Book Title: Pali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 02
Author(s): Ravindra Panth and Others
Publisher: Nav Nalanda Mahavihar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पालि - हिन्दी शब्दकोश (प्रथम भाग, द्वितीय खण्ड) (आ - ईहित) बुद्ध महापरिनिर्वाणाब्द 2552 नव नालन्दा महाविहारस्स नव नालन्दा महाविहार मानित विश्वविद्यालय नालन्दा (बिहार) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 2009 ई. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पालि-हिन्दी शब्दकोश For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बुद्धमहापरिनिर्वाणाब्द 2552 पालि - हिन्दी शब्दकोश [प्रथम भाग, द्वितीय खण्ड ] [आ - ईहित] प्रधान सम्पादक डॉ. रवीन्द्र पंथ सम्पादक- मण्डल डॉ. उमा शंकर व्यास डॉ. मौलिचन्द प्रसाद नव नालन्दा महाविहारस्स नव नालन्दा महाविहार मानित विश्वविद्यालय नालन्दा (बिहार) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 2009 ई. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आइ.एस.बी.एन. 81-88242-16-0 मूल्य: 800.00 रुपये © 2009, नव नालन्दा महाविहार मानित विश्वविद्यालय नालन्दा (बिहार), भारत इस पुस्तक का कोई भी अंश प्रकाशक की पूर्वानुमति के बिना किसी भी रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है. 978-81-88242-16-1 : www.kobatirth.org प्रकाशक निदेशक, नव नालन्दा महाविहार मानित विश्वविद्यालय, नालन्दा 803111, बिहार ( भारत ) (संस्कृति विभाग, भारत सरकार के अधीन एक स्वायत्तशासी संस्थान) फोन फैक्स 06112-281672 06112-281505 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुद्रक पैरागोन इंटरप्राइजिज, नई दिल्ली 110002, फोन 011-23280295 For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Pali-Hindi Dictionary [ Vol. 1, Part II ] [ă - ihita ] Chief Editor Ravindra Panth Board of Editors Dr. Uma Shankar Vyas Dr. Maulichand Prasad KO 2002 नवनालन्दा महाविहारस्स Nava Nalanda Mahavihara Deemed University Nalanda (Bihar) 2552 Mahāparinirvāna year of the Buddha 2009 For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Price: Rs. 800.00 © 2009, Nava Nalanda Mahavihara, Deemed University, Nalanda (Bihar), India No part of this dictionary be reproduced without the prior permission of the publisher. ISBN 81-88242-16-0 978-81-88242-16-1 Published by The Director, Nava Nalanda Mahavihara, Deemed University, Nalanda 803111, Bihar, India An autonomous institute under the Ministry of Culture, Government of India Phone : 06112-281672 Fax : 06112-281505 Printed by Paragon Enterprises, New Dehi 110002, Phone 011-23280295 For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा संस्थापक निदेशक स्व. भिक्खु जगदीश काश्यप की स्मृति में उनके जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर सादर समर्पित For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Dedicated to Most Ven. Late Bhikkhu Jagdish Kashyap the founder Director of Nava Nalanda Mahavihara, Nalanada on the Occasion of his Birth Centenary Celebration For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir R.L. BHATIA Governor, Bihar RAJ BHAVAN PATNA-800 022 Date: February 12, 2009 सत्यमेव जयते MESSAGE I am extremely delighted to know that the second part of the first volume of Pali-Hindi Dictionary is going to be published by Nava Nalanda Mahavihara, Nalanda. I hope, this dictionary will be very useful for the students, researchers and teachers of Pali, Buddhist studies and others. I wish success of the publication of Dictionary and believe that it will further enrich the lexicon of our national language Hindi. (R.L. Bhatia) For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स प्रस्तावना पालि-हिन्दी शब्दकोश के प्रथम भाग, प्रथम खण्ड का औपचारिक रूप से विमोचन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा कुशीनगर में 2 मई, 2007 को भगवान् बुद्ध के 2550वें महापरिनिर्वाण महोत्सव के समापन समारोह के अवसर पर किया गया था तथा इसे विद्वानों एवं जनसामान्य के सम्मुख प्रस्तुत किया जा चुका है। हमें विश्वास है कि हिन्दी भाषा में पालि-शब्दकोश के संकलन के प्रथम गम्भीर प्रयास के रूप में सुधीजनों तथा ज्ञान-पिपासु सामान्य जनों ने इसे अपनी स्वीकृति अवश्य प्रदान की होगी। अब प्रथम भाग का जनों तथा बुद्धवचनामृत के पान में अभिरत जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करते हए हमें अपार हर्ष हो रहा है। प्रस्तुत शब्दकोश पालि-शब्दों तथा उनके अर्थों की सुदीर्घ श्रृंखलामात्र नहीं है जैसा कि संभवतः इस के साधारण शीर्षक से ध्वनित होता है। वस्तुतः किसी भी भारतीय भाषा में पालि-शब्दकोश-संरचना के वर्तमान काल तक के इतिहास में पहली बार इसके साहित्य में किसी शब्दविशेष के वास्तविक प्रयोग के आधार पर उस शब्द के अर्थ का निर्धारण करने का प्रयास इस शब्दकोश में किया गया है। इसकी अट्ठकथाओं एवं टीकाओं के निर्वचनों के आलोक में अधिकतर शब्दों की व्युत्पत्ति तथा उन के एकाधिक अर्थों का निर्वचन करते हुए उस शब्द के प्रयोग के सन्दर्भ-स्थलों के अंकन के साथ-साथ मूल पालि-स्रोतों से अनेक उद्धरण देने के प्रयास भी किए गए इस शब्दकोश में दिए गए पालि-उद्धरण मुख्य रूप से म्या-मां के छट्ठसंगायन संस्करण पर आधारित विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी (महाराष्ट्र) द्वारा प्रकाशित पालि-वाङ्मय के संस्करणों से यथावत् लिए गए हैं। अतः हम विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी के प्रति हार्दिक कतज्ञताभाव व्यक्त करते हैं। जिन यशस्वी अट्ठकथाकारों एवं टीकाकारों के निर्वचनों के आधार पर इस शब्दकोश में शब्दों का अर्थविनिश्चय किया जा सका है, उनके प्रति हम हार्दिक श्रद्धाभाव प्रकट करते हैं। आधुनिक शब्दकोशों के सुधी सम्पादकों तथा मरम्मरट्ठ-बुद्धसासन समिति द्वारा प्रकाशित “तिपिटक पालि-म्यामाभिधान” नामक शब्दकोश के सम्पादक भदन्त उ. पञिस्सराभिवंस के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं। स्व. भदन्त जगदीश काश्यप एवं पूज्य सत्यनारायण गोयनका जी के प्रति विनम्र श्रद्धाभाव व्यक्त करना हमारा प्रथम कर्तव्य है। इन का प्रेरक व्यक्तित्व एवं ही इस शब्दकोश के प्रणयन का प्रमुख प्रेरणास्रोत है। महाविहार की नियन्त्री परिषद् के अध्यक्ष-सह-कुलाधिपति बिहार के महामहिम राज्यपाल महोदय इस परियोजना की सफल परिणति में प्रेरणास्रोत हैं। हम उनके प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हैं। इस शब्दकोश की परियोजना को मूर्त स्वरूप प्रदान करने में भारत सरकार के संस्कृति एवं पर्यटन विभाग ने उदारता एवं तत्परता For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xiv के साथ अनुदान स्वीकृत किया है। विभाग के सम्माननीय मन्त्री, सचिव एवं अन्य पदाधिकारियों के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं। _इस शब्दकोश के प्रथम भाग के प्रथम खण्ड के सम्पादकमण्डल के सदस्य डा. सुकोमल चौधुरी तथा डा. ब्रज मोहन पाण्डेय 'नलिन' के प्रति हम हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। इस खण्ड के संकलन में भी हमें इन विद्वानों से प्रेरणा प्राप्त हुई है। स्व. श्यामदेव द्विवेदी ने इस खण्ड की पाण्डुलिपि के कुछ अंशों का संशोधन कर एवं विषयवस्तु को व्यवस्थित कर के हमें अनुगृहीत किया है। उनके प्रति हम सम्मान प्रकट करते हैं। नव नालन्दा वहार के रजिस्ट्रार डा. एस. पी. सिन्हा ने इस परियोजना के कार्यान्वयन में तत्परतापूर्वक अमूल्य सहयोग दिया है। उन्हें धन्यवाद दिये बिना हम अपना कर्त्तव्य पुरा नहीं समझेंगे। इस खण्ड की पाण्डुलिपि तैयार करने में शोधसहायक स्व. मुरारी मोहन कुमार सिन्हा, डा. चिरंजीव कुमार आर्य, डा. विश्वजीत प्रसाद सिंह, श्री सच्चिदानन्द सिंह, भिक्षु प्रज्ञापाल और श्री विनोदानन्द झा का योगदान है, जिसके लिए उन्हें साधुवाद देना अनिवार्य है। श्री राजेश कुमार जायसवाल ने पाण्डुलिपि का कम्प्यूटर टंकण पूर्ण निष्ठा एवं मनोयोग के साथ किया है। इसके लिए हम उन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। पैरागॉन इण्टरप्राइजेज, नई दिल्ली के संचालक भी स्वच्छ, सुन्दर मुद्रण एवं गेट-अप के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। स्खलन पर दुर्जन हंसते हैं पर सज्जन समाधान करते हैं। आशा है, सुधी पाठक इसकी न्यूनताओं को बतलाते हुए अपना बहुमूल्य सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करेंगे ताकि आगामी खण्डों में उन सुझावों के अनुरूप अपेक्षित सुधार किया जा सके। नव नालन्दा महाविहार (मानित विश्वविद्यालय), नालन्दा बुद्धाब्द - 2552 ई. सन. दिसम्बर 2008 रवीन्द्र पंथ निदेशक और प्रधान सम्पादक एवं सम्पादकमण्डल For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Namo Tassa Bhagavato Arahato Sammāsambuddhassa Preface The first part of the first volume of Pali-Hindi Dictionary was released by the former President of India, H.E. Dr. A.P.J. Abdul Kalam on the occasion of the concluding function of the historic 2550th Mahaparinirvana celebration of Lord Buddha at Kusinagar on 2nd of May 2007. It is already in the market. Scholars of Pāli and Buddhism as well as the common readers welcomed it as the first serious attempt for the compilation of a Pāli-Hindi Dictionary. We feel immense pleasure in placing the second part of it before the world of scholars as well as those common readers who have deep interest in understanding the words of the Buddha. This dictionary is not simply a long string of Pali words and their meanings, as its unassuming name might suggest. Attempt is made here for the first time in the history of Pali lexicography to extract the meaning of a word from its actual usage in literature. Thus it explains the grammatical formation of each word and its various shades of meaning, enumerates the place of its occurance and provides copious citations from original Pali texts. The Pali extracts quoted herein have been taken from Vipassana Visodhana Vinyasa, Igatpuri (Maharastra) edition, based fully on the Chatha-Sangāyana recension of Pali Canonical books and their commentaries. We have taken these extracts without any alteration irrespective of the merits and demerits of these readings. We express once again our sincere gratitude to the great exegetes of the Pāli scriptural texts who are the principal sources for the etymologies and meanings of words entered herein. We are also thankful to the compilers of modern Dictionaries as well as to the editor of the Tipitaka Pāli MYANMĀBHIDHĀNA. We express our sense of high respect to Late Ven. Jagadish Kasyapa and honourable Sri Satyanārain Goenkā who remain to be the source of inspiration for the compilation of this Dictionary. His Excellency the Governor of Bihar, who is also the Chancellor of Mahavihara, has taken personal interest in the compilation of it. We are grateful to His Excellency. The Minister, the Secretary of Culture & Tourism, Govt. of India, have liberally sanctioned grants to materialize this project. We are thankful to them. We thank Prof. Sukomal Chaudhuri and Dr. Braj Mohan Pāndey 'Nalin', members of the editorial board of the Volume I, Part I of it. They inspired us for the compilation of this part also. Late Shyāmdeo Dwivedi corrected and rearranged the matter of a portion of it. We express high regards for him. Dr. S.P. Sinha, Registrar, Nava Nālandā Mahāvihāra has proffered valuable co-operation. We deem it fit to thank him. The manuscript of this part was prepared by Late Murāni Mohan Kumār Sinha, Dr. Chiranjeev Kumār Arya, Dr. Vishwajit Prasad Singh, Bhikshu Prajñāpāl and Shri Vinodānanda Jhā. Thanks are For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xvi due to them. Shri Rājesh Kumār Jaiswal did the computer-typing of the complete manuscript for which he deserves our thanks. Paragon Enterprises, New Delhi too is worthy of thanks for its fine printing and attractive get-up. Fools laugh at blundering but wise men set it right. We hope, learned scholars and vigilant readers will intimate us its shortcomings so that we may avail of their suggestions in the volumes to come. Dr. R. Panth Director and Chief Editor Nava Nālandā Mahāvihāra, (Deemed University), Nalanda Buddha Era - 2552 Christian Era - January, 2009 Members of the Editorial Board For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org xvii शब्दकोश देखने के लिए आवश्यक निर्देश Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1. शब्दों का क्रम - विन्यसन पालि-व्याकरणों में उल्लिखित देवनागरी वर्णमाला के अकारादि वर्णों के क्रम के अनुरूप किया गया है। 2. ह्रस्व-स्वर - परवर्ती अनुस्वार (निग्गहीत) युक्त शब्द का विन्यसन हस्व स्वर से प्रारम्भ होने वाले शब्दों के तुरन्त बाद में किया गया है, जैसे कि अकारादि शब्दों का प्रारम्भ 'अ' शब्द के साथ किया गया है तथा इनके उपरान्त परवर्ती अनुस्वारयुक्त 'अंस' आदि का विन्यसन हुआ है। 3. संज्ञा शब्दों का प्रातिपदिक रूप रख कर उसके आगे पु. या स्त्री या नपुं. लिखकर उसके विशिष्ट लिंग को दर्शाया गया है, जैसे कि अंस के तुरन्त बाद पु. लिखकर आगे उसके अंस, अंसेन एवं अंसे आदि रूप उल्लिखित किये गये हैं। 4. विशेषण - शब्दों का प्रातिपदिक-रूप रखकर उसके आगे त्रि. लिख दिया गया है, जैसे कि अंसव, अकक्कस, अक्खात, त्रि. आदि । 5. क्रियाविशेषण के रूप में व्यवहृत निपातों के आगे क्रि. वि. लिखा गया है तथा संज्ञा अथवा विशेषणों से व्युत्पन्न क्रियाविशेषणों को उस संज्ञा अथवा विशेषण के ही अन्तर्गत दर्शाया गया है जैसे, 'पर' के अन्तर्गत परं या परेन अथवा 'समीप' के अन्तर्गत समीपं या समीपे को रखकर क्रि. वि. लिख दिया गया है। 6. किसी भी एक शब्द के अलग-अलग अर्थों को अरबिक क्रमांक देकर दर्शाया गया है तथा उद्धरणों के उल्लेख में भी अरबिक अंकों का ही प्रयोग किया गया है। जैसे 'अधिवत्थ' में (पृ. 231) 1.क., 1. ख. इत्यादि और दी. नि. 2.76 म. नि. 2.251 इत्यादि । 7. उद्धरणों के लिए विपश्यना - विशोधन- विन्यास, इगतपुरी के वर्ष 1993 से 1998 तक मुद्रित संस्करण को ही प्रमुख आधार बनाया गया है क्योंकि इसी संस्करण में पालि- तिपिटक, अट्ठकथाएँ तथा अधिकतर मूलटीकाएँ एवं अनुटीकाएँ उपलब्ध हैं। इसी संस्करण के सन्दर्भ का अंकन सम्बद्ध उद्धरण के तुरन्त बाद किया गया है जैसे 'अधिवृत्थं खो मे ... अम्बपालिया गणिकाय भत्तं, दी. नि. 2.76 | 8. वि. वि. वि. इगतपुरी के संस्करण में सन्दर्भ उपलब्ध न रहने की स्थिति में केवल रोमन, नालन्दा अथवा अन्य उपलब्ध संस्करण के सन्दर्भ का ही अंकन उद्धरण के उपरान्त कर दिया गया है। उदाहरणार्थ महावंस, दीपवंस, चूळवंस, दाठावंस, गन्धवंस, सासनवंस, सद्धम्मोपायन, मोग्गल्लान-व्याकरण, कच्चायन-व्याकरण, सद्दनीति, अभिधानप्पदीपिका आदि ग्रन्थों के उद्धरण अन्य उपलब्ध संस्करणों से दिये गये हैं । 9. वि. वि. वि. एवं रोमन संस्करणों के बीच उपलब्ध पाठान्तर को संकेताक्षर पाठा. लिखकर सूचित किया गया है, जैसे कि 'अञ्जन' के अन्तर्गत 'अञ्जनारहो' का पाठा. अच्चनारहो। 10. गद्यभाग से गृहीत उद्धरणों के सन्दर्भाङ्कों में सम्बद्ध संस्करणों की पृष्ठ संख्या दी गयी है परन्तु थेरगाथा, थेरीगाथा, धम्मपद सुत्तनिपात दीपवंस, महावंस, खुदकपाठ, उदान धूळवंस, सद्धम्मोपायन, अभिधानप्पदीपिका, सद्धम्मसंगहो, अभिधम्मावतार, नामरूपपरिच्छेद, परमत्थ-विनिच्छय, सच्चसङ्क्षेप, खुद- सिक्खा, विनयविनिच्छय उत्तरविनिच्छय, गंधवंस, जिनचरित, जिनालंकार, अनागतवंस, तेलकटाहगाथा, थूपवंस, दाठावंस, वुत्तोदय, सुबोधालंकार, सच्चसंगहो जैसे गाथा-संग्रहों के उद्धरणों के सन्दर्भाङ्कों में गाथा - For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org xviii संख्या का उल्लेख हुआ है। सुत्तनिपात के गद्यभाग के सन्दर्भों का सङ्केत पृ. का उल्लेख कर तथा गाथाओं का संकेत गाथा संख्या द्वारा किया गया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 11. जातक की गाथाओं एवं अट्ठकथा दोनों से गृहीत उद्धरणों के सन्दर्भ जातक अट्ठकथा की पृष्ठ संख्या द्वारा सङ्केतित किये गये हैं। 12. विनय एवं अभिधम्म के विषिष्ट पारिभाषिक शब्दों के निहितार्थ के स्पष्टीकरण हेतु यत्र-तत्र संक्षिप्त टिप्पणियाँ दी गयीं हैं। 13. पालि शब्दों के संस्कृत- समानान्तर कोष्ठक [] के अन्तर्गत सङ्केतित कर दिये गये हैं। 14. प्रायः मूल शब्दों की संक्षिप्त व्युत्पत्ति शब्द के उपरान्त ही दे दी गयी है। — 15. मूल शब्द से व्युत्पन्न उस शब्द के विविध प्रयोगों को प्रायः (क) उसी मूलषब्द के अन्तर्गत पड़ी रेखा के पश्चात् रखा गया है, जैसे कि भगवन्तु के भगवा, भगवता, भगवति आदि विभिन्न विभक्तियों के पदों को मूल प्रातिपदिक भगवन्तु के ही अन्तर्गत रखा गया है. (ख) समस्त पदों को मूल शब्द के ही अन्तर्गत पड़ी रेखा के पश्चात् रखा गया है, जैसे कि बोधि के अन्तर्गत रुक्ख, 'बोधिरुक्ख' का सूचक है। 16. विभिन्न धातुओं से निष्पन्न क्रियारूपों को सम्बद्ध धातु के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष एकवचन के रूप के ही अन्तर्गत रखा गया है, जैसे कि गम् (जाना) धातु से व्युत्पन्न विविध कालों, भावों एवं कृत्प्रत्ययान्त रूपों को ‘गच्छति' शीर्षक के अन्तर्गत रखा गया है । यत्र-तत्र कुछ क्रिया- रूपों को स्वतन्त्र प्रविष्टि के अन्तर्गत भी रखा गया है। 17. उपसर्गयुक्त धातुओं के रूप पृथकरूप से उपसर्ग के आदिवर्ण की क्रम-स्थिति के अनुरूप विन्यस्त किये गये हैं। - 18. उद्धरणों को तिरछे ( Italics) टंकण में प्रस्तुत किया गया है। 19. संकेतसूची 'क' के अन्तर्गत व्याकरण आदि के विषिष्ट पारिभाषिक शब्दों के सङ्केताक्षर उल्लिखित हैं जबकि संकेत - सूची 'ख' में सन्दर्भ-ग्रन्थों के नामों के सङ्केतक प्रस्तुत किये गये है । 20. पालि - साहित्य में उल्लिखित उपाख्यानों, प्रयुक्त छन्दों, अलङ्कारों, विषिष्ट पारिभाषिक शब्दों एवं भौगोलिक शब्दों आदि के सामान्य व्याख्यानों को शब्दकोष के अन्त में विभिन्न परिषिष्टों के रूप में जोड़ दिये जाने की योजना है | 21. शब्दकोश के शब्द व्युत्पत्तिपरक संक्षिप्त निर्देशों में हिन्दी भाषी पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हिन्दी व्याकरणों में गृहीत पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है जैसे कि बुद्धो के व्युत्पत्ति-परक निर्वचन में प्र. वि. ए. व. तथा गच्छति के लिए वर्त, प्र. पु. ए. व. लिखा गया है। पारिभाषिक शब्दों की संकेताक्षर सूची में व्याकरण के इन पारिभाषिक शब्दों के पालि-समानान्तर भी दे दिए गए है। For Private and Personal Use Only 22. यद्यपि आधुनिक हिन्दी लेखन में परसवर्ण के स्थान पर प्रायः अनुस्वार का ही प्रयोग होने की प्रवृत्ति बनती है परन्तु शब्दकोश के हिन्दी - निर्वाचनों में दोनों का प्रयोग हुआ है। 23. चन्द्रविन्दु के स्थान पर अनुस्वार का ही प्रयोग हुआ है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 11 # www.kobatirth.org • xix शब्दकोश में प्रयुक्त संकेतक - चिह्न एक से अधिक सम्बद्ध उद्धरणों के बीच पूर्ण समानता का सूचक चिह्न. सम्बद्ध उद्धरणों के बीच आंशिक समानता का सूचक चिह्न. समास के पूर्वपद में व्याख्येय शब्द की स्थिति को सूचित करने वाला तथा प्रत्येक उद्धरण के पूर्व में दिया हुआ चिह्न. सम्बद्ध शब्द की समास के उत्तरपद में विद्यमानता सूचक चिह्न. सम्बद्ध उद्धरण की अपरिसमाप्ति का सङ्केतक चिह्न धातु का चिह्न + योग-सूचक चिह्न. () लघु-कोष्टक का चिह्न,, जिसमें सम्बद्ध शब्द की व्युत्पत्ति, समानान्तर अथवा पाठान्तर आदि अन्तर्निविष्ट किये गये हैं. [ ] बृहत्-कोष्टक का चिह्न जिसमें व्याख्येय पालि- शब्द का समानान्तर संस्कृत अथवा बौद्धसंस्कृत शब्द अन्तर्निविष्ट कर प्रस्तुत किये गये हैं. विवेच्य शब्द के विवेचन के अन्त में प्रयुक्त पूर्ण विराम चिह्न. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XX शब्दकोश में पालि-शब्दों के लिए प्रयुक्त देवनागरी वर्णमाला का स्वरूप स्वर: मात्रा:व्य ञ्जनः- (अ-सहित) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ . . . . . . . . । क, ख, ग, घ, ङ च, छ, ज, झ, ञ ट, ठ, ड, ढ, ण त, थ, द, ध, न प, फ, ब, भ, म य, र, ल, व, स, ह, ळ, अं(निग्गहीत) प्रस्तुत कोश में प्रयुक्त वर्ण-क्रम ___ कच्चायन-व्याकरण में 8 स्वरों एवं 33 व्यञ्जनों सहित कुल 41 वर्णों का उल्लेख है। शब्दकोश में इसी प्रक्रिया का अनुसरण किया गया है। यहां ल के बाद ळ का प्रयोग दिया गया है, जो पश्चिमी विद्वानों के क्रम का अनुकरण है। इस शब्दकोश के प्रथम खण्ड में इस क्रम-विन्यास का अनुसरण नहीं हो सका है। इस त्रुटि का परिमार्जन इस खण्ड में तथा आगे के खण्डों में किया जा रहा है। शब्दों का वर्णानुरूप क्रम-विन्यास निम्नलिखित रूप में किया गया है अ, अं, आ, इ, ई. ई, उ, उं, ऊ, ए, ओ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकेत सूची अ. अक. क्रि. अद्य. अन्त. अनद्य. अनि. अनु. अप. अव्ययी. स. अ. मा. अलु. स. पारिभाषिक शब्द अव्यय अकर्मक क्रिया अद्यतन भूत अन्तर्गत अनद्यतन-भूत अनियमित अनुज्ञा (लोट्) अपपाठ अव्ययीभाव-समास अर्धमागधी अलुक्-समास आगम आत्मनेपद आलंकारिक प्रयोग आदत्त शब्द इच्छार्थक (सनन्त) इतरेतर द्वन्द्व आग. आत्मने. आलं. प्र. आ. श. इच्छा . इत. व. संकेत-सूची व्याकरण-संबंधी पारिभाषिक शब्द पालि पारिभाषिक शब्द रोमन (अंग्रेजी) पारिभाषिक शब्द अव्यय Indeclinable अकम्मक क्रिया Intransitive Verb अज्जतनी विभत्ति Aorist Included हीयत्तनी विभत्ति Imperfect Irregular पञ्चमी विभत्ति Imperative mood अपपाठो Corrupt reading अव्ययीभाव-समासो Adverbial compound अड्डमागधी Ardha-māgadhi अलुत्त-समासो Non-obsolete compound आगमो Augmentation अत्तनोपद Middle Conjugation Figurative use Borrowed Word इच्छित Desiderative इतरीतर द्वन्द्व Individual Copulative or Aggregative Compound उत्तर पद Later Member (of a compound) उत्तम-पुरिस First Person उपसग्ग Prefix उपपद-समास See above एकवचन Singular Number Formal कत्तुकारक Agent, Nominative case कत्तरि नाम Agent noun कत्तुकारक Active Voice कम्मकारक Passive Voice कम्मधारय-समास Adjectival compound कारक Case कालातिपत्ति Conditional आख्यातपद Verbal formation आख्यातपद Verbal noun क्रिया-रूप Verbal form क्रिया-विसेसन Adverb कितकनाम Primary derivative गाथा Verse चतुत्थी विभत्ति Dative Foot Note टीका Commentary उ. प. उ. पु. उप. उप. स. ऊ. द्रष्ट. ए. व. औप. क. क. ना. कर्तृ. वा. कर्म. वा. कर्म स. कार. काला. क्रि. प. क्रि. ना. क्रि. रू. क्रि. वि. कृद. उत्तर-पद उत्तम पुरुष उपसर्ग उपपद-समास ऊपर द्रष्टव्य एक-वचन औपचारिक कर्ता कर्तृनाम कर्तृ-वाच्य कर्म-वाच्य कर्मधारय समास कारक कालातिपत्ति क्रिया-पद क्रिया-नाम क्रिया-रूप क्रिया-विशेषण कृदन्त गाथा चतुर्थी-विभक्ति टिप्पणी टीका च. वि. For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदे. तद्धित तदेव तप्पुरिस तत्पु. त. भ. त. स. तुल. तुल. वि. तृ. वि. तद्धित तदेव तत्पुरुष तद्भव तत्सम तुलनीय तुलनात्मक विशेषण तृतीया-विभक्ति त्रिलिङ्ग द्वन्द्व-समास तुलनीय Secondary Derivative Ibid., As above Determinative Compound Derived from Sanskrit Similar to Sanskrit To be compared Adjectives of Comparison Instrumental case Adjective Couplative compound co-ordinate compound ततिया-विभत्ति तिलिङ्गक द्वन्द-समास द्व. स. दट्टब्ब See द्रष्ट. द्वि. व. द्वि. वि. द्वि. स. न. तत्पु. न. ब. नपुं. द्रष्टव्य द्विवचन द्वितीया विभक्ति द्विगु-समास नञ्तत्पुरुष-समास नञ्-बहुब्रीहि नपुंसक-लिङ्ग नामधातु नामपद नामरूप निपात निमित्तार्थक कृदन्त निषेधार्थक नीचे ना. धा. ना. प. ना. रू. निपा. निमि. कृ. निषे. दुतिया-विभत्ति दिगु-समास न-तप्पुरिस न बहब्बीहि नपुंसकलिङ्ग नामधातु नामपद नामरूप निपात निमित्तत्थक कितक निसेधपरिदीपक पद पद परस्सपद पञ्चमी-विभत्ति परोक्खा-विभत्ति पाठन्तर पारिभासिक पुल्लिङ्ग पुब्बकालिक-कितक पूरणत्थक Dual number Accusative Numerical compound Negative Negative adjectival compound Neuter Gender Denominative Substantive noun Declension Particle Dative Infinitives Negative Below Derived form Active Form Ablative Perfect Tense Variant reading Technical Masculine Gender Absolutive Ordinals Prefix Page Counterpart Third Person Nominative Old Indo-Aryan Language पारि. पूर. सं. पर. प. परस्मैपद प. वि. पञ्चमी-विभत्ति परो. परोक्ष पाठा. पाठान्तर पारिभाषिक पुंलिङ्ग पू. का. कृ. पूर्व-कालिक कृदन्त पूरणार्थक संख्या पू. स. पूर्व-सर्ग पृ. पृष्ठ प्रति रू. प्रतिरूपक प्रथम-पुरुष प्र. वि. प्रथमा-विभक्ति प्रा. भा. आ. भा. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा प्रा. स. प्रादि-समास प्रेर. प्रेरणार्थक ब. स. बहुब्रीहि समास ब. व. बहुवचन बौ. सं. बौद्ध-संस्कृत भवि. भविष्यत्काल पिट्ठ पटिरूपक पठम-पुरिस पठमा विभत्ति कारित Causative बहुब्बीहि-समास Relative or Attributive Compound अनेकवचन Plural Number Buddhist Hybrid Sanskrit अनागता विभत्ति, भविस्सन्ती Future Tense विभत्ति भाववाचक सञआ Abstract Noun भाव. भाववाचक संज्ञा For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxiii भा. वा. भूत. क. कृ. भा. आ. भा. लुत्त वर्त. कृ. वि. अ. विधि. विप. वि.प्र. विलो. विशे. भाववाच्य भूतकाल भूतकालिक कर्मणि कृदन्त भ्वादिगण मध्यम पुरुष मध्य भारतीय आर्यभाषा मात्रिका मिथ्या सादृश्य लाक्षणिक अर्थ लाक्षणिक प्रयोग लिङ्ग लुप्त वचन वर्तमान-काल वर्तमानकालिक कृदन्त विभक्ति विशेष, अर्थ विधिलिङ् विपरीतार्थक विविध-प्रयोग विलोम विशेषण व्यक्तिवाचक संज्ञा व्युत्पन्न/व्युत्पत्ति व्युत्पत्तिपरक अर्थ व्युत्पन्न रूप वैदिक शब्दषः शाब्दिक अर्थ षष्ठी-विभक्ति संस्कृत संभाव्य कृदन्त संपादित संबोधन संस्करण संक्षिप्त-रूप समास सकर्मक क्रिया सत्त्वनाम सप्तमी-विभक्ति समानान्तर समानार्थक समाहार-द्वन्द्व समास समास-उत्तर-पद समस्त-पद समास-पूर्वपद सर्वनाम भावकारक Passive Voice (Intransitive Verbs) अतीतकाल Past Tense Past Passive Participle भूवादिगण First Conjugation मज्झिमपुरिस Second Person Middle Indo-Aryan Language मातिका Matrix False analogy Secondary Meaning Secondary Usage लिङ्ग Gender Elided वचन Number पच्चुप्पन्ना विभत्ति Present Tense वत्तमानकालिक कत्तरि कितक Present Participle (Active) विभत्ति Case-affixes Special meaning सत्तमी-विभत्ति Optative or Potential mood Antonym Different Usages Opposite विसेसन Adjective Personal Name निष्फन्न Derived Etymological meaning Derived form वेदिक Vedic सद्दसो Literally Literal meaning छट्ठी-विभत्ति Genitive Case सक्कत Sanskrit Potential Passive Participle संसोधित Edited आलपन Vocative Case Edition सङ्कित्त-रूप Abbreviated Form समास Compound सकम्मक क्रिया Transitive Verb Substantive noun सत्तमी विभत्ति Locative case Parallel तुल्लत्थक Synonym समाहारद्वन्द-समास Aggregative Co-ordinate compound समासुत्तरपद Later member of a compound समासपद Compound-word समासपुब्बपद First member of a compound सब्बनाम Pronoun सं. कृ. संपा. संबो. संस्क. सं. रू. स. सक. क्रि. सत्त्व. सप्त. वि. समा. समाना. समा. . स. उ. प. स. प. स. पू. प. सर्व For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra स्त्री० स्था. संकेत सूची अ. नि. अट्ट. अना. वं. अनु. टी. अप. अभि. अव. अभि. टी. अभि. ध. वि. अभि. ध. स. अभि. प. अभि. प. सू. अभि. पि. अमर. अर्थ. वि. अव. श. अष्टा. इतिवु. उत्त वि. उदा. उप० प० एकक्ख. कङ्क्षा. टी. कथा. क. व. क. वु. क. व्या. खु. पा. खु. सि. ग. वं. चरिया. चूळनि चूळव. चू छ. सं. जॅ. पा. टे. सो. जा. जि० च० स्त्रीलिङ्ग स्थानापन्न ग्रन्थों के नाम अङ्गुत्तरनिकाय अट्ठकथा अनागत वंस अनुटीका अपदान अभिधम्मावतार अभिनवटीका अभिधम्मत्थविभाविनी अभिधम्मत्थसङ्गहो अभिधानपदीपिका अभिधानप्पदीपिका सूची अभिधम्मपिटक अमरकोष अर्थविनिश्चय सूत्र अवदानशतक अष्टाध्यायी इतिवृत्तक उत्तरविनिच्छय उदान उपरिपण्णास एकक्खरकोस (अभिधानप्पदीपिका) कङ्क्षावितरणी-टीका (पातिमोक्ख- टीका) कथावत्थु कच्चायन-वण्णना कच्चायन-वृत्ति कच्चायन-व्याकरण खुद्दक पाठ खुसिक्खा गन्धवंस चरियापिटक चूळनिद्देस चूळवग्ग धूलवंस छद्रसंगायन www.kobatirth.org जातक जिनचरित इत्थिलित πχίν ख. सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची प्रकाशन वि. वि. वि., इगतपुरी जॅ. पा. टे. सो., लन्दन वि. वि. वि. इगतपुरी पालि परिवेण पटपडगंज, दिल्ली वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी बौद्धभारती, वाराणसी बौद्धभारती, वाराणसी म्यांमा जॅर्नल ऑफ पालि टेक्स्ट लंदन सोसाइटी पा. टे. सो., लन्दन वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी पा. टे. सो., लन्दन वि. वि. वि. इगतपुरी जॅ. पा. टे. सो., लन्दन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Feminine gender Substitute For Private and Personal Use Only चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, भाग 1, 2 वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी बौद्धभारती, वाराणसी वि. वि. वि. इगतपुरी वि. वि. वि. इगतपुरी जॅ. रा. ए. सो. ऑफ बंगाल, कलकत्ता जॅ. रा. ए. सो. ऑफ बंगाल, कलकत्ता, पृ. 1 से 3391871 तारा पब्लिकेशन्स, कमच्छा, वाराणसी 1981 वि. वि. वि. इगतपुरी 1998 वि. वि. वि. इगतपुरी 1998 1896 1998 1998 1998 1980 सन् 1998 1886 1998 1987 1998 1998 1998 1998 1981 1981 2001 1971 1958 1962 1998 1998 1998 1998 1981 1998 1998 1910-12 1998 1904-05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XXV जिना. ति. प. तेल. थू. वं. थेरगा. थेरीगा. दा. वं. दिव्या. दी. नि. दी. वं. ध. प. 1894 1996 1884 1948 1935 1945 1998 1998 1874 1959 1998 1996 1998 1998 1998 2000 ध. स. धातु. धा. पा. धा. मं. रू. प. 1962 1913-14 1988 1956 1998 1998 नेत्ति . प. प. अट्ठ. प. म. पटि. म. पट्टा. पर. वि. जिनालंकार जॅ. पा. टे. सो., लन्दन तिकपट्टान पा. टे. सो., लन्दन तेलकटाहगाथा जॅ. पा. टे. सो., लन्दन महाबोधि सभा, सारनाथ थूपवंस पा. टे. सो., लन्दन रा. ए. सो. ऑफ बंगाल, कलकत्ता थेरगाथा वि. वि. वि., इगतपुरी थेरीगाथा वि. वि. वि., इगतपुरी दाठावंस टरुम्बनर एण्ड कम्पनी, लुड़गेट हिल, लन्दन दिव्यावदान मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा दीघनिकाय वि. वि. वि., इगतपुरी दीपवंस काशी विद्यापीठ, वाराणसी धम्मपद वि. वि. वि., इगतपुरी धम्मसङ्गणि वि.वि. वि., इगतपुरी धातुकथा वि. वि. वि., इगतपुरी धातुपाठ (पालि-महाव्याकरण) मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी धातुमजूसा (क. व्या.) तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी नामरूप परिच्छेद पा. टे. सो., लन्दन पालि परिवेण, पटपड़गंज, दिल्ली नालन्दा-संस्करण नालन्दा नेत्तिप्पकरण वि. वि. वि., इगतपुरी पञ्चप्पकरण अट्ठकथा वि. वि. वि., इगतपुरी पज्जमधु जॅ. पा. टे. सो., लन्दन पटिसम्भिदामग्ग वि. वि. वि., इगतपुरी पट्टान वि. वि. वि., इगतपुरी परमत्थ-विनिच्छय पालि परिवेण, पटपड़गंज, दिल्ली वि. वि. वि., इगतपुरी परिवार वि. वि. वि., इगतपुरी पालि इंग्लिश डिक्शनरी मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली पाचित्तिय वि. वि. वि., इगतपुरी पातिमोक्ख पाराजिक वि. वि. वि., इगतपुरी पुराणटीका (अभि. अव.) वि. वि. वि., इगतपुरी पुग्गलपञ्जत्ति वि. वि. वि., इगतपुरी पेतवत्थु वि. वि. वि., इगतपुरी पेटकोपदेस वि. वि. वि., इगतपुरी बालावतार बौद्धभारती, वाराणसी बुद्धवंस वि. वि. वि., इगतपुरी मज्झिमनिकाय वि. वि. वि., इगतपुरी मज्झिमपण्णास (म.नि.) वि. वि. वि., इगतपुरी महाबोधिवंस पा. टे. सो.. लन्दन महाभाष्य, भाग 1-2 डेक्कन एज्युकेशन सोसाइटी, पुणे महावस्तु पेरिस, मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा महावंस काशी विद्यापीठ, वाराणसी महावंसटीका नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा महाटीका (विसुद्धि.) वि. वि. वि., इगतपुरी महानिदेस . वि. वि. वि., इगतपुरी 1887 1998 1998 1992 1998 1998 2001 1998 परि. पा.इ. डि. पाचि. पाति. पारा. पु. टी. पे. व. पेटको. 1998 1998 1998 1998 1998 1996 1998 1998 बो. वं. 1998 1891 1952 1882-97 1970 1996 1971 1998 1998 म. वं. टी. महाटी. महानि. For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxvi * मो. प. प. रोमन महाभा. महाभारत, भाग 1-19 भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पुणे 1958 महाव. महावग्ग वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 मि. प. मिलिन्दपह वि. वि. वि.. इगतपुरी 1998 मू. टी. मूलटीका वि. वि. वि.. इगतपुरी 1998 मूलपण्णास (म.नि.) वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 मू. सि. मूलसिक्खा वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 मोग्गल्लान-पञ्जिका- मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 2000 पदीप (पालि-महाव्याकरण) मोग्गल्लान-वृत्ति मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 2000 (पालि-महाव्याकरण) मो. व्या. मोग्गल्लान व्याकरण विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर 1985 यम. यमक वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 रा. ए. सो. ब. रॉयल एशियाटिक कोलकता सोसाइटी, बंगाल पालि टेक्स्ट सोसाइटी, लन्दन रू. सि. रूपसिद्धि कोलम्बो (सिं) 1915 रूपा. वि. रूपारूपविभाग पालि परिवेण पटपड़गंज, दिल्ली 1987 ललित. ललितविस्तर मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा 1958 लीन. (दी. नि. टी.) लीनत्थप्पकासना वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 वजिर. टी. वजिरबुद्धि-टीका वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 वि. पि. विनय पिटक वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 वि. व. विमानवत्थु वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 वि. वि. टी. विमति-विनोदनी-टीका वि., इगतपुरी 1998 वि. सङ्ग. अट्ट. विनय-सङ्गह-अट्ठकथा वि., इगतपुरी 1998 विन. वि. विनयविनिच्छय वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 विन. वि. टी. विनयविनिच्छय-टीका वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 विभ. विभङ्ग वि. वि. वि., इगतपुरी वि. वि. वि. विपश्यना-विशोधन विन्यास इगतपुरी । विसुद्धि. विसुद्धिमग्गो वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 वृत्तोदय नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा 1960 (रिसर्च वोल्यूम भाग 1) स. नि. संयुत्तनिकाय वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 सच्च. सच्चसङ्केप जॅ. पा. टे. सो., लन्दन, पृ. 1-25 तक 1917-19 सहनीति ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन 1928 भाग 1, 2, 3, 4 (रो.) सद्धम्म. सद्धम्मसङ्गहो नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा 1981 सद्धम्मो. सद्धम्मोपायन सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी 1983 सद्धर्म. सद्धर्मपुण्डरीक-सूत्र मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा 1960 सा. वं. सासनवंस नव नालन्दा महाविहार, नालन्दा 1961 सा. सं. सारसङ्गहो कोलम्बो (सिं) 1914 सारत्थ. टी. सारत्थदीपनी-टीका वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 सार, प. टी. सारत्थपकासनी-टीका वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 सि. सिआमी संस्करण सिं. सिंहली संस्करण सु. नि. सुत्तनिपात वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 सु. पि. सुत्तपिटक वि. वि. वि., इगतपुरी 1998 सुबोधा. सुबोधालङ्कार लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली 1973 हत्थ. व. (सिंहली) हत्थवनगल्लविहारवंस सिलोन (श्रीलङ्का) 1900 1998 वुत्तो . सद्द For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ आ' वर्णमाला का एक स्वर, कण्ठस्थानीय 'अ' स्वर का दीर्घ मात्रा वाला रूप, व्याकरण में 'सुस्पष्ट' पहचान कराने की दृष्टि से 'आकार' के रूप में भी प्रयुक्त - आई ऊ ए ओ इति दीघा नाम, क. व्या. 5. आ अ., पदपूरणार्थक निपा., विशिष्ट अर्थ का बोधक न होकर वचनों के अलङ्करणमात्र के लिए प्रयुक्त - तत्थ यदानमञ्जतीति यं आ नं मञ्जतीति पदच्छेदो, आ ति निपातमत्तं, सद्द. 3.891. आ' अ०, उप. [आ], क्रि. प. अथवा ना. प. से पूर्व में अनेक अर्थों को सूचित करने वाला एक उप., प्रमुख सङ्केतित अर्थ - आसद्दो भिमुखीभावे उद्धकम्मे तथेव च, मरियादाभिविधिसु परिस्सजन पत्तिस, इच्छायं आदिकम्मे च निवासे गहणे पि च, अव्हाने च समीपादिअत्थेसु पि पवत्तति, सद्द. 3.880; निवासाव्हानगहणकिच्छे सत्थनिवत्तिसु. अप्पसादासि सरणपतिहाविम्हयादिसु, अभि. प. 1181; क. अभिमुखीभाव, किसी की ओर उन्मुख होना, उपस्थिति -- किं नु खो महासमणो नागच्छतीति? महाव. 33; दहरस्स युविनो चापि, आगमो च न विज्जति, जा. अट्ठ. 4.95; ख. ऊर्ध्वकर्म, ऊपर की ओर - तुरिता पब्बतमारुहुँ, सु. नि. 1020; आरुहन्तो पुनप्पुन, सद्धम्मो. 188; तस्स किर महापथविया एकयोजनतिगावुतप्पमाणं नभं पूरेत्वा आरोहनकालो ..., जा. अठ्ठ. 1.79-80; ग. मर्यादा, पृथक्करणीय या उपसंहारक सीमा, तक, जहां तक है वहां तक - तेसु येन केनचि परितित्तो आकण्ठप्पमाणं भुजित्वा ठितो, अ. नि. अट्ठ. 3.71; आ पब्बता खेत्तं, सद्द. 3.703; जब तक कि - तत्थ अनिष्फन्नताति महाराज, याव अत्तनो इच्छितं न निष्फज्जति, ताव पण्डितो अधिवासेय्य, जा. अट्ठ. 6.211; घ. अभिविधि, आरम्भिक सीमा, 'से', 'को लेकर', 'में से', 'से दूर' (प. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ वियोजक निपा. के रूप में)- आकुमारं यसो कच्चायनस्स, सद्द. 3.880; आ सहस्सेहि पञ्चहीति, जा. अट्ठ. 7.37; आपत्तपुत्तेहि पमोदथव्होति, जा. अट्ठ. 4.146; आपुत्तपुत्तेहीति याव पुत्तानम्पि पुत्तेहि पमोदथ ..., तदे; ङ. अधिकता, पूर्णता ङ.1. लिपटाव की पूर्णता - एतं आलिङ्गन्तो विय गाळहं पीत्वा .... जा. अट्ट. 1.271; ङ.2. प्राप्ति की पूर्णता, पूरी तरह - अहञ्चम्हि आपत्तिं आपन्नो, महाव. 219; ङ.3. इच्छा की पूर्णता - यं सो आकङ्घति विहारं वा..., महाव. 134; ङ. 4. प्रारम्भ या आदिकर्म की पूर्णता - सो वीरियं आरभति अप्पत्तस्स पत्तिया ..., अ. नि. 3(1).154; ङ.5. आमन्त्रण आकति या अभिमुखीभाव की पूर्णता - याव आमन्तये आती, मित्ते च सुहदज्जने, जा. अट्ठ. 7.157; ङ.6. वास की पूर्णता - सम्बाधो घरावासो रजोपथो, दी. नि. 1.55; ङ.7. निकटता या समीपता की पूर्णता- बोधिसत्तो नातिदूरे नाच्चासन्ने गच्छन्तो.... जा. अट्ठ. 2.127; ङ.8. कुछ-कुछ, थोड़ा-थोड़ा- भुसो किरियं धारेतीति आधारो, सद्द. 3.709%; आकळारो, मो. व्या. 3.13; निवासाव्हानगहण किच्छेसत्थनिवत्तिसु, अभि. प. 1181. आकङ्घ पु.. [आकांक्ष], आकांक्षा करने वाला, प्रयास कर रहा, उत्सुक -... इमे चत्तारो धम्मे आकडन्तेन नत्थजकिञ्चि कातब्ब, अ. नि. टी. 3.318; पाठा. आकङ्घन्तेन, आकलक्खाकडङ्ग कवागङ्गाखागहक, जिना. 101; - सुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 3(2).109 110; - वग्ग पु., अ.नि. के दसक निपात का आठवां वर्ग, अ. नि. 3(2).109-125; अ. नि. टी. 3.315-321. आकति आ + ।कत्र का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [आकांक्षति/आकांक्षते], लालसा करता है, चाहता है, कामना करता है, अपेक्षा करता है, जरूरत महसूस करता है - यं सो आकति विहारं वा अड्डयोग वा पासादं वा हम्मियं वा गुहं वा, महाव. 134-35; - ते उपरिवत्, आत्मने. - सीसंन्हातो चयं पोसो, पुप्फमाकसते यदि, अप. 1,408; - सि म. पु.. ए. व. – सचे आकवसि, निसीदाति, म. नि. 2.372; तस्सत्थो – “पुच्छ यदि आकसि, न मे पञ्हविरसज्जने भारो अस्थि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).171; - जामि उ. पु., ए. व. - अञतित्थियपुब्बो इमस्मि धम्मविनये आकङ्घामि उपसम्पदं, महाव. 88; - न्ति प्र. पु.. ब. व. - बुद्धा पन... हेवा वा उपरि वा यं यं ठानं आकङ्घन्ति, तं सब्बं सरन्तियेव, पारा. अट्ठ. 1.120; -थ म. पु., ब. व. - सचे आकङ्घथ, भुञ्जथ, नो चे तुम्हे भुजिस्सथ, म. नि. 1.17; सचे आकडथाति यदि इच्छथ, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).101; - कडं वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - धम्मविआणमाकडं, तं भजेथ तथाविधं थेरगा. 1033; -जन्तेन तृ. वि., ए. व. - इमे चत्तारो धम्मे आकङ्घन्तेन नत्थनं किञ्चि कातब्बं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).167; - न्ता पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ब. व. - गिहीनं उपनामेन्ति, आकङ्घन्ता बहुत्तर थेरगा. 937; - मानो पु.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आकडमानोति इच्छमानो, पारा. 391; - नेन त. वि., ए. व. - आकङ्घमानेन भिक्खुना पटिग्गहेतब्बानि, पारा. 352;- स्स ष. वि., ए. For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकड्डति आकडी त्रि. [आकांक्षी], कामना या आकांक्षा करने वाला - तस्मा सम्पदमाकसी, सम्पन्नत्थूध पुग्गलो, अ. नि. 3(1).71; इमिना दुतियेन आकडियेन धम्मेन समन्नागतो होति, पेटको. 255. आकडप्पटिबद्ध व. - इति आकङ्घमानस्स, सद्धम्मस्स चिरट्ठिति, उदा. अट्ठ. 2; - नानं ष. वि., ब. व. - पुझं आकङ्घमानानं. सङ्घो वे यजतं मुखान्ति, सु. नि. 574; - केय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सचे आकयेय्य भुजेय्य नो चे आवडेय्य अप्पहरिते वा छड्डेय्य, महाव. 209; आकडेय्य चेति इदं कस्मा आरद्ध? सीलानिसंसदस्सनत्थं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 11).165; - विस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - यं वितक्कं आकडिस्सति तं वितक्कं वितक्केस्सति, म. नि. 1.172; -- स्ससि उपरिवत्, म. पु., ए. व. – सो त्वं वच्छ, यावदेव आकस्सिसि - ..., म. नि. 2.172; - जित त्रि.. भू. क. कृ. [आकांक्षित], इच्छित, अभीष्ट, चाहा गया - यं... इच्छितं, यं आकसितं, यं अधिप्पेतं, यं अभिपत्थितं.... दी. नि. 1.105. आकङ्कप्पटिबद्ध त्रि., [आकांक्षाप्रतिबद्ध], शा. अ. आकांक्षा या कामना के साथ जुड़ा हुआ, इच्छा या कामना का विषयीभूत, ला. अ. जवनचित्त द्वारा जाना गया, आलम्बन के प्रति रुचि उत्पन्न होने के अनन्तर चित्त द्वारा गृहीत - द्धा पु.. प्र. बि., व. व. - तस्स मे ते धम्मा... आकङ्घपटिबद्धा .... पटि. म. 166; आकङ्कपटिबद्धाति रुचिआयत्ता, पटि. म. अट्ट, 2.74; सब्बे धम्मा... आकङ्कपटिबद्धा..... पटि. म. 368; आकङ्कप्पटिबद्धाति रुचिआयत्ता, आवज्जनानन्तरं जवनाणेन जानातीति अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 2.237. आकजना स्त्री. [आकांक्षा], इच्छा, कामना - सति अज्झतविक्खेपा, कङ्घना बहिद्धाविक्षेपपत्थना, पटि. म. 158; अज्झत्तं विक्खेपो अज्झत्तविक्खेपो, तस्स आकङ्घना अज्झत्तविक्खेपाकङ्घना, पटि. म. अट्ठ. 2.67. आकडा स्त्री. [आकांक्षा]. इच्छा, रुचि - आकडा रुचि वुत्ता, अभि. प. 163. आकजितपमाणिक त्रि.. ब. स. [आकांक्षितप्रामाणिक]. इच्छित प्रमाण वाला, मनचाही लम्बाई चौड़ाई वाला - पच्चत्थरणमुखचोळा, आकङ्कितप्पमाणिका, खु. सि. 42; तेन वृत्तं आकङ्कितप्पमाणिका ति इच्छितप्पमाणिकाति अत्थो, खु. सि. पु. टी. 92. आकब्जिय त्रि., [आकांक्ष्य], आकांक्षा करने योग्य, चाह करने योग्य - इमिना दुतियेन आकडियेन धम्मेन समन्नागतो होति, पेटको. 255. आकनियन्ति आ +vकस से व्यु., आकंखा के ना. धा. का वर्त.. प्र. पु. ब. व., आकांक्षा या इच्छा, जैसा करते हैं - ये केचि अरहन्ता इन्द्रियभावनं आकड्डियन्ति, पेटको. 295. आकऽय्यसुत्त नपुं.. म. नि. का छठा सुत्त, म. नि. 1.4145; - वण्णना स्त्री.. इस नाम वाले सुत्त की अट्ठकथा या व्याख्या , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).163-174. आकड्डति आ + कड्ड का वर्त., प्र. पु. ए. व. [आकर्षति], शा. अ.1. खींचता है या घसीटता है, पकड़ता है या बलपूर्वक ग्रहण करता है - येन येनस्थिका होति, तं तं आकड्डतियेवाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.399; आमसति ... आकडति पतिकडुति .... पारा. 175; - ड्वित्वा पू. का. कृ. - तंगीवायं डंसमानं हनुकटिकेन आकड्डित्वा .... जा. अट्ठ. 1.256; - ड्डितब्बे त्रि., सं. कृ., सप्त. वि., ए. व. - यथा हि सत्तहि युगेहि आकडितब्बे सकटे .... ध. स. अट्ठ. 128; ला. अ.1. सम्पादित या उत्पन्न करता है, खींच कर ले आता है - न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - ... ठपेत्वा उद्धच्चसहगत सेसानि एकादसेव पटिसन्धिं आकड्डन्ति ..... ध. स. अट्ठ. 300; - ति वर्त, प्र.पु., ए.व. -- यो च, महाराज, वातो यञ्च पित्तं... सकं सकं वेदनं आकडति, मि. प. 138; -ड्डेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - आकड्ढय्याति अत्तनो अभिमुखं कड्ढय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).169; शा. अ.2. अपनी ओर खींचता है – न्ति वर्त., प्र. पु., ब. व. - तथा हि गावो नववुढे देवे भूमियं घायित्वा घायित्वा आकासाभिमुखा हुत्वा वातं आकड्डन्ति, ध. स. अट्ठ. 348; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - तदा हि भगवा आकासगङ्ग ओतारेन्तो विय पथवोज आकड्डन्तो विय.. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.19; आवट्टतीति ... अत्तनो सरीर इतो चितो आकड्डन्तो आवट्टति, उदा. अट्ठ. 93; ला. अ. 2. चूसता है, निचोड़ लेता है, आत्मसात् कर लेता है - ड्डित्वा पू. का. कृ. - तेपि बोधिसत्तस्स नळेन आकवित्वा पानीयं पिवनकाले सब्बे तीरे निसिन्नाव पिविंस. जा. अट्ट, 1.173; शा. अ. 3. बलपूर्वक या जबर्दस्ती घसीटता है, बलपूर्वक अपनी ओर खींचता है - डन्ते वर्त. कृ., पु., द्वि. वि., ब. व. - तंसदिसे पन द्वे निरयपाले संसवके नाम गूथनिरये पक्खिपितु आकड्ढन्ते पस्सित्वा ..., वि. व. अट्ठ. 190; ... महिं जटासु गहेत्वा आकवित्वा भूमिय उत्तानक पातेत्वा ..., जा. अट्ठ. 7.309; शा. अ. 4. खींचकर बाहर निकालता है. निचोड़ता है - ड्ढाहि अनु.. म. पु.. ए. व. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकड्वन - "तया दट्टहानतो त्वज्ञव मुखेन विसं आकड्डाही ति, जा. अट्ठ. 1.298; - ड्डितुं निमि. कृ. - बालिसिको तं आकद्धि] असक्कोन्तो चिन्तेसि, जा. अट्ठ. 1.460; ला. अ. 3. तात्पर्य या सारार्थ निकालता है, निष्कर्ष निकालता है - ड्डित्वा पू. का. कृ.- पञ्चहि निकायेहि अत्थञ्च कारणञ्च आकवित्वा ..., ध. प. अट्ट, 1.302; शा. अ.5. हटा देता है, दूर कर देता है - न्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - अवकस्सन्तीति परिसं आकडन्ति विजटेन्ति एकमन्तं उस्सारेन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.308; - ड्डेय्य विधि., प्र. पु.. ए. व. - तासं चे, आवुसो, नळकलापीनं एक आकड्डेय्य, एका पपतेय्य, स. नि. 1(2).100; ला. अ. 4. आकर्षित या मोहित कर लेता है, प्रभाव डाल देता है, मन को जीत लेता है - ड्विस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व. - ... अम्हे येनिच्छिक यदिच्छक यावदिच्छक आकडिस्सन्ति परिकडिस्सन्ति, पाचि. 191; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - ... अत्तनो रूपसिरिया लोकस्स लोचनानि आकड्डेन्तो..... जा. अट्ठ. 2.228; ला. अ. 5. (धनुष को) झुकाता है, तानता है या खींचता है - ड्डि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - सो पटिच्छन्ने ठत्वा धन आरोपेत्वा खुरप्पं सन्नम्हित्वा आकद्धि, जा. अट्ठ. 4.299; - ड्डित्वा पू. का. कृ. - ... धनुं आरोपेत्वा आकड्डित्वा तज्जेसि, जा. अट्ठ. 7.290; ला. अ. 6. लकीर खींचता है -- मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - एवं इमेहि कारणेहि महामग्गे सोळस लेखा आकडमानो निसीदि, जा. अट्ठ. 1.87, पाठा. कड्ढमानो; ला. अ. 7. ऐंठ देता है, निचोड़ता है (वाद में) उखाड़ देता है - ड्वित्वान पू. का. कृ. - आकवित्वान इसयो, चोदयिस्सन्ति तं सदा, अप. 1.65%; -- हिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - एवमेवाहं समणं गोतमं वादेन वादं आकडिस्सामि ..., म. नि. 1.294. आकड्डन नपुं., आ + कड्ड से व्यु., क्रि. ना. [आकर्षण], अपनी ओर बलपूर्वक खींचना, बल के साथ घसीटना (धनुष को) खींचना या झुकाना - कड्ड आकडने, सद्द. 2.357; आकडनटेन सीघसोता सरिता वियाति सरिता, ध. स. अट्ठ. 390; "अयं अतिधावती ति आकडनं वा नत्थि स. नि. अट्ठ. 3.305; - समत्थता स्त्री॰, भाव. [आकर्षण- समर्थता], अपनी ओर खींच लेने की क्षमता - विरुळ्हेति कम्म जवापेत्वा पटिसन्धिआकड्डनसमत्थताय निब्बत्तमूले जाते, स. नि. अट्ठ. 2.62. आकडनक त्रि., [आकर्षणक], खींचकर पास ले आने वाला, घसीट कर ले आने वाला, बलपूर्वक खींचने वाला आकड्डित - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - ओहारिनन्ति चतूसु अपायेसु आकडनक, स. नि. अट्ठ. 1.130. आकड्ढनपरिकङ्कन नपुं.. द्व. स. [आकर्षण-परिकर्षण], खींचातानी, विभेद, फूट - सप्पपोतको विय च आकङ्घनपरिकङ्घनओधूनननिद्भूननादिना उपक्कमेन अधिमत्तं दुक्खमनुभवति, विसुद्धि. 2.127; अभिमुखं कडनं आकडनं. परितो समन्ततो कड्ढनं परिकड्डन, विसुद्धि. महाटी. 2.186; तस्स माता लभति आकङ्कनपरिकडनं गाहं सामिनो उपनयनं कातुन्ति , मि. प. 153. आकड्ढनभाव पु.. [आकर्षणभाव], अपनी ओर खींचकर ले आने की दशा, प्रबल शक्ति-वं द्वि. वि., ए. व. - ... कतकम्मरस आकङ्घनभावं ञत्वा न अपगच्छि, ध, प. अट्ठ. 2.38. आकड्डनयन्त नपुं., तत्पु. स. [आकर्षणयन्त्र], (जल आदि को) खींच कर ले आने वाला उपकरण या यन्त्र - करकटको वुच्चति गोणे वा योजत्वा हत्थेहि वा गहेत्वा दीघवरत्तादीहि आकड्ढनयन्तं, चूळव. अट्ठ. 52. आकड्डनविकड्ढन नपुं, द्व. स. [आकर्षणविकर्षण], अपनी ओर खींचना और चारों ओर ढकेल देना, खींचातानी, खींचाखींची - सारम्भा जायतेति अहं त्वन्ति आकडनविकडनं करोन्तस्स ... कोधो जायति, जा. अट्ठ. 4.25; इमम्पि ... यत्थ... वधबन्धनआकडनविकड्डनादीहि महादुक्खं अनुभवमानं परसतियेव, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).351. आकड्ढना स्त्री.. [आकर्षण, नपुं.], खींच कर ले आना - आकडना नाम आविञ्छना, पारा. 174. आकड्ढापेति आ + कड्ड के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आकर्षयति], खिंचवाता है, अन्दर से बाहर निकलवाता है - मि उ. पु., ए. व. - दट्ठसप्पं आवाहेत्वा दट्ठट्ठानतो तेनेव विसं आकड्डापेमी ति, जा. अट्ठ. 1.297; - हि अनु., म. पु., ए. व. - सप्पं आवाहेत्वा विसं आकड्डापेही ति, जा. अट्ठ. 1.297-98. आकड्डित त्रि., आ + कड्ड का भू. क. कृ. [आकृष्ट], शा. अ. 1. वह, जिसे खींचकर लाया गया है - मातुञ्च अङ्कस्मिमहं निसिन्नो, आकडितो सहसा तेहि देव, जा. अट्ठ. 4.408; पण्डुरज्जं गहेत्वान ततो आकवितेहि पि, चू. वं. 78.76; शा. अ. 2. वह (धनुष), जिसे खींचा गया है या झुकाया गया है - आकड्ढजियस्स धनुदण्डस्स विय ... अन्तोवङपादता, दी. नि. टी. (लीन.) 3.98; विकासिताति आकविता, जा. अट्ठ. 7.48; ला. अ. वह, जिसे नष्ट कर दिया गया है, अभिभूत, पराभूत - ... वातवेगेन आकङ्किता नस्सिंसु, जा. अट्ठ. 3.223. For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकड्डीयति आकप्पसम्पन्न आकड्डीयति/आकड्डियति आ + कड्ड के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आकृष्यते], खींचा जाता है, खींच कर या घसीट कर ले जाया जाता है - न तत्थ सुखाभिसङ्गेन आकड्डीयति, ध. स. अट्ट, 219; तत्थ संहीरतीति विपस्सनाय अभावतो तण्हादिट्ठीहि आकड्डियति, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.178; - ड्डियन्तस्स वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - वंसनाळस्स... साखाजटाजटितस्स आकड्डियन्तस्स गरुक होति आगमनं दन्ध मि. प. 113; – ड्डियमानं वर्त. कृ., आत्मने., पु., वि. वि., ए. व. - विकस्समानन्ति अत्तानं आकड्डियमानं तत्थ निरये पस्सिस्ससि, जा. अल्ल. 7.136; - ना स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - अनापत्ति मनुस्सेहि आकड्डीयमाना गच्छति, पाचि. 301; आकडियमाना गच्छतीति अडकारकमनुस्सेहि सयं वा आगन्त्वा दूतं पेसेत्वा ... गच्छति, पाचि. अट्ठ. 170. आकड्डेति आ + कड्ड का वर्त., प्र. पु., ए. व., अपनी ओर खींचता है, मोहित करता है, लुभाता है, निचोड़कर बाहर की ओर खींच लेता है - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. -- ... लोकस्स लोचनानि आकड्डन्तो नगरं ... पापुणि, जा. अट्ट. 2.228; - य्यु विधि, प्र. पु., ब. व. - न लब्भा तया पब्बजितु न्ति बाहायम्पि गहेत्वा आकड्डेय्यु, पारा. अट्ट 1.156. आकण्ठतो अ, प. वि., प्रतिरू. निपा. [आकण्ठतः], कण्ठपर्यन्त, गले तक, भरपेट - आकण्ठतो वत पिवेय्य मरीचि तोयं तेल. 58. आकण्ठप्पमाणं अ., क्रि. वि. [आकण्ठप्रमाणं], उपरिवत् - तेसु येन केनचि परितित्तो आकण्ठप्पमाणं भुजित्वा ठितो, अ. नि. अट्ठ. 3.71. आकति स्त्री., [आकृति], एक छन्द का नाम, जिस में निबद्ध रचना के प्रत्येक पाद में बाईस वर्ण रहते हैं तथा जिस का एकमात्र प्रभेद भद्दक (भद्रक) कहलाता है - भा नरना रनाथ च गुरुद्दसक्कं विरमा हिभद्दकमिदं, वुत्तो. 105. आकतिगण पु., केवल व्याकरण के सन्दर्भ में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द [आकृतिगण], व्याकरण के किसी विशेष नियम द्वारा व्युत्पादित या रचित उदाहरणों में से कुछ का समूह - गावी, गो आकतिगणोयं, मो. व्या. 3.27; पिसोदरादीनं सहान आकतिगणभावतो वृत्त "पिसोदरादिपक्खेपलक्खणं गहेत्वाति, सारत्थ. टी. 1.264. आकप्प पु., [आकल्प], वेशभूषा, अलंकरण, सजावट, बाहरी आकार, बाह्य शारीरिक चेष्टा, हाव-भाव, बरताव, व्यवहार, चाल-ढाल - आकप्पो वेसो नेपच्छं अभि. प. 282; आकप्पोति गमनादिआकारो, ध. स. अट्ठ. 353; 1. वेशभूषा, सजावट, परिधान, बाहरी चालढाल - प्पो पु., प्र. वि., ए. व. -- ... इमस्स चीवरगहणं पत्तग्गहणं सरकुत्ति आकप्पो च एवरूपो नाम होतु, ध, स. अट्ठ. 17; - प्पेन तृ. वि., ए. व. - आकप्पेन, भिक्खवे, पुरिसो इत्थिं बन्धति, अ. नि. 3(1).38; आकप्पेनाति निवासनपारूपनादिना विधानेन, अ. नि. अट्ठ. 3.216; - प्पं द्वि. वि., ए. व. – आकप्पं सरकुत्तिं वा, न रुओ सदिसमाचरे, जा. अट्ठ. 7.187; 2. बरताव, व्यवहार, आचरण - अनाकप्पसम्पन्नाति न आकप्पेन सम्पन्ना, समणसारूप्पाचारविरहिताति अत्थो, महाव. अट्ठ. 247; "हत्थपादमुखसण्ठानेहि च आकप्पेन च मातापुत्ता एकसदिसायेवाति आहंसु, जा. अट्ठ. 1.280; 3. रीति-रिवाज, तौर-तरीका-किंछन्दा किमधिप्पाया, किमाकप्पा भविस्सरे थेरगा. 950; आकप्पाति च केसगहणादिवास्तिचास्तिवन्तोति अत्थो थेरगा. अट्ट, 2305; 4. अभिप्राय, प्रवृत्ति, इच्छा- सत्यापि... मनुस्सलोकं आगमनत्थाय आकप्पं दस्सेसि, अ. नि. अट्ट, 1.102. आकप्पकुत्त पु., [आकल्पक्लुप्त], हाव-भाव, चेष्टा, उत्तम आकार-प्रकार - अथ ने ब्राह्मणगामतो निक्खम्म दासगामद्वारेन गच्छन्ते आकप्पकत्तवसेन दासगामवासिनो सञ्जानिसु, अ. नि. अट्ठ. 1.142. आकप्पसम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आकल्पसम्पत्ति], भव्य आकृति, उत्तम स्वरूप - तिं द्वि. वि., ए. व. - ... पुनदिवसे आकप्पसम्पत्ति कत्वा भिक्खाचारवत्तेन नगरं पाविसि, जा. अट्ट. 1.311. आकप्पसम्पदा स्त्री., तत्पु. स. [आकल्पसम्पत्], उपरिवत् - आकप्पसम्पदा... परिवारसम्पदा ..., अ. नि. 1(1).53; आकप्पसम्पदाति चीवरग्गहणादिनो आकप्पस्स सम्पत्ति, अ. नि. अट्ठ. 1.368. आकप्पसम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [आकल्पसम्पन्न], सुन्दर वेशभूषा को धारण करने वाला, उत्तम हावभाव या शारीरिक चेष्टाओं से विभूषित, उत्तम आचरण वाला - दुल्लभो, भिक्खवे, वुड्डपब्बजितो निपुणो, दुल्लभो आकप्पसम्पन्नो, अ. नि. 2(1).72; न आकप्पसम्पन्नो होति न वत्तसम्पन्नो, अ. नि. 2(1).242; आकप्पसम्पन्नोति समणाकप्पेन सम्पन्नो, अ. नि. अट्ठ. 3.85; सो सद्विवस्सिकत्थेरो विय आकप्पसम्पन्नो ..., जा. अट्ट. 4.304. For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकम्पयन्ति आकार स्वर, आकम्पयन्ति आ +vकम्प के प्रेर. का वर्तः, प्र. पु., ब. व. [आकम्पयन्ति], हिलाते हैं, चञ्चल बना देते हैं - नाकम्पयन्ति सकलापि च लोकधम्मा, चित्तं सदापगतपापकिलेससल्लं, तेल. 95; - म्पित त्रि., भू. क. कृ. [आकम्पित], हिला दिया गया, चञ्चल या अस्थिर बना दिया गया- पब्बता समनादिसु, मही पकम्पिता अह जा. अट्ठ. 7.372, पाठा. पकम्पिता.. आकर पु., [आकर, शा. अ. खान, खदान - आकरो रतनुप्पादनाय, मि. प. 322; 'सुवण्णायतनरजतायतनन्तिआदीसु आकरो, ध. स. अट्ठ. 186; गुणानं आकरो वीरो, अप. 2.161; ला. अ. 1. उत्पत्ति-स्थल, उद्भव-स्थल - ... एवरूपानं पण्डितानं आकरस्स उद्वानहानभूतस्स ..., जा. अट्ठ. 6.290; ला. अ. 2. क्षेत्र, किसी वस्तु में समृद्ध क्षेत्र - चक्खु फस्सायतनन्ति सुवण्णादीनं सुवण्णादिआकरो विय ... इमेहि सत्तहि विज्ञाणेहि सहजातानं सत्तन्न फस्सानं समुट्ठानद्वेन आकरोति आयतनं, अ. नि. अट्ट, 2.157; स. उ. प. के रूप में इत्था., कमला., गन्था., गुणा., इरिता., धना., पमुखा., मकरा., मोक्खा., रतना., सब्बा., सुवण्णा. के अन्त. द्रष्ट.. आकरट्ठ पु.. तत्पु. स. [आकरार्थ], खान या खदान का अर्थ, उत्पत्ति-स्थान का आशय - द्वेन तृ. वि., ए. व. - फस्सायतनानीति विपाकफस्सानं आकरटेन आयतनानि, अ. नि. अट्ठ. 2.156. आकरुप्पन्न त्रि., तत्पु. स. [आकरोत्पन्न], खान में उत्पन्न, खदान से प्राप्त - न्नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ततो आकरुप्पन्न, ततो किञ्चि, .... वि. व. अट्ठ. 10. आकळार त्रि.. [आकडार], थोड़े से या कुछ कुछ भूरे रंग वाला – रो पु., प्र. वि., ए. व. - ईसक उण्हं कदुण्हं, पनायको, ... आकळारो, आबद्धो, मो. व्या. 3.13. आकस्स/आकास पु.. [आकर्ष]. शा. अ. अपनी ओर खींचने वाला चुम्बक, ला. अ. तृष्णा - सो प्र. वि., ए. व. - तण्हा हि रूपादीनं आकासनतो आकासो ति वच्चति, महानि. अट्ठ. 353; पाठा. आकासो. आकस्सन नपुं.. [आकर्षण], अपनी ओर खींचना, खिंचाव - तो प. वि., ए. व., उपरिवत्. आकस्सति/आकासति आ +vकस का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आकर्षति], अवकृष्ट करता है, अपनी ओर खींचता है, अपने पास खींच कर ले जाता है - याय तण्हाय रूपं आकस्सति समाकस्सति गण्हाति परामसति... तंकारणा आकासं वुच्चति तण्हा, महानि. 319; "आकासती ति "आकस्सतीति च दुविधो पाठो, महानि. अट्ठ, 353. आकार' पु., [आकार], वर्णमाला मे दीर्घ मात्रा वाला 'आ' स्वर, प्रायः व्याकरणविवेचनों के सन्दर्भ में प्रयुक्त - अ एव अकारो, एवं आकारो, ... लकारो, क. व्या. 606; अन्तोकरणत्थो हि अयं आकारो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).66; - लोप पु., तत्पु. स. [आकारलोप], 'आ' स्वर का लोप - पो प्र. वि., ए. व. - पदातवेति पआदातवे सन्धिवसेन आकारलोपो वेदितब्बो, जा. अट्ठ. 1.188.. आकार- पु., आ + कर से व्यु., क्रि. ना. [आकार], शा. अ. अच्छी तरह से करना, ला. अ. 1. संकेत, इशारा, निशानी, चेहरे का रंग-ढंग, जिस से मनुष्य के भीतरी विचारों तथा मनोवृत्ति का पता लग सके, मानसिक भावों को प्रकाशित करने वाली शारीरिक चेष्टा या हावभाव - रो प्र. वि., ए. व. - आकारो त्विङ्गितं इङ्गो, अभि. प. 764; - रं द्वि. वि., ए. व. - अयं हत्थादीनं आकारो चक्खुवि य्यो होति, ध. स. अट्ट, 128; तस्साकारं विदित्वान, तत्थाहोसि कुतूहलं. म. वं. 30.23; ... थेर पुनप्पुनं ववत्थापनत्थाय आकारमकासि, म. वं. टी. 495 (ना.)-- रेन तृ. वि., ए. व. - तत्थं ठितं भागिनेय्यं, आकारेन निवेदयि, म. वं. 31.51; ... एकेन कायविकारेन जानापयी ति अत्थो, म. वं. टी. 527 (ना.); ला. अ. 2. लक्षण, खास पहचान कराने वाला चिह्न, विशेषता, प्रभेदक तथ्य, गुण - तो प. वि., ब. व. - आकारतो च वोकारतो च आसयज्झासयरस अधिमुत्तिसमन्नागतानं, पेटको. 190; - रा प्र. वि., ब. व. - ते हि ते, गहपति, आकारा, ते लिङ्गा, ते निमित्ता यथा तं गहपतिस्साति, म. नि. 2.24; ... गिहिव्यञ्जनानि तस्स गिहिभावं पाकटं करोन्तीति आकारा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.28; ... आकारा वुच्चन्ति वेदनादीनं अञमज असदिससभावा, दी. नि. अट्ट. 2.81; - रेहि त. वि., ब. व. - येहि आकारेहि येहि लिङ्गेहि येहि निमित्तेहि पाराजिकस्स धम्मस्स अज्झापत्ति होति, तेहि आकारेहि तेहि लिङ्गेहि तेहि निमित्तेहि .... चूळव. 402; येहि ... एत्थ मग्गेनमग्गपटिपादनादीसु आकारादिसा वेदितब्बा, चूळव. अट्ठ. 123; ला. अ. 3. रूप, शक्ल-सूरत, आकृति, मुखाकृति, चेहरा, आकार - रो प्र. वि., ए. व. – आकारो कारणे वुत्तो सण्ठाने इङ्गितेपि च, अभि. प. 981; धम्मसंवेगवसेनपि अयमाकारो लभतेव, उदा. अट्ठ. 3.;रं द्वि. वि., ए. व. - पीठसप्पी... जो आकारं अत्वा For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकार आकार ... पतिट्ठापेसि, पे. व. अट्ठ. 247; तस्मिं पन गेहे गेहसामिनी इत्थि सद्धा पसन्ना थेरस्स आकारं सल्लक्खेत्वा.... वि. व.. अट्ठ. 21; ला. अ. 4. अवस्था, स्थिति, दशा, प्रकृति - रं द्वि. वि., ए. व. - तस्मिं वारे अक्कन्तपदानञ्च धनुदण्डस्स च जियाय च सरस्स च आकारं परिगण्हेय्य, विसुद्धि. 1.145; आकारन्ति धनुजियासरानं गहिताकारं विसुद्धि. महाटी. 1.164; - रा प्र. वि., ब. व. - सूदेन विय च आकारा परिग्गहेतब्बा, विसुद्धि. 1.145; - रे द्वि. वि., ब. व. - एवमयम्पि अधिगतक्खणे भोजनादयो आकारे गहेत्वा ... होति, विसुद्धि. 1.145; पुब्बे झानस्स अधिगतक्खणे किच्चसाधके भोजनादिगते आकारे, विसुद्धिमहाटी.. 1.165; - तो प. वि., ए. व. - जीरणताति इमिना आकारतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).224; ला. अ. 5. कारण, हेतु, प्रयोजन, अभिप्राय - रो प्र. वि., ए. व. - आकारो कारणे वुत्तो सण्ठाने इङ्गितेपि च, अभि. प. 981; - रा ब. व. - के पनायस्मतो आकारा, के अन्वया, येनायस्मा एवं वदेसि, म. नि. 1,400; आकाराति कारणानि, अन्वयाति अनुबुद्धियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).280; ... अञा सब्बापि पजा इमस्स कतस्स आकारमत्तम्पि न जा न जानिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 5.212; ला. अ. 6. तरीका, प्रभेद, साधन, धर्मोपदेश की पद्धति या प्रकार (परियाय), अनुव्यञ्जन – रो प्र. वि., ए. व. - आकारो जानितब्बोति सङ्घो आकारतो जानितब्बो, परि. 316; सो च एवं भद्दको आकारो न सम्मा अप्पणिहितत्तनो पुब्बे अकतपुञस्स वा होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).9; - रं द्वि. वि., ए. व. -... "अक्कोच्छिमान्ति आदिक आकारं ये उपनरहन्ति, जा. अट्ठ. 3.432; नानुव्यञ्जनग्गाहीति किले सानं अनु अन ब्यजनतो ... हत्थपादसितहसितकथितविलोकितादिभेदं आकारं न गण्हाति, विसुद्धि. 1.20; - रेन तृ. वि., ए. व. - सब्बञ्जुभासितम्पि पटिक्खिपित्वा सस्सतो लोको इदमेव सच्चं मोघमञन्ति इमिना आकारेन अभिनिविसतीति इदंसच्चाभिनिवेसो, ध. स. अट्ठ. 401; - स्स ष. वि., ए. व. - ... आणुप्पादनादिनो आकारस्स दस्सनत्थं.... विसुद्धि. 1.262; - रे सप्त. वि., ए. व. - भगवता धम्म देसितं आजानामी तिआदीसु आकारे, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).5; - रा प्र. वि., ब. व. - येसं ते येव सद्धादयो आकारा सुन्दरा, ते स्वाकारा, स. नि. अट्ठ. 1.176; - रानं ष. वि., ब. व. - इमेसहि चतुन्नम्पि आकारानं अञ्जतरम्पि करोन्तेन गहितंयेव होति सरणगमनं. अ. नि. अट्ठ. 2.17; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - तथट्ठादीसु द्वादससु आकारेसु विसु विसु एकेन सङ्गहो... एकसङ्गहता, पटि. म. अट्ट, 1.39; - रेहि तृ. वि., ब. व. - रूप अरूपस्स ... एकादसहि आकारेहि पच्चयो होति, अभि. अव. 176; दसहाकारेहि मनसिकारकोसल्लं इच्छितब्बन्ति, विभ. अट्ठ.53; ला. अ. 7. पक्ष, तथ्य, संघटक अंग, अन्तर्निर्विष्ट भाग – रा प्र. वि., ब. व. - ये पास आकारा सासने निदिहा, पेटको. 193; क. ज्ञान दर्शन के उदय में हेतुभूत बारह तथ्य - रानं ष. वि., ब. व. - ... द्वादसन्नं आकारानं वसेन उप्पन्नञाणसङ्घातं दस्सनं, स. नि. अट्ठ. 1.327; ख. प्रज्ञा, चित्त, स्मृति आदि के प्रभेद - रेहि तृ. वि., ब. व. - ... यजमानस्स सोळसहाकारेहि चित्तं सन्दरसेसि, दी. नि. 1.123; 'सत्तरसहाकारेहि, महाराज, सति उप्पज्जतीति, मि. प. 86; ग. प्रतीत्यसमुत्पाद के बीस आकार या अङ्ग - तो प. वि., ए. व. - ... वीसताकारं तिसन्धिं पटिच्चसमुप्पादं सब्बाकारतो जानाति, विसुद्धि. 1.192; आकारतो ति सरूपतो अवृत्तापि तस्मिं तस्मिं सङ्गहे आकिरीयन्ति अविज्जासङ्घारादिग्गहणेहि पकासीयन्तीति आकारा, अतीतहेतआदीनं वा पकारा आकारा, ततो आकारतो, विसतिविधा होन्ति अतीतेहेतुपञ्चकादिभेदतो, विसुद्धि. महाटी 1.210; घ. शरीर के बत्तीस भाग - रो पु., प्र. वि., ए. व. - ... अज्झत्तकेसादिको द्वत्तिसाकारो कायो वुत्तो, उदा. अट्ठ. 153; ङ. धातुओं के बयालीस आकार - रेहि तृ. वि., ब. व. - द्वा चत्तालीसाय आकारेहि एवं वित्थारेन धातुयो सभावतो उपलक्खयन्तो ..., नेत्ति. 63; च. इन्द्रियों के चौसठ प्रकार - रेहि तृ. वि., ब. व. - चतुसट्टिया आकारेहि... खये जाणं पटि. म. 3; चतुसट्ठिया आकारेहीति अट्ठसु मग्गफलेसु एकेकस्मिं अट्ठन्न - अट्ठन्नं इन्द्रियानं वसेन चतुसट्ठिया आकारेहि, पटि. म. अट्ठ. 1.45; 8. विभाग, खण्ड, अंग, संशोधन, छ प्रकार के व्यञ्जनपदों (अक्खर, पद, व्यञ्जन, आकार, निरुत्ति एवं निद्देस) में एक - तेसं नो, भन्ते, आयस्मता महाकच्चानेन इमेहि आकारेहि इमेहि पदेहि इमेहि ब्यञ्जनेहि अत्थो विभत्तोति, म. नि. 1.162; इमेहि आकारेहीति इमेहि कारणेहि पपञ्चुप्पत्तिया पाटियेक्ककारणेहि चेव वट्टविवट्टकारणेहि च, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).392; - अकोविद त्रि. कारण एवं अकारण का ज्ञान न रखने वाला -- दो पु., प्र. वि., ए. व. - वत्थु विपत्तिं आपत्ति, निदानं आकारकोविदो पुब्बापरं न जानाति, परि. 313; तत्थ आकारअकोविदोति कारणाकारणे अकोविदो, For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकार आकार परि. अट्ठ. 211; - रत्थ पु.. तत्पु. स. [आकारार्थ]. आकार, स्वरूप या नमूना का अर्थ, 'इस स्वरूप का', 'इस तरह का अर्थ - त्थो प्र. वि., ए. व. - यो पन एवन्ति च मेति च वुच्चमानो आकारत्थो, उदा. अट्ठ. 13; - थेन. तृ. वि., ए. व. - तत्थ आकारत्थेन एवं सद्देन एतमत्थं दीपेति, दी. नि. अट्ठ. 1.28; - त्थे सप्त. वि., ए. व. - आकारत्थे पकारत्थे विभागत्थे तेहि आकारादीहि वज्जिते... होति, सद्द. 3.804; - कोविद त्रि., तत्पु. स. [आकारकोविद], कारणों या प्रयोजनों को जानने वालानिदानं आकारं कोविदो, पुब्बापरं च न जानाति, परि. 313; पाठा. आकारकोविदो - दस्सन नपुं.. तत्पु. स. [आकारदर्शन], आकार-प्रकार या स्वरूप का सङ्केत, प्रकार या पद्धति को दिखलाना - नं प्र. वि., ए. व. - इदहि उद्दिसनेन... पेतानं अत्तनो ञातीनं थोमनाकारदस्सनं, पे. व. अट्ठ. 23; - दस्सनक त्रि., आकार या स्वरूप को दिखलाने वाला, आकार या स्वभाव का संकेतक - का पु., प्र. वि., ब. व. - ... कामस्सादसंयुत्ताकारदस्सनका अभिनया, स. नि. अट्ठ. 3.141; -- नानत्त नपुं., भाव. [आकारनानात्व], आकार या स्वरूप की अनेकता या विविधरूपता - त्तेन तृ. वि., ए. व. - आकारनानत्तेन पन वेनेय्यवसेन च उपचयो... नत्थि, ध. स. अट्ट, 359; - तो प. वि., ए. व. - आकारनानत्ततो पन वेनेय्यवसेन च “उपचयो सन्तती ति उद्देसदेसना कता, विसुद्धि. 2.76%3; आकारनानत्तत्तोति जातिरूपरस पवत्तिआकारभेदतोति अत्थो, विसुद्धि. महाटी. 2.96; - वृत्तमाकारनानत्ता, वेनेय्यानं वसेन वा, अभि. अव. 90; - निदस्सन नपुं.. तत्पु. स. [आकारनिदर्शन], आकार या स्वरूप का प्रकाशन, उदाहरण का संकेत- नं प्र. वि., ए. व. - ... एत्थ आकारत्थेन एवं सद्देन दातब्बाकारनिदस्सनं कतं होति, खु. पा. अट्ठ. 165%; - निद्देस पु., तत्पु. स. [आकारनिर्देश], स्वरूप, आकार- प्रकार अथवा पद्धति का विवेचन - सो प्र. वि., ए. व. - तेनस्सायं आकारनिद्देसो, स. नि. अट्ठ. 2.10; तस्स नानाकारनिद्देसो, दी. नि. अट्ट, 1.29; - निरोध पु., तत्पु. स. [आकारनिरोध], जन्म की कारणभूत (इच्छा आदि) मानसिक प्रवृत्तियों का निरोध या समाप्ति - धा प. वि., ए. व. - आकारनिरोधा दण्डनिरोधो, पेटको. 239; - पञत्ति स्त्री.. तत्पु. स. [आकारप्रज्ञप्ति], आकार-प्रकार का संकेत या संसूचन-त्ति प्र. वि., ए. व. - एवन्ति हि अयमाकारपञत्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.29; - परिच्छेद पु., तत्पु. स. [आकारपरिच्छेद], दशाओं या अवस्थाओं का निश्चायन अथवा परिसीमन, अवस्थाओं का निर्धारण - दं द्वि. वि., ए. व. - इतिपीति इमिना तेसं पण्डितादिआकारपरिच्छेदं दस्सेति, अ. नि. अट्ठ. 2.142; -- परिवितक्क पु., तत्पु. स. [आकारपरिवितर्क], कारणों के विषय में अनुचिन्तन, अवस्था या दशा के विषय में सोचविचार – क्को प्र. वि., ए. व. - या तथाभूतरस खन्ति रुचि पेक्खना आकारपरिवितक्को दिट्ठिनिज्झायना अभिप्पसन्ना, पेटको. 255; - क्केन तृ. वि., ए. व. - मा आकारपरिवितक्केन, अ. नि. 1(1).217; मा आकारपरिविक्केनाति सुन्दरमिदं कारणन्ति एवं कारणपरिवितक्केनपि मा गण्हित्थ अ. नि. अट्ठ. 2.176; - क्का प. वि., ए. व. - अञत्र अनुस्सवा अञ्जत्र आकारपरिवितक्का .... म. नि. 3.21; - पवत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आकारप्रवृत्ति], अवस्थाओं का प्रकाशन, स. प. के अन्त. - लक्खणादितो पनेत्थ हिताकारप्पवत्तिलक्खणा मेत्ता, ध. स. अट्ठ. 237; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. [आकारपृच्छा], आकार-प्रकारों या अवस्थाओं के विषय में प्रश्न - च्छा प्र. वि., ए. व. - आकारपुच्छाति गिहिलिङ्गे वा तित्थियलिङ्गे वा पब्बजितलिङ्गे वा, परि. 325; - भावनिद्देस पु., तत्पु. स. [आकारभावनिर्देश], आकारप्रकारों तथा भावों के विषय में कथन या इनका विवेचन - सा प्र. वि., ब. व. - मञ्जना मञितत्तन्ति आकारभावनिद्देसा, ध. स. अट्ठ. 397; - वचन नपुं. तत्पु. स. [आकारवचन], रूप की अवस्थाओं को कहने वाला शब्द - नं प्र. वि., ए. व. - पठम लक्खणवचनं, दुतियं आकारवचनं, विसुद्धि. 1.340; - विकार पु., तत्पु. स. [आकारविकार], रूप या इसकी अवस्थाओं में आने वाला विकार - रो प्र. वि., ए. व. - आकारविकारो कायवित्ति, विसुद्धि. 2.75; चित्तसमुहानाय ... रूपकायं ... भवितुं समत्थो एको आकारविकारो अस्थि, अयं वित्ति नाम, ध. स. अट्ठ. 128; - सङ्घात त्रि., ब. स. [आकारसंख्यात], आकार नाम वाला, आकार नाम से प्रसिद्ध - तेहि तृ. वि., ब. व. - एतेहि पन वीसतिया आकारसवातेहि अरेहि वीसतिआकारान्ति वेदितब्ब, विसुद्धि. 2.212; - सण्ठान नपुं., तत्पु. स. [आकारसंस्थान], आकार और इसका ढांचा - ना प. वि., ए. व. - यस्मा विनापि आकारसण्ठाना आरम्मणस्स ... पाकटं होति, स. नि. अट्ठ. 2.260; - समूह पु., [आकारसमूह]. अनेक अवस्थाओं या लक्षणों का समूह स. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकारण आकास प. के अन्त. - अथ खो कायानु पस्सी अनिच्चदुक्खानत्तअसुभाकारसमूहानुपस्सीयेवाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).253; - सम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आकारसम्पत्ति], विशिष्ट प्रकार के लक्षणों या अवस्थाओं की प्राप्ति अथवा स्थिति-या ष. वि., ए. व. - तेनरस अनुब्यञ्जनसम्पत्तिया आकारसम्पत्तिया च अभावं दस्सेति, उदा. अट्ट, 299; - सहित त्रि., अनेक विशेषताओं से युक्त - तं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - तं वा तस्सा आकारसहित वचनं अनुस्सरन्तो, उदा. अट्ठ. 138; - राभिहित त्रि., आकार या स्वरूप द्वारा अभिव्यक्त - आकाराभिहितस्स निबचनं निरुत्ति महानि, अट्ठ.3;-रार पू. [आकारार], आकार रूपी अर या चक्रनाभि- वीसति आकारारं विसुद्धि. 2212 आकारण नपुं, स्वरूप, चिह्न कारण, हल्का फुल्का चिह- णेन तृ वि., ए. व. -- आकारणेन जानामि जा. अठ्ठ. 1.260; आकारणेन जानामीति तस्मा इमिना कारणेन जानामि जा. अट्ट, 1.261. आकारवती स्त्री., [आकारवती], कारण वाली, सहेतुका, सकारणा - 'नत्थि खो नो, भन्ते, कोचि मनापो सत्था यस्मिं नो आकारवती सद्धा पटिलद्धा ति, म. नि. 2.71; तत्थ आकारवतीति कारणवती सहेतुका, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.84; अयं वुच्चति, आकारवती सद्धा दस्सनमूलिका, म. नि. 1.402; आकारवतीति कारणं परियसित्वा गहितत्ता सकारणा, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).282. आकास' पु./नपुं॰ [आकाश, आ + काश् से व्यु., प्रभा से, प्रदीप्त क्षेत्र], 1. क. व्युत्पत्तिपरक अर्थ, 1. ऐसा क्षेत्र, जिस में न हल चलाया जा सके, न खरोंचा जा सके - आकासोति नभ, तं हि न कस्सतीति आकासो, कसितुं विलेखितुं न सक्को ति अत्थो, सद्द. 2.442; 2. वह क्षेत्र, जिसे न जोता जा सके, न तोड़ा जा सके, न काटा जा सके - न कस्सति न निकस्सति, कसितुं छिन्दितुं भिन्दितुं वा न सक्काति आकासो, पटि. म. अट्ठ. 1.69; 3. वह, जिसे घात-प्रतिघात रहित होने के कारण खींचा या घसीटा न जा सके - अप्पटिघट्टनटेन न कस्सतीति आकासो, विभ. अट्ठ. 66; 1. ख. परम्परा में प्राप्त शा. अ., 1. पु., आसमान, आच्छादनरहित अथवा न ढकी हुई खुली जगह, वायु के प्रवाहित होने का पथ, तारापथ, सुरपथ, आदित्यपथ, नभमण्डल, शून्य या खाली क्षेत्र, गगन - अन्तलिक्खं खमादिच्चपथो मंगगनाम्बरं वेहासो चानिलपथो आकासो नित्थियं नभं, देवो वेहायसो तारापथो सुरपथो अघं. अभि. प. 45-46; आकासो अम्बरं अब्भं अन्तलिक्खं अघं नभं वेहासो गगनं देवो खं आदिच्चपथो पिच, तारापथो च नक्खत्तपथो रविपथो पिच, वेहायसं वायुपथो अपथो अनिलजसं, सद्द. 2.442; तुल. अमर. 1.2.1-3; 1. ग. प्रयोग - सो पु०, प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि, राहुल, आकासो न कत्थचि पतिडितो. म. नि. 294; यथाहं आकासो व अब्यापज्जमानो... सु. नि. 1071; - सं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - आकासमेव किर नेसं छदन अहोसिध. प. अट्ट. 2.124; -- सं? पु., वि. वि., ए. व. - आकासं वा अङ्गुलिया निहिसन्तेन ... होति, सु. नि. अट्ठ. 1.87; - सेन तृ. वि., ए. व. - तापसो आकासेन चरितुकामो तं गहेत्वा .... जा. अट्ठ. 2.85; - स्स ष. वि., ए. व. - 'आकासरस पञ्च अङ्गानि गहेतब्बानी ति यं वदेसि, मि. प. 356; - सा प. वि., ए. व. - मञ्जमाना गारवजाता आकासा ओरुरह पथवियं अट्ठासि, स. नि. अट्ठ. 1.39; - तो उपरिवत् - ... कत्वा परसमाना आकासतो ओतरित्वा भूमियं ठत्वाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.60; - से/म्हि सप्त. वि., ए. व. - नानापुर्फ गहेत्वान, आकासम्हि समोकिरि अप. 1.111; 1. घ. आकाश के तीन प्रभेदों के लिए परिच्छेदा., करिणुग्घाटिमा. तथा अजटा के अन्त. द्रष्ट. - तत्थ तिविधो आकासो परिच्छेदाकासो, कसिणुग्घाटिमाकासो, अजटाकासो, प. प. अट्ठ. 189 90; 1. ङ. आकाश अनन्त है अथवा पर्यवसानरहित है - ... अनन्तो आकासोति आकासानञ्चायतनूपगो, दी. नि. 1.30; 1. च. आकाश अतिविशाल या महान् है - आकासो महन्तो, सो एकोयेव, अ. नि. अट्ठ. 1.346-47; 1. छ. आकाश अस्पृष्ट अथवा स्पर्श न किए जाने योग्य है - यथा आकासो अफुट्टाकासो, अप. अट्ठ. 1.300; 1. ज. आकाश समेटा नहीं जा सकता - संवत्तेय्यपि चे, महाराज, आकासो किलञ्जभिव, मि. प. 266; 1. झ. आकाश अनिदर्शन या रूप-रहित है - अयहि आकासो अरूपी अनिदस्सनो, म. नि. 1.180; 1. ञ. आकाश एवं निर्वाण, दोनों अकर्मज, अहेतुज एवं असंस्कृत धर्म हैं - आकासो अकम्मजो अहेतुजो अनुतुजोति, मि. प. 250; आकासो असतो, निब्बानं असङ्घतन्ति ? कथा. 274: 2. कुछ विचारकों द्वारा पांचवें महाभूत के रूप में परिकल्पित तत्त्व - आकासं इन्द्रियानि सङ्कमन्ति, म. नि. 2.192; स. उ. प. के रूप में अजटा., कण्णच्छिद्दा., कसिणुग्घातिमा., जलदा., थलजला.. तुच्छा., निस्सटा., परिच्छिन्ना., परिच्छेदा., सम्बुद्धसासना., सुनीला. के अन्त. द्रष्ट.; 3. नपुं., काल्पनिक खेलपट्टी को मन में रखकर वजय For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आकास खेला जाने वाला चौसर या चौपड़ का खेल, केवल मुख से मोहरों को खेलपट्टी पर चलाने की बात कहते हुए खेला जा रहा जुए का खेल आकासन्ति अनुपददसपदेसु विय आकासेयेव कीळनं दी. नि. अट्ठ. 1.78; आकासेपीति अद्वपददसपदेसु विय आकासेयेव कीळन्ति पारा, अड. 2.185 आकासेयेव कीळन्तीति 'अयं सारी असुकपदं गया नीता, अयं असुकपदन्ति केवलं मुखेनेव वदन्ता आकासेयेव जूतं कीळन्ति, सारत्थ. टी. 2.330. आकास' पु.. [आकर्ष] इच्छा, लोभ, आसक्ति, (रूप आदि की ओर मन को खींचने वाली) तृष्णा आकारां न सितो सिया, सु. नि. 950; तण्हा हि रूपादीनं आकासनतो आकासो ति दुच्चति, सु. नि. अड्ड. 2.258. आकासकथा स्त्री० [आकाशकथा]. आकाश-विषयक विवेचन, आकाश के सम्बन्ध में विवाद - इदानि आकासकथा नाम होति प. प. अ. 189. आकासकसिण पु. / नपुं, [बौ. सं. आकाशकृत्स्न] ध्यानप्रक्रिया में चित्त को एकाग्र करने हेतु निर्दिष्ट कर्मस्थानों में से एक, चित्त के आलम्बन के रूप में आकाश का एक सीमित अंश या खण्ड, परिच्छिन्न आकाश तथा इसे आलम्बन बनाकर किया जा रहा ध्यान यञ्च आकासकसिणं पञ्च विज्ञाणकसिणं, अयं विपस्सना, नेत्ति. 74; आकासकसिणं भावेति, अ. नि. 1 (1).56; आकासकसिणन्ति परिच्छेदाकासो, तदारम्मणञ्च झानं पटि म. अ. 1.99; आकासकसिणन्ति पन कसिपुण्घाटिममाकासम्प तं आरम्भणं कृत्वा पवतक्खन्धापि भित्तिच्छिदादीसु अञ्ञतरस्मिं गहेतब्बनिमित्तपरिच्छेदाकासपि तं आरम्भणं कत्वा उप्पन्न चतुक्कपञ्चकज्ज्ञानम्पि बुच्चति, ध, स. अट्ट, 231 समापत्ति स्त्री. तत्पु स. [बौ. सं. आकाशकृत्स्नसमापत्ति ], आकाश-कसिण को आलम्बन बनाने वाले चतुर्थ ध्यान की प्राप्ति पकतिया आकासकसिणसमापत्तिया लाभी होति, पटि. म. 378; आकासकसिणसमापत्तियाति परिच्छेदाकासकसिणे उप्पादिताय चतुत्थज्झानसमापत्तिया पटि म अड. 2.250: स. उ. प. के रूप में परिच्छेदा, के अन्त. द्रष्ट.. आकासगङ्गा स्त्री० [आकाशगङ्गा], क. देव-नदी, स्वर्ग से बहने वाली एक नदी, ख. हिमालय के अनोतत्त नामक सरोवर से दक्षिण की ओर बहने वाली नदी, ग. आकाश में बहते हुए पुनः पृथ्वी पर उतर कर बहने वाली गङ्गा नदी मन्दाकिनी तथाकासगङ्गा सुरनदीप्पथ, अभि. प. 27; आकासेन सद्वि योजनानि गतट्टाने "आकासगङ्गा "ति वुच्चति, - 9 आकासगति सु.नि. अट्ठ. 2.146 - यष. वि., ए. व. सतततिन्तके ति धुवतिन्तके... सहियोजनिकाय आकासगङ्गाय पतितद्वाने म. वं. टी. 476(ना.): ङ्गतो प. वि., ए. व. आकासगङ्गतो भस्समानं उदकं विय निरन्तरं कथं पवतेति म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 (2).151; द्वि. वि. ए. व. तदा हि भगवा आकासगङ्गं ओतारेन्तो विय पथवोजं आकड्डून्तो विय... दी. नि. अड्ड. 3.141 गतिसोभा स्त्री. तत्पु स० [आकाशगङ्गागतिशोभा], आकाश से उतर रही गङ्गा के प्रवाह की शोभा मं द्वि. वि. ए. व. - आकासगङ्गागतिसोभ अभिभवमाना.... म. नि. अट्ट. (उप. प.) 3.158 पतितद्वान नपुं. [आकाशगङ्गापतनस्थान ], गङ्गा नदी के आकाश से धरती पर गिरने का स्थान ने सप्त. वि. ए. व. आकासगङ्गापतितद्वाने सतततिन्तके म. वं. 29.5; अनोतत्तदहतो निक्खन्ताय सहियोजनिकाय आकासगङ्गाय पतितद्वाने, म. वं० टी० 476 (ना.) ; 2. स्त्री०, व्य. सं. श्रीलङ्का के राजा पराक्रमबाहु (प्रथम) द्वारा बारहवीं सदी में बनवाई गई एक नहर या मातिका आकासगङ्गानामाय मातिकाय महन्तिया, चू. के. 79.25. आकासगत 1. त्रि. [आकाशगत], आकाश की ओर गया। हुआ, आकाश में स्थित, अत्यधिक फैला हुआ या खुला हुआ तं नपुं. प्र. वि. ए. व. आकासह नाम भण्ड आकासगत होति. पारा 55 ता पु. प्र. वि. ब. व. - नपुं०, .2 " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आकासट्टा आकासगता, अप. अट्ठ. 1.112; द्वि. वि. ए. व. हत्थेन पन गहेत्वा अन्तोवत्थुस्मिम्पि आकासगत करोन्तस्स पाराजिकमेव, पारा. अड. 1.259 - For Private and Personal Use Only - - - ते व. पु द्वि. वि., ब.व. चत्तारो पादे आकासगते कत्वा म. नि. अड. ( मू.प.) 1 ( 2 ) 36 - तेसु सप्त वि. ब. चतूसु पादेसु आकासगतेसु गमनं पछिज्जति म. नि. अड्ड. ( मू.प.) 1(2):37 - विञ्ञाण नपुं, कर्म. स. [आकाशगतविज्ञान] आकाश की अनन्तता को अपना आलम्बन बनाने वाला अरूपध्यान का चित्त आकासगतविज्ञाणं दुतियारूप्यचक्ना अभि. अ. 1017; 2. नपुं, आकाश, आकाश या अन्तरिक्ष में अन्तर्भूत कोई भी तत्त्व - यो आकासो आकासगतं अघं अघगतं, ध. स. 637; आकासोव आकासगतं, खेळगतादि विय, आकासोति वा गतन्ति 'आकासगतं, ध. स. अट्ठ. 358. आकासगति स्त्री० [आकाशगति], आकाश में गमन, आसमान जहिंसु आकासगतिं में उड़ान तिं द्वि. वि. ए. व. - विहडमा दाठा. 1.45 (रो.). - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकासगब्म 10 आकासगब्भ पु., तत्पु. स. [आकाशगर्भ], आकाश के भीतर, आकाशमार्ग - मे सप्त. वि., ए. व. - आकासधातुया आकासगब्भे गच्छ गच्छन्तो ..., अप. अट्ठ. 1.240. आकासगमन नपुं., तत्पु. स. [आकाशगमन]. 1. आकाश में चलना, आकाश में उड़ान भरना - पक्खिनो आकासगमनं विजहिंस. उदा. अट्ठ. 119; 2. हांथी को मरवाने की एक चाल- तस्स आकासगमनं नाम कारणं करोही ति. मि. प. 192. आकासगामी त्रि., [आकाशगामिन], आकाश में गमन करने वाला, अन्तरिक्ष में विचरने वाला - नं पु, ष, वि.. ब. व. - अघगामिनन्ति आकासगामीनं, स. नि. अट्ठ. 1.114. आकासगोत्त पु., 1. राजगृह का एक चिकित्सक - त्तो प्र. वि., ए. व. - अहसा खो आकासगोत्तो वेज्जो भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं, महाव. 292; 2. त्रि., आकाश गोत्र वाले एक ब्राह्मण का गोत्र-नाम – “सञ्जयो, महाराज, ब्राह्मणो आकासगोत्तो ति, म. नि. 2.335. आकासङ्गण नपुं, तत्पु. स. [आकाशाङ्गण], खुला आंगन, खुली जगह - णे सप्त. वि., ए. व. - यत्थ उपरिच्छदनं परिक्खेपो वा नत्थि, तादिसे आकासगणे, उदा. अट्ठ. 198. आकासचर त्रि., [आकाशचर], आसमान में चलने वाला, आसमान में विचरने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - ... चक्करतनं पुरक्खत्वा आकासचरो, बु. वं. अट्ट. 235. आकासचारिक त्रि., आकाश या अन्तरिक्ष में गमन करने में सक्षम - को पु., प्र. वि., ए. व. -- एको आकासचारिको तापसो, जा. अट्ठ. 1.329; - देव पु., आकाश में गमन करने में सक्षम देवता-वा प्र. वि., ब. व. - वलाहकनामके देवकाये उप्पन्ना आकासचारिकदेवा, स. नि. अट्ट, 2.315. आकासचारी त्रि., [आकाशचारिन्], उपरिवत् -री पु., प्र. वि., ए. व. - ... निब्बत्ति आकासचारी सीघजवो उपरि कूटागारसण्ठानो, वि. व. अट्ठ.6; - रिनो ब. व. - आकासचारिनो मयन्ति, जा. अट्ठ. 5.370; - नी स्त्री., प्र.. वि., ए. व. - जातदिवसेयेव.... आकासचारिनी करेणका ..... जा. अट्ठ. 7.234. आकासचेतिय नपुं., तत्पु. स. [आकाशचैत्य], पवर्त-शिखर या बहुत ऊंचाई पर बना हुआ चैत्य - पब्बतसिखरे कतचेतियं “आकासचेतियान्ति वृत्तं विसुद्धि. महाटी. 1. 157; आकासे नगमुद्धनि कतं चेतियं आकासचेतिय, म. वं. टी. 393(रो.); - यङ्गण पु., तत्पु. स. [आकाशचैत्याङ्गण], ऊंचे पर्वत शिखर पर स्थित चैत्य का आंगन - णो प्र. आकासट्ठकविमान वि., ए. व. - तस्स आकासचेतियरस अङ्गणो बालकपरिच्छेदो आकासचेतियङ्गणो.... म. वं. टी. 393 (रो.);-णे सप्त. वि., ए. व. - आकासचेतियङ्गणे सखेन आरोहनत्थाय तदे.. आकासच्छदन त्रि., ब. स. [आकाशाच्छादनक]. केवल आकाश के आच्छादन वाला, पूरी तरह से खुला हुआ, ऐसा आवास, जिसकी छत केवल आकाश है - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आकासं छदनमस्साति आकासच्छदनं. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.203; घटिकारस्स कुम्भकारस्स आवेसनं सब्बं तेमासं आकासच्छदनं अट्ठासि. न देवोतिवस्सी ति, मि. प. 210. आकासज्झासय त्रि., ब. स. [आकाशाध्याशय], आकाश की आवश्यकता को अनुभव करने वाला, आकाश की इच्छा रखने वाला - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - एवमेव घानम्पि आकासज्झासयं वातूपनिस्सयगन्धगोचरं ध. स. अट्ठ. 348. आकासट्ठ त्रि., [आकाशस्थ], आकाश या दिव्य लोकों में स्थित, आकाश या अन्तरिक्ष से जुड़ा हुआ, ऊपर की ओर स्थित - हा पु., प्र. वि., ब. व. - आकासद्वाति आकासे विमानादीसु ठिता, बु. वं. अट्ठ. 50; - टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आकासढ नाम भण्ड आकासगतं होति, पारा. 55; - हा स्त्री.प्र. वि., ए. व. - एसा पन, महाराज, पपटिका न भूमट्ठा न आकासट्ठा, मि. प. 176; - हानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - पथविगतानि च ते रतनानि आकासट्ठानि च सयमेव उपगच्छिस्सन्ति, मि. प. 265 - क त्रि., उपरिवत् - दुका पु.. प्र. वि., ब. व. - तेसं हत्थतो आकासट्ठका देवा गहेत्वा साधुकीळितं कीळिसु. स. नि. अट्ठ. 1.249; आकासट्टकभूमट्ठकरतनानि सकतेजोभासितानि अहेसु. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.136. आकासकट्ठदेवता/आकासट्टदेवता स्त्री., कर्म. स. [आकाशस्थदेवता], स्वर्ग में रहने वाला देवता, दिव्य लोकों में स्थित दैवी प्राणी - ता' प्र. वि., ए. व. - बोधिसत्तो आकासट्ठदेवता अहोसि, जा. अट्ठ. 1.476; - ता' प्र. वि., ब. व. -- तासं देवतानं आकासट्टदेवता मित्ता होन्ति, खु. पा. अट्ठ. 96; ... पथविट्ठकनागा च आकासटकदेवता च, अ. नि. अट्ठ. 2.33; - नं ष. वि., ब. व. - आकासट्टकदेवतानं ताव मनस्सगन्धो योजनसते ठितानं आबाधं करोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).309. आकासट्ठकविमान नपुं., कर्म. स. [आकाशस्थविमान], आकाश में स्थित प्रासाद या भवन, दिव्य भवन या आवास, दैवी वाहन - नं द्वि. वि., ए. व. - ... बीरणिया देवधीताय For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकासतल आकासपदुम आकासट्टकविमानं दिस्वा, जा. अट्ठ. 6.139; - ना प्र. वि.. ब. व. - आकासट्टकविमाना इमेति वदति, जा. अट्ठ.. 6.149; - नानि वि. वि., ब. व. - इदानि पन आकासट्टकविमानानि परसन्तेन ..., जा. अट्ठ. 6.149. आकासतल नपुं.. तत्पु. स. [आकाशतल], किसी भव्य भवन या महल की सबसे ऊपरी छत, किसी भी भवन की चपटी छत - लं द्वि. वि., ए. व. - आकासतलं आगन्त्वा महाद्वाराभिमुखोव अहोसि, स. नि. अट्ट, 1.275; - ले सप्त. वि., ए. व. - राजमहेसी गरुभाय आकासतले रुआ ... निसिन्ना होति, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.230; सूरियो .... उट्ठाय आकासतले ठितं चन्दं उल्लोकेत्वा... गतो, स. नि. अट्ठ. 1.275. आकासति आ +vकास का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आकाशते], चमकता है, उज्ज्वल या सुन्दर दिखाई देता है, प्रकाशित होता है, प्रदीप्त होता है - 'आकासती ति आकस्सती ति च दुविधो पाठो, महानि. अट्ठ. 353; - न्तं'/मानं वर्त. कृ., परस्मै./आत्मने. - ब्रहा वाळमिगाकिण्णं, आकासन्तंव दिस्सति, जा. अट्ठ. 6.106; आकासन्तन्ति आकासमान, पकासमानन्ति अत्थो, तदे. - न्तं आकास+अन्त के योग से व्यु. [आकाशान्त], आकाश का छोर - आकासन्तवाति एतं वनं आकासस्स अन्तो विय हुत्वा दिस्सति, जा. अट्ट आकासधातुयाति आकासेन गच्छन्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.17; - निद्देस पु., तत्पु. स. [आकाशधातुनिर्देश], आकाशधातु के विषय में व्याख्यान - से सप्त. वि., ए. व. -- आकासह तुनिद्देसे न कस्सति, न निकस्सति, कसितुं वा छिन्दितुं वा भिन्दितुं वा न सक्काति आकासो, ध. स. अट्ठ. 358; - निस्सित त्रि.. तत्पु. स. [आकाशधातुनिःश्रित], आकाशधातु पर आधारित सम्पूर्ण उपादारूप - आकासधातुं न अत्ततो उपगच्छिन च आकासधातुनिस्सितं अत्तानं, म. नि. 3.80; आकासधातुनिस्सितपदे पन अविनिब्भोगवसेन सब्बम्पि भूतुपादारूपं आकासधातुनिस्सितं नाम, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.64-65.. आकासन नपुं., आ +vकस से व्यु., क्रि. ना. [आकर्षण], अपनी ओर खींच कर ले आना - तण्हा हि रूपादीनं आकासनतो आकासो ति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 2.259. आकासनभगत त्रि., तत्पु. स. [आकाशनभगत], आसमान में चल रहा, आकाश में उड़ रहा, आकाश-नामक नभमण्डल में जा रहा - ता पु., प्र. वि., ब. व. - दिसोदिसं ओकिरन्ति, आकासनभगता मरू बुवं. 2.50; आकासनभगताति आकाससङ्घाते नभसि गता, बु. वं. अट्ठ. 102. आकासनिमित्त नपुं.. तत्पु. स. [आकाशनिमित्त], आकाश का चिह्न या आलम्बन - गोचर त्रि., ब. स., आकाश को अपना आलम्बन बनाने वाला (प्रथम अरूपध्यान का चित्त) - रे सप्त. वि., ए. व. - ... आकासनिमित्तगोचरे विआणे चित्तं उपसंहरतो, विसुद्धि. 1.315; आकासनिमित्तं गोचरो एतस्साति आकासनिमित्तगोचरं तस्मिं आकासनिमित्तगोचरे पठमारूप्पविञाणे, विसुद्धि, महाटी. 1.366. आकासनिस्सित त्रि., तत्पु. स. [आकाशनिःश्रित], आकाश पर आश्रित, आकाश के सहारे विद्यमान - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ये आकासनिस्सिता पाणा ते नं खादेय्यं स. नि. 1(2).88; आकासनिस्सिताति डंसमकसकाककुललादयो, स. नि. अट्ठ. 2.97. आकासन्त पु., तत्पु. स. [आकाशान्त], आकाश का छोर, आकाश का एक शिरा, संसार का अन्तिम छोर - न्तं प्र. वि., ए. व. - ब्रहा वाळमिगाकिण्णं, आकासन्तंव दिस्सति, जा. अट्ठ. 6.106; आकासन्तंवाति एतं वनं आकासस्स अन्तो विय हुत्वा दिस्सति, जा. अट्ठ. 6.106. आकासपदुम नपुं., तत्पु. स. [आकाशपद्म], एक पुष्पयुक्त पौधा – मा प्र. वि., ब. व. - ओगताकासपदुमा, महिया पुप्फमुग्गतं, थेरीगा. अट्ठ. 175. 6.106. आकासत्त नपुं॰, भाव. [आकाशत्व], खालीपन, रिक्तता, अभाव - तं प्र. वि., ए. व. - आकासत्तं, अभावत्तन्ति उपचरितभेद सामञ्ज, मो. व्या. 4.59. आकासधातु स्त्री., कर्म. स. [आकाशधातु], 1. धर्मों के बहुविध विभाजन में छ धातुओं में से एक धातु के रूप में स्वीकृत आकाश-तत्त्व, रूप नामक धर्म का परिच्छेदक- तत्त्व - "छ धातुयो - पथवीधातु, आपोधातु, तेजोधातु, वायोधातु, आकासधातु, विज्ञआणधातु, दी. नि. 3.196%3; आकासधातूति असम्फुट्ठधातु, अ. नि. अट्ठ. 2.156; - लक्खणादितो पन रूपपरिच्छेदलक्खणा आकासधातु, ध. स. अट्ठ. 358; आकासधातु परिच्छेदरूपं नाम, अभि. ध., स. 42; न कस्सतीति अकासो, अकासोयेव आकासो, निज्जीवडेन धातु चाति आकासधातु, अभि. वि. टी. 177; चक्खायतनं... आकासधातु... पञ्चवीसति रूपकोडासाति न जानाति, अ. नि. अट्ठ. 3.351; या ष. वि., ए. व. - आकासधातुया असम्फुट्ठलक्खणं, अ. नि. अट्ठ. 1.87; 2. आकाश, अन्तरिक्ष, आसमान – या तृ. वि., ए. व. - गच्छं For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकासफुट्ठ आकासानञ्चायतन आकासफुट त्रि., तत्पु. स. [आकाशस्पृष्ट], शा. अ.. आकाश को स्पर्श कर रहा, आसमान को छू चुका, ला. अ., आकाश को अपना आलम्बन बना चुका -टे नपुं. सप्त. वि., ए. व. - आकासफुटे विआणे विआणञ्चायतनचित्तं अप्पेति, विसुद्धि. 1.321; आकासफुटे विज्ञआणेति कसिणुग्घाटिमाकासं फरित्वा पवत्ते पठमारूप्पविञआणे आरम्मणभूते..., विसुद्धि. महाटी. 1.376. आकासभूत त्रि., [आकाशभूत], आकाश के समान अनाच्छादित, आसमान की भांति खुला हुआ, बाधा रहित, बे-रोक-टोक - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - आकासभूता तेपज्ज, धुवं बुद्धो भविस्ससि, बु. वं. 2.105; आकासभूताति ते कुट्टकवाटपब्बता आवरणं तिरोकरणं कातुं असक्कोन्ता, अजटाकासभूताति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 116. आकासमण्डल नपुं.. [आकाशमण्डल], शा. अ., नभमण्डल, आकाश का घेरा, ला. अ., आकाश को आलम्बन बनाकर किए जा रहे आकाशकसिण-ध्यान में देखा गया आकाशमण्डल - लं प्र. वि., ए. व. - पटिभागनिमित्तमाकासमण्डलमेव हुत्वा उपट्टाति, वडियमानञ्च वड्वति, विसुद्धि. 1.167. आकासवासी त्रि.. [आकाशवासिन्], आकाश में बसने वाला, अन्तरिक्ष में रहने वाला – सिनो पु., प्र. वि., ब. क. - ओसधीतिणवासी च, ये च आकासवासिनो, अप. 2.98. आकासविज्ञाण नपुं., कर्म. स. [आकाशविज्ञान]. आकाशविषयक चित्त, आकाश को आलम्बन बनाने वाला अरूपध्यान का चित्त - णं द्वि. वि., ए. व. - तं पनाकासविआणं, अकत्वा मनसा पुन, अभि. अव. 1011. आकाससदिस त्रि., [आकाशसदृक], आकाश जैसा (विस्तृत, अनाच्छादित या अलिप्त) - सो पु., प्र. वि., ए. व. - यससा वित्थतो वीरो, आकाससदिसो, मुनि, अप. 2.160; सेन त कि, ए. व. - आकाससमेनाति अलग्गनटेन चेव अपलिबुद्धद्वेन च आकाससदिसेन, अ. नि. अट्ठ. 3.104. आकाससन्निस्सय पु., तत्पु. स. [आकाशसन्निःश्रय], आकाश का स्पष्ट आधार, - यं द्वि. वि, ए.व. - तत्थ आकाससन्निस्सितान्ति आकाससन्निस्सयं लद्धाव उप्पज्जति ... ध. स. अट्ठ. 318. आकाससन्निस्सित त्रि., [आकाशसन्निःश्रित], आकाश पर आधारित, आकाश पर आश्रित (स्रोत-विज्ञान)- तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - एवमेव सोतं तम्पे बिलज्झासयं आकाससन्निस्सितं कण्णच्छिद्दकूपकेयेव अज्झासयं करोति, ध स. अट्ठ, 348; ..., आकाससन्निस्सितं, मनसिकारहेतुकं चतूहि पच्चयेहि उप्पज्जति सोतविआणं, ध. स. अट्ठ. 318. आकाससम त्रि., [आकाशसम], आकाश के समान (अलिप्त, व्यापक, अप्रतिबाधित) – मं, नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तदाकाससमं चित्तं, अज्झत्तं सुसमाहितं. थेरगा. 1159;मेन तृ. वि., ए. व. -- आकाससमेनाति अलग्गनट्रेन चेव अपलिबुद्धद्वेन च आकाससदिसेन, अ. नि. अट्ट, 3.104; ... "तदारम्मणञ्च सब्बावन्तं लोक आकाससमेन चेतसा विपुलेन... अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिस्सामा ति, म. नि. 1.180; - चित्त त्रि., ब. स. [आकाशसमचित्त], आकाश के समान स्वच्छ एवं निर्मल मन वाला - स्स पु. ष. वि., ए. व. - आकाससमचित्तस्स, निष्पपञ्चस्स झायिनो, अप. 1.250; - मानस त्रि., ब. स., आकाश के समान (स्वच्छ एवं आलम्बन-रहित) चित्त वाला- सो पु., प्र. वि., ए. व. - निप्पपञ्चो निरालम्बो, आकाससममानसो, अप. 2.16. आकाससुत्त नपुं.. स. नि. के अनेक सुत्तों का शीर्षक, स. नि. 2(2).214; 215; 3(1).60. आकासातिक्कम पु., तत्पु. स. [आकाशातिक्रम], (आलम्बन रूप में) आकाश का अतिक्रमण, आकाश को पार कर जाना - तो प. वि., ए. व. -- एतासु हि ..., आकासातिक्कमतो दुतिया, ध. स. अट्ठ. 253. आकासानञ्च नपुं॰, आकास + अनन्त + य, अथवा आकास + आनञ्च के योग से व्यु. [आकासानन्त्य], आकाश की अनन्तता, अन्तरहित या सीमारहित आकाश - ञ्चं प्र. वि., ए. व. - आकासानन्तोयेव आकासानञ्च, पटि. म. अट्ठ 1.78; आकासं अनन्तं आकासानन्तं, आकासानन्तमेव आकासानञ्च ध. स. अट्ठ. 248; आकासञ्च तं अनन्तञ्चाति आकासानन्तं ... आकासानन्तमेव आकासानञ्च, सकत्थे भावपच्चयवसेन, अभि. वि. टी. 93. आकासानञ्चायतन नपुं.. तत्पु. स., आकास + आनञ्च + आयतन के योग से व्यु. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतन], 1. आकाश की अनन्तता का वह क्षेत्र, जो चार अरूप ध्यानों में प्रथम अरूप ध्यान वाले चित्त का आलम्बन रहता है, 2. अरूप ब्रह्मलोकों में प्रथम का नाम, क्योंकि इसमें निवास करने वाले प्राणियों को आकाश की अनन्तता का बोध हो जाता है अथवा वे प्रथम अरूप ध्यान को भावित किए हुए होते हैं, 3. नौ अनुपुब्बविहारों/समापत्तियों के बीच पांचवां अनुपुब्बविहार तथा विविध विमोक्षों में से एक - नं प्र. वि., ए. व. - आकासानञ्चायतनं ... अनन्तं, आकासं अनन्तं For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकासानञ्चायतन 13 आकासानन्तं आकासानन्तमेव आकासानञ्चं तं आकासानञ्च अधिट्ठानद्वेन आयतनमस्स ससम्पयुत्तधम्मस्स झानस्स देवानं देवायतनमिवाति आकासानञ्चायतनं विसुद्धि. 1.321; अयं आकासानञ्चायतनकम्मट्ठाने वित्थारकथा, विसुद्धि. 1.321; 4. आकाश की अनन्तता का क्षेत्र (आकिञ्चचायतन) अरूपध्यान भी है और अरूपध्यान की भावना करने वाले चित्त का आलम्बन भी - आकासानञ्चायतन समतिक्कम्माति पुब्बे वुत्तनयेन झानम्पि आकासानञ्चायतनं आरम्मणम्पि..., पटि. म. अट्ठ. 2.143; सब्बसो रूपसानं समतिक्कमा ... नानत्तसज्ञानं अमनसिकारा 'अनन्तो आकासो ति, आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, दी. नि. 1.163-64; 5. आकाशानन्त्यायतन-ध्यान को प्राप्त योगी के चित्त में समस्त रूप संज्ञाएं निरूद्ध हो जाती हैं - नं द्वि. वि., ए. व. - आकासानञ्चायतनं समापन्नस्स रूपसा निरुद्धा होति, अ. नि. 3(1).218; 6. क्या आकासानञ्चायतन असंस्कृत धर्म है? - आकासानञ्चायतनं असङ्घतं, कथा. 271; आकासानञ्चायतनं ... कुसलतो च विपाकतो च किरियतो च, अभि. अव. 104; 7. आकाशानन्त्यायन के सम्बन्ध में अनेक मिथ्यादृष्टियां हैंआकासानञ्चायतन समापन्नस्स सतो रूपसहगता सामनसिकारा विसेसाय संवत्तन्तीति न युज्जति देसना, नेत्ति. 24; आकासानञ्चायतनं आकासानञ्चायतनतो सजानाति, ... सञत्वा... मति, ... अपरिञातं तस्साति वदामि, म. नि. 1.3; -- कम्मट्ठान नपुं.. विसुद्धि के एक खण्ड-विशेष का शीर्षक, विसुद्धि. 1.316-321; - किरियचित्त नपु. तत्पु. स. [आकाशानन्त्यायतनक्रियाचित्त], आकाश की अनन्तता को आलम्बन बनाने वाला अरूपभूमि का क्रियाचित्त - आकासानञ्चायतनकिरियचित्तं, ..., इमानि चत्तारिपि अरूपावचरकिरियचित्तानि नाम, अभि. ध. स. 5; - कु सलचित्त नपु., कर्म. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनकुशलचित्त], आकाश की अनन्तता को आलम्बन बनाने वाले अरूप भूमि के चार कुशलचित्तों में प्रथम चित्त --- आकासानञ्चायतनकुसलचित्तं, ... इमानि चत्तारिपि अरूपावचरकुसलचित्तानि नाम, अभि. ध. स. 5; अथ वा आकासानञ्चं आयतनं अस्साति आकासानञ्चायतनं. झान तेन सम्पयत्त कसलचित्त आकासानञ्चायतनकुसलचित्तं, अभि. ध. वि. टी. 93; - कु सलवे दना स्त्री., तत्पु. स. [आकाशानन्त्यायतनकुशलवेदना], आकाश की अनन्तता आकासानञ्चायतन को आलम्बन बनाने वाले अरूपध्यान के प्रथम चित्त में उदित कुशल वेदना - आकासानञ्चायतनकुसलवेदना सुखुमा आकासानञ्चायतनकुसलवेदना ओळारिका .... विभ. अट्ठ. 16; - खन्ध पु., [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनस्कन्ध], स्कन्ध या राशि के रूप में आकाशानन्त्य-नामक प्रथम अरूपध्यान अथवा इस ध्यान वाला चित्त - न्धे सप्त. वि., ए. व. - आकासानञ्चायतनखन्धे विपस्सन्तस्स विपस्सनुपेक्खा आरम्मणवसेन आकासानञ्चायतननिस्सिता. म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.198; - चित्त नपुं., कर्म. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनचित्त], अरूपध्यान का वह चित्त, जो आकाश की अनन्तता को अपना आलम्बन बनाता है - तस्सेवं.... पथवीकसिणादीस रूपावचरचित्तं विय आकासे आकासानञ्चायनचित्तं अप्पेति, विसुद्धि. 1.317; - ज्झान नपुं, कर्म. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनध्यान], वह अरूपध्यान, जिसमें आकाश की अनन्तता पर चित्त को एकाग्र किया जाता है - नेन तृ. वि., ए. व. - वृत्तप्पकारेन हि आकासानञ्चायतनज्झानेन सम्पयुत्तं पठम विआणञ्चायतनादीहि दुतियततियचतुत्थानि, विसुद्धि. 2.80; - धातु स्त्री., कर्म. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनधातु], ध्यान के आलम्बन के रूप में अनन्त आकाश (नामक तत्त्व) - ..., आकासानञ्चायतनधातु, ... सत्त धातुयो ति, आकासानञ्चायतनमेव आकासानञ्चायतनधात. स. नि. अट्ठ. 2.118; - निस्सित त्रि., तत्पु. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतननिःश्रित], आकाशानन्त्य-नामक ध्यान अथवा इस ध्यान के आलम्बन पर आश्रित-ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - उपेक्खा नानत्ता नानत्तसिता. .... उपेक्खा एकत्ता एकत्तसिता, उपेक्खा... आकासानञ्चायतननिस्सिता, म. नि. 3.268; यस्मा पन द्वे वा तीणि वा आकासानञ्चायतनानि वा विआणञ्चायतनादीनि वा नत्थि, तस्मा एकत्तं एकत्तसितं विभजन्तो अस्थि, भिक्खवे, उपेक्खा आकासानञ्चायतननिस्सितातिआदिमाह, म. नि. अठ्ठ. (उप.प.) 3.198; - भव पु., कर्म. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनभव], आकाशानन्त्यायतन-ध्यान-चित्त के विपाक के रूप में प्राप्त इसी नाम वाला भव (जन्म, अस्तित्त्व) - आकासानञ्चायतनूपगोतिआदीसु पन आकासानञ्चायतनभवं उपगतोति, दी. नि. अट्ठ. 1.103; - भूमि स्त्री., कर्म. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनभूमि]. अरूपावचर भूमि का एक प्रभेद, अरूपध्यान की भावना कर रहे चित्त की वह अवस्था, जिसमें आकाश की अनन्तता पर चित्त को एकाग्र किया जाता है - आकासानञ्चायतनभूमि For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकासानञ्चायतन आकासानन्त विआणञ्चायतनभूमि... चेति अरूपभूमि चतुबिधा होति, अभि. ध. स. 32; - विपाकचित्त नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनविपाकचित्त], वह चित्त, जो आकाश की अनन्तता को अपना आलम्बन बनाकर की गई ध्यानभावना के विपाक के रूप में उदित होता है, अरूपभूमि के चार प्रकार के विपाकचित्तों में प्रथम - आकासानञ्चायतनविपाकचित्तं, ... इमानि चत्तारिपि अरूपावचरविपाकचित्तानि नाम, अभि. ध. स. 5; - सञ्जा स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनसंज्ञा], आकाश की अनन्तता पर ध्यान करते हुए प्राप्त होने वाला संज्ञाज्ञान - अं द्वि. वि., ए. व. - ... पथवीसनं, आकासानञ्चायतनसझं पटिच्च मनसि करोति एकत्तं, तस्स आकासानञ्चायतनसाय चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति अधिमुच्चति, म. नि. 3.149; - य तृ. वि., ए. व. - आकासानञ्चायतनसाय पथवीसझं..., म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.112; - सञी त्रि., [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनसंज्ञिन], आकाश की अनन्तता के विषय में संज्ञा ज्ञान को प्राप्त कर चुका - जी पु., प्र. वि., ए. व. - तथारूपो समाधिपटिलाभो यथा ... न आकासानञ्चायतने आकासानञ्चायतनसञी अस्स, अ. नि. 3(2).6; - समापत्ताधिमुत्त त्रि०, तत्पु. स. [आकाशानन्त्यायतनसमापत्यधिमुक्त], आकाशानन्त्यायतन नामक अरूप ध्यान की प्राप्ति के निमित्त स्वयं को पूरी तरह से लगाया हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - चतुत्थज्झानाधिमुत्तोआकासानञ्चायतनसमापत्ताधिमुत्तो ... धिमुत्तं, चूळनि. 154; - समापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनसमापत्ति], 1. प्रथम अरूपध्यान की प्राप्ति, आकाश की अनन्तता पर चित्त की समता एवं एकाग्रता की प्राप्ति - अयम्पि खो आकासानञ्चायतनसमापत्ति अभिसङ्घता अभिसञ्चेतयिता, म. नि. 2.15; आकासानञ्चायतनमेव समापत्ति आकासानञ्चायतनसमापत्ति, पटि. म. अट्ठ. 1.78; 2. नौ प्रकार की समाधि-चर्याओं अथवा ध्यानाभ्यासों में आठवीं - नवहि समाधिचरियाहीति ... आकासानञ्चायतनसमापत्ति ... समाधिचरिया, पटि. म. 91; - समापत्तिपटिलाभत्थ पु., तत्पु. स. [आकाशानन्त्यायतनप्रतिलाभार्थ]. आकाशानन्त्यायतन नामक अरूपध्यान की प्राप्ति का प्रयोजन - त्थाय च. वि., ए. व. - सो ... अनङ्गणे ... आकासानञ्चायतनसमापत्तिपटिलाभत्थाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति आरुप्पमग्गसङ्गीति, महानि. 204; - समापत्तिविमोक्ख पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनसमापत्तिविमोक्ष], आकाशानन्त्यायतन नामक अरूप ध्यान की प्राप्ति से मिलने वाला विमोक्ष - अयं आकासानञ्चायतनसमापत्तिविमोक्खो, पटि. म. 225; - सहगत त्रि, तत्पु स. [बौ. सं आकाशानन्त्यायतनसहगत], आकाशानन्त्यायतन नामक अरूपध्यान से युक्त या परिपूर्ण - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - ... आकासानञ्चायतनसहगता सामनसिकारा समुदाचरन्ति, अ. नि. 3(1).248; - सुखुमसच्चसञी त्रि., [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनसूक्ष्मसत्यसंज्ञिन्], आकाशानन्त्यायतन नामक अरूपध्यान में सूक्ष्म सत्य का संज्ञा-ज्ञान प्राप्त किया हुआ - जी पु., प्र. वि., ए. व. - आकासानञ्चायतन सुखुमसच्चसजीयेव तस्मिं समये होति. दी. नि. 1.164. आकासानञ्चायतनू पग त्रि., [बौ. सं. आकाशानन्त्यायतनोपग], आकाशानन्त्यायतन नामक प्रथम अरूपध्यान के विपाक के बल से अरूपी ब्रह्मलोक में उत्पन्न (देव) - गो पु., प्र. वि., ए. व. - अओ अत्ता .... "अनन्तो आकासो ति आकासानञ्चायतनूपगो, दी. नि. 1.30; आकासानञ्चायतनूपगोतिआदीसु पन आकासानञ्चायतनभवं उपगतोति, एवमत्थो वेदितब्बो, दी. नि. अट्ट, 1.103; – गं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अस्थि आकासानञ्चायतनूपगं कम्मन्ति? आमन्ता, कथा. 272;गा पु., प्र. वि., ब. क. - आकासानञ्चायतनूपगा देवा दीघायुका चिरहितिका सुखबहुलाति, म. नि. 3.146; अत्थि आकासानञ्चायतनूपगा सत्ताति, कथा. 272; आकासानञ्चायतनं उपगच्छन्तीति आकासानञ्चायतनूपगा, अभि. ध. वि. टी. 153; - गे पु. वि. वि., ब. व. - हेट्टतो आकासानञ्चायतनूपगे देवे परियन्तं करित्वा उपरितो नेवसञ्जानासायतनूपगे देवे अन्तोकरित्वा यं एतस्मि ..., पटि. म. 77; आकासानञ्चायतनूपगेति आकासानञ्चायतनसङ्खातं भवं उपगते. पटि. म. अट्ठ. 1.245; - गानं पु. प. वि., ब. व. - ... आकासानञ्चायतनूपगानं देवानं सहव्यतं उपपज्जति, अ. नि. 1(1).301; आकासानञ्चायतनूपगानं, भिक्खवे, देवानं वीसति कप्पसहस्सानि आयुप्पमाणं, अ. नि. 1(1).301. आकासानन्त पु./नपुं., कर्म. स. [अनन्ताकाश], अनन्त आकाश, आकाश के तीन प्रभेदों में कसिणुग्घातमाकाश For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकासानिलप्पभेद 15 आकिञ्चञ नामक प्रभेद, दस कसिणों में से एक - आकासञ्च तं अनन्तञ्चाति आकासानन्तं, कसिणग्घाटिमाकासो, अभि. ध. वि. टी. 93; आकासो अनन्तो आकासानन्तो, पटि. म. अट्ठ 1.77. आकासानिलप्पभेद त्रि., ब. स. [आकाशानिलप्रभेद]. आकाश एवं वायु के प्रभेदों वाला (शब्द)- दो पु., प्र. वि., ए. व. - आकासानिलप्पभेदो देहनिस्सितो चित्तजसद्दो येव वण्णत्तमुपगतो सद्दो, सद्द. 3.603-04. आकासाभिमुख त्रि., [आकाशाभिमुख], आकाश की ओर अभिमुख, आसमान की ओर देख रहा -खो पु., प्र. वि., ए. व. - तथा हि गावो नववुढे देवे भूमिं घायित्वा घायित्वा आकासाभिमुखो हुत्वा वातं आकड्वन्ति, स. नि. अट्ठ. 3.109. आकासारम्मण त्रि., ब. स. [आकाशालम्बनक], वह ध्यान भावना, जिसमें चित्त का आलम्बन आकाश रहता हो - णं नपुं. प्र. वि., ए. व. - ... आकासारम्मणं आकासानञ्चायतनं विसुद्धि. 1.330. आकासुक्खिपिय पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम, जो आकाश की ओर पुष्पों को फेंक देता था - इत्थं सदं आयस्मा आकासुक्खिपियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.244. आकासुपनिस्सय पु., तत्पु. स. [आकाशोपनिःश्रय], शब्द के आधार या आश्रय के रूप में आकाश, आकाश का आश्रय - सोतायतनं निस्साय इट्ठसम्मतं सद्दायतनं आलम्बित्वा आकासपनिस्सयं लभित्वा मनोधातावज्जनानन्तरं एव उप्पज्जति ... सोतविणं, रूपा. 153, 155 (रो.). आकिञ्च नपुं.. संभवतः आकिञ्च का अप., अकिंचनता की मनोदशा, अरूपध्यान का तृतीय चरण – ञ्चं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्च नेवसञञ्च, समापज्जि यथक्कम, अप. 2.209. आकिञ्चञ 1. नपुं॰, भाव. [आकिञ्चन्य], शा. अ., कुछ भी शेष न रहने की अवस्था, अकिंचनता, समस्त धनसम्पत्ति से रहित होना - अं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्चनं पत्थयानो, ब्राह्मणो मन्तपारग सु. नि. 982; आकिञ्चजन्ति अकिञ्चनभावं परिग्गहूपकरणविवेकन्ति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.271; ला. अ. 1. अरूपावचर-ध्यान की तीसरी अवस्था, जिसमें ध्यान करने वाले साधक का चित्त अधिक सूक्ष्म हो जाता है तथा उसे अनन्त आकाश एवं अनन्त विज्ञान के रूपरहित आलम्बन स्थूल प्रतीत होने लगते हैं, इस अवस्था में साधक 'नहीं हैं', 'नहीं हैं, 'शून्य है, शून्य है', 'खाली है, खाली है, इस प्रकार की अनुपश्यना करते हुए अनन्त-विज्ञान के विषय में 'कुछ नहीं है' या 'नत्थि किञ्चि' की भावना करता है। दूसरे शब्दों में 'विज्ञाणञ्चायतन' के विज्ञान का अभाव है, अन्तर्धान है तथा कुछ भी नहीं है, यह देखता है। इस ध्यान में उपेक्षा एवं एकाग्रता, ये दो ध्यानाङ्ग ही रहते हैं - एत्थ पन नास्स किञ्चनन्ति अकिञ्चनं ... अकिञ्चनस्स भावो आकिञ्चनं आकासानञ्चायतनविाणापगमस्सेतं अधिवचनं, ध. स. अट्ट. 250; तत्थ आकिञ्चायतनं किञ्चनं आरम्मणं अस्स नत्थीति आकिञ्चज. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).249; नास्स पठमारुप्पस्स किञ्चनं अप्पमत्तकं अन्तमसो भङ्गमत्तम्पि अवसिढ़ अस्थीति अकिञ्चनं तस्स भावो आकिञ्चनं पठमारूप्पविआणाभावो, अभि., ध. वि. टी. 93; नत्थि किञ्चीति नत्थि नत्थि, सुझं सुझं विवित्तं विवित्तन्ति एवं मनसिकरोन्तोति वुत्तं होति, विसुद्धि. 1.324; ला. अ. 2. निर्वाण, जिसमें किसी भी प्रकार के क्लेश चित्त में शेष नहीं रह जाते, चार आर्यमार्ग एवं आर्यफल - निब्बानम्पि आकिञ्चनं स. नि. अट्ठ. 3. 137; मग्गफलानि... किलेसानं नत्थिताय आकिञ्चआनि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).249; 2. त्रि., अकिंचनता के साथ जुड़ा हुआ, किसी भी प्रकार के आलम्बनों से रहित, क्लेशरहित, बाधारहित - जा' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आकिञ्चञा चेतोविमुत्ति, म. नि. 1.378; आरम्मणकिञ्चनस्स अभावतो आकिञ्चआ, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).248; - झं द्वि. वि., ए. व. - यदेव तत्थ सच्चं तदभिजाय आकिञ्चजयेव पटिपदं पटिपन्नो होति, अ. नि. 1(2).205; आकिञ्च येव पटिपदन्ति किञ्चनभावविरहितं निप्पलिबोध निग्गहणमेव पटिपदं ..., अ. नि. अट्ठ. 2.358; - जा प्र. वि., ब. व. - आकिञ्चञा चेतोविमुत्तियो, म. नि. 1.379; आकिञ्चजा चेतोविमुत्तियो नाम नव धम्मा आकिञ्चआयतनञ्च मग्गफलानि च, म. नि. अह. (मू.प.) 1.(1)249; - चे तो विमुत्ति स्त्री., कर्म. स. [आकिञ्चन्यचेतोविमुक्ति], चार लोकोत्तर मार्ग, चार आर्य फल एवं आकिञ्चन्यायतन नामक अरूपध्यान की अवस्था वाले कुल नौ धर्म - आकिञ्चजा चेतोवित्तियो नाम नव धम्मा आकिञ्चायतनं मग्गफलानि च, स. नि. अट्ठ. 3.136; पाठा. आकिञ्चन, चेत्तोविमुत्ति; - सम्भव पु.. For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकिञ्चञसुत्त 16 आकिञ्चायतनपटिसंयुत्त तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनसंभव], आकिंचन्य के आलम्बन समुदाचरन्ति, पटि. म. 32; - कम्मद्वान नपुं., तत्पु. स. को उत्पन्न करने वाला कर्माभिसंस्कार - वो प्र. वि., ए. [आकिञ्चन्यायतनकर्मस्थान], अकिंचनता का कर्मस्थान, व. - आकिञ्चासम्भवोति वुच्चति । कर्मस्थान या आलम्बन के रूप में विज्ञान का अकिंचनआकिञ्चायतनसंवत्तनिको कम्माभिसङ्घारो, चूळनि. 155%; भाव - ने सप्त. वि., ए. व. - अय - वं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्चञसम्भवं ञत्वा, ..., सु. आकिञ्चायतनकम्मट्टाने वित्थारकथा, विसुद्धि. 1.324. नि. 1121; आकिञ्च सम्भवं अत्वाति आकिञ्चायतनकिरियाचित्त नपुं., तत्पु. सं. [बौ. सं. शकिञ्चज्ञायतनजनकं कम्माभिसङ्घारं अत्वा 'किन्ति आकिञ्चन्यायतनक्रियाचित्त], अरूपावचर भूमि के चार पलिबोधो अयन्ति, सु. नि. अट्ठ. 2.293. प्रकार के क्रियाचित्तों में अकिंचनभाव को ध्यान का आलम्बन आकिञ्चञसुत्त नपुं., स. नि. के दो सुत्तों का शीर्षक, स. बनाने वाला तथा विपाक उत्पन्न न करने वाला तृतीय नि. 2(1).234; 2(2),261. चित्त - आकासानञ्चायतनकिरियचित्त आकिञ्चञाभिनिवेस त्रि., ब. स. [आकिञ्चन्याभिनिवेश], विाणञ्चायतनकिरियचित्तं आकिञ्चायतनकिरियचित्तं, अकिंचनभाव में अथवा शून्यता में चित्त की प्रवृत्ति या नेवसानासआयतनकिरियचित्तञ्चेति इमानि चत्तारिपि झुकाव रखने वाला - सा पु., प्र. वि., ब. व. - अकिञ्चनभावे अरूपावचरकिरियचित्तानि नाम, अभि. ध. स. 5. निग्गहणभावे चित्तं एतेसं अभिनिविसतीति आकिञ्चचायतनकुसलचित्त नपुं.. तत्पु. स. [बौ. सं. आकिञ्चाभिनिवेसा, अ. नि. अट्ठ. 3.122. आकिञ्चन्यायतनकुशलचित्त], अरूपावचर भूमि का तीसरा आकिञ्चजायतन नपुं., [बौ. सं. आकिञ्चन्यायतन], 1. कुशलचित्त, जिसका आलम्बन अकिंचनभाव होता है - त्तं अरूपध्यान के चार आलम्बनों में तीसरा आलम्बन, जिसमें प्र. वि., ए. व. - आकासानञ्चायतनकुसलचित्तं, अनन्त विज्ञान के अकिंचनभाव को चित्त का आलम्बन विआणञ्चायतनकुसलचित्तं, आकिञ्चायतनकुसलचित्तं बनाया जाता है, 2. अकिंचनभाव कर्मस्थान वाला तीसरा नेवसानास आयतनकुसलचित्तञ्चेति इमानि चत्तारिपि अरूपध्यान - नं' प्र. वि., ए. व. ... एत्थ पन नास्स अरूपावचरकुसलचित्तानि नाम, अभि. ध. स. 5. किञ्चनन्ति अकिञ्चनं, ... अकिञ्चनस्स भावो आकिञ्चायतनचित्त नपुं.. कर्म. स. आकिञ्चनं आकासानञ्चायतनविाणापगमस्सेत [आकिञ्चन्यायतनचित्त], अरूपावचरभूमि का तृतीय चित्त अधिवचनं तं आकिञ्चनं अधिट्टानडेन आयतनमस्स झानस्स - त्तं प्र. वि., ए. व. - महग्गतविज्ञआणस्स .... आकिञ्चआयतनं विसुद्धि. 1.324; नत्थि किञ्ची ति सुञविवित्तनत्थिभावे आकिञ्चायतनचित्तं अप्पेति, विसुद्धि. आकिञ्चआयतनं नेय्यान्ति, म. नि. 1.372; - नं द्वि. 1.323. वि., ए. व. - सब्बसो विआणञ्चायतनं समतिक्कम्म आकिञ्चञआयतनधातु स्त्री., बौ. सं. 'नत्थि किञ्ची ति आकिञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरेय्य, आकिञ्चायतनधातु], धातु के रूप में अकिंचनभाव म. नि. 1.52; आकिञ्च आयतन ... का क्षेत्र - याय, भिक्खु, आकिञ्चायतनधातु - अयं आकिञ्चञायतनपरियोसाना सत्त समापत्तियो में जानापेसि. धातु विज्ञाणञ्चायतनं पटिच्च पञआयति, स. नि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).75; - सजग्गन्ति 1(2).132. आकिञ्चआयतन वुच्चति, कस्मा? लोकियान आकिञ्चआयतननिस्सित त्रि., तत्पु. स. किच्चकारक समापत्तीन अग्गत्ता, [आकिञ्चन्यायतननिःश्रित], अकिंचनभाव पर आश्रित या आकिञ्चआयतनसमापत्तियहि ठत्वा नेवस आना उस से सम्बद्ध - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अस्थि, सञ्जायतनम्पि निरोधम्पि समापज्जन्ति, दी. नि. अट्ठ. भिक्खवे, उपेक्खा आकासानञ्चायतननिस्सिता ... अस्थि 1.277; आकिञ्चायतनन्ति इदमस्स चतुबिधमारम्मणं, आकिञ्चिायतननिस्सिता, म. नि. 3.268. अभि. अव.6; चतुत्थस्स झानस्स विपाको, आकासानञ्चायतनं आकिञ्चायतनपटि संयुत्त त्रि., तत्पु. स. आकिञ्चायतनं कुसलतो च विपाकतो च किरियतो च, [आकिञ्चन्यायतनप्रतिसंयुक्त], उपरिवत् -- त्ताय स्त्री., इमे धम्मा नवत्तब्बारम्मणाति हि वृत्तं, अभि. अव. 104; स्स ष. वि., ए. व. - आकिञ्चायतनपटिसंयुत्ताय च पन ष. वि., ए. व. - आकिञ्चायतनस्स लाभिं ... कथाय कच्छमानाय न सुस्सूसति, म. नि. 3.40. For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकिञ्चायतनभव आकिञ्चञआयतनसमापत्ति या आकिञ्चायतनभव पु., तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनभव], चार प्रकार के अरूपी ब्रह्मलोकों में जन्म, अरूपध्यान के चार चित्तों के विपाक के बल से चार अरूपी ब्रह्माओं के रूप में जन्मग्रहण – वं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ झानं निब्बत्तेत्वा आकिञ्चायतनभवं उपगता आकिञ्चआयतननूपगा, चूळनि. अट्ट, 56. आकिञ्चञआयतनभूमि . स्त्री., तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनभूमि], अरूपावचर ध्यान की चार भूमियों में से तृतीय, ध्यानयुक्त चित्त की वह अवस्था, जिसमें अनन्त आकाश एवं अनन्त विज्ञान के अकिंचन-भाव या शून्यता की भावना की जाती है - आकासानञ्चायतनभूमि विआणञ्चायतनभूमि . आकिञ्चायतनभूमि नेवसानासायतनभूमि चैति अरूपभूमि चतुबिधा होति, अभि. ध. स. 32. आकिञ्चचायतनलाभी त्रि., [आकिञ्चन्यायतनलाभिन्], अरूपध्यान में अकिंचनभाव की विपश्यना करने वाला - नो पु., ष. वि., ए. व. - नत्थि किञ्चीति पस्सतोति विज्ञआणाभावविपस्सनेन 'नत्थि किञ्ची ति पस्सतो, आकिञ्चायतनलाभिनोति कुत्तं होति, सु, नि, अट्ठ. 2.293. आकिञ्चचायतनसंयोजन नपुं., तत्पु. स./कर्म. स. [आकिञ्चन्यायतनसंयोजन], संयोजन या बन्धन के रूप में अकिंचनभाव का कर्मस्थान, अकिंचनभाव का मानसिक बन्धन -- नेन तृ. वि., ए. व. -- आकिञ्चायतनसंयोजनेन हि खो विसंयुत्तो, नेवसानास आयतननाधिमुत्तो पुरिसपुग्गलो ति, म. नि. 3.41. आकिञ्चायतनसंवत्तनिक त्रि., [आकिञ्चन्यायतनसंवर्तनिक], अकिंचन भाव के आयतन या आलम्बन की ओर ले जाने वाला (कर्म का अभिसंस्करण) -- को पु., प्र. वि., ए. व. - ... आकिञ्चजासम्भवोति वच्चति आकिञ्चायतनसंवत्तनिको कम्माभिसङ्घारो, चूळनि. 155. आकिञ्चचायतनसचा स्त्री., तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनसंज्ञा], आकिंचन्य के विषय में (उपादानयुक्त) संज्ञा-ज्ञान - या च आकिञ्चायतनसा ... एस सक्कायो यावता सक्कायो, म. नि. 3.49%3; नेवसञ्जानासआयतनं समापन्नस्स आकिञ्चआयतनसआ निरुद्धा होति, स. नि. 2(2).213; - अं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्चायतनसझं पटिच्च मनसि करोति एकत्तं, म. नि. 3.150; ... नेवसानासायतनसाय आकिञ्चायतनसञ्ज. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.112; - य - सप्त. वि., ए. व. - ... तस्स आकिञ्चजायतनसाय... आकिञ्चायतनसायाति पजानाति, म. नि. 3.150; - सहगत त्रि., तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनसंज्ञासहगत], आकिंचन्य के आलम्बन की संज्ञा से युक्त तं नपुं., प्र. वि., ए. वि. - यस्मि समये ... विजाणञ्चायतन समतिक्कम्म आकिञ्चआयतनसासहगतं सुखस्स च पहाना .... ध. स. 267, 503, 581; तस्मिं आकिञ्चआयतनं पवत्ताय सञआय सहगतन्ति आकिञ्चआयतनसआसहगतं, ध. स. अट्ठ. 250. आकिञ्चचायतनसञी त्रि., [आकिञ्चन्यायतनसंज्ञिन], आकिंचन्य के आयतन या ध्यान के प्रति संज्ञा-ज्ञान रखने वाला - न आकिञ्चआयतने आकिञ्चआयतनसञी अस्स, अ. नि. 3(2).6; 8; 287. आकिञ्चचायतनसप्पाय त्रि., ब. स. [बौ. सं. आकिञ्चन्यायतनसाम्प्रेय], आकिञ्चन्यायतन नामक अरूपध्यान की प्राप्ति में हितकर या उपयुक्त - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अय, भिक्खवे, दुतिया आकिञ्चायतनसप्पाया पटिपदा अक्खायति, म. नि. 3.47. आकिञ्चायतनसमापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनसमापत्ति]. शा. अ., आकिंचन्य के आयतन अथवा कर्मस्थान की प्राप्ति, ला. अ., नौ प्रकार की समापत्तियों या समाधिचर्याओं में से एक - नवहि समाधिचरियाहीति ... पठमं झानं... चतुत्थं झानं समाधि चरिया, ... आकिञ्चायतनसमापत्ति ... समाधिचरिया, पटि. म. 91; आकिञ्चायतनसमापत्ति विज्ञाणञ्चायतनसाय वुढाति, पटि. म. 222; - तिं द्वि. वि., ए. व. - आकिञ्चायतनसमापत्ति ... पटिलाभत्थाय वितक्को च विचारो च पीति च सुखञ्च .. ., पटि. म. 223; - या' प. वि., ए. व. - आकिञ्चायतन समापत्तिया हित्वा नेवसानासायतनं समापज्जि, दी. नि. 2.116; - या' ष. वि., ए. व. - ... आकिञ्चायतनसमापत्तिया ... इमे बहिद्धावडानपटिप्पस्सद्धी चत्तारो विमोक्खा, पटि. म. 2243; - विमोक्खा पु... तत्पु. स. [आकिञ्चन्यायतनसमापत्तिविमोक्ष], आकिंचन्य आलम्बन वाले अरूप ध्यान की प्राप्ति से मिलने वाला विमोक्ष, 68 प्रकार के विमोक्षों में एक, क्खो, प्र. वि., ए. व. - अपि च अट्ठसद्धि विमोक्खा .... आकिञ्चायतनसमापत्ति For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आकिञ्चञ्ञायतनसहगत विमोक्खो, नेवसञ्ञनासञ्ञायतनसमापत्ति विमोक्खो, पटि. म. 221; लाभी त्रि. आकिंचन्य आलम्बन वाले तृतीय अरूप ध्यान की प्राप्ति का लाभ पाने वाला भी पु० प्र० वि. ए. व. आकिञ्चञ्ञायतनसमापत्तिलाभी आचरियांति, आह, जा० अट्ट. 1.388-89. आकिञ्चञ्ञायतनसहगत स. त्रि., तत्पु. [ आकिञ्चन्यायतनसहगत], आकिंचन्य के आयतन या आधार से युक्त, आकिंचन्य के आलम्बन वाला (जवनसंज्ञा एवं आवज्जनचित्त) ता पु. प्र. वि. ब. व. आकिञ्चज्ञायतनसहगता सञ्ञामनसिकारा समुदाचरन्ति " - स. पटि० म० 32. आकिञ्चज्ञायतनसुखुमसच्चसज्ञा स्त्री० तत्पु० स.. अकिंचनता के कर्मस्थान में अन्तर्निहित सूक्ष्म सत्य का ज्ञान आकिञ्चञ्ञायतनसुखुमसच्चसज्ञा तस्मिं समये होति दी. नि. 1.164. आकिञ्चज्ञायतनाधिमुत्त त्रि.. तत्पु. [आकिञ्चन्यायतनाधिमुक्त] अकिंचन-भाव के ध्यानालम्बन या ध्यान की ओर पूरी तरह से स्वयं को लगाया हुआ, आकिंचन्य के आयतन की प्राप्ति हेतु समर्पित तो पु.. प्र. वि., ए. व. इधेकच्चो पुरिसपुग्गलो आकिञ्चज्ञयतनाधिमुत्तो अस्स. आकिञ्चञ्ञायतनाधिमुत्तस्स खो, सुनक्खत्त, पुरिसपुग्गलस्स तप्पतिरूपी चेव कथा सण्ठाति, म. नि. 3.40. आकिञ्चञ्ञायतनूप त्रि.. [बौ. सं. आकिञ्चन्यायतनोपग], तृतीय अरूप ध्यान की अवस्था में पहुंचा हुआ, अनन्तविज्ञान के आलम्बन का अतिक्रमण कर कुछ भी नहीं है' अथवा शून्य हैं की अनुपश्यना करने वाला - गो. पु. प्र. गो वि., ए. व. अञ्ञो अत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म 'नत्थि किञ्ची' ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगो, दी. नि. 1.30 गाव. व अत्यावुसरे आकिञ्चञ्ञयतनूपणा देवा इदं सज्जन अग्गं. अ. नि. 1 ( 2 ). 187 गं नपुं. प्र. वि., ए. व. यं तंसंवत्तनिकं विञ्ञाणं अस्स आकिञ्चञ्ञायतनूपगं म. नि. 3.47. आकिञ्चञ्ञायतनूपपत्ति स्त्री, तत्पु० स० [बौ० सं० आकिञ्चन्यायतनोपपत्ति] आकिंचन्य के आयतन या आलम्बन बनाने वाले तृतीय अरूप-ध्यान के विपाक के प्रभाव से अरूपी ब्रह्मलोक में उत्पत्ति या जन्म या च. वि. ए. व. नाये धम्मो निविदाय... संवत्तति यावदेव आकिञ्चञ्ञायतनुपपत्तियाति म. नि. 1.224 यावदेव - -- www.kobatirth.org - www 18 - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकिञ्चञ्ञायतनूपपत्तियाति याव सट्टिकप्पसहस्सायुपरिमाणे आकिञ्चञ्ञायतनभवे उपपत्ति, तावदेव सवंत्तति, न ततो उद्ध, म. नि. अट्ठ (मू०.प.) 1(2).75. आकिञ्चञ्ञाभिनिवेस त्रि, ब० स० [ बौ. सं. आकिञ्चन्याभिनिवेश] अकिंचनभाव की ओर सुदृढ झुकाव या प्रवृत्ति रखने वाला सा पु. प्र. वि. ब. व. - आकिञ्चज्ञाभिनिवेसा, अ. नि. अड्ड. 3.122. आकिञ्चञ्ञासमापत्तिक त्रि. ब. स., आकिंचन्य ध्यान की प्राप्ति-स्वरूप उदित होने वाली, चतुर्थ अरूप ध्यान की अनेक हानियों (आदीनवों) में एक का पु. प्र. वि., ए. आकिञ्चञसमापत्तिका ते धम्मा नुसमापत्तिका एतिस्सा च भूमियं सातानं बालपुथुज्जनानं अनेकविधानि दिद्विगतानि उप्पज्जन्ति, पेटको. 266. व. For Private and Personal Use Only आकिण्ण आकिष्ण त्रि. आ+किर का भू. क. कृ. [आकीर्ण]. शा. अ. 1. अत्यधिक भरा हुआ, खचाखच भरा हुआ, प्रचुर, परिपूर्ण, समृद्ध, संकुल, 2. बिखरा हुआ, फैला हुआ, विपुल, छितराया हुआ, ला. अ. संभ्रमग्रस्त, अव्यवस्थित, शिथिल, अपवित्र भीड-भाड़ के साथ- संकिण्णाकिण्ण सहुला, अभि. प. 720 - णं नपुं. प्र. वि. ए. व. - विपुलम्पि हि 'आकिण्णन्ति दुच्चति सु. नि. अह. 2.101 एणेय्यपसदाकिण्णन्ति एणेव्यमिगेहि च पसदमिगेहि च आकिष्ण जा. अड. 7.309 ण्णा पु. प्र. वि. ब. व. आकिण्णाति परिपुण्णा, जा. अड. 5.264 - ण्णं स्त्री. द्वि. वि., ए. व. आकिण्णं संकिलिडं वाचं न भणेय्य, म. नि. अ. (उप. प.) 3.202: ण्णानि नपुं. प्र. वि., ब. व. आकिण्णानीति पक्खित्तानि, अ. नि. अट्ठ. 2.99 - ण्णो पु०, प्र. वि., ए. व. गामन्ते विहरति आकिण्णो भिक्खुहि.... स. नि. 2 ( 2 ) 40: भगवा एतरहि आकिष्णो विहरति... विहरामि देवपुतेहि अ. नि. 1 ( 1 ) 314; आकिष्णो दुक्खं न फासु विहरति उदा. 114नपुं सप्त वि., ए. व. 'वने वाळमिगाकिण्णे, कच्चि हिंसा न विज्जती' ति, जा० अट्ट 5.315; एणेय्यपसदाकिण्णं, नागसंसेवितं वनं, जा. अट्ठ. 7.308; कम्मन्त त्रि. ब. स० [आकीर्णकर्मान्त], अपरिशुद्ध कर्म करने वाला, दारुण कर्म करने वाला न्तो पु. प्र. वि. ए. व. - एवं आकिण्णकम्मन्तो, कस्मा एसो न वुच्चतीति, स. नि. 1 (1). 237: आकिष्णकम्मन्तोति एवं अपरिसुद्धकम्मन्तो. स. नि. अड्ड. 1.262; तत्थ आकिष्णकम्मन्तोति कक्खलकम्मन्तो दारुणकम्मन्तो जा. अड्ड. 3.270 - जनमनुस्स त्रि.. - - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकिण्ण 19 आकिरितत्त तत्पु. स. [जनमनुष्याकीर्ण], लोगों की भीड़ से भरा हुआ वि., ए. व. -- सो ताय आकिण्णविहारताय उक्कण्ठितो - ... आकिण्णजनमनुस्सं पुथुखत्तियब्राह्मणवेस्ससुदं ... ... विहरामि, ध. प. अट्ठ. 1.35. मि. प.2; - तण्डुल त्रि., तत्पु. स. [तण्डुलाकीर्ण], आकिरण नपं., आ + किर से व्यू., क्रि. ना. [आकिरण], चावलों से भरपूर - ले पु., सप्त. वि., ए. व. - महति चारों ओर बिखेर देना, इधर-उधर छितरा देना, फैला देना ... उदकसम्पुण्णे आकिण्णतण्डुले हेहतो अग्गि... सन्तापेति. - वड्ड आकिरने, सद्द. 2.534. मि. प. 124; - त्त नपुं., भाव. [आकीर्णत्व], भरपूर होना, आकिरति आ +किर का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आकिरति], भरपूर होने की अवस्था - त्ता प. वि., ए. व. - आकिण्णत्ता 1. चारों ओर फैला देता है, बिखेर देता है, ऊपर की ओर विहारस्स वुस्समानस्स तस्स सा, म. वं. 19.77; - दोस छितरा देता है, 2. भर देता है, ढेर लगा देता है - कबळे त्रि., ब. स. [आकीर्णदोष], दोषों से भरा हुआ - सो पु., कबळे सूपं आकिरति, मि. प. 217; सो इमस्मिं सासने प्र. वि., ए. व. - सो सचे आकिण्णदोसोव होति, आयति कचवरं आकिरति, ध. प. अट्ठ. 1.310; - सि म. पु., ए. संवरे न तिट्ठति, महाव, अट्ठ. 280; - मनुस्स त्रि., ब. स. व. - रजमाकिरसी अहिताय, सन्ते गरहसि किब्बिसकारी, [आकीर्णमनुष्य/मनुष्याकीर्ण], मनुष्यों से भरा हुआ, भीड़- सु. नि. 670; -न्ति प्र. पु., ब. व. - ... देवता दिबं ओज भाड़ वाला - स्सानि नपुं.. द्वि. वि., ब. व. – फीतानि पत्ते आकिरन्ति, मि. प. 217; - ते वर्त., आत्मने., प्र. पु., आकिण्णमनुस्सानि सम्पन्नबलवाहनानि तीणि नगरानि ए. व. - भिय्यो आकिरते रजं. स. नि. 1(1).58; आकिरते पस्सामि, जा. अट्ठ. 4.152; - यक्ख त्रि., ब. स. रजन्ति अतिरेकं उपरि किलेसरजं आकिरति, स. नि. अट्ठ. [आकीर्णयक्ष/ यक्षाकीर्ण], यक्षों से भरा हुआ - क्खा 1.97; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अञस्स स्त्री., प्र. वि., ए. व. - देवानं आळकमन्दा... फीता च भाजने आकिरन्तो ओमसति, पाचि. 258; - न्ते सप्त. वि., बहुजना च आकिण्णयक्खा च सुभिक्खा च, दी. नि. ए. व. -... उदके आकिरन्ते अल्लत्तं वा पल्लवितहरितभावो 2.110-11; - लुद्द त्रि., ब. स. [आकीर्णलुब्ध/ लुब्धाकीर्ण], वा न भवेय्य, मि. प. 151; ... पिण्डपातं..., आकिरन्तेपि लोभियों, लम्पटों या दुष्टजनों से भरा हुआ, अत्यधिक पापी अतिक्कन्तेपि न जानन्ति, पाचि. 256; - न्ती स्त्री., प्र. - दो पु., प्र. वि., ए. व. - आकिण्णलुद्दो पुरिसो, वि., ए. व. - ... पत्ते आकिरन्ती हत्थानञ्च ... अग्गहेसि, धातिचेलंव मक्खितो, जा. अट्ठ. 3.270; आकिण्णलुद्दोति पारा. 16; - तु अनु., प्र. पु., ए. व. - ... वालुक बहुपापो गाळहपापो वा..., स. नि. अट्ठ. 1.262; -- लोम आहरित्वा इमस्मि ठाने आकिरतु, उदा. अट्ठ.22; - र म. त्रि., ब. स. [आकीर्णलोम], अत्यधिक घने या उलझे हुए पु., ए. व. - इध मे पत्ते आकिरा ति, पारा. 16; - थ ब. बालों वाला - मं द्वि. वि., ए. व. - आकिण्णलोमं खो व. - इध न आकिरथा ति आकिरितब्बं पाचि. अट्ठ. 109; ते, भगिनी ति, पारा. 193; आकिण्णलोमन्ति जटितलोमं. -- रेय्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - एकस्मा सकटतो रतनं पारा. अट्ठ. 2.123; - वरलक्खण त्रि., ब. स. गहेत्वा एकस्मिं सकटे आकिरेय्यु, मि. प. 224; - रि [आकीर्णवरलक्षण/वरलक्षणाकीर्ण], उत्तम लक्षणों से युक्त अद्य०, प्र. पु., ए. व. - साधूति सो पटिस्सुत्वा, दानं - णो पु., प्र. वि., ए. व. - पिण्डाय अभिहारेसि, विपुलमाकिरि पे. व. 176; - रिं अद्य., उ.पु., ए. व. - आकिण्णवरलक्खणो, सु. नि. 410; आकिण्णवरलक्खणोति पुराणपुलिनं वालुक छड्डेत्वा सुद्ध पण्डरं पुलिनं आकिरि सरीरे आकिरित्वा विय ठपितवरलक्खणो विपुलवरलक्खणो सन्थार अप. अट्ठ. 2.39; - रिंसु प्र. पु., ब. व. - न वा, सु. नि. अट्ठ. 2.101; - वालिका स्त्री., कर्म, स. सब्बधआनिपि आकिरिंसु, पे. व. 456; - रित्वा पू. [आकीर्णवालुका], अत्यधिक या प्रचुर मात्रा में बिखेरी हुई का. कृ. - ... पादपंसूनि गहेत्वा उपरिमुद्धनि बालू - य सप्त. वि., ए. व. - महाचेतियतले आकिरित्वा ..., चूळव. 335; - तब्बा सं. कृ., स्त्री., प्र. आकिण्णवालिकाय बहुतरा भिक्खू अरहत्तं पत्ताति, स. नि. वि., ए. व. - पच्छिंपन गहेत्वा सलाका पीठके आकिरितब्बा, अट्ठ. 3.216; - विहार पु., तत्पु. स., भीड़ भाड़ में आनन्द चूळव. अट्ठ. 101; - तब्बं सं. कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. लेते हुए रहना - रो प्र. वि., ए. व. - तत्थ सङ्गणिकविहारो ____--- इध न आकिरथा ति आकिरितब्बं पाचि. अट्ठ. 109. होति आकिण्णविहारो, अ. नि. 1(2).97; 98; - विहारता आकिरितत्त नपुं., आ +किर के भू. क. कृ. का भाव. स्त्री., भाव., भीड़-भाड़ के बीच रहने की प्रवृत्ति - य तृ. [आकीर्णत्व], भरपूर होना, पूर्ण रूप से भरा हुआ होना - For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकिरियन्ति आकोटन दिसाकालुसियं अग्गिसिखधूमसिखादीहि आकुलभावो विय, दी. नि. अट्ट, 1.84. आकुलयन्तो आकुल के ना. धा. का वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व., भरता सा हुआ, विखराता सा हुआ - आलोळयमानो वालिकाकचवरानि आकुलयन्तो, विसुद्धि. महाटी. 1.118. आकुलब्याकुल त्रि., [आकुलव्याकुल]. बुरी तरह से घबराया हुआ या बेचैन - ला पु., प्र. वि., ब. व. - एवं सत्ता इमाय तण्हाय परियोनद्धा आकुलब्याकुला न सक्कोन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.382; तत्थ ... एवमादिद्वत्तिसकुलप्पभेदा किमयो आकुलब्याकुला ... निवसन्ति, खु. पा. अट्ठ. 44. त्ता प. वि., ए. व. - तस्मिं सकटे धञ्जस्स पन आकिरितत्ता धजसकटन्ति जनो वोहरति, मि. प. 169. आकिरियन्ति आ +किर के कर्म. वा. का वर्त.. प्र. पु., ब. व. [आकीर्यन्ते], चारों ओर से भर दिए जाते हैं, परिव्याप्त कर दिए जाते हैं, प्रकाशित किए जाते हैं - तस्मिं तस्मिं सङ्गहे आकिरीयन्ति अविज्जासङ्घारादिग्गहणेहि पकासीयन्तीति आकारा, विसुद्धि. महाटी. 1.210; ... अतीतादीसु तत्थ तत्थ आकिरियन्तीति आकारा, अभि. ध. वि. टी. 210; ते हि अञ्जमञविधुरेन वेदयितारूपेन आकिरियन्ति पञ्जायन्तीति आकाराति वुच्चन्ति, दी. नि. टी. (लीन.) 289. आकुच्छ/आगुण्ड पु., गोह - गोधा कुण्डोप्यथो कण्ण जलूका, अभि. प. 622; पाठा. आकुच्च; - च्छा प्र. वि., ब. व. - आकुच्छा पचलाका च, जा. अट्ठ. 7.306%3; आकुच्छाति गोधा, जा. अट्ठ. 7.307. आकुछ त्रि., आ + कुस का भू. क. कृ. [आक्रुष्ट], निन्दित, डांटा या फटकारा गया - एवं सीलितो, रक्खितो, खन्तो, आकुट्ठो, रुट्ठो, ... अमतो, मो. व्या. 5.60. आकुमारं अ., [आकुमारं], कुमार अवस्था तक, कौमार्य-अवस्था-पर्यन्त – अभिविधिम्हि आकुमारं यसो कच्चायनस्स, सद्द. 3.880. आकुल त्रि., [आकुल]. 1. भरा हुआ, परिपूर्ण, खचित, प्रभावित, प्रभाव से ग्रस्त, स.. प. के अन्त. - ला पु.. प्र. वि., ब. व. - ... संसिब्बितछब्बिधजालामालाकुला समन्ता, मि. प. 149; एको किर पुरिसो चण्डसोताय वाळमच्छाकुलाय नदिया पारं गन्तुकामो ..., अ. नि. अट्ठ. 2.350; 2. घबराया हुआ, विक्षुब्ध, उद्विग्न, बेचैन, विपत्ति में फंसा हुआ, व्याकुल - लं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - सुजा थोक आकुलं विय हुत्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.239; यथा पन आकुलं तन्तं कजियं दत्वा कोच्छेन पहट तत्थ तत्थ गुळकजातं होति गण्ठिबद्धं स. नि. अट्ट, 284; तस्मिं सलाकग्ग आकुलं करोन्ते. ... जा. अट्ठ. 1.129. आकुलक त्रि., आकुल से व्यु., व्याकुल, बेचैन - धम्मस्स ... एवमयं पजा तन्ताकुलकजाता कुलगण्ठिकजाता ... नातिवत्तति, दी. नि. 2.43. आकुलता स्त्री., आकुल का भाव. [आकुलता], व्याकुलता, बेचैनी, विपत्ति - य प. वि., ए. व. - तं चण्डमीनाकुलताय आकवित्वा अनयव्यसनं पापेति, स. नि. अट्ठ. 2.273. आकुलभाव पु., तत्पु. स. [आकुलभाव], घबराहट, व्याकुलता, भौंचक्कापन - वो प्र. वि., ए. व. - दिसाडाहोति... आकुलसमाकुल त्रि., आपस में एक दूसरे से उलझे हुए, बुरी तरह से फंसे हुए - ला पु.. प्र. वि., ब. व. - ... एते पुप्फूपगफलूपगरुक्खा अञमझं सट्टसाखताय परिणामिता आकुलसमाकुला, जा. अट्ठ. 7.161. आकुलाकुल त्रि., बुरी तरह से बेचैन या घबराहट से पीड़ित -लोप.प्र.वि., ए. व. - बोधिसत्तो... विसञिभूतो आकुलाकुलो तुस्तितुरितो ... यजि, मि. प. 208; - ला ब. क. - महावाता . . आकुलाकुला वायन्ति ... विनमन्ति, मि. प. 124. आकोटक पु., देवों या देवपुत्रों का एक वर्ग विशेष – को प्र. वि., ए. व. - अथ खो ... देवपुत्ता असमो च सहलि चनीको च आकोटको च... येन भगवा तेनुपसङ्कमिस. स. नि. 1(1).80; पच्चभासीति अयं आकोटको इमेसं नग्गनिस्सिरिकानं .... स. नि. अट्ठ. 1.113. आकोटन' नपुं., आ +कुट से व्यु., क्रि. ना., कूटना, पीटना, खटखटाना, दबाना, प्रहार करना - नेन तृ. वि., ए. व. - आकोटितपच्चाकोटितानीति एकस्मि परसे पाणिना वा मुग्गरेन वा आकोटनेन आकोटितानि..., स. नि. अट्ठ. 2.211; तस्स आकोटनेन सद्दो निब्बत्तित्वा यथागतिगमनपथमत्थकं गच्छति, मि. प. 281; ... पथवियं आकोटनवसेन सम्पलिमट्ठ, स. नि. 3.51; - क्खम त्रि., कूटने-पीटने को सहन करने में सक्षम – मो प., प्र. वि., ए. व. - मक्कटच्छापको रङ्गक्खमो हि खो, नो आकोटनक्खमो, नो विमज्जनक्खमोति, म. नि. 2.54; आकोट्टनक्खमोति सविआणकस्स ताव आकोट्टनफलके ठपेत्वा कुच्छियं आकोटितस्स कुच्छि भिज्जति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.68; - फलक नपुं.. तत्पु. स., कूटनेपीटने के लिए प्रयुक्त तख्ता या फलक - के सप्त. वि., ए. व. - आकोट्टनक्खमोति सविआणकस्स ताव For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21 आकोटन आकोटनफलके ठपेत्वा ... भिज्जति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.68. आकोटन' त्रि., कूटने-पीटने वाला, कुटाई पिटाई करने वाला, उत्पीड़क - नी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पञ्जा आकोटनी राज, तत्थ अत्ताव सारथि, जा. अट्ठ. 7.142; .... सिन्धवे आकोटेत्वा निवारणपतोदयहि विय पञआ आकोटनी होतु, जा. अट्ठ. 7.144. आकोटना स्त्री., पीटना, प्रहार करना - ... यथा, महाराज, आकोटना, एवं वितक्को दहब्बो, मि. प. 64. आकोटापेति आ + कुट्ट के प्रेर. का वर्त., प्र. पु.. ए. व., पिटवाता है, बजवाता है - अातिकाय ... पुराणचीवरं धोवापेति रजापति आकोटापेति, पारा. 316; - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - ... युद्धभेरि आकोटापेन्तो तं ठानं अगमासि, जा. अट्ठ. 3.319; - त्वा पू. का. कृ. - ... बलिभेरि आकोटापेत्वा युद्धाय गतो, जा. अट्ठ. 3.138; - . पेय्य विधि.. प्र. पु.. ए. व. - यो पन भिक्खु अातिकाय भिक्खुनिया पुराणचीवरं धोवापेय्य वा रजापेय्य वा आकोटापेय्य वा, निस्सग्गिय पाचित्तियन्ति, पारा. 316. आकोटित त्रि., आ + कुट्ट का भू. क. कृ., पीटा गया, कूटा गया, प्रहार किया गया, खटखटाया गया -- तं पु., द्वि. वि., ए. व. - कंसथालं आकोटितं पच्छा अनुरवति अनुसन्दहति, मि. प. 64; ... चन्दफलके वा सारफलके वा आकोटितं विसमाणि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).403; आकोटितञ्चेव परिवत्तेत्वा पुनप्पुनं आकोटितञ्च, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.68; - तानि पु.. प्र. वि., ब. व., (लिङ्ग का विपर्यय)- ... तत्थ यानि तानि रुक्खानि दळहानि सारवन्तानि तानि कुठारिपासेन आकोटितानि कक्खळं पटिनदन्ति, अ. नि. 3(1).18; वासिया आकोटितखीररुक्खो विय अहोसि, जा. अट्ट, 1.290; - पच्चाकोटित त्रि., बार बार पीटा गया या पछाड़ा गया (वस्त्र) - तानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - ... भगवतो मातुच्छापुत्तो आकोटितपच्चाकोटितानि चीवरानि पारुपित्वा .... स. नि. 1(2).254. आकोटेति/आकोट्टेति आ +vकुट्ट के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [बौ. सं. आकोटयति]. 1. कूटता है, पीटता है, प्रहार करता है, चोट पहुंचाता है, रौंदता है - सत्तमयुगे ... आदाय सब्बपुरिमतो पट्ठाय पतोदलट्ठिया गोणे आकोटेति, ध. स. अट्ट, 128; - न्ति ब. व. - ब्राह्मणो च ... अञमचं आकोटेन्ति, पे. व. अट्ठ. 47; -- यन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - आकोटयन्तो ते नेति, सिविराजरस आख्यात/अक्खात पेक्खतो, जा. अट्ठ. 7.318; 326; - न्ती वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अथेका ... आदाय यहिया भूमि आकोटेन्ती आगच्छि, जा. अट्ट, 3.251; - टियमानो कर्म. वा. वर्त. कृ., आत्मने.. पु.. प्र. वि., ए. व. - रुक्खो ... छिद्दावछिद्दो वाते पहरन्ते आकोटियमानो विय अट्टासि, जा. अट्ठ. 3. 434; - हि अनु., म. पु., ए. व. - आकोटेहीति आणापेति, पारा. 316; - थ ब. व. - पाणिना आकोटेथ ... लेडुना ... दण्डेन ... सत्थेन ... ओधुनाथ सन्धुनाथ निद्भुनाथ, दी. नि. 2.250; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व. - यो आकोटेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा ति, चूळव. 259; - सि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - इमं भिक्खं आकोटेसी ति, चूळव. 358; आकोटेसीति उक्खित्तं फरसुं निग्गहेतुं असक्कोन्तो मनुस्सानं ... छिन्दि, पाचि. अट्ठ. 22; - सुंब. व. - पाणिना आकोटेसु ... ओधुनिसु सन्धुनिसुनिझुनिसु, दी. नि. 2.250; - तु निमि. कृ. - पाणिना आकोटेतुन्ति, महाव. 377; - त्वा पू. का. कृ. - चोरा इमे, नयिमे भिक्खूति-आकोटेत्वा पक्कमिंसु चूळव. 360; - त्वान उपरिवत् - आकोटयित्वानाति अप्पोठेत्वा, वि. व. अट्ठ. 269; - तब्बो सं. कृ.. पु.. प्र. वि., ए. व. - न च तेन सामणेरो आकोटेतब्बो, चूळव. 259; 2. खटखटा कर (द्वार के साथ)-... द्वारं आकोटेत्वा कुटुम्बिकस्स गेहं अगमासि. जा. अट्ठ. 1.233; 3. ठोकबजाकर (मिट्टी के बर्तनों के पक्केपन की जांच के लिए) - यथा पक्कभाजनेसु कुम्भकारो भिन्नछिन्नजज्जरानि पवाहेत्वा एकतो कत्वा सुपक्कानेव आकोटेत्वा आकोटेत्वा गण्हाति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.122. आकोमारं अ. [आकौमारं], बच्चों तक, कुमारों तक - आ कोमारा यसो कच्चायनस्स आकोमारं सद्द. 3.749. आखु पु.. [आखु]. बिल खोदने वाला चूहा - मूसिको त्वाखु उन्दुरो, अभि. प. 618. आखेटक पु., [आखेटक], शिकारी - खेटति, आखेटको खेटो 'उक्खेटितो, समुक्खेटितो पि, सद्द. 2.352. आख्या स्त्री., [आख्या], नाम, संज्ञा- सञआख्याव्हा समजा चाभिधानं नाममव्हयो, अभि. प. 114. आख्यात/अक्खात त्रि., [आख्यात]. शा. अ., सुप्रसिद्ध, विख्यात, कहा गया, उपदिष्ट - भासित लपित वुत्ताभिहिताख्यातजप्पिता, अभि. प. 755; स. उ. प. के रूप में, - स्वा., भली-भांति कहा गया, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट - ते सप्त. वि., ए.व. - होति यथा तं स्वाक्खाते धम्मविनये सुप्पवेदिते ..., म. नि. 1.97; ला. For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आख्यातकण्ड " अ. ( व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में), क्रिया, काल, पुरुष, वचन एवं वाच्य के अर्थों को प्रकाशित करने वाला पद, क्रियापद - किरियं अक्खायती आख्यातं किरियापद, सद्द. 3.811; 'किरियं आख्याति कथेती ति आख्यातं, सद्द. 2. 326; तेन तृ. वि. ए. क. - अयं अभिहितकत्ता आख्यातेन कथितत्ता सद. 3.691 स्सष. वि. ए. व. -क्रियाभिधानता एवं आख्यातस्रोव लक्खणं सद्द. 1.25 तो प. वि., ए. व. आख्याततो व नामपदतो च वचनस्स... सेकारागमो होति, सद्द. 3.842; - ते सप्त. वि. ए. व. स्यादयो नामे, त्यादयो आख्याते, सद. 3.642:- सु व. व. अविभत्तिकनिद्देसो नामिकेसुपलब्धति, नाख्यातेसू ति विज्ञेय्य सद. 1.15. आख्यातकण्ड पु.. रू. सि. के छठे अध्याय का शीर्षक (ए. ग्रूनवेडेल द्वारा संपादित तथा 1883 ई. में बर्लिन से प्रकाशित). -- आख्यातकप्प पु०, 1. क. व्या. के छठे अध्याय का शीर्षक, इसमें 408 से 525 तक संख्या वाले सूत्र अन्तर्भूत हैं: 2. स. के पच्चीसवें परिच्छेद का शीर्षक, सद्द 3.811-844; स्मिं सप्त, वि०, ए. व. सो पनाख्यातकप्पस्मिं वित्थारेनागमिस्सतीति सर. 1.3. आख्यात त्रि. [आख्यातज्ञ] आख्यात या क्रिया के प्रयोगों में कुशल - हि तृ. वि., ब. व. - धीरेहि आख्यातञ्जूहि लक्खितं, सद्द. 1.25. आख्यातत्त नपुं, भाव. [आख्यातत्व] आख्यात होना, क्रियासूचक पद होना तं प्र. वि. ए. व. - एत्था पि आख्याततं विगच्छति स 3.831 ते सप्त. वि. ए. व. गहादितो यथारह आख्यातते नामते च प्प पहा. सह. www.kobatirth.org - - - 3.825. आख्यातपच्चय पु. तत्पु. स. [आख्यातप्रत्यय ] क्रि. रू. बनाने वाले ति न्ति आदि प्रत्यय तथा भू-आदि-गणों के विकरण-प्रत्यय या प्र० वि०, ब० व. तत्रापि आख्यातपच्चया दुविधा विकरणपच्चय नोविकरणपच्चयवसेन् सद्द. 1.2. आख्यातपद नपुं॰, तत्पु० स० [आख्यातपद], क्रिया, काल, पुरुष, वचन एवं वाच्य के अर्थों को कहने वाला क्रियापद दं प्र. वि., ए. व. फुसति वेदयति विजानातीति एवमादिकं किरियापधानं आख्यातपदं नेत्ति, अट्ठ. 163, विहरतीति एस्थ वीति उपसग्गपद, हरतीति आख्यातपदन्ति म. नि. अड. (भू.प.) 1 ( 1 ) 5: - देन 22 आख्यातिकपद 1.21. तृ. वि. ए. क. तत्थ पठमपुरिसो आख्यातपदेन तुल्याधिकरणे ..... सद्द आख्यातभाव पु. आख्यात का भाव. [आख्यातभाव]. क्रियापद होने की अवस्था - वो प्र. वि., ए. व. - अञ्ञासिकोण्डञ ति नामं एत्थ हि आख्यातभावो अन्तरघायति सद. 3831. आख्यातविभत्ति स्त्री० तत्पु० स० [ आख्यातविभक्ति], क्रिया के कालों, पुरुषों, वचनों आदि को विभाजित करके प्रकाशित करने वाले प्रत्यय या विभक्ति-चिह्न ति न्ति आदि आख्यातप्रत्यय यो प्र. वि. ब. व. दसधा आख्यातविभत्तियो उपिता सद. 1.56. आख्यातसद पु. तत्पु. स. [आख्यातशब्द ] धातुओं से निष्पन्न तथा क्रिया आदि को कहने वाला शब्द स्स प वि., ए. व. भू धातुतो निप्फन्नाख्यातसद्दस्स नेव विसेसकरो, - — Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सद्द. 1.4. आख्यातसागर पु०, तत्पु० स० [आख्यातसागर ]. क्रिया-पदों का सागर, अत्यधिक संख्या में क्रियापदों से परिपूर्ण - रं द्वि. वि. ए. क. - आख्यातसागरमथज्जतनीतरङ्ग क. व्या. 3.1. आख्याति आ + √ख्या का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ आख्याति ], कहता है, घोषणा करता है, विज्ञापित करता है तत्थ किरियं अक्खायतीति आख्यातं किरियापद, सद्द० 3.811; पाटा अक्खायतीति - - आख्यातिक त्रि.. [आख्यातिक], कालों, वाच्यों एवं पुरुषों का आख्यान या कथन करने वाला (क्रियापद) के नपुं. प्र. वि. ए. व. किरियालक्खणं आख्यातिकं अलिङ्गभेदइति, सद्द० 1.27; - स्सष. वि., ए. व. तत्र आख्यातिकस्स किरियालक्खणत्तसूचिका त्यादयो विभत्तियो, सद. 1.13: - के सप्त. वि. ए. व. तथा प्याख्याति तस्स तब्बोहारों निरुत्तियं, सद्द० 1.21; का पु०, प्र. वि., ब.व. कत्थचाख्यातिका होन्ति कत्थथि पन नामिका. सह. 1.181. आख्यातिकपद नपुं. कर्म. स. [आख्यातिकपद]. क्रियापद. कालों, वाच्यों एवं पुरुषों का अर्थ कहने वाला 'गच्छति' आदि पद दं प्र. वि., ए. व. चाख्यातिकपदं तिकारक, सद. 1.10: आख्यातिकपदं नाम सकम्मकम्मकं For Private and Personal Use Only - सद्द० 1.12; तो प.वि., ए. व. यं आदिसु कत्थचि पनाख्यातिकपदतो, सद्द. 2.511; - दे सप्त. वि., ए. व. आख्यातिकपदे भावकारकवोहारो निरुत्तिनयं निस्साय गतो, सद. 1.10 दानि प्र. वि. ब.व.तरमा प्रतीति आदीनि आख्यातिकपदानि दिद्वानि येव www Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आख्यान होन्ति नयवसेन, सद्द. 2351; दानं ष. वि., ब. क. - असम्बन्धनीयत्ता आख्यातिकपदानं सद्द. 1.7. आख्यान नपुं., आ + √ख्या से व्यु० क्रि० ना. [आख्यान ], कथन, विज्ञापन, संसूचन, उद्घोषणा – नं प्र. वि., ए. व. " चेतना सञ्ञानं आख्यानं कथनं, सद्द 2.542; तं खो पनाति इत्थम्भूताख्यानत्धे उपयोगवचनं सु. नि. अड. 2.147. आख्यानिका स्त्री. [आख्यानिका ], ग्यारह वर्णमात्रा वाला एक अर्धसमवृत्त छन्द, जिसके प्रथम एवं तृतीय पादों में दो तगण. एक जगण तथा दो गुरु वर्ण हों तथा द्वितीय एवं चतुर्थ पादों में एक जगण एक तगण, फिर एक जगण तथा दो गुरु वर्ण हो आख्यानिका ता विसमे जगा गो जता जगा गो तु समेथ पादे, वुत्तो. 111. आख्यायिका स्त्री. [आख्यायिका ]. कहानी कथा ऐतिहासिक कथा आख्यायिकोपलद्धत्था पबन्धकप्पना कथा, अभि. - - - - प. 113. " आगच्छति आ + गम का बर्त. प्र. पु. ए. व. [आगच्छति]. शा. अ. आता है, आ पहुंचता है, समीप में आ जाता है, वापस लौट कर आ जाता है किं नु खो महासमणो नागच्छतीति ?, महाव, 33 सिम. पु. ए. व. कुतो च त्वं भिक्खु, आगच्छसी ति पारा. 227 दी. नि. 2.254: च्छामि उ. पु. ए. व. "नाह, भन्ते पादेनागच्छामि, रथेनाहं आगतोरमी 'ति मि. प. 23- न्ति प्र. पु. ब. व. - नो चे आगच्छन्ति, अज्ज मे उपोसथोति अधिद्वातब्बो, महाव. 157; च्छाम उ. पु. ब. व. याव मयं आगच्छाम ताव... इधेव वसाति जा. अड. 4.3; - च्छ / च्छाहि अनु. म. पु. ए. व. तं जीविता वोरोपेत्वा इमिना मग्गेन आगच्छा ति चूळव. 329; आगच्छाहीत वत्तब्बो महाव. 120 तु प्र. पु. ए. व. यस्सायस्मतो अत्थो सो आगच्छतूति, महाव. 100, 117; यो तस्स भगवतो धम्मं रोचेसि सो आगच्छतुति, चूळव. 340 थ म० पु०, ब० व. ते जीविता वोरोपेत्वा इमिना मग्गेन आगच्छथाति चूळव, 329; मम पच्छतो आगच्छथाति पुरतो अहोसि, ध. प. अ. 2.404 - च्छेय्य विधि. प्र. पु. ए. व. इध पुरिसो आगच्छेय्य उक्खित्तासिको, म. नि. च्छेय्यासि म. पु. ए. व. - "त्वं तत्थ आगच्छेप्यासीति सङ्केतं कत्या अगमासि ध. प. अ. 1.359; च्छेय्यं उ० पु०, ए. व. सुणित्वा आगच्छेय्यन्ति ध. प. अट्ठ. 2.63; - च्छेय्युं प्र. पु. ब. व. ते विवदमाना तब सन्तिके आगच्छेप्यु. मि. 2.46; गन्त्वा... धम्मस्स - www.kobatirth.org - 23 - आगच्छति प॰ 46; न्तो वर्त. कृ. पु. प्र. वि. ए. व. - अञ्ञतरो पुरिसो तस्स सकटसत्थस्स पिद्धितो पिडितो आगच्छन्तो येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमि दी. नि. 2.99; सो एकदिवसं न्हानतित्थं न्हत्वा नत्वा आगच्छन्तो ध. प. अ. 1.3 - न्तं उपरिवत् द्वि. वि. ए. व. - अदसंसु खो... दूरतोव आगच्छन्तं महाव. 12:न्तिया उपरिवत् स्त्री. ष. वि. ए. व. - चण्डकाली.. भिक्खुनिया आगच्छन्तिया पाचि. 308 मानं वर्त. कृ., आत्मने, पु., द्वि. वि., ए. व. धम्मं देसेन्तो तं आगच्छमानं ** - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अद्दस... ध. प. अट्ठ. 1.392; • माना पु०, प्र. वि., ब. व. आगच्छमाना च ते भिक्खू अत्तनोव इद्धिया आगच्छिंसु, सु. नि. अड्ड. 2.83 - आगा / आग / आगमा / आगमि / आगच्छि / आगच्छ अद्य.. प्र. पु. ए. व.. वह आया, वापस आया, समीप में पहुंचा अनहितो ततो आगा जा. अड. 3.142, आगाति अम्हाकं गेहं आगतो, तदे. कुम्भीरो राजगहिको, सोपागा समितिं वनं दी. नि. 2.188; यदा च सरसम्पन्नो मोरो बावेरुमागमा जा. अट्ट. 3.108: 'अत्याय वत मे बुद्धो वासायाळविभागमा सु. नि. 193 "सद्दिपित्वान तं मग्गं खियं सावत्थिमागमीति ध. प. अड. 1.12; अत्थाय वत मे अज्ज, इधागच्छि रथेसभो, जा. अट्ठ. 4.336; आगच्छते सन्तिके नागराजा सु. नि. 381; आगा / आगमा / आगमि अद्य, म० पु०, ए. व. समुग्गहीतेसु पमोहमागा. सु. नि. 847; इथागमा ब्रह्मे तदिव ब्रूहीति जा. अड. 3.303 मा त्वं नलाटेन मच्चुं गहेत्वा आगमि. जा. अट्ठ आगमं / आगमासिं / आगमिं / आगच्छिं अद्य., उ० पु०, ए. व. कङ्क्षी वेचिकिच्छी आगम, सु. नि. 515 ओघातिगं पुडुमकाममागमं सु. नि. 1102 अकाममागमन्ति निक्काम भगवन्तं पुच्छितु आगतोम्हि सु. नि. अड. 2.290 नयिमं लोकं पुनागमासिं, अ. नि. 2 ( 2 ) 227, एकाहं धारयित्वान भवनं पुनरागमिं, अप. 2.99; तम्हा काया चवित्वान, आगच्छिं तिदसं पुरं अप. 1.286 - आगू / आगुं / आगमुं / आगमंसु / आगच्छु / आगच्छिंसु अय., प्र. पु. ब. व. - यामुना धतरट्ठा च आगू नागा यसस्सिनो दी. नि. 2.190 अभ्यागुं नागसा नागा, तदे अथागमुं सोळस भोजपुत्ता, जा. अ. 5.166 अथागमुन्ति मम सन्तिकं आगता, जा. अड. 5.167-168: सहिसहस्सा राजानो... सन्तिकं आगमंसु जा. अट्ठ 7.273 सब्बै जना समागम्म, आगच्छु मम सन्तिक अप. 2.45; "मयं मागण्डियाय आतका ति 5.219; o, - - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगच्छति आगत आगछिसु, ध. प. अट्ठ. 1.127; - आगमित्थ अद्य., म. पु., ब. व. - "रोहिनि, कस्मा नागमित्था ति, ध, प, अट्ठ.. 2.174; (वचन-विपर्यय); - आगम्ह/आगम्हा/आगमम्ह /आगमिम्ह अद्य., उ. पु.. ब. व. - यं तं सरणमागम्ह, इतो अट्ठमि चक्खुम, सु. नि. 575; न रक्खसीन वसमागमिम्हसे, जा. अट्ठ. 1.449; - मिस्सति/ मेस्सति/च्छिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - यो इमाहि चतुहि दिसाहि आगमिरसति समणो वा..., दी. नि. 1.89%; जातकापिस्स 'पच्छतो आगमिस्सतीति सआय यानं पाजेन्ता गमिंसु, ध. प. अट्ठ. 1.354; सो च मया भगवा निमन्तितो इमिना मग्गेन आगच्छिस्सती ति, चूळव. 286; - स्ससि म. पु., ए. व. - मझे ओक्कन्तसत्तं ... माताय आगमिस्ससि, जा. अट्ठ. 6.252; - मिस्सं/च्छिस्सामि उ. पु., ए. व. - न चापि ते अस्सममागमिस्सं. पारा. 226; तेन सद्धिं आगच्छिस्सामि, ध. प. अट्ट, 1.9; पत्तचीवर पटिच्छापेत्वा आगच्छिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 3.408; - मिस्सन्ति/च्छिस्सन्ति प्र. पु., ब. व. - सचेपि एततो भिय्यो, आगमिस्सन्ति इत्थियो, स. नि. 1(1).215; कथव्हि नाम भदन्ता मया पहिते न आगच्छिरसन्ति, महाव. 183; - मिस्साम/च्छिस्साम उ. प., ब. व. - मयं पच्छतो सणिकं आगमिस्सामा ति... अहोसि, ध. प. अट्ट, 1.354; - न्तुं/च्छितुं निमि. कृ. - अचेलो ... मम सम्मुखीभावं आगन्तुं.... दी. नि. 3.9; न इमं पदेसं अरहति आगच्छितुन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.140; - आगम्म/आगन्त्वा /आगन्त्वान पू. का. कृ. - दिवा च आगन्त्वा अतिवेलचारी, स. नि. 1(1).232; ... येन मे आगन्त्वा आरोचेय्याथ दी. नि. 2.240; गामा अरञमागम्म, ततो गेहं उपाविसि. थेरगा. 34; द्वारबाहासु तिद्वन्ति, आगन्वान सकं घर ख. पा. 7.1; - गन्तब्ब/गमनीय सं. कृ. - न, भिक्खवे, एकतो आगन्तब्ब, महाव. 120; आगमनियेन कथिते पन सञतो वा फस्सो..., स. नि. अट्ठ. 3.137; ला. अ., (किसी स्थिति को या अवस्था को) प्राप्त करता है, घटित होता है, जन्म को प्राप्त करता है, आ पहुंचता है - यं अञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति, दी. नि. 1.16: .... मे तं भयभेरवं आगच्छति, म. नि. 1.27; पुरा में सो धम्मो आगच्छति अनिट्ठो अकन्तो अमनापो..., अ. नि. 2(1).96%3; - ते उपरिवत्, आत्मने. - पुरा आगच्छते एतं, अनागतं महब्भयं, थेरगा. 978; - सि म. पु., ए. व. - सचे त्वं सत्तरत्तेन नागच्छसि ममन्तिके, जा. अट्ठ. 6.252; -न्ति प्र. पु.. ब. व. - ततो चुता इत्थत्तं आगच्छन्ति, अ. नि. 2(1).28; - थ म. पु.. ब. व. - देवानमागच्छथ पारिचरिय दी. नि. 2.201; - च्छेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - न च, वत, नो जाति आगच्छेय्या ति, म. नि. 3.299; - मेय्यासि म. पु., ए. व. - यत्थ पपतेय्यासि तत्थेव मरणं आगमेय्यासि. स. नि. 3(2).427; - च्छेय्युं प्र. पु., ब. क. – “न च वत नो सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासधम्मा आगच्छेय्युन्ति, दी. नि. 2.230; - माना वर्त. कृ., स्त्री., प्र. पु.. ए. व. - आगच्छमाना कस्स आगताति, जा. अट्ठ. 1.139; - गमा/गमासि अद्य., प्र. पु., ए. व. - .... मा कञ्चि पापमागमा ति, जा. अट्ठ. 2.121; मा कञ्चि पापमागमा ति एतेसु कञ्चि एकं सत्तम्पि पापं लामकं दुक्खं मा आगमा, मा आगच्छतु, मा पापुणातु ..., तदे.; ततो चुताहं वेदेह, वज्जीसु कुलमागमा, जा. अट्ठ. 7.126; "तस्मा अहंपोसथं पालयामि, रागो ममं मा पुनरागमासी ति, जा. अट्ठ. 4.294; धातुयो दुक्खतो दिस्वा, मा जाति पुनरागमि, थेरीगा. 14; - गमिम्ह उ. पु., ब. व. - पुनो सब्बे मनुस्सत्तं, अगमिम्ह ततो चुता, अप. 2.117; पाठा. अगमिम्ह - गमिस्सति/गच्छिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - आगमिस्सति मे पापं, आगमिस्सति मे भय, जा. अट्ठ. 3.370; ... भयन्ति चित्तुत्रासभयम्पि मे आगमिस्सति, न सक्का नागन्तुं जा. अट्ठ, 3.370; एकच्चो मनापा नु खो मे यागु आगच्छिस्सति मनापं अन्तरखज्जकान्ति वा तण्हापरितस्सनाय परितस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.276; - मिस्सन्ति प्र. पु., ब. व. - "इमस्सापि मे अत्तभावस्स एवमेव जराब्याधिमरणानि आगमिस्सन्ती ति अत्तभावं अनिच्चतो परिस, ध. प. अट्ठ. 2.64; - न्तुं निमि. कृ. - भयन्ति चित्तुत्रासभयम्पि मे आगमिस्सति, न सक्का नागन्तु, जा. अट्ठ. 3.370; - न्त्वा/न्त्वान पू. का. कृ. - देवलोका इधागन्त्वा, मातुकुच्छि उपागते, अप. 1. __359; आगन्त्वान मनुस्सत्तं, सोणो नाम भविस्सति, अप. 1.93. आगत' शा. अ. 1. त्रि., आ + गम का भू, क. कृ. [आगत], वह, जो कहीं पर आ चुका है या पहुंच चुका है, पहुंचा हुआ, आ चुका, रास्ता पार कर चुका - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - कतमेन त्वं महासमण, मग्गेन आगतो, महाव. 35; त्यस्सु यदा म जानन्ति, सक्को'देवानमागतो, दी. नि. 2.212अप्पकिलमथेन च अहं, भन्ते, अद्धानं आगतो, चूळव. 24; सोहं सक्को सहस्सक्खो, आगतोस्मि For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगत 25 आगतमग्गाभिमुख तवन्तिके, जा. अट्ठ. 4.288; शा. अ. 2. नपुं.. आगमन, आना - तं प्र. वि., ए. व. - "आगच्छन्तु भिक्खू इच्छामि भिक्खूनं आगत न्ति, महाव. 187; तत्थ स्वागतन्ति सुआगमनं म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.162; - कारण नपुं.. तत्पु. स. [आगमनकारण]. आगमन का कारण - ... अत्तनो आगतकारणं कथेत्वा .... मि. प. 16; - नन्दन त्रि., वह, जिसका आगमन आनन्ददायक हो- नो पु., प्र. वि., ए. व. - तादिसो त्वं आगतनन्दनो गमनसोचनो, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.162; - पटिपाटी स्त्री., तत्पु. स., आगमन का क्रम -टिया तृ. वि., ए. व. - "कथं नु खो चीवर पटिवीसो दातब्बो, आगतपटिपाटिया नु खो उदाहु यथा वुड्डान्ति, महाव. 370; - वेला स्त्री., तत्पु. स... [आगमनवेला], आ पहुंचने का समय - यं सप्त. वि., ए. व. - एवं सन्तेपि यथा बोधिमण्डे मारो आगतवेलायमेव निवत्तो..... स. नि. अट्ठ. 1.283; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट., सा., स्वा., दुरा., अदुरा. के अन्त; शा. अ. 3. त्रि., वापस आया हुआ, प्रत्यावर्तित - तो पु., प्र. पु.. ए. व. - “सोहं एतादिसं हित्वा, पुआयम्हि इधागतो ...', जा. अट्ठ. 4.321; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - चिरप्पवासिं पुरिसं, दूरतो सोत्थिमागतं, ध. प. 219; ला. अ. 1. यहां पर विद्यमान, इस समय तक यहां पर पहुंचा हुआ, किसी विशेष स्थिति या दशा में पड़ा हआ, अपने ऊपर आ पड़ा - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - वे पुग्गला बाला- यो च अनागतं भारं वहति, यो च आगतं भारं न वहति, परि. 240; आगतं भारं न वहतीति थेरो थेरकिच्चन करोति, परि. अट्ठ. 163; थेरो समानो... आगतं भारं न वहति नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.56; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आगतो इमं सद्धम्मन्ति, म. नि. 1.59; अधुनागतो इमं धम्मविनयं ....ध. प. अट्ठ. 1.54; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - कथं पनिमे विहङ्गा, तव हत्थत्तमागता, जा. अट्ठ. 5.3; ला. अ. 2. पुनर्जन्म को प्राप्त - स्स ष. वि., ए. व. - यस्स मग्गं न जानासि, आगतस्स गतस्स वा, थेरगा. 127; 128; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - दीपङ्करस्स ... पादमूले ... अभिनीहारसमिद्धितो पभुति तथागतो ... अमञ्चन्तोयेव आगतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).1203; अथ किञ्चरहि इधागतो? स. नि. 1(1).176; ला. अ. 3. किसी पर आ पड़ा, घटित, किसी के द्वारा प्राप्त किया गया - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तप्पक्खतो हि भयमागतं मम, जा. अट्ठ, 5.73; ... इच्चस्स एवमागत होति. म. नि. 3.339; - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आगच्छमाना कस्स आगताति, जा. अट्ठ. 1.139; स. उ. प. के रूप में उञ्छापत्ता. एवं उस्मा. के अन्त. द्रष्ट.; ला. अ. 4. परम्परा से चला आ रहा, पारम्परिक, समुद्घाटित या प्रकाशित, कण्ठस्थ किया हुआ, समझ में आया हुआ, पूर्ण रूप से जाना हुआ- तानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - तीणि पिटकानि सह पटिसम्भिदाहियेव आगतानि, ध. प. अट्ठ. 1.141; - तं ए. व. - इमस्स नेव सुत्तं आगतं होति, नो सुत्तविभङ्गो, चूळव. 208; तस्स पब्बज्जाविधान पाळिय आगतमेव, अ. नि. अट्ठ. 1.236; स. उ. प. के रूप में अधुना., अभिनवा., काला०, देसा., अन्वया., कुलवंसा., परम्परा., अनुक्कमा., सुत्ता. के अन्त. द्रष्ट; - ठान नपुं.. कर्म. स. [आगतस्थान], परम्परा में प्राप्त स्थल या सन्दर्भ - नं द्वि. वि., ए. व. - ते भिक्खू देसनाय नेव आगतवानं न गतवानं अद्दसंसु, अ. नि. अट्ठ. 2.229; – ने सप्त. वि., ए. व. - चतूसु मग्गेसु आणन्ति आगतट्ठाने मग्गो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).59. आगतपाक पु., [आगतपाक], एक दानदाता, जो आने वाले अतिथियों को उनकी रुचि के अनुसार भोजनों का दान दिया करता था - को प्र. वि., ए. व. - एको अत्तनो दानग्गे आगतागतजनं पुच्छित्वा यागुखज्जकादीसु यस्स यं पटिभाति, तस्स तं अदासि, तस्स तेनेव कारणेन आगतपाकोति नामं जातं, अ. नि. अट्ठ. 1.194-95. आगतपुब्ब त्रि., ब. स. [आगतपूर्व], वह स्थान, जहां कोई पहले भी आ चुका है, पूर्वकाल में देखा जा चुका स्थान -ब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आगतपुब्बा नु खो, भन्ते, तेन अय्येन सावत्थी ति? महाव. 384. आगतफल त्रि., ब. स. [आगतफल], वह, जिसने पहले ही फल का लाभ पा लिया है, फल को प्राप्त कर चुका/चुकी, आर्यफल को प्राप्त कर चुका - ला स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सद्धेय्यवचसा नाम आगतफला अभिसमेताविनी विज्ञातसासना, पारा. 294; तत्थ आगतं फलं अस्साति आगतफला पटिलद्धसोतापत्तिफलाति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.195; - लो पु.. प्र. वि., ए. व. - यो सो, महानाम, अरियसावको आगतफलो विआतसासनो, अ. नि. 2(2).6%3B अरियफलं अस्स आगतन्ति आगतफलो. अ. नि. अट्ठ. 3.91. आगतमग्गाभिमुख त्रि., तत्पु. स. [आगतमार्गाभिमुख]. जिस मार्ग से होकर आया है उसी की ओर मुड़ा हुआ, पार For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगतविस 26 आगन्ता किए हुए मार्ग की ओर अभिमुख - खं पु., वि. वि., ए. व. - ... रथं निवत्तापेत्वा आगतमग्गाभिमुखं कत्वा..., जा. अट्ठ. 7.367; - खी स्त्री, प्र. वि., ए. व. - सा इथिमायाकुसलताय तापसं अनुपसङ्कमित्वा आगतमग्गाभिमुखी पायासि, जा. अट्ठ. 5.152; - नि नपुं., प्र. वि., ब. व. - ... रथसहस्सानि आगतमग्गाभिमुखानेव ठपापेत्वा ..., जा. अट्ठ. 7.365. आगतविस त्रि., ब. स. [आगतविष], तीव्र विष वाला (सर्प), चार प्रकार के तेज विष वाले सर्पो या उनके समान मनुष्यों में से एक, जिसका विष तुरन्त आ जाता है या चढ़ जाता है परन्तु लम्बे समय तक पीड़ित नहीं करता – सं पु., द्वि. वि., ए. व. - तत्थ आसीविसम्पि में सन्तन्ति में आगतविसं समानं, जा. अट्ट. 2.200; - सो पु., प्र. वि., ए. व. -- आगतविसो न घोरविसो, घोरविसो न आगतविसो, आगतविसो च घोरविसो च, नेवागतविसो न घोरविसो. ... चत्तारो आसीविसा, अ. नि. 1(2).127; ... आसीविसो ताव यरस विसं आसु आगच्छति सीघं फरति, घोर पन न होति, चिरकालं न पीळेति- अयं आगतविसो नो घोरविसो ..., प. प. अट्ठ. 74; दसमे आगतविसो न घोरविसोति यस्स विसं आगच्छति, घोरं पन न होति, चिरकालं न पीळेति, अ. नि. अट्ठ. 2.323. आगतागम त्रि., ब. स. [आगतागम], आगमों का पूर्ण ज्ञान पा चुका व्यक्ति, आगमों में पूर्णरूप से निष्णात - मो पु., प्र. वि., ए. व. - "एसो खो, महाराज, उपासको बहुस्सुतो आगतागमो कामेसु वीतरागो ति, पाचि. 209; - मा ब. व. - आगतागमाति दीघादीस यो कोचि आगमो आगतो एतेसन्ति आगतागमा, अ. नि. अट्ठ. 3.121; ... पञ्च निकाया पञ्च आगमा नाम, एतेसु आगमेसु येसं एकोपि आगमो आगतो पगुणो पवत्तितो, ते आगतागमा नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.89; ... बहुस्सुता आगतागमा धम्मधरा विनय रा मातिकाधरा .... दी. नि. 2.95. आगति स्त्री., सदा गति के साथ ही प्रयुक्त [आगति], शा. अ., आगमन, आने की क्रिया - तिं द्वि. वि., ए. व. - ... न च नेसं जानाम आगतिं वा गतिं वा, म. नि. 1.211; आगतिं वा गतिं वाति इमिना नाम ठानेन आगच्छन्ति, अमुत्र गच्छन्तीति इदं नेसं न जानाम, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).65; ला. अ., पुनर्जन्म, भवचक्र में आगमन (मृत्यु अर्थ वाले गति के साथ) - ..., अङ्गीरसस्स गतिं आगतिं वा, पे. व. 279; सो मं अवेदी गतिमागतिञ्च, जा. अट्ठ. 4.295; सो मं अवेदीति सो मम इदानि गन्तबहानञ्च गतद्वानञ्च .... सब्ब मं... कथेसीति अत्थो, जा. अट्ट, 4.296; - ति प्र. वि., ए. व. - अथ खो यावता सत्तानं आगति गति चुति उपपत्ति सब्बेसं सत्तानं जराधम्मं जीरति, अ. नि. 2(1).51; नतिया असति आगतिगति न होति, म. नि. 3.319; - गति स्त्री., द्व. स. [आगतिगति], शा. अ., आगमन एवं गमन, ला. अ.. जन्म एवं मृत्यु - ति प्र. वि., ए. व. --- नतिया असति आगतिगति न होति, उदा. 165; आगतिगति न होतीति पटिसन्धिवसेन इध आगति आगमनं चुतिवसेन गति इतो परलोकगमनं पेच्चभावो न होति न पवत्तति, उदा. अट्ठ. 323; - या सप्त. वि., ए. व. -- आगतिगतिया असति चुतूपपातो न होति, उदा. 165. आगद/आगदन पु./नपुं., आ +vगद से व्यु., क्रि. ना. [आगद], स्पष्ट रूप से बोला गया वचन, वाणी, कथन, तथागत शब्द के आठ प्रकार के निर्वचनों में से छठे निर्वचन के सन्दर्भ में प्रयुक्त - दो पु., प्र. वि., ए. व. - गदत्थो हेत्थ गतसद्दो, एवं तथवादिताय तथागतो, अपि च आगदनं आगदो, वचनन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.62; यञ्च तथेव होति, तस्स गदनतो च "तथागतो"ति वुच्चति, खु. पा. अट्ठ. 155; टि. - अट्ट के अनुसार तथागत के उ. प. में प्रयुक्त 'गत' शब्द 'गद' का अर्थ प्रकाशित करता है, फलस्वरूप जो धर्म वस्तुतः जैसा है, उसे उसी रूप में बोलने वाला ही 'तथागत' (तथागद) कहलाता है. आगन्तब्बता/आगन्तब्बट्ठानता स्त्री., निब्बान के सन्दर्भ में प्रयुक्त, आ + गम के सं. कृ. का भाव [आगन्तव्यत्व, नपुं./आगन्तव्यस्थानत्व, नपुं.], शा. अ., आगमन-योग्य दशा में होना, ला. अ., संसार में आने योग्य अर्थात् जन्म ग्रहण करने योग्य रहना - य तृ. वि., ए. व. - एवं तस्मिम्पि आयतने निब्बाने कुतोचि आगतिं आगमनं नेव वदामि आगन्तबहानताय अभावतो, उदा. अट्ट. 318; तम्पि आयतनं गामन्तरतो गामन्तरं विय न आगन्तब्बताय न आगति, उदा. अट्ठ. 318. आगन्ता आ + गम का क. ना., पु.. प्र. वि., ए. व. [आगन्ता], शा. अ., आगे आने वाला, आ पहुंचने वाला - ता पु.. प्र. वि., ए. व. - इदानि सो इधागन्त्वा , अतिथी युत्तसेवको, जा. अट्ट, 2.345; अप. आगन्त्वा; इदानि कतिपाहस्सेव सो... इध अतिथि हुत्वा आगतो भविस्सति, तदे.; ला. अ., पुनः आने वाला, पुनर्जन्म ग्रहण करने वाला - बह्मा आगन्ता इत्थत्तं, यदि वा अनागन्ता For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आगन्तु इत्यत्तन्ति, म. नि. 2.339; रो ब० व. अनागन्तारो इत्थत्तं म. नि. 2.338. आगन्तु पु. केवल गाथाओं में ही प्राप्त प्रायः आगन्तुक शब्द द्वारा व्याख्यात, क. नया-नया आने वाला, अपरिचित, अतिथि पुगे अतिथि आगन्तु पाहुना बेसिकाप्यथ अभि. प. 424 न्तुं द्वि. वि. ए. क. एवं यो सं निरंकत्वा, आगन्तु कुरुते पियं, जा. अड. 3.355... यो सकं पोराणं अज्झत्तिकं जनं नीहरित्या पहाय... आगन्तुकं पियं करोति जा. अड. 3,356, ख. बाहरी स्थूल, आकस्मिक ना पु. / नपुं. तृ. वि. ए. व. आगन्तुना दुक्खसुखेन फुट्टो जा. अ. 6.186, आगन्तुनाति न अज्झत्तिकेन, तदे... आगन्तुक त्रि.. आगन्तु से व्यु [आगन्तुक ]. शा. अ.. अकस्मात या अपने आप आ पहुंचने वाला, बिना बुलाए आने वाला, भूला भटका एकस्मि आगन्तुकमनुस्सानं वसनद्वान जा. अह 6.159 ला. अ.1. नवागन्तुक अपरिचित अतिथि, अभ्यागत का पु. प्र. वि. ब. व. - अथस्स... गतस्स आगन्तुका लद्धसक्कारा युज्झिरसन्तीति पोराणकयोधा न युज्झिंसु, जा. अट्ठ. 3.354; अतिथि नो ते होन्तीति ते अम्हाकं आगन्तुका नवका पाहुनका होन्तीति अत्थो दी. नि. अट्ट. 1.232; दुविधा हि आगन्तुका अतिथि अब्भागतोति. वि. व. अ. 18 - कागार / घर पु.. तत्पु. स० [आगन्तुकागार], अतिथियों या यात्रियों के ठहरने का स्थान, यात्री निवास, मुसाफिर खाना, धर्मशाला रं द्वि० वि. ए. व. सेप्यथापि, भिक्खवे, आगन्तुकागारं स. नि. 2 (2). 215; आगन्तुकागारन्ति पुञ्ञत्थिकेहि नगरमज्झे कतं आगन्तुकघरं यत्थ राजराजमहामत्तेहिपि सक्का होति निवासं उपगन्तुं स नि, अड. 3.173 दण्डक पु तत्पु, स. [ आगन्तुकदण्डक]. यात्रियों का डण्डा या छड़ी, चलनेफिरने के समय प्रयुक्त छड़ी के सप्त. वि. ए. व. महापातिष्यमाणं पुष्क आगन्तुकदण्डके उपेत्या छत्तं विय गहेत्या दी. नि. अड. 2.170 - पुरिस पु.. कर्म. स. [ अगन्तुकपुरुष] अकस्मात् आ गया पुरुष, पथिक राहगीर सो प्र. वि. ए. व. यथा व आगन्तुकपुरिसो अगतपुब्ब पदेसं गतो. विभ अड. 22 तं पुब्बे उप्पन्नानं आवज्जनादीनं गेहभूते चक्खुद्वारे आगन्तुकपुरिसो विय होति विभ. अट्ट 337; - भाव पु., [आगन्तुकभाव], अकस्मात् आ जाने की अवस्था, अपने आप पहुंच जाना- एवं 'आगन्तुकभाववसेन असम्मोहसम्पजज्जं वेदितब विभ. अड. 337; स. नि. अह. 3.224 ला. अ. 2. (विनय के विशेष सन्दर्भ में) COST - - www.kobatirth.org - देवा 27 आगन्तुक किसी विहार में आ पहुंचने वाला वह भिक्षु जो दूसरी सीमा में रहता है, तथा जो आवासिक, नेवासिक या गामिक भिक्षु नहीं है को पु.. प्र. वि. ए. व. आगन्त्वा गच्छती ति आगन्तुको (भिक्खु) क. व्या. 571 का ब.व.आगन्तुका भिक्खू उज्झायन्ति खिय्यन्ति विषाचेन्ति महाव, 147, 148; ते आगन्तुका भिक्खू नेवासिकेहि भिक्खुहि सद्धिं पटिसम्मोदमाना... म. नि. 2.129 कस्स पु... वि., ए. व. आगन्तुकस्स दानं देति गमिकस्स दानं देति, गिलानस्स दानं देति... अ. नि. 2 (1).36:- कानं ष. वि., आवासिका भिक्खू पस्सन्ति आगन्तुक न ... महाव. 173 किलमथो पु. प्र. वि. ए. व. तत्पु. स. [ आगन्तुकक्लमथ] मार्ग से चल कर आने में प्राप्त कष्ट या थकावट यो खो इमेसं आगन्तुकानं भिक्खून आगन्तुक किलमथो सो पटिप्पस्सद्धो महाव. 407 - थेर पु.. कर्म. स. [ आगन्तुकस्थविर] दूसरी सीमा से आने वाला अर्थात् उस विहार में निवास न करने वाला स्थविर ब. व. रानं च. वि. ब. व ते आगन्तुकथेरानं ओवादे ठत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहतं पापुणन्ति अ. नि. अड्ड. 3.161 - दान नपुं तत्पु. स. [आगन्तुकदान ] विहार के बाहर से आने वाले भिक्षुओं को दिया जाने वाला दान नं द्वि० वि., ए. व. राजगहवासिनो द्वेपि तयोपि बहूपि एकतो हुत्वा आगन्तुकदानं अदंसु, ध. प. अट्ठ. 1.46; पे. व. अ. 46; नानि प्र. वि. ब. व सत्तमे आतिथेय्यानीति आगन्तुकदानानि अ. नि. अड. 2.62 पटिसन्धार पु., तत्पु, स, आने वाले भिक्षु या अतिथि का सौहार्दपूर्ण प्र. वि., ए. व. आगन्तुकं पन भिक्खु दिस्वा आगन्तुकपटिसन्धारो कातब्बोव, विसुद्धि. 1.180 - भत्त नपुं तत्पु, स., विहार में बाहर से आए हुए भिक्षुओं के लिए दान में दिया गया भोजन तं प्र. वि. ए. व. स्वागत तेन पन पिण्डपातिकेन सङ्घभत्तं उद्देसभत्तं. आगन्तुकभत्तं वारकभत्तन्ति एतानि चुइस भत्तानि न सादितब्बानि विसुद्धि. 1.63 तं द्वि. वि. ए. व. इच्छामहं भन्ते, - सङ्घस्स यावजीवं वरिसकसाटिकं दातुं आगन्तुकभत्तं दातुं गमिकमत्तं दातुं महाव. 382: 'अधिवासेन्तु मे, भन्ते, थेरा स्वातनाय आगन्तुकभत्तन्ति चूलव 35:महाथेर पु.. कर्म. स. [आगन्तुकमहास्थविर] विहार में बाहर से आया हुआ महास्थविर, बाहर से आया हुआ वरिष्ठ सम्माननीय मिक्षुरा प्र. वि. व. व. आवासिका मयं एत्थुष्यन्न लाभं न लभाम्, निच्च आगन्तुकमहाघेराव लभन्ति चूळव For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आगन्तुक अड. 65 - वत्त नपुं. कर्म. स. [ आगन्तुकव्रत], बाहर से आने वाले भिक्षुओं के आचरण के लिए निर्धारित विनयनियम तं प्र. वि. ए. व. - वस्सावासे पन अतिथ आगन्तुकवत्तं, अतिथ आवासिकवतं चूळव, अट्ठ 67; इदं आगन्तुकवत्तं नाम जानितब्ब, जा. अट्ठ. 3.426 – विसय पु.. कर्म. स. [ आगन्तुकविषय] आनुषङ्गिक या गौण रूप से उपस्थित विषय आचरण में अव्यवहृत विषय येन - .... एवमेव आचिण्णविसये तस्स रागं आगन्तुकविसयेन नीहारित्वा... उदा. अह. 139 साला स्त्री, तत्पु, स. [ आगन्तुकशाला], बाहर से आने वालों या राहगीरों के विश्राम के लिए निर्मित आवास, पान्ध-निवास, धर्मशाला, मुसाफिर खाना यो हि. वि. ब. व. - आगन्तुकानमत्थाय आरामे द्वादसापि च तिसागन्तुकसालायो द्वे सतं चैव कारयि, चू. वं. 79.20; तथागन्तुकसालायो एकपञ्ञासमेव च चू. वं. 79.22; तथागन्तुकसालायो सत्तासीति अकारयि, चू. वं. 79.63 ला. अ. 3. त्रि.. बाह्य, अतिरिक्त, आकस्मिक, प्रासङ्गिक या गौणरूप से प्राप्त केहि पु. तृ. वि. ब. व. पभस्सरमिद, भिक्खवे, चितं तञ्च खो आगन्तुकेहि उपक्किलेसेहि उपक्किलिङ्क अ. नि. 1 ( 1 ) 13 कथा स्त्री. कर्म. स. [आगन्तुककथा]. प्रसङ्ग-प्राप्त विषय या मुख्य विषय से हटकर कही जा रही कोई दूसरी बात, अप्रासङ्गिक बात थं द्वि. वि., ए. व. बहिद्धा कथं अपनामेस्सतीति बहिद्धा अञ्ञ आगन्तुककथं आहरन्तो पुरिमकथं अपनामेस्सति अ. नि. अड. 2.174 एवं आगन्तुककथावसेन बहिद्धा कथं अपनामेतीति वेदितब्ब अ. नि. अ. 2.181 पट्ट पु. कर्म स. चीवर को सुसज्जित करने हेतु ऊपर से लगाई गई पट्टी द्वि. हं वि. ए. क. चीवरमण्डनत्थाय नानासुत्तकेहि सतपदीसदिसं सिब्बन्ता आगन्तुकपट्टे उपेन्ति पारा, अट्ठ 1.232 - भवङ्ग नपुं, कर्म. स. [आगन्तुकभवाङ्ग ], भवङ्गचित्त का एक प्रभेद, कामावचरभूमि के तृतीय कुशलचित्त के जवन-क्षण का असदृश विपाकचित्त - ङ्गं प्र. वि., ए. व. पटिसन्धिचित्तेन असदिसत्ता आगन्तुकभवङ्गन्ति च पुरिमनयेनेव तदारम्मणन्ति व. ध. स. अड. 308; इदम्पि वुत्तनयेनेव, 'आगन्तुकभवङ्गं' 'तदारम्मण'न्ति च द्वे नामानि लभति, तदे०; सन्धिया असमानत्ता, द्वे नामानिस्स लब्भरे, "आगन्तुकभवङ्ग"न्ति, "तदारम्मणक"न्ति च अभि. अव. 394; विशेष अर्थ द्रष्ट भवन के अन्त मल पु. कर्म. स. [आगन्तुकमल], बाहर से आ जाने वाला मैल, ऊपरी मैल - - www.kobatirth.org - 28 आगम व. लेहि तु. कि . . वत्थस्स आगन्तुकमलेहि किलिट्टभावो विय चित्तस्स रागादिमलेहि संकिलिट्टभावो, उदा. अट्ठ. 231; रज पु. / नपुं. कर्म. स. [आगन्तुकरजस्], बाहर से आई हुई धूल या गन्दगी बाहर से आई हुई मलिनता जं नपुं. प्र. वि. ए. व. रजन्ति आगन्तुकरजं, म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1(1).379; रजोति आगन्तुकरज, बु. वं. अट्ट० 127. आगन्तुकता स्त्री. भाव आगन्तुक होने की अवस्था य तृ. वि., ए. व. पच्चयवेकल्लताय आगन्तुकताय च रूपं न समुद्वापेति विभ, अह 22: ... आगन्तुकन्ति अत्तनो आगन्तुकतायपि रूपं न समुद्रापेति विभ. अ. 22 सुत्त नपुं. स. नि. 3(1) के बलकरणीयवग्गों के 11वें सुत्त का शीर्षक, स.नि. 3. (1), 62-63. आगन्त्वा द्रष्ट, आगच्छति के अन्त.. - आगम पु.. [आगम]. शा. अ. आगमन, आ पहुंचना प्राप्ति, उपलब्धि, पहुंच मो प्र. वि. ए. व. दहरस्स युविनो चापि, आगमो च न विज्जति, जा. अट्ठ. 4.95; चरेय्य खीरमत्तोव नत्थि मच्चुस्स आगमोति स. नि. 1 (1).128; नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो दी. नि. 1.46 म. नि. 2.194; ताहि सद्धिं रमन्तानं कथं दुक्खागमो सिया, सद्धम्मो . 249; माय च.वि., ए. व. तस्मा न सहे मरणागमायाति जा. अड्ड. 7.20; तत्थ मरणागमायाति मरणस्स आगमाय तदे: सधे च जत्रा अविसहमत्तनो न ते हि महं सुखागमाय जा. अड. 4.202: विशेष अर्थ क. वापस लौटाना, प्रत्यावर्तन, ऋण की वापसी कर्ज का भुगतान मो प्र. वि. ए. व. न पण्डिता तस्मिं इणं - ददन्ति न हि आगमो होति तथाविधम्हा जा. अनु. 7.135; - मं द्वि. वि., ए. व. अक्कोसति यथाकामं, आगमञ्चस्स इच्छति, जा. अड. 6.206 मे सप्त, वि. ए. व. - यदि पनाय्या आगमे जुण्हे वस्सं उपगच्छेय्यन्ति महाव. 182; विशेष अर्थ ख. जन्म, उत्पत्ति, मूल, किसी विशिष्ट धार्मिक परम्परा से सम्बद्ध शास्त्र या शाखा, परम्परागत धर्म-ग्रन्थ या सिद्धान्त, परम्परा, धार्मिक विषयों का ज्ञान, शास्त्र कुशलता... न आगमो पुच्छितब्बो परि. 311; न आगमोति "दीघभाणकोसि त्वं मज्झिमभाणको ति एवं आगमो न पुच्छितब्बो परि, अड. 208, अनुरसवा वुढतो आगमा वा जा. अट्ठ. 4.399; को दीघरतं सिप्पाचरियकुलं पयिरुपासित्वा आगमतो पयोगतो च हत्थिसिप्पादीसु किं सिप्पं सिक्खि, आगमो नाम अन्तमसो उदा. अट्ठ 165; For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगमन 29 आगमन ओपम्मवग्गमत्तस्सपि बुद्धवचनस्स परियापुणनं विसुद्धि. 2.69; स. उ. प. के रूप में अप्पा. तक्का ., विदिता., सुगता. के अन्त. द्रष्ट; - धर त्रि., [बौ. सं. आगमधर], केवल आगमों (शास्त्रों या पिटकों) का विशेषज्ञ - रो पु.. प्र. वि.ए. व. - “सीलवा लज्जी कुक्कुच्चको बहुस्सुतो आगमधरो वंसानुरक्खको ति, स. नि. अट्ट, 1.228; - रा ब. व. - अथागमधरा थेरा दीपे स्मि विरला इति, चू. वं. 84.26; विशेष अर्थ ग. धर्म-ग्रन्थ, पिटक, पांच निकाय - मो/मा प्र. वि., ए./ब. व. --- आगतागमाति एको निकायो एको आगमो नाम... पञ्च निकाया पञ्च आगमा नाम ..., अ. नि. अट्ठ. 2.89; आगतागमाति दीघादीसु यो कोचि आगमो आगतो एतेसन्ति आगतागमा, अ. नि. अट्ठ. 3.121; आगमने तु दीघादिनिकायस्मिं च आगमो, अभि. प. 951; स. उ. प. के रूप में द्रष्ट., आगता., अङ्गुत्तरा., मज्झिमा. के अन्त; - मट्ठकथा स्त्री., तत्पु. स., निकायों पर लिखी गई अट्ठकथा - यं सप्त. वि., ए. व. - आगमट्ठकथायं पन असद्धिये न कम्पतीति सद्धाबलान्ति आदि कुत्तं सद्द. 2.438; - सु ब. व. - अत्थं पकासयिस्सामि, आगमट्ठकथासुपि, ध. स. अट्ठ. 3; - पिटक नपुं. सुत्तपिटक का ही अन्य नाम, पांच निकायों अथवा आगमों का संग्रहभूत पिटक - कं द्वि. वि., ए. व. - आगमपिटकं नाम अकंसु सुत्तसम्मतं, दी. वं. 4.21; आगमपिटकं सब्बं सिक्खापेसि निरन्तरं दी. वं. 7.30; विशेष अर्थ घ. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, अतिरिक्त अक्षर का समावेश - तेसु वुद्धि-लोपागम-विकार-विपरीतादेसा च, सद्द. 3.8083; यवमदनतरळा चागमा, क. व्या. 35; गो सरे पुथस्सागमो क्वचि, क. व्या. 42; स. उ. प. के रूप में अनुनासिका., आदि., उत्तरा., मज्झा., वण्णा., सनिग्गहीता. के अन्त. द्रष्ट.. आगमन नपुं., आ + गम से व्यु., क्रि. ना. [आगमन], शा. अ. आना, बाहर से वापस आ जाना, आ पहुंचना - नं प्र. वि., ए. व. - महत्थियं आगमनं अहोसि, जा. अट्ट. 5.143; भवतं इदं इधागमनं स्वागतमेव, जा. अट्ठ. 5.345; तुम्हाकं ... आगमनं पच्चासीसन्तीति आह, ध. प. अट्ठ. 1.38; क. इध (यहां पर) के साथ अनेक स्थलों पर प्रयुक्त, यहां पर आगमन, यहां पर आना - नं प्र. वि., ए. व. - अत्थिकवतो खो पन ते अम्बट्ठ इधागमनं अहोसि, दी. नि. 1.79; ... ताव बहुकिच्चस्स बहुकरणीयस्स यदिदं इधागमनन्ति, दी. नि. 2.198; - नाय च. वि., ए. व. - इमं परियायं अकासि यदिदं इधागमनाय. म. नि. 1.321; ख. स. उ. प. के रूप में, गमना.- (सूर्य एवं चन्द्रमा का) जाना और आना, (अस्त होना एवं उदय होना) - नं प्र. वि., ए. व. - गमनागमनम्पि दिस्सति, वण्णधातु उभयेत्य वीथियो, जा. अट्ठ. 4.55; नरिन्दा.- [नरेन्द्रागमन], राजा का आगमन - नरिन्दागमनं वंसं, कित्तयिस्सं सुणाथ मे, दी. वं. 1.2 ला. अ. 1. वापस लौटकर आना, वापसी, प्रत्यावर्तन - सत्थापि सत्तप्पकरणानि देसेत्वा मनुस्सलोकं आगमनत्थाय आकप्पं दस्सेसि, अ. नि. अट्ट, 1.102; मिगवं गहेत्वा मुञ्चस्सु, कत्वा आगमनं पुन, ... कतं मे पोरिसादेन, मम आगमनं पुन, चरिया. 392; ला. अ.2. पुनर्जन्म, पुनः भव में आगमन, कर्मों का अनिवार्य प्रतिफल - नाय च वि., ए. व. - यस्स दरथजा न सन्ति केचि, ओरं आगमनाय पच्चयासे, सु. नि. 15; यस्स गमनं आगमनं गमनागमनं कालंगति भवाभवो चुति च उपपत्ति च निब्बत्ति च भेदो च जाति च जरामरणञ्च नत्थि ..., महानि. 232; - तो प. वि. - अयञ्च एतदग्गसन्निक्खेपो नाम चतूहि कारणेहि लमति अनुप्पत्तितो आगमनतो चिण्णवसितो गुणातिरेकतोति, अ. नि. अट्ठ. 1.101, 104, 108; ला. अ. 3. मार्ग या फल की प्राप्ति - नं प्र. वि., ए. व. - आगमनं पन दुविध विपस्सनागमनं मग्गागमनञ्च, विसुद्धि. 2.305; - तो प. वि., ए. व. - सोहि आगमनतो सगुणतो आरम्मणतोति तीहि कारणेहि नाम लभति, ध. स. अट्ठ. 265; नेन. तृ. वि. ए. व. ... पच्चनीकेन वा सगुणेन वा आरम्मणेन वा आगमनेन वा, पटि. म. अट्ट. 2.137; स. उ. प. के रूप में, अपुना., अभब्बा., अपाथा., सरणा. के अन्त. द्रष्ट.; - कारण नपुं.. तत्पु. स. [आगमनकारण], आने का कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - कि, भन्ते, आगतत्था ति आगमनकारणं पुच्छि, पे. व. अट्ठ. 69; - काल पु., तत्पु. स. [आगमनकाल]. आने का समय, आ पहुंचने का काल - ले सप्त. वि., ए. व. - तत्थेव ठत्वा आगमनकाले पच्चुग्गमनं कत्वा, ..., ध. प. अट्ठ. 1.36; - दिटिक त्रि., ब. स. [आगमनदृष्टिक]. अच्छे कर्म का सुखद फल आगे मिलेगा, ऐसा विश्वास रखने वाला, कर्म तथा इसके विपाक पर श्रद्धा रखने वाला - सहत्था देति, अनपविद्धं देति, आगमनदिट्ठिको देति, अ. नि. 2(1).161; अनपविट्ठ दानं देति, आगमनदिट्ठिको दानं देति, म. नि. 3.72; आगमनदिष्टिको ति अनागतभवस्स पच्चयो भविस्सती ति कम्मञ्च विपाकञ्च सद्दहित्वा देतीति, अ. नि. अट्ठ. 3.54%; For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगमनक 30 आगमि -दिवस पु., तत्पु. स. [आगमनदिवस], आने का दिन - सं द्वि. वि., ए. व. - महाजनो तुम्हाकं दस्सनकामो, आगमनदिवसं वो जानितं इच्छतीति, अ. नि. अट्ठ. 1.1023; - नन्दन त्रि., [आगतनन्दन]. वह, जिसका आगमन मन में आनन्द उत्पन्न कर दे - नो पु., प्र. वि., ए. व. - एकस्मि आगते नन्दन्ति, गते सोचन्ति तादिसो त्वं आगमननन्दनो गमनसोचनो, दी. नि. अट्ठ. 2.191; - पटिपदा स्त्री., तत्पु. स. [आगमनप्रतिपत्], फल की प्राप्ति का मार्ग, उपाय या तरीका - दा प्र. वि., ए. व. - आगमनपटिपदा नाम खन्धादिवसेन बहूहि मुखेहि सक्का कथेतु जा. अट्ठ. 4.238; - पथ पु., तत्पु. स. [आगमनपथ]. (राग आदि मलों के आने का मार्ग - थो प्र. वि., ए. व. - रजोपथोति रागरजादीनं उडानहानन्ति महाअट्ठकथायं वुत्तं, आगमनपथोतिपि वदन्ति, दी. नि. अट्ट, 1.148; - मग्ग पु., तत्पु. स. [आगमनमार्ग], आने का मार्ग - ग्गे सप्त. वि., ए. व, - तस्स किर गामस्स बहि भगवतो आगमनमग्गे ब्राह्मणानं परिभोगभूतो एको उदपानो अहोसि, उदा. अट्ठ. 307; - वस पु., तत्पु. स., आ जाने के कारण - सेन तृ. वि., ए. व. - तस्मा अन्तोअप्पनायमेव आगमनवसेन पटिपदाविसुद्धि, विसुद्धि 1.143; - विपत्ति स्त्री. प्र. वि., ए. व. - चण्डालकले वा ति आदीहि आगमनविपत्ति चेव पुब्बुप्पन्नपच्चयविपत्ति च दस्सिता, स. नि. अट्ठ. 1.143; - सद्धा स्त्री., तत्पु. स., अभिनीहार (बुद्धत्व-प्राप्ति हेतु लिए गए दृढ़ संकल्प) के समय से ही चली आ रही बोधिसत्त्वों की श्रद्धा - तत्थ सब्ब बोधिसत्तानं सद्धा अभिनीहारतो पट्ठाय आगतत्ता आगमसद्धा नाम, अ. नि. अट्ठ. 3.27; - सील त्रि., ब. स. [आगमनशील], आने वाला - लो पु., प्र. वि., ए. व. - सकदागामीति सकिदेव इमं लोकं पटिसन्धिग्गहणवसेन आगमनसीलो दुतियफलट्ठो, उदा. अट्ठ. 249; .... ठितोपि पटिसन्धिग्गहणवसेन इमं मनुस्सलोकं आगमनसीलो, इतिवु. अट्ठ. 264; - नाकार पु., तत्पु. स. [आगमनाकार], वापस लौटने का स्वरूप या तौर-तरीका -रं द्वि. वि., ए. व. - राजा अत्तनो आगमनाकारं सब्बं वित्थारतो कथेसि, जा. अट्ठ. 1.257. आगमनक त्रि., आगे आने वाला, भविष्य - ... तस्स तस्स पहिस्स उपरि आगमनवादपथं, म. नि. अठ्ठ, (म.प.) । 2.171. आगमनीय/आगमनिय त्रि., आ + गम का सं. कृ. [आगमनीय], वह स्थान जहां आ पहुंचना चाहिए, प्राप्त किए जाने योग्य, सम्बद्ध, प्रापक - येन तृ. वि., ए. व. - आगमनियेन कथिते पन सुञतो वा फस्सो.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).261; स. नि. अट्ठ. 3.135; स. उ. प. के रूप में अना., ओरगा., तीणिसरणा., सरणा. आदि के अन्त. द्रष्ट; - कथा स्त्री., तत्पु. स. [आगमनिककथा]. आगमन फल-प्राप्ति की ओर ले जाने वाला कथन - अपरा आगमनियकथा नाम होति, स. नि. अट्ठ. 3.135; - गुण पु., तत्पु. स. [आगमनिकगुण], श्रमण-जीवन के फल की प्राप्ति का गुण - णं द्वि. वि., ए. व. - कतकिच्चभावं पारं पत्तो परिजानामीति महाबोधिपल्लङ्के अत्तनो आगमनीयगुणं दस्सेति, अ. नि. अट्ठ. 3.4: - ठान नपुं, कर्म. स. [आगमनिकस्थान], मार्ग की उत्पत्ति का स्थान, वह स्थान, जहां मार्ग की उत्पत्ति होती है - ने सप्त. वि., ए. व. -- इति अयं सङ्घारुपेक्खा आगमनीयद्वाने ठत्वा अत्तनो अत्तनो मग्गस्स नाम देति, विसुद्धि. 2.304; यतो मग्गो आगच्छति, तं आगमनीयद्वान, तस्मि आगमनीयट्ठाने, विसुद्धि. महाटी. 2.447; - पटिपदा स्त्री., कर्म स. [आगमनिकप्रतिपत्], फल की प्राप्ति की ओर ले जाने वाला मार्ग - दा प्र. वि., ए. व. - आगमनीयपटिपदा पन न कथिता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.9; - दं द्वि. वि., ए. व. - पापुणन्तस्स आगमनियपटिपदं सन्धायेतं वृत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).79; -- पुब्बभागपटिपदा स्त्री., तत्पु. स. [आगमनिकपूर्वभागप्रतिपत], (अर्हत्) फलप्राप्ति के पूर्वभाग में अनुसरणीय मार्ग - दा प्र. वि., ए. व. - कित्तकेन नु खो तण्हासङ्घयविमुत्तस्स खीणासवरस सोपतो आगमनियपुब्बभागपटिपदा होती ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).193; - दं वि. वि., ए. व. - सखित्तेन खीणासवस्स पुब्बभागप्पटिपदं पुच्छितो सल्लहुकं कत्वा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).195; – सद्धा स्त्री., कर्म. स. [आगमनिकश्रद्धा]. अभिनीहार के समय से ही चली आ रही बोधिसत्त्वों की श्रद्धा - ... तत्थ आगमनीयसद्धा सब्ब बोधिसत्तानं होति, दी. नि. अट्ठ. 2.107. आगमयति/आगमयमान द्रष्ट. आगमति के अन्त.. आगमा द्रष्ट. आगच्छति के अन्त.. आगमि द्रष्ट. आगच्छति के अन्त.. For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आगमिक 31 आगामी आगमिक पु., [आगमिक], आगमों (निकायों में आगत वचनों) का ज्ञाता या अध्येता - कानं ष. वि., ब. व. - इदानि आगमिकानं कोसल्लजननत्थं पदसमोधानवसेन नामिकपदमाला वच्चते, सद्द... 1.258. आगमे आगहे के स्थान पर अप., आ + गह का विधि., प्र. पु., ए. व., ग्रहण करे, ले ले - यो जातरूपं रजतं, छड्डत्वा पुनरागमे, थेरीगा. 343; .... पुनरागमेति यो पुग्गलो सुवण्ण रजतं अञम्पि वा किञ्चि धनजातं छड्डत्वा पुन तं गण्हेय्य ..., थेरीगा. अट्ठ. 266. आगमेति आ + गम के प्रेर. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आगमयति]. शा. अ., आने देता है, ला. अ., प्रतीक्षा करता है, आशा करता है, प्रतीक्षा में रुक जाता है, प्राप्त करता है - चुरादिगणं पत्तस्स आपुब्बस्स इमस्स आगमेति आगमयति आगमेन्तो आगमयमानोति, सद्द, 2.462; 18; (प्रायः द्वि. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त) - लटुकिका सकुणिका पूतिलताय बन्धनेन बद्धा तत्थेव वधं वा बन्धं वा मरणं वा आगमेति, म. नि. 2.122; आगमेतीति उपेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.118; -न्ति ब. व. - ... परिपाकं आगमेन्ति पण्डिता, मि. प. 44; - मयामसे उ. पु., ब. व., आत्मने. - कालमागमयामसेति कालकिरियं आगमेस्साम, जा. अट्ठ. 6.106; - हि अनु... म. पु., ए. व. - आगमेहि महाराज, पितरं आमन्तयामहन्ति .... जा. अट्ठ. 3.222; आगमेहि महाराज, मा में विज्झि रथेसभ, जा. अट्ठ. 4.231; - तु प्र. पु., ए. व. - आगमेतु, भन्ते, भगवा धम्मस्सामी, महाव, 462; - थ म. पु., ब. व. - आगमेथ, आवुसो, याव रत्ति विभायति, महाव. 98; - न्तु प्र. पु., ब. व. - आगमेन्तु किर भोन्तो, ..., म. नि. 2.384; - य्याथ विधि., म. पु.. ब. व. - मुहुत्तं आगमेय्याथ, याव जानामि तं मनं, चरिया. 56; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - ... तदनुरूप कालं आगमेन्तो भिक्खं गहेत्वा... . स. नि. अट्ठ. 3.221; - न्तानं च/ष. वि., ब. व. - भिक्खवे, नागमेन्तानं नाकामा भाग दातन्ति, महाव. 371; - मयमानो वर्त. कृ., आत्मने., पु.. प्र. वि., ए. व. - उक्कुटिक निसिन्नो आगमयमानो मच्छितो पपति, महाव. 213; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तेन खो पन समयेन अञ्जतरो थेरो भत्तग्गे वच्चितो आगमेसि. चूळव. 355; - मिंसु ब. व. - ... थेरा आगमिंस, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).291; - मित्थ/मेत्थ म. पु., ब. व. – "किस्स तुम्हे नागमित्था ति, महाव. 371; - स्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - "अज्जण्हो भन्ते, आगमेही ति वुच्चमानो नागमेस्सती ति, पारा. 334 35; - तुं निमि. कृ. - नाहं सक्कोमि भवन्ते सत्त वस्सानि आगमेतु, दी. नि. 2.180; परिपक्के आणे न सक्का निमेसन्तरम्पि आगमेतु, मि. प. 186; - त्वा पू. का. कृ. - ... निसिन्ना भविस्सन्ती ति चिन्तेत्वा थोक आगमेत्वा ..., जा. अट्ठ. 1.11; कवाट आकोटेत्वा महत्तं आगमेत्वा, चूळव. 350; - तब्ब सं. कृ. - वुहानमस्स आगमेतब्बन्ति, महाव. 56.. आगम्म आ + गम का पू. का. कृ., केवल गाथाओं में ही प्राप्त [आगम्य], 1. आ कर, पहुंच कर - वेस्सवणो इधागम्म, निब्बापेसि, महाजन अप. 1.152; कुतो नु आगम्म अनोमदस्सने, उपपन्ना त्वं भवनं मम इदं, वि. व. 153; कुतो नु साम आगम्म, कस्स वा पहितो तुवं, जा. अट्ट, 6. 94; 2. क्रि. वि. के रूप में तथा सन्धाय, आरब्भ, निस्साय एवं पटिच्च के पर्यायवाचक शब्द के रूप में प्रयुक्त [बौ. सं. आगम्य], सन्दर्भ से, कारण से, साधन से, सहारा लेकर, आश्रय लेकर - ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा .... दी. नि. 1.11; यानि छ नेक्खम्मसितानि सोमनस्सानि तानि निस्साय तानि आगम्म ..., म. नि. 3.267; वेहायसं गम्ममागम्माति ... आकासे पवत्तं पदवीतिहारं पटिच्च निस्साय, जा. अट्ठ. 5.15; अप्पेव नाम तवम्पि आगम्म पियवाचं लभेय्यामा ति, जा. अट्ठ. 5.417. आगामिय त्रि., [आगामिक], आ पहुंचने वाला, अपरिचित आगन्तुक - सब्बागामियभिक्खूहि, धम्म देसापयित्थ च, चू. वं. 44.148. आगामी त्रि., [आगामिन], शा. अ.. आने वाला, आगे आ पहुंचने वाला, ला. अ. 1. प्राप्त करने वाला, प्राप्तिकर्ता, पुनर्जन्म पाने वाला - ... आगामी होति, आगन्ता इत्थत्तं, अ. नि. 1(1).80; - मिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - आगामिनो होन्ति आगन्तारो इत्थत्तं, अ. नि. 1(2).185; स. उ. प. के रूप में अना.. सकदा. के अन्त. द्रष्ट.; ला. अ. 2. ले जाने वाला, प्राप्त कराने वाला - नगर सकलं चेव इधागमि च अञ्जसं. म. वं. 31.33; ला. अ. 3. भविष्यकाल, आगे आने वाला समय - आगामिकाले दीघत्ते पभावे च मतायति, अभि. प. 875. For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आगारिकमित " आगारिकमित्त / अगारिकमित्त पु.. कर्म. स. [आगारिकमित्र ]. गृहस्थ मित्र मित्ताति द्वे मित्ता अगारिकमित्तो व अनागरिकमितो च, चूलनि. 218. आगाह त्रि. आ + √गाह का भू० क० कृ० [बौ. सं. आगाढ़ ], बहुत गहरा, अत्यन्त तीब्र, कठोर, बहुत अधिक दृढ़ कर्कश हाय पु., च. वि., ए. व. तीहङ्गेहि समन्नागतस्स भिक्खुनो आकङ्क्षमानो संडो आगाळ्हाय घेतेय्य परि. 244 आगाळ्हाय चेतेय्याति आगाळ्हाय दळहभावाय चेतेय्य, तज्जनीयकम्मादिकतस्स वत्तं न पूरयतो इच्छमानो सङ्घो उक्लेपनीयकम्म करेय्याति अत्थो, परि, अनु. 166 कहेन नपुं. तृ. वि. ए. व. - आगल्सेनाति गाल्हेन कक्खळेन, अ. नि. अ. 2233 इधेकच्चो पुग्गलो आगळ्हेनपि वुच्चमानो फरुसेनपि वुच्चमानो अमनापेनपि दुच्चमानो प.प. 140 आगाळ्हेनाति अतिगाळ्हेन मम्मच्च्छेदकेन श्रद्धवचनेन पु. प. अड. 63. आगिलायति आ + √गिला का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ आग्लायति] कुछ कुछ पीड़ा उत्पन्न करता है, हलका दर्द देता है, थकावट या अवसाद उत्पन्न करता है - पिट्ठि मे आगिलायति तमहं आयमिस्सामी ति चूळव. 340, दी. नि॰ 3.167; अपि मे पिट्टि आगिलायति बहिद्वारको के ठितस्स कथापरियोसानं आगमयमानस्साति, अ. नि. 3 (1). 178; यदा च तेसं हृदयं आगिलायति, किस्मिञ्चिदेव वा जिगुच्छा उप्पज्जति, खु. पा. अट्ठ. 50. आगिलायन नपुं. आ + गिला से व्यु. क्रि. ना. [आग्लपन]. थकावट, दर्द, पीड़ा उपादिन्नकसरीरञ्च नाम 'नो आगिलायती 'ति न वत्तब्ब, तस्मा चिरं निसज्जाय सञ्जातं अप्पकम्पि आगिलायनं गहेत्वा एवमाह, म. नि. अट्ठ. (म.प.) .... www.kobatirth.org - 32 2.21. आगु नपुं. [आगस्], पाप-कर्म, दुष्कर्म, अकुशल-कर्म, अपराध, अपुण्यकर्म अपुज्ञाकुसलं कण्हे कलुषं दुरितागु च, अभि. प. 84; आगु वुत्तमपराधो, करो तु वलिमुच्चते, अभि. प. 355 आगु पापापराधेसु के तुम्हि चिन्हे धजो, अभि. प. 1064; गुं द्वि. वि. ए. व. आगुं किर महाराज, अकरि कम्मदुक्कट, जा. अट्ठ. 6.100; "अपि च, उदायि, यो... आगुं न करोति कायेन वाचाय मनसा, तमहं नागोति ब्रूमीति अ. नि. 2 (2).60: आगुन्ति पापकं लामक अकुसलधम्म अ. नि. अड. 3.113 - किरिया स्त्री०, तत्पु॰ स॰, पापकर्म, अकुशलकर्म - विमलत्ता वा आगुं न करोति तेन अकाचो, आगुकिरिया हि उपघातकरणतो आघात 'काचोति वच्चति, सु. नि. अ. 2.124; चारी त्रि.. [आगस्कारिन्]. पाप कर्म करने वाला, पापी, दुष्ट (केवल चोर के विशेषण के रूप में प्रयुक्त) रिं पु.. हि. वि. ए. सेय्यथापि, भिक्खवे, चोरं आगुचारिं गहेत्वा रञ दस्सेप्यु स. नि. 1 (2) 88 111 महानि, 297 -- राजानो चोरं आगुचारिं गहेत्वा विविधा कम्मकारणा कारेन्ते व. म. नि. 3.203: आगुचारिन्ति पापकारि अपराधकारक अ. नि. अ. 2.1; चतुत्थे आगुचारिन्ति पापचारि दोसकारक, स. नि. अड्ड 2.99. 1 आगोत्तभुं / आगोत्रभुं अ, अव्ययी. स., आ+गोत्तभू से व्यु., गोभू- नामक अवस्था की प्राप्ति तक (आसव शब्द के निर्वाचन के सन्दर्भ में प्रयुक्त) आसवेहीति आभवग्गं आगोत्रभुं सवनतो पवत्तनतो. उदा. अड्ड 75: अथ वा आगोत्रभु आभवग्गं वा सवन्तीति आसवा, उदा. अट्ठ 141; विशेष तात्पर्य के लिए द्रष्ट. गोत्रभू के अन्त. (आगे). आगोत्रमुतो अ. क्र. वि. आ + गोत्रभू से व्यु गोत्रभू नामक अवस्था की प्राप्ति- पर्यन्त (आसव शब्द के व्याख्यान के सन्दर्भ में प्रयुक्त) आसवाति आरम्भणवसेन आगोत्रमुतो आभवग्गतो च सवना, विसुद्धि 2322. आघात पु०, आ + √हन से व्यु० [ आघात], शा. अ., हत्या, प्रहार, ला. अ., क्रोध, द्वेष, प्रतिशोध का भाव, शत्रुता या वैमनस्य का भाव - कोधाघाता कोप-रोसा, ब्यापादोनभिरद्धि च, अभि. प. 164; तो प्र. वि., ए. व. भिक्खुनो उप्पन्नो आघातो सब्बसो पटिविनेतब्बो, अ. नि. 2 (1).174; तिब्बो आघातो... भविस्सतीति बलवकोपो... पच्चुप्यद्वितो भविस्सति दी. नि. अट्ठ 3.34; अयञ्चरहि देवदत्तस्स भगवति पठमो आघातो अहोसि चूळ, 326 - तेन तृ. वि., ए. व. सो तेन आघातेन महतिं गरुं सिलं गहेत्वा. मि. प. 138; स. उ. प. के रूप में, अना. त्रि.. ब. स., आघात से राहत, प्रबल क्रोध या द्वेष की भावना से रहित तं नपुं. प्र. वि., ए.व. "मेतं नु खो मे चित्त पच्चुपट्टितं सब्रह्मचारीसु अनाघातं अ. नि. 3(2).66; अनाघातन्ति आघातविरहितं विक्खम्भनेन विहताघातन्ति अत्थो, अ. नि. अट्ठ 3.309; खग्गा. - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - For Private and Personal Use Only — पु., तत्पु० तलवार का प्रहार स० [खड्गाघात], खग्गाघातद्विधाभूतवेरिविग्गहभिसं धू, वं. 72.110: बद्धा. चू० • त्रि., ब० स० [ बद्धाघात], अत्यन्त प्रबल द्वेष भाव से युक्तता स्त्री. प्र. वि. ए. व. तदा नं जणुकपरमुद्रीहि - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आघातन आघातवग्ग पहरतेव यथा तं पुरिमजातीसु बद्धाघाता, वि. व. अट्ठ. 174; विहता. - त्रि., ब. स. [विहताघात], द्वेषभाव को नष्ट कर चुका या उससे मुक्त हो चुका - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - विक्खम्भनेन विहताघातन्ति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.309; समुच्छिन्ना.- त्रि., ब. स. [समुच्छिन्नाघात], उपरिवत् - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अनागामिमग्गेन सब्बसो पहीनत्ता पनुण्णकोधो समुच्छिन्नाघातो. उदा. अट्ठ. 157; -- करणरस त्रि., ब. स., प्रतिहिंसा भाव या द्वेष भाव को उत्पन्न कर देने का काम करने वाला - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ कुज्झनलक्खणो कोधो, चण्डिक्कलक्खणो वा, आघातकरणरसो, दुस्सनपच्चुपट्टानो, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).113; - ©पना स्त्री., तत्पु. स., प्रतिहिंसाभाव या द्वेषभाव की स्थापना, द्वेषभाव को उत्पन्न करना - ना प्र. वि., ए. व. - सण्ठपनाति सब्बतोभागेन पनप्पन आघातठ्ठपना, विभ. अट्ठ- 464. आघातन नपुं.. 1. आ + हन से व्यु. करणार्थक कृ. ना. [आघातन], वध-स्थान, वध्य-शिला, शूली, कसाई-खाना, पशुओं के वध के लिए प्रयुक्त काष्ठपट्टिका - नं' प्र. वि., ए. व. - आघातनं वधवानं, सूणा तु अधिकोट्टन, अभि. प. 521; आघातनन्ति धम्मगन्धिका वुच्चति, पारा. अट्ठ. 2.41; - नं. द्वि. वि., ए. व. - ... सेट्टिपुत्तं महन्तेनारक्खेन आघातनं नेत्वा असिना सीसं छिन्दित्वा... जा. अट्ठ. 3.51; - ने सप्त. वि., ए. व. - ... दक्खिणतो नगरस्स आघातने सीसं छिन्दथाति, दी. नि. 2.240; - ना प. वि., ए. व. - तुट्ठो आयुक्खया होति, मुत्तो आघातना यथा, थेरगा. 711; 2. नपुं., भाव. अर्थ में व्यु., मृत्यु - .... किमागम्म किमारभ उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सजि अत्तानं पञपेन्ति ..., दी. नि. 1.26; ... आघातनं वुच्चति मरणं, ..., दी. नि. अट्ट, 1.101; 3. मृत्यु का क्षेत्र, विपत्ति का स्थल - विसमूलं आघातनं, थेरगा. 4183; सत्तानं व्यसनुप्पत्तिहानताय आघातनं कम्मं किलेसं वा..... थेरगा. अट्ठ. 2.90; स. उ. प. के रूप में गवा. - नपुं. तत्पु. स., गाय के वध का स्थान, कसाई-खाना - नं प्र. वि., ए. व. - चङ्कमो लोहितेन फुटो होति, सेय्यथापि गवाघातनं, महाव. 253; महा.- त्रि., अत्यधिक पीड़ादायक - नं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - तुम्हाक सासनं नाम, महाआघातनं नामेतं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).169; - मण्डिका स्त्री., वधशिला - य सप्त. वि., ए. व. - ... दक्खिनद्वारेन निय्यमानो विय आघातनभण्डिकाय ठपितसीसो विय सूले उत्तासितो, दी. नि. अट्ठ. 2.57; गच्छथेतस्स आघातनभण्डिकाय ठपेत्वा, सीसं छिन्दथा ति. स. नि. अट्ठ. 3.69; - निस्सित त्रि., वधशिला के निकट में स्थित या उस से सम्बद्ध - तं नपुं.. प्र. वि.. ए. व. - अब्भाघातनिस्सितं वा होति, आघातननिस्सितं वा होति, सुसाननिस्सितं वा होति, पारा. 231; - पच्चुपद्वित त्रि., तत्पु. स.. वध करने हेतु या मार दिए जाने के लिए सामने उपस्थित, मृत्यु का विषयीभूत – तो पु.. प्र. वि., ए. व.- वज्जबन्धनबद्धो लोकसन्निवासो आघातनपच्चुपट्टितो, पटि. म. 117; आघातनपच्चुपद्वितोति मरणधम्मगण्ठिकठानं उपेच्च ठितो, पटि. म. अट्ठ. 2.18; - नाभिमुख अ., क्रि. वि., वध-स्थल की ओर - खं द्वि. वि., ए. व. - सिङ्घाटकेन सिङ्घाटकं विचरापेत्वा कसाहि ताळेन्तो आघातनाभिमुखं नेति, पे. व. अट्ठ. 5. आघातपटिविनय पु., तत्पु. स. [आघातप्रतिविनय], द्वेषभाव का उपशमन, द्वेषभाव का उपशमन करने वाले मेत्ता, करुणा, उपेक्खा, अमनसिकार तथा कर्मस्मरण जैसे धर्म - या प्र. वि., ब. व. - पञ्चिमे, आवुसो, आघातपटिविनया यत्थ भिक्खुनो उप्पन्नो आघातो सब्बसो पटिविनेतब्बो, अ. नि. 2(1).174; नवयिमे, भिक्खवे, आघातपटिविनया, अ. नि. 3(1).218; दुतियस्स पठमे आघातं पटिविनेन्ति तूपसमेन्तीति आघातपटिविनया, अ. नि. अट्ठ. 3.57. आघातपटिविनयसुत्त नपुं., अ. नि. के दो ऐसे सुत्त, जिन में द्वेषभाव के उपशमन कराने वाले पांच अथवा नौ गर्मों अथवा उपायों का विवरण है - ते सप्त. वि., ए. व. -- इदं पञ्चकनिपाते आघातपटिविनयसुत्ते वित्थारेतब्ब, विसुद्धि. 1.289; अ. नि. 2(1).175-77. 3(1).218. आघातबन्धन नपुं., तत्पु. स. [आघातबन्धन], द्वेषभाव के साथ बंध जाना, द्वेष भाव के साथ लगाव-नं प्र. वि., ए. व. - इदं पठम देवदत्तस्स बोधिसत्ते आघातबन्धनं, जा. अट्ठ. 1.120. आघातमत्त नपुं॰, कर्म. स. [आघातमात्र], थोड़ा सा भी द्वेषभाव, अत्यन्त अल्पमात्रा में द्वेष-भाव - त्तं प्र. वि., ए. व.- तस्मिम्पि काले सीलवमहाराजा चोरओ आघातमत्तम्पि नाकासि, जा. अट्ठ. 1.256. आघातवग्ग पु.. अ. नि. के उस वग्ग का शीर्षक, जिसमें कुल दस सुत्त हैं तथा जिसका नामकरण द्वेषभाव का उपशमन कराने वाले पांच धर्मों के प्रकाशक दो For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 34 आचमति आघातवत्थु आघातपटिविनयसुत्तों के नामों के आधार पर किया गया है, अ. नि. 2(1).174-188. आघातवत्थु नपुं., तत्पु. स. [आघातवस्तु]. द्वेषभाव, द्वेषभाव को मन में उदय कराने वाली नौ अथवा दस बातें (धर्म) या कारण - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - कोपनेय्येति पटिघवानीये सब्बस्मिम्पि आघातवत्थुस्मिं न कुप्पति न दस्सति .... उदा. अट्ठ. 200; - त्थूनि प्र. वि., ब. व. - नवयिमानि, भिक्खवे, आघातवत्थूनि, अ. नि. 3(1).217; नवमे आघातवत्थूनीति आघातकारणानि, अ. नि. अट्ठ. 3.274; - त्थूसु सप्त. वि., ब. व. - सो सीहोव सद्देसु आघातवत्थूसु कुज्झितुकामताय न सन्तसति, सु. नि. अट्ट. 1.100; - पदहान त्रि., ब. स. [आघातवस्तुपदस्थान], वह अकुशल मनोभाव, जिसका समीपतम कारण द्वेष हो, द्वेष को समीपतम कारण बनाने वाला - द्वानो पु., प्र... वि., ए. व. - दुस्सनपच्चुपट्टानो लद्धोकासो विय सपत्तो, आघातवत्थुपदद्वानो, अभि. अव. 27; - समुहान त्रि०, ब. स. [आघातवस्तुसमुत्थान], द्वेषभाव के कारण मन के भीतर उठने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - ... रागो च नवआघातवत्थुसमुट्ठानो दोसो च ..., जा. अट्ठ. 3.358; - सम्भव त्रि., ब. स. [आघातवस्तुसम्भव], उपरिवत् - वो पु., प्र. वि., ए. व. - यथा चेस, एवं नवविधआघातवत्थुसम्भवो ब्यापादो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).178; - वं पु., वि. वि., ए. व. - खन्तिसंवरेन सीतादीनि खमन्तोपि तंतआघातवत्थसम्भवं कोधं विनेति, सु. नि. अट्ठ. 1.9. आघातविनय पु., द्वेषभाव का उपशमन - या प्र. वि., ब. व. - द्वे आघातविनया, साकच्छा साजीवतो पह, अ. नि. 2(1).188. आघातविनयनरस त्रि., ब. स. [आघातविनयनरस], वह कुशल धर्म (मनोभाव), जिसका सार-तत्त्व द्वेषभाव का उपशमन करना हो - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अविरोधलक्खणो वा अनुकूलमित्तो विय, आघातविनयरसो, परिळाहविनयरसो वा चन्दनं विय, ध. स. अट्ठ. 172. आघातविनयपच्चुपट्ठान त्रि.. ब. स. [आघातविनयप्रत्युपस्थान], द्वेषभाव के उपशमन से उदित होने वाली (मेत्ता-भावना), द्वेषभाव का उपशमन कराने वाला/वाली - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - हितूपसंहाररसा, आघातविनयपच्चुपट्टाना, सत्तानं मनापभावदस्सनपदद्वाना, विसुद्धि. 1.308; ध. स. अट्ट, 237. आघातविरहित त्रि., तत्पु. स. [आघातविरहित], द्वेषभाव से रहित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अनाघातन्ति आघातविरहितं, विक्खम्भनेन विहताघातन्ति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.309. आघातित त्रि., आघात के ना. धा. से व्यु.. [आघातित], शा. अ.. बुरी तरह से चोट पहुंचाया गया या पीटा गया, ला. अ., पीड़ित, विषयीभूत - तो पृ., प्र. वि., ए. व. - नवहि आघातवत्थूहि आघातितो, उदा. अट्ठ. 114; नवहि आघातवत्थूहि आघातितो लोकसन्निवासोति, पटि. म. 118; आघातितोति घट्टितो, पटि. म. अट्ठ. 227; - ता ब. व. - अञमओहि ब्यारुद्धति अञमचं सत्ता विरुद्धा पटिविरुद्धा आहता पच्चाहता आघातिता पच्चाघातिता, महानि. 302; - मन त्रि०, ब. स. [आघातितमन]. पीड़ित अथवा द्वेष से दूषित मन वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - ते तित्थिया दुट्ठमना विरुद्धमना पटिविरुद्धमना आहतमना पच्चाहतमना आघातितमना पच्चाघातितमना वदन्ति ..., महानि. 44; आघातितमनाति विहिंसावसेन आघातितं मनं एतेसन्ति आघातितमना, पच्चाघातितमनाति उपसग्गवसेनेव .... महानि. अट्ठ. 149. आघातुक त्रि., [आघातक], प्रहार करने को उत्सुक, चोट या हानि पहुंचाने की मनोवृत्ति वाला - को पु.. प्र. वि., ए. व. - आहननसीलो आघातुको, करणसीलो कारुको, क. व्या. 538; सद्द. 3.846. आघातेति आघात का ना.धा. [आघातयति]. द्वेषभाव से भर देता है, द्वेषभाव से पीड़ित करा देता है - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - चित्तं आघातेन्तो उप्पन्नोति चित्तस्स आघातो, महानि, अट्ठ. 256; - त्वा पू. का. कृ. - निरये कोकालिको भिक्खु उपपन्नो सारिपत्तमोग्गल्लानेस चित्तं आघातेत्वा ति, स. नि. 1(1).178. आघान नपुं., आ +Vघा से व्यु., क्रि. ना. [आघ्राण]. गन्ध को सूंघना, गन्ध को नाक द्वारा अनुभव करना - सिघि आघाने, आघानं घानेन गन्धानुभवन, सद्द. 2.334. आचमति आ +चम का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आचमति]. आचमन करता है, हथेली पर जल लेकर पीता है, कुल्ला करता है, गटकता है - जातिमन्ततापसो पातोव गङ्गं ओरुय्ह उदकं आचमति, जटा धोवति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.61; -न्ति ब. व. - तिमिरपिङ्गला अब्भन्तरे ... महाउदकधारा आचमन्ति धमन्ति च, मि. प. 244; - For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचमन 35 आचमेति आचमनपादुका स्त्री., तत्पु. स. [आचमनपादुका, पैरों को धोने के लिए रखा गया लकड़ी का तख्ता या पीढ़ा - कं द्वि. वि., ए. व. - तिस्सो पादुका धुवट्ठानिया असङ्कमनियायो - वच्चपादुकं, परसावपादुकं आचमनपादुकन्ति, महाव. 264; दुक्खं निसिन्ना आचमेन्ति ... अनुजानामि, भिक्खवे, आचमनपादुकन्ति, आचमनपादुका पाकटा होन्ति, चूळव. 263; - य सप्त. वि., ए. व. - आचमनपादुकाय ठितेन उभजितब्बं चूळव. 366. आचमनसरावक पु., तत्पु. स., विहार के शौचालय (वच्चकुटी) के बाहर रखे पानी से भरे मटके से पानी निकालने हेतु प्रयोगों में लाया जाने वाला पात्र - को प्र. वि., ए. व. - आचमनसरावको न होति ... अनुजानामि, भिक्खवे, __ आचमनसरावक न्ति, चूळव. 263; - के सप्त. वि., ए. व. - चपुचपुकारकम्पि आचमेन्ति, आचमनसरावकेपि उदक सेसेन्ति, चूळव. 366. आचमापेन्ति आ + चम के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ब. व., आचमन कराते हैं, शौचक्रिया के उपरान्त धुलवाते हैं - ततो पट्ठाय नं नेव नहापेन्ति न च आचमापेन्ति, जा. अट्ठ. 6.8. मितुं निमि. कृ. - वन्ते अहं आचमितुं न उस्सहे, थेरगा. 1128; पाठा. आवमितुं. आचमन नपुं.. आ +/चम से व्यु., क्रि. ना. [आचमन], धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर जल द्वारा मुख एवं समस्त शरीर की शुद्धि करना, हथेली पर जल लेकर चूंटचूंट करके पीना, मलत्याग के उपरान्त जल द्वारा मलद्वार को धोना - वत्थुकम्म वत्थुपरिकम्म आचमनं न्हापनं जहनं वमनं विरेचनं .... दी. नि. 1.10; आचमनन्ति उदकेन मुखसुद्धिकरणं, दी. नि. अट्ठ. 1.863; स. उ. प. के रूप में उदका.- नपुं.. तत्पु. स. [उदकाचमन], जल द्वारा मुख को धोना – नानि प्र. वि., ब. व. - कुहना वङ्कदण्डा च, उदकाचमनानि च स. नि. 2(2).124; उदकाचमनानि चाति उदकेन मुखपरिमज्जनानि, स. नि. अट्ठ. 3.43; सुद्धिका. - नपुं.. कर्म. स. [शुद्धिकराचमन]. शुद्ध कर देने हेतु किया गया आचमन या जल का पान - नं द्वि. वि., ए. व. - केचि उत्तरन्ति केचि उत्तरित्वा सुद्धिकआचमनं करोन्ति, उदा. अट्ठ. 60; स. पू. प. के रूप में नोदक - नपुं.. तत्पु. स. [आचमनोदक], आचमन के लिए प्रयुक्त जल, धार्मिक अनुष्ठान में मुखशुद्धि एवं शरीरशुद्धि के लिए पान किया जाने वाला जल, शौचक्रिया में मलद्वार को धोने के लिए प्रयुक्त जल - कं द्वि. वि., ए. व. - आचमेहीति आचमनोदकं देहि. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.246; - उदकावसेस पु., तत्पु. स. [आचमनोदकावशेष]. शौचक्रिया में प्रयुक्त जल का बचा हुआ भाग - सं द्वि. वि., ए. व. - ... ... भिक्खु एकदिवसं वच्चकुटिं पविट्ठो ... आचमनउदकावसेसं भाजने ठपेत्वाव निक्खमि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).287; जा. अट्ठ. 3.429. आचमनकुम्भी स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. आचमनकुम्भी]. शौचालय के बाहर शौचक्रिया में उपयोग हेतु रखा हुआ जल से भरा मटका - म्मी प्र. वि., ए. व. - आचमेति, आचमयति आचमनकुम्भी, सद्द. 2.556; - म्मिं द्वि. वि., ए. व. - आचमनकुम्भी न होति... अनुजानामि, भिक्खवे आचमनकुम्भिान्ति, चूळव. 263; - या सप्त. वि., ए. व. - सचे आचमनकुम्भिया उदकं न होति, आचमनकुम्भिया उदकं आसिञ्चितब्ब, महाव. 54; चूळव. 370, 367. आचमनथालक नपुं, तत्पु. स., शुद्ध करने हेतु प्रयुक्त जल का पात्र - कं द्वि. वि., ए. व. - परिक्खारंदापेसि आचमनथालक सीमाविवादविनिच्छय कथा, 28.8(रो.) आचमेति/आचमयति आ + चम के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आचमयति], हाथ पैर आदि धोने के बाद अपने मुख का प्रक्षालन करता है, धोता है, शौचक्रिया के उपरान्त प्रक्षालन करता है - आपुब्बो चमुधातु धोवने वत्तति, आचमेति आचमयति, आचमनकुम्भी, सद्द. 2.556; - सि म. पु., ए. व. - ... वच्चं कत्वा न आचमेसी ति, चूळव. 365; - न्ति प्र. पु., ब. व. - दुक्खं निसिन्ना आचमेन्ति ..., चूळव. 263; - यमानो वर्त. कृ.. पु., प्र. वि., ए. व. - ... विसं चिक्खस्सन्तो उद्धमधो आचमयमानोति, मि. प. 152; - य्य विधि., प्र. पु.. ए. व. - यो नाचमेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा ति, चूळव. 365; - मित्वा पू. का. कृ. - नाचमेय्य सचे वच्चं कत्वा यो सलिले सति, ... आचमित्वा सरावेपि, सेसेतब्बं न तूदक विन. वि. 2938-2939; - स्सति भवि., प्र. पु.ए. व. - कथहि नाम भिक्खु वच्चं कत्वा न आचमेस्सतीति, चूळव. 365; - तुं निमि. कृ. - भिक्खू हिरियन्ति आचमेतु ..., चूळव. 263; - यित्वान/यित्वा पू. का. कृ. - 'सयं आचमयित्वान, दत्वा सकेहि पाणिभि. अ.नि. 2(2).52; सयं आचमयित्वानाति अत्तनाव हत्थपादे धोवित्वा मुखं विक्खालेत्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.110; ततो हि सो आचमयित्वा लिच्छवि, थेरस्स दत्वान For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचय आचरति युगानि अट्ट, पे. व. 569; आचमयित्वाति हत्थपादधोवनपुब्बकं मुखं विक्खालेत्वा, पे. व. अट्ठ. 208. आचय पु., आ +चि से व्यु. [आचय]. शा. अ., चयन, एकत्रीकरण, राशि, ढेर या पुञ्ज बना देना, अस्तित्व में ला देना - यं द्वि. वि., ए. व. - अञ्जनानं खयं दिस्वा, उपचिकानञ्च आचयं ध. प. अट्ठ. 1.264; - यो प्र. वि., ए. व. - ... कम्मकिलेसेहि आचियतीति आचयो, ध, स. अट्ठ. 91; तदुभयं एक गहेत्वा आचयो लक्खणं एतस्साति आचयलक्खणो, विसुद्धि महाटी. 2.95; यो आयतनानं आचयो सो रूपस्स उपचयो, ध. स. 641; आचयोति निब्बत्ति, ध. स. अट्ठ. 359; ला. अ.. वृद्धि, विकास, विपुलभाव-दिस्सति, भिक्खवे, इमस्स चातुमहाभूतिकरस कायस्स आचयोपि अपचयोपि.... स. नि. 1(2).84; आचयोति वुड्डि, अपचयोति परिहानि, स. नि. अट्ठ. 2.86; ततो एव आचयसङ्घाता चया अपेतत्ता, निब्बाणं अपेतं चयाति अपचयो, ध. स. अट्ठ. 91; - गामी त्रि., [आचयगामिन], आचय (वृद्धि) के निष्पादक अथवा आचय की ओर ले जाने वाले सास्रव कुशलधर्म एवं अकुशल धर्म - मिनो ब. व. - ... तस्स कारणं हुत्वा निष्फादनकभावेन तं आचयं गच्छन्ति, यस्स वा पवत्तन्ति तं पुग्गलं यथावत्तमेव आचयं गमेन्तीतिपि आचयगामिनो, ध, स. अट्ठ. 91; तिस्सो पटिसम्भिदा सिया आचयगामिनो, सिया नेवाचयगामिनापचयगामिनो, विभ. 344; - मी पु., प्र. वि., ए. व. - कामावचरं कुसलं सविपाकं आचयगामीतिआदिका पुच्छा परवादिस्स, पटिआ च पटिक्खेपो च सकवादिस्स, प. प. अट्ठ. 198; कतमो च, भिक्खवे, आचयगामी धम्मो ? मिच्छादिहि... मिच्छाविमुत्ति - अयं वुच्चति, भिक्खवे, आचयगामी धम्मो, अ. नि. 3(2). 210; अत्थि आचयगामी, अस्थि अपचयगामी, अस्थि नेवाचयगामिनापचयगामी, विभ. 18; - मित्तिक नपुं.. तत्पु. स., ध. स. की दसवीं तिकमातिका, जिसमें आचयगामी, अपचयगामी तथा नेवाचयगामि-नापचयगामी धर्मों का परिगणन है - के सप्त. वि., ए. व. - आचयगामित्तिके कम्मकिलेसेहि आचियतीति आचयो, ध. स. अह. 91. आचयापचय पु., द्व. स. [आचयापचय], वृद्धि एवं हानि, विकास एवं क्षय - यो प्र. वि., ए. व. - एवं इमस्स कायस्स आचयापचयो होति, म. नि. 1.304; आचयापचयो होतीति वडि च अवडि च होति, म. नि. अट्ठ, (मू.प.) 1(2).182. आचरण नपुं.. आ + vचर से व्यु., क्रि. ना. [आचरण]. चाल चलन, व्यवहार - अज्झाचारोति अधिट्ठहित्वा आचरणं, नेत्ति. अट्ट. 234; द्रष्ट. अज्झाचार; - क त्रि., आचरण से व्यु., - किलेसविरहितं पु., द्वि. वि., ए. व., आचरण में दुष्प्रभाव डालने वाले या आचरण में प्रभाव डालने वाले क्लेशों से मुक्त - अनाचरियकन्ति आचरणककिलेसविरहितं. स. नि. अट्ठ. 3.47. आचरति आ + चर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आचरति]. क. आचरण करता है, व्यवहार में उतारता है, कुशल या अकुशल कर्म करता है - ... भिक्खु उपसम्पन्नसमनन्तरा अनाचार आचरति, महाव. 63; अनाचार आचरतीति पण्णत्तिवीतिक्कम करोति, महाव. अट्ठ. 253; विलोममाचरति अकिच्चकारिनी, जा. अट्ठ. 5.432; ... सिक्खति आचरति समाचरति समादाय सिक्खति, महानि. 373; - रेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. -- यो आचरेय्य, यथाधम्मो कारेतब्बोति, चूळव. 264; विसमाय पणिधिया हेतु विसमं न चरेय्य न आचरेय्य न समाचरेय्य न समादाय वत्तेय्याति, महानि. 30; - रि अद्य., प्र. पु., ए. व. - दळ्हं समादाय समत्तमाचरि, दी. नि. 3.109; - रिस्सति भवि०, प्र. पु.. ए. व. - एवरूप अनाचारं आचरिस्सती ति.... महाव. 108; - रिस्सामि उ. पु., ए. व. - सोहं तदेव पुनप्पुन, वटुम आचरिस्सामि सोभने, जा. अट्ठ. 3.365; -- रे विधि., प्र. पु., ए. व. - मालं न धारे न च गन्धमाचरे, मञ्चे छमायं व सयेथ सन्थते, अ. नि. 1(1).244; - रेय्य - यो आचरेय्य परदारमलङ्घनीय, घोरञ्च विन्दति सदा व्यसनं च नेक, तेल. 80; - रितब्ब त्रि, सं. कृ. - न, भिक्खवे, विविधं अनाचारं आचरितब्ब, चूळव. 264; - रित त्रि., भू. क. कृ. [आचरित], वह, जिसका व्यावहारिक जीवन में पालन किया गया है या अनुसरण किया गया है, व्यवहार में उतारा हुआ, व्यवहृत - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - मा त्वं अधम्मो आचरितो, अस्मा कुम्भमिवाभिदाति, पाचि. 278; जा. अट्ठ. 3.25; विशेष अर्थ क. प्रयोग करता है, व्यवहार में लाता है - रे विधि., प्र. पु., ए. व. - मालं न धारे, न च गन्धमाचरे, सु. नि. 403; आकप्पं सरकुत्तिं वा, न रुओ सदिसमाचरे, जा. अट्ठ. 7.187; विशेष अर्थ ख. परस्त्री-गमन करता है - रेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - यो आचरेय्य परदारमलङ्घनीय, तेल. 80. For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचरिनी आचरियकिच्च आचरिनी स्त्री., भिक्षुणीसङ्घ में रहने वाली आचार्य नारी - निं/नी द्वि. वि., ए. व. - गणं वा आचरिनि वा पत्तं वा चीवरं वा परियेसति, पाचि. 303-304, 433; - निया च./ष. वि., ए. व. - उपज्झायाय आपत्ति पाचितियस्स, गणरस च आचरिनिया च आपत्ति दुक्कटस्स, पाचि. 440. आचरिय पु., [आचार्य, बौ. सं., आचरिय/आचारिय]. सामान्य अर्थ, शिक्षक, अध्यापक, विविध शिल्पों एवं विद्याओं की शिक्षा देने वाला शिक्षक, घोड़ों एवं हाथियों आदि का प्रशिक्षक - गामणीयो त मातङ्ग- हयाद्याचरियो भवे, अभि. प. 368; - येन तृ. वि., ए. व. - ... सब्बसिप्पानि उग्गहित्वा आचरियेन अनुजातो ..., जा. अट्ठ. 3.206; असुकाचरियेन कतोतिपि जानाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).240; - य संबो., ए. व. - इच्छामह, आचरिय, सिप्पं सिक्खितुं न्ति, महाव. 466; - या प्र. वि., ब. व. - आचरियाव जानन्ति, कम्म सुकतदुक्कट, जा. अट्ठ. 3.249; - येसु सप्त. वि०, ब. व. - ... .सिप्पस्स कारणा आचरियेसु सगारवा..., महाव. 260; विशेष अर्थ 1. उपनयन कराने वाला तथा वेदों एवं वेदाङ्गों की शिक्षा देने वाला ब्राह्मण आचार्य- उपनीयाथ वा पुबं, वेदमज्झापये द्विजो, यो साङ्ग सरहस्सं चाचरियो ब्राह्मणेसु सो, अभि. प. 411; अहं तस्स आचरियब्राह्मणो, जा. अट्ठ. 7.299; - स्स ष. वि., ए. व. - "अहं इमं मन्तं आचरियस्स उपकारको हुत्वा लभिस्सामी ति चिन्तेत्वा .... जा. अट्ठ. 4.180; - या प्र. वि., ब. व. - "तुम्हे किं करिस्सथा ति तुम्हे पन आचरियाति, जा. अठ्ठ. 4.439; विशेष अर्थ 2. आचारविचार की शिक्षा देने वाला (पिता, कुटुम्बीजन, मित्र आदि), पथप्रदर्शक - यो प्र. वि., ए. व. - ...तस्मा इदानिपि नो आचारसिक्खापनेन आचरियो भवाति आह. जा. अट्ट, 5.378; आचरियन्ति आचारे सिक्खापनतो इध पिता आचरियो ति अधिप्पेतो, जा. अठ्ठ, 4.160; आचरियो ति कुटुम्बिकस एस्स मय्ह आचारसिक्खापको आचरियो, जा. अट्ठ. 4.335; विशेष अर्थ 3. बौद्ध भिक्षुसङ्घ में प्रव्रजित अथवा उपसम्पदा-प्राप्त भिक्षु को उपाध्याय के अभाव में निःश्रय प्रदान करने वाला तथा नव-दीक्षित भिक्षुओं को आचार एवं अच्छे व्यवहार की प्रायोगिक शिक्षा देने वाला भिक्षु-शिक्षक - यो प्र. वि., ए. व. - आचरियो, भिक्खवे, अन्तेवासिकम्हि पुत्तचित्तं उपट्ठापेस्सति, महाव. 68; ... आचारसमाचारसिक्खापको आचरियो नाम कोचि नत्थि पे. व. अट्ठ. 219; - यं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, आचरिय, महाव. 68; ... आचरियन्ति आचारसमाचारसिक्खापनकं आचरियं अनुजानामि, महाव. अट्ठ. 254; - म्हा प. वि., ए. व. - छयिमा, भिक्खवे, निस्सयपटिप्पस्सद्धियो आचरियम्हा, महाव. 80; - यानं ष. वि., ब. व. - इदं अम्हाक आचरियानं भविस्सति, चूळव. 289; "एवं अम्हाकं आचरियानं उग्गहो परिपुच्छाति, पाचि. 154; विशेष अर्थ 4. ध्यान के लिए कर्मस्थान प्रदान करने वाला कल्याणमित्र, योग-शिक्षक - स्स ष. वि., ए. व. - कम्मट्ठानं गहेत्वान, आचरियस्स सन्तिके, अभि. अव. 836; स. उ. प. के रूप में, अट्ठकथा., इस्सासा., उद्देसा., उपज्झाया., उपसम्पदा., ओवादा., कच्चायना., कम्मवाचा., गणा., गन्था../गन्धा., गुत्तिला., दिसापामोक्खा., धनुग्गहा., धम्मपाला.. धम्मा., निस्सया., पच्छा., पब्बज्जा., पा., पिट्टि, पीठा., पुब्ब०, पोराणा., बुद्धघोसा., महा., मातङ्ग-हयाद्या., योग., रथा., लाखा., लेखा., लोका., वजिरबुद्धा., वत्थुविज्जा., वळञ्जनका., सत्था., सिलोका., हत्था. आदि के अन्त. द्रष्ट.. आचरियक नपुं., आचरिय से व्यु. [आचार्यक], आचार्यवाद, आचार्यभाव, पारम्परिक सिद्धान्त, शिल्प, व्यवसाय, आचार्यों द्वारा किया गया शिक्षण या अध्यापन, मत, विश्वास - कं द्वि. वि., ए. व. - सकं आचरियकं उग्गहेत्वा आचिक्खन्ति ....दी. नि. 2.80; आचरियकन्ति आचरियभावं आचरियवाद दी. नि. अट्ठ. 3.13; एके समणब्राह्मणा इस्सरकुत्तं ... आचरियकं अग्गधे पञपेन्ति, दी. नि. 3.20; सकं आचरियक सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या ति, म. नि. 1.223; सकं आचरियकन्ति अत्तनो आचरियसमय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).74; - के सप्त. वि., ए. व. - दक्खा परियोदातसिप्पा सके आचरियके नहापितकम्मे, महाव. 325; आचरियकेति आचरियकम्मे, पारा. अट्ठ. 1.230. आचरियकम्म नपुं.. तत्पु. स. [आचार्यकर्म], आचार्य का कर्म या शिल्प, आचार्य या शिक्षक द्वारा ज्ञात या गृहीत व्यवसाय - म्मे सप्त. वि., ए. व. - आचरियकेति आचरियकम्मे, पारा. अट्ठ. 1.230; ... सुसिक्खितो अनवयो सके आचरियके कुम्भकारकम्मे परियोदातसिप्पो, पारा. 47-48. आचरियकिच्च नपुं., तत्पु. स. [आचार्यकृत्य], आचार्य द्वारा किए जाने योग्य कृत्य, शिक्षक द्वारा करणीय कार्य - च्वं प्र. वि., ए. व. - आचरियकिच्च उपज्झायकिच्च ..... समानाचरियकिच्चं-इदं किच्चं नो अधिकरणं चूळव. 203. For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचरियकुल 38 आचरियनय आचरियकुल नपुं., तत्पु. स. [आचार्यकुल], एक ही आचार्य आचरियचतुक्क नपुं.. [आचार्यचतुष्क], आचार्य एवं से शिक्षा प्राप्त शिष्यों की परम्परा या उनका समूह, आचार्य अन्तेवासिक के परस्पर-सम्बन्ध-विषयक चार विनय-नियम का परिवार, एक मतवाद अथवा एक शाखा के अनुयायियों -क्के सप्त. वि., ए. व. -- आचरियचतुक्केपि एसेव नयो, का समूह, धार्मिक शाखा या निकाय - लानि प्र. वि., ब. परि. अट्ठ. 171. व. - अट्ठारस निकायातिपि, अट्ठारसाचरियकुलानीतिपि आचरियट्ठान नपुं., तत्पु. स. [आचार्यस्थान], आचार्य का एतेसंयेव नामं, प. प. अट्ठ 102; - ले सप्त. वि., ए. पद, आचार्य की पदवी अथवा स्थिति – ने सप्त. वि., ए. व. - ... किमञत्र असितत्ताति आचरियकुले असंवृद्धा, व. - उदको रामपुत्तो सब्रह्मचारी मे समानो आचरियडाने दी. नि. अट्ठ. 1.206; सिक्खितोति दस द्वादस वस्सानि म ठपेसि, म. नि. 1.226. आचरियकुले उग्गहितसिप्पो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आचरियदक्खिणा स्त्री., तत्पु. स. [आचार्यदक्षिणा], आचार्य 1(1).364; - लं द्वि. वि., ए. व. - ... नगर पविसित्वा को देय दक्षिणा - णं द्वि. वि., ए. व. - आचरियधनन्ति आचरियकुलं गन्त्वा आचरियं वन्दित्वा ..., जा. अट्ठ. 5. आचरियदक्खिणं आचरियभाग, अ. नि. अट्ठ. 3.67. 455; एवं अम्हाक आचरियकुलं निस्साय निय्यानिक आचरियधन नपुं., तत्पु. स. [आचार्यधन]. आचार्य को भविस्सति, चूळव. अट्ठ. 112; - स्स ष. वि., ए. व. - मा दक्षिणा के रूप में देय धन - नं द्वि. वि., ए. व. - मे आचरियकुलस्स अवण्णो अहोसी ति, अ. नि. 1(2).129. अतित्थिया आचरियस्स आचरियधनं परियेसिस्सन्ति, म. आचरियकुलवादकथा स्त्री., म. वं. के पांचवें परिच्छेद की नि. 2.17; आचरियधनं परियेसिस्सन्तीति अतिथिया हि प्रारम्भिक तेरह गाथाएं, जिसमें सम्राट अशोक के काल तक यस्स सन्तिके सिप्पं उग्गण्हन्ति तस्स, सिप्पग्गहणतो पुरे विकसित बौद्ध भिक्षुसंघ की अट्ठारह शाखाओं का उल्लेख वा पच्छा वा अन्तरन्तरे वा गेहतो नीहरित्वा धनं देन्ति, म. है - आचरियकुलवादकथा निहिता, म. वं. (पृ.) 56. नि. अट्ट (म.प.) 2.11; "पच्छा धम्मेन भिक्खं चरित्वा आचरियकेवट्ट पु., ब्रह्मदत्त के पुरोहित का नाम - Zो प्र.. आचरियधनं आहरिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 4.201. वि., ए. व. - आचरियकेवट्टोपि केवलं नलाटे वणं कत्वा आचरियधनु नपुं., कर्म. स., अत्यन्त उत्तम कोटि का धनुष, चरति, जा. अट्ठ. 6.235. दृढ़ धनुष - नुं द्वि. वि., ए. व. -- दळ्हधम्मिनोति आचरियगरुत्त नपुं., भाव. [आचार्यगुरुत्व], आचार्यों की दळ्हधनुनो, उत्तमप्पमाणं आचरियधनु धारयमाना, स. नि. महिमा, आचार्यों की श्रेष्ठता - त्ता प. वि., ए. व. - अट्ठ. 1.236. आचरियगरुत्ता कथिकं न परिभवति, महानि. अट्ठ. 7. आचरियधम्मपाल पु., कर्म. स., प्रसिद्ध अट्ठकथाकार, आचार्य आचरियगाथा स्त्री., तत्पु. स. [आचार्यगाथा], आचार्यों के धम्मपाल - लो प्र. वि., ए. व. - बदरतित्थविहारवासी मुख से निकला वचन, परम्परागत सिद्धान्त को प्रकाशित आचरियधम्मपालो पन, सद्द. 1.230. करने वाला कथन - य तृ. वि., ए. व. - इमाय आचरियधम्मपालत्थेर पु., कर्म. स., उपरिवत - रेन त. आचरियगाथाय तमत्थं साधेन्ति, स. नि. अट्ट. 2.236. वि., ए. व. - आचरियधम्मपालत्थेरेनेव पनेत्थ इदं वृत्तं, आचरियगुण पु., तत्पु. स. [आचार्यगुण], आचार्य में पाए सारत्थ. टी. 1.33; आचरियधम्मपालत्थेरेन वृत्तं यावदेवाति जाने योग्य गुण, ऐसे गुण, जो किसी भी आचार्य में अवश्य इमिना समानत्थं यावदेति इदं पदन्ति, सारत्थ. टी. 1.37; होने चाहिए – णा प्र. वि., ब. व. - आचरियानं पञ्चवीसति आचरियधम्मपालत्थेरेनपि नेत्तिपकरणट्ठकथायं एवमेतस्स आचरियगुणा, तेहि गुणेहि आचरियेन सम्मा पटिपज्जितब्ब सुत्तङ्गसङ्गहोव कथितो. सारत्थ. टी. 1.84. मि. प. 105. आचरियनय पु., तत्पु. स. [आचार्यनय], स्थविरवादी परम्परा आचरिगुत्तिल पु., कर्म स., (वीणा-वादन आदि) गन्धर्व- के आचार्यों की वह पद्धति, जो व्याख्यानों के स्रोत के रूप शिल्पों में दक्ष आचार्य, एक आचार्य, जो वीणा वादन जैसे में पिटकों एवं अट्ठकथाओं की पद्धतियों के अतिरिक्त गन्धर्व शिल्प में दक्ष थे - लो प्र. वि., ए. व. - सारिपुत्त तीसरी ग्राह्य पद्धति है - येन तृ. वि., ए. व. - थेरो बुद्धघोसाचरियो आचरियगुत्तिलो ति वा महोसधपण्डितो, अट्ठकथामुत्तकेन पन आचरियनयेन अपरापि छ पत्तियो, सद्द. 3.751; इतो किर सत्तमे दिवसे आचरियगत्तिलो च प. प. अट्ट, 27, 28; पाळिमुत्तकेन पन अट्ठकथानयेन अन्तेवासिकमूसिलो च..., जा. अट्ठ. 2.210. अपरापि छ पत्तियो, प. प. अट्ठ. 26. For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचरियन्तेवासिक " - आचरियन्तेवासिक पु. इ. स. भिक्षु आचार्य एवं उसकी देखरेख में रहने वाला भिक्षु शिश्य केसु सप्त वि.. ब. व. एस नयो आचरियन्तेवासिकेसुपि, पारा. अट्ठ. 2.60; आचरियन्तेवासिकेसु हि यो यो न सम्मा वत्तति तस्स तरस आपत्ति, महाव. अ. 254. आचरियन्तेवासी पु. द्व. स.. आचार्य एवं शिष्य सी प्र. वि., ब. व. इतिह ते उभो आचरियन्तेवासी अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा दी. नि. 1.2. आचरियपरम्परा स्त्री०, तत्पु० स० [आचार्यपरम्परा], आचार्यो की परम्परा, शिक्षकों की लगातार चली आ रही पीढ़ियों में सुरक्षित सिद्धान्त, परम्परा से प्राप्त मतवादरा प्र. वि.. ए. व. आचरियपरम्परा खो पनस्स न सुग्गहिता होति न सुमनसिकता न सूपधारिताति इदं ततियं परि. 255; पारा. अड. 1.183: एत्थ आचरियपरम्पराति आचरियान विनिच्छ्यपरम्परा सारत्थ. टी. 2.43 य तृ. वि. ए. व. उपालित्थेरमादिं कत्वा आचरियपरम्पराय याव ततियसङ्गीति ताव आभतं पारा अड. 1.24 एकसरो गहितोति अनुरसवेन वा आचरियपरम्पराय वा इतिकिराय वा. स. नि, आड. 3.238 खुदकपाठो आदि आचरियपरम्पराय वाचनामग्गं आरोपितवसेन न भगवता वृत्तवसेन, खु पा० अड. 3. आचरियपाचरिय पु.. [आचार्यप्राचार्य] 1. शिक्षक एवं शिक्षकों का भी शिक्षक, आचार्य एवं प्राचार्य, वह, जो स्वयं आचार्य है तथा आचार्यों का भी आचार्य है, 2. बहुत से देवों एवं मनुष्यों को बुद्ध के धर्मामृत का पान कराने के कारण आचार्य तथा श्रद्धावान् श्रावकों के लिए प्राचार्य यो प्र. वि., ए. व. सोणदण्डो बहून आचरियपाचरियो तीणि माणवकसतानि मन्ते वाचेति दी. नि. 1.99; भवञ्हि चड्डी बहून आचरियपाचरियो, म. नि. नि. 2.385 बहूनं आचरियपाचरियोति भगवतो एकेकाय धम्मदेसनाय चतुरासीतिपाणसहस्सानि अपरिमाणापि देवमनुस्सा मग्गफलामतं पिवन्ति तरमा बहून आचरियो, सावकविनेय्यानं पाचरियोति, म. नि. अड. (म.प.) 2.296 दी. नि. अड्ड. 1.230; येहि तृ. वि., ब. व॰ ब्राह्मणेहि वुद्धेहि महल्लकेहि आचरियपाचरियेहि सद्धिं कथासल्लापो होति, दी. नि. 1.78; आचरियपाचरियेहीति आचरियेहि घ तेसं आचरियेहि च दी. नि. अ. 1.205 - यानं ष. वि. व. व. पुब्बकानं आचरियपाचरियान नटानं भासमानानं स. नि. 2 (2) 295; आचरियपाचरियानन्ति आधरियानञ्चेव आचरियाचरियानञ्च सु. नि. अड. 2.156 येसु सप्त - - — - www.kobatirth.org - 39 आचरियमति वि. ब. व. मज्झिमोपीति मज्झिमेसु आचरियपाचरियेसु एकोपि ... दी. नि. अट्ठ. 1.302. आचरियपुत्त / आचेरपुत्त पु. एक पुरोहित का पुत्र (सरभङ्ग) तो प्र. वि. ए. व. आचेरपुत्तो सुविनीतरूपो सो नेसं पञ्हानि वियाकरिरसतीति जा. अड. 5.134. आचरियपूजक त्रि.. [आचार्यपूजक] आचार्यों या गुरुजनों का सम्मान करने वाला, आचार्यों के प्रति सम्मानभाव से जुड़ा हुआ को पु. प्र. वि. ए. व. अहं ते सरणं होमि, अहमाचरियपूजको वि. व. 328 जा. अह. 2211; उपतिस्सों सब्बकालम्पि आधरियपूजकोव, थेरगा. अड. 2.319. आचरियब्राह्मण पु. कर्म. स. [आचार्यब्राह्मण]. ब्राह्मण जाति में उत्पन्न शिक्षक, ब्राह्मण आचार्य णं द्वि. वि., ए. व. आचरियब्राह्मणं एतदवोच 'सज्झापेहि खो. त्वं ब्राह्मण, इमं दारकं मन्तानीति, मि. प. 9. आचरियमरिया स्त्री. तत्पु, स. [आचार्यभार्या] आचार्य की पत्नी, शिक्षक की पत्नी या प्र. वि. ए. व. - माताति वा मातुच्छाति वा मातुलानीति वा आचरियमरियाति वा गरून दाराति वा दी. नि. 3.53 अ. नि. 1(1).68; - यं द्वि. वि. ए. व. - आचरियभरियं सखि, मातुलानिं पितुच्छवि यदा लोके गमिस्सन्ति जा. अड. 4.164 य च. वि., ए. व. अधिवासेतु अम्हार्क आचरियभरियाय वेरहच्चानिगोत्ताय ब्राह्मणिया स्वातनाय भत्तन्ति, स. नि. 2(2).127. आचरियभाग पु. तत्पु. स. [आचार्यभाग] शिक्षक को दिया जाने वाला शुल्क, आचार्य को देय दक्षिणागो प्र. वि., ए. व. थेरो 'आचरियभागो नामायन्ति कप्पियवसेन गाहापेत्वा पुष्कपूर्ण अकासि पारा. अड्ड. 261; 'अयं ते आचरियभागोति सहस्सं अदासि प. प. अ. 1.143 - गं डि. बि. ए. व. - आचरियधनन्ति आचरियदक्खिणं आचरियभागं अ. नि. अड. 3.67. आचरियमग्ग पु०, तत्पु० स० [आचार्यमार्ग ], आचार्यों द्वारा ग्रहण किया गया मार्ग या आचार-व्यवहार, आचार्यों के कथन का प्रकार ग्गो प्र. वि. ए. व.- "आवुसो, तया पठनं कथितो एवं आचरियमग्गो विसुद्धि. 1.94 आचरियमग्गोति आवरियान कथामग्गो विसुद्धि. महाटी. — Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only · 1.110. आचरियमति स्त्री. तत्पु. स. [आचार्यमति] शिक्षक का विचार अथवा आचार्य का स्पष्टीकरण या तृ. वि. ए. व.- तस्मा आचरियमतिया सुत्तं अपटिबाहेत्वा सुत्तमेव Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचारियमत्त के 00. पमाणं कत्तब्ब, स. नि. अट्ठ. 2.236; - यं सप्त. वि., ए. व. - आचरियमतिकोति आचरियमतियं नियुत्तो तरमा अनतिवत्तनतो, विसुद्धि, महाटी. 1.112; -- क, त्रि. ब. स., आचार्य के विचार का अनुसरण करने वाला, आचार्य द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का अनुयायी, - को पु., प्र. वि., ए. व. - एवरूपो हि तन्तिधरो वंसानुरक्खको पवेणीपालको आचरियो आचरियमतिकोव होति, न अत्तनोमतिको होति, विसुद्धि. 1.97; आचरियमतिकोति आचरियमतियं नियुत्तो ...., विसुद्धि. महाटी. 1.112. आचरियमत्त त्रि., ब. स., वह, जो शील आदि में आचार्य जैसा हो चुका है, पांच वर्षों से अधिक समय से उपसम्पदा प्राप्त भिक्षु, आचार्य-पद पाने योग्य व्यक्ति - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. -- अवस्सिकस्स छब्बस्सो आचरियमत्तो, महाव. अट्ठ. 346; आचरियमत्तोति सीलादिना आचरियप्पमाणो, विसुद्धि. महाटी. 1.333; - त्तेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - आचरियेसु आचरियमत्तेसु उपज्झायेसु उपज्झायमत्तेसु अनुपाहनेसु चङ्कममानेसु सउपाहनेन चङ्कमितब्बं, महाव. 260; उपज्झाये उपज्झायमत्तेसु आचरिये आचरियमत्तेसु सब्बत्थ अनधिकरणेन भवितब्बं अनवसेसकारिना, मि. प. 351. आचरियमहयुग पु., [आचार्यमहायुग], आचार्यों की बहुत पुरानी पीढ़ी - गा प्र. वि., ब. व. - अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगा येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठोति? दी. नि. 1.216; एकाचरियपाचरियोपि, याव सत्तमा आचरियमहयुगापि, म. नि. 2.388. आचरियमुट्ठि स्त्री, तत्पु. स. [आचार्यमुष्टि], शा. अ., आचार्य की बन्द मुट्ठी, ला. अ., विद्यादान या ज्ञान देने में शिक्षक की अनुदार प्रवृत्ति, अपने ज्ञान को अपने तक सीमित रखने की आदत, अपने पास रहस्य छिपाकर शिष्यों को विद्या न देने की प्रवृत्ति - ट्ठि प्र. वि., ए. व. - नत्थानन्द, तथागतस्स धम्मेसु आचरियमुष्टि, दी. नि. 2.78; आचरियमुट्ठी ति ... दहरकाले कस्सचि अकथेत्वा पच्छिमकाले मरणमञ्चे निपन्ना पियमनापस्स अन्तेवासिकस्स कथेन्ति .... दी. नि. अट्ट. 2.123; नत्थानन्द तथागतस्स धम्भेसु आचरियमुट्ठी ति, मि. प. 145; ... न ते अस्थि आचरियमुट्ठीति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.90; - डिं द्वि. वि., ए. व. - बोधिसत्ता नाम सिप्पं वाचेन्ता आचरियमुढिं न करोन्ति, जा. अट्ठ. 2.186; -- ता स्त्री॰, भाव., पक्षपातयुक्त होकर शिक्षक द्वारा सभी को विद्या का रहस्य न बतलाना - य तृ. वि., ए. व. - अम्हाक, महाराज ..., आगतं आचरियवाद पोराणमन्तपदं अस्थि तं मयं आचरियमद्विताय न कस्सचि भणिम्हा, सु. नि. अट्ठ. 2.50. आचरियलेस पु.. [आचार्यलेश], आचार्य का बहाना, आचार्य के रखने का दिखावा ढोंग या पाखण्ड - सो प्र. वि., ए. व. - आचरियलेसो नाम इत्थन्नामस्स अन्तेवासिको दिट्ठो होति, पारा. 266, आचरियवंस पु., तत्पु. स. [आचार्यवंश, आचार्यों की परम्परा, आचार्यों का वंश या पीढ़ियां, आचार्यों के वाद, धार्मिक शाखा - सेन तृ. वि., ए. व. - आचरियवंसेन अधिप्पाया कारणुत्तरियताय.... आचरियवंसोति आचरियवादो, मि. प. 148; पारा. अट्ठ. 1.179. आचरियवच नपुं.. तत्पु. स. [आचार्यवचस्]. आचार्य का वचन, आचार्य की शिक्षा – चो प्र/वि. वि., ए. व. - इदं तदाचरियवचो, पारासरियो यदबवि, जा. अट्ठ. 2.169; जा. अट्ठ. 3.138; इदं तं आचरियस्स वचनं, तदे.; स. उ. प. के रूप में - पुब्बाचरिय.- नपुं, तत्पु. स. [पूर्वाचार्यवचस्], पूर्व-काल के आचार्यों का वचन – चो प्र. वि., ए. व. - सब्बे ते अप्पटिक्खिप्पा, पुब्बाचरियवचो इद, जा. अट्ठ. 2.306; पुब्बाचरियवचो इदन्ति पुब्बाचरिया वुच्चन्ति मातापितरो, इदं तेसं वचन, जा. अट्ट. 2.307. आचरियक्त्त नपुं., तत्पु. स. [आचार्यव्रत], अपने आचार्य के प्रति अन्तेवासी का उचित व्यवहार, आचार्य के प्रति शिष्य का कर्त्तव्य - त्तं प्र. वि., ए. व. - निस्सयन्तेवासिकेन हि याव आचरियं निस्साय वसति, ताव सब्बं आचरियवत्तं कातब्बं, महाव. अट्ट, 254; एवं आचरियवत्तं कत्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.54. आचरियवाद पु.. तत्पु. स. [आचार्यवाद], शा. अ.. आचार्यों का सिद्धान्त, आचार्यों की शिक्षा, ला. अ. 1. अट्ठकथा, - दो प्र. वि., ए. व. - आचरियवादो नाम धम्मसङ्गाहकेहि पञ्चहि अरहन्तसतेहि ठपिता पालिविनिमत्ता ओक्कन्तविनिच्छयप्पवत्ता अट्ठकथातन्ति, पारा. अट्ट. 1.180; - दं द्वि. वि., ए. व. - सुत्तं, सुत्तानुलोम, आचरियवादं अत्तनोमतिन्ति, पारा. अट्ठ. 1.179; ला. अ. 2. मतवाद, धार्मिक निकाय, शिल्पस्थानों अथवा विद्यास्थानों की शाखा, आचार्यों द्वारा स्थापित सिद्धान्त - दं द्वि. वि., ए. व. - सकं आचरियकन्ति अत्तनो आचरियवाद, स. नि. अट्ठ. 3.282; ला. अ. 3. थेरवाद सहित बौद्धधर्म की विभिन्न शाखाएं अथवा निकाय, थेरवाद, महासांघिक, गोकुलिक, एकव्यावहारिक, प्रज्ञप्तिवादी, बाहुलिक, चैत्यवाद, For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचरियसमय महिशासक, वज्जिपुत्तक, धम्मउत्तरीय, भद्रयानिक, छन्नागारिक, सम्मितिय, सब्बत्थिवाद, धम्मगुत्तिक, कस्सपीय, सङ्कन्तिक, सुत्तवाद नामक अठारह शाखाओं को आचार्यवाद कहा गया है; - दा प्र. वि., ब. व. - अञआचरियवादा तु ततो ओरं अजायितुं म. वं. 5.2; तथाचरियवादा च भिन्नरूपा न विज्जरे, चू. वं. 37.227; - दो प्र. वि., ए. व. - अनोत्तरन्तो असमेन्तो च गारव्हाचरियवादो न गहेतब्बो, पारा. अट्ठ. 1.180; - दं द्वि. वि., ए. व. - अकंसाचरियवाद ते महासद्धिकनामक म. वं. 5.4. आचरियसमय पु., तत्पु. स. [आचार्यसमय], आचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त या विषय -- यं द्वि. वि., ए. व. - सक आचरियकन्ति अत्तनो आचरियसमयं म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).74; - ये सप्त. वि., ए. व. - तत्थ आचरियकेति आचरियसमये, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.162. आचरियसादिस त्रि., ब. स. [आचार्यसदक], आचार्य जैसा, आचार्यों के समान - सा पु., प्र. वि., ब. व. - पदकस्म वेय्याकरणा, जप्पे आचरियसादिसा. सु. नि. 600. आचरियसुद्धि स्त्री०, तत्पु. स. [आचार्यशुद्धि], आचार्यों की परम्परा की विशुद्धि, आचार्यों की विशुद्ध पीढ़ी - अत्तनो मतिं पहाय आचरियसद्धिया वत्ता होति.... पारा. अट्ठ. 1.184. आचरिया स्त्री., [आचार्या], भिक्षुणीसङ्घ में प्रवेश पा रही भिक्षुणी की शिक्षिका - सङ्घमित्तायुपज्झाया धम्मपाला ति विस्सुता, आचरिया आयुपाला, काले सासि अनासवा, म. वं. 5.208. आचरियाचरिय पु., तत्पु. स. [आचार्याचार्य], आचार्य का आचार्य, शिक्षक का शिक्षक - यो प्र. वि., ए. व. - यथा आचरियो च आचरियाचरियो च पाळिञ्च परिपच्छञ्च वदन्ति, पारा. अट्ठ. 1.184; - यानं ष. वि., ब. व. - आचरियपाचरियानन्ति आचरियानञ्चेव आचरियाचरियानञ्च, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.157; अ. नि. अट्ट. 2.139. आचरियानी स्त्री., आचरिय + आनी [आचार्यानी], शिक्षक की पत्नी, आचार्य की पत्नी - मातुलादितो भरियायमानी होन्ति, मातुलानी; करुणानी; गहपतानी; आचरियानी, मो. व्या. 3.33. आचरियानुसिट्टि स्त्री., तत्पु. स. [आचार्यानुशिष्टि], आचार्य द्वारा दिया गया अनुशासन या निर्देश, आचार्य की शिक्षा - या तृ. वि., ए. व. - यथा, महाराज, अन्तेवासिको आचरियानुसिडिया विज्ज पञआय सच्छिकरोति, मि. प. 295; दक्खो भालाकारो नानापुप्फरासिम्हा आचरियानुसिडिया पच्चत्तपुरिसकारेन ..., मि. प. 315. आचरियुपासन आचरियासम पु.. कर्म. स. [आचार्यर्षभ]. श्रेष्ठ आचार्य, उत्तम आचार्य - भो प्र. वि., ए. व. - अधिकक्खरवण्णानि ... न बुद्धवचना नीति दीपेताचरियासभो, रूप. 2.86(रो.). आचरियुग्गह पु., तत्पु. स. [आचार्योद्ग्रह]. आचार्य से ग्रहण किया गया या सीखा गया शास्त्र, आचार्य से गृहीत कर्मस्थान - हो प्र. वि., ए. व. - उग्गहेतब्बतो उग्गहो .... आचरियतो उग्गहो आचरियुग्गहो, विसुद्धि. महाटी. 1.309; पवेणिया आगतो आचरियुग्गहोव गहेतब्बो, कुरुन्दियं पन लोकवज्जे आचरियुग्गहो न वट्टति, पाचि. अट्ठ. 117; एत्थ गारव्हो आचरियुग्गहो न गहेतब्बो, तदे. - हं द्वि. _ वि., ए. व. - भिक्खुसङ्घो कतमाचरियानं उग्गहो, अत्तनो आचरियुग्गह व वदत, विसुद्धि. 1.94. आचरियुपज्झाय पु., इत. द्व. स., ब. व. में ही [आचार्योपाध्याय], आचार्य एवं उपाध्याय - या प्र. वि., ब. व. - नो चे अम्हाकं आचरियुपज्झाया गमिस्सन्ति, महाव. 100; तं आचरियुपज्झाया उपट्ठहन्ता नासक्खिंसु अरोगं कात, महाव. 278; - येहि तृ. वि., ब. व. - न, भिक्खवे, आचरियुपज्झायेहि अनुजानितब्बा, महाव. 149;-यानं ष. वि., ब. व. - ... पञ्च वस्सानि आचरियपज्झायानं सन्तिके वसित्वा .... ध. प. अट्ठ. 2.301; - येसु सप्त. वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन भिक्खू आचरियुपज्झायेसु पक्कन्तेसुपि विभन्तेसुपि .... महाव. 79; - क त्रि०, आचार्य एवं उपाध्याय से सम्बन्धित, आचार्य एवं उपाध्याय वाला - आचरियुपज्झायकसिस्सद्धिविहारिवत्तानिपि सब्बसोव, विन. वि. 2915; - वत्त नपुं.. तत्पु. स. [आचार्योपाध्यायव्रत], आचार्य एवं उपाध्याय के प्रति सद्धिविहारिक एवं अन्तेवासिक का उचित व्यवहार, शिक्षकों के प्रति शिष्यों का कर्तव्य - तं प्र. वि., ए. व. -- बोधिवत्तं वा आचरियुपज्झायवत्तं वा योनिसोमनसिकारो वा नत्थि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.159; - त्तानि द्वि. वि., ब. व. - आचरियुपज्झायवत्तानि पानीयपरिभोजनीयउपोसथा गारजन्ताघरादिवत्तानि च साधुकं करोति, जा. अट्ठ. 1.430; -- या स्त्री., द्व. स. [आचार्योपाध्याया]. भिक्षुणी की आचार्या एवं उपाध्याया नामक दो शिक्षिकाएं - याहि त. वि., ब. व. - तस्मा अस्सा आचरियुपज्झायाहि विहारं गन्त्वा सङ्गाहकपक्खे ठितो, चूळव. अट्ठ. 30. आचरियुपासन नपुं., तत्पु. स. [आचार्योपासना, स्त्री.]. आचार्य की सेवा-सुश्रूषा, शिक्षक की सेवा -- नं प्र. वि., ए. व. - अस्थि में महाराज, आगमो अधिगमो... परिपच्छा आचरियुपासनं, मि. प. 122. For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 42 आचार आचरियूपद्दव आचरियूपद्दव पु., तत्पु. स. [आचार्योपद्रव], आचार्य के चित्त में उदित क्लेशों से जनित विपत्ति- वो प्र. वि., ए. व. - एवं सन्ते, खो, आनन्द, आचरियूपद्दवो होति, एवं सन्ते अन्तेवासूपद्दवो होति ..., म. नि. 3.158; - वेन तृ. वि., ए. व. - आचरियूपदवेनाति अब्भन्तरे उप्पन्नेन किलेसूपद्दवेन आचरियस्सुपदवो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.121. आचल त्रि०, अचल के स्थान पर अप. [अचल]. स्थिर, अडिग - ला स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ताहं भूमिमनुप्पत्तो, ठिता सद्धम्ममाचला, अप. 1.51. आचाम पु.. [आचाम]शा. अ., पानी का झाग या फेन, उबाले हुए चावल या भात का झाग, वर्तन की तलहटी पर लगी हुई भात की पपड़ी, ला. अ., अरुचिकर अथवा अस्वादिष्ट खाद्य, भात का मांड़ - मो प्र. वि., ए. व. - निस्सावो च तथा चामो, अभि. प. 466; आचामोति भत्तउक्खलिकाय लग्गो झामकओदनो, तं छड्डितद्वानतोव गहेत्वा खादति, दी. नि. अट्ठ. 1.264; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).358; भुत्वा आचामकुण्डकन्ति ... एत्थ आचामो वुच्चति ओदनावसेसं जा. अट्ठ. 2.241; - मं द्वि. वि., ए. व. - या ते अदासि आचामं, पसन्ना सेहि पाणिभि, वि. व. 186. आचामकञ्जिक नपुं., कर्म. स. [आचामकाञ्जिक], चावल का खट्टा तरल पेय, कांजी- आचामकञ्जिकलोणंदकन्तिपि वदन्ति, वि. व. अट्ठ. 79. आचामकुण्डक नपुं.. कर्म. स., चावल की लाल रंग की भूसी से तैयार किया हुआ पेय, स्नान करते समय प्रयोग में लाया जाने वाला चावल का चूर्ण - कं प्र. वि., ए. व. - बहु तत्थ महाब्रह्मे, अपि आचामकुण्डक, जा. अट्ठ. 2. 241; ध. प. अट्ठ. 2.188; भुत्वा तिणपरिघासं, भुत्वा आचामकुण्डक, ध. प. अट्ठ. 2.188.. आचामकुम्भी स्त्री., तत्पु. स. [आचामकुम्भी], नहाने-धोने के लिए पानी से भरा मटका - भी प्र. वि., ए. व. - आचामकुम्भी सोवण्णा उळुङ्को च अहू तहिं, म. वं. 27.40. आचामदान नपुं, तत्पु. स. [आचामदान], चावल की भूसी की पपड़ी का दान, मांड़ का दान - स्स ष. वि., ए. व. - एतस्साचामदानस्स, कलं नाग्घति सोळसिन्ति एतस्स एताय दिन्नस्स आचामदानरस फलं सोळसभागं कत्वा .... वि. व. अट्ठ. 83. आचामदायिकविमानवण्णना स्त्री., वि. व. अट्ठ. के एक स्थल का शीर्षक, वि. व. अट्ट. 80 83; आचामदायिकाविमानवण्णना निहिता, वि. व. अट्ठ. 83. आचामदायिकविमानवत्थु नपुं., वि. व. के एक खण्ड विशेष का शीर्षक, वि. व. 185-194. आचामदायिका स्त्री.. [आचामदायिका]. भात की पपड़ी या मांड का दान करने वाली स्त्री - का प्र. वि., ए. व. - तत्थ सा सुखिता नारी, मोदताचामदायिका ति, वि. व. 189; मोदताचामदायिकाति आचाममत्तदायिका, सापि नाम पञ्चमे कामसग्गे दिब्बसम्पत्तिया मोदति, वि. व. अट्ठ. 82. आचामभक्ख त्रि., ब. स. [आचामभक्ष], भात की पपड़ी का भोजन करने वाला (तपस्वी)- क्खो पु., प्र. वि., ए. व. -कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिज्ञाकभक्खो वा होति, दी. नि. 1.150; महानि. 309. आचामेहि आ +vचम के प्रेर. का अनु., म. पु., ए. व., केवल अनु., म. पु., ए. व. में ही प्रयुक्त, आचमन कराओ, मुंह हाथ धुलाओ - एहि मल्लिके, आचमेही ति.म.नि. 2.321; आचमेहीति आचमनोदकं देहि, म. नि. अट्ठ. (भ.प.) 2.246. आचार पु.. आ +vचर से व्यु. [आचार]. 1. आचरण, व्यवहार, चाल-चलन, प्रथा, रीति-रिवाज, जीवनयापन करने का प्रकार, लोकाचार - रं द्वि. वि., ए. व. - आचार इसिन बहि, तं सुणोम वचो तवा ति, स. नि. 1(1).273; आचारन्ति यस्मिं जनपदे वसामि तत्थ वसन्तो यथा आचार जनपदचारित्तं सिक्खेय्यं जानेय्य.... जा. अट्ठ. 4.198; - रेन तृ. वि., ए. व. - पापाचाराति पापकेन आचारेन समन्नागता, पाचि. 322; 2. अच्छा आचरण, पवित्र आचरण, सदाचार (अनाचार के विलो. के रूप में प्राप्त), क. तीन प्रकार के अवीतिक्कमों (विनय नियमों के अनुल्लंघन में एक), ख. सम्पूर्ण शीलसंवर, ग. सम्यक् आजीव - रो प्र. वि., ए. व. - आचारगोचरसम्पन्नोति अस्थि आचारो, विभ. 276; विसुद्धि. 1.17; कायिको अवीतिकम्मो वाचसिको अवीतिक्कमो, कायिकवाचसिको अवीतिक्कमो, अयं वच्चति आचारो, विसुद्धि. 1.17; सब्बोपि सीलसंवरो आचारो, तदे.; .... न अञ्जतरञतरेन वा ... मिच्छाआजीवेन जीवितं कप्पेति, अयं वुच्चति आचारो, तदे.; 3. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, इधर-उधर या समीप में विचरण - . ... अधिसि ठावसानं पयोगे तप्पानाचारेस च दुतिया, काले, सद्द. 3.717; तप्पनाचारेसु नदि पिवति गामं चरति इच्चादि, तदे, स. उ. प. के रूप में, अतन्दिता, अना०, अरिया., अवेक्खिता., आजीवसीला.. इच्छा., इस्सा., एवा., ओळारिका., For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचारअक्य 43 आचारगोचरसम्पन्न कुसला., खुद्दा., चित्ता.. दुरा., पटा., पतिता., पसत्था., पापा., भिक्खा., भिन्ना., मिच्छा., मुत्ता., लामका., लुद्दा., विपस्सना., विसेवना., विस्सट्ठा., वेत्ता., वेदिका., संकस्सरा., सद्धम्मा., साधुजना., सीला. के अन्त. द्रष्ट.. आचारअक्य पु., म्यां मां का एक स्थविर, जिसे थेर परम्परा में स्थान प्राप्त नहीं हो सका - यो प्र. वि., ए. व. - तस्मिञ्च काले 'बाह मं अक्यो, आचार अक्यो' ति द्विन्नं भिक्खूनं च लोकधम्मेसु छेकताय द्वे विहारे कत्वा अदासि, सा. वं. 99. आचारअरिय त्रि., तत्पु. स. [आचारार्य], सदाचार के कारण आर्य अथवा उत्तम, आचार-विचार में उत्तम, विशुद्ध जीवनवृत्ति वाला - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अरियोति चत्तारो अरिया आचारअरियो लिङ्गअरियो दस्सनअरियो पटिवेधअरियोति, जा. अट्ठ. 2.34; अरियोति आचारअरियो अरियस्साति आचारअरियस्स, जा. अट्ठ. 3.312; अरियोति इध आचारअरियो अधिप्पेतो. जा. अट्ठ. 4.260; - येहि तृ. वि., ब. व. - ... अरियप्पवेदिते ति ये राजानो आचारअरियहि धम्मिकराजूहि पवेदिते दसविधे राजधम्मे रता, जा. अट्ट. 3.391. आचारउपचार त्रि., [आचारोपचारज्ञ], सदाचार एवं विनम्र शिष्टाचार का ज्ञाता - जू पु., प्र. वि., ए. व. - आचारउपचाररुपे धम्मानुच्छविसंवरं अप. 1.353. आचारकिरिया स्त्री., तत्पु. स. [आचारक्रिया], शिष्टाचार एवं सदाचार का अभ्यास, अच्छा आचरण - सु सप्त. वि., ब. व. - वत्ते गुणे पटिपत्ति, आचारकिरियासु च अप. 1.342, 347. आचारकुलपुत्त पु., तत्पु. स. [आचारकुलपुत्र], सदाचार या उत्तम आचरण के कारण सत्पुरुष - त्तो प्र. वि.. ए. व. - कुलपुत्तेनाति द्वे कुलपुत्ता आचारकुलपुत्तो जातिकुलपुत्तो च, स. नि. अट्ट. 2.44; .... कुलपुत्तोति आचारकुलपुत्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.3; - त्ता प्र. वि., ब. व. - कुलपुत्ताति आचारकुलपुत्ता, स. नि. अट्ठ. 1.180; - त्तानं ष. वि., ब. व. - सब्बेसंयेव इमेसं कुलपुत्तानन्ति ब्रह्मचरियचिण्णकुलपुत्तान, दी. नि. अट्ठ. 2.237. आचारकुसल त्रि, तत्पु. स. [आचारकुशल], सदाचार का पालन करने में कुशल - लो पु.. प्र. वि., ए. व. - पटिसन्थारखुत्यस्स, आचारकुसलो सिया, ध. प. 376; आचारकुसलोति सीलम्पि आचारो, वत्तपटिवत्तम्पि आचारो, तत्थ कुसलो सिया, छेको भवेय्याति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.346; - लेन पु., तृ. वि., ए. व. - वुत्ताचारविपत्तीति, आचारकुसलेन सा, विन. वि. 3105. आचारकोसल्ल नपुं॰, भाव. [आचारकौशल्य], सदाचार में कुशलता - तो प. वि., ए. व. - ततो पटिसन्थारखुत्तितो च आचारकोसल्लतो च..... ध. प. अट्ट. 2.346. आचारगुणसम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [आचारगुणसम्पन्न, सदाचार एवं उत्तम गुणों से परिपूर्ण - न्नो पु.. प्र. वि., ए. व. - आचारगुणसम्पन्नो, वत्तसीलसमाहितो, बु. वं. 23.13. आचारगोचर पु., द्व. स. [आचारगोचर], सदाचार तथा आचरण का क्षेत्र, उत्तम आचरण एवं सात्विक प्रवृत्ति - रे सप्त. वि., ए. व. - ते पन आचारगोचरे एकतो कत्वा दस्सेतु. जा. अट्ठ. 2.26; आचारगोचरे युत्तो, आजीवो सोधितो अगारव्हो, थेरगा. 590; युत्तहानभूतेन गोचरेन च युत्तो सम्पन्नो, सम्पन्नआचारगोचरोति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 2.178; स. उ. प. के रूप में, पाप.- त्रि., पापमय आचरण एवं प्रवृत्तियों वाला - रं पु., द्वि. वि., ए. व. - पापिच्छं पापसङ्कप्पं, पापआचारगोचरं सु. नि. 282; - रे पु., वि. वि., ब. व. - निद्धमित्वान पापिच्छे, पापआचारगोचरे स. नि. अट्ठ. 2.44. आचारगोचरनिद्देस पु., तत्पु. स. [आचारगोचरनिर्देश]. आचार एवं गोचर का व्याख्यान - से सप्त. वि., ए. व. - आचारगोचरनिद्देसे किञ्चापि भगवा समणाचरं समणगोचरं कथेतुकामो ..., विभ. अट्ठ. 316. आचारगोचरसम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आचारगोचरसम्पत्ति], उत्तम आचरण के अभ्यास की संपत्ति, सदाचार के अनुसरण का धन – त्ति प्र. वि., ए. व. - एतन्ति आचारगोचरसम्पत्ति आजीवपारिसुद्धि इन्द्रियेसु गुत्तद्वारताति एतं तयं, थेरगा. अट्ठ. 2.179.. आचारगोचरसम्पन्न त्रि., [बौ. सं. आचारगोचरसम्पन्न, शा. अ., सदाचार (उत्तम आचरण) तथा इसके उचित क्षेत्र से युक्त, ला. अ., उत्तम आचरण वाला तथा उत्तम आचरण वाले तीन क्षेत्रों में विचरण करने वाला, उत्तम आचरण के सतत अभ्यास में लगा हुआ - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - सो एवं पब्बजितो समानो पातिमोक्षसंवरसंवतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, दी. नि. 1.55%; आचारगोचरसम्पन्नोति आचारेन चेव गोचरेन च सम्पन्नो. For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचारदिद्रि ब. व. दी. नि. अ. 1.149; महानि, अट्ठ. 96; आचारगोचरसम्पन्नोति इदमस्स पातिमोक्खसंवरस्स उपकारकधम्मपरिदीपनं, महानि. अड्ड. 94 आचारगोचरसम्पन्नोति मिच्छाजीवपटिसेधकेन न वेळुदानादिना आचारेन... पाचि, अट्ठ 47 इति इमिना थ आचारेन इमिना च गोचरेन उपेतो... तेन युच्चति आचारगोबरसम्पन्नोति, विसुद्धि. 1.18 न्ना पु. प्र. कि. पातिमोक्खसंवरसंयुता विहस्थ आचारगोचरसम्पन्ना अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्साविनो, म. नि. 1.41; आचारगोचरसम्पन्नाति आचारेन च गोचरेन च सम्पन्ना, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 ( 1 ) . 164-165. आचारदिट्टि स्त्री०, द्व० स० [आचारदृष्टि ] उत्तम आचरण एवं सम्यक् दृष्टिविषयक अतिक्रमण या अपराध - या तृ.वि., ए. व. सीलविपत्तिया चोदेति, अथो आचारदिद्विया, परि० 304; आचारदिट्टियाति आचारविपत्तिया चेव दिद्विविपत्तिया च परि० अट्ट० 204 ; तुल. आचारविपत्ति. आचारपञ्ञति / आचारपण्णत्ति स्त्री, तत्पु. स. [आचारप्रज्ञप्ति ], उत्तम आचरण के विषय में विनय की शिक्षा, सदाचार विषयक आज्ञा या निर्देश- त्ति प्र. वि. ए. व. ओवाददायके निस्साय आचारपण्णत्तिविनयो वा सुसिक्खितो न भवेय्य जा. अड. 3.326 केवलं तत्थ सिक्खा संयमो नियमो सीलगुणआचारपण्णत्ति अत्थरसो धम्मरसो विमुत्तिरसो, मि. प. 183: पुब्बभागपटिपदाति च सीलं आचारपञ्ञत्ति धुतङ्गसमादानं याव गोत्रभुतो सम्मापटिपदा वेदितना दी. नि. अड. 2.152 - सिक्खापद नपुं., तत्पु० स० [आचारप्रज्ञप्तिशिक्षापद], विनय के वे शिक्षापद, जिनमें उत्तम आचरण से सम्बन्धित आज्ञा या निर्देश दिए गए हैं दं प्र. वि. ए. व. भिक्खून मेत्तचित्तेन आचारपञ्ञत्तिसिक्खापदं, कम्मट्ठानकथनं धम्मदेसना तेपिटकम्पि बुद्धवचनं मेत्तं वचीकम्मं नाम, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1 (2). 289. आचारपटिपत्ति स्त्री० तत्पु० स० [आचारप्रतिपत्ति], उत्तम आचरण को व्यवहार में उतारना, व्यवहार में सदाचार का अनुसरण, सदाचार की वास्तविक पूर्णता त्ति प्र. वि. ए. व. आचारपटिपत्ति ते बाळ्हं खो मम रुच्चति, अप० 1.373; स. प. के अन्त, यदि तत्थ बुद्धपुत्ता आचारसीलगुणवत्तपटिपत्तिमेघवस्सं अपरापरं अनुष्पबन्धापेच्युं अभिवस्सापेच्युं... मि. फ. - 135. - - -- - www.kobatirth.org — 44 आचारविपत्ति आचारवत्त नपुं [आचारवृत्त]. सदाचार, उत्तम आचरण का व्रत या पवित्र कृत्य, उत्तम जीवनवृत्ति तेन तृ. वि., ए. व. विनीतवन्तन्ति विनीतेन आचारवत्तेन समन्नागतं. जा. अड. 5.405. आचारवन्तु त्रि.. आचार वन्तु से व्यु [आचारवत् ], + सदाचारी, उत्तम आचरण का पालन करने वाला वा पु., प्र. वि., ए. व. सचे पन जातिकुलपुत्तो आचारवा होति., स. नि. अड्ड 2.44. आचारविकार पु. तत्पु. स. [आचारविकार], सदाचार का ह्रास, उत्तम आचरण में गड़बड़ी का आ जाना रं द्वि० वि. ए. व. नानावण्णपटिमण्डितञ्च तालवण्टं गहेत्वा आचारविकारं आपज्जिसु सा. वं. 96. आचारविद्विगाम पु०, श्रीलङ्का में अनुराधपुर से तीन योजन दूर पूर्वोत्तर दिशा में स्थित एक प्राचीन गांव का नाम - म्हि सप्त॰ वि॰, ए॰ व॰ - आचारविद्विगामम्हि सोळसकरिसे तले, म. वं. 28.13: नगरतो तियोजनमत्थके हाने पुबउत्तरकण्णे आचारविद्विगामे तियामरतिं थू, वं. 219220 (रो.). आचारविनय पु.. तत्पु स [आचारविनय] उत्तम - आचरण सम्बन्धी नियम यं द्वि. वि. ए. व. - विनयन्ति 'एवं अभिक्कमितब्बन्तिआदिकं आचारविनयं न जानाति, ओवादञ्च न सम्पटिच्छति जा. अट्ट. 4.217. आचारविपत्ति स्त्री, तत्पु. स. [आचारविपत्ति], चार प्रकार की विपत्तियों में दूसरी पातिमोक्खसुत में निर्दिष्ट थुल्लच्चय, पाचित्तिय, पाटिदेसनीय दुक्कट एवं दुब्बासित नामक अपराध, उत्तम आचरण का ह्रास या हानि, सदाचार के पालन में असफलता या विमुखता ति प्र. वि. ए. व. थुल्लच्चयं पाचित्तियं पाटिदेसनीयं दुक्कटं दुब्भासितं अयं आचारविपत्ति, महाव. 242 वृत्ताचारविपत्ती ति आचारकुसलेन सा विन. वि. 3105 त्तिं द्वि. वि. ए. अथाचारविपत्ति थे, पटिच्छादेति दुक्कटं उत्त, वि. 175; या तृ.वि., ए. व. सीलविपत्तिया वा उपेसि आचारविपत्तिया वा ठपेसि, महाव. 242; अमूलिकाय सीलविपत्तिया अमूलिकाय आचारविपत्तिया पातिमोक्ख उपेति इमानि द्वे अधम्मिकानि पातिमोक्खद्वपनानि चूळव 399; सीलविपत्तिया वा आचारविपत्तिया वा अत्तानं उक्करोतुकामताय वा परं वम्भेतुकामताय वा न उपवदेय्य स. नि. अड. 3.73; - चोदना स्त्री०, पातिमोक्ख में प्रज्ञप्त ( पाराजिक एवं पाचित्तिय) गम्भीर अपराधों को छोड़ शेष व. - For Private and Personal Use Only ... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org आचारविपन्न 45 आचारसीलगुणवत्तपटिपत्ति अपराधों के विषय में अपराधी भिक्षु को प्रेरक वचन कहना, आणबलञ्च सुचिभावञ्च जानाति, जा. अट्ठ. 7.186; - या डांटना फटकारना अथवा पापकर्म की निन्दा करना - तृ. वि., ए. व. - एवं वुत्तभिक्खुसारुप्पआचारसम्पत्तिया, अवसेसानं वसेन आचारविपत्तिचोदना .... पारा, अट्ठ. उदा. अट्ठ. 182. 2.157; - पच्चय पु., कारण के रूप में पाराजिक एवं आचारसम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [आचारसम्पन्न], सदाचारी, पाचित्तिय के अतिरिक्त शेष अपराध - या प. वि., उत्तम आचरण एवं व्यवहार का अनुसरण करने वाला, ए. व. - आचारविपत्तिपच्चया एक आपत्तिं आपज्जति, सभी के प्रति उचित सम्मानभाव आदि रखने वाला - न्नो परि. 201; - पुच्छा स्त्री., [आचारविपत्तिपृच्छा], पु., प्र. वि., ए. व. - अपिच यो भिक्खु सत्थरि सगारवो आचारविपत्ति अर्थात् थुल्लपच्चय आदि अपराधों के विषय सप्पतिस्सो सब्रह्मचारीसु ... अयं वुच्चति आचारसम्पन्नो, में प्रश्न - विपत्तिपुच्छाति - सीलविपत्तिपुच्छा, उदा. अट्ट. 182; यो भिक्खु... भोजने मत्तञ्जागरियानुयुत्तो आचारविपत्तिपुच्छा, दिढिविपत्तिपुच्छा, आजीवविपत्तिपुच्छा, सतिसम्पजओन समन्नागतो अप्पिच्छो ... गरुचित्तीकारबहुलो परि. 324. विहरति, अयं वुच्चति आचारसम्पन्नो, इतिवु. अट्ट, 269; आचारविपन्न त्रि., तत्पु. स. [आचारविपन्न], उत्तम आचरण ... एवं सीलसम्पन्नो, एवं आचारसम्पन्नोति आदिगुणकथनं से रहित, अच्छे आचरण से विहीन, पाराजिक एवं पाचित्तिय परम्मुखा मेत्तं वचीकम्म नाम होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) को छोड़ शेष पांच प्रकार की आपत्तियों में फंसा हुआ -- 1(2).139; 'अयं सीलवा गुणवा लज्जिपेसलो न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अधिसीले सीलविपन्नो होति, आचारसम्पन्नोति वा नत्थि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.2023; अज्झाचारे आचारविपन्नो होति. महाव. 82; परि. 2443; - न्नेन पु., तृ. वि., ए. व. - 'अहं के निस्साय एवं इतरे पञ्चापत्तिक्खन्धे आपन्नो अज्झाचारे आचारविपन्नो आचारसम्पन्नेन पुत्तेन वियोग पत्तो ति? ध. प. अट्ठ. नाम, महाव. अट्ठ. 258; आचारविपन्नो नाम पञ्च 2.104; - स्स पु.. प. वि., ए. व. - एतं आपत्तिक्खन्धे आपन्नो, परि. अट्ठ. 166. आचारसम्पन्नस्स अरियरस कल्याणं उत्तमवचनं, जा. अट्ठ. आचारविहार पु., तत्पु. स. [आचारविहार]. उचित व्यवहार, 4.383. सदाचारमयी जीवनवृत्ति - रे सप्त. वि., ए. व. - राजा आचारसिक्खापन न., तत्पु. स., उत्तम आचरण की तस्साचारविहारे पसीदित्वा तं निमन्तापेत्वा पासादतले पल्लङ्के शिक्षा, सदाचार का सिखलाना - नेन त. वि., ए. व. - निसीदापेत्वा, ... जा. अट्ठ. 3.310. तस्मा इदानिपि नो आचारसिक्खापनेन आचरियो भवाति आचारसंयम पु., स. प. के अन्त. प्राप्त [आचारसंयम], आह, जा. अट्ठ. 5.378. आचरण के विषय में संयम, सदाचार- परायण होने के आचारसील नपुं, कर्म. स. [आचारशील], 'चतुक्क' लिए प्रयास स. प. के. रूप में - यावता लोके शीर्शक में शील के विभाजनों में से एक, सामाजिक सुगतागमपरियत्तिआचारसंयमसीलसंवरगणा, सब्बे ते रीति रिवाज, परम्परा से चली आ रही सामाजिक भिक्खुसमुपगता भवन्ति, मि. प. 185. प्रथा, सामाजिक व्यवहार से सम्बद्ध नियम - लं प्र. आचारसमाचारसिक्खापक/सिक्खापनक त्रि.. ('आचरिय' वि., ए. व. - कुलदेसपासण्डानं अत्तनो अत्तनो शब्द के सर्वाधिक मान्य निर्वचन के सन्दर्भ में प्रयुक्त), मरियादाचारित आचारसील, विसुद्धि. 1.16; उत्तम आचरण एवं व्यवहार की शिक्षा देने वाला (आचार्य) कुलदेसपासण्डधम्मो हि आचारसीलन्ति अधिप्पेतं, विसुद्धि. - को पु.. प्र. वि., ए. व. - नत्थि आचरियो नामाति महाटी. 1.35. आचारसमाचारसिक्खापको आचरियो नाम कोचि नत्थि, पे. आचारसीलगुणवत्तपटिपत्ति स्त्री.. तत्पु. स. व. अट्ट. 219; - कं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि [आचारशीलगुणव्रतप्रतिपत्ति], आचारशीलों, गुणों एवं व्रतों भिक्खवे आचरियन्ति आचारसमाचारसिक्खापनकं आचरियं । आदि का व्यवहार में पालन - यदि तत्थ बुद्धपुत्ता अनुजानामि, महाव. अट्ठ. 254. आचारसीलगुणवत्तपटिपत्तिमेघवस्सं अपरापरं अनुप्पबन्धापेव्यु आचारसम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आचारसम्पत्ति], उत्तम अभिवस्सापेय्यु, मि. प. 135; - या तृ. वि., ए. व. - आचरण रूपी सम्पदा, अत्यन्त उत्तम आचरण, आचरण में योगिना योगावचरेन आचारसीलगुणवत्तप्पटिपत्तिया उच्चता - तिं द्वि. वि., ए. व. - आचारसम्पत्तिञ्च आगमाधिगमे पटिसल्लाने, मि. प. 357.. For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचारसीलसम्पन्न 46 — आचारसीलसम्पन्न त्रि. तत्पु० स० [ आचारशीलसम्पन्न ]. शा. अ. आचारशील से सम्पन्न, विशेष अर्थ इक्कीस प्रकार के वर्जित जीविका साधनों से जीविकोपार्जन न करने वाला तथा चार मार्गफलों में प्राप्त शीलों से परिपूर्ण (व्यक्ति) - न्नो पु०, प्र. वि., ए. व. पु. प्र. वि. ए. ब. आचारसीलसम्पन्नो निसे अग्गीव भासति जा. अड़, 4.387 न्ना स्त्री. प्र. वि. ए. व. - तस्सेका धीता अभिरूपा पासादिका आधारसीलसम्पन्ना हिरोतप्पसमन्नागता केवलं निच्चप्पहसितमुखा, जा. अड. 1.393 ने पु.. सप्त, वि., ए. व. - आचारसीलसम्पन्ने, सीतिभूते अनासवे, जा. अ. 3.364; आचारसीलसम्पन्नेति एकवीसतिया अनेसनाहि जीविककप्पनं अनाचारो नाम, तस्स पटिपक्ोन आचारेन चेव भग्गफलेहि आगतेन सीलेन च समन्नागते, जा. अट्ट. - 3.365. आचारहीन त्रि, तत्पु० स० [आचारहीन ], सदाचार या उत्तम आचरण का अनुसरण न करने वाला, दुराचारी, दस प्रकार के हीन व्यक्तियों में एक नो पु., प्र. वि., ए. व. आचारहीनो महाराज, पुग्गलो....फे.... कम्महीनो महाराज, पुग्गलो... पे.... पयोगहीनो महाराज पुग्गलो लोकस्मिं ओज्ञातो अवज्ञातो हीळितो खीळितो गरहितो परिभूतो अचित्तीकतो. मि. प. 267. " आचिक्खक त्रि. आ + चिक्ख चक्ख से व्यु कहने वाला घोषित करने वाला, निर्देश या सङ्केत देने वाला - को पु. प्र. वि. ए. व. चिक्खति आधिक्खति अम्भाचिक्खति आधिक्खको चक्खति बक्खु, सद. 2.332. आचिक्खति आ + √चक्ख // चिक्ख का वर्त० प्र० पु०, ए. व. [आचष्टे / आचक्षते / आख्याति ], कहता है, उपदेश देता है, दरसाता है, विज्ञापित करता है, प्रतिपादित करता है, प्रकाशित करता है, विभाजित करके स्पष्ट करता है, सूचित करता है, व्याख्या करता है घोषणा करता हैआधिक्खतीति कथेति, देसेतीति दस्सेति पञ्ञापेतीति जानापेति, पद्वपेतीति आणमुखे उपेति विवरतीति विवरित्वा दरसेति विभजतीति विभागतो दस्सेति, उत्तानीकरोतीति पाकटं करोति, स. नि. अट्ठ. 2.36; आचिक्खति नाम पुट्ठो भणति - "एवं देहि, पारा 190; - सि म० पु०, ए. व. अच्छेरमाचिक्खसि पुत्रञसिद्धि, जा. अट्ठ 7.133; - से आत्मने. म. पु. ए. व. पथ आधिक्खसे तुवं अप. 1.81 पथं आधिक्खरोति.... निब्बानाधिगमनुपायं आधिक्खसे कथेस देसेसि विभजि उत्तानिं अकासीति अत्थो, अप. अट्ट. आचिक्खति " 2.48; - क्खामि उ. पु. ए. व. आचिक्खामीति कथेमि अ. नि. अह. 2.348; न्ति प्र. वि. व. व. - यं तं अरिया आधिक्खन्तीति पदनिदेसे पन... देसेन्तीति आदीनि सब्बानेव अञ्ञमञ्ञ वेवचनानि, विभ. अट्ट, 350; न्तो वर्त कृ पु. प्र. वि., ए. व. अत्थं आचिक्खन्तोपि यथा सो न जानाति सु. नि. अ. 1.14344; आनन्दयेरेन पुट्टो सितकारणं आधिक्खन्तो आह. ध. प. अड. 2.44 न्ती उपरिवत् स्त्री० एवं पन तेन इसिना पुच्छिता उब्बरी अत्तना अधिप्पेतं ब्रह्मदत्त आधिक्खन्ती, पे. व. अड. 143:- तु अनु. प्र. पु. ए. व. आधिक्खतु च मे भन्ते, भगवा दुक्ख, स० नि० 1 (2).20; क्ख म. पु. ए. व. आधिक्ख में तं यमहं विजञ्जन्ति जा. अड. 3.318: क्खाहि उपरिवत् आनन्दसेट्टि पुत्तस्स ते पञ्च महानिधियों आधिक्खाही ति आधिक्खापेत्या सहापेसि, ध. प. अट्ठ. 1.265; क्खथ म० पु०, ब० व. भन्ते आचिक्खथाति भिक्खु पुच्छति म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1 (2).149; "मातरं मे आचिक्खथा "ति पुच्छित्त्वा ..." तं मे आचिक्खथाति आह ध. प. अ. 2.81 क्खेय्य विधि, प्र. पु. ए. व. मूव्हरस वा मग्गं आधिक्खेय्य, पारा. 6; मग्गं आचिक्खेय्याति हत्थे गहेत्वा एस मग्गोति वदेव्य पारा. अनु. 1. 129 क्खेय्याथ विधि. म. फु. ब. व. "सचे मे, भन्ते, पब्बज्जिते निस्सये आचिक्खेय्याथ, अभिरमेय्यामहं महाव. 66: - क्खि अय., प्र. पु. ए. व. - अथ खो आयस्मा अज्जुको तं ओकासं तस्स दारकस्स आचिक्खि, पारा, 79. क्खिं अद्य, उ. पु. ए. व. अहह करसचि नाचिक्खि चरिया 403; - क्खिसु अद्य प्र. पु. ब. व. तरस भिक्खू पटिकच्चेव निस्सये आचिक्खिसु, महाव. 65; - क्खिस्सा काला०, प्र० पु०, ए. व. सचे तथा सत्था नाचिक्खिस्सा... उदा. अट्ठ. 100; - क्खितुं निमि कृ. लम्भा सोवण्णमयाय लहिया धज्ञपुजोपि सुवणपुजोपि आचिक्खितुन्ति, कथा. 189; अनुजानामि, भिक्खवे, उपसम्पादेन्तेन चत्तारो निस्सये आचिक्खितुं महाव. 65 क्खितब्ब त्रि. सं. कृ. - उपज्झायेन आचिक्खितब्बं एवं धोवेय्यासीति, महाव, 59क्खित्वा / क्खित्वान पू. का. कृ. वन्दित्वा तं पवत्तिं विवित्वा... उदा. अड. 145 आचिक्खित्वान तं मग्गं निब्बुता ते ससावकाति . वं. 28.20. विखयमान - त्रि वर्त. कृ. कर्म. वा. - ने सप्त वि. ए. व. तथागतेन एवं आचिविखयमाने देसियमाने... न जानाति न .... 60; For Private and Personal Use Only - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - — Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचिक्खन आचिण्ण पस्सति, स. नि. 2(1).126; - मानं नपुं., द्वि. वि., ए. व. ओदिस्सआचिक्खना, पाचि. अट्ठ. 171; दुक्खस्स - तन्ति आचिक्खियमानं तमेव कम्म, तं वा मम वचनं, अरियसच्चस्स आचिक्खना देसना पञआपना पठ्ठपना विवरणा थेरीगा. अट्ट, 293; - क्खापेत्वा प्रेर., पू. का. कृ. - "ते विभजना उत्तानीकम्म, म. नि. 3.297; आचिक्खनाति पञ्च महानिधियो आचिक्खाही ति आचिक्खापेत्वा सद्दहापेसि. देसेतब्बानं सच्चादीनं इमानि नामानीति नामवसेन कथना, ध. प. अट्ठ. 1.265; - चिक्खित त्रि., भू. क. कृ. .... अथ वा आचिक्खनाति देसनादीनं छन्नं पदानं मूलपद, [आचष्ट/आख्यात], उद्घोषित, कथित, बतलाया गया पटि. म. अट्ठ. 2.169. -- तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पवेदितन्ति वेदितं पवेदितं आचिक्खितु पु., आ +चिक्ख से व्यु., क. ना. आचिक्खितं देसितं पापितं पट्टपितं विवट विभत्तं [आचष्ट्र/आख्यात]. कहने वाला, प्रतिपादित करने वाला, उत्तानीकतं पकासितन्ति, महानि. 137; मय्हं ताव तया सङ्केतक, प्रकाशक - तारं द्वि. वि., ए. व. - 'इमं गहेत्वा आचिक्खितं.ध. स. अट्ठ. 317;- ते सप्त. वि., ए. व. - सुखेन जीवा ति आचिक्खितारं विय, ध, प. अट्ठ. 1.309. सचे आचिक्खिते पटिग्गण्हाति, आपत्ति दुक्कटस्स, पाचि. आचिण्ण त्रि., आ + चर का भू. क. कृ. [आचीर्ण], 1. बार 111; - मग्ग पु., कर्म. स. [आख्यातमार्ग], उपदिष्ट बार किया गया - ण्णं नपुं. प्र. वि., ए. व. - आचिण्णन्ति मार्ग, कथित मार्ग - ग्गेन तृ. वि, ए. व. - तेन अभिण्हसो कतं, एकवारं कत्वापि वा अभिण्हसो समासेवितं. आचिक्खितमग्गेन गच्छन्तो पुन पन्नरसयोजनप्पमाणे ठाने अभि. ध., वि. टी. 154; 2. सामान्य स्वभाव के रूप में अजंतापसं दिस्वा.... पे. व. अट्ट, 133; - सज्ञा स्त्री., व्यवहार में उतारा हुआ, सामान्य या सुपरिचित आचरण - कर्म. स. [आख्यातसंज्ञा], बतलाया हुआ ज्ञान - य तृ. ण्णं उपरिवत् - अनाचिण्णं तथागतेन आचिण्णं तथागतेनाति वि., ए. व. - द्वे हंसपोतका पितरा आचिक्खितसाय • दीपेति, आचिण्णं तथागतेन अनाचिण्णं तथागतेनाति दीपेति. तत्थ गन्त्वा ..., जा. अट्ठ. 2.31. महाव. 476; चूळव. 195; 344; अरियाचरितन्ति अरियेहि आचिक्खन/आचिक्खण न., आ + चक्ख/चिक्ख से बुद्धादीहि आचिण्णं, जा. अट्ठ. 3.366; - ण्णो पु., प्र. वि., व्यु., क्रि. ना. [आचक्षण/आख्यान], कथन, उद्घोषणा, ए. व. - अपि च ... सब्ब बोधिसत्तानं एस आचिण्णो प्रतिपादन, कुछ पूछे जाने पर उत्तर के रूप में कथन - समाचिण्णो पोराणकमग्गो, जा. अट्ठ.4.364; - ण्णा स्त्री., नं प्र. वि., ए. व. - आचिक्खनं नाम पट्ठस्स “एवं देहि एवं प्र. वि., ए. व. - “महाराज, याचना हि नामेसा कामभोगीनं देन्ता सामिकरस पिया भविस्ससि, मनापा चाति भणनं. गिहीनं आचिण्णा, जा. अट्ठ. 3.312; - ण्णानि नपुं.. प्र. कडा. अभि. टी. 214; स. प. के रूप में - ओभासेय्याति वि., ब. व. - इमानेव हि वे भोजनानि वट्टे सत्तानं अवभासेय्य वण्णावण्ण याचनआयाचनपुच्छनपटिपुच्छन आचिण्णानि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).4; 3. नपुं. आचिक्खणा-नुसासनअक्कोसनवसेन नानप्पकार निर्धारित परिपाटी या रीति, व्यवहार में लाई गई परम्परा असद्धम्मवचनं वदेय्य, कसा अट्ठ. 131; अपिचेतं बुद्धानं - ण्णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - मातापितुपोसकं नाम अनाचिण्णं, यं अनागतस्स ईदिसस्स वत्थुस्स आचिक्खनं. पोराणकपण्डितानं आचिण्णमेवाति, स. नि. अट्ठ. 1.232; उदा. अट्ठ. 212; - णे सप्त. वि., ए. व. - बोधिसत्तस्स इदमेव हि पोराणानं आचिण्णं स. नि. अट्ठ. 1.241; 4. त्रि. पन सीलरक्खणआचिक्खणे सज अकत्वा, जा. अट्ठ. 3. आचरण या अनुसरण करने वाला - ण्णो पु., प्र. वि., ए. 393; आचरियसमो सत्तानं कुसलसिक्खापने, सदेसकसमो व. - कुक्कुरादिवताचिण्णो कुक्कुरादि सहव्यतं. सद्धम्मो. सत्तानं खेमपथमाचिक्खणे, मि. प. 188. 90; 5. नपुं.. तौर-तरीका, अभ्यास, आदत, स्वभाव - ण्णं आचिक्खणा/आचिक्खना स्त्री., उपरिवत्, शा. अ., प्र. वि., ए. व. - आचिण्णं खो पनेतं बुद्धानं भगवन्तानं विस्तृत व्याख्या, स्पष्ट रूप से निर्वचन, सूचना, विशेष आगन्तुकेहि भिक्खूहि सद्धि पटिसम्मोदितुं, महाव. 66; अर्थ, भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट आर्यसत्य, अष्टांगिक आचिण्णं खो पनेतं वस्संवुढानं भिक्खूनं भगवन्तं दस्सनाय मार्ग आदि का विभाजन करके तथा एक एक अंगों का नाम उपसङ्कमितुं, पारा. 108; आचिण्णं निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स लेकर कहा गया कथन - आचिक्खना नाम पुट्ठो भणति पञपेतु न्ति, म. नि. 2.39; 6. स. प. के अन्त. प्राप्त, पूर्व - एवं मरस्सु, ... ताय आचिक्खनाय मरिस्सामीति दुक्खं में किया गया आचरण, पूर्वोदाहरण - वेदनं उप्पादेति ..., पारा. 93; तत्थ अतीतं आरब्भ अस्थि आवासानुमताचिण्णममथितं जलोगि च, म. वं. 4.10; For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचिण्णकप्प 48 आचिनाति आवासानुमताचिण्णं ति आवासकप्पं अनुमतिकप्पं आचिण्णकप्पं चा ति अत्थो, म. वं. टी. 122 (ना.); स. उ. प. के रूप में अना., दीघरत्ता., पब्बज्जा ., पुब्बा.. बुद्धा., ब्रह्मचरिया., योग्गा., लोका., सावका., सुत्तकारा. के अन्त. द्रष्ट.. आचिण्णकप्प पु., पूर्वकाल में प्रचलित व्यवहार या आचरण का सही होना, द्वितीय बौद्ध-सङ्गीति के समय की दस विवाद वस्तुओं में एक, पूर्वकालीन उदाहरणों पर आधारित आचरण - प्पं द्वि. वि., ए. व. - आवासानुमताचिण्णं ति आवासकप्पं अनुमतिकप्पं आचिण्णकप्पं चा ति अत्थो, म. वं. टी. 122 (ना.); आचिण्णकप्पं... यं उपज्झायाचरियेहि कतं कप्पिय वा अकप्पियं वा तं तेहि कतत्ता येव कातुं वट्टतीति इमं आचिण्णकप्पं च, म. वं. टी. 123 (ना.); - प्पेन तृ. वि., ए. व. - ते पोराणकेन आचिण्णकप्पेन भिक्खू पस्सित्वा उपधावन्ति, महाव. 99; - प्पो प्र. वि., ए. व. - दस वत्थूनि दीपेन्ति - .. कप्पति आचिण्णकप्पो, . .. कप्पति जातरूपरजतन्ति, चूळव, 463; आचिण्णकप्पो खो आवसो, एकच्चो कप्पति, एकच्चो न कप्पतीति, चूळव. 470. आचिण्णचङ्कमन त्रि., ब. स. [बौ. सं. आचीर्णचंक्रमण]. चंक्रमण करने में अभ्यस्त - नो पु., प्र. वि., ए. व. - थेरो आरद्धवीरियो आचिण्णचमनो, तस्मा पच्छिमयामे चङ्कमनं ओतरि ध. प. अट्ठ. 1.12. आचिण्णपरिचिण्ण त्रि., सतत रूप में आचरण किया गया, लगातार व्यवहार में अनुसरण किया हुआ, बार बार अभ्यास किया हुआ - त्ता नपुं., भाव., प. वि., ए. व. - तस्मा अहं दीघरत्तं मेत्ताभावनाय आचिण्णपरिचिण्णत्ता अक्कोधनो जातोति, जा. अट्ट. 2.163. आचिण्णविसय पु., कर्म, स. [आचीर्णविषय], सुपरिचित विषय, पहले से अच्छी तरह जानी हुई वस्तु या विषय - ये सप्त. वि., ए. व. - एवमेव आचिण्णविसये तस्स राग आगन्तुकविसयेन नीहरित्वा .... उदा. अट्ठ. 139. आचिण्णसमाचिण्ण त्रि.. कर्मस. [आचीर्णसमाचीर्ण], बारबार आचरण किया हुआ, वह, जिसका अभ्यास व्यापक रूप में या भली-भांति किया गया है, स्वभाव या आदत का अङ्ग बन चुका - ण्णो पु., प्र. वि., ए. व. - अयहि कबळीकारो आहारो नाम इमेस सत्तानं अपायलोकेपि देवमनुस्सलोकेपि आचिण्णसमाचिण्णोव, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1(2).140; गणवासो नामायं वट्टे आचिण्णसमाचिण्णो नदीओतिण्णउदकसदिसो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.1143; अपिच सतं पण्डितानं सब्ब बोधिसत्तानं एस आचिण्णो समाचिण्णो पोराणकमग्गो, जा. अट्ट. 4.364. आचित 1. त्रि., आ +चि का भू. क. कृ. [आचित]. ऊपर तक फैला हुआ, परिव्याप्त - आचितं निचितं भवे, अभि. प. 701; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - मंसलोहिताचिताति मसेन च लोहितेन च आचिता, दी. नि. अट्ठ. 3.101; मंसलोहिताचिता तचोत्थता, उपरिचरणसोभना अहु, दी. नि. 3.116; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अन्तलिक्खेति आकासे अलङ्कतमणिकञ्चनाचित न्तिपि पाठो, वि. व. अट्ठ. 151; 2. त्रि., राशीकृत, पुजीभूत, उत्पन्न कराया गया, प्रादुर्भूत कराया गया - ता स्त्री.. प्र. वि., ब. व. - एवमेव तेभूमककुसलेन चिता चुतिपटिसन्धियो, ध. स. अट्ठ. 258; पाठा. चिता; सोपि अपरिमितमसङ्घयेय्यकप्पे समाचितकुसलमूलो ब्राह्मणकुलकुलीनो .... मि. प. 326; स. उ. प. के रूप में, मासा.- त्रि.. तत्पु. स., उड़द से भरा हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - मासाचित मति , म. नि. 1.416; तस्स मे कायो गरुको अकम्मो मासाचितं मजे, अ. नि. 3(1).153; - त्त नपुं., भाव., परिपूर्णता, भरपूर होना, सञ्चित होना, पुजीभूत होना - त्ता प. वि., ए. व. - कतत्ता आचितत्ता च, गङ्गा भागीरथी अयं, अप. 28, 77. आचिनाति आ + चि का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आचिनोति]. शा. अ., ढेर लगा देता है, पुजीभूत बना देता है, ला. अ., (कुशल अथवा अकुशल कर्मों की) वृद्धि कर देता है, पुजीभूत करके या बहुत बड़े ढेर के रूप में उत्पन्न कर देता है, घटित कराता है - अयं वुच्चति, भिक्खवे, भिक्खु नेवाचिनाति न अपचिनाति, ..., स. नि. 2(1).84: अपचिनाति नो आचिनातीति वट्ट विनासेति, नेव चिनाति, सः नि. अट्ठ. 2.262; नेव चिनातीति न वड्डेति, स. नि. टी. 2.213; नेवाचिनतीति कुसलाकुसलानं पहीनत्ता तेसं विपाकं न वड्डेति, महानि. अट्ठ. 70; तेभूमकुसलं वट्टस्मि चुतिपटिसन्धियो आचिनाति वड्डेतीति आचयगामी नाम होति, ध. स. अट्ठ. 258; - नं/नन्तो वर्त. कृ.. पु.. प्र. वि., ए. व. - बालो पूरति पापस्स, थोक थोकम्पि आचिन न्ति, ध. प. 121; एवं बालपुग्गलो थोकं थोकम्पि पापं आचिनन्तो करोन्तो वड्वेन्तो पापस्स पूरतियेवाति अत्थो, ध. प. अट्ट. 2.10; - नतो उपरिवत्, ष. वि., ए. व. - एवमाचिनतो दुक्खं आरा निब्बान वच्चति, थेरगा. 795. For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचीयति www.kobatirth.org न आचीयति/आचिय्यति आ + √चि के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु. ए. व. [आचीयते] ढेर लगा दिया जाता है, बढ़ा दिया जाता है, पुञ्जीभूत कर दिया जाता है चीयती तस्स नरस्स पापं, सचे न चेतेति वधाय तस्स, जा. अट्ठ. 5.7; पाठा. चीयति; आचयगामित्तिके कम्मकिलेसेहि आचियतीति आचयो, घ. स. अड्ड. 91 यन्तो वर्त. कृ. पु. प्र. वि. ए. क. आचेय्यमानोति मंसलोहितेहि आचियन्तो वड्ढन्तो, तरुणोव हुत्वाति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.7. आचेर पु.. [आचार्य ] आचार्य, शिक्षक, अध्यापक, द्वि. वि., ए. व. अहं पतिञ्च पुत्ते च आचेरमिव माणवो, जा. अट्ठ. 7.338; तत्थ आचेरमिव माणवोति वत्तसम्पन्नो अन्तेवासिको आचरियं विय पटिजग्गति जा. अड. 7.339 र सम्बो. ए. व. अत्तानमेव गरहासि एत्थ आचेर यं तं निखणन्ति सोमेति, आचेर यं तन्ति आचरिय, येन कारणेन तं निखणन्ति सोब्भे, जा० अट्ठ. 4. -- 222. आचेरक नपुं० [आचार्यक], अध्ययन का विषय, शिल्पस्थान, विद्या की विशेष शाखा, व्यवसाय, सिद्धान्त, मतवाद - म्हि के सप्त. वि., ए. व. सगारयो बुडतरेसु भिक्खुसु आवेरकम्हि च सके विसारदो महाव. 483 आचेरकम्हि च सकेति अत्तनो आचरियवादे, महाव. अ. 411: धम्मिं कथं भारति सच्चनामो, सकस्मिमाचेरके अप्पमत्तोति, पे. व. 554. आजज्ञ पु. [बौ. सं. आजन्य] अच्छी नस्ल वाला घोड़ा ( बैल या हाथी), अपने स्वामी के अभिप्राय, संकेत या इशारे को ठीक से समझने वाला घोड़ा जो प्र. वि. ए. व. - आजञ्ञ कुरुते वेगन्ति सारथिस्स चित्तरुचितं कारणं आजाननसभावो आजञ्ज जा. अड. 1.181; आजज्ञोति आजानीयो जातिमा कारणाकारणानं आजाननको थेरगा, अट्ठ 1.69 द्वि. वि. ए. व. अल्लरोहितमच्छ वा आज वा आजञ्ञरथं वा उसमें वा गाविं वा कपिलं वा खु. पा. अट्ठ, 95; स. उ. प. के रूप में, कुञ्जरा. - पु .. कर्म. स. [बौ. सं. कुञ्जराजन्य] अच्छी नस्ल का हांथी, मालिक के सङ्केतों को समझने वाला समझदार हांथी - तं कुञ्जराजज्ञयानुचिष्णं, पावेक्खि अन्तेपुरमरियसेहो ति जा. अह 7.182 पुरिसा. पु.. कर्म. स. [ पुरुषाजन्य]. उत्तम प्रकृति का पुरुष ज्ञ संबो. ए. व. नमो ते पुरिसाजज्ञ, नमो ते पुरिसुत्तम दी. नि. 3.149 सु. नि. 49 दुल्लभो पुरिसाजज्ञ, न 549; - ञ्ञ प्र. वि., ए. व. सो सब्बत्थ जायति, ध० प० 193. आजञातक पु०, एक जातक का शीर्षक, जा. अ. 1.181-182. - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजज्ञयुक्त त्रि. ब. स. [ आजन्ययुक्त]. वह रथ, जिसमें अच्छी नस्ल वाले घोड़े लगाए हुए हों, अच्छी नस्ल के घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा (रथ) - तो पु०, प्र. वि., ए. व. यथा हि आजज्ञयुतो रथो आजञ्ञरथोति दुच्चति, कङ्क्षा. अड्ड. 217; त्ता ब.व. आजज्ञयुक्त्ता च रथा तवेव, सक्कोहमस्मी तिदसानमिन्दो, जा० अट्ठ. 5.19. आजञ्ञरथ पु०, तत्पु. स. [आजन्यरथ], ऊंची नस्ल के घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा रथ थो प्र. वि., ए. व. यथा हि आजज्ञयुत्तो रथो आजञस्थति दुष्यति कहा. अड. 217; सक्कस्स देवानमिन्दस्स सहस्सयुक्तो आजअरथो स. नि. 1(1).260; थं हि. वि. ए. व. पुत्तस्स आजञ्ञरथं, कञ्ञाय मणिकुण्डलं, जा. अट्ठ. 2.353; सहस्रसयुत्तं आजज्जरथं पहिणिस्सामि म. नि. 2.276. आजञ्ञवळवा स्त्री०, कर्म. स. अच्छे नस्ल की घोड़ी - य' ष. वि., ए. व. अथस्सा रत्तिभागसमनन्तरे आजञ्ञवळवाय गभट्ठानं अहोस, ध. प. अट्ठ 1.223; अ. नि. अ. 1.305; य सप्त. वि., ए. व. इमस्मि पन गेहे आजानेय्यवळवाय विजाताय राज्ञम्पि अकत्वा निसीदितु नाम अयुत्त न्ति, ध. प. अट्ठ 1.225; पाठा. आजानेय्यवळवा. आज संयुक्त्त त्रि तत्पु. स. [आजन्यसंयुक्त] ऊंची नस्ल के घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा रथ - त्ता पु०, प्र. वि., ब व.- रथा वाजञ्ञसंयुत्ता, सदा पातुभवन्ति मे अप. 2.53: ते पु.. सप्त वि. ए. व. रथे चाजज्ञसंयुत्ते, सुकते वित्तसिब्बने सु. नि. 302, 306. आजञ्ञहय पु॰, कर्म. स. [ आजन्यहय], अच्छी नस्ल का घोड़ा येहि तु. वि. ब. व. - कुञ्जराजज्ञयानुचिष्णन्ति कुञ्जरेहि च आजज्ञयेहि च अनुचिष्णं परिपुष्णं जा. अट्ठ. 7.183. - For Private and Personal Use Only आजव - - आजव पु. आ + √जु से व्यु. [आजव, बौ. सं. आजवजव], शा. अ., वेग, तेज धारा, तेजी से बह रहा प्रवाह, ला. अ.. पुनर्जन्म के समय से ही मन की धारा में तेजी से दौड़ रहीतृष्णा - वं द्वि. वि., ए. व. गेधं ब्रूमि महोघोति आजवं ब्रूमि जप्पन, सु. नि. 951; आजवं ब्रूमि जप्पनन्ति, आजवं 'जप्पनाति ब्रूमि, महानि, 320: आजवन्ति आपटिसन्धितो जवति धावतीति आजदं वट्टमूलताय पुनब्भवे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजवनट्ठ 50 आजानिय पटिसन्धिदानतण्हायेतं अधिवचनं महानि. अट्ठ. 353; किञ्च भिय्यो- अवहननटेन 'ओघोति च आजवनद्वेन "आजवन्ति च, सु. नि. अट्ठ. 2.259. आजवनट्ठ पु., तत्पु. स. [आजवनार्थ], वेग के साथ दौड़ने का अर्थ-द्वेन त. वि., ए. व. - ओघोति च आजवनद्वेन 'आजवन्ति , सु. नि. अट्ठ. 2.259. आजानन नपुं., आ +vञा से व्यु., क्रि. ना. [आज्ञान]. सुस्पष्ट ज्ञान, अच्छी समझ - तो प. वि., ए. व. - दुतियं आजाननतो इन्द्रियट्ठसम्भवतो च अञिन्द्रियं विसुद्धि. 2.118; आजाननतोति पठममग्गेन दिट्ठमरियाद अनतिक्कमित्वाव जाननतो, विसुद्धि. महाटी. 2.173; - ने सप्त. वि., ए. व. - आतानं एव धम्मानं पुन आजानने अज्ञाताविभावे इन्द8 कारेतीति अाताविन्द्रियं तदे. - क त्रि., ठीक से जानने वाला/वाली - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अञिन्द्रियन्ति आजाननक इन्द्रियं ध. स. अट्ठ. 280; तेन मग्गेन जातानं चतुसच्चधम्मानमेव जाननतो इन्द्रियट्ठसम्भवतो च आजाननक इन्द्रियं अअिन्द्रियं, पटि. म. अट्ठ. 1.75-76; - नत्थिक त्रि., [आज्ञानार्थिक]. सुस्पष्ट ज्ञान पाने की इच्छा रखने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अञत्थिको ति आजाननत्थिको, पे. व. अट्ठ 195. आजानाति आ +vञा का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आजानाति], ठीक से जानता है, अच्छी तरह से समझता है, सीखता है, अनुभव करता है - वेदो ति विदति सखमम्पि कारण आजानातीति वेदो, सद्द. 2.390; - न्ति ब. व. - उपमायपिधेकच्चे विजू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति, म. नि. 3.190; - सि म. पु., ए. व. - न त्वं इम म्मिविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, दी. नि. 1.59; म. नि. 2205-206; एवं वित्थारेन अत्थं आजानासि, म. नि. 3.101; - मि उ. पु., ए. व. - यथा यथाहं, भन्ते भगवता धम्म देसितं आजानामि, महाव. 253; -- थ म. पु., ब. व. - तुम्हेपि मे, भिक्खवे, एवं धम्म देसितं आजानाथ, म. नि. 1.186; -- म उ. पु.. ब. व. - यथा खो मयं, आवुसो, भगवता धम्म देसितं आजानाम, महाव. 391; - नं/न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - को सोत्थिमाजानमि धावजेय्या ति, जा. अट्ठ. 5.27; एवाभिजानं परमन्ति अत्वा, महानि. 60; एवं अभिजानन्तो आजानन्तो विजानन्तो पटिविजानन्तो..... तदे. -- न्तेन त. वि., ए. व. - यथा तं सुतवता सावकेन सम्मदेव सत्थुसासनं आजानन्तेन, म. नि. 1.207; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ए. व. - धम्मञ्च सेट्ठ अभिजानमानो, सु. नि. 1070; पाठा. अभिजानमानो; - हि अनु., म. पु.. ए. व. - आजानाहि निग्गहं यदि तत्तं दहति, मि. प. 44; - नेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - विसमे पञ्च नीवरणे विसमाति जानेय्य आजानेय्य .... महानि. 29; - नेय्यु ब. व. - मया संखित्तेन भासितस्स एवं वित्थारेन अत्थं आजानेय्यु.... म. नि. 3.107; - नेय्याथ म. पु., ब. व. - अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितं दुब्भासितं आजानेय्याथाति ? दी. नि. 1.3; - नेय्याम उ. पु., ए. व. - यथा मयं... वित्थारेन अत्थं आजानेय्यामा ति. म. नि. 1.359; - आसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - यदा भगवा अासि यसं कुलपुत्तं कल्लचित्तं ..., महाव. 20; -- जासिं अद्य., उ. पु., ए. व. - अजासिं खो अहं, आनन्द, म. नि. 3.257; - निंसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - सासनं आजानिसूति अनुसिद्धिं जानिंसु, अ. नि. अट्ठ. 3.181; - निस्सति भवि०, प्र. पु.. ए. व. – “को इमं धम्म खिप्पमेव आजानिरसती ति, महाव. 10; -- निस्सामि उ. पु., ए. व. – “भगवतो सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थं आजानिस्सामीति.म.नि. 2.225; -- निस्ससि म. पु.. ए. व. - किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, दी. नि. 1.7; - निस्सन्ति प्र. पु.. ब. व. - "इमे नो सुभासितदुभासितं आजानिस्सन्तीति, स. नि. 1(1).257; - निस्सथ म. पु., ब. व. - आजानिस्सथ मे तान्ति ? म. नि. 2.156; - निस्साम उ. पु., ब. व. - भगवतो सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थं आजानिस्सामाति, म. नि. 1.118; - ञातुं/नितुं निमि. कृ. - दूरतोपि खो मयं आतुसो, आगच्छाम... एतस्स भासितस्स अस्थमञातुं म. नि. 1.18; विपटिबला सुभासितदुभासित... अजानितुं पारा. 189; - माय/नित्वा पू. का. कृ. - कस्स त्वं धम्ममआय, गिरं भाससि एदिसिं थेरीगा. 317; - जेय्य/नितब्ब त्रि., सं. कृ. - अजेय्योति आजानितब्बो, अ. नि. अट्ठ. 3.116; - जात त्रि.. भू. क. कृ. - अज्ञातमेतं अविसय्हसाहि, जा. अट्ठ. 5.8. आजानिय/आजानीय/आजानेय्य पु./त्रि.. [बौ. सं. आजनिय/आजानीय/आजानेय/ आजानेय्य], ऊंची नस्ल का घोड़ा, बहुत अच्छा घोड़ा, आज्ञा को समझने वाला घोड़ा, क. उत्तम अश्व, अच्छी नस्ल का सधा हुआ घोड़ा - भेदो अस्सतरो तस्साजानीयो तु कुलीनको, अभि. प. For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजानिय 51 आजानीयवत 369; - यो प्र. वि., ए. व. - आजानियेको पन कि देसेस्सामि तयो च भद्दे पुरिसाजानीये, अ. नि. 3(1).207; - करिस्सति.... जा. अट्ठ. 7.166; - या ब. व. - आजानीयाव या प्र. वि., ब. व. - "इमे खो, भिक्खवे, तयो भद्दा जातिया, सिन्धवा सीघवाहना, जा. अट्ठ. 7.362; परमा वा पुरिसाजानीया ति, अ. नि. 3(1).210; - भद्दा पु., कर्म. अग्गा सेट्ठा आजानीया सब्बालङ्कारेहि अलङ्कता हया अस्सा, स०, भद्र प्रकृति का, अच्छी नस्ल का, स्वामी के हित एवं वि. व. अट्ठ, 62; - यं द्वि. वि., ए. व. - आजानीयमदासहन्ति अहित को समझने वाला अश्व - ओरसं पुत्तं आजानीयं उत्तमजातिसिन्धवं अहं अदासिं पुजेसिन्ति अत्थो. भद्दाजानीयसदिसकिच्चताय आजानीयन्ति, थेरगा. अट्ठ. अप. अट्ट. 2.75; - ये द्वि. वि., ब. व. - आजानीयेव 1.123; महा.- पु., कर्म, स., महान ज्ञानी एवं संयमी - जातिया सिन्धवे सीघवाहने, जा. अट्ठ. 7.257; ख. अच्छी महाजानियो खो आळारो कालामो, ..., म. नि. 1.229; नस्ल वाला बैल, गज, एवं चौपाया – “अत्थि नु खो एतेसं सिन्धवा.- पु., कर्म. स., सिन्धु देश का उत्तम अश्व - गुन्नं अन्तरे इमानि सकटानि उत्तोरेतुं समत्थो ... पदं कोट्टेन्तो सिन्धवाजानीयो विय गच्छति, स. नि. अट्ठ. उसभाजानीयो ति..., जा. अट्ठ. 1.193; आजानीयोति हत्थी (मू.प.) 1(2).151. वा होतु अस्सादीसु अञ्जतरो वा, यो कारणं जानाति, अयं आजानीयझायित नपुं., तत्पु. स., हित एवं अहित को ठीक आजानीयोव चतुप्पदानं सेट्ठोति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 1.31; से जानने वाले सिन्धी घोड़े जैसा ध्यान – आजानीयझायितं ग. उत्तम गुणों एवं ज्ञान से परिपूर्ण होने के कारण उत्तम खो, सद्ध, झाय, मा खळुङ्कझायितं, अ. नि. 3(2).291; अश्व के समान बुद्ध एवं क्षीणास्रव शिष्य - आजानीयो वत, कथञ्च सद्ध आजानीयझायितं होतीति कथं कारणाकारणं भो, समणो गोतमो, स. नि. 1(1).32; ब्यत्तपरिचयटेन जानन्तस्स सिन्धवस्स झायितं होति, अ. नि. अट्ठ. 3.342. कारणाकारणजाननेन वा आजानीयो, स. नि. अट्ठ. 1.72; आजानीयवान नपुं., तत्पु. स. [आजानीयस्थान], कारण भगवापि युगे युत्तो सुदन्तआजानीयो विय एत्तक पस्सन्तो एवं अकारण (हित अथवा अहित) को ठीक से जानने वाले गच्छति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.275; घ. सामणेरों को का स्थान या अवस्था, हित अहित को भलीभांति जानने प्रशिक्षित करने के कारण अनुरुद्ध थेर के लिए प्रशिक्षक वाला अश्व अथवा ऊंचे ज्ञान एवं संयम वाला व्यक्ति - के तात्पर्य में प्रयुक्त - आजानीयेन आजओ, थेरगा. 433; ने सप्त. वि., ए. व. - अनाजानीयेव समाने आजानीयठाने आजानीयेनाति पुरिसाजानीयेन ... कतकिच्चेन अनुरुद्धेन ठपिम्ह, म. नि. 2.33; अहो वत मं मनुस्सा आजानीयट्ठाने ... सुख वा आजओ कारितो दमितो, थेरगा. अट्ठ. 2.95; ठपेय्यु, अ. नि. 3(2).141-42. ङ. कारण एवं अकारण का अच्छी तरह से ज्ञान रखने आजानीयपरिमज्जन नपुं.. तत्पु. स. [आजानीयपरिमार्जन]. वाला आचार्य - आचरियो नो, आवुसो, उजु आजानीयो, हित एवं अहित को जानने वाले सिंधी घोड़े की मालिशविसुद्धि. 1.95; कारणाकारणस्स आजाननतो आजानीयो, नं द्वि. वि., ए. व. - आजानीयपरिमज्जनञ्च विसुद्धि. महाटी. 1.111; स. उ. प. के रूप में - अस्सा .- परिमज्जेय्युन्ति , अ. नि. 3(2).142, 144. पु., सधा हुआ उत्तम नस्ल का घोड़ा, सिन्धी घोड़ा - यो आजानीयभोजन नपुं., तत्पु. स. [आजानीयभोजन], ऊंची प्र. वि., ए. व. - अस्साजानीयो उसमाजानीयो पुरिसाजानीयो नस्ल वाले सिंधी घोड़े को दिया जाने वाला भोजन - नं खीणासवोति, स. नि. अट्ट. 2.253; उसमा.- पु., कर्म. द्वि. वि., ए. व. - आजानीयेव समाने आजानीयभोजन स., ऊंची नस्ल का प्रशिक्षित सांढ़ - उपरिवत्, भोजिम्ह, म. नि. 2.33; आजानीयभोजनञ्च भोजेय्यु, अ. गन्धहत्था.- पु., कर्म. स., ऊंची नस्ल का बलवान हाथी नि. 3(2).142. - सेय्यथापि नाम गन्धहत्थाजानियो दीघरत्तं सुपरिदन्तो, आजानीयलण्ड नपुं., तत्पु. स., ऊंची नस्ल वाले सिंधी दी. नि. 2.130; निसभा.- पु., कर्म. स. [ऋषभाजानीय], घोड़े की लीद - स्स ष. वि., ए. व. - आजानीयलण्डस्स शा. अ., उत्तम नस्ल का सांढ़, ला. अ., मनुष्यों के गन्धं घायित्वा एकोपि हत्थी नदिं ओतरितुं न उस्सहि, जा. बीच में सर्वोत्तम (बुद्ध)- पूजितं देवसङ्घन निसभाजानिय अट्ठ. 2.16. यथा, अप. 1.198; पुरिसा.- पु., कर्म. स., उत्तम प्रकृति आजानीयवत नपुं.. तत्पु. स. [आजानीयव्रत], कारण एवं वाला पुरुष, आस्रवों को क्षीण कर चुका तथा प्रज्ञाविमुक्ति अकारण के पूर्ण ज्ञाता होने की अवस्था, ऊंचे नस्ल वाले को प्राप्त अर्हत् – ये द्वि. वि., ब. व. - ... भद्दे अस्साजानीये घोड़े के स्वभाव से युक्त होना, उच्चता, उत्तम प्रकृति - For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजानीयसदिस 52 आजीव ता प्र. वि., ए. व. - आजानीयो वत, भो समणो गोतमो, कुच्छिआळिन्दमेव च, म. वं. 35.3; घरा.- घर का आंगन आजानीयवता च समप्पन्ना... अधिवासेति अविहञमानोति. -रे सप्त. वि., ए. व. - घरे ओहीयित्वा घराजिरे ठत्वा, स. नि. 1(1).32. विसुद्धि. 1.139. आजानीयसदिस त्रि., उत्तम प्रकृति या स्वभाव वाले (उत्तम आजीव पु., [आजीव]. 1. जीविका, जीविका कमाने का अश्व) जैसा - स संबो., ए. व. - इसिनिसभाति इसीसु साधन, व्यवसाय, धन्धा - आजीवो वत्तनं चाथ कसिकम्म निसभ आजानीयसदिस, वि. व. अट्ट. 220. कसीस्थियं, अभि. प. 445; - वो प्र. वि., ए. व. - एतं आजानीयसद्द पु., तत्पु. स. [आजानीयशब्द], ऊंचे नस्ल आगम्म जीवन्तीति आजीवो, विसुद्धि. 1.29; - स्स ष. वि., वाले सिंधी घोड़े की हिनहिनाहट, उत्तम अश्व की आवाज ए. व. - अम्हाकम्पि दुल्लद्धं, ये मयं आजीवरस हेतु -- दो प्र. वि., ए. व. - ... जातरस रथसद्दो च आजानीयसद्दो पुत्तदारस्स कारणा सेनाय आगच्छामा ति, पाचि. 142, धजसद्दो च समन्ता असनिपातसद्दो विय अहोसि, स. नि. - सत नपुं.. द्व. स., सौ प्रकार के जीविका कमाने के अट्ठ. 1.300. साधन - ते प्र. वि., ब. व. - एकूनपास आजीवसतेति आजानीयसुसूपमा स्त्री./त्रि., 1. उच्च कुल वाले सिंधी एकनपञआस आजीवत्तिसतानि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) अश्व के बद्देड़े या शिशु की उपमा, 2. उच्चकुलीन छोटे 2.165; 2. जीवनवृत्ति – वो प्र. वि., ए. व. - परिसुद्धो अश्व की उपमा से युक्त, बहेड़े की उपमा वाला – मं पु.. मे आजीवो परियोदातो असंकिलिडोति, चूळव. 322: अ. द्वि. वि., ए. व. - तेन समयेन अहुवत्थ यदा खो अहं नि. 2(1).116; - वेन तृ. वि., ए. व. - तेन कम्मेन तेन आजानीयसुसूपमं धम्मपरियायं देसेसिं. म. नि. 2.117; आजीवेन हत्थियायी वा अस्सयायी, अ. नि. 2(2).21; 3. आजानीयसुसूपमं धम्मपरियायं देसेसिन्ति तरुणाजानीयउपमं जीविका कमाने के उचित साधन, विनय नियमों के अनुरूप कत्वा धम्म देसयिं म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.113. जीवनयापन, विनय अनुमोदित जीवनवृत्ति - वो प्र. वि., आजानीयस्स पु., कर्म. स. [आजानीयाश्व], हित एवं ए. व. - मा मे आजीवो भिज्जी ति आजीवभेदभया तं अहित को जानने वाला उत्तम नस्ल का घोड़ा, मालिक के भेसज्ज पजहि न उपजीवि, मि. प. 217; - वं द्वि. वि., इशारों को समझने वाला सिंधी घोड़ा - स्सं द्वि. वि., ए. ए. व. - नेव भिन्देय्यमाजीवं, चजमानोपि जीवितान्ति. मि. व.- तत्थ आजञ्जन्ति इमं आजानीयस्सञ्च मणिञ्चाति, प. 336; स. उ. प. के रूप में खेत्ता.- त्रि., ब. स., खेती जा. अट्ठ.7.165. से जीविका कमाने वाला, किसान - वो पु., प्र. वि., ए. आजानेय्यप्पमाण त्रि., ब. स. [आजानीयप्रमाण], व. - खेत्ताजीवो कस्सकोथ, अभि. प. 447; गणना. - उच्चकुलीन घोड़े की लम्बाई चौड़ाई वाला - णं पु., द्वि. त्रि., ब. स., गणना करके जीविका कमाने वाला - वानं वि., ए. व. - गब्भपातनसमत्थं घोररूपं आजानेय्यप्पमाणं च./ष. वि., ब. व. - गणकाणं गणनाजीवानं दिस्सति, काळवण्णं महाकण्हसुनखं मापेत्वा, जा. अट्ठ. 4.162. म. नि. 3.50; ञाया.- पु., आर्यमार्ग के अनुसरण की आजानेय्यवळवा स्त्री., कर्म. स. [आजानीयवडवा], ऊंचे जीवनवृत्ति, उत्तम आचरण से युक्त जीवन, स. प. के रूप नस्ल की उत्तम घोड़ी, सिंधी घोड़ी- य सप्त. वि., ए. व. में - सो वोदानलक्खणो आयाजीवप्पवत्तिरसो - इमस्मि पन गेहे आजानेय्यवळवाय विजाताय सञ्जम्पि मिच्छाजीवप्पहानपच्चुपवानो, ध. स. अट्ठ. 260; परिसुद्धा. अकत्वा ..., ध. प. अट्ट, 1.225; अ. नि. अट्ट, 1.306. - त्रि., ब. स. [परिशुद्धाजीव], परिशुद्ध जीवनवृत्ति वाला आजायति आ +vजन का वर्त, प्र. पू., ए. व. [आजायते]. - वो पु., प्र. वि., ए. व. - अपरिसुद्धाजीवो समानो उत्पन्न होता है, जन्म लेता है - रे आत्मने., ब. व. - 'परिसुद्धाजीवोम्ही ति पटिजानाति, चूळव. 322; - ताय सचे एन्ति मनुस्सत्तं, अड्डे आजायरे कुले. स. नि. 1(1).40.. स्त्री., भाव., तृ. वि., ए. व. - ताय च पन परिसुद्धाजीवताय आजि स्त्री., [आजि], युद्ध, लड़ाई, संघर्ष, रणक्षेत्र - नेवत्तानुक्कंसेस्साम न परं वम्भेस्सामा ति, म. नि. 1.344; आजित्थी आहवो युद्धमायोधनं च संयुगं, अभि. प. 399. भिन्ना. - त्रि., ब. स., नष्ट हो चुके जीविका के साधन आजिर नपुं., आजि से व्यु. [अजिर], आंगन, क्षेत्र, प्रदेश; वाला, वह, जिसका जीविका का साधन टूट गया है- वो केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, कुच्छि .- कोरव का क्षेत्र पु., प्र. वि., ए. व. - परिभूतो अचित्तीकतो, भिन्नाजीवोत्वेव या प्रदेश - रं द्वि. वि., ए. व. - कुच्छिआजिरं कारेसि सङ्घ गच्छति, मि. प. 215; मिच्छा . - पु.. कर्म. स., For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आजीवक " 2.346. जीविका कमाने का अनुचित साधन - वेन तु. वि., ए. व. ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवन जीवितं कप्पेन्ति, दी. नि. 1.8; सम्बहुला - त्रि., जीविका के भिन्न भिन्न प्रकार के साधन अपनाने वाला, जीविका कमाने के प्रचुर साधनों वाला - वो पु. प्र. वि. ए. व. - किं पनायें सम्बहुलाजीव सब्बं संभक्खेति, दी. नि. 3.31; सम्मा. - पु. तत्पु. स. [सम्यगाजीव], जीविका कमाने के विशुद्ध साधन, शुद्ध जीवनवृत्ति वेन तृ॰ वि॰, ए॰ व॰ मिच्छाआजीवं पहाय सम्माआजीवेन जीवितं कप्पेति, दी. नि. 2234 सुद्धा. त्रि. ब. स. [ शुद्धाजीव ] परिशुद्ध जीविका साधन अपनाने वाला, अच्छी या पवित्र जीवन-वृत्ति वाला वे पु.द्वि. वि. ब. व. मिते भजस्सु कल्याणे सुद्धाजीवे अतन्दिते ध. प. 376: साधुजीविताय सुद्धाजीये ध. प. अट्ठ आजीवक / आजीविक पु. आजीव से व्यु [आजीवक]. बुद्ध के समय का एक प्रमुख एवं सम्मानित धार्मिक सम्प्रदाय इसके अनुयायी गृहत्यागी श्रमण थे तथा अचेलक या नग्न रहते थे, इसके एक प्रमुख आचार्य मक्खलि गोसाल को बौद्ध साहित्य में कट्टर नियतिवादी अथवा अक्रियावादी बतलाया गया है, आजीवक संभवतः बौद्धों के कट्टर प्रतिद्वन्दी थे को प्र. वि. ए. व. आजीवकोति नग्गसमणको, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 ( 1 ). 161; आजीवको नग्गपरिब्याजको अ. नि. अड्ड. 3.87 के द्वि. वि. ए. नाभिजानामि कञ्चि आजीवकं सग्गूपगं अञ्ज्ञत्र एकेन. म. नि. 2158: केन तु वि. ए. व. महापुरिसो वाराणसिं गच्छन्तो... उपकेनाजीवकेन समागच्छ सु. नि. अट्ठ. 1.217; स्स च. / ष. वि., ए. व. धम्मं सोतुकामा आजीवकस्स एतमत्वं कथेत्वा ध. प. अड्ड. 1. 211; क संबो., ए. व. आजीवकाति आजीवहेतु पब्बजित पट्टतापस, जा. अड. 2.316 का प्र. वि., ए. आजीवका वा यदि वा निगण्ठा, सु. नि. 383 - के द्वि. वि., ब. व. आजीवके उय्योजेसि, पाचि० 300; कानं ष. वि., ए. व. आजीवकान मिच्छातपं आरम्भ कथेसि जा. अड. 1.470 केसु सप्त. वि., ब. व. बिम्बिसारस्स प्रतिसालोहितो आजीवकेसु पब्बजितो होति पाचि, 103: पब्बज्जा स्त्री० तत्पु० स० [आजीवकप्रव्रज्या] आजीवक के रूप में दीक्षा, आजीवकों के सम्प्रदाय में दीक्षा लेना, आजीवक की दीक्षा ज्जं द्वि० वि., ए. व. आजीवकपब्बज्जं पब्बजित्वा अचेलको -— - व. व. " ... - — www.kobatirth.org - 53 आजीवमकसील अहोसि जा. अट्ट. 1.373; हत्था दढाति आजीविकपब्बज्जं पब्बजितकाले उण्हपिण्डपातपटिग्गहणे हत्यापि किरस्स दड्डा, जा. अट्ठ. 3.477; सावक पु०, तत्पु, स. [आजीवक श्रावक ] आजीवकों का शिष्य या अनुयायी को प्र. वि. ए. व. अथ खो अञ्ञतरो आजीवकसावको गहपति येनास्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि अ. नि. 1 ( 1 ) 248 - स्स च. वि., ए. व. अञ्ञतरस्स आजीवकसावकस्स महामत्तस्स सङ्घभत्तं होति चूळव. 294; केहि तृ. वि. ब. क. अञ्ञतरो उपासको सम्बहुलेहि आजीवकसावकेहि सद्धिं उय्यानं अगमासि चूळद. 250 सुत्त नपुं. अ. नि. का एक सुत्त, अ. नि. 1 (1).248-49; सेय्या स्त्री० तत्पु० स० [आजीवकशय्या], आजीविकों के लिए शय्या अथवा शयन का स्थान यं द्वि. वि., ए. व. अथ खो सो पुरिसो दण्डितो भिक्खुनूपस्सयस्स अविदूरे आजीवकसेय्यं कारापेत्या आजीवके उप्योजेसि पाचि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 300. - आजीवकारण नपुं० तत्पु० स०, आजीविका का कारण, जीविकोपार्जन के लिए णा प. वि. ए. व. आजीवहेतु आजीवकारणा पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं अभूतं उत्तरिमनुस्सधम्मं उत्तपति परि. 202: तत्थ अज्झाजीवेति आजीवहेतु आजीवकारणा भिक्खु उत्तरिमनुस्सधम्मं उत्तपति म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.24; आजीवहेतूति आजीवकारणा जीविकापकतो हुत्वा .... थेरगा. अड्ड. 2.399. आजीवट्ठमकसील नपुं, कर्म. स. शील का एक प्रभेद, आदिब्रह्मचरियकशील, ब्रह्मचर्य - जीवन या भिक्षु-जीवन के प्रारम्भ में ही तीन प्रकार के शारीरिक कर्मों, चार प्रकार के वाणी के पापकर्मों तथा एक प्रकार के जीविकोपार्जन के अनुचित साधन से चित्त की विरति कराने वाला आदिभूत शील सुपरिसुद्धानि तीणि कायकम्मानि चत्तारि वचीकम्मानि सुपरिशुद्धो आजीवोति इदं आजीवद्वमक विसुद्धि. महाटी 1.31; इमं कुसलं धम्मन्ति इमं अनवज्जं आजीवट्टमकसील, म. नि. अट्ठ. (मू०प.) 1 (2).276; लं द्वि. वि., ए. व. एवं आजीवट्टमकसीलं सोधेत्वा अनोमानदीतीरतो तिंसयोजनप्पमाणं सत्ताहेन अगमा राजगहं बुद्धो, सु. नि. अड. 2.101: तिविधं कायदुच्चरितं पहाय उभयसुचरितं पूरेन्तस्सेव यस्मा आजीवद्वमकसीलं प्रेरेति अ. नि. अट्ठ 1.391; स्सष. वि., ए. व. मग्गब्रह्मचरियस्स आदिभावभूतन्ति आदिब्रह्मचरियक आजीवद्वमकसीलस्सेत अधिवचनं विसुद्धि. 1.12. For Private and Personal Use Only - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजीवति 54 आजीवविपत्ति आजीवति आ +vजीव का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आजीवति]. जीता है, जीवन चलाता है, जीवनयापन करता है, के सहारे जीता है - न पापकं आजीवं आजीवति, म. नि. 2.225; - मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - याय चेतनाय मिच्छाजीवं आजीवमानो किरियं करोति नाम, ध... स. अट्ठ. 263. आजीवन नपुं.. [आजीवन], पूरे जीवन भर - पिण्डो आजीवने देहे पिण्डने गोळके मतो, अभि. प. 1017. आजीवपच्चयापत्ति स्त्री., तत्पु. स., जीविका कमाने या जीवन को चलाने के कारण होने वाला अपराध - त्ति प्र. वि., ए. व. - आजीवपच्चयापत्ति छब्बेधाति पकासिता, विन. वि. 3106; द्रष्ट. आजीवविपत्ति. आजीवपारिसुद्धि स्त्री., तत्पु. स. [आजीवपरिशुद्धि]. कुशल काय-कर्म एवं कुशल वाक्-कर्म करते हुए पाल वाक-कर्म करते हए जीवनयापन, दोषरहित अथवा विशुद्ध साधनों के सहारे जीविका कमाना - द्धि प्र. वि., ए. व. - आजीवपरिसुद्धि धम्मेनेव समेन पच्चयुप्पत्तिमत्तक, स. नि. अट्ठ. 3.258; - द्धि द्वि. वि., ए. व. - कुसलं कायकम्म, कुसलं वचीकम्म, आजीवपरिसुद्धम्पि खो अहं, थपति, सीलस्मिं वदामि, म. नि. 2.228; - सील नपुं., शीलों के अनेक प्रभेदों में एक - परियेटिसुद्धि नाम आजीवपारिसुद्धिसील. पारा. अट्ठ. 2.247; - धम्म पु., तत्पु. स. [आजीवपरिशुद्धिधर्म], जीविका की विशुद्धि से सम्बन्धित धर्म - म्मे सप्त. वि., ए. व. - आजीवपारिसुद्धिधम्मे वा दसविधसुचरितधम्मे वा बुद्धानं चारित्तधम्मे वा. सु. नि. अट्ठ. 1.120. आजीवपारिसुद्धिसील नपुं. तत्पु. स. [आजीवपरिशुद्धिशील]. शील के चतुर्विध प्रभेदों में एक प्रभेद, जीविका कमाने के लिए बुद्ध द्वारा कहे गए छ शिक्षा-पदों का उल्लंघन किए बिना जीविका कमाना, जीविका कमाने के बुरे या अनुचित साधनों से मन को विलग रखना लं, नपं., प्र. वि., ए. व. - या पन आजीवहेतुपञत्तानं छन्नं सिक्खापदानं वीतिक्कमस्स, ... पापधम्मानं वसेन पवत्ता मिच्छाजीवा विरति, इदं आजीव पारिसुद्धिसील, विसुद्धि. 1.16; परियेद्विसुद्धि नाम आजीवपारिसुद्धिसील, पारा. अट्ठ. 2.247; इदं आजीवपारिसुद्धिसीलं नाम, जा. अट्ठ. 1.266... आजीवपारिसुद्धी स्त्री., तत्पु. स. [आजीवपरिशुद्धि], जीविका कमाने के साधनों की पवित्रता, पवित्र जीवनवृत्ति - द्धी प्र. वि., ए. व. - आजीवपारिसुद्धी च सीलं पच्चयनिस्सितं. सद्धम्मो. 342. आजीवपूरण नपुं., जीविकोपार्जन के पवित्र नियमों या साधनों की पूर्णता - णं प्र. वि., ए. व. - मनोद्वारे आजीवपूरणं नाम नत्थिध. स. अट्ठ. 263. आजीवभण्डक नपुं, तत्पु. स., जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुएं या सामग्री - कं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनो आजीवभण्डकं गवेसमानो दिसा ववत्थापेतुं. ... जा. अट्ठ. 1.306. आजीवभेद पु., तत्पु. स., जीविकोपार्जन-सम्बन्धी साधनों का नष्ट हो जाना या छिन्न भिन्न हो जाना - दो प्र. वि., ए. व. - मनोद्वारे आजीवभेदो नाम नत्थि, ध. स. अट्ठ. 263; स. पू. प. के रूप में - मा मे आजीवो भिज्जी ति आजीवभेदभया तं भेसज्ज पजहि न उपजीवि, मि. प. 217. आजीवमुख नपुं., तत्पु. स. [आजीवमुख]. जीवनयापन के साधन, व्यवसाय, कृषि आदि जीविकासाधन-खानि द्वि. वि., ब. व. -- यानि तानि कसिवाणिज्जानि इणदानं उञ्छाचरियाति आजीवमुखानि, जा. अट्ठ. 4.381. आजीववार पु., तत्पु. स., जीविकोपार्जन से सम्बन्धित खण्ड, जीविका के उपार्जन का अवसर - रे सप्त. वि., ए. व. - आजीववारे अपरिसुद्धाजीवाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).122. आजीवविपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आजीवविपत्ति]. चार प्रकार की विपत्तियों में एक, 1. जीविका कमाने के अनुचित साधनों को अपनाना, 2. आजीविका के लिए भिक्षु या भिक्षुणी द्वारा किए गए छ प्रकार के अनुचित व्यवहार या अननुमोदित आचरण - अयं सा आजीवविपत्ति सम्मता, परि. 280; ... अयं छहि सिक्खापदेहि सङ्गहिता आजीवविपत्ति नाम चतुत्था विपत्ति सम्मताति.... परि. अट्ट, 188; चतस्सो विपत्तियो - सीलविपत्ति, आचारविपत्ति, दिद्विविपत्ति, आजीवविपत्ति, परि. 249; इध भिक्खवे. एकच्चो मिच्छाआजीवो होति, मिच्छाआजीवेन जीविक कप्पेति, अयं वच्चति, भिक्खवे. आजीवविपत्ति, अ. नि. 1(1).305; - चोदना स्त्री., जीविका कमाने के लिए गृहीत अनुचित साधनों के विषय में आज्ञा या निर्देश - आजीवहेतु पञत्तानं छन्नं सिक्खापदानं वसेन आजीवविपत्तिचोदना वेदितब्बा, पारा. अट्ट. 2.157; - पच्चय पु., तत्पु. स., जीविका-उपार्जन के अनुचित साधनों के ग्रहण करने के कारण - या प. वि., ए. व. - For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजीवविपन्न 55 आजीविकभय आजीवविपत्तिपच्चया छ आपत्तियों आपज्जति, परि. 202; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. [आजीवविपत्तिपृच्छा], आजीवविपत्ति के विषय में प्रश्न, मिथ्या-आजीव के विषय में प्रश्न - आचारविपत्तिपुच्छा, दिष्टिविपत्तिपुच्छा, आजीवविपत्तिपुच्छा, परि. 324. आजीवविपन्न त्रि., तत्पु. स. [आजीवविपन्न]. सम्यकआजीव की स्थिति से रहित, विशुद्ध जीवनवृत्ति से रहित, जीविका उपार्जन के विशुद्ध साधन नहीं अपनाने वाला -- न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - मिच्छादिट्ठिको च होति, आजीवविपन्नो च, परि. 339. आजीवविसुद्धि स्त्री., तत्पु. स. [आजीवविशुद्धि], जीविका की शुद्धि - आजीवविसुद्धिपरियोसानस्स सीलस्स उपनिस्सयो होति, परि. अट्ठ. 210-11. आजीवत्ति स्त्री., जीविका का साधन, व्यवसाय, जीवनयापन के लिए आवश्यक कामधंधा - सतानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - एक सौ प्रकार के जीविकोपार्जन के साधन, एक सौ प्रकार के व्यवसाय - एकूनपास आजीवकसतेति एकूनपासआजीवकवुत्तिसतानि, दी. नि. अट्ठ 1.134; म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.165. आजीवसंवर पु.. तत्पु. स., जीवनवृत्ति के विशय में ग्रहण किया गया संयम, जीवकोपार्जन में संयम - रो पु.. प्र. वि., ए. व. - दसयिमे, भिक्खवे, धम्मा सरीरद्धा.... कायसंवरो, वचीसंवरो, आजीवसंवरो, पोनोभविको भवढारो, अ. नि. 3(2).73. आजीवसम्पदा स्त्री., तत्पु. स. [आजीवसम्पत्], उत्तम जीवनवृत्ति, जीविका कमाने के अच्छे तरीकों की प्राप्ति, सम्यक् आजीवता, सम्यक आजीव होकर जीवन जीना - इध, भिक्खवे, एकच्चो सम्माआजीवो होति, सम्माआजीवेन जीविकं कप्पेति अयं वुच्चति, भिक्खवे, आजीवसम्पदा, अ. नि. 1(1).306, कम्मन्तसम्पदा, आजीवसम्पदा दिद्विसम्पदा, अ. नि. 1(1).305; का सम्पत्तीति या चस्स सीलसम्पदा चेव आजीवसम्पदा च दी. नि. अट्ठ. 1.190; या चरस सीलसम्पदा च आजीवसम्पदा च, सा सम्पत्ति, अ. नि. अट्ठ 2.21. आजीवसीलाचारविपन्न त्रि., तत्पु. स., सम्यक् आजीव, शीलों एवं उत्तम आचरण से रहित – न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - आजीवसीलाचारविपन्नोपि ब्राह्मणो भवेय्य, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.306. आजीवसुद्धि स्त्री., तत्पु. स. [आजीवशुद्धि], सम्यक् आजीव होने की दशा, विशुद्ध जीवनवृत्ति, जीविका उपार्जन के लिए अपनाए गए साधनों की पवित्रता --द्धि द्वि. वि., ए. व. - सम्पस्सतन्ति सम्मा आजीवसुद्धि पस्सतं. सु. नि. अट्ठ. 1.119, आजीवसुद्धि रक्खेय्य अकरोन्तो अनेसनं. सद्धम्मो. 392. आजीवहेतु अ, च. वि., प्रतिरू. निपा., जीविका पाने के निमित्त - आजीवहेतूति जीविकनिमित्तं, विसुद्धि. महाटी. 1.48; आजीवहेतु आजीवकारणा पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं अभूतं उत्तरिमनुस्सधम्म उल्लपति, परि. 202; विसुद्धि. 1.22; आजीवहेतु आजीवकारणा - भिक्खु उत्तरिमनुस्सधम्म ... नयेन परिवारे पञ्जत्तानि छ सिक्खापदानि, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.24; - क त्रि., जीविकोपार्जन के कारण उत्पन्न या उदित - यं पन नआजीवहेतुकं चतुब्बिधं वचीदुच्चरितं भासन्ति, ध. स. अट्ठ. 264; - पञत्त त्रि., जीविका कमाने के सन्दर्भ में कहा गया या बतलाया गया (शिक्षापद)- त्तानं नपुं.. ष. वि०. ब. व. - या पन आजीवहेतुपञ्जत्तानं छन्नं सिक्खापदानं वीतिक्कमस्स, विसुद्धि. 1.16; - त्तेहि नपुं., तृ. वि., ब. व. - आजीवेनपि चोदेतीति आजीवहेतपञत्तेहि छहि सिक्खापदेहि चोदेति, परि. अट्ठ. 204. आजीविक'/आजीविका नपुं., (स.प. में)/स्त्री., [बौ. सं. आजीवक/आजीवका], जीविका कमाने के आवश्यक साधन - य तृ. वि., ए. व. - आजीविकाय पकतो अभिभूतोति अत्थो. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.129; आजीविकापकताति आजीविकाय उपडुता अभिभूता, स. नि. अट्ठ. 2.267; - पकत त्रि., अट्ठ. में प्रायः आजीविका + अपकत रूप में व्याख्यात, वह, जिसका प्रत्येक व्यवहार केवल जीविका कमाने मात्र के लिए है, दरिद्र, दुर्गतिग्रस्त, केवल जीविका कमाने में लगा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आजीविकाय पकतो अभिभूतोति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.129; - ता ब. व. - ते ... राजाभिनीता ... नाजीविकापकता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता. म. नि. 2.136. आजीविक' पु., द्रष्ट. आजीवक के अन्त.. आजीविकपब्बजा स्त्री., द्रष्ट. आजीवक के अन्त.. आजीविकभय नपुं., तत्पु. स. [आजीविकाभय, बौ. सं. आजीविकभय], पांच प्रकार के भयों में से एक, जीविका कमाने के सन्दर्भ से उत्पन्न जीविकोपार्जन-सम्बन्धी भय, जीविकोपार्जन के कारण उत्पन्न भय - यं प्र. वि., ए. व. - आजीविकभयं, असिलोकभयं, परिससारज्जभयं, For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आजीविकसेय्या 56 आठपित मरणभयं दुग्गतिभयं अ. नि. 3(1).182; आजीविकाभयन्ति जीवितवुत्तिभयं, अ. नि. अट्ठ. 3.259; आजीवकभयम्पि दुक्खं मरणभयम्पि दुक्खं मि. प. 189. आजीविकसेय्या स्त्री., द्रष्ट. आजीवक के अन्त.. आजीविकापकत त्रि., द्रष्ट. आजीविका के अन्त.. आजीविनी/आजीविका/आजीवकिनी स्त्री.. [आजीविका]. आजीवक संप्रदाय की अनुयायिनी स्त्री - किनियो प्र. वि., ब. व. - आजीवका आजीवकिनियो, अ. नि. 2(2).93; आजीवका आजीवकिनियो सुक्काभिजातीति वदति, दी. नि. अट्ठ. 1.135; आजीवका आजीविनियो अयं सक्काभिजातीति वदन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.303. आजीवी त्रि., केवल स. उ. प. में प्राप्त [आजीविन्]. (के सहारे) जीने वाला, जीवनयापन करने वाला, स. उ. प. में - मन्तस्साजीविनो- पु.. प्र. वि., ब. व., प्रज्ञा के सहारे जीवन यापन करने वाले बुद्धिमान मन्त्री - मन्तस्साजीविनोति मन्ता वुच्चति पञआ, तं निस्सयं कत्वा ये जीवन्ति पण्डिता महामत्ता, तेसं एतं नाम, दी. नि. अट्ठ. 3.32; अमच्चा पारिसज्जा गणकमहामत्ता अनीकट्ठा दोवारिका मन्तस्साजीविनो सन्निपतित्वा, दी. नि. 3.47; लूखाजीविं - पु., वि. वि., ए. व., रूक्ष या कष्टदायक पद्धति से जीवन जीने वाला - मं पन तपस्सिं लूखाजीविं कुलेसु न सक्करोन्ति, दी. नि. 3.31; लूखाजीविन्ति अचेलकादिवसेन वा धुतङ्गवसेन वा लूखाजीविं. दी. नि. अट्ठ. 3.20; सुद्धा. ... विं - पु., द्वि. वि., ए. व., विशुद्ध जीवन-वृत्ति वाला - तं वे देवा पसंसन्ति, सुद्धाजीविं अतन्दितं. ध. प. 366. आजीवुपायविपत्ति स्त्री., तत्पु. स., जीविका के उपार्जन में उत्पन्न विपत्ति या संकट - कसिरवृत्तिकतिआदीहि आजीवुपायविपत्ति, स. नि. अट्ट, 1.143. आज्जव/अज्जव नपुं.. [आर्जव], सरलता, सीधापन - उजुनो भावो अज्जवं, इच्चेवमादि, क. व्या. 404; उजुनो भावो अज्जवन्ति च, सद्द. 3.807. आट पु.. [आटि/आडि]. एक पक्षी, जिसकी चोंच लकड़ी की चम्मच के समान होती है - आटो दबिमुखद्विजो, अभि. प. 637; - टा प्र. वि., ब. व. - आटाति दब्बिसण्ठानमुखसकुणा, जा. अट्ठ. 7.309. आटक नपुं., पिशाच प्रदेश की आठ प्रकार की धातुओं में से एक - कं प्र. वि., ए. व. - मोरक्खक, पुथुक, मलिनक चपलक, सेलक, आटकं, भल्लक, दूसिलोहन्ति अट्ठ पिसाचलोहानि नाम, विभ. अट्ठ. 60. आटानाटा स्त्री., उत्तरकुरु जनपद के एक नगर का नाम - आटानाटा कुसिनाटा परकुसिनाटा, नाटसुरिया परकुसिटनाटा, दी. नि. 3.152; एकहिस्स नगरं आटानाटा नाम आसि. दी. नि. अट्ठ. 3.134; आटानाटानामाति इथिलिङ्गवसेन लद्धनामं नगरं आसि. दी. नि. टी. 3.142. आटानाटिय त्रि., [बौ. सं. आटानाटिक], आटानाटा-नामक नगर से सम्बद्ध - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अयं खो सा, मारिस, आटानाटिया रक्खा भिक्खून भिक्खुनीनं उपासकानं.. फासुविहाराय, दी. नि. 3.154; आटानाटियन्ति आटानाटनगरे बद्धत्ता एवंनाम, दी. नि. अट्ठ. 3.131. आटानाटियपरित्त नपुं.. आटानाटिय-सुत्त का परित्राण या सुरक्षा, आटानाटिय-सुत्त का सुरक्षादायक मन्त्रकवच, अनेक परित्राणकारी सुत्तों की सूची में से एक - सेय्यथिद, रतनसुत्तं मेत्तसुतं ... मोरपरित्तं ... आटानाटियपरित्तं अङ्गुलिमालपरित, मि. प. 151; स. प. के अन्त.; आटानाटियपरित्तमोरपरित्तधजग्गपरित्त- रतनपरित्तादीनव्हि एत्थ आणा पवत्तति, अ. नि. अट्ठ. 1.343; विभ. अट्ट. 406. आटानाटियसुत्त नपुं., दी. नि. के पाथिक वग्ग का एक सुत्त, जिसमें भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं, भिक्षुणियों एवं उपासकों के लिए उत्तरकुरु जनपद की सुदृढ़ सुरक्षा जैसे उत्तम सुरक्षा साधनों का उपदेश दिया है, दी. नि. 3.147-165; एवं मे सुतन्ति आटानाटियसुत्तं, दी. नि. अट्ठ. 3.129; - ते सप्त. वि., ए. व. - तस्मा कुवेरो वेस्सवणो ति वुच्चति, दुतञ्चेतं आटानाटियसुत्ते. सु. नि. अट्ठ. 2.91; - वण्णना स्त्री., दी. नि. के आटानाटियसुत्त की अट्ठकथा, दी. नि. अट्ठ.3.129-138. आठपना/अट्ठपना स्त्री., आ +Vठा के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. [आस्थापना], व्यवस्थित कराना, निर्धारण कराना, रखवाना, स्थापित कराना, आदरपूर्वक रखाना, प्रारम्भ से विन्यस्त कराना - यो एवरूपो उपनाहो... अट्ठपना ठपना सण्ठपना अनुसंसन्दना ... अयं वुच्चति उपनाहो, पु. प. 124; या एवरूपा इरियपथरस ठपना आठपना सण्ठपना भाकुटिका भाकुटियं, महानि. 164; आठपनाति आदिट्ठपना, आदरेन वा ठपना, महानि. अट्ठ. 269. आठपित त्रि., आ +vठा के प्रेर. का भू. क. कृ. [आस्थापित], स्थापित किया हुआ, रखाया हुआ, ठीक से व्यवस्थित किया हुआ- तो पु.. प्र. वि., ए. व. - योपि भुजिस्सो मातरा वा पितरा वा आठपितो होति. पारा. अट्ठ. 1.289; - तं पु.. For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 57 आणत्ति आठपेतुं द्वि. वि., ए. व. - मानसं मातरापि वा पितराठपितं वापि, अवहारो न विज्जति, विन. वि. 217. आठपेतुं आ +ठा के प्रेर. का निमि. कृ. [आस्थापयितुं]. अच्छी तरह से स्थापित करने के निमित्त, ठीक से रखवाने के निमित्त - लब्भा पथवी केतु विक्केतुं आठपेतुं ओचिनितुं विचिनितुन्ति ? कथा. 293. आडम्बर पु., [आडम्बर], युद्धभेरी, बिगुल, स. प. के अन्त. - लज्जितानेकपज्जुन्नगज्जिताडम्बरेहि च, चू. वं. 85.44. आणक/आनक पु., [आनक, आनयति उत्साहवतःकरोति]. बड़ा सैनिक ढोल, नगाड़ा, एक ढोल का नाम, मृदंग - दसारहानं आनको नाम मुदिङ्गो अहोसि, स. नि. 1(2).243; आनकोति एवंलद्धनामो मदिङ्गो, स. नि. अट्ठ. 2.201; - स्स ष. वि., ए. व. - ... यं आनकस्स मुदिङ्गरस पोराणं पोक्खरफलकं अन्तरधायि, स. नि. 1(2).243; - के सप्त. वि., ए. व. - तस्स दसारहा आनके घटिते अजं आणि ओदहिंसु, तदे.. आणट्ठान नपुं., [आज्ञास्थान], प्रभुत्व का क्षेत्र, प्रभुत्व का स्थान – नं द्वि. वि., ए. व. - रक्खसरस च आणढानं न ओतरि .... जा. अट्ठ. 1.271. आणत्त त्रि., आ +vञा के प्रेर. का भू. क. कृ. [आज्ञप्त/आज्ञापित], वह, जिसे आज्ञा या आदेश दिया गया, निर्दिष्ट, वह नियम, जिसका विधान निर्दिष्ट किया। गया है, विहित, पूछा गया, निवेदित - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आ आणत्तो अम्हाकं किर भणे, विजिते भद्दियनगरे मेण्डको गहपति पटिवसति, महाव. 318; सो आणत्तो अहं तया ति, पारा. 62; - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अपि चाहं हिय्योव गहपतिना आणत्ता, चूळव. 180; - त्तं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - हिय्यो "किर मे पितरा आणत्तं कम्म निप्फादेही ति पहिणि, ध. प. अट्ठ. 1.103; - त्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - न भिक्खवे, थेरेन आणत्तेन अगिलानेन न गन्तब्ब महाव. 146; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - सचे आणत्तरसेव मातापितरो, सोव आनन्तरिय फुसति, पारा. अट्ठ. 2.41; - त्ते सप्त. वि., ए. व. - सकिं आणत्ते पन तस्मिं बहकेपिद्वारे निक्खमन्ते.... कसा. अट्ठ. 197; - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - थेरेन आणत्ता नवा भिक्खू न गच्छन्ति, महाव. 146; - त्तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - चत्तारि पटाकानि आणत्तानि गमिस्सन्ति, मि. प. 99; - ते द्वि. वि., ए. व. - ... आणत्ते यत्तके आणत्तो घातेति, पारा. अट्ठ. 2.41; - काल पु., कर्म. स. [आज्ञप्तकाल], निर्दिष्ट समय, निर्धारित किया गया समय - लो प्र. वि., ए. व. - आ आणत्तकालो विय कम्मरआ वट्टसन्निस्सितपुथुज्जनं गहेत्वा ..., स. नि. अट्ठ. 2.99; - पुरिस पु.. कर्म. स. [आज्ञप्तपुरुष]. वह पुरुष, जिसे आज्ञा दी गई है अथवा आदेश दिया गया है, प्रयोज्य कर्ता - कारेति इच्चादिसु पन आणत्तपुरिसादयो कत्तुकम्मं नाम, सद्द. 3.692. आणत्ति स्त्री., आ +vञा के प्रेर. से व्यु. [आज्ञप्ति], 1. आज्ञा, आदेश, विधान - त्ति प्र. वि., ए. व. - आणत्तियं यत्थ आणत्ति नत्थि, कसा. अट्ठ. 282; - तिं द्वि. वि., ए. व. - निद्देसकारीति यदि तस्स निद्देसं आणत्तिमेव सेसो यो कोचि पुरिसो करोति, जा. अट्ठ. 5.226; - या तृ. वि., ए. व. - साणत्तिक "धोवा ति आदिकाय आणत्तिया, कडा. अट्ठ. 161; - यं सप्त. वि., ए. व. - आणत्तियं यत्थ आणत्ति नत्थि, कया. अट्ठ. 282; 2. क्रिया-पद की प. वि. द्वारा प्रकाशित आज्ञा, अनुज्ञा, आख्यात-पञ्चमी का एक अर्थ - आणत्यासिडेनुत्तकाले पञ्चमी, क. व्या. 417; आणत्तियेव पञ्चमी, परि. 253; 3. व्याकरण में उल्लिखित छ कालों में से एक - अतीतानागत-पच्चुप्पन्नाणत्तिपरिकप्प कालातिपत्तिवसेन पन छ, सद्द. 1.20; क. स. उ. प. के रूप में- अनियमिता.- कर्म, स. [अनियमिताज्ञप्ति], अबाध्यकारी आदेश – त्ति प्र. वि., ए. व. - पस्साति अनियमिताणत्ति, स. नि. अट्ठ. 1.72; यथाणत्तिवसेनपु., तृ. वि., ए. व., आदेश के अनुसार, निर्देश या आज्ञा के अनुरूप - यथाणत्तिवसेनेव कत्तब्बं सत्थु सासनं सद्धम्मो. 354; ख. स. पू. प. के रूप में; - त्यत्थ पु., तत्पु. स. [आज्ञप्त्यर्थ], आज्ञा का अर्थ, आदेश का अर्थ - त्थे सप्त. वि., ए. व. - आणत्यत्थे च आसिद्वत्थे च अनुत्तकाले पञ्चमी विभत्ति होति, क. व्या. 417; - कर पु., सन्देशवाहक, आज्ञा का अनुपालन करने वाला दूत - रो पु., प्र. वि., ए. व. - इधागतोति तेसं उभिन्नम्पि अहं दूतो आणत्तिकरो रुओ च अम्हि पहितो, जा. अट्ठ. 2.360; - कालिक त्रि., व्या. के सन्दर्भ में प्रयुक्त, क्रिया के छ कालों में आणत्तिकाल से सम्बद्ध - पञ्चमीविभत्ति आणत्तिकालिका, सद्द. 1.50; - क्खण पु.. तत्पु. स. [आज्ञप्तिक्षण], आदेश देने का क्षण - णे सप्त. वि., ए. व. - आणापकस्स आणत्तिक्खणे आणत्तस्स च मारणक्खणेति, पारा. अट्ठ. 2.42; - नियाम पु., निर्देश या आदेश में विद्यमान नियम – मेन त. वि., For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आणत्तिक आणा ए. व. - गहेत्वान तं खादि यावदत्थन्ति थेरेन आणत्तिनियामेन उच्छु गहेत्वा, पे. व. अट्ट, 225; -- नियामक पु., आदेश देने में कार्यरत मुख्य निर्धारक तत्त्व या तरीका - का प्र. वि., ब. व. - किरियाविसेसोति इमे, छ आणत्तिनियामकाति, खु. पा. अट्ठ. 20; - परिकप्पिका स्त्री., आणत्ति (लोट) एवं परिकप्पिक (विधिलिङ्) नामक दो आख्यात विभक्तियां - का स्त्री०, प्र. वि., ब. व. - दुवे विभत्तियो तत्थ, आणत्तिपरिकप्पिका, सद्द. 1.50; - मत्त नपुं, केवल निर्देश, मात्र आदेश- तेन तृ. वि., ए. व. - तत्थ इमिना पठमेन ठानेनाति इमिना आणतिमत्तेनेव ताव पठमेन कारणेन, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.37; - मूलक त्रि., ब. स. [आज्ञप्तिमूलक], वह, जिसकी जड़ आदेश या आज्ञा में है, आज्ञा या आदेश से उत्पन्न - अत्तना कतमूलकेन वा आणत्तिमूलकेन वा पुब्बेकतेन वा. ..., अ. नि. अट्ठ. 2.154; - वचन नपुं.. तत्पु. स. [आज्ञप्तिवचन]. आज्ञा के अर्थ को कहने वाला वचन - नानि प्र. वि., ब. व. - पञ्चमीविभत्यन्तानि पदानि आणत्तिवचनानि, सद्द. 1.50; - वसेन क्रि. वि., आज्ञा के कारण से - तत्थ आणत्तिवसेन पुब्बपयोगो वेदितब्बो, कला. अट्ठ. 121; - वार पु., विनय के निर्देश या आदेश देने का क्रम या बारी- रेसु सप्त. वि., ब. व. - इतो परेसु चतूसु आणत्तिवारेसु पठमे ताव सो गन्त्वा पुन पच्चागच्छतीति, पारा. अट्ठ. 1.297. आणत्तिक त्रि., आणत्ति से व्यु. [आज्ञप्तिक]. शा. अ., आज्ञा अथवा आदेश के साथ जुड़ा हुआ, आज्ञा, आदेश अथवा निर्देश के कारण घटित या होने वाला, विशेष अर्थ 1. पु., प्राणि-हत्या के छ प्रयोगों में से एक, दूसरे को आज्ञा देकर कराई गई हत्या - को प्र. वि., ए. व. - पाणातिपातस्स छपयोगा - साहत्थिको, आणत्तिको, निस्सग्गियो, थावरो, विज्जामयो इद्धिमयोति, पारा. अट्ठ. 2.37; आणत्तिको नाम 'असुकस्स भण्ड अवहराति अझं आणापेति, कडा, अट्ठ. 120; आणत्तिकोति अचं आणापेन्तरस ‘एवं विज्झित्वा वा पहरित्वा वा मारेही ति आणापनं. पारा. अट्ठ. 2.37; आणत्तिकोति 'असकं नाम मारेही ति अझं आणापेन्तस्स आणापन, कसा. अट्ठ. 124; 2. स्त्री., आज्ञा, निर्देश, आदेश - या तृ. वि., ए. व. - सत्थु आणत्तिया अञतरस्स थेरस्स सन्तिके पब्बजि, अ. नि. अट्ठ. 12003; पाठा. आणत्तिया, स. उ. प. के रूप में, - साणत्तिक नपुं.. प्र. वि., ए. व., वाणी द्वारा दी गई आज्ञा के कारण होने वाला - ... अयमेत्थ अनपत्ति, साधारणपत्ति, साणत्तिक हरणत्थाय गमनादिके पुब्बप्पयोगे दुक्कट कसा. अट्ठ. 123; आणत्तिकं वाचाचित्ततो समुट्ठाति, कसा. अभि. टी. 196; स. पू. प. के रूप में, - पयोगकथा स्त्री., आज्ञा के कारण होने वाले प्राणातिपात आदि के प्रयोगों का कथन - अधिट्ठायाति मातिकावसेन आणत्तिकपयोगकथा निहिता, पारा. अट्ठ. 2.44. आणपन/आणापन नपुं.. [आज्ञापन], आज्ञा, विनय का विधानात्मक निर्देश या शिक्षा, आदेश - नं प्र. वि., ए. व. - अचं आणापेन्तस्स आणापनं कसा. अट्ठ. 124; कस्माति चे आणपनं, परिकप्पो च सच्चतो, सद्द. 1.51. आणपयति द्रष्ट. आणापेति के अन्त.. आणा स्त्री., [आज्ञा], 1. शा. अ., आज्ञा, आदेश, निर्देश, राजकीय आदेश- णा प्र. वि., ए. व. - आणा च सासन जेय्य, उद्दानं तु च बन्धनं, अभि. प. 354; रज्जे आणाधनमिस्सरिय, भोगा सुखा दहरिकासि, थेरीगा. 466%; केन कारणेन अरहतो काये आणा नप्पवत्तति इस्सरियं वा, मि. प. 237; - णं द्वि. वि., ए. व. - सचेपि मे सभावे कथिते आणं करेय्य, जा. अट्ठ. 4.182; पेसुञकारकस्स आणं कारेवा, जा. अट्ठ. 1.258; - य' तृ. वि., ए. व. - अथ वा भगवतो आणाय अच्छरासम्भोगसताताय.... उदा. अट्ट. 140; - यष. वि., ए. व. - यदि ते तात, अय्यको तुम्हे ब्राह्मणरस हत्थतो आणाय बलसा मुधा गण्हाति, मि. प. 263; विशेष अर्थ, दण्ड, मृत्युदण्ड - सचेपि मे सभावे कथिते आणं करेय्य ..., जा. अट्ट. 4.182; ... पेसुञकारकस्स आणं कारेत्वा .... जा. अट्ठ. 1.258; "सचे तस्मिखणे नागच्छसि, आणं ते करिस्सामी ति.ध. प. अट्ट. 1.252; स. उ. प. के रूप में, - जिनाणाय त. वि., ए. व., बुद्ध की आज्ञा द्वारा - उपोसथादिकम्मत्थ जिनाणाय जनाधिप, म. वं. 15.181; सम्बुद्धा.- बुद्ध की आज्ञा - य तृ. वि., ए. व. - सम्बुद्धाणाय अन्तेहि वसिरसामि जुतिन्धर, म. वं. 15.182; स. पू. प. के रूप में, - करण नपुं. दण्ड को लागू करना, दण्डविधान का प्रयोग, दण्डदान - णं प्र. वि., ए. व. - आगन्तुकपुरिसरस गेहरसामिकेसु तुण्हीमासिनेसु आणाकरणं न युत्तं, दी. नि. अट्ठ. 1.159; म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).273; - करणभय नपुं, दण्डविधान का भय, दण्ड दिए जाने का डर - येन त. वि., ए. व. - तव आणाकरणभयेन तयि सिनेहेन मातापितून न कथेसि, जा. अट्ठ. 6.304; - क्खेत्त नपुं.. तीन प्रकार के बुद्धक्षेत्रों में से एक, वह क्षेत्र, जहां तक बुद्ध की आज्ञा For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आणादेसना 59 आणापेति अथवा विनयशिक्षा का प्रसार है तथा जहां अनेक परित्तों का अट्ट, 1.90; - नेन तृ. वि., ए. व. - यो कोचि राजा अनुभाव है - त्तं प्र. वि., ए. व. - आणाक्खेत्तं जनपदतो धम्मिकं बलिं उद्धरापेत्वा आणापवत्तनेन दानं कोटिसतसहस्सचक्कवाळपरियन्तं, पटि. म. अट्ट. 1.295; ददेय्य, मि. प. 258. पारा, अट्ट, 1.119; दी. नि. अट्ठ. 3.72; आणापवत्तिट्ठान नपुं., तत्पु. स. [आज्ञाप्रवृत्तिस्थान], आज्ञा कोटिसतसहस्सचक्कवाळ पन आणाखेत्तं नाम, म. नि. के प्रसार का क्षेत्र, वह स्थान, जहां तक आदेश या आज्ञा अट्ठ. (उप.प.) 3.81; - ते सप्त. वि., ए. व. - ... का प्रसार एवं प्रभाव पाया जाए - नं प्र. वि., ए. व. - सब्बसत्तानं अत्थाय परित्ते कते आणाखेत्ते..., विसुद्धि. एवं एकेकस्स रओ आणापवत्तिहानं, महाव. अट्ठ. 393; - महाटी. 2.47; - चक्क नपुं.. बुद्ध के प्रभाव या महिमा का स्स ष. वि., ए. व. - राजा अत्तनो आणापवत्तिद्वानस्स क्षेत्र, बुद्ध की वह आज्ञा या शिक्षा, जो चक्र की भांति केदारसीमं गन्त्वा सत्थारं वन्दित्वा परिदेवमानो.... स. नि. अप्रतिहत रूप से सर्वत्र और सर्वदा चलती रहती है, चक्र अट्ठ. 3.9. के समान अप्रतिहत गति वाली बुद्ध की आज्ञा - क्कं आणापातिमोक्ख नपुं, पातिमोक्ख के पाठ के दो प्रकारों प्र. वि., ए. व. - तुम्हाकं धम्मचक्कं होतु, अम्हाकं में से एक, जिसमें सङ्घ की आज्ञा के रूप में पातिमोक्ख आणाचक्कान्ति पटिञमकासि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2). के पाठ या उपोसथ आदि सङ्घकर्मों को करने को कहा गया 175; मरह आणाचक्क, तुम्हाकं धम्मचक्कं होतु, पारा, अट्ठ. हो -- “सुणातु मे, भन्ते, सङ्को ति आदिना नयेन वुत्तं 1.9; खु. पा. अट्ठ. 77; आणाचक्कन्ति आणायेव आणापातिमोक्खं नाम, कवा. अभि. टी. 145; - क्खं प्र. अप्पटिहतवृत्तिया पवत्तनद्वेन चक्कन्ति आणाचक्कं सारत्थ. वि., ए. व. - अनुदि8 पातिमोक्खन्ति अन्वद्धमासं टी. 1.51. आणापातिमोक्खं अनुदिढ़ अहोसि, पारा. अट्ठ. 1.141; आणादेसना स्त्री., विनय के विधिपरक एवं निषेधपरक सङ्को तिआदिना नयेन वुत्तं आणापातिमोक्खं नाम, कसा. बुद्धवचन, विनयपिटक में संगृहीत बुद्धवचन - एत्थ हि अट्ठ. 100; दुविधम्हि पातिमोक्खं आणापातिमोक्खं विनयपिटकं आणारहेन भगवता आणाबाहुल्लतो देसितत्ता ओवादपातिमोक्खन्ति, उदा. अट्ठ. 243. आणादेसना, पारा. अट्ठ. 1.17; ध. स. अट्ठ. 23. आणापित त्रि.. आ + आ के प्रेर. का भू. क. कृ. [आज्ञापित], आणापक पु.. [आज्ञापक, बौ. सं. आणपक], आज्ञा देने वह (दण्डविधान आदि) जिसके लिए आज्ञा दिलाई गई है, वाला - को प्र. वि., ए. व. - आणापयती ति आणापको, वह (व्यक्ति), जिसे कुछ करने को आज्ञा प्रदान कराई गई क. व्या. 643; आणापको अत्तानं सन्धाय आणापेति, इतरो है - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आवुसो छन्न, ब्रह्मदण्डो अजंतादिसं मारेति आणापको मुच्चति, पारा. अट्ट, 2.43; आणापितो ति, चूळव. 460; आणापिता नरिन्देन, मुनिनो - कं द्वि. वि., ए. व. - आणत्तो च "अयमेव ईदिसो ति पियगारवा, म. वं. 29.18; - त्त नपुं., भाव., आज्ञा दिलाया आणापकमेव मारेति, पारा. अट्ठ. 2.43; - केन तृ. वि., ए. जाना - त्ता प. वि., ए. व. - कुटिपरिसे येव उपादाय व. - ... सो आणत्तो यो आणापकेन इत्थन्नामोति अक्खातो, आणापितत्ता सब्बे सन्निपतन्तूति, मि. प. 148. पारा. अट्ठ. 2.44; - स्स ष. वि., ए. व. - आणापकस्स आणापेति आ + ञा के प्रेर. का वर्त.. प्र. पु., ए. व. च अवहारकस्स च आपत्ति पाराजिकस्स, पारा. 62. [आज्ञापयति, बौ. सं. आणापेति], आज्ञा देता है, निर्देश आणापन नपुं.. आ +vञा के प्रेर. से व्यु.. क्रि. ना. देता है, विधान कराता है, आदेश दिलाता है, दण्डविधान [आज्ञापन]. आज्ञा, आदेश - नं प्र. वि., ए. व. - कराता है - यस्स खो मं भगवा आणापति, महाव. 2703; आणापयते आणापन, क. व्या. 643; कारिते... आणापयते आणापको अत्तानं सन्धाय आणापेति, पारा. अट्ठ. 2.43; - आणापन, सद्द. 3.8653; “एवं विज्झित्वा वा पहरित्वा वा मि उ. पु., ए. व. -- छन्नस्स भिक्खुनो ब्रह्मदण्डं आणापेमि, मारेही ति आणापन, पारा. अट्ठ. 2.37; एकस्स बन्धन चूळव. 459; - न्ति प्र. पु., ब. व. - तस्स दण्ड आणापनवसेन विहिंसावितक्को, उदा. अट्ठ. 176. आणापेन्ति, मि. प. 25; - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. आणापयति द्रष्ट आणापेति के अन्त.. व. - ... सचे पन अत्तानं सन्धाय आणापेन्तोपि ओकासं आणापवत्तन नपुं., तत्पु. स. [आज्ञाप्रवर्तन], दण्ड देने की नियमेति, पारा, अट्ठ. 2.43; - न्तं द्वि. वि., ए. व. - आज्ञा को लागू करना - वसोति आणापवत्तनं, स. नि. अकत्वा परम्पराय आणापेन्तं समणसतं समणसहस्सं वा For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आणाबल होतु, पारा. अट्ठ 1.297; न्तेन पु०, तृ. वि., ए. व. आणापेन्तेन च 'अमुकरिगं नाम ओकासे तेल वा वहि वा कपल्लिका वा अत्थि, तं गर्हत्वा करोही ति वत्तब्बो, महाव. www.kobatirth.org - — साधु देवो जीवक अट्ठ. 323; - तु अनु. प्र. पु. ए. व.. वेज्जं आणापेतु महाव. 365 हि म. पु. ए. व. त्वंयेव छन्नस्स भिक्खुनो ब्रह्मदण्डं आणापेही ति चूळव. 459 - थम. पु. ब. व. आणापेथ, भन्ते किं करोमीति, पारा. अड. 1.9; य्य विधि, प्र. पु. ए. व. न अञ्ञ आणापेय्य पाथि. 383 प्यासि म. पु. ए. व. अथ त्वं पुरिसे आणापेय्यासि दी. नि. 2242 - सि अद्य., प्र. पु. ए. व. अर्थकं बलसम्पन्नं योधं आणापेसि स. नि. अट्ठ. 3.100; - सुंब. व. अथ खो कोसिनारका मल्ला पुरिसे आणापे, दी. नि. 2. 119 - स्सामि भवि., उ० पु०, ए. व. तस्मा ने हत्थेसु च पादेसु च बन्धं कत्वा आणापेस्सामीति बन्धं आणापेसि, पारा. अट्ट. 1.235 - - 60 तब्बो सं. कृ.. पु. प्र. वि. ए. व. सचे पन कुसितो होति पुनपुनं आणापेतब्बो पाचि अड. 19 - तुं निमि थेरेन भिक्खुना नवं भिक्षु आणापेतुन्ति, महाव. कृ. 146. आणाबल नपुं. तत्पु, स. [आज्ञाबल] आज्ञा का बल, अधिकारी के आदेश का बल, स. प. के अन्त०, दुब्बलेति सरीरबलभोगबल आणाबलविरहिते, जा० अट्ठ 6.128. आणाबाहुल्ल नपुं., तत्पु० स० [ आज्ञाबाहुल्य ], आज्ञा की बहुलता, आदेश से भरपूर होनाहोना- तो प. वि., ए. व. भगवता आणाबाहुल्लतो देखितत्ता आणादेसना, पारा. अट्ट. 1.17; ध. स. अट्ठ. 23. आणामेद पु. तत्पु. स. [आज्ञामेद] आज्ञा का निष्प्रभावी हो जाना, आदेश का भङ्ग हो जाना दाय च. वि., ए. व. चक्कभेदायाति आणाभेदाय, पारा. अ. 2.174. आणारह त्रि., [आज्ञार्ह ], आज्ञा देने में सक्षम, आदेश देने हेतु अधिकृत, अधिकारसम्पन्न हेन तू. कि. ए. व. - एत्थ हि विनयपिटकं आणारहेन भगवता आणाबाहुल्लतो देसितत्ता आणादेसना, पारा. अड. 1.17; ध० स० अट्ठ 23. आणावीतक्कम पु. तत्पु. स. [आज्ञाव्यतिक्रम], आज्ञा का अतिक्रमण, विनय में संगृहीत बुद्ध के आज्ञापरक वचनों का उल्लंघन – मन्तरायिक त्रि, आज्ञा के उल्लंघन में विघ्न उपस्थित करने वाला का पु०, प्र. वि., ब. व. सत्त आपत्तिक्खन्धा आणावीतिक्कमन्तरायिका नाम, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 (2).9. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आणिचोळ आणावोहारपरमत्थदेसना स्त्री, तत्पु० स०, विधिपरक एवं निषेधपरक आज्ञा के रूप में विनयपिटक, व्यावहारिक एवं लोकप्रिय शैली में सुत्तपिटक तथा गम्भीर शैली में अभिधम्म के रूप में परमार्थधर्मों का उपदेश - एतानि हि तीणि पिटकानि यथाक्कम आणावोहारपरमत्थदेसना, पारा. अट्ठ. 1.17; ध. स. अट्ठ. 23. आणि स्त्री. [ आणि / आणी], रथ या वाहन के धुरे की कील, अक्षकील, खूंटी णि प्र. वि. ए. व. - एते खो सङ्ग्रहा लोके, स्थस्साणीव यायतो दी. नि. 3.146 - णिं द्वि. कि. ए. व. तस्स दसारहा आनके घटिते अञ्ञ आणि ओदहिंसु, स. नि. 1 (2) 243 या तृ. वि. ए. व. यथा आणिया सतियेव रथो याति दी. नि. अड. 3.127; तच्छन्तो आणिया आणि, निहन्ति बलवा यथा, थेरगा० 744; - यो द्वि. वि. ब. व. आणियो कोहेत्वा कतं. उदा. अड. 342: णीनं प. वि. व. व. - आणीनं सङ्घाटमत्तमेव अवसेसं अहोसि, स. नि. अट्ठ. 2.202; स. उ. प. के रूप में, पटा०स्त्री॰, पलंगों एवं आसनों के नीचे एवं ऊपर लगाई हुई कांटी या कील पदरसञ्चित होति. पटाणि दिन्ना होति पाचि. 68; विसमा.- स्त्री०, असमान कांटी या कील, भिन्न माप वाली कांटी -- तत्थ फलकं विष चित्तं फलके विसमाणी विय अकुसलवितक्का, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1. (1) 404; सारदारु.- स्त्री०, ठोस लकड़ी पर लगाई गई कांटी या कील या तृ. वि. ए. व. ततो सुखमतराय सारदारु आणिया, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 ( 1 ) . 403; सुखुमा . - स्त्री. कर्म. स. सूक्ष्म कांटी, बारीक कांटी या तृ. वि. ए. व. सुखमाणिया ओळारिकाणिनीहरणं विय असुभभावनादीहि म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1(1).404. - आणिकोटि स्त्री०, तत्पु० स० [ आणिकोटि], कांटी या कील का शिरा अथवा किनारा - या तृ. वि., ए. व. ततो रथे आणिकोटिया आणिकोटिं पहरन्ते दी. नि. अड. 2.176. आणिगण्ठिकाहत त्रि, तत्पु० स०, कांटियों या खूंटियों तथा गांठों से कुरूप कर दिया गया, जोड़ों एवं भरावों द्वारा भद्दा, कुरूप या शोभारहित बना दिया गया तो पु.. प्र. वि., ए. व. सो पच्छा भिन्नो वा छिद्दो वा आणिगण्ठिकाहतो वा अप्पग्घो होति, पारा. अट्ठ. 1.246; दी. नि. अट्ठ. 1.162; आणिगण्ठिकाहतोति आणिना, गण्ठिया च हतसोभो, विसुद्धि महाटी 1.120. आणिचोळ त्रि. ब. स. वह जिसके वस्त्र सदा खूंटी पर टंगे रहते हैं या तैयार रहते हैं --ळा स्त्री. प्र. वि. ए. For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आणिचोळक 61 आतत्त व. - धुवचोळाति निच्चपक्खित्ताणिचोळा, पारा. अट्ठ. आमयो व्याधि, गदो रोगो रुजापि च, अभि. प. 323; 2.122. आतंको रोगतापेसु, मातंगो सपचे गजे, अभि. प. 1045; आणिचोळक नपुं., जांधिया, जांघ पर बांधा जाने वाला कम आतङ्कोति किच्छजीवितकरो रोगो, उदा. अट्ठ. 99; - ता माप वाला वस्त्र - कं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, स्त्री., भाव. [आतङ्कता], आतंक का भाव, डरावनापन - भिक्खवे, आणिचोळक 'न्ति, चोळकं निपतति, चूळव. 434; अप्पातङ्कतञ्च लहुद्वानञ्च बलञ्च फासुविहाररुच, म. नि. सदा आणिचोळकं सेवसीति वृत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.122. 1.176; म. नि. 2.109; स. उ. प. के रूप में, निरा.- त्रि., आणिद्वार नपुं.. कर्म. स. [आणिद्वार], कांटी जैसा छोटा ___ ब. स. [निरातङ्क], आतङ्क से मुक्त, भयमुक्त, व्यथामुक्त द्वार, निचला द्वार, संकीर्ण द्वार, परकोटे से घिरे हुए नगर -ङ्कानं ष. वि., ब. व. - महाराज, निरातङ्कानं लोहितकानं की छोटी खिड़की जैसा द्वार - रं प्र. वि., ए. व. - अन्तरे करुम्भकं नाम सालिजाति, मि. प. 235; रोगा.आणिद्वारं नाम पाकारबद्धस्स नगरस्स खुद्दकद्वार, थेरगा. पु., रोग के कारण उत्पन्न कष्ट या व्यथा - को प्र. वि., अट्ठ. 2.57; - रे सप्त. वि., ए. व. - ओलग्गेस्सामि ते ए. व.- तमेनं अञतरो गाळहो रोगातको फुसति, अ. नि. चित्त, आणिद्वारेव हत्थिनं, थेरगा. 355. 1(2).202; स. पू. प. के रूप में; - फस्स पु., तत्पु. स. आणिमंस नपुं, तत्पु. स. [आणिमांस], स्त्री या पुरुष की [आतङ्कस्पर्श, रोग या व्याधि का प्रभाव - स्सेन तृ. वि., जननेन्द्रिय का मांस-सिखरणीति बहिनिक्खन्तआणिमंसा, ए. व. - आतङ्कफस्सेन खुदाय फुट्ठो, सीतं अतुण्डं पारा. अट्ठ.2.122. अधिवासयेय्य, सु. नि. 972; आतङ्कफस्सेनाति रोगफस्सेन, आणिमण्डब्य पु., एक तपस्वी - व्यो प्र. वि., ए. व. - सु. नि. अट्ठ. 2.265. ततो पट्ठाय मण्डब्यो आणिमण्डब्यो नाम जातो, जा. अट्ट. आतङ्कति आ +Vतङ्क का वर्त, प्र. पु., ए. व., विपत्ति या 4.28; भरिया विसाखा, पुत्तो राहुलो, आणिमण्डब्यो सारिपुत्तो, दुर्गति में रहता है - तकति आतंकति आतंको, आतंको ति कण्हदीपायनो पन अहमेव अहोसिन्ति, जा. अट्ठ. 4.33. किच्हाजीवितकरी रोगो, सद्द. 2.322. आणिरक्ख पु., रथ या वाहन की धुरी की कांटियों या कील आतङ्की त्रि., [आतङ्किन], रुग्ण, बीमार, व्याधि से पीड़ित - की रक्षा करने वाला, आणी का रक्षक - क्खा प्र. वि., ब. किनं पु., ष. वि., ब. व. - आतङ्किनं यथा कुसलो व. - एको सारथि योधेको, आणिरक्खा दुवे जना, विन. भिसक्को, जा. अट्ठ. 5.79; आतङ्किनन्ति गिलानानं, जा. वि. 1571. अट्ठ. 5.79. आणिरक्खक पु.. उपरिवत् - का प्र. वि., ब. व. - आतत नपुं, आ +Vतन का भू. क. कृ. [आतत], फैलाया स्थरक्खा नाम रथस्स आणिरक्खका, दी. नि. टी.. हुआ, विशेष अर्थ, ऐसा ढोल, जिसका एक पार्श्व ही 1.194. चमड़े से ढका हुआ हो - आततं चेव विततं, आततविततं आणिसंघाट पु., तत्पु. स. [आणिसङ्घात], कांटियों या घन, अभि. प. 139; आततं नाम चम्मावनद्धेसु भेरियादिसु, कीलों का ढांचा - टो प्र. वि., ए. व. - आणिसङ्घाटोव तलेकेकयुत्तं... अभि. प. 140; तत्थ आततं नाम चम्मपरियोनद्धेस अवसिस्सि, स. नि. 1(2).243; आणिसङ्घाटोव अवसिस्सीति भेरिआदीसु एकतलतूरियं, अ. नि. अट्ठ. 3.232. सुवण्णादिमयानं आणीनं सङ्घाटमत्तमेव अवसेसं अहोसि, स. आततवितत नपुं... ऐसा वाद्य, जो पूरी तरह से तांत से नि. अट्ठ. 2.202. बंधा हुआ हो, पणव-नामक वाद्ययन्त्र - आततविततं आणिसुत्त स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(2). सब्बविनद्धं पणवादिक, अभि. प. 141; आततविततं नाम 243. तन्तिबद्धपणवादि, म. वं. टी. 479(ना.). आण्य नपुं.. [आर्य], ऋणग्रस्तता, कर्ज में डूबे रहने की आततायी त्रि., [आततायिन], वह जिसका धनुष (दूसरों को दशा - इसिरस भावो आरिस्सं, इणस्स भावो आण्य, कष्ट देने हेतु) तना हुआ हो, विशेष अर्थ, हत्यारा, उसभस्स भावो आसभं क. व्या. 404; इसिनो भावो आरिस्य अपराधी, क्रूर, डकैत – विहत्थो व्याकुलो चाथ, आततायी इणस्स भावो आण्यं, सद्द. 3.807. वधुधुतो, अभि. प. 736. आतङ्क पु., [आतङ्क], मानसिक विपत्ति, व्यथा, रोग, पीड़ा, आतत्त त्रि., आ + तप का भू. क. कृ. [आतप्त], पूरी तरह वेदना, त्रास, डर, आशंका -को प्र. वि०. ए. व. - आतङ्को से तपाया हुआ, अत्यधिक उष्ण, सूखा, आदीप्त - छातो For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आतन्वती 62 आतप्प आतत्तरूपोसि, कुतोसि कत्थ गच्छति, ... आतत्तरूपोति सुक्ख सरीरो, जा. अट्ठ. 5.63-64. आतन्वती आ +Vतन का वर्त. कृ., स्त्री, प्र. वि., ए. व., फैलाती हुई, उत्पन्न करती हुई -- राजहंसीविलासं आतन्वती, हत्थ. वं. 31.30 आतप पु., आ +Vतप से व्यु. [आतप], शा. अ., धूप, सूर्य के कारण उत्पन्न सन्ताप या गर्मी, तेज प्रकाश, ला. अ.. उत्साह, पराक्रम, विरोधियों को तपा देने की शक्ति -- पो प्र. वि., ए. व. - अथोभासो पकासो चालोकोज्जोतातपा समा, अभि. प. 37; यं छाया जहति तं आतपो फरति, यं आतपो जहति तं छाया फरति, म. नि. 3.22; थलं छाया आतपो आलोको अंधकारो, ध. स. 617(मा.); - पं द्वि. वि., ए. व. - ... आतप तप्पन्तो निद्दायति, जा. अट्ठ. 2.298; - पेन तृ. वि., ए. व. - आतपेन सुक्खकद्दमो फलति, पाचि. अट्ठ. 19; - पे सप्त. वि., ए. व. - निब्बति नाधिगच्छामि, अग्गिदड्डाव आतपेति, पे. व. 38; स. प. में, - कठिनातपतापित त्रि., तत्पु. स., अत्यधिक तेज धूप के द्वारा तपाया या गर्म किया हुआ - तं पु., वि. वि., ए. व. - अब्भोकासगतं सन्तं, कठिनातपतापितं, अप. 1.379; पच्छा. - त्रि., ब. स., पीछे के भाग में विद्यमान धूप वाला (स्थान), पिछवाड़े की ओर की धूप वाला (स्थान) - पे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - पञ्चमवग्गरस पठमे पच्छातपेति पासादच्छायाय पुरत्थिमदिसं पटिच्छन्नत्ता पासादस्स पच्छिमदिसाभागे आतपो होति, तस्मिं ठाने..., स. नि. अट्ठ 3.271; बाला.- पु., प्रातःकाल की कम प्रचण्ड धूप - पं द्वि. वि., ए. व. - तं एकदिवसं पातोव तोरणग्गे निसीदित्वा बालातपं तपमानं एको सकुणो नखपञ्जरेन अग्गहेसि, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).239; बालसूरिया.- पु., प्रातःकालीन सूर्य की धूप - पं द्वि. वि., ए. व. - अञ्जतरस्मिं पब्बतपादे सीहो बालसूरियातपं तप्पमानो निपन्नो होति, सु० नि. अट्ठ. 1.100; मन्दा .- पु., कर्म. स. [मन्दातप], मन्द धूप, अल्प मात्रा में उष्ण धूप - पे सप्त. वि., ए. व. - उण्होदके मद्दापेत्वा मन्दातपे विसज्जापेसि, ध. प. अट्ठ. 1.182; वाता. - पु., द्व. स., हवा और धूप - पे द्वि. वि., ब. व. - वातातपे डंससरीसपे च, सु. नि. 52; - सुरिया. पु., सूर्य की गर्मी, सूर्य की धूप - पो प्र. वि., ए. व. - आतपोति सूरियातपो, स. नि. अट्ठ. 2.258... आतपट्ठपन नपुं., तत्पु. स. [आतपस्थपन], (उत्पीड़ित करने हेतु) धूप में रखा देना, धूप में खड़ा करा देना, स. प. के अन्त., - परिसमज्झगणमज्झादीसु आतपठपनपंसुओकिरणादीहि विष्पकारं पापेन्तो पच्छतो पच्छतो अनुबन्धन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.117; खुप्पिपासा हि आतपावट्ठानादिना च आतापनं विसुद्धि. महाटी. 2.186. आतपता स्त्री., आतप का भाव., दाहकता, जलनशीलता, गर्मी - तं द्वि. वि., ए. व, - छाया आतपतं यन्ति रित्ततञ्च महासरा, सद्धम्मो. 123. आतपतापन नपुं, तत्पु. स. [आतपतापन], धूप की गर्मी - ने सप्त. वि., ए. व. - घरेवाहं तिले जाते. दिस्वानातपतापने अप. 2.252. आतपत्त नपुं.. [आतपत्र], धूप से रक्षा करने वाला छाता, छत्र - आतपत्तं तथा छत्तं, रुजतु हेममासन, अभि. प. 357; तत्र छत्तन्ति आतपत्तं, सद्द. 2.542; - क नपुं., उपरिवत् - के सप्त. वि., ए. व. - मिडन्ते परिभण्डन्ते, अङ्के वा आतपत्तके, खु. सि. 5.7.. आतपवारण नपुं., तत्पु. स. [आतपवारण]. शा. अ., धूप का निवारण, धूप से बचाव, ला. अ., छाता, स. प. के अन्त., - अध्यारयु आतपनवारणाधिकं अदिस्समाना व नभम्हि देवता, दा. वं. 1.28; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - सो धातुं अत्तसिरसा समुब्बहन्तो ठत्वा समुस्सितसितातपवारणम्हि, दा. वं. 5.35. आतपसुक्ख त्रि, तत्पु. स. [आतपशुष्क], धूप में सूखा हुआ, धूप द्वारा सुखाया गया – क्खं नपुं., प्र. वि., ए. व. - वनपुप्फ आतपसुक्खं, अङ्गारपक्कं चारकबद्धो इच्चेवमादि, सद्द. 3.757-58. आतपाभाव पु., तत्पु. स. [आतपाभाव], धूप का अभाव, छाया - छाया तु आतपाभावे पटिबिम्बे पभाय च, अभि. प. 953. आतप्प नपुं, आ + तप से व्यु. [आतप्य], कुशल कर्मों को करने हेतु वीर्य या पराक्रम, कठोर प्रयास, दृढ़ शक्ति, सम्यक प्रधान - उस्साहातप्पपग्गाहा वायामो च परक्कमो, अभि. प. 156; - प्पं' प्र. वि., ए. व. -- तुम्हेहि किच्चमातप्पं. ध, प. 276; जरामरणं, भिक्खवे, अजानता.... पे.... आतप्पं करणीय ... पे. ...., स. नि. 1(2).117; आतपन्ति कुसलकम्मवीरियं, जा. अट्ट. 6.36; - प्पं द्वि. वि., ए. व. - ... एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय. ... दी. नि. 1.11; - प्पाय च. वि., ए. व. - आतप्पायाति वीरियकरणत्थाय, दी. नि. अट्ट, 3.194; तुल. आताप.. For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आतप्पकरणीयसुत्त 63 आतापेति आतप्पकरणीयसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, आतापिय त्रि.. उत्साही, प्रबल वीर्य से सम्पन्न, सम्यक अ. नि. 1(1).178. व्यायाम अथवा चार सम्यक प्रधानों का अभ्यास करने वाला आताप पु., आ + तप से व्यु. [आताप]. शा. अ., भीषण - यो पु., प्र. वि., ए. व. -- आतापियो संवरती सतीमा, गर्मी, तीव्र ताप या उष्णता, ला. अ., प्रबल वीर्य, उदा. 110; आतापियोति वीरियवा, उदा. अट्ट, 192; तस्स अत्यधिक उत्साह, दृढ़ पराक्रम, प्रबल प्रयास, सम्यक सहायभूतानं सम्मावायामसतीनं अत्थिताय आतापियो सतिमा, व्यायाम - पो प्र. वि., ए. व. - आतापो विरिये भागे, उदा. अट्ठ. 192; तं सब्बजानि कसलो विदित्वा, आतापियो सीमाय ओधि च, अभि. प. 1135; आतापो वुच्चति ब्रह्मचरियं चरेय्या ति, उदा. 123. किलेससन्तापनद्वेन वीरियं, उदा. अट्ठ. 36; आतापोति आतापी त्रि., आताप से व्यु. [आतापिन्], उपरिवत् - पी तीस भवेस किलेसे आतापेतीति आतापो, वीरियस्सेतं नाम, पु., प्र. वि., ए. व. - आतापीति कायिकचेतसिकसङ्घातेन म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).254; यो चेतसिको वीरियारम्भो वीरियातापेन आतापी, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.76; दी. नि. ... सम्मावायामो अयं वुच्चति आतापो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) अट्ठ. 1.270; आतापीति वीरियवा, वीरियहि किलेसानं 1(1).255; कायस्स च चित्तस्स च आतापो परितापो आतापनपरितापनठून आतापोति वुच्चति तदरस अत्थीति ठानचङ्कमनिसज्जासयनाहारपरिग्गहो, मि. प. 287; -पेन आतापी, विसुद्धि. 1.4; एको वूपकट्टो अप्पमत्तो आतापी तृ. वि., ए. व. - इमिना आतापेन उपेतो समुपेतो ... पहितत्तो दी. नि. 1.159; आतापीति कायिकचेतसिकसङ्घातेन महानि. 278; स. उ. प. के रूप में, - वीरिया. पु., वीर्य वीरियातापेन आतापी, दी. नि. अट्ठ. 1.270; म. नि. अट्ठ. का पराक्रम - पेन त, वि., ए. व. - आतापीति वीरियातापेन (म.प.) 2.76; - पिना तृ. वि., ए. व. - इदं, भिक्खवे, समन्नागतो, स. नि. अट्ठ. 1.180. पठम अनागतभयं सम्पस्समानेन ... भिक्खुना अप्पमत्तेन आतापन नपुं., आ + Vतप के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. आतापिना पहितत्तेन विहरितुं ..., अ. नि. 2(1).95; - [आतापन], शा. अ., पूरी तरह से जला देना, ला. अ., पिनो' ष. वि., ए. व. - आतापिनो झायतो ब्राह्मणस्स, उत्पीड़न, भस्मीकरण, नाश, विध्वंस - नं प्र. वि., ए. व. महाव. 2; आतापिनोति सम्मप्पधानवीरियवतो, महाव. अट्ठ. - खुप्पिपासा हि आतपावट्ठानादिना च आतापनं विसुद्धि. 227; - पिनो पु., प्र. वि., ब. व. - तग्ध मयं, भन्ते, महाटी. 2.186; - नेन तृ. वि., ए. व. - इदानि तुम्हेहि अप्पमत्ता आतापिनो पहितत्ता विहरामाति, महाव. 473; - किलेसानं आतापनेन आतप्पन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.232; - पीनं पु., ष. वि., ब. व. - ... एवं अप्पमत्तानं आतापीनं स्स ष. वि., ए. व. --- अनातापी अनोत्तापीति किलेसानं पहितत्तानं विहरन्तानं..... म. नि. 1.271. आतापनस्स वीरियरस अभावेन अनातापी, इतिवु. अट्ठ. आतापेति आ +Vतप के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. 305; - ट्ठ पु., तत्पु. स. [आतापनार्थ], वीर्य का अर्थ, पूरी [आतापयति], शा. अ., बुरी तरह से तपाता या झुलसा तरह से जला देने का तात्पर्य - टेन तृ. वि., ए. व. - देता है, ला. अ., उत्पीड़ित कराता है, दूसरों को कष्ट सत्तमे अनातापीति किलेसानं आतापनद्वेन आतापो, इतिवु. पहुंचवाता है, व्यथित कराता है - सो अत्तानं सुखकामं अट्ठ. 91; - परितापनट्ठ पु., तत्पु. स. दुक्खपटिक्कूलं आतापेति परितापेति, म. नि. 24; उसकारो [अतापनपरितापनार्थ], आतापन एवं परितापन का अर्थ या तेजन द्वीसु अलातेसु आतापेति परितापेति उजु करोति अभिप्राय, भूख, प्यास, धूप में खड़ा होने तथा पञ्चाग्नि में कम्मनियं म. नि. 3.11; - न्ति ब. व. -... विसमभोजनेन झुलसाने का अभिप्राय - द्वेन तृ. वि, ए. व. - वीरियहि कायं आतापेन्तीति, मि. प. 288; - य्य विधि., प्र. पु., ए. किलेसानं आतापनपरितापनद्वेन आतापोति वुच्चति, विसुद्धि. व. - अत्थाय उसुकारो तेजन द्वीसु अलातेसु आतापेय्य 1.4; - परितापनानुयोग पु., तत्पु. स. परितापेय्य उजु करेय्य ..., म. नि. 3.11; - न्तो वर्त. [आतापनपरितापनानुयोग], आतापन एवं परितापन में कृ., पु., प्र. वि., ए. व. -- सच्छिकरोतीति कथं अत्तानं लगाव, जलाने एवं झुलसाने अथवा शरीर को पीड़ा देने आतापेन्तो परितापेन्तो सच्छिकरोति ? स. नि. अट्ठ. 3. वाली क्रिया में लगाव - गं द्वि. वि., ए. व. - इति एवरूपं 146; - त्वा पू. क. कृ. - ते कायञ्च चित्तञ्च आतापेत्वा अनेकविहितं कायस्स आतापनपरितापनानुयोगमनुयुत्तो ठानचङ्कमनिसज्जासयनाहारं परिग्गहेत्वा .... मि. प. विहरति, अ. नि. 1(1).334. 288. For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आतिथेय्य आतिथेय्य नपुं., अतिथि से व्यु. [आतिथेय], अतिथियों के लिए देय उपहार, अतिथि के स्वागत में भेंट किया जाने वाला उपहार - य्यं प्र. वि., ए. व. - अयं धम्मपरियायो भणितो इदं ते होतु आतिथेय्य न्ति, अ. नि. 2(2).207; इदं ते होतु आतिथेय्यन्ति इदमेव धम्मभणनं तव अतिथिपण्णाकारो होतु, अ. नि. अट्ठ. 3.172; - य्यानि ब. व. - सत्तमे आतिथेय्यानीति आगन्तुकदानानि, अ. नि. अट्ठ. 2.62; स. उ. प. के रूप में, आमिसा. अतिथि के लिए धन, संपत्ति अथवा वस्तुओं का उपहार, धम्मा.- अतिथि के लिए धर्म का उपहार - य्यं प्र. वि., ए. व. - द्वेमानि, भिक्खवे, आतिथेय्यानि ... आमिसातिथेय्यञ्च धम्मातिथेय्यञ्च, अ. नि. 1(1).113. आतिसार पु., अतिसार से व्यु. [आतिसार], अतिसार या पेचिश के रोग का विषय, पेचिश रोग का शिकार - रो प्र. वि., ए. व. - वसातीनं विसयो (देसो) वासातो, एवं कुन्तो, साकुन्तो, आतिसारो, क. व्या. 354. आतु पु., संभवतः मातु के मि. सा. पर निर्मित, पिता - भिक्खुस्स आतुमारी, भिक्खुस्स मातुमारी, वरं ते. म. नि. 2.121; आतुमारी मातुमारीति एत्थ आतूति पिता, मातूति माता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.118. आतुम/आतुमन्तु पु.. [आत्मन्], आत्मा, स्वयं, अपने आप, आत्मभाव -- मा प्र. वि., ए. व. - राजा ब्रह्मा सखा अत्ता आतुमा सा पुमा रहा, सद्द. 1.153; आतुमा वुच्चति अत्ता, महानि. 49; अप्पातुमोति आतुमा वुच्चति अत्तभावो, अ. नि. अट्ठ. 2.218; - मानं द्वि. वि., ए. व. - अनरियधम्म कुसला तमाहु, यो आतुमानं सयमेव पाव, सु. नि. 788; यो आतुमानं सयमेव पावाति यो एवं अत्तानं सयमेव वदति, सु. नि. अट्ठ. 2.216; - मे सप्त. वि., ए. व. - तत्थ आतुमेति अत्तनि, पे. व. अट्ठ. 144. आतुम पु., थेरगा. की एक गीति के रचयिता एक स्थविर का नाम, ... आतुमो थेरो ... थेरगा. 72; अथ इमस्मिं बुद्धप्पादे सावत्थियं सेहिपुत्तो हुत्वा निब्बत्ति, आतुमोतिस्स नाम अहोसि, थेरगा. अट्ठ. 1.172. आतुमा स्त्री., [बौ. सं. आदुमा], कुसीनारा एवं सावत्थी के मध्यवर्ती क्षेत्र में अवस्थित एक प्राचीन नगर - यं सप्त. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन अञतरो बुड्डपब्बजितो आतुमायं पटिवसति नहापितपुब्बो, महाव. 325; - य प. वि., ए. व. - अथ खो, पुक्कुस, आतुमाय महाजनकायो निक्खमित्वा, दी. नि. 2.100; - वत्थु नपुं., आतुमा नगर आतुर का क्षेत्र - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - अयं किरेसो खन्धके आगते आतुमावत्थुस्मिं नहापितपुब्बको वुड्डपब्बजितो ..., दी. नि. अट्ट. 2.171. आतुर त्रि., [आतुर]. रुग्ण, बीमार, पीड़ित, व्यथित, प्रभावित, दयनीय स्थिति में पहुंचा हुआ, चोटिल, दुर्बल - रो पु., प्र. वि., ए. व. - बधिरो सतिहीनो'थ गिलानो व्याधितातुरा, अभि. प. 322; आतुरो हायं, गहपति, कायो अण्डभूतो परियोनद्धो, स. नि. 2(1).2; आतुरो हायन्ति आतुरो हि अयं, ... निच्चपग्घरणद्वेन आतुरोयेव, स. नि. अट्ठ. 2.220; आतुरो त्यानुपुच्छामी ति बाळहगिलानो हुत्वा अहं तं अनुपुच्छामि, जा. अट्ठ.6.93; - रं द्वि. वि., ए. व. - आतुरन्ति जरातुरं दी. नि. अट्ठ. 2.41; आतुरं बहुसङ्कप्पं यस्स नत्थि धुवं ठिति, थेरगा. 769; - रा प्र. वि., ब. व. - आतुराति एकन्तमरणधम्मताय आतुरा आसन्नमरणा ..., जा. अट्ठ. 3.174; - रेन तृ. वि., ए. व. - कि वने राजपुत्तेन, आतुरेन करिस्ससि. जा. अट्ठ. 5.85; - स्स ष. वि., ए. व. - आतुरस्साति जरातुरो रोगातुरो किलेसातुरोति तयो आतुरा, स. नि. अट्ट, 1.254; - रे सप्त. वि., ए. व. - अधने आतुरे जिणे, चरिया. अट्ठ. 75; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - आतुरेसु मनुस्सेसु विहराम अनातुरा, ध. प. 198; स. उ. प. के रूप में, अना. - त्रि., [अनातुर]. रोगमुक्त, स्वस्थ, अपीड़ित - रे सप्त. वि., ए. व. - अनातरे पन उभयम्पेतं सक्कोति, जा. अट्ठ. 1.350; किलेसा.त्रि., [क्लेशातुर], क्लेशों द्वारा पीड़ित - स्स ष. वि., ए. व. - आतुरस्सानुसिक्खतो ति कामपत्थनावसेन किलेसातुरस्स, तस्स च फलेन दुक्खातुरस्स च, उदा. अट्ठ. 286; किलेसदुक्खा . - त्रि., तत्पु. स. [क्लेशदुःखातुर], क्लेशजनित दुःख से ग्रस्त - रानं पु., ष. वि., ब. व. - अत्तपरितापने च अल्लीनेहि किलेसदुक्खातुरानं अनुसिक्खन्तेहि, सयञ्च किलेसदुक्खातुरेहि, उदा. अट्ठ. 287; खुप्पिपासा. - त्रि, तत्पु. स. [क्षुत्पिपासातुर], भूख एवं प्यास से पीड़ित - रा पु., प्र. वि., ब. क. - ते खुप्पिपासातुरा विरळच्छायायं निसीदिंसु, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).220; पेता हि नेकवस्सानि खुप्पिपासातुरा पि च, सद्धम्मो. 507; जरा.त्रि, तत्पु. स. [जरातुर], बुढ़ापे से पीड़ित - रं पु., द्वि. वि., ए. व. - आतुरन्ति जरातुरं दी. नि. अट्ठ. 2.41; दुक्खा . -त्रि., तत्पु. स. [दुःखातुर], दुःख से पीड़ित -स्स पु., ष. वि., ए. व. - तस्स च फलेन दुक्खातुरस्स माता. तुमन्तु पु.वि..ए. For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आतुरकाय 65 च उभयत्थापि पटिकाराभिलासाय किलेसफले अनसिक्खतो. उदा. अठ्ठ. 286; जिण्णा . - त्रि., बूढ़ा एवं रोगी, स. प. में, - अपरो 'जिण्णातुरमतपब्बजितसङ्घातनिमित्ते दिस्वा', उदा. अट्ठ. 208; वेदना. - त्रि., तत्पु. स. [वेदनातुर], पीड़ा से ग्रस्त - रो पु., प्र. वि., ए. व. - सो वेदनातुरो आकासे ठातुं असक्कोन्तो भूमियं पति, उदा. अट्ठ. 1993; सोका. - त्रि., तत्पु. स. [शोकातुर], शोक से ग्रस्त - रं पु., द्वि. वि., ए. व. - सोकातरं तत्थ तत्थ अस्सासेन्ता महाजन, म. वं. 3.13. आतुरकाय त्रि., ब. स. [आतुरकाय], रोगग्रस्त शरीर वाला, वह, जिसका शरीर अस्वस्थ या रुग्ण है - यो पु., प्र. वि., ए. व. - अहमस्मि, भन्ते, जिण्णो वुड्डो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो आतुरकायो अभिक्खणातको, स. नि. 2(1).2; आतुरकायोति गिलानकायो, स. नि. अट्ठ. 2.220; - ये हि पु., तृ. वि., ब. व. - नानप्पकाररोगदुक्खाभिपीळितत्ताआतुरकायेहि महाजनेहि, उदा. अट्ठ. 43; - या पु., प्र. वि., ब. व. - खीणासवा आतुरकाया अनातुरचित्ता, स. नि. अट्ठ 2.225. आतुरचित्त त्रि., [आतुरचित्त], राग, द्वेष एवं मोह से ग्रस्त चित्त वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आतुरकायो चेव होति आतुरचित्तो च, स. नि. 2(1).3; एवं खो, गहपति, आतुरकायो चेव होति आतुरचित्तो चाति कायो नाम बुद्धानम्पि आतुरोयेव, स. नि. अट्ठ. 2.225; एवं आतुरचित्तो खो पनेस मीयमानो निरयेयेव निब्बत्तिस्सति, जा. अट्ठ. 1.208; - तेहि पु., तृ. वि., ब. व. - नानाविधकिलेसब्याधिपीळितत्ता आतुरचित्तेहि देवमनुस्सेहि .... उदा. अट्ठ. 43; स. उ. प. के रूप में, अना.- त्रि., ब. स. [अनातुरचित्त], राग, द्वेष एवं मोह से मुक्त चित्त वाला (अर्हत) - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - खीणासवा आतुरकाया अनातरचित्ता, सत्त सेखा नेव आतुरचित्ता, न अनातुरचित्ताति वेदितब्बा, स. नि. अट्ठ. 2.225; - ता स्त्री., भाव., चित्त की राग, द्वेष एवं मोह से युक्त अवस्था - तं द्वि. वि., ए. व. - भजमाना पन अनातुरचित्ततंयेव भजन्तीति, स. नि. अट्ठ. 2.225. आतुरता स्त्री., आतुर का भाव. [आतुरता], रुग्णता, बीमारी, विपत्ति, व्याकुलता, परेशानी - अट्ठहि खलु सम्म पुण्णमुख, ठानेहि इत्थी सामिक अवजानाति - दलिहता आतुरता, जिण्णता, सुरासोण्डता मुद्धता पमत्तता, सब्बकिच्चेसु अनुवत्तनता, सब्बधनअनुप्पदानेन, जा. अट्ठ. 5.430; - य ष. वि., ए. व. - ताय आतुरताय इच्छितिच्छितक्खणे आतुरीभूत आगन्तुं, स. नि. अट्ठ. 2.220; - ता प्र. वि., ब. क. - .... तिस्सो आतुरता होन्ति, तदे.; स. उ. प. रूप में, जरा./ब्याधा./मरणा.- स्त्री., तत्पु. स., वृद्धावस्था की विपत्ति, रोगों की व्यथा, मृत्यु का संकट - विसेसेन पनस्स जरातुरता ब्याधातुरता मरणातुरताति तिस्सो आतुरता होन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.220; किलेसा. रोगा.- स्त्री., तत्पु. स., क्लेशों द्वारा उत्पन्न किया गया कष्ट, रोगों से उत्पन्न कष्ट. - य तृ. वि., ए. व. - आतुरन्ति जरातुरताय रोगातुरताय किलेसातुरताय च निच्चातुरं म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.213; सोका.- स्त्री., शोक के कारण उत्पन्न व्याकुलता - य तृ. वि., ए. व. - ओ वचनं सुत्वा वियोगं असहमाना सोकातुरताय ..., पे. व. अट्ठ. 139; - त्त नपुं., भाव. [आतुरत्व], उपरिवत् - त्तं प्र. वि., ए. व. - सत्तिसभञ्जनरसं, आतुरत्तन्ति गम्हति, ना. रू. प. 116. आतुरन्न नपुं, तत्पु. स. [आतुरान्न], शा. अ., विपत्तिग्रस्त व्यक्ति के लिए भोजन, ला. अ., मृत्यु के समय का भोजन, मरणकाल का भोजन - न्नानि द्वि. वि., ब. व. - ... अयहि आतुरन्नानि भुञ्जति, आतुरन्नानीति मरणभोजनानि, जा. अट्ठ. 1.195; मा सालूकस्स पिहयि, आतुरन्नानि भुञ्जति, जा. अट्ट. 2.345. आतुररूप त्रि., ब. स. [आतुररूप], वह, जिसका शरीर दुखदायक पीड़ा से पीड़ित है, पीड़ाग्रस्त शरीर वाला – पो पु., प्र. वि., ए. व. - आबाधिकोहं दुक्खितो गिलानो, आतुररूपोम्हि सके निवेसने, वि. व. 1220; ध. प. अट्ठ. 1.21; आतुररूपोति दुक्खवेदनाभितुन्नकायो, वि. व. अट्ठ. 279. आतुरस्सर पु., कर्म. स. [आतुरस्तर], पीड़ा से भरा स्वर, पीड़ा से जनित स्वर, कराह – रं द्वि. वि., ए. व. - सा अढिकसङ्घालिका अदृस्सरं आतरस्सरं करोतीति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.88; स. नि. अट्ठ. 2.192. आतुरित त्रि., [आतुरित], रोग से पीड़ित, वृद्धावस्था से पीडित, क्लेशों या राग, द्वेष आदि चित्तमलों से ग्रस्त - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - उच्चारपस्सावं करोन्ति, गेलझेन आतुरितानि सयन्ति, मतानि पतन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).34. आतुरितकाल पु. तत्पु. स. [आतुरितकाल], पीड़ित या व्यथित होने का काल - ले सप्त. वि., ए. व. - एक बुद्धन्तरम्पि खुप्पिपासाहि आतुरितकालेपि, म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(1).303. For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आतुरीभूत 66 आदर आतुरीभूत त्रि., रोगों आदि से पीड़ित, विपत्तिग्रस्त, क्लेशों आद पु., [आद], ग्रहण स्वीकरण, खाने वाला, केवल स. से ग्रस्त - ता पु., प्र. वि., ब. व. - आतुरीभूता पुग्गला, उ. प. के रूप में प्रयुक्त, दाया., वन्ता.. विद्यासा. के अन्त. विसुद्धि. महाटी. 2.171. आतुरीयति आतुर के ना. धा. का वर्त, प्र. पु., ए. व. - आदत्ते आ +/दा का वर्त.. प्र. पु., ए. व., आत्मने. रुग्ण होता है, पीड़ित होता है, ग्रस्त हो जाता है, प्रभावित [आदत्ते], स्वयं ग्रहण करता है, लेता है, स्वीकार करता होता है, बाधायुक्त हो जाता है - सरोपि उपहअति, है - यस्मा वा अपेति, यस्मा वा भयं जायते, यस्मा वा कण्ठोपि आतुरीयति, म. नि. 3.283; आतुरीयतीति आतुरो आदत्ते, तं कारकं अपादानसञ्ज होति, क. व्या. होति गेलञप्पत्तो साबाधो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.203; 273; यस्मादपेति भयमादत्ते वा तदपादानं नाम, बाला. निवातसेनासने वसन्तो अतिविय पित्तरोगादीहि आतुरीयति, 49; "आदत्ते कुरुते पेते" इच्चादिनयदस्सना, सद्द. खु. पा. अट्ठ. 117. 2.319. आतोज्ज त्रि./नपुं., [आतोद्य], शा. अ.. चारों ओर से आददाति आ +/दा का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आददाति], ताड़ित, अच्छी तरह से पीटा गया, ला. अ., एक विशेष ले लेता है, पकड़ लेता हे, ग्रहण करता है, स्वीकार करता प्रकार का वाद्य - ज्जं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आतोज्ज है - सद्धो दानं ददाति देति, सील आददाति आदेति तु च वादित्तं वादितं वज्जमुच्चते, अभि. प. 142. इमानि सुद्धकत्तुपदानि, सद्द. 2.367; आपुब्बवसेन गहणञ्च आथब्बण त्रि., [आथर्वण], अथर्ववेद के साथ जुड़ा हुआ, वदन्तो ददाति देति आददाति आदेति दानं आदानन्ति अथर्ववेद में विहित कर्मकाण्डों को करने वाला - णं पु., सनामपदानि सुद्धकत्तुपदानि जनयति, सद्द. 2.368; - तु द्वि. वि., ए. व. - आथब्बणं सपिनं लक्खणं, नो विदहे अनु., प्र. पु., ए. व. – एवं “आददातु, आददेय्य” इच्चादि अथोपि नक्खत्तं सु. नि. 933; आथब्बणन्ति सब्बं नेय्यं, आदेतु आदेय्य इच्चादि यथारहं योजेतब्बं सद्द. आथब्बणिकमन्तप्पयोगं सु नि. अठ्ठ. 2256; - का पु. प्र. वि., 2.373. ब. व. - आथब्बणिका आथब्बणं पयोजेन्ति, पारा. अट्ठ. 237. आदधान त्रि., आ +vधा का वर्त. कृ., आत्मने. [आदधान], आथब्बणपयोग पु., तत्पु. स. [आथर्वणप्रयोग], अथर्ववेद रखने वाला, उत्पन्न करने वाला, प्रदायक, आपूरक - नं के मन्त्रों का व्यावहारिक प्रयोग - गं द्वि. वि., ए. व. - पु., द्वि. वि., ए. व. - वन्दामि चक्खवरलक्खणं आदधानं. ततियो नं निसेधेत्वा आथब्बणपयोगं सन्धाय उपकवन्तिपि रस. 1.7; सोस्सामि धम्म सिवमादधानं, रस. 2.23. अपकडन्तिपीति आह, दी. नि. अट्ठ. 1.275. आदपयति/आदपेति आ + दा के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., आथब्बनवेद पु., कर्म स. [अथर्ववेद], अथर्ववेद, अथर्ववेद ए. व., ग्रहण कराता है, लेने हेतु प्रेरित करता है - का मन्त्र - दं द्वि. वि., ए. व. - आथब्बनवेदं पन समादपेतीति तत्थ लक्खणारम्मणिक विपस्सनं सम्मा पणीतज्झासया न सिक्खन्ति, सद्द. 2.390. आदपेति, उदा. अट्ट, 293; सीलं आदपेति समादपेति, सद्द. आथब्बणिक त्रि., आिथर्वणिक], अथर्ववेद में विहित कर्मकाण्डों 2.367; कारिते आदपेति समादपेति आदपयति समादपयति, को करने वाला पुरोहित, अथर्ववेद के मारण, उच्चाटन सद्द. 2.480; - न्ति ब. व. - ये धम्ममेवादपयन्ति सन्तो, आदि के मन्त्रों का ज्ञाता या प्रयोक्ता – का पु., प्र. वि., म. नि. 2.314; ये सन्तो सप्पुरिसा धम्मंयेव आदपेन्ति ब. व. - आथब्बणिका किर आथब्बणं पयोजेत्वा सत्तं समादपेन्ति गण्हापेन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.243; - सीसच्छिन्नं, दी. नि. अट्ठ. 1.275; आथब्बणिका आथब्बणं त्वा पू. का. कृ. - समादपेसीति तदत्थं समादपेत्वा पयोजेन्ति, महानि. 280; - कादि त्रि., वह समूह, जिसके कथेसि, दी. नि. अट्ट, 1.241. आदि में अथर्ववेद के मन्त्रों के ज्ञाता हों - दीनं पु., ष. आदयति ।अद के प्रेर, का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आदयति], वि., ब. व. - आथब्बणिकादीनं विय मन्तपरिजप्पनपयोगो खिलवाता है - खादादीनं पयोज्जे कत्तरि दुतिया न विज्जामयो, इतिवु. अट्ठ. 202; - मन्तपयोग पु., तत्पु. होति, खादयति देवदत्तेन, आदयति देवदत्तेन, मो. स., अथर्ववेद के मन्त्रों का व्यावहारिक प्रयोग - गं द्वि. व्या. 2.6. वि., ए. व. - आथब्बणन्ति आथब्बणिकमन्तप्पयोग, सु. नि. आदर पु.. [आदर], सम्मान, उचित व्यवहार, अच्छी देखअट्ठ. 2.256. भाल, सत्कार, सेवा-टहल - रो प्र. वि., ए. व. - दरति For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदरता 67 आदान आदरति अनादरति, आदरो अनादरो, सद्द. 2.426; तस्मा हितत्थकामेन, कातब्बो एत्थ आदरो, अभि. अव. 1407; .... एतरस आदरोति अनादरो, इति. अट्ठ. 92; - रं द्वि. वि., ए. व. - ... सवने आदरं जनेति, स. नि. अट्ठ. 1.8; -- रेन तृ. वि., ए. व. - ... धम्म आदरेन अस्सुणन्तो..., स. नि. अट्ठ. 1.9; क. स. उ. प. के रूप में, अना.- पु., आदर का अभाव, असम्मान - रेन तृ. वि., ए. व. - पापे । अनादरेनापि सततं वत्तते मनो, सद्धम्मो. 21; सञ्जातधम्मस्सवना. - त्रि., ब. स., वह, जिसके मन में धर्म को सुनने के लिए आदरभाव हो - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अतिविय साधुरूपा गाथा भविस्सन्तीति सुट्टत्तरं सञ्जातधम्मरसवनादरो हुत्वा..., जा. अट्ठ. 5.487; ख. स. पू. प. के रूप में; - कारी पु., सम्मान अथवा आदर करने वाला -री प्र. वि., ए. व. - असक्कच्चकारीति न सुकतकारी, न आदरकारी, अ. नि. अट्ठ. 3.139; - जननत्थ पु., तत्पु. स. [आदरजननार्थ]. सम्मान के भाव को उत्पन्न करने का प्रयोजन - त्थं वि. वि., ए. व. - तं अनामसित्वा तत्थ अभिरतियं आदरजननत्थं अभिरम, नन्द, अभिरम, नन्दाति, उदा. अट्ठ. 139; - जात त्रि., सम्मान या श्रद्धाभक्ति को प्राप्त करने वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - देवापि मनुस्सापि आदरजाता अतिविय पिहयन्तीति, उदा. अट्ठ. 162; - दस्सन नपुं.. तत्पु. स. [आदरदर्शन], सम्मान के भाव का प्रकाशन - आदरदस्सनत्थं चेत्थ आमेडितवसेन वुत्तं पे. व. अट्ठ. 242; - दीपन नपुं., तत्पु. स. [आदरदीपन], उपरिवत् - भिक्खूनं तप्परभावतो सवने आदरदीपनेन सक्कच्चसवनं दस्सेति, उदा. अट्ठ. 316; - रहित त्रि., तत्पु. स. [आदररहित], आदरभाव या सम्मानभाव को अप्राप्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ओत्तप्पस्स अभावेन सब्रह्मचारीस आदररहितो, इतिवु. अट्ठ. 135; - विरहित त्रि., तत्पु. स., उपरिवत् - ता पु., प्र. वि., ए. व. - विरमिस्साम एवरूपा ति एवं आदरविरहिता .... सु. नि. अट्ठ. 1.265. आदरता स्त्री., आदर से व्यु., भाव. [आदरत्व, नपुं.], आदरभाव, निषे०, रूप में स. उ. प. में ही प्राप्त; अना. - अनादरभाव, तिरस्कारभाव, उपेक्षाभाव - ता प्र. वि., ए. व. अनादरियनिद्देसे ओवादस्स अनादियनवसेन अनादरभावो. अनादरियं, अनादरियनाकारो अनादरता, विभ. अट्ठ. 471. आदरति आ + दर से व्यु., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आद्रियते], आदर करता है, आदर किया जाता है - दरति आदरति अनादरति, आदरो अनादरो, सद्द. 2.426. आदहति आ +vधा का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आदधाति]. शा. अ., ला कर रख देता है, किसी पर निर्धारित कर देता है, ला. अ. 1. अग्नि के सन्दर्भ में, प्रज्वलित करता है, परचाता है. 2. चित्त के सन्दर्भ में, स्थिर करता है, ठीक से रखता है, आलम्बन पर रखता है - समाधीति चित्तं समं आदहति आरम्मणे ठपेतीति समाधि, बु. वं. अट्ठ, 55; – हामि उ. पु., ए. व. - समादहामीति सम्मा आदहामि, सुट्ट आरोपेमीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).396; - हन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - वेस्सानरमादहानोति वेस्सानरं अग्गिं आदहन्तो, जा. अट्ठ. 7.49; - हि अद्य, प्र. पु., ए. व. - सहस्सबाहु असमो पथब्या, सोपि तदा आदहि जातवेदान्ति, जा. अट्ठ. 7.47; - हित्वा पू. का. कृ. - सूचिघटिक दत्वाति अग्गळसूचिञ्च उपरिघटिकञ्च आदहित्वा, उदा. अट्ठ. 242. आदा/आदाय आ +vदा का पू. का. कृ. [आदाय], ले कर, ग्रहण कर - इतो आदाय कमण्डलु, जा. अट्ठ. 6.102; पाठा. - आदा, निषे., अनादा, नहीं लेकर - अनादा चे भिक्खु पुराणसन्थतस्स सामन्ता .... पारा. 350; अनादा चे... सुगतविदस्थिन्ति अनादियित्वा .... तदे.. आदाति आ +दा का अद्वित्त्वीकृतरूप, वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आददाति], ग्रहण करता है, ले लेता है- तब्ब त्रि., सं. कृ., ले लेना चाहिए -ब्बा पु.. प्र. वि., ब. व. - द्वे भागा सुद्धकाळकानं एळकलोमानं आदातब्बा ततियं ओदातानं चतुत्थं गोचरियानं, पारा. 343; - बं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - तिण्णं दुब्बण्णकरणानं अञ्जतरं दुब्बण्णकरणं आदातब्ब, पाचि. 162. आदातु त्रि.. आ +/दा से व्यु., क. ना. [आदात], ग्रहण करने वाला, लेने वाला - ता पु., प्र. वि., ए. व. - तं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदाता होति, म. नि. 1.359. आदान नपुं., आ + दा से व्यु., क्रि. ना. [आदान], शा. अ., ग्रहण कर लेना, ले लेना, स्वीकरण, पकड़ लेना, प्राप्ति - इमस्मि पन भुवादिगणे दानं वदन्तो आपब्बवसेन गहणञ्च वदन्तो ... दानं आदानन्ति सनामपदानि सुद्धकत्तुपदानि जनयति, सद्द. 2.368; - नं प्र. वि., ए. व. - सब्बं सकस्स आदानं, अनादानं तिणस्स चाति, ..., जा. For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदान 68 आदाननिक्खेपन अट्ठ. 3.100-101; --- नेन तृ. वि., ए. व. - एत्थ आदिकेनाति मुसावादा, म. नि. 2.80; सब्बगेहा.- नपुं, तत्पु. स. आदानेन गहणेन, स. नि. अट्ठ. 2.179; विशेष अर्थ, 1. [सर्वगेहादान], समस्त गृहों का ग्रहण - नं प्र. वि., भोजन-ग्रहण, तृणभक्षण - नानि द्वि. वि., ब. व. - अज्ज ए. व. - याव कळीरच्छेज्ज सब्बगेहादानं उभतोपक्खे मे सत्तमा रत्ति, अदनानि उपासतो, जा. अट्ठ. 5.3673; याव सत्तमकुला समुग्घातो ति, मि. प. 186; सा.तत्थ अदनानीति आदानानि, गोचरगहणवानानीति अत्थो. नपुं., आदान या ग्रहण करने योग्य - नेसु सप्त. वि., जा. अट्ठ. 5.367; विशेष अर्थ 2. आसक्ति, विषयभोगों के ब. व. - सादानेसु अनादानं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं, ध. प. प्रति लगाव, पुनर्जन्म का ग्रहण - नं' प्र. वि., ब. व. - 406. दिस्सति ... इमस्स चातुमहाभूतिकस्स कायरस आचयोपि आदानकाल पु., तत्पु. स. [आदानकाल]. ग्रहण या स्वीकार अपचयोपि आदानम्पि निक्खेपनम्पि, स. नि. 1(2).84; करने का उपयुक्त समय, स्वीकार्यता - लं द्वि. वि., ए. अग्गिस्स आदानं यूपस्स उस्सापनं महप्फलं होति व. - महाजनस्स आदानकालं गहणकालं जानित्वाव महानिसंसन्ति, अ. नि. 2(2).191; आदानन्ति निब्बत्ति, स. ब्याकरोतीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.80. नि. अट्ठ. 2.86; तत्थ आदानन्ति पटिसन्धि, विसुद्धि. 2.252; आदानगन्थ पु.. तत्पु. स., आसक्ति की गांठ, तृष्णा की - नं द्वि. वि., ए. व. - आदान पजहतो गांठ - थं द्वि. वि., ए. व. - आदानगन्थं गथितं विसज्ज, पटिनिस्सग्गानुपस्सनावसेन जाता धम्मा अञ्जमञ्ज आसं न कुब्बन्ति कुहिञ्चि लोके, सु. नि. 800; चतुब्बिधम्पि नातिवत्तन्तीति .... पटि. म. 28; आदानन्ति निब्बत्तनवसेन रूपादीनं आदायकत्ता आदानगन्थं अत्तनो चित्तसन्ताने गथितं किलेसानं, अदोसदस्साविताय सङ्घतारम्मणस्स वा आदानं. बद्धं अरियमग्गसत्थेन विसज्ज छिन्दित्वा, सु. नि. अट्ठ पटि. म. अट्ठ. 1.113; - तो प. वि., ए. व. - 2.221. पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय आदानतो चित्तं मोचेन्तो अस्ससति । आदानगहण नपुं.. तत्पु. स. [आदानग्रहण], आसक्ति की चेव पस्ससति च, विसुद्धि. 1.277; आदानतोति निच्चादिवसेन । पकड़, लगाव या तृष्णा की दृढ़ पकड़, स. प. के अन्त. गहणतो, पटिसन्धिग्गहणतो वाति एवमेत्थ अत्थो दहब्बो, -कायद्वारे आदानगहणमुञ्चनचोपनानि पापेत्वा, म. नि. विसुद्धि. महाटी. 1.323; - स्स ष. वि., ए. व. - अट्ठ. (मू.प.) 1(2).259; स. नि. अट्ठ. 3.132; कायद्वारे पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय आदानस्स ..., पटि. म. 41; - आदानगहणमुञ्चनचोपनपत्ता अट्टकामावचरकुसलचेतना, नेसु सप्त. वि., ब. व. - आदानेसु विनेय्य छन्दरागं, सु. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.39. नि. 366; आदानेसु... तेसु उपधीसु न सारमेति, सु. नि. आदानतण्हा स्त्री., तत्पु. स. [आदानतृष्णा], ग्रहण करने अट्ठ. 2.87; स. उ. प. के रूप में; अदिन्ना .- नपुं, तत्पु. की तृष्णा, तृष्णा-उपादान, रूप आदि के प्रति मन का दृढ़ स. [अदत्तादान], शा. अ., जो कुछ प्रसन्नता के साथ लगाव, रूप-तृष्णा, वेदनातृष्णा आदि तृष्णाएं - ण्हं द्वि. नहीं दिया गया है, उसे चोरी, डकैती, घूसखोरी, ठगी आदि वि., ए. व. - आदानतण्हं विनयेथ सब्ब, सु. नि. 1109; द्वारा छीन लेना, विशेष अर्थ, तीन प्रकार के शारीरिक तत्थ आदानतण्हन्ति रूपादीनं आदायिकं गहणतण्हं, पापकृत्यों में से दूसरा पापकृत्य - न्नं प्र. वि., ए. व. - तण्हुपादानन्ति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.291. अकुसलकम्मपथेसु पाणातिपातो अदिन्नादानं मिच्छाचारो आदाननिक्खेप पु., द्व. स. [आदाननिक्षेप], ग्रहण एवं मुसावादो मिच्छदिट्ठीति, अभि. अव. 172; अना.- नपुं., परित्याग, ले लेना और छोड़ देना - पे सप्त. वि., ए. व. आदान का निषे. [अनादान], अग्रहण, नहीं लिप्तता - ना - आरञको नागो हत्थिदमकस्स आदाननिक्खेपे वचनकरो प. वि., ए. व. - सादानेसु अनादानाति सगहणेसु सत्तेसु होति ओवादप्पटिकरो .... म. नि. 3.174; - पेहि तृ. वि., च ... अगहणा, स. नि. अट्ठ. 1.308; भारा.- न., तत्पु. ब. व. - इधलोकतो परलोक आदाननिक्खेपेहि अपरापर स. [भारादान], भार को ग्रहण करना, भार को ढोना - नं धावति संसरतीति अत्थो, उदा. अट्ठ. 192. प्र. वि., ए. व. - भारादानं दुखं लोके, भारनिक्खेपनं, सुखं आदाननिक्खेपन नपुं., द्व. स. [आदाननिक्षेपण]. शा. स. नि. 2(1).25; सत्था .- नपुं., तत्पु. स. [शस्त्रादान]. अ., लेना और छोड़ देना, ग्रहण एवं परित्याग, ग्रहण एवं शस्त्रों को रखना - रूपाधिकरणं दण्डादान - सत्थादान विसर्जन, ला. अ., जन्मग्रहण एवं जन्म का अन्त या मृत्यु - कलह - विग्गह - विवाद - तुवंतुवं - पेसुञ - - नं प्र. वि., ए. व. - हत्थेसु, भिक्खवे, सति For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदानपटिनिस्सग्ग 69 आदाय . प आदाननिक्खेपनं होति, सु. नि. अट्ठ. 1.181; हत्थेसु भिक्खवे, सति आदाननिक्खेपनं पञआयति, स. नि. 2(2).175; तत्थ आदानन्ति पटिसन्धि निक्खेपनन्ति चुति, विसुद्धि. 2.252; - तो प. वि., क्रि. विशे. - आदाननिक्खेपनतो, वयोवुड्डत्थगामितो, विसुद्धि. 2.252; आदाननिक्खेपनतोति भवस्स गहणविरसज्जनतो, जातितो मरणतो चाति अत्थो, विसुद्धि. महाटी. 2.380. आदानपटिनिस्सग्ग पु.. द्व. स. [आदानप्रतिनिःसर्ग], ग्रहण एवं अग्रहण, लेना एवं त्याग देना, आसक्ति एवं अनासक्ति, निर्वाण, जिसमें समस्त लगावों का त्याग हो जाता है - ग्गे सप्त. वि., ए. व. - आदानपटिनिस्सग्गे, अनुपादाय ये रता, ध. प. 89; आदानपटिनिस्सग्गेति आदानं वच्चति गहणं, तस्स पटिनिस्सग्गसङ्घाते अग्गहणे चतूहि उपादानेहि किञ्चि अनुपादियित्वा ये रताति अत्थो, ध. प. अट्ट, 1.338; आदानपटिनिस्सग्गेति गहणपटिनिस्सग्गसङ्घाते निब्बाने. अ. नि. अट्ठ 3.334. आदानवट्टि स्त्री., औषधियों के लेप से युक्त पट्टी-ट्टि प्र. वि., ए. व. - वच्चमग्गे भेसज्जमक्खिता आदानवट्टि वा वेळुनाळिका वा वट्टति, महाव. अट्ठ. 354; आदानवत्तीति आनहवत्ति, वजिर. टी. 440. आदानसङ्ग पु., तत्पु. स., सांसारिक आसक्तियों की ओर मन का झुकाव, अर्थलिप्सा, लोभ - आदानसत्ते वा आदानाभिनिविटे पुग्गले आदानसङ्गहेतुञ्च इमं पज मच्चुधेय्ये लग्गं ततो वीतिक्कमितुं असमत्थं इति पेक्खमानो ..., सु. नि. अट्ठ. 2.291; चूळनि. अट्ठ. 41. आदानसत्त पु., कर्म. स., आसक्ति या लगाव की मनोवृत्ति वाला प्राणी - त्ते सप्त. वि., ए. व. - आदानसत्ते इति पेक्खमानोति आदानसत्ता वुच्चन्ति ये रूपं आदियन्ति उपादियन्ति ..., चूळनि. 138; आदानसत्ते इति पेक्खमानो, सु. नि. 1110; आदातब्बढेन आदानेसु रूपादीसु सत्ते सब्बलोके... आदानसत्ते वा आदानाभिनिविढे पुग्गले. सु. नि. अट्ठ. 2.291. आदानसील त्रि., ब. स. [आदानशील], स्वभाव से ही आसक्त, लालची अथवा तृष्णामयी प्रकृति वाला, केवल दूसरों से ले लेने वाला - ला पु. प्र. वि., ब.व. - अदानसीला न च देन्ति करसचि सु नि. 247; अदानसीलाति अदानपकतिका, आदानाधिमुत्ता असंविभागरताति अत्थो, .... केचि पन आदानसीलातिपि पठन्ति, केवलंगहणसीला, कस्सचि पन किञ्चि न देन्तीति, सु. नि. अट्ठ. 1.264. आदानाधिप्पाय त्रि., ब. स. [आदानाभिप्रायक], वह, जिसका अभिप्राय दूसरों से छीनना है, दूसरों की धन-सम्पदा आदि को ले लेने की इच्छा रखने वाला - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - चोरो, भिक्खवे, आदानाधिप्पायो अप्पं रत्तिया सुपति, बहु जग्गति, अ. नि. 2(1).147; आदानाधिप्पायोति इदानि गहेतुं सक्खिस्सामि, इदानि सक्खिसामीति एवं गहणाधिप्पायो, अ. नि. अट्ठ. 3.50; - या ब. व. - चोरा, खो, ब्राह्मण आदानाधिप्पाया गहनूपविचारा सत्थाधिद्वाना, अ. नि. 2(2).76; परभण्डस्स आदाने अधिप्पायो एतेसन्ति आदानाधिप्पाया, अ. नि. अट्ठ. 3.122... आदानामिनिविट्ठ त्रि., तत्पु. स. [आदानाभिनिविष्ट], दूसरों की सम्पत्ति आदि को ले लेने का मानसिक अभिप्राय रखने वाला - तु पु., सप्त. वि., ए. व. - आदानसत्ते वा आदानाभिनिविढे पुग्गले ... इति पेक्खमानो, चूळनि. अट्ट, 41; सु. नि. अट्ठ. 2.291. आदापति आ +/दा के प्रेर. का वर्त०, प्र. पु., ए. व., ग्रहण कराता है, आसक्ति या लगाव उत्पन्न कराता है - एवं एव च दापति आदापेतीति आदीनि पि यथारह, सद्द. 2.374. आदाय' आ +vदा का सं. कृ. [आदाय], 1. लेकर, ग्रहण कर, स्वीकार कर, चयन कर - उद्दिस्स, उद्दिसित्वा, आदाय आदियित्वा, क. व्या. 599; अपस्सन्तो एकसेन आदाय वोहरेय्यं म. नि. 2.80; भरित्वा तुवरमादाय, सङ्घस्स अददि अहं, अप. 1.234; भरित्वा तुवरमादायाति तुवरअलुि मुग्गकलयसदिसं तवरटिं भज्जित्वा अप. अट्ठ. 2.181; 2. प्रायः इसका प्रयोग क्रि. वि. अथवा उप. के रूप में भी प्राप्त, साथ, साथ में लेकर - तथा पिनयमादाय कथितत्ता अकोपिया, सद्द. 1.24; पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन कसिभारद्वाजस्स ब्राह्मणस्स कम्मन्तो तेनुपसङ्कमि, सु. नि. (पृ.) 96; आदाय अग्गिं मम देहि वित्तं, जा. अट्ठ. 7.56; एत्तक याचित्वा आदाय पक्कामि, जा. अट्ठ. 1.119. आदाय पु., किसी धार्मिक आस्था का ग्रहण, धार्मिक विश्वास का स्वीकरण - गहणवसेन आदायो, महानि. अट्ठ. 1153; विभ. अट्ठ. 309; - यं द्वि. वि., ए. व. - यञ्च कथेन्तो सकं आदायं अत्तनो आचरियवादं न हापेति, महाव. अट्ठ. 411; स. उ. प. के रूप में तथागता.. बुद्धा. के अन्त. द्रष्ट.. आदाय आ +vदा' का पू. का. कृ. [आदाय], खींच कर, तान कर, बांध कर - आदाय पत्तिं परविरियघाति, चापे For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आदायक " सरं किं विचिकिच्छसे तुवं, जा. अट्ठ. 4.243; एतं पत्तसहितं सरं चापे आदाय सन्नव्हित्वा, जा. अदु. 4.243. आदायक त्रि. आ + √दा से व्यु [आदायक], लेने वाला. ग्रहण करने वाला का पु. प्र. वि. ब. व. मच्छरिनोति अज्ञसं अदायका, जा. अट्ठ. 6.129; पाठा. आदायका; स. उ. प. के रूप में; तदा.- त्रि.. उसका (पूर्वनिर्दिष्ट का ) आदान या ग्रहण कराने वाला परपरिग्गहितसञ्ञिनो तदादायक उपक्कमसमुट्ठापिका थेय्यचेतना अदिन्नादानं, स. नि. अड. 2.128, मूला. त्रि. कायिक एवं वाचिक, इन दो प्रकार की आपत्तियों (अपराधों ) के मूल को ग्रहण करने वाला का पु. प्र. वि. ब. क. सियापि मूलादायका भिक्खू पुनकम्माय उक्कोटेव्यु चूळव, 473. आदायछक्क नपुं., महाव. के कठिनखन्धक में संगृहीत एक वत्थु का शीर्षक महाव, 334-335. आदायपन्नरसक नपुं०, महाव. के कठिनखन्धक के एक वत्थु का शीर्षक, महाव. 336. — आदायसत्तक नपुं महाव के कठिनखन्धक की एक विनयवस्तु महाव. 332. - आदायी त्रि., [आदायिन् ], लेने वाला, ग्रहण करने वाला, केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, अदिन्ना. नदी हुई वस्तु को ले लेने वाला यिनो पु. प्र. वि. ब. व. - अदिन्नं आदियन्तीति अदिन्नादायिनो, स० नि० अट्ट. 2.127; दिन्ना. केवल दी हुई वस्तु, धन आदि को लेने वाला - यी पु. प्र. वि. ए. व. अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्क्षी, म. नि. 1.240; वरा. - त्रि, उत्तम वस्तु या भाव को ग्रहण करने वाला यी पु. प्र. वि. ए. व. सारादायी च होति वरादायी च कायस्स, अ. नि. 2 (1).74; ततियो वरादायीति उत्तमस्स - सार वरस्स आदायको, अ० नि० अट्ठ. 3.31; सारा. - त्रि.. तत्त्व को ग्रहण करने वाला यी पु. प्र. वि. ए. व. - सारादायी च होति वरादायी च कायस्स् अ. नि. 2 (1).74. आदायिवल्ली स्त्री०, एक लता का नाम हि तृ. वि., व. कदम्बपुप्फमादाय वल्लीहि विततं अहु म. वं. 17.31; आदायिवल्ली ति हियवल्ली वुच्चति, म. वं. टी. 339 (ना.); पाठा. आदारिवल्ली. ब. आदास पु. [ आदर्श ], दर्पण, आईना, मुंह देखने का शीशा सो प्र. वि., ए. व॰ दीपो पदीपो पज्जोतो, पुमे त्वादास-दप्पना, अभि. प. 316 तं किं मज्जति, राहुल, किमत्थियो आदासोति ?, म० नि० 2.85; 'यतो च खो, - www.kobatirth.org — - - 70 आदास - महाराज, आदासो सिया, आभा सिया, मुखं सिया, जायेय्य अत्ताति. मि. प. 54 - सं द्वि. वि. ए. व. - ततो आदासमादाय सरीरं पच्चवेक्खिस, थेरगा. 169 से सप्त. वि., ए. व. अथेकदिवस केवट्टो आदासे मुख ओलोकेन्तो, जा. अट्ठ 6.237; स्सष. वि., ए. व. अथ खो यतो कुतोचि छाया आगन्त्या आदासरस आपातमुपगच्छति मि. ए. 275 सेहि तृ. वि. द. व. - अथ नं राजा आदारोहि परिक्खिपापेसि, म. नि. अड. (म.प.) 2.272 स. प. के अन्त कञ्चना. पु. तत्पु. स० [काञ्चनादर्श], सोने से मढ़ा हुआ आईना, सुनहरी पट्टियों से सज्जित दर्पण, सुनहरा आईना अनुलिम्पित्वा सुपरिमज्जित कञ्चनादाससन्निभोति दस्सेतुं हेमवण्ण नित. थेरीगा. अड्ड 261 मुखं जालाभिहतपदुमं विय मलग्गहितकञ्चनादासमण्डलं विय च विरूपं होति. जा. अट्ठ 1.481 स. उ. प. के रूप में सब्बकायिका. - .पु.. कर्म. स. सम्पूर्ण शरीर को दिखलाने वाला आईना सं द्वि. वि. ए. व. अथस्सा दिव्बं सब्बकायिकादासं पुरतो उपविसु स. नि. अड. 3.248; काव्या. - पु.. तत्पु. स., काव्यरूपी आईना, संस्कृत अलङ्कारशास्त्र का आचार्य दण्डी द्वारा रचित "काव्यादर्श' नामक एक ग्रन्थसप्त. वि. ए. व. काव्यादासे च त्वंमुखं कमलेनेव तुल्यं नाञ्ञेन केनची "ति, सद्द० 1.289; धम्मा. - पु०, धर्मरूपी आईना या दर्पणसं द्वि. वि. ए. व. धम्मादासन्ति धम्ममयं आदासं, येनाति येन धम्मादासेन समन्नागतो, स. नि. अट्ठ 3.311; पसन्ना - पु., कर्म. स. [ प्रसन्नादर्श], स्वच्छ दर्पण, साफ-सुथरा आईना से सप्त, वि., ए. व. " - तस्स दानस्स फलेन इध निब्बत्तोति पसन्नादासे मुखनिमित्तं विय सब्बं पुरिमजातिकिरिय, जा. अट्ठ 3.361; विमला. पु.. कर्म. स. [विमलादर्श] दागों, मलों या ब्बों से रहित आईना, निर्मल एवं स्वच्छ दर्पण - संद्वि. वि. ए. व. इस पन महाराज, सिनिद्धसमसुमज्जित सम्प भासविगलादासं सहसुखुमगेरुकचुण्णेन अपरापरं मज्जेष्णुं मि. प. 136: सुवण्णा. पु., तत्पु० स० [सुवर्णादर्श], सुनहरा आईना, सोने की तरह चमचमाता आइना सो गन्त्वा बोधिसत्तस्स सुवण्णादासफुल्लपदुमसस्सिरिकं मुखं दिस्वा... जा. अट्ठ. 3.145; स० पू० प० के रूप में, – तल • नपुं., तत्पु० स० [आदर्शतल], आईना की ऊपरी सतह, दर्पण का ऊपरी तल लं प्र. वि., ए. व. तथा आदासतलं विय चक्खुधातु मुखं विय रूपधातु विभ. अट्ट. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - — - - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदासक आदि 74; सुवण्णमयं आदासतलं विय वट्टा च सुच्छवि च, जा. अट्ठ. 5.196; - दण्डसण्ठान त्रि., ब. स. [आदर्शदण्डसंस्थान], आईना के मूंठ या हैण्डिल जैसी बनावट वाला - नानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - आदासदण्डसण्ठानानि, महावासिदण्डसण्ठानानीतिपि एके, खु. पा. अट्ठ. 38; - दन्तथरु पु., तत्पु. स., हाथी-दांत से बनाई हुई आईना की मूंठ - तं नून कक्कूपनिसेवितं मुखं, आदासदन्ताथरूपच्चवेक्खितं, जा. अट्ठ.5.292; - पञ्ह नपुं.. तत्पु. स. [आदर्शप्रश्न], दी. नि. के सामञफलसुत्त में परिगणित बुद्धकालीन विद्याओं में वह विद्या, जिसमें किसी के खोने आदि के प्रश्नों का उत्तर आईना द्वारा दिलाया जाता था - ऽहं प्र. वि., ए. व. - हत्थाभिजप्पनं हनुजप्पनं कण्णजप्पन आदासपह कुमारिकपहं देवपन्हं आदिच्चुपट्टानं, दी. नि. 1.10; आदासपञ्हन्ति आदासे देवतं ओतारेत्वा पञ्हपुच्छन, दी. नि. अट्ठ. 1.85; - मयभित्ति स्त्री.. तत्पु. स., कांच की। दीवार, वह दीवार जो आईनों से भरी हो - ना तृ. वि., ए. व.- पवरेनापरेनापि आदासमयभित्तिना, आदासमण्डपेनापि सदा तं उपसोभितं, चू. वं. 73.119; - मण्डप पु., श्रीलङ्का के पुलत्थिनगर का एक भवन - पेन तृ. वि., ए. व. - आदासमण्डपेनापि सदा तं उपसोभित, चू, वं. 73.119; - मण्डल नपुं.. तत्पु. स., गोल आकार वाला आईना, आईना का मण्डल या घेरा-स्स ष. वि., ए. व. - तारकरूपानं वण्णनिभा आदासमण्डलस्स वण्णनिभा मणिसङ्घमुत्तावेळुरियस्स वण्णनिभा, ध. स. 617(मा.). आदासक पु., आदास से व्यु., आईना, छोटा सा दर्पण, सुन्दर दर्पण-कं द्वि. वि., ए. व. कोच्छं पसादं अञ्जनिञ्च, आदासकञ्च गण्हित्वा, थेरीगा. 413. आदासमुखकुमार पु., वाराणसी के एक प्राचीन राजा का नाम - रो प्र. वि., ए. व. - तेनस्स नामग्गहणदिवसे आदासमुखकुमारोति नामं अकंसु, जा. अट्ठ. 2.247. आदाहनट्ठान नपुं० [आदाहनस्थान], शा. अ., वह स्थान, जहां कुछ भी जलाया जाए, दाहस्थल, ला. अ.. श्मशान, दाह-क्रिया का स्थल – ने सप्त. वि., ए. व. - मम पुत्तस्स अरहतो आदहनट्ठाने चितकं चितकट्ठानं अहं अगमासिन्ति अत्थो, अप. अट्ठ. 2.189; पाठा. आदहनट्ठान, आदि पु./त्रि., [आदि], 1. प्रारम्भ, आधार, कारण, प्रथम, सबसे पहला, अग्र, मुख्य, प्रधान, प्रमुख - दि प्र. वि., ए. व. - जिघनं चरिमं पुळे, त्वग्ग पठममादिसो, अभि. प. 715; आदि चेतं चरणञ्च, मुखं सञ्जमसंवरो, परि. 286%3; तत्रायमादि भवति, इध पञ्जस्स भिक्खुनो, ध. प. 375; तत्रायमादि भवतीति तत्र अयं आदि, इदं पुब्बट्टानं होति, ध. प. अट्ठ. 2.346; आदि सील पतिट्ठा च, कल्याणनञ्च मातुक, थेरगा. 612; - दि द्वि. वि., ए. व. - यथा पन नक्खत्तदिवसे बन्धनागारे बद्धो परिसो नक्खत्तस्स नेव आदि, न मज्झं, न परियोसानं परसति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).214; नेव आदि मनसि करोतीति नेव पुब्बपट्ठपन मनसि करोति, अ. नि. अट्ठ. 2.98; - दीनि द्वि. वि., ब. व. - तत्थ तत्थ कसिगोरक्खादीनि करोन्ते मनुस्से गोगणे सुनखेति, जा. अट्ठ. 2.105; इमे छाता ति वुत्ता सा तण्डुला दीनि निद्दिसि, भक्खितानं वाणिजानं, नावट्ठ विविधं बहुं म. वं. 7.24; - ना तृ. वि., ए. व. - मुग्गरादिनानावुधहत्था अरज पविसित्वा, जा. अट्ठ. 1.154; - स्स ष. वि., ए. व. - आदिस्स तीणि लक्खणानि, पटि. म. 162; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - ... आदिम्हि वा मज्झे वा परियोसाने वा अप्पमत्तकम्पि सारं अदिस्वा..... मि. प. 9; 2. प्रायः स. उ. प. के अन्त., ना. प. अथवा त्रि. के रूप में, क. ना. प. के रूप में; - दि प्र. वि., ए. व. - रुओ चक्कवत्तिस्स चक्करतनादि .... खु. पा. अट्ठ. 139; - दयो ब. व. - उदाह धम्मानुस्सतिआदयोपी ति पुच्छि,ध. प. अट्ठ.2.261; ख. त्रि. के रूप में - दि प्र. वि., ए. व. - अस्सासपरसासादिचुणिकजातअद्विकपरियोसानो कायो कुत्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).253; - दिनो नपुं. द्वि. वि., ब. व. - तण्डुलादीनि निद्दिसि, म. वं. 7.24; -म्हि सप्त. वि., ए. व. - तत्थ विसमेति विसमे कायकम्मादिम्हि निविट्ठा, जा. अट्ठ. 4.60; - दीहि तृ. वि., ब. व. - एको दीपको नानप्पकारेहि अम्बपनसादीहि फलरुक्खेहि सम्पन्नो, जा. अट्ठ. 1.268; - दीनं ष. वि., ब. व. - पारगङ्गाय अम्बलबुजादीनं मधुरफलानं अन्तो नत्थि, जा. अट्ठ.2.131; 3. किसी लम्बे स. प. के उत्तर पद के रूप में - ... मुग्गरादिनानावुधहत्था अरओं पविसित्वा .... जा. अट्ठ. 1.154; न बहुजनो अनिच्चादिवसेन विपरसति.ध. प. अट्ठ. 2.100; 4. किसी उद्धरण के अन्त में 'ति' अथवा 'ति एवं के साथ इत्यादि के अर्थ का सूचक, क. असमस्त रूप में, - “यावता, भिक्खवे, सत्ता अपदा वा ... पे.... तथागतो तेसं अग्गमक्खायतीति आदि, खु. पा. अट्ठ. 142; बाहुलिकातिआदि धम्मदायादे वुत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).161; ख. स. प. रूप में, - एतं "न For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आदिअक्खर साधारणदारस्सा तिआदिवचनं अब्रदि जा. अट्ट. 7.180 स. उ. प. के रूप में द्रष्ट. उणा, संयोगा के अन्त.. आदिअक्खर नपुं॰, कर्म. स. [आद्यक्षर], प्रथम अक्षर, वर्ग या पंक्ति का प्रथम अक्षर रानि प्र. वि., ब. व. - एकेक गाथं यत्थुकामेहि उच्चारितानं तासं गाधानं आदिअक्खरानि पे. व. अट्ठ. 244. आदिअत्थ त्रि. ब. स. [ आद्यर्थक ] आदि के अर्थ को प्रकट करने वाला (शब्द) त्थो पु. प्र. वि. ए. व. इतिसद्दो आदिअत्थो पकारत्थो वा उदा. अड. 174. आदिअन्तवन्तता स्त्री, आदिअन्तवन्तु का भाव, आदि प्रारम्भ तथा अन्त से युक्त रहना, उदय एवं व्यय के स्वभाव वाला होना - यतृ. वि., ए... य तृ. वि. ए. व. आदिअन्तवन्ततायाति आदिअन्तवन्ततायात पुब्बापरकोटिवन्तताय उदयब्बय धम्मतोति अत्थो विसुद्धि महाटी. 2.370. - www.kobatirth.org आदिआगम पु. तत्पु. स. [आद्यागम]. किसी भी शब्द के प्रारम्भ में किसी वर्ण का आगम मो प्र. वि., ए. व. आदिआगमो तावदुत्तो भगवता मुत्तमो इच्चेवमादि, क. व्या. 406. आदिआदेस पु., तत्पु० स० [आद्यादेश ], किसी शब्द के प्रारम्भ में किसी वर्ण के स्थान पर आया हुआ अन्य वर्ण - सो प्र. वि., ए. व. आदिआदेसो ताव - यूनं इच्चेवमादि, क. व्या. 406. - 72 " आदिकं त्र [आदिक] 1. प्रथम प्रारम्भ का सबसे पहला, इत्यादि के नपुं द्वि. वि. ए. व. पञ्चसतेहि पुत्तेहि - फल पापुणि आदिक, म. के. 12.21; फलं पापुणि आदिकं ति सपुत्तदारो सोतापत्तिफलं पापुणी ति, म. वं. टी. 274 (ना०); - का स्त्री. प्र. वि. ब. व. "न मे आचरियो अत्थी "ति आदिका गाथायो च वित्थारेतब्बा, विसुद्धि० 1.199; - आदिकम्मिक **** - धातुअत्थेन नियोजनञ्चाति इमं तिविधं लक्खणं सङ्गण्हाति, विसुद्धि. महाटी 1.239; - को पु. प्र. वि. ए. क. - नयेन वृत्तो अविज्जादिको पच्चयाकारी, उदा. अड. 31: का स्त्री० प्र० वि०, ब० व. उप्पलवण्णाथेरिआदिका महासाविका अनेकेहि भिक्खुनिसतेहि म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2)98 स्सष. वि., ए. व. वृत्तो अनापत्तिनयो - पनेवं, अक्तुकामस्स तथादिकस्स विन. वि. 310 कानं ष. वि०, ब० व. बीजरुक्खादिकानंव, पुब्बा कोटि न नायति, अभि. अव 1249 - - केसु सप्त. दि. ब. व. - पुब्बे दुक्खादिकेसु च अप. 2.284 के सप्त. वि., ए. व. उपसग्गो दिस्सति पादिकेपि च अभि. प. 1033. आदिकत्तु पु०, कर्म. स. [ आदिकर्तृ] किसी भी काम को अथवा किसी भी प्रवृत्ति को प्रारम्भ करने वाला, कर्म की उत्पत्ति को प्रारम्भ करने वाला त्ता प्र. वि., ए. व. अकुसलानं धम्मान आदिकत्ता पुब्बङ्गमो पारा 22 आदिकत्ता पुष्बङ्गमोति सासनं सन्धाय वदति, पारा, अg. 1.171. आदिकम्प पु. कर्म. स. [आदिकल्प] प्रथम कल्प, संसार की सृष्टि प्रक्रिया का पहला युग म्हि सप्त. वि., ए. व. आदिकप्यम्हि राजूनं दस्सेन्तो चरियं विय चू. व. - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " - आरम्भ करने का अर्थ केन तृ. वि. ए. व. क्रि. वि. प्रारम्भ में ही तुरन्त ही. प्रथम प्रयोग में ही सधे भन्ते न सक्कुणेग्यं आदिकेनेव आहतुं म नि. 2.64: आदिकेनेव ओपिलवतीति एत्थ आदिकेनाति आदानेन गहणेन, स० नि० अट्ठ. 2.179; 2. स. उ. प. में, त्रि, आदि शब्द के ही अर्थ में, इत्यादि क नपुं. प्र. वि. ए. व. - यं मनुस्सानं वोहारूपगं अलङ्कारपरिभोगूपगञ्च जातरूपरजतमुत्तामणिवेळुरिय पवाळलोहितङ्कमसारगल्लादिक खु. पा. अड. 136 कंर पु०, द्वि. वि., ए. व. तत्थ वण्णागमो वण्णविपरिययोतिआदिकं निरुत्तिलक्खणं गहेत्वा ..... , विसुद्धि. 1.202: आदिकन्ति आदिसदेन वण्णविकारो वण्णलोपो For Private and Personal Use Only - " 51.2. " आदिकम्म नपुं. कर्म, स.. 'आ' एवं 'प उप के अर्थों के व्याख्यानक्रम में प्रयुक्त [ आदिकर्मन् ], शा. अ. किसी कर्म का प्रारम्भ, किसी भी कर्म का प्रारम्भिक चरण, विशेष अर्थ, ध्यान-भावना का प्रारम्भिक चरण आभिमुख्यसमीपादिकम्मालिङ्गनपत्तिसु अभि. प. 1180 आदिभूतं योगकम्मं आदिकम्मं विसुद्धि महाटी. 2.4 म्मे सप्त वि. ए. व. आदिकम्मे भुसत्थे च सम्भवो तिष्ण तितिसु अभि. प. 1162: त्थ पु., तत्पु० स०, कर्म को त्थे सप्त वि. ए. व. आदिकम्मत्थे प-कारो दडब्बो पटि म. अड. 1.249. आदिकम्मिक आदिकम्म से व्यु [आदिकर्मिक ]. शा. अ., कर्म को पहले पहल करने वाला, किसी कर्म को प्रारम्भ से ही करने वाला, किसी काम की नई नई शुरुआत करने वाला, ला. अ. (विनय के विशेष सन्दर्भ में ) विनय - आपत्ति में आपतित होने वाला, सहकर्म का प्रारम्भ कराने वाला को पु. प्र. वि. ए. क. अदिन्नपुब्बमसं भविस्सं आदिकम्मिको अप. 1.332; पुबे अभावितभावनो आदिकम्मिको योगावचरो इद्धिविकुब्बनं सम्पादेस्सतीति, ध. स. अट्ठ 231; तस्मिं वत्थुस्मि'न्ति परिवारे आगतत्ता - - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिकम्मिकयोगी आदिच्च जजशा देवदत्तो आदिकम्मिको, पारा. अट्ठ. 2.176; - केन तृ. वि., ए. व. - सीले पतिहितेन पयोगसद्धेन आदिकम्मिकेन कुलपुत्तेन .... खु. पा. अट्ट. 29; - स्स, पु., ष. वि., ए. व. - आदिकम्मिकस्साति आदितो कतयोगकम्मस्स, अभि. ध., वि. टी. 143; - का पु., प्र. वि., ब. व. - इध पन आदिकम्मिका अञ्जमझं जीविता वोरोपितभिक्खू पारा. अट्ठ. 2.55; - कानं ष. वि., ब. व. - तथापि आदिकम्मिकानं बोज्झङ्गेसु असम्मोहत्थं.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).89; - कुलपुत्त पु., कर्म. स. [आदिकर्मिककुलपुत्र], किसी कार्य को प्रारम्भ करने वाला उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति, काम को प्रारम्भ से ही करने वाला उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति - त्ता प्र. वि., ब. व. - आदिकम्मिककुलपुत्ता पन परिकम्म कत्वाव सरन्ति, पारा. अट्ठ. 1.118; - त्तेन, तृ. वि., ए. व. - तत्थ इमिना आदिकम्मिककुलपुत्तेन पठमं गणनाय, ..., पारा. अट्ठ. 2.21; - त्त नपुं, भाव. [आदिकर्मिकत्व], किसी काम को प्रारम्भ करने वाला होना - ता प. वि., ए. व. - धनियत्थेरस्स आदिकम्मिकत्ता अनापत्ति, पारा. अट्ठ. 1.231; - पुग्गल पु., कर्म. स. [आदिकर्मिकपुद्गल], कर्म को प्रारम्भ करने वाला व्यक्ति, संघ कर्म को प्रारम्भ कराने वाला विनय आपत्ति में आपतित भिक्षु - ला प्र. वि., ब. व. - भिक्खूनं पातिमोक्खस्मि, आदिकम्मिकपुग्गला, विन. वि. 3121; -- भिक्खु पु., कर्म. स. [आदिकर्मिकभिक्षु], कर्म को प्रारम्भ करने वाला भिक्षु – ना तृ. वि., ए. व. - तं सम्पादेतुकामेन, आदिकम्मिकभिक्खुना, अभि. अव. 1076; - नो ष. वि., ए. व. - तथा उम्मत्तकस्सापि, आदिकम्मिकभिक्खुनो, विन. वि. 1690. आदिकम्मिकयोगी पु., भावना के कर्म को ग्रहण करने वाला योगी-गिना तृ. वि., ए. व. - न लिङ्गविसभागम्हि, आदिकम्भिकयोगिना, भावेतब्बा मतसत्ते, ना. रू. प. 1397. आदिकम्मी त्रि., [आदिकर्मिन], शा. अ., प्रारम्भ करने वाला, किसी भी काम को पहले पहल करने वाला, ला. अ., (विनय के सन्दर्भ में ) किसी विनय आपत्ति में पहले पहल आपतित होने वाला, पहले पहल अपराध करने वाला --म्मिनो पु, ष. वि., ए. व. - तथेवासादियन्तस्स, जानन्तस्सादिकम्मिनो, विन. वि. 36; सब्बस्सपिच सीलादि, वदतो आदिकम्मिनो, विन. वि. 938; अविहेसेतुकामस्स, अकीळस्सादिकम्मिनो, विन. वि. 1653. आदिकर त्रि., [आदिकर, प्रारम्भ करने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - आदिकरो पुग्गलो जानितब्बो, परि. 236%; आदिकरोति सुदिन्नत्थेरादि आदिकम्मिको, परि. अट्ठ. 159; अना. - त्रि., आदिकर का निषे०, प्रारम्भ न करने वाला, अनुप्रज्ञप्ति जैसे संघकर्म को करने वाला - रो प., प्र. वि., ए. व. - अनादिकरोति मक्कटिसमणादि अनपञतिकारको, परि. अट्ठ. 159. आदिकल्याण त्रि., ब. स. [आदिकल्याण], प्रारम्भ में ही कल्याणकारक, आरम्भ में ही शुभ - णो पृ., प्र. वि., ए. व. - 'अरहत्तमग्गो आदिकल्याणो चेव होति लक्खणसम्पन्नो'च, पटि. म. 164; - णं नपुं, प्र. वि., ए. व. - 'पठमं झानं आदिकल्याणञ्चेव होति लक्खणसम्पन्नञ्च, पटि. म. 162; - णा पु., प्र. वि., ब. व. - ये ते धम्मा आदिकल्याणा मज्झेकल्याणा परियोसानकल्याणा सात्थं सब्यञ्जनं ..., पाचि. 75. आदिकल्याणता त्रि., आदिकल्याण का भाव. [आदिकल्याणता], प्रारम्भ में ही कल्याणमय अथवा हितकारक होना - ता प्र. वि., ए. व. - सीलेन च तेसं पटिपत्तिया आदिकल्याणता दस्सिता, थेरगा. अट्ठ. 1.1112; सीलेन च सासनस्स आदिकल्याणता पकासिता होति. विसुद्धि. 1.5; तत्थ सब्बगुणेहि अग्गभावतो, इतरबोधिद्वयमूलताय च पठमाय बोधिया आदिकल्याणता, विसुद्धि. महाटी. 1.254. आदिकाल पु., कर्म. स. [आदिकाल], प्राचीन समय – तो प. वि., ए. व. - यस्स पन आदिकालतो पति अन्वयवसेन सो एव जनपदो निवासो, सु. नि. अट्ठ. 2.103; - लत्थ पु., तत्पु. स., प्राचीन काल का अर्थ या तात्पर्य - त्थे सप्त. वि., ए. व. - खोति पदपूरणमत्ते अवधारणे आदिकालत्थे वा निपातो, अ. नि. अट्ठ. 1.14; सु. नि. अट्ठ. 2.111; पटि. म. अट्ठ. 2.119. आदिग्गहण नपुं.. तत्पु. स., 'आदि' शब्द का ग्रहण या प्रयोग - णेन तृ. वि., ए. व. - आदिग्गहणेन अञस्मा पि स्मि-नानं इकार-आकारादेसा होन्ति, क. व्या. 181. आदिच्च' पु., 'अदिति' से व्यु. [आदित्य], अदिति का पुत्र, सूर्य - आदिच्चो सूरियो सूरो, सतरंसि दिवाकरो, अभि. प. 62; - च्चो प्र. वि., ए. व. - नक्खत्तानं मुखं चन्दो, आदिच्चो तपतं मुखं, महाव. 323; सु. नि. 574; मज्झे समणसङ्घस्स, आदिच्चोव विरोचसि, थेरगा. 820; सु. नि. 555; यथा आदिच्चो उग्गच्छन्तो सब्बं तमगतं विधमेत्वा, थेरगा. अट्ट. 2.260-61; आदिच्चो वुच्चति सूरियो, महानि. 251; - च्चं द्वि. वि., ए. व. - अङ्गीरसं पस्स विरोचमानं, तपन्तमादिच्चमिवन्तलिक्खे ति, स. नि. 1(1).99; - स्स For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिच्च 74 आदिच्चबन्धु ष. वि., ए. व. - आदिच्चस्स, भिक्खवे, उदयतो एतं पुब्बङ्गमं एत्तं पुब्बनिमित्तं, यदिदं-अरुणुग्गं, स. नि. 3(1).122; - च्चे सप्त. वि., ए. व. - अनुग्गतम्हि आदिच्चे, पनादो विपुलो अहु, अप. 1.261; स. उ. प. के रूप में; तरुणा. - पु., कर्म. स. [तरुणादित्य], प्रातःकालीन सूर्य – सप्पभ त्रि., ब. स., प्रातःकालीन सूर्य के समान आभा वाला - भे सप्त. वि., ए. व. - फुल्लारविन्दसंकासे, तरुणादिच्चसप्पभे, अप. 2.202; नरा. - पु., तत्पु. स. [नरादित्य], सूर्य के समान तेजस्वी मनुष्य - च्च संबो., ए. व. - पणमामि नरादिच्च, आदिच्चकुलकेतुकं अप. 2.202; बाला.- पु., कर्म. स., प्रातःकालीन सूर्य - बालादिच्चप्पभापुञ्जसंनिभे सुमनोहरे, चू, वं. 74.212; बुद्धा.- पु., कर्म, स., बुद्धरूपी सूर्य, सूर्य के समान देदीप्यमान आभा से युक्त बुद्ध - च्चे सप्त. वि., ए. व. -- बुद्धादिच्चे अनुदिते सिद्धिमग्गावभासके, सद्धम्मो. 14; अवेकल्लमनुस्सत्तं बुद्धादिच्चाभिमण्डितं, सद्धम्मो. 17; - च्चोदय पु., तत्पु. स., बुद्धरूपी सूर्य का उदय - यो प्र. वि., ए. व. - बुद्धादिच्चोदयो चापि मतो अच्चन्तदुल्लभो, सद्धम्मो. 40; सरदा.- पु.. तत्पु. स., शरद् ऋतु का शीतल सूर्य- सदिस त्रि., शरत्कालीन सूर्य जैसा - सं द्वि. वि., ए. व. - सरदादिच्चसदिसं, रंसिजालसमज्जलं, अप. 2.206. आदिच्च त्रि., आदित्य गोत्र वाला, सूर्यवंशी - च्वा पु., प्र. वि., ब. व. - आदिच्चा नाम गोत्तेन, साकिया नाम जातिया, सु. नि. 425. आदिच्च' पु., तमिल देश का एक अधिकारी - तदा आदिच्चदमिळाधिकारीति समञ्जितो, चू, वं. 76.39. आदिच्चकुलकेतुक त्रि., सूर्यवंश की पताका को फहराने वाला - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - पणमामि नरादिच्च, आदिच्चकुलकेतुकं, अप. 2.202. आदिच्चगोत्त त्रि., ब. स., सूर्यवंशी, सूर्य के गोत्र वाला - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अहं कोण्डञगोत्तो, अहं आदिच्चगोत्तो ति मानं करोति, विभ. अट्ठ. 440. आदिच्चन्वय पु.. तत्पु. स. [आदित्यान्वय], सूर्य वंश, सूर्य से प्रारम्भ होने वाली कुलपरम्परा - मण्डन त्रि., सूर्यवंश को शोभित करने वाला -- ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - देवी पि सुत्वा तं सब् आदिच्चन्वयमण्डना, चू. वं. 63.11. आदिच्चपथ पु., तत्पु. स. [आदित्यपथ]. सूर्य के जाने का मार्ग, आकाश, अन्तरिक्ष - थो प्र. वि., ए. व. - अन्तलिक्खं खमादिच्चपथोभं गगनाम्बरं, अभि. प. 45; वेहासो गगनं देवो खमादिच्चपथो पि च, सद्द. 2.442; - थे सप्त. वि., ए. व. - हंसादिच्चपथे यन्ति, आकासे यन्ति इद्धिया, ध. प. 175; इमे हंसा आदिच्चपथे आकासे गच्छन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.101. आदिच्चपाक/आदिच्चपक्क पु./त्रि.. तत्पु. स., सूर्य की उष्णता या उसके द्वारा पकाया गया या तैयार किया गया - को पु., प्र. वि., ए. व. - एत्थ मधुकपुप्फरसो अग्गिपाको वा होतु आदिच्चपाको वा, महाव. अट्ठ. 361; -- कं द्वि. वि., ए. व. - आदिच्चपाक कत्वा परिस्सावेत्वा गहित सत्ताहकालिक होति, पारा. अट्ठ. 2.264; वट्टतादिच्चपाकं तु, अग्गिपक्कं न वट्टति, विन. वि. 2687; - केन पु., तृ. वि., ए. व. - आतपे आदिच्चपाकेन पचित्वा परिस्सावेत्वा, महाव, अट्ठ. 361; महानि. अट्ट. 321; ततो आदिच्चपाकेन पच्चित्वा पक्कपयोघनिका विय तिट्ठति, स. नि. अट्ठ. 1.247; - कानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - एतानि सब्बानि ... कतानि आदिच्चपाकानि वा ... यामकालिकानि नाम, कसा अट्ट. 220. आदिच्चपारिचरिया स्त्री., तत्पू. स. [आदित्यपरिचर्या]. सूर्य की उपासना, सूर्यपूजा - या प्र. वि., ए. व. - आदिच्चुपट्टानन्ति जीविकत्थाय आदिच्चपारिचरिया, दी. नि. अट्ठ. 1.85. आदिच्चबन्धु' पु., [आदित्यबन्धु]. सूर्य का भाई-बन्धु, सूर्य वंश में उत्पन्न, सूर्यवंशी (बुद्ध की एक उपाधि) - न्धु प्र. वि., ए. व. - सक्यसीहो तथा सक्यमुनि चादिच्चबन्धु च, अभि. प. 5; 'गोतमो, आदिच्चबन्धूति गोत्ततो च पसिद्धो, सद्द. 1.73; तस्मा बुद्धो आदिच्चबन्धूति, महानि. 251; - नं/न्धुनं द्वि. वि., ए. व. - तण्हासल्लस्स हन्तारं वन्दे आदिच्चबन्धुन न्ति, स. नि. 1(1).222; आदिच्चबन्धुनन्ति आदिच्चबन्धुं सत्थारं दसबलं वन्दामीति वदति, स. नि. अट्ठ. 1.245; - ना तृ. वि., ए. व. - ते तोसिता चक्खुमता, बुद्धनादिच्चबन्धुना, सु. नि. 1134; - नो ष. वि., ए. व. - नाकासिं सत्थु वचनं, बुद्धस्सादिच्चबन्धुनो, वि. व. 242; वचनं अनुगन्त्वान तरसेवादिच्चबन्धुनो, सद्धम्मो. 74. आदिच्चबन्धु पु., व्य. सं., एक प्रत्येक-बुद्ध का नाम - स्स ष. वि., ए. व. - आदिच्चबन्धुस्स वचो निसम्म, एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 54; अप. 1.9; येन कारणेन फस्सयेति एतं आदिच्चबन्धुस्स पच्चेकबुद्धस्स वचो निसम्म, सु. नि. अट्ठ. 1.83; अप. अट्ठ. 1.144. For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिच्चरंसि 75 आदित्त आदिच्चरंसि स्त्री., तत्पु. स. [आदित्यरश्मि]. सूर्य की किरण – हि तृ. वि, ब. व. - उस्सापिताहि नेकाहि वारितादिच्चरंसिहि, चू. वं. 85.6; - सावरण त्रि., सूर्य की किरणों को ढक लेने वाला अथवा उनसे रक्षा करने वाला - णं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आदिच्चरंसावरणं, को एति सिरिया जलं, जा. अट्ठ. 7.63; जा. अट्ठ. 5.314. आदिच्चरंसी पु., व्य. सं., आनन्द की आचार्य-परम्परा से सम्बद्ध एक स्थविर - नो च. वि., ए. व. - कुलविहार नाम परिवारविहारं आदिच्चरंसिनो नाम थेरस्स अदासि, सा. वं. 80. आदिच्चवंस पु., तत्पु. स. [आदित्यवंश], 1. सूर्य से प्रारम्भ वंश-परम्परा, सूर्यवंश, 2. त्रि.. सूर्यवंशी - सो पु.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ आदिच्चवंसो, ओक्काकराजवंसोति जानितब्ब, ततो सजातताय साकिया आदिच्चगोत्ताति, थेरगा. अट्ठ. 2.89; - से सप्त. वि., ए. व. - आदिच्चवंसे सम्भूतत्ता आदिच्चो बन्धु एतस्साति, थेरगा. अट्ट, 1.87. आदिच्चवण्णसंकास त्रि., [आदित्यवर्णसंकाश], सूर्य के समान देदीप्यमान या चमकीला - सा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आदिच्चवण्णसङ्कासा, हेमचन्दनगन्धिनी, जा. अट्ट, 5.149. आदिच्चसन्ताप पु., तत्पु. स. [आदित्यसन्ताप], सूर्य की गर्मी, कड़ी धूप - पेन तृ. वि., ए. व. - सूरियसन्तापेति आदिच्चसन्तापेन, चरिया. अट्ठ. 215. आदिच्चसुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 3(1).122. आदिच्चानुपरिवत्तन नपुं., तत्पु. स., सूर्य के पीछे पीछे घूमना स. प. के अन्त. - सो दुक्खं विहरतीति पञ्चातपतप्पनमरुप्पपात-पतनादिच्चानुपरिवत्तनउक्कुटिकप्पधानादीनि अनुयुञ्जतो दिढे, अ. नि. अट्ठ. 1.361. आदिच्चुपट्ठान नपुं., तत्पु. स. [आदित्योपस्थान]. सूर्यपूजा, सूर्य की उपासना - नं प्र. वि., ए. व. - देवपञ्हं आदिच्चुपट्टानं महतुपट्टानं दी. नि. 1.10; आदिच्चुपट्टानन्ति जीविकत्थाय आदिच्चपारिचरिया, दी. नि. अट्ठ. 85. आदितो अ०, आदि से व्यु. प. वि., प्रतिरू. निपा. [आदितः], 1. प्रारम्भ से ही - आदिप्पभूतीहि तो वा होति, आदो, आदितो मज्झतो अन्ततो, पिहितो परसतो मुखतो, मो. व्या. 4.98; सो आदितो पट्ठाय असप्पायभावं कथेसि, जा. अट्ठ. 1.450; तस्स आदितो पभुति अत्थसंवण्णनं आरभिस्सामि, खु. पा. अट्ठ. 3; 2. सर्वप्रथम, पहले पहल - या महाकस्सपादीहि महाथेरेहि आदितो, म. वं. 5.1; अथादितो पनेकं वा द्वे वा तीणिपि सत्त वा, विन. वि. 2004; आदितो पन भिक्खुस्स, चतूस्वन्तिमवत्थुसु उत्त. वि. 569; इमस्मि सङ्घारलोके सिक्खितब्बधम्मेसु सीलं आदितो सिक्खेय्य, थेरगा. अट्ठ. 2.186; 3. स. उ. प. के रूप में, आदि से, से प्रारम्भ होने वाला - रा कात जा तेन थूपकारापनादितो, म. वं. 26.24; नो च द्वादितो नम्हि, क. व्या. 67; मनोवितक्के अस्सादादितो यथाभूतं जानन्तो उदा. अट्ठ. 192; लक्खणादितो पन विजाननलक्खणं चित्तं ध. स. अट्ठ. 158. आदित्त त्रि, आ +/दीप का भूक. कृ. [आदीप्त/आदीपित], धधक रहा, जल रहा, प्रज्वलित, अत्यधिक चमक रहाआदित्ते गब्बिते दित्तो, पिटुं तु चण्णितेपि च, अभि. प. 1075; - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आभुसो दिप्पतीति आदित्तो, उच्चतीति उत्तो, विसेसेन विच्चती ति विवित्तो, क. व्या. 582; चक्खुसम्फस्सो आदित्तो... मनोसम्फस्सो आदित्तो, महाव. 39; आदित्तो लोकसन्निवासोति, पटि. म. 115; आदित्तोति दुक्खलक्खणवसेन पीळायोगतो सन्तापनद्वेन आदीपितो... आदित्तोति रागादीहियेव आदित्तो, पटि. म. अट्ठ. 2.13; - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ससागरन्ता पथवी, आदित्ता विय होति में, अप. 1.43; - त्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सब्बं भिक्खवे, आदित्तं, महाव. 39; यं उदकं तदेव आदित्तं, जा. अट्ठ. 3.453; आदित्तं वत रागग्गि, तण्हानं विजितं तदा, बु. वं. 353; आदित्तं चेलं वा सीसं वा अज्झुपेक्खित्वापि, स. नि. अट्ठ. 1.40; - तेन तृ. वि., ए. व. - मुखं विवरित्वा आदित्तेन सम्पज्जलितेन सजोतिभूतेन, म. नि. 3.224; येन केनचि अन्तमसो लोहखण्डेनपि आदित्तेन कप्पियं कातब्ब, पाचि. अट्ठ. 28; - तो प. वि., ए. व. प्रज्वलित अवस्था में - कामे आदित्ततो दिस्वा, जातरूपानि सत्थतो, थेरगा. 790; वत्थुकामे किलेसकामे च एकादसहि अग्गीहि आदित्तभावतो दिस्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.254; आदित्ततोहं समथेहि युत्तो, पञआय दच्छं तदिदं कदा मे, थेरगा. 1102; आदित्ततोति एकादसहि अग्गीहि आदित्तभावतो, थेरगा. अट्ठ.2.394; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - आदित्तस्मिं अगारस्मि, यं नीहरति भाजनं. स. नि. 1(1).35; - त्ताय स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - आदित्ताय लोहपथविया उत्तानकं निपज्जापेत्वा, जा. अट्ठ. 1.484; - त्ता पु, प्र. वि., ब. व. - अथस्सा तयो भवा आदित्ता गेहा विय गीवाय बद्धकुणपं विय च उपट्टहिंसु. ध. प. अट्ठ. 2.64-65. For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदित्त 76 आदित्तभवत्तय जिक्र आया है; - नं द्वि. वि., ए. व. - आदित्तपरियायं पच्चवेक्खमानोति आदित्तदेसनं ओलोकेन्तो, महानि. अट्ठ. 372. आदित्त नपुं., आदि का भाव., केवल स. प. में ही प्राप्त [आदित्व], आदि में या प्रारम्भ में रहना; अचिन्तिया. - नपुं., [अचिन्त्यादित्व], अचिन्तनीय आदि की अवस्था - अचिन्तियादित्तमुपागतो यो, जिना. 4; कुसलादित्तसाधक - त्रि., कुशल-भाव के प्रारम्भभाव का निष्पादक -को पु..प्र. वि., ए. व. - धम्मानं कुसलादीनं, कुसलादित्तसाधको, अभि. अव. 543; तस्मा हि कुसलादीनं, कुसलादित्तसाधको, अभि. अव. 546. आदित्तक त्रि., आदित्त से व्यु. [आदीप्तक], धधक रहा, जल रहा, प्रज्वलित - को पु., प्र. वि., ए. व. - एवं आदित्तको लोको, जराय मरणेन च, स. नि. 1(1).35. आदित्तगेहसदिस त्रि., [आदीप्तगेहसदृक], जलते हुए या आग से धधक रहे घर जैसा - सा पु., प्र. वि., ब. व. - तयो भवा आदित्तगेहसदिसा खायिंसु, जा. अट्ठ. 1.71. आदित्तघर नपं. कर्म. स. [आदीप्तगृह], आग से धधक रहा घर - तो प. वि., ए. व. - पुन डरिहतमिच्छसीतिआदित्तघरतो नीहटभण्ड विय, स. नि. अट्ठ. 1.270. आदित्तचेल त्रि., ब. स., वह, जिसके वस्त्र आग से जल रहे हों - लो पु., प्र. वि., ए. व. - आदित्तचेलो वा आदित्तसीसो वा..., अ. नि. 1(2).108; स्स ष. वि., ए. व. आदित्तचेलस्सिरसूपमो मुनि, भङ्गानुपस्सी अमतस्स पत्तियाति, पटि. म. अट्ठ. 1.220. आदित्तछारिका स्त्री., कर्म. स., तपता हुआ या धधक रहा अंगारा - कसङ्खात त्रि., धधक रहे अंगारे जैसा - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - आदित्तछारिकसङ्घातेन कुक्कुळेन विय, जा. अट्ठ. 3.395. आदित्तजातक नपुं., जातक संख्या 424 का शीर्षक, जा. अट्ठ. 3.414-418. आदित्तदेसना स्त्री., "सभी कुछ आदीप्त है या धधक रहा है" इस उपदेश से युक्त महाव. का 'आदित्तपरियाय' नामक सुत्त, इसे आदित्तसुत्त की संज्ञा से भी अभिहित किया गया है। संयुत्तनिकाय में तीन आदित्तसुत्त हैं। प्रथम आदित्तसुत्त जेतवन में बुद्ध के सम्मुख एक देवता द्वारा उच्चरित है। दूसरा आदित्तसुत्त श्रावस्ती में उपदिष्ट हुआ । था। तीसरा आदित्तसुत्त, जो आदित्तपरियायसुत्त के नाम से भी जाना जाता है, गया में उपदिष्ट हुआ। उपर्युक्त सुत्तों की विषय-वस्तु प्रायः समान है। इस सुत्त की चर्चा जा. अट्ठ. 1.91 तथा 4.161 में भी आई है। अ. नि. अट्ठ. 1.82 व 1.227 में और थेरगा. अट्ठ. 2.69 में भी इस सुत्त का आदित्तपण्णकुटी स्त्री., कर्म. स. [आदीप्तपर्णकुटी], जलती हुई फूस की झोपड़ी – तेसं आदित्तपण्णकुटि विय तयो भवा उपट्ठहिंसु. स. नि. अट्ठ. 2.171; अ. नि. अट्ठ. 1.141. आदित्तपण्णसाला स्त्री, कर्म. स. [आदीप्तपर्णशाला], उपरिवत् - ला प्र. वि., ए. व. - मयं भणे आदित्तपण्णसाला विय तयो भवाति पब्बजिम्हा, अ. नि. अट्ठ. 1.142; - लं द्वि. वि., ए. व. - अत्तानं आदित्तपण्णसालं पविट्ठ विय च मञमानो, जा. अट्ट, 1.142. आदित्तपरियाय पु./नपुं., महाव. तथा स. नि. में संगृहीत वह उपदेश, जिसमें उपमा द्वारा रूप, वेदना आदि को राग, द्वेष एवं मोह की अग्नि से प्रज्वलित बतलाया गया है - यो पु., प्र. वि., ए. व. – कतमो च, भिक्खवे, आदित्तपरियायो, धम्मपरियायो, स. नि. 2(2).172; - यं द्वि. वि., ए. व. - आदित्तपरियायं वो, भिक्खवे, धम्मपरियायं देसेस्सामि, स. नि. 2(2).172; आदित्तपरियाय पच्चवेक्खमानो, महानि. 365; उपसम्पन्नो आदित्तपरियायावसाने अरहत्तं, स. नि. अट्ठ. 2.191; -- येन तृ. वि., ए. व. - निमित्तग्गाहो'तिआदिना आदित्तपरियायेन वेदितब्बा, अ. नि. अट्ठ. 3.129; - देसना स्त्री., तत्पु. स., आदित्तपरियाय का उपेदश- नं द्वि. वि., ए. व. -- एवं आदित्तपरियायदेसनं सत्वा सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं ..., अप. अट्ठ. 2.281; - य तृ. वि., ए. व. - गयासीसे निसीदापेत्वा आदित्तपरियायदेसनाय अरहत्ते पतिद्वापेत्वा, जा. अट्ठ. 1.91; बु. वं. अट्ठ. 22; ध. प. अट्ठ. 1.52; - सुत्त नपुं., महाव. तथा स. नि. में संगृहीत वह सुत्त, जिसमें रूप, वेदना, चक्षु, स्रोत आदि को राग, द्वेष एवं मोह की अग्नि से प्रज्वलित बतलाया गया है - आदित्तपरियायसुत्तं निहितं, महाव. 40; आदित्तागारसदिसे कत्वा दस्सेतुं वट्टतीति आदित्तपरियायसुत्तं देसेसि, अ. नि. अट्ठ. 1.227; गयासीसे आदित्तपरियायसुत्तपरियोसाने जटिलसहस्सं अरहत्ते पतिट्ठापेसि, अ. नि. अट्ठ. 1.82. आदित्तभवत्तय नपुं, कर्म. स. [आदीप्तभवत्रय], कामभव, रूपभव एवं अरूपभव, इन तीन भवों का दाह या जलनरागादीहि एकादसहि अग्गीहि आदित्तं भवत्तयसवातं अङ्गारकासुंयेव, उदा. अट्ठ 290; पाठा. आदित्तं भवत्तयसवातं. For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदित्तवग्ग आदिपरियोसान आदित्तवग्ग पु., स. नि. के एक वग्ग का शीर्षक, स. नि. पु., प्र. वि., ए. क. - यथा, महाराज, महतिमहाअग्गिक्खन्धो 1(1).35-41. आदिन्नतिणकट्ठसाखापलासो परियादिन्नभक्खो, मि. प. 279; आदित्तसीस त्रि., ब. स. [आदीप्तशीर्ष], वह, जिसका शिर - दण्ड त्रि., ब. स. [आदत्तदण्ड], शा. अ., दण्ड को आग से जल रहा है - सो पु., प्र. वि., ए. व. - धारण किया हुआ, ला. अ., वह, जो अपने दासों आदि चरेय्यादित्तसीसोव, नत्थि मच्चुस्स नागमो ति, स. नि. को दण्ड-विधान देता हो - ण्डो पु., प्र. वि., ए. व. - 1(1).128; महानि. 32; यथा च डरहमानो मत्थके आदित्तसीसो यो पन आदिन्नदण्डो हुत्वा ..., जा. अट्ठ. 2.195; - स्स तस्स निब्बापनत्थाय वीरियं आरभति, स. नि. अट्ठ. 1.45; पु., ष. वि., ए. व. - घरा नादिन्नदण्डस्स, परेसं अनिकुब्बतो - सूपम त्रि., ब. स. [आदीप्तशीर्षोपम], आग से जल रहे ...... जा. अट्ठ. 2.195; - ण्डानं ष. वि., ब. व. - राजूनं शिर जैसा - मं पु., वि. वि., ए. व. - धम्मदायादभावं आदिन्नदण्डानं आदिन्नसत्थानं एवरूपं खन्तिसोरच्चं भविस्सति, आकलमानो आदितसीसूपमं पच्चवेक्खित्वा, म. नि. अट्ठ. महाव. 470; - पुब्ब त्रि., पूर्वकाल में ग्रहण किया गया - (मू.प.) 1(1).102. ब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तिणसलाकमत्तम्पि अदिन्नं आदित्तसुत्त नपुं., स. नि. के अनेक सुत्तों का शीर्षक, स. नादिन्नपुब्ब, जा. अट्ठ. 1.421; - सत्थ त्रि., ब. स. नि. 1(1).35-36; 2(1).65-66; 2(2).18-19; द्रष्ट. . [आदत्तशस्त्र], शस्त्र को ग्रहण किया हुआ - स्थानं पु., आदित्तदेसना. ष. वि., ब. व. - राजूनं आदिन्नदण्डानं आदिन्नसत्थानं आदित्तागार पु., कर्म. स. [आदीप्तागार], आग की लपटों एवरूपं खन्तिसोरच्चं भविस्सति, महाव. 470. से जल रहा घर - सदिस त्रि., आग से जल रहे घर आदिन्नत्त नपुं., आदिन्न का भाव. [आदत्तत्व], ग्रहण किया जैसा - से पु., द्वि. वि., ब. व. - इमेसं तयो भवे जाना - त्ता प. वि., ए. व. - समं आदिन्नत्ता समाधि, आदित्तागारसदिसे कत्वा, अ. नि. अट्ठ. 1.227. विसम अनादिन्नता समाधि, पटि. म. 44; एसितत्ता नेसितत्ता, आदिदीघ त्रि., व्याकरण-ग्रन्थों में प्रयुक्त [आदिदीर्घ], आदिन्नत्ता अनादिन्नत्ता पटिपन्नत्ता नप्पटिपन्नत्ता ..., पटि. प्रारम्भ में दीर्घ अथवा बृहत्, ऐसा शब्द जिसका प्रथम स्वर म. अट्ठ. 1.201. दीर्घ हो - घो पु., प्र. वि., ए. व. - आदिदीघो ताव -- आदिन्नवन्तु त्रि., आ +/दा का भू. क. कृ. [आदत्तवत्]. पाकारो, नीवारो, पासादो, पाकटो, पातिमोक्खो, पाटिकको वह, जो ग्रहण कर चुका है या पकड़ चुका है, पकड़ लिया, इच्चेवमादि, क. व्या. 405; तत्थ आदिदीघो ताव, पाकारो, ग्रहण कर लिया - वा पु., प्र. वि., ए. व. - सीहबाहुनरिन्दो नीवारो पासादो इच्चादि, सद्द. 3.807. सो सीहं आदिन्नवा इति, म. वं. 7.42; तत्थ आदिनवा इती आदिदीपक अलंकारशास्त्र के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त ति सीहं गहितं वा इति सो सीहबाहनरिन्दो सीहलो नाम [आदिदीपक], दीपक नामक अलङ्कार के तीन प्रभेदों में से जातो ति अत्थो, म. वं टी. 223(ना.).. वह प्रभेद, जिसमें गाथा का आदि पद अन्य तीन पदों का आदिपद नपुं, कर्म. स., व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में उपकारक रहे - दीपकं नाम तं चादिमज्झन्तविसयं तथा, प्रयुक्त [आदिपद], समास का प्रथम पद, प्रथम स्थान या सुबोधा. 230;(बौद्धलङ्कारशास्त्रम्, नाम से प्रकाशित). अवस्था, किसी सन्दर्भविशेष में प्रयुक्त प्रथम शब्द -दं द्वि. आदिन्न त्रि०, आ +vदा का भू. क. कृ. [आदत्त]. ले लिया वि., ए. व. - अञ्जस्मिं परियाये आरद्धे आदिपदं गहेत्वाव गया, ग्रहण कर लिया गया, स्वीकार किया गया - नं पदभाजनं करीयति, ध. स. अट्ठ. 189; - स्स ष. वि., ए. नपुं.. प्र. वि., ए. व. - एवं पञ्चङ्गसमन्नागतं खो, उपालि, व. - इदं केवलं पुच्छाय आगतस्स आदिपदस्स अत्तादानं आदिन्नं, चूळव. 409; अत्थि खो पन मया अदिन्नं पच्चूद्धरणमत्तमेव, परि. अट्ट, 138; - दानं ब. व. - तत्थ आदिन्नं अहम्पम्हि आपायिको, स. नि. 2(2).305; - न्ने सतिसम्बोज्झन्तिआदिना नयेन वृत्तानं सत्तन्नं आदिपदानं. सप्त. वि., ए. व. - आदिन्ने अनादिन्नसी , आपत्ति अ. नि. अट्ठ. 1.376. दुक्कटस्स, पाचि. 163; - कप्पक पु., ग्रहण करने के आदिपरियोसान नपुं, समा., द्व. स. [आदिपर्यवसान], लिए अनुमोदित - का प्र. वि., ब. व. - अदसा रजितायेव, आदि एवं अन्त - नं प्र. वि., ए. व. - एकस्स वहृतादिनकप्पका, विन. वि. 578; - तिणकट्ठसाखापलास मज्झं पाकट होति, न आदिपरियोसानं, पटि. म. अट्ठ. त्रि., तृणों, लकड़ियों, शाखाओं एवं पत्तों को पकड़ चुका - सो 2.83. For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 78 आदिपाद आदिब्रह्मचरियक आदिपाद पु., श्रीलङ्का के प्राचीन शासकों के एक आदिब्रह्मचरिय नपुं., ब्रह्मचर्य अथवा आर्यमार्ग के प्रारम्भ में उच्च पदाधिकारी की शासकीय उपाधि - दो प्र. वि., ए. ही पालनीय शील, ब्रह्मचर्य-जीवन की पूर्णता हेतु प्रारम्भ व. - आदिपादो व सो तस्मा हुत्वा रज्ज विचारयि, चू, वं. में ही पालनीय प्राणातिपात से विरति आदि पांच, आठ या 48.31. दश शील - आदिब्रह्मचरियं तु तदनं सीलमीरितं, अभि. आदिपादकजम्बु स्त्री., श्रीलङ्का के एक प्राचीन स्थान का प. 431; ब्रह्मचरियस्स अरियरस मग्गस्स आदिम्हि तदत्थाय नाम - आदिपादकजम्बू ति विस्सुतम्हि पदेसके, चू. वं. च चरितब्बता आदिब्रह्मचरिय, अभि. प. सूची. 37; - यं 61.15. प्र. वि., ए. व. - आदि ब्रह्मचरियस्साति आदिब्रह्मचरिय, आदिपादकपुन्नागखण्ड पु., श्रीलङ्का के रोहण-क्षेत्र के एक विसुद्धि. महाटी. 1.30; - यं द्वि. वि., ए. व. - स्थान का नाम - नाम त्रि., आदिपादपुन्नागखण्ड नाम तिण्णविचिकिच्छो खो पन सो भगवा विगतकथंकथो वाला - म म्हि नपु., सप्त. वि., ए. व. - परियोसितसङ्कप्पो अज्झासयं आदिब्रह्मचरियं दी. नि. आदिपादकपुन्नागखण्डनामम्हि ठानके, चू. वं. 75.14. 2.165; आदिब्रह्मचरियं पटिजानन्ति, तेसाहमस्मि, म. नि. आदिपाराजिकुट्ठान त्रि., ब. स., प्रथम पाराजिक से उत्पन्न 2434; आदिब्रह्मचरियन्ति ब्रह्मचरियस्स आदिभूता उप्पादका होने वाला-ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आदिपाराजिकुठाना, जनकाति एवं पटिजानन्तीति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ. अयन्ति परिदीपिता, उत्त. वि. 340. (म.प.) 2.318 - येन तृ. वि., ए. व. - करणत्थे आदिपुब्बङ्गम त्रि., पूर्ववर्तियों में प्रथम, प्रारम्भ में ही पूर्ववर्ती पच्चत्तवचन, अधिकासयेन उत्तमनिस्सयभूतेन - मं नपुं., प्र. वि., ए. व. - मूलनिदानं पठमं आदिपुब्बङ्गम आदिब्रह्मचरियेन पेराणब्रह्मचरियभूतेन च अरियमग्गेन, दी. धुरं दी. वं. 4.32; - मो पु., प्र. वि., ए. व. - आदिपुब्बङ्गमोनि . अट्ठ. 2.225. असि, तस्स दानस्सिदं फलं, अप. 1.338. आदिब्रह्मचरियक त्रि., [बौ. सं. आदिब्रह्मचर्यक], भिक्षुजीवन आदिपुरिस पु., तत्पु. स. [आदिपुरुष], प्रथम व्यक्ति, पहला के आधारभूत शीलों से सम्बद्ध, ब्रह्मचर्य के मार्ग के आदि पुरुष, प्रथम पुरुष (व्या. के सन्दर्भ में)- सो प्र. वि., ए. में अथवा पूर्वभाग में आया हुआ, बुद्ध की त्रिविध शिक्षाओं व. - यहि लोके अच्छरियट्ठानं बोधिसत्तोव तत्थ में आदिभूत शील की शिक्षा के साथ सम्बद्ध - को पु., प्र. आदिपुरिसोति, पटि. म. अट्ठ 1.299; - वाचक त्रि. वि., ए. व. - आदिब्रह्मचरियकोति मग्गब्रह्मचरियस्स प्रथम पुरुष का अर्थ कहने वाला - को पु., प्र. वि., ए. आदि पुब्बभागप्पटिपत्तिभूतो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.180; व. -वधा वा वत्तमानायं, आदिपुरिसवाचको अत्थो भवे ति आदिब्रह्मचरियकोति सिक्खत्तयसङ्गहस्स एतस्स भवती ति पि युज्जति, सद्द. 1.33. सकलसासनब्रह्मचरियस्स आदिभूतो, अ. नि. अट्ठ. 3.197; आदिपोत्थकी पु.. राजा के भण्डारगृह का अधिकारी- - यिका स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आदिब्रह्मचरियिकाति की प्र. वि., ए. व. - अस्समण्डलतित्थट्ठो मग्गब्रह्मचरियस्स आदिभूतानं चतुन्नं महासीलानमेतं कित्तिनामादिपोत्थकी, चू. वं. 72.27; - किं द्वि. वि., ए. अधिवचनं, अ. नि. अट्ठ. 2.392; - य च/ष. वि., ए. व. व. - ततो रक्खाधिकारिं च सामन्तं चादिपोत्थकि, चू. वं. - आदिब्रह्मचरियकायाति सेक्खपण्णत्तियं विनेतुं न 72.160; क्यानगामे नियोजेत्वा कित्तिनामादिपोत्थकि चू. पटिबलोति अत्थो, महाव. अट्ठ. 259; - कं नपुं., प्र. वि., वं. 72.207. ए. व. - नादिब्रह्मचरियकन्ति सिक्खत्तयसवातस्स आदिप्पति आ +दिप का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आदीप्यते]. सासनब्रह्मचरियकस्स न आदिमत्तं, अधिसीलसिक्खामत्तम्पि प्रकाशित होता है, चमकता है, जलता है - न्ति ब. व. न होति, दी. नि. अट्ठ 1.280; न आदिब्रह्मचरियकन्ति - अयञ्च महापथवी सिनेरु च पब्बतराजा आदिप्पन्ति ब्रह्मचरियस्स आदिमत्तम्पि पुब्बभागसीलमत्तम्पि न होति, पज्जलन्ति एकजाला भवन्ति, अ. नि. 2(2).239. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.103; - का पु., प्र. वि., ब. व. - आदिप्पन नपुं., आ + दिप से व्यु., क्रि. ना., प्रकाशित नेते, भिक्खवे, वितक्का अत्थसंहिता नादिब्रह्मचरियका ..., होना, प्रभास्वर होना, जाज्वल्यमान होना, तेज प्रभा वाला स. नि. 3(2).481; - कानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - होना - तो प. वि., ए. व. - आदिप्पनतो पन आदिच्चो, अस्थसंहितानि, भिक्खवे, धम्मचेतियानि लीन. (दी.नि.टी.) 3.137. आदिब्रह्मचरियकानी ति, म. नि. 2.333. For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 79 आदिभावभूत आदिय आदिभावभूत त्रि., [आदिभावभूत], आदि में या प्रारम्भिक वि., ए. व. - एकस्स परियोसानं पाकट होति, न आदिमज्झा, अवस्था में विद्यमान - तं नपुं., प्र. वि., ए.व. - ..., पटि. म. अट्ट. 2.82; - ज्झं द्वि. वि., ए. व. - सो मग्गब्रह्मचरियस्स आदिभावभूतन्ति आदिब्रह्मचरियकं विसुद्धि. सज्झायं करोन्तो आदिमज्झयेव पस्सति, ... 'इमस्स सिप्पस्स 1.12; आदिभावभूतन्ति आदिम्हि भावेतब्बतं निफ्फादेतब्बतं . आदिमज्झमेव पस्सामि, नो परियोसानान्ति, खु. पा. अट्ठ. भूतं पत्तं आदिभावभूत, विसुद्धि. महाटी. 1.31. 157; - ज्झेसु सप्त. वि., ब. क. - अन्ते पञआयमाने आदिभिक्खा स्त्री., कर्म. स. [आदिभिक्षा]. प्रथम भिक्षादान, आदिमज्झेसु अपआयमानेसु .... ध. प. अट्ठ. 2.321; स. सर्वोत्तम भिक्षादान - क्खं द्वि. वि., ए. व. - हट्ठो हटेन पू. प. के रूप में, - कथापरियोसान नपुं., समा., द्व. चित्तेन, आदिभिक्खमदासहं, अप. 1.46; आदिभिक्खं स., किसी भी कथा का प्रारम्भ, मध्य एवं अन्त - नं द्वि. पठम आहारं बुद्धभूतस्स अहं अदासिन्ति सम्बन्धो, अप. वि., ए. व. - आनन्दो गिज्झराजा कुणालस्स अट्ठ. 1.308. आदिमज्झकथापरियोसानं विदित्वा .... जा. अट्ठ. 5.445; आदिभूत त्रि., [आदिभूत]. 1. व्याकरण के सन्दर्भ में, किसी - ज्झन्तसोभण त्रि., ब. स., आदि, मध्य एवं अन्त में शुभ भी शब्द के आदि में आया हुआ - तं नपुं..प्र. वि., ए. - णं पु., द्वि. वि., ए. व. - सुत्वान तं धम्मवर व. - वेदानमादिभूतं सा, सावित्ती तिपदं सिया, अभि. प. आदिमज्झन्तसोभणं अप. 2.152; - ज्झन्तभाव पु., प्रारम्भ, 417; - तानं पु., ष. वि., ब. व. - इ-उ इच्चेतेसं मध्य एवं अन्त की अवस्था - वेसु सप्त. वि., ब. व. - आदिभूतानं मा वुद्धि होति, क. व्या. 403; 2. मूलभूत आदिमज्झन्तभावेसु ये अनत्थावहा इमे, सद्धम्मो. 99; -- पूर्ववर्ती, प्रारम्भ में ही अथवा प्रथम स्थान में रहने वाला - परियोसान नपुं., समा., द्व. स. [आदिमध्यपर्यवसान], तो पु., प्र. वि., ए. व. - आदिकम्मिको नाम यो तस्मि प्रारम्भ, मध्य एवं अन्त - नं प्र. वि., ए. व. - तत्थ अस्थि तस्मिं कम्मे आदिभूतो, पारा. अट्ठ. 1.216; यो तस्मिं तस्मि देसनाय आदिमज्झपरियोसानं, अत्थि सासनस्स, अ. नि. वत्थुस्मि आदिभूतो, सो आदिकम्मिको, कसा अट्ठ. 118; - अट्ठ.2.164; - नं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनो सिप्पस्स तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - न आदिब्रह्मचरियकन्ति आदिमज्झपरियोसानं ओलोकेन्तो, मि. प.9; - ने सप्त. सिक्खत्तयसङ्गहितस्स सकलसासनब्रह्मचरियस्स आदिभूतं वि., ए. व. - कुहिं इमस्स सुत्तस्स सब्बानि सच्चानि न होति, दी. नि. अट्ठ. 3.89; निबिदानुलोमञाणेसु विय पस्सितब्बानि, आदिमज्झपरियोसानेति ? नेत्ति. 20; - आदिभूतं मुञ्चितुकम्यताञाणं अग्गहेत्वा, पटि. म. अट्ठ. ज्झुत्तर त्रि., आदि, मध्य एवं अन्त में आने वाला – रेसु 2.111; स. उ. प. के रूप में संयोगा.- त्रि., तत्पु स., संयुक्त सप्त. वि., ब. व. - तेसु आदिमज्झुत्तरेसु अक्षर-समूह के आदि में आया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. जिनवचनानुपरोधेन क्वचि वुद्धि होति, क्वचि लोपो होति. व. - संयोगादिभूतो नकारो निग्गहीतमापज्जते, क. व्या. क. व्या. 406; सद्द. 3.808-809. 609; स. पू. प. के रूप में, - त्त नपुं., भाव. [आदिभूतत्व]. आदिमनसिकार पु., तत्पु. स., मन द्वारा आलम्बन को आदिभूत होना, प्रारम्भ में आना - त्ता प. वि., ए. व. - ग्रहण करने की प्रारम्भिक अवस्था - रेन तृ. वि., ए. व. आणस्स पटिपत्तिमलविसोधकत्तेन पटिपत्तिया आदिभूतत्ता, - थेरस्स अन्तेवासिका आदिमनसिकारेनेव दिट्ठीनं पटि. म. अट्ठ. 1.8; मुदुभूतो हि पुब्बभागसमाधि आदिभूतत्ता समुच्छेदप्पहानं होतीति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1(1).191. समं एसति, विसमं नेसति नाम, पटि. म. अट्ठ. 1.201. आदिमलय पु., श्रीलङ्का के शासक विजयबाहु प्रथम के एक आदिमग्ग पु., तत्पु. स. [आदिमार्ग ]. मार्ग का प्रथम सेनापति का नाम - विस्सुतो आदिमलयनामेन बलनायको, चरण, सोतापत्ति-मार्ग - दिल्यादिमग्गो चू. वं. 59.4. आणक्खिक्खणलद्धिसु दस्सनं, अभि. प. 888; - ग्गो प्र. आदिमुख नपुं, घर का द्वार-कक्ष, प्रवेशकक्ष - खं प्र. वि., वि., ए. व. - आदिमग्गो तयो पाका, आरुप्पा च तथूपरि ए. व. - चतुद्वारे च तत्थेव, आदिमुखमकारयि, म. वं. अभि. अव. 267; - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - आदिमग्गेन 35.119. संयुत्तं, आणन्ति जाणदस्सनं, अभि. अव. 1338. आदिय' 1. त्रि., आ + दा के कर्म. वा. का सं. कृ. आदिमज्झ नपुं., समा. व. स. [आदिमध्य], आदि एवं [आदेय], शा. अ., ग्राह्य, स्वीकार्य, वह, जिसे ग्रहण मध्य, किसी अक्षरसमूह का आदि एवं मध्य - ज्झं' प्र. किया जाए, ला. अ., ग्राह्यता का कारण - यो पु., प्र. For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आदिय वि. ए. व. अयं पञ्चमो भोगानं आदियो अ. नि. 2(1).42: या पु०, प्र. वि., ब. व॰ पञ्चिमे, गहपति, भोगानं आदिया. अ. नि. 2 ( 1 ) 41: पञ्चमस्स पठमे भोगानं आदियाति भोगानं आदातब्बकारणानि, अ० नि० अट्ठ. 3.22; ये द्वि.वि., व पु.. इमे पञ्च भोगानं आदिये आदियतो अ. नि. 2 (1).42; 2. आ + दर का सं. कृ., आदरणीय सम्मान करने योग्य ये स्त्री संबो. ए. व. भोति अच्छे भोतिक भोति धरादिये क व्या. 114, 242 आदिय' त्रि.. [आ] प्रारम्भ वाला आदि में विद्यमान - येन पु. तृ. वि. ए. व. - आदियेनेव ते महि दुक्ख नक्खातुमिच्छिस जा. अ. 7.344; तत्थ आदियेनेवाति आदिकेनेव तदे या स्त्री. प. वि., ए. व. आदिया थूलमूलानि खुद्दकानितराहि तु, म. वं. 18.44; आदिया थूलमूलानि ति तासु मूललेखाय तावदेव बुब्बुळका हुत्या दसमहामूलानि निक्खमित्वा ओतरुं ति सम्बन्धो म. वं. टी. 354 (ना.). आदियसुत्त अ. नि. का एक सुत्त, अ० नि० 2 (1).41-42. आदियति आ + √दा का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ आदते / आद्रियते ? ] शा. अ. ले लेता है, ग्रहण कर लेता है, प्राप्त करता है, अपना बना लेता है, स्वीकार कर लेता है, पकड़ लेता है, अपना लेता है आपुब्बो गहणे, अदिन्न आदियति, सद. 2480; धोरो नाम यो पञ्चमासक वा अतिरेकपञ्चमासकं वा अग्घनकं अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियति, पारा 53; लोके अदिन्नमादियति, परदारञ्च गच्छति घ. प. 246; यथा च रसलोलो अन्धो भत्ते उपनीते यकिञ्चि समक्खिकम्पि निम्मक्खिकम्पि आमिसं आदियति, जा. अड. 5.362; न्ति ब. वन ते भवं अट्टममादियन्ति सु. नि. 232; तेस निरुद्धता अत्यङ्गतत्ता न अट्टमं भवं आदियन्ति, सु. नि. अट्ट. 1.249; आदियन्ति च निरस्सजन्ति चाति पलिबोधं करोन्ति च विस्सज्जेन्ति च खिपन्ति च महानि, अड 172 न्तो / मानो पु. वर्त. कृ. प्र. वि., ए. व. आदियन्तचतुक्के पादं वा अतिरेकपादं वा सहत्था आदियन्तो गरुक आपज्जति परि, अड. 171; इमं खो अहं अत्तादानं आदियमानो लभिस्सामि..... चूळद, 408 य अनु., म. पु. ए. व. आदिय भो, निक्खिप, भोति, म. नि. 3. 174 - न्तु अनु. प्र. पु०, ब० व. "आदियन्तु खो भिक्खुनियो उदकसुद्धिकन्ति पाचि, 357 - थ अनु. म. पु०, ब० व.. "यानि इमस्मिं सत्थे महासारानि पणियानि, तानि आदियथा "ति, दी. नि. 2.255 - ये / येय्य विधि., - -— - 1 - - - www.kobatirth.org - 80 आदियति प्र. पु. ए. व. पाण न हो न चदिन्नमादिये, अ. नि. 1 (1).244; यो पन भिक्खु अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियेय्य, पारा 51; येय्यं उ. पु. ए. व. - अहञ्चेव खो पन परस्स अदिन्नं थेय्यसङ्घातं आदियेय्यं, स. नि. 3(2). 420; - येय्याम ब. व. - यंनून मयम्पि परेस अदिन्न धेय्यसङ्घात आदियेय्यामा ति दी. नि. 3.48; - यि अद्य., प्र. पु. ए. व. सच्यं किर त्वं धनिय, रज्ञो दारूनि अदिन्नं आदियीति, पारा 50 यिं उ० पु०, ए. व. अनेकगुणसम्पन्नं, पवत्तफलमादियिं, बु॰ वं॰ 296; - विस्सति भवि., प्र. पु. ए. व. कथ िनाम आयस्मा धनियो कुम्भकारपुत्तो राज्ञो दारूनि अदिन्न आदियिततीति पारा. 50 विस्ससि म. पु. ए. व. - कहि नाम त्वं मोघपुरिस, राज्ञो दारूनि अदिन्न आदिविस्ससि, तदे०: विस्सामि / विस्सं उ. पु. ए. व. - हन्त्वानिमं हृदयमानयिस्सन्ति जा. अ. 7.202 विस्सन्ति प्र. पु०, ब० व. उदाहु आदिविस्सन्तीति मि. प. 144 - विस्साम उ. पु. ब. व. तिव्हानि सत्धानि कारापेत्वा येसं अदिन्नं थेप्यसङ्गात आदिविस्साम दी. नि. 3.49; - दिय/यित्वा पू. का. कृ. तम्माक विज्जञ्च सुतञ्च आदिय, जा. अट्ठ. 2.187; अनापत्तिआदियित्वा परिभुञ्जति, पाचि. 163; ला. अ. 1., आश्रय लेता है, सहारा लेता है, मान बैठता है, (प्रायः अधिकरण शब्द के साथ प्रयुक्त) ति वर्त. प्र. पु. ए. व. कम्मन्तं कारेति अधिकरणं आदियति पामोक्खेसु भिक्खूसु पटिविरुद्धो होति., अ. नि. 2(1):161 एत्थ सासनं सोधेतुकामो भिक्खु यं अधिकरणं अत्तना आदियति चूळव. अड्ड. 124 - न्ति ब. व. यस्सं परिसायं भिक्खू अधिकरण आदियन्ति अ. नि. 1(1),90; विस्साम भवि, उ. पु. ब. व. इम अधिकरणं आदिविस्साम चूळव. 488 ला. अ. 2. हांथ में ले लेता है, निष्पादित करता है ( केवल निषे., वर्त. कृ. के रूप में प्रयुक्त रहने पर ) अनादियन्तं पु.. वर्त कृ. का निषे, द्वि. वि., ए. व., नहीं करने वाले को सम्हानि कम्मानि अनादियन्तं सु. नि. 256 तस्स कम्मानि अनादियन्तं करणत्थाय असमादियन्तं अथ वा चित्तेन तत्थ आदरमत्तम्पि अकरोन्तं सु. नि. अड. 1.271 ला. अ. 3., मन में ले आता है, मानता है, सहमत होता है, ध्यान देता है ति वर्त. प्र. पु. ए. व. राजा आह किं ते तत्थ बलं अस्थि, को वा ते वचनं आदियति अनुम्मत्तो, मि. प० 128; यि अद्य., प्र. पु. ए. व. तस्सा वचनं - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आदियति नादिविध. प. अ. 2.176 अनादियित्वा पू. का. कृ. निषे, नहीं मान कर - संङ्घभेदो तिआदीहि ओवदितोपि सत्थु वचनं अनादियित्वा पक्कन्तो आयस्मन्तं आनन्द राजगहे पिण्डाय चरन्तं दिवा थ. प. अड. 1.82 ला. अ. 4., (किसी की) आज्ञा को मानता है, आज्ञाकारी होता है, अनुसरण करता है, वशवर्ती हो जाता है ति वर्त., प्र. पु. ए. व. सानेव सस्सुं आदियति न ससुरं आदियति, न सामिकं आदियति, अ. नि. 2 ( 2 ) .229; न ससुरं आदियतीति वचनं न गण्हाति, अ. नि. अनु. 3.178 - न्ति ब. व. नेव महाराजानं आदियन्तीति वचनं न गण्हन्ति, आणं न करोन्ति दी. नि. अट्ठ. 3.136; ला. अ. 5. दृढ़तापूर्वक पकड़ लेता है, किसी विचार या धारणा के साथ स्वयं को जोड़ देता है अनादियानं पु.. वर्त क्र. निषे, द्वि. वि. ए. व. - तं ब्राह्मणं दिट्टिमनादियान, केनीध लोकस्मिं विकप्पयेय्य सु. नि. 808; तं ब्राह्मणं दिद्विमनादियन्तं अगण्हन्तं अपरामसन्तं अनभिनिवेसन्तन्ति, महानि 80: विस्सन्ति भदि प्र. पु. ब. व. - उक्कलेस्सन्ति न खो मम सावका मया विसज्जापीयमाना ममच्ययेन खुदानुखुदकानि सिक्खापदानि उदाहु आदियिस्सन्ती' ति, मि० प० 144. आदियति व्यु, संदिग्ध आ + √दा अथवा आ + √दर का वर्त, प्र. पु. ए. व. [ आद्रियते] 1. आदर करता है, सम्मान करता है, प्रतिष्ठा करता है, 2. स्वयं को पूरी तरह से लगा देता है, मन लगाता है 3. आदियति के ही अर्थों में- अनादरो नाम सङ्घ वा गणं वा पुग्गलं वा कम्मं वा नादियति, पाचि० 294; एकपुग्गलं वा तं कम्मं वा न आदियति, न अनुवत्तति, न तत्थ आदरं जनेतीति अत्थो, पाचि अड. 166 - यि अय., प्र. पु. ए. व. - एवम्पि खो आयस्मा उदायी विसाखाय मिगारमातुया वुच्चमानो नादियि, पारा. 293; नादियीति तस्सा वचनं न आदियि, न गण्डि न वा आदरमकासीति अत्थो, पारा, अट्ट. 2.194 - विस्सन्ति भवि., प्र. पु. ब. व. - नादियिस्सन्तुपज्झाये, खमुड्रो विय सारथिं, थेरगा. 976: नादिविस्सन्तुपज्झायेति उपज्झाये आचरिये च आदरं न करोन्ति, तेस अनुसासनियं नतिद्वन्ति, थेरगा. अ. 2.313 अनादियित्वा पू० का. कृ. का निषे, अनादर करके, स्वीकार न करके अथ खो सो यक्खो तं यक्खं अनादियित्वा उदा. 113; अनादिवित्वाति आदरे अकत्वा, तस्स वचने अग्गहेत्वा, उदा. अ. 199. - www.kobatirth.org - 81 आदिविकार पु०, प्र० आदियनमुख त्रि. ब. स., कही गई बात पर तुरन्त विश्वास कर लेने वाला, भोलाभाला, कान का कच्चा खो कि.. ए. व. - आदेय्यमुखोति आदियनमुखो गहणमुखोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.51; सद्दहनट्टेन हि आदानेन एस आदियनमुखोति वृत्तो, तदे.. व. आदियनवत्थु नपुं., न दी गई वस्तु को ग्रहण कर लेने के अपराध से सम्बद्ध एक सिक्खापद स्मिं सप्त. वि., ए. रज्ञ दारूनि अदिनं आदियनवत्थुस्मिं पञ्ञतं कड्ढा. अट्ट. 123; सावत्थियं अज्ञ्जतरं भिक्खुनिं आरम्भ जतुमकसादियनवत्यस्मिं पञ्ञतं कड्डा. अड्ड. 300. आदियापेति आ + √दा के प्रेर० का वर्त., प्र. पु. ए. व., ग्रहण कराता है, स्वीकार कराता है न अदिन्नं आदियति, न अदिन्नं आदियापेति, न अदिन्नं आदियतो समनुज्ञो होति., दी. नि. 3.35. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आदियाम पु. तत्पु, स.. रात्रि का प्रथम याम मे सप्त. वि. ए. व. आदियामे नमस्सामि, मज्झिमे अथ पच्छिमे, अप. 1.50. आदिरस्स त्रि. ब. स. व्याकरण में प्रयुक्त [आदिह्रस्व], वह वर्णसमूह, जिस का आदिस्वर ह्रस्व हो स्सो पु. प्र. वि.. ए. व. आदिरस्सो ताव पगेव इच्छेवमादि, क. व्या. 405; तत्थ आदिरस्सो - पगेव इच्चादि, सद्द 3.808. आदिराज पु.. कर्म. स. [आदिराजन्] प्रथम राजा श्रीलङ्का का प्रथम शासक जाप्र. वि., ए. व.. तस्मियेव वस्से सीहकुमारस्स पुत्तो तम्बपण्णिदीपस्स आदिराजा विजयकुमारो पारा. अट्ठ. 1.51; भागीरथानन्ति पन पाठे भागीरथो नाम आदिराजा, थेरगा. अड. 2.144. आदिलोप पु. व्याकरण में प्रयुक्त [ आदिलोप] प्रथम वर्ण का लोप, आदिभूत वर्ण का लोप पो प्र. वि. ए. व. - आदिलोपो ताव तालीस इच्चेवमादि, क. व्या. 406; कालियो इच्चादि, आदिलोपो तालीस इच्चादि, सद्द 3.809. आदिवण्ण पु.. कर्म. स. [ आदिवर्ण] प्रथम वर्ण, आदिभूत वर्ण स.वि., ए. व. चत्तालीससद्दस्स गणने परियापन्नस्स आदिवण्णस्स लोपो होति सद 3.800ण्णानं ब. व. क्वचादिवण्णानमेकस्सरानं द्वेभावो, क. For Private and Personal Use Only व्या. 460. आदिविकार पु., तत्पु० स., व्याकरण का परिभाषिक शब्द, किसी शब्द के प्रथम या आदि वर्ण में ध्वनि परिवर्तन - रो प्र. वि. ए. व. आदिविकारो ताव आरिस्स् आसभ " Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिविपरीत 82 आदिसर आण्यं इच्चेवमादि, क. व्या. 406; तत्थ उत्तरआगमो वेदल्लं इच्चादि आदिविकारो आरिस्यं आसभं इच्चादि, सद्द. 3.810. आदिविपरीत पु., तत्पु. स., व्याकरण का पारिभाषिक शब्द, आदि-स्वर का रूपान्तरण या परिवर्तन - तो प्र. वि., ए. व. - आदिविपरीतो ताव - उग्गते सरिये, उग्गच्छति इच्चेवमादि, क. व्या. 406; यानि तानि इच्चादि, आदिविपरीतो उञातं 'दहरो तिन उञातब्बो ऊहतो: रजो' इच्चादि, सद्द. 3.810. आदिविसोधनट्ठ पु., तत्पु. स., आदिभूत धर्म के विशोधन का तात्पर्य, सर्वप्रथम आए हुए धर्म की विशुद्धि का अर्थद्वेन तृ. वि., ए. व. - .... आधिपतेय्यद्वेन आदिविसोधनढेन अधिमत्तद्वेन, अधिवानढेन, परियादानढेन, पतिद्वापकढेन, पटि. म. 209; आदिविसोधनद्वेनाति कुसलानं धम्मानं आदिभूतस्स सीलस्स विसोधनद्वेन, पटि. म. अट्ठ. 2.129. आदिवुड्डि/आदिवुद्ध स्त्री., केवल व्याकरण के सन्दर्भ में प्रयुक्त [आदिवृद्धि], किसी भी शब्द के आदिस्वर की वृद्धि -द्धि प्र. वि., ए. व. - आदिवुद्धि ताव - आभिधम्मिको, वेनतेय्यो इच्चेवमादि, क. व्या. 406; तत्थ आदिवुद्धि ताव आभिधम्मिको इच्चादि, सद्द. 3.809. आदिव्यञ्जन नपुं., व्याकरण में ही प्रयुक्त [आदिव्यञ्जन]. विसंयुक्त व्यञ्जनों में आदिभूत व्यञ्जन ध्वनि - स्स ष. वि., ए. व. - आदिसरस्स वा असंयोगन्तस्स आदिब्यञ्जनस्स वा सरस्स वृद्धि होति, क. व्या. 402. आदिसति आ +दिस का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [आदिशति/आदिशते]. 1. संकेत करता है, प्रदर्शित करता है, कहता है, वर्णन करता है, उद्घोषित करता है, सूचित करता है, भविष्यवाणी करता है, भविष्य की ओर संकेत करता है - यो अतीतं आदिसति, (इच्चायस्मा पोसालो) अनेजो छिन्नसंसयो, सु. नि. 1118; चूळनि. 148; यो भगवा अत्तनो च परेसञ्च एकम्पि जाति न्तिआदिभेदं अतीतं आदिसति, सु. नि. अट्ठ. 2.293; चूळनि. अट्ठ. 44; - न्ति ब. व. - लक्खणपाठका लक्खणं आदिसन्ति, महानि. 281; - न्तं पु., वर्त. कृ., द्वि. वि., ए. व. - समणं ब्राह्मणं वा कं, आदिसन्तं पभडन, थेरगा. 751; आदिसन्तन्ति देसेन्तं, थेरगा. अट्ठ. 2.241; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - ... ञत्वा हत्थेन आदिसि, म. वं. 5.52; - सित्वा पू. का. कृ.- एवं तं तं आदिसित्वा निमित्तमनुयुत्ता विहरन्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.82; 2. अनुमान करता है, दूसरे के मन की बात को भांपता है - ति वर्तः, प्र. पु., ए. व. - इध, केवट्ट भिक्खु परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसति, दी. नि. 1.197; आदिसतीति कथेति, दी. नि. अट्ठ. 1.291; - न्तं वर्त. कृ., वि. वि., ए. व. - चेतसिकम्पि आदिसन्तं.... दी. नि. 1.197; 3. दान अथवा उपहार को संकेतित करता है, दान अथवा उपहार प्रदान करता है- सन्ति वर्त, प्र. पू.. ब. व. - इमे दायका दानं दत्वा पुब्बपेतानं आदिसन्ति, मि. प. 271; - स अनु., म. पु., ए. व. - एतं अच्छादयित्वान, मम दक्षिणमादिस, पे. व. 62; ... ममदक्खिणमादिसाति एतं उपासकं ... तं दक्खिणं मह आदिस पत्तिदानं देहि, पे. व. अट्ठ. 42; - सेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - ... दारुणं कम्म कत्वा पुब्बपेतानं आदिसेय्य 'इमस्स मे कम्मरस विपाको पुब्बपेतानं पापुणातूति, मि. प. 272; - सेय्यासि म. पु., ए. व. - तञ्च भिक्खुसङ्घ परिविसित्वा मम दक्खिणं आदिसेय्यासि. अ. नि. 2(2).207; - सी अद्य.. प्र. पु.. ए. व. - कुटियो अन्नपानञ्च, मातु दक्षिणमादिसी पे. व. 123; - सिंस/सुं ब. व. - ... भिक्खुसङ्घस्स महादानं दत्वा तस्सा दक्षिणमादिसिंस, पे. व. अट्ठ. 46; - सिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - पदक्खिणञ्च कत्वान, आदिसिस्सामि दक्खिणं, थेरीगा. 309; - सित्वान पू. का. कृ. - चापाय आदिसित्वान, पब्बजिं अनगारिय, थेरीगा. 312. आदिसद्द पु., कर्म. स. [आदिशब्द], 'आदि' शब्द -द्दो प्र. वि., ए. व. - आदिसहोयं पकारे वत्तते, रू. सि. 147(रो.); - इन तृ. वि., ए. व. - आदिसद्देन सब्बेपेते दुक्खवेदनाय सहगता, अ. नि. अट्ठ. 1.343; एतस्स पुरिमेन आदिसद्देन अनन्तरेन च सस्सतसद्देन सम्बन्धो होति, स. नि. अट्ठ. 2.32; - लोप पु., तत्पु. स. [आदिशब्दलोप], आदिशब्द का लोप - पो प्र. वि., ए. व. - एत्थ आदिसहलोपो कतोति वेदितब्बो, पटि. म. अट्ठ. 2.74. आदिसन नपुं.. आ +दिस से व्यु.. क्रि. ना., संकेत, अनुमान, निर्वचन, व्याख्यान - नं प्र. वि., ए. व. - अथ वा इति एवं आदिसनं आदेसनापाटिहारियन्ति आदेसनसद्दो पाठसेसं कत्वा पयुज्जितब्बो, पटि. म. अट्ठ. 2.286. आदिसर पु., तत्पु. स. [आदिस्वर], किसी भी शब्द में आया हुआ प्रथम स्वर - स्स ष. वि., ए. व. - आदिसस्स वा असंयोगन्तस्स आदिब्यञ्जनस्स वा सरस्स वुद्धि होति सणकारे पच्चये परे क. व्या. 402: आदि-मज्झ-उत्तरसरानं क्वचि दीघ-रस्सत्तं, सद्द. 3.807. For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदिस्स 83 आदिस्स'/आदिय त्रि., आ +दिस से व्यु., सं. कृ. [आदेश्य], शा. अ., संकेतित किए जाने योग्य, ला. अ., निन्दनीय - अहम्पि तेन न आदियो भवेय्य, म. नि. 1.17: पाठा. आदिस्सो; - या/स्सा पु.. प्र. वि., ब. व. - तुम्हेपि तेन आदिया भवेय्याथ, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).99. आदिस्स आ +vदिस का पू. का. कृ. [आदिश्य], 1. संकेत करके, निर्देश करके, 2. द्वि. वि. में अन्त होने वाले नाम के उपरान्त प्रयुक्त होने पर, के विषय में, के सन्दर्भ में, दृष्टि में रखकर – तासं इत्थीनं वचमग्गं पस्सावमग्गं आदिस्स वण्णम्पि भणति अवण्णम्पि भणति, पारा. 188, 191; कल्याणमित्तता मुनिना, लोक आदिस्स वण्णिता, थेरीगा. 213; लोकं आदिस्स वण्णिताति कल्याणमित्ते अनुगन्तब्बन्ति सत्तलोकं उद्दिस्स ..., थेरीगा. अट्ठ. 199; 3. क्रि. वि. के रूप में प्रयुक्त होने पर तथा दुहरा कर प्रयुक्त होने पर, पुनः पुनः व्यवस्थापित करके, यह है अथवा वह है, इस तरह से सूचित करके, विशिष्ट स्वरूप को संकेतित करके अथवा अभिव्यक्त 'करके - आदिस्स जम्मनं ब्रूहि, गोत्तं ब्रूहि सलक्खणं, सु. नि. 1024; तत्थ आदिस्साति कतिवस्सो ति एवं उद्दिस्स, सु. नि. अट्ठ. 2.274; विनय परियत्तिया वण्णं भासति, आदिस्स आदिस्स आयस्मतो उपालिस्स वण्णं भासति, चूळव. 298; आदिस्स आदिस्साति पुनप्पुनं ववत्थपेत्वा विसु विसु कत्वा, पाचि. अट्ठ. 133. आदीन न. [आदेण्य], अत्यधिक दीनता, संकटमयी अवस्था, दुःख – नं, द्वि. वि., ए. व. - आदीनवो ति आदीनं दुक्खं वाति अधिगच्छति एतेना ति आदीन-वो दोसो, सद्द. 2.480%; अथ वा आदीनं वाति गच्छति पवत्ततीति आदीनवो, विसुद्धि. 2.247; पटि. म. अट्ठ. 2.292. आदीनव पु./नपुं., [आदीनव], विपत्ति, दुष्परिणाम, भय, खतरा, अनित्य, दुख एवं अनात्म इन के रूप में विद्यमान दोष - भावोधित्ति छन्दोथ, दोसो आदीनवो भवे, अभि. प. 766; - वो प्र. वि., ए. व. - दिस्वानस्स आदीनवो पातुरहोसि, महाव. 19; आदीनवो पातुरहु थेरगा. 269; .... तत्थ मे अनेकाकारआदीनवो दोसो पातुरहोसि, थेरगा. अट्ठ 2.3; ... आदितो ताव दोसे आदीनवो, विसुद्धि. 1.283; आदीनवो दट्टब्बो पाणघातादिवसेन दिट्ठधम्मिकसम्परायिकादिअनत्थमूलभावतो, विसुद्धि. महाटी. 1.330; - वं द्वि. वि., ए. व. - आदीनवं सम्मसिता भवेसु. सु. नि. 69; आदीनवं सम्मसिता भवेसूति ताय अनुधम्मचरितासङ्घाताय आदीनव विपस्सनाय अनिच्चाकारादिदोसं तीसु भवेस समनुपस्सन्तो, सु. नि. अट्ठ 1.98; - वे सप्त. वि., ए. व. - कथं भयतुपट्टाने पञ्जा आदीनवे आणं? पटि. म. 52; -- तो प. वि., ए. व. - सुञतो अनत्ततो आदीनवतो विपरिणामधम्मतो असारकतो ..., पटि. म. 406; पवत्तिदुक्खताय दुक्खस्स च आदीनवताय आदीनवतो, पटि. म. अट्ठ. 2.292; -- वा प्र. वि., ब. व. - संविज्जन्तस्स इधेकच्चे आदीनवाति, म. नि. 1.400; ताव एकच्चे मानातिमानादयो आदीनवा न संविज्जन्ति ..., म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(2).279; - वेहि तृ. वि., ब. व. - इमेहि आदीनवेहि अयं झानपरिहानि, पेटको. 267; स. उ. प. के रूप में; अदिट्ठा.- पु., नहीं देखी गयी व्यथा, विपत्ति अथवा दोष - वं द्वि. वि., ए. व. - न च सक्का किञ्चि अदिद्वादीनवं पहातुं, विसुद्धि. 1.283; अनेका.- पु., अनेक प्रकार की विपत्तियां, संकट अथवा दुःख - ... तापसपब्बज्जूपगमनेन अनेकादीनवाकुला गहट्ठभावा अभिनिक्खमित्वा गतोति, चरिया. अट्ठ. 125; अविज्जापटिच्छादिता.- पु.. अज्ञान के द्वारा प्रतिच्छादित होने के कारण उत्पन्न दोष, दुःख अथवा विपत्ति - वे सप्त. वि., ए. व. - तदेवं पवत्तमानं तण्हाअविज्जानं अप्पहीनत्ता अविज्जापटिच्छादितादीनवे, विभ, अट्ठ. 154; कामा.- पु., कामनाओं के कारण उत्पन्न दुःख, विपत्ति या दोष, कामभोगों में अन्तर्निहित दुःख या विपत्ति - वेनतृ. वि., ए. व. - एवं कामादीनवेन तज्जेत्वा नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि, उदा. अट्ट. 231; दिट्ठा.- पु., दिखलायी दे रही विपत्ति, दुःख अथवा दोष – तो प. वि., ए. व. - अथेवं दिट्ठादीनवतो दोसतो चित्तं विवेचनत्थाय... मेत्ताभावना आरभितब्बा, विसुद्धि. 1.283-284; आरुप्पानेव जायन्ते, दिद्वादीनवतो किर, अभि. अव. 262; निरा.- त्रि., दीनता, दुःख या संकट से मुक्त – वो पु., प्र. वि., ए. व. - भिक्खुसको निरादीनवो अपगतकाळको सद्धो सारे पतिद्वितो. पारा. 10; पटिच्छन्ना.- त्रि., वह, जिसका दोष ढका हुआ हो, प्रतिच्छन्न, दुःख, दोष एवं विपत्ति वाला - वे पु., सप्त. वि., ए. व. - अविज्जाय पटिछन्ना-दीनवे विसये पन, अभि. अव. 596; बहु.-त्रि., अत्यधिक दोषों, संकटों एवं विपत्तियों से परिपूर्ण -- वो पु., प्र. वि., ए. व. - बहुदुक्खो खो अयं कायो बहुआदीनवो?, अ. नि. 3(2).91; सा.- त्रि., दुःख, संकट या विपत्ति ये युक्त – वो पु., प्र. वि., ए. व. - न तं विदुति न तं जानन्ति, “एवं सादीनवो अयन्ति, महाव. For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आदीनवजात 84 आदीनवपरियेसना अट्ठ. 408; टि., पालि-तिपिटक में आदीनव के तीन प्रकार के समूहों का उल्लेख हैं - 1. शील से संबंधित पांच प्रकार के आदीनव - इमे खो, गहपतयो, पञ्च आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया, महाव. 303; 2. मादक वस्तुओं के सेवन के छ: प्रकार के आदीनव या दुष्परिणाम - इमे खो, गहपतिपुत्त, छ आदीनवा सुरा - मेरय-मज्जप्पमादट्ठानानुयोगे, दी. नि. 3.138; 3. राजाओं के अन्तःपुरों में प्रवेश आदि से प्राप्त होने वाले आदीनव या दुःख - दसयिमे, भिक्खवे, आदीनवा राजन्तेपरप्पवेसने, पाचि. 210. आदीनवजात त्रि., दुर्गतिग्रस्त, विपत्ति से पीड़ित, उत्पीड़ित - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - उपद्दवजातेति आदीनवजाते, चूळनि. अट्ठ. 71. आदीनवज्ञाण नपुं.. [आदीनवज्ञान], बुरे परिणाम अथवा दुष्परिणामों की पहचान, दीनता अथवा बुरी अवस्था का ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - सम्मसनजाणं... आदीनवजाणं .... अनुलोमत्राणञ्चेति दस विपस्सनाञाणानि, अभि. ध. स. 66; तस्सेवं पस्सतो आदीनवाणं नाम उप्पन्न होति, विसुद्धि. 2.283; दिनुभयानं आदीनवतो पेक्खणवसेन पवत्तं जाणं आदीनवजाणं, अभि. ध. वि. टी. 232; - स्स ष. वि., ए. व. - आणन्तिआदि पन आदीनवञाणस्स पटिपक्खञाणदस्सनत्थं वुत्तं, पटि. म. अट्ठ. 1.221. आदीनवता स्त्री०, आदीनव का भाव. [आदीनवत्व]. विपन्नता, दुःख से ग्रस्त होने अथवा उत्पीड़ित होने की अवस्था - य तृ. वि., ए. व. - पवत्तिदुक्खताय दुक्खस्स च आदीनवताय आदीनवतो, पटि. म. अट्ठ. 2.292. आदीनवत्त नपुं.. आदीनव का भाव., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त [आदीनवत्व], उपरिवत्, दिट्ठा.- संकट या विपत्ति के दिखलायी देने की अवस्था-त्ता प. वि., ए. व. - कलहकारके किरस्स दिट्ठादीनवत्ता समग्गवासिनो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.152; रूपा. - नपुं. रूप से संबंधित विपत्ति अथवा दोष - त्ता प. वि., ए. व. - अथस्स परिविदितरूपादीनवत्ता पथवीकसिणादीसु अञ्जतरं उग्घाटेत्वा .... स. नि. अट्ठ. 3.207; सुपरिविदिता. - उपरिवतविपत्ति या दोष से अच्छी तरह से परिचित रहना - ता प. वि., ए. व. - तासो उप्पज्जि भेरवोति सुपरिविदितादीनवत्ता भयानको चित्तुत्रासो उदपादि, चरिया. अट्ठ. 198. आदीनवदस्स त्रि., बुरी अवस्था, संकट अथवा भय को दिखलाने वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अनादीनवदस्सोति यं भगवा इदानि सिक्खापदं पञपेन्तो आदीनवं दस्सेस्सति, पारा. अट्ठ. 1.164. आदीनवदस्सन नपुं., तत्पु. स. [आदीनवदर्शन], विपत्ति, संकट अथवा हानियों को देखना - नं प्र. वि., ए. व. - सप्पे आदीनवदस्सनं विय आदीनवानुपस्सनाञाणं, पटि. म. अट्ठ. 1.27; - नेन तृ. वि., ए. व. - भयदस्सनेन सभये अभयसाय आदीनवदस्सनेन अस्सादसाय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).26; - जाण नपुं.. हानि, विपत्ति या संकट का दर्शन तथा ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - आदीनवानुपस्सनाति भयतुपट्टानवसेन उप्पन्नं सब्बभवादीसु आदीनवदस्सनाणं, पटि. म. अट्ठ. 1.90. आदीनवदस्सावी त्रि., विपत्ति अथवा संकट को देखने वाला-वी पु., प्र. वि., ए. व. - तं अगधितो अमुच्छितो अनज्झापन्नो आदीनवदस्सावी निस्सरणपओ परिभुञ्जति, दी. नि. 3.33; म. नि. 2.36; स. नि. 1(2).174; आदीनवदस्सावीति अनेसनापत्तियञ्च गधितपरिभोगे च आदीनवं परसमानो, स. नि. अट्ठ. 2.146; - विनो प्र. वि., ब. व. - इमे पञ्च कामगुणे गथिता... आदीनवदस्साविनो निस्सरणपञआ परिभुञ्जन्ति, म. नि. 1.233. आदीनवदस्सिता स्त्री., आदीनवदस्सी से व्यु, भाव., संकट या विपत्ति को देखने या जानने की क्षमता, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त; अना.- संकट या विपत्ति को नहीं देख सकने की अवस्था- य त वि., ए. क. - ते दूरतो वज्जेचा सङ्घारे यथाभूतं पस्सतो च तत्थ अनादीनवदस्सिताय, उदा. अट्ट, 282. आदीनवदस्सी त्रि., [आदीनवदर्शिन]. संकट या विपत्ति को देखने की क्षमता रखने वाला, - स्सी पु.. प्र. वि., ए. व. - सो अत्तहिताय पटिपन्नो पण्डितो कुसलो ब्यत्तो आदीनवदस्सी, पेटको. 303. आदीनवपटिच्छादक त्रि., संकट, विपत्ति अथवा हानि को आच्छादित कर लेने वाला - कं पु., वि. वि., ए. व. - अमोहेन तेस्वेव आदीनवपटिच्छादकं मोहं धुनाति, विसुद्धि. 1.80; आरक्खदुक्खपराधीनवुत्तिचोरभयादि आदीनवपटिच्छादक विसुद्धि. महाटी. 1.98; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अविज्जाति तत्थेव आदीनवपटिच्छादिका अविज्जा, थेरगा. अट्ठ. 2.399. आदीनवपरियेसना स्त्री., तत्पु. स. [आदीनवपर्येषणा], विपत्ति अथवा संकट की खोज या तलाश - नं द्वि. वि., For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदीनवविभावना 85 आदु ए. व. - वायोधातुयाह, भिक्खवे, आदीनवपरियेसनं अचरि व. - सप्पे आदीनवदस्सनं विय आदीनवानपस्सनाञआणं, स. नि. 1(2).155; लोकस्साह, भिक्खवे, आदीनवपरियेसनं पटि. म. अट्ठ. 1.27. अचरिं अ. नि. 1(1).292. आदीनवानुपस्सी त्रि., सारहीनता की अवस्था अथवा बुरे आदीनवविभावना स्त्री., दुष्परिणामों का प्रकाशन, बुरे परिणामों को ठीक से देखने वाला, विपत्ति की स्थिति का परिणामों को प्रकट करना - नं द्वि. वि., ए. व. - इम अनुभव करने वाला - स्सी पु., प्र. वि., ए. व. - इति उदानन्ति इमं पापकिरियाय निसेधनं आदीनवविभावनञ्च इमस्मिं काये आदीनवानुपस्सी विहरति, अ. नि. 3(2).91; उदानं उदानेसि, उदा. अट्ठ. 240. आदीनवानुपस्सी हि तिदसिन्दोपभोजिये, सद्धम्मो. 411; - आदीनवसञा स्त्री., तत्पु. स. [आदीनवसंज्ञा], संकट, स्सिनो पु., ष. वि., ए. व. - तस्स असारत्तस्स असंयुत्तस्स हानि अथवा बुरे परिणामों से संबंधित संज्ञा-ज्ञान, पांच असम्मूळहस्स आदीनवानुपस्सिनो विहरतो आयत्ति प्रकार की संज्ञाओं में से एक - ञा प्र. वि., ए. व. - पञ्चुपादानक्खन्धा अपचयं गच्छन्ति, म. नि. 3.348. असुभसआ, मरणसञआ, आदीनवसंज्ञा आहारे आदीपन नपुं., आ +vदीप से व्यु., क्रि. ना. [आदीपन], पटिकूलसआ, सब्बलोके अनभिरतसञआ, अ. नि. व्याख्यान, प्रकाशन, स्पष्ट करना, प्रज्वलन - नं द्वि. वि., 2(1).74; सत्त सञआ - अनिच्चसआ, अनत्तसआ, ए. व. -- एकमन्तं उपाविसिन्ति न ताव कट्ठानि आदित्तानीति असुभसा, आदीनवसआ, पहानसा, विरागसआ, तेसं आदीपनं उदिक्खन्तो थोक एकमन्तं निसीदि, चरिया. निरोधसा , दी. नि. 3.199, 233; - परिचित त्रि., दुःख अट्ठ. 103. या विपत्ति की संज्ञा से परिचित - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. आदीपनीय त्रि., आ +vदीप से व्यु., सं. कृ., व्याख्या करने - आदीनवसापरिचितञ्च नो चित्तं भविस्सति, अ. नि. योग्य, प्रकाशित करने योग्य – यं नपुं., द्वि. वि., ए. व. 3(2).89. -- "यं तं ओपम्मेहि आदीपनीयं कारणेहि मं सापेहि, यथा आदीनवानिसंस पु., द्व. स. [आदीनवानिशंस], हानि अथवा अस्थिधम्म ओपम्मेहि आदीपनीय न्ति, मि. प. 252. लाभ, विपत्ति अथवा दुःख - से द्वि. वि., ब. व. - आदीपित त्रि., आ +vदीप से व्यु., आदीप का भू. क. कृ. थेरोपिस्स पवत्तिनिवत्तीस आदीनवानिसंसे विभावेन्तो धम्म [आदीपित], धधक रहा, जाज्वलयमान, आग की लपटों में देसेसि. उदा. अट्ठ. 251; सहसा समेच्चाति सहसा जल रहा - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सब्बो आदीपितो आदीनवानिससे अविचारेत्वा समवायेन अनुपविठ्ठा सप्पविठ्ठा, लोको, सब्बो लोको पधूपितो, स. नि. 1(1).157; आदित्तोति वि. व. अट्ठ. 285; - दस्सन नपुं., विपत्ति एवं लाभ का दुक्खलक्खणवसेन पीळायोगतो सन्तापनट्ठन आदीपितो. दर्शन, अच्छे या बुरे परिणामों को देखना, संकटों अथवा पटि. म. अट्ठ. 2.13; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - लाभों का दर्शन - नं प्र. वि., ए. व. - ... आनिसंसस्स आदीपितं दारु तिणेन मिस्सं, जा. अट्ठ. 7.52. च दस्सनं आदीनवानिसंसदस्सन, विसुद्धि. महाटी. 1.66; आदीपितता स्त्री., आदीपित से व्यु., भाव., आदीप्त होना, - नेन तृ. वि., ए. व. - इदानि कोधे अकोधे च जाज्वल्यमान होना, धधकते हुए रहना - य तृ. वि., ए. आदीनवानिसंसदस्सनेन धम्म कथेन्तो, ... थेरगा. अट्ठ. 2.98. व. - तेहियेव पुनप्पुनं आदीपितताय पदीपितो, थेरीगा. आदीनवानुपस्सना स्त्री., तत्पु. स. [आदीनवानुपश्यन], अट्ठ. 191. दीनतामयी स्थिति, दीनता से भरी अवस्था या दशा के आदीयति आ + दा का कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व. विषय में विचार, दुष्परिणामों अथव संकटों का अनुभव - [आदीयते], ग्रहण किया जाता है, स्वीकार किया जाता है, ना प्र. वि., ए. व. -- आदीनवानुपस्सनाति भयतुपट्टानवसेन ले लिया जाता है – सद्धेन दानं दीयति, सील आदीयति उप्पन्नं सब्बभवादीसु आदीनवदस्सनजाणं, पटि. म. अट्ठ. समादीयति, सद्द. 2.367; पठम आदीयती ति आदि, उदक 1.90; - नं द्वि. वि., ए. व. - आदीनवानुपस्सनं भावेन्तो। दधाती ति उदधि, क. व्या. 553. आलयाभिनिवेसं पजहति, विसुद्धि. 2.263; - य तृ. वि., ए. आदु/अदु अ., पुष्टि अथवा जोर देने के अर्थ को प्रकट व. - आदीनवानुपस्सनाय आलयाभिनिवेस .... पटि. म. करने वाला, निपा., संभवतः उदाहु का ही संक्षिप्तीकृत 40; - ञाण नपुं., दैन्य अवस्था की अनुभूति का ज्ञान, भ्रष्ट स्वरूप, 1. वियोजक प्रश्न के द्वितीय घटक के रूप दुष्परिणामों से संबंधित विचार का ज्ञान – णं प्र. वि., ए. में अथवा के अर्थ में प्रयुक्त निपा. - निब्बायि सो आदु For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदेति 86 आदेस सउपादिसेसो, यथा विमुत्तो अहु तं सुणोम, थेरगा. 1283; यथा विमुत्तो ति "किं अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया यथा असेक्खा, उदाहु उपादिसेसाय यथा सेक्खा ति पुच्छति, सेसमेत्थ पाकटमेव, सु. नि. अट्ठ. 2.76; तत्थ अदूति निपातो, जा. अट्ठ. 3.441; देवतानुसि गन्धब्बो, अदु सक्को पुरिन्ददो, वि. व. 977; अदु सक्को पुरिन्ददोति उदाह पुरे ददाती ति, वि. व. अट्ठ. 217; 2. वास्तव में, ठीक यही, निश्चित रूप से, परन्तु, तब – अदु पञआ किमत्थिया, निपुणा साधुचिन्तिनी... तत्थ अति निपातो, जा. अट्ठ 3.441; अदु चापं गहेत्वान, खग्गं बन्धिय वामतो, जा. अट्ठ. 7.324; जा. अट्ठ. 3.300; अदूति नामत्थे निपातो, पञा नाम किमत्थियाति अत्थो, जा. अट्ठ. 6.272. आदेति आ +vदा का वर्त.. प्र. पु.. ए. व. [आददाति/आदते], लेता है, ग्रहण करता है, स्वीकार करता है, प्राप्त करता है, किसी विचार को ग्रहण करता है - आपुब्बवसेन गहणञ्च वदन्तो ददाति... आदेति दानं आदानन्ति, सद्द. 2.368; कतिभि रजमादेति, कतिभि परिसुज्झती ति, ... पञ्चभि रजमादेति, पञ्चभि परिसुज्झतीति, स. नि. 1(1).4; पञ्चहि पन नीवरणेहेव किलेसरजं आदियति गण्हाति परामसति, स. नि. अट्ट, 1.23; - न्ति प्र. पु., ब. व. - एवं असारेहि धनेहि सारं पुआनि कत्वान बहूनि पञआ, आदेन्ति, बाला पन कामहेतु, बहूनि पापानि करोन्ति मोहा, म. वं. 35.127; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व. - अदेय्याति आदियेय्य, न-कारेन योजेत्वा न गण्हीति अत्थो, जा. अट्ठ. 3.259; - तु अनु., प्र. पु.. ए. व. - आदेतु सीहदायी ति सहस्सं सो पचरयि, म. वं. 6.24; - थ म. पु., ब. व. - "अमतं आदेथ भिक्खवोति, मि. प. 305. आदेय्यरूप त्रि., ग्रहण करने योग्य स्वरूप वाला, स्वीकार करने योग्य जाति वाला - पं नपुं.. वि. वि., ए. व. - यदा न पस्सन्ति समेक्खमाना, आदेय्यरूपं पुरिसस्स वित्तं, जा. अट्ठ, 5,442; आदेय्यरूपन्ति गहेतब्बजातिक, जा. अट्ठ. 5.443. आदेय्यवचन त्रि., ब. स., ग्रहण करने योग्य वचनों को बोलने वाला, प्रभावशाली वाणी को बोलने वाला - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - आदेय्यवचनो होमि, न धंसेमि यथा अहं, अप. 1.355; मुसावादनिवत्तिया सत्तानं पमाणभूतो होति पच्चयिको थेतो आदेय्यवचनो, चरिया. अट्ठ. 281; - ता स्त्री., भाव., वचनों का दूसरों द्वारा स्वीकरणीय या ग्राह्य होना - आदेय्यवचनता आनिसंसो, दी. नि. अट्ट. 3.1103; - वाक्यवचन त्रि., ग्रहण करने योग्य वाक्यों और वचनों को बोलने वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - आदेय्यवाक्यवचनो, ब्रह्मा उजु पतापवा, अप. 1.392; - वाच त्रि., बहुत लोगों द्वारा ग्रहण करने योग्य या सुनने योग्य मधुर वचन बोलने वाला - चो पु., प्र. वि., ए. व. - अनाथपिण्डिको गहपति बहुमित्तो होति बहुसहायो आदेय्यवाचो, चूळव. 286; आदेय्यवाचो ति तस्स वचनं बहू जना आदियितब्बं सोतब्बं मञन्तीति अत्थो, चूळव. अट्ठ. 62; आदेय्यवाचो होति, दी. नि. 3.131; आदेय्यवाचो होती ति गहेतब्बवचनो होति, दी. नि. अट्ठ. 3.109. आदेव पु., आ +vदेव से व्यु., विलाप, रोना, चिल्लाना, अवसाद - वो प्र. पु.. ए. व. - अञ्जतरुअतरेन ब्यसनेन समन्नागतस्स अञतरञतरेन दुक्खधम्मेन फुट्ठस्स आदेवो परिदेवो आदेवना परिदेवना, दी. नि. 2.2283; एवं आदिस्स आदिस्स देवन्ति परिदेवन्ति एतेनाति आदेवो, दी. नि. अट्ठ. 2.349; - वं द्वि. वि., ए. व. - आदेवं परिदेवं... न करेय्य न जनेय्य ..., महानि. 273. आदेवति आ + देव का वर्त, प्र. पु., ए. व., विलाप करता है, रोता है, खिन्न होता है - देवति आदेवति परिदेवति, आदेवो परिदेवो आदेवना परिदेवना आदेवितत्तं परिदेवितत्त सद्द. 2.440. आदेवन नपुं., आ + देव से व्यु., क्रि. ना., शोक-विलाप की क्रिया, रोने-चिल्लाने की क्रिया -- आदेवं परिदेवं आदेवनं परिदेवनं आदेवितत्तं परिदेवितत्तं वाचा पलापं विप्पलापं ... लालप्पायनं लालप्पायितत्तं ... नाभिनिब्बत्तेय्य, महानि. 273. आदेवनेय्य त्रि., आ +vदेव से व्यु., सं. कृ., शोक-विलाप करने योग्य - य्ये पु., वि. वि., ब. व. - परिदेवनेय्येति आदेवनेय्ये परिदेवनेय्येति - एते वितक्के परिदेवनेय्ये, महानि. 373; आदेवनेय्येति विसेसेन देवनिय्ये, महानि. अट्ठ. 377. आदेस पु., आ + देस से व्यु. [आदेश]. 1. संकेत, सूचना, दिशा-निर्देश, आज्ञा, विधानात्मक आदेश -- गेहादेसोपमाहीनपसादनिग्गताच्चये, अभि. प. 1165; - सं द्वि. वि., ए. व. - आदेसं नापसादेन्तो राजिनो दीघदस्सिनो, चू. वं. 72.201; 2. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, स्थानापन्न, किसी दूसरे वर्ण, वर्णसमूह या ध्वनि का स्थानापन्न – अभि इच्चेतस्स सरे परे अब्भो आदेसो होति, क, व्या. 44; क्वचि विपरीतो होति, क्वचि आदेसो होति, सद्द. 3.809. For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आदेसिका यथा आदेसनविधा स्त्री, तत्पु. स. दूसरों के चित्तों को जानने का एक प्रकार या पद्धति सु सप्त. वि., ब. व. भगवा धम्मं देसेति आदेसनविधासु चतस्सो इमा, भन्ते आदेसनविधा दी. नि. 3.76 था द्वि. वि. ब.व.इदानि ता आदेसनविधा दस्सेन्तो चतस्सो इमाति आदिमाह, दी. नि. अड. 3.62. आदेसना आदि से व्यु. क्रि. ना. [ आदेशन]. शा. अ. संकेतन, इशारा, सूचित करना, ला. अ.. किसी के चरित्र के विषय में अनुमान करना, दूसरे के मन को पढ़ना, भविष्यवाणी करना ना प्र. वि., ए. व. आदेसनाति परस्स चित्ताचार अत्या कथनं आदेसनापाटिहारिय बु. वं. अड. 44 इद्धिआदेसनानुसासनीभेदेन तेसु च एकेकस्स विसयादिभेदेन विविध बहुविधं वा उदा. अड. 9. इद्धि आदेसनानुसासनीसमुदाये भवं एकेक पाटिहारियन्ति दुष्यति तदे.; - नं द्वि. वि., ए. व. इतरेसु पन आदिस्सनवसेन आदेसनं, अनुसासनवसेन अनुसासनी, पटि म.अ. 2.284. www.kobatirth.org - आदेसनापाटिहारिय नपुं० तत्पु० स० [ आदेशनप्रातिहार्य ], दूसरे के चित्तों को जानने की अलौकिक शक्ति, एक प्रकार का ऋद्धिबल या मानसिक बल यं प्र. वि. ए. व. इद्धिपरिहारिय आदेसनापाटिहारियं, अनुसासनीपाटिहारिय, दी. नि. 1. 196 आ. नि. 1 ( 1 ). 198, 199; अथ वा इति एवं आदिसनं आदेसनापाटिहारियन्ति आदेसनसदो पाठसेस कत्वा पयुज्जितब्बो, पटि, म. अड्ड 2.286 - येन वि., ए. व. तृ. "इमं खो अहं, केवट्ट, आदेसनापाटिहारियेन अट्टीयामि हरायामि जिगुच्छामि दी. नि. 1.198 यानुसासनी स्त्री. दूसरें के चित्तों को जानकर उन चित्तों के अनुरूप दी गई शिक्षा नी. प्र. वि. ए. व. आदेसनापाटिहारियानुसासनी नाम एवम्पि ते मनो तथापि ते मनोति एवं परस्स चितं जानित्वा तदनुरूपा धम्मदेसना, चूळव. अ. 110 निया तृ. वि. ए. व. - अथ खो आयरमा सारिपुत्तो आदेसनापाटिहारियानुसासनिया भिक्खु धम्मियाकथाय ओवदि अनुसासि, चूळव, 340; - योजना स्त्री०, दूसरों के चित्तों का ज्ञान कराने वाले ऋद्धिबल एवं मानसिक बल के साथ सन्बन्ध या जोड़यतृ. वि. ए. व. इति अनुसासनीपाटिहारियन्ति एत्थ आदेसनापाटिहारिययोजनाय विय योजना कातब्बा, पटि. म. अ. 2.286. - 87 आधान आदेसमूत त्रि. व्याकरण में प्रयुक्त, वह जो किसी का स्थानापन्न बना दिया गया है - ते पु०, सप्त. वि., ए. व. पावचने आदेसभूते उकारे परे निच्चं वकार-रकारागमो होति सद. 3.830. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदेससर पु. तत्पु, स. [ आदेशस्वर] किसी अन्य के स्थान पर आया हुआ स्वर एकवचनद्वाने येव सागमो भवति आदेससरपरत्ता, सद्द० 1.123. आदेसिका स्त्री० [आदेशिका ] संकेत देने वाली स्त्री, इशारों से बतलाने वाली नारीका प्र. वि., ए. व. आपणादेसिका सा तु देवित्तं तस्स पत्थयि, म. वं. 5.59; तेन वृत्तं "आपणादेसिका सातु ... पे... अतिमनोरमं ति, म. वं. टी. 164 (ना.). - आदो अ.. सप्त. वि. प्रतिरू, निपा आदि शब्द का सप्त. वि. ए. व. [आदौ ] प्रारम्भ में पलापोनत्धिका गिरा, आदो भासनमालापो, विलायो तु परिवो, अभि. प. 123; आदि इच्चेतस्मा स्मिंवचनस्स अं-ओ च आदेसा होन्ति वा आदि, आदो, क. व्या. 69; लोहपासादमादो व कासी पासादमुत्तमं चू, थे 37.62; आदो धुल्लच्चयं तेसु, दुतिये च पराजयो, विन. वि. 164. आधातब्ब त्रि.. आ +धा का सं. कृ. [आधातव्य], ठीक से रखने योग्य, स्थापित करने योग्य - ता स्त्री०, भाव०, ठीक से रखा जाना तं द्वि. वि., ए. व. को पनाय समाधानट्ठो ? सम्मदेव आधातब्बता, उदा. अट्ठ 158; यथा गन्धकरण्डके कासिकवत्थं आधातब्बतं ठपेतब्बतं गच्छति, प. प. अट्ठ. 65. For Private and Personal Use Only - आधातुकाम त्रि. ब. स., स्थापित करने की इच्छा करने वाला, आग को परचाने की कामना करने वाला मो प्र० कि.. ए. व. तथागता पुच्छितब्बा अहहि भन्ते अग्गि आदातुकामो यूपं उस्सापेतुकामो, अ. नि. 2(2). 192. पाठा. आदातुकामो. आधान आ + √ा से व्यु., क्रि. ना. [आधान], अनेक स्थलों में आदान के साथ व्यामिश्रित, 1. नपुं स्थापना, रखा जाना, प्राप्ति, स्थापित करना, निष्पन्न करना, बीच में रख देना, धरोहर, ( आग को जलाना - नं. प्र. वि., ए. व. एकारम्मणे चित्तचेतसिकानं समं सम्मा च आधानं, ठपनन्ति बुत्तं होति. विसुद्धि. 1.83 भो गोतम्, अग्गिस्स आदानं यूपस्स उस्सापनं महाफलं होति महानिसंसन्ति अ. नि. 2(2). 191: अग्गिस्स आदानन्ति यज्ञयजनत्थाय नवस्स मङ्गलग्गिनो आदियनं अ. नि. अनु. 3.168 2. त्रि. वह " - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आधानगाही जिसे मजबूती के साथ रखा गया है या जमा किया गया है आधानं दुच्यति दव्हं युद्ध ठपितुं तथा कत्वा गण्हातीति आधानग्गाही, दी. नि. अट्ट. 3.21; आधानं गण्हन्तीति आधानग्गाही, आधानन्ति दहेयुच्चति दहग्गाहीति अत्थो म. नि. अट्ट. ( मू.प.) 1 (1) 198 स. उ. प. के रूप में उदका. कण्टका., पुप्फा, मुखा, युगा, सा. तथा के अन्त. द्रष्ट. (आगे). 88 7 आधानग्गाही त्रि.. [आधारग्राहिन्] शा. अ. अपने लिए या अपना आधार ग्रहण करने वाला, ला. अ. अपनी बात पर अड़ा रहने वाला, जिद्दी - ही पु०, प्र. वि., ए. व. भिक्खु सन्दिद्विपरामासी होति आधानग्गाही दुष्पटिनिस्सग्गी, चूळव. 197; आधानग्गाहीति दलहग्गाही, परि. अट्ठ. 154; आधानं गण्हन्तीति आधानग्गाही, आधानन्ति दळ्हं वुच्चति, दहग्गाहीति अत्थो, म. नि. अड्ड. (म.प.) 1(1).198 हिस्स पु.. ष. वि. ए. व. सन्दिद्विपरामासि - आधानग्गाहि दुष्पटिनिस्सग्गिस्स पुरिसपुग्गलस्स. म. नि. 1.56; विलो. अनाधानग्गाही अपनी बात पर न अड़ने वाला, जिद्दीपन से मुक्त हठधर्मिता से मुक्त 'असन्दिद्विपरामासी अनाधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी भविस्सामा "ति चित्तं उप्पादेतब्ब, म. नि. 1.55, 58. आघाय आधा से व्यु. सं. कृ. [आधाय], ठीक से रखकर अच्छी तरह स्थापित करके - भिक्खुना दन्तेभिदन्तमाधाय जिव्हाय तालु आहच्च चेतसा चित्तं अनिनिग्गहितब्बं म. नि. 1.171; दन्तेभिदन्तमाधायाति हेद्वादन्ते उपरिदन्तं ठपेत्वा, म. नि. अट्ठ (मू०प०) 1(2). 185. आधार पु.. [आधार] 1. वह जिस पर कोई भी वस्तु या व्यक्ति स्थित हो, ग्रहण करने वाला, खड़े होने की जगह, 2. कारण चर्चा में आया हुआ विषय मञ्चाधारो पटिपादो मञ्च त्वटनित्थिय, अभि. प. 309; आधारो चाधिकरणे पत्ताधारे लवालके, अभि. प. 1011; अधिद्वितियमाधारे ठानेधिद्वानमुच्यते, अभि. प. 1032 - रो प्र. वि. ए. व. नाय कायो इमरस अव्वन्तसन्तस्स पणीततमस्स अरियधम्मस्स आधारो भवितुं युत्तो"ति, उदा. अट्ठ. 235; रं हि. वि. ए. द. - महता मणिना एकं आधारं दन्तधातुया चू. वं. 82.11 - रे सप्त. वि., ए. व. उदमणिको पूरो उदकस्स समतित्तिको काकपेय्यो आधारे ठपितो, म. नि. 3.139; - तो प. वि., ए. व. नदीन आधारतो पटिसरणतो च सागरो मुखन्ति दुत्तो. म. नि. अड. (म.प.) 2285 3 व्या के विशेष सन्दर्भ में सप्त, वि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only के अर्थ अधिकरण का सूचक रो प्र. वि. ए. व. यो आधारो तं ओकाससञ्ञ होति, क. व्या. 280; - रे सप्त. वि. ए. व. आधारे चेतं भुम्मवचनं थेरगा. अड. 1.156; स. उ. प. के रूप में, जला. पु०, जल का आधार, जलाशय, पोखर जलासयो जलाधारो, गम्भीरो रहदो स च, अभि. प. 677; तदा.- पु०, उसका आधार या सहारा परिकप्पादिवसेन निष्फादेतबस्स विधिनो पि नाम कप्पो पन तदाधारत्ता तद्वितन्ति पवुच्चति, सद्द 3.783; तिदिवा. - पु. तीन प्रकार के स्वर्गों का आधार (सुमेरु) सिनेरु मेरु तिदिवाधारो नेरु सुमेरु घ अभि. प. 28 दण्डा. पु. छड़ी का सहारा, डण्डे का आधार रे सप्त. वि., ए. व. - भूमि आधारके दारुदण्डाधारे सुसज्जिते खु. सि. 68 निरा.त्रि. बिना आधार वाला, असहाय निराधारजनाधारो जरादुब्बलजन्तुसु . . 87.45 पत्ता. पु., पात्रों का आधार पत्ताधारपिधानेसु तालवण्टे च बीजने, खु. सि. 271; मञ्चा. - पु०, पलंग का पैर से प्र. वि., ए. व. मञ्चाधारो पटिपादो, मञ्चले त्वटनित्थियं अभि. प. 309 सम्बन्धद्वया.- पु०, सम्बन्ध अर्थ का आधार रे सप्त. वि. ए. व. सम्बन्धद्वयाधारे छुट्टी विभत्ति होति सद. 3.722; सासना. पु. तत्पु. स. बुद्ध के धर्म एवं सङ्घ का पुब्बे लङ्कादीपा ते नरवरपवरा सासनाधारभूता. चू० वं. 998182, सुता. त्रि.. जो कुछ धर्मग्रन्थों से सुना है, उसे आधार बनाने वाला रो पु. प्र. वि. ए. . - धम्मकामो सुताधारो भवेय्य परिपुछको जा. अड. 7.180 स. पू. प. के रूप में, - त्त नपुं, भाव. [आधारत्व], आधार-भाव, सहारा होना ताप वि., ए. व. सम्मासम्बुद्ध कप्पानं आधारता व निच्चसो, चू, वं. 64.31 परिकप्प त्रि.. आधार जैसा प्पो पु. प्र. वि., ए. क.. सुणन्तानं आधारसुति च आधारपरिकप्पो च होति येव, सद्द 1.125; - प्पत्त त्रि, आधार-भाव को प्राप्त- उभयथापि पगुणं आधारपत्तं करोन्तो धारेति नाम स. नि. अड. 2.66 सहारा माव पु.. [आधारभाव ] आधार होना संघस्स दानकिरियाय आधारभावतो "संधे सद. 1.125. आधारक त्रि., सहारा देने वाली कोई भी वस्तु, 1. पु०, पैर रखने वाला पीढ़ा को प्र. वि. ए. व. आधारको पत्तपिधानं, तालवण्टं, बीजनी चङ्कोटकं, पच्छि, यद्विसम्मुञ्जनी मुट्ठिसम्मुज्ञ्जनीति, चूळव, अड. 82. तथागतस्स सेतच्छतं निसीदनपल्लो आधारको पादपीठन्ति इमानि पन चत्तारि अनग्धानेव अहेसुं ध. प. अड्ड. 2.66 कं द्वि. वि. ए. - आधारक — - - - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधारण 89 आधावति व. - थेय्यचित्तेन कम्भिया आधारकं वा उपत्थम्भनलेड्डके वा अपनेति, पारा. अट्ठ. 1.256; कारयित्वा ततो तस्स आधारकं पुन भूपति, चू. वं. 82.11; - के सप्त. वि., ए. व. - हत्थे आधारके वापि, पत्तं ऊरूस वा ठितं. विन. वि.. 1277: 2. नपुं., उपरिवत् - आधारकं मया दिन्नं, सिखिनो लोकबन्धुनो, अप. 1.215; - कानि प्र. वि., ब. व. - "भिक्खूनं आसनानि च आधारकानि च पथविं भिन्दित्वा उद्वहन्तुति चिन्तेसि, जा. अट्ट. 1.43; 3. पु.. पुस्तक रखने वाली काष्ठपीठिका या लकड़ी की तख्ती, रिहल - के सप्त. वि., ए. व. - एक पोत्थकं विचित्रवणणे आधारके ठपेत्वा ससिक्खितेहि चतूहि पञ्चहि माणवेहि पच्छिते पुच्छिते पहे कथेसि, जा. अट्ठ. 3.206; सय पन अट्ठ वा दस वा पण्डितवादिनो गहेत्वा मनोरमे आधारके रमणीयं पोत्थक ठपेत्वा, जा. अट्ठ. 4.266-267; स. उ. प. के रूप में अना., किरिया., दण्डका., दारु., पत्ता., भूमि., मणि., यट्ठि. रुक्खा., वट्टा., वलया., सधम्मा., सासना के अन्त. द्रष्ट.; स. पू. प. के रूप में, - कट्ठ पु. आधार होने का अर्थ - निसज्जपचनादिकिरियानं आधारकद्वेन आधारो, सद्द. 3.709; - सोपगमन पु.. प. वि., ए. व. - आधारकस पगमनतो हि पट्ठाय छिद्द विद्धम्पि अविद्धम्पि वट्टतियेव, चूळव, अट्ठ. 52. आधारण नपुं.. आ +Vधर के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. [आधारण], शा. अ., मजबूती से पकड़ना, दृढ़ता के साथ ग्रहण करना, सहारा देना, ला. अ., बरकरार रखना, मन में धारण करना, उचित रख-रखाव - तदेव आधारणउपनिबन्धनसमत्थता गति नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).364; पच्छा आगतपरिसं अस्सवनसुस्सवन आधारण दळहीकरणादीनि वा सन्धाय तदत्थ दीपकमेव च, सु. नि. अट्ठ. 2.114; - लक्खण त्रि., सहारा देने या आधार बनने के लक्षण से युक्त – णं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आधारणलक्खणं ओकासकारक, सद्द. 3.711. आधारदायक पु., व्य. सं., एक भिक्षु का नाम - को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा आधारदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.215. आधारपटिग्गाहकभाव पु., तत्पु. स. [आधारप्रतिग्राहकभाव], आधार या आश्रय होना - वेन त. वि., ए. व. - तत्थापि तादिसेसु ठानेसु द्वे अधिप्पाया भवन्ति आधारपटिग्गाहकभावेन भूम्मसम्पदानानं, इच्छितब्बत्ता, सद्द. 1.218. आधारभाव पु.. [आधारभाव], आधारभूत अवस्था, सहारा देने वाली दशा या तथ्य - वो प्र. वि., ए. व. - उपधारणं भुसो धारणं पतिट्ठावसेन आधारभावो, सद्द. 2.564; कुसलानं धम्मानं पतिद्वानवसेन आधारभावोति अत्थो, विसुद्धि. 1.83; उदा. अट्ठ. 180; - वं द्वि. वि., ए. व. - उप्पज्जमानस्स पयोगस्स निस्सयं आधारभावं उपगता विय हुत्वा कतमे धम्मा पच्चया होन्तीति अत्थो, परि. अट्ठ. 215; - वेन तृ. वि., ए. व. - कप्पनामत्तसिद्धेन रूपेन अवयवानं आधारभावेन पञआपीयति, उदा. अट्ठ. 19; - पच्चुपट्ठान त्रि., सहारा देने वाला अथवा कारणभूत - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - चक्खुविाणरस आधारभावपच्चुपट्टानं, दट्ट कामतानिदानकम्मजभूतपदट्ठान, अभि. अव. 843; सोतविज्ञाणस्स आधारभावपच्चुपट्टानं सोतुकामतानिदान कम्मजभूतपदहानं, ध. स. अट्ठ. 346; आधारभावपच्चुपट्टानं निस्सयपच्चयभावतो, विसुद्धि, महाटी. 2.85. आधारभूत त्रि., [आधारभूत], वह, जो किसी का सहारा बना हो, खम्भा, सहारा - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - सुताधारोति सुतस्स आधारभूतो, जा. अट्ठ. 7.181; - तेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - तथा तेसु आधारभूतेसु पटिहतो सङ्घारलोको विहमति, सु. नि. अट्ठ. 1.181. आधाररूप त्रि., [आधाररूप], आधार के आकार या स्वरूप से युक्त (भिक्षा-पात्र को रखने के लिए बनाया गया आधार) - पं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अमरसुजातो अपुराणवण्णी, आधाररूपञ्च पनस्स कण्ठे, जा. अट्ठ. 5.192; आधाररूपञ्च पनस्स कण्ठेति कण्ठे च पनस्स अम्हाकं भिक्खाभाजनट्ठपनं पत्ताधारसदिसं पिळन्धनं अत्थीति मुत्ताहारं सन्धाय वदति, जा. अट्ठ. 5.195. आधारवलय नपुं.. [आधारवलय], सहारा देने वाला या रक्षा करने वाला कंगन - यं द्वि. वि., ए. व. - तस्स हेट्ठा असनि-उपद्दव विद्धंसनत्थं आधारवलयमिवकत्वा अनग्धं वजिरचुम्बटकं च पूजेसी ति अत्थो, म. वं. टी. 623; (ना.). आधारित त्रि., आ +vधर के प्रेर. का भू. क. कृ. [आधारित]. रखा हुआ, सहारा पाया हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. – “यथा, महाराज, इमं उदकं वातेन आधारित एवं तम्पि उदकं वातेन आधारित न्ति, मि. प. 71. आधावति आ +vधाव का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आधावति], किसी की ओर अभिमुख होकर तेजी से दौड़ता है, घबराकर इधर-उधर दौड़ता है – “धावति विधावती, आधावति For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधावन 90 परिधावतिः, धावको, सद्द. 2.440; मिगो मनुस्से दिस्वा कम्पमानो मरणभयतज्जितो अन्तोनिवेसनङ्गणे आधावति परिधावति, जा. अट्ठ. 1.160; - न्ति ब. क. - अस्सस्सपि पुरतो धावन्ति, रथस्सपि पुरतो धावन्तिपि आधावन्तिपि उस्सेळेन्तिपि, अप्फोटेन्तिपि, चूळव. 22; - न्तियो वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ब. व. - ... चक्कवालमुखवट्टियाव आधावन्तियो..., दी. नि. अट्ठ. 2.151; - वित्वा पू. का. कृ. - माता तस्स आधावित्वा परिधावित्वा विचरणकाले अझं पुत्तं लभि, थेरगा. अट्ठ. 1.212; आधावित्वा विधावित्वा कीळनकाले पन लोभनीयवयस्मि वा ठितकाले दारक ओलोकत्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.100; सो पनस्सा दारको आधावित्वा परिधावित्वा कीळनवये ठितो कालमकासि, अ. नि. अट्ट, 1.280. आधावन नपुं., आ +vधाव से व्यु., क्रि. ना. [बौ. सं. आधावन], तेज दौड़, बहुत तेजी के साथ दौड़ना-नेन तृ. वि., ए. व. - कुप्पति सीतेन उण्हेन जिघच्छाय विपासाय अतिभुत्तेन ठानेन पधानेन आधावनेन उपक्कमेन कम्मविपाकेन, मि. प. 138; - परिधावन नपुं., द्व. स., इधर-उधर, भाग-दौड़, भटकाव-भरी दौड़ - नं प्र. वि., ए. व. - अवीचिमहानिरये निबत्तसत्तरस हि अपरापर आधावनपरिधावनं होतियेव, जा. अट्ठ. 3.213; - विधावन नपुं.. द्व. स., इधर से उधर हो रही दौड़-नेन तृ. वि., ए. व. - अथस्सा आधावनविधावनेन कीळितुं समत्थकालतो पट्ठाय पदवारे पदवारे पदुमपुप्फ उहासि. अ. नि. अट्ठ. 1.259. आधि पु., [आधि], व्यथा, बीमारी, कष्ट - पेमं सिनेहो स्नेहोथ चित्तपीळा धिसञिता, अभि. प. 173. आधिकरण/अधिकरण नपुं., [अधिकरण], आधार, कारण, हेतु - णं प्र. वि., ए. व. - किमाधिकरणं यक्ख, चक्काभिनिहतो अहन्ति, जा. अट्ठ. 4.4. आधिक्य नपुं.. अधिक से व्यु. भाव. [आधिक्य]. प्रचुरता, अधिकता, श्रेष्ठता - समीपपूजासादिस्से दोसक्खानोपपत्तिसु, भुसत्थापगमाधिक्यपुब्बकम्मनिवत्तिसु. अभि. प. 1185. आधिगच्छति/अधिगच्छति अधि+ गम का वर्त, प्र. पु.. ए. व., छन्द के कारण अधिगच्छति के स्थान पर आधिगच्छति के रूप में प्रयुक्त [अधिगच्छति], प्राप्त करता है - यं गिहिस्सपि तदत्थजोतकं, पब्बज्जम्पि च तदाधिगच्छति, दी. नि. 3.113; तदाधिगच्छतीति एत्थ आ- आधिपच्च कारो निपातमत्तन्ति आह "तं अधिगच्छती ति, लीन. (दी. नि. टी.) 3.99. आधिपच्च नपुं., अधिपति से व्यु., भाव. [आधिपत्य], सर्वोच्च शासक होना, बहुत बड़ा एवं महत्वपूर्ण स्वामी होना, शक्तिसम्पन्नता - च्च प्र. वि., ए. व. -- आधिपच्चन्ति अधिपतिभावो, खत्तियमहासालादिभावेन सामिकभावोति अत्थो, खु. पा. अट्ठ. 183; - च्वं द्वि. वि., ए. व. --- सो तं कम्म खेपेत्वा तं इद्धि तं यसं तं आधिपच्चं आगामी होति आगन्ता इत्थत्तं, अ. नि. 2(2).205; - च्वेन तृ. वि., ए. व. - सब्बलोकाधिपच्चेनाति न एकस्मि एत्तके लोके नागसुपण्णवेमानिकपेतेहि सद्धिं, सब्बस्मिं लोके आधिपच्चेन, ध. प. अट्ठ. 2.109; - म्हि सप्त. वि., ए. व. – “दक्खे उद्वान सम्पन्ने आधिपच्चम्हि ठापये ति, जा. अट्ठ. 7.192; स. उ. प. के रूप में इस्सरिया.- नपुं., उपरिवत् - च्वं द्वि. वि., ए. व. क्रि. वि., पूर्ण आधिपत्य के साथ - तेन खो पन समयेन राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो असीतिया गामसहस्सेस इस्सरियाधिपच्चं रज्जं कारेति, महाव. 251; देवानं तावतिंसानं इस्सरियाधिपच्चं रज्जं कारेन्तो उठानवीरियरस वण्णवादी भविस्सति, स. नि. 1(1).251; पच्चेका.- नपुं., तत्पु. स., हरेक व्यक्ति का स्वामी होना - च्वं द्वि. वि., ए. व. - ये वा पन कुलेसु पच्चेकाधिपच्चं कारेन्ति, वुद्धियेव पाटिकवा, नो परिहानि, अ. नि. 2(1),71; मूलरज्जा.- नपुं., तत्पु. स., मूल राज्य पर स्वामित्व - च्चं प्र. वि., ए. व. -- मूलरज्जाधिपच्चं तं अम्हं निन्दाकर न हि, चू. वं. 63.21; लंका. - नपुं.. तत्पु. स., लंका का आधिपत्य या स्वामित्व - च्चं प्र. वि., ए. व. - लंकाधिपच्चं इदं अप्पतरं मं आसि बुद्धो गुणेहि विविधेहि पमाणसुओ, दा. वं. 6.17; सब्बलोका. - नपुं, तत्पु. स., समस्त लोकों का स्वामित्व या स्वामी होना – च्वेन तृ. वि., ए. व. - सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्तिफलं वरं ध. प. 178; स. पू. प. के रूप में - छान नपुं.. तत्पु. स., आधिपत्य का स्थान अथवा अवस्था, स्वामित्व, प्रभुता - ने सप्त. वि., ए. व. – “दक्खे उट्ठान सम्पन्ने, आधिपच्चम्हि ठापये ति ... तस्मा तादिसा आधिपच्चट्ठाने न ठपेतब्बा, जा. अट्ठ. 7.192-193; – परिवार पु., द्व. स., आधिपत्य या शक्ति तथा प्रशंसा - रो प्र. वि., ए. व. - आधिपच्चपरिवारो, सब्बमेतेन लब्भति, खु. पा. 8.11; - भूत त्रि., वह, जो अधिपति या स्वामी बन गया है या बना दिया गया है, प्रमुखता को प्राप्त, प्रधानीभूत – तं प्र. वि., For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधिपतेय्य 91 ए. व. - यञ्च सक्कादीनं तस्मि तस्मिं देवनिकाये आधिपच्चभूतं इस्सरियं, उदा. अट्ट. 127; - सङ्खात त्रि., आधिपत्य या स्वामित्व के रूप में विख्यात - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - अपि च आधिपच्चसङ्घातेन इस्सरियडेनपि एतानि इन्द्रियानि, पटि. म. अट्ठ. 1.76; - समाव त्रि., स्वामी या अधिपति के स्वभाव वाला - तो प. वि., ए. व. - चत्तारोधिपती वुत्ता आधिप्पच्चसभावतो, ना. रू. प. 166. आधिपतेय्य नपुं.. [बौ. सं. आधिपतेय, सं. आधिपत्य], 1. प्रधानता, प्रमुखता, महत्व, प्रभाव - य्यं प्र. वि., ए. व. - अनिच्चतो मनसिकरोतो अधिमोक्खबहुलस्स कतमिन्द्रियं आधिपतेय्यं होति, पटि. म. 234; - य्यं द्वि. वि., ए. व. - ... इमस्मा लोका परलोकं गतं दिब्बं आयुवण्णसुखयस - आधिपतेय्यं ध. प. अट्ठ. 2.171; - य्येन तृ. वि., ए. व. - ... नाधिपतेय्येन दिब्बे अट्टीयथ हरायथ जिगुच्छथ, अ. नि. 1(1).137; - य्येहि तृ. वि., ब. व. - आयुवण्णयससुखआधिपतेय्येहि ... उळारेहि कामगुणेहि समप्पितस्स समगीभूतस्स, चरिया. अट्ठ. 154; 2. त्रि., शासक, प्रमुख, प्रधान - य्यो प्र. वि., ए. व. - दुक्खतो मनसिकरोतो पस्सद्धिबहुलस्स कतमो विमोक्खो आधिपतेय्यो होति, पटि. म. 243; - य्या पु., प्र. वि., ब. व. - कि अधिपतेय्या सब्बे धम्मा, अ. नि. 3(1).1583; -- य्यानं ष. वि., ब. व. - आधिपतेय्यानन्ति अधिपतिद्वानं जेट्टकट्ठानं करोन्तान, अ. नि. अट्ठ. 2.254; स. उ. प. के रूप में कम्मा., किंमा., छन्दा., तण्हा., दस्सना., धम्मा. पञ्ञा., विमंसा., विरिया., सता., समाधा. के अन्त. द्रष्ट.. आधिपतेय्यट्ठ पु., तत्पु. स., प्रधानता अथवा प्रमुखता को प्रकाशित करने वाला अर्थ, मार्ग के पांच अर्थों में से एक - @ो प्र. वि., ए. व. - मग्गस्स निय्यानट्ठो हेतुट्ठो दस्सनट्ठो आधिपतेय्यट्ठो भावनट्ठो, पटि. म. 108; 284; अधिपतिभावेन आधिपतेय्यट्ठोति, पटि. म. अट्ठ. 1.82; - 8 द्वि. वि., ए. व. - मग्गरस निय्यानटुं हेतुट्ठ दस्सनट्ठ आधिपतेय्यद्वं भावेन्तो, पटि. म. 101; - द्वेन त. वि., ए. व. - सति आधिपतेय्यद्वेन अभि य्या पटि. म. 20. आधिपतेय्यत्त नपुं., आधिपतेय्य का भाव., अधिपति या अधिपतिप्रत्यय की अवस्था - त्ता प. वि.,ए. व. - अनत्तानुपरसनाय विपस्सनाक्खणेपि पञ्जिन्द्रियस्सेव आधिपतेय्यत्ता पटि. म. अट्ठ. 2.148. आधूत आधिपतेय्यपच्चय पु., [अधिपतिप्रत्यय], अधिपति प्रत्यय अथवा अधिपति प्रत्यय से उत्पन्न – ता, स्त्री. भाव. अधिपति-प्रत्यय होने की अवस्था, तृ. वि., ए. व. - तत्थ चक्खु आधिपतेय्यपच्चयताय पच्चयो, नेत्ति. 67; चित्तस्स इन्द्रियानि पच्चयो आधिपतेय्यपच्चयताय मनसिकारो, पेटको. 281. आधिपतेय्यसंवत्तनिक त्रि., प्रधानता या प्रमुखता की स्थिति को प्राप्त कराने वाला या उस स्थिति तक ले आने वाला - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आधिपतेय्यसंवत्तनिक आयस्मता चुन्देन कुम्मारपुत्तेन कम्म उपचितान्ति, दी. नि. 2.103; आधिपतेय्यसंवत्तनिकन्ति जेट्टकभावसंवत्तनिक दी. नि. अट्ठ. 2.146. आधिपतेय्यसङ्खात त्रि., आधिपतेय्य नाम वाला - तेन पु. तृ. वि., ए. व. - चतुत्थवग्गस्स पठमे सुखञ्च तं सहजातानं आधिपतेय्यसङ्घातेन इन्दढेन इन्दियञ्चाति सुखिन्द्रियं स. नि. अट्ठ. 3.269.. आधियति आ +vधा का कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व., शा. अ., ठीक से रखा जाता है, सुव्यवस्थित रूप में रखा जाता है, ला. अ., सुदृढ़ बनाया जाता है, एकाग्र किया जाता है - चित्तं समाधियतीति चित्तं सम्मा आधियति अप्पितं विय अचलं तिकृति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).183; चित्तं समाधियतीति आरम्मणे सम्मा आधियति सद्ध ठपितं ठपियति, स. नि. अट्ठ. 3.235; समाधियतीति सम्मा आधियति, निच्चलं हुत्वा आरम्मणे ठपीयति, विभ. अट्ठ. 296. आधीन त्रि., अधीन का अप. [अधीन], वशवर्ती, नियंत्रण में रखने वाला - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यं खलु धम्ममाधीनं, वसो वत्तति किञ्चनं, जा. अट्ठ. 5.346. आधुनिक त्रि., अधुना से व्यु. [आधुनिक], वर्तमान समय में विद्यमान, इस समय में मौजूद - कानं ष. वि., ब. व. - विरचितो आधुनिकानं अनुग्गहाय, रूपा. 147(रो.). आधुयमान त्रि., आ +vधु अथवा धू के कर्म. वा. का वर्त. कृ., हिलाया-डुलाया जा रहा, कम्पित किया जा रहा, मन्द गति से प्रवाहित किया जा रहा - आधुयमानमलयाचलकाननन्तो, दा. वं. 5.33(रो.). आधूत आ +vधू का भू. क. कृ. [आधूत], प्रकम्पित, हिलाया-डुलाया गया, विक्षोभित किया गया, कांप रहा - तो पु., प्र. वि., ए. व. - धूतो आधूतचलिता, निसितं तु For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधेय्य 92 आनञ्ज च तेजितं, अभि. प. 744; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - वातेरितं सालवनं, आधुतं दिजसेवितं, वि. व. 692; आधुतन्ति मन्देन मालुतेन सणिकसणिकं विधूपयमानं, वि. व, अट्ठ. 147. आधेय्य' त्रि., आ +vधा का सं. कृ. [आधेय], क. वह, जिसे किसी आधार पर रखा जाय, उचित रूप में रखे जाने योग्य, ठीक से स्थापित किये जाने योग्य - य्यं नपुं, प्र. वि., ए. व. - तस्स तं वचनं आधेय्यं गच्छति, गन्धकरण्डकेव नं कासिकवत्थं, पु. प. 142; आधेय्यं गच्छतीति ... एवं उत्तमङ्गे सिरस्मि हदये च आधातब्बतं ठपेतब्बतम्पि गच्छति, प. प. अट्ठ. 65; ख. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में - वह, जिसे आधार पर स्थापित किया जाय - य्येन तृ. वि., ए. व. - तत्थ... आधेय्येन पत्थटो होति, सद्द. 3.709-10; - भूत त्रि., वह, जो किसी आधार पर रखा गया हो - ते पु.. सप्त. वि., ए. व. - तेन आधारभूतेन वत्थुना सप्पिं आनेति इति आधेय्यभूते सप्पिम्हि आनीते, सद्द. 3.925; - मुख त्रि., कान का कच्चा, भोलाभाला, तुरन्त विश्वास कर लेने वाला - खो पु., प्र. वि., ए. व. - दत्वा अवजानाति, संवासेन अवजानाति आधेय्यमुखो होति, लोलो होति, मन्दो मोमूहो होति, अ. नि. 2(1).155; आधेय्यमुखोति पाळिया पन ठपितमुखोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.51-52; आधेय्यमुखोति आदितो धेय्यमुखो, पठमवचनस्मिं येव ठपितमुखोति अत्थो, प. प. अट्ठ. 93; अ. नि. टी. 3.45. आधेय्य त्रि., संभवतः उप. अधि से व्यु., निजी, अपना, अपने अधीन रहने वाला, अपने उत्तरदायित्व के रूप में विद्यमान, पूर्णतया अपनी निजी धरोहर, ठीक से संजो कर रखने योग्य - य्यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यो तत्थ भिक्खु ब्यत्तो पटिबलो तस्साधेय्यं पातिमोक्खन्ति, महाव. 1453; अस्थि चेतसिकं दुक्खं तवाधेय्यं अरिन्दम, अप. 1. 334; - य्या पु.. प्र. वि., ब. व. - चत्तारि सामञफलानि चतस्सो पटिसम्भिदा तिस्सो विज्जा छळभिञा केवलो च समणधम्मो सब्बे तस्साधेय्या होन्ति, मि. प. 323. आन नपुं.. [आन], भीतर की ओर खींची जा रही वायु, प्राणवायु, आश्वास - नं प्र. वि., ए. व. - अथो अपानं पस्सासो, अस्सासो आनमुच्चते, अभि. प. 39; आनन्ति अस्सासो, नो परसासो, पटि. म. 165; तत्थ आनन्ति अस्सासो, थेरगा. अट्ठ. 2.158; आनन्ति अब्भन्तरं पविसन वातो, पटि. म. अट्ठ. 2.64; द्रष्ट, अपान, आपान, उदान, एवं पान. आनञ्च नपुं., अनन्त से व्यु., भाव. [आनन्त्य], काल, स्थान एवं संख्या की अनन्तता या असीमता, प्रचुरता, अधिकता - अनन्तमेव आनञ्च, विसुद्धि. 1.322; चूळनि. अट्ठ. 56; पटि. म. अट्ठ. 1.78; स. उ. प. के रूप में, आकासा./विज्ञाणा.- नपुं., आकास की अनन्तता, विज्ञान की अनन्तता - ञ्चं प्र. वि., ए. व. - आकासानन्तमेव आकासानञ्च, विसद्धि. 1.321; विआणं आनञ्च विआणानञ्चन्ति अवत्वा विज्ञाणञ्चन्ति वृत्तं. विसुद्धि. 1.322. आनञ्ज/आनेज्ज/आनेञ्ज 1. नपु., [बौ. सं. आनञ्ज/आनेञ्ज], शा. अ., अविचल होना, अविक्षिप्तता, अचंचलता, अप्रतिहतता, ला. अ., ध्यान-भावना द्वारा लाई गई चार अरूप-ध्यानों की चार प्रकार की कुशल चेतना - जंप्र. वि., ए. व. - ... न इञ्जति न फन्दति न चलतीति आनेज, अभि. अव. पु. टी. 79; अनोनतं चित्तं कोसज्जे न इञ्जतीति - आनेज, पटि. म. 377; उदा. अट्ठ. 150; ... ओभासगतं चित्तं अविज्जन्धकारे न इञ्जतीति आनेज, पटि. म. 377; - जं द्वि. वि., ए. व. - आनेज समापज्जतीति आकासानञ्चायतानानेज समापज्जति, म. नि. अट्ट (उप.प.) 3.41; - स्स ष. वि., ए. व. - आनेञ्जसप्पायाति आनेजस्स चतुत्थज्झानस्स सप्पाया, म. नि. अट्ट (उप.प.) 3.41; स. उ. प. के रूप में, कम्मा.- नपुं, कुशलकर्म-विषयक स्थिरता अथवा अविचल-भाव - जेन त. वि., ए. व. - कम्मानेजेन कम्मविआणं, विपाकानेजेन विपाकविज्ञाणं उपगतं होति, स. नि. अट्ठ. 2.69; - ततिया. नपुं., तृतीय अरूपध्यान के चित्त की स्थिर अवस्था – जे सप्त. वि., ए. व. - इमस्मिं ततिय आनेजे विपस्सनावसेन ओसक्कना कथिता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.42; दुतिया.- नपुं.. अरूपध्यान के दूसरे चित्त की अविचल अवस्था, द्वितीय ध्यान में अविचल स्थति - जे सप्त. वि., ए. व, - इति इमस्मि दुतिय आनेजे विपस्सनावसेन ओसक्कना कथिता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.41; पठमक.- नपुं॰, प्रथम अरूप ध्यान के चित्त की अविचल अवस्था - जे सप्त. वि., ए. व. - इति इमस्मि पठमकआनेजे समाधिवसेन ओसक्कना कथिता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.41; विपाका.- नपुं.. अरूप ध्यान के विपाक चित्तों की अविचल अवस्था - For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनञ्ज 93 आनञ्ज ज्जेन तृ. वि., ए. व. --- विपाकानेजेन विपाकविज्ञआणं उपगत होति. स. नि. अट्ठ. 2.69; 2. त्रि., अविचल, स्थिर, चंचलता से रहित, गतिरहित - जो पु., प्र. वि., ए. व. - चत्तारो सतिपट्टाना चत्तारो विहारा दिब्बो ब्रह्मा अरियो आनेजो चत्तारो, पेटको. 326; - जं पु., द्वि. वि., ए. व. - इधाहं, आवुसो, सप्पिनिकाय नदिया तीरे आनेज समाधि समापन्नो, पारा. 145; आनेज समाधिन्ति अनेज अचलं कायवाचाविष्फन्दविरहितं चतुत्थज्झानसमाधि, पारा. अट्ठ. 2.92; - जेन पु., तृ. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन भगवा आनेञ्जन समाधिना निसिन्नो होति. उदा. 97; आनेजसमाधिनाति चतुत्थझानपादकेन अग्गफलसमाधिना, उदा. अट्ठ. 149; स. पू. प. के रूप में, - कथा- स्त्री., आनेञ्ज या अविचल स्थिति के विषय में कथन - आनेञ्जकथा कथा. 495-496; इदानि आनेञ्जकथा नाम होति, प. प. अट्ठ. 279; - कारण- नपुं, हाथी को अविचल या अचल बना देना, स्थिरीकरण - णं द्वि. वि., ए. व. - सो आनेज कारणं कारियमानो नेव पुरिमे पादे चोपेति न पच्छिमे पादे चोपेति, म. नि. 3.174; तोमरहत्था मनुस्सा परिवारेत्वा आनेञ्जकारणं कारेन्ति, जा. अट्ठ. 1.397; - कारित त्रि., स्थिर या अचल बने रहने के लिए सुशिक्षित (हाथी) -- तो पु., प्र. वि., ए. व. - सुभानुरूपो आयासि, आनेञ्जकारितो विय, अप. 1.23; आनेञ्जकारितो वियाति तोमरादीहि कारितो आनेञ्जो हत्थी विय, अप. अट्ठ. 1.238; - पटिसंयुत्त त्रि., स्थिरता या अचल स्थिति के साथ जुड़ा हुआ - त्ताय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - आनेञ्जपटिसंयुत्ताय च पन कथाय कच्छमानाय न सुस्सूसति, म. नि. 3.39; आनेञ्जपटिसंयुत्तायाति आनेजसमापत्तिपटिसंयुत्ताय, म. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.34; - प्पत्त त्रि०, [बौ. सं. आनेञ्ज्यप्राप्त], अविचल अथवा अबाधित अवस्था को प्राप्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु आनेञ्जप्पत्तो होति? अ. नि. 1(2).212; - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अमिस्सीकतमेवस्स चित्तं होति, ठितं, आनेञ्जप्पत्तं, वयञ्चस्सानुपस्सति, महाव. 256; आनेञ्जप्पत्तन्ति अचलनप्पत्तं, महाव. अट्ठ. 345; - प्पत्ति स्त्री., अविचल अवस्था की प्राप्ति, नित्यभाव में स्थिति - ... निच्चलभावेन अवठ्ठानं आनेञ्जप्पत्ति, विसुद्धि महाटी. 2.7; - मय त्रि., स्थिरता अथवा अचलभाव से भरा। हुआ - या पु., प्र. वि., ब. व. - तिविधा सङ्घारा पुञमया अपुञ्जमया आनेजमया, तप्पच्चया विज्ञआणं, पेटको. 306%3; -विहारसमापत्ति स्त्री., तत्पु. स., अचल अथवा अकम्पित अवस्था की प्राप्ति - भगवता सद्धि आनेञ्जविहारसमापत्तिधम्मपरिभोगेन एकपरिभोगा अहेसुं सु. नि. अट्ठ. 2.43; ध. प. अट्ठ. 2.305; - वोहार पु., आनेज शब्द का व्यवहार में सामान्य प्रयोग - रो प्र. वि., ए. व. - आरम्मणविभागेन चतुबिधं अरूपावचरज्झानन्ति एतेसं पञ्चन्नं झानानं आनेजवोहारो, उदा. अट्ठ. 150; - संयोजन नपुं, तत्पु. स., नीचे के छ ध्यानों की छ प्रकार की समापत्तियों के साथ लगाव या बन्धन - नेन तृ. वि., ए. व. - आनेजसंयोजनेन हि खो विसंयुत्तो आकिञ्चआयतनाधिमुत्तो पुरिसपुग्गलो ति, म. नि. 3.40%; आनेञ्जसंयोजनेन हि खो विसंयुत्तोति आनेञ्जसमापत्ति संयोजनेन विसंसट्ठो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.34; - सङ्खार पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आनेञ्ज्याभिसंस्कार], ध्यानभावना द्वारा उदित चार अरूप ध्यानों की चार प्रकार की कुशल चेतना - रो प्र. वि., ए. व. - तथेवानेजसतारो, अरूपावचरभूमियं, अभि. अव. 575; तथेवानेञ्जसवारो, एकारूपभवे पुन, तदे.; तथेवानेञ्जसवारो न इञ्जति न फन्दति न चलतीति आनेज, आनेञ्जञ्च तं सवारो चाति आनेजसद्धारो, अभि. अव. पु. टी. 1.79; भावनावसेनेवपवत्ता चतस्सो अरूपावचरकुसलचेतना आनेजाभिसङ्खारो नाम, अभि. अव. अभि. टी. 2.64; - सञा स्त्री., अविचलता अथवा ध्यान भावना को प्राप्त चित्त की स्थिरता या चेतना -- या च सम्परायिका रूपसआ, या च आनेजसासब्बासा , म. नि. 3.47; - सञी त्रि., अचलभाव अथवा ध्यान में प्राप्त चित्त के अविचल भाव की चेतना से युक्त - चिनो पु., च. वि., ए. व. - आनेञ्जसचिनो असआयतनं समापन्नस्स आकिञ्चआयतनसहगता मनसिकारा समुदाचरन्ति, पेटको. 267; - सप्पाय त्रि०, चित्त की स्थिरता पाने में लाभदायक या हितकर - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - "अयं भिक्खवे, पठमा आनेञ्जसप्पाया पटिपदा अक्खायति, म. नि. 3.46; इति, खो, आनन्द, देसिता मया आनेजसप्पाया पटिपदा, देसिता आकिञ्चायतनसप्पाया पटिपदा, म. नि. 3.49; - समाधि पु., अविचल-भाव लाने वाला ध्यान, चित्त की स्थिरता से युक्त समाधि, चौथे अरूप-ध्यान की समाधि - ना तृ. वि., ए. व. - इमानि च पञ्च भिक्खुसतानि सब्बेव आनेञ्जसमाधिना निसीदिम्हा ति, उदा. 98; आनेजसमाधिनाति चतुत्थज्झानपादकेन For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनण्य/आणण्य 94 आनन अग्गफलसमाधिना, उदा. अट्ठ. 149; आनेज समाधिन्ति अनेजं अचलं कायवाचाविष्फन्दविरहितं चतुत्थज्झानसमाधि, पारा. अट्ठ. 2.92: - समापत्ति स्त्री., अविचल-भाव या चित्त स्थिरता की प्राप्ति, चार अरूप ध्यानों के अविचल कुशल चित्तों की प्राप्ति - ना तृ. वि., ए. व. - आयस्मन्तं यसोज सत्था पक्कोसित्वा आनेजसमापत्तिना पटिसन्थारमकासि. थेरगा. अट्ठ. 1.389; - समापत्तिसंयोजन नपुं., अरूप ध्यानों में चार कुशल चेतनाओं की प्राप्ति - नेन त. वि., ए. व. - विसंयुत्तोति आनेजसमापत्तिसंयोजनेन विसंसट्टो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.34; - जाधिमुत्त त्रि., चित्त की। स्थिरता की प्राप्ति-हेतु पूरी तरह से लगा हुआ - त्तो पु. प्र. वि., ए. व. - विज्जति यं इधेकच्चो पुरिसपुग्गलो आनेजाधिमुत्तो अस्स, म. नि. 3.39-40; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - आनेजाधिमुत्तस्साति किलेससिञ्चनविरहितासु हेट्ठिमासु छसु समापत्तीसु अधिमुत्तस्स तन्निन्नस्स तग्गरुनो तप्पडमारस्स, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.35; - जाभिसङ्खार पु., स्थिर अवस्था का संग्रह, अरूप ध्यान-भावना द्वारा चार प्रकार की कुशल चेतनाओं का संग्रह - रो प्र. वि., ए. व. - तयो सङ्घारा - पुञाभिसतारो, अपुञाभिसङ्घारो, आनेजाभिसतारो, दी. नि. 3.174; आनेज निच्चलं सन्तं विपाकभूतं अरूपमेव अभिसङ्घारोतीति आनेजाभिसवारो, दी. नि. अट्ट. 3.164; - रेन तृ. वि., ए. व. - अपुञाभिसङ्घारो पुआभिसङ्घारेन च आनेजाभिलारेन च सुओ, पटि. म. 353; - जूपग त्रि., आनेञ्ज की अवस्था के समीप पहुंचा हुआ- गं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ठानमेतं विज्जति यं तंसंवत्तनिक विज्ञआणं अस्स आने उजू पग, म. नि. 3.46; आने जू पगन्ति कुसलानेञ्जसभावूपगतं अस्स, तादिसमेव भवेय्याति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.41. आनण्य/आणण्य नपुं॰, भाव. [आनृण्य], ऋण से मुक्ति की अवस्था, कर्ज से छुटकारे की हालत - ण्यं प्र. वि., ए. व. - क्वचि न भवति आनण्यं सद्द. 3.625; सेय्यथापि, महाराज, यथा आणण्यं यथा आरोग्यं यथा बन्धनामोक्खं, दी. नि. 1.65; “सेय्यथापि, महाराज आणण्यन्ति एत्थ भगवा पहीनकामच्छन्दनीवरणं आणण्यसदिसं. सेसानि ओरोग्यादिसदिसानि कत्वा दस्सेति, दी. नि. अट्ट, 1.174; - स्स ष. वि., ए. व. - तस्स चतुरोघतिण्णस्स पिहयन्ति इणायिका विय आणण्यस्साति अरहत्तनिकूटेन देसनं निद्वापेसि, सु. नि. अट्ट. 2.229; - निदान त्रि., ऋणमुक्ति के कारण उत्पन्न अथवा उदित - नं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ततो निदानन्ति आणन्यनिदानं. दी. नि. अट्ठ. 1.172; - परिभोग पु., तत्पु. स. [आनृण्यपरिभोग], ऋणमुक्ति की अवस्था का उपभोग - गो प्र. वि., ए. व. - सो इणपरिभोगस्स पच्चनीकत्ता आणण्यपरिभोगो वा होति, दायज्जपरिभोगेयेव वा सङ्गहं गच्छति, विसुद्धि. 1.41; एवं इणपरिभोगयुत्तो लोकतो निस्सरितुं न लभतीति तप्पटिपक्खत्ता सीलवतो पच्चवेक्खितपरिभोगो आणण्यपरिभोगोति आह, विसुद्धि. महाटी. 1.69. आनत त्रि., आ +/नम का भू. क. कृ. [आनत], शा. अ., थोड़ा सा झुका हुआ, ला. अ., विनम्र, विनत - अथद्धतानतीसाकोति सखिलसम्मोदभावसङ्घाताय अथद्धताय अनतईसो थोकनतईसोति अत्थो, जा. अट्ठ. 7.143. आनन नपुं.. [आनन], मुख, चेहरा - वदनं तु मुखं तुण्ड वत्तं लपनमाननं अभि. प. 260; वत्तं पज्जाननाचारे, धअङ्गे सुखुमे कणो, अभि. प. 1047; वदनं लपनं तुण्ड मुखमरसञ्च आननं, सद्द. 2.386; - ने सप्त. वि., ए. व. - आनने नं गहेत्वान, मण्डले परिवत्तये, जा. अट्ठ. 2.81; तं अस्सं आनने गहेत्वा अस्समण्डले परिवत्तेय्य, जा. अट्ठ. 2.81; स. उ. प. के रूप में, पमुदिता.- त्रि., ब. स. [प्रमुदितानन], प्रसन्न मुख वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - मेत्तचित्तो कारुणिको, सदापमुदिताननो, अप. 2.158; पटिसंफुलिता. - त्रि., प्रीति से प्रफुल्लित अथवा खिले हुए मुख वाला- नं पु., द्वि. वि., ए. व. - गुणोघायतनीभूतं. पीति सम्फुल्लिताननं, अप. 2.125; रविदित्तिहरा. - त्रि., ब. स. [रविदीप्तिहरानन], सूर्य की चमक को भी फीका कर देने वाले तेजस्वी मुख वाला - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - सिरीनिलयसङ्कासं, रविदित्तिहराननं, अप. 2.126; विकता. - त्रि., ब. स. [विकृतानन], विकृत मुख वाला - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ततो जराभिभूता सा, विवण्णा विकतानना, अप. 2.217; विमला. - त्रि., ब. स. [विमलानन], निर्मल मुख वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - वीरो कमलपत्तक्खो, ससङ्कविमलाननो, अप. 2.111; सोण्णा . - त्रि., ब. स. [सुवर्णानन], सोने के समान चमकदार मुख वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - सोण्णाननो जिनवरो, समणीव सिलच्चयो, अप. 2.160. For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आननीय 95 आनन्तरिक आननीय त्रि०, आ + Vनी का अनियमित सं. कृ., बांधे जाने योग्य, पकड़कर लाए जाने योग्य - यो पु., प्र. वि., ए. व. - न रागपासेन हि आननीयो, समन्त. 428(रो.). आनन्तरिक/आनन्तरिय/अनन्तरित त्रि, अनन्तर से व्यु., 1. सद्यः-पूर्ववर्ती अथवा सद्यः-परवर्ती, तुरन्त पहले आया हुआ, तुरन्त बाद में आया हुआ, अव्यवहित, आनुक्रमिक -स्स पु., ष. वि., ए. व. - पकतत्तस्स समानसंवासकस्स। समानसीमाय ठितस्स अन्तमसो आनन्तरिकस्सापि भिक्खुनो विज्ञापेन्तस्स सङ्घमज्झे पटिक्कोसना रुहति, महाव. 419; आनन्तरिकस्साति अत्तनो अनन्तरं निसिन्नस्स, महाव. अट्ट, 403; - तानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - तत्थ अब्बोकिण्णानीति खत्तियादिजातिअन्तरेहि अवोमिस्सानि अनन्तरितानि, उदा. अट्ठ. 156 2. तुरन्त, सद्यः या तत्काल (समाधि एवं मग्ग के विशेषण के रूप में प्रयुक्त) फलदायक - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - यं बुद्धसेट्ठो परिवण्णयी सुचिं. समाधिमानन्तरिकञमाहु, खु. पा. 6.5; यञ्च अत्तनो पवत्ति समनन्तरं नियमेनेव फलपदानतो "आनन्तरिकसमाधीति आहु, न हि मग्गसमाधिम्हि उप्पन्ने तस्स फलुप्पत्ति निसेधको कोचि अन्तरायो अत्थि, खु. पा. अट्ठ. 1443; समाधिमानन्तरिकञमाहूति यं अत्तनो पवत्तिसमनन्तरं नियमेनेव फलप्पदानतो आनन्तरिकसमाधीति आहूति अत्थो, विसुद्धि. महाटी. 2.457; 3.क. पु.. ('पुग्गल' शब्द के साथ। अथवा उसके विना भी प्रयुक्त) पांच प्रकार के जधन्य पापकर्मों का तुरन्त फल प्राप्त करने वाला व्यक्ति - को प्र. वि., ए. व. - असञ्चिच्च मातरं जीविता वोरोपेत्वा आनन्तरिको होति, कथा. 477; - स्स च./ष. वि., ए. व. - आनन्तरियस्स पुग्गलस्स अत्थि अन्तरा भवोति?, कथा. 302; - का प्र. वि., ब, व. - पञ्च पुग्गला आनन्तरिका, पु. प. 119; 3.ख. नपुं., ('कम्म' शब्द के साथ अथवा इसके विना प्रयुक्त) तुरन्त फल देने वाले पांच प्रकार के। गम्भीर पापकर्म - यं प्र. वि., ए. व. - अथ नं यस्मा आनन्तरियकम्म नाम कम्मपथप्पत्तं. प. प. अट्ठ. 270; ... जीविता वोरोपेन्तस्स कम्म आनन्तरियं होति, अ. नि. अट्ठ. 1.340; - यं द्वि. वि., ए. व. - ... मनुस्सभूत मातरं वा पितरं वा मारेन्तो आनन्तरिय फुसति, तदे.; येन तृ. वि., ए. व. अयं आनन्तरियेन मातुघातककम्मेन मातुघातको, महाव. अट्ठ. 289; - यानं ष. वि., ब. व. - पञ्चन्नम्पि आनन्तरियानं कत्ता एकेन कम्मेन निरये निब्बत्तति, अ. नि. अट्ठ. 2.105; 4. नपुं., भाव. [आनन्तर्य], शा. अ., निरन्तरता, लगातारपन, सातत्य, अत्यधिक सामीप्य, अव्यवहित पूर्ववर्तिता, ला. अ., तुरन्त विपाक देने वाली मार्गसमाधि - अथ इति कत्थचि पञ्हानन्तरियाविच्छिन्नाधिकारन्तरेस पि, सद्द. 3.891; - यं द्वि. वि., ए. व. - सो इमेसं पञ्चन्नं इन्द्रियानं मुदुत्ता दन्धं आनन्तरियं पापुणाति आसवानं खयाय, अ. नि. 1(2).172; आनन्तरियन्ति अनन्तरविपाकदायकं मग्गसमाधि, अ. नि. अट्ठ.2.340; स. पू. प. के रूप में, - कम्म - नपुं, इसी जन्म में सद्यः फल देने वाले पांच प्रकार के जघन्य पाप कर्म, पांच प्रकार के गम्भीर पापकर्म - म्म प्र. वि., ए. व. - देवदत्तेन पठम आनन्तरिय कम्म उपचितं. चूळव. 332; - म्मेन तृ. वि., ए. व. - कम्मावरणे नाति पञ्चविधेन आनन्तरियकम्मेन, पटि. म. अट्ठ. 2.10; - स्स ष. वि., ए. व. - नियतमिच्छादिट्ठिया सद्धि आनन्तरियकम्मस्सेतं नाम, दी. नि. अट्ठ. 3.158; - दीपन नपुं, निरन्तरता का प्रकाशन - कम्मरसकतादीपनत्थं, पच्चत्तपुरिसकारदीपनत्थं, आनन्तरियदीपनत्थं, ब्रह्मविहार दीपनत्थ ... लोकसम्मुतिया अप्पहानत्थञ्चाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).148; तस्मा भगवा आनन्तरियदीपनत्थं पुग्गलकथं कथेति, अ. नि. अट्ट, 1.79; - धम्म पु., गुरुगम्भीर पाप-कर्म - म्मा प्र. वि., ए. व. - तत्थ पञ्चानन्तरियधम्मा कम्मन्तरायिका नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).9; - वत्थु नपुं., पांच अत्यन्त गम्भीर पापकर्म - त्थूनि प्र. वि., ब. व. - तत्थ आनन्तरियवत्थूनि नाम गरूनि भारियानि, प. प. अट्ठ. 270; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - आनन्तरियवत्थुस्मिं आनन्तरियकं वदे, विन. वि. 286; - सदिस त्रि., पांच प्रकार के आनन्तरिय कर्मों जैसा (गम्भीर पापकर्म)- सो पु.. प्र. वि., ए. व. - महासावज्जो हि अरियूपवादो आनन्तरियसदिसो, पारा. अट्ठ. 1.124; -- सं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - कम्म पन भारिय, आनन्तरियसदिसमेव, अ. नि. अट्ठ. 1.341; - सदिसत्त नपुं., भाव., आनन्तरिय कर्मों के साथ समानता - त्ता प. वि., ए. व. - महासावज्जो हि अरियू पवादो, आनन्तरियसदिसत्ता, विसुद्धि. 2.54; - समाधि पु., मार्गसमाधि - यथा मग्गसमाधि आनन्तरिकसमाधीति वुच्चति, थेरीगा. अट्ठ. 110; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - अविक्खेपपरिसुद्धता आसवसमुच्छेदे पञ्जा आनन्तरिकसमाधिम्हि जाणं, पटि. म. 2. For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आनन्तरियक सद्यः विपाक देने से कं - आनन्तरियक त्रि आनन्तरिय से व्यु वाले पांच प्रकार के गम्भीर पाप कर्मों युक्त अथवा इन्हे करने वाला का पु०, प्र. वि., ब.व. एवमिमस्मिं दुके ये च पुग्गला पञ्चानन्तरियका प. प. अ. 36 – क नपुं. द्वि. वि. ए. व. आनन्तरियवत्थुस्मिं, आनन्तरियकं वदे विन. वि. 286 आनन्तरियकं कम्म, आपज्जति कथं नरो, उत्त. वि. 741; मातरं पितरं हन्त्वा, नान्तरियकं फुसे, उत्त वि. 744. - - - आनन्द पु. [ आनन्द ]. प्रसन्नता, हर्ष, आह्लाद सन्तुष्टि का भाव, प्रीतिभाव दो प्र. वि. ए. व. आनन्दो पमुदामोदा - " सन्तोसो नन्दि सम्मदो, अभि. प 87; तत्र तुम्हेहि न आनन्दो, न सोमनस्सं न चेतसो उप्पिलावितत्तं करणीयन्ति मि. प. 178; को न हासो किमानन्दो निष्य नु पञ्जलिते सति, ध० प० 146; आनन्दो च पमोदो च सदाहसितकीळितं मातरं परिचरित्वान, लब्ममेतं विजानतो, जा॰ अट्ठ॰ 5.324; महाराजकुले तस्मिं आनन्दो च महा अहु म. वं. 22.59; न्दं द्वि. वि. ए. व. आनन्दं तुद्धिं जननतो आनन्दो नाम पच्चेकबुद्धोति अत्थो, अप. अड. 2. 183; स. उ. प. के रूप में, गिरिमा. पु.. व्य. सं. एक स्थविर का नाम दो प्र. वि., ए. व. तेन खो पन समयेन आयस्मा गिरिमानन्दो आवाधिको होति दुक्खतो बाळ्हगिलानो, अ. नि. 3 ( 2 ) .90 निरा. - त्रि.. ब. स. [निरानन्द]. आनन्दरहित, प्रसन्नता से रहित दो पु प्र. वि. ए. व. तत्थ सेसिं निरानन्दो अनूना दस रत्तियो, जा. अट्ठ. 5.65; स० पू० प० के रूप में, कर त्रि. [ आनन्दकर] आनन्द का भाव उत्पन्न करने वाला, मन में प्रमोद भर देने वाला रं पु०, द्वि. वि., ए. व. ते थेरा थेरमानन्दं आनन्दकरमब्रवु, म. वं. 3.23; छण पु.. आरुन्ददायक महोत्सव या क्रियाकल्प - णं द्वि० वि०, ए. व.- कञ्चनलताविनद्धं आनन्दभेरिं चरापेत्वा आनन्दछणं आचरिंसु जा. अg. 7.375; जनन त्रि. आनन्द को उत्पन्न कर देने वाला नी स्त्री. प्र. वि. ए. व. येन जातासि कल्याणी, आनन्दजननी मम दी. नि. 2.195; 197; ने पु.. सप्त. कि. ए. व. सत्तमो अभिसम्बुद्धे सत्थरि सक्यकुलानन्दजनने भगवन्तं अनुपब्बजन्ता निक्खमिंसु मि. प. 117 जात आनन्द से भरपूर, त्रि, प्रमुदित प्रफुल्ल तो पु०, प्र. वि., ए. व. आनन्दीति आनन्दजातो, जा. अट्ठ. 5.488; - ते पु०, ० वि., ब.व. आनन्दजाते तिदसगणे पतीते, सक्कञ्च " तत्थ -- - - - www.kobatirth.org - - 96 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्द मेरी स्त्री.. इन्द सुचिवसने च देवे, सु. नि. 684; आनन्द उत्पन्न करने वाला नगाड़ा - रिं द्वि. वि., ए. व. कञ्चनलता विनद्धं आनन्दभेरिं चरापेत्वा आनन्दछणं आचरिंसु जा. अ. 7.375 आनन्दमेरिकालोयं, किं वो अस्सूहि पुत्तिका, अप. 2.201 - रूप त्रि. ब. स. आनन्द से परिपूर्ण स्वभाव वाला, प्रमुदित प्रकृति से युक्त पो पु.. प्र. वि. ए. व. आनन्दो वत भो, आनन्दरूपो वत भो हेतुरूपं मन्ते म. नि. 2.339: आनन्दरूपोति आनन्दसभावो म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.257; सोमनस्स नपुं, द्व० स०, आनन्द एवं सौमनस्य - स्सा प्र० वि०, ब० व. - पियजातिका हि खो भन्ते आनन्दसोमनस्सापियप्पभविका 'ति, म. नि. 2.316; 317. आनन्द' पु॰, व्य॰ सं॰, बुद्ध के प्रमुख उपट्टाक (परिचारक ) शिष्य न्दो प्र. वि. ए. व. धम्मभण्डागारिको च आनन्दो द्वे समाथ च अभि. 436 क. जन्म से सम्बन्धित विवरण के लिए द्रष्ट, अ. नि. अट्ठ 1.219-226; थेरगा. अट्ठ. 2.349-363; अप. अट्ठ. 1.316-322; ख. बुद्ध के चचेरे भाई, पिता अमितोदन तथा माता मृगी सक्यकुलप्पसुतो चायं आयस्मा तथागतस्स भाता चूळपितपुत्तो पारा. अड. 1.7; खु. पा. अड. 75; आनन्दत्थेरो अमितोदनस्स, सो भगवतो कनिट्ठो, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1 (1).373; ग. बुद्ध की शरण जाने वाले छ शाक्यकुलीन क्षत्रिय कुमारों में एक च, छ यिमे, महाराज, खत्तियकुमारा भद्दियो च अनुरुद्धो च आनन्दो च भगु च किमिलो छ मि. प. 117: घ. उनके उपाध्याय का नाम बेलट्ठसीस आयस्मतो आनन्दस्स उपज्झायस्स आयस्मतो बेलसीसस्स बुल्लकच्छाबाधो होति महाव, 277; ख. बुद्ध के बहुश्रुत एवं स्मृतिमान् शिष्यों में अग्रगण्य एतदग्गं, भिक्खवे मम सावकानं भिक्खून बहुस्सुतानं यदिदं आनन्दो... अ. नि. 1 (1)-33: च. पूर्व-जन्मों की अनुस्मृति के अभिज्ञाबल से सम्पन्न आयस्मा च आनन्दो... जातिस्सरा जातिं सरन्ति एवं अभिजानतो सति उप्पज्जति मि. प. 86: छ. शारिपुत्र के साथ प्रगाढ़ स्नेह सारिपुत्तत्थेरो व आनन्दत्थेरो च अज्ञमज्ञ ममायिंसु दी. नि. अड. 3.82 तुम्हम्प नो आनन्द, सारिपुत्तो रुच्चतीति स. नि. 1 (1) 78 ज. आनापानसति इद्धि कल्याणमित्र, निरोध, बोज्झङ्ग, लोक, वेदना, चार सतिपद्वानों, सुज्ञ तथा बुद्ध के मौन के विषय में बुद्ध के साथ संलाप एवं प्रश्न एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच- 'अत्थि नु खो, भन्ते, For Private and Personal Use Only - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्द 97 आनन्द एकधम्मो भावितो बहुलीकतो चत्तारो धम्मे परिपूरेति..., स. नि. 3.398-399; अभिजानामि ख्वाह, आनन्द, इद्धिया मनोमयेन कायेन ब्रह्मलोकं उपसङ्कमिता ति, स. नि. 3(2).353; सकलमेव हिद, आनन्द, ब्रह्मचरियं - यदिदं कल्याणमित्तता कल्याणसहायता कल्याणसम्पवङ्कता, स. नि. 1(1).105; आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - "निरोधो निरोधोति, भन्ते, वच्चति, स. नि. 2(1).24; कथं भाविता आनन्द, सत्त बोज्झङ्गा कथं बहुलीकता विज्जाविमुत्तिं परिपूरेन्ति?, स. नि. 3(2).402; कित्तावता नु खो, भन्ते, लोकोति वुच्चतीति, यं खो, आनन्द, पलोकधम्म, अयं वुच्चति अरियस्स विनये लोको, स. नि. 2(2).59; ... आयरमा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - कतमा नु खो, भन्ते, वेदना..., स. नि. 2(2).216; कथं भाविता चानन्द, चत्तारो सतिपट्टाना कथं बहुलीकता सत्त बोझङ्गे परिपूरेन्ति?, स. नि. 3(2).401; आनन्द, सुझं अत्तेन वा अत्तनियेन वा तस्मा सुञो लोकोति वुच्चति, स. नि. 2(2).60; झ. शारिपुत्र के साथ धर्म-संलाप - एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच, अ. नि... 1(2).193; ञ. एकान्त में निवास के लिए इच्छा प्रकट की - एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - ... यमहं भगवतो धम्म सुत्वा एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो ... विहरेय्य न्ति, स. नि. 2(2).60; ट. भिक्खुणीसंघ की स्थापनाहेतु बुद्ध से याचना - “साधु, भन्ते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदिते धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जान्ति, चूळव. 416; ठ. पूर्वजन्म में बुद्ध के लिए प्राणत्याग किया - एतरहि कथाय... पुब्बेपि आनन्दो मह जीवितं परिच्चजियेवाति वत्वा अतीतं आहरि, जा. अट्ठ. 3.257; ड. बुद्ध-परिनिर्वाण के अवसर पर आनन्द की मनःस्थिति- आयस्मा आनन्दो विहारं पविसित्वा कपिसीसं आलम्बित्वा रोदमानो ठितो ... सत्थु च मे परिनिब्बानं भविस्सति, दी. नि. 2.108; ढ. आनन्द द्वारा अर्हत्व-प्राप्ति - आनन्दत्थेरो अत्तनो अरहत्तप्पत्तिं आपेतुकामो भिक्खूहि सद्धिं नागतो ... आनन्दत्थेरस्स आसनं ठपेत्वा निसिन्ना, दी. नि. अट्ट, 1.11; ण. प्रथम धर्म सङ्गीति में धर्म-कथिक के रूप में चयन - अयं भन्ते, आयस्मा आनन्दो..., बहु च अनेन भगवतो सन्तिके धम्मो च, विनयो च परियत्तो, तेन, हि भन्ते, थेरो आयस्मन्तम्पि आनन्दं उच्चिनतूति, चूळव. 453; त. प्रथम धर्म-संगीति के अवसर पर आनन्द की भर्त्सना - अथ खो थेरा भिक्खू आयस्मन्तं आनन्द एतदवोचुं-- इदं ते, आवुसो आनन्द, दुक्कट, यं त्वं भगवन्तं न पुच्छि, चूळव. 457; थ. जीवन के अन्तिम वर्ष - एक समय आयस्मा आनन्दो सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे अचिरपरिनिब्बते भगवति, दी. नि. 1.180; द. आनन्द का निर्वाण - आनन्दत्थेरसदिसा पन अमतपुब्बपदेसे परिनिब्बायन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.305%3B आनन्दत्थेरोपि सीलादिगुणेहि चेव इमस्मिं सुत्ते आगतगुणेहि च थेरो विय अभिजातो पाकटो महा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).145; ध. प्रतिमा में आनन्द - आनन्दपटिम नेत्वा पुर कत्वा पदक्खिणं, चू. वं. 51.80; न. बहुश्रुत (परमज्ञानी) - अयं पन आनन्दो बहुस्सुतो तिपिटक धरो, स. नि. अट्ठ. 2.109; प. धर्म की रक्षा करने वाला - आनन्दो नाम नामेन, धम्मारक्खो तवं मुने, अप. 1.41; फ. धर्म के भण्डारपाल-... धम्मभण्डागारिको आयस्मा आनन्दो निसीदि, स. नि. अट्ट, 2.76; ब. उपट्ठाक (परिचारक) आनन्द - आनन्दो नामुपट्ठाको, उपहिस्सतिमं जिनं. बु. वं. 2.67; भ. श्रावक (शिष्य) के रूप में आनन्द - यो सो बुद्ध उपट्टासि, आनन्दो नाम सावको, अप. 1.283; म. सम्बुद्ध, आनन्द - आनन्दो नाम सम्बुद्धो, सयम्भू अपराजितो, अप. 1.240; य. यशस्वी आनन्द - पुन देय्यासि सम्बुद्ध, आनन्दस्स यसस्सिनो, अप. 1.335; "आनन्दा ति आदिको सङ्गीति अनारुळहो पाळिधम्मो एव तथा दस्सितो, दी. नि. टी. 2.142; भन्ते आनन्द, अ. नि. 3(1).235; निसीदतु भवं आनन्दो, म. नि. 2.191; आवुसो आनन्द, परिसा. स. नि. 1(2).197. आनन्द पु., व्य. सं., पदुमुत्तर बुद्ध के पिता, एक क्षत्रिय राजा - न्दो प्र. वि., ए. व. - नगरं हंसवती नाम, आनन्दो नाम खत्तियो, सुजाता नाम जनिका, पदुमुत्तरस्स सत्थुनो, बु. वं. 12.19; यम्हि काले महावीरो, आनन्द उपसङ्कमि, पितुसन्तिकं उपगन्त्वा, आहनी अमतदुन्दुभिं, बु. वं. 12.5; - न्दं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ आनन्दं उपसङ्कमीति पितरं आनन्दराजानं सन्धाय वुत्तं, बु. वं. अट्ठ. 221; - महाराजा पु.. कर्म. स., आनन्द-नामक महाराज - यदा पन आनन्दमहाराज वीसतिया परिससहस्सेहि वीसतिया अमच्चेहि च सद्धि पदुमुत्तरस्स सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके मिथिलनगरे पातुरहोसि, बु. वं. अट्ठ. 221. आनन्द' पु., गृही अवस्था में विद्यमान तिष्य बुद्ध के पुत्र का नाम - न्दो प्र. वि., ए. व. - सुभद्दानामिका नारी, आनन्दो नाम अत्रजो, बु. वं. 19.18; - कुमार पु., कुमार आनन्द For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्द 98 आनन्दि - रे सप्त. वि., ए. व. - सो चत्तारि निमित्तानि दिस्वा सुभद्दादेविया पुत्ते आनन्दकुमारे उप्पन्ने सोनुत्तरं नाम अनुत्तरं तुरङ्गवरमारुयह महाभिनिक्खमनं निक्खमित्वा पब्बजि, बु. वं. अट्ठ. 261. आनन्द' पु., एक प्रत्येकबुद्ध का नाम - न्दो प्र. वि., ए.. व. -- आनन्दो नाम सम्बुद्धो, सयम्भू अपराजितो, अप. 1.240; आनन्दं तुद्धिं जननतो आनन्दो नाम पच्चेकबुद्धोति अत्थो , अप. अठ्ठ. 2.183. आनन्द' पु., एक गृद्धराज का नाम - न्दो प्र. वि., ए. व. - तदा आनन्दो नाम गिज्झराजा दसहस्सगिज्झपरिवारो गिज्झपब्बते पटिवसति, जा. अट्ठ. 5.419; 445; 447; 454; सु. नि. अट्ठ.2.83. आनन्द पु., समुद्र की पांच सौ योजन आकार की एक बड़ी मछली, विशालकाय महामत्स्य - न्दो प्र. वि., ए. व. - महामच्छा तिमि तिमिङ्गलो तिमिरपिङ्गलो, आनन्दो च तिमिन्दो च अज्झारोहो महातिमि, अभि. प. 673; अतीतस्मिहि काले महासमुद्दे छ महामच्छा अहेसु तेसु आनन्दो तिमिनन्दो अज्झारोहोति इमे तयो मच्छा पञ्चयोजनसतिका, जा. अट्ठ. 5.459; - मच्छ पु., आनन्द नामक मछली - च्छं द्वि. वि., ए. व. - चतुप्पदा सीहं राजानं अकंसु, मच्छा आनन्दमच्छ सकुणा सुवण्णहंसं जा. अट्ठ. 1.204. आनन्दकुमार पु.. 1. मङ्गलबुद्ध का सौतेला भाई - रो प्र. वि., ए. व. - वेमातिकभाता किरस्स आनन्दकुमारो नाम .... सत्थु सन्तिक अगमासि, जा. अट्ठ. 1.40; अप. अट्ठ. 1.41; 2. पु., उम्मग्ग-जातक के कथानक का एक पोत-शिल्पी - रं द्वि. वि., ए. व. - गङ्गातीरं पन पत्वा आनन्दकुमारं पक्कोसापेत्वा ... पेसेसि. जा. अट्ठ. 6.255. आनन्दचेतिय नपुं, बुद्धपूर्वकालीन एक चैत्य का नाम, आनन्द यक्ष द्वारा प्रतिष्ठापित एक विहार - ये सप्त. वि., ए. व. -- एक समयं भगवा भोगनगरे विहरति आनन्दचेतिये. अ. नि. 1(2).194; आनन्दचेतियेति आनन्दयक्खस्स भवनहाने पतिहितविहारे, अ. नि. अट्ठ. 2.353. आनन्दथेर पु., व्य. सं., 1. अनुराधपुर महाविहार (श्रीलङ्का) का एक भिक्षु, अभिधम्म पर मूलटीका का लेखक - रो प्र. वि., ए. व. - अभिधम्मटीकं पन आनन्दथेरो अकासि, सा. वं. 31; 2. काञ्चीपुर का एक स्थविर, छपद के चार सहायकों में से एक - रेन तृ. वि., ए. व. - किञ्चिपुरवासिना आनन्दथेरेन..... सा. वं. 38; 44; 63; 64; 3. अभिधम्म की मधुसारत्थदीपनी-नामक मूलटीका का लेखक, श्रीलङ्का में हंसावती-नामक स्थान का निवासी एक स्थविर - रो प्र. वि., ए. व. - हंसावतीनगरवासी पन आनन्दथेरो मधुसारत्थदीपनि नाम अभिधम्मटीकाय संवण्णनं..., सा. वं. 45. आनन्दबोधि पु., आनन्द द्वारा रोपा गया बोधि-वृक्ष - धि प्र. वि., ए. व. - सो पन आनन्दत्थेरेन रोपितत्ता आनन्दबोधीति जातो, जा. अट्ठ. 2.266. आनन्दयक्ख पु., एक यक्ष का नाम - स्स ष. वि., ए. व. - आनन्दयक्खस्स भवनहाने पतिष्ठितविहारे, अ. नि. अट्ट. 2.353. आनन्दवग्ग प., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक जिसमें स्थविर आनन्द से सम्बद्ध विवरण हैं, अ. नि. 1(1).246-259. आनन्दसुत्त नपुं. स. नि. तथा अ. नि. के अनेक सुत्तों का शीर्षक, स. नि. 1(1).218; 231; 2(1).24; 35; 36-37; 96-97; 172-73; 2(2).365-366; 3(2).356-357; 357; 398402; 403; 427-429; अ. नि. 1(1).156-158; 2(1).124125; 2(2).74-75; 3(1).234-235; 3(2).62-63; 126-129. आनन्दसुरिय पु., म्या-मां के एक राजकुमार का नाम - यो प्र. वि., ए. व. - आलोडहचञसू रो पुत्तो आनन्दसुरियो नाम, सा. वं. 86(ना.). आनन्दसेट्ठि पु., श्रावस्ती का एक अत्यधिक समृद्ध एवं महाकृपण सेठ - सावत्थियं किर आनन्दसेट्टि नाम चत्तालीसकोटिविभवो, महामच्छरी अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.264-266; - वत्थु नपुं., ध. प. अट्ठ. के एक कथानक का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 1.264-266. आनन्दा स्त्री., राजा ओक्काक की पांच पुत्रियों में से एक - ... पञ्च धीतरो पिया, सुप्पिया, आनन्दा, विजिता, विजितसेनाति, दी. नि. अट्ठ. 1.209. आनन्दाचरिय पु., सच्चसङ्केप के लेखक श्रीलङ्का के भिक्षु चुल्ल धम्मपाल के आचार्य आनन्द - स्स ष. वि., ए. व. - आनन्दाचरियस्स जेट्ठसिस्सो चुल्लधम्मपालो नामाचरियो सच्चसङ्के पं अकासि गा. वं. 60(रो.). आनन्दि आ + नन्द का अद्य., प्र. पु.. ए. व., आनन्दित हुआ, प्रसन्न हुआ - आनन्दि वित्ता सुमना, जा. अट्ठ. 7.374; आनन्दि वित्ता पपीता, तदे.; आनन्दि वित्ता सुमनाति... अतिविय नन्दीति अत्थो, जा. अट्ठ. 7.375. For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्दित 99 आनापान आनन्दित त्रि., आनन्द से व्यु. [आनन्दित], प्रसन्न, प्रमुदित, खुश - तो पु., प्र. वि., ए. व. -- एवं आनन्दितो होतु, सह दारेहि लुद्दको, जा. अट्ठ. 4.377; -- ता ब. व. - ... ब्रह्मकायिका, आनन्दिता विपुलमकंसु घोसं. बु. वं. 1.6; आनन्दिताति पमुदितहदया, सञ्जातपीतिसोमनस्सा हुत्वाति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 37; - ते पु., द्वि. वि.. ब. व. - सब्बेव आतके आनन्दिते पमुदिते करोन्तो जातोति, अ. नि. अट्ठ. 1.223; - जन त्रि., लोगों को आनन्दित कर देने वाला - नाहि स्त्री., तृ. वि., ब. व. - अनोमाहि अनेकाहि आनन्दितजनाहि च पुप्फप्पदीपिकाभत्तपूजाहि, चू. वं. 85. 69-70. आनन्दिय त्रि., आ +vनन्द का सं. कृ., आनन्द प्राप्त करने योग्य, आनन्द देने योग्य, आनन्द से परिपूर्ण उत्सव - यं नपुं., वि. वि., ए. व. - आनन्दियं आचरिंसु, रमणीये गिरिबजे. जा. अट्ठ. 7.374; आनन्दियं... रमणीये ... आनन्दछणं आचरिंसु, जा. अट्ठ. 7.375. आनन्दी त्रि., [आनन्दिन], प्रसन्न, आनन्द के भाव से परिपूर्ण, खुश, प्रमुदित – न्दिनो' पु., प्र. वि., ब. व. - तत्र चे तुम्हे अस्सथ आनन्दिनो सुमना उप्पिलाविता तुम्हं येवरस तेन अन्तरायो, दी. नि. 1.3; - न्दिनो पु., ष. वि., ए. व. - आनन्दिनो तस्स दिसा भवन्ति, थेरगा. 555; आनन्दिनो पमोदवन्तो पीतिवन्तो भवन्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.160. आनमना स्त्री., आ + निम से व्यु., क्रि. ना. [आनमन], झुक जाना, पीछे की ओर से झुक जाना, आगे की ओर झुक जाना - कायसङ्घारेहि या कायस्स आनमना विनमना सन्नमना पणमना इञ्जना... पकम्पना, पटि. म. 177; आनमनाति पच्छतो नमना, पटि. म. अट्ठ. 2.103. आनय 1. त्रि., आ +vनी का अनियमित सं. कृ., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त [आनेय], ले आने योग्य, ठीक से लाने योग्य - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अनुपट्ठहन्तम्पि सुखुम सुआनयं होति, पटि. म. अट्ठ.2.104; 2. आ +नी का अनु., म. पु.. ए. व. [आनय], ले आ, आनेति के अन्त. द्रष्ट... आनयति आ +vनी का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आनयति], ले आता है, आनेति के अन्त. द्रष्ट... (आगे). आनयन नपुं., आ +vनी से व्यु. नियमित क्रि. ना. [आनयन], ले आना, पास में ले जाना, खींच कर ले आना – नं प्र. वि., ए. व. - यक्खभवनं आनयनञ्च एकक्खणेयेव अहोसि, स. नि. अट्ठ. 1.292; थेरानं परम्परवसेन संघहेत्वा आनयनं एवेत्थ अधिप्पेतं, सा. वं. 69(ना.); - नेन तृ. वि., ए. व. - एवं पुनप्पुनं आनयनेन सन्निपातो चिरेनेव अहोसि, उदा. अट्ठ. 253; - कारण नपुं., तत्पु. स., लाए जाने का कारण, पकड़ कर ले आने का कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - पण्डितस्स आनयनकारणं करिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 6.199; - क्कम नपुं., तत्पु. स. [आनयनक्रम], लाए जाने का क्रम- दीनानि वीतिनामेन्तो धातूनानयनक्कम्म चू. वं. 74.183; - पच्चुपट्ठान त्रि., ब. स., ले आए जाने के काम को उदित कराने वाला- नो पु., प्र. वि., ए. व. - आरम्मणे चित्तस्स आनयनपच्चुपट्टानो, ध. स. अट्ठ. 160. आनह नपुं.. बांधने वाला बन्धन - आदानवत्तीति आनहवत्ति. वजिर. टी. 440. आनापान/आणापान/आणापाण नपुं.. द्व. स. [प्राणापान, आश्वास एवं प्रश्वास, श्वास का अन्दर आना एवं बाहर निकलना, श्वास प्रक्रिया - नं' प्र. वि., ए. व. - आनापानं मोहचरितस्स वितक्कचरितस्स च, अभि. ध. स. 63; आनञ्च अपानञ्च आनापानं, अभि. ध. वि. टी. 225; 226; - नं' द्वि. वि., ए. व. - आनापानं अनुपस्सति, स. नि. अट्ठ. 3.301; - ने' सप्त. वि., ए. व. - आनापाने परिच्छेदाकासे स. नि. अट्ठ. 1.197; - ने द्वि. वि., ए. व. - पल्लङ्क आभुजित्वा आनापाने परिग्गहेत्वा पठमज्झानं निब्बत्तेसि, जा. अट्ठ. 1.68; - नेसु सप्त. वि., ब. व. - आनापानेसु सति आनापानस्सतीति, पटि. म. अट्ठ. 2.74; - चतुत्थज्झान नपुं.. आश्वास-प्रश्वास को आलम्बन बनाने वाला चतुर्थ ध्यान - नं द्वि. वि., ए. व. - आनापानचतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा.... पारा. अट्ठ. 2.11; - ज्झान नपुं., आश्वास एवं प्रश्वास पर ध्यान (चित्तएकाग्रता)- नं द्वि. वि., ए. व. - यदिच्छकन्ति कसिणज्झानं वा आनापानज्झानं वा बह्मविहारज्झानं वा असुभज्झानं .... इच्छति, प. प. अट्ठ. 33; - निमित्त नपुं, ध्यान के निमित्त (आलम्बन) के रूप में आश्वास एवं प्रश्वास - तं' प्र. वि., ए. व. - यस्मा आनापाननिमित्तं तारकरूपमुत्तावलिकादिसदिसं हुत्वा पञआयति, स. नि. अट्ठ. 3.296; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - आनापाननिमित्तं For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनापानवग्ग 100 आनापानसतिकथा ताव वड्डयतो वातरासियेव वड्वति, विसुद्धि. 1.110; - पब्ब आनापानस्सतिया च पभावना न होति, पारा. अट्ठ. 2.17; नपुं., आश्वास एवं प्रश्वास पर चित्त को एकाग्र करने की आनापानरसतियं वा समाधि आनापानस्सतिसमाधीति एवमेत्थ समयावधि अथवा कालखण्ड - बं प्र. वि., ए. व. - तेस अत्थोवेदितब्बो, पारा. अट्ट, 2.9; - यो प्र. वि., ब. व. - आनापानपब्बं आनापानस्सतिवसेन विसु कम्मट्ठानंयेव, तत्थ आनापानस्सतियो यथा बुद्धेन देसिता, पटि. म. अट्ठ. विसुद्धि. 1.231; आनापानपब्बन्ति आनापानकम्मट्ठानावधि, 2.74; स. प. के रूप में, दसानस्सतिदसकसिणचतु विसुद्धि. महाटी. 1.281; - परिग्गाहक त्रि., आश्वास एवं धातुववत्थानब्रह्मविहारानापानसतिप्पभेदानि बहूनि प्रश्वास पर (चित्त की एकाग्रता) पूर्ण नियन्त्रण करा देने निब्बानोरोहणकम्मट्ठानानि सन्ति, पारा. अट्ठ. 2.8; -- वाला, आश्वास एवं प्रश्वास को अधिक या कम लम्बाई कम्मट्ठान नपुं, ध्यान के आलम्बन के रूप में आश्वास आदि के रूप में ग्रहण करने वाला - काय स्त्री., तृ. वि., एवं प्रश्वास पर चित्त की एकाग्रता - नं प्र. वि., ए. व. ए. व. - आनापानपरिग्गाहिकाय सतिया सद्धि सम्पयुत्तो - अथ वा यस्मा... विसेसाधिगमदिट्ठधम्मसुखविहारपदट्ठान समाधि, स. नि. अट्ठ. 3.300; आनापानपरिग्गाहिकायाति आनापानस्सतिकम्मट्टानं ... झानस्स, पटि. म. अट्ठ. दीघरस्सादिविसेसेहि सद्धि अस्सासपस्सासे 2.81; 86; - पठमज्झान नपुं॰, आश्वास एवं प्रश्वास परिच्छिज्जगाहिकाय, विसुद्धि. महाटी. 1.294; - नारम्मण (आनापन) पर स्मृति अथवा चित्त की जागरूकता से युक्त नर्प, ध्यान के आलम्बन के रूप में आश्वास एवं प्रश्वास - स्स प्रथम ध्यान - नं द्वि. वि., ए. व. - भवेय्य नु खो एतं ष. वि., ए. व. - भिक्खनो आनापानारम्मणस्स सस परिग्गहितत्ता, आनापानरसतिपठमज्झाानं बुज्झनत्थाय मग्गोति, म. नि. विसुद्धि. 1280; 289; तत्थ कारणमाह आनापानारम्मणरस सुद्ध अट्ठ. (मू.प.) 1(2).187; - भावना स्त्री.. आनापान (आश्वास परिग्गहितत्ताति, विसुद्धि महाटी. 1.326. एवं प्रश्वास) पर स्मृति की जागरुकता द्वारा की गई आनापानवग्ग पु., स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. समाधिभावना अथवा चित्तविशुद्धि - नं द्वि. वि., ए, व. - 3(1).150-157. मुट्ठरसतिरस असम्पजानस्स आनापानस्सतिभावनं वदामीति, आनापानसंयुत्त नपुं., स. नि. के एक संयुत्त का शीर्षक, पारा. अट्ठ. 2.26; - य ष. वि., ए.व. - स. नि. 3(2).382-409. आनापानरसतिभावनाय आनिसंसं दस्सेतु वुत्तं, पटि. म. आनापानसति स्त्री., [बौ. सं. आनापानस्मृति]. आश्वास अट्ठ. 2.99; - समाधि पु., आश्वास एवं प्रश्वास पर चित्त एवं प्रश्वास की श्वसन-प्रक्रियायों के विषय में चित्त की की जागरुकता के साथ की जा रही समाधि-धि प्र. वि., एकाग्रता एवं समभाव में अवस्थिति, श्वास प्रक्रिया पर चित्त ए. व. - आनापानस्सतिसमाधि भावितो बहुलीकतो सन्तो को स्थिर करना, आश्वास एवं प्रश्वास की स्वाभाविक ... तूपसमेति, पारा. 83; आमन्तेत्वा च पन भिक्खून क्रियाओं को आलम्बन बनाने वाली स्मृति, दस प्रकार की अरहत्तप्पत्तिया पुब्बे आचिक्खितअसुभकम्मट्ठानतो अझं अनुस्मृतियों एवं संज्ञाओं में एक के रूप में उपदिष्ट -ति परियायं आचिक्खन्तो आनापानरसतिसमाधि ति आह पारा. प्र. वि., ए. व. - तत्थ आनन्ति अस्सासो अपानन्ति अट्ठ. 2.8; - धिं द्वि. वि., ए. व. - यं भगवा पस्सासो अस्सासपस्सास निमित्तारम्मणा सति आनापानसति. आनापानस्सतिसमाधि भासेय्य, स. नि. 3(2).392; - ना थेरगा. अठ्ठ. 2.158; आनापाने आरब्भ उप्पन्ना सति तृ. वि., ए. व. - आनापानरसतिसमाधिना .... भगवा आनापानस्सति अस्सासपस्सासनिमित्तारम्मणाय सतिया एतं वस्सावासं बहुलं विधसी ति, स. नि. 3(2).395; - स्स ष. अधिवचनं, अ.नि. अट्ठ. 1.354; आनापनस्सतीति आनापाने वि., ए. व. - आनापानस्सतिसमाधिस्स, भिक्खवे, भावितत्ता सति, तं आरब्भ पवत्ता सति, अस्सासपस्सासपरिग्गाहिका बहुलीकतत्ता ... वा, स. नि. 3(2).386; - सहगत त्रि., सतीति अत्थो, इतिवु. अट्ठ. 233-34; ... आनापानरसति आश्वास-प्रश्वास पर चित्त की जागरूकता से युक्त - तं उपसमानुस्सतीति इमा दस अनुरसतियो, विसुद्धि. 1.108; पु., द्वि. वि., ए. व. - आनापानस्सतिसहगतं - तिं द्वि. वि., ए. व. - आनापानस्सति, राहुल, भावनं उपेक्खासम्बोज्झङ्ग भावेति .... स. नि. 3(2).383. भावेहि, म. नि. 2.91; - या' तृ. वि., ए. व. - एवं आनापानसतिकथा स्त्री., पटि. म. अट्ट के भाविताय ... आनापानस्सतिया एवं बहुलीकताय ... फलं आनापानसति-विषयक एक भाग का शीर्षक, पटि. म. पाटिकळ, स. नि. 3(2).384; - या ष. वि., ए. व. - अट्ठ. 2.64-112. For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 101 आनिसंस आनापानसतिकथा आनापानसतिसुत्त नपुं, म. नि. का आनापानसति-विषयक एक सुत्त, म. नि. 3.124-132. आनापानसुत्त नपुं., स. नि. का आनापान-विषयक एक सुत्त, स. नि. 3(1).157. आनापेति/आणापेति आ +vनी के प्रेर. का वर्त, प्र. पु.. ए. व., लाए जाने हेतु प्रेरित करता है, बुलवाता है - पेमि उ. पु., ए. व. - तेनाहं गरहभयभीतो तमेव आणापेमीति, जा. अट्ठ. 1.138; ध. प. अट्ठ. 2.43; - पेन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - "यंकारणा जेट्टकं ठपेत्वा कनिट्ठ आणापेन्तो जेट्ठापचायिककम्मं न करोसी"ति, जा. अट्ठ. 1.138; - न्ता तदे., ब. व. - ते च सयं आनेन्तापि अओहि आणापेन्तापि आनेन्तियेवाति वेदितब्बा, पारा. अट्ठ.. 1.214; - हि अनु., म. पु., ए. व. - ब्राह्मण, दारुगहे गणकं आणापेही ति, पारा. 49; तं तव परिसाय आणापेहीति, सु. नि. अट्ठ. 2.92; - नेय्यासि विधि., म. पु., ए. व. - ततो तं अपरिग्गहितत्ता आनेय्यासि, जा. अट्ठ. 5.213; - पेय्यं विधि, उ. पु., ए. व. - आनापेय्यं रज्जहेतु सुमित्तं भातरं मम, म. वं. 8.2; - सि अद्य. प्र. पु., ए. व. - सो “साधु भगिनी ति यक्खे आणापेसि, सु. नि. अट्ठ. 2.92; - स्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - एवं किर वृत्ते राजा तं आणापेस्सति, ध. प. अट्ठ. 1.258; - पेत्वा पू. का. कृ. - ते अत्तनो समीपं आणापेत्वा उपट्ठातुमेव युत्तं, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.208; - पयित्वा पू. का. कृ. - आनापयित्वा मतिमा नानापासण्डिके विसं. म. वं. 5.36; - पयित्वान पू. का. कृ. - चोरे आनापयित्वान रहस्सेन पलापिय, म. वं. 36.80; - पिय पू. का. कृ. - पेसेत्वाचरिये राजा तं आनापिय पोसयि, म. वं. 22.63; - तुं निमि. कृ. - महाबोधिं च थेरि च आनापेतं महीपति, म. वं. 18.1. आनाय पु.. [आनाय], मछली पकड़ने में प्रयुक्त जाल - थियं कुवेणि कुमिन, आनायो जालमुच्चते, अभि. प. कि पन त्वं विसाखे, आनिसंसं सम्पस्समाना तथागतं अट्ठ वरानि याचसी ति, महाव. 384; ... नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि, महाव. 20; - सा प्र. वि., ब. व. - जातकबुद्धवंसादीसु दस्सिताकारा आनिसंसा, चरिया. अट्ठ. 299; - से द्वि. वि., ब. व. - बोधिसत्तोपि पच्छतो गमने बहू आनिसंसे अद्दस, जा. अट्ठ. 1.107; आनिसंसे अनेकेपि, पवत्तयति योगिनो, अभि. अव. 1337; - सानं, ष. वि. व. व. दायकेनानिसंसानं, अनेकेसमनेन च, आदिमग्गेन संयुत्तं ..., अभि. अव. 1338; स. उ. प. के रूप में, अट्ठा., अनुमोदना., अनुस्सरणा., अनेका., अप्पमादा., अभिञा., अरज्ञा०, अरहत्ता., अविप्पटिसारा., आदीनवा.. आवसथा., आवासा., इतिवादपमोक्खा., उदारा., आरम्भा., कठिना., किमा., गुणा., दाना., निब्बाना., निब्बिदाविरागा.. पञ्जाभावना., पलिबोधा., पामुज्जा., फला., बिम्बा., महा. मेत्ता., यथाभूतजाणदस्सना., सद्धा., सीला. आदि के अन्त. द्रष्ट; ख. स. पू. प. के रूप में, - कथामुख नपुं. लाभ के विषय में कहे गए कथनों का प्रारम्भ - खं प्र. वि., ए. व. - इति सीलस्स वि य्यं आनिसंसकथामखन्ति, विसुद्धि. 1.11. -- चीवर नपुं., कठिनचीवर नामक संघकर्म में प्राप्त चीवर-विषयक विशिष्ट सुविधा या लाभ, कठिनचीवर नामक संघकर्म में प्राप्त चीवर -रं द्वि. वि., ए. व. - यो पन आनिसंसचीवरं आदाय पक्कमति, कया. अभि. टी. 257; - त्त नपुं.. आनिसंस का भाव. [आनृशंसत्त्व], लाभ की स्थिति, हितकरता, लाभप्रदता, कल्याणकारी होना - त्ता प. वि., ए. व. --- मग्गो हि समथविपस्सनानं आनिसंसत्ता विसेसोति वुत्तो, पटि. म. अट्ठ. 2.73; - दस्सन नपुं., हितों या लाभों का दिखलाई देना - नेन तृ. वि., ए. व. - सीलसम्पत्तिया च आनिसंसदस्सनेन, अ. नि. अट्ठ. 3.317; - दस्सावी त्रि., लाभ अथवा हित को देखने वाला - वी पु.. प्र. वि., ए. व. - सङ्घारे च ... निब्बाने च आनिसंसदस्सावी होतीति? कथाव. 328; - विस्स पु., ष. वि., ए. व. - आनिसंसदस्साविस्स संयोजनानं पहानन्ति, कथा. 327; - विनो पु., च./ष. वि., ए. व. - अयमानिसंसो वीरियस्सा ति एवं आनिसंसदस्साविनोपि उप्पज्जति, विभ. अट्ठ. 264; - दस्साविता स्त्री., भाव., लाभ अथवा हित को देखने की अवस्था - ता प्र. वि., ए. व. - येन ... नेक्खम्मे आनिसंसदस्साविता हेतु, पेटको. 289; - परिच्छेद पु., तत्पु. स., लाभ अथवा हित की सीमा अथवा सुनिश्चित मात्रा - दं द्वि. वि., ए. व. - 521. आनिसंस पु., [आनृशंस्य, बौ. सं. अनुशंस/आनुशंस/ आनृशंस], लाभ, कल्याण, शुभ फल, लाभप्रद परिणाम, पुण्य, पुरस्कार, शुभ गुण, उत्तम लक्षण - सो प्र. वि., ए. व. - आनिसंसो गुणो चाथ, अभि. प. 767; सुचेतसो अनिस्सितो तदानिसंसोति, स. नि. 1(1).55; तदानिसंसोति अरहत्तानिसंसो, स. नि. अट्ठ. 1.94; ... को आनिसंसो पाटिकहो ति, अ. नि. 1(1).74; - सं द्वि. वि., ए. व. - For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनिसंसदस्सावीकथा 102 आनीत आनिसंसपरिच्छेद, तस्स सीलस्स को वदे, विसुद्धि. 1.10; - परिवार त्रि., ब. स., लाभों से परिपूर्ण - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अट्ठानिसंसपरिवारं भङ्गानुपस्सनाञाणं बलप्पत्तं होति, विसुद्धि. 2.280; - फल नपुं., तत्पु. स., पुण्य-कर्मों का फल - लं प्र. वि., ए. व. - सब्बदुक्खक्खयो आनिसंसफलं. म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).142; अपिच निच्चतो अनुपगमनादिवसेन पेतस्स आनिसंसफलं वेदितब्ब, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).143; - महन्तता स्त्री॰, भाव., पुण्य कर्मों अथवा कल्याणों की महानता - तं द्वि. वि., ए. व. - पुनापीपुञवत्थून आनिसंसमहन्ततं, किञ्चि मत्तं । भणिस्सामि सुद्धानं बुद्धिमोदक, सद्धम्मो. 263; - मूलक त्रि., ब. स., कठिन-चीवर नामक संघकर्म में विशेष लाभ के रूप में प्राप्त चीवर - के नपुं., सप्त. वि., ए. व. - निहितचीवरं निहिते आनिसंसमूलके चीवरे, कवा. अभि.. टी. 252; - मूलचीवर नपुं., कठिनचीवर नामक संघकर्म के अवसर पर विशेष लाभ के रूप में प्राप्त चीवर - रं द्वि. वि., ए. व. – यदि पन आनिससमूलचीवर आदाय बहिसीमागतो.... का. अभि. टी. 257; - विभावन त्रि., लाभ एवं हानि को प्रकाशित करने वाला - नं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आदीनवानिसंसविभावनं इम उदानं उदानेसी ति, उदा. अट्ठ. 87. आनिसंसदस्सावीकथा स्त्री., कथा. के एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 327-328. आनिसंसवग्ग पु., अ. नि. के अनेक वर्गों का शीर्षक. अ.. नि. 2(2).141-144; 3(2).1-12. आनिसंससुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2(2).141. आनिसद/आणिसद नपुं., व्यु. संदिग्ध, संभवतः आ + नि + सद से व्यु., शा. अ., शरीर का वह भाग जिसके सहारे नीचे बैठा जाए, ला. अ., पुट्ठा अथवा पीछे वाला भाग, नितम्ब, चूतड़ - दं' प्र. वि., ए. व. - एवमेवस्सु मे आनिसदं ... उन्नतावनतो होति तायेवप्पाहारताय, म. नि. 1.114; बोधिसत्तस्स ... आनिसदं मज्झे गम्भीरं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).362; - दं. द्वि. वि., ए. व. - उभोहि हत्थेहि आणिसदं पहरित्वा कूपे खिपित्वा, जा. अट्ट. 3.385; - दा प. वि., ए. व. - ... उदकचिक्खल्लो उट्ठहित्वा याव आनिसदा पहरति, महाव. अट्ठ. 365; क. स. उ. प. के रूप में, महा.- त्रि., बहुत विशाल नितम्बों वाला - दो पु., प्र. वि., ए. व. - भट्टकटिको वा महाआनिसदो वा उद्धनकूटसदिसेहि... समन्नागतो, महाव. अट्ठ. 295; ख. स. पू. प. के रूप में, - दट्टि नपुं. नितम्बों की हड्डी-ट्ठीनि प्र. वि., ब. व. - आनिसदट्ठीनि हेवामुखठपितसप्पफणसण्ठानानि, खु. पा. अट्ट. 37; - ट्ठिका स्त्री., उपरिवत् - का प्र. वि., ए. व. - पावळा वुच्चति आनिसदट्ठिका, दी. नि. अट्ठ. 3.10; -- त्तच पु.. ब. स., नितम्बों की त्वचा - चो प्र. वि., ए. व. - आनिसदत्तचो उदकपूरितपटरिस्सावनसण्ठानो, खु. पा. अट्ठ, 34; - मंस नपुं, तत्पु. स., नितम्ब-प्रदेश का मांस, चूतड़ों का मांस - सं प्र. वि., ए. व. - अनिसदमंस उद्धनकोटिसण्ठानं, खु. पा. अट्ठ. 35; - सेहि तृ. वि., ब. व. -- आनिसदमंसेहि अच्चुग्गतेहि समन्नागतो, महाव. अट्ठ. 295. आनीत त्रि., आ +vनी से व्यु., भू, क. कृ. [आनीत], समीप में ले आया गया, पास में पहुंचा दिया गया - आहटो आभतानीता, अभि. प. 749; - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - आपणा मक्कटच्छापको किणित्वा आनीतो, म. नि. 2.53; अम्हेहि पठम काको आनीतो, जा. अट्ठ. 3.108; - ते पु.. सप्त. वि., ए. व. - सीसेनादाय आनीते चङ्गोटम्हि सुवण्णये, म. वं. 31.87; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - पुब्बे आनीता केनचिदेव करणीयेन पक्कमिंसु. उदा. अट्ठ. 253; - तेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - अत्तना आनीतेसु गन्धेसु. सा. वं. 125(ना.); - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तस्स अत्थाय वेसी आनीता अहोसि, महाव. 27; - ताय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - एवं अहं भरियायानिताय, थेरगा. 72; आनीतायाति यथा वंसो वडितग्गो वंसन्तरेसु संसट्ठ साखापसाखो वेळुगुम्बतो दुन्नीहरणीयो होतीति, थेरगा. अट्ठ. 1.172; - तं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - पियसासनं देवि आनीत न्ति, स. नि. अट्ठ. 2.215; - तं द्वि. वि., ए. व. - सकिं आनीतं पानीयं सब्ब पिवति, चूळव, अट्ठ. 116; - ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - आधेय्यभूते सप्पिम्हि आनीते, सद्द. 3.925; - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - तुम्हमेवेतानि मया आनीतानीति, ध. प. अट्ठ. 1.157; स. उ. प. के रूप में, करमरा. - त्रि., जीते गए अथवा अधीनस्थ प्रदेश से लाया गया तो पु., प्र. वि., ए. व. - दासो नाम अन्तोजातो धनक्कीतो करमरानीतो, पाचि. 301; करमरानीतो नाम तिरोरलु विलोप वा कत्वा उपलापेत्वा वा तिरोरट्टतो भुजिस्समानुसकानि आहरन्ति ..., महाव. अट्ठ. 268; स. पू. प. के रूप में, - त्त नपुं., आनीत का भाव., ले आया हुआ होना - त्ता प. For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनीय 103 वि., ए. व. - ... सीहळदीपतो आनीतत्ता ततो लद्धो, सा. वं. 125. आनीय आ +vनी का पू. का. क. [आनीय]. पास ला कर, समीप ला कर - जिनगीवढि ..., थेरस्स सारिपुत्तस्स, सिस्सो आनीय चेतिये, म. वं. 1.38... आनीयत आ +/नी के कर्म. वा. का अनु., म. पु., ब. व., लाने हेतु प्रेरित किया जाए - तावतिका आनीयतन्ति, दी. नि. 2.180. आनीयति आ + नी का कर्म. वा., वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आनीयते], ले आया जाता है, समीप में पहुंचा दिया जाता है - मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - पाणो गलप्पवेठकेन आनीयमानो दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति, म. नि. 2.37; - नेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - थेरेन हि ... अजेसु आनीयमानेसु. उदा. अट्ठ. 253. आनुकूल्य/अनुकूल्य नपुं., अनुकूल का भाव. [आनुकूल्य]. अनुकूलता, उपयुक्तता, कृपा, मित्रता - आनुकूल्ये तु सद्ध च, अभि. प. 1147; - ल्यं प्र. वि., ए. व. - किच्चाविरोधनरसा, अनुकूल्यन्ति गरहति, ना. रू. प. 97. आनुटुभ त्रि., [अनुष्टुभ], अनुष्टुप् नामक छन्द के वर्ग के अन्तर्गत आने वाला - भेन नपुं, तृ. वि., ए. व. - आनुवभेन अस्सा, छन्दो बद्धन गणियमाना त. चूळनि. अट्ठ. 131; गणना उत्तरस्सायं, छन्दसानभेन तु, उत्त. वि. 969. आनुत्तरिय/अनुत्तरिय नपुं., अनुत्तर का भाव. [बौ. सं. अनुत्तर्य], 1. प्रधानता, सर्वश्रेष्ठता, प्रमुखता, सर्वश्रेष्ट कल्याण, सर्वोच्च प्राप्य - यं प्र. वि., ए. क. - अपरं पन, भन्ते, एतदानुत्तरियं यथा भगवा धम्म देसेति कुसलेस धम्मेसु, दी. नि. 3.75; आनुत्तरियन्ति अनुत्तरभावो, दी. नि.. अट्ठ. 3.59; 2. त्रि., भव्य, सर्वोत्तम, बेजोड़, अनुपम - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - या वा पनेतासं सञानं परिसुद्धा परमा अग्गा अनुत्तरिया अक्खायति, म. नि. 3.18; अनुत्तरिया अक्खायतीति असदिसा कथीयति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.11. आनुपुब्ब नपुं, अनु + पुब्ब से व्यु., भाव. [बौ. सं. आनुपूर्वी, स्त्री.], नियमसङ्गत क्रम, नियमितता -ब्बं प्र. वि., ए. व. - किमानुपुब्बं पुरिसो, किं वतं किं समाचार, थेरगा. आनुभाव गणना में पूर्वापरक्रम - ततियन्ति गणनानुपुब्बता ततियं, ध. स. अट्ट. 220; पदा. - स्त्री.. पदों का पूर्वापरक्रम - इच्चाति ... अक्खरसमवायो ब्यञ्जनसिलिट्ठता पदानुपुब्बतापेतं, महानि. 101. आनुपुब्बिक त्रि., अनुपुब्ब से व्यु. [आनुपूर्विक], नियमित, क्रमबद्ध - गोणसद्दो... वत्तिच्छानपब्बिका सद्दप्पटिपत्तीति वचनतो गोसद्दोति विसु... पक्खित्तो, सद्द. 1.105-06; - कथानुभाव पु., एक के बाद दूसरे के क्रम में अथवा क्रमशः आगे बढ़ने वाले क्रम में दिए गए धर्मोपदेश का प्रभाव अथवा बल - वेन तृ. वि., ए. व. - आनुपुब्बिकथानुभावेन विक्खम्भितनीवरणतं सन्धाय वृत्तं, दी. नि. अट्ठ. 1.248. आनुपुब्बी स्त्री., [आनुपूर्वी]. नियमित क्रम, उचित सिलसिला - अनुक्कमो परियायो अनुपब्बयपुमे कमो, अभि. प. 429; - ब्बी प्र. वि., ए. व. - तत्रायमानुपुब्बी, नवविधसुत्तन्तपरियेट्ठीति, नेत्ति. 2; - बियं सप्त. वि., ए. व. - आनुपब्बियं-अनुजेट्ट, मो. व्या. 3.2. आनुभाव/अनुभाव पु., [आनुभाव], गौरव, महिमा, बल, महत्ता, चमक दमक, शान, भव्यता, शक्ति, सामर्थ्य, प्रभाव - वो प्र. वि., ए. व. - पभावो ति, पकारतो भवती ति पभावो, सो यमानुभावो येव, सद्द. 1.69; अनुभावो एव आनुभावो, पभावो महन्तो आनुभावो येसं ते महानुभावा, सारत्थ. टी. 1.42; गहपतिस्स नत्थि सा इद्धि वा आनुभावो वा, अ. नि. 1(1).273; नत्थि सा इद्धि ... सो वा आनुभावो नत्थि, अ. नि. अट्ठ. 2.213; - वं द्वि. वि., ए. व. - एतु वदतु ब्याहरतु पस्सामिस्सानुभावन्ति, अ. नि. 1(2).36; - वेन तृ. वि., ए. व. - कासिकोसलानं मल्लिके, आनुभावेन कासिकचन्दनं पच्चनुभोम, म. नि. 2.320; - वा प्र. वि., ब. व. -- सत्तानं सोस्थिभावापादनादयो आनुभावा विभावेतब्बा, चरिया. अट्ठ. 215; स. प. के रूप में, किलेसगहनपच्चवेक्षणानुभावेनापि, चित्तं नमि, स. नि. अठ्ठ. 1.174; स. उ. प. के रूप में, - खण पु., तत्पु. स., प्रभाव, शक्ति अथवा महिमा का क्षण - णे सप्त. वि., ए. व. - आनुभावखणे तस्स, पच्चयानमभावतो, अभि. अव. 717; आनुभावखणुप्पादे, जातिया पन लब्भति, अभि. अव. 715; - दीपक त्रि., प्रभाव अथवा महिमा को प्रकाशित करने वाला - कं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अरियमग्गस्स आनुभावदीपकं वुत्तप्पकारं उदानं 727. आनुपुब्बता स्त्री., अनुपुब्ब से व्यु.. भाव., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, पूर्वापरक्रम; गणना. - स्त्री., गणनाक्रम, For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आनुभावता उदानेसीति, उदा. अड्ड. 41 महिमा को धारण करने वाला जुतिन्धराति अनुभावधारा स. नि. अड. 1.162 - धर त्रि, प्रभाव अथवा •रा पु०, प्र. वि., ब. व. - पकासन नानि " " - नपुं., तत्पु० स०, प्रभाव अथवा महत्त्व का प्रकाशन प्र. वि. ब. व. अश्यिमग्गस्स आनुभावप्यकासनानि.. भासितानि उदा. अ. 41 महत्त नपुं तत्पु, स अनुभाव अथवा प्रभाव की महत्ता - त्तं द्वि. वि., ए. व. मनोजवन्ति इमिना आनुभावमहत्तं, वि. व. अ. 11; महन्तता स्त्री भाव तत्पु, स. प्रभाव की महत्ता महानुभावता नाम आनुभावमहन्तता चरिया. अड्ड. 300: विजाननत्थ पु०, प्रभाव को ठीक से जानने का प्रयोजन या उद्देश्य त्वं द्वि. वि. क्रि. वि. आणदरसनविसुद्धिया आनुभावविजाननत्थं विसुद्धि. 2.316; आनुभावविजाननत्थन्ति सतिपट्टानपारिपरि आदिकस्स आनुभावस्स बोधनत्थं विसुद्धि महाटी. 2.460 विभावना स्त्री प्रभाव अथवा महिमा का व्याख्यान अथवा प्रकाशन ना प्र. वि., ए. व. सेसपारमिनिद्वारणा आनुभावविभावना च वेदितब्बाति, चरिया. अट्ठ. 182; सम्पन्न त्रि.. अलौकिक शक्तियों से परिपूर्ण - नं पु.. द्वि. वि. ए. व. आनुभावसम्पन्नं एक मणिक्खन्धं अदस जा. अड्ड 2.84 ब्रेन पु. तृ. वि. ए. व. तत्थ जुतीमताति आनुभावसम्पन्नेन जा. अह. 5.401; स्सष. वि., ए. व. पंसुकूलिक एवं आनुभावसम्पन्नस्स... निसीदितु न्ति म. नि. अ. ( मू.प.) 1(2).280; -ना स्त्री. प्र. वि., ए. व. विञ्झाटविय आनुभावसम्पन्ना रुक्खदेवता हुत्वा निब्बत्ति, पे, व. अ. Pa - www.kobatirth.org - - 37. आनुभावता स्त्री. आनुभाव का भाव, केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त प्रभाव परिपूर्णता, प्रभावमयी स्थिति अप्पा. स्त्री. कर्म. स. कम प्रभावमयी स्थिति तथा हिस्स अङ्गलक्खणानुसारेन अप्पानुभावता दिस्सति चरिया अड. 229 दिब्बा. स्त्री. दिव्य प्रभाव वाली स्थिति तेसञ्च दिब्बानुभावताति एवमादयो महासत्तस्स गुणानुभावा वेदितब्बाति चरिया. अ. 72; महा.- स्त्री०, महान् प्रभावमयी स्थिति "अच्छारियं आबुसो, महानुभावता, यत्र हि नाम तथागतो जानिस्सति' म. नि. 104 3.161. आनुभाववन्तु त्र द्युति, आभा अथवा महत्त्व से परिपूर्ण, प्रभाव से भरपूर - न्तो पु०, प्र. वि., ब. व. - आनुभाववन्तो, आति अरहत्तमग्गजाणजुतिया खन्धादिभेदेघम्मे जोतेत्वा ठिताति ध. प. अट्ट 1.338. आनुभावी त्रि. स. उ. प. में प्रयुक्त प्रभाव अथवा महत्त्व से परिपूर्ण, सब्बा, सभी प्रकार से महिमामय अथवा प्रभावशाली वी., प्र. वि., ए. व. सब्बानुभावी च वसी किमत्थं जा. अड. 7.53: सो पन यदि सब्बानुभावी च क्सी च. जा. अट्ठ. 7.55. आनुरुद्धि पु. अनुरुद्ध की पुरुष सन्तान दक्खस्स अपच्चं (पुत्तो) दक्खि, दक्खस्स अपच्चं (पुत्तो) वा, एवं दोणि.. आनुरुद्धि, क. व्या. 349. आज / आनेज्ज, आनेञ्ज त्रि. दृढ़ता, स्थिरता, राग आदि से अप्रभावित रहने की स्थिति, द्रष्ट अनेज के अन्त. (पीछे). आनेञ्जता स्त्री०, आनेञ्ज का भाव, निश्चल भाव से चित्त का अवस्थान इध च पहीनत्तायेव अरूपसमापत्तीनं आनेञ्जता सन्तविमोक्खता च वृत्ता ध. स. अट्ठ. 246. " आनेअसप्पायसुत्त नपुं. व्य. सं. म. नि. के एक सुप्त का शीर्षक - आनेञ्ञसप्पाय सुत्त निट्ठितं छट्ट, म. नि. 3.4649- वण्णना स्त्री. म. नि. अड्ड में आनेज्ञसप्पायसुत्त की अट्ठकथा का शीर्षक आनेञसप्पायसुतवण्णना निद्विता म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3.38-45. आनेति / आनयति आ + √नी का वर्त० प्र० पु०, ए. व. [ आनयति], पास में ले आता है, किसी स्थान पर ले आता है उपलब्ध करा देता है, वापस ले आता है अतीतयोधनो पोसो, आनेति तिम्बरुत्थान सु. नि. 110 आनेति परिग्गण्हाति सु. नि. अ. 1. 137 सि.म. पु. ए. व. - थेरो "त्वं मं अत्तनो वसे आनेसीति पुन निवत्तित्वा... जा. अनु. 3.31: मि / यामि उ. पु. ए. व. - इमं पण्डितं गत्वा आनेमी ति जा. अड. 6.159 स्सामि भवि. उ. पु. ए. व. आनेस्सामि सके पुत्ते जा. अड. 7.324; न्ति वर्त प्र. पु. ब. व. भिक्खू नानादिशा नानाजनपदा पब्बज्जापेक्खे च उपसम्पदापेक्खे च आनेन्ति महाव. 26 स्साम भवि., उ. पु. ब. व. अतना समानजातियकुलतो ते दारिकं आनेस्साम जा. अट्ठ. 4.272; न्तो वर्त कृ.. पु.. प्र. वि. ए. व रथे सुभे, आनयन्तोम. वं. 19.33: आनयन्तों ति आहरापयन्तो म. के. टी. 364 (ना.): - न्ता प्र. वि. ब. व समं आनेन्तापि पारा अट्ट 1.214 - हि / नय अनु. म. पु. ए. व. त्वं ब्राह्मण, आपणा मक्कटच्छापक किणित्वा आनेहि म. नि. 2.53: तं " For Private and Personal Use Only - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - -- • - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनेति 105 आप में ब्राह्मणमानया ति, जा. अट्ठ. 5.185; - न्तु प्र. पु., ब. व. - आनेन्तेतं पभावतिन्ति, आनेन्तु एतं जा. अट्ठ. 5.291; - थ म. पु., ब. व. - अमुकं नाम पाणं आनेथा ति. म. नि. 2.37; - य्य विधि.. प्र. पु., ए. व. – सो हिंसितो। आनेय्य पुन इधाति, जा. अट्ठ. 2.203; - नये प्र. पु., ए. व. - "तञ्च देसं न पस्सामि, यतो सोदरियमानये ति, जा. अट्ठ. 1.295; - य्यासि म. पु., ए. व. - थेरं विस्सामेत्वा आनेय्यासि, जा. अट्ठ. 3.31; - य्याथ म. पु., ब. व. - मम सन्तिके आनेय्याथ असुरपुरन्ति, स. नि. 1(1).255; - य्याम उ. पु., ब. व. - सचे, भन्ते, अय्यो दापेय्य आनेय्याम मयं तं कुमारिकं इमस्स कुमारकस्सा ति, पारा. 200; - सि' अद्य.. प्र. पु., ए. व. - आनयी भरतो लुद्दो, जा. अट्ठ. 3.383; उपासिकं परिगहेत्वा आनेसि. महाव. 294; - सि' म. पु., ए. व. - "कुतो न भवं भारद्वाज, इमे आनेसि दारके, जा. अट्ठ. 7.354; - नेसिं/नयिं अद्य., उ. पु., ए. व. - आनयिं रासिं अकासिन्ति, अत्थो, अप. अट्ठ. 2.189; राजानं मम वसमानेसिं. चरिया. अट्ठ. 176; - नेसुं/नयु अद्य., प्र. पु., ब. व. - सोण कोलिविसं सिविकाय आनेसु. महाव. 251; तथा तेपानयुं योधे, म. वं. 23.99; - यिम्ह अद्य., उ. पु., ब. व. - न गन्वा आनयिम्ह थू. वं. 30 (रो.); - स्सामि/नयिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - आपणा मक्कटच्छापक किणित्वा आनेस्सामि, म. नि. 2.53; आहरिस्सामीति आनयिस्सामि, बु. वं. अट्ठ. 188; अहं अझं पजापतिं आनेस्सामीति, पाचि. 109; -स्सति प्र. पु., ए. व. - चोरेहि नीते दारके आनेस्सती ति, पारा. 80; को विधुरमिध मानयिस्सतीति, जा. अट्ठ. 7.154; पस्सितुम्पि नं कोचि न लभति, तं को इध आनयिस्सतीति वदति, जा. अट्ठ.7.154; - स्ससि म. पु.. ए. व. - जम्बुदीपे जेट्टकं सुतसोमराजानं सचे नानेस्ससि, चरिया. अट्ठ. 226; ... इमे मनुस्से, नानादिट्टिके नानयिस्ससि ते ति, जा. अट्ठ. 3.148; संसारमोचकादयो पनेत्थ कुसलसञिनो ते त्वं कथं आनयिस्ससि, जा. अट्ठ. 3.148; - स्साम उ. पु., ब. व. - ते दारिकं आनेस्सामा ति वदिसु, चरिया. अट्ठ. 182; मयं तं रागपासेन, ... बन्धित्वा आनयिस्साम, स. नि. 1(1).146; - तु/नयितुं निमि. कृ. - अहम्पि सक्कुणेय्यं अचेलं पाथिकपुत्तं इमं परिसं आनेतु न्ति, दी. नि. 3.14; सक्का आनयितुं कण्ह, यं पेतमनुसोचसीति, जा. अट्ट, 4.77; - नेत्वा/नयित्वा पू. का. कृ. - गिलानो भिक्खु ... सङ्घमज्झे आनेत्वा, महाव. 150; आनयित्वा चुद्दसिय ..., म. वं. 19.39; - नेतब्बा सं. कृ., पु.. प्र. वि., ब. व. - अत्थारकुसला खन्धकभाणकथेरापरियसित्वा आनेतब्बा, महाव. अट्ठ. 366. आप पु./नपुं.. [आपस्, नपुं.], शा. अ., जल, पानी, ला. अ., चार महाभूतों में आप-नामक एक महाभूत या भूतरूप, प्रक्षरण-लक्षण युक्त रूपधर्म, तरलता, स्नेहत्व एवं पिण्डीकरणत्व आदि के गुणों के रूप में आपोधातु, रूपधर्मों में विद्यमान स्नेहत्व एवं बन्धनत्व के गण - क. पर्याय, - आपो पयं जलं वारि पानीयं सलिलं दकं, अण्णो नीर वनं वालं तोयमम्बू दकं च कं, अभि. प. 661; पानीय मुदक तोयं जलं पाथो च अम्बु च, दकं कं सलिलं वारि आपो अम्भो पपम्पि च, नीरञ्च केबुकं पानि अमतं एलमेव च, आपोनामानि एतानि आगतानि ततो ततो, सद्द. 2.408; तुल. अमर. 1.10, 3-4; ख, व्युत्पत्ति, - आपं व्यापने, आपुणाति आपो (जो रूपधर्मों में व्याप्त हो जाए, फैल जाए, भर जाए, वह आप है), सद्द. 2.494; विस्सन्दनभावेन तं तं ठानं अप्पोतीति आपो, विसुद्धि. 1.340; ग. प्रयोग, 1. पु.. - पो प्र. वि., ए. व. - आपो आपोकायं अनपेति अनुपगच्छति, दी. नि. 1.49; लक्खणससम्भारारम्मणसम्मुतिवसेन चतुबिधो आपो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).33; 2. नपुं., - पो प्र. वि., ए. व. - ओमत्तं पन आपो अधिमत्तं .... सद्द. 1.108; आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, दी. नि. 1.49; - पं/पो द्वि. वि., ए. व. - आप आपतो सजानाति, म. नि. 1.2; आप आपतोति एत्थापि लक्खणससम्भारारम्मण सम्मुतिवसेन चतुब्बिधो आपो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).33; आपो सिञ्चं यजं उस्सेति यूपं, जा. अट्ठ. 4.269; -- पेन तृ. वि., ए. व. - आपेन फरणं आपोफरणं नाम, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.105; - स्स ष. वि., ए. व. - आपस्स आपत्तेन अननुभूतं. म. नि. 1.413; - तो प. वि., ए. व. - आप आपतो सजानाति, म. नि. 1.2; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - आपस्मि मञति, म. नि. 1.2; - पा प्र. वि., ब. व. -- किं कयिरा उदपानेन, आपा चे सब्बदा सियु, उदा. 162; - पेसु सप्त. वि., ब. व. - सब्बआपेसु गतं अल्लयूसभावलक्खणं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).126%; --- पो स्त्री., प्र. वि., ब. व. - अङ्गा एव सो जनपदो, गङ्गाय पन या उत्तरेन आपो, तासं अविदुरत्ता "उत्तरापो तिपि वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 2.145; स. प. के अन्तर्गत - For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपक 106 आपज्जति आपमुखेन दस्सितं गिलानपच्चयं सु. नि. अट्ठ. 2.96; स. उ. प. के रूप में अङ्गुत्तरा., उत्तरा., खारा., मिगतण्हिका., स्नेहना. के अन्त. द्रष्ट... आपक/आपग पु./स्त्री., [आपगा], नदी, झरना, पानी को ले जाने वाली नदी - गं द्वि. वि., ए. व. - अथ दक्खिसि आपगं, जा. अट्ठ. 7.278; आपगन्ति उदकवाहनदिआवट्ट जा. अट्ठ. 7.279; - का प्र. वि., ब. व. - लोणतोयवतियंव आपका, जा. अट्ठ. 5.450; आपकाति आपगा, अयमेव वा पाठो, जा. अट्ठ. 5.452; - के द्वि. वि., ब. व. - ... वन्दाम, सुपतित्थे च आपके, जा. अट्ठ. 7.327; आपकेति सुपतित्थाय नदिया अधिवत्था देवतापि वन्दाम, जा. अट्ठ. 7.328. आपकरणीय त्रि., जल द्वारा किए जाने योग्य – यं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - तेन आपेन आपकरणीयं करोतीति?, कथा. 121. आपगरहक त्रि., जल की निन्दा करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - ... पथवीगरहका ..., आपगरहका आपजिगुच्छका, म. नि. 1.410. आपगा स्त्री., [आपगा), नदी, झरना - सबन्ती निन्नगा सिन्धु सरिता आपगा नदी, अभि. प. 681; – गं द्वि. वि., ए. व. - यथा नरो आपगमोतरित्वा, महोदकं सलिलं सीघसोतं ..., सु. नि. 321; तत्थ आपगन्ति नदि, सु. नि. अट्ठ.2.58; - यं सप्त. वि., ए. व. - सालग्गामापगाय तु सेतुं तालीसयट्ठिक, चू. वं. 86.41; - गा प्र. वि., ब. व.. - आपकाति आपगा, अयमेव वा पाठो, जा. अट्ठ. 5.452; तुल. आपक; - कूल नपुं.. [आपगाकूल]. नदी का तट --- लं द्वि. वि., ए. व. - सोभेन्ति आपगाकूलं, मम लेणस्स पच्छतो, थेरगा. 309. आपजिगुच्छक त्रि., जल से घृणा करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - ... पठवीगरहका पथवीजिगुच्छका, आपगरहका आपजिगुच्छका, म. नि. 1.410. आपज्जति' आ + पद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आपद्यते]. 1.क. प्राप्त कर लेता है, किसी स्थिति या अवस्था में जा पहुंचता है, प्रविष्ट हो जाता है, लिप्त हो जाता है, निष्पादित करता है - ... तं आपत्तिं आपज्जति, चूळव. 10; पच्छिमा जनता दिहानुगतिं आपज्जति, चूळव. 225; सम्मोहं आपज्जतीति विसञ्जी विय सम्मूळहो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).369; - सि म. पु., ए. व. - चीवरे विकप्पं आपज्जसी ति, पारा. 327; कुलेसु चारित्तं आपज्जसीति, पाचि. 135; - न्ति प्र. पु., ब. व. - ते पच्छा विघातं आपज्जन्तीति, महाव. 257; - थ म. पु., ब. व. - धम्मिकानं... पच्छा खीयनधम्म आपज्जथाति, पाचि. 202; - ते प्र. पु., ए. व., आत्मने. - करोन्तोव पनापत्तिं, कथमापज्जते, उत्त. वि. 458; - न्तो/मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अत्तानं कप्पेन्तो विकप्पेन्तो विकप्पं आपज्जन्तो, महानि. 258; आपत्तिं आपज्जमानोपि .... ध. प. अट्ठ. 1.34; - ज्जतो/न्तस्स ष. वि., ए. व. - तस्स तं धम्म पाय पविचिनतो पविचरतो परिवीमंसमापज्जतो आरद्धं होति वीरियं असल्लीनं, विभ. 256; खीयनधम्म आपज्जन्तस्स पाचित्तियं, परि. 37; - ज्जन्ता/माना पु., प्र. वि., ब. व. - पब्बजिता आपत्ति आपज्जन्ता .... महानि. 186; आपज्जन्ताति अनगारिका सत्तसु आपत्तिक्खन्धेसु अञ्जतरं आपज्जमाना, महानि. अट्ठ. 282; - न्ते द्वि. वि., ब. व. - व्यसनं आपज्जन्ते, उदा. 154; - न्तानं ष. वि., ब. व. - पाराजिकानि चत्तारि आपज्जन्तानमेकतो, उत्त. वि. 564; - न्तेसु सप्त. वि., ब. व. -- विसुं पनापज्जन्तेसु अयमेव विनिच्छयो, उत्त. वि. 565; - मानं पु., द्वि. वि., ए. व. - अकुसलं आपज्जमानं..... अ. नि. 1(1).71; - ना वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ए. व. - दिहानुगत्तिं आपज्जमाना, दी. नि. 3.63; - ज्जाहि अनु., म. पु., ए. व. - चक्खुन्द्रिये संवर आपज्जाहि, म. नि. 3.51; - थ म. पु.. ब. व. - पटिसल्लाणे, भिक्खवे, योगमापज्जथ, स. नि. 2(1).15; - ज्जेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - वुद्धि विरुळ्हिं वेपुल्लं आपज्जेय्याति, महाव. 407; -- ज्जेय्यं उ. पु.. ए. व. -. अकुसलं आपज्जेय्य, अ. नि. 1(1).71; - ज्जेय्युं प्र. पु.. ब. व. - अनयब्यसनं आपज्जेय्यु, स. नि. 1(2).134; -- ज्जेय्याथ म. पु., ब. व. - तुहिँ आपज्जेय्याथ, म. नि. 1.343; - ज्जि '/पादि अद्य., प्र. पु., ए. व. - द्वे सङ्घादिसेसा आपत्तियो आपज्जिद्वेमासप्पटिच्छन्नायो, चूळव. 131; अन्तरा वोसानं आपादि, चूळव. 342; - ज्जि- म. पु., ए. व. - चीवरे विकप्पं आपज्जी ति, पारा. 385; --- जिं/पादि उ. पु., ए. व. - ... एक आपत्तिं आपज्जि चूळव. 98; भिय्यो पल्लोममापादि अरओ विहाराय म. नि. 1.23; - जिंसु/पाईं प्र. पु., ब. व. - न विविधा पाणा संघातं आपजिंस, दी. नि. 1.125; भीता सन्तासमापादु, स. नि. 2(1).80; - ज्जित्थ म. पु., ब. व. - मायस्मन्तो For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपज्जति 107 आपज्जापेति विवाद आपज्जित्था ति, म. नि. 3.25; - जिम्हा उ. पु., ब. व. - गारव्ह, आवुसो, धम्म आपज्जिम्हा असप्पाय, पाचि. 234; - जिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - उस्सुक्कं आपजिस्सति, चूळव. 288; - स्ससि म. पु.. ए. व. - चीवरे विकप्पं आपज्जिस्ससि, पारा. 327; - स्सामि उ. पु., ए. व. - आपत्ति आपज्जिस्सामी ति तुण्हीभूतो संङ्घ विहेसेति, पाचि. 55; - स्सन्ति प्र. पु., ब. व. - वुद्धि विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जिस्सन्ति, महाव. 51; -- स्सथ म. पु., ब. व. - वुद्धिं विरून्हि वेपुल्लं आपज्जिस्सथ, म. नि. 1.176; - स्साम उ. पु.. ब. व. - न मदं आपज्जिसाम, ... न पमादं आपज्जिस्साम, म. नि. 1.2103; - स्स काला., म. पु., ए. व. - हि त्वं. ... अप्पमादं आपज्जिस्स, ध. प. अट्ठ. 2.76; - स्सथ तदे., आत्मने. - नामरूपं वुद्धि विरूळ्हिं वेपुल्लं आपजिस्सथाति, दी. नि. 2.49; - ज्जितुं निमि. कृ. - तस्सा हि ... कायसंसग्गं आपज्जितुं, परि. अट्ठ. 244; -- ज्ज/ज्जित्वा पू. का. कृ. - संसारमापज्ज परम्पराय, म. नि. 2.270; सो सञ्चेतनिक सुक्कविस्सट्टि आपत्ति आपज्जित्वा, पाचि. 47; - तब्ब सं. कृ. - ब्बो पु.. प्र. वि., ए. व. - असतिअमनसिकारो आपज्जितब्बो, म. नि. 1.170; - बं पु., वि. वि., ए. व. - तस्मिं पुग्गले विस्सासं आपज्जितब्ब मञ्जन्ति, म. नि. 1.133; - ब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आपत्ति न आपज्जितब्बा, चूळव. 10; - ब्बं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - देसेत्वा ... आयत्तिं संवरं आपज्जितब्ब, म. नि. 2.86-87; 2.क. आपत्ति या विनय-नियमों के विपरीत आचरण करता है, अपराध कर बैठता है, (आपत्ति में) ग्रस्त या पीड़ित हो जाता है - ज्जति/ज्जते वर्त, प्र. पु., ए. व. -- आपज्जति यावतकेसु वत्थुसु, महाव. 484; करं आपज्जते नरो, उत्त. वि. 459; - ज्जरे आत्मने., वर्त.. प्र. पु., ब. व. - आगन्तुको तथावासि-कोपि आपज्जरे उभो, उत्त. वि. 553; - ज्जन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - सकवाचाय कायेन, पसुत्तो च अचित्तको, आपज्जन्तो, परि. 252; - ज्जेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सचे पन अङ्गलिमत्तम्पि आकासे तिटेय्य न आपज्जेय्य, परि. अट्ठ. 160; 1.ख. विनय-शिक्षा-पदों का उल्लंघन कर बैठता है, शिक्षापदों में निर्दिष्ट नियमों का अतिक्रमण करने लगता है - सो यानि तानि खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि तानि आपज्जतिपि वट्टातिपि, अ. नि. 1(1).263; यं विनापि चित्तेन आपज्जति, तं अचित्तक, पारा. अट्ट, 1.216; 1.ग. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, रूप को प्राप्त करता है, किसी दशा में परिवर्तित होता है या उसके साथ घुल मिल जाता है, वर्तः, प्र. वि., ए. व. - न्तुपच्चयस्सन्तो अत्तमापज्जति, सद्द. 3.647; पञ्चादीनं सङ्घयानमन्तो अत्तमापज्जते सु-न-हि इच्चेतेसु परेसु, क. व्या. 90; - न्ति प्र. पु., ब. व. - नपुंसकानि लिङ्गानि सिम्हि रस्स आपज्जन्ति, सद्द. 3.646; - न्ते तदे., आत्मने. - घो रस्समापज्जते संसासु एकवचनेसु विभत्तादेसेसु, क. व्या. 66; सिस्मि अनपुंसकानि लिङ्गानि न रस्समापज्जन्ते, क. व्या. 85; 1.घ. परिणत होता है, तार्किक रूप प्रतिफलित होता है अथवा घटित होता है - ... अभिधम्मविरोधो आपज्जति, पारा. अट्ठ. 2.98; ..., दुक्खस्स च सुखपटिविरुद्धन्ति झानमग्गफलसुखस्स, अनवज्जपच्चय परिभोगसुखस्स च तेसं अधम्मभावो आपज्जतीति एवं वत्तब्बा, नेत्ति. टी. 70. आपज्जन नपुं., आ + पद से व्यु., क्रि. ना. [बौ. सं., आपद्यन]. आ फंसना, पहुंच, प्राप्ति, तार्किक परिणति, प्रवेश, अन्तर्भाव - नं प्र. वि., ए. व. - अथ वा आपत्तीति आपज्जनं होति, पारा. अट्ट, 1.208; ... आपत्तिया आपज्जनं दहब्बं, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.36; - नेन तृ. वि., ए. व. - ... अनुप्पादधम्मतं आपज्जनेन खीणा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).135; - ने सप्त. वि., ए. व. - एवरूपं आपत्तिं आपज्जने... कथिता, अ. नि. अट्ठ. 2.208; स. उ. प. के रूप में, अना. - नपं., निषे., अप्राप्ति, प्रभावित नहीं होना, अग्रस्तता - नं प्र. वि., ए. व. - अनगारिकविनयो नाम सत्तापत्तिक्खन्ध अनापज्जनं, खु. पा. अट्ठ. 1083; दिट्ठानुगति. - नपुं., मिथ्यादृष्टि के जाल में आ फंसना - ने सप्त. वि., ए. व. - ... अजेसं पुञ्जकामानं दिवानुगतिआपज्जने नियोजनञ्च, खु. पा. अट्ठ. 91; - द्विरुत्तभावा. नपुं., व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, द्वित्त्व की प्राप्ति - विसेसाभावतो द्विरुत्तभावापज्जनतो च, सद्द. 1.265; हत्थपरामसना.- नपुं., हाथ के स्पर्श की प्राप्ति - भण्डकस्स कारणा हत्थपरामसनापज्जनं विय ...., स. नि. अट्ठ. 3.63; - क त्रि., प्राप्त करने वाला, ग्रस्त होने वाला, अपराध से पीड़ित --का पु.. प्र. वि., ब. व. - परदारचारित्तं आपज्जनका, स. नि. अट्ठ. 2.142. आपज्जापेति आ + /पद के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आपादयति], प्राप्त कराता है, संपन्न कराता For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपज्जितु 108 आपणुग्घाटन है - योजनं गतो... वत्तब्बतं आपज्जापेति. ध. स. अट्ठ. 127. आपज्जितु त्रि., आ + पद से व्यु., क. ना., प्राप्त करने वाला, ग्रस्त होने वाला, फंस जाने वाला, ग्रस्त, प्रभावित - ता पु.. प्र. वि., ए. व. - सरतायस्मा एवरूपिं आपत्तिं आपज्जिताति? चूळव. 183; एत्थ सरतु आयस्मा एवरूपिं आपत्तिं आपज्जिता, आयस्मा एवरूपिया आपत्तियाति अयमत्थो, चूळव. अट्ठ. 37; एवरूपिं गरुकं आपत्ति आपज्जिता, चूळव. 214. आपटिसन्धितो अ., प. वि., प्रतिरू. निपा., प्रतिसन्धि अथवा पुनर्जन्म के क्षण से लेकर - आपटिसन्धितो जवति धावतीति आजवं महानि. अट्ठ. 353. आपण' पु./नपुं., [आपण], शा. अ., बिक्री के लिए लाई गई वस्तुएं, ला. अ., दुकान, बाजार - णो प्र. वि., ए. व. - तु आपणो पण्यवीथिका, अभि. प. 213; आपणो कारापितो होति, महाव. 185; - णं द्वि. वि., ए. व. - आपणं पसारेन्ति, चूळव. 431; नानाभण्डानं अनेकविधं आपणं पसारेन्ति, चूळव. अट्ठ. 130; - णा/तो प. वि., ए. व. - कंसपाति आभता आपणा वा कम्मारकुला, म. नि. 1.32; आपणतो वा कंसपातिकारकानं कम्मारानं घरतो वा म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).151; - णे सप्त. वि., ए. व. - आपणे निसिन्नो पण्डितवाणिजो, जा. अट्ठ. 3.71; - णा प्र. वि., ब. व. - सब्बापणा पसारितनियामेनेव ठिता, जा. अट्ठ. 4.442; - णे द्वि. वि., ब. व. - यथापसारिते आपणे च... पहाय, जा. अट्ठ. 6.36; - णेहि तृ. वि., ब. व. - कल्याणिनामनगरी रुचिरापणेहि, चू. वं. 91.5; - णेसु सप्त. वि., ब. व. - आपणेसु हि सविआणकम्पि अविञआणकम्पि मक्कटादिकीळनभण्डकं विक्किणन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.67-68; - णानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - वीथिया उभतो पस्से आपणानि पसारिय, म. वं. 34.76; स. प. के अन्तः, - धुत्तस्स आपणसमीपेन गच्छति, जा. अट्ठ. 1.280; स. उ. प. के रूप में, अगदा., अन्तरा., ओदनिका, ओसधा., गन्धा., दुस्सा., धञा., पुप्फा०, फला., मध्वा., मालाकारा., रतना., सब्बगन्धा., सब्बा. एवं सा. के अन्त. द्रष्ट.. आपण नपुं./पु.. व्य. सं.. अंगदेश का एक निगम - णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अथ खो भगवा अनुपुब्बेन चारिक चरमानो येन आपणं तदवसरि महाव. 321; ... येन आपणं नाम अत्तरापानं निगमो तदवसरि स.नि. 164; तदवसरीति आपणबहुलताय सो निगमो "आपणो त्वेव नाम लभि, सु. नि. अट्ठ. 2.147; - णे सप्त. वि., ए. व. - ... अङ्गुत्तरापेसु आपणे नाम ब्राह्मणगामे ब्राह्मणकुले निब्बत्तित्वा..... थेरगा. अट्ठ. 2.259. आपणद्वार नपुं., तत्पु. स. [आपणद्वार], दुकान का प्रवेश द्वार - रं द्वि. वि., ए. व. - आपणद्वारं गन्चा , जा. अट्ठ. 1.281; - रेन तृ. वि., ए. व. - एको पन पुरिसो आपणद्वारेन आगच्छन्तो..., ध. प. अट्ठ 1.299; - रे सप्त. वि., ए. व. - आपणद्वारे पतितक, परि. अट्ट. 173. आपणफलक नपुं. तत्पु. स. [आपणफल्की], सामानों को रखने हेतु दुकान में लगायी गई लकड़ी की तख्ती या पट्टा - के सप्त. वि., ए. व. - एककुलस्स आपणफलके पञ्चमासक भण्डं दुपितं दिस्वा ..... पारा. अट्ट. 1.294. आपणबहुलता स्त्री., भाव. [आपणबहुलता], दुकानों की अधिकता अथवा प्रचुरता - य तृ. वि., ए. व. - आपणबहुलताय सो निगमो... लभि, सु. नि. अट्ठ. 2.147. आपणमुख नपुं.. तत्पु. स. [आपणमुख], शा. अ., दुकान का अगला भाग, ला. अ.. दुकान, स. प. के रूप में, - तस्मिं किर वीसति आपणमुखसहस्सानि विभत्तानि अहेसुं. सु. नि. अट्ठ. 2.147. आपणसाला स्त्री., [आपणशाला]. दुकान वाला घर - आपणसाला कारापिता होति, महाव. 185. आपणसुत्त नपुं., स. नि. का एक सुत्त, स. नि. 3(2).300 302. आपणिक पु., [आपणिक]. दुकानदार, व्यापारी, व्यवसायी - कयविक्कयिको सत्थवाहापणिकवाणिजा, अभि. प. 469; - को प्र. वि., ए. व. - अथ खो सो उपासको येन सो आपणिको तेनुपसङ्कमि, पाचि. 336; - कं द्वि. वि., ए. व. - उपसङ्कमित्वा तं आपणिकं एतदवोच, पाचि. 336; - स्स ष. वि., ए. व. - आपणिकस्स तण्डुलमुद्धिं थेय्यचित्तो अवहरि पारा. 76; स. उ. प. के रूप में गन्धा., धम्मा., पुष्फा., फला., मधु. के अन्त. द्रष्ट.. आपणुग्घाटन नपुं.. तत्पु. स. [आपणोद्घाटन], दुकान को खोलना - नं द्वि. वि., ए. व. - कस्सका कसिकम्म वाणिजा आपणुग्घाटनं... पयोजेन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.195. For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपतति 109 आपत्ति आपतति आ +vपत् का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आपतति], आ धमकता है, अचानक टूट पड़ता है, तेजी से आ पहुंचता है, आ जाता है, किसी ओर अभिमुख होकर उड़ता है - सि म. पु., ए. व. - पहहरूपो आपतसि, जा. अट्ठ. 6.280; आपतसीति आगच्छसि तदे. - न्तं वर्त. कृ., पु., द्वि. वि., ए. व. - तमापतन्तं दिस्वान, जा. अट्ठ. 5.356%; - न्तेसु सप्त. वि., ब. व. - रूपसद्दगन्धरसफोहब्बधम्मेसु आपतन्तेसु, मि. प. 337; - न्ती स्त्री., प्र. वि., ए. व. - धेनु वेगेन आपतन्ती, उदा. अट्ठ. 75; - ती अद्य., प्र. पु., ए. व. - दण्डमादाय नेसादो, आपती तुरितो भुसं, जा. अट्ठ. 5.356; - तिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - धनपालको हत्थी आपतिस्सति, मि. प. 199; - तित्वा/त्वान पू. का. कृ. - आपातं परिपातं, आपतित्वा आपतित्वा परिपतित्वा परिपतित्वा, उदा. अट्ठ. 290; कच्चि यन्तापतित्वान, दण्डेन समपोथयि, जा. अट्ठ. 5.344; आपतित्वानाति उपधावित्वा, जा. अट्ट. 5.345. आपतन नपुं., आ +vपत से व्यु., क्रि. ना., आ गिरना - नाय च. वि., ए. व. - सभण्डा उपगच्छन्ति, वस्सस्सापतनाय ते, अप. 1.365. आपत्त नपुं., आप का भाव. [आपत्व], जल का स्वभाव, जलत्व, तरलता - त्तेन तृ. वि., ए. व. - आपस्स आपत्तेन अननुभूतं. म. नि. 1.413. आपत्तज्ञभागिय त्रि., दूसरी आपत्ति से सम्बद्ध - यं नपुं. प्र. वि., ए. व. - आपत्तञभागियं वा होति अधिकरणअभागियं वा, पारा. 263; - स्स ष. वि., ए. व. -- आपत्तञभागियं वा होति अधिकरणञभागियं वा ति आदिमाह, या च सा अवसाने आपत्तञभागियस्स अधिकरणस्स वसेन चोदना वृत्ता, पारा. अट्ठ.2.167. आपत्ताधारता स्त्री॰, भाव., आपत्ति के विषय में उत्पन्न विवाद का आधारभाव, सात प्रकार की आपत्तियां - आपत्ताधारता चेव, किच्चाधिकरणम्पिच, विन. वि. 2760%; आपत्ताधारता नाम, सत्त आपत्तियो मता, विन. वि. 2762. आपत्ताधिकरण नपुं., तत्पु. स., भिक्षुजीवन में किए गए अपराधों या आपत्तियों से सम्बन्धित वैधानिक मुद्दा या मामला, चार प्रकार के अधिकरणों में से एक - णं प्र. वि., ए. व. - अधिकरणं नाम चत्तारि ... -विवादाधिकरणं, अनुवादाधिकरणं आपत्ताधिकरणं, किच्चाधिकरणं, पारा. 256%; पञ्चपि आपत्तिक्खन्धा आपत्ताधिकरणं, सत्तपि आपत्तिक्खन्धा आपत्ताधिकरण न्ति एवं आपत्तियेव आपत्ताधिकरणं पारा. अट्ट. 2.163; - स्स ष. वि., ए. व. - छ आपत्तिसमुट्ठाना आपत्ताधिकरणस्स मूलं, चूळव. 199; आपत्ताधिकरणस्स छ, चूळव, अट्ठ. 176; - पच्चया अ., प. वि., प्रतिरू. निपा., आपत्ति-विषयक विवाद-विषय के कारण - आपत्ताधिकरणपच्चया चतस्सो आपत्तियो आपज्जतीति, परि. अट्ठ. 199. आपत्तानापत्ति स्त्री., द्व. स., आपत्ति (अपराध) एवं अनापत्ति (अपराध का अभाव) - त्ति प्र. वि., ए. व. - विवादाधिकरणं आपत्तानापत्तीति? विवादाधिकरणं न आपत्ति, परि. 290; - तिं द्वि. वि., ए. व. - आपत्तानापत्तिं न जानाति, परि. 255; 345; परि. अट्ठ. 166. आपत्ति स्त्री., [आपत्ति], शा. अ., आकर कहीं पर गिर जाना, आ गिरना, प्राप्ति, प्रवेश, आ पहुंचना - यथा पनस्स हेतुपच्चयपरियेसनापत्ति होति, विसुद्धि. महाटी. 2.346%3; ... आपत्तीति आपज्जनं होति, पाराजिकस्साति पाराजिका गम्मस्स, पारा. अट्ठ. 1.208; "आपत्ति पाराजिकस्सा ति पाराजिकसङ्घाता आपत्ति अस्स, पाराजिकसञितस्स वा वीतिक्कमस्स आपज्जनं उल्लपनन्ति अत्थो विसुद्धि. महाटी. 1.48; कतमं आपत्ति नो अधिकरणं? सोतापत्ति समापत्ति अयं आपत्ति नो अधिकरणं, चूळव. 203; - तो प. वि., ए. व. - दसहाकारेहि पेसुझं उपसंहरति - जातितोपि ... आपत्तितोपि..., पाचि. 20; ला. अ. क., केवल स. प. में प्राप्त, तार्किक दोष में आ फंसना, अयुक्तियुक्तता में आपतित हो जाना - न पटिपत्तिया वञ्झभावापत्ति अभावपापकत्ताति चे, विसुद्धि. 2.137; निब्बानस्सेव अणआदीनम्पि निच्चभावापत्तीति चे विसुद्धि. 2.138; - तो प. वि., ए. व. - सब्बत्थ सब्बदा सब्बे सञ्च एकसदिसभावापत्तितो, विसुद्धि. 2.232; ला. अ. ख., भगवान् बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त तथा पातिमोक्ख, सुत्तविभङ्ग एवं खन्धकों में संग्रहीत विनय-शिक्षा पदों का उल्लंघन, विनयविपरीत आचरण (अपराध) में आपतन या आ फंसना, विनयमातिका के अनुसार, पाराजिक, संघादिसेस, पाचित्तिय, पाटिदेसनीय एवं दुक्कट नामक पांच आपत्तियां परिगणित - तत्थ कतमा पञ्च आपत्तियो? पाराजिकापत्ति, सङ्घादिसेसापत्ति पाचित्तियापत्ति, पाटिदेसनीयापत्ति, दुक्कटापत्ति, परि. 188; पदभाजनीय विभङ्ग के अनुसार, पाराजिक, संघादिसेस, थुल्लच्चय, पाचित्तिय, पाटिदेसनीय, For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपत्ति 110 आपत्तिकोवास दुक्कट एवं दुभासित नामक 7 आपत्तियां परिगणित - तत्थ कतमा सत्त आपत्तियो? पाराजिकापत्ति, सङ्घादिसेसापत्ति, थुल्लच्चयापत्ति, पाचित्तियापत्ति, पाटिदेसनीयापत्ति, दुक्कटापत्ति, दुब्भासितापत्ति-इमा सत्त आपत्तियो, परि. 189; पञ्च आपत्तियोति मातिकाय आगतवसेन वृत्ता, सत्ताति विभङ्गे आगतवसेन, परि. अट्ठ. 152; तत्थ सङ्घादिसेसोति सजातिसाधारणं, आपत्तीति सब्बसाधारणं, चूळव. अट्ठ. 22; एत्थ अकुसलन्ति आपत्ति अधिप्पेता, आपत्तिं आपन्नोति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.11; यस्स सिया आपत्ति, सो आविकरेय्य, परि. अट्ठ. 229; सन्ती आपत्ति आविकातब्बा, महाव. 131; एका आपत्ति एकाहप्पटिच्छन्ना, एका आपत्ति द्वीहप्पटिच्छन्ना, चूळव. 126; - तिं द्वि. वि., ए. व. - द्वीहाकारेहि आपत्तिं आपज्जति - कायेन वा आपज्जति वाचाय वा आपज्जति, परि. 239; सन्ति आपत्तिं नाविकरेय्य, सम्पजानमुसावादस्स होति, महाव. 131; - या' तृ. वि., ए. व. - छब्बग्गिया भिक्खू अनोकासकतं भिक्खं आपत्तिया चोदेन्ति, महाव. 143; - या ष. वि., ए. व. - अञ्जतरो भिक्खु आपत्तिया अदस्सने उक्खित्तको विब्ममि, महाव. 124; आपत्तिया अदस्सने च अप्पटिकम्मे, परि. अट्ठ. 179; -- या'/तो प. वि., ए. व. - द्वीहाकारेहि आपत्तिया वुद्वाति-परि 239; आपत्तितो वा आपत्तिं सङ्कमति, परि. 316; - यं/या सप्त. वि., ए.व. - सब्बञ्चेतं आपत्तियं युज्जति, पारा. अट्ठ. 1.217; असन्तिया आपत्तिया तुही भवितब्ब, महाव. 130; -- यो प्र. वि., ब. व. - तस्स होन्ति आपत्तियो पटिच्छन्नायोपि अप्पटिच्छन्नायोपि..., चूळव. 153; सो पुन उपसम्पन्नो ता आपत्तियो नच्छादेति, चूळव. 149%3; - त्तीहि तृ. वि., ब. व. - सचे मयं इमाहि आपत्तीहि अञ्जमझंकारेस्साम, चूळव. 192; - त्तीनं ष. वि., ब. व. - पञ्चन्नं आपत्तीनं अञ्जतरं आपत्तिं पस्सति, पारा. अट्ठ. 185; - त्तीहि प. वि., ब. व. - ते भिक्खू ताहि आपत्तीहि वुट्टिता होन्ति, चूळव, 195; - त्तीसु सप्त. वि., ब. व. - एकच्चासु आपत्तीसु निब्बेमतिको, एकच्चासु आपत्तीसु वेमतिको, चूळव. 153; टि., यह शब्द स्थविरवादी विनय की शब्दावली का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शब्द है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसका प्रयोग सोतापत्ति, समापत्ति जैसे शब्दों में आ पहुंचना, प्रवेश अथवा प्राप्ति हैं परन्तु विनय में इस शब्द का विशेष अर्थ पातिमोक्ख, विभङ्ग एवं खन्धकों में संगृहीत बुद्ध द्वारा प्रज्ञप्त सिक्खापदों का अतिक्रमण तथा तज्जन्य अपराध से ग्रस्त हो जाना है। पातिमोक्ख नियमों के अनुसार पाराजिक, सङ्घादिसेस, निस्सग्गियपाचित्तिय, पाचित्तिय तथा पाटिदेसनीय नामक पांच आपत्तियां हैं, इन पांचों के अतिरिक्त थुल्लच्चय, दुक्कट एवं दुब्भासित, इन तीन अन्य आपत्तियों का भी विनय में उल्लेख है। इन आठ आपत्तियों में पाराजिक एवं पाचित्तिय, ये दो गरुकापत्ति (अधिक गम्भीर अपराध) हैं तथा शेष 6 लहुकापत्ति (हलके अपराध) बतलाए गए हैं; स. उ. प. के रूप में अचित्तका., अत्था., अदुट्टल्ला., अनयव्यसना., अनवसेसा., अना., अन्तरा., अपरा., अप्पटिकम्मा० अभूतारोचना०, थुल्लच्चया., दुक्कटा., दुडुल्ला., दुब्भासिता., पाचित्तिया., पाटिदेसनीया., पाराजिका., पुनप्पुनअज्झाचारा., पुब्बा., पुरिसा., मूला., लहुका., विकारा., सङ्घादिसेसा., सप्पटिकम्मा., सभागा., सावसेसा., सोता. के अन्त. द्रष्ट.. आपत्तिअङ्गवस नपुं., किसी भी अपराध अथवा शिक्षापदों के उल्लंघन के कारण - सेन तृ. वि., ए. व. क्रि. वि. - न आपत्तिअङ्गवसेन, महाव. अट्ठ. 258. आपत्तिआपज्जनक त्रि., विनय अपराधों में आपतित, पाराजिक आदि अपराधों का आरोपी - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - तं आपत्तिआपज्जनकं आपन्नपुग्गलं. उदा. अट्ठ. 24950. आपत्तिकर त्रि., पाराजिक आदि आपत्तियों को उत्पन्न कराने वाला - रा पु.. प्र. वि., ब. व. - आपत्तिकरा धम्मा जानितब्बा, परि. 236; आपत्तिकरा धम्मा जानितब्बातिआदिम्हि एकुत्तरिकनये आपत्तिकरा धम्मा नाम छ आपत्तिसमट्ठानानि, परि. अट्ट, 158; - रं नपुं., प्र. वि., ए. व. - दिवा पटिसल्लीयन्तस्स पन परिवत्तकद्वारमेव आपत्तिकरं पारा. अट्ठ. 1.225. आपत्तिकुसलता स्त्री., भाव., आपत्तियों (विनयअपराधों) के ज्ञान के विषय में कुशलता - ता प्र. वि., ए. व. - आपत्तिकुसलता च आपत्तिवुट्ठानकुसलता च, अ. नि. 1(1).101; एकादसमे आपत्तिकुसलाति पञ्चन्नञ्च सत्तन्नञ्च आपत्तिक्खन्धानं जाननं, अ. नि. अट्ठ. 2.55. आपत्तिकुसलभाव पु., उपरिवत्, – वो प्र. वि., ए. व. - या तासं आपत्तीनं आपत्तिकसलता पा पजाननाति एवं वुत्तो आपत्तिकुसलभावो, दी. नि. अट्ठ. 3.146. आपत्तिकोट्ठास पु., तत्पु. स., आपत्तियों का एक विशेष भाग - सं द्वि. वि., ए. व. - ततिये आपन्नो होति For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपत्तिक्खन्ध 111 आपत्तिनिदान कञ्चिदेव देसन्ति कञ्चि आपत्तिकोट्ठासं आपन्नो होति. अ. नि. अट्ठ. 3.297. आपत्तिक्खन्ध पु., [बौ. सं. आपत्तिस्कन्ध], आपत्तियों की श्रेणी अथवा वर्ग, जिसमें पांच अथवा सात आपत्तियां परिगणित हैं - न्धो प्र. वि., ए. व. - सत्तन्नं आपत्तिक्खन्धानं कतमो आपत्तिक्खन्धो, परि. 2; सो आपत्तिक्खन्धो अनियतोति उच्चति. परि. अट्ठ. 192; - धानं ष. वि., ब. व. - पञ्चन्नं वा आपत्तिक्खन्धान अञ्जतरा आपत्ति, महाव. 131; - न्धं द्वि. वि., ए. व. - सुद्धकन्ति सङ्घादिसेसं विना लहुकापत्तिक्खन्धमेव, चूळव.. अट्ठ. 35; - न्धेन तृ. वि., ए. व. - ... एकेन आपत्तिक्खन्धेन सङ्गहिता-दुक्कटापत्तिक्खन्धेन, परि. 85; - न्धे सप्त. वि., ए. व. - भिक्खनो पच्छिमस्मि आपत्तिक्खन्धे यथापटिच्छन्ने परिवासं ..., चूळव. 149; पच्छा छादितत्ता पन पच्छिमस्मिं आपत्तिक्खन्धे ति वुत्तं, चूळव. अट्ठ. 35; - न्धा प्र. वि., ब. व. - पञ्चपि आपत्तिक्खन्धा आपत्ताधिकरणं, सत्तपि आपत्तिक्खन्धा आपत्ताधिकरणं, चूळव. 196; - न्धेसु सप्त. वि., ब. व. - ... यस्स सत्तसु आपत्तिक्खन्धेसु आदिम्हि वा अन्ते वा सिक्खापदं भिन्न होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).293; - न्धानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - यं देसितंनन्तजिनेन तादिना आपत्तिक्खन्धानि विवेकदस्सिना, परि. 394; यानि सत्थारा सत्त आपत्तिक्खन्धानि देसितानि. परि. अट्ठ. 238. आपत्तिगणना स्त्री., आपत्तियों अथवा विनय में प्रज्ञप्त अपराधों की गणना – ना प्र. वि., ए. व. - वत्थूनं गणनायस्स, आपत्तिगणना सिया, विन. वि. 705; 706. आपत्तिगामी त्रि., आपत्ति में आपतित, विनय-निर्दिष्ट अपराधों को करने का आरोपी, भिक्षुसंघ से सम्बद्ध अपराध को करने वाला वह भिक्षु जिसने अभी तक पाप का स्वीकरण नहीं किया है -नियो स्त्री., प्र. वि., ब. व. - तस्मिं... भिक्खुनियो कम्मप्पत्तायोपि आपत्तिगामिनियोपि, चूळव. 424. आपत्तिजनक त्रि., आपत्तियों अथवा पापों को जन्म देने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - अनारुळ्हेसु सङ्गीति, आपत्तिजनकाति हि, विन. वि. 904. आपत्तिदिट्टि त्रि., आपत्ति को आपत्ति के रूप में देखने वाला - ट्ठि पु.. प्र. वि., ए. व. - सो तस्सा आपत्तिया आपत्तिदिठ्ठि होति, महाव. 457; - नो पु., प्र. वि., ब. व. - अञ भिक्खू तस्सा आपत्तिया आपत्तिदिहिनो होन्ति, महाव. 457. आपत्तिदेसना स्त्री., तत्पु. स., आपत्ति अथवा भिक्षुसङ्ग से सम्बद्ध अपराध का स्वीकरण - नं द्वि. वि., ए. व. - ... इदं सन्धाय वुत्तं, न आपत्तिदेसनं, चूळव. अट्ठ. 133; .... आपत्तिदेसनासङ्घातानं विनयकम्मानमेतं अधिवचनं, परि. अट्ठ. 222; - किच्च नपुं.. तत्पु. स., आपत्ति के स्वीकरण का कार्य - च्चं प्र. वि., ए. व. - उद्दिस्स... भुत्तस्स पच्छा अत्वा आपत्तिदेसनाकिच्चं नाम नत्थि, पारा. अट्ठ. 2.1733; - पटिग्गहण नपुं, तत्पु. स., आपत्ति के स्वीकरण का अनुमोदन या पुष्टि - णेसु सप्त. वि., ब. व. - आपत्तिदेसनापटिग्गहणेसु पनेत्थ अयं पाळि, पारा. अट्ठ. 2.202. आपत्तिनानत्त नपुं., भाव. [आपत्तिनानात्व], भिक्षु द्वारा किए गए अपराधों की विविधता, - त्तं प्र. वि., ए. व. - अत्थि आपत्तिनानत्तं, नत्थि वत्थुस्स नानता, उत्त. वि. 557; 561. आपत्तिनानत्तता स्त्री॰, भाव. [आपत्तिनानात्व], आपत्तियों या भिक्षुसङ्घीय अपराधों की अनेकता अथवा विविधता - ता प्र. वि., ए. व. - वत्थुनानत्तता अत्थि. ... आपत्तिनानता, उत्त. वि. 557, 558, 5593; अस्थि नेव वत्थुनानत्तता नो आपत्तिनानत्तता, परि. 250; भिक्खुस्स च भिक्खुनिया च अञमअं कायसंसर्ग भिक्खुस्स सङ्घादिसेसो भिक्खनिया पाराजिकन्ति एवं आपत्तिनानत्तताव होति, परि. अट्ठ. 170. आपत्तिनिकाय पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आपत्तिनिकाय], आपत्तियों अथवा भिक्षुसङ्घ से सम्बद्ध अपराधों का वर्ग या समुच्चय, बहुत सारे अपराध – यो प्र. वि., ए. व. - अयं सङ्घादिसेसो नाम आपत्तिनिकायोति एवमेत्थ सम्बन्धो वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. 2.98; - स्स ष. वि., ए. व. - तस्सेव आपत्तिनिकायस्स नामकम्मं अधिवचनं, पारा. 150; सङ्घादिसेसोति इमस्स आपत्तिनिकायस्स नाम, पारा. अट्ठ. 2.98. आपत्तिनिदान त्रि., ब. स., आपत्तियों के कारण उत्पन्न, भिक्षुसङ्घीय अपराधों से उदित - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आपत्ताधिकरणं आपत्तिनिदानं.... परि. 289; आपत्ति निदानं अस्साति आपत्तिनिदान, परि. अट्ठ. 199. For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपत्तिनिरोध 112 आपत्तिभय आपत्तिपरियन्त 1. पु., तत्पु. स., आपत्तियों या भिक्षु द्वारा किए गए अपराधों का उपशमन या अन्त-न्तं. द्वि. वि., ए. व. - सो आपत्तिपरियन्तं न जानाति, रत्तिपरियन्तं जानाति, चूळव. 142; ततो आपत्तिपरियन्तं न जानाति, रत्तिपरियन्तं न जानातीति आदिना नयेन सद्धन्तपरिवासो दस्सितो. चूळव. अट्ठ. 34; 2. त्रि., आपत्तियों अथवा अपराधों तक परिसीमित – न्ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अस्थि भिक्खुसम्मुति आपत्तिपरियन्ता, न कुलपरियन्ता पाचि. 48. आपत्तिनिरोध पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आपत्तिनिरोध], आपत्तियों अथवा भिक्षुसङ्घ से सम्बद्ध अपराधों की समाप्ति या उप मन -धं द्वि. वि., ए. व. - आपत्तिनिरोधं न जानाति, परि. 254; निरोधन्ति अयं आपत्ति देसनाय निरुज्झति, वूपसम्मति, अयं वुट्ठानेनाति एवं आपत्तिनिरोधं न जानाति, परि. अट्ठ. 176; - गामी त्रि., आपत्तियों के निरोध को प्राप्त कराने वाला, अपराधों के उच्छेद की स्थिति की ओर ले जाने वाला - निं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - आपत्तिनिरोधगामिनि पटिपदं जानाति, परि. 254; सत्त समथे अजानन्तो पन आपत्तिनिरोधगामिनिपटिपदंन जानाति, परि. अट्ठ. 176. आपत्तिपच्चय त्रि., ब. स., आपत्ति अथवा अपराध के कारण से उत्पन्न – या स्त्री., प्र. वि., ब. व. - आपत्तिपच्चया वुत्ता, कति आपत्तियो पन, आपत्तिपच्चया वृत्ता, चतस्सोव महेसिना, उत्त. वि. 290. आपत्तिपटिग्गह पु., तत्पु. स., आपत्तियों या अपराधों की आत्मस्वीकृति-हो प्र. वि., ए. व. - ... एवं आपत्तिप्पटिग्गहो पटिग्गहो नाम, कङ्खा. अट्ट, 245. आपत्तिपटिग्गहण/आपत्तिप्पटिग्गहण नपुं.. तत्पु. स. [बौ. सं. आपत्तिप्रतिग्रहण], उपरिवत् - णं प्र. वि., ए. व. - ततो आपत्तिप्पटिग्गहणञ्च निस्सट्टचीवरदानञ्च .... कसा अट्ठ. 154; - णे सप्त. वि., ए. व. - आपत्तिपटिग्गहणे पन अयं विसेसो, यथा... आपत्तिपटिग्गाहको भिक्ख अत्ति ठपेति, पारा. अट्ठ. 2.203. आपत्तिपटिग्गाहक त्रि., अपराध-स्वीकरण को स्वीकार करने वाला- को पु.. प्र. वि., ए. व. - यथा गणरस निस्सज्जित्वा आपत्तिया देसियमानाय आपत्तिपटिग्गाहको भिक्खु अत्तिं ठपेति, पारा. अट्ठ. 2.203; - केन पु., तृ. वि., ए. व. - आपत्तिपटिग्गाहकेनापि “सुणन्तु मे आयस्मन्ता ... कवा. अट्ठ 154; - के पु., सप्त. वि., ए. व. - देसेतीति आपत्तिपटिग्गाहके सभागपुग्गले सति ... देसेतियेव, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).295. आपत्तिपरिच्छेद पु., तत्पु. स., आपत्ति या अपराध की सुनिचित सीमा - अप्पटिच्छन्नायो ति आदीस आपत्तिपरिच्छेदवसेन परिमाणायो चेव अप्पटिच्छन्नायो चाति अत्थो, चूळव. अट्ठ. 35; - विरहित त्रि०, अपराध का विनिश्चय करने में अक्षम - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अपदानं वुच्चति परिच्छेदो, आपत्तिपरिच्छेदविरहितोति अत्थो, महाव. अट्ठ. 404. आपत्तिपरिवास पु., तत्पु. स., आपत्ति में आपतित हो जाने के कारण निर्धारित अवधि के लिए परीक्ष्यमाण स्थिति में रहने का दण्ड - सं द्वि. वि., ए. व. - ते नेव तित्थियपरिवासं वसन्ति, न आपत्तिपरिवास.... वसन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.40. आपत्तिपुच्छा स्त्री., [आपत्तिपृच्छा], आपत्ति के विषय में पूछ-ताछ - च्छा प्र. वि., ए. व. - ... मातिकाय च विभङ्गे च आगतापत्तिपुच्छा, परि. अट्ठ. 152. आपत्तिबहुका स्त्री., कर्म. स., आपत्तियों की बहुलता, बहुत सारी आपत्तियां – का प्र. वि., ए. व. - आपत्तिबहुका जेय्या, पुनप्पुनं निपज्जने, विन. वि. 2248. आपत्तिबहुल त्रि., ब. स., बहुत सारे अपराध करने वाला, अपराध करते रहने की प्रकृति वाला - लो पु., प्र. वि., ए. व. -भिक्खु बालो होति अब्यत्तो आपत्तिबहलो अनपदानो, महाव. 419; आपत्तिबहुलोति, सापत्तिककालोवस्स बहु, सुद्धो निरापत्तिककालो अप्पोति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.110; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - बालस्स अब्यत्तस्स आपत्तिबहुलस्स तज्जनीयकम्मं करोन्तेन, चूळव. अट्ठ.2; - ला पु., प्र. वि., ब. व. - सापत्तिका वाति आपत्तिबहुला, महानि. अट्ट, 189; - ता स्त्री., भाव., आपत्तियों की अधिकता अथवा अनेकता - ता प्र. वि., ए. व. - आपत्तिट्ठाने पन धारावच्छेदवसेन पयोगबहुलताय आपत्तिबहुलता वेदितब्बा, पारा. अट्ठ. 2.183. आपत्तिभय नपुं.. तत्पु. स., आपत्तियों अथवा भिक्षुसङ्घीय अपराधों का भय - यानि प्र. वि., ब. व. - चत्तारिमानि, .... आपत्तिभयानि, अ. नि. 1(2).276; आपत्तिभयानीति, इमानि चत्तारि आपत्तिं निस्साय उप्पज्जनकभयानि नामाति, अ. नि. अट्ठ. 2.392; - वग्ग पु., अ. नि. के एक वग्ग का शीर्षक जिसमें भिक्षुसङ्घ के अपराधों से उत्पन्न भयों का विवरण है, अ. नि. 1(2).275-282. For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आपत्तियत् आपत्तिमयसुत्त नपुं. व्य. सं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ० नि० 1 (2). 276-278. आपत्तिभाव पु०, तत्पु, स., आपत्ति अथवा अपराध की अवस्था वो प्र. वि., ए. व. - सब्बापत्तीनं साधारणो आपत्तिभावो, पारा. अट्ठ. 2.169; - वं द्वि. वि., ए. व. आपत्तिभावं न जानासीति, महाव. अट्ट 406. आपत्तिभीरु त्रि, आपत्तियों अथवा भिक्षुसङ्घीय अपराधों से डरने वाला - ना पु०, तृ. वि., ए. व. आपत्तिभीरुना निच्च, वत्थब्बं परिमण्डल, विन. वि. 1871 - क त्रि उपरिवत् - केन तृ. वि., ए. व. - तस्मा आपत्तिभीरुकेन मंसं पटिग्गहेतब्ब, पारा अट्ठ. 2.173; म० नि० अ० (म.प.) 2.35. - आपत्तिभेद पु, तत्पु० स० [आपत्तिभेद ], अपराधों का भेदप्रभेद, आपत्तियों का वर्गीकरण - दो प्र० वि०, ए. व. इतरस्स पन सब्बो आपत्तिभेदो पठमसिक्खापदे वुत्तो, पाच. अट्ठ. 87, 176; - दं द्वि. वि., ए. व. – एवं वत्थुवसेन च चित्तवसेन च आपत्तिभेदं दस्सेत्वा..., पारा. अट्ठ. 1.298. आपत्तिमूल नपुं, तत्पु० स० [आपत्तिमूल], आपत्ति अथवा अपराध का मूल उद्गम स्थल लानि प्र० वि०, ब० व. 1 कति आपत्तिमूलानि पञ्ञत्तानि महेसिना, उत्त. वि. 876; 877. www.kobatirth.org - - आपत्तिमोक्ख पु०, तत्पु० स० [ आपत्तिमोक्ष ], आपत्तियों से मुक्ति - क्खो प्र. वि., ए. व. - एवं एकस्स सतियापि आपत्तिमोक्खो होतीति, पारा. अट्ठ. 2.215. आपत्तिलेस पु०, दस प्रकार के लेसों में से एक, लघु आपत्ति में आपतित भिक्षु को पाराजिक जैसी गम्भीर आपत्ति का आरोप लगाने वाले भिक्षु का अपराध सो प्र. वि., ए. व. आपत्तिलेसो नाम लहुकं आपत्तिं आपज्जन्तो दिट्ठो होति तञ्चे पाराजिकेन चोदेति अस्समणोसि, असक्यपुत्तियोसि पे.... आपत्ति वाचाय ... पारा 265; ... लेसो नाम दस लेसा जातिलेसो, नामलेसो, गोत्तलेसो, लिङ्गलेसो, आपत्तिलेसो, पत्तलेसो, चीवरलेसो उपज्झायलेसो, आचरियलेसो, सेनासनलेसो, पारा 264; द्रष्ट, लेस के अन्त.. आपत्तिवस्स नपुं, तत्पु० स., आपत्तियों की वर्षा, सङ्घीय अपराधों की झड़ी या प्रचुरता स्सं द्वि० वि०, ए. व. - ततो... आपत्तिवस्सं किलेसवस्सं अतिविय वस्सति, उदा. अट्ठ. 249. आपत्तिविनिच्छय' पु०, तत्पु० स० [आपत्तिविनिश्चय], विनय में निर्दिष्ट अपराधों का स्पष्ट निश्चय - यो प्र. वि., ए. 113 आपत्तिसञ व. अयं पन आदितो पट्टाय वित्थारेन आपत्तिविनिच्छयो, पारा. अट्ठ. 2.183. आपत्तिविनिच्छय' पु०, व्य. सं., पञ्ञासामी महाथेर द्वारा लिखित विनय- आपत्ति-विषयक एक ग्रन्थ का नाम - यं द्वि. वि., ए. व. रञो अभियाचितो सो येवाहं अक्खरविसोधनिं नाम गन्धं आपत्तिविनिच्छ्यं नाम गन्धञ्च तथा सङ्घञ चोदितो... अकासि, सा. वं. 141 (ना.). आपत्तिविसेस पु०, तत्पु० स०, आपत्तियों का विशिष्ट भाव, विनय में निर्दिष्ट अपराधों की विशिष्ट रूप से पहचान - सो प्र. वि., ए. व. - वत्थुविसेसेन पनेत्थ कम्मविसेसो च आपत्तिविसेसो च होती ति, पारा. अट्ठ. 2.42. आपत्तिवुट्ठान' नपुं, तत्पु० स, आपत्तियों से ऊपर उठ जाना, आपत्तियों से विमुक्ति या छुटकारा - नं प्र० वि०, ए. व. - इमं आपत्तिं आपज्जित्वा वुट्ठातुकामस्स यं तं आपत्तिवुट्ठानं..., पारा. अड. 2.99; आपत्तिवुट्ठानत्थं तुरिततुरितो छन्दजातो न होति, म. नि. अट्ठ० (म.प.) 2.110: - कुसलता स्त्री, आपत्तियों से विमुक्त हो जाने की अवस्था के ज्ञान में कुशलता - ता प्र. वि., ए. व. - आपत्तिकुसलता च आपत्तिवुट्ठानकुसलता च, अ. नि. 1 (1).101; आपत्तिवुट्ठानकुसलताति देसनाय वा कम्मवाचाय वा आपत्तीहि वुट्ठानजाननन्ति, अ. नि. अट्ठ 2.55; - ता स्त्री०, भाव, आपत्तियों से विमुक्ति की अवस्था - ता प्र० वि., ए. व. - सा वो भविस्सति अञ्ञमञ्ञानुलोमता आपत्तिवुट्ठानता विनयपुरे क्खारता, महाव. 211; आपत्तिवुट्ठानता विनयपुरेक्खारताति आपत्तीहि वुट्ठानभावो विनयं पुरतो कत्वा, चरणभावो, महाव. अट्ठ. 336. आपत्तिवुट्ठान' नपुं०, द्व० स० स० प० के अन्त. ही प्रयुक्त, आपत्ति (अपराध) तथा उससे छुटकारा - आपत्तिवुट्ठानपदस्स कोविदोति आपत्तिवुट्ठानकारणकुसलो, महाव. अ. 411. आपत्तिसङ्ग्रह पु॰, तत्पु॰ स., नौ प्रकार के संग्रहों में से एक, 'आपत्ति' शीर्षक के अन्दर शिक्षापदों का संग्रह - हो प्र० वि., ए. व. - नवसङ्गहा - वत्थुसङ्गहो, विपत्तिसङ्गहो, आपत्तिसङ्गहो, निदानसङ्गहो, पुग्गलसङ्गहो, खन्धसङ्गहो, समुट्ठानसङ्ग्रहो, अधिकरणसङ्गहो, समथसङ्गहो ति, परि. 414; यस्मा पन सत्तहापत्तीहि मुत्तं एकसिक्खापदम्प नत्थि, तस्मा सब्बानि आपत्तिया सङ्गहितानीति एवं आपत्तिसङ्ग्रहो वेदितब्बो, परि, अट्ट. 265. आपत्तिसज्ञा स्त्री, तत्पु० स०, आपत्ति के विषय में चेतना अथवा ज्ञान यतृ.वि., ए. व. अनापत्ति पन - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ... - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपत्तिसञी 114 आपदा आपत्तिसञ्जायपि अनापत्तिसायपि... होति, चूळव. अट्ठ परि. 254; - यो प्र. वि., ए. व. - समुदयन्ति छ 19. आपत्तिसमुट्ठानानि आपत्तिसमुदयो नाम, परि. अट्ठ. 176. आपत्तिसञी त्रि., आपत्ति (विनय-अपराध) के रूप में आपत्तिसमूह पु., तत्पु. स., आपत्तियों का समूह, अपराधों जानने वाला - जी पु., प्र. वि., ए. व. - यो च का ढेर -- स्स ष. वि., ए. व. - तस्सेव आपत्तिनिकायस्साति आपत्तिया आपत्तिसी , यो च अनापत्तिया अनापत्तिसञ्जी तस्स एव आपत्तिसमूहस्स, पारा, अट्ट, 2.99. ..., परि. 240; आपत्ति च होति आपत्तिसञी च, चूळव. आपत्तिसामन्त 1. त्रि., वह, जिसकी सीमा कोई आपत्ति हो अट्ठ. 19. - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - द्वे सामन्तानि खन्धसामन्तञ्च आपत्तिसन्दस्सना स्त्री., तत्पू. स., आपत्ति को अच्छी तरह आपत्तिसामन्तञ्च, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.32; 2. क्रि. से दरसाना अथवा प्रकाशित करना, वत्थुसन्दस्सना के वि. के रूप में प. वि. में प्रयुक्त, लगभग आपत्ति में अन्त. चार प्रकार की चोदनाओं में से एक - ना प्र. वि., आपतित होने जा रहा- उपज्झायो आपत्तिसामन्ता भणमाणो ए. व. - आपत्तिसन्दस्सना नाम त्वं मेथुनधम्मपाराजिकापत्तिं निवारेतब्बो, महाव. 52; आपत्तिसामन्ता ... आपत्तिया आपन्नो ति एवमादिनयप्पवत्ता, पारा. अट्ठ. 2.158. आसन्नवाचं भणमानो, महाव. अट्ठ. 248. आपत्तिसभागता स्त्री., आपत्ति से समानता, आपत्ति जैसा आपथ पु., आगमन का पथ, आने का अथवा उत्पन्न होने होना - ता प्र. वि., ए. व. - अत्थि वत्थुसभागता नो का स्थान - थो प्र. वि., ए. व. - रजोपथोति आपत्तिसभागता, ..., परि. 250; असाधारणापत्तियं नेव रागदोसमोहरजानं आपथो, आगमनट्ठानन्ति अत्थो, स. नि. वत्थुसभागता नो आपत्तिसभागता, परि. अट्ठ. 170; अट्ठ. 3.309. अत्थापत्तिसभागता, नत्थि वत्थुसभागता, उत्त. वि. 566. आपदा स्त्री., [आपद, बौ. सं. आपद], विपत्ति, बुरी एवं आपत्तिसमागत्त नपुं.. भाव., उपरिवत् - त्तं प्र. वि., ए. व. दुःख भरी अवस्था, भय से परिपूर्ण स्थिति - विपत्ति - सियापत्तिसभागत्तं, न च वत्थुसभागता, उत्त. वि. 569. चापदा, अभि. प. 385; - दा प्र. वि., ए. व. - ... विपत्ति आपत्तिसमुट्ठान नपुं., तत्पु. स., आपत्तियों की उत्पत्ति आपदाति वुच्चति, पारा. अट्ट, 1.235; - दं द्वि. वि., ए. कराने वाले छ धर्म, विनय में निर्दिष्ट अपराधों अथवा व. - बोद्धमरहन्ति आपदं, जा. अट्ठ. 5.335; तस्मा ते आपत्तियों को उठाने वाले छ प्रकार के धर्मों में से कोई एक आपदं बोद्धमरहन्ति, जा. अट्ठ. 5.337; - य/दे सप्त. - नेन तृ. वि., ए. व. - आपत्तिसमुट्ठानेन कति आपत्तियो वि., ए. व. - ... उप्पन्नाय आपदाय अत्था भविस्सति, जा. आपज्जति?, परि. 194; ततियेन आपत्तिसमुहानेन पञ्च अट्ठ. 4.147; यो मित्तो मित्तमापदे, न चजे ..., जा. अट्ठ. आपत्तियो आपज्जति, परि. अट्ठ. 173; - ना पु.. प्र. वि., 5.334; दुक्खमापज्जि विपुलं, तस्मिं पठममापदे, जा. अट्ट. ब. व. - तत्थ कतमे छ आपत्तिसमुट्ठाना, परि. 189; - 5.344; - दा प्र. वि., ब. व. - या ता होन्ति आपदा नानि प्र. वि., ब. व. - छ आपत्तिसमुट्ठानानि मूलानि, अग्गितो... दायादतो, अ. नि. 1(2).78; - नं ष. वि., ब. परि. 207; ... आपत्तिकरा धम्मा नाम छ आपत्तिसमुट्ठानानि, व. -... धनपरिच्चागं कत्वा तासं आपदानं मग्गं पिदहति परि. अट्ठ. 158; - नानं ष. वि., ब. व. - छन्नं निवारेति, अ. नि. अट्ठ. 2.306; - सु सप्त. वि., ब. व. -- आपत्तिसमुट्ठानानं कतिहि समुहानेहि समुहातीति?, सति ... आपदासु यावदत्थान्ति, चूळव. 260; आपदासूति परि. 2. वाळमिगादयो वा दिस्वा मग्गमूळहो वा दिस्वा ओलोकेतुकामो आपत्तिसमुट्ठानगाथा स्त्री., परि. के उस गाथा-संग्रह का हत्वा दवडाहं वा उदकोधं वा आगच्छन्तं दिस्वा... वट्टति, शीर्षक, जिसमें आपत्तियों को उत्पन्न कराने वाले धर्मों का चूळव. अट्ठ. 57; - यो मित्तोति यो मित्तो आपदास मित्तं उल्लेख है, परि. 198-200. न चजे, जा. अट्ठ. 5.336; - पासु अनि., सप्त. वि., ब. आपत्तिसमुट्ठानसीसकथा स्त्री., उत्त. वि. के उस भाग का व. - आपासु मे युद्धपराजितस्स, जा. अट्ट. 2.262; तत्थ शीर्षक, जिसमें आपत्तियों का उदय कराने में कारणभूत छ आपासूति आपदासु, तदे; - दत्थ पु., सङ्कटकाल के धर्मों का विवरण है, उत्त. वि. 325-423. निमित्त - त्थाय च. वि., ए. व. - देवगहदारूनि आपत्तिसमुदय पु., तत्पु. स., आपत्तियों की उत्पत्ति का नगरपटिसङ्कारिकानि आपदत्थाय निक्खित्तानि, पारा. 493 कारण - यं द्वि. वि., ए. व. - आपत्तिसमुदयं न जानाति, आपदत्थाय निक्खित्तानीति अग्निदाहेन वा पुराणभावेन वा For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपन्न 115 आपस्सेन पटिराजू परुन्धानादिना वा गोपुरट्टालकराजन्तेपुरहत्थिसालादीनं विपत्ति आपदाति वच्चति ..., पारा. अट्ठ. 1.235; - बुज्झन नपुं. विपत्ति का ज्ञान - नं प्र. वि., ए. व. -- पदं हेतन्ति यसमहत्तं वा आणमहत्तं वा पत्तानं अत्तनो आपदबुज्झनं नाम पदं कारणं जा. अट्ठ. 5.337. आपन्न त्रि., आ + पद का भू. क. कृ. [आपन्न], 1. कर्तृ. वा., शा. अ., आ पहुंचा हुआ, ला. अ. क., किसी अवस्था अथवा स्थिति में प्राप्त, ख. विनयसम्मत अपराधों में आपतित (विपत्ति से) पीड़ित या ग्रस्त - आपन्नो त्वापदम्पत्तो, अभि. प. 743; - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - .. आपत्तिं आपन्नो होति, महाव. 157; इत्थन्नामं आपत्तिं आपन्नो, चूळव. 216; आपत्तिं त्वं आवुसो, आपन्नो, महाव. 409; - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - तञ्च सत्थं अहसंसु अनयब्यसनं आपन्नं, दी. नि. 2.255; - नेन पु., तृ. वि., ए. व. - अजेन पाराजिकं आपन्नेन पढेन, पारा. अट्ठ. 2.151; - स्स ष. वि., ए. व. - सभागसङ्घादिसेसं आपन्नस्स पन सन्तिके आवि कातुं न वट्टति, चूळव. अट्ठ. 21; - न्ने पु., सप्त. वि., ए. व. - ... अप्पोस्सुक्कभावं आपन्ने भगवति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).175; - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - द्वे भिक्खू सङ्घादिसेसं आपन्ना होन्ति, चूळव. 161; -नेसु सप्त. वि., ब. व. - तुम्हेसु अप्पोस्सुक्कतं आपन्नेसु खत्तियवंसो उपच्छिज्जिस्सति, ध. प. अट्ठ. 1.258; - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - भिक्खुनी पठमापत्तिकं धम्म आपन्ना । निस्सारणीयं सङ्घादिसेसन्ति, पाचि. 305; - न्नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ... चीवरे विकप्पं आपन्नं निस्सग्गियं, पारा. 329; - न्नानि ब. क. - पञ्चमत्तानि देवतासतानि उस्सुक्कं आपन्नानि होन्ति .... उदा. 73; 2. कर्म. वा. में, वह, जिसे प्राप्त कर लिया गया है, विहित, कृत, सम्पादित - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आपन्नाति अड्डपरियोसाने आपन्ना, कङ्खा. अट्ठ. 285; - नं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - पच्छा आपन्नमापत्ति, समोधाय विधानतो, विन. वि. 526; - नाय स्त्री., ष. वि., ए. व. - आपन्नाय आपत्तिया मूलायपटिकस्सने कते, चूळव. अट्ठ. 33; 3. पु., किया जा चुका अपराध, आपत्ति - नं द्वि. वि., ए. व. - छादेति जानमापन्नं, खु. सि. 5(गा. 28); यो भिक्खु ... एवं वत्थुवसेन वा जानमापन्नं आपत्तिं याव छादेति, खु. सि. प. टी. 87; स. उ. प. के रूप में अदया., अना., उस्सुका., दया., विवादा., सोता. के अन्त. द्रष्ट.. आपन्नत्त नपुं., आपन्न का भाव. [आपन्नत्व]. प्राप्त होने या ग्रस्त होने की अवस्था - ता प. वि., ए. व. - अआणेन आपन्नत्ता तस्सा आपत्तिया मोक्खो नत्थि, पाचि. अट्ठ. 134; पुरिमकअत्तभावे जायाय सद्धि पमादं आपन्नत्ताति, ध. प. अट्ठ. 2.75. आपन्नपुग्गल पु., कर्म. स. [आपन्नपुदगल], अपराध कर चुका व्यक्ति, आपत्ति में आपतित या उससे ग्रस्त व्यक्ति - लं द्वि. वि., ए. व. - ... तं आपत्तिआपज्जनकं आपन्नपुग्गलं ... तेमेति, उदा. अट्ठ. 249-250. आपन्नभाव पु., अपराध-ग्रस्तता, आपत्ति में आ फंसने की दशा - वं द्वि. वि., ए. व. - ... आपत्तिं वा आपन्नभावं आजनन्तोयेव ... पुच्छति, पाचि. अट्ठ. 31; ... आपत्ति आपन्नभावं जानाही ति वा वदतु, चूळव. अट्ठ. 21; - वेन तृ. वि., ए. व. - तस्स हि आपत्तिं आपन्नभावेनपि दोसो, अ. नि. अट्ठ. 2.12. आपन्नसत्ता स्त्री., ब. स. [आपन्नसत्त्वा], गर्भवती नारी, वह स्त्री. जिसकी कोख में शिशु-प्राणी पहुंच चुका है - गरुगभापन्नसत्ता च गमिनी, अभि. प. 239; गभिनिवग्गस्स पठमसिक्खापदे - आपन्नसत्ताति कच्छिपविठ्ठसत्ता, पाचि. अट्ठ. 210; - तं वि. वि., ए. व. - पोस मन्ति आपन्नसत्तमेव मं छडुत्वा पब्बजितो, उदा. अट्ठ. 58; - त्तानं च./ष. वि., ब. व. - यथा आपन्नसत्तानं, भारमोरोपनं धुवं, जा. अट्ठ. 1.26. आपपसंसक त्रि., [आपप्रशंसक], जल की प्रशंसा करने वाला व्यक्ति, पानी का गुणगान करने वाला व्यक्ति - का पु. प्र. वि., ब. व. - ये पन... पथवीपसंसका पथवाभिनन्दिनो, आपपसंसका... बह्माभिनन्दिनो, म. नि. 1.410. आपयति आप के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्राप्त कराता है, ला देता है, पहंचा देता है - आपेति आपयति, आपो, सद्द. 2.553; - ये विधि., प्र. पु., ए. व. - को तेसं गतिमापये ति, जा. अट्ठ. 6.53; गतिमापयेति को मं तेसं पच्चेकबुद्धानं निवासट्टानं पापेय्य, गहेत्वा गच्छेय्याति अत्थो, जा. अट्ठ. 6.53. आपवण नपुं, आ + प+Vवण से व्यु.. क्रि. ना. [आप्रवण]. ढलान, झुकाव, उतार, पार्श्वभाग - खुदि आपवणे, खुन्दति, सद्द. 2.381. आपस्सेन नपुं., अपस्सेन का सन्धिविकारजनित रूपान्तरण, अप + आ + सि से व्यु., केवल स. उ. प. में प्राप्त [अपाश्रयण], सहारा, तकिया, आधार, टिकने का उपकरण, For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपाक 116 आपाथ स. उ. प. के रूप में, चतुरा. - त्रि., ब. स., चार प्रकार के सहारों वाला - नो पु., प्र. वि., ए. व. - सो हि चतुरापरसेनो सङ्खायेकं पटिसेवति, ... अधिवासेति, ... परिवज्जेति, ... विनोदेति ति, सु. नि. अट्ठ. 2.96. आपाक पु., आ +vपच से व्यु. [आपाक], चूल्हा, भट्टा, स. उ. प. के रूप में, - कुम्भकारापाक पु., कुम्हार का भट्ठा, आवां - का प. वि., ए. व. - पुरिसो कुम्भकारपाका उण्ह कुम्भ उद्धरित्वा समे भूमिभागो पटिसिस्सेय्य, स. नि. 1(2).74. आपाटली त्रि, [आपाटल]. (पाटलि-नामक एक वृक्ष का) पीत-रक्त, प्याजी अथवा गुलाबी रंग वाला (पुष्प) - लिं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अपाटलिं अहं फुप्फ उज्झितं सुमहापथे, थूपम्हि अभिरोपेसिं, अप. 1.119; पाठा. अपाटलिं. आपाणकोटिकं अ., अव्ययी. स. [आप्राणकोटिक], अन्तिम सांस लेने तक, प्राण निकलने तक, मृत्यु पर्यन्त - भिक्खू पस्सामि यावजीवं आपाणकोटिकं परिपण्णं परिसद्ध ब्रह्मचरिये चरन्ते, म. नि. 2.330; तत्थ आपाणकोटिकन्ति पाणोति जीवितं, तं मरियादं अन्तो करित्वा, मरणसमयेपि चरन्तियेव, तं न वीतिक्कमन्तीति वृत्तं होति, "अपाणकोटिकान्तिपि पाठो, आजीवितपरियन्तन्ति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.251. आपाणकोटियं अ., उपरिवत् – आपाणकोटिया आपाणकोटियं कपच्चयस्स यकारादेसो, सद्द. 3.749. आपातपरिपातं अ., क्रि. वि., किसी की ओर उन्मुख होकर । गिरते हुए, चारों ओर उड़कर गिरते हुए - सम्बहुला अधिपातका तेसु तेलप्पदीपेसु आपातपरिपातं अनयं आपज्जन्ति, उदा. 154; आपातपरिपातन्ति आपातं परिपातं, आपतित्वा आपतित्वा परिपतित्वा परिपतित्वा, अभिमुखपातञ्चेव परिममित्वा पातञ्च कत्वाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 290. आपातलिका स्त्री., [आपातलिका], वेतालीय जाति के छन्द का एक प्रभेद, जिसके प्रथम एवं तृतीय चरणों में छ वर्ण एवं द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों में आठ वर्ण रहते हैं - आपातलिका कथिता यं भग्गान्ते यदि पुब्बमिवञ्चं, वुत्तो. 30 (पृ. 165). आपाथ पु., आ + पथ के प्रेर. से व्यु. [आपाथ], इन्द्रियों एवं चित्त का विषय, आलम्बन अथवा क्षेत्र, क. प्रायः गच्छति, आगच्छति एवं उपगच्छति के साथ प्रयुक्त होने पर; विषय बन जाता है, सुस्पष्ट हो जाता है, प्रायः इन्द्रियवाचक, चित्तवाचक एवं संज्ञावाचक षष्ठी-विभक्त्यन्त अथवा सप्तमी-विभक्त्यन्त नामों के पश्चात् प्रयोग में प्राप्त - ... चक्खुविओय्या रूपा चक्खुस्स आपाथं आगच्छन्ति, महाव. 256; धम्मे आवज्जन्तस्स आपाथं अनागतधम्मो नाम नत्थीति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.62; अतीतं ... धम्मा सब्बाकारेन बुद्धस्स भगवतो आणमुखे आपाथं आगच्छन्ति, पटि. म. 368; आपाथं आगच्छन्तीति ओसरणं उपेन्ति, पटि. म. अट्ठ. 2.237; ख. कभी कभी, ष. वि./सप्त. वि. में अन्त होने वाले नामों के बिना भी प्रयोग में प्राप्त - बाहिरा च रूपा न आपाथं आगच्छन्ति, म. नि. 1.251; एवं ताव दिट्ठवसेन रूपारम्मणं आपाथमागच्छति, ध. स. अट्ठ. 118; तीणि महाभूतानि एकप्पहारेनेव आपाथं आगच्छन्ति, ध. स. अट्ठ, 364; ग. अन्य क्रि. रू. के साथ भी यदा-कदा प्रयुक्त - आपाथं न वजन्ति ये, ते धम्मारम्मणा होन्ति, अभि. अव. 301; सम्मासम्बुद्धस्स रूप इमेसं अक्खीनं आपाथं करोही ति, पारा. अट्ठ. 1.32; आपाथं करोहीति सम्मुखं करोहि, गोचरं करोहीति अत्थो, सारत्थ. टी. 1.112; आपाथकनिसादी होतीति मनुस्सानं आपाथे दस्सन्हाने निसीदति, दी. नि. अट्ठ. 3.20; आपाथे पतितं अत्तनो वा परस्स वा साटकवेठनादिवत्थुकं रूपारम्मणं स. नि. अट्ठ. 2.116; ... भिक्खुनो आणमुखे एतापथो, एवं आपाथं गच्छामीति वृत्तं होती, म. नि. अट्ठ. (मू. प.) 1(2).282; स. उ. प. के रूप में अना.. एता., चक्ख्वा . के अन्त. द्रष्ट.; - काल पु., तत्पु. स., विषय या क्षेत्र बनने का समय, सुस्पष्ट रूप से प्रकट होने का काल - ले सप्त. वि., ए. व. - तेनेव हिस्स आपाथकाले विय विमद्दनकालेपि कथेन्तस्स विय सुणन्तस्सापि सम्मुखीभावतो... वुत्तं, वि. व. अट्ठ. 195; - गत त्रि., [आपाथगत्], इन्द्रियों अथवा चित्त द्वारा गृहीत या ज्ञात, पकड़ में आया हुआ - तं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - कनिट्ठमापाथगतं गहेत्वा, जा. अट्ठ. 4.147; -- ते सप्त. वि., ए. व. - चक्खुद्वारे पन रूपे आपाथगते भवङ्गचलनतो उद्धं सककच्चिं निप्फादनवसेन आवज्जनादीसु उप्पज्जित्वा ..., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).273; चक्खु द्वारे पन रूपे आपाथगते इटे मे आरम्मणे रागो उप्पन्नो, विभ. अट्ठ. 37: - तानि नपुं., वि. वि., ब. व. - ठपेत्वा आपाथगतानि रूपादीनि, विभ. अट्ठ. 383; - तेसु सप्त. वि., ए. व. - घानद्वारादीसु पन गन्धादीसु आपाथगतेसु एको एवं परिग्गहं पट्टपेति, विभ. अट्ठ. 38; - गतत्त नपुं, भाव. [आपाथगतत्व], आपाथ में अथवा इन्द्रियों आदि की पकड़ के अन्दर रहना 450 For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपाथक 117 आपादेति - त्ता प. वि., ए. व. - तत्थ असम्भिन्नत्ता चक्खुस्स, आपाथगतत्ता रूपानं, आलोकसन्निस्सितं, मनसिकारहेतुकं ..., ध. स. अट्ठ. 318; - गम पु., गम से व्यु., आपाथ अथवा विषय बन जाना, आलम्बनत्व - मेन तृ. वि., ए. व. - असम्भेदेन चक्खुस्स, रूपापाथगमेन च, ... जायते चक्खुविजाणं, अभि. अव. 69; - गमन नपुं.. उपरिवत् - नं प्र. वि., ए. व. - एवं पच्चुप्पन्न रूपादीन चक्खुपसादादिघट्टनञ्च भवङ्गचलनसमत्थताय मनोद्वारे आपाथगमनञ्च अपुब्बं अचरिमं एकक्खणेयेव होति, ध. स. अट्ठ. 117-118; – ने सप्त. वि., ए. व. - ... अत्तनो आपाथगमने सति... अत्थो, उदा. अट्ठ. 290; - द्वान नपुं.. तत्पु. स. [आपाथस्थान], दृष्टिपथ में आया हुआ स्थान - ने सप्त. वि., ए. व. - आपाथकज्झायीति मनुस्सानं आपाथट्टाने समाधिसमापन्नो... झायी, विसुद्धि. महाटी. 1.50; - दस त्रि०, आपाय+दिस से व्यु., दृष्टिपथ में आए हुए सभी कुछ को देखने वाला- सो पु., प्र. वि., ए. व. - गहपात, अरियसावको महापओ पुथुपओ आपातदसो पञआसम्पन्नो, अ. नि. 1(2).78; पाठा. आपातदसो; - मत्त त्रि.., [आपाथमात्र], वह, जो इन्द्रियों अथवा चित्त के आलम्बन मात्र के रूप में है, केवल विषय, केवल गोचर - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - अञत्र अभिनिपातमत्ताति अञत्र आपातमत्ता, विभ. 363; पाठा. आपातमत्ता; - रमणीय त्रि., तत्पु. स. [आपाथरमणीय], आपाथ अथवा इन्द्रियों के गोचर के रूप में मनोहर एवं आकर्षक, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किए जाते ही मनोहारी - तो प. वि., ए. व. - भगवतो एव वा वचनं अभिक्कन्तं ... आपाथरमणीयतो, ... आह, उदा. अट्ठ.233-34. आपाथक पु., आपाथ से इसी शब्द के अर्थ में व्यु. - के। सप्त. वि., ए. व. - ... आपाथके जनस्स पाकटट्ठाने झायी, विसुद्धि. महाटी. 1.50; - ज्झायी त्रि., लोगों की दृष्टि के सामने ही ध्यान लगाने का ढोंग रचने वाला - यी पु., प्र. वि., ए. व. - ... समाहितो विय सेय्यं कप्पेति, आपाथकज्झायीव होति, महानि. 164; आपाथकज्झायीव होतीति सम्मुखा आगतानं मनुस्सानं झानं समापज्जन्तो विय सन्तभावं दस्सेति, महानि. अट्ठ. 269; - निसादी त्रि., लोगों के दृष्टिपथ में बैठने वाला, लोगों के आमने सामने बैठने वाला-दी प्र. वि., ए. व. - तपस्सी आपाथकनिसादी होति, दी. नि. 3.31; आपाथकनिसादी होतीति मनुस्सानं आपाथे दस्सनट्ठाने निसीदति, दी. नि. अट्ठ. 3.20. आपाद पु., आ +vपद से व्यु. [आपाद], प्राप्ति, अवाप्ति, परिग्रह, पारिश्रमिक - दो प्र. वि., ए. व. - अनापादासूति आपादानं आपादो, परिग्गहोति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.160. आपादक 1. त्रि., आ + पद से व्यु., उत्पन्न करने वाला, ले जाने वाला - कं नपुं., वि. वि., ए. व. - अभिआपादक चतुत्थज्झानं समापज्जित्वा ..., वि. व. अट्ठ. 4; 2. नपुं, शिशु की देख-रेख करने वाला, संरक्षक, प्रतिपालक - का पु.. प्र. वि., ब. व. - बहुकारा, मातापितरो पुत्तानं आपादका पोसका इमस्स लोकस्स दस्सेतारो, अ. नि. 1(1).78; आपादकाति वड्डका अनुपालका, अ. नि. अट्ठ. 2.28; - दिका स्त्री., धाय, धात्री, उपमाता, पालने-पोसने वाली नारी- का प्र. वि., ए. व. - बहूपकारा, भन्ते, महापजापति गोतमी भगवतो मातच्छा आपादिका पोसिका खीरस्स दायिका, म. नि. 3.303; आपादिकाति संवडिका, तुम्हाकं हत्थपादेसु हत्थपादकिच्चं असाधेन्तेसु हत्थे च पादे च वड्डत्वा पटिजग्गिकाति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.232-33; तस्स बुद्धस्स मातुच्छा, जीवितापादिका अयं अप. 2.206. आपादित त्रि., आ + पद के प्रेर. का भू. क. कृ. [आपादित], 1. पूरा किया जा चुका, प्राप्त हो चुका, निष्पादित, प्राप्त कराया जा चुका - तो पु., प्र. वि., ए. व. - संवेगमापादितोति- महानि. 301; घट्टितोति, घट्टनमापादितो, महानि. अट्ठ. 381; ... पूतिभावं आपादितरुक्खो विय ..., स. नि. अट्ठ. 3.77; उक्खित्तभण्डिकभावं आपादितेति अत्थो, महाव. अट्ठ. 385; 2. पाला या पोसा गया, भरण-पोषण किया गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आपादितोति उपड्ढबलितो पटिपादितो, महानि. अट्ठ. 228; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... जीवितं आपादितं पालितं... पवत्तितं. अ. नि. अट्ठ. 2.100; - त्त नपुं., आपादित का भाव. [आपादितत्व], प्राप्त करायी गयी अवस्था अथवा स्थितित्ता प. वि., ए. व. - ... अनुप्पत्तिधम्मतं आपादितत्ता ... अत्थो, उदा. अट्ठ. 38. आपादेति आ +vपद का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [आपादयति], 1. (किसी विशेष स्थिति अथवा अवस्था को) प्राप्त कराता है अथवा उसमें पहुंचा देता है, निष्पादित कराता है --- सो अभिक्कमन्तो पटिक्कमन्तो बहू खुद्दके पाणे सङ्घातं आपादेति, म. नि. 2.45; ... वधं आपादेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.42; - न्ति ब. व. - ... यावजीवं परिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरन्ति, अद्धानञ्च आपादेन्तीति, स. नि. 2(2).118; आपादेन्तीति पवेणिं पटिपादेन्ति, दीघरत्तं For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जा आपादेतु 118 आपानीय अनुबन्धापेन्ति, स. नि. अट्ठ. 3.39; - न्ता पु., वर्त. कृ., आपानकमनुस्स पु.. कर्म. स.. पियक्कड़ मनुष्य, मदिरापान प्र. वि., ब. व. - बहू खुद्दके पाणे सङ्घातं आपादेन्ताति, के व्यसन से पीड़ित आदमी - स्सो प्र. वि., ए. व. - महाव. 181; आपादेन्ताति विनासं आपादेन्ता, महाव. अट्ठ. .... आपानकमनुस्सो विय आचरियुपज्झायादिको कल्याणमित्तो, 330; - य्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - इदानि अनुबन्धित्वा स. नि. अट्ठ. 2.105. अनयब्यसनं आपादेय्युन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आपानभूमि स्त्री., तत्पु. स. [आपानभूमि], मधुशाला, 1(1).121; - सि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - सुवीरो ... मदिरालय, एक साथ मिल बैठकर मदिरा पीने वाला स्थान देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा पमादं आपादेसि, स. नि. 1(1). - मि द्वि. वि., ए. व. - ... तेसं आपानभूमि गन्त्वा तेसं 250; आपादेसीति पमादं अकासि, स. नि. अट्ट, 1.297; - किरियं ओलोकेत्वा अयं सुरा इमेहि इमिना नाम कारणेन सिं उ. पु., ए. व. - माहं खुद्दके पाणे विसमगते सङ्घातं योजिता ति ञत्वा ..... जा. अट्ठ. 1.260; ... सेतच्छत्तञ्च आपादेसिन्ति, म. नि. 1.112; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आपानभूमिञ्च वत्थं... दस्सेसि, जा. अट्ठ. 5.281; - यं 1(1).358-59; - स्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - अनयव्यसनं सप्त. वि., ए. व. - ... उदककीळ कीळित्वा उय्यानं गन्वा आपादेस्सामि वज्जी ति, दी. नि. 2.56; आपादेस्सामीति आपानभूमियं निसीदि, ध. प. अट्ठ. 2.45. पापयिस्सामि, दी. नि. अट्ठ. 2.95; - तुं निमि. कृ. - आपानमण्डप पु., तत्पु. स. [आपानमण्डप], खुली हुई फाति कातुन्ति वढिं आपादेतुं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) मधुशाला, सुरापान के निमित्त तैयार किया गया मण्डप - 1(2).156; - दीयति कर्म. वा., प्र. पु., ए. व. [आपाद्यते]. पं द्वि. वि., ए. व. - उय्याने आपानमण्डपं कारेत्वा, जा. प्राप्त कराया जाता है, पहुंचाया जाता है - विक्खिप्पपेति अट्ठ. 6.221; ... संवसित्वा सुरापानमण्डपं गन्त्वा... पिवि, विक्खिपीयति विक्खेपं आपादीयति, पटि. म. अट्ठ. 2.68; जा. अट्ठ. 4.425. 2. पालन-पोषण कराता है, देखभाल कराता है - य्यं आपानमण्डल नपुं, तत्पु. स. [आपानमण्डल], मदिरापान विधि., उ. पु.. ए. व. - यंनूनाहं इमं दारकं अस्सम नेत्वा के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला एक गोलाकार क्षेत्र, आपादेय्यं पोसेय्यं वड्डेय्यन्ति, दी. नि. 2.252; आपादेय्यन्ति सुरापान के निमित्त प्रयुक्त गोलाकार स्थल - लं' प्र. वि., निप्फादेय्य, आयु वा पापुणापेय्यं, दी. नि. अट्ठ. 2.361; 3. ए. व. - सकलं लुम्बिनीवनं चित्तलतावनसदिसं. ला. अ., तात्पर्य अथवा आशय के रूप में ग्रहण करता है महानुभावस्स ओ सुसज्जितं आपानमण्डलं विय अहोसि. - त्वा पू. का. कृ. - अयमेत्थ... आयं अत्थतो आपादेत्वा जा. अट्ठ. 1.63; अयं मे दारकानं आपानमण्डलं भविस्सति, .... सु. नि. अट्ठ. 2.169. कीळाभूमि भविस्सति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).266; - आपादेतु त्रि., आ +vपद के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना., लं द्वि. वि., ए. व. - ... आपानमण्डलं सज्जेत्वा निसिन्ना प्रतिपालक, पोषक, बलवर्धक, प्राप्त कराने वाला-ता पु.. केवलं इमं सुरं वण्णेथ, जा. अट्ठ. 1.260. प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि जातस्स आपादेता, एवं आपानीय त्रि., आ +/पा का सं. कृ., शा. अ., अच्छी तरह मोग्गल्लानो, म. नि. 3.297; आपादेताति पोसेता, म. नि. से पीने योग्य, पानी के साथ जुड़ा हुआ, ला. अ., वह, अट्ठ. (उप.प.) 3.228. जिसमें पानी या मदिरा को पिया जाए - यो पु., प्र. वि., आपान' नपुं., आ + पा से व्यु., क्रि. ना. [आपान]. 1. एक ए. व. - यस्मा पनेत्थ आप पिवन्ति, तस्मा 'आपानीयो ति साथ बैठकर पीने का स्थान, मधुशाला, मदिरालय, 2. वुच्चति, स. नि. अट्ठ. 2.105; - स्स नपुं.. ष. वि., ए. व. पानगोष्ठी, मद्यपों की मण्डली - आपानं पानमण्डलं, - आपानीयकंसोति आपानीयस्स मधुरपानकस्स भरितकंसो, अभि. प. 534; आभुसं पिवन्त्यस्मिन्ति आपानं, आगन्त्वा म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).271; - कंस पु., तत्पु. स., पिवन्ति एत्था ति वा, अभि. प. सूची (पृ.) 38(रो.); - नं शा. अ., कांसे का वह पात्र जिससे जल पिया जा सके, द्वि. वि., ए. व. - मयं सुरापातिय विसञ्जीकरणं भेसज्जं ला. अ., सुरापात्र, जाम - सो प्र. वि., ए. व. - पक्खिपित्वा आपानं सज्जेत्वा निसीदित्वा .... जा. अट्ठ. आपानीयो च सो कंसो चाति आपानीयकंसो 1.259. सुरामण्डसरकस्सेतं नाम, स. नि. अट्ठ. 2.105; सेय्यथापि, आपान' पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के एक वन्निराजा का नाम - भिक्खवे, आपानीयकसो वण्णसम्पन्नो गन्धसम्पन्नो रससम्पन्नो, कदलीवाटमापानं तिपव्ह हिमियानक च. वं. 90.33. म. नि. 1.397; आपानीयकंसोति आपानीयस्स मधुरपानकस्स For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपापेति 119 भरितकंसो, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).271; - सं द्वि. वि., ए. व. - अपि न सो परिसो अ{ आपानीयकंसं पिवेय्य .... म. नि. 3.45; - सेन तृ. वि., ए. व. - आपानीयकसेन निमन्तनपुरिसो विय लोके... निमन्तकजनो, स. नि. अट्ठ. 2.105; - सम्हि, सप्त. कि. ए. व. तत्थ यथा आपानीयकंसम्हि गणे च आदीनवे च आरोचिते... भविस्सति, स. नि. अट्ठ. 2.105. आपापेति आ + प + आप का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [आप्रापयति], प्राप्त कराता है, स्थिति-विशेष में पहुंचाता है - किलेसपरिळाहतो मुत्तो सब्बसत्ते अस्सासेति, सन्तभावं आपापेति, अप. अट्ठ. 2.98. आपाभिनन्दी त्रि., [आपाभिनन्दिन], आप-तत्त्व का अभिनन्दन करने वाला, जल-तत्त्व में आनन्द लेने वाला - न्दिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - ... अहेसु. .... तया पुब्बे समणब्राह्मणा लोकरिमं पथवीपसंसका पथवाभिनन्दिनो, आपपसंसका आपाभिनन्दिनो, म. नि. 1.410. आपायिक त्रि., अपाय से व्यु. [बौ. सं. आपायिक], तिरच्छान, निरय (नरक), पेत्तिविसय (प्रेतयोनि) तथा असुरकाय, इन चार प्रकार की दुखद गतियों अथवा अवस्थाओं के साथ जुड़ा हुआ, चार प्रकार की दुखभरी योनियों में जन्म लेने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अपायेसु जातो आपायिको, क. व्या. 404; असद्धम्महि... देवदत्तो आपायिको नेरयिको कप्पट्ठो अतेकिच्छो, चूळव. 342; अपाये निब्बत्तिस्सतीति आपायिको, चूळव. अट्ठ. 110; - का ब. व. - इति आपायिकापि नानत्तकाया एकत्तसञिनोत्वेव सङ्घयं गच्छन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.166; कति आपायिका वुत्ता, बुद्धनादिच्चबन्धुना, परि. 394; - कं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - आपायिकं दुक्खं उपलब्भतीति, कथा. 51; -स्स नपुं., ष. वि., ए. व. - आपायिकस्स दुक्खस्स पटिसंवेदी उपलब्मतीति? कथा. 51; - के नपुं., द्वि. वि., ब. व. -- दिद्विसम्पन्नो पुग्गलो आपायिके रूपे रज्जेय्याति?, कथा. 382; - कानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - अपाये भवानि आपायिकानि आदिसद्देन तदनं सब्बसंसारदुक्खं सङ्गण्हाति, विसुद्धि. महाटी. 1.37; - कानं नपुं., ष. वि., ब. व. - आपायिकानं ठानानं दुग्गतिवेदनियानं अप्पहाना... वदामि, म. नि. 1.353; आपायिकानं... अपाये निब्बत्तापकानं कारणानं म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).221; - दुक्ख नपुं, कर्म. स. [बौ. सं. आपायिकदुःख], दुखदायक योनियों में जन्म ग्रहण करने से प्राप्त दुःख - क्खं द्वि. वि., ए. व. - ... दुक्खं आपायिकदुक्खं अनुभवन्ति, पे. व. अट्ठ, 51. आपुच्छति आपायिकवग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 1(1).300-308; अ. नि. अट्ठ. 2.224-227. आपायिकसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 1(1).300. आपिलति द्रष्ट, अपिलपित के अन्त... आपीयति आ +vपा के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आपीयते], ठीक से पिया जाता है, पूरी तरह पी लिया जाता है अथवा सोख लिया जाता है - अप्पोति आपियति अप्पायतीति वा आपो, विसुद्धि. 1.354; अप्पेति, आपीयति, अप्पायतीति वा आपो, पटि. म. अट्ठ. 1.69; आपीयतीति सोसीयति, पिवीयतीति केचि, विसद्धि. महाटी. 1.416. आपुच्छ/आपुच्छा आ + पुच्छ का पू. का. कृ., पूछ कर अनुमति लेकर - ..., भणति आपुच्छहं गमिस्सामि, थेरीगा. 416; 418; भणति आपुच्छह गमिस्सामीति अहं तुम्हे आपुच्छित्वा यत्थ कत्थचि गमिस्सामी ति सो मम सामिको... भणति. थेरीगा. अट्ट, 290. आपुच्छक त्रि., आ + पुच्छ से व्यु., पूछने वाला, अनुमति ले कर काम करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - "आपुच्छका च परियेसन्तापि अदिस्वा सब्बे आपच्छिता अम्हेही ति सचिनो होन्ति, महाव. अट्ठ. 270. आपुच्छकरणनिद्देस पु., खु. सि. के सत्रहवें खण्ड का शीर्षक, खु. सि. 22-23. आपुच्छति आ + पुच्छ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आपृच्छति], 1. पूछता है, प्रश्न करता है - परिनिब्बानाय च सत्थारं आपुच्छति, उदा. अट्ठ. 349; - च्छिं अद्य., उ. पु., ए. व. - धम्मराजं उपगम्म, आपुछि पञ्हमुत्तमं, अप. 1.99; आपुच्छि पहमुत्तमन्ति उत्तम खन्धायतनधातुसच्चसमुप्पादादिपटिसंयुत्तं पन्हं अपुच्छिन्ति अत्थो, अप. अट्ठ. 2.67; - च्छु/च्छिंसु प्र. पु., ब. व. - आयस्मन्तं सारिपुत्तं उत्तरि पञ्हं अपुच्छु, म. नि. 1.60; आयस्मन्त सारिपुत्त उत्तरि पहं अपच्छिस. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).215; 2. अनुमति लेता है, अनुमोदन प्राप्त करता है, स्वीकृति प्राप्त करता है - सापेक्खो गन्वा तत्थ ठितो आपुच्छति, पाचि. 63; - च्छामि उ. पु., ए. व. -- सङ्घ भन्ते इमस्स दारकस्स भण्डुकम्म आपुच्छामीति, महाव. अट्ठ. 270; - च्छि अद्य.. प्र. पु.. ए. व. - ... ब्राह्मणं पच्चुग्गन्वा परिक्खारग्गहणं आपुच्छि, जा. अट्ठ. 7.311; सो तत्थेव दण्डं छड्डत्वा पत्तचीवरपटिग्गहणं आपुच्छि, ध. प. अट्ठ. 1.37; राजा "अनुभागो अस्थि, अनापुच्छित्वा खादितुं For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ति आपुच्छन 120 आपुण्णता न युत्तान्ति महाथेरं आपुच्छि, स. नि. अट्ट, 3.70; - च्छि - ने सप्त. वि., ए. व. - पुन आपच्छने किच्चं, नत्थीति, अद्य., प्र. पु., ए. व. - "नागराज, चिरं वसिम्ह गमिस्सामा ति परिदीपितं विन. वि. 2943; - नेसु ब. व. - एस नयो आपुच्छि, जा. अट्ठ. 4.423; 3. (प्रायः तृ. वि. में अन्त होने सब्बआपुच्छनेसु, महाव. अट्ठ. 271; -- काल पु., तत्पु. स. वाले नामपद के साथ प्रयुक्त) निवेदित करता है, स्वागत [आपृच्छनकाल], बिदाई लेने हेतु निवेदन करने का समय करता है, सत्कृत करता है - च्छि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - ले सप्त. वि., ए. व. - सत्ताहच्चयेन पुन आपुच्छनकाले - पच्चुग्गन्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेसि, पानीयेन आपच्छि, .... वदन्तो, जा. अट्ठ. 6.292; - किच्च नपुं, तत्पु. स. महाव. 407; - च्छित्वा पू. का. कृ. - ... भिक्खं दिस्वा [आपृच्छनकृत्य], विदाई लेने हेतु अनुमति मांगने का काम पिण्डपातेन आपुच्छित्वा, ध. प. अट्ठ. 2.61; - न्ति प्र. --- च्चं प्र. वि., ए. व. - नत्थि इमस्सापुच्छनकिच्चं, महाव. पु., ब. व. - सम्बहुला ... आचरियुपज्झाये न आपुच्छन्ति, अट्ठ. 278; - विधि पु., तत्पु. स. [आपृच्छनविधि], महाव. 149; गामप्पवेसनम्पि आपुच्छन्तियेव, चूळव. अठ्ठ. अनुमति मांगने का तरीका - धि प्र. वि., ए. व. - तत्रायं 73 -- च्छं पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आपुच्छं गच्छति, आपच्छनविधि- महाव. अट्ठ. 270; - नाकार पु., तत्पु. पाचि. 63; - न्तेन पु., वर्त. कृ., तृ. वि., ए. व. - स., अनुमति प्राप्त करने की क्रिया का स्वरूप-रं द्वि. गामप्पवेसन आपुच्छन्तेनापि... वत्तब्ब, महाव. अट्ठ. 271; वि., ए. व. - तरस आपुच्छनाकार अनुजानामि, ... --च्छाहि अनु., म. पु., ए. व. - "तेन हितं आपुच्छाही ति, वण्णयिस्साम, महाव. अट्ठ. 238. ध. प. अट्ठ. 1.5; - च्छथ म. पु., ब. व. - मा में आपुच्छा आ +vपुच्छ का पू. का. कृ., पूछ कर, अनुमति गामप्पवेसनं आपुच्छथाति, चूळव. अट्ठ.6; - च्छाम उ. अथवा अनुमोदन को पाकर - ... सेनासनं आपुच्छा पु., ब. व. - तस्स भणडुकम्म आपुच्छामा ति... वट्टति, पक्कमितब्ब, चूळव. 354; अनुजानामि, भिक्खवे, सन्तं महाव. अट्ठ. 270; - च्छेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - भिक्खू आपुच्छा कुलानि पयिरुपासितुं, पाचि. 137. यंनूनाहं पटिकच्चेव आपच्छेय्यान्ति, महाव. 365; -च्छिंसु आपुच्छापेति आ +vपुच्छ का प्रेर., वर्त०, प्र. पु., ए. व., प्र. पु., ब. व. - ... आचरियुपज्झाये न आपुच्छिंसु, महाव. विदा पाने हेतु अनुमति दिलाता है, पछवाता है, पूछने हेतु 149; -च्छिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. -भिक्खं दिस्वा प्रेरित करता है - एवमिमे सीलादीहि वडिरसन्तीति सभारे आपुच्छिस्सामीति, पाचि. अट्ट. 111; - च्छिस्साम ब. व. कातुकामो आपुच्छापति, स. नि. अट्ठ. 2.226; - तु निमि. - चारिक चरणत्थाय आपुच्छिस्साम, पारा. अट्ट, 1.151; - कृ. - आपुच्छामा ति आदिना नयेन आपुच्छापेतुं वट्टति, च्छितुं निमि. कृ. - दिहानतो पट्ठाय आपुच्छितुयेव महाव, अट्ठ. 270; - त्वा पू. का. कृ. - नो चे दहरभिक्खुं वट्टति, महाव. अट्ठ. 250; --च्छित्वा/त्वान/तून/च्छ पेसेवा आपुच्छापेत्वा पब्बाजेतब्बो, महाव. अट्ठ. 278. पू. का. कृ. - सति करणीये आनन्तरिकं भिक्खं आपुच्छित्वा आपुच्छित आ + पुच्छ का भू. क. कृ., पूछा जा चुका, गन्तुन्ति, चूळव. 355; आपुच्छित्वान आगञ्छि, यं मय्ह अनुमति को प्राप्त किया हुआ, अनुमोदित - तो पु., प्र. सकमस्सम चरिया. 403(गा.95); अपुच्छितून गच्छ, थेरीगा. वि., ए. व. - अपलोकितोति आपुच्छितो, स. नि. अट्ट. 428; सेनासनं आपुच्छा पक्कमितब्ब, चूळव. 354; - तब्बो 2.226; - ता ब. व. - अपलोकिता वा... आपुच्छिता, सं. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - भिक्खु न होति, सामणेरो अ. नि. अट्ट, 3.210; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स., "यह बात आपुच्छितब्बो, चूळव. 354; एत्थ भिक्खुम्हि सति भिक्खु अनुमोदित है" इस प्रकार की चेतना - आ प्र. वि., ए. आपुच्छितब्बो, पाचि. अट्ठ. 38; - तब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अनापुच्छिते आपुच्छितसा ..., आपत्ति पाचित्तियस्स, व. - गमनकाले सब्बेहिपि आपुच्छितब्ब, पाचि. अट्ठ. 39; पाचि. 373. - तब्बा पु., प्र. वि., ब. व. - पब्बजितापि आपुच्छितब्बाव, आपुणाति आप का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आप्नोति/आप्नुते], महाव. अठ्ठ. 277. प्राप्त करता है, पहुंच जाता है - आपुणाति आपो, सद्द. आपुच्छन नपुं., आ +vपुच्छ से व्यु., क्रि. ना. [आपृच्छन]. 2.494. अनुमति अथवा अनुमोदन प्राप्त करने की क्रिया, विदाई के आपुण्णता स्त्री., आ +vपुर/पूर के भू. क. कृ. का भाव. लिए अनुनय - पुच्छना नन्दनानि च, अभि. प. 760; -- [आपूर्णता], परिपूर्णता, हर तरह से परिपूर्ण होना - नं प्र. वि., ए. व. - आपुच्छनं पन वत्तं, पाचि. अट्ठ. 39; आपुण्णता न सलिलेन जलालयस्स, तेल. 23. For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपुत्तपुत्तेहि 121 आपोधातु आपुत्तपुत्तेहि अ, पुत्रों के भी पुत्रों तक - आपुत्तपुत्तेहि आलम्बनभूत आप-धातु - णं' प्र. वि., ए. व. - तत्थ यञ्च पमोदथव्होति, जा. अट्ठ. 4.146; आपुत्तपुत्तेहीति याव पुत्तानम्पि पथवीकसिणं यञ्च आपोकसिणं एवं सब्ब, नेत्ति. 74; पुत्तेहि पमोदथ, नत्थि वो इमस्मि ठाने भयन्ति, जा. अट्ठ. आपोकसिणन्ति आपोकसिणज्झानं आपोकसिनकम्मट्ठानं वा, 4.146. विसुद्धि. महाटी. 1.183; आपोकसिणं अभिज्ञेय्यं पटि. म. आपुस्सदत्त नपुं., आप + उस्सद का भाव., जलमयता, 7; - णं द्वि. वि., ए. व. - आपोकसिणमेको सञ्जानाति तरलता से भरपूर रहने की दशा - त्ता प. वि., ए. व. -- ..... दी. नि. 3.214; - णे सप्त. वि., ए. व. - इदानि चक्टुं ... आपुस्सदत्ता पग्घरति, ध. स. अट्ठ. 342. पथवीकसिनणानन्तरे आपोकसिणे वित्थारकथा होति, विसुद्धि. आपूपिक त्रि०, अपूप से व्यु. [आपूपिक], पुओं को खाने 1.163; - समापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. आपकृ वाला - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - णिक - अचित्ता, स्नसमापत्ति], आप-धातु के कर्मस्थान पर चित्त की एकाग्रता आपूपिकं, संकुलिक मो. व्या. 4.68; - को पु.. प्र. वि., वाले ध्यान की प्राप्ति - या ष. वि., ए. व. - पकतिया ए. व. - आपूपिको ति एत्थ अपूपसद्देन अपूपखादनं विय आपोकसिणसमापत्तिया लाभी होती, ति, पटि. म. 378; - ...., सारत्थ. टी. 1.71; ... अपूपभक्खनसीलो आपूपिको ति, णारम्मण नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. आपकृत्स्नालम्बन]. विभ, मू. टी. 68. ध्यान-प्रक्रिया के क्रम में आप-धातु का आलम्बन - णं द्वि. आपूरति आ + पुर/पूर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आपूर्यते], वि., ए. व. - महानदि ओलोकेत्वा आपोकसिणारम्मणभरपूर हो जाता है, पूर्ण हो जाता है, ऊपर तक भर जाता झानं निब्बत्तेत्वा, जा. अट्ट, 1.300. है, बढ़ जाता है, वृद्धि को प्राप्त करता है - आपूरति यसो आपोकाय पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आपकाय], आप-धातु, तरस, सुक्कपक्खेव चन्दिमाति, दी. नि. 3.138; जा. अट्ठ.. आपस्कन्ध के समुच्चय रूप में आप-महाभूत-यो प्र. वि., 4.25; उदेति आपूरति वेति चन्दो, जा. अट्ठ. 3.133; - ए. व. - कतमे सत्त?, पथवीकायो, आपोकायो, तेजोकायो, रामि उ. पु., ए. व. - तथा अहम्पि अज्ज तया दिन्नेहि वायोकायो, सुखे, दुक्खे, जीवे सत्तमे, दी. नि. 1.50; - यं गामवरादीहि आपूरामी ति, जा. अट्ठ. 4.90; - थ अद्य, प्र. द्वि. वि., ए. व. - आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, पु., ए. व. - आपूरथ तेन मुहत्तकेन, जा. अट्ठ. 4.399. दी. नि. 1.49. आपूरेति आ +vपूर का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [आपूरयति], आपोगत त्रि., जल की अवस्था में विद्यमान, आप के स्वभाव भर देता है, परिपूर्ण कर देता है - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. को प्राप्त, जलमय, पानीदार, पनीला, पनसर – तं नपुं., वि., ए. व. - महता जयघोसेन आपूरेन्तो दिसादिसं, चू. प्र. वि., ए. व. - यं अज्झतं पच्चत्तं आपो आपोगतं वं. 72.300; भेरिकाहलनादेन आपरेन्तं दिसादिसं. च. वं. उपादिन्नं, म. नि. 1.247; आपोधातनिहेसे आपोगतन्ति 75.104. सब्बआपेसु गतं अल्लयूसभावलक्खणं, म. नि. अट्ठ. आपेति ।आप का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [आपयति], (मू.प.)1(2).126; आपो आपोगतन्ति आदीसु आबन्धनवसेन प्राप्त कराता है, पहंचा देता है, बढ़ा देता है - आपेति . आपो तदेव आपोसभावंगतत्ता आपोगतं नाम, विभ. अट्ट. सहजातरूपानि पत्थरति, आपायति वा ब्रूहेति वड्डेतीति । आपो, अभि. ध. वि. टी. 174; तेजो तेजेति रूपानि, आपो आपोधातु स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. आपोधातु], तरलता, आपेति पालना, अभि. अव. 81. प्रघ्ररण (पिघल कर बहना) अथवा संसंजन का मूलभूत आपेसि/आपेसी/अपेसि स्त्री., कांटेदार झाडी से बनाया भौतिक धर्म, रूपधर्मों को आपस में बांध कर रखने वाला हुआ लकड़ी का फाटक - सिं द्वि. वि., ए. व. - कोट्टकं तथा स्निग्घ्ता के स्वभाव वाला एक महाभूत, क. छ प्रकार अपेसिं यमककवाट तोरणं पलिघन्ति, चूळव. 281; अपेसीति की धातुओं में से एक - छ: धातुयो पथवीधातु, आपोधातु, दीघदारुम्हि खाणुके पवेसेत्वा कण्टकसाखाहि विनन्धित्वा तेजोधातु वायोधातु, आकासधातु, विआणधातु, दी. नि. कतं द्वारथकनक, चूळव. अट्ठ. 62. 3.196; ख. चार महाभूतों की सूची में भी एक महाभूत के आपोकसिण नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. आपकृत्स्न], ध्यान- रूप में निर्दिष्ट - चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, प्रक्रिया में चित्त को एकाग्र करने हेतु निर्दिष्ट दस प्रकार सेय्यथिदं पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति, दी. के कर्मस्थानों में से एक, चित्त की एकाग्रता के लिए नि. 1.199; ग. तरलता, द्रवनशीलता एवं रूपधर्मों को For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपोधातु 122 आपोसहित . बांध कर एक साथ रखना, इसके प्रमुख लक्षण - यं आपोआपोपग्घरण त्रि., पानी के रिसाव से युक्त, आपधातु की आपोगतं सिनेहो सिनेहगतं बन्धनत्तं रूपस्स - इदं तं रूपं स्निग्घता एवं तरलता से युक्त, आपधातु के कारण रिसाव आपोधात, ध. स. 651; अयोपिण्डिआदीनि हि आपोधात अथवा द्रवनशीलता से युक्त - णो पु., प्र. वि., ए. व. --- आबन्धित्वा बद्धानि करोति, ध. स. अट्ट. 365; यो द्वादससु आपोपग्घरणो कायो, सदा सन्दति पूतिक, थेरगा. 5683; कोट्ठासेसु आबन्धनभावो, अयं आपोधातु, म. नि. अट्ठ. अयं कायो आपोधातुया सदा पग्घरणसीलो, थेरगा. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).36; आपोधातुया आबन्धनलक्खणं विसुद्धि. 2.169. 1.340; घ. प्राणियों के भौतिक शरीर में मूत्र आदि की आपोफरण नपुं, तत्पु. स. [आपस्फरण], जल का आप्लावन, तरलता के रूप में तथा आबन्धन के स्वभाव से युक्त आप-धातु से चारों ओर से परिपूर्ण रहना, स्निग्धता अथवा धातु के रूप में उल्लिखित - अस्थि इमस्मि काये तरलता से व्याप्त होना - णं प्र. वि., ए. व. - आपोकसिणं पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति, दी. नि. 2.217; समापज्जित्वा आपेन फरणं आपोफरणं नाम, म. नि. अट्ट. इति लसिका नाम इमस्मिं सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो (उप.प.) 3.105. अचेतनो अब्याकतो सुओ निस्सत्तो यूसभूतो आपोमय त्रि., आप + मय से व्यु.. जलमय, जल ही जल आबन्धनाकारो आपोधातूति, विसुद्धि. 1.353; ङ. आपोधातु वाला - मनादीनमापादीनं च ओ होतुत्तरपदे, मये च, आध्यात्मिक एवं बाह्य, इन दो प्रभेदों में वर्णित - मनोसेढा, मनोमया, रजोजल्लं रजोमयं आपोगतं, आपोमयं, आपोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा, म. नि. 1.247; अनुयन्ति दिसोदिसं. मो. व्या. 3.59. - तु प्र. वि., ए. व. - आपोधातु चे हिद, ... एकन्तसुखा आपोरस पु., तत्पु. स. [आपोरस], जल का स्वाद, जल का अभविस्स... नयिदं सत्ता वायोधातुया निबिन्देय्यु, स. नि. गुण - सं द्वि. वि., ए. व. - यञ्च आपोरस उपादियति, 1(2).158; - तुं द्वि. वि., ए. व. - यं आपोधातुं पटिच्च पटि. म. 128; आपोरसन्ति ... आपस्स च सम्पदं, पटि. म. ... पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं अयं वायोधातुया अट्ठ. 2.43; - सिनेह पु., तत्पु. स., जल के रस या स्वाद अस्सादो, स. नि. 1(2).154; - या तृ./प. वि., ए. व. - के प्रति स्नेह अथवा तृष्णा - हे सप्त. वि., ए. व. - अयं आपोधातुया अस्सादोति अयं आपोधातुनिस्सयो अस्सादो, निग्रोधरस खन्धजा नाम पारोहा आपोरससिनेहे सति जायन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.135; यथाभूतं सम्मप्पाय दिस्वा सु. नि. अट्ठ. 2.36. आपोधातया निबिन्दति, आपोधातुया चित्तं विराजेति, म. आपोसंवट्ट पु., तत्पु. स. [आपस्संवर्त], जलप्रलय अथवा नि. 2.92; यो आपोधातुया ... उप्पादो ठिति अभिनिब्बत्ति जल द्वारा (लोक का) अन्त - तयो संवट्टा-तेजोसंवट्टो पातुभावो, दुक्खस्सेसो उप्पादो रोगानं ठिति जरामरणस्स आपोसंवट्टो, वायोसंवट्टोति, पारा. अट्ठ. 1.119; आपोसंवट्टवसेन पातुभावो, स. नि. 1(2).158; -- क्खोभवसेन, क्रि. बि. पु., वड्डमाना कुप्पति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).123; - काल तत्पु. स.आप-धातु के अत्यधिक प्रकोप हो जाने के पु., तत्पु. स. [आपस्संवर्तकाल], जल-प्रलय का समय -- कारण से - सरीरब्भन्तरे आपोधातुक्खोभवसेन वा ले सप्त. वि., ए. व. - आपो संवट्टकाले पन अञधातुक्खोभवसेन वा ..., महानि. अट्ठ. 373; - कोटिसतसहस्सचक्कवाळ उदकपूरमेव होति, म. नि. अट्ठ. निदेस पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आपोधातुनिर्देश], (मू.प.) 1(2).126. आप-धातु-विषयक व्याख्यान - से सप्त. वि., ए. व. - आपोसङ्गहित त्रि., तत्पु. स. [आपस्संगृहीत], आबन्धनत्व आपोधात निद्दे से आपोगतन्ति सब्बआपेस गतं नामक रूपधर्म द्वारा एकजुट किया हुआ, जल-तत्त्व अल्लयूसभावलक्ख णं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).126; - द्वारा एक साथ समञ्जित किया हुआ - ता स्त्री., प्र. वि., प्पकोप पु., तत्पु. स. [बौ. सं. आपोधातुप्रकोप], आप- ए. व. - तेजोधातु पथवीपतिहिता आपोसङ्गहिता धातु का प्रकोप, आप-धातु-विषयक गड़बड़ी – पेन तृ. वायोवित्थम्भिता इमं कायं परिपाचेति, विसुद्धि. 1.355; वि., ए. व. -- आपोधातुप्पकोपेन, होति पूतिमुखेव सो, ध. वायोधातु पथवीपतिद्विता आपोसङ्गहिता तेजानुपालिता इम स. अट्ठ. 335; - सदिस त्रि., ब. स. [बौ. सं. कायं वित्थम्भेति, विसुद्धि. 1.356; सङ्गहिताति यथा न आपोधातुसदृक], आप धातु जैसा – सो फु. प्र. वि., ए. व. - विप्पकिरति एवं आबन्धनवसेन सम्पिण्डित्वा गहिता, विसद्धि. नन्दिरागो सिनेहनतुन आपोधातुसदिसो स. नि. अट्ठ 2241. महाटी. 1.418. For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपोसञ्चा 123 आबद्धत्त आपोसञा स्त्री., तत्पु. स. [आपस्संज्ञा], आप-धातु-विषयक संज्ञा - ञा प्र. वि., ए. व. - परित्ता पथवीसा भाविता होति, अप्पमाना आपोसञआ, दी. नि. 2.83; आपोसआदीसुपि एसेव नयो, अ. नि. अट्ठ. 3.342. आपोसञी त्रि., आप-धातु के विषय में ज्ञान रखने वाला, "यह आप धातु है" इस प्रकार का ज्ञान रखने वाला - ञी पु., प्र. वि., ए. व. - यथा नेव पथवियं पथविसञ्जी अस्स, न आपस्मिं आपोसञी अस्स, अ. नि. 3(2).6. आपोसन्निस्सय पु., तत्पु. स. [आपस्सन्निश्रय], जल पर निर्भरता, आबन्धन-स्वभाव आप-धातु का आश्रय अथवा अवलम्बन - येन तृ. वि., ए. व. - आपोसन्निस्सयेनापि, समनक्कारहेतुना, अभि. अव. 504. आपोसन्निस्सित त्रि., तत्पु. स. [आपस्सन्निश्रित], जल पर निर्भर रहने वाला, आप-धातु पर आश्रित अथवा उसके साथ जुड़ा हुआ - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - असम्भिन्नत्ता जिव्हाय आपाथगतत्ता रसानं आपोसन्निस्सितं मनसिकारहेतुक चतूहि पच्चयेहि उप्पज्जति जिव्हाविआणं, ध. स. अट्ट. 319; तत्थ आपोसन्निस्सित न्ति जिव्हातेमनं आपं लद्धाव उप्पज्जति, न विना तेन, ध. स. अट्ठ. 319. आपोसभाव पु., तत्पु. स., जल का स्वभाव, आप-धातु का स्वभाव - वं द्वि. वि., ए. व. - तदेव आपोसभावं गतत्ता आपोगतं नाम, विभ. अट्ठ. 60. आपोसम त्रि., जल जैसा/जैसी, आप-धातु के समान - मं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - आपोसमं भावनं भावेहि, म. नि.. 2.94. आप्पच्चय पु., आ + पच्चय, केवल व्याकरणों के सन्दर्भ में प्रयुक्त [टाप्रत्यय], पु. के अकारान्त नामों की स्त्री. बनाने हेतु विहित तद्धित प्रत्यय 'आ' - यो प्र. वि., ए. व. - अकारन्ततो आप्पच्चयो होति, क. व्या. 237. आफुसति आ +Vफुस का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आस्पृशत], प्राप्त कर लेता है, पास में जा पहुंचता है, (के साथ) जुड़ जाता है - सिं अद्य., उ. पु., ए. व. - तत्थेवहं समथसमाधिमाफुसि सायेव मे परमनियामता अह, वि. व. 145; वि. व. अट्ठ. 65; आफुसिं अधिगच्छि, वि. व. अठ्ठ 67. आबज्झ आ +vबन्ध का पू. का. कृ. [आबध्य], अच्छी तरह से बांध कर - आबज्झ नन्धिया कटिया निसदम्हि अबन्धिसं. म. वं. 23.6; आबज्झा ति आबन्धित्वा, म. व. टी. 407(ना.). आबद्ध त्रि., आ +vबन्ध का भू. क. कृ. [आबद्ध], पूरी तरह से बन्धन में बंधा हुआ, बन्धनग्रस्त -द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - न्हारुसुत्तकेन मत्थलुङ्गे आबद्धो, ध. स. अट्ठ. 342; .... वल्लीहि आबद्धो ठितो. स. नि. अट्ठ. 3.74; - द्धा' ब. व. -- ... मय्ह देसनाजाले परियापन्ना, एतेन आबद्धा, दी. नि. अट्ठ. 1.108; - द्धा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - बहि चस्स गता वसाखा नानावल्लीहि आबद्धा, स. नि. अट्ठ. 3.74; - द्धं नपुं., प्र. वि., ए. व. - द्वीहि पदेहि आबद्ध होति उपरि सकलसुत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).70; -- द्धानि ब. व. - नपि तीणि अद्विसतानि जानन्ति मयं न्हारूहि आबद्धानी ति, खु. पा. अट्ठ. 36; स. उ. प. के रूप में एका., दया., नाना.. बुन्दिका., समन्ता., सिनेहा के अन्त. द्रष्ट; - कच्छ त्रि., ब. स., वह, जिसने अपनी कमर के इर्द-गिर्द कच्छा, धोती या लुंगी को कसकर बांध लिया है - च्छो पु.. प्र. वि., ए. व. - युद्धाय आबद्धकच्छो सो गतो पल्लववालक, चू. वं. 72.220; - परिकरण त्रि., ब. स. [आबद्धपरिकर], सभी तरह से तैयार, सभी तैयारियों को पूरा कर चुका - णेन पु., तृ. वि., ए. व. - ... सब्बकाल युत्तप्पयुत्तेन भवितब्ब आबद्धपरिकरणेन, चरिया. अट्ठ. 287; - पटिबद्धसहायक त्रि., बिलग न होने योग्य, पूरी तरह से जुड़ा रहने वाला - कानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - तानि किर द्वेपि ... आबद्धपटिबद्धसहायकानेव अहेसुं. ध. प. अट्ठ. 1.52; - पुप्फवटंसक पु., कर्म. स., अच्छी तरह से बांधा गया फूलों का गुच्छा - को प्र. वि., ए. व. - सुट्ट पीत्वा आबद्धपुप्फवटंसको विय, दी. नि. अट्ठ 2.149; - वङ्कसाखा स्त्री., कर्म. स., अच्छी तरह से (किसी के द्वारा) बांध दी गई टेढ़ी शाखा – खा प्र. वि., ए. व. - ... बहिद्धा वल्लीहि आबद्धवसाखा विय... दट्ठब्बो, स. नि. अट्ठ. 3.76; - सिनेह त्रि., ब. स., अत्यधिक स्नेह करने वाला, सुदृढ़ स्नेह करने वाला --- हो पु., प्र. वि., ए. व. - कुटुम्बिको गुणवसेन तिस्साय आबद्धसिनेहो ... अट्टासि, पे. व. अट्ठ. 71. आबद्धता स्त्री., आबद्ध का भाव. [आबद्धता], बंधा हुआ होना, जुड़ा हुआ होना, बन्धनग्रस्त रहना - य तृ. वि., ए. व. - उपचिकाहि वन्तखेळसिनेहेन आबद्धताय सत्तसत्ताह देवे वस्सन्तेपि न विप्पकिरियति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).33. आबद्धत्त नपं., आबद्ध का भाव. [आबद्धत्व], उपरिवत - त्ता प. वि., ए. व. - ... बहिद्धा वल्लीहि आबद्धत्ता च गङ्ग For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आबन्ध 124 आबाध ओतरित्वा, स. नि. अट्ट, 3.74; ताय आबद्धत्ता तानि बद्धानि नाम होन्ति, ध. स. अट्ठ. 365; एतं... सद्धि एकाबद्धत्ता रक्खति, पारा. अट्ठ. 1.255. आबन्ध पु., आ +Vबन्ध से व्यु. [आबन्ध], बन्धन, अनेक प्रकार का बन्धन, जजीर - न्धं द्वि. वि., ए. व. - वट्टमाबन्धमिच्चेवं, तेभूमकमनादिकं, पटिच्चसमुप्पादोति, पट्टपेसि महामुनि, अभि. ध. स. 57; - न्धे ब. व. -- बन्धे विबन्धे आबन्धे लग्गे लग्गिते पलिबुद्धे बन्धने पोटयित्वा, महानि. 71; आबन्धेति अनेकविधेन बन्धे, महानि. अट्ठ. 185. आबन्धति आ +Vबन्ध का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आबध्नाति]. बांध देता है, किसी के साथ जोड़ देता है, एक साथ मिला देता है - आपोधात पन पथवीधातम्पि तेजोवायोधातयोपि अफसित्वाव आबन्धति,ध. स. अट्ट, 366: - न्धती स्त्री... वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - ... संसूचकेन अवविखना आबन्धती विय ओलोकेत्वा, उदा. अट्ठ. 138; - माना स्त्री., वर्त. कृ., आत्मने., प्र. वि., ए. व. - न्हारु सरीरब्भन्तरे अट्ठीनि आबन्धमाना ठिता, विभ. अट्ठ. 55; - न्धेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - यदि फुसित्वा आबन्धेय्य फोहब्बायतनं नाम भवेय्य, ध. स. अट्ठ. 366; -- न्धित्वा पू. का. कृ.- आभुजित्वाति आबन्धित्वा, पारा. अट्ट. 2.12; - न्धितब्बानि सं. कृ., नपुं, प्र. वि., ब. व. - आबन्धनानी ति हत्थिअस्सरथेस आबन्धितब्बानि भण्डानि च गण्हथ, जा. अट्ठ. 5.310. आबन्धन 1.नपुं., आ +Vबन्ध से व्यु., क्रि. ना. [आबन्धन], प्रगाढ़ बन्धन, मजबूत गांठ, जोड़, समंजन, सुसंगति - नं प्र. वि., ए. व. - आबन्धनमापोधातु, ना. रु. परि. 498; - तो प. वि., ए. व. - अपरापरभावाय विननतो आबन्धनतो संसिब्बनतो वानन्ति ... विसंयुत्तं, पारा. अट्ठ. 1.168; 2. त्रि., वह, जिसे बांधा जाए, बांधा जा रहा, बन्धनक्रिया का विषयीभूत, बांधा जाने योग्य - आबन्धनानि गण्हाथ, जा. अट्ठ. 5.310; आबन्धनानीति हत्थिअस्सरथेस आबन्धितब्बानि भण्डानि च गण्हथ, जा. अट्ठ. 5.310; -ट्ठ पु., तत्पु. स. [आबन्धनार्थ], बांधे जाने का अर्थ - ठून तृ. वि., ए. व. -- आबन्धनद्वेन आतियेव आतिपरिवट्टो, दी. नि. अट्ठ. 1.149; - ता स्त्री., भाव., आपस में बांध कर रखना - या आबन्धनता, सा आपोधातु, खु. पा. अट्ठ. 57;-धातु स्त्री., आप-धातु, रूप धर्मों को आपस में बांधकर रखने वाला आप-नामक महाभूत - आपोधातूति आबन्धनधातु, स. नि. अट्ट, 2.134; - भाव पु., आपस में बांध कर रखने की दशा - वो प्र. वि., ए. व. - यो द्वादससु कोट्ठासेसु आबन्धनभावो, अयं आपोधातु, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).36; यो आबन्धनभावो वा द्रवभावो वा, अयं आपोधातु, विसुद्धि. 1.342; - लक्खण नपुं.. तत्पु. स., आपस में बांध कर रखने का लक्षण – णं प्र. वि., ए. व. - यं आबन्धनलक्खणं, अयं आपोधत, विसद्धि. 1.341; - वल्ली स्त्री., तत्पु. स., बांधने वाली डोरी - ल्लिं द्वि. वि., ए. व. - वल्लिन्ति आबन्धनवल्लिं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).128; - समय पु., तत्पु. स., बांधे जाने का समय, बन्धन में लाए जाने का काल - यो प्र. वि., ए. व. - पुत्तो मे वयप्पत्तो, घरावासेनस्स आबन्धनसमयोति, अ. नि. अट्ट, 1.301; - नाकार त्रि. आपस में बांध कर रखने वाले स्वरूप अथवा आकार वाला - रो प्र. वि., ए. व. -- यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातूति, विभ. अट्ठ. 61; - रं द्वि. वि., ए. व. - द्वादससु कोट्ठासेसु यूसगतं उदकसङ्घातं आबन्धनाकारं आपोधातूति ववत्थपेति, विसुद्धि. 1.343. आबाध आ +vबाध से व्यु., [आबाध], शा. अ. रोग, बीमारी, विपत्ति, व्यथा, दुर्गति, संकटमय अवस्था, दुख भरा अनुभव - आतङ्को आमयो व्याधि गदो रोगो रुजा पि च, गेलञाकल्लमाबाधो..., अभि. प. 323; बाधति विबाधति, आबाधो, आबाधति चित्तं विलोळेतीति आबाधो, सद्द. 2.394; आबाधो ति विसभागवेदना वच्चति या एकदेसे उप्पज्जित्वा सकलसरीरं अयपट्टेन बन्धित्वा विय गण्हाति, सद्द. 2.322; आबाधोति योकोचि रोगो, विसुद्धि. 1.93; विसभागवेदनुप्पत्तिया ककचेनेव चतुइरियापथं छिन्दन्तो आबाधतीति आबाधो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).213; -धो प्र. वि., ए. व. - सचे खो मयं गिलानं ठाना चावेस्साम, आबाधो वा अभिवद्धिस्सति, महाव. 150, 152, 214; यस्स कण्ड वा... आबाधो, कायो वा दुग्गन्धो, महाव. 277; पाचि. 226; आबाधोति महापिळकाबाधो वुच्चति, पाचि. अट्ठ. 143; -धं द्वि. वि., ए. व. - आबाधं, ते देव, पस्सामा ति, महाव. 361; । अत्थकामस्स गिलानुपट्ठाकस्स यथाभूतं आबाधं नाविकत्ता होति, महाव. 394; - धेन तृ. वि., ए. व. - भिक्खून सारदिकेन आबाधेन फुट्ठानं यागुपि, महाव. 274; अबाधेनाति सरदकाले उप्पन्नेन पित्ताबाधेन, महाव. अट्ठ. 351; - धा/तो प. वि., ए. व. - अपरेन समयेन तम्हा आबाधा मुच्चेय्य, दी. नि. 1.64; न दानिमे इमम्हा आबाधा वढहिस्सन्तीति, दी. नि. 2.239: पेसज उपसंहरति For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आबाध 125 आबाधिक ... आबाधतोपि, पाचि. 20; - स्स ष. वि., ए. व. - आबाधस्स लसुणं भेसज्जं, चूळव. अट्ठ. 57; - घे सप्त. वि., ए. व. - आबाधे मे समुप्पन्ने, सति मे उदपज्जथ, थेरगा. 30; आबाधे मे समुप्पन्नेति ..., थेरगा. अट्ठ. 1.94; -धा प्र. वि., ब. व. -- सन्ति ते एवरूपा आबाधा, महाव. 120; - धानं ष. वि., ब. व. - तिकिच्छका, विरेचनं देन्ति पित्तसमुट्ठानानम्पि आबाधानं पटिघाताय, अ, नि. 3(2).185; ला. अ. क. दस प्रकार के पलिबोधों में से एक - आवासो च कुल लाभो, गणो कम्मञ्च पञ्चमं अद्धानं जाति आबाधो, गन्थो इद्धीति ते दसा ति, पारा. अट्ठ. 2.19; ला. अ. ख. 3, 5, 6, 8 एवं 48 प्रकारों में निर्दिष्ट - मनुस्सेसु तयो आबाधा भविस्सन्ति, दी. नि. 3.55; मनुस्सा पञ्चहि आबाधेहि ... वदन्ति, महाक. 91; मगधेसु पञ्च आबाधा उस्सन्ना होन्तीति मगधनामके जनपदे मनुस्सानञ्च अमनुस्सानञ्च पञ्च रोगा उस्सन्ना वुद्धिप्पत्ता फातिप्पत्ता होन्ति, महाव. अट्ठ. 263; 238; मनुस्सानं छळेव आबाधा अहेसु-सीत, उण्हं जिघच्छा, पिपासा, उच्चारो, परसावो, अ.नि. 2(2).266; पित्तसेम्हवातसन्निपातउतविपरिणामविस मपरिहारउपक्कमकम्मविपाकवसेन अट्ठविधो आबाधो, पटि. म. अट्ठ. 1.81; विविधा आबाधा उप्पज्जन्ति, सेय्यथिदं - चक्खुरोगो सोतरोगो... पित्तसमुट्ठाना आबाधा सेम्हसमुट्ठाना आबाधा वातसमुढाना आबाधा सन्निपातिका आबाधा उतपरिणामजा आबाधा विसमपरिहारजा आबाधा ओपक्कमिका आबाधा कम्मविपाकजा आबाधा सीतं उण्ह जिघच्छा पिपासा उच्चारो परसवोति, अ. नि. 3(2).91; स. उ. प. के रूप में अना., अन्तगण्ठा., अप्पमत्तका., अप्पा., अमनुस्सिका., उदरवाता., उदरा., कायचित्ता., कायडाहा., कायिका., कुच्छिविकारा., गण्डा०, गरुका., घरदिन्नका., चक्खुरोगा०, चेतसिका., थुल्लकच्छा., थुल्लकच्छ, पण्ड्रोगा., पादखीला.. पित्ता., बव्हा., भगन्दला., मधुमेहा., महा., लोहितपक्खन्दिका., वम्मिका., विसभागा., विसमा., सब्बा., सा., सीसा. के अन्त. द्रष्ट; - ता स्त्री., आबाध का भाव., रुग्णता, रोगग्रस्त होना, विपत्ति अथवा बाधा से पीड़ित होना, स. उ. प. में प्रयुक्त - अत्तभावस्स पित्तपकोपादीनं वसेन साबाट ता, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.8; - प्पच्चया अ., क्रि. वि., बाधा, विपत्ति अथवा रोग के कारण से; बाधा, विपत्ति अथवा रोग होने की स्थिति में - अनजानामि, आबाधप्पच्चया सम्बाधे लोम संहरापेतु न्ति, चूळव. 255; आबाधप्पच्चया लसुणं खादितुन्ति, चूळव. 262; - भूत त्रि., रोगग्रस्त, रोग का शिकार - तो पृ., प्र. वि., ए.व. - अयं..., कायो रोगभूतो... आबाधभूतो, म. नि. 2.188; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - सो त्वं इमं कायं रोगभूतं गण्डभूतं ... आबाधभूतं, म. नि. 2.188; - समङ्गी त्रि., रोगग्रस्त, रोगी - झी पु.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ आबाधिकोति आबाधसमङ्गी, वि. व. अट्ठ. 279. आबाधति आ +Vबाध का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आबाधते], पीड़ा देता है, चुभता है - न मं किञ्चि आबाधती ति, म. नि. 2.187; ... चतुइरियापथं छिन्दन्तो आबाधतीति आबाधो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).213. आबाधन नपुं.. आ +Vबाध से व्यु., क्रि. ना. [आबाधन], कष्ट, चोट, पीड़ा, हानि, तकलीफ, रोग - नाय च. वि., ए. व. - आबाधनाय पीळनाय, अ. नि. अट्ठ. 3.275; - तो प. वि., ए. व. - सरीरस्स आबाधनतो, थेरगा. अट्ठ. 1.94%; -ट्ठ पु., तत्पु. स. [आबाधनार्थ], पीड़ाप्रद होने का अर्थ अथवा आशय - द्वेन तृ. वि., ए. व. - आबाधनढेन आबाधो होति, अ. नि. अट्ठ. 3.281; आबाधडेनाति विबाधनढेन, रोगटेन वा, विसुद्धि. महाटी. 1.55; पाठा. आबाधढेन; -दुक्ख नपुं., तत्पु. स., पीड़ा का दुख, रोग का दुख-क्खं प्र. वि., ए. व. - कायस्स आबाधनदुक्खं दुक्खं, पटि. म. अट्ठ. 1.127. आबाधिक त्रि.. [बौ. सं. आबाधिक]. रोगी, बीमार, व्याधि से पीड़ित - को पु., प्र. वि., ए. व. - पुरिसो आबाधिको अस्स दुक्खितो बाळहगिलानो, दी. नि. 1.64; ... आबाधतीति आबाधो, स्वास्स अत्थीति आबाधिको, दी. नि. अट्ट. 1.172; इरियापथभञ्जनकेन विसभागाबाधेन आबाधिको, अ. नि. अट्ठ. 3.59; - कं द्वि. वि., ए. व. - न त्वं अद्दस मनुस्सेसु इत्थिं वा पुरिसंवा आबाधिक म. नि. 3.219; - स्स, ष. वि., ए. व. - तं तेनेव आबाधेन आबाधिकस्स वट्टति, न अञस्स, पारा. अट्ठ. 2.268; -- का पु., प्र. वि., ब. व. - ते अपरेन समयेन आबाधिका होन्ति, दी. नि. 2.239; - कानं पु., च./ष. वि., ब. व. - इदं ओसधं येन केनचि आबाधेन आबाधिकानं देथा ति, जा. अट्ट. 6.157; - कं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - ... भगिनि पस्सेय्य आबाधिक म. नि. 1.123; आबाधिकन्ति ब्याधिक म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).372; - त्त नपुं., भाव. [आबाधिकत्व, व्याधिग्रस्तता, रुग्णता, बीमारी- त्ता प. वि., ए. व. - थेरस्स आबाधिकत्ता स. नि. अट्ठ. 2.278; - भाव पु.. उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. - सत्थु For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आबाधिकिनी 126 आभत आबाधिकभावं आचिक्खित्वा, ध. प. अट्ठ. 2.417. आबाधिकिनी स्त्री., आबाधिक से व्यु., रुग्ण नारी, बीमार स्त्री - नी प्र. वि., ए. व. - इत्थन्नामा, भिक्खुनी आबाधिकिनी दक्खिता बाळहगिलाना. अ. नि. 1(2).166. आबाधित त्रि०, आ +Vबाध का भू. क. कृ. [आबाधित], पीड़ित, रोगग्रस्त, विपत्ति से ग्रस्त, कष्ट में पड़ा हुआ -- तो पु.. प्र. वि., ए. व. - अरहं सुगतो लोके, वातेहाबाधितो मुनि, थेरगा. 185. आबाधेति आ +Vबाध का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आबाधयति], पीड़ा अथवा कष्ट देता है, हानि पहुंचाता है, व्यथा उत्पन्न कराता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - डसादयो 'मं आबाधेन्ती ति... अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 1.96; - यित्थ अद्य, प्र. पु., ब. व. - मा, हेव चिरवासिस्स कुमारस्स किञ्चि आबाधयित्थाति, स. नि. 2(2).312; - धियमान त्रि., कर्म. वा. का वर्त. कृ. - नानं पु., ष. वि., ब. व. - तेन आबाधियमानानं पुथुज्जनानं तत्थ पटिघुप्पत्तितो. पटि. म. अट्ट, 1.127. आभाधातु स्त्री., कर्म. स., प्रकाशमान धातू, सुस्पष्ट रूप से व्यक्त हो रही धातु - रूपधातुयेव हि आभाधातु, विसुद्धि. 2.114. आभकर त्रि., आभा या चमक को उत्पन्न करने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - आभंकरो पभंकरोधम्मोभासपज्जोतकरोति च बुद्धा, नेत्ति. 45. आभञ्जति आ + भञ्ज का वर्त, प्र. पु., ए. व., 1. टिका देता है, (का) सहारा दे देता है, 2. भग्न कर देता है, मोड़ देता है-न्ति प्र. पु., ब. व. - विविधा आभञ्जन्ति भारं ओलम्बेन्ति तेनाति ब्याभङ्गी विधं, अ. नि. टी. 3.2; विविध भारं आभञ्जन्ति ओलम्बन्ति एत्थाति ब्याभङ्गी काजं, म. नि. टी. (म.प.) 196. आभट्ठ त्रि., आ +vभास का भू. क. कृ. [आभासित, बौ. सं०, आभाष्ट], कथित, उच्चारित, बोल दिया गया, कह दिया गया - टुं नपुं., प्र. वि., ए. व. - दुढ आभट्ठ भासितं लपितन्ति दुराभट्ठ परि. अट्ट. 193. आभण्डन नपुं., आ + भण्ड से व्यु., क्रि. ना. [आभण्डन]. सुनिश्चित करना, भण्डाफोड़ कर देना – ने सप्त. वि., ए. व. - लभ आभण्डने, सद्द. 2.556. आभत त्रि., आ +vभर का भू. क. कृ., प्रायः आहत एवं आगत के स्थान पर भी प्रयुक्त [आभृत], समीप ले आया गया, ले जाया गया, पहुंचा दिया गया, हस्तान्तरित किया गया, आनीत - आहटो आभतानीता, अभि. प. 749; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - गामतो सप्पिकुम्भो आभतो, महाव अट्ठ. 360; आहितोति आभतो, जालितो, सु. नि. अट्ट. 1.24; -- तं पु., द्वि. वि., ए. व. - भिक्खू उपनन्दत्थेरेन आभतं पत्तचीवररासिं दिस्वा, जा. अट्ठ. 3.293; - तेन पु., तृ. वि., ए. व. -- न मे तया आभतेन पण्णाकारेन अत्थो, जा. अट्ठ. 4.96; - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - महाब्रह्मना आभते अरहद्धजे गहितमत्तेयेव वस्ससद्दिकत्थेरो विय ..., अ. नि. अट्ट, 1.116; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - कंसपाति आभता... परियोनद्धा, म. नि. 1.32; आभताति आनीता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).151; -- तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. --- अत्तनो आभतं कटच्छुभिक्खं दापेसि, ध. प. अट्ठ. 2.126; - ताय स्त्री., ष. वि., ए. व. - इदं तावेत्थ धम्मदेसनत्थं आभताय उपमाय संसन्दनं, स. नि. अट्ठ. 3.102; - तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - इदं... आयस्मन्तं उद्दिस्स चीवरचेतापन्नं आभतं, पारा. 335; आभतन्ति आनीतं. पारा. अट्ठ. 2.229; -- तं? द्वि. वि., ए. व. - अहन्त्वा धनमाभतं, अप. 2.232; - तेन नपुं, तृ. वि., ए. व. - तेसं आभतेन येन केनचि यापेन्तोपि... होति. स. नि. अट्ठ. 2.145; - तो प. वि., ए. व. - परिभण्डकरणत्थाय आभततो गहितन्ति एके, स. नि. अट्ठ. 2.285; - स्स ष. वि., ए. व. - त्वं मया आभतस्स उप्पत्तिं मा पुच्छ, जा. अट्ठ. 3.296; - तानि' नपुं., प्र. वि., ब. व. - तेहि पन नानप्पकारानि फलाफलानि आभतानि, जा. अट्ट. 1.431; - तानि द्वि. वि., ब. व. - आभतानि तिणादीनि एत्थ निक्खिप, स. नि. अट्ठ. 2.73; - तेहि नपुं, तृ. वि., ब. व. - अत्तनो खज्ज–भोज्जेहि तेहि तेहाभतेहि च, सन्तप्पेसि, ससङ्घ तं, म. वं. 15.72; 106; क. स. उ. प. के रूप में अत्थवसा., अना., अपा., आचरियपरम्परा., आज्झाया., कपाला., काला., दुरा., परम्परा., मलया., यथा., रत्ता., ख. स. पू. प. के रूप में, - त्त नपुं, आभत का भाव. . [आभृतत्व], ले आया जाना - त्ता प. वि., ए. व. - उञ्छे ... उञ्छाचरियाय आभतत्ता ... अभिरता, थेरगा. अट्ठ. 1. , 299; - पक्ख पु., कर्म, स. [आभृतपक्ष], लाया हुआ पक्ष -क्खे सप्त. वि., ए. व. - आभतपक्खे पन इदं संसन्दनं, स. नि. अट्ठ. 3.102; -- पण्णाकार पु., कर्म, स., लाया For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभताभत 127 आभरण . हुआ उपहार अथवा सौगात – रेन तृ. वि., ए. व. - एत्तकं कालं देवमनुस्सेहि आभतपण्णाकारेनेव दानं अदासिं, ध. प. अट्ठ. 1.295; - भाजन नपुं, कर्म, स. [आभृतभाजन], लाया गया पात्र - नानि द्वि. वि., ब. व. - .... आभतभाजनानि पूरेत्वा गच्छति, जा. अट्ट. 1.336; स. उ. प. के रूप में, - मंस नपुं., लाया गया मांस - सं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनो अभतं मंसं वे कोट्ठासे कत्वा, जा. अट्ठ. 1.457; - मूल नपुं, लाई गई जड़ - लं प्र. वि., ए. व. - आभतमूलं बहु, म. नि. अट्ट (म.प.) 2.202; - सक्कार पु., श्रद्धा-स्वरूप लाया गया भोजन - रं द्वि. वि., ए. व. - तुम्हेहि आभत सक्कारं कुसग्गेन जिव्हग्गे ठपेत्वा, ध. प. अट्ट. 1.284. आभताभत त्रि., आभत + आभत के योग से व्यु. [आभृताभृत], समय समय पर लाया गया- तं नपुं. द्वि. वि., ए. व. - "तुम्हेहि आभताभतं तुम्हाकं गेहमेव नेथा ति आह, जा. अट्ट. 3.16; - मंस नपुं.. कर्म स... समय समय पर लाया हुआ मांस - सं द्वि. वि., ए. व. - "ब्यग्घेन आभताभतमंसं खादको कूटजटिलो ति, जा. अट्ट. 4.310. आभरण नपुं., आ + भर से व्यु., क्रि. ना. [आभरण], शा. अ., वह, जिसे धारण किया जाए अथवा ले आया जाए, ला. अ., आभूषण, साज-सजावट - विभूसनं चाभरणं अलङ्कारो पिलन्धनं, अभि. प. 283; - णं' प्र. वि., ए. व. - सीलमाभरणं सेलु, थेरगा., 614; गुणसरीरोपसोभनटेन आभरणं, थेरगा. अट्ठ. 2.188; परस्स सीसे आभरणं विय दहब्बो, विसुद्धि. 1.208; - पं. वि. वि., ए. व. - आभरणं ओमुञ्चित्वा, चूळव. 318; आभरणं ओमुञ्चित्वाति महालतं नाम नवकोटिअग्घनकं अलङ्कारं अपनेत्वा, पाचि. अट्ट. 139; -- णेन तृ. वि., ए. व. - अभिनिप्पीळनाय वत्थेन वा आभरणेन वा सद्धिं पीळयतो, पारा. अट्ठ. 2.111; - णा प्र. वि., ब. व. - गन्धा च विलेपना च आभरणा च पिलन्धना च महानि. 279; गीवादीसु पिळन्धनआभरणा च..., महानि. अट्ठ. 334; - णानि द्वि. वि., ब. व. - ... आभरणानि पिळन्धन्तो अत्तमनो अहोसि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.46; - णेहि त. वि., ब. व. - आभरणेहि सद्धि सत्तरतनपुरानि सकटानि उभोसु पस्सेसु पेसेसि, जा. अट्ठ. 7.269; क. स. उ. प. के रूप में, अङ्गदा., अङ्गुल्या., अपेता., आमुत्तमाला., आमुत्तहत्था., दारा., दिब्बकुसुमा., दिब्बा., धारिता., नाना., पटिमा., पीता., पुप्फा०, ब्रह्मा., माला, मालागुणा., मुत्ता., रत्तङ्गा, राजा., वत्था., विचित्तवत्था., विमट्ठा०, सब्बा., सोण्णवण्णङ्गा, हत्था. के अन्त. द्रष्ट: ख. स. पू. प. के रूप में,. - जात नपुं.. [आभरणजात], विशेष प्रकार का अलंकार या आभूषण- तं प्र. वि., ए. व. - ... सुवण्णवणं आभरणजातं. स. नि. अट्ट. 2.177; - णत्थ पु., तत्पु. स. [आभरणार्थ], साज-सजावट अथवा अलंकरण का प्रयोजन - त्थाय च. वि., ए. व. - "न सक्का एस आभरणत्थाय उपनेतु स. नि. अट्ठ. 2.202; आभरणत्थाय सो मं मारेतुकामो अहोसी ति, ध. प. अट्ठ. 1.370; - त्थिका स्त्री., प्र. वि., ब. व., आभूषण अथवा अलंकार का प्रयोजन रखने वाली - सचे तुम्हे आभरणत्थिका, इमानि गण्हथ, स. नि. अट्ठ. 2.177; - भण्ड नपुं., तत्पु. स., जेवर-जवाहरात, सजाने संवारने हेतु प्रयुक्त उपकरण - ण्डं प्र. दि., ए. व. - आभरणभण्डमेव वा इध “वममान्ति अधिप्पेतं, जा. अट्ठ. 7.184; - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनो आभरणभण्डं भञ्जापेत्वा ..., स. नि. अट्ट.2.164; - ण्डेन तृ. वि., ए. व. - मया आभरणभण्डेन चेतियं पूजितं, थेरगा. अट्ठ. 2.368; - ण्डेसु सप्त. वि., ब. व. - आभरणभण्डेसु पन सीसपसाधनकदन्तसूचिआदिकप्पियभण्डं पारा. अट्ठ. 2.117; - भण्डक नपुं.. साज-सजावट की सामग्रियां, हीरे-जवाहरात - कं द्वि. वि., ए. व. - मनुस्सा "आभरणभण्डकं गहिस्सामा ति आपणं गच्छन्ति, स. नि. अट्ठ. 2.177; - मङ्गल नपुं०, विवाह संस्कार के अवसर पर आभूषण देने का मांगलिक विधान - लं प्र. वि., ए. व. - .... आभरणमङ्गलं, अभिसेकमङ्गलं, आवाहमङ्गलन्ति तीणि मङ्गलानि अकंसु. सु. नि. अट्ठ. 1.227; - वस्सा स्त्री., तत्पु. स. [आभरणवर्षा], आभूषणों की बरसात, आभूषणों की प्रचुरता - कहापणमत्थके दिब्बाभरणवस्सं वस्सि, जा. अट्ठ. 5.129; - विकति स्त्री., तत्पु. स. [आभरणविकृति], आभूषण का विशेष प्रकार - यो द्वि. वि., ब. व. - परिचारकपुरिसा नानावण्णानि दुस्सानि नानप्पकारा आभरणविकतियो मालागन्धविलेपनानि च आदाय, जा. अट्ठ. 1.70; - विभूसित त्रि, तत्पु. स. [आभरणविभूषित], गहनों से सजा हुआ, अलंकारों से अलङ्कत - आभरणविभूसिताहि नाटकित्थीहि परिवारितो, म. वं. टी. 568(रो.); - विलेपनादि त्रि., ब. स., आभूषण एवं लेप प्रसाधन आदि - दीहि त. वि., ब. व. - हिमवा विय आभरणविलेपनादीहि ओभासेन्तु चेव पवायन्तु च, जा. अट्ठ. 7.362. For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभवग्गं 128 आभा आभवग्गं अ., अव्ययी. स. [आभवाग्रम], भवाग्र-नामक अवस्था तक, भव अथवा अस्तित्व की सर्वोच्च अवस्था तक - आभवग्गं आगोत्रभु सवनतो पवत्तनतो... "आसवाति, उदा. अट्ठ. 75; आगोत्र, आभवग्गं वा सवन्तीति आसवा, उदा. अट्ठ. 141. आभवग्गतो अ०, प. वि., प्रतिरू. निपा., उपरिवत् - आरम्मणवसेन आगोत्रभुतो, आभवग्गतो च सवना, विसुद्धि. 2.322. आभस्सर पु., [आभास्वर], शा. अ., आभा अथवा दीप्ति से परिपूर्ण, ला. अ., 1. रूपी ब्रह्माओं के एक लोक का नाम - रा प्र. वि., ए. व. - महातापसानं आभस्सरा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).322; - रे द्वि. वि., ब. व. - आभस्सरे आभस्सरतो सजानाति... सञत्वा... मञति, म. नि. 1.3; - तो प. वि., ए. व. - बोधिसत्तो आभस्सरतो आगन्त्वा आकासे ठत्वा इमं गाथमाह, जा. अट्ठ. 1.451; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - दुतियज्झानं भावेत्वा आभस्सरेसु अट्ठकप्पं आयुं गहेत्वा निब्बत्ति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).302; - काय पु., तत्पु. स., आभा से परिपूर्ण देवों (आभास्वर वर्ग के देवों) का समूह, आभास्वर देवों का वर्ग - या प. वि., ए. व. - आयुक्खया वा पुञ्जक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा सुझं बह्मविमानं उपपज्जन्ति, दी. नि. 1.15; - द्वान नपुं., तत्पु. स. [आभास्वरस्थान] आभास्वर लोक का निवास स्थान, आभा से परिपूर्ण स्थान - सुभकिण्हतो च चवित्वा आभस्सरहानादीसु सत्ता निब्बत्तन्ति, पटि. म. अट्ट, 1.300; - त्त नपुं, आभस्सर का भाव. [आभास्वरत्व], प्रभासित होना, अत्यधिक दीप्तिमय होना - त्तेन तृ. वि., ए. व. -- आभस्सरानं आभस्सरत्तेन अननुभूतं. म. नि. 1.413; - ब्रह्मलोक पु., कर्म. स. [आभास्वर ब्रह्मलोक], आभा अथवा प्रकाश से परिपूर्ण ब्रह्मलोक, आभास्वर देवों का ब्रह्मलोक, आभास्वर नामक ब्रह्मलोक - कं द्वि. वि., ए. व. - ... आभस्सरब्रह्मलोकं आदि कत्वा लोको पातुभवति, पटि. म. अट्ठ. 1.300; - के सप्त. वि., ए. व. - तदा च आभस्सरब्रह्मलोके पठमतराभिनिब्बत्ता सत्ता आयुक्खया वा पुञ्जक्खया वा ..., पटि. म. अट्ट, 1.298; - भवन नपुं., कर्मस., प्रकाश से भरा हुआ क्षेत्र, आभास्वर नामक क्षेत्र अथवा स्थल - ना प. वि., ए.व. - वुट्ठिया पन पवत्तमानाय याव आभस्सरभवनापि एकोदकं होति, स. नि. अट्ठ. 1.31; - लोक पु., कर्म. स. [आभास्वरलोक], प्रकाश से परिपूर्ण आभास्वर देवों का लोक, आभास्वर नामक लोक - के सप्त. वि., ए. व. - आभस्सरलोके महाब्रह्मानो विय पीतिसुखेनेव वीतिनामेस्सामा ति, ध. प. अट्ठ. 2.149; -- संवत्तनिक त्रि., आभास्वर नामक लोक में पुनर्जन्म लेने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. - संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होन्ति, दी. नि. 1.15; - रूपग त्रि., आभास्वर नामक ब्रह्मलोक को जाने वाला अथवा वहां पहुंचने वाला- गो पृ., प्र. वि., ए. व. - लोके आभस्सरूपगो होमि, अ. नि. 2(2).227; 2. पु., सदा ब. व. में प्रयुक्त, उन देवताओं के वर्ग का नाम जो कि आभास्वरनामक रूप-ब्रह्मलोक में निवास करते हैं तथा जिनके शरीर से आभा अथवा प्रकाश की किरणें निकल कर चारों ओर बिखर जाती हैं - रा प्र. वि., ब. व. - आभस्सरवारे दण्डदीपिकाय अच्चि विय एतेसं सरीरतो आभा छिज्जित्वा छिज्जित्वा पतन्ती विय सरति विसरतीति आभस्सरा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).38; दी. नि. अट्ठ. 2.90; सत्ता एकत्तकाया नानत्तसञिनो, सेय्यथापि देवा आभस्सरा, दी. नि. 2.54; - रे द्वि. वि., ब. व. - आभस्सरे ... सञ्जानाति, ... अभिनन्दति, म. नि. 1.3; - रानं ष. वि., ब. व. - आभस्सरानं आभस्सरत्तेन अननुभूतं. म. नि. 1.413; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - आभस्सरेसु मञति, म. नि. 1.3. आभा' स्त्री., आ +vभा से व्यु. [आभा], प्रकाश, चमक, कान्ति, दीप्ति - रसिं चाभा पभा दित्ति रूचि भा जुति दीधिति, अभि. प. 64; विविधेहि सीलादिगुणेहि भवतीति विभू, ... विभा... आभा, भुजगो. ... .परितो, इच्चेवमादि, क. व्या. 641; -- भा प्र. वि., ए. व. - मणिरतनस्स आभा समन्ता योजनं फुटा अहोसि, दी. नि. 2.131; नत्थि सूरियसमा आभा, समुद्दपरमा सरा ति, स. नि. 1(1).8; एसा आभाति एसा बुद्धाभा, स. नि. अट्ठ. 1.48; - भं द्वि. वि., ए. व. - आभं पटिच्च अच्चि पायति, म. नि. 1.376; आभं पटिच्च अच्चीति तं आलोकं पटिच्च जालसिखा पायति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).245; - य तृ. वि., ए. व. - चन्दिमसूरिया एवंमहिद्धिका एवंमहानुभावा आभाय नानुभोन्ति, दी. नि. 2.9; आभाय नानुभोन्तीति अत्तनो पभाय नप्पहोन्ति, दी. नि. अट्ठ.2.23; - भा प्र. वि., ब. व. - चतस्सो इमा, आभा... चन्दाभा, सूरियाभा, अग्गाभा, पञआभा, अ. नि. 1(2).160; --- भा द्वि. वि., ब. व. - ... देवा ये इमेसं चन्दिमसूरियानं आभा नानुभोन्ति, म. नि. 2.2363; For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभा 129 आभिचेतसिक आभा... ओभासं न वळञ्जन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) आभावग्ग पु., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 1(2). 2.193; - हि त. वि., ब. व. - हेमाचला व दिस्सन्ति 160-162. तस्साभाहितहिं तदा जिन. च. 204(रो.); - कर पु., आमावेति आ + भू का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आभावयति], [आभाकर], प्रकाश को उत्पन्न करने वाला सूर्य - रो प्र. उत्पन्न करता है, जन्म देता है, अस्तित्व में लाता है, वृद्धि वि., ए. व. - रंसिमाभाकरो भान अक्को सहस्सरंसि च, कराता है - वेसि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - मेत्ताचित्तं अभि. प. 63; - धातु स्त्री., तत्पु. स., आभा अथवा प्रकाश अभावेसि ब्रह्मलोकूपपत्तिया, पे, व. 384; - त्वा पू. का. का मूलभूत तत्त्व, सात प्रकार के धातुविभाजनों में से एक कृ. - मेत्ताचित्तं आभावेत्वा, ब्रह्मलोकूपपत्तिया, पे. व. 386%; - आभाधातु. सुभधातु, आकासानञ्चायतनधातु, आभावेत्वाति वड्डत्वा ब्रूहेत्वा, अभावत्वाति केचि पठन्ति, तेसं विज्ञआणञ्चायतनधातु, आकिञ्चायतनधातु, अकारो निपातमत्तं, पे. व. अट्ठ. 146. नेवसानासचायतनधातु, सञआवेदयितनिरोधधातु ... सत्त आभास पु., आ + भास से व्यु., केवल स. उ. प. में प्रयुक्त धातुयो ति, स. नि. 1(2).132; आभाधातूति आलोकधातु, [आभास], प्रकाश, चमक, दीप्ति, रंग, आकार - आलोकस्सपि आलोककसिणे परिकम्म कत्वा कनकाभासा स्त्री., ब. स., प्र. वि., ए. व., सोने के समान उप्पन्नज्झानस्सापीति सहारम्मणस्स झानस्स एतं नाम, स. वर्ण वाली - सा कज्ञा कनकाभासा, पदुमाननलोचना, नि. अट्ठ. 2.118; - नानत्त नपुं., भाव. [आभानानात्व], अप. 2.216; - कम्बुतलाभासा स्त्री., ब. स., प्र. वि., ए. आभा अथवा प्रकाश में विविधता - वण्णनानत्तहि खो व., शंख के समान आकार वाली - दीघा कम्बुतलाभासा, पायति नो च आभानानत्तं. म. नि. 3.187; आभानानत्तन्ति गीवा एणेय्यका यथा, जा. अट्ठ. 5.150. आलोके नानत्तं न पञआयति, म. नि. अट्ट (उप.प.) __आभासति' आ +vभास का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [आभाशते]. 3.148. बोलता है, सम्बोधित करता है, बातचीत करता है - आमा' पु./स्त्री., केवल ब. व. में प्रयुक्त, शा. अ., भिक्खवोति भगवा आभासति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).17; प्रभास्वर, देदीप्यमान, ला. अ., परित्ताभा, अप्पमाणाभा -न्ति ब. व. - अम्म ताताति पठमतरं आभासन्ति, पारा. तथा आभस्सर, नामक तीन प्रकार के देवों के लिए प्रयुक्त - आभा देवा ... दीघायुका वण्णवन्तो आभासति आ +vभास (चमकना) का वर्त, प्र. पु., ए. व. सुखबहुलाति, म. नि. 3.145; आभातिआदीसु [आभासते], चमकता है, दिखता है, प्रतीत होता है - आभादयो नाम पाटियेक्का देवा नत्थि, तयो अभब्बतो आभासति उपहातीति अभब्बाभासं, म. नि. अट्ठ. परित्ताभादयो देवा आभा नाम, परित्तासुभादयो च, म. (उप.प.) 3.193. नि. अट्ट. (उप.प.) 3.108; या ता, ... आभा सब्बा ता आभासनसील त्रि., चमकदार, दीप्तिमान – ला पु., प्र. परित्ताभा उदाहु सन्तेत्थ एकच्चा देवता अप्पमाणाभाति, म. वि., ब. व. - ... पभाय आभासनसीलाति आभस्सरा, अभि. नि. 3.188; आभा नाम विसं नत्थि, परित्ताभअप्पमाणाभ ध. वि. टी. 149. आभस्सरानमेतं अधिवचनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आभासुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 1(2).229. 1(2).160. आभाति आ +vभा का वर्तः, प्र. पु., ए. व., अच्छी तरह से आभिक्खञ नपुं., अभिक्खण का भाव. [आभीक्ष्ण्य, बौ. सं. चमकता है, सम्यकरूप से सुशोभित करता है, प्रकाशित आभीक्ष्णक], निरन्तर आवृत्ति, लगातार दुहराया जाना, करता है, देदीप्यमान बना देता है - रत्तिमाभाति चन्दिमा, सतत रूप से पुनरावृत्ति – सीलाभिक्खा वस्सकेसु णी, स. नि. 1(1).18; 56; रत्तिमाभाति चन्दिमा ति उद्वहन्तस्स मो. व्या. 5.53. चन्दस्स अञ्जलिं पग्गहि, स. नि. अट्ट. 2.217-18; - सि आभिचेतसिक त्रि., अभिचेतस से व्यु., सुस्पष्ट एवं विशुद्ध म. पु., ए. व. - का न विज्जरिवाभासि, ओसधी विय मानसिकता वाला, शुद्ध चित्तवृत्ति से युक्त - को प., तारका, जा. अट्ट. 4.414; - भन्ति प्र. पु., ब. व. -- प्र. वि., ए. व. - अयमस्स पठमो आभिचेतसिको तपन्ति आभन्ति विरोचरे च, सतेरता विज्जरिवन्तलिक्खे, दिठ्ठधम्मसुखविहारो अधिगतो होति, अ. नि. 2(1).197; - जा. अट्ट. 5.194. कानं नपुं. ष. वि., ब. व. - चतुन्नं झानानं आभिचेतसिकानं For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभिजज्ञा 130 आभिसमाचारिक दिठ्ठधम्मसुखविहारानं निकामलाभी होति अकिच्छलाभी अकसिरलाभी, परि. 262. आभिजा अभि +/ञा का विधि., प्र. पु., ए. व. [अभिजानीयात्], जाने, जानना चाहिए - यं ब्राह्मणं वेदगुमाभिजा , अकिञ्चनं कामभवे असत्तं सु. नि. 1065. आभिजानाथ अभि + ञा का वर्त., म. पु.. ब. व. [अभिजानीथ], तुम लोग जानते हो, ठीक से अथवा सुस्पष्ट रूप से स्मरण करते हो - किमाभिजानाथ पुरे पुराणं, कि वो पिता अनुसासे पुरत्था, जा. अट्ठ. 7.185. आभिजिक/अभिजिक पु., व्य. सं., एक भिक्षु का नाम - कं द्वि. वि., ए. व. - ... अभिजिकञ्च भिक्खु अनुरुद्धस्स सद्धिविहारि स. नि. 1(2).182: मम वचनेन... अभिजिकञ्च .... आमन्तेती ति, स. नि. 1(2).182. आभिदोसिक/आभिदोसिय त्रि., अभि + दोसं से व्यु., बीती हुई अथवा पिछली रात का (यागु अथवा दलिया), बासा, दूसित भाव को प्राप्त - को पु., प्र. वि., ए. व. - “ततोयं अभिदोसिको कुम्मासोति, पारा. 17; ततो तव गेहतो अयं आभिदोसिको कुम्मासो लद्धोति अत्थो, पारा. अट्ठ. 1.161; - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - सुदिनस्स। आतिदासी आभिदोसिकं कुम्मासं छड्डेतुकामा होति, पारा. 16; आभिदोसिकन्ति पारिवासिकं एकरत्तातिक्कन्तं पूतिभूतं. तत्रायं पदत्थो - पूति भावदोसेन अभिभूतोति अभिदोसो, अभिदोसोव अभिदोसिको एकरत्तातिक्कन्तस्स वा नामसआ एसा यदिदं आभिदोसिकोति, तं आभिदोसिक, पारा. अट्ठ 1.160; - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि, आवुसो पुरिसंपणीतभोजनं भुत्ताविं अभिदोसिकं भोजनं नच्छादेय्य, अ. नि. 2(2).102; आभिदोसिकन्ति अभिज्ञातदोस कुद्रूसकभोजनं, अ. नि. अट्ठ. 3.133. आमिधम्मिक त्रि., अभिधम्म से व्यु. [आभिधार्मिक], अभिधर्म का अध्ययन करने वाला, अभिधर्म में निष्णात, अभिधर्म का अच्छा ज्ञान रखने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - विनयमधीते ति वेनयिको, विनयमधीते वा, एवं... आभिधम्मिको वेय्याकरणिको, क. व्या. 353; त्वम्पि आभिधम्मिको, भण, तात, अभिधम्मपदानीति, मि. प. 15; - कं द्वि. वि., ए. व. - सुत्तन्तिकं वा आभिधम्मिक वा उपसङ्कमति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1),179; - का पु.. प्र. वि., ब. व. - सुत्तन्तिका वेनयिका आभिधम्मिका .... मि. मामाlo प. 309; - गण पु., तत्पु. स. [आभिधार्मिकगण]. अभिधर्म का अध्ययन करने वालों अथवा अभिधर्म में निष्णात व्यक्तियों की मण्डली -- णो प्र. वि., ए. व. - गणोति सुत्तन्तिकगणो वा आभिधम्मिकगणो वा, विसुद्धि. 1.92; - स्स च. वि., ए. व. - ... देम, इदं आभिधम्मिकगणस्साति एवं गणस्स देन्ति, पारा. अठ्ठ. 2.216; - भिक्खु पु., कर्म स. [आभिधार्मिकभिक्षु], अभिधर्म का अध्ययन करने वाला भिक्षु, अभिधर्म में निष्णात भिक्षु – क्खु प्र. वि., ए. व. - तस्सेको आभिधम्मिकभिक्खु आचरियो अहोसि.ध. प. अट्ठ. 1.170; - क्खू द्वि. वि., ब. व. - ... अट्ठ आभिधम्मिकभिक्खू पेसेसि, दी. नि. अट्ट. 2.209; - क्खूनं ष. वि., ब. व. - द्विन्नं आभिधम्मिकभिक्खूनं अभिधम्म सज्झायन्तानं सरे निमित्तं गहेत्वा, ध. स. अट्ठ. 18. आमिधम्मिकगोदत्त पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम, जो विनय में निष्णात माना जाता था - त्थेरो प्र. वि., ए. व. - तस्मिञ्च सन्निपाते आभिधम्मिकगोदत्तत्थेरो नाम विनयकुसलो होति, पारा. अट्ठ. 1.246; 2.29; आभिधम्मिकगोदत्तत्थेरो सीसच्छेदकस्सा ति, पारा. अट्ट. 2.65. आमिन्दति आ + भिद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आभिनत्ति], काटता है, तोड़ देता है, फाड़ देता है, खण्ड खण्ड कर देता है - न्देय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - पुरिसो तिण्हाय कुठारिया यतो यतो आभिन्देय्य, स. नि. 2(2).164; आभिन्देय्याति पहरेय्य पदालेय्य वा. स. नि. अट्ठ. 3.50 आभिमुख्य नपुं., अभिमुख का भाव. [आभिमुख्य], किसी के मुख की ओर अथवा उसके सामने रहना, उपस्थिति, अभिमुखीभाव - ख्ये सप्त. वि., ए. व. - लक्खणवाचकेन सह अभि पति इच्चेतेसं आभिमुख्ये ..., सद्द. 3.776%; आभिमुख्यविसिद्धद्धकम्मसारूप्पबुद्धिसु अभि. प. 1176; 1178, 1180. आभिसमाचारिक/अभिसमाचारिक नपुं. [बौ. सं. आभिसमाचारिक], शा. अ., अच्छे आचरण की ओर उन्मुख, उत्तम आचरण से सम्बद्ध, ला. अ., आदिब्रह्मचरियक शीलों के अतिरिक्त तथा इन शीलों की अपेक्षा गौण माने गए शील अथवा विनय-शिक्षापद - कं प्र. वि., ए. व. - अधिको समाचारो अभिसमाचारो, तत्थ नियुत्तं, सो वा पयोजनं एतस्साति आभिसमाचारिक विसृद्धि. महाटी. 1.30; आभिसमाचारिकमुच्चते, अभि. प. 431; ... For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आभिसेकिक अभिसमाचारोति उत्तमसमाचारो अभिसमाचारो अभिसमाचारं वा आरम्भ पञ्ञत्ता आभिसमाचारिक सिक्खा, www.kobatirth.org - - 131 विनया. टी. 1.219; ... आभिसमाचारिकं आचिक्खिसु, ध. प. अट्ठ 2.255; आजीवट्टमकतो अवसेससीलस्सेतं अधिवचनं विसुद्धि. 1.12; - आदिब्रह्मचरियक नपुं० आभिसमाचारिक एवं आदिब्रह्मचर्य नामक दो प्रकार के शील- प्रभेद वसेन तृ. वि., ए. व. - तथा आभिसमाचारिक आदिब्रह्मचरियकवसेन.... विसुद्धि० 1.11; वत्त नपुं तत्पु० स० [ बौ. सं. आभिसमाचारिकव्रत], आभिसमाचारिक वर्ग के शीलों के पालन का व्रत सप्त. वि., ए. व. - • आभिसमाचारिकवत्ते पन परिपूरे सीलं परिपूरति, पारा. अ. 2.19 - सिक्खा स्त्री. कर्म. स., शिक्षा के रूप में ग्रहण करने योग्य आभिसमाचारिक शील, अभिसमाचार - शीलों अथवा उत्तम आचरण से सम्बद्ध शिक्षा अभि विसिद्धो उत्तमो समाचारो अभिसमाचारो अभिसमाचारोव आभिसमाचारिकोति च सिक्खितब्बतो सिक्खाति च आभिसमाचारिकसिक्खा अभिसमाचारं वा आरम्भ पञ्ञत्ता सिक्खा अभिसमाचारसिक्खा, विनया. टी. 1.219; सील नपुं०, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् वाक् एवं सम्यक्आजीव, इनके अन्तर्गत निर्दिष्ट आठ प्रकार के आदिब्रह्मचरियक शीलों के अतिरिक्त क्षुद्रक-अनुक्षुद्रक अन्य शील, परिपालनीय व्रतों के रूप में महावग्ग एवं चूळवग्ग में प्रज्ञप्त शील यानि वा सिक्खापदानि खुद्दानुखुद्दकानीति वृत्तानि, इदं आभिसमाचारिकसीललं .... खन्धक वत्तपरियापन्नं आभिसमाचारिक विसुद्धि० 1.12; यम्पिदं चेतियङ्गणवत्तं .... द्वे असीति खन्धकवत्तानि चुद्दसविधं महावत्तन्ति इमेसं वसेन आभिसमाचारिकसीलं वृच्चति, पारा. अट्ठ. 2.19. आभिसेकिक/आभिसेकिय त्रि, अभिसेक से व्यु., सं. कृ. [ आभिषेक ], स्नान करने के स्थान पर, अथवा राजाओं के राज्याभिषेक की क्रिया के लिए निर्धारित स्थान पर छोड़ दिए गए (चीवर), स्नान अथवा राज्याभिषेक के अवसर पर प्रयुक्त, पांच, दस अथवा तेईस प्रकार के पंसुकूलों की सूची में परिगणित एक पंसुकूल कं नपुं. प्र. वि., ए. व. - अपरानिपि पञ्च पंसुकूलानि गोखायिक आभिसेकिक, गतपटियागतं, परि. 253; आभिसेकिकन्ति नहानद्वाने वा ज्ञो अभिसेकट्टाने वा छड्डितचीवर, परि० अड 173; दस पंसुकूलानीति सोसानिक, पापणिक, उन्दूरक्खायितं, उपचिकक्खायितं, अग्गिदड, गोखायित, आभुजति अजिकक्खायितं, थूपचीवरं, आभिसेकियं, भतपटियाभतन्ति एतेसु उपसम्पन्नेन उस्सुक्कं कातब्बं परि० अट्ठ 183; पंसुकूलन्ति सोसानिक, पापणिक, रथियं, सङ्कारकूटक, सोत्थिय, सिनानं, तित्थं गतपच्चागतं, अग्गिदङ्कं गोखायितं उपचिकखायितं, उन्दूरखायितं, अन्तच्छिन्नं, दसाच्छिन्नं, धजाहट, थूपं समणचीवर, सामुद्दिय, आभिसेकिय, पन्थिक, वाताहट, इद्धिमयं देवदत्तियन्ति तेवीसति पंसुकूलानि वेदितब्बानि, दी. नि. अट्ठ. 3.174. आभुज पु०, आ + √भुज से व्यु० क्रि० ना०, प्रायः "पल्लङ्क" के साथ प्रयुक्त, मोड़ने की क्रिया, दबक, झुकाव, मोड़ - जे सप्त. वि., ए. व. – या पुब्बे बोधिसत्तानं, पल्लङ्कवरमाभुजे, निमित्तानि पदिस्सन्ति, बु. वं. 2.82 पल्लङ्कवरमाभुजेति वरपल्लङ्काभुजने, बु. वं. अड. 114. आभुति / आभुञ्जति आ + √भुज का वर्त० प्र० पु०, ए. व., 1. प्रायः "पल्लङ्कं" के साथ प्रयुक्त, मोड़ता है, झुकाता है, पालथी लगा लेता है, पालथी लगा कर बैठ जाता है • भिक्खु पल्लङ्कं आभुजति, सद्द. 2.348; - जिं अद्य., उ. पीतिया च अभिस्सन्नो, पल्लङ्कं आभुजिं तदा, पु. ए. व. - बु. वं. 2.78; आभुजिन्ति कतपल्लङ्को हुत्वा पुप्फरासिम्हि निसीदिन्ति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 114: - जुं अद्य., प्र० पु०, ब. व. - सम्पजाना समुद्वाय, सयने पल्लङ्कमाभुजु, अप. 1.3; - जित्वा / जित्वान / ञ्जित्वा / ज्जित्वा / ज्ज / ज्य / ञ्जय पू० का. कृ. पालथी लगाकर, पर्यङ्कासन में बैठकर - आभुजित्वाति आबन्धित्वा, पारा. अट्ठ. 2.12; पल्लङ्क आभुजित्वान निसीदि पुरिसुत्तमो, अप. 1.17; पल्लई आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्टपेत्वा महाव. 29; अथस्स निसज्जाय दळहभाव अस्सासपस्सासानं पवत्तनसुखतं आरम्मणपरिग्गहूपायञ्च दस्सेन्तो पल्लङ्कं आभुजित्वा ति आदिमाह, पारा. अट्ठ. 2.12; एकं पादं आभुजित्वा कतपल्लङ्क चूळव. अट्ठ. 132; 2. पीछे की ओर जाता है, घटता है, वापस पलटता है महासमुद्दो आभुजति, जा. अट्ठ 1.23; 3. मरोड़ देता है, सिकोड़ देता है, समेट लेता है, उलट-पलट देता है, तोड़मरोड़ देता है - चित्तं परिकुपितं कायं आभुजति निष्भुजति सम्परिक्त्तकं करोति, मि. प. 237 - जित्वा पू. का. कृ. कण्हसप्प ....भोगं आभुजित्वा सत्तुं खादन्तो निपज्जि, जा० अ. 3.303, 4. चित्त को तीब्रता से एकाग्र करता है, मनन- चिन्तन करता है, मन में ले आता है, अनुचिन्तन करता है विधातु तत्थ तत्थ **** For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आभुजन 132 आभोग सम्मापयोगमन्वाय आभुजतीति, दी. नि. अट्ठ. 1.163; धम्मारम्मणवसेन आभुजित्वा धम्मदानं दस्सामि, चरिया. अट्ठ. 279. आभुजन नपुं., आ + भुज से व्य., क्रि. ना., 1. मोड़ देने की क्रिया, मोड़, दबक, स. उ. प. के अन्त., पलङ्का. - नपुं., तत्पु. स., पालथी लगाकर बैठना – ने सप्त. वि., ए. व. - अज्जपेतन्ति अज्ज तव पल्लङ्काभुजनेपि एतं भयं न होतेवाति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 116, पे. व. अट्ठ. 191; 2. अनुचिन्तन, सोच-विचार, मनन, चित्त को आलम्बन की ओर मोड़ देना - तो प. वि., ए. व. तरसेव आभुजनतो आभोगो, विभ. अट्ठ. 382. आभुजित त्रि., आ + भुज का भू. क. कृ., 1. मोड़ा हुआ, वक्र किया हुआ - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - वजिरासने निसिन्नकालतो पट्ठाय सकिम्पि अनट्ठहित्वा यथाआभूजितेन एकेनेव पल्लङ्कन, उदा. अट्ठ. 26; 2. मन द्वारा अनुचिन्तित, मन में लाया हुआ - तानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - "परित्तानि अभिभुय्य तानि चे कदापि वण्णवसेन आभजितानि होन्ति ..., म. नि. टी. (म.प.) 2.122. आभूजी स्त्री., भोजपत्र नामक एक वृक्ष - भुजपत्तो तु आभुजी, अभि. प. 565; भूजपत्ते इति ख्याते सुन्दरतचे रुक्खे, यस्सतचे मन्तक्खरानि लिखन्ति, अभि. प. सूची 39(रो.); - नो प्र. वि., ब. क. - मोचा कदली बहुकेत्थ सालियो, पवीहयो आभूजिनो च तण्डुला, जा. अट्ठ. 5.401; आभूजिनोति भुजपत्ता, जा. अट्ठ. 5.402; - परिवारित त्रि., ब. स., भोजपत्र के वृक्षों से घिरा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - कदलीधजपाणो, आभुजीपरिवारितो, जा. अट्ठ. 5.186. आभोग' पु., [आभोग], पूर्णता, पूर्ण आनन्द, पूर्ण भोग - आभोगो पुण्णतावज्जे ..., अभि. प. 1083; - मत्त नपुं.. आभोगमात्र, केवल उपभोग, केवल आनन्द का अनुभव - आभोगमत्तमेव हेत्थ पमाणं, कसा. 219. आभोग 1. पु., आ + भुज से व्यु., क्रि. ना. [आभोग], शा. अ., मुड़ाव, झुकाव, लपेट, घुमाव, घेरा, परिधि, कुण्डलन, ला. अ., मानसिक प्रवृत्ति, मन का लगाव, मनसिकार, मन में चढ़ा लेना, अभिरुचि, मानसिक अनुचिन्तन, मानसिक प्रत्यय, ध्यान - गो प्र. वि., ए. व. - यदेव तत्थ सुखमिति चेतसो आभोगो, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति, दी. नि. 1.32; चेतसो आभोगोति झाना वढाय तस्मिं सुखे पुनप्पनं चित्तस्स आभोगो मनसिकारो समन्नाहारोति, दी. नि. अट्ठ. 1.104 - गं द्वि. वि., ए. व. -... एवं आभोगं कातुम्पि वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.226; अनापुच्छा वा आभोग वा अकत्वा अन्तोगब्भे वा असंवुतद्वारे बहि वा निपज्जन्तानं आपत्ति, पारा. अट्ठ. 1.226; 225; - गेन तृ. वि., ए. व. - पच्छिमस्स आभोगेन मुत्ति नत्थि, पाचि. अट्ठ. 39; - गे सप्त. वि., ए. व. - "किमिदं अन्धकार न्ति ? सत्तानं आभोगे उप्पन्ने, ..., स. नि. अट्ट, 1.195; 2. त्रि., आभोग करने वाला, मानसिक प्रत्यय बनाने वाला, मनन करने वाला, अनुचिन्तन का विषय बनाने वाला - स्स पु., प्र. वि., ए. व. - आभोगस्स होति... समन्नाहरन्तस्स होति ..., कथा. 287; ननु आवद्देन्तस्साति वारे आभोगस्साति आभोगवतो, कथा. अट्ठ. 194; स. उ. प. के रूप में अत्था., अना०, अन्ता., चित्ता., पठमा., पुब्बा., सा. के अन्त. द्रष्ट.; - ता स्त्री॰, भाव., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, चित्त के अनुचिन्तन की अवस्था, पठमा.- प्र. वि., ए. व., आलम्बन की ओर चित्त के जाने का प्रथम क्षण- पठमावज्जनञ्चेव पठमाभोगतापि च, अभि. अव. 1327; - पच्चवेक्खणरहित त्रि., मानसिक अनुचिन्तन एवं प्रत्यवेक्षण से रहित - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अञ्जमज आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा..., विभ. अट्ठ. 54; - सज्ञा स्त्री., तत्पु. स. [आभोगसंज्ञा], मानसिक चिन्तन के विषय में संज्ञा-ज्ञान - य तृ. वि., ए. व. - आभोगसआयपि झानस आयपि एवंसजी होति, दी. नि. अट्ठ. 2.136; तथारूपस्स आभोगरस असम्भवतो, समापत्तितो बुद्वितस्स आभोगो पुब्बभागभावनायवसेन झानक्खणे पवत्तं अभिभवनाकारं गहेत्वा पवत्तोति दहब्बं दी. नि. टी. 2.147(बर्मी); - समन्नाहार पु., तत्पु. स., आभोग नामक ध्यान-रे सप्त. वि., ए. व. - ... अट्ठविधे आभोगसमन्नाहारे .... लभति, अ. नि. अट्ठ. 2.102; सन्तं पणीतं सबसङ्घारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानन्ति एवं अट्ठविधे आभोगसञिते समन्नाहारे, अनि. टी. 2.92; - समन्नाहारमनसिकार पु., कर्म, स., आभोग में विद्यमान एकाग्रता -विषयक मनसिकार (मन का ध्यान)- रो प्र. वि., ए. व. - ओळारिकोळारिके कायसवारे परसम्भेमी ति आभोगसमन्नाहारमनसिकारो नत्थि, पटि. म. अट्ठ. 2.843; - गानुरूपं अ., क्रि. वि., मानसिक चिन्तन अथवा मनसिकार की अनुरूपता में - गोचरभावं गच्छन्तीति आभोगानरूपं अनेककलापगतानि आपाथं आगच्छन्ति, अभि. ध. स. 131; - गाभाव पु., तत्पु. स., मानसिक चिन्तन For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम 133 आमक का अभाव - तो प. वि., ए. व. - सत्ता सुखिता वा होन्तु .... ति आभोगाभावतो, विसुद्धि. 1.315.. आम' अ., अनुमोदनार्थक, सहमतिसूचक अथवा स्वीकृत्यर्थक निपा. [आम्, बौ. सं. आम/आमं], ओह, हां, जी हां, हां ऐसा ही है, वास्तव में यही बात ठीक है, एकदम ऐसा ही है, वाक्यों में दो प्रकार से प्रयुक्त; क. इसके उपरान्त संबो. में आवुसो, भन्ते, अय्य, अय्ये, उपासक, दारक, देव, भगवा एवं महाराज आदि शब्द अवश्य रहते हैं - "आम, आवुसो ति, ध. प. अट्ठ. 1.34; "आम, भन्ते ति, ध. प. अट्ठ. 1.23; "अम्म, सेट्टिनो धीतासी ति? "आम, ताताति, ध. प. अट्ठ. 1.111; "आमाय्य नवरत्तो कम्बलो ति, पारा. 193; "आमाय्ये सिबिस्सामी ति, पाचि. 383; "आम, उपासका ति, ध. प. अट्ठ. 1.6; "आम, देवा ति, ध. प. अट्ठ. 1.275; "आम, दारक, जानामहं सिप्पानि, मि. प. 10; ख. संबो. में अन्त होने वाले नाम के प्रयोग के बिना कभी-कभी "आम" के तुरन्त उपरान्त स्वीकृति अथवा पूर्वकथन के अनुमोदन को सूचित करने वाला वाक्य अथवा वाक्यांश का प्रयोग मिलता है -- आम, पब्बजितोम्ही ति, महाव. 122; आम, मया गहिताति, ध. प. अट्ठ. 2.42; "कि पनेत्थ आपत्तिभावं न जानासीति? आम, न जानामी ति, ध. प. अट्ठ. 1.34. आम अ./त्रि०, केवल स. पू. प. में ही प्राप्त अमा से व्यु. अथवा उस का अप., अपना, निजी, अपने ही घर का -- जन पु., कर्म, स., एक ही घर में रहने वाला, घरेलू। आदमी, पारिवारिक जन, सम्बन्धी जन - नो प्र. वि., ए. व. - न नो समसब्रह्मचारीसूति एत्थ समजनो नाम सकजनो वुच्चति, अ. नि. अट्ठ. 3.124; पाठा. समजनो; - जात त्रि., "हां मैं आपकी दासी हूं इस प्रकार से 'हां' कहने वाली या स्वीकारने वाली दासी से उत्पन्न दासी-पुत्र - तो पु., प्र. वि., ए. व. - यत्थ दासो आमजातो, ठितो। थुल्लानि गज्जतीति, जा. अट्ठ. 1.221; आमजातोति "आम, अहं वो दासी ति एवं दासब्यं उपगताय आमदासिसङ्घाताय दासिया पुत्तो, जा. अट्ट, 1.222; - दासीसङ्खाता स्त्री., "हां मैं आपकी दासी हूं" ऐसा कहने या स्वीकारने के कारण "आमदासी” नाम से विख्यात या प्रसिद्ध दासी - य ष. वि., ए. व. - अहं वो दासी ति एवं दासब्यं उपगताय आमदासिसजाताय दासिया प्रत्तो, जा. अठ्ठ. 1.222. आम त्रि., आ + अम से व्यु. [आम], 1. कच्चा, अनपका, अपक्व (भोजन या फल)- मं' नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आमं पक्कञ्च जानन्ति, अथो लोणं अलोणक जा. अट्ठ. 3.338; - मं? प्र. वि., ए. व. - आमं पक्कवण्णि ..., आम आमवण्णि ... चत्तारि अम्बानि, अ. नि. 1(2).122; पञ्चमे आमं पक्कवण्णीति आमकं हुत्वा ओलोकेन्तानं पक्कसदिसं खायति, अ. नि. अट्ठ. 2.322; 2. आवे में न पकाया हुआ (बर्तन आदि) - मं प्र. वि., ए. व. - तं ते पाय भेच्छामि, आम पत्तंव अस्मना, सु. नि. 445; 3क. अनपचा, अधपचा (भोजन आदि), अपवित्र, उख. पु./नपुं., अजीर्णता अथवा अनपच का रोग - दुट्ट आमासयगतं रसं आमं बुधा विदु, भेषज्ज. 1.113 (रो.). आमक त्रि., [आमक], उपरिवत्, क. कच्चा, नहीं पकाया हुआ - कं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अय्य, आमकं किर न गण्हन्तीति, जा. अट्ठ. 4.61; जात वेदस्स डरहमाने आमकसङ्कटे आमकवण्णविनासे रसादीनं विनासो भवति, अभि. अव. 108; ख. नहीं पका हुआ- बालो आमकपक्कंव, ... आमिसं, जा. अट्ठ. 5.361; आमकपक्कति आमकञ्च पक्कञ्च, जा. अट्ट, 5.362; आमकं हुत्वा ओलोकेन्तानं पक्कसदिसं खायति, अ. नि. अट्ठ. 2.322; ग. आवे में नहीं पकाया हुआ (मिट्टी का बर्तन आदि) कच्चा - कानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - यानि कानिचि कुम्भकारभाजनानि आमकानि चेव पक्कानि च सब्बानि तानि भेदनधम्मानि ..., स. नि. 1(1).116; - के सप्त. वि., ए. व. - कुम्भकारो आमके आमकमत्ते, म. नि. 3.160; -च्छिन्न त्रि., कर्म. स., कच्ची अवस्था में ही काट लिया गया, हरी भरी हालत में ही काट दिया गया - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - तित्तकालाबु आमकच्छिन्नो ... होति सम्मिलातो, म. नि. 1.1143; आमकच्छिन्नोति अतितरुणकाले छिन्नो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).362; - तक्क नपुं.. कर्म. स. [आमकतक्र], ताजा मट्ठा - क्के सप्त. वि., ए. व. - सचे आमकतक्के वा, खीरे वा पक्खिपन्ति तं, सामपाकनिमित्तम्हा, न तु मुच्चति दुक्कटा, विन. वि. 1457; आमकतक्कादीसु पन सयं न पक्खिपितब्बा, पाचि. अट्ठ. 102; - धन नपुं., कर्म. स. [आमकधान्य], नहीं पकाया हुआ अनाज, कच्चा अनाजजं द्वि. वि., ए. व. - ... रस्सकाले आमकधज विआपेत्वा नगरं अतिहरन्ति द्वारट्टाने, पाचि. 360; इदं आमकधज नाम मातरम्प विज्ञापेत्वा भुञ्जन्तिया पाचित्तियमेव, पाचि० अट्ठ. 188; - पक्कमिक्खाचरिया स्त्री., तत्पु. स., कच्चे तथा पके हुए भोजन को प्राप्त करने हेतु किया जा रहा भिक्षाटन - यं द्वि. वि., ए. व. - समुच्छकन्ति गामे For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमक 134 आमगन्ध वा आमकपक्कभिक्खाचरियं अरज्ञ वा फलाफलहरणसङ्घातं कर्म स. [आमकलोहित], ताजा खून, गर्म लहू - तं द्वि. उञ्छ यो चरेय्य, जा. अट्ठ. 4.60. - पटिग्गहण वि., ए. व. - सो सूकरसूनं गन्त्वा आमकमंसं खादि, नपुं.. तत्पु. स. [आमकधान्यप्रतिग्रहण], दान के रूप आमकलोहितं पिवि, महाव. 278; ... अनुजानामि, में कच्चे अनाज को स्वीकार करना - णा प. अमनस्सिकाबाधे आमकमसं आमकलोहितन्ति, महाव. 278; वि., ए. व. - आमकधअपटिग्गहणा पटिविरतो - साक नपुं.. कर्म. स. [आमकशाक], कच्ची साग-सब्जी समणो गोतमो, दी. नि. 1.5; आमकधअपटिग्गहणाति, - कं द्वि. वि., ए. व. - आमकसाकं हत्थेन गहेत्वा खादितुं सालिवीहियवगोधूमकङ्गुवरक कुद्रूसकसङ्कातरस सत्तविधस्सापि वट्टति, विसुद्धि. 1.68. आमकधस्स पटिग्गहणा न केवलञ्च एतेसं पटिग्गहणमेव, आमकसुसान नपुं., कर्म. स., ऐसा भयंकर श्मशान जिसमें आमसनम्पि भिक्खूनं न वट्टतियेव, दी. नि. अट्ठ. 1.72; - बिन जले अथवा अधजले शव छोड़ दिए जाते हों, श्मशान पतिक त्रि., कर्म. स., कच्ची अवस्था में ही सड़ चुका - की दुर्गन्ध भरी अपवित्र भूमि, अनेक प्रकार की गन्दगी से को पु., प्र. वि., ए. व. - जीवमतको नाम आमकपूतिको भरपूर श्मशान-भूमि - नं' प्र. वि., ए. व. - तरस नाम चेस, पारा. अट्ठ. 2.160; - फल नपुं., कर्मस. अलङ्कतपटियत्तं ... तं महातलं अपविद्धनानाकुणपभरितं [आमकफल], नहीं पका हुआ फल, कच्चा फल-लं द्वि. आमकसुसानं विय उपट्टासि, जा. अट्ठ. 1.71; यत्थ सुसाने वि., ए. व. - आमकफलम्पि असेसेत्वा खादिसु, जा. अट्ठ. छवसरीरं छड्डीयति, तं आमकसुसानं, विसुद्धि. महाटी. 3.333; - भाजन नपुं.. कर्म. स. [आमकभाजन], आवे में 1.338; आमकसुसाने पातितं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1). नहीं पकाया गया मिट्टी का कच्चा बर्तन - नं प्र. वि., ए. 372; - नं द्वि. वि., ए. व. --इदानि नं आमकसुसानं नेत्वा व. - निच्च विभिञ्जतिह आमकभाजनं व, तेल.. 33; - गच्छन्तरे निपज्जापेहि, ध. प. अट्ठ. 1.102; - ने सप्त. वि., मंस नपुं.. कर्म. स. [आमकमांस], कच्चा मांस, नहीं ए. व. - "आमकसुसाने तं यथा काकसुनखादयो न खादन्ति, पकाया हुआ मांस - सं द्वि. वि., ए. व. - सो सूकरसून तथा निपज्जापेत्वा रक्खापेथा ति, ध. प. अट्ट, 2.59. गन्त्वा आमकमंसं खादि ... पिवि, तस्स सो आमगन्ध' 1. पु., कर्म. स. [बौ. सं. आमगन्ध], शा. अ., अमनुस्सिकाबाधो पटिप्पस्सम्भि, महाव. 278; आमकमसञ्च दुर्गन्ध, दुर्गन्ध से परिपूर्ण वस्तु, कच्चे मांस की गन्ध, शव ... अमनुस्सो खादित्वा च पिवित्वा च पक्कन्तो, तेन वृत्तं जैसी गन्ध, सड़ायंध, चिरायंध, ला. अ., मन में विद्यमान - तस्स सो अमनुस्सिकाबाधो पटिप्पस्सम्भीति, महाव. मलिन मनोभाव, क्लेश, अनुशय, आस्रव, प्राणि-हत्या, चोरी अट्ठ. 352; - मंसपटिग्गहण न, तत्पु. स. आदि पापकर्म - न्धो प्र. वि., ए. व. - "आमगन्धो नाम [आमकमांसप्रतिग्रहण], दान के रूप में बिना पकाए हुए मच्छमंसं, गहपतयो ति, सु. नि. अट्ठ.1.259; "अपि च खो मांस का स्वीकरण - णा प. वि., ए. व. - आमगन्धो नाम सब्बे किलेसा पापका अकुसला धम्मा ति आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो समणों गोतमो, दी. नि. वत्वा ..., तदे; "न आमगन्धो ममकप्पतीति, सु. नि. 1.5; आमकमंसपटिग्गहणाति एत्थ अञत्र ओदिस्स 244; एसामगन्धो न हि मंसभोजनन्ति एस अनुञआता आमकमंसच्छानं पटिग्गहणमेव भिक्खूनं न वट्टति, पाणातिपातादिअकुसलधम्मसमदाचारो आमगन्धो नो आमसनं, दी. नि. अट्ट, 1.72; - मच्छभोजिन त्रि. विस्सगन्धो कुणपगन्धो... ये... हि उस्सन्नकिलेसा सत्ता, [आमकमत्स्यभोजिन], कच्ची मछलियों का भोजन करने ते तेहि अतिदुग्गन्धा होन्ति, ... तस्मा एसामगन्धो, सु. नि. वाला - जिनो पु., ष. वि., ए. व. - उदकथलचरस्स अट्ठ. 1.263; - न्धे पु., वि. वि., ब. व. - आमगन्धे च पक्खिनो, निच्चं आमकमच्छभोजिनो, जा. अट्ठ. 2.124; ध. खो अहं भोतो भासमानस्स न आजानामि, दी. नि. प. अट्ठ. 1.84; - मत्त त्रि., अभी तक पूरी तरह से नहीं 2.177; 2. त्रि., क. दुर्गन्ध से परिपूर्ण, सड़ायध से भरपूर, पकाया हुआ (मिट्टी का बर्तन), अभी तक पूरी तरह से नहीं ख. हिंसा आदि दुराचार करने वाला, क्लेशों द्वारा सूखा हुआ (बर्तन)- ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - न वो मलिनीकृत - न्धं नपुं., द्वि. वि., ए. व. -- सो भुजसी अहं, आनन्द, तथा परक्कमिस्सामि यथा कुम्भकारो आमके कस्सप आमगन्धं, सु. नि. 243; -न्धा पु०, प्र. वि., ब. व. आमकमत्ते, म. नि. 3.160; आमकमत्तेति आमके नातिसुक्खे - आमगन्धा सकुणपगन्धा पूतिगन्धायेवाति वदति, दी. नि. भाजने, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.122; - लोहित नपुं०, अट्ठ. 2.232. For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आमगन्ध आमगन्ध' पु०, व्य॰ सं॰, बुद्ध के समय का वह तापस जिसे भगवान् बुद्ध ने आमगन्धसुत्त का उपेदश दिया तथा जो काश्यप बुद्ध के काल में भी आमगन्ध नामक ब्राह्मणा न्धो प्र. वि., ए. व. - अनुप्पन्ने भगवति आमगन्धो नाम ब्राह्मणो न कदाचि मच्छमंसं खादति, सु. नि. अट्ठ 1.258; - न्धं द्वि. वि., ए. व. एवं भगवा परमत्थतो आमगन्धं विस्सज्जेत्वा दुग्गतिमग्गभावञ्चस्स पकासेत्वा भुञ्जति, सु. नि. अट्ठ. 1.266 - सञ्ञी त्रि, अपवित्रता एवं दुर्गन्धमयता की संज्ञा रखनेवाला -: ञ्ञी पु., प्र. वि., ए. व. - ... यस्मिं मच्छमंसभोजने तापसो आमगन्धसञ्ञी दुग्गतिमग्गसञ्ञीच हुत्वा तस्स अभोजनेन सुद्धिकामो हुत्वा तं न भुञ्जती, सु. नि. अट्ठ. 1.266. आमगन्धसुत्त नपुं, सु. नि. के चूळवग्ग का एक सुत्त, जिसमें भगवान् बुद्ध ने ब्राह्मणों में स्वीकृत "आमगन्ध" शब्द के अर्थ का खण्डन कर पापकर्मों एवं अकुशल मनोभावों को 'आमगन्ध' घोषित किया था, सु० नि० 242-255; - वण्णना स्त्री०, आमगन्धसुत्त की अट्ठकथा या व्याख्या, सु० नि. अट्ठ. 2.258-268. आमगिद्ध / आमगिज्झ त्रि, कच्चे मांस के प्रति लालच www.kobatirth.org - रखने वाला, चारा के रूप में प्रयुक्त कच्चे मांस का लालची - द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. यथापि मच्छो बळिस, ... आमगिद्धो न जानाति, जा. अट्ठ. 6.242; 264. आमत्रि, आ + √मस का भू० क. कृ. [आमृष्ट], शा. अ., ठीक से स्पर्श किया गया, ला. अ., सुविचारित, सुचिन्तित - ट्ठा पु०, प्र. वि., ब. व. निरासङ्कचित्तताय पुनपुनं आमट्ठा परामट्ठा, दी. नि. अट्ठ. 1.93; - मत्त त्रि, केवल स्पर्शमात्र किया हुआ - त्ता पु०, प्र० वि०, ब० व० - आमसना नाम आमट्टमत्ता, पारा. 174. आमण्ड पु०, (वृक्ष के अर्थ में) / नपुं०, (फल के अर्थ में) [ आमंड], क. अट्ठ. के अनुसार आंवला का वृक्ष या फल ण्डं नपुं. प्र. वि., ए. व. आमण्डन्ति आमलकं, म० नि. अट्ठ. ( उप. प.) 3.107; - ण्डो पु., प्र. वि., ए. व. तत्थ आमण्डोति आमलकरुक्खो, बु. वं. अट्ठ. 269; - ण्डानि नपुं०, द्वि० वि०, ब० व. सेय्यथापि, भिक्खवे, चक्खुमा पुरिसो पञ्च आमण्डानि हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य, म. नि. 3.144; ख. संस्कृत शब्दकोशों एवं अभि. प. के अनुसार रेंडी का पौधा या फल - ण्डो पु., प्र. वि., ए. एरण्डो तु च आमण्डो, अभि. प. 566; वि., ए. व. आमण्डस्स इदं फलं, अप. 1.95. व. स्सष. - 135 आमत्तिक आमण्डगामणी पु०, श्रीलङ्का का एक शासक - 1 णी प्र. वि., ए. व॰ – आमण्डगामणी भयो महादाठिक अच्चये, म. वं. 35.1.8; - पुत्त पु०, तत्पु० स०, राजा आमण्डगामणी का पुत्र - त्तो प्र. वि., ए. व. - आमण्डगामणीपुत्तो चूळाभयो ति विस्सुतो, दी. वं. 21.38. आमण्डधीतु स्त्री०, आमण्डगामणी अभय नामक एक सिंहली राजा की पुत्री ता प्र. वि., ए. व. - आमण्डधीता चतुरो मासे रज्जं अकारपि, म. वं. 35.14. आमण्डभागिनेय्य पु०, आमण्डगामणी अभय नामक सिंहली शासक का भाञ्जा य्यो प्र. वि., ए. व. आमण्डभागिनेय्यो तु सीवलिं अपनीय नं. म. वं. 35.15. आमण्डलिय / आमण्डलिक नपुं. पानी के बीच की भंवर, जल - आवर्त या मण्डल - यं द्वि. वि., ए. व. - गावो मज्झेगङ्गाय नदिया सोते आमण्डलियं करित्वा तत्थेव अनयब्यसनं आपज्जिंसु, म. नि. 1.290. आमण्डसारक 1. पु॰, तत्पु० स० [आमण्डसारक], आंवले का तूंबा या आंवले से बना पात्र, 2. त्रि. आंवला के फल वाला को प्र. वि., ए. व. "आमण्डकसारको आमलकफलमयो ति वदन्ति, वजिर. टी. 109; तेलभाजनेसु अलाबु वा आमण्डसारके वा ठपेत्वा इत्थिरूपं पुरिसरूपञ्च अवसेसं सब्बम्पि वण्णमदृकम्मं वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.234; आमण्डसारकेति आमलकेहि कतभाजने, सारत्थ. टी. 2.108; विसाणे नाळियं वापि, तथेवामण्डसारके, fan. fa. 3072. - A - आमण्डियमहीपति पु०, कर्म. स. व्य. सं., श्रीलङ्का के एक शासक आमण्डगामणी अभय का ही एक अन्य नाम - ति प्र. वि., ए. व. - मंसकुम्भण्डकं नाम आमण्डियमहीपति, म. वं. 35.7. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमत त्रि, आ + √मर का भू० क० कृ०, लगभग मरा हुआ, अर्धमृत - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - यदा सो आमतो होति, त्याहं एवं वदामि, दी. नि. 2.249; आमतो होतीति अद्धमतो मरितुं आरद्धो होति, दी. नि. अट्ठ. 2.361. आमत्तिक पु०, आमत्त से व्यु, मिट्टी से बने हुए बर्तनों का व्यापारी या स्वामी का प्र० वि०, ब० व. - वुच्चन्ति भाजनानि तानि येसं भण्डं ते आमत्तिका, पारा. अट्ठ. 2.255; - कापण पु०, तत्पु० स०, मिट्टी के बर्तनों की दुकान, घड़ों की दुकान अथवा व्यापार - णं द्वि. वि., ए. व. - पत्तवाणिज्जं वा समणा सक्यपुत्तिया करिस्सन्ति आमत्तिकापणं वा पसारेस्सन्तीति, पारा 364; आमत्तिकापणं आमत्तानि For Private and Personal Use Only - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमद्दन 136 आमन्तेति वाति... आमत्तिका, तेसं आमत्तिकानं... कुलालभण्डवाणिजका पणन्ति अत्थो, पारा, अट्ठ. 2.255; - णो प्र. वि., ए. व. - तेसं आपणो आमत्तिकापणो, पाचि. अट्ठ. 179. आमद्दन नपुं.. आ +vमद्द से व्यु., क्रि. ना. [आमर्दन], रौंद देना, कुचल देना - तो प. वि., ए. व. - यस्स खेत्तसामिकस्स इदं माससस्सं धनं तं अयं गोगणो ... भञ्जनतो, आमद्दनतो पुरेतरमेवाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 264. आमन्तक त्रि., आ +vमन्त से व्यु. [आमन्त्रक]. आमन्त्रण देकर पास में बुलाने वाला, बुलाने वाला - केसु पु., सप्त. वि., ब. व. - असद्धम्मवसेन हि आमन्तकेसु निमन्तकेसु विज्जमानेसु मातुगामो नाम न सक्का रक्खितुन्ति, जा. अट्ठ. 1.283. आमन्तण/आमन्तन नपुं., आ +vमन्त से व्यु., क्रि. ना. [आमन्त्रण], क. शा. अ., संबोधित करना, बुलाना, आवाज देकर पुकारना, निमन्त्रण, समालाप - ने सप्त. वि., ए. व. - कुण गुण आमन्तने, सद्द. 2.536; साम स्वान्तने आमन्तने, सद्द. 2.558; नास्स आमन्तने कोचि अन्तरायो अहोसीति इममत्थं दस्सेति, उदा. अट्ठ. 351; ख. केवल व्याकरण के सन्दर्भ में, 1. अनु., के अनेक अर्थों में से एक - आणत्यासिट्ठ अक्कोससपथयाचनविधि निमन्तणामन्तनाज्झिट्ट सम्पुच्छनपत्थनासु पञ्चमी, सद्द. 3.813; 2. विधि के अनेक अर्थों में से एक -- आमन्तणे इध भवं निसीदेय्य इच्चादि, सद्द. 3.815; 3. संबो. वि. का अर्थ, संबो. कारक - आमन्तणट्ठमी सायं सि यो येवा ति चुद्दस ... विभत्तियो, सद्द, 1.60; - पद नपुं., तत्पु. स. [आमन्त्रणपद्], संबो. वि. में प्रयुक्त पद - दानं ष. वि., ब. व. - पठमाविभत्तियुत्तानं एकवचनपुथुवचनन्तानं आमन्तणपदानं दिद्वत्ता ..., सद्द. 3.895; - वचन नपुं, तत्पु. स., आमन्त्रण अथवा पुकारे जाने के अर्थ का कथन - नं प्र. वि., ए. व. - नाग नागस्साति एक आमन्तनवचनं । सु. नि. अट्ठ. 2.143; – ने सप्त. वि., ए. व. – .... आमन्तणवचने अट्ठमी विभत्ति, सद्द. 1.60; - सज्ञ त्रि... ब. स. [आमन्त्रणसंज्ञक], आमन्त्रण संज्ञा वाला, आमन्त्रण कहा जाने वाला - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं वत्थं आलपति अभिमुखं करोति, तं आमन्तणस होति, सद्द. 3.713; - नाकारदीपन नपुं.. बुलाए जाने के तरीके का प्रकाशन - नं प्र. वि., ए. व. - भिक्खवोति तेसं आमन्तनाकारदीपनं, स. नि. अट्ठ. 1.27. आमन्तना/आमन्तणा स्त्री., [आमन्त्रण], पुकार, बातचीत, सलाह-मशविरा, बात विचार - ना प्र. वि., ए. व. - आमन्तना होति सहायमज्झे, वासे ठाने गमने चारिकायं, सू. नि. 40; इदं मे देही ति आदिना नयेन तथा तथा आमन्तना होति. सु. नि. अट्ठ. 1.67. आमन्तनिक/आमन्तणिक त्रि., [आमन्त्रनीय], आमन्त्रण दिए जाने योग्य, बातचीत अथवा संलाप करने योग्य, निमन्त्रण देने वाला, अनुरोध करने वाला - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आमन्तनिका रोम्हि सक्कस्स वसवत्तिनो, वि. व. 165; ... आमन्तनिका आलापसल्लापयोग्गा, कीळनकाले वा तेन आमन्तेतब्बा अम्हि, वि. व. अट्ठ. 76. आमन्तनीय त्रि., आ +vमन्त का सं. कृ. [आमन्त्रणीय], आमन्त्रित करने योग्य, दान आदि देने हेतु अनुरोध करने योग्य -- यो पु., प्र. वि., ए. व. - गरु च आमन्तनीयो च, दातुमरहामि भोजनं, जा. अट्ठ. 4.333; आमन्तनीयोति आमन्तेतब्बयुत्तको मया दिन्न भत्तं गहेतुं अनुरूपो, जा. अट्ठ. 4.335; आमन्तनीयोति आमन्तेतब्बयुत्तको मया दिन्न भत्तं गहेतु अनुरूपो, जा. अट्ठ. 4.334. आमन्ता स्वीकृति-सूचक सम्बोधनार्थक निपा.. अभिधम्म में प्रयुक्त, संभवतः आम+भन्ते के संक्षिप्तीकृत रूप से निष्पन्न, जी हां श्रीमान, ऐसा ही है श्रीमान् - ... पुग्गलो नुपलब्भति सच्चिकट्ठपरमत्थेनाति आमन्ता, ध, स. अट्ठ. 5; परवादी "आमन्ता ति पटिजानाति पटिजाननहि कत्थचि "आम भन्ते ति आगच्छति, कत्थचि "आमो ति आगच्छति, इध पन "आमन्ता ति आगतं, मोहवि. 277. आमन्तापन नपुं., आ +vमन्त के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना., आमन्त्रण कराना, बुलवाना - नं प्र. वि., ए. व. - एत्थ किञ्चा पि सीलादिधम्मानं आमन्तापनं नास्थि सद्द. 2.536. आमन्तापेति आ + मन्त का प्रेर., वर्त. प्र. पु., ए. व. - आमन्त्रित कराता है, बुलवाता है - पेय्य विधि.. प्र. पु.. ए. व – भिसक्कं सल्लकत्तं आमन्तापेय्य, मि. प. 149; - पीयति कर्म. वा., वर्त., प्र. पु., ए. व., आमन्त्रित कराया जाता है - गोणापीयति आमन्तापीयति अत्तनि पतिहितो पुग्गलो द8 सोतुं पूजितुञ्च इच्छन्तेहि जनेही ति गुणो, सद्द. 2.536. आमन्तेति/आमन्तयति आ +vमन्त का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आमन्त्रयते], सम्बोधित करता है, बुलाता है, आवाज For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमप्पयोग 137 आमलक देता है, निमन्त्रण देता है, अनुरोध करता है, परामर्श करता है, बिदा लेता है, संलाप करता है - सत्था तं, ... आमन्तेती ति, चूळव. 319; आमन्तेतीति पक्कोसति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).3; - यामि उ. पु., ए. व. - हन्द दानि, भिक्खवे, आमन्तयामि वो, दी. नि. 2.92; - यतं अनु. प्र. पु., ए. व. - आमन्तयतन्ति आमन्तेतु जानापेतु, दी. नि. अट्ठ. 1.239; - न्तेहि अनु., म. पु.. ए. व. - मम वचनेन भद्दियं भिक्खं आमन्तेहि, चूळव. 319; - यस्सु अनु., म. पु., ए. व., आत्मने. - आमन्तयस्सु ते पुत्ते, जा. अट्ठ. 7.313; - न्तये विधि., प्र. पु., ए. व. - याव आमन्तये जाती, मित्ते च सुहदज्जने, जा. अट्ठ. 7.157; आमन्तये ... भो यक्खसेनापति, तदे; - न्तेसि/न्तयि अद्य, प्र. पु., ए. व. - आमन्तेसी ति आलपि अभासि सम्बोधेसि, पारा. अट्ठ. 1.150; सारथिं आमन्तयी राजा, पे. व. 660; - यित्थ तदे, आत्मने. -- आमन्तयित्थ राजानं. सञ्जयं धम्मिनं वरं जा. अट्ठ. 7.260; - न्तेसिं उ. पु., ए. व. - तत्रापि खो ताहं आनन्द, आमन्तेसिं दी. नि. 2. 89; - न्तयिंसु प्र. पु., ब. व. - सामो इति मं आतयो, आमन्तयिंसु जीवन्तं, जा. अट्ठ. 6.92; - न्तेतब्बा स्त्री., सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - कीळनकाले वा तेन आमन्तेतब्बा अम्हि, वि. व. अट्ठ. 76; - न्तेत्वा पू. का. कृ. - थेरो वस्सूपनायिकदिवसे ते भिक्खू आमन्तेत्वा पुच्छि, ध. प. अट्ठ. 1.6; - न्तित त्रि, भू. क. कृ. - ता पु., प्र. वि., ब. व. - आमन्तिता खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च, दी. नि. 1.123. आमप्पयोग पु., प्रचुर, व्यापक अथवा एकजुट बनाने की क्रिया - गो प्र. वि., ए. व. - आमप्पयोगो नाम उस्सन्नकिरिया, सद्द. 2.539. आमभेदनिदस्सन नपुं॰, भैषज्य. का वह अध्याय, जिसमें अपच से सम्बद्ध रोगों का विवरण है, नवां अध्याय. आमय पु.. [आमय], रोग, व्याधि, बीमारी, विपत्ति, मनोव्यथा, हानि - आतङ्को आमयो व्याधि गदो रोगो रुजापि च, अभि. प. 323; - स्स ष. वि., ए. व. - तस्स तस्सामयस्सेव पटिसेधनमत्तकं अव्यापज्झत्थिक सेवे भेसज्ज स्नेहवज्जितो. सद्धम्मो. 397. आमरिस पु.. [आमर्ष], क्रोध, कोप, असहनशीलता - सो प्र. वि., ए. व. - अमरिसो आमरिसो. सद्द. 3.921. आमलक 1. पु., [आमलक], आंवला का वृक्ष - का प्र. वि., ब. व. - अम्बा ... हरीतकी आमलका, जा. अट्ठ. 7.293; 2. नपुं.. [आमलक], आंवले का फल – कं प्र./द्वि. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन जीवको कोमारभच्चो नखेन भेसज्जं ओलुम्पेत्वा आमलकञ्च खादति पानीयञ्च पिवति, महाव. 366; अनुजानामि, भिक्खवे, फलानि भेसज्जानि ... आमलक, महाव. 277; अथ खो जीवको कोमारभच्चो काकं दासं एतदवोच हन्द, भणे काक, आमलकञ्च खाद पानीयञ्च पिवरसूति, महाव. 366; - कानि प्र./द्वि. वि., ब. व. - पिण्डपाते ... अम्बे आमलकानि च, थेरगा. 938; - मत्त त्रि०, ब. स. [आमलकमात्राक], आंवले के फल के जैसे आकार वाला-त्तियो स्त्री., प्र. वि., ब. व. -- कोलमत्तियो हुत्वा आमलकमत्तियो अहेसु, आमलकमत्तियो हुत्वा बेलुवसलाहुकमत्तियो अहेसुं. स. नि. 1(1).177; - त्ता उपरिवत् - सासपमत्तियो पिळका उट्ठहिंसु, ता अनुपुब्बेन ... आमलकमत्ता ... हुत्वा, ध. प. अट्ठ. 1.181; - कक्क पु., तत्पु. स., केश-प्रक्षालन के लिए प्रयुक्त आंवले के फल को पीसकर बनाया गया चूर्ण - क्केन तृ. वि., ए. व. - आमलककक्केन सीसं मक्खेत्वा उदकं ओरुय्ह ओनमित्वा सीसं धोवि, अ. नि. अट्ठ. 2.184; - घट पु., तत्पु. स. [आमलकघट], आंवले के फल से बनाया हुआ घड़ा - टो प्र. वि., ए. व. - आमलकतुम्बं आमलकघटो लाबुकतुम्ब ... भाजनीयं, चूळव. अट्ठ. 83; - पट्ट पु.. तत्पु. स. [आमलकपट्ट], आंवले के आकार वाला पलंग पोश अथवा चादर, आंवले के आकार की वस्त्रपट्टिका - डो प्र. वि., ए. व. - घनपुप्फो उण्णामयत्थरको, यो आमलकपट्टोतिपि वुच्चति, अ. नि. अट्ठ. 2.167; - पत्त नपुं., तत्पु. स. [आमलकपत्र], आंवले के वृक्ष की पत्ती - त्तानं ष. वि., ब. व. - "अहं खदिरपत्तानं वा... आमलकपत्तानं वा पुट करित्वा..., स. नि. 3(2).501; - पलिबोध पु., तत्पु. स., केश-प्रक्षालन के लिए आंवले के प्रयोग के कारण उत्पन्न अड़चन अथवा बाधा, केशों को बढ़ाकर रखने में उत्पन्न सोलह प्रकार की बाधाओं में से एक-धो प्र. वि., ए. व. - सोळसिमे, दारक, पलिबोधे दिस्वा केसमस्सं ओहारेत्वा पब्बजितो, ... आमलकपलिबोधो ... कप्पकपलिबोधो ... ऊकापलिबोधो, मि. प. 10; - पिण्ड नपुं., तत्पु. स., केशों को धोने में प्रयुक्त आंवले के चूर्ण का पिण्ड - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - आमलकपिण्डं दत्वा गच्छ असुकट्ठाने सीसं धोवित्वा आगच्छाही ति पेसिसि, अ. नि. अट्ठ. 2.184 - For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमलकतुम्ब 138 आमायदास फलमय त्रि., आंवले के फलों वाला - यो पु., प्र. वि., जाता है, ला. अ., विचार-विमर्श करता है, चिन्तन करता ए. व. - "आमण्डकसारको आमलकफलमयोति वदन्ति, है, मनन करता है, पर्यवेक्षण करता है - कुम्भिं आमसति, वजिर. टी. 109; - फाणित नपुं., आंवले का सीरा, आपत्ति दुक्कटस्स, पारा. 54; इत्थी च होति इत्थिसजी आंवले की चाशनी - ते द्वि. वि., ब. व. - अनापत्ति सारत्तो च भिक्खु च, नं इत्थिया कायेन कायं आमसति अमज्जञ्च होति मज्जवण्णं... तं पिवति, ... आमलकफाणिते, ... आपत्ति सङ्घादिसेसस्स, पारा. 175; - न्ति ब. व. - पाचि. 150; - मुत्ता स्त्री., श्रीलङ्का के आठ प्रकार के “वीहिं किरेते नामसन्तीति, जा. अट्ठ. 4.61; - साम उ. मोतियों में से एक, आमलक नामक मोती- त्ता प्र. वि., पु., ब. व. - “न मयं वीहिं आमसामा ति, जा. अट्ठ. 4.61; ए. व. - हयमुत्ता, गजमुत्ता, रथमुत्ता, आमलकमुत्ता, - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - तस्मा तं बहूनं वलयमुत्ता अङ्गुलिवेठकमुत्ता, ककुधफलमुत्ता, वचनं उपादाय द्विक्खत्तुं आमसन्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) पाकतिकमुत्ताति, पारा. अट्ठ. 1.53; - रुक्ख पु., तत्पु. 1(1).204; - न्तिया स्त्री., वर्त. कृ., च. वि., ए. व. - स. [आमलकवृक्ष], आंवले का वृक्ष (फुस्स नामक बुद्ध का अनापत्ति असञ्चिच्च, अजानित्वामसन्तिया, विन. वि. 1987; बोधिवृक्ष)- क्खो प्र. वि., ए. व. - आमलकरुक्खो - सेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - निब्बत्ते सद्दे अदूरगते बोधि, जा. अट्ठ. 1.51; - वट्ट त्रि., [आमलकवृत्त], आंवले कोचि आमसेय्य, सह आमसनेन सद्दो निरुज्झेय्य, मि. प. के फल के समान वृत्ताकार (आमलक मुक्ता), स. प. के 281-82; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - थेय्यचित्तो आमसि. अन्त. - दक्षिणावट्टसङ्घरतनञ्च आमलकवट्टमुत्तरतनञ्च, पारा. 66; - सिं उ. पु., ए. व. - अनामासानि आमसिं. जा. अट्ठ. 5.377; -- वट्टक/वट्टिका त्रि.. अनेक पैरों जा. अट्ठ. 2.299; - सिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - को वाला पीठ अथवा आसन - कं प्र. वि., ए. व. - इमं वसलं दुग्गन्धं आमसिस्सती ति, पारा. 195; - सितुं अनुजानामि, भिक्खवे, आमलकवट्टिकं पीठन्ति, चूळव. 2753; निमि. कृ. - काकमासको नाम यथा काकेहि आमसितुं आमलकवट्टिकपीठ नाम आमलकाकारेन योजित सक्का होति, एवं याव मुखद्वारा आहारेति, ध. स. अट्ठ. बहुपादकपीठं चूळव. अट्ठ. 59. 424; - सित्वा पू. का. कृ. - ओदपत्तकिनी नाम उदकपत्तं आमलकतुम्ब नपुं, तत्पु. स., आंवले के फल से बना हुआ आमसित्वा वासेति, पारा. 206; - तब्ब त्रि., सं. कृ. - तो तूंबा - म्बं प्र. वि., ए. व. - आमलकतुम्ब आमलकघटो प. वि., ए. व. - मच्चुना मरणेन आमसितब्बतो आमिसं. लाबुकतुम्ब ... भाजनीयं, चूळव. अट्ठ. 83. उदा. अट्ठ. 96. आमलकी स्त्री., [आमलकी], आंवले का पेड़ - की प्र. आमसन नपुं. आ + मस से व्यु., क्रि. ना., स्पर्श, अनुचिन्तन, वि., ए. व. - तस्सा अविदूरे आमलकी, महाव. 35; तं सोच विचार - भुसत्थे पटिलोमत्थे विक्कमामसनादिसु. परिवारेत्वाहरीतकीआमलकी मरिचगच्छो च अहोसि, जा. अभि. प. 1164; - नं प्र. वि., ए. व. - उभजाणुमण्डलं अट्ठ. 5.12; हरीतकीआमलकीआदीसु ओसधीसु आमसनं वा परामसनं वा गहणं वा छपनं वा पटिपीळनं वा. तालनाळिकेरादीसु तिणेसु वनजेटकेसु च वनप्पतिरुक्खेसु. पाचि. 287. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).265; - वन नपुं.. तत्पु. स. आमसना स्त्री., स्पर्श करना, ग्रहण करना, विचार करना, [आमलकीवन], आंवले के वृक्षों का उद्यान, आंवलों का अनुचिन्तन करना – ना प्र. वि., ए. व. - आमसना नाम बाग-ने सप्त. वि., ए. व. - एक समयं भगवा चातुमायं आमट्ठमत्ता, पारा. 174; आमसना, परामसना, ओमसना, विहरति आमलकीवने, म. नि. 2.129. उम्मसना, तदे.; आमसना परामसनाति आदिना ... वुत्तं आमलचेतिय नपुं.. व्य. सं., उत्तरी श्रीलङ्का में नागदीप पारा. अट्ठ. 2.110. में अवस्थित एक चैत्य का नाम - ये सप्त. वि., ए. आमसब्रह्मचारी आम के अन्त. द्रष्ट.. . व. - उण्णलोमघरं चेव छत्तं आमलचेतिये, चू, वं. आमा स्त्री., घर की दासी, घरेलू नौकरानी - आमा आमा 42.62. आमायो, सद्द. 1.260. आमसति आ +vमस, वर्त, प्र. पु., ए. व. [आमृशति], शा. आमायदास पु., जन्म से ही दास, दासी की कोख से उत्पन्न अ., (भोजन को) पकड़ता है, (वस्तुओं का) हाथ से स्पर्श घरेलू नौकर - सा प्र. वि., ब. व. - आमायदासापि करता है, मलता है, गुदगुदाता है, झपट्टा मारता है, खा भवन्ति हेके, धनेन कीतापि भवन्ति दासा, जा. अट्ठ. 7.178; For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमायदासी 139 आमिसगत तत्थ आमायदासाति दासिया कुच्छिम्हि जातदासा, जा. अट्ठ. 7.178. आमायदासी स्त्री., घरेलू दासी, घर की दासी से उत्पन्न लड़की या पुत्री - सी प्र. वि., ए. व. - यदि ते सुता बीरणी जीवलोके, आमायदासी अहुब्राह्मणस्स, जा. अट्ठ. 6.140; आमायदासीति गेहदासिया कुच्छिम्हि जातदासी, जा. अट्ठ. 7.140. आमावसेस नपुं, तत्पु. स. [आमावशेष], उदर में नहीं पचाए हुए भोजन का शेष भाग - सं द्वि. वि., ए. व. - आमावसेसं पाचेति, महाव. 297; आमावसेसं पाचेतीति सचे आमावसेसक होति, तं पाचेति, अ. नि. अट्ठ. 3.79. आमावासी स्त्री., [अमावासी, अमावस्या, अमावसी], महीने के कृष्णपक्ष की पन्द्रहवीं तिथि, अमावस्या की तिथि, द्रष्ट., अड्डमासी के अन्त.. आमास पु., आ + मस से व्यु., क्रि. ना. [आमर्श], विचारविमर्श, भोजन-ग्रहण - सं द्वि. वि.. ए. व. - सेनासनपरिभोगे पन आमासम्पि अनामासम्पि सब्बं वट्टति, कवा. अट्ठ. 249. आमासय पु., तत्पु. स. [आमाशय], पेट में वह स्थान, जहां पर अनपचा भोजन सञ्चित रहता है, पेट, उदर का ऊपरी भाग- यं द्वि. वि., ए. व. - यथा... पक्कासयं अज्झोत्थरित्वा आमासयं उक्खिपित्वा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.132-33. आमिस नपुं.. [आमिष, वै., आमिस्], शा. अ., मांस, ला. अ. 1. आहार, विषय, शिकार के लिए चारा, शिकार, खाने योग्य भोजन, प्रतिज्ञात पुरस्कार, 2. सांसारिक सम्पत्ति, सुखद एवं प्रिय वस्तु, लाभ, लालच, भौतिक आवश्यकताएं, तृष्णा, पांच काम भोगों के विषय में तृष्णा - संप्र. वि., ए. व. - थो मंसं आमिसं पिसितं भवे, अभि. प. 280; 11043; मच्चुनो आमिसं दुरतिवत्तन्ति ते अरियपुग्गला अघस्स वट्टदुक्खस्स मूलभूतं, उदा. अट्ठ. 96; - सं. द्वि. वि., ए. व. - अमित्तमज्झे वसतो, तेस आमिसमेसतो, जा. अट्ठ. 3.274; आमिसन्ति खादनीयभोजनीयं, जा. अट्ठ. 4.52; भिक्खुनिया हत्थतो आमिसं पटिग्गहसीति, पाचि. 232; यथा च रसलोलो अन्धो भत्ते उपनीते यं किञ्चि समक्खिकम्पि निम्मक्खिकम्पि आमिसं आदियति, जा. अट्ठ. 5.362; मच्छोव घसमामिसं, थेरगा. 749; मच्छोव घसमामिसन्ति आमिसं घसन्तो खादन्तो मच्छो विय, थेरगा. अट्ट, 2.241; आमिसं बन्धनञ्चेतन्ति एते पञ्च कामगुणा नाम एवं इमस्स मच्छभूतस्स लोकस्स मारबालिसिकेन पक्खित्तं आमिसञ्चेव, जा. अट्ठ. 3.174; ते वे खणन्ति अघमूलं, मच्चुनो आमिसं दुरतिवत्त'न्ति, उदा. 85; आमिसं दुरतिवत्तन्ति ते अरियपुग्गला अघस्स वट्टदुक्खस्स मूलभूतं, मच्चुना मरणेन आमसितब्बतो आमिसं. उदा. अट्ठ. 95; आमिसम्पि दुविध -निप्परियायामिसं. परियायामिसन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).96; - से सप्त. वि., ए. व. - आमिसे पन, भन्ते, कथं पटिपज्जितब्बन्ति ? आमिसं खो सारिपुत्त, सब्बेसं समक भाजेतब्बन्ति, महाव. 479; स. उ. प. के रूप में कामा.. निप्परियाया, निरा., पच्चया., परियाया., मारा., लोका.. वन्तलोका., वट्टा., सा. के अन्त. द्रष्ट.. आमिसइद्धि स्त्री., तत्पु. स., उपभोग करने योग्य भौतिक सुखसाधनों की समृद्धि, पांच प्रकार के कामगुणों की प्रचुरता - द्धि प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, ... इद्धियो, ... आमिसिद्धि च धम्मिद्धि च, अ. नि. 1(1).113. आमिसकथा स्त्री., तत्पु. स., 1. भोजन अथवा भोजनसामग्री के विषयों में बातचीत - यं सप्त. वि., ए. व. - आमिसकथायमेव आभिरमति, जा. अट्ठ. 4.62; 2. चीवर, पिण्डपात आदि चार प्रत्ययों से सम्बद्ध विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक, विन. वि. 1160-1162. आमिसकिञ्चिक्खनिमित्तं अ., क्रि. वि., थोड़े से आहार अथवा भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए - आमिसकिञ्चिक्खहेतूति आमिसस्स किञ्चिक्खनिमित्तं, किञ्चि आमिसं पत्थेन्तोति अत्थो, पे. व. अट्ट, 95. आमिसकिञ्चिक्खहेतु अ०, उपरिवत् - अत्तहेतु वा परहेतु वा आमिसकिञ्चिक्खहेतु वा सम्पजानमुसा भासिता होति. म. नि. 1.360. आमिसकोट्ठास पु., कर्म. स., अपने द्वारा प्राप्य भाग के रूप में भौतिक सुख सामग्री, भोगसाधनों में अपना भाग - स्स ष. वि., ए. व. - धम्मकोट्ठासस्सेव सामिनो भवथ, मा आमिसकोट्ठासस्स, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).98. आमिसखार नपुं., तत्पु. स., कोष्ठबद्धता या कब्ज के उपचार के लिए प्रयुक्त मादक पेय, सूखे भात से तैयार किया गया एक पेय - रं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, आमिसखारं पायेतन्ति, महाव. 282; आमिसखारन्ति सुक्खोदनं झापेत्वा ताय छारिकाय पग्धरितं खारोदक, खण्ड आमिसगत त्रि., शिकार को पकड़ने के लिए चारा के रूप में प्रयुक्त (कांटा या बंसी)- तं पु., द्वि. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भिक्खवे, बाळिसिको आमिसगतं बळिसंगम्भीरे उदकरहदे पक्खिपेय्य, स. नि. 1(2).205. For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमिसगरु 140 आमिसपटिसन्थार आमिसगरु त्रि., ब. स., भौतिक भोग-सामग्रियों को आमिसतण्हा स्त्री., कर्म. स., अपने चारे के प्रति तृष्णा, अत्यधिक महत्व देने वाला - रु पु., प्र. वि., ए. व. - सांसारिक विषय भोगों के प्रति तृष्णा - ण्हया तृ. वि., ए. सत्था आमिसगरु आमिसदायादो आमिसेहि संसट्ठो विहरति, व. - अज्झोहटो व बलिसं मच्छो आमिसतण्हया, सद्धम्मो. .... उपेति, म. नि. 2.156. 610. आमिसगरुक त्रि., उपरिवत् - को स्त्री./पु., प्र. वि., ए. आमिसत्थं अ., लाभ या प्राप्ति के निमित्त, सांसारिक विषयव. - रागचरितो दोसचरितो मोहचरितो भीरुको आमिसगरुको भोगों का आनन्द पाने के लिए - "आमिसत्थं मारावट्टनं इत्थी सोण्डो पण्डको दारको ति, मि. प. 104; आमिसगरुको भिन्दितुं अननुच्छविक न्ति, स. नि. अट्ट, 1.158. आमिसहेतु मन्तितं गुय्हं विवरति न धारेति, मि. प. 104. आमिसत्थी त्रि., सांसारिक विषयभोगों की चाह रखने आमिसगिद्ध त्रि., तत्पु. स., शिकार के प्रति लालच रखने वाला/वाली - त्थिना तृ. वि., ए. व. - किञ्च गेहे वाला, भौतिक भोगसाधनों के प्रति तृष्णा रखने वाला - परिच्चत्तं आमिसं आमिसत्थिना, सद्धम्मो. 374. द्धा पु., प्र. वि., ब. व. - ... आमिसगिद्धा आमिसचक्खुका आमिसदान नपुं.. तत्पु. स., भिक्षु के लिए चीवर, पिण्डपात, ... अस्थि , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).281. सेनासन एवं भेसज्ज, इन चार मूलभूत आवश्यक वस्तुओं आमिसगिद्धी त्रि., उपरिवत् - द्विनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - का दान - नं प्र. वि., ए. व. - द्वेमानि, भिक्खवे, दानानि, ओहाय पुत्ते निक्खमि, सीहीवामिसगिद्धिनी, जा. अट्ठ. 7.333. .... आमिसदानञ्च धम्मदानञ्च, अ. नि. 1(1).110; आमिसचक्खु नपुं., तत्पु. स., अपने शिकार पर ही जमा आमिसदानन्ति चत्तारो पच्चया दिय्यनकवसेन आमिसदानं कर रखी गई दृष्टि या आंख - ना तृ. वि., ए. व. - नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.61. लुद्देनामिसचक्खुना, दाठी दाठीस पक्खन्ति, जा. अट्ठ. आमिसदायाद पू., तत्पू. स., सांसारिक विषयभोगों अथवा 4.310. भौतिक सामग्रियों का उत्तराधिकारी – दा प्र. वि., ब. व. आमिसचक्खुक त्रि., ब. स., शिकार पर ही अपनी आंख को -किन्ति मे सावका धम्मदायादा भवेय्यं नो आमिसदायादाति, जमाकर रखने वाला, भौतिक भोगसाधनों पर पूर्णतया म. नि. 1.17; आमिसदायादाति धम्मस्स मे दायादा, भवथ, आंखों को जमाया हुआ - स्स पु, ष. वि., ए. व. - ... मा आमिसस्स, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).96. पापिच्छस्स इच्छापकतस्स आमिसचक्खुकस्स आमिसन्तर त्रि., ब. स., सांसारिक विषय-भोगों को पाने की लोकधम्मगरुकस्स ..., महानि. 285; - का पु., प्र. वि., ए. तृष्णा से युक्त, कामसुखों, भौतिक सुखसाधनों अथवा व. -- आमिसगिद्धा आमिसचक्खका चतुपच्चयआमिसत्थमेव चीवर, पिण्डपात आदि को पाने हेतु उत्सुक - रो पु., प्र. आहिण्डमाना ... अस्थि म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).281. वि., ए. व. - आमिसन्तरोति गिलानं उपट्टाति, अ. नि. आमिसचक्खुता स्त्री॰, भाव., भौतिक भोगसाधनों के प्रति 2(1).135; आमिसन्तरो आमिसहेतुको चीवरादीनि तृष्णाशीलता - य तृ. वि., ए. व. – “बहुधनं लभिस्सामा ति पच्चासीसमानो, अ. नि. अट्ठ. 3.46. आमिसापेक्खताय जीवितवृत्तिं निस्साय कथयिंसूति, जा. आमिसपटिग्गह पु., तत्पु. स., भौतिक सुखसाधनों अथवा अट्ठ. 1.328; पाठा. आमिसापेक्खताय. चीवर, पिण्डपात जैसे आवश्यक उपकरणों का स्वीकरण आमिसचाग पु., तत्पु. स., भौतिक सुखसाधनों का त्याग - हेन तृ. वि., ए. व. - तत्र भगवा ... महाजन अथवा उनका मुक्त दान - गो प्र. वि., ए. व. - आमिसपटिग्गहेन अनुग्गण्हन्तो... परियोसापेति, म. नि. आमिसचागो च धम्मचागो च, अ. नि. 1.110. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).55; तत्थ ... वसन्तो महाजन आमिसञतर नपुं., कर्म. स., भौतिक सुखसाधन, कामभोगों आमिसपटिग्गहेन अनुग्गण्हन्तो धम्मदानेन चस्स ... में से कोई एक भौतिक वस्तु, भिक्षु के लिए निर्धारित परियोसापेति, दी. नि. अट्ट, 1.196. आवश्यक चार वस्तुओं (चीवर, पिण्डपात, सेनासन, भेसज्ज) आमिसपटिसन्थार पु., तत्पु. स., भौतिक सुखसाधनों के में से कोई एक -रं प्र. वि., ए. व. - आमिसञ्जतरं खो दान द्वारा सत्कार, चीवर आदि के दान के माध्यम से पनेतं, यदिदं पिण्डपातो, म. नि. 1.18; आमिसञ्जतरन्ति किया गया सम्मान अथवा मैत्रीभाव, दो प्रकार के सम्मानप्रद चतुन्नं पच्चयामिसानं अञ्जतरं एकन्ति अत्थो, म. नि. व्यवहारों में से एक -रो प्र. वि., ए. व. – पटिसन्थारनिदेसे अट्ठ. (मू.प.) 1(1).102. आमिसपटिसन्थारो ति आमिसअलाभेन अत्तना सह परेसं For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 141 आमिससङ्गण्हन आमिसपण्णाकार छिदं यथा पिहित होति पटिच्छन्नं एवं आमिसेन, ध. स. अट्ठ. 418; ... आमिसपटिसन्थारो च धम्मपटिसन्थारो च, अ. नि. 1(1).112; - रं द्वि. वि., ए. व. - तेहि एत्तकम्पि आमिसपटिसन्थारं अलभन्ता जीवितापि वोरोपेय्यु, दी. नि. अट्ठ. 1.76-77. आमिसपण्णाकार पु., भौतिक पदार्थों का उपहार, चीवर आदि वस्तुओं की भेंट - रं द्वि. वि., ए. व. - न केवलञ्चेतं आमिसपण्णाकारं इमं किर धम्मपण्णाकारम्पि पेसेसि, पारा. अट्ठ. 1.54. आमिसपरिच्चाग पु., तत्पु. स. [आमिसपरित्याग], सांसारिक वस्तुओं का उदारतापूर्वक दान, सांसारिक भोगसाधनों के प्रति उदारता – गो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, परिच्चागा, ... आमिसपरिच्चागो च धम्मपरिच्चागो, अ. नि. 1(1).110. आमिसपरिभोग पु., तत्पु. स. [आमिसपरिभोग], सांसारिक भोगसाधनों का आनन्द के साथ उपभोग - गो प्र. वि., ए. व. - द्वे च परिभोगा-... धम्मपरिभोगो आमिसपरिभोगोति, पारा. अट्ठ. 2.248. आमिसपरियेवि स्त्री., तत्पु. स., सांसारिक विषय भोगों की तलाश अथवा इन्हें पाने की तीब्र लालसा - ट्ठि प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, भिक्खवे, परियेट्ठियो, ... आमिसपरियेद्धिच धम्मपरियेटि च, अ. नि. 1(1).112. आमिसपरियेसना स्त्री., तत्पु. स. [आमिसपर्येषणा], उपरिवत् - ना प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, परियेसना, ... आमिसपरियेसना च धम्मपरियेसना, अ. नि. 1(1).112. आमिसपिण्ड नपुं., तत्पु. स., भिक्षा में प्राप्त भोजन का पिण्ड - ण्डानं ष. वि., ब. व. - तथा भिक्खासङ्घातानं आमिसपिण्डानं पातो पिण्डपातो, उदा. अट्ठ. 204. आमिसपूजा स्त्री., तत्पु. स., सांसारिक विषयभोग की वस्तुओं के दान द्वारा सम्मान, सांसारिक वस्तुओं का सम्मानसहित दान – जा प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, पूजा, ... आमिसपूजा च धम्मपूजा च, अ. नि. 1(1).112. आमिसपेक्खी त्रि., शिकार की तलाश करने वाला, भौतिक सुखसाधनों को पाने की इच्छा रखने वाला - क्खी पु.. प्र. वि., ए. व. - सीहोवामिसपेक्खीव, वनसण्ड विगाहय, जा. अट्ठ. 7.278. आमिसभेसज्जादि नपं, भौतिक विषयभोग के उपकरण एवं औषधि इत्यादि, स. प. के अन्त. - सेसं पन आमिसभेसज्जादि सब्बं सब्बत्थ अन्तोसीमगतस्स पापुणाति, महाव. अट्ठ. 389. आमिसभोग पु., तत्पु. स., सांसारिक वस्तुओं का आनन्द के साथ उपभोग - गो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, भोगा, ... आमिसभोगो च धम्मभोगो च, अ. नि. 1(1).110. आमिसमक्खित त्रि., शिकार पकड़ने हेतु प्रयुक्त चारे से लिप्त, चारे से युक्त - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आमिसगतन्ति आमिसमक्खितं, स. नि. अट्ठ. 2.181. आमिसयाग पु., तत्पु. स., सांसारिक वस्तुओं का उदारता के साथ दान - गो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, यागा, ... आमिसयागो च धम्मयागो च, अ. नि. 1(1).110; विलो. धम्मयाग. आमिसरतन नपुं., तत्पु. स., बहुमूल्य सांसारिक वस्तुएं, भौतिक धनसम्पदा-रूपी रत्न - नं प्र. वि., ए. व. - द्वेमानि रतनानि, आमिसरतनञ्च धम्मरतनञ्च, अ. नि. 1(1).113; विलो. धम्मरतन. आमिसलाभ पु., तत्पु. स., भौतिक धनसम्पदा का लाभ, चीवर, पिण्डपात आदि का लाभ, भिक्षा में भोजन का लाभ - भो प्र. वि., ए. व. - तत्थ ... पारुपित्वा च पिण्डाय चरतो आमिसलाभो सीतस्स पटिघाताया ति आदिना नयेन ... नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).275. आमिसलोल त्रि., तत्पु. स., विषयभोग-जनित सुख के प्रति लगाव रखने वाला - ला स्त्री., प्र. वि., ब. व. - इथियो ... आमिसलोला भविस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.323. आमिसवुद्धि स्त्री., तत्पु. स. [आमिसवृद्धि], सांसारिक सुख-साधनों की प्रचुरता, भौतिक सम्पदा की समृद्धि - द्धि प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, वुद्धियो. ... आमिसवुद्धि च धम्मवुद्धि च, अ. नि. 1(1).113; विलो. धम्मवुद्धि. आमिसवेपुल्ल नपुं., भाव., तत्पु. स. [आमिसवैपुल्य], भौतिक सुख-साधनों की प्रचुरता-ल्लं प्र. वि., ए. व. - द्वैमानि, वेपुल्लानि ... आमिसवेपुल्लञ्च धम्मवेपुल्लञ्च, अ. नि. 1(1).113; विलो. धम्मवेपुल्ल. आमिससंविभाग पु., तत्पु. स., भौतिक संपदा का उचित बटवारा - गो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, संविभागा, ... आमिससंविभागो च धम्मसंविभागो, अ. नि. 1(1).110; विलो. धम्मसंविभाग. आमिससंसट्ठ त्रि., तत्पु. स., कच्चे भोजन से मिश्रित - नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अथ आमिससंसट्ठ, गहेत्वा ठपित सचे, विन. वि. 1384; 2680. आमिससङ्गण्हन नपुं.. तत्पु. स., सांसारिक भोगों को पूरा करने वाली वस्तुओं को संग्रह करना - नेन त. वि., ए. For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमिससन्थार 142 आमुत्त व. - आमिससङ्गहनेन अजे सिस्सादिके पोसेतु अनुस्सुक्कताय अनञपोसिनो, उदा. अट्ठ. 162. आमिससन्थार पु., तत्पु. स., भोगसामग्री के दान द्वारा स्वागत, दो प्रकार के स्वागतों में से एक - रो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, सन्थारा, ... आमिससन्थारो च धम्मसन्थारो च, अ. नि. 1(1).112. आमिससन्निचय पु., तत्पु. स., भौतिक सुख देने वाली सामग्री का संचय -- यो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, सन्निचया, ... आमिससन्निचयो च धम्मसन्निचयो च, अ. नि. 1(1).113; विलो. धम्मसन्निचय. आमिससन्निधि पु., तत्पु. स., विभिन्न प्रकार की भोगसाधनसामग्री का भण्डारण, गृहस्थ जीवन में उपयोगी वस्तुओं का भण्डारण - धिं द्वि. वि., ए. व. - अन्नसन्निधिं पानसन्निधिं वत्थसन्निधिं यानसन्निधिं सयनसन्निधिं गन्धसन्निधिं आमिससन्निधिं इति वा इति, दी. नि. 1.6; -- धि प्र. वि., ए. व. -भिक्खु, मुण्डकुटुम्बिकजीविक जीवति, न समणजीविकन्ति, एवरूपो आमिससन्निधि नाम होति. दी. नि. अट्ठ. 1.76. आमिससम्भोग पु., तत्पु. स., दूसरों के साथ मिल कर भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाले संसाधनों का भरपूर उपभोग - गो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, सम्भोगा, .... आमिससम्भोगो च धम्मसम्भोगो, अ. नि. 1(1).1103; विलो. धम्मसम्भोग. आमिससिक्खापद नपुं, पाचि. के एक खण्ड का शीर्षक, पाचि. 82-84. आमिसहेतु अ., लाभ के निमित्त, भौतिक लाभ पाने के निमित्त - आमिसहेतु थेरा भिक्ख भिक्खनियो ओवदन्तीति, पाचि. 83; आमिसगरुको आमिसहेतु मन्तितं गुय्ह विवरति न धारेति, मि. प. 104. आमिसहेतुक त्रि., ब. स., भौतिक संसाधनों की प्राप्ति की इच्छा से संचालित-को पु., प्र. वि., ए. व. - आमिसन्तरोति आमिसहेतुको चीवरादीनि पच्चासीसमानो, अ. नि. अट्ठ. 3.46. आमिसातिथेय्य नपुं, तत्पु. स., भौतिक सुखसाधनों द्वारा किया गया अतिथि-सत्कार, भौतिक वस्तुओं का उपहार देकर अतिथि सत्कार - य्यं प्र. वि., ए. व. - द्वेमानि, आतिथेय्यानि. ... आमिसातिथेय्यञ्च धम्मातिथेय्यञ्च, अ. नि. 1(1).112-13; विलो. धम्मातिथेय्य. आमिसानुकम्पा स्त्री., तत्पु. स., चीवर, पिण्डपात, शयनासन एवं औषधि, इन चार प्रत्ययों के दान द्वारा प्रदर्शित अनुकम्पा - म्पा प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, अनुकम्पा, ... आमिसानुकम्पा च धम्मानुकम्पा, अ. नि. 1(1).111; दसमे चतूहि पच्चयेहि अनुकम्पनं आमिसानुकम्पा, अ. नि. अट्ठ. 2.61; विलो. धम्मानुकम्पा. आमिसानुग्गह पु., तत्पु. स., जीवनयापन के चीवर आदि चार आवश्यक साधनों के दान द्वारा किया गया अनुग्रह या कृपा - हो प्र. वि., ए. व. - द्वेमे, अनुग्गहा, ... आमिसानुग्गहो च धम्मानुग्गहो, अ. नि. 1(1).111; नवमे चतूहि पच्चयेहि अनुग्गण्हनं आमिसानुग्गहो .... अ. नि. अट्ठ. 2.61. आमिसानुप्पदान नपुं, तत्पु. स. [आमिसानप्रदान], भौतिक सुख साधनों का दान, श्रमणों एवं ब्राह्मणों के सम्मान के पांच प्रकार के उपायों में से एक - नेन तृ. वि., ए. व. - मेत्तेन कायकम्मेन मेत्तेन वचीकम्मेन मेत्तेन मनोकम्मेन अनावटद्वारताय आमिसानुप्पदानेन, दी. नि. 3.145. आमिसेसना स्त्री., तत्पु. स., भौतिक आवश्यकता पूरी करने वाले चीवर आदि की तलाश अथवा उन्हें पाने की कामना - ना प्र. वि., ए. व. - द्वेमा, एसना, ... आमिसेसना च धम्मेसना च, अ. नि. 1(1).112; ततिये वृत्तप्पकारस्स आमिसस्स एसना आमिसेसना, अ. नि. अट्ठ. 2.62; विलो. धम्मेसना.. आमुखं अ., क्रि. वि. [आमुखं], आमने सामने, मुख के सामने -- मारयन्ता तदा सत्तसेनं आमुखमागतं, चू. वं. 70.319. आमुत्त त्रि., आ +vमुच का भू. क. कृ. [आमुक्त], शा. अ. 1., वह, जिस पर सब कुछ छोड़ दिया गया है 2. वह, जिसके द्वारा किसी को बांधा गया है, ला. अ., विभूषित, सुसज्जित, युक्त, धारण किया गया, पहना हुआ - तं पु., वि. वि., ए. व. - हेमजालेहि कुम्भालङ्कारादिभेदेहि हत्थालङ्कारेहि चितं आमुत्तं महन्तं, ... आगताति, वि. व. अठ्ठ. 151; - मणिकुण्डल त्रि०, ब. स., मणि कुण्डलों द्वारा अलङ्कत (व्यक्ति), वह, जिसके कान लटक रहे मोती के हार से जगमगा रहे हों - ले पु., द्वि. वि., ए. व. - ... राजानो आमुत्तमणिकुण्डले सज्जिताय, स. नि. अट्ठ. 1.133; - ला पु., प्र. वि., ब. व. - सद्धि पुरिससहस्सानि, आमुत्तमणिकुण्डला, पे. व. 308; आमुत्तमणिकुण्डलाति नानामणिविचित्तकुण्डलधरा, पे. व. अट्ठ. 117; आमुत्तमणिकुण्डलाति ओलम्बितमुत्ताहारमणि कञ्चितकण्णाति अत्थो, अप. अट्ठ. 1.286; - मालाभरण सा . For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आमूलग्गं 143 आमोदना Mono त्रि., ब. स., मालाओं एवं आभूषणों से सुसज्जित, मालाओं में लगे हुए आभूषणों से अलङ्कत, मालाओं के आभूषणों से सज्जित - णो पु., प्र. वि., ए. व. - ... रोमसो नाम खत्तियो, आमुत्तमालाभरणो, अप. 1.226; पाठा. आमुक्कमालाभरणो; आमुक्कमालाभरणोति आमक्कमत्ताहारकेयूरकटकमकुटकुण्डलमालो, बु. वं. अट्ट 211; - यञसुत्त त्रि., ब. स. [आमुक्तयज्ञसूत्र], यज्ञ के सूत्र को धारण किया हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. -- दोणो ब्राह्मणोपि... आमत्तय सुत्तो रत्तवट्टिका उपाहना ... पटिपज्जि , अ. नि. अट्ठ. 2.290; - हत्थाभरण त्रि., ब. स., अंगूठियों एवं कंगनों से विभूषित – णो पु., प्र. वि., ए. व. - आमुत्तहत्थाभरणो, सुवत्थो चन्दनभूसितो, जा. अट्ठ. 7.242. आमूलग्गं अ., क्रि. वि., ऊपर से लेकर नीचे तक, जड़ से लेकर शिखर तक, स. प. के अन्त. - आमूलग्गसमुब्भिन्नमहाभित्तिभरोनता, चू. वं. 88.95. आमेण्डित/आमेडित त्रि., आ + मिड के प्रेर. का भू. क. कृ. [आमेडित], 1. शब्द की पुनरुक्ति या आवृत्ति, ध्वनि की आवृति, किसी बात को दो या तीन बार कहना अथवा दो प्रकार से कहना, 2. द्वित्त्व - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - आमेण्डितं तु विधेय्यं द्वित्तिक्खत्तुमुदीरणं, अभि. प. 106; भये कोधे पसंसायं तुरिते कोतूहळच्छरे, हासे सोके पसादे च करे आमेण्डितं बुधो, अभि. प. 107; पारा. अट्ठ- 1.128; 3. अट्ठ में निम्नलिखित अर्थों का भी संकेत, क. अतिशय अथवा अधिकता - अतिसयत्थे च इदं आमेडितं, पारा. अट्ठ. 2.186; अबलबलो वियाति अबलो किर बोन्दो वुच्चति, अतिसयत्थे च इदं आमेडित, तस्मा अतिबोन्दो वियाति वुत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.186; ख. निन्दा एवं असम्मान के प्रकाशन में भाब्दों की आवृत्ति - चसद्दो अवुत्तसमुच्चयत्थो, तेन गरहासम्मानादीनं सङ्गहो दहब्बो पापो पापोति आदिसु हि गरहायं, अभिरूपक अभिरूपकाति आदिसु असम्माने, सद्द. 1.40; ग. आदर अथवा सम्मान के भाव के प्रकाशन में आवृत्ति - ... तत्थ अभिरतियं आदरजननत्थं "अभिरम, नन्द, अभिरम, नन्दा ति आमेडितवसेन वुत्तं, उदा. अट्ठ. 139; घ. स्थिर अथवा विश्वस्त करने के अभिप्राय से आवृत्ति - पुच्छ भिक्खु, पुच्छ भिक्खूति थिरकरणवसेन आमेडितं कतं. स. नि. अट्ठ. 1.41; ङ. सुदृढ़ करने के अभिप्राय से आवृत्ति, भय व्यक्त करने की दृष्टि से आवृत्ति - तत्थ कण्हो कण्होति भयवसेन दळहीवसेन वा आमेडितं, जा. अट्ठ. 4.163; च. बातचीत में शीघ्रता के कारण आवृत्ति - तत्थ तुरितालपनवसेन भिक्खु भिक्खूति आमेडितं वेदितब्ब, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).32. आमेण्डितवचन/आमे डितवचन नपुं., कर्म. स. [आमेडितवचन] पुनरावृत्ति से युक्त कथन, ध्वनि अथवा शब्द को दुहरा कर कहा गया वचन, दो बार कहा गया वचन, दुहरायी गई बात, स. प. के रूप में - भयकोधादिस उप्पन्नेसु कथितामेण्डितवचनवसेन वा, सद्द. 1.38; 40; - नं प्र. वि., ए. व. - द्विवचनन्ति द्विक्खत्तुं वचनं आमेडितवचनन्ति वृत्तं होति, सारत्थ. टी. 2.160; तुरितवसेन चेतं आमेडितवचनं, थेरगा. अट्ट, 1.119; --- नेन तृ. वि., ए. व. - एकेकलोमतो... एकेकलोमतो... ति उभयत्थापि आमेडितवचनेन सब्बलोमानं परियादिन्नत्ता... होति. पटि. म. अट्ठ. 2.11. आमोद पु., आ + मुद से व्यु., क्रि. ना. [आमोद]. 1. आनन्द, प्रसन्नता, हर्ष, खुशी - आनन्दो पमुदामोदा सन्तोसो नन्दिसम्मदो, अभि. प. 87; 2. सुगन्ध, खुशबू, सौरभ - सो त्वामोदो दूरगामी विस्सन्ता तीस्वितो परं अभि. प. 145; आमोदो हासगन्धेसु, अभि. प. 11083; ... देवविमानकप्पं पुप्फगन्धदामादीहि एकामोदपमोदं पासादं आरोपेत्वा ..., चरिया. अट्ठ. 200; सुगन्धतेलदीपेहि आमोदचन्दनादिहि, चू, वं. 98.9; - दं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - सुवण्णवण्णं सम्बुद्ध आहुतीनं पटिग्गह, रथियं पटिपज्जन्तं, आमोदमददि फलं, थेरगा. अट्ठ. 1.258; 277. आमोदति आ + मुद का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आमोदते/आमोदयति], प्रसन्न या हर्षित होता है, आनन्द मनाता है - दिब्बसम्पत्तीहि आमोदति पमोदति, अ. नि. अट्ठ. 2.101; - मानो पु., प्र. वि., ए. व. - आमोदमानो पकिरेति, देथ देथाति भासति, स. नि. 1(1).119; आमोदमानोति तुट्ठमानसो हुत्वा, स. नि. अट्ट. 1.146; - दि अद्य., उ. पु., ए. व. - आकिण्णो देवकआहि, आमोदि कामकामह, अप. 1.305. आमोदन नपुं.. आ + मुद से व्यु., क्रि. ना. [आमोदन, त्रि.], आनन्दित होना, प्रसन्न होना, स. प. के अन्त., आमोदनाकारो आमोदना, ध. स. अट्ठ. 188; पटि. म. अट्ठ. 2.105. आमोदना स्त्री., आ +vमुद से व्यु., आनन्द अथवा हर्ष, प्रसन्नता का भाव - ना प्र. वि., ए. व. - पीति पामोज्ज आमोदना पमोदना हासो पहासो वित्ति ओदग्यं अत्तमनता For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आमोदफलिय ..... यथा चित्तस्स, ध. स. 285; आमोदनाकारो आमोदना, वा भेसज्जानं वा तेलानं वा उण्होदकसीतोदकानं वा एकतोकरणं मोदनाति वुच्चति,... उपसग्गवसेन पन मण्डेत्वा आमोदना पमोदनाति वुत्ता, ध. स. अट्ठ. 188; पटि० म० अट्ठ. 2.105. आमोदफलिय पु०, व्य. सं., एक स्थविर का नाम, अप. में संगृहीत गाथाओं का रचयिता एक स्थविर - यो प्र. वि., ए. व. इत्थं सुदं आयस्मा आमोदफलियो थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 2.90. आमोदयति द्रष्ट, आमोदति के अन्त.. आमोदित त्रि. आ + √मुद से व्यु० [ आमोदित, आ + √मुद् + इतच् ], आनन्दभाव से भरपूर, हर्षोत्फुल्ल, अत्यधिक प्रसन्न - ता पु०, प्र० वि०, ब० व. आमोदिता नरमरू, बुद्धबीजं किर अयं, जा. अट्ठ 1.21; आमोदिता नरमरू, साधुकारं पवत्तयुं, जा. अट्ठ. 1.17; आमोदिता नरमरू, नमस्सन्ति कतञ्जली, अप. 2.68 - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - ...... विय मुदुकं होति आमोदितं पमोदितं, अ. नि. अड. 2.100; - पमोदित त्रि, आमोद एवं प्रमोद से युक्त तो पु., प्र. वि., ए. व. - सम्मुदितो आमोदितपमोदितो होति, स. नि. अट्ट. 1.172. आमोदेति / आमोदयति आ + √मुद का प्रेर० प्र० पु०, ए. व. [आमोदयति, आमोदयते] प्रसन्न करता है, सन्तुष्ट करता है, आनन्दित कर देता है, मुदिता-भावना से भर देता है, व्यवस्थित बना देता है, ध्यान के अंग प्रीति से आप्लावित कर देता है - सो समापत्तिक्खणे सम्पयुत्ताय पीतिया चित्तं आमोदेति पमोदेति, पारा अट्ठ. 2.32; आमोदेतीति झानचित्तसम्पयुत्ताय पीतिसम्बोज्झङ्गभूताय .... झानपीतिया तमेव ज्ञानचित्तं ... हट्टपहट्ठाकारं पापेन्तो आमोदेति पमोदेति च, सारत्थ. टी. 2.216 - यामि उ० पु०, ए. व. - चित्तं आमोदयामहं, थेरगा. 649; एवंभूतं कत्वा मम मेत्तचित्तं आमोदयामि अभिप्पमोदयामि ब्रह्मविहारं भावेमि, थेरगा. अ. 2.204; - यं पु०, वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आमोदयं पितरं मातरञ्च, सब्बो च ते नन्दतु आतिपक्खो ति, जा० अट्ठ. 5.31. आय पु०, आ + √ इसे व्यु० [आय]. शा. अ., आ पहुंचना, आ जाना, अन्तःप्रवेश, आगमन, वृद्धि – यो प्र. वि., ए. व. अयतीति आयो, क. व्या. 530; आयन्ति ततोति आयो, म. नि. अट्ठ. ( मू.प.) 1(1). 252; आयोति उपत्तिद्वानं, बु. वं. अट्ट. 86; आयकोसल्लादिनिद्देसे यस्मा आयोति वुढि, विभ. अट्ठ. 391; ततियत्तिके आयो नाम वुद्धि, विसुद्धि. 144 आय यं द्वि. वि., ए. व. - ..... 2.66;आयन्ति आगमन, अ. नि. अट्ठ. 3.238; आयञ्च भोगानं विदित्वा, वयञ्च भोगानं विदित्वा ..., अ. नि. 3 (1).110; ला. अ. क. उत्पत्तिस्थान, उद्भव-स्थल - आयोति उप्पत्तिदेसो, म. नि. अट्ट. (मू०प.) 1(1).252; आयोति उपत्तिट्ठानं, बु. वं. अड, 86; ला. अ. ख. धनागम, आमदनी, राजस्व, प्राप्तद्रव्य, लाभ, नफा - यो प्र. वि., ए. व. - अथायो धनागमो, अभि. प. 356; यो बाहिरेसु जनपदेसु आयो सञ्जायति ततो उपड्ड अन्तेपुरे पवेसेथ, स. नि. 1 ( 1 ). 72; तं निस्साय आयोपिस्स मन्दो जातो, जा. अट्ठ 1.234 - यं द्वि. वि., ए. व. - एकस्मिं पञ्चकुलिके गामे परित्तकं आयं लभिसु, म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1(2).244; - येन तृ. वि., ए. व. - ततो जातेन आयेन, महायज्ञमकप्पयि, सु. नि. 984; - स्सष वि., ए. व. बोधिसत्तस्स पटिसन्धिग्गहणकालतो पट्ठाय रञो आयस्स पमाणं नाम नाहोसि, जा. अट्ट 7.233; - या प.वि., ए. व. - ... वड्डिसङ्घाता सुखसङ्काता वा अया अपेतत्ता अपायो, म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1 ( 1 ).349; ये सप्त. वि., ए. व. - सेट्ठिनोपि निरन्तरं दानं देन्तस्स वोहारे अकरोन्तस्स आये मन्दीभूते धनं परिक्खयं अगमासि, जा. अट्ठ 1.223; - यानि नपुं. प्र. वि., ब. व. एवं दिवसे दिवसे पञ्चसतसहस्सानि तत्थ उट्ठहिस्सन्ति, तानि सभावानि आयानीति दस्सेति, उदा. अट्ठ. 341; -- यानं ष. वि., ब. व. - आयानम्पि हि चतूसु द्वारेसु चत्तारि, सभायं एकन्ति, *** Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only उदा. अड. 341; ला. अ. ग. कर, राजस्व का कर, उपहार, राजदेय - यं द्वि. वि., ए. व. - ततो आयं गहेत्वा मनुस्सा आगता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.40; ला. अ. घ. द्यूतक्रीड़ा में प्रयुक्त (अन्दर की ओर आने वाला) भाग्यशाली पासा - या प्र० वि०, ब० व. - पासकेसु आया नाम मालिकं सावट्टं बहुलं सन्तिभद्रादयो चतुवीसती, जा. अट्ठ 7.174; येसु सप्त, वि०, ब. व. - राजा चतुवीसतिया आयेसु विचिनन्तो, जा. अट्ठ. 7.175; स. उ. प. के रूप में महा०, लद्धा के अन्त द्रष्ट०; कम्मिक पु०, राजस्व का अधिकारी, कोषागार का अधिकारी, प्रबन्धक - कं द्वि० वि०, ए. व. - आयकम्मिकं पक्कोसापेत्वा, मम गेहे कित्तकं धनन्ति पुच्छि ध. प. अट्ठ 1.107; - कुसल त्रि, तत्पु० स., हितकारक धर्मों की वृद्धि में कुशल लो प्र. वि., ए. व. - भिक्खु न आयकुसलो च होति, न अपायकुसलो च होति, न उपायकुसलो च होति, अ० नि० 2 ( 2 ). 133; न आयकुसलोति न आगमनकुसलो. अ. नि. अट्ट. - 3.141; - - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आय 145 आयत - कोसल्ल नपुं, भाव. [आयकौशल्य], कुशल धर्मों के संग्रह में कुशलता, कुशलधर्मों की अभिवृद्धि तथा अकुशलधर्मों के प्रहाण के विषय में कुशलता - ल्लं प्र. वि., ए. व. - तीणि कोसल्लानि - आयकोसल्लं. अपायकोसल्लं, उपायकोसल्लं, दी. नि. 3.176; ... इमे धम्मे मनसिकरोतो अनुप्पन्ना चेव अकुसलाधम्मा न उप्पज्जन्ति, ... उप्पन्ना च कुसला धम्मा भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया संवत्तन्ती ति - या तत्थ पञआ पजानना ... इदं वुच्चति "आयकोसल्लं, विभ. 371; - पापुणन नपुं.. तत्पु. स., प्राप्ति, आमदनी का लाभ, आय की प्राप्ति - नं प्र. वि., ए. व. - दुब्बलभोजकानं परित्तक आयपापुणनं विय चक्खुविज्ञाणादीनं रूपदस्सनादिमत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).244; - पोत्थक नपुं., तत्पु. स. [आयपुस्तक], धन की प्राप्ति को उल्लिखित करने वाली बही, आमदनी लिखने हेतु प्रयुक्त पुस्तक - कं द्वि. वि., ए. व. - अथरस ... आयपोत्थक आहरित्वा सुवण्णरजतमणिमुत्तादिभरिते गभे विवरित्वा, जा. अट्ठ. 1.3; - भूत त्रि०, वह, जो किसी की उत्पत्ति का स्थान बन गया है, स्रोतभूत - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - ते च पन आयभूते धम्मे एतानि तनोन्ति, ... होति, पटि. म. अट्ट, 1.72; - तो प. वि., ए. व. - सरीरहि असुचिसञ्चयतो, कुच्छितानं वा केसादीनञ्चेव चक्खुरोगादीनञ्च रोगसतानं आयभूततो कायोति वुच्चति, खु. पा. अट्ट. 29; - मुख नपुं., तत्पु. स. [आयमुख], शा. अ., (पानी के) अन्दर आने का प्रवेश द्वार - खं प्र. वि., ए. व. - ... उदकस्स आयमुखं दी. नि. 1.66; - खानि प्र. वि., ब. व. - आयमुखानि तानि पिदहेय्य, यानि च अपायमुखानि तानि विवरेय्य, अ. नि. 1(2).192; ला. अ. प्रवेश मार्ग, प्रवेशिका, मुहाना - खं प्र. वि., ए. व. - तेन सङ्घो पुञस्स आयमुखन्ति दस्सेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.286; - खानि द्वि. वि., ब. व. - छ भोगानं आयमुखानि सेवति, महानि. 194; - वय पु., द्व. स. [आयव्यय], आमदनी और खर्च, लाभ एवं हानि, प्राप्ति एवं व्यय – यं द्वि. वि., ए. व. - आयवयं उपधारेत्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.267; - सम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आयसम्पत्ति]. राजस्व की प्राप्ति के रूप में समृद्धि, आय से प्राप्त सम्पदा - तिं द्वि. वि., ए. व. - अधम्मिको राजा रहस्स रसं ओजं न जानाति, आयसम्पत्तिं न लभति, जा. अट्ठ. 5.233; - सम्पन्न त्रि., तत्पु. स., जल के अन्दर प्रवेश कराने वाले द्वार या मुहाने से युक्त, जल के आगमन-द्वार से युक्त - न्नं प्र. वि., ए. व. - खेत्तं ..., न आयसम्पन्न होति, न अपायसम्पन्नं होति, अ. नि. 3(1).70; आयसम्पन्नन्ति न उदकागमनसम्पन्न, अ. नि. अट्ठ. 3.228; - साधक पु०, कर संग्राहक, कर वसूलने वाला अधिकारी-को प्र. वि., ए. व. - आयसाधको आयुत्तकपरिसो विय तन्निस्सितो नन्दिरागो अनुचरो नाम, ध. प. अट्ठ. 2.259. आयजितब्ब त्रि., आ +vयज का सं. कृ., यज्ञ में देवताओं को आहुति देने योग्य - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - आयागोति आयजितब्बो, सु. नि. अट्ट. 2.125. आयत त्रि., आ+यम का भू. क. कृ. [आयत], क. खींचा गया, आकृष्ट, दृढ़तापूर्वक बांधा गया, तान दिया गया अथवा खींचकर किसी के साथ जोड़ दिया गया, केवल स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, अच्चायत आदि के अन्त. द्रष्ट.; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तं मं वियायतं सन्तं, साखाय च लताय च, जा. अट्ठ. 3.330; वियायतन्ति ... वीणाय भमरतन्ति विय विततं आकवितसरीरं, जा. अट्ठ. 3.3313B ख. लम्बा खींचा गया, अत्यधिक खींचा गया (स्वर या आवाज) - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - तथा हि ब्राह्मणा कत्थचि कत्थचि रस्सट्टाने पि... आयतेन ... सरेन वेदं पठन्ति, सद्द. 1.91; ग. लम्बा, अतिविस्तृत, विकीर्ण, बड़ा, गम्भीर, बहुत दूर तक फैला हुआ सुदीर्घ - अथायतं दीघमथो, अभि. प. 707; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ताव अच्चुग्गतो नेरु, आयतो वित्थतो च सो, अप. 1.18; आयतो उच्चतो च वित्थारतो च, अप. अट्ट, 1.232; आयतोति आयामसम्पन्नो, जा. अट्ठ. 3.344; --- ते पु., सप्त. वि., ए. व. - अथ पल्लङ्कस्य च ठितट्ठानस्स च अन्तरा पुरस्थिमपच्छिमतो आयते रतनचङ्कमे चङ्कमन्तो सत्ताह वीतिनामेसि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).86; - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - महापथविं उत्तरेन आयतं दक्खिणेन सकटमुखं सत्तधा समं सुविभत्तं, दी. नि. 2.172; - तं' नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पुरिससीसहि वर्ल्ड होति, सूलेन पहरन्तस्स पहारो ठानं न लभति परिगलति, मच्छसीसं आयतं पुथुलं, पहारो ठानं लभति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).314; - तं? पु., द्वि. वि., ए. व. - चीवरं मं उद्दिस्स विय्यति, आयतञ्च करोहि वित्थतञ्च, पारा. 384; - तं' नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आयतं वा संसारदुक्खं नयन्ति, पवत्तेन्ति, अभि. ध. वि. टी. 203; - स्स ष. वि., ए. व. - आयतस्स वा संसारदुक्खस्स नयनतो आयतनानि, For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयत 146 आयतन खु. पा. अट्ठ. 65; - ता नपुं. प्र. वि., ब. व. - आयतभमू विसालक्खी , जा. अट्ठ. 5.204; - स्सर त्रि., ब. नेतहेसुमभिनीलमायता, थेरीगा. 257; अभिनीला हुत्वा आयता, स. [आयतस्वर], देर तक खींचे गए स्वर वाला, ऊंची थेरीगा. अट्ठ. 234; घ. संयत, नियन्त्रित-तो पु., प्र. वि., आवाज करने वाला, स. प. के रूप में - ... आयतस्सरवसेन ए. व. - मग्गञ्च पटियादेसि, आयतो सब्बदस्सिनो, अप. दूरे ठितपुरिसस्स आमन्तणकाले दूरट्ठस्सालपनपदं भवति, 2.257; ङ. लम्बी कालावधि तक फैला हुआ, - तं' पु., सद्द. 1.91. द्वि. वि., ए. व. -- मयं खो अकुसलानं धम्मानं समादानहेतु आयतक त्रि., आयत से व्यु., लम्बा, देरी तक खींचा हुआ एवरूपं आयतं जातिक्खयं पत्ता, यंनून मयं कुसलं (स्वर), देर तक निष्पादित -को पु.. प्र. वि., ए. व. - करेय्याम, दी. नि. 3.54; - तं नपुं., वि. वि., ए. व. - आयतको नाम तं तं वत्तं भिन्दित्वा अक्खरानि विनासेत्वा आयतं वा संसारदुक्खं सवन्ति पसवन्तीतिपि आसवा, ध. पवत्तो, चूळव. अट्ठ. 47; - केन तृ. वि., ए. व. - भिक्खू स. अट्ठ. 95; - स्स ष. वि., ए. व. आयतस्स च नयनतो आयतकेन गीतस्सरेन धम्मं गायन्ति, चूळव. 225; पञ्चिमे, आयतनं, पटि. म. अट्ठ. 1.72; स. उ. प. के रूप में भिक्खवे, आदीनवा आयतकेन गीतस्सरेन धम्म भणन्तस्स अच्चा., ईसका., कण्णा., तियोजना., पुण्णा., मज्झिमा., ..., अ. नि. 2(1).230; आयतके नाति दीघेन, योजना., सट्ठियोजना के अन्त. द्रष्ट; - तंस त्रि., ब. स. परिपुण्णपदब्यञ्जनकंगाथावत्तञ्च विनासेत्वा पवत्तेन, अ. नि. [आयतांश], लम्बे या बहुत बड़े पार्श्वभागों वाला, लम्बे अट्ठ. 3.79; महासमुद्दो... आयतकेनेव पपातो, चूळव. 393.. किनारों वाला - तंसा पु., प्र. वि., ब. व. - वेरियथम्भा आयतग्ग त्रि./नपुं., आयति + अग्ग/आय + अग्ग सतमुस्सितासे, सिलापवाळस्स च आयतंसा, मसारगल्ला । [आयताग्र], 1. भविष्य में उत्तम एवं महान फल देने सहलोहितङ्गा, थम्भा इमे जोतिरसामयासे, वि. व. 1242; वाला, 2. पुण्यफल देने के कारण अग्रगण्य - ग्गं नपुं., आयतं साति दीघ/सा, अथवा आयता हुत्वा द्वि. वि., ए. व. - पुञमेव सो सिक्खेय्य, आयतग्गं अट्ठसोळसद्वत्तिसादिअंसवन्तो, वि. व. अट्ठ. 288; - सुखुद्रयं इतिवु. 13; विपुलफलताय उळारफलताय आयतग्ग, चक्खुनेत्त त्रि., ब. स. [आयतचक्षु], बड़ी आंखो पियमनापफलताय वा आयतिं उत्तमन्ति आयतग्गं, आयेन वाला/वाली - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - सिङ्गी मिगो वा योनिसोमनसिकारादिप्पच्चयेन उळारतमेन अग्गन्ति आयतचक्खुनेत्तो, अद्वित्तचो विरिसयो अलोमो, जा. अट्ठ. आयतग्ग... पुञ्जफलेन अग्गं पधानन्ति आयतग्गं, इतिव. 2.83; आयतचक्खुनेत्तोति एत्थ दस्सनडेन चक्खु, नयनद्वेन अट्ठ. 69. नेतं, आयतानि चच्खुसङ्घातानि नेत्तानि अस्साति आयतति आ + यत का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रयास करता आयतचक्खुनेत्तो, दीघअक्खीति अत्थो, जा. अट्ठ. 2.284; है, प्रयत्न करता है, उद्योग करता है, सक्रिय हो जाता है - पण्ही त्रि., ब. स. [आयतपाणि], बड़ी एड़ी वाला, - न्ति ब. व. - चित्तचेतसिका धम्मा सेन सेन लम्बी एड़ी वाला - ण्ही पु., प्र. वि., ए. व. - आयहि अनुभवनादिना, किच्चेन आयतन्ति उट्ठहन्ति घट्टन्ति देव, कुमारो आयतपण्ही, दी. नि. 2.13; आयतपण्हीति वायमन्तीति वुत्तं होति, विभ. अट्ठ. 42. दीघपण्हि, परिपुण्णपण्हीति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.33; -- आयतन नपुं., आय से व्यु. [आयतन], शा. अ., स्थान, पण्हिक त्रि., ब. स. [आयतपार्णिक], उपरिवत् - के आवास, घर, प्रवेशस्थान, आश्रय, क्षेत्र, मिलनस्थल, पु., द्वि. वि., ब. व. - दीघङ्गुली तम्बनखे, सुभे आयतपण्हिके, आश्रयस्थल, एकजुट होने की जगह, उत्पत्ति का स्थल - ये पादे पणमिस्सन्ति, तेपि धा गुणन्धर, अप. 2.203;- गेहं चानित्थि सदुमं, चेतियायतनानि, अभि. प. 207; 801; पम्ह त्रि., ब. स. [आयतपक्ष्म], लम्बी बरौनियों वाला, बड़ी आयतति आयतञ्च संसारदुक्खं नयतीति आयतनं, उदा. बड़ी बरौनियों वाला/वाली -- म्हे स्त्री., संबो., ए. व. - अट्ठ. 34; 154; इति सब्बथापिमे धम्मा आयतनतो, आयानं अपि दूरगता सरम्हसे, आयतपम्हे विसुद्धदस्सने, न हि तननतो. ... आयतनानीति वुच्चन्ति अपिच निवासट्ठानद्वेन, मत्थि तया पियत्तरा, नयना किन्नरिमन्दलोचने, थेरीगा. आकरटेन, समोसरणट्ठानद्वेन, सञ्जातिदेसटेन, कारणढेन, 385; आयतपम्हेति दीघपखुमे, थेरीगा. अट्ठ. 279; - भमु च आयतनं वेदितब्बं, इतिवु. अट्ठ. 301; - नं' प्र. वि., ए. त्रि., ब. स. [आयतभ्र], लम्बी भौहों वाला, बड़ी बड़ी भौंहों व. - यावता, अरियं आयतनं, यावता वणिप्पथो, इदं वाला - मू पु., प्र. वि., ब. व. - सहकेसा पुथुनलाटा अग्गनगरं भविस्सति, पाटलिपुत्तं पुटभेदनं, महाव. 304; For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org — 147 आयतन यक्खस्स यावता अरियं आयतनन्ति यत्तकं अरियमनुस्सानं ओसरणानं नाम अत्थि, महाव. अट्ट 356; यं यदायतनं मञ्ञति, महाराज, यं यं समोसरणट्टानं दिजानं पाणरोधनं जीवितक्खयकरं मञ्ञामि... जा. अट्ठ. 5.342; खेत्तं तं न होति त्युं तं न होति... आयतनं तं न होति..... अधिकरणं तं न होति यंपच्चयास्स तं उप्पज्जति अज्झत्तं सुखदुक्खन्ति, अ. नि. 1 ( 2 ). 184; विहिता सन्तिमे, पासा, पल्लले जनाधिप यं यदायतनं मञ्ञ, दिजानं पाणरोधनं, जा. अट्ठ. 5.341; - नं द्वि. वि., ए. व. रमणीये ठाने आयतनं कारापेत्वा... ध. प. अ. 2.43; ने सप्त. वि., ए. व. - मनोरमे आयतने, सेवन्ति नं विहङ्गमा, छायं छायत्थिका यन्ति, फलत्था फलभोजिनो, अ० नि. 2 (1).38; ला. अ. 1. निवास-स्थान, आश्रय स्थल, घर, आसन, क्षेत्र, प्रदेश, विभाग, वर्ग, श्रेणी - नं प्र. वि., ए. व. - सम्बाधोयं घरावासो, रजस्सायतनं इति, सु.. 408; रजस्सायतनन्ति ... रागादिरजस्स उप्पत्तिदेसो, सु० नि. अट्ठ. 2.100; - नें सप्त. वि., ए. व. अत्थि खो मे इमेसु पञ्चसु कामगुणेसु अञ्ञतरस्मिं वा अञ्ञतरस्मिं वा आयतने उप्पज्जति चेतसो समुदाचारो ति, म. नि. 3. 157; आयतनेति ते सुयेव कामगुणेसु किस्मिञ्चिदेव किलेसुप्पत्तिकारणे, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.119; ला. अ. 2. भूमि, आधारस्थल, स्रोत, हेतु प्रत्यय, अवस्था, कारण - नं. प्र. वि., ए. व. - रोगानं आयतनं, दी. नि. 3.138; सा धम्मधातु धम्मायतनपरियापन्ना, यं आयतनं अनासवं, नो च भवङ्ग, नेत्ति, 53; - ने सप्त. वि., ए. व. - तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने, म. नि. 2.172; सति आयतनेति सति सतिकारणे, म. नि. अट्ठ ( म०प०) 2.145; नानि द्वि० वि०, ब० व॰ इमानेव पञ्चायतनानीति इमानेव पञ्च कारणानि, म. नि. अ. (उप.प.) 3.13; ला. अ. 3. ध्यानस्थ चित्त की एकाग्रता का आलम्बन अथवा क्षेत्र, अरूपध्यान में स्थित चित्त की अवस्था, चित्त की सामान्य अवस्था - नं' प्र. वि., ए. व. - असञ्ञसत्तायतनं नेवसञ्ञानासञ्ञायतनमेव दुतियं, दी. नि. 2.54; तदायतनन्ति तं कारणं, निब्बानहि मग्गफलञाणादीनं आरम्मणपच्चयभावतो रूपादीनि विय चक्खुविज्ञाणादीनं आरम्मणपच्चयभूतानीति कारणट्टेन आयतनन्ति वुच्चति, उदा. अट्ठ. 316; - नं द्वि. वि., ए. व. लोकुत्तरं आयतनं भावेति, ध. स. 552; आकासानञ्चायतनं विज्ञाणञ्चायतनं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयतन आकिञ्चञ्ञायतन ... नेवसञ्ञानासञ्ञायतनमेव, दी. नि. 2.55; पसादो आयतनं, पटि० म० 46; यो पसन्नभावो, इदं आयतनं, पटि. म. अट्ठ. 1,204; ला. अ. 4. बाह्य जगत् के पदार्थों का मन के साथ स्पर्श कराने में द्वारभूत चक्षु, स्रोत, प्राण, जिह्वा, काय एवं मन, ये छ इन्द्रियां तथा इनके द्वारा क्रमशः ग्राह्य रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य तथा धर्म नामक विषय, छ इन्द्रियां तथा इन इन्द्रियों के छ विषय नं. प्र. वि., ए. व. खन्धधातु आयतनं, सङ्घतं जातिमूलकं दुक्खं, थेरीगा. 474; - ना प्र. वि., ब. व. - एवं खन्धा च धातुयो, छ च आयतना इमे हेतुं पटिच्च सम्भूता हेतुभङ्गा निरुज्झरे, स. नि. 1(1).159; - नानि द्वि. वि., ब. व. तरसाहं वचनं सुत्वा, खन्धे आयतनानि च, थेरगा. 1264; - नानं ष० वि०, ब० व. - आयतनानं पटिलाभो, दी. नि. 2.228; नानि प्र० वि०, ब० व. - अज्झत्तिकानि आयतनानि एको अन्तो छ बाहिरानि आयतनानि दुतियो अन्तो विञ्ञाणं मज्झे, अ० नि० 2 (2).106; छ अज्झत्तिकानि आयतनानि ...... छ बाहिरानि आयतनानि वेदितब्बानि, म. नि. 3.264; तण्हाय च पन दसरूपीनि आयतनानि पदट्ठानं, नेत्ति 58; स. उ. प. के रूप में अग्या, (अग्निशाला), अञ्ञतित्थिया. (बौद्धेतर धर्माचार्यों का आश्रयस्थल), अट्ठा. (आठ घरों वाला), अनेका.. (अनेक घरों वाला), अपविपुण्णा, अपुञ्ञा, अभिभा., अञ्ञा., अरिया, असञ्ञसत्ता, आकासानञ्चा०, आकिञ्चञ्ञा., इस्सरा, छट्टा., छफस्सा०, छला०, जिव्हा, तदा., तित्था., थेरमहाथेरा, देवा, द्वादसा, धम्मा, धातु के अन्त. द्दष्ट., स. पू. प. के रूप मे, - नत्थ पु०, तत्पु० स० [आयतनार्थ], आयतन (शब्द) का अर्थ अथवा अभिप्राय त्यो प्र. वि., ए. व. - वुच्चते आकारत्थो आयतनत्थो, पेटको. 245; - नन्तर नपुं., तत्पु० स., आयतनो का विशिष्ट स्वरूप - रं प्र. वि., ए. व. - सुखमं पन चित्तन्तरं खन्धन्तरं धात्वन्तरं आयतनन्तर... आभिधम्मिकधम्मकथिकस्सेव पाकट, म. नि. अट्ठ. ( मू०प०) 1 (2).153; नुष्पाद पु०, तत्पु० स० [आयतनोत्पाद], आयतनों का प्रादुर्भाव, आयतनों की उत्पत्ति, जन्म - दंद्वि. वि., ए. व. - दिवा आयतनुप्पाद, सम्मा चित्तं विमुच्चति, महाव॰ 257; आयतनुप्पादन्ति आयतनानं उप्पादञ्च वयञ्च दिस्वा, महाव. अट्ठ. 345; - नूपचय पु., तत्पु० स०, आयतनों का ढेर, आयतनों की राशि - तो वि., ए. व. आयतनूपचयतो चक्खुविञ्ञाणसञ्ञासमङ्गिस्स रूपेसु द्वादस विपल्लासा याव प. For Private and Personal Use Only - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयतन 148 आयतन मनो सञआसमनिस्स, पेटको. 249; - कथा स्त्री., तत्पु. स., आयतनों के विषय में कथन अथवा व्याख्यान -- थं द्वि. वि, ए. व. - तेसु आयतनकथं सज्झायन्तेसु सरे निमित्तं गहेत्वा, म. वं. टी. 152(ना.); - कुसल त्रि, तत्पु. स., आयतनों के विषय में कुशल – लो पु., प्र. वि., ए. व. - ... आयतनकुसलो च होति, म. नि. 3.108; - कुसलता स्त्री॰, भाव., आयतनों के विषय में कुशलता अथवा दक्षता - ता प्र. वि., ए. व. - अत्थि... तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन द्वे धम्मा सम्मदक्खाता, ... आयतनक सलता च पटिच्चसमुप्पादकुसलता च, दी. नि. 3.169; - घट्टन नपुं., तत्पु. स. [आयतनघर्षण], आयतनों की परस्पर में टकराहट, आयतनों के मध्य परस्पर में संपर्क - तो प. वि., ए. व. - आयतनघट्टनतो फस्सो जायति, विसुद्धि. 2.216; - नं प्र. वि., ए. व. - आयतनानं विसयिविसयभूतानं अचमाभिमुखभावो आयतनघट्टनं. विसुद्धि. महाटी. 2.322; - चरिया स्त्री., तत्पु. स., आयतनों से सम्बन्धित आध्यात्मिक चर्या, भीतरी एवं बाहरी, बारहों आयतनो से सम्बद्ध चर्या - या प्र. वि., ए. व. - अट्ठ चरियायो - इरियापथचरिया, आयतनचरिया, सतिचरिया समाधिचरिया, आणचरिया, मग्गचरिया, पत्तिचरिया, लोकत्थचरियाति, पटि. म. 207; आयतनचरियाति छसु अज्झत्तिकबाहिरेसु आयतनेसु. पटि. म. 207; - त नपुं., भाव. [आयतनत्व], आयतन । अथवा वासस्थान होना - त्ता प. वि., ए. व. - नयिदं देवायतनं विय मनस्स आयतनत्ता मनायतनं ध. स. अट्ठ. 185; - देसना स्त्री., तत्पु. स., आयतनों के विषय में उपदेश - ना प्र. वि., ए. व. - रूपभेदविभाविनी आयतनदेसना, मो. वि. टी. 139; - द्वार नपुं., कर्म. स., आयतनों का द्वार, आयतनरूपी द्वार, द्वार जैसा आयतन - कम्मजं आयतनद्वारवसेन पाकट होति, विसुद्धि. 2.257; आयतनद्वारवसेनाति आयतनसङ्घातद्वारवसेन, विसुद्धि महाटी. 2.385; - धातुनिद्देस पु., विसुद्धि के पन्द्रहवें अध्याय का शीर्षक, जिसमें आयतनों एवं धातुओं के अन्तर्गत धर्मों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है, विसुद्धि. 2.109 117; -धीर त्रि., तत्पु. स., आयतनों के विषय में बुद्धिमान – रा पु.. प्र. वि., ब. व. - अपि च खन्धधीरा, धातुधीरा, आयतनधीरा, ..., महानि. 32; - नानत्त नपुं.. भाव.. आयतनों की अनेकता-त्तं द्वि. वि., ए. व. - आयतननानत्तं पजानाति, विभ. 388; आयतननानत्तन्ति इदं चक्खायतनं नाम ... पे. ... इदं धम्मायतनं नाम, तत्थ दसायतना कम्मावचरा, द्वे चतुभूमका ति एवं आयतननानत्तं पजानाति, विभ. अट्ठ. 430; - निद्देस पु., विसुद्धि के एक खण्डविशेष का शीर्षक, जिसमें आयतनों का विवेचन किया गया है, विसुद्धि. 2.109-112; - से सप्त. वि., ए. व. - सळायतनवारे चक्खायतनन्तिआदीसु यं वत्तब्ब, तं सब्ब विसुद्धिमग्गे खन्धनिद्देसे चेव आयतननिद्देसे च वुत्तनयमेव, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).231; - पञत्ति स्त्री., तत्पु. स., आयतनों का वर्गीकरण, आयतनों का प्रकाशन अथवा विवरण - त्ति प्र. वि., ए. व. - खन्धपत्ति आयतनपत्ति, धातुपञत्ति, सच्चपञत्ति, इन्द्रियपत्ति, पुग्गलपञत्तीति, पु. प. 103; अत्थि सावकरस... पत्ति , कथा. 265; - यो द्वि. वि., ब. व. - इदानि ता आयतनपत्तियो दरसेन्तो छयिमानि, दी. नि. अट्ठ. 3.61; - पदेस पु., तत्पु. स., आयतनों का क्षेत्र अथवा आलम्बन के रूप में आयतन - सो प्र. वि., ए. व. - दसविधो हि पदेसो नाम- खन्धपदेसो, आयतनपदेसो..... धम्मपदेसोति, ध. स. अट्ठ. 32; - परियन्त पु., तत्पु. स., आयतनों की सीमा - न्ते सप्त. वि., ए. व. - खन्धपरियन्ते ठितो, धातुपरियन्ते ठितो, आयतनपरियन्ते ठितो, महानि. 163; 346; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. [आयतनपृच्छा], आयतनों के विषय में प्रश्न या पूछताछ - च्छा प्र. वि, ए. व. - अपरापि तिस्सो पुच्छा-खन्धपुच्छा, धातुपुच्छा, आयतनपुच्छा, महानि. 251; - भेद पु., तत्पु. स., आयतनों के भेद, आयतनों का विभाजन - दं द्वि. वि., ए. व. - यं दिब्बं द्वादसायतनभेदं तथा मानुसकञ्च, सु. नि. अट्ठ. 2.138; - मच्छरिय नपुं, तत्पु. स. [आयतनमात्सर्य], आयतनों में विद्यमान कृपणता अथवा स्वार्थपरता - यं प्र. वि., ए. व. - खन्धमच्छरियम्पि मच्छरियं, धातुमच्छरियम्पि मच्छरियं, आयतनमच्छरियम्पि मच्छरियं गाहो, महानि. 26; - मार पु., आयतनों में विद्यमान मार - रो प्र. वि., ए. व. - ... कम्माभिसङ्खारवसेन पटिसन्धिको खन्धमारो धातुमारो आयतनमारो ... अन्वेति, चूळनि. 137; - लक्खण नपुं.. तत्पु. स., आयतनों का लक्षण - णं प्र. वि., ए. व. - आयतनलक्खणं सळायतनं, दस्सनादिरसं, वत्थुद्वार भावपच्चुपट्टानं, नामरूपपदहानं, उदा. अट्ठ. 35; - लोक पु., तत्पु. स., आयतनों का क्षेत्र - के सप्त. वि., ए. व. - अज्झत्तबहिद्धासङ्घाते सब्बस्मिम्पि आयतनलोके अज्झत्तबहिद्धारम्मणवसेन ... धोवित्वा ... एति, सु. नि. For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयतनसुत्त 149 आयत्त अट्ठ. 2.138; - ववत्थान नपुं., तत्पु. स., आयतनों की तालपत्तसदिसे विपाकक्खन्धे निब्बत्तेतुं असमत्था जाता, विवेचना - नेन तृ. वि., ए. व. - धातुववत्थानेन सारत्थ. टी. 1.299; तस्स मे भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो मनोविज्ञाणधातु, आयतनववत्थानेन मनायतनं, पटिग्गहातु आयतिं संवराया ति, दी. नि. 1.75; -- भूत इन्द्रियववत्थानेन मनिन्द्रियं, पेटको. 273; - विभङ्ग पु., त्रि., फैलाव या प्रसार का स्थल बन चुका - तो पु., प्र. विभ. के दूसरे अध्याय का शीर्षक, जिसमें बारहों आयतनों वि., ए. व. - गुणानं आयतिभूतो, रतनानव सागरो, अप. का विवेचन है, विभ. 77-91; विभ, अट्ठ. 42-51; - सङ्गह 2.116; - लक्खण त्रि०, भविष्य में विशिष्ट स्वरूप के पु., 'आयतन' के अन्तर्गत संग्रह - हेन तु. वि., ए. व. - लक्षणों वाला- णं पु. द्वि. वि., ए. व. - ... परप्पवादमथनं ये धम्मा खन्धसङ्गहेन सङ्गहिता आयतनसङ्गहेन असङ्गहिता, आयतिलक्खणं कथावत्थुप्पकरणं अभासि. प. प. अट्ठ. धातु. 29; स. पू. प. के रूप में - सब्ब पु., आयतनों का 106. सभी कुछ -ब्बं द्वि. वि., ए. व. - तत्र सब्बसद्दो सब्बसब्बं आयति त्रि., आगे आने वाला, भविष्य में होने वाला, अगला, पदेससब्बं आयतनसब्बं सक्कायसब्बन्ति ... दिट्ठप्पयोगो, भावी (फल या परिणाम) - तिं स्त्री., वि. वि., ए. व. - सद्द. 1.269; - सहगत त्रि., आयतनों के साथ जुड़ा हुआ आयतिम्पि वस्सं एवमेव कातब्ब, चूळव. 317. - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अभिभूमिआयतनसहगता आयतिक त्रि., आयति से व्यु., क. अगला, भावी, आगे आने रूपसञीसु दुतिये झाने झानभूमि, पेटको. 264; - सेवी वाला - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - आयतिकम्पि वस्सावासं त्रि., शीलवान् व्यक्तियों अथवा उत्तम धर्मों का सेवन करने ... विहरेय्यासी ति, अ. नि. 3(1).65; - के पु., सप्त. वि.. वाला - विनो पु., च./ष. वि., ए. व. - अज्झत्तञ्च ए. व. - विरतचित्तायतिके भवस्मिं सु. नि. 238; ख. प्राप्त पयुत्तस्स, तथायतनसेविनो, अनिबिन्दियकारिस्स, कराने वाला (की ओर) ले जाने वाला, (में) परिणत हो सम्मदत्थो विपच्चति, जा. अट्ठ. 5.117; जाने वाला - कं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - करोहि पुञ्ज तथायतनसेविनोति तथेव सीलवन्ते पुग्गले सेवमानस्स, सुखमायतिक, स. नि. 1(1).168; स. उ. प. के रूप में जा. अट्ठ. 5.119; - सो अ., क्रि. वि. [आयतनशः], कुसला., लोका. के अन्त. द्रष्ट.. आयतनों के द्वारा, आयतनों के अनुरूप - इन्द्रियेसु आयतिगवं अ., क्रि. वि. [आयतिगवं], गायों के घर वापस सुसंवुतो तरसेव अलोभस्स पारिपूरियं मम आयतनसोचितं लौटने के समय में, गोधूलि-वेला में – तिट्ठन्ति गावो यस्मि अनुपादाय, पेटको. 212. काले तिट्ठगुकालो, वहग्गुकालो, आयतिगवं, खलेयवं आयतनसुत्त नपुं., स. नि. के दो सुत्तो का शीर्षक - लूनयवं, लूयमान यवमिच्चादि, मो. व्या. 3.7. छफस्सायतनसुत्त, स. नि. 1(1).134-135; आयत्त' त्रि., आ +vयत का भू. क. कृ., प्रायः च०/ष. वि. अज्झत्तिकायतनसुत्त, स. नि. 3(2).489-490. में अन्त होने वाले नाम के साथ अथवा स. उ. प. के रूप आयतनिक त्रि., [बौ. सं. आयतनिक], आयतनों के साथ। में [आयत्त], 1. अधीन, आश्रित, सहारा लिया हुआ, वश्य, जुड़ा हुआ, छ प्रकार के स्पर्शों से सम्बद्ध, केवल विनीत - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आयत्तो तु च सन्तको, स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त – को पु., प्र. वि., अभि. प. 7283; - त्ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - इतो पट्ठाय ए. व. - छफस्सायतनिको इतिपि, म. नि. 1.421; तव रक्खा ममायत्ता ति वत्वा सकट्ठानमेव गतो, जा. अट्ठ. - का ब. व. - छ फस्सायतनिका नाम सग्गा, पेटको. 3.126; 2. नपुं., संपत्ति, स्वामित्व, परिग्रह - आयत्ते परिवारे च भरिमायं परिग्गहो, अभि. प. 870; - त्तं प्र. वि., आयति' स्त्री., आ +vया से व्यु. [आयति], 1. आगे आने ए. व. - गेहे दास कम्मकरादयोपि गोमहिंसादयोपि वाला समय, भविष्य, 2. फैलाव, विस्तार, लम्बाई, 3. हिरञसुवण्णम्पि सब्बं तास व आयत्तं भविस्सति, जा. महिमा, प्रताप, 4. भावी फल, परिमाण, 5. नियन्त्रण -- अट्ठ. 1.326; भिक्खाचारकिच्चं ममायत्तं होतु, अ. नि. चोत्तरकालो तु आयति, अभि. प. 86; - तिं द्वि. वि., ए. अट्ठ. 1.210; स. उ. प. के रूप में अपरा., करुणा., व., क्रि. वि., भविष्य में, भावी समय के लिए - आयतिं कुलपवेणिका., तदा., निजा., परा., सका., सक्का. के संवरेय्यासी'ति, महाव. 157; आयत्तिं ... अनागते अन्त. द्रष्ट.; स. पू. प. के रूप में, - ता स्त्री॰, भाव., अनुप्पज्जनकसभावा, पारा. अट्ट. 1.97; ... आयत्ति केवल स. उ. प. में प्राप्त [आयत्तता], अधीनता, आश्रयता, 199. For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयत्तमन 150 आयसिक वशवर्तिता - य तृ. वि., ए. व. - एतमत्थन्ति एतं - पिट्टि मे आगिलायति, तमहं आयमिस्सामी ति, चूळव. परायत्तताय अधिप्पायासमिज्झनसङ्घातं अत्थं विदित्वा .... 340; - मित्वा पू. का. कृ. - सो दण्डकोटिया वा उदा. अट्ठ. 127; - वुत्ति स्त्री., अधीन अथवा आश्रित वल्लिकोटिया वा पंसुचुण्णकेन वा घट्टितो आयमित्वा ... रहने की अवस्था - तो प. वि., ए. व. - नोभयं पनिदं पच्छिन्नगमनो हुत्वा अमित्तवसं याति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) कस्मा, निस्सयायत्तवृत्तितो, अभि. अव. 721; - दुत्तिक 1(2).36. त्रि., ब. स., अधीन अथवा आश्रित रहने के स्वभाव वाला आयव/आयाव नपुं.. आयु से व्यु. [आयव], वीर्य, - को पु.. प्र. वि., ए. व. - इध निब्बानवज्जो सब्बो पराक्रम, बल, पुरुषत्व - वं प्र. वि., ए. व. - अत्थि सभावधम्मो पच्चयायत्तवृत्तिकोव उपलब्भति, उदा. आयवन्ति अस्थि वीरियं, आयावन्तिपि पाठो, पटि. म. अट्ठ. अट्ठ. 316; - ता स्त्री॰, भाव., पराधीनता - य तृ. 1.272. वि., ए. व. - कारणहि यथा तिट्ठति एत्थ फलं आयवति आ + यु का वर्त.. प्र. पु., ए. व. तदायत्तवृत्तितायाति ठानन्ति वुच्चति, एवं अनवकासोतिपि [आयौति/आयुवाति], क. मिलाता है, गड्डु मड्ड कर देता वुच्चतीति, उदा. अट्ठ. 243; - दुत्तिभाव पु., उपरिवत् - है, बांध देता है, जकड़ देता है - न्ति ब. व. - आयवन्ति वेन तृ. वि., ए. व. - कारणहि यस्मा तत्थ फलं तिट्ठति । मिस्सीभवन्ति सत्ता एतेना ति आयु, सद्द. 2.416; ख. तदायत्तवृत्तिभावेन, तस्मा ठानन्ति वुच्चति, म. नि. अट्ठ. सम्मिलित होता है, क्रियाशील होता है - न्ति ब. व. - (मू.प.) 1(1).109; - तो प. वि., ए. व. - एवं अनवसेसतो अथ वा आयवन्ति आगच्छन्ति पवत्तन्ति तस्मिं सति अरूपाट कामरूपभवस्स तत्थ अभावो वृत्तो होति तदायत्तवत्तिभावतो, गम्मा ति आयु, सद्द. 2.416. उदा. अट्ठ. 317. आयवन नपुं., आ +/यु से व्यु., क्रि. ना., आपस में मिला आयत्तक त्रि०, आयत्त + क से व्यु०, अधीन, आश्रित - के देना अथवा थाम कर या बांध कर रखना - आयवनडेन पु., सप्त. वि., ए. व. - तस्मा हि जातो वरकम्हि तस्स, आयु, सद्द. 416. आयत्तके मङ्गलचक्कवाले, जिना. 189; - भाव पु.. आयस त्रि., [आयस], लौह धातु से निर्मित, लोहा से बनाया अधीनता, वशवर्तिता, वश्यता - वं द्वि. वि., ए. व. - हुआ - सं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आयसं, बन्धनं, ... लोकनाथो इमं दीपं तदा एव अत्तनो आयत्तकभावं दस्सेतुं कापोतं सत्थि, मो. व्या. 4.66; चतुद्वारमिदं नगर आयसं अत्तनो पादमुद्दिकवसेन सुमनकूटनगमद्धनि ठितत्तं एव दळहपाकार, जा. अट्ठ. 4.3; न तं दळ्हं बन्धनमाहु धीरा, अकासी ति अधिप्यायो, म. वं. टी. 88(ना.). यदायसं दारुजं पब्बजञ्च, स. नि. 1(1).94; - से पु.. आयत्तमन त्रि., ब. स. [आयस्तमन], उत्सुकता से युक्त सप्त. वि., ए. व. - कूटे बद्धोस्मि आयसे, जा. अट्ठ. 4. मन वाला, पीड़ित अथवा व्याकुल मन वाला - ना स्त्री., 373; - साय स्त्री., सप्त. वि., ए. व. -- ... देविया सरीरं द्वि. वि., ब. व. - ता दिस्वा आयत्तमना परिन्ददो, इच्चब्रवी आयसाय तेलदोणिया पक्खिपित्वा ..., अ. नि. 2(1).54%; ...., जा. अट्ठ. 5.390; आयत्तमनाति उस्सुक्कमना स. उ. प. के रूप में अना., काला, सब्बा. के अन्त. ब्यावटचित्ता, जा. अट्ठ. 5.391. द्रष्ट.. आयनक त्रि., आयन से व्यु. [आयानक], जाने वाला, आयसक्क/आयसक्य नपुं., अ + यस से व्यु. [अयशस्क], चलने वाला, हिलने-डुलने वाला - के नपुं., द्वि. वि., ब. अकीर्ति, अपयश, निन्दा, निन्दनीय अथवा अकीर्तिकर व. - सुखदुक्खे सह आयनके सहाये ति. म. वं. टी. अवस्था - क्यं द्वि. वि., ए. व. - दुब्बणियं 67(ना.). आयसक्यञ्चुपेन्ति, जा. अट्ठ. 5.17; आयसक्यन्ति गरह, आयमति आ + यम का वर्त०, प्र. पु., ए. व. जा. अट्ठ. 5.18; कोधसम्मदसम्मत्तो, आयसक्यं निगच्छति, [आयच्छति], 1. विस्तार करता है, अपने को फैलाता है, अ. नि. 2(2).234; आयसक्यन्ति अयसभावं अयसो नियसो लम्बा करता है, 2. ऊपर की ओर या वापस खींचता है, होतीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.179. 3. थामता दबाता या रोकता है - मेय्य विधि., प्र. पु., ए. आयसिक त्रि., आयस से व्यु. [आयसिक], लोहा से निर्मित व. - अभिसन्नधातु कुच्छि अञ्जस्मिं अज्झोहरिते भिय्यो __ - को पु., प्र. वि., ए. व. - वरत्ताय बद्धो वारत्तिको आयमेय्य, मि. प. 172; - मिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. आयसिको, पासिको, मो. व्या. 4.29. For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - आयस्मन्त आयस्मन्त पु०, व्य. सं., राजा साहसमल्ल का एक सेनापति आथापनेत्वा तं भूपं दुरतिक्कमविक्कमो, आयस्मन्तचमूनाथो से राजकुलवड्डनो, चू, वं. 80.33. आयस्मन्तु त्रि., [आयुष्मत्, बौ. सं. आयुष्मं] बौद्ध भिक्षुओं के लिए प्रयुक्त, सम्मान - सूचक संबोधन या भिक्षुओं अथवा स्थविरों के नाम के पूर्व में प्रयुक्त उपाधि, पूज्य, श्रीमान्, आदरणीय भिक्षु या स्थविर - अथ वा महापरिनिब्बान सुत्तट्ठकथायें "आयस्मातिस्स" इति दीर्घवसेन वुत्तालपनेकवचनस्स दरसनतो... सद्द. 1.146; आयस्मन्तोति पियवचनमेतं गरुवचनमेतं सगारवसप्पतिस्साधिवचनमेतं आयस्मन्तोति, महाव. 131; - स्मा पु०, प्र. वि. / संबो०, ए. व. - आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, दी. नि. 1.209; आयस्माति पियवचनमेतं गरुवचनमेतं, स. नि. अ. 2.75; नवकतेरन भिक्खुना थेरतरो भिक्खु "भन्तेति वा "आयस्मा "ति वा समुदाचरितब्बो दी. नि. 2.115; - न्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - लाभा नो आवुसो, सुलद्धं नो आवुसो ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम एवं अत्थुपेतं व्यञ्जनुपेतन्ति दी. नि. 3.96 - स्मता तृ. वि., ए. व. - राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सुखविहारितरो आयस्मता गोतमेनाति. म. नि. 1.131; - स्मतो पु, ष. वि., ए. व. - तस्स आयस्मतो उपसम्पदा अहोसि, महाव. 22; 63; 64; 100; - स्मन्ते पु०, सप्त. वि., ए. व. अचिरूपसम्पन्ने आयस्मन्ते रट्ठपाले .... म. नि. 2.259; - स्मन्तो पु., प्र. वि०, ब० व॰ - वदन्तु मं आयस्मन्तो, म. नि. 1. 133; स्मन्ते पु०, द्वि० वि०, ब० व॰ नेवाहं आयस्मन्ते याचिं .... मन्ति, महाव. 63; तेहि पु०, तृ. वि. ब. व. वचनीयोम्हि आयस्मन्तेही ति, म. नि. 1.133; - स्मन्तानं पु०, ष० वि०, ब० व॰ - नु खो आयस्मन्ता नं सुखविहारितरो, म. नि. 1. 131; - स्मन्तेसु सप्त, वि०, ब० व. - इमे आयस्मन्तेसु मेत्तं कायकम्मं पच्चुपट्ठितं, म. नि. 1.270; - स्मन्तो संबो०, ब० व. - किं सङ्घस्स पुब्बकिच्चं ?, पारिसुद्धिं आयस्मन्तो आरोचेथ, महाव. 130. आयाग 1. पु०, आ + √यज से व्यु [आयाग ], यज्ञ में देय दक्षिणा, देवताओं को देय बलि, आहुति 2. त्रि, यज्ञ की आहुतियों का ग्रहीता, यज्ञ आहुति पीने योग्य, दक्षिणा का पात्र, दान का सत्पात्र गो प्र. वि., ए. व. - आयागोति आयजितब्बो, ततो ततो आगम्म वा यजितब्बमेत्थातिपि आयागो, सु. नि. अट्ठ 2.125; आयागो सब्बलोकस्स, आहुतीनं पटिग्गहो, थेरगा. 566; आयागो सदेवकरस लोकस्स अग्गदक्खिणेय्यताय देय्यधम्मं आनेत्वा सब्बस्स www.kobatirth.org - 151 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयाचति - यजितब्बद्वानभूतो, थेरगा. अट्ठ. 2.166 - गं द्वि. वि., ए. व॰ - वड्डकीहि कथापेत्वा, मूलं दत्वानहं तदा, हट्ठो हट्ठेन चित्तेन, आयागं कारपेसह, अप. 1.88; एकत्तिसे इतो कप्पे, आयागं यमकारयि, अप. 1.88; - स्सष. वि., ए. व. - उदकेहं न मिय्यामि, आयागस्स इदं फलं, अप. 1.88; आयागस्स इदं फलन्ति भोजनसालदानस्स इदं विपाकन्ति अत्थो, अप. अट्ठ. 2.57; वत्थु नपुं तत्पु० स० [आयागवस्तु ], यज्ञ में देय दक्षिणा का सत्पात्र - त्थूनि प्र॰ वि॰, ब॰ व॰ – आयागवत्थूनि पुथू पथब्या, संविज्जन्ति ब्राह्मणा वासवस्स, जा. अट्ठ. 7.51; आयागवत्थूनीति पुञ्ञक्खेत्तभूता अग्गदक्खिणेय्या पथव्या पुथू ब्राह्मणा संविज्जन्ति, जा. अट्ठ. 7.51; - सेट्ठ पु०, कर्म. स. उत्तम यज्ञ-दक्षिणा, यज्ञ में दिया गया उत्तम दान - हि तृ. वि., ब. व. - तस्सेव तेजेन अयं वसुन्धरा आयागसेद्वेहि मही अलङ्कता, दी. नि. 2.126. आयागदायक पु. व्य. सं., एक स्थविर का नाम - वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा आयागदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.88. अयाचक त्रि., [आयाचक], भिखारी याचना करने वाला, विनती या अनुरोध करने वाला, निवेदक, प्रार्थी - को पु०, प्र. वि., ए. व. - सामो... कुमारो कतपुञ... आयाचको सक्को, तिण्णं चेतोपणिधिया... निब्बत्तो, मि. प. 133. आयाचति आ + √याच का वर्त., प्र. पु. ए. व. [आयाचते ], क. प्रार्थना करता निवेदन करता है, देवता का आवाहन करता है अथ सक्को देवानमिन्दो तस्स कुलस्स अनुकम्पाय तं देवपुत्त आयाचति पणिधेहि, मि. प. 133; तस्मा सो ब्रह्मा सब्बेसं तथागतानं आयाचति धम्मदेसनाय, को प्र० मि० प० 220; न्ति ब. व. - यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ती ति? दी. नि. 1.217; आयाचन्तीति "उदेहि भवं चन्दं, उदेहि भवं सूरिया ति एवं आयाचन्ति दी. नि. अट्ठ. 1.302; - चेय्य विधि., प्र. पु. ए. व. - तमेनं महा जनकायो सङ्गम्म समागम्म आयाचेय्य थोमेय्य पञ्जलिको अनुपरिसक्केय्य, स. नि. 2 (2). 299; ख. आर्शीवाद मांगता है, सफलता, सुख एवं समृद्धि हेतु कहता है - न्तीनं स्त्री०, वर्त. कृ., ष. वि., ब. व. - अस्सोसुं भिक्खू... एकच्चानं इत्थीनं ओयाचन्तीन, पारा. 203; ग. प्रणिधान करता है, संकल्प लेता है, प्रण करता है चि अद्य., प्र. पु. ए. व. तुम्हे एवं भेरिं चरापेथ अम्हाकं राजा उपराजकालेयेव एवं आयाचि सचाहं For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयाचन 152 आयाचित रज्जं पापुणिरसामि, जा. अट्ठ. 1.252; -चिं उ. पु., ए. व. - बलिकम्म करिस्सामीति आयाचिं, जा. अट्ठ. 1.252; घ. मांगता है, याचना करता है, अनुरोध करता है, विनती करता है - ति वर्त.. प्र. पु., ए. व. - तासं इत्थीनं वच्चमग्गं परसावमग्गं आदिस्स वण्णम्पि भणति अवण्णम्पि भणति याचतिपि आयाचतिपि पुच्छतिपि पटिपुच्छतिपि, पारा. 188; आयाचति नाम कदा ते माता पसीदिस्सति, पारा. 190; - न्ति ब. व. - नेव मिगा न पसू नोपि गावो, आयाचन्ति अत्तवधाय केचि, जा. अट्ठ, 7.56; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - अहम्पि तादिसो होमी ति एवं आयाचन्तो पिहेन्तो पत्थेन्तो यं अस्थि, अ. नि. अट्ठ. 2.59; - न्ता प्र. वि., ब. व. - आवुसोति आयाचन्ता भणन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).68; - मानो पु., वर्त. कृ., आत्मने.. प्र. वि., ए. व. - भिक्ख एवं सम्मा आयाचमानो आयाचेय्य, अ. नि. 1(1).107; - माना स्त्री., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - भिक्खुनी एवं सम्मा आयाचमाना आयाचेय्य, अ. नि. 1(1).107; - चि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अत्तनो संविभागतं भत्तेनायाचि खत्तियो, म. वं. 10.34; भत्तेनायाचीति अत्तनो भत्तेन संविभागतं कुमारि आयाचि, म. व. टी. 246; - चिं उ. पु., ए. व. - पब्बज्ज अहमायाचिं, थेरगा. 6243; अहमायाचिन्ति, "सुनीत, पब्बजितुं सक्खिस्ससी ति सत्थारा ओकासे कते अहं पब्बज्जं अयाचिं, थेरगा. अट्ठ. 2.192; - चुं अद्य., प्र. पु.. ब. क. - आयाचुं मम हत्थिनागं, चरिया. 373, 379; - चितुं निमि. कृ. - न खो, गहपति, अरहति अरियसावको आयुकामो आयुं आयाचितुं अ. नि. 2(1).44;- चित्वा/त्वान पू. का. कृ. - मातरं पितरं चाहं आयाचित्वा विनायकं अप. 2.213; आयाचित्वान सम्बुद्धं, वन्दित्वान च । सब्बतं पामोज्जं जनयित्वान, सकं भवनुपागमि अप. 1.150. आयाचन नपुं., आ +vयाच से व्यु., क्रि. ना. [बौ. सं. आयाचन], अनुरोध, याचना, विनती, प्रण, प्रणिधान, प्रार्थना - नं द्वि. वि., ए. व. - देवताय आयाचनं, ध. प. अट्ठ. 1.382; ... आयाचनं करि जा. अट्ठ 5.469; - नेन तृ. वि., ए. व. - सो अहं इमिना आयाचनेन रज्जरस पटिलद्धत्ता इदानि यजिस्सामि, जा. अट्ट, 1.253; - तो प. वि., ए. व. - आयाचनतो मुच्चिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.170; - ने सप्त. वि., ए. व. - साधूति आयाचने निपातो, पारा. अट्ठ. 2.227; स. उ. प. के रूप में देवता०, ब्रह्मा के अन्त. द्रष्ट; स. पू. प. के रूप में, - त्थ पु., तत्पु. स. [आयाचनार्थ], आयाचन, प्रार्थना अथवा अनुरोध का अर्थ - नत्थं द्वि. वि., ए. व. - तेनेव चेत्थ आयाचनत्थं सन्धाय चरेम से तिपि पाठं विकप्पेन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.363B - त्थे सप्त. वि., ए. व. - आयाचनत्थे निपातो. सु. नि. अट्ठ. 2.125; - बलिकम्म नपुं.. तत्पु. स., प्रसन्न करने हेतु देवताओं को बलि या भोजन देने का कर्म -- म्मं द्वि. वि., ए. व. - इदं सत्था ... देवतानं आयाचनबलिकम्म आरब्भ कथेसि, जा. अट्ठ. 1.170; - मोचन नपुं.. दिए हुए वचन अथवा किए गए संकल्पों की पूर्णता - देवताय आयाचनामोचनत्थं... आरोचेत्वा, जा. अट्ठ. 5.469; -- हेतु अ., क्रि. वि., याचना अथवा विनती करने के लिए - अपि नु तस्स पुरिसरस अव्हायनहेतु वा आयाचनहेतु वा पत्थनहेतु वा अभिनन्दनहेतु वा अचिरवतिया नदिया पारिमं तीर ओरिमं तीरं आगच्छेय्या ति, दी. नि. 1.221. आयाचनवग्ग पु.. अ. नि. तथा स. नि. के वर्गों का शीर्षक, अ. नि. 1(1).107-109; स. नि. 2(1).184-186. आयाचनसुत्त नपुं., अ. नि. तथा स. नि. के दो सुत्तों का शीर्षक, अ. नि. 1(2).190; स. नि. 1(1).162-164. आयाचना स्त्री., [आयाचना], प्रार्थना, याचना, विनती, विनम्र आवाहन, अनुरोध, संकल्प, प्रण – य तृ. वि., ए. व. - तत्थ एकच्चेहि “बलिकम्मेन आयाचनाय मङ्गलकिरियाया ति वृत्ते सब्बम्पि तं विधि कत्वा पटिबाहित नासक्खिंसु, ध, प. अट्ठ. 2.250; - ना द्वि. वि., ब. व. - थेरो उढहित्वा चत्तारो पटिक्खेपा चतस्सो च आयाचनाति अट्ठ वरे याचि, अ. नि. अट्ठ. 1.224.. आयाचित त्रि., आ + Vयाच का भू. क. कृ. [आयाचित]. प्रार्थित, संकल्पित, निवेदित, वह, जिसे मांगा गया हो, वह, जिसके विषय में प्रार्थना या अनुरोध किया गया हो, निमन्त्रित, प्रतिज्ञात, प्रार्थित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सामो, कुमारो सक्केन देवानमिन्देन आयाचितो पारिकाय तापसिया कुच्छि ओक्कन्तो, मि. प. 133; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अम्हेहि अटविदेवताय आयाचितं अत्थि, ध. प. अट्ठ. 1.383; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बेसं तथागतानं धम्मता एसा, यं ब्रह्मना आयाचिता धम्म देसेन्ति, मि. प. 219; - धम्मदेसना त्रि., ब. स., वह, जिससे धर्मोपदेश के लिए याचना की गई हो - नो पु., प्र. वि., ए. व. - सहम्पतिब ना आयाचितधम्मदेसनो बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेत्वा, ध, प. अट्ट, 1.51; - नं पु., द्वि. वि., ए. व. --- आयाचितधम्मदेसनं किर तं भिक्खु, विसुद्धि. 1. 313; आयाचिता धम्मदेसना एतेनाति आयाचितधम्मदेसनो, तं आयाचितधम्मदेसनं विसुद्धि, महाटी. 364; - भत्तजातक नपुं., 19वें जातक का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.170-171. For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयाचेसि 153 आयाम आयाचेसि आ + Vयाच के प्रेर. का अद्य., प्र. पु., ए. व. याचना की, प्रार्थना की- अभिवादेत्वा निसीदि आयाचेसि तथागतं, दी. वं. 2.43. आयात त्रि., आ + Vया का भू. क. कृ. [आयात], आ पहुंचा हुआ, प्राप्त कर चुका, आ चुका, पहुंच चुका, आया हुआ, प्राप्त - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - न बाहुविरियायातं न च आतिकुलागतं परप्पसाढलद्ध कि युत्तं गथितभोजने, सद्धम्मो. 407; कुतो नु भो इदमायातं, सद्द. 1.92. आयाति आ + Vया का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [आयाति], क. आता है, आ पहुंचता है, प्राप्त करता है, वापस आ जाता है - अद्धिको विय आयाति, जा. अट्ठ. 7.311; - सिम पु., ए. व. - सभानुरूपो आयासि, आनेञ्जकारितो विय, दन्तोव दन्तदमथो, उपसन्तोसि ब्राह्मण, अप. 1.23; - मि उ. पु., ए. व. - गच्छ त्वं, कस्सप, आयामहान्ति, महाव. 34; आयामि आवुसो, आयामि आवुसोति, दी. नि. 3.13; - यन्ति प्र. पु., ब. व. - अन्धंव तिमिसमायन्ति, सु. नि. 674; अन्धंव तिमिसमायन्तीति अन्धकरणेन अन्धमेव बहलन्धकारत्ता तिमिसन्ति सञ्जितं धूमरोरुवं नाम नरक गच्छन्ति, सु. नि. अट्ट. 2.181; - म उ. पु., ब. व. - एतेन वेगेन आयाम सब्बे, रत्तिं मग्गं पटिपन्ना विकाले, वि. व. 1235; येन तव दस्सनतो पब्बे आयाम आगतम्ह, वि. व. अट्ठ. 286; - न्तं पु., वर्त. कृ., द्वि. वि., ए. व. - किंसु पुनप्पुनायन्तं, अभिनन्दन्ति पण्डिता ति, स. नि. 1(1).51; - यतो पु., ष. वि., ए. व. - कस्स ... चरन्ति वरपुञ्जस्स, हत्थिक्खन्धेन आयतो, जा. अट्ठ. 5.314; - यन्ते पु., सप्त. वि., ए. व. - तस्मिं पल्लङ्कमायन्ते राजा इति विचन्तयि, म. वं. 5.64; पल्लङ्कमायन्ते ति पल्लङ्कसमीपं । उपगच्छन्ते. म. वं. टी. 165(ना.): - यन्तिं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - आयन्तिं नाभिनन्दति, पक्कमन्तिं न सोचति, उदा. 75; आयन्तिन्ति आगच्छन्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.23; - अना ... न्तेसु निषे., पु.. सप्त. वि., ब. व. - अनायन्तेसु सब्बेसु विजयो भयसङ्कितो, म. वं. 7.16; अनायन्तेसू ति सब्बेसु न आगतेसु, म. वं. टी. 219(ना.); - यन्तु अनु०, प्र. पु., ब. व. - आयन्तु, भोन्तो अरहन्तो ति, पारा. 138; - म अनु., उ. पु., ब. क. - आयामानन्द, वेरजं ब्राह्मणं अपलोकेस्सामा ति, पारा. 10; आयामाति आगच्छ याम, पारा अट्ठ. 1.151; - सि अद्य, प्र. पु., ए. व. - पवत्ते तुमुले युद्ध सन्नद्धो भल्लुको तहिं राजाभिमुखमायासि नागराजा तु कण्डुलो, म. वं. 25.83; ख. आ मिलता है, जा पहुंचता है, प्रवेश कर जाता है, बन जाता है - यन्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - योगमायन्ति मच्चुनो, स. नि. 1(1). 13; - तु अनु., प्र. पु., ए. व. - कोधो वो वसमायात, स. नि. 1(1).277; कोधो वो वसमायातूति कोधो तुम्हाकं वसं आगच्छतु, स. नि. अट्ट, 1.310. आयान नपुं.. आ + Vया से व्यु., क्रि. ना. [आयान], आगमन, आ जाना, आ पहुंचना - नं प्र. वि., ए. व. - आयानम्पि हि चतूसु द्वारेसु चत्तारि, सभायं एकन्ति एवं दिवसे दिवसे पञ्चसतसहस्सानि तत्थ उट्टहिस्सन्ति, उदा. अट्ठ. 341. आयापाय पु., द्व. स. [आयापाय], आय एवं व्यय, लाभ एवं हानि, अच्छा और बुरा, हित एवं अहित - यं द्वि. वि., ए. व. - सो बालो नेव गुणवन्तानं गणं जानाति न अत्तनो आयापायं जानाति, जा. अट्ठ. 3.201. आयापेति आ + Vयाप का वर्त.. प्र. पु., ए. व. [आयापयति. जारी रहता है, बरकरार रहता है, बना रहता है, क्रियाशील रहता है - न्ति ब. व. - एवं पटिपन्नस्स कुसला धम्मा आयापेन्तीति आयतनचरियाय चरति, पटि. म. 207; आयापेन्तीति समथविपस्सनावसेन पवत्ता कुसला धम्मा भुसं यापेन्ति, पवत्तन्तीति अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 2. 128. आयाम' पु./नपुं., आ + Vयम से व्यु. [आयाम], क. दीर्घता, खिंचाव, फैलाव, लम्बाई, ख. प्रसार, विस्तार, ग. निग्रह, नियन्त्रण, घ. प्रयास, बल, शक्ति - मो प्र. वि., ए. व. - आयामो दीघतारोहो, अभि. प. 295; - मं नपुं, प्र. वि., ए. व. -- अप्पत्तस्स पत्तिया अस्थि आयाम, स. नि. 3(1).13; - मेन तृ. वि., ए. व. -पुरस्थिमेन च पच्छिमेन च द्वादसयोजनानि आयामेन, दी. नि. 2.110; धम्मा, आनन्द, पोक्खरणी पुरत्थिमेन पच्छिमेन च योजनं आयामेन अहोसि, दी. नि. 2.137; - तो प. वि., ए. व. - आयामतो दीघतो च उच्चतो च चतुवीसतियोजनं वित्थारतो द्वादसायोजन अहोसीति सम्बन्धो, अप. अट्ट, 1.275; स. उ. प. के रूप में, चतुत्तिंसहत्था., दियड्ढयोजनसता., पञ्चयोजनसता., मुखा., सट्ठियोजना., सत्तयोजना., सोळसयोजना के अन्त. द्रष्ट., स. पू. प. के रूप में, - सम्पन्न त्रि., लम्बाई अथवा विस्तार से युक्त, आयत - न्नो पु.. प्र. वि., ए. व. - आयतोति आयामसम्पन्नो, जा. अट्ठ. 3.344. आयाम आ + Vया की अनु., उ. पु.. ब. व., हम आते हैं, आयाति के अन्त. द्रष्ट.. For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयास 154 आयु आयास पु., आ + Vयस से व्यु. [आयास], शा. अ.. प्रयत्न, प्रयास, श्रम, ला. अ., थकावट, कष्ट, कठिनाई - सो प्र. वि., ए. व. - दाघ आयासे च, आयासो किलमनं सद्द. 2.335; उपायासनिद्देसे आयासनतुन आयासो, पटि. म. अट्ठ. 1.132; - सेन तृ. वि., ए. व. - आयासेन कतं पुज, रस. 1.73 (रो.); - सा प्र. वि., ब. व. - ये आयासा ते उपायासा, नव पदानि यत्थ सब्बो अकुसलपक्खो सङ्गहं समोसरणं गच्छति, पेटको. 247. आयासना स्त्री., आ + ।यस से व्यु., क्रि. ना., प्रयास अथवा प्रयत्न करने की क्रिया - ना प्र. वि., ए. व. - आयासो उपायासो आयासना, पटि. म. 34; -- नट्ठ पु., तत्पु. स., आयासना अथवा प्रयत्न करने का तात्पर्य -तुन तृ. वि., ए. व. - उपायासनिद्देसे आयासनद्वेन आयासो, पटि. म. अट्ठ. 1.132. आयासितत्त नपुं, आयासित का भाव. [आयासितत्त्व], थकावट से भरे रहने की स्थिति, क्लिन्नता, कष्ट एवं मानसिक व्यथा की दशा - तं प्र. वि., ए. व. - अञ्जतरञतरेन ब्यसनेन समन्नागतस्स अञतरञतरेन दुक्खधम्मेन फुट्ठस्स आयासो उपायासो आयासितत्तं उपायासितत्तं, दी. नि. 2.229; आयासितभावो आयासितत्तं, पटि. म. अट्ठ. 1.132. आयासितभाव पु., उपरिवत् - वो प्र. वि., ए. व. - आयासितभावो आयासितत्तं, पटि. म. अट्ठ. 1.132. आयिक त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, आय वाला, आमदनी वाला - नट्ठायिको पु., प्र. वि., ए. व., दिवालिया, वह, जिसकी आय नष्ट हो चुकी है - यथा परिसो नढायिको सब्बसेसकं गहेत्वा जनस्स परिदीपेय्य, मि. प. 135; यदा देवदत्तो मनुस्सो अहोसि पवने नट्ठायिको, मि. प. 192. आयु नपुं./पु.. [आयुस्, नपुं.], जीवन, जीवन की अवधि, उम्र, जीवनदायिनी शक्ति - यु/यु प्र. वि., ए. व. - आयु तु जीवितं, अभि. प. 155; आयं भोतो होत, मो. व्या. 2.27; पुनरायु च मे लद्धो, दी. नि. 2.211: पुनारायु च मे लद्धोति पुन अञ्जन कम्मविपाकेन मे जीवितं लद्धन्ति, इमिना अत्तनो चतुभावं चेव उपपन्नभावञ्च आविकरोति, दी. नि. अट्ठ. 2.297; - युं द्वि. वि., ए. व. - यागुं देन्तो आयुं देति, महाव. 297; दिब्ब सा लभते आयु, महाव. 385%3B - ना/युसा त. वि., ए. व. - ते असे अतिरोचन्ति, वण्णेन यससायना, दी. नि. 2.153: माता यथा नियं पुत्तमायुसा एकपुत्तमनुरक्खे, सु. नि. 149; - नो/स्स ष. वि., ए. व. - आयुनो संहानि इन्द्रियानं परिपाको, अयं वुच्चति भिक्खवे, जरा, दी. नि. 2.228; आयुनो .... आयुक्खयचक्खादिइन्द्रियपरिपाकसञ्जिताय पकतिया दीपिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).224; आयुं खो पन दत्वा आयुस्स भागिनी होति, अ. नि. 1(2).73; - स्मिं/म्हि सप्त. वि., ए. व. - किञ्च, भिक्खवे, भिक्खुनो आयुस्मिं? दी. नि. 3.57; अयं पन वस्ससतावसिढे आयुम्हि गमनं आरभि, स. नि. अट्ठ. 1.105; स. उ. प. के रूप में अद्धा., अप्पा., दीघा., पुनरा., ब्रह्मा के अन्त. द्रष्ट; स. पू. प. के रूप में, - अन्तर नपुं.. तत्पु. स., जीवन का अन्तराल, जीवन के क्षणों की अवधि -रं प्र. वि., ए. व. - इदं पन .... भावेत्वा अरहत्तं पत्तस्स आयुअन्तरं परिच्छिन्नमेव होति. विसद्धि. 1.280; आयुअन्तरं नाम जीवितन्तरं जीवनक्खणावधि, विसुद्धि, महाटी. 1.326; - उस्माविज्ञाण नपुं.. द्व. स., आयु, ऊष्मा एवं चेतना - तो प. वि., ए. व. - पेतेति आयुउस्माविआणतो अपगते, पे. व. अट्ठ. 53; - कप्प पु./नपुं., जीवन का निर्धारित समय, जीवनकाल, जीवनावधि- प्पो/प्पं प्र. वि., ए. व. - तत्थ कप्पो नाम महाकप्पो कप्पेकदेसा आयुकप्पोति तिविधो, प.प. अट्ठ. 223; एत्थ च कप्पन्ति आयुकप्पं, दी. नि. अट्ठ. 2.129; - कम्म नपुं॰, द्व. स., आयु एवं कर्म (पुण्यकर्म) - म्मानं ष. वि., ब. व. - आयुकम्मानं समकमेव परिक्खीणत्ता मरणं उभयक्खयमरणं, अभि. ध. वि. टी. 168; - काम त्रि., ब. स. [आयुष्काम], दीर्घायु होने की कामना करने वाला, लम्बी जीवनावधि का अभिलाषी, स्वास्थ्य की कामना करने वाला - मो पु.. प्र. वि., ए. व. - न ..., अरहति अरियसावको आयुकामो आयु आयाचितुं वा अभिनन्दितुं वा आयुस्स वापि हेतु, अ. नि. 2(1).44; - काल पु०, तत्पु. स., जीवन का निर्धारित समय, जीवन की अवधि-लो प्र. वि., ए. व. - वस्ससतसहस्सतो पन पट्ठाय हेट्ठा, वस्ससततो पट्ठाय उद्धं आयुकालो कालो नाम, जा. अट्ठ. 1.59; - कोट्ठास पु., तत्पु. स., आयु का एक भाग, जीवन का एक भाग, जीवन की एक अवस्था - से सप्त. वि., ए. व. - बुद्धा ... पञ्चमे आयुकोट्ठासे बहुजनस्स पियमनापकालेयेव परिनिब्बायन्ति, दी. नि. अट्ठ. 2.129; - क्खय पु., तत्पु. स. [आयुक्षय], आयु का विनाश या अन्त, मृत्यु, जीवन की समाप्ति - यं द्वि. वि., ए. व. - तस्सा आयुक्खयं ञत्वा, देविन्दो एतदब्रवि, चरिया. 3783; For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयु 155 आयु - येन तृ. वि., ए. व. - अत्तनो आयुक्खयेनेव मरि जा. होति, आयुप्पटिलाभिनीति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.303; - अट्ठ. 4.28; - या प. वि., ए. व. - आयुक्खया वा प्पमाण नपुं.. तत्पु. स. [आयुष्प्रमाण], आयु का प्रमाण, पुञ्जक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा, दी. नि. 1.15; - जीवनावधि का विस्तार, जीवनावधि - णं' प्र. वि., ए. व. क्खयन्तिक नपुं., मृत्यु की समीपता, जीवन के अन्त - विपस्सिस्स, भिक्खवे, ... असीतिवस्ससहस्सानि की निकटता - कं द्वि. वि., ए. व. - तेनेव व्याधिना थेरो आयुप्पमाणं अहोसि, दी. नि. 2.3; - णं' द्वि. वि., ए. व. पत्तो आयुक्खयन्तिक, म. वं. 5.219; - क्खयमरण - आयुप्पमाणं पञ्च कोट्ठासे कत्वा चत्तारो ठत्वा पञ्चमे नपुं., तत्पु. स., शरीर अथवा आयु के क्षय के कारण होने विज्जमानेयेव परिनिबुतो, स. नि. अट्ठ 2.143; - नेन वाला मरण - णं प्र. वि., ए. व. - सतिपि कम्मानुभावे तृ. वि., ए. व. - देवलोकस्स आयुप्पमानेनेव चवन्तीति, तंतंगतीसु यथापरिच्छिन्नस्स आयुनो परिक्खयेन मरणं दी. नि. अट्ठ. 1.95; - तो प. वि., ए. व. - आयुप्पमाणतोपि आयुक्खयमरणं, अभि. ध. वि. टी. 167; - द त्रि., अनुस्सरिस्सति, दी. नि. 2.7; - आयुप्परिक्खय पु., [आयुर्दा], दीर्घायु देने वाला, लम्बी आयु प्रदान करने तत्पु. स. [आयुपरिक्षय], आय का क्षय, उम्र का घट जाना वाला, स्वास्थ्य प्रद - दो पु., प्र. वि., ए. व. - आयुदो। - येन तृ. वि., ए. व. - कालङ्करोतीति न विजातभावपच्चया, बलदो धीरो, वण्णदो पटिभानदो, सुखस्स दाता मेधावी, आयुपरिक्खयेनेव, दी. नि. अट्ठ. 2.26; - परिमाण नपुं. सुखं सो अधिगच्छति, अ. नि. 2(1).37; - दद त्रि., [बौ. तत्पु. स. [आयुष्परिमाण], आयु की माप, आयु का विस्तार, सं. आयुर्दद], उपरिवत् – दं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - जीवन की अवधि- णं प्र. वि., ए. व. - वस्ससतम्पि याव आयुददं, .... भोजनं दुरुपचारेन जीवितं हरती ति, मि. प. आयुपरिमाणं तिकृति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).218; - 153; - दान नपुं. तत्पु. स. [आयुन], आयु का दान, परियन्त त्रि., केवल स. उ. प. में प्राप्त, ब. स., आयु की जीवनदान - नं प्र. वि., ए. व. - आयुं देतीति आयुदानं सीमा या अवधि वाला -- न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - देति, अ. नि. अट्ठ. 3.21; - दायी त्रि., [आयुर्दायिन्]. तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो जीवन अथवा जीवन प्रदान करने वाला - यी पु., प्र. वि., एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, दी. नि. 1.11; ए. व. - सो आयुदायी वण्णदायी, सुखं बलं ददो नरो, अ. - परियोसान नपुं, तत्पु. स. [आयुष्पर्यवसान], आयु का नि. 1(2).74; - दुब्बल नपुं, कर्म. स. [आयुर्दुर्बल], आयु अन्त, जीवन की अन्तिम घड़ी – ने सप्त. वि., ए. व. - की अल्पता, जीवनावधि का कम होना - तो प. वि., ए. आयुपरियोसाने पुब्बनिमित्तेसु उप्पन्नेसु. चरिया. अट्ठ. 73; व. - आयुटुब्बलतो, ... मरणं अनुस्सरितब्बं, विसुद्धि. - पाल पु., व्य. सं., एक स्थविर भिक्षु का नाम – लो 1.221; - धारण त्रि., आयु को धारण करने वाला, प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन आयस्मा आयपालो आयुवर्धक - णं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - भोजनं सब्बसत्तानं सङ्घयेय्यपरिवेणे पटिवसति, मि. प. 16; - पालक त्रि., आयुधारणं, मि. प. 292; - पच्छेदन त्रि., आयु को नष्ट आयु का पालन-पोषण करने वाला, आयु-वर्धक - कं नपुं, कर देने वाला, आयु को कम कर देने वाला – ना पु... प्र. वि., ए. व. - यथा, ... भोजनं सब्बसत्तानं आयुपालक प्र. वि., ब. व. - पञ्चमे अनायुस्साति आयुपच्छेदना, न जीवितरक्खक, मि. प. 247; - पाला स्त्री., व्य. सं., एक आयुववना, अ. नि. अट्ठ. 3.47; - पञआसमाहित त्रि., भिक्षुणी, जो सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा की आचार्या तत्पु. स., दीर्घ आयु एवं प्रज्ञा से युक्त - तो पु., प्र. वि., थी - ला प्र. वि., ए. व. - आचरिया आयुपाला, काले ए. व. - सब्बलक्खणसम्पन्नो, आयुपासमाहितो, अप. सासि अनासवा, म. वं. 5.208; सङ्घमित्तायपि राजधीताय 1.345; - पटिलाभ पु., तत्पु. स. [आयुष्प्रतिलाभ], लम्बी आचरिया आयुपालित्थेरी नाम, पारा. अट्ठ. 1.37; पाठा. आयु की प्राप्ति, दीर्घायु का लाभ – भाय च. वि., ए. व. आयुपाली; - ब्बेद पु., तत्पु. स. [आयुर्वेद], आयु अथवा - आयुसंवत्तनिका हिस्स पटिपदा पटिपन्ना आयुपटिलाभाय स्वास्थ्य से सम्बन्धित विद्या-शाखा, आयुर्वेद – दे सप्त. संवत्तति, सो लाभी होती आयुस्स दिब्बस्स वा मानुसस्स वि., ए. व. - आयुब्बेदे सयं चापि निपुणत्ता नराधिपो, चू. वा, अ. नि. 2(1).44; - पटिलाभी त्रि., दीर्घायु को प्राप्त वं. 73.42; - वड्डन क. त्रि., आयुवर्धक, आयु को बढ़ाने करने वाला - मिनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आयुस्स में उपयोगी - ना पु., प्र. वि., ब. व. - आयुपच्छेदना, न भागिनी होतीति आयुभागपटिलाभिनी होति, आयं वा भजनिका आयुववना, अ. नि. अट्ठ. 3.47; ख. एक ब्राह्मण-पुत्र का For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयु 156 आयु नाम - अथरस आयुवड्वनकुमारो ति नाम करिंसु, ध. प. अट्ठ. 1.378; - वण्णबल नपुं., द्व. स. [आयुर्वर्णबल]. दीर्घ आयु, सौन्दर्य एवं बल - लेन तृ. वि., ए. व. - महायसा सुखेनापि, आयुवण्णवलेन च दिब्बसम्पत्ति वा तेसं । मनुस्सानं भविस्सति, अना. वं. 128 (रो.); - वण्णसुखबल नपुं., समा. द्व. स. [आयुर्वर्णसुखबल], दीर्घ आयु, सुन्दर रूप, सुख एवं बल - लानि प्र. वि., ब. व. - रतनत्तयप्पणामेन हि आयुवण्णसुखबलानि, अ. नि. टी. 1.4; - वण्णसुखबलवड्दन त्रि., [आयुर्वर्णसुखबलवर्धन], आयु, सुन्दरता, सुख एवं बल की वृद्धि करने वाला - तो प. वि., ए. व. - अथ वा रतनत्तयपूजाय आयुवण्णसुखबलवङ्घनतो अनन्तरायेन परिसमापन वेदितब्ब अ. नि. टी. 1.4; -- वण्णसुखबलवुद्धि स्त्री., तत्पु. स. [आयुर्वर्णसुखबलवृद्धि], आयु, सुन्दरता, सुख एवं बल की। वृद्धि - या तृ. वि., ए. व. - ततो आयुवण्णसुखबलवुद्धिया होतेव कारियनिट्ठानं, अ. नि. टी. 1.4; - वन्तु त्रि., लम्बी आयु वाला, अत्यधिक आयु वाला, बुजुर्ग – वा पु.. प्र. वि., ए. व. - तेसञ्जतरोयमायुवा, थेरगा. 234; अयं आयुवा दीघायु आयस्मा, थेरगा. अट्ठ. 1.383; - वेमज्झ नपुं.. तत्पु. स., जीवन का मध्यभाग - ज्झं द्वि. वि., ए. व. - आयुवेमज्झं अनतिक्कमित्वा परिनिब्बायति ..., स. नि. अट्ट. 3.180; - वेमत्त नपुं., तत्पु. स. [आयुर्वैमात्र्य], आयु सीमा में विविधता अथवा भिन्नता, जीवन की अवधि में भिन्नता --- त्तं प्र. वि., ए. व. - सम्मासम्बुद्धानं आयुवेमत्तं, सरीरप्पमाणवे मत्तं, कुलवेमत्तं दुक्करचरियावेमत्तं, रस्मिवेमत्तन्ति ..., उदा. अट्ठ. 121; - वेमत्तता स्त्री., भाव. [आयुर्वैमात्रता], आयु के विस्तार में विविधता अथवा भिन्नता का होना, आयु सीमा में अन्तर होना, विभिन्न बुद्धों में अन्तर कर देने वाले 8 धर्मों में से एक - त्ता प्र. वि., ए. व. - हेट्ठिमपरिच्छेदेन च वस्ससतायककाले उप्पज्जन्ति उपरिमपरिच्छेदेन वस्ससतसहस्सायुककाले, अयं नेसं आयुवेमत्तता, सु. नि. अट्ठ. 2.122; - वोस्सज्जन नपुं.. तत्पु. स. [आयुर्व्यवसर्जन], जीवन का परित्याग, आयु का अन्त, मृत्यु - नं प्र. वि., ए. व. - आलवकङ्गुलिमालअपलालदमनं पि च, पारायनकसमितिं आयुवोस्सज्जन तथा. म. वं. 30.84: आयुवोस्सज्जन तथा ति मारयाचानुपुब्बकं भगवता विस्सहआयुवोस्सज्जनाधिकारं च. म. वं. टी. 505(ना.); - संवत्तनिक त्रि., [आयुसंवर्तनिक], दीर्घायु को देने वाला, दीर्घायु में परिणत होने वाला - का स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - आयकामेन ... अरियसावकेन आयसंवत्तनिका पटिपदा पटिपज्जितब्बा, आयसंवत्तनिका हिस्स पटिपदा पटिपन्ना आयुपटिलाभाय संवत्तति, अ. नि. 2(1).44; आयुसंवत्तनिक आयस्मता चुन्देन कम्मारपुत्तेन कम्मं उपचितं, दी. नि. 2.103; - सङ्ख्य पु., तत्पु. स. [आयुसंक्षय], आयु का क्षय, मृत्यु, जीवन का अन्त - यं द्वि. वि., ए. व. - मतञ्च दिस्वा गतमायुसङ्घयं, थेरगा. 73; यस्माकालङ्कतो आयुनो खयं वयं भेदं गतो नाम होति, तस्मा वुत्तं गतमायुसङ्घयान्ति, थेरगा. अट्ठ. 1.176; - या प. वि., ए. व. - यदा देवो देवकाया, चवति आयुसङ्ख्या तयो सद्दा निच्छरन्ति, देवानं अनुमोदतं, इतिवु. 56; -- ये सप्त. वि., ए. व. - भवनम्पि पकम्पित्थ, बुद्धस्स आयुसङ्घये, अप. 1.152; - सङ्खार पु., तत्पु. स. [आयुसंस्कार], प्राणाघायक तत्त्व, जीवन-तत्त्व, लम्बी जीवनावधि का आधारभूत तत्त्व, जीने की लालसा या चेतना-रो प्र. वि., ए. व. - तथागतेन सतेन सम्पजानेन आयुसङ्घारो ओस्सट्टो ति, दी. नि. 2.88; - रे सप्त. वि., ए. व. - ओस्सटे च भगवता आयुसङ्घारे महाभूमिचालो अहोसि भिंसनको लोमहंसो, देवदुन्दुभियो च फलिंसु, उदा. 142; - रा/रे प्र./द्वि वि., ब. व. - अत्तनो आयुसङ्घारे उपधारेत्वा, विसुद्धि. 1.280; आयुसङ्घारा, ते वेदनिया धम्मा, म. नि. 1.376; - रानं ष. वि., ब. व. - पत्तो आयुसङ्घारानं इत्तरभावं दस्सेत्वा, जा. अट्ट. 4.189; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - अथस्स अनुपुब्बेन आयुसङ्घारेसु परिहीनेसु परिनिब्बानदिवसो सम्पापुणि, जा. अट्ठ. 1.231; - सझारखेपनसङ्खात त्रि., "जीने की चेतना का अपनयन" नाम वाला - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - तत्थ वा आयुसङ्घारस्सखेपनसङ्घातस्स कालस्स कतत्ता कालकतो, वि. व. अट्ठ. 264; - सङ्कारपरित्तता स्त्री., भाव., अल्पायु होने की दशा, अल्पायुता - तं द्वि. वि., ए. व. - इदानि इमिस्सापि जातिया आयुसङ्घारपरित्ततं दस्सेत्वा, जा. अट्ट. 4.356; - सङ्खारवोस्सज्जन नपुं०, तत्पु. स., जीवन का परित्याग, आयु संस्कार (जीवनविषयिणी चेतना) की समाप्ति - ज्जने सप्त. वि., ए. व. - तस्मि आयु सङ्खारवो स्सज्जने, अप. अट्ठ. 2.125%; -- सङ्खारवोस्सज्जभाव पु., तत्पु. स. [संस्कारव्यवसर्जनभाव]. आयु संस्कार अथवा जीवन-चेतना के परित्याग की अवस्था -- वं द्वि. वि., ए. व. - देवपुत्तो ... बुद्धस्स आयुसङ्खारवोस्सज्जभावं अत्वा महासोकं दोमनरसं उप्पादेसि, अप. अट्ठ. 2.125; - सङ्खारोस्सज्जन नपुं. तत्पु. स., For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुक 157 आयुत्त आयुसंस्कार का परित्याग - ज्जने सप्त. वि., ए. व. - आयुतो योजितोति अत्थो, अप. अट्ठ. 2.6; हरितेन आयुतो अज्ज... सत्वा आयु सवारोसज्जने गमिस्सामाति, दी. नि. नादियो, जा. अट्ठ. 7.305; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अट्ठ. 2.150; - सन्तानजनकपच्चयसम्पत्ति स्त्री., तत्पु. अयं नदी पुथुलोमेहि मच्छेहि आयुता पुथु विपुला, जा. अट्ट. स., आयु की निरन्तरता में कारणभूत (भोजन आदि) तत्त्वों 5.5; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - किम्पुरिसेहि आयुतं की प्राप्ति – या तृ. वि., ए. व. -- तत्थ यं विज्जमानायपि परिकिण्णं, जा. अट्ट. 7.279; स. उ. प. के रूप में आयुसन्तानजनकपच्चयसम्पत्तिया केवलं पटिसन्धिजनकस्स किम्पुरिसा., गणङ्गुलमिगा., गुणगन्धा., दिजगणा., दुमा., कम्मरस विपक्कविपाकत्ता मरणं होति, विसुद्धि. 1.220; दा., नारीवरगणा., पुथुलोमा., युधा., वालमिगा., आयु सन्तानजनकपच्चयसम्पत्तियाति आयुप्पबन्धस्स सोण्णकिङ्किणिका. के अन्त. प्रयुक्त. पवत्तापनकानं आहारादिपच्चयानं सम्पत्तियं विसद्धि. महाटी. ___ आयुत्त आ + vयुज से व्यु., भू. क. कृ. [आयुक्त], 1. 1.272: - सहगत त्रि., तत्पु. स., आयु के साथ जुड़ा त्रि., किसी काम में लगा दिया गया, जोड़ दिया गया, लगा हुआ, जीवन के साथ साथ विद्यमान – तो पु., प्र. वि., ए. हुआ, संयुक्त, प्राप्त - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आयुत्तो व. - यदायं कायो, आयुसहगतो च होति उस्मासहगतो च कटकरणस्स आयुत्तो कटकरणे, मो. व्या. 2.37; पठमस्स विआणसहगतो च, तदा लहुतरो च होति मुदुतरो च झानस्स उप्पादाय युत्तो पयुत्तो आयुत्तो समायुत्तो, महानि. कम्मञ्जतरो च, दी. नि. 2.249. 379; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - मेथुनमनुयुत्तरसाति, आयुक त्रि., ब. स. [आयुष्क], आयु वाला, ब. स. के उ. मेथुनधम्मे युत्तस्स पयुत्तस्स आयुत्तस्स समायुत्तस्स महानि. प. के रूप में ही प्राप्त, अट्टकप्पा. (आठ कल्पों की आयु 104; - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - तपोजिगुच्छाय आयुत्ता, वाला), अप्पा. (छोटी या कम आयु वाला), असङ्केय्या. (संख्या स. नि. 1(1).82; आयुत्ताति तपोजिगुच्छने युत्तपयुत्ता, स. से परे आयु वाला), असीतिवस्ससहस्सा. (एक हजार नि. अट्ठ. 1.113; 2. पु., कार्य-विशेष के लिए नियुक्त कल्पों की आयु वाला), कप्पा. (एक कल्प की आयु वाला), प्रशासनिक पदाधिकारी अथवा मन्त्री - त्तो प्र. वि., ए. व. खीणा. (वह, जिस की आयु क्षीण हो चुकी है), चतुसट्ठिकप्पा. - आयुत्तो मातुसन्देस सब्बं तस्स निवेदयि, म. वं. 10.19; (चौसठ कल्पों की आयु वाला), चत्तालीसवस्ससहस्सा. दारकं च सहस्सं च आयुत्तस्स अदा रहो, म. वं. 10.5; - (चालीस हजार वर्षों की आयु वाला), दसवस्ससहस्सा. त्ता प्र. वि., ब. व. - मा ते अधम्मिकायुत्ता, धनं रखञ्चनासयुं (दस हजार वर्षों की आयु वाला), दीघा. (लम्बी आयु जा. अट्ट. 5.112; - क पु., आयुत्त + क से व्यु. वाला), नियता. (सुनिर्धारित अवधि की आयु वाला), परिक्खीणा. [आयुक्तक], सरकारी पदाधिकारी, किसी प्रशासनिक कार्य (अत्यधिक हो चुकी आयु वाला), परित्ता. (अत्यल्प आयु वाला), के सम्पादन अथवा निरीक्षण के लिए नियुक्त पदाधिकारी यावता. (जब तक आयु है तब तक), वस्ससतसहस्सा. (एक या पर्यवेक्षक - को प्र. वि., ए. व. - अम्हाक, देव, नगरे सौ हजार वर्षों की आयु वाला), वस्ससता. (एक सौ वर्षों की आयुत्तको नत्थि, स. नि. अट्ठ. 3.100; - कं द्वि. वि., ए. आयु वाला), वस्ससहस्सा. (एक हजार वर्षा की आयु वाला), व. - आयुत्तकं गामकिच्चं करोन्तमेव परिस. पटि. म. सावसेसा. (वह, जिसकी आयु का कुछ भाग अभी तक शेष है), अट्ठ. 2.274; - केन तृ. वि., ए. व. - आयसाधकेन के रूप में प्राप्त. आयुत्तकेन सहितं, ध. प. अट्ठ. 2.259; - स्स ष. वि., ए. आयुञ्जन नपुं., आ + Vयुज से व्यु., क्रि. ना., प्रबल जोड़, व. - मम गामसते आयुत्तकस्स सन्तिक पेसेत्वा मजबूत लगाव, सुदृढ़ आसक्ति -- नं प्र. वि., ए. व. - मारापेस्सामी ति, पटि. म. अट्ठ. 2.273; - का प्र. वि., ब. आयुञ्जनं अनुयुञ्जनं आयोगो, दी. नि. टी. 1.332. व. -- ... आयुत्तका लज गहेत्वा ..., जा. अट्ठ.5.114; आयुत त्रि., आ + vयु से व्यु., भू क. कृ. [आयुत], शा. -- के द्वि. वि., ब. व. - ... आयुत्तके अदासि, जा. अट्ठ. अ., अच्छी तरह से जोड़ दिया गया, भली-भांति बांध दिया 5.445; - घर नपुं, तत्पु. स., प्रशासनिक पदाधिकारी का गया, ला. अ., युक्त, परिपूर्ण, (से) समन्वित, भरपूर - निवासस्थान - रं द्वि. वि., ए. व. - गतेसु तेसु सो गन्त्वा तो पु.. प्र. वि., ए. व. - रागरत्तो सुखसीलो, कामेसु आयुत्तकघरं सक, म. वं. 10.12; - पुरिस पु., प्रशासनिक गेधमायुतो, बुद्धेन चोदितो सन्तो, तदा त्वं पब्बजिस्ससि.. अधिकारी - सो प्र. वि., ए. व. - आयसाधको अप. 1.54; गेधमायुतोति वत्थुकामेसु गेधसङ्घाताय तण्हाय आयुत्तकपुरिसो विय तन्निस्सितो नन्दिरागो अनुचरो नाम, For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुध 158 आयूहन आयूहक त्रि., आयूह + क से व्यु.. प्रबल प्रयास करने वाला, सक्रिय, उत्सुक - को फू, प्र. वि., ए. व. -- महोसधो, ... वीरियवा आयूहको सङ्गाहको, मि. प. 197. ध. प. अट्ठ. 2.259; - ब्राह्मण पु., कर्म, स., ब्राह्मण जाति वाला प्रशासनिक अधिकारी - णो प्र. वि., ए. व. - एवं नामको राजगहनगरे जिण्णपटिसङ्घरणकारको आयुत्तकब्राह्मणो, अ. नि. अट्ठ. 2.147; - वेस पु., तत्पु. स. [आयुक्तकवेश], प्रशासनिक पदाधिकारी की वेशभूषा - सं द्वि. वि., ए. व. - सेहिनो आयुत्तकवेसं गहेत्वा, ध. प. अट्ठ. 2.8. आयुध नपुं., संभवतः आवुध के स्थान पर संस्कृत के प्रभाववश उत्तरकालीन रचनाओं में प्रयुक्त सं. शब्द [आयुध], हथियार, शस्त्र - धं' प्र. वि., ए. व. – अथायुधं च हेतीत्थी सत्थं पहरणं भवे, अभि. प. 385; आयुधं मेनुभावेन तेसं काये पतिस्सति, म. वं. 7.36; - धं द्वि. वि., ए. व. - आयुधं मम बाहुना गाहेतुं असमत्थोति, चू. वं. 72.106; -धे द्वि. वि., ब. व. - गोपुरद्वा तु दमिळा खिपिंसु विविधायुधे, म. वं. 25.30; - जीवी त्रि., [आयुधजीविन्], हथियारों अथवा शस्त्रों की कुशलता द्वारा अपनी जीविका कमाने वाला, योद्धा - विनो प., प्र. वि., ब. व. - मह रज्जम्हि ये केचि सन्ति आयुधजीविनो एते सब्बे समादाय खिप्पं गन्त्वा पसरह तं आनेस्सथ कुमारंति, चू. वं. 66.6768; -- सम्पहार पु., तत्पु. स., हथियारों अथवा शस्त्रों का प्रहार - रो प्र. वि., ए. व. - आयुधसम्पहारो न साधु सिया, थू. वं. 31(रो.). आयुधीय त्रि./पु., [आयुधीय], हथियारों के सहारे जीविका कमाने वाला, योद्धा, सैनिक - या प्र. वि., ब. व. - हुत्वायुधीया राजूनं अब्भन्तरपवत्तिनो, बलवन्ततरा जाता लद्धद्वानन्तरा तदा, चू. वं. 61.69. आयुर पु.. व्य. सं., वाराणसी के शासक माधव का एक सचिव-रं द्वि. वि., ए. व. - "उपायेन तंतिकिच्छिस्सामी ति आयुरञ्च पुक्कुसञ्चाति द्वे रुओ पण्डितामच्चे आमन्तत्वा ..., जा. अट्ठ. 3.298. आयुसुत्त नपुं., स. नि. के दो सुत्तों का शीर्षक. स. नि. 1(1).128; 129. आयुस्स त्रि., आयु से व्यु. [आयुष्य], आयु को बढ़ाने वाला, स्वास्थ्यवर्धक – स्सं नपुं., प्र. वि., ए. व. - छट्ठियन्तेहि चक्खु आदीहि हिते 'स्सो होति, चक्खुस्सं, आयुस्स, मो. व्या. 4.71; - स्सा पु., प्र. वि., ब. व. - धम्मा आयुस्सा , अ. नि. 2(1).136. आयुस्ससुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2(1).136. आयूहति आ + vऊह का वर्त, प्र. पु., ए. व. [बौ. सं. आयूहति], शा. अ., प्रयास करता है, प्रयत्न करता है, कोशिश करता है, संघर्ष करता है, ला. अ., उत्पन्न करता है, उदित कराने हेतु प्रयास करता है, सामने लाता है, वृद्धि कराता है - सो अप्पवत्तनत्थाय मग्गं आयूहति गवेसति भावेति बहुलीकरोति, मि. प. 297; आयूहति सब्बगत्तेभि जन्तु, स. नि. 1(1).56; नायूहती पारगतो हि सोव, तदे. - हामि उ. पु., ए. व. - यदाख्वाहं, आवुसो, आयूहामि तदास्सु निब्बुय्हामि. स. नि. 1(1).2; - न्ति प्र. पु., ब. व. - पटिसन्धिजननत्थं आयूहन्ति ब्यापार करोन्तीति, विसुद्धि. महाटी. 2.238; - न्तो पु., वर्त. कृ., पु. प्र. वि., ए. व., निशे., बिना किसी प्रयास के - अप्पतिद्वं ख्वाह आवसो, अनायूह ओघमतरिन्ति, स. नि. 1(1).1-2; अनायूहन्ति अनायूहन्तो, अवायमन्तोति अत्थो, स. नि. अट्ट, 1.17; - न्तं वर्त. कृ., नपुं., द्वि. वि., ए. व. - यकिञ्चि कम आयूहन्तं एवं जानाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).350; - तं पु., ष. वि., ब. व. – जयो महाराज पराजयो च, आयूहतं अञ्जतरस्स होति, जा. अट्ठ. 7.175; - माना स्त्री., वर्त. कृ., आत्मने.. प्र. वि., ए. व. - फस्सो फुसन्तोयेव, मनोसञ्चेतना आयूहमानाव, विज्ञाणं विजानन्तमेव, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).218; - युहे विधि., प्र. पु., ए. व. - कोयं मज्झे समुद्दस्मि, अपस्सं तीरमायुहे, जा. अट्ठ. 6.42; ... आयूहति विरीयं करोति, जा. अट्ठ. 6.42; - हि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - ननु.... देवदत्तो... कप्पट्ठियं कम्म आयूहि, मि. प. 203; - हिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - अपब्बजितोपि अयं मोघपरिसो कप्पट्ठियमेव कम्म आयूहिस्सतीति कारुञ्जेन देवदत्तं पब्बाजेसी ति, मि. प. 117; - हित्वा पू. का. कृ. - कुसलं पन आयूहित्वा ... होति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.193; - हितब्ब सं. कृ. (स. प. के अन्त.) - इदानि आयूहितब्बकम्मानं, अ. नि. अट्ठ. 2.196; - हियमानं वर्त. कृ., कर्म. वा., नपुं., प्र. वि., ए. व. - कम्महि आयूहियमानमेव पटिसन्धिं आकड्कृति नाम, स. नि. अट्ठ. 2.99. आयूहन नपुं., आ + Vऊह से व्यु., क. ना., क. आत्मप्रयास, पुरुषार्थ, या प्रयत्न करना, ख. उत्पन्न कराना, उदित For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयूहन 159 आयोग कराना, सञ्चित कराना - नं. प्र. वि., ए. व. - आयूहनन्ति पांच प्रकार की परिपूर्णताओं में से एक - ता प्र. वि., ए. समीहनं, विसुद्धि, महाटी. 1.292; आयूहनन्ति सङ्घारानं व. - पञ्चविधा समङ्गिता - आयूहनसमङ्गिता, चेतनासमङ्गिता, अत्थाय पयोगकरणं, पटि. म. अट्ट, 1.113; मनोसञ्चेतनाय कम्मसमङ्गिता, विपाकसमङ्गिता, उपट्ठानसमङ्गिताति, विभ. आयूहनमेव, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).219; -- नं द्वि. अट्ठ. 413. वि., ए. व. - आयूहनं पटिसन्धिं, आणं आदीनवे इदं, पटि. आयूहना स्त्री., आ + Vऊह से व्यु., क्रि. ना., उपरिवत् - म. 54; - ना प. वि., ए. व. - आयूहना वुढातीति - ना प्र. वि., ए. व. - आयूहनाति आयतिं पटिसन्धिहेतुभूतं गोत्रभु, पटि. म. 60; - ने सप्त. वि., ए. व. - आयूहने कम्म, तम्हि अभिसङ्करणद्वेन आयूहनाति वुच्चति, पटि. म. आदीनवं दिस्वा, पटि. म. 387; पिण्डकरणत्थायाति । अट्ठ. 1.81. आयूहनवसेन रासिकरणत्थाय, अ. नि. टी. 2.93; - तु पु., आयूहनी 1. स्त्री., प्रयत्न, प्रयास, कोशिश, उद्योगशीलता, तत्पु. स. [बौ. सं. आयूहनार्थ], प्रयास या प्रयत्न करने का अध्यवसाय, 2. त्रि., प्रयास कराने वाला/वाली, प्रेरित अर्थ-ट्ठो प्र. वि., ए. व. - समुदयदस्सनेनेव आयूहनट्ठो, करने वाली, कोशिश कराने वाली - नी प्र. वि., ए. व. पटि. म. अट्ठ. 1.88; - द्वेन तृ. वि., ए. व. - चेतना - तस्स तस्स पटिलाभत्थाय सत्ते आयूहापेतीति आयूहिनी, पधाना आयूहनतुन पाकटत्ता, विभ. अट्ठ. 19; - नावसान ध. स. अट्ठ. 390. नपुं., तत्पु. स., प्रयास का अन्त अथवा प्रयत्न की समाप्ति आयूहापेति आ + Vऊह का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व., – ने सप्त. वि., ए. व. - आयूहनावसाने वुत्तचेतना प्रयास कराता है, कोशिश करने हेतु प्रेरित करता है -ति भवोति, विभ. अट्ठ. 183; - काल पु., तत्पु. स., प्रयास । प्र. वि., ए. व. - तस्स तस्स पटिलाभत्थाय सत्ते आयूहापेतीति अथवा प्रयत्न करने का समय - लो प्र. वि., ए. व. - आयूहिनी, ध. स. अट्ठ. 390. आयूहनकालो अओ विपच्चनकालो. ध. स. अट्ठ. 325; - आयूहित त्रि., आ + Vऊह से व्यु., भू. क. कृ., शा. अ., द्विति स्त्री., तत्पु. स., प्रयास करने की अवस्था, वह, जिसके लिए सुदृढ़ प्रयास किया गया हो, उत्पादित, प्रयत्नशीलता, ऐसी स्थिति, जो प्रयास करने के अनुरूप हो सञ्चित, ला. अ.. सक्रिय, व्यस्त – तो पु., प्र. वि., ए. - ति प्र. वि., ए. व. - अविज्जा सङ्घारानं... आयूहनहिति, व. - आयूहितो अत्थसाधनताय अपचितिं न करोति, मि. पटि. म. 44; आयूहनद्वितीति आह, आयूहनभूता ठितीति प. 175; - तं' नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अतीते अत्थो, पटि. म. अट्ट, 1.202; - पच्चय पु., प्रयास के कप्पकोटिसतसहस्समत्थकेपि हि आयूहितं कम्म एतरहि कारण - या प. वि., ए. व., क्रि. वि. - ये आयूहनपच्चया पच्चयो होति, विभ. अट्ट, 24; - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. किलेसा निब्बत्तेय्यु, पटि. म. 387; - रस त्रि., ब. स., - सङ्घतं पकप्पितं आयूहितं करोन्तेन करीयति, म. नि. प्रयास का कार्य सम्पादित करने वाला, वह, जिसका अट्ठ. (उप.प.) 3.221; - ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - सारतत्त्व अथवा प्रधान कार्य प्रयत्न करना हो-सा स्त्री., कम्मे आयूहिते, अभि. अव. 13. प्र. वि., ए. व. - चेतना ... आयूहनरसा, ध. स. अट्ठ. 157; आयोग पु., आ + vयुज से व्यु. [आयोग], क. शा. अ., - रसता स्त्री., भाव., प्रधान कार्य के रूप में प्रयत्नशीलता एक जुट कर देना, बांध देना, बन्धन, जोड़, जुड़ाव, एक - आयुहनरसता पन कुसलाकुसलेसु एव होति, ... जुट हो जाना, ख. विनय में विशेष अर्थ, गद्दीदार आसन एवमस्सा आयूहनरसता वेदितब्बा, ध, स. अट्ठ. 157; - - गो प्र. वि., ए. व. - कथं नु खो आयोगो कातब्बो ति, लक्खण त्रि., ब. स., प्रयत्नशीलता अथवा उद्योगी होने चूळव. 256; -- गं द्वि. वि., ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, के लक्षण वाला, वह, जिसकी मुख्य पहचान उसका आयोगन्ति, चूळव. 256; - गेन तृ. वि., ए. व. - तेन खो प्रयत्नशील रहना हो - णं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - भवस्स पन समयेन अञतरो भिक्खु गिलानो होति, तस्स विना आयूहनलक्खणं, दी. नि. अट्ठ. 1.60; - सङ्खार पु., तत्पु. आयोगेन न फासु होति, चूळव. 256; - गे' द्वि. वि., ब. स., प्रयत्न-विषयिणी चेतना, प्रयास करने के लिए मन में व. - आयोगे धूमनेत्ते च, अथोपि दीपधारके, अप. 1.333; हो रहा ऊहापोह - रा प्र. वि., ब. व. - छसु जवनेसु - गे' सप्त. वि., ए. व. - अनापत्ति आयोगे, पाचि. 224; चेतना आयूहनसङ्घारा नाम, विभ. अट्ठ. 183; - समङ्गिता ग. ला. अ., प्रयास, अध्यवसाय, व्यावहारिक अभ्यास, स्त्री., भाव., प्रयत्नशीलता से परिपूर्ण रहने की स्थिति, सुदढ़ उद्योग, प्रयोग में लाना - गो प्र. वि., ए. व. - For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयोधन 160 आरका अधिचित्ते च आयोगो, एतं बुद्धानसासनन्ति, दी. नि. 2.38; ध. प. 185; आयोगोति पयोगकरणं, ध. प. अट्ठ. 2.137; - गं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा तिह, भिक्खवे, तुम्हेपि अकुसलं पजहथ, कुसलेसु धम्मेसु आयोगं करोथ, म. नि. 1.176; घ. ला. अ., (केवल स. प. में प्राप्त) ब्याज के साथ ऋण- तं तं आयोगग्गहणेन वा इणं गहेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.143; - पट्ट पु., तत्पु. स., वस्त्रखण्ड, कपड़े की पट्टी - Zो प्र. वि., ए. व. - उक्कट्ठस्स नेव अपस्सेनं, न दुस्सपल्लत्थिका, न आयोगपट्टो वट्टति, विसुद्धि. 1.78; - ढें द्वि. वि., ए. व. - आयोगपट्ट अहमदासिं. भिक्खुनो पिण्डाय चरन्तस्स, वि. व. 546; आयोगपट्ट अहमदासिं. वि. व. अ. 119: - पल्लत्थिका स्त्री.. [आयोगपर्यस्तिका. बौ. सं. आयोगपल्लत्थिक, दोनों घुटनों को मोड़कर लगाया गया पालथी का आसन, पद्मासन, कमलासन - का प्र. वि., ए. व. - दुस्सपल्लत्थिकायाति एत्थ आयोगपल्लत्थिकापि दुस्सपल्लत्थिका एव, पाचि. अट्ठ. 152; - वत्त नपुं., अनुरक्त, निष्ठावान, समर्पित - त्तेन तृ. वि., ए. व. - कसावरत्तनिवासनो कण्णे तालपण्णं पिळन्धित्वा एकेन आयोगवत्तेन गीतं गायन्तो राजङ्गणेन पायासि, जा. अट्ठ. 3.395. आयोधन नपुं, आ + युध से व्यु. [आयोधन], क. युद्ध, लड़ाई, संग्राम, ख. युद्धभूमि, रणभूमि- तदा माळवरायरा अग्गहसि मुण्डिक्कारं कत्वान आयोधनं बली, चू, वं. 76.267. आर' पु., सुई, सुआ -- रो प्र. वि., ए. व. - आरोच सत्थि च आरसत्थि, बाला. 109. आर' नपुं. [आर], पीतल - स्स ष. वि., ए. व. - आरस्सेव कूटो आरकूटो, आरं पित्तलं कूटयति थूपीकरोति वा रीरित्थी आरकुटो वा, अभि. प. 492 पर सूची.. आरक त्रि., आरा से व्यु., दूरवर्ती, दूर में विद्यमान, समीप में नहीं स्थित - को पु., प्र. वि., ए. व. - आरकाहं, ...., अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय साचरियको ति, दी. नि. 1.89; सीलब्बतपरामासो आरको होति, अ. नि. 2(2).273; - का' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सक्कायदिट्टि आरका होति, अ. नि. 2(2).273; - का' पु., प्र. वि., ब. व. - आरकास्स होन्ति पापका अकसला धम्मा, म. नि. 1.352; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).47. आरककिलेस त्रि., ब. स., वह, जिसके चित्त से क्लेश बहुत दूर चले गए हैं, क्लेशों से रहित - सो पु., प्र. वि., ए. व. - अरहन्ति आरककिलेसो दरकिलेसो पहीनकिलेसोति अत्थो , म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).46. आरकण्टक पु./नपुं., शा. अ., सुई का नुकीला अग्रभाग, विशेष अर्थ, ग्रन्थों के लिखने आदि में प्रयुक्त तीक्ष्ण अग्रभाग वाली कलम - कं' प्र. वि., ए. व.- आरकण्टकं नाम, अयं पिप्फलको नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1),405; आरकण्टकं नाम पोत्थकादि अभिसङ्घारणत्थं कतदीघमुख सत्थकन्ति वदन्ति, वि. वि. टी. 1.147; - कं द्वि. वि., ए. व. - आरकण्टकं, पिप्फलिक, नखच्छेदनं सूचिं. ... सब्ब अदासि, दी. नि. अट्ठ. 2.201; - के सप्त. वि., ए. व. -- आरकण्टकेपि वट्टमणिकं वा अझं वा वण्णमटुं न वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.234; - को पु., प्र. वि., ए. व. - आरकण्टको पोत्थकादि करणसत्थकजाति वजिर. टी. 100 आरकता स्त्री., आरक का भाव., दूर रखने की अवस्था, दूरवर्तिता - य तृ. वि., ए. व. - किलेसेहि आरकताय अरियं ध. प. अट्ठ. 2.158. आरकत्त नपुं., आरक का भाव., उपरिवत्, क. अरहा की व्यु. के सन्दर्भ में प्रयुक्त - त्ता प. वि., ए. व. - सत्तन्न धम्मानं आरकत्ता अरहा होती ति, अ. नि. 2(2).273; किलेसेहि आरकत्तादिना अरह, थेरगा. अट्ठ. 1.339; ख. 'अरिय' की व्यु. के सन्दर्भ में प्रयुक्त, - त्ता प. वि., ए. व. - किलेसेहि आरकत्ता अरियो, दी. नि. अट्ठ. 3.225; किलेसानं आरकत्ता अरियो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).220. आरकभाव पु., उपरिवत्, - वं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा इमस्स साचरियकस्स तेसं पटिपत्तितो आरकभावं दस्सेतं. दी. नि. अट्ठ. 1.221. आरका अ०, प./सप्त. वि., प्रतिरू. निपा., आरक का प. वि. [आरकात्],- आरा दूरा च आरका, अभि. प. 1157; 1. क्रि. वि. के रूप में, दूर से, दूर में, दूरी से, फासले पर - आरका परिवज्जेय्य, गूथट्टानंव पातुसे, थेरगा. 1156%; तं आरका दूरतोव परिवज्जेय्य, थेरगा. अट्ठ. 2.412; ...., भिक्खुं सइन्दा देवा सब्रह्मका सपजापतिका आरकाव नमस्सन्ति, स. नि. 2(1).84; आरकाव नमस्सन्तीति दूरतोव नमस्सन्ति, दुरेपि ठितं नमस्सन्तियेव आयस्मन्तं नीतत्थेर विय, स. नि. अट्ठ. 2.263; 2. पूर्वसर्ग के रूप में, क. द्वि. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ, दूर में, फासले पर, दूरस्थ - आरका इमं धम्मविनयं, क. व्या. 277; ख. तृ./प. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ - आरकाव सङ्घम्हा, सङ्घो च तेन, चूळव. 3963; ग. ष. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ, दूर में, दूरस्थ - तस्स पुरिस्स For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरकूट 161 आरक्खगहणत्थ आरकावस्स चेतना आरका पत्थना आरका पणिधि, स. नि. 1(2).88; आरकावस्साति दूरेयेव भवेय्य, स. नि. अट्ठ. 2.98. आरकूट पु./नपुं.. [आरकूट]. तीन प्रकार की मिश्रित धातुओं में एक, पीतल - टो/टं पु./नपुं. प्र. वि., ए. व. - रीरित्थी आरकुटो वा, अभि. प. 492; कंसलोह, वट्टलोहं, आरकुटन्ति तीणि कित्तिमलोहानि नाम, विभ. अट्ठ. 60; तीणि हि कित्तिमलोहानि कंसलोहं, वट्टलोह आरकूटन्ति ... रसकतम्बे मिस्सेत्वा कतं आरकूट कङ्ग्रा. अभि. टी. 390; - मय त्रि., पीतल से बना हुआ - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आरकूटमयं सुवण्णवणं आभरणजातं. स. नि. अट्ठ. 2.177; - लोह नपुं, कर्म, स., तीन प्रकार की मिश्रित लौहधातुओं में से एक - हं प्र. वि., ए. व. - आरकूटलोहन्ति सुवण्णवण्णो कित्तिमलोहविसेसो, विनया. टी. 1.68. आरक्ख'/आरक्खा पु./स्त्री., [आरक्षा, स्त्री.], सुरक्षा, संधारण, देखरेख, रखवाली, निगरानी - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - आरक्खो वा सो ते न भविस्सती ति, पारा. 18; आरक्खोति अन्तो च बहि च रत्तिञ्च दिवा च आरक्खणं, पारा. अट्ठ. 1.162; मच्छरियं पटिच्च आरक्खो , दी. नि. 2.46; - क्खा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आचरियेन। अन्तेवासिम्हि सततं समितं आरक्खा उपट्टपेतब्बा, मि. प. 105; - क्खं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - आरक्खं याचति, पाचि. 301; सत्तानुरक्खणं, महाराज, परित्तं अत्तना कतेन आरक्खं जहति, मि. प. 153; - क्खेन पु., तृ. वि., ए. व. - तं आरक्खेन गुत्तिया सम्पादेस्साम, अ. नि. 2(1).33; -स्स पु., ष. वि., ए. व. - आरक्खस्स, यदिदं मच्छरियं, दी. नि. 2.46; - क्खाय' स्त्री., तृ. वि., ए. व. - भगवतो ओवादे ठितानं एदिसाय आरक्खाय करणीयं, थेरगा. अट्ठ. 1.46; - क्खाय' च. वि., ए. व. - छन्नं इन्द्रियानं आरक्खाय सिक्खति, स. नि. 2(2).179-80; - खे पु., सप्त. वि., ए. व. -- सब्बसो आरक्खे असति, दी. नि. 2.46; स. प. के अन्त., आरक्खत्थाय भण्डस्स, निधानकुसलं नरं, अप. 1.41. आरक्ख' पु.. रक्षा करने वाला, रखवाला, देखरेख रखने वाला - क्खो प्र. वि., ए. व. - रथस्स आरक्खो सारथि नाम योग्गियो, स. नि. अट्ट. 3.158; पिटकत्तयधम्मभण्डस्स आरक्खो रक्खको पालको, अप. अट्ठ. 1.296. आरक्खक त्रि., आ + रक्ख + क से व्यु. [आरक्षक], शा. अ., रखवाला, रक्षा करने वाला, संधारण करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे आरक्खका देव सुखं यन्तु नवं नवं सद्द. 3.928; आरक्खका पटिच्छन्ना हुत्वा तस्स सन्तिकं आगच्छन्ते ओलोकन्ति, जा. अट्ठ. 4.27; - के पु., द्वि. वि., ब. व. -- पटिसत्तुं निवारेतुं योजेत्वारक्खके जने, चू. वं. 94.8; आरक्खके खग्गेन पहरन्तो, जा. अट्ठ. 4.135; विशेष अर्थ, पु., विहार में नियुक्त रक्षाधिकारी - क्खके द्वि. वि., ब. व. - आरक्खके च हत्थिभण्डे च उपट्टापेसि, अप. अट्ठ. 1.85; - कानं च./ष. वि., ब. व. - लाभग्गामं अदा तस्सारक्खकानं महेसिया, चू. वं. 42. 61; - जेट्ठक पु., तत्पु. स., रक्षा करने वालों के बीच सभी से वरिष्ठ या ज्येष्ठ - को प्र. वि., ए. व. - आरक्खकजेट्ठको एकोव नदन्तो वग्गन्तो पहरित्चा, ..., जा. अट्ठ. 2.278; - देवता स्त्री०, कर्म. स., रक्षा करने वाला देवता, अधिष्ठाता देवता - ता प्र. वि., ब. व. - तेसं सुत्वा आरक्खदेवता धि-कारं अकंसु. स. नि. अट्ठ. 1.192; - पुरिस पु., कर्म स., द्वारपाल, रखवाला, सिपाही - सेहि तृ. वि., ब. व. - चोरो पापधम्मो घरसन्धिं छिन्दन्तो सन्धिमुखे आरक्खकपुरिसेहि गहितो, थेरगा. अठ्ठ 2.253. आरक्खकम्मनाथ पु., व्य. सं., एक प्रधान रक्षाधिकारी का नाम - थं द्वि. वि., ए. व. - आरक्खकम्मनाथं च तथा कञ्चुकिनायक, चू. वं. 72.58. आरक्खकारण/आरक्खाकरण 1. नपुं., रखवाली या सुरक्षा करने का काम, रखवाली, सुरक्षा-कर्म - णं द्वि. वि., ए. व. - उप्पलवण्णस्स आचिक्खि दीपं आरक्खकारणं दी. वं. 9.24; स. प. के रूप में, – आरक्खाकरणत्थाय दक्खिणस्मिं दिसन्तरे, चू. वं. 88.22; 2. - णा प. वि., प्रतिरू. निपा., रखवाली करने के कारण से - आरक्खाधिकरणन्ति आरक्खकारणा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).369. आरक्खकिच्च नपुं., तत्पु. स. [आरक्षाकृत्य], रक्षा करने का कार्य, रखवाली का काम - च्चं प्र. वि., ए. व. - भगवतो वा आरक्खकिच्चं अत्थीति? स. नि. अट्ट, 2.125. आरक्खगहणत्थ पु., तत्पु. स., निगरानी अथवा देखभाल रखने का प्रयोजन - त्थं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि., निगरानी रखने के लिए - देवदत्तो सत्थरि पदुद्दचित्तो अनत्थम्पि कातुं उपक्कमेय्या ति आरक्खग्गहणत्थं स. नि. अट्ठ. 2.125. For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरक्खगोचर 162 आरक्खपुरिस आरक्खगोचर पु., कर्म. स./त्रि., ब. स., अच्छी तरह से रक्षित अथवा नियन्त्रित इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषयों का क्षेत्र, इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य रूप आदि ऐसे विषय जिनके ग्रहण के लिए इन्द्रियों के द्वार सुरक्षित कर लिए गए हैं, वह भिक्षु, जिसने अपने इन्द्रिय द्वारों का रूप आदि विषयों के अनियन्त्रित ग्रहण पर नियन्त्रण कर लिया है - रो पु., प्र. वि., ए. व. - यो भिक्खु अन्तरघरं पविट्ठो... न दिसाविदिसा पेक्खमानो गच्छति, अयं आरक्खगोचरो, इतिवु. अट्ठ. 2693; गोचरो पन उपनिस्सयगोचरो आरक्खगोचरो उपनिबन्धगोचरोति तिविधो, उदा. अट्ठ. 182. आरक्खडान नपुं., तत्पु. स. [आरक्षास्थान], 1. सैनिकों अथवा रक्षकों की चौकी, वह स्थान, जहां रक्षक अथवा रक्षासाधन मौजूद हों, 2. रक्षा करने योग्य स्थान - नं' प्र. वि., ए. व. - इदं पन अरओ आरक्खट्टानं नाम सङ्कघाततोपि गरुकतरं पारा. अट्ठ. 1.275; - नं द्वि. वि., ए. व. - अभिपारको अत्तनो आरक्खट्टानं गच्छन्तो, जा. अट्ठ. 5.201; - ने सप्त. वि., ए. व. - आरक्खट्ठाने बहि सुनखानं ओकासो नत्थि, जा. अट्ट, 1.176. आरक्खति आ + रक्ख का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आरक्षति]. रक्षा करता है, संधारण करता है, निगरानी रखता है, देखभाल करता है - तो पु., वर्त. कृ., ष. वि., ए. व. - तस्स एवं आरक्खतो गोपयतो ते भोगा विप्पलज्जन्ति, महानि. 113; - क्खिं अद्य., उ. पु., ए. व. - नारक्खिं मम जीवितं, चरिया. (पृ.) 390; जीवितं पन नारक्खिं चरिया. अट्ट, 141; - क्खितुं निमि. कृ. - आरक्खितुं जनपदं सम्पन्नबलवाहनं, म. वं. 24.2; आरक्खितुं जनपदं ति आदमिळपरिस्सया आदीघवापितो वा ओरं रोहणजनपद रक्खणत्थाय राजपुत्तं तिस्स दीघवापिम्ह वासयी ति अत्थो, म. वं. टी. 422 (ना.). आरक्खदायक पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम, अप. की कतिपय गाथाओं का रचयिता एक कवि-स्थविर - इत्थं सुदं आयस्मा आरक्खदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.225; अप. 1.272. आरक्खदुक्खमूल नपुं.. तत्पु. स., रक्षा करने के दुख की जड़, रखवाली करने अथवा नियंत्रित करने के दुख का मूल कारण - लं नपुं. प्र. वि., ए. व. - आरक्खदुक्खमूलं उपादानं सम्पत्तविसयग्गहणभावतो, विसुद्धि. महाटी. 2.308. आरक्खदेवता स्त्री०, कर्म. स., अधिष्ठाता देवता, रक्षक देवता - ता प्र. वि., ब. व. - ततो आरक्खदेवता, अथापि परचित्तविदुनियो देवता, पारा. अट्ठ. 1.165; आरक्खदेवताति तस्स आरक्खत्थाय ठिता देवता, सारत्थ. टी. 2.13. आरक्खन/आरक्खण नपुं., आ + रक्ख से व्यु., क्रि. ना. [आरक्षण], रखवाली, सुरक्षा, देखभाल - णं' प्र. वि., ए. व. - आरक्खोति अन्तो च बहि च रत्तिञ्च दिवा च आरक्खणं, पारा. अट्ठ. 1.162; - णं' द्वि. वि., ए. व. - उप्पन्नानं भोगानं आरक्खणञ्च करोति परिभोगनिमित्तञ्च, नेत्ति. 36; - णे सप्त. वि., ए. व. - आरक्खणे असन्तम्हि, लद्धं लद्ध विनस्सति, अभि. अव. 884; - त्थ पु., रक्षा का प्रयोजन - त्थाय च. वि., ए. व. - बोधिसत्तस्स आरक्खणत्थाय उपगन्त्वा सिरीगभं पविट्ठा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.131; - द्वान नपुं.. तत्पु. स. [आरक्षणस्थान], रक्षा प्रदान करने का स्थान, रक्षा करने योग्य स्थान, नियन्त्रित करने योग्य विषय - नं प्र. वि., ए. व. - इदमारक्खणट्ठानं गरुकं सुङ्कघाततो, विन. वि. 172. आरक्खनिमित्त नपुं, तत्पु. स., संधारण अथवा संरक्षण वाला कारण, सुरक्षित बनाए रखने का कारण - उप्पन्नानं भोगानं आरक्खनिमित्तं परिभोगनिमित्तञ्च, पमादं आपज्जति ...., नेत्ति. 35. आरक्खनिरोध पु., तत्पु. स. [आरक्षानिरोध], रखवाली अथवा निगरानी की समाप्ति या अन्त -धा प. वि., ए. व. - सब्बसो आरक्खे असति आरक्खनिरोधा, दी. नि. 2.46. आरक्खपच्चुपट्ठान त्रि., ब. स., सुरक्षा अथवा संधारण के रूप में उदित होने वाला, सुरक्षा को उपस्थित कराने वाला - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सति ... आरक्खपच्चुपट्टाना, विसुद्धि. 1.156; किलेसेहि आरक्खा हुत्वा पच्चुपतिद्वति, ततो वा आरक्खं पच्चुपट्टपेतीति आरक्खपच्चुपट्टाना, विसुद्धि. महाटी. 1.175. आरक्खपत्ति स्त्री., तत्पु. स., सुरक्षा की संज्ञा, संरक्षण का नाम - त्ति प्र. वि., ए. व. - आरक्खपत्ति कुसलानं धम्मानं, नेत्ति. 51. आरक्खपरिवार पु., तत्पु. स., अङ्गरक्षक, रक्षकों का घेरा - रेन तृ. वि., ए. व. – तत्थ अभिसरेनाति आरक्खपरिवारेन, जा. अट्ठ. 5.370. आरक्खपुरिस पु., कर्म. स., रक्षा करने वाला पुरुष, संरक्षक, सिपाही, सैनिक - सो प्र. वि., ए. व. - आरक्खकपुरिसोपि सयितो कुमारो, सु. नि. अट्ठ. 1.83; - सा प्र. वि., ब. व. - पुनदिवसे आरक्खपरिसा आगन्वा For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरक्खमनुस्स 163 आरग्ग तं पवत्तिं रो आरोचेसुं, जा. अट्ठ. 4.27; - सेहि तृ. वि., समन्नागतो, स. नि. अट्ठ. 2.274; - न्ना पु., प्र. वि., ब. ब. व. - आरक्खपुरिसेहि अनुबद्धो, थेरगा. अट्ठ. 1.260. व. - सक्यराजूनं मङ्गलपोक्खरणी अहोसि पासादिका आरक्खमनुस्स पु., कर्मस, उपरिवत् - स्सा प्र. वि., ब. आरक्खसम्पन्ना, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.1. व. - आरक्खमनुस्सा रत्तिं ओभासं दिस्वा, महेसक्खा आरक्खसारथि पु., कर्म. स., शा. अ., रक्षक सारथि, देवता... करिंसु, स. नि. अट्ठ. 3.24; - स्से द्वि. वि., ब. सावधान मन वाला रथ चालक, ला. अ., स्मृति, चित्त की व. - आरक्खमनुस्से उपसङ्कमित्वा, जा. अट्ठ. 2.272; - जागरूकता, अप्रमाद – थि प्र. वि., ए. व. - हिरी ईसा स्सेहि तृ. वि., ब. व. - आरक्खमनुस्सेहि निरोकासे ___ मनो योत्तं, सति आरक्खसारथि, स. नि. 3(1).6; ठाने खग्गं सन्नरिहत्वा, जा. अट्ठ. 1.257; - स्सानं ष. आरक्खसारथीति मग्गसम्पयुत्ता सति आरक्खसारथि स. वि., ब. व. - आरक्खमनुस्सानं भयजननत्थं, जा. अट्ठ. नि. अट्ठ. 3.158. 1.436. आरक्खसुत्त नपुं., अ. नि. का एक सुत्त जिसमें चित्त की आरक्खमूलक त्रि., ब. स., वह, जिसकी जड़ में रक्षा जागरूकता को सर्वोत्तम सुरक्षा कहा गया है, अ. नि. अथवा आरक्षण का भाव रहे, असुरक्षा की भावना से जनित 1(2).137. - कं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आरक्खमूलकम्पि दुक्खं आरक्खाधिकरणं अ., क्रि. वि., चित्त की जागरुकता के दोमनस्सं पटिसंवेदेति, महानि. 113; आरक्खमूलकन्ति फलस्वरूप, चित्त की सुरक्षा करने के कारण - रक्खणमूलकम्पि, महानि. अट्ठ. 222.. आरक्खाधिकरणं दण्डादानसत्थादान ... अनेके पापका आरक्खयट्ठि स्त्री., तत्पु. स. [आरक्षायष्टि], अपनी रक्षा के ___ अकुसला धम्मा सम्भवन्ति, दी. नि. 2.46; आरक्खाधिकरणन्ति लिए रखी जाने वाली छड़ी या लाठी - हिं द्वि. वि., ब. __ भावनपुंसकंआरक्खहेतूति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.80. व. -- दण्डोति आरक्खयहिँ सन्धाय वुत्तं, जा. अट्ट. 2.341; आरक्खित त्रि., आ + रक्ख का भू. क. कृ. [आरक्षित], - यं सप्त. वि., ए. व. - उस्सीसके ठपितआरक्खयष्टियं सुरक्षित, वह जिसकी पूरी तरह से रक्षा की गई है, पूर्णतया पतिहासि, जा. अट्ठ. 2.337; मणिम्हि दिन्ने आरक्खयद्वियं रक्षित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आरक्खितो अमच्चेहि पतिट्टहि, तदे.. यथाट्टानं महीपति, म. वं. 29.23; आरक्खितो गहितारक्खो आरक्खसंविधान नपुं, तत्पु. स., रक्षा का प्रबन्ध, संरक्षण महीपति, म. वं. अट्ठ, 478 (ना.). का प्रदान – नेन तृ. वि., ए. व. - आरक्खसंविधानेन आरक्खित्थी स्त्री., कर्म. स., रक्षा करने का काम कर रही रक्खितत्ता रक्खितं, पारा. अट्ट, 1.241; स. प. के अन्त. नारी --- त्थिया ष. वि., ए. व. - कचवरं सङ्कड्डित्वा - देवताहि कतारक्खसंविधानो, बु. वं. अट्ठ. 151. आरक्खित्थिया उपरि छड्डेसि, जा. अट्ठ. 1.281. आरक्खसति त्रि., तत्पु. स., सुरक्षित रखने की जागरूकता आरग्ग नपुं., [आराग्र], सुई का नुकीला शिरा, सुई का से युक्त - नो पु.. प्र. वि., ब. व. -- विहस्थ आरक्खसतिनो, अग्रभाग, टेकुआ का अग्रभाग – ग्गं प्र. वि., ए. व. - अ. नि. 2(1).129; आरक्खसतिनोति द्वाररक्खिकाय सतिया आरग्गमिव कंसपत्तं, ध. स. अट्ठ. 407; - ग्गेन तृ. वि., समन्नागता, अ. नि. अट्ठ. 3.45.. ए. व. - सब्बत्थ आरग्गेन लेखा दिन्ना होति, पारा. अट्ठ. आरक्खसम्पदा स्त्री., तत्पु. स., आरक्षण अथवा चित्त की 1.232; आरग्गेन निखादनग्गेन, वजिर. टी. 109; - ग्गा जागरूकता की सम्पत्ति - दा प्र. वि., ए. व. - कतमा प. वि., ए. व. - ... पातितो, सासपोरिव आरग्गा, ध. प. च, ब्यग्घपज्ज, आरक्खसम्पदा? इध, ब्यग्घपज्ज, 407; आरग्गाति यस्सेते रागादयो किलेसा, अयञ्च कुलपुत्तस्स भोगा होन्ति उद्यानविरियाधिगता बाहाबलपरिचिता, परगुणमक्खनलक्खणो मक्खो आरग्गा सासपो विय पातितो. सेदावक्खित्ता, धम्मिका धम्मलद्धा, अ. नि. 3(1).110. ध. प. अट्ठ. 2.387; - ग्गे सप्त. वि., ए. व. - आरग्गेरिव आरक्खसम्पन्न त्रि, तत्पु. स., रक्षा के साधनों से युक्त, सासपो, ध. प. 401; यथा च आरग्गे सासपो न उपलिम्पति अच्छी तरह से रक्षित, हर तरह के रक्षा-साधनों से भरपूर न सण्ठाति, ध. प. अट्ठ. 2.379; - कोटि स्त्री., सुई का - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - गहपति ... अवो महद्धनो नुकीला शिरा - या ष. वि., ए. व. - आरग्गकोटिया महाभोगो, सो च आरक्खसम्पन्नो, स. नि. 2(1).103; पतनमत्ते ओकासे, अ. नि. अट्ठ. 2.40; -- नित्तुदनमत्त आरक्खसम्पन्नोति अन्तो आरक्खेन चेव बहिआरक्खेन च त्रि., सुई के अग्रभाग की चुभन मात्र वाला - त्ते नपुं, For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरचयारचया 164 आरञ्जक सप्त. वि., ए. व. - आरग्गनित्तुदनमत्ते ठाने उपरिमकोटिया, अ. नि. अठ्ठ. 2.34. आरचयारचया/आरजयारजया व्यु., संदिग्ध, संभवतः, आ + रज के पू. का. कृ. की आवृत्ति से व्यु., पुनः पुनः खींचकर, पुनः पुनः काटकर, पुनः पुनः छिन्न भिन्न कर - गहेत्वा, आरजयारजया विहनन्ति, सु. नि. 678; ... आरजयारजया विहनन्तीति ... एककमेक, कोटिं छिन्दत्वा विहनन्ति, छिन्नछिन्ना कोटि पुनप्पुन समुद्वाति, आरचयारचया तिपि पाठो, सु. नि. अट्ठ. 2.182. आरज्झति आ + राध का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आराध्यति], सम्पन्न करता है, कार्यान्वित करता है, पूरा करता है - रो भाग्यमारज्झति, मो. व्या. 2.27. आरजति आ + रज का वर्त, प्र. पु., ए. व., भेदता है, छिन्न-भिन्न कर देता है, खरोचता है- नागो दन्तेहि भमि रञ्जति, आरजति, सद्द. 2.349. आरञ्जनट्ठान नपुं.. आ + रज से व्यु., क्रि. ना., उच्छेद, तोड़ या समाप्ति का स्थान - नं प्र. वि., ए. व. - सिक्खत्तयसङ्गहं ... तेभूमकधम्मानं आरञ्जनहानन्ति पि वुच्चती ति, सद्द. 2.349; नेत्ति. अट्ठ. 191. आरञ्जित त्रि., आ + रज का भू. क. कृ., तोड़ दिया गया, वह, जिसे छिन्न-भिन्न कर दिया गया है, काट डाला गया - तं नपु., प्र. वि., ए. व. - तस्स महावजिरञाणसब्ब ताणदन्तेहि आरञ्जितं, नेत्ति. अट्ट. 191; - तानि प्र. वि., ब. व. - उच्चा च दन्तेहि आरञ्जितानि, म. नि. 1.239; आरञ्जितानीति सत्तट्टरतनब्बेधे वटरुक्खादीनं खन्धप्पदेसे फरसना पहतवानं विय दाह्राहि छिन्नट्ठानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).100; - ट्ठान नपुं॰, कर्म. स., काट डाला गया स्थान, विनष्ट कर दिया गया तत्त्व - नं प्र. वि., ए. व. - तथागतस्स आणदाठाय आरञ्जितद्वानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).117. आरञ त्रि., अरज्ञ से व्यु. [आरण्य], वन के साथ जुड़ा हुआ, अरण्य से सम्बद्ध, जंगली, वनवासी-ज' पु., द्वि. वि., ए. व. - कदाहं नन्दं पस्सेय्यं, आरचं पंसकलिक. स. नि. 1(2).255; - अं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अरनं रुक्ख मूलं, पु. प. 169; -- देव पु., तत्पु. स. [आरण्यदेव], वन का देवता - वा प्र. वि., ब. व. - आरञ्जदेवा तरुपब्बता च, महिंसु नेकेहि सुविम्हयेहि, समन्त. 492; - वन नपुं, घना जंगल, बीहड़ जंगल-नं द्वि. वि., ए. व. - कुदालपिटकं आदाय अरञ्जवनं अज्झोगाहति, दी. नि. 1.88. आरञक/आरञिक त्रि., अरञ से व्यु. [आरण्यक], शा. अ., अरण्य अथवा वन से सम्बन्धित (शील, व्रत आदि) वन में स्थित (विहार, निवासस्थान) वन में उत्पन्न अथवा वन में रहने वाला (नाग, मृग, सिंह आदि), ला. अ., आरज्ञक-धुतङ्ग को पालन कर रहा, वन में एकान्तवास की चर्या कर रहा तपस्वी भिक्षु अथवा स्थविर - को पु., प्र. वि., ए. व. - आरुञ्जको विहारो, मो. व्या. 4.25; यो इच्छति, आरञिको होत, चूळव. 336; आरञिको होतीति गामन्तसेनासनं पटिक्खिपित्वा आरञिकधुतङ्गवसेन अरञवासिको होति, पारा. अट्ठ. 1.159; सेय्यथापि, सारिपुत्त, आरञ्जको मिगो मनुस्से दिस्वा... थलेन थलं संपतति, म. नि. 1.112-113; आरञकोति अरज्ञ जातवद्धो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).359; “इमं गामं निस्साय कोचि आरञ्जको विहारो अत्थी ति पुच्छि, ध. प. अट्ट, 1.9; आरञिकोति समादिन्नआरञिकधुतङ्गो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.69; - कं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - आरञकं नाम सेनासनं पञ्चधनुसतिक पच्छिम, पारा. 391; - कं' पु., द्वि. वि., ए. व. - आरञकं नाग अतिपस्सित्वा. म. नि., 3.173; - कं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आरञकं सेनासनं अगमंसु, पाचि. 239; - केन पु., तृ. वि., ए. व. - अनुजानामि, भिक्खवे, आरचिकेन ... अनिस्सितेन वत्थु, महाव. 117; - स्स च./ष. वि., ए. व. - आरञ्जिकरस एकस्सार सेरिविहारेन, म. नि. 2.143; - का पु., प्र. वि., ब. व. - तिसमत्ता पावेय्यका भिक्खू सब्बे आरञिका, सब्बे ... संम्भावेतुं, महाव. 330; धुतङ्गसमादानवसेन आरञिका, न अरञवासमत्तेन, महाव. अट्ठ. 365; - कानि नपुं०, प्र. वि., ब. व. - यानि खो पन तानि आजकानि सेनासनानि सासङ्कसम्मतानि सप्पटिभयानि, पारा. 391; - के पु., द्वि. वि., ब. व. - परसतारञके भिक्खू अज्झोगाळ्हे धुते पुणे, मि. प. 316; - केहि पु., तृ. वि., ब. क. - यथा आरञ्जिकेहि भिक्खूहि सम्मा वत्तितब्बं, चूळव. 360; - कानं' पु., च./ष. वि., ब. व. - आरञिकानं भिक्खूनं वत्तं पञपेस्सामि, चूळव. 360; - कानं नपुं., ष. वि., ब. व. - आरञकानञ्चेव सीलानं अभिनिम्मदनाय, म. नि. 3.173; - केसु नपुं., सप्त. वि., ब. व. - भिक्खू वुत्थवस्सा आरकेसु सेनासनेसु विहरन्ति, पारा. 390; स. उ. प. के रूप में उक्कट्ठा., जाति., वोसासा., सेखा. के अन्त. द्रष्ट.. For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरञकङ्ग 165 आरञिक आरञकङ्ग नपुं., तेरह धुतङ्गों में से एक, वन के निर्जन क्षेत्र में तपश्चर्या करते हुए पालन किया जाने वाला धुतङ्ग, कहीं कहीं 5 धुतङ्गों की सूची में प्रथम धुतङ्ग के रूप में भी उल्लिखित - पंसुलिकङ्गं तेचीवरिकङ्ग पिण्डपातिकङ्ग सपदानचारिकङ्ग एकासनिकङ्ग पत्तपिण्डिकङ्ग खलु पच्छाभत्तिकङ्ग आरञिकङ्ग रुक्खमूलिकङ्ग अब्भोकासिकङ्ग सोसानिकङ्ग यथासन्थतिकङ्ग नेसज्जिकङ्ग, ... तेरसहि धुतगुणेहि... पटिलभति, मि. प. 324; पञ्च धुतङ्गानि - आरञिकङ्ग, रुक्खमूलिकङ्ग, अब्भोकासिकङ्गं. सोसानिकॉ. यथासन्ततिकङ्गन्ति, दी. नि. अट्ट. 3.181; -ङ्ग' प्र. वि., ए. व. - न आरञ्जिकङ्ग समादातब्बं, चूळव. 78; आरज्ञिकङ्गन्ति अरओ निवासो सील अस्साति आरञिको तस्स अङ्ग आरञिकङ्ग, महानि. अट्ठ. 153; -ङ्ग द्वि. वि., ए. व. - आरञिकङ्ग पिण्डपातिकङ्ग पंसुकूलिकङ्ग समादियिंसु, पारा, 349; स. प. के रूप में, आरञ्जिकङ्गादीहि इच्छावचरप्पटिच्छादनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).160; - निप्फादक त्रि., आरञिकङ्ग नामक धुतङ्ग का निष्पादक - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आरञिकङ्गनिप्फादकं सेनासनं वुत्तं, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).119; - युत्तता स्त्री., भाव., आरञिकङ्ग नामक धुतङ्ग से जुड़ा हुआ होना - य तृ. वि., ए. व. - अरञकङ्गयुत्तताय अरानि, दी. नि. अट्ठ. 2.360; - काधिमुत्त त्रि., तत्पु. स., आनञिकङ्कनामक धुतङ्क के पालन में दृढ़ता से लगा हुआ- त्तो पु. प्र. वि., ए. व. - अयं पुग्गलो ... आरकिङ्गाधिमुत्तो चूळनि. 154; आरञ्जकङ्गाधिमत्तो ति आदीनि धुतङ्गसमादानवसेन वुत्तानि, चूळनि. अट्ठ. 60; - कारह त्रि., आरज्ञिकङ्ग-नामक धुतङ्गनियम को ग्रहण करने योग्य -- हे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - अरञकङ्गारहे ठाने विहारं कारापेत्वा अदासि, सा. वं. 56 (ना.). आरज्ञकत्त नपुं., आरञक का भाव. [आरण्यकत्व]. वन में निवास करने अथवा वन के साथ जुड़े हुए रहने की स्थिति, तपस्वी के रूप में वनवासी होने की अवस्था – त्तं' प्र. वि., ए. व. - अद्धमिदं, भिक्खवे, लाभानं यदिदं आरञ्जिकत्तं ... अप्पाबाधता ति, अ. नि. 1(1).53; आरञ्जिकत्तन्ति यो एस आरञिकभावो, अ. नि. अट्ठ 1.368; -- त्तं द्वि. वि., ए. व. - आरञिकत्तं अनुग्गण्हाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).158; - त्तेन तृ. वि., ए. व. -- आरञ्जिकत्तेन अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति, म. नि. 3.87; आरचिकत्तेन लोभधम्मा परिक्खयं गच्छन्ति, म. नि. 3.87 88; - स्स ष. वि., ए. व. - आरञ्जिकत्तस्स च वण्णवादी, स. नि. 1(2).180. आरञकधुतङ्ग नपुं., 13 धुतङ्गों में वह नियम, जिसका पालन वन के निर्जन क्षेत्र में रह कर तपश्चर्या के रूप में किया जाता है – ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - आगतागतानं आरोचेतं हरायमानेन आरञिकधुतङ्गन समादातब्बं, चूळव. अट्ठ. 10; आरञिकधुतङ्गं समादाय ... होन्तु, पारा. अट्ठ. 2.170; - समादान नपुं, वन में रहते हुए तपश्चर्या करने के व्रत का ग्रहण, आरज्ञिकधुतङ्ग - नामक धुतङ्ग का ग्रहण - नेन तृ. वि., ए. व. - गामन्तसेनासनं पटिक्खिपित्वा आरञकधुतङ्गसमादानेन आरञिका, थेरगा. अट्ठ. 2.411. आरकभिक्खु/आरञिकभिक्खु पु., कर्म. स. [आरण्यकभिक्षु], वन में रह कर साधना करने वाला भिक्षु, वनवासी भिक्षु- खूनं ष. वि., ब. व. - हेतुसम्पन्नताय आरज्ञकभिक्खूनं सन्तिके पब्बजित्वा, थेरगा. अट्ठ. 1.391. आरञकमग पु., तत्पु. स. [आरण्यकमृग], वन्य पशु, जंगली जानवर - गो प्र. वि., ए. व. - आरञकमगो विय हि समणब्राह्मणा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).95; आरञिक के अन्त.. आरुञकविहार पु., कर्म. स. [आरण्यकविहार], वन में स्थित विहार - रो प्र. वि., ए. व. - अस्थि नु खो, उपासक, इमस्मिं पदेसे आरञकविहारो, ध. प. अट्ठ. 1.302; - रं द्वि. वि., ए. व. - ... आरञकविहार पविसिंसु, ध, प. अट्ठ. 1.148. आरकसिक्खापद नपं., वन में रहने वाले साधकों के लिए प्रज्ञप्त शिक्षापद - दे सप्त. वि., ए. व. - आरञकसिक्खापदे आरअकं नाम सेनासनं पञ्चधनसतिक पच्छिमान्ति वुत्तं, पारा. अट्ठ. 1.240. आरज्ञकसीस पु., तत्पु. स. [आरण्यकशीर्श], "आरण्यक" का शीर्षक – सेन तृ. वि., ए. व. - विसेसतो आरञ्जकस्स, आरञकसीसेन च सब्बेसम्पि कम्मट्ठानं गहेत्वा .... खु. पा. अट्ठ. 197. आरञक से नासनाराम नपु., कर्म. स. [आरण्यकशयनासनाराम], वन्य निवासस्थान एवं आराम, वन में स्थित आराम - मं द्वि. वि., ए. व. - आरञकसेनासनारामञ्च तस्स उपचारञ्च ठपेत्वा, पाचि. अट्ठ. 147. आरञिक/अरञ्जिक/आरञक त्रि., अरज्ञ से व्यु. आरण्यक], वन के साथ जुड़ा हुआ, वन में वसने वाला, For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आरञ्जकत् वन के एकान्त में रहकर साधना करने वाला (तापस, भिक्षु आदि), ग्रामवास त्याग कर आरञ्ञिक नामक 'धुतङ्ग' का ग्रहण एवं उसका पालन करने वाला ( भिक्षु) – को पु०, प्र० वि., ए. व. - रुक्खमूले वसतीति, रुक्खमूलिको, आरञ्ञिको, सोसानिको लोके विदितो लोकिको, मो. व्या० 4.32; आरञ्ञिको साततिको, थेरगा 851; गामन्तसेनासनं पटिक्खिपित्वा आरञ्ञिकङ्गसमादानेन आरञ्ञिको, थेरगा. अट्ठ. 2.274; - कं पु०, द्वि० वि०, ए. व. आरञ्ञिकं भिक्खु सन्धाय, विसुद्धि. महाटी. 1.91; अञ्ञतरं आरञ्ञिकं भिक्खु दिस्वा..., ध. प. अ. 2.302; - केन पु., तृ. वि., ए. व. आरञ्ञिकेन गामन्तसेनासनं पहाय ., विसुद्धि. 1.70; - स्स पु०, ष. वि., ए. व. – आरञ्ञिकस्स भिक्खुनो उपज्झायो, विसुद्धि. 1.71; अस्स आरञ्ञिकस्स चित्तं विसुद्धि० महाटी. 1.91 - का पु०, प्र० वि०, ब०व० - पञ्च आरञ्ञिका, पु० प० 180; - कानं पु०, ष. वि., ब. व. -- एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं भिक्खून आरञ्ञकानं यदिदं रेवतो खदिरवनियो, अ० नि० 1 (1).32; आरञ्ञकानन्ति अरञ्ञवासीनं, अ. नि. अट्ठ० 1.174; - ङ्ग नपुं०, कर्म, स., तेरह अथवा आठ धुतङ्गों में एक, वन में रहते हुए ग्राह्य एवं पालनीय धुतङ्ग – प्र. वि., ए. व. अट्ठ धुतङ्गानि - आरञ्ञिकङ्ग, पिण्डपातिकङ्ग, पंसुकूलिकङ्ग तेचीवरिकङ्ग, सपदानचारिकङ्ग, खलुपच्छाभतिकङ्ग, नेसज्जिकङ्ग, यथासन्थतिकङ्ग, महानि० 47; - धुतङ्ग नपुं. उपरिवत् – ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - आरञ्ञिकधुतङ्गं समादाय सब्बेपि भिक्खू याव जीवन्ति ताव आरञ्ञिका होन्तु, पारा. अट्ठ. 2.170. आरञ्जिकसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2 (1).204. - 50; www.kobatirth.org - - आरत त्रि, आ + √रम से व्यु, भू. क. कृ. [आरत], किसी से विरत हो जाने वाला, अलग हो जाने वाला, विराम ले लेने वाला, हट जाने वाला - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - आरतो विरतो पटिविरतो निक्खन्तो... विहरतीति, महानि. तं द्वि. वि., ए. व. तं मं अकिञ्चनं ञत्वा, सब्बपापेहि आरतं, जा. अट्ठ. 4.335. आरति / आरती स्त्री०, आ + √रम से व्यु० [आरति ], विराम, विलगाव, हटाव, परित्याग, विरति, उचटाव ति / ती प्र. वि., ए. व. - थियं वेरमणी चेव विरत्यारति चाप्यथ, अभि. प. 160; आरती विरति, पापा, मज्जपाना च संयमो, सु. नि. 267; आरति नाम पापे आदीनवदस्साविनो 166 आरद्ध मनसा एव अनभिरंति, सु. नि. अट्ठ. 2.22; - प्पयोग पु., व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त, विराम अथवा बिलगाव के अर्थ वाले शब्दों में (प. वि. का) प्रयोग - गे सप्त. वि., ए. व. - आरतिप्पयोगे गामधम्मा कुसलधम्मा असद्धम्मा आरति विरति पटिविरति, सद्द. 3.706. आरत्त नपुं॰, भाव, व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द, 'आर' प्रत्यय से युक्त होने की स्थिति अञ्ञस्वारतं, आरत्तग्गहणेन कत्थचि अनियमं दस्सेति, क. व्या. 200; सत्थु पितुआदीनं अन्तो यो अङ्गादिसु वचनेसु आरतं आपज्जति वा, स६० 3.668. आरदन्त नपुं, तत्पु० स० [आरदन्त], पीतल का दांत न्ते द्वि. वि., व आरदन्ते पि खादन्ति, पञ्च. ग. दी. 32 (रो.). - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आरद्ध' त्रि. आ + √रभ से व्यु., भू. क. कृ. [आरब्ध], 1. कर्तृ. वा. में, प्रारम्भ कर चुका, प्रारम्भ किया हुआ, क. निमि. कृ. के साथ अन्वित - द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. - पण्णानि खादितुं आरद्धो, जा० अ० 1.169; अस्सारोहो अञ्ञ अस्सं सन्नहितुं आरद्धो, जा० अट्ठ. 1.179; - द्वा' स्त्री. प्र. वि., ए. व. - तस्स पन गतदिवसतो पट्ठाय ब्राह्मणी अतिचरितुं आरद्धा, जा० अट्ट. 1.473; - द्वे सप्त. वि., ए. व. - तस्मिहि अधीयितुं आरद्धे तेपि अधीयन्ति, ध. स. अट्ठ. 157; - द्धार पु०, प्र. वि., ब० व॰ - अथ नं राजपुरिसा नीहरितुं आरद्धा, जा० अट्ठ 1.176; ख. द्वि. वि. में अन्त होने वाले नाम के साथ - द्वापु०, प्र. वि., ब. इमे भिक्खू विवाद आरद्धा, म. नि. अट्ठ (मू०प०) 1 (2). 288; ग. 'इति' के साथ, द्धा पु०, प्र. वि., ब.व. व. For Private and Personal Use Only - 1 • बाह्मणा... यञ्ञ यजित्वा पटिकम्मं करोमाति आरद्धा ति आह, स. नि. अ. 1.126; 2. कर्म वा. में, क. वह, जिसे तैयार कर दिया गया है अथवा हाथ में ले लिया गया है, व्यवस्थित कर लिया गया, बना लिया गया, सम्पादित, ख. सुदृढ़ अथवा अशिथिल बना दिया गया, पुष्ट कर दिया गया, समुत्तेजित अथवा जागृत कर दिया गया, सबल बना दिया गया - द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. - अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो आरद्धो, स. नि. 3 (1).22; द्धा स्त्री. प्र. वि., ए. व. - योनि चस्स आरद्धा होति आसवानं खयाय, स. नि. 2(2). 179; आरद्धा होतीति कारणञ्चस्स परिपुण्णं होति, स. नि. अड. 3.66; द्धं नपुं. प्र. वि., ए. व. आरद्ध खो पन मे, ब्राह्मण, वीरियं अहोसि असल्लीन, पारा 4; आरद्ध अहोसि, पग्गहितं असिथिलप्पवत्तितन्ति वृत्तं होति, 1 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आरद्ध 167 आरद्धविपस्सक पारा. अट्ठ 1.103; - द्धे पु., सप्त. वि., ए. व. - अञ्जस्मि परियाये आरद्धे, ध. स. अट्ट, 189; - द्धाय' स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - 'कित्तका विहारे समणाति गणनाय आरद्धाय, स. नि. अट्ठ. 3.83; - द्धाय स्त्री., ष. वि., ए. व. - मधुरस्सरेन आरद्धाय धम्मदेसनाय सदं सुत्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.258; - द्धा पु.. प्र. वि., ब. व. - चत्तारो इद्धिपादा आरद्धा, स. नि. 3(2).328; -द्धायो स्त्री., द्वि. वि., ब. व. - अत्तानं उद्दिस्स अत्तनो अत्थाय आरद्धायोति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.134; - द्धापरिसमत्त त्रि., व्या. के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त, प्रारम्भ कर दिया गया परन्तु समाप्त नहीं हो सका - त्ते पु., सप्त. वि., ए. व. - वत्तमाने आरद्धापरिसमत्ते अत्थे, मो. व्या. 6.1. आरद्ध त्रि., आ + vराध से व्यु.. भू. क. कृ. [आराद्ध], शा. अ., अनुष्ठित, निष्पन्न, सम्पन्न हो चुका, पूर्ण हो चुका, तैयार हो चुका, प्राप्त हो चुका, ला. अ., प्रसन्न, सन्तुष्ट -द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - अयञ्चेव लोको आरद्धो होति परो च लोको, दी. नि. 3.137; आरद्धो होति परितोसितो चेव निफादितो च, दी. नि. अट्ठ. 3.114; आरद्धो होतीति संसाधितो होति..., दी. नि. टी. 3.116; -द्धा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - या उद्दिसित्वा आरद्धा, इद्धा विनयवण्णना, परि. अट्ठ. 267; -द्धं नपुं..प्र. वि., ए. व. - अमतं तेसं. ... आरद्धं, अ. नि. 110.61; आरद्धन्ति परिपुण्णं, अ. नि. अट्ठ. 1.404. आरद्ध' आ + vराध का पू. का. कृ. [आराध्य], प्राप्त करके, पूर्ण करके, सन्तुष्ट होकर, प्रसन्न होकर - आरद्ध, आरभित्वा/आराधित्वा, क. व्या. 602. आरद्धकम्मट्ठान त्रि., ब. स. [बौ. सं. आरब्धकर्मस्थान], ध्यान के कर्म स्थानों (आलम्बनों) को ग्रहण करने का काम प्रारम्भ कर चुका (साधक)- स्स पु., ष. वि., ए. व. - "आरद्धकम्मट्ठानस्स भिक्खुनो कम्मट्ठानकारको अय"न्ति जानित्वा ..., विसुद्धि. 1.97. आरद्धकम्मन्त नपुं.. कर्म. स., प्रारम्भ कर दिया गया काम, हाथ में ले लिया गया काम - न्ता प्र. वि., ब. व. - सब्बेसं आरद्धकम्मन्ता च इच्छिता च अत्था सिद्धिमगमंसू. बु. वं. अट्ठ. 256.. आरद्धकाल पु., तत्पु. स., वह समय जब कार्य का आरम्भ किया गया है - तो प. वि., ए. व. - आरद्धकालतो पढ़ाय तुरिततुरितो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).151; आरद्धकालतो पट्ठाय परिभोगं अकासि, स. नि. अट्ठ. 3.24; - ले सप्त. वि., ए. व. - ञा आरद्धकाले... पञ्च धातुयो निय्यादेसि, सा. वं. 88(ना.). आरद्धचित्त त्रि., ब. स. [आराद्धचित्त, प्रसन्न अथवा आनन्दित चित्त वाला, सन्तुष्ट चित्त वाला - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - आरद्धचित्तो उपसम्पदं अनुजानि, पारा. अट्ठ. 1.190; आरद्धचित्तोति आराधितचितो, सारत्थ. टी. 2.46; - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - आरद्धचित्तेन भगवता अनुज्ञातउपसम्पदा..., थेरगा. अट्ठ.2.453; - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. -- आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति, उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय, दी. नि. 1.159; आरद्धचित्ताति अढवत्तपूरणेन तुट्टचित्ता, दी. नि. अट्ठ. 1.269. आरद्धञ्जस नपुं., कर्म. स., ऐसा सीधा मार्ग, जिस पर चलना प्रारम्भ कर दिया गया है, गृहीत सरल मार्ग - सा तृ. वि., ए. व. - तेनारद्धञ्जसा धीरो याचित्वान पदेसक, जिन. च. 41(रो.). आरद्धत्त नपुं., आरद्ध का भाव., सन्तुष्टि, आनन्द या हर्ष से परिपूर्ण होना - त्ताय च. वि., ए. व. - आरद्धत्तायेव च मे तं असल्लीनं अहोसि, पारा. अट्ट, 1.103. आरद्धबलवीरिय त्रि०, ब. स., प्रबल शक्ति एवं उत्साह से भरपूर, सुदृढ़ बल एवं वीर्य से युक्त - यो पु., प्र. वि., ए. व. - सतिमा पञ्जवा भिक्खु, आरद्धबलवीरियो, थेरगा. 165; सद्धादिबलानञ्चेव चतुबिधसम्पप्पधानवीरियस्स च संसिद्धिपारिपुरिया आरद्धबलवीरियो, थेरगा. अट्ठ 1.316. आरद्धभाव पु., कर्म. स. [आरब्धभाव], आरम्भ कर देने की अवस्था, प्रारम्भ कर देना - वं द्वि. वि., ए. व. - तेसं विपस्सनाय आरद्धभावं ञत्वा, अ. नि. अट्ठ. 1.34. आरद्धभावन त्रि., ब. स., वह, जिसने ध्यानभावना करना प्रारम्भ कर दिया है - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अरहत्तं पापुणितुं आरद्धभावनस्स कायपरिळाहादीनं उप्पत्तिं वारेत्वा ..., स. नि. अट्ठ. 3.237. आरद्धयञ्ज पु., कर्म. स. [आरब्धयज्ञ], प्रारम्भ कर दिया गया यज्ञ, अनुष्ठित किया जा रहा यज्ञ-विधान - जो प्र. वि., ए. व. - भिक्खूहि रुओ आरद्धयओ तथागतस्स __ आरोचितो, स. नि. अट्ठ. 1.124. आरद्धविपस्सक त्रि., ब. स., विपश्यना-ध्यान को आरम्भ कर चुका (साधक), सुदृढ़ भाव से विपश्यना की भावना करने वाला (साधक), विपश्यना में शिक्षाप्राप्ति की अवस्था में विद्यमान (आर्यश्रावक) – को पु., प्र. वि., ए. व. - यस्साधिगमा आरद्धविपस्सको ति सङ्घ गच्छति, चूळनि. For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरद्धविपस्सन 168 आरद्धवीरिय अट्ठ. 91; सोतापत्तिमग्गत्थाय आरद्धविपस्सको, दी. नि. अट्ठ. 2.162; - कं द्वि. वि., ए. व. - सोतापत्तिमग्गत्थाय आरद्धविपस्सकं करोन्तो, दी. नि. अट्ट, 2.162; - केन तृ. वि., ए. व. - सीलवता आरद्धविपस्सकेन न दुक्कर अजं ब्याकातुं, पटिबलो, पारा. अट्ठ. 2.85; - कतो प. वि., ए. व. - सम्बुज्झति आरद्धविपरसकतो पढ़ाय योगावचरोति सम्बोधि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).299; - स्स ष. वि., ए. व. - अथस्स आरद्धविपस्सकस्स कुलपुत्तस्स ओभासो, चूळनि. अट्ठ. 91; - का पु., प्र. वि., ब. व. -- पञ्चसता आरद्धविपस्सका उग्घटितञ्जूपुग्गला, स. नि. अट्ठ. 2.9; - के द्वि. वि., ब. व. - योगी आरद्धविपरसके सरित्वा ..., थेरगा. अट्ठ. 2.303; - केहि प. वि., ब. व. - चतन्नं मग्गानं अत्थाय आरद्धविपस्सकेहि... समणेहि सुञा, दी. नि. अट्ठ. 2.162; - कानं ष. वि., ब. व. - आरद्धविपस्सकानम्हि अयमानिसंसो..., स. नि. अट्ठ. 3.95; - केसु पु., सप्त. वि., ब. व. - एस नयो सेसमग्गत्थाय आरद्धविपस्सकेस. दी. नि. अट्ठ.. 2.162; - भाव पु., विपश्यना भावना की शिक्षाप्राप्ति की अवस्था में होना - वं द्वि. वि., ए. व. - अथरसा सत्था आरद्धविपस्सकभावं ञत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).41. आरद्धविपस्सन त्रि., ब. स., उपरिवत् – ना पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे आरद्धविपस्सना सततं समितं रत्ति दिवेसुयुत्तपयुत्ता ..., सद्धम्म. 58; - स्स पु., ष. वि., ए.. व. - आरद्धविपस्सनानं भङ्गानुपस्सनादिसङ्घाताय तरुणविपस्सनाय, विसुद्धि. महाटी. 2.400; - त्त नपुं., भाव., विपश्यना-भावना के अभ्यास में शिशिक्षु या शिक्ष्यमाण की अवस्था - त्ता प. वि., ए. व. - थेरो पन आरद्धविपस्सनत्ता काये जीविते ..., थेरगा. अट्ठ. 1.341. आरद्धविपस्सना स्त्री., कर्म. स., सुदृढ़ विपश्यना-भावना, विपश्यना-भावना में सुदृढ़ स्थिति - नं द्वि. वि., ए. व. - ... आरद्धविपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा ..., थेरगा. अट्ट, 1.48%; - धुर त्रि., ब. स., विपश्यना-भावना के भार को वहन करने वाला, विपश्यना-भावना का अभ्यास कर रहा (साधक) - रा पु., प्र. वि., ब. व. - तस्मिं नगरे आरद्धविपस्सना धुरा महल्लका भिक्खुसहस्समत्ता अहेसु. सा. वं. 85 (ना.). आरद्धवीरिय' नपुं., कर्म. स., सुदृढ़ वीर्य, अत्यधिक प्रबल पराक्रम, स. उ. प. के रूप में, - यं प्र. वि., ए. व. - अच्चारद्धवीरियं उद्धच्चाय संवत्तति, थेरगा. अट्ठ. 2.200. आरद्धवीरिय त्रि., ब. स., शा. अ., सुदृढ़ वीर्य से युक्त, प्रबल पराक्रम से भरपूर, कठोर प्रयास करने वाला, उत्साही, अध्यवसायी, सुदृढ़ निश्चय वाला, ला. अ., चार प्रकार के सम्यक् प्रधानों का अभ्यास करने वाला अथवा उनसे युक्त (साधक)- यो पु., प्र. वि., ए. व. - आरद्धवीरियो होति, दी. नि. 3.199; सब्बसो कोसज्जपहानेन आरद्धवीरियो, थेरगा. अट्ठ. 2.291; आरद्धवीरियोति पग्गहितवीरियो, अनोसक्कितमानसो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.22; आरद्धवीरियोति पग्गहितवीरियो, परिपुण्णकायिकचेतसिकवीरियोति अत्थो, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2).51; - यं द्वि. वि., ए. व. - आरद्धवीरियं पहितत्तं, निच्चं दळहपरक्कम, निब्बानं अभिकङ्घन्तं, कस्मा पब्बजितं तपेति, स. नि. 1(1).229; आरद्धवीरियन्ति पग्गहितवीरियं परिपुण्णवीरियं, स. नि. अट्ठ. 1.254; - येन तृ. वि., ए. व. - अराधनीयो खो, आवुसो, धम्मो आरद्धवीरियेना'ति, पारा. 137; आरद्धवीरियेनाति वत्थद्वयं एकसदिसम्पिद्वीहि भिक्खूहि विसुं विसुं आरोचितत्ता भगवता विनिच्छिनितं सब्बम्पि विनीतवत्थूसु आरोपेतब्बन्ति, पाळियं आरोपितं. सारत्थ. टी. 2.259; - स्स पु., च. वि., ए. व. - आरद्धवीरियरसायं धम्मो, नायं धम्मो, कुसीतस्स, दी. नि. 3.240; आरद्धवीरियस्साति कायिकचेतसिकवीरियवसेन आरद्धवीरियस्स, दी. नि. अट्ठ. 3.227; - या पु.. प्र. वि., ब. व. - ये खो केचि भगवतो सावका आरद्धवीरिया विहरन्ति, अहं तेसं अञ्जतरो, महाव. 253; आरद्धवीरियाति परिपुण्णपग्गहितवीरिया, अ. नि. अट्ठ. 3.125; आरद्धं वीरियमेतेसन्ति आरद्धवीरिया, सम्मप्पधानयुत्तानमेतं अधिवचनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).198; - ये पु., द्वि. वि., ब. व. - आरद्धवीरिये पहितत्ते, निच्चं दळहपरक्कमे, समग्गे सहिते दिस्वा ..., थेरगा. 353; आरद्धवीरियेति चतुबिधसम्मप्पधानवसेन पग्गहितवीरिये, थेरगा. अट्ट. 2.53; - येहि पु., तृ. वि., ब. व. - निच्चं आरद्धवीरियेहि, पण्डितेहि सहावसे ति, स. नि. 1(2).140; आरद्धवीरिया परिपुण्णपरक्कम्मा आरद्धवीरियेहि, स. नि. अट्ठ. 2.126; - यानं' पु., ष. वि., ब. व. - एतदग्गं, भिक्खवे ... आरद्धवीरियानं यदिदं सोणो कोळिविसो, अ. नि. 1(1).32; आरद्धवीरियानन्ति पग्गहितवीरियानं परिपुण्णवीरियानं, अ. नि. अट्ट, 1.180; - यानं स्त्री., ष. वि., ब. व. - सत्तमे आरद्धवीरियानन्ति पग्गहितपरिषण्णवीरियानं सोणा अग्गाति दरसेति, अ. नि. अट्ठ. 1.271; - पुग्गलसेवनता स्त्री., For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरद्धवीरियगाथावण्णना 169 आरभति भाव., सुदृढ़ रूप से चार सम्यक् प्रधानों को भावना करने वाले साधकों के साथ सत्संगति – ता प्र. वि., ए. व. - एकादस धम्मा वीरियसम्बोज्झङ्गरस उप्पादाय संवत्तन्ति ... आरद्धवीरियपुग्गलसेवनता, तदधिमुत्तताति, अ. नि. अट्ठ. 1.379-80; आरद्धवीरियपुग्गलसेवनताति... भावनारम्भवसेन आरद्धवीरियानं दळहपरकमानं पुग्गलानं कालेन कालं उपसङ्कमना, विसुद्धि. महाटी. 1.147; - भाव पु., सुदृढ़ पराक्रम से युक्त होना - वेन तृ. वि., ए. व. - आरद्धवीरियभावेन नचिरस्सेव अग्गफले पतिद्विता ति, अ. नि. अट्ठ. 1.273. आरद्धवीरियगाथावण्णना स्त्री., तत्पु. स., सु. नि. तथा अप. की गाथाओं की अट्ठकथा का शीर्षक जिनमें सु. नि. के खग्गविसाणसुत्त की गाथा में आए हुए आरद्धवीरियो आदि पदों की व्याख्या की गई है, सु. नि. अट्ट, 1.95-97; अप. अट्ठ. 1.199-200. आरद्धवीरियता स्त्री., आरद्धवीरिय का भाव., सुदृढ़ पराक्रम से परिपूर्ण रहने की स्थिति, उद्योगशीलता, चार सम्यकप्रधानों का दृढ़ अभ्यास होना - तं द्वि. वि., ए. व. - एतमहं, ब्राह्मण, आरद्धवीरियतं अत्तनि सम्परसमानो, म. नि. 1.25; 'आरद्धवीरियतञ्च दरसेन्तो..., थेरगा. अट्ठ. 2.292; - य तृ. वि., ए. व. - तथा आरद्धवीरियताय थिनमिद्ध, विसुद्धि. 1.181; तथा आरद्धवीरियतायाति ... पग्गहितवीरियताय, विसुद्धि. महाटी. 1.198. आरद्धवीरियसोणत्थेरी स्त्री., एक भिक्षुणी का नाम - री प्र. वि., ए. व. - एवं पच्छा आरद्धवीरियसोणत्थेरीति पाकटा जाता, अ. नि. अट्ठ. 1.272. आरद्धसद्धाभियोग पु., तत्पु. स., प्रबल श्रद्धा के साथ लगाव - गो प्र. वि., ए. व. - पुरिमवयसि येवारद्धसद्धाभियोगो, दाठा. 4.7(रो.). आरद्धा आ + Vरभ का आलद्धा के मि. सा. पर निर्मित पू. का. कृ. [आरभ्य], प्रारम्भ करके - आरब्भा आरद्धा आरभित्वा, सद्द. 3.857. आर कामत्त नपुं., आर काम का भाव., प्रारम्भ करने की कामना वाला होना - त्ता प. वि., ए. व. - पभाते युद्धमारद्धकामत्ता न पटिग्गहि, चू. वं. 72.114. आरनाळ नपुं.. [आरनालक], कांजी, खट्टा दलिया - लं प्र. वि., ए. व. --- सोवीरं कजियं वृत्तं आरनाळ थुसोदक, अभि. प. 460; विलङ्ग वुच्चति आरनालं बिलङ्गतो निब्बत्तनतो, दी. नि. टी. 2.329; तुल. अमर. 2.9.39. आरप्पयोग पु., केवल व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्राप्त, दूर अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग (होने पर प. वि. होती है) - गे सप्त. वि., ए. व. - दिसायोगे विभत्ते आरप्पयोगे सुद्धत्थे.... क. व्या. 277; सद्द. 3.705. आरब्म आ + रभ का पू. का. कृ. [आरभ्य], शा. अ., प्रारम्भ करके - आगम्म, ... आरभ, आरभित्वा, आरद्ध, आरभित्वा, क. व्या. 602; प्रायोगिक अ., क. उत्पन्न कर के, प्रवर्तित करके, क्रियाशील बना कर - उपेक्खमारभ समाहितत्तो, सु. नि. 978; उपेक्खमारब्भ समाहितत्तोति चतुत्थज्झानुपेक्खं उप्पादेत्वा समाहितचित्तो, सु. नि. अट्ठ. 2.265; नयिदं सिथिलमारभ, नयिदं अप्पेन थामसा, निब्बानं अधिगन्तब्ब, स. नि. 1(2).252; सिथिलमारब्भाति सिथिलवीरियं पवत्तेत्वा, स. नि. अट्ठ. 2.208; ख. के विषय में, के सन्दर्भ में, के बारे में, की अपेक्षा से, को ध्यान में रख कर, 1. वि. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त - पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमूत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, दी. नि. 1.11; आरम आगम्म पटिच्च, दी. नि. अट्ठ. 1.90; बोधिसत्तस्स मग्गं आरब्भ सतिसम्मोसो अहोसी ति, मि. प. 267; 2. ष. वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त - तञ्च पन न सब्बेसं जिनपुत्तानं येव आरभ भणितं, मि. प. 173; 3. के आलोक में, पद्धति का अनुसरण करके, की दृष्टि से (वसेन के साथ अन्वित होने पर) - तत्रायं खन्धवसेन आरमविधानयोजना, विसुद्धि. 2.244; ग. आलम्बन बना कर, आधार बना कर - हेट्ठा वत्तेसु रूपारम्मणादीस रूपारम्मणं वा आरभ, आरम्मणं कत्वाति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 152. आरब्मते आ + रभ, कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आरभ्यते, प्रारम्भ किया जाता है - अत्थवण्णना आरभते. खु. पा. अट्ठ. 132; - मानो पु.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - आरममानोयेवाति कुरुमानोयेव, स. नि. अट्ठ. 3.184; - नं नपुं.. वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - सब्बं विभावयितुं आरब्भमानं विस्सज्जनं अधिप्पेतञ्चेव अत्थं न साधेय्य, विसुद्धि. 1.83. आरभति' आ + रभ का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [आरभते], 1.शा. अ., प्रारम्भ करता है, आरम्भ करता है - नं कत्तुं आरभति, करोतियेव वा, पारा. अट्ठ. 1.169; यागु सयमेव पातुं आरभति, पाचि. अट्ठ. 105; - न्ति ब. व. -- कल्याणचित्ते उप्पन्ने दातुं आरभन्ति, पाचि. अट्ठ. 69; - न्तस्स वर्त. कृ. पु, ष. वि., ए. व. - सम्मासम्बोधिं अधिगन्तुं For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरभति 170 आरभापेति आरभन्तस्सेव सतो, अ. नि. अट्ठ. 2.221; - मि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - मिगो अम्बत्थलमग्गं गहेत्वा पलायितुं आरभि, पारा. अट्ठ. 1.52; थेरो तीणि सरणानि दत्वा पञ्च सीलानि दातुं आरभि, अ. नि. अट्ठ. 2.108; - भिंसु अद्य., प्र. पु., ब. व. - अथस्स मत्थकतो धातुं ओरोपेतुं आरभिंसु, पारा. अट्ठ. 1.61; - भिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - यस्मि पन ठाने निसीदित्वा में खादितुं आरभिस्सति, ध. प. अट्ठ... 1.96; - भिस्सामि उ. पु., ए. व. - तस्मा सासनं निम्मलं कातुं आरभिस्सामी ति, सा. वं. 41 - भिस्साम उ. पु., ब. व. - आरभिस्साम कारेतुं उपसम्पदमङ्गलं. चू. वं. 89.54; - मित्वान पू. का. कृ. - युज्झितुं आरभित्वान घातेसु ते पुनप्पुनं, चू. वं. 99.132; - भितब्बं नपुं.. सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - तस्स वत्तं कातुं आरभितब्बं, चूळव. अट्ठ, 116; 2. ला. अ., हाथ में ले लेता है, निष्पादित करता है, सक्रिय हो जाता है, उद्योगशील हो जाता है, उत्पन्न करता है, उत्तेजित कर देता है, प्रेरित करता है, प्रयास करता है, व्यायाम करता है - ति वर्त, प्र. पु., ए. व. - एकच्चो पुग्गलो आरभति, न विप्पटिसारी होति, अ. नि. 2(1).156; आपत्तिवीतिक्कमनवसेन आरभति चेव, अ. नि. अट्ठ. 3.52; - भामि उ. पु., ए. व. - वीरियं आरभामि अप्पत्तस्स पत्तिया, अ. नि. 2(1).95; आरभामीति दुविधम्पि वीरियं करोमि, अ. नि. अट्ठ. 3.36; - न्ति प्र. पु., ब. व. - न वीरियं आरभन्ति, अ. नि. 1(1).87; आरभन्तीति दुविधम्पि वीरियं न करोन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.44; - थम. पु., ब. व. - तस्मातिह, भिक्खवे, भिय्योसोमत्ताय वीरियं आरभथ, म. नि. 3.124; - भाम उ. पु.. ब. व. - न नं आरभाम, विसुद्धि. 2.193; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - पन्हं आरभन्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.177; - न्तेन तृ. वि., ए. व. - पुन आरभन्तेनापि आपुच्छितब्ब, महाव. अट्ठ. 321; -- तो ष. वि., ए.व. - वीरियमारभतो दळ्हं ध. प. 112; वीरियमारभतो दळ्हन्ति दुविधज्झाननिब्बत्तनसमत्थं थिरं वीरियं आरभन्तरस,ध. प. अट्ठ. 1.390; - भेय्य विधि०, प्र. पु., ए. व. - करुणाभावनायोगमारभेय्य ततो परं, ना. रू. प. 1350; - म्भथ अनु. म. पु., ब. क. - आरम्भथ निक्कमथ, युञ्जथ बुद्धसासने, स. नि. 1(1).183; आरम्भथाति आरम्भवीरियं करोथ, स. नि. अट्ठ. 1.195; - ते वर्त, प्र. पु., ए. व.. आत्मने. - अस्मिमानस्स पहानं आरभते, पेटको. 192; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, प्र. वि., ए. व. - आरभमानो च सङ्घपतो ताव आरभति, विसुद्धि. 2.264; - म्भव्हो अनु., म. पृ. ब. व. - आरम्भव्हो दळहा होथ, खन्तिबलसमाहिता, दी. नि. 2.180; आरम्भव्हो दळ्हा होथाति एवं सन्ते वीरियं आरभथ, दी. नि. अट्ठ. 2.235; - भि अद्य., प्र. पु., ए. व. -- विपस्सनं आरभि, पाचि. अट्ठ. 61; - भिं उ. पु., ए. व. - युझिं, इदानि एको व मच्चुना युद्धमारभिं, म. वं. 32.17; - भिंसु प्र. पु.. ब. व. - तेसं दुवे वीरियमारभिंसु, दी. नि. 2.201; - मिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - न वीरियं आरभिस्सति तस्सङ्गणस्स. म. नि. 1.32; - मिस्सामि उ. पु., ए. व. - तस्स आदितो पभुति अत्थसंवण्णनं आरभिस्सामि, खु. पा. अट्ठ.3; - मिस्सन्ति प्र. पु., ब. व. - न वीरियं आरभिस्सन्ति, अ. नि. 2(1).100; - भितुं/टुं निमि. कृ. - अलमेव सद्धापब्बजितेन कुलपुत्तेन वीरियं आरभितु, स. नि. 1(2).27; आरभितुन्ति चतुरङ्गसमन्नागतं वीरियं कातुं, स. नि. अट्ठ. 2.44; - भित्वा पू. का. कृ. - ... विपस्सनं आरभित्वा नचिरस्सेव छळभिज्ञो अहोसि, थेरगा. अट्ठ. 1.77; विरियारम्भो, आरभितुं आरभित्वा आरब्भ, सद्द. 2.409; - मितब्बा स्त्री., सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - मेत्ताभावना आरभितब्बा, विसुद्धि. 1.284; - भितब्बं नपुं., सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - वीरियं आरभितब्ब, चूळव. अट्ठ. 72; - भितब्बे पु.. सं. कृ., सप्त. वि., ए. व. - निद्देसे आरभितब्बे, पारा. अट्ट, 2.167. आरभति आ + रिभ (हिंसार्थक) का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आलभते], शा. अ., दृढ़ता के साथ पकड़ लेता है, काबू में कर लेता है, ला. अ., आक्रमण करता है, मारने के लिए टूट पड़ता है, हिंसा करता है - रभति आरभति समारभति, सद्द. 2.409; - न्ति ब. व. - समणं गोतम उद्दिस्स पाणं आरभन्ति, म. नि. 2.35; आरभन्तीति घातेन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.33; - थ अनु०, म. पु., ब. व. - इमं पाणं आरभथा ति, म. नि. 2.37. आरभन नपुं., आ + रिंभ से व्यु., क्रि. ना., प्रारम्भ कर देना, आरम्भ कर देने की क्रिया-नं प्र. वि., ए. व. - आरभनं आदिकरणं आरम्भो, अभि. प. सूची 41; आरम्भधातूति आरभनवसेन पवत्तवीरियं, अ. नि. अट्ठ. 3.111; - काल पु., तत्पु. स., प्रारम्भ करने का काल - लो प्र. वि... ए. व. - ... विपस्सनाय कम्म आरभनकालो, अ.नि. अट्ट, 3.256. आरमापेति आ + Vरभ' का प्रेर., वर्त.. प्र. पु., ए. व., प्रारम्भ क राता है, प्रारम्भ करने हेतु प्रेरित करता है - पयि अद्य., For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरभियति 171 आरम्भ or. प्र. पु., ए. व. - तत्थ तत्थेव राजहि विहारे आरभापयि. म वं. 5.80; - त्वा पू. का. कृ. - कम्मानि आरभाषेत्वा लेणानि अट्ठसहियो, म. वं. 16.12; आरभाषेत्वा ति द्वारद्वपनादीनि कम्मानि पट्टपेत्वा, म. व. टी. 330(ना.). आरमियति आ + रभ के कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व., शा. अ., दृढ़ता के साथ पकड़ लिया जाता है, काबू में । कर लिया जाता है, ला. अ., मार दिया जाता है, हत्या कर दिया जाता है - मानो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - पाणो आरभियमानो दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति, म. नि. 2.37-8; आरभियमानोति मारियमानो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.37. आरमन/आरमण नपु., आ + रम से व्यु., क्रि. ना. [आरमण], 1. आमोद प्रमोद, मौज-मस्ती, अभिरति - नं प्र. वि., ए. व. - तत्थ आरमनं आरामो, अभिरतीति अत्थो.. दी. नि. अट्ठ. 3.182; 2. विरति, बिलगाव, त्याग, थम जाना - णं प्र. वि., ए. व. - आरतीति आरमणं, खु. पा. अट्ठ. 114. आरमति आ + रम का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आरमते], 1. आनन्द प्राप्त करता है, आमोद-प्रमोद से भरपूर हो जाता है, प्रसन्न होता है, सन्तुष्ट होता है - न्ति ब. व. - आरमन्ति एत्थाति आरामो, अ. नि. अट्ट, 2.330; आरमन्तीति रति विन्दन्ति कीळन्ति लळन्ति, अ. नि. टी. 2.303; एतेहि भवेहि आरमन्ति अभिनन्दन्तीति भवारामा, इतिवु. अट्ठ. 155; - मितब्ब त्रि., सं. कृ. - तो प. वि., ए. व. - सो आरमितब्बतो आरामो एतस्साति अब्यापज्झारामो, इतिवु. अट्ठ. 130; 2. छोड़ देता है, बिलग हो जाता है, हट जाता है. विरत हो जाता है - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - आरमन्ति विरमन्ति पटिविरमन्ति, महानि. 248; - मेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - कुक्कुच्चा आरमेय्य, महानि. 277. आरम्भ पु., [आरम्भ]. शा. अ., प्रारम्भ, कर्म का प्रारम्भ, शुरुआत – म्भा प्र. वि., ब. व. - आरम्भाति कम्मानं पठमारम्भा, महानि. अट्ठ. 356; - म्भ द्वि. वि., ए. व. - अकारम्भं च भिक्खूनं भोगगामे च दापयि, चू.वं. 54.40; - तो प. वि., ए. व. - निसिन्नानं वो आरम्भतो पट्ठाय याव ममागमनं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.162; - स्स ष. वि., ए. व. - आरम्भस्स च अवसानस्स च वेमज्झट्टानं, पाचि. अट्ठ. 67; ला. अ., आदिकर्म, कार्य, व्यवसाय, कृ त्य, प्रारम्भिक प्रयास, प्रयत्न, वीर्य, उत्साह, हिंसा, पापकर्म, विनय-नियमों के उलंघन से जनित अपराध या आपत्ति - अयहि आरम्भसद्दो कम्मे आपत्तियं किरियायं वीरिये हिंसायं विकोपनेति अनेकेसु अत्थेसु आगतो, महानि. अट्ठ. 331; क. आदिकर्म, प्रारम्भिक कर्म, प्रयास का प्रारम्भिक चरण, प्रबल वीर्य अथवा पराक्रम - म्मो प्र. वि., ए. व. - ... यदा बोधिसत्तो दुक्करकारिक अकासि, नेतादिसो अञत्र आरम्भो अहोसि निक्कमो..., मि. प. 230; ... चेतसिको, आरम्भो चेतना कम्म कायिका वाचसिका, पेटको. 189; - म्भं द्वि. वि., ए. व. - भगवा पदं सोधेति, नो च आरम्भ, नेत्ति 60; - म्भेन तृ. वि., ए. व. - येनारम्भेन इदं सुत्तं भासति सो आरम्भो नियुत्तो, पेटको. 298; - स्स ष. वि., ए. व. -- अत्थिक्खाताव इमस्स आरम्भस्स अनभासितं, पेटको. 238; ख. वीर्य, पराक्रम, उत्साह - म्भो प्र. वि., ए. व. - पब्बजितुं आरम्भो उस्साहो, उदा. अट्ठ. 252; - म्भा ब. व. - वियारम्भाति विविधा पुआभिसङ्घारादिका आरम्भा, महानि. अट्ठ. 355; निलु धम्मूपसंहिता, सीघं गच्छन्तु आरम्भा, परि. अट्ठ. 267; ग. आपत्ति, हिंसा, वध, मारकाट, पापकर्म – म्भा प. वि., ए. व. - बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति, दी. नि. 1.57; - म्भानं ष. वि., ब. व. - आरम्भानं निरोधेन, नत्थि, दुक्खस्स सम्भवो, सु. नि. 749; स. उ. प. के रूप में अनाधिकारवचना., अना., उपा., कम्मट्ठाना., गन्था०, आया., थिरा., थूपा., निग्गमना., निरा., पकरणा., पच्चया., पठमा., पुच्छा., पुब्बा., भावना., मरणा., महा., युद्धा., वचना., विगता., विपस्सना, विरिया. संवण्णना., सज्झाया., समा.. सम्मसना, सेसा. के अन्त., द्रष्ट; स. पू. प. के रूप में, - गहण नपुं., तत्पु. स., 'आरम्भ' शब्द का प्रयोग – णं प्र. वि., ए. व. - आरम्भमत्तं एवेत्थ न अत्थसिद्धी ति दस्सनत्थं आरम्भगहणं सद्द. 3.919; - ज त्रि., कर्मों से उत्पन्न, पापकर्मों के कारण उत्पन्न, विनय-शिक्षापदों के पालन न करने के फलस्वरूप उत्पन्न - जा पु., प्र. वि., ब. व. - आयस्मतो खो आरम्भजा आसवा संविज्जन्ति, अ. नि. 2(1).157; आरम्भजाति आपत्तिवीतिक्कमसम्भवा, अ. नि. अट्ठ. 3.52; - जे द्वि. वि., ब. व. - आरम्भजे आसवे पहायाति, अ. नि. अट्ठ. 3.52; - 8 पु., तत्पु. स., “आरम्भ” (उत्साह) का अर्थ या तात्पर्य -तुन तृ. वि., ए. व. - आरम्भट्ठन वीरियं, नेत्ति. 45; - त्त नपुं., भाव., प्रारम्भ होने की अवस्था-त्ता प. वि., ए. व. - कतारम्भत्ता नानप्पकारेन सब्बं, सद्द. 1.144; -त्थ पु., आरम्भ अथवा प्रबल उत्साह का अर्थ- त्थो For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्भति 172 आरम्मण प्र. वि., ए. व. - पमिणन्तीति एत्थ आरम्भत्थो प-सद्दोति आह तुलेतुं आरभन्तीति, अ. नि. टी. 3.106; - दळ्हता स्त्री., कर्म को प्रारम्भ किए जाने के विषय में दृढ़ता, आदि कर्म-विषयिणी दृढ़ता - ता प्र. वि., ए. व. - ... आरम्भदळहता, धीरवीरभावो ... एवमादिका सब्बापि बोधिसम्भारपटिपत्ति वीरियानुभावेनेव समिज्झतीति .... चरिया. अट्ठ. 289; - धातु स्त्री., कर्म को प्रारम्भ करने का प्रबल उत्साह, कर्म के प्रथम आरम्भ के लिए वीर्य - तु प्र. वि., ए. व. - अस्थि, भिक्खवे, आरम्भधातु निक्कमधातु, स. नि. 3(1).83; आरम्भधातूति पठमारम्भवीरियं, स. नि. अट्ठ. 3.1783; - तुं द्वि. वि., ए. व. - वीरियं नाम लभन्ति आरम्भधातुं उपादाय, पेटको. 190; - या सप्त. वि., ए. व. - *आरब्भधातुया सति आरम्भवन्तो सत्ता पञआयन्तीति, अ. नि. 2(2).53; पाठा. आरम्भधातुया; - पच्चया अ., प. वि., प्रतिरू., क्रि. वि., (पाप) कर्मों के प्रारम्भ किए जाने के फलस्वरूप - यं किञ्चि दुक्खं सम्भोति सब्ब आरम्भपच्चयाति, सु. नि. पृ. 194; - पञत्ति स्त्री., कर्म । को प्रारम्भ किए जाने का कथन, आदिकर्म की संज्ञा-त्ति प्र. वि, ए. व. - आरम्भपञति वीरियिद्रियस्स, नेत्ति. 50; - लक्खण त्रि., ब. स., उत्साह के लक्षण से युक्त - णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आरम्भलक्खणं वीरियं, नेत्ति. 25; - वत्थु नपुं.. वीर्य का आधारभूत कारण - त्थूनि प्र. वि., ब. व. - अट्ठ आरम्भवत्थूनि, दी. नि. 3.203; आरम्भवत्थूनीति वीरियकारणानि, दी. नि. अट्ठ. 3.207; -वीरिय नपुं, कर्म. स., प्रबल प्रयास, मानसिक प्रयत्न -यं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ आरम्भथाति आरम्भवीरियं करोथ, स. नि. अट्ठ. 1.195; - सुद्धि स्त्री., तत्पु. स., वीर्य अथवा कार्य-विषयक उत्साह की शुद्धि - द्धि प्र. वि., ए. व. - मनोति आरम्भो नेव पदसुद्धि, न आरम्भसुद्धि, नेत्ति. अट्ठ. 306. आरम्भति आ + आरम्भ का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आरभते], 1. प्रारम्भ करता है, दृढ़ प्रयास करता है, समुत्तेजित अथवा प्रोत्साहित करता है, सक्रिय करता है, उत्पन्न करता है, 2. पाप कर्म करता है, आपत्ति में आपतित हो जाता है। - आरम्भति च विप्पटिसारी च होती ति एत्थ आपत्ति, महानि. अट्ठ. 331; -न्ति ब. व. - आरम्भन्ति चेतसिको, पेटको. 189; - थ/व्हो अनु., म. पु., ब. व. - आरम्भथ निक्कमथ, युञ्जथ बुद्धसासने, पेटको. 217; आरम्भव्हो दळहा होथाति, दी. नि. अट्ठ. 2.235. आरम्भन नपुं., आ + आरम्भ से व्यु., क्रि. ना., प्रोत्साहन, प्रबल प्रयास, दृढ़ प्रयत्न, कठोर व्यायाम, स. प. के रूप में, - वसेन क्रि. वि., सुदृढ़ प्रयास के रूप में - वीरियहि आरम्भनवसेन आरम्भोति वुच्चति, महानि. अट्ठ, 331. आरम्भनक नपुं., आरम्भन से व्यु., उपरिवत् - वीरियहि आरभनकवसेन आरम्भोति वुच्चति, पटि. म. अट्ठ. 1.383; पाठा. आरभनकवसेन. आरम्भवन्तु त्रि., प्रारम्भ कर देने वाला, प्रबल प्रयास करने वाला, अध्यवायी, वीर्यवान् - न्तो पु., प्र. वि., ब. व. - "आरब्भधातुयासति आरब्भवन्तो सत्ता पञआयन्तीति, अ. नि. 2(2).53; पाठा. आरभवन्तो. आरम्मण नपुं., संभवतः आ + Vरम्भ से व्यु., क्रि. ना., आलम्बन अथवा आरम्मन का परिवर्तित रूप [आलम्बन], शा. अ., आश्रय, सहारा, टेक, आशय, आवास, आधार - पतिट्ठापि हि आलम्बीयतीति आरम्मणं नाम होति... अञत्थ पाळियम्पि हि पतिट्ठा "आरम्मण"न्ति वुच्चन्ति, पटि. म. अट्ठ. 2.174; या आहारहिति या पुनभवाभिनिब्बत्तिका ठिति या च पोनोभविका ठिति, अयं वुच्चति आरम्मणं पेटको. 307: अप्पटिक्खिपितब्बेन अत्तनो फलेन आलम्बियतीति आलम्बणं, प. प. अट्ठ. 289; - णं द्वि. वि., ए. व. -- "आरम्मणं ब्रूहि समन्तचक्खु यं निस्सितो ओघमिमं तरेय्यं, सु.नि. 10753; आरम्मणन्ति निस्सयं, सु. नि. अट्ठ. 2.284; आरम्मणं ब्रूहि समन्तचक्खूति आरम्मणं आलम्बणं निस्सयं उपनिस्सयं ब्रूहि ..., चूळनि. 91; ला. अ. 1., इन्द्रियों का विषय, चेतना का विषय, चित्त एवं चैतसिक धर्मों का आश्रय, गोचर, आयतन, इन्द्रियों (ग्राहकों) द्वारा ग्राह्य रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य एवं धर्म, बाह्य आयतन - णं' प्र. वि, ए. व. - आलम्बो विसयो तेजारम्मणालम्बनानि च, अभि. प. 94; इन्दोधिपतिसक्केस्वारम्मणं, हेतु गोचरे, अभि. प. 1132; ... तदेव दुब्बलपुरिसेन दण्डादि विय चित्त चेतसिकेहि आलम्बीयति, तानि वा आगन्त्वा एत्थ रमन्तीति आरम्मणं..., अभि. ध. वि. टी. 121; - णं द्वि. वि., ए. व. - "आरम्मणतो"ति पाणातिपाता वेरमणी परस्स जीवितिन्द्रियं आरम्मणं कत्वा अत्तनो वेरचेतनाय विरमति, विभ. अट्ठ. 363; - णानि ब. व. - आरम्मणानि नाम रूपारम्मणं सद्दारम्मणं गन्धारम्मणं रसारम्मणं फोट्टब्बारम्मणं धम्मारम्मणञ्चेति छबिधानि भवन्ति, अभि. ध. स. 21; ला. अ. 2. हेतु, चौबीस प्रत्ययों (पच्चयों) में से एक, कारण, तार्किक आधार - ण' प्र. वि., ए. व. - आलम्बीयति For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्मण 173 आरम्मणगहण दृब्बलेन विय दण्डादिकं चित्तचेतसिकेहि गव्हतीति आरम्मणं चित्तचेतसिका हि यं यं धम्म आरब्भ पवत्तन्ति, ते ते धम्मा तेसं तेसं धम्मानं आरम्मणपच्चयो नाम, अभि. ध. वि. 211; “यञ्च, भिक्खवे, चेतेति यञ्च पकप्पेति यञ्च अनुसेति आरम्मणमेतं होति विज्ञाणस्स ठितिया" स. नि. 1(2).59; पच्चयो हि इध आरम्मणन्ति अधिप्पेता, स. नि. अट्ठ. 2.62; आरम्मणम्पि हि बाहिरायतनानि विय इध 'बहिद्धा ति वृत्तं, पटि. म. अट्ठ. 2.139; आरम्मणमेतं होतीति एतं चेतनादिधम्मजातं पच्चयो होति, पच्चयो हि इध आरम्मणन्ति अधिप्पेता, स. नि. अट्ट. 2.62; - णं द्वि. वि., ए. व. - न लच्छति मारो आरम्मणं, दी. नि. 3.42; - णेन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणेनापि परित्तकेन, पच्चेकबोधिं अनुपापुणन्ति, अप. 1.8; तेन आरम्मणेन रागा विमच्चति, मि. प. 302; - तो प. वि., ए. व. - ... आरम्मणतो जानाति ..., कथाव. 262; - स्स ष. वि., ए. व. - आरम्मणस्स गोचरहो अभिय्यो , पटि. म. 15; सीले पतिद्वाय कम्मट्ठानवसेन गहितस्स आरम्मणस्स भावनापवत्तिहानत्ता गोचरहानत्ता च गोचरहो, पटि. म. अट्ठ. 1.83: - णे सप्त. वि., ए. व. --- आरम्मणे सति पतिद्वा विज्ञाणस्स होति, स. नि. 1(2).58; आरम्मणे सतीति तस्मिं पच्चये सति, स. नि. अट्ठ. 2.62; - णा प्र. वि., ब. व. - आरम्मणा यस्सन सन्ति केचि. सु. नि. 478; आरम्मणाति पच्चया, पुनभवकारणानीति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.123; - णे द्वि. वि., ब. व. - आरम्मणे लभित्वान, पहितत्तेन भिक्खुना, मि. प. 385%; पाटियेक्के पाटियेक्के आरम्मणे बन्धतीति, ध. स. अट्ठ. 391; - णेहि तृ. वि., ब. व. - छद्वारिकेहि आरम्मणेहि निम्मथितो, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).193; - णानं प. वि., ब. व. - चक्खादीनं वत्थूनं रूपादीनं आरम्मणानञ्च पटिघातेन समुप्पन्ना सा, ध. स. अट्ठ. 246; - णेसु सप्त. वि., ब. व. - योगिना योगावचरेन आरम्मणेस येव चित्तं उपनिबन्धितब्बं मि. प. 384; ... सब्बेसु रूपादिसु आरम्मणेसु सवनतो सब्बापि रूपतण्हा, ध. प. अट्ट. 2.307; - वसेन तृ./प. वि., प्रतिरू. निपा., क्रि. वि., आलम्बन के कारण, आलम्बन के विषय में - यं विाणद्वितीस ठितं पठमाभिनिब्बत्तिआरम्मणवसेन उपादानं, इदं वुच्चति चेतसिकन्ति, पेटको. 306; अयहि यथा असुभकम्मट्ठानं ... ओळारिकारम्मणत्ता पन पटिकूलारम्मणत्ता च आरम्मणवसेन नेव सन्तं न पणीतं, स. नि. अट्ठ. 3.300. आरम्मणक नपुं, केवल स. उ. प. के रूप में, आलम्बन, विषय, अप्पमाणा.- प्रमाण से रहित आलम्बन, बहुत बड़ा आलम्बन; तदा.- पांच इन्द्रिय द्वारों में प्रादुर्भूत आलम्बन के ग्रहण हेतु उत्पन्न चित्त की प्रवृत्ति का सोलहवां एवं सत्तरहवां क्षण, जवनक्षण में परिभक्त आलम्बन की कटू अथवा मधुर अनुभूतियों को अंकित करने का क्षण - कं प्र. वि., ए. व. - तदा तेन तुल्यविपाकम्पि, तदारम्मणक सिया, अभि. अव. 393. आरम्मणकथा स्त्री., पांच प्रकार की कथावत्थुओं में से एक - तिस्सो पन सङ्गीतियो अनारुळ्हं धातुकथा आरम्मणकथा असुभकथा आणवत्थुकथा ... कथावत्थूहि... नाम, स. नि. अट्ठ. 2.177. आरम्मणकरण नपुं, तत्पु. स., (किसी वस्तु को) अपना आलम्बन बनाना - णं प्र. वि., ए. व. - गोत्रभुञआणस्स सुविसुद्धनिब्बानारम्मणकरणं, ध, स. अट्ट, 274; आभुजितवसेन वा हि उस्सदवसेन वा आरम्मणकरणं होति, ध. स. अट्ट. 364; -- णेन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणकरणेन च निब्बाने पक्खन्दतीति, पारा. अट्ठ.2.33; - तो प. वि., ए. व. - सकायचित्तानं आरम्मणकरणतो अज्झत्तारम्मणं होति, विसुद्धि. 2.58; - सम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स., चिन्तन का आलम्बन बनाने की अवस्था की प्राप्ति - कम्मअभावेनेव सम्पन्नाकारेन आरम्मणस्स गहणं आरम्मणकरणसम्पत्ति, विसुद्धि. महाटी. 2.135. आरम्मणकिरिया स्त्री., तत्पु. स., आलम्बन अथवा विषय की क्रिया - य तृ. वि., ए. व. - अत्थो किच्चवसेन आरम्मणकिरियाय च विदितो, उदा. अट्ठ. 41. आरम्मणकुसल त्रि., तत्पु. स., ध्यान के आलम्बनों के ग्रहण में कुशल - लो पु०, प्र. वि., ए. व. - न समाधिस्मिं आरम्मणकुसलो, स. नि. 2(1).264; न समाधिस्मि आरम्मणकुसलोति कसिणारम्मणेस असलो, स. नि. अट्ठ. 2.318. आरम्मणगोचरसद्द पु., तत्पु. स., आरम्मण शब्द एवं गोचर शब्द - दानं ष. वि., ब. व. - आरम्मणगोचरसदानं एकत्थता वुत्ता, पटि. म. अट्ठ. 2.100. आरम्मणगहण नपुं., तत्पु. स. [आलम्बनग्रहण], आलम्बन का ग्रहण, विषय को पकड़ लेना - णं प्र. वि., ए. व. - आरम्मणग्गहणम्हि चित्तं, पटि. म. अट्ठ. 2.277; - णे सप्त. वि., ए. व. - अज्झत्तिकबाहिरा चस्स पथवी आरम्मणग्गहणे पच्चयो होति, ध. स. अट्ठ. 349; - क्खम For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आरम्मणचतुक्क ***. त्रि, तत्पु० स० [आलम्बनग्रहणक्षम], आलम्बन अथवा अपने विषय को ग्रहण करने में सक्षम या समर्थ - मानि नपुं०, प्र. वि., ब. व. - सत्तानं इन्द्रियानि आरम्मणगहणक्खमानि होन्ति, विसुद्धि 2.85; आरम्मणगहणक्खमानीति रूपादिआरम्मणं गहेतुं समत्थानि , विसुद्धि. महाटी. 2.123; - लक्खण त्रि०, ब० स०, वह, जिसका लक्षण अपने आलम्बन अथवा अपने विषय का ग्रहण कर लेना हो, आलम्बन के ग्रहण के लक्षण वाला - पु०, प्र. वि., ए. व. लोभो आरम्मणग्गहणलक्खणो, विसुद्धि. 2.95; आरम्मग्गहणं "मम इदन्ति तण्हाभिनिवेसवसेन अभिनिविस्स आरम्मणस्स अविस्सज्जनं, न आरम्मणकरणमत्तं, विसुद्धि ० महाटी. 2.139. आरम्मणचतुक्क' नपुं०, आलम्बनों का चतुष्टय, आलम्बनों की चौकड़ी क्कं प्र. वि., ए. व. केवलञ्चेत्थ आरम्मणचतुक्कं आरम्मणदुकं होति, ध. स. अट्ठ. 234. आरम्मणचतुक्क नपुं. व्य. सं., ध. स. अट्ठ के एक अंश का शीर्षक, ध. स. अट्ठ. 229 - वण्णना स्त्री०, ध. स. मू. टी. के एक खण्ड का शीर्षक, ध. स. मू. टी. 100. आरम्मणचित्त नपुं., कर्म. स. चित्र-विचित्र आलम्बन, तरह तरह के आलम्बन - त्तानि प्र. वि., ब. व. - चित्रानीति आरम्मणचित्तानि, स. नि. अट्ठ. 1.57. आरम्मणचित्तता स्त्री०, भाव, आलम्बन पर चित्त को लगा देने की अवस्था - य तृ. वि., ए. व. - अपिच चित्तं नामेतं सहजातं सहजातधम्मचित्तताय .... आरम्मणचित्तताय लिङ्गनानत्तसञ्ञानानत्तवोहारनानत्तादीनं अनेकविधानं चित्तानं वेदितब्ब, स० नि० अट्ठ. 2.288. आरम्मण पु०, तत्पु० स० [आलम्बनार्थ], आलम्बन का अर्थ अथवा अभिप्राय ट्ठो प्र. वि., ए. व. आरम्मणट्टो अभिज्ञय्यो, पटि. म. 15; तस्स निब्बानारम्मणस्स आलम्बनभावेन आरम्मणट्टो, पटि. म. अट्ठ 1.82 - द्वं द्वि० वि., ए. व. – आरम्मणद्वं बुज्झन्तीति – बोज्झङ्गा, पटि. म. 295; – द्वेन तृ॰ वि॰, ए. व. - समथविपस्सनं युगनद्धं भावेति, आरम्मणट्टेन, पटि. म. 277; आरम्मणट्टेनाति आलम्बनट्टेन, आरम्मणवसेनाति अत्थो, पटि० म० अट्ठ. 2.175. आरम्मणद्विति स्त्री, तत्पु० स० [आलम्बनस्थिति], आलम्बन (विषय) की स्थिरता, आलम्बन का टिकाऊपन - ति प्र. वि., ए. व. - एकमेकस्स चेतेति च पकप्पेति च विञ्ञाणस्स ठिति या होति, सा च ठिति द्विधा आरम्मणद्विति च आहारद्विति च, पेटको. 306. - 174 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आरम्मणता स्त्री०, आरम्मण का भाव, आलम्बन-भाव, चित्त एवं इन्द्रियों का आलम्बन या गोचर होना, केवल स. उ. प. के रूप में प्रयुक्त, ता प्र. वि., ए. व. - आरम्मणविभागे अत्तनो सन्तानसम्बन्धं हेट्टिमसमापत्तिं आरम्भ पवत्तितो अज्झत्तारम्मणता वेदितब्बा, ध. स. अट्ट. 439; - तं द्वि. वि., ए. व. - एवं पजानने अप्प-माणारम्मणतं भवे, अभि. अव. 1158; - यष. वि., ए. व. तहि यथा बुद्धेन भगवता देसितं, तथा अनोदिस्सकफरणवसेन अपरिमाणसत्तारम्मणताय अप्पमाणं, थेरगा. अट्ट. 2.204. आरम्मणत्त नपुं,, आरम्मण का भाव. [आलम्बनत्त्व], उपरिवत् ताप.वि., ए. व. - आरूप्पज्झानस्स आरम्मणत्ता, विसुद्धि. 1.321; भयस्स आरम्मणत्ता, म. नि. अट्ठ. ( मू०प.) 1 (1).127; स. उ. प. रूप में, अकुप्पा.. आरम्मणत्तिक नपुं,, तत्पु० स०, आलम्बनों अथवा गोचर-भूत रूप आदि धर्मों की तिकड़ी, आलम्बनों का त्रिक - का प्र० वि. ब. व. - आरम्मणत्तिका वुत्ता, ये चत्तारो महेसिना, विसुद्धि. 2.57; चत्तारो हि आरम्मणत्तिका महेसिना वुत्ता, तदे.; - केसु सप्त. वि०, ब० व. - आरम्मत्तिके प चक्खुसोत... इन्द्रियानि सन्धाय वृत्तं विभ, अट्ठ. 120; स. उ. प. के रूप में परित्ता, के अन्त. द्रष्ट.. आरम्मणदायक त्रि, किसी भी धर्म को आलम्बन अथवा आश्रय के रूप में प्रस्तुत करने वाला - कानं पु०, च. / ष. वि., ब. व. - लद्धा च नं अस्सादेन्ति, आरम्मणदायकानञ्च चित्तकारादीनं सक्कारं करोन्ति, म. नि. अट्ट. ( मू०प०) 1(1).229. - आरम्मणदुक नपुं, तत्पु० स०, दो आलम्बनों की एक इकाई, आलम्बनों का दुक्का - कं प्र. वि., ए. व. केवलञ्चेत्थ आरम्मणचतुक्कं आरम्मणदुकं होति, ध. स. अट्ट. 234; पञ्चवीसति आरम्मणानारम्मणउपपरिक्खणवसेन पवत्तता आरम्मणदुका नाम, ध. स. अट्ठ. 337. आरम्मणदुब्बलता स्त्री० तत्पु० स० [आलम्बनदुर्बलता ], आलम्बनों की दुर्बलता कस्मा एवं होति ? For Private and Personal Use Only आरम्मणधम्म - आरम्मणदुब्बलताय, ध. स. अट्ठ. 307. आरम्मणधम्म पु०, कर्म. स. [ आलम्बनधर्म], आलम्बनभूत धर्म, आलम्बन के रूप में विद्यमान वस्तु अथवा अवस्था - म्मा प्र. वि., ब. व. - धम्माति आरम्मणधम्मा, स० नि० अ० 1.159; विचिकिच्छद्वानीया धम्माति विचिकिच्छाय आरम्मणधम्मा, स० नि० अट्ठ. 3.177; ओघनिया, ओघानं आरम्मणधम्मा एव वेदितब्बा, ध. स. अट्ठ. 95; - म्मानं ष. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्मणनानत्त 175 आरम्मणपटिसङ्खा वि., ब. व. - कामरागस्स कारणभूतानं आरम्मणधम्मानं, स. नि. अट्ठ. 3.185. आरम्मणनानत्त नपुं, तत्पु. स. [आलम्बननानात्व], आलम्बनों की विविधता, आलम्बनों का नानारूप होना - त्तं प्र. वि., ए. व. - एकस्स पठवीकसिणं आरम्मणं होति... पे. ... एकस्स ओदातकसिणन्ति इदं आरम्मणनानत्तं विभ. अट्ठ. 494; - तो प. वि., ए.व. - आरम्मणनानत्ततो हि अपरिमितसङ्केय्यानं सत्तानं अपरिमितमसङ्केय्या विपल्लासा भवन्ति, पेटको. 249; - ता स्त्री॰, भाव., उपरिवत् - ता प्र. वि., ए. व. - चतुत्थं झानं भावेत्वा आरम्मणनानत्तता ... देवानं सहव्यतं उपपज्जन्ति, विभ. 498; आरम्मणनानत्तताति आरम्मणस्स नानत्तभावो, विभ. अट्ठ.494. आरम्मणन्तर नपुं., तत्पु. स. [आलम्बनान्तर], आलम्बन का आन्तरिक स्वरूप, आलम्बन अथवा विषय की भीतरी वि शेषता - रे सप्त. वि., ए. व. - एकाकियो अदुतियो, सेति आरम्मणन्तरे ति, मि. प. 368; - गत त्रि., (ध्यानाभ्यास के क्रम में) आलम्बन के भीतर तक गया हुआ - योगिना योगावचरेन मानसे कायं निक्खिपित्वा आरम्मणन्तरगतेन सयितब्बं तदे... आरम्मणपच्चय' पु., [बौ. सं. आलम्बनप्रत्यय], चौबीस प्रकार के प्रत्ययो में से एक, आलम्बनभूत प्रत्यय, चित्त एवं चैतसिक धर्मों की उत्पत्ति में आलम्बन (आधार) के रूप में विद्यमान लौकिक एवं लोकोत्तर धर्म - यो प्र. वि., ए. व. - आलम्बीयति दुब्बलेन विय दण्डादिकं चित्तचेतसिकेहि गव्हतीति आरम्मणं चित्तचेतसिका हि यं यं धम्म आरम पवत्तन्ति, ते ते धम्मा तेसं तेसं धम्मानं आरम्मणपच्चयो नाम, अभि. ध. स. 211; ... तस्मा लोकियलोकुत्तरादिभेदा सब्बेपि धम्मा यथायोगं चित्तचेतसिकानं आरम्मणपच्चयोति वेदितब्बोति ..., मो. वि. 339; ... चाति आरम्मणपच्चयो, आरम्मणं हुत्वा पच्चयो, आरम्मणभावेन पच्चयोति अत्थो ति न कम्मधारयमत्तं, विसुद्धि. महाटी. 2.251; चक्षु निस्सयपच्चयो, रूपं आरम्मणपच्चयो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).274; - येन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणपच्चयेन च उपनिस्सयपच्चयेन चाति द्वधा पच्चयो होति, विभ. अट्ट. 138; "... ते ते धम्मा तेसं तेसंधम्मानं आरम्मणपच्चयेन पच्चयो ति.... विसुद्धि. 2.162; - ता स्त्री॰, भाव., आलम्बन के रूप में प्रत्यय होना, आश्रय के रूप में कारणता - तं द्वि. वि., ए. व. - आरम्मणपच्चयतं जानाति, कथाव. 263; - य तृ. वि., ए. व. - आरम्मणपच्चयताय पच्चयो, पेटको. 270; - भाव पु., उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. - न हि सो धम्मो अस्थि, यो चित्तचेतसिकानं आरम्मणपच्चयभावं न गच्छेय्य, अभि. ध. वि. 211; - भूत त्रि०, आलम्बन-प्रत्यय के रूप में विद्यमान, वह, जिसे आलम्बनभूत प्रत्यय बना दिया गया है - तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - मग्गफलानं आरम्मणपच्चयभूतं अमतं महानिब्बानं नाम अत्थि नु खो नत्थीति, ध. स. अट्ठ. 383; -- तानं पु., ष. वि., ब. व. - संयोजनस्स आरम्मणपच्चयभूतानं एतं अधिवचनं, ध. स. अट्ठ. 95. आरम्मणपच्चय' पु., द्व. स., आलम्बन एवं प्रत्यय – येहि तृ. वि., ब. व. - आरम्मणपच्चयेहि च, परधम्महि चिमे पभाविता, विसुद्धि. 2.230. आरम्मणपटिपदा स्त्री., द्व. स., आलम्बन एवं मार्ग, चेतना द्वारा गृहीत रूप आदि आलम्बन तथा इस के ज्ञान का मार्ग -हि तृ. वि., ब. व. - ये केचि झानं उप्पादन्ति नाम न ते आरम्मणपटिपदाहि विना उप्पादेतुं सक्कोन्ति, ध. स. अट्ठ. 230; - मिस्सक त्रि., आलम्बन एवं इसके ग्रहण के मार्ग से मिश्रित - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - इदानि आरम्मणपटिपदामिस्सकं सोळसक्खत्तुकनयं दस्सेतुं, ध. स. अठ्ठ. 229. आरम्मणपटिपादक पु., तत्पु. स., आलम्बन-विषयक नियन्त्रण - को प्र. वि., ए. व. - आरम्मणपटिपादको मनम्हि कारोति मनसिकारो, विसुद्धि. 2.94; - त्त नपुं.. भाव., आलम्बन-विषयक नियन्त्रण की अवस्था, आलम्बन पर पूर्ण नियन्त्रण करना - त्तेन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणपटिपादकत्तेन सम्पयत्तानं सारथि विय दट्टब्बो, विसुद्धि. 2.94. आरम्मणपटिविजानन नपुं., तत्पु. स., आलम्बन की सही सही पहचान, आलम्बन का ठीक ठीक ज्ञान - नं प्र. वि., ए. व. - आरम्मणपटिविजाननं विज्ञाणं विआणक्खन्धो, विसु द्धि. 2.225; आरम्मणपटिविजाननन्ति थद्धतासङ्घातफोटुब्बारम्मणपटिविजाननं, विसुद्धि. महाटी. 2.334. आरम्मणपटिसा 1. स्त्री., तत्पु. स., आलम्बनविषयक प्रतिसंख्यान, आलम्बन का अनुचिन्तन, रूप आदि आलम्बनों के अनित्य, परिवर्तनशील होने का ज्ञान – डा प्र. वि., ए. व. - या च आरम्मणपटिसङ्घा या च भङ्गानुपस्सना यञ्च सुञतो उपट्टानं, अयं अधिपञआविपस्सना नामाति वुत्तं होति, विसुद्धि. 2.279; 2. सं. कृ. क्रि. वि. के रूप For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्मणपथवी 176 आरम्मणमरियादा में, ध्यानपूर्वक, एकाग्रतापूर्वक, सावधानी से - तत्थ आरम्मणपटिसङ्घाति यं किञ्चि आरम्मणं पटिसङ्काय जानित्वा, खयतो वयतो दिस्वाति अत्थो, विसुद्धि. 2.277. आरम्मणपथवी स्त्री., कर्म. स. (ध्यान के) आलम्बन के रूप में पृथ्वी, एक झान-कसिण के रूप में पृथ्वी - लक्खणपथवी ससम्भारपथवी आरम्मणपथवी सम्मुतिपथवीति चतुबिधा पथवी, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).28; ... आरम्मणपथवी, निमित्तपथवीतिपि, वच्चति, तदे.. आरम्मणपणीतता स्त्री. भाव., ध्यान के आलम्बन की सूक्ष्मता, आलम्बन का सूक्ष्मभाव - य तृ. वि., ए. व. - आरम्मणपणीतताय पणीतो अतित्तिकरो, अङ्गपणीततायपीति. स. नि. अट्ठ. 3.300. आरम्मणपरिग्गह पु., तत्पु. स. [आलम्बनपरिग्रह], आलम्बनों को अपने अधीन में ले लेना अथवा उन्हें दृढ़ता से ग्रहण कर लेना - रहित त्रि., आलम्बनों के परिग्रह से रहित - तानं च. वि., ब. व. - सोळ ससु ठाने सु आरम्मणपरिग्गहरहितानंयेव तादिसानि सेनासनानि दुरभिसम्भवानि, न तेसु आरम्मणपरिग्गाहयुत्तानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).120. आरम्मणपुरेजात 1. नपुं, कर्म, स., पूर्व में उत्पन्न आलम्बन, आलम्बन की पूर्ववर्तिता, पूर्व में उत्पन्न आलम्बन-प्रत्यय - तं प्र. वि., ए. व. - "... सेक्खा वा पुथुज्जना वा चक्खु अनिच्चतो दुक्खतो अनत्ततो विपस्सन्तीति आगतत्ता मनोद्वारे पि आरम्मणपुरेजातं लभतेव, प. प. अट्ठ. 369; 2. नपुं, द्व. स., आलम्बन एवं पूर्ववर्तिता, स. प. के रूप में - बाहिरे सु पन रूपायतन चक्खु सम्फस्सस्स आरम्मणपुरेजातअत्थिअविगतवसेन चतुधा पच्चयो होति, विभ, अट्ठ. 169. आरम्मणप्पभेद पु., तत्पु. स., आलम्बनों का भेद, आलम्बन का विभाजन - दं द्वि. वि., ए. व. - आरम्मणप्पभेदं पन अनुगन्त्वा , खु. पा. अट्ट, 198. आरम्मणभाव पु., [आलम्बनभाव]. चित्त-चैतसिकों का आलम्बन होना, आलम्बन होने की स्थिति - वं द्वि. वि., ए. व. - आरम्मणभावं उपगन्त्वा , ध. स. अट्ठ. 89; 95; -- वेन त. वि., ए. व. - आसवानं आरम्मणभावेन पच्चयभूतं, स. नि. अट्ठ. 2.239; - वाय च. वि., ए. व. - कायपटिबद्धो वण्णो परिसस्स चक्खुविआणस्स आरम्मणभावाय उपकप्पति. थेरगा. अट्ठ. 2.236. आरम्मणभूत त्रि., आलम्बन हो चुका, वह, जो किसी के लिए आलम्बन बन गया है अथवा किसी के ज्ञान का विषय है-ता' पु., प्र. वि., ब. व. - सङ्घारा चेतिता पकप्पिता च आरम्मणभूता होन्ति, पेटको. 307; तस्मा सब्बेपि चित्तचेतसिकानं धम्मानं आरम्मणभूता धम्मा आरम्मणपच्चयो ति वेदितब्बा, प. प. अट्ठ. 345; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पञआपि आरम्मणभूता जेय्यं, नेत्ति. 163; आरम्मणभूता ओय्यन्ति ओय्यतो विसु कत्वा पञआ वुत्ता, नेत्ति. अट्ठ. 388; - ता स्त्री., प्र. वि., ब. व. - ... विपस्सनाय आरम्मणभूता झानसमापत्तियो वृत्ता, पटि. म. अट्ठ. 1.255; - ता' नपुं. प. वि., ए. व. - एवं सो तस्मा चतुत्थज्झानस्स आरम्मणभूता कसिणरूपा निबिज्ज ..., विसुद्धि. 1.317; - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - यं किञ्चि आरम्मणभूतं अज्झत्तिकं वा बाहिरं वा, सब्बं तं सतेन असतेन च निद्दिसितब्ब, नेत्ति. 163; आरम्मणभूतन्ति यं किञ्चि आणस्स विसयभूतं रूपादि, नेत्ति. अट्ठ. 388 - त्त नपुं, आरम्मणभूत का भाव. [आलम्बनभूतत्त्व], आलम्बन होना, विषय रहना, स. प. के रूप में वत्था.- चक्षु आदि वत्थुओं का विषयीभाव होना - त्ता प. वि., ए. व. -- वत्थारम्मणभूतत्ता संघटनवसेन गहेतब्बतो थूलंध. स. अट्ट. 368. आरम्मणभेद पु., तत्पु. स. [आलम्बनभेद], 1. आलम्बनों (रूप आदि विषयों) का वर्गीकरण या भेद-प्रभेद - दो प्र. वि., ए. व. - तस्सा तेसु वृत्तनयेनेव आरम्मणभेदो वेदितब्बो, ध. स. अट्ठ. 432; - देन तृ. वि., ए. व. - झानं नाम यथा पटिपदाभेदेन एवं आरम्मणभेदेनापि चतुबिधं होति, ध. स. अट्ठ. 229; 2. आलम्बनों की विविधता - देन तृ. वि., ए. व. --- आरम्मणभेदेन हि बहुका एता सतियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).249; आरम्मणभेदेन सतिबहुत्ता बहुवचनं वेदितब्बं तदे- दे सप्त. वि., ए. व. - आरम्मणभेदे, किच्चभेदे च बहुवचनं होति, सद्द. 3.736; - भिन्न त्रि., तत्पु. स., आलम्बनों के भेद के कारण भिन्न - न्नं पु.. द्वि. वि., ए. व. - छळारम्मणभेदभिन्नं विपस्सनाय विसयं, उदा. अट्ठ. 73; - दाभाव पु., तत्पु. स., आलम्बनों अथवा रूप आदि विषयों में भेद का अभाव - तो प्र. वि., ए. व. - आरुप्पझाने सु पन आरम्मणभेदाभावतो पुरिमकारणद्वयवसेनेव बहुवचनं वेदितब्ब, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).194. आरम्मणमरियादा स्त्री., तत्पु. स., आलम्बन की मर्यादा, रूप आदि विषयों की सीमा, आलम्बन-विषयिणी मर्यादा For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आरम्मणमालिन तत्थ द्वे मरियादा किलेसमरियादा च आरम्मणमरियादा च, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.62. आरम्मणमालिन त्रि ध्यान के आलम्बनों की माला को धारण करने वाला - लिना पु०, तृ. वि., ए. व. योगिना योगावचरेन आरम्मणमालिना भवितब्ब, मि. प. 358. आरम्मणरस पु०, तत्पु० स० [आलम्बनरस], आलम्बन का मुख्य कार्य, आलम्बन का आधारभूत गुण, आलम्बन का रस - सं द्वि. वि., ए. व. - इस्सरवताय विस्सविताय सामिभावेन वेदनाव आरम्मणरसं अनुभवति, ध. स. अ. 155; - स्सष. वि., ए. व. - अवसेसधम्मानं आरम्मणरसस्स एकदेसानुभवनं, ध. स. अट्ठ. 156; सानुभवन नपुं. तत्पु० स०, आलम्बन के कार्य अथवा रस का अनुभव - नं प्र. वि., ए. व. - मातरा कम्मे उपनीतकालो विय जवनस्स आरम्मणरसानुभवनं वेदितब्बं ध. स. अदु. 317; - - सेकदेस पु., तत्पु० स०, आलम्बनभूत पदार्थ या धर्म का एक भाग - सं द्वि. वि., ए. व. - सेसधम्मापि आरम्मणरसेकदेसमेव अनुभवन्ति, ध. स. अट्ठ. 156. आरम्मणवड्डन नपुं., तत्पु० स० [ आलम्बनवर्धन ], आलम्बन की वृद्धि, आलम्बन का विस्तार - नं. प्र. वि., ए. व. - उपचारे वा अप्पनाय वा पत्ताय आरम्मणवड्डून, ध. स. अट्ठ● 239. आरम्मणवन नपुं, तत्पु० स०, आलम्बन रूपी वन, घने जंगल जैसे रूप आदि आलम्बन - नं. प्र. वि., ए. व. अरञमहावनं विय हि आरम्मणवनं वेदितब्ब, स. नि. अट्ट. 2.87; - ने सप्त. वि., ए. व. - तस्मिं वने विचरणमक्कटो विय आरम्मणवने उप्पज्जनकचित्तं, स. नि. अट्ठ. 2.87. आरम्मणववत्थान नपुं० तत्पु० स० [ आलम्बनव्यवस्थान ], ध्यान के क्रम में आलम्बनों का निर्धारण, आलम्बन-विषयक निश्चय - नं प्र. वि., ए. व. - न च तानि धम्मारम्मणानि भवन्तीति वुत्तनयेनेव ... आरम्मणववत्थानं वेदितब्बं, ध. स. अ. 117; - तो प. वि., ए. व. आरम्मणववत्थानतोति - इमेहि चुद्दसहाकारेहि चित्तं परिदमेतब्बं ध. स. अट्ठ 231; पञ्ञा स्त्री०, आलम्बनों का निर्धारण करने वाली प्रज्ञा - य तृ. वि., ए. व. - अपिच खो पन इमेसु सोळससु ठानेसु आरम्मणववत्थानपञ्ञायाति अत्थो, म. नि. अट्ठ ( मू०प०) 1 (1).125. आरम्मणववत्थापन नपुं, उपरिवत् - नं प्र. वि., ए. व. आरम्मणमत्तस्सेव ववत्थापनं आरम्भणववत्थापनं नाम, 177 आरम्मणविभावन विसुद्धि 2.4; स. प. में किरियमनोविञ्ञाणधातुया आरम्भणववत्थापनमत्तकमेव किच्च ध. स. अट्ठ. 309. आरम्मणवार पु.. आलम्बन की बारी, आलम्बन का संप्राप्त क्रम - रो प्र. वि., ए. व. - इति मूलवारो... आरम्मणवारो, समुदयवारोति सब्बेपि दस वारा होन्ति, प. प. अ. 288. — Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2.107. आरम्भणविजाननलक्खण त्रि०, ब० स०, वह जिसका लक्षण आलम्बनों का ज्ञान कराना है। - णं नपुं. प्र. वि., ए. व. - यस्मा पन आरम्मणविजाननलक्खणं चित्तं पटि० म० अ० आरम्मणविभत्ति स्त्री० तत्पु० स० [आलम्बनविभक्ति ] ध्यान प्रक्रिया के सन्दर्भ में आलम्बनों का विभाजन या वर्गीकरण यो' प्र. वि., ब. व. - अत्थि ... तेन भगवता ... आरम्मणविभत्तियो अक्खाता, मि. प. 302; - यो द्वि. वि., ब. व. - अट्टतिंस आरम्मणविभत्तियो, अ. नि. अट्ठ. 3.219; - निद्देस पु०, आलम्बनों के विभाजनों का विवेचनात्मक व्याख्यान, स. उ० प०, में परिचिण्णा. - त्रि., आलम्बनों के विभाजनों के विवेचनपरक व्याख्यान में अभ्यस्त - सा पु०, प्र. वि., ब. व. भिक्खू उळारदेसनापटिवेधा परिचिण्णारम्मणविभत्तिनिद्देसा सिक्खागुणपारमिप्पत्ता, मि. - 1 For Private and Personal Use Only .../ प. 313. आरम्मणविभाग पु०, तत्पु० स० [ आलम्बनविभाग]. क. आलम्बनों का वर्गीकरण, आलम्बनों का पार्थक्यीकरण गो प्र. वि., ए. व. तेसं आरम्भणविभागो जानितब्बो तत्थ विपस्सनाञाणं परित्तमहग्गतअतीतानागतपच्चुप्पन्न अज्झत्तबहिद्धावसेन सत्तविधारम्मणं दी. नि. अट्ठ. 1. 183; गे सप्त वि., ए. व. आरम्मणविभागे पन विञ्ञाणञ्चायतनं ध. स. अड. 439; ख. आलम्बनों के भेद - गेसु सप्त. वि., ब. व. - आरम्मणविभागेसु पवत्तति कथं पन, अभि. अव. 1143. आरम्मणविभागनिद्देस पु., अभि. अव. के छट्टे परिच्छेद का शीर्षक, जिसमें रूप आदि छ आलम्बनों के प्रभेदों का विवेचन किया गया है, अभि. अव. 50-57; गा. 291 375 आरम्भणविभावन नपुं० तत्पु० स०, आलम्बनों का स्पष्टीकरण आलम्बनों का स्पष्ट रूप से प्रकाशन ठान नपुं०, आलम्बनों के सुस्पष्ट प्रकाशन का स्थल - ने सप्त. वि., ए. व. - आरम्मणविभावनट्ठाने चित्तं पुब्बङ्गमं पुरेचारिकं होति, ध. स. अट्ठ. 158. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्मणविमुत्ति 178 आरम्मणसमतिक्कम आरम्मणविमुत्ति स्त्री., तत्पु. स., रूप आदि आलम्बनों के प्रति राग से छुटकारा - त्तीसु सप्त. वि., ब. व. - आरम्मणविमुत्तीसु, सभावदस्सनो मुनि, अप. 1.352. आरम्मणवियोग पु., तत्पु. स., आलम्बनों से बिलगाव - स्स ष. वि., ए. व. - आरम्मणवियोगस्स चेव दक्खवियोगस्स च अप्पदानतो योगातिपि तेस व अधिवचनं, विसृद्धि. 2.322. आरम्मणविसभागता स्त्री., आलम्बन की भिन्नता - य त. वि., ए. व. - ... कस्मा? आरम्मणविसभागताय विसुद्धि. 1.307. आरम्मणवीथि स्त्री., आलम्बनों को ग्रहण करने अथवा उनका ज्ञान करने की प्रक्रिया वाला मार्ग, स. उ. प. के रूप में, पञ्चा.- चक्षु आदि पांच इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य रूप आदि पांच आलम्बनों के ग्रहण की प्रक्रिया -या ष. वि., ए. व. - इट्ठमज्झत्ते पञ्चारम्मणवीथिया सन्तीरणं हुत्वा ..., अभि. अव. 11. आरम्मणसङ्कन्ति स्त्री., तत्पू. स. [आलम्बनसंक्रान्ति], ध्यान के क्रम में किसी एक आलम्बन को छोड़कर दूसरे आलम्बन का ग्रहण, विभिन्न आलम्बनों का एक ही ध्यान में संक्रमण, पठवीकसिण, आपोकसिण आदि सभी कसिणों का एक ही ध्यान में आलम्बन के रूप में ग्रहण - न्ति प्र. वि., ए. व. - ... सुखुमं पन चित्तन्तरं खन्धन्तरं ... अङ्गसङ्कन्ति आरम्मणसङ्कन्ति एकतोवड्वनं उभतोबड्डनन्ति आभिधम्मिकधम्मकथिकस्सेव पाकट, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).153; पठवीकसिणे पठमं झानं समापज्जित्वा तदेव आपोकसिणेति एवं सब्बकसिणेसु एकस्सेव झानस्स समापज्जनं आरम्मणसङ्कन्ति, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2). 179; तस्स तस्सेव हि झानस्स आरम्मणन्तरे पवत्ति आरम्मणसङ्कन्ति, विसुद्धि. महाटी. 2.4. आरम्मणसङ्कन्तिक त्रि., सभी कसिणों (कृत्स्नों) अथवा आलम्बनों पर किसी एक ही ध्यान की प्राप्ति से सम्बन्धित - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - "सब्बकसिणेसु एकस्सेव झानस्स समापज्जनं आरम्मणसङ्कन्तिकं नामा"ति, विसुद्धि. महाटी. 2.4; - तो प. वि., ए. व. - तस्मा इद्धिविधं ताव सम्पादेतुकामो... अङ्गसङ्कन्तिकतो आरम्मणसङ्कन्तिकतो... इमेहि चुद्दसहि आकारेहि चित्त परिदमेत्वा ..., पटि. म. अट्ठ. 1.277. आरम्मणसङ्ख्यात त्रि, आलम्बन के रूप में विख्यात, तथाकथित आलम्बन - तानं स्त्री., ष. वि., ब. व. - एतेसञ्च पथवी कसिणादिवसेन नवन्न आरम्मणसङ्घातानं रूपस आनं, सब्बाकारेन अनवसेसानं वा विरागा च निरोधा च .... विसुद्धि. 1.318. आरम्मणसञ्जानन नपुं., तत्पु. स., आलम्बनों का समुचित रूप में ज्ञान – नं प्र. वि., ए. व. - आरम्मणसञ्जाननञ्चेव विपस्सनाय च विसयभावं उपगन्त्वा निबिदाजनन, ध. स. अट्ठ. 252; - मत्त नपुं., केवल आलम्बन का ज्ञान - त्तं द्वि. वि., ए. व. - सा "नील पीतक"न्ति आरम्मणसञ्जाननमत्तमेव होति, विसुद्धि. 2.63. आरम्मणसन्तता स्त्री., ध्यान के आलम्बन का शान्त भाव, आलम्बन की परम सूक्ष्मता – य तृ. वि., ए. व. - अपि च खो आरम्मणसन्ततायपि सन्तो वपसन्तो निबुतो..., स. नि. अट्ठ. 3.300; अङ्गसन्तताय आरम्मणसन्तताय सब्बकिलेसदरथसन्तताय च सन्तो, दी. नि. अट्ट. 3.225. आरम्मणसभागता स्त्री., आलम्बन की समरूपता, आलम्बन की समानता - य तृ. वि., ए. व. - मेत्तादीसु उप्पन्नततियज्झानस्से व पन उप्पज्जति, आरम्मणसभागतायाति, विसुद्धि. 1.307; कम्मसभागताय वा आरम्मणसभागताय वा तस्सेव कम्मरस विपाकावसेसो ति, पारा. अट्ठ. 2.88; आरम्मणसभागतायाति आरम्मणस्स सभागभावेन सदिसभावेन, सारत्थ. टी. 2.261. आरम्मणसभाव पु., आलम्बनों की यथार्थ प्रकृति, आलम्बनों का वास्तविक स्वभाव - मोहो चित्तस्स अन्धभावलक्खणो ... आरम्मणसभावच्छादनरसो वा, ... सब्बाकुसलानं मूलन्ति दट्टब्बो, विसुद्धि. 2.96. आरम्मणसमतिक्कम पु., आलम्बनों का उल्लंघन, आलम्बनों पर विजय, चार प्रकार के अरूप ध्यानों में आका । की अनन्तता आदि आलम्बनों का अतिक्रमण - मो प्र. वि., ए. व. - समतिक्कमोतिद्वे समतिक्कमा अङ्गसमतिक्कमो च आरम्मणसमतिक्कमो च, विसद्धि. 1.108; - मं द्वि. वि., ए. व. - आरम्मणसमतिक्कम अवत्वा ... सानंयेव समतिक्कमो वुत्तो, ध. स. अट्ट. 245; - मेन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणसमतिक्कमेन पत्तब्बा एता समापत्तियो, ध. स. अट्ठ. 246; - स्स प. वि., ए. व. - कसिणादिआरम्मणसमतिक्कमस्स पाकटत्ता तं अवत्वा सत्तन्तेसु वुत्तरूपसादिसमतिक्कमो वृत्तो, पटि. म. अट्ठ. 2.139-140; - भूत त्रि., आलम्बनों का अतिक्रमण कर चुका -- तं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - ... अङ्गेसु समतिक्कमितब्बाभावेन आरम्मणसमतिक्कमभूतं For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्मणसमतिक्कमन 179 आरम्मणाधिपति आकासानञ्चायतनं सन्ततो मनसि करित्वा..... मो. वि. टी. 189. आरम्मणसमतिक्कमन नपु, तत्पु. स. [आलम्बनसमतिक्रमण], उपरिवत् - मत्त नपुं., आलम्बनों का उल्लंघन-मात्र, केवल आलम्बनों का अग्रहण - त्तं प्र. वि., ए. व. - झानस्स आरम्मणसमतिक्कमनमत्तं तत्थ होति, विसुद्धि. 1.230. आरम्मणसम्पटिच्छन नपुं., आलम्बनों का ग्रहण - मत्तक नपुं., आलम्बनों का ग्रहण मात्र - कं प्र. वि., ए. व. - विपाकमनोधातया आरम्मणसम्पटिच्छनमत्तकमेव, ध. स. अट्ठ. 309; - समत्थ त्रि., आलम्बनों के ग्रहण में समर्थ या सक्षम - त्था स्त्री, प्र. वि., ए. व. - दूरेपि आरम्मणसम्पटिच्छनसमत्था दिब्बा पसादसोतधातु होति, पटि. म. अट्ठ. 1.283. आरम्मणसारग्गाह पु., तत्पु. स. [आलम्बनसारग्राह]. आलम्बनों के सारतत्त्व का ग्रहण - हो प्र. वि., ए. व. - आरम्मणसारग्गाहो.... एतं जिनपत्तानं करणीय मि. प. 173. आरम्मणाकार पु., तत्पु. स. [आलम्बनाकार], रूप आदि आलम्बनों का आकार अथवा स्वरूप-रं द्वि. वि., ए. व. - नीलादिवसेन आरम्मणाकारं गहेत्वा, विसुद्धि. 2.64. आरम्मणातिक्कम पु., तत्पु. स., आलम्बनों का अतिक्रमण या त्याग, आलम्बनों पर विजय, कम्मट्ठानों या रूपध्यान के आलम्बनों को पारकर जाना - तो प. वि., ए. व. - आरम्मणातिक्कमतो चतस्सोपि भवन्तिमा, ध. स. अट्ठ. 253; - भावना स्त्री., आलम्बनों के अतिक्रमण से प्राप्त ध्यानभावना, आलम्बनों पर विजय से सहगत ध्यानभावना, स. प. के रूप में, - विसुद्धिभावनानुक्कमवसेन हि लोकुत्तरं अप्पनं पापणाति आरम्मणातिक्कमभावनावसेन आरुप विसद्धि. 1.230. आरम्मणाधिगहितुप्पन्न त्रि, तत्पु. स., चार प्रकार के उप्पन्नों में से एक, आलम्बनों के अधिगृहीत हो जाने के कारण इसके उत्तरकाल में उत्पन्न - न्नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - पुब्बभागे अनुप्पज्जमानम्पि किलेसजातं आरम्मणस्स अधिग्गहितत्ता एवं अपरभागे एकन्तेन उप्पत्तितो आरम्मणाधिग्गहितुप्पन्नन्ति वुच्चति, विसुद्धि. 2.328; एवं आरम्मणाधिग्गहितुप्पन्नम्पीति तिविधस्सापि भूमिलद्धेन एकसङ्गहता वुत्ता, विसुद्धि. महाटी. 2.473. आरम्मणाधिपति पु. कर्म. स. [आलम्बनाधिपति]. चौबीस प्रकार के प्रत्ययों (पच्चयों ) में से तृतीय के रूप में उपदिष्ट अधिपति-पच्चय के दो प्रभेदों में से एक, अधिपति (अधिक प्रबल प्रत्यय) भूत आलम्बन-प्रत्यय, चित्त एवं चैतसिकों का वह कुशल आलम्बन अथवा विषय जो अन्य आलम्बनों की अपेक्षा अधिक दृढ़ता के साथ चित्त को अपनी ओर खींचता है, जिस कुशल आलम्बन को अधिक गुरु (महत्वपूर्ण) बना कर चित्त-चैतसिक अनुचिन्तन करें, वह आलम्बन उन चित्त-चैतसिकों के उदय में आरम्मणाधिपति-प्रत्यय बन जाता है - ति प्र. वि., ए. व. - आरम्मणाधिपति - दानं दत्वा सीलं समादियित्वा उपोसथकम्म कत्वा, तं गरुं कत्वा पच्चवेक्खति, पुब्बे सुचिण्णानि गरुं कत्वा पच्चवेक्खति, झाना वुट्ठहित्वा झानं गरु कत्वा पच्चवेक्खति, सेक्खा ..., वोदानं ..., सेक्खा मग्गा वुढहित्वा मग्गं गरु कत्वा पच्चवेक्खन्ति, पट्ठा. 1.157-59; 350-351; 417-419; 469; 511-512; यं पन धम्म गरुं कत्वा अरूपधम्मा पवत्तन्ति, सो नेसं आरम्मणाधिपति, विसुद्धि. 2.163; एत्थ च सत्तधा सहजाताधिपति, सत्तधा आरम्मणाधिपति वेदितब्बो, विसुद्धि. महाटी. 2.255; - तिं द्वि. वि., ए. व. - अधिपतिं करित्वाति आरम्मणाधिपतिं कत्वा, ध, स. अट्ठ. 387; --- ना त. वि., ए. व. - आरम्मणाधिपतिना सद्धिं नानत्तं अकत्वाव विभत्तो, विसुद्धि. 2.165; - वसेन अ.. क्रि. वि., किसी एक कुशल आलम्बन को अधिक महत्त्वपूर्ण बनाकर - अत्तना पटिविद्धमग्गं गरुकत्वा पच्चवेक्षणकाले आरम्मणाधिपतिवसेन मग्गाधिपतिनो..., ध. स. अट्ठ. 432; स. उ. प. के रूप में, किरिया.- पृ., आरम्मणाधिपतिपच्चय का एक प्रभेद - कामावचरादिभेदतो पन तिविधोपि किरियारम्मणाधिपति लोभसहगताकुसलस्सेव आरम्मणाधिपतिपच्चयो होति. प. प. अट्ठ. 361; कुसला.पु., कामावचर, रूपावचर एवं अरूपावचर भूमियों के कुशलचित्तों का आरम्मणाधिपति, प्रत्यय (पच्चय) - म्हि सप्त. वि., ए. व. - रूपावचरारूपावचरेपि कुसलारम्मणाधिपतिम्हि एसेव नयो, प. प. अट्ठ. 360; विपाका.- पु., विपाक चित्तों का आरम्मणाधिपति प्रत्यय (पच्चय)- लोकुत्तरो पन विपाकारम्मणाधिपति कामावचरतो आणसम्पयुत्तकुसलकिरियान व आरम्मणाधिपतिपच्चयो होति, प. प. अट्ठ. 361-62; स. पू. प. के रूप में - पनिस्सय पु., द्व. स., आरम्मणाधिपति एवं आरम्मपनिस्सय पच्चय, अधिपति-प्रत्यय तथा उपनिस्सयप्रत्यय के रूप में रूप आदि आलम्बन - येहि तृ. वि., ए. For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरम्मणानन्तर 180 आरम्मणूपनिज्झान व. - गरुकत्वा अस्सादनकाले आरम्मणाधिपतिआरम्मणूप निस्सयेहि, विसुद्धि. 2.170; - णूपनिस्सयपच्चय पु., उपरिवत् -- येहि तृ. वि., ब. व. - आरम्मणाधिपति आरम्मणूपनिरसयपच्चयेहि रूपस्स पच्चयभावो दस्सितो, ध. स. अट्ठ. 344; - पच्चय पु., अधिपति-प्रत्यय के दो प्रभेदों में से एक, अधिपतिभूत आलम्बन, चित्त एवं चैतसिकों का वह (कुशल) आलम्बन अथवा ग्राह्य विषय जो अन्य आलम्बनों की अपेक्षा अधिक गुरु अथवा महत्त्वपूर्ण बन गया हो - येन तृ. वि. ए. व. - अधिपतिपच्चयेनाति आरम्मणाधिपतिपच्चयेन, विसुद्धि. महाटी. 2.255; - पच्चयता स्त्री॰, भाव., आरम्मणाधिपति – नामक प्रत्यय होने की स्थिति - य तृ. वि., ए. व. - निब्बानं आरम्मणाधिपतिपच्चयताय अत्तनि अनवज्जधम्मे नामेति, ध. स. अट्ठ. 414. आरम्मणानन्तर पु., द्व. स., आरम्मण-प्रत्यय एवं अनन्तर- प्रत्यय - रेहि तृ. वि., ब. व. - आरम्मणानन्तरेहि असम्मिस्सोति अत्थो, विसुद्धि. 2.165. आरम्मणानुभवन नपुं, तत्पु. स., आलम्बनों अथवा विषय का अनुभव, स. प. के रूप में, अनिट्ठ- न, अप्रिय आलम्बन का अनुभव - लक्खण त्रि., वह, जिसका लक्षण अप्रिय आलम्बन का अनुभव करना हो- णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अनिट्ठारम्मणानुभवनलक्खणं दोमनस्सं विसुद्धि. 2.88. आरम्मणानुमज्जन नपुं., तत्पु. स., आलम्बन का बारम्बार अनुचिन्तन - लक्खण त्रि., वह, जिसका लक्षण आलम्बन का पुनः पुनः अनुचिन्तन हो- णो पु., प्र. वि., ए. व. - विचरणं विचारो, ... स्वायं आरम्मणानुमज्जनलक्खणो, विसुद्धि. 1.137. आरम्मणान्वय पु.. तत्पु. स., आलम्बन का अनुगमन - येन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणअन्वयेन, उभो एकववत्थना, विसुद्धि. 2.276. आरम्मणाभिमुख त्रि., ब. स., आलम्बन की ओर उन्मुख, आलम्बन के ग्रहण में प्रवृत्त - खा पु., प्र. वि., ब. व. - चत्तारो खन्धा नाम, ते हि आरम्मणाभिमुखा नमन्ति, ध. स. अट्ठ. 414; - खं' स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - आरम्मणाभिमुखं सतिं ठपयित्वा, उदा. अट्ठ. 152; - खं' क्रि. वि. - आरम्मणाभिमुखं नमनतो चित्तस्स च नतिहेतुतो सब्बम्पि अरूपं नामन्ति वुच्चति, खु. पा. अट्ठ. 61; - नमन नपुं.. आलम्बन की ओर झुकाव, रूप आदि विषयों की ओर प्रवृत्ति - नं प्र. वि., ए. व. - आरम्मणाभिमुखनमनं आरम्मणेन विना अप्पवत्ति, तेन नमनटेन नामकरणद्वेन, विसुद्धि, महाटी. 2.329; - तो प. वि., ए. व. -- आरम्मणाभिमुखं नमनतो नमनटेन नाम, विसुद्धि. 2.220; - प्पवत्तसति त्रि., आलम्बन की ओर अभिमुख होकर प्रवृत्त स्मृति से युक्त, जागरुक स्मृति से युक्त - नं पु., ष. वि., ब. व. - निच्चं आरम्मणाभिमुखप्पवत्तसतीनमेतं अधिवचनं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).198; - भाव पु., आलम्बन की ओर अभिमुख या जागरुक होना- वेन तृ. वि., ए. व. - सतिपि मे आरम्मणाभिमुखभावेन उपट्टिता अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 3.205. आरम्मणाभिमुखीभाव पु., आलम्बन की ओर प्रवृत्ति, आलम्बन के प्रति जागरूकता - वेन तृ. वि., ए. व. - सतिपि मे आरम्मणाभिमुखीभावेन उपद्विता अहोसि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).131. आरम्मणिक त्रि., आरम्मण + इक के योग से व्यु., केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त [आलम्बनिक], आलम्बन से सम्बद्ध, रूप आदि छ आलम्बनों के साथ जुड़ा हुआ, छळा.- त्रि., छ आलम्बनों से सम्बद्ध - का पु., प्र. वि., ब. व. - इधेकचत्तालीसेव, छळारम्मणिका मता, अभि. अव. 364; तदा.- त्रि., उसे अपना आलम्बन बनाने वाला - तदारम्मणकं भवे. तदे. 444. आरम्मणिय त्रि., आ + (रम का सं. कृ. [आरमणीय], आनन्द लेने योग्य, आमोद-प्रमोद से भरपूर - यं नपुं. प्र. वि., ए. व. - उद्धच्चकुक्कुच्चरस रजनीयं आरम्मणियं अरसादियाकिन्द्रियं ताव अपरिपूण्णञ्च आणं पच्चयो, पेटको. 273. आरम्मणूपनिज्झान नपुं.. तत्पु. स., आलम्बन के विषय में अनुचिन्तन, आलम्बन पर चित्त की एकाग्रता, आलम्बन पर ध्यान लगाना - नं' प्र. वि., ए. व. - आरम्मणूपनिज्झानं, लक्खणूपनिज्झानन्ति दुविधं होति, पारा. अट्ट, 1.107; - नं द्वि. वि., ए. व. - झायस्सु आरम्मणूपनिज्झानं अनुयुञ्ज, थेरगा. अट्ठ. 2.88; - नेन तृ. वि., ए. व. - आरम्मणूपनिज्झानेन अट्ठतिंसारम्मणानि. म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).203; - तो प. वि., ए. व. - आरम्मणूपनिज्झानतो पच्चनीकज्झापनतो वा झानन्ति वेदितब्ब, ध, स. अट्ठ. 211; - ने सप्त. वि., ए. व. - आरम्मणूपनिज्झाने लक्खणूपनिज्झाने च रतो, थेरगा. अट्ठ. 1.58; - सङ्खात त्रि., आरम्मणूपनिज्झान नाम से प्रसिद्ध, स. प. में, -- लक्खणूपनिज्झानआरम्मणूपनिज्झानसङ्खातेहि झानेहि झायति, जा. अट्ठ. 5.240. For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आरम्मणूपनिज्झायन 181 आराधन आरम्मणूपनिज्झायन नपुं. तत्पु. स. , आलम्बन पर रि पु., द्वि. वि., ए. व. - अज्जतग्गे मं आयस्मन्तो ध्यान, आलम्बन पर चित्त की एकाग्रता, स. उ. प. में, - ब्रह्मचारिंधारेथ आराचारि अ. नि. 2(1).200; -- रिनो' पु., कसिणादिआरम्मणूपनिज्झायनतो, पारा. अट्ठ. 1.107. प्र. वि., ब. व. - ब्रह्मचारिनो धारेतु आराचारिनो विरता आरम्मणपनिस्सय पु०, उपनिस्सय-पच्चय के तीन प्रभेदों मेथुना गामधम्मा, अ. नि. 2(1).201; - रिनो' पु., वि. वि., में से वह प्रभेद जिसमें आलम्बन (कुशल धर्मों आदि के) ब. व. - ब्रह्मचारिनो धारेतु आराचरिनो, अ. नि. 2(1).201. सुदृढ़ आधार के रूप में उपनिस्सय-पच्चय बन जाते हैं - आरादेस पु., तत्पु. स., केवल व्याकरण में प्रयुक्त, व्याकरणयो प्र. वि., ए. व. - सो आरम्मणपनिस्सयो विषयक शब्द, 'आरा' का आदेश- तो प. वि., ए. व. - अनन्तरूपनिस्सयो पकतपनिस्सयोति तिविधो होति, विसुद्धि. ततो आरादेसतो सब्बेसं योनं ओकारादेसो होति सत्थारो 2.165; ... गरुकतब्बमत्तटेन आरम्मनाधिपति बलवकारणद्वेन ..., क. व्या. 205, 209. आरम्मणूपनिस्सयोति एवमेतेसं नानत्तं वेदितब्बं, तदे.; आराध क. पु., [आराध], आराधना, सम्मान-धो प्र. वि., सवितक्कसविचारो धम्मो सवितक्कसविचारस्स धम्मस्स ए. व. - आराधो मे रुओ, एवं आराधो मे राजानं, क. व्या. उपनिस्सयपच्चयेन पच्चयो- आरम्मपनिस्सयो..., पट्ठा. 279; ख. त्रि., सम्मान व्यक्त करने वाला, आराधना करने 2.80; 81-86; 138-143; 189-191; 248-250; 298-300; वाला-आराधो हं रुओ एवं आराधो हं राजानं, सद्द. 3.696%3; 335; - लक्खण नपुं.. सुदृढ़ आधार वाले आलम्बन रहने - पेक्ख त्रि., आराधना अथवा सम्मान करने की अपेक्षा का लक्षण - णेन तृ. वि., ए. व. - रखने वाला, सम्मान देने का इच्छुक - क्खो पु.. प्र. वि., आरम्मणपनिस्सयलक्खणेन उपनिस्सयपच्चये सङ्गहं गच्छति, ए. व. - आराधापेक्खो मञ्जुना सरेन गायि, महाव. 467. प. प. अट्ठ. 459. आराधक त्रि., आ + Vराध से व्यु. [आराधक]. श. अ.. आरम्मणोक्कन्तिक त्रि., आलम्बनों का परिहार करने सफल, उत्साही, उत्सुक, सम्पादक, पूर्ण कर देने वाला, वाला, आलम्बनों को लांघ जाने वाला-कं नपुं., प्र. वि., अच्छी तरह से प्राप्त, ला. अ., प्रसन्न कर देने वाला, ए. व. -- सुखुमं... झानोक्कन्तिकं आरम्मणोक्कन्तिक, म. श्रद्धा-युक्त, सम्मानभाव देने वाला, सन्तोषप्रद, सेवानि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).153. आराधना करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - आरा' स्त्री., [आरा], सुई, सूजा, टेकुआ - आरा तु अअतिथियपुब्बो आराधको होति, महाव. 88; कुद्धो सूचिविज्झनं, अभि. प. 528; ण-कारा, हारा, तारा, आरा, मो. आराधको होति, कुद्धो होति गरहियो, परि. 404; अभिन्नस्स व्या. 5.49; चम्मकारानं चम्मवेधने प्यारा, अभि. प. सूची 41. वा परबलस्स भेदेता भिन्नस्स वा सकबलस्स आराधको, आरा' अ., निपा. [आरात्], दूर का, (से) दूर, दूरवर्ती - जा. अट्ठ. 5.113; - कं पु., वि. वि., ए. व. - अरहन्तो आरा दूरा च आरका, अभि. प. 1157; आरादूरेति ... आराधकं पुग्गलं अरियमग्गेन पुनन्ति, जा. अट्ठ. 4. अञ्जमञ्जवेवचनं अतिदूरेति वा दस्सेन्ती एव माह, जा. 70; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - राजा नाम यस्स करसचि अट्ठ. 4.32; क. द्वि. वि. में अन्त होने वाले शब्द के साथ आराधकस्स पसीदित्वा वरितं वरं दत्वा कामेन तप्पयति - एवं आचिनतो दुक्खं आरा निब्बानमुच्चति, स. नि. ..., मि. प. 213; - का' पु., प्र. वि., ब. व. - भिक्खू 2(2).79; आरा सिङ्घामि वारिज, स. नि. 1(1).237; आराति आराधका अभविस्संसु. म. नि. 2.170; - का स्त्री., प्र. दूरे नाळे गहेत्वा ... वदति, स. नि. अट्ट, 1.262; ख. प... वि., ब. व. - भिक्खुनियो च आराधिका, एवमिदं ब्रह्मचरिय वि. में अन्त होने वाले शब्द के पूर्व-सर्ग के रूप में - परिपूरं तेनङ्गेन, म. नि. 2.170. आसवा तस्स वड्डन्ति आरा सो आसवक्खया, ध. प. 253; आराधन/आराधना नपुं./स्त्री., आ + vराध से व्यु., क्रि. सहनन्दी अमच्चेहि, आरा संयोजनक्खया, इतिवु. 53; ऊहते ना. [आराधना], क. कार्य का सम्पादन, कार्य की पूर्णता, चित्ते आरा चित्तं समाधिम्हाति, म. नि. 1.165; आराति दूरे सफलता, उपलब्धि, ख. अनुकूल वस्तु या व्यक्ति की म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).396. उपलब्धि या प्राप्ति, सन्तोष - आराधनं साधने च पत्तिय आराचारी त्रि., सदाचारी, पापकर्मों से दूर रहने वाला, शुद्ध परितोसने, अभि. प. 887; - ना प्र. वि., ए. व. - कथं आचार से सम्पन्न -री पु., प्र. वि., ए. व. - ब्रह्मचरियं आराधना होति, कथं होति विराधना, दी. नि. 2.212; .... आराचारी विरतो मेथुना गामधम्माति, दी. नि. 1.4; - आराधनाति सम्पादना, दी. नि. अट्ठ. 2.298; मिच्छत्तं For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आराधनीय 182 आराधेति आगम्म विराधना होति, नो आराधना, अ. नि. 3(2).180; - पु., प्र. वि., ए. व. - अरहत्तप्पत्तिया आराधितचित्तो. उदा. नं' नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अञथा आराधनं नाम नत्थीति अट्ठ. 149; सत्था तस्स पहब्याकरणेन आराधितचित्तो, दरसेति, अ. नि. अट्ठ. 3.300; - नं द्वि. वि., ए. व. - थेरगा. अट्ठ. 2.119; - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - परा उग्गज्जनं आराधनं सुत्वा, अप. अट्ठ. 2.41; - नाय नपुं.. थेरस्स अरियवंसपटिपत्तिया आराधितचित्तेन भगवता भासिता, च. वि., ए. व. - ब्राह्मणा, भो गोतम, पञ्च धम्मे पञपेन्ति थेरगा. अट्ठ. 2.287; - स्स पु.. ष. वि., ए. व. - पुञ्जस्स किरियाय, कुसलस्स आराधनाया ति. म. नि. वत्तपटिपत्तिया आराधितचित्तस्स तस्स सन्तिके, पारा. अट्ठ. 2.423; - नेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - महाजनकरुओ 2.20; - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - पयिरूपासनाय देविया आराधनेन, अप, अट्ठ. 1.208; - ने नपुं., सप्त. वि., आराधितचित्ता किञ्चि वत्तुकामा होन्ति, स. नि. अट्ठ. 1. ए. व. - रुओ आराधने अम्हाकं भारो, जा. अट्ठ 4.385%; 290; ग. पूजित, सत्कृत, सम्मानित, वन्दित- तो पु.. प्र. ग. सेवा, सम्मान, पूजा, वन्दना, विनती – नं' नपुं.. प्र... वि., ए. व. - आराधितो मे सम्बुद्धो, पब्बजि अनगारियं, वि., ए. व. - उद्दिस्साराधनं सम्मा लडिन्देन कतं तदा, चू. अप. 1.328; - ता ब. व. - यमरियधम्मने पुनन्ति वं. 57.36; - नं द्वि. वि., ए. व. - इति आराधनं कत्वा वुद्धा, आराधिता समचरियाय सन्तो, जा. अट्ठ. 4.69; - दूतं पाहेसि सब्बधि, चू. वं. 89.56; - नत्थ पु., प्रसन्न साधुमन्ती त्रि., सज्जन मन्त्रियों द्वारा अनुमोदित - न्तिं करने के निमित्त - त्थं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - सो पु., द्वि. वि., ए. व. - कुमारआराधितसाधुमन्तिं महादयं तस्सा आराधनत्थं निसीदित्वा पादे सम्बाहि जा. अट्ठ पण्डुनरिन्दवंसजं, दाठा. 1.7; - ताधिकार त्रि., ब. स., 6.46; - त्थाय च. वि., ए. व. - महाब्रह्मनो आराधनत्थाय अपने कर्तव्य का पूर्णरूप से पालन कर चुका व्यक्ति - रो ..., जा. अट्ट. 5.197. पु., प्र. वि., ए. व. - सुमेधो बोधिसत्तो मग्गसोधनादीहि आराधनीय त्रि., आ + Vराध का सं. कृ. [आराधनीय], पूर्ण आराधिताधिकारो, म. वं. टी. 42. करने योग्य, सम्पादित करने योग्य, प्राप्त करने योग्य - आराधेति/आराधयति आ + राध का प्रेर., वर्त, प्र. पु., यो पु०, प्र. वि., ए. व. - आराधनीयो ... धम्मो ए. व. [आराधयति, बौ. सं. आरागयति]. 1. निष्पादित आरद्धवीरियेनाति, पारा. 137: आराधनीयोति सक्का करता है, सफल परिणति तक पहुंचा देता है, (अञआ, आराधेत सम्पादेतुं निब्बत्तेतन्ति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.85; - अत्थ, अर्थ, हित) धम्म (धर्म), मग्ग (मार्ग), सील (शील) यं नपुं., वि. वि., ए. व. - कायेन वाचा मनसा तथा सील सम्पदा (शील सम्पत्) को प्रचुरता के साथ प्राप्त आराधनीयमे सति, चरिया. 375; सब्बथापि करता है, 2. अमत (अमृत), अरहत्त (अर्हत्त्व), निब्बान कायवचीमनोकम्मेहि यथा सो आराधितो होति, एवं आराध (निर्वाण) दक्खिना (दक्षिणा), दान तथा धन को उपलब्ध नीयं आराधनमेव एसति, चरिया. अट्ठ. 53. करता है, 3. आचरिय (आचार्य), गरु (गुरु), तापस, धीतर आराधिक त्रि., कार्य को पूर्ण कर देने वाला, सम्पादक, (पुत्री), राजा एवं सत्था (बुद्ध) की कृपा अथवा अनुग्रह का प्रसन्न कर देने वाला, आराधना या सम्मान करने वाला - लाभ पाता है, 4. चित्त को आह्लादित कर देता है, मन को पु., प्र. वि., ए. व. – सद्धा वे नन्दिका आराधिको, नो को प्रसन्न कर देता है, 5. सम्मान करता है, पूजातस्स सद्धोति, पेटको. 217. आराधना करता है - ... “यथा नरो आराधयति राजानं, आराधित त्रि., आ+राध का भू. क. कृ. [आराधित]. क. पूज लभति भत्तुसूति, जा. अट्ठ. 7.194; चोदको भिक्खु पूरा किया जा चुका, निष्पादित, पूर्णता को प्राप्त कर दिया अनुयोगेन विझूनं सब्रह्मचारीनं चित्तं न आराधेति, महाव. गया, प्राप्त कर लिया गया, अनुमोदित - ता स्त्री॰, प्र. 243; नो च खो पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति, दी. वि., ए. व. - तेनायस्मता जातिया सत्तवस्सेनेव अआ नि. 1.158; चित्तं आराधेतीति पहाविरसज्जनेन महाजनस्स आराधिता, खु. पा. अट्ठ. 59; तया अा आराधिताति, चित्तं परितोसेतियेव, दी. नि. अट्ठ. 1.268; - मि उ. पु., उदा. अट्ठ. 143; आराधितो मे सम्बुद्धो, पब्बजि अनगारियं, ए. व. - तेसाहं चित्तं आराधेमि पञ्हस्स वेय्याकरणेन, म. अप. 1.328; आराधितोम्हि सुगतं, गोतमं सक्यपुङ्गवं, अप. नि. 2.212; ... आराधेमीति ... गण्हामि सम्पादेमि परिपूरेमि, 1.386; ख. आह्लादित, प्रसन्न कर लिया गया, सन्तुष्ट - म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.172; आराधेमि सकं चित्तं विवज्जेमि चित्त त्रि., ब. स., प्रसन्न अथवा सन्तुष्ट चित्त वाला - त्तो अनेसनं, अप. 1.64; आराधेमीति आदितो पट्ठाय राधेमि वसे For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आराधेति 183 आराम वत्तेमीति अत्थो, विसुद्धि. महाटी. 1.66; - न्ति/धयन्ति प्र. पु., ब. व. - नो च खो पटिपन्ना आराधेन्तीति. दी. नि. 1.158; पूरेतु सक्कोन्ति, सब्बाकारेन पन पूरेन्ति, पटिपत्तिपरणेन तस्स भोतो गोतमस्स चित्तं आराधेन्तीति वत्तब्बा, दी. नि. अट्ठ. 1.268; आराधयन्ति सद्धम्म, योगक्खेमं अनुत्तर इतिवु. 79; आराधयन्तीति साधेन्ति सम्पादेन्ति. इतिवु. अट्ठ. 296; - धेन्त/धयन्त त्रि., वर्त. कृ. - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - अरहत्तं आराधेन्तो, स. नि. अट्ठ. 3.180; मित्ते आराधेन्तो तोसेन्तो, जा. अट्ठ. 4.245; - न्ती स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा सामिकं आराधेन्ती, अप. अट्ठ. 2.228; आराधयन्तो नाथस्स, वनवासेन मानसं विसुद्धि. 1.72; आराधयन्तोति अनुनयन्तो, विसुद्धि. महाटी. 1.91; - धयं उपरिवत्, पु.. प्र. वि., ए. व. - कातुं अत्तानुसासनं आराधयं अनिच्छन्तं, चू. वं. 57.33-34; - न्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - आराधयन्ता सततं निवत्तिंसु यथारुचिं, चू. वं. 59.48; - मान त्रि., वर्त. कृ., आत्मने, - मानेन पु., तृ. वि., ए. व. - एवं वत्तसम्पत्तिया गरुं आराध यमानेन सायं वन्दित्वा याहीति विस्सज्जितेन गन्तब्बं, विसुद्धि. 1.99; - न्तु अनु., प्र. पु., ब. व. - आराधेन्तु हितोपायमच्चन्तं सुखसाधनं, ना. रू. परि. 1342; - धेहि/धयाहि अनु., म. पु., ए. व. - सावूपसमं सुखं । आराधयाहि निब्बानं, थेरीगा. 6; आराधयाहि निब्बानन्ति कामसञआदीनं पापसानं उपसमनिमित्तं अच्चन्तसुखं निब्बानं आराधेहि, थेरीगा. अट्ठ. 13;-धेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सेय्यथापि भिक्खु ... अचं आराधेय्य, म. नि. 1.104; वसन्तो च आराधेय्य, आयं धम्म कुसल, म. नि. 2.200; - य्यासि म. पु., ए. व. -- पसादेय्यासीति आराधेय्यासि. दी. नि. अट्ठ. 2.263; आराधेय्यासि लभेय्यासीति, जा. अट्ठ. 4.342; - य्यं उ. पु., ए. व. - चित्तं न आराधेय्यं, दी. नि. 1.104; -धये' विधि., प्र. पु., ए. व. - आराधये दक्खिणेय्येभि तादि, सु. नि. 514; 494; ... सम्पादये सोधये, महप्फलं तं हुतं करेय्य न अञथाति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 2.127; - धये म. पु., ए. व. - अप्पेव आराधये दक्खिणेय्येति, जा. अट्ठ. 4.342; - येय्यं उ. पु., ए. व. - आराधयेय्यं सम्बुद्ध, अप. 1.327; - धेसि/धयी अद्य., प्र. पु., ए. व. - न सो भिक्खु । भगवतो चित्तं आराधेसि, स. नि. 1(2).94; आराधेसीति पच्चयाकारवसेन ब्याकारापेतकामस्स भगवतो तथा अब्याकरित्वा द्वत्तिसाकारवसेन ब्याकरोन्तो अज्झासयं गहेतं नासक्खि , स. नि. अट्ठ. 2.104; आराधयी सो निब्बानं, अ. नि. 2(2).15; आराधयीति परिपूरयि तं सम्पादेसीति, अ. नि. अट्ठ. 3.99; -धेसु/धयिंसु ब. व. - ओपम्मेहि तथागतं आराधेसुं तोसेसु पसादेसुं. मि. प. 200; आराधयिंसु वत मे, भिक्खवे, भिक्खू एक समयं चित्तं, म. नि. 1.1763; आराधयिंसूति गहिसु पूरयिंसु. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).3; - धयिं उ. पु., ए. व. - सचे सामि, अहं इमानि किच्चानि करोन्ती ओ दळहधम्मस्स चित्तं नाराधयिं न परितोसेसिं, जा. अट्ठ. 3.341; - धेस्सति/धयिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - ञायप्पटिपन्नो आयमाराधेस्सती ति. दी. नि. 3.89; को दानि अओ तस्स चित्तं आराधयिस्सति, जा. अट्ठ. 3.341; -धेस्सामि भवि. उ. पु., ए. व. - चित्तं आराधेस्सामि, दी. नि. 1.1053; मन्तबलेन आराधेस्सामि, स. नि. अट्ठ. 3.286; - धेतुं निमि. कृ. - आराधेतुं सम्पादेतुं निब्बत्तेतुन्ति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.85; मोक्खमग्गं वा आराधेतुं भब्बो होति, पारा. अट्ठ. 2.76; - घेत्वा/ घयित्वा/रम पू. का. कृ. - एतादिसं सो सत्थारं, आराधेत्वा विराधये, थेरगा. 511; आराधेत्वा इमस्मिं नवमे खणे पटिलभित्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.134; कदा इणट्टोव दलिद्दको निधिं आराधयित्वा धनिकेहि पीळितो, थेरगा. 1109; आराधयित्वा अधिगन्तवा इणञ्च सोधेत्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.396; .... आरब्भ, आरभित्वा, आरद्ध, आरभित्वा, क. व्या. 602; - घेतब्ब त्रि., सं. कृ. -ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - राजायेव हि नमस्सितब्बो च आराधेतब्बो, जा. अट्ठ. 7.194. आराम पु., आ + Vरम से व्यु., क्रि. ना. [आराम], शा. अ., अभिरति, मन का रम जाना, आह्लाद, आनन्द - मो प्र. वि., ए. व. - आरमनं आरामो, अभिरतीति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 3.182; ला. अ., 1. वासस्थान, रम जाने का स्थान, आनन्द प्राप्त करने का स्थान, आलम्बन, आश्रय, क्रीड़ा या आमोद-प्रमोद का स्थान - मो प्र. वि., ए. व. - वसनट्ठानद्वेन रूपं चक्खुस्स आरामोति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.153; कम्मं आरमितब्बतो आरामो, इतिवु. अट्ठ. 217; निवासनद्वेन समथविपस्सनाधम्मो आरामो, ध. प. अट्ठ. 2.336; ला. अ., 2. भिक्षुओं का सुख सुविधा-युक्त निवास-स्थान, प्राङ्गणयुक्त विहार, उद्यानयुक्त विहार - मो प्र. वि., ए. व. - तरुसण्डो स आरामो तथोपवनमुच्चते, अभि. प. 537; आरामो नाम यत्थ कत्थचि मनुस्सानं कीलितुं रमितुं कतं होति, पाचि. 408; आरामन्ति For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरामक 184 आरामट्ठ कीळनउपवन, पाचि. अट्ठ 202; आरमन्ति एत्थ पाणिनो विसेसेन वा पब्बजिताति आरामो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).65; आरामो कारापितो होति, महाव. 184; - मं द्वि. वि., ए. व. - पटिग्गहेसि भगवा आराम, महाव. 44; अनुजानामि, भिक्खवे, आराम'न्ति, तदे.; आरामेनेव आराम, जा. अट्ठ. 5.413; अञतरेन आरामेनेव अञ्जतरं आराम नेन्ति, जा. अट्ठ. 5.414; - स्स ष. वि., ए. व. - परिक्खित्तस्स आरामस्स परिक्खेपं अतिक्कमन्तस्स आपत्ति पाचित्तियस्स, पाचि. 62; दुग्गतिं नाभिजानामि, आरामस्स इदं फलं, अप. 1.269; - तो प. वि., ए. व. - आरामतो अविदूरे खन्धावारं निवासेत्वा, जा. अट्ठ. 4.137; -- मे सप्त. वि., ए. व. - भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे, महाव. 274: - मा प्र. वि., ब. व. - सत्त च आरामसहस्सानि सत्त च आरामसतानि सत्त च आरामा, महाव. 356; - मे द्वि. वि., ब. व. - आरामे, अय्या, करोथ, चूळव. 286; - मेसु सप्त. वि., ब. व. - द्वत्तिंस बोधितरुणे योजनियआरामेस पतिद्वापेसं पारा. अट्ठ. 1.69. आरामक' पु., आराम से व्यु., सुख-सुविधा-युक्त भिक्षुओं का वासस्थान, उपवनयुक्त वासस्थान – के सप्त. वि., ए. व. - आरामके सुरभिपुष्फ फलाभिरामे.... वासं अकासि, जि. च. 446(रो.). आरामकरा स्त्री०, अभिरति उत्पन्न कराने वाली नारी, आनन्द देने वाली नारी - सु सप्त. वि., ब. व. - नरानमारामकरासु नारिसु, अनेकचित्तासु अनिग्गहासु च, जा. अट्ठ. 5.432; आरामकरासूति अभिरतिकारिकासु, जा. अट्ठ. 5.435. आरामकोट्ठक नपुं, तत्पु. स. [आरामकोष्ठक], विहार के प्रवेशद्वार का बाहरी प्रकोष्ठ, विहार के मुख्यद्वार पर स्थित कमरा - के सप्त. वि., ए. व. - बहारामकोट्टके सकटपरिवर्ल्ड करित्वा अच्छन्ति, महाव. 315; आरामं गन्त्वा पत्तचीवरं पटिसामेत्वा बहारामकोट्टके सङ्घाटिपल्लत्थिकाय निसीदिसुं चूळव. 180; बहारामकोटकोति वेळु वनविहारस्स बहिद्वारकोटके, पारा. अट्ठ. 2.151. आरामगत त्रि., तत्पु. स. [आरामगत], आराम अथवा विहार में गया हुआ, आराम में पहुंचा हुआ या विहार में एकत्रित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आरामगतो निसीदति पञत्ते आसने, म. नि. 2.348; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - आरामगतं भिक्खु पस्सेय्य सुधोतहत्थपाद, म. नि. 2.123; - स्स पु., च./ष. वि., ए.व. - 'तस्स ते आरामगतस्स यो तज्जो छन्दो सो पटिप्पस्सद्धोति,? स. नि. 3(2).344; - तानं पु., च./ष. वि., ब. व. - आरामगतानं भिक्खूनं धम्म देसेय्य, म. नि. 1.36%; आरामगतानन्ति विहारे सन्निपतितानं, म. नि. अट्ठ, (म.प.) 1(1).156. आरामगोनिसादिका स्त्री., आराम की गोशाला, विहार की वह भूमि जहां न उद्यान हो न निवास स्थान (प्रकोष्ठ) हों, विहार की खुली हुई जगह - का प्र. वि., ए. व. - यत्थ नेव आरामो न सेनासनानि परिक्खित्तानि होन्ति, अयं आरामगोनिसादिका नाम, महाव. अट्ठ. 359. आरामगोपक पु., उद्यानरक्षक, माली - को प्र. वि., ए. व. - आरामगोपको हत्वा जीवन्तो, थेरगा. अट्ठ. 1.343; - का प्र. वि., ब. व. - भिक्खुसङ्घस्स पन आरामगोपका यं अत्तनो भतिया खण्डेत्वा देन्ति, एतं वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.312; -- किच्च नपुं.. तत्पु. स., उद्यानरक्षक या माली का काम - च्चं द्वि. वि., ए. व. - रट्ठवासिनो च आरामगोपककिच्चं कारापेसी, सा. वं. 133(ना.);- कुल नपुं.. तत्पु. स., उद्यानरक्षक का कुल, माली का कुल - ले सप्त. वि., ए. व. - आरामगोपककुले निब्बत्तित्वा, थेरगा. अट्ठ. 1.388; - लानि द्वि. वि., ब. व. - खेत्तवत्थूनि अदासि आरामगोपककुलानि च सा. वं. 80(ना.). आरामचेतिय नपुं, उद्यान-युक्त चैत्य, पुष्पों एवं फलों के ढेरों से युक्त आराम - यानि प्र. वि., ब. व. - तानि आरामचेतियानि वनचरियानि रुक्खचेतियानि भिंसनकानि सलोमहंसानि तथारूपेसु सेनासनेसु विहरामि, म. नि. 1.27; पुप्फारामफलारामादयो आरामा एव आरामचेतियानि, चित्तीकतढेन हि चेतियानीति वुच्चन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).126. आरामचेत्य नपुं, उपरिवत् - त्या प्र. वि., ब. व. - आरामचे त्या वनचेत्या, पोक्खरओ सुनिम्मिता मनुस्सरामणेय्यस्स, कलं नाग्घन्ति सोळसिं, स. नि. 1(1).269; आरामचेत्याति आरामचेतियानि. स. नि. अट्ठ. 1.305. आरामट्ठ त्रि., [आरामस्थ], आराम में स्थित, आराम में रखा हुआ - टुं' नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - आरामटुं नाम भण्ड आरामे चतूहि ठानेहि निक्खितं होति भूमट्ठ थललु, आकासढ़ वेहासढ़ पारा. 56; -8 द्वि. वि., ए. व. - आरामट्ठ भण्ड पE For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आरामट्ठकविनिच्छय अवहरिस्सामीति, तदे。; - द्वे सप्त. वि., ए. व. - आरामद्वेपि आरामं ताव दस्सेन्तो, पारा. अट्ठ. 1.270. आरामकविनिच्छय पु० तत्पु० स०, आराम में स्थित रहने के विषय में निश्चय येन तृ. वि., ए. व. आरामद्वकविनिच्छयेन विनिच्छिनितब्ब, पारा. अट्ठ. 1.277. आरामट्ठकथा स्त्री०, 1. पारा. अट्ठ० के एक खण्ड का शीर्षक, पारा. अ. 1.270-271; 2. विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक, विन. वि. 151-153. आरामता स्त्री०, आराम का भाव, आमोद-प्रमोद से परिपूर्णता, आनन्दमयता ता प्र. वि., ए. व. - पञ्चविधे संसग्गे आरामता, अ. नि. अट्ठ. 3.250. आरामदण्ड पु०, एक ब्राह्मण का नाम ण्डो प्र. वि., ए. व. आरामदण्डो ब्राह्मणो, अ. नि. 1 (1).82; ब्राह्मणादीहि तृ. वि., ब. व. - आरामदण्डब्राह्मणादीहि मनुस्सेहि, उदा. अट्ठ. 3. आरामदान नपुं०, तत्पु० स० [आरामदान ], उद्यान का दान, उद्यान-युक्त स्थल का विहार के रूप में प्रयोग करने हेतु दान - नेन तृ. वि., ए. व. इमिनारामदानेन, चेतनापणिधीहि च, भवे निब्बत्तमानोह, अप. 1.36. आरामदायक पु०, स० उ. प. में प्रयुक्त, 1 आराम का दान करने वाला, 2. एक स्थविर का नाम, सङ्घा • संघ के लिए आराम का दान करने वाला - को प्र. वि., ए. व. सङ्घारामदायको तापसो सुमापितं ... पादासि, अप. अ. 1.285; इदं सुदं आयस्मा आरामदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.269. आरामदूसकजातक नपुं०, अनेक जातक कथानकों का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.243-245; जा० अट्ठ 2.285-287. आरामदेवता स्त्री, तत्पु० स०, उद्यान का देवता - ता प्र० वि., ए. व. आरामदेवता वनदेवता रुक्खदेवता ... म. नि. 1.387; आरामदेवताति तत्थ तत्थ पुप्फारामफलारामेसु अधिवत्था देवता, म० नि० अट्ठ. ( मू.प.) 1(2).265. आरामद्वार नपुं०, तत्पु० स०, विहार का बाहरी द्वार, आराम का बाहरी दरवाजा - रा प वि., ए. व. आरामद्वारा निक्खम्म, पदुमुत्तरो महामुनि, अप. 1.49; आरामद्वाराति सब्बसत्तानं धम्मदेसनत्थाय विहारद्वारतो निक्खमित्वा, अप. अट्ट. 1.320. आरामनिस्सयी त्रि. उद्यान के समीप निवास करने वाला, आराम में आश्रय लेकर रहने वाला - यी पु०, प्र. वि., ए. व. - अहमस्मि भो गोतम आरामनिस्सयी परिसावचरो, स. - — - www.kobatirth.org - - 185 आरामरुक्ख नि. 3(1).90; आरामं निस्साय वसनभावेन आरामनिस्सयी, स. नि. अट्ठ 3.182. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरामपत्त त्रि, तत्पु० स० [आरामप्राप्त], आराम में पहुंचा हुआ, उद्यान में पहुंच चुका त्तानं पु, ष० वि०, ब० व. तेसमारामपत्तानं, धम्मं देसेसि चक्खुमा अप. 2.348. आरामपाल पु०, उद्यान-रक्षक, माली, आराम की रक्षा करने वाला - लो प्र. वि., ए. व. आरामपालो आरामं गन्त्वा अम्बरुक्खमूलेसु पंसुं अपनेत्वा तादिसं पंसुं आकिरि, वि. व. अट्ठ. 242; लं द्वि. वि., ए. व. सो आरामपालं आह, वि. व. अट्ठ. 242. आरामप्पवेसन नपुं,, तत्पु० स० [ आरामप्रवेशन], उद्यान का प्रवेश द्वार, विहार का प्रवेश द्वार - नं. प्र. वि., ए. व. भिक्खुनिया तियोजने ठत्वा आरामप्पवेसनं आपुच्छितब्ब भविस्सति, महाव. अट्ठ. 394. आराममरियादक त्रि०, ब० स०, विहार की सीमा के अन्दर आने वाला, आराम की सीमा के अन्तर्गत कं नपुं., द्वि. वि॰, ए॰ व॰ – पादा नगरगल्लं च आराममरियादक, चू. वं. 48.36. आरामरक्खक पु०, उद्यान का रक्षक, माली, आराम (विहार) का रक्षक - का प्र० वि०, ब० व. - गिहीनं आरामरक्खका भिक्खूनं देन्ति, पारा. अट्ठ. 1.312. आरामरक्खनक पु०, उद्यान की रखवाली करने वाला को प्र. वि., ए. व. - आरामरक्खनको मक्कटो, जा. अट्ठ. - For Private and Personal Use Only - - - - 1.244. आरामरम्म पु०/नपुं॰, कर्म, स., आराम अथवा विहार का रमणीय वासस्थान, रमणीय या सुखदायक आराम - म्मं द्वि. वि., ए. व. अनिच्छन्तं व नेत्वातमारामरम्ममुत्तम, जि . च. 399 (रो.). आरामरामणेय्यक नपुं०, तत्पु० स०, उद्यान की रमणीयता अथवा सुन्दरता कं' प्र. वि., ए. व. सेय्यथापि, भिक्खवे, अप्पमत्तकं इमस्मिं जम्बुदीपे आरामरामणेय्यक, अ. नि. 1 (1).48; आरामरामणेय्यकन्ति पुप्फारामफलारामानं रामणेय्यक, अ. नि. अट्ठ. 1.364; - कं द्वि. वि., ए. व. सुपिनकं परिसता आरामरामणेय्यक' पोक्खरणीरामणेय्यक न्ति दी. नि. 2.248. आरामरुक्ख नपुं., तत्पु० स० [आरामवृक्ष ], उद्यान का वृक्ष, बाग का वृक्ष, आनन्ददायक अथवा मनोहारी वृक्ष क्खे / क्खानि द्वि० वि०, ब० व. - आरामरुक्खानि च रोपयिस्स, वि. व 1131; आरामरुक्खानि चा आरामभूते Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरामरोप 186 आरामिक रुक्खे, वि. व. अट्ठ. 255; सुवण्णरसधारापरिसेक पिञ्जरपत्तपुप्फफलविटपे विय आरामरुक्खे करिंस, स. नि. अट्ठ. 3.87; - चेतिय/चेत्य नपुं॰, द्व. स., आराम अथवा विहार के वृक्ष एवं चैत्य – त्यानि द्वि. वि., ब. व. - बहु वे सरणं यन्ति ... आरामरुक्खचेत्यानि, मनुस्सा भयतज्जिता, ध. प. 188; वेळुवन जीवकम्बवनादयो आरामे च उदेनचेतियगोतमचेतियादीनि रुक्खचेत्यानि च, ध. प. अट्ठ. 2.142. आरामरोप पु., उद्यानों को रोपने वाला, बाग बगीचा में वृक्षों, लताओं एवं पौधों को लगाने वाला (माली) – पा प्र. वि., ब. व. - आरामरोपा वनरोपा, ये जना सेतुकारका, स. नि. 1(1).38; आरामरोपाति पुप्फारामफलारामरोपका, स. नि. अट्ठ. 1.79. आरामरोपन नपुं., तत्पु. स., उद्यानों को रोपना, उद्यान तैयार करना, बाग लगाना, स. प. के अन्त., - आरामरोपनसेतुबन्धनचङ्कमनकरणादीसु पुञकम्मेसु पसुतो हुत्वा , पे. व. अट्ठ. 131. आरामवग्ग पु., पाचि. तथा परि. के कुछ वग्गों का शीर्षक, पाचि. 419-432; पाचि. अट्ठ. 206-209; परि. 127-129; 149-150. आरामवत्थु नपुं., क. विहार का स्थल, विहारों के निर्माण के लिए निर्धारित भूखण्ड, उजड़ चुके विहारों के स्थान पर खाली पड़ा भूखण्ड - त्थु प्र. वि., ए. व. - आरामवत्थु कारापितं होति, महाव. 184; आरामवत्थु नाम तेसंयेव आरामानं अत्थाय परिच्छिन्दित्वा ठपितोकासो, तेसु वा आरामेसु विनडेसु तेसं पोराणकभूमिभागो, चूळव. अट्ठ. 76; यथा आरामस्स वत्थुभूतपुब्बो पदेसो आरामस्स अभावे "आरामवत्थूति वुच्चति..., सारत्थ. टी. 1.298; ख. उद्यान लगाने के लिए तैयार किया गया भूखण्ड, वह क्षेत्र जिसे तीन ओर से घेराबन्दी करके भविष्य में उद्यान लगाने हेतु खाली छोड़ दिया गया है - वत्थु नाम आरामवत्थु विहारवत्थु, पारा. 57; बीजं वा उपरोपके वा अरोपेत्वाव केवलं भूमि सोधेत्वा तिण्णं पाकारानं येन केनचि परिक्खिपित्वा वा अपरिक्खिपित्वा वा पुप्फारामादीनं अत्थाय ठपितो भूमिभागो आरामवत्थु नाम, पारा. अट्ठ. 1.273. आरामवनमाली त्रि., उद्यानों एवं वनों के पुष्पों की माला को धारण करने वाला - लिनिं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. -- कदाहं मिथिलं फीतं, आरामवनमालिनि पहाय पब्बजिस्सामि, जा. अट्ठ. 6.54. आरामसम्पन्न त्रि., तत्पु. स., उद्यानों से युक्त, बाग-बगीचों से भरपूर - न्नं नपुं., वि. वि., ए. व. - पस्सेय्य पुराण नगरं ... आरामसम्पन्न, स. नि. 1(2).93. आरामसामिक पु., तत्पु. स. [आरामस्वामी], उद्यान का स्वामी, बगीचे का मालिक - कं द्वि. वि., ए. व. - ... कूटसक्खिं ओतारेत्वा आरामसामिकं जिनातीति अत्थो, पारा. अट्ट, 1.271; - स्स ष. वि., ए. व. - ... आरामसामिकस्स संसयं जनेति, पारा. अट्ठ. 1.270. आरामसील त्रि., ब. स., उद्यानों में जाने का शौकीन स्वभाव से ही उद्यानों का प्रेमी - ला स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - आरामसीला च उय्यानं, नदी आति, परकुलं, आदासदुस्समण्डनमनयुत्ता, या चित्थी मज्जपायिनी, जा. अट्ठ. 5.431. आरामस्स पु./नपुं.. व्य. सं., श्रीलङ्का के एक प्राचीन ग्राम का नाम - स्सं द्वि. वि., ए. व. - लोहरूपस्स पादासि आरामस्सं च गामक, चू. वं. 49.17. आरामाभिमुख त्रि., उद्यान की ओर उन्मुख - खं नपुं., द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि., बाग की ओर - पटिबद्धचित्तो अस्सं तं आरामाभिमुखं पेसेसि, जा. अट्ठ. 3.359. आरामिक त्रि., [आरामिक], 1. उद्यान में रहने वाला, उद्यान के साथ जुड़ा हुआ, उद्यानरक्षक - को पु., प्र. वि., ए. व. - हापेति अत्थं दुम्मेधो, कपि आरामिको यथाति, जा. अट्ठ. 1.244; आरामिको यथाति यथा आरामे नियत्तो आरामरक्खनको मक्कटो, तदे..; 2. उद्यान अथवा वन के आवासों में निवास करने वाला (भिक्षु). वनवासी भिक्षु, कुटी में रहने वाला (भिक्षु) - कानं पृ., ष. वि., ब. व. - आरामिकानं भिक्खूनं आरामेस तहिं तहिं एक एक कुटिं कत्वा ..., चू. वं. 52.19; 3. पु., आराम अथवा विहार का कर्मचारी, विहार का प्रबन्धक अथवा अधिकारी-को प्र. वि., ए. व. - न... भगवता आरामिको अनुज्ञातो, महाव. 283; यो मया, भणे, अय्यस्स आरामिको पटिस्सुतो, दिन्नो सो आरामिको ति, महाव. 284; - कं द्वि. वि., ए. व. - अयस्स आरामिक दम्मी ति, महाव. 284; - केन तृ. वि., ए. व. - अत्थो, भन्ते, अय्यरस आरामिकेनाति, महाव. 283; - स्स ष. वि., ए. व. - आरामिकस्स निवेसनं. महाव. 284; - का प्र. वि., ब. व. - आरामिका दिस्वा दीघभाणकअभयत्थेरस्स आरोचेसुंपारा, अट्ठ. 2.62; -- के द्वि. वि., ब. व. - भिक्खुसङ्घस्स आरामिके देमाति, महाव. अट्ट, 269; - केहि तृ. वि., ब. व. - आरामकेहि सद्धि For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरामिक 187 आराव एकतो खादति, पारा. अट्ठ. 2.282; - कानं ष. वि., ब. व. - भिक्खुनं वा आरामिकानं वा पत्तभागम्पि लभित्वा ..., पारा. अट्ठ. 2.245; - केसु सप्त. वि., ब. व. -- आरामिकेसु आगतेसु अम्हाकं भारं करोथ, स. नि. अट्ठ. 3.81; - किच्च नपुं., तत्पु. स., किसी विहार में सेवक अथवा सहायक का काम - च्चं द्वि. वि., ए. व. - ... आरामिककिच्चं साधेन्ता ... निच्चं महादानं अदंसु, जा. अट्ठ. 1.48; - कुल नपुं, तत्पु. स., उद्यान-कर्मचारी का कुल, विहार अथवा आराम के सेवक का कुल - लं' प्र. वि., ए. व. - कहं इमं आरामिककुलं गतान्ति, महाव. 285; - लं' वि. वि., ए. व. - राजा ... तं आरामिककुलं बन्धापेसि, महाव. 285; - गाम पु., तत्पु. स., आराम अथवा विहार में काम करने वाले लोगों का ग्राम - मे द्वि. वि., ब. व. - भोगगामे च दापयि तथारामिकगामे च. च. वं. 52.26; - दारक पु., विहार में सेवक या सहायक के रूप में काम करने वाले का पुत्र, आराम में काम करने वाला बालक - केहि तृ. वि., ब. व. - आरमिकदारकेहि संसट्ठो, स. नि. अट्ठ. 3.76; - दास पु., कर्म. स., विहार में काम करने वाला दास, आराम में काम कर रहा सेवक - सा प्र. वि., ब. व. - विहारेसु राजूहि आरामिकदासा नाम दिन्ना होन्ति, महाव. अट्ट. 269; - पेसक पु., विहार में काम कर रहे कर्मचारियों का अधिष्ठाता अथवा अधीक्षक - को प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन सङ्घस्स ... आरामिकपेसको न होति, चूळव. 310; - भाव पु., उद्यानपाल होना, माली होना, उद्यानपालत्व - वं द्वि. वि., ए. व. - ... आरामिकभावं पत्थयमानो..., पारा. 26; - भूत त्रि., वह जो आराम अथवा विहार का सेवक हो चुका है, विहार का कर्मचारी बन चुका व्यक्ति - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ते आरामिकभूता वा उपासकभूता वा पञ्चसिक्खापदे समादाय वत्तन्ति, म. नि. 2.207; - वेवचन नपुं., तत्पु. स., आरामिक का पर्याय, आरामिक के लिए प्रयुक्त उपाधिनेन तृ. वि., ए. व. - कप्पियकारकोति.... वेय्यावच्चकरो, अप्पहरितकारको, यागुभाजको, फलभाजको, खज्जकभाजकोति... आरामिकवेवचनेन ... होति, पारा. अट्ठ. 1.201; - सदिस त्रि., आरामिक के जैसा, विहार के सेवक अथवा कर्मचारी के समान - सा स्त्री., द्वि. वि., ब. व. - आरामिकसदिसा एते उपासिके, स. नि. अट्ठ. 3.2463; - समणुद्देस पु., 1. द्व. स., आराम के कर्मचारी एवं श्रामणेर, 2. कर्म स०, आरामिक का काम करने वाला श्रामणेर - से द्वि. वि., ब. व.- मुकेन आरामिकसमणुद्देसे पक्कोसित्वा सोधापेत्वा... वसितब्बं विसुद्धि. 1.72-73; - सेहि तृ. वि., ब. व. - भविस्सन्ति भिक्खू अनागतमद्धानं आरामिक समणुद्दे से हि संसट्ठा विहरिस्सन्ति, आरामिकसमणुद्देसेहि संसग्गे ... पाटिकङ्ख अ. नि. 2(1).102; - सेसु सप्त. वि., ब. व. - तावदेवस्स तिब्ब हिरोत्तप्पं पच्चुपद्वितं होति भिक्खूसु भिक्खुनीसु उपासकेसु उपासिकासु अन्तमसो आरामिकसमणुद्देसेसु, अ. नि. 1(2).91. आरामिकगामक पु., व्य. सं., राजगृह के समीप में स्थित एक गांव का नाम, जिसका दूसरा नाम पिलिन्दगामक भी था - को प्र. वि., ए. व. - आरामिकगामकोति पिनं आहंस, पिलिन्दगामको तिपि नं आहंसु, महाव. 284. आरामिकिनी स्त्री., आराम अथवा विहार में काम करने वाली नारी, विहार की परिचारिका - नी प्र. वि., ए. व. - सा आरामिकिनी तंतिणण्डुपकं गहेत्वा तस्सा दारिकाय सीसे पटिमुञ्चि, महाव. 284; - नि द्वि. वि., ए. व. - तं आरामिकिनिं एतदवोच, महाव. 284; - निया ष. वि., ए. व. - तस्सा आरामिकिनिया धीता, महाव. 284. आरामुय्यानोपवनतळाकपोक्खरणिसम्पन्न त्रि., द्व. स./तत्पु. स., आरामों, उद्यानों, उपवनों, तालाबों एवं पुष्करणियों से युक्त – न्नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सागलं नाम नगरं... आरामय्यानोपवनतळाकपोक्खरणिसम्पन्नं, मि. प.2. आरामूपचार पु., तत्पु. स., आराम अथवा विहार का पार्श्ववर्ती क्षेत्र, विहार का अहाता, विहार का उपक्षेत्र - रं द्वि. वि., ए. व. - आरामं आरामूपचारं ठपेत्वा (आगन्त्वा), पाचि. 241; आरामूपचारं ठपेत्वाति आरञकसेनासनारामञ्च तस्स उपचारञ्च ठपेत्वा, पाचि. अट्ठ. 147; - रे सप्त. वि., ए. व. - आरामे आरामूपचारे चोरानं निविट्ठोकासो दिस्सति, पाचि. 240; तं दस्सेतं आरामे आरामपचारेतिआदि वुत्तं, पारा. अट्ठ. 2.28... आरामूपवन नपुं., द्व. स., उद्यान एवं उपवन - नानि प्र. वि., ब. व. - आरामानीति आरामूपवनानीति अत्थो, पे. व. अट्ट, 91. आराव पु., आ + रु से व्यु., [आराव], आवाज, ऊंची आवाज, हल्ला, ध्वनि - आराव-संराव-विराव-घोसारवा सुतित्थी सर निस्सनो च, अभि. प. 128. For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आरिय 188 आरुप्प आरिय त्रि., अरिय से व्यु., क. आर्य जाति का, ख. एक जनजाति के लिए प्रयुक्त - ये पु., द्वि. वि., ब. व. - ठकुरप्पमुखे सब्बे पुछिसु आरिये भटे, चू. वं. 90.27. आरियक्खत्तयोद्धा पु., श्रीलङ्का में राजा द्वारा चुने गए योद्धाओं का एक वर्ग - नं च. वि., ब. व. - आरियक्खत्तयोद्धानं भत्तिं दातुं समारभुं, चू. वं. 90.16. आरियचक्कवत्ती पु., व्य. सं., एक प्राचीन तमिल-सेनापति का नाम अथवा उपाधि - त्ती प्र. वि., ए. व. - आरियचक्कवत्तीति विस्सुतो नारियो पि सो, चू, वं. 90.44. आरियमुनित्थेर पु., व्य. सं., एक स्थविर के लिए प्रयुक्त नाम अथवा उपाधि-रं द्वि. वि., ए. व. - दुतियारियमुनित्थेरं ससंघ हि निमन्तिय, चू, वं. 100.95. आरिस्स नपुं., भाव., इसि से व्यु. [आर्थ्य], ऋषि-भाव, ऋषि या मुनि की अवस्था, ऋषि से सम्बद्ध होना - स्सं प्र. वि., ए.व.- इसिस्स भावो आरिस्सं.क. व्या. 404; आदिविकारो ताव - आरिस्सं ..., क. व्या. 406. आरुण्ण नपुं., आ + (रुद से व्यु., रोना, विलाप, रोदन, स. प. में प्रयुक्त - अताणो असरणो आरुण्णरुण्णकारुअरवं परिदेवमानो, मि. प. 322. आरुप्प/आरुप/अरुप पु./नपुं., अरूप से व्यु. [बौ.. सं., आरूप्य], 1. रूपरहित आलम्बनों वाला, अरूपध्यान, आकाश की अनन्तता, विज्ञान का आयतन, अकिञ्चनता का आयतन तथा न संज्ञा एवं न असंज्ञा का आयतन, इन। रूपरहित चार आलम्बनों वाला अरूप ध्यान, 2. अरूप-भव, तीन प्रकार के भवों में से तृतीय भव, रूपरहित ब्रह्मा का लोक, 3. अरूप-धातु - पं प्र. वि., ए. व. -- रूपानमेतं निस्सरणं यदिदं अरूप, दी. नि. 3.220; रूपानं निस्सरणं यदिदं आरुप्पन्ति एत्थ आरुप्पेपि अरहत्तमग्गो, दी. नि. अट्ठ. 3.222; ... अप्पन पापुणाति, आरम्मणातिक्कमभावनावसेन आरुप्पं, विसुद्धि. 1.230; - प्पं द्वि. वि., ए. व. - असदिसरूपो नाथो, आरुप्पं यं चतुबिधं आह, विसुद्धि. 1.328; उद्धवा आरुप्पं अधो कामष्ट तुं तिरिय रूपधातुं अनवसेस फरन्तो, खु. पा. अट्ठ. 202; - तो प. वि., ए. व. - आरुप्पतो हि अस्मिम्पि पञ्चवोकारभवे तं विपाकनामं हदयवत्थुनो सहायं हुत्वा ..., विभ. अट्ठ. 166; - स्स ष. वि., ए. व. - आरुप्पस्स च निरोधस्स च गहणं अञत्थ पाठे वृत्तक्कमेनेव कतं. पटि. म. अट्ठ. 2.296; - प्पे सप्त. वि., ए. व. - आरुप्पे परस्स चित्तं जानितकामो .... पटि. म. अट्ठ. 1.284; नाममेव हि आरुप्पे, पटिसन्धिपवत्तिस, विभ. अट्ठ. 165; - प्पा पु., प्र. वि., ब. व. - अरूपे आरम्मणे पवत्ता आरुप्पा, अभि. ध. वि. 226; ये ते सन्ता विमोक्खा, अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा, ते कायेन फुसित्वा विहरेय्य न्ति, म. नि. 1.42; आरुप्पाति आरम्मणतो च विपाकतो च रूपविरहिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).171; - प्पानि नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - पञ्च रूपावचरानि चत्तारि च आरुप्पानि, विसुद्धि. 2.177; - प्पे पु., द्वि. वि., ब. व. - चत्तारो आरुप्पे गहिसु.ध. स. अट्ठ. 16; -- पेहि' पु.. तृ. वि., ब. व. - पञ्च सुद्धावासा चतूहि आरूपेहि सद्धि नवाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).229; - पेहि प. वि., ब. व. - अरूपेहि निरोधो सन्ततरोति, सु. नि. (पृ.) 195; - प्पानं ष. वि., ब. व. - अरूपावचरं चतुन्नं आरुप्पानं योगवसेन चतुबिधं, विसुद्धि. 2.80; - पेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - चतूसु पन आरुप्पेसु आरम्मणसमतिक्कमो होति, विसुद्धि. 1.109; अरूप्पेसु असण्ठिताति, इतिवु. अट्ठ. 195; - कथा स्त्री., कथा. के छठे वर्ग की चौथी कथा का शीर्षक, कथा. 271-272; प. प. अट्ठ. 189; - किरिया स्त्री., अरूपावचरभूमि के चार प्रकार के क्रियाचित्त - या प्र. वि., ब. व. - चतस्सो आरूप्पकिरिया, विभ. अट्ठ. 23; - कुसल नपुं.. तत्पु. स., अरुपावचरभूमि के चार कुशलचित्त - लानि प्र. वि., ब. व. - चत्तारि आरुप्पकुसलानि, विभ. अट्ठ. 23; - गमन नपुं.. तत्पु. स., अरूपभूमि अथवा अरूपलोक में पुनर्जन्म का ग्रहण - नं प्र. वि., ए. व. - पटिसन्धिवसेन अरूपगमन, सु. नि. अट्ठ. 2.188; - चित्त नपुं., अरूपावचरभूमि का चित्त, स. उ. प. के रूप में, दुतिया.- अरूपावचरभूमि का द्वितीय चित्त, जिसका आलम्बन विज्ञान का आयतन होता है - त्तं प्र. वि., ए. व. - दुतियारुप्पचित्तञ्च, चतुत्थारुप्पमानसं, अभि. अव. 314; - चुति स्त्री., तत्पु. स., अरूप-भूमि अथवा रूपरहित ब्रह्मलोकों में मृत्यु, अरूप-धातु में जीवन से बिलगाव - या तृ. वि., ए. व. - आरुप्पचुतियापि अनन्तरा पटिसन्धि वेदितब्बा, विसुद्धि. 2.181; अरूपावचरे च... हेट्ठिमा हेट्ठिमा पटिसन्धि नत्थीति चतुत्थारुप्पचुतिया नवत्तब्बारम्मणपटिसन्धि नत्थि विसुद्धि. महाटी. 2.283; -चेतस नपुं., कर्म. स., अरूपावचरध्यान का चित्त, स. उ. प. के रूप में, दुतिया.- द्वितीय अरूपध्यान का कुशलचित्त एवं विपाकचित्त - सो ष. वि., ए. व. - पठमारुप्पकुसलं दुतियारुप्पचेतसो, अभि. अव. 366; - For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरुप्प 189 आरुय्ह ज्झान नपुं. कर्म. स., अरूपध्यान, रूपरहित चार आलम्बनों पर ध्यान - स्स ष. वि., ए. व. - ततियस्स आरुप्पज्झानस्स आरम्मणत्ता, पटि. म. अट्ठ. 2.144; - नानि प्र. वि., ब. व. - चत्तारि आरुप्पझानानिपि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 1(1).171; - द्वायी त्रि., अरूपध्यान में स्थित, अरूपलोक अथवा रूप-रहित ब्रह्मलोकों में विद्यमान - यिनो पु., प्र. वि., ब. व. - अरूपट्ठायिनोति अरूपावचरा, इतिवु. अट्ठ. 195; ये च रूपूपगा सत्ता, ये च अरूपठ्ठायिनो, इतिवु. 463; सु. नि. 759; - देसना स्त्री., तत्पु. स., अरूपध्यान अथवा अरूप-भूमि के विषय में उपदेश - नं द्वि. वि., ए. व. - सब्बप्पकारेन आरुप्पदेसनमेव भजति, ध. स. अट्ठ. 231; -- निद्देस पु., विसुद्धि के दसवें परिच्छेद का शीर्षक, इस परिच्छेद में चार अरूपध्यानों का विवेचन है, विसुद्धि. 1.316-331; विसुद्धि. महाटी. 1.370-387; - पटिसन्धि स्त्री., तत्पु. स., अरूप-लोक में पुनर्जन्म, रूपरहित ब्रह्मलोकों में पुनर्जन्म का ग्रहण - या ष. वि., ए. व. - अरूपपटिसन्धिया ... कम्मनिमित्तमेव यथारहमारम्मणं होति, अभि. ध. स. 40; - पादक त्रि., अरूपध्यान अथवा अरूपलोक को प्राप्त कराने वाला-कं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - "आरुप्पपादकं फलसमापत्ति न्ति, उदा. अट्ठ. 1983; - बोधन नपुं, तत्पु. स., अरूपध्यान-विषयक ज्ञान, स. उ. प. के रूप में, चतुत्था.- चौथे अरूपध्यान के विषय में ज्ञान - ने सप्त. वि., ए. व. - सावेतब्बो अयं अत्थो, चतुत्थारुप्पबोधने, अभि. अव. 1035; - भव पु., कर्म. स., रूपरहित लोक में अस्तित्व, रूपरहित ब्रह्मलोकों में उत्पत्ति - वे सप्त. वि., ए. व. - रूपं पनेत्थ आरुप्पभवे भवति पच्चयो, विभ. अट्ठ. 166; - भूमि स्त्री., कर्म. स., रूपरहित ध्यान-आलम्बनों वाली चित्तभूमि, चित्त या चेतना का वह स्तर जिसमें चित्त चार रूपरहित आलम्बनों पर एकाग्र किया जाता है - यं सप्त. वि., ए. व. - तेचत्तालीस चित्तानि, नत्थि आरुप्पभूमियं, अभि. अव. 213; - यो द्वि. वि., ब. व. - अपरानि चतस्सोपि, ठपेत्वारुप्पभूमियो, चित्तानि पन जायन्ति, अभि. अव. 194; - सु सप्त. वि., ब. व. - विपाका होन्ति सब्बेव, चतूस्वारुप्पभूमिसु, अभि. अव. 270; - मानस नपुं०. तत्पु. स., अरूपावचर ध्यान का चित्त, अरूपभूमि में सक्रिय चित्त - सं प्र. वि., ए. व. - चतुत्थं पञ्चमं वापि, होति आरुप्पमानसं, अभि. अव. 996; आलम्बनअभेदेन, चतुधारुप्पमानसं, अभि. ध. स. 6; - विज्ञाण नपुं., अरूपावचरध्यान का विज्ञान, अरूपावचर नामक भूमि का चित्त, स. उ. प. के रूप में, पठमा.प्रथम अरूपध्यान का चित्त - णं प्र. वि., ए. व. - तमेव पठमारुप्पविञआणं अनन्तवसेन परिकम्मं करोन्तस्स दुतियारुप्पमप्पेति, अभि. ध. स. 65; पठमारुप्पविञआणाभावो तस्सेव सुञतो, अभि. अव. 1010; - विपाक त्रि., अरूपावचर भूमि का विपाकभूत (चित्त) अरूपभूमि के वे चार चित्त, जो अरूपावचर भूमि के चार कुशलकर्मों के विपाक के रूप में उदित होते हैं - कानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - ... चत्तारि आरुप्पविपाकानीति सोळस चित्तानि नेव रूपं जनयन्ति, न इरियापथं, न वित्ति, विसुद्धि. 2.249; - केसु नपुं., सप्त. वि., ब. व. - आरुप्पविपाकेसु ... आनेञ्जाभिसङ्घारं आरभति, विसुद्धि. 2.161; - विमोक्ख पु., तत्पु. स., अरूपावचर भूमि में प्राप्त विमुक्ति – क्खा प्र. वि., ब. व. - अङ्गसन्तताय चेव आरम्मणसन्तताय च सन्ता आरुप्पविमोक्खा, स. नि. अट्ठ. 2.110; - सङ्घात त्रि., आरूप्य नाम से जाना गया, स. प. के रूप में, - ततियारूप्पसङ्खातरवन्ध पु., तृतीय अरूपावचर नामक स्कन्ध - धेसु सप्त. वि.. ब. व. - ततियारुप्पसङ्घातखन्धेसु च चतूसुपि, अभि. अव. 1027; - समापत्ति स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. आरूप्यसमापत्ति], अरूपावचरध्यान की प्राप्ति - यो प्र. वि., ब. व. - सब्बथा आरम्मणातिक्कमतो चतस्सोपि भवन्तिमा आरुप्पसमापत्तियोति बेदितब्बा, विसुद्धि. 1.328; - तिं द्वि. वि., ए. व. - अच्चन्तसुखुमभावप्पत्तसङ्घारं चतुत्थारुप्पसमापत्ति, विसुद्धि. 1.326; - सम्भव पु.. तत्पु. स., अरूपभूमि में जन्म, अरूपध्यान के क्रम में उदित, स. उ. प. के रूप में चतुत्था.- चतुर्थ अरूपध्यान से उत्पन्न - म्भवा प्र. वि., ब. व. - नेवसाति निद्दिष्ट्ठा, चतुत्थारुप्पसम्भवा, अभि. अव. 1036; - प्पारम्मण नपुं. तत्पु./कर्म. स., अरूपावचर ध्यान का आलम्बन, आलम्बन के रूप में अरूपावचर भूमि - णेसु सप्त. वि., ब. व. - आरुप्पारम्मणेसपि आकासं कसिणग्घाटिमत्ता, विसुद्धि. 1.1103; -- प्पासञ त्रि., अरूपभूमि की संज्ञा से रहित अरूप-लोक से अनभिज्ञ या अनजान - जनपुं.. प्र. वि., ए. व. - तयो अपाया आरूप्पासनं पच्चन्तिमम्पि च, सद्धम्मो. 5. आरुय्ह आ + ग्रुह का पू. का. कृ. [आरुह्य]. ऊपर चढ़ कर, आरुढ़ हो कर, सवार हो कर, ऊपर जा कर, ऊपर पहुंच कर - परित्तं दारुमारुय्ह, यथा सीदे महण्णवे. थेरगा. 147; पुनपारुयह चङ्कम, थेरगा. 272; पुनपारुयह चङ्कमन्ति ... पुनपि चङ्कमट्ठानं आरुहित्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.5; For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरुहति 190 आरुह/आरूळ्ह पासादमारुय्ह समन्तचक्खु, महाव.6; तमारुयह पलायन्तं चढ़ने अथवा सवार होने का प्रयोजन - त्थाय च. वि., कुमारमनुबन्धि सो, म. वं. 24.38. ए. व. - कण्डुलो अत्तनो पिढिं आरुहनत्थाय नन्दिमित्तं आरुहति आ + रुह का वर्त, प्र. पु., ए. व., नियमित । ओलोकेसि, थू. वं. 61; यथा वणं आलिम्पेय्य यावदेव आरोहति के स्थान पर गाथाओं में प्रयुक्त अनियमित रूप आरुहणत्थाय, महानि. 271; - सज्ज त्रि., चढ़ने के लिए [आरोहति], ऊपर चढ़ता है, सवार हो जाता है, सवारी तैयार (सवारी)- ज्जो पु., प्र. वि., ए. व. - रथो गन्त्वा करता है, पकड़ लेता है, ऊपर की ओर जाता है - कुमारं पदक्खिणं कत्वा आरुहनसज्जो हत्वा, अप. अट्ट. आरुहती ति आरुळहो, क. व्या. 591; खुद्दकमातिक आरुहति, 1.265. पारा. अट्ठ. 1.264; - न्ति ब. व. - तमारुहन्ति नारियो, आरुळ्ह/आरूळ्ह त्रि, आ + रुह का भू. क. कृ. जा. अट्ठ. 7.138; तत्थ तमारुहन्तीति तं एवरूपं [आरूढ़], शा. अ., कर्तृ वा./कर्म. वा. में, 1. वह जो सिम्बलिरुक्खं आरुहन्ति, तदे.; न ते थूपमारुहन्ति, अप. चढ़ चुका है, सवार हो चुका है या ऊपर जा चुका है, 1.70; - हाम उ. पु., ब. क. - न मयं रथमारुहाम, थू. सवार, 2. वह, जिस पर चढ़ा जा चुका है अथवा जिस पर वं, 46; - न्ता वर्त. कृ., पु. प्र. वि., ब. व. - यत्थ एके सवार हुआ जा चुका है, सवारी –ळहो पु., प्र. वि., ए. विहअन्ति, आरुहन्ता सिलुच्चयं, थेरगा. 1061; - न्तं व. - आरुहतीति आरुळहो, क. व्या. 591; सो पुरिसो वर्त. कृ., पु., द्वि. वि., ए. व. - तमारुहन्तं खुरसञ्चितं पठम रुक्खं आरुळ्हो, म. नि. 2.32; एक साखं गण्हित्वा गिरि... को चोदये परलोके सहस्सन्ति, जा. अट्ठ. 7.138; पठमं रुक्खं आरुळहो, अ. नि. अट्ट, 2.351; - ळ्हं पु.. तं भवन्तं जलितावुधपहारे असहित्वा जलितखुरेहि सञ्चितं द्वि. वि., ए. व. - तमद्दसा चन्दनसारलित, जलितलोहपब्बतं आरुहन्तं, तदे., - ह अनु., म. पु., ए. आजञमारुळ्हमुळारवण्णं, पे. व. 570; तळाकं आरुळ्हं व. - ... अस्सं आरुहा ति तमाह सो, म. वं. 23.72; - गण्हतो..., पारा. अट्ठ. 1.264; - व्हेन पु., तृ. वि., ए. पेन्तु अनु., प्रेर., प्र. पु., ब. व., चढ़वा दें, रखा दें - व. - नावं ... आरुळ्हेन भुजितबं, पाचि. 104; खळुङ्क सुवण्णपादुका च रथं आरोपेन्तूति अत्थो, जा. अट्ठ. 6.28; आरुळहेन जवसम्पन्नं आजानीयं आरुयह गच्छन्तो विय - हे विधि., प्र. पु., ए. व. – सम्मतोम्हीति आरूहे, जा. गहेतुं न सक्काति अत्थो, जा. अट्ठ. 6.281; - Dहे सप्त. अट्ठ. 7.188; - हि अद्य, प्र. पु., ए. व. - 'पुथुद्दिसा वि., ए. व. - दुतियभागे पन थेरासनं आरुळ्हे आगतानं नमस्सित्वा, पमुखो रथमारुही ति, स. नि. 1(1).271; पठमभागो न पापुणाति, महाव. अठ्ठ. 395; - ळहा पु., प्र. स्थमारुहीति देवानं पमुखो सेट्ठो रथं आरुहि, स. नि. अट्ठ. वि., ब. व. - मनुस्सा पासादेसुपि हम्मियेसुपि छदनेसुपि 1.307; सा मद्दी नागमारुहि, जा. अट्ठ. 7.377; - हिं उ. आरुळ्हा अच्छन्ति, चूळव. 334; - Dहे पु., द्वि. वि., ब. पु., ए. व. - तया सिम्बलिमारुहिन्ति, जा. अट्ठ. 3.78; - व. - आरुहे गामणीयेहि, जा. अट्ठ. 6.56; - म्हानं पु., हिंसु/रुहं अद्य, प्र. पु., ब. व. - 'रथम्पि नाभिरुहिंसूति, ष. वि., ब. व. - आरुळहानं खोभं अकरोन्तो, वि. व. अट्ठ. पारा. अट्ठ. 1.56; तुरिता पब्बतमारुहं सु. नि. 1020; तं 27; - ळ्हं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आरुळहं, ...., चेतियं अभिरुहिंसु. ... पब्बतमारुहुन्ति, सु. नि. अट्ट. आरोपेतुं न वट्टती ति, पारा. अट्ठ. 1.61; - Dहेन नपुं.. तृ. 2.274; - हिम्ह उ. पु., ब. व. - आरुहिम्ह तदा नावं, वि., ए. व. - 'पिळन्धनेन एकिस्सा मक्कटिया हत्थे भिक्खु चाजीविको चह, अप. 2.101; - हित्वा पू. का. आरुळ्हेन भवितब्बन्ति, जा. अट्ठ. 1.368; ला. अ., रख कृ. - नावं दळहमारुहित्वा, सु. नि. 323; - हितब्बं सं. दिया गया, निविष्ट कर दिया गया, संगृहीत, अन्तर्गत, कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. - लेणं गम्भीरं अहोसि ओतरित्वा प्राप्त, पहुंचा दिया गया – हो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिरुहितब म. नि. अट्ट, (म.प.) 2.146; पाठा. आरुहितब्बं; सम्माआजीवो अत्थि चित्तङ्गवसेन पन पाळियं न आरुळहो, -- रुय्हति कर्म. वा., वर्त., प्र. पु., ए. व. - आरोहण ध. स. अट्ठ. 177; - ळ्हं पु., द्वि. वि., ए. व. - द्वेपि किया जाता है, सवार हुआ जाता है, चढ़ा जाता है - सङ्गीतियो आरूळ्हं तिपिटकसहितं साट्ठकथं सब्बं थेरवाद आरुय्हतीति आरोहो, वि. व. अट्ट, 27. ... उग्गहेत्वा ... पारा. अट्ठ. 1.37; - Dहे पु.. सप्त, वि., आरुहन नपुं., आ + रुह से व्यु., क्रि. ना. [आरोहण], ए. व. - पठमपाराजिके सङ्गहमारूळ्हे ..., दी. नि. अट्ठ. ऊपर चढ़ना, सवार होना, सवारी करना - त्थ पु., ऊपर 1.12; - म्हा' पु., प्र. वि., ब. व. - ते पकतिसावका, For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरुळ्ह/आरूळ्ह 191 आरोग इध पाळियं आरूळ्हा पन परिमिताव गाथावसेन परिग्गहितत्ता, तथापि महासावकेसुपि केचि इध पाळियं नारूळहा, थेरगा. अट्ठ. 2.456; - न्हा स्त्री, प्र. वि., ब. व. - सब्बअट्ठकथास देसना आरूळ्हा, पारा. अट्ठ. 1.217; आरुळहायेव मातिक, चूळव. अट्ठ. 96; - न्हं द्वि. वि., ए. व. - भजति, ... रूपावचरदेसनं न आरुळ्हं, ध. स. अट्ठ. 231; - न्हा स्त्री., द्वि. वि., ब. व. - इमा गाथा ताव सङ्गहं आरुळ्हा, उदा. अट्ठ. 340; - ळ्हासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - गोपानसीस पन आरुळहासु बहकतो नाम होति, चूळव. अट्ठ. 83; - ळ्हं नपुं., प्र. वि., ए. व. - विनयपिटकं सङ्गहमारूळ्हं, पारा. अट्ठ. 1.12; - व्ह' द्वि. वि., ए. व. - इदं पाळियं आरुळ्हञ्च अनारुळहञ्च सब्बं भगवा अवोच, दी. नि. अट्ठ. 2.205; - स्स ष. वि., ए. व. - तन्ति आरुळहस्स बुद्धवचनस्स पटिसम्भिदाप्पत्तानं.., विभ. अट्ठ. 367; - हे सप्त. वि., ए. व. - तिस्सो सङ्गीतियो आरुळहे तेपिटके बुद्धवचने, दी. नि. अट्ठ. 3.73; - हानि' नपुं., प्र. वि., ब. व. - पुप्फनकानि... पाळि नारुळहानि, आहरित्वा पन दीपेतब्बानीति दीपितानि, स. नि. अट्ठ 1.177; - हानि' वि. वि., ब. व. - धम्मुद्देसवारे पाळिआरुळहानि छप्पास पदानि विभजित्वा, ध. स. अट्ठ 181; - काल पु., तत्पु. स. [आरोहणकाल], ऊपर की ओर चढ़ने का समय, सवारी पर सवार होने का समय - लो प्र. वि., ए. व. - आरुळहकालो विय पठमज्झाने .... अ. नि. अट्ट. 2.351; - हान नपुं.. तत्पु. स. [आरोहणस्थान], वह स्थान जहां पहले चढ़ा जा चुका है -ने सप्त. वि., ए. व. - एवं आरुहटाने पदं विय हि सुखवेदनाय उप्पत्ति पाकटा होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).2883; - ता स्त्री., आरुहन का भाव., स. उ. प. के रूप में, मुखा.- मुख पर आ जाना - य तृ. वि., ए. व. - केवलं लोकवोहारवसेन ब्यञ्जनसिलिट्ठताय मुखारूळ्हताय एतं वुत्तं, पारा. अट्ठ. 1.194; - धम्म पु., कर्म. स. [आरूढ़धर्म]. सुनिर्धारित धर्म - म्मं द्वि. वि., ए. व. - तिस्सो सङ्गीतियो आरुळ्हधम्मयेव पन पदसो वाचेन्तस्स आपत्ति, पाचि. अट्ठ. 8; - नावा स्त्री., कर्म. स., वह नौका, जिस पर लोग चढ़ चुके हैं - य तृ. वि., ए. व. - तेन आरुळहनावाय ब्यापत्ति नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 4.125; - भाव पु.. [आरूढ़भाव], आरूढ़ हो जाने की स्थिति, सम्प्राप्त हो जाने की अवस्था, आ पड़ने की स्थिति - वो प्र. वि., ए. व. - कथं पन ते, पण्डित, मक्कटिया हत्थं आरुळहभावो जातो, जा. अट्ठ. 1.369; - वं द्वि. वि., ए. व. -- आरुळहभावं वा ओरुकहभावं वा न जानाति, पाचि. अट्ठ. 150; - वानर त्रि., ब. स., वह वृक्ष, जिस पर वानर चढ़े हुए हों - रो पु., प्र. वि., ए. व. - आरूळहो वानरो यं रुक्खं सो आरूळहवानरो, मो. व्या. 3.17; - विस नपुं., कर्मस., चढ़ चुका विष, शरीर में पूरी तरह फैल चुका विष - स्स ष. वि., ए. व. - याव अक्खिप्पदेसा आरुळहविसस्स उपरि अभिरुहितुं..., स. नि. अट्ठ. 2.88; - साखा स्त्री., कर्म. स., वह शाखा, जिस पर कोई चढ़ा हुआ है -- य ष. वि., ए. व. - द्वे सामणेरे... आरुळहसाखाय भग्गाय पतन्ते दिस्वा, थेरगा. अट्ठ. 1.355; - हामिलाप पु., परम्परा से चली आ रही बातचीत, पारम्परिक कथन - करणवचनेनेव अयमभिलापो आरोपितोति आदितो पट्ठाय आरुळहाभिलापवसेनेवेतं वृत्तन्ति वेदितब्बं महाव. अट्ठ. 225. आरुळिहत्वान आ + रुह का पू. का. कृ., चढ़ा कर, सवार हो कर, सवार करा के - आरुळिहत्वान पासाद, गजबाहुनराधिपं. चू. वं. 70.262. आरुह/आरूह पु., आ + रुह से व्यु., स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त [आरोह], आरोहण, ऊपर चढ़ जाना, स. उ. प. के रूप में, अज्झा. - त्रि., अत्यधिक ऊपर की उठा हुआ - हा पु., प्र. वि., ब. व. - अज्झारूहाभिवड्डन्ति, जा. अट्ठ. 3.352; अज्झारूहाभिवड्डन्तीति निग्रोधादयो रुक्खा अज्झारूहा हुत्वा महन्तम्पि... दस्सेति, जा. अट्ठ. 3.353; दुक्खा. - त्रि., दुख के साथ चढ़ने वाला, कठिनाई से ऊपर चढ़ने योग्य – हो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं विसरुक्खो न दुक्खारुहो, जा. अट्ठ. 1.262; दुरा.- त्रि., कठिनाई से ऊपर चढ़ने योग्य – हो पु., प्र. वि., ए. व. - तत्थ नायं रुक्खो दुरारुहोति अयं विसरुक्खो न दुक्खारुहो ..., जा. अट्ट, 1.262. आरोग/अरोग त्रि., 'अ' के स्थान पर अनियमित रूप से 'आ' का प्रयोग, ब. स. [अरोग]. क. रोगों से मुक्त, स्वस्थ, सुरक्षित, सङ्कटों से मुक्त, कुशलक्षेम-युक्त - गो पु., प्र. वि., ए. व. -- आरोग्यस्थायाति अरोगो भविस्सामि, पारा. 151; अरोगो भविस्सामीति मोचेत्वा अरोगो भविस्सामि, पारा. अट्ठ. 2.100; – गं पु., द्वि. वि., ए. व. -- आगन्त्वा नासक्खिंसु अरोगं कातुं, महाव. 359; - गा पु., प्र. वि., ब. व. - एकच्चे अरोगा जाता, जा. अट्ठ. 1.352; - गे पु., द्वि. वि., ब. व. - तुम्हे अरोगे कातुं नासक्खि , जा. अट्ठ. For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 192 आरोग्य आरोगापेति 3.123; - गा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सुखिनी अरोगा अरोग पुत्तं, जा. अट्ठ. 1.390; - गं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. -- मय्ह भरियं अरोगं कत्वा, जा. अट्ठ. 2.99; - गा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - कच्चि ... राजकञआयो, अरोगा मरह मातरो, जा. अट्ठ. 6.27; - गं नपुं, प्र. वि., ए. व. - कच्चि अरोगं योग्गं ते. जा. अट्ठ. 6.28; ख. व्याधि एवं विनाश की पकड़ से बाहर वाला, व्याधि एवं जरा आदि का अविषयीभूत – गो पु., प्र. वि., ए. व. - एकन्तसुखी अत्ता होति आरोगो परम्मरणा ति, अ. नि. अट्ठ. 1.338; - ता स्त्री., अरोग का भाव., रोगमुक्तता, स्वास्थ्य, अविनाशिता _ - ता प्र. वि., ए. व. - आयु अरोगता वण्णं, सग्गं उच्चाकुलीनता, मि. प. 309; - भाव पु., उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. -- धनस्स अरोगभावं अत्वा, ध. प. अट्ठ. 1.132; - वो प्र. वि., ए. व. - आरोग्यं नाम सरीरस्स चेव चित्तस्स च अरोगभावो अनातुरता, जा. अट्ठ. 1.350; अरोगभावो । पुअवतो इद्धि, बु. वं. अट्ठ. 36. आरोगापेति अरोग अथवा आरोग का ना. धा., वर्त, प्र. पु., ए. व., रोग से मुक्त करा देता है, द्रष्ट., अरोगापेति के अन्त.(पीछे). आरोगिय/अरोगिय नपुं., आरोग्य, स्वास्थ्य – यं प्र. वि., ए. व. - आयुं अरोगियं वण्णं, ... रतियो पत्थयन्तेन, स. नि. 1(1).104. आरोग्य'/आरोग नपुं., अरोग का भाव. [आरोग्य], बीमारी से छुटकारा, रोग से मुक्ति, अच्छा स्वास्थ्य, सङ्कटों अथवा । क्लेशों से मुक्त अवस्था, हर तरह से निरापद जीवन, अनातुरता – ग्य' प्र. वि., ए. व. - कुसलानामयारोग्यं, अभि. प. 331; अरोगस्स भावो आरोग्यं, क. व्या. 362; रोगो भविस्सति, आरोग्य भविस्सति, दी. नि. 1.10; - ग्यं द्वि. वि., ए. व. - यथा आरोग्यं... इमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनपस्सति, दी. नि. 1.65; तस्मा भगवा आरोग्यमिव ब्यापादप्पहानं आह, दी. नि. अट्ठ. 1.175; - ग्या/तो प. वि., ए. व. - यं लोके पियरूपं सातरूपं तं .... आरोग्यतो अदक्ष, स. नि. 1(2).96; सत्ता ... आरोग्या दुम्मोचया, महानि. 22; - स्स ष. वि., ए. व. - आरोग्यस्स पच्चयो होति, ध. स. अट्ठ. 173; -- ग्ये सप्त. वि., ए. व. -- ब्याधिधम्मो आरोग्ये, स. नि. 3(2).293; इति, पटिसञ्चिक्खतो यो आरोग्ये आरोग्यमदो सो सब्बसो पहीयि, अ. नि. 1(1).170; स. प. के अन्त., - आरोग्ययोब्बनजीवितमदसाता तिविधा मदा पमादो नाम जायति, जा. अट्ठ. 5.95; - काम त्रि., ब. स., अच्छे स्वास्थ्य की कामना करने वाला, हर प्रकार से सुखी जीवनवृत्ति की कामना करने वाला - मा पु., प्र. वि., ब. व. - आरोग्यकामा सत्ता ब्याधिना पटिविरुद्धा, महानि. 305; - काल पु., तत्पु. स. [आरोग्यकाल], रोग से मुक्त रहने अथवा हर तरह से स्वस्थ एवं कुशलयुक्त रहने का समय - ले सप्त. वि., ए. व. - दहरकाले आरोग्यकाले, अ. नि. अट्ठ. 3.34; - ट्ठ पु., तत्पु. स. [आरोग्यार्थ], रोगमुक्त अथवा हर तरह के कष्टों से मुक्त होने का अर्थ -तुन तृ. वि., ए. व. - अपिच आरोग्यटेन अनवज्जढेन कोसल्लसम्भूतढेन च कुसलं, ध. स. अट्ठ. 108; - पद नपुं., तत्पु. स. [आरोग्यपद]. आरोग्य शब्द - दं प्र. वि., ए. व. - आरोग्यपदं सब्बपदेहि योजेत्वा वुत्तमेकं खण्डचक्क पारा. अट्ठ. 2.101-102; - परम त्रि., ब. स. [आरोग्यपरम], वह, जिसमें अच्छे स्वास्थ्य की महत्ता सर्वोपरि रहे, आरोग्य को सर्वोपरि रखने वाला - मा पु.. प्र. वि., ब. व. - आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुखं, म. नि. 2.1863; आरोग्यपरमाति गाथाय ये केचि धनलाभा वा यसलामा वा पुत्तलाभा वा अत्थि, आरोग्यं तेसं परमं उत्तम. ... आरोग्यपरमा लाभा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.157; - प्पत्त त्रि., [आरोग्यप्राप्त], आरोग्य को प्राप्त, अच्छे स्वास्थ्य को प्राप्त, हर प्रकार के दुखों के अन्त को प्राप्त – त्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - परमं आरोग्यप्पत्तं ... निब्बानप्पत्तन्ति पस्सामि सुद्धं परमं अरोग, महानि. 60; - भाव पु., रोगमुक्तता, व्याकुलता का अभाव, अनातुरता, स्वस्थता, शरीर एवं चित्त की अव्याकुलता - वं द्वि. वि., ए.व. - आरोगभावं कथेत्वा तं आदाय आगच्छेय्याथ, जा. अट्ठ. 3.52; - भूत त्रि०, वह, जो व्याकुलतारहित हो चुका है, हर तरह से शान्त अवस्था को प्राप्त - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आरोग्यन्ति आरोग्यभूतं. पटि. म. अट्ठ. 2.293; - मद पु., तत्पु. स. [आरोग्यमद], रोगों से मुक्त हो जाने का घमण्ड, स्वस्थ रहने का मद - दो प्र. वि., ए. व. --- तयोमदा - आरोग्यमदो, योब्बनमदो, जीवितमदो, दी. नि. 3.176; तेसु अहं निरोगो सट्टि वा सत्तति वा वस्सानि अतिक्कन्तानि, न मे हरीतकीखण्डम्पि खादितपुब्ब, इमे पनजे असुकं नाम ठानं रुज्जति, भेसज्ज खादामाति विचरन्ति, को अज्ञो मादिसो निरोगो नामा ति एवं मानकरणं आरोग्यमदो, दी. नि. अट्ठ. 3.170; यो आरोग्ये आरोग्यमदो सो सब्बसो पहीयि, अ. नि. 1(1).170; - मदमत्त त्रि., For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोचक 193 आरोचापेति अच्छे स्वास्थ्य के घमण्ड से भरा हुआ - त्तो पु., प्र. वि., .... तुमत्थे.... अलमत्थे, ... मतिप्पयोगे अनादरे अप्पाणिनि. ए. व. - आरोग्यमदमत्तो वा, भिक्खवे... दुच्चरितं चरति, क. व्या. 279; यग्घेति आरोचनत्थे निपातो, पारा. अट्ठ. अ. नि. 1(1),171; - लाभ पु., तत्पु. स. [आरोग्यलाभ], 1.160; - किच्च नपुं, तत्पु. स. [आरोचनकृत्य], बतलाने स्वास्थ्य का लाभ - भं द्वि. वि., ए. व. - सब्बेस तेसु । अथवा सूचित करने का काम - च्वं प्र. वि., ए. व. - इतो लाभेसु आरोग्यलाभमुत्तमं सेट्ठन्ति बुद्धो देसेसि, चू, वं. 99.. चितो च परियेसित्वा आरोचनकिच्चं नाम नत्थि, पाचि. 180-181; - ग्यावह त्रि., स्वास्थ्यप्रद, हितकारक - हं। अट्ठ. 111; - लेखकामच्च पु., द्व. स., राजकीय आदेशों नपुं., प्र. वि., ए. व. - आरोग्यावहं अगद, पे. व. अट्ठ. को तैयार करने वाले एवं उन्हें निर्गत करने वाले लेखक 171; - विनासक त्रि., स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला, एवं मन्त्री – च्चेहि तृ. वि., ब. व. - आरोचनलेखकामच्चेहि स्वास्थ्य के लिए घातक - को पु., प्र. वि., ए. व. - अभियाचितो, सा. वं. 141. आरोग्यविनासको रोगो एव रोगब्यसनं. पारा. अट्ठ. 1.178; आरोचनक त्रि., उदघोषक, सूचक, बतलाने वाला, स. उ. - विलुम्पनट्ठ पु., स्वास्थ्य को लूट लेने या नष्ट करने प. में प्रयुक्त, अवस्सा . - अवश्य कहने वाला - स्स पु., का तात्पर्य -द्वेन तृ. वि., ए. व. - आरोग्यविलुम्पनट्ठेनेव ष. वि., ए. व. - तं अदिस्वा अञ्जतरस्स अवस्सारोचनकस्स रोगो, सु. नि. अट्ठ. 1.80; - सम्पदा स्त्री., तत्पु. स. आरोचेही ति वत्वा पच्चाहरति, आपज्जतियेव, कवा. अट्ठ. [आरोग्यसंपत्], स्वास्थ्य-संपत्ति, अच्छे स्वास्थ्य के रूप में 134; भूता. - कायिक एवं वाचिक आपत्तियों अथवा धन-संपत्ति - दा प्र. वि, ए. व. - पञ्च सम्पदा - अपराधों को कहने वाली - का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आतिसम्पदा, भोगसम्पदा, आरोग्यसम्पदा, सीलसम्पदा, भूतारोचनका नाम, तीहि ठानेहि जायति, परि. 187. दिद्विसम्पदा, दी. नि. 3.188; आरोग्यस्स सम्पदा आरोचना स्त्री., स. उ. प. में प्रयुक्त, उपरिवत्; अना. - आरोग्यसम्पदा, दी. नि. अट्ठ. 3.192; - साला स्त्री., उद्घोषणा अथवा सूचना का अभाव, नहीं बतलाना - तत्पु. स. [आरोग्यशाला], चिकित्सालय, अस्पताल - लं __ आगन्तुकादीनं अनारोचना, चूळव. अट्ठ. 14. द्वि. वि., ए. व. - आरोग्यसालं कारेसि, अ. नि. अट्ठ. आरोचयति आ + रुच का प्रेर०, वर्त., प्र. पु., ए. व., 1.232; - सासनमत्त नपुं, स्वास्थ्य-विषयक शिक्षा-मात्र कहता है, सूचित करता है, प्रकाशित करता है, द्रष्ट. - त्तं द्वि. वि., ए. व. - एत्तकं कालं तुम्हाक सन्तिके आरोचेति के अन्त.. वसन्तो आरोग्यसासनमत्तम्पि न लभामि, जा. अट्ठ. 5.286. आरोचयितु पु., आ + रुच के प्रेर. से व्यु., क. ना. आरोचक त्रि., आ + रुच से व्यु [आरोचक], उद्घोषक, आरोचयित], सूचक, उदघोषक, प्रकाशक, कथन करने घोषणा करते हुए कहने वाला, केवल स. उ. प. में प्रयुक्त, वाला - ता प्र. वि., ए. व. - कोचिस्स आरोचयितापि उपोसथा. के अन्त. द्रष्ट... नत्थि, पारा. अट्ठ.2.5. आरोचन नपुं.. आ + रुच से व्यु., क्रि. ना. [बौ. सं. आरोचापन नपुं., आ + रुच के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना., आरोचन/आरोचनता], उद्घोषणा, सूचना, कथन - नं सूचित कराना, उद्घोषित कराना, कहलाना - नं प्र. वि., प्र. वि., ए. व. - एतस्स आरोचनं नप्पमाणं, पारा, अट्ठ. ए. व. - भिक्खूनं आरोचापनं ध. प. अट्ठ. 1.341. 2.257; 276; भिक्खुसम्मुतिया च आरोचनं ... भगवता आरोचापेति आ + रुच के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व. अनुज्ञातं, पाचि. अट्ठ. 17; - नेन तृ. वि., ए. व. - [बौ. सं., आरोचापेति], किसी अन्य द्वारा घोषणा कराता है, अनत्तमनस्स सतो परेसं आरोचनेनपि दोसो, अ. नि. अट्ठ. दूसरे से सूचित कराता है अथवा कहलवाता है, दूसरे को 2.12; - ने सप्त. वि., ए. व. - पठमे आरोचने भिक्खुनिया जनवाता है - आरामिकेहि अत्तनो उपकारभावं सङ्घस्स दुक्कट दुतिये थुल्लच्चयं, पाचि. अट्ठ. 170; एकस्सारोचने आरोचापेति, स. नि. अट्ठ. 3.76; - न्तस्स वर्त. कृ., पु., तस्सा होति आपत्ति दुक्कट, उत्त. वि. 180; स. उ. प. के ष. वि., ए. व., (सूचित करवाने वाले को) - तस्स तं रूप में, अभूता., काला०, दुतिया., देवता., पठमा., परम्परा., पवत्तिं सयं आरोचेन्तस्स वा अञ्जन आरोचापेन्तस्स वा भूता., सासना के अन्त. द्रष्ट.; स. पू. प. के रूप में, - सङ्घादिसेसो, कङ्खा. अट्ठ. 134; - थ अनु., म. पु., ब. व. त्थ पु., तत्पु. स. [आरोचनार्थ], कहने का अर्थ, बतलाने - पटिसामनहानं मे आरोचापेथा ति, ध. प. अट्ठ. 1.2953; का अर्थ - त्थे सप्त. वि., ए. व. - आरोचनत्थे, ... तदत्थे, - य्यं विधि., उ. पु., ए. व. - भगवतो महापरिसाय For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोचिक 194 आरोचेति सन्निपतितभावं आरोचापेय्यान्ति, दी. नि. अट्ठ. 1.250; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - भगवतो कालं आरोचापेसि, महाव. 43; 289; - सुंब. व. - भगवतो कालं आरोचापेसं. दी. नि. 2.69; - त्वा पू. का. कृ. - उभिन्नम्पि वत्थु आरोचापेत्वा उभिन्नम्पि पटिञा सोतब्बा, परि. 414; - तब्बं सं. कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. - सचे उभो अत्थपच्चत्थिका आगच्छन्ति, उभिन्नम्पि वत्थु आरोचापेतब्ब परि. 414. आरोचिक त्रि., आ + रुच से व्यू., आरोचक के स्थान पर यत्र तत्र प्रयुक्त [आरोचिक], सूचित करने वाला, घोषणा करने वाला, बतलाने वाला - का स्त्री, प्र. वि., ब. व. - उपोसथारोचिका देवता तत्थ तत्थ गन्त्वा आरोचेन्ति, पारा. अट्ठ. 1.141. आरोचित त्रि., आ + रुच के प्रेर, का भू. क. कृ. [बौ. सं. आरोचित], उद्घोषित, सूचित, कहा हुआ, बतलाया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सचे आरामे कालो आरोचितो होति, चूळव. 356; महाथेरेहि आरोचितो भिक्खसको, अ. नि. अठ्ठ 3.261; - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - आरोचितेयेव काले अगमासीति वेदितब्बो, पारा. अट्ट. 1.162; - ताय स्त्री., सप्त. वि., ए. व. - आरोचिताय चित्तप्पवत्तिया वत्तब्बो, पारा. अट्ठ. 1.186; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - वत्थु वा आरोचितं होति अविनिच्छितं, पाचि. 204; चोदकेन च चुदितकेन च अत्तनो कथा कथिता, अनुविज्जको सम्मतो, एत्तावतापि वत्थुमेव आरोचितं होति, पाचि. अट्ठ. 137; ... यत्थ कथचि आरोचितं उद्देसभत्तं तस्मियेव भत्तुद्देसट्टाने गाहेतब्बं चूळव. अट्ठ. 88; - तेन नपुं., तृ. वि, ए. व. - किं आवुसो आरोचितेन, स. नि. अट्ठ. 1.190; - ते नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - ... तेन तस्मिं कारणे आरोचिते ..., जा. अट्ठ. 4.385; - कथा स्त्री., कर्म स.. कही हुई कथा, पहले कहा जा चुका वचन - थं द्वि. वि., ए. व. - आरोचितकथं सुत्वा, उभिन्नम्पि यथा तथा, विन. वि. 2018; - काल पु., कर्म. स., बतलाया हुआ काल, निर्धारित किया हुआ समय – तो प.. वि., ए. व. - आरोचितकालतो पट्ठाय च एक भिक्खु ठपेत्वा सेसेहि सति करणीये गन्तुम्पि वट्टति, चूळव. अट्ठ. 17; 31; - क्ख ण पु., कर्म. स., बतलाया हुआ क्षण - णे सप्त. वि., ए. व. - अयं पन आरोचितक्खणेयेव पाराजिक आपज्जति, पारा. अट्ठ. 2.73; - दिवस पु.. कर्म. स., निर्धारित दिन, पहले से बतलाया हुआ दिन - तो प. वि., ए. व. - आरोचितदिवसतो पट्ठाय चूळव. अट्ठ. 25; - नियाम पु., कर्म. स., बतलाया हुआ तरीका या विधान, बतलाई हुई पद्धति, बतलाया हुआ मार्ग अथवा उपाय - मेन तृ. वि., ए. व. - ते मुखं विक्खालेत्वा रुओ आरोचितनियामेनेव आरोचेसुं, अ. नि. अट्ठ. 1.241; - भाव पु., कर्म. स., सूचित किया हुआ भाव, मनोगत भाव -वं द्वि. वि., ए. व. - सेवको रओ आरोचितभावं ञत्वा, जा. अट्ठ. 2.174; - सञा स्त्री., कर्म. स., पूर्व में प्रकाशित संज्ञा या समझ - य तृ. वि., ए. व. - तुम्हेहि आरोचितसआय नियामको भविस्सामी ति, जा. अट्ट. 4.126. आरोचेति'/आरोचयति आ + रुच का प्रेर, वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रायः आरोचेति रूप में ही प्राप्त [बौ. सं., आरोचयति], शा.अ., प्रकाशित करा देता है, प्रकट करा देता है, साफ साफ दिखलवा देता है, ला. अ., स्पष्ट रूप से कह देता है, वर्णन या बखान कर देता है, उद्घोषित करता है, सूचित कर देता है - आरोचेति आरोचयती ति रूपानि दिस्सन्ति, सद्द. 2478; पारिसद्धिहारको चे, ... सुत्तो न आरोचेति, पमत्तो न आरोचेति, समापन्नो न आरोचेति, महाव. 151; .... अओ भिक्खु भिक्खुस्स आरोचेति ... अज्झापन्नोति, चूळव. 402; आरोचेतीति बुद्धरक्खितो धम्मरक्खितस्स, धम्मरक्खितो सङ्घरक्खितस्स 'अम्हाकं आचरियो एवं वदति, पारा. अट्ठ. 1.296; - चेमि/चयामि उ. पु., ए. व. – “यं खो मे, ... सम्मुखा पटिग्गहितं, आरोचेमि तं भगवतो ति, दी. नि. 2.162; आरोचयामि वो, मो. व्या. 2.27; आरोचयामि खो ते, सनक्खत्त, दी. नि. 3.4; - न्ति प्र. पु., ब. व. - थेरा भिक्खू परचित्तविदुनो भिक्खूनं आरोचेन्ति ... जानातीति, चूळव. 398; - स्सथ म. पु., ब. व. - कथम्हि नाम तुम्हे, मोघपुरिसा, भिक्खुस्स ... आरोचेस्सथ, पाचि. 47; - म उ. पु., ब. व. - आगमेन्तु ताव भवन्तो निरयपाला, याव मयं पायासिस्स राजञस्स गन्वा आरोचेम, दी. नि. 2.241; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - अनुपसम्पन्नस्स उत्तरिमनुस्सधम्मं भूतं आरोचेन्तो, परि. 63; पुरिसस्स हि मत्तिं इत्थिया आरोचेन्तो जायत्तने आरोचेति, इत्थिया मति पुरिसस्स आरोचेन्तो जारत्तने आरोचेति, पारा. अट्ठ. 2.127; - न्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - यस्मा पनेतं आरोचेन्तेन त्वं किरस्स जाया भविस्ससी ति आदि वत्तब्ध होति, पारा. अट्ठ 2.127; - न्तस्स/चयतो वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - अनुपसम्पन्नस्स उत्तरिमनुस्सधम्मं भूतं आरोचेन्तस्स For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोचेति 195 आरोदन पाचित्तियं कत्थ पञत्तन्ति, परि. 23; - न्ता वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - नगरवीथीस आरोचेन्ता विचरिंस.ध. प. अट्ठ. 2.117: - न्तेहि तृ. वि., ब. व. -- भोजनकालादीसु थतिवसेन कालं आरोचेन्तेहि सूतेहि चेव मागधकेहि च वण्णिते, जा. अट्ठ. 7.232; -- न्ती स्त्री., प्र. वि., ए. व... - निवत्तभावं सत्थु आरोचेन्ती, उदा. अट्ठ. 346; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. – 'सहायकोपि, भिक्खवे, सहायकस्स आरोचेतूति, दी. नि. 2.116; अम्हेसु यो पठम अमतं अधिगच्छति, सो इतरस्स आरोचेतूति, ध. प. अट्ठ. 1.53; असोकं धम्मराजानं एवं चारोचयाहि तं, दी. वं. 15.6; - चेहि/चयाहि म. पु., ए. व. - पारिसद्धिं मे आरोचेही ति. महाव. 150; - थ म. पु., ब. व. - पारिसुद्धि आयस्मन्तो आरोचेथ, महाव. 130; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व. - एतमत्थं... न आरोचेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा ति, चूळव. 429; - य्यासि म. पु., ए. व. - यथा ते भगवा ब्याकरोति, । तं साधुकं उग्गहेत्वा मम आरोचेय्यासि, दी. नि. 2.56; - य्यं उ. पु., ए. व. - 'यन्नूनाहं भगवतो एतमत्थं आरोचेय्यन्ति, पाचि. 52; - य्यु प्र. पु., ब. व. - तं चे ते पुरिसा एवमारोचेय्यु, दी. नि. 1.53; - य्याथ म. पु., ब. व. - तेन हि, भन्ते, भगवन्तं पटिपच्छित्वा मम आरोचेय्याथा ति, चूळव. 271; - य्याम उ. पु., ब. क. - मयञ्चेव खो पन गिहीनं आरोचेय्याम नास्सस्स मनापं. चूळव. 322; - चयी/सि' अद्य., प्र. पु., ए. व. - मातु आरोचयी दासी, माता पुच्छिय धीतर, रओ आरोचयी..., म. वं. 9.19-20; अथ खो अन्तरहिता विता भगवतो आरोचेसि, महाव. 10; - सि म. पु., ३. व. - 'पस्स, अय्य, पत्ते गर्भ मा च कस्सचि आरोचेसी ति, चूळव. 432; - चयिं/सिं उ. पु., ए. व. - अनत्तमनो समानो परेसं आरोचेसिं.अ. नि. 1(1).71; कालमारोचयिं अहं, अप. 1.36; - यिंसु/सुं प्र. पु.. ब. व. - अथ खो ते भिक्खू भगवतो एतमत्थं आरोचेसु, महाव. 49; 60; एके च पब्बज्जमरोचयिंसु, थेरगा. 724; अथ रओ आगन्त्वा आरोचयिंसु, स. नि. अट्ठ, 3.100; - यित्थ म. पु., ब. व. - मनुस्सं घातयित्थ, अभूतं आरोचयित्था ति, पारा. अठ्ठ 2.158; - चिम्ह/यिम्हा उ. पु., ब. व. - किं नु खो मयं आयस्मतो अनुरुद्धस्स एवमारोचिम्ह, म. नि. 1.273; सासनं आरोचयिम्हा ति, ध. प. अट्ठ. 1.317; - स्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - न हि नाम मे कोचि आरोचेस्सती ति, महाव. 466; - यिस्सामि/स्सामि उ. पु., ए. व. - तानि आरोचयिस्सामि, तं सुणाथ यथा तथं, अ. नि. 2(2).2343; एकस्स होति आरोचेस्सामीति, एककस्स होति न आरोचेस्सामीति, चूळव. 162; तानि आरोचयिस्सामि, तं सुणाथ तथा तथं अ. नि. 2(2).234; - स्सन्ति प्र. पु., ब. व. - कथन्हि नाम छब्बग्गिया भिक्खू भिक्खुस्स दुढल्लं आपत्तिं अनुपसम्पन्नस्स आरोचेस्सन्तीति पाचि. 47; - स्सथ म. पु., ब. व. - सचे तुम्हे, आयस्मन्तो, अम्हाकं इम अधिकरणं यथाजातं यथासमुप्पन्न आरोचेस्सथ, चूळव. 205; -स्साम उ. पु., ब. क. - मयं इमं अधिकरणं आयस्मन्तानं आरोचेस्साम, चूळव. 206; - तुं/यितुं निमि. कृ. - अनुजानामि, भिक्खवे, आरोचेतुं अज्जुपोसथो ति, महाव. 147; - त्वा/त्वान पू. का. कृ. - आनन्दत्थेरोपि अनाथपिण्डिकादीहि पेसितसासनं आरोचेत्वा,ध. प. अट्ठ. 1.38; सो तं सजातसंवेगो आरोचेत्वान राजिनो, म. वं. 23.62; - तब्बो सं. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - ओवादो न आरोचेतब्बो, चूळव. 429; - तब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - पारिवासिकेन, भिक्खवे, भिक्खना आगन्तुकेन आरोचेतब्ब, आगन्तुकस्स आरोचेतब्ब, उपोसथे आरोचेतब्ब, पवाय आरोचेतब्बं सचे गिलानो होति, दुतेनपि आरोचेत व. 79; - यमाना वर्त. कृ., आत्मने, कर्म. वा., पु.. प्र. के., ब. व., कहे गए - भगवतो एतमत्थं आचिक्खिंसु पटिवेदायेंसु आरोचयमाना च नेव पियकम्यताय न भेदपुरेक्खारताय ....., नन्ति मञ्जमाना अचेसु. पारा. अट्ठ. 1.168-69. आरोदन/आरोदना न./स्त्री., आ + रुद से व्यु., क्रि. ना. [आरोदन, नपुं.], रोना, विलाप करना, अनुताप, रोदन क्रिया - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - बहुनो जनस्स आरोदना, अ. नि. 2(1).250; आरोदनाति आरोदनवानं, अ. नि. अट्ठ. 3.86; - नाय नपुं., च. वि., ए. व. - इदमस्स आरोदनाय वदामि, अ. नि. 2(1).251; - नं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आरोदनं दस्सेसि, ध. प. अट्ठ. 1.107; - नेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - अट्ठमो आरोदनेन, दी. नि. अट्ठ. 2.134; - नाकारप्पत्त त्रि., रोता हआ सा, रोती हई सी सूरत शक्ल वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - दुक्खे उप्पन्ने आरोदनाकारप्पत्तो विय होति, विसुद्धि. 1.284; - काल पु., तत्पु. स., रोने का समय - ले सप्त. वि., ए. व. - अनम्हिकालेति रोदनकाले, जा. अट्ठ. 3.195; - परिदेवन नपुं., द्व. स., रोना-कलपना, रोना और विलाप करना - नं प्र. वि., ए. व. - मनुस्सानं महन्तं आरोदनपरिदेवनं अहोसि, जा. अट्ठ. 1.44; - प्पत्त त्रि., For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोपक 196 आरोपित तत्पु. स. [आरोदनप्राप्त], रोने की अवस्था को प्राप्त, रो रहा जैसा - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - एकच्चे आरोदनप्पत्ता अहेसुं. उदा. अट्ठ. 349; - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. -- वनं आरोदनप्पत्तं विय पथवीकम्पमानाकारप्पत्ता विय अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.80; - सद्द पु., तत्पु. स. [आरोदनशब्द], रोने की आवाज़-द्दो प्र. वि., ए. व. - पथविउन्द्रियनसद्दो विय आरोदनसद्दो अहोसि, ध, प. अट्ठ. 1.305; - तो प... वि., ए. व. - सत्थु परिनिब्बाने आरोदनसहतोपि कारुज्जतरो अहोसि, ध. प. अट्ठ. 1.305. आरोपक त्रि., स. उ. प. में प्रयुक्त, स्थापित करने वाला, खड़ा करने वाला, ऊपर की ओर उठाने वाला, थम्भा. - पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम - को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा थम्भारोपको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.174; निब्बते लोकनाथम्हीतिआदिक आयस्मतो थम्भारोपकत्थेरस्स अपदानं, अप. अट्ठ. 2.144. आरोपना/आरोपन स्त्री./नपुं., आ + रुह के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. [आरोपण], ऊपर की ओर उठाना, समुन्नत कराना, (किसी पर अथवा किसी में) रखना अथवा स्थापित करना - ना प्र. वि., ए. व. - यस्सायस्मतो खमति इत्थन्नामस्स भिक्खुनो मोहस्स आरोपना, सो तुण्हस्स, पाचि. 194; - त्थ पु.. स्थापित करने का प्रयोजन समुन्नत करने । या ऊपर उठाने का प्रयोजन - तस्स पराजयं आरोपनत्थं "अधम्म धम्मो ति आदीनि दीपेत्वा ..., परि. अट्ठ. 197; - काल पु., तत्पु. स., चढ़ाने का समय - लो प्र. वि., ए. व. - एकनावं आरोपनकालो विय, ... एकसकट..., स. नि. अट्ठ. 3.88; - समत्थता स्त्री., भाव., धनुष को खींचने अथवा चढ़ाने में सक्षमता - य तृ. वि., ए. व. - धनुं आरोपनसमत्थताय सहस्सबाहु, जा. अट्ठ. 5.265; - नारह त्रि., तत्पु. स., बतलाने योग्य, प्रकाशित करने योग्य, सूचित करने योग्य – हो पु., प्र. वि., ए. व. - उपारम्भं दोसं आरोपनारहो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.247. आरोपनिय त्रि०, आ + रुह से प्रेर., सं. कृ. [आरोपनीय], आरोपण करने योग्य, ऊपर की ओर स्थापित करने योग्य, धारण करने योग्य-यो पु.. प्र. वि., ए. व. - तस्सारोपनियो मोहो, उत्तरिम्प हि भिक्खुनो, विन. वि. 1726. आरोपमानक त्रि., आ + रुह के कर्म. वा. के वर्त. कृ., आत्मने से व्यु. [आरोप्यमानक]. ऊपर चढ़ाया जा रहा, आरोपित किया जा रहा - कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - नन्दमानागतं चित्तं सूलमारोपमानकं, थेरगा. 213; सूलमारोपमानकन्ति दुक्खुप्पत्तिहानताय सूलसदिसत्ता सूलं तं तं भवं कम्मकिलेसेहि एत्तकं कालं आरोपियमानं, थेरगा. अट्ठ. 1.365... आरोपापेति आरोपेति का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व., क. किसी अन्य द्वारा रखवाता है, दूसरे द्वारा चढ़वाता है - मक्कटे वा परिपातेत्वा तत्थ आरोपेति, अञ्जेन वा आरोपापेति, वगुलियो वा तत्थ आरोपेति परेन वा आरोपापेति, पारा. अट्ठ 1.278; ख. (पुस्तक में) लिखवाता है - अत्थयोजनानयं पोत्थके आरोपापेसि, सा. वं. 141(ना.). आरोपित त्रि., आ + रुह के प्रेर. का भू. का. कृ., शा. अ., ऊपर रख दिया गया, स्थापित, ऊपर न्यस्त, ला. अ., साथ में प्रयुक्त ना. प. के अनुरूप अनेक अर्थों का संकेतक - तो पु., प्र. वि., ए. व. - तेलपदीपो आरोपितो, महाव. 302; - तेन पु., तृ. वि., ए. व. - एकेन भिक्खुना पण्णे आरोपितेनाति, ध. प. अट्ठ. 1.321; - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - आरोपिते मोहे मोहेति, आपत्ति पाचित्तियस्स, पाचि. 194; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एकेकस्स पन ... विसुं विसुं तन्ति आरोपिताति, अ. नि. अट्ठ. 2.196; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - पीठे वा पीठं आरोपितं होति, चूळव. 350; - तेन नपुं..तृ. वि., ए. व. - तं इन्दखीलतो पट्ठाय आरोपितेन आचरियधनुना पञ्चधनुसतप्पमाणन्ति वेदितब्ब, पारा. अट्ठ. 1.240; - स्स नपुं.. प. वि., ए. व. - आकासं आरोपितस्स रत्तिभागे समन्ता योजनप्पमाणं ओकासं आभा फरति, दी. नि. अट्ठ. 2.195; - ता नपुं., प्र. वि., ब. व. - आरोपिता च ते पुप्फा, अप. 1.96; - त्त नपुं॰, भाव. [आरोपितत्व], आरोपित होना - त्ता प. वि., ए. व. - ओजाय आरोपितत्ता हत्थसतुब्बेधस्स रुक्खस्स ...., स. नि. अट्ठ. 2.74; - दीप पु., कर्म. स., रखा गया दीपक - पं द्वि. वि., ए. व. - आरोपितदीपं दीपरुक्खमिव, बु. वं. अट्ठ. 56; - धनु नपुं.. कर्म, स., चढ़ाया हुआ धनुष - नूनि द्वि. वि., ब. व. - सजियानि आरोपितधनूनि, अ. नि. अट्ठ3.29; - नय पु., कर्म, स., निर्धारित पद्धति, उत्कृष्ट पद्धति, स्थापित पद्धति - येन त. वि., ए. व. - पञ्च अरहन्त सतानि सङ्गह आरोपितनये नेव गणसज्झायमकंसु, पारा. अट्ठ. 1.12; - भण्ड त्रि., ब. स., सामग्री अथवा माल असबाब को ऊपर चढ़ा चुका - ण्डो पु. प्र. वि., ए. व. - सुवण्णभूमिं गमिस्सामी ति आरोपितभण्डो नावं अभिरुहि, उदा. अट्ठ. 62; - भार त्रि., ब. स., वह, जिस पर भार लाद दिया गया है, भारयुक्त व्यक्ति - रं For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोपेति 197 आरोपेति पु., वि. वि., ए. व. - सङ्घन आरोपितभारंभिक्खून वा फासविहारत्थाय सयमेव तं भारं वहन्तं..., पाचि. अट्ठ. 33; - वचनानुरूपेन क्रि. वि., तृ. वि., ए. व., स्थापित किए हुए वचनों के अनुरूप - भगवा पन देवताय आरोपितवचनानुरूपेनेव एवमाह, स. नि. अट्ठ. 1.23. आरोपेति/आरोपयति आ + रुह का प्रेर., वर्त., प्र. पु.. ए. व., द्विकर्मक [आरोहयति], शा. अ., ऊपर जाने हेतु प्रेरित करता है, चढ़वाता है, आरुढ़ कराता है, ला. अ.,1. रखवाता है, रखवा देता है, स्थापित करा देता है (किसी पर) बैठा देता है, ऊपर की ओर उठा देता है, समुन्नत करा देता है, (की ओर) ले जाता है, सौंप देता है, हस्तान्तरित करा देता है, ला. अ., 2. (वाद के साथ प्रयुक्त होने पर) खण्डन कर देता है, मात कर देता है, पराजित करना है, 3. तैयार हो जाता है, तत्पर हो जाता है, निष्पादित करता है, 4. कहता है, प्रदर्शित करता है, देता है - कलिसासनं आरोपेति, आपत्ति दुक्कटस्स, । पाचि. 129; ... कोधो, तस्स सासनं आरोपेति, कोधस्स आणं आरोपेति, पाचि. अट्ठ. 110; सङ्घो इत्थनामस्स भिक्खुनो मोहं आरोपेति, पाचि. 194; - न्ति प्र. पु., ब. व. - सम्पज्जलितेहि अयमुग्गरेहि पोथेन्ता आरोपेन्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 156; तमेनं, भिक्खवे, निरयपाला महन्तं अङ्गारपब्बतं आदित्तं... आरोपेन्तिपि ओरोपेन्तिपि, म. नि. 3.206; - म उ. पु., ब. व. - मयं, भन्ते, बुद्धवचनं छन्दसो आरोपेमा ति, चूळव. 260; वेदं विय सक्कतभासाय वाचनामग्गं आरोपेम, चूळव. अट्ठ.57; - न्तो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., चढ़ा रहा, रखवा रहा - चेतियं । वन्दन्तो चेतिये गन्धमालं आरोपेन्तो, महानि. 315; -न्ते पु.. द्वि. वि.. ब. व., चढ़ाए जा रहे को - पुरिसे पस्सामि .... सूलेसु आरोपेन्ते, मि. प. 269; - न्तेहि पु., तृ. वि., ब. व. - रखवा रहे, विन्यस्त कर रहे - नवङ्ग सत्थुसासनं तीहि पिटकेहि सङ्गण्हित्वा वाचनामग्गं आरोपेन्तेहि पुब्बाचरियेहि .... खु. पा. अट्ठ.5; - पयतो पु, ष. वि., ए. व. - तिलक्खणं आरोपयतो..., विसुद्धि. 2.258; - पियन्ता पु., वर्त. कृ., कर्म. वा., प्र. वि., ब. व., स्थापित कराए जा रहे - सूलमारोपियन्ताव, पब्बतेनोत्थटा विय, ना. रू. प. 1708; - पियमानाय स्त्री., वर्त. कृ., कर्म वा., आत्मने., ष. वि., ए. व. - अपरो धम्मकथिको ... आपत्तिया आरोपियमानाय..., चूळव, अट्ठ.43; - तु अनु०. प्र. पु., ए. व. - अञवादकं आरोपेत पतिट्ठापेतुति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 31; - हि म. पु., ए. व. - त्वं, गहपति, समणस्स गोतमस्स इमस्मिं कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेहि, म. नि. 2.43; - न्तु अनु., प्र. पु., ब, व., चढ़ जाएं - आरोपेन्तु धजे तत्थ, चम्मानि कवचानि च, जा. अट्ठ. 6.362; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व., रूपान्तरित करें, पलटें - ... यो आरोपेय्य, आपत्ति दुक्कटस्स, चूळव. 260; - य्यं उ. पु., ए. व., दोष निकालूं, खण्डन करूं - अहं वा हि, गहपति, समणस्स गोतमस्स वादं आरोपेय्य, दीघतपस्सी वा, म. नि. 2.43; - य्यु प्र. पु., ब. व., उपरिवत् - भिक्खं पव्ह वा पुच्छेय्युं वादं वा आरोपेय्युं महानि. 366; - सि' अद्य., प्र. पु., ए. व., (प्रतिष्ठापित किया, बतलाया) - विसमगतं देवदत्तं तथागतो समं आरोपेसि, मि. प. 120; - सिम. पु., ए. व. - त्वं पन में अनरियं मग्गं आरोचेसीति अधिप्पायो, जा. अट्ठ. 3.111; पाठा. आरोचेसि; - सिं उ. पु., ए. व. - आरोपेसिं धजत्थम्भ, बुद्धसेट्ठस्स चेतिये, अप. 1.173; - पेसु प्र. पु., ब. व. - एतेनेव उपायेन खन्धकपरिवारेपि आरोपेसु. पारा. अट्ठ. 1.12; - पयि अद्य., प्र. पु., ए. व. - विहारं वेदिसगिरि थेरं आरोपयी सुभं, म. वं. 13.7; आरोपयी ति पटिपादयि, म. वं. टी. 283(ना.); - पयिं उ. पु., ए. व. - सुफुल्लपदुमं गव्ह, चितमारोपयिं अहं, अप. 1.96%; आरोपयिं पूजेसिन्ति अत्थो, अप. अट्ठ. 2.65; - यिंसु प्र. पु., ब. व. - तं सुसानं नेत्वा खदिरसूलं आरोपयिंसु, जा. अट्ठ. 4.27; - स्सति भवि., प्र. पु., ए. व., खण्डन करेगा, दोषमुक्त बताएगा - अयं मे भिक्खु वेय्याकरणेन अनारद्धचित्तो वादं आरोपेस्सति, दी. नि. अट्ठ. 1.293; - स्सामि उ. पु.. ए. व. - गोतमस्स इमस्मि कथावत्थुस्मिं वादं आरोपेस्सामि, म. नि. 2.43; - स्सन्ति प्र. पु.. ब. व. - तत्थ ये माल वा गन्धं वा चुण्णकं वा आरोपेस्सन्ति, दी. नि. 2.107; - स्साम उ. पु., ब. व. - एवमस्स मयं वादं आरोपेस्साम. म. नि. 1.237; - तुं निमि. कृ. - अनुजानामि, भिक्खवे, अन्वाधिकम्पि आरोपेतु, महाव. 389; आरोपेतुन्ति आगन्तुकपत्तम्पि दातुं, महाव. अट्ठ. 386; न युत्तं एतस्स दोसं आरोपेत, ध. प. अट्ठ 1.272; “यो मम वादं आरोपेतुं सक्कोति सो इमं साखं महतूति, अ. नि. अट्ठ. 1.277; - त्वा पू. का. कृ., 1. खण्डन करके, अपाकृत करके - उपज्झायरस वादं आरोपेत्वा, महाव. 67; 2. लाद कर, चढ़ा कर, ऊपर चढ़ा कर, रख कर - ... जानपदा मनुस्सा बहुं लोणम्पि ... सकटेस आरोपेत्वा .... महाव. For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोह 198 आरोहण 296; 3. रखवा कर, जलवाकर, ऊपर रखा कर - ... विन. वि. 1570; - हे द्वि. वि., ब. व- गजे तुरङ्गे तेलप्पदीपं आरोपेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु, महाव. भिन्दित्वा आरोहे च निपातयुं, चू. वं. 70.233; ग. वह, जिस 302; तेलप्पदीपं आरोपेत्वाति... तेलप्पदीपं जालापेत्वाति पर चढ़ा जाए, ऊंची जगह, टीला, पहाड़ - आरुरहतीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.86; 4. चढ़वा कर, आरूढ़ करा कर, आरोहो, वि. व. अट्ठ. 27; स. उ. प. के रूप में, अस्सा ., ऊपर में रखा कर - ... पञ्चसहत्थिनिकासतेस पच्चेका नागराजा., रथा., वण्णना., वरा., सुखा., स्वा., हत्था. के इत्थियो आरोपेत्वा ..., दी. नि. 1.44: - त्वान उपरिवत्, अन्त. द्रष्ट.. ऊपर चढ़वा कर - आरोपेत्वान तं नावं, चू. वं. 47.50; - आरोहक पु., आरोह से व्यु. [आरोहक], सवारी करने वाला, पेत्वा/पयित्वा/पयित्वान/पिय उपरिवत् - ... सवार - को प्र. वि., ए. व. - एको आरोहको, पाचि. अट्ठ. बलक्कारेन वा यानं आरोपेत्वा .... पे. व. अट्ठ. 100; “काजे 113; दिस्वा... अयं आरोहको मम, म. वं. 23.71; - नक आरोपयित्वान, भोजपुत्ता हरिंसु म, चरिया. 393; काजे द्वि. वि., ए. व. - यानम्पि आरोहनकम्पि भञ्जति, महानि. आरोपयित्वानाति अट्ठसु ठानेस विनिविज्झित्वा..., चरिया. 106; पाठा. आरोहनक; - स्स ष. वि., ए. व. - आरोहकस्स अट्ठ. 163; आरोपयित्वा निदोसं, भासं तन्तिनयानगं, ध. स. वेकल्ला इत्थी मंलयी ति, म. वं. 24.37; - का प्र. वि., अट्ठ. 3; नावं आरोपयित्वान राजानं तत्थ कुञ्जरो, म. वं. ब. व. - चत्तारो आरोहका, पाचि. अट्ठ. 113. 35.26; खन्धे आरोपयित्वान, अप. 1.383; तस्सा फरसेनातिरत्तो आरोहकम्बु त्रि., ब. स., 1. उन्नत अथवा उठी हुई गर्दन पिटुं आरोपियासु तं, म. वं. 6.8; - तब्ब त्रि., सं. कृ., - वाला, 2. ऊंचाई के अनुरूप विशाल - म्बू पु.. प्र. वि., ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - मोहो आरोपेतब्बो, पाचि. 194; ब. व. - आरोहकम्बू सुजवा ब्रहूपमा, वि. व. 1021; - ब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - मातिका आसेपेतब्बा, आरोहकम्बूति उच्चा चेव तदनुरूपपरिणाहा च, महाव. अट्ठ. 399; - ब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - बुद्धवचनं । आरोहपरिणाहसम्पन्नाति अत्थो, वि. व. अट्ट, 233. छन्दसो आरोपेतब्बं चूळव. 260; - ब्बानि ब. व. - आरोहण/आरोहन नपुं., आ + रुह से व्यु., क्रि. ना. मालागन्धादीनि ताव चेतिये आरोपेतब्बानि, महाव. अट्ठ. [आरोहण]. 1. ऊपर की ओर उठना, सवार होना, ऊपर 398; - ब्बकं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - नारोपेतब्बकं । चढ़ना, 2. घोड़े की सवारी करना, 3. सीढ़ी, जीना - बुद्धवचनं अञथा पन, विन. वि. 2821; - माना स्त्री., णं' प्र. वि., ए. व. - सोपानोवारोहणं च निस्सेणी कर्म. वा., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व., आरोपित की जा रही। साधिरोहणी, अभि. प. 216; मलेहि ओजाय आरोहनं विय, - अनत्तमनताय अतित्थियपुब्बतं आरोपयमाना, स. नि. स. नि. अट्ठ. 2.74; - नं द्वि. वि., ए. व. - ततो अट्ठ. 2.159; -- पियमानो पु., प्र. वि., ए. व., लगाया निस्सेणितो पपतति, न आरोहनं सम्पादेति, खु. पा. अट्ठ. जा रहा - तस्मिं तथागते परेन आरोपियमानो दोसो न । 53; - णाय च. वि., ए. व. - निस्सेणिं करेय्य पासादस्स रुहति, इति. अट्ठ. 246; - नाय स्त्री., ष. वि., ए. व. - आरोहणाय, दी. नि. 1.172; - ने सप्त. वि., ए. व. - निवासेन्तानं आपत्तिया आरोपियमानाय "किं इमेसं आपत्ति आरोहने महानिधि, अथो ओरोहने निधि, जा. अट्ठ. 6.45; रोपेथ', चूळव. अट्ठ. 43. आरोहने निधीति मङ्गलहत्थिं आरोहनकाले सवण्णनिस्सेणिया आरोह पु., आ + रुह से व्यु. [आरोह], क. चढ़ाव, अत्थरणट्ठानतो निधि नीहरापेसि, जा. अट्ठ. 6.49; - कण्ड ऊंचाई, लम्बाई, उभार, दीर्घता - हो प्र. वि., ए. व. - पु., तत्पु. स., ऊपर को जा रहा अथवा उड़ रहा वाण - आयामो दीघतारोहो, अभि. प. 295; - हं द्वि. वि., ए. व. ण्डेन तृ. वि., ए. व.- कि, महाराज, एतं अम्बपिण्डिं उद्धं - आरोह वा पस्सित्वा परिणाहं वा पस्सित्वा, पु. प. 163; आरोहनकण्डेन पातेमि, उदाहु अधो आरोहनकण्डेनाति, - हेन तृ. वि., ए. व. - मा नं रूपेन पामेसि, आरोहेन जा. अट्ठ. 2.73; - काल पु., तत्पु. स. [आरोहणकाल], पभावति, जा. अट्ठ. 5.288; ख. चढ़ने वाला, सवार, ऊपर की आरे उठने का काल - लो प्र. वि., ए. व. - घुड़सवार - हो प्र. वि., ए. व. - आरोहो महापथविया ... आरोहनकालो, जा. अट्ठ. 1.80; -- ले हिताहितविचारणरहितो राजवल्लभो, बु. वं. अट्ठ. 240; सप्त. वि., ए. व. - सो तस्सा आरोहनकाले अत्तनो द्वैपादरक्खा आरोहो, एको तिपुरिसोहयो, विन. वि. 1571; आनुभावेन वातपुण्णभस्तचम्म... पहरापेसि, जा. अठ्ठ. - हा ब. व. - आरोहा पन चत्तारो, द्वे द्वे तपादरक्खका, 6.39; - किच्च नपुं.. तत्पु. स. [आरोहणकृत्य], ऊपर For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोहणीय 199 आरोहपरिणाह चढ़ने का काम अथवा उपयोगिता - च्वं प्र. वि., ए. व. - पुप्फिते पारिच्छत्तके आरोहणकिच्चं... नत्थि, दी. नि. अट्ठ. 2.217; - निस्से णि स्त्री., तत्पु. स. [आरोहणनिःश्रयणी/निःश्रेणि], ऊपर जाने हेतु प्रयुक्त सीढ़ी-णि प्र. वि., ए. व. - आरोहणनिस्सेणि सतसहस्सं. जा. अट्ठ. 7.237; - सज्ज त्रि., तत्पु. स., चढ़े जाने हेतु सज धज कर तैयार - ज्जो पु., प्र. वि., ए. व. - रथो कुमारं पदक्खिणं कत्वा आरोहनसज्जो हुत्वा अठ्ठासि, स. नि. अट्ठ. 2.166; - ज्जं पु., द्वि. वि., ए. व. - रथं निवत्तेत्वा सीहपञ्जरउम्मारे पच्छाभागेन ठपेत्चा आरोहणसज्ज कत्वा, जा. अट्ठ. 6.125; - ज्जानि नपुं., प्र. वि., ब. व. --- आरोहणसज्जानि कारेत्वा, दी. नि. अट्ठ 1.123. आरोहणीय त्रि., आ + vरुह का सं. कृ. [आरोहणीय], सवारी करने योग्य, चढ़ने योग्य, आरोहण के लिए उपयुक्त - यो पु., प्र. वि., ए. व. - कुञ्जरो ... आरोहनीयोति अत्थो, वि. व. अट्ट 26-27; - यं पु., द्वि. वि., ए. व. - अजातसत्तु ... आरोहणीयं नागं अभिरुहित्वा, दी. नि. 1.44; आरोहणीयन्ति आरोहणयोग्ग, ओपगरहन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.123; - ये सप्त. वि., ए. व. -- स्वारोहे ति सुखेन आरोहणीये, म. वं. टी. 353(ना.); - रथ पु., कर्म. स. [आरोहणीयरथ], चढ़ने योग्य रथ, सवार होने योग्य रथ - था प्र. वि., ब. व. - राजूनं अरोहनीयरथा, जा. अट्ठ. 5.478; - हत्थी पु., कर्म. स., शाही हाथी, राजा की सवारी वाला हाथी, राजकीय सवारी-त्थी प्र. वि., ए. व. - बोधिसत्तेन हि सद्धिं... राहुलमाता चतस्सो निधिकुम्भियो आरोहनियहत्थी कण्डको छन्नो काळदायीति ..., अ. नि. अट्ठ. 1.229. आरोहता स्त्री., आरोह का भाव., ऊपर की ओर रहने अथवा ऊपर की ओर चढ़ने की स्थिति, द्रष्ट. सुखा. के अन्त.(आगे). आरोहति आ + रुह का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आरोहति], शा. अ., आरोहण करता है, ऊपर की ओर उठता है, उगता है, ऊपर सवार होता है - पण्णलोणि रुक्खे च गच्छे च आरोहति, पाचि. अट्ठ. 91; ठितिका उद्धं आरोहति, महाव. अट्ठ. 396; - न्ति ब. व. - कण्टकावाटम्पि आरोहन्ति, सुत्तम्पि गाविं आरोहन्ति, म. नि. 2.121; - न्त त्रि., वर्त. कृ. - न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - पासादा ओतरन्तो च आरोहन्तो च, जा. अट्ठ. 2.202; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - गिज्झकूटं पब्बतं आरोहन्तस्स कायकिलमथो, स. नि. 3(1).149; - न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - आरोहन्ता विहअन्ति... परिपत्तन्ति, चूळव. 235; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. - आरोहतु मिस्सकनगं जेटमासस्सुपोसथे म. वं. 13.14; - ह म. पु., ए. व. -- आरोह वरपासाद, जा. अट्ठ. 5.174; - थ ब. व. - आरोहथ रथं याम नगरं इति ते ब्रवि, म. वं. 14.42; - हेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सहायको उपरिपब्बतं आरोहेय्य, म. नि. 3.172; - हिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - इदं कण्डं दूरं आरोहिस्सति, जा. अट्ठ. 2.73; - हिस्साम उ. पु.. ब. व. - सयनं आरुहिस्सामाति, थेरगा. अट्ठ. 2.373; - हितुं निमि. कृ. - जानामि रुक्खं आरोहितुं, म. नि. 2.32; - हित्वा पू. का. कृ. - रुक्खं आरोहित्वा, म. नि. 2.32; - मानं वर्त. कृ., आत्मने, नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इदं कण्डं पन आरोहमानं अम्बपिण्डिवण्ट यावमज्झं कन्तमानं आरोहिस्सति, जा. अट्ठ. 2.73. आरोहन्त पु., व्य. सं., एक प्रमुख महामन्त्री का नाम - न्तो प्र. वि., ए. व. - आरोहन्तो नाम महामत्तो भिक्खूस पब्बजितो होति, पाचि. 358.. आरोहपरिणाह पु., द्व. स. [बौ. सं., आरोहपरिणाह, लम्बाई एवं चौड़ाई, ऊंचाई एवं परिधि अथवा विस्तार - हेन तृ. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भन्ते, काळपक्खे चन्दस्स या रत्ति वा दिवसो वा आगच्छति, ... हायति आरोहपरिणाहेन, ... वडति, स. नि. 1(2).183-84; आरोहपरिणाहेनाति दीघपुथुलन्तेन, अ. नि. अट्ठ. 3.288; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - इदमस्स आरोहपरिणाहस्मिं वदामि, अ. नि. 1(1),324-25; आरोहपरिणाहस्मिन्ति अयमस्स उच्चभावो परिमण्डलभावोति वदामीति, अ. नि. अट्ठ. 2.235; - वन्तु त्रि.. [आरोहपरिणाहवत], लम्बाई एवं चौड़ाई वाला, ऊंचाई के अनुरूप परिधि या परिमण्डल से युक्त – वा पु.. प्र. वि., ए. व. - अङ्गपच्चङ्गसम्पन्नो आरोहपरिणाहवा विसद्ववचनो पओ, मग्गे सग्गस्स तिट्ठति, जा. अट्ठ. 6.24; - वती स्त्री., प्र. वि., ए. व. - महासरीरा आरोहपरिणाहवती, थेरगा. अट्ठ. 1.294; - सण्ठानपरिपूरिसम्पन्न त्रि., ऊंचाई, चौड़ाई एवं शारीरिक बनावट की पूर्णता से युक्त, सन्तुलित कद काठी वाला, सुगठित आकार प्रकार वाला-नो पु.. प्र. वि., ए. व. - आरोहपरिणाहसण्ठानपारिपूरिसम्पन्नो द्वत्तिंसवरलक्खणानुब्यञ्जनसमलसङ्कतसरीरो ... भगवा, बु. वं. अट्ठ. 147; - सम्पत्तिता स्त्री॰, भाव., सुगठित एवं उचित अनुपात वाले आकार प्रकार से सम्पन्न होना - ता For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आरोहपरिणाहिन 200 आलपति प्र. वि., ए. व. - अङ्गपच्चङ्गसम्पन्नता आरोहपरिणाहसम्पत्तिता, खु. पा. अट्ठ. 23; - या तृ. वि., ए. व. - आरोहपरिणाहसम्पत्तिया सण्ठानसम्पत्तिया च सुनिब्बत्तो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.283; - सम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [आरोहपरिणाहसम्पन्न], सन्तुलित लम्बाई चौड़ाई वाला, लम्बाई एवं चौड़ाई में सुसन्तुलन को प्राप्त - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - एकच्चो अस्सखळुङ्को जवसम्पन्नो च होति, न वण्णसम्पन्नो, च, न आरोहपरिणाहसम्पन्नो, अ. नि. 1(1).323; - नं द्वि. वि., ए. व. - आरोहपरिणाहसम्पन्न अभिरूपं एक पुरिसं फलकं कत्वा, जा. अट्ठ. 1.340; - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - उच्चा चेव तदनुरूपपरिणाहा च, आरोहपरिणाहसम्पन्नाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 233; - ने पु., द्वि. वि., ब. व. - धुरवाहे, भन्ते, आरोहपरिणाहसम्पन्ने महागोणेयुगपरम्पराय अयोजेत्वा, जा. अट्ठ 1.322. आरोहपरिणाही त्रि., ऊंचाई (लम्बाई) एवं चौड़ाई (परिमण्डल) के उचित सन्तुलन से युक्त, भव्य आकार-प्रकार या सुगठित डील-डौल वाला - नो पु., प्र. वि., ब. व. - गोकण्णा सरभा रुरू, आरोहपरिणाहिनो, सुरूपा अङ्गसम्पन्ना, अप. अट्ठ. 2.257. आरोहपुत्त पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम - तो प्र. वि.. ए. व. --- आरोहपत्तो मेण्डसिरो. रक्खितो उग्गसव्हयोति. थेरगा. (पृ.) 178. आरोहमद पु., तत्पु. स. [आरोहमद]. ऊंचे या लम्बे होने का घमण्ड, “मैं दूसरों की तुलना में अधिक ऊंचाई वाला हूं' इस सोच से उत्पन्न अहंकार - दो प्र. वि., ए. व. - जातिमदो ... आरोहमदो... वितक्को , विभ. 395-963; अहं पन दीघोति मज्जनवसेन उप्पन्नो मानो आरोहमदो नाम, विभ. अट्ठ. 442. आरोहसम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आरोहसम्प्राप्ति]. ऊंचाई अथवा लम्बाई की सम्पदा, ऊंचाई अथवा लम्बाई की प्राप्ति --त्ति प्र. वि., ए. व. - चस्सा पठमयुगळेन आरोहसम्पत्ति, दुतिययुगळेन परिणाहसम्पत्ति, ततिययुगळेन वण्णसम्पत्ति वुत्ता, दी. नि. अट्ठ. 2.195; -- या ष. वि., ए. व. - इमिना आरोहसम्पत्तिया अभावं दस्सेति, उदा. अट्ठ. 299. आरोहसम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [आरोहसम्पन्न], ऊंचाई तक पहुंच चुका, अत्यधिक महानता को प्राप्त, अत्यन्त बलवान् - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - अभिवड़ितो आरोहसम्पन्नो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.92; - न्नं पु., द्वि. वि., ए. व. - 'हत्थिमेव न खो, भन्ते तिआदिवचनं अवोच, तत्थ महन्तन्ति आरोहसम्पन्नं, अ. नि. अट्ठ. 3.113. आलपति आ + Vलप का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आलपति, बोलता है, बातें करता है, सम्बोधित करता है, चायं चायं करता है, कह कर पुकारता है, आमन्त्रित करता है, आह्वान करता है – नामेन में भगवा आलपतीति, चूळव. 284; संसुमार आलपति, जा. अट्ठ. 3.114; - सि म. पु., ए. व. - तपसा अभिभुय्य मम पुत्तं ब्रह्मदत्तं नामेनालपसि, जा. अट्ठ. 3.399; - न्ति प्र. पु., ब. व. - तं किर सिरिकण्हो तिपि अव्हयन्ति आमन्तेन्ति, आलपन्तीति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.187; - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - तं आलपन्तो आह - सरणं तं उपेम चक्खमा ति, सु. नि. अट्ठ. 1.35; - न्ता ब. व. - बुद्धा भगवन्तो सावके आलपन्ता भिक्खवेति आलपन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).107; - न्तं द्वि. वि., ए. व. -- दारकं नेव ओलोकेन्तं नापि आलपन्तं, उदा. 75; - न्तेन तृ. वि., ए. व. - 'अनालापो आनन्दा ति, आलपन्तेन पन, ... पटिपज्जितब्बन्ति, दी. नि. 2.106; - न्ती वर्त. कृ., स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - मातरं परम्मुखालपनेन आलपन्ती आह, जा. अट्ठ. 7.328; - पेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - सचे मं नागनासूरू, आलपेय्य पभावती, जा. अट्ठ. 5.287; आलपेय्या तिआदीसुपि एसेव नयो, तदे. - पेय्याम उ. पु., ब. व. - अञमज़ नेव आलपेय्याम न सल्लपेय्याम, महाव. 209; - पि/पी अद्य., प्र. पु., ए. व. - तं दिस्वा आलपी राजा, जा. अट्ठ. 5.248; आलपीति “सद्धि गामसहस्सानी ति आदीनि वदन्तो आलपि, जा. अट्ठ. 5.251; - पित्थ आत्मने., म. पु., ब. व. - सो च तं पच्चासन्तो कथेसि, तस्स तुवं न किञ्चि आलपित्थ, पे. व. 742; - पिंसु प्र. पु., ब. व. - भिक्खू अञमज नेव आलपिंसु, न सल्लपिंसु, महाव. 209; - पिम्हा उ. पु.. ब. व. - अञमज़ नेव आलपिम्हा न सल्लविम्हा, महाव. 211; - पिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - सचे मं समणो गोतमो आलपिस्सति, अहम्पि तं आलपिस्सामि, स. नि. 1(1).207; कुलदत्तिकनामेन मं आलपिस्सती ति. स. नि. अट्ठ. 1.276; - पिस्सामि उ. पु., ए. व. - सचे मं समणो गोतमो आलपिस्सति, अहम्पि तं आलपिस्सामि, स. नि. 1(1).207; -- पिस्सन्ति प्र. पु., ब. व. - समणा ... वुच्चमाना नालपिस्सन्तीति, जा. अट्ठ. 2.13; - पित्वा पू. का. कृ. - "भिक्खु भिक्खू"ति आलपित्वा अयं वम्मिकोतिआदिमाह, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).32; - पितुकाम त्रि., बोलने की इच्छा वाला - मो पु., प्र. वि., ए. व. - आलपितुकामो आलपति, कथाव. 339. For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलपन 201 आलम्ब 87. आलपन नपुं., आ + Vलप से व्यु., क्रि. ना. [आलपन], क. व. - संसितो अकत ना, आलम्पायनो ममग्गहि, सम्बोधन, पुकारना, पुकारने अथवा सम्बोधित करने का चरिया. 2.2.5 (पृ. 386): आलम्पायनोति तरीका, सामने किसी को सम्बोधित कर के, हे, ओ, रे, अरे अलम्पायनविज्जापरिजप्पनेन अलम्पायनो... एवं लद्धनामो आदि शब्दों का कथन - नं प्र. वि., ए. व. भिक्खवेति अहितुण्डिकब्राह्मणो, चरिया. अट्ठ. 117; - आलम्पायनोपि येसं कथेतुकामो, तदालपनं सु. नि. अट्ठ. 2.112 - दिब्बोसधेहि अत्तनो सरीरं मक्खेत्वा ..., जा. अट्ठ. 7.29; अभिमुखं कत्वा लपनं आलपनं, क. व्या. 287 पर क. न्या.; मन्त पु., सर्पो के विष का शमन करने वाला आलम्पायन - ने सप्त. वि., ए. व. - पुग्गलालपने चेव धम्मस्सालपने नामक मन्त्र - तं द्वि. वि., ए. व. - अहञ्चेक पिच निज्जीवालपने चा ति भोसद्दो तीस दिस्सति, सद्द. अलम्पायनमन्तं जानामि, जा. अट्ठ. 7.21. 1.171; ख. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, सम्बोधन आलम्ब' पु.. [आलम्ब], 1. वह, जो किसी का आलम्बन कारक, - ने सप्त. वि., ए. व. - आलपने च, क. व्या. लेकर लटका हुआ हो, लता, परोपजीवी पादप, स. प. के 287; - नाधिवचन नपुं., तत्पु. स., किसी को पुकारने रूप में, - सम्पफुल्ललतालम्बमनुञआगिन्दमण्डिता, सद्धम्मो. अथवा सम्बोधित करने के अर्थ का सूचक कथन - नं प्र. 245; 2. सहारा, आधार, अवलम्बन, स. पू. प. में, - दण्ड वि., ए. व. - अम्भो पुरिसाति आलपनाधिवचनमेतं, पारा. पु., सहारा देने हेतु गृहीत दण्ड या छड़ी -- ण्डं द्वि. वि., ए. व. - आलम्बदण्डं दत्वान, पक्कामि उत्तरामुखो, अप. आलपना स्त्री., आ + Vलप से व्यु., क्रि. ना. [आलपन], 2.103; 3. दार्शनिक सन्दर्भ में, विषय, इन्द्रियों अथवा चित्त पुकारना, सम्बोधित करके कहना, फुसलाना, चापलूसी की द्वारा ग्राह्य रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य एवं धर्म, बातें करना, दूसरों को ठगने अथवा अपने महत्व को उनके ध्यानभावना का कर्मस्थान (कम्मट्ठान) या आलम्बन - म्बो मन में बैठाने हेतु की गई चिकनी-चुपड़ी बात - ना प्र. प्र. वि., ए. व. - आलम्बो विसयो तेजारम्मणालम्बनानि च, वि., ए. व. - आलपना लपना सल्लपना उल्लपना । अभि. प. 94; - म्बा ब. व. - तदेवालम्बभेदेन समुल्लपना उन्नहना समुन्नहना उक्काचना समुक्काचना अरूपज्झानसम्मतं, आकासो चेव विआणं तदभावो च अनुप्पियभाणिता चाटुकम्यता मुग्गसूप्यता पारिभट्यता, विभ. तग्गतं, चित्तमरूपज्झानस्स आलम्बा चतरो मता, सद्धम्मो. 404; आलपनाति विहारं आगतमनुस्से दिस्वा किमत्थाय । 463-64; स. उ. प. में, पञ्चा.- पांच आलम्बन - भोन्तो आगता? .... भिक्खू गहेत्वा आगच्छामी ति एवं पञ्चद्वारे वत्तमानं पञ्चालम्बं यथाक्कम, ना. रू. प. 239; आदितोव लपना अथ वा ... अत्तुपनायिका लपना - म्बत्थिकता स्त्री., आलम्बनों पर निर्भरता, आलम्बनआलपना, विभ. अट्ठ. 455. सापेक्षता - ता प्र. वि., ए. व. - आलम्बत्थिकता छन्दो, आलपित त्रि., आ + Vलप का भू. क. कृ. [आलपित], ना. रू. प. 85; - गिज्झनरस त्रि., ब. स., वह, जिसकी पुकारा गया, सम्बोधित किया गया, कहा जा चुका, कथित मूलभूत विशेषता, आलम्बन-विषयक लोभ हो- सो पु., प्र. - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सन्दिट्ठो च होति, सम्भत्तो च, वि., ए. व. - ... लोभो अपरिच्चागलक्षणो, आलपितो च, जीवति च, जानाति च गहिते मे अत्तमनो आलम्बगिज्झनरसो.... ना. रू. प. 106; - बाहननरस भविस्सतीति, महाव. 387-88; बुद्धहि च आलपितो भिक्खुसङ्घो, त्रि., ब. स., वह जिसकी आधार-भूत विशेषता स. नि. अट्ठ.2.206; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - आलम्बनों के साथ टकराहट हो – सो पु., प्र. वि., ए. व. सब्बकामजहस्स भिक्खुनोति कामा आलपिता, पेटको. 235; - आलम्बाहननरसो सन्निरुज्झोति गम्हति, ना. रू. परि. - ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - बुद्धेहि च आलपिते 81. भिक्खसको "भन्ते ति पटिवचनं देति सावकेहि "आवसो ति. आलम्ब पु., व्य. सं., 1. एक प्राचीन वाद्य का नाम, तुरही, स. नि. अट्ठ. 2.206. एक प्रकार का तूर्य वाद्य, 2. तूर्यवादक देवपुत्रों का नाम आलम्पान/आलम्पायन पु., आलम्बान/आलम्बान के - म्बो प्र. वि., ए. व. - आलम्बो गग्गरो भीमो, वि. व. स्थान पर अप., 1. सवेरे का मन्त्र, 2. इस मन्त्र का 166; आलम्बोतिआदि तुरियवादकानं देवपत्तानं एकदेसतो ज्ञाता एक ब्राह्मण, सपेरा, 3. दिव्य औषधियों का नामग्गहणन्ति वदन्ति, तरियानं पनेतं नामग्गहणं. वि. व. शरीर पर लेप करने वाला सपेरा - नो प्र. वि., ए. अट्ठ. 77. For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलम्बगामवापी 202 आळम्बर/आलम्बर आलम्बगामवापी स्त्री., श्रीलङ्का में स्थित आलम्बगाम- आलम्बन नपुं॰, आ + Vलम्ब से व्यु., क्रि. ना. [आलम्बन], नामक गांव की बावली, बौली या जलाशय - पिं द्वि. वि., शा. अ., सहारा, आश्रय, आधार, ला. अ., 1. थूनी, ए. व. -- आलम्बगामवापिं सो जेट्टतिस्सो अकारयि. म. टेक, छड़ी- नं द्वि. वि., ए. व. - आलम्बनं करित्वान, वं. 36.131. सङ्घस्स अददं अहं, अप. 1.309; हेट्ठा पतिट्ठाभावेन उपरि आलम्बण नपुं., आलम्बन का ही रूपान्तरण [बौ. सं. आलम्बनाभावेन च गम्भीरो, सु. नि. अट्ठ. 1.183; ला. अ.. आलम्बन, आरम्मण], रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य एवं 2. त्रि., सहारा या आश्रय देने वाला - नो पु., प्र. वि., धर्म, इन्द्रियों एवं चित्त द्वारा ग्राह्य छ विषय, ध्यानप्रक्रिया ए. व. - सो तुम्हाकं उपट्ठाको भविस्सति आलम्बनो चाति, में चित्त के आलम्बन के रूप में निर्धारित चालीस कर्मस्थानों मि. प. 130; - त्थम्भ पु., तत्पु. स. [आलम्बनस्तम्भ], में कोई एक, - णं प्र. वि., ए. व. - आरम्मणं आलम्बणं चंक्रमण पथ के अन्त में टिकने अथवा सहारा लेने हेतु निस्सयं, चूळनि. 91; आलम्बणं मया दिन्नं, अप. 1.223; स. गाड़ा गया लकड़ी का खम्भा - म्भं द्वि. वि., ए. व. - उ. प. में, छा.- छ प्रकार का आलम्बन - णं प्र. वि., ए. भिक्खु चङ्कमे चङ्कममानो वा आलम्बनत्थम्भ निस्साय ठितो, व. --- छालम्बणं मनोद्वारे, ना. रू. परि. 239; स. पू. प. स. नि. अट्ठ. 1.77; - दण्ड पु., तत्पु. स. [आलम्बनदण्ड, के रूप में, -- दायकत्थेरअपदान नपुं., अप. के एक सहारा देने वाली छड़ी या बेंत - स्मिं सप्त. वि., ए. व. खण्ड का शीर्षक, अप. 1.223; - भूत त्रि., किसी (इन्द्रिय - अथालम्बनदण्डस्मिं कत्तरयट्टि नारियं, अभि. प. 443; - अथवा चित्त) के लिए आलम्बन या विषय बना दिया गया नङ्गल नपुं.. तत्पु. स., फसल बोने से सम्बद्ध उत्सव के - तेसु पु., सप्त. वि., ब. व. – तथा कामावचरजवनावसाने अवसर पर राजा द्वारा प्रयुक्त हल, सहारा देने वाला हल ... कामावचरधम्मेस्वेव आरम्मणभूतेस तदारम्मणं इच्छन्तीति, - लं प्र. वि., ए. व. - ओ आलम्बननङ्गलं पन अभि. ध. स. 28; - मन त्रि., ब. स., आलम्बन से जुड़े रत्तसुवण्णपरिक्खतं होति, जा. अट्ट. 1.67; - फलक हुए मन वाला – नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आलम्बणमनं नपुं., तत्पु. स., चंक्रमण करते हुए बीच में विश्राम लेने चित्तं, ना. रु. परि. 73; - समोधान त्रि०, ब. स., हेतु सहारा देने वाला काष्ठ-फलक या लकड़ी का तख्ता आलम्बन के साथ जुड़ाव रखने वाला, आलम्बन की - कं प्र. वि., ए. व. - चङ्कमे अपस्साय तिट्ठन्तरस सहवर्तिता से युक्त - नो पु., प्र. वि., ए. व. - आलम्बनरुक्खो वा आलम्बनफलक वा सब्बम्पेतं आलम्बणसमोधानो, फरसो फुसनलक्खणो, ना. रू. प. 74; अपस्सयनीयढेन अपस्सेन नाम, पारा. अट्ठ. 2.51; - बाहा - रस त्रि., ब. स., वह जिसके लिए आलम्बन ही सारभूत स्त्री., तत्पु. स., सीढ़ियों का जंगला, सीढ़ियों के दोनों ओर तत्त्व हो - सा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - वेदनालम्बणरसा, बनाया गया घेरा - हं वि. वि., ए. व. - आरोहन्ता ना. रू. प. 75. परिपतन्ति ... अनुजानामि, भिक्खवे, आलम्बनबाहान्ति, चूळव. आलम्बति आ + Vलम्ब का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आलम्बते], 235; - रज्जु स्त्री., तत्पु. स., सहारा देने वाली रस्सी, लटकता है, सहारा या आश्रय लेता है, अधीन रहता है, सहारा के रूप में पकड़ी गई रस्सी – ज्जु द्वि. वि., ए. निर्भर होता है, आधारित रहता है, दृढ़ता के साथ किसी के व. - "इमं आलम्बित्वा परिवत्तेय्यासी ति आलम्बनरज्जु साथ लटक जाता है अथवा सट जाता है, चढ़ता है, बन्धेय्यु, जा. अट्ठ. 3.350; - रुक्ख पु., तत्पु. स. आरोहण करता है - नीचे चोलम्बते सरियो, आलम्बति [आलम्बनवृक्ष], चंक्रमण करते हुए बीच बीच में विश्राम आलम्बनं तदालम्बनं... वा, सद्द. 2.406-07; - न्तु अनु० हेतु चंक्रमण पथ के अन्त में स्थित सहारा देने वाला वृक्ष प्र. पु.. ब. व. - सब्व ते आलम्बन्तु विमानं, वि. व. 1275; - क्खो प्र. वि., ए. व. - चङ्कमे अपस्साय तिट्ठन्तरस आलम्बन्तूति आरोहन्तु, वि. व. अट्ठ. 296; - म्बिंसु अद्य., आलम्बनरुक्खो वा आलम्बनफलकं वा... अपरसेनं नाम, प्र. पु.. ब. व. - सब्बेव ते आलम्बिंस विमानं, वि. व. 12763; पारा. अट्ट. 2.51. .... आरुहिंसु, वि. व. अट्ठ. 297; - म्बित्वा/त्वान पू. आळम्बर'/आलम्बर पु., [आडम्बर], 1. युद्ध भेरी, नगाड़ा, का. कृ. - इध ... आलम्बित्वा उत्तरतूति, महाव. 34; 2. नगाड़ों का कोलाहल, शोर-शराबा - रो प्र. वि., ए. व. ओरिमा पन तीरम्हा आलम्बित्वान रज्जुकं, अभि. अव. - आळम्बरो च पणवो, अभि. प. 144; आळम्बरो तु सारम्भे 597. भेरिभेदे च दिस्सति, अभि. प. 854; - रा ब. व. - For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आळम्बर 203 आलय आळम्बरा मुदिङ्गा च, नच्चगीता सुवादिता, जा. अट्ठ. 6.143; स. उ. प. में, मुरजा.- नपुं.. मुरज एवं नगाड़े, प्र. वि., ब. व. - पाणिस्सरा मुदिङ्गा च, मरजालम्बरानि च, जा. अट्ठ. 5.387; स. पू. प. में - मेघ पु., बादलों की गरज - घो प्र. वि., ए. व. - 'आलम्बरमेघो विय थनतीति तं सन्धाय वदन्ति, जा. अट्ट. 2.285. आलम्बर पु., व्य. सं., असुरों द्वारा निर्मित एक नगाड़े या भेरी का नाम - रं द्वि. वि., ए. व. - समुदं पन पविट्ट असुरा गहेत्वा आलम्बरं नाम भेरि कारेसं. जा. अट्ठ. 2.285. आलम्बितब्बट्ठानरहित त्रि., तत्पु. स., आश्रयदायक स्थान से रहित, निराधार स्थान - ते न., सप्त. वि., ए. व. - अनालम्बेति आलम्बितब्बद्वानरहिते, जा. अट्ठ. 5.68. आलम्बीयति आ + Vलम्ब का कर्म. वा., वर्त., प्र. पु., ए. व., आलम्बन ग्रहण किया जाता है, आश्रय या सहारा लिया जाता है - आलम्बीयती ति विज्ञाणञ्चन्ति, सद्द. 3.765. आलय पु./नपुं॰, आ + Vली से व्यु. [आलय], घर, आश्रय, राग, लगाव आदि विविध अर्थों में प्रयुक्त, - लि सिलेसने, अल्लीयन्ति एत्थाति आलयो, रूप. 232(रो.); ... लोभो रागो च आलयो, अभि. प. 163; अल्लीयन्ति रञ्जन्ति एत्थाति आलयो, अभि. प. 205 की सूची; जिनालयो देवालयो, इच्चादिसु घरे, अभि. प. 1097 पर सूची; 1.क. घर, वासस्थान, कोई भी निर्माण किया गया ढांचा, निवासस्थल, विश्राम-स्थल, आवास - ये सप्त. वि., ए. व. - तेसं आलये रति नाम नत्थि, ... कञ्चि आलयं, ध, प. अट्ठ. 1.343; - यो प्र. वि., ए. व. - ओकं वुच्चति आलयो, अनोक वुच्चति अनालयो, आलयतो निक्खमित्वा अनालयसखातं निब्बानं पटिच्च ..., ध. प. अट्ठ. 1.338; - यं द्वि. वि., ए. व. - बहभेरवं रतनगणानमालयं, स. नि. 3.463; आलयन्ति निवासट्टानं; 1.ख. आश्रय-स्थल, शरणग्रहण का स्थान, घोसला, नीड, आसन, जगह - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - बहदुक्खानमालयो, थेरीगा. 2703; बहुदुक्खानमालयोति जरादिहेतुकानं बहूनं दुक्खानं आलयभूतो, थेरीगा. अठ्ठ. 236; - यं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - यदा बलाका ... पलेहिति आलयमालयेसिनी, थेरगा. 307; आलयन्ति निलयं अत्तनो कुलावकं आलयेसिनीति तत्थ आलयन निलीयनमेव इच्छन्ती, थेरगा. अट्ठ. 2.27; - या प्र. वि., ब. व. - एत्थ ओकमोकतोति उदकसङ्घाता आलयाति अयमत्थो, ध. प. अट्ठ. 1.164; 1.ग. विषय, आलम्बन, क्षेत्र, क्रियाकलाप का स्थल, गोचर - बुद्धापि बुद्धे पुच्छन्ति, विसयं सब्ब मालयं, अप. 1.4; 2.क. आसक्ति लिप्तता, लगाव, प्रवृत्ति, अनुकूलता, पक्षपात, अभिरुचि - यो प्र. वि., ए. व. - 'नत्थि ..., गिहिभावाय आलयो ति, ध. प. अट्ठ. 1.70; - यं द्वि. वि., ए. व. - खन्धेसु आलयं पहाय, ध, प. अट्ठ. 2.316; - ये सप्त. वि., ए. व. - राजकुमारेन पिण्डम्हि आलये दस्सिते. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.222; 2.ख. स्नेह, राग, प्रेम, तृष्णा, लोभ, सांसारिक विषयभोगों अथवा कामसुखों के प्रति सुदृढ़ लगाव- यो प्र. वि., ए. व. - अभिज्झा वनथो वानं लोभो रागो च आलयो, अभि. प. 162; - यं द्वि. वि., ए. व. --- सत्ता हि नाम पियभरियासु विय सेसेसु आलयं न करोन्ति, जा. अट्ठ. 6.288; सा ... कनिट्ठम्हि आलयं विस्सज्जि , विसुद्धि. 2.281; - यानि द्वि. वि., ब. व. - छेत्वा आसवानि आलयानि, सु. नि. 540; द्वे च आलयानि पञ्चासत्थेन छेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 2.141; स. उ. प. के रूप में, सा.- रागयुक्त, तृष्णायुक्त, आसक्तियुक्त - या पु., प्र. वि., ब. व. -- जीविते सालया निवत्तन्तु, निरालया इम पब्बतं अभिरुहन्तूति, उदा. अट्ठ. 64; स. पू. प. के रूप में, -- वसेन तृ. वि., क्रि. वि., राग अथवा आसक्ति के कारण - आलयवसेन भरिय कुलावकं कत्वा, स. नि. अट्ठ. 1.35; 2.ग. वर्षावास के विषय में निर्णय लेने के साथ उत्पन्न चिन्तन अथवा चित्तोत्पाद - यो प्र. वि., ए. व. - आलयो नाम इध वस्सं वसिस्सामी ति चित्तुप्पादमत्तं महाव, अट्ठ. 334; तम्पि अलभन्तेन आलयो कातब्बो, तदे; - यं द्वि. वि., ए. क. - आलयं करोति, चूळव. अट्ठ. 75; आलयं वा कत्वा, तदे., 3. बहाना, वञ्चना, धोखा, ठगी, छल-छद्म, चाल, भुलावा, छिपाव, ढोंग - ये द्वि. वि., ब. व. - रजस्स किर सो भीतो, अकरा आलये बहू जा. अट्ठ. 6.24; अकरा आलये बहूति तुम्हाकं वञ्चनानि बहूनि अकासि, जा. अट्ठ. 6.25; स. उ. प. में, उम्मत्तका.- पागल होने का बहाना - यं द्वि. वि., ए. व. - सो अनुम्मत्तको उम्मत्तकालयं करोति, चूळव. 186; गभिनि.- गर्भवती होने का झूठा बहाना - यं द्वि. वि., ए. व. - 'गभिनिआलयं कत्वा एते वञ्चेस्सामी ति, जा. अट्ठ. 4.34; गिलाना. - बीमार होने का बहाना - यं द्वि. वि., ए. व. - गिलानालयं कत्वा निपज्जि, जा. अट्ठ. 1.281; सुगता.- बुद्ध होने का बहाना, बुद्ध जैसी लीला या छद्मभाव - स्स ष. वि., ए. For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलयति 204 आलयाभिनिवेस व. - देवदत्तस्स... सुगतालयस्स दस्सितभावं, जा. अट्ट. आलयसमुग्घात-आलयसमुग्घातुपायानञ्च वसेनापि चत्तारेव 1.468; - यं द्वि. वि., ए. व. - ... "बुद्धलीलं करिस्सामी ति वुत्तानीति, विसुद्धि. 2.124. सुगतालयं दस्सेन्तो..., तदे... आलयविस्सज्जन नपुं, तत्पु. स. [आलयविसर्जन], आसक्ति आलयति आलय का ना. धा., प्रायः अल्लीयति का स्थाना. का परित्याग, लगाव से छुटकारा - नं प्र. वि., ए. व. - अथवा उसी का अप. [आलीयते], आसक्तियुक्त होता है, कनिट्ठपुत्तम्हि आलयविस्सज्जन विय 'अनागतेपि आलीन होता है, राग अथवा लगाव से युक्त हो जाता है निब्बत्तनकसहारा भिज्जिस्सन्तीति, विसुद्धि. 2.281. -न्ति ब. व. - अल्लीयन्ति केळायन्ति धनायन्ति ममायन्ति, आलयसमुग्घात पु., तत्पु. स. [आलयसमुदघात], विषयभोगों स. नि. 2(1).175; आलयन्ति सत्ता एतेनाति आलयो, के प्रति आसक्ति की पूर्णरूप से समाप्ति या निरोध, निर्वाण तण्हा, चरिया. अट्ठ. 125; आलयरामाति सत्ता पञ्चसु की अवस्था, तृष्णा का निरोध - तो प्र. वि., ए. व. - कामगुणेसु अल्लीयन्ति तस्मा ते आलयाति वुच्चन्ति मदनिम्मदनो पिपासविनयो आलयसमुग्घातो वसपच्छेदो अट्ठसततहाविचरितानि आलयन्ति, तस्मा आलयाति तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं, अ. नि. 1(2).40; वुच्चन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).78. आलयसमुग्घातो भावितो बहुलीकतो चागाधिवानं परिपूरेति, आलयपटिपक्ख त्रि, तत्पु. स. [आलयप्रतिपक्ष] राग नेत्ति. 99; - तं द्वि. वि., ए. व. - दुतियं सम्मप्पधानं अथवा आसक्ति का प्रतिपक्ष, कामभोगों के सुख भावितं बहुलीकतं आलयसमुग्घातं परिपूरेति, नेत्ति.99; स. का विरोधी - क्खे पु., वि. वि., ब. व. - अनालये प. के अन्त., धम्मेति आलयपटिपक्खे विवट्टपनिस्सिते, अ. नि. अट्ट. आलयआलयारामताआलयसमुग्घातआलयसमुग्घातुपा2.330. पायानञ्च वसेनापि चत्तारेव वुत्तानीति, विसुद्धि. 2.124. आलयरत त्रि., तत्पु. स. [आलयरत], आसक्तियों अथवा आलयसम्मुदित त्रि., तत्पु. स. [आलयसम्मुदित], विषय विषयभोगों में पूरी तरह से डूबी हुई-ता स्त्री., प्र. वि., भोगों में मोद अथवा आनन्द प्राप्त करने वाला- ता स्त्री., ए. व. - आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता प्र. वि., ए. व. - आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता, महाव.5; आलयरामा आलयेसु रताति आलयसम्मुदिता, महाव. 5; आलयेसु सुट्ट मुदिता ति आलयरता, महाव. अट्ट, 233; - ताय च. वि., ए. व. - आलयसम्मुदिता, स. नि. अट्ठ. 1.172; - य च. वि., ए. आलयरामाय ... आलयरताय आलयसम्मुदिताय ... दुद्दसंव. - ... पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय, महाव. इदं ठानं..., महाव. 5. आलयराम/आलयाराम त्रि., तत्पु. स. [आलयाराम], आलयसारी त्रि., अपने निर्धारित विषय अथवा क्षेत्र में ही आसक्ति अथवा विषय भोगों में पूरी तरह से रमी हुई, विचरण करने वाला, अपने क्षेत्र में ही कार्यरत - री नपुं, विषय भोगों में आनन्द का अनुभव करने वाला/वाली - प्र. वि., ए. व. - ओकसारीति गेहसारी आलयसारी, स. मा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आलयरामा खो पनायं पजा। नि. अट्ठ. 2.228. आलयरता आलयसम्मुदिता, महाव.53; आलयरामाति सत्ता आलयाभिनिवेस पु., तत्पु. स. [आलयाभिनिवेश], कामभोगपञ्च कामगुणे अल्लीयन्ति, तस्मा ते 'आलया ति वुच्चन्ति, विषयिणी तृष्णा द्वारा जनित कामभोगों के प्रति चित्त का तेहि आलयेहि रमन्तीति आलयरामा, महाव. अट्ठ. 233; सुदृढ़ लगाव, विषयभोगों के साथ चित्त का अहितकारी पञ्चूपादनक्खन्धा आलयो, तत्थ रमतीति आलयरामा, पजा, लगाव, संस्कृत धर्मों में चित्त का आश्रय-ग्रहण – सं द्वि. विसुद्धि. महाटी. 2.309. वि., ए. व. - आलयाभिनिवेसं पजहतो आलयरामता स्त्री., भाव., विषय भोगों, राग, लगाव अथवा आदीनवानुपस्सनावसेन.... पटि. म. 29; सङ्घारेस लेणताण आसक्ति में आनन्द अनुभव करने की अवस्था, तृष्णा - भावग्गहणं आलयाभिनिवेसो अत्थतो भवनिकन्ति, विसुद्धि. ता प्र. वि., ए. व. - तेनेव सा आलयरामता ससन्ताने, महाटी. 2.479; - तो प. वि., ए. व. - आदीनवानपस्सनाय परसन्ताने च पाकटा होति, विसुद्धि. महाटी. 2.309; - तं पञ्चिन्द्रियानि आलयाभिनिवेसतो निस्सटानि होन्ति, पटि. द्वि. वि., ए. व. - सत्तानञ्च आलयारामतं... दिस्वा ..., म. 201-02; - स्स ष. वि., ए. व. - आदीवनानुपस्सनाय मि. प. 219; स. प. में, - आलयआलयारामता आलयाभिनिवेसस्स, विसुद्धि. 2.334. 5. For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलयेसिनी 205 आलस्सियाभिभूत आलसियकुसीतभाव पु., आलस्यभाव तथा शिथिलता अथवा वीर्यहीनता - वो प्र. वि., ए. व. - अथ नेसं सो आलसियकुसीतभावो भिक्खुसझे पाकटो जातो जा. अठ्ठ- 1.409. आलसियजात त्रि., [अलसजात], आलसी हो चुका, शिथिलता को प्राप्त - ता पु., प्र. वि., ब. व. - मधुरकजाताति आलसियजाता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).311. आलयेसिनी स्त्री., [आलयेषिणी], आलय, आश्रय अथवा निवास स्थान की खोज करने वाली-नी प्र. वि., ए. व. - पलेहिति आलयमालयसिनी, तदा नदी अजकरणी रमेति मं, थेरगा. 307. आलवाल पु./नपुं., [आलवाल], वृक्ष के नीचे वृक्ष के चारों ओर पानी भरने हेतु बनाया गया गड्ढा या थाला, पेड़ को सींचने के लिए पेड़ के नीचे के भूभाग पर चारों ओर निर्मित गड्ढा - लं' पु., द्वि. वि., ए. व. - आलवालं दुमिन्दस्स बन्धित्वा, चू. वं. 51.78; - लं नपुं., प्र. वि., ए. व. - उदककोट्टकन्ति आलवालं. म. नि. टी. 1(2).249. आलवालक त्रि०, तरुभूल के चारों पार्यों पर निर्मित गड्ढे वाला - के पु., सप्त. वि., ए. व. - आलवालके तरुसेकत्थं तरुमूलविचिते स्वप्पे जलाधारे, अभि. प. 1011 पर सूची. आलसिक त्रि., आलसी, सुस्त - को पु., प्र. वि., ए. व. - सीलेस्वालसिको हुत्वा, रस. 2.32(रो.); पुब्बेपेस आलसियोयेवा ति वत्वा अतीतं आहरि जा. अट्ट. 3.120; पाठा. आलसिको. आलसिय' नपुं., अलस का भाव. [आलस्य], आलस्य, सुस्ती, अकर्मण्यता, वीर्यहीनता -- यं प्र. वि., ए. व. - आलस्यन्ति आलसियं, स. नि. अट्ठ. 1.90; या तन्दी तन्दियना तन्दिमनकता आलस्यं आलस्यायना आलस्यायितत्तं, अयं वुच्चति "तन्दी, विभ. 403; पाठा. आलसिय; ... आलसस्सकम्मं अलसत्तं अलसता, अलसत्तनं आलस्य, आलसियं वा, मो. व्या. 4.59; अलसस्स भावो आलस्य, क. व्या. 362; - यं द्वि. वि., ए. व. - युवा बली आलसियं उपेतो, ध. प. 280; उद्यानविरियं कत्वा आलसियं अनापज्जित्वाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 32; स. उ. प. के रूप में आगन्तुका., काया., चित्ता के अन्त. द्रष्ट... आलसिय त्रि., अलस का रूपा. तथा उसी से व्यु. [अलस]. आलसी, अध्यवसाय से रहित, अनुद्योगी, शिथिल, पराक्रमहीन - यो पु., प्र. वि., ए. व. - आलसियो कुसीतो .... जा. अट्ठ. 3.120; राजकुम्भो नामेस, ... आलसियो, तदे.; - यं द्वि. वि., ए. व. - राजकुम्भ नाम आलसियं परिस, तदे; - या पु., प्र. वि., ब. व. - तथारूपा किर आलसिया सकलदिवसं ..., तदे.. आलसियकिलासु त्रि., आलस्य के कारण थका हुआ अथवा व्याधित, आलस्य से पीड़ित - नो पु., प्र. वि., ब. व. - तत्थ किलासुनो अहेसुन्ति न आलसियकिलासुनो, पारा. अट्ठ. 1.141. आलसियजातिक त्रि., स्वभाव से ही आलसी, आलसी स्वभाव वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - वाराणसिराजा आलसियजातिको अहोसि, जा. अट्ठ. 3.120. आलसियता स्त्री., अलस + य + ता, आलस्यभाव, सुस्ती, ढीलाढालापन, अनुद्योगी मनोवृत्ति, स. उ. प. में प्रयुक्त, काया.- शरीर का आलस्यभाव - य तृ. वि., ए. व. - आलस्यानुयोगोति कायालसियताय युत्तप्पयुत्तता, दी. नि. अट्ठ. 3.115. आलसियभाव पु., [आलस्यभाव], उपरिवत् – वो प्र. वि., ए. व. - तेनस्स सरीरगरुताय उट्ठाननिसज्जादीस आलसियभावो ईसकं अप्पहीनो विय होति, दी. नि. अट्ठ, 1.250; - वं द्वि. वि., ए. व. - धम्मसभायम्पि तेसं भिक्खूनमेव आलसियभावं निस्साय कथं समठ्ठापेसं. जा. आलसियमहग्घस त्रि., कर्म. स., आलसी एवं पेटू - सो पु., प्र. वि., ए. व. - पूतिभावं आपादितरुक्खो विय आलसियमहग्घसो वेदितब्बो, स. नि. अट्ठ. 3.77. आलसियविरहित त्रि., तत्पु. स. [आलस्यरहित], आलस्य से मुक्त, उद्योगी, अध्यवसायी, जागरूक - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अनल सोति सातच्चकिरियाय आलसियविरहितो, दी. नि. अट्ठ. 3.178-79; - ता ब. व. - अनलसाति आलसियविरहिता, पाचि. अट्ठ, 162. आलसियब्यसन नपुं., तत्पु. स. [आलस्यव्यसन], आलस्य की लत, आलस्य की बुरी आदत, आलस्य के कारण उत्पन्न संकट --- नादि त्रि., आलस्य से उत्पन्न कष्ट आदि - दीहि तृ. वि., ब. व. - आलसियव्यसनादीहि वा अभिभूतो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).162. आलस्सियाभिभूत त्रि., तत्पु. स. [आलस्याभिभूत], आलस्य से ग्रस्त, आलस्य से बुरी तरह घिरा हुआ, आलस्य में डूबा हुआ – तो पु., प्र. वि., ए. व. - किसो लूखो धमनिसन्थतगत्तो आलस्सियाभिभूतो कच्छपरिकिण्णो अहोसि. ध. प. अट्ट, 1.170. For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलस्य 206 आलिङ्ग आलस्य नपुं., अलस का भाव., सं. के प्रभाववश आलस्स एवं आलसिय के स्थाना के रूप में यत्र तत्र प्रयुक्त [आलस्य], आलस्य, आलस - स्यं प्र. वि., ए. व. - अलसस्स भावो आलस्यं, क. व्या. 362; आलस्यञ्च पमादो च, अनुट्ठानं असंयमो .... स. नि. 1(1).50; आलस्यन्ति आलसियं, स. नि. अट्ठ. 1.90; तन्दि ... पे. ... आलस्यं, मि. प. 267; - स्य सप्त. वि., ए. व. - भिक्खुनो चेतसा बहुलं विहरतो आलस्ये कोसज्जे विस्सट्ठिये पमादे..., अ. नि. 2(2).199; आलस्येति आलसियभावे, अ. नि. अट्ठ. 3.168. आलस्यानुयोग पु., तत्पु. स. [आलस्यानुयोग], शा. अ., आलस्य के साथ अपने को जोड़ देना, ला. अ., आलसी मनोवृत्ति का शिकार हो जाना, अकर्मण्यता, शिथिलता, अध्यवसायहीनता- गो प्र. वि., ए. व. - आलस्यानयोगो भोगानं अपायमुखं दी. नि. 3.138; आलस्यानुयोगोति कायालसियताय युत्तप्पयुत्तता, दी. नि. अट्ट. 3.115; - गं द्वि. वि., ए. व. - आलस्यानुयोगं अनुयुत्तस्स मे .... महानि. 194; आलस्यानुयोगन्ति कायालसियताय युत्तप्पयुत्ततं महानि. अट्ठ. 284; - गे सप्त. वि., ए. व. - छ खोमे, ... आदीनवा आलस्यानयोगे, दी. नि. 3.139. आलस्यायना स्त्री., आलस्य के ना. धा., आलस्यायति से व्यु., क्रि. ना., आलस्य करना, आलसी स्वभाव का होना, आलस का शिकार बनना – ना प्र. वि., ए. व. - आलस्यं आलस्यायना आलस्यायितत्तं, महानि. 278. आलस्यायित त्रि, आलस्य के ना. धा. आलस्यायति का भू. क. कृ., आलस्य में डूबा हुआ – स्स पु., ष. वि., ए. व.. - आलस्यायितस्स भावो आलस्यायितत्तं महानि. अट्ठ. 332; - त्त नपुं.. भाव., आलस्य में निमग्न होना-त्तं प्र. वि., ए. व. - आलस्यं आलस्यायना आलस्यायितत्तं, महानि. 278. आलस्स नपुं., अलस का भाव. [आलस्य], आलस, सुस्ती, अकर्मण्यता - स्सेन तृ. वि., ए. व. - आलस्सेनाभिभूतस्स अविशंजनसेविनो, सद्धम्मो. 567. आलान/आळान नपुं.. [आलान], बन्धन-स्तम्भ (हाथियों को) बांधने हेतु गाड़ा गया खम्भा या खूटा - नं' - आळानमाळहको थम्भो, अभि. प. 364; आलात्यस्मिं अनेन वा बन्धतीत्यालानं, आपब्बो लाधात बन्धनत्थो, अभि. प. 364 पर सूची; - नं द्वि. वि., ए. व. - आलानं भिन्दित्वा .... जा. अट्ट, 1.397; - नेन तृ. वि., ए. व. - आळकसङ्घातआलानेन ..., चरिया. अट्ट, 108; - ने सप्त. वि., ए. व. - तं आळाने निच्चलं बन्धित्वा तोमरहत्था मनुस्सा ... कारेन्ति, जा. अट्ट. 1.397; - त्थम्भ पु., कर्म. स. [आलानस्तम्भ], उपरिवत् - म्मे सप्त. वि., ए. व. - ममाळकेति आलानत्थम्भे, चरिया. अट्ठ. 109. आलाप पु., आ + Vलप से व्यु. [आलाप], बातचीत. सम्बोधन, भाषण-पो प्र. वि., ए. व. - आदो भासनमालापो, अभि. प. 123; आवुसोति सावकानं आलापो, स. नि. अट्ठ. 2.206; - सल्लाप पु., द्व. स., आलाप एवं संलाप - पे सप्त. वि., ए. व. - मातुगामेन पन आलापसल्लापे सति विस्सासो होति, दी. नि. अट्ठ. 2.156. आलिखति आ + लिख का वर्त, प्र. पु., ए. व., लिखता है, चित्रित करता है, रूपरेखा प्रस्तुत करता है - न्तु अनु. प्र. पु., ब. व. - नामञ्चकारं पितेस इहालिखन्तु, हत्थ. वं. 11.10(सिंहली). आलिखित्वा आ + लिख का पू. का. कृ., लिख कर, खींच कर, बना कर, रेखाङ्कित कर - थेरो पठविया चक्क लिखित्वा .... मि. प. 51; पाठा. आलिखित्वा; चन्दमण्डले ससलक्खणं लिखित्वा .... जा. अट्ट. 3.47; पाठा. आलिखित्वा. आलिखितुं आ + लिख का निमि. कृ., चित्रांकित अथवा रेखाङ्कित करने के निमित्त, लिखने में - ... सकसलोपि चित्तकारो वा पोत्थकारो वा आलिखितुम्पि समत्थो नत्थि, जा. अट्ठ. 1.80. आलिङ्ग' पु., [आलिङ्गय/आलिङ्ग], एक प्रकार का ढोल या नगाड़ा, मृदङ्ग का एक प्रभेद - मुदिङ्गो मुरुजोस्स तु आलिङ्ग्यङ्कयोद्धका भेदा, अभि. प. 143; कुम्बुग्गीवा तु या गीवा सुवण्णालिङ्गसन्निभा, अभि. प. 263; तुल०, मृदङ्गा मुरजा भेदास्त्वक्यालिङ्गयोर्ध्वकास्त्रयः अमर. 1.7.5; कम्बु वुच्चति सुवण्णं कम्बुमयेन आलिङ्गन (मुरजभेदेन) सन्निभा गीवा कम्बुगीवा, अभि. प. 263 पर सूची; स. प. के अन्त., - कम्बुगीवोति सुवण्णालिङ्गसदिसगीवो, सुवण्णम्हि कम्बूति वुच्चति, जा. अट्ट. 4.119; कम्बु तलाभासाति सुवण्णालिङ्गतलसन्निभा गीवाति अत्थो, जा. अट्ट. 5.151. आलिङ्ग पु., [आलिङ्गन], आलिङ्गन, चिपट जाना, अपने शरीर से अन्य के शरीर को चिपटा लेना – ङ्गो प्र. वि., ए. व. - आलिङ्गो उपगूहनं, सद्द. 2.443. For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलिङ्गति 207 आलिम्पति/आलिम्पति आलिङ्गति आ + लिङ्ग का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आलिङ्गति], आलिन्द/आळिन्द पु., [अलिन्द/आलिन्द]. क. घर के आलिङ्गन करता है - परिस्सजने आलिङ्गति, सद्द. 3.880; द्वार के बाहर का चबूतरा, बरामदा, मकान की छत, मकान - न्तो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ए. व. - की मंजिल या तल - पघाणो पघणालिन्दा पमुखं आलिङ्गन्तो विय गाळ्हं पीळेत्वा, जा. अट्ठ. 1.271; - माना द्वारबन्धनं, अभि. प. 218; गेहेकदेसे आलिन्दो पघाणो वर्त. कृ., आत्मने, स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तम्बवण्णेन पघणो भवे, अभि. प. 218 पर सूची; - न्दं द्वि. वि., ए. उदकेन आलिङ्गमाना विय आगच्छति, स. नि. अट्ठ. 3.74; व. - अतरमानो आळिन्दं पविसित्वा उक्कासित्वा अग्गळं -नेय्य विधिः, प्र. पु., ए. व. - परम्मखिं वा आलिङ्गेय्य, आकोटेहि, महाव, 324; "अनुजानामि, भिक्खवे, आळिन्दं दी. नि. 1.210; ... परम्मुखिं ठितं पच्छतो गन्त्वा पघनं पकुटुं ओसारकन्ति, चूळव. 279; आळिन्दोनाम पमुखं आलिङ्गेय्य, दी. नि. अट्ठ. 1.298; - ङ्गि अद्य, प्र. पु., ए. वुच्चति, चूळव. अट्ठ. 62; - न्दे सप्त. वि., ए. व. - व. - पलिस्सजीति आलिङ्गि, जा. अट्ठ. 5.153; - जिंसु ब. आलिन्दे उत्तरासङ्ग पञ्जपेत्वा तिणकलापं ओकासेही ति, व. - अञमञ्ज परामसित्वा आलिङ्गिसु. सु. नि. अट्ठ. स. नि. 2(2)282; ... पुत्तं नीहरित्वा बहिआलिन्दे निपज्जापेसि, 1.57; - ङ्गित्वा पू. का. कृ. - अअमझं आलिङ्गित्वा, दी. ध. प. अट्ठ. 1.16; - न्दा प्र. वि., ब. व. - आळिन्दा नि. 3.53; जा. अट्ठ, 5.153; - ङ्गितुं निमि. कृ. - पुरतो पाकटा होन्ति, चूळव. 279; ख. सुमेरु पर्वत का शिखर, च पच्छतो च आलिङ्गितु देथाति, अ. नि. अट्ठ. 1.276; - सोने के लिए ऊंचा बनाया हुआ स्थान, स. उ. प. में, ङ्गितो भू. क. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - आलिङ्गितो चासि पठमा.- प्रथम आलिन्द - न्दे सप्त. वि., ए. व. - पियो पियाय, जा. अट्ट. 4.397; - ङ्गिय सं. कृ., पु., द्वि सिनेरुस्स पठमालिन्दे तेसं आरक्खा, जा. अट्ठ. 1.202; स. वि., ए. व. - आलिङ्गिय पियतञ्च सुतं, सद्द. 1.87; - उ. प. के अन्य प्रयोगों हेतु कुच्छि., द्वारकोट्ठका., सा. के ङ्गिया सं. कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - आलिङ्गिया अञमञ्ज अन्त. द्रष्टव्यः; - क पु., उपरिवत्, स. उ. प. के अन्त., मयं उभो, जा. अट्ठ. 4.399. बहि.- बाहर का बरामदा - के सप्त. वि., ए. व. - आलिङ्गन नपुं., आ + लिङ्ग से व्यु., क्रि. ना. [आलिङ्कन], बहिआळिन्दके ठत्वा तेन सद्धि कथेसि, जा. अट्ठ. 3.248; एक दूसरे के शरीर से चिपट जाना या सट जाना, अना.- बिना बरामदा वाला, बिना चबूतरा का - का पु., आलिङ्गन, सटाव, चिपकाव - नं प्र. वि., ए. व. - प्र. वि.. ब. व. - तेन खो पन समयेन विहारा अनाळिन्दका आलिङ्गनं परिस्सङ्गो सिलेसो उपगृहणं, अभि. प. 774; लिङ्ग होन्ति अप्पटिसरणा, चूळव. 279. गत्यत्थो, आ पुब्बो य आलिङ्गीयते ति आलिङ्गन, अभि. प. आलिन्दकमिड्डिका स्त्री., घर के बाहर बने चबूतरे के 774 पर सूची, परिस्सग्गो आलिङ्गनं सद्द. 346; - ने सप्त. किनारे पर बैठने या लेटने हेतु बनाया गया ऊंचा स्थान वि., ए. व. - सिलिस आलिङ्गने, सद्द. 2.489. . या मेंड़, चबूतरे के किनारे बनाया गया पीठ - मिड्ढन्तेति आलिङ्गय पु., आलिङ्ग का सं. के प्रभाववश किया गया रूपा. आलिन्दकमिड्डिकादीनं अन्ते, चूळव. अट्ठ. 48. [आलिङ्गय], एक प्रकार का मृदङ्ग या ढोलकी - आलिन्दकवासी त्रि, आलिन्दक का निवासी, महाफुस्सदेवथेर के आलिङ्गयङ्कयोद्धका भेदा, अभि. प. 143. लिए प्रयुक्त एक उपाधि-सी पु. प्र. वि., ए. क - आळिन्दकवासी आलिङ्गित त्रि., आ + लिङ्ग का भू. क. कृ. [आलिङ्गित], महाफुस्सदेवत्थेरो विय, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).268. वह, जिसका आलिङ्गन किया गया है, प्रिय - तो पु., प्र. आलिम्पति/आलिम्पति आ + लिप/लिम्प का वर्त, वि., ए. व. - आलिङ्गितो चासि पियो पियाय, जा. अट्ठ. 4.397. प्र. पु., ए. व. [आलिम्पति], लीपता है, लेप करता है, आलिङ्गीयते आ + लिङ्ग का कर्म. वा., वर्त, प्र. पु.. ए. व., पोतता है, प्रसाधन-सामग्रियों का प्रयोग करता है, अभ्यंजित आलिङ्गन किया जाता है - लिङ्ग गत्यत्थो, आपुब्बो यु ___ करता है - न्ति ब. व. - तेन खो पन समयेन छब्बग्गिया आलिङ्गीयते ति आलिङ्गन, अभि. प. 774 पर सूची. भिक्खू मुखं आलिम्पन्ति, चूळव. 224: विप्पसन्नछविरागकरेहि आलित्त त्रि., आ + लिप का भू. क. कृ. [आलिप्त], पूरी । मुखालेपनेहि आलिम्पन्ति, चूळव. अट्ठ. 46; - म्पतो/न्तस्स तरह से लिपा हुआ, पूर्ण रूप से ग्रस्त अथवा अभिभूत - वर्त. कृ., पु., ष. वि., ए. व. - वणमुखं आलिम्पतो, म. तं नपुं., वि. वि., ए. व. - खुरव मधुनो लित्तं उल्लिहं नि. 3.42; भेसज्जेन आलिम्पेन्तस्स असुचि मच्चि, पारा. नावबुम्झति, थेरगा. 737; पाठा. मधुनालित्तं. 166; - म्पेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - वणमुखं आलिम्पेय्य, For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलिम्पन 208 आलुम्पति म. नि. 3.42; - म्पेय्यासि म. पु., ए. व. - वणमुखं गहेत्वा ... कालेन कालं अभिधमेय्य, म. नि. 3.292; - तुं आलिम्पेय्यासि. तदे: -- म्पित्वा पू. का. कृ. - भेसज्ज निमि. कृ. - न सक्कोन्ति आळिम्पेतुं, दी. नि. 2.122; आलिम्पित्वा, जा. अट्ठ, 5.328; - म्पितब्बं सं. कृ., नपुं.. आळिम्पेतुन्ति अट्ठपि सोळसपिद्वत्तिंसपि जना जालनत्थाय प्र. वि., ए. व. -- न, ..., मुखं आलिम्पितब्बं, चूळव. 224. यमकयमकउक्कायो गहेत्वा ... अग्गिं गाहापेतुं, दी. नि. आलिम्पन नपुं.. आ + लिप/लिम्प से व्यु., क्रि. ना. अट्ठ. 2.174; - म्पितब्बो सं. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - [आलिम्पन, भिन्न अर्थ में, आदीपन का समार्थक], अग्निदाह, न..., दायो आलिम्पितब्बो, चूळव. 259. अगलगी, अग्नि, आग लगाना - नं द्वि. वि., ए. व. - आलु विशे. बनाने वाला प्रत्यय तदबहुल अर्थ में आलु प्रत्यय उदकघटकानि ठपेन्ति आलिम्पनं विज्झापेतुं, मि. प. 42. होता है - आलु तब्बहुले, क. व्या. 361; आल्वभिज्झादीहि, आलिम्पापेय्य आ + लिप/लिम्प का प्रेर., विधि., प्र. पु.. मो. 4.86. ए. व., लेप करवाए, लेप लगवाए - या पन भिक्खुनी आलु/आलुक/आलुप/आलुव पु./नपुं., [आलुक]. पसाखे जातं गण्डं वा रुधितं वा अनपलोकत्वा... एकेनेका 1. तेंदू का फल, 2. मीठे कन्द वाला एक पौधा, 3. भेदापेय्य वा ... आलिम्पापेय्य वा ..., पाचि. 431. शकरकन्द, आखू - वा पु.. प्र. वि., ब. व. - आलुवा च आलिम्पीयति आ + लिप/लिम्प का कर्म. वा., वर्त, प्र. कळम्बा च.... बहुका मम अस्समे अप. 1.14; एते आलुवादयो पु., ए. व. [आलिप्यते], लेपयुक्त किया जाता है, लेप मूलफला खुद्दा मधुरसा मम अस्समसमीपे बहु सन्तीति लगाया जाता है - सो वणो आलेपेन च आलिम्पीयति सम्बन्धो, अप. अट्ठ. 1.222; - लूनि/लुवानि द्वि. वि., तेलेन च मक्खीयति, मि. प. 80. ब. व. - खणन्तो आलूनि चेव तालकन्दानि च जा. अट्ट. आलिम्पेति आ + लिप/लिम्प का वर्त, प्र. पु., ए. व. 4.336; न तक्कला सन्ति न आलुवानि, न बिळालियो न [आदीपयति], आदीप्त करता है, प्रज्वलित कर देता है, कळम्बानि तात, जा. अट्ठ. 4.41; आलुवानीति आलुवकन्दा, जलाता है, आग लगाता है, आग पकड़ाता है - उक्कं तदे; स. प. के अन्त., खणन्तालु कलम्बानि, बन्धित्वा उक्कामुखं आलिम्पेति, विसुद्धि. 1.238; बिलालितक्कलानि च, जा. अट्ठ. 4.334; - कन्द नपुं., आलिम्पेतीति आदीपेति जालेति, विसद्धि. महाटी. 1.286%3; तेंदू का फल अथवा शकरकन्द - न्दो प्र. वि., ए. व. - - न्ति ब. व. - छब्बग्गिया भिक्खू दायं आलिम्पन्ति, .... आलुवकन्दो .... पाचि. अट्ठ. 89; - न्दा प्र. वि., ब. चूळव. 259; आलिम्पेन्तीति तिणवनादीस अग्गिं देन्ति, व. - आलुवानीति आलुवकन्दा, जा. अट्ठ. 4.41; - न्दं चूळव. अट्ठ. 56; - य्य विधि., प्र. पु., ए. व. - उक्कं द्वि. वि., ए. व. - आलुवं तस्स पादासिन्ति तस्स अरहतो बन्धित्वा उक्कामुखं आलिम्पेय्य, अ. नि. 1(1).290; अहं पसन्नमानसो आलुवकन्दं पादासिं आदरेन अदासिन्ति आलिम्पेय्याति तत्थ अङ्गारे पक्खिपित्वा अग्गिं दत्वा नाळिकाय । अत्थो , अप. अट्ट, 2.187. धमन्तो अग्गिं गाहापेय्य, अ. नि. अट्ठ. 2.220; - न्ता वर्त. आलुम्पकारक/आलुप्पकारकं अ., क्रि. वि., खण्ड कृ., पु., प्र. वि., ब. व. - सकटसहस्सेहि दारूनि आहरित्वा खण्ड करके, टुकड़ों में या भागों में विभक्त करके आलिम्पेन्तापि, ध. प. अट्ठ. 1.128; - सि अद्य., प्र. पु., ए. - ते, ... सत्ता रसपथविं हत्थेहि आलुप्पकारक व. - पिदहित्वा भाजनन्तरे ठपेत्वा आवापं आलिम्पेसि, अ. उपक्कमिंसु परिभुजितुं, दी. नि. 3.63; आलुप्पकारकन्ति नि. अट्ठ. 1.314; - सुंब. व. - छब्बग्गिया भिक्खू एत्थ आलोपपरियायो आलुप्प - सद्दोति, दी. नि. टी. मरणाधिप्पाया दायं आलिम्पेसुं पारा. 106; - स्सामि 3.39. भवि., उ. पु., ए. व. - आवापं आलिम्पेस्सामि, अ. नि. आलुम्पति आ + Vलुप का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आलुम्पति], अट्ठ. 1.314; - स्ससि म. पु., ए. व. - कदा त्वं आवापं तोड़ देता है, टुकड़े टुकड़े कर देता है, भंग कर देता है, आलिम्पेस्ससी ति, ध. प. अट्ठ. 1.103; --- स्साम उ. पु.. .. काट देता है, नज़र से ओझल कर देता है, नष्ट कर देता ब. व. -- भगवतो चितकं आळिम्पेस्सामा ति, दी. नि. है - गावी तरुणवच्छा थम्बञ्च आलुम्पति वच्छकञ्च 2.122; आळिम्पेस्सामाति अग्गिं गाहापेस्साम, दी. नि. अट्ठ. अपचिनति, म. नि. 1.407; - माना वर्त. कृ., आत्मने, 2.174; - त्वा पू. का. कृ. - अथ नं आलिम्पेत्वा. ध. प. स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... तिणञ्च आलुम्पमाना खादति, अट्ठ. 1.128; उक्कामुखं आलिम्पेत्वा सण्डासेन जातरूपं म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).295; - म्पित्वा पू. का. कृ. - For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आलुळ वच्छकस्स आसन्नट्टाने चरमाना तिणं आलुम्पित्वा गीवं उक्खिपित्वा तदे.. आलुळ त्रि. गंदला, पंकिल, मटमैला - ळा स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - "तेन गङ्गा आळुला सन्दतीति, जा. अ. 6.258; नदी.... हेडुपरियवालिका आलुळा होति, स. नि. अ. 1.209. आलुळति / आलुलेति आ + √लुड का वर्त., प्र. पु. ए. व. [आलोडति], क. आलोडित अथवा उद्विग्न होता है, ख. संभ्रमग्रस्त कर देता है, ग. घबराहट में इधर उधर भटकता है - गम्भीरं महाउदकं ... न आलुळति, स. नि. अट्ठ 1.208; एवरूपस्सपि नाम भिक्खुनो अयं पञ्हो आलुळेति, म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1(1). 241; - माना स्त्री०, वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - ततो चवित्वा पुन गतिवसेन आलुलमाना, ध. प. अ. 2.305 – लिस्सति भवि., प्र. पु०, ए. व. • - अयं पुग्गलो पवेणिआगतं तन्तिं ... आलुळिस्सती ति, ध. स. अड. 399; - ले विधि, प्र० पु०, ए. व. - भातिका इमं पञ्हं आलुळे..., म. नि. अड. 1 (1). 241. आलुलापेत्वा आ + √लुळ का प्रेर० पू० का० कृ०, आन्दोलित अथवा क्षुब्ध करा कर, बुरी तरह खौल-बौल करा कर - सेसकं उदकचाटियं आलुळापेत्वा... म. नि. अड. (म.प.) 209 2.60. आलुळिक त्रि., आलुळ से व्यु., मटमैला, गंदला, पंकिल कं नपुं०, द्वि. वि., ए. व. - उदकं आळुलिकं करोन्ते दिस्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.200. - -- **** आलुळित / आलुलित त्रि, आ + √लुळ का भू० क० कृ० [ आलोडित], क. विक्षुब्ध, अशान्त, बेचैन, संभ्रमग्रस्त - तं नपुं०, प्र. वि., ए. व. - तव दुस्सयनदुब्भोजनेहि चितं आलुळितं भविस्सति, जा. अट्ठ. 7.310; अहम्पि उपक्किलेसेहि आळुलितपुब्बोति, म. नि. अट्ठ० (उप. प.) 3.152-53; तापु०, प्र० वि०, ब० व. इमे सङ्घारा अञ्ञमञ्ञमिस्सा आलुळिता म. नि. अट्ठ. (मू०प.) 1(2).259; - ते सप्त. वि., ए. व. परित्तोदके एव हि भत्तपक्खेपेन आलुळिते सुखुमपाणका मरन्ति, म. नि. अ. (मू०प.) 1 (1).101; तत्थ आविलेति कद्दमालुळिते, जा० अ० 2.83; ख. मटमैला, पंकिल या मलिन कर दिया गया, आपस में मिला दिया गया, मथ दिया गया - ता स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - गङ्गा आळुला सन्दतीति, जा. अड. 6.258, पाठा. आळुलिता - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - एकतो कत्वा मिस्सितं आलुळितं, म. नि. अट्ठ० ( मू०प०) आलेख 1 ( 2 ) . 271; - तानि नपुं. प्र. वि., ब. व. - चक्खादीनि इन्द्रियानि जरं पत्तस्स परिपक्कानि आलुळितानि अविसदानि म. नि. अट्ठ (मू०प.) 1 ( 1 ) . 225. आलुळितत्त नपुं, आलुळित का भाव, मटमैलापन, विक्षोभभाव 1 धुंधलापन, व्यग्रता - त्ताप.वि., ए. व.. पठमतरं ओतरित्वा पिवन्तेहि आलुळितत्ता आविलानि, उदा. अट्ठ. 202. आलुळीयति आ + √ळुळ का वर्त., प्र. पु. ए. व., कर्म. वा., मथ दिया जाता है, विक्षुब्ध कर दिया जाता है, गंदला अथवा पंकिल बना दिया जाता है- उदकम्पि आलुळीयति, म. नि. अट्ठ. (मू०प.) 1(2).158. आलुळेति / आळुळेति आ + √ळुळ का प्रेर, वर्त., प्र. पु०, ए. व., क. विक्षोभित कर देता है, मथ देता है, घोलमेल कर देता है तो वर्त. कृ., पु०, प्र. वि., ए. व. - महामेरुं मत्थं कत्वा चक्कवाळमहासमुदं आलुळेन्तो, जा. अ. 1.34; - न्ते द्वि. वि., ब. व. - महाचङ्कमे सम्मट्ठानं आळुलेन्ते दिवा, दी. नि. अट्ठ. 2.200; - न्तानं पु०, ष० वि., ब.व. यागुं वा सूपं वा ..... आलुलेन्तानं, पाचि. अट्ठ. 100; आलुलेन्तानन्ति आलोलेन्तानं, अयमेव वा पाठो, सारत्थ. टी. 3.64; ख. अव्यवस्थित कर देता है, संभ्रमग्रस्त बना देता है, विक्षुब्ध कर देता है, व्यग्र या विचलित कर देता न्तो वर्त. कृ. पु०, प्र. वि., ए. व. सारिपुत्तं आलुळेन्तो पञ्हं पुच्छिस्सामि, जा. अट्ठ. 2.8; सति भवि., प्र. पु. ए. व. - मातुगामो नाम कस्मा तुम्हादिसानं चित्तं नालुळेस्सति, जा० अट्ठ. 2.26; - स्सन्ति ब. व. - अनुरुद्धा तुम्हे किं न आळुलेस्सन्ति, म. नि. अट्ठ. (उप. प.) 3.152; - त्वा पू० का. कृ. वालिक आलुळेत्वा, स. नि. अट्ट. 3.42. **** है - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 For Private and Personal Use Only - - आलुवकन्द पु०, चुकन्दर, शकरकन्द, आवनूस का फल - न्दं द्वि. वि., ए. व. - अरहतो अहं पसन्नमानसो आलुवकन्द पादासि आदरेन ... अत्थो, अप. अट्ट 2.187. आलुवदायक पु०, एक स्थविर का नाम - को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा आलुवदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.252. आलूख नपुं० [आरुक], हिमाचल में प्राप्त एक औषधीय पादप, आडू, शफतालू, सतालू - खं प्र. वि., ए. व. - आलूखं वातपित्तस्सकाससासारुची रण, भेसज्ज. म. 5.102. आलेख पु०, आ + लिख से व्यु [आलेख] चित्र लेखन, रेखाङ्कन, चित्राङ्कन - खं द्वि. वि., ए. व. - दिब्बविमानं पेसेत्वा तदालेखं ददाथ मे, म. वं. 27.10. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलेप 210 आलोककर आलेप प..आ+लिप से व्य. [आलेप] मलहम. घावों या व्रणों को भरने वाला तरल लेप, उपचारक औषधि के रूप में प्रयुक्त मलहम, तेल या मलहम आदि से मालिश - पं द्वि. वि., ए. व. - सीसच्छविं सिबित्वा आलेप अदासि. महाव. 363; - पेन तृ. वि., ए. व. - जीवको ... भगन्दलाबाधं एकेनेव आलेपेन अपकडि, महाव. 361; स. उ. प. के रूप में अगदा., गन्धा., वणा. के अन्त. आलेपन नपुं., आ + लिप से व्यु., क्रि. ना. [आलेपन]. व्रण अथवा घाव पर मलहम लगाना, लेप करना, अभ्यंजन, तेल या मलहम आदि का लेप अथवा मालिश, स. पू. प. के रूप में - रुहन न, औषधि या मलहम का लेप लगाने से घाव या व्रण का भर जाना - ने सप्त. वि., ए. व. - वण्णस्स आलेपनरूहने यथा, विसुद्धि. 1.42; आलेपनरूहने यथाति भेसज्जलेपनेन वणस्स रूहने विय, विसुद्धि. महाटी. 1.69; स. उ. प. के रूप में मुखा., वणा., सीसा. के अन्त. द्रष्ट.. आलेपित त्रि., आ + vलिप का भू. क. कृ. [आदीपित], जलाया गया, दग्ध किया हुआ, आग पकड़ाया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - कुम्भकारपाको आलेपितो पठमधूमेति संधूमेति सम्पधूमेति, अ. नि. 2(2).238. आलोक 1. पु.. [आलोक], शा. अ., प्रकाश, देखना, दिन का उजाला, सूर्य का प्रकाश, चमकदमक – अथोभासो पकासो चालोकोज्जोतातपा समा, अभि. प. 37; आलोकयति एतेनाति आलोको, अभि. प. 37 पर सूची; दिट्ठोभासासेसु आलोको, अभि. प. 1043; दस्सने ओभासे चाति द्विसु अत्थेसु, अभि. प. 1043 पर सूची; आलोकोति रश्मि, आलोकेन्ति एतेन भुसो पस्सन्ति, जना, चक्खुविआणं वाति आलोको, सद्द. 2.520; - को प्र. वि., ए. व. - अन्धकारो गुहाय अन्तरधायि, आलोको उदपादि, दी. नि. 2.198; आलोको उदपादीति यो पकतिया गुहाय अन्धकारो, सो अन्तरहितो, दी. नि. अट्ट, 2.267; - कं द्वि. वि., ए. व. - ... सक्का सदेवके लोके अन्धकारं विधमित्वा आलोकं दस्सेतु न्ति, मि. प. 286; ते तं दिवसं आलोकं ओलोकत्वा .... स. नि. अट्ठ. 1.125; - केहि तृ. वि., ब. व. - नेकदीपसहस्सानं आलोकेहि, चू, वं. 74.219; - के सप्त. वि., ए. व. - उदपत्तो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो आलोके निक्खित्तो, अ. नि. 2(1).217; ला. अ. 1 बुद्धों, अर्हतों तथा देवों के शरीर से बाहर निकलने वाली लौकिक आभा या तेज-पुंज, आभा मण्डल, अलौकिक प्रभा, इन महासत्त्वों के जन्म एवं निर्वाण के समय प्रकट होने वाला प्रकाश अथवा इनके प्रादुर्भाव एवं अन्तर्धान के पूर्वनिमित्त के रूप में उत्पन्न प्रकाश - को प्र. वि., ए. व. - यथा निमित्ता दिस्सन्ति आलोको सञ्जायति ... ब्रह्मा पातभविस्सति, ब्रह्मनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय, यदिदं आलोको सञ्जायति, दी. नि. 1.201; - कं द्वि. वि., ए. व. - ब्रह्मा नाम महानुभावो एकङ्कुलिया एकस्मिं चक्कवाळसहस्से आलोकं फरति, स. नि. अट्ठ. 1.179; तं आलोकं दिस्वा "येन सूरियो अत्थञ्चेव गमितो... एस सो पुरिसो इदानि आलोक कत्वा ठितो, अहो अच्छरियपुरिसोति ..., अ. नि. अट्ट. 2.204; - केन तृ. वि., ए. व. - ये... भिक्खू विकाले आगच्छन्ति तेसम्पि तेजोधातुं समापज्जित्वा तेनेव आलोकेन सेनासनं पञपेति ...., अङ्गुलिया जलमानाय पुरतो पुरतो गच्छति, तेपि तेनेव आलोकेन ... पिडितो गच्छन्ति, चूळव. 178; यतो च ... तथागतो लोके उप्पज्जति ... अथ महतो आलोकस्स पातुभावो होति महतो ओभासस्स, स. नि. 3(2).505; ला. अ., 2. आन्तरिक ज्ञान ज्योति, प्रज्ञा का प्रकाश, लोक के प्रकाशभूत बुद्ध, सम्यक् दृष्टि का प्रकाश, सत्य-विषयक ज्ञान का प्रकाश, ज्ञान, प्रज्ञा, विद्या - दिडोभासेसु आलोको, बुद्धो तु पण्डिते जिने, अभि. प. 1043; - को प्र. वि., ए. व. - पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेस चक्टुं उदपादि, आणं..., पञ्जा ..., विज्जा ..., आलोको उदपादि, महाव. 14; उदपादीति ... ओभासद्वेन च आलोकोति वृत्ता उदपादि, दी. नि. अट्ठ. 2.46; ओभासनतुन आलोकोति वुत्तं, स. नि. अट्ठ. 2.19; आलोकनटेन पञआव आलोको पञाआलोको, पटि. म. अट्ठ. 1.310; - कं द्वि. वि., ए. व. - आलोक दस्सेताति पालोक दस्सनसीलो, पालोकस्स दस्सेताति वा अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 2.14; आलोक वड्डत्वा दिब्बचक्खुना ओलोकेन्तो..., म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).350; 2. त्रि०, प्रकाश से भरा हुआ, सुस्पष्ट - का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अयं सा आलोका होति विवटा परिसुद्धा परियोदाता, विभ. 284. आलोककर त्रि., [आलोककर, प्रकाश प्रदान करने वाला, प्रभा उत्पन्न करने वाला, अन्धकार-नाशक - रो पु., प्र. वि., ए. व. - पभङ्करोति पभङ्करो आलोककरो... पज्जोतकरोति. चूळनि. 193; आलोककरोति अनन्धकारकरो, चूळनि. अट्ठ. 78; - रा ब. व. - एवरूपा च ते, भिक्खवे, भिक्खू ... आलोककरातिपि वच्चन्ति.... इतिवु. 76-77; सपरसन्तानेसु For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोककरण 211 आलोकनविलोकन पआआलोकपआओभासपआपज्जोतानं करणेन निब्बत्तनेन आलोकादिकरातिपि, इतिवु अट्ट, 290; तयो हि आलोककरा, लोके लोकतमोनुदा, अप. 1.276. आलोककरण' त्रि., तत्पु. स. [आलोककरण], प्रकाश देने वाला, आभा अथवा दीप्ति से परिपूर्ण, प्रकाश का पुञ्ज -- णो पु.. प्र. वि., ए. व. - मणि निब्बत्तते मव्ह, आलोककरणो मम, अप. 2.47; - णा ब. व. - आलोककरणा धीरा, .... इतिवु. 77; - णं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - तावता बुद्धचेतियं, ... आलोककरणं तदा, अप. 1.68. आलोककरण नपुं.. [आलोककरण], प्रकाश का उदय, आभा की उत्पत्ति, प्रकाश को उत्पन्न करना - णेन तृ. वि., ए. व. - आलोककरणेन “पभङ्करोति लद्धनामो सूरियो ..... उदेति, उदा. अट्ठ. 292. आलोककसिण नपुं, कर्म स./तत्पु. स. [आलोककृ त्स्न], शा. अ., सम्पूर्णता अथवा समग्रता के साथ आलोक अथवा प्रकाश, ला. अ., ध्यान-प्रक्रिया के क्रम में चित्त के आलम्बन के रूप में उल्लिखित चालीस कम्मट्ठानों की सूची में प्रथम दस कम्मट्ठान परिगणित हैं, इन्हें दस कसिण कहा गया, आलोककसिण इन्हीं में एक के रूप में निर्दिष्ट है, चन्द्र, सूर्य आदि का वह अनन्त एवं समग्र आलोक जो ध्यानक्रम में चित्त की एकाग्रता का आलम्बन बनाया जाता है - णं' प्र. वि., ए. व. - तत्थ पथवीकसिणं, आपोकसिणं, तेजोकसिणं, वायोकसिणं, नीलकसिणं, पीतकसिणं, लोहितकसिणं, ओदातकसिणं, आलोककसिणं परिच्छिन्नाकासकसिणन्ति, इमे दस कसिणा, विसुद्धि. 1.108; अभि. ध. स. 62; ... चन्दादिआलोको आलोककसिणन्ति दट्ठब्बं, अभि. ध. वि. 225; - णे सप्त. वि., ए. व. - आलोकस्सपि आलोककसिणे परिकम्म कत्वा उप्पन्नज्झानस्सापीति सहारम्मणस्स झानस्स एतं । नाम, स. नि. अट्ठ. 2.118. आलोककसिणचतुत्थ नपुं, कर्म. सं., आलम्बन या कम्मट्ठान के रूप में गृहीत आलोककसिण से युक्त चतुर्थ ध्यान, स. उ. प. के रूप में - आकासकसिणआलोककसिणचतत्थानि पन विपस्सनायपि अभिज्ञानम्पि वट्टस्सापि पादकानि होन्ति. ध. स. अट्ठ. 431. आलोककिच्च नपुं., तत्पु. स. [आलोककृत्य], प्रकाश किए जाने का काम, उजाला करने की आवश्यकता – च्चं प्र. वि., ए. व. - आलोकढ़ाने आलोककिच्चं नत्थि. स. नि. अट्ठ. 1.195. आलोकजात त्रि., प्रकाशमय, आलोकमय, जगमगाहट से भरपूर - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आलोकजाता विय मे, आनन्द, एसा दिसा, उदा. 963; आलोकजाता वियाति सजातालोका विय, उदा. अट्ठ. 149; - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - इदं अन्धकारहानं आलोकजातं होतूति वा... आवज्जित्वा, विसुद्धि. 2.18; आलोकजातन्ति आलोकभूतं, जातालोकं वा, विसुद्धि. महाटी. 2.23. आलोकट्ठान नपुं., तत्पु. स. [आलोकस्थान], प्रकाश से भरा हुआ स्थान, जगमगाहट से भरा हुआ क्षेत्र - ने सप्त. वि., ए. व. - नीलकसिणं ताव समापज्जित्वा सब्बत्थ आलोकट्ठाने अन्धकारं फरि स. नि. अट्ठ. 1.195; आलोकट्ठाने आलोककिच्चं नत्थि, स. नि. अट्ठ. 1.195. आलोकद त्रि., [आलोकद], प्रकाश देने वाला, ज्ञान की आंख देने वाला - दा पु.. प्र. वि., ब. व. - ... तथागतानं... आलोकदा चक्खुददा भवन्ति, थेरगा. 3; यतो देसनाविलासेन सत्तानं आणमयं आलोकं देन्तीति आलोकदा, थेरगा. अट्ठ. 1.35. . आलोकदस्सन नपुं.. तत्पु. स. [आलोकदर्शन], प्रकाश का दर्शन, ज्ञान के आलोक का दर्शन - यथावालोकदस्सनो, थेरगा. 422; ... सस्सतुच्छेदग्गाहानं विधमनेन याथावतो आलोकदस्सनो तक्करस्स लोकुत्तरञाणालोकस्स दस्सनो, थेरगा. अट्ट. 2.91. आलोकधातु स्त्री., धातु के रूप में आलोक या प्रभा, मूलतत्व के रूप में आलोक - तु प्र. वि., ए. व. - आभाधातूति आलोकधातु, स. नि. अट्ठ. 2.118. आलोकन नपुं.. आ + Vलुक से व्यु., क्रि. ना. [आलोकन]. किसी पर दृष्टिपात करना, आगे की ओर या सामने की ओर देखना, आन्तरिक अवलोकन - नं प्र. वि., ए. व. -- आलोकनन्ति पुरतो पेक्खनं, सद्द. 2.520; आलोकनं च निज्झानं इक्खनं दस्सनं प्यथ, अभि. प. 775; पटिक्कमे पवत्तरूपं आलोकनं, विसुद्धि. 2.255; आमुखं लोकनं आलोकन, विसुद्धि. महाटी. 2.383. आलोकनविलोकन नपुं, द्व. स. [आलोकनविलोकन], शा. अ., सामने की ओर देखना तथा चारों ओर या इधर उधर देखना, ला. अ., आध्यात्मिक सर्वेक्षण, अपने अन्दर गहराई तक जाकर अन्वेषण, गम्भीर सोच विचार - नं प्र. वि., ए. व. - पञ्चन्न खन्धानं समवाये आलोकनविलोकनं पञआयति, दी. नि. अट्ठ. 1.159; For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोकना 212 आलोकसञ्जानन कसिणादिकम्मट्ठानिकेहि वा पन कम्मट्ठानसीसेनेव आलोकनविलोकनं कातब्ब, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).272; स. प. के रूप में, - रूपे अभिक्कमपटिक्कमआलोकनविलोकनसमिजनपसारणवसेन, विसुद्धि. 2.255. आलोकना स्त्री., सूक्ष्म परीक्षण, गम्भीर अन्वेषण – ना प्र. वि., ए. व. - इमेसं तिण्णं नयानं अट्ठारसन्नं मूलपदानं आलोकना, पेटको. 334. आलोकनिमित्त नपुं., तत्पु. स. [आलोकनिमित्त], आलोक का मानसिक प्रतिविम्ब, प्रकाश का मानसिक चित्र - त्ते सप्त. वि., ए. व. - आलोकसञ्जन्ति आलोकनिमित्ते उप्पन्नसञ्ज. अ. नि. अट्ठ. 3.105; आलोकसाति .... आलोकनिमित्ते सञ्जा, पटि. म. अट्ठ. 1.89. आलोकनिस्सय पु., तत्पु. स. [आलोकनिःश्रय], आलोक पर आश्रित रहना, प्रकाश-निर्भरता - येन तृ. वि., ए. व. - असम्भोंदेन चक्खुस्स, रूपापाथगमेन च, आलोकनिस्सयेनापि, समनक्कारहेतना, ... जायते चक्खुविआणं, अभि. अव. (पृ.) 69. आलोकपज्जोतकर त्रि., दिन के प्रकाश को लाने वाला (सूर्य) - रो पु., प्र. वि., ए. व. - आलोकपज्जोतकरो पभङ्करो, ... भाणुमा, जा. अट्ठ. 1.183. आलोकपुञ्ज पु., तत्पु. स. [आलोकपुञ्ज], बहुत सारा प्रकाश, प्रकाश की राशि या ढेर, स. प. के अन्त. - पटिभागनिमित्तं घनविप्पसन्नआलोकपुञ्जसदिसं विसुद्धि. 1.167. आलोकफरण पु., तत्पु. स. [आलोकस्फरण], शा. अ., प्रकाश का प्रसार, आलोक का विस्तार अथवा व्यापक फैलाव, ला. अ., प्रज्ञा का प्रसार या फैलाव - णो प्र. वि., ए. व. - यो च आलोकफरणो यञ्च पच्चवेक्षणानिमित्तं नेत्ति. 74; - णेन तृ. वि., ए. व. - दिब्बचक्खु नाम आलोकफरणेन उप्पन्नं आणं, स. नि. अट्ठ. 3.2; - णे सप्त. वि., ए. व. - आलोकफरणे उप्पज्जतीति दिब्बचक्खुपजा आलोकफरणता नाम, दी. नि. अट्ट. 3.224; - समत्थ त्रि., तत्पु. स. [आलोकस्फरणसमर्थ]. आलोक अथवा प्रभा के फैलाव में सक्षम -त्थो पु.. प्र. वि., ए. व. - तीसु दीपेसु एकस्मिं खणे आलोकफरणसमत्थो आदिच्चो, उदा. अट्ठ. 78. आलोकफरणता स्त्री., आलोकफरण का भाव. [आलोकस्फरणत्व, नपुं.], प्रकाश अथवा प्रज्ञा की दीप्ति का व्यापक प्रसार होना, दिव्य-चक्षु, प्रज्ञा, सम्मासमाधि के पांच अङ्गों में से प्रथम के रूप में निर्दिष्ट - ता प्र. वि., ए. व. - पञ्चङ्गिको सम्मासमाधि... आलोकफरणता .... दी. नि. 3.223; आलोकफरणे उप्पज्जतीति दिब्बचक्खुपा आलोकफरणता नाम, दी. नि. अट्ठ. 3.224. आलोकफरणब्रह्म पु., आलोक का व्यापक विस्तार करने वाला ब्रह्मा – हा प्र. वि., ए. व. - लोकधातुसतसहस्सम्हि आलोकफरणब्रह्मा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.107. आलोकबहुल त्रि., ब. स. [आलोकबहुल], प्रज्ञा के प्रकाश की बहुतायत वाला, अत्यधिक मात्रा में प्रज्ञा के आलोक से युक्त, महन्तत्त एवं वेपुलत्त की प्राप्ति के लिए आधारभूत छ गुणों से युक्त, ज्ञान के प्रकाश से प्रदीप्त - लो पु., प्र. वि., ए. व. -भिक्खु आलोकबहुलो च होति.... अ. नि. 2(2). 133; आलोकबहुलोति जाणालोकबहुलो अ. नि. अट्ठ. 3.141. आलोकभूत त्रि., [आलोकभूत]. तेजस्वी, ओजस्वी, ज्योति से प्रदीप्त - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... जोतिना युत्ततो जोति, आलोकीभूतोति वुत्तं होति, स. नि. अट्ठ. 1.143; - तं' द्वि. वि., ए. व. - पस्स ... आलोकभूतं तिद्वन्तं, उमङ्ग साधु मापितान्ति, जा. अट्ठ. 6.289; - तं न., प्र. वि., ए. व. - आलोकजातन्ति आलोकभूतं. जातालोकं वा, विसुद्धि. महाटी. 2.23. आलोकलेन नपुं.. व्य. सं., श्रीलङ्का में आधुनिक नगर कैण्डी के लगभग पन्द्रह मील-उत्तर की ओर अवस्थित मातले के निकट में विद्यमान आधुनिक आळुविहार, जहां वट्टगामणि अभय के शासनकाल (89-77 ई. प.) में पालि तिपिटक एवं अट्ठकथाओं को पहली बार लिपिबद्ध किया गया, उत्तरकालीन सिंहली पालि-रचनाओं में ही उल्लिखित म. वं. एवं दी. वं. में इसका कोई भी उल्लेख अप्राप्त - ने सप्त. वि., ए. व. - आलोकलेने निसिन्ना जनपदाधिपतिना कतारक्खा पोत्थकेसु लिखापयु, जिना. 61; स. प. के अन्तः, - राजा मातुलरट्ठस्मि आलोकलेनआदिस्, तेस तेसु च रहेसु गिरिलेने तहिं तहिं चू.वं. 98 आलोकविद्धंसनसदिसता स्त्री., भाव., प्रकाश के विखराव की समानता, उजाला के फैल जाने जैसा - ता प्र. वि., ए. व. - जाणालोकपरिवहनताय मग्गभावनाय आलोकविद्धंसनसदिसता, विसुद्धि, महाटी. 2.474; पाठा. आलोकविदंसनसदिसता. आलोकसञ्जानन नपुं, तत्पु. स., आलोक को सम्यकरूप से जानना, स. प. के अन्त. - विभूतं कत्वा For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोकसञत्थ 213 आलोकसञ्जामनसिकार मनसिकरणेनउपद्वितआलोकसजाननेन, विसुद्धि. महाटी. आलोकसाधिट्टानं थिनमिद्धेन सुझं पटि. म. 358; 1.72-73; - समत्थ त्रि., तत्पु. स., आलोक का पूर्ण ज्ञान रोचितानियेव पविसित्वा तिट्ठनतो अधिट्ठानन्ति, पटि. म. प्राप्त करने में सक्षम - त्थाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - अट्ठ. 2.226. रत्तिम्पि दिवादिट्ठालोकसञ्जाननसमत्थाय ... सञआय आलोकसाधिपतत्त नपुं., भाव., आलोक संज्ञा पर पूर्ण रूप समन्नागतो, दी. नि. अठ्ठ. 1.172. से आधिपत्य - त्ता प. वि., ए. व. - आलोकसाधि - आलोकसञत्थ पु., तत्पु. स., आलोकसंज्ञा का महत्त्व या पतत्ता पञआ थिनमिद्धतो सआय विवट्टतीति, पटि. म. 99. प्रयोजन, आलोकयुक्त परिशुद्ध चेतना की महत्ता - त्थं आलोकसञ्जाधिमुत्त त्रि., आलोकमयी संज्ञा अथवा जागरूक द्वि. वि., ए. व. – थिनमिद्धं पजहन्तो आलोकसञत्थं चेतना की प्राप्ति हेतु स्वयं को पूरी तरह से लगाया हुआ सन्दस्सेति, पटि. म. 96. - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - 'अयं पुग्गलो आलोकसञा स्त्री., तत्पु. स. [आलोकसंज्ञा], शा. अ., आलोकसागरुको आलोकसञआसयो थीन (स्त्यान, चित्त की शिथिलता) एवं मिद्ध (मृद्ध, चेतसिकों आलोकसञआधिमुत्तो ति..... पटि. म. 113. की शिथिलता) के प्रतिपक्षभूत आलोक या प्रकाश को आलोकसापटि लाभ पु., तत्पु. स. निमित्त बनाकर उत्पन्न संज्ञा (चेतना), ला. अ. द्वितीय [आलोकसंज्ञाप्रतिलाभ], आलोकमयी संज्ञा की प्राप्ति, समाधिभावना जो आणदस्सनपटिलाभ की स्थिति को प्राप्त जागरूक चेतना की प्राप्ति - भो प्र. वि., ए. व. - करा देती है, प्र.वि., ए. व. - आलोकसाति थिनमिद्धस्स आलोकसञआपटिलाभो थिनमिद्धेन सुओ, पटि. म. 357; पटिपक्खे आलोकनिमित्ते सञ्जा, पटि. म. अट्ठ. 1.89; परिग्गहितानि पत्तिवसेन पटिलभन्तीति पटिलाभोति, पटि. आलोकसा अरियानं निय्यानं, पटि. म. 157; थिनमिद्धं म. अट्ठ. 2.226. असल्लेखो, आलोकसञआ सल्लेखो, पटि. म. 95; - नं आलोकसापटिवेध पु., तत्पु. स., आलोकसंज्ञा का द्वि. वि., ए. व. - भिक्खु आलोकसञ्जमनसि करोति, दी. प्रतिवेध-ज्ञान, आलोक संज्ञा के कारण प्राप्त गम्भीर प्रतिवेध नि. 3.178; आलोकसञ्जमनसिकरोतीति दिवा वा रत्तिं वा ज्ञान - धो प्र. वि., ए. व. - आलोकसञआप्पटिवेधो सूरियचन्दपज्जोतमणिआदीनं आलोक आलोकोति थिनमिद्धेन सुओ, पटि. म. 357; पटिलद्धानि आणवसेन मनसिकरोति, दी. नि. अट्ठ. 3.172; आलोकसञ्जन्ति पटिविज्झीयन्तीति पटिवेधोति च वुत्तानि, पटि. म. अट्ठ. आलोकनिमित्ते उप्पन्नसङ्ख अ. नि. अट्ठ. 3.105; - आय 2.226; द्रष्ट, पटिवेध के अन्त... ष. वि., ए. व. - इदं उभयं आलोकसआय उपकारत्ता आलोकसञआपरिग्गह पु., तत्पु. स., आलोकमयी संज्ञा वुत्तं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).117; - जाय तृ. वि., का पूर्णरूप से ग्रहण अथवा प्राप्ति – हो प्र. वि., ए. व. ए. व. - आलोकसञआय थीनमिद्धस्स... भावेतब भावेन्तो - आलोकसापरिग्गहो, थिनमिद्धेन सओ, पटि. म. सिक्खति, पटि. म. 41. 357; पुब्बभागे एसितानि अपरभागे परिग्गरम्हन्तीति परिग्गहोति, आलोकसञ्जाखन्ति स्त्री., प्र. वि., ए. व., आलोकसंज्ञा की। पटि. म. अट्ठ. 2.226. प्रवृत्ति, आलोकसंज्ञा की प्रवणता - आलोकसञआखन्ति आलोकसञआपरियो गाहन नपु., तत्पु. स. थिनमिद्धेन सुआ पटि. म. 358; .... खमनतो रुच्चनतो [आलोकसञ्जपर्यवगाहन], आलोकसंज्ञा का पूर्णरूप से खन्तीति, पटि. म. अट्ठ. 2.226. अवगाहन, आलोक संज्ञा में प्रवेश कर यथारुचि सेवन - आलोकसञ्जागरुक त्रि., जागरूक संज्ञा अथवा चेतना की नं प्र. वि., ए. व. - आलोकसञआपरियोगाहणं थिनमिद्धेन गुरुता से युक्त, थीन एवं मिद्ध से मुक्त - को पु., प्र. वि., सुझं, पटि. म. 358; पविसित्वा ठितानं यथारुचिमेव ए. व. - 'अयं पुग्गलो आलोकसञआगरुको सेवनतो परियोगाहनन्ति च वृत्तानि, पटि. म. अट्ठ. आलोकसञआसयो आलोकसाधिमत्तो ति, आलोकसञ्ज 2.226. सेवन्त व जानाति, पटि. म. 113. आलोकसञआमनसिकार पु., तत्पु. स., आलोकसंज्ञा को आलोकसाधिद्वान नपुं.. तत्पू. स., आलोकसंज्ञा के मन में कर लेना अथवा मन द्वारा आलोकसंज्ञा का ग्रहण, विषय में दृढ़ निश्चय, जागरूक संज्ञा अथवा आलोकसंज्ञा आलोक संज्ञा की ओर मन का ध्यान --रो प्र. वि., ए. व. का आधार-स्थ ल -- नं म. वि., ए. व. - - अतिभोजने निमित्तग्गाहो इरियापथसम्परिवत्तनता For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोकसञआसय 214 आलोकूपनिस्सय आलोकसआमनसिकारो अब्भोकासवासो कल्याणमित्तता के भाग - गा प्र. वि., ब. व. - आलोकसन्धिकण्णभागा सप्पायकथाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).294. पमज्जितब्बा, महाव. 53; आलोकसन्धिकण्णभागाति आलोकसज्ञासय त्रि., ब. स., आलोक संज्ञा के प्रति आलोक सन्धिाभागा च कण्णभागा च मानसिक अभिरुचि अथवा मन के रुझान से युक्त – यो अन्तरबाहिरवातपानकवाटकानि च गभस्स च चत्तारो कोणा पु., प्र. वि., ए. व. - अयं पुग्गलो आलोकसागरुको पमज्जितब्बाति अत्थो, महाव. अट्ठ. 249; - करणमत्त आलोकसञआसयो आलोकसञआधिमत्तो ति, पटि. म. 113. नपुं., केवल खिड़की बनाना - त्तेन तृ. वि., ए. व. - आलोकसञी त्रि., [आलोकसंज्ञिन], 1. रात में भी दिन में आलोकसन्धिकरणमत्तेनपि नवकम्म देन्ति, चूळव. 303; - देखे गए सूर्य के आलोक को पर्णरूप से जानने में समर्थ, परिकम्म नपं.. तत्पू. स. [आलोकसन्धिपरिकर्म]. खिडकी नीवरणों से रहित विशुद्ध संज्ञा (चेतना) से, युक्त 2. की मरम्मत, खिड़की की रगांई, पुताई अथवा साजआवरणरहित, परिशुद्ध तथा आलोकमयी संज्ञा से युक्त - सजावट - म्माय च. वि., ए. व. - महल्लकं ... जी पु.. प्र. वि., ए. व. - ... विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसन्धिपरिकम्माय द्वत्तिच्छदनस्स परियाय अप्पहरिते आलोकसञ्जी, दी. नि. 1.63; आलोकसञ्जीति रत्तिम्पि ठितेन अधिट्ठातब्ब, पाचि. 69; आलोकसन्धिपरिकम्मायाति दिवादिद्वालोकसञ्जाननसमत्थाय विगतनीवरणाय, परिसद्धाय एत्थ आलोकसन्धीति वातपानकवाटका वुच्चन्ति ... तस्मा सआय समन्नागतो, दी. नि. अट्ठ 1.172; विभ. अट्ठ सब्बदिस्सासु कवाटवित्थारप्पमाणो ओकासो आलोकसन्धि 348; अयं स आलोका होति विवटा परिसद्धा परियोदाता, परिकम्मत्थायलिम्पितब्बो वा लेपापेतब्बो वाति अयमेत्थ तेन वुच्चति 'आलोकसञ्जी ति, विभ. 284; विभ. अट्ठ. अधिप्पायो, पाचि. अट्ठ. 44. 348. आलोकित नपुं., आ + Vलुक का भू. क. कृ. [आलोकित], आलोकसञकत्त नपुं, भाव., तत्पु. स. [आलोकसंज्ञैकत्व], अपने सामने देखना, अपने आगे की ओर देखना - तं' (थीन-मिद्ध के नानात्व के विपरीत) आलोकमयी संज्ञा प्र. वि., ए. व. - आलोकितं नाम पुरतो पेक्खन, म. नि. अथवा आलोक-विषयिणी संज्ञा का एकत्व (एक होने की अट्ठ. (मू.प.) 1(1).271; प्रायः विलोकित (चारों ओर ताकना) अवस्था) - तं प्र. वि., ए. व. - आलोकस कत्तं के साथ प्रयुक्त, - आलोकितं विलोकितं समिजितं ..., चेतयतो थिनमिद्धतो चित्तं विवट्टतीति, पटि. म. 100; अ. नि. 1(2).120; - त? वि. वि., ए. व. - आलोकसओकत्तं चेतयतो थिनमिद्धेन सुझं पटि. म. आलोकितविलोकितं... मय्ह रुच्चति, स. नि. अट्ठ. 1.1063; 357. - तेन तृ. वि., ए. व. - पासादिकेन ... आलोकितेन आलोकसजेसना स्त्री., तत्पु. स., प्र. वि., ए. व. विलोकितेन ..., महाव. 45; - ते सप्त. वि., ए. व. - [आलोकसंज्ञैषणा], आलोकमयी अथवा आलोक-विषयिणी आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, दी. नि. 1.62. संज्ञा की तलाश --- आलोकसजेसना थिनमिद्धेन सा. आलो कितविलोकित नपु, समा. द्व. स. पटि. म. 357. [आलोकितविलोकित], आगे की ओर देखना तथा चारो आलोकसन्धि पु., तत्पु. स. [आलोकसन्धि]खिड़की, ओर अथवा इधर उधर देखना - तं प्र. वि., ए. व. - झरोखा, गवाक्ष, प्रकाश एवं धूप आदि का खुला प्रवेशस्थान, आलोकितविलोकितं न पासादिकं होति, सा. सं. 24(सिंहली); खिड़की की किवाड़ी - वातपानं गवक्खो च जालं च स.प. के अन्त., - आलोकितविलोकितसीहपञ्जरं आलोकसन्धि, अभि. प. 216; आलोकानं आतपानं कथितहसितगमनवानादीहि विसेसो होतियेव, अ. नि. अट्ठ. पविसनट्ठानं सन्धि छिद्दन्ति आलोक सन्धि, अभि. प. 216 3.165. पर सूची; अञ्जतरो भिक्खु ... सङ्घस्स आलोकसन्धिं, पारा. आलोकूपनिस्सय पु., तत्पु. स., आलोक, प्रज्ञा या ज्ञान के 78; आलोकसन्धीति वातपानकवाटका वुच्चन्ति, पाचि. अट्ठ.. प्रकाश का आश्रय अथवा सहारा - यं द्वि. वि., ए. व. - 44; -न्धिं द्वि. वि., ए. व. - आलोकसन्धिं दिवसं करोतु, चक्खायतनं निस्साय इद्वसम्मत रुपायत आलम्बित्वा जा. अट्ठ. 4.276; आलोकसन्धिं दिवसन्ति एकदिवसेनेव आलोकूपनिस्सयं लभित्वा मनोधातावज्जनानन्तरं एव वातपानं करोतु, जा. अट्ट. 4.277; - कण्णभाग पु., द्व. उप्पज्जति कुसलविपाकं उपेक्खासहगतं चक्षविज्ञआणं, स., खिड़कियों के किवाड़ों के भाग एवं प्रकोष्ठ के कोनों रूपा. वि. 153(रो.). For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोकेति 215 आलोपपिण्डदातु आलोकेति आ + Vलुक का वर्त, प्र. पु., ए. व., प्रायः वध-बन्धन-विपरामेस-सहसाकारा पटिक्रितो" में प्रयुक्त - 'विलोकेति' के साथ प्रयुक्त [आलोकेति], शा. अ.. पो प्र. वि., ए. व. - छेदनवधबन्धनविपरामोस सामने की ओर अथवा अपने आगे की ओर देखता है, ला. आलोपसहसाकारा पटिविरतो, दी. नि. 1.5; आलोपो वुच्चति अ., मान बैठता है, समझ लेता है - भिक्खु ..., आलोकेति गामनिगमादीनं विलोपकरणं, दी. नि. अट्ठ. 1.74; म. नि. न पस्सति, स. नि. 1(1).230; तव पुथुज्जनिकइद्धिया। अट्ट (मू.प.) 1(2).112; आलोपसहसाकारा, निकती जलन्तं अङ्गुट्टकं आलोकेति, स. नि. अट्ठ. 1.255; - वञ्चनानि च, जा. अट्ठ. 4.11; - पा ब. व. - तत्थ न्तस्स वर्त. कृ., पु.. ष. वि., ए. व. - आलोकेन्तरस वा वधो च बन्धो च निकती वञ्चनानि च, आलोपा सहसाकारा, ... कायस्स थम्भना, ध. स. 720; - केय्य विधि., प्र. पु., तानि सो तत्थ सिक्खति, जा. अट्ठ. 4.394; 2. भोजन का ए. व. - सतो आलोकेय्य, सतो विलोकेय्य चूळनि. 35; ग्रास या कौर, निवाला, बहुत थोड़ा भोजन - पो प्र. वि., - केसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - राहुलो ... तथागतं ए. व. - आलोपो कबळो भवे, अभि. प. 466; परिमण्डलो आलोकेसि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.95; - केस्सामि भवि., आलोपो कातब्बो, चूळव. 357; - पं द्वि. वि., ए. व. - उ. पु., ए. व. - "आलोकेस्सामी ति चित्ते उप्पन्ने म. नि. दीघं आलोपं करोन्तस्स दुक्कट परि. 49; - यदन्तरं अट्ठ. (मू.प.) 1(1).272; - त्वान पू. का. कृ. - एक आलोपं सवादित्वा अज्झोहरामि, अ. नि. 2(2).24; सो आलोकेत्वान जानाति “अयं धम्मो ... ति सम्मा योजना, मे पक्केन हत्थेन, आलोपं उपनामयि, थेरगा. 1058; -- पेटको. 334; - केतब्बा सं. कृ., स्त्री., प्र. वि., ए. व. - स्स ष. वि., ए. व. - आलोपस्स आलोपस्स अनुरूप पुरत्थिमा दिसा आलोकेतब्बा होति..... पच्छिमा दिसा, ..... यावचरिमालोपप्पहोनकं मच्छमंसादिब्यञ्जनं पक्खिपितब्ब आलोकेतब्बा होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).272; - पारा. अट्ठ. 2.256; - पे' सप्त. वि., ए. व. – दिब्बं ओज तब्बं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - एवं ते आलोकितब्बं, एवं ते गहेत्वा ... उद्धटुद्धटे आलोपे आकिरन्ति, मि. प. 217; - विलोकितब्ब, म. नि. 2.132; - तो भू. क. कृ., पु.. प्र. पे द्वि. वि., ब. व. - चत्तारो पञ्च आलोपे सङ्घादित्वा वि., ए. व. - आलोकिते च वीरेन पक्कामि, पाचिनामुखो, अज्झोहरामि, अ. नि. 2(2).23; - पेहि तृ/प. वि., ब. व. अप. 1.129; - कापेतुं प्रेर., निमि. कृ. - रूपकायं.... - फासुविहारो नाम चतूहि पञ्चहि आलोपेहि ऊनूदरता, आलोकापेतुं विलोकापेतु, ध. स. अट्ठ. 127. ध. स. अट्ठ. 424; - पानं ष. वि., ब. व. - चतुन्नं पञ्चन्न आलोकेतु पु., आ + Vलोक से व्यु., क. ना. [आलोकयितृ] आलोपानं ओकासे सति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) आलोकन की क्रिया को करने वाला, आगे की ओर देखने 1(1).292. वाला, सामने की ओर ताकने वाला - ता प्र. वि., ए. व. आलोपट्ठितिका स्त्री., 'निमन्तन' पर भिक्षुओं को एक एक - आलोकेता वा विलोकेता वा नत्थि, दी. नि. अट्ठ. 1.158. ग्रास भोजन देने की प्रथा, प्र. वि., ए. व. - आलोपट्ठितिका आलोङहरञ्सू पु., व्य. सं., म्या-मां के एक प्राचीन शासक नाम नत्थि, सारत्थ. टी. 3.368. का नाम, क्या-सिस्था का पौत्र - कलियुगे हि आलोपति आ + Vलुप का मुद के मि. सा. के आधार पर अट्ठासीताधिके सत्तवस्ससते नरपतिरओ धीताय सद्धिं वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आलोपति], लूट लेता है, छीन लेता आलोङहचञ्सू-रो पुत्तो आनन्दसुरियो नाम सन्थवं कत्वा है, डकैती करके ले लेता है - आलोपति साहसा यो परेसं एक समिद्धिक नाम पुत्तं विजायि, सा. वं. 86. थेरगा. 743; जिनापेति परं हन्त्वा, वधित्वा अथ सोचयित्वा, आलोचन नपुं., आ + Vलोच से व्यु., क्रि. ना. [आलोचन]. आलोपति सहसा यो परेस, थेरगा. अट्ठ. 2.237. देखना, सर्वेक्षण करना, जांच पड़ताल करना - नं प्र. वि., आलोपदान नपुं., तत्पु. स., एक ग्रास भोजन का दान, ए. व. - आलोचनं पेक्खनं सद्द. 2.558; स. उ. प. के स्वल्प मात्रा में भोजन दान - नं द्वि. वि., ए. व. - तेल रूप में, दिसा., दिशाओं की ओर देखना - नं द्वि. वि., ए. ..... मालोपदानं च अदापयिं, म. वं. टी. 549. व. - दिसालोचनमाहंसु, चतुत्थो नयलञ्जको, पेटको आलोपपिण्डदातु त्रि., बहुत कम मात्रा में भोजन का दान 167. करने वाला, केवल एक ग्रास-मात्र भोजन का दान करने आलोप पु., आ + Vलुप से व्यु. [आलोप], 1. लूटपाट, वाला - तारो पु., प्र. वि., ब. व. - आलोपपिण्डदातारो, झीना-झपटी, छीन लेना, डकैती, लूट लेना, प्रायः "छेदन- पटिग्गहे परिभासिम्हसे, पे. व. 397: आलोपपिण्डदातारोति For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोपभत्तहितिका 216 आळक आलोपमत्तस्सपि भोजनपिण्डस्स दायका, पे. व. अट्ठ. देता है, खौल बौल कर देता है, मथ देता है, घालमेल कर 152. देता है, हिला डुला देता है - न्ति ब. व. - सोण्डाय आलोपभत्तद्वितिका स्त्री., विनय की वह व्यवस्था जिसके उदकं आलोळेन्ति, अ. नि. 3(1).240; - ळेन्तो/लुलयन्तो अनुसार 'निमन्तन' के अवसर पर भिक्षुओं को एक बार में __ वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - उदकं आलुळेन्तो, जा. भोजन का एक ही निवाला देने की अनुमति है - य तृ. अट्ठ. 1.410; - लयमानो उपरिवत्, आत्मने. - सिथिलं वि., ए. व. - ... गहेत्वा आलोपभत्तट्ठितिकाय भाजेतब, सम्मज्जनिं गहेत्वा सम्परिवत्तकं आलोळयमानो, विसुद्धि. चूळव. अट्ठ. 96; - कतो प. वि., ए. व. - 1.103; आलोळयमानो वालिकाकचवरानि आकुलयन्तो, आलोपभत्तद्वितिकतो पट्ठाय आलोपसङ्घपेन भाजेतब्ब, तदे.; विसुद्धि. महाटी. 1.118; - त्वा पू. का. कृ. - सलाकाय द्रष्ट., ठितिका, आलोपट्ठितिका तथा उद्देसभत्त के अन्त., वा.... हेट्नुपरिवसेनेव आलोळेत्वा, चूळव. अट्ठ. 97; उण्होदकेन (आगे). फाणितं आलोलेत्वा, स. नि. 1(1).204; 2. संभ्रम में डाल आलोपसङ्केप पु., तत्पु. स., 'निमन्तन' के अवसर पर एक देता है, व्यामिश्रित करा देता है, आपस में गड्ड वड्ड करा बार में एक ग्रास या निवाले के रूप में परोसे जा रहे देता है, अव्यवस्थित बना देता है - न्ति वर्त., प्र. पु.. भोजन का विभाजन (उद्देसभत्त के अवसर पर इस प्रकार ए. व. - अभिधम्मिका पन धम्मन्तरं न आलोळेन्ति, ध, स. का विभाजन विनय-सम्मत नहीं माना गया है)- पेन तृ. अट्ठ. 31; - ळेसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - वि., ए. व. - आलोपसङ्केपेन भाजेतब्ब, चूळव. अट्ठ. 96. अभिसम्बुज्झनकसत्तं अयं किलेसो आलोळेसि, जा. अट्ठ. 2. आलोपिक त्रि., आलोप से व्यु., निवाले भर भोजन पर 227; विसुद्धसत्तेपेस आलोलेसियेवाति, जा. अट्ट, 4.296; -- जीवित रहने वाला, स. उ. प. के रूप में, सत्ता.- सात ळेस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. --- तादिसं कि निवालों वाले भोजन पर जीवित रहने वाला -- को पु., प्र. नालोलेरसती ति, जा. अट्ठ. 2.227; 3. (ग्रन्थ का) वि., ए. व. - सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको, म. नि. मन्थन करता है, खंगालता है - त्वा पू. का. कृ. - इमिस्सा गाथाय अत्थं पिटकत्तय आलोलेचा संवण्णेही ति, आलोळ' पु./नपुं.. आ + Vलुळ से व्यु. [आलोड], 1. सा. वं. 28; तीसु वेदेसु आलोळेत्वा पहं पुच्छि, सा. वं. हिला देना, 2. घालमेल कर देना, क्षोभ, 3. व्यग्रता, संभ्रम, 28. खलबलाहट - ळं द्वि. वि., ए. व. - 'एस गन्वा किञ्चि आळ/अळ नपुं.. [अल]. बिच्छू का डंक - ळं प्र. वि., ए. आलोळ करेय्या ति, ध. प. अट्ठ. 1.26. व. - आळं विच्छिक - नकुलं, अभि. प. 621 पर सूची. आलोळ त्रि., [आलोल], चञ्चल, व्यग्र, अस्थिर, हिलडुल आळक' पु./नपुं., क. पशुओं को बन्द करके रखने हेतु रहा, स. उ. प. के रूप में, दोला.- - ला पु., प्र. वि., प्रयुक्त बांडा या व्रज, वह घिरा हुआ क्षेत्र जिसके भीतर ब. व. - दोळालोलाव ते कण्णा, वेवण्णं समुपागता, अप. पशुओं को खूटों अथवा पगहों में बांध कर रखा जाता है, 2245. पशुशाला, गोशाला, गोढ - कं द्वि. वि., ए. व. - उसभोव आलोळित त्रि., आ + Vलुळ का प्रेर., भू. क. कृ. [आलोडित], आळकं भेत्वा, पत्तो सम्बोधिमुत्तम, बु. वं. 26.2; आळकन्ति व्यग्र, विक्षोभित या बेचैन कर दिया गया, बाधित, मथ दिया गोद यथा उसभो गोट्ट भिन्दित्वा .... बु. वं. अट्ठ. 303; - गया, दुष्प्रभावित कर दिया गया - तं प., वि. वि., ए. व. के सप्त. वि., ए. व. - पक्खिपन्तं ममाळके, चरिया. - मत्तकुञ्जरेहि... आलोळितपदेसं थेरीगा. अट्ठ. 277. 2.1.9(पृ.385); ममाळकेति आलानत्थम्भे, चरिया. अट्ठ. 1093; आलोळी स्त्री., आ + Vलुळ से व्यु., तरल मिश्रण, स. उ... ख. बाण या तीर को सीधा करने हेतु प्रयुक्त उपकरण - प. में प्राप्त, सीता.- ठण्डा तरल मिश्रण – ळिं द्वि. वि., कं द्वि. वि., ए. व. - इस्सासो आळकं परिहरति ए. व. - तेन खो पन समयेन अञ्जतरस्स भिक्खुनो वजिम्हकुटिलनाराचरस उजुकरणाय, मि. प. 391; यथा घरदिन्नकाबाधो होति, भगवतो एतमत्थं आरोचेसं अनुजानामि नाम उसुकारो अरञतो एक वङ्कदण्डकं आहरित्वा नित्तचं भिक्खवे, सितालोळि पायेतुन्ति, महाव. 282. कत्वा कब्जियतेलेन मक्खेत्वा अङ्गारकपल्ले तापेत्वा आलोळेति/आलोलेति/आलुळेति आ + Vलुळ का रुक्खालके उप्पीत्वा निव उजं वालविज्झनयोग्गं करोति, प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आलोडयति], 1. आलोड़ित कर ध. प. अट्ठ. 1.163; ग. एक पौधे या झाड़ीदार पादप का 2.5. For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आळक/अलक 217 आळवकसुत्त नाम, अलर्क अकौआ - का प्र. वि., ब. व. - आलका इसिमुग्गा च कदलिमातुलुङ्गियो, अप. 1.13; आळकादयो गच्छा, अप. अट्ट, 1.219. आळक/अलक पु., [अलक], घुघराले बाल, जुल्फें, मस्तक पर लटक रहे चूंघर, स. प. के रूप में, - कोच्छ नाम आळकादिसण्ठापनत्थं केसादीनं उल्लिखनसाधनं, वि. व. अट्ट. 296. आळकमन्द त्रि., देवनगरी अलका के समान भीड़ से भरे हुए, एक ही आंगन वाला तथा मनुष्यों की भीड़ से भरा हुआ - न्दा पु., प्र. वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन विहारा आळकमन्दा होन्ति, चूळव. 278; आळकमन्दाति एकङ्गणा मनुस्साभिकिण्णा, चूळव. अट्ठ. 61; पाठा. अळकमन्दाति. आळवक'/आलवक त्रि., 1. आळवि नामक नगर अथवा जनपद का निवासी, 2. आळव-चेतिय से सम्बद्ध (भिक्षु), 3. एक प्रभावशाली यक्ष – को पु., प्र. वि., ए. व. – अथ खो आळवको यक्खो येन भगवा तेनुपसङ्कमि, सु. नि. 111; अञ्जतरोपि आळवको भिक्खु रुक्खं छिन्दति, सु. नि. अट्ठ 1.4; पञ्चालचण्डो आळवको पज्जुन्नो सुमनो सुमुखो, दी. नि. 3.155; - का ब. क. - आलवका भिक्खू एवरूपानि नवकम्मानि देन्ति, चूळव. 302; तत्थ आळवकाति आळविरटे जाता दारका आळवका नाम, ते पब्बजितकालेपि "आळवका त्वेव पञआयिंसु, पारा. अट्ठ. 2.134; - के द्वि. वि., ब. व. -भिक्खूसङ्घ सन्निपातापेत्वा आळवके भिक्खू पटिपुच्छि , पारा. 225; - स्स ष. वि., ए. व. --- आळवकस्सत्थाय तिसंयोजनं, तथा अङ्गुलिमालस्स, दी. नि. अट्ठ. 1.194. आळवक:/आलवक पु., व्य. सं., आळवि के राजा का पुत्र हत्थक आळवक, बुद्ध द्वारा अपने उपासक-श्रावकों के बीच चार संग्रहवस्तुओं से युक्त गृहपतियों में अग्रगण्य के रूप में घोषित एक गृहस्थ - को प्र. वि., ए. व. - आळवको किर राजा विविधनाटकूपभोगं छड्डत्वा ... सत्तमे सत्तमे दिवसे मिगवं गच्छन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.278; ... एसा, तुला एतं पमाणं मम सावकानं उपासकानं यदिदं चित्तो च गहपति हत्थको च आळवको ति, अ. नि. 1(1).107; उपासकेसु चित्तो गहपति हत्थको आळवकोति द्वे अग्गउपासका..., ध. प. अट्ट. 1.193; - कं द्वि. वि., ए. व. - सत्तहि अच्छरियेहि अब्भुतेहि धम्मेहि समन्नागतं हत्थक आळवकं धारेथ, अ. नि. 3(1).53. आळवकगज्जित नपुं, बौद्धधर्म की अपर-शैलीय नामक सिंहली शाखा के उन तीन ग्रन्थों में से एक जो बुद्धवचनों के रूप में थेरवादियों द्वारा स्वीकत नहीं हुआ - तं प्र. वि., ए. व. - गुळ्हवेस्सन्तरं ... आळ वकगज्जित वेदल्लपिट कन्ति अबद्धवचन परियत्तिसद्धम्मप्पतिरूपकं नाम, स. नि. अट्ठ. 2.177. आळवकचेतिय नपुं., आळवक नामक एक यक्ष का चैत्य अथवा उसका वास स्थान - यं प्र. वि., ए. व. - गोतमकचेतियं, आळवकचेतियान्ति वृत्ते तेसं यक्खानं निवसनट्ठानं, अप. अट्ठ. 2.49. आळवकपुच्छा स्त्री., तत्पु. स., आळवक यक्ष द्वारा पूछा गया प्रश्न - च्छा प्र. वि., ए. व. - गाथानं पुच्छा अद्धानं गच्छति, सासनंधारेतुन सक्कोति, सभियपुच्छा आळवकपुच्छा विय च, दी. नि. अट्ठ. 3.74. आळवकयक्ख पु., कर्म. स., सु. नि. एवं स. नि. में उल्लिखित एक प्रभावशाली यक्ष जिसे बुद्ध ने सद्धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाया, स. नि. 1(1).247-249; सु. नि. ___ 111-113; स. नि. अट्ठ. 1.278-294; सु. नि. अट्ठ. 1.186 203; अ. नि. अट्ठ. 1.288; स. प. के अन्त., - आळवकसूचिलोमखरलोमयक्खसक्कदेवराजादयो, विसुद्धि. 1.199-200. आळवकयुद्ध पु., तत्पु. स., आळवक नामक यक्ष से (बुद्ध का) आमना सामना अथवा संघर्ष-द्धं द्वि. वि., ए. व. - इतो पट्ठाय आळवकयुद्धं वित्थारेतब्बं अ. नि. अट्ठ. 1.290. आळवकसुत्त नपुं., 1. सु. नि. के उरगवग्ग का एक सुत्त जिस में बुद्ध द्वारा आळवक यक्ष को धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने का उल्लेख है, 2. स. नि. के यक्खसंयुत्त का बारहवां सुत्त, जिस में सु. नि. के आळवक सुत्त का संक्षेपण कर दिया गया है, सु. नि. 111-113, स. नि. 1(1).247249; - त्ते सप्त. वि., ए. व. - वित्थारं पन आळवकसुत्ते वण्णयिस्साम, सु. नि. अट्ठ. 1.121; स. प. के अन्त., - आळवक-सूचिलोम-खरलोमसुत्तादीनि, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).19; - वण्णना स्त्री., 1. सु. नि. की अट्ठ. के एक भाग का शीर्षक जिस में आळवक सुत्त की व्याख्या की गई है, सु. नि. अट्ठ. 1,186-203; 2. स. नि. अट्ठ के एक अंश का शीर्षक, स- नि. अट्ठ. 1.278-294; - ना प्र. वि., ए. व - वित्थारेत्वा कथेतुकामेन आळवकसुत्तवण्णना ओलोकेतब्बा, अ. नि. अट्ट, 1.290; - यं सप्त. वि., ए. व. - तं आळवकसुत्तवण्णनायं आगतनयेनेव वेदितब्ब, उदा. अट्ट. 52. For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आळवन्द 218 आळारक/अद्वारक आळवन्द पु., एक तमिल सरदार, जिस का वध राजा वासायाळविमागमा, स. नि. 1(1).249; आळविं अगमासि, परक्कमबाहु महान के सेना प्रमुख लङ्कापुर द्वारा वडलि- ध. प. अट्ट.2.152; - वियं सप्त. वि., ए. व. - एक समय नामक ग्राम में कर दिया गया था - न्देन तृ. वि., ए. व. भगवा आळवियं विहरति ..., सु. नि. 111; छ पनाळवियं - निसिन्ननेन आळवन्देन युद्ध कत्वान तं वधि, चू. वं. वुत्ता, विन. वि. 3120; उत्त. वि. 785; - नगर नपुं०, 76.134. आळविनामक नगर – रं द्वि. वि., ए. व. - आळविनगरं आळवन्दप्पेरुमाल/ळ पु.. एक तमिल राजकुमार, कुलशेखर उपनिस्साय अग्गाळवे चेतिये, जा. अट्ठ. 1.163; - तो प. का शक्तिशाली सामन्त, श्रीलङ्का के सेनाप्रमुख लंकापुर वि., ए. व. - आळवियं जाता आळविनगरतोयेव च द्वारा युद्धों में दो बार पराजित - ळो प्र. वि., ए. व. - निक्खम्म पब्बजिता, स. नि. अट्ट, 1.167; - रे सप्त. वि., आळवन्दप्पेरुमाळो... अलखियरायरव्हयो, चू. वं. 76.145; ए. व. - आळविरढे आळविनगरे, अ. नि. अट्ट, 1.289; - आळवन्दप्पेरुमालो इच्चेते दुरतिक्कमा, चू. वं. 76.223; । राभिमुख त्रि., आळवि नगर की ओर (जा रहा) - खो 232; - लव्हय त्रि., ब. स., आळवन्दपेरुमाल नाम वाला पु.. प्र. वि., ए. व. - आळविनगराभिमुखो पायासि, अ. नि. - व्हयेन पु., तृ. वि, ए. व. - आळवन्दप्पेरुमाळव्हयेन अट्ट. 1.290; - रट्ठ नपुं.. आळवि नाम वाला राष्ट्र - ढे दमिळेन च, चू. वं. 76.128. सप्त. वि., ए. व. - आळवीरटे चेतं भवनं. सु. नि. अट्ठ. आळविक त्रि., आळवि नगर अथवा आळवि जनपद का रहने 1.186; - वासी त्रि., आलवि जनपद का निवासी - वाला अथवा उन के साथ सम्बद्ध - को पु०, प्र. वि., ए. सिनो पु.. प्र. वि., ब. व. - आळविवासिनो सत्थरि आळविं व. - एको आळविको भिक्खु ..., ध. प. अट्ठ. 2.175; - सम्पत्ते निमन्तेत्वा दानं अदंसु, ध. प. अट्ठ. 2.97. आळार/आलार/अळार त्रि., [अराल], वङ्किम, वक्र, .., थेरीगा. अट्ठ. 68; - का' पु., प्र. वि., ब. व. - मोड़- युक्त, टेढ़ा - अळार वेल्लित वङ्क कुटिल जिम्ह आळवका भिक्खू नवकम्मं करोन्ता, पाचि. 50; आळविकाति। कुञ्चितं, अभि. प. 709; - रानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - आळवियं जाता, स. नि. अट्ठ. 1.167; - का स्त्री., सेला आळारानि महन्तानि अक्खीनि मणिगुळसदिसानि, अप. नामक भिक्षुणी का दूसरा अधिक प्रचलित नाम, - का प्र. अट्ट. 1.286; -- पम्ह त्रि., ब. स. - म्हा स्त्री, प्र. वि., वि., ए. व. - बुद्धप्पादे आळवीरढे आळविकस्स ओ ए. व. - आळारपम्हा हसुला, सुसा तनुमज्झिमा, अप. धीता, थेरीगा. अट्ट. 68. 1.19. आळविकासुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. आळार/आलार/आलारकालाम पु., [बौ. सं. आराड], नि. 1(1).151-52. सिद्धार्थ गौतम के प्रथम आचार्य जिन से उन्होंने आळविगोतम पु., व्य. सं., आळवि जनपद के एक स्थविर आकिञ्चन्यायतन नामक अरूपध्यान की शिक्षा ग्रहण की का नाम - मो प्र. वि., ए. व. - यथा अहू वक्कलि थी - आळारोति तस्स नाम दीघपिङ्गलो किरेसो, तेनस्स मुत्तसद्धो भद्रावुधो आळविगोतमो च, सु. नि. 1152; यथा च आळारोति नाम अहोसि, कालामोति गोत्तं, दी. नि. अट्ठ. सोळसन्नं एको भद्रावुधो नाम, यथा च आळविगोतमो च, 2.143; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).74; आळारो कालामो चूळनि अट्ठ. 80; ... सद्धाधिमुत्तो अहोसि, सद्धाधुरेन च । आचरियो मे समानो, म. नि. 1.224; आळारो कालामो अरहत्तं पापुणि... यथा च आळविगोतमो..., सु. नि. अट्ठ आकिञ्चायतनं पवेदेसि, म. नि. 1.223; - रं द्वि. वि., 2.298. ए. व. - बोधिसत्तोपि ... चारिक चरमानो आळारञ्च आळवी स्त्री., [अटवी], एक नगर तथा एक जनपद का कालाम उदकञ्च रामपुत्तं उपसङ्कमित्वा ..., जा. अट्ठ. नाम - वी/वि प्र. वि., ए. व. - आळवीति तं रखम्पि 1.76; - स्स ष. वि., ए. व. - यंनूनाहं आळारस्स नगरम्पि, स. नि. अट्ठ. 1.278; वाराणसी च सावत्थि कालामस्स पठमं धम्म देसेय्यं, महाव. 10... वेसाली मिथिलाळवी, अभि. प. 199; येन आळवी तेन आळारक/अद्वारक त्रि., बिना द्वार वाला, चारो ओर से पक्कामि... येन आळवी तदवसरि पारा. 224; सावत्थाळवि घिरा हुआ - कं प्र. वि., ए. व. -- यथापि अस्स नगरं कोसम्बी, सक्कभग्गा पकासिता, विन. वि. 3118; उत्त. वि. ..... अद्वारकं आयसं ..., परिखाउपेतं, जा. अट्ठ. 5.77; 781; - विं द्वि. वि., ए. व. - अत्थाय वत मे बुद्धो, पाठा, अद्वारकं. For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आळारवेदल्लभाणवार 219 आलि/आळि आळारवेदल्लभाणवार पु., महापरिनिब्बान सुत्त के चतुर्थ उपरिवत् – च्चं द्वि. वि., ए. व. - कत्वाळाहनकिच्चं सो भाणवार का शीर्षक, जिसमें आळारकालाम का कथानक तस्स कम्मे पसीदिय, चू. वं. 39.28; - हान नपुं, तत्पु. दिया गया है, दी. नि. 93-103. स. [आदाहनस्थान], श्मशान - ने सप्त. वि., ए. व. - आळारिक त्रि., [आरालिक], रसोइया, रसोइए का सहायक थेरस्स आळाहनहाने ठितभिक्खू, स. नि. अट्ठ. 3.25; - या कर्मचारी- को प्र. वि., ए. व. - भत्तकारो सूपकारो दस्सनसमागम पु., तत्पु. स., अन्त्येष्टि देखने हेतु सूदो आळारिको तथा, अभि. प. 464; आळारिको तदा होमि, उपस्थित जनसमूह, मृत शरीर को भस्म होते देखने हेतु जा. अट्ठ. 5.285; आळारिकोति भत्तकारको, ... आया हुआ समूह - मे सप्त. वि., ए. व. - साकेतब्राह्मणस्स भत्तकारकदासो विय, तदे. - का ब. व. -पुथुसिप्पायतनानि, आळाहनदस्सनसमागमे, मि. प. 318; - पंसुक नपुं, सेय्यथिदं... आळारिका कप्पका न्हापका सूदा, दी. नि. तत्पु. स., जलाई जा रही चिताग्नि की भूमि, 1.45; आळारिकाति पूविका, ... सूदाति भत्तकारका, दी. श्मशान भूमि - कं प्र. वि., ए. व. - पंसुकन्ति नि. अट्ठ. 1.131; - के' द्वि. वि., ब. व. - आळारिके च आळाहनपंसुक, जा. अट्ठ. 5.48; - पस्स पु./नपुं, श्मशान सूदे च जा. अट्ठ. 7.168; आळारिकेति पूवपाके, सूदेति । का समीपवर्ती भाग, चितास्थल का बगल वाला क्षेत्र भत्तकारके, तदे. -- के सप्त. वि., ए. व. - 'आळारिके - स्से सप्त. वि., ए. व. - तत्थ गन्त्वा आळाहनपरसे भते पोसे, वेतनेन अनत्थिकेति, जा. अट्ठ. 5.288; - कम्म ठितो. जा. अट्ठ. 3.141; - भस्म नपुं.. तत्पु. स., नपुं., तत्पु. स. [आरालिककर्म]. रसोइए का काम, भोजन चिता भस्म, शव को जलाए जाने पर निकली हुई राख बनाने का काम – म्मं द्वि. वि., ए. व. - आळारिककम्म - स्मं द्वि. वि., ए. व. - तस्स आळाहनभस्म पि कत्वा कत्वा वसनभावन्ति, जा. अट्ठ. 5.295; - त्त नपुं., भाव. भेसज्जं, चू. वं. 46.37; - भूमि स्त्री., तत्पु. स., मृत शरीर [आरालिकत्व], रसोइयापन, रसोइया होना, भोजन बनाने को जलाए जाने की भूमि, श्मशानभूमि - मि प्र. वि., ए. वाला होना - तं द्वि. वि., ए. व. - आळारिकत्तञ्च व. - सापिस्स आळाहनभूमि समन्ततो खता, जा. अट्ठ. भत्तकत्तञ्च, जा. अट्ठ. 5.288; धीतानं आळारिकत्तं 2.203. करोन्तस्साति, जा. अट्ठ. 5.297.. आळाहनपरिवेण नपुं. व्य. सं., पुलत्थिपुर (आधुनिक आळाहन/आळाहण नपुं, आ + ।दह के प्रेर. से व्यु., पोलोन्नरूव) में श्रीलङ्का के शासक महा परक्कमबाहु क्रि. ना. [आदाहन], शा. अ., वह अग्नि जो जला दे द्वारा बनवाए गए एक परिवेण का नाम - णं द्वि. वि., ए. अथवा भस्म कर दे, ला. अ., 1. चिता की अग्नि, 2. व. - आळाहणपरिवेणं तहिं कारेसि खत्तियो, च. वं. श्मशान, मृत शरीर को भस्म किए जाने की भूमि-दहस्स 78.48. दस्स ळो होतनघणसु, आळाहनं, परिळाहो, मो. व्या. आलि/आळि स्त्री., [आलि]. 1. नदी या तालाब के 5.127; आळाहणं सुसानं चानित्थियं, कुणपो छवो, अभि. प. किनारों पर बनाया गया बांध, तटबन्ध, ऊंचा टीला, सेतु 405; - नं' प्र. वि., ए. व. - कस्स इदं आळाहनं, पे. व. - ... आलित्थी सखि सेतुसु, अभि. प. 1083; आलिसद्दो 369; 371; आळाहनन्ति सुसानं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2. ... सेतु जलवारको, नद्यादिमग्गो च, अभि. प. 1082 पर 245; - नं. द्वि. वि., ए. व. – सो आळाहनं गन्त्वा कन्दति, सूची; - ळिं द्वि. वि., ए. व. - महतो तळाकस्स पटिकच्चेव म. नि. 2.316; 317; - ना/तो प. वि., ए. व. - आळि बन्धेय्य, चूळव. 420; आळिन्ति ... यथा महतो यावाळाहना पदानि पञ्जायन्ति, दी. नि. 1.49; आळाहनतो तळाकस्स आळिया, अबद्धायपि किञ्चि उदकं तिडेय्य, अट्ठीनि आहरित्वा, जा. अट्ठ. 3.134; - स्स ष. वि., ए. व. चूळव. अट्ठ. 127; आळि मुञ्चेय्य, आगच्छेय्य उदक न्ति, -- आळाहनस्साविदूरे निपज्जित्वा..... ध. प. अट्ठ. 1.17; - म. नि. 3.140; - या ष. वि., ए. व. - यथा महतो ने सप्त. वि., ए. व. - इमस्मि आळाहने दवा, पे. व. 3743; तळाकस्स आलिया अबद्धायपि किञ्चि उदकं तिट्ठय्य, - करण नपुं., शा. अ., जलाना, ला. अ., मृत शरीर चूळव. अट्ठ. 127; - प्पमेद पु., तत्पु. स. [आलिप्रभेद]." को श्मशान में भस्म करना, अन्त्येष्टि संस्कार - णं प्र. तटबन्ध का विनाश - दो प्र. वि., ए. व. - तस्सा ..., वि., ए. व. - परिनिबुतरस पच्चेकबुद्धस्स आळहनकरणमेव जम्बालिया न आळिप्पभेदो पाटिकतो, अ. नि. 1(2).192-933; नानत्तं, अप. अट्ठ. 2.203; - किच्च नपुं, तत्पु. स., न आळिप्पभेदो पाटिकड़ोति न पाळिप्पभेदो पाटिकवितब्बो. For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आळिगामकदुग्ग 220 आळ्हकथालिका अ. नि. अट्ठ. 2.352; - बन्ध त्रि., ब. स., बांधों से बंधा माप की एक इकाई, सोलह पसतो के चार पत्थ तथा चार हुआ, तटबन्धों से घिरा हुआ - धा स्त्री., प्र. वि., ए. व. पत्थों से एक आव्हक की माप बनती है - आळहको -समे भूमिभागे चतुरस्सा पोक्खरणी अस्स आळिबन्धा पूरा चतुरो पत्था दोणं वा चतुराळहक, अभि. प. 482; - के उदकस्स ..., म. नि. 3.140; 2. पु., [आलि], बिच्छू - प्र. वि., ए. व. - तेन पत्थेन चत्तारो पत्था आळहक स. विच्छिको त्वाळि कथितो, अभि. प. 621; आळं विच्छिकनङ्गुलं नि. अट्ठ. 1.192; क. तरल पदार्थों के माप की इकाई - तं योगा आळि, अभि. प. 621 पर सूची; 3. स्त्री., कर द्वि. वि., ए. व. - सो गन्वा आम्हक सप्पिं ... [आलि/आळी], सहेली, सखी - सखी त्वालि वयस्सा, आहरापेत्वा, पारा. 73; - केन तृ. वि., ए. व. - सक्का अभि. प. 238; आलित्थि सखि सेतुस, अभि. प. 1083; - समुद्दे उदक, पमेतु आळ्हकेन वा, अप. 1.17; स. उ. प. ळि सम्बो., ए. व. - आळि, मा भायि, मतको कि के रूप में, उदका.- आढक की माप में जल- ळहकानि करिस्सती ति, जा. अट्ठ. 3.470; न खो मे रुच्चति आळि, प्र. वि., ब. व. - "अत्थि पन ते कोचि गणको वा मुद्दिको पूतिमंसस्स पेक्खना, तदे; 4. पु., [आडि], मछली की वा सङ्घायको वा यो पहोति महासमुद्दे उदकं गणेतुं -- एक विशेष प्रजाति का नाम, स. प. के अन्तः, - एत्तकानि उदकाळ्हकानि इति वा, एत्तकानि आळिगग्गरकाकिण्णा, पाठीना काकमच्छका, जा. अट्ट. उदकाळहसतानि इति वा..., स. नि. 2(2).346; ख. सूखी 5.401; 5. स्त्री., [आलि], कतार, पंक्ति, शृंखला, स. वस्तुओं (अन्न आदि) की माप की एक इकाई - ळहकेन प. के अन्त., जलधरा. - बादलों की कतार - तृ. वि., ए. व. - बद्धा कुलीका मितमाळकेन, जा. अट्ठ. नमसि जलधराली मद्दमानो भिगन्त्वा, दाठा. 4.55(रो.); 3.477; मितमाळकेनाति धञ्जमापकम्मम्पि किर तेन कतं मुत्ता.- मोतियों की लड़ी - दन्ता ... मत्तालिसन्निभा, तदे; पाठा. आळकेन; स. प. के अन्त., - अड्डाळ्हकोदन रस. 2.96; रम्भा.- केले के पौधों नपुं., आधे आढक माप वाला चावल - नं द्वि. वि., ए. व. की कतार - मङ्गलद्धजरम्भालितोरणादिमनोहरं चू, - उक्कट्ठो नाम पत्तो अडाळहकोदनं गण्हाति, पारा. 3653; वं. 89.15. - कानि प्र. वि., ब. व. - चत्तारि आळ्हकानि दोणं, स. आळिगामकदुग्ग पु., तत्पु. स., श्रीलङ्का के आळिसार क्षेत्र नि. अट्ठ. 1.192. के आळिगाम नामक गांव का एक दुर्ग-म्हि सप्त. वि., आम्हक' पु., संभवतः आळक का ही रूपा., पशुओं का ए. व. - आळिगामकदुग्गम्हि गङ्गापस्से वसी तदा, चू. वं. बाड़ा, हाथी को बांधने हेतु प्रयुक्त स्तम्भ या खम्भा, 70.112. हाथीखाना, पीलखाना - को प्र. वि., ए. व. - आळिसारक पु., व्य. सं., शा. अ.. तटबन्ध अथवा बांध के आलानमाळहको थम्भो, अभि. प. 364; - कं द्वि. वि., ए. कारण उपजाऊ बना दिया गया क्षेत्र, प्रयोगगत अ., 1. व. - हत्थिं तत्थ रतं ञत्वा अकंस तत्थ आळहक म. वं. श्रीलङ्का के मध्यवर्ती मातले जिले में स्थित आधुनिक 19.73. एलहार का पार्श्ववर्ती क्षेत्र - कं द्वि. वि., ए. व. - संघस्स आळ्हकगणना स्त्री., तत्पु. स. [आढकगणना], आढक के पाकवट्टत्थं रद्धं दत्वाळिसारकं, चू. वं. 60.14; - रछक पु., माप से गणना - य तृ. वि., ए. व. - आम्हकगणनाय आळिसारक नामक राष्ट्र - के सप्त. वि., ए. व. - अप्पमेय्यो, स. नि. अट्ठ. 3.150. गजबाहु नरिन्दो पि आळिसारकरहके, चतस्सो परिसा नाम आळ्हकथालिका स्त्री., तत्पु. स. [आढकस्थालिका], एक पाहिनि युझितुं पुन, चू. वं. 70.106; परक्कमभुजो आढक माप के चावल को उबालने की क्षमता वाली मायागेहाधिनायकं आमन्तेत्वा नियोजेसि यज्झितं आळिसारके, पतीली, प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि नाम आम्हकथालिका, चू. वं. 70.162; 2. सिंचाई करने वाली वह नहर जिसके एवमस्स सादूनि फलानि अहेसु, अ. नि. 2(2).81; कारण संभवतः पूरे जिले तथा एक गांव का नाम आळिगाम आळहकथालिकाति तण्डुलाळ्हकस्स भत्तपचनथालिका, अ. हो गया - आळिसारोदकभागविहारस्स अदापयि, म. नि. अट्ठ. 3.123; - कं द्वि. वि., ए. व. - एकयेव वं. 35.84. आळहकथालिक उपनिसीदित्वा.... महाव. 317; भत्तथालिक आळ्हक पु./नपुं.. [आढक], अनाज की पुरानी माप, पुरतो कत्वा सकलजम्बुदीपवासीनं, भत्तं देन्तिया.... ध. प. चौथाई द्रोण, तरल एवं शुष्क दोनों प्रकार के पदार्थों की अट्ट.2.213. For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवजति आवजति आ + √वज का वर्त., प्र. पु. ए. व. [आव्रजति], जाता है, आता है, वापस आता है, लौट आता है। तु अनु. प्र. पु. ए. व. - सा पापधम्मा पुनरावजातू 'ति, जा. अट्ठ. 4.44; - स्सु अनु., म. पु. ए. व., आत्मने. सच्चानुरक्खी पुनरावजस्सूति, जा. अट्ठ. 5.23; - जेय्य विधि., प्र. पु. ए. व. - को सोत्थिमाजानमिधावजेय्या 'ति, जा. अट्ठ. 5.27; जित्थ अद्य, म० पु०, ब० व॰ - मा चस्सु गन्त्वा पुनरावजित्था 'ति, जा. अट्ठ. 4.96 - जिस्सं भवि., उ. पु. ए. व. - सच्चानुरक्खी पुनरावजिस्सन्ति, - - - www.kobatirth.org जा. अट्ठ. 5.22. आवज्ज पु०, अनुचिन्तन, विचार-विमर्श, मन की प्रवृत्ति - अधिद्वाति आभोगो पुण्णतावज्जेस्वालित्थी सखि सेतुसु, अभि. प. 1083. आवज्जति आ + √वज का वर्त., प्र. पु. ए. व. [आवृङ्क्ते], 1. (किसी के विषय में) सोच विचार करता है, अनुचिन्तन करता है, ध्यान देता है, जांच पड़ताल करता है, उधेड़ बुन या संकल्प-विकल्पं करता है, ध्यान में निमग्न हो जाता है। इद्धिमा परस्स चित्तं जानितुकामो आवज्जति, विसुद्धि० 2.60; परस्स चित्तहि आतुमावज्जतिद्धिमा, अभि. अव. 1135; ओभासो धम्मोति ओभासं आवज्जति, पटि० म० 281; तिरोपब्बतं आवज्जति, आवजित्वा आणेन "आकासो होतू"ति, पटि. म. 378; - ज्जेन्तो वर्त. कृ., पु०, प्र. वि., ए. व. अनुचिन्तन कर रहा - सक्को आवज्जेन्तो तं कारणं ञत्वा, जा. अट्ठ. 5.146; - न्तं द्वि. वि., ए. व. तमेव रूपारम्मणं आवज्जन्तं, अभि. ध. स. 25; न्तेन तृ. वि., ए. व. - ताव आवज्जन्तेन पुरिमभवे चुतिक्खणे पवत्तितनामरूपं आवज्जितब्बं, विसुद्धि० 2.40; ज्जतो / ज्जन्तस्सष. वि., ए. व. - ये आवज्जतो मनसिकरोतो चित्तं विनीवरणं होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.187; तस्सेवं पलितपातुभावं आवज्जेन्तस्स, जा. अट्ट. 1.143; - माना स्त्री. प्र. वि., ए. व. - नदी देवता आवज्जमाना तं कारणं ञत्वा, जा० अट्ठ. 5.3; - / जाहि अनु, म० पु०, ए. व. - उप्पज्जे ते सचे कोधो, आवज्ज ककचूपमं, थेरगा 445; "पुब्बे तया परिचितकम्मट्ठानं पुन आवज्जेहि, ध. प. अट्ठ. 2.309; ज्जेय्य विधि., प्र. पु. ए. व. - उम्मीलित्वा निमीलित्वा, आवज्जेय्य पुनप्पुन, अभि. अव. 859, ज्जेय्यासि म पु. ए. व. - आवज्जेय्यासि मन्ति, जा. अट्ठ. 5.149; ज्जिं अद्य, उ० पु०, ए. व. - अहं तत्थआवज्जिं बोधिमुत्तमं अप. 1.180; - ज्जिस्सति भवि., प्र. पु०, ए. - - 221 For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व. - तं निमित्तं आवज्जिस्सति, म. नि. अट्ठ (मू०प०) - ज्जिस्समि उ० पु०, ए. व. 1(1).152; पुन इमं धम्मं आवज्जिस्सामि वा समापज्जिस्सामि, म. नि. अट्ठ. (मू०प.) 1 ( 2 ). 76: - ज्जितुं निमि. कृ. झानं आवज्जितुं ... विसुद्धि. महाटी 1.267; - ज्जित्वा पू. का. कृ. बुद्ध गुणे आवज्जेत्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.151. आवज्जन नपुं,, आ + √वज्ज से व्यु० क्रि० ना० [आवर्जन, भिन्नार्थक ], शा. अ., किसी (आलम्बन) की ओर मुड़ जाना, किसी के ग्रहण में प्रवृत्त हो जाना, खिंचाव, आकर्षण; विशेष अर्थ 1. ज्ञान की प्रक्रिया में चित्तसन्तति अथवा भवङ्गसन्तति के सामने अभिनव विषय उपस्थित होने पर पूर्वकाल में गृहीत आलम्बन से बिलग होकर नवीन आलम्बन की ओर चित्त की प्रवृत्ति अथवा झुकाव, 2. एक भवङ्गचित्त नं' प्र. वि., ए. व. - चित्तस्स आवट्टनाति आदीनि सब्बानिपि आवज्जनस्सेव वेवचनानेव, आवज्जनहि भवङ्गचित्तं आवट्टेतीति चित्तस्स आवट्टना... आभुजतीति आभोगो, भवङ्गारम्मणतो अञ्ञ आरम्मणं समन्नाहरतीति समन्नाहारो - तदेवारम्मणं अत्तानं अनुबन्धित्वा उप्पज्जमाने मनसि करोतीति मनसिकारो, विभ. अट्ठ. 4.472; आवज्जनन्ति "किं नामेत"न्ति वदन्तं विय आभोगं कुरुमान, अभि. ध. वि० टी० 132; नं द्वि. वि., ए. व. चक्खुद्वारिक आवज्जनं भवङ्गं न आवट्टेति, विभ. अट्ठ. 384 ; नेन तृ. वि., ए. व. - विना आवज्जनेनापि होति जायतु मानसं अभि. अव. 466; स्सष. वि., ए. व. - अधिद्वानस्स आवज्जनस्स च अन्तरे द्वे भवङ्गचित्तानि वत्तन्ति, पटि० म० अट्ठ 2.10; यक्खं पठमावज्जनस्सेव आपाथ आगतं दिवा, स. नि. अट्ठ. 1.266; ने सप्त. वि., ए. व. - आवज्जने पटिच्छने, अभि. अव 155; आवज्जने निरुद्धस्मिं, अभि, अव 1083; आवज्जने समुप्पन्ने, अभि. अव. 494; - नानि प्र० वि०, ब० व. द्वे आवज्जनानि, पटि. म. अट्ठ. 1.241 - नादि त्रि, आवज्जन इत्यादि दीनं नपुं., ष, वि०, ब० व.. - आवज्जनादीनं अञ्ञतरसमये संवरो वा असंवरो वा अत्थि, ध. स. अट्ठ 421; नादिविञ्ञाण नपुं०, आवज्जन आदि चित्त - णानि प्र० वि०, ब० व॰ - आवज्जनादिविञ्ञाणानि, स. नि. अ. 1.159; स. प. के अन्त., - झानेसु आवज्जनसमापज्जन अधिद्वान युत्तप्पयुत्ता, ध. प. अट्ठ. 2.130; - तदारम्मणक्खण नपुं, तत्पु० स०, आवज्जन एवं तदारम्मण नामक वीथिचित्तों का क्षण - णे सप्त. वि., ए. व. - - आवज्जन - - - Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवज्जनकिच्च 222 आवज्जनता आवज्जनतदारम्मणक्खणे अब्याकतोति वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. 2.98%; स. उ. प. के रूप में, अन., असुभा., उपेक्खा ., उप्पन्ना., आनन्तर., एका., कसिणा., चक्खुद्वारिका., जवना., झानङ्गा, समत्थता., नाना., पञ्चद्वारा., पटिसन्धि., पठमा., भवङ्गा., मनोद्वारा., मनोद्वारिका., मनोधाता., वोट्ठपना. ... किच्च०, वोट्ठपना., सहा., सा. के अन्त. द्रष्ट... आवज्जनकिच्च नपुं, तत्पु. स., आलम्बन की ओर चित्त के मुड़ जाने की क्रिया, आलम्बन पर ध्यान देने की चित्त क्रिया - च्चं द्वि. वि., ए. व. - किरियमनोधातु आवज्जनकिच्चं साधयमाना उप्पज्जित्वा निरुज्झति, विसुद्धि. 1.21; भवङ्ग विच्छिन्दमानाविय आवज्जनकिच्चं साधयमाना, विसुद्धि. 2.85. आवज्जनकिरियाचित्त नपुं., पञ्चद्वारावज्जन-वीथि एवं मनोद्वारावज्जन-वीथि की प्रक्रिया में उस क्षण का चित्त, जब चित्त विषय की ओर मुड़ने अथवा आवर्जित होने की क्रियामात्र करता है, मनसिकार मात्र करने वाला वीथिचित्त, 2 प्रकार के अहेतुक क्रियाचित्त – तं प्र. वि., ए. व. - आवज्जनक्रियाचित्तं समनक्कारोति सञ्जितं अभि. अव. 510.. आवज्जनकिरियाब्याकत त्रि., उपेक्षासहगत पञ्चद्वारावज्जनचित्त तथा मनोद्वारावज्जनचित्त, जो 3 प्रकार के अहेतुक क्रिया के अन्त., परिगणित है, तथा जिसका अकुशल अथवा कुशल विपाक नहीं होता है - दस्सनत्थाय आवज्जनकिरियाब्याकता विआणचरिया रूपेसु. पटि. म. 73; आवज्जनकिरियाब्याकताति भवङ्गसन्तानतो अपनेत्वा रूपारम्मणे चित्तसन्तानं आवज्जेति-नामेतीति आवज्जनं विपाकाभावतो करणमत्तन्ति किरिया, कुसलाकुसलवसेन न ब्याकताति अब्याकता, पटि. म. अट्ठ 1.240; आवज्जनकिरियाब्याकताति मनोद्वारावज्जनचित्तं, पटि. म. अट्ठ. 1.241. आवज्जनक्खण नपुं.. तत्पु. स. [आवर्जनक्षण], विषय या आलम्बन की ओर चित्त के प्रवृत्त होने का क्षण, आलम्बन के मनसिकार करने का क्षण, चित्त-वीथि पूरा होने में लगने वाले 16 चित्त क्षणों में से 1 क्षण –णे सप्त. वि., ए. व. - आवज्जनक्खणे किरियमनोधातु, स. नि. अट्ठ. 2.239; स. प. के अन्त., - द्वीहि अन्तहि मुत्तो आवज्जनतदारम्मणक्खणे अव्याकतोति वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. 2.98. आवज्जनचित्त नपुं., पञ्चद्वारावज्जन-वीथि का वह चित्त, जो पूर्वकाल की चित्त-सन्तति का विच्छेद होने के उपरान्त इन्द्रियों के आपाथ में आपतित अभिनव आलम्बन की ओर प्रवृत्त होता है, मनोद्वारावज्जन-वीथि में मनोधात् विषयों के ज्ञान की प्रक्रिया की वीथि का प्रथम मन्द चित्त, मनसिकार, 89 प्रकार के चित्तों में 2 प्रकार के चित्त - त्तं प्र. वि., ए. व. - मनोद्वारे “मनोधातू ति आवज्जनचित्तं गहितं. स. नि. अट्ठ. 3.40; - स्स ष. वि., ए. व. - तं निरुद्धम्पि आवज्जनचित्तस्स पच्चयो भवितुं असमत्थं मन्दथामगतमेव पवत्तमानम्पि परिभिन्नं नाम होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).129. आवज्जनजवन नपुं.. द्व. स., वीथि चित्तों में आवज्जनचित्त एवं जवनचित्त, मनोविज्ञान धातु, विषयकी ओर प्रवृत्त चित्त एवं विषयों का निश्चयात्मक ज्ञान करने वाला चित्त - येन च चित्तेन आवज्जति येन च जानाति, तेसं द्विन्नं सहठानाभावतो आवज्जनजवनानञ्च अनिट्ठट्ठाने ... पटिक्खित्त, विसुद्धि. 2.60; तुल., मनोविज्ञआणन्ति आवज्जन वा जवनं वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).391. आवज्जनट्ठ पु., तत्पु. स., आवर्जन का अर्थ, चित्त के आलम्बन में प्रवृत्त होने का तात्पर्य - @ो प्र. वि., ए. व. -- एकत्ते आवज्जनट्ठो अभिज्ञेय्यो, पटि. म. 16; चित्तस्स एकग्गट्ठो अभिज्ञेय्यो, आवज्जनट्ठो अभि य्यो, पटि. म. 16; द्विन्नं चित्तानं आवज्जनढो, पटि. म. अट्ठ. 1.85; - टुं वि. वि., ए. व. - आवज्जनहुँ बुज्झन्तीति, बोज्झङ्गा, पटि. म. 296; - आवज्जनक नपुं., आवज्जन से व्यु., स. उ. प. में ही प्रयुक्त, सहा.- त्रि., आवज्जनचित्त-सहित - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सहावज्जनक जवनं निब्बत्तति, विभ. अट्ठ. 75; सा.- त्रि., उपरिवत् - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सावज्जनकं भवङ्गचित्तं, स. नि. अट्ठ. 1.159. आवज्जनट्ठान नपुं. तत्पु. स., विषय की ओर चित्त के प्रवृत्त होने का स्थान – ने सप्त. वि., ए. व. - ठत्वा आवज्जनहाने, तमनावज्जनम्पि च, अभि. अव. 1331; तं गोत्रभुचित्तं अनावज्जनम्पि मग्गस्स आवज्जनहाने ठत्वा, अभि. अव. पु. टी. 113; पञ्चन्नं विचआणानं आवज्जनहाने ठत्वा, विभ. अट्ठ. 382. आवज्जनता स्त्री., आवज्जन का भाव., विषय की ओर चित्त का मुड़ जाना अथवा उसके ग्रहण में प्रवृत्त हो जाना, स. उ. प. के रूप में; अना.- निषे., विषय की ओर चित्त का नहीं मुडना, चित्त का विमखीभाव-य त. वि.. ए. व. - कस्मा ? अनावज्जनताय, स. नि. अट्ठ 1.158; For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवज्जनपटिवद्ध 223 आवज्जनवसिता अनावज्जनताय मुहुत्तमतके काले सति नप्पहोति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.63; निरा.- उपरिवत् - निरावज्जनताय पमादेन निसिन्नं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.63. आवज्जनपटिवद्ध त्रि, तत्पु. स., मानसिक अनुचिन्ता पर निर्भर, आवज्जन पर पूरी तरह से आश्रित - द्धा पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे धम्मा बुद्धस्स भगवतो आवज्जनपटिबद्धा ...., महानि. 131, 263; 339; आवज्जनप्पटिबद्धाति मनोद्वारावज्जनायत्ता आवज्जितानन्तरमेव जानातीति अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 2.237; - लु' नपुं., प्र. वि., ए. व. - आवज्जनपटिबद्ध भगवतो सब्ब तत्राणं, मि. प. 112; 115; 116; एतकम्हि थेरस्स धुवसेवनं आवज्जनपटिबद्ध, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).152; आवज्जनपटिबद्धं खीणासवानं जाननं दी. नि. अट्ठ. 2.170; - द्धं द्वि. वि., ए. व. - आवज्जनपटिबद्धं कम्मट्टानं कत्वा, विसुद्धि. 1.115; - द्धेन तृ. वि., ए. व. - आवज्जनपटिबद्धन सब्ब तआणेन निच्चं पज्जलितग्गि, स. नि. अट्ठ. 1.208. आवज्जनपमाण नपुं.. तत्पु. स., चित्तवीथि में आवज्जनचित्त की विद्यमानता की समयावधि, विषय की ओर चित्त की प्रवृत्ति की समयसीमा, एक चित्तक्षणमात्र की समयावधि - णं प्र. वि., ए. व. - तस्मिं विज्ञआते विजातमत्तन्ति आवज्जनपमाणं. स. नि. अट्ठ. 3.29; - णे सप्त. वि., ए. व. - यथा आवज्जनं न रज्जति, न दुस्सति, न मुव्हति एवं रज्जनादिवसेन च उप्पज्जितुं अदत्वा आवज्जनप्पमाणेनेव चित्तं ठपेस्सामी ति, उदा. अट्ठ. 72. आवज्जनपरियाय पु., आवज्जन का प्रकार, विषय की ओर चित्त की प्रवृत्ति की प्रकृति – यो प्र. वि., ए. व. - आवज्जनपरियायो नाम ल« वट्टति, दुतियततियचित्तवारे एव जानिस्सती ति, दी. नि. अट्ठ. 2.20. आवज्जनमन नपुं.7 प्रकार के वीथिचित्तों में से विषय के ग्रहण अथवा विषय को मन में ले आने के काम में लगने वाला आवज्जन-चित्त, जो 3 अहेतुक क्रिया चित्तों में से 2 के रूप में स्वीकृत है- नो प्र. वि, ए. व. - यदा परस्स चित्तव्हि आतुमावज्जतिद्धिमा आवज्जनमनो तस्स, अभि. अव. 1135. आवज्जनमनसिकार पु., विषय अथवा आलम्बन की ओर पूर्ण रूप से मुड़ा हुआ मन, पूर्ण ध्यान, विषय पर मन का पूरा पूरा ध्यान - रो प्र. वि., ए. व. - सब्बत्थ मनसिकारो आवज्जनमनसिकारो, विसुद्धि. महाटी. 2.168. नोधात् स्त्री., मनोधात के रूप में आवज्जनचित्त, धर्मों के 18 धातुओं वाली विभाजन-योजना में मनोधात नामक धातु का एक प्रभेद, वीथिचित्त की योजना की दृष्टि से मनोधातु का वह स्तर जिसमें मन आलम्बन के प्रति सचेत होता है - पञ्चन्नं पन नेसं आवज्जनमनोधातु अनन्तरसमनन्तर ... होति, विसुद्धि.2.116. आवज्जनमनोविज्ञआणधातु स्त्री., धर्मों के 18 धातुओं वाले वर्गीकरण में मनोविज्ञान धातु का वह प्रभेद, जिसमें आलम्बन के प्रति अत्यन्त प्रारम्भिक रूप में मानसिक संचेतना या मनोविज्ञान उत्पन्न होता है - या ष. वि., ए. व. - मनोद्वारे पन भवङ्गमनोविआणधातु आवज्जनमनोविज्ञाण धातुया, विसुद्धि. 2.116. आवज्जनमन्त पु., [आवर्जनमन्त्र], एक विशेष प्रकार का मन्त्र, वशीकरण मन्त्र, दूसरे को अपनी ओर मोड़ देने वाला मन्त्र - न्तो प्र. वि., ए. व. - पथवीजयमन्तोति आवट्टनमन्तो वुच्चति, जा. अट्ठ. 2.204; पाठा. आवट्टनमन्तो, आवज्जनरस त्रि., ब. स., विषय की ओर उन्मुख होने अथवा विषय का मानसिक संप्रत्यय करने का काम करने वाला/वाली, स. उ. प. में, बोट्ठबना.पञ्चद्वारावज्जनवीथि में व्यवस्थापन (निश्चयात्मक ज्ञान) एवं मनोद्वारावज्जन-वीथि में आवर्जन (विषय का मानसिक संप्रत्यय) का काम करने वाला/वाली - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - किच्चवसेन पञ्चद्वारमनोद्वारे सु वोहब्बनावज्जनरसा, विसुद्धि. 2.84; वोहब्बनावज्जनरसाति पञ्चद्वारे सन्तीरणेन गहितारम्मणं ववत्थपेन्ती विय पवत्तनतो वोहब्बनरसा, मनोद्वारे पन वुत्तनयेन आवज्जनरसा, विसुद्धि. महाटी. 2.121. आवज्जनवस पु., तत्पु. स., विषय की ओर उन्मुख होने अथवा विषय की मानसिक संचेतना करने का बल, ध्यान के अङ्गों की ओर चित्त के निरन्तर उन्मुख बने रहने का बल, चित्त को उपयुक्त आलम्बन की ओर मोड़ देने का बल - सो प्र. वि., ए. व. - आवज्जनाय वसो आवज्जनवसो, सो अस्स अत्थीति आवज्जनवसी, पटि. म. अट्ठ. 1.258; - सेन तृ. वि., ए. व. - आवज्जनवसेन चक्खुविज्ञाणस्स पुरेचारी हुत्वा, अभि. अव. 14; स. उ. प. के रूप में, कसिना.- कृत्स्नों (ध्यान के आलम्बनों) की मानसिक संचेतना करने का बल – सेन त. वि., ए. व. - कसिनावज्जनवसेन आवज्जनवसिता वुत्ता होति, पटि. म. अट्ठ. 1.197. आवज्जनवसिता स्त्री., 5 प्रकार की क्षमताओं अथवा आभ्यन्तरिक शक्तियों में प्रथम, ध्यान के 5 अङ्गों में से चित्त For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवज्जनवसी 224 आवज्जित को लगातार उन्मुख बनाए रखने की क्षमता, प्र. वि., ए. व. - पञ्चसु झानङ्गेसु एकेकारम्मणे उप्पन्नावज्जनानन्तरं चतुपञ्चजवनकतिपयभवङ्गतो परं अगन्त्वा अपरापरं झानगावज्जनसमत्थता आवज्जनवसिता नाम, अभि. ध. वि. टी. 229; एतेन कसिनावज्जनवसेन आवज्जनवसिता वुता होति, पटि. म. अट्ठ. 1.197; - ताय तृ. वि., ए. व. - पच्चवेक्खणवसिता पन आवज्जनवसिताय एव सिद्धा, अभि. ध. वि. टी. 229. आवज्जनवसी स्त्री., तत्पु. स., चित्त को यथेच्छ एवं उपयुक्त ध्यानाङ्ग अथवा आलम्बन की ओर मोड़ देने का बल, 5 प्रकार के ध्यानोपयोगी बलो में से प्रथम बल, प्र. वि., ए. व. - आवज्जनाय वसो आवज्जनवसो, सो अस्स अत्थीति आवज्जनवसी, पटि. म. अट्ट. 1.258; वसीति पञ्च वसियो, आवज्जनवसी, समापज्जनवसी, अधिद्वानवसी, वुट्ठानवसी, पच्चवेक्षणावसी, पठम झानं यत्थिच्छकं यदिच्छकं यावतिच्छकं आवज्जति, आवज्जनाय दन्धायितत्तं नत्थीति-आवज्जनवसी, पटि. म. 92; विसुद्धि. 2.344; पठमज्झानतो बुद्धाय वितक्कं आवज्जयतो भवङ्ग उपच्छिन्दित्वा पवत्तावज्जनानन्तरं वितक्कारम्मणानेव चत्तारि पञ्च वा जवनानि जवन्ति, ततो द्वे भवङ्गानि, ततो पुन विचारारम्मणं आवज्जनं वुत्तनयेनेव जवनानीति एवं पञ्चसु झानङ्गेसु यदा निरन्तरं चित्तं पेसेतुं सक्कोति अथरस आवज्जनवसी सिद्धाव होति, पटि. म. अट्ठ. 1.258. आवज्जनविकलमत्तक त्रि., ब. स., वह, जिसके अन्दर केवल आवर्जन (आलम्बन का मानसिक संप्रत्यय करने) की क्षमता न हो, केवल आवर्जनमात्र की विकलता या न्यूनता वाला, मनसिकार-रहित - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. --- तथागतस्स आवज्जनविकलमत्तकं सब्बञ्जतञाणं मि. प. 116; - केन त. वि., ए. व. - आवज्जनविकलमत्तकेन न तावता बुद्धा भगवन्तो असब्बञ्जनो नाम होन्ती'ति. मि. प. 116. आवज्जनसमत्थता स्त्री., भाव., ध्यानाङ्गों की ओर मन को मोड़ देने का सामर्थ्य, अभीप्सित आलम्बन के प्रति मन को सचेत कर देने की क्षमता, प्र. वि., ए. व. - आवज्जनावलञ्चेवाति .... आवज्जनसमत्थता, विसुद्धि. 2.278... आवज्जनसमय पु., विषय या अभीप्सित आलम्बन में मन को लगा देने का समय - ये सप्त. वि., ए. व. - सचे आवज्जनसमये जानाति... आवज्जनसमये आते एव सीस एन्ति, पारा. अट्ट, 1.197. आवज्जना/आवट्टना स्त्री., आ + Vवज्ज से व्यु., क्रि. ना., लिङ्ग विपर्यय, नपुं. के स्थान पर स्त्री॰ [आवर्जन], आलम्बन के प्रति चित्त का सचेत होना, विषय की ओर मन को मोड़ देना, आलम्बन की ओर ध्यान ले जाना, प्र. वि., ए. व. - चित्तस्स आवट्टना अनावट्टना आभोगो, विभ. 435; कुसलेन चित्तेन... अस्थि तस्स आवट्टना, कथा. 314; - य ष. वि., ए. व. - आवज्जनाय समुदयोति मनोद्वारावज्जनचित्तस्स समुदयो, पटि. म. अट्ठ. 2.122. आवज्जनानन्तर त्रि., आवज्जन-चित्त की उत्पत्ति के उपरान्त उदित या उत्पन्न (चक्षुविज्ञान), पञ्चद्वारावज्जनचित्त की उत्पत्ति के बाद वाला – रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - मनोद्वारावज्जनानन्तरं उप्पज्जनकचित्तं नाम नत्थीति दस्सनत्थं एवकारग्गहणं विसुद्धि. महाटी. 2.124; - रं? नपुं. द्वि. वि., ए. व. - आवज्जनानन्तरं पन चक्खुद्वारे ताव दस्सनकिच्चं साधयमानं चक्खुपसादवत्थुक चक्खुविज्ञआणं, विसुद्धि. 2.85; आवज्जनानन्तरन्ति पञ्चद्वारावज्जनानन्तरं विसुद्धि. महाटी. 2.124. आवज्जनाबल नपुं, तत्पु. स., एक आलम्बन का अंग हो जाने पर दूसरे नए आलम्बन की ओर मुड़ जाने का बल - लं प्र. वि., ए. व. - आवज्जना बलञ्चेव पटिसङ्घाविपस्सना, पटि. म. 51; विसुद्धि. 2.276%; आवज्जनाबलञ्चेवाति रूपस्स भङ्ग दिस्वा पुन भङ्गारम्मणस्स चित्तस्स भङ्गदस्सनत्थं अनन्तरमेव आवज्जनसमत्थता, विसुद्धि. 2.278. आवज्जनुपेक्खा स्त्री., मनोद्वारावज्जन-चित्त की वह चेतना जो अत्यन्त दृढ़ उपेक्षाभाव के साथ आलम्बन के ग्रहण में प्रवृत्त होती है, प्र. वि., ए. व. - उपेक्खाति विपस्सनुपेक्खा चे व आवज्जनुपेक्खा च, विसु द्धि. 2.271; मनोद्वारावज्जनचित्तसम्पयुत्ता चेतना आवज्जने अज्झुपेक्खनवसेन पवत्तिया आवज्जनुपेक्खा ति वुत्ता, विसुद्धि. महाटी. 2.405. आवज्जित त्रि., आ + Vवज्ज का भू, क. कृ. [आवर्जित], वह, जिसकी ओर चित्त को मोड़ दिया गया है, अनुचिन्तित, विचारित, चिन्तन का विषय बना दिया गया, चित्त के सम्पर्क में आया हुआ - तं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - एवमेवं पादकज्झाना वुट्ठाय पुब्बे आवज्जितं अनावज्जित्वा पटिसन्धिमेव आवज्जन्तो ..., विसुद्धि. 2.41; - ते नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - चित्ते आवज्जिते पन, अभि. अव. 1130; एवमावज्जिते तस्मि, अभि. अव. 1081; वरससतेपि For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवज्जेति 225 आवट ... कुसलं आवज्जेय्य, आवज्जिते, मि. प. 274; - तानं ष. वि., ब. व. - महण्णवानं सब्बेसं सहेव खल भूमिया, बलादावज्जितानं व फलोघो आगमिस्सति, सद्धम्मो. 433; - त्त नपुं., आवज्जित का भाव., अनुचिन्तन अथवा विचार का विषय होना, चिन्तन का संप्रत्यय हो जाना - त्ता प. वि., ए. व. - आवज्जितत्ता आरम्मणूपट्टानकुसलो, पटि. म. 214; तेसं समापत्तितो उट्ठाय आवज्जितत्ता एतदहोसि, स. नि. अट्ठ. 1.68; उप्पादं अनावज्जितत्ता अनुप्पादं आवज्जितत्ता सतिसम्बोज्झङ्गो तिट्ठति, स. नि. अट्ठ. 3.181; पटि. म. 302; स. उ. प. में, अना.- निषे०, चेतना का विषयीभूत न होना मनसिकार की पकड़ से बाहर होना, मन द्वारा ध्यान न दिए जाने की स्थिति में रहना - उप्पादं अनावज्जितत्ता, ... अनिमित्तं सङ्घारे अनावज्जितत्ता, स. नि. अट्ठ. 3.181; स. पू. प. में, -- हदय त्रि., ब. स. [आवर्जितहृदय], अन्यत्र मुड़ चुके हृदय वाला, अन्य धार्मिक सम्प्रदाय में दीक्षित हो चुका व्यक्ति - यानं पु., ष. वि., ब. व. -- आवज्जितहदयानं पुरथिमदिसं ओलोकयमानानं तेसं मनुस्सानं अञ्जतरो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.159. आवज्जेति आ + Vवज्ज का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. [आवर्जयति, भिन्नार्थक], 1. किसी के विषय में सोचता है, किसी विषय पर अनुचिन्तन करता है, अन्वीक्षण करता है, चित्त को प्रवृत्त करता है, चित्त को (किसी तक) ले जाता है या पहुंचा देता है -- आवज्जेति नामेतीति आवज्जनं, पटि. म. अट्ठ 1.240; इमं धम्मदेसनं सुट्ट सुतवा पुनप्पुन आवज्जेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).101; सत्थार। आवज्जेति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).298; - न्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. -- तं धम्म आवज्जेन्तो मनसिकरोन्तोति अत्थो, ध. प. अट्ठ. 2.336; सीलं आवज्जेन्तो निपज्जि, चरिया. अट्ठ. 100; आवज्जेन्तो दिस्वा, ध. प. अट्ठ. 1.157; आवजेन्तो सब्बं ञत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).280; पुञ्जसम्पतिं आवज्जेन्तो निसीदति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.164; - न्तेन पु., तृ. वि., ए. व. - अयं उत्तरारणी अयं अधरारणीति आवजेन्तेन अञविहितकेन भवितब्ब, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).404; - ज्जयतो/न्तस्स/ ज्जन्तस्स पु, ष. वि., ए. व. - मनसिकरोतोति आवज्जयतो समन्नाहरन्तस्स, .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).73; तस्स हि आरोगोम्हीति आवज्जयतो तभयं होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).213; कथं नु खो ति आवजेन्तस्स भगवतो आणं उप्पज्जि, उदा. अट्ठ. 143; यदा पन निमीलेत्वा आवज्जन्तस्स योगिनो, अभि. अव. 860; उप्पाद आवज्जन्तस्स उप्पादो पाकटो होति, ठानं आवज्जन्तस्स ठानं.... भेद आवज्जन्तस्स भेदो..., म. नि. अट्ट, (उप.प.) 3.61; - न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - (भिक्खु) बुद्धगुणे आवज्जेन्ता, मि. प. 3; - थ अनु., म. पु.. ब. व. - तुम्हे सीलानि आवज्जेथ, जा. अट्ठ. 1.198; सीलमेव आवज्जेथा ति, स. नि. अट्ठ. 1.51; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - राजा पल्लङ्केन निसिन्नो अत्तनो दानं आवज्जेसि, जा. अट्ठ. 4.366; दिवाविहारं निसिन्नो अत्तनो गुणे आवज्जेसि, उदा. अट्ठ. 217; - त्वा पू. का. कृ. - सूरियं ओलोकेन्तो बुद्धगुणे आवजेत्वा, जा. अट्ट. 2.28; पारमियो आवज्जेत्वा मेत्ताभावनं पुरेचारिकं कत्वा, जा. अट्ठ. 1.176; सचे पन थेरो अत्तनो सील आवजेत्वा, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(2). 309; 2. पलट देता है, उलट देता है, अस्त-व्यस्त कर देता है, विपर्यस्त कर देता है, गड़बड़ कर देता है - सि अद्य., प्र. पू., ए. व. - "निपजिस्सामीति कायं आवज्जेसि. पारा. अट्ठ. 1.10; दी. नि. अट्ठ. 1.10. आवट/आवुत त्रि., आ + Vवु का भू. क. कृ. [आवृत], 1. आच्छादित, ढका हुआ, चारों ओर से घिरा हुआ, पर्दे अथवा आवरण से युक्त, सम्मिलित अथवा अन्तर्भूत कर लिया गया, ग्रस्त, अभिभूत - तो पु., प्र. वि., ए. व. - कलहाभिरतो भिक्खु, मोहधम्मेन आवुतो, सु. नि. 278; पञ्चहि नीवरणेहि... ओपमओ सुभगवणिको, आवुतो निवुतो ओफुटो परियोनद्धो, म. नि. 2.426; - टो उपरिवत् - एत्थायं जनो आवटो निवुतो ओतो पिहितो परियोनद्धो, मि. प. 159; - टे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - आवटे चित्ते धम्माभिसमयो न होती ति, मि. प. 238; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - नीवरणेहि आवुता निवुता ओवुता पिहिता ..., महानि. 182; - टा उपरिवत - रागरत्ता न दक्खन्ति, तमो खन्धेन आवुटाति, दी. नि. 2.28; म. नि. 1.227; 2. पिहित, बन्द कर दिया गया, बाधित, प्रत्याख्यात, अस्वीकृ त, निवारित, हटा दिया गया – टं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - आवट द्वारं निगण्ठानं निगण्ठीनं, अनावट द्वार भगवतो, म. नि. 2.49, 51; केनचि आवट होति पटिच्छन्नं, पटि. म. 378; विसुद्धि. 2.18; आवटयेव तेन आवरणेन पिहितं, पटि. म. अट्ठ. 2.250; -- टा पु.. प्र. वि., ब. व. - "आवटा मे, आवुसो कामा ति, पारा. 139; एत्थ च आवटाति आवारिता निवारिता, पटिक्खित्ताति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.86; - टं For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवट्ट 226 आवट्टति द्वि. वि., ए. व. - "अपिनुस्स इत्थीसु आवट वा अस्स पदक्खिणतो आवट्टा तिणलता, जा. अट्ठ. 4.208; अनावट वा ति, दी. नि. 1.84; स. उ. प. के रूप में, अना., तिणगुम्बलता दक्षिणावट्टा, दी. नि. अट्ठ. 1.210; स. उ. निद्दा., ब्या., भवा. के अन्त., द्रष्ट; स. पू. प. के रूप में, प. के रूप में, अञतरा., अट्ठतिसङ्गुला., एकाबद्धा., कामा., - त्त नपुं.. भाव. [आवृतत्व], आच्छादित अथवा घिरा हुआ किलेसा., कुण्डला., केसा., गङ्गा., चेतियपब्बता., दक्खिणा., होना, बन्द होना, बाधित या रुकावट भरा होना, स. उ. प. दक्खिणा., गति., ता., द्वा०, द्वादसा., द्विरा०, नन्दिया., मे, अना.- अनावृत अथवा खुला हुआ होना, ढका हुआ नागा.पञ्चयोजना., पदक्खिणा., भूता., मणिकुण्डला., अथवा आच्छादित होना, खुलापन - त्ता प. वि., ए. व... वण्णा., यक्खा., योजनसता., वलिया., वामा., वारिया., - तदेव अनावटत्ता विवट, पटि. म. अट्ठ. 2.250. सा. के अन्त. द्रष्ट... आवट्ट' त्रि., आ + Vवट्ट/वत्त का भू. क. कृ. [आवृत्त], आवट्ट' पु., नेत्ति. के 16 हारों में से 7वें हार (विभाग, शा. अ., चक्कर में डाल दिया गया, गोल घेरा या अध्याय) का शीर्षक, नेत्ति. 35-41; - Zो प्र. वि., ए. व. परिधि के रूप में परिवर्तित कर दिया गया, ला. अ.. - तत्थ कतम आवट्टो हारो, नेत्ति. 35; अयं वुच्चते आवट्टो बेचैन कर दिया गया, भ्रम-ग्रस्त बना दिया गया, भौचक्का हारो, पेटको. 234; कतमे सोळस हारा... चतुब्यूहो आवट्टो कर दिया, बहका दिया गया, गुमराह कर दिया गया-टो विभत्ति, नेत्ति. 2; पेटको. 167; एकम्हि पदवाने परियेसति पु., प्र. वि., ए. व. - आवट्टोसि खो त्वं, गहपति समणेन सेसक पदहानं आवट्टति पटिपक्खे आवट्टो नाम सो हारो, गोतमेन, आवट्टनिया मायाया ति, म. नि. 2.52; "आवट्टो खो नेत्ति. 4; पेटको. 233; - स्स ष. वि., ए. व. - आवट्टस्स ते भन्ते उपालि गहपति समणेन गोतमने आवट्टनिया ___ हारस्स अयं भूमि सति, पेटको. 234. मायाया ति, म. नि. 2.50; वेओ ब्राह्मणो मारावट्टनेन आवट्टक त्रि., आवट्ट' से व्य., चक्कर में डाल दिया गया, आवट्टो, ध, प. अट्ठ. 1.333; स. उ. प. के रूप में, अना. बहला दिया गया, पथभ्रष्ट कर दिया गया, केवल स. उ. के अन्त. द्रष्ट.. प. के रूप में, पुनरा., कुण्डला., दक्खिणा., वङ्का, गल्ला. आवट्ट/आवत्त पु.. [आवर्त]. 1. जलावर्त, भंवर - हो प्र. के अन्त. द्रष्ट... वि., ए. व. - आवट्टो सलिलब्भमो, अभि. प. 660; - त्तेन आवट्टकत त्रि., गोल कर दिया गया, गोल छिद्र जैसा बना तृ. वि., ए. व. - नावत्तेन सुवानयोति न कोधावत्तेन दिया गया - ते नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - अङ्गजातं सुआनयो, कोधवसे वत्तेतुं न सुकरोम्हीति वदति, स. नि. पवेसेत्वा, तमावट्टकते मुखे, विन. वि. 28. अट्ठ. 1.309; -É द्वि. वि., ए. व. - मज्झे गङ्गाय आवटें आवट्टगङ्गा स्त्री., 1. एक नदी का नाम, प्र. वि., ए. व. - 1. नि. अट्ठ. 1(2).164;-ट्टे सप्त. वि., ए. व. सा तिक्खत्तुं अनोतत्तं पदक्खिणं कत्वा गतहाने "आवडगङ्गाति - इमं यमुनाय आवटे खिपितं वट्टति, जा. अट्ठ. 7.5; वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 2.146; म. नि. अट्ट (म.प.) 2.27; एकस्मिं आवट्टे निमुज्जित्वा, जा. अट्ठ. 1.79; स. प. के 2. एक सिंचाई-प्रणाली या नहर का नाम – व्हं त्रि., ब. अन्तः, - गङ्गाय आवट्टऊमिवेगजनितं हलाहलसई सुत्वा, स., द्वि. वि., ए. व. - ततो आवट्टगङ्गव्हं निग्गतं मि. प. 127; उदकं... पासाण सक्खर ... आवट्ट गग्गलक दक्खिणामुखं चू. वं. 79.50. .... परियोत्थरति, मि. प. 189; 2. गोल घेरा, परिधि, घेरा, आवट्टग्गाह पु., शा. अ., भंवर की पकड़, ला. अ., पांच दायरा - तो प. वि., ए. व. - अविदूरे आवट्टतो कामगुणों की दृढ़ पकड़ अथवा उनमें प्रगाढ़ लिप्तता - द्वादसयोजनो, जा. अट्ठ. 5.332; आवट्टतो छत्तिसयोजनाय हो प्र. वि., ए. व. - सचे सो भिक्खवे दारुक्खन्धो न परिसाय परिखतो, ध, प. अट्ठ. 2.121; -ट्टे सप्त. वि., ए. ओरिमं तीरं उपगच्छति ... न आवट्टग्गाहो गहेस्सति, स. व. - इत्थीनहि... गभासयसञ्जिते ततिये आवत्ते कतिपया नि. 2(2).182; ... ओरमिं तीर, किं पारिमं तीरं ... को लोहितपीळका सण्ठहित्वा अग्गहितपुप्फा एव भिज्जन्ति, आवट्टग्गाहो, ... ति, स. नि. 2(2).182; तव्हतं दी. नि. टी. 3.35; तियोजनसतायामे वित्थारतो अडतेय्यसते "आवडग्गाहोति खो, भिक्खवे, पञ्चन्नेतं कामगुणानं आवहतो नवयोजनसतप्पमाणे मज्झिमपदेसट्टाने उप्पज्जति, अधिवचनान्ति, स. नि. अट्ठ. 3.50. ध. प. अट्ठ. 2.143; 3. किसी ओर मुड़ा हुआ, घुमावदार, आवट्टति/आवत्तति आ + Vवट्ट/वत्त का वर्त, प्र. पु.. लगातार घूम रहा - हा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ए. व. [आवर्तते], शा. अ., मुड़कर या पलट कर वापस For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवट्टन 227 आवट्टभय जाता है, मुड़ कर समीप जाता है, पीछे की ओर मुड़कर पुनः आ जाता है, इधर उधर चक्कर काटता है या भटकता है, ला. अ., चित्त को आलम्बन अथवा विषय की ओर प्रवृत्त करता है - गेधं आपज्जति आवत्तति बाहुल्लाय. म. नि. 3.158; द्वीहि सस्सतुच्छेददिट्ठीहि आवट्टतीति द्विरावट्टा, स. नि. अट्ठ. 1.76; वेदनाहि फुट्ठो आवट्टति परिवति, उदा. 84; एकस्मियेव ठाने अनिपज्जित्वा अत्तनो सरीरं इतो चित्तो आकडन्तो आवट्टति, उदा. अट्ठ. 93; - न्ति ब. व. - छिन्नपातं पपतन्ति, आवट्टन्ति, विवट्टन्ति, दी. नि. 2.105; 117; 118; 120; उरानि पटिपिसन्ति आवट्टन्ति ष. वि., ए. व. - ननु आवट्टेन्तस्स होति... पणिदहन्तस्स होतीति, कथा. 286-287; निषे., अना.- चित्त को विषय की ओर नहीं मोड़ने वाला – स्स पु., ष. वि., ए. व. - अनावन्तरस होति ... अनाभोगस्स होति, कथा. 286%; अनावट्टेन्तरस अपरिवट्टेन्तस्स, प. प. अट्ठ. 194; - त्तन्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - छिन्नपादा विय पतिता आवत्तन्ता परिवत्तन्ता सयन्ति, जा. अट्ठ. 7.197; - मानं वर्त. कृ., आत्मने, पु., द्वि. वि, ए. व. - अहसा खो भगवा तं परिब्बाजकं... वेदनाहि फुट्ट आवट्टमानं परिवट्टमानं उदा. 84; -ट्टेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - मानुसकेहि वा कामेहि आवट्टेय्या ति, म. नि. 2.183; - ट्टेय्यु ब. व. - इमाय आवट्टनिया आवट्टेय्यु. म. नि. 2.52; अ. नि. 1(2).223; - दे॒त्वा पू. का. कृ. - ततो भवङ्ग आवदे॒त्वा उप्पन्नस्स, विसुद्धि.2.306. आवट्टन नपुं., आ + Vवट्ट से व्य., क्रि. ना. [आवर्तन]. शा. अ., चक्कर काटना, फेरा लगाना, मोड़, ला. अ., 1. कामभोगों में दृढ़ लगाव, कामभोगों द्वारा अभिभूत होना अथवा ग्रस्त होना, 2. आवर्जन, चित्त का विषयों की ओर मुड़ जाना - तो प. वि., ए. व. - इत्थियो नामेता कामावठून आवट्टनतो आवट्टनी, जा. अट्ठ. 2.274; (आवट्टना) भवङ्गरस आवट्टनतो आवट्टना, विभ. अट्ठ. 382; स. उ. प. के रूप में, अना., भवङ्गा, मारा., सा. के अप्त. द्रष्ट.. आवट्टनमन्त/आवज्जनमन्त पु., [आवर्जनमन्त्र], एक विशेष प्रकार का मन्त्र, दूसरे को अपनी ओर खींचकर लाने वाला सम्मोहन मन्त्र, पृथ्वीजय मन्त्र - न्तो प्र. वि., ए. व. - पथवीजयमन्तोति आवट्टनमन्तो वुच्चति, जा. अट्ठ. 2.204. आवट्टनमानस त्रि., ब. स., मुड़े हुए मन वाला, किसी के प्रति प्रवृत्त मन वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - विवेकेनिब्बाने आवट्टमानसो हुत्वा ..., म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2276. आवट्टना स्त्री., आ + Vवट्ट से व्यु., क्रि. ना., आवट्टन का स्थाना. [आवर्तन], आलम्बन की ओर चित्त की प्रवृत्ति या मुड़ाव, विषय पर चित्त द्वारा ध्यान देना, प्र. वि., ए. व. - आवट्टना वातिआदीनि चत्तारिपि आवज्जनस्सेव नामानि, विभ. अट्ठ. 382; आवट्टना वा आभोगो वा समन्नाहारो वा, विभ. 363; आवट्टना आभोगो समन्नाहारो मनसिकारो ..., कथा. 313, 316; 396. आवट्टनी स्त्री.. आवर्तनी]. सम्मोहक मन्त्र. दसरे को मोहित कर देने वाला या बहका देने वाला मन्त्र, प्रलोभन में फंसा देने वाला मन्त्र, प्र. वि., ए. व. - आवट्टनी महामाया, ब्रह्मचरियविकोपना, जा. अट्ठ. 2.273; 330; जा. अट्ठ. 4.428; जा. अट्ठ. 5.449; आवट्टनीति यथा आवट्टनी महाजनस्स हदयं मोहेत्वा अत्तनो वसे वत्तेति, एवमेतापीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.449; - निं द्वि. वि., ए. व. - "मायावी समणो गोतमो आवट्टनिं मायं जानाति याय अतित्थियानं सावके आवट्टेती ति, अ. नि. 1(2).223; "गोतमो मायावी आवट्टनिं मायं जानाति याय अञ तिथियानं सावके आवटेती ति, म. नि. 2.43; 50; आवट्टनिमायन्ति आवदृत्वा गहणमायं, आवद्देतीति आवदे॒त्वा. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.40; - निया तृ. वि., ए. व. - “समणेन गोतमेन आवट्टनिया मायायाति, म. नि. 2.52; - निमाया स्त्री., कर्म. स., मोह जाल में फंसा देने वाली माया - यं द्वि. वि., ए. व. - आवट्टनिमायन्ति आवदे॒त्वा गहणमायं म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.40. आवट्टपरिवट्ट पु., [आवर्तपरिवर्त]. इधर उधर चक्कर मारना, इधर से उधर भटकते रहना - टुं द्वि. वि., ए. व. - भवयोनिगतिविज्ञाणद्विति सत्तावासेसुआवट्टपरिवर्ट करोति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).71. आवट्टमय नपुं, तत्पु. स. [आवर्तभय], शा. अ., पानी में भंवर से भय, तैरने वाली 4 भंवरों में से एक, ला. अ., सांसारिक कामसुखों में लिप्त हो जाने का भय - यं प्र. वि., ए. व. - चत्तारिमानि, भयानि .... ऊमिभयं, कम्भीलभयं आवट्टभयं सुसुकाभयं, म. नि. 2.132; अ. नि. 1(2).141; अपरानिपि चत्तारि भयानि - ... आवट्टभयं ... भयानि, विभ. 440; उदकावट्टतो भयं आवट्टभयं, महानि. अट्ठ. 320. For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवट्टसीस 228 आवत्तति आवट्टसीस त्रि., ब. स. [आवर्तशीर्ष], धुंघराले केशों से युक्त शिर वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - आवट्टसीसो वा गुन्न सरीरे आवट्टसदिसेहि उद्धग्गेहि केसावट्टेहि समन्नागतो, महाव. अट्ठ. 294. आवट्टित त्रि., आ + Vवट्ट का भू. क. कृ. [आवर्तित], 1. किसी की ओर उन्मुख अथवा झुका हुआ, किसी के प्रति खिंचाव या आकर्षण रखने वाला, अभिभूत, ग्रस्त, गुमराह या पथभ्रष्ट कर दिया गया - तो पु., प. वि., ए. व. - समणस्स गोतमस्स आवट्टनिया मायाय आवट्टितो सरणं गमिस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.293; - ता ब. व. - अन्वाविठ्ठाति आवट्टिता, म. नि. अट्ठ. 1(2).311; अन्वाविट्ठा, म. नि. 1.419; 2. आलम्बन या विषय की ओर प्रवृत्त, विषय की ओर मुड़ा हुआ - ते सप्त. वि., ए. व. - सचे पन भवङ्ग आवद्देति, किरियमनोधातुया भवङ्गे आवट्टिते । ..., धस. अट्ठ. 307. आवट्टितत्त नपुं., आवट्टित का भाव. [आवर्तितत्व], अभिभूत अथवा ग्रस्त होने की अवस्था - त्ता प. वि., ए. व. - सकलनगरवासीनं मारेन आवट्टितत्ता एक भिक्खाम्पि अलभित्वा, ध. प. अट्ठ. 1.114. आवट्टी त्रि., विषयों अथवा कामभोगों की ओर मन को मोड़ देने वाला - ट्टिनो पु., च. वि., ए. व. - आवट्टिनो साभोगोयेव होति. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).374; स. उ. प. में, अना.- निषे., विषयों की ओर मन को न मोड़ने वाला, प्र. वि., ए. व. - अथ खो सो... नेव ताव कामेस अनावट्टी होति, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).374. आवद्देति आ + Vवट्ट का प्रेर., वर्तः, प्र. पु., ए. व., 1. फुसलाता है, बहका देता है, लुभाता या ललचाता है, वश में कर लेता है - अतिथियानं सावके आवट्टेतीति, म. नि. 2.43, 50; - त्वा पू. का. कृ. - आवडेतीति आवदे॒त्वा परिक्खिपित्वा गण्हाति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.40; 2. आलम्बन या विषय की ओर चित्त को मोड़ देता है, विषय पर चित्त का ध्यान ले जाता है - सचे पन भवङ्ग आवद्देति, ध. स. अट्ठ. 307; - यमाना स्त्री., वर्त. कृ., आत्मने., प्र. वि., ए. व. - भवङ्ग आवट्टयमाना उप्पज्जति, अभि. अव. 14; - दे॒त्वा पू. का. कृ. - भवङ्ग आवदे॒त्वा, विसुद्धि. 2. 306; भवङ्ग आवदे॒त्वा उप्पजनमनसिकारो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).128. आवत्त' त्रि., आ + Vवत्त का भू. क. कृ. [आवर्त], शा. अ., पीछे की ओर पलटा हुआ, वापस मुड़ा हुआ, पतित, भ्रष्ट, गिरा हुआ, ला. अ., गृहस्थ जीवन की हीन या तुच्छ अवस्था में पुनः वापस आया हुआ - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय, म. नि. 1.231; महाव. 12; अयं जिनसासने पब्बजित्वा तत्थ पतिद्वं अलभित्वा हीनायावत्तो, मि. प. 232; 233. आवत्त पु., [आवर्त]. भंवर, चक्कर, जलावर्त - त्तेन तृ. वि., ए. व. - नावत्तेन सुवानयोति न कोधावत्तेन सुआनयो, स. नि. अट्ठ. 1.309; नावत्तेन सुवानयो, स. नि. 1(1).276; स. उ. प. के रूप में, कोधा., चरिया., दक्खिणा., नङ्गला., वारिया.. आवत्तगङ्गा स्त्री., एक प्राचीन जलप्रणाली (नहर) का नाम -गव्ह त्रि., आवत्तगङ्गा नाम वाला/वाली-व्ह नपुं..प्र. वि., ए. व. -- ततो आवतगङ्गव्हं निग्गतं दक्खिणामुखं चू. वं. 79.50. आवत्तति आ + Vवत्त/वट्ट का वर्त., प्र. पु., ए. व., प्रायः आवट्टति के अप. के रूप में प्रयुक्त [आवर्तते], 1. चारों तरफ चक्कर लगाता है, परिक्रमा करता है, परिधि या मण्डल के रूप में घेरा बना देता है, चारों ओर से घेर लेता है, उलटता पुलटता है -(उदरवातो) अधिवासेत असक्कोन्तो आवत्तति परिवत्तति म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).86; आवत्तती च परिवत्तती च, वसुलोपी सम्मुखा रओ, जा. अट्ट. 6.143(रो.); - न्ति ब. व. - उच्छङ्गे आवत्तन्ति विवत्तन्ति, जा. अट्ठ. 7.335; 2. पलटकर वापस आता है, गृहस्थ जीवन की हीन अवस्था में पुनः वापस लौट आता है - सिक्खं पञ्चक्खाय हीनायावत्तति, म. नि. 2.132; अ. नि. 1(1).171; - न्ति ब. व. - सिक्खं पञ्चक्खाय हीनायावत्तन्ति, म. नि. 2.207; इमे दुज्जना ताव तत्थ सासने विसुद्ध पब्बजित्वा पटिनिवत्तित्वा हीनायावत्तन्ति, मि. प. 231; जिनसासने पब्बजित्वा हीनायावत्तन्ति, मि. प. 235; - माना वते. कृ., आत्मने, पु.. प्र. वि., ब. व. -आवत्तमानापि ते जिनसासनस्स सेट्ठभावं येव परिदीपेन्ति, मि. प. 236; - त्तेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. -- न सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तेय्याति अयं थेरस्स अधिप्पायो, स. नि. अट्ठ. 2.54; - तिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - विहरन्तो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तिस्सतीति. स. नि. 2(2).191; - तिस्ससि म. पु., ए. व. -- सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तिस्ससि, उदा. 93; - तिस्सामि उ. पु., ए. व. - सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तिस्सामी ति, उदा. 92; म. नि. 2.97; - त्तित्वा पू. का. कृ. - तात For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवत्तन 229 आवमति रखपाल, हीनायावत्तित्वा भोगे. म. नि. 2.261; पच्चयबाहुल्लाय आवत्तित्वा, जा. अट्ठ. 1.90; यन्नून्नाहं हीनायावत्तित्वा कामे परिभुजेय्य, सु. नि. (पृ.) 157; पच्चयबाहुल्लाय आवत्तित्वा, जा. अट्ट, 1.90; 3. (समुद्र) घटता है- आभुजति आवत्तत्तीति अत्थो, सद्द. 2.348; 4. (केश) धुंघराला हो जाता है, आकुञ्चित हो जाता है - माना वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ब. व. - केसा द्वङ्गुलमत्ता हुत्वा दक्खिणतो आवत्तमाना सीसं अल्लीयिंसु, जा. अट्ठ. 1.74; 5. पलट देता है, रूपान्तरित कर देता है - पटिपक्खेन अकसले धम्मे परियेसति, तेसं किलेसानं हारेन आवट्टति, पेटको. 234. आवत्तन नपुं, आ + Vवत्त से व्यु., क्रि. ना. [आवर्तन], वापसी, प्रत्यावर्तन, वापस लौट आना, अधःपतन - नेन त. वि., ए. व. - न च तेसं हीनायावत्तनेन जिनसासनं हीलितं नाम होति. मि. प. 235; - क पु. उलट-पुलट करने वाला, - को पु. प्र. वि., ए. व. - नङ्गलस्स फालस्स आवत्तनको नङ्गलं इतो चितो च आवत्तेत्वा खेत्ते प्रेरगा. अट्ठ. 1.69; - स्स ष. वि., ए. व. - नत्थि आवत्तनकस्स भूमि होन्ति, पेटको. 290; स. प. के अन्त., - एवं अरिया चतक्कमग्गं पञआपेन्ति अबुधजनसेविताय बालकन्ताय रत्तवासिनिया नन्दिया भवतण्हाय अवट्टनत्थं, नेत्ति. 93; स. उ. प. के रूप में, अना. देवता., के अन्त. द्रष्ट... आवत्तनधम्म त्रि., ब. स. [आवर्तनधर्म], पुनः वापस लौटने की प्रकृति से युक्त, वापस लौटकर आने वाला, स. उ. प. के रूप में, अना.- पुनः वापस लौटने की प्रकृति से रहित, पुनः अधोगति की प्राप्ति न करने वाला - म्मो पु., प्र. वि., ए. व. - अनावत्तिधम्मोति ततो ब्रह्मलोका पुन पटिसन्धिवसेन अनावत्तनधम्मो, दी. नि. अट्ठ. 1.252. आवत्तनी त्रि., [आवर्तिन], उलटने-पलटने वाला, स. उ. प. में, नङ्गला.- हल के फाल को उलटने पलटने वाला अथवा ऊपर और नीचे करके खींचने वाला - नी पु., प्र.. वि., ए. व. - यथापि भद्दो आजओ नङ्गलावत्तनी सिखी, थेरगा. 16; नङ्गलस्स फालस्स आवत्तनको नङ्गलं इतो चितो च आवत्तेत्वा खेते कसनकोति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. आवत्तेति/आवत्तयति आ + Vवत्त का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आवर्तयति], वापस लौटाता है, गृहस्थ जीवन की हीन अवस्था की ओर वापस लौटने को प्रेरित कराता है, निवारण कराता है, उलट-पुलट करता है - यथा कुञ्जरं अदन्तं... बलवा आवत्तेति अकामं, थेरगा. 357; आवत्तेति अकामन्ति अनिच्छन्तमेव निसेधनतो निवत्तेति, थेरगा. अट्ठ. 2.57; - त्तो भू. क. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - बाहुल्लाय आवत्तो, महाव. 66; - यिस्ससि भवि., म. पु. ए. व. - न म पुत्तकत्ते जम्मि, पुनरावत्तयिस्ससि, थेरीगा. 304; - यिस्सं उ. पु., ए. व. - एवं आवत्तयिस्संतं, थेरगा. 357; - त्वा पू. का. कृ. - नङ्गलं इतो चितो च आवत्तेत्वा, थेरगा. अट्ठ. 1.69. आवत्थिक त्रि., अवस्था से व्यु. [आवस्थिक], जीवन की अवस्था-विशेष का सूचक, किसी विशेष अवस्था के साथ सम्बद्ध - कं नपुं. प्र. वि., ए. व. - आवत्थिकं लिङ्गिक नेमित्तिकं अधिच्चसम्प्पन्नन्ति ... तत्थ वच्छो दम्मो बलिवघोति एवमादि आवत्थिकं विसुद्धि. 1.201. आवदति आ + Vवद का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आवदति], निन्दा करता है, कलंक लगाता है, सम्बोधित करता है - दि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - तं दिस्वा “कस्मा एवं तियावदि, चू. वं. 51.23; -दितब्बो सं. कृ., पु०. प्र. वि., ए. व. - जात्याचारा दीहि निहीनो यन्ति आवदितब्बो, अभि. प. 699 पर सूची. आवन्तिक त्रि., [आवन्तिक]. अवन्ती (आधुनिक उज्जैन) का रहने वाला, अवन्ती के साथ जुड़ा हुआ - का पु., प्र. वि.. ब. व. - पावेय्यका सट्टि थेरा असीतावन्तिका पिच महाखीणासवा सब्बे अहोगङ्गम्हि ओतलं, म. वं. 4.19. आवपति/आवपेति आ + Vवप का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आवपति], जमा कर देता है, जमानत अथवा गिरवी के तौर पर रख देता है, फेंक देता है - न्ति प्र. पु., ब. व. - आवपन्ति, पक्खिपन्तीति वृत्तं होति, महाव. अट्ठ. 362; - पितुं निमि. कृ. - लभति पिता पुत्तं इणट्ठो वा आजीविकपकतो वा आवपितुं वा विक्किणितुं वाति, मि. प. 259. 1.69. आवमति आ + Vवम का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आवमति], शा. अ., वमन किए हुए पेय का पुनः पान कर जाता है, ला. अ., जिस सांसारिक जीवन को त्याग चुका है, उसी में पुनः वापस लौटता है - मितुं निमि. कृ. - मनापिया आवत्तनी स्त्री., [आवर्तनी], धातुओं को गलाने का पात्र - सोण्णाद्यावत्तनी मूसा, अभि. प. 526. For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवरण 230 आवरणविरहित कामगुणा च वन्ता, वन्ते अहं आचमितुं न उस्सहे, थेरगा. 1128; आवमितुं न उस्सहेति एवं ते छडिते पुन पच्चावमित अहं न सक्कोमि, थेरगा. अट्ठ. 2.400. आवरण 1. नपुं., आ + Vवु से व्यु., क्रि. ना. [आवरण, नपुं.], शा. अ., ढक देने वाला या आच्छादित कर देने वाला ढक्कन, आच्छादन, पर्दा, बाधा, रुकावट, रोक, विघ्न, शरण, पानी को रोककर रखने वाला बांध, घेराबन्दी करने वाली दीवार, दुर्ग की भित्ति - णं' प्र. वि., ए. व. - न तरसावरणं अस्थि, बु. वं. 12-28; आवरणन्ति पटिच्छादनं तिरोकरणं, बु. वं. अट्ठ. 225; - णं द्वि. वि., ए. व. - इत्थिसोतानि सब्बानि, सन्दन्ति पञ्च पञ्चसु तेसमावरणं कातुं यो सक्कोति वीरियवा, थेरगा. 739; नगरस्स समन्ततो कत्वानावरणं मग्गे, चू. वं. 70.152; - णेन तृ. वि., ए. व. - रोहिणिं नाम नदिं एकेनेव आवरणेन बन्धापेत्वा सस्सानि करोन्ति, ध. प. अट्ठ. 2.147; -- णे' सप्त. वि., ए. व. - पलालतिणमत्तिकाहि आवरणे कते, अ. नि. अट्ठ. 3.26; - णे/णानि द्वि. वि., ब. व. - छिन्ने आवरणे चाहारस चेव महीपति, चू. वं. 79.83; भूमिन्दो कन्दरागङ्गानदीसु च तहिं तहिं सुभिक्खं कारयी रटुं बन्धेत्वावरणानि, चू, वं. 60.52; नासेन्ता सब्बथा सब्बमातिकावरणानि च, चू, वं. 61.65; पच्चत्थिके विनासेन्तो मग्गे आवरणे बहू, चू. वं 70.159; - बन्धनकाल पु., तत्पु. स., बांध के बांधने का समय - लो प्र. वि., ए. व. - नदियं उदकप्पवत्तनकालो विय भवङ्गवीथिष्पवत्तनकालो. ... आवरणबन्धनकालो विय, ध. स. अट्ठ. 307; ला. अ., 1.5 प्रकार के नीवरण, (कामच्छन्द, व्यापाद, थीन-मिद्ध, उद्धच्च-कुक्कुच्च तथा विचिकिच्छा), जो ध्यान के क्रम में चित्त को एकाग्र एवं शान्त नहीं रहने देते तथा साधक सबसे पूर्व इनका प्रहाण करता है, चित्त को विक्षिप्त एवं अशान्त करने वाली पांच अकुशल चित्तवृत्तियां- अत्थो नीहरणे चेवावरणादो च नी सिया, अभि. प. 1167; - णं प्र. वि., ए. व. - उपादानं आवरणं नीवरणं. महानि. 6,21; कुक्कुच्चे सति आवरणं होति, मि. प. 238; एवं निसीदनं चम्म नत्थि आवरण नभे, दी. वं. 1.60; आकासे आवरणं नाम नत्थि, जा. अट्ठ. 4.208; अविज्जन्धकारो, सोव सभावावगमननिवारणेन आवरणं एतस्साति अविज्जन्धकारावरणो, पटि. म. अट्ठ. 2.14; - णेन तृ. वि., ए. व. - आवटयेव तेन आवरणेन पिहितं, पटि. म. अट्ठ. 2.250; - तो प. वि., ए. व. - द्वे सरगमग्गानं आवरणतो आवरणानि, पटि. म. अट्ठ. 2.10; - णा प्र. वि., ब. व. - पश्चिमे नीवरणा अरियरस विनये आवरणातिपि वुच्चन्ति, दी. नि. 1.223; अनावरणा अनीवरणा चेतसो अनुपक्किलेसा, स. नि. 3.114; 116; आवरणा नीवरणा चेतसो अज्झारुहा, अ. नि. 2(1).59; आवरणवसेन आवरणा, अ. नि. अट्ठ. 3.26; - णानि वि. वि., ब. व. - पहाय पञ्चावरणानि चेतसो, उपक्किलेसे ब्यपनुज्ज सब्बे, सु. नि. 66; पञ्चावरणानीति पञ्च नीवरणानि एव, ... तानि पन यस्मा अब्भादयो विय चन्दसुरिये व चेतो आवरन्ति तस्मा "आवरणानि चेतसो, अप. अट्ठ. 1.197; - णट्ठ पु., तत्पु. स., आच्छादित करने का अर्थ-द्वेन त. वि., ए. व. - सब्बेपि अकुसला आवरणद्वेन नीवरणाति वुत्ता, पटि. म. अट्ठ. 2.66; ला. अ. 2. Vकर के क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त, वर्जित करता है, नियन्त्रित करता है, रोक देता है - णं करोन्ति वि. वि., ए. व. - सामणेरानं मुखद्वारिकं आहारं आवरणं करिस्सन्ति, महाव. 107; न भिक्खवे मुखद्वारिको आहारो आवरणं कातब्बोति, महाव. अट्ठ. 279; स. उ. प. के रूप में, अना., अविज्जन्धकारा., आदिच्चरंसा., कम्मा., किलेसा., तदा०, दन्ता., दूरा., निय्याना., निरा., पण्डरा., पहीनसब्बा., मातिका., मुखा., मोक्खमग्गा., रक्खा., रक्खागुत्तिः, वाता., विपाका., सग्गा., मोक्खा., समन्ता. के अन्त. द्रष्ट.. आवरणगाथा स्त्री., सु. नि. के खग्गविसाणसुत्त की एक गाथा का सु. नि. अट्ठ द्वारा दिया गया शीर्षक, इस गाथा में चित्त के 5 नीवरणों के प्रहाण का बुद्धोपदेश विद्यमान है - पहाय पञ्चावरणानि चेतसो, सु. नि. 66. आवरणता स्त्री., आवरण का भाव., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, आच्छादन होना, बाधक होना, रुकावट के रूप में विद्यमान रहना, स. उ. प. के रूप में, कम्मा., किलेसा., विपाका. के अन्त. द्रष्ट.. आवरणतासुत्त/आवरणसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2(2).136-137. आवरणनिवरण नपुं.. रुकावट एवं बाधा, आवरण एवं नीवरण, स. प. के अन्तः, - उदकं गङ्गाय नदिया पासाण सक्खर ... आवरणनिवरणमूलकसाखासु परियोत्थरति, मि. प. 189. आवरणविरहित त्रि., तत्पु. स. [आवरणविरहित], नीवरणों से मुक्त, चित्त के मलों से मुक्त - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व, क्रि. वि. - विसुद्धत्ता आवरणविरहितं हत्वा मज्झिमं समथनिमित्तं पटिपज्जति, विसुद्धि. 1.143. For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवरणसुत्त आवरणसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 2(1).59-60. आवरणीय आ√वु का सं. कृ. [आवरणीय आवृत अथवा आच्छादित कर लेने वाला, ढक देने वाला (पांच नीवरण धर्म) या पु. प्र. वि. ब. व.- नीवरणानि हि चित्तं आवरित्वा तिट्ठन्ति, तस्मा आवरणीया धम्माति वुच्चन्ति, अ. नि. अट्ठ 2.85; येहि पु. तृ. वि. ब. य आवरणीयेहि धम्मेहीति पञ्चहि नीवरणेहि धम्मेहि तदे: दिवस चङ्कमेन निसज्जाय आवरणीयेहि धम्मेहि चित्तं परिसोधेति, स. नि. 2 ( 2 ) . 111, 180 स.नि. अ. - " - 3.72. आवरति आ + √ का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ आवृणोति ], बन्द कर देता है, आच्छादित कर देता है, बाधित कर देता है, खुला नहीं रहने देता है, हटा लेता है रामि उ. पु.. ए. व. आवरामि द्वारं निगण्ठानं, म. नि. 2.49; - न्ति प्र. पु. ब. व. कुसलधम्मे न आवरन्तीति अनावरणा. स. नि. अट्ठ. 3.187; ये / रेय्या विधि., प्र. पु. ए. व. गामकथाय आवरये सोतं, सु. नि. 928; गामकथाय सोतं आवरेय्य निवारेय्य संवरेय्य महानि. 271 - वर अनु म. पु. ए. व. तावदेव त्वं गत्वा तरस देवलोकगमनानि मग्गानि आवर, यथा इध नागच्छति, एवं करोहीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.147 - रिंसु अद्य, प्र. पु. ब. व. - आवरिंसु ततो मच्चा जलनिग्गहनाळियो, म. पं. 36.78 - रितुं निमि कृ. आवरितुं समत्यो नाम नत्थि, स. नि. अट्ठ. 1.99; नहि कुटं वा कवाटं वा गच्छो वा लता वा आवरितुं सक्कोति म. नि. अड. (म.प.) 2.275; रित्वा पू. का. कृ. वीथिं आवरित्वा मण्डपं कारेत्वा, जा. अट्ठ. 2.356; सग्गमग्गं आवरित्वा ठिता, जा. अट्ठ. 6.70; महासमुहस्स उत्तरितुं अदत्वा उदकं आवरित्वा जा. अड्ड - - — www.kobatirth.org " 231 3.456; रित त्रि., भू० क० कृ०, आच्छादित, बाधित, अभिभूत ग्रस्त, स. उ. प. में ही प्राप्त, दोसा०, रागा. के अन्त., दृष्ट. आवलि / आवली स्त्री. [आवलि] रेखा, पंक्ति, अटूट सिलसिला, अविच्छिन्न लकीर पन्ति वीध्यावलिस्सेणी पालि, अभि. प. 539; केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त, अक्खरा. दन्ता. प्रभाकरकरा.. पुप्फा, भोगिभोगा., मुत्ता.. वट्टना के अन्त द्रष्ट.. आवसति / आवसेति आ + √वस का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ आवसति / आवसते] आकर बस जाता है, निवास करता " - आवसति है, रहता है, ठहरता है, आकर रुक जाता है, डेरा डाल देता है सचे अगार आवसति, विजेय्य पथर्वि इम. सु. नि. 1008; सेसि म. पु. ए. व. पुन मावसेसीति पुनपि यथा इमं नागभवनं अज्झावससि, एवं धम्मं चर, जा. अट्ठ. 7.214; सामि उ. पु. ए. व. सञ्ञमा संविभागा च विमानं आवसामहं वि. व. 17 - न्ति ब. व. वसन्ति पवसन्ति आवसन्ति परिवसन्ति महानि. 73; जगति जगतिपाला आवसन्ति वसुन्धरन्ति जा. अड्ड 6.201; निद्दा तन्दी... आवसन्ति सरीरद्वा जा. अड्ड. 6.70; - सातु अनु. प्र. पु. ए. व. वयं अपरसं घरमावसातु स चातुरन्तं महिमावसातु, जा. अट्ठ 4.275; - सित्थ म० पु०, ब० व. सम्मोदमाना घरमावसित्थ, जा. अट्ठ. 3.378; सिस्सति भवि., प्र. पु. ए. व. नामंयेवावसिस्सति, अक्खेय्यं पेतस्स जन्तुनो, सु० नि. 814: अट्ठ - से / सेय्य विधि., प्र. पु. ए. व. - "निच्चं आरद्धविरियेहि, पण्डितेहि सहावसेति, थेरगा. 148; बहुप्फल काननभावसेय्य सु. नि. 1140 बहुप्फल काननमावसेय्याति तस्मिञ्च वनसण्डे वासं कप्पेव्याति, चूळनि, 189 - सेम उ. पु. ब. व. सम्मोदमाना घरमावसेमा ति जा. अनु. 3378 - सं / न्तो वर्त. कृ. पु., प्र. वि., ए. व. यदत्थं भोगं इच्छेय्य पण्डितो घरमावस, अ. नि. 1(2):79: अ. नि. 2 ( 1 ) 42. बव्हन्नपानं घरमावसन्तो स. नि. 1 ( 1 ) 50; बहन्नपानं घरमावसन्तोति इमिना यञ्ञउपक्खरो गहितो, स. नि. अट्ठ. 1.89; सहजातिं आवसन्तो सालहत्थेरो विचिन्तिय, म. के. 4.28; न्ता प्र० वि०, ब० व गहट्टा घरमावसन्ता, सु. नि. मानो वर्त, कृ. आत्मने. प्र. वि. ए. व. अगार वसमानोपि अप. 1.65; स.वि., ए.व. 43; - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - घरमावसमानस्स, गहट्ठस्स सकं घरं, जा. अट्ठ. 7. 180; - सुं अद्य., प्र. पु०, ब. व. कुसावत्तिं राजगहं मिथिलं चापि आवसुं म. वं. 2.6 - सिं उ. पु. ए. व. पठविं आवसिं अहं अप. 1.32; पठविं आवसिं रज्जं कारेसिन्ति सम्बन्धो, अप. अट्ठ. 1.275 - सित्थ म. पु. ब. व. सम्मोदमाना घरमावसित्थ जा. अट्ठ. 3.378; सिस्सति भवि प्र. पु. ए. व. बलाधिपो अनुसतं वसुधं आवसिस्सति, अप. 1.50; इतो गन्त्वा अयं पोसो तुसितं आवसिस्सति तदे: सन्ति ब. ये अरिया आवसिंसु वा आवसन्ति वा आवसिस्सन्ति या. अ. नि. 3 ( 2 ) 25 - सितुं निमि. कृ. अज्ञेन सत्तेन आवसितुं जा. अड. 1.62 व. - - - --- - न सक्का सित्वा पू Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवसथ 232 आवसित का. कृ. - आवसित्वा तिरच्छानयोनियं, जा. अट्ठ, 5.451; आवसथद्वार नपुं.. तत्पु. स., निवास स्थान का द्वार - रे - सापेत्वा प्रेर.. पू. का. कृ., बसा कर, आबाद करा कर सप्त. वि., ए. व. - आवसथद्वारेति ओवरकद्वारे, पाचि. -- सो तं पदेसं आवासापेत्वा जनपदं सण्ठपेत्वा निवत्ति, अट्ठ. 15. जा. अट्ठ. 4.136; ध. प. अट्ठ. 1.200. आवसथपिण्ड पु., तत्पु. स., जन-सामान्य के निमित्त आवसथ पु.. [आवसथ], वासस्थान, घर, विश्राम घर, निर्मित विश्रामगृहों में सभी के लिए तैयार किया गया शरणस्थल, ठिकाना, निवास, आश्रम, आश्रय - थो प्र. भोजन - ण्डो प्र. वि., ए. व. - आवसथपिण्डोति आवसथे वि., ए. व. - घरं गहं चावसथो सरणं च पतिस्सयो, अभि. पिण्डो, पाचि. अट्ठ. 68; - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - ... प. 206; थुल्लनन्दाय भिक्खुनिया आवसथो डरहति, पाचि. आवसथपिण्ड भुञ्जन्ति, पाचि. 98; तदुत्तरि आवसथ-पिण्ड 415; येन अञतरो आवसथो तेनुपसङ्कमि, पाचि. 99; एको । तु परिभुजतो, उत्त. वि. 97; - सिक्खापद नपुं. पाचि. आवसथो पिण्डो, विन. वि. 1198; - थं द्वि. वि., ए. व. के एक खण्ड का शीर्षक, जिसमें भिक्ष द्वारा आवसथपिण्ड - थुल्लनन्दा भिक्खुनी आवसथं अनिस्सज्जित्वा के ग्रहण किए जाने से सम्बद्ध विनय-शिक्षापद दिये गए हैं, चारिक पक्कमिस्सति, पाचि. 416; अलभमाना आवसथं पाचि. 98-100. अगमंसु, पाचि. 98; पविसिंसु आवसथं परियेसितुं, अ. आवसथागार नपुं., तत्पु. स., निवास करने हेतु घर, नि. 2(2).107; - था प. वि., ए. व. - अगिलानो नाम । विश्रामशाला, वासस्थान -रं प्र. वि., ए. व. - आवसथोति सक्कोति तम्हा आवसथा पक्कमितुं पाचि. 99; - स्स ष. वि., आवसथागार, अ. नि. अट्ठ. 2.369; पाटलिगमने ए. व. - अनिस्सज्जित्वा परिक्खित्तरस आवसथरस परिक्खे आवसथागारन्ति आगन्तुकानं आवसथगेह, दी. नि. अट्ठ. अतिक्कामेन्तिया, पाचि. 416; - थे सप्त. वि., ए. व. - 2.114; अत्थि मे आवसथागारं स. नि. 2(2).326; अस्समेति आवसथे, स. नि. अट्ठ. 1.146; भिक्खुनियो आवसथागारन्ति कुलघरस्स एकस्मिं ठाने एकेकस्सेव आवसथे डरहमाने भण्डकं न नीहरिस्सन्तीति, पाचि. 4163; सुखनिवासत्थाय कतं वासागारं स. नि. अठ्ठ. 3.146; -- चिरवासी नाम कुमारो बहि आवसथे पटिवसति, स. नि. 2(2). रं द्वि. वि., ए. व. - "अधिवासेत नो भन्ते भगवा 312;- थेहि त वि.ब. क. --- नानारत्तेहि वत्थेहि सयनेहावसथेहि आवसथागार न्ति, दी. नि. 2.66; - रे सप्त. वि., ए. व. च, सु. नि. 289; स. उ. प. के रूप में अज्झा०, अन्तो.. - “वसेय्याम एकरतं आवसथागारे ति, पाचि. 29. गिञ्जका., पुळवा., बहि., वाळा., सेय्या., पदीपेय्या. के अन्त. आवसथानिसंस पु., तत्पु. स., निवासस्थान का लाभ, द्रष्ट.. वासस्थान का महत्त्व - सं द्वि. वि., ए. व. - सेक्खसत्ते, आवसथकथा स्त्री., विन. वि. के एक खण्ड का शीर्षक, आवसथानिसंसं. घटिकारसत्ते. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) विन. वि. 1198-1205(गा.). 1(2).57. आवसथचीवर नपुं., शा. अ., आवास में धारण किया आवसथानुमोदनकथा स्त्री., तत्पु. स., निवासस्थान के जाने वाला चीवर, विशेष अर्थ, ऋतुमती भिक्षुणियों प्रयोग के अनुमोदन का कथन - य तृ. वि., ए. व. - द्वारा आवास में धारण किए जाने हेतु अनुमोदित अञआयपि पाळिमत्ताय धम्मकथाय चेव आवसथानमोदनकथाय चीवर - रं' प्र. वि., ए. व. - आवसथचीवरं लोहितेन च, उदा. अट्ठ. 338. मक्खिय्यति, चूळव. 434; - रं2 द्वि. वि., ए. व. - आवसन नपुं., वासस्थान, आवास, घर - नं प्र. वि., ए. व. अनुजानामि, भिक्खवे, आवसथचीवर न्ति, चूळव. 4343 - आवासो आवसनं, थेरगा. अट्ठ. 2.293. आवसथचीवरं अनिस्सज्जित्वा..... पाचि. 414; आवसथचीवरं आवसित त्रि., आ + Vवस का भू. क. कृ., आबाद किया नाम "उतुनियो भिक्खुनियो परिभुञ्जन्तूति दिन्नं होति, हुआ वह स्थान जिसमें लोग बस गए हैं- पदेश पु., कर्म. पाचि. 415. स., आबाद किया हुआ प्रदेश, वह प्रदेश जिसमें लोग आवसथद्वय नपुं., दो आवासों के कारण उत्पन्न आकर बस गए हों - सो प्र. वि., ए. व. - आगतमनुस्सेहि विनय-सम्बन्धी आपत्ति (अपराध)- यं प्र. वि., ए. व. आवसितपदेसो तायेव पुरिमसआय... लभि. म. नि. अट्ठ. - पञ्चाहिक सङ्कमनिं तथा आवसथद्वयं उत्त. वि. (मू.प.) 1(1).236; - कुच्छि पु., कर्म स०, वह कोख 388. जिसके अन्दर प्राणी आकर बस गया हो, प्र. वि., ए. व. For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवसेति - बोधिसत्तेन यसितकुच्छि नाम चेतियगम्भसदिसा होति न सक्का अज्ञेन सत्तेन आवसितुं वा परिभुज्जितुं वा, जा. अट्ठ. 1.62. आवसेति आवसति के अन्त., द्रष्ट.. आवह त्रि. [ आवह], ले आने वाला, उत्पन्न करने वाला, कारणभूत, स. उ. प. के रूप में, अघा., अत्था, अनत्था, अमता, अरियफला, अरियभावा उपकारा, उपरिपासादा, एकन्तसुखा, एकन्तहितसुखा, चित्तसन्तिसुखा, आणा.. दिदुधम्मसुखा दुक्खा, निब्बाना, पसादा, पासादातिसया पीतिसुखा., पेतभवा., भोगा., मदा., रूपारूपभवा., वड्ड., विम्हया, सग्गा, सच्चाभिसमया सब्बकुसलगुणा.. सब्बानत्था, सुखा, सत्तसुखा हितसुखा, सब्बलोकहिता, के अन्त द्रष्ट.. – - आवहति आ + वह का वर्त. प्र. पु. ए. व. [आवहति ]. शा. अ. 1. ले आता है, उत्पन्न करता है, प्रदान करता है. निष्पादित करता है किंतु सुचिण्णो सुखमावहति स. नि. 1(1).49; आवहति आनेति देति अप्पेति, स. नि. अ. 1.286; 'सत्तानं देवूपपत्ति आवहतीति, पे. व अ. 6 सम्पज्जमाना पन तिरच्छानयोनिं आवहति म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1 (1).326: अव्याहरति आवहति तं निष्फादेति जा. अड. 5.76 हामि उ. पु. ए. व. यत्थ जायायहं जारं आवहामि वहामि चाति जा. अड. 3.79 - न्ति प्र. पु. ए. व. यथा खिप्यं अरियमग्गं आवहन्ति, उदा. अट्ठ 196 हेय्य विधि. प्र. पु. ए. व. अयं गङ्गानदी महन्तं फेणपिण्डं आवहेय्य, स. नि. 2 (1). 126; आवहेय्याति आहरेय्य, स. नि. अड. 2.282; आवहेय्य समावहेय्य आहरेय्य, महानि. 222, अञ्ञम्पि ते सा दुखमावहेच्या ति. जा. अट्ठ 4.43: सचेपि वातो गिरिमावहेय्य, जा. अड. 5.475 - युं ब. व. अनत्यम्पि आवहेय्यन्ति म. नि. अट्ठ (उप. प.) 3.73 - हि अद्य. प्र. पु. ए. व. "इस्सानं दुक्खामावही ति जा. अड. 4.188; हिं उ॰ पु॰, ए॰ व॰ मनसा पसादमावहिं, अप. 1.5; हिस्सति भवि., प्र. पु. ए. व. सब्बापि पथवी तस्स न सुखं आवहिस्सती ति जा. अड. 3.145 - वाहेत्त्वा प्रेर.. पू. का. कृ. पकड़वा कर, निकलवा कर कुण्ठं गङ्गाय आवाहेत्वा, जा. अट्ठ 2.97, दट्ठसप्यं आवाहेत्या, जा, अट्ठ 1.297; - हिय्यसे कर्म० वा., म० पु०, ए. व. एसावहिय्यसे पब्बतेन, बहुकुटजसल्लकिकेन, थेरगा. अड. 1.247 भा. अ. 2. अपने घर की ओर अथवा अपनी ओर ले जाता है, ला. - www.kobatirth.org - 233 आवाट अ., वधू को वर के घर में रहने हेतु ले जाता है, अपने पुत्र का विवाह करता है, विवाह में अपना पुत्र दे देता है -न्ति ब. व. कुमारियो पवेच्छन्ति विवाहन्तावहन्ति च जा. अड. 4.326; अत्तनो धीतरो हिरज्ञसुवण्णं गहेत्वा परेसं दन्ति ते एवं परेस ददमाना विवाहन्ति नाम, अत्तनो पुत्तानं अत्थाय गण्हमाना आवाहन्ति नाम, जा. अट्ठ. 4.329; द्रष्ट, आवाह, विलो., विवाह. आवहत्त नपुं०, आवह का भाव., केवल स. उ. प. में प्रयुक्त, उत्पादकत्व, निष्पादकत्व कारणभूत होना, उत्पन्न करने वाला होना, अविप्पतिसारादिगुणा. अविप्रतिसार आदि गुणों को लाने वाला होना त्ताप. वि. ए. व. तञ्च कल्याणं अविप्पटिसारादिगुणावहत्ता, विसुद्धि. 1.5; अहिता - अहितकारक होना ता.वि., ए.व. कामा हि अहितावहत्ता मेत्तिया अभावेन अमित्ता, थेरीगा० अट्ठ. 267; इद्विविधादिगुणा. ऋद्धि-बल जैसे गुणों का लाने वाला होना त्ता प. वि. ए. व. सो च कल्याणो इद्धिविधादिगुणावत्ता, विसुद्धि. 1.5. आवहन आ + √वह से व्यु [आवहन, नपुं. ], सामने लाने वाला, उत्पन्न करने वाला, निष्पादित करने वाला - निं स्त्री. द्वि. वि. ए. व. यदा दुक्खस्सावहनिं विसत्तिक थेरगा. 519; तत्थ दुक्खस्सावहनिन्ति दुक्खस्स आयतिं पवत्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.138; स. उ. प. में, पसंसा० - त्रि. प्रशंसा को लाने वाला अथवा यशकारक नंनपुं. प्र. वि., ए. व. पामुज्जकरणं ठानं पसंसावहनं सुखं, सु. नि. 259; तादिभावा. उस प्रकार की अवस्था को लाने वाला - --- - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृत्तनयेन तादिभावावहन भावेन भावितं, उदा. अट्ठ. 200; स. पू. प. के रूप में, क त्रि. निष्पादक, कारणभूत. लाने वाला कं नपुं. प्र. वि. ए. व. अपरिमितसुखावहं सुखस्स आवहनक, वि. व. अ. 91 ता स्त्री. भाव, लाने वाला या उत्पादक होना, निष्पादकता, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्राप्त, अत्था, अनत्था के अन्त. द्रष्ट.. आवाट पु.. [आवट] भूमि-विवर, छिद्र, गड्डा, कुआं- थियं तु कासु आवाटो, अभि. प. 650; मतावाटे चयेकासु, अभि. प. 1125: कासूति रासिपि दुच्चति आवाटोपि, स. नि. अड. 2.98: कुसोब्याति खुद्दक आयटा, महासोब्भाति महाआवटा, स. नि. अड्ड. 2.48; नरकन्ति आवाट पे. व. अड. 196 - टो प्र. वि. ए. व. गम्भीर आवाटो, स. नि. अट्ट 3.287; सरीरम्भन्तरं... आवाटो आसीदिसपूरो विय, जा. अ. 3.73 कप्पानं अन्तरे चाटिप्पमाणो आवाटो अहोसि, - - - - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवाटक 234 आवास जा. अट्ठ, 5.12; - टं द्वि. वि., ए. व. -- आवाट खणीति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.42; आवाट ओतरित्वा, जा. अट्ट, 5.43; चतुरस्सावाट खणितुं आरभि, जा. अट्ठ. 4.41; - स्स ष. वि., ए. व.- आवाटस्स उपरि उग्गन्त्वा ठिता भवेय्यू, स. नि. अट्ठ. 3.331; - टे सप्त. वि., ए. व. - एकस्मि आवाटे निपज्जि , जा. अट्ठ. 3.251; -टे द्वि. वि., ब. व. - गलप्पमाणे आवाटे खणित्वा, जा. अट्ट, 1.256; नाभिष्पमाणे आवाटे खणापेत्वा, ध. प. अट्ट, 1.127; अन्तो वापियं आवाटे पूरेय्य, स. नि. अट्ठ. 2.70; - टेसु सप्त. वि., ब. व. - सब्बेपि आवाटेसु ओतारेत्वा, जा. अट्ठ. 1.256; आवाटेसु येव उदकं सण्ठहेय्य स. नि. अट्ठ. 2.70; आवाटेसु मयं उदकं पिविस्साम, जा. अट्ठ. 1.108; स. उ. प. के रूप में, उदका.- पु., तत्पु. स., पानी भरा गड्ढा - टेसु सप्त. वि., ब. व. - उदक आवाटेसु च पविट्ठमच्छे गण्हितुं न देन्ति, पारा. अट्ठ. 1.264; खुद्दका.- छोटा गड्ढा – टो प्र. वि., ए. व. - कुसुम्भोति खुद्दकआवाटो, सद्द. 2.407; खुद्दा., चतुरस्सा., दीपिका., नरका. नरक का गड्ढा --टे सप्त. वि., ए. व. - "नरकावाटे पतितो भविस्सती ति, जा. अट्ठ. 4.240; यचा.- यज्ञ के लिए निर्मित गड्ढा - स्स ष. वि., ए. व. - यञ्जवाटस्स खत्तिया आनुयन्ता नेगमा, दी. नि. 1. 126; सोण्डि.- पहाड़ी या पर्वतीय तालाब - टे द्वि. वि., ए. व. - पग्यरित्वा सोण्डिआवाटे पूरेत्वा. स. नि. अट्ठ 1.247. आवाटक पु./नपुं., आवाट + क से व्यु., उपरिवत् - के सप्त. वि., ए. व. - पथवियं खणिते आवाटके घटेहि आहरित्वा, कसा. अट्ठ. 97; - कादि त्रि., गड्ढा इत्यादिदीसु सप्त. वि., ब. व. - गामद्वारे आवाटकादीसु पटिवसति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).319; स. उ. प. के रूप में, अक्खि., उदका., खुद्दका के अन्त. द्रष्ट.. आवाटतीर नपुं., गड्ढे का किनारा, गड्ढे का प्रान्त भाग या एक कोना - रे सप्त. वि., ए. व. - आवाटतीरे ठितो, जा. अट्ठ. 4.240; खणनोकासं गन्वा आवाटतीरे ठत्वा, जा. अट्ट, 6.13; आवाटतीरे एक गुम्बं ओलोकेन्तो अट्ठासि, ध. प. अट्ठ. 2.177. आवाटधातुक त्रि., ब. स., गड्डे जैसा, गड्ढे की प्रकृति का - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तं ठानं आवाटधातुकं होति. जा. अट्ट. 5.188. आवाटपुण्ण त्रि., तत्पु. स., (पात्रों के) खोखले भाग को परिपूर्ण कर रहा - ण्णं नपं., वि. वि., ए. व. - लुञ्चित्वावाटपुण्णं तं यूसंपत्तेहि आदिय, म. वं. 28.26. आवाटमुखवट्टि स्त्री., गड्डे का वर्तुलाकार मुख - यं सप्त. वि., ए. व. - आवाटमुखवट्टियं ओलुभ, जा. अट्ट, 1.256. आवाप पु., [आवाप]. मिट्टी के कच्चे वर्तनों को पकाने वाला आवा, कुम्हार का आवा - पं वि. वि., ए. व. - "कदा आवापं आलिम्पेस्ससी ति पुच्छित्वा, पटि. म. अट्ठ. 2.272; - पे सप्त. वि., ए. व. - आवापे पचेय्यासि, ध. प. अट्ठ. 1.103; कुम्भकारो सेट्टिना वुत्तनियामेनेव मारेत्वा आवापे खिपि, ध, प. अट्ठ. 1.103. आवापक पु., आवाप से व्यु. [आवाप, अन्नपात्र], नाई के स्तुरा को रखने वाला पात्र, क्षुरभाण्ड - केन तृ. वि., ए. व. - गच्छथ... खुरभण्डं आदाय नाळियावापकेन अनुघरक आहिण्डथ ... संहरथ, महाव. 326; नाळियावापकेनाति नाळिया च आवापकेन च आवापको नाम यत्थ लद्ध लद्ध आवपन्ति पक्खिपन्तीति वुत्तं होति, महाव. अट्ठ. 362. आवायिम/अवायिम नपुं., झालरदार आसन या बिछावन -- मं प्र. वि., ए. व. - निसीदनं नाम सदसं वुच्चति अवायिम. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).58. आवार पु., आ + Vवु से व्यु. [आवार], सुरक्षा, रक्षक आच्छादन, केवल स. उ. प. में ही प्राप्त, खन्धा., सकटा. के अन्त. द्रष्ट; खन्धा.- तत्पु. स. [स्कन्धावार], सेना की टुकड़ी का सुरक्षा कवच - रं द्वि. वि., ए. व. - बलकायो मग्गे खन्धावार बन्धित्वा, स. नि. अट्ठ. 1.278. आवारयति/आवारेति आ + वु का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. बन्द कर देता है, रुकावट डाल देता है, बाधित कर देता है, - मग्गं आवारयिस्सति पुरा पारिपूरि गच्छति, . .. पुरा मग्गमावारयति, नेत्ति. 81; -- तब्बं सं. कृ., नपुं, द्वि. वि., ए. व. - सकमहिना वा सो गङ्गाय सोतं आवारेतब्ब म य्य, स. नि. 2(2).288. आवास पु., आ + Vवस से व्यु. [आवास]. 1. निवास करना, आ कर बस जाना, आ कर आबाद कर देना, रहना – सो प्र. वि., ए. व. - सुचरितकम्मम्हि तदत्ते आयतिञ्च सुखावासहेतुताय "सुखविहारस्स आवासोति वुच्चति, वि. व. अट्ठ. 91; पुन आवासो आवसनं इदानि मह नत्थीति अत्थो , थेरगा. अट्ठ. 2.293; स. उ. प. के रूप में, पुना. - पुनर्जन्म, फिर से संसार बसाना - सो प्र. वि., ए. व. - नत्थि दानि पुनावासो, देवकायस्मि जालिनि, थेरगा. 908; 2. निवासस्थान, भवन, घर, बस्ती, आबादी - सो प्र. वि., ए. व. - आवासो भवनं वेस्म, अभि. प. 206; गेहो घरञ्च आवासो भवनञ्च निकेतनन्ति, सद्द. 1.86; 'गामो For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवास 235 आवासदान आवासो अनावासोति पुच्छि, जा. अट्ठ. 2.63; आवासो च भिक्खू विहरन्ति, महाव. 145; 148; - सा प्र. वि., ब. व. कुलं लाभो, गणो कम्मञ्च पञ्चमं अद्धानं जाति आबाधो, - इध पन भिक्खवे, सम्बहुला आवासा समानसीमा होन्ति, गन्थो इद्धीति ते दसाति, विसुद्धि. 1.89; अभि. अव. 799; महाव. 136; चूळव. 470; - सेसु सप्त. वि., ब. व. - -सं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - “आवासं सिविसेट्ठस्स पेत्तिक यंनूनाहं इमेसु द्वीसु आवासेसु वस्सं वसेय्यं, महाव. 202; भवनं ममाति, जा. अट्ठ. 7.270; समिद्ध देवनगरंव, आवास सद्धिकेसु च आवासेसु, ध. प. अट्ठ.1.293; स. उ. प. के पुञ्जकम्मिन, बु. वं. (पृ.) 294; आवासं पुञ्जकम्मिनन्ति रूप में; अना., अन्तरा., अरञा.. एका., कता., गब्भा., आवसन्ति एत्थ पुञकम्मिनो जनाति आवासो, ब. वं. अट्ठ. गामका., घना., घरा., छिद्दा., जरा., दया., दसा., दुरा., 79; - सं? पु., द्वि. वि., ए. व. - पत्तत्थ आवासमिमं नवा., नागसता., पञ्चा., पापकम्मरता., पुना., उळारं, जा. अट्ठ. 4.146; अगच्छित्थ देवपुरं आवास भिन्ना., मनुस्सा., महा., रोगा., वस्सा., विवित्तका., सगारवा., पुञकम्मिनन्ति, जा. अट्ठ. 5.182; अत्तनो आवासमेव सत्ता., सत्था., समग्गा., सुखाहेतुता., सुद्धा., सुरा के अन्त. अगमासि, जा. अट्ठ. 6.298; आवास वा न लभामि, महानि. द्रष्ट.. 157; ये न पस्सन्ति नन्दनं आवासं नरदेवानं, स. नि. आवासकप्प पु., [बौ. सं. आवासकल्प], एक ही सीमा के 1(1).7; - सेन तृ. वि., ए. व. - आवासेन सुद्धीति, म. अन्तर्गत भिन्न भिन्न आवासों या विहारों में अलग अलग रूप नि. 1.116; आवासेन सुद्धीति बहूस ठानेसु वसित्वा में उपोसथ नामक संघकर्म का अनुष्ठान, वैशाली के सुज्झन्तीति वदन्ति, म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1(1).363; - से वज्जिपुत्रीय भिक्षुओं द्वारा व्यवहार में अपनाई गई दस सप्त. वि., ए. व. - अञतरस्मि आवासे समागन्त्वा विनय सम्बन्धी वस्तुओं (प्रक्रियाओं) में से एक - प्पो प्र. अञमज सम्मोदित्वा, पे. व. अट्ठ. 12; कुले गणे आवासे वि., ए. व. - कप्पति सिङ्गिलोणकप्पो, कप्पति द्वङ्गुलकप्पो, लाभे यसे, महानि.7; - सा प्र. वि., ब. व. - विदितानि कप्पति गामन्तरकप्पो, कप्पति आवासकप्पो, कप्पति ते महाराज, आवासा पापकम्मिनं, जा. अट्ट. 6.149; अनुमतिकप्पो, कप्पति आचिण्णकप्पो, कप्पति अमथित कप्पो, पाठा. आवासं; - से द्वि. वि., ब. व. - निरये ताव कप्पति जलोगिं पातुं कप्पेति अदसक निसीदनं, कप्पति पस्सामि, आवासे पापकम्मिनं, जा. अट्ठ. 6.127; - सेहि जातरूपरजतन्ति, चूळव. 463; को सो, आवुसो, तृ. वि., ए. व. - न किरत्थि रसेहि पापियो आवासेहिव आवासकप्पो ति, चूळव. 470; 477. सन्थवेहि वा, जा. अट्ट, 1.161; 3. भिक्षुओं का निवासस्थान, आवासगत त्रि., निवासस्थान गया हुआ, (किसी की) विहार, आराम, परिवेण- सो प्र. वि., ए. व. - आवासो धर पकड़ का विषय बन चुका - तो पु., प्र. वि., नाम सकलारामोपि परिवेणम्पि एकोवरकोपिए. व. - आवासगतो मारस्स, स. नि. 2(2).98; आवासगतोति रत्तिट्ठानदिवाट्टानादीनिपि, ध. स. अट्ठ. 398; दुट्ठो, भन्ते, वसनट्ठानं गतो, स. नि. अट्ठ. 3.33. कीटागिरिस्मि आवासो, चूळव. 23; आवासोति विहारो आवासजग्गनक त्रि., आवास की देखरेख करने वाला - वुच्चति, पारा. अट्ट. 2.180; - सं द्वि. वि., ए. व. - को प्र. वि., ए. व. - आवासिकोति आवासजग्गनको, जा. अञ्जतरं आवासं उपगच्छिस महाव. 117; धम्मेहि समन्नागतो अट्ठ. 4.277; चरिया. अट्ट. 187. आवासिको भिक्खु आवासं सोभेति, अ. नि. 2(1).243; आवासता स्त्री., आवास का भाव., स. उ. प. में ही प्रयुक्त, अज्जेवाहं करिस्सामि आवासं वस फासुक, दी. वं. 14.67; दीघा.- लम्बे समय तक आवास (संसार) में बने रहने - साय च. वि., ए. व. - भिक्खनं आवासाय परिसक्कति, (लिप्त होने) की अवस्था - य तृ. वि., ए. व. - अ. नि. 3(1).164; - सा प. वि., ए. व. - पक्कमतु भन्ते । दीघावासताय निच्चादिसभावं भवविमोक्खं मञ्जन्ति, उदा. आयस्मा धम्मिको इमम्हा आवासा, अ. नि. 2(2).79; सो अट्ठ. 171. तम्हापि आवासा अझं आवासं गच्छति, महाव. 429; - आवासदान नपुं, तत्पु. स. [आवासदान], भिक्षुओं के स्स ष. वि., ए. व. - आवासिको भिक्खु आवासस्स निवासहेतु निवासस्थान का दान - नं प्र. वि., ए. व. - बहूपकारो होति, अ. नि. 2(1).243; - से सप्त. वि., ए. व. आवासदानं नामेतं. महाराज, महन्तं... आवासो मया परिभत्तो, - असुकस्मिं नाम आवासे सङ्को विहरति, अ. नि. 1(2).195; स. नि. अट्ठ. 3.91; म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.19; - तेन खो पन समयेन अञतरस्मि आवासे ... सम्बहुला स्मिं/ने सप्त. वि., ए. व. - आवासदानस्मिहि दिन्ने For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवासदेसना 236 आवाससङ्ग सब्बदानं दिन्नमेव होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.19; 79; - ते सप्त. वि., ए. व. - सिखायमाने आवासभूते, आवासदाने आनिसंसं सल्लक्खेत्वा इसिपतने महाविहारे सद्द. 1.249. ..., ध, प, अट्ठ. 2.170. आवासमच्छरिय नपुं., तत्पु. स. [आवासमात्सर्य], आवास आवासदेसना स्त्री., निवासस्थान के विषय में उपदेश, स. के विषय में मात्सर्य, आवास से सम्बन्धित तुच्छ एवं उ. प. के रूप में, सत्ता.- प्राणियों के आवासों के विषय स्वार्थभरी चित्तवृत्ति, पांच प्रकार के मात्सर्यों में प्रथम - यं में उपदेश, प्र. वि., ए. व. - नव सत्तावासदेसना, उदा. प्र. वि., ए. व. - आवासे मच्छरियं आवासहेतुकं वा अट्ठ. 273. मच्छरियं आवासमच्छरियं, विसुद्धि. महाटी. 2.466; - आवासपरम्परा स्त्री., तत्पु. स., शा. अ., आवासों की यानि ब. व. - पञ्च मच्छरियानि - आवासमच्छरियं, कतार, आवासों की श्रृंखला, ला. अ., प्रत्येक आवास कुलमच्छरियं, लाभमच्छरियं, वण्णमच्छरियं धम्ममच्छरियं, (विहार), एक एक आवास में, सभी भिक्षु-आवास-रं द्वि. दी. नि. 3.187; महानि. 26, 93, 165; मच्छरियानीति वि., ए. व. - आवासपरम्परञ्च, भिक्खवे, संसथ, चूळव. आवासमच्छरियं कुलमच्छरिय, लाभमच्छरियं 46; ... आवासपरम्परञ्च भिक्खवे संसथाति सब्बावासेसु धम्ममच्छरियं वण्णमच्छरियन्ति इमासु आवासादीसु आरोचेथ, चूळव, अट्ठ. 5. अजेसं साधारणभावं असहनाकारेन पवत्तानि पञ्च आवासपलिगेधी त्रि., आवास के विषय में अत्यधिक लालची मच्छरियानि, विसुद्धि. 2.321; - येन तृ. वि., ए. व. - या लोभी -धी पु., प्र. वि., ए. व. - पञ्चहि धम्मेहि आवासमच्छरियेन पनेत्थ यक्खो वा पेतो वा हत्वा, दी. नि. समन्नागतो आवासिको ... न आवासमच्छरी होति न अट्ठ. 2.279; अपिच आवासमच्छरियेन लोहगेहे पच्चति, आवासपलिगेधी, अ. नि. 2(1).245; सत्तमे दी. नि. अट्ठ. 2.279; - स्स ष, वि., ए. व. - आवासपलिगेधीति आवासं बलवगिद्धिवसेन गिलित्वा विय आवासमच्छरियस्स पहानाय समच्छेदाय ब्रह्मचरियं वस्सति, ठितो, अ. नि. अट्ठ. 3.85. अ. नि. 2(1).254. आवासपलिबोध पु., तत्पु. स., बाधा के रूप में आवास, आवासमच्छरी त्रि., आवास के विषय में कृपणवृत्ति अथवा कठिनचीवर के सन्दर्भ में आवास से सम्बन्धित बाधा, मात्सर्य-भरी मनोवृत्ति रखने वाला, आवास के प्रति लालची सोलह प्रकार के पळिबोधों में से एक, आवास-विषयिणी अथवा "आवास में केवल मैं रहूं, दूसरे न रहें', इस प्रकार बाधा -धो प्र. वि., ए. व. - आवासोयेव आवासपलिबोधो, की स्वार्थ-भरी प्रवृत्ति वाला - री पु., प्र. वि., ए. व. - विसृद्धि. 1.89; द्वे कथिनस्स पलिबोधा?... आवासपलिबोधो न आवासमच्छरी होति, न कुलमच्छरी होति, अ. नि. च चीवरपलिबोधो च, महाव. 352; परि. 239; चीवरपलिबोधो 2(1).238; - रिनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - न पठमं छिज्जति, तस्स सह वहिसीमगमना, आवासपलिबोधो आवासमच्छरिनी होति, अ. नि. 2(1).130; पञ्चमे छिज्जति, परि. 334; पठमं चीवरपलिबोधो छिज्जति, पच्छा आवासमच्छरिनीति आवासं मच्छारायति, तत्थ असं वासं आवासपलिबोधो, महाव. अट्ठ. 370; स. उ. प. के रूप में, न सहति, अ. नि. अट्ठ. 3.46. घरा. - पु., घर में बसने की बाधा, गृहस्थ जीवन की आवासलोभ पु., तत्पु. स. [आवासलोभ], निवासस्थान के बाधा या रुकावट - धं द्वि. वि., ए. व. - सब्बं प्रति लोभ - भेन तृ. वि., ए. व. - मया सीलवन्तो घरावासपलिबोधं छिन्दित्वा ... पब्बजासङ्घातेन एकच्चरियं कल्याणधम्मा भिक्खू आवासलोभेन परिभिन्ना, पे. व. अट्ठ, दळ्हं करेय्य?, महानि. 114. 12. आवासपाळि स्त्री., तत्पु. स. [आवासपालि], आवासों की आवासवत्त नपुं., विहार (आवास) में नियमित निवास करने पंक्ति, निवासस्थानों की कतार, बहुत सारे भिक्षुआवास या वाले भिक्षुओं द्वारा पालनीय नियम - त्तं द्वि. वि., ए. व. विहार, प्र. वि., ए. व. - आवासपालि ब्याधानं तदा आसि - आवासवत्तमावासी, अकरोन्तोव दोसवा, उत्त. वि. 555. निवेसिता, म. वं. 10.95. आवाससङ्ग पु., तत्पु. स., आवासविषयक आसक्ति, स्थायी आवासभूत त्रि., आवास अथवा निवासस्थान बन चुका, बसा आवास के साथ मन का लगाव - नेन तृ. वि., ए. व. - दिया गया, आबाद कर दिया गया - तं नपुं.. प्र. वि., ए. निबद्धवासो च आवाससङ्गेन होति, सो च दुक्खो, सु. नि. व. - तेसं पुञ्जकम्मिनं आवासभूतन्ति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. अट्ठ. 1.28. For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवाससप्पाय 237 आवाह आवाससप्पाय पु.. [बौ. सं. आवास-साम्प्रेय], हितकर अथवा उपयुक्त आवास, विनय-नियमों के अनुरूप आवास, स. प. के अन्त., - आवाससप्पाय उतुसप्पाय । भोजनसप्पाय ... आदीनि आसेवन्तो अन्तरन्तरा समापत्तिं समापज्जित्वा, ध. प. अट्ठ. 1.180; - ता स्त्री., भाव., आवास की हितकरता, आवास की उपयुक्तता - य तृ. वि., ए. व. - आवाससप्पायताय हि तम्बपण्णिदीपम्हि चूळनागलेणे... पञ्चसता भिक्खू अरहत्तं पापुणिस, विसुद्धि. 1.124. आवाससामिक पु., तत्पु. स., आवास का स्वामी, निवासस्थान का मालिक - का प्र. वि., ब. व. - सचे आवाससामिका नत्थि ..... स. नि. अट्ठ. 3.144. आवासानिसंसकथा स्त्री., तत्पु. स., आवास के (दान से प्राप्त) पुण्य अथवा लाभ का कथन - थं द्वि. वि., ए. व. - आवासे आनिसंसो, अयम्पि आनिसंसोति बहदेवरत्तिं अतिरेकतरं दियड्डयामं आवासानिसंसकथं कथेसि, म, नि. अट्ठ. (म.प.) 2.19-20; स. नि. अट्ठ. 3.92. आवासापेति आ + Vवस का प्रेर., वर्तः, प्र. पु., ए. व., वसा देता है, आवसति के अन्त., द्रष्ट.. आवासिक त्रि., आवास से व्यु. [आवासिक], शा. अ., आकर बस जाने वाला, अपने निर्धारित आवास (विहार) में रहने वाला, ला. अ., अपने विहार में नियमित रूप से निवास कर रहा भिक्षु, विहार का नियमित निवासी भिक्षुको पु..प्र. वि., ए. व. - आयस्मा सुधम्मो मच्छिकासण्डे चित्तस्स गहपतिनो आवासिको होति, चूळव. 35; आवासिको होतु महाविहारे, जा. अट्ठ. 4.276; आवासिकोति भारहारो नवे आवासे समुट्ठापति, पुराणे पटिजग्गति, अ. नि. अट्ठ. 2.212; नो आवासिको, अत्थापत्ति आवासिको आपज्जति, परि. 250; “पञ्चहुपालि, अङ्गेहि समन्नागतो आवासिको भिक्खु, परि. 376; - स्स च. वि., ए. व. – “असादियन्ता आवासिकस्स देथाति, स. नि. अट्ठ. 1.191; - का पु.. प्र. वि., ब. व. - आवासिका होन्तीति एत्थ आवासो एतेसं अत्थीति आवासिका, पारा. अट्ठ. 2.180; "कथहि नाम आवासिका भिक्खू उपोसथागारं न सम्मजिस्सन्ती ति, महाव. 147; गामकावासे आवासिका भिक्खू उपडुता होन्ति, चूळव. 299; अस्सजिपुनब्बसुका नाम भिक्खू कीटागिरिस्मिं आवासिका होन्ति, म. नि. 2.148; द्वे जना कीटागिरिस्मि आवासिका होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.133; - के द्वि. वि., ब. व. -- बुडतरेपि आवासिके भिक्खू न अभिवादेन्ति, चूळव. 349; - कानं ष. वि., ब. व. - आवासिकानं भिक्खूनं चातुद्दसो होति, महाव. 172; आवासिकानं भिक्खून वत्तं पञपेस्सामि, चूळव. 352; - निमित्त नपुं.. विहारवासी भिक्षु होने का चिह्न - तं द्वि. वि., ए. व. - आगन्तुका भिक्खू पस्सन्ति आवासिकानं भिक्खूनं आवासिकाकारं, आवासिकलिङ्ग आवासिकनिमित्तं, आवासिकद्देसं... पस्सित्वा वेमतिका होन्ति, महाव. 173; - काकार पु., आवासिक भिक्षु होने का आकार-प्रकार - रं द्वि. वि., ए. व. - आगन्तुका भिक्खू पस्सन्ति आवासिकानं भिक्खून आवासिकाकार, आवासिकलिङ्ग, आवासिकनिमित्तं, आवासिकुद्देसं... पस्सित्वा वेमतिका होन्ति, महाव. 173. आवासिकवग्ग पु., परि. के एक खण्ड-विशेष का शीर्षक, जिसमें आवासिक भिक्षुओं से सम्बद्ध विनय के विषय संगृहीत हैं, परि. 376-378; - ग्गे सप्त. वि., ए. व. - आवासिकवग्गे - यथाभतं निक्खित्तोति यथा आहरित्वा ठपितो, परि. अट्ठ. 227. आवासिकवत्त नपुं, आवासिक भिक्षुओं द्वारा पालनीय नियम - त्ते सप्त. वि., ए. व. - आवासिकवत्ते आसनं पञपेतब्बन्ति एवमादि सब् वुड्डतरे आगते चीवरकम्म वा - नवकम्म वा ठपेत्वापि कातब्ब, चूळव. अट्ठ. 116. आवासिकवत्तकथा स्त्री., चूळव. के वत्तखन्धक की दूसरी कथा का शीर्षक, जिसमें विहार में स्थायीरूप से रहने वाले आवासिक भिक्षुओं के कर्तव्यों का विवरण संग्रहीत है, चूळव. 352-353; चूळव. अट्ठ. 116. आवासिकसङ्घत्थेर पु., विहार में नियमित वास करने वाले आवासिक भिक्षुओं में सबसे वरिष्ठ एवं प्रमुख स्थविर - रो प्र. वि., ए. व. - जिण्णमहाविहारे आवासिकसङ्घत्थेरो हुत्वा ..., जा. अट्ठ. 4.277. आवासु/आपासु नियमित आवासु का अप०, आपदा का सप्त. वि., ब व. - आपासु व्यसनं पत्तो, जा. अट्ट. 3.9; आवासु किच्चेसु च नं जहन्ति, जा. अट्ठ. 5.442; 445; आवासूति आपदासु, जा. अट्ठ. 5.443. आवाह पु./नपुं.. [आवाह], विवाह का वह स्वरूप जिसमें वधू को वर के घर में ले आया जाता है तथा अपने पुत्र को विवाह हेतु सौंप दिया जाता है, कन्या-ग्रहण-पद्धति वाला विवाह-संस्कार - हो प्र. वि., ए. व. - आवाहोति कआगहणं विवाहोतिक आदानं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.282; आवाहादीसु आवाहोति दारकस्स परकुलतो दारिकाय For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवाहक 238 आवि आहरणं पारा. अट्ठ. 2.126; इमस्स गहपतिस्स आवाहो वा भविस्सति, विवाहो वा भविस्सति, चूळव. 282; आवाहो वा होति, विवाहो वा होति, दी. नि. 1.86; - हं द्वि. वि., ए. व. - यसोपिस्स महा अहोसि, आवाहमस्स कातुं वट्टतीति, जा. अट्ठ. 6.192; सो चतुन्नं पुत्तानं आवाहं कत्वा चत्तारि सतसहस्सानि अदासि, स. नि. अट्ठ. 1.229; ध. प. अट्ठ. 2.286; मातापितरो आवाहं कत्वा, ध. प. अट्ठ. 2.151; आवाहं ते करिस्सामा, ध, प. अट्ठ. 2.164; साधूति सम्पटिच्छिते दिवसं ठपेत्वा आवाहं करिसु, ध, प. अट्ठ.2.170; - हानि द्वि. वि., ब. व. - एतेनेव उपायेन आवाहानिपि कारापेति, विवाहानिपि कारापेति, वारेय्यानिपि कारापेति, पारा. 200; द्रष्ट. विलो. विवाह के अन्त.. आवाहक त्रि., आ + Vवह से व्यु. [आवाहक], शा. अ., आवहन करने वाला, ले आने वाला, ला. अ., कन्या को पुत्र के लिए ग्रहण कर वर के घर लाने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. - आवाहविवाहकानन्ति आवाहका नाम ये तस्स घरतो दारिकं गहेतुकामा, दी. नि. अट्ठ. 3.117. आवाहन नपुं, आ + Vवह से व्यु., क्रि. ना., कन्या को वर के घर ले आना, वर के लिए कन्या का ग्रहण एवं वर के घर ले आना, विवाह का ही एक प्राचीन स्वरूप - नं प्र. वि., ए. व. -- आवाहनं विवाहनं संवरणं विवरणं संकिरणं, विकिरणं, दी. नि. 1.10; 61; असुकनक्खत्तेन दारिकं आनेथाति आवाहकरणं, दी. नि. अट्ठ. 1.85. आवाहमङ्गल नपुं., तत्पु. स., विवाह का मांगलिक पर्व, विवाह का मङ्गलमय उत्सव - लं' प्र. वि., ए. व. - आभरणमङ्गलं अभिसेकमङ्गलं आवाहमङ्गलन्ति तीणि मङ्गलानि अकंसु, सु. नि. अट्ठ. 1.227; - लं' द्वि. वि., ए. व. - मिगारसेडिपि पुत्तस्स आवाहमङ्गलं करोन्तो....ध. प. अट्ठ. 1.223; - ले सप्त. वि., ए. व. - आवाहमङ्गले तत्थ सत्ताह उस्सवो महा, म. वं. 7.34. आवाहयुत्त त्रि., विवाह के लिए उपयुक्त, विवाह करने योग्य - त्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - अनावरहन्ति न आवाहयुत्तं, दी. नि. अट्ठ. 3.136. आवाहविवाह पु./नपुं॰, द्व. स. [आवाहविवाह], 1. विवाह के प्राचीन काल के दोनों स्वरूप, क. वह विवाह जिसमें वधू को ग्रहण कर वर के घर लाया जाता था, ख. वह विवाह जिसमें वधू का कन्यादान किया जाता था, 2. विवाहोत्सव, 3. वर एवं वधू का आपस में विवाह - आवाहोति कागहणं विवाहोति कञआदानं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.282; - हं द्वि. वि., ए. व. - तेसं आवाहविवाह करिस्सामा ति, जा. अट्ठ. 6.86; तेसं अनिच्छमानान व अञमज आवाहविवाहं करिंस, जा. अट्ठ. 4.21; चरिया. अट्ठ. 233; तादिसे काले तं आनेत्वा आवाहविवाहं अकंस, वि. व. अट्ठ. 87; - क त्रि., आवाह करने वाला एवं विवाह ___ करने वाला, अपने पुत्र को अथवा अपनी पुत्री को विवाह में देने वाला-कानं पु.. ष. वि., ब. व. - आवाहविवाहकानं अपत्थितो, दी. नि. 3.139; आवाहविवाहकानन्ति आवाहका नाम ये तस्स घरतो दारिक गहेतुकामा ..., दी. नि. अट्ट. 3.117. आवाहविवाहविनिबद्ध त्रि., शा. अ., विवाह-सम्बन्ध द्वारा एक दूसरे के साथ जुड़े हुए, ला. अ., एक दूसरे के साथ गहराई के साथ जुड़े हुए -द्धा पु., प्र. वि., ब. व. - ये हि केचि... आवाहविवाहविनिबद्धा वा..., दी. नि. 1.86. आवाहविवाहसम्बन्ध पु., विवाह द्वारा आपस में सम्बन्ध, घनिश्ट सम्बन्ध, परस्पर-सम्बन्ध, दो व्यक्तियों के बीच उपयुक्त सम्बन्ध - धो प्र. वि., ए. व. - आवाहविवाहसम्बन्धो नाम महञ्च तया तरहञ्च मया सद्धि पतिरूपो, जा. अट्ठ. 1.432; कस्सपकोण्डानञ्च अञ्जमझं आवाहविवाहसम्बन्धो अत्थि जा. अट्ट. 2.299; - धं द्वि. वि., ए. व. - विवाहन्ति आवाहविवाहसम्बन्धं जा. अट्ठ. 3.413. आवाहेति आ + Vवह का प्रेर., वर्त.. प्र. पु., ए. व., ले आने हेतु प्रेरित करता है, विवाह कराता है, आवहति के अन्त., द्रष्ट.. आवि/आवी/आविं अ., निपा. [आविः], एक दम सुस्पष्ट, पूरी तरह से साफ सुथरा, आखों के सामने, प्रत्यक्ष रूप में, खुले रूप में - था वि पातु च, अभि. प. 1149; सम्मुखा त्वा वि पातु च, अभि. प. 1157; 2 रूपों में प्रयोग में प्राप्त, 1. विलो. 'रहो' (छिपे रूप में, पीछे) के साथ, आंखों के सामने, पीछे छिपे रूप में, प्रकट रूप में अथवा गुप्त रूप में - आवी रहोति सम्मुखा च परम्मुखा च, जा. अट्ठ. 3.231; आवी रहो वापि मनोपदोसं नाहं सरे जातु मलीनसत्ते, जा. अट्ठ. 5.26; माकासि पापकं कम्म, आवि वा यदि वा रहो, स. नि. 1(1).241; आवि वा परेसं पाकटभाववसेन अप्पटिच्छन्नं कत्वा, उदा. अट्ठ. 240; 2. Vकर एवं भू के साथ स. प. के रूप में प्रयुक्त, क. (कर के साथ, प्रकट करता है, सुप्रकाशित कर देता है, प्रयोग आगे द्रष्ट; ख. Vभू के साथ, प्रकट अथवा प्रकाशित होता है, प्रयोग द्रष्ट, आगे. For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविकत 239 आविज्झति आविकत त्रि., आवि + Vकर का भू. क. कृ. [आविष्कृत], पूरी तरह सुस्पष्ट कर दिया गया, सुप्रकाशित, अच्छी तरह से अभिव्यक्त - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - न च नो केवलं परिपूरं ब्रह्मचरियं आविकतं होति उत्तानीकतं, दी. नि. 3.90; वुत्तत्ता तदाकारसन्निहानं एवंसद्देन आविकतं, उदा. अट्ठ.8; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - 'आविकता हिस्स फासु होती ति, महाव. 131; थेरगा. अट्ठ. 2.100; दिट्ठि आविकता होति, परि. अट्ठ. 222. आविकत्तु पु.. [आविष्कर्तृ], सुस्पष्ट करने वाला, प्रकाशित करने वाला, सभी के सामने प्रकाश में लाने वाला उद्घाटित करने वाला - त्ता प्र. वि., ए. व. - यथाभूतं अत्तानं आविकत्ता सत्थरि वा विसु वा सब्रह्मचारीसु, दी. नि. 3.189; यानि खो पनस्स होन्ति साठेय्यानि कूटेय्यानि जिम्हेय्यानि वड्डेय्यानि, तानि यथाभूतं सारथिस्स आविकत्ता होति, अ. नि. 3(1).32; यथाभूतं आबाधं नाविकत्ता होति, महाव. 394; अ. नि. 2(1).135. आविकम्म नपुं.. [आविष्करण], प्रकाशन, उद्घाटन, सुस्पष्टीकरण- म्म प्र. वि., ए. व. - गुरहस्स हि गुरहमेव साधु, न हि गुरहस्स पसत्थमाविकम्म, जा. अट्ठ. 6.211; 217; स. उ. प. के रूप में, अना., दिट्ठा., दुब्बल्ला . के अन्त. द्रष्ट.. आविकरण नपुं.. [आविष्करण], सुस्पष्ट करना, भली भांति व्याख्या करना, पूरी तरह से खुलासा करना - णत्थं क्रि. वि., सुस्पष्ट करने हेतु - तस्स लद्धिया आविकरणत्थं एक कारणं आहरितुं इदमारद्धं, दी. नि. अट्ठ. 1.254. आविकरोति आवि + कर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आविष्करोति], क. सुस्पष्ट करता है, साफ तौर पर बतलाता है, उद्घोषित करता है, कहता है - मि उ. पु., ए. व. - ते आविकरोमि सक्खिपुट्टो, सु. नि. 84; सत्तम्यत्थे च तुरहं चस्स आविकरोमि, क, व्या. 279; - हि अनु., म... पु., ए. व. - त्वं आविकरोहि भूमिपाल, जा. अट्ठ. 6.209%; अथ मे आविकरोहि मग्गदूसिं. सु. नि. 85; - न्तो वर्त. कृ ., पु.. प्र. वि., ए. व. - भगवा पुग्गलानं नागयोनीहि उद्धरणत्थं नागयोनियो आविकरोन्तो इमं सुत्तमाह, स. नि. अट्ठ. 2.312; - न्ती स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एवं थेरेन पुच्छिता सा देवता अत्तानं आविकरोन्ती, वि. व. अट्ट, 63; ख. भावों को अभिव्यक्त करता है अथवा प्रकट करता है। -- ति वर्त., प्र. पु., ए. व. - कुद्धोपि सो नाविकरोति कोपं. जा. अट्ठ. 7.148; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - धम्मदेसनं सुत्वा पसन्नो पसादं आविकरोन्तो, स. नि. अट्ठ. 1.120; ग. रहस्य को उद्घाटित करता है, अपराध या पाप को स्वीकारता है - रोहि अनु., म. पु.. ए. व. - विपस्सिनं जानमुपागमुम्हा परिसासु नो आविकरोहि कप्पं. सु. नि. 351; सु. नि. अट्ठ. 2.74; निग्रोधकप्पं आविकरोहि पकासेही ति, थेरगा. अट्ठ.2.450; - रेय्य विधि०, प्र. पु.. ए. व. - आविकरेय्य गुरहमत्थं, जा. अट्ठ. 6.209; यस्स सिया आपत्ति सो आविकरेय्य महाव. 130; सो आविकरेय्याति सो देसेय्य, सो विवरेय्य, महाव. 131; - कातब्बं सं. कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. - आविकरणं युत्तं आविकातब्ब, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.93; - तब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सन्ती आपत्ति आविकातब्बा, महाव. 131; - कारापेत्वा प्रेर०, पू. का. कृ., पाप या अपराध का स्वीकरण करवा कर - अतेकिच्छो नाम आविकारापेत्वा विस्सज्जेतब्बो ति, चूळव. अट्ठ. 27; घ. 'अत्तानं' के साथ प्रयुक्त रहने पर, आत्मान्वेषण करता है, स्वयं को खोजता है -रोन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - थेरस्स अत्तानं आविकरोन्तो कामरागेनाति आदिमाह, स. नि. अट्ट, 1.239; - न्तं पु.. द्वि. वि., ए. व. - एवं अत्तानमाविकरोन्तं भगवन्तं दिस्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.262; ङ. 'दिट्टि' के साथ प्रयुक्त होने पर, अपनी दृष्टि को बतलाता है या प्रकट करता है - ति वर्त., प्र. पु., ए. व. - अनापत्तिया दिद्धिं आवि करोति, परि. 347; 348; गरुकापत्तिया दिहिं आविकरोति, परि. अट्ठ. 222. आविज्झति/आविज्जति/आविज्ञति/ आविञ्जति/आविञ्छति व्य., संदिग्ध, संभवतः आ + विध एवं आ + विच अथवा आ + विजि के परस्पर व्यामिश्रण के फलस्वरूप अनेक रूपों में उपलब्ध [आविध्यति, भिन्नार्थक], क. गोल चक्कर में घूमता है या घुमाता है, चक्कर काटता है, चारों ओर चक्कर लगाता है, चक्राकार रूप में घूमता है, चक्राकार गति को प्राप्त करता है, चारो ओर से घेर लेता है, अपने अन्दर समाहित कर लेता है - अति वर्त., प्र. पु., ए. व. - ... सो नागो रत्तिं तं सधातुकट्ठानं अनुपरियाति आविञतीति अत्थो, म. वं. टी. 342; - ज्झन्ति ब. व. - आविज्झन्ति च चेलानि सम्बोधिं परिवारिता, दी. वं. 16.26; अथ नं पादे गहेत्वा आविञ्छन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.3; - ऊछेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - गावि तरुणवच्छंविसाणतो आविञ्छेय्य, ... उदक कलसे आसिञ्चित्वा मत्थेन आविञ्छेय्य, म. नि. 3.181; - For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविञ्छति 240 आविञ्जन माना वर्त. कृ., स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... एक थम्भ हत्थेन गहेत्वा.तं आविञ्छमानाव समणधम्मं करोति, ध. प. अट्ठ. 1.398; - जि /ञ्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - .... तिक्खन्तुं दीपं आविज्जि, पारा. अट्ट. 1.62; आविज्जीति समन्ततो विचरि सारत्थ. टी. 1.156; ... एकं मत्तिकापिण्ड चक्के ठपेत्वा चक्कं आविञ्छि, जा. अट्ठ. 5.281; - ज्जितु निमि. कृ. - ... आविज्जितुं न सक्का होति, पारा. अट्ठ. 2.141; आविज्जितुं न सक्का होतीति छिन्द तटादिसम्भवतो न सक्का होति आविज्जितुं, सारत्थ. टी. 2.296; - ज्झित्वा पू. का. कृ. - तत्थपि चित्तस्सादं । अलभमानो अन्तन्तेन आविज्झित्वा आरामपच्चन्ते .... पासाणफलके निसीदि, दी. नि. अट्ठ. 3.10; “सुत ताताति बोधिसत्तो पोक्खरणिं आविज्झित्वा पदं परिच्छिन्दन्तो ओतिण्णमेव पस्सि, जा. अठ्ठ. 1.171-172; सो ता आविज्झित्वा मज्झिमसुकरियो ता आविज्झित्वा पोतकसूकरे ते आविज्झित्वा जरसूकरे .... जा. अट्ठ. 2.333; “खेत्तं पन आविज्झित्वा पण्णसझंबन्धन्तूति, जा. अट्ठ. 1.156; ख. प्रवृत्त करता है, समीप में जा पहुंचता है, आश्रय ग्रहण कर लेता है, अपनी ओर खींच लेता है - ज्छति वर्त, प्र. पु., ए. व. - तं चक्खु आविञ्छति मनापियेसु रूपेसु. स. नि. 2(2). 197; - ज्छेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - कुक्कुरो आविञ्छेय्य गामं पवेक्खामी ति, स. नि. 2(2).197; - छेय्यु ब. व. - अथ खो, ते भिक्खवे, छप्पाणका नानाविसया नानागोचरा सकं सकं गोचरविसयं आविञ्छेय्यु, स. नि. 2(2).196-197; - ज्झन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - ब्राह्मणो तस्स कालकिरियतो पट्ठाय सुसानं गन्त्वा छारिकपुञ्ज आविज्झन्तो परिदेवति, जा. अट्ठ. 4.54; - ज्झित्वा पू. का. कृ. - यस्मा पनेतं नगरं बहि आविज्झित्वा जातेन हत्थि अस्सादीनं घासतिणेन चेव गेहच्छादनतिणेन च सम्पन्न, दी. नि. अट्ठ. 1.199; ग. नियन्त्रित अथवा सुव्यवस्थित कर लेता है, अपने वश में कर लेता है - ज्छेय्यासि विधि., म. पु., ए. व. - ततो त्वं, मोग्गल्लान, उभो कण्णसोतानि आविच्छेय्यासि, अ. नि. 2(2).225. आविञ्छति आ + विछ से व्यु., अपनी ओर खींचता है या घसीटता है, आकर्षित होता है, आकर्षित करता है, वर्त, प्र. पु., ए. व. - यस्स कस्सचि भिक्खनो कायगतासति अभाविता अबहुलीकता, तं चक्खु आविञ्छति ... मनो आविञ्छति मनापियेसु धम्मेसु, स. नि. 2(2).197; यस्मि यस्मिं द्वारे आरम्मणं बलवं होति तं तं आयतनं तस्मिं तस्मिं आरम्मणे आविञ्छति, स. नि. अट्ठ. 3.108; तं चक्ख नाविञ्छतीति, स. नि. अट्ठ. 3.109; - न्ति ब. व. - आविञ्छन्तीति आकड्डन्ति, सारत्थ. टी. 1.298; -- छेय्य/ज्छेय्यु विधि., प्र. पु., ए./ब. व. - ते छप्पाणका नानाविसया नानागोचरा सकं सकं गोचरविसयं आविछेय्यु - अहि आविञ्छेय्य, वम्मिकं पवेक्खामी ति ससमारो आविज्छेय्य उदकं पवेक्खामी ति, स. नि. 2(2).197; आविञ्छेय्युन्ति आकड्डेय्यु, स. नि. अट्ट, 3.107; गाविं तरुणवच्छं विसाणतो आविञ्छेय्य .... म. नि. 3.181; - ज्छेय्यासि म. पु., ए. व. - उभो कण्णसोतानि आविञ्छेय्यासि, अ. नि. 2(2).225; - विञ्छेय्याम उ. पु., ब. व. - गोयुगेहि आविञ्छेय्यामाति, दी. नि. 3.15; आविञ्छेय्यामाति आकड्डेय्याम, दी. नि. अट्ठ. 3.10; - ञ्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - भिक्खु इत्थिया गहितं रज्जं सारत्तो आविञ्छि, पारा. 187; - छित्वा पू. का. कृ. - आविञ्छित्वा आविञ्छित्वाति अत्थो, सु. नि. अट्ठ. 2.182. आविजन/आविञ्छन/आविञ्छना नपुं./स्त्री., आ + विध से व्यु., क्रि. ना., शा. अ., अन्दर तक जाकर बेध देना, अपनी ओर खींचना या घसीट कर ले आना, आकर्षित करना, ला. अ.. चारों ओर चक्र के आकार में घूमना, चक्कर काटना, ढिलाई के साथ लटकना - ना स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - आकड्ढना नाम आविञ्छना, पारा. 174; - ने सप्त. वि., ए. व. - राजा आविञ्छने बन्धं कुञ्चिकमुद्दिकं गण्हि, दी. नि. अट्ट, 2.184; - छिद्द नपुं.. तत्पु. स., द्वार के किवाड़ों पर बनाया गया वह छिद्र जिसमें अन्दर की ओर डोरी डालकर अन्दर की सिटकनी को खोला अथवा बन्द किया जा सके - इं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आविञ्छनछिद्दन्ति यत्थ अङ्गुलिं वा रज्जुसङ्खलिकादिं वा पवेसेवा कवाट आकड्डन्ता द्वारबाहं फसापेन्ति, तस्सेतं अधिवचनं, वि. वि. टी. 2.224; आविञ्छनछिद्दन्ति यत्थ अङ्गुलिं पेवेसेत्वा द्वारं आकड्डनता द्वारवाहं फुसापेन्ति, तस्सेतं अधिवचनं, सारत्थ. टी. 3.357; - रज्जु स्त्री., तत्पु. स., खींचने वाली रस्सी, द्वार को खोलने एवं बन्द करने हेतु प्रयुक्त द्वार के बाहर लटक रही डोरी - ज्जु द्वि. वि., ए. व. -- "अनुजानामि, भिक्खवे, कवाट... आविछनरज्जुन्ति, चूळव. 239; ... आविञ्छनरज्जुन्ति एत्थ रज्जु नाम सचेपि दीपिनङ्गटन कता होति, चूळव. अट्ठ. 59; आविञ्छनरज्जुन्ति कवाटेयेव छिद्द कत्वा तत्थ पवेसेत्वा येन रज्जुकेन कड्डन्ता द्वारं फुसापेन्ति, तं आविञ्छनरज्जुक For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविट्ठ 241 आविभाव सारत्थ. टी. 3.357; - यं सप्त. वि., ए. व. - ... आविद्धपक्खपासकन्ति कणिकमण्डलस्स समन्ता आविञ्छनरज्जुयं कुञ्चिकमुद्दिकं बन्धित्वा, दी. नि. अट्ठ. ठपितपक्खपासक, वि. वि. टी. 2.220; द्रष्ट. 2.183; - रज्जुट्ठान नपुं., खींचने वाली रस्सी का स्थान पक्खपासक(आगे). - ने सप्त. वि., ए. व. - आविञ्छनरज्जडाने आरक्खं आविभवति आवि + Vभू का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आविर्भवति], गहेत्वा अट्टासि, ध. प. अट्ठ. 1.328; - रस त्रि., खींचने आंखों के सामने आ जाता है, सुस्पष्ट हो जाता है, प्रकट अथवा घसीट कर ले जाने का काम करने वाला - सं हो जाता है - अविपरिणामधम्मस्स पन निरोधस्स दस्सनेनस्स नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ... चक्खु रूपेसु आविञ्छनरसं विपरिणामट्टो आविभवतीति वत्तब्बमेवेत्थ नत्थि, विसुद्धि. ... सोतं सद्देसु आविञ्छनरसं... घानं गन्धेसु आविञ्छनरसं 2.331; दुक्खदस्सनेन निदानट्ठो आविभवति, तदे.; ---न्ति ..., जिव्हा, रसेसु आविञ्छनरसा .... विसुद्धि. 2.71; - सो ब. व. - सच्चन्तरदस्सनवसेन च आविभवन्ति, विसुद्धि. पु., प्र. वि., ए. व. - कायो फोटेब्बेसु आविञ्छनरसो, तदे.; महाटी. 2.475; लक्खणादीसु आतेसु धम्मा आविभवन्ति रूपेसु पुग्गलस्स, विआणस्स वा आविञ्छनरसं विसुद्धि. हि, अभि. अव. 632; - विस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - महाटी. 2.85; - क नपुं., देवराज शक्र की वह सदा घूमते मुत्ते पन थुल्लच्चयम्पि पाराजिकम्पि होति, तं परतो रहने वाली रस्सी जिसके द्वारा वे लोकों की धुरी तथा चक्र आविभविस्सति, पारा. अट्ठ. 1.265; सत्तेसु महाकरुणाय का संधारण करते हैं - के सप्त. वि., ए. व. - सक्को समोक्कमनाकारो, सो परतो आविभविस्सति, उदा. अट्ठ. देवराजा आविञ्छनके आरक्खं विस्सज्जेसि, ध. प. अट्ठ. 106; तस्स उप्पत्ति परतो आविभविस्सति, थेरगा. अट्ठ. 1.329; सक्को देवराजा आविञ्छनके आरक्खं गण्हि, ध. प. 1.863; पठमं झानन्ति इदं परतो आविभविस्सति, विसुद्धि. अट्ठ. 1.329. 1.140; - विस्सन्ति ब. व. - अतिलीनोति आदीनि परतो आविट्ठ त्रि., आ + विस का भू. क. कृ. [आविष्ट], शा. आविभविस्सन्ति, स. नि. अट्ठ. 3.284. अ., प्रविष्ट, वह, जिसके भीतर कोई पूर्ण रूप से समा आविभवन नपूं, आवि + भू से व्यु., क्रि. ना., सुस्पष्ट गया है, ला. अ., पूर्णरूप से ग्रस्त अथवा अभिभूत, भूत- अथवा सुप्रकाशित हो जाना, आविर्भाव, आंखों के सामने आ प्रेतादि से ग्रस्त अथवा वशीकृत -ट्ठा स्त्री., प्र. वि., ए. जाना - नं प्र. वि., ए. व. - आविभावो ति, आविभवनं व. - वारुणीवाति यक्खाविट्ठा इक्खणिका विय .... जा. आविभावो, सद्द. 1.71; आविभवनन्ति पच्चक्खभावो, सद्द. अट्ठ. 7.371. 1.86. आविद्ध त्रि., आ + विध का भू. क. कृ. [आविद्ध], शा. आविभाव पु., आवि + भू से व्यु. [आविर्भाव], 1. अ., अन्दर तक बिधा हुआ या छेदा हुआ, मुड़ा हुआ, टेढ़ा, अत्यधिक सुस्पष्ट होना, अत्यधिक सुस्पष्ट बनाया जाना, ला. अ., 1. चक्राकार गति को प्राप्त कराया गया, घुमाया खुलासा करना, व्याख्यान, प्रकाशभाव - वो प्र. वि., ए. जा रहा, चक्कर कटवाया जा रहा, गोल चक्कर में घूम व.- तं दिवसं कतकिरियाय आविभावो विय पब्बेनिवासाय रहा, चक्कर काट रहा-द्धं नपुं, प्र. वि., ए.व. - चक्कं ...... दी. नि. अट्ठ. 1.181; - तो प. वि., ए. व. - ते सिरसि माविद्धन तं जीवं पमोक्खसी ति, जा. अट्ठ. आविभावतोति पकासभावतो, विसुद्धि, महाटी. 2.475; 4.6; सिरसिमाविद्धन्ति यं पन ते इदं चक्कं सिरस्मि अञसच्चदस्सनवसेन आविभावतो, विसुद्धि. 2.330; - आविद्धं कुम्भकारचक्कमिव भमति, तदे. सकिं आविद्धमेव वत्थं क्रि. वि., सुस्पष्ट करने के लिए - "तस्सायेव याव मज्झन्हिकातिक्कमा भमियेव, जा. अट्ठ. 5.281; ला. पटिपदाय आविभावत्थं धम्म देसेमी ति, दी. नि. अट्ठ. अ., 2. अभिभूत, पीड़ित - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - 1.258; तस्स (फरुसा वाचा) आविभावत्थमिदं वत्थु, म. नि. व्यसनोपदवाविद्धो, विष्फन्दति विधातवा, ना. रू. प. 1352; अट्ठ. 1(1),208; स. नि. अठ्ठ. 2.130; तेसं आविभावत्थं, म. ला. अ. 3. फेंका गया, प्रक्षिप्त, हिला दिया गया, नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.77; इमस्स पनत्थस्स आविभावत्थं प्रकम्पित - नुण्णो नुत्तात्तखित्ता चेरिताविद्धा, अभि. प. इमस्मिं ठाने सुमेधकथा कथेतब्बा, जा. अट्ट. 1.3-4; तस्स 744; - पक्खपासक त्रि., ब. स., वह, जिसके चारों ओर आविभावत्थमिदं वत्थु, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1)208; - पक्खपासक विन्यस्त कर दिए गए हों-निल्लेखजन्ताघरं वानुरूपं क्रि. वि., जिस रूप में सुस्पष्ट अथवा अच्छी नाम आविद्धपक्खपासकं वुच्चति, चूळव. अट्ठ. 52; तरह ज्ञात हुआ है उसी की अनुरूपता में - आविभावानुरूप For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविभावत्त 242 आविल सत्थु गुणे अनुस्सरित्वा, उदा. अट्ट. 217; - कथा स्त्री., तत्पु. स., भली-भांति प्रकाशित करने वाला कथन, प्र. वि., ए. व. - पुब्बयोगतो पट्ठाय आविभावकथा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).263; 2. एक प्रकार का ऋद्धि-बल जिसमें साधक स्वयं को अकस्मात् प्रकट कर देता है, अधिट्ठानइद्धि का एक प्रभेद, ऋद्धि बल द्वारा स्वयं को किसी भी पदार्थ द्वारा अनाच्छादित एवं सर्वथा सुस्पष्ट बना देना, अन्धकार में आलोक कर देना, ढके हुए की पूरी तरह खुला हुआ बना देना – वं द्वि. वि., ए. व. -- बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं, तिरोभावं तिरोकुटुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति, दी. नि. 1.69; 1963; दी. नि. 3.83; 230; आविभावन्ति केनचि अनावट होति अप्पटिच्छन्नं विवटं पाकटं, पटि. म. 378; आविभावन्ति पाकटभावं करोतीति अत्थो..., आविभावं पच्चनुभोति ..., तत्रायं इद्धिमा आविभावं कत्तुकामो अन्धकारं वा आलोक करोति, पटि. म. अट्ठ. 1.279. आविभावत्त नपुं., आविभाव का भाव., सुस्पष्टता, भलीभांति प्रकाशित होना - त्ता प. वि., ए. व. - तस्स पन आविभावत्ता पुग्गलस्स आविभूताव होन्ति, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.184. आविभावन नपुं, आवि + Vभू के प्रेर. का क्रि. ना., आविर्भूत करना, सम्यक रूप से सुप्रकाशित करना - नत्थं द्वि. वि., क्रि. वि., सुप्रकाशित करने के लिए, सुस्पष्ट व्याख्या या उत्तर देने हेतु - तस्साविभावनत्थं इदं चतुक्कं वेदितब्ब दी. नि. अट्ठ.1.152; तस्सेव पञ्हस्स आविभावत्थं अत्तनो च पण्डितभावस्स आपनत्थं, जा. अट्ठ. 6.173; पाठा. आविभावत्थं आविभावेतुकाम त्रि., सुस्पष्ट करने की कामना करने वाला - मेन पु., तृ. वि., ए. व. - अत्तनो पुब्बचरितं आविभावेतुकामेन सत्थुना, म. वं. टी. 561(रो.). आविभूत त्रि., आवि + vभू का भू. क. कृ. [आविर्भूत], भलीभांति प्रकाशित, सुस्पष्ट कर दिया गया- तं पु., द्वि. वि., ए. व. - सत्था तमत्थं आविभूतं कत्वा भिक्खुसङ्घस्स कथेन्तो आह, जा. अट्ठ. 6.117; - तेसु सप्त. वि., ब. व. - महाथेरो अनेकाकारवोकारं... आविभूतेसु अत्तमनो पमुदितो ... निसीदि, उदा. अट्ठ. 217-218; - काल पु.. तत्पु. स., सुस्पष्ट होने का समय, भलीभांति प्रकाशित किए जाने का काल - लो प्र. वि., ए. व. - चातुमहाभूतिककायस्स आविभूतकालो..., तत्रिदं सुतं आवुतन्ति सुत्तरस आविभूतकालो विय, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.184. आविल त्रि., [आविल], शा. अ., मलिन जल, मटमैला, गंदला, अपवित्र या दूषित (जल). मथा हुआ या पङ्किल (जल); ला. अ., मलिन या क्लेशयुक्त चित्त - अनच्छो कलु साविला, अभि. प. 669; - लो पु., प्र. वि., ए. व. ---- आविलोति अप्पसन्नो, स. नि. अट्ठ. 3.209; उदकरहदो आविलो लुळितो कललीभूतो, अ. नि. 1(1).12; उदपत्तो आविलो लुळितो कललीभूतो अन्धकारे निक्खित्तो, अ. नि. 2(1).215; आविलोति अप्पसन्नो, अ. नि. अट्ठ. 3.69; - लेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - भिक्खु अनाविलेन चित्तेन अत्तत्थं वा अस्सति परत्थं वा अस्सति, अ. नि. 1(1).12; आविलेनाति पञ्चहि नीवरणेहि परियोनद्धेन, अ. नि. अट्ठ. 1.45; - लानि नपुं., वि. वि., ब. व. - आविलानि च पानीयानि पिवति, महाव. 474; आविलानि च पानीयानि पिवामि, ध. प. अट्ठ. 1.36; महाव. 474; आविलानीति तेहि पठमतरं ओतरित्वा पिवन्तेहि आलुलितानि कद्दमोदकानि पिवति, महाव. अट्ठ. 409; - लं नपुं, प्र. वि., ए. व. - आविलन्ति आलुलं, उदा. अट्ठ. 326; तं चक्कच्छिन्नं उदक परित्तं लुळितं आविलं सन्दति, दी. नि. 2.98; पत्तीहि च खुभितं भवेय्य आविलं लुळितं कललीभूतं, मि. प. 32; - ले/म्हि नपुं., सप्त. वि., ए. व. - यथोदके आविले अप्पसन्ने, न पस्सति सिप्पिकसम्बुकञ्च ... एवं आविलम्हि चित्ते न सो पस्सति अत्तदत्थं परत्थं जा. अट्ठ. 2.83; तत्थ आविलेति कद्दमालुळिते... एवं आविलम्हीति एवमेव रागादीहि आविले चित्ते, तदे; तात, आविले चित्तम्हि पगणापि मन्ता न पटिभन्ति, जा. अट्ठ. 2.83; स. प. में, अना.- त्रि., निर्मल, स्वच्छ, पवित्र -लं प्र. वि., ए. व. - अनाविलन्ति किलेसाविलत्तविरहितं. सु. नि. अट्ठ. 2.172; चन्दंव विमलं सुद्ध, विप्पसन्नमनाविलं, ध. प. अट्ट. 2.393; स. उ. प. के रूप में अना., चित्ता के अन्त., द्रष्ट.; स. पू. प. में, - लक्ख त्रि., ब. स., मलिन दृष्टि वाला, राग से रक्त दृष्टि वाला – क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - यं वे पिवित्वा उक्कट्ठो आविलक्खो, जा. अट्ठ. 5.16; आविलक्खोति रत्तक्खो , जा. अट्ठ. 5.18; - चित्त त्रि., ब. स., मलिन अथवा राग आदि से दूषित चित्त वाला - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - आविलचित्तो अनाविलं, सरजो वीतरजं अनङ्गणं, थेरीगा. 371; - त्ता ब. व. - तस्मा यदि असुरा कुपिताविलचित्ता देवपुरं उपयन्ति युद्धेसू ..., स. नि. अट्ट. For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आविलता 243 आवुणाति 1.296; - भाव पु., मलिनता, अपवित्रता, राग आदि द्वारा चक्खूनि दत्वा, जा. अट्ठ. 4.368; - सित्वा पू. का. दूषित होना -वं द्वि. वि., ए. व. - चित्तस्स आविलभावं कृ. - यथा नाम केळिसीला रक्खसा भिसक्करहिते उम्मत्ते जानेय्य आजानेय्य ..., महानि. 369. आविसित्वा ते अनयब्यसनं आपादेन्ता तेहि कीळन्ति .... आविलता स्त्री., आविल का भाव., अनुपिटक पालि-साहित्य थेरगा. अट्ठ. 2.299. में ही प्रयुक्त [आविलत्व], अशुचिभाव, अशुद्धि, मलिनता, आवुट/आवुत/आवट त्रि., आ + Vवु का भू. क. कृ. गंदलापन - तं द्वि. वि., ए. व. - सासनं च महेसिनो [आवृत], पूरी तरह से ढका हुआ, चारों ओर से आच्छादित, ... चिरं आविलतं गतं. चू. वं. 73.4; - य तृ. वि., ए. व. रुकावट-युक्त, वाधायुक्त, ग्रस्त, पीड़ित - तो पु., प्र. वि., - आविलताय आविप्पसन्ने, जा. अट्ठ. 2.83; स. उ. प. में, ए. व. - आवुतोति आवरितो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.314; कद्दमा.- कीचड़ के कारण गंदलापन - उदकहि सभावतो पटिच्छन्नोति आवटो, महानि. अट्ठ. 74; - टा ब. व. - सेतवण्णं, भूमिवसेन कद्दमाविलताय च अञआदिसं होति, तमोखन्धेन आवुटा ति, महाव. 5; दी. नि. 2.29; उदा. अट्ठ. 326. तमोखन्धेन आवटाति अविज्जारासिना अज्झोत्थटा, स. नि. आविलत्त नपुं.. आविल का भाव. [आविलत्व], उपरिवत् - अट्ठ. 1.174; संसरन्ति अहोरत्तं, यथा मोहेन आवुता, इति. तं प्र. वि., ए. व. - यदाविलत्तं मनसो विजआ, कण्हस्स 8; पुथु पञ्चहि नीवरणेहि आवता निवुता ओवुता पिहिता पक्खोति विनोदयेय्य, सु. नि. 973; यदाविलत्तं मनसो पटिच्छन्ना पटिकुज्जिताति पुथुज्जना, महानि. 107; आवुटा विजाति, चित्तस्स आविलभावं जानेय्य आजानेय्य निवटा ओनद्धा परियोनद्धा, दी. नि. 1.223; - तं नपुं, प्र. विज्जानेय्य पटिविजानेय्य पटिविज्झेय्याति यदाविलत्तं मनसो वि., ए. व. - वेठितं तु वलयितं तुं रुद्ध संवुतं सावुतं, विजा , महानि. 369; - त्ता प. वि., ए. व. - आविलत्ता, अभि. प. 745; ततो तं पि पुरं तुङ्गपाकारपरिखावुतं, चू. वं. भिक्खवे उदकस्स. अ. नि. 1(1).12. 88.77; अम्बोधिगम्भीरपरिखावुतं, चू. वं. 88.116; स. उ. प. आविलति आविल का ना. धा., वर्त., प्र. पु., ए. व., गंदला में, अना.- त्रि., [अनावृत], नहीं ढका हुआ, खुला हुआ, अथवा मटमैला जैसा हो जाता है - चलति खुमति उन्मुक्त-ता पु.. प्र. वि., ब. व. - विस्थिण्णो जम्बदीपोयं लळति आविलति ऊमिजातं होति, मि. प. 242; 243. मग्गानेक अनावुता, सद्धम्मो. 391. आविसति आ + विस का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आविशति], आवणाति'/आवणोति आ + का वर्त., प्र. पू., ए. व. शा. अ., भीतर तक प्रवेश करता है, पूरी तरह से प्रवेश [आवृणोति/आवृणाति/आवृणुते/ आवृणीते], 1. ढक कर जाता है, ला. अ., 1. पूरी तरह से अधिगृहीत कर देता है, छिपा देता है, गुप्त रखता है, 2. भर जाता है, लेता है, (लक्ष्य, देव, दानव आदि) अभिभूत कर लेता है, व्याप्त हो जाता है, 3. वरण करता है, इच्छा करता है, 4. 2. मनोभावों, क्लेशों, विपत्ति आदि को अपने वश में कर निवेदन या प्रार्थना करता है. 5. घेर लेता है, नाकेबन्दी लेता है - अयं यक्खो गण्हाति, अयं यक्खो आविसति, करता है, पालि साहित्य में इन अर्थों में केवल अयं यक्खो हेठेति ... ति, दी. नि. 3.155; अरति में आवुट/आवुणित को छोड़ अन्य प्रयोग अप्राप्त, केवल सोमदत्त आविसति, जा. अट्ठ. 5.177; भिय्यो आविसती ___व्याकरण ग्रन्थों में उल्लिखित - आवुणोति, आवुणाति, सोको, दोमनस्सञ्चनप्पक, जा. अट्ठ. 5.322; -- न्ति ब. पापुणोति, पापुणाति, क, व्या. 450; आवुणोति, आवुणाति, व. -- पिसाचेहि उब्बाळहा होन्ति, आविसन्तिपि, हनन्तिपि, सक्कुनोति, सक्कुनाति, सद्द. 3.825. महाव. 195; ते किलेसा पवड्डन्ता, आविसन्ति बहु जनं. आवु णाति/आवु नाति आ + Vवु से व्यु. थेरगा. 931; जनं... अभिभवित्वा अवसं करोन्ता आविसन्ति [आवयति/आवयते], शा. अ., आपस में गूंथ देता है, सन्तानं अनुपविसन्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.299; - सेय्य नत्थी कर देता है, वेध देता है, सिल देता है, छेद देता है, विधिः, प्र. पु., ए. व. - यथा वा पन, कञ्चिदेव पुरिसं भूतो पिरो देता है, ला. अ., शूली पर चढ़ा देता है - न्ति आविसेय्य, मि. प. 165; भयं पीळनं घट्टनं उपद्दवो उपसग्गो वर्त, प्र. पु., ब. व. - अप्पेन्ति निम्बसूलस्मिन्ति इमस्मि आविसीति दिस्वा मं भयमाविसि, महानि. 303; - सि काले राजानो चोरं निम्बसूले आवुणन्ति, जा. अट्ठ. 3.30; अद्य., प्र. पु., ए. व. - अञ्जमजेहि ब्यारुद्धे, दिस्वा मं तत्थ हि तिरियं पलिघं ठपेत्वा रुक्खसूचिसङ्घातं आणि भयमाविसि, सु. नि. 942; भिय्यो मं आविसीति ब्राह्मणस्स पलिघसीसे आवुणन्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.57; - नथ म. पु.. For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवुत 244 आवुध ब. व. - उप्पेथाति आउनथ, जा. अट्ठ. 6.20; - नेय्य ध. प. अट्ठ. 2.128; - मुत्ता स्त्री., कर्म. स., पिरोई हुई विधि.. प्र. प.. ए. व. - मज्झिमकेस सलेस आवनेय्य, ये मोती - त्ता द्वि. वि., ब. व. - अथस्स लोमकपेस महासमुद्दे सुखुमका पाणा ते सुखुमकेसु सूलेसु आवुनेय्य, आवुतमुत्ता विय हिमबिन्दूनि तिट्ठन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) स. नि. 3.504; - णन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - 1(1).360; 3. बेधा गया, शूली पर चढ़ाया गया - तो पु., कुमारो मेधावी पञवा सुतं सुतं मुतं आवुणन्तो विय। प्र. वि., ए. व. - पञ्चमाय सत्तिया दण्डके मधुकपुप्फ विय गण्हाति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.55-56; - णि अद्य, प्र. आवुतो परिदेवमानो निपज्जि, जा. अट्ठ. 1.413; चतुत्थे पु., ए. व. - भिक्खुसङ्घो सुत्तं वट्टेसि, सत्था सूचिपासके। लङ्घयित्वान, पञ्चमायसि आवुतो ति, तदे; स. उ. प. में, आवुणि, ध, प. अट्ठ. 1.345; - णिं उ. पु., ए. व. - तला.- त्रि., छेदे गए करतल वाला - ता पु., प्र. वि., बीजमिजं गहेत्वान लताय आवुणिं अहं, अप. 2.24; - ब. व. - तलावुताति हत्थतलेसु आवुता. जा. अट्ठ. णिस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व. - सचे हि इमं सूले 5.490. आवुणिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 3.30; - नितुं निमि. कृ. - आवृत्ति स्त्री., संस्कृत काव्य शास्त्र के पारिभाषिक शब्द महासमुद्दे सुखुमका पाणा, ये न सुकरा सूलेसु आवुनितुं. आवृत्ति का अनुकरण [आवृत्ति]. वह काव्यालङ्कार जिसमें स. नि. 3.504; - णित्वा/नित्वा पू. का. कृ. - पदों एवं अर्थों को पुनः दोहराया जाए, प्र. वि., ए. व. - इमस्सेव नं निम्बस्स सूले वा आवृणित्वा साखाय वा, जा. पुनप्पुनच्चारणं यं अत्थरस च पदस्स च उभयेसञ्च विजेया अट्ठ. 3.30; सत्त रोहितमच्छे उद्धरित्वा वल्लिया आवुणित्वा. सायं आवृत्ति नामतो, सुबोधा. 224; तुल. दण्डी का काव्यादर्श, चरिया. अट्ठ. 100; अडमासकं विज्झित्वा सुत्तेन 2.116. आवुनित्वा तस्स गीवायं पिळन्धि, जा. अट्ठ. 6.175; आवुत्थ त्रि., आ+ Vवस का भू. क. कृ., आबाद किया हुआ, - णापेस्सामि प्रेर., भवि., उ. पु., ए. व. - मारेत्वा वसा हुआ - त्थं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आवुत्थं खण्डाखण्डं छिन्दित्वा सूलेयेव आवणापेस्सामी ति, जा. धम्मराजेन, पीतिसञ्जननं मम, स. नि. 1(1).38; म. नि. अट्ठ. 3.191. 3.314; - त्था स्त्री., प्र. वि., ए. व. - साह भुसालयावुत्था, आवुत त्रि., आ + Vवु (बुनना) का भू. क. कृ. [ओत], 1. वरवारिवहोघसा, जा. अट्ठ. 5.5. बुना हुआ, आपस में गूंथा हुआ, स. उ. प. में, नवा.- नया आवुध नपुं., [आयुध], शस्त्र, हथियार - वो यस्स, आवुधं, नया बुना हुआ - तो पु०, प्र. वि., ए. व. - "आमाय्य, आयुधं वा, सद्द. 3.623; क. सामान्य रूप में कोई भी अस्त्र नवावुतो कम्बलो ति, पारा. 193; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. अथवा हथियार -धं प्र. वि., ए. व. - आयुधं मेनुभावेन - तेन खो पन समयेन अञतरा इत्थी नवावुतं कम्बलं तेसं काये पतिस्सति, म. वं. 7.36; - धं द्वि. वि., ए. पारुता होति, पारा. 193; तन्ता.- तांत से बुना हुआ - व. - पसन्नचित्तो आवुधं निक्खिपित्वा उपसङ्कमित्वा, थेरगा. तानं नपुं., ष. वि., ब. व. - यानि कानिचि तन्तावुतानं अट्ठ. 1.101; पमुञ्चित्वान आयुधं, दी. वं. 2.23; निक्खिपित्वान वत्थानं, केसकम्बलो तेसं पटिकिट्ठो अक्खायति, अ. नि. आवुधं, दी. वं. 12.49; आवुधं सरीरे ठपेत्वा “इदं नाम मे 1(1).322; तन्तावुतानन्ति तन्ते आवुतानं, स. नि. अट्ठ. देही ति साहसाकारा च, जा. अट्ठ. 4.12; - धानि' प्र. 3.170; 2. धागे से एक सिरे से दूसरे सिरे तक सिला हुआ, वि., ब. व. - तस्मिं खणे द्वादसयोजनिके वाराणसिनगरे (मोती आदि के छिद्र के अन्दर) पिरोया हुआ - तं नपुं.. सब्बावुधानि पज्जलिंसु, जा. अट्ठ. 5.124; सकलनगरेपि प्र. वि., ए. व. - तत्रास्स सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा आवुधानि पज्जलितानी, ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.235; लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा, दी. नि. 2.10; दी. नि. -धानि द्वि. वि., ब. व. - आवुधानि छड्डेत्वा, भगवन्तं 1.67; तादिसहि आवुतं पाकट होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) वन्दित्वा, निसीदिंस स. नि. अट्ठ. 1.63; सकलगामवासिनो 2.183; स. पू. प. में, – सुत्त नपुं.. कर्म. स., पिरोया हुआ आवुधानि गहेत्वा सो ..., जा. अट्ठ. 2.90; ख. 5 प्रकार के धागा - त्तं प्र. वि., ए. व. -- आवुतसुत्तं विय विपस्सनाञआणं आयुध या शस्त्र, ला. अ., मेत्ता, करुणा, काय, चित्त एवं म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.184; - पण्डुसुत्त नपुं.. पिरोया उपधि विवेक नामक 5 आध्यात्मिक आयुध-घं' प्र. वि., हुआ पाण्डुवर्ण का धागा - त्तं प्र. वि., ए. व. - विप्पसन्ने ए. व. - आवुधन्ति पञ्चावुधं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.238; मणिरतने आवृतपण्डुसुत्तं विय परसति, जा. अट्ठ. 1.62; पञ्चविधं आवुधं, यथा हि रथे ठितो पञ्चहि आवुधेहि सपत्ते For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवुध 245 आवुसो विज्झति - मेत्ताय ..., करुणाय, ... काय विवेकेन .... चित्तविवेकेन..... स. नि. अट्ठ. 3.158; -धं द्वि. वि., ए. व. - इच्चेव चोरो असिमावुधञ्च, थेरगा. अट्ठ. 2.279; आवुधन्ति सेसावुधं, तदे.; ग. कवच या ढाल से विपरीत अथवा भिन्न अस्त्र - धं द्वि. वि., ए. व. - फलकञ्च आवुधञ्च दापेसि. ध. प. अट्ठ. 1.251; वलक्कारेन । आवुधफलक गाहापेत्वा, स. नि. अट्ठ. 1.125; स. उ. प. में, फलका.- ढाल एवं अन्य आयुध - धानि' द्वि. वि., ब. व. - फलकावुधानि गाहापेत्वा, जा. अट्ठ. 3.208; - धानि' प्र. वि., ब. व. - हत्थिनो च अस्सा च फलकावुधानि च, स. नि. अट्ट, 1.62; निक्खित्तकवचा. - त्रि., ब. स., कवच एवं अस्त्रों को त्याग चुका - वुधा पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे. देवा अत्तमना निक्खित्तकवचावुधा, अप. 1.149; स. पू. प. में, - फलक नपुं.. द्व. स, आयुध एवं ढाल - कं द्वि. वि., ए. व. - बलक्कारेन आवुधफलकं गाहापेत्वा, स. नि. अट्ट, 1.125; घ. कोई एक विशेष प्रकार का अस्त्र, हथियारों का कोई एक विशिष्ट प्रभेद - धं' प्र. वि., ए. व. - रो पच्चन्तिमे नगरे बहं आवुधं सन्निचितं होति सलाकञ्चेव जेवनिकञ्च, अ. नि. 2(2).244; आवुधं नाम चापो कोदण्डो, पाचि. 273; ... आवुधन्ति असि वा उसु वा सत्ति वाति एवमादि, पारा. अट्ठ. 2.42; - धं द्वि. वि., ए. व. - इच्चेव चोरो असिमावुधञ्च, थेरगा. 869; - धानि द्वि. वि., ब. व. - निरयपाला जलितानि असिसत्तितोमर भिन्दिवालमुग्गरादीनि आवुधानि गहेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.127; असिसत्तिधनुआदीनि आवुधानि उग्गिरित्वा, जा. अट्ठ. 1.154; चोरा... निक्खिप्पसत्थानि च आवुधानि च थेरगा. 724; असिआदिसत्थानि चेव धनुकलापादि आवुधानि च, थेरगा. अट्ठ. 2.230; - जात नपुं, विशेष प्रकार का आयुध, कोई एक खास हथियार - तं प्र. वि., ए. व. -- मतजं नाम आवुधजातं उभतोधारं पीतनिसितं, म. नि. 1.353; - जीविक त्रि., ब. स., हथियारों से अपनी जीविका चलाने वाला - कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - इस्सत्थन्ति आवुधजीविक, उसुञ्च सतिञ्चाति वुत्तं होति, सु. नि. अट्ठ. 2.169; - पाणि त्रि., ब. स. [आयुधपाणि], अपने हाथों में शस्त्र धारण करने वाला -स्स पु., ष. वि., ए. व. - न आवुधपाणिस्स अगिलानरस धम्म देसेस्सामि पाचि. 273; - बल त्रि., ब. स. 1. वह, जिसका बल उसके शस्त्र या हथियार हैं - ला पु., प्र. वि., ब. व. - रुण्णबला दारका... आवुधबला चोरा... अट्ट बलानि, अ. नि. 3(1).58; 2. नपुं., आयुधों का बल, हथियार की ताकत -लेन तृ. वि., ए. व. - आवुधबलवन्तानन्ति आवुधबलेन युत्तानं समन्नागतानं, जा. अट्ठ. 6.279; - बलवन्तु त्रि०, आयुधों के कारण बलवान्, अस्त्र-शस्त्रों से पूर्ण रूप से सुसज्जित - न्तानं पु., ष. वि., ब. क. - आवुधबलवन्तानं. गुणिकायरधारिनं एतादिसानं योधानं जा. अट्ठ. 6.278; - भण्ड नपुं, आयुधों का भण्डारण या संग्रह, समस्त आयुधण्डं द्वि. वि., ए. व. - सत्थवणिज्जाति आवृधभण्डं कारेत्वा तस्स विक्कयो, अ. नि. अट्ठ. 3.63; - ण्डानि द्वि. वि., ब. व. - आवुधभण्डानि पज्जलिंसु, मि. प. 8; - लक्खण नपुं.. तत्पु. स. [आयुधलक्षण], आयुधों के लक्षण - णं प्र. वि., ए. व. - उसुलक्खणं, ... आवुधलक्खणं... इति वा इति, दी. नि. 1.8; महानि. 281; -- वस्सा स्त्री., तत्पु. स. [आयुधवर्षा], अस्त्रों की वर्षा, अत्यधिक अस्त्रों का प्रयोग - स्सं द्वि. वि., ए. व. - नानप्पकारं आवुधवस्सं वस्सि, जा. अट्ठ. 5.129; - विज्जा स्त्री., तत्पु. स. [आयुधविद्या], अस्त्रविद्या - य त. वि., ए. व. - इस्सत्थेति आवुधविज्जाय, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.46; - हत्थ त्रि., ब. स. [आयुधहस्त], अपने हाथों में अस्त्र धारण करने वाला - त्थं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - रक्खणत्थाय परिवारेत्वा ठितं आवुधहत्थं परिसं ते न पस्सामि, जा. अट्ठ 5.369; धनुकलापफलकावुधहत्थेहि जा. अट्ठ. 1.108; स. उ. प. के रूप में, इन्दा., उय्यता., उय्युता., गदा., चित्रदण्डयुता., आणा., दाठा०, दुस्सा., देवठ्ठाना., नङ्गुला., नच्चगीतभाणितमिहिता., नद्धपञ्चा., नयना., पञ्चा., पा., पविवेका., भद्रा., मङ्गला., वजिरा., वत्था०, विपस्सना., वाचा., सज्जा., सन्नद्धपञ्चा., सहा., सुता. के अन्त. द्रष्ट.. आवुय्हमाना त्रि., आ + Vवह का कर्म. वा., वर्त. कृ., (संभवतः आधूयमान के स्थान पर), अब ले जाया जा रहा - ना नपुं., प्र. वि., ब. व. - वातेन मन्दं आवुय्हमाना हेममयपुप्फाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 199. आवुसो पु., सम्बो., ए. व./ब. व. [संभवतः वैदिकआयुष्मस/आयुष्वस् से व्यु.], सम्बोधित करने का शिष्ट एवं सभ्य प्रकार, श्रीमन्, हे सत्यपुरुष, ऐ मित्र/मित्रों, अनेक प्रकार से प्रयुक्त, 1. सामान्य जनों द्वारा प्रयुक्त सम्बोधन-वचन, सामान्य जनों को सम्बोधित करने हेतु प्रयुक्त वचन, बौद्ध भिक्षु-संघ से इतर व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त सम्बोधन, बौद्धेतर धर्माचार्यों एवं उनके प्रव्रजित For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवुसोवाद 246 आवेठेति अनुयायियों के लिए भी प्रयुक्त सम्बोधन - पुब्बे त्वं खो ममच्चयेन एवं समुदाचरितब्ब, थेरतरेन, आनन्द, भिक्खना पो, अम्हाकं पुरतो केळि अकासि, जा. अट्ठ. 2.371; न नवकतरो भिक्खु नामेन वा गोत्तेन वा आवुसोवादेन वा खो अहं, आवुसो, अद्दसन्ति? दी. नि. 2.99; कसि त्वं, समुदाचरितब्बो, दी. नि. 2.115. आवुसो उद्दिस्स पब्बजितो, महाव. 11; ध, प. अट्ठ. 2.322; आवेग पु., संस्कृत से गृहीत [आवेग], 33 व्यभिचारीभावों में ते निगण्ठे एतदवोचं - आवुसो, निगण्ठा उभट्टका से एक व्यभिचारीभाव, मन की बेचैनी, व्याकुलाहट - आसनपटिक्खित्ता, म. नि. 1.130; आळारं कालाम एतदवोचं निदावेगा सबीडभरणं सचपला व्याधितेतिस्समेते, सुबोधा. - इच्छामहं, आवुसो कालाम, म. नि. 1.222; उदकं 346(गा.). रामपुत्तं एतदवोच, इच्छामहं, आवुसो, इमस्मिं धम्मविनये आवेठन नपुं.. आ + Vवेट्ठ से व्यु, क्रि. ना. [आवेष्टन], शा. ब्रह्मचरियं चरितुन्ति, म. नि. 1.224; “कोसि त्वं आवुसो ति, अ., लपेट लेना, अपनी पकड़ में ले लेना, घेरे में ले लेना स. नि. 1(1).176; 2. बौद्ध भिक्षुओं एवं बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा या घेर लेना, चारों ओर से घेरे में ले लेना, ला. अ., वादबौद्धधर्म के प्रति श्रद्धावान् गृहस्थजनों (उपासकों) के लिए विवाद अथवा संलाप की प्रक्रिया में 3 युग्मों में निर्दिष्ट 6 प्रयुक्त सम्बोधनपद - छब्बग्गियेहि, आवुसो, भिक्खूहि प्रकार के उपकरणों या अंगों में प्रथम, प्राचीन वाद-पद्धति आवरणं कतान्ति, महाव. 107; वेसालिके उपासके एतदवोच का एक अङ्ग - नं प्र. वि., ए. व. - पण्डितानं खो, - "मावुसो, अदत्थ सङ्घस्स कहापणम्पि अड्डम्पि पादम्पि सल्लापे आवेठनम्पि कयिरति, निब्बेठनम्पि कयिरति, मासकरूपम्पि, चूळव. 463; पञ्च खो इमे, आवसो विसाख, निग्गहोपि कयिरति, पटिकम्मम्पि कयिरति, विस्सासोपि उपादानक्खन्धा सक्कायो वुत्तो भगवता, म. नि. 1.380; 3. कपिरति, पटिविस्सासोपि कयिरति, न च तेन पण्डिता बौद्ध-भिक्षुसंघ के सदस्य भिक्षुओं द्वारा आपस में एक दूसरे कुप्पन्ति, मि. प. 25; स. प. में, - यं पन तथागतो के लिए प्रयुक्त, अत्यधिक प्रचलित सम्बोधन, [टि., स्वयं कसिभारद्वाजस्स ब्राह्मणस्स भोजन पजहि, त बुद्ध भिक्षुओं के लिए 'भिक्खवे' सम्बोधन का प्रयोग करते आवेठनविनिवेठन कवननिग्गहप्पटिकम्मेन निब्बति, तस्मा थे तथा बौद्ध-गृहस्थजन इन भिक्षुओं को सम्बोधित करने तथागतो तं पिण्डपातं पटिक्खिपिन उपजीवी ति, मि. प. हेतु 'भन्ते' पद का प्रयोग करते हुए बतलाए गए हैं] - 217. आवुसो .... आवुसोति हि अवत्वा, भिक्खवेति वचनं बुद्धालापो आवेठिका/आवेठिया स्त्री., उपरिवत् - ठियं द्वि. वि., नाम होति, अयं पनायस्मा "दसबलेन समानं आलपनं न ए. व. - पुब्बेव सल्लापा कथंकथी विनिघाती होति, 'जयो करिस्सामी ति सत्थु गारववसेन सावकालापं करोन्तो आवसो नु खो मे भविस्सति, पराजयो नु खो मे भविस्सति, कथं भिक्खवेति आह, अ. नि. अट्ठ. 2.32-33; आवसो भिक्खवोति । निग्गहं करिस्सामि ... कथं आवेठियं करिस्सामि, कथं एत्थ बुद्धा भगवन्तो सावके आलपन्ता "भिक्खवो ति आलपन्ति, निब्बेठियं करिस्सामि, महानि. 120; आवेठियं करिस्सामीति सावका पन बुद्धेहि सदिसा मा होमा ति आवुसो ति पठमं परिवेठनं करिस्सामि, महानि. अट्ठ. 226; - या प्र. वि., ए. वत्वा पच्छा "भिक्खवो ति वदन्ति, बुद्धेहि च आलपिते व. - निग्गहो ते अकतो, पटिकम्मं ते दुक्कट, विवेसो ते भिक्खु सङ्घो"भदन्ते ति पटिवचनं देति, सावकेहि अकतो, पटिविसेसो ते दुक्कटो, आवेठिया ते अकता, आलपिते आवुसो ति, पटि. म. अट्ठ. 2.172. निब्बेठिया ते दुक्कटा, महानि. 121; - य तृ. वि., ए. व. आवुसोवाद पु., 'आवुसो' कहकर सम्बोधित करना - दो प्र. - आवेठियाय आवेठियन्ति आवेठेत्वा निवत्तनेन निवत्तनं वि., ए. व. - आवसोवादोयेव हि अञमञ्ज भिक्खुनं निब्बेठियाय निब्बेद्वियन्ति दोसतो मोचनेन मोचनं, महानि. भगवतो धरमानकाले आचिण्णो, उदा. अट्ठ. 254;-देन अट्ठ. 229. तृ. वि., ए. व. - तथागतं नामेन च आवसोवादेन च आवेठेति आ + वेट्ट का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आवेष्टयति], समुदाचरथ, जा. अट्ठ. 1.90; नामेन च आवुसोवादेन च 1. लपेट लेता है, घेर लेता है, प्रयोगों के लिए आवेट्ठित समुदाचरन्तीति गोतमाति, आवुसोति च वदन्ति, आवुसो के अन्त. द्रष्ट.; 2. ऐंठ देता है, मरोड़ देता है, मोड़ देता गोतम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).93; आवुसोवादेन है - द्वितं/ल्लितं भू. क. कृ., प्र. वि., ए. व. - समुदाचरितब्बं अमञित्थ, म. नि. 3.296; यथा खो पनानन्द, आवेल्लितं पिडितो उत्तमङ्ग, ... आवेल्लितन्ति परिवत्तितं एतरहि भिक्खू अञमचं आवुसोवादेन समुदाचरन्ति, न जा. अट्ट. 4.345; पाठा. आवेळितं. For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवेणिक 247 आवेळ आवेणिक/आवेणिय/आवेनिक/आवेनि त्रि., व्य.. संदिग्ध, [बौ. सं., आवेणिक/आवेणीय], 1. पृथक् भागों या खण्ड खण्ड में विभाजित, अलग अलग भागों या हिस्सों में विभक्त, एकदम पृथक् रूप में प्राप्त – का स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - धातु आवेणिका नत्थि, सरीरं एकपिण्डितं. अप. 1.68; धातु आवेणिका नत्थीति देवमनुस्सेहि विसुं विसं चेतियं कातुं आवेणिका विसुंधातु नत्थि, अप. अट्ठ. 2.291; 2. त्रि., असामान्य रूप में अथवा विशिष्ट रूप में प्रशस्त, असामान्य धर्मों या लक्षणों के रूप में कथित, असाधारण, दूसरों में अप्राप्त, विशेष प्रकार का, केवल किसी एक में ही विद्यमान - कं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - इदं लोके उत्तरियन्ति इदं पन इमस्मिं लोके असदिसं मय्ह एव आवेणिक, चरिया. अट्ट, 180; आवेनिकमभारियं अमतोसष्ट मिच्चन्त मजरामरसाधनं, ना. रू. प. 979; सयंकतानि पुञानि, तं मे आवेणिकं धनं, जा. अट्ठ. 6.153; - कं? नपुं, द्वि. वि., ए. व. - आवेणिकं कम्म वा उद्देस वा करोन्ति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.77; एकसीमायं आवेणिक सङ्घकम्म अकासि, जा. अठ्ठ. 1.468; भिक्खुसङ्घ विसु कत्वा मं अनुक्त्तन्तेहि भिक्खूहि सद्धि आवेणिक उपोसथं सङ्घकम्मानि, ..., उदा. अट्ठ. 258; - कानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - पञ्चिमानि मातुगामस्स आवेणिकानि दुक्खानि यानि मातुगामो पच्चनुभोति, अञ्जत्रेव पुरिसेहि, स. नि. 2(2).234; ततिये आवेणिकानीति पटिपग्गलिकानि परिसेहि असाधारणानि. स. नि. अट्ठ. 3.123; - का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - ... आदिना ओकारन्तस्स इथिलिङ्गस्स गोसद्दस्स आवेणिका नामिकपदमाला वुत्ता, सद्द. 1.220; आवेणिका वितिका कातब्बा, चूळव. अट्ठ. 94; - को पु., प्र. वि., ए. व. - असेचनको च सुखो च विहारोति एत्थ पन नास्स सेचनन्ति ... पाटेक्को आवेणिको, पारा. अट्ठ. 2.9; स. नि. अट्ठ. 3.300; - केन नपुं., तृ. वि., ए. व. - तस्मा आवेणिकेन लक्खणेन अप्पत्तो, महाव. अट्ठ. 403; - के सप्त. वि., ए. व. - आवेणिके असीति अनुव्यञ्जनानि, सद्द, 1.254; - घरावास पु., विशेष प्रकार के घर में निवास - सं द्वि. वि., क्रि. वि. - आवेणिकघरावासं वसनकालतो, अ. नि. अट्ठ. 1.307; - त्त नपुं॰, भाव., विशिष्टता, अपने आप में खास तरह का होना - अरियानं पन तस्स तस्सेव आवेणिकत्ता अत्तसदिसत्ता, उदा. अट्ठ. 154; - णिकबुद्धधम्म पु., बुद्ध के विशिष्ट लक्षण, स. प. के अन्तः, - छ असाधारण आण अट्ठारसावेणिक बुद्धधम्मपभुति अपरिमाणगुणसमन्नागताय, वि. व. अट्ठ. 180; - णिकभूत त्रि.. विशिष्ट अथवा असामान्य प्रकृति से युक्त - तेन नपुं., तृ. वि., ए. व. -- पब्बाजनीयकम्मस्स आवेणिकभूतेन कुलदूसक ... भावलक्खणेन, सारत्थ. टी. 3.314. आवेध पु., आ + विध से व्यु. [आवेध], व्रण, फोड़ा, जख्म, विद्ध-स्थान, बेधा गया स्थान -धं द्वि. वि., ए. व. - आवेधञ्च न पस्सामि, यतो रुहिरमस्सवे, जा. अट्ठ. 2.230; आवेधञ्च न पस्सामीति विद्धवाने वणञ्च न परसामि, तदे; - तो प. वि., ए. व. - आवेधतो लोहितं पग्घरेय्य, जा. अट्ठ. 2.230. आवेनि त्रि., आवेणिक का ही समानार्थक, असामान्य, विशिष्ट, अपनी ही तरह का, खास - नि नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - आवेनिं उपोसथं... आवेनिं सङ्घकम्मं करोन्ति, चूळव. 345; परि. 370; आवेनि कम्माकम्मानि करोन्ति, परि. 371; स. पू. प. के रूप में, - कम्म/सङ्घकम्म नपुं.. भिक्षुसङ्घ से सर्वथा स्वतन्त्र होकर अपने व्यक्तिगत स्तर पर किए गए उपोसथ आदि संघकर्म - म्मानि द्वि. वि.. ब. व. - आवेनिकम्मानि करोन्ति, न आवेनिपातिमोक्खं उद्दिसन्ति, अ. नि. 3(2).61, 63; आवेनिकम्मानि करोन्तीति विसु सङ्घकम्मानि करोन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.308; देवदत्तो एकसीमायं आवेणिक सङ्घकम्मं अकासि, जा. अट्ठ. 1.468%B - निभाव/निकभाव पु., विशिष्ट भाव, विशिष्ट स्वरूप की अवस्था - वं द्वि. वि., ए. व. - अन्तोसीमाय आवेनिभावं करित्वा गणं बन्धित्वा आवेनि उपोसथं करोन्ति, परि. 371; आवेनिभावं करित्वाति विसं ववत्थानं करित्वा, परि. अट्ठ. 226. आवेय्य/आदेय्य पु., व्य. सं., 59 कल्पों के पूर्वकाल में विद्यमान एक चक्रवर्ती राजा का नाम - वेय्यो प्र. वि., ए. व. - आदेय्यो नाम नामेन चक्कवत्ती महब्बलो, अप. 1.189; पाठा. आवेय्यो. आवेळ'/आवेल पु./स्त्री., [आवेष्ठ?], कर्णाभूषण, अवतंसक, कानों में धारण किया जाने वाला आभूषण, हार, माला, कनबाली - ळा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - उत्तंसो सेखरावेळा, अभि. प. 308; आवेळाति कणिका, पारा. अट्ठ. 2.183; - ळं द्वि. वि., ए. व. - आवेळ करोन्ति, चूळव. 22; आवेलं पग्गहेत्वान, ... बुद्धस्स अभिरोपथि, अप. 1.227; चन्दसूरसहस्सानि, आवेळमिव धारयि, अप. 2.205; - त्थ पु., कर्णाभूषण के निमित्त - त्थं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - पञ्च उप्पल्लहत्थानि, आवेळत्थं अहंसु में, अप. For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवेळ 1.96 सङ्घातत्रि, अवतंसक (कनबाली) कहा जाने वाला (गहना) तेहि पु. तृ. वि. ब. व. आवेळिनेति आवेळसातेहि कण्णालङ्कारेहि युते जा. अनु. 5.405. आवेळ' / आवेल पु. व्य. सं. रेवत बुद्ध के एक प्रासाद का नाम - ळो प्र. वि., ए. व. सुदस्सनो रतनग्धि, आवेळो च विभूसितो, बु. वं. 319. आवेळवती स्त्री आवेळ + वन्तु से व्यु कर्णाभूषण से युक्त, स. उ. प. में, रतनमयपुप्फा - रत्नों के पुष्पों से निर्मित कर्णाभूषण वाली, प्र. वि. ए. व. आवेळिनीति रतनमयपुप्फावेळवती, वि. व. अ. 103. आवेळावेळ त्रि., अनेक हारों अथवा मालाओं जैसा, अनेक हारों अथवा मालाओं से परिपूर्ण - ळा स्त्री. वि. वि., ब. आवेळावेळा यमकयमका छब्बण्णघनबुद्धरस्मियो व. - www.kobatirth.org - विस्सज्जेन्तो... जा. अट्ठ 1.478; आवेळावेळाभूता यमकयमकभूता घनबुद्धररिगयो विस्सज्जेन्तं... जा. अड 1.425. आवेळी त्रि. हारयुक्त, कर्णाभूषण युक्त हारों अथवा कर्णाभूषणों को धारण करने वाला - ने पु०, प्र. वि., ब. व. आवेळिनेति आवेळसङ्घातिहि कण्णालङ्कारेहि युत्तो, जा. अट्ठ. 5.405; आवेळिने सद्दगमे असङ्गिते, जा. अट्ठ. 5. 404; लिनियो स्त्री० प्र० वि०, ब० व. आवेळिनियो पदुमुप्पलच्छदा, अलङ्कृता चन्दनसारवासिता, वि. व. 1029. आवेल्लितसिङ्गिक क्रि ब. स. [आवेल्लित शृङ्गक]. कुछ कुछ वक्र या टेढ़े तिरछे सींगों वाला- को पु०, प्र. वि. ए. व. - आवेल्लितसिहिको हि मेण्डो, जा. अट्ठ. 6. - 248 182. आवेसन नपुं. आ + विश के प्रेर. से व्यु [ आवेशन ]. शिल्पशाला, कारखाना - नं. प्र. वि. ए. व. - आवेसनं सियावेसे सिप्पसालाघरे व अभि. प. 906; आवेसनं सिप्पसाला, अभि. प॰ 212; घटिकारस्स कुम्भकारस्स आवेसनं सब्बं तेमासं आकासच्छदनं अट्ठासि, मि. प. 210; नं दि. वि. ए. व. - गच्छथ कुम्भकारस्स आवेसनं उत्तिर्ण करोयाति म. नि. 2.254 - ने सप्त वि. ए. व. नतिथ.. कुम्भकाररस निवेसने तिणं, अत्थि च ख्वास्स आवेसने तिणच्छदनन्ति .... म. नि. 2.253-254; विलो. निवेसन. आवेसनवित्थक नपुं., सिलने के उपकरणों को रखने हेतु प्रयुक्त लघु पात्र, सुई धागा आदि को रखने के लिए छोटी - आसंसति डिबिया कं द्वि. वि. ए. व. - सूचियोपि सत्थकापि पटिग्गहापि नस्सन्ति अनुजानामि आवेसनवित्थक न्ति, चूळव. 235; आवेसनवित्थकं नाम यं किञ्चि पाटिचङ्कोटकादि, चूळव. अट्ठ. 51. आवेसिक पु. [आवेशिक] अतिथि अभ्यागत, घर में अचानक आ पहुंचा मेहमान, पाहुन पुमे अतिथि आगन्तु पाहुना वेसिकाप्यथ, अभि. प. 424. आस' पु. असु ( फेंकना) से व्यु. (आस), प्रक्षेपण, फेंकना, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, इस्सा.. (वाण का प्रक्षेपण) के अन्त., द्रष्ट. आगे. आस' स. उ. प. में आसा का विपरिवर्तित स्वरूप निरा ( आशारहित), विगता., ( आशा या कामना से मुक्त) के अन्त., द्रष्ट. (आगे). आस' अस का परोक्ष भूत. प्र. पु. ए. व. [आस ] हुआ था, केवल इतिहा. (इति + हि + आस, ऐसा घटित हुआ था) के उ. प. के रूप में प्रयुक्त, इतिहा के अन्त दृष्ट. (आगे). Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - आस' पु.. अस (भोजन करना) से व्यु [आश], भोजन, केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, पातरा. [ प्रातःकाल का भोजन, नाश्ता ], सायमा [ सायंकालीन भोजन] आदि के अन्त द्रष्ट. (आगे). आसंस आ + संस से व्यु. किसी (वस्तु) की कामना करने वाला, इच्छुक, आशा रखने वाला - सो पु०, प्र. वि., ए. व. सोहि अरहत्तं आसंसति पत्थेतीति आसंसो, प. प. अड. 57; निरासो आसंसो विगतासो अ. नि. 1 (1) 131 प. प. 109; आसंसोति आसंसमानो पत्थयमानो, 31. f. 31. 2.78. आसंसति / आसिंसति / आसीसति आ + √संस का वर्त प्र. पु. ए. व. [आशंसते] कामना करता है. आशा करता है- आसिसि इच्छायं आपुब्बो सिसि इच्छायं वत्तति, आसिंसति आसिंसत एव पुरिसो सद. 2448; सो हि अरहतं आसंसति पत्थेतीति आसंसो, प. प. अट्ठ. 57; नेव इमं लोकं आसीसति न परलोक पेटको. 304 यावतासीसती पोसो तावदेव पवीणति, जा. अट्ठ. 3.342; तत्थ आसीसतेवाति आसीसतियेव पत्थेतियेव, जा. अट्ठ 3.220; "नासीसते लोकमिमं परं लोकञ्चाति, पेटको. 304; परं लोकं नासीसति पररूपवेदनासञ्ञासङ्घारविञ्ञणं, इमं लोकं नासीसति छ अज्झत्तिकानि आयतनानि, महानि० 43; - न्ति ब. व. आसीसन्ति थोमयन्ति अभिजप्पन्ति जुहन्ति, सु. नि. 1052; Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसंसा 249 आसङ्का - सरे आत्मने., वर्त., प्र. पु., ब. व. - परतो आसीसरे बाला, स. नि. 1(1).39; - सीस/साहि अनु. म. पु., ए. व. - आसीसेव तुवं राज, आसा फलवती सुखा, जा. अट्ठ. 3.219; आसीसेवाति आसीसाहियेव पत्थेहियेव, ..., जा. अट्ठ. 3.220; - सेथ विधि., आत्मने., प्र. पु., ए. व. - आसीसेथेव पुरिसो, जा. अट्ठ. 1.258; जा. अट्ठ. 4.240; - सन्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - आरोगभावं आसीसन्तो आह, उदा. अट्ठ. 100; - सतो नपुं., ष. वि., ए. व. - न भावितमासीसतो समनुओ होति, दी. नि. 3.35; - सिंसता तृ. वि., ए. व. - जनहितं आसिंसता पूजिय, म. वं. 30.100; - सन्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - जीवितं आसीसन्ता, वि. व. अठ्ठ. 286; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु.. प्र. वि., ए. व. - आसंसोति आसंसमानो पत्थयमानो, अ. नि. अट्ठ. 2.78; - सं वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - आसीसन्ति थोमयन्ति, सु. नि. 1052; स. प. में वर्त. कृ.; आसीसमानरूपोव, परि. 276; - नीय/सितब्ब त्रि., सं. कृ., कामना करने योग्य, इच्छा करने योग्य - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आसिंसनीयं निच्चसुखप्पदं, भेसज्ज. 14. आसंसा स्त्री., [अशंसा], इच्छा, कामना, आशा- यं सप्त. वि., ए. व. - आसंसायहि अनागतेपि वत्तमानवचनं इच्छन्ति सद्दकोविदा, सु. नि. अट्ठ 2.50; आसंसायं भूतवचनं, पटि. म. अट्ठ. 2.131. आसंसुक त्रि., [आशंसु]. आशाओं से परिपूर्ण, इच्छा करने वाला - का पु०, प्र. वि., ब. क. - अकम्मकामा अलसा, परदत्तूपजीविनो, आसंसुका सादुकामा, थेरीगा. 273; आसंसकाति ततो एव घासच्छादनादीनं आसीसनका, थेरीगा. अट्ठ.242. आसक त्रि., स. उ. प. में ही प्रयुक्त, खाने वाला, स. उ. प. में अना., अनात्त. के अन्त. द्रष्ट.. आसङ्कति आ + Vसङ्क का वर्त., प्र. पु.. ए. व. [आशङ्कते], आशंका करता है, डरता है - मित्तस्स भेदमेव आसङ्कति, जा. अठ्ठ. 3.166; तुम्हेसु कञ्चि आसङ्कति, जा. अट्ठ. 4.278; - कामि उ. पु., ए. व. - अत्तनो जीवितविनासं आसङ्कामि, जा. अट्ठ. 3.221; - न्ति प्र. पु., ब. व. - तमेव भिक्खु आसङ्कन्ति, पाचि. अट्ठ. 140; - थ म. पु.. ब. व. --- 'कत्थ पन तुम्हे आसङ्कथा ति, उदा. 118; -- न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - पुत्तं आसन्तो नीहरि जा. अट्ठ. 2.171; अत्तनो यूथपरिहरणं आसङ्कन्तो, जा. अट्ट. 3.106; - मानो उपरिवत, आत्मने. - रो पज्जोतस्स आसङ्कमानो, म. नि. 3.56; - माना प्र. वि., ब. व. - अत्तनो रज्जविपत्तिं आसङ्कमाना, जा. अट्ठ. 1.327; पुब्बे राजानो पुत्ते आसङ्कमाना, जा. 3.104; - कि अद्य., म. पु.. ए. व. - मा त्वं पुत्तस्स किञ्चि पापकं आसङ्कि, जा. अट्ठ. 1.165; न खो मोग्गल्लानं त्व व आसङ्कितब्बयुत्तकं आसद्धि जा. अट्ठ. 3.29; सीलभेदे आसङ्कं करिंस, ध. प. अट्ठ. 2.333; - विंसु प्र. पु., ब. व. - पोराणकपण्डितापि आसङ्किसूति, जा. अट्ठ. 3.29; - कित्थ आत्मने., म. पु.. ब. व. - मा अञ्ज किञ्चि आसङ्कित्थ, जा. अट्ट, 1.1553; - तिब्ब सं. कृ. - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - "भिक्खवे किलेसो नाम आसङ्कितब्बोव, जा. अट्ठ. 3.181; - ब्बं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - "पोराणकपण्डितापि आसङ्कितब्बं आसकिंसुयेवाति वत्वा अतीतं आहरि तदे.; - युत्तक त्रि., आशंका करने योग्य - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - "आसङ्कितब्बयुत्तकं नाम आसङ्कितुं वट्टती ति पलासदेवताय सद्धि मन्तेन्तो ..., जा. अट्ठ. 3.181; "भिक्खवे, आसङ्कितब्बयुत्तकं नाम आसङ्कितुं वट्टति ..., जा. अट्ठ. 3.351; - कितुं निमि. कृ. - "आसङ्कितुं वट्टती ति, जा. अट्ठ. 3.181. आसङ्कनीय त्रि., आ + सङ्क का सं. कृ. [आशङ्कनीय], आशंका या सन्देह करने योग्य, भय करने योग्य, अनिश्चित, संदिग्ध - यो पु., प्र. वि., ए. व. - ... "तवाचरियेन कतन्ति वुत्ते तुण्हीभूतो अधिवासेति, आसङ्कनीयो होति, दी. नि. अट्ठ. 1.50; स. उ. प. में, अना. - ता स्त्री॰, भाव., आशंका से रहित स्थिति, भयरहित अथवा सुरक्षित स्थिति - य तृ. वि., ए. व. - ... अनासङ्कनीयताय पब्बज्जालिङ्गसमादानादीनि अनुतिद्वन्तो धम्मेन वाणिज्ज करोति नाम, उदा. अट्ट, 272; - पदेस पु., अनिश्चित प्रकृति का क्षेत्र अथवा विषय - से सप्त. वि., ए. व. - आसङ्कनीयपदेसे ठत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).2693; आसङ्कनीयपदेसे ठत्वा चीवरं पारुपित्वा ..., दी. नि. अट्ठ. 1.155. आसङ्का' स्त्री., [आशङ्का], भय, अनिश्चितता, सन्देह भरी मानसिक स्थिति, प्र. वि., ए. व. - भयं वा आसङ्का वा नत्थि म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).319-320; - इंद्वि . वि., ए. व. - आसङ्कं करिस्सन्तीति, पाचि. अट्ठ. 186%3; बोधिसत्तो... आसङ्ककत्वा ... कुमारिकाय आसङ्काति नामं अकासि, जा. अट्ठ. 3.218; स. उ. प. के रूप में, अज्जिणा., For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आसङ्का अना, निरा, स्तुप्पलग्गसदिसा, सम्पयोगा, सा. के अन्त द्रष्ट.. आसङ्का' स्त्री. व्य. सं. एक तपस्वी की दत्तक पुत्री का नाम. प्र. वि. ए. व. आसष्ट्रा कुमारिका त दिवस फलिकवातपानं, जा. अड. 3.219. आसहिदय त्रि०, ब० स०, आशंका से ग्रस्त हृदय वाला, शङ्कालु हृदय वाला नियतं आसहिदया भुसं, चू. वं. 65. 14 स. उ. प. के रूप में, गमना, भया, भेदा, के अन्त द्रष्ट.. " आसङ्कित त्रि, आ + √संक से व्यु० [आशङ्कित ], संदिग्ध, आशंका का विषय सन्देह का पात्रता स्त्री. प्र. वि., ए. व. "अतिचारिनी "ति आसङ्किता, वि. व. अट्ठ. 88; - परिसङ्कित त्रि., आशंका अथवा भय एवं सन्देह से परिपूर्ण तोपु. प्र. वि., ए.व. आसङ्कितपरिसङ्गितोव होमि, ध. प. अ. 1. 127; वायसो आसहितपरिसहितो यतप्पयत्तो योगिना योगावचरेन आसङ्गितपरिसङ्कितेन यत्तपयत्तेन उपट्टिताय. मि. प. 339; समाचार त्रि०, ब० स०, संदिग्ध आचरण वाला, दूसरो पर सन्देह करने वाला, शङ्कालु प्रकृति वाला रो पु. प्र. वि. ए. व. - सङ्करसराचारोति आसङ्कितसमाचारो, स. नि. अड. 1.113. आसङ्ग पु.. [आसङ्ग], आसक्ति अथवा लगाव करण क्रि लगाव अथवा आसक्ति को उत्पन्न करने वाला, आसक्तिजनक णो पु. प्र. वि. ए. व. आसङ्गीति आसङ्गकरणो, जा० अट्ठ. 4.11; स. उ. प. के रूप में, अनङ्गा, उत्तरा के अन्त. द्रष्ट.. आसङ्गी त्रि.. आसङ्ग से व्यु. [आसङ्गिन् ] लगाव पैदा करने वाला, आसक्ति - जनक डी प्र. वि. ए. व. - आसङ्गीति आसङ्गकरणो जा. अट्ठ. 4.11. - www.kobatirth.org - - आसच्छेद पु. तत्पु, स. [आशाछेद ]. आशा का विनाश, आशा का उच्छेद- दंद्वि. वि. ए. व. मा आसच्छेद करोहीति, जा. अड. 3.220 - नकम्म नपुं. आशा को नष्ट कर देने वाला काम, निराशाजनक कर्म - म्मं द्वि. वि., ए. व. तेसम्पि आसच्छेदनकम्मं त्वमेव करोसीति अट्ठ 250 वदति, जा० अट्ठ० 5.397. आसज्ज आ + √सद का सं. कृ. [ आसाद्य]. क. प्राप्त करके, समीप जा कर पहुंच कर आमने सामने हो कर, ख. आक्रमण कर, अपमानित कर उत्तेजित कर उदविग्न बना कर, असभ्य रूप से आचरण कर, प्रहार कर तं भगवन्तं गोतमं एवं आसज्ज आसज्ज अवचासि दी. नि. आसत्त 1.93; यावञ्चिदं भोतो गोतमस्स एवं आसज्ज आसज्ज वुच्चमानस्स म. नि. 1.318; आसज्ज आसज्जाति घट्टेत्वा घट्टेत्वा दी. नि. अट्ठ 1.223; आसज्ज उपनीय वाचा भासिता, अ. नि. 1 ( 1 ).200; म. नि. 3. 191; न त्वेव भवन्तं गोतमं आसज्ज सिया पुरिसस्स सोत्थिभावो म.नि. 1.301; सो आसज्ज डहे बाल, स. नि. 1 (1).85; आसज्जाति पत्या स. नि. अ. 1.118 काकोव सेलमासज्ज स.नि. 1 ( 1 ) 145; अनरियं गुणमासज्ज अ. नि. 1 ( 1 ) . 228: तं खुरचक्क आसज्ज पापुणित्वा जा. अड. 1.347; पाणमासज्ज पाणिभि, जा. अट्ट. 5.363. आसञ्जन नपुं. आज से व्यु क्रि. ना. [आसञ्जन]. आकर सट जाना, किसी के प्रति लाग-लगाव या किसी के साथ दृढभाव से चिपकाव - नट्ठ पु०, लगाव या चिपकाव का अर्थ द्वेन तृ. वि. ए. व. रूपादीसु आसञ्जनद्वेन आसत्तियो, सारत्थ. टी. 3.361. - " आसति आस का वर्त. प्र. पु. ए. व. [आस्ते]. बैठता है, ठहरता है, रुकता है, रह जाता है सेति चेव आसति च एत्थाति सेनासनं, दी. नि. अड. 1.170; अ. नि. अट्ठ 2.379; सीयते कर्म वा वर्त. प्र. पु. ए. व. - आसीयते आसितब्ब आसनीयं क. व्या. 542 - सेथ विधि, प्र. पु. ब. व आत्मने. सुख मनुस्सा आसेध, जा. अड. 5.209 सेय्युं उपरिवत् परस्मै. आसेधाति आसेप्युं निसीदेव्युं, जा. अड्ड. 5.215 - सित्थ अद्य, प्र. पु. ब. व.. आत्मने. तुम्ही मासित्थ उभयो, न सञ्चलेसुमासना जा. अड. 5.334 - सितुं निमि. कृ. तुम्ही मासितुं पतिरूपन्ति दी. नि. अ. 2.198 सितब्बं / सनीयं सं० कृ०, नपुं. प्र. वि., ए. व. आसितब्ब, आसनीयं, क. व्या. 542. आसत्त त्रि. आ + √सज्ज से व्यु.. भू. क. कृ. [आसक्त ]. 1. लगावयुक्त, विषय-भोगों के प्रति प्रबल तृष्णा रखने वाला, 2. किसी स्थान के साथ बराबर जुड़ा रहने वाला ( स्थायी रूप से वहां रहने वाला) आसत्तो तु च तप्परो, अभि. प. 726 सत्तायं च जने सत्तो आसते सो तिलिङ्गिको, अभि. प. 816 - तो पु०, प्र. वि., पु. प्र. वि. ए. व. सत्तो गुहायन्ति गुहायं सत्तो विसत्तो आसतो लग्गो लग्गितो पलिबुद्धो महानि. 17:बोधियं सत्तो आसत्तोतिपि बोधिसत्तो, स. नि. अ. 2.19; त्ता ब.व. सत्ताति आसत्ता विसत्ता लग्गा लग्गिता... जा. अट्ठ. 3.213; ता स्त्री०, भाव०, आसक्ति या लगाव की अवस्था, आसक्तिभाव यतृ. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - - - Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसत्ति 251 आसन वि., ए. व. - एसा ... विसफलताय विसपरिभोगताय रूपादीस विसत्तताय आसत्तताय च विसत्तिकाति सङ्कगता .... थेरगा. अट्ठ. 2.83; - विसत्त त्रि., आसक्ति से युक्त एवं पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ - त्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - जटाय जटितो आसत्तविसत्तो तत्थ विलग्गो, अप. अट्ठ. 1.167; - त्ता स्त्री., द्वि. वि., ब. व. - आरम्मणेस आसत्तविसत्ता आसत्तियो छिन्दित्वा, अ. नि. अट्ठ 2.117; -- विसत्ततादि त्रि., आसक्त एवं विसक्त इत्यादि - दीहि नपुं., तृ. वि., ब. व. - आरम्मणेसु आसत्तविसत्ततादीहि कारणेहि विसत्तिका वच्चति, स. नि. अट्ठ. 1.19; स. उ. प. के रूप में अना. एवं अन्वा. के अन्त., द्रष्ट... आसत्ति स्त्री., आ + Vसज्ज से व्यु. [आसक्ति], लगाव, तृष्णा, सांसारिक जीवन के प्रति मन का लगाव, इच्छा, विषय भोगों को भोगने की प्रबल कामना -त्ति प्र. वि., ए. व. - यदि आसत्ति उप्पज्जति, नेत्ति. 105; - यो द्वि. वि., ब. व. - सब्बा आसत्तियो छेत्वा, चूळव. 284; रूपादीसु आसञ्जनद्वेन आसत्तियो, तण्हायो, सारत्थ. टी. 3.361; - त्तिं द्वि. वि., ए. व. - उद्धं सरं आसत्तियेव अभिवदन्ति, म. नि. 3.20; भवेसु आसत्तिमकुब्बमानो, सु. नि. 783; तस्स आसत्ति उप्पादेतुकामा, थेरीगा. अठ्ठ. 251; - या तृ. वि., ए. व. - भवासवो आसत्तिया पहातब्बो, पेटको. 234%; बहुल त्रि०, ब. स., अत्यधिक लगाव रखने वाला, प्रबल आसक्ति से ग्रस्त - स्स पु., ष. वि., ए. व. - तोहा आसत्तिबहुलस्स, नेत्ति. 13; स. उ. प. के रूप में निरा. के अन्त. द्रष्ट.. आसद' 1. पु., [बौ. सं. आसादना, स्त्री.], आक्रमण, आ धमकना, हिंसक मनोवृत्ति के साथ किसी के पास आ धमकना, तिरश्कार - दो प्र. वि., ए. व. - मा कुञ्जर नागमासदो दुक्खहि कुञ्जर नागमासदो, चूळव. 334; ... नागमासदो ति... आसादनं बधकचित्तेन उपगमनं नाम दुक्खं, चूळव. अट्ठ. 109; 2. आ + (सद का अद्य., म. पु., ए. व., दूर भगाओ, आक्रमण करो - मेतमासदो, म. नि. 1.410. आसद पु.. आ + (सद से व्यु., वृक्ष में ऊपर लगे हुए फलों को तोड़ने हेतु लग्गी के अग्रभाग में लगा हुआ धातु का अंकुश या हुक - आसदञ्च मसं जट, जा. अट्ठ. 7.292; आसदञ्च मसं जटन्ति आकड्डित्वा फलानं गहणत्थं अंकसं जा. अट्ठ.7.292. आसन नपुं., vआस से व्यु., क्रि. ना. [आसन], 1. वह, जिस पर बैठा जाए, पीठ, पीढ़ा, मञ्च, सिंहासन, बैठने के लिए कोई भी उपकरण, 2. बैठना - आसनं खन्धदेसम्हि, अभि. प. 363; 765; - नं' प्र. वि., ए. व. - आसनं पञपेतब्बं महाव. 56; उपोसथागारे आसनं अपञ्जत्तं होति, महाव. 147; - नं द्वि. वि., ए. व. - आसनं तस्स मज्झम्हि कारापेत्वा महारह, चू. वं. 82.10; इदं आसनं निसीदाहीति, स. नि. 1(2).187; पसन्नो आसनं दज्जा, वि. व. (पृ.) 5; - नेन तृ. वि., ए. व. - ... वा आसनेन वा निमन्तेय्याम, म. नि. 2.285; थेरं आसनेन निमन्तेन्तो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.162; न में कोचि आसनेनपि निमन्तेसि, दी. नि. 1.79; - ना/म्हा प. वि., ए. व. - इमम्हा आसना अनन्धो बुट्ठहेय्य, म. नि. 2.189; वत्वा आसना वुद्वहि, ध. प. अट्ठ. 2.302; अथासनम्हा ओरुय्ह, जा. अट्ठ. 7.132; - स्स ष. वि., ए. व. - सो नातिदूरे नाच्चासन्ने आसनस्स परिवत्तति, म. नि. 2.346; - स्मिं/ने सप्त. वि., ए. व. - आसनस्मि कायं पक्खिपति, म. नि. 2.346; आसने उपविट्ठो सङ्घो, क. व्या. 280; आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खं उदपादि, दी. नि. 2.32; - नानि' प्र. वि., ब. व. - संविज्जन्ति आसनानि, म. नि. 2.24; आसनानीति पल्लङ्कपीठपलालपीठकादीनि, म. नि. अट्ठ. (म.प.).2.28; - नानि द्वि. वि., ब. व. - आसनानि पञत्तानि, स. नि. 2(2).184; आसनानि धोवापेसि, थेरगा. अट्ट, 1.129; द्वे आसनानि ठपेत्वा, चूळव. अट्ठ. 118; - नेसु सप्त. वि., ब. व. - तेन खो पन समयेन सम्बहुला सक्या ... आसनेसु निसिन्ना होन्ति, दी. नि. 1.79; स. उ. प. में, अग्गा., अना., अनुचिण्णा., उच्चा., उत्तमा., उपद्धाः, ऊरुबद्धा., एका., एकादायिका., एकाभोजना., कमला., कुसुमा., जया., ठाना., थेरा., दक्खिना., दण्डा., दीघा., देवा., धम्मा०, धुरा., निरा., निसिन्ना., निसीदना., नीचा., पचुरा., पच्छा., पच्छिमा०, पञत्ता., पटिच्छन्ना., पटिरूपा., पण्डुकम्बलसिला., पत्ता., पासादभद्रा., पुष्फा., बुद्धा., भुजगा., मज्झिमा., मणिमया., मनोसिला., महा., रतना., राजा., रित्ता., वजिरा., वालिका., विवित्ता., विसमा., सका., सङ्घत्थेरा, सपरिवारा., समा०, सरा., सयना०, सीहा., सुपञत्ता०, सुभा०, सेना., सोण्णा., हुता., हेमा. के अन्त. द्रष्ट., स. उ. प. के प्रयोगों में असन (भोजन) तथा आसन के मध्य संभ्रमजनित स्थिति के अनेक स्थल द्रष्ट.. For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसनक 252 आसनपूजा आसनक नपुं.. आसन + क के योग से व्यु., छोटा सा आसन, सुन्दर आसन - कं द्वि. वि., ए. व. - अभागतानासनकं अदासिं. वि. व. 1.5; अप्पकत्ता अनुळारत्ता च "आसनकान्ति, वि. व. अट्ठ. 18. आसनककुसल त्रि., तत्पु. स. [आसनकुशल], आसनों के प्रयोग में कुशल, विनय-शिक्षापदों के अनुरूप आसनों का प्रयोग करने वाला, ज्येष्ठ एवं कनिष्ठ भिक्षुओं के लिए निर्धारित आसनों को ग्रहण न करने वाला - लेन तृ. वि., ए. व. - आसनकुसलेन भवितब्बं, परि. 311; सङ्के विहरन्तेन आसनकुसलेन भवितब्बं, म. नि. 2.143; - ता स्त्री., भाव., विनय शिक्षापदों के अनुरूप आसनों के प्रयोग में दक्षता या कुशलता - य तृ. वि., ए. व. - आसनकुसलताय एकमन्तं निसीदन्ति, पारा. अट्ट, 1.94; स. नि. अट्ठ. 1.16. आसनघर पु., ऐसा भवन जिसमें पाषाणनिर्मित आसन या वेदिकाएं हों तथा जिसमें बुद्ध के शरीरधातु के पवित्र अवशेष रखे गए हों - रं द्वि. वि., ए. व. - बोधिघरं आसनघरं समुञ्जनिअट्टो, चूळव. अट्ठ. 70; 71; - रे सप्त. वि., ए. व. - आसनघरेपि एसेव नयो यस्मिं पन आसनघरे धातु निहिता होति ..., सारत्थ. दी. 3.235. आसनट्ठान/आनिसदट्ठान नपु, तत्पु. स. [आनिषीदनस्थान], बैठने का स्थान – ने सप्त. वि., ए. व. - आनिसदट्ठाने लग्गानं पंसुरजवालिकानं फोटनत्थं, स. नि. अट्ठ. 3.138. आसनथाली स्त्री., द्व. स. [आसनस्थाली], आसन एवं थाली, प्र. वि., ए. व. - कारके कत्तुकम्मव्हे क्रियासन्निस्सये यथा धारेन्ती आसनथाली 'क्रियाधारो ति कप्पिता, सद्द, 1.9. आसनदान नपुं.. तत्पु. स. [आसनदान], आसनों का दान - नेन तृ. वि., ए. व. - इमिनासनदानेन ... विनिपातं न गच्छसि, अप. 2.5. आसनधोवनपरिभण्डकरणादि त्रि., आसनों को धोना और पोछना आदि - दीनि नपुं., वि. वि., ब. व. - आसनधोवनपरिभण्डकरणादीनि .... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).2. आसनन्तरिका स्त्री.. 1. कलह के उपशमन के उपरान्त एक आसन का व्यवधान रख कर भिक्षुओं के एक-एक कर एक साथ बैठने की प्रक्रिया, 2. कलहरत भिक्षुओं को एक आसन का अन्तर देकर एक साथ बैठाने की पद्धति - य तृ. वि., ए. व. - आसनन्तरिकाय निसीदितब्बं महाव. 462; आसनन्तरिकाय ... एकेक आसनं अन्तरं कत्वा, महाव. अट्ट. 407. आसनपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [आसनप्रज्ञप्ति]. आसनों का निर्धारण, आसनों के विषय में प्रज्ञपन अथवा जानकारीतिं द्वि. वि., ए. व. - दिस्वा आसनपत्तिं नेमित्ता, म. वं. 14.53. आसनपञापक पु., तत्पु. स. [आसनप्रज्ञापक], भिक्षुओं के लिए आसनों का निर्धारण करने वाला, आसन तैयार करने वाला अथवा बतलाने वाला, आसन-व्यवस्थापक, आसनप्रबन्धक - कं द्वि. वि., ए. व. - सतो... अजितं सम्मन्नति - थेरानं भिक्खूनं आसनपआपकं चूळव. 475. आसनपटिक्खित्त त्रि., ब. स., कभी भी न बैठने वाला, आसन को कभी भी स्वीकार न करने वाला, सदा तन कर खड़ा रहने वाला- न्तो पु., प्र. वि., ए. व. - उभट्ठकोपि होति आसनपटिक्खित्तो, दी. नि. 1.150; पु. प. 166; - त्ता ब. व. - निगण्ठा उब्मट्ठका आसनपटिक्खित्ता, म. नि. 1.130. आसनपरियन्त पु., कर्म. स., 1. सबसे अन्त वाला आसन, 2. आसन का छोर अथवा किनारा, 3. एक दम नया आसन न्तो प्र. वि., ए. व., - यो होति सङ्घस्स आसनपरियन्तो ... सो तस्स पदातब्बो, चूळव. 78; आसनपरियन्तोति भत्तग्गादीसु सङ्घनवकासनं वुच्चति स्वास्स दातब्बो, चूळव. अट्ठ.9; - न्ते सप्त. वि., ए. व. - परिवसन्तो भत्तग्गे आसनपरियन्ते निसीदि, पाचि. 47; आसनपरियन्ते निसिन्ना उच्छिट्ठपायसं परिभुञ्जि, ध. प. अट्ठ. 1.297. आसनपरियन्तिक त्रि., भोजन करने हेतु केवल एक ही बार आसन पर बैठने वाला तथा आसन से उठने के उपरान्त पुनः भोजन ग्रहण न करने वाला, जब तक आसन से नहीं उठ जाता तब तक भोजन करते रहने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - आसनपरियन्तिको वा याव न वुढाति ताव भुञ्जनतो, विसुद्धि. 1.67. आसनपूजा स्त्री., तत्पु. स. [आसनपूजा], आसन की (पुष्पार्पण आदि द्वारा) पूजा, प्रस्तर-वेदिका की पूजा-जं द्वि. वि., ए. व. - आसनपूज कारेत्वा, दी. नि. अट्ठ. 3.137; सामणेरेहि नानापुप्फानि आहरापेत्वा ... तलसन्थरणपूज आसनपूजञ्च कारेत्वा, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.89%; चित्तलपब्बते पत्तङ्गपुफ्फेहि कतं आसनपूज पस्सतो ..., विसुद्धि. 1.166; -- य सप्त. वि., ए. व. -- इत्थन्नाम For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसनप्पमान 253 आसन्दि तुम्हं मालागन्धादीसु पत्ति आसनपूजाय पत्ति पिण्डपाते पत्ति .... दी. नि. अट्ठ. 3.137. आसनप्पमान त्रि., ब. स. एक आसन अथवा वेदिका के आकार वाला, एक वेदिका के बराबर लम्बा-चौड़ा - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आसनप्पमानं निमित्तं उदपादि, विसुद्धि. 1.166. आसनसन्थविक पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम – को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा आसनसन्थविको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.275. आसनसाला स्त्री., तत्पु. स. [आसनशाला], बैठने अथवा विश्राम करने के लिए निर्मित भवन, सभा भवन - लं द्वि. वि., ए. व. - भिक्खुनुपस्सयं अन्तरारामं आसनसालं तित्थिपसेय्यञ्च, कया. अट्ठ. 204; आसनसालं सम्मज्जन्तेन वत्तं जानितब्बं, पाचि. अट्ठ. 34; पिण्डाय चरित्वा विहारं वा आसनसालं वा गन्त्वा , पाचि. अट्ठ. 100; - तो प. वि., ए. व. - आसनसालतो पत्तं आहरित्चा, महाव, अट्ठ. 400; - यं सप्त. वि., ए. व. – तेसुं तेसुंगामेसु आसनसालायं वा न तं आसनमत्थि, दी. नि. अट्ठ. 1.154; आसानसालायं वा गेहे वा निसीदापेत्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).266; - य ष. वि., ए. व. - आसनसालाय सम्मज्जन उपलेपनादीनि करोन्ता, अ. नि. अट्ठ. 2.135; स. उ. प. के रूप में, अम्बलकोट्ठका., जिण्णा., महेजा. के अन्त. द्रष्ट... आसनामिहार पु., तत्पु. स., आसन पर बैठने हेतु निवेदन -रं द्वि. वि., ए. व. - आसनाभिहारं सादियति, चूळव. 50; आसनाभिहारं अरहति, जा. अट्ठ. 1.90. आसनारह त्रि., तत्पु. स. [आसनाह], क. आसन प्रदान । करने योग्य (सम्माननीय व्यक्ति) - हो पु., प्र. वि., ए. व. - अस्थि पुग्गलो आसनारहो, परि. 250; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - आसनारहस्स न आसनं देति, म. नि. 3.253; ख. बैठने के लिए उपयुक्त (आसन)- हं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - आसनारहं धम्मासनं पापेत्वा, पारा. अट्ठ. 1.9; आसनारहन्ति निसीदनारह, सारत्थ. टी. 1.52. आसनिक त्रि., केवल स. उ. प. में आसनासनिक रूप में प्रयुक्त, आसन पर आसीन, आसन को ग्रहण किया हुआ, अग्गासना., असमानासना०, एकासना., समानासना. के अन्त. द्रष्ट.. आसनिय त्रि., थेरों के नामों के उपनाम के रूप में उ. प. में प्रयुक्त, आसन वाला, एका., कुसुमा., पुष्फा. जैसे थेरनामों के अन्त. द्रष्ट.. आसनीय त्रि., Vआस का सं. कृ., बैठने या बैठाने योग्य - यं नपुं, प्र. वि., ए. व. - भावकम्मेसु तब्बानीया ..., आसनीयं, क. व्या. 542. आसनुपट्ठाहक पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम, - रो प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा आसनुपट्ठाहको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.145. आसनूदक नपुं., द्व. स. [आसनोदक], (आए हुए अतिथि को सम्मान के रूप में दिया जाने वाला) आसन एवं जल - कं द्वि. वि., ए. व. - न तादिसी अरहति आसनूदक, जा. अट्ठ. 5.395; - दायी त्रि., आसन एवं जल प्रदान करने वाला - नं पु, रा. वि., ब. क. - आसनूदकदायीनन्ति अभागतानं आसनञ्च उदकञ्च दानसीलानं जा. अठ्ठ. 4.394. आसनूपगत त्रि., तत्पु. स. [आसनोपगत], आसन पर बैठा हुआ, आसीन - तो पु., प्र. वि., ए. व. - उपद्वितो रुक्खमूलस्मिं आसनूपगतो मुनि, सु. नि. 713. आसनोदक नपुं., द्व. स. [आसनोदक], आसन एवं जल - केन तृ. वि., ए. व. - अब्भागते च आसनोदकेन पटिपूजेस्सामा ति, अ. नि. 2(1).33; - दानादि त्रि., आसन एवं जल का प्रदान आदि, नपुं, प्र. वि., ए. व. - आसनोदकदानादि वेय्यावच्चन्ति सञ्जितं, सद्धम्मो. 222. आसन्दि/आसन्दी स्त्री., आ + /सद से व्यु. [आसन्दी, आसद्यते, अस्याम् इति], 1. तकियेदार आरामकुर्सी, आराम के साथ बैठने हेतु प्रयोग में लाया जाने वाला चार पायों वाला बड़ा आसन अथवा चार कोनों वाला विशाल पीठ, 2. विनय के सन्दर्भ में विशेष अर्थ, भिक्षु के लिए बुद्ध द्वारा वर्जित ऊंचे आसनों की सूची में एक, आठ सुगत अङ्कुलों की माप से अधिक ऊंचाई वाला आसन या पलंग, प्र. वि., ए. व. - दुतिये आसन्दी नाम अतिक्कन्तप्पमाणा वुच्चति, कसा अट्ठ. 318; आसन्दीआदीसु आसन्दीति पमाणातिक्कन्तासन, महाव. अट्ठ. 347; - न्दिं द्वि. वि., ए. व. - आसन्दिं सकतं कत्वा, अप. 1.415: आसन्दि कुटिकं कत्वा, ओगयह अञ्जनं वनं. थेरगा. 55: आसन्दीनाम दीघपादकं चतुरस्सपीठं, आयतं चतुरस्सम्पि अत्थियेव, यत्थ निसीदितुमेव सक्का, न निप्पज्जितं तं आसन्दि कुटिक कत्वा ..., थेरगा. अट्ठ. 1.136; - या ष. वि., ए. व. - आसन्दिया पादे छिन्दित्वा ... परिभुञ्जन्तिया, ... अनापत्ति, कङ्खा. अट्ठ. 318; "अनुजानामि, भिक्खवे, आसन्दिया पादे छिन्दित्वा परिभुञ्जितुं.... चूळव. 299; पादे आसन्दिया छेत्वा, विन. वि. 2285; 3. अर्थी - पञ्चम त्रि., ब. स., For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसन्दिक 254 आसन्नचुतिक पांचवें के रूप में, अर्थी पर लेटे हुए शव को मिलाकर अधिक पास वाला, अपेक्षाकृत अधिक निकटवर्ती - रं' (कुल चार लोग)- मा पु., प्र. वि., ब. व. - आसन्दिपञ्चमा नपुं. प्र. वि., ए. व. - यं आसन्नतरं अङ्ग तस्स ओरिमन्तेन पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति, दी. नि. 1.49; - पीठकारक परिच्छिन्दित्वा, कङ्खा. अट्ठ. 212; - २ नपुं. द्वि. वि., ए. त्रि., ऊंचे आसनों एवं पीठों को बनाने वाला - को पू., व. - अनन्तरपच्चयमेव आसन्नतरं कत्वा पुच्छति, परि. प्र. वि., ए. व. - चण्डालो आसहं तत्थ आसन्दिपीठकारको, अट्ठ. 215; - त्त नपुं., आसन्न का भाव. [आसन्नत्व], अप. 1.415. निकटता, समीपता - त्ता प. वि., ए. व. - आसन्दिक पु., [आसन्दिका, स्त्री.], चार कोणों वाला पीठ सोमनस्सिन्द्रियस्स आसन्नत्ता अप्पन्नापत्ताय स. नि. अठ्ठ. या बैठने का आसन, आठ अंगुलों से अधिक ऊंचाई वाला 3.271; जेट्टत्ता सेट्टत्ता आसन्नत्ता सब्बकालं सन्निहितत्ता, चौकोर आसन - को प्र. वि., ए. व. - आसन्दिकोति उदा. अट्ठ. 351; अप्पनाय आसन्नत्ता समीपचारत्ता, विसुद्धि. चतुरस्सपीठं वुच्चति उच्चकम्पि आसन्दिकन्ति वचनतो 1.134; आसन्नत्ता भवङ्गस्स, अभि. अव. 903; स. उ. प. के एकतोभागेन दीघपीठमेव हि अङ्गुलपादकं वट्टति, चतुरस्स रूप में; अच्चा., अनावरा., छाया., दूरा., द्वारा., नगरा., आसन्दिको पन पमाणातिक्कन्तोपि वट्टतीति वेदितब्बो, चूळव. मरणा., लेना. के अन्त. द्रष्ट.. अट्ठ. 59; सङ्घस्स आसन्दिको उप्पन्नो होति, चूळव. 275; आसन्नकत त्रि, तत्पु. स., सद्यः किया गया, तुरन्त किया आसन्दिको अतिक्कन्तपमाणोपि च वति, विन. वि. 2827; गया, कुछ समय पूर्व में किया गया - ते नपुं॰, सप्त. वि., - सण्ठान त्रि., ब. स., आसन्दी अथवा चतुष्कोणीय पीठ ए. व. - आसन्नकाले कते वत्तब्बमेव नत्थि विसुद्धि. के आकार वाला -- ना पु., प्र. वि., ब. व. - ... अट्ठदन्ता महाटी. 2.353; पाठा. आसन्नकाले कते; - तानि नपुं, चतुकोटिका चतुमूलिका आसन्दिकसण्ठाना, खु. पा. अठ्ठ. 33. प्र. वि., ब. व. - 'पुब्बे सुचिण्णानीति “दत्वा कत्वाति हि आसन्न त्रि., आ + vसद का भू. क. कृ. [आसन्न], क. आसन्नकतानि वुत्तानि, विसुद्धि. महाटी. 2.259. काल, स्थान एवं संख्या की दृष्टि से समीप में स्थित, आसन्नकारण नपुं., कर्म. स. [बौ. सं., आसन्नकारण], निकटस्थ, निकटवर्ती – समीपंनिकटासन्नोपकट्ठाभ्यास नज़दीकी कारण, सबसे समीपवर्ती अथवा साक्षात् कारण, सन्तिकं अविदूरं च सामन्तं सन्निकट्ठमुपन्तिकं, अभि. प. प्रधान कारण - णं प्र. वि., ए. व. -हिरोत्तप्पञ्च पनस्स 705; समीपे आसन्नन्ति, सद्द. 3.880; - न्नं पु., द्वि. वि. विहि पदद्वानन्ति वणितं आसन्नकारणन्ति अत्थो, विसुद्धि. ए. व. - आसन्नं अत्तनो सरीरसम्फस्सं आगतन्ति, जा. 1.9; हिरोत्तप्पेहीतिआदि तस्स आसन्नकारणभावसाधनं, अट्ठ. 7.263; - न्ना' प्र. वि., ब. . - भिक्खू... आसन्ना विसुद्धि. महाटी. 1.27; आसन्नकारणं यं तु, तं हुत्वा, उदा. अट्ठ. 327; - न्ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पदट्ठानसञ्जितं, अभि. अव. 634; स. उ. प. के रूप में कोधसामन्ताति कोधस्स आसन्ना, ध. स. अट्ठ. 417; - न्नं समथा. के अन्त. द्रष्ट; - त्त नपुं॰, भाव., प्रधान कारण नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तीसु कसिणेस अञ्जतरं आसन्नं । होना - त्ता प. वि., ए. व. - सम्मासम्बुद्धा सम्मासम्बोधिं कातब्बं विसुद्धि. 2.55; ख. नपुं., पड़ोस, सामीप्य - न्ने अधिगच्छन्तीति आसन्नकारणत्ता, उदा. अट्ट. 247. सप्त. वि., ए. व. - आसन्नेव नो भगवा विहरति, इतो छसु आसन्नकाल पु., कर्म. स., मृत्यु का समय, जीवन की योजनेसु, महाव. 330; नगरद्वारस्स आसन्ने मनुस्सानं अन्तिम घड़ी - ले सप्त. वि., ए. व. - कालं कत्वा भण्डकं ओतारेत्वा, स. नि. अट्ठ. 1.259; सामन्ता आसन्ने आसन्नकाले गहितसीलं निस्साय तावतिसभवने निब्बत्तिंस. अविदूरे महानि. 116; ग. नपुं., मृत्यु के क्षण के तुरन्त पूर्व स. नि. अट्ठ. 1.51. किया गया कर्म, कर्म का एक विशेष प्रभेद, आसन्नकर्म- आसन्नगब्मा स्त्री., ब. स. [आसन्नगर्भा], शीघ्र प्रसव करने न्नं प्र. वि., ए. व. - गरुकं आसन्न आचिण्णं वाली नारी, अति शीघ्र शिशु को जन्म देने वाली, प्र. वि., कटत्ताकम्मञ्चेति पाकदानपरियायेन, अभि. ध. स. 36; ए. व. - आसन्नगब्भा मे माता, अप. 2.123; पाठा. आसन्नन्ति मरणकाले अनुस्सरितं, तदा कतञ्च, अभि. ध. आसन्नसत्ता; माता गरुगब्भा गमिनी पसुतासन्नगब्भाति वि. टी. 154; गरुके असति आसन्न, अभि . ध. वि. टी. अत्थो, अप. अट्ठ. 2.229. 155; आसन्नञ्च कटत्ता च, कम्मन्ति समुदीरितं, अभि. आसन्नचुतिक त्रि., ब. स., मरणासन्न, बहुत शीघ्र मृत्यु को अव. 1244; - तर त्रि., तुलनात्मक विशे. [आसन्नतर], प्राप्त होने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - ये पन For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसन्नट्ठान 255 आसन्नवितक्कविचारपच्चत्थिक आसन्नचुतिका इदानि चविस्सन्ति ते चवमाना ..., पारा. अट्ठ. 1.123. आसन्नट्ठान नपुं., कर्म. स. [आसन्नस्थान), सीमावर्ती स्थान – ने सप्त. वि., ए. व. - तस्स विजिते आसन्नहाने एकस्मिं सरतीरे विस्सज्जापेसिध. प. अट्ठ. 1.112; पुरिमपस्से विज्झितुकामो विय आसन्नट्ठानेयेव ठितकण्टको, स. नि. अट्ठ. 3.94. आसन्नतक्कचारारि त्रि., निकट में स्थित वितर्क एवं विचार नामक ध्यानाङ्गों से मुक्त - रि स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आसन्नतक्कचारारि समापत्ति अयं इति, अभि. अव. 947. आसन्नदूर त्रि., निकटवर्ती एवं दूर में स्थित - वसेन त वि., क्रि. वि., समीपता एवं दूरी के कारण से - आसन्नदूरवसेन द्वे द्वे पच्चत्थिका, विसुद्धि. 1.309. आसन्ननीवरणपच्चत्थिक त्रि., ब. स., समीपस्थ नीवरणों का प्रतिपक्षीभूत - का स्त्री., प्र. वि., ए. व.- अयं समापति आसन्ननीवरणपच्चत्थिका, विसद्धि. 1.149. आसन्नपच्चक्ख त्रि., द्व. स., निकट में एवं आंखों के सामने स्थित - वचन नपुं., समीपता एवं प्रत्यक्षता के अर्थों को कहने वाला सङ्केतक सर्वनाम - नं प्र. वि., ए. व. - आसन्नपच्चक्खवचनं, उदा. अट्ठ. 170. आसन्नपच्चत्थिक त्रि., ब. स. [आसन्नप्रत्यर्थिक], निकटस्थ शत्रु जैसा, पास में मौजूद अहितकारी विरोधी जैसा - को पु., प्र. वि., ए. व. - ... गुणदस्सनसभागताय रागो आसन्नपच्चत्थिको, विसुद्धि. 1.309; तस्मा मित्तमुखसपत्तो विय तुल्याकारेन दूसनतो रागो मेत्ताय आसन्नपच्चत्थिको, विसुद्धि. महाटी. 1.359; - केन पु., तृ. वि., ए. व. - आसन्नपच्चत्थिकेन रागेन अनाकडनियं, थेरगा. अट्ठ. 2.204; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - उपेक्खाब्रह्मविहारस्स... अानपेक्खा... आसन्नपच्चत्थिका, विसुद्धि. 1.310. आसन्नपठमारूपचित्तपच्चत्थिक त्रि., निकटस्थ शत्रु के रूप में प्रथम आरूप्यचित्त से युक्त - त्थिकं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आसन्नपठमारुप्प चित्तपच्चत्थिकन्ति च, अभि. अव. 1008. आसन्नपदेस पु., कर्म. स. [आसन्नप्रदेश], समीपवर्ती प्रदेश, निकट में स्थित क्षेत्र - सो प्र. वि., ए. व. - यथागामादीनं आसन्नपदेसो गामूपचारो नगरूपचारोति वुच्चति, विसुद्धि. 1.134; - से सप्त. वि., ए. व. - आसन्नपदेसे अनुगतवेधं, स. नि. अट्ठ. 3.114; मातापितून आसन्नपदेसे निसिन्न, चरिया. अट्ठ. 194. आसन्नपीतिपच्चत्थिक त्रि., समीपवर्ती शत्रु के रूप में प्रीति को रखने वाला, वह, जिसमें प्रीति ही निकटस्थ शत्रु के रूप में रहे - का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - "अयं समापत्ति आसन्नपीतिपच्चत्थिका, विसुद्धि. 1.158. आसन्नभवङ्गत्त नपुं., भाव., भवङ्गों की निकटता अथवा सामीप्य - त्ता प. वि., ए. व. - न ततो परं आसन्नभवङ्गत्ताति पटिक्खित्तं, विसुद्धि. 2.313. आसन्नभूत त्रि. [आसन्नभूत], समीपवर्ती बन चुका, निकटस्थ हो चुका - त्त नपुं., भाव., निकटता, समीपवर्तिता - त्ता प. वि., ए. व. - आसन्नभूतत्ता समं पटिपज्जति, पटि. म. अट्ठ. 1.201. आसन्नमरण त्रि., ब. स. [आसन्नमरण], मरणासन्न लगभग मरने वाला, शीघ्र प्राण त्यागने वाला - णो पु., प्र. वि., ए. व. - पुत्तसोकेन विप्पलपन्तोयेव आसन्नमरणो हुत्वा, ध. प. अट्ट, 2.137; यहि आसन्नमरणो अनुस्सरितुं सक्कोति, विसुद्धि. 2.235; - णं द्वि. वि., ए. व. - सा गन्त्वासन्नमरणं म. वं. 22.35; - णेन तृ. वि., ए. व. - कतं चिन्तितमासन्न - मासन्नमरणेन तु, ना. रू. प. 351; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - अतीतस्मिं भवे तस्स आसन्नमरणस्स हि, अभि. अव. 592; - णे सप्त. वि., ए. व. - यंपन कुसलाकुसलेस आसन्नमरणे अनुस्सरितुं सक्कोति, तं यदासन्नं नाम, अ. नि. अट्ठ. 2.108; - णा पु., प्र. वि., ब. व. - एकन्तमरणधम्मताय आतुरा आसन्नमरणा पण्डितमनुस्सा, जा. अट्ट. 3.174; - णेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - विसवेगेन आसन्नमरणेसु. जा. अट्ठ. 3.174. आसन्नरूपावचरज्झानपच्चत्थिक त्रि., ब. स., निकटस्थ शत्रु के रूप में रूपावचर-ध्यान से युक्त, वह, जिसमें रूपावचर ध्यान समीपवर्ती प्रत्यर्थी के रूप में प्राप्त हो - का स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - आसन्नरूपावचरज्झानपच्चत्थिका अयं समापत्ति, विसुद्धि. 1.321; - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आसन्नरूपावचरज्झानपच्चत्थिकन्ति च, अभि. अव. 998. आसन्नवितक्कविचारपच्चत्थिक त्रि., ब. स., वह, जिसमें वितर्क एवं विचार निकटस्थ प्रत्यर्थी या शत्रु के रूप में विद्यमान हों, समीपस्थ शत्रु जैसे वितर्क एवं विचार से युक्त - त्थिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - "अयं समापत्ति आसन्नवितक्कविचारपच्चत्थिका, विसुद्धि. 1.152. For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आसन्नसन्निवेसववत्थित आसन्नसन्निवेसववत्थित त्रि. कर्म. स. सुव्यवस्थित पारस्परिक क्रम विन्यास में विन्यस्त, एक दूसरे के साथ अत्यन्त निकट होकर कतारों में स्थित तानं पु, ष. वि., ब. व. - तत्थ आसन्नसन्निवेसववत्थितानं रुक्खानं समूहो वनं, खु. पा. अट्ठ. 152. आसन्नसोमनस्स त्रि०, ब० स०, अत्यन्त समीपवर्ती सौमनस्य से युक्त सं नपुं. प्र. वि., ए. व. - करोति पनिदं चितं, रूपामारम्मणं यतो आसन्नसोमनरसज्य थूलसन्तविमोक्खतो अभि. अ. 986 - पच्चत्थिक त्रि. समीपस्थ सौमनस्य का प्रत्यर्थी अथवा विरोधी कं नपुं. प्र. वि., ए. व. आसन्नसोमनस्सञ्चाति यतो ततियज्झानस्स आसन्नताय आसन्नसोमनस्सपच्चत्थिकञ्च, अभि. अव. (अभि.टी.) 2.191; तस्मिं झाने "इमं मया निब्बिण्णं रूपं आरम्मणं करोतीति च, आसन्नसोमनस्सपच्चत्थिकन्ति, विसुद्धि० 1.317. आसन्नाकुसलारिक त्रि. ब. स. वह जिसमें अकुशल के प्रतिपक्षभूत कुशल धर्म समीप में ही विद्यमान हों, समीप में विद्यमान कुल धर्मों वाला रिका स्त्री. प्र. वि. ए. व. यस्मा अयं समापत्ति आसन्नाकुसलारिका, अभि. अव. 1 - - www.kobatirth.org 256 933. आसन्नानन्तर त्रि, एकदम निकटवर्ती, अत्यधिक समीप में स्थित, बिना किसी व्यवधान के जुड़ा हुआ रंनपुं. प्र. वि., ए. व. - द्वे अनन्तरानि आसन्नानन्तरञ्च दूरानन्तरञ्च, स.नि. अ. 2.244. - आसप्पना स्त्री. आ + √सप्प से व्यु प्रायः परिसप्पना के साथ प्रयुक्त [आसर्पण]. शा. अ. रेंग कर पास पहुंचना, फिसलते हुए चलना, फिसलन, ला. अ., अविश्वास, शङ्का, सन्देह, अनिश्चय, विचिकित्सा, "यह ठीक है अथवा ठीक नहीं है इस प्रकार की अनिश्चयपरक मनोवृत्ति, प्र. वि., ए.व. आसप्पना परिसप्पना, सद्द. 2.330; या कङ्क्षा कङ्क्षायना संसयो अनेकंसग्गाहो आसप्पना परिसप्पना अपरियोगाहणा छम्भितत्तं चित्तस्स मनोविलेखो .... अयं दुच्चति "विधिकिच्छा, विभ. 286: यस्मा पन बुद्धानं एकड म्मेपि आसप्पना परिसप्पना नत्थि, दी. नि. अट्ठ. 1.65; या एवरूपा कङ्क्षा... द्वेधापथो संसयो अनेकंसग्गाहो आसप्पना परिसप्पना इदं कथं कथासल्लं, महानि. 307 ; निच्छेतुं असक्कोन्ती आरम्मणतो ओसक्कतीति आसप्पना, महानि, अट्ठ. 349; परिसप्पना स्त्री०, द्व० स० [ आसर्पण परिसर्पण] सन्देह एवं अविश्वास नं द्वि. वि. ए. व. -- एवं विचिकिच्छापि बुद्धो नु खो, न — आसभसदिसत्त बुद्धोति आदिना नयेन पुनप्पुनं आसप्पनपरिसप्पनं अपरियोगाहनं .... दी. नि. अट्ठ 1.174; अरज्ञ पविट्ठस्स आदिम्हि एव सप्पनं आसप्पनं परि परितो, उपरुपरि वा सप्पनं परिसप्पनं, दी. नि. टी. (लीन.) 1.230. आसम' त्रि, प्रायः 'वाचा' (वाणी) एवं 'ठान (स्थान) के विशे. के रूप में प्रयुक्त [ आर्षभ], ऋषि से सम्बद्ध, आर्यपुद्गल से सम्बद्ध, अर्हत् से सम्बद्ध भी स्त्री. प्र. कि.. ए. व. अथ किं चरहि ते अयं सारिपुत्त, उळारा आसभी वाचा भासिता, दी. नि. 3.74; आसभीति उसभस्स वाचासदिसी अचला असम्यवेधी दी. नि. अड्ड. 3.56 - मिं स्त्री. द्वि. कि.. ए. व. आसभि वाचं निच्छारेसि, पारा. अड. 1.96 आसभिञ्च वाचं भासति म. नि. 3.165; आसभि वाचं निच्छारेन्तो, जा. अड. 1.64; आसभचम्मं सहसतेन सुविहतं विगतवलिक म. नि. 3.148 मं नपुं. प्र. वि., ए. व. यथापि आसभ चम्मं पथव्या वितनीयति, जा. अट्ट 6.283 - मं द्वि. वि., ए. व. येहि बलेहि समन्नागतो तथागतो आसभं ठानं पटिजानाति, अ० नि० 2 (2).120; भगवा पन अप्पटिसमद्वेन आसभं ठानं पटिजानाति, स. नि. अह 1.72; आसभं ठानन्ति सेद्वद्वानं उत्तमद्वान् स. नि. अट्ठ. 2.41; - भो पु०, प्र. वि., ए.व. आसभसदिसत्ता आसभो नराने आसभो नरासभो, अप. अड. 1.246 - भा ब. व. आसभा वा पुब्बबुद्धा, तेसं ठानन्ति अत्थो, म. नि. अड. ( मू.प.) 1(1).339 स. उ. प. के रूप में, नरा, पुरिसा के अन्त द्रष्ट - द्वानद्वायी त्रि. उत्तम स्थान को ग्रहण करने वाला, प्रमुखता की स्थिति को प्राप्त यिनो पु०, प्र. वि. ब. व. आसभट्टानद्वायिनो सीहनादनादिनो, म० नि० अट्ठ. ( मू०प.) 1(1).10; द्वाननिच्चल त्रि, उत्तम स्थान पर अडिग रूप से स्थित भं प्र० लो पु०, प्र. वि., ए. व. आनुभाववसिप्पत्तो, आसभण्डाननिच्चलो. ना. रू. प. 1108 पाठा. द्वान: भूत त्रि. उत्तम स्थिति को प्राप्त त पु सम्बो.. ए. व. नरासभ नराने आसभभूत, अप, अड. 2.82. आसभ' नपुं,, उसभ का भाव, उत्तमता, उच्चता वि., ए. व. उसभस्स भावो आसभ, क. व्या. 404; उसभस्स इदं ठानन्ति आसभ, सर. 3.807. आसमसदिसत्त नपुं, भाव, अर्हत् आदि आर्य अथवा निष्पाप जनों के समान होना, उत्तम व्यक्तियों से समानता- त्ता प.वि., ए. व. आसभसदिसत्ता आसभो, अप. अट्ठ 1.246. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आसमिवाचामासन आसभिवाचाभासन नपुं० तत्पु० स०, सांढ़ की स्थिर ध्वनि जैसी अचल वाणी को बोलना नं. प्र. वि. ए. व. - आसभिवाचाभासनं अप्पटिवत्तियवरधम्मचक्कप्पवत्तनस्स पुब्बनिमित्त दी. नि. अड्ड. 1.58. आसय पु० / नपुं., [आशय / आश्रय ] 1. शा. अ., निवासस्थान, स्थायी रूप से बसने का स्थान, विश्रामस्थल, शरणगृह, आवास, घर, उत्पत्ति स्थल, उद्गम स्थल, ला. अ., आधार, सहारा देने वाला, ग्रहण करने वाला भाजन अथवा पात्र, आश्रय छट्टबलनिदेसे आसयन्ति यत्थ सत्ता आसयन्ति निवसन्ति, तं तेसं निवासद्वानं दिट्टिगतं वा यथाभूतं आणं वा विभ अट्ठ. 432; आसयोति निस्सयो पच्चयोति अत्थो विसुद्धि. महाटी 1.288; आसयन्ति वसनकसुसिरं विसुद्धि. महाटी 1.165: यो प्र. वि., ए. व.- सारम्भ नाम किपिल्लिकानं वा आसयो होति, पारा. 231; आसयोति निबद्धवसनद्वानं, पारा. अट्ठ. 2.141; किंसु गाथानमासयोति स. नि. 1 (1).44; विनयो आसयो महं अप. 1.45; आसयतोति आसीविसानहि वम्मिको आसयो, तत्थेव ते वसन्ति स. नि. अड. 3.58:- या प. वि. ए. व. सीहो... सायन्हसमयं आसया निक्खमति अ. नि. 2 (1) 113: आसया निक्खमित्वा ध. प. अ. 2.348; तत्रासयाति परिस्सया, महानि. 266; स. उ. प. के रूप में, आमा, पक्खा, आलम्बनवना, उदका., कामा., कुला., कोट्ठा., गभा., गुहा, जला०, दका., नेक्खम्मा०, पक्का., पलिवेठना, बिला०, रुक्खा, वना, वारिंगेहा०, व्यग्घा, सका. सग्गा के अन्त द्रष्ट ; 2. मानसिक अभिप्राय, इच्छा, प्रयोजन, मन की प्रवृत्ति अथवा रुझान, स्वभाव, आदत, मानसिक संरचना, चित्तवृत्ति, मन, इरादा, भावयो प्र. वि., ए. व. आसयोव अज्झासयो, सो च ... अनेकविधो, उदा. अड्ड. 9. - यं द्वि. वि. ए. 4. - ब्राह्मणस्स आसयं ञत्वा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.7; तस्स आसयं न जानाति जा. अड. 1.220 तिरच्छानानम्पि नाम आसयं जानिस्सती 'ति जा. अड. 2.82 - या प्र. वि. ब. व. उप्पन्ना पञ्च आसया, दी. वं. 3.53; स. उ. प. के रूप में अग्गबोधिगता, अज्झा, अधिका, अविज्जा असुद्धा, करुणा, करुणानुगता, करुणाभाविता, घट्टिता, तक्का., थिरा, दुन्नीतिनिवहा, बुद्धपेमगता, महाबोधिगता, मुदिता., विम्हिता. विसमा, विसुद्धा ता. सत्ताविदु सब्बसत्तहिता. के अन्त द्रष्ट 3. शरीर के अन्दर विद्यमान पित्त, कफ, पी एवं रक्त नामक 4 प्रवहनशील तरल तत्त्व, तरल www 257 आसयविपत्ति मल, शरीर के अन्दर से बाहर की ओर रिसने वाले पित्त आदि जुगुप्सित तरल- यो प्र. वि., ए. व. चतूसु अज्ञतरो आसयो होतियेव, विसुद्धि. 1.335:- या ब. क. मन्दपुञ्ञानं पन चत्तारो आसया होन्ति, तदे०; स. उ. प. के रूप में पित्ता, पित्तसेम्हपुब्बलोहिता, पुब्बा, लोहिता., सेम्हा. के अन्त द्रष्ट.. आसयगत त्रि. तत्पु स. [आशयगत], स्वभाव में विद्यमान, प्रकृति में मौजूद तानि नपुं. प्र. वि. ब. व. दुब्बलानि किलेसानि यस्सासयगतानि मे अप For Private and Personal Use Only - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - 2.155. आसयज्झासय पु०, द्व० स० [आशयाध्याशय ] आशय एवं अध्याशय, मानसिक अभिप्राय एवं मानसिक रुझान स्स ष. वि., ए. व. आकारतो च वोकारतो च आसयज्झासयस्स अधिमुत्तिसमन्नागतानं, पेटको. 190. आसयति आ + √सि का वर्त., प्र. पु. ए. व. [ आश्रयते ], शा. अ., आकर सो जाता है, ला. अ., निवास करता है, सहारा लेता है, शरण लेता है न्ति ब. व. चतुब्बिधो पेसो आसयन्ति सत्ता एत्थ निवसन्ति, चित्तं वा आगम्म सेति एत्थाति आसयो मिगासयो विय, दी. नि. अभि. टी. 1.88; आसयन्ति यत्थ सत्ता आसयन्ति निवसन्ति, विभ. अड. 432. आसयदोसमोचन नपुं०, इच्छा अथवा मानसिक आसक्ति के दोष से मुक्ति - नेन तृ. वि., ए. व. - आसयदोसमोचनेन अग्ग महानि, अह. 152. आसयपोसन नपुं, तत्पु० स०, अकुशल चित्तवृत्तियों के विशोधन द्वारा निर्वाण विषयक मानसिक आशय (रुझान ) का पोषण नं. प्र. वि., ए. व. दुतियेन आसयपोसनं विभावितं होतीति, पारा. अट्ठ. 1.105; आसयपोसनन्ति आसयस्स विसोधनं वड्ढनञ्च, वि. वि. टी. 1.63; तण्हास किले ससोधनेन विवद्दूपनिस्सयसंवद्धनेन च अज्झासयविसोधनं आसयपोसनं, विसुद्धि. महाटी 1.154. आसयप्पान नपुं तत्पु. स. [आशयप्रहाण] इच्छाओं का नाश, आशयों का उच्छेद नायच. वि., ए. व. तस्स आसय पहानाय नेव इमं लोकं आसीसति न परलोक, पेटको. 304; पाठा. आसयप्पहानाय. आसयविपत्ति स्त्री. दूषित आशय, अकुशल इच्छा, मानसिक आशय की अविशुद्धि, अभिप्राय की हीनता इदानि ये ते पठमगाथाय आसयविपत्तिवसेन कोधनादयो पञ्च, पापमक्खिं वा द्विधा कत्वा छ... सु. नि. अड. 1.147. - - - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसयसद्दित 258 आसव आसयसद्दित त्रि., 'आशय' शब्द द्वारा कथित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यथाभूतञ्च यं जाणं, एतं आसयसहित न्ति, विसुद्धि. महाटी. 1.225. आसयसम्पत्ति स्त्री., आशय की श्रेष्ठता, उत्तम आशय, कुशल मानसिक अभिप्राय - यं सप्त. वि., ए. व. - ... सुमना भवन्तूति इमिना वचनेन आसयसम्पत्तियं नियोजेन्तो ....., खु. पा. अट्ठ. 133. आसयसामन्त स्त्री., निवासस्थान के समीप - न्ता प. वि., ए. व. - मम आसयसामन्ता, तिरसो लोकग्गनायको, अप. 2.7. आसयसुद्धि स्त्री., [आशयशुद्धि]. मानसिक अभिप्राय अथवा मानसिक प्रवृत्ति की शुद्धि, शुद्ध मनोभाव, विशुद्ध अभिप्राय, प्र. वि., ए. व. - इचस्स पच्छिमचक्कद्वय सिद्धिया आसयसुद्धि सिद्धा होति, स. नि. अट्ठ. 1.8; - द्धिं द्वि. वि., ए. व. - .... दीपेति ... तथा आसयसुद्धि पयोगसुद्धिञ्च, खु. पा. अट्ठ. 84; - या तृ. वि., ए. व. - ... सत्तानं अभयदाने आसयसुद्धिया आमिसदाने उभयसुद्धिया ..., चरिया. अट्ठ. 274; - वचन नपुं.. तत्पु. स., अभिप्राय की शुद्धि का वचन - तो प. वि., ए. व. - ... किलेसापराधप्पहानेन आसयसुद्धिवचनतो .... चरिया. अट्ठ. 254, आसयानुसय पु., द्व. स. [बौ. सं. आशयानुशय], आशय एवं अनुशय, मानसिक अभिप्राय एवं अवचेतन मन में सो रहीं क्लेशात्मक मनोवृत्तियां - यं द्वि. वि., ए. व. - भगवता, तेसं तेसं सत्तानं आसयानुसयं जानता, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.9; आसयानुसयं अत्वा, इन्द्रियानं बलाबलं, अप. 1.26; एत्थ आसयोति अज्झासयो चरिया, अनुसयोति थामगतकिलेसो, ... "अयं मोहचरितो ति आदिना आसयञ्च अनुसयं किलेसपवत्तिञ्च जानित्वाति अत्थो, अप. अट्ठ. 1.241; - ये सप्त. वि., ए. व. - सत्तानं आसयानुसये आणं, पटि. म. 121. आसयानुसयचरिताधिमुत्ति स्त्री., आशय (मानसिक संरचना) अनुसय (क्लेशात्मक प्रवृत्तियां), चर्या (व्यवहार) एवं अधिमुक्ति (दृढ़ विश्वास)- त्तिं द्वि. वि., ए. व. - तेसं तेसञ्च सत्तानं आसयानुसयचरिताधिमुत्ति, सम्मदेव ओलोकेत्वा ..., उदा. अट्ठ. 120; स. प. के अन्त.; आसयानुसयचरिताधिमुत्ति आदिविभागावबोधेन, अप. अट्ठ. 2.260. आसयानुसयाण नपुं. तत्पु. स. [बौ. सं. आशयानुशयज्ञान], आशयों (मन की संरचना) एवं अनशयों का ज्ञान, चित्त की रागात्मिका अथवा द्वेषात्मिका प्रवृत्ति आदि का ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - तेसु बुद्धचक्खु नाम आसयानुसयजाणञ्चेव इन्द्रियपरोपरियतञाणञ्च, स. नि. अट्ठ. 3.1%; आसयानुसयत्राणहि बुद्धानंयेव होति, न असं, जा. अट्ठ. 1.182; आसयानुसयञाणं नामेतं पारमियो पूरेत्वा दस सहस्सिलोकधातुं उन्नादेत्वा ... ति वत्वा, ध. प. अट्ठ. 2.244; - निद्देस पु., 1. तत्पु. स., आश्रयों एवं अनुशयों के ज्ञान का निर्वचन - से सप्त. वि., ए. व. - आसयानुसयञाणनिद्देसे इध तथागतोति आदि पञ्चधा ठपितो निद्देसो, पटि. म. अट्ठ. 2.4; 2. पटि. म. के एक खण्ड का शीर्षक, जिसमें आसयों एवं अनुशयों का विवेचन किया गया, पटि. म. 112: - निद्देसवण्णना स्त्री., पटि. म. अट्ठ. के एक व्याख्यान का शीर्षक, जिसमें आशयों एवं अनुशयों के ज्ञान का विवेचन किया गया है, पटि. म. अट्ठ. 2.4. आसयानुसयसङ्गहित त्रि., आशयों एवं अनुशयों के ही अन्तर्गत् संग्रह किया हुआ - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - यस्मा चरिताधिमुत्तियो आसयानुसयसङ्गहिता, तस्मा उद्देसे चरिताधिमुत्तीसु आणानि आसयानुसयजाणेनेव सङ्गहेत्वा आसयानुसये आणं, पटि. म. अट्ठ. 1.49. आसरति आ + vसर का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आसरति], (की ओर) तेजी के साथ जा पहुंचता है, दौड़कर जाता है, तेज चलता है, चलना जारी रखता है, चलता रहता है - कत्वा पापं पुन पटिच्छादनतो अति अस्सरति एताय सत्तोति अच्चसरा, महानि. अट्ठ. 332; पाठा. अस्सरति; - न्ति ब. व. - कत्वा पापं पुन पटिच्छादनतो अतिच्च आसरन्ति एताय सत्ताति अच्चासरा, विभ. अट्ठ. 465. आसव' पु.. [आसव], फूलों, फलों, मधु एवं गुड़ से तैयार किया गया मादक अर्क, मद्यनिष्कर्ष, काढ़ा, मदिरा, ताड़ी जैसे मादक पेय - वो प्र. वि., ए. व. - आसवो तु मेरयं, अभि. प. 533; आसवो तात लोकस्मिं सुरा नाम पवुच्चति, जा. अट्ठ. 4.199; पुप्फादीहि कतो आसवो मेरयं, कला. अट्ठ. 227; - वा ब. व. -- चिरपारिवासियढेन मदिरादयो आसवा, आसवा वियातिपि आसवा लोकस्मिहि चिरपारिवासिका मदिरादयो आसवाति वुच्चन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).66; स. उ. प. के रूप में, पुप्फा. (फूलों से तैयार किया हुआ मादक अर्क). फला. (फलों से तैयार मादक अर्क) तथा मध्वा. (मधु से तैयार मादक काढ़ा)- वो प्र. वि., ए. व. - मेरयो नाम For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसव 259 आसवक्खय भिक्खुनो ये अपर आसवों के संवरेन यही पुप्फासवो फलासवो मध्वासवो गुळासवो सम्भारसंयुत्तो, पाचि. 149. आसव'/अस्सव पु., [आस्रव, पीड़ा, कष्ट, दुःख, बहाव, बौ. सं. आश्रव/आस्रव], क. घाव से बाहर निकल रहा स्राव अथवा तरल बहाव, पीब, मवाद का बहाव या स्राव - वो प्र. वि., ए. व. - सुरायोपद्दवे कामासवादिम्हि च आसवो, अभि. प. 968; - वं द्वि. वि., ए. व. - दुवारुको । कढेन वा ... भिय्योसोमत्ताय आसवं देति, अ. नि. 1(1).147; आसवं देतीति अपरापरं सवति, पुराणवणो हि अत्तनो धम्मतायेव पुब्बं लोहितं यूसन्ति इमानि तीणि सवति ...., अ. नि. अट्ठ. 2.93; स. उ. प. के रूप में, विसन्दमाना. के अन्त. द्रष्ट; ख. चित्त-विशुद्धि की प्रक्रिया में बाधक चित्त की धारा में विद्यमान मादक अकुशल चित्तवृत्तियां, सुदीर्घ काल तक चित्तसन्तति में विद्यमान होने के कारण फलों आदि से तैयार आसव (मादक अर्क) के समान चित्त को मतवाला बना देने वाले अकुशल चैतसिक – वो प्र.. वि., ए. व. - सुरायोपद्दवे कामासवादिम्हि च आसवो, अभि. प. 968; पुग्गलवाचिनो आसवस्स सस्स द्वित्तं आसवो अस्सवो, सद्द. 3.636; -- वा प्र. वि., ए. व. - धम्मतो याव गोत्रभु ओकासतो याव भवग्गं सवन्तीति वा आसवा ... चिरपारिवासियटेन मदिरादयो आसवा, आसवा वियातिपि आसवा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).66; तयोमे आवुसो आसवा, कामासवो भवासवो, अविज्जासवो, म. नि. 1.70; - वानं ष. वि., ब. व. – विवट दिस्वान पहानमासवानं, सु. नि. 376; आसवानं खयसङ्घातं पन अरहत्तं, अ. नि. अट्ठ. 2.360; - वे द्वि. वि., ब. व. - खेपेत्वा आसवे सब्बे, थेरीगा. 76; - वेहि प. वि., ब. व. - पापरिभावितं चित्तं सम्मदेव आसवेहि विमुच्चति, दी. नि. 2.66; - वेसु सप्त. वि., ब. व. - भिक्खु चित्तं रक्खति आसवेसु च सासवेसु च धम्मेसु, स. नि. 3.306; आसव इस लोक एवं परलोक, दोनों लोकों से सम्बद्ध हैं - वानं ष. वि., ब. व. - दिट्टधम्मिकानं आसवानं संवराय सम्परायिकानं आसवानं पटिघाताय, पारा. 22; आसवों के प्रभेद, 1. 3 प्रकार के आसव, कामासव, भवासव एवं अविद्यासव - वो प्र. वि., ए. व. - तयो आसवा - कामासवो, भवासवो, अविज्जासवो, दी. नि. 3.173; म. नि. 1.70; उप्पज्जेय्यु कामासवो भवासवो अविज्जासवोति तयो आसवा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).93; 2. आसवों के 4 प्रभेद (कामा., भवा., अविज्जा. एवं दिट्टि.)- अओसु च सुत्तन्तेसु अभिधम्मे च तेयेव दिट्ठासवेन सह चतुधा आगता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).67; 3. 5 प्रकार के विपाकों को उत्पन्न करने के आधार पर आसवों के 5 प्रभेद - अत्थि, भिक्खवे, आसवा निरयगमनीया, अस्थि आसवा तिरच्छानयोनिगमनीया, अत्थि आसवा पेत्तिविसयगमनीया, अत्थि आसवा मनुस्सलोकगमनीया, अत्थि आसवा देवलोकगमनीया अयं वुच्चति, भिक्खवे, आसवानं वेमत्तता, अ. नि. 2(2).117; कामासवो च भवासवो च अप्पणिहितेन विमोक्खमुखेन पहानं गच्छन्ति, दिट्ठासवो सुझताय, अविज्जासवो अनिमित्तेन, नेत्ति. 97; 4. आसवों से विमुक्ति के 6 प्रकार के उपायों के आधार पर आसवों के 6 प्रभेद - इध, भिक्खवे, भिक्खुनो ये आसवा संवरा पहातब्बा ते संवरेन पहीना होन्ति, ये आसवा पटिसेवना पहातब्बा ते पटिसेवनाय पहीना होन्ति, ये आसवा अधिवासना पहातब्बा ते अधिवासनाय पहीना होन्ति, ये आसवा परिवज्जना पहातब्बा ते परिवज्जनाय पहीना होन्ति, ये आसवा विनोदना पहातब्बा विनोदनाय पहीना होन्ति, ये आसवा भावना पहातब्बा ते भावनाय पहीना होन्ति, अ. नि. 2(2).96; स. उ. प. के रूप में, अना., अविज्जा ., कामरागभवरागमिच्छादिट्ठा., कामा., खीणा., चतुरा., खीणा., दिट्ठा, निरा., पुब्बा., भवा., सा. के अन्त. द्रष्ट... आसव' पु., व्य. सं., देवताओं का एक वर्ग - वा प्र. वि., ए. व. - लम्बीतका लामसेट्ठा, जोतिनामा च आसवा, दी. नि. 2.192; आसा च देवा आगताति अत्थो... आसा देवता छन्दवसेन आसवाति वुत्ता, दी. नि. अट्ठ. 2.254. आसवकथा स्त्री., कथा. के एक खण्ड का शीर्षक, जिसमें आसवों की चर्चा की गई है, कथा. 415-416. आसवक्खय पु., आसवों का क्षय, अर्हत्व की अवस्था, निर्वाण की अवस्था - यो प्र. वि., ए. व. - मग्गो आसवक्खयोति, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).69; “पत्तो मे आसवक्खयोति, थेरगा. 116; पत्तो मे आसवक्खयोति कामासवादयो आसवा एत्थ खीयन्ति, तेसं वा खयेन पत्तब्बोति आसवक्खयो, निब्बानं अरहत्तञ्च, थेरगा. अट्ठ. 1.252; आसवक्खयो ओधिसो सेक्खानं अनोधिसो अरहन्तानं, पेटको. 191; - यं द्वि. वि., ए. व. – “मदिसा वे जिना होन्ति, ये पत्ता आसवक्खयं, महाव. 12; आसवक्खयन्ति अरहत्तं, अ. नि. अट्ठ. 3.28; नचिरस्सेव आसवक्खयं पत्तोति, स. नि. अट्ठ. 1.213; - या प. वि., ए. व. - आसवा तस्स वडन्ति, आरा सो आसवक्खया ति, स. नि. अट्ठ. 2.47; --- सुत्त For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवक्खयजानन 260 आसवनुद नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, - स. नि. 3. आसवढानीय त्रि., आस्रवों को उत्पन्न करने वाले क्लेश 310. धर्म, आस्रवों के उदय में कारणभूत, ईर्ष्या, द्वेष आदि को आसवक्खयजानन नपुं. तत्पू. स., आसवों के क्षय के उत्पन्न करने में सहायक - या पु.. प्र. वि., ब. व. - विषय में ज्ञान - नं प्र. वि., ए. व. - आसवक्खयजाननं इधेकच्चे आसवहानीया धम्मा सङ्के पातुभवन्ति, पारा. 10; एकन्ति , स. नि. अट्ठ. 2.40. सासने एकच्चे आसवढानीया धम्मा न उप्पज्जन्ति, पारा. आसवक्खयत्राण नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं., आस्रवक्षयज्ञान], अट्ठ. 1.148; ... यस्मा सेनासनानि पहोन्ति, तस्मा आस्रवों के क्षय को प्राप्त कराने वाला ज्ञान अथवा प्रज्ञा, आवासमच्छरियादिहेतुका सासने एकच्चे आसवहानीया आस्रवों के क्षय के विषय में ज्ञान, अर्हत्व-फल की अवस्था धम्मा न उप्पज्जन्ति, सारत्थ. टी. 1.394; - येहि तृ. वि., - णं प्र. वि., ए. व. - आसवक्खयञाणपदट्ठानम्हि ... ब. व. - सब्बसो आसवठ्ठानियेहि धम्मेहि ..., अ. नि. 3(1). आसवक्खयञाणं 'महाबोधी ति वुच्चति, चरिया. अट्ठ. 17; 59; पटि. म. 348; आसबट्ठानियेहीति सम्पयोगवसेन आसवानं - णेन तृ. वि., ए. व. - चतुसच्चपटिच्छादकं तमं कारणभूतेहि ... अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.222-23. विनोदेत्वा आसवक्खयाणेन ततियं जायति, म. नि. अट्ठ. आसवता स्त्री॰, भाव., आस्रवत्व, आस्रव की स्थिति में होना, (म.प.) 2.24; - निद्देस पु., तत्पु. स., आस्रवों के क्षय से मलिनता, क्लिष्टता, कालुष्य - य तृ. वि., ए. व. - यथा सम्बन्धित ज्ञान अथवा प्रज्ञा का विवेचन या व्याख्यान करने चत्तारो आसवा सभावआसवताय आसवा... चित्तसासवताय वाले, पटि. म. के एक खण्ड का शीर्षक, पटि. म. 106- ..... सभावताय आसवा, पक्खे आसवताय आसवा, पेटको. 108; - निद्देसवण्णना स्त्री॰, पटि. म. अट्ठ, के एक 271. व्याख्याखण्ड का शीर्षक, पटि. म. अट्ठ. 1.307-309. आसवति आ + vसु का वर्त०, प्र. पु., ए. व. [आस्रवति], आसवक्खयपत्त त्रि., आस्रवों के क्षय को प्राप्त कर चुका, रिसता है, भीतर में से बहता है, प्रकट होता है, विद्यमान आस्रवों से मुक्त - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - यथानिसिन्नोव रहता है --- न्ति प्र. पु., ब. व. - तत्थ आसवन्तीति आसवक्खयप्पत्तो, उदा. अट्ठ. 295. आसवा, ... अन्तोकरणत्थो हि अयं आकारो, म. नि. अट्ठ. आसवक्खयपरियोसान त्रि., ब. स., आस्रवों के क्षय में (मू.प.) 1(1).66; आसवन्तीति आसवा... मनतोपि सन्दन्ति अन्त होने वाला - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - पवत्तन्तीति वुत्तं होति, अ. नि. अट्ठ 2.83; सवन्ति आसवन्ति आसवक्खयपरियोसानं आनिसंसं सत्वा, अ. नि. अट्ठ. सन्दन्ति पवत्तन्तीति, स. नि. अट्ठ. 2.57; तस्स गन्थिता 3.318. किलेसा आसवन्ति, पेटको. 325; नेत्ति.95. आसवक्खयलाभ पु., तत्पु. स., आस्रवों के क्षय का लाभ आसवनिद्देस पु., आस्रवों का विवेचन, आस्रवों का निर्वचन - भेन तृ. वि., ए. व. - आसवक्खयलाभेन होति - से सप्त. वि., ए. व. - आसवनिद्देसे पञ्चकामगुणिको सासनसम्पदा, सद्द. 1.1. रागो कामासवो नाम, ध. स. अट्ठ. 395. आसवखीण त्रि., ब. स. [क्षीणास्रव, आस्रवों को क्षीण कर आसवनिरोध पु., तत्पु. स. [आस्रवनिरोध], आस्रवों की चुका (अर्हत्) - णो पु., प्र. वि., ए. व. - आसवखीणो रुकावट, आस्रवों की समाप्ति या नाश -धो प्र. वि., ए. पहीनमानो, सु. नि. 372; एकादसमगाथाय आसवखीणोति व. - अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, दी. नि. खीणचतुरासवो, सु. नि. अट्ठ. 2.88. 1.74; - गामी त्रि., आस्रवों के निरोध की ओर ले जाने आसवगोच्छक नपुं.. तत्पु. स. [आस्रवगुच्छक], 1. आम्रवों वाला/वाली - मिनी स्त्री०, प्र. वि., ए. व. - अयं का गुच्छा, आस्रवों का समुच्चय या झुण्ड - के सप्त. वि., आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति, दी. नि. ए. व. - आसवगोच्छके आसवन्तीति आसवा, ध. स. 1.74. अट्ठ. 95; 2. ध. स. के एक खण्ड का शीर्षक, ध. स. आसवनुद त्रि., आस्रवों को मिटाने वाला-दं पु., वि. वि., ए. व. - धम्म सदासवनुदं चरथप्पमत्ता, तेल. 27; - आसवचार पु., आस्रवों की प्रकृति, आस्रवों का स्वभाव-रो देकहित त्रि., आस्रवों का विनाशक एवं केवल हित ही प्र. वि., ए. व. - आसवचारो नाम एकन्तओळारिको, विभ. करने वाला - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - ञत्वान अट्ठ. 13. आसवनुदेकहितञ्च धम्म, तेल. 98. 6-7. For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसवपदट्ठान 261 आसवुप्पत्ति आसवपदद्वान त्रि०, ब. स., आस्रवों पर आधारित, आस्रवों से वि., ए. व. -- "कम्मपुग्गलानमासवो ति वचनतो पुआपुञ्ज उदित - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सेय्यथिदं - सम्भवे आसवसमाति ततो अविसिट्ठो आसवो, विसुद्धि. अआणलक्खणा अविज्जा, सम्मोहनरसा, छादनपच्चुपट्टाना, महाटी. 2.338. आसवपदट्ठाना, विसुद्धि. 2.157; - ता स्त्री., भाव., आम्रवों आसवसंवरपरियाय पु., तत्पु. स., आस्रवों के संयमन पर निर्भरता, आसव-सापेक्षता - य तृ. वि., ए. व. - अथवा नियन्त्रण का तरीका, आम्रवों के संवरण/नियन्त्रण आसवपदट्ठानताय सासवतो, विसुद्धि. 2.247. को समझाने की एक पद्धति - यो प्र. वि., ए. व. - आसवपरियादान नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं. आस्रवपर्यादान]. सङ्केपेन चेत्थ आणं आसवसंवरपरियायोति दस्सितं होति, शा. अ., आस्रवों को पूर्णरूप से ले लेना, ला. अ., म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).69. आम्रवों का अन्त कर देना - नं प्र. वि., ए. व. - आसवसमुच्छेद पु., तत्पु. स. [आस्रवसमुच्छेद], आस्रवों आसवपरियादानञ्च होति जीवितपरियादानञ्च, अ. नि. का पूर्ण विनाश- दे सप्त. वि., ए. व. - आसवसमुच्छेदे 2(2).166. पा आनन्तरिकसमाधिम्हि आणं पटि. म. 2. आसवपिधान नपुं., आस्रवों का आच्छादन, आस्रवों पर आसवसमुदय पु., तत्पु. स. [आस्रवसमुदय], आस्रवों की नियन्त्रण, आस्रवों का अन्त कर देना-नेहि त. वि., ब. उत्पत्ति, आस्रवों की उत्पत्ति का कारण - यो प्र. वि., ए. व. - सब्बासवसंवरसंवुतोति सब्बेहि आसवपिधानेहि पिहितो. व. - "अयं आसवसमुदयो ति यथाभूतं पजानाति, अ. नि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).93. 1(2).240; आसवा एव अविज्जादीनं कारणत्ता आसवसमुदयो, आसवप्पहान नपुं., तत्पु. स. [आस्रवप्रहाण], आस्रवों का विसुद्धि. महाटी. 1.207; - या प. वि., ए. व. - परित्याग, आस्रवों का विनाश - ने सप्त. वि., ए. व. - आसवसमुदया अविज्जासमुदयो, म. नि. 1.69; आसवप्पहाने चस्स आनिसंसं दस्सेन्तो.... म. नि. अट्ट, आसवसमृदयाति एत्थ पन कामासवभवासवा सहजातादिवसेन (मू.प.) 1(1).93. अविज्जाय पच्चया होन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).233; आसवविनासन नपुं.. तत्पु. स., आस्रवों को विनष्ट कर - मय त्रि., आस्रवों की उत्पत्ति वाला- येन पु., तृ. वि., देना, आस्रवों का विनाश - तो प. वि., ए. व. - ए. व. - आसवसमुदयमयेन अक्खेन विज्झित्वाति, विसुद्धि. अरहत्तमग्गो हि आसवविनासनतो, पारा. अट्ठ. 1.126; महाटी. 1.207. आसवविनासनतो आसवानं खयोति, अ. नि. अट्ठ. 2.144. आसवसम्पयुत्त त्रि., तत्पु. स., आस्रवों के साथ जुड़ा हुआ, आसवविप्पयुत्त त्रि., तत्पु. स. [आस्रवविप्रयुक्त], आस्रवों आस्रवयुक्त, 12 प्रकार के अकुशल चित्त जो सदा आस्रवों से मुक्त, आस्रवों के साथ नहीं जुड़ा हुआ, आस्रव-रहित - के कारण अपरिशुद्ध रहते हैं - त्ता पु., प्र. वि., ए. व. - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - आसवविप्पयत्ता अनासवाति, आसवसम्पयुत्ता सासवा, विसुद्धि. 2.65; ये धम्मा सम्पयुत्ता विसुद्धि. 2.65; धम्मा विष्पयुत्ता, वेदनाखन्धो ... विआणखन्धो ___... वेदनाक्खन्धो ... विआणखन्धो इमे धम्मा आसवसम्पयुत्ता, ... इमे धम्मा आसवविप्पयुत्ता, ध. स. 246; - अनासव ध. स. 246; तत्थ द्वादस अकुसलचितुप्पादा आसवसम्पयुता त्रि., द्व. स., आस्रवों से मुक्त एवं आस्रवों से रहित – वा नाम, मोह. वि. 100. पु., प्र. वि., ब. व. - तीणिन्द्रिया आसवविप्पयुत्त अनासवा, आसवारिगणक्खय पु., तत्पु. स., आस्रवरूपी शत्रुगण का विभ. 145; - सासव त्रि., द्व. स. [आस्रवविप्रयुक्तसास्रव], विनाश या अन्त - क्खया प. वि., ए. व. - आस्रवों से मुक्त एवं आस्रवों से कलुषित – वा पु., प्र. वि., दन्तभूमिमनुप्पत्तानं आसवारिगणक्खया, अप. 2.356. ब. व. - आसवविप्पयुत्तसासवा, विभ. 145. आसवुप्पत्ति स्त्री., [आस्रवोत्पत्ति], आस्रवों की उत्पत्ति, आसववेपुल्ल नपुं., भाव. [आस्रववैपुल्य], आस्रवों की प्रचुरता, त्ति-प्र. वि., ए. व. - आसवुप्पत्ति पनेत्थ एवं वेदितब्बा, अ. आस्रवों की अधिकता अथवा तीब्रता -ल्ला प. वि., ए. व. नि. अट्ठ. 3.131; -- तिं द्वि. वि., ए. व. - आरब्म - चत्तारो आसवा वेपुल्लं गता ओघा भवन्ति, इति आसवुप्पत्तिं वारेन्तो आसवेसु च सासवेसु च धम्मेसु चित्तं आसववेपुल्ला ओघवेपुल्लं, नेत्ति. 95. रक्खति नाम, स. नि. अट्ठ. 3.277; - यं सप्त. वि., ए. आसवसमञा स्त्री., [आस्रवसंज्ञा], आस्रव की अवधारणा व. - आसवप्पत्तियं पनेत्थ इमेसं उपरिमग्गत्तयसम्पयत्तानं. अथवा मानसिक संप्रत्यय, आस्रवनाम, आस्रव संज्ञा, प्र. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).93. For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आससान 262 आसा आससान/आसिसान त्रि., आ + Vसंस/ सस का वर्त. कृ., आत्मने, आशा कर रहा, कामना कर रहा, इच्छा कर रहा - नो पु., प्र. वि., ए. व. -- निराससो सो उद आससानो, सु. नि. 1096; "निराससो सो उद आससानोति पुन पुच्छति, सु. नि. अट्ठ. 2.288; पुच्छेय्य पोसो सुखमासिसानो, जा. अट्ठ. 4.17; इच्चप्पमादं हितमाससानो, चू. वं. 55.34; - ना ब. व. - अनूपखेत्ते फलमासमाना, जा. अट्ठ. 4.342; 'ये केचिमे सुग्गतिमासमाना, जा. अट्ठ. 5.387; पाठा. आससाना. आसा' स्त्री., [आशा]. इच्छा, कामना, आवश्यकता, आशा, तृष्णा - छन्दो जटा निकन्न्यासा सिब्बिनी भवनेत्ति च, अभि. प. 162; आसा वुच्चति तण्हा, उदा. अट्ठ. 295; आसा नाम वुच्चति या भविस्सस्स अत्थस्स आसीसना अवस्सं आगमिस्सतीति आसास्स उप्पज्जति, नेत्ति. 44; गाथा सेना लेखापेक्खा आसा पूजा एसा, सद्द. 1.198; सिद्धा सिज्झन्तु कल्याणा, एवं आसापि पाणिनन्ति, चूळव. अट्ठ. 136; - सं द्वि. वि., ए. व. - मार... आसं माकासि भिक्खुसु, म. नि. 1.423; आसञ्च अनासञ्चेपि करित्वा अयोनिसो ब्रह्मचरियं चरन्ति, म. नि. 3.178; आसं अनिस्साय, सु. नि. 4783; आसं निरासं कत्वान, जा. अट्ठ. 3.86; - य तृ. वि., ए. व. - आसाय न लभति, महाव. 343; आसाय कसते खेत्तं, बीजं आसाय वप्पति, आसाय वाणिजा यन्ति, थेरगा. 5303; आसाय कसते खेत्तन्ति कस्सको कसन्तो खेत्तं फलासाय कसति, थेरगा. अट्ठ. 2.145; आसिसनवसेन आसाति । आसाय अत्थं गहेत्वा रूपे आसा, ध. स. अट्ठ. 391; - सा प्र. वि., ब. व. - द्वेमा ... आसा दुप्पजहा - लाभासा च जीवितासा च, अ. नि. 1(1).105; आसा यस्स न विज्जन्ति, सु. नि. 639; - सामिभूत त्रि., तत्पु. स. [आशाभिभूत]. तृष्णा से ग्रस्त, आशा रखने वाला - ता पु., प्र. वि., ब. व. - 'इतो किञ्चि लभामा ति आसाभिभूता, पे. व. अट्ठ. 25; - सावच्छेदिक त्रि., शा. अ., आशा के उच्छेद अथवा आशा के टूट जाने पर आधारित, विशेष अर्थ, कठिन-चीवर के लाभ को समाप्त करने वाले 8 आधारों (मातिकाओं) में से एक - दिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अद्विमा, भिक्खवे मातिका कथिनस्स ... सवनन्तिका, आसावच्छेदिका ... ति, महाव. 332; पारा. अट्ठ. 2.199; आसाय छिन्नमत्ताय, आसावच्छेदिका मता, विन. वि. 2717; -दिको पु.. प्र. वि., ए. व. - तस्स भिक्खनो आसावच्छेदिको कथिनुद्धारो, महाव. 342; -- दिके सप्त. वि., ए. व. - आसावच्छेदिके आवासपलिबोधो पठमं छिज्जति, महाव. अट्ठ. 371; नासनं सवनञ्चेव आसावच्छेदिकापि च. विन. वि. 2722; [टि. कठिनचीवर के लाभ को प्राप्त किया हुआ कोई भिक्षु अधिक चीवर को पाने की प्रत्याशा के साथ अपनी विहार सीमा के बाहर दूसरी सीमा में चला जाता है। अतिरिक्त चीवर प्राप्त करने की उसकी आशा का किसी कारणवश पूरा न हो पाना ही कठिन-चीवर-लाभ का आसावच्छेदिका नामक आधार कहलाता है.];- सच्छिन्न त्रि., ब. स., छिन्न हो चुकी आशा वाला, निराश - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - किं सुकं फुल्लितं दिस्वा आसच्छिन्ना मिगाधमा, जा. अट्ठ. 6.282; - दासव्यतंगत त्रि., [आशादासव्यगत], आशाओं की दासता को प्राप्त, आशाओं के वशीभूत हो चुका - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - पतिकारपरे लोके आसादासब्यतंगते उपकारसमत्थरस सतो को न करेय्य कि सद्धम्मो. 498; - दुक्ख नपुं॰, तत्पु. स., 1. आशा के टूट जाने के कारण उत्पन्न दुख, निराशा से उत्पन्न दुख, 2. आशा रूपी दुख - क्खं प्र. वि., ए. व. -- आसायेवदुक्खं आसादुक्खं आसाविघातं दुक्खं वा, विसुद्धि. महाटी. 2.171; - दुक्खजनन नपुं.. निराशा के कारण दुख को उत्पन्न करना - तो प. वि., ए. व. - पुथुज्जनानं वा सञ्जा आसादुक्खजननतो रित्तमुट्टि विय, विसुद्धि. 2.117; दुप्पजहवग्ग पृ., अ. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, अ. नि. 1(1).105; - फल नपुं.. तत्पु. स., 1. आशा की पूर्णता, फल पाने की आशा का पूरा होना, 2. वह फल, जिसको प्राप्त करने की आशा की गई है, अभीप्सितफल - लं' प्र. वि., ए. व. - फलासाव समिज्झतीति यथापत्थिके फले आसा तस्स फलस्स निप्फत्तिया समिज्झतियेव, अथ वा फलासाति आसाफलं, यथापत्थितं फलं समिज्झतियेवाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.141; - लं' द्वि. वि., ए. व. - बकोपि ताव अत्तनो आसाफलं लभि, जा. अट्ठ. 3.220; - फलनिष्फादन नपुं., तत्पु. स. [आशाफलनिष्पादन], जिस फल को पाने की आशा की गई है, उसकी प्राप्ति, चाहे गए फल की प्राप्ति - देन तृ. वि., ए. व. - तस्स आसाफलनिष्फादनेन आसं देसि, जा. अट्ठ. 5.396; - भङ्ग पु., तत्पु. स. [आशाभङ्ग], आशा का टूट जाना, निराशा - ङ्गं द्वि. वि., ए. व. - दलिदियञ्च दीनत्तं आसाभङ्गञ्च दारुणं, सद्धम्मो. 78; - वती स्त्री., एक हजार वर्षों की अवधि में केवल एक बार फलने वाली देवलोक की एक लता, प्र. वि., ए. व. - तावतिंसदेवलोके For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसा 263 आसादेति चित्तलतावने आसावती नाम लता अस्थि जा. अट्ठ. 3.219; तत्थ आसावतीति एवंनामिका, सा हि यस्मा तस्सा फले आसा उप्पज्जति, तस्मा एतं नाम लभति, जा. अट्ठ. 3.219; आसावती नाम लता जाता, सद्द. 3.700; - विघातदुक्ख नपुं., तत्पु. स. [आशाविघातदुःख]. आशा के टूट जाने या पूरा न होने के कारण उत्पन्न दुख, निराशा-जनित दुख - आसायेव दुक्खं आसादुक्खं, आसाविघातं दुक्खं वा, विसुद्धि. महाटी. 2.171; - सञ्ज त्रि., ब. स. [आशासंज्ञक], आशा नाम से ज्ञात, 'आशा' संज्ञा से युक्त, इच्छा नाम से जाना गया - जेन पु., तृ. वि., ए. व. - मञन्तो मारपासेन आसास न बज्झति, सद्धम्मो. 609; स. उ. प. के रूप में, अना., आहारा., इस्सरिया., कामा., वज्जिता., गन्धा., चीवरा., छिन्ना., जीविता., धना., निरा., पच्चया., पुत्ता., फला०, फोटब्बा., बहिरा, रसा., रित्ता., रूपा., लाभा., वन्ता., विगता., सग्गा., सद्दा., सुखा., सुद्धा. के अन्त. द्रष्ट. आसा' स्त्री., व्य. सं. [आशा, मनस् की पुत्री तथा वसु की पत्नी]. शक्र (इन्द्र) की 4 पुत्रियों में से एक, प्र. वि., ए. व. - तदा सक्कस्स आसा सद्धा सिरी हिरीति चतस्सो धीतरो होन्ति, जा. अट्ठ. 5.388; - से सम्बो ., ए. व... - आसेति तं आलपति, जा. अट्ठ. 5.397. आसा स्त्री., उत्तरकालीन पालि-साहित्य में ही प्रयुक्त [आशा], दिशा, क्षेत्र - य सप्त. वि., ए. व. - अनुराधनगरस्स पुरुत्तराय आसाय ..., दाठा. 5.13 (रो.); स. उ. प. में, आसंसा., पच्छिमा. के अन्त. द्रष्ट.. आसाटिका स्त्री., [बौ. सं., आशाटिका], मक्खी का अण्डा, अन्य छोटे कीड़ों का अण्डा, गायों के घावों पर नीली मक्खियों द्वारा रखा गया अण्डा, प्र. वि., ए. व. -- आसाटिका मक्खिकाण्ड, अभि. प. 645; गुन्न खाणुकण्टकादीहि पहटवानेसु वणो होति तत्थनीलमक्खिका । अण्डकानि पातेन्ति, तेसं आसाटिकाति नाम, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).157; सटति रुजति एतायाति साटिका, संवद्धा साटिकाति आसाटिका, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).181; - कं द्वि. वि., ए. व. - न आसाटिक हारेता होति, म. नि. 1.284; अकुसलवितक्कं आसाटिकं अहरेत्वा, अ. नि. अट्ठ. 3.352; नीलमक्खिका आसाटिकं पातेसि, जा. अट्ठ, 3.151; - कानं ष. वि., ब. व. - आसाटनपति आसाटिकानं. नेत्ति. 50. आसादन/आसादना नपुं./स्त्री., आ + Vसद के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना. [बौ. सं., आसादना], वरिष्ठ भिक्षुओं अथवा स्थविरों के प्रति अपमानजनक व्यवहार, तिरष्कार, अवहेलना, आक्रमण, संघर्ष, मुकाबला - ने नपुं., सप्त. वि., ए. व. - सातं तत्थ न विन्दामीति तस्मि आसादने सातं न विन्दामि, आसादननिमित्तं मधुरं सुखं न लभामीति अत्थो, अप. अट्ठ. 1.298; - ना स्त्री, प्र. वि., ए. व. - के च छवे पाथिकपुत्ते, का च तथागतानं अरहन्तानं सम्मासम्बुद्धानं आसादनाति, दी. नि. 3.18; आसादनाति अहं बुद्धन सद्धि पाटिहारियं करिस्सामीति घट्टना, दी. नि. अट्ठ. 3.12; - नापेक्ख त्रि., [बौ. सं., आसादनापेक्षिन], तिरष्कार करने अथवा समुत्तेजित करने की इच्छा रखने वाला, लज्जित कर देने की अपेक्षा करने वाला - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - कुपितो अनत्तमनो आसादनापेक्खो , महाव. 299%; "भिक्खु, खाद वा भुञ्ज वाति, जानं आसादनापेक्खो, पाचि. 115; आसादनापेक्खोति आसादनं चोदनं मडकरण भावं अपेक्खमानो, पाचि. अट्ठ. 87. आसादित त्रि., आ + /सद के प्रेर. का भू. क. कृ., अपमानित, तिरष्कृत - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आसादितो मया बुद्धो, अप. 1.43; आसादितो मया बुद्धोति सो पच्चेकबुद्धो मया आसादितो ..., अप. अट्ठ. 1.299; - त्त नपुं, भाव., लज्जित कर दिया जाना, तिरष्कृत कर दिया जाना - त्ता प. वि., ए. व. - तपस्सीनं आसादितत्ता अट्ठसु महानिरयेसु महादुक्खस्स अनुभवितब्बत्ता, जा. अट्ठ. 5.265. आसादेति आ + (सद के प्रेर. का वर्त., प्र. पु., ए. व., शा. अ., पास जा पहुंचता है, प्राप्त करता है, स्पर्श करता है, हाथ में ले लेता है, ला. अ., 1. मुठभेड़, आक्रमण या प्रहार करता है, 2. तिरष्कार करता है, अपमानित करता है, कनिष्ठ भिक्षु वरिष्ठ स्थविर के प्रति अवमाननापूर्ण व्यवहार करता है, अवहेलना करता है - पकतत्तं भिक्खु आसादेति अन्तो वा बहि वा, चूळव. 51; तं मिळ्हेन आसादेति, जा. अट्ठ. 2.177; यम्पि सो तथागतं वा तथागतसावकं वा अकप्पियेन आसादेति, म. नि. 2.38; अकप्पियेन आसादेतीति अच्छमंसं सूकरमंसन्ति, दीपिमंसं वा मिगमंसन्ति खादापेत्वा "त्वं किं समणो नाम, अकप्पियमंसं ते खादित न्ति घट्टेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.37; - सि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - मासादेसि तथागते, थेरगा. 280: मासादेसि तथागतेति... तथागते अरियसावके पकतिसत्ते For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसार 264 आसाळ्ह विय अवआय किलेसवसेन च उपसङ्कमाना मासादेसि, थेरगा. अट्ठ. 2.11; सो तस्स अग्गनमुट्ठमेव आसादेसि, जा. अट्ठ. 1.459; - देसि म. पु., ए. व. - तत्थ मा आसादेसीति मा घटेसि, मा पहारं देहीति वुत्तं होति, उदा. अट्ठ. 1993; पुब्बेपि आसादेसि, जा. अट्ठ. 2.177; खुरचक्कं अस्सादेसि, जा. अट्ठ. 3.179; - यिं/देसिं उ. पु., ए. व. - अहं वने मूलफलेसनं चरं आसादयिं अच्छं सुघोररूपं, जा. अट्ठ. 5.188; बुद्धं आसादयिं तदा, अप. 1.42; पिण्डाय विचरन्तं तं आसादेसिं गजेनहं, अप. 1.330; - दियिम्ह/दिम्हसे उ. पु., ब. व. - साधुरूपं वत भो अरहन्तं समणं आसादिम्हसे, दी. नि. 3.7; आसादिम्हसेति आसादियिम्ह घट्टयिम्ह, दी. नि. अट्ठ. 3.7; - दु/दितुं निमि. कृ. - विभेमि चेतं आसादु जा. अट्ठ. 5.148; आसादुन्ति आसादितुं तदे.; - दिय/देत्वा पू. का. कृ. - आसज्जापीति आसादेत्वापि, जा. अट्ठ. 2.41; आसादियाति आसादेत्वा, जा. अट्ठ. 5.148; आसादयित्वा घट्टेत्वा अनादरं कत्वा, अप. अट्ठ. 1.299; बुद्ध अनासादनीयमासादयित्वा, मि. प. 196%3; - देतब्बो सं. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - न पकतत्तो भिक्खु आसादेतब्बो अन्तो वा बहि वा, चूळव. 49; - तब्ब द्वि. वि., ए. व. - गोतमं वादेन वादं आसादेतब्बं अमञिम्ह म. नि. 1.301; भगवन्तं आसादेतब्बं अमञिम्हा, स. नि. 1(1).28. आसार' पु.. [आसार], भारी वर्षा, मूसलाधार वर्षा - आसारो धारा सम्पातो, अभि. प. 50. आसार' पु., [आसार], शरण, आश्रय, स. उ. प. के रूप में, सुद्धा के अन्त. द्रष्ट.. आसाळ्ह 1. पु., [आषाढ़], आषाढ़ का महीना - ळ्हो प्र. वि., ए. व. - चित्तो वेसाख जेट्ठो चासाळहो, अभि. प. 75; - हे सप्त. वि., ए. व. - चन्दिमसुरिया - आसाळ्ह मासे सिनेरुसमीपेन विचरन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.46; 2. - ळ्हा स्त्री., [आषाढा], पूर्वाषाढ़ एवं उत्तराषाढ़ नामक 2 नक्षत्र, 27 नक्षत्रों के बीच 20वां एवं 21वां नक्षत्र - जेट्ठामूलासाळहा दुवे तथा, अभि. प. 59; 3. –ळही स्त्री., [आषाढ़ी], आषाढ़मास की पूर्णमासी की तिथि, भगवान् बुद्ध के धम्मचक्कप्पवत्तन की तिथि - हिया ष. वि., ए. व. - आसाव्हिया पुण्णमासे उपकडे च वरसके, दी. वं. 14.50; द्वेमा ... वस्सूपनायिका पुरिमिका, पच्छिमिका, अपरज्जुगताय आसाळिहया परिमिका उपगन्तब्बा, महाव. 181; -व्हियं सप्त. वि., ए. व. - आसाव्हियं पभाताय रत्तिया कालस्सेव पतचीवरमादाय, बु. वं. अट्ठ. 21; - जुण्हपक्ख पु.. तत्पु. स. [आषाढ़ज्योत्स्नापक्ष], आषाढ़ मास का शुक्लपक्ष - क्खे सप्त. वि., ए. व. - उद्वितो आसाळ्हजुण्हपक्खे सकलं अडमासं वस्सनकमेघो, स. नि. अट्ठ. 3.301; - हिछणउस्सव पु., तत्पु. स., आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन वर्षा-ऋतु के आरम्भ की प्रसन्नता को व्यक्त करने हेतु मनाया जाने वाला उत्सव-वं द्वि. वि., ए. व. - अनुवच्छरं पवत्तेन्तं आसाळिहछणउस्सवं, चू. वं. 99.53; - नक्खत्त नपुं., आषाढ़ा नक्षत्र, आषाढ़ पूर्णमासी का आषाढ़ा नक्षत्र वाला वह दिन जिस में वर्षा के आगमन के उपलक्ष्य में उत्सव आयोजित होता था – त्तं प्र. वि., ए. व. - तत्थ आसाळ्हीनक्खत्तन्ति वस्सूपगमनपूजादिवस सन्धाय वृत्तं, सारत्थ. टी. 2.335; - त्तेन त. वि., ए. व. - पाचीनदिसाय आसाळहनक्खत्तेन युत्तो पुण्णचन्दो उग्गच्छति, स. नि. अट्ठ. 3.326; - पवारणनक्खत्त नपुं.. द्व. स., आषाढ़ी पूर्णिमा के अवसर पर तथा पवारणा की तिथि पर आयोजित उत्सव - त्तादीसु नपुं., सप्त. वि., ब. व. - उस्सवेसूति आसाळ्हीपवारणनक्खत्तादीसु महुस्सवे सु. पारा. अट्ठ. 2.194; आसाळ्हीपवारणनक्खत्तादीसूति एत्थ नक्खत्तसद्दो पच्चेक योजेतब्बो, सारत्थ. टी. 2.335; - पुण्णमा स्त्री., [आषाढीपूर्णिमा], आषाढ़ मास की पूर्णिमा की तिथि, सिद्धार्थ के महामायादेवी के गर्भ में प्रवेश की तिथि, बुद्ध के प्रथम धर्मोपदेश तथा उपोसथ आदि सङ्घकर्मों के अनुष्ठान आदि की दृष्टि से थेरवादी बौद्धपरम्परा में समादृत, प्र. वि., ए. व. - "स्वे आसाळिहपुण्णमा भविस्सती ति, स. नि. अट्ठ. 2.255; - यं सप्त. वि., ए. व. - ते आसळ्हीपुण्णमायं उपोसथं कत्वा ..., दी. नि. अट्ट, 1.9; ते किर आसळिहपुण्णमायं कतिकवत्तं अकंसु. दी. नि. अट्ठ. 1.155%; आसळिहपुण्णमायं वाराणसिं गन्त्वा ..., अप. अट्ठ. 1.94; आसाळिहपुण्णमायं इसिपतनं गन्त्वा ..., अप. अट्ठ. 1.307; - पुण्णमदिवस पु., तत्पु. स. [आषाढीपूर्णिमादिवस], आषाढ़ी पूर्णिमा का दिन - सं द्वि. वि., ए. व. - ... आसाळ्हीपुण्णमदिवसंयेव नियामेन्तो आह .... सु. नि. अट्ठ. 1.173; - से सप्त. वि., ए. व. - आसाम्हिपुण्णमदिवसे इसिपत्तने मिगदाये ध. प. अट्ट, 1.51; आसाव्हिपुण्णमदिवसे वाराणसियं इसिपत्तनं पविसित्वा..., स. नि. अट्ठ 2.103; - पुण्णमासी स्त्री.. [आषाढ़पूर्णमासी], आषाढ़ मास की पूर्णमासी की तिथि - सियं सप्त. वि., ए. व. - For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आसि - आसाहिपुण्णमासियं वाराणसिं गमिस्सामी ति जा. अड. 1.90; काले सम्पत्ते आसाळ्हिपुण्णमासियं पातोव कत्तब्बकिच्चं निद्वापेत्वा अप अड. 1.125; पुण्णमी स्त्री.. [आषाढ़ पूर्णिमा]. उपरिवत् मितो प. वि. ए. व. - आसाळही पुण्णमितो वा अपराय पुण्णमाय अनन्तरे... महाव. अड. 330 - मिया सप्त वि. ए. व. अस्साति आसाळ्ही पुण्णमिया, सारत्थ. टी. 3.255; देविया कुच्छिरिमं आसाहिपुष्णामिया पटिसन्धिं गहेत्वा बु. वं. अड्ड, 92 - मङ्गल नपुं०, आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला उत्सव - लं द्वि. वि., ए. व. - आसळ्हिमङ्गलं चापि पवत्तेतुं नियोजयि, चू. वं. 85.89; - मास पु., [आषाढमास], आषाढ़ का महीना - सो प्र. वि., ए. व. - वस्सूपनायिकाय पुरिमभागे आसाहमासो सु. नि. अट्ट. 2.98 स्स प वि., ए. व. आसाळहीमासस्स जुण्हपक्खतेरसिया निक्खन्तो गामन्तपब्भारं गत्वा ... दी. नि. अट्ठ. 2.287; - से सप्त. वि. ए. व. ते हि आसाळ्हमासे सिनेरुसमीपेन विचरन्ति, दी. नि. अड. 3.46 गिम्हानं पच्छिमे मासेति आसाळ्हमासे, स. नि. अट्ठ. 3.172; पुण्णाय पुण्णमासिया आसहमासे उपोसथे, दी. वं. 14.78; सुक्क पक्ख पु.. [आषाढ़ शुक्लपक्ष ] आषाढ़ मास का शुक्लपक्ष स्स घ वि., ए. व. आसाळ्हसुक्कपक्खस्स तेरसे दिवसे पन म. वं. 16.2 आसाहसुक्कपक्खस्स पण्णरस उपोसथे, म. वं. 31.109; म्हि सप्त वि. ए. व. आसाळह सुक्कपक्खम्हि सुक्कपक्खद्वितत्थि का. म. वं. 3.14. आसि अस का अद्य., प्र. पु. ए. व. [आसीत् ], था एकमासि रुदम्मुखी, स० नि० 1 (1).153; ततो मे पणिधी आसि, चेतसो अभिपत्थितो, थेरगा. 514; आसीति अहोसि थेरगा. अड. 2.135 सिंउ. पु. ए. व. उद्धतो चपलो - चासि, कामरागेन अट्टितो, थेरगा. 157; यं सीलवती आसिं वि. व. अट्ठ. 142; आसिन्ति अहोसि, थेरगा. अट्ठ. 1.301; सुंप्र.पु., .. सरणेसु च सीलेसु ठिता आसुं असहिया. म. वं. 1.32 - सुंर उ. पु. व. व. उभो माता च धीता च मयं आसुं सपत्तियो, थेरीगा. 224. आसिंसक / आसीसक त्रि. आ + √संस से व्यु [आशंसक]. प्रत्याशी इच्छुक, आशा रखने वाला, गवेषक का पु.. प्र. वि. ब. व आसीसका उत्तमत्थ, अप. 1.24 मि. प. 310; उत्तमत्थं निब्बानं आसीसका गवेसका, अप. अट्ट, व॰ - 1.239. आसिंसति द्रष्ट, आसंसति के अन्त (ऊपर). www.kobatirth.org - 265 आसिंसा आसिंसन नपुं, आ + √संस से व्यु, क्रि. ना. [आशंसन]. इच्छा करना, पाने की आशा रखना, प्रत्याशा करना चाही गई वस्तु को पाने की कामना करना - नं. प्र. वि., ए. व. - आसिसने आसिहं इच्छितब्बरस अत्थजातस्स पत्थना, सद्द० 3.814; आसिंसनं आसिहं, सद्द 3.877. आसिंसनक / आसीसनक त्रि. इच्छुक आ रखने वाला, का पु०, प्र० वि०, ब० व. आसंसुकाति ततो एवं घासच्छादनादीनं आसीसनका, थेरीगा. अट्ट, - 242. आसिंसना / आसिंसन / आसीसना स्त्री. / नपुं, आ + संस से व्यु, क्रि. ना. [आशंसन], अपनी प्रिय वस्तु या व्यक्ति को पाने की इच्छा, आशा ना प्र. वि. ए. व. आसिंसना इझियथा हि मय्हे तुम्हपि सा सामि समिज्झतूति, जि . च. 217; आसिसनवसेन आसिसना ध. स. अट्ठ. 391; आसा आसिंसना आसिसिततं ध. स. 252; अस्सासकाति आसीसना, पत्थनाति अत्थो, महाव. अट्ठ. 244; आसा आसीसना आसीसिततं, महानि, 6 या भविस्सस्स अत्थस्स आसीसना अवस्सं आगमिस्सतीति आसारस उप्पज्जति नेत्ति 44. आसिंसनीय / आसीसनीय त्रि. आ + संस का सं. कृ. [आशंसनीय] इच्छा करने योग्य कामना करने योग्य. स. प. के अन्त०, आसीसनीय बहुरतनपरिपूरितं. मि. प. " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - For Private and Personal Use Only 2. आसिंसवग्ग पु. जा. अट्ट के एक खण्ड का शीर्षक, जा. अट्ठ. 1.254-273; पाठा. आसीसवग्ग. आसिंसवचन नपुं [आशीर्वचन] आशीर्वाद, शुभ-कामना का वचन, शुभेच्छा नं द्वि. वि. ए. व. जयतु भवन्ति आसिसवचनं वदिसु सद. 2.344. आसिंसवाचा / आसीसवाचा स्त्री० [आशीर्वाक् ]. उपरिवत् चंद्वि. वि. ए. व. - तदाहं आसीसवाचं अवोचं अनुकम्पिका अप. 2204. आसिंसा / आसीसा स्त्री. [ आशिष, नपुं. ], शुभेच्छा आशीर्वाद, मङ्गलकामना आसिसत्ये च आयस्मतो दीघायु होतु, सद्द 3.697 आसिंसायं जयन्तु सन्तोति सद. 3813: सोत्थि सुवतिथ इच्चेते आसिंसत्थे, सद. 3.900: सा प्र. वि., ए. व. आसीसायन्ति अवस्संभावी अत्थसिद्धियं सा हि इध आसीसाति अधिप्पेता, न पत्थना, ईदिसे अनागतत्थे अतीतवचनं सद्दविदू इच्छन्ति वि. वि. टी. 2.241. - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसिंसापेति 266 आसित आसिंसापेति/आसीसापेति आ + संस के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., शुभेच्छा कराता है, मङ्गलकामना कराता है, आशीर्वाद दिलाता है - न भावितमासीसापेति. दी. नि. 3.35. आसिंसितत्त नपुं॰, भाव. [आशंसितत्व], अभीप्सित अथवा इच्छित होना - त्तं प्र. वि., ए. व. - आसिसितस्स भावो आसिसितत्तं, ध. स. अट्ठ. 391; पाठा. आसिंसितत्त. आसिक त्रि., अस से व्यु., केवल स. उ. प. में प्राप्त, खाने वाला, उक्खित्ता., खेला., वन्ता के अन्त., द्रष्ट.. आसिञ्चति आ + सिच, वर्त., प्र. पु., ए. व. [आसिञ्चति], 1. सकर्मक क्रि. के रूप में, सींचता है, टपकाता है, छोटी छोटी बूंदों के रूप में अन्दर डाल देता है या गिरा देता है, बूंद बूंद करके टपकाता है, उड़ेल देता है, छिड़कता है - खीरं दारकानं मुखे आसिञ्चति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).333; - न्ति प्र. वि., ब. व. - नत्थु विसमं आसिञ्चन्ति, महाव. 279; - ञ्च अनु., म. पु., ए. व. - सणिक आसिञ्चाति, स. नि. अट्ठ. 3.338; - थ ब. व. - "निपज्जित्वा आसिञ्चथाति, ध. प. अट्ठ. 1.7; तेन हिस्स पादधोवनउदकं आदाय सीसे आसिञ्चथाति, ध. प. अट्ट 2.382; - ञ्चेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - पुरिसो कालेन कालं तेलं आसिञ्चेय्य वर्टि उपसंहरेय्य, स. नि. 1(2).77; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - थेरो नासाय तेलं आसिञ्चन्तो, ध. प. अट्ठ. 1.6; - न्तं द्वि. वि., ए. व. -- तं साकवत्थुस्मिं उदकं आसिञ्चन्तं दिस्वा, चरिया. अट्ठ. 174; - न्तिया वर्त. कृ., स्त्री., तृ. वि., ए. व. - मया ... सप्पिं आसिञ्चन्तिया, ध. प. अट्ट. 2.181; - माना वर्त. कृ., आत्मने., स्त्री., प्र. वि., ए. व. - वूपसमयमाना । सीतुदकघटसहस्सं मत्थके आसिञ्चमाना विय उप्पज्जति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.94; -ञ्चि अद्य., प्र. पु., ए. व. - भगवा उदकं आसिञ्चि महाव. 393; तत्ततेलकटाहं सीसे आसिञ्चि, विसुद्धि. 2.9; -ञ्चिस्साम भवि., उ. पु., ब. क. - "मुखे ते पानीयं आसिञ्चिस्सामाति, स. नि. अट्ठ. 2.258; - ञ्चितुं निमि. कृ. - पक्कुथितं सप्पिं आसिञ्चितुं, ध. प. अट्ठ. 2.181; - ञ्चित्वा पू. का. कृ. - आसिञ्चित्वा अङ्गुलिया वा, पाचि. अट्ठ. 94; निसिन्नकोव आसिञ्चित्वा, ध. प. अट्ठ. 1.6; -ञ्चितब्बं सं. कृ., नपुं.. प्र. वि., ए. व. - आचमनकुम्भिया उदकं आसिञ्चितब्ब महाव. 54; एकेन हत्थेन उदकं आसिञ्चितब्बं चूळव. 350; 2. अकर्मक क्रि. के रूप में, टपकाव से युक्त होता है, पिघल जाता है अथवा पिघलाव के रूप में हो जाता है, तरलता से ओत-प्रोत हो जाता है - ञ्चन्तं वर्त. कृ., नपुं., द्वि. वि., ए. व. - यदा दुक्खं उपज्जति सकलसरीरं ... विलीनतम्बलोहेन आसिञ्चन्तं ... उप्पज्जति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).287; - न्ते सप्त. वि., ए. व. - उण्हे सप्पिम्हि तत्थ आसिञ्चन्ते पटपटाति सद्दो उट्ठहति, स. नि. अट्ठ. 2.97; - मानं वर्त. कृ., आत्मने, नपुं.. प्र. वि., ए. व. - घटेहि आसिञ्चमानं विलीनसवण्णं विय, ध. प. अट्ठ. 2.123. आसिञ्चन नपुं., आ + सिच से व्यु., क्रि. ना., सींचना, छिड़कना, बूंद बूंद कर के टपकाना, उड़ेलना - नं प्र. वि., ए. व. -- पिष्ट्वियं आसिञ्चनं पिद्विसंधोविका नाम, अ. नि. अट्ठ. 3.330; - विस त्रि., ब. स., बूंद बूंद करके बाहर निकल रहे विष से युक्त - सा पु., प्र. वि., ब. व. - परस्स च अत्तनो सरीरे च आसिञ्चनविसाति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.54; स. उ. प. के रूप में तक्का . के अन्त. द्रष्ट.. आसिञ्चापेति आ + सिच के प्रेर. का वर्तः, प्र. पु., ए. व. [आसिञ्चयति], सिंचवाता है, बूंद बूंद कर बाहर टपकाने हेतु प्रेरित करता है, छिड़कवाता है - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - सोळसन्नं ब्राह्मणसहस्सानं मखेस आसिञ्चापेसि, जा. अट्ट. 4.348. आसिञ्चित/आसित्त त्रि., आ + सिच का भू. क. कृ. [आसिक्त], सींचा हुआ, भिगोया हुआ, तर किया हुआ, छिड़का हुआ, उड़ेला हुआ - त्तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ताय तस्सा मत्थके आसित्तं पक्कृथितसप्पि सीतुदकं विय अहोसि, ध. प. अट्ठ. 2.181. आसिट्ठ त्रि., आ + सिंस का भू. क. कृ. [आशिष्ट], इच्छित, वाञ्छित, वह, जिस को पाने की इच्छा की जा रही हो-टे सप्त. वि., ए. व. - सआयमभिधेय्यायं आसिढे गम्यमाने धातूहि तिप्पच्चयो होति, क. व्या. 554;-द्वत्थ पु., इच्छित होने का अर्थ - त्थे सप्त. वि., ए. व. - आसिठ्ठत्थे च अनुत्तकाले पञ्चमी विभत्ति होति, क. व्या. 417. आसित'/मासित/असित त्रि., व्यु.. संदिग्ध अट्ठ. के व्याख्यान अस्पष्ट, संभवतः ।अस (भोजन करना) का प्रेर. अथवा मिस (स्पर्श करना) से व्य. मासित का परिवर्तित रूप, अधिकतर स्थलों में, 'मासित' रूप में ही प्राप्त, 1. तृप्त करा दिया गया, भोजन करा दिया गया, 2. स्पर्श For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसित 267 किया गया, प्रभावित किया हुआ - तो पु.. प्र. वि., ए. व. - यथाहमज्ज सुहितो, ... दुमपक्कानि मासितोति, जा. अट्ठ. 2.370; .... मासितोति उदुम्बरादीनि रुक्खफलानि खादित्वा असितो धातो सुहितो, जा. अट्ठ. 2.370; तत्थ हेस्सामि आसितो, जा. अट्ठ. 5.64; असितो धातो सुहितो, जा. अट्ठ. 5.69; विसमासितो, मि. प. 278. आसित/असित त्रि., आ + vसि का भू. क. कृ. [आश्रित], किसी के साथ जुड़ा हुआ, किसी का आश्रय लिया हुआ, किसी की शरण में गया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सन्तिं निरिसतो असितो अल्लीनो उपगतो, महानि. 53; .... सो मया भगवा आसितो उपासितो पयिरूपासितो..... चूळनि. 189; आसितोति उपसङ्कमितो, चूळनि. अट्ठ. 77; अस्सितोति आसितो विसेसेन निस्सितो, महानि. अट्ठ. 159. आसित्त त्रि., आ + सिच का भू, क. कृ. [आसिक्त], सींचा हुआ, भिगोया हुआ, लिपा हुआ, तरल किया हुआ - स्स पु., ष. वि., ए. व. - असुचिना आसित्तस्स परिळाहो वूपसम्मति, महाव. अट्ठ. 282; - त्तेहि नपुं., तृ. वि., ए. व. - कहापणेहि कण्डं तं आसित्तेहुपरुपरि म. वं. 25.100; - त्ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - जलधाराहि ... आसित्ता सब्बा लङ्कामही अहु, म. वं. 17.45; - त्तं नपुं, प्र. वि., ए. व. - सेय्यथापि कुम्भो निक्कुज्जो तत्र उदकं आसित्तं विवट्टति, अ. नि. 1(1).153; तेलं वा वालुकाय आसित्तं ओसीदतिमेव संसीदतिमेव, अ. नि. 1(1).313; "नासाय वो तेलं आसित्तान्ति, ध. प. अट्ठ. 1.6; अभिसेकउदक आसित्तं सूकरिमेवस्स अग्गमहेसिंकरिंसु, जा. अट्ठ. 4.311; - तेन नपुं., तृ. वि., ए. व. - पत्तं ... आसित्तेन ... सप्पिनाविज्जोतमानं ... हत्थे ठपेत्वा, स. नि. अट्ठ. 2.164; -- ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - यथा घते आसित्ते अग्गिम्हि अग्गिसिखा अतीव जलति, अप. अट्ठ. 2.117; - त्तानि नपुं. प्र. वि., ब. व. - सप्पिमधुसक्खराहि आसित्तानि । योजितानेव मधुरानि ओजवन्तानि होन्ति, स. नि. अट्ठ. 1.277; - उदक न., कर्म. स. [आसिक्तोदक], छिड़का हुआ जल - कं द्वि. वि., ए. व. - चङ्कवारे आसित्तउदक विय परिहायतेव, अ. नि. अट्ठ. 3.150-151; परिस्सावने आसित्तउदकं विय परिहायतेव, जा. अट्ठ. 4.96; - काल पु., तत्पु. स., सींचे जाने का समय, स्निग्ध अथवा तरल किए जाने का काल - लो प्र. वि., ए. व. - उदकस्स आसित्तगन्धतेल आसित्तकालो विय देसनाय, अ. नि. अट्ठ. 2.99; स. उ. प. के रूप में, तोयलवा. के अन्त. द्रष्ट... आसित्तक त्रि., आसित्त से व्यु. [आसिक्तक], पूरी तरह से सिञ्चित, भली भांति भिगो दिया गया अथवा तर कर दिया गया - सदिस त्रि., भिगोया हुआ जैसा - सा पु.. प्र. वि., ब. व. - तक्कं सीसे आसित्तकसदिसाव होन्ति, महाव. अट्ठ. 269; तक्कं सीसे आसित्तकसदिसाव होन्तीति यथा अदासे करोन्ता तक्केन सीसं धोवित्वा अदासं करोन्ति, एवं आरामिकवचनेन दिन्नत्ता अदासाव तेति अधिप्पायो, सारत्थ. टी. 3.219; स. उ. प. के रूप में, अना., अमता के अन्त. द्रष्ट.. आसित्तकपूर्व पु., कर्म. स. [आसिक्तकपूप], एक प्रकार का पुआ, जिसके अन्दर में पिट्ठा रखकर धीरे धीरे बड़ा आकार देकर उसे बन्द कर देते हैं, संभवतः आधुनिक मगध का ढकन-पुआ - वं द्वि. वि., ए. व. - तत्थ कपल्लकपूवन्ति आसित्तकपूर्व, तं पचन्ता कपाले पठमं किञ्चि पिट्ठ ठपेत्वा अनुक्कमेन वड्डत्वा, अन्तन्तेन परिच्छिन्दन्ति पूर्व समन्ततो परिच्छिन्नं कत्वा ठपेन्ति, दी. नि. टी. (लीन.) 2.139. आसित्तकाधार पु., चावल की गर्म खीर आदि से भरा हुआ धातुपात्र, जिसमें भोजन गर्म बना रहता था, तथा जो एक थाली से ढका रहता था - रो प्र. वि., ए. व. - तेनेव पाळियं आसित्तकूपधानन्ति वृत्तं, तस्स च पायासादीहि आसित्तकाधारोति अत्थो, वि. वि. टी. 2.220. आसित्तकूपधान नपुं, उपरिवत् - ने सप्त. वि., ए. व. - छब्बग्गिया भिक्खु आसित्तकूपधाने भुञ्जन्ति, चूळव. 243; - नं प्र. वि., ए. व. - आसित्तकूपधानं नाम तम्बलोहेन वा रजतेन वा कताय पेळाय एतं अधिवचनं, चूळव. अट्ठ. 52; पेळायाति अढससोळसंसादिआकारेन कताय भाजनाकाराय पेळाय, यत्थ उण्हपायासादिं पक्खिपित्वा उपरि भोजनपातिं ठपेन्ति, भत्तस्स उण्हभावाविगमनत्थं तादिसस्स भाजनाकारस्स आधारस्सेतं अधिवचनं, तेनेव पाळियं "आसित्तकूपधान न्ति वुत्तं, वि. वि. टी. 2.220; इदञ्च आसित्तकूपधानं पच्चन्तेसु न जानन्ति कातु, मज्झिमदेसेयेव करोन्ति, वि. वि. टी. 2.220. आसित्तगन्धतेल त्रि., ब. स., सुगन्धित तेलों से अभ्यञ्जित, सुगन्धित तेलों को लगाया हुआ व्यक्ति - लाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - आसितगन्धतेलाय लहं सोवण्णदोणिया, म. वं. 20.35. For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसित्तपण्डक 268 आसीदति के अन आसित्तपण्डक पु., पांच प्रकार के नपुंसकों में प्रथम के रूप में उल्लिखित, समलैंगिक क्रिया कराने वाला व्यक्ति - को प्र. वि., ए. व. - पण्डको पञ्चविधो होति आसित्तपण्डको, उसूयपण्डको, ओपक्कमिकपण्डको, नपुंसकपण्डको, पक्खपण्डकोति, कसा. टी. 159; तत्थ यस्स परेसं अङ्गजातं मुखेन गहेत्वा असुचिना आसित्तस्स परिळाहो वूपसम्मति, अयं आसित्तपण्डको, तदे. - स्स च./ष. वि., ए. व. - तेसु आसित्तपण्डकस्स च उसूयपण्डकस्स च पब्बज्जा न वारिता, महाव. अट्ठ. 282; - कं द्वि. वि., ए. व. - आसित्तपण्डकञ्च उसूयपण्डकञ्च ठपेत्वा ... कसा अट्ठ. 109. आसितब्ब त्रि., Vआस से व्यु., सं. कृ., बैठे जाने योग्य - ब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - "भावकम्मेसु तब्बानीया" ... आसीयते, आसितब्ब, आसनीयं, क. व्या. 542. आसित्तमत्त त्रि., जल का सिञ्चन करने के साथ साथ, आसिञ्चन अथवा छिड़काव करते ही - त्ते नपुं., सप्त. वि., ए. व. - एवं ताय सच्चकिरियं कत्वा उदके आसित्तमत्तेयेव सोत्थिसेनस्स कुटुं अम्बिलेन धोतं विय तम्बमलं तावदेव अपगच्छि , जा. अट्ठ. 5.90. आसित्तविस' त्रि., ब. स. [आसिक्तविष], विष को मुख से बाहर टपकाते रहने वाला विषधर सर्प, ज़हरीला नाग - सो पु., प्र. वि., ए. व. - आसित्तविसोतिपि आसीविसो, सकलकाये आसिञ्चित्वा विय ठपितविसो परस्स च सरीरे आसिञ्चनविसोति अत्थो असितविसोतिपि आसीविसो, सारत्थ. टी. 2.19; -- सा ब. व. - आसित्तविसातिपि आसीविसा, असितविसातिपि आसीविसा, स. नि. अट्ठ. 3.54. आसित्तविस नपुं., कर्म. स. [आसिक्तविष], टपकता हुआ विष, धीरे धीरे रिस कर बाहर आ रहा विष - सेन तृ. वि., ए. व. - आसित्तसत्तोति आसित्तविसेन सत्तो. जा. अट्ठ. 5.82. आसित्तसत्त त्रि., तत्पु. स. [आसिक्तशप्त], तीब्र विष वाले (नागराज) द्वारा अभिशप्त या शापित - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - आसित्तसत्तो निहतो पथब्या, जा. अट्ठ. 5.823; आसित्तसत्तोति आसित्तविसेन सत्तो, तदे... आसित्तोदक त्रि., [आसिक्तोदक], जल द्वारा सिञ्चित, सिञ्चित - का स्त्री, प्र. वि., ए. व. - महापथवी .. आसित्तोदका चिक्खल्लजाता, मि. प. 265; - कानि नपुं.. प्र. वि., ब. व. - आसित्तोदकानि वटुमानि, दी. नि. 2.254. आसिलिन त्रि., आ + सिलिस से व्यु., भू. क. कृ. [आश्लिष्ट], दृढ़ता के साथ जुड़ा हुआ अथवा चिपटा हुआ, पूरी तरह से समर्पित - @ो पु., प्र. वि., ए. व. - आसिलिट्ठो गुरुम्भवं आसिलिट्ठो गुरुभोता, मो. व्या. 5.58. आसी' त्रि., अस (फेंकना) से व्यु., केवल स. उ. प. के रूप में इस्सा . के अन्त. द्रष्ट.. आसी' त्रि.. अस (खाना) से व्यु., केवल स. उ. प. में ही प्रयुक्त, खाने वाला, अप्पा., एका., तिणा.. पलासा., सुधा. के अन्त. द्रष्ट.. आसी' स्त्री., [आशी], सांप की विषैली दाढ़ या दांत - आसीति वा दाठा वुच्चति, तत्थ सन्निहितविसोति आसीविसो, सारत्थ. टी. 2.20; आसीत्थी सप्पदाढा थ, अभि. प. 655%; सप्पदाठायमासित्थी, अभि. प. 872. आसी'/आसि स्त्री., [आशिष], 1. शुभेच्छा, मङ्गल की कामना, आशीर्वाद, 2. अलङ्कारों का एक प्रभेद - आसी नाम सियत्थस्स इट्ठस्सासिसनं यथा, सुबोधा. 336(गा.); स्वातनी आसि भविस्सन्ती चाति, सद्द. 1.56%; सप्पदाठायमासित्थी, इट्ठस्सासिंसनाय पि, अभि. प. 872; - सवाचा स्त्री., [आशीर्वचन], मङ्गलकामना अथवा आशीर्वाद का वचन - चं द्वि. वि., ए. व. - तदाहं आसीसवाचं अवोचं अनुकम्पिका, थेरीगा. अट्ठ. 165; - सिवाद पु., [आशीर्वाद], शुभकामना का कथन - दं द्वि. वि., ए. व. - सुखिनी होहि, अरोगा होहीति आदिना आसिवादं अत्थतो वदापेसि नाम, वि. व. अट्ठ. 18; - वादन नपुं., उपरिवत् -वसेन त. वि., ए. व., क्रि. वि., आशीर्वाद के द्वारा - "कालेन कालं आसीवादनवसेन सुट्ट पयुत्तनन्दिघोसो ति च वदन्ति, वि. व. अट्ठ. 232. आसीतिम त्रि., अस्सीवां - मे सप्त. वि., ए. व. - आसीतिमे वस्से सुखेनेव पब्बज्ज उपगतो, अ. नि. अट्ठ. 1.234. आसीदति आ + Vसद का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आसीदति], 1. जा पहुंचता है, समीप पहुंचता है, पा लेता है, स्पर्श करता है, पकड़ लेता है, 2. आक्रमण या प्रहार करता है, मुठभेड़ करता है, 3. तिरष्कृत या अपमानित करता है, हटा देता है - दे विधि., प्र. पु., ए. व. - आसीविसम्पि आसीदे येन दट्ठो न जीवति, अ. नि. 2(1).63; आसीदेति घट्टेय्य, अ. नि. अट्ट. 3.28; नासीदे, यस्मिं नत्थि कतञ्जता, जा. अट्ठ. 4.51; आसीदे, सञतानं तपस्सिनं, जा. अट्ठ. 5.259; - सदा अद्य, प्र. पु., ए. व. - नासदा वाकर मिगो, म. नि. 2.262; - सदो म. पु., ए. व. - मेतमासदो, एसो हि, म. नि. 1.410; अत्रिच्छं चक्कमासदो, जा. अट्ठ. For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसीन 269 आसीविसूपम 1.396; - दित्वा पू. का. कृ. - ब्राह्मणा आसीदित्वा संसीदन्ति, दी. नि. 1.224. आसीन त्रि.. आस का भू. क. कृ. [आसीन], बैठा हुआ, आसन पर बैठा हुआ - नो पु., प्र. वि., ए. व. - अनुत्थुनन्तो आसीनो, भत्तु याचित्थ जीवितं, जा. अट्ठ. 5.341; - नं पु., वि. वि., ए. व. -- नगरस पस्से आसीनं मुनिं दुक्खस्स पारगुं, स. नि. 1(1).225; न हेव ठितं नासीन, जा. अट्ठ. 3.81; - ने' सप्त. वि., ए. व. - एकस्मि तुहिमासीने, सब्बे तुण्ही भवन्ति ते, दी. नि. 2.156; -- ने पु., द्वि. वि., ब. व. - सो... अज्झभासथ पवङ्घकाये आसीने दिजसङ्घगणाधिपे, जा. अट्ठ. 5.334; - नानं पु., ष. वि., ब. व. - चोळञ्च नेसं पिण्डञ्च आसीनानं पदापये, जा. अट्ठ. 7.192; - नेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - गेहसामिकेसु तुहीमासिनेसु आणाकरणं न युत्तं, स. नि. अट्ठ. 3.224; स. उ. प. के रूप में, अग्गिमा., पासाणमा. के अन्त. द्रष्ट.. आसीनसयन त्रि., बैठा हुआ अथवा लेटा हुआ - स्स पु., ष. वि., ए. व. - चरतो तितो वापि, आसीनसयनस्स वा, थेरगा. 452; आसीनसयनस्स वाति आसीनस्स सयनस्स वा, निसिन्नरस निपज्जन्तस्स वाति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 2.102. आसीयति आ + सि का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आश्रयते], आश्रय लेता है, विद्यमान होता है - कद्दमे जायति उदके आसीयती ति, मि. प. 81-82. आसीयते ।आस के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व., बैठा। जाता है, द्रष्ट. आसति के अन्त.. आसीवचन नपुं., शुभकामना के वचन, आसी के अन्त. द्रष्ट.. आसीविस/आसिविस पु., [आशीविष], अत्यन्त तेजी के साथ शरीर में फैलने वाले विष वाला सर्प, तीब्र विष वाला सर्प - सो प्र. वि., ए. व. - आसु सीघं एतस्स विसं आगच्छतीति आसीविसो, पारा. अट्ट, 1.170; आसीविसो भुजङ्गोहि..., अभि. प. 653; आसित्तविसोतिपि आसीविसो, सारत्थ. टी. 2.19; नागराजा इद्धिमा आसिविसो घोरविसो, महाव. 29; सेय्यथापि सुनक्खत्त, आसीविसो घोरविसो, म. नि. 3.45; काये आसीविसो पतितो होति, स. नि. 2(2).43;-सं द्वि. वि., ए. व. - आसीविसमिवोरगं अग्गिं विय, पारा. अट्ठ. 1.316; आसीविसं घोरविसं म. नि. 1.301; - सेन तृ. वि., ए. व. - आसीविसेन वित्तोति, जा. अट्ठ. 7.25; आसीविसेन दट्ठो भवेय्य, मि. प. 150; - सा प. वि., ए. व. - "आरा अमित्ता व्यवजन्ति तेहि आसीविसा वा रिव सत्तुसङ्घाति, जा. अट्ठ. 5.77; - स्स ष. वि., ए. व. - नागराजस्स इद्धिमतो आसिविसस्स घोरविसस्स तेजसा ..., महाव. 29; आसिविसस्स घोरविसस्स मुखे अङ्गजातं पक्खित्तं, पारा. 21; आसीविसस्सानन्तरं कण्हसप्पो वुत्तो, सारत्थ. टी. 2.20; - से सप्त. वि., ए. व. - मण्डूकपोतिकानं आसीविसे कण्हसप्पे गिलनकालो विय भविस्सति, जा. अट्ठ. 1.327; यत्तो चासीविसे चरेति. जा. अट्ठ. 4.198; - सा प्र. वि., ब. व. - चत्तारो आसीविसा उग्गतेजा घोरविसा, स. नि. 2(2).176; आसीविसा दुरुपट्टाना, स. नि. अट्ठ. 3.59; - सेहि तृ. वि., ब. व. - पठम आसीविसेहि अनुबद्धो, स. नि. अट्ठ. 3.56; - सानं ष. वि., ब. व. - इमेसं चतुन्न आसीविसानं, स. नि. 2(2).176; आसीविसानञ्च रुक्खसुसिरतिणपण्णगहन सकारखानानिपि आसयो, स. नि. अट्ट. 3.58; स. उ. प. के रूप में, घट्टिता., पहता. के अन्त०, द्रष्ट.. आसीविसदट्ठ 1. त्रि., तत्पु. स., जहरीले सर्प द्वारा डसा गया, विषैले सांप द्वारा काटा गया, 2. नपुं, सांप का काटना, स. प. के अन्त., - दूपमा स्त्री., सांप द्वारा डसे जाने की उपमा - य तृ. वि., ए. व. - अयं पनत्थो आसीविसदबुपमाय दीपेतब्बो एको किर पुरिसो आसीविसेन दट्ठो, स. नि. अट्ठ. 2.88. आसीविसपोतक पु., शिशु सर्प, सांप का बच्चा - का प्र. वि., ब. क. -द्वे आसीविसपोतका कीळन्ति, स. नि. अट्ठ 3.14. आसीविसभारित त्रि., तत्पु. स., जहरीले सर्पो से भरपूर - ता पु., प्र. वि., ब. व. - अपेसलानीति एवरूपा पुग्गला आसीविसभरिता विय वम्मिका अप्पियसीला होन्ति, जा. अट्ठ. 4.343. आसीविसवग्ग पु., स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. 2(2).176-200; स. नि. अट्ठ. 3.52-111. आसीविसालय पु., तत्पु. स., सर्प की बामी, सर्प के रहने का बिल - सम त्रि., सांप की बामी के समान, सांप के बिल जैसा - मे पु., सप्त. वि., ए. व. - आसीविसालयसमे रोगावासे कळेवरे, अप. 2.203; -- निभ त्रि., उपरिवत् - भो पु., प्र. वि., ए. व. - आसीविसालयनिभो सभयो आसीविसूपम त्रि., सर्प जैसा, सांप के समान - मा पु., प्र. वि., ब. व. - चत्तारो आसीविसूपमा पुग्गला, अ. नि. For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसीविसोपमसुत्त 270 आसेवति 1(2).127; कामा कटुका आसीविसूपमा, येसु मुच्छिता बाला, भूमि चुण्णेत्वा तेसं अट्ठीनि माणवो, म. वं. 23.80%; थेरीगा. 453; - मे सप्त. वि., ए. व. - -म्भिस्सन्ति भवि०, प्र. पु., ब. व. - कथम्हि नाम पञ्चुपादानक्खन्धा आसीविसूपमे.... विसुद्धि. 2.107; विभ. गूथकटाहं मत्थके आसुम्भिस्सन्ति!, पाचि. 361; - अट्ठ. 30; - मं पु., वि. वि., ए. व. - तेसं धम्म अदेसेसि म्भित्वा/त्वान पू. का. कृ. - छठे आसुम्भित्वाति थेरो आसीविसोपम, म. वं. 12.26; निसज्ज नन्दनवने पातेत्वा, सारत्थ. टी. 3.112; आसुम्भित्वान पादपे, वि. व. देसियासिविसूपम, म. वं. 15.178; कथेसि तत्थ सुत्तन्तं अट्ठ. 177. आसिविसूपमं सुभं दी. वं. 14.18. आसेति आ + Vसी के वर्त., प्र. पु., ए. व., 'आसयति' के आसीविसोपमसुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक स्थान पर कतिपय संस्करणों में प्रयुक्त, अप., सोता है, - त्तं प्र. वि., ए. व. - सेय्यथिदं... आसीविसोपमसुत्तं द्रष्ट. आसयति के अन्त.. स. नि. अट्ठ. 2.3; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - थेरो तेसं आसेवति आ + vसेव का वर्त.. प्र. पु., ए. व., आदि से अन्त आसीविसोपमसुत्तं कथेसि, पारा. अट्ठ. 1.47. तक सेवन करता है, निरन्तर अभ्यास करता है, बार बार आसीविसोपमसुत्तन्त पु., उपरिवत् - न्तं द्वि. वि., ए. व. आवृत्ति करता है, व्यवहार में अनुसरण करता है, विकसित - कल्लमहाविहारे आसीविसोपमसुत्तन्तं सुत्वा ....ध. प. करता है - भिक्खु मेत्ताचित्तं आसेवति, अ. नि. 1(1).13; अट्ठ. 2.308. सो तं मग्गं आसेवति भावेति बहलीकरोति, अ. नि. आसुं' अस का अद्य., उ. पु., ब. व. [आस्म]. हम थे, अस्थि 1(2).181; निमित्तं न आसेवति न भावेति, अ. नि. के अन्त. द्रष्ट.. 3(1).226; पुब्बण्हसमयं आसेवति. पटि. म. 27: इमं वीरियं आसुं/आसु अ., निपा., क्रि. वि. [आशु], तेजी से, आरभति समारभति आसेवति भावेति बहुलीकरोति, विभ. शीघ्रता के साथ, तुरन्त - किरियाय आसं परिनिट्ठापनं. 235; - न्ति ब. व. - सब्बेसत्ता ... परिभुञ्जन्ति ... सद्द. 3.719; अरं लहु आसु. सद्द. 3.902; आसु तुण्णमरं आसेवन्ति भावेन्ति बहुलीकरोन्तीति, कथा. 136; - चाविलम्बितं तुवटपि च, अभि. प. 40; इद्धिया चासु वियते/वीयति कर्म. वा., वर्त, प्र. पु.. ए. व. - निहासि असोकारामसहयो, म. वं. 5.174. भावीयते आसेवीयते बहुलीकारीयते, सद्द. 1.6; इमानि आसुगामी त्रि., [आशुगामिन], तेजी के साथ चलने वाला, पञ्चिन्द्रियानि मेत्ताय चेतोविमत्तिया आसेवना होन्ति ... शीघ्रता के साथ सक्रिय होने वाला - निया स्त्री., तृ. वि., आसेवीयति, पटि. म. 306; - वेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. ए. व. - ... ति आदिकं कथं सभाविनिया पाय - नेक्खम्मे आनिसंसं अधिगम्म तमासेवेय्यं, अ. नि. 3(1). अनुक्कममाना .... सु. नि. अट्ठ. 2.37; पाठा. आसुगामिनिया. 244; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - इमं खो अहं आसुणाति आ + सु का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आशृणोति], दिद्धिं आसेवन्तो, म. नि. 1.406; - तो च. वि., ए. व. - सुनता है, आज्ञा का पालन करता है - णन्ति ब. व. - तं मग्गं आसेवतो भावयतो बहलीकरोतो संयोजनानि पहीयन्ति, आसुणन्ति बुद्धस्स भिक्खू, क. व्या. 279; - मानो वर्त. अ. नि. 1(2).182; अ. नि. 2(1).69; - स्स ष. वि., ए. व. कृ., आत्मने, पु.. प्र. वि., ए. व. - अस्सवोति आसुणमानो - सब्बसङ्कारानं ... भङ्गानुपस्सनं आसेवन्तरस, विसुद्धि. ... वचनं सुणाति, स. नि. अट्ठ. 1.32. 2.280; सङ्घारूपेक्खाजाणं तं, आसेवन्तस्स योगिनो, अभि. आसुत त्रि., व्यु., संदिग्ध, अच्छी तरह सुसज्जित - ता अव. 1307; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु.. प्र. वि., ए. स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आसुताति सज्जिता "असुत्ता ति व. --- मेत्तं उपेक्खं करुणं विमुत्ति, आसेवमानो मुदितञ्च ... अनाविला अपक्का तरुणा, वजिर. टी. 493; आसुताति काले, अप. 1.11; तत्थ आसेवमानोति... चतुत्थज्झानवसेन सब्बसम्भारसज्जिता, सारत्थ. टी. 3.410. भावयमानो, अप. अट्ठ. 1.204; - वि अद्य., उ. पु., ए. क. आसुम्भति आ + सुम्भ का वर्त., प्र. पु., ए. व., टपकाता - अवितक्के आनिसंसं अधिगम्म तमासेविं. अ. नि. है, फेंकता है, गिराता है - म्भि अद्य., प्र. पु.. ए. व. - 3(1).245; - वितुं निमि. कृ. - वुच्चति, आसेवितुं वा सो भिक्खु ... तानि एळकलोमानि ठितकोव आसुम्भि, पारा. फासुककाले, अप. अट्ठ. 1.205; - वित्वा पू. का. कृ. - 351; इट्ठकं मत्थके आसुम्भि, जा. अट्ठ. 3.385; ठितकोव कालेति मेत्तं आसेवित्वा ततो वट्ठाय करुणं, अप. अट्ठ. आसुम्भीति... पातेसीति अत्थो, पारा. अट्ठ. 2.242; आसुम्भि 1.205; सो तं निमित्तं आसेवित्वा, विभ. 218. , जाम For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसेवनपच्चय 271 आसेवित आसेवनपच्चय पु., 24 प्रकार के प्रत्ययों (कारणभूत धर्मों) में से एक, पुनः पुनः किया जा रहा व्यावहारिक आचरण अपने बाद में उत्पन्न होने वाले धर्मों के गुणों के बलवान बनाने में उनका उपकारक होता है, अतः यह आसेवनपच्चय कहलाता है, किसी एक धर्म के उदय में किसी दूसरे धर्म के सतत अभ्यास का कारणभूत होना - यो प्र. वि., ए. व. - आसेवनपच्चयो, विसुद्धि. 2.161; सङ्घारारम्मणञ्च कुसलं निब्बानारम्मणस्स आसेवनपच्चयो होतियेव, विसुद्धि. महाटी. 2.263; आसेवनतुन अनन्तरानं पगुणबलवभावाय उपकारको धम्मो आसेवनपच्चयो, प. प. अट्ठ. 348; आसेवनपच्चयो गन्थादीस परिमपरिमाभियोगो विय, विसुद्धि. 2.166; आसेवनपच्चयोति ठपेत्वा आवज्जनद्वयं, अभि. अव. 175; - येन तृ. वि., ए. व. – “... धम्मानं आसेवनपच्चयेन पच्चयोति, विसुद्धि. 1.134; - या प. वि., ए. व. - उप्पज्जति ... आसेवनपच्चया, पट्ठा. 2.123; -- ता स्त्री., भाव., आसेवन-प्रत्यय होना, सतत अभ्यास का अन्य धर्म के उदय में कारणभूत होना, प्र. वि., ए. व. - तेन हि अत्थि काचि आसेवनपच्चयताति, कथा. 500; - भाव पु., उपरिवत् - वेन त. वि., ए. व. - आसेवनपच्चयभावेन ससम्पयत्तानि, सद्द. 1.86. आसेवनपच्चयकथा स्त्री., कथा. के एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 498. आसेवनबलवता स्त्री., धर्मों के आसेवन अथवा सतत अभ्यास की शक्ति-य त. वि., ए. व. - आसेवनबलवताय विचित्तवृत्तिताय च, दी. नि. टी. 1.124. आसेवनमन्दता स्त्री., तत्पु. स., व्यावहारिक आचरण में शिथिलता, यदा कदा ही अनुपालन अथवा व्यावहारिक आचरण करना - य तृ. वि., ए. व. - आसेवनमन्दताय अप्पसावज्जो, दी. नि. अट्ठ. 1.70. आसेवनमहन्तता स्त्री., तत्पु. स., व्यावहारिक आचरण अथवा अभ्यास की बारम्बारता, अनुपालन अथवा व्यावहारिक आचरण की पौनःपुन्यता, पुनः पुनः व्यावहारिक अभ्यास - य तृ. वि., ए. व. - आसेवनमहन्तताय महासावज्जो , दी. नि. अट्ट, 1.70. आसेवना स्त्री./नपुं.. [आसेवन, नपुं, बौ. सं., आसेवना, स्त्री.], निरन्तर अभ्यास, पुनः पुनः आवृत्ति, निरन्तर साथ संग, भावना, प्र. वि., ए. व. - आसेवनाति आदितो सेवना, पटि. म. अट्ठ. 2.155; धम्मानं आसेवना भावना बहलीकम्म, म. नि. 1.382; सा हि भुसं सेवीयतीति आसेवनाति वृत्ता, पटि. म. अट्ठ. 1.112; - नं द्वि. वि., ए. व. - चित्तं आसेवनं लभति, विसुद्धि. 1.230; आसेवनं लभतीति भावनासेवनं लभति, विसुद्धि. महाटी. 1.279-280; - य' तृ. वि., ए. व. - कथञ्च अत्तानं रक्खन्तो परं रक्खति? आसेवनाय, भावनाय, बहुलीकम्मेन, स. नि. 3.244; - य? च. वि., ए. व. - ... सीलानि चित्तस्स ... आसेवनाय संवत्तन्ति, विसुद्धि. 1.47; तस्मा समाधिस्स आसेवनाय पगुणबलवभावाय संवत्तन्तीति अत्थो, विसुद्धि. महाटी. 1.75; - नं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - न होतासेवनं पन, अभि. अव. 974; एकस्सासेवनं नत्थि, तस्मा द्वे अनुलोमका तेहि आसेवनं लद्धा, ततियं होति गोत्रभु, अभि. अव. 1341; स. उ. प. के रूप में, दिट्ठा.. पुब्बा के अन्त. द्रष्ट.. आसेवनाभावना स्त्री., धर्मों का पुनः पुनः अभ्यास, व्यावहारिक आचरण में पुनः पुनः अभ्यास, 4 प्रकार की भावनाओं में एक, प्र. वि., ए. व. - चत्तस्सो भावना ... आसेवनाभावना, पटि. म. 25; पटिलाभे वसिप्पत्तस्स यथारुचि परिभोगकाले भावना, सा हि भुसं सेवियतीति आसेवनाति वुत्ता, केचि पन आसेवनाभावना वसीकम्म, एकरसाभावना सब्बत्थिका ति, वण्णयन्ति, पटि. म. अट्ठ. 1.112. आसेवयित्वा आ + vसेव के प्रेर. का पू. का. कृ., विकसित करके, भावित करके, बढ़ा करके, व्यावहारिक रूप में अभ्यास करके - सुञप्पणिधिञ्च तथानिमित्तं, आसेवयित्वा जिनसासनम्हि, अप. 1.11. आसेवित त्रि., आ + /सेव का भू. क. कृ. [आसेवित], भली भांति सेवन किया गया, आचरण में उतारा गया, पालन किया गया, भावित, बढ़ाया गया, विकसित किया गया, बार बार अभ्यास किया गया -- तो पु., प्र. वि., ए. व. - पाणातिपातो आसेवितो भावितो, अ. नि. 3(1).78; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - धम्म ते देसयिस्सामि, सतं आसेवितं अहं, जा. अट्ठ. 5.209; - ते पु., सप्त. वि., ए. व. -- "आसेविते तिपि पाठो, तस्स आसेवितायाति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 221; - ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - "कायगतासति आसेविता ति, अ. नि. 1(1).61; वाचा आसेविता भाविता बहुलीकता, अ. नि. 3(1).79; - य तृ. वि., ए. व. - मेत्ताय चेतोविमुत्तिया आसेविताय भाविताय बहुलीकताय ...., परि. 270; अ. नि. 3(2).308; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - "अमतं तेसं आसेवितं येसं कायगतासति आसेविता ति, अ. नि. 1(1).61; - तानि/ता नपुं., प्र. वि., ब.व. - आसेवितानि भावितानि बहलीकतानि For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आसेवितब्ब 272 आहच्च उस्सदगतानि, विभ. 390; पापा आसेविता येहि ते अपायेसु जायरे, सद्धम्मो. 93; - कम्मट्ठान त्रि., ब. स., ध्यान के कर्मस्थानों का बार बार अभ्यास कर चुका (साधक), वह, जिस ने कर्मस्थानों की ध्यान-भावना का निरन्तर अभ्यास किया है - नो पु., प्र. वि., ए. व. - आसेवितकम्मट्ठानोति असुभकम्मट्ठाने कतपरिचयो, विसुद्धि. महाटी. 1.194; आसेवितकम्मट्ठानो परिहतधुतङ्गो विसुद्धि. 1.177;- निसेवित त्रि., आचरण में भली भांति उतारा हुआ, परिपूरित, वह, जिसका बार बार अभ्यास कर उसे पूर्णतया विकसित कर लिया गया है - तं स्त्री., वि. वि., ए. व. - पोराणकबोधिसत्तेहि आसेवितनिसेवितं पठमं दानपारमिं दिस्वा ..., जा. अट्ठ. 1.26. आसेवितब्ब त्रि., आ + vसेव का सं. कृ. [आसेवितव्य]. सेवन किए जाने योग्य, आचरण में उतारने योग्य, बार बार अभ्यास किए जाने योग्य – ब्बं पु., द्वि. वि., ए. व. -- आसेवितब्बञ्च वो, भिक्खवे, धम्म देसेस्सामि, न आसेवितब्बञ्च, अ. नि. 3(2).213; - ब्बा पु., प्र. वि., ब.. व. - धम्मा ... आसेवितब्बा भावेतब्बा बहुलीकातब्बा, दी... नि. 2.92; - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - अब्यापादो एवं आसेवितब्बो... - अनुसासनीपाटिहारियं, पटि. म. 396; - ब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा खो पन आलोकसा एवं आसेवितब्बा, पटि, म. 396; - बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आसेवितब्बं भावेतब्बं म. नि. 2.126. आह Vब्रू का परोक्षभूत का प्र. पु., ए. व., वास्तविक प्रयोगों में किसी कालविशेष का सूचक प्रतीत नहीं होता [आह], 1. बोलता है, बोला, कहता है, कहा; सम्बोधित करता है, सम्बोधित किया - सुपिने किलमाह, सद्द. 3.8163; आह आहू, सद्द. 3.827; वर्तः, प्र. पु., ए. व. - ब्राह्मणो एवमाह, - ... “गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती ति, दी. नि. 1.98; सो एवमाह "-"ति, म. नि. 1.130; सुद्धिमाह, सु. नि. 796; यो वापिकत्वा न करोमि चाह, ध. प. 306; नं सत्था... "-"ति आह, ध. प. अट्ठ. 1.5; उपसमित्वा आह -*- जा. अट्ठ. 2.22; तेनापि "किमत्थं ठितोसी ति वुत्तो तथेवाह, जा. अट्ठ. 3.46; "भद्दे, त्वं इमं ... सुखेन जीवाही आह, जा. अट्ट. 4.21; म. पु., ए. व. - "अथ कस्मा, त्वं महाराज, एवमाह चित्तेन सरति, नो सतिया ति, मि. प. 85; - हंसु/हु प्र. पु., ब. व. - तमेन भिक्खू एवमाहंसु, स. नि. 1(2).244; “कामा अनिच्चा इति चापि आहु", थेरगा. 188; 2. आज्ञा देता है, आज्ञा दी, आदेश देता है, आदेश दिया, प्र. पु., ए. व. - तस्सपि नो भगवा पहानमाह, म. नि. 2.121; "उय्यानं मापेही ति आह, जा. अट्ठ. 2.157; 'एहि भिक्खू ति मं आह, थेरगा. 625; पुनराह महीपति तस्स योधसतस्सापि तथेव परियोसितुं, म. वं. 23.98; 3. किसी के विषय में कहता है, किसी को लेकर कुछ कहा - हंसु/हु प्र. पु., ब. व. - तमेन एवमाहंसु -ति, स. नि. 2(2).323; ... ति आहु भिक्खू, अ. नि. 1(2).18; सच्चं किरेवमाहंसु, वस्तं बालोति पण्डिता, जा. अट्ठ. 3.244. आहच्च 1. आ + Vहन का पू. का. कृ., अ., व्यु. संदिग्ध [आहत्य], शा. अ., (प्रहार करने हेतु) समीप में आ कर, समीप में पहुंच कर, सट कर, सटा कर, ला. अ., स्पर्श कर, प्रहार कर, तोड़-फोड़ कर, चोट पहुंचा कर, ढकेल कर, धक्का देकर, पीट कर, दबा कर - मुतन्ति मुत्वा मुनित्वा च गहितं, आहच्च उपगन्त्वाति अत्थो, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).41; आहच्चाति विसयं अन्वाय, पत्वाति अत्थो, म. नि. टी. (मू.प.) 1.77; सप्पो सीसेन करण्डपट आहच्च ओकासं कत्वा पलायति, पारा. अट्ठ 1.291; आहच्चाति पहरित्वा, सारत्थ. टी. 2.137; पाणिना तलमाहच्च, सरं कत्वान भेरवं, दी. नि. 2.193; पाणिनातलमाहच्चाति हत्थेन पथवीतलं पहरित्वा, दी. नि. अट्ठ. 2.257; चक्खुना चक्खं आहच्च दट्टब् होति, पारा. अट्ठ. 1.94; जिव्हाय तालु आहच्च, म. नि. 1.171; यथापि सेला विपुला नभं आहच्च पब्बता, स. नि. 1(1).121; नभं आहच्चाति विपुलत्ता एव आकासं अभिविहच्च सब्बदिसास फरित्वा, विसुद्धि. महाटी. 1.274; अढिमिज आहच्च तिट्ठति, महाव. 105; उदा. अट्ठ. 583; पथवियं पन सचेपि कच्छिया कच्छि आहच्च ठिता होन्ति, पाचि. अट्ठ. 99; तस्स किर लोहिते छिन्ने मंसे मिलाते अक्खिआवाटका मत्थलुङ्ग आहच्च अट्ठसु, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).362; अमतद्वारं आहच्च तिकृति, स. नि. 1(2).39; नभं आहच्च ठिता, अ. नि. 2(1).221; 2. संभवतः आ + Vहर का सं. कृ., पू. का. कृ. [आहृत्य], शा. अ., आहरण करने योग्य, ले आए जाने योग्य, ला. अ.,1. आश्रय या अवलम्बन ग्रहण करने योग्य, अपेक्षा किए जाने योग्य, ला. अ., 2. कहीं अन्यत्र से लेकर उद्धृत किए जाने योग्य, उद्धरणीय - इमं मे कम्मट्ठानं अनुलोमं वा गोत्तभुं वा आहच्च ठितन्ति न जानाति, स. नि. अट्ठ. 3.232; आहच्चुपनिज्झायन्ता, ना. रू. प. 153; 8543; 896; इच्चाहच्च पवत्तानं लक्खणानं सभावतो, ना. रू. प. For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहच्चनियम 273 आहच्चभासित 1606; तेसु द्वावीसति तिका सतं दुकाति अयं आहच्चभासिता ... मातिका नाम, ध. स. अट्ट. 10; - च्चाकारभेद पु... कण्ठ आदि उच्चारण स्थानों के साथ वायु की टकराहट के आधार पर आकार के भेदों जैसा भेद - देन तृ. वि., ए. व. - आहच्चाकारभेदेन तिविधा हि विपस्सना, ना. रू. प. 1616; स. उ. प. के रूप में अना. के अन्त., द्रष्ट... आहच्चनियम पु., विशिष्ट स्वरूप का अथवा सुनिश्चित प्रकृति वाला नियम - एत्थ तस्मानपेक्खित्वा आहच्चनियम बुधो, तब्भावभाविमत्तेन, पच्चयत्थं विभावये, ना. रू. प. 730. आहच्चपच्चय पु., पट्ठा. में निर्दिष्ट विशिष्ट प्रकार के प्रत्यय, बुद्ध के सर्वज्ञता के ज्ञान के प्रभाववश विशिष्टरूप में उपदिष्ट पट्ठान-नय के 24 प्रत्यय - ट्ठ पु., विशिष्ट प्रकार के प्रत्यय (कारण) होने का तात्पर्य या आशय - द्वेन तृ. वि., ए. व. - आहच्चपच्चयटेन चतुवीसतिधा ठिता, ना. रू. प. 798; - द्विति स्त्री., पट्ठान में निर्दिष्ट प्रत्ययों की विशिष्टता अथवा विशिष्ट स्वरूप में रहने की स्थिति - ति प्र. वि., ए. व. - पटिच्च फलं एति एतस्माति पच्चयो, तिहति फलं एत्थ तदायत्तवृत्तितायाति ठिति, आहच्च विसेसेत्वा पवत्ता पच्चयसवाता ठिति आहच्चपच्चयद्विति, अभि. ध. वि. टी. 206; केचि पन “आहच्च कण्ठतालुआदीसु पहरित्वा वुत्ता विति आहच्चपच्चयट्टिती ति, तदे.; - तिं द्वि. वि., ए. व. - पट्टाननयो पन आहच्चपच्चयद्वितिमारब्भ पवच्चति, अभि. ध. स. 55; आहच्चपच्चयट्ठितिमारब्भ पवच्चतीति, अभि. ध. वि. टी. 206. आहच्चपद नपुं., स्वयं बुद्ध द्वारा निश्चित रूप से भासित, 1. वचन, प्रामाणिक वचन, उद्धरणीय बुद्धवचन, 2. कण्ठ आदि उच्चारण-स्थानों से ले आकर अपनी वाणी द्वारा भासित वचन - दं प्र. वि., ए. व. - आहच्चपदन्ति सुत्तं अधिप्पेतं, पारा. अट्ठ. 1.179; आहच्चपदन्ति भगवतो सब्ब तआणेन विसेसेत्वा उत्तवचनं, मि. प. टी. 28(रो.); कण्ठादिवण्णप्पवत्तिट्टानं आहच्च विसेसेत्वा भासितं पदं आहच्च पद, सारत्थ. टी. 2.40; कण्ठादिवण्णुप्पत्तिट्टानकरणादीहि आहरित्वा अत्तनो वचीवित्तियाव भासितवचनं आहच्चपदं, वि. वि. टी. 1. 104; - देन तृ. वि., ए. व. - आहच्चपदेन रसेन आचरियवंसेन अधिप्पाया कारणत्तरियताय, मि. प. 148. आहच्चपाठ पु., त्रिपिटक का पाठ, त्रिपिटक में उपलब्ध बुद्धवचन की पंक्ति - ठो प्र. वि., ए. व. - आहच्चपाठो निदस्सनं, सद्द. 1.147; अत्रायं आहच्चपाठो, सद्द. 3.829. आहच्चपाद पु., अलग किए जाने योग्य पायों वाला मंच या पलंग - दो प्र. वि., ए. व. - कुळीरपादो आहच्चपादो चेव मसारको, चत्तारो बुन्दिकाबद्धो तिमे मञ्चन्तरा सियु, अभि. प. 310; यस्स अटनिछिद्दे पादो पविसित्वा तिट्ठति, सो आहच्चपादो, अभि. प. टी. 310 (बर्मी). आहच्चपादक त्रि., ऐसा पलंग जिसके पायों को अलग कर पुनः जोड़ा जा सके, 4 प्रकार के पीठों में से अन्यतम पीठ, तोड़ने एवं जोड़ने योग्य पैरों वाला (मञ्च)- को प्र. वि., ए. व. - सोसानिको आहच्चपादको मञ्चो उप्पन्नो होति, चूळव. 275; कुळीरपादको आहच्चपादकोति, चूळव. अट्ठ. 76; आहच्चपादको नाम अटनियो विज्झित्वा अटनिछिद्दे पादसीसे सिखं कत्वा तं पवेसेवा अटनिया, विन. वि. टी. 1.314; - कं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - चत्तारि पीठानि - मसारकं बुन्दिकाबद्ध, कुळीरपादक, आहच्चपादक, पाचि. 60; - कंद्वि. वि., ए. व. - आहच्चपादकन्ति अङ्गे विज्झित्वा पवेसितपादक, कवा. अट्ठ. 198; " ... उपरिवेहासकुटिया आहच्चपादक मञ्च सहसा अभिनिसीदिस्सती ति, पाचि० 67; आहच्चपादक मञ्चं वेहासकुटियूपरि पीठं वाभिनिसीदन्तो, आपज्जति न भूमितो, उत्त. वि. 448; - के सप्त. वि., ए. व. - आहच्चपादके मञ्चे वा पीठे वा ठितो उपरि नागदन्तकादीसु, पाचि. अट्ठ. 43; आहच्चपादके मञ्चे, विन. वि. 1100; आहच्च पादके सीद, उत्त. वि. 85. आहच्चपाळि स्त्री., स्वयं बुद्ध द्वारा उपदिष्ट त्रिपिटक की पंक्ति - या तृ. वि., ए. व. - एकन्तपुमवाचकत्तञ्चस्स आहच्चपाळिया आयति, सद्द. 1.209. आहच्चमासित त्रि., निश्चित रूप से (त्रिपिटक में संगृहीत) स्वयं बुद्ध द्वारा कहा गया (वचन), बुद्ध का आत्मप्रत्यक्षवचन - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - अयं .... आहच्चभासिता जिनवचनभूता ... मातिका, ध. स. अट्ठ. 10; आहच्चभासिता सावकभासिताति दुविधा... मातिका, मो. वि. टी. 5; -- तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अत्तपच्चक्खवचनं न होतीति आहच्च भासितं न होतीति अधिप्पायो, वजिर. टी. 19;स्स ष. वि., ए. व. - आहच्चभासितस्स च दस्सनतो For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहच्चवचन 274 आहत ब्रह्महि .... सद्द. 1.157; रसेनाति तस्स आहच्चभासितस्स रसेन, ततो उद्धटेन विनिच्छयेनाति अत्थो, विनया. टी. 2.132; - ते सप्त. वि., ए. व. - तथा धजग्गसुत्तन्ते मुनिनाहच्चभासिते, सद्द. 1.8; - तानि नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - सम्मासम्बुद्धेन सामं आहच्चभासितानि, उदा. अट्ठ. 3-4; - ता पु..प्र. वि., ब. व. - आहच्चभासिता पयोगा, सद्द. 1.256. आहच्चवचन नपुं., [आहत्यवचन], समग्रवचन, विशिष्ट वचन, प्रामाणिक बुद्ध-वचन, मूल बुद्धवचन - नं प्र. वि.. ए. व. - तत्रिदं पठमत्थरस साधकं आहच्चवचनं, सद्द. 1.33; आहच्चवचन्ति भगवतो ठानकरणानि आहच्च अभिहन्त्वा पवत्तवचनं, नेत्ति. अट्ठ. 208; किं इदं सुत्तं आहच्च वचनं. नेत्ति. 20; - नेन तृ. वि., ए. व. - अयं सुत्तन्तो आहच्चवचनेन, जिनभासितो नाम जातो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).264. आहच्चाकारभेद पु., समस्त स्वरूपों का विभाजन, आकार के समग्र प्रभेद, कण्ठ आदि उच्चारणस्थानों के साथ वायु के सम्पर्क (स्पर्श) के आधार पर आकार के प्रभेदों जैसा प्रभेद - देन तृ. वि., ए. व. - आहच्चाकारभेदेन तिविधा हि विपस्सना, ना. रू. प. 1616. आहजति आ + Vहन के कर्म. वा. का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आहन्यते], प्रहार किया जाता है, पीटा जाता है, पीड़ित या व्यथित किया जाता है, पीट कर बजाया जाता है (सङ्गीत-वाद्य)-- हजतीति विहअति विघातं आपज्जति, अ. नि. अट्ठ. 3.34; - न्तु अनु०, प्र. पु.. ब. व. - आहअन्तु भेरिमुदिङ्गसङ्घ, जा. अट्ठ. 4.354; आहअन्तु सब्बवीणा, जा. अट्ठ. 6.295; आहअन्तूति वादियन्तु, जा. अट्ठ. 6.296; - मानं वर्त. कृ., आत्मने, पु., द्वि. वि., ए. व. - न पस्सथ ... मच्चुमाहञमानमखिलंसततं तिलोकं. तेल. 27. आहट त्रि., आ + Vहर से व्यु., भू. क. कृ. [आहृत], शा. अ., ले आया गया, लिया हुआ, गृहीत, प्रदत्त, ला. अ., उद्धृत, उल्लिखित, उद्धरणरूप में गृहीत - टो पु., प्र. वि., ए. व. - आहटो आभतानीता, अभि. प. 749; - छन्दारहानं छन्दो आहटो होति, महाव. 415; -टं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - "मुखद्वारं आहट इदं कवा. अट्ठ. 221; न अम्हहि किञ्चि आहटन उपाहट, पारा. अट्ठ. 2.127; इE | आहटन्ति विहारतो बहि आगतवाने आनीतं, वि. वि. टी. 2.166; मरणदुक्खं हरित्वा जीवितसखं आहट तेन में नापि बन्धो तपति, जा. अट्ठ. 3.331; आहट सामणेरेहि हिमवन्ता सुगन्धकं म. वं. 29.9; - टा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - आहटा होति परिसुद्धि, महाव. 151; - वेलातिक्कमनहेतु आहटा उरु उरुवेलाति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).76; अयं उपमा भगवता अत्तनो अत्थाय आहटा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).185; - टे नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - ताय भत्ते आहटे तयोपि एकतो भुजितुं निसीदिसु.ध. प. अट्ठ. 1.109; - टानि/टा नपुं.. प्र. वि., ए. व. - "आसनानि आहरथा... आहटानि होन्ति, पारा. अट्ठ. 2.136; सम्बुद्धपत्तं पूरेत्वा सुमनेनाहटा इध, म. वं. 20.10; - टेसु सप्त. वि., ब. व. - पूवेसु आहटेसु.ध. प. अट्ठ. 2.354; - त्त नपुं., भाव. [आहृतत्व], ले आया हुआ होना - त्ता प. वि., ए. व. - वराहरोति वरस्स मग्गस्स आहटत्ता वराहरोतिवुच्चति, __सु. नि. अट्ठ. 1.252; - टाहट त्रि., [आहृताहृत], पुनः पुनः लाया गया -- टं द्वि. वि., ए. व. - आहटाहट थेरासने वा ददेय्यु, महाव. अट्ठ. 380; - उपमा स्त्री., कर्म. स. [आहृतोपमा], गृहीत उपमा, कहीं अन्यत्र से ली गई उपमा - मं द्वि. वि., ए. व. - एवमेव अत्तनो ब्यत्तताय भगवता आहटउपमयेव, स. नि. अट्ठ. 2.2653; - काल पु., कर्म. स., लाए जाने का काल - ले सप्त. वि., ए. व. - रुञो असीनं आहटकाले असिं उपसिचित्वा, जा. अट्ठ. 1.435; - कारण नपुं, कर्म. स., प्राप्त कारण, सामने उपस्थित कारण - णं द्वि. वि., ए. व. - निगण्ठो अत्तनो वादभेदनत्थं आहटकारणमेव अत्तनो मारणत्थाय आवुधं तिखिणं करोन्तो. ... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2),1743; -धन नपुं०, कर्म. स., लाया हुआ धन - नं द्वि. वि., ए. व. - आभतधनञ्च, जा. अट्ठ. 6.195; पाठा. आभत.; - सप्पि नपुं., कर्म स.. लाया हुआ घी- प्पिं द्वि. वि., ए. व. - इदं किर सा आहटसप्पिं दत्वा, पाचि. अट्ठ. 180%; स. उ. प. के रूप में, अना., धजा., धम्मा., नागा., वाणिजा., वाता., सुका. के अन्त. द्रष्ट.. आहत त्रि., आ + Vहन का भू. क. कृ. [आहत], पीटा गया, दागा गया, मारा गया, काटा गया, पीड़ित, व्यथित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - नलाटे वा ऊरुआदीसु वा तत्तेन लोहेन लक्खणं आहतं होति, महाव. अट्ठ. 266; - तो पु०, प्र. वि., ए. व. -- आहतोपि न कुप्पेय्य, जा. अट्ठ. 7.193; सत्तिया दीहि चाहतो, सद्धम्मो., 187; भेरिसद्दो समाहतो, दी. वं. 15.21; - ता ब. व. - सत्ता विरुद्धा पटिविरुद्धा आहता पच्चाहता आघातिता पच्चाघातिता, महानि. 302: For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहतक 275 आहरक ते पु., सप्त. वि., ए. व. - आहते अमतभेरिम्हि वस्सन्ते धम्मवुट्ठिया, बु. वं. अट्ठ. 221; - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - नागलोकं व गरुळाहतं, चू, वं. 75.38; स. उ. प. के रूप में, अक्खा., इच्छा., कसा., तक्का., तिलका., दब्बा., लक्खणा., वाटा., वितक्का., सत्तिसता. के अन्त. द्रष्ट; -- समब्माहत त्रि., पुनः पुनः अथवा अत्यधिक प्रहार किया गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - पासाणादीसु आहतसमभाहतो भिज्जित्वा, स. नि. अट्ठ. 3.83; - ताहतवान नपुं., कर्म. स. [आहताहतस्थान], बार बार चोट पुहंचाया गया स्थान, पुनः पुनः प्रहार किया गया स्थान – ने सप्त. वि., ए. व. - खीररुक्खस्स कुठारिया आहताहतवाने खीरं न निक्खमिस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.178. आहतक त्रि., आ + Vहर से व्यु., क. ना. [आहृतक], शा. अ. कहीं से पकड़कर लाया हुआ, ला. अ., एक प्रकार का भृत्य, कर्मचारी, सेवक - को पु., प्र. वि., ए. व. - कम्मकारो नाम भटको आहतको, पाचि. 301; आहतकोति आनीतो, नियतकोति अधिप्पायो, वजिर. टी. 325. आहतचित्त त्रि., ब. स. [आहतचित्त], व्यथित अथवा पीड़ित चित्त वाला, विपत्तिग्रस्त, विपन्न - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - कुपितो अनत्तमनो अनभिरद्धो आहतचित्तो खिलजातो, पारा. 255; पटिघेन आहतं चित्तमस्ससाति आहतचित्तो, पारा. अट्ठ. 2.154; - त्ता ब. व. - दुट्ठमना आहतचित्ता, महानि. 44; पाठा. आहतमना; - त्ते पु., द्वि. वि., ब. व.. - जरादीहि ब्यारुद्ध आहतचित्ते सत्ते दिस्वा. स. नि. अट्ट. 2.258; - ता स्त्री॰, भाव., चित्त का पीड़ित होना अथवा राग आदि से ग्रस्त रहना, प्र. वि., ए. व. -- तं हेतु तप्पच्चया तं निदानं मुनिनो आहतचित्तता खिलजाततापि नत्थि, महानि. 45; - तं द्वि. वि., ए. व. - सब्रह्मचारीसु आहतचित्ततं खिलजाततं पभिन्देय्य, महानि. 381; स. उ. प. के रूप में अना के अन्त. द्रष्ट... आहत्तु त्रि., आ + Vहर से व्यु., क. ना. [आहर्तृ], आहर्ता, लाने वाला - त्ता पु., प्र. वि., ए. व. - अहं नेसं जीविकाय दाता, यसस्स आहत्ता, म. नि. 2.333. आहनति/आहन्ति आ + Vहन का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आहन्ति], 1. पीटता है, प्रहार करता है, तोड़ता-फोड़ता है, हत्या करता है, प्राण लेता है, 2. टपकाता है, गिराता है - भित्तिं आहनति, पाचि. अट्ठ. 43; तत्थ आहनति चित्तन्ति "आघाता, दी. नि. अट्ठ. 1.49; - नेय्यु विधि., प्र. पु., ब. व. - यथा सचे खीररुक्खे कुठारिया आहनेय्यू. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.178; - नन्तं वर्त. कृ., पु., द्वि. वि., ए. व. - आहनन्तं धम्मभेरि, अप. 2.43; -नि अद्य.. प्र. पु., ए. व. - अमतभेरिमाहनि, अप. 1.46; वारिमादाय वारिपिद्वियमाहनि, म. वं. 30.12; - निं उ. पु., ए. व. - विसिट्ठमधुनादेन अमतभेरिमाहनि, अप. 1.6; - ञ्चं/छं भवि., उ. पु., ए. व. - अहम्हि अरहा लोके ... आहञ्छ अमतदुन्दुभि, महाव. 11; म. नि. 1.230; आहञ्छ अमतदुन्दुभिन्ति धम्मचक्कपटिलाभाय अमतभेरि पहरिस्सामीति गच्छामि, महाव. अट्ठ. 236; वजिर. टी. 366; आहञ्छन्ति आहनिस्सामि, सारत्थ. टी. 3.149; - नित्वा/त्वान पू. का. कृ. - धम्मभेरिं आहनित्वा धम्मनगरं मापेत्वा, बु. वं. अट्ठ. 178; वासिय आहिनित्वान, म. वं. 28.33. आहनन नपुं, क्रि. ना., आ + रहन से व्यु. [आहनन]. प्रहार करना, पीटना, हत्या कर देना - नं प्र. वि., ए. व. - आदितो अभिमुखं वा हननं आहननं, सारत्थ. टी. 1.314; विसुद्धि. महाटी. 1.156; - नेन तृ. वि., ए. व. -- तेन आहननेन भित्ति कम्पति, पाचि. अट्ठ. 43; कसा. अट्ठ. 199; - परियाहननरस त्रि., ब. स., घात-प्रतिघात को अपने सार-तत्त्व के रूप में रखने वाला, घात-प्रतिघात का काम करने वाला - सो पु., प्र. वि., ए. व. - स्वायं आरम्मणे चित्तस्स अभिनिरोपनलक्खणो, आहननपरियाहननरसो, पारा. अट्ठ. 1.106; आहननपरियाहननरसो, अभि. अव. 20; स्वायं आहननपरियाहननरसो, ध. स. अट्ठ. 160; - सेन त. वि., ए. व. - अभिनिरोपन लक्खणेन पन आहननपरियाहननरसेन वितक्केन आकोटेन्तेन विय, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2). 257; - सील त्रि., ब. स., आघात करने के स्वभाव से यु क्त - लो पु., प्र. वि., ए. व. - आहननसीलो आघातुको, करणसीलो कारुको, क. व्या. 538. आहर त्रि., आ + हर से व्यु., केवल स. उ. प. में ही प्राप्त [आहर], वापस लाने वाला, छीन कर ले जाने वाला, अभतीता., धना., धातुका., वरा., सब्बकामरसा. के अन्त. द्रष्ट.. आहरक त्रि., आ + Vहर से व्यु.. [आहरक], लाने वाला, पास में ले आने वाला, छीन कर ले आने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अलद्धस्स वा रज्जस्स आहरको, जा. अट्ठ. 5.113; - का ब. क. - सब्बेसं कामरसानं आहरका, जा. अट्ठ 5.449; स. उ. प. के रूप में, भण्डा. के अन्त. द्रष्ट.. For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहरण 276 आहरति आहरण नपुं., आ + हर से व्यु., क्रि. ना. [आहरण], ले आना, प्राप्त करना, उपलब्ध करना - णं प्र. वि., ए. व. -- आवाहोति दारकस्स परकुलतो दारिकाय आहरणं, पारा. अट्ठ. 2.126; आहरणं आहारो, सारत्थ. टी. 2.289; - णेन तृ. वि., ए. व. - पटिसन्धिविआणस्स आहरणेन मनोसञ्चेतना आहारोति वुत्ता, अ. नि. टी. 3.301; स. उ. प. के रूप में उदका, उपमा., धना., धाता., सत्था०, सुत्ता. के अन्त. द्रष्ट.. आहरणक' त्रि., आहरण से व्यू., लाने वाला, उधर से इधर पहुंचा देने वाला, सन्देशवाहक, हलकारा - को पु., प्र. वि., ए. व. - सासनपटिसासनम्पि नो आहरणको न भविस्सति, दी. नि. अट्ठ. 2.240; आहरियोति आहरणको, जा. अट्ठ. 3.288; - का ब. व. - सब्बेसं कामरसानं आहरका, जा. अट्ठ. 5.449; - वानर पु., ढोकर लाने वाला बन्दर - रा प्र. वि., ब. व. - मधुरानि फलाफलानि मातया पेसेन्ति, आहरणकवानरा तस्सा न देन्ति, जा. अट्ठ. 2.168; स. प. के अन्त.; भत्ता. पत्ता. - नपुं., भात को लाने वाला पात्र, भोजनपात्र - त्तं द्वि. वि., ए. व. - "भत्ताहरणकपत्तं देथा ति, चूळव. अट्ठ. 95. आहरणक' त्रि., आहरण से व्यू., आहर्ता अथवा ले आने वाले व्यक्ति द्वारा लाया गया, आहृत, लाया गया - कं पु.. द्वि. वि., ए. व. - “मे भरिया ममत्थाय आहरणकं आहारं थेरस्स पत्ते पतिठ्ठपेय्या ति, अ. नि. अट्ट, 1.329. आहरणमङ्गल नपुं.. वधू को वर के घर पर ले आने के उपलक्ष्य में किया जाने वाला मांगलिक अनुष्ठान, विवाह का मांगलिक पर्व – लं प्र. वि., ए. व. - आहरणमङ्गलं आवाहनमङ्गलं, म. वं. टी. 260(रो.). आहरणूपाय पु., तत्पु. स. [आहरणोपाय]. पुनः प्राप्त करने अथवा पुनः वापस ले आने का उपाय - यो प्र. वि., ए. व. - तत्रायं आहरणूपायो, पारा. अट्ट. 2.26; “महाराज महाजनं अकिलमेत्वाव आहरणपायो अत्थीति, जा. अट्ठ. 1.366. आहरति आ + Vहर (ले आना) का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आहरति], शा. अ., ले आता है, (अन्यत्र से) ले आता है, ला. अ.. 1. प्राप्त करता है, उपलब्ध करता है, ला कर (भीतर में) रख देता है, जा पहुंचाता है (भोजन) ग्रहण करता है, प्रवेश कराता हे - मनुस्सो भोजनीयं वा खादनीयं वा आहरति, पाचि. 241; - रामि उ. पु., ए. व. - "कुतो पनाहं, भोति, तेलं आहरामिः उदा. 83; आहरामि ततो दिस्वा, थेरगा. 430; - न्ति प्र. पु., ब. व. - आहरन्ति मधु दुवे, म. वं. 5.49; - रेय्य विधि. प्र. पु., ए. व. – “यो पन भिक्खु अदिन्नं मुखद्वारं आहारं आहरेय्य ... पाचित्तियान्ति, पाचि. 124; आहरेय्याति मुखद्वारं पवेसेय्य, सारत्थ. टी. 3.63; - रेय्यासि म. पु., ए. व. - त्वं मम तिणं आहरेय्यासि, जा. अट्ठ. 6.179; - रेय्यं उ. पु., ए. व. - यन्नूनाहं सालिं आहरेय्यं सकिंदेव..., दी. नि. 3.66; - र अनु., म. पु., ए. व. - पिण्डाय चे चरं सप्पिं लभसे त्वं तमाहर, म. वं. 5.217; हत्थिक्खन्धे ठपेत्वा ता धातुयो इध आहर म. वं. 20.11; - न्तु प्र. पु.. ब. क. - सहस्सं आहरन्तु मे, जा. अट्ठ. 7.118; - थ म. पु., ब. व. - सुवण्णभिकारं आहस्थ, पे. व. अट्ठ. 64; "सीघं दारुआदीनि आहरथा"ति, ध. प. अट्ठ. 1.106; - रीयतु कर्म. वा. में अनु., प्र. पु., ए. व. - "किं ते, अय्ये, अफासु, किं आहरीयतू ति, पाचि. 336; - रिस्सामि भवि.. उ. पु., ए. व. - ... "अरञतो आहरिस्सामी ति, पारा. अट्ठ. 2.2753; आहरिस्सामीति आनयिस्सामि, बु. वं. अट्ठ. 188; भत्तमस्स आहरिस्सामी ति, ध. प. अट्ठ. 1.296; - रिस्सन्ति प्र. पु.. ब. व. - “एत्थेव ते आहरिस्सन्तीति, म. नि. 2.50; भिक्खं ते नाहरिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 3.288; - स्साम उ. पु., ब. व. - खादनीयं भोजनीयं आहरिस्सामाति पटिसंविदितं. पाचि. अट्ठ. 147; - रि अद्य०, प्र. पु., ए. व. - उदक आहरि, पारा. अट्ट, 1.31; धारणीयं आहरि दी. नि. 2.101; - रिंसु ब. व. - तयो मणी आहरिंसु, दी. वं. 11.20; छद्दन्तदहतो येव आहरिंसु दिने दिने, म. वं. 5.29; - रिम्ह उ. पु., ब. व. -- आहरिम्ह समागम, अप. 2.264; - रन्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - किमेवाहं विहआमि सालिं आहरन्तो, दी. नि. 3.66; - रित्वा पू. का. कृ. - पिण्डपातं आहरित्वा अनोतत्तदहे परिभुजित्वा .... महाव. 33; सीघं सीघं मत्तिकं आहरित्वा, पारा. अट्ठ. 1.62; तं काजेन आहरित्वा, भाजनं करित्वा, म. नि. 2.252; - रितब्बं सं. कृ., नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - वत्तसीसेन आहरितब्ब, पारा. अट्ठ. 2.60; - रितुं निमि. कृ. - इदानिम्हि सत्थं आहरितुं अभब्बो जातो, ध. प. अट्ठ. 1.388; - रापेतुं प्रेर, निमि. कृ., लाने हेतु प्रेरित करने के निमित्त - दिन्नगामतो आयं आहरापेतुं पुरिसे पेसेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.293; ला. अ., 2.क. पालन-पोषण करता है, पुष्टि देता है, 2.ख. उत्पन्न करता है, उद्भव करता है, अपने साथ लाता है - आहरतीति आहारो, विसद्धि. 1.332; For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहरति 277 आहरापित आहरतीति आहारोति अयं पनत्थो निब्बत्तितओजावसेन वेदितब्बो, विसुद्धि. महाटी. 1.391; सो (पच्चयो) च यं यं फलं जनेति तं तं आहरति नाम, तस्मा आहारोति वुच्चति, अ. नि. अट्ठ. 3.300; - रीयति कर्म. वा., वर्त, प्र. पु., ए. व. - आहरीयतीति आहारो .... ध. स. अट्ठ. 361; ला. अ., 3. (स्वयं का हनन करने हेतु शस्त्र को) लेता है, ग्रहण करता है (अर्थात् आत्महनन करता है)रेसि अद्य., प्र. पु., ए. व. - मा आयस्मा छन्नो सत्थं आहरेसि, स. नि. 2(2).63; सत्थं आहरेसीति जीवितहारकसत्थं आहरि, आहरित्वा कण्ठनाळं छिन्दि, स. नि. अट्ठ. 3.19; - रिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - "सत्थं, आवसो सारिपुत्त, आहरिस्सामि, नावकङ्खामि जीवितान्ति, म. नि. 3.317; - रितं भू. का. कृ., नपुं., प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन आयस्मतो गोधिकेन सत्थं आहरितं होति, स. नि. 1(1).142; सत्थं आहरितं होतीति थेरो किर "किं मह इमिना जीवितेनाति ? उत्तानो निप्पज्जित्वा सत्थेन गळनाळि छिन्दि, स. नि. अट्ठ. 1.162; - रेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - यंनूनाहं सत्थं आहरेय्यन्ति, स. नि. 1(1).142; - तुकामो पु०, प्र. वि., ए. व., शस्त्र ग्रहण करने की इच्छा कर रहा - तस्मा सत्थं आहरितुकामो अहोसि, स. नि. अट्ठ. 1.161; ला. अ., 4. भीतर से निकालता या बाहर ले आता है, बाहर निकालता है, खींच कर बाहर ले आता है, वापस ले आता है, दूर ले आता है, हटा देता है, वापस कर देता है, सुरक्षित कर लेता है - र अनु., म. पु., ए. व. - तमेनं राजा एवं वदेय्य, दधिस्स मे रसं आहर.... मि. प. 66; "आहर में, भन्ते, भण्डिक नाहं अकल्लको ति, पारा. 73; - रितुं निमि., कृ. - तेसं रसानं... विनि जित्वा रसं आहरितुं ..., मि. प. 66; - रिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - तव जीवितं आहरिस्सामि, जा. अट्ठ. 3.158; ला. अ., 5. कहीं अन्यत्र से ले आता है, उदधृत करता है, परम्परा अथवा बुद्धवचन को उदधृत करता है, कहता है, पाठ करता है - रामि वर्तः, उ. पु., ए. व. - भो गोतम, मव्ह एका उपमा उपट्ठाति, आहरामि तं उपमन्ति वदति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).173; - र/राहि अनु., म. पु., ए. व. - “सो सुत्तं आहराति वत्तब्बो, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.10; "सुत्तं आहराही ति, अ. नि. अट्ठ, 3.346; - थ म. पु., ब. व. - ते पनेवं तु वत्तब्बा “सुत्तं आहरथा ति हि, अभि. अव. 659; - रिस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - इदमेव आहरिस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.10; - रिस्सं/रिस्सामि उ. पु., ए. व. - अत्थरस साधकं एत्थ पालिप्पदेसन्तु आहरिस्सं सद्द. 1.33; आहरिस्सामि सत्तं, सद्द. 1.114; -रि अद्य., प्र. पु., ए. व. - अतीतं आहरि, जा. अट्ठ. 1.404; सो हि भगवा ... पुब्बकेहि सम्मासम्बुद्धेहि अनुयातं पुराणमग्गवरमाहरि खु. पा. अट्ठ. 153; उपमं आहरि, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).173; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - कुलवंसं आहरन्तो, दी. नि. अट्ठ. 1.208; - रियमान त्रि., कर्म. वा. का वर्त. कृ., आत्मने. - नासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - इमस्मि पन ठाने आहरियमानासु ... सब्बं पाकट होति, विसुद्धि. 2.300; - रित्वा/रित्वान पू. का. कृ. - इमस्स अतीतकारणं आहरित्वा सोकं खूपसमेत्वा ..., पे. व. अट्ठ. 33; थेरो ... दसबलस्स अपचितिदस्सनत्थं "सेय्यथापि आवसो पुरिसो सारत्थिको सारगवेसी ति सारोपमं आहरित्वा ..., ध. स. अट्ठ. 6; - रितुं निमि. कृ. - ... इमा च उपमा भयतुपट्ठानतो पभुति यत्थ कत्थचि आणे ठत्वा आहरितुं वट्टेय्यु, विसुद्धि. 2.300. आहरहत्थ त्रि., ब. स., दूसरे को सहारा देने हेतु अथवा अपनी ओर लाने हेतु हाथ को फैलाने वाला - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - स्वायं आहरहत्थो ककुधो, महाव. 34; भन्ते, आहरहत्थान्ति एवं वदन्तो विय ओणतोति आहरहत्थो, महाव. अट्ठ. 242. आहरहत्थक त्रि., दूसरे को ऊपर उठाने के लिए "मेरा हाथ ले लो” कहने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - आहरहत्थको नाम वहुं भुजित्वा अत्तनो धम्मताय उट्ठातुं असक्कोन्तो आहरहत्थान्ति वदति, महानि. अट्ठ. 276; स. प. के अन्त., - आहरहत्थकतत्रवट्टक अलंसाटककाकमासकभुत्तवमितकभोजनं भुजित्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).294; महग्घसो चाति महाभोजनो आहरहत्थक ... अञ्जतरो विय, ध. प. अट्ठ. 2.290. आहरापन नपुं, आ + Vहर के प्रेर. से व्यु., क्रि. ना., ले आने के लिए प्रेरित करना, वापस बुलवाना, उपलब्ध या प्राप्त कराना - नं प्र. वि., ए. व. - अपराधानुरूप उदकदारुवालिकादीनं आहरापनम्पि कातब्बन्ति वुत्तं, महाव. अट्ठ. 279. आहरापित त्रि., आ + Vहर के प्रेर. का भू. क. कृ., वापस बुलवाया गया या प्राप्त कराया गया - तं पु., द्वि. वि., ए. व. - आहरापितञ्च गोणं रक्खित्वा, पारा. अट्ठ. 2.136. For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहरापेति 278 आहरिय्यति आहरापेति आ + Vहर का प्रेर., वर्त, प्र. पु., ए. व. [आहारयति], आहरण कराता है, ले आने, प्राप्त करने या उपलब्ध करने को प्रेरित करता है, छिनवाता है, आज्ञा अथवा आदेश कराता है, वापस बुलवाता है - दण्डं आहरापेति, मू. प. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).386; राजा तस्स धनं आहरापेति, महानि. 297; - न्ति ब. व. - जीवग्गाहं गहेत्वा आहरापेन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).370; -- पेहि अनु., म. पु., ए. व., उसे वापस बुलवाओ - तं आहरापेहि, पाचि. अट्ठ. 171; -- पेथ ब. व. - "अवहटभण्डञ्च आहरापेथा ति, पाचि. अट्ठ. 171; "उदकं आहारापेथा ति आह, ध. प. अट्ठ. 2.360; "तेन हि आहारापेथा ति आह, बु. वं. अट्ठ. 320; - य्यासि विधि., म. पु., ए. व. - "यं इच्छेय्यासि तं आहरापेय्यासीति, पाचि. 338; - य्याथ म. पु., ब. व. - द्वे कम्बलानि आहरापेय्याथा ति, ध. प. अट्ठ. 2.2; - पियतु कर्म. वा., अनु., प्र. पु., ए. व., (ग्रहण कराया जाए)-- आहरापियतु गण्हियतु, दी. नि. अट्ठ. 2.235; - पेन्तो वर्त. कृ., पु., प्र.. वि., ए. व. - सङ्घो आहरापेन्तो ... सञआपेतब्बो, पारा. अट्ठ. 1.312; अत्तनो जीवितं आहरापेन्तो.... जा. अट्ठ. 7.206; - न्तस्स ष. वि., ए. व. - चत्तारो पच्चये आहरापेन्तस्स, पारा. अट्ठ. 2.60; - पेसि/पयि अद्य., प्र. पु., ए. व. - तिणं आहरापेसि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.203; लसुणं आहरापेसि, जा. अट्ठ. 1.453; राजा तानाहरापयि, म. वं. 22.64; सब्बाणि आहरापयि, म. वं. 28.43; - स्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - मूलं आहरापेस्सति, ध, प. अट्ठ. 2.398; - स्सामि/स्सं उ. पु., ए. व. - नामं आहरापेस्सामि, जा. अट्ठ. 1.384; इट्ठका अहरापेस्स-म. वं. 30.15; - स्सन्ति प्र. पु., ब. व. - "किं नु आहरापेस्सन्तीति, पारा. अट्ठ. 2.137; - स्साम उ. पु., ब. व. - "बहधनं आहरापेस्सामा ति, स. नि. अट्ठ. 3.57; - पेतु निमि. कृ. - आहरापेतुं न वट्टति, पारा. अट्ठ. 2.136; किं पेसेत्वा आहरापेतुं, जा. अट्ठ. 2.17; - पेत्वा पू. का. कृ. - आहरापेत्वा अग्घापेसि, पारा. 80; - पेतब्बं सं. कृ., नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - अरञतो भेसज्ज अहरापेन्तेन जातिसामणेरेहि वा आहरापेतब्ब, पारा. अट्ठ. 2.60. आहरित त्रि., आ + Vहर का भू. क. कृ. [आहृत], ले आया गया, प्राप्त कर लिया गया, उपलब्ध कर लिया गया, आत्महत्या की गई (सत्थं के साथ प्रयुक्त होने पर)- तं नपं., प्र. वि., ए. व. - छन्नेन भिक्खना सत्थं आहरितान्ति, स. नि. 2(2).66; तस्मिं खणे थेरेन सत्थं आहरितं होति, ध. प. अट्ठ. 1.243; सुखमाहरितं तेसं येसं रज्जमकारयिं, जा. अट्ठ. 3.330. आहरितब्ब त्रि., आ + Vहर का सं. कृ. [आहर्तव्य], ले आए जाने योग्य, कहीं दूसरी जगह से लाकर रखने योग्य, ले आया जाना चाहिए, लाकर रख दिया जाना चाहिए - ब्बो पु., प्र. वि., ए. व. - पाठसेसो आहरितब्बो, सु. नि. अट्ठ. 2.97; - ब्बा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - तस्मा इधेव आहरितब्बाति वुत्ता, विसुद्धि. 2.300; -ब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - "ननु लोणमेव आहरितब्बन्ति , मि. प. 67. आहरिम त्रि., आ + Vहर से व्यु., आकर्षक, हृदयावर्जक, मनोरम – मं पु., द्वि. वि., ए. व. - आहरिमं सोभाविसेस दरसेति, वि. व. अट्ठ. 12; - मेन तृ. वि., ए. व. - आहरिमेन रूपेन, न मंत्वं बाधयिस्ससि, थेरीगा. 300; -- मेहि ब. व. - पल्लङ्को नाम आहरिमेहि वाळेहि कतो होति, पाचि. 409; – जटाधर त्रि., मनोरम जटाओं को धारण करने वाला - रो पु., प्र. वि., ए. व. - जटिलोति आहरिमजटाधरो तापसो, सारत्थ. टी. 3.297; स. उ. प. के रूप में, अना के अन्त. द्रष्ट.. आहरिय त्रि., [आहारिक], लाने वाला, ढोने वाला - यो पु., प्र. वि., ए. व. – "भिक्खञ्च ते आहरियो नरो इध सुदुल्लभो हेहिति भक्खिते मयी,ति जा. अट्ठ. 3.288. आहरिय्यति/आहरीयति आ + Vहर के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [आहियते], 1. लाया जाता है, प्राप्त किया जाता है, उपलब्ध कराया जाता है - परिवारो आहरिय्यति, पाचि. 241; योजनतोपि अड्ढयोजनतोपि आहरीयति, पारा. अट्ठ. 1.313; 2. खाया जाता है, (के अन्दर) लाकर रख दिया जाता है, स्वीकार किया जाता है, ग्रहण किया जाता है – रियतु अनु०, प्र. पु., ए. व. – “को भन्ते गिलानो, कस्स किं आहरियतूति, महाव. 293; "इमिना किं आहरिय्यतूति, पारा. 357; "पानीयं भन्ते आहरियतू ति, महाव. अट्ठ. 249; - तं - अनु०, प्र. पु., ए. व. भोतो यावतकेन अत्थो तावतकं आहरीयतन्ति, दी. नि. 2.179; तावतकं आहरीयतन्ति तावतकं आहरापियतु गण्हियतु, दी. नि. अट्ठ. 2.235; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ए. व., क. खा रहा - ओळारिकं आहारं आहरियमानो किं सक्खिस्सति, जा. अट्ठ. 1.77; - नं द्वि. वि., ए. व. - विगतमदं आहारं आहरयमानं इमिनापङ्गेन समन्नागतं, दी. नि. 2.164; ख. कर्म. वा. में, स्वीकार किया जा रहा - For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहरेति 279 आहार नो पु.. प्र. वि., ए. व. - दिट्ठो मे भगवा ... तुम्हाकं सक्कारो आहरियमानो, अ. नि. अट्ट, 1.189; - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - 'इदं उदकं उभयतो आहरियमान स. नि. अट्ट, 1.62; सो पन तं आहरियमानं दिस्वा मुखं पिधेति, जा. अट्ठ. 5.266; - यित्थ अद्य., प्र. पु., ए. व. - "आहरियित्थ भिक्खु ति? "आहरियित्थ भगवा ति, महाव. 294; ते भत्तं आहरियित्थ, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.4; - यिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - "सुट्ठ, अय्य आहरियिस्सती ति. महाव. 293; भत्ताभिहारो आहरीयिस्सति, स. नि. 1(2).218. आहरेति/आहारेति आ + हर का प्रेर., अर्थ में प्रेर. का अभाव [आहारयति, भिन्नार्थक]. 1. ग्रहण करता है, भोजन ग्रहण करता है, खाता है, वर्त, प्र. पु., ए. व. - आहारं आहारेति, जा. अट्ठ. 1.112; - रेम उ. पु., ब. व. ---- मयं अनासका न किञ्चि आहारेमाति जा. अट्ठ, 5.232-233; 2. आत्महत्या करता है, (सत्थं के साथ प्रयुक्त होने पर) - रिस्सति भवि., प्र. पु., ए. व. - सत्थं आहरिस्सती ति. स. नि. 2(2).64; - सि, अद्य०, प्र. पु., ए. व. - सत्थं आहरेसि, स. नि. 2(2).65; सत्थं आहरेसीति... कण्ठनालं छिन्दि, स. नि. अट्ठ. 3.19. आहव पु.. [आहव], युद्ध, रण, संग्राम – वो प्र. वि., ए. व. - आजित्थी आहवो युद्धमायोधनं च संयुगं, अभि. प. 399; - वं द्वि. वि., ए. व. - करोन्तो तेन आहवं ... कस्सपेन... हतो मरि.... चू. वं. 44.152-153;-वे सप्त. वि., ए. व. - निरुस्साहं पलापेसि सेनगम सेसमाहवे, चू, वं. 72.13; "हवेति आहवे युद्धति अत्थं वदन्ति, उदा. अट्ठ. 36; स. उ. प. के रूप में, पुना., महा. के अन्त. द्रष्ट.. आहवन नपुं., आ + vहु से व्यु., क्रि. ना. [आहवन], आहुति देना, हवन करना दान, सम्मान - नं' द्वि. वि., ए. व. - सक्कादीनम्पि वा आहवनं अरहतीति, आहवनीयो, सारत्थ. टी. 2.69; विसुद्धि. 1.211; - नं प्र. वि., ए. व. - आहवनन्ति सक्कादीहिपि दिय्यमानं दानं, विसुद्धि. महाटी. 1.264. आहवनीय त्रि., आ + vहु का सं. कृ. [आहवनीय]. आहुतियां डालने योग्य (पवित्र अग्नि) - यो पृ., प्र. वि., ए. व. - गाहपच्चावहणीयो दक्खिणगि तयोग्गयो, अभि. प. 419; पाठा. आहवण; ब्राह्मणानं आहवनीयो नाम अग्गि, इतिवु. अट्ठ. 252. आहवनीयग्गि पु., कर्म स. [आहवनीयग्नि], हवन करने योग्य अथवा आहुति देने योग्य पवित्र अग्नि - म्हि सप्त. वि., ए. व. - आहवनीयग्गिम्हि हुतं दधिआदि, विसुद्धि. महाटी. 1.264. आहार पु., एक स्थल पर नपुं, आ + Vहर से व्यु. [आहार]. शा. अ., भोजन, ला. अ.,1. शरीर को पोषित करने वाला तत्त्व, जीवन का आधार, प्राणियों की स्थिति का आश्रयभूत तत्त्व, कारण, ईंधन, 2. स्पर्श, संचेतना आदि मानसिक क्रियाएं, सूक्ष्म मानसिक आहार – रो प्र. वि., ए. व. - अथासनं आहारो भोजनं घासो, अभि. प. 465; आहारो कवलिङ्काराहारादिसु च कारणे, अभि. प. 856; आहारन्ति यकिञ्चि यावकालिकं वा यामकालिकं वा सत्ताहकालिक वा यावजीविकं वा, सब्बतं अज्झोहरणीयत्ता आहारोति वुच्चति, कसा. अट्ठ. 220; सब्बसत्तानम्पि ठितिहेतु आहारो नाम एको धम्मो, अ. नि. अट्ठ. 3.300; तत्थ आहरतीति आहारो, विसुद्धि. 1.332; - रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - योगावचरस्स... दुल्लभं उदरपरिपूरं आहार मि. प. 378; आहारन्ति पच्चयं, पच्चयो हि आहरति अत्तनो फलं तस्मा "आहारोति वुच्चति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).215; ---रं द्वि. वि., ए. व. - ओळारिक आहारं आहारेसिं. म. नि. 1.315; अयं कायो आहारहितिको, आहारं पटिच्च तिट्ठति, स. नि. 3(1).82; असितपीतखायितसायितवसेन चतुबिध म्पि आहारं दस्सेति, पे. व. अट्ठ. 21; - रेन तृ. वि., ए. व. - आहारेन सम्भूतो आहारं निस्साय वढितो, अ. नि. अट्ठ. 2.338; - तो प. वि., ए. व. - "आहारतो च उतुतो ... सत्त वित्थारेन विपस्सती ति, विसुद्धि. 2.252; - रे सप्त. वि., ए. व. - आहारे उदरे यतो, स. नि. 1(1).202; आहारे पटिकूलसझं उपट्टपेत्चा, दी. नि. अट्ठ. 1.156; - रा प्र. वि., ब. व. - उपादिन्नकापि अनुपादिन्नकापि आहारा मिस्सेत्वा कथिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1),222; आहारा चस्स परिजं गच्छन्ति, नेत्ति. 28; कतमे तस्मि समये तयो आहारा होन्ति?- फस्साहारो, मनोसञ्चेतनाहारो, विआणाहारो, ध. स. 32; चत्तारो आहारा तण्हानिदाना, तहासमुदया, तण्हा जातिका तण्हापभवा, म. नि. 1.331; किं पञ्च आहारा अत्थीति ? पञ्च, न पञ्चाति इदं न वत्तब्ब, ननु “पच्चयो आहारोति वृत्तमेतं, अ. नि. अट्ठ. 3.301; दसन्नं धम्मानं इट्टानं कन्तानं मनापानं दुल्लभानं लोकस्मि दस धम्मा आहारा, अ. नि. 3(2).113; ओजदमकरूपादयो आहरन्तीति आहारा, अभि. ध. वि. टी., For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहारकाल 280 आहारत्थिक 198; - रानं ष. वि., ब. व. - आहारानं निरोधेन, नत्थि दुक्खस्स सम्भवो, सु. नि. 752; स. उ. प. के रूप में, अड्डकोसका., अद्धवेलुवा., अना., अप्पा., उतु., उतुचित्ता., उपादिन्नका., एवमा., कवलिङ्कारा., कोसका., तदा., निप्परियाया., निरा., पच्चया., परित्ता., परियाया., फस्सा., बेलुवा., मग्गा., मनोसञ्चेतना., मिता., मिस्सका., यदा., लक्खा., वनमूलफला., विआणा., विसा., समन्ना., साला., सा., सुखा., सङ्घा. के अन्त. द्रष्ट... आहारकाल पु., तत्पु. स. [आहारकाल], भोजन लेने का समय - लं द्वि. वि., ए. व. - खिड्डावसेन आहारकालं अतिवत्तेत्वा कालं करोन्ति, सारत्थ. टी. 3.191; दी. नि. अट्ठ. 3.160. आहारकिच्च नपुं., तत्पु. स. [आहारकृत्य], भोजन ग्रहण करने का काम, भोजन-क्रिया, उदरपूर्ति का काम – च्चं' प्र. वि., ए. व. - न आहारकिच्चं अहोसि, जा. अट्ठ. 1.89; च्च द्वि. वि., ए. व. उपत्थम्भनादिवसेन आहारकिच्चं साध यिमानेसु पनेतेसु चत्तारि भयानि दट्ठबानि, स. नि. अट्ठ. 2.24; कबळीकाराहारं... आहारकिच्चं साधेति, अ. नि. अट्ठ. 3.301. आहारगिद्ध त्रि., तत्पु. स., आहार अथवा भोजन के प्रति लोभ-लालच रखने वाला, सांसारिक लाभ के प्रति लोभ करने वाला -द्धो पु०, प्र. वि., ए. व. - आहारगिद्धो लाभसक्कारप्पसुतो विचरति, थेरगा. अट्ठ. 1.266. आहारगेध पु., आहार-विषयक लोभ, भोजन के लिए दृढ़ इच्छा -धेन तृ. वि., ए. व. - अयं ब्राह्मणो आहारगेधेन मंदाने नीयोजेसी ति मञति, थेरगा. अट्ठ. 1.266. आहारगेधी त्रि., आहार के प्रति लालच करने वाला, सांसारिक सुख के प्रति आसक्त - धिनो पु., प्र. वि., ब. व. - गच्छाम छाता आहारगेधिनो, पे. व. 788. आहारचिन्ता त्रि., तत्पु. स. [आहारचिन्ता], भोजन के विषय में चिन्ता - य ष. वि., ए. व. - अप्पचिन्तायाति "अज्ज कहं आहारं लभिस्सामि, स्वे कह"न्ति एवं आहारचिन्ताय अभावेन, जा. अट्ठ. 3.275; - रहित क्रि, भोजन की चिन्ता से मुक्त, - तानं पु., ष. वि., ब. व., अप्पचिन्तसुखस्साति आहारचिन्तारहितानं अप्पचिन्तानमरियानं सुखं अस्सत्थीति अप्पचिन्तसुखो, तस्स तादिसेन सुखेन समन्नागतस्स, जा. अट्ठ. 3.275. आहारज त्रि., आहार से उत्पन्न – जं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - आहारतो जातं आहारज, विसुद्धि. 2.78; सुद्धट्टक, आकासो, लहुतादित्तयञ्च आहारजं नाम, मो. वि. टी. 69; कालेनाहारजं होति, सच्च. 59; - स्स नपुं., ष. वि., ए. क. - कबळीकारो आहारो आहारजस्स जनको, मोहवि. 76; जेसु सप्त. वि., ब. व. - आहारजेसुपि आहारो, विसुद्धि. 2.250. आहारट्ठिति स्त्री., तत्पु. स. [आहारस्थिति], भोजन पर पूरी तरह से निर्भर जीवन-स्थिति, आहार पर निर्भरता, प्र. वि., ए. व. - सा च ठिति द्विधा आरम्मणद्विति च आहारविति च, पेटको. 306; या आहारहिति या पुनभवाभिनिब्बत्तिका ठिति, पेटको. 307. आहारट्ठितिक त्रि., [आहारस्थितिक], कारणभूत अथवा प्रत्ययभूत आहार पर आश्रित, पोषक भोजन पर निर्भर - को पु., प्र. वि., ए. व. - आहारहितिको समुस्सयो, थेरगा. 123; "आहारद्वितिको समुस्सयो, इति दिस्वान चरामि एसन, थेरगा. अट्ठ. 1.267; अयं कायो आहारद्वितिको आहारं पटिच्च तिट्ठति, स. नि. 3.82; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आहारहितिकाति पच्चयट्ठितिका, दी. नि. अठ्ठ. .3.221; सारत्थ. टी. 1.212; विसुद्धि. महाटी. 1.224; वजिर. टी. 36; - ता स्त्री॰, भाव., आहार पर निर्भरता, भोजन पर पूरी तरह आश्रित होने की स्थिति, प्र. वि., ए. व. - सा पनायं आहारहितिकता निप्परियायतो, विसुद्धि. महाटी. 1.224. आहारता स्त्री., आहार का भाव., 1. वह जो स्थूल आहार हो अथवा जिसे कवलों अथवा ग्रासों के रूप में कण्ठ के नीचे ले जाया गया हो, 2. आहार-विषयक मानसिक चेतना, चार प्रकार का सूक्ष्म आहार - आहारताति कबळीकारो आहारो, अभि. अव. (पृ.) 87; सञआ चाहारता इति, अभि. अव. 814; "गाथाबन्धवसेन ग-कारस्स लोपं कत्वा आहारगता सा आहारता सा ति वृत्ता, आहारोयेव वा आहारता, तग्गता च स उपचारतो "आहारता ति वुत्ता, आहारे पटिक्कूलसाति अत्थो, अभि. अव. अभि. टी. 2.165. आहारत्तय नपुं, 3 प्रकार के आहारों का समुच्चय अथवा समूह - यं प्र. वि., ए. व. - चित्तुप्पादेसु सब्बत्थ आहारत्तयमीरितं, ना. रू. प. 180. आहारत्थिक त्रि., [आहारार्थिक], भोजन अथवा आहार पाने की इच्छा करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - घासत्थिकोति आहारत्थिको, जा. अट्ठ. 3.259; सचे आहारत्थिको, चरिया. अट्ठ. 156. For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहारनिरोध 281 आहारलोलता आहारनिरोध पु., तत्पु. स. [आहारनिरोध], आहार का अन्त या उच्छेद, आहार की समाप्ति -धो प्र. वि., ए. व. - तण्हानिरोधा आहारनिरोधो, म. नि. 1.60; कतमो आहारनिरोधो, कतमा आहारनिरोधगामिनी पटिपदा, म. नि. 1.60; - धा प. वि., ए. व. - तदाहारनिरोधा यं भूतं तं निरोधधम्मन्ति, स. नि. 1(2),43: आहारनिरोधा रूपनिरोधो, स. नि. 2(1).54; आहारनिरोधाति पवत्तिपच्चयस्स कबळीकाराहारस्स अभावे, विसुद्धि. महाटी. 2.3953; आहारनिरोधा कायस्स अत्थङ्गमो, स. नि. 3.259. आहारनेत्तिप्पभव त्रि., ब. स., चार प्रकार के आहारों एवं तृष्णा-नामक नेत्री से उत्पन्न होने वाला - वं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आहारनेत्तिप्पभवं नालं तदभिनन्दितुं, इतिवु. 28; चतुबिधो आहारो च तण्हासढाता नेत्ति च पभवो समुट्ठानं एतस्साति आहारनेत्तिप्पभवं, इतिवु. अट्ठ. 143. आहारपच्चय' पु., 24 प्रकार के प्रत्ययों में से अन्यतम प्रत्यय, शरीर के संधारण में प्रत्ययभूत भोजन ही आहारप्रत्यय कहलाता है - यो प्र. वि., ए. व. - आहारपच्चयो, विसुद्धि. 2.161; रूपारूपानं उपत्थम्भकट्टेन उपकारका चत्तारो आहारा आहारपच्चयो, विसुद्धि. 2.167; - येन तृ. वि., ए. व. - "कबळीकारो आहारो इमस्स कायस्स आहारपच्चयेन पच्चयो ति, विसुद्धि.2.250; किञ्चि आहारपच्चयेनाति एवं अथापि पच्चयो होति, विभ. अट्ठ. 165; - या प. वि., ए. व. - यं किञ्चि दुक्खं सम्भोति सब् आहारपच्चयाति, सु. नि. 194; पाठा. आरम्भपच्चया. आहारपच्चय त्रि., आहार को प्रत्यय बना कर उत्पन्न या उदित - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - आहारजेसुपि आहारो आहारसमुट्ठानं आहारपच्चयं ... (रूप), विसुद्धि. 2.250. आहारपटिक्कूलसा स्त्री., आहार-विषयक प्रतिकूल मानसिक अनुचिन्तन, आहार का प्रतिकूलभाव से प्रत्यवेक्षण - निद्देस पु., विसुद्धि के समाधिनिद्देस नामक ग्यारहवें अध्याय में आहार के विषय में प्रतिकूल भावना का अनुशीलन - तो प. वि., ए. व. – वित्थारकथा पनेत्थ विसुद्धिमग्गे आहारपटिकूलसआनिद्देसतो गहेतब्बा, विभ. अट्ट, 342. आहारपरिग्गह पु., तत्पु. स. [आहारपरिग्रह], आहार के विषय में संयम अथवा नियन्त्रण - हो प्र. वि., ए. व. - आहारपरिग्गहो, मि. प. 230; स. प. के अन्त; आतापो परितापो ठानचङ्कमनिसज्जासयनाहारपरिग्गहो, मि. प. 287. आहारपरिभोग पु., तत्पु. स. [आहारपरिभोग]. आहार का उपभोग, भोजन को ग्रहण करना- आहारपरिभोगे, ध. स. अट्ठ. 421; स. प. के अन्त.; ... मङ्गल आहारपरिभोगमङ्गलेपि... पञ्चन्नं भिक्खुसत्तानं अप्पोदकमा पायसमेव अदंसु, ध, प. अट्ठ. 1.298. आहारपरियेट्ठि स्त्री., तत्पु. स., भोजन की तलाश - हिं द्वि. वि., ए. व. - आहारपरियेटिं अकत्वा..., चरिया. अट्ठ. 23; - या तृ. वि., ए. व. - आहारपरियेट्ठिया, चरिया. अट्ठ. 27; - मूलक त्रि., भोजन की तलाश में जड़ जमाया हुआ, भोजन की तृष्णा से जनित - पच्चुपन्ने आहारपरियेटिमूलकं दुक्खन्ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).308. आहारपरियेसन नपुं., तत्पु. स., उपरिवत् - नं द्वि. वि., ए. व. - आहारपरियेसनं चरति, स. नि. अट्ठ. 1.182; - दुक्ख नपुं., आहार की खोज में प्राप्त दुख - क्खं प्र. वि., ए. व. - आहारपरिये सनदुक्ख ..., आहारपरियेसनमूलस्स, बु. वं. अट्ठ.90. आहारपरिस्सय पु., तत्पु. स., आहार की कमी, आहार की अल्पता- यो प्र. वि., ए. व. - आहारपरिस्सयो, अ. नि. अट्ठ. 2.107. आहारमन्दता स्त्री., तत्पु. स., आहारविषयिणी दरिद्रता, भूखों मरने की स्थिति-य तृ. वि., ए. व. - आहारमन्दताय, स. नि. अट्ठ. 2.97. आहारमय त्रि., आहार से निर्मित, नाना प्रकार के आहारों से परिपूर्ण - यं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - आहारमयं रूपं छातसुहितवसेन पाकट होति, विसुद्धि. 2.257; - येन तृ. वि., ए. व. -- आहारमयेनाति नानप्पकारेन आहारेनेव, जा. अट्ठ. 3.461; - तो प. वि., ए. व. - आहारमयतो, विसुद्धि. 2.252. आहाररस पु., तत्पु. स., आहार का सारतत्त्व, भोजन का रस - सो प्र. वि., ए. व. - आहाररसो संसरित्वा आहारसमुट्ठानरूपं समुट्ठापेति, स. नि. अट्ठ. 1.265; - से सप्त. वि., ए. व. - रसग्गहणमूलकत्ता अज्झोहरणस्स जीवितहेतुम्हि आहाररसे, विसुद्धि. महाटी. 2.160. आहाररूप नपुं., रूपधर्म के रूप में आहार, स्थूल आहार, ग्रास लेकर खाया जाने वाला भौतिक आहार - पं प्र. वि., ए. व. - वत्थुरूपं च हदयं यं धातुद्वयनिस्सयं कबळीकारमाहाररूपमिच्चाह पण्डिता, ना. रू. प. 490. आहारलोलता स्त्री., तत्पु. स., आहार के प्रति लालच, भोजन-लिप्सा - य तृ. वि., ए. व. - पञ्चहि लोलताहि लोलो होति, - आहारलोलताय, अलङ्कारलोलताय, For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहारलोलुप्प 282 आहारूपच्छेद परपुरिसलोलताय, धनलोलताय पादलोलताय, सु. नि. उत्पन्न --- वं द्वि. वि., ए. व. - एतं खन्धपञ्चकं आहार अट्ठ. 1.30. पटिच्च ठितं, तस्मा तं आहारसम्भवं नाम कत्वा. स. नि. आहारलोलुप्प नपुं., उपरिवत्, स. उ. प. में ही प्राप्त, अट्ठ. 2.54; तदाहारसम्भवन्ति तं पनेतं खन्धपञ्चक पहीना. के अन्त. द्रष्ट.. आहारसम्भवं पच्चयसम्भवं, सति पच्चये उप्पज्जति एवं आहारवग्ग पु., स. नि. के एक वर्ग का शीर्षक, स. नि. पस्सथाति पुच्छति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).203; - स्स 1(2).12-24. ष. वि., ए. व. - आहारसम्भवस्स निबिदाय विरागाय आहारविधान नपुं.. भोजन तैयार करने एवं परोसने का निरोधाय पटिपन्नो होति, स. नि. 1(2).43; अत्तनो फलं तरीका - नं प्र. वि., ए. व. - तस्स एवरूपं आहारविधानं आहरतीति आहारो पच्चयो, सम्भवति एतस्माति सम्भवो, अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 1.181. आहारो सम्भवो एतस्साति आहारसम्भवं, म. नि. टी. (मू.प.) आहारवेला स्त्री., तत्पु. स., भोजन करने का समय, आहार 2.210; स. उ. प. के रूप में तदा. के अन्त. द्रष्ट... लेने की वेला - ला प्र. वि, ए. व. - को पन तेसं आहारसम्भूत त्रि., तत्पु. स., आहार के कारण अस्तित्व में आहारो, का आहारवेलाति?, सारत्थ. टी. 3.191; - लं आया हुआ, भोजन के द्वारा तैयार किया गया- तो पु. प्र. द्वि. वि., ए. व. - एक आहारवेलं अतिक्कमित्वा, सारत्थ. वि., ए. व. - आहारसम्भूतो अयं ... कायो ... तण्हा ... टी. 3.191. मेथुनसम्भूतो अयं भगिनि कायो, अ. नि. 1(2).167; - तं. आहारसङ्घय पु., आहार का पूर्ण क्षय, आहार अथवा ईंधन की नपुं., प्र. वि., ए. व. - आहारसम्भूतन्ति ववत्थेति, पटि. म. समाप्ति - या प. वि., ए. व. - इधेव परिनिबिस्सं. 69. अग्गीवाहारसङ्घयाति ... अग्गि विय इन्धनक्खयेन यथा आहारहेतुक त्रि., ब. स., आहार पर आश्रित, भोजन पर अग्गि निरुपादानो निब्बायति, बु. वं. अट्ठ. 339. अवलम्बित - का पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बलोकम्हि ये आहारसमुट्ठान त्रि., आहार के कारण से उत्पन्न, आहार से सत्ता जीवन्ताहारहेतुका मनुज भोजनं सब्बं लभन्तु मम उदित अथवा उठकर सामने आने वाला - नानं नपुं.. ष. चेतसा, अप. 1.5. वि., ब. व. - (आहारो) कम्मजानं अनुपालको हुत्वा आहारापेति आ + Vहर के प्रेर. का वर्त, प्र. पु.. ए. व., पच्चयो होति, आहारसमहानानं जनको हत्वा, म. नि. अट्ठ ले आने हेतु प्रेरित करता है, द्रष्ट, आहरापेति के अन्त.. (मू.प.) 1(1).218; - स्स ष. वि., ए. व. - द्विन्नं आहारासा स्त्री., तत्पु. स. [आहाराशा], भूख, क्षुधा, भोजन रूपसन्ततीनं पच्चयो होति - आहारसमुट्ठानस्स च मिलने की आशा, प्र. वि., ए. व. - "आहारासा विया ति उपादिण्णकस्स च, स. नि. अट्ठ. 2.24; - नानि नपुं., प्र. अवत्वा चेतनाग्गहणं कतं, विसुद्धि. महाटी. 2.262; - वि., ब. क. - आहारसमुट्ठानानि अट्ठ ... आहारसमुहानादीनि चेतना स्त्री., तत्पु. स., आहार के विषय में चित्त का तीणि, ध. स. अट्ठ. 349. चैतन्य होना, भोजन-विषयक मानसिक अनुचिन्तन, प्र. आहारसमुट्ठापिक त्रि., आहार का समुत्थान कराने वि., ए. व. - गिज्झपोतकसरीरानं आहारासाचेतना विय, वाला/वाली, आहार की पूर्ण उत्पत्ति कराने वाला/वाली विसुद्धि. 2.166; गिज्झपोतकसरीरानं आहारासाचेतना विया, - पिका स्त्री.. प्र. वि., ए. व. - आहारसमुट्ठापिका विसुद्धि. महाटी. 2.262. पुरिमतण्हा समुदयसच्चं, अ. नि. अट्ठ. 3.301. आहारिक त्रि., [आहारिक], आहार लेने वाला, केवल स. आहारसमुदय पु., तत्पु. स., आहार का उदय, आहार की उ. प. में प्रयुक्त हत्था. के अन्त., द्रष्ट.. उत्पत्ति – या प. वि., ए. व. - आहारसमुदया रूपसमुदयो, आहारूपच्छेद पु., तत्पु. स., आहार ग्रहण न करना, स. नि. 2(1).54; आहारसमुदया कायरस समुदयो, स. नि. उपवास, व्रत, आहार लेने से विरति - दो प्र. वि., ए. व. 259; - येन तृ. वि., ए. व. - आहारसमुदया कायरस - आहारूपच्छेदो कातब्बोति, सारत्थ. टी. 2.242; - दं समुदयोति आहारसमुदयेन कायसमुदयो, स. नि. अट्ठ. द्वि. वि., ए. व. - सब्बसोपि आहारूपच्छेदं अकासि जा. 3.257. अट्ट, 1.76; आहारूपच्छेदं कत्वा, पारा. अट्ठ. 2.55; ध. प. आहारसम्भव पु.. ब. स., आहार से उदित या उत्पन्न, वह अट्ठ. 1.88; - देन तृ. वि., ए. व. - आहारूपच्छेदेनपि जिसकी उत्पत्ति भोजन के कारण हुई है, हेतु - प्रत्ययों से न मारेतब्बो, पारा, अट्ठ. 2.57; आहारूपच्छेदेन च सब्बथा, For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहारूपजीवी 283 आहिण्डति चरिया. अट्ठ 227; - स्स ष. वि., ए. व. -- आहारूपच्छेदस्स अनुसातत्ता, वि. वि. टी. 1.203; – दाय च. वि., ए. व. - सब्बसो आहारूपच्छेदाय पटिपज्जि, म. नि. 1.313. आहारूपजीवी त्रि., [आहारोपजीविन], आहार पर जीने वाला, भोजन के सहारे जीवित रहने वाला - विनो पु०, च. वि., ए. व. - "आहारूपजीविनो सत्तलोकस्स महाउपकारो सम्पादितो मया ति, चरिया. अट्ट, 215; - विनो पु., प्र. वि., ब. व. - ये सत्ता आहारूपजीविनो, विभ. अट्ठ. 167; विसुद्धि. 2.196. आहारूपनिबद्ध त्रि.. तत्पु. स., आहार के साथ बंधा हुआ -द्धं प्र. वि., ए.व.- सत्तानं जीवितं... आहारूपनिबद्धञ्च, विसुद्धि. 1.227. आहारूपरोध पु., तत्पु. स., आहार पर रोक, भूखा रहना, उपवास - धेन तृ. वि., ए. व. - तस्स आहारूपरोधेन चित्तदुब्बल्यं उप्पज्जि, मि. प. 230; - स्स ष. वि., ए. व. - आहारूपरोधस्सेवेसो दोसो सदापटियत्ता, मि. प. 230; 231. आहारूपसेवी त्रि., आहार का सेवन करने वाला, भोजन का प्रयोग करने वाला – वीनं पु., ष. वि., ब. व. - सो यस्मा आहारूपसेवीन व अज्झोहटाहारउतुजाहारूपत्थद्धो एव च कम्मजादिआहारो इमस्स कायस्स ठितिया पवत्तति, मोहवि. 344. आहारूपहार पु.. ले आना एवं प्रदान करना, लेन-देन, आदान-प्रदान - रो प्र. वि., ए. व. - नत्थम्हाकं तया सद्धि आहारूपहारो, पारा. 201; आहारूपहारोति आहारो च उपहारो च गहणञ्च दानञ्च, पारा. अट्ठ. 2.126. आहारूपासीसक त्रि., भोजन पाने की आशा कर रहा, आहार पाने के प्रति आशावान् – को पु., प्र. वि., ए. व. - आहारूपासीसको येव चरति, मि. प. 363. आहारेति/आहारयति आ + Vहर के प्रेर. का वर्त, प्र. पु., ए. व., आहार का ना. धा. [आहारयति], शा. अ.. लाने हेतु प्रेरित करता है, प्रायोगिक अ., भोजन करता है, खाता है - एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेति, सत्ताहिकम्पि आहार आहारेति, दी. नि. 1.150; अरियसावको पटिसना योनिसो आहारं आहारेति, म. नि. 2.19; आहारेतीति परिभञ्जति अज्झोहरति, ध. स. अट्ठ. 421; - मि उ. पु., ए. व. - एकाहिकम्पि आहार आहारेमि. द्वीहिकम्पि आहारं आहारेमि... सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेमि. म. नि. 1.111; - म ब. व. - "मयं अनासका न किञ्चि आहारेमाति, जा. अट्ठ. 5.233; - न्ति प्र. पु., ब. व. - एकाहिकम्पि आहारं आहारेन्ति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेन्ति ... सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेन्ति, म. नि. 1.304; धम्मिकं समणा सक्यपत्तिया आहारं आहारेन्ति, स. नि. 2(1).237; - सि अद्य., प्र. पु., ए. व. - आहारं न आहारेसि, स. नि. अट्ठ. 2.93; - सिं अद्य., उ. पु., ए. व. - थोकं थोकं आहारं आहारेसिं. म. नि. 1.314; ओळारिक आहारं आहारेसिं. म. नि. 1.315; - रेय्यं विधि., उ. पु., ए. व. - ओळारिक आहारं आहारेय्यं, म. नि. 1.315; यंनूनाहं थोकं थोकं आहारं आहरेय्यं, 1.314; - रेन्तो वर्त. कृ., पु.. प्र. वि., ए. व. - अनुपायेन हि आहारेन्तो दवत्थाय मदत्थाय ... वा आहारेति, ध. स. अट्ठ. 421; - यतो वर्त. कृ., पु., च. वि., ए. व. - एकयेव कोलं आहारं आहारयतो. म. नि. 1.114; - यतं वर्त. कृ., पु., च. वि., ब. व. - तेसं तं ओळारिकं आहारं आहारयतं, विसुद्धि. 2.46; - त्वा ___ पू. का. कृ. - ओळारिकं आहारं आहारेत्वा, म. नि. 1.316. आहाव पु., आ + Vवे से व्यु. [आहाव], पशुओं को पानी पिलाने के लिए कुएं के पास बना जल भरा कुण्ड, प पुपौ शाला – वो प्र. वि., ए. व. - आहावो तु निपानं चा, अभि. प. 680. आहि/अहि अस (होना) का अनु०/वर्त का म. पु., ए. व., तुम हो - त्वं आहि, सद्द. 3.832; आहि, सद्द. 3.834. आहिण्डति आ + हिण्ड का वर्त., प्र. पु., ए. व. [बौ. सं. आहिण्डते], इधर से उधर चलता रहता है, इधर उधर भटकता है, इधर उधर घूमता है - अनुद्दिस्स मरणं संवण्णेन्तो आहिण्डति, पारा. अट्ठ. 2.47; आहिण्डती गोरिव भक्खसादी, जा. अट्ठ. 5.15; - सि म. पु.. ए. व. - "कि भन्ते सुमन, आहिण्डसी ति आह, पारा. अट्ठ. 1.59; “कस्मा समणो हुत्वा आहिण्डसी ति, स. नि. अट्ठ. 1.201; - ण्डामि उ. पु., ए. व. - “गोतमस्सवादं आरोपेस्सामी ति आहिण्डामि, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).168; अरुले इरीणे वने, अन्धाहिण्डामहं तदा, अप. 1.274; - न्ति प्र. पु., ब. व. - छब्बग्गिया भिक्खू छत्तप्पग्गहिता आहिण्डन्ति, चूळव. 250; "चेलप्पटिक महन्ता आहिण्डन्तीति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.229; - थ म. पु.. ब. व. - "दुक्खमेव जिरापेन्ता आहिण्डथा ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).169; "महाजनं वञ्चेत्वा आहिण्डथा ति, स. नि. अट्ठ. 1.117; - ण्डाम उ. पु., ब. व. - "मयं सपजापतिका आहिण्डाम, पाचि. 88; - ण्डाहि अनु., म. पु., ए. व. - गच्छ तात खेत्तं For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहि 284 आहुतग्गि अहमानो एत्थाति अत्ता, विसुद्धि. महाटी. 2.430; - तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - चित्तम्पि मे सम्मा आहितं. पारा. अट्ठ1.103-104; समाहित चित्तं एकग्गं, पारा. 4; यं... किलेसेहि आहितं सामत्थियमत्तं, उदा. अट्ठ. 156; स. उ. प. के रूप में, अग्गा, अग्या. के अन्त. द्रष्ट... आहितगब्मा स्त्री., ब. स. [आहितगर्भा], गर्भवती नारी, प्र. वि., ए. व. - मेघगज्जितेन आहितगमा परियेसति लेणन्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.27. आहितग्गि त्रि., ब. स. [आहिताग्नि, वह, जिसने यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित कर दिया है, पु., प्र. वि., ए. व. - ईदिसस्मिं हि ठाने आहितग्गी ति वा अग्गाहितो ति वा ..., सद्द. 2.414. आहितचित्त त्रि., ब. स. [आहितचित्त], स्थिर एवं एकाग्र चित्त वाला, शान्त चित्त वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - समाहितचित्तो च... सम्मा आहितचित्तोति एवमेत्थ अत्थो आहिण्डाही ति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).211; इमस्स वादस्स मोक्खाय चर आहिण्डाहि, स. नि. अट्ठ. 2.230; - ण्डेय्युं विधि., प्र. पु., ब. व. - नगरे घोसन्ता आहिण्डेय्यु, महाव. अट्ठ. 357; - ण्डिस्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व. - "कथञ्हि नाम भदन्ता छत्तप्पग्गहिता आहिण्डिस्सन्तीति, चूळव. 250; - न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - सेनासन चारिकं आहिण्डन्तो, महाव. 254; भगवा सकल जम्बूदीपं आहिण्डन्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).312; - न्ता द्वि. वि., ब. व. - सेनासन चारिकं आहिण्डन्ता भिक्खू पस्सित्वा, ध. प. अट्ठ. 2.41; - न्तिया स्त्री., तृ. वि., ए. व. - पानीयत्थाय आहिण्डन्तिया मे पानीयं देहि, पे. व. अट्ठ. 125; - मानो वर्त. कृ., आत्मने, पु., प्र. वि., ए. व. - आहिण्डमानो पुन सत्थु सन्तिकं आगन्त्वा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.153; आहिण्डमानो महिया अट्टस्सरं करोति, मि. प. 322; - ण्डि अद्य., प्र. पु., ए. व. - द्वियोजनं अद्धानं आहिण्डि, स. नि. अट्ट. 2.278; - ण्डिंसु ब. व.. - (मक्खिका) खादनत्थं गोधा आहिण्डिस, जा. अट्ठ. 1.459; - ण्डित्थ म. पु., ब. क. - विरवन्तो आहिण्डित्थ, दी. नि. अट्ट. 2.131; स. नि. अठ्ठ. 3.283; - ण्डिस्सामि भवि., उ. पु., ए. व. - गामनिगमराजधानीसु आहिण्डिस्सामि हनन्तो घातेन्तो छिन्दन्तो, पारा. 109; - ण्डितुं निमि. कृ. - न सक्कोति विना दण्डेन आहिण्डितुं, चूळव. 251; - ण्डित्वा पू. का. कृ. - गच्छ सावत्थिं आहिण्डित्वा, स. नि. अट्ठ. 1.168; समसमा आहिण्डित्वा, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).166; परिवेणं आहिण्डित्वा, जा. अट्ठ. 1.478. आहिण्डन नपुं, आ + हिण्ड से व्यु., क्रि. ना., इधर उधर भटकाव – काल पु., तत्पु. स., इधर से उधर घूमने का समय - ले सप्त. वि., ए. व. - पुत्तो पदसा आहिण्डनकाले कालमकासि, स. नि. अट्ठ. 1.168. आहिण्डापेसि आ + हिण्ड के प्रेर. का अद्य., प्र. पु., ए. व., इधर उधर घुमाया, भटकाया, चक्कर कटवाया - सब्बद्वारानि आहिण्डापेसि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.52. आहित त्रि., आ + vधा का भू. क. कृ. [आहित], स्थापित, प्रतिष्ठापित, जमा किया गया, सुरक्षित रूप में रखा गया, ला कर रखा गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - छन्ना कुटि आहितो गिनि, सु. नि. 18; आहितोति आभतो, जालितो वा, सु. नि. अट्ठ. 1.24; आरम्मणे आहितो निच्चलभावकरणेन पतिट्ठापितोति अधिप्पायो, पटि. म. अट्ठ. 1.201; आहितो आहितबल त्रि., ब. स., बलवान्, बलसम्पन्न, ताकतवर - लं नपुं, प्र. वि., ए. व. - आहितबलं पठमं विपच्चति, विसुद्धि. महाटी. 2.353. आहित्वा आ + हा का पू. का. कृ. [आहाय], छोड़ कर, त्याग कर - हिमवन्तं गमित्वान, आहित्वा पुप्फसञ्चयं, अप. 2.111; सङ्कारकूटा आहित्वा सुसाना रथियापि च, अप. 2.236.. आहु/अहु हु (होना) का परोक्षभूत का प्र. पु., ए. व., सामान्य अहोसि का छन्दानुरोधवश किया गया रूपान्तरण, हुआ था - अहु राजा विदेहानं, जा. अट्ठ. 7.102. आहुणेय्य त्रि., द्रष्ट., आहुनेय्य के अन्त. (आगे). आहुत' त्रि., आ + हु (हवन करना) का भू. क. कृ. [आहुत], वह, जिसे आहुतियों में डाला गया है, हवन किया गया - तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - अनलो... आहुतं घतं अस्नाति, जा. अट्ठ. 5.58; स. उ. प. के रूप में, पटियत्ता. के अन्त. द्रष्ट... आहुत' त्रि., आ + vहु का भू. का. कृ. [आहूत], आया हुआ, बुलाया हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - आहनेय्यग्गि. ... अतोहयं ब्राह्मण आहुतो सम्भूतो, अ. नि. 2(2).194; आहुतोति आगतो. अ. नि. अट्ट. 3.168. आहुतग्गि त्रि., ब. स. [आहुताग्नि], अग्नि में आहुतियां डालने वाला अथवा अग्नि में हवन करने वाला, अग्निहोत्री -गि पु., प्र. वि., ए. व. - आहुतग्गि च ब्राह्मणो, जा. For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहुति 285 आहुनेय्यग्गि अट्ठ. 7.45; - ग्गी ब. व. - राजिसी यत्थ सम्मन्ति यज्ञीय विधान का मांगलिक कार्य, प्र. वि., ए. व. - आहुतग्गी समाहिता, जा. अट्ठ. 7.277. आहुनपाहुनमङ्गलकिरिया, ध. स. अट्ठ. 408. आहुति स्त्री., आ + Vहु से व्यु. [आहुति], शा. अ., किसी आहुनपिण्ड पु., तत्पु. स., 1. आहुतपिण्ड, यज्ञ की आहुतियों देवता को उद्दिष्ट करके अग्नि में दी गई हवनसामग्री, ___ में दिया जाने वाला पिण्ड, यज्ञीय बलि, 2. सम्मान के हवनकुण्ड में हवनसामग्री डालना, ला. अ., सम्माननीय साथ दिया गया दान अथवा उपहार – ण्डं द्वि. वि., ए. व्यक्ति को सम्मानपूर्वक दिया गया दान - ति प्र. वि., ए. व. - आहुनेय्योति आनपिण्ड पटिग्गहेतं यत्तो, स. नि. व. – आहुति पग्गहिता... यहि किञ्चि अग्गिम्हि जुहितब्बं अट्ठ. 1.182. तं सब्बं आहुती ति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 1.139; आहुतियोति आहुनेय्य त्रि., आ + हु का सं. कृ. [आहवनीय], शा. यं पहेणकसक्कारादिभेदं दिन्नदानं, दी. नि. अट्ठ. 1.137;- अ., यज्ञीय बलि प्रदान करने योग्य, ला. अ., सम्माननीय, तिं द्वि. वि., ए. व. - आहुनेय्यस्साति आहुतिं पटिग्गहेतु पूज्य, चीवर आदि 4 प्रत्ययों का दान पाने योग्य – य्यो युत्तरस. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.70; आहुतिं निच्चं पग्गण्हाति, पु.. प्र. वि., ए. व. – आहुनेय्योतिआदीसु आनेत्वा हुनितब्बन्ति स. नि. 1(1).167; - तीनं ष. वि., ब. व. - आहुतीनं आहुनं, दूरतोपि आगन्त्वा सीलवन्तेसु दातब्बन्ति अत्थो, पटिग्गहो, जा. अट्ठ. 1.20; अप. 1.47; स. उ. प. के रूप चतुन्न पच्चयानमेतं अधिवचनं, महप्फलभावकरणतो तं में, परमा., लोका., पटिग्गहा. के अन्त. द्रष्ट.. आहुनं पटिग्गहेतुं युत्तोति आहुनेय्यो... सक्कादीनम्पि आहवनं आहुतिगन्ध पु., तत्पु. स., अग्नि में डाली जा रही हवनसामग्री अरहतीति वा आहवनीयो, इतिवु. अट्ठ. 252; सावक सङ्घो, की गन्ध-न्धेन तृ. वि., ए. व. - ब्राह्मणा आहुतिगन्धेन आहुनेय्यो पाहुनेय्यो, दी. नि. 3.4; आहुनेय्यो पाहुनेय्यो धावन्ति, म. नि. 3.207. दक्खिणेय्यो सुदुल्लभो, ना. रू. प. 1148; आनेत्वा आहुतिपिण्ड पु., तत्पु. स., अग्नि में डाली जाने वाली हुनितब्बन्ति आहुनं दूरतोपि आनेत्वा दातब्बदानं तं पटिग्गहेतू हवनसामग्री के रूप में चावल का पिण्ड (गोला) – ण्डं युत्तोति आहुनेय्यो, विसुद्धि. महाटी. 2.498; - य्यं पु., द्वि. द्वि. वि., ए. व. - आहुनं आहुतिपिण्डं समुग्गण्हन्ति, वि., ए. व. – आहुनेय्य सङ्घ, पाहुनेय्यं, दक्खिणेय्यं महाव, अट्ठ. 411; निच्चकाले आहुतिपिण्डं पग्गण्हाति, स. अञ्जलिकरणीयं, पारा. अट्ट, 1.199; आहुनेय्यन्ति आदीसु. नि. अट्ट, 1.181. सारत्थ. टी. 2.69; - स्स ष. वि., ए. व. - आहुनेय्यस्स आहुन' नपुं.. [आहवन], शा. अ., यज्ञ में दी जाने वाली यक्खस्स ... तस्स सावकोहमस्मीति, म. नि. 2.55; - आहुति, हवन, ला. अ., सम्मान, सत्कार - नं प्र. वि., य्या पु.. प्र. वि., ब. व. - 'आहुनेय्या, अ. नि. 1(1).156%; ए. व. - हवनं दानं आहुनं, विसुद्धि. महाटी. 2.308; आहुनं आहुनेय्या यजमानानं होन्ति, अ. नि. 1(1).79; स. उ. प. वुच्चति सक्कारो, आहुनं अरहन्तीति, दी. नि. अट्ठ. 3.160%; के रूप में साक. के अन्त. द्रष्ट; - सुत्त नपुं., अ. नि. आहुनं अरहतीति, विसुद्धि. महाटी. 1.264. के कुछ सुत्तों का शीर्षक, अ. नि. 2(2).1.2: 3(1).117-118; आहुन नपुं., आहुति-पिण्ड - नं द्वि. वि., ए. व. - आहनं - ते सप्त. वि., ए. व. - छक्कनिपाते आहुनेय्यसुत्ते आहुतिपिण्डं समुग्गण्हन्ति, महाव. अट्ठ. 411. "अस्थि ... दी. नि. अट्ठ. 3.155. आहुनपटिग्गाहक त्रि., [आहुतिप्रतिग्राहक]. 1. यज्ञ की आहुनेय्यग्गि पु., कर्म. स., 3 प्रकार की यज्ञीय अग्नियों में आहुतियों को स्वीकार करने वाला, 2. सम्मान दिए जाने से एक, शा. अ., आहवनीय अग्नि, वह अग्नि, जिसमें योग्य, सम्माननीय - का पु., प्र. वि., ब. व. - मातापितूनं आहुतियां दी जाएं, ला. अ., 1. सम्मान अथवा सत्कार .... आहुनेय्याति आहुनपटिग्गाहका यस्स कस्सचिसक्कारस्स। देने योग्य माता-पिता-रूपी अग्नि, 2. सम्माननीय माताअनुच्छविका, जा. अट्ठ. 5.326. पिता आदि के अनुताप का कारणभूत पुत्र आदि - अपरेपि आहुनपाहुन नपुं., यज्ञ एवं आहुति, आहुतियां देना एवं यज्ञ- तयो अग्गी – आहुनेय्यग्गि, गहपतग्गि, दक्खिणेय्यग्गि, विधान करना - वसेन तृ. वि., ए. व., क्रि. वि., यज्ञीय दी. नि. 3.174; रागग्गि ... आहुनेय्यग्गि ... इमे खो विधान एवं आहुति के द्वारा – आहुनपाहुनवसेन हुतम्पि भिक्खवे, सत्त अग्गी ति, अ. नि. 2(2).191; यस्स ते होन्ति सुहुतं. वि. व. अट्ठ. 129; हुतन्ति आहुनपाहुनवसेन दिन्नं माताति वा पिताति वा अयं वुच्चति ब्राह्मण आहुनेय्यग्गि, जा. अट्ठ. 4.18; चरिया. अट्ट. 32; - मङ्गलकिरिया स्त्री., अ. नि. 2(2).194; आहुनेय्यग्गीतिआदीसु आहुनं वुच्चति For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहुनेय्यभावादिसिद्धिकथा 286 इक्कास सक्कारो, आहनं अरहन्तीति आहनेय्या मातापितरो हि पुत्तानं बहूपकारताय आहुनं अरहन्ति - इति अनुदहनढेन आहुनेय्यग्गीति वुच्चन्ति, दी. नि. अट्ठ. 3.160; स. प. के अन्तः, - आहुनेय्यग्गिगहपतग्गिदक्खिणेय्यग्गीस, विसुद्धि. महाटी. 1.264. आहुनेय्यभावादिसिद्धिकथा स्त्री., विसुद्धि के उस स्थल का शीर्षक जिसमें लोकोत्तर प्रज्ञा से होने वाले सांसारिक लाभों का वर्णन है, विसुद्धि. 2.350-352. आहुनेय्यवग्ग पु., अ. नि. का एक वग्ग, अ. नि. 2(2). 1-6. आहुन्दरिक त्रि., अप्रिय, दुर्गम्य, पार न करने योग्य, कठिन, सरलता से दिखलाई न देने योग्य, चारों ओर से घिरा, बाधाओं से भरपूर - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. --- "आहुन्दरिका समणानं सक्यपत्तियानं दिसा अन्धकारा, न इमेसं दिसा पक्खायन्तीति, महाव. 100; दसमे - आहुन्दरिकाति सम्बाधा, पाचि. अट्ठ. 201; “दसमे आहुन्दरिका ति पठन्ति किर, वजिर. टी. 348; - कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - यस्मा पन पुरिमभवे नामरूपं असेसं निरुद्धं इध अझं उप्पन्न, तस्मा तं ठानं आहुन्दरिक अन्धतममिव होति सुदुद्दसं दुप्पओन, पटि. म. अट्ठ. 1.294; आहुन्दरिकन्ति समन्ततो, उपरि च घनसञ्छन्नं सम्बाधवानं, विसुद्धि. महाटी. 2.45. आहूय आ + Vहु का पू. का. कृ., आह्वान करके, बुलाकर, पुकार कर - आहूय सब्बं पादासि रज्जं पुत्तेहि अत्तनो, चू. वं. 45.8; इच्चेते पञ्च आहूय पेसले, चू. वं. 87.17. लोपं कत्वा .... अप. अट्ठ. 1.136; - रे सप्त. वि., ए. व. - निपातभूतस्स पन इतिसद्दस्स इकारे नटेपि सो अत्थो विआयतेव ..., सद्द. 1.43; - रेसु ब. व. - ... द्वीसु इकारेसु परस्स इकारस्स लोपो कातब्बो, सद्द. 1.43; - लोप पु., तत्पु. स., केवल व्याकरण में प्रयुक्त [इकारलोप], इकार का लोप, 'इ' वर्ण की समाप्ति - पो प्र. वि., ए. व. - सुइदन्ति सुदं सन्धिवसेन इकारलोपो वेदितब्बो, पारा. अट्ठ. 1.144; - पं द्वि. वि., ए. व. - इवाति ओपम्मवचनं, इ-कारलोपं कत्वा व-इच्चेव वुत्तं, सु. नि. अट्ठ. 1.12; - रागम पु., व्याकरण में प्रयुक्त, तत्पु. स. [इकारागम], 'इ' स्वर का आगम, दो ध्वनियों के मध्य में इकार का अतिरिक्त रूप में आ जाना - मो प्र. वि., ए. व. - इकारागमो असब्बधातुकम्हि, क. व्या. 518; असब्बधातुके इकारागमो, सद्द. 3.835; यथागमं सब्बधातूहि सब्बपच्चयेसु इकारागमो होति, क. व्या. 607; स. उ. प. में सेकारा. के अन्त. द्रष्ट.; टि., शब्द में प्रयुक्त किसी भी वर्ण के पूर्व में अथवा पश्चात् किसी अन्य वर्ण का मित्र के समान आकर बैठ जाना ही व्याकरण-शब्दावली में आगम कहलाता है - मित्रवदागमः; - रादेस पु., तत्पु. स. [इकारादेश], किसी अन्य वर्ण के स्थान पर इकार को रख देना, अन्य ध्वनि के स्थानापन्न के रूप में इकार - सो प्र. वि., ए. व. - यज इच्चेतस्स धातुस्स आदिस्स इकारादेसो होति येप्पच्चये परे, क. व्या. 505; टि., किसी शब्द में पहले से विद्यमान किसी एक ध्वनि या वर्ण को हटा कर उसके स्थान पर अन्य वर्ण को रख दिया जाना ही आदेश कहलाता है - शत्रुवदादेशः.. इक्क/अच्छ/इस्स/ईस पु.. [ऋक्ष], भालू, रीछ --- च्छो प्र. वि., ए. व. - अच्छो इक्को च इस्सो तु, कालसीहो इसोप्यथ, अभि. प. 612; अच्छो इक्के पुमे वुत्तो, पसन्नम्हि तिलिङ्गिको, अभि. प. 1025; - क्का/च्छा ब. व. - कक्कटा कटमाया च, इक्का गोणसिरा बहू, जा. अट्ठ. 7.306; तथा कम्मारसालासु, अच्छा कूटानि पातयु, म. वं. 5.31. इक्कट पु.. [इक्कट], एक प्रकार की माला का गुच्छा, स. प. के अन्त., - पीतकसिणे मालागच्छन्ति इक्कटादिमालागच्छ विसुद्धि. महाटी. 1.184. इक्कास पू./न., अर्थ एवं व्यु. संदिग्ध [प्रा. इक्कास]. 1. साटने या चिपकाने वाला पदार्थ, गोंद, लस, रस, 2. निर्यास, अर्क, सार, काढ़ा - सं पु., द्वि. वि., ए. व. - "अनुजानामि, भिक्खवे, इक्कासं पिट्ठमद्दन्ति, चूळव. 2773; Vइ गति अथवा अध्ययन के अर्थों को प्रकाशित करने वाली एक धातु [इण गतौ], जाना, अध्ययन करना - इ अज्झने गतिकन्तिसु, मो. धा. पा. 288; इ अज्झाने गतिम्हि च, धा. मं. 96; इ अज्झयने, सद्द. 2.322; क्रि. रू. के लिए। 'एति' के अन्त. द्रष्ट. (आगे); सोपसर्ग प्रयोगों के लिए उपेति, अन्वेति, अज्झेति आदि के अन्त. द्रष्ट.. इकार पु., [इकार], पालि-वर्णमाला में प्रयुक्त आठ स्वरों में तालुस्थानीय ह्रस्व स्वर 'इ' – रो प्र. वि., ए. व. - यथागममिकारो, क. व्या. 607; सद्द. 3.858; - रं द्वि. वि., ए. व. - ... इकारञ्च दंकारञ्च दुकारञ्च खंकारञ्च ईसकं विच्छिन्दित्वा..., सद्द. 1.42-43; - स्स ष. वि., ए. व. - ... निरुत्तिनयेन इ-कारस्स अत्तं पुत्त-सहस्स च For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Vइक्ख 287 इङ्गित इक्कासन्ति रुक्खनिय्यासं वा सिलेसं वा, चूळव. अट्ठ. 61; अनुजानामि, भिक्खवे, इक्कासं कसावन्ति, चूळव. 278. Vइक्ख' देखने के अर्थ को सूचित करने वाली एक धातु - इक्खो तु दस्सनङ्केसु, धा. मं. 4; इक्ख दस्सने, मो. धा. पा. 13; इक्ख दस्सनङ्कसु, सद्द. 2.332; क्रि. रू. के लिए इक्खति, उपेक्खति, अपेक्खति के अन्त. द्रष्ट.. इक्ख त्रि., [ईक्ष्य], देखने योग्य, समझे जाने योग्य - क्खा पु., प्र. वि., ब. व. --- असुखद्धम्मतो चिक्खा, सच्च. इक्खनं दस्सनं प्यथ, अभि. प. 775; - ता स्त्री॰, भाव., देखते रहने की प्रकृति -- य तृ. वि., ए. व. - भिक्खूति संसारे भयं इक्खणताय वा... एवं लद्धवोहारो सद्धापब्बजितो कुलपुत्तो, विसुद्धि. 1.17; - तो प. वि., ए. व. - संसारे भयस्स इक्खनतो भिन्नकिलेसताय वा भिक्खु, थेरगा. अट्ठ. 1.298. इक्खनाकार पु., तत्पु. स. [ईक्षणाकार]. देखने का प्रकार, देखने का तरीका - रो प्र. वि., ए. व. - उपेक्खनाति उपपत्तितो इक्खनाकारो, महानि. अट्ठ. 382. Vइस / इखि गति अर्थ में प्रयुक्त धातु, वर्त., प्र. पु., ए. व. 303. इक्खक त्रि., [ईक्षक], देखने वाला, ध्यान देने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - उपेक्खकोति उपपत्तितो इक्खको होति, महानि. अट्ठ. 278. इक्खणसील त्रि., [ईक्षणशील], देखने की प्रकृति वाला- लो पु.. प्र. वि., ए. व. - "संसारसभावो एसो ति संसारे भयं इक्खणसीलो भिक्खु अधिवासये, उदा. अट्ठ. 213. इक्खणिका स्त्री., [ईक्षणिका], भविष्य का कथन करने वाली स्त्री, भविष्यकथिका, दैवज्ञा, भविष्य के शुभ और अशुभ को देख सकने वाली स्त्री, प्र. वि., ए. व. - वारुणीक्खणिका तुल्या, अभि. प. 236; अतियक्खाति भूतविज्जा इक्खणिकापि, जा. अट्ठ 7.259; इत्थी इमस्मि येव राजगह इक्खणिका अहोसि, पारा. 143; - कम्म नपुं., भविष्य कथन करने वाली स्त्री का व्यवसाय या धन्धा, पेशा- म्मं द्वि. वि., ए. व. - सा किर इक्खणिकाकम्म यक्खदासिकम्मं करोन्ती..., पारा. अट्ठ. 2.90. इक्खति (इक्ख का वर्त., प्र. पु., ए. व. [ईक्षते], शा. अ., देखता है, निरखता है, ला. अ., सोचता-विचारता है, नजर डालता है, खोजता है - संसारे भयं इक्खतीति भिक्खु, विसुद्धि. 1.4; संसारे भयं (इक्खति) इक्खनसीलो ति (वा) भिक्खु, सद्द. 2.584; एत्थ उपपत्तितो इक्खतीति उपेक्खा , पारा. अट्ठ. 1.111; - ते कर्म. वा., प्र. पु., ए. व. - नानत्तं इक्खते लोको, अभि. प. टी. 45. 46(बी); - सि म. पु., ए. व. - ममेव तुवं इक्खसि, जा. अट्ठ. 5.147; पाठा. सिक्खसि; - क्खामि उ. पु., ए. व. - न तं इक्खामहं पुनो, थेरीगा. अट्ठ. 163; अप. 2.202; -न्तो वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. - भिक्खूति संसारे भयं इक्खन्तो..., थेरगा. अट्ठ. 2.412. इक्खन/इक्खण Vइक्ख से व्यु., क्रि. ना., नपुं.. [ईक्षण], देखना, गहराई के साथ देखना, सोच-विचार करना - Vइङ्ग/इगी गमन अर्थ में प्रयुक्त धातु - इङ्ग गमनत्थे, धा. पा. 22; अगी इगी रिंगी लिगी वत्री गत्यत्थधातवो, क. व्या. धा. मं. 6. इङ्ग पु., [इङ्ग], सङ्केत, इशारा, इङ्गित द्वारा मनोभावों का संकेत देना - ङ्गो प्र. वि., ए. व. - आकारो त्विङ्गितं इङ्गो, अभि. प. 764; तुल. आकारस्त्विङ्ग इङ्गितम्, अमर. 3.2.15. इङ्गण नपुं., Vइङ्ग/इगी से व्यु., क्रि. ना. [इङ्गन], चलना, हिलना डुलना, कसना, सञ्चरण करना, स. उ. प. में ही प्राप्त, वाति.- हवा द्वारा हिलना डुलना - योजनमत्तके वातिङ्गणसआय वालं बन्धापेत्वा रत्तन्धकारे मेघपटलेहिछन्नासु दिसासु कण्डं खिपि, बु. वं. अट्ठ. 321; वातिङ्गणसआय उसभमत्तके वालं विज्झि, जा. अट्ठ. 5.126; वातिङ्गणो च भण्डाकी, अभि. प. 588. इङ्गालकुया स्त्री., [अङ्गारकूप], अङ्गारकूप, अङ्गारों का गड्ढा - या सप्त. वि., ए. व. - इङ्गालकुयाव उज्झितो, थेरीगा. 388; इङ्गालकुयाति अङ्गारकासुया उज्झितोति वातक्खित्तो विय यो कोचि, दहनिया इन्धनं वियाति अत्थो, थेरीगा. अट्ठ. 279. इङ्गित नपुं.. [इङ्गित], संकेत, इशारा, सञ्चलन, हिलना, क्षोभ - आकारो विङ्गितं इङ्गो, अभि. प. 764; तुल., आकारस्त्विङ्ग इङ्गितम्, अमर. 3.2.15; - तं द्वि. वि., ए. व. - वडकीसूकरो तेसं इङ्गितं दिस्वा, जा. अट्ठ. 2.3353; पाठा. इसितं; राजा तेसं इङ्गितं दिस्वाव, अ. नि. अट्ठ. 1.190; जानित्वा तस्स इङ्गितं, म. वं. 31.52; - तेन तृ. वि., ए. व. - सा इङ्गितेनेव तस्स अधिप्पायं अआसि, अ. नि. अट्ठ. 1.276; - सञआ स्त्री., तत्पु. स. [इङ्गितसंज्ञा], मनोभावों या विचारों का संकेतों के द्वारा प्रकाशन, इशारों For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इङ्गुदी 288 इच्छता द्वारा मन की बातों का खुलासा - नं द्वि., ए. व. - राजा परिसाय इङ्गितसझं अदासि, जा. अट्ठ. 2.163; - य तृ. वि., ए. व. - भवितब्बमेत्थ कारणेनाति इङ्गितसआय दासियो पटिक्कमापेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.197; - ताकार पु., [इङ्गिताकार], संकेत, इशारा, चेष्टा, इङ्गित, अङ्गविक्षेपादि के द्वारा अथवा विभिन्न अंगों की चेष्टा के द्वारा आन्तरिक भावों का प्रकटीकरण-रं द्वि. वि., ए. व. - कोकालिकस्स इङ्गिताकारं दस्सेत्वा, पारा. अट्ठ. 2.173. इङ्गुदी स्त्री., [इङ्गुदी], एक औषधि का वृक्ष, हिंगुपत्र, हिंगोट का वृक्ष, मालकंगनी, प्र. वि., ए. व. - इङ्गुदी तापसतरु, अभि. प. 565; तुल., इङ्गुदी तापसतरु, अमर. 2.4.46. इड अ., निपा., संभवतः वैदिक तद + ई + घ का संक्षिप्तीकृत रूप, अनुरोध, निवेदन, प्रेरणा तथा प्रबोधन के अर्थों में प्रयुक्त; अच्छा तो, कृपा करके - चोदने इघ हन्दाथ, अभि. प. 1157: इन हन्द इच्चेते चोदनत्थे, सद्द. 3.898; इङ्घ, भन्ते, सरापेहीति एत्थ इङ्घाति चोदनत्थे निपातो, पारा. अट्ठ. 1.236; इवाति चोदनत्थे निपातो, उदा. अट्ठ. 252; प्रयोग, वाक्य के प्रारम्भ में ही निम्नलिखित रूपों में प्रयुक्त; 1. प्राचीनतम प्रयोगों में (सु. नि. तथा जा. अट्ठ की गाथाओं में) 'त' के उपरान्त कहने, सुनने एवं देखने अर्थ वाली धातुओं के अनु., म. पु. ए./ब. व. के क्रि. रू. के पूर्व में प्रयुक्त - "किं ते नटुं किं पन पत्थयानो, इधागमा ब्रह्मे तदिङ्घ ब्रूही ति, जा. अट्ठ. 3.303; तदिच मह वचनं सुणाथ, जा. अट्ट. 4.147; 2. सामान्य प्रकृति की संरचनाओं में अनु०, म. पु., ए./ब. व. तथा संबो. में प्राप्त ना. प. से पूर्व में प्रयुक्त - इङ्घ पस्स महाराज, सञ्ज अन्तेपुरं तव, जा. अट्ठ. 6.285; इज पस्स महापञ्ज, मोग्गल्लान महिद्धिक, ध. प. अट्ठ. 2.315; 3. कहीं-कहीं इसके तुरन्त बाद में संबो. में अन्त होने वाले ना. प. के प्रयोग के उपरान्त अनु., म. पु., ए./ब. व. का क्रि. प. प्राप्त - इङ्घ, मद्दि, निसामेहि चित्तरूपंव दिस्सति, जा. अट्ठ. 7.270; 4. कुछ प्रयोगों में इङ्घ + मे त्वं + सम्बो., ए. व. में ना. प. प्रयुक्त - इङ्घ मे त्वं, आनन्द, पानीयं आहर, पिपासितोस्मि, दी. नि. 2.98; 5. कहीं-कहीं इङ्घ + द्वि. आदि वि. में अन्त होने वाले ना. प. के साथ प्रयुक्त - इङ्घ मं सावेहीति, मि. प. 128; 6. कुछ प्रयोगों में परवर्ती पुष्टिसूचक 'ताव के साथ प्राप्त - "इङ्घ ताव कारणेन में सञआपेही ति, मि. प. 126; इड ताव आयस्मा कायिक सिक्खस्सूति, चूळव. 409; 7. बहुत कम स्थलों में इङ्घ + अनु., उ. पु., ब. व. में अन्त होने वाले क्रि. प. के साथ भी प्राप्त - इङ्घस्स पुरिमं साखं मयं छिन्दाम वाणिजा, जा. अट्ठ. 4.313. इच्च Vइ का पू. का. कृ. [इत्य], जा कर, पहुंच कर, प्राप्त कर - इच्चाति गमनुस्सुक्कवचनमेत, प. प. अट्ठ. 393. इच्चेव अ., इति + एव के योग से व्यु. [इत्येव], यह ही, ऐसा ही, तुरन्त पूर्व में कहा गया ही - इच्चेव वत्वान यमस्स दूता, वि. व. 864; तत्थ इच्चेव वत्वानाति इति एव "उद्वेही ति आदिना वत्वा, वचनसमनन्तरमेवाति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 188. इच्चेवं अ., निपा., इति + एवं के योग से व्यु. [इत्येवं], इस प्रकार से, जो कुछ पूर्व में कहा गया है उसके आलोक में, ऐसे - इच्चेवं सब्बथापि द्वादसाकुसलचित्तानि समत्तानि, अभि. ध. स. 2; तत्थ इति-सद्दो वचनवचनीय समुदायनिदस्सनत्थो, एवं-सद्दो वचनवचनीयपटिपाटिसन्दस्सनत्थो..., इच्चेवं यथावत्तनयेन..., अभि. ध. वि. 82. इच्छ त्रि., [ईप्सु/इच्छु/इच्छ], चाहने वाला, इच्छा करने वाला - च्छो पु.. प्र. वि., ए. व. - अयं वुच्चति, भिक्खवे - 'भिक्खु इच्छो विहरति लाभाय, अ. नि. 3(1).120; अयं वुच्चतावुसो, 'भिक्खु इच्छो विहरति लाभाय, अ. नि. 3(1).148... इच्छक त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त, इच्छा करने वाला, सुखि.- सुख की इच्छा करने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. - नुयुत्ता होन्ति सब्बेपि, बुद्धिकामा सुखिच्छका, अप. 2.105; यदि.- जिस किसी की भी इच्छा करने वाला - कं नपुं., प्र. वि., ए. व., क्रि. वि. - यत्थिच्छकं यदिच्छकं यावतिच्छकं समापज्जतिपि वट्ठातिपि, दी. नि. 2.55; यत्थिच्छकन्ति ओकासपरिदीपनं, यत्थ यत्थ ओकासे इच्छति, दी. नि. अट्ठ. 2.93; यदिच्छकन्ति समापत्तिदीपनं, यं यं समापत्ति इच्छति, तदे. येनि.- जहां चाहे वहां, अपनी इच्छा के अनुसार - येनिच्छकं गच्छति गोचराय, सु. नि. 39; येनिच्छकं गच्छति गोचरायति येन येन दिसाभागेन गन्तुमिच्छति, तेन तेन दिसाभागेन गोचराय गच्छति, सु. नि. अट्ठ. 1.66; इदं पुरे चित्तमचारि चारिक, येनिच्छकं यत्थकामं यथासुखं थेरगा. 77. इच्छता स्त्री., इच्छा का भाव., इच्छा का होना, स. उ. प. में ही प्राप्त, महिच्छ.- अत्यधिक इच्छा का होना - य त. वि., ए. व. - ... दुप्पोसताय महिच्छताय असन्तुद्विताय ..... अवण्णं भासित्वा, महाव. 51; ब्राह्मणी पन महिच्छताय For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छति 289 इच्छागत पुन एकदिवसं सुवण्णहंसराजस्स आगतकाले "एहि ताव, पणिदहिस्साम, अ. नि. 1(2).165; - य तृ. वि., ए. व. सामीति ..., जा. अट्ठ. 1.454. - इच्छाय बज्झती लोको, स. नि. 1(1).47; न हि युज्जति इच्छति Vइच्छ का वर्त., प्र. पु., ए. व. [इच्छति], इच्छा इच्छाय च तण्हाय च अत्थतो अञत्तं, नेत्ति. 22; - य? करता है, कामना करता है - इच्छति सम्पटिच्छति, प. वि., ए. व. - सदा इच्छाय निच्छातो अनिच्छो होति सम्पटिच्छनं इच्छा अभिच्छा, इच्छं इच्छमानो, सद्द. 2.453; निबुतो, सु. नि. 712; - य ष. वि., ए. व. - "इच्छाय यो इच्छति कामेति, अप. अट्ट, 1.294; - न्ति ब. व. - विप्पहानेन, सब्बं छिन्दति बन्धन न्ति, स. नि. 1(1).47; - 'मातापितरो पुत्तं इच्छन्ति कुले जायमान'न्ति, अ. नि. य' सप्त. वि., ए. व. - इच्छायसन्त्या न ममत्तमत्थि, सु. 2(1).39; - च्छे/च्छेय्य विधि., प्र. पु., ए. व. - न नि. 878; - नं ष. वि., ब. व. - पापिच्छो होति न पुत्तमिच्छे न धनं न रढ़, ध. प. 84; न पुत्तमिच्छेय्य कुतो पापिकानं इच्छानं वसंगतो, दी. नि. 3.32; पुग्गलो पापिच्छो, सहायं, सु. नि. 35; - च्छं वर्त. कृ., पु., प्र. वि., ए. व. पापिकानं इच्छानं वसं गतो, म. नि. 1.137; - वचर पु., - सो प्लवती हुरा हुरं फलमिच्छंव वनस्मि वानरो, ध, प. तत्पु. स. [इच्छावचर], इच्छाओं में विचरण, इच्छाओं में 334; -च्छि अद्य., प्र. पु., ए. व. - सो तस्सो भरियाय भटकाव - रानं ष. वि., ब. व. - अकसलानं इच्छावचरानं सिनेहेन न इच्छि, पे. व. अट्ठ. 27; - तब्बं सं. कृ.. नपुं.. अधिवचनं, म. नि. 1.33; - वतिण्ण त्रि., [इच्छावत्तीर्ण], प्र. वि., ए. व. -- एतं तयं केसं इच्छितब्बन्ति, पे. व. अट्ठ. इच्छा से प्रभावित या आक्रान्त - ण्णानं पु., ष. वि., ब. 83 - च्छापेति Vइच्छ के प्रेर. का प्र. पु., ए. व., इच्छा व. - तेसं इच्छावतिण्णानं, भिय्यो तण्हा पवडथ, सु. नि. के लिए प्रेरित करता है, इच्छा करवाता है - 'इच्छती ति 308; ततो तेसं इच्छावतिण्णानं खीरादिपञ्चगोरसस्सादवसेन नरे इत्थी, इच्छापेती ति वा पन, सद्द. 2.363; - मि उ. रसतण्हाय ओत्तिण्णचित्तानं .... सु. नि. अट्ठ. 2.51; - पु., ए. व. - यदि गरहथ, वदथ, इच्छापेमि वो वत्तुन्ति पकत त्रि., [-प्रकृत], इच्छा से बंधा हुआ - तो पु., प्र. अत्थो, स. नि. अट्ट. 1.243. वि., ए. व. - यो भिक्खु पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं इच्छत्थ त्रि., ब. स. [इच्छार्थक], इच्छा अर्थ को सूचित अभूतं..., महाव. 123; पुग्गलो पापिच्छो इच्छापकतो, मि. करने वाला - त्थेसु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. - इच्छत्थेसु प. 322; - विनय पु., इच्छा पर संयम या नियन्त्रण - तवे तुं वा समानकत्तुकेसु, सद्द. 3.850. ये पु., सप्त. वि., ए. व. -- इच्छाविनये तिब्बच्छन्दो होति, इच्छन नपुं.. Vइच्छ से व्यु., क्रि. ना. [ईप्सन], इच्छा करना, दी. नि. 3.199; स. उ. प. के रूप में, अति., अत्रि, अनि., कामना करना, अभिलाषा या तृष्णा करना - नं प्र. वि., अप्पि., अभि., निरि., पापि., महि., विगति के अन्त. द्रष्ट.. ए. व. - येन देवट्ठाने च मनुस्सट्टाने च गन्तुं इच्छन, जा. इच्छाकर त्रि., किसी की इच्छा को पूर्ण करने वाला - रो अट्ठ.7.133. पु.. प्र. वि., ए. व. - कामकरोति इच्छाकरो, जा. अट्ठ. इच्छमान त्रि., Vइच्छ का वर्त. कृ. [इच्छमान], इच्छा कर 4.233. रहा, कामना कर रहा - पथवियं निपन्नस्स, एवं मे आसि इच्छाकरण त्रि., अपनी इच्छा के अनुसार काम करने वाला, चेतसो, इच्छमानो अहं अज्ज, किलेसे झापये मम, बु. वं. मनमौजी, स्वेच्छाचारी – णो पु., प्र. वि., ए. व. - यथा 2.54; इच्छमानोति आकङ्घमानो, बु. वं. अट्ठ. 104. वा पन... इस्सरो होति वसवत्ती सामिको इच्छाकरणो, मि. इच्छा' स्त्री., [इच्छा]. इच्छा, कामना, स्पृहा, आकांक्षा, तृष्णा प. 324, 325. - तण्हा च तसिणा एजा जालिनी च विसत्तिका ... इच्छाकारण त्रि., ब. स., इच्छा से उत्पन्न होने वाला, वह, इच्छाभिलासो कामदोहळा, अभि. प. 162-163; प्र. वि., ए. जिसके उदय का कारण इच्छा हो - णा पु., प्र. वि., ब. व. - इच्छा वुच्चति तण्हा, महानि. 21; 202; इच्छन्ति व. - इच्छानिदानाति ... इच्छाकारणा इच्छापभवाति - एताय आरम्मणानीति इच्छा, ध. स. अट्ठ. 390; तयो रोगा इच्छानिदाना, महानि. 22. पुरे आसु इच्छा अनसन, जरा, सु. नि. 313; इति बालस्स इच्छागत नपुं/स्त्री., इच्छा, अभिलाषा - तं प्र. वि., ए. सङ्कप्पो, इच्छा मानो च वड्डति, ध. प. 74; - च्छं द्वि. वि., व. - देवदत्तस्स ... एवरूप इच्छागतं उप्पज्जि, चूळव. ए. व. - सो तस्स कायदुच्चरितस्स पटिच्छादनहेतु पापिकं 321; तस्स मरह, भन्ते, एवरूप इच्छागतं उप्पज्जि, स. नि. इच्छं पणिदहति, अ. नि. 2(2).66; न पापिकं इच्छं 1(1).76; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - या एवरूपा इच्छा For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छाचार 290 इच्छापकत इच्छागता अत्रिच्छता रागो सारागो चित्तस्स सारागो-अयं 2(2).56; -- ण्डे सप्त. वि., ए. व. - इच्छानङ्गले विहरति उच्चति “अत्रिच्छता, विभ. 402; पाठा. इच्छागतं. इच्छानङ्गलवनसण्डे, सु. नि. 174; स. नि. 3(2).395; इच्छाचार पु., [इच्छाचार], मनमानीपन, अनियन्त्रित आकांक्षा, - वासी त्रि., इच्छानङ्गल में रहने वाला, इच्छानङ्गल का उद्दाम इच्छा या कामना, महत्त्वाकांक्षा, उच्चाकांक्षा - रं निवासी-सिनो पु., प्र. वि., ब. व. - इच्छानङ्गलवासिनो द्वि. वि., ए. व. - इच्छाचारं वज्जेत्वा, एव विहरिंसु, ध. प. च सन्निपतिंसु, महासमागमो अहोसि, वि. व. अट्ठ. 197; - अट्ठ. 1.333; तस्सत्तनो नागमने, इच्छाचारं विजानिय, म. वासिक त्रि., उपरिवत् - को पु.. प्र. वि., ए. व. - वं. 1.17; - रे सप्त. वि., ए. व. - अयं महल्लको तारुक्खो इच्छानङ्गलवासिको, दी. नि. अट्ठ. 1.300; - इच्छाचारे ठितो, जा. अट्ठ. 2.8; एवं इच्छाचारे ठत्वा सुत्त नपुं., स. नि. के आनापानसंयुत्त के एक सुत्त का पुरेक्खारञ्च भिक्खूसु इच्छति, ध. प. अट्ठ. 1.293. शीर्षक, स. नि. 3(2).395-96.. इच्छादोस त्रि०, इच्छाओं के द्वारा प्रदूषित, इच्छा के द्वारा इच्छानिदान त्रि., ब. स., इच्छाहेतुक, इच्छा के कारण से कलंकित - सा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - इच्छादोसा अयं । उत्पन्न, तृष्णा से उत्पन्न - ना पु.. प्र. वि., ब. व. - पजा, ध. प. 359. इच्छानिदाना भवसातबद्धा, ते दुप्पमुञ्चा न हि अञ्जमोक्खा, इच्छाधूमायित/इच्छाधूपायित त्रि., इच्छारूपी धुएं से सु. नि. 779; तत्थ इच्छानिदानाति तण्हाहेतुका, महानि. आच्छन्न या ढंका हुआ, इच्छारूपी धुएं से भरा हुआ, अट्ठ. 81; --- नानि नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - इच्छानिदानानि इच्छाओं के कारण जल रहा - तो पु., प्र. वि., ए.व. -- परिग्गहानि, सु. नि. 878. मच्चुनाब्महतो लोको... इच्छाधूपायितो सदा, थेरगा. 448; इच्छानिद्देस पु., [निर्देश], इच्छा की व्याख्या या विश्लेषण महानि. 304; इच्छाधूपायितोति इच्छाय आदित्तो, स. नि. - से सप्त. वि., ए. व. - इच्छानिदेसे जातिधम्मानन्ति अट्ठ. 1.86; इच्छाधूपायितोति ... इच्छाय सन्तापितो, थेरगा. जातिसभावानं जातिपकतिकानं, विभ. अट्ठ. 101. अट्ठ. 2.101. इच्छानुकूलक त्रि., किसी की इच्छा के अनुकूल रहने इच्छानङ्कल/इच्छानङ्गल नपुं.. व्य. सं., कोशल जनपद में वाला, किसी की इच्छा से मेल खाने वाला, किसी की अवस्थित ब्राह्मणों के एक गांव का नाम - लं' प्र. वि., इच्छा के सदृश - कं नपुं., क्रि. वि., प्र. वि., ए. व. - ए. व. - येन इच्छानङ्गलं नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो एको व रुक्खो फलति सब् इच्छानुकूलक, सद्धम्मो. तदवसरि दी. नि. 1.76; अ. नि. 2(1).25; - लं' वि. वि., 242. ए. व. - इच्छानङ्गलं अनुप्पत्तो इच्छानङ्गले विहरति, दी. इच्छानुरूप अ., क्रि. वि., किसी की इच्छा के अनुरूप - नि. 1.77; -- ले सप्त. वि., ए. व. - गोतमो सक्यपुत्तोपं नपुं., क्रि. वि., प्र. वि., ए. व. - तस्स इच्छानुरूप ... पब्बजितो इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे, सु. पयिरूपासिंसु, पे. व, अट्ठ. 134; अत्तनो इच्छानुरूपं तेसं नि. 173; दी. नि. 1.76; ब्राह्मणमहासाला इच्छानङ्गले पटिपत्तिं पस्सितुं ..., उदा. अट्ठ. 341. पटिवसन्ति, सु. नि. 173; - क त्रि., इच्छानङ्गल नामक इच्छापकत त्रि., इच्छा + पकत/इच्छा + अपकत [इच्छाप्रकृ ब्राह्मण ग्राम में रहने वाला या वहां पर उत्पन्न - को पु.. त], अत्यधिक तृष्णा के कारण पीड़ित, स्वभावतः इच्छा से प्र. वि., ए. व. - अञतरो इच्छानङ्गलको उपासको प्रभावित, इच्छा से अभिभूत, तृष्णालु- तो पु., प्र. वि., ए. सावत्थिं अनुप्पत्तो होति केनचिदेव करणीयेन, उदा. 82; व. - इच्छापकतोति इच्छाय अपकतो, उपद्दुतोति अत्थो, इच्छानङ्गलकोति इच्छानङ्गलनामको कोसलेसु एको महानि. अट्ठ. 269; इच्छापकतोति इच्छाय अभिभूतो, अ. ब्राह्मणगामो, तनिवासिताय तत्थ वा जातो भवोति वा नि. अट्ठ. 3.41; यो भिक्खु पापिच्छो इच्छापकतो असन्तं इच्छानङ्गलको, उदा. अट्ठ.91; - का ब. व. - अस्सोसु अभूतं उत्तरिमनुस्सधम्म उल्लपति, महाव. 123; - स्स खो इच्छानङ्गलका ब्राह्मणगहपतिका.., अ. नि. 2(1).26; पु., ष. वि., ए. व. - लाभसक्कारसिलोकसन्निस्सितस्स - वनसण्ड पु., कोशल जनपद में अवस्थित एक जंगल पापिच्छस्स इच्छापकतस्स आमिसचक्खुकस्स ..., महानि. का नाम - ण्डो प्र. वि., ए. व. - येन 285; लाभसक्कारसिलोकसन्निस्सितस्स पापिच्छस्स इच्छानगलवनसण्डो तेन पायासि, दी. नि. 1.78; येन इच्छापकतस्स या परेसं आलपना लपना .... विभ. इच्छानङ्गलवनसण्डो तेनुपसङ्कमिंसु. अ. नि. 2(1).26%; 404. For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छापच्चय 291 इच्छाविपरियाय इच्छापच्चय त्रि., इच्छा या तृष्णा से उत्पन्न - या पु., प्र. इच्छावचर पु., इच्छा के साथ किए गए सांसारिक क्रिया वि., ब. व. - इच्छानिदानाति इच्छानिदानका इच्छाहेतुका कलाप, सकाम कार्य-कलाप, इच्छावशात् प्रवृत्ति - रा प्र. इच्छापच्चया इच्छाकारणा, इच्छापभवाति .... महानि. 22. वि., ब. व. - यस्स करसचि आवुसो, भिक्खुनो इमे पापका इच्छापमव त्रि., इच्छा से उत्पन्न, तृष्णा से उद्भूत - वा पु.. अकुसला इच्छावचरा पहीना दिस्सन्ति चेव सूयन्ति च प्र. वि., ब. व. - ... इच्छानिदानका इच्छाहेतुका इच्छापच्चया ..., म. नि. 1.38; - रानं ष. वि., ब. क. - पापकानं खो इच्छाकारणा इच्छापभवाति, महानि. 22. एतं, अकुसलानं इच्छावचरानं अधिवचनं, म. नि. 1.33; इच्छापरियुट्ठान नपुं.. इच्छा के द्वारा अभिभूत होने की तत्थ इच्छावचरानन्ति इच्छाय अवचरानं, इच्छावसेन अवस्था, इच्छा द्वारा आविष्ट या ग्रस्त हो जाना-नं प्र. ओतिण्णानं पवत्तानं, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).153. वि., ए. व. - इच्छापरियुट्टानं खो पन तथागतप्पवेदिते इच्छावचरपटिसंहरणलक्खण त्रि., ब. स., इच्छापूर्ण धम्मविनये परिहानमेतं, अ. नि. 3(2).132. व्यवहार के निराकरण के लक्षण या वैशिष्ट्य से युक्त, इच्छापरियद्वित त्रि., परि + उ + Vठा का भू. क. कृ., वह, जिसका लक्षण इच्छा से भरे हुए व्यवहार का अन्त है इच्छा द्वारा अभिभूत, इच्छाग्रस्त - तेन नपुं., तृ. वि., ए. - णो पु., प्र. वि., ए. व. - इच्छावचरपटिसंहरणलक्षणो व. - पापिच्छो खो पन अयमायस्मा, इच्छापरियट्टितेन अलोभो, नेत्ति. 25. चेतसा बहुलं विहरति, अ. नि. 3(2).132. इच्छावतिण्ण त्रि., तत्पु. स. [इच्छावतीर्ण], इच्छाओं से इच्छाबद्ध त्रि., तत्पु. स. [इच्छाबद्ध]. इच्छा से बंधा हुआ, अभिभूत, इच्छाओं से पीड़ित - ण्णानं पु., ष. वि., ब. व. तृष्णा एवं लालसा से बंधा हुआ-द्धा पु., प्र. वि., ब. क. - तेसं इच्छावतिण्णानं, भिय्यो तण्हा पवड्डथ, सु. नि. 308. - इच्छाबद्धा पुथू सत्ता, पासेन सकुणी यथा ति, स. नि. इच्छावसिक त्रि., इच्छा के वश में रहने वाला, इच्छा का 1(1).52. दास - कं पु., द्वि. वि., ए. व. - परिककृतीति इच्छावसिक इच्छामत्तोपसाधिय त्रि., [इच्छामात्रोपसाध्य], केवल इच्छा पुग्गलं तत्थ तत्थ उपकडति, स. नि. टी. 1.123. के द्वारा प्राप्य या साध्य, केवल चाहने भर से मिल जाने इच्छाविघात पु., तत्पु. स. [इच्छाविघात], इच्छा का विघात, वाला - या स्त्री., प्र. वि., ए. व. - साधून या गति सा तृष्णा का विनाश, इच्छा का भंग - तं द्वि. वि., ए. व. - मे इच्छामत्तोपसाधिया, सद्धम्मो. 320. विहरन्ते अत्तनो धीतासु आगन्त्वा इच्छाविघातं पत्वा गतासु. इच्छारहित त्रि., तत्पु. स. [इच्छारहित], इच्छा से मुक्त, उदा. अट्ठ. 266; - दुक्ख नपुं., कर्म. स., इच्छाओं के किसी प्रकार की इच्छा न करने वाला - तो पु., प्र. वि., पूरा न होने के कारण उत्पन्न दुख, इच्छा-भंग से उत्पन्न ए. व. - अप्पिच्छोति, अनिच्छो चतूस पच्चयेस इच्छारहितो, दुख - क्खं प्र. वि., ए. व. - मनोरथविघातप्पत्तानं थेरगा. अट्ठ. 2.174. इच्छाविघातदुक्खं इच्छितालाभोति ..., विसुद्धि. 2.135. इच्छारोगापदेस पु., तत्पु. स., इच्छारूपी रोग का व्याज, इच्छाविघातनिब्बत्तनक त्रि., इच्छा को पूर्ण न होने देने इच्छारूपी रोग का कारण - सेन तृ. वि., ए. व. - एतेन । वाला, इच्छा की पूर्ति में बाधा खड़ी करने वाला- का पु., इच्छारोगापदेसेन सकारणं ब्याधिदुक्खं वुत्तं, पटि. म. अट्ठ. प्र. वि., ब. व. - विघातपक्खिकाति दुक्खभागिया, 2.14. इच्छाविघातनिब्बत्तनका, इतिवु. अट्ठ. 235. इच्छालोम पु., द्व. स., इच्छा और लोभ- भो प्र. वि., ए. इच्छाविनय पु., तत्पु. स. [इच्छाविनय], इच्छा का अपनयन, व. - इच्छा लोभो च कुम्मग्गो, उजुमग्गो च संयमो, जा. इच्छा का दूरीकरण या निष्कासन, इच्छा का नाश, सात अट्ठ. 7.142; - मं द्वि. वि., ए. व. - मुसावादं पुरक्खत्वा, निद्देसवत्थुओं में तृतीय – याय तृ. वि., ए. व. - इच्छाय इच्छालोभञ्च पापक, जा. अट्ठ. 5.370. बज्झती लोको, इच्छाविनयाय मुच्चति, स. नि. 1(1).47; - इच्छालोभसमापन्न त्रि., तत्पु. स., इच्छा और लोभ से ___ स्स ष. वि., ए. व. - भिक्खु पापिच्छो होति, इच्छाविनयस्स ग्रस्त - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - इच्छालोभसमापन्नो, न वण्णवादी, अ. नि. 3(2).140; - ये सप्त. वि., ए. व. समणो कि भविस्सति, ध, प. 264. - इच्छाविनये तिब्बच्छन्दो होति, आयतिञ्च इच्छाविनये इच्छालोभसमुस्सय त्रि., ब. स., इच्छा और लोभ से उदित अविगतपेमो, दी. नि. 3.199; अ. नि. 2(2).166. होने वाला - या स्त्री., प्र. वि., ब. व. -- अविज्जामूलिका इच्छाविपरियाय पु., तत्पु. स. [इच्छाविपर्याय], इच्छापूर्ति सब्बा इच्छालोभसमुस्सया, इतिवु. 26, का वैपरीत्य, इच्छा पूरी होने में उत्पन्न व्यतिक्रम - ये " . For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छाविरहित 292 इच्छितत्थ सप्त. वि., ए. व. - इच्छाविपरियाये आघातवत्थूसु कोधो च उपनाहो च उप्पज्जतीति इदम्पि समत्थनं होति, नेत्ति. अट्ठ. 214. इच्छाविरहित त्रि., तत्पु. स. [इच्छाविरहित], इच्छा या तृष्णा से मुक्त, इच्छा से रहित – तो पु., प्र. वि., ए. व. - अप्पिच्छोति इच्छाविरहितो निइच्छो नित्तण्हो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).43. इच्छाविसटगामिनी स्त्री., विस्तृत होकर या बहुत फैलकर चलने वाली इच्छा, व्यापक प्रसार वाली तृष्णा, प्र. वि., ए. व. - उपरिविसाला दुप्पूरा इच्छा विसटगामिनी, जा. अट्ठ. 3.180; जा. अट्ठ. 4.4; रूपादीसु आरम्मणेसु तं तं आरम्मणं इच्छमानाय इच्छाय पत्थटाय विसटगामिनी, जा. अट्ठ. 3.180. इच्छाविसिट्ठ त्रि, तत्पु. स. [इच्छाविशिष्ट], इच्छा की विशिष्टता से युक्त - 8ो पु., प्र. वि., ए. व. – “इच्छन्ति एतं अपेक्खति, तदापि अलाभविसिट्ठा इच्छा वुत्ता होति, यदा, “न लभती ति एतं अपेक्खति, तदा इच्छाविसिट्ठो अलाभो वुत्तो होति, विभ. मू. टी. 67. इच्छासभाव त्रि., ब. स., तृष्णालु, इच्छाओं से भरे स्वभाव वाला - वा स्त्री, प्र. वि., ब. व. - ता पन यस्मा तण्हादिढिकप्पनापरिकप्पितअत्तसभसखसरसतादिप कतिआदिधुवादिजीवादिकायादिका विय न इच्छासभावा, अ. नि. टी. 2.132. इच्छासहित त्रि., तत्पु. स., इच्छा से युक्त, इच्छा से मिश्रित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - इच्छावाति एत्थ इच्छासहितो अलाभोवाति च वदन्ति, विसुद्धि. महाटी. 2.190. इच्छासुत्त नपुं., स. नि. के देवतासंयुत्त के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).47. इच्छाहत त्रि., तत्पु. स. [इच्छाहत], इच्छा से प्रभावित या अभिभूत - स्स पु., ष. वि., ए. व. - इच्छाहतस्स पोसस्स, चक्कं भमति मत्थके ति, जा. अट्ठ. 1.3963; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).340. इच्छाहेतुक त्रि., ब. स. [इच्छाहेतुक], इच्छा से उत्पन्न - का पु., प्र. वि., ब. व. - इच्छाहेतुका इच्छापच्चया इच्छाकारणा इच्छापभवाति इच्छानिदाना, महानि. 22. इच्छित/इट्ठ त्रि०, Vइच्छ का भू. क. कृ. [ईप्सित], चाहा हुआ, अभीष्ट, अभीप्सित, इष्ट - तं' नपुं., प्र. वि., ए. व. - यं वत नो अहोसि इच्छितं, यं आकसितं, यं अधिप्पेतं, यं अभिपत्थितं, दी. नि. 1.105; दी. नि. 2.173; इच्छितं पत्थितं तुव्ह, खिप्पमेव समिज्झतु, ध. प. अट्ठ. 1.115; - तं नपुं., वि. वि., ए. व. - मनसा इच्छितं लभन्तीति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.229; एतं मम कामं मया इच्छितं मम वचनं करस्सु, जा. अट्ठ. 5.336; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अपि चेत्थ द्विधा चापि सोपा सन्धि इच्छितो, सद्द. 3.610; अम्हाकं पन मते "गुण आमन्तणे ति धातुवसेन निप्फन्नत्ता गोसदस्स गोणादेसो न इच्छितो, सद्द. 3.645; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एवं आपसहस्स एकन्तेन इथिलिङ्गता बहुवचनता च आचरियेहि इच्छिता, सद्द. 1.107; स. उ. प. के रूप में, अनि., अभि., मनो., यथि के अन्त. द्रष्ट; - कम्म नपुं., कर्म. स. [इच्छितकर्म], ईप्सित कर्म, अभीष्ट कर्म, चाहा हुआ कर्म - म्म प्र. वि., ए. व. - इच्छितकम्म नाम, सद्द. 3.692; इच्छितकम्म, नेविच्छितनानिच्छितकम्म, सद्द. 3.692; विलो., अनिच्छितकम्मं नाम, सद्द. 3.692; - कारी पु., प्र. वि., ए. व., अभीष्ट कर्म को करने वाला - लद्धयसधनभोगो आदेय्यवचनो बलविच्छितकारी, मि. प. 119; - काल पु.. [-काल], अभीष्ट समय, इष्टकाल - ले सप्त. वि., ए. व. - इच्छितकाले गहिस्सामी ति, ध. प. अट्ठ. 2.42; - छान नपुं., अभीष्ट स्थान - नं द्वि. वि.. ए. व. - मनुस्सा उदकसद्देन वट्ठाय ... गोणेपि पायेत्वा सोत्थिना इच्छितट्टानं अगमंसु, स. नि. अट्ठ. 1.185; न सक्का तं पटिपज्जित्वा इच्छितट्टानं गन्तुं, स. नि. अट्ठ. 3.103; - पट्टन नपुं.. वह पत्तन या बन्दरगाह जहां पहुंचना अभिप्रेत हो, अभीप्सित बन्दरगाह - नं द्वि. वि., ए. व. - तञ्च नावं अत्तनो इद्धानुभावेन तेहि इच्छितपट्टनं तं दिवसमेव उपनेसि, पे. व. अट्ठ. 46; - पति पु., [पति], परमप्रिय पति, प्रियतम – तिं द्वि. वि., ए. व. - यो मे इच्छितं पतिं वराकिया, जा. अट्ठ. 4.254; वन्दे ते अयिरब्रह्मे, यो मे इच्छितं पतिं वराकिया, अमतेन अभिसिञ्चि, जा. अट्ठ. 4.257; - मग्ग पु.. कर्म. स. [इच्छितमार्ग], अभीष्ट पथ, चाहा गया रास्ता, मनपसन्द रास्ता – ग्गं द्वि. वि., ए. व. - यदि अत्तना इच्छितमग्गयेव गन्तुकामत्थाति अधिप्पायो, उदा. अट्ठ. 344; - ताकार पु., कर्म. स. - [इच्छिताकार], मनपसन्द संकेत या इशारा-रं द्वि. वि., ए. व. - कोकालिकस्स इच्छिताकारं दस्सेत्वा ..., पारा. अट्ट 2.173; पाठा. इङ्गिताकारं, इच्छितत्थ पु., कर्म. स. [इच्छितार्थ], अभीप्सित तात्पर्य, चाहा गया प्रयोजन - त्यो प्र. वि., ए. व. - अपदिसीयति वा इच्छितत्थो अनेनाति अपदेसो, दी. नि. अभि. टी. 1.303. For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छितत्थकसावन 293 इच्छितविहार इच्छितत्थकसावन नपुं.. तत्पु. स., इच्छित अर्थ को सुनाया इच्छितब्बाति, जा. अट्ठ. 5.278; दिद्विपि इच्छितब्बा, महानि. जाना - नं प्र. वि., ए. व. - अपरे पन भणन्ति 138; आतुरस्स सप्पायकिरिया इच्छितब्बा होति. मि. प. "तिरच्छानगतं मनस्सं वा आविसित्वा, इच्छितत्थकसावनं 203; - ब्बं नपुं., प्र. वि., ए. व. - सवनम्पि इच्छितब्ब नाम महामन्तविज्जावसेन होति, म. नि. टी. (उप.प.) ...., आणम्पि इच्छितब्बं ..., सीलम्पि इच्छितब्बं, महानि. 3.156. 138; - ब्बे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - इच्छितब्बे अ. इच्छितत्थनिप्फत्ति स्त्री., तत्पु. स. [इच्छितार्थनिष्पत्ति, इच्छितब्बत्थे अपच्चयो होति, सद्द. 3.791; - ब्बानि नपुं०, चाहे गए प्रयोजन या अभिप्राय की पूर्णता, इच्छित वस्तु की प्र. वि., ब. व. - सत्त सप्पायानि इच्छितब्बानि, म. नि. प्राप्ति या कार्यान्वयन, प्र. वि., ए. व. - अनुत्रासी याव अट्ठ. (उप.प.) 3.119; आलपनेकवचनानि अवस्स इच्छितत्थनिप्फत्ति, चरिया. अट्ठ. 260; - कारणता स्त्री., मिच्छतब्बानि, सद्द. 1.147; - बानं ष. वि., ब. व. - भाव., इच्छित अर्थ के कार्यान्वयन में कारणभूत होना, प्र. बव्हक्खरेसु इच्छितब्बानं अक्खरानं गहणं होति, सद्द. वि., ए. व. - ओ इच्छितत्थनिष्फत्तिकारणताति एवमादीहि । 3.876; - त्थ पु., तत्पु. स. [इच्छितव्यार्थ], वाञ्छनीय दिब्बसदिसेहि आनुभावेहि समन्नागतत्ता, दी. नि. टी. (लीन.) होने का अर्थ-त्थे सप्त. वि., ए. व. - इच्छितब्बत्थे 2.176. अप्पच्चयो होति, सद्द. 3.791; - क त्रि., इष्ट, अभीष्ट, इच्छितत्थनिब्बत्तन न, तत्प. स. [इच्छितार्थनिवर्तन], वाञ्छनीय - को पु., प्र. वि., ए. व. - एवं भवे विज्जमाने, इच्छित वस्तु या इच्छित अभिप्राय की निष्पत्ति अथवा विभवोपि इच्छितब्बको, बु. वं. 2.10; - कं नपुं॰, प्र. वि., कार्यान्वयन, स. प. के रूप में, - इच्छितत्थनिब्बत्तनत्थं ए. व. - एवं तिविधग्गि विज्जन्ते, निब्बानं इच्छितब्बकं. ब. अपदिसितब्बो, अपदिसीयति वा इच्छितत्थो अनेनाति अपदेसो, वं. 2.11; - के पु., सप्त. वि., ए. व. - आगन्तुकानमुस्सुक्क दी. नि. अभि. टी. 1.303. अकासि इच्छितब्बके, महाव. 452; - तर त्रि., तुल. इच्छितत्थविसेस पु., कर्म. स., इच्छित अर्थ का विशिष्ट- विशे., दूसरे की तुलना में अत्यधिक प्रशंसनीय, अतिशय स्वरूप, विशिष्ट प्रकार का इच्छित अर्थ - तो प. वि., ए. संस्तुत्य - रं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इच्छितब्बतरं यस्मा, व. - अत्थसामञ्जतो संवण्णेत्वा इच्छितत्थविसेसतोपि धम्मसेनापतीरितं, सद्द. 1.253. संवण्णेतुं "यं वा ति आदिमाह, दी. नि. अभि. टी. 1.303. इच्छितभण्डग्गहण नपुं, तत्पु. स. [इच्छितभाण्डग्रहण], इच्छितत्थसहित त्रि., तत्पु. स. [इच्छितार्थसहित], अभीप्सित मनचाहे माल-असबाब को छीन लेना, अभीप्सित सामग्री अर्थ से युक्त -- तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ननु सब्बेसम्पि को ग्रहण कर लेना - णं प्र. वि., ए. व. - गेहं पविसित्वा वचनं अत्तना इच्छितत्थसहितंयेव, दी. नि. अभि. टी. मनुस्सानं उरे सत्थं ठपेत्वा इच्छितभण्डग्गहणं, म. नि. 1.303. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).112. इच्छितप्पदेस पु., कर्म. स. [इच्छितप्रदेश], मनोवाञ्छित इच्छितलाभ पु., तत्पु. स. [इच्छितलाभ], मनचाही वस्तु क्षेत्र, मनचाहा प्रदेश – सं द्वि. वि., ए. व. - इच्छितप्पदेस को पा लेना, इच्छित पदार्थ या व्यक्ति की प्राप्ति, स. प. अपापुणन्तो अन्तरामग्गेयेव सीहब्यग्घादीहि अनयब्यसनं के रूप में - असन्तुट्ठानं इच्छितलाभादिना यो विघातो पापुणाति, खु. पा. अट्ठ. 54. चित्तस्स होति, सो तत्थ सन्तुट्ठस्स न होतीति, इतिवु. अट्ठ. इच्छितब्ब त्रि., Vइच्छ का सं. कृ. [इच्छितव्य], चाहे जाने 284. इच्छितवत्थु नपुं.. कम. स. [इच्छितवस्तु]. मनचाही वस्तु, वि., ए. व. -- न तत्थ अओ कोचि ततियो इच्छितब्बो, मि. वाञ्छित वस्तु - स्स ष. वि., ए. व. - इच्छितवत्थुस्स प. 102; तेन हि निब्बानस्स उप्पादायपि हेतु इच्छितब्बो, समीपे कथनं सामन्तजप्पा, विसुद्धि. महाटी. 1.51. मि. प. 250; यदि निब्बानं अस्थि, तस्स निब्बानस्स इच्छितविहार पु., कर्म. स. [इच्छितविहार]. अभीप्सित उट्ठानोकासोपि इच्छितब्बो, मि. प. 297; तेन कारणेन विहार, मन की इच्छित स्थिति, अभीप्सित मानसिक पितुनोपि पिता इच्छितब्बो, मि. प. 250; आचरियस्सपि स्थिति - रेन तृ. वि., ए. व. - पटिकूलादीसु वत्थूसु आचरियो इच्छितब्बो, मि. प. 250-51; - ब्बा स्त्री., प्र. इच्छितविहारेन विहरितुं समत्थता अरियानं एव, स. नि. वि., ए. व. - "अम्म, ओ पच्छिमासने रक्खा नाम टी. 2(2).152. For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छिताकारकुसलता 294 इज्झति इच्छिताकारकुसलता स्त्री॰, भाव., मनचाहे आकार को नि. अट्ठ. 2.158; – ने सप्त. वि., ए. व. - मातङ्गनागो निर्मित कर लेने की कुशलता - य तृ. वि., ए. व. - ततो इच्छितिच्छितवाने सुखं चरति, ध. प. अट्ठ. 2.298; - पन भगवतो गन्धकुटिया कवाट सुबद्ध पस्सित्वा दायक त्रि., अभीष्ट वस्तु को देने वाला - को पु., प्र. इच्छिताकारकुसलताय इद्धिया गन्त्वा कुटिं पविसित्वा वि., ए. व. - कामददोति इच्छितिच्छितदायको, पे. व. आरोचेसि, वजिर. टी. 434. अट्ठ. 99; - रूप नपुं., इच्छित रूप या आकार - पं द्वि. इच्छितारम्मण नपुं.. कर्म. स. [इच्छितालम्बन], मनोवाञ्छित वि., ए. व. - मयं मनापकायिका नाम मनसा आलम्बन - णे सप्त. वि., ए. व. - यत्थकामनिपातितोति इच्छितिच्छितरूपं मापेमा ति. स. नि. अट्ठ. 1.258; - यत्थ कत्थचि इच्छितारम्मणे निपातिभावतो. विसद्धि. महाटी. लाभी त्रि.. [-लाभिन्], अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने 2.172. वाला-भी पु., प्र. वि., ए. व. - न निकामलाभीतिआदीस इच्छितालाभ पु., तत्पु. स. [इच्छितालाभ], जिसके पाने न इच्छितिच्छितलाभी, अ. नि. अट्ठ. 3.40. की इच्छा की गई है उसकी अप्राप्ति - भो प्र. वि., ए. इच्छितिच्छितधम्मभावना स्त्री., तत्पु. स., पुनः पुनः इच्छा व. - इच्छितालाभो नाम यस्स करसचि अत्तना इच्छितस्स किए गए धर्मों की भावना, प्र. वि., ए. व. - विपस्सनाकाले वत्थुनो अलाभो, “यम्पिच्छं न लभती ति हि वुत्तं, विसुद्धिः इच्छितिच्छितधम्मभावना नत्थि सारत्थ. टी. 3.207. महाटी. 2.190; -- भं द्वि. वि., ए. व. - मत्थकप्पत्तं पन इच्छितिच्छितधारा स्त्री., पुनः पुनः इच्छित वस्तुओं की इच्छितालाभं दस्सेतं पाळियं, "जातिधम्मानं सत्तानन्तिआदिना धारा - य ष. वि., ए. व. - सिनाटकं विय निद्दिट्ठन्ति, विसुद्धि. महाटी. 2.190. इच्छितिच्छितधाराय पतिठ्ठाति, विभ. अट्ठ. 321. इच्छितालाभदुक्ख नपुं.. तत्पु. स., चाही गई वस्तु अथवा इच्छितिच्छितप्पकार त्रि., ब. स., मनचाहे प्रकार या व्यक्ति के न मिल पाने के कारण उत्पन्न दुख - क्खं प्र. आकार वाला - रा पु., प्र. वि., ब. व. - अधिद्वानचित्तेन वि., ए. व. - अमोहेन इच्छितालाभदुक्खं न होति.ध. स. सद्धि इच्छितिच्छितप्पकारायेव होन्तीति, विसुद्धि. 2.17. अट्ठ. 172. इजन नपुं., क्रि. ना. Vइज से व्यु. [एजन, बौ. सं. इञ्जन], इच्छितालाभहेत् अ., क्रि. वि., मनचाही वस्तु का लाभ न प्रकम्पन, गति, चाल - इजनं एजा, सद्द. 3.862. होने का कारण -- तस्मा कामयोगादिवसेन इच्छितालाभहेत इज्जति/इज्जते ।यज का कर्म. वा., वर्त., प्र. पु., ए. व. सत्ता विहन्ति , उदा. अट्ट. 128. [इज्यते], पूजित अथवा सम्मानित होता है, सत्कृत होता इच्छितिच्छित त्रि., चाही गई कोई भी स्थिति या वस्तु, _है - देवमनुस्सेहि भगवा यजीयति, इज्जति, सद्द. 2.348; इच्छा का विषयीभूत कोई भी व्यक्ति, कोई भी इच्छित इज्जते मया बुद्धो, क. व्या. 505; तुल. यजीयति. अथवा वाञ्छित व्यक्ति, चाही गई कोई भी चीज़, जो चाहे इज्जा स्त्री., 1. Vइज (गत्यर्थक) से व्यु. [एजा]. उपरिवत् सो वस्तु या स्थिति - तं' स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - - इजनं एजा, सद्द. 3.862; 2. Vयज से व्यु., [इज्या], ... अहं इच्छितिच्छितं समापत्तिं समापज्जितं लभामी ति, यज्ञ, उपहार, दान, यज्ञकर्म, प्र. वि., ए. व. - इज्जा स. नि. अट्ठ. 1.106; यथा इच्छितिच्छितं दिसं पवत्तेन्तो यजनं, रू. सि. 292(सिंहली).. धावति, स. नि. अट्ठ. 3.167-168; - तं नपुं., द्वि. वि., इज्झति ।इध का वर्त, प्र. पु.. ए. व. [ऋध्यति], संपन्न या ए. व. - न सक्का होति इच्छितिच्छितं बुद्धवचनं वा समृद्ध होता है, फलता-फूलता है, बढ़ता है, सफल होता गण्हितुं, स. नि. अट्ठ. 1.38; ... इच्छितिच्छितं भुञ्जति, है, विकसित होता है, सन्तुष्ट अथवा तृप्त कर देता है - ध. स. अट्ठ. 156; - खण पु., इच्छित क्षण, मनचाहा "कथहि यजमानस्स कथं इज्झति दक्खिणा ति, स. नि. समय - णे सप्त. वि., ए. व. - इच्छितिच्छितक्खणे 1(1).204; इज्झतीति समिज्झति महप्फलो होति, स. नि. समापत्तिं वा समापज्जितुं ..., स. नि. अट्ट. 1.38; न मयं, अट्ठ. 1.228; इज्झतीति इद्धि, समिज्झति निप्फज्जतीति राजपुत्त, इच्छितिच्छितक्खणे सत्थारं ददै लभामाति, अ.. अत्थो, उदा. अठ्ठ. 248; -- न्ति ब. व. - पूजेथ अन्नपानेन, नि. अट्ठ. 1.220; स. नि. अट्ठ. 2.80; - द्वान नपुं., एवं इज्झन्ति दक्षिणा, सु. नि. 489; पयोजयन्ति कम्मानि. [-स्थान], अभीष्ट या वाञ्छित स्थान - नं द्वि. वि., ए. तानि इज्झन्ति वा न वा, जा. अट्ठ. 6.44; इज्झन्ति वा व. - इच्छितिच्छितद्वानं सत्थारं गहेत्वा गन्तं सक्कोति. स. एताय सत्ता इद्धा वुद्धा उक्कंसगता होन्तीति इद्धि. उदा. For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इज्झते 295 इज्झनपज्जनकिरियाकरण अट्ठ. 248; - तु अनु०, प्र. पु., ए. व. - सो ते इज्झतु सङ्कप्पो, लभस्सु विपुलं सुखं अप. 2.47; - न्तु ब. व. - ते ते इज्झन्तु सङ्कप्पा, लभ चक्खूनि ब्राह्मण, जा. अट्ठ. 4.362; - स्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - महन्तं कुलपुत्तस्स चित्तं, इज्झिस्सति नु खो, नोति, स. नि. अट्ठ. 2.81; - ज्झे विधि, प्र. पु., ए. व. - अद्धा हि तस्स हुतमिज्झे, सु. नि. 463; -- ज्झि अद्य., प्र. पु., ए. व. - आसिंसना इज्झि यथा हि मह, जि. च. 217; - ज्झिंसु ब. व. - ते मे इज्झिंसु सङ्कप्पा, यदत्थो पाविसिं कुटिं थेरगा. 60; ... ते सब्बेव इदानि मय्ह इज्झिंसु समिज्झिसु निष्फन्नकुसलसङ्कप्पो परिपुण्णमनोरथो जातोति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 1.148. इज्झते ।इध का वर्त०, प्र. पु., ए. व., आत्मने., उपरिवत् - “यत्थ हुतं इज्झते ब्रूहि मे तं. सु. नि. 465. इज्झन नपुं., क्रि. ना., Vइध से व्यु., फलदायी होना, वृद्धि या विकास करना, समुन्नति, समृद्धि - नं प्र. वि., ए. व. - इज्झन समिज्झनं, इद्धो, सद्द. 2.484; - नट्ठ पु., तत्पु. स., समृद्धि अथवा प्रतिलाभ का अर्थ, विकास का अर्थ, सफल सम्पादन अथवा सफल कार्यान्वयन का आशय - ट्ठो प्र. वि., ए. व. - इद्धिपादानं इज्झनट्ठो अभि य्यो, पटि. म. 16; वीरियस्स इज्झनट्ठो अभि य्यो, पटि. म. 17; इज्झनट्ठोति निष्फज्जनहो पतिद्वानट्ठो वा, पटि. म. अट्ठ. 1.85; - 8 द्वि. वि., ए. व. - वीमंसाय इज्झनटुं बुज्झन्तीति बोज्झङ्गा, पटि. म. 298; - द्वेन तृ. वि., ए. व. - इज्झनढेन इद्धिपादा तदा समुदागता, पटि. म. 68; इज्झनटेन इद्धिपाद समोधानेति, पटि. म. 173; इद्धिविधे आणन्ति इज्झनटेन, इद्धि, निफ्फत्तिअत्थेन पटिलाभद्वेन चाति वुत्तं होति, पटि. म. अट्ठ. 1.43; -टे सप्त. वि., ए. व. - अधिट्टानवसेन इज्झनटे पञ्जा इद्धिविधे जाणं, पटि. म. 3; - भाव पु., तत्पु. स., सफल निष्पादन की अवस्था, सफल कार्यान्वयन अथवा सफल निष्पत्ति की दशा - वं द्वि. वि., ए. व. - तेसं पत्थनाय समिज्झनभावं अत्वा, ध. प. अट्ठ. 2.317; पाठा. समिज्झनभावं; - समाव पु., सफल कार्यान्वयन का स्वभाव, सफल निष्पत्ति की प्रकृति - वे सप्त. वि., ए. व. - इज्झनढे पति इज्झनसभावे पा , पटि. म. अट्ठ. 1.43; - ना स्त्री., Vइध से व्यु., क्रि. ना., समृद्धि, सफलता, पूर्णता, विकास, सफल कार्यान्वयन, प्र. वि., ए. व. - ... या तेसं धम्मानं इद्धि समिद्धि इज्झना समिज्झना लाभो पटिलाभो, विभ. 244; - नाकार पु., तत्पु. स., सफल कार्यान्वयन का ही एक रूप अथवा एक प्रकार - रो प्र. वि., ए. व. - इज्झनाकारो इज्झना, विभ. अट्ठ. 288. इज्झनइद्धि स्त्री., कर्म. स., सफलतापूर्ण ऋद्धि, सफलता से परिपूर्ण ऋद्धि, प्र. वि., ए. व. - तत्थ अधिप्पायइद्धीति अधिप्पायइद्धि, यथाधिप्पायं इज्झनइद्धीति अत्थो, प. प. अट्ठ. 275. इज्झनक त्रि., समृद्धि, परिपूर्णता अथवा सफलता को लाने वाला, समृद्धिकारी - स्स ष. वि., ए. व. - सीलन्ति कामञ्चेत सह कम्मवाचापरियोसानेन इज्झनकस्स पातिमोक्खस्सेव वेवचनं, सारत्थ. टी. 3.32. इज्झनककोट्ठास पु., कर्म. स., चित्त में वशिता आदि शक्तियां उत्पन्न करने अथवा उसे समुन्नत एवं समृद्ध बनाने वाला खण्ड या भाग (ऋद्धिपाद) - सा प्र. वि., ब. व. - इद्धिपादाति इज्झनककोट्ठासा, स. नि. अट्ठ. 1.159-160; इज्झनककोडासाति चेतोवसिभावादिकस्स साधनककोट्ठासा, स. नि. टी. 1.187. इज्झनकपयोग पु., तत्पु. स., समृद्ध एवं समुन्नत बनाने हेतु व्यावहारिक प्रयोग - गो प्र. वि., ए. व. - परकारो च नाम परस्स वाहसा इज्झनकपयोगो दी. नि. अभि. टी. 2.34. इज्झनकरणूपायभाव पु., समृद्ध करने का उपायभूत होना - तो प. वि., ए. व. - सक्का, पादस्स इज्झमानकोट्ठास इज्झनकरणूपायभावतो, नेत्ति. टी. 49; दुतियेनत्थेन इतरसमासेनेव योजना युज्जति पादस्स इज्झनकरणूपायभावतो, विभ. अनुटी. 162. इज्झनकविसेस पु., समृद्धि या समुत्थान लाने वाली विशेष प्रकार की ऋद्धि - सङ्घपेन पन परिपाकगते पुञ्जसम्भारे इज्झनकविसेसो पुजवतो इद्धि, पटि. म. अट्ठ. 2.276. इज्झनकिरिया स्त्री., तत्पु. स., समृद्ध या समुन्नत बनाने की क्रिया - य तृ. वि., ए. व. - इज्झनकिरियाय करणभूतेन अत्थेन साधेतब्बा च इद्धि पज्जितब्बाति योजना, विभ. अनुटी. 162. इज्झनत्थ पु., तत्पु. स., समृद्धि अथवा सम्पूर्णता का अर्थ या अभिप्राय – त्थं द्वि. वि., ए. व., क्रि. वि. - कायम्पि चित्ते समोदहतीतिआदि इद्धिकरणकाले यथासुखं चित्तचारस्स इज्झनत्थं योगविधानं दस्सेतुं वृत्तं, पटि. म. अठ्ठ. 1.2773 - त्थो प्र. वि., ए. व. - इज्झनत्थो पन सब्बेस समानन्ति, स. नि. टी. 2(3).212. इज्झनपज्जनकिरियाकरण नपुं.. तत्पु. स., इज्झन (समृद्ध करना) एवं 'पज्जन' (प्राप्त करना), इन दोनों क्रियाओं का For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इज्झनलक्खण करण नं ष० वि०, ब० व.. दित्रं करणानन्ति इज्जानपज्जन किरियाकरणानं इद्धिपादत्थानं, विभ. अनुटी. 162. इज्झनलक्खण नपुं. समृद्धि अथवा समुन्नति का लक्षण प्र. वि., ए. व. इद्विपादानं इज्झनलक्खणं दी. नि. — www.kobatirth.org - - अट्ठ. 1.60. कर रहा इज्झन्त त्रि, इज्झ का वर्त. कृ. समृद्धि या वृद्धि को प्राप्त तं द्वि. वि. ए. व. इज्झन्तञ्च सहेव इज्झति म. नि. टी. ( मु.प.) 1 ( 1 ).209. इज्झमान त्रि. √इध का वर्त. कृ. वृद्धि अथवा समृद्धि को प्राप्त हो रहा, बढ़ रहा, विकसित हो रहा, फल-फूल रहा " . पु. सप्त. वि. ए. व. सम्पयुत्तधम्मेसु हि एकस्मि इज्झमाने सेसापि इज्झन्तियेव स. नि. अट्ठ. 3.285. इज्झमानकोद्वास पु. कर्म. स. वृद्धि को प्राप्त कर रहा भाग या खण्ड, स. प. के अन्त., पादस्स इज्झमानकोद्वासइज्झनकरणूपायभावतो विसुद्धि महाटी, 2.17; सक्का पादस्स इज्झमानको द्वासइज्झनकरणपायभावतो, नेत्ति. टी. 49. इज्झमानविसेस पु. कर्म. स. विशेष प्रकार का समृद्धिलाभी, समृद्धि प्राप्त करने वाले का विशिष्ट स्वरूप – इमाय इद्धिया इज्झमानविसेसं दस्सेन्तो सन्तिकेपीति आदिमाह, पटि म. अड. 2.251. इज्झितब्बभावना स्त्री, कर्म, स., संवर्धित करने योग्य भावना, सुदृढ़ किए जाने योग्य भावना य तृ. वि., ए. समीपे वल्लिआदीन हरणं विय कम्मट्ठाने खलनपक्खलनच्छेदनं इज्झितब्बभावनाय विबन्धापनयनतो, म. नि. टी. (मू०प.) 1 (2).249. व. इञ्ज त्रि, √ इञ्ज से व्यु अनियमित स्वरूप का विशे., कम्पनयुक्त, स्खलनशील, अध्रुव, अस्थिर पु., द्वि. वि. ए. व. न इञ्ज अनेञ्ज, अनेजं भवं अभिसारोतीति "आनेञ्जाभिसङ्घारो, पटि. म. अ. 2.222. इञ्जति इञ्ज (गति या कांपना, हिलना-डुलना) का वर्त., प्र. पु. ए. व. [वैदिक ऋञ्जते, बौ. सं., इञ्जते / इञ्जति], शा. अ., हिलता है, कांपता है, प्रकम्पित होता है, चलता हैं- वातेन न समीरति न इञ्जति न चलति ध. प. अड्ड. 1.330-31; गच्छतो खो पन तस्स भोतो गोतमस्स अधरकायोव इञ्जति, न च कायबलेन गच्छति, म. नि. 2.346; ला. अ. (व्यक्ति, शरीर या मन ) हिल-डुल जाता हैं, उद्विग्न हो जाता है, अस्त-व्यस्त हो जाता है, उद्विग्न या बेचैन हो जाता है, बाधित हो जाता है- सद्धापरिग्गहितञ्हि NE 296 - इञ्जयति चित्तं अस्सद्धियेन न इञ्जति, पारा. अट्ठ 1.117; अनोणतं चित्तं कोसज्जे न इञ्जतीति आनेञ्ज, उदा. अट्ठ. 150; सो लाभेपि न इञ्जति, अलाभेपि न इञ्जति... न चलति न वेधति नप्पवेपति न सम्यवेधतीति, महानि. 260 - न्ति ब. व.- न इञ्जन्तीति एसिकत्थम्भो विय ठितत्ता न चलन्ति, स. नि. अह. 2.302 यस्मा इमेहि किलेरोहि सत्ता इञ्जन्ति चैव फन्दन्ति च पपञ्चिता च होन्ति पमत्ताकारपत्ता स. नि. अट्ठ 3.111. इञ्जन नपुं, √इञ्ज से व्यु. क्रि. ना. [बौ. सं., इञ्जन], गति, चाल, हिलना-डुलना, प्रकम्पन, स्पन्दन - नं प्र. वि., ए. व. - इञ्जितस्मिं वदामीति इञ्जनं चलनं फन्दनन्ति वदामि म. नि. अड्ड. (म.प.) 2.122 - नानं प. वि. व. व. राब्बेसं इञ्जनानं अभावतो वसीभावप्यत्तियाव ठितं उदा. अट्ठ. 200; स. उ. प. के रूप में किलेसि, के अन्त., द्रष्ट.. इञ्जनक त्रि, स्पन्दनशील, चलनशील, चञ्चल स्वभाव का का पु०, प्र० वि०, ब० व इञ्जिताति इञ्जनका चलनका तथा फन्दिता सारत्थ, टी. 2.189; - स्सष वि., ए. व. रूपतण्हासङ्घातस्स इञ्जनकस्स कारणत्ता वा विभ मू. टी. 94. करनीवरण नपुं०, कर्म, स, स्पन्दन एवं विक्षोभ उत्पन्न करने वाला नीवरण, स. प. के अन्त – रूपमेव सफन्दनत्ता "सइञ्जनन्ति वुत्तं इञ्जनकरनीवरणादीनं अविक्खम्भनतो, विभ. मू. टी. 94. " इञ्जना स्त्री०, इञ्ज से व्यु० क्रि० ना०, लिङ्गव्यत्यय [ बौ. सं.. इञ्जना ], शरीर की गति या चाल-ढाल, मन की चञ्चलता, शारीरिक चेष्टा, प्र. वि. ए. व. - समिञ्जेति पसारेति, एसा कायरस इञ्जना सु. नि. 196 एसा कायरस इञ्जनाति सब्बापेसा इमस्सेव सविज्ञाणकस्स कायस्स इञ्जना चलना फन्दना. सु. नि. अड. 1.207; या कायस्स आनमना विनमना सन्नमना पणमना इञ्जना फन्दना चलना पकम्पना पटि० म० 177. **** Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only इञ्जमानत्रि, इञ्ज का वर्त. कृ., केवल निषेधार्थक रूप में ही प्राप्त, अनिञ्ज, स्थिर, नहीं हिल-डुल रहा नेन तृ. वि. ए. व. अनिञ्जमानेन ठितेन वग्गुना, स. नि. 1(1).210; नो पु. प्र. वि. ए. व. - कायेन अभासमानो वाचं. म. नि. 1.131. इञ्जयति इञ्ज के प्रेर. का वर्त, प्र. पु. ए. व. गतिशील कराता है, चलाता है, हिला देता है - युं अद्य., प्र० पु०, अनिञ्जमानो - ww Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इञ्जित 297 इट्ठ ब. व. - नेसंलोमापि इञ्जयुन्ति तेसं वीतरागानं लोमानिपि इञ्जितत्त नपुं, इञ्जित का भाव., गतिमयता, अस्थिरता, न चालयिंसु, दी. नि. अट्ठ. 2.257. व्यग्रता, प्रकम्पनता, बौखलाहट, स्पन्दनशीलता - त्तं' प्र. इञ्जित 1. त्रि., (इञ्ज का भू. क. कृ. [बौ. सं. इञ्जित], वि., ए. व. - समाधिस्स भावितत्ता बहुलीकतत्ता नेव कायस्स हिल डुल रहा, अस्थिर, कांप रहा, स्पन्दित, फड़क रहा - इञ्जितत्तं वा होति फन्दितत्तं वा, न चित्तस्स इञ्जितत्तं वा तो पु., प्र. वि., ए. व. - इञ्जितोति कम्पितो, पटि. म. होति फन्दितत्तं वा, स. नि. 3(2).386; - त्तं द्वि. वि., ए. व. अट्ठ. 2.68; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - कायोपि चित्तम्पि - परसथ नो तुम्हे... कायस्स इञ्जितत्तं वा फन्दितत्तं वा ति सारद्धा च होन्ति इञ्जिता च फन्दिता च, पटि. म. 160; ? स. नि. 3(2).386; सत्तमे इञ्जितत्तं वा फन्दितत्तं वाति ततो मन्दतरेन इञ्जिता कम्पिता, पटि. म. अट्ठ. 2.68; 2. उभयेनपि चलनमेव कथितं. स. नि. अट्ठ. 3.295. क. नपुं., गति, मन का विक्षोभ, मन का स्पन्दन, संवेग, इजेति/इञ्जयति/इञ्जते ।इञ्ज का प्रेर. प्रयोग, प्रायः व्याकुलता - तं प्र. वि., ए. व. - इञ्जितन्ति चलितं, अ. इञ्जति के साथ व्यामिश्रित, प्रायः "लोमम्पि” के साथ ही नि. अट्ठ. 2.295; नत्थि बुद्धानमिञ्जितं, ध. प. 255; 2.ख. प्रयुक्त [बौ. सं. इञ्जयति], शा. अ., कंपाता है, हिलाता राग, दोस, मोह, मान, दिट्ठि, किलेस एवं दुच्चरित नामक है, गतिशील करता है, ला. अ., बाल बांका करता है सात अकुशल चित्तवृत्तियां, जो मन में विक्षोभ अथवा कुछ कुछ प्रभावित कर देता है - जामि वर्त, उ. पु., व्याकुलता उत्पन्न करती हैं - तानि/ता प्र. वि., ब. व. ए. व. - लोमन इजामिन सन्तसामि, स. नि. 1(1).156%3; इजितन्ति रागिजितं (रोएं को नहीं हिलाता हूं, नहीं डरता हूं); - जे विधि., दोसमोहमानदिविकिलेसदुच्चरितिजितन्ति इमानि सत्त प्र. पु., ए. व. - लोमं न इजे न सम्पवेधे, अप. 2.225; इजितानि चलितानि फन्दितानि, अ. नि. अट्ठ. 2.102; 2. (रोएं को भी खड़ा न करें, प्रकम्पित न करें) - लोमं न ग. कहीं-कहीं चित्त की नौ प्रकार की व्यग्रताएं भी नौ इजे नपि सम्पवेधे, थेरीगा. 231; -- जयु अद्य.. प्र. पु., इज्जितों के नाम से परिगणित - तत्थ कतमानि नव ब. व. - वीतरागेहि पक्कामुं, नेसं लोमापि इञ्जयु, दी. इञ्जितानि ? "अस्मीति इजितमेतं, "अहमस्मी ति नि. 2.193; (वीतराग आर्यजनों से बहुत दूर के क्षेत्र से ही इजितमेतं, "अयमहमस्मी ति इञ्जितमेतं "भविस्सन्ति मार की सेनाएं भाग गईं, उनके बाल भी बांका न कर इजितमेतं, "रूपी भविस्स"न्ति इञ्जितमेतं, "अरूपी सकीं) - नेसं लोमापि इञ्जयुन्ति तेसं वीतरागानं लोमानिपि भविस्सान्ति इञ्जितमेतं, “सञ्जी भविस्सन्ति इञ्जितमेतं, न चालयिंसु. दी. नि. अट्ठ. 2.257. "असञी भविस्सन्ति इजितमेतं "नेवसञीनासजी इट्टिय/इट्ठिय/इत्तिय/इद्धिय पु., व्य. सं., महिन्द के भविस्स"न्ति, इञ्जितमेत इमानि नव इञ्जितानि, विभ. साथ श्रीलङ्का-द्वीप जाने वाले अनेक भिक्षुओं में से एक, 457-58; 2.घ. केवल कुछ ही स्थलों में तण्हा-विष्फन्दित प्रायः उत्तिय, सम्बल एवं भद्दसाल के साथ उल्लिखित -- एवं दिट्ठिविप्फन्दित का उल्लेख दो इञ्जितों के रूप में- यो प्र. वि., ए. व. - ततो महिन्दो इट्टियो, उत्तियो सम्बलो इञ्जिताति तण्हादिढिविष्फन्दितानि, सु. नि. अट्ठ. 2.278; तथा भद्दनामो च पण्डितो, परि. 3; - यं द्वि. वि., ए. व. - स्मिं सप्त. वि., ए. व. - इदं खो अहं, उदायि, - महामहिन्दत्थेरं तं थेरं इट्ठियमुत्तियं, म. वं. 12.7. इञ्जितस्मिं वदामि म. नि. 2.126; - तानं ष. वि., ब. इट्टियत्थेर पु., इट्ठिय नामक स्थविर – रेन तृ. वि., ए. व. व. - इञ्जितानं निरोधेन, नत्थि दुक्खस्स सम्भवो सु नि. 755; -- - इट्टियत्थेरेन उत्तियत्थेरेन भद्दसालत्थेरेन सम्बलत्थेरेन च पच्चय त्रि, गति अथवा मन के विक्षोभ के कारण उत्पन्न - या सद्धिं तम्बपण्णिदीपं गन्त्वा एत्थ सासनं पतिद्वापेथाति, थू. प. वि., ए. व. - यं किञ्चि दुक्खं सम्भोति, सब इजितपच्चया, वं. 192; पारा. अट्ठ. 1.46. सु नि. 755; स. उ. प. के रूप में किलेसि., दिट्टि, दुच्चरिति.. इट्ठ' त्रि., Vयज का भू. क. कृ. [इष्ट], पूज्य, आदरणीय, दोसि., मानि., मोहित, रागि. के अन्त., द्रष्ट.. याज्ञिक अनुष्ठान द्वारा पूजित - टुं नपुं., प्र. वि., ए. व. इञ्जितकारण नपुं.. तत्पु. स., चञ्चलता का कारण, - यजस्स यस्स टि यि होन्ति कानबन्धे त्वे, इट्ठ, यिट्ठ विक्षोभ का कारण - णानं पु., ष. वि., ब. व. - चित्तस्स ..., मो. व्या. 5.113. इञ्जितकारणानं ब्यापादादीनं सुप्पहीनत्ता पच्चयुप्पन्निञ्जनाय इट्ठ 1. त्रि., Vइच्छ का भू. क. कृ. [इष्ट], कामना किया च, थेरगा. अट्ट, 2.76. गया, जिसे चाहा गया, वह, जिसकी इच्छा की गई हो, मन For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इ8 298 इट्ठकचुण्णमक्खितसीस के लिए अनुकूल, मनोवाञ्छित, प्रिय, अनुकूल, प्यारा, 2. इट्ठककञ्चुक पु., तत्पु. स., खपड़ों से बनाई हुई छत, ईटों नपुं.. अनुकूल अथवा सुखद स्थिति, आनन्द, हर्षोल्लास - की दोहरी चिनाई से बनी छत - कं द्वि. वि., ए. व. - इटुं तु सुभगं हज्ज, दयितं वल्लभं पियं, अभि. प. 697; गलम्बतित्थे थुपम्हि कारेसिडककञ्चकं म. वं. 35.85. तत्थ दुक्खन्ति न सुखं, अनाराधितचित्तताय न इट्ठन्ति इट्ठककपाल पु., तत्पु. स., ईंटों से निर्मित पात्र (कड़ाही), अत्थो, उदा. अट्ठ. 201; - 8ो पु., प्र. वि., ए. व. - ईंटों के ऊपर रखा गया पात्र (कड़ाही), ईंटों का ढेर या ठानञ्च खो, एतं, भिक्खवे, विज्जति यं कायसुचरितस्स ईंटों का ठीकरा, स. प. के अन्त, - इट्ठककपालादीसुपि इट्ठो कन्तो मनापो विपाको निब्बत्तेय्य, अ. नि. 1(1).41; एसेव नयो, पाचि. अट्ठ. 21. पुग्गलो पुग्गलस्स इट्ठो होति कन्तो मनापो, अ. नि. इट्ठककम्म नपुं., तत्पु. स. [इष्टिकाकर्म], ईंट का काम, 1(2).242; अयं पठमो धम्मो इट्ठो कन्तो मनापो दुल्लभो स. प. में प्रयुक्त - अचिरकारितं होतीति लोकस्मिं, अ. नि. 1(2).76; - टुं पु., द्वि. वि., ए. व. - इट्ठककम्मसुधाकम्मचित्तकम्मादिवसेन सुसज्जितं देवविमानं अभिजानामि... इ8 कन्तं मनापं विपाकं पच्चनुभूतं, अ. नि. विय अधुना निट्ठापितं. स. नि. अट्ट, 3.85... 2(2).227; इतिवु. 12; - द्वा पु., प्र. वि., ब. व. - इट्ठा इट्ठककुट्टिक स्त्री., तत्पु. स. [इष्टिकाकुड्यक], ईंटों की धम्मा अनिट्ठा च, न पवेधेन्ति तादिनो, महाव. 257; थेरगा. दीवार – कं द्वि. वि., ए. व. – एवं कतं पन दारुकुट्टिक 644; - टु' नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - ब्रह्मचरियं इ8 कन्तं वा इट्ठककुट्टिकं वा सिलाकुट्टिकं वा ..., पारा. अट्ठ 2.142; मनापं दुल्लभं लोकस्मि, अ. नि. 3(2).112; इ8 वत्थु - काय ष. वि., ए. व. - इट्ठककुट्टिकाय इटकाहियेव दुप्पमुञ्च, महानि. 22; इ8 कन्तं पियं लोके, जलजं वातपाने च धूमनेत्तानि च करोति ... पारा. अट्ठ. 2.143. पुप्फमुत्तमं अप. 1.84; - 8 द्वि. वि., ए. व. - यदेसमाना इट्ठकगोपानसिचय पु., ईटों की कड़ियों या शहतीरों का विचरन्ति लोके, इवञ्च कन्तञ्च बहूनमेतं, जा. अट्ठ. ढेर, स. प. के रूप में -- यथा इट्ठकगोपानसिचयादीसु न 4.278; इ8 वत्थु अच्छेदसङ्किनोपि कोधो जायति, महानि. ___उपरिमा इट्ठकादयो जानन्ति, खु. पा. अट्ठ. 38. 195; - हाय नपुं, च. वि., ए. व. - ... सब्बे ते धम्मा इट्ठकचय/इट्ठकाचय पु., तत्पु. स. [इष्टिकाचय], ईंटों इवाय कन्ताय मनापाय हिताय सुखाय संवत्तन्ति, अ. नि. का ठीकरा, ईंटों का ढेर - यं द्वि. वि., ए. व. - तयो 1(1).45; - स्मा नपुं., प. वि., ए. व. - इट्टरमा वत्थुस्मा चये इटकाचय, सिलाचयं दारुचयन्ति, चूळव. 235; - दुम्मोचया, महानि. 22; - स्स नपुं., ष. वि., ए. व. - येन तृ. वि., ए. व. - को पन वादो इट्टकचयेन सम्पन्ने सुखस्सेतं भिक्खवे अधिवचनं इट्ठस्स कन्तस्स पियरस वेदिकापरिक्खित्ते, विन. स. अट्ठ. 360. मनापस्स यदिदं पुञानि, इतिवु. 12; - 8 नपुं., सप्त. इट्ठकचयनसम्पन्न त्रि., तत्पु. स. [इष्टिकाप्रचयसम्पन्न], वि., ए. व. - कच्चि इढे अनिढे च, सङ्कप्पस्स वसीकता, बहुत सारे ईंटों वाला, ईंटों के ढेर से भरा हुआ - न्ने पु.. सु. नि. 154; इढे अनिढे चाति एवरूपे आरम्मणे, सु. नि. सप्त. वि., ए. व. - उच्चे चङ्कमे चङ्कमतीति इट्टकचयनसम्पन्ने अट्ठ. 1.174; - ट्ठा नपुं.. प्र. वि., ब. व. - चक्खुविज्ञेय्या वेदिकापरिक्खित्ते उच्चे चङ्कमे चङ्कमति, महानि. अट्ठ. 269. रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया, इट्ठकचित नपुं, ईंटों की चुनाई, नींव - ताय च. वि., ए. म. नि. 1.119; - हानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - ... सो व. - इट्टकचिताय याव मङ्गलिट्ठका ताव कुट्टा अपचिनितब्बा, यथावृत्तपुग्गलो इधलोके च परलोके च इट्ठानि न पस्सति, पारा. अट्ठ. 2.143. न विन्दति, न लभतीति अत्थो, पे. व. अट्ठ. 102; - टेहि इट्ठकचुण्ण नपुं., तत्पु. स. [इष्टिकाचूर्ण], ईंटों का चूरा या नपुं., तृ. वि., ब. व. - चक्खुविओय्येहि रूपेहि इटेहि बुकनी - ण्णं द्वि. वि., ए. व. - लग्गेत्वा सीसे इट्टकचुण्णं कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि ..., म. नि. 1.337; - हानं ओकिरित्वा ..., जा. अट्ठ. 3.50; - ण्णेन तृ. वि., ए. व. नपुं.. ष. वि., ब. व. - चक्खुवि य्यानं रूपानं इवानं - यथा च वासिया एवं अञ्जनिया वा ... इटकचुण्णेन .. कन्तानं मनापानं मनोरमानं..., म. नि. 3.265; स. उ. प. . अग्घो भस्सति, पारा. अट्ठ. 1.246; पञ्च चूळा गाहापेत्वा के रूप में अति., अनि. के अन्त., द्रष्ट.. इट्ठकचुण्णेन ओकिरापेत्वा ..., जा. अट्ठ. 6.234. इटुं अ., क्रि. वि. [इष्टं], स्वेच्छापूर्वक, अपनी मर्जी के इट्टकचुण्णमक्खितसीस त्रि., ब. स. [इष्टिकाचूर्णमृष्टशीर्ष], अनुसार - कामं त्विट्ठ निकामञ्च परियतं यथिच्छितं. ईंटों की धूल से लिपे हुए शिर वाला – सं पु.. द्वि. वि., अभि. प. 469. ए. व. - इट्टकचुण्णमक्खितसीसं वज्झपहटभेरिदेसितमग्गं For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इट्ठकच्छदन/इट्ठिकाछदन 299 इट्ठका/इट्ठिका रथिकाय रथिक... आघातनाभिमुखं नेति, पे. व. अट्ठ. काम करने वाले कारीगरों का गांव – मे सप्त. वि., ए. व. - इट्ठकवड्डकीगामे इथिलक्खणकोविदा, म. वं. 35.109. इहकच्छदन/इट्ठिकाछदन 1. त्रि., ब. स. [इष्टिकाछदन], इट्टकसाला स्त्री., तत्पु. स. [इष्टिकाशाला], ईंटों से बना ईंट द्वारा छायी हुई छत वाला – ने पु., सप्त. वि., ए. व. हुआ मकान, ईंटों से निर्मित सभागार, प्र. वि., ए. व. - - इडिकाछदने तस्मिं सङ्घारामे अलङ्कते, चू. वं. 100.87; वच्चकुटि इट्टकसाला वड्डकिसाला द्वारकोट्टको पानीयमाळो परियसितब्बन्ति तिणच्छदने वा इट्टकच्छदने वा गेहे पलज्जन्ते मग्गो पोक्खरणीति एतानि हि असेनासनानि, चूळव. अट्ठ. ..., स. नि. अट्ठ. 3.144; 2. नपुं., तत्पु. स., ईंटों द्वारा 70. तैयार की गयी छत, पक्की छत, स. प. में; - इट्ठका/इट्ठिका स्त्री., [इष्टिका], ईंट, खपड़ा, सपरा - इट्ठकच्छदनसदिसञ्च खरसम्फस्सं चम्म सु. नि. अट्ठ. गिञ्जका तु व इट्टका, अभि. प. 220; प्र. वि., ए. व. - 2.34. उपरिमेन भिक्खुना दुग्गहिता इट्टका हेहिमस्स भिक्खुनो इट्ठकपण्णाकार पु., तत्पु. स., ईंटों का उपहार या दान, । मत्थके अवत्थासि, पारा. 97; एका इट्ठका सोवण्णमया, ईंटों की भेंट - रं द्वि. वि., ए. व. - पातोव आगन्त्वा एका रूपियमया एका वेळुरियमया, एका फलिकमया, दी. अत्तनादिव इट्टकपण्णाकारं हो निवेदेसि, थू, वं. 219(रो.). नि. 2.133; थूपकरणत्थं इट्टका कातुं आरभिंसु, थू. वं. 199; इट्ठकप्पमाण नपुं., तत्पु. स. [इष्टिकाप्रमाण], ईंटों का - कं द्वि. वि., ए. व. – “इमं इट्टकं एत्थ ठपेथा"ति, अ. आकार, ईंटों की लम्बाई-चौड़ाई - णं द्वि. वि., ए. व. - नि. अट्ट, 1.135; भिक्खुनो मत्थके इट्ठकं मुञ्चि, पारा. 97; इट्ठकप्पमाणं जानित्वा, थू, वं. 229(रो.). - य ष. वि., ए. व. - एकेन अय्येन दिन्नं इट्ठका अम्हाक इट्ठकपाकार/इट्ठकापाकार पु., तत्पु. स. [इष्टिकाप्राकार], इट्ठकाय सदिसाति कम्मे उपनेसिन्ति आह, थू. वं. 229; - ईंटों से बनाया गया घेरा, ईंटों से बना हुआ परकोटा अथवा का प्र. वि., ब. व. - ... बाहिरन्ते इट्टका रत्तसुवण्णमया घेराबन्दी करने वाली दीवाल – रो प्र. वि., ए. व. - सचे एकग्घना सतसहस्सग्घनिका होन्त, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) इट्ठकपाकारो होति, पाचि. अट्ठ. 20; - रं द्वि. वि., ए. व.. 1(2).27; - यो द्वि. वि., ब. व. - ... चिक्खल्लं महित्वा - परिक्खित्तो नाम इडकपाकारं आदि कत्वा अन्तमसो इढकायो चिनित्वा कुट्ट उट्ठापेसि, चूळव. 288; - हि तृ. कण्टकसाखाहिपि परिक्खित्तो, पारा. अट्ठ. 1.2383; वि., ब. व. - पोक्खरणियो चतुन्नं वण्णानं इट्ठकाहि चिता "अनुजानामि, भिक्खवे, परिक्खिपितुं तयो पाकारे - अहेसु, दी. नि. 2.133; नगरं रेणुवती नाम, इट्टकाहि इट्ठकापाकार, सिलापाकार, दारुपाकार न्ति, चूळव. 239. सुमापितं, अप. 1.58; बोधिरुक्खस्स इट्टकाहि वेदिक चिनित्वा इट्ठकवड्डकी पु., तत्पु. स., ईटों की चिनाई करने वाला सुधापरिकम्म कारेसि, थेरगा. अट्ठ. 1.211; - नं ष. वि., राजमिस्त्री, ईंटों से घर बनाने वाला मिस्त्री, प्र. वि., ए. व. ब.व. - पाकारसन्धिन्ति द्विन्नं इट्ठकानं अपगतवानं, स. --- पाकारं चिनाति ... इट्ठकवड्डकी, सद्द. 2.495; अथ अओ नि. अट्ठ. 3.241; - कत्थं द्वि. वि., ए. व., ईंटों के लिए पण्डितो इट्ठकवड्डकी अहं, थू, वं. 227; - किं द्वि. वि., ए. -- "इट्ठकत्थं चेतियस्स राजा चिन्तेसि गामणी, म. वं. व. - पोक्खरणिं खणापेत्वा, इट्ठकवडकि पक्कोसापेत्वा 28.7; - कत्थाय च. वि., ए. व. - एतेनेवुपायेन सयं विचारेत्वा सहस्सवत सततित्थं पोक्खरणिं कारेसि, पासाददारूनं अत्थाय वड्वकीनं सन्तिक इहकत्थाय जा. अट्ठ. 6.159; वसभेन भयासकी अप्पेसिट्टकववकि. म. इट्ठकवड्डकीनं छदनत्थाय गेहच्छादकानं चित्तकम्मत्थाय वं. 35, 101; - किस्स ष. वि., ए. व. - चित्तकारानन्ति येन येन अत्थो होति, पारा. अट्ठ. 2.135; तस्सिट्टिकावडकिस्स जातको इध आगतो, म. वं. 30.30; - कमन्तर नपुं., तत्पु. स., ईंटों का अन्तराल अथवा पाठा. इट्ठिकावड्डकिस्स.- की' प्र. वि., ब. व. - अपिच मध्यवर्ती भाग - रे सप्त. वि., ए. व. - उत्तरद्वारे पाकारं इडकवड्डकी विय पवत्तं आचिनन्ता गच्छन्तीति इट्ठकमन्तरे ठपितोति ..., जा. अट्ठ. 3.394; - करण आचयगामिनो, ध. स. अट्ठ. 91; - की द्वि. वि., ब. व. नपुं., तत्पु. स. [इष्टिकाकरण], ईंट पाथना, ईंट बनाना - सब्बे इट्ठकवड्डकी सन्निपातेसि, थू. वं. 75(रो.); - नं --णे सप्त. वि., ए. व. - बहू मनुस्से योजेत्वा इटिकाकरणे ष. वि., ब. व. - ... इट्ठकवड्डकीनं छदनत्थाय .... पारा. लहुँ, म. वं. 17.38; - कोटि स्त्री., तत्पु. स. अट्ठ. 2.135; - गाम पु., तत्पु. स., ईंटों की चिनाई का [इष्टिकाकोटि], एक करोड़ की संख्या में ईंटें - टीहि For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इट्ठका/इट्ठिका 300 इतुरूप तृ. वि., ब. व. - दसपुप्फाधानानि दसहि इट्ठकाकोटीहि निट्ठनं गमिंसु, थू. वं. 231; - खण्ड पु.. तत्पु. स. [इष्टिकाखण्ड], ईंट का टुकड़ा, रोड़ा - डं द्वि. वि., ए. व. - अञ्जम्पि यकिञ्चि दारुखण्ड वा इट्ठकाखण्ड वा हत्थेन वा यन्तेन वा पविज्झितुं न वट्टति, पारा. अट्ठ. 2.58; - गुहा स्त्री., तत्पु. स. [इष्टिकागुहा], ईंटों से निर्मित गुफा, ईंट से बनी खोह - हं द्वि. वि., ए. व. - गुहम्पि इट्ठकागुहं वा सिलागुहं वा दारुगुहं वा भूमिगुहं वा महन्तम्पि करोन्तस्स अनापत्ति, पारा. अट्ठ. 2.144; - गोपक पु.. तत्पु. स. [इष्टिकागोपक, ईंटों का रखवाला - कं द्वि. वि., ए. व. - तं येव इट्ठकागोपकं कारेसि, थू. वं. 219; - चय पु., तत्पु. स. [इष्टिकाचय], ईंटों का ढेर, ईंटों का पुञ्ज -- यं द्वि. वि, ए. व. - चिनितुं तयो चये, इट्ठकाचयं, सिलाचयं, दारुचयन्ति, चूळव. 278; - कादि त्रि., ईंट इत्यादि - दीनि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - इट्ठकादीनि एतानि महापुओ महीपति, म. वं. 28.42; - पन्ति स्त्री., तत्पु. स. [इष्टिकापंक्ति]. ईंटों की पंक्ति, ईंटों की कतार, प्र. वि., ए. व. - तस्मिञ्च खणे एका इट्ठकापन्ति परिक्खिपित्वा आगच्छमाना घटनिट्ठकाय ऊना होति, अ. नि. अट्ठ. 1.135; - मय त्रि., ईंटों से बना हुआ, ईंटों से निर्मित - ये पु., सप्त. वि., ए. व. - गिञ्जकावसथेति इट्ठकामये आवसथे, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).135; - मूल नपुं., तत्पु. स., ईंटों वाली नींव, ईंटों से बनाई गई बुनियाद - लं प्र. वि., ए. व. - असुकगेहस्स इट्ठकामूलं ठितसण्ठानेनेव ठितं, स. नि. अट्ठ. 3.80; - वती स्त्री., व्य. सं., दीघराजी के नाम के साथ उल्लिखित मगध जनपद के एक प्राचीन गांव का नाम, प्र. वि., ए. व. - मगधरडे किर इट्ठकवती च दीघराजि चाति द्वे गामका अहेसुं, पे. व. अट्ठ. 57; - नामक त्रि., इट्ठकवती नाम वाला - के सप्त. वि., ए. व. - मगधरडे इट्ठकवतीनामके गामे, पे. व. अट्ठ. 57; - सन्थर पु., तत्पु. स. [इष्टिकासंस्तर], ईंटों का फर्श, ईंटों की ज़मीन - रं द्वि. वि., ए. व. - "अनुजानामि, भिक्खवे, सन्थरितुं तयो सन्थरे इहकासन्थर, सिलासन्थर, दारुसन्थरन्ति, चूळव. 239; - सालपरिवेण पु., तत्पु. स., ईंटों से निर्मित भवन में स्थित परिवेण या कक्ष - णे सप्त. वि., ए. व. - थेरो इट्टकासालपरिवेणे वसति, थू. वं. 78(रो.); - सोपान पु., तत्पु. स. [इष्टिकासोपान], ईंटों से बनी हई सीढ़ी - नं द्वि. वि., ए. व. - "अनजानामि, भिक्खवे, तयो सोपाने-इट्टकासोपानं, सिलासोपानं, दारुसोपानन्ति, चूळव. 278; - कोलोकनत्थ पु., तत्पु. स. [इष्टिकावलोकनार्थ], ईंटों के अवलोकन अथवा निरीक्षण का प्रयोजन -त्थाय च. वि., ए. व. - इडिकोलोकनत्थाय अहं गच्छामि, थू. वं. 219; स. उ. प. के रूप में अमूलकि०, घटनि., चयनि., छदनि., तम्बलोहि., थूपि., पमाणि., पाकारि., मङ्गलि., रत्तसुवण्णि., लोहि., सदिसि., सुवण्णि., सोवण्णछदनि. के अन्त., द्रष्ट.. इट्ठगन्ध पु., कर्म. स. [इष्टगन्ध], सुगन्ध, अनुकूल गन्ध, मन को प्रिय लगने वाली गन्ध - न्धो प्र. वि., ए. व. - इट्ठगन्धो च सुरभि, सुगन्धो च सुगन्धि च, अभि. प. 1463; सुगन्धोति इट्ठगन्धो, ध. स. अट्ठ. 352. इट्ठग्गाह पु., तत्पु. स. [इष्टग्राह]. इच्छित का ग्रहण, जिसे ग्रहण किए जाने की इच्छा है उसका ग्रहण - हो प्र. वि., ए. व. - बव्हक्खरेसु सञिच्छायं इट्ठग्गाहो, सद्द. 3.876. इद्वत्थ पु., कर्म. स. [इष्टार्थ], अभीप्सित प्रयोजन - इहत्थे उय्युतो चाथ, अभि. प. 727. इट्ठधम्मसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 3(2).112-113. इट्ठफल त्रि., ब. स. [इष्टफल]. अभीप्सित फल देने वाला - ला स्त्री, प्र. वि., ए. व. - कुसला वेदना सफला सविपाका इट्ठफला कन्तफला मनुञ्जफला, कथा. 39; - लं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - कुसलं विआणं सफलं सविपाकं इट्ठफलं कन्तफलं मनुञफलं असेचनकफलं. कथा. 40; ननु दानं इट्ठफलं कन्तफलं मनुञफलं. कथा. 179. इट्ठमङ्गलिक त्रि., ब. स. [इष्टमाङ्गलिक], कुशलमङ्गल की इच्छा करने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - गिही, भिक्खवे, मङ्गलिका, जा. अट्ठ. 2.13; पाठा. इट्ठमङ्गलिका (रो.). इट्ठरस त्रि., ब. स. [इष्टरस], मन को अच्छा लगने वाले रस से युक्त, अभीष्ट रस वाला, सुस्वादु - सो पु., प्र. वि., ए. व. - सादूति इट्टरसो, असादूति अनिट्ठरसो, ध. स. अट्ठ. 353. इद्वरूप नपुं., कर्म. स. [इष्टरूप], अनुकूल स्वरूप या आकार, मन को अच्छा लगने वाला वर्ण एवं आकार - पं वि. वि., ए. व. - तत्थ यं किञ्चि चक्खुना रूपं पस्सति अनिट्टरूपयेव पस्सति, नो इहरूपं. स. नि. 2(2).129-130; अनिट्टरूप व पस्सति नो इट्टरूपं. स. नि. 3(2).511. For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इट्ठवड्डकी 301 इण इट्ठवड्ढकी पु., तत्पु. स. [बौ. सं. इष्टावर्धकिन], ईंटों से विसुद्धि. 1.161; - अनुभवनलक्खण त्रि., ब. स. मकान बनाने वाला मिस्त्री या कारीगर, ईंट बनाने वाला [इष्टानिष्टानुभवनलक्षण], इष्ट (प्रिय) एवं अनिष्ट (अप्रिय) कारीगर, अभीप्सित या इच्छित कारीगर, प्र. वि., ए. व. - अनुभव के लक्षणों से युक्त - णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. वसभेन हते तस्मिं तं आदाय इट्ठवड्डकी, धीतुहाने ठपेत्वान - इट्ठानिट्ठअनुभवनलक्खणा वेदना, नेत्ति. 25. वड्डेसि अत्तनो घरे, म. वं. 35.102 103; तुल., इट्ठकवड्डकी. इट्ठाभिमत त्रि., [इष्टाभिमत], प्रिय अथवा वाञ्छनीय माना इट्ठविपाक पु., कर्म. स. [इष्टविपाक], प्रिय अथवा मन के गया - तो पु., प्र. वि., ए. व. - एकच्चस्स हि इट्ठाभिमतो लिए अनुकूल लगने वाला परिणाम, अनुकूल अथवा एकच्चस्स अनिट्ठो होति, उदा. अट्ठ. 163. इच्छानुरूप विपाक - के सप्त. वि., ए. व. - आरोग्ये इद्वारम्मण नपुं, कर्म. स. [इष्टालम्बन], मन द्वारा चाहा कुसल इट्ठविपाके कुसलो तथा, अभि. प. 803. गया आलम्बन, मनोनुकूल विषय, वाञ्छित अथवा प्रिय इट्ठवियोग पु., तत्पु. स. [इष्टवियोग]. चाही गई वस्तु से आलम्बन (मन/इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य बाह्य पदार्थ)-- णं विछोह, प्रिय से बिलगाव या विछोह, स. प. में- तादिसरस द्वि. वि., ए. व. - चक्खुद्वारे इट्ठारम्मणं अनुभवितुकामेन खीणासवमुनिनो अब्भन्तरे इट्ठवियोगादिवत्थुका सोका हि चित्तकारपोत्थकाररुपकारादयो पक्कोसापेत्वा ..., स. चित्तसन्तापा न होन्ति, उदा. अट्ठ. 207. नि. अट्ट, 1.39; - णे सप्त. वि., ए. व. - चक्खुद्वारे पन इट्ठसम्मत त्रि., [इष्टसम्मत], चाहने योग्य अथवा वाञ्छनीय इद्वारम्मणे आपाथगते भवङ्ग आवदे॒त्वा ... कुसलमेव उप्पादेति, के रूप में माना गया - तं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - स. नि. अट्ठ. 3.94-95; इट्ठारम्मणे अरज्जन्तस्स ..., ध. प. इट्ठसम्मतं गन्धायतनं आलम्बित्वा, रूपा. वि. 153 (रो.); - अट्ठ. 2.330; - णानि प्र. वि., ब. व. - चतुत्थे तेसु नपुं., सप्त. वि., ब. व. - इट्ठसम्मतेस छस आरम्मणेसु. कमनीयानीति रूपादीनि इट्ठारम्मणानि, स. नि. अट्ठ. 1.573 रूपा. वि. 153(रो.). - पटिलाभ पु., तत्पु. स. [इष्टालम्बनप्रतिलाभ], अनुकूल इट्ठसुत्त नपुं., व्य. सं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ... अथवा प्रिय आलम्बन का लाभ, मनोनुकूल आलम्बन को नि. 2(1).43. पा लेना - भं द्वि. वि., ए. व. - एवञ्च इहानिट्ठ त्रि., द्व. स. [इष्टानिष्ट, इच्छित एवं अनिच्छित, पञ्चद्वारिकइद्वारम्मणप्पटिलाभ कित्तेत्वा इदानि मन के लिए अनुकूल एवं प्रतिकूल, वाञ्छनीय एवं मनोद्वारिकइहारम्मणप्पटिलाभं दस्सेतुं, उदा. अट्ठ. 164; अवाञ्छनीय - हा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - निपतन्ति, - द्वारम्मणसमायोग पु., तत्पु. स., अनुकूल अथवा प्रिय महाराज, इमस्मिं चातुमहाभूतिके काये इट्ठानिट्ठा आलम्बनों का एक जुट हो जाना - तो प. वि., ए. व. सुभासुभवेदना, मि. प. 139; - टु नपुं. प्र. वि., ए. व. - इट्ठारम्मणसमायोगतो उप्पन्नेसु सुखेस. उदा. अट्ठ. - जयपराजयो होति... इहानिर्ल्ड होति, महानि. 123; - 144. टुं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - इट्ठानिg निस्साय अनुनयपटिघं इट्ठि स्त्री., Vयज से व्यु. [इष्टि], यज्ञ - इट्टि, सिट्टि, भित्ति, निस्साय, छन्दो पहोति, महानि. 194; - द्वे सप्त. वि., ए. भत्ति ..., मो. व्या. 5.49. व. - तादीति अरहा पञ्चहाकारेहि तादी इट्ठानिढे तादी, इडगलिस्सर पु., व्य. सं., दक्षिण भारत के एक प्राचीन गांव महानि. 82; स. प. के अन्त., - हादि त्रि., इष्ट एवं का नाम, प्रायः एरुक्काट नामक एक अन्य गांव के साथ अनिष्ट आदि - दीसु सप्त. वि., ब. व. - इमं तस्स __ प्रयुक्त - रे सप्त. वि., ए. व. -- एरुक्काट्टव्हये चेव गामे इहानिद्वादीसु तादिभावदीपकं उदानं उदानेसि, उदा. अट्ट इडगळिस्सरे, चू. वं. 76.149. 59; - भाव पु., [इष्टानिष्टभाव], वाञ्छनीयता एवं इण/ इणु गत्यर्थक धातु - इण-फेण द्वयं गते, धा. मं. अवाञ्छनीयता - वो प्र. वि., ए. व. - इट्ठानिट्ठभावो च 29; इणु गतियं, इणोति, इणं इणायिको, सद्द. 2.507. पुग्गलवसेन च द्वारवसेन च गहेतब्बो, उदा. अट्ठ. 163;- इण नपुं., Vइणु से व्यु. [ऋण]. शा. अ., कर्जा, उधार, विपरीतानुभवनलक्खण त्रि., ब. स., अनुकूल एवं ला. अ., दायित्व, कर्तव्य - णं' प्र. वि., ए. व. - प्रतिकूल, इन दोनों से विपरीत अनुभव के लक्षण उद्धारो तु इणं वुत्तं, अभि. प. 471; पेत्तिकं वा इणं होति, वाला/वाली - णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा यं वा होति सयंकतं, जा. अट्ठ. 7.38; - णं' द्वि. वि., ए. इहानिट्ठविपरीतानुभवनलक्खणा, मज्झत्तरसा... वेदितब्बा, व. - भिक्खु यथा इणं यथा रोगं... इमे पञ्च नीवरणे For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इण 302 इणदान अप्पहीने अत्तनि समनुपस्सति, म. नि. 1.348; तस्मा तेसं इणं ददे, जा. अठ्ठ. 4.249; - णेन तृ. वि., ए. व. - एको पन बहु इणं खादित्वा तेन इणेन अट्टो पीळितो तम्हा गामा पलायति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.129; - तो प. वि., ए. व. - इणतो सइणे भिक्खू मोचेसि सासनप्पियो, म. वं. 36. 39; - स्स ष. वि., ए. व. - इणस्स वा पमोक्खाय, दुभिक्खे आपदासु वा, खु. पा. 9; इणस्स अकतभावेन तुट्ठो, जा. अट्ठ. 4.248; - णे सप्त. वि., ए. व. - वन्धनत्थप्पयोगे बन्धनहेतुम्हि इणे, सद्द. 3.707; मुहावरों के रूप में कतिपय प्रयोग, क. ऋणदाता के सन्दर्भ में प्रयुक्त होने पर, 1. Vदा के क्रि. रू. के साथ, उधार देता है - णं द्वि. वि., ए. व. - न पण्डिता तस्मि इणं ददन्ति, न हि आगमो होति तथाविधम्हा, जा. अट्ठ. 7.135; 2. Vकर के क्रि. रू. के साथ, ऋण स्वीकृत करता है - ब्राह्मणो .... मय्ह इणं करिस्सति, जा. अट्ठ. 4.247; ... अस्से च स्थञ्च पसाधनभण्डञ्च तस्स इणं कत्वा दस्सेन्तो..... जा. अट्ठ, 6.21; 3. 'पयोजेति' के साथ, ब्याज कमाने हेतु उधार लगा देता है - इणं चोदायाति भिक्खाचरियाय धनं संहरित्वा वडिया इणं पयोजेत्वा .... जा. अट्ठ. 4.165; ख. ऋण लेने वाले के सन्दर्भ में प्रयुक्त होने पर 'इणं' का प्रयोग प्रायः निम्नरूप में प्राप्त; 1. निय्यादेति/निय्यातेति के क्रि. रू. के साथ, ब्याज के साथ ऋण चुका देता है - "इदं इणं नाम पलिबोधमूलन्ति चिन्तेत्वा सवड्विक इणं निय्यातेत्वा पण्णं फालापेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).215; 2. 'आदीयति' अथवा 'आदाय' अथवा 'गह के क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त रहने पर, कर्ज लेता है, ऋण लेता है - सो तेसं अच्चयेन ... नानाब्यसनमुखेहि इणं आदाय तं दातुं असक्कोन्तो..., जा. अट्ठ4.228; यो हवे इणमादाय, चुज्जमानो पलायति, सु. नि. 120; इणमादायाति... इणं गहेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.142-43; ... मनुस्सानं हत्थतो बहु इणं गहेत्वा ..., जा. अट्ठ. 4.144; 3. वि + Vगाह के क्रि. रू. के साथ प्रयुक्त होने पर, कर्ज में डूब जाता है- उदकमिव इणं विगाहति, दी. नि. 3.140; 4. 'सोधेति' के साथ प्रयुक्त होने पर, कर्ज अदा कर देता है, ब्याज सहित ऋण को चुका देता है - "उपळे मया गहितं इणं सोधेत्वा सुखेन जीवतूति मह धीताय दथागत आह, पे. व. अट्ठ. 241; स. उ. प. के रूप में अण./अणि., अधम., उत्तम., कामछन्द के अन्त. द्रष्ट.. इणग्गहण नपुं., तत्पु. स. [ऋणग्रहण], कर्ज लेना, ऋण को स्वीकार करना --- णं द्वि. वि., ए. व. - इणादानस्मि वदामीति इणग्गहणं वदामि, अ. नि. अट्ठ. 3.118. इणगाहक पु., [ऋणग्राहिन्], ऋण लेने वाला, कर्जखोर, उधार लेने वाला - स्स ष. वि., ए. व. - इणग्गाहकस्स एक अङ्ग गहेतब्ब, मि. प. 330. इणघात त्रि., [ऋणघातक], कर्ज मारने वाला, ऋण लेकर उसे नहीं लौटाने वाला - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - इणघातसूचकाति वसलसुत्ते वृत्तनयेन इणं गहेत्वा तस्स अप्पदानेन इणघाता, सु. नि. अट्ठ 1.265; - सूचक त्रि., द्व. स., कर्ज़ मारने वाला एवं इधर की बात उधर करने वाला अथवा चुगली करने वाला - का पु.. प्र. वि., ब. व. - ये पापसीला इणघातसूचका, सु. नि. 249; इणघातसूचकाति वसलसुत्ते वुत्तनयेन इणं गहेत्वा तस्स अप्पदानेन इणघाता पेसुओन सूचका च, सु. नि. अट्ठ. 1.265. इणट्ट त्रि., तत्पु. स. [ऋणार्त], ऋणग्रस्त, कर्ज़ का मारा हुआ, ऋण के कारण विपत्तिग्रस्त - डो पु., प्र. वि., ए. व. - एको पन बहु इणं खादित्वा तेन इणेन अट्टो पीळितो तम्हा गामा पलायति ... अयं इणट्टो नाम, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.129; कदा इणट्टोव दलिद्दको निधि आराधयित्वा धनिकेहि पीळितो, थेरगा. 1109; "किं त्वं इणट्टो वा भयट्टो वा जीवितुं असक्कोन्तो पब्बजितो ति? स. नि. अट्ठ. 2.212; - डा ब. व. - ये पन इणं गहेत्वा पटिदातुं असक्कोन्ता पलायित्वा पब्बजन्ति, ते इणट्टा नाम, इणपीळिताति अत्थो, - इणट्ठातिपि पाठो, इणे ठिताति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 2.267; न इणट्टा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, म. नि. 2.136; केचि इणट्टा पब्बजन्ति, मि. प. 28. इणट्ठ त्रि., [ऋणस्थ], ऋण में स्थित, कर्ज में डूबा हुआ - हा पु., प्र. वि., ब. व. - इणट्टातिपि पाठो, इणे ठिताति अत्थो , स. नि. अट्ठ. 2.267. इणट्ठान नपुं, तत्पु. स., ऋण का स्थान, कर्ज़ का स्थान - ने सप्त. वि., ए. व. - मया पन रो सन्तक निवापपानभोजनं भुत्तं तं मे इणट्टाने ठितं. जा. अट्ठ. 3.239. इणदान नपुं, तत्पु. स. [ऋणदान], 1. आजीविका के पवित्र साधन के रूप में कर्ज देना या उधार देना, साहूकारी- नं प्र. वि., ए. व. - कसिवाणिज्जा इणदानं. For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org इणदायक 303 इणसोधन जा. अट्ठ. 4.380; यानि तानि कसिवाणिज्जानि इणदानं इणमुत्त त्रि., तत्पु. स. [ऋणमुक्त], ऋण से मुक्त - स्स उञ्छाचरियाति आजीवमुखानि, जा. अट्ठ. 4.381; कीदिसंपु., ष. वि., ए. व. - इणमुत्तस्स पुरिसस्स इणस्सामिके ते इणदानं, जा. अट्ठ.4.249; 2. ऋण देकर जुटाया गया दिस्वा नेव भयं न छम्भितत्तं होति, दी. नि. अट्ठ. 1.174. धन, ऋण देने में लगाया गया धन - णं द्वि. वि., ए. व. इणमूल नपुं., तत्पु. स. [ऋणमूल]. उधार के रूप में प्राप्त - निधिञ्च इणदानञ्च, न करे परपत्तिया, जा. अट्ठ. पूंजी, ऋण के रूप में गृहीत मूलधन, ऋण, - लं द्वि. 5.111; इणदानन्ति इणवसेन संयोजितधनं, जा. अट्ठ. वि., ए. व. - ताव मातापितूपट्टानेन पोराणं इणमूलं 7.198. विसोधयमाना, पुत्तदारसङ्गहेन नवं इणमूलं पयोजयमाना इणदायक त्रि., [ऋणदायिन्], महाजन, ऋण देने वाला ...खु. पा. अट्ठ. 125; -- लानि ब. व. - सो यानि च साहूकार - को पु., प्र. वि., ए. व. - आति सालोहितो पोराणानि इणमूलानि, तानि च व्यन्तिं करेय्य. .... दी. नि. 1.63. किन्नु उदाहु इणदायको, रस. 1.44(रो.). इणमोक्ख पु., तत्पु. स. [ऋणमोक्ष], ऋण से मुक्ति, ऋण इणपण्ण नपुं., तत्पु. स. [ऋणपर्ण], ऋणपत्र, रुक्का, की अदायगी - क्खो प्र. वि., ए. व. - कीदिसं ते वचनपत्र, कर्ज को दर्ज करने वाला पत्र - ण्णं प्र. वि., इणदानं, इणमोक्खो च कीदिसो, जा. अट्ठ. 4.249; ‘एवं मे ए. व. - इदं तुम्हाकं इणपण्णं, जा. अट्ठ. 1.225; - इणमोक्खो भविस्सती ति पलायित्वा गङ्गायं पति, चरिया. ण्णानि ब. व. - सो इणायिके आह- तुम्हाकं इणपण्णानि अट्ठ. 136. गहेत्वा आगच्छथ, जा. अट्ट. 4.228. इणवड्डि स्त्री., तत्पु. स. [ऋणवृद्धि], ऋण पर देय सूद इणपरिभोग पु., तत्पु. स. [ऋणपरिभोग], शा. अ., ऋण अथवा ब्याज, ऋण के मूलधन में वृद्धि - या सप्त. वि., के रूप में प्रयोग, ऋण का उपभोग, ला. अ., चार प्रकार ए. व. - वड्डियाति इणवड्डिया, थेरीगा. अट्ठ. 294. के परिभोगों में से एक, प्रत्यवेक्षण अथवा देशकाल का इणवसेन तृ. वि., ए. व., क्रि. वि., ऋण के कारण, ऋण विचार किए बिना ही चीवर, पिण्डपात, निवासस्थान एवं के रूप में - धारयतेति इणवसेन गण्हाति, सद्द. 3.695. औषधि का उपभोग-गो प्र. वि., ए. व. - थेय्यपरिभोगो, इणसदिस त्रि., तत्पु. स. [ऋणसदृश]. ऋण जैसा, ऋण इणपरिभोगो, दायज्जपरिभोगो, सामिपरिभोगोति... सीलवतो के समान - सं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - यथा इणन्तिआदीसु अप्पच्चवेक्खितपरिभोगो "इणपरिभोगो नाम, पारा. अट्ट. इणसदिसंबन्धनसदिसं धनजानिसदिसं. अ. नि. अट्ट. 2.247; सीलवतो पन अपच्चवेक्षणपरिभोगो इणपरिभोगो 3.342. नाम, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2244; - स्स ष. वि., ए. व. इणसाधक पु., [ऋणसाधक], ऋण को वसूल करने वाला, - सो इणपरिभोगस्स पच्चनीकत्ता आणण्यपरिभोगो वा ऋण-समाहर्ता -- स्स ष. वि., ए. व. - इणसाधकस्स होति, विसुद्धि. 1.41; - द्वान नपुं., तत्पु. स. तीणि अङ्गानि गहेतब्बानि, मि. प. 331. [ऋणपरिभोगस्थान], ऋण के समान परिक्खारों का उपभोग इणसामिक पु., ऋणदाता, महाजन, उत्तमर्ण - को प्र. करने वाले की जगह, ऋण-उपभोक्ता का स्थान - ने वि., ए. व. - इणसामिको च तं परियेसन्तो तत्थ गच्छति, सप्त. वि., ए. व. - सचस्स अपच्चवेक्खतोव अरुण महाव. अट्ठ. 267; - का ब. व. - इणसामिका सुत्वा उग्गच्छति, इणपरिभोगट्ठाने तिट्ठति, विसुद्धि. 1.40. पलातट्ठानेपि नो न मुच्चिस्सति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) इणपलिबोध पु., तत्पु. स., ऋणग्रस्त होने के फलस्वरूप 2.129; - के द्वि. वि., ब. व. - सो इणसामिके दिस्वापि उत्पन्न बाधा, संकट अथवा विपत्ति -धो प्र. वि., ए. व. सचे इच्छति, आसना उट्ठहति, दी. नि. अट्ठ. 1.174; - - इणपलिबोधो, महाराजाति, स. नि. अट्ठ. 1.213; - कानं ष. वि., ब. व. - पस्सन्तेन पन आनेत्वा इणसामिकानं धेन तृ. वि., ए. व. - 'सहेतुको सत्तो इणपलिबोधेन न दस्सेतब्बो, महाव. अट्ठ. 267. पब्बजतीति, महाव. अट्ठ. 267. इणसुत्त नपुं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. इणपीळित त्रि, तत्पु. स. [ऋणपीड़ित], ऋणग्रस्त होने के 2(2).65-68. कारण पीड़ित अथवा कष्ट में पड़ा हुआ - ता पु., प्र. वि., इणसोधन नपुं, तत्पु. स. [ऋणशोधन], ऋण का भुगतान, ब. व. - ते इणट्टा नाम, इणपीळिताति अत्थो, स. नि. अट्ठ. कर्ज़ की अदायगी, स. प. के अन्त., - लद्धमूलं मह 2.267. इणसोधनमत्तमेव जातं, जा. अठ्ठ 1.308. For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इणादान 304 इतर इणादान नपुं., तत्पु. स. [ऋणादान], ऋण लेना, ऋण का उत्तमण्णो च धनिको, अभि. प. 470; - पीळा स्त्री., तत्पु. ग्रहण - नं प्र. वि., ए. व. - इणादानम्पि दुक्खं लोकस्मि स., ऋणदाता की ओर से पड़ने वाला दबाव, कर्ज देने कामभोगिनो, अ. नि. 2(2).66; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. वाले व्यक्ति द्वारा दी जा रही पीड़ा या व्यथा, प्र. वि., ए. - इणादानस्मिं वदामीति इणग्गहणं वदामि, अ. नि. अट्ठ. व. - इमस्मि गङ्गासोते पतितो जीवामि वा मरामि वा, 3.118. जीवितं वा मे एत्थ होतु मरणं वा, उभयथापि इणायिकपीळा इणापगम पु., तत्पु. स. [ऋणापगम], ऋण से छुटकारा, न होतीति अधिप्पायो, चरिया. अट्ठ. 136. ऋण का अपनयन - मेन तृ. वि., ए. व. - इणोति ।इणु का वर्त., प्र. पु., ए. व., गतिशील रहता है - कामच्छन्दादिइणापगमेन अणणा, थेरीगा. अट्ठ. 270. इणु गतिय, इणोति, इणं, इणायिको, सद्द. 2.507. इणायिक त्रि., इण + इक के योग से व्य.. - इत त्रि., Vइ का भू. क. कृ. [इत]. जा चुका, बीत चुका - [ऋण्वन् /ऋणिन् /ऋणिक, 1. ऋण लेने वाला, कर्जदार, इतो उदितो, सद्द. 2.315; इतो, क. व्या. 645; अपेत, ऋण लेने अथवा देने की प्रक्रिया के साथ जुड़ा हुआ, उदित, दुरित आदि के रूप में सोपसर्ग प्रयोगों में ही मुख्य अधमर्ण - को पु., प्र. वि., ए. व. - इणोति, इणं रूप से प्राप्त. . इणायिको, सद्द. 2.507; अधमण्णो तु इणायिको, अभि. प. इतर त्रि., [इतर], अन्य, दूसरा, भिन्न, सामान्य - इतरसद्दो 470; एत्थ इणायिको नाम यस्स पितिपितामहहि वा इणं वृत्तपटियोगिवचनो अञसद्दो अधिगतापरवचनो, सद्द. गहितं होति, सयं वा इणं गहितं होति, यं वा आथपेत्वा 1.266; इतरो अञतरा एको अओ, अभि. प. 717; 1.क. मातापितूहि किञ्चि गहित होति, सो तं इणं परेसं धारेतीति ए. व. में प्रयुक्त होने पर, दूसरा, अन्य, निर्दिष्ट दो में से इणायिको, महाव. अट्ठ. 267; यं पन अओञातका आथपेत्वा बचा हुआ एक - रो पु., प्र. वि., ए. व. - अयहि राजा किञ्चि गण्हन्ति, सो न इणायिको, न हि ते तं आथपेतुं हंसान, अयं सेनापतीतरो, जा. अट्ठ. 5.341; अथेसो इतरो इस्सरा, तस्मा तं पब्बाजेतुं वट्टति इतरं न वट्टति, तदे. पक्खी , सुवो लुद्दानि, भासति, जा. अट्ठ. 4.393; - रं पु., अञ्जतरो पुरिसो इणायिको पलायित्वा भिक्खूसु पब्बजितो द्वि. वि., ए. व. - अथेक इतरं अम्बं, नीलोभासं मनोरमं. होति, महाव. 95; अयं सो अम्हाकं इणायिको, तदे-का जा. अट्ठ. 6.74; तेन पविसित्वा थूलसाटके गहिते इतरस्स ब. व. - यथा इणायिका आनण्यं पत्थेन्ति पिहयन्ति, इतरं गण्हतो उद्धारे पाराजिक, पारा. अट्ठ. 1.283; - राय महानि. 117; सत्ता तस्स चतरोघतिण्णस्स पिहयन्ति स्त्री., तृ. वि., ए. व. - असिस्स "इमाय धाराय मारेही ति इणायिका, सु. नि. अट्ठ. 2.229; - कं पु., द्वि. वि., ए. व. वुत्तो इतराय वा धाराय... मारेति विसङ्केतो, पारा. अट्ठ. - कथन्हि नाम... इणायिकं पब्बाजेस्सन्तीति, महाव. 95%; 2.43; - स्स पु., ष. वि., ए. व. - तस्मा पण्डितजातियो 2. कर्ज देने वाला महाजन, उत्तमर्ण, ऋणदाता - केन सुणेय्य इतरस्सपि, उभिन्नं वचनं सुत्वा यथा धम्मो तथा पु., तृ. वि., ए. व. - इणायिकेन “देहि मे इण"न्ति करे, जा. अट्ठ. 3.90; - स्मिं पु., सप्त. वि., ए. व. - चोदियमानो .... सु. नि. अट्ठ. 1.143; - का पु., प्र. वि., चोरा ततो निक्खमित्वा इतरस्मि मग्गे अट्ठस.ध. प. अट्ठ. ब. व. - इणायिका देथ देथाति चोदेन्ति, स. नि. 2.13; - मग्ग पु., कर्म. स. [इतरमार्ग]. दूसरे प्रकार का 1(1).199; इदानि इणायिका आगन्त्वा गेहं परिवारेस्सन्ति. मार्ग, भिन्न प्रकृति वाला मार्ग - ग्गं द्वि. वि., ए. व. - स. नि. अट्ठ. 1.211-212; - के पु., द्वि. वि., ब. व. - अथस्स पुरतो तिरियं ठत्वा भुस्सित्वा इतरमग्गमेव नं इणायिके आह, तुम्हाकं इणपण्णानि गहेत्वा आगच्छथ, आरोपेति, ध. प. अट्ठ. 1.100; 1.ख. यदा कदा ब. व. में चरिया. अट्ठ. 136; मरणं मे सेय्यो ति चिन्तेत्वा इणायिके प्रयुक्त होने पर, दो परस्पर-विपरीत समूहों अथवा वर्गों में आह, चरिया. अट्ठ. 136; - केहि तृ. वि., ब. व. - से कोई एक - रा/रे पु., प्र. वि., ब. व. - यानके इणायिकेहि उपद्दता सुखं वसितुं असक्कोन्ता, जा. अट्ठ. ठपेत्वा यानक पाजेन्तो यानकस्स पुरतो अहोसि, इतरा 4.144; इणायिकेहि चोदियमानो चिन्तेसि "किं मय्हं जीवितेन पच्छतो, जा. अट्ठ. 2.100; निगण्ठा चेलका चेति इतरा ... मतं मे सेय्यो ति, जा. अट्ठ. 4.228; - कानं ष. वि., परिबाजका, इतरा ब्राह्मणा ति च अजे च पृथुलद्धिका, ब. व. - इणायिकानं पुरिसानं अधिपतनबहुले बहूहि दी. वं. 6.27; रती हि तेसं दुखिनो पनीतरे, जा. अट्ठ. इणायिकेहि अभिभवितब्बे, थेरीगा. अट्ठ. 294; विलो., - 5.261; - रेसं ष. वि., ब. व. - तेसं सन्तिकं गन्त्वा For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 781. इतर 305 इतरीतर उक्खेपकानं उक्खेपने, इतरेसञ्च असञ्चिच्च आपत्तिया व. - सत्था पुन दिवसे इतरस्स इतरस्साति पटिपाटिया अदस्सने आदीनवं वत्वा ..., जा. अट्ठ. 3.429; 1.ग. ब. व. सब्बेसं घरानि अगमासि, ध. प. अट्ठ. 2.288; - रेन तृ. के अधिकतर प्रयोगों में, दूसरे, अन्य, शेष, बचे हुए - रे वि., ए. व. – वासिफरसुको जेट्ठभातिकस्स अग्गिं करोति, पु., प्र. वि., ब. व. - इतरेपि द्वे एवमेव आहंसु, पारा. अट्ठ. इतरेन भेरितले पहटे हत्थी पलायन्ति, जा. अट्ठ. 2.84; स. 1.294; इतरे द्वे सहायकत्थेरा जनपदचारिकं चरन्ता उ. प. के रूप में इतरी., उत्तरी., उत्तरे., दुद्दसे., वामे. के अञ्जतरस्मिं आवासे समागन्त्वा .... पे. व. अट्ठ. 12; इतरे अन्त. द्रष्ट.. तयो सक्कायदिट्ठिया बलवत्ता अत्तनो पटिपक्खभूतं सत्तं इतरत्र अ., सप्त. वि., प्रतिरू. प्रकार-बोधक अथवा स्थानसूचक अपस्सन्ता न भायन्तीति, ध. प. अट्ठ. 2.28-29; "स्वे निपा. [इतरत्र], अन्यथा, उससे भिन्न रूप में, अन्यत्र, उपोसथदिवसो ति अत्वा इतरे तयो आह .... जा. अट्ट दूसरे स्थलों में – एस नयो इतरत्रापि, सद्द. 3.704; 7563; 3.44; - रा स्त्री., द्वि. वि., ब. व. - तं सुत्वा सकुणो इतरा द्वे गाथा अभासि, जा. अट्ठ. 3.23; - रेसु पु., सप्त. इतरथत्त नपुं., इतरथा से व्यु., भाव. [इतरथात्व], अन्य वि., ब. व. - इतरेसु पन तीस कायसञ्चेतना कायसङ्घारो रीति से अथवा दूसरी तरह से होने की अवस्था - त्ता प. ...., विसुद्धि. 2.160; - रेसं नपुं.. ष. वि., ब. व. - वि., ए. व. - सब्बनामेहि था-तथा पकारवचने... इतरथा पथवीकसिणे पन पठमं झानं समापज्जित्वा तत्थेव इतरेसम्पि उभयथा, तेन पकारेन ततत्था ... तयुगपच्चयो पसिद्धो तं समापज्जन अङ्गसङ्कन्तिकं नाम, विसुद्धि. 2.3; इतरेसन्ति यथा, तथा भावो तत्थत्तं, एवं अञत्थत्तं ... इच्चादि एत्थ च, अवसिद्धरूपावचरज्झानानं, न हि अरूपज्झानेसु असङ्गसङ्कन्ति सद्द. 3.805; थत्ताप्पच्चयो च होति - सो विय पकारो अत्थि, नापि तानि पथवीकसिणे पवत्तन्ति, विसुद्धि, महाटी. तथत्ता, एवं यथत्ता, अअथत्ता, इतरथत्ता, सब्बथत्ता, क. 2.3-4; - रानि नपुं, प्र. वि., ब. व. - सद्धिन्द्रियं बलवं व्या. 400. होति इतरानि मन्दानि, ततो वीरियिन्द्रयं पग्गहकिच्चं .... इतरथा अ., निपा., इतर + था के योग से व्य. विसुद्धि. 1.126; कसिणकम्मद्वानिको कसिणं कत्वा यथासुखं प्रकारबोधक क्रि. वि. [इतरथा], 1. अन्य रीति से, दूसरी भावेति, एवं इतरानि कम्मट्ठानानि सुलभानि, विसुद्धि. तरह से, और तरीके से - इतरथा वस्तुं न देमाति आह, 1.180-81; 1.घ. यदा कदा ए. व. में प्रयुक्त होने पर भी विसुद्धि. 1.94; “पटिपत्तिया च पूजियमानो पूजितो होति न समाहार अथवा बहुत्व का द्योतक - रं नपुं.. प्र. वि., ए. इतरथा ति, विसुद्धि. 1.128; 'अहमेतं लाभग्गयसग्गप्पत्तं व. - नाझं सुचरितं राज... तायते मरणकाले एवमेवितरं करोन्तो पब्बजित्वाव कातुं सक्खिस्सामि, न इतरथा ति, धनं, जा. अट्ठ. 3.185; 2. 'जन' अथवा 'पजा' शब्दों के जा. अट्ठ. 4.339; कथिता येव सोभति न इतरथा, सद्द, साथ अन्वित रहने पर, सामान्य, साधारण, नासमझ, गंवार, 1.144; 2. नहीं तो, अन्यथा, विपरीत रूप में, दूसरी ओर तुच्छ, नीच - रो पु., प्र. वि.. ए. व. - तमहं सारथिं ब्रूमि, - इतरथा एवं कातुं न सक्खिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 6.257; रस्मिग्गाहो इतरो जनो, ध. प. 222; - रा स्त्री.. प्र. वि., इतरथा न पुब्बेन वा परं, न परेन वा पुब्बं युज्जति, बु. वं. ए. व. - अप्पका ते मनुस्सेसु, ये जना पारगामिनो, अथायं अट्ठ. 38; इतरथा हि पुब्बे वुत्तदोसप्पसङ्गो एव सिया, तस्मा इतरा पजा, तीरमेवानुधावति, ध. प. 85; "अत्थाय इतरा यथानुसिट्ठमेव गहेतब्द, खु. पा. अट्ठ. 10. पजा, पुञभागाति मे मनो, सङ्घातुं नोपि सक्कोमि, इतरीतर त्रि., [इतरेतर], 1. पारस्परिक, अन्योन्य, एक मुसावादस्स ओत्तपान्ति, स. नि. 1(1).182; अत्ता हवे जितं दूसरा, एक एक, प्रत्येक - स्स पु., ष. वि., ए. व. - सेय्यो, या चायं इतरा पजा, अत्तदन्तस्स पोसस्स. निच्च अञमञस्स भोजका, इतरीतरस्स भोजका, मो. व्या. सञतचारिनो, ध. प. 104; सो सचे धम्म चरति, पगेव 1.56; 2. भिन्न-भिन्न प्रकृति एवं स्वरूप वाला, छोटा से इतरा पजा, जा. अट्ठ. 5,231; 3. अगला, अनुवर्ती, आगे छोटा, हर प्रकार का - रा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - मही आने वाला, परवर्ती, द्वितीय, दूसरा - रं स्त्री., वि. वि., यथा जगति समानरत्ता, वसुन्धरा इतरीतरापतिठ्ठा, जा. ए. व. - अथरस वचनं सुत्वा पुरोहितो इतरं गाथमाह, जा. अट्ठ. 5.420; वच्छदन्तमुखा सेता, तिक्खग्गा अद्विवेधिनो, अट्ठ. 5.97; सा तस्स आगमनूपायं आचिक्खन्ती इतरं पणुन्ना धनुवेगेन, सम्पतन्तुतरीतरा, जा. अट्ठ. 6.2773; गाथमाह, जा. अट्ठ. 5.191; - रस्स/रस्सा ष. वि., ए. सम्पतन्तुतरीतराति एवरूपा सरा इतरीतरा सम्पतन्तु For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतरीतर 306 इति समागच्छन्तु, जा. अट्ट. 6.279; - रेन तृ. वि., ए. व. - यथा कथं इतरितरेन चापि, सुभासितं तञ्च सुणाथ सब्बे, वि. व. 1228; इतरितरेन चापीति इतरीतरञ्चापि, इदं यथापि इमिना योजेतब्ब, वि. व. अट्ठ. 283; इतरीतरेन तुस्सेय्य, थेरगा. 230; "इतरीतरेन तुस्सेया ति येन केनचि हीनेन वा पणीतेन वा यथालद्धेन पच्चयेन सन्तोस आपज्जेय्याति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 1.379; सन्तुस्समानो इतरीतरेन, सु. नि. 42; इतरीतरेनाति उच्चावचेन पच्चयेन, सु. नि. अट्ठ. 1.69; इतरीतरेन पिण्डपातेन इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी ... इतरीतरेन सेनासनेन इतरीतरसेनासनसन्ततिया च वण्णवादी.... दी. नि. 3.179-180; - स्स ष. वि., ए. व. - असम्पदानेनितरीतरस्स, बालस्स मित्तानि कलीभवन्ति, जा. अट्ठ. 1.446; इतरीतरस्साति यस्स कस्सचि लामकालामकस्स, जा. अट्ठ. 1.447; - चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानपच्चयभेसज्जपरिक्खार पु., तत्पु. स., चीवर, भिक्षा से प्राप्त भोजन, निवास स्थान एवं औषधि के मूलभूत साधारण आवश्यक उपकरण - रेन तृ. वि., ए. व. - इतरीतरचीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्ज परिक्खारेन पापिकं इच्छ पणिदहति, अ. नि. 1(2).165; - पच्चयसन्तोस पु., तत्पु. स., मामूली से मामूली भोगसाधनों से प्राप्त सन्तुष्टि, सामान्य उपकरणों से मिलने वाला सन्तोष का भाव - सेन तृ. वि., ए. व. - सन्तुट्ठोति इतरीतरपच्चयसन्तोसेन समन्नागतो, सो पनेस सन्तोसो द्वादसविधो होति, म. नि. अट्ठ. (मू.प) 1(2).46; - पिण्डपातसन्तुढि स्त्री., तत्पु. स., साधारण प्रकार के भोजन से प्राप्त सन्तोषभाव - या ष. वि., ए. व. - भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, दी. नि. 3.179; - योग पु., व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में प्रयुक्त [इतरेतरयोग], द्व. स. का एक प्रभेद, द्वन्द्व समास का वह प्रभेद जिसमें समास के विभिन्न घटक एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हों अथवा जिसके प्रत्येक अंग पृथक-भाव को सूचित करें - गो प्र. वि., ए. व. - इतरीतरयोगो समाहारो च समुच्चयस्सेव भेदो, सो एव हि अञमञ्जसापेक्खानं अवयवभेदानगतो इतरीतरयोगो यथा, देवदत्त यज्ञदत्तेहि इदं कारियं कत्तब्बन्ति, पद. 259(सिंहली); पाठा. इतरेतर; - सन्तोस पु., साधारण से साधारण साधनों या सामग्रियों से सन्तुष्टि - सेन तृ. वि., ए. व. - इतरीतरसन्तोसेन सन्तहस्स आरद्धवीरियस्सेव समणसाधुताति अधिप्पायो, थेरगा. अट्ठ. 1.246; इतरीतरसन्तोसेन सन्तुट्ठो अनवज्जाय जीविकाय जीवतियेव, थेरगा. अट्ठ. 2.129; - सेनासनसन्तुट्ठि स्त्री, साधारण से साधारण वासस्थान से सन्तुष्टि - या ष. वि., ए. व. - भिक्खु सन्तुट्ठो होति इतरीतरेन सेनासनेन इतरीतरसेनासनसन्तुट्टिया च वण्णवादी, दी. नि. 3.180. इति' अ, Vइ + ति के योग से व्यु. [इति], प्रायः किसी के द्वारा कहे गए वचनों को वैसा का वैसा ही रख देने हेतु प्रयुक्त अव्यय, यह कथित वचन निम्न रूपों में हो सकता है, 1.क. शब्दस्वरूपद्योतक, शब्द के स्वरूप को दर्शाने हेतु प्रयुक्त – “सब्बो चन्ति' सब्बो ति इच्चेसो सद्दो सरे परे क्वचि चकारं पप्पोति, इति+ एतं = इच्चेतं... इतिस्स मुहुत्तम्पि, क. व्या. 19; अति-पत-इतीनं ति चं ... क्वची ति किं ... इतिस्स मुहुत्तम्पि, सद्द. 3.616; इतायं कोधरूपेन, मच्चुपासो गुहासयो, अ. नि. 2(2).235; इतायन्ति इति अयं, अ. नि. अट्ठ. 3.179; 1.ख. प्रातिपदिकार्थद्योतक अर्थात् अपने अर्थों को संकेतित करने हेतु प्रयुक्त प्रातिपदिक का संकेतक - मरणन्ति या तेसं तेसं सत्तानं तम्हा तम्हा सत्तनिकाया चुति चवनता भेदो ..., महानि. 89; 1.ग. वाक्यार्थद्योतक अर्थात् समूचे वाक्य का संकेतक - नागारमावसेति सब्बं घरावासपलिबोधं छिन्दित्वा ... एको चरेय्य ..., महानि. 89; 2.क. पालि अट्ठ. में इसे मुख्यतया पदपूरणार्थक अथवा निदर्शनार्थक निपा. कहा गया है - इतीति पदसन्धि पदसंसग्गो पदपारिपूरी अक्खरसमवायो व्यञ्जनसिलिट्ठता पदानुपुब्बतापेतं, महानि. 89; निदस्सने इति-त्थं च एवं अभि. प. 11583; 2.ख. क्रि. वि. के रूप में अत्यल्प प्रयोगों में, इस प्रकार से, इस रूप में, ऐसे - इतिहन्ति सीलेसु अकत्थमानो, सु. नि. 789; यो भिक्खु अनभिजान उत्तरिमनु स्सधम्म अत्तु पनायिक अलमरियाणदस्सनं समुदाचरेय्य – 'इति जानामि इति पस्सामी ति, पारा. 111; तस्मा हि धम्मेस करेय्य छन्द, इतिमोदमानो सुगतेन तादिना, थेरगा. 305; न इतिवादप्पमोक्खानिसंसत्थं, न 'इति म जनो जानातूति, अ. नि. 1(2).31; जोतितानीति अत्थो, इति इमस्मि सुत्ते चतूसुपि ठानेसु खीणासवस्स वचीसच्चमेव कथितन्ति, अ. नि. अट्ठ. 2.358; 2.ग. इति/ति + कथन, चिन्तन, अनुभव करने, सुनने एवं जानने आदि के अर्थों वाला क्रि. For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति 307 इतिचित्तमन/इतिचित्तसंकप्प रू. + उद्धरण के रूप में (अत्यल्प प्रयोग), प्रायः उद्धरण- चिह्न के स्थान पर प्रयुक्त अथवा यदा कदा, ऐसे, इस प्रकार के अर्थों का सूचक - इति फन्दनरुक्खोपि, तावदे अज्झभासथ, ... - जा. अट्ठ. 4.187-88; इति पटिसञ्चिक्खितब्बं - "-, पारा. अट्ठ. 2.26; महाराजा वस्से अन्तिमके ठितो इति चिन्तयि, "- म. वं. 8.1; 2. घ. उद्धरण + इति + उक्तार्थक क्रि. रू. का प्रयोग (अधिक सामान्य)- जातिया ब्राह्मणो होति, भारद्वाजो इति भासति, सु.नि. 601; राजा "नेतं तथा, भन्ते!" इति वत्वान तं वदि, म. वं. 32.67; इति राजा विचिन्तेसि चिन्तितं तं तथा अहु, म. वं. 17.26; इति चिन्तयि पञवा, म. वं. 5.162; 2.ङ. क्रि. रू. + उद्धरण + इति के रूप में भी प्राप्त - राजारोचेसि थेरानं "कम्मं मे निहितं” इति, म. वं. 3.23; अपुछि धम्मिके भिक्खू "किंवादी सुगतो?" इति, म. वं. 5.271; आरोचेसि कुमारस्स "वळवेत्थेदिसी" इति, म. वं. 10.54; 2.च. उद्धरण + क्रि. रू. रहित इति - सम्बुद्धो पटिजानासि. (इति सेलो ब्राह्मणो) धम्मराजा अनुत्तरो, थेरगा. 825; "रज्जो मुखम्हि पातेमि इति कण्डं च सो खिपि, म. वं. 25.89; “न युज्झिस्साम दमिळेहि इति भुञथिम इति, म. वं. 22.82; 2.छ. एकल नामों अथवा नामपदों के पश्चात् उद्धरणचिह्न " " के स्थान पर प्रयुक्त - यथा हि अङ्गसम्भारा, होति सद्दो रथो इति, स. नि. 1(1),160; एको यक्खो इधागम्म रत्तक्खी इति विस्सुतो, म. वं. 36. 82; कच्चायनो माणवकोस्मि राज, अनूननामो इति महयन्ति, जा. अट्ठ. 7.165; 2.ज. समुच्चय के रूप में परिगणित धर्म + इति + अन्य निपात - तत्थ वृत्ताभिधम्मत्था, चतुधा परमत्थतो, चित्तं चेतसिकं रूपं निब्बानमिति सब्बथा, अभि. ध. स. 1; “एवंसीला ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि एवंधम्मा ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंपआ ते भगवन्तो अहेसुंइतिपि, एवंविहारी ते भगवन्तो अहेसुं इतिपि, एवंविमुत्ता ते भगवन्तो अहेसु इतिपी ति? दी. नि. 3.73; इति पेतं अभूतं, यं तुम्हेहि वुत्तं, तं इमिनापि कारणेन अभूतं..., दी. नि. अट्ठ. 1.50. इति Vइ (जाना) का वर्त, प्र. पु., ए. व. [एति], जाता है - तस्स इमानि रूपानि भवन्ति - इति एति उदेति, सद्द 2.315; 'इति इति क्रियासद्दो सुत्तन्तेसु न दिस्सति, सद्द. 2. 316; आगमने च होतीति धीमा लक्खेय्य, तं यथा, सद्द. 2. 317: इति इन्ति, इसि इथ, इमि इम अपरिपुण्णो वत्तमानानयो, सद्द. 2.319. इतिकत्तब्ब नपुं.. [इतिकर्तव्य], इस प्रकार से करने योग्य, कर्तव्य, आचरणीय, उत्तम आचरण - ब्बानि प्र. वि., ब. व.-किंकरणीयानीति इतिकत्तब्बानि, अ. नि. अट्ठ. 3. 39; - ब्बेसु सप्त. वि., ब. व. - किंकरणीयेसूति इतिकत्तब्बेस. अ. नि. अट्ठ. 3.40; - ता स्त्री., इतिकत्तब्ब का भाव., सदाचार-परायणता, उत्तम आचरण के पालन की स्थिति - य तृ. वि., ए. व. - "तत्थ इतिकत्तब्बताय तुम्हाकं दस्सनाय आगन्तुं ओकासंन लभिन्ति आह, जा. अट्ठ.2.149; - सु सप्त. वि., ब. व. - इतिकत्तब्बतासु परमेन वेय्यत्तियेन समन्नागतो, थेरगा. अट्ठ. 1.209; तासु तासु इतिकत्तब्बतासु विश्रुतं विजाननभावं पत्तोस्मि, चरिया. अट्ठ. 216; सत्तानं इतिकत्तब्बतास दक्खो अनलसो सहायभावं उपगच्छति, चरिया. अट्ठ. 282. इतिकातब्बकम्म नपुं., कर्म. स., भिन्न भिन्न प्रकार के करने योग्य कर्म, भिक्षुओं द्वारा किये जाने योग्य ऊंचे या छोटेमोटे कर्म – म्म प्र. वि., ए. व. - इति कातब्बकम्मन्ति तं तं भिक्खून कातब्बं उच्चावचकम्मं चीवरविचारणादि, दी. नि. टी. (लीन.) 2.113. इतिकार पु., 'इति' शब्द - रो प्र. वि., ए. व. - इतिकारो कारणत्थो, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).60; इतिकारो निगमनत्थो, म. वं. टी. 593(ना.). इतिकिरा स्त्री., इति + किर से व्यु., शा. अ., इस प्रकार से कहा गया, इस प्रकार से था, इस रूप में प्रतिवेदित किया गया, ला. अ., परम्परा, अनुश्रुति, जनश्रुति, किंवदन्ती - य तृ. वि., ए. व. - मा अनुरसवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, अ. नि. 1(1).217; मा इतिकिरायाति एवं किर एतन्ति मा गण्हित्थ, अ. नि. अट्ठ. 2.176; मा इतिकिराय, सद्द. 3.738; न इतिहितिह, न इतिकिराय, न परम्पराय, न पिटकसम्पदाय, न तक्कहेतु, न नयहेतु, महानि. 265; न इतिकिरायाति “एवं किर एतान्ति न होति, महानि. अट्ठ. 314. इतिचित्तमन/इतिचित्तसंकप्प त्रि., ब. स., शा. अ.1. इस प्रकार के मन वाला, इस प्रकार के चित्त-संकल्प वाला, 2. इस प्रकार के चित्र-विचित्र संकल्पों वाला, ला. अ., प्राणिवध या मरण हेतु प्रेरक मनोवृत्ति वाला – प्पो पु., प्र. वि., ए. व. - चित्तसङ्कप्पोति इमस्मि पदे अEि कारवसेन इतिसद्दो आहरितब्बो, इदहि इतिचित्तसङ्कप्पो ति एवं अवुत्तम्पि अधिकारतो वुत्तमेव होतीति वेदितब्ब, पारा. अट्ठ. 2.39; तस्मा चित्तो नानप्पकारको सङ्कप्पो अस्साति For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतिभवाभव 308 इतिवुत्तक चित्तसङ्कप्पोति एवमत्थो दहब्बो, तदे. -- नो पु., प्र. वि., इतिलोप पु., तत्पु. स., व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में ही ए. व. - अम्भो पुरिस, किं तुम्हिमिना पापकेन प्रयुक्त [इतिलोप], 'इति' शब्द का लोप - पे सप्त. वि., दुज्जीवितेन, मतं ते जीविता सेय्यो ति इतिचित्तमनो ए. व. -- इतिलोपे पठमा पठमाय, इतिसद्दस्स लोपट्ठाने चित्तसङ्कप्पो अनेकपरियायेन .... पारा, 86; इतिचित्तमनोति पठमाविभत्तियन्तं पदं पठमाविभत्तियन्तेन समसीयति .... इति चित्तो इति मनो ... एत्थ च “मनो" तिइदं चित्तस्स सद्द. 3.758. अत्थदीपनत्थं वृत्तं तेनेवस्स पदभाजने" यं चित्तं तं मनो ति, इतिवत्तब्बता स्त्री., इति + वत्तब्ब (ऐसे कहा जाना चाहिए) कडा. अट्ठ. 125; इतिचित्तमनो चित्तसङ्कप्पो अनेक का भाव., उचित रूप में कहे जाने की स्थिति - तं द्वि. परियायेन मरणवण्णं वा संवण्णेय्य, मरणाय वा समादपेय्य वि., ए. व. - अनत्थे निमितं नाम परिवत्तन्ति सब्बथा, ...., पारा. 86; इतिचित्तमनोति यं चित्तं तं मनो, यं मनो तं इतिवत्तब्बं नेव यातं लङ्कातलं तदा, चू. वं. 61.72; "आरम्मणं चित्तं, चित्तसङ्कप्पोति मरणसञ्जी मरणचेतनो मरणाधिप्पायो, अलभित्वा तण्हाय अपवत्तं पत्तो ति वत्तब्बतं नापज्जति. पारा. 87. ध. प. अट्ठ. 2.304. इतिभवाभव पु., इति + भव + अभव अथवा इति + भव+ इतिवाद पु., इति + वाद के योग से व्यु., इस या उस रूप आभव के योग से व्यु., 1. लाभ एवं हानि, 2. विभिन्न में कहा जाना, वार्तालाप, गपशप, निरर्थक बातचीत - प्रकार की योनियों में पुनर्जन्म – कथा स्त्री., तत्पु. स., पमोक्खानिसंस 1. पु., निरर्थक वार्तालाप से मुक्त हो 1. वृद्धि (लाभ) एवं हानि से सम्बन्धित बातचीत, 2. जाने का लाभ - नयिदं भिक्खवे, ब्रह्मचरियं तुस्सति विविध योनियों में जन्म ग्रहण करने के विषय में बातचीत, जनकुहनत्थं जनलपनत्थं न लाभसक्कारसिलोकानिसंसत्थं सत्ताइस प्रकार की तिरच्छानकथाओं की सूची में अन्तिम न इतिवादप्पमोक्खा निसंसत्थं, अ. नि. 1(2).31; न - थं द्वि. वि., ए. व. - अनेकविहितं तिरच्छानकथं इतिवादप्पमोक्खानिसंसनत्थन्ति न तेन तेन कारणेन कथेन्तिया, सेय्यथिदं- राजकथं चोरकथं... समद्दक्खायिकं कतवादानिसंसत्थं न वादस्स पमोक्खानिसंसत्थं, अ. नि. इतिभवाभवकथं इति वा, म. नि. 2.191; - था प्र. वि., ए.. अट्ठ. 2.267; 2. त्रि., ब. स., निरर्थक वार्तालाप से मुक्ति व. - भवोति वुद्धि अभवोति हानि, इति भवो, इति अभवोति को अपने लिए महान लाभ-सत्कार मानने वाला – सा पु., यंवा तं वा निरत्थककारणं वत्वा पवत्तितकथा इतिभवाभवकथा, प्र. वि., ब. व. - ते उपारम्भानिसंसा चेव धम्म परियापुणन्ति दी. नि. अट्ठ. 1.81; - हेतु अ., क्रि. वि., भिन्न-भिन्न प्रकार इतिवादप्पमोक्खानिसंसा च यस्स चत्थाय धम्म परियापुणन्ति के जन्मों को पाने के निमित्त, विविध (सुखद) गतियों में तञ्चस्स अत्यं नानुभोन्ति, म. नि. 1.187; जन्म पाने के लिए - इतिभवाभवहेतु वा समणो गोतमो इतिवादप्पमोक्खानिसंसा चाति एवं वादप्पमोक्खानिसंसा, धम्म देसेति, म. नि. 3.25; इतिभवाभवहेतूति एवं इम परेहि सकवादे दोसे आरोपिते तं दोसं एवं मोचेस्सामाति देसनामयं पुजकिरियवत्थु निस्साय तस्मिं तस्मिं भवे सुखं इमिनाव कारणेन परियापुणन्तीति अत्थो, म. नि. अट्ठ. वेदिस्सामीति धम्म देसेतीति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.18; (मू.प.) 1(2).13. इतिभवाभवहेतूति एत्थ इतीति निदस्सनत्थे निपातो, यथा इतिदुत्त' नपुं.. [इतिवृत्त], घटना, पुण्यमय कृत्य - खण्डने चीवरादिहेतु, एवं भवाभवहेतूपीति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. त्वपदानं च इतिवुत्ते च कम्मनि, अभि. प. 943. 3.186; - ता स्त्री., भाव., सम्पत्ति-विपत्ति, लाभ-हानि, इतिवृत्त नपुं.. खुद्दकनिकाय का चौथा स्वतन्त्र संग्रह, शाश्वतवाद-उच्छेदवाद एवं पाप-पुण्य के विषय में बुद्धशासन के नौ अङ्गों में छठा अंग, स. प. के अन्त. - दुविधाभरी मनोदशा - तं द्वि. वि., ए. व. - यस्सन्तरतो इतिवुत्तोदान - चरियापिटक थेर-थेरी-विमानवत्थुन सन्ति कोपा, इति भवाभवतञ्च वीतिवत्तो, चूळव. 320; पेतवत्थु-नेत्तिट्ठकथायो आचरियधम्मपालत्थेरो अकासि, सा. इतिभवाभवतञ्च वीतिवत्तोति एत्थ या एसा वं. 31. सम्पत्तिविपत्तिवुडिहानिसस्सतुच्छेदपुञपापवसेन इति इतिवुत्तक नपुं., [बौ. सं. इतिवृत्तक]. शा. अ., इस प्रकार अनेकप्पकारा भवाभवता वुच्चति, चतूहिपि मग्गेहि यथा से कहा गया, ऐसे कहा गया, ला. अ., नवांगबुद्धशासन सम्भवं तेन तेन नयेन तं इतिभवाभवतञ्च वीतिवत्तोति का छठा अंग, खुद्दक-निकाय नामक निकाय का चौथा ऐसा एवमत्थो दहब्बो, चूळव. अट्ठ. 109. संग्रह जो चार निपातों में विभक्त है। इसके एक सौ बारह For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतिसच्चपरामास 309 इतिहास सुत्तों में प्रत्येक गद्यबद्ध सुत्त का आरम्भ 'वुत्तं हेतं भगवता' इतिहपरिवज्जित त्रि., तत्पु. स., शा. अ., इतिहास से (भगवान द्वारा यह कहा गया) शब्दों से होता है तथा पद्यांश रहित, अनैतिहासिक, ला. अ., पारम्परिक शिक्षा में का प्रारम्भ "तत्थेतं इति वच्चति' से होता है - कं प्र. वि.. अप्राप्त, स्वयं विचिन्तित, आत्मप्रत्यक्ष का विषय - तं प्र. ए. व. - "वुतज्हेतं भगवता ति आदिनयप्पवत्ता वि., ए. व. - अनीतिहन्ति इतिहपरिवज्जितं. अपरपत्तियन्ति दसुत्तरसतसुत्तन्ता इतिवृत्तकन्ति वेदितब्बं पारा. अट्ठ. अत्थो , अ. नि. अट्ठ.2.267. 1.22; स. प. के अन्त. - ब्रह्मजालादि ... खुद्दकपाठ- इतिहा स्त्री., इतिकिरा के अनुकरण पर इति + ह का धम्मपद-उदान-इतिवुत्तक -सुत्तनिपात- विमानवत्थु - विपरिवर्तित रूप, परम्परा से प्राप्त शिक्षा या विद्या, मौखिक पेतवत्थु - थेरगाथा- थेरीगाथा - जातक-निद्देस- परम्परा, परम्परा से चला आ रहा उपदेश - पटिसम्भिदा - अपदान-बुद्धवंस-चरियापिटकवसेन पारम्परियमेतिह्यमुपदेसो तथेतिहा, अभि. प. 412. पन्नरसप्पभेदो खुद्दकनिकायोति इदं सुत्तन्तपिटकं नाम, इतिहास पु., इति + ह + आस के योग से व्यु. [इतिहास]. पारा. अट्ठ. 1.14; - अट्ठकथा स्त्री., इतिवु. पर आचार्य शा. अ., ऐसा निश्चित रूप से घटित हुआ था, ला. अ., धम्मपाल द्वारा लिखी गई परमत्थदीपिनी नामक अट्ठकथा इतिहास, परम्परा में चले आ रहे ऐसे आख्यान जिनमें अथवा व्याख्या, स. प. के अन्त. - इतिवृत्तोदान चरियापिटक पूर्वकाल में घटित घटनाचक्रों एवं उनसे सम्बद्ध व्यक्तियों - थेर - थेरी - विमानवत्थु - पेतवत्थु-नेत्तिट्ठकथायो का कालक्रमानुगत वर्णन हो, कथानकों के रूप में पूर्ववृत्त, आचरियधम्मपालथेरो अकासि, सा. वं. 31; - वण्णना वीरगाथा रूप में उपनिबद्ध ऐतिहासिक उपाख्यान, पौराणिक स्त्री., आचार्य धम्मपाल द्वारा रचित इतिवु. की परमत्थदीपनी शैली में कहे गए प्राचीन घटनाक्रम एवं चरित्र-से सप्त. नामक व्याख्या - य तृ. वि., ए. व. - अत्थयोजना च वि., ए. व. - लक्खणे इतिहासे च, सनिघण्डुसकेटुभे, इतिवृत्तकवण्णनाय अम्हेहि पकासितायेवाति तत्थ वुत्तनयेनेव पञ्चसतानि वाचेति, सधम्मे पारमिं गतो, सु. नि. 1026; वेदितब्बोति, उदा. अट्ठ. 38; - यं सप्त. वि., ए. व. - लक्खणे इतिहासे च, सनिघण्टुसकेटुभे, अप. 1.14; इतिह तं परमत्थदीपनियं इतिवृत्तकवण्णनायं वृत्तनयेन वेदितब्ब, आस, इतिह आसाति ईदिसवचनपटिसंयुत्ते पुराणसङ्खाते थेरगा. अट्ठ. 1.166. गन्थविसेसे, बु. वं. अट्ठ. 80; - सं द्वि. वि., ए. व. - इतिसच्चपरामास पु., “यही सत्य है, दूसरा विचार असत्य इरुवेदं यजुवेदं सामवेद, अथब्बणवेदं लक्खणं इतिहास है", इस रूप में सत्य का मिथ्या रूप में ग्रहण -- पुराणं निघण्डु केटुभं अक्खरप्पभेदं पदं वेय्याकरणं, मि. प. इतिसच्चपरामासो दिद्विद्वाना समुस्सया, अ. नि. 1(2).47; 173-174; - कथा स्त्री, तत्पु. स. [इतिहासकथा], "इतिसच्चं इतिसच्चान्ति गहणपरामासो च... समुस्सितत्ता परम्परा में चली आ रही प्राचीन घटनाओं अथवा व्यक्तियों उग्गन्त्वा ठितत्ता समुस्सयाति वच्चन्ति, ते सब्बेपि, अ. नि. की पौराणिक शैली की कथा - यं सप्त. वि., ए. व. - अट्ठ. 2.292; इति एवं सच्चन्ति परामासो इतिसच्चपरामासो, इतिहासकथायं च देवासुररणे पुरा दुस्सन्तादिमहीपेहि कतं इदमेव सच्चं, मोघमञन्ति दिडिया पवत्तिआकारं दस्सेति, च चरितभूतं, चू. वं. 64.44; - पञ्चम त्रि., ब. व. इतिवु. अट्ठ. 173. [इतिहासपञ्चम], पांचवें के रूप में इतिहास-सहित (चारो इतिसद्द पु., व्याकरणों में प्रयुक्त शब्द [इतिशब्द], 'इति' वेद) - मानं पु., ष. वि., ब. व. - तिण्णं वेदानं पारगू शब्द - दो प्र. वि., ए. व. - आख्यातवसेन गमने सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको इतिसद्दो दिस्सति, सद्द. 2.317; इमस्मिं पदे अधिकारवसेन वेय्याकरणो, दी. नि. 1.76-77; म. नि. 2.341; आथब्बणवेद इतिसद्दो आहरितब्बो, पारा. अट्ठ. 2.39; इतिसद्दो चतूहिपि चतुत्थ कत्वा इतिह आस, इतिह आसाति योगेहि सद्धि योजेतब्बो, अ. नि. अट्ठ. 2.249; इतिसद्दो इदिसवचनपटिसंयुत्तो पुराणकथासङ्घातो इतिहासो पञ्चमो आदिअत्थो पकारत्थो वा, उदा. अट्ट. 174; - लोप पु., एतेसन्ति इतिहासपञ्चमा, तेसं इतिहासपञ्चमानं वेदानं तत्पु. स., व्याकरणों में ही प्रयुक्त [इतिशब्दलोप], 'इति' दी. नि. अट्ठ 1.200; - पुराणादिनेकागमकथाविदू शब्द का लोप, स. प. के अन्त. -- इतिसद्दलोपयोजनावसेन त्रि., इतिहास एवं पुराण आदि अनेक आगमों में प्राप्त अओ सहसन्निवेसो तेनेव अजओ अत्थपटिवेधो च भवति, कथाओं का ज्ञाता, प्र. वि., ए. व. - सद्द. 1.263. इतिहासपुराणादिनेकागमकथाविदू, चू. वं. 66.143. For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतिहीतिह 310 इतो इतिहीतिह नपुं, इतिह + इतिह के योग से व्यु., जनश्रुति, सुनी सुनाई बात, अफवाह, किंवदन्ती-हं प्र. वि., ए. व. - इदहि जातु मे दिलु, नयिद इतिहीतिह, स. नि. 1(1).181; न यिद इतिहीतिहन्ति इदं इतिह इतिहाति न तक्कहेतु वा नयहेतु वा पिटकसम्पदानेन वा अहं वदामि, स. नि. अट्ठ 1.194; न इतिहितिह, न इतिकिराय, न परम्पराय, महानि. 265; न इतिहितिहन्ति “एवं किर आसि, एवं किर आसी ति न होति. महानि. अट्ठ. 314; - हेन त. वि., ए. व. - "इति आह इति आहाति एवं इतिहीतिहेन गहेतब्बं न होति, जा. अट्ठ 1.431; - परम्परा स्त्री.. परम्परा में प्रचलित या परम्परा पर आधारित जनश्रुति अथवा किंवदन्ती, अविच्छिन्न रूप से पूर्वकाल से चली आ रही परम्परा में विद्यमान जनश्रुति- य तृ. वि., ए. व. - सो अनुस्सवेन इतिहितिहपरम्पराय पिटकसम्पदाय धम्म देसेति, म. नि. 2.199; ब्राह्मणानं पोराण मन्तपद इतिहितिहपरम्पराय पिटकसम्पदाय, म. नि. 2.387; इतिहितिह परम्परायाति एवं किर एवं किराति परम्परभावेन आगतन्ति दीपेति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.298. इतो अ., प. वि., प्रतिरू. स्थानसङ्केतक निपा., 'इम' सर्वनाम । से व्यु. [इतः], 1. यहां से, इधर से, इससे - सब्बरसेव इमसहस्स इकारो होति थं-दानि-ह-तो-ध इच्चेतेसु, इत्थं इदानि, इह, इतो, इध, क. व्या. 234; क्वचि तोप्पच्चयो होति पञ्चम्यत्थे, सब्बतो, यतो, ततो, कतो, अतो, इतो, क. व्या. 250; क. किसी भी नाम के साथ उसके विशे के रूप में प्रयुक्त, इस ... से - अहं तं इतो अरञतो नीहरित्वा बाराणसिमग्गे ठपेस्सामि, जा. अट्ठ. 4.229; अयञ्च तं अनुमोदति, एवमेतिस्सा इतो दुक्खतो मुत्ति भविस्सतीति, पे. व. अट्ठ. 39; ख. प. वि. में अन्त होने वाले किसी भी नामपद के बिना स्वतन्त्र प्रयोग, इससे - स्वायं गहीतो न हि मोक्खितो मे, जा. अट्ट. 4.435; संसारवट्टे सति नहि मोक्खो इतो अकुसलफलतो मम अत्थि, जा. अट्ठ. 4.436%; "इतो रो सुन दस्सामी ति थेय्यचित्तं उप्पादेत्वा तं भण्डं आमसति, पारा. अट्ठ. 1.287; ग. 'तर' प्रत्यय के योग से व्यु., 'उत्तरं' जैसे तुलनात्मक विशे. के साथ अन्वित, इसकी तुलना में, इसकी अपेक्षा, इससे (कम या अधिक) - इतो बहुतरा भोगा... तत्थ इतो बहुतराति इमेसु चतूसु पासादेसु भोगेहि अतिरेकतरा भविस्सन्ति, जा. अट्ठ. 3.180; वे तयो सङ्गामे कत्वा "इतो उत्तरि मयं न सक्कोमा ति रओ पण्णं पेसेसं जा. अट्ठ. 1.419; "अत्थिन खो, तात, इमरिमं ब्राह्मणकुले इतो उत्तरिम्पि सिक्खितब्बानि, उदाह एत्तकानेवा"ति, मि. प.9; घ. 'अञ' (दूसरा, भिन्न) के साथ अन्वित, इससे भिन्न, इससे अलग कुछ और - इतो अझंपन मनसिकरोन्तस्स पाकट होति, पारा. अट्ठ. 2.26; ..... इतो अञआसु जातीसु, असु अत्तभावेसु, थेरगा. अट्ठ. 1.190; ङ. 'बहिद्धा' (बाहर) के साथ अन्वित, इस बुद्धशासन से - आयस्स धम्मस्स पदेसवत्ती, इतो बहिद्धा समणोपि नत्थि, दी. नि. 2.114; इतो बहिद्धाति मम सासनतो बहिद्धा, दी. नि. अट्ठ. 2.162; इतो बहिद्धा पुथुअञवादिनन्ति आयस्मतो नागितत्थेरस्स गाथा, का उप्पत्ति? थेरगा. अट्ठ. 1.197; 2. स्थानसूचक क्रि. वि. के रूप में प्रयुक्त, इस स्थान से, इस लोक से, वर्तमान भव या जन्म से, यहां, इधर, 2.क. यहां से, इस स्थान से - इतो गच्छाम सीवकाति वुत्ताकारदस्सनं, सिवक, इतो गामन्ततो अरञट्ठानमेव एहि गच्छाम, थेरगा. अट्ठ. 1.62; रागो च दोसो च इतोनिदाना, अरती रती लोमहंसो इतोजा, इतो समुट्ठाय मनोवितक्का, कुमारका धङ्कमिवोस्सजन्ति, सु. नि. 274; इतो किर सुवण्णभूमि सत्तमत्तानि योजनसतानि होति, एकेन वातेन गच्छन्ती नावा सत्तहि अहोरत्तेहि गच्छति, अ. नि. अट्ठ. 1.364; 2.ख. इस लोक से, इस भव से अथवा वर्तमान भव से - इतो गतो हिंसेय्य मच्चुराज, सो हिंसितो आनेय्य पुन इधाति, जा. अट्ठ. 2.203; इतो भो सुगतिं गच्छ, मनुस्सानं सहब्यतं. इतिवु. 56; 2.ग. यहां, इधर - इतोपि ते ब्रह्म ददन्तु वित्तं ... इतोपि ते बह्मति बाह्मण, इतो मम पादमूलतोपि तुरहं धनं ददन्तु, जा. अट्ठ. 3.308; इतो सुत्वा अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, म. नि. 1.360; इतो हिखो अहं, भो, आगच्छामि समणस्स गोतमस्स सन्तिका ति, म. नि. 1.236; 3. कालसूचक क्रि. वि. के रूप में, इस काल से (लेकर), क. अतीतकाल के सन्दर्भ से, अब से ... पूर्वकाल में, आज से ... दिन/वर्षों पूर्व - इतो खो सो, वच्छ, एकनवुतो कप्पो यमहं अनस्सरामि. म. नि. 2.159; यं तं सरणमागम्ह, इतो अहमि चक्खुम, सु. नि. 575; पठम इदं दस्सनं जानतो मे, न ताभिजानामि इतो पुरत्था, जा. अट्ठ. 4.88; ख, भविष्यकाल के सन्दर्भ से, आज से ... उपरान्त, अब से ... उपरान्त, अब से लेकर - इतो पट्ठाय न सोचिस्सामि, पे. व. अट्ठ. 35; "इतो तिण्णं मासानं अच्चयेन तथागतो परिनिब्बायिस्सती"ति, स. नि. 3(2).336; मा निक्खम, इतो ते सत्तमे दिवसे चक्करतनं पातुभविस्सति, जा. अट्ठ. 1.73; “मारिसा इतो For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतोततो 311 इत्तरजीवित "ठ 1.131. वस्ससतसहस्सस्स अच्चयेन कप्पुट्ठानं भविस्सति, जा. अट्ठ तं मोसधम्म नस्सनधम्म होति.... सु. नि. अट्ठ. 2.205; 1.58; - ज त्रि., इसमें उत्पन्न, इससे उदभूत - जो पु., इध मनुस्सलोके सत्तानं जीवितम्पि इत्तरं परित्तं अप्पकं, पे. प्र. वि., ए. व. - अलुत्तविभत्तिकेन पदेन सह पदानं व. अट्ठ. 51; - रं नपुं., द्वि. वि., ए. व. -- न तम्हि सुखं समासो होति... मनसिकारो, कण्ठेकालो, कुटोजो, ततोजो, लब्मति इत्तरम्पि... तत्थ इत्तरम्पीति परित्तकम्पि, इतोजो.... सद्द. 3.743; - जा पु., प्र. वि., ब. व. - रागो विधावन्तन्ति विविधा धावन्तं, जा. अट्ठ. 7.137; -रं पु., च दोसो च इतोनिदाना, अरती रती लोमहंसो इतोजा, सु. द्वि. वि., ए. व. - ते "दीघा" इत्तरमद्धानं निक्खमन्ता च नि. 274; इतोजाति इतो अत्तभावतो जाता, महानि. अट्ठ. पविसन्ता च "रस्सा ति वेदितब्बा, विसुद्धि. 1.260; - 53; --निदान त्रि., ब. स., इसके कारण से उत्पन्न, इसे रानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - चित्तानि ... अञ्जमझं न (पूर्व में निर्दिष्ट को) हेतु एवं प्रत्यय बना कर उत्पन्न - पस्सन्तीति, इत्तरानि तावकालिकानि होन्ति, दी. नि. ना' पु., प्र. वि., ब. व. - रागो च दोसो च इतोनिदाना अट्ठ.1.159; - रा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - यथा च माया ..... सु. नि. 274; इतोनिदानाति अयं अत्तभावो निदानं इत्तरा लहुपच्चुपट्टाना, एवं विआणं, स. नि. अट्ठ.2.284; पच्चयो एतेसन्ति इतोनिदाना, महानि. अट्ठ. 53; - ना? -- रे पु., वि. वि., ब. व. - इमेसं सत्तानं आयुसङ्खारे इत्तरे स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आसा च निट्ठा च इतोनिदाना, सु. दुब्बले कत्वा, जा. अट्ठ. 4.189; - रेन तृ. वि., ए. व. - नि. 871; इतोनिदानाति छन्दनिदाना एवाति वुत्तं होति, सु. तञ्च खो दीघेन अद्धना न इत्तरन्ति तञ्च सील दीघेन नि. अट्ठ. 2.244; - नं पु., द्वि. वि., ए. व. - विभवं कालेन वेदितब्ब, न इत्तरेन, द्वीहतीहहि संयताकारो च भवञ्चापि यमेतमत्थं, एतं ते पब्रूमि इतोनिदानं, सु. नि. संवृतिन्द्रियाकारो, स. नि. अट्ठ. 1.131. 876; "भवदिद्विपि फस्सनिदाना, विभवदिविपि फस्स। इत्तरकाल त्रि., ब. स., अल्पकालीन, अल्प कालावधि वाला, निदानाति निद्देसे वुत्तं इतोनिदानन्ति फस्सनिदानं सु. नि. क्षणिक - लं नपुं., प्र. वि., ए. व. - परित्तञ्च न बहुकं अट्ठ. 2.245; इतोनिदानञ्च खो, मोघपुरिस, कायस्स भेदा इत्तरकालं, जा. अट्ट, 4.101; किञ्च भिय्यो निब्बानस्स पर मरणा अपायं दुग्गतिं, पारा. 22; - समुट्ठान त्रि., ब. इत्तरकालादिप्पत्तिदोसतो एवम्हि सति निब्बानं इत्तरकालं स., इस (सद्यःनिर्दिष्ट) में से उत्पन्न होने वाला - ना सङ्घतलक्खणं... आपज्जति, विसुद्धि. 2.138; - लोभासन पु., प्र. वि., ब. क. - इतोसमुहाना कुसला सङ्कप्पा, तमहं, नपुं, तत्पु. स., अत्यन्त अल्प समयावधि के लिए प्रकाशित थपति, वेदितब्बन्ति वदामि, म. नि. 2.227; इतो, करना - नेन तृ. वि., ए. व. - इतरकालोभासनेन सरागादिचित्ततो समझानं उप्पत्ति एतेसन्ति इतोसमवाना, विज्जुसदिसचित्तो, अ. नि. अट्ठ. 2.93; - द्वितिकत्त म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.189. नपुं॰, भाव., बहुत कम समय ही स्थित रहने की प्रकृति, इतोततो अ., निपा. [इतस्ततः], इधर-उधर - इतो ततो क्षण-भङ्गुरता - त्ता प. वि., ए. व. - लोलोति सद्धादीनं भमन्तीहं, अद्दसं नरसारथिं, थेरीगा. अट्ठ. 127. इत्तरकालट्ठितिकत्ता अस्सद्धियादीहि लुलितभावेन लोलो, इत्त नपुं.. इ का भाव. [इत्त्व], इकार वर्ण अथवा 'इ' स्वर प. प. अट्ठ. 93. की स्थिति - त्तं द्वि. वि., ए. व. - एकवचनसं-सासु इत्तरजच्च त्रि., [इत्वरजात्य/इतरजात्य], अत्यन्त निचली तासहस्स आ इत्तं वा याति, बाला. 2.1.13(पृ.105). जाति में उत्पन्न, नीच कुल में जन्म लेने वाला, अकुलीन, इत्तर त्रि., Vइ (जाना) से व्यु. [इत्त्वर, (इण् + क्वरप्]. अपने से असमान कुल में उत्पन्न - च्चो पु., प्र. वि., ए. शा. अ., जा रहा, चल रहा, गतिशील, ला. अ.. व. - यत्र हि नामायं घटिकारो कुम्भकारो इत्तरजच्चो क्षणभङ्गर, चञ्चल, अस्थिर, अनित्य, हीन, निकृष्ट, तुच्छ, समानो, म. नि. 2.249; इत्तरजच्चोति अञजातिको, निन्दनीय, अत्यन्त अल्प, बहुत कम - निहीन हीन लामका मया सद्धि असमानजातिको, लामकजातिकोति अत्थो, म. पतिकिट्ठ निकिट्ठ च इत्तरावज्ज कुच्छिता अधमोमकगारव्हा, नि. अट्ठ. (म.प.) 2.200. अभि. प. 699-700; -- रो पु., प्र. वि., ए. व. - इत्तरो च इत्तरजीवित त्रि., ब. स., बहुत कम जीवनावधि वाला, वासो भविस्सति, महाव. 100; - रं'नपुं.. प्र. वि., ए. व. ___अल्पायु - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - अपिच त्वं मया - तहि तस्स मुसा होति, मोसधम्महि इत्तरं सु. नि. .... ठपेत्वा एवं इत्तरजीविते लोकसन्निवासे अप्पमत्तो हुत्वा, 762; मोसधम्महि इत्तरं यस्मा यं इत्तरं परित्तपच्चपट्टानं, जा. अट्ठ.4.195; स. उ. प. में, अति.- अत्यन्त कम आयु For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्तरतर 312 इत्तरसद्ध वाला - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - यत्तकं परित्तायुका, अतिइत्तरजीविताति अत्थो, उदा. अट्ठ. 225. इत्तरतर त्रि., इत्तर से व्यु., तुल. विशे. [इत्वरतर], अधिक चञ्चल, अधिक अस्थिर, अधिक तुच्छ या निकृष्ट – रं नपुं., प्र. वि., ए. व. - तम्हि ततोपि इत्तरतरञ्चेव लहुपचुपट्ठानतरञ्च, स. नि. अट्ठ. 2.284. इत्तरता स्त्री., इत्तर का भाव. [इत्वरत्व], अस्थिरता, चञ्चलता, अविश्वसनीयता, बेईमानी - य तृ. वि., ए. व. - इत्थी पआय इत्तरताय मन्तितं गुय्ह विवरति न धारेति, मि. प. 104. इत्तरदस्सन नपुं., तत्पु. स., सरसरी तौर पर देखना, विहङ्गम दृष्टि से देखना, जल्दबाजी में देखना, ऊपरी तौर पर देखना, बिना किसी गम्भीरता के देखना, हलके-फुलके तौर पर देखना - नेन तृ. वि., ए. व. - मा ब्राह्मण इत्तरदस्सनेन विस्सासमापज्जि चतुप्पदस्स, जा. अट्ठ. 3.71; न वण्णरूपेन नरो सुजानो, न विस्ससे इत्तरदस्सनेन, स. नि. 1(1).96; इत्तरदस्सनेनाति लहकदस्सनेन, स. नि. अट्ठ. 1.132. इत्तरपच्चुपट्ठान त्रि., ब. स. [इत्त्वरप्रत्युपस्थान], क्षणिक प्रकृति के स्वभाव वाला, क्षणभङ्गुर, क्षणिक आविर्भाव वाला, क्षणिक आभास वाला - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - एवं इत्तरपच्चुपट्टानं अवस्सं पहातब्ब, जा. अट्ठ. 5.104; - नट्ठ पु., क्षणभङ्गुर होने का अर्थ - द्वेन तृ. वि., ए. व. - "सुपिनकूपमा कामा इत्तरपच्चुपट्ठानद्वेनाति, महानि. 53; इत्तरपच्चुपट्ठानद्वेनाति अप्पत्वा, न उपगन्त्वा तिद्वनढेन, महानि. अट्ठ. 25; स. उ. प. के रूप में, खणिक ... - पु., क्षणभङ्गुर एवं अस्थिर प्रकृति से युक्त होने का तात्पर्य -टेन तृ. वि., ए. व. - एवमेव खणिकइत्तरपच्चुपट्टानटेन अयं कायोपि मरीचि धम्मोति, ध. प. अट्ठ. 1.191. इत्तरपञ त्रि., ब. स. [इत्त्वरप्रज्ञ], निकृष्ट या अधम प्रज्ञा । वाला, साधारण प्रज्ञा वाला - जेन पु., तृ. वि., ए. व. - "नेसो अजेन इत्तरपओन सक्का विसज्जेतुं अञत्र तवादिसेन बुद्धिमता ति, मि. प. 121. इत्तरपुरिस पु., कर्म. स., सामान्य जन, पृथग्जन, अज्ञानी जन - सेन तृ. वि., ए. व. - अद्धा इदं मन्तपदं अञ्जन इतरपुरिसेन सुदुद्दसं, जा. अट्ठ. 6.241; पाठा. इतर. इत्तरपेम त्रि., ब. स., अस्थिर रूप में प्रेम करने वाला, वह, जिसका प्रेम डांवाडोल रहता है, असुदृढ़ प्रेम वाला – मो पु.. प्र. वि., ए. व. - एकच्चो पुग्गलो इत्तरसद्धो होति इत्तरभत्ती इत्तरपेमो इत्तरप्पसादो, अ. नि. 2(1).155. इत्तरप्पसाद त्रि., ब. स. [इत्त्वरप्रसाद], अस्थिर अथवा डांवाडोल श्रद्धाभाव से युक्त - दो पु., प्र. वि., ए. व. - एकच्चो पुग्गलो इत्तरसद्धो होति इत्तरभत्ती इत्तरपेमो इत्तरप्पसादो, अ. नि. 2(1).155. इत्तरभत्ति त्रि., ब. स. [इत्त्वरभक्ति], अस्थिर अथवा डांवाडोल रूप में भक्ति-भाव रखने वाला - त्ती पु., प्र. वि., ए. व. - एकच्चो पुग्गलो इत्तरसद्धो होति इत्तरभत्ती..., अ. नि. 2(1).155. इत्तरभाव पु., [इत्त्वरभाव], क्षणभङ्गुरता, अस्थिर स्वभाव, चञ्चल प्रकृति – वं द्वि. वि., ए. व. - इत्तरभावं दस्सेत्वा ...., जा. अट्ठ. 4.189; ये ते मनुस्सा मनुस्सानं भोगानं जीवितस्स च इत्तरभाव याथावतो जानन्ति, पे. व. अट्ट. 51. इत्तरवास पु., कर्म. स. [इत्त्वरवास], अल्पकालिक निवास, क्षणमात्र के लिए स्थिति, कुछ ही समय के लिए निवास -- सो प्र. वि., ए. व. - इत्तरवासोति जानियान, उदये मा प माद चरस्सु धम्म'न्ति, जा. अट्ट, 4.100; इत्तरवासोति या एसा इमस्मि संसारे मनुस्सभूता सुग्गति च तिरच्छानभूता दुग्गति च, एतं उभयम्पि "इत्तरवासो ति ... चरस्सु धम्म, जा. अट्ठ. 4.101. इत्तरसङ्घात त्रि., तत्पु. स., अत्यन्त अस्थिर अथवा अत्यन्त संक्षिप्त काल के रूप में माना गया, अल्पावधिक काल के रूप में ज्ञात - ते सप्त. वि., ए. व. - रस्सं अस्सासं इत्तरसङ्घाते अस्ससति, पटि. म. 174; "रस्सं अस्सासं इत्तरसङ्घाते अस्ससती ति, विसुद्धि. 1.261. इत्तरसत्त पु., कर्म, स. [इतरसत्त्व], साधारण जीव, सामान्य प्राणी, अधम अथवा नीच प्राणी - त्तो प्र. वि., ए. व. - न खो पनेस इत्तरसत्तो, बुद्धकुरो एस, जा. अट्ठ. 4.331; सचे अयं इत्तरसत्तो अभविस्स, न अम्हाकं आचरियो एवरूपं उपमं आहरेय्य ..., अ. नि. अट्ठ. 1.121; - त्ता ब. व. - पब्बजित्वा च पन इत्तरसत्ता विय पतितसिङ्गा न होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.200. इत्तरसद्ध त्रि., ब. स. [इत्त्वरश्रद्ध], डगमग अथवा अस्थिर श्रद्धा वाला, अपरिपूर्ण श्रद्धाभाव से युक्त, अत्यन्त दुर्बल श्रद्धाभाव वाला-धो पु., प्र. वि., ए. व. - इत्तरसद्धोति परित्तकसद्धो, अ. नि. अल्ल, 3.52; इत्तरसद्धोति परित्तसद्धो, अपरिपुण्णसद्धो, प. प. अट्ठ. 93. For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्तरसमापन्न 313 इत्थन्नाम इत्तरसमापन्न त्रि., कुछ समय पूर्व ही (किसी स्थिति वि., ए. व. - इत्थत्तायाति इत्थभावाय एवं परिपण्णपञ्चखन्छ विशेष) प्राप्त किया हुआ, कल या परसों ही प्राप्त किया भावायाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.82; नापरं इत्थत्तायाति हुआ - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - दीघरत्तं समापन्नो इदानि पुन इत्थभावाय एवं सोळसकिच्चभावाय किलेसक्खयाय अयमायरमा इमं कुसलं धम्म, उदाहु इत्तरसमापन्नोति, म. वा मग्गभावनाकिच्चं मे नत्थीति अब्भासिं, पारा. अट्ठ. नि. 1,400; ... उदाहु इत्तरसमापन्नो हिय्यो वा परे वा 1.127; इत्थत्तायाति इमे पकारा इत्थं तब्भावो इत्थत्तं, परसुवे वा दिवसे समापन्नो ति एवं गवेसतुति अत्थो, म. तदत्थाय, वि. वि. टी. 1.75. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).276. इत्थत्त/इत्थित्त नपुं., इत्थी का भाव. [स्त्रीत्व], नारीत्व, इत्तरसम्पयुत्त त्रि., तत्पु. स., निम्न श्रेणी के लोगों के साथ स्त्री की अवस्था में रहना, नारीपन, स्त्री का स्वभाव - त्तं' जुड़ा हुआ, निम्न प्रकृति के व्यक्तियों द्वारा प्रयोग में उतारा प्र. वि., ए. व. - इत्थिया भावो इत्थत्तं. परिसस्स भावो गया - त्ता पु., प्र. वि., ब. क. - अनित्तरा इत्तरसम्पयुत्ता, पुरिसत्तं, तत्थ इथिलिङ्ग निमित्तकुत्ताकप्पहेतुभावलक्षणं या च वेदा च सुभोग लोके, जा. अट्ठ. 7.46; तत्थ ... पुरिसत्तं, अभि. ध. वि. टी. 175; इत्थत्तं इत्थिभावोति अनित्तराति सुभोग इमस्मिं लोके या च वेदा च अनित्तरा उभयम्पि एकत्थं, इत्थिसभावोति अत्थो, ध. स. अट्ठ. 354; न लामका महानुभावा, ते इत्तरेहि ब्राह्मणेहि सम्पयुत्ता .... इत्थत्ते भिक्खवे, अभिरता सत्ता परिसेस संयोगं गता, एव जा. अट्ठ. 7.47. खो भिक्खवे, इत्थी इत्थत्तं नातिवत्तति, अ. नि. 2(2).203; इत्तरानुपस्सना स्त्री.. तत्पु. स., अनित्यता अथवा क्षणभङ्गुरता - तं द्वि. वि., ए. व. - सा इत्थित्तं विराजेत्वा पुरिसत्तं की अनुपश्यना अथवा तद्विषयक ज्ञान-दर्शन – ना प्र. भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना, वि., ब. व. - अनिच्चानुपस्सनाय सिद्धाय इत्तरानुपरसना । दी. नि. 2.199; - ते सप्त. वि., ए. व. - इत्थित्तं नाम सुखेनेव सिज्झन्तीति, थेरगा. अट्ठ. 1.240. अलं, न हि इत्थित्ते ठत्वाचक्कवत्तिसिरि... दी. नि. अट्ठ. इत्थं/इत्थ अ., प्रकारवाचक निपा., 'इम' सर्वनाम से व्यु. 2.268. [इत्थम्], क. ऐसे, इस रीति से, इस प्रकार से - इति-त्थं इत्थन्तर त्रि., नारी-सारथी से युक्त - रेन नपुं., तृ. वि., च एवं किच्छे कथञ्चि च, अभि. प. 1158; इत्थं, इदानि, ए. व. - छब्बग्गिया भिक्खुनियो यानेन यायन्ति - इह, इतो, इध, क. व्या. 234; इत्थं सुदन्ति एत्थ इत्थन्ति इत्थियुत्तेनपि पुरिसन्तरेन, पुरिसयुत्तेनपि इत्थन्तरेन, चूळव. निदस्सनत्थे निपातो, इमिना पकारेनाति अत्थो, अप. अट्ठ. 442; इत्थियुत्तेनाति धेनुयुत्तेन पुरिसन्तरेनाति पुरिससारथिना, 1.245; "एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्तान्ति, पुरिसयुत्तेनाति गोणयुत्तेन, इत्थन्तरेनाति इत्थिसारथिना, दी. नि. 1.197; ख. किसी अनुच्छेद (पैरा) के प्रारम्भ में __महाव. अट्ठ. 347. प्रयुक्त होने पर पूर्व अनुच्छेदों में कथित विषयों का इत्थन्नाम त्रि., ब. स., अमुक नाम वाला, इस नाम का, इस संकेतक -इत्थं खो मे, भन्ते, सञ्चयो वेलठ्ठपत्तो सन्दिष्टिकं इस नाम वाला- मो पु., प्र. वि., ए. व. - इत्थं च नाम, सामञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकासि, दी. नि. 1.52. नामसद्दे परे समासे वत्तमानस्स इदसद्दस्स इत्थमिच्चादेसो इत्थंगोत्त त्रि., ब. स., इस इस गोत्र वाला, अमुक गोत्र का, होति, इदं नाम एतस्सा ति इत्थन्नामो एवं नामो ति अत्थो, अमुक कुलपरम्परा से सम्बद्ध - त्ते स्त्री., संबो, ए. व. - सद्द. 3.686; इत्थन्नामो किर भिक्खु आसवानं खया ... इत्थिं वा कुमारि वा एवमाह इत्थंनामे इत्थंगोत्ते किं विहरति, अ. नि. 1(2).168; यनुनाहं कोसिनारके मल्ले अत्थि? महानि. 168. कुलपरिवत्तसो ठपेत्वा भगवन्तं वन्दापेय्यं - "इत्थन्नामो, इत्थत्त' नपुं.. इत्थं अथवा इत्थ का भाव. [बौ. सं... इत्थत्व]. भन्ते, मल्लो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भगवतो ऐसा ऐसा होना, इस प्रकार की अवस्था, विद्यमान स्थिति, पादे सिरसा वन्दती ति, दी. नि. 2.112; - मा स्त्री., वर्तमान जीवन, सामने दिखलाई दे रहा यह लोक, यह प्र. वि., ए. व. - भिक्खुनी सुणाति, 'इत्थन्नामा भिक्खुनी संसार - तं' प्र. वि., ए. व. - वायं “इत्थत्तं दिद्वधम्मो कालङ्कता, म. नि. 2.138; इत्थन्नामा, भन्ते भिक्खुनी इधलोको"ति च लद्धवोहारो खन्धादिलोको, उदा. अट्ठ. आबाधिकिनी दुक्खिता बाळ्हगिलाना, अ. नि. 1(2).166; 318; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - देवा आगन्तारो इत्थत्तं - मे स्त्री., संबो., ए. व. - इत्थंनामे इत्थंगोत्ते किं अत्थि? यदि वा अन्तागन्तारो इत्थत्तं. म. नि. 2.338; - त्ताय च. यागु अस्थि, भत्तं अस्थि, खादनीयं अत्थि, महानि. 168; -- For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इत्थभाव / इत्थम्भाव स्स पु०, च. वि., ए. व. इत्यन्नामस्स दाने दीयमाने सकिं वा द्विक्खतुं वा तिक्खतुं वा महापथवी कम्पिता ति मि. प. 123 सठो इमं कचिनदुस्सं इत्थन्नामस्स भिक्खुनो देति कथिनं अत्थरितुं महाव. 331: मं पु. द्वि. वि., ए. क. सङ्घो इत्थन्नामं उपसम्पादेति इत्थन्नामेन उपज्झायेन महाव. 63; माय स्त्री, प, वि., ए. व. इत्थन्नामा इत्थन्नामाय अय्याय उपसम्पदापेक्खा, चूळव. 437, इत्थभाव/ इत्थम्भाव पु०, इत्थं / इत्थ (= एत्थ ) + भाव के " योग से व्यु., शा. अ., 1. इस इस प्रकार की स्थिति अथवा अवस्था, 2. यहीं की स्थिति या जीवन, ला. अ. इसी लोक का जीवन ऐहलौकिक अस्तित्व मानव आदि के इसी रूप की अवस्था - वं द्वि. वि., ए. व. इत्थतन्ति इत्थभावञ्च पत्थयमाना मनुस्सादिभावं इच्छन्ताति वृत्तं होति. सु. नि. अ. 2.279; जानन्तो एवं च नेसं इत्थभावं मनुस्सभावं ततो अज्ञथाभावं अञ्ञथातिरच्छानभावञ्च उपपत्तितो पुरेतरमेव जानामि, थेरगा. अट्ठ. 2.294; वायच. वि., ए.व. नापरं इत्थत्तायाति इदानि पुन इत्थभावाय एवं सोळसकिच्चभावाय किलेसक्खयाय वा मग्गभावनाकच्च मे नत्थीति अम्भज्ञासिं पारा अड. 1.127; इदानि पुन इत्थभावाय, स. नि. अड. 1.181 - वञ्ञथाभाव पु.. इस प्रकार का अथवा दूसरे प्रकार की अवस्था या अस्तित्व, इस स्वरूप में अथवा दूसरे रूप में जीवन वंद्वि. वि. ए. व. इत्यभावञ्ञथाभावं सत्तानं आगतिं गति न्ति, म. नि. 1.412 इत्यंभावज्ञथाभावन्ति इत्थंभावोति इदं चक्कवालं. म. नि. अड. (म.प.) 1 ( 2 ) 301; इत्थभावज्ञथाभाव, झाने पञ्चङ्गिके ठितो, थेरगा. 917; जातिमरणसंसार, ये वजन्ति पुनप्पुनं इत्थभावञ्ञथाभाव, अविज्जायेव सा गति सु. नि. 734. " इत्थम्भूत त्रि. शा. अ. 1. इस प्रकार का इस इस चिह्न अथवा लक्षणों वाला, ऐसी ऐसी स्थिति को प्राप्त 2. व्याकरण में, उप. अनु के अनेक अर्थों में से "विशिष्ट लक्षण वाला अर्थ का द्योतक लक्खणवीच्छेत्यम्भूतभागादिके अनु अभि. प. 1174; लक्खणित्थम्भूत वीच्छास्वाभिना, मो. व्या. 2.10; तो पु. प्र. वि. ए. क. - इत्थम्भूतो ति इमं पकारं भूतो पत्तो, सद्द 2.565 ता पु. प्र. वि., ब.व. इत्थम्भूता बुद्धा, अप. अदु. 1.111; तक्खान/ ताख्यान नपुं. व्याकरणों का पारिभाषिक शब्द [ इत्थंभूताख्यान] किसी व्यक्ति या वस्तु के विशिष्ट लक्षणों से युक्त होने का कथन, विशिष्ट लक्षणों का प्रकाशन — - - - www.kobatirth.org — - 314 इत्थागार - नं. प्र. वि., ए. व. एत्थ च तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसदो अब्भुगतोति पदसमुदायो इत्थम्भूतखानं क. व्या. 301; ने सप्त. वि., ए. व. तेन युक्तत्ता इत्थम्भूतक्खाने भवन्तं गोतमं ति पदे साम्यत्थे दुतिया, क. व्या. 301 - नत्थ पु. [ इत्थम्भूताख्यानार्थ], विशिष्ट लक्षणों के कथन का तात्पर्य : त्थे सप्त वि., ए. व. तं खो पनाति इत्थम्भूताख्यानत्थे उपयोगवचनं तस्स खो पन भोतो गोतमस्साति अत्थो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1 (2). 224 - लक्खण नपुं. [ इत्थम्भूतलक्षण]. मानक चिह्न, मानक लक्षण णे सप्त. वि. ए. व. इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं थेरगा. अ. 260 इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं दट्टब्बं थेरगा. अ. 2.93; पासादिकेन वत्तेनाति वा इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं, थेरगा. अट्ठ. 2.95. इत्थाकप्प पु०, तत्पु० स० स्त्रियों का सजना संवरना, नारियों की साज-सज्जा अथवा पहनना ओढ़ना, स्त्रियों का हावभाव या चाल ढाल प्पं द्वि. वि., ए. व. इत्थी, भिक्खये, अज्झत्तं इत्थिन्द्रियं मनसि करोति इत्यिकुत्तं इत्याकप्पं इत्थिस्सरं इत्थालङ्कार, अ. नि. 2 (2).203; इत्थाकप्पन्ति निवासनपारूपनादिइत्थिआकप्पं, अ. नि. अट्ठ. 3.169; प्पो प्र. वि. ए. व. यं इत्थिया इत्थिलिङ्गं इत्थिनिमित्तं इत्थिकुत्तं इत्थाकप्पो इत्थत्तं इत्थिभावो - इदं तं रूपं इत्थिन्द्रियं ध. स. 632, 714; आकप्पोति गमनादिआकारो इत्थियो हि गच्छमाना अविसदा गच्छन्ति... ध. स. अड. 353; इत्थकुत्तं इत्थाकप्पोति इमानि लिङ्गादीनि इत्थिन्द्रियस्स फलत्ता वृत्तानि ध. स. अनु. 403. इत्थाकर पु०, तत्पु० स०, स्त्रीरूपी रत्न का उत्पत्तिस्थान प्र. वि., ए. व. - इत्थाकरोति इत्थिरतनस्स उप्पत्तिट्ठानं, स.नि. टी. 2 (1). 146. इत्थागार नपुं. तत्पु, स. [स्त्र्यागार ] नारीसमूह, मातृग्राम, अन्तःपुर का स्त्रीसमूह, अन्तःपुर, अवरोध, जनानखाना, रनिवास इत्थागारं तु ओरोधो सुद्धन्तोन्तेपुरं पिच अभि. प. 215; इत्थागारन्तु ओरोधो उब्बरीति पि दुध्यति सद्द. 2. 347; - रं' प्र. वि., ए. व. - राजा च मे भागधो सेनियो बिम्बिसारो उपद्वातब्बो इत्थागारज्य बुद्धप्पमुखो व भिक्खुसरे महाव. 91: इत्थागारं सुभद्दाय देविया पटिस्सुत्वा सीसानि न्हायित्वा पीतानि वत्थानि पारूपित्वा येन सुभदा देवी तेनुपसहमि दी. नि. 2.141; दि. वि. ए. व. - विपरीतं इत्थागारं दिस्वा विप्पटिसारी अहोसि. मि. ए. 264 घरसामिको विय इत्थागारस्स स्सष. / च. वि., ए. व. 122 - - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थाधिप्पाय 315 इत्थिकुत्त मज्झे निसिन्नोसि. स. नि. अट्ठ. 1.284; तत्थ इत्थागारस्स इत्थिकथा स्त्री॰, तत्पु. स. [स्त्रीकथा], नारियों के विषय में दान दीयित्थ, मम दानं पटिक्कमि, स. नि. 1(1).72; - बातचीत, स्त्रियों से सम्बन्धित कथा या कथन - था प्र. रेहि तृ. वि., ब. व. - यहिमनुविचरि राजा, परिकिण्णो वि., ए. व. - इत्थिकथापि वण्णसण्ठानादीनि पटिच्च इत्थागारेहि, जा. अट्ठ. 5.180; अनेकेहि च इत्थागारेहि अस्सादवसेन न वट्टति, दी. नि. अट्ठ. 1.80; - थं द्वि. वि., इत्थियो केसमस्सुं ओहारेत्वा, दी. नि. 2.183; इत्थागारेहीति ए. व. - अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्ता, सेय्यथिदंदासियो उपादाय इत्थियो इत्थागारा नाम..., जा. अट्ठ. राजकथं चोरकथं, ... नगरकथं, जनपदकथं, इत्थिकथं, 5.181; - रेसु सप्त. वि., ब. व. - इत्थागारेसु सेसेसु सूरकथं ..., महाव. 261. विना समकुलङ्गना गमो जातु महीपालं तं पटिच्च न इत्थिका स्त्री., इत्थी से अल्पार्थक अथवा अपकर्षार्थ 'क' संठाहि, चू. वं. 59.33; - सहस्स नपुं., हजारों अन्तःपुर- प्रत्यय जोड़कर व्यु. [बौ. सं. इस्त्रिका/इष्टिका], निवासी नारियां – स्सानं ष. वि., ब. व. - चतुरासीतिया साधारण स्त्री, सामान्य श्रेणी की नारी, अनुत्तम स्थिति इत्थागारसहस्सानं अमच्चपारिसज्जादीनञ्च, चरिया. अट्ठ. वाली स्त्री, निम्न स्तर की स्त्री – का प्र. वि., ब. व. - 43; - जन फु, अन्तःपुर के लोग (नारिया)- ने द्वि. वि., ब. क. अ आ इत्थिका निसिन्ना वा निपन्ना वा विजायन्ति, दी. नि. - अलङ्कतपटियत्ते इत्थागारजने उपगन्त्वा .... अप. अट्ठ. 219. 2.11; यथा अञा इथिका नव वा दस वा मासे गब्भं इत्थाधिप्पाय त्रि., ब. स., स्त्रियों की इच्छा करने वाला, कृच्छिना परिहरित्वा विजायन्ति, तदे; - हि त. वि., ब. नारी के प्रति स्पृहालु - यो पु.. प्र. वि., ए. व. - पुरिसो, व. - इत्थिकाहि आतपे पत्थटानं वीहिआदीनं तेमनभयेन भिक्खवे, इत्थाधिप्पायो अप्पं रत्तिया सुपति, अ. नि. अन्तोपवेसितकाले ..., जा. अट्ठ. 1.322; - नं ष. वि., ब. 2(1).147. व. - इथिकानञ्च पब्बज्ज, हं तं याचि पुनप्पुनं, अप. इत्थाधिमुत्त त्रि., तत्पु. स., स्त्रियों के प्रति मानसिक रुझान 2.202; - कं द्वि. वि., ए. व. - अकालवस्सं सुत्वा तं रखने वाला - त्ता पु., प्र. वि., ब. व. - ... केचि विस्सज्जेत्वा तमित्थिक, म. वं. 21.28; - य च. वि., ए. इत्थाधिमुत्ता, केचि पुरिसाधिमुत्ता ..., नेत्ति. 80. व. - मातु मत्तिक, इत्थिकाय इत्थिधनं, पञ्ज पेत्तिकं अज इत्थाधिवचनकुसल त्रि., व्याकरणों में प्रयुक्त, स्त्रीलिङ्ग के पितामह, पारा. 17; इत्थिकाय नाम इत्थिपरिभोगानंयेव प्रयोग में कुशल - लो प्र. वि., ए. व. - न्हानचुण्णादीनं अत्थाय लखें धनं कित्तकं भवेय्य, पारा. इत्थाधिवचनकुसलो, नेत्ति. 29. अट्ठ 1.162; स. उ. प. के रूप में, अपत्थिति., अप्पि., इत्थालङ्कार पु., तत्पु. स., स्त्रियों के आभूषण या गहने, बहुत्थि. के अन्त. द्रष्ट... नारियों की अलङ्करण-सामग्री या सजने संवरने के उपकरण इत्थिकाम पु., तत्पु. स., नारी-विषयक कामना, स्त्रियों के - रो प्र. वि., ए. व. - इत्थालङ्कारो नाम सीसूपगो साथ विषय-भोगों का आनन्द, स्त्री के साथ भोग-विलास - गीवूपगो हत्थूपगो पादूपगो कटूपगो, पाचि. 472; - रं द्वि. मेहि तृ. वि., ब. व. - इत्थिकामेहि राजा मञ परिचारेन्तो, वि., ए. व. - इत्थालङ्कारं धारेन्तिया पाचित्तियं कत्थ स. नि. 2(2).323; इत्थिकामेहीति इत्थीहि सद्धि कामा पञत्तन्ति, परि. 134; इत्थालङ्कारं धारेन्ती द्वे आपत्तियो इत्थिकामा, तेहि इत्थिकामेहि, स. नि. अट्ठ. 3.146. आपज्जति, परि. 153; इत्थालङ्कारन्ति इत्थिया पसाधनभण्डं इत्थिकारण नपुं, स्त्री के कारण, कारण के रूप में स्त्रीअ. नि. अट्ठ, 3.169. णा प. वि., ए. व., क्रि. वि., स्त्रियों के कारण से - "न इत्थि द्रष्ट, इत्थी के अन्त.. इत्थिकारणा राज, पुत्तं घातेतुमरहसी ति, जा. अट्ठ 4.171; इत्थिअङ्ग पु., तत्पु. स., स्त्रीभाव, नारीत्व, स्त्री-शरीर, स्त्रीलिङ्ग न इत्थिकारणाति पापं लामकं मातगामं निस्साय..., तदे.. -ने सप्त. वि., ए. व. - साकियम्हि कुले जाता, इत्थिअङ्गे इत्थिकिच्च नपुं., तत्पु. स. [स्त्रीकृत्य], स्त्री के लिए काम, पतिहिता, अप. 2.254. स्त्री-सेवा, नारी का कामकाज – च्वं द्वि. वि., ए. व. - इत्थिउभतोव्यञ्जनक पु., उभयलिङ्गी नारी, पुरुष तथा करिस्सं इत्थिकिच्चं च किच्चं चार्ज यथिच्छितं, म. वं. नारी दोनों के लैंगिक लक्षणों से युक्त (नारी) - को प्र. 7.22. वि., ए. व. - तस्मा इत्थिउभतोब्यञ्जनको सयम्पि गब्भं इत्थिकुत्त नपुं., तत्पु. स., स्त्री का नाज़-नखरा भरा गण्हाति, परम्पि गण्हापेति, ध. स. अट्ठ. 355. व्यवहार, नारी की मोहक अदा, मन को खींच लेने वाले 22. For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org इत्थिकुमारिका 316 इत्थिचित्त स्त्री के अनोखे हावभाव, नारी का छलबल अथवा दांवपेंच पटिविरतो होति. म. नि. 1.241; एत्थ इत्थीति पुरिसन्तरगता, - त्तं द्वि. वि., ए. व. - इत्थी, भिक्खवे, अज्झतं इतरा कुमारिका नाम, तास पटिग्गहणम्पि आमसनम्पि इस्थिन्द्रियं मनसि करोति इत्थिकुत्तं, अ. नि. 2(2).203; अकप्पियमेव, दी. नि. अट्ठ. 1.72. इत्थिकुत्तन्ति इथिकिरियं, अ. नि. अट्ठ. 3.169; - त्तं प्र. इत्थिख्य त्रि०, ब. स., व्याकरणों में प्रयुक्त [स्त्र्याख्य], वि., ए. व. - यथा हि इथिलिङ्ग इस्थिनिमित्तं इत्थिकुत्तं स्त्री-लिङ्ग का, स्त्री-लिङ्ग वाला - ख्या पु., प्र. वि., ब. व: इत्थाकप्पो इत्थत्तं इत्थाकप्पो ति इमानि लिङ्गादीनि -ते इवण्णुवण्णा यदा इत्थिख्या तदा प-सा होन्ति, क. इथिन्द्रियस्स फलत्ता वुत्तानि, ध. स. अट्ठ. 403; - त्तेन व्या. 59; "ते इत्थिख्या पो इति इत्थियमिवण्णवण्णानं प तृ. वि., ए. व. - यक्खिनियो इत्थिकुत्तेन एक... पलोभेत्वा सञआ, बाला. 96. Til, बाला 96. अत्तनो वसे कत्वा.... जा. अट्ठ. 2.105; इत्थिकुत्तेन पलोभेत्वा इत्थिगन्ध पु., तत्पु. स. [स्त्रीगन्ध], स्त्री की गन्ध, स्त्री के झाना चावेत्वा ब्रह्मचरियमस्स अन्तरधापेसि. जा. अट्ठ. शरीर की सुगन्ध, स्त्री के शरीर पर लगाए गए चन्दनादि 2.273; - त्तादि त्रि., नारी के छल-कपट भरे व्यवहार के लेपों की सुगन्ध - धो प्र. वि., ए. व. - इत्थिगन्ः आदि की चेष्टा - दीनि नपुं. द्वि. वि., ब. व. - गो, भिक्खवे, परिसस्स चित्तं परियादाय तिट्ठति, अ. एकदिवसं दिवाविहारट्टानं गन्त्वा इत्थिकुत्तादीनि दस्सेतुं नि. 1(1).2; इत्थिया सरीरे आरुळहो आगन्तुको आरभि, थेरगा. अट्ठ. 1.51; - दीहि तृ. वि., ब. व. - अनुलिम्पनादिगन्धो "इत्थिगन्धोति वेदितब्बो, थेरगा. अट्ठ. इत्थिकुत्तादीहि पलोभेतुकामा अहोसि, थेरगा. अट्ठ. 1.102; 2.236; - न्धेसु सप्त. वि., ब. व. - इत्थिगन्धेसु सारत्तो 'इत्थिकुत्तादीहि नं पलोभेत्वा उप्पब्बाजेस्सामी ति, थेरगा. विविधं विन्दते दुखं, थेरगा. 738; इत्थिगन्धेसूति अट्ठ. 2.22; - दस्सन नपुं., तत्पु. स., स्त्री के सम्मोहक इत्थिया चतुसमुठ्ठानिकगन्धायतनेसु. थेरगा. अट्ठ. 2.236 व्यवहार को दिखलाना, नारी की मोहक चालढाल का इत्थिगब्म पु., तत्पु. स. [स्त्रीगर्भ], गर्भ में आया हुआ नारी प्रयोग - नेन तृ. वि., ए. व. - आरञकं कुञ्जरं शिशु, मां की कोख में आया हुआ नारी भ्रूण - ब्मो प्र. वि., इत्थिकुत्तदस्सनेन पलोभेत्वा बन्धित्वा आनयन्ति, स. नि. ए. व. - कुच्छिम्हि गब्भो पतिहितो, सो च खो पुरिसगभो, अट्ठ. 1.165; - हावभावविलास पु., द्व. स., स्त्री का न इत्थिगब्भो, जा. अट्ठ. 1.61. इत्थिगम्ब पु., तत्प. स. स्त्रिीगल्म]. स्त्रियों का झण्ड, सेहि तृ. वि., ब. व. - वाणिजे इत्थिकुत्तहावभावविलासेहि नारियों का समूह - स्स ष. वि., ए. व. - इत्थिगुम्बस्स पलोभत्वा ... मनुस्सा अत्थि जा. अट्ठ.2.105; -- लीला पवरा, अच्चन्तं पियभाणिनी, जा. अट्ठ. 6.304; तदा तस्स स्त्री., तत्पु. स., स्त्री के सम्मोहक व्यवहार की लीला - महेसीह, इत्थिगुम्बस्स उत्तमा, अप. 2.250. य तृ. वि., ए. व. - इदानि नं अत्तनो इत्थिकुत्तलीलाय इत्थिघटा स्त्री., तत्पु. स. [स्त्रीघटा], स्त्रियों का समूह, ओलोकापेस्सामी ति, जा. अट्ठ. 1.415; - विलास पु., द्व. नारी-वर्ग - य प. वि., ए. व. - न मयह इत्थिघटाय स., स्त्री की मोहक अदा एवं साज-शृंगार - सेहि तृ. वि... अत्थो, जा. अट्ठ. 4.282; न सक्का मुसावादं कातुं न मह ब. व. - इत्थिकुत्तविलासेहि च पुरिसे पलोभेत्वा अत्तनो. इत्थिघटाय अत्थो, जा. अट्ठ. 4.283. ..., जा. अट्ठ. 2.105; सा ततो पट्ठाय मण्डितपसाधिता इत्थिघातक पु., [स्त्रीघातक], स्त्री की हत्या करने वाला, इत्थिकुत्तविलासेहि तं पलोभेसि, जा. अट्ठ. 4.196; - नारीघातक - का प्र. वि., ब. व. - थीघातकाति हासविलास पु., द्व. स., स्त्री का मनमोहक व्यवहार एवं इत्थिघातका, जा. अट्ठ. 5.394; थीघातका ये चिमे पारदारिका, आकर्षक हंसी - से द्वि. वि., ब. व. - यथाबलं जा. अट्ठ. 5.393. इत्थिकुत्तहासविलासे दस्सेत्वा .... जा. अट्ट, 6.65. इथिचित्त नपुं., तत्पु. स. [स्त्रीचित्त], स्त्री-विषयक चित्त इत्थिकुमारिका स्त्री., द्व. स., विवाहित स्त्री एवं कुमारी- या चिन्तन, नारीविषयक मानसिक अभिरुचि, स्त्री-विषयक कपटिग्गहण नपुं, तत्पु. स., विवाहित नारी एवं कुमारी अभिरति - त्तं द्वि. वि., ए. व. - इथिचित्तं विराजेत्वा को दान के रूप में ग्रहण करना अथवा उनका स्पर्श करना ब्रह्मलोकूपगा अहूति, पे. व. 386; इथिचित्तं विराजेत्वाति - णा प. वि., ए. व. - इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो इत्थिभावे चित्तं अज्झासयं अभिरुचिं विराजेत्वा इत्थिभावे समणो गोतमो, दी. नि. 1.5; इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा विरत्तचित्ता हुत्वा, पे. व. अट्ठ. 146. 71. For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थिछन्द 317 इत्थिपण्डका/इत्थिपण्डिका इत्थिछन्द पु., तत्पु. स., स्त्री की मानसिक प्रवृत्ति, नारी के मन की रुझान, नारी का मानसिक अभिप्राय – न्दं द्वि. वि., ए. व. - इत्थि अज्झत्तं इत्थिन्द्रियं मनसि करोति .... इत्थिछन्द... इत्थालङ्कार.. अ. नि. 2(2).203; इस्थिछन्दन्ति इत्थिया अज्झासयच्छन्द, अ. नि. अट्ठ. 3.169. इत्थिजन पु., [स्त्रीजन], नारी-समूह – ने सप्त. वि., ए. व. - अलङ्कतपटियत्ते इत्थिजने असुभसञ्ज उप्पादेत्वा, अ. नि. अट्ट, 1.200. इत्थित्त नपुं., इत्थी का भाव. [स्त्रीत्व], नारीत्व, स्त्री का हावभाव एवं मानसिकता - त्तं' प्र. वि., ए. व. - इत्थिकुत्तं इत्थाकप्पो इत्थत्तं इत्थिभावो, विभ. 138; - त्तं द्वि. वि., ए. व. - सा इत्थित्तं विराजेत्वा पुरिसत्तं भावेत्वा कायस्स ... सग्गं लोकं उपपन्ना, दी. नि. 2.199. इत्थिदान नपुं, तत्पु. स. [स्त्रीदान]. नारियों का दान, दान के रूप में स्त्री को दे देना - नं प्र. वि., ए. व. - पञ्च दानानि अपुञानि पुञ्जसम्मतानि लोकस्मि मज्जदानं, समज्जदानं, इत्थिदानं, उसभदानं, चित्तकम्मदानं, परि. 254. इत्थिधन नपुं, तत्पु. स. [स्त्रीधन], स्त्री की निजी सम्पत्ति, पत्नी का अपना धन, यौतुक या दहेज के रूप में प्राप्त नारी का निजी धन - नं प्र. वि., ए. व. - मातु मत्तिक इथिकाय इत्थिधनं पारा. 17; इत्थिकाय इत्थिधनन्ति हीळेन्तो आह, इत्थिकाय नाम इत्थिपरिभोगानंयेव न्हानचुण्णादीनं अत्थाय लद्धं धनं कित्तकं भवेय्य, पारा. अट्ठ. 1.162. इत्थिधुत्त पु., तत्पु. स., स्त्रियों में बुरी तरह आसक्त, नारी के प्रति दृढ़ मानसिक लगाव रखने वाला लम्पट पुरुष, स्त्रियों में धुत - त्तो प्र. वि., ए. व. - इत्थिधुत्तो सुराधुत्तो, अक्खधुत्तो च यो नरो, सु. नि. 106; इत्थिधुत्तोति इत्थीसु सारत्तो यं किञ्चि अत्थि, तं सब्बम्पि दत्वा अपरापरं इत्थिं सङ्गहाति, सु. नि. अट्ट, 1.136; पापमित्तसंसग्गेन पन इत्थिधुत्तो सुराधुत्तो, पे. व. अट्ट, 6; - त्ता ब. व. - इत्थिधुत्तसुराधुत्तादयो वा, धुत्ता एवं पच्चथिका धुत्तपच्चस्थिका, पारा. अट्ठ. 1.214; यदा एवरूपा इत्थिधुत्ता "इमा अम्हे न जहिस्सन्ती ति, जा. अट्ठ. 4.165. इथिनिमित्त नपुं., तत्पु. स. [स्त्रीनिमित्त], क. स्त्री का विशिष्ट चिह्न, स्त्री-इन्द्रिय, योनि - त्ते सप्त. वि., ए. व. - एत्थ च इत्थिनिमित्ते चत्तारि पस्सानि, पारा. अट्ठ. 1.205; - तेन तृ. वि., ए. व. - इथिनिमित्तेन च परिसनिमित्तेन चाति उभोहि ब्यञ्जनेहि समन्नागता, पारा. अट्ठ. 2.122; ख. स्त्री के लैङ्गिक लक्षण - तं प्र. वि., ए. व. - थनमंसाविसदता, निम्मस्सुदाठिता, केसबन्धन, वत्थग्गहणञ्च “इत्थीति सजाननस्स पच्चयभावतो इत्थिनिमित्तं, विसुद्धि. महाटी. 2.89; अपरो नयो इत्थिनं मुत्तकरणं इथिलिङ्ग, सराधिप्पाया इत्थिनिमित्तं, विसुद्धि. महाटी. 2.89; यं इत्थिया इथिलिङ्ग इस्थिनिमित्तं इत्थिकुत्तं ... इदं तं रूपं इत्थिन्द्रियं, ध. स. 632(मा.). इत्थिन्द्रिय नपुं., तत्पु. स. [स्त्रीन्द्रिय], व्यक्ति को स्त्री की पहचान दिलाने वाली आत्मभाव में विद्यमान आधिपत्य की शक्ति, स्त्री-भावसूचक इन्द्रिय, स्त्रीत्व, स्त्री को पुरुष से विभाजित करने वाले विशिष्ट लक्षणों को सूचित करने वाली इन्द्रिय, बाईस, पन्द्रह, दस अथवा तीन इन्द्रियों में से एक - यं' प्र. वि., ए. व. - बावीसतिन्द्रियानि ... इस्थिन्द्रियं, परिसिन्द्रियं ..., विभ. 137; इत्थिभावे इन्द8 कारेतीति इत्थिन्द्रिय, विभ. अट्ठ. 117; इत्थिया इथिलिङ्ग इथिनिमित्तं इत्थिकुत्तं इत्थाकप्पो इत्थत्तं इत्थिभावो - इदं वुच्चति “इत्थिन्द्रियं, विभ. 138; - यं द्वि. वि., ए. व. - इत्थी, अज्झत्तं इथिन्द्रियं मनसि करोति-इथिकुत्तं इत्थाकप्पं इत्थिविधं इत्थिच्छन्दं इत्थिस्सरं इत्थालङ्कार अ. नि. 2(2).203; अज्झत्तं इथिन्द्रियन्ति नियकज्झत्ते इत्थिभावं, अ. नि. अट्ठ. 3.169; सो पनत्तभावो यं धम्म उपादाय इत्थीति वा पुरिसोति वा सङ्खगच्छति, अयं सोति निदस्सनत्थं ततो इत्थिन्द्रियं पुरिसिन्द्रियञ्च, विभ. अट्ठ. 118-119; - निद्देस पु., स्त्रीलिङ्ग अथवा स्त्रीभाव की निर्धारक इन्द्रिय का विवेचनपरक व्याख्यान - से सप्त. वि., ए. व. - इथिन्द्रियनिद्देसे यन्ति करणवचनं, ध. स. अट्ठ. 353; - पुरिसिन्द्रिय नपुं०, द्व. स. [स्त्रीन्द्रियपुरुषेन्द्रिय], स्त्रीइन्द्रिय एवं पुरुषेन्द्रिय, स्त्रीत्त्व एवं पुरुषत्व की निर्धारक इन्द्रियां, स्त्रीभाव एवं पुरुषभाव - यानं ष. वि., ब. व. - इत्थिन्द्रियपुरिसिन्द्रयानं इत्थिपुरिसलिङ्गनिमित्तकुत्ताकप्पाकारानुविधानं विसुद्धि. 2.120; तुल., विभ, अट्ठ. 119; - यानि द्वि. वि., ब. व. - तेस इथिन्द्रियपरिसिन्द्रियानि वज्जेत्वा वीसतिन्द्रियानि होन्ति, अभि. अव. 176. इत्थिपण्डका/इत्थिपण्डिका स्त्री०, कर्म स., स्त्रीत्त्व के विशिष्ट लक्षणों से रहित स्त्री, हिजड़ा स्त्री, प्र. वि., ए. व. - नसि इत्थिपण्डका, चूळव. 435; इत्थिपण्डकाति अनिमित्ताव वुच्चति, पारा, अट्ठ2.122; अक्कोसति नाम अनिमित्तासि, निमित्तमत्तासि ... सिखरणीसि, इत्थिपण्डकासि, पारा. 190. For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थिपरिग्गह 318 इत्थिभाव इत्थिपरिग्गह पु., तत्पु. स. [स्त्रीपरिग्रह], स्त्री के रूप में निजी सम्पत्ति, स्वामित्व या अधीनता में रहने वाली स्त्री, अन्तःपुर की नारी - हो प्र. वि., ए. व. - बहु तत्थ इत्थिपरिग्गहो, म. नि. 2.268; थियोति इस्थिपरिग्गहो वुच्चति, महानि. 8; इत्थीति थियति एतिस्संगमोति इत्थी, परिग्गहोति सहायी सस्सामिका, महानि. अट्ठ. 42. इत्थिपुम द्व. स., स्त्री एवं पुरुष क. नपुं., समाहार द्व. स., स्त्रियों एवं पुरुषों का समूह - मं प्र. वि., ए. व. - आदिग्गहणं किमत्थं? दासिदासं, इत्थिपुमं... दीघमज्झिमं इच्चेवमादि, क. व्या. 324; ख. पु., इतरेतर द्व. स., स्त्री एवं पुरुष- मा प्र. वि., ब. व. - न इत्थिपुमा पञआयन्ति, दी. नि. 3.63; इत्थी पुमा कुमारा च, बहू चेव कुमारिका, अप. 2.270; - मानं ष. वि., ब. व. - यो सब्बलोकस्स। निवातवुत्ति इत्थीपुमानं सहदारकानं, जा. अट्ठ. 4.68; - नपुंसकसंख्य त्रि., द्व. स., स्त्रीलिङ्ग, पुल्लिङ्ग एवं नपुंसकलिङ्ग को कहने वाला - ख्यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इत्थिपुमनपुंसकसंख्य, क. व्या. 131. इत्थिपुम्भावलक्खण त्रि., ब. स., स्त्रीत्त्व एवं पुरुषत्व के लक्षणों से युक्त (स्त्री-इन्द्रिय एवं पुरुषेन्द्रिय)- णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - वसे वत्तेति लिङ्गान-मित्थिपुम्भावलक्षणं इत्थीति च पुरिसोति, पकासनरसं तथा, ना. रु. प. 519. इत्थिपुरिस पु., द्व. स. [स्त्रीपुरुष], स्त्री एवं पुरुष - सा प्र. वि., ब. व. - इत्थिपुरिसा दासिदासा, मि. प. 148%B इत्थिपुरिसा अविज्जमाना, रूपं विज्जमानं, प. प. अट्ठ. 27; --- सानं ष. वि., ब. व. - हञ्चि अरहा इत्थिपुरिसानं नामगोत्तं न जानेय्य, कथा. 154; स. प. के अन्त., - इत्थिपरिसादिपरिकप्पवसेन निच्चादिवसेन अत्तत्तनियगाहवसेन च अभिरता ..., उदा. अट्ठ. 173; - निमित्त नपुं., तत्पु. स. [स्त्रीपुरुषनिमित्त], स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व का द्योतक विशिष्ट चिह्न, स्त्री एवं पुरुष के लैङ्गिक चिह्न - त्तं द्वि. वि., ए. व. - इत्थिपुरिसनिमित्तं वा सुभनिमित्तादिकं वा ... निमित्तं न गण्हाति, विसु द्धि. 1.20; - निस्सित/सरीरनिस्सित त्रि., [स्त्रीपुरुषनिःश्रित]. स्त्री तथा पुरुष के शरीर के साथ जुड़ा हुआ, स्त्री एवं पुरुष के शरीर पर आश्रित - तं न, द्वि. वि., ए. व. - खदापरेता भुज्जामि, इत्थिपुरिसनिस्सितं, पे. व. 131; इस्थिपुरिससरीरनिस्सितं यथावुत्तं अञ्जञ्च चम्ममंसन्हारुपुब्बादिकं परिभुजामीति, पे. व. अट्ठ, 68; - भाव पु., [स्त्रीपुरुषभाव], स्त्रीभाव एवं पुरुषभाव - वं द्वि. वि., ए. व. - न केवलं इत्थिपुरिसभावमेव ... यथावृत्तं एतं इत्थिभावं पुरिसभावं, पे. व. अट्ठ. 144; - सन्निपात पु., तत्पु. स. [स्त्रीपुरुषसन्निपात], स्त्रियों एवं पुरुषों का जमघट या समूह - तेन तृ. वि., ए. व. - सुओ इत्थिपुरिससन्निपातेन अस्थि चेविदं... पटिच्च एकत्तं, म. नि. 3.148; - सानुपस्सी त्रि., स्त्रियों एवं पुरुषों की अनुपश्यना करने वाला, स. उ. प. के रूप में - नापि केसलोमादिविनिमुत्तइत्थिपुरिसानुपस्सी, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).252. इत्थिफोहब्ब पु./नपुं, तत्पु. स., स्त्री के स्पर्श की (सुखद) अनुभूति, स्त्री का स्पर्श - ब्बो पु. प्र. वि., ए. व. - परिसस्स चित्तं परियादाय तिट्टति यथयिदं, भिक्खवे, इत्थिफोडब्बो, अ. नि. 1(1).2; इत्थिया कायसम्फस्सो, इत्थिसरीरारुळहानं वत्थालङ्कारमालादीनम्पि फस्सो इत्थिफोहब्बोत्वेव वेदितब्बो, अ. नि. अट्ठ. 1.21; --ब्बं प्र. वि., ए. व. - नाहं भिक्खवे. ... एकफोहब्बम्पि समनपस्सामि एवं रजनीयं एवं कमनीयं... यथयिदं, भिक्खवे, इत्थिफोहब, अ. नि. 2(1).63; - ब्बे सप्त. वि., ए. व. - इत्थिफोडब्बे, भिक्खवे, सत्ता रत्ता गिद्धा गथिता मच्छिता अज्झोपन्ना, ते दीघरत्तं सोचन्ति इत्थिफोहब्बवसानगा, अ. नि. 2(1).63. इत्थिबल नपुं.. तत्पु. स. [स्त्रीबल], स्त्री की शक्ति, नारी की शक्ति – लं प्र. वि., ए. व. – सब्बबलेहि इत्थिबलमेव महन्तन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 3.456. इत्थिभण्ड पु., तत्पु. स. [स्त्रीभाण्ड], स्त्री का अपना सामान, स्त्री के अपने स्वामित्व में रहने वाले गहने आदि - ण्डेन त. वि., ए. व. - इत्थिभण्डे न गृहाम तुम्हत्थाय महामुने, अप. 2.263. इत्थिभाव पु., तत्पु. स. [स्त्रीभाव], क. स्त्रीत्व, नारी-भाव, स्त्रीवर्ग, नारी-समूह, स्त्री-इन्द्रिय के निर्वचनक्रम में प्रयुक्त, - वो प्र. वि., ए. व. - इत्थिभावो पुम्भावो इस्थिन्द्रियन्ति च वुच्चति, सद्द. 1.67; यं इत्थिया इथिलिङ्ग इत्थिनिमित्तं इत्थिकुत्तं इत्थाकप्पो इत्थत्तं इत्थिभावो - इदं तं रूपं इत्थिन्द्रियं ध. स. 632(मा.); इस्थिन्द्रियन्तिआदीसु इत्थिभावे इन्द8 करोतीति इत्थिन्द्रिय, स. नि. अट्ठ. 3.265; -- वं द्वि. वि., ए. व. - "अहं तं आनेस्सामि, पस्स ताव मम इत्थिभावन्ति वत्वा, थेरगा. अट्ठ. 2.106; ख. पापकर्मों के विपाक के रूप में प्राप्त स्त्री के रूप में पुनर्जन्म या पुनर्भव, स्त्री के रूप में हीन पुनर्भव - वो प्र. वि., ए. व. - दुक्खो इत्थिभावो, अक्खातो परिसदम्मसारथिना, थेरीगा. 2163; For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थिभूत 319 इत्थिरूप इत्थिभावो कि कयिरा, चित्तम्हि सुसमाहिते. स. नि. यायन्ति इत्थियुत्तेनपि पुरिसन्तरेन, पुरिसयुत्तेनपि इत्थन्तरेन. 1(1).152; - वं द्वि. वि., ए. व. - द्वे गाथा अञ्जतराय महाव. 264; इत्थियुत्तेनाति धेनुयुत्तेन, महाव, अट्ठ. 347; यक्खिनिया इत्थिभावं गरहन्तिया भासिता, थेरीगा. अट्ठ. इत्थियुत्तेनाति इत्थीहि गावीआदीहि धुरहाने युत्तेन, वजिर. 200; लिक्खापयन्ता पिटकस्समक्खरं न पापुणन्तेव च टी. 490; - त्तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - “इत्थियुत्तं नु खो, इत्थिभावं सद्धम्म. 46; पुरिसा हि परस्स दारेसु अतिचरित्वा पुरिसयुत्तं नु खो"ति ? ... "अनुजानामि, भिक्खवे, .... निरये पच्चित्वा मनुस्सजातिं आगच्छन्ता अत्तभावसते इत्थियुत्तं पुरिसयुत्तं हत्थवट्टक न्ति, चूळव. 442. इत्थिभावं आपज्जन्ति, ध. प. अट्ठ. 1.186; - वे सप्त. वि., इत्थिरतन नपुं.. [स्त्रीरत्न], क. भा. अ. नारीरत्न, स्त्रीरत्न, ए. व. - इथिचित्तं विराजेत्वाति इत्थिभावे चित्तं अज्झासयं चक्रवर्ती के सात रत्नों में से पांचवां रत्न – नं प्र. वि., अभिरुचिं विराजेत्वा इत्थिभावे विरतचित्ता हत्वा, पे. व. ए. व. - चक्करतनं, हत्थिरतनं अस्सरतनं, मणिरतनं. अट्ठ. 146; - पटिलाभ पु., तत्पु. स. [स्त्रीभावप्रतिलाभ], इत्थिरतनं, गहपतिरतनं, परिणायकरतनं. ... राजा स्त्री के रूप में पुनर्जन्म की प्राप्ति - स्स ष. वि., ए. व.. महासुद्दस्सनो इमेहि सत्तहि रतनेहि समन्नागतो अहोसि. - इत्थिभावप्पटिलाभस्स वा नपुंसकभावप्पटिलाभस्स ... वा दी. नि. 2.129-132; इत्थिरतनं पातुरहोसि ... पासादिका अभब्बता .... खु. पा. अट्ठ. 24; - लक्खण त्रि., ब. स. परमाय, दी. नि. 2.131; छब्बिधदोसविवज्जितं मनापचारि [स्त्रीभावलक्षण], स्त्रीत्व या नारीत्व के लक्षणों से युक्त - इत्थिरतनं, दी. नि. अट्ठ. 2.31; - स्स ष. वि., ए. व. - णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इत्थिभावलक्खणं इत्थिन्द्रियं, "इत्थिरतनस्स पातुभावो दुल्लभो लोकस्मि... इमेसं पञ्चन्नं विसुद्धि. 2.74. रतनानं पातुभावो दुल्लभो लोकस्मि, अ. नि. 2(1).158; ख इत्थिभूत त्रि., [स्त्रीभूत], स्त्री-भाव को प्राप्त, स्त्रीरूप में ला. अ., सर्वश्रेष्ठ रत्न जैसी उत्तम नारी, सर्वोत्तम स्त्री पुनर्जन्म ले चुका - ताय स्त्री., च. वि., ए. व. – 'आतुमे - नं' प्र. वि., ए. व. - “सामि, अम्हहि तुम्हाकं एक इत्थिभूताय, दीघरत्ताय मारिस यस्सा मे इत्थिभूताय, संसारे इत्थिरतनं आनीत न्ति, ध. प. अट्ठ. 1.185; - नं द्वि. वि., बहुभाससी ति, पे, व. 378; इत्थिभूतायाति इत्थिभावं उपगताय, ए. व. - ... पब्बतपादे अच्छरियं इत्थिरतनं दिस्वा पे. व. अट्ठ. 144. आगतोम्ही ति सब्बं पवत्तिं कथेसि. अ. नि. अट्ट, 1.260; स. इत्थिमति स्त्री., तत्पु. स. [स्त्रीमति], स्त्री की मति, स्त्री उ. प. के रूप में, दिब्बि.- नपुं., कर्म. स. [दिव्यस्त्रीरत्न], की इच्छा, स्त्री का मानसिक अभिप्राय, स्त्री का इरादा - अत्यन्त भव्य श्रेष्ट नारी-- नं द्वि. वि., ए. व. - एतादिसं तिं द्वि. वि., ए. व. - इत्थिया वा पुरिसमतिं पुरिसस्स वा चे रतनन्ति दिबित्थिरतनं सन्धाय भणति, नारिन्ति इत्थिमति, पारा. 204; पुरिसस्स वा इत्थिमतिन्ति इत्थिया अत्तनो धीतरं सन्धाय, सु. नि. अट्ठ. 2.236; स. पू. प. के मतिं पुरिसस्स आरोचेति, पारा. 205. रूप में - भाव पु., श्रेष्ठ स्त्रीत्व, नारीत्त्व की उत्तमता - इत्थिमाया स्त्री., तत्पु. स. [स्त्रीमाया], स्त्री की धूर्तता या वेन तृ. वि., ए. व. - निगमवासिजनो इत्थिरतनभावेन चालाकी, स्त्री का छल-कपट या छलबल - य तृ. वि., अनग्घम्पि समानं ... मं ठपेसि, थेरीगा. अट्ठ. 34-35%; ए. व. -- थीनं भावो दुराजानोति इत्थीनं भावो नाम इत्थिमायाय इत्थिरतनभावेन सब्बेहि... सब्बङ्गसोभना, चरिया. अट्ठ. 84. पटिच्छन्नत्ता दुराजानो, जा. अट्ठ. 1.288; - हि तृ. वि., इत्थिरस पु., तत्पु. स. [स्त्रीरस], स्त्री से प्राप्त आनन्द, ब. व. - अनन्ताहि इत्थिमायाहि समन्नागतत्ता महामाया स्त्री का रसीलापन - सो प्र. वि., ए. व. - इत्थिरसो नाम, जा. अट्ट. 2.274; - सु सप्त. वि., ब. व. - सोपि ___ पुरिसस्स चित्तं परियादाय तिट्ठति, अ. नि. 1(1).2; सुवपोतको इत्थिमायासु कुसलो, तेन तं वीमंसन्तो पुन इत्थिरसोति इत्थिया चतुसमट्ठानिक रसायतनं, अ. नि. गाथमाह जा. अट्ठ. 6.250; - कुसलता स्त्री., छल-कपट अट्ठ. 1.21. करने की नारी की कुशलता - य तृ. वि., ए. व. - सा इत्थिरूप नपुं, तत्पु. स. [स्त्रीरूप]. 1. नारी का स्वरूप, इत्थिमायाकुसलताय तापसं अनुपसङ्कमित्वा आगतमग्गाभिमुखी नारी का सौन्दर्य, नारी की काया - पं प्र. वि., ए. व. - पायासि, जा. अट्ट. 5.152. इत्थिरूपं भिक्खवे, परिसस्स चित्तं परियादाय तिट्ठति, अ. इत्थियुत्त त्रि., तत्पु. स., गायों से जुता हुआ, धेनुयुक्त - नि. 1(1).1; अन्तरायकरं अनुत्तरस्स योगक्खेमस्स तेन पु., तृ. वि., ए. व. - छब्बग्गिया भिक्खू यानेन अधिगमाय यथयिदं, भिक्खवे, इत्थिरूप, अ. नि. 2(1).63; For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थिरूपक 320 इथिलिङ्ग - पे/स्मिं सप्त. वि., ए. व. - इत्थिरूपे, भिक्खवे, सत्ता इथिलिङ्ग नपुं.. [स्त्रीलिङ्ग], 1. स्त्री की विशिष्ट पहचान रत्ता गिद्धा गथिता मुच्छिता अज्झोपन्ना, अ. नि. 2(1).63; कराने वाला लिङ्ग या चिह, स्त्री के शरीर के स्तन, केश इत्थिरूपे इत्थिसरे, फोडब्बेपि च इत्थिया, इत्थिगन्धेसु सारत्तो, एवं गुप्तेन्द्रिय आदि ऐसे चिह्न, जो स्त्रीत्व के निर्धारक हैं विविधं विन्दते दुखं, थेरगा. 738; पञ्च कामगुणा एते. -ङ्गं प्र. वि., ए. व. - इत्थिया चाति या पुब्बे मनुस्सकाले इत्थिरूपस्मिं दिस्सरे, रूपा सद्दा रसा गन्धा, फोडब्बा च इत्थी, तस्स इथिलिङ्ग पातुभवति, पुब्बे पुरिसस्स पुरिसलिङ्ग मनोरमा, अ. नि. 2(1).64; - पेन तृ. वि., ए. व. - दी. नि. अट्ठ. 3.47; अञतरस्स भिक्खनो इथिलिङ्ग पातभूतं पक्कमिस्सञ्च नाळातो, कोध नाळाय वच्छति बन्धन्ती होति, पारा. 40; इथिलिङ्ग पातुभूतन्ति रत्तिभागे निर्दे इत्थिरूपेन, समणे धम्मजीविनो, थेरीगा. 295; 2. स्त्री का ओक्कन्तस्स पुरिससण्ठानं मस्सुदाठिकादि सब्बं अन्तरहितं भित्तिचित्र, स्त्री की प्रतिमा - पं द्वि. वि., ए. व. - इत्थिसण्ठानं उप्पन्न, पारा. अट्ठ. 1.219; - ङ्गे सप्त. वि., सेय्यथापि, भिक्खवे, रजको वा, चित्तकारको वा सति रजनाय ए. व. - तरमा इथिलिङ्गे ठितस्स मनुस्सजातिकस्सापि व लाखाय वा हलिहिया वा नीलिया वा मजिट्ठाय वा पत्थना न समिज्झति, बु. वं. अट्ठ. 105; 2. व्याकरण के सुपरिमटे वा फलके भित्तिया वा दुस्सपट्टे वा इत्थिरूपं वा सन्दर्भ में, नामपद का स्त्रीलिङ्ग - पं प्र. वि., ए. व. - पुरिसरूपं वा अभिनिम्मिनेय्य, स. नि. 1(2).90; सुवण्णकारे पुमस्सेति किमत्थं ? इथिलिङ्ग नपुंसकलिङ्ग क. व्या. 222; .... अतिविय पासादिकं घनकोट्टिम इत्थिरूपं कारेवा, ध, प. तक्कारियाति इथिलिङ्ग नाम, जा. अट्ट.4.222; - दस्सन अट्ठ. 2.164; रत्तजम्बुनदमयं इत्थिरूपं कारेत्वा, जा. अट्ठ. नपुं., शब्द में स्त्रीलिङ्ग का देखा जाना - तो प. वि., ए. 4.94; 3. स्त्री का मायानिर्मित छायारूप, अलौकिक शक्ति व. - अद्विवाचकत्ता नपुंसकनिद्देसोति अद्विवाचकत्तेपि द्वारा निर्मित नारी का अवास्तविक रूप- पं द्वि. वि., ए. धातुयोति इथिलिङ्गदस्सनतो..., सद्द. 1.2; - निद्देस पु., व. - सत्था... इद्धिया एकं इत्थिरूपं निम्मिनित्वा तालवण्टं तत्पु. स. [स्त्रीलिङ्गनिर्देश], स्त्री-लिङ्ग का निर्देश, स्त्रीगहेत्वा बीजमानं विय अकासि, अ. नि. अट्ठ. 1.271; सत्था लिङ्ग का संकेत - सो प्र. वि., ए. व. - इथिलिङ्गनिद्देसो पठमयोब्बने ठितं रमणीयं इत्थिरूपं अभिनिम्मिनित्वा, अप. परिमत्तभावसिद्ध इत्थिभावं, थेरगा. अट्ठ. 2.146; - ङ्गानुकूल अट्ठ. 2.282; तम्पिस्स इत्थिरूप पिद्विपस्से ठितं राजा त्रि., स्त्री-लिङ्ग के अनुकूल - लो पु., प्र. वि., ए. व. - अद्दस, ध. प. अट्ठ.2.32. इथिलिङ्गानुकूलो दिस्सति, सद्द. 1.97. इत्थिरूपक नपुं., तत्पु. स., स्त्री का तैलचित्र अथवा इथिलिङ्ग त्रि., ब. स. [स्त्रीलिङ्गक], 1. स्त्रीत्व या नारीत्व भित्तिचित्र, स्त्री की धातु-निर्मित प्रतिमा-कं द्वि. वि., ए. के सूचक चिह्नों से युक्त - ङ्गं नपुं.. द्वि. वि., ए. व. - व. - छब्बग्गिया भिक्खू विहारे पटिभानचित्तं कारापेन्ति इथिलिङ्ग वा परिसलिङ्गं वाति अववत्थपेत्वा .... विसद्धि. इत्थिरूपकं पुरिसरूपकं, चूळव. 278; सुवण्णं दत्वा “एक 1.176; 2. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ में, स्त्रीलिङ्ग वाला इत्थिरूपकं करोही ति उय्योजेत्वा, जा. अट्ठ. 5.274; नाम - लो पु., प्र. वि., ए. व. - आणादिवाचको सुवण्णकारेहि इत्थिरूपकं कारेत्वा, अप. अट्ट, 1.268. इथिलिङ्गोयेव सिया सदा, सद्द. 1.253; स्यादिवाचको पुल्लिङ्गो इत्थिलक्खण नपुं.. तत्पु. स., स्त्री के शुभ अथवा अशुभ चेव इत्थिलिङ्गो च विभत्तिस्स, सद्द. 1.253: - वसेन, क्रि. लक्षण, स्त्री से सम्बद्ध अच्छे या बुरे लक्षण - णं प्र. वि., वि. स्त्रीलिङ्ग के होने से - लिङ्गविपल्लासं कत्वा ए. व. - समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा इथिलिङ्गवसेन बाराणसीति उच्चति, अप. अट्ठ. 2.239; ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, स. उ. प. के रूप में, आकारान्ति., ईकारान्ति.. ऊकारान्ति, सेय्यथिदं मणिलक्खणं... इत्थिलक्खणं..., दी. नि. 1.8; ओकारान्ति के अन्त. द्रष्ट; सद्द. 1.200-225; - हान - णादीनि प्र. वि., ब. व. - इथिलक्खणादीनिपि यहि नपुं, व्याकरणों में प्रयुक्त, स्त्रीलिङ्ग-विवेचक व्याकरणकुले ते इत्थिपुरिसादयो वसन्ति, तस्स वुविहानिवसेनेव स्थल - ने सप्त. वि., ए. व. - गवेनाति आदीनि वेदितब्बानि, दी. नि. अट्ठ. 1.83; - कोविद त्रि., तत्पु. इथिलिङ्गटाने न वुत्तानि, सद्द. 1.212; - ता स्त्री., भाव., स. [स्त्रीलक्षणकोविद], स्त्री के शुभ अथवा अशुभ लक्षणों स्त्रीलिङ्ग से सम्बद्धता, प्र. वि., ए. व. - ननु च भो की पहचान में कुशल - दा पु., प्र. वि., ब. व. - सम्मोहविनोदनि ... इथिलिङ्गता पाकटा, सद्द. 1.95; - इट्ठकवड्डकीगामे इत्थिलक्षणकोविदा, म. वं. 35.109. भावविगम पु., तत्पु. स., स्त्रीलिङ्ग से असम्बद्धता, स्त्रीलिङ्ग For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इथिलिङ्गक 321 इत्थिसञी में अन्तर्भूत न होना - मो प्र. वि., ए. व. - इमिना पन इथिन्द्रियं मनसि करोति ... इत्थिविध, अ. नि. 2(2).203; आपसद्दस्स इथिलिङ्गभावविगमो सिद्धो इथिलिङ्गे, सद्द. 1. इथिविधन्ति इत्थिया मानविध, अ. नि. अट्ठ. 3.169. 114; - वोहार पु., स्त्रीलिङ्ग में व्यवहार - वसेन तृ. वि., इथिविमान नपुं., वि. व. के एक खण्ड का शीर्षक, वि. व. ए. व., क्रि. वि. स्त्री लिङ्ग, में व्यवहार होने से-पिलोतिक 1-15; - वण्णना स्त्री., वि. व. अट्ठ, के एक भाग का परिबाजकन्ति... इथिलिङ्गवोहारवसेन लद्धनाम परिब्बाजकं शीर्षक, वि. व. अट्ठ.5-182. म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(2).97. इत्थिविलास पु., तत्पु. स. [स्त्रीविलास], नारी की मनोहर इथिलिङ्गक त्रि., ब. स. [स्त्रीलिङ्गक], स्त्रीलिङ्ग वाला, चेष्टा, स्त्री का हास-विलास, स्त्री के मनोहारी हावभाव, शब्द (नामपद)- को पु., प्र. वि., ए. व. - बोधिसद्दो नारीसौन्दर्य - सं द्वि. वि., ए. व. - एवं इत्थिविलास ... बोधिपादपवचनो पुमिथिलिङ्गको भवे, सद्द, 1.253. कुरुमाना सोभति, जा. अट्ठ. 3.139; एवं पवेल्लमाना इथिलिङ्गत नपुं.. भाव. [स्त्रीलिङ्गत्त्व]. स्त्री-लिङ्ग का होना इथिविलासं दस्सयमाना कुमारिका पलोभयन्तीव नरेसु - त्तं प्र./द्वि. वि., ए. व. - सदं अपेक्खित्वा गच्छति, जा. अट्ठ. 3.349; इत्थिविलासं दस्सेन्ती तस्स ओरोधसद्दस्स इथिलिङ्गत्तमिच्छथ, सद्द, 1.96; एवं सन्तपि पुरतो अट्ठासि, जा. अट्ठ. 5.149; - सेन तृ. वि., ए. व. एतस्स इथिलिङ्गत्तमेव तु, सद्द. 1.253. - परमेन इत्थिविलासेन चङ्कमन्तिया तव पादा मम चित्तं इथिलिङ्गत्तन नपुं., स्त्रीलिङ्गत्व -ने सप्त. वि., ए. व. - हरन्तियेव, जा. अट्ठ. 5.151. धातुसद्दो जिनमते इथिलिङ्गत्तने मतो, सद्द. 1.2. इत्थिव्यञ्जन नपुं., [स्त्रीव्यञ्जन], स्त्रीत्व को सूचित करने इत्थिलीला स्त्री., तत्पु. स. [स्त्रीलीला], नारी का हावभाव- वाला चिह्न, स्त्री की योनि अथवा गुप्ताङ्ग – नं प्र. वि., ए. भरा व्यवहार, नारी की गरिमा, नारी-सौन्दर्य, स्त्री का हास- व. - इत्थिब्यञ्जनं पुरिसब्यञ्जनन्ति, सद्द. 1.254; विलास - लं द्वि. वि., ए. व. - एवं आगतं इत्थिकुत्तं इत्थिब्यञ्जनं पटिच्छन्नं गुळ्हं होति, ध. स. अट्ठ. 355. इथिलील दस्सेत्वा तस्स पुरतो ठिता, ध. प. अट्ठ. 2.397; इत्थिसंसग्ग पु., तत्पु. स. [स्त्रीसंसर्ग], स्त्रियों के साथ इथिलील दस्सेन्ती पहट्ठाकारेन अग्गदन्ते विवरित्वा हसितं सम्पर्क, नारियों के साथ संगति- ग्गो प्र. वि., ए. व. - अकासि, जा. अट्ठ. 1.415. अननुयुत्तमेतं समणस्स यदिदं अदिन्नपरिभोगो इत्थिसंसग्गो, इत्थिलुद्ध त्रि., तत्पु. स. [स्त्रीलुब्ध], स्त्रियों का लालची, स. नि. अट्ठ. 1.284. स्त्रियों के प्रति लोभवृत्ति रखने वाला - द्धा पु., प्र. वि., इत्थिसञा स्त्री., तत्पु. स. [स्त्रीसंज्ञा], किसी व्यक्ति को ब. व. - इमे खो ब्राह्मणा नाम इत्थिलुद्धा, दी. नि. 2.180. स्त्री मानना, स्त्रीरूप में संधारणा, किसी के विषय में स्त्री इत्थिलोल त्रि., तत्पु. स., उपरिवत् - लो पु., प्र. वि., ए. की संज्ञा - अं द्वि. वि., ए. व. - इत्थीसु इत्थिसञ्ज व. - इत्थिलोलो ब्राह्मणो किञ्चिकारणं अजानन्तो..., जा. अकत्वा , जा. अट्ठ. 5.440; - य' सप्त. वि., ए. व. - अट्ठ. 1.281. इत्थिया इत्थिसआय सति इत्थिं आमसन्तस्स सङ्घादिसेसो, इत्थिवग्ग पु., जा. अट्ठ के एक भागविशेष का शीर्षक, जा. पारा. अट्ठ. 2.114; - यः ष. वि., ए. व. - तस्मा एत्थ अट्ट, 1.275-302. इत्थिसआय अभावतो सङ्घादिसेसो न दिस्सति, पारा. अट्ठ. इत्थिवण्ण त्रि., ब. स. [स्त्रीवर्ण], नारी जैसे स्वरूप वाला, 2.113. स्त्री जैसा दिख रहा, स. प. के रूप में - इत्थिसञिका स्त्री., ब. स., स्त्री की संज्ञा वाली, स्त्री कही मज्झिमित्थिवण्णसतं अभिनिम्मिनेय्यामाति, स. नि. 1(1).147. जाने वाली, प्र. वि., ए. व. - इत्थिसञिका थियो, सु. नि. इत्थिविग्गह पु., तत्पु. स. [स्त्रीविग्रह], नारी का शरीर - अट्ठ. 2.208. हं द्वि. वि., ए. व. - ... एक इत्थिविग्गहं मापेथाति, म. इत्थिसञी त्रि., [स्त्रीसंज्ञिन्], स्त्री की संज्ञा करने वाला, नि. अट्ट. (मू.प.) 1(1).193; - हा ब. व. - अनेका स्त्री मान लेने वाला, स्त्री के विषय में सोचते रहने वाला, इथिविग्गहा पुरिसविग्गहा ... च पायन्ति, जा. अट्ठ. कोई स्त्री स्त्री है, इस रूप में सोचने वाला - जी पु., 7.166. प्र. वि, ए. व. - इत्थी च होति इत्थिसञी सारत्तो च इत्थिविधा स्त्री., तत्पु. स., स्त्री के दर्प अथवा अभिमान का भिक्खु च, पारा. 175; सो सारत्तो च इत्थिसञी च भिक्खु एक रूप या प्रकार -धं द्वि. वि., ए. व. - इत्थी, अज्झत्तं अत्तनो कायेन, पारा. अट्ठ. 2.110; - ञिता स्त्री., भाव., For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्थिसण्ठान 322 इत्थी स्त्री को स्त्री के रूप में मन में लाने की मनःस्थिति, प्र. इत्थिसहस्सानन्ति वचनमद्वताय वृत्तं सोळसन्नं इत्थिसहस्सानं वि., ए. व. - इत्थिसञिता, कसा अट्ठ. 132. अग्गडाने ठपेतूति अत्थो, जा. अट्ठ. 4.277. इत्थिसण्ठान नपुं.. तत्पु. स. [स्त्रीसंस्थान], नारी का इत्थिसोण्ड पु., तत्पु. स., स्त्रियों के प्रति गहरे लोभ, आकार-प्रकार, स्त्री की आकृति, नारी की सूरत-शक्ल - लालच से भरा हुआ, नारी-लम्पट, स्त्रियों में धुत्त, स्त्री के नेन त. वि., ए. व. - इत्थिसण्ठानेन कतं कट्टरूपम्पि साथ सम्भोग करने के लिए सदा बेचैन रहने वाला – ण्डा दन्तरूपम्पि ..., पारा. अट्ठ. 2.117. प्र. वि., ब. व. -- सोण्डाति इथिसोण्डा भत्तसोण्डा पूवसोण्डा इत्थिसद्द 1. पु., तत्पु. स. [स्त्रीशब्द], स्त्री की आवाज़, मूलकसोण्डा, दी. नि. अट्ठ. 3.117; इत्थिसोण्डाति इत्थीस नारी द्वारा उच्चारित ध्वनि या शब्द, नारी का स्वर - द्दो सोण्डा, इथिसम्भोगनिमित्तं आतप्पनका, लीनत्थ. (दी. नि. प्र. वि., ए. व. - अझं एकसद्दम्पि समनुपस्सामि यं एवं टी.) 3.120; स. प. के रूप में, - ... ददमानो परिसस्स चित्तं परियादाय तिद्वति यथयिदं भिक्खवे इत्थिसहो, इत्थिसोण्डसरासोण्डमंससोण्डादिभावं आपज्जित्वा, जा. अट्ट, अ. नि. 1(1).1-2; तेसु इत्थिसद्दोति इत्थिया चित्तसमुट्ठानो। कथितगीतवादितसद्दो... वीणासङ्घपणवादिसद्दोपि इथिसहोत्वेव इत्थिसोत नपुं., तत्पु. स., स्त्रियों से निकलने वाला वेदितब्बो, अ. नि. अट्ठ 1.18; स. प. के अन्तः, - पुरिसानं (रूपसौन्दर्य का) झरना, स्त्री-विषयिणी तृष्णा के स्रोत के इत्थिसद्दमधुरगन्धब्बसद्दादयो चित्तस्सादकरा मनापसद्दा, पारा. रूप में नारी की सुन्दरता - तानि प्र. वि., ब. व. - अट्ठ. 2.53; - स्सवन नपुं., तत्पु. स. [स्त्रीशब्दश्रवण], इत्थिसोतानि सब्बानि, सन्दन्ति पञ्च पञ्चसु, थेरगा. 739; स्त्री के शब्द को सुनना - नेन तृ. वि., ए. व. - सह इथिसोतानि सब्बानीति इत्थिया रूपादिआरम्मणानि, सब्बानि इत्थिसहस्सवनेन गहणं सिथिलमकासि, अ. नि. अट्ठ. अनवसेसानि पञ्चतण्हासोतानि सन्दन्ति, थेरगा. अट्ठ. 1.19; 2. त्रि., ब. स., नारी के समान स्वर वाला, स्त्री के 2236. समान बोलने वाला - दो पु., प्र. वि., ए. व. - इत्थिसद्दो इत्थी स्त्री., थी के रूप में भी प्राप्त, गाथाओं में अत्यल्प रूप छळाभिओ, राजपुत्तो तु भासिता, ना. रू. प. 867. में प्रयुक्त स्त्रिी]. 1. स्त्रीत्त्व के विशिष्ट लक्षणों से युक्त इत्थिसब्बङ्गसम्पन्न त्रि., नारी की सभी विशेषताओं अथवा मानव जाति का प्राणी, नारी, महिला, पत्नी, 2. किसी भी उत्तम लक्षणों से युक्त - न्ना स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - जानवर की मादा, प्र. वि., ए. व. -इत्थी, सीमन्तिनी नारी इत्थिसब्बङ्गसम्पन्ना, अभिजाता जुतिन्धरा, अप. 2.272. थी वधू वनिताङ्गना, पमदा सुन्दरी कन्ता रमणी दयिताबला, इत्थिसर/इत्थिस्सर पु., तत्पु. स. [स्त्रीस्वर], स्त्री का मातुगामो च महिला, अभि. प. 230-31; इत्थी थी... रमणी स्वर, नारी की आवाज, स्त्री की वाणी-रं द्वि. वि., ए. पमदा दयिता ललना महिलाङ्गना, सद्द. 2.363; सेय्यथापि व. - इत्थिस्सरन्ति इत्थिसदं, अ. नि. अट्ठ. 3.169; - रे नाम इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनकजातिको सप्त. वि., ए. व. - इत्थिरूपे इत्थिसरे, फोडब्बेपि च सीसंन्हातो अहिकुणपेन, पारा. 81; आकारेहि इत्थी पुरिसं इत्थिया ... सारत्तो, थेरगा. 738; इत्थिसरेति इत्थिया बन्धति, अ. नि. 3(1).38; - त्थिं द्वि. वि., ए. व. - अयं गीतलपितहसितरुदितसद्दे, थेरगा. अट्ठ. 2.236. परिसो इत्थिं वा पुरिसं वा जीविता वोरोपेसि, अ. नि. इत्थिसरीर नपुं.. तत्पु. स. [स्त्रीशरीर], नारी का शरीर, 2(1).194; - त्थिया ष. वि., ए. व. - यो च भत्ता इत्थिया स्त्री की काया - रं' प्र. वि., ए. व. - पुरिसस्स हि हितो कतगणं जानाति, उभोपेते सुदुल्लभा, जा. अट्ठ. 5.92; इत्थिसरीरं ... विसभाग, विसुद्धि. 1.173; पुरिसस्स पन राजा रतुस्स पाणं, भत्ता पाणमित्थिया, जा. अट्ठ. इत्थिसरीरं इत्थिया वा पुरिससरीरं न वट्टति, विसुद्धि. 7.265; - त्थियो प्र. वि., ब. व. - दस इथियो - 1.177; - रं द्वि. वि., ए. व. - अहं पन अज्ज पट्ठाय मातुरक्खिता, पितुरक्खिता, मातापितुरक्खिता, भातुरक्खिता इत्थिसरीरं फुसितुं आहारे च लोलभावं कातुं अनरहो, भगिनिरक्खिता, आतिरक्खिता, गोत्तरक्खिता धम्मरक्खिता थेरीगा. अट्ठ. 16; स. प. के रूप में, इत्थिसरीरारुकहानं सारक्खा सपरिदण्डा, पारा. 205; इमिना कारणेन इथियो वत्थालङ्कारमालादीनं फस्सो, थेरगा. अट्ठ. 2.236. नाम असाता लामिका पच्छिमिका ति जानेय्यासी ति, जा. इत्थिसहस्स नपुं., एक हजार स्त्रियों का एक समूह, एक अट्ठ. 1.277; - नं ष. वि., ब. व. - तव माता 'असातमन्तं हजार के झुण्ड में स्त्रियां - स्सानं ष. वि., ब. व. - उग्गण्हा ति मम सन्तिकं पेसयमाना इत्थीनं दोसं जाननत्थं For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्ध इत्वा/इत्वान 323 पेसेसि, जा. अट्ठ. 1.277; तथा इत्थीनम्पि सा पटिच्चसमुप्पादो चाति, महाव. अट्ठ. 233; इदप्पच्चयता रूपसद्दगन्धरसफोडब्बानि पञ्चायुधानि, जा. अट्ठ. 5.4283; पटिच्चसम्प्पन्नेस धम्मेसुअजाणं, ध. स. 1063(मा.). - सु सप्त. वि., ब. व. - वज्झित्थियो नत्थि इत्थीसु सच्चं इदमत्थी त्रि., केवल इसी विशिष्ट (धर्म) को प्रयोजन बनाने .... इत्थीसु सच्चन्ति एतासु सभावो नामेको नत्थि, जा. अट्ठ. वाला अथवा उसे पाने की इच्छा करने वाला - त्थिता 2.99; 2. द्रष्ट. इत्थियुत्तेन; 3. व्याकरण के विशेष सन्दर्भ स्त्री., इदमत्थी का भाव, केवल इसी (विशेष धर्म) को पाने में, स्त्रीलिङ्ग - यं सप्त. वि., ए. व. - तस्सा इत्थियं की इच्छा - तं द्वि. वि., ए. व. - निस्साय इदमस्थितओव वत्तमानाय आकारस्स इकारो होति वा संसासु एकवचनेस निस्साय आरञ्जिको होति, परि. 256; तं इदमत्थितंयेव विभत्तादेसेस, क. व्या. 64; इत्थियमतो आप्पच्चयो-इत्थियं निस्साय न अझं किञ्चि लोकामिसन्ति अत्थो, परि. अट्ठ. वत्तमानाय अकारन्ततो आप्पच्चयो होति, क. व्या. 237; स. 177; - ता प्र. वि., ए. व. - इदमत्थिताति इमे उ. प. के रूप में, अधि., अनाचारि०, अनि., अमनुस्सि., धुतङ्गचेतनाय परिवारका पञ्च धम्मा, विसुद्धि. 1.80. अलङ्कति., आरक्खि., उच्छिट्टि, उत्तमि., उपट्ठाकि., कपणि., इदानि अ०, समयसूचक निपा., क्रि. वि. के रूप में वाक्यों कामि., काळि., कुलि., चतुरि., चतुरि-विमान. जनपदि०, में प्रयुक्त [इदानीम्], इस समय में, अब, आजकल, अभी तरुणि., तिरच्छानगति., दहरि., दुग्गतिः, दुट्टि., नच्चि... कुछ ही समय पूर्व में - कदा कुदा सदाधुनेदानि, मो. व्या. नागरकि०, नाटकि०, नानि., पण्डकि., पर-परिग्गहिति., 4.106; नाहं इदानियेव ऊरुवेलकस्सपं दमेमि, जा. अट्ठ. पापि., पुमि०, भुजिस्सि., मज्झिमि., मति., मनुस्सि., 1.92; इमं इदानि इह इतो इध, सद्द. 3.676; क. वर्त. के महल्लकि., महि., राजि., वञ्झि, वरि., वल्लभि., सबि., क्रि. प. के साथ प्रयुक्त, अभी ही, तुरन्त ही- इदानेव खो सभत्तु., स-सामिकि., सस्सामिकि०, सुत्ति के अन्त. द्रष्ट.. मयं आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं एवं आजानाम, म. नि. इत्वा/इत्वान Vइ (जाना) का पू. का. कृ. [इत्वा], जाकर 1.375; इदानिपि आगन्तुको निद्दायति, ध, प. अट्ठ. 1.280; - पटिमुखं इत्वा, इत्वान ... उपेतून अआनिपि ख. भवि. के क्रि. प. के साथ प्रयुक्त, अब इसके आगे, अब बुद्धवचनानुरूपतो, सद्द. 2.315. से - इदानि पन मयं यं इच्छिस्साम, तं करिस्साम, दी. इत्वेव/इच्चेव अ., इति + एव के योग से व्यु. [इत्येव], नि. 2.122; सचे इदानि एक अजिकं पादे गहेस्सामि, जा. ऐसा ही, इस तरह से ही, यही - इत्वेव चोरो अट्ठ. 1.235; ग. भू. क. कृ., पू. का. कृ. अथवा अद्य. के असिमावुधञ्च, म. नि. 2.310; इत्वेवाति एवं वत्वायेव, म. क्रि. प. के साथ प्रयुक्त, वर्तमान समय में, अभी अभी, कुछ नि. अट्ठ. (म.प.) 2.238; इच्चेव चोरो असिमावृधञ्च, सोब्भे ही समय पूर्व - इदानेव खो, आनन्द, अज्ज चापाले पपाते नरके अन्वकासि, थेरगा. 869; तत्थ इच्चेवाति इति चेतिये मारो पापिमा येनाहं तेनुपसङ्कमि, दी. नि. 2.88; "न, एव एवं वत्वा अनन्तरमेव, थेरगा. अट्ठ. 2.279. भिक्खवे, इदानेव, पुब्बेपेस अम्बगोपको हुत्वा ..., जा. अट्ठ. इद 1. निपा. इध का (धकार के स्थान पर दकारादेश कर 3.117; ते इदानि अतिसायन्हो, मेघो च उद्वितो, ध. प. देने से निर्मित) विपरिवर्तित रूप [इध], यहां, 2. इम, सर्व अट्ठ. 1.12; सत्तेसु मेत्ताभावनं दस्सेत्वा इदानि का नपुं., प्र. वि., ए. व. 'इदं' का विपरिवर्तित रूप, यह अहितदुक्खानागमपत्थनावसेनापि तं दस्सेन्तो, खु. पा. - एकमिदाहं, समयं येन पूरणो कस्सपो तेनुपसङ्कमि, दी. अट्ठ. 200. नि. 1.46; एकमिदाहं, समयं राजगहे विहरामि गिरिब्बजे, इद्ध त्रि., Vइध का भू. क. कृ., प्रायः फीत के साथ प्रयुक्त म. नि. 1.39; एकमिदाहन्ति एत्थ इदन्ति निपातमत्तं एक [ऋद्ध], समृद्ध, सम्पन्न, धनी, भौतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण, अहन्ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 1.207; एकमिदाहन्ति एत्थ सकल वैभवों से सम्पन्न, सौभाग्यशाली, खुशहाल -द्धा इदाति निपातमत्तं, एकस्मिं समये अहन्ति वुत्तं होति, म. पु., प्र. वि., ब. व. - इज्झन्ति वा सत्ता एताय इद्धा वुद्धा नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).160; - प्पच्चय त्रि., कारणसापेक्ष, उक्कसगता होन्तीति इद्धि, सद्द. 2.484; क. नगरों, जनपदों, इसकी कारणता वाला - या प. वि., ए. व. - इमेसं देशों आदि के विशे. के रूप में प्रयुक्त, धन-धान्य आदि से पच्चया इदप्पच्चया, सद्द. 1.277; सचेपि चवति इदप्पच्चया परिपूर्ण - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - अयं जम्बुदीपो इद्धो मे चवति, पटि. म. 302: - पच्चयता स्त्री॰, भाव., चेव भविस्सति फीतो च, दी. नि. 3.55; स. प. के रूप कारणसापेक्षता - ता प्र. वि., ए. व. - इदप्पच्चयता च में, इद्धो फीतो महाजनपदो सजनो समुच्छिन्नो, मि. प. For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्ध 324 इद्धाभिसङ्कार 133; - द्धा ब. व. - ... एवं जनपदा इद्धा होन्ति, स. व. - सिद्ध मिद्धगुणं साधु नमस्सित्वा तथागतं. मो. व्या. नि. अट्ठ. 1.227; -द्धं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ततियस्स 1(प्र.). पठमे इद्धन्ति तेलमधुफाणितादीहि समिद्ध, स. नि. अट्ठ. 3. इद्धानुभाव पु., तत्पु. स. [बौ. सं. ऋद्ध्यनुभाव], ऋद्धियों 316; इद्धं फीतञ्चिदं रट्ठ, इद्धो जनपदो महा, जा. अट्ठ. (अलौकिक मानसिक बलों) का प्रभाव या शक्ति, ऋद्धियों 7.276; इद्धं फीतं सुवित्थारं..., दी. वं. 9.37; ख. कुलों के की महत्ता या प्रभावमयता -- वो प्र. वि., ए. व. -- विशे. के रूप में, समृद्ध कुल - द्धे नपुं, सप्त. वि., ए. निस्संसयं खो महासमणस्स इद्धानुभावो, महाव. 36; को नु व. - कोसम्बियं सेविकुले, इद्धे फीते महद्धने, जा. अठ्ठ. खो अयं सत्तो यस्सायं एवरूपो इद्धानुभावो, उदा. 101; - 7.124; इद्धे सेनापतीकुले, जा. अट्ठ. 7.111; - द्धानि प्र. वं द्वि. वि., ए. व. - “पस्सन्ति नो भोन्तो देवा तावतिसा वि., ब. व. - इद्धानि फीतानि कुलानि अस्सु अनेकसाहस्सट ममपिमं एवरूप इद्धानुभाव"न्ति, दी. नि. 2.157; अथ थेरो नानि लोके, जा. अट्ठ. 5.16; - द्धेस् सप्त. वि., ब. व. भगवता एतदग्गे ठपितभावानुरूपं अत्तनो इद्धानुभावं पकासेन्तो - हत्थि गवारसा मणिकुण्डला च, थियो च इद्धेसु कुलेसु “एकाहं, भन्ते ति आदिमाह, पारा. अट्ठ 1.139; ब्रह्मनो जाता सब्बाव ता उपभोगा भवन्ति, जा. अट्ट. 6.189; ग. ओवादे ठितानं इद्धानुभावं दस्सेति, म. नि. अट्ट (मू.प.) मनुष्यों के विशे. के रूप में, समृद्ध मनुष्य -द्धो पु., प्र. 1(2).299; - वा प. वि., ए. व. - समणब्राह्मणा न वि., ए. व. - इद्धो च फीतो च सवढितो च अमच्चो च। परिमुच्चिसु मारस्स इद्धानुभावा सेय्यथापि ते, भिक्खवे, ते अञ्जतरो जनिन्द, जा. अट्ट, 5.202; - स्स ष. वि., ए. पठमा मिगजाता तथूपमे अहं इमे पठमे समणब्राह्मणे व. - सब्बाव ता उपभोगा भवन्ति, इद्धस्स पोसस्स . वदामि, म. नि. 1.213; - वे द्वि. वि., ब. व. - अ सञ्च अनिद्धिमन्तो, जा. अट्ठ. 6.189; घ. आहार, पेय आदि के देवानं यथासकं इद्धानुभावे "देविद्धि" वेदितब्बा, पारा. अट्ठ. विशे के रूप में, पौष्टिक आहार – “कच्चि, सारिपुत्त, भत्तं 2.38; - वेन तृ. वि., ए. व. - भिक्खू इद्धानुभावेन समं इद्ध अहोसी ति? इद्धं खो, भन्ते, भत्तं अहोसि, अपिच में कत्वा महीतलं, दी. वं. 7.2; तञ्च नावं अत्तनो इद्धानुभावेन भिक्खू एकक ओहाय पक्कन्ता ति ? चूळव. 355; इद्धं तेहि इच्छितपट्टनं तं दिवसमेव उपनेसि, पे. व. अट्ठ, 46; अहोसीति सम्पन्न अहोसि, चूळव. अट्ठ. 117; ङ. ब्रह्मचर्य - त्त नपुं., इद्धानुभाव का भाव. [ऋद्धयनुभावत्व], ऋद्धि अथवा भिक्षुजीवन के विशे के रूप में – परिपूर्ण (ब्रह्मचर्य) की प्रभावमयता, ऋद्धियों का सामर्थ्य या प्रभविष्णता - - द्धं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - इद्धन्ति समिद्ध त्ता प. वि., ए. व. - सत्थु वत्तं दस्सेत्वा सासनस्स, झानस्सादवसेन, दी. नि. अट्ट. 2.130; इद्धन्ति समिद्ध निय्यानिक-भाव-दस्सनत्थं मह इद्धानुभावत्ता आकासे झानुप्पादवसेन, उदा. अट्ठ. 267; च. बुद्धसासन के विशे. निसीदित्वा ..., उदा. अट्ठ. 431.11(रो.); - के रूप में, पुष्पित एवं पल्लवित हो रहा (बद्धशासन)- महन्ततापकासनापदेस पु., तत्पु. स., ऋद्धि के प्रभाव द्धं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - वित्थारिकं बाहजनं, इद्धं फीतं अथवा सामर्थ्य की महानता को प्रकाशित करने का बहाना अहु तदा, दीपङ्करस्स भगवतो, सासनं सुविसोधित, जा. - सेन तृ. वि., ए. व. - आदिना अट्ठ. 1.39; छ. बुद्ध की अववाद-देशना के विशे. के रूप इद्धानुभावमहन्ततापकासनापदेसेन अत्तनो..., उदा. अट्ठ में, अर्थ-भरा, गम्भीर -द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - “कच्चि, 200; - सिरी स्त्री., तत्पु. स., ऋद्धि के प्रभाव की भव्यता भिक्खुनियो, ओवादो इद्धो अहोसी ति? कुतो भन्ते, अथवा आभा – रिया तृ. वि., ए. व. - एवं इद्धानुभावसिरिया ओवादो इद्धो भविस्सति, पाचि. 73; इद्धोति समिद्धो देवमनुस्सानं पीतिं जनयन्तो, पारा. अट्ठ. 1.60. सहितत्थो गम्भीरो बहुरसो लक्खणपटिवेधसंयुत्तो, पाचि. इद्धाभिसङ्खार पु., तत्पु. स. [बौ. सं. ऋद्धयभिसंस्कार, अट्ठ. 47; “कच्चि ओवादो इद्धो अहोसी ति? ... कुत्तो ऋद्धियों का व्यवहार में प्रयोग, ऋद्धि-सिद्धियों का प्रदर्शन ओवादो इद्धो भविस्सती"ति? पाचि. 427; ज. इच्छा आदि - रं द्वि. वि., ए. व. - अथ खो भगवा तथारूपं मनोभावों के विशे. के रूप में, सफल, पूर्ण-द्धो पु., प्र. इद्धाभिसवारं अभिसङ्घासि, दी. नि. 1.92; तथारूपं इद्धाभिसङ्घारं वि., ए. व. - "कच्चिन्नु चित्तस्सपि एवमेवं, इद्धो मनो अभिसङ्घरेय्यं महाव. 20; आयस्मा महामोग्गल्लानो तथारूप तस्स यथापि मह न्ति, जा. अट्ठ. 4.353; - गुण त्रि., ब. इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासि, म. नि. 1.322; इद्धाभिसङ्घारं स., अत्यन्त उत्तम गुणों से युक्त - णं पु., द्वि. वि., ए. अभिसद्धासीति इद्धिमकासि. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).199. For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धि 325 इद्धिक इद्धि स्त्री., [ऋद्धि]. शा. अ., समृद्धि, प्रभावमयता, महिमा, फलं आहरित्वा ..., बु. वं. अट्ठ. 258; घ. बुद्ध, अर्हतों, उच्च स्थिति, ऊंची सफलता, विशेष अर्थ, चमत्कारपूर्ण शैक्ष्य भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों को प्राप्त दिव्य शक्तियां -द्धि दिव्य शक्तियां, अलौकिक शक्तियां, क. परम्परागत विशिष्ट प्र. वि., ए. व. - इद्धीपि मे सच्छिकता, पत्तो मे आसवक्खयो, अर्थ - बुद्धों की उपायसम्पत्ति के रूप में प्रयुक्त दिव्य थेरीगा. 71; -- द्धिं द्वि. वि., ए. व. – “कथं त्वं, आवुसो, शक्तियां, प्राणियों का उत्थान कराने वाली दिव्य शक्तियां इद्धिं वळजेसी ति पुट्ठो तमत्थं आचिक्खन्तो.... थेरगा. - द्धि प्र. वि., ए. व. - इज्झनटेन इद्धि, पटि. म. 376%; अट्ठ. 1.228; -- या' ष. वि., ए. व. - अहं विकुब्बनासु इज्झनद्वेन इद्धि निष्फत्तिअत्थेन पटिलाभद्वेन चाति... अपरो । कुसलो, वसीभूतोम्हि इद्धिया, थेरगा. 1192; - या सप्त. नयो इज्झनटेन इद्धि उपायसम्पदायेतमधिवचनं... अपरो वि., ए. व. -यादिसो महामोग्गलानत्थेरो इद्धिया, अहम्पि नयो, एताय सत्ता इज्झन्तीति इद्धि, इज्झन्तीति इद्धा बुद्धा तादिसो होमि, अ. नि. अट्ठ. 2.59; -द्धीसु सप्त. वि., ब. उक्कंसगता होन्तीति वुत्तं होति, विसुद्धि. 2.6-7; इद्धीति, व. - इद्धीसु च वसी होमि, दिब्बाय सोतधातुया, अप. या तेसं धम्मानं इद्धि समिद्धि इज्झना समिज्झना लाभो 2.228; - नं ष. वि., ब. व. - इद्धिलाभायाति अत्तनो पटिलाभो पत्ति सम्पत्ति फुसना सच्छिकिरिया उपसम्पदा, सन्ताने पातुभाववसेन इद्धीनं लाभाय, पटि. म. अट्ट, विभ. 244; ख. राजा आदि उच्चपदस्थ मनुष्यों की विशिष्ट 2.245; ङ. पांच अथवा छ प्रकार के अभिज्ञा-बलों में प्रथम, शक्तियां, प्रभाव या सामर्थ्य, उच्च स्थिति या दैवी संपदा, तीन प्रकार के ऋद्धिप्रातिहार्यों में प्रथम, आकाश में उड़ने, ---द्धी प्र. वि., ब. व. - त्वं नोसिस्सरियं दाता, मनुस्सेसु जल पर चलने, स्थल पर डूबने उतराने जैसी आठ महन्ततं, तयामा लभिता इद्धी एत्थ मे नत्थि संसयो, दिव्यशक्तियां अथवा इद्धिविधाएं, दस ऋद्धियों की जा. अट्ठ. 4.37; - या तृ. वि., ए. व. - "तायिद्धिया उत्तरकालीन सूची में प्रथम प्रभेद के उपभेदों के रूप में दक्खसि मं पुनापी ति ... ताय इद्धिया में पुनपि त्वं । अन्तर्भूत, चार इद्धिभूमियों (चरणों), आठ इद्धिपदों एवं पस्सिस्ससीति, जा. अट्ठ.6.202-203; -द्धि द्वि. वि., ए. सोलह इद्धिमूलों के विवरणों के साथ भी निर्दिष्ट, प्र. वि., व. - तं तादिसं पच्चनुभोस्सतिद्धि, पे. व. 459; इद्धिन्ति । ए. व. - अधिट्ठाना इद्धि, विकुब्बना इद्धि, मनोमया इद्धि, देविद्धिं, दिब्बसम्पत्तिन्ति वुत्तं होति, पे. व. अट्ठ. 172; - आणविप्फारा इद्धि, समाधिविप्फारा इद्धि, अरिया इद्धि, द्धीहि तृ. वि., ब. व. - राजा, आनन्द, महासुदस्सनो कम्मविपाकजा इद्धि, पुञ्जवतो इद्धि, विज्जामया इद्धि तत्थ चतुहि इद्धीहि समन्नागतो अहोसि, दी. नि. 2.132; चतहि तत्थ सम्मा पयोगपच्चया इज्झनटेन इद्धि, पटि. म. 376; राजिद्धीहि समन्नागतो अहोसि, उपरिचरो आकासगामी, स. उ. प. के रूप में, अतिरेकि०, अधिट्ठानि., अभिञापादकि., चत्तारो नं देवपुत्ता चतूसु दिसासु खग्गहत्था रक्खन्ति, अरियि., आमिसि., उप्पत्तिः, कम्मविपाकजि., चेतोपरियायि., कायतो चन्दनगन्धो वायति, मुखतो उप्पलगन्धो, जा. अट्ठ. दिब्बि., देवि., धम्मि., नागि., पादकि., पुञमयि., पुञि०, 3.401; - द्धियो प्र. वि., ब. व. - अभिसेकानुभावेन चस्स भावनामयि., मनोमयि., यक्खि., राजि., विकुब्बनि., विपाकि., इमा राजिद्धियो आगता, पारा. अट्ट, 1.31; ग. नागों, यक्षों समाधि., सुपण्णि के अन्त. द्रष्ट... एवं देवों जैसे दैवी प्राणियों की दिव्य शक्तियां, देवों आदि इद्धिआदेसनानुसासनी स्त्री., द्व. स., श्रोताओं की मनोदशा की दिव्य विभूति-द्धी प्र. वि.. ब. व. - इद्धी हि त्यायं को जानकर तदनुरूप उन्हें उपदेश देने की बुद्धों की विपुला, सक्कस्सेव जुतीमतो ति, जा. अट्ठ. 7.16; असस्सतं दिव्य शक्ति, बुद्ध के तीन प्रातिहार्यों में से एक - नी प्र. सस्सतं नु तवयिदं, इद्धी जुती बलवीरियूपपत्ति, जा. अट्ठ. वि., ए. व. - इद्धिआदेसानुसासनीसमुदाये भवं एकेक 7.213; - द्धिं द्वि. वि., ए. व. - इद्धि पस्स यसञ्च मे, पाटिहारियन्ति वुच्चति, उदा. अट्ठ. 9; - हि त. वि., ब. वि. व. 859; इद्धिन्ति समिद्धि, दिब्बविभूतिन्ति अत्थो, वि. व. - ... इद्धिआदेसनानुसासनीहि हरिता अपनीता होन्ति, व. अट्ठ. 185; - या तृ. वि., ए. व. - इद्धिया यससा उदा. अट्ठ. 9; - नियो प्र. वि., ब. व. - जल, स. नि. 1(1),142; दिब्बसंपत्तिसमिद्धिया च इद्धिआदेसनानुसासनियो विगतूपक्किलेसेन कतकिच्चेन परिवारसवातेन यससा च अ. नि. अट्ठ. 2.254; हंसादिच्चपथे। सत्तहितत्थं पुन पवत्तेतब्बा ... भवन्ति, उदा. अट्ठ. 9. यन्ति, आकासे यन्ति इद्धिया, ध, प. 175; याय जम्बुया अयं इद्धिक त्रि., केवल स. उ. प. के रूप में प्राप्त, ऋद्धियों जम्बुदीपो पञआयति, इद्धिया तं जम्बु उपसङ्कमित्वा ततो अथवा दिव्य शक्तियों से युक्त अनि., तेजि., महि. के For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धिकथा 326 इद्धिपत्त अन्त. द्रष्ट; -- ता स्त्री॰, भाव., ऋद्धि-सम्पन्नता - अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, समणस्स महिद्धिकता महानुभावता, दी. नि. 1.196; - भाव पु., उपरिवत् - वं द्वि. वि., ए. व. - सो वि तं पत्तो महामोग्गल्लानत्थेरस्स महिद्धिकभावं सुत्वा, थेरगा. अट्ठ. 1.228. इद्धिकथा स्त्री., तत्पु. स. [ऋद्धिकथा], क. पटि. म. एवं कथा. के एक खण्डविशेष का शीर्षक, पटि. म. 376-383; कथा. 488-489; ख. विसुद्धि के एक खण्डविशेष का शीर्षक, इद्धिविधनिद्देस के स्थान पर प्रयुक्त वैकल्पिक शीर्षक, विसुद्धि. 2.1-34; - य तृ. वि., ए. व. - वत्थु विसुद्धिमग्गे इद्धिकथाय वित्थारितं. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).316; - वण्णना स्त्री., पटि. म. अट्ठ तथा कथा. के एक व्याख्यान-खण्ड का शीर्षक जिसमें ऋद्धियों का विवेचन है, पटि. म. अट्ठ. 2.244-276; प. प. अठ्ठ (कथा.) 275. इद्धिकरण नपुं.. [ऋद्धिकरण], ऋद्धियों का प्रयोग, दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन - णं प्र. वि., ए. व. -- 'मा अम्हाकं इद्धिकरणं भारोति चिन्तयित्थ जा. अट्ठ. 4.235; - तो प. वि., ए. व. - इद्धिकरणतो पुब्बे पकतिया एकोपि, विसुद्धि. 2.12; - काल पु., तत्पु. स. [ऋद्धिकरणकाल], ऋद्धियों के प्रयोग अथवा प्रदर्शन का काल - ले सप्त. वि., ए. व. - इद्धिकरणकाले यथासुखं चित्तचारस्स इज्झनत्थं योगविधानं दस्सेतुं वुत्तं, पटि. म. अट्ठ. 1.277. इद्धिकारण नपुं., तत्पु. स. [ऋद्धिकारण], समृद्धि का कारण, सफलता का कारण - णं प्र. वि., ए. व. - मङ्गलन्ति इद्धिकारणं वृद्धिकारणं सब्बसम्पत्तिकारणं, ख. पा. अट्ठ.98. इद्धिकोट्ठास पु., तत्पु. स. [ऋद्धिकोष्ठांश], ऋद्धि के घटक तत्त्व, ऋद्धि के अङ्ग, ऋद्धि में अन्तर्निहित प्रमुख घटक - सो प्र. वि., ए. व. - इद्धि एव विधं इद्धिविधं, इद्धिकोट्ठासो, इद्धिविकप्पोति अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 1.43; इद्धि एव पादो इद्धिपादो इद्धिकोट्टासोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 248; - सं द्वि. वि., ए. व. - इद्धिविधन्ति इद्धिकोट्ठासं. स. नि. अट्ठ. 2.110. इद्धिकोविद त्रि, तत्पु. स. [ऋद्धिकोविद], ऋद्धियों के प्रयोग या प्रदर्शन में दक्ष - दा पु., प्र. वि., ब. व. - खीणासवा वसिप्पत्ता तेविज्जा इद्धिकोविदा, पारा. अट्ठ. 1.71. इद्धिगुण पु., तत्पु. स. [ऋद्धिगुण], ऋद्धि का गुण, दिव्यशक्ति की सम्पदा - णेन तृ. वि., ए.व. - पञ्चविधेन इद्धिगुणेन समन्नागता, जा. अट्ठ. 5.132; - णे सप्त. वि., ए. व. - वसी इद्धिगुणे चुतूपपाते, थेरगा. 909; एवं इद्धिगुणे इद्धिसम्पदाय चुतूपपाते च वसीभावप्पत्तो..., थेरगा. अट्ठ. 2.293. इद्धिगुणूपपन्न त्रि., तत्पु. स. [ऋद्धिगुणोपपन्न], ऋद्धि (लोकोत्तर मानसिक शक्ति) के गुणों से युक्त, ऋद्धिमान् - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - इद्धिगुणूपपन्नाति पञ्चविधेन इद्धिगुणेन समन्नागता, जा. अट्ठ. 5.132. इद्धिचित्त नपुं., तत्पु. स. [ऋद्धिचित्त], ऋद्धि-विषयक चेतना, ऋद्धियों से सम्बद्ध चित्त, ऋद्धिबलों से परिपूर्ण चित्त - त्तेन तृ. वि., ए. व. - ... पादकज्झानारम्मणेन इद्धिचित्तेन सहजातं सुखसञञ्च ..., विसुद्धि. 2.32; - तं प्र. वि., ए. व. - इद्धिचित्तमेव परस्स चित्तं जानाति, न इतरानि, विसुद्धि. 2.60; - तो प. वि., ए. व. - इद्धिचित्ततो वुढहित्वा भवङ्गचित्तेन परिनिब्बायि, उदा. अट्ठ. 350. इद्धिज त्रि., [ऋद्धिज], ऋद्धियों की दिव्य शक्ति से उत्पन्न, ऋद्धिबल से उत्पन्न - जं नपुं, प्र. वि., ए. व. - इद्धिजं देवदिन्नञ्च, तस्स तस्सानुलोमिक खु. सि. 6; इद्धिज एहिभिक्खूनं पुजिद्धिया निब्बत्तचीवरं तं खोमादीनं ... ___ अनुलोम, सारत्थ. टी. 2.340-341. इद्धिधम्म पु., तत्पु. स. [ऋद्धिधर्म], ऋद्धि, अलौकिक दिव्य शक्ति - म्मेसु सप्त. वि., ब. व. - असमो इद्धिधम्मसु. अलभिं ईदिसं सुखं, बु. वं. 2.80; पञ्चसु इद्धिधम्मेसूति अत्थो, बु. वं. अट्ठ. 114. इद्धिनिम्मित त्रि., तत्पु. स. [ऋद्धिनिर्मित], ऋद्धियों द्वारा निर्मित, अलौकिक दिव्य शक्तियों द्वारा बनाया गया-तं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - सब्बरतनमयंपीठं निम्मिनित्वान तावदे पियदस्सिस्स मुनिनो, अदासिं इद्धिनिम्मितं अप. 1.387. इद्धिपटिलाभ पु., तत्पु. स. [ऋद्धिप्रतिलाभ], ऋद्धियों के बल की पुनः प्राप्ति, अलौकिक दिव्य शक्तियों को फिर से पा लेना - भाय च. वि., ए. व. - मग्गो या पटिपदा इद्धिलाभाय इद्धिपटिलाभाय संवत्तति, स. नि. 3(2).348; इद्धिया इमा चतस्सो भूमियो इद्धिलाभाय इद्धिपटिलाभाय इद्धिविकुब्बनताय ... संवत्तन्तीति, पटि. म. 376; इद्धिपटिलाभायाति परिहीनानं वा इद्धीनं वीरियारम्भवसेन पुन लाभाय, पटि. म. अट्ठ. 2.245. इद्धिपत्त त्रि., ब. स. [ऋद्धिप्राप्त], ऋद्धिबल को प्राप्त, ऋद्धिविध ज्ञान को प्राप्त - त्ता पु.. प्र. वि., ब. व. - For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धिपदेस 327 इद्धिपाद तेविज्जा इद्धिपत्ता च, चेतोपरियायकोविदा, स. नि. 1(1).173; इद्धिपत्ताति इद्धिविधञाणं पत्ता, स. नि. अठ्ठ. 1.188. इद्धिपदेस पु., तत्पु. स. [ऋद्धिप्रदेश], ऋद्धि का एक भाग या एक क्षेत्र, स्रोतापत्तिमार्ग, सकृदागामी-मार्ग, अनागामीमार्ग इन तीन मार्गों तथा स्रोतापत्ति-फल, सकृदागामीफल तथा अनागामी-फल, इन तीनों फलों वाला ऋद्धि का एक प्रदेश - सं द्वि. वि., ए. व.- ... इद्धिपदेसं अभिनिप्फादेसुं स. नि. 3(2).330; पञ्चमे इद्धिपदेसन्ति तयो च मग्गे तीणि च फलानि, स. नि. अट्ठ. 3.280; इद्धिपदेसन्ति इद्धिया एकदेसं, को पन सोति आह - "तयो च मग्गे तीणि च फलानी ति, लीन. (स.नि.टी.) 2(2).205. इद्धिपलिबोध पु., तत्पु. स., विपस्सना के दस प्रकार के अन्तरायों में से एक, ऋद्धि की प्राप्ति के रूप में आध्यात्मिक साधना की एक बाधा - धो प्र. वि., ए. व. -- तस्मा विपस्सनस्थिकेन इद्धिपलिबोधो उपच्छिन्दितब्बो ..... विसुद्धि. 1.95; स. प. के अन्त., - पठमं तावस्स आवासकुललाभगणकम्मद्धानञाति गन्थरोगइद्धिपलिबोधेन, खु. पा. अट्ठ. 29. इद्धिपहुता स्त्री., तत्पु. स. [ऋद्धिप्रभुता], ऋद्धियों पर प्रभुत्व, ऋद्धियों का प्रभुत्व, ऋद्धियों की प्रचुरता - य च. वि., ए. व. - भगवता जानता ... इद्धिपादा पञत्ता इद्धिपहताय इद्धिविसविताय, दी. नि. 2.157; इद्धिपहतायाति इद्धिपहोनकताय, दी. नि. अट्ठ. 2.210. इद्धिपाटिहारिय नपुं., तत्पु. स. [बौ. सं., ऋद्धि-प्रातिहार्य], धर्मदेशना के क्रम में बुद्ध द्वारा प्रदर्शित तीन प्रकार के चमत्कारों में प्रथम, ऋद्धियों का चमत्कार, दिव्य अलौकिक शक्तियों का चमत्कारमय प्रदर्शन - यं प्र. वि., ए. व. - कतमानि तीणि ? इद्धिपाटिहारियं, आदेसनापाटिहारियं, अनुसासनीपाटिहारियं, दी. नि. 1.196; - येन तृ. वि., ए. व. - तत्थ इद्धिपाटिहारियेन अनुसासनीपाटिहारियं ..... आदेसनापाटिहारियेन ... धम्मसेनापतिस्स, दी. नि. अट्ठ. 1.292; इद्धिपाटिहारियेन अनुसासनीपाटिहारियेन च सत्तानं अनुग्गहं करोन्तो विहरति, थेरगा. अट्ठ. 1.228; - ये सप्त. वि., ए. व. - इमं खो अहं, केवट्ट, इद्धिपाटिहारिये आदीनवं ... जिगुच्छामि, दी. नि. 1.197; - करण नपुं.. तत्पु. स. [बौ. सं., ऋद्धिप्रातिहार्यकरण], ऋद्धिचमत्कारों का प्रदर्शन, अलौकिक दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन - णं द्वि. वि., ए. व. - सत्था भिक्खूनं इद्धिपाटिहारियकरणं पटिक्खिपि, जा, अट्ठ. 4.235%3; ननु भगवता इद्धिपाटिहारियकरणं पटिक्खित्तन्ति, उदा. अट्ठ. 350; -- यानुसासनी स्त्री., ऋद्धिचमत्कार-विषयिणी शिक्षा या उपदेश - निया तृ. वि., ए. व. - आयस्मा महमोग्गल्लानो इद्धिपाटिहारियानुसासनिया ... अनुसासि, चूळव. 340. इद्धिपाटिहीर नपुं, कर्म. स. [बौ. सं., ऋद्धिप्रातिहार्य], ऋद्धिबल का आश्चर्यजनक प्रदर्शन, अद्भुत ऋद्धिचमत्कार - रेन तृ. वि., ए. व. - इद्धिपाटिहीरेन अङ्गुलियो अदीपेत्वा यं सब्बेसं धम्मानं..., पेटको. 223. इद्धिपाद पु./नपुं.. [बौ. सं., ऋद्धिपाद], 1. ऋद्धि अथवा अलौकिक दिव्य शक्ति के चार घटक, ऋद्धि के चार आधारभूत तत्त्व, छन्द, चित्त, विरिय एवं वीमंस नामक ऋद्धि के चार आधार या घटक, 2. ऋद्धि नाम से लोकव्यवहार में प्रसिद्ध अभिज्ञा चित्तों के साथ जुड़े हुए छन्दसमाधि एवं सम्यक प्रधान के आधारभूत शेष चित्त एवं चैतसिक, ऋद्धि के लाभ अथवा प्रतिलाभ के लिए आधारभूत मार्ग - दो प्र. वि., ए. व. - इद्धिया पादो इद्धिपादो छन्दादीनमेतं अधिवचनं, विसुद्धि. 2.13; कतमो चानन्द, इद्धिपादो ? यो आनन्द, मग्गो या पटिपदा इद्धिलाभाय इद्धिपटिलाभाय संवत्तति अयं वुच्चतानन्द इद्धिपादो, स. नि. 3(2).356; पुब्बे वुत्तेन इज्झनटेन इद्धि तरसा सम्पयुत्ताय पुब्बङ्गमद्वेन फलभूताय पुब्बभागकारणद्वेन च इद्धिया पादोति इद्धिपादो, विसुद्धि. 2.317; - दं' नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इद्धिपादन्ति निप्फत्तिपरियायेन इज्झनद्वेन वा, इज्झन्ति एताय सत्ता ... इमिना वा परियायेन इद्धीति सङ्घयं गतानं अभिआचित्तसम्पयुत्तानं छन्दसमाधिपधानसङ्खारानं अधिट्ठानद्वेन पादभूतो सेसचित्तचेतसिकरासी ति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.210; विसुद्धि. 2.13; इद्धिया पादं, इद्धिभूतं वा पादन्ति इद्धिपाद, अ. नि. अट्ठ. 1.374; - दा प्र. वि., ब. व. - "चत्तारो इद्धिपादा छन्दिद्धिपादो चित्तिद्धिपादो विरियिद्धिपादो वीमंसिद्धिपादोति, विसद्धि. 2.317; इद्धिपादाति एत्थ इज्झनटेन इद्धि, पतिद्वानटेन पादाति वेदितब्बा, दी. नि. अट्ठ. 2.210; चत्तारो सतिपट्ठाना चत्तारोसम्मप्पधाना चत्तारो इद्धिपादा पञ्चिन्द्रियानि पञ्च बलानि सत्त बोज्झङ्गा अरियो अटुङ्गिको मग्गो, दी. नि. 2.92; -दं द्वि. वि., ए. व. - भिक्खु छन्दसमाधि ... सङ्घारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, स. नि. 3(2).355; - देसु सप्त. वि., ब. व. - इद्धिपादेसु छन्दं निस्साय पवत्तो समाधि छन्दसमाधि, अ. नि. अट्ठ. 1.374; - दानं ष. वि., ब. व. - सो इमेसं For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धिपाद 328 इद्धिबल चतन्नं इद्धिपादानं भावितत्ता बहलीकतत्ता आकडमानो कप्पं दे से स्सामि इद्धिपादञ्च इद्धिपादभावनञ्च वा तिडेय्य कप्पावसेसं वा, दी. नि. 3.57; धातून सुझतालक्षणं इद्धिपादभावनागामिनिञ्च पटिपदं, स. नि. 3(2).347; - ... इद्धिपादानं इज्झनलक्खणं, अ. नि. अट्ठ. 1.88; - य ष. वि., ए. व – “को नु खो हेतु, को पच्चयो दानि नपुं. द्वि. वि., ब. व. - भावेय्य च बोज्झङ्गे, इद्धिपादभावनाया ति, स. नि. 3(2).337; - वग्ग पु., अ. इद्धिपादानि इन्द्रियानि बलानि, थेरगा. 595; स. उ. प. के नि. का ऋद्धिपादों का अनुशीलन करने वाला एक रूप में चिति., छन्दि., विरियि., वीमंसि., पधानसङ्घारि., खण्डविशेष, अ. नि. 3(1).269-270; - वण्णना स्त्री., समाधि के अन्त. द्रष्ट; - कथा स्त्री., दस कथावत्थुओं तत्पु. स., ऋद्धिपादों का वर्णन, स. नि. अट्ठ. 3.280में एक - थं द्वि. वि., ए. व. - ... इद्धिपादकथं 291; -- वत्थुक त्रि., ब. स., ऋद्धिपादों पर प्रतिष्ठित या इन्द्रियकथं... निब्बानकथं कथेति, महानि. 356; - कुसल आधारित -- का पु., प्र. वि., ब. व. - इमे पञ्च धम्मा त्रि., तत्पु. स. [बौ. सं., ऋद्धिपादकुशल], ऋद्धियों के पञ्च अत्था छन्दवत्थुका इद्धिपादवत्थुका इद्धिपादारम्मणा आधारों या अधिष्ठानों के विषय में कुशल - ला पु., प्र. इद्धिपादगोचरा ..., पटि. म. 339; - विभङ्ग पु., विभङ्ग का वि., ब. व. - खन्धकुसला धातुकुसला आयतनकुसला इद्धिपाद-विषयक एक भाग, विभ. 243-255; विभ. अट्ठ. पटिच्चसमुप्पादकुसला सतिपट्टानकुसला सम्मप्पधानकुसला। 287-292; -- संयुत्त नपुं., स. नि. का इद्धिपाद-विवेचक इद्धिपादकुसला इन्द्रियकुसला बलकुसला बोज्झङ्गकुसला एक स्थल-विशेष, स. नि. 3.328-364; - सुत्त नपुं०. स. मग्गकुसला फलकुसला निब्बानकुसला, ते कुसला एवमाहंसु नि. के दो सुत्तों एवं अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. महानि. 49; - गोचर त्रि., ब. स., ऋद्धि के आधारों को नि. 2(2).335; 2(2).339; अ. नि. 2(1).76; - दारम्मण अपना कार्यक्षेत्र बनाने वाला - रा पु., प्र. वि., ब. व. -- त्रि., ब. स., ऋद्धि के आधारों को अपना आलम्बन बनाने इमे पञ्च धम्मा पञ्च अत्था छन्दवत्थुका इद्धिपादवत्थुका वाला - णा पु., प्र. वि., ब. व. - इमे पञ्च धम्मा पञ्च इद्धिपादरम्मणा इद्धिपादगोचरा, पटि. म. 339; - ता अत्था छन्दवत्थुका इद्धिपादवत्थुका इद्धिपादारम्मणा स्त्री., भाव. [ऋद्धिपादत्व, नपुं.], ऋद्धियों की आधारभूतता इद्धिपादगोचरा ..., पटि. म. 339; - दाभिसमय पु., या अधिष्ठानभाव - ता प्र. वि., ए. व. - अपिच तेसं तेसं तत्पु. स., ऋद्धिपादों का ज्ञान - यो प्र. वि., ए. व. - धम्मानं पुब्बभागवसेनापि एतेसं इद्धिपादता वेदितब्बा, स. इज्झनडेन इद्धिपादाभिसमयो, पटि. म. 386. नि. अट्ठ. 3.285; एतेसं इद्धिपादता वेदितब्बा, स. नि. अट्ठ. इद्धिप्पत्त त्रि., तत्पु. स. [ऋद्धिप्राप्त]. 1. ऋद्धि के बल को 3.285; - धीर त्रि., तत्पु. स., ऋद्धि के आधारों या प्राप्त किया हुआ व्यक्ति - त्तो प.. प्र. वि., ए. व. - घटकों के विषय में बुद्धिमान् - रा पु.. प्र. वि., ब. व. - तेविज्जो इद्धिपत्तोम्हि चेतोपरियायकोविदो, स. नि. अपि च खन्धधीरा धातुधीरा... इद्धिपादधीरा इन्द्रियधीरा 1(1).227; - त्ता प्र. वि., ब. व. - इद्धिपत्ताति ..., ते धीरा एवमाहंसु, महानि. 32; – पादुका स्त्री., इद्धिविधञाणं पत्ता, स. नि. अट्ठ. 1.188; 2. धनसम्पदा, को [ऋद्धिपादुका], शा. अ., ऋद्धि की खड़ाऊं, ला. अ., प्राप्त, ऊंचे पद को प्राप्त - त्ताय स्त्री., ष, वि., ए. व. आकाश में उड़ने की दिव्य शक्ति - का द्वि. वि., ब. क. - होन्ति हेते. महाराज, इद्धिप्पत्ताय नारिया, जा. अट्ठ. 3.19. - इद्धिपादपादुका आरुयह निब्बाननगरं पविसित्वा धम्मपासादं इद्धिबल नपुं., तत्पु. स. [ऋद्धिबल], ऋद्धि का बल या आरुयह ..., स. नि. अट्ठ. 2.73; - कं द्वि. वि., ए. व. -- सामर्थ्य - लं प्र. वि., ए. व. - इद्धिबलं पाबलञ्च पादुके सुगते दत्वा, सङ्के गणवरुत्तमे, इद्धिपादुकमारुय्ह, कीदिसं. बुद्धबलं लोकहितस्स कीदिसंबु. वं. 1.3; इद्धिबलं विहरामि यदिच्छक अप. 1.343; - पुच्छा स्त्री., तत्पु. स. पञ्जावलञ्च एदिसं, बुद्धबलं लोकहितस्स एदिसं, बु. वं. [ऋद्धिपादपृच्छा], ऋद्धिपादों के विषय में पूछताछ या 1.4; - लेन तृ. वि., ए. व. - इद्धिबलेनुपत्थद्धो संवेजेसि प्रश्न - च्छा प्र. वि., ए. व. - अपरापि तिस्सो पुच्छा च देवता, म. नि. 1.422; सद्धि इद्धिबलेन जेतवने ... सतिपट्टानपुच्छा सम्मप्पधानपुच्छा, इद्धिपादपुच्छा, महानि. पातुरहोसि, जा. अट्ठ. 4.281; -- कथा स्त्री., तत्पु. स., 251; - भावना स्त्री., तत्पु. स. [ऋद्धिपादभावना]. कथा. के एक खण्डविशेष का शीर्षक, कथा. 368; प. प. ऋद्धि के आधारों या अधिष्ठानों का विकास, वृद्धि या अट्ठ. 223; - प्पत्त त्रि., ऋद्धिबल को पाया हुआ-त्तेहि सुदृढ़ीकरण - नं द्वि. वि., ए. व. - इद्धि वो, भिक्खवे, पु., तृ. वि., ब. व. - बलप्पत्तेहीति इद्धिबलप्पत्तेहि, बु. वं. For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धिमद 329 इद्धिय/इट्टिय अट्ठ. 231; - लाभाव पु., तत्पु. स. [ऋद्धिबलाभाव], ऋद्धिबल का अभाव – वा प. वि., ए. व. - खीणासवापि समाना इद्धिबलाभावा परकुलानि पिण्डाय उपसमिस्सन्ति. पारा. अट्ठ 1.139. इद्धिमद पु., तत्पु. स. [ऋद्धिमद], ऋद्धियों से युक्त होने का दर्प, ऋद्धिमान होने का अहंभाव - दो प्र. वि., ए. व. - इद्धिमदो यसमदो सीलमदो .... विभ. 395; तं तं इज्झतीति वा मज्जनवसेन उप्पन्नो मानो इद्धिमदो, नाम. विभ. अट्ट, 442. इद्धिमन्तु त्रि., इद्धि + मन्तु प्रत्यय के योग से निष्पन्न [ऋद्धिमत्], ऋद्धियों का स्वामी, अलौकिक दिव्य शक्तियों से सम्पन्न, अद्भुत शक्ति एवं ऐश्वर्य से युक्त, इद्धिविधनामक ज्ञान से युक्त - मा/मन्तो पु., प्र. वि., ए. व. - चण्डेत्थ नागराजा इद्धिमा आसिविसो घोरविसो, महाव. 29; नागोहमस्मि इद्धिमा तेजस्सी दुरतिक्कमो, जा. अट्ठ. 7.14; इद्धिमाति अधिट्ठानिद्धिविकब्बनिद्धिआदीहि इद्धीहि इद्धिमा, इद्धिविधञाणलाभीति अत्थो, थेरगा. अट्ठ. 2.73; इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तोति इद्धिसम्पन्नो चित्तरस वसिभावपत्तो खीणासवो, अ. नि. अट्ठ. 2.362; इद्धिमन्तो महापओ कालदेवलतापसो, जिन. 119; - न्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - भिक्खू तादिसं इद्धिमन्तं सब्रह्मचारिं कुतो लभिस्सन्ति? पारा. अट्ठ. 1.139; - मतो/न्तस्स/मस्स पु., ष. वि., ए. व. - इद्धिमतो पन ठिता अनेकवण्णा अच्चियो होन्ति, महाव. 30; 'अनापत्ति, भिक्खवे, इद्धिमस्स इद्धिविसयेति, पारा. 80; - न्तो/न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - यक्खा . .. इद्धिमन्तो जुतिमन्तो वण्णवन्तो यसस्सिनो, दी. नि. 2.187; येसु बुद्धा खीणासवा च पच्चेकबुद्धा च इद्धिमन्ता च इसयो न्हायन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.218; इद्धिमन्तोति दिब्बइद्धियुत्ता, दी. नि. अट्ठ. 2.249; -- न्ते पु., द्वि. वि., ब. व. - अजे भिक्खू इद्धिमन्ते दिस्वा ..., थेरगा. अट्ठ. 1.380; - न्तेहि पु., तृ. वि., ब. व. - भगवा कथाहं इद्धिमन्तेहि गन्तब्बट्टानं गमिस्सामीति, अ. नि. अट्ठ. 1.239; - मतं/मन्तानं पु., ष. वि., ब. व. - यो नामिद्धिमतं सेट्ठो, दुतियो अग्गसावको, विसुद्धि. 1.225%; "एतदग्ग, भिक्खवे, ... इद्धिमन्तानं यदिदं महामोग्गल्लानो, अ. नि. 1(1).31; - मती/मन्तिनी स्त्री, प्र. वि., ए. व., ऋद्धियों से सम्पन्न नारी - सतिमती चक्खुमती, इद्धिमती पत्तिमती ति च, सद्द. 1.180; -- न्तिनियो ब. व. - देवतापि खो सन्ति इद्धिमन्तिनियो दिब्बचक्खुका परचित्तविदुनियो, अ. नि. 1(1).173; - मतीनं/मन्तानं स्त्री., ष. वि., ब. व. - अग्गा इद्धिमतीनन्ति, थेरीगा. अट्ठ. 218; “एतदग्गं, भिक्खवे, ... इद्धिमन्तीनं यदिदं उप्पलवण्णा अ. नि. 1(1).35; स. उ. प. के रूप में अनि. के अन्त. द्रष्ट.; - न्तता स्त्री., इद्धिमन्तु का भाव. [ऋद्धिमत्त्व, नपुं.], ऋद्धियों से समन्वित होना - य तृ. वि., ए. व. - "एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं ... यदिद महामोग्गल्लानोति इद्धिमन्तताय एतदग्गे ठपेसि, थेरगा. अट्ठ. 2.406-7. इद्धिमय त्रि., तत्पु. स. [ऋद्धिसम्पन्न], 1. ऋद्धिबल से परिपूर्ण, अलौकिक शक्तियों से सम्पन्न, ऋद्धियों से युक्त, 2. तेईस प्रकार के पंसुकूलचीवरों में बाईसवें के रूप में उल्लिखित चीवर, 'एहि भिक्खु (आ जाओ भिक्षु) कहते ही अदभुत रूप से प्राप्त श्रेष्ठ चीवर - यो पु., प्र. वि., ए. व. - कम्मविपाकजाय इद्धिया पयोजनं इद्धिमयो पयोगो, पारा. अट्ट. 2.37; - यं नपुं., प्र. वि., ए. व., (चीवर)इद्धिमयन्ति एहिभिक्खुचीवर विसुद्धि. 1.61; - पत्तचीवर नपुं.. कर्म. स., चमत्कारमय रूप से प्राप्त पात्र एवं चीवर - रं प्र. वि., ए. व. - द्विन्न अग्गसावकानम्पि इद्धिमयपत्तचीवरं आगतं, अ. नि. अट्ट, 1.128; तेनस्स इद्धिमयपत्तचीवरं न उप्पजिस्सति, उदा. अट्ठ. 75; - पत्तचीवरधर त्रि., "एहि भिक्खु" कहने से प्राप्त पात्र एवं चीवर को धारण करने वाला – रा पु., प्र. वि., ब. व. - सब्बे अन्तरहितके समस्सू इद्धिमयपत्तचीवरधारा वस्ससटिकत्थेरसदिसा अहेसुं, अ. नि. अठ्ठ. 1.158.. इद्धिमयिक त्रि., इद्धिमय + इक के योग से व्यु., ऋद्धियों से निर्मित, ऋद्धियों से परिपूर्ण, अलौकिक दिव्य शक्तियों से युक्त - को पु.. प्र. वि., ए. व. - इद्धिमयिको सो आयूतिआदिमाह, प. प. अट्ठ. 224; - का स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ... इद्धिमयिका सा गति, इद्धिमयिको सो अत्तभावप्पटिलाभो, कथा. 368; - कं नपुं.. प्र. वि., ए. व. -- धम्मसङ्गाहकत्थेरेहि तेसं अनुलोमानि दुकूलं... इद्धिमयिक ...... अनुज्ञातानि, महाव. अट्ठ. 363. इद्धिमहत्त नपुं, तत्पु. स. [ऋद्धिमहत्व]. ऋद्धियों की महत्ता अथवा श्रेष्ठता - तो प. वि., ए. व. - इद्धिमहत्ततो अनुस्सरितब्ब, विसुद्धि. 1.225; ... यसमहत्ततो पुञ्जमहत्ततो ... इद्धिमहत्ततो ... सम्मासम्बुद्धतोति, विसुद्धि. 1.223. इद्धिय/इट्टिय पु., व्य. सं., एक स्थविर का नाम - यो प्र. वि., ए. व. - इट्टियो उत्तियो थेरो, भद्दसालो च सम्बलो, For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धियान 330 इद्धिविसविता पारा. अट्ट, 1.50; ततो महिन्दो इट्टियो उत्तियो सम्बलो विविधता - धं' न., प्र. वि., ए. व. - इद्धि येव विध तथा, ध. स. अट्ठ, 33. इद्धिविध, इद्धिकोट्ठासो इद्धिविकप्पोति अत्थो, पटि. म. इद्धियान नपुं.. तत्पु. स. [ऋद्धियान], ऋद्धियों वाला अट्ठ. 1.43; इद्धीति इद्धिविधं इद्धिपाटिहारियं नाम, बु. वं. वाहन, ऋद्धिरूपी वाहन या सवारी, ऋद्धियों की सवारी - अट्ठ. 44; - धं द्वि. वि., ए. व. – सो अनेकविहितं नं द्वि. वि., ए. व. - "तेनेव कम्माभिसन्देन इद्धियानं इद्धिविधं पच्चनुभोति, एकोपि हुत्वा बहुधा होति, दी. नि. अभिरुयह पत्थितं निब्बाननगरं पापुणेय्या ति, मि. प. 257. 1.69; - य तृ. वि., ए. व. - इद्धिविधायाति इद्धिकोडासाय इद्धिलाम पु., तत्पु. स. [ऋद्धिलाभ], ऋद्धियों की प्राप्ति - इद्धिविकप्पाय वा, विसुद्धि. 2.12; - धस्स नपुं., ष. वि., भाय च. वि., ए. व. - ... मग्गो या पटिपदा इद्धिलाभाय ए. व. - इद्धिविधस्स ... लाभीम्ही ति वदतोपि पाराजिक इद्धिपटिलाभाय संवत्तति-अयं वच्चति भिक्खवे इद्धिपादो, नत्थी ति, पारा. अट्ठ. 2.78; -धे नपुं., सप्त. वि., ए. व. स. नि. 3(2).348; इद्धिया इमे चत्तारो पादा इद्धिलाभाय - इज्झनटे पा इद्धिविधे आणं पटि. म. 3; स. प. के इद्धिपटिलाभाय ... इद्धिवेसारज्जाय संवत्तन्तीति, पटि. म. रूप में, - चतुत्थज्झानसमाधिस्मि ... इद्धिविधादिधम्मा 376; इद्धिलाभायाति अत्तनो सन्ताने पातुभाववसेन इद्धीनं इज्झन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.115; - ञाण नपुं, कर्म. स., लाभाय, पटि. म. अट्ठ. 2.245. ऋद्धि के विविध प्रभेदों का ज्ञान, भिन्न भिन्न ऋद्धियों का इद्धिवड्डननामधेय्य त्रि., ब. स., ऋद्धिवर्धन नाम वाला ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - सुपरिकम्मकतमत्तिकादयो (एक राजप्रासाद), स. प. के अन्त., - वुद्धिप्पत्तो विय इद्धिविधञाणं दट्ठब्ब, दी. नि. अट्ट, 1.180; - णाय सिरिवड्डनसोमवड्वनइद्धिवड्वननामधेय्येसु तीसु पासादेसु ..., च. वि., ए. व. - सो तथाभावितेन चित्तेन ... बु. वं. अट्ठ. 175. इद्धिविधञाणाय चित्तं अभिनीहरति, पटि. म. 102; इद्धिवसीभाव पु., तत्पु. स., ऋद्धियों को अपने वश में कर इद्धिविधञाणायाति इद्धिकोट्ठासे, इद्धिविकप्पे वा आणत्थाय, लेना, ऋद्धियों पर आधिपत्य या प्रभुत्व – वाय च. वि., पटि. म. अट्ट, 1.278; - निद्देस पु., विसुद्धि के बारहवें ए. व. - इद्धिवसीभावायाति इद्धिया इस्सरभावाय, पटि. म. अध्याय का शीर्षक, जिसमें बुद्धघोषाचार्य ने ऋद्धियों का अट्ठ.2.245. विवेचन किया है, विसुद्धि. 2.1-56. इद्धिविकुब्बन नपुं., [बौ. सं. ऋद्धिविकुर्वण], ऋद्धि का इद्धिविलास पु., तत्पु. स., ऋद्धियों का ललित अथवा विविध रूप से प्रदर्शन - नं प्र. वि., ए. व. - किमेतं मनोहर रूप में प्रदर्शन, ऋद्धि का शानदार या भव्य अच्छरियं लोके, यं मे इद्धिविकुब्बन, बु. वं. (पृ.) 292; - प्रदर्शन - सेन तृ. वि., ए. व. - इद्धिविलासेन विलासेन्तो, नं द्वि. वि., ए. व. - ... आकासं उप्पतित्वा इद्धिविकुब्बनं बु. वं. अट्ठ. 58. दस्सेत्वा ..., अ. नि. अट्ट, 1.228; – ने सप्त. वि., ए. व. इद्धिविसय पु., तत्पु. स. [ऋद्धि-विषय], ऋद्धि का क्षेत्र - - अरहत्तफलेन सद्धियेव च इद्धिविकुब्बने चिण्णवसी ये सप्त. वि., ए. व. - "अनापत्ति भिक्खवे इद्धिमस्स अहोसि, अ. नि. अट्ठ. 1.265; - ता स्त्री., भाव., इद्धिविसयेति, पारा. 80; इद्धिविसयेति ईदिसाय ऋद्धियों के प्रदर्शन की अवस्था या शक्ति, ऋद्धियों का अधिवानिद्धिया अनापत्ति, पारा. अट्ठ. 1.315; - यो प्र. विविध रूप से प्रदर्शन करना - य तृ. वि., ए. व. - वि., ए. व. - इद्धिमतो इद्धिविसयो नाम अचिन्तेय्यो, म. इद्धिविकुब्बनतायाति इद्धिया विविधकरणभावाय, पटि. म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.61; - या ब. व. - न पन सक्कते अट्ठ. 2.245. मरणस्स ... इद्धिमन्तानं इद्धिविसया, नेत्ति. 21. इद्धिविधञाण नपुं, तत्पु. स., ऋद्धि-विषयक ज्ञान, ऋद्धि इद्धिविसविता स्त्री., [ऋद्धिविषयिता], 1. ऋद्धियों पर के रूप में अथवा ऋद्धि-शीर्षक में प्राप्त ज्ञान - णाय च. स्वामित्व अथवा प्रभुत्व, ऋद्धियों को अपने विषयक्षेत्र में ले वि., ए. व. - इद्धिविधञाणाय चित्तं अभिनीहरति आना, 2. ऋद्धियों की विविध रूप में प्रवृत्ति – य तृ. वि., अभिनिन्नामेति, पटि. म. 102; इद्धिविधञाणायाति इद्धिकोडासे, ए. व. - चत्तारो इद्धिपादा पञ्जत्ता इद्धिपहुताय इद्धिविकप्पे वा आणत्थाय, पटि. म. अट्ट, 1.278. इद्धिविसविताय इद्धिविकुब्बनताय, दी. नि. 2.157; इद्धिविधा स्त्री./न, [ऋद्धिविधा], ऋद्धियों के भेद, इद्धिविसवितायाति इद्धिविपज्जनभावाय पनप्पनं आसेवनवसेन ऋद्धियों के प्रकार, ऋद्धियों के खण्ड या भाग, ऋद्धि की चिण्णवसितायाति, दी. नि. अट्ठ. 2210; इद्धिविसवितायाति For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इद्धिवेसारज्ज 331 विविधं विसेसं सवति जनेति पवत्तेतीति विसवी, ... तस्स भावो विसविता, पटि. म. अट्ठ. 2.245. इद्धिवेसारज्ज नपुं., तत्पु. स. [ऋद्धिवैशारद्य], ऋद्धि के विषय में निपुणता या वैशारद्य - ज्जाय च. वि., ए. व. - इद्धिया इमे चत्तारो पादा इद्धिलाभाय ... इद्धिवेसारज्जाय संवत्तन्तीति, पटि. म. 376. इध' निपा., [इह], यहां, इधर, इधर-उधर, यहां पृथ्वी पर, इस लोक या संसार में, इस बुद्धधर्म में - (देसापदेसो निपातो), इध, तथागतो लोके उप्पज्जति, दी. नि. 1.55; दी. नि. अट्ठ. 1.142; इधेव तिट्ठमानस्स, देवभूतस्स मे सतो, दी. नि. 2.211; इध हिस्सामि जीवितं, जा. अट्ट. 4.372; - पञा स्त्री., इस बुद्धधर्मदेसना के विषय में अन्तर्दृष्टि - इमस्मि सासने पा इधपा नाम, सासनचरिताय अरियपाय ठितस्स अरियसावकस्साति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 3.339; - सद्द पु., इध शब्द -- हो प्र. वि., ए. व. - अयव्हेत्थ इधसद्दो..., पारा. अट्ट. 2.10. इध' पु., ईंधन, समिधा – धो प्र. वि., ए. व. - समिधा इधुमं चेधो, अभि. प. 36; एधयतीति इधो, अभि. प. टी. 36. इधट्ट त्रि., इस लोक में स्थित - स्स पु., ष. वि., ए. व. --- इधहस्साति इमस्मिं लोके ठितस्स, पटि. म. अट्ठ. 1.248; - क त्रि., इसी लोक में अथवा इसी कामभव में स्थित - को पु., प्र. वि., ए. व. - इध कामभवे ठितो इधट्ठको, नेत्ति. टी. 139. इधत्थ' त्रि., ब. स., इसी लोक के कामसुखों को अपना प्राप्तव्य मानने वाला (व्यक्ति) - त्थं पु., द्वि. वि., ए. व. -- तिद्वन्तमेनं जानातीति भगवा इधत्थ व जानाति, चूळनि. इधलोकभावी त्रि., इसी लोक में घटित होने वाला, सामने स्वयं देखा जा सकने वाला - विनी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सन्दिट्टिकाति सामं पस्सितब्बा, इधलोकभाविनी, दी. नि. अट्ठ. 3.116. इधलोकविजय पु., इस लोक पर विजय – याय च. वि., ए. व. - नवमे इधलोकविजयायाति इधलोकविजिननत्थाय अभिभवत्थाय, अ. नि. टी. 3.223. इधलोकिकसुत्त नपुं., व्य. सं., अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 3(1).98-102. इधुम नपुं., [इंधन], अग्निकाष्ठ, इन्धन, यज्ञ में काम आने वाली समिधा, जलाऊ लकड़ी - मं प्र. वि., ए. व. -- समिधा इधुमं चेधो उपादानं तथेन्धनं, अभि. प. 36%3; एधयतीति इधुमं, अभि. प. टी. 36. इनन्दपद पु., व्य. सं., दक्षिण भारत के उच्चकुट्ट नामक एक क्षेत्र के तमिलप्रधान का नाम -इनन्दपदनामं च तोण्डमानं अथापरं चू. वं. 77.74. इनप्पच्चय पु., व्याकरण में ही प्रयुक्त, इन प्रत्यय (जिन तथा सुपिन शब्दों में दृष्टिगत)- यो प्र. वि., ए. व. - जि इच्चेताय धातुया इनप्पच्चयो होति सब्बकाले कत्तरि, क. व्या. 560; सुप इच्चेताय धातुया इनप्पच्चयो होति कत्तरि भावे च, क. व्या. 561. इन्द पु... [इन्द्र], 1. शा. अ., देवों के राजा का नाम, तावतिंस स्वर्ग का शासक, ब्रह्मा को छोड़कर देवों के बीच सर्वाधिक प्रसिद्ध देव, दूसरा प्रसिद्ध नाम शक्र, अट्ठारह अन्य नाम भी उल्लिखित - सक्को पुरिन्ददो देवराजा वजिरपाणि च, सुजम्पति सहस्सक्खो महिन्दो वजिरावुधो वासवो च दससतनयनो तिदिवाधिभू सुरनाथो च वजिरहत्थो च भूतपत्यपि मघवा केसियो इन्दो वत्रभू पाकसासनो विडोजा, अभि. प. 18-20; - दो प्र. वि., ए. व. - इन्दोति सक्को देवराजा, थेरगा. अट्ठ. 2.193; अपि च इन्दोति सक्को , सद्द. 2.378; सचे च में रक्खति देवराजा, देवानमिन्दो मघवा सुजम्पति, जा. अट्ठ. 3.126; 2. ला. अ., अपने समूह में प्रथम अथवा श्रेष्ठ, अधिपति, राजा, परम-ऐश्वर्य-सम्पन्न व्यक्ति - इन्दोधिपतिसक्केसु, अभि. प. 1132; एत्थ इन्दोति अधिपतिभूतो यो कोचि सो हि इन्दति परेसु इस्सरियं पापुणातीति इन्दो ति वुच्चति अपि च इन्दो ति सक्को, सद्द. 2.377-78; अपिच इन्दो भगवा धम्मिस्सरो परमेन चित्तिस्सरियेन समन्नागतो, इति. अट्ठ. 183; सहस्सनेत्तो तिदसानमिन्दो, जा. अट्ठ. 5.404; सक्कोहमस्मी 153. इधत्थ' पु., कर्म. स., इसी दिखलाई दे रहे लोक का प्रयोजन, इसी लोक का हित - त्थो प्र. वि., ए. व. - इधत्थोति दिट्ठधम्महितं, लीन. (दी. नि. टी.) 1.165. इधलोकत्थ पु., तत्पु. स., इसी लोक का निर्माण करने वाला पञ्च-स्कन्ध-नामक अर्थ या सारतत्त्व, पांच स्कन्धों के रूप में यह लोक - त्थं द्वि. वि., ए. व. - इधलोकत्थन्ति इधलोकभूतं खन्धपञ्चकसङ्घातमत्थं, लीन. (दी. नि. टी.) 263. इधलोकनिस्सित त्रि., तत्पु. स., इसी लोक पर आधारित - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - न च मे इधलोकनिस्सितं विआणं भविस्सति, म. नि. 3.313. For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दक 332 इन्दखीलक तिदसानमिन्दोति, जा. अट्ठ. 3.266; स. उ. प. के रूप में, अमरि०, असुरि. उरगि., कवि., कुजि., गजि., जिन., तिदसि., दिजि., दिपदि०, दुमि., देवि., नागि०, पन्नगि., भुजगि., भूमि, भोगि., मनुजि., मनुस्सि., महि., मिगि., मुनि., रवि., लङ्कि, वानरि., समणि., सीहलि., सुगति... सुरासुरि., सुरि., सेनि. के अन्त. द्रष्ट., 3. व्य. सं., क. चार लोकपालों में से प्रत्येक के इक्यानवे पुत्रों का नामनामा त्रि., ब. स., पु., प्र. वि., ब. व., इन्द्र नाम वाले - "पुत्तापि तस्स बहवो इन्दनामा महब्बला, दी. नि. 2.188%; ... इन्दनामा महब्बलाति... सक्कस्स देवरुओ नामधारका, दी. नि. अट्ठ. 2.250; इन्दनामाति इन्दोति एवंनामा दी. नि. अट्ठ. 3.132; 3.ख. पूर्वकल्प के तीन चक्रवर्तियों का नाम - मा पु., ब. स., प्र. वि., ब. व. - “तेसत्ततिम्हितो कप्पे, इन्दनामा तयो जना, अप. 1.52; इन्दनामा तयो जनाति इन्दनामका तयो चक्कवत्तिराजानो एकस्मिं कप्पे तीसु जातीसु इन्दो नाम चक्कवत्ती राजा अहोसिन्ति अत्थो, अप. अट्ठ.2.3. इन्दक' त्रि., इन्द से व्यु., स. उ. प. में ही प्राप्त - स. .... का पु.. प्र. वि., ब. व., इन्द्रसहित – भिक्खुं सइन्दकादेवा ... नमस्सन्ति, स. नि. 2(1).84 - सहि.-का पु.. प्र. वि., ब. व. - तावतिंसा सहिन्दका, दी. नि. 2.163; - के द्वि. वि., ब. व. - सब्बेपि सइन्दके सब्रह्मके च देवे दस्सेन्तो, जा. अट्ठ. 5.270. इन्दक' पु., व्य. सं., क. एक यक्ष का नाम, इन्द्रकूटनिवासी एक यक्ष - स्स ष. वि., ए. व. - इन्दकस्स यक्खस्स भवने, स. नि. 1(1).238; इन्दकस्साति इन्दकुटनिवासिनो यक्खस्स, स. नि. अट्ठ. 1.263; ख. त्रायस्त्रिंस (स्वर्ग) में दुबारा उत्पन्न एक माणव का नाम - को प्र. वि., ए. व. - इन्दको अतिरोचति, पे. व. 315; अयं सो इन्दको यक्खो, ध. प. अट्ठ. 2.126. इन्दकसुत्त नपुं, स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).238. इन्दकूट पु.. व्य. सं. [इन्द्रकूट], राजगृह के समीप में स्थित एक पर्वत का नाम-टे सप्त. वि., ए. व. - भगवा राजगहे विहरति इन्दकूटे पब्बते, स. नि. 1(1).238; - निवासी पु.. [इन्द्रकूटनिवासी], इन्द्रकूट पर्वत पर निवास करने वाला - नो ष. वि., ए. व. - इन्दकस्साति इन्दकूटनिवासिनो यक्खस्स, स. नि. अट्ठ. 1.263. इन्दकेतु पु., [इन्द्रकेतु]. शा. अ., इन्द्र का ध्वज, इन्द्र की पताका, ला. अ., इन्द्रधनुष - तु प्र. वि., ए. व. - उच्चत्तनेन सो बुद्धो, असीतिहत्थमग्गतो, ओभासेति दिसा सब्बा, इन्दकेतुव उग्गतो, बु. वं. 7.24. इन्दखिलुपम त्रि., ब. स., शा. अ., प्रवेशद्वार या देहली पर गाड़े गए खूटे या स्तम्भ के समान (अडिग, अविचल), ला. अ., किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया से रहित, समभाव में स्थित -- मो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्दखिलुपमो तादि सुब्बतो, ध. प. 95; ... अथ खो पथविसमो च इन्दखिलुपमो एव च होति,ध. प. अट्ठ. 1.349; पाठा. इन्दखीलुपम(बर्मी.). इन्दखील पु., [बौ. सं., इन्द्रकील], शा. अ., नगरद्वार पर गाड़ा गया इन्द्र का खूटा अथवा प्रस्तर-खण्ड, ला. अ. 1. नगरद्वार की सुरक्षा के लिए देहली के मध्य में पृथ्वी के नीचे आठ या दस हाथ खोदकर गाड़ा हुआ लकड़ी या लोहे का अकम्प्य स्तम्भ या खूटा - लो प्र. वि., ए. व. - एसिका इन्दखीलो च, अभि. प. 204; इन्दखीलोति नगरद्वारविनिवारणत्थं उम्मारमन्तरे अट्ट वा दस वा हत्थे पथविं खणित्वा आकोटितस्स सारदारुमय थम्भस्सेतं अधिवचनं, खु. पा. अट्ठ. 147; इन्दखीलो वा अयोखीलो ... असम्पवेधी, दी. नि. 3.99; - लं द्वि. वि., ए. व. - यथा नाम नगरद्वारे निखातं इन्दखीलंदारकादयो ओमुत्तेन्तिपि ऊहदन्तिपि, ध. प. अट्ठ. 1.349; - ले सप्त. वि., ए. व. - इन्दखीले ठितस्साति यस्स गामस्स ... इन्दखीला... तस्स ... इन्दखीले ठितस्स, पारा. अट्ठ. 1.239; - ला प. वि., ब. व. - निक्खमित्वा बहि इन्दखीला सब्बमेतं अरशं पटि. म. 168; - स्स ष. वि., ए. व. - इन्दखीलस्स द्वे अङ्गानि गहेतब्बानि, मि. प. 330; ला. अ. 2. देहली, प्रवेश-द्वार - ले सप्त. वि., ए. व. - गामूपचारो नाम परिक्खित्तस्स गामरस इन्दखीले ठितस्स मज्झिमस्स पुरिसस्स लेड्डुपातो, पारा. 52; इन्दखीले ठितस्साति यस्स गामस्स अनुराधपुरस्सेव द्वे इन्दखीला, तस्स अब्भन्तरिमे इन्दखीले ठितस्स, पारा. अट्ट, 1.239; - ला' प्र. वि., ब. व. - इन्दखीलाति उम्मारा, विसुद्धि. महाटी. 1.91; - ला प. वि., ए. व. - "अरञान्ति निक्खमित्वा बहि इन्दखीला सब्बमेतं अरज विभ. 281. इन्दखीलक पु.. नगर या ग्राम का प्रवेशद्वार – तो प. वि., ए. व. - इन्दखीलकतो अन्तो, गच्छतो होति दुक्कट, विन. वि. 1884; इन्दखीलकतो अन्तोति गामद्वारिन्दखीलतो अन्तो, घरेति वुत्तं होति, विन. वि. टी. 2.10. For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दखीलसुत्त 333 इन्दजाल इन्दखीलसुत्त नपुं.. व्य. सं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 3(2).505. इन्दगज्जित नपुं.. [इन्द्रगर्जित], इन्द्र का गर्जन, इन्द्र की दहाड़ - तं द्वि. वि., ए. व. - गज्जन्तो इन्दगज्जितं, मि. प. 18. इन्दगु/हिन्दगू/इन्दगू पु., [इन्द्रगू?], सत्त्व, नर, मनुष्य, इन्द्रिय एवं कर्म के द्वारा गमन करने वाला - गु प्र. वि., ए. व. - मच्चोति सत्तो नरो मानवो पोसो पुग्गलो जीवो जागु, जन्तु इन्दगु, मनुजो, महानि. 3; इन्द्रियेन गच्छतीति इन्दगु, महानि. अट्ट. 21; इन्द्रियेन गच्छतीति इन्दगू अथ वा इन्दभूतेन कम्मुना गच्छतीति इन्दगू इन्दगू ति पि पाळी, तत्थ हिन्दन्ति मरणं, तं मरणं गच्छतीति हिन्दग, सद्द. 2.466. इन्दगुत्त पु., व्य. सं., 1. अशोक-कालीन एक स्थविर (थेर) का नाम - स्स ष. वि., ए. व. --- थेरस्स इन्दगुत्तस्स कम्माधिट्ठायकस्स तु. म. वं. 5.174; 2. दुट्ठगामनि के समय के राजगृह का एक स्थविर - त्तो प्र. वि., ए. व. - राजगहस्स सामन्ता इन्दगुत्तो महागणी, म. वं. 29.30; 3. दुट्ठगामनि के ही समय का एक सिंहली भिक्षु - इन्दगुत्तो महाथेरो छळभिओ महामति, म. वं. 30.98; - थेर पु., कर्म. स., स्थविर इन्दगुत्त - रो प्र. वि., ए. व. -- सो इन्दगुत्तथेरो तु मारस्स पटिबाहनं, म. वं. 31.85; - रं द्वि. वि., ए. व. - इन्दगुत्तत्थेरं नाम महिद्धिकं महानुभावं ..... अदासि, पारा. अट्ट. 1.35. इन्दगोपक पु.. [इन्द्रगोपक], 1. एक प्रकार का बरसाती कीड़ा जो लाल रंग का होता है, लाल मखमल के समान रंग-रूप वाला बरसाती कीड़ा, गिंजाई, ग्वालिन, बीर-बहूटी या इन्द्रवधू-नामक एक बरसाती कीड़ा - को प्र. वि., ए. व. - कुटिका अभिरूपा ... सेय्यथापि इन्दगोपको, पारा. 48; - का प्र. वि., ब. व. - नववुवाय भूमिया बहू इन्दगोपका उडहिंसु.ध. प. अट्ठ. 1.12; - पिट्ठिसदिसवण्ण त्रि., ब. स., इन्द्रगोप की पीठ के समान लाल वर्ण वाला। - पणे हि नपु., तृ. वि., ब. व. - इन्दगोपकपिडिसदिसवण्णेहि नीचतिण्णेहि समन्नागता, जा. अट्ठ. 5.162; - वण्ण 1. पु., तत्पु. स., बीरबहूटी का रंग या वर्ण - ण्णो प्र. वि., ए. व. - लोहितको च वण्णोति इन्दगोपकवण्णो, महानि. अट्ठ. 305; 2. त्रि.. ब. स., बीरबधूटी के वर्ण के समान लाल रंग वाला - ण्णं नपुं, द्वि. वि., ए. व. - इन्दगोपकवण्णं पटं पारुपित्वा, जा. अट्ट. 4.167; - वण्णाभ त्रि., ब. स., इन्द्रगोपक के वर्ण की आभा वाला - भो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्दगोपकवण्णाभो, यस्स लोहितको सिरो, जा. अट्ठ.7.28%; - भा प्र. वि., ब. व. - इन्दगोपकवण्णाभा ताव दिस्सन्ति तिसति, जा. अट्ठ. 7.172; - सञ्छन्न त्रि०, तत्पु. स., वर्षाकाल में उत्पन्न मूंगा के रंग के समान रक्तवर्णकीट इन्द्रगोपकों से ढका हुआ या आवृत्त, लाल रंग की घास द्वारा ढका हुआ - न्ना पु., प्र. वि., ब. व. - इन्दगोपकसञ्छन्ना, ते सेला रमयन्ति मन्ति, थेरगा. 13; इन्दगोपकसञ्छन्नाति... इन्दगोपकनामकेहि पवाळवण्णेहि रत्तकिमीहि सञ्छादिता ..., थेरगा. अट्ठ. 1.61; तत्थ इन्दगोपक सञ्छन्नाति इन्दगोपकवण्णाय रत्ताय सखसम्फस्साय तिणजातिया सञ्छन्ना, जा. अट्ठ. 4.230; - नं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इन्दगोपकसञ्छन्नं न रज्जस्स सरिस्ससि, जा. अट्ट. 7.249; - सम/समान त्रि., इन्द्रगोपक नाम वाले रक्तिम कीट के समान (लाल)नानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - अक्खिकूटानि भगवतो लोहितकानि होन्ति सुलोहितकानि पासादिकानि दस्सनेय्यानि इन्दगोपकसमानानि, महानि. 261; 2. लालरंग की घास अथवा कण्डीर वृक्ष - केचि पन “इन्दगोपकनामानि रत्ततिणानीति वदन्ति, अपरे “कणिकाररुक्खा ति, थेरगा. अट्ठ. 1.61;. इन्दग्गि पु., [इन्द्राग्नि], शा. अ., इन्द्र की अग्नि, ला. अ., आकाशीय विद्युत्, बिजली, वज्रपात - ग्गि प्र. वि., ए. व. - सङ्कारग्गि इन्दग्गि अग्गिसन्तापो सरियसन्तापो, विभ. 93; इन्दग्गीति असनिअग्गि, विभ. अट्ठ. 65; - नो ष. वि., ब. व. - गच्छन्तस्स इन्दग्गिनो गतमग्गो विय होति, अ. नि. अट्ठ. 2.73; - ना तृ. वि... ए. व. - झापिताति इन्दग्गिना विय रुक्खगच्छादयो अरियमग्गजाणग्गिना समूलं दड्डा, थेरगा. अट्ठ. 1.162. इन्दचाप पु., तत्पु. स., इन्द्र-धनुष - पेहि त. वि., ब. व. - इन्दचापेहि विज्जुलताहि च परिक्खित्तं, सारत्थ. टी. 1.112; - कलाप पु., इन्द्रधनुषों का समुच्चय, अनेक इन्द्रधनुष – पेन तृ. वि., ए. व. - इन्दचापकलापेन सोभेन्तो गगनङ्गणं, चू, वं. 74.228. इन्दजाल पु., [इन्द्रजाल], जादू-टोना, माया, सम्मोहनविमोहन, छल-वञ्चना - लेन तृ. वि., ए. व. - एकच्चे पन इन्दजालेन अष्टिधोवनं दी. नि. अट्ठ. 1.77; इन्दजालेनाति For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दजालिक 334 इन्दनाम महानि. 52; इन्दत्ताय वाति सक्कभावाय, महानि. अट्ठ. 159. अद्विधोवनमन्तं परिजप्पित्वा ... पस्सन्ति, दी. नि. टी. 1. 113. इन्दजालिक पु., [इन्द्रजालिक], जादूगर, बाजीगर, ऐन्द्रजालिक, मायाकारी, इन्द्रजाली, छली, धोखेबाज - को प्र. वि., ए. व. - मायाकारो तु इन्द्रजालिको, अभि. प. 512; - का प्र. वि., ब. व. - नच्चका लङ्घका इन्दजालिका वेतालिका मल्ला, मि. प. 301. इन्दजट त्रि., केवल 'इन्द्रिय' शब्द के निर्वचनक्रम में ही प्रयुक्त [इन्द्रजुष्ट], अधिपति, भावना के द्वारा भावित या सेवित - वो पु.. प्र. वि., ए. व. - इन्दजुट्ठो इन्द्रियट्ठो, विसुद्धि. 2.118; विभ. अट्ठ. 118; - द्वेन तृ. वि., ए. व. -- ... कानिचि भावनासेवनाय सेवितानीति इन्दजट्वेनापि इन्द्रियानि, विसुद्धि. 2.119; विभ. अट्ठ. 118. इन्दजेट्ठक त्रि., ब. स. [इन्द्रज्येष्ठक], इन्द्र की प्रधानता में रहने वाला, इन्द्र की अधीनता में रहने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - इन्दजेट्टका तावतिंसापि देवा ते दानं अनुमोदन्तीति, जा. अट्ठ. 7.345. इन्दट्ठ पु., तत्पु. स., 'इन्द्रिय' शब्द के निर्वचन-क्रम में प्रयुक्त [इन्द्रार्थ]. आधिपत्य का अर्थ, आधिपत्य का प्रयोग, अधिपति के रूप में कार्य - 8 द्वि. वि., ए. व. - चक्खुद्वारे इन्द8 कारेतीति चक्खुन्द्रियं..., इत्थिभावे इन्द8 कारेतीति इत्थिन्द्रियं विभ. अट्ठ. 117; इन्द8 करोतीति, स. नि. अट्ठ. 3.265. इन्दट्ठकरण नपुं.. तत्पु. स. [इन्द्रार्थकरण], आधिपत्य स्थापित करना - णेन तृ. वि., ए. व. - समाधि पन झानक्खणे सम्पयुत्तधम्मानं अविक्खेपलक्खणे इन्दट्ठकरणेन सातिसयं पच्चयो होति. सारत्थ. टी. 1.320; विसुद्धि. टी. 1.170. इन्दति ।इन्द का वर्त., प्र. पु., ए. व. [Vइन्द, इन्दति, इदि परमैश्वर्य], अधिपति के रूप में शासन करता है, दूसरों पर परमैश्वर्य प्राप्त करता है, परम ऐश्वर्य से युक्त है - इन्दति परेसु इस्सरियं पापुणातीति इन्दोति वुच्चति, सद्द. 2.377-78; इन्दतीति इन्दो, ध. स. अनु. टी. 31; इन्दति परमिस्सरियं करोतीति इन्दो, अभि. प. सूची 47(रो.); - न्ति प्र. पु., ब. व. - इमस्मिं च अत्थे इन्दन्ति परिमिस्सरियं करोन्तिच्चेव इन्द्रियानि, विसुद्धि. महाटी. 2.174. इन्दत्त नपुं., इन्द का भाव. [इन्द्रत्व], इन्द्र का भाव, आधिपत्यभाव, महाधिपतित्व -- त्ताय च. वि., ए. व. - महाराजत्ताय वा इन्दत्ताय वा ब्रह्मत्ताय वा देवत्ताय वा, इन्दत्तन नपुं., उपरिवत् - नं प्र. वि., ए. व. - वलं रज्ज इन्दत्तनं भोगो बुद्धरूपादिका पि च, सद्धम्मो. 234. इन्ददिट्ठ त्रि., तत्पु. स. [इन्द्रदृष्ट], इन्द्र के द्वारा देखा गया, अधिपति द्वारा देखा गया, बुद्ध द्वारा साक्षात्कृत - ट्ठ पु., इन्द्र या अधिपति द्वारा देखे जाने का अर्थ - हो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्ददिह्रो इन्द्रियट्ठो, विसुद्धि. 2. 118; - द्वेन तृ. वि., ए. व. - अभिसम्बुद्धानि चाति इन्ददेसितढेन इन्ददिठ्ठद्वेन च इन्द्रियानि, विभ. अट्ठ. 118; सब्बानेव पनेतानि भगवता यथाभूततो पकासितानि अभिसम्बुद्धानि चाति इन्ददेसितढेन इन्ददिठ्ठद्वेन च इन्द्रियानि, विसुद्धि. 2.119. इन्ददेसित त्रि., तत्पु. स., इन्द्र अर्थात् बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट, अधिपति (बुद्ध) के द्वारा व्याकृत या प्रतिपादित - तट्ठो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्ददेसित_ो इन्द्रियट्ठो, विसुद्धि. 2.118; विभ. अट्ठ. 118. इन्दद्वार नपुं., श्रीलंका के पुलत्थिपुर (वर्तमान पोलन्नरुव) के एक द्वार का नाम - रं प्र. वि., ए. व. - हत्थिद्वारं विसालं च इन्दद्वारं पुनापरं चू. वं. 73.160. इन्दधज पु., तत्पु. स. [इन्द्रध्वज], इन्द्रध्वज, इन्द्र की ध्वजा या पताका - जो प्र. वि., ए. व. - इन्दधजो समस्सयटेन दस्सनीयद्वेन च तवं धजो वियाति धजोति, बु. वं. अट्ठ. 49. इन्दधनु नपुं., [इन्द्रधनुष], इन्द्रधनुष - नु प्र. वि., ए. व. - इन्दावुधं इन्दधनु, अभि. प. 49; स. प. के अन्त., - इन्दधनुपरिवुतमिव दिवसकर मुनिदिवसकर, बु. वं. अट्ठ. 291; चन्दोभाससूरियोभाससञ्झारागइन्दधनुतारकरूपान पभासवण्णा, स. नि. अट्ठ. 1.113. इन्दन नपुं., Vइन्द से व्यु., क्रि. ना., अधिपति के रूप में कार्य करना - Vइदि परमिस्सरिये, इन्दति, इन्दनं इन्दो, सद्द. 2.377. इन्दनगरीतुल्य त्रि., [इन्द्रनगरीतुल्य], इन्द्र की नगरी जैसा, इन्द्रपुरी के समान - यं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - चम्पापुरि कारापेसि तथा तं इन्दनगरीतुल्यं, चू. वं. 88. 121. इन्दनाम त्रि., ब. स. [इन्द्रनाम], इन्द्र के नाम वाला - मा पु., प्र. वि., ब. व. - इन्दनामा महब्बलाति ... ते सब्बे सक्कस्स देवरो नामधारका, दी. नि. अट्ठ. 2.250. For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दनील 335 इन्दपत्त/इन्दपत्थ इन्दनील पु./नपुं.. [इन्द्रनील], इन्द्रनीलमणि, बहुमूल्य मणि, उदान उट्ठकथा में वर्णित चौबीस बहुमूल्य मणियों में से एक - लो पु., प्र. वि., ए. व. - वजिरो, महानीलो, इन्दनीलो, मरकतो, उदा. अट्ठ. 81; बहुविधा मणयो होन्ति सेय्यथीद, इन्दनीलो महानीलो जोतिरसो वेळुरियो उम्मापुप्फो, मि. प. 124; - लं द्वि. वि., ए. व. - इन्दनील महानील, अथो जोतिरसं मणिं एकतो सन्निपातेत्वा बुद्धथूपं अछादयु अप. 1.68; - लद्दि-कूट नपुं., तत्पु. स. [अद्रिकूट], इन्द्रनील-नामक पर्वत का शिखर, इन्द्रनील पर्वत की चोटी – टं द्वि. वि., ए. व. - राजायतनपादपं इन्दनीलद्दिकूट व गहेत्वा गहेत्वा दट्ठमानसो, दा. वं. 2.13(रो.); - इट्ठका स्त्री., [इन्द्रनीलेष्टिका], इन्द्रनील मणि की ईंट या खपड़ा - हि तृ. वि., ब. व. - इन्दनीलइट्ठकाहि छदन, दी. नि. अट्ठ. 2.216; - थूप पु., [इन्द्रनीलस्तूप], इन्द्रनील मणि से निर्मित स्तूप -- पेन तृ. वि., ए. व. – सो इन्दनीलथूपेन पिदहेसि नमस्सि च, म. वं. 1.36; - मय त्रि., इन्द्रनीलमणि से निर्मित या बनाया हुआ - या' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा इन्दनीलमया होति, दी. नि. अट्ठ. 2.187; - या पु., प्र. वि., ब. व. - तस्सा इन्दनीलमया तयो कूपका, जा. अट्ठ. 4.19. इन्दनीलमणि पु., [इन्द्रनीलमणि], नीलम, नीलमणि, इन्द्रनीलमणि - णि प्र. वि., ए. व. - काकगीवा विय इन्दनीलमणि... समन्नागतत्ता, दी. नि. अट्ट. 2.194; - णयो ब. क. - ततो अधिकवण्णता महामणि इन्दनीलमणयो .... जोतिरसमणिजातिरङ्गमणयो, अप. अट्ठ. 2.291; - तल नपुं., नीलमणि के द्वारा विनिर्मित या बनाया हुआ तल या गच, इन्द्रनीलमणि से बना कुट्टिम या फर्श - ले सप्त. वि., ए. व. - चक्कवत्तिपरिसा नाम ... गच्छमाना इन्दनीलमणितले ... होति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.161; - प्पभा स्त्री., [इन्द्रनीलमणिप्रभा], नीलम या नीलमणि की कान्ति या दीप्ति, देदीप्यमान नीलवर्ण - जालं त्रि., वि. वि., ए. व., नीलमणि की कान्ति जैसी प्रभा से देदीप्यमान - सो नागराजा राजहंसो विय इन्दनीलमणिप्पभाजालं नीलगगनतलं अभिलङ्घति, दी. नि. अट्ठ. 2.194; - भूमि स्त्री., [भूमि], नीलम से बनाया हुआ फर्श या गच - यं सप्त. वि., ए. व. - सो इन्दनीलमणिभूमियं पतिहितो, थू. वं. 232(रो.); - वण्ण त्रि., ब. स. [इन्द्रनीलमणिवर्ण], नीलम के रंग वाला, नीलमणि के रंग वाला - ण्णो पु०, प्र. वि., ए. व. - एवंरूपोतिआदीसु काळोपि समानो इन्दनीलमणिवण्णो अहोसिन्ति ... अहोसिं. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.177; - ण्णं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इन्दनीलमणिवण्णं सेलमयं पत्तं इत्थद्वयमज्झं आगच्छति, सु. नि. अट्ठ. 1.110; - सङ्कास त्रि., ब. स. [इन्द्रनीलमणिसङ्काश], नीलम के समान, नीलमणि के सदृश - से सप्त. वि., ए. व. - इन्दनीलमणिसङ्कासे आकासे नानप्पकारा, थू. वं. 150(रो.); - सदिस त्रि., [इन्द्रनीलमणिसदक], इन्द्रनीलमणि के समान या सदृश - सं पु., द्वि. वि., ए. व. - इन्दनीलमणिसदिसं आकासे नानप्पकारा, बु. वं. अट्ट. 100. इन्दपटिमा स्त्री., तत्पु. स. [इन्द्रप्रतिमा]. इन्द्र की प्रतिमा या मूर्ति - मा/यो द्वि. वि., ब. व. - परिवारेत्वा ठिता इन्दपटिमा दस्सेसि, जा. अट्ठ. 6.151; देवनगरद्वारेसु वजिरहत्था इन्दपटिमा ठपेसि, ध. प. अट्ठ. 1.1583; इन्दपटिमायो दिस्वा निवत्तित्वा असुरपुरमेव गच्छन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.279; - नं ष. वि., ब. व. - तासञ्च पन इन्दपटिमानं आरक्खणत्थाय ठपितभावो, जा. अट्ट, 6.151. इन्दपत्त/इन्दपत्थ नपुं.. व्य. सं. [इन्द्रप्रस्थ], क. इन्द्रप्रस्थ नाम का नगर, प्राचीन भारत का एक नगर, कुरुराष्ट्र का एक सुप्रसिद्ध नगर, कुरुवंशी राजा धनंजय की राजधानी - तं/त्थं प्र. वि., ए. व. - साकेत, इन्दपत्तं, चोक्कट्ठा पाटलिपुत्तक, अभि. प. 201; सो आग्गमा नगरमिन्दपत्थं .... कुरूनं, जा. अट्ठ. 7.164; - ते सप्त. वि., ए. व. - उत्तरपञ्चाले इन्दपत्ते, जा. अट्ठ. 2.179; - नगर नपुं., इन्द्रप्रस्थ नाम का नगर - रे सप्त. वि., ए. व. - कुरुरडे इन्दपत्थनगरे धनञ्चयकोरब्यो नाम राजा रज्जं कारेसि, जा. अट्ट. 7.146; कुरुरढे इन्दपत्थनगरे युद्धिहिलगोत्तो कोरब्यो नाम राजा रज्जं कारेसि, जा. अट्ठ. 4.323; सत्तयोजनिके इन्दपत्थनगरे रज्जं दातुं पहोमि, जा. अट्ठ. 5.479; -- नगरवासी पु., [इन्द्रप्रस्थनगरवासिन्], इन्द्रप्रस्थनामक नगर में वास करने वाला या वसने वाला - हि तृ. वि., ब. व. - महासत्तोपि नगरं पत्वा इन्दपत्थनगरवासीहि देवनगरं विय, जा. अट्ठ. 5.502; - नं ष. वि., ब. व. - इन्दपत्थनगरवासीनं अस्सुमुखानि हासेन्तो, जा. अठ्ठ. 7.209; ख. महासम्मत-वंस के सत्रह क्षत्रिय राजाओं की राजधानी - म्हि सप्त. वि., ए. व. - नगरे इन्दपत्तम्हि रज्ज कारेसुं ते तदा, दी. वं. 3. 23; - पुर पु., इन्द्रप्रस्थ नामक वह स्थान, जहा पर बुद्ध का उस्तुरा एव सुई का For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दपुर 336 इन्दवतिक डिब्बा रखा गया था - रे सप्त. वि., ए. व. -- वासि संकेतित करने का अर्थ - @ो प्र. वि., ए. व. - लिङ्गेति सूचिघरञ्चापि, इन्दपत्थपरे तदा ब. वं. 29.16. गमेति आपेतीति लिङ्ग... इन्दस्स लिङ्ग इन्दलिङ्ग, इन्दलिङ्गस्स इन्दपुर नपुं.. व्य. सं. [इन्द्रपुर], इन्द्रपुर, इन्द्र का नगर - अत्थो तं सभावो इन्दलिङ्गट्टो, इन्दलिङ्गमेव वा इन्द्रियसद्दस्स रं प्र. वि., ए. व. - वीणामुरजसम्मताळघुटु इद्धं इन्दपुरं अत्थोति इन्दलिङ्गडो, विसुद्धि. महाटी. 2.174; इन्दलिङ्गट्ठो यथा तवेद, वि. व. 648; इन्दपुरं यथाति सुदस्सननगर इन्द्रियट्ठो, विसुद्धि. 2.118; - तुन तृ. वि., ए. व. - विय वि. व. अट्ठ. 133. सब्बानिपेतानि यथायोग इन्दलिङ्गद्वेन ... च इन्द्रियानि, इन्दपुरोहित त्रि., ब. स. [इन्द्रपुरोहित], इन्द्र की प्रमुखता पटि. म. अठ्ठ. 1.76. वाला, इन्द्रपुरस्सृत, इन्द्र के प्राधान्य वाला, वह, जिसका इन्दवंसा स्त्री., [इन्द्रवंशा], एक विशेष प्रकार के छन्द का नाम, प्रधान इन्द्र है - ता पु., प्र. वि., ब. व. - यत्थ देवा इस छन्द में चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में दो तगण, तावतिसा, सब्बे इन्दं पुरोहिता, जा. अट्ठ. 6.152; एक जगण तथा एक रगण होता है- सा प्र. वि., ए. व. - इन्दपुरोहिताति इन्दं पुरोहितं पुरेचारिकं कत्वा परिवारेत्वा सा इन्दवंसा खलु यत्थ ता जरा, कु ...., जा. अट्ठ. 6.152. इन्दवजिर नपुं.. [इन्द्रवज], शा. अ.. इन्द्र का वज, इन्द्र इन्दफली पु.. [इन्द्रफलिन्], एक प्रकार का मत्स्य, एक का अस्त्र, एक विशेष प्रकार का शस्त्र, जिसका प्रयोग इन्द्र प्रकार की मछली - ली प्र. वि., ए. व. - अमरा खलिसो के द्वारा किया जाता है - रेन तृ. वि., ए. व. - इमिना चन्दकुलो कन्दफली, इन्दफली इन्दवलो कुलिसो वामी इन्दवजिरेन ते सीसं छिन्दित्वा, जा. अट्ठ. 1.338; - रं द्वि. कुतलो, कण्टिको सकुलो मङ्घरो सिङ्गी सतवको रोहितो, वि., ए. व. - सो आवज्जमानो ... इन्दवजिरं आदाय ... पाठीनो काणो सवको पासो, सद्द. 2.500. अट्ठासि, जा. अट्ठ. 3.125; ला. अ., इन्द्रवज के समान इन्दभवन नपुं., [इन्द्रभवन], इन्द्र का प्रासाद, इन्द्र का तीक्ष्ण, तीव्र, द्रुत एवं सटीक (इन्द्रवज्र के साथ विविध धर्मों भवन, इन्द्र का राजभवन – ने सप्त. वि., ए. व. - की उपमाओं वाले स्थलों में)-रं द्वि. वि., ए. व. - तंयेव नागभवने च ... महाराजभवने च ... इन्दभवने ... ततो च जाणं इन्दवजिरं विय ... अनावरणञाणं, पटि. म. अट्ठ. भिय्योति, महानि. 337; - नं द्वि. वि., ए. व. - राजभवनञ्च 2.32; सा हिस्स तं तं ठानं आवज्जन्तस्स इन्दभवनं विय अलङ्करिंसु, जा. अट्ठ. 1.448. विस्सहइन्दवजिरमिव ... तिखिणा हुत्वा वहति, विसुद्धि. इन्दयव पु.. [इन्द्रयव], इन्द्रयव, गेहूं के समान एक विशेष 2.271; - रूपम त्रि., ब. स. [इन्द्रवजोपम], इन्द्र के वज अन्न, कुटज नामक वृक्ष का बीज - वो प्र. वि., ए. व. - के समान, वज्र के सदृश, वजोपम - मं स्त्री., द्वि. वि., इन्दयवो थले तस्सा, अभि. प. 574. ए. व. -- सो तं पासङ्घातं इन्दवजिरूपमं वीमसं. म. नि. इन्दलट्ठि स्त्री., तत्पु. स. [बौ. सं. इन्द्रयष्टि], शा. अ., अट्ठ. (मू.प.) 1(1).335. इन्द्र की लाठी, ला. अ., इन्द्रधनुष, आकाशीय विद्युत् की इन्दवजिरा स्त्री., [इन्द्रवजा]. एक छन्द-विशेष का नाम, लकीर - ट्ठि प्र. वि., ए. व. - आकासे इन्दलठ्ठीव जिसके प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण (दो तगण, एक जगण इन्दधनु इव च चतुद्दिसा चतूसु दिसासु ओभासति .... अप. तथा दो गुरु वर्ण) होते हैं - इन्दादिका ता वजिरा जगा अट्ठ. 1.274; इन्दलठ्ठीव आकासे, ओभासेति चतुद्दिसा, अप. गो, वुत्तो. 62(पृ.166). 1.31; तत्थापि भवनं मय्ह, इन्दलट्ठीव उग्गतं, अप. 1.32; इन्दवण्ण नपुं.. [इन्द्रवर्ण], इन्द्र की आकृति या आकार... मय्ह भवनं मम पासादं इन्दलठ्ठीव उग्गतं आकासे प्रकार, इन्द्र का रूप-रंग - ण्णं द्वि. वि., ए. व. - ठितविज्जोतमाना विज्जल्लता इव उग्गतं ..., अप. अट्ट. इन्दवण्णं वा दस्सेति, पटि. म. 380; इन्दवण्णन्ति 1.275. सक्कसण्ठानं, पटि. म. अट्ठ. 2.255. इन्दलिङ्ग नपं. इन्द्रलिङ्ग], शा. अ., इन्द्र का चिह्न, ला. इन्दवत नपं.. तत्प. स. [इन्द्रव्रत], इन्द्र का व्रत, एक अ., आधिपत्य का चिह्न या संकेत - ङ्गं प्र. वि., ए. व. विशिष्ट तापसी चर्या का उपाधिनाम - तं प्र. वि., ए. व. - इन्दस्स लिङ्ग इन्दलिङ्ग इन्दलिङ्गस्स अत्थो तंसभावो - चन्दवतं वा सूरियवतं वा इन्दवतं वा ब्रह्मवतं वा, इन्दलिङ्गट्ठो, विसुद्धि, महाटी. 2.174. महानि. 228. इन्दलिट्ठ पु., तत्पु. स. [इन्द्रलिङ्गार्थ], आधिपत्य अथवा ___इन्दवतिक त्रि., इन्द्रव्रत-नामक तापसी चर्या का प्रभुत्व के संसूचन का अर्थ, कुशल एवं अकुशल कर्मों को अनुपालन करने वाला - का पु., प्र. वि. ब. व. - For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द इन्दवल 337 इन्दसालरुक्ख इन्दवतिका वा होन्ति, ब्रह्मवतिका वा होन्ति, महानि. पु., द्वि. वि., ए. व. - कोसियगोत्तताय, इन्दसगोत्त, 64. इन्दसमानगोत्तं, थेरगा. अट्ठ. 2.88; चिरानुवुत्थोपि करोति इन्दवल पु., एक प्रकार का मत्स्य या मीन, एक प्रकार की पापं, गजो यथा इन्दसमानगोतं, जा. अट्ट. 2.34; सो गजो मछली - लो प्र. वि., ए. व. - अमरा खलिसो चन्दकुलो इन्दसमानगोत्तं मारेन्तो पापं अकासीति अत्थो, तदे.; - ... इन्दवलो कुलिसो वामी, सद्द. 2.500. तो पु., प्र. वि., ए. व. - तापसेसु इन्दसमान गोत्तो इन्दवारुणि स्त्री., मादकतत्त्व युक्त एक प्रकार का कद्दू या नामेको तापसो अनोवादको, जा. अट्ठ. 2.33; - स्स ष. ककड़ी, गोरक्ष ककड़ी-णि प्र. वि., ए. व. - इन्दवारुणि वि., ए. व. - इन्दसमानगोत्तस्स सरीरकिच्चं कारेत्वा, जा. विसाला, अभि. प. 597. अट्ठ. 2.33. इन्दवारुणिकरुक्ख/इन्दवारुणीरुक्ख पु., एक वृक्ष इन्दसमानगोत्तजातक नपुं., व्य. सं., जा. सं. 161 का का नाम-क्खं द्वि. वि., ए. व. - एक इन्दवारुणीरुक्खं शीर्षक, जा. अट्ठ.2.33-34. गोचरगामं... विहासि, जा. अट्ठ. 4.8. इन्दसमानभोग त्रि., ब. स. [इन्द्रसमानभोग], इन्द्र के इन्दविस्सट्ठ त्रि., तत्पु. स. [इन्द्रविसृष्ट], इन्द्र द्वारा छोड़ा । समान भोग-साधनों से सम्पन्न, इन्द्र जैसी प्रचुर धन-सम्पदा गया, इन्द्र द्वारा प्रयुक्त - टुं पु., द्वि. वि., ए. व. - का स्वामी - गा पु., प्र. वि., ब. व. - "किञ्चापि ते इन्दविसर्ल्ड वजिरं विय अविरज्झनको, महानि. अट्ठ. 368. इन्दसमानभोगा, ते वे पराधीनसुखा वराकाति, जा. अट्ठ. इन्दसगोत्त त्रि., ब. स. [इन्द्रसगोत्र], शा. अ., इन्द्र के 6.120. गोत्र का, इन्द्र के गोत्र वाला, ला. अ., कौशिकनामधारी इन्दसहब्यता स्त्री., इन्द्र की संगति, इन्द्र की सहचारिता, इन्द्र के ही गोत्रवाला (कौशिक नाम वाला), क. कोसिय इन्द्र का साहचर्य, इन्द्र से भाईचारा - तं द्वि. वि., ए. व. नामक तापस तथा थेर कातियान के सन्दर्भ में प्रयुक्त, ख. - अज्जेव त्वं इन्दसहव्यतं वजा ति, जा. अट्ठ. 5.407; हास्य के सन्दर्भ में उल्लू के लिए भी प्रयुक्त – त्त सम्बो.. सब्बेव ते इन्दसहब्यतं गता ति, तदे.; सब्बेपि तं दानं ए. व. - इन्दो च तं इन्दसगोत्त कङ्घति, अज्जेव त्वं अनुमोदित्वा चित्तं पसादेत्वा इन्दसहव्यतं गताति, तदे... इन्दसहव्यतं बजाति, जा. अट्ठ. 5.407; - कोसियगोत्तताय, इन्दसार पु., व्य. सं., एक श्रामणेर का नाम - रेन तृ. वि., इन्दसगोत्त इन्दसमानगोतं, थेरगा. अट्ठ. 2.88; - स्स ष. ए. व. - भिक्खुना इन्दसारेन नाम सामणेरेन... अमरपुर वि., ए. व. -- यास्सु इन्दसगोत्तस्स उलूकस्स पवस्सतो नाम नगरं सम्पत्तो, सा. वं. 135. ...., जा. अट्ठ. 7.253. इन्दसालगुहा स्त्री., [बौ. सं., इन्द्रशैलगुहा], उत्तर भारत इन्दसदिस त्रि., [इन्द्रसदृक], इन्द्र के समान, इन्द्र जैसा की एक गुफा का नाम, राजगृह के पास अम्बसण्डा - सेहि पु.. तृ. वि., ए. व. - आकिण्णं इन्दसदिसेहि (वर्तमान अपसड़) के उत्तर में वेदियक पर्वत (वर्तमान ब्यग्घेहेव सुरक्खितं, जा. अट्ठ. 6.151; यथा नाम ब्यग्घेहि पार्वती पहाड़ी) में इन्दसालगुहा है, भरहुत अभिलेख में ... महावनं एवं इन्दसदिसेहेव सुरक्खितं, जा. अट्ठ. 6.151. पालि के अनुसार इन्दसालगुहा नाम प्रयुक्त - हा प्र. वि., इन्दसद्द पु., कर्म, स. [इन्द्रशब्द]. 'इन्द्र' शब्द - दो प्र. ए. व. - इन्दसालरुक्खो चस्सा द्वारे तस्मा 'इन्दसालगुहाति, वि., ए. व. - येन लिङ्गेन पवत्तिनिमित्तेन दी. नि. अट्ठ. 2.260; - यं सप्त. वि., ए. व. - तावतिंसाधिपतिम्हि इन्दसद्दो पवत्तो, थेरगा. अट्ठ. 1.232. राजगहस्स अम्बसण्डा नाम ब्राह्मणगामो, तस्सत्तरतो वेदियके इन्दसभ नपुं., इन्द्र की सभा - भं प्र. वि., ए. व. - पब्बते इन्दसालगुहायं.... दी. नि. 2.194; पुन इन्दसालगुहायं क्वचेकत्तञ्च छविया ... देवसभं, इन्दसों, यक्खसभं, मो. असीति देवताकोटियो, मि. प. 317. व्या. 3.22. इन्दसालरुक्ख पु., तत्पु. स. [इन्द्रसालवृक्ष], इन्द्रसालद्रुम, इन्दसम त्रि., [इन्द्रसम], इन्द्र के समान, इन्द्र जैसा - मो एक वृक्ष का नाम, सल्लकी या कुटज जैसे अनेक वृक्षों के पु.. प्र. वि., ए. व. - अस्स इन्दसमो राज, अच्चन्तं लिए प्रयुक्त - खेहि तृ. वि., ब. व. - कुटजेहि अजरामरो, जा. अट्ठ. 3.454; राजा इन्दसमो अहु अप. 1.186. इन्दसालरुक्खेहि सल्लकीहि इन्दसालरुक्खेहि समन्नागतेन इन्दसमानगोत्त त्रि., ब. स. [इन्द्रसमानगोत्र]. इन्द्र के ..., थेरगा. अट्ठ. 1.247; - क्खा प्र. वि., ब. व. - समान (कौशिक) गोत्र वाला, इन्द्र का समगोत्रीय - त्तं इन्दसालरुक्खा च कुटजरुक्खा च. जा. अट्ठ. 4.82; पि For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्दसिट्ठ 338 इन्द्रिय अथापि इन्द्रसाला च सल्लकी खारका सिया, अभि. प. 568. इन्दसिट्ठ त्रि., "इन्द्रिय" शब्द के निर्वचनक्रम में ही प्रयुक्त [इन्द्रसृष्ट], शा. अ., इन्द्र के द्वारा सर्जित, शक्र के द्वारा उत्पादित, ला. अ., परम ऐश्वर्य या आधिपत्य के द्वारा सर्जित -टुं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - सज्जितं उप्पादितन्ति सिट्ठ, इन्देन सिटु इन्दसिर्ल्ड, विसुद्धि. महाटी. 2.174. इन्दसिट्ठट्ठ पु., तत्पु. स. [इन्द्रसृष्टार्थ], आधिपत्य के द्वारा सर्जित किए जाने का अर्थ या आशय - 8ो प्र. वि., ए. व. - इन्दसिहो इन्द्रियट्ठो, विभ. अट्ठ. 118; विसुद्धि. 2.118; – टेन तृ. वि., ए. व. - तेन च सिद्वानीति इन्दलिङ्गद्वेन इन्दसिट्टद्वेन च इन्द्रियानि, विभ. अट्ठ. 118. इन्दहेति पु., इन्द्र का वज्र - रतने वजिरो नित्थी मणिवेधिन्दहतिसअभि. प. 866. इन्दा पु.. ब. व. में ही प्राप्त, देवों के एक वर्ग का नाम - न्दा प्र. वि., ब. व. - इन्दा पुच्छन्ति, महानि. 250; - नं ष. वि., ब. व. - अग्गिप्पमुखा देवाति इन्दानं देवानं... अग्गिञ्च, थेरीगा. अट्ठ, 98; सुचिण्णस्स फलं पस्स, सइन्दा देवा सब्रह्मका, जा. अट्ठ. 5.269. इन्दावरी स्त्री., व्य. सं., नारद बुद्ध की दो अग्रश्राविकाओं में से एक -री प्र. वि., ए. व. - इन्दावरी च वण्डी च, अहेसु अग्गुपट्टिका, बु. वं. 11.25.. इन्दावुध/इन्दायुध नपुं.. [इन्द्रायुध], इन्द्र का शस्त्र, इन्द्र का आयुध, इन्द्रधनु, इन्द्रचाप - इन्दावुधं इन्दधनु, अभि. प. 49. इन्दासनि स्त्री., तत्पु. स. [इन्द्राशनि, स्त्री./पु.], इन्द्र का वज, बिजली की चमक, भूमि पर गिरने वाली बिजली/आग - नि प्र. वि., ए. व. - अथस्स आरद्धमत्ते कम्मट्ठानमनसिकारे इन्दासनि विय पब्बते किलेसपब्बते चुण्णयमानंयेव आणं पवत्तति, महाव. अट्ट, 239. इन्दिखग्गधर त्रि., चमकते हुए या देदीप्यमान खड्ग (तलवार) को धारण करने वाला – रा पु., प्र. वि., ब. व. - तमनुयायिंसु बहवो, इन्दिखग्गधरा बली, जा. अट्ठ. 7.105. इन्दीवर नपुं.. [इन्दीवर], 1. नील कमल, नीली कमलिनी, 2. लसोड़े का पुष्प - रं प्र. वि., ए. व. - इन्दीवरं मतं नीलुप्पले उद्दाल पादपे, अभि. प. 1003; - रानं ष. वि., ब. व. - इन्दीवरानं हत्थकन्ति उद्दालकपुप्फहत्थं वातघातकपुप्फकलापं. वि. व. अट्ठ. 165; -- रेहि तृ. वि., ब. व. - इन्दीवरेहि सञ्छन्नं, वनं तं उपसोभति, जा. अट्ट. 7.303; - कलाप पु., [कलाप], इन्दीवर-नामक फूलों का गुच्छा, नीले कमलों का गुच्छा - पं द्वि. वि., ए. व. - तासु एका अञ्जतरं... इन्दीवरकलापं अदासि, वि. व. अट्ठ. 163; - दलप्पम त्रि., ब. स. [इन्दीवरदलप्रभ], नीली कमलिनी के पत्तों के समान प्रभा वाला-भं नपुं., प्र. वि., ए. व. - उपतित्थं समापन्नं इन्दिवरदलप्पभं, अप. 2.14; - पुष्फ नपुं.. इन्दीवर का फूल, इन्दीवरपुष्प, नीलोत्पल का फूल, नीलकमल का कुसुम - प्फ प्र. वि., ए. व. - जलितं जलमानं इन्दीवरपुष्फ इव, अप. अट्ठ. 1.230; - प्फादीनं ष. वि., ब. व. - गन्धो तेसन्ति तेसं इन्दीवरपुप्फादीनं गन्धो अड्डमासं न छिज्जति, जा. अट्ठ. 7.304; - पुष्फसाम त्रि., इन्दीवर के पुष्पों के समान श्याम अथवा गहरे नीले रंग वाला- मे स्त्री., सम्बो., ए. व. - आमन्तय वम्मधरानि चेते. प्रत्तानि इन्दीवरफुप्फसामेति, जा. अट्ठ. 7.184; इन्दीवरपुप्फसामेति तं आलपति, जा. तदे... इन्दीवरी स्त्री., इन्दीवर से व्यु., नीले रंग की कुमुदिनी (या उसका पुष्प)- साम त्रि., ब. स., नीले कमलिनी के पुष्प के समान (गहरे नीले रंग का), इन्दीवर के सदृश - मं स्त्री., वि. वि., ए. व. - वन्दे इन्दीवरीसामं, रत्तिं नक्खत्तमालिनि, जा. अट्ठ. 5.87; इन्दीवरीसामन्ति इन्दीवरीपुप्फ समानवण्णं, जा. अट्ठ. 5.88; इन्दीवरीपुप्फसमानवण्णन्ति इन्दिया इन्दस्स भरियाय वरीतब्बताय पत्थितब्बताय इन्दीवरीतिलद्धनामस्स नीलुप्पलस्स पुप्फेन समानवण्णं, जा. टी. (पालि बर्मी शब्दकोश 4.1.582). इन्दु पु., [इन्दु], चन्द्र, चन्द्रमा - न्दु प्र. वि., ए. व. - इन्दु चन्दो च नक्खत्तराजा सोमो निसाकरो, अभि. प. 51; चन्दो नक्खत्तराजा च इन्दु सोमो निसाकरो, सद्द. 2.380. इन्दूपम त्रि., ब. स. [इन्दूपम], चन्द्रमा के समान, चन्द्रमा जैसा - मो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्दूपमो देवपुरे रमामहं, वि. व. 1045. इन्दोभास पु., व्य. सं., एक स्थविर (थेर) का नाम, स. प. के अन्त. -- तस्स सिस्सो बोधोदधिगामवासिनो इन्दोभास कल्याणचक्क विमलाचारथेरा सहस्सोरोधगामवासिनो ..., सा. वं. 148(ना.). इन्द्रिय नपुं.. [इन्द्रिय], शा. अ., इन्द्र से सम्बद्ध बल, शक्ति या सामर्थ्य, पूर्ण आधिपत्य रखने की शक्ति या For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रिय 339 इन्द्रिय क्षमता, नियन्त्रक धर्म, ला. अ. क. ज्ञान की प्रक्रिया में मन को आलम्बन तक पहुंचने वाले चक्षु, स्रोत, घ्राण, जिह्वा, काय एवं मन नामक छ आन्तरिक द्वार या ज्ञानेन्द्रियां - यानि' प्र. वि., ब. व. - पञ्चिमानि, आवुसो, इन्द्रियानि नानाविसयानि नानागोचरानि, न अञमञ्जस्स गोचरविसयं पच्चनुभोन्ति, सेय्यथिदं, चक्खुन्द्रियं सोतिन्द्रियं, घानिन्द्रियं, जिव्हिन्द्रियं, कायिन्द्रियं, म. नि. 1.374-375; अपि च आधिपच्चसङ्घातेन इस्सरियढेनापि एतानि इन्द्रियानि, विसुद्धि. 2.119; तेन च सिवानीति इन्द्रलिङ्गटेन इन्दसिट्ठद्वेन च इन्द्रियानि, तदे; पाकटवसेन चेत्थ पञ्चिन्द्रियानि वुत्तानि, लक्खणतो पन छट्टम्पि वृत्तयेव होतीति वेदितब्ब, सु. नि. अट्ठ. 2.69; बावीसतिन्द्रियाणि - चक्खुन्द्रियं सोतिन्द्रिय घानिन्द्रियं जिव्हिन्द्रियं कायिन्द्रियं इथिन्द्रियं पुरिसिन्द्रिय जीवितिन्द्रियं मनिन्द्रियं सुखिन्द्रियं दुक्खिन्द्रिय सोमनस्सिन्द्रियं दोमनस्सिन्द्रियं उपेक्खिन्द्रियं सद्धिन्द्रियं वीरियिन्द्रिय सतिन्द्रियं समाधिन्द्रियं पञ्जिन्द्रियं अनजातअस्सामीतिन्द्रियं अझिन्द्रियं अज्ञाताविन्द्रियं, अभि. ध. स. 51; विभ. 137; 141; - यानि द्वि. वि., ब. व. - इन्द्रियानि परिआय, दुक्खस्सन्तं करिस्सतीति, विसुद्धि. 2.120; ला. अ. ख. रूपधर्मों में स्त्रीत्व और पुरुषत्व की विशिष्ट अवस्था को निर्धारित कराने वाले स्त्रीत्व तथा पुरुषत्व नाम के दो प्रकार के भावरूप तथा सभी रूपधर्मों की एक प्रकार की प्राणाधायक शक्ति । जीवितेन्द्रिय - यं प्र. वि., ए. व. - यं इत्थिया इथिलिङ्ग इत्थिनिमित्तं इत्थिकुत्तं इत्थाकप्पो इत्थत्तं इत्थिभावो-इदं वुच्चति "इथिन्द्रियं, विभ. 138; तत्थ कतमं पुरिसिन्द्रियं? यं पुरिसरस पुरिसलिङ्गं पुरिसनिमित्तं पुरिसकुत्तं पुरिसाकप्पो पुरिसत्तं पुरिसभावो- इदं वुच्चति पुरिसिन्द्रियं तदे; तत्थ कतम जीवितिन्द्रियं ? जीवितिन्द्रियं दुविधेन-अस्थि रूपजीवितिन्द्रियं, अत्थि अरूपजीवितिन्द्रियं तदे; ला. अ. ग. वेदनाओं के दुःख, सुख, दोमनस्स, सोमनस्स एवं उपेक्षा नामक पांच प्रभेद के रूप में पांच वेदना इन्द्रियां - तत्थ कतमं सुखिन्द्रियं? यं कायिकं सातं कायिकं सुखं कायसम्फस्स सातं सुखं वेदयितं कायसम्फरसजा साता सुखा वेदना-इदं वुच्चति "सुखिन्द्रियं, विभ. 139; तत्थ कतम सोमनस्सिन्द्रियं ? यं चेतसिकं सातं चेतसिक सुखं चेतोसम्फस्स सातं सुखं वेदयितं चेतोसम्फस्सजा साता सुखा वेदना- इदं वुच्चति “सोमनस्सिन्द्रियं विभ. 139; तत्थ कतमं दोमनस्सिन्द्रियं? यं चेतसिक असातं चेतसिक दुक्खं चेतोसम्फस्सजं असातं दुक्खं वेदयितं चेतोसम्फस्सजा असाता दुक्खा वेदना - इदं वच्चति “दोमनस्सिन्द्रियं, विभ. 139; तत्थ कतम उपेक्खिन्द्रियं? यं चेतसिकं नेव सातं नासातं चेतोसम्फस्स अदुक्खमसुखं वेदयितं चेतोसम्फस्सजा अदुक्खमसुखा वेदना-इदं वुच्चति "उपेक्खिन्द्रियं, विभ. 139; ला. अ. घ. आध्यात्मिक अभ्युत्थान के मार्ग में चित्त की विशुद्धि में सहायक, श्रद्धा, स्मृति, वीर्य, समाधि एवं प्रज्ञा नामक पांच प्रकार के नैतिक बल - यानि प्र. वि., ब. व. - पञ्चिन्द्रियानि - सद्धिन्द्रियं वीरियिन्द्रियं सतिन्द्रियं समाधिन्द्रियं पचिन्द्रियं, अभि. ध. स. 52; - यं, प्र. वि., ए. व. तत्थ कतमं सद्धिन्द्रियं? या सद्धा सद्दहना ओकप्पना अभिप्पसादो सद्धा सद्धिन्द्रियं सद्धाबलं - इदं वच्चति “सद्धिन्द्रियं विभ. 139; तत्थ कतमं वीरियिन्द्रियं ? यो चेतसिको वीरियारम्भो निक्कमो परक्कमो उय्यामो वायामो उस्साहो उस्सोळही थामो ठिति असिथिलपरक्कमता... वीरियिन्द्रियं वीरियबलं - इदं वुच्चति “वीरियिन्द्रियं विभ. 139; तत्थ कतम सतिन्द्रियं? या सति अनुस्सति पटिस्सति सति सरणता धारणता अपिलापनता असम्मस्सनता सति सतिन्द्रियं सतिबलं सम्मासति - इदं वुच्चति “सतिन्द्रियं, विभ. 140; तत्थ कतमं समाधिन्द्रियं? या चित्तस्स ठिति सण्ठिति अवद्धिति अविसाहारो अविक्खेपो... समथो समाधिन्द्रियं समाधिबलं सम्मासमाधि-इदं वुच्चति “समाधिन्द्रियं तदे.; ला. अ. ङ, आन्तरिक धर्मों के यथार्थरूप का ज्ञान कराने में आधिपत्य से युक्त आज्ञा, आज्ञातावी एवं अनाज्ञातं आज्ञास्यामि नामक तीन ज्ञानफल - तत्थ कतम अनजातजस्सामीतिन्द्रियं? या तेसं धम्मानं अनातानं अदिवानं अप्पत्तानं अविदितानं असच्छिकतानं सच्छिकिरियाय पा पजानना ... अमोहो धम्मविचयो सम्मादिष्टि धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो मग्गङ्गं मग्गपरियापन्नं - इदं वुच्चति "अनजातञ्जस्सामीतिन्द्रियं, विभ. 140; तत्थ कतम अञ्जिन्द्रियं ? या तेसं धम्मानं जातानं दिहानं पत्तानं विदितानं... पञआ पजानना ... अमोहो धम्मविचयो सम्मादिद्धि धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो मग्गङ्ग मग्गपरियापन्नं-इदं वुच्चति "अझिन्द्रियं तदे; तत्थ कतमं अज्ञाताविन्द्रियं? या तेसं धम्मानं अञआतावीनं दिट्ठानं पत्तानं विदितानं ... पञ्जा पजानना ... अमोहो धम्मविचयो सम्मादिढि मग्गों मग्गपरियापन्नं इदं वुच्चति "अज्ञाताविन्द्रियं तदे. - नं ष. वि., ब. व. - किच्चाति किं इन्द्रियानं किच्चन्ति, For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रिय असंवर 340 इन्द्रियट्ठ विसद्धि. 2.120; इन्द्रियानञ्च समतं पटिविज्झा, वि. व. इन्द्रियकिच्चं साधेन्ति, विभ. मू.टी. 80; विसुद्धि. महाटी. 3.269(बर्मी); अ. 3.331(बर्मी); तं सद्धादीनं इन्द्रियानं समतं 2.175. समभावं, वि. व. अट्ट. 3.369(बर्मी); - सु सप्त. वि., ब. इन्द्रियकुसल त्रि., तत्पु. स., इन्द्रियों के विषय में प्रवीण, व. - इन्द्रियेसु गुत्तद्वारोति, दी. नि. अठ्ठ. 1.149; अ. नि. पांच इन्द्रियों के विषय में दक्ष या कुशल - ला पु., प्र. अट्ठ. 2.85; इन्द्रियेसु असंवतं.ध. प. 7; स. उ. प. के वि., ब. व. - इद्धिपादकुसला इन्द्रियकुसला, बलकुसला रूप में, अज्ञातावि., अज्ञि., अनजातञस्सामिति., अनि., __... निब्बानकुसला, महानि. 49. अनुद्धति०, अपरिपक्कि., अरूपजीविति., अविकलि., इन्द्रियक्खन्ध पु., द्व. स., इन्द्रिय और स्कन्ध - न्धा प्र. असंयति., असंवुति., अहीनि., आहारि., इत्थि., उपहति., वि., ब. व. - यो च पटिच्चुप्पादो इन्द्रियखन्धा च धातु उपेक्खि., एकि., एककि., किरियि., किलन्ति., कुपिति., आयतना..., नेत्ति. 5; तत्थ इन्द्रियक्खन्धाति इन्द्रियानि च गुत्ति., गोपिति., घाट्टिति., दरिय., जिति., जिव्हि., जीविति., खन्धा चाति इन्द्रियक्खन्धा, नेत्ति. टी. 179. जीवि., आणि., तिक्खि., तुट्टि, दुक्खि., दुट्टि., दोमनस्सि., इन्द्रियगुत्त त्रि., [इन्द्रियगुप्त]. इन्द्रियों के विषय में सतर्क, द्वारि०, दवि., द्वि., निरि०, पञ्चि०, पञ्जि., पमुदिति., इन्द्रियों की रक्षा करने वाला, इन्द्रियों का नियन्त्रण करने परिपक्कि., परिपाकि., गति., परिपुण्णि., परिमारिति., पाकति., __ वाला - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियगुत्तो निपको पिहिति., पीणिति., पीनि., पुथुनानि., पुरिसि., फीति., भाविति., सतीमा, स. नि. 1(1).181. मज्झि., मनि०, मदि०, यति, रक्खिति., रूप-जीविति., इन्द्रियगुत्ति स्त्री., तत्पु. स. [इन्द्रियगुप्ति], इन्द्रियों के रूपि., लोकियि., लोकुत्तरि०, वत्ति, विकलि., विजिति., ऊपर चौकसी, इन्द्रियों पर सतर्कता, इन्द्रियों की सुरक्षा या विदिति., पस्सनि., विपाकि., विप्पसन्नमुखि., विरियि., विवटि., नियन्त्रण - त्ति प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियगुत्ति सन्तुष्टि, वसट्टि, वसुद्धि, व्यथिति., संतुति., सति., सद्धि., पातिमोक्खे च संवरो, ध. प. 375; इन्द्रियगुत्तीति इन्द्रियसंवरो, सन्तसभावि., सन्ति., भूति., समद्धि, समाहिति., सुखि., ध. प. अट्ठ. 2.346; - यं सप्त. वि., ए. व. - एकच्चे सुसमाहिति., सोति.. सोमनस्सि., हदयि. के अन्त. द्रष्ट.. पबाजेत्वा सीलसंवरे इन्द्रियगुत्तियं... च यथारह पतिद्वापेसि इन्द्रिय-असंवर पु., तत्पु. स., इन्द्रियों की असुरक्षा, इन्द्रियों चरिया. अट्ठ. 211. पर नियन्त्रण का अभाव - रो प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियगोचरसुत्त नपुं., व्य. सं., ध. स. अट्ठ. में उल्लिखित इन्द्रियअसंवरो परिपूरो तीणि दुच्चरितानि, परिपूरेति, अ. एक सुत्त - ते सप्त. वि., ए. व. - यं पन इन्द्रियगोचरसुत्ते नि. 3(2).94. ... वुत्तं ध. स. अट्ठ. 342. इन्द्रियकथा' स्त्री., [इन्द्रियकथा], दस प्रकार के उपदेशों इन्द्रियग्गय्ह त्रि., तत्पु. स. [इन्द्रियग्राह्य], चक्षु आदि में से एक, इन्द्रियों से सम्बद्ध उपदेश - थं द्वि. वि., ए. इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य या ग्रहण करने योग्य, प्रत्यक्ष प्रमाण व. - दस कथावत्थूनि कथेति, सेय्यथिदं अप्पिच्छकथं __ द्वारा ज्ञेय - यह नपुं., प्र. वि., ए. व. - पच्चक्खं सन्तुट्ठिकथं ... इन्द्रियकथं ... कथेति, महानि. 356; - इन्द्रियग्गरह अप्पच्चक्खं मनिन्द्रिय, अभि. प. 716. जीविन्द्रयकथा स्त्री., कथा. की एक कथा का शीर्षक, इन्द्रियचरिया स्त्री., तत्पु. स. [इन्द्रियचर्या], इन्द्रियों की कथा. 323-326. सक्रियता या कार्यपरायणता - य तृ. वि., ए.व. - इन्द्रियकथा' स्त्री., व्य. सं. [इन्द्रियकथा], 1. पटि. म. के सहजवनाय इन्द्रियचरियाय पटिपन्नस्स, पटि. म. अट्ठ. एक स्थल का शीर्षक, पटि. म. 191-220; - वण्णना 2.128. स्त्री., पटि. म. की अट्ठ. के एक व्याख्या-स्थल का शीर्षक, इन्द्रियजातक नपुं.. व्य. सं., जा. अट्ठ. के एक कथानक पटि. म. अट्ठ. 113-135; 2. कथा. के एक स्थल का का शीर्षक, जा. अट्ठ. 3.407. शीर्षक, कथा. 475-476; - वण्णना स्त्री., [वर्णना], इन्द्रियट्ठ पु., [इन्द्रियार्थ], इन्द्रिय का अर्थ या अभिप्राय, कथा. अट्ठ. की व्याख्या का शीर्षक - इन्द्रियकथावण्णना, आधिपत्य का अर्थ, अपने क्षेत्र में पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त होने का प. प. अट्ठ. 269. तात्पर्य - @ो प्र. वि., ए. व. - इन्दलिङ्गडो इन्द्रियट्ठो, इन्द्रियकिच्च नपुं.. तत्पु. स. [इन्द्रियकृत्य], इन्द्रियों इन्ददेसितट्ठो इन्द्रियट्ठो, इन्ददिठ्ठट्टो, इन्द्रियट्ठो, विसुद्धि. का कार्य - च्वं द्वि. वि., ए. व. - अत्तनो अत्तनो 2.118; - तो प. वि., ए. व. - इन्द्रियहतो बलस्स - शालि For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रियट्ठक 341 इन्द्रियपञ्चकवसेन विसिद्वत्ता इध इन्द्रियतो बलं पठम वृत्तन्ति वेदितब्बं पटि. विपस्सनानियमेन इन्द्रियनियमेन च वृत्ता तयो पुग्गला, म. अट्ठ. 2.197. पटि. म. अट्ठ. 2.149. इन्द्रियट्ठक नपुं., [इन्द्रियाष्टक], आठ इन्द्रियां, इन्द्रियाष्टक, इन्द्रियन्तर नपु.[इन्द्रियान्तर], इन्द्रियों का विशिष्ट आन्तरिक आठ के समुच्चय में अन्तर्भूत इन्द्रियां – के सप्त. वि., ए. धर्म, इन्द्रियों की विशिष्टता - रं प्र. वि., ए. व. - व. - इन्द्रियट्ठके उपेक्खिन्द्रियं होतीति, ध. स. अट्ठ. 201. धात्वन्तरं इन्द्रियन्तरं बलबोज्झङ्गकम्मविपाकन्तरं... उप्पज्जति, इन्द्रियत्ता/इन्द्रियत्त स्त्री./नपुं.. इन्द्रिय का भाव., ध. स. अट्ठ. 13... आधिपत्य, ऐश्वर्यत्व, इन्द्रिय होने की स्थिति -- त्ता स्त्री., इन्द्रियपकति स्त्री., तत्पु. स. [इन्द्रियप्रकृति, इन्द्रियों की प्र. वि., ए. व. - इध रूपजीवितिन्द्रियत्ता, यो तेसं स्वाभाविक अवस्था, इन्द्रियों की प्रकृति - ति प्र. वि., ए. रूपीनं धम्मानन्ति अयमेव विसेसो, ध. स. अट्ठ. 355. व. - इन्द्रियपकति हेसा यदिदं इट्ठानिट्ठविसयसमायोगो, इन्द्रियदम पु., तत्पु. स. [इन्द्रियदम], इन्द्रियों का दमन, चरिया. अट्ठ. 271. इन्द्रियों को वश में रखना, इन्द्रियसंयम, इन्द्रिय-नियन्त्रण इन्द्रियपच्चय पु., [इन्द्रियप्रयत्यय], चौबीस प्रकार के - मेन तृ. वि., ए. व. - दमसच्चेनाति इन्द्रियदमेन चेव प्रत्ययों में से सोलहवां प्रत्यय, इन्द्रियप्रत्यय, स्त्री-इन्द्रिय परमत्थसच्चपक्खिकेन वचीसच्चेन च अपेतो, थेरगा. अट्ठ. एवं पुरुषेन्द्रिय को छोड़कर चक्षु-विज्ञान आदि की उत्पत्ति 2.311; इन्द्रियदमेन उपोसथकम्मेन वा, दी. नि. अट्ठ. में अधिपति या उपकारक अन्य बीस इन्द्रियां, अधिपति1.133; इन्द्रियदमेन चेव वचीसच्चेन च अपेतो अनुपगतो. सहित चक्षु आदि पांच इन्द्रियां, जीवितिन्द्रिय तथा रूपरहित जा. अट्ठ. 5.44. इन्द्रियां - यो प्र. वि., ए. व. - अधिपतियटेन उपकारका इन्द्रियदमन नपुं.. [इन्द्रियदमन], उपरिवत - नं प्र. वि., इथिन्द्रियपुरिसिन्द्रियवज्जा वीसति इन्द्रिया इन्द्रियपच्चयो, ए. व. - दमोति इन्द्रियदमनं, जा. अट्ठ.2.45; - ना प. मो. वि. टी. 345; अधिपतियटेन उपकारका वि., ए. व. - अथ वा संयमाति इन्द्रियदमना, जा. अट्ठ. इत्थिन्द्रियपुरिसिन्द्रियवज्जा वीसति इन्द्रिया इन्द्रियपच्चयो, 6.140. प. प. अट्ठ. 349; सहजातानमिच्चेव-मिस्सरटेन पच्चया इन्द्रियदेसना स्त्री., तत्पु. स., इन्द्रियों के विषय में उपदेश इन्द्रियप्पच्चयोतेव, तिविधा समुदाहटो, ना. रू. प. 842; - ना प्र. वि., ए. व. - खन्धायतनदेसना सझेपदेसना, तेसु तेसु किच्चे सु पच्चयुप्पन्नधम्मेहि अत्तान इन्द्रियदेसना वित्थारदेसना, विसुद्धि. महाटी. 2.167. अनुवत्तापनसङ्खाताधिपतियढेन पच्चयो इन्द्रियपच्चयो, अभि. इन्द्रियधम्म पु., कर्म. स., [इन्द्रियधर्म], एक धर्म के रूप ध. वि. टी. 213; पञ्च पसादा पञ्चन्नं विआणानं, में इन्द्रिय, इन्द्रियों का धर्म - मा प्र. वि., ब. व. - ते रूपजीवितिन्द्रिय उपादिन्नरूपानं, अरूपिनो इन्द्रिया सहजातानं एव अट्ठ इन्द्रियधम्मा, पटि. म. अट्ठ. 1.308; नामरूपानन्ति च तिविधो होति इन्द्रियपच्चयो, अभि. ध. स. सोळसिन्द्रियधम्मा च, अभि. ध. स. 52. 59; -- येन तृ. वि., ए. व. - अरूपिनो इन्द्रिया सम्पयुत्तकानं इन्द्रियधीर त्रि., [इन्द्रियधीर]. पांच इन्द्रियों के विषय में धम्मानं तंसमुट्ठानानञ्च रूपानं इन्द्रियपच्चयेन पच्चयो ति एवं निपुण या कुशल - रा पु., प्र. वि., ब. व. - इन्द्रियधीरा निद्दिडो मो. वि. टी. 345; - ये सप्त. वि., ए. व. - ... अयं बलधीरा... निब्बानधीरा, महानि. 32. इन्द्रियपच्चये नयो, मो. वि. टी. 345; - भाव पु., इन्द्रियइन्द्रियनानत्त/ इन्द्रियनानत्तता नपु०/ स्त्री., प्रत्यय नामक प्रत्यय होने की स्थिति, चक्षु-विज्ञान आदि का [इन्द्रियनानात्व], इन्द्रियों की भिन्नता (विविध व्यक्तियों में), इन्द्रिय प्रत्यय होना- वेन त, वि., ए. क. - इन्द्रियपच्चयभावेन इन्द्रियों की विविधता - तं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - साधेतब्बं अत्तनो तिक्खमन्दादिभावेन ..., विभ. अट्ठ. 111. इन्द्रियवेमत्ततं वदामीति इन्द्रियनानत्ततं वदामि. म. नि. इन्द्रियपच्चयालाभ पु., तत्पु. स., इन्द्रियप्रत्यय का लाभ न । अट्ठ. (म.प.) 2.106; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - एत्थ होना - भो प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियपच्चयालाभो हि इन्द्रियनानत्तता कारणं, म. नि. अट्ठ. (म.प.) जीवितिन्द्रियं सन्धाय वुत्तो, प. प. मू. टी. 224. 2.106. इन्द्रियपञ्चकवसेन तृ. वि., ए. व., क्रि. वि., पांच इन्द्रियों इन्द्रियनियम पु., तत्पु. स. [इन्द्रियनियम], इन्द्रिय का के समुच्चय के माध्यम से - इन्द्रियसङ्गहितत्ता नियम, आधिपत्य का नियम - मेन तृ. वि., ए. व. - इन्द्रियपञ्चकवसेन, पटि. म. अट्ठ. 2.72. For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रियपत्ति 342 इन्द्रियपाटव इन्द्रियपत्ति स्त्री., तत्पु. स. [इन्द्रियप्रज्ञप्ति], इन्द्रियों का बाह्यरूप में या वचनों द्वारा प्रकाशन, इन्द्रियों की संकल्पना या प्रज्ञप्ति, पु. प. में परिगणित छ प्रकार की प्रज्ञप्तियों में से एक - त्ति प्र. वि, ए. व. - छ पत्तियो-खन्धपत्ति, आयतनपत्ति, धातुपञत्ति, सच्चपञत्ति इन्द्रियपत्ति, पुग्गलपञत्तीति, पु. प. 103; कथा. 265; कित्तावता इन्द्रियानं इन्द्रियपत्ति? यावता बावीसतिन्द्रियानि.... एत्तावता इन्द्रियानं इन्द्रियपत्ति, पु. प. 104. इन्द्रियपरिपाक पु., [इन्द्रियपरिपाक], शा. अ.. इन्द्रियों की परिपक्वता, ला. अ. 1. इन्द्रियों की पूर्णता, इन्द्रियों की तीक्ष्णता, ला. अ. 2. जरा अवस्था के कारण इन्द्रियों का अपक्षय या इन्द्रियों का विषयों के ग्रहण में शिथिल हो जाना - को प्र. वि., ए. व. - आयुनो संहानि इन्द्रियानं परिपाकोति इमेहि पन पदेहि कालातिक्कमेयेव अभिब्यत्तताय आयुक्खयचक्खादिइन्द्रियपरिपाकसञ्जिताय पकतिया दीपिता, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).224; ... इन्द्रियानं परिपाकोति इमेहि पन पदेहि ... आयुक्खयचक्खादिइन्द्रियपरिपाकसञ्जिताय पकतिया दीपिता, ध. स. अट्ठ. 360; - कं द्वि. वि., ए. व. - भगवा पनस्स इन्द्रियपरिपाक आगमयमानो न ब्याकासि, सु. नि. अट्ठ. 2.294; इन्द्रियपरिपाकञ्च जत्वा ... आसयानुसयचरितानि ओलोकेन्ति, पटि. म. अट्ठ. 1.48. इन्द्रियपरोपरिय नपुं., [इन्द्रियपरोवर्य], इन्द्रियों की उच्च तथा निम्न अवस्था - आण नपुं., तत्पु. स. [इन्द्रियपरोवर्यज्ञान], (दूसरों की) इन्द्रियों के तीक्ष्ण या मृदु होने का ज्ञान, चक्षु आदि इन्द्रियों की विषयों को ग्रहण करने वाली क्षमता की तीक्ष्णता एवं मन्दता का ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - पुरिसपुग्गलपरोपरियाणं वुच्चति पुरिसपुग्गलानं तिक्खमुदुवसेन इन्द्रियपरोपरियाणं, अ. नि. अट्ठ. 3.116. इन्द्रियपरोपरियत्त नपुं.. इन्द्रियपरोपरिय का भाव., तत्पु. स. [इन्द्रियपरोवर्यत्व]. इन्द्रियों की उच्च या निम्न अवस्था, इन्द्रियों की तीक्ष्णता अथवा मृदुता, दूसरे प्राणियों के आशयों, अनुशयों, अधिमुक्तियों की प्रकृति तथा इन्द्रियों की तीक्ष्णता एवं मृदुता - त्तं द्वि. वि., ए. व. - तथागतो परसत्तानं परपुग्गलानं इन्द्रियपरोपरियत्तं यथाभूतं पजानाति, म. नि. 1.102; पटि. म. 350; इन्द्रियपरोपरियत्तं यथाभूतं आणं तथागतबलं सावकसाधारणन्ति?, कथा. 193; तत्थ कतमं तथागतस्स परसत्तानं परपुग्गलानं इन्द्रियपरोपरियत्तं यथाभूतं जाणं? विभ. 389; - ते सप्त. वि., ए. व. - इन्द्रियपरोपरियत्ते आणं, पटि. म. 4; - प्राण नपुं.. [ज्ञान], इन्द्रियों के तीक्ष्ण होने एवं मृदु होने का ज्ञान, इन्द्रियों की तीक्ष्णता या मृदुता का ज्ञान - णं प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियपरोपरियत्तस्स आणं इन्द्रियपरोपरित्तत्राणं, इन्द्रियानं उत्तमानुत्तमभावञआणन्ति अत्थो, .... वरानि च अवरियानि च वरोवरियानि, वरोवरियानं भावो वरोवरियत्तन्ति योजेतब्बं, अवरियानीति च न उत्तमानीति अत्थो..., पटि. म. अट्ठ. 1.48; चूळनि. अट्ठ. 46; - स्स ष. वि., ए. व. - "अहं एसो विय असाधारणस्स इन्द्रियपरोपरियत्तत्राणस्स पटिवेधाय उपनिस्सयभूता दस पारमियो न पूरेसिं, जा. अट्ठ. 1.87; - ञाणनिद्देस पु., तत्पु. स., इन्द्रियों की तीक्ष्णता एवं मन्दता के ज्ञान का व्याख्यान - से सप्त. वि., ए. व. - इन्द्रियपरोपरियत्तत्राणनिद्देसे तथागतस्साति वचने .... पटि. म. अट्ट, 2.1; - जाणनिद्देसवण्णना स्त्री., पटि. म. अट्ठ. के एक खण्ड का शीर्षक, पटि. म. अट्ठ. 2.1-4; -- वेमत्तताजाण नपुं., इन्द्रियों की तीक्ष्णता एवं मन्दता की विविधता का ज्ञान, तथागत का एक बल - णं प्र. वि., ए. व. - इदं वुच्चति परसत्तानं परपुग्गलानं इन्द्रियपरोपरियत्तवेमत्तताञाणं सत्तमं तथागतबलं, नेत्ति. 82; इन्द्रियपरोपरियत्तवेमत्तताञआणन्ति परभावो च अपरभावो च परोपरियत्तं... तस्स वेमत्तता परोपरियत्तवेमत्तता, सद्धादीनं इन्द्रियानं परोपरियवेमत्ततायजाणं इन्द्रियपरोपरियत्तवेमत्तताञआणन्ति पदविभागो वेदितब्बो, नेत्ति. अट्ठ. 292. इन्द्रियपरोपरियत्तसुत्त नपुं, स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 3(1).376. इन्द्रियपरोपरियत्ति स्त्री., तत्पु. स., इन्द्रियों की (विषयग्रहण में) तीक्ष्णता अथवा मन्दता, इन्द्रियों की विविध प्रकार की क्षमताएं - त्ति प्र. वि., ए. व. - अत्थि सावकस्स फलपरोपरियत्ति इन्द्रियपरोपरियत्ति पुग्गलपरोपरियत्तीति, कथा. 264; - ञाण नपुं., शा. अ., इन्द्रियों की तीक्ष्णता एवं मन्दता का ज्ञान, ला. अ.. बुद्ध-चक्षु, बुद्ध का विशेष ज्ञान, जिससे वे प्राणियों की इन्द्रियों की तीक्ष्णता आदि को जान लेते हैं - णं प्र. वि., ए. व. - बुद्धचक्खु नाम आसयानुसयाणञ्चेव इन्द्रियपरोपरियत्तञाणञ्च, बु. वं. अट्ठ. 42. इन्द्रियपाटव नपुं.. तत्पु. स., इन्द्रियों की पटुता या सामर्थ्य - वेन तृ. वि., ए. व. - तिक्खपञस्स For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 251. इन्द्रियपुच्छा 343 इन्द्रियभेद इन्द्रियपाटवेन संखित्तरुचिभावतो, विसुद्धि. महाटी. पर -- तत्थ समाधि एको इन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गवसेन 1.405. चतुधा ठितो, पटि. म. अट्ट. 2.208. इन्द्रियपुच्छा स्त्री., [इन्द्रियपृच्छा], इन्द्रियों के बारे में प्रश्न इन्द्रियबलवेमत्तत्राण नपुं.. तत्पु. स., (भिन्न-भिन्न व्यक्तियों या पूछताछ - च्छा प्र. वि., ए. व. - तिस्सो में) इन्द्रियों एवं बलों की मात्रा की विविधता का ज्ञान -- पुच्छा-इन्द्रियपुच्छा, बलपुच्छा, बोज्झङ्गपुच्छा, महानि. णं प्र. वि., ए. व. - तस्स आयस्मतो नत्थि इन्द्रियबलवेमत्तञाणं पेटको. 223. इन्द्रियप्पत्त त्रि., तत्पु. स. [इन्द्रियप्राप्त], इन्द्रियों द्वारा इन्द्रियभावना स्त्री., चक्षु आदि तथा श्रद्धा आदि इन्द्रियों का प्राप्त, इन्द्रियों की पकड़ में आने वाला - त्तानि न., प्र. अर्जन एवं विकास, आधिपत्य अथवा ऐश्वर्य का संवर्धन, वि., ब. व. - समाधिवीरियानि पन इन्द्रियप्पत्तानि न इन्द्रियत्व का विकास - ना प्र. वि., ए. व. - अरियस्स होन्ति, प. प. अट्ठ. 337. विनये अनुत्तरा इन्द्रियभावना होती ति, म. नि. 3.361; अयं इन्द्रियबद्ध त्रि., [इन्द्रियबद्ध], शा. अ., इन्द्रियों से बंधा । उच्चतानन्द, अरियस्स विनये अनुत्तरा इन्द्रियभावना हुआ, इन्द्रियों के साथ जुड़ा हुआ, ला. अ., अनुभवगम्य, चक्खुविजेय्येसु रूपेसु, म. नि. 3.362; सा मे भविस्सति इन्द्रिय-ग्राह्य, संवेदनशील, सजीव - द्धं नपुं.. प्र. वि., इन्द्रियभावना बलभावना बोज्झङ्गभावना, महाव. 385; - नं ए. व. - ... इन्द्रियबद्ध व दुक्खन्ति, कथा. 441-442; द्वि. वि., ए. व. -- सो पन अत्थङ्गमो इन्द्रियभावनं अननुयुत्तरस तत्थ अविआणकं सुवण्णरजतादि, सविआणकं इन्द्रियबद्धं, अप्पटिलद्धा पटिलाभथङ्गमो, पटि. म. अट्ट. 2.123; “एवं म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.207; यं वा पनञ्जम्पि एवरूपं खो, भो गोतम, देसेति पारासिवियो ब्राह्मणो सावकानं इन्द्रियबद्धं, खु. पा. अट्ठ. 141; - द्धा पु., प्र. वि., ब. व... इन्द्रियभावनान्ति, म. नि. 3.361; - कथा स्त्री., इन्द्रियों - ततो बहिभूता इन्द्रियबद्धा वा अनिन्द्रियबद्धा वा की भावना अथवा विकास के विषय में कथन - थं द्वि. रूपारूपपत्तियो बहिद्धा नाम, मो. वि. टी. 93; - कथा वि., ए. व. - हन्दाहं इमिस्सं परिसति भिक्खसङ्घस्स स्त्री., दुख "इन्द्रियों के अनुभवों का विषय है, सभी संस्कार इन्द्रियभावनाकथं कारेमी ति, म. नि. अट्ट. (उप.प.) नहीं इस प्रकार का कथन, प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियबद्धमेव 3.264; - नानुयुत्त त्रि., इन्द्रियों की भावना या संवर्धन दुक्खं न सब्बे सङ्घाराति पवत्ता इन्द्रियबद्धकथा, मो. वि... में लगा हुआ, इन्द्रियों का अर्जन एवं परिष्करण कर चुका टी. 291; - धम्म पु., इन्द्रियग्राह्य धर्म, संवेदनशील धर्म, (साधक)- स्स पु., च. वि., ए. व. - अयहि विमोक्खकथा सजीव धर्म - म्मा प्र. वि., ब. व. - तं अत्तानं अधिकिच्च इन्द्रियभावनानुयुत्तस्स विमोक्खसम्भावतो इन्द्रियकथानन्तरं उद्दिस्स पवत्ता अज्झत्ता, इन्द्रियबद्धधम्मा, विसुद्धि. महाटी. कथिता, पटि. म. अट्ठ. 2.136. 2.99-100; - रूप नपुं., इन्द्रियों के साथ जुड़ा हुआ रूप, इन्द्रियभावनासुत्त नपुं., व्य. सं., म. नि. के एक सुत्त का संवेदनशील या सजीव रूप - पं प्र. वि., ए. व. - तत्थ शीर्षक, म. नि. 3.361-365. सब्बानि चित्तचेतसिकानि इन्द्रियबद्धरूपं तिधा होन्ति, मो. इन्द्रियभूमि स्त्री., [इन्द्रियभूमि), विमुक्ति के परिपाचन में वि. टी. 93; - स्स ष. वि., ए. व. - इन्द्रियबद्धरूपस्स सहायक श्रद्धादि इन्द्रियों के सङ्गमस्थानभूत शमथ, विपश्यना, हि मतरूपतो कम्मजस्स, तदनुबन्धभूतस्स च तीन कुशलमूल तथा चार स्मृति प्रस्थान नामक नौ धर्म - उतुसमट्ठानादितो जीवितिन्द्रियकतो विसेसो, विसुद्धि. महाटी. मि प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियभूमीति सद्धादीन 2.90. विमुत्तिपरिपाचनिन्द्रियानं समोसरणट्ठानत्ता वुत्तं, नेत्ति. अठ्ठ. इन्द्रियबल पु., द्व. स. [इन्द्रियबल]. इन्द्रिय और बल - 151; समथो च विपस्सना च, कुसलानि च यानि तीणि वसेन तृ. वि., ए. व., क्रि. वि., इन्द्रियों और बलों के मूलानि, चतुरो सतिपट्टाना इन्द्रियभूमी नव पदानि, नेत्ति. आधार पर - एको द्वेधाति सद्धा इन्द्रियबलवसेन द्वधा 3; इन्द्रियभूमि नवहि पदेहि निद्दिसितब्बा, नेत्ति. 164. ठिता, पटि. म. अट्ठ. 2.208; वि. वि. वि. के संस्करण में इन्द्रियभेद पु., इन्द्रियों का प्रभेद, (भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में) इन्द्रियबलवसेन के रूप में अप... आलम्बनों के ग्रहण की क्षमता में भेद -देन तृ. वि., ए. इन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गवसेन क्रि. वि., तृ. वि., ए. व., व. - तथा इन्द्रियभेदेन तिक्खिन्द्रिया मज्झिमिन्द्रिया इन्द्रियों, बलों, बोधि के अङ्गों और मार्ग के अंगों के आधार मुदिन्द्रिया, विसुद्धि. महाटी. 2.80. For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रियमुदुता 344 इन्द्रियवेकल्ल इन्द्रियमुदुता स्त्री०, तत्पु. स., इन्द्रियों की मन्दता या इन्द्रियों की उत्तम या अवर कोटियों की अवस्था का ज्ञान शिथिलता - ता प्र. वि., ए. व. - न च इन्द्रियमदुता - णं प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियवरोवरियत्तत्राणन्तिपि पाठो, अभब्बताकरो धम्मोति, प. प. मू. टी. 104. वरानि च अवरियानि च वरोवरियानि, वरोवरियानं भावो इन्द्रियमूलक त्रि., इन्द्रियों के द्वारा उत्पादित, इन्द्रियों पर वरोवरियत्तन्ति योजेतब्ब, अवरियानीति च न उत्तमानीति आधारित - के सप्त. वि., ए. व. -- इन्द्रियमूलके पुरेजाते अत्थो, पटि. म. अट्ठ. 1.48. एकन्ति ... अब्याकतं, प. प. अट्ठ. 455. इन्द्रियववत्थान नपुं., तत्पु. स., छ इन्द्रियों का निर्धारण, इन्द्रिययमक नपुं., व्य. सं., इन्द्रियों का विवेचन करने वाले इन्द्रियों का विनिश्चय, चक्षु आदि छ इन्द्रियों का व्यवस्थितयम. के दसवें खण्डविशेष का शीर्षक, यम. 3.102-486; - भाव या विनिश्चय-भाव - नं प्र. वि., ए. व. - कं प्र. वि., ए. व. - तं मूलयमकं ... इन्द्रिययमकन्ति इन्द्रियववत्थानन्ति चक्खादीनं छन्नं इन्द्रियानं ववत्थितभावो, दसविधेन विभत्तं ध. स. अट्ट, 9-10. नेत्ति. अट्ट, 221; - लक्खण त्रि., ब. स., वह, जिसका इन्द्रिययोग पु., तत्पु. स. [इन्द्रिययोग]. (चित्त के साथ) लक्षण इन्द्रियों को व्यवस्थित भाव में लाना हो - णं न.. इन्द्रियों का सम्बन्ध, इन्द्रियों के साथ सम्पर्क, इन्द्रियों के प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियववत्थानलक्खणं छळायतन, तं साथ संयोग - गो प्र. वि., ए. व. - एवं इन्द्रिययोगोपि फस्सस्स पदट्ठान, नेत्ति. 25. वेदितब्बो विभाविना, अभि. अव. 119. इन्द्रियवस पु.. [इन्द्रियवश], इन्द्रिय का बल, इन्द्रिय का इन्द्रियरूप नपुं.. रूप-नामक परमार्थ धर्म में अन्तर्भूत पांच प्रभाव, इन्द्रिय का अधिकार - सं द्वि. वि., ए. व. - प्रकार के प्रसाद रूप (चक्षु, स्रोत, घ्राण, जिह्वा, काय), स्त्री- इन्द्रियवसं गतो ति ञत्वा ..., जा. अट्ठ. 3.409; इन्द्रिय, पुरुष-इन्द्रिय तथा जीवितिन्द्रिय नामक आठ धर्म, किलेसकामवसेन छन्नं इन्द्रियानं वसं गच्छति, जा. अट्ठ. 3. रूप में अन्तर्भूत आठ इन्द्रियां - पं प्र. वि., ए. व. - 409. पसादभावजीवितसङ्घातं अट्ठविधम्पि इन्द्रियरूपं नाम, अभि. इन्द्रियवसिक त्रि., इन्द्रियों के वश या प्रभाव में रहने वाला ध. स. 43; अट्ठविधम्पि इन्द्रियरूपं पञ्चविञाणेसु लिङ्गादीसु - को पु., प्र. वि., ए. व. - सो वयप्पत्तो योब्बनमनुप्पत्तो सहजरूपपरिपालने च आधिपच्चयोगतो, अभि. ध. स. 181; इन्द्रियवसिको हुत्वा ..., थेर. अट्ट, 1.267. चक्खादयो पञ्च पसादा, भावद्वयं, जीवितिन्द्रियन्ति इन्द्रियविकार पु.. [इन्द्रियविकार], इन्द्रियों का परिवर्तन, अट्ठविधम्पि इन्द्रियरूपं नाम, इतरं अनिन्द्रियं, मो. वि. टी. 69. इन्द्रियों का रूपान्तरण, इन्द्रिय-विकृति - रं द्वि. वि., ए. इन्द्रियलोक पु., [इन्द्रियलोक]. शा. अ., इन्द्रियों का व. - अथस्स इन्द्रियविकारं दिस्वा सहायका भिक्खू ... लोक, ला. अ., क. तीन प्रकार के लोकों में एक, विमुक्ति पुच्छिंसु, जा. अट्ठ. 1.290; सा तस्स इन्द्रियविकारं दिस्वा, के परिपाक में सहायक श्रद्धा आदि इन्द्रियों से युक्त जा. अट्ठ. 7.154; कस्सिन्द्रियविकारं ओलोकेतीति, पटि. प्राणियों का लोक, ख. अरूपावचरभूमि के प्राणियों का म. अट्ठ 1.284. लोक-को प्र. वि., ए. व. - लोको तिविधो किलेसलोको इन्द्रियविप्पकार पु., उपरिवत् - रं द्वि. वि., ए. व. - भवलोको इन्द्रियलोको, नेत्ति. 11; तत्थ ये विमुत्तिपरिपाचकेहि तस्स इन्द्रियविप्पकारं दिस्वा, जा. अट्ठ. 1.459. इन्द्रियेहि समन्नागता सत्ता, सो इन्द्रियलोकोति वेदितब्ब, इन्द्रियविभङ्ग पु., व्य. सं., विभङ्ग के एक खण्ड का शीर्षक, नेत्ति. अट्ठ. 194; सद्धिन्द्रियादिधम्मट्ठो आधिपच्चट्ठयोगवसेन विभ. 137-152; - ङ्गे सप्त. वि., ए. व. - इन्द्रियविभङ्गे पन इन्द्रियभूतो हुत्वा सद्धिन्द्रियादिपत्तनतुन लोको चाति इन्द्रियानं... वेदितब्ब, पारा. अट्ठ. 1.113; विसुद्धि. 1.159; इन्द्रियलोको, नेत्तिवि. 246; - केन तृ. वि., ए. व. - किं - वणना स्त्री., विभ. अट्ठमें इन्द्रियविभङ्ग की व्याख्या, पनेत्थ अरियानम्पि इन्द्रियलोकेन सङ्गहो होतीति आह विभ. अट्ट. 117-121. परियापन्नधम्मवसेनाति आदि, नेत्ति. टी. 46. इन्द्रियविसय पु., तत्पु. स., इन्द्रियों का विषय - यो प्र. इन्द्रियवग्ग पु., व्य. सं. [इन्द्रियवग्ग], अ. नि. के एक वि., ए. व. - सोपि सुपाकटभावेन इन्द्रियविसयो विय वग्ग का शीर्षक, अ. नि. 1(2).163-171. होतीति, म. नि. टी. (उप.प.) 3.9. इन्द्रियवरोवरियत्तत्राण नपं., (दूसरों की) इन्द्रियों की इन्द्रियवेकल्ल नपुं, तत्पु. स. [इन्द्रियवैकल्य], इन्द्रियों तीक्ष्ण और मन्द अवस्था या कोटियों का ज्ञान या बोध, की अपूर्णता, इन्द्रियों की अक्षमता, इन्द्रियों का अधूरापन, For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रियवेमत्त 345 इन्द्रियसंवरसील इन्द्रियों के बल का अपक्षय - ल्लं वि. वि., ए. व. - इन्द्रियसंवरपरियन्तो भोजने मत्त तापरियन्तो, इन्द्रियवेकल्लं न पापणाति, चरिया. अट्ठ. 281; - ता जागरियानुयोगपरियन्तो, महानि. 364; - न्ते सप्त. वि., स्त्री., भाव., इन्द्रियों की विकलाङ्गता या अक्षमता - तं द्वि. ए. व. - आदित्तपरियायं पच्चवेक्खमानो अन्तो वि., ए. व. - इन्द्रियवेकल्लतं बलपरिक्खयं इन्द्रियसंवरपरियन्ते चरति, मरियाद न भिन्दति - अयं वलिपलितादिभावञ्च पापुणाति, विसुद्धि. 1.340-341. इन्द्रियसंवरपरियन्तो, महानि. 365; - भेद पु., तत्पु. स., इन्द्रियवेमत्त नपुं., भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इन्द्रियों की इन्द्रियों के संयम का अन्त, इन्द्रिय-संरक्षण या संयमन का विविधता, इन्द्रियों की विविधरूपता - त्तं प्र. वि., ए. व. विनाश या छेदन - दो प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियसंवरभेदोति - इति इन्द्रियवेत्तमेत्थ कारणन्ति वेदितब्बं म. नि. अट्ठ. इन्द्रियसंवरविनासो, दी. नि. टी. 3.161; - विपन्न त्रि., (म.प.) 2.106; - ता स्त्री., भाव., प्र. वि., ए. व., इन्द्रियों इन्द्रियसंवर या इन्द्रियों के रक्षण में असफल, इन्द्रियों के की विविधता - इन्द्रियपरोपरियत्तं इन्द्रियवेमत्तता, तेनाह संयमन में असफल - स्स ष. वि., ए. व. - इन्द्रियसंवरे "इन्द्रियनानत्तं वदामी ति, म. नि. टी. (म.प.) 2.68; - तं असति इन्द्रियसंवरविपन्नस्स हतूपनिसं होति सील, अ. नि. द्वि. वि., ए. व. - इन्द्रियवेमत्ततं वदामीति इन्द्रियनानत्ततं 2(2).73; - विरहित त्रि., तत्पु. स., इन्द्रियों के संयमन वदामि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.106. से रहित - तेहि पु., तृ. वि., ब. व. - यस्मा त्वं इमेहि इन्द्रियसंयुत्त नपुं.. व्य. सं., सं. नि. के एक खण्ड का नवेहि इन्द्रियसंवरविरहितहि भोजने अमत्तहि सद्धि शीर्षक, स. नि. 3(2),269-317 - वणना स्त्री., स. नि. विचरसि, दी. नि. अभि. टी. 1.54; - संवुत्त त्रि., तत्पु. के इन्द्रियसंयुत्त की व्याख्या, स. नि. अट्ठ. 3.260-277. स., इन्द्रियों के संयमन अथवा नियन्त्रण द्वारा संरक्षित - इन्द्रियसंवर पु., [इन्द्रियसंवर, इन्द्रियों का संयमन, इन्द्रियों स्स पु., ष. वि., ए. व. - इधसद्दो सब्बाकारतो की रक्षा, इन्द्रियों का दमन या वशीकरण, इन्द्रियों के द्वारों इन्द्रिय संवर संवुतस्स पुग्गलस्स का संरक्षण, तप, संयम - रो प्र. वि., ए. व. - सन्निस्सयभूतसासनपरिदीपनो, म. नि. टी. (मू.प.) 1.147; अकुसलधम्मे चेव कायञ्च तपतीति तपो ... इध पन अ. नि. टी. 3.117; - समन्नागत त्रि., इन्द्रियों के संवर इन्द्रियसंवरो अधिप्पेतो स. नि. अट्ठ 1.221; सीलं चतुबिधं या संयमन से युक्त, इन्द्रियद्वारों का रक्षण करने वाला - पातिमोक्खो इन्द्रियसंवरो आजीवपारिसुद्धी च सीलं __ ता स्त्री, प्र. वि., ए. व. - संवृत्तिन्द्रियाति इन्द्रियेसु पच्चयनिस्सितं, सद्धम्मो. 342; - रं द्वि. वि., ए. व. - गुत्तद्वारा, इन्द्रियसंवरसमन्नागताति अत्थो, बु. वं. अट्ठ.583; सीघं सीघं इन्द्रियसंवरं परिपूरेतीति-सीधपआ, पटि. म. - समनुग्गहित त्रि., तत्पु. स., इन्द्रियों के संयमन द्वारा 370; इन्द्रियसंवरन्ति चक्खादीन छन्नं इन्द्रियानं भली-भांति उपकृत - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - रागपटिघप्पवेसं अकत्वा सतिकवाटेन वारणं, थकनं. पटि. इन्द्रियसंवरसमनुग्गहिता सद्धा सद्धामूला च सीलादयो म. अट्ठ. 2.241; - रेन तृ. वि., ए. व. - सो इमिना धम्मा विरुहन्ति, सु. नि. अट्ठ. 1.115; - सम्पन्न त्रि., अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसखं इन्द्रियों के संवर या संयमन से युक्त-स्स पु., ष. वि., पटिसंवेदेति, दी. नि. 1.62; -- रा प. वि., ए. व. - ए. व. - इन्द्रियसंवरे, भिक्खवे, सति इन्द्रियसंवरसम्पन्नस्स नात्र बोज्झा तपसा, नाञत्रिन्द्रियसंवरा ..., स. नि. उपनिससम्पन्नं होति सील, अ. नि. 2(2).73. 1(1).65; – राय च. वि., ए. व. -- भिक्खु इन्द्रियसंवराय इन्द्रियसंवरसिद्धि स्त्री., तत्पु. स., इन्द्रियों के संयमन पटिपन्नो होती'ति, दी. नि. 2.207; दुतियपुच्छायं अथवा नियन्त्रण का पूरा हो जाना-द्धि प्र. वि., ए. व. इन्द्रियसंवरायाति इन्द्रियानं पिधानाय, गुत्तद्वारताय ___ - उपसमाधिट्ठानपरिपूरणेन इन्द्रियसंवरसिद्धि, इतिवु. अट्ठ. संवुतद्वारतायाति अत्थो, दी. नि. अट्ठ. 2.294; - कथा 13. इन्द्रियसंवरसील नपं., कर्म. स.. इन्द्रियसंवर-नामक शील 1.150; - परियन्त पु., इन्द्रियों के संयमन की सीमा, प्रभेद, इन्द्रियों के संयमन अथवा संरक्षण के रूप में शील इन्द्रिय-द्वारों के संरक्षण की मर्यादा, चार प्रकार के परियन्तों -लं प्र. वि., ए. व. - यं पन "सो चक्खना रूप दिस्वा (सीमाओं) में से दूसरा - न्तो प्र. वि., ए. व. - ... मनिन्द्रिये संवरं आपज्जतीति वृत्तं, इदं इन्द्रियसंवरसील, सपरियन्तचारीति चत्तारो परियन्ता सीलसंवरपरियन्तो, विसुद्धि. 1.16. For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इन्द्रियसंवरसुख 346 - इन्द्रियसंवरसुख नपुं तत्पु, स. इन्द्रियों के नियन्त्रण से प्राप्त सुख इन्द्रियद्वारों के संरक्षण का सुख खं प्र. वि., ए. व. इन्द्रियसंवरसुखं हि दिट्ठादीसु दिट्ठमत्तादिवसेन पवत्तताय अविकिण्णं होति अ. नि. अट्ठ. 2.378. इन्द्रियसंवरसुत नपुं. व्य. सं., अ. नि. के छक्कनिपात के धम्मिकवग्ग का इन्द्रियों के संयमन पर प्रकाश डालने वाला एक सुत्त, अ. नि. 2 (2).73. इन्द्रियसंयुत त्रि. (इन्द्रियसंवृत] इन्द्रियों के विषय में संयमित या नियन्त्रित इन्द्रिय-द्वारों की सुरक्षा करने वाला तो पु. प्र. वि. ए. व. निस्सङ्गो रहपालो व नन्दो विन्द्रियसंयुतो सद्धम्मो 473. इन्द्रियसच्चनिद्देस पु०, विसुद्धि का एक अध्याय, जिसमें इन्द्रियों का विवेचन है, विसुद्धि० 2.118-145. इन्द्रियसन्निस्सय पु. तत्पु. स. [ इन्द्रियसन्निश्रय] इन्द्रियों का आश्रय, इन्द्रियों का सहारा येन तु.वि., ए. व. सो च यथाभूतावबोधो विसेसतो इन्द्रियसन्निस्सयेनाति इन्द्रियविभङ्गदेसना, विभ. अनुटी. 5. इन्द्रियसमता स्त्री० तत्पु० स०, इन्द्रियों की समानरूपता, श्रद्धा आदि इन्द्रियों का समभाव - तं द्वि. वि. ए. व. इन्द्रियं समाकारेन वत्तेन्तो इन्द्रियसमतं पटिपादेन्तो नाम होति. अ. नि. टी. 3.164 विसुद्धि महाटी 1.142. इन्द्रियसमत्त नपुं, तत्पु० स० [ इन्द्रियसमत्व ], उपरिवत् ते सप्त वि. ए. व. सतिपि इन्द्रियसमत्ते वीरियसमताय च. समाधिपि न सुदु पाकटो, सारस्थ. टी. 1.321; विसुद्धि. महाटी. 1.171- पटिपादन / ना स्त्री० / नपुं०, श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा इन इन्द्रियों में समत्व या सन्तुलन बनाना, श्रद्धा आदि इन्द्रियों में समता को लाना ना स्त्री. प्र. वि. ए. व. इन्द्रियसमत्तपटिपादना नाम सद्धादीन इन्द्रियानं समभावकरणं विभ. अड. 262 दी. नि. अट्ठ. 2.339; म. नि. अट्ठ (मू.प.) 1 ( 1 ).300; स. नि. अड. 3.192 अपिच सत्त धम्मा धम्मविचयसम्बोज्जाङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति परिपुच्छकता वत्थुविसदकिरिया, इन्द्रियसमत्तपटिपादना... विसुद्धि. 1. 128.. इन्द्रियसमुट्ठित त्रि., [इन्द्रियसमुत्थित], सौमनस्य दौर्मनस्य एवं उपेक्षा नामक इन्द्रियों से उत्पन्न इन्द्रियों से समुद्रत तं नपुं. प्र. वि., ए. व. इदं रूपं दोमनस्सिन्द्रियसमुद्वित पटि. म. 103. इन्द्रियसमुदय पु. तत्पु. स. इन्द्रियों का उदय इन्द्रियों की उत्पत्ति सुत्तन्तनिडेसे पठमं इन्द्रियसमुदयादीनं " - - www.kobatirth.org — इन्द्रियाधिद्वान भेदगणनं पुच्छित्त्वा पुन पभेदगणना विस्सज्जिता, पटि. म. अट्ठ. 2.122. इन्द्रियसम्पन्न त्रि. [ इन्द्रियसम्पन्न ], क. चक्षु आदि इन्द्रियों के उदय एवं व्यय की अनुपश्यना करते हुए उनके प्रति निर्वेदभाव या समभाव से परिपूर्ण छ आयतनों की प्रवृत्ति से युक्त, ख. चक्षु आदि इन्द्रियों से युक्त इन्द्रियों की अविकलता से युक्त नो पु. प्र. वि. ए. व. - 'चक्खुन्द्रिये चे भिक्खु, उदयब्वयानुपस्सी विहरन्तो चक्खुन्द्रिये निब्बिन्दति ... एत्तावता खो, भिक्खु, इन्द्रियसम्पन्नो होतीति स. नि. 2(2) 143; इन्द्रियसम्पन्नोति परिपुष्णिन्द्रियो स. नि. अट्ठ. 3.47; स वे इन्द्रियसम्पन्नो, सन्तो सन्तिपदे रतो. धारेति अन्तिमं देहं जेत्वा मारं सवाहिनिन्ति इतिवु. 40; सो इन्द्रियसम्पन्नो फुसति, वेदियति, तण्हीयति, उपादियति, घटियति, विसुद्धि. 2173: इन्द्रियसम्पन्नोति चक्खादीहि इन्द्रियेहि समन्नागतो. विसुद्धि. महाटी. 2.275. - " इन्द्रियसम्पन्नसुत्त नपुं. स. नि. के सळायतनवरंग का एक सुत्त, जिसमें इन्द्रियों की अनुपस्सना का विवेचन है, स० नि. 2(2).143: तादिवण्णना स्त्री. स. नि. अड्ड में इन्द्रियसम्पन्नसुत्त की व्याख्या, स. नि. अट्ठ. 3.47. इन्द्रियसहित त्रि. तत्पु. स. [ इन्द्रियसहित] इन्द्रियों से युक्त ते नपुं. सप्त वि. ए. व. इन्द्रियसहिते सरीरे उप्पज्जमानानि ध. स. मू. टी. 145. ..... इन्द्रियसुत्त नपुं व्य. सं. अ. नि. तथा स. नि. के सुत्तों का शीर्षक, अ० नि० 1 (2). 163; स० नि० 2(2).336. इन्द्रियहेतुक त्रि०, ब० स० [ इन्द्रियहेतुक] इन्द्रियों को अपना हेतु बनाने वाला इन्द्रियों को हेतु बनाकर उत्पन्न कानि नपुं. प्र. वि. ब. व. इत्थिन्द्रियसहिते एव सन्ताने सम्भावा इतरत्य च अभावा इन्द्रियहेतुकानि वृत्तानि ध.स. अनु. टी. 154. इन्द्रियाधिकभाव पु. तत्पु. स. इन्द्रियों की अधिकता वेन तू. वि. ए. व. पुन इन्द्रियाधिकभावेन भिज्जमाना द्विसतुत्तरं सहस्सं होन्ति, थेरगा, अड. 2.459. इन्द्रियाधिट्ठान नपुं० [ इन्द्रियाधिष्ठान ], इन्द्रियों का साक्षात्कार इन्द्रियों की प्रवृत्ति या सक्रियता नं. प्र. वि. ए. व. विक्कीळितं इन्द्रियाधिद्वानं विक्कीळित विपरियासानधिद्वानञ्च नेत्ति 102 इन्द्रियाधिद्वानन्ति इन्द्रियानं पवत्तनं भावना सच्छिकिरिया च, नेत्ति, अट्ठ 325. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - www - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 347 इम इन्द्रियानुरक्खण इन्द्रियानुरक्खण नपुं॰, तत्पु. स. [इन्द्रियानुरक्षण], इन्द्रियों का अनुरक्षण, इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखना - णं प्र. वि., ए. व. -- पातिमोक्खसंवरो इन्द्रियानुरक्खणं, सद्धम्मो. 449. इन्द्रियाभिसमय पु., इन्द्रियभूत अभिसमय, इन्द्रियों द्वारा अर्थ का यथार्थ बोध - यो प्र. वि., ए. व. - आधिपतेय्यद्वेन इन्द्रियाभिसमयो, पटि. म. 385. इन्द्रियारक्खा स्त्री०, इन्द्रियों की रक्षा, इन्द्रियों पर नियन्त्रण - क्खा प्र. वि., ए. व. - इन्द्रियारक्खा अत्तहितपटिपत्तियाव मूलन्ति, थेरगा. अट्ठ. 2.234. इन्द्रियूपसम पु.. तत्पु. स. [इन्द्रियोपशम], इन्द्रियों की शान्ति, इन्द्रियों का उपशमन - मे सप्त. वि., ए. व. - दुस्समादहं वापि समादहन्ति (कामदाति भगवा) इन्द्रियूपसमे रता, नेत्ति. 125; स. नि. 1(1).57; ... ये रत्तिन्दिवं इन्द्रियूपसमे रता, स. नि. अट्ट, 1.95. इन्धन नपुं.. [इन्धन, लकड़ी, ईंधन, जलावन, समिधा -- नं प्र. वि., ए. व. -- समिधा इधुमं चेधो उपादानं तथेन्धनं, अभि. प. 36; निप्पो वा गोचरो आहारो इन्धनं एतस्साति दुम्मेधगोचरो, चरिया. अट्ठ. 130; - स्स ष. वि., ए. व. - गतमग्गे इन्धनस्स भस्मभावावहनतो, चरिया. अट्ठ. 212; - नानं ष. वि., ब. व. - पब्बतकूटसदिसानं इन्धनानं वसेन महतियो ... महासिखी, चरिया. अट्ठ. 212; - क्खय पु.. [इन्धनक्षय], ईधन की समाप्ति - या प. वि., ए. व. - निब्बन्ति ते जोतिरिविन्धनक्खया, नेत्ति. 157; निब्बन्ति ते जोतिरिविन्धनक्खयाति यथा नाम अनुपादानो जातवेदो निब्बायति, एवमेवं अभिसङ्घारस्स विआणस्स अनवसेसक्खया निब्बायति, नेत्ति. अट्ठ. 377; - भाव पु.. [इन्धनभाव], आग के जलावन या ईधन की अवस्था, ईंधन जैसी स्थिति - वं द्वि. वि., ए. व. - सो तङ्क्षण व अवीचिजालानं इन्धनभावं अगमासि, पारा, अट्ठ. 1.218; - सङ्ख्य पु., [इन्धनसंक्षय], ईंधन का पूर्ण विनाश, ईंधन की समाप्ति - या प. वि., ए. व. -- उपादानसङ्घयाति इन्धनक्खया, बु. वं. अट्ठ. 189; - नुपादान त्रि., ब. स. [इन्धनोपादानक], ईंधन पर आश्रित, ईंधन पर पूरी तरह से टिका हुआ -- नो पु., प्र. वि., ए. व. - इन्धनुपादानो अग्गि विय ... लद्धिवसेन वदति, प. प. मू. इब्म त्रि., उत्पत्ति सन्दिग्ध [इभ्य], शा. अ., क. भृत्य वर्ग का, ख. अनेक नौकर रखने वाला धनी व्यक्ति, ला. अ., क. ब्राह्मण तथा क्षत्रिय-कुल से निम्नवर्ण के व्यक्ति के लिए उपाधि के रूप में प्रयुक्त, गृहस्थ, वणिक, कृषक या खेतिहर के लिए प्रयुक्त, - डमो पु., प्र. वि., ए. व. - इब्भो त्वड्ढो तथा धनी, अभि. प. 725; ला. अ., ख. अवैदिक-परम्परा के श्रमणों अथवा ब्राह्मणों के प्रभाव में रहने वाले कृषकों, वैश्यों, शूद्रों आदि के लिए प्रयुक्त, - ब्मा पु., प्र. वि., ब. व. - मुण्डका समणका इभा कण्हा बन्धुपादापच्चा, दी. नि. 1.79; इब्भाति गहपतिका, दी. नि. अट्ठ. 1.205; यथा इभो हत्थिवाहनभूतो परस्स वसेन वत्तति, न अत्तनो, एवं एतेपि ब्राह्मणानं सुस्सुसका सुद्दा परस्स वसेन वत्तन्ति, न अत्तनो, तस्मा इभसदिसपयोगताय इभाति, दी. नि. टी. (लीनत्थ.) 1.263; ला. अ., ग. धनलोलुप तथा विषयभोगों में अनुरक्त व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त - बमा प्र. पु., ब. व. - यथापि इब्भा धनधञहेतु, कम्मानि करोन्ति पुथू पथब्या, जा. अट्ठ. 7.58; - मेहि तृ. वि., ब. व. - इब्भेहि ये ते समका भवन्ति, निच्चुस्सुका कामगुणेसु युत्ता, जा. अट्ट. 7.59; - कुल नपुं., [इभ्यकुल], गृहस्थ का परिवार - ले सप्त. वि., ए. व. - मगधरडे इब्भकुले निब्बत्तो गोसालो नाम नामेन, थेरगा. अट्ठ. 1.82; - वाद पु., [इभ्यवाद], नीच या अधम कह कर गाली देना, नीच या अधम कहना - दं द्वि. वि., ए. व. - इतिह अम्बट्ठो माणवो इदं पठमं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि, दी. नि. 1.79; तुल. अशोकप्राकृत इब्भ., जैन. मा. इब्भ.. इभ पु.. [इभ], हाथी - भो प्र. वि., ए. व. - कुञ्जरो वारणो हत्थी मातङ्गो द्विरदो गजो, नागो द्विपो इभो दन्ती, अभि. प. 360; हत्थी नागो गजो दन्ती कुञ्जरो वारणो करी मातङ्गो द्विरदो सट्टिहायनो नेकपो इभो, सद्द. 2.345; स. प. के अन्त., मत्तेभ तथा सेतिभिन्द. के अन्त. द्रष्ट.. इभपिप्फली स्त्री., [इभकणा, हस्तिकणा, करिपिप्पली, गजपिप्पली], पिपरामूल या पहाड़ी पीपल - ली प्र. वि., ए. व. - कोलवल्लीभपिप्फली, अभि. प. 583. इम' त्रि., निश्चयवाचक सर्वनाम का प्रातिपदिक, अत्यन्त निकटता का बोधक, एक सर्वनाम का अविभक्तिक रूपसद्द पु., इम शब्द - दो प्र. वि., ए. व. - इमसद्दो अच्चन्तसमीपवचनो, सद्द. 1.267; 'इम' के विभक्ति रूप टी. 59. For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इम्बर 348 इरियति/इरिय्यति/इरीयति अयं पु., प्र. वि., ए. व. - अनपुंसकस्सायं सिम्हि, इमसद्दस्स सबस्सेव अनपुंसकस्स अयं-आदेसो होति सिम्हि विभत्तिम्हि, अयं पुरिसो, क. व्या. 172; - अनेन पु., तृ. वि., ए. व. - अनिमि नाम्हि च, इमसद्दस्स सबस्सेव अन-इमि-आदेसा होन्ति नाम्हि विभत्तिम्हि, अनेन धम्मदानेन सुखिता होतु सा पजा, इमिना बुद्धपूजेन पत्वान अमतं पदं, क. व्या. 171; - एस, इमेसु पु., सप्त. वि., ब. व. - "सब्बस्सिमस्से वा, सब्बस्स इमसहस्स एकारो होति वा सु-न-हि इच्चेतेसु एसु इमेसु, क. व्या. 170; इमेसु च सत्तसु अपरिहानियेसु धम्मेसु, दी. नि. 2.59; अ. नि. 2(2).169; - दं नपुं., प्र. वि., ए. व. - इदं पीठं... इदं सङ्घस्स कतिकसण्ठानं, पारा. 251; इदं दुक्खं, महाव. 14; - मानि' नपुं॰, प्र. वि., ब. व. - इमानीति अभिमुखीकरणं, इतिवु. अट्ठ. 158; - मानि द्वि. वि., ब. व. - इमानि पञ्च ठानानि देतीति, अ. नि. 2.(1).37; - मिना नपुं., तृ. वि., ए. व. - इमिना चक्खुना, महानि. 334; इमिना च कारणेन, कसा. अट्ठ. 126; - मेहि तृ. वि., ब. व. - इमेहि तीहि ठानेहि, अ. नि. 1(1).177; - मेसु सप्त. वि., ब. व. - इमेसु चतूसु अरियसच्चेसु, महाव. 15; - अयं स्त्री, प्र. वि., ए. व. - अयं... कथा, दी. नि. 1.3; अयं तथागतस्स पच्छिमा वाचा, दी. नि. 2.116; अयमन्तिमा जाति, म. नि. 1.226; - मा/मायो स्त्री, प्र. वि., ब. व. - इमा च मे सञ्जा निरुज्झेय्यु, दी. नि. 1.164; उद्धं अधो दस दिसा इमायो, सु. नि. 1128; - मं स्त्री., द्वि. वि., ए. व. - इमं गाथं अभासि, स. नि. 1(1).3; सिञ्च भिक्खु इमं नावं, ध, प. 369; - माहि स्त्री., तृ. वि., ब. व. - इमाहि चतूहि इद्धीहि समन्नागतो, दी. नि. 2.133; - माय स्त्री. सप्त. वि., ए. व. - इमाय खो पन वेलाय, दी. नि. अट्ठ. 1.123; - मिस्सा स्त्री., ष. वि., ए. व. - इमिस्सा दिट्ठिया, इमिस्सा खन्तिया, इमिस्सा रुचिया, पटि. म. 168; - मासु स्त्री., सप्त. वि., ब. व. -- इमासु वीणासु. वि. व. 1034. इम्बर पु., क. एक वृक्ष का नाम - सञित त्रि., इम्बर नाम वाला - ते पु., सप्त. वि., ए. व. - सो गन्चा तङ्घणयेव रुक्खे इम्बरसञिते, म. वं. 23.52; ख. गोठक नामक योद्धा का दूसरा नाम - रो प्र. वि., ए. व. - नन्धिमत्तो सूरनिमिलो महासोणो गोठइम्बरो, म. वं. 23.2. इरन्धती स्त्री०, व्य. सं., नागराज वरुण की पुत्री, एक नागकन्या - ती प्र. वि., ए. व. - लब्भा अम्ह इरन्धती, जा. अट्ठ. 7.158; अम्ह इरन्धतीति अम्हाकं धीता इरन्धती, तदे.. इरिण/इरीण नपुं.. [इरिण/इरण], मरुभूमि, उजाड़ भूमि, ऊसर भूमि, नमकीन ज़मीन, निहाली जमीन - णं प्र. वि., ए. व. - अनिस्सयमहीभागे त्विरीणमूसरे सिया, अभि. प. 886; --- णे सप्त. वि., ए. व. - अर इरीणे विवने, जा. अट्ठ.5.64; इरिणेति निरोजे, जा. अट्ठ. 7.336; अरओ इरीणे वने, अप. 1.274; अर इरीणे विवने, जा. अट्ठ. 5.64. इरियति/इरिय्यति/इरीयति ईर का वर्त, प्र. पु., ए. व. [ईरयते/ईरते, बौ. सं., ईरयति]. 1. गति करता है, चलता है, इधर उधर घूमता है, चक्कर काटता है, मड़राता रहता है - घासेसनं इरियति सीतिभूतो, स. नि. 1(1).167; - यामि उ. पु., ए. व. - उभो पादे उभो पक्खे च भूमियं आकासे च गमनसज्जे करोन्तो पसारेमि इरियामि वायमामि, चरिया. अट्ठ. 212; - मानं पु., वर्त. कृ., द्वि. वि., ए. व. - पस्सामहं देवमनुस्सलोके, अकिञ्चनं ब्राह्मणमिरियमानं, सु. नि. 1069; - रीयतो पु., वर्त. कृ., ष. वि., ए. व. - भोगे संहरमानस्स, भमरस्सेव इरीयतो, दी. नि. 3.143; 2. विहार करता है, ब्रह्मचर्य जीवन (तपस्वी जीवन) में वास करता है - तथायं पुग्गलो पटिपन्नो तथा च इरियति तञ्च मग्गं समारूळहो ..., म. नि. 1.107; पासादिकं खो अयं कुलपुत्तो इरियति, म. नि. 3.287; पासादिकेन इरियापथेन इरियति, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.216; - य्यसि वर्त., म. पु., ए. व. - कच्चि सद्धो इरिय्यसीति... कच्चि त्वं सद्धो इरिय्यसि विहरसीति, जा. अट्ठ. 3.440; - न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - यदा च अविजानन्ता, इरियन्त्यमरा विय, थेरगा. 276; - रियानो पु., वर्त. कृ., प्र. वि., ए. व. - सम्मा सो लोके इरियानो, न पिहेतीध कस्सचि. सु. नि. 953; - मानं पु., वर्त. कृ ., द्वि. वि., ए. व. - इरियमानं ब्रह्मपथे, चित्तस्सूपसमे रतं, अ. नि. 2(2).60; - येथ विधि., प्र. पु., ए. व. - सतो हुत्वा भिक्खु परिब्बजे इरियेथ वत्तेथाति, जा. अट्ठ. 4.316; 3. पू. का. क्रि. के साथ अन्वित रहने पर, विहार करता है, विद्यमान रहता है, स्थित है - जम्बुदीपमभिभुय्य इरियति, दी. नि. 3.116; गुणेहि लोकं अभिभूय्यिरीयति, उदा. अट्ठ. 123; भगवा हि कामे अभिभुय्य इरियति, सु. नि. 1103; कथंविधो दुक्खमतिच्च इरियति ... तथाविधो दुक्खमतिच्च इरियति, स. नि. 1(1).64. For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 349 इरियापथ इरियन/इरीयना/इरियना इरियन/इरीयना/इरियना नपुं./स्त्री., Vईर से व्यु., क्रि. ना., जीवन-स्थिति, जीवित-इन्द्रिय, जीवन का स्पन्दन, आयु, चेष्टा - ना स्त्री., प्र. वि., ए. व. -- जीवितन्ति आयु ठिति यपना यापना इरियना वत्तना पालना जीवित जीवितिन्द्रियं, महानि. 30; दुहितिकोति एत्थ इहितीति इरियना... तस्मिं इरियना दुक्खा होति, स. नि. अट्ठ. 3.103; - नं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ईहा इरियनं पवत्तनं जीवितन्तिआदीनि पदानि एकत्थानि, पारा. अट्ठ. 1.132; - तो प. वि., ए. व. - अरियाति आरकत्ता किलेसेहि, अनये । न इरियनतो, अये इरियनतो, स. नि. अट्ठ. 2.221. इरिया स्त्री., Vईर से व्यु., क्रि. ना. [बौ. सं. ईर्या], शा. अ., शारीरिक चेष्टा, शारीरिक क्रिया, ला. अ., शालीन अथवा उत्तम हावभाव, भिक्षु अथवा तापस का उचित एवं धर्मानुमोदित व्यवहार, ऊंची जीवनवृत्ति, उत्तम आचरण - यं द्वि. वि., ए. व. - ये च सङ्घातधम्मासे, ये च सेखा पृथू इध, तेसं मे निपको इरियं, पुट्ठो पब्रूहि मारिस, सु. नि. 1044; इरियन्ति वुत्तिं आचारं गोचरं विहारं पटिपत्तिं, स. नि. अट्ट, 2.53; इरियं पुट्ठो पब्रूहीति तेसं मे सेखासेखानं निपको पण्डितो त्वं पुट्ठो पटिपत्तिं ब्रूहीति, सु. नि. अट्ठ. 2.277; - य तृ. वि., ए. व. - तायपि खो अहं, सारिपुत्त, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमं उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियाणदस्सनविसेस, म. नि. 1.115; 'इमायाहं इरियाय न किञ्चि ब्याबाधेमि तसं वा। थावरं वा ति, इतिवु. 24; सन्ताय इरियायस्मिं पसीदि च महीपति, म. वं. 5.48; - या प्र. वि., ए. व. - ईहितं नाम इरिया द्विधा पवत्ता- चित्तइरिया चित्तईहा, पारा. अट्ठ. 1.132; वेदो पण्डितियञ्चेव चिकिच्छामिरिया पिच, सद्द. 1.82. इरियापथ पु., तत्पु. स. [बौ. सं., ईर्यापथ], शा. अ., शारीरिक चेष्टा, चाल-ढाल, हाव भाव - थो प्र. वि., ए. व. - ... इरियापथोति सत्तेते, असप्पाये विवज्जये, विसुद्धि. 1.123; एवं तेसं आकप्पसम्पन्नानं इरियापथो अच्छिद्दो सहो । मट्ठो दस्सनीयो पासादिको अहोसि, थेरगा. अट्ठ. 2.298; - थं द्वि. वि., ए. व. - इरियापथं पब्बजितानलोमिक, सेवेथ नं अत्थदसो मुतीमा, सु. नि. 387; इरियापथन्ति गमनादिचतुबिधं, सु. नि. अट्ट. 2.94; “यंनूनाहं समणं । गोतमं अनुबन्धेय्यं, इरियापथमस्स पस्सेय्य न्ति, म. नि. 2.343; तत्थ कतमो गोत्तमदो? गोत्तं पटिच्च ... इरियापथं पटिच्च... विभ. 400; दस्सनेय्यं सब्बजनं, विहारं इरियापथं बु. वं. 23.29; - थेन तृ. वि., ए. व. - अञतित्थियाति दस्सनेनपि... आचारेनपि विहारेनपि इरियापथेनपि अजे तित्थियाति अञतित्थिया, दी. नि. अट्ठ. 3.16; ओक्खित्तचक्खु मितभाणी सुसण्ठितेन इरियापथेन अविक्खित्तेन चित्तेन, मि. प. 102; वस्ससडिकत्थेरो विय पासादिकेन इरियापथेन राजगहं पत्वा तत्थ पिण्डाय चरित्वा, अ. नि. अट्ठ. 1.1163; - थे सप्त. वि., ए. व. - तत्थ इरियापथे पसन्नमनुस्सेहि पण्णसालं कत्वा उपट्टियमानो वस्सं उपगन्त्वा, जा. अट्ठ. 4.119; राजा इसिगणं दिस्वा इरियापथे पसन्नो अलङ्कतमहातले निसीदापेत्वा, जा. अट्ठ. 4.402; - थेस ब. क. - इरियापथेसुपि कस्सचि चङ्कमो सप्पायो होति, कस्सचि सयनहाननिसज्जानं अञ्जतरो, विसुद्धि. 1.1243; ला. अ. 1., चलने, खड़े होने, बैठने एवं लेटने की चार प्रकार की शारीरिक क्रियाएं, शरीर की चार प्रकार की क्रिया - थो प्र. वि., ए. व. - पल्लङ्क आभुजित्वा निसीदनं, एवं निसिन्नस्स हि इरियापथो उपसन्तो होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.276; यथा इरियतो इरियापथो पासादिको होति, एवं इरियतीति अयमेत्थ अत्थो, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.216; वत्थु कालो च ओकासो, आवुधं इरियापथो, किरियाविसेसोति इमे, छ आणत्तिनियामका, पारा. अट्ठ. 2.42; - थं द्वि. वि., ए. व. - सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो सीघं गच्छेय्य ... सणिक गच्छेय्य ... तिद्वेय्य ... निसीदेय्य ... एवम्हि सो भिक्खवे, पुरिसो ओळारिकं ओळारिक इरियापथं अभिनिवज्जेत्वा सुखुमं सुखुमं इरियापथं कप्पेय्य, म. नि. 1.171; "अद्विसङ्घातघटितो, न्हारुसुत्तनिबन्धनो नेकेसं संगतीभावा, कप्पेति इरियापथं थेरगा. 570; - थेन तृ. वि., ए. व. - सम्भावनाधिप्पायकतेन इरियापोन विम्हापन इरियापथसन्निस्सितं कुहनवत्थूति वेदितब्ब, विसुद्धि. 1.25; कायं पग्गहेत्वाति निच्चलं कत्वा उजकेन कायेन समेन इरियापथेन गन्तब्बञ्चेव निसीदितब्बञ्च, पाचि. अट्ठ. 152; -स्स ष. वि., ए. व. - या एवरूपा इरियापथस्स ठपना आठपना सण्ठपना भाकुटिका भाकुटियं कुहना कुहायना कुहितत्तं-इदं इरियापथसङ्घातं कुहनवत्थु, महानि. 164; तत्थ कतमा कुहना ? ... इच्छापकतस्स पच्चयप्पटिसेवनसङ्घातेन वा सामन्तजप्पितेन वा इरियापथस्स वा अठपनाति आदि, उदा. अट्ठ. 184; इरियापथस्स वाति चतुइरियापथस्स, विसुद्धि. 1.26; - थे सप्त. वि., ए. व. - लक्खणपरियेसनत्थं आगतं दिस्वा बुद्धा उठायासना For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इरियापथकप्पन 350 इरियापथज तिद्वन्ति वा चङ्कम वा अधिगृहन्ति, इति लक्षण स्सनानुरूपे अरहत्तप्पत्ति च इरियापथकोपनञ्च एकप्पहारेनेव होति, स. इरियापथे वत्तमानस्स अद्दस, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.261- नि. अट्ठ. 1.162. 262; - थे द्वि. वि., ब. व. - सेय्यथापि, भिक्खवे, ये इरियापथक्खम त्रि., ईर्यापथ में सक्षम, शारीरिक चेष्टाओं केचि पाणा चत्तारो इरियापथे कप्पेन्ति - कालेन गमनं या क्रियाओं को ठीक से करने में सक्षम, स. उ. प. के रूप कालेन ठानं, कालेन निसज्जं, कालेन सेय्यं स. नि. में, - यो पन महापुरिसजातिको सब्बउतुइरियापथक्खमोव 3(1).95; चित्तरसादं पटिलभित्वा सुखेन चत्तारो इरियापथे होति, न तं सन्धायेतं वुत्तं, म. नि. अट्ट (मू.प.) कप्पेसि, जा. अट्ठ. 5.254; - थेहि तृ. वि., ब. व. - 1(1).307. "आवुसो, इमं तेमासं कतिहि इरियापथेहि वीतिनामेस्सथाति इरियापथगमन नपुं., शारीरिक गमन, काया से गमन - नं ? "चतुहि, भन्ते ति... "अहं तीहि इरियापथेहि वीतिनामेस्सामि, प्र. वि., ए. व. - कायगमनं नाम इरियापथगमनं, सद्द. पिटिं न पसारेस्सामि आवुसो ति, ध. प. अट्ठ. 1.6; 2.315; - नेन तृ. वि., ए. व. - इरियापथगमनेन दुक्खलक्खणं अभिण्हसम्पटिपीळनस्स अमनसिकारा गच्छतीति पि अत्थो भवति, सद्द. 2.315. इरियापथेहि पटिच्छन्नत्ता न उपट्ठाति, विसुद्धि. 2.274; - इरियापथगुत्ति स्त्री०, तत्पु. स., ईर्यापथ अथवा शरीर की थानं ष. वि., ब. व. - इरियापथानं सन्तत्ता .... गमनादि क्रियाओं की संरक्षा – या तृ. वि., ए. व. -- भिक्खुभावानुरूपेन सन्तेन इरियापथेन सम्पन्ना, पटि. म. इरियापथान सन्तत्ता इरियापथगुत्तिया सम्पन्ना अट्ठ. 2.127: इरियापथचरियाति इरियापथानं चरिया पवत्तनन्ति अकम्पितइरियापथा भिक्खुभावानुरूपेन सन्तेन इरियापथेन अत्थो , पटि. म. अट्ट, 2.127; - थेसु सप्त. वि., ब. व. सम्पन्ना, पटि. म. अट्ठ. 2.127. - चतूसु हि इरियापथेसु तयो इरियापथा न सोभन्ति, म. इरियापथचक्क नपुं., कर्म, स., ईर्यापथ-रूपी चक्र, शरीर नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.216; सीतुण्हेसु च उतूसु ठानादीसु की उत्तम चेष्टाओं के रूप में चक्र, गमनादि शारीरिक च इरियापथेसु सप्पायउतुञ्च इरियापथञ्च सेवन्तस्सापि क्रियाओं का चक्र - क्कानं ष. वि., ब. व. - परहिताय पस्सद्धि उप्पज्जति, अ. नि. अट्ठ. 1.387; ला. अ. 2. च इरियापथचक्कानं वत्तो एतस्मिं अत्थीति चक्कवत्ती, दी. चक्र, रथ का चक्का - थे सप्त. वि., ए. व. - स्थङ्गे नि. अट्ठ. 1.202; - क्के सप्त. वि., ए. व. - लक्खणे धम्मोरचक्कस्विरियापथे, चक्कं सम्पत्तिय "चक्कसमारुळहा जानपदा परियायन्ती"ति एत्थ चक्करतने मण्डले बले, अभि. प. 781; सम्पत्तियं लक्षणे इरियापथचक्के, अ. नि. अट्ठ. 1.97; - क्केन तृ. वि., ए. च, रथङ्गे इरियापथे, दाने रतनधम्मूर, चक्कादीसु च व. - हत्थाहारिक-अग्गीव हत्थसम्परिवत्ततो, दिस्सति, पटि. म. अट्ठ. 2.215; "चतुचक्कं नवद्वार न्ति इरियापथचक्केन भरणीयं सुदुक्खतो, सद्धम्मो. 604. एत्थ इरियापथे, तदे., स. उ. प. के रूप में, अकम्पिति., इरियापथचरिया स्त्री., तत्पु. स., शरीर की गमनादि चार अद्धानि., अविनीति., एकि., कल्याणि., चङ्कमनि., चतु., क्रियाओं से युक्त जीवन-व्यवहार, आठ चर्याओं में एक, चतुरि., छिन्नि., झानानुरूपि., ठानचङ्कमि., वाननिसज्जादि.. ईर्यापथों का अभ्यास, प्र. वि., ए. व. -- अट्ठचरियायो - ठानि., योगानुरूपि., रूपि०, सब्बि०, सम्पन्नि के अन्त. इरियापथचरिया, आयतनचरिया, सतिचरिया, समाधिचरिया, द्रष्ट.. आणचरिया, मग्गचरिया, पत्तिचरिया, लोकत्थचरियाति, पटि. इरियापथकप्पन नपुं, तत्पु. स., चलने, खड़े होने, बैठने म. 207; इरियापथचरियाति चतूसु इरियापथेसु ... एवं लेटने की चार प्रकार की शारीरिक क्रियाओं को प्रकट इरियापथचरिया च पणिधिसम्पन्नानं, पटि. म. 207; करना अथवा उत्पन्न करना - नं प्र. वि., ए. व. - इरियापथचरियाति इरियापथानं चरिया, पवत्तनन्ति अत्थो, अतिसुखुमो अत्तभावो, न तेन इरियापथकप्पन होति, स. पटि. म. अट्ठ. 2.127; पणिधिसम्पन्नान चतूसु इरियापथेसु नि. अट्ठ. 1.15; - नेन तृ. वि., ए. व. - जरसिङ्गालो इरियापथचरिया, चरिया. अट्ठ. 16. इच्छितिच्छितवाने इरियापथकप्पनेन सीतवातूपवायनेन च इरियापथज त्रि., चार प्रकार के ईर्यापथों (गमनादि शारीरिक अन्तरन्तरा ... दस्सेति, स. नि. अट्ठ. 2.204. क्रियाओं) से उत्पन्न - जं नपुं., प्र. वि., ए. व. - चेतोसुखं इरियापथकोपन नपुं, शरीर की चार प्रकार की क्रियाओं कायसुखं, इरियापथजं सुखं, इमे गुणे पटिलभे, तस्स का परित्याग या परिवर्तन - नं प्र. वि., ए. व. - अथस्स निस्सन्दतो अहं, अप. 1.341. For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इरियापथत्त 351 इरियापथसण्ठपनसङ्खात इरियापथत्त नपुं., भाव., गमनादि चार शारीरिक क्रियाओं इरियापथमद पु., तत्पु. स., "मेरी गमनादि क्रियाएं भव्य या के होने की स्थिति - त्ता प. वि., ए. व. - प्रासादिक हैं, दूसरों की नहीं, इस प्रकार के विचार से चतुत्थज्झानसेय्या पन तथागतसेय्याति वच्चति, तास इध उत्पन्न घमण्ड - दो प्र. वि., ए. व. - इरियापथमदो, सीहसेय्या आगता, अयहि तेजस्सदइरियापथत्ता उत्तमसेय्या विभ. 395; 'अवसेसानं इरियापथो अपासादिको, मयहं पन नाम, स. नि. अट्ठ. 3.71. पासादिको ति मज्जनवसेन उप्पन्नो मानो इरियापथमदो इरियापथदिब्बब्रह्मअरियविहार प., शरीर की गमनादि नाम, विभ. अट्ठ. 442. क्रियाओं की दिव्य एवं उत्तम स्थिति - रेसु सप्त. वि., ब.. इरियापथरूप नपुं, तत्पु. स., ईर्यापथों (गमन आदि शारीरिक व. - अविसेसेन इरियापथदिब्बब्रह्मअरियविहारेस..., पटि. गतिविधियों) का स्वरूप - पानि वि. वि., ब. व. - म. अट्ठ. 2.117; खु. पा. अट्ठ. 90. अप्पनाजवनं सब्ब, महग्गतमनुत्तरं इरियापथरूपानि, जनेतीति इरियापथनियम पु., तत्पु. स., चार शारीरिक क्रियाओं पर समीरितं, ना. रू. प. 321. नियन्त्रण – मं द्वि. वि., ए. व. - इरियापथनियम अकत्वा इरियापथवाचक त्रि., ईर्यापथ का सूचक, गमन आदि चार यथासुखं अञ्जतरुञतरइरियापथबाधनविनोदनं करोन्तो, शारीरिक क्रियाओं का अर्थ कहने वाला - को पु., प्र. वि., खु. पा. अट्ठ. 202. ए. व. - एतिसद्दो यत्थ चे इरियापथवाचको, तत्थ आगमनं इरियापथनिस्सित त्रि, तत्पु. स., ईर्यापथों पर आश्रित, येव जोतेति न गमनं, सद्द. 2.319. शरीर की चार क्रियाओं पर आधारित - तं नपुं., प्र. वि., इरियापथविकोपन नपुं.. तत्पु. स., ईर्यापथ की क्रियाशीलता ए. व. - इरियापथियं पसादनियन्ति परेसं पसादावह ___ में अवरोध, ईर्यापथ की सक्रियता का अन्त – नं प्र. वि., आकप्पसम्पत्तिनिमित्तं इरियापथनिस्सितं सम्पजऑथेरगा. ए. व. - न मे इदं भूतपुब्ब, इरियापथविकोपनं, अप. 2.9. अट्ठ. 2.179. इरियापथविहार पु., [बौ. सं., ईर्यापथविहार], चार उत्तर इरियापथपब्ब नपुं, तत्पु. स., ईर्यापथों वाला खण्ड, कायगता विहारों (जीवनस्थितियों) में से एक, उत्तम शारीरिक चेष्टाओं स्मृति के कर्मस्थानों के रूप में निर्दिष्ट चौदह पर्वो में से युक्त जीवनवृत्ति – रो प्र. वि., ए. व. - इमिना पदेन द्वितीय -- बं प्र. वि., ए. व. - आनापानपब्बं इरियापथपब्बं, मेतं आसेवन्तस्स भिक्खुनो इरियापथविहारो कथितो, अ. चतुसम्पजज्ञपब्ब, पटिक्कूलमनसिकारपब्ब, नि. अट्ठ. 1.55; सद्धाय विहरतीतिआदीस सद्धादिसमनिस्स धातुमनसिकारपब्ब, नवसिवथिकपब्बानीति इमेसं चुद्दसन्नं इरियापथविहारो दट्टब्बो, पटि. म. अट्ठ. 2.128; - रेन तृ. पब्बानं वसेन कायगतासतिकम्मट्ठानं निद्दिष्टु, विसुद्धि. वि., ए. व. - दिब्ब ब्रह्मअरियआनेजविहारेहि 1.231; यस्मा इरियापथपब्बं चतुसम्पजअपब्ब समुप्पादितसुखविसेसेन इरियापथविहारेन सरीरदुक्खं धातुमनसिकारपब्बन्ति इमानि तीणि विपस्सनावसेन वृत्तानि, विच्छिन्दित्वा हरामि अत्तभावं पवत्तेमि, चरिया. अट्ठ. 20; तदे.. इरियापथविहारेन इतिवृत्तप्पकारझानसमङ्गी हुत्वा अत्तभावस्स इरियापथपरिवत्तन नपुं, तत्पु. स., ईर्यापथों (गमनादि ... अभिनिफादेति, विसुद्धि. 1.140-141; पारा. अट्ठ.1.1083; क्रियाओं) में परिवर्तन - चतुइरियापथपरिवत्तने इरियापथविहारेन विहरति इरीयति वत्तति, उदा. अट्ठ. सात्थकतादिपच्चवेक्षणवसेन सम्पज्जअञ्च सोधेति, खु. 182. पा. अट्ठ. 192. इरियापथसङ्घात त्रि., ईर्यापथ नाम वाली, (ठगविद्या), तीन इरियापथबाधन नपुं., तत्पु. स., ईर्यापथों के प्रयोग में प्रकार की ठगी में से एक - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. -- उपस्थित बाधा या कष्ट - नं द्वि. वि., ए. व. - एक अकुहकोति तीणि कुहनवत्थूनि – “पच्चयपटिसेवनसवातं इरियापथबाधनं अपरेन इरियापथेन विच्छिन्दित्वा, खु. पा. कुहनवत्थु, इरियापथसङ्घातं कुहनवत्थु सामन्तजप्पनसङ्खातं अट्ठ. 90. कुहनवत्थु, महानि. 163; पापिच्छस्सेव पन सतो इरियापथभजनक त्रि., ईर्यापथों का भजन करने वाला, सम्भावनाधिप्पायेन कतेन इरियापथेन विम्हापनं इरियापथसङ्घातं ईर्यापथों के अभ्यास में बाधा खड़ी करने वाला - केन पु., कुहनवत्थूति वेदितब्ब, महानि. अट्ठ. 268.. तृ. वि., ए. व. - आबाधिकोति इरियापथभञ्जनकेन इरियापथसण्ठपनसङ्खात त्रि., ब. स., गमन आदि ईर्यापथों विसभागाबाधेन आबाधिको, अ. नि. अट्ट, 3.59. के सम्यक रूप से (कलात्मक रूप से) प्रयोग या प्रदर्शन For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इरियापथसन्तता 352 इरियापथिय नाम से प्रसिद्ध - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इरियापथसङ्घातन्ति इरियापथसण्ठपनसङ्घातं विसद्धि. महाटी. 1.50. इरियापथसन्तता स्त्री., ईर्यापथ (गमन आदि शारीरिक क्रियाओं) में विद्यमान शान्तिभाव, शान्त शारीरिक क्रियाकलाप - तं द्वि. वि., ए. व. - इरियापथसन्ततं पन दिस्वा अनभानेन वदति, म. नि. अट्ट. (म.प.) 2.278. इरियापथसन्निस्सित त्रि., तत्पु. स., ईर्यापथ (शारीरिक क्रियाओं) के प्रदर्शन पर आधारित - तं नपुं. प्र. वि., ए. व. - पापिच्छस्सेव पन सतो सम्भावनाधिप्पायकतेन इरियापथेन विम्हापनं इरियापथसन्निस्सितं कुहनवत्थूति वेदितब्ब, विसुद्धि. 1.25. इरियापथसमङ्गिता स्त्री., भाव., किसी भी एक ईर्यापथ से युक्त होने की स्थिति, स. उ. प. के रूप में, ठानसङ्खात ... खड़ा होने के रूप में प्रसिद्ध ईर्यापथ से युक्त रहना - य तृ. वि., ए. व. - ठानसङ्घातइरियापथसमङ्गिताय, गतिनिवत्तिअत्थताय ... सेसइरियापथसमङ्गिताय बोधको, विसुद्धि. महाटी. 1.401. इरियापथसमसीसी त्रि., गमन आदि जिस किसी भी एक ईर्यापथ (शारीरिक क्रिया) के साथ विपश्यना आरम्भ करता है, उसी ईर्यापथ में निर्वाण अथवा अर्हत्व का लाभ प्राप्त करने वाला, एक ही ईर्यापथ में रहते हुए अर्हत् अवस्था प्राप्त करने वाला - सी पु., प्र. वि., ए. व. - ठानादीसु इरियापथेसु येनेव इरियापथेन समन्नागतो हुत्वा विपस्सनं आरभति, तेनेव इरियापथेन अरहत्तं पत्वा परिनिब्बायति, अयं इरियापथसमसीसी नाम, नेत्ति. अट्ठ. 386; निसिन्नोव विपस्सनं पट्टपेत्वा अरहत्तं पत्वा निसिन्नोव परिनिब्बाति, निपन्नोव विपस्सनं पट्ठपेत्वा अरहत्तं पत्वा निपन्नोव परिनिब्बाति - अयं इरियापथसमसीसी नाम, प. प. अट्ठ. 37; अरहत्तप्पत्ति च इरियापथकोपनञ्च एकप्पहारेनेव होति, अयं इरियापथसमसीसी नाम स. नि. अट्ठ. 1.162; समसीसी नाम तिविधो होति इरियापथसमसीसी, रोगसमसीसी, जीवितसमसीसीति, स. नि. अट्ट, 1.162. इरियापथसमायोग पु., तत्पु. स., किसी भी एक ईर्यापथ (शारीरिक क्रिया) के साथ सम्बन्ध - परिदीपन त्रि०, ईर्यापथ के साथ सम्बन्ध का सूचक, स. उ. प. के रूप में, - “यथाठितत्ताव यथापणिहितान्ति, ठितन्ति वा कायस्स ठानसातइरियापथसमायोगपरिदीपनं, पणिहितन्ति तदअइरियापथसमायोगपरिदीपनं विसुद्धि. महाटी. 1.401; इध पन ठानगमनासनसयनप्पभेदेसु इरियापथेसु अञ्जतरइरियापथसमायोगपरिदीपनं. पटि. म. अट्ठ. 2.117; पारा. अट्ठ. 1.76; खु. पा. अट्ठ. 90. इरियापथसम्पन्न त्रि., तत्पु. स., भव्य अथवा उत्तम शारीरिक चाल-ढाल से युक्त, उदात्त एवं सुन्दर गमन, आदि ईर्यापथों से परिपूर्ण - नो पु.. प्र. वि., ए. व. - इरियापथ सम्पन्नोति ताय पासादिकअभिकन्तादिताय सम्पन्नइरियापथो, पारा. अट्ठ. 2.186; इरियापथसम्पन्नोति सम्पन्नइरियापथो विसुद्धि. महाटी. 1.41; - नं पु., वि. वि., ए. व. - अस्सजिं राजगहे पिण्डाय चरन्तं पासादिकेन अभिक्कन्तेन पटिक्कन्तेन ... ओक्खित्तचक्खं इरियापथसम्पन्नं, महाव. 45; स. उ. प. के रूप में - एकच्चे इसयो ठानिरियापथचङ्कमनिरियापथसम्पन्ना, एकच्चे इसयो नेसज्जिका निसज्जिरियापथसम्पन्ना, अप. अट्ठ 1.229. इरियापथसम्परिवत्तना/इरियापथसम्परिवत्तनता स्त्री. भाव., किसी एक ईर्यापथ (शारीरिक क्रिया) का अभ्यास - ता प्र. वि., ए. व. - छ धम्मा थिनमिद्धस्स पहानाय संवत्तन्ति, अतिभोजने निमित्तग्गाहो इरियापथसम्परिवत्तनता आलोकसञआमनसिकारो अब्भोकासवासो कल्याणमित्तता सप्यायकथाति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).294; दी. नि. अट्ठ.2.333. इरियापथसुखसेवनता स्त्री॰, भाव., ईर्यापथों का सुखपूर्वक सेवन करने की स्थिति, सुख के साथ ईर्यापथों का अभ्यास - ता प्र. वि., ए. व. - सत्त धम्मा पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय संवत्तन्ति पणीतभोजनसेवनता उतुसुखसेवनता इरियापथसुखसेवनता ... तदधिमुत्तताति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).307; विसुद्धि. 1.130. इरियापथिकचित्त नपुं., कर्म स., ईर्यापथों का अभ्यास कर रहे साधक का चित्त - तं प्र. वि., ए. व. - इरियापथिकचित्तहि इरियापथं सन्धारेतं असक्कोन्तं रुक्खे वग्गुलि विय, खीले लग्गितफाणितवारको विय च, ओलियति, ध. स. अट्ट. 402. इरियापथिय त्रि., ईर्यापथ के अभ्यास से उदित (सम्पजन्य), भव्य शारीरिक चेष्टाओं से सङ्गति रखने वाला - यं नपुं.. प्र. वि., ए. व. – चारित्तं अथ वारित्त, इरियापथियं पसादनियं, थेरगा. 591; इरियापथियं पसादनियन्ति परेसं पसादावह आकप्पसम्पत्तिनिमित्तं इरियापथनिस्सितं सम्पजज थेरगा. अट्ठ. 2.179. For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इरुब्बेद/इरुवेद 353 इव/व इरु स्त्री., [ऋक्], ऋग्वेद, तीन वेदों में प्रथम वेद -- इरु सिरीसो, इल्लिसो, अलसो, महिसो, क. व्या. 675; सिरीसो, नारि यजुस्साममिति वेदा तयो सियुं, अभि. प. 108. इलिसो, अलसो, महिसो, सद्द. 3.873. इरुब्बेद/इरुवेद पु., [ऋग्वेद], प्रथम वेद का नाम -- दं इलोप पु., तत्पु. स., केवल व्याकरण के सन्दर्भ में प्रयुक्त द्वि. वि., ए. व. - ब्राह्मणमाणवकानं इरुवेदं यजुवेदं [इलोप], 'इ' स्वर का लोप - पो प्र. वि., ए. व. - सामवेदं अथब्बणवेदं लक्खणं इतिहासं पुराणं ... पूजा सरलोपादिना इलोपो, बालाव. 124. करणीया, मि. प. 173-174; - पुच्छामि समणं पहं इमे इल्लिया स्त्री., [ईलिका/ईली], छोटी तलवार, खुखरीपहें वियाकर, इरुवेदं यजुवेदं सामवेदं निघण्टु पिटु, वुध नपुं., द्व. स., तलवार एवं आयुध (शस्त्र) - धं द्वि. इतिहासं पञ्चमं वेदं उग्गहि सो विसारदो, दी. वं. 5.7; वि.,ए. व. - इल्लिया चापधारिभीति इल्लियावुधञ्च ... स. प. के अन्तः, - तिण्णं वेदानन्ति इरुवेदयजुवेदसामवेदानं धारेन्तेहि, जा. अट्ठ. 5.251-252; - चापधारी त्रि., दी. नि. अट्ठ. 1.200; सो पन इरुब्बेद-यजुब्बेद- तलवार एवं धनुष को धारण करने वाला - रिभि पु., तृ. सामवेदवसेन तिविधो आथब्बनवेदं पन पणीतज्झासया न वि., ब. व. -- आरुळहा गामणीयेभि, इल्लियाचापधारिभि, सिक्खन्ति, सद्द. 2.390. जा. अट्ठ. 5.249. Vइल' कम्पन अर्थ वाली एक धातु-इल-अल-मह-सि-कि इल्लिस पु., व्य. सं., राजगृह के एक श्रेष्ठी (व्यापारी) का इच्चेवमादीहि धातूहि ... इस इच्चेते पच्चया होन्ति, क. नाम - सो प्र. वि., ए. व. - तस्मि खणे सक्को "नाहं, व्या. 675; इल कम्पने - इलति, एल एला, सद्द. 2.438. महाराज इल्लिसो, सक्कोहमस्मी ति..., जा. अट्ठ. 1.337; Vइल' गति अर्थ वाली एक धातु - इल गतियं - इलति, नाहं पस्सामीति अहं "इमेस अयं नाम इल्लिसो ति न सद्द. 2.439. पस्सामि, तदे.; - सं द्वि. वि., ए. व. - उभिन्न पिळका इलतिय पु., एक तमिल शासक का नाम - इलतियरायरो जाता, नाहं पस्सामि इल्लिसन्ति, जा. अट्ठ. 1.337; ध. प. च तथाञ्चुकोट्टरायरो, चू. वं. 76.98; - यं द्वि. वि., ए. व. अट्ठ. 1.211; - स्स ष. वि., ए. व. - इल्लिसस्स मुखं - तथा इलतियं चेव अञ्चुकोट्टं च रायरं चू. वं. 76.191; पुञ्छित्वा उदकेन सिञ्चिसु, जा. अट्ठ. 1.337; - सेट्ठी पु.. इलकिरायरस्साथ दत्वा नाम अभिच्छितं, चू. वं. 76.192. इल्लिस नामक सेठ - द्विंद्वि. वि., ए. व. - राजा तं इलति' Vइल का वर्त, प्र. पु., ए. व. [इलति], कांपता है पक्कोसापेत्वा "इल्लिससेडिं जानासी ति पुच्छि, जा. अट्ठ. - इल कम्पने, इलति, एलं एला, सद्द. 2.438. 1.337; - भाव पु., इल्लिस नामक सेठ होने की दशा - इलति ।इल (गत्यर्थक) का वर्त., प्र. पु., ए. व. [इलति]. वं द्वि. वि., ए. व. -- एकस्सापि इल्लिसभावं न जानामीति जाता है, गतिशील होता है - इल गतियं, इलति, सद्द. अवोच, जा. अट्ठ. 1.337; - जातक नपुं., जातक संख्या 2.439. 78, जिसमें इल्लिस सेट्ट का कथानक है - कं द्वि. वि., इलनाग/इळनाग पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के एक शासक का ए. व. - इमं इल्लिसजातक कथेसीति, