रचना की स्वयमेव मान निज धर्म यहीं ।
सुन 'इन्द्रभूति' ने यह उत्तर, यह प्रश्न पुनः तत्काल किया । "यह चन्द्र कौन है ? इसने गतभव में क्या पुण्य विशाल किया ?
यह सभी जानने को मेरा जिज्ञासु हृदय ललचाया है। अतएव बतायें यह, इननेक्यों जन्म वहाँ पर पाया है ?"
उत्तर में सुना कि 'श्रावस्ती' नामक पुर है प्राचीन यहीं। था 'अङ्कित' श्रेष्ठि किया करता, व्यवसाय स्वीय स्वाधीन यहीं ।
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अठारहवाँ सर्ग
उसने सुनकर श्री पार्श्वनाथ'-- के वचन सभी कुछ छोड़ दिया। संसार मार्ग से हो विरक्त शिव-पथ से नाताजोड़ लिया ॥
लक्ष्मी का अाराधन तज, श्रारम्भ किया सोऽहं जपना । कर घोर तपस्या सफल किया,
दुर्लभ मानव-जीवन अपना । फल रूप 'ज्योतिषी' देवों में पाया दुर्लभ अवतार वहाँ । है'चन्द्र' नाम का इन्द्र तथा करता सुख सहित विहार वहाँ ॥
जब अपनी निश्चित प्रायु-अवधि, कर लेगा पूर्ण व्यतीत वहाँ। तब ले 'विदेह' में जन्म स्वयं,
पायेगा मोक्ष पुनीत महा ॥" यह शान देख कर 'इन्द्रभूति'पर शीघ्र प्रभाव अतीव पड़ा । सोचा, कैसे भ्रम- सागर मेंथा अब तक मेरा जीव पड़ा ।। .
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परम ज्योति महावीर
जो भी सुनने को मिला, हुवा--- उससे अतिशय सन्तोष उन्हें । वे लगे मानने मन ही मन अब विश्व ज्ञान का कोष उन्हें ।।
फिर सोचा, बिना कहे मेरी
शङ्का को ये साधार अभी। निर्मूल करें तो मैं इनको सर्वज्ञ करूँ स्वीकार अभी ।।
यों अभी सोचते थे, इतनेमें ही तो दिया सुनायी यह । "हे गौतम ! तुमने निज शङ्का अब तक क्यों व्यर्थ छुपायी यह ।।
इस आत्मा के अस्तित्व-विषय में रहती शङ्का नित्य तुम्हें । जो जीव नित्य अविनाशी है वह लगता क्षणिक अनित्य तुम्हें ।।
ज्यों ही 'गौतम' ने प्रभु-मुख से यह उत्तर सुना अनूठा था। त्यों समझ गये, जो समझा था-- मैने, वह सब कुछ झूठा था ।
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उन्नीसवाँ सर्ग .
यह समाचार सुन 'वायुभूति'ने शिष्यों सँग प्रस्थान किया । प्रभु-शान-परीक्षा करना अब, उनने भी मन में ठान लिया ।
पर समवशरण में आ ज्यों ही, देखा प्रभु का अम्लान वदन। त्यों समझ लिया ये प्रभुवर हैं, सचमुच में केवल शान-सदन ॥
वे प्रश्न पूछने को ही थे, इतने में दिया सुनायी यह । "हे जीव देह से भिन्न, बातक्या नहीं समझ में श्रायी यह ॥
सुन 'वायुभूति' ने कहा-प्रभो। मैं समझ न यह हो पाता हूँ। अतएव आपको मैं अपनी, शङ्का का सार बताता हूँ ॥
कैसे है तन से भिन्न जीव ? श्राती न समझ में बात यही । औ' पुनर्जन्म होता कि नहीं, शङ्का रहती दिन रात यही ।।
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परम ज्योति महावीर
यह सुन कर प्रभुवर उसी समय, हित मित प्रिय स्वर में बोल चले । श्रागम के गूढ़ रहस्यों को, अति सरल कथन से खोल चले ॥
अस्तित्व तेल का ज्यों तिल से, होता तुमको प्रतिभात पृथक् । बस त्यों ही समझो वायुभूति,
है जीव पृथक् औ' गात पृथक् ।। मैं सुखी और मैं दुखी श्रादि, जो करा रहा है मान तुम्हें । यह नहीं देह का कार्य, जीवही करा रहा यह ज्ञान तुम्हें ॥
यदि तुम मानोगे जो कुछ है, वह है केवल जड़ 'भूत' यहाँ । तो कोई भी वैचित्र्य नहीं,
हो सकता है उद्भूत यहाँ ॥ कारण कि 'भूत' कुछ भी करनेमें अपने आप समर्थ नहीं । ये बिना नियोजक चेतन के, कर सकते अर्थ अनर्थ नहीं ।
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उन्नीसवाँ सर्ग
तुम दुग्ध देख कर कर लेते, उसमें घृत का अनुमान यथा । सक्रिय शरीर से कर सकतेहो अात्मा की पहिचान तथा ॥
आशा है, समझ गये होंगे, है नहीं द्रव्य जड़ मात्र यहाँ । कर्माणुलिप्त यह चेतन ही, होता सुख दुख का पात्र यहाँ ॥
जब तक न कर्म हो जाते हैं, सम्पूर्णतया निर्मूल यहाँ । तब तक होता है पुनर्जन्म, निज कर्मों के अनुकूल यहाँ ।।
सुन 'वायुभूति' को जीव तत्व, भासित होने प्रत्यक्ष लगा । श्री 'वीर'-कथन निर्दोष लगा, दूषित अपना वह पक्ष लगा ।
अतएव उन्होंने भी समस्त, प्रारम्भ परिग्रह त्याग दिया । यों बने तीसरे गणधर वे, औ' स्वीय दुराग्रह त्याग दिया ।
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४६२
परम ज्योति महावीर अब 'आर्य व्यक्त' को सम्बोधितकर बोले वे जिनराज अहो । "क्या सिवा ब्रह्म के सब में ही, शङ्का तुमको द्विजराज ! कहो ?" .
यह सुनकर बोले 'आर्य व्यक्त' "हे धर्म-राज्य-सम्राट! कहीं। सत् कहा है और असत्, वर्णित है विश्व विराट कहीं ॥
वास्तव में जग सत् या कि असत्, यह सुनने की अभिलाषा है। कारण, हर भ्रम तम हरने में, निष्णात आपकी भाषा है।"
यह सुन कर प्रभु ने कहा-"स्वप्नसम समझे हो तुम लोक सभी । ब्रह्मातिरिक्त सब द्रव्यों को, तुम रहे असत्य विलोक अभी ।
पर यह 'स्वप्नोपं वै सकलं' पद तो कोई विधि वाक्य नहीं । उपदेश-वाक्य है उन्हें, जिन्हेंजग से होता वैराग्य नहीं ॥
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४६३
उन्नीसवा सर्ग
यह सूचित करता, नश्वर है, माँ पिता पुत्र परिवार सभी । आयुष्य अन्त में लेते हैं, अन्यत्र नया अवतार सभी ।।
अतएव मुमुक्ष, विनश्वर सुखमें नहीं कभी विश्वास करें । एवं अविनाशी आत्मिक सुख
पाने का सतत प्रयास करें ॥" यों 'आर्य व्यक्त' की शंकाएँ कर दूर मौन श्री 'वीर' हुये ।
औ, आर्य व्यक्त' निजशिष्यों सँग, मुनि बनने हेतु अधीर हुये ।।
वे चौथे हुये गणधर तथा धर लिया दिगम्बर वेष अहो । पश्चात् 'सुधर्म' द्विजोत्तम से
बोले श्री 'वीर' जिनेश अहो ॥ "जिसप्राणी का जिस जीव योनिसे होता तन अवसान, वही-- निज योनि उसे फिर मिलती है, क्या तुमको है श्रद्धान यही ?
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४६४
परम ज्योति महावीर यह सुनकर बोले द्विज 'सुधर्म, "मैं मान रहा हे सन्त ! यही । नर नर होता पशु पशु होता, मैं समझ रहा भगवन्त ! यही ॥
जलचर मर जल चर होता है, श्री' विहग मरण कर विहग यहाँ ॥ मर तुरग तुरग ही होता है,
श्रौ' उरग मरण का उरग यहाँ ॥ है क्यों कि नियम, निज कारणकेअनुरूप कार्य सब होते हैं। तिल से तिल सदा उपजते हैं, उत्पन्न नहीं जव होते हैं ।
बस इसी प्रकार भ्रमर को भी मर भ्रमर चाहिये होना फिर । एवं प्रत्येक मगर को भी
मर मगर चाहिये होना फिर ॥" यह सुन कर बोले 'महावीर'“मिथ्या यह ज्ञान तुम्हारा है। एकान्त वाद के कारण यह मिथ्या श्रद्धान तुम्हारा है।
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४६५
उन्नीसवाँ सर्ग
वैसा न वस्तुतः है, तुमकोजैसा कि समझ में आया यह । घटता न नियम जन्मान्तर में, जो तुमने यहाँ घटाया यह ॥
यह सत्य कि तिल से तिल ही तो होता सदैव उत्पन्न यहाँ । पर भाव कार्य औ' कारण का
शारीरिक हो सम्पन्न यहाँ ।। इस भाँति पुरुष की भी सन्तति होती है पुरुषाकार सदा । एवं पशुओं से होता है, पशुतन धारी अवतार सदा ॥
यदि यह नियम न होता, तोसब कुछ होता प्रतिकूल यहाँ । तरु-शास्त्रा जनतों मानव को,
नारी में खिलते फूल यहाँ ।। पर हे सुधर्म ! हर प्राणी काही जीव पृथक् औ' गात पृथक् । उत्तर शरीर की बात पृथक श्री' उत्तर भव की बात पृथक् ।।
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E
उत्तर तन
अतएव पूर्व तन का कारण तो
हो
जाता है ।
पर उत्तर भव के
धारण का
यह हेतु नहीं हो
पाता है |
भव-प्राप्ति हेतु तो
के कर्मों का ही
यह ही अनादि से
में सब जीवों को
मिलती है,
जैसा है ।
उसको वैसी गति
जो कर्म बाँधता
जैसा
बीज - वपन
होता है फल भी तो मिलता वैसा है ||
परम ज्योति महावीर
यह पूर्व भविक काया
इसमें सकती प्रभाव कुछ डाल नहीं । नर सुर हो अमृत पी सकता, हो सकता विषधर व्याल यहीं ||
सदा
जीव
रहा ।
जाल
चारों गति
डाल रहा ||
――
कर अशुभ कर्म यह जीव अशुभ गतियों में यथा भटकता है । शुभ कर्मबाँध शुभ गतियों में उत्पन्न तथा हो सकता है ||
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उनीसवाँ सर्ग
भव-धारण का कारण केवल सत्कर्म कुकर्म प्रताप सदा । नर सुर गति देते पुण्य तथा तिर्यञ्च नरक गति पाप सदा ।।
अतएव कर्म पर श्राधारितहै अागामी अवतार यहाँ ? एवं प्राणी के पुनर्जन्मका देह नहीं आधार यहाँ ।"
श्रीयुत 'सुधर्म' को उक्त वचन, अक्षरशः सत्य प्रतीत हुये । अतएव जिनेश्वर से दीक्षालेने के भाव पुनीत हुये ।।
निज छात्र वर्ग के संग सविधि दीक्षा ले मन में तोष किया। हो गये पाँचवें गणधर वे
सबने उनका जयघोष किर्या ।। तदनन्तर पास खड़े 'मण्डिक'की ओर 'वीर' ने ध्यान दिया । कारण उनके भी अन्तस् की जिशासा को था जान लिया।
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४६८
- परम ज्योति महावीर
बोले-"क्या तुमको वन्ध-मोक्षतत्वों में है सन्देह कहीं ? निज शंका प्रकट करो मन में-- दो उसे बनाने गेह नहीं ॥"
सुन 'मण्डिक' बोले-"मम मत से, श्रात्मा निर्मल स्वाधीन सभी । रहते सुस्फटिक सदृश उज्ज्वल,
होते हैं नहीं मलीन कभी ॥ इन पर न बैठने पाती है, इन कर्मों की भी धूल कभी। अतएव मोक्ष की सत्ता ही मुझको लगती निमूल अभी ।।
सुन कहा नाथ ने--"सुनो, विप्र ! मैं सत्य स्वरूप सुनाता हूँ। वास्तव में वस्तुस्थिति क्या है ?
यह अभी तुम्हें समझाता हूँ ॥ तुमने जो श्रात्मा का स्वरूप वर्णन कर मुझे सुनाया है। वह किनका वर्णन है ? तुमको-- यह नहीं समझ में आया है ।
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उन्नीसवाँ सर्ग
इस कारण ही तो तुम्हें हुवा ऐसी शङ्का का भान अहो । अतएव ज्ञान यह कर लो तो मिट जाये सब अशान अहो ।
वह वर्णन सिद्धात्मात्रों का, सकते न देख ये नेत्र जिन्हें । रखता है अपने यहाँ सदा सिद्धालय का ही क्षेत्र जिन्हें ।
रह सदा अनन्त समय, अनुभवकरते हैं सौरव्य अनन्त वहीं । युग युग तक उनके उस अक्षय-- सुख का होता है अन्त नहीं ।।
संसारी आत्मा को कदापि, मिलता उन सम आनन्द नहीं। कारण कि काट कर बन्धन यह हो पाया है स्वच्छन्द नहीं ।
मोहोदय से यह निज कौ--- का नाश नहीं कर पाता है। मिथ्यात्व-उदय से तत्वों पर विश्वास नहीं कर पाता है।
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बीसवाँ सर्ग
हैं द्रव्ये नित्य अनादि
इससे अनादि संसार
कोई न किया करता
नव सृजन और संहार
सभी
सभी ।
इसका
कभी ।
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उन्नीसवाँ सर्ग
प्रभुवर ने विप्र 'अचलभ्राता'-- की ओर तुरन्त निहारा अब । बोले-"क्या पुण्य तथा पापोंमें शंकित हृदय तुम्हारा अब ?"
यह सुनकर बोले 'अचल'-"इन्हींमें मम मन शंकित होता है। ये पुण्य पाप हैं या कि नहीं ? यह तथ्य न निश्चित होता है ।
अतएव कहें, क्या वास्तव मेंही पुण्य पाप ये होते हैं ? क्या ये यथार्थ हैं त्यों ? यथार्थज्यों शीत ताप ये होते हैं।"
इतना कह जब चुप हुये 'अचल' बोले वे श्री अर्हन्त अहा । "पण्डित ! इनका न अभाव कभी
भी यहाँ श्राज पर्यन्त रहा ।। तुम अभी 'पुरुष एवेदं' से, जो कुछ समझे वह अर्थ नहीं। ये वाक्य दूसरे तत्वों केनिरसन के हेतु समर्थ नहीं ।।
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५१०
परम ज्योति महावीर
'पुण्यः पुण्येन' वचन से भी खण्डित होता है कर्म नहीं । द्विजवर ! गर्भित है पुनर्जन्म औ' कम तत्व का मर्म यहीं ।
इससे व्यवहारिक पुण्य पाप-- हैं तर्क युक्त, यह जानो तुम | एवं इस पुरुषातिवादको निराधार अब मानो तुम ॥"
यह सुनकर दूर 'अचलभ्राता' के मन का सब भ्रम जाल हुवा । प्रभुवर से दीक्षा लेने का मन में विचार तत्काल हुवा ॥
की ग्रहण प्रव्रज्या शिष्यों सँग, तन से परिधान हटाये सब । नवमें गणधर ये हुये, अतः
सबने निज शीश झुकाये अब !! परलोकवाद की सत्ता में
शंकित थे द्विज 'मेतार्य अभी। इससे इनके भी मन का यह भ्रम हरना था अनिवार्य अभी॥
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५११
बीसवाँ सर्ग
अतएव 'वीर' ने पुनर्जन्मका प्रतिपादन निर्दोष किया । भूतातिरिक्त इस श्रात्मा को कर सिद्ध इन्हें सन्तोष दिया ।
भ्रम दूर हुवा, इससे इननेभी तो स्वीकृत मुनिधर्म किया । दसवें गणधर की पदवी पा पहिचान धर्म का मर्म लिया ।
औ' शिष्य वर्ग भी निज गुरु का अनुकरण तुरत कर धन्य हुवा । कारण कि सभी को अति अपूर्वअानन्द प्रव्रज्या-जन्य हुवा ॥
अब द्विज 'प्रभास' की भ्रान्ति व्यक्तकरते बोले मुनिपाल अहो । "क्या तुम्हें मोक्ष में शंका है ? सङ्कोच त्याग तत्काल कहो ॥"
यह सुन 'प्रभास' ने कहा-"आपने है यथार्थ ही भान किया । मेरे कहने के पूर्व अहो, मेरी शंका को जान लिया ।
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५१२
परम ज्योति महावीर.
कों से मुक्ति असम्भव है, ऐसा होता अाभास मुझे। अतएव मोक्ष की सत्ता में, होता न अभी विश्वास मुझे ।।
सम्बन्ध जीव औ' कर्मों कातो मैं अनादि से मान रहा । पर वह श्रात्मा के ही समान
होगा अनन्त, यह जान रहा । अब आप शीघ्र ही तो मेरी इस शंका को निमूल करें । संक्षिप्त रूप में ही मुझको अब सूचित मेरी भूल करें ॥"
प्रभु लगे बोलने मधु स्वर से, ज्यों ही 'प्रभास' द्विज मौन हुये। प्रभु के समक्ष अपनी शंका-- रख कर निराश भी कौन हुये ।।
प्रभुवर ने कहा-"अनादि वस्तुहोवे अनन्त, यह नियम नहीं । द्विजवर ! अनादि से मलिन स्वर्ण निर्मल करना क्या सुगम नहीं ?
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बीसवाँ सर्ग
ज्यों स्वर्ण अग्नि में पक अपना, कल्मष देता है त्याग स्वयं । त्यों श्रात्मा को निर्मल करती है, तप, ज्ञान, ध्यान की श्राग स्वयं ॥"
इस अति संक्षिप्त विवेचन से, शंका 'प्रभास' ने त्यागी थी! उनके भी मन में जिन-दीक्षा--- लेने की इच्छा जागी थी ।।
निज शिष्य वर्ग के सङ्ग स्वय', दीक्षित हो बने विरागी थे। तत्क्षण ग्यारहवें गणधर की, पदवी पाये बड़भागी वे ॥
यो ये दीक्षा के समारोह, उस दिन अत्यन्त विराट् हुये ॥ यह 'वीर'---महत्ता देख चकित,
सत्ताधारी सम्राट् हुये ॥ वह दिवस विशेष महत्वपूर्ण, बतलाया गया पुराणों में । वह विजय शक्ति थी जिनवर में जो रहती नहीं कृपायों में ॥
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५२६
परम ज्योति महावीर
प्रभु के शरीर के मण्डन सा, 'भामण्डल' था अभिराम लगा। जो सभी दर्शकों को रत्नोंके दर्पण तुल्य ललाम लगा ।।
यों प्रभु के श्राटों प्रातिहार्यअवलोक स्वभाग्य सराहा था । सबने सतृष्ण प्रभु- दिव्यध्वनि,
को ही अब सुनना चाहा था । अतएव नरों के कोठे में, जा गये विराज नरेश तभी ।
औ' किया 'चेलना' ने वधुत्रों, के कोठे मध्य प्रवेश तभी ।
सब निनिमेष हो देख रहेथे प्रभु का वदन-सरोज अहो । जिस पर अत्यन्त झलकता था, तप-ब्रह्मचर्य का प्रोज अहो ।
सहसा सबके कल्याण हेतु, धर्मोपदेश प्रारम्भ हुवा । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा दिवस, दिव्यध्वनि का प्रारम्भ हुवा ॥
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teat सर्ग
हे भव्यो ! जीव-जीवों कासमुदाय जगत कहलाता है । श्र' पुग्दल, धर्म, धर्म, काल, आकाश अजीव
कहाता है ||
श्रतएव उक्त इन छह द्रव्योंसे भिन्न वस्तु है लोक नहीं । इनमें से पुग्दल सिवा किसीको भी सकते अवलोक नहीं ||
कारण कि श्रमूर्तिक होते वे, इसमें है अल्प विवाद नहीं 1 उनमें न रूप, संस्पर्श नहीं, है गन्ध नहीं, है स्वाद नहीं ||
जा सकते,
श्रतएव न देखे वे चर्म चक्षुत्रों के द्वारा ।
पर
विविध प्रमाणों से संभव, पाना उनका परिचय सारा ॥
और सदा,
हर द्रव्य सदा से वह निश्चित रहने वाला है । पर कुछ ने भ्रम से ही अनित्य; इन द्रव्यों को कह डाला है ।।
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५२८
परम ज्योति महावीर
अतएव नित्यता पर इनकी, सन्देह रहित विश्वास करो । स्याद्वाद-दृष्टि से तत्व-रूपके चिन्तन का अभ्यास करो।
पर्याय अवश्य बदलती है, होती है प्राप्त नवीन यहाँ । एवं विनष्ट हो जाती है, पर्याय मात्र प्राचीन यहाँ ।।
ज्यों एक वसन तज अन्य पहिन, नर बदला करता वेष स्वयं । स्यों जीव एक तन त्याग अन्यमें करता किया प्रवेश स्वयौं ।
अतएव मरण से होता है, केवल तन का अवसान सदा । पर आत्मा नष्ट न होती है,
तुम करो यही श्रद्धान सदा ।। हैं द्रवएँ नित्य अनादि सभी, इससे अनादि संसार सभी । कोई न किया करता इसका, नव सजन और संहार कभी ।।
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बीसवाँ सर्ग.
५२३
पर जीव भ्रमण कर रहा सतत निन कर्मों के अनुसार यहाँ । इसने निगोद में रह अनन्त, दुख भोगे कई प्रकार वहाँ ॥
फिर निकल वहाँ से एकेन्द्रिय, हो कष्ट करोड़ों किये सहन । फिर कृमि, पिपीलिका, भ्रमर श्रादिके भी शरीर सब किये वहन ॥
मन रहित जन्तु यह कभी हुवा, मन बिना दुखी असहाय हुवा । मन सहित कभी वन-सिंह हुवा, औ' कभी नगर की गाय हुवा ॥
जो सबल हुवा तो निर्बल पशुको मार मार अाहार किया। इस अति हिंसा के फल स्वरूप अनुभव संक्लेश अपार किया ।
औ' हुवा स्वयं जब निर्बल तो प्रबलों ने असहप्र हार किये । बन्धन' छेदन औ' भेदन के दुस्सह दुख बारम्बार दिये ॥
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૨૦
जब
मरा कभी तो नर्क गया,
है जहाँ कहीं पर क्षेम नहीं शत्रु शत्रु ही दिखते हैं, करता है कोई प्रेम नहीं ॥
सब
असमय में मरण न होने से मिलता दुख से परित्राण नहीं | श्रीजीवन सहने पड़ते दुख, होता कदापि कल्याण नहीं || "
पशु और नरक के यों सर्व प्रथम जग
कष्ट कहे
त्राता ने ।
मानव-पर्याय-विषय में
अव
बतलाया यों उन ज्ञाता ने ||
परम ज्योति महावीर
-X.
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इक्कीसवाँ सर्ग
अाक्रमण पड़ोसी भूपों पर करना तज दिया नरेशों ने। जो शत्रु रहे थे, उन्हें मित्रसा बना दिया उपदेशों ने ॥
जो थे स्वभावतः क्रुद्ध जन्तु अब त्याज्य उन्हें भी क्रोध लगा। कहने का यह सारांश देव-- नर-पशु सबमें सद्बोध जगा ॥
यो निन शासन छिन जाने से हिंसा अत्यन्त निराश हुई।
औ' विश्व प्रेम की विजय देख हो घृणा परास्त हताश हुई ।
विकसा जन-जन में साम्यवाद,
औ' भेद भाव का ह्रास हुवा । सबको शूद्रों से प्रेम भाव— रखने का भी अभ्यास हुवा ॥
अब नहीं वेद-ध्वनि सुनने पर, लगती थी उन पर रोक कहीं। औ' उन्हें शिवालय जाने से सकता था कोई टोक नहीं ।
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५४६
परम ज्योति महावीर
यों प्रभु के इन उपदेशों से परिवर्तित हृदय तुरन्त हुये। केवल न धर्म में पर समाजमें भी सुधार अत्यन्त हुये ॥
उनकी वाणो में शिवद सत्य हो सुन्दर स्वय झलकता था। सब मन्त्र मुग्ध हो सुनते थे उनको कुछ भी न खटकता था ।
जिनराज 'राजगृह' तजें नहीं, 'श्रेणिक' को ऐसा लगता था। पर समय किसी पर ध्यान न दे निज निश्चित गति से भगता था ।
यह चतुर्मास हो गया, देख--- 'श्रेणिक' ने मन कुछ म्लान किया। पर वीतराग ने ध्यान न दे निश्चित तिथि में प्रस्थान किया ।।
उन 'परम ज्योति' को अभी अन्यनगरों का तिमिर गलाना था ।
औ' ग्राम ग्राम के मानव को, मानव का धर्म सिखाना था ॥
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५४७
इसकीसवा सर्ग
इससे "विदेह' की ओर चले, 'त्रिशला' के राजदुलारे वे । धर्मामृत देते हुये सभी - को, 'ब्राह्मण कुण्ड' पधारे वे ॥
सुन समाचार सब जनता में, प्रभु--दर्शन की अभिलाष जगी। अतएव दिव्य ध्वनि सुनने को, वह श्राने द्रुत सोल्लास लगी ।
या दूर न 'क्षत्रिय कुण्ड ग्राम' पहुँचा कट यह वृतान्त वहाँ । पा जिसे वहाँ की जनता भी, श्रा कर बैठी हो शान्त वहाँ ।
शुभ अर्द्धमागधी भाषा में, प्रवचन करने सर्वज्ञ लगे । सुन जिसे अधर्मी, अशनीजन भी होने धर्मज्ञ लगे ।
कुछ ऐसा जादू सा डाला, श्रोताओं पर प्रभु-वाणी ने । जो शान्ति प्राप्ति का सही मार्ग, विधिवत् समझा हर प्राणी ने॥
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४
प्रभु के समीप जिनदीक्षा ले, मुनि कितने ही गुणवान हुये । कितनों ने श्रावक धर्म लिया, कितने ही श्रद्धावान हुये ॥
यों कर विहार 'वैशाली' में, चौदहवाँ वर्षावास किया ।
प्रति दिवस वहाँ की जनता ने, उपदेश श्रवणं सोल्लास किया ||
पश्चात् वहाँ से 'वत्स भूमि' - की ओर पुनीत विहार किया । पथ में अनेक ही नगरों में, ग्रामों में धर्म प्रचार किया ||
परम ज्योति महावीर
'कौशाम्बी'
यों क्रमशः उनने नगरी में पहुँच प्रवेश किया ।
नृप
ने चलने को दर्शनार्थ, निज जनता को आदेश दिया ।।
'उदयन' की बुआ 'जयन्ती' भी, आयीं उन सबके साथ वहाँ । उस वृहत्सभा में सदुपदेश, देते थे त्रिभुवन नाथ जहाँ ||
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इक्कीसवाँ सर्ग:
उपदेश श्रवण कर यथाशक्ति, सबने नियमादिक किये ग्रहण । सबकी श्रद्धा का केन्द्र बिन्दु, बन गये यहाँ भी महाश्रमण ।।
पर सुन उपदेश 'जयन्ती' केमन में विशेषतः हर्ष हुवा । उस धर्मशा के भावों में, अत्र और अधिक उत्कर्ष हुवा ।।
उसको अब प्रभु की शरण त्याग, गृह जाना नहीं सुहाता था । श्री 'वीर'-संघ में रहने मेंही अब कल्याण दिखाता था ।
अतएव आर्यिका के व्रत ले, अपने को और महान किया । सम्मिलित संघ में हुई तथा,
क्रमशः आत्मिक उत्थान किया ।। पश्चात् 'वीर' ने चल 'उत्तरकोशल' की अोर विहार किया । पथ में पावन उपदेशों से, अगणित जन का उद्धार किया ।।
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५५०
यों कर विहार 'भावास्ती' में, पहुँचे वे श्रात्मविहारी थे ।
अविलम्ब यहाँ
भी धर्मश्रवण
हित ये सब नर नारी थे ।
उपदेश यहाँ जो हुवा, उसे
सुन सब जनता का क्षेम हुवा । सम्मिलित संघ में हुये कई, यों जैन धर्म से प्रेम हुवा ||
श्री 'सुमनोभद्र' प्रभृति ने जिनदीक्षा ली उन जग त्राता से । कर्त्तव्य ज्ञान पा लिया शीघ्र, उन तीन लोक के ज्ञाता से ||
परम ज्योति महावीर
'वाणिज्य ' ग्राम में 'महावीर' निज संघ सहित फिर श्राये थे । अपने पन्द्रहवें
'कोसल प्रदेश' से चल 'विदेह' पहुँचे वे केवल ज्ञानी थे I 'श्रानन्द'
शिवानन्दा' दोनों,
बन गये
धर्म-- श्रद्धानी थे
11
चतुर्मास,
के दिन भी यहीं बिताये थे ||
-
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५५१
इस्कीसवाँ सर्ग
'वाणिज्य ग्राम' से निजविहार फिर 'मगध भूमि' की ओर किया । उपदेश सुनाकर नगरों की जनता को हर्ष विभोर किया ।।
पश्चात् 'राजगृह' पहुंचे थे, सारी जनता एकत्र हुई। अतिशय प्रभावना प्रवचन से उस समय वहाँ सर्वत्र हुई ॥
श्री 'शालिभद्र' और 'धन्य' आदिने मुनि पद अङ्गीकार किया। एवं गृहस्थ का धर्म कईही भव्यों ने स्वीकार किया ॥
गँजी थी सार, 'राजगृही' प्रभुवर के जय जयकारों से । पड़ता प्रभाव था सब पर ही,
उनके पावन उद्गारों से ॥ रुक यहीं पूर्ण इस सोलहवें निज चतुर्मास का काल किया । दुष्टों का जीवन सज्जनताके नव साँचे में ढाल दिया ।
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५५२
परम ज्योति महावीर
उन 'परम ज्योति' ने जड़ता-तम हर कर सब्दोध-प्रकाश दिया । नैतिकता से पतित मनुष्यों के भावों में परम विकास किया ।
वर्षा व्यतीत हो जाने पर 'चम्पा' की अोर विहार किया ।
आकर 'चम्पा' के राजपुत्रने श्रमण धर्म स्वीकार किया ।
पश्चात् 'वीतभय' नगर श्रोर उन 'परम ज्योति ने किया गमन । ली भूप 'उदायन' ने दीक्षा कर प्रभु-चरणों में प्रथम नमन ।।
यो जहाँ पहुँचते 'वीर' वहींके नृप बनते अनुगामी थे। क्रमशः अधिकाधिक लोकमान्य होते जाते वे स्वामी थे ।
पश्चात् 'वीतभय' पत्तन से 'वाणिज्य ग्राम' की ओर चले । पथ में उपदेशों से जनताको करते हर्ष विभोर चले ॥
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इक्कीसवाँ सर्ग
'वाणिज्य ग्राम' श्रा पूर्ण किये,
वर्षा के महिने चार वहीं । श्रौ' इस
सत्रहवें चतुर्मास -
में किया विशेष प्रचार वहीं ॥
थीं वहाँ जिसे
वे सब प्रभु ने
हिंसा को मिटा
जय ध्वजा वहाँ
फिर गये 'बनारस' को, पथ मेंशिवपुर का मार्ग बताते वे ।
हर मानव को
मानवता का -
पावनतम पाठ
सिखाते वे |
--
शङ्काएँ जो
सुलझायीं थीं।
अहिंसा की
फहरायी थी ।
प्रभु में प्रति भक्ति दिखायी थी, राजा 'जितशत्रु' प्रतापी ने ।
उपदेश श्रवण कर पुण्य कर्म----- की शिक्षा ली हर पापी ने ॥
बहुतों ने अपने जीवन में धार्मिक सिद्धान्त उतारे थे । 'चुलनी' 'श्यामा' औौ' 'सुरादेव' 'धन्या' ने अबत धारे थे ||
३५
3
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५५४
परम ज्योति महावीर
फिर चले 'बनारस' से, पथ में. वे 'बालभिया' के पास थमे ।
'पोग्गल' ने दीक्षा ले ली यों मन में प्रभु के सिद्धान्त जमे ॥
फिर 'श्रालभिया' से 'राजगृही'की ओर पुण्य प्रस्थान किया।
औ 'यहाँ पहुँच 'किंक्रम' 'अर्जुन' 'मंकाती' को दीक्षा दान दिया ।
यों अहारहवाँ चतुर्मासयह 'राजगृही' में बिता दिया । श्राश्रो' देखें प्रभु ने विहार अब कहाँ कहाँ पर और किया ।
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बाईसवाँ सर्ग
सुन पतित पावनी दिव्यध्वनि सबने निज कर्ण पवित्र किये। दी त्याग शत्रुता सबने ही औ' बना शत्रु भी मित्र लिये ॥
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५५७
ब्राईसवाँ सर्ग
वर्षा व्यतीत हो जाने परभी वहाँ 'वीर' जगदीश रहे । धार्मिक चैतन्य मनुष्यों में नित भरते वे वागीश रहे ।
हित मित प्रिय भाषा में मुसकर उपदेश सभी को देते थे। सुन जिसे अनेक पुरुष श्राकर प्रभुवर से दीक्षा लेते थे।
यह देख दिया निज जनवा को "श्रेणिक' ने यह आदेश तभी । 'जो दीक्षा लेना चाहे, ले-- -सुविधा दूंगा सविशेष सभी॥
जो कोई मुनि-पद धारण कर करना चाहे उद्धार, करे । परिवार आदि की चिन्ता तज अनगार धर्म स्वीकार करे ।।
एवं न कुटुम्बी भी उसके निज को लें मान अनाथ अभी । लेंगे परिपालन का . उत्तर दायित्व स्वयं नरनाथ सभी ।
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५५८
यह राजघोषणा सुन प्रमुदित हो गये सभी नर-नारी थे ।
इस नव
उदारता हेतु भूप
के सभी हुये आभारी थे |
उस
समय रानियों युवराज- ' के मन पर छाप विशेष पड़ी ।
अब कठिन लगा में रहना उनको
स्वीकृत -
होकर निश्चिन्त पुरुष करते मुनि धर्म पुनीत सतत उनके कुटुम्ब के व्यक्ति सभी, गाते 'पिंक' के गीत सतत ॥
उस राजभवन
एक घड़ी ||
परम ज्योति महावीर
इससे युवराज ने मुनि हो, परित्याग मोह का पाश दिया ।
श्रर्यिका रानीं, यों
बन गयीं - उनने भी श्रात्म विकास किया ||.
यो 'राजगृही' में हुई धर्मकी यह प्रभावना बहुत बड़ी । प्रत्यचदर्शिनी इस सबकी वह 'पंच पहाड़ी' अभी खड़ी ॥
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बाईसवाँ सर्ग
इससे
उनीस
चतुर्मास
भी यहीं किया इस बार पुनः । 'कौशाम्बी' श्रोर विहार किया, करने को धर्म प्रचार पुनः ॥
इस पथ में 'श्रलभिया' नगरी - में रुक कुछ समय बिताया था 'ऋषभद्र पुत्र' श्रादिक अनेक पुरुषों में शान जगाया था ॥
फिर 'श्रालमिया' से 'कौशाम्बी' वे करुणा के अवतार गये । प्रभु निकट 'चण्ड प्रद्योत ' संग श्री 'उदयन' राजकुमार गये ||
'अङ्गारवती'
के मन पर अधिक
तत्काल 'वीर' के दीक्षा लेने का
श्रौ' 'मृगावती'
प्रभाव हुवा |
चरणों में,
हुवा ||
भासे श्रौ'
श्राभरण भार से परित्याज्य समस्त विभूति लगीं । उन अबलाओं के अन्तस् में यों प्रबल श्रात्म अनुभूति जगी ।।
चाव
ve
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परम ज्योति महावीर
बन गयीं 'आर्यिका' रोग समझ तज द्रुत हरेक सुख भोग दिया । श्री 'वीर' संघ में रह कर्मोंके क्षय का शुभ उद्योग किया ।
कुछ समय वहाँ रह फिर 'विदेह'की ओर गये वे महा श्रमण । वर्षा के पहिले 'वैशाली'
श्रा पहुँचे करते हुथे भ्रमण ॥ औ यह बीसवें चतुर्मास के पूरे चारों मास किये। धर्मोपदेश सुन जनता ने व्रत यथा शक्ति सोल्लास लिये ॥
'वैशाली' से 'उत्तर विदेह'की ओर गये निर्मोही वे। औ' 'मिथिला' होते हुये गये क्रमशः 'काकन्दी' को ही वे ॥
हो यहाँ प्रभावित 'धन्य' श्रादि दीक्षा ले बने दिगम्बर यति । तदनन्तर ही 'काकन्दी' से पश्चिम की ओर बढ़े जिनपति ।।
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बाईसवाँ सर्ग
'श्रावस्ती' होते हुये गये, 'काम्पिल्य' नगर को त्यागी वे । पश्चात् 'अहिच्छत्रा' होते, 'गजपुर' पहुँचे बड़भागी वे ॥
धर्मोपदेश सुन
ली 'वीर'-संघ में
फिर लौट यहाँ 'पोलासपुरी' वे
'सद्दालपुत्र' ने यहाँ भक्त
व्रत ।
न ग्रहण किये थे द्वादश यह देख 'अग्निमित्रा' पत्नीभी भक्त बनी हो पद पर नत ||
'पोलास पुरी से कर विहार ग्रीष्मात समय तक किया भ्रमण |
'वाणिज्य ग्राम' फिर गये और रुक गये यहीं पर महाश्रमण ||
चतुर्मास
था ।
जनता के
कहना था ||
बहुतों
ने
यहाँ शरण ।
से
पहुँचे थे
महाश्रमण ||
अपने
इकीसवें
पर्यन्त यहीं पर रहना
श्रतएव यहाँ की
भाग्योदय का क्या
५६३
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૬૪
गुणवान वहाँ थे जितने भी वे और अधिक गुणवान हुये । विद्वान वहाँ थे जितने भी, वे और अधिक विद्वान हुये ॥
यों नित प्रभावना करते ही, पूरा वह aware किया । फिर किया भ्रमण, सर्वत्र जनोंने धर्मामृत सोल्लास पिया ||
'कचंगला,
विहारी थे ।
करते विहार यो
पहुँचे वे श्रात्म यह समाचार पा बन्दनार्थ, ये अगणित नर नारी थे |
परम ज्योति महावीर
सुन पतित पावनी दिव्यध्वनि सबने निज कर्ण पवित्र किये । दी त्याग शत्रुता सबने हो श्र' बना शत्रु भी मित्र लिये ||
" स्कन्दक' ने भी तब समवशरणमें श्रा सोत्साह प्रवेश किया । 'हो चकित 'वीर' की शान्तिमयी छवि का दर्शन अनिमेष किया ||
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बाईसवा सर्ग
सविनय प्रदक्षिणा तोन तुरतंदे सूचित हर्ष विशेष किया । फिर हस्त जोड़ कर प्रकट स्वयं', ही श्राने का उद्देश्य किया ॥
सुन उनका संशय दूर किया, प्रभु ने अत्यन्त सरलता से । 'स्कन्दक' हो गये प्रभावित अब,
उनको इस ज्ञान प्रबलता से । अतएव 'वीर' के कथित मार्गमें ही दिखलायी सार दिया । तत्काल त्याग उपकरण सभी, यह श्रमण धर्म स्वीकार किया ।
श्री 'वीर' गये 'भावस्ती' फिर बनता पायी सोत्साह यहाँ । कुछ समय बहाया शान्ति सहित धर्मामृत-सरित-प्रवाह यहाँ ।।
'भावस्ती' से चलकर 'विदेह'को वे आध्यात्मिक सन्त गये। पथ में उन पर भदान कईमन दिखलाते अंत्यन्त गये ।।
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परम ज्योति महावीर
५६६
वाणिज्य ग्राम में तेइसौं चौमासा करने टहर गये । तदनन्तर 'ब्राह्मण कुण्ड' गये, फिर वे 'कौशाम्बी' नगर गये ॥
पश्चात् 'राजगृह' पहुँच गये, धर्मामृत धार बहाते वे । निज शक्त्यनुसार सभी जनको
बत अङ्गीकार कराते वे ॥ चौबिसवाँ वर्षावास यहींपर कर पश्चात् विहार किया। 'कोणिक' की राजपुरी 'चम्पा'में श्राकर धर्म प्रचार किया ।।
राजा 'कोणिक' निज प्रजा सहित उस धर्म-सभा में आये थे। धर्मोपदेश सुन बहुतों ने मुनियों के व्रत अपनाये थे।
"चम्पा' से चलकर प्रभुवर ने विहरण 'विदेह' की ओर किया । "पथ में 'काकन्दी' में रुककर भक्तों को हर्ष बिभोर किया ।
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५६७.
बाईसवाँ सर्ग
फिर कर पचीसवाँ चतुर्मास 'मिथिला' में धर्म प्रचार किया । वर्षा समाप्ति पर 'अङ्गदेश'की ओर पुनीत विहार किया |
फिर 'चम्पा' आये राजवंशको सुख का मार्ग दिखाने को । दुख ग्रस्त राजमाताओं के मन में वैराग्य जगाने को ॥
जग की असारता कह प्रभु ने डाली कुछ ऐसी छाप तभी। सुन जिसे रानियों ने त्यागा पति-सुत-वियोग का ताप सभी ॥
पा बोध राजमाताओं ने सब चिन्ताओं को छोड़ दिया। अपने जीवन की नौका को
संयम के पथ पर मोड़ लिया ।। संयोग सभी हैं वियोगान्त यह पूर्णतया वे जान गयीं। जग की असारता का स्वरूपभी भली भाँति पहिचान गयीं।
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तेईसव सम
वर्षा समाप्ति पर 'मिथिला' से चल 'मगध' र पर्यटन किया । जागृति का शंख बजाते यो फिर 'राजगृही' को गमन किया ||
श्री 'अग्निभूति' श्रौ' 'वायुभूति' नामक गणधर ने नश्वर तन । परित्याग मोक्ष को प्राप्त किया,
कर एक मास का शुभ अनशन ||
यह
प्रभुवर ने यहीं
अगणित भव्यों के
पावन वैराग्य
इकतालिसव
चतुर्मास
बिताया था ।
अन्तस् में
था ॥
जगाया
वर्षा व्यतीत हो जाने पर
भी नहीं कहीं प्रस्थान किया । रह यहीं महीनों जनता का कल्याण किया, उत्थान किया ||
'अव्यक्त' 'अकम्पिक' 'मौर्यपुत्र' 'गण्डिक' गणधर ने देह यहीं । इस बीच त्याग निर्वाण प्राप्तकर लिया करो सन्देह नहीं ||
વક્ત
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५८४
परम ज्योति महावीर
फिर कर प्रस्थान 'अपापा' पुरमें वे निष्पाप पधारे थे । धर्मोपदेश सुन यहाँ सभीने ब्रत नियमादिक धारे थे |
प्रभु ने प्रसङ्गवश कालचक्रका वर्णन यहाँ सुनाया था। जग के दुःखों औ' भ्रमणों का भीषण तम रूप दिखाया था ।
सुन जिसे अनेक मनुष्यों ने होकर विरक्त यम-नियम लिये। जिस विधि से प्रभु ने बतलाया अाचरण उसी विधि स्वयम् किये ॥
था नाम 'अपापा' पर यथार्थमें अब वह नगर अपाप हुवा । गृह गृह में होने लगा पुण्य मुख बढ़ा, दूर सन्ताप हुवा ।।
कोई भी वणिक न करता था अब पापमयी व्यापार वहाँ । परिपूर्ण रूप से किया गयाथा पावन धर्म प्रचार वहाँ ।।
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तेईसवाँ सर्ग
यों इस प्रचार में सतत 'वीर' को मिली अपूर्व सफलता थी। इसका कारण कुछ नहीं अन्य, उनके मन की निर्मलता थी।
उनतीस वर्ष से यों अब तक चलता प्रचार निर्बाध रहा । कारण प्रभुवर का ज्ञान-सिन्धुसागर से अधिक अगाध रहा ।।
करने व्यालिसवाँ चतुर्मास, 'पावापुर' को इस बार चले । पथ में अनेक ही भव्यों का, करते आत्मिक उद्धार चले ॥
थे 'पावा' के नृप 'हस्तिपाल' 'सिद्धार्थ-लाल' के भक्त परम । अतएव 'वीर' के शुभागमनपर हर्ष किया अभिव्यक्त परम ||
इस पुण्ययोग को माना था, राजा ने अपना भाग्य महा । केवल न उन्होंने अपितु प्रजाने भी समझा सौभाग्य महा ।।
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५८६
सबने श्रद्धा से प्रेरित हो, निज कर्त्तव्यों का भान किया । सोल्लास नगर की सज्जा में सबने सहयोग प्रदान किया ||
अविलम्ब हुवा गृह द्वारों का बन्दनवारों से अलङ्करण । हर चौराहे पर द्वार बने, बँध गयीं ध्वजायें चित्तहरण ||
कर स्वच्छ सुगन्धित जल द्वारा दी गयी सींच हर राह वहाँ । यों विविध उपायों से नगरी दी गयी सजा सोत्साह वहाँ ||
परम ज्योति महाबीर
श्राभरण वसन
सत्रने पहिने अपने पद के अनुरूप नये । यों सजधज अपनी प्रजा सहित प्रभु-वन्दन को वे भूप गये ||
का दर्शन कर
'सन्मति' जिनेश हर्षित अत्यन्त नरेश हुये । रह शान्त उन्होंने सभी सुने जो वहाँ धर्म-उपदेश हुये ॥
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सेईसवाँ सर्ग
हो रहा प्रभावित प्रतिपादन
की शैली से हर
शङ्कालु वहाँ पर
श्रोता था ।
निमिष मात्र
में अपना भ्रम-तम खोता था ॥
अहिंसा
धर्म वहाँ
राजा रङ्क सभी ।
डसना श्री'
डंक कभी ।।
धर्मोपदेश
यों प्रभुवर का -- नित होता था श्रविरोध वहाँ । अतएव निरन्तर होता था कितनों को ही सब्दोष वहाँ ॥
स्वीकार श्रा करते
श्री नाग त्यागते
वृश्चिक न मारते
वनराज वहाँ पर
से भोले भाले
विषधर भीतर से
बाहर से काले
'पावा' को भूला अभी न वह सिंहों गायों का मधुर मिलन | लगता, ज्यों वन के भाई से मिलती हो कोई ग्राम्य बहन ||
कामधेनु -
लगते थे ।
उज्वल थे लगते थे ।
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परम ज्योति महावीर अगणित प्रकार के जीव साथ करते थे केलि कलाप वहाँ । कारण, सब वैर-विरोध दूर, होता था अपने आप वहाँ ।
सो को अपने पलों पर, बैठाते स्वयं कलापी भी। औ' मीन पकड़ना छोड़ रहेथे बगुला जैसे पापी भी ॥
इस भाँति चरम इस चतुर्मास-- से नर-पशु सबको लाभ हुये । श्री' लोक ख्याति के चरम शिखरको प्राप्त 'वीर' अमिताभ हुये ॥
पर कर काल से नहीं किसीकी देखी गयी भलाई है। इसने न किसी की चलने दी पर अपनी सदा चलाई है।
श्राषाढ़ गया, 'रक्षा बन्धन'का पर्व लिये श्राया सावन । ज्यों ही वह गया कि भाद्र मास पहुँचा ले 'पयूषण' पावन ॥
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तेईसवाँ सर्ग
वह बिदा हुवा, आश्विन श्राया,
रुकी वर्षा ।
विकसा सित कांस
नदियों का नीर
वृक्षों का हर
हुवा निर्मल,
पल्लव हर्षा |
कार्तिक को शासन सूत्र सौंप चल पड़ा एक दिन वह भी तो ।
दिन एक एक कर निकल चला क्रमशः ही महिना यह भी तो ॥
शुभ कृष्णपक्ष की चतुर्दशी दिन सोमवार क्रमवार गया ।
आ गयी निशा, नक्षत्र स्वाति -
पर श्री निशिनाथ पधार गया ।।
चौथे युग के त्रय
दी आठ मास थे
मंङ्गल - प्रभात था हुवा न मङ्गल सूचक ग्रह सारे
श्री महावीर के
हो रहे विरल अब
मास
इकहत्तर वत्सर तीन पच्चिस दिन के जैनेश रहे ।।
पर
थे ।
वर्ष
शेष
कर्मों सम
तारे थे ।
सार्थ
रहे ।
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५
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परम ज्योति महावीर
ऐसे मुहूर्त में कर्म नाशकर 'महावीर' अब सिद्ध हुये । उनके निर्वाण-समय के क्षण, बन पावन पर्व प्रसिद्ध हुये ॥
उनका आत्मा जा सिद्ध शिलापर तत्क्षण ही आसीन हुवा । सब कर्म पाश कट जाने से,
वह था प्रपूर्ण स्वाधीन हुवा । अब उनके ज्ञान तथा दर्शन, सुख शक्ति सभी निस्सीम हुये। थे मिले अनन्त चतुष्टय ये, इससे गुण सभी असीम हुये ॥
निर्वाण मनाने अतः जुड़े, तत्काल वहाँ पर सब नर सुर थे । सब अपनी भक्ति प्रकट करने
के हेतु विशेष समातुर थे । 'मङ्गल' का मङ्गल अरुणोदय, विहँसा, खग लगे चहकने अब । खिल गये कमल औ' दिग् दिगन्त, सौरभ से लगे महकने अब ।।
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तेईसवाँ स
यों लगा कि जैसे गाते हों, प्रभु की गरिमा ही सर्व विहग । औ' भक्ति विभोर सरोवर हो, बिखराते होवें गन्ध
सुभग ||
कर रहे आज सत्र चर्चा थे, प्रभुवर की त्याग कहानी की । उनको सराहती थी वाणी, हर ज्ञानी हर अज्ञानी की ॥
'पावा' के सर पर
जिसको जैसे ही
आये सब,
ज्ञात हुवा |
यों लगा,
मनाने कल्याणक
ही उस दिन स्वर्ण प्रभात हुवा ||
सुर अग्निकुमार सुरेन्द्र सहित, निर्वाण मनाने श्राये थे । सुर वायु कुमार सुरेन्द्र सहित, निज धर्म निभाने श्राये थे |
से,
तब
अग्निकुमार - किरीटों ज्वाला कण लगे निकलने थे । जिससे कर्पूर अगर,
चन्दन,
लग गये उसी क्षण जलने थे |
५६१.
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५६२
परम ज्योति महावीर इन्द्रों ने इसमें ही अन्तिमप्रभु का अन्तिम संस्कार किया । प्रभु के वियोग में भी नियोग, सम्पूर्ण समस्त प्रकार किया ।।
यो अन्त्य क्रिया के करने में, बीता वह प्रातःकाल अहो । फिर गाते र दिवस भर सब, प्रभुवर-गुण की जयमाल अहो ।।
क्रमशः मध्याह व्यतीत हुवा, अति मन्द दिनेश प्रकाश हुवा । सन्ध्या श्रायी औ' तिमिर जालसे व्याप्त अखिल आकाश हुवा ।।
तम के काजल से लिप्त हुये, प्रत्येक दिशा के कोने थे । प्राकृतिक दृश्य तिमिराञ्चल में,
अब लगे तिरोहित होने थे। श्री 'परमज्योति' थे नहीं अतः यह तिमिर विशेष अखरता था। उन वीतराग के देह, त्यागका सवको क्लेश अखरता था ।
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तेईसवाँ सर्ग
बाहर तो तम ही तम था पर, भीतर भी तिमिर दिखाता था। थे नहीं जिनोत्तम इससे तम, अब आज विशेष सताता था ।
अतएव जला कर दीपावलि, आलोकित अवनी-गगन किये । नव दीप ज्योति से ‘परम ज्योति'की पूजा कर संस्तवन किये ॥
दीपावलि से जगमगा उठी, 'पावापुर' की हर डगर डगर । हर राजमार्ग ही नहीं, अपितु, हर गली हुई थी जगर मगर ॥
यों दीपमालिका पहिन आज, लगता था अति अभिराम नगर । उन 'परम ज्योति' की संस्मृति अब
थी करा रही यह ज्योति प्रखर ॥ मङ्गल प्रदीप थे जले और, दिन भी तो उस दिन मङ्गल था। अतएव वहाँ अब रह सकता, कैसे उस दिवस अमङ्गल था ॥
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५६४
परम ज्योति महावीर केवल न नगर ही जङ्गल भी, गॅजे थे मङ्गल गानों से। थीं दशों दिशाएँ व्याप्त हुई, प्रभु-संस्तुति की मृदु तानों से ॥
चारों वर्गों की जनता ने, थे दीप जलाये निज घर में । तब से हर बर्ष मनाते हैं
जन दीपावलि भारत भर में ॥ 'काशी' 'कौशल' के अहारह भूपों ने दीप जलाये थे। 'लिच्छवी' मल्ल गणतन्त्र संघभी' दीप जला हर्षाये थे॥
यों राष्ट्र पर्व यह भारत में तब से होता था रहा चला। हर वर्ष 'वीर' की संस्मृति जन करते सजीव शुभ दीप जला ॥
कार्तिक कृष्णा की चतुर्दशीको कर्कट-कर्म हटाये थे । श्री 'वीर' कर्म मल से विमुक्त हो शुद्ध, सिद्ध पद पाये थे।
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तेईसवाँ सर्ग
श्रतएव भवन से कुटियों तक
का कर्कट टाला
जाता है ।
शुद्धि हेतु
हर गृह में गृह की मल सभी निकाला जाता है ||
उस दिन ही केवल ज्ञान रूप लक्ष्मी पायी थी गौतम ने । जिसकी देवों ने पूजा कीं पर भ्रान्त किया जग को भ्रम ने ||
वह गृह - लक्ष्मी कर लेता है संज्ञा 'गणेश' है गणधर की होता उनका
जयघोष अतः ॥
की पूजा कर
सन्तोष श्रतः ।
प्रभु 'महावीर' के समवशरण
में थे बारह कोठे सुन्दर |
जिनमें मुनिराज श्रर्यिका श्र
"
श्राविका, ज्योतिषी, सुर, व्यन्तर ॥
सुर
इन्द्राणी, भवननिवासी शशि, सूर्य श्रादि भी देव सभी । विद्याधर, मानव, सिंह आदि पशु पक्षी आ स्वयमेव सभी ॥
"
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५६६
चुपचाप
बैठ कर
सुनते थे
प्रभु का पावन उपदेश वही । नर पशु के विविध खिलौने भी रखने का है उद्देश यही ॥
वहाँ
देवों ने बरसा रत्न प्रभु का निर्वाण मनाया था । निर्वाण भूमि को भी उनने सोल्लास विशेष सजाया था ।
इस
कारण खील बताशे ही बाँटा करते नर-नारी अब 1 औ' चित्रों से चित्रित करतेहैं गृह की भित्ति
टारी व ॥
परम ज्योति महावीर
उस दिन से 'पावा' के रज कण शुभ तीर्थ समान पवित्र लगे ।
रख गयीं मन्दिरों में प्रतिमा भवनों में उनके चित्र टँगे ||
अनूप
स्तूप,
संस्मारक रूप 'पावा' में गया बनाया था । उनकी संस्मृति में राज्यों में सिक्का भी गया चलाया था ।।
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५६७
तेईसौं सर्ग
श्री 'वर्धमान' इस पुण्य नामपर 'वर्धमान' था नगर बना ।
औ' 'वीर' नाम पर 'वीरभूमि' नामक पुर अतिशय सुघर बना ॥
प्रभु के विहार का प्रमुख क्षेत्र था, अतः 'विदेह' 'बिहार' बना । निर्वाण-दिक्स वह भारत का
राष्ट्रीय महा त्योहार बना ।। शुभ वर्ष छियासी चौबिस सौका समय अभी तक बीत गया । कार्तिक शुक्ला से होता है संवत् प्रारम पुनीत नया ॥
बदला करता हर वर्ष 'वीरसंवत् ही इस दिन मात्र नहीं। व्यापारी इस दिन ही बदलाकरते अपने मसिपात्र वहीं ।
जब 'महावीर' निज अष्ट कर्मका पुञ्ज नष्ट कर मुक्त हुये। तब 'गौतम' गणधर 'वीर-संघ' के नायक प्रमुख नियुक्त हुये ।।
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तेईसौं सर्ग
बारह वर्षों में जब अकालका पूर्णतया अवसान हुवा । तब जैन संघ का फिर उत्तर भारत को शुभ प्रस्थान हुवा ॥
श्रा यहाँ उन्होंने देखा अब, शिथिलित हो मुनि श्री हीन हुये। कुछ श्वेत वसन भी धारण कर श्वेताम्बर साधु नवीन हुये ॥
पश्चात् हुये मुनि एकादश, एकादश अंगों के शानी । जो दश पूर्वो के धारक थे थे सच्चे धार्मिक सेनानी ।।
ये वर्ष एक सौ तेरासीतक करते रहे प्रचार अभय । फिर पाँच मुनीन्द्रों ने दो सौ श्रौ' बीस वर्ष के दीर्घ समय
तक सुस्थिर ग्यारह अङ्ग रखे, फिर पॉच मुनीश्वर और हुये । सौ अधिक अठारह वर्ष जो कि दे अङ्ग ज्ञान सिर मौर हुये ।
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६०२
छह सौ तेरासी वर्षो तक, यों यहाँ प्रचारित 'अङ्ग' रहे ।
फिर चालिस वर्षों तक प्रचारके कुछ वैसे ही ढंग रहे ||
परम ज्योति महावीर
फिर 'पुष्पदन्त' श्री' 'भूतबली' ने श्रागम ग्रन्थाकार किया । घट् खण्डागम में गँथ 'वीर'-- की वाणी प्रति उपकार किया ||
है दिक दिगन्त में परम ज्योति'-- का वह ही धर्म-प्रकाश यहाँ । अतएव अन्त में पुनः उन्हें, कर रहा नमन सोल्लास यहाँ ||
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परिशिष्ट संख्या १
(पारिभाषिक शब्द कोष)
शब्द संख्या २८६
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प्रस्तावना
परिग्रह-ममत्व भाव, इसके २४ मेद हैं। मिथ्यात्वादि १४ प्रकार का अन्तरङ्ग और क्षेत्रादि १० प्रकार का बाह्य। ये सब ममता के कारण है, इससे ये परिग्रह हैं।
निर्जरा-कर्मों का एक देश झड़ना, यह दो प्रकार है सविपाक और अविपाक ।
अहिंसा-प्रमाद से प्राणों का घात न करना । अहिंसा दो प्रकार की है- एक अन्तरङ्ग और दूसरी बहिरङ्ग । क्रोधादि कषाय सहित मन वचन काय होने से ही हिंसा होती है, कषाय रहित भाव रखना अहिंसा है। अपरिग्रह-परिग्रह का न होना, परिग्रह त्याग ।
पहला सर्ग हिमालय-भारतवर्ष की उत्तरी सीमा पर स्थित एक पर्वतमाला (इसकी चोटियाँ बहुत ऊँची हैं और उन पर बराबर बर्फ जमी रहती है। सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट है जिसकी ऊँचाई २६०००२ फीट है और जो संसार की सबसे ऊँची चोटी है)।
गङ्गा-भारतवर्ष की एक प्रधान और पवित्रतम नदी ।
किन्नर-देव योनि की चार श्रेणी हैं, इनमें दूसरी श्रेणी के देव विविध-देश देशान्तरों में रहने के कारण व्यन्तर कहलाते हैं। इन व्यन्तरों के प्रथम भेद का नाम किन्नर है।
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६०६
परम ज्योति महावीर
कुलकर-महान् पुरुष प्रजा को मार्ग बताते हैं, इन्हें मनुः भी कहते हैं । प्रत्येक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी की कर्मभूमि की आदि में तीर्थकरों के जन्म से पहिले होते हैं । इस भरत क्षेत्र के गत तीसरे काल में जब पल्य का आठवाँ भाग शेष रहा तब कुलकर एक दूसरे के पीछे क्रमशः १६ हुये।
नाभि-वर्तमान अवसर्पिणी काल के भरत क्षेत्र के चौदहवें कुलकर श्री ऋषभदेव के पिता ।
बाहुबलि-श्री ऋषभदेव के पुत्र ।
भरत-श्री ऋषभदेव के पुत्र, चक्रवर्ती ।
बलदेव-प्रत्येक अवसर्पिणी उत्सपिणी के दुखमा सुखमा काल में होते हैं । वर्तमान अवस पिणी काल में भरत क्षेत्र में ६ हुये। विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दीमित्र, पद्म (राम) बल्देव ।
रामचन्द्र पाठवें बलभद्र, मांगीतुंगी से मोक्ष गये ।
हनुमान-१८ वे कामदेव, मांगीतुंगी से मोक्ष, रामचंद्र के समय में विद्याधर (वानरवंशी)।
सीता-श्री रामचन्द्र की परम शीलवती भार्या, जिसने रावण के द्वारा हरी जाने पर भी शील की रक्षा की, अन्त में अर्यिका हो १६ वें स्वर्ग गयी।
रावण-वर्तमान अवसर्पिणी काल के मरत क्षेत्र के ८ प्रतिनारायण, सीता को हरण कर तीसरे नर्क गये ।
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६२०
परम ज्योति महावीर चक्री-छः खण्ड की पृथ्वी के स्वामी, भरत व ऐरावत में प्रत्येक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी में जब तीर्थकर २४ होते हैं तब ये १२ होते हैं।
केवलज्ञानी-सर्वज्ञ भगवान परमात्मा अर्हन्त व सिद्ध ।
त्रिभुवन-स्वर्ग, पृथ्वो और पाताल इन तीन भुवनों का समाहार।
जात कर्म-पुत्र जन्म के अवसर पर किया जाने वाला एक, संस्कार, सोलह संस्कारों में से चौथा ।
मति ज्ञान-मतिज्ञानावरण कर्म व वीर्यान्तराय दयोपशम से पाँच इन्द्रिय या मन द्वारा सीधा पदार्थ को जानना । इसके ३३६ मेद हैं।
श्रुत ज्ञान-मति ज्ञान से निश्चय किये हुये पदार्थ के श्रालम्बन से उस ही पदार्थ को सम्बन्ध लिये हुये अन्य किसी पदार्थ का जानना । यह मतिज्ञान पूर्वक होता है । इसके दो भेद हैं--एक अक्षरात्मक दूसरा अनक्षरात्मक।
अवधि ज्ञान-जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिये हुये रूपी पदार्थ को स्पष्ट व प्रत्यक्ष जाने । इस ज्ञान के लिये इन्द्रिय तथा मन की सहायता नहीं लेनी पड़ती 1 देव नारकियों को अवधि ज्ञान जन्म से ही होता है।
प्रारम्भ-मन, वचन, काय से अनेक प्रकार के व्यापार आदि कार्य करना।
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पारिभाविक शब्द कोष
.६२९.
नवाँ सम
नय-वस्तु के एक देश जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । श्रत ज्ञान के एक अंश को नय कहते हैं। इसके मूल दो भेद हैं, निश्चय नय और व्यवहार नय | निश्चय नय के भी दो भेद है— द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय ।
प्रमाण - सच्चा ज्ञान, सम्यग्ज्ञान | प्रमाण पाँच हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और केवल ज्ञान ।
तर्क -- चिन्ता व्याप्ति का ज्ञान, श्रविनाभाव सम्बन्ध व्याप्ति है । जहाँ जहाँ साधन होना वहाँ वहाँ साध्य का होना और जहाँ जहाँ साध्य न हो वहाँ वहाँ साधन का न होना, इसे अविनाभाव सम्बन्ध कहते हैं । जैसे धूम साधन है अग्नि का, जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ अग्नि श्रवश्य है । जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम नहीं हो सकता, ऐसा मन में जो पक्का विचार वह तर्क है ।
दार्शनिक - दर्शनशास्त्र का जानकार ।
काव्य - वह रचना जो रसात्मक हो, कविता ।
चित्र - कागज, कपड़े आदि पर बनी हुई किसी वस्तु को प्रतिमूर्ति ! गणित - संख्या, मात्रा, अवकाश आदि का विचार करने वाला
शास्त्र ।
वाक्य - पदों का वह समूह जिससे वक्ता का अभिप्राय स्पष्टत: समझ में ना जाये ।
राजनीति-राज्य की रक्षा और शासन को दृढ़ करने का उपाय बताने वाली नीति |
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परम ज्योति महावीर
मनोविज्ञान -मन की प्रकृति, वृत्तियों आदि का विवेचन करने
वाला विज्ञान, मानस शास्त्र ।
विद्यालय - वह स्थान जहाँ अध्ययन किया जाता है, विद्यागृह । संसारी - जो कर्म बन्ध सहित जीव श्रनादि से नरक, पशु, मनुष्य, देव गति में भ्रमण कर रहे हैं ।
मोक्ष -बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, कपाय, योग के दूर हो जाने पर तथा पूर्व बाँधे कर्म की निर्जरा हो जाने पर सर्व कम से छूट जाना व अपने श्रात्मीक शुद्ध स्वभाव का प्राप्त कर लेना, सादि अनन्त जीव की अवस्था है ।
यह
६२२·
अरहन्त - पूजने योग्य, श्रई धातु पूजा में है तथा श्र से प्रयोजन श्ररि शत्रु मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्मर से तात्पर्य रज अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण उसको हन्त-नाश करने वाले इस प्रकार - हन्त का अर्थ हुआ चार घातिया कर्मों का नाश करने वाले ।
हिंसा - प्रमाद सहित (कपाय युक्त) मन वचन काय के द्वारा द्रव्य व भाव प्राणों को कष्ट देना व उनका घात करना | हिंसा दो प्रकार की है— संकल्पी और प्रारम्भी । आरम्भी के तीन भेद हैं- उद्यमी, गृहारम्भी और विरोधी ।
यज्ञ-हवन पूजन युक्त एक वैदिक कृत्य ।
होम - वाह्मणों द्वारा नित्य किया जाने वाला पंच महायज्ञों में से
कए ।
वेद - हिन्दुओं के आदि धर्म ग्रन्थ ( पहिले ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद ये तीन ही थे, पीछे अथर्ववेद भी मिलाया गया ) ।
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হিমান্বিৰু মাৰ জীগ
६२३ अश्वमेध-एक प्रसिद्ध वैदिक यश जिसे कोई चक्रवर्ती राजा या सम्राट ही कर सकता था और जिसमें सभी देशों का भ्रमण कर लौटने वाले घोड़े को मार कर उसकी चर्बी से हवन किया जाता था ।
गोमेध-कलियुग के लिये निषिद्ध एक वैदिक यज्ञ जिसमें गोबलि का विधान है।
शूद्र-शिल्प, विद्या व सेवा कार्य से आजीविका करने वाला वर्ण, ऋषभदेव द्वारा स्थापित ।
सामवेद-तीसरा वेद । नीच-जो जाति, गुण, कर्म श्रादि में घट कर हों।
दसवाँ सर्ग
मोहनीय-अाठ मूल कर्मो में चौथा कर्म । इसके दो भेद हैंदर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्तव । चारित्र मोहनीय के २५ मेद हैं १६ कषाय और ६ नोकषाय ।
भाग्य-शुभाशुभ सूचक कर्म जन्य अदृष्ट ।
विवाह-दाम्पत्य सूत्र में श्राबद्ध होने की एक प्रथा जो धर्मशास्त्र में ८ प्रकार (पार्ष, ब्राझ, दैव, प्राजापत्य, प्रासुर, गान्धर्व, राक्षस, और पैशाच) की मानी गयी है।
प्रमाद-कषाय के तीन उदय से निर्दोष चारित्र पालन में उत्साह का न होना व अपने आत्म-स्वरूप की सावधानी न होना । इसके १५ भेद हैं।
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६३८
परम ज्योति महावीर
इक्कीसवाँ सर्ग
सप्तव्यसन - जुवा, माँस, मदिरा, चोरी, शिकार, वेश्या और
-
परस्त्री इन सात बातों का शौक रखना ।
भ्रष्ट मूल गुण -- गृहस्थ श्रावक के पालने योग्य श्राचरण, जिसे उसे नित्य पालना चाहिये । मद्य त्याग, मांस त्याग, मधु त्याग, संकल्पी हिंसा त्याग, स्थूल झूठ त्याग, स्थूल चोरी त्याग' स्व स्त्री संतोष और परिग्रह का परिमाण ।
त्याग - धर्मदान करना । श्राहार, औषधि, अभय व ज्ञानदान धर्मात्मा पात्रों को भक्ति पूर्वक व अपात्रों को करुणा दान से देना ।
एकादश प्रतिमा - पाँचवें गुण स्थान में ११ श्र ेणियाँ होतीं है - दर्शन प्रतिमा, व्रत प्र०, सामायिक प्र०, प्रोषधोपवास सचित्त विरति प्र०, रात्रि भुक्ति त्याग प्र०, ब्रह्मचर्य 'प्र०, आरम्भ त्याग प्र०, परिग्रह त्याग प्र०, अनुमति त्याग प्र० और उद्दिष्ट त्याग प्र० ।
ܘܟ
सम्यक्त्तवी - सम्यग्दर्शन धारी मानव में ४८ मूल गुण व १५ उत्तर गुण होते हैं । २५ मल दोष रहित पना ८ संवेगादि लक्षण + ७ भय रहित पना + ३ शल्य रहित पना + ५ अतिचार रहित पना = ४८७ व्यसन त्याग + ५ उदम्बर फल त्याग + ३ मदिरा, मांस, मधु (मकार) त्याग = १५ उत्तर गुण ।
बाईसवाँ सर्ग
अनगार - मुनि, गृह श्रादि परिग्रह रहित साधु, जिसके गृह सम्बन्धी तृष्णा चली गयी हो । अनगार के पर्यायवाची ये १० शब्द है-
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पारिभाषिक शब्द कोष
६३६ श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त और यति ।
काल लब्धि-किसी कार्य के होने के समय की प्राप्ति । सम्यग्दर्शन के लिये अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल मोक्ष जाने में शेष रहना काल लन्धि है। इससे अधिक काल जिसके लिये संसार होगा उसे सम्यक्तव न होगा। महावती–महाव्रतों को पालने वाले साधु, २८ मूलगुणधारी ।
तेईसवा सर्ग रक्षा बन्धन–सलूनो या सलोनो नाम का त्योहार, जो श्रावणी पूर्णिमा को होता है, (इस अवसर पर बहिनें अपने भाइयों को और पुरोहित अपने यजमानों की कलाई में कपास या रेशम का अभिमन्त्रित रक्षा सूत्र बाँधते हैं)।
स्वाति-२७ नक्षत्रों में से १५वाँ जो शुभ माना गया है । कविसमय के अनुसार चातक इसमें ही होने वाली वर्षा का जल पीता है
और वही जल सीप के सम्पुट में पहुँच कर मोती और बाँस में वंशलोचन बनता है।
अनन्त चतुष्टय-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य ये चार मुख्य गुण केवली अरहन्त परमात्मा के प्रगट होते हैं।
वायु कुमार-भवनवासी देवों का दसवाँ भेद, इनके इन्द्र वे लम्ब व प्रभञ्जन हैं। इनके ६६ लाख भवन है, हर एक में अकृत्रिमजिन मन्दिर है । उत्कृष्ट प्रायु १॥ पल्य जघन्य १०००० वर्ष है। इनके मुकुटों में घोड़े का श्राकार है।
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परम ज्योति महावीर
जम्बूस्वामी - राजगृही के श्र ेष्ठि कुमार, राजा श्रेणिक के समय में श्री सुधर्माचार्य के शिष्य हो मुनि हुये । तप कर अन्तिम केवली हो मोक्ष पधारे, यह प्रसिद्ध है । इनका मोक्ष स्थान मथुरा चौरासी है ।
६४०
केवली - अरहन्त भगवान १३ व १४वें गुण स्थानवर्ती, छः मासाठ समय में संयोग केवली कुल ८ लाख ६८ हजार ५ सौ २ (८६८५०२ ) एकत्र हो सकते हैं ।
केवली - द्वादशांग जिन वाणी के पूर्ण ज्ञाता,. श्रुत भरत में इस पंचम काल में श्री जम्बू स्वामी के मोक्ष जाने पर १०० वर्ष में पाँच श्रुत केवली हुये। विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु |
चन्द्रगुप्त -- मौर्य वंश का प्रथम सम्राट् जो सिकन्दर का समकालिक
था ।
अनेकान्त--अनेक अन्त या धर्म या स्वभाव जिसमें पाये जायें ऐसे पदार्थ । अनेक धर्मों वाले पदार्थों को कहने वाली व भिन्न अपेक्षा से बताने वाली स्याद्वाद रूप जिनवाणी । यही परमागम का बीज है अर्थात् इसके समझने से परस्पर विरोध का अवकाश नहीं रहता है ।
एकादश अंग -- जिन वाणी के १२ अंगों में पहिले ११ अंग श्राचाराङ्ग, सूत्र कृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायान, व्याख्या प्रशति अङ्ग, शातृधर्म कथा श्रङ्ग, उपासकाध्ययनाङ्ग, श्रन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपादिक दशाङ्ग, प्रश्न व्याकरण विपाक सूत्र ।
पूर्व -- द्वादशांग वाणी में दृष्टिवाद बारहवें अंग का एक भाग 4 इसके १४ भेद हैं ।
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'पारिभाषिक शब्द कोष
पुष्पदन्त-श्री धरषेणाचार्य के शिष्य जिनको धवलादि का मूल पाठ सिद्धान्त पढ़ाया फिर जिन्होंने भूतबलि के साथ रचना की।
भूतबलि-श्री धरषेणाचार्य के शिष्य, धवलादि अन्यों के मूल कर्ता।
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परिशिष्ट संख्या २ ( विहार स्थल नाम कोष )
विहार स्थल संख्या १२
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बिहार स्थल नाम कोष
६४५
चौदहवाँ सर्ग
कमरि ग्राम - यह गाँव क्षत्रिय कुण्ड के निकट था, यह
निश्चित है ।
कोल्लाग - यह, सन्निवेश वाणिज्य ग्राम के समीप था ।
मोराक - यह ग्राम वैशाली के आस पास था ।
अस्थिक --- यह विदेह जनपद में स्थित था, इसके समीप वेगवती नदी बहती थी ।
वाचाला - यह नगर श्वेताम्बी के निकट था ।
सेयंविया (श्वेताम्बिका ) -- बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि श्रावस्ती जाते समय श्वेताम्बिका बीच में आती थी । जैन सूत्रों के लेखों से भी श्वेताम्बी श्रावस्ती से पूर्वोत्तर में अवस्थित थी । श्राधुनिक उत्तर पश्चिम बिहार के मोतीहारी शहर से पूर्व लगभग ३५ मील पर अवस्थित सीतामढ़ी यह श्वेताम्बिका का ही अपभ्रंश नाम है, ऐसा अनुमान है ।
सुरभिपुर - विदेह से मगध जाते हुये मध्य में पड़ता था और गंगा के उत्तर तट पर स्थित था । संभव है यह विदेह भूमि की दक्षिणी सीमा का अन्तिम स्थान हो ।
थूणाक - यह सन्निवेश गंगा के दक्षिण तट पर था ।
पन्द्रहवाँ स
राजगृही आज कल 'राजगृह' 'राजगिर' नाम से पहिचाना जाता है, जिसके पास मोहागिरि पर्वतमाला के पाँच पर्वत हैं, जैन
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६४६
परम ज्योति महावीर
सूत्रों में वैमारगिरि, विपुलाचल श्रादि नामों से उल्लिखित हैं। राजगिर बिहार प्रान्त में पटना से पूर्व दक्षिण और गया से पूर्वोत्तर में अवस्थित है ।
नालन्दा -- राजगृह का एक उपनगर, जहाँ पर अनेक धनाढ्यों का निवास था और अनेक कारखाने चलते थे । श्राजकल के राजगिर से उत्तर में ७ मील पर अवस्थित 'बड़गाँव' नामक स्थान ही प्राचीन - नालन्दा है ।
ब्राह्मणग्राम - इस ग्राम के दो पाटक थे, एक नन्द पाटक, दूसरा उपनन्द पाटक । ब्राह्मण ग्राम 'सुवर्णखल' और 'चम्पा' के बीच में • पड़ता था।
चम्पा - जैन सूत्रों में चम्पा को अंग देश की राजधानी माना है, -कोणिक ने जब से अपनी राजधानी बनायी तब से चम्पा श्रंग (मगध ) की राजधानी कहलायी | पटना से पूर्व में ( कुछ दक्षिण में ) लगभग सौ - कोस पर चम्पा थी ।
कालाय - यह सन्निवेश चम्पा के निकट कहीं होना चाहिये ।
पत्तकालय - चम्पा के पास कहीं था ।
कुमारा - यह सन्निवेश सम्भवतः अङ्ग देश के पृष्ठ चम्पा के निकट था ।
चोराक -- यह स्थान संभवतः प्राचीन श्रङ्ग जनपद और श्राधुनिक पूर्व बिहार में कहीं रहा होगा |
पृष्ठ चम्पा - चम्पा से पश्चिम में थी, राजगृह से चम्पा जाते हुये पृष्ठ चम्पा लगभग बीच में पड़ती थी ।
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विहार स्थल नाम कोष
६४७
अङ्ग
देश में ही चम्पा
कयं (कचंगला ) - यह स्थान यदि से पूर्व की ओर हो तब तो श्राज कल का कंकजोल हो सकता है । परन्तु जैन सूत्रों के अनुसार कचंगला नगरी श्रावस्ती के समीप थी ।
श्रावस्ती - जैन सूत्रोक्त साढ़े पन्चीस श्रार्य देशों में कुणालनामक देश की राजधानी का नाम श्रावस्ती लिखा है । महावीर के समय में श्रावस्ती उत्तर कोशल की राजधानी थी। गोंडा जिले में अकौना से पूर्व पाँच मील और बलरामपुर से पश्चिम बारह मील राप्ती नदी के दक्षिण तट पर सहेठ मठ नाम से प्रख्यात जो स्थान है वही प्राचीन श्रावस्ती का अवशेष है, ऐसा शोधक विद्वानों ने निर्णय किया है।
हलिदुग ग्राम - यह ग्राम श्रावस्ती से पूर्व परिसर में था ।
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नंगला -- श्रावस्ती से राठ की ओर जाते हुये बीच में पड़ता था, संभवतः यह ग्राम कोशल भूमि के पूर्व प्रदेश में ही रहा होगा ।
श्रवत्ता ग्राम - यह ग्राम कहाँ था ? यह बताना कठिन है, अनुमान होता है कि कदाचित यह कोशल जनपद का ही कोई ग्राम होगा जो पूर्व की श्रोर जाते हुये मार्ग में पड़ता था ।
कलंबुका - यह अङ्गदेश के पूर्व प्रदेश में कहीं रहा होगा ।
आर्य भूमि - जैन सूत्रों में भारतवर्ष में श्रङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, मगध काशी, कौशल, विदेह, वत्स, मत्स्य आदि साढ़े पच्चीस देश श्रार्य माने ये हैं और शेष नार्य । पूर्व में ताम्रलिप्ती, उत्तर में श्रावस्ती, दक्षिण - कौशाम्बी और पश्चिम में सिन्धुतक आर्य भूमि मानी गयी है ।
अनार्य देश - यह अनार्य भूमि पश्चिम बंगाल की शढ़ भूमि
और वीर भोम श्रादि संथाल प्रदेश समझना चाहिये ।
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परम ज्योति महावीर
राढ़- मुर्शिदाबाद के आस पास का पश्चिमी बंगाल पहिले राढ़ कहलाता था जिसकी राजधानी कोटी वर्ष नगर था । जैन सूत्रों में रादः की गणना साढ़े पच्चीस आर्य देशों में की गयी है।।
कयलिग्राम- कयलि समागम मगध के दक्षिण प्रदेश मलय भूमि में कहीं होगा।
जम्ब संड-यह ग्राम मलय देश में अथवा दक्षिण मगध में कहीं रहा होगा।
तंबाय (ताम्राक)-यह सन्निवेश संभवतः मगध में कहीं था।
कूपिय (कूपिको यह सन्निवेश वैशाली से पूर्व में विदेह भूमि में कहीं था।
वैशाली-मुजफ्फर पुर जिला में जहाँ आज बसाढ़ पट्टी ग्राम है, वहीं पहिले महावीर के समय की विदेह देश की राजधानी वैशाली नगरी थी, यह जैन धर्म के केन्द्रों में से एक थी। यह चम्पा से वायव्य दिशा में साढ़े बारह मील और राजगृह से लगभग उत्तर में ७० मील की दूरी पर थी।
ग्रामाक-यह सन्निवेश वैशाली और शालिशीर्ष नगर के बीच में, पड़ता था।
शालिशीर्ष-ह स्थान वैशाली और भद्रिका के बीच में कहीं था । संभवतः अंगभूमि की वायव्य सीमा पर रहा होगा।
भद्दिया--भागलपुर से दक्षिण में अाठ मील पर अवस्थित भदरिया स्थान ही प्राचीन महिया अथवा भद्रिका नगरी होना चाहिये । यह अंग देश की एक प्रसिद्ध तत्कालीन नगरी थी।
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विहार स्थल नाम कोष
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मगध यह देश महावीर के समय का एक प्रसिद्ध देश था, मगध की राजधानी राजगृही महावीर के प्रचार क्षेत्रों में प्रथम और वर्षावास का मुख्य केन्द्र थी। पटना और गया जिले पूरे एवं हजारी बाग का कुछ भाग प्राचीन मगध के अन्तर्गत थे।
आलंभिया-काशी राष्ट्रान्तर्गत एक प्रसिद्ध नगरी थी। यह राजगृह से बनारस जाने वाले मार्ग पर अवस्थित थी । इसके तत्कालीन राजा का नाम जितशत्रु था ।
कून्डाक-यह सन्निवेश काशी राष्ट्र के पूर्व प्रदेश में आलंभिया के पास होना चाहिये।
महना-यह सन्निवेश कहाँ था ! यह बताना कठिन है।
बहसाल-यह ग्राम मद्दना ग्राम ओर लोहार्गला राजधानी के बीच में पड़ता था।
लोहार्गला~यह जानना कठिन है कि लोहार्गला किस देश में कहाँ थी ? इससे मिलते जुलते नाम वाले तीन स्थान हैं (१) हिमालय का लोहार्गल (२) पुष्कर-सामोद के पास वैष्णवों का प्राचीन तीर्थ लोहार्गल (३) शाहाबाद जिले की दक्षिणी सीमा में प्राचीन शहर 'लोहरडगा।
पुरिमताल-प्रयाग का ही प्राचीन नाम पुरिमताल था, ऐस अनेक विद्वानों का मत है । जैन सूत्रों के अनुसार पुरिमताल अयोध्या का शाखा नगर था । कुछ भी हो पुरिमताल एक प्राचीन नगर था यह तो निर्विवाद है।
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परम ज्योति महावीर
सोलहवाँ सर्ग सिद्धार्थपुर-संभवतः उड़ीसा में कहीं रहा होगा।
कूर्मग्राम-यह ग्राम पूर्वीय बिहार में वहीं होना चाहिये क्योंकि वीरभोम से सिद्धार्थपुर होते हुये महावीर यहाँ आये थे ।
वाणिज्य ग्राम-यह नगर वैशाली के पास गंडकी नदी के तट पर अवस्थित एक समृद्ध व्यापारिक मण्डी थी। आधुनिक बसाड़ पट्टी के पास वाला बज्जिया ग्राम ही प्राचीन वाणिज्य ग्राम हो सकता है।
सानुलदिय-अर्थात् सानुयष्टिक, ग्राम कहाँ था ? यह बताना कठिन है, पर यह अनुमान किया जा सकता है कि इस स्थान का दृढ़भूमि में होना सम्भव है जो प्राचीन कलिंग के पश्चिमीय अञ्चल में
थी।
__दृढभूमि--यहाँ म्लेच्छों की बसती अधिक थी, यह भूमि आधुनिक गोंडवाना प्रदेश होना चाहिये।
सुमोग-यह ग्राम कलिंग भूमि में था। सुच्छेता-यह स्थान सम्भवतः अंगदेश की भूमि में था।
मलय--यह ग्राम उड़ीसा के उत्तरी पश्चिमी भाग में अथवा गोंडवाना में होने की सम्भावना है ।
हत्यिसीस-( हस्तिशीर्ष ) यह ग्राम संभवतः उड़ीसा के पश्चिमोत्तर प्रदेश में कहीं था।
तोसलि ग्राम-गोंडवाना प्रदेश में था, मौर्यकाल में गंगुबा और दया नदी के संगम के मध्य में तोसली एक बड़ा नगर रहा है । यह तोसली ही प्राचीन तोसलि ग्राम हो तो भी आश्चर्य नहीं है।
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विहार स्थल नाम कोष
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व्रज ग्राम- इसका दूसरा नाम गोकुल था । यह गोकुल उड़ीसा में या दक्षिण कोसल में होना संभव है ।
कौशाम्बी - इलाहाबाद जिले के मानजहानपुर तहसील में यमुना नदी के वांये किनारे पर जहानपुर से दक्षिण में १२ मील और इलाहाबाद से दक्षिण पश्चिम में इकतोस मील पर कोसम इनाम और कोसम खिराज नामक दो ग्राम हैं। ये ही प्राचीन कौशाम्बी के अवशेष हैं ।
वाराणसी -- का अपभ्रंश बनारस है, पहिले यहाँ वरणा तथा असि नदी के संगम पर बसी हुई वाराणसी नाम की एक प्रसिद्ध नगरी थी जो काशी राष्ट्र की राजधानी थी। भगवान महावीर के मुख्य क्षेत्रों में से यह भी एक थी ।
मिथिला
- शब्द से इस नाम की नगरी और इसके आस पास का प्रदेश दोनों अर्थ प्रकट करते हैं, यह एक समृद्ध नगरी थी। सीता मढ़ी के पास महिला नामक स्थान ही प्राचीन मिथिला का अपभ्रंश है । वैशाली से मिथिला उत्तर पूर्व में ४८ मील पर अवस्थित थी ।
सत्रहवाँ सर्ग
सूसुमार - मिर्जापुर जिला में वर्तमान चुनार के निकट एक पहाड़ी नगर था, कई विद्वान् सूसुमार को भर्ग देश की राजधानी बताते हैं ।
भोगपुर - भोगपुर का नाम सूसुमार है और नन्दी ग्राम के बीच में आता है, संभवतः यह स्थान कौशल भूमि में था ।
मेंढिय गाँव - यह ग्राम श्रावस्ती के निकट कौशाम्बी के मार्ग में था ।
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परम ज्योति महावीर
सुमंगला-यह ग्राम कहाँ था। यह बताना कठिन है। संभव है यह स्थान अङ्ग भूमि में कहीं रहा होगा |
पालक-यह ग्राम चम्पा के निकट कौशाम्बी की दिशा में था। - जंभियग्राम-इसकी वर्तमान अवस्थिति पर विद्वानों का ऐकमत्य नहीं है । कवि परम्परा के अनुसार सम्मेद शिखर के दक्षिण में बारह कोस पर जो जंभी गाँव है वही प्राचीन जंभिय ग्राम है। कोई सम्भेद शिखर से दक्षिण पूर्व लगभग पचास मील पर आजीनदी के पास वाले जय ग्राम को प्राचीन जंभिय ग्राम बताते हैं ।
मिढिय-यह ग्राम अङ्ग जनपद में चम्पा से मध्यमा पावा जाते हुये मार्ग में पड़ता था।
छम्माणि- यह ग्राम मध्यमा पावा के निकट चम्पा नगरी के मार्ग पर कहीं था।
मध्यमा-पावा मध्यमा का कहीं कहीं इस नाम से भी उल्लेख है। यह मगध जनपद में थी, अाज भी यह विहार नगर से तीन कोस पर दक्षिण में है, जैनों का तीर्थ क्षेत्र बना हुआ है।
ऋजुकूला-हजारी बाग जिला में गिरीडीह के पास बहने वाली बाराकड़ नदी को ऋजुकूला ऋजुपालिका अथवा रिजुवालका कहते हैं । विहार वर्णन से ज्ञात होता है कि जंभिय ग्राम और ऋजुकूला नदी मध्यमा के रास्ते में चम्पा के निकट ही कहीं होना चाहिये ।
बीसवाँ सर्ग विपुलाचल-राजगृह के पाँच पहाड़ों में से एक का नाम विपुल.
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________________ सहायक साहित्य (1) श्री उत्तर पुराण-श्रीमद् गुणभद्राचार्य विरचित एवं पं० लाला राम जी जैन द्वारा अनूदित / . (2) वर्द्धमान-श्री अनूप शर्मा / (3) श्री बर्धमान महावीर-श्री दिगम्बर दास जी जैन / (4) श्रमण भगवान महावीर-पुरातत्ववेत्ता श्री पं० कल्याण विजय जी गणीकृत / (5) भगवान महावीर-श्री कामता प्रसाद जी जैन / (6) महावीर चरित्र-श्रीशग कवि कृत / (7) चार तीर्थकर-श्री पं० सुख लाल जी संघवी / (8) तीर्थकर भगवान महावीर-श्री वीरेन्द्र प्रसाद जी जैन / (9) महावीर वर्धमान-श्री जगदीशचन्द्र जी जैन एम. ए. पी च० डी०।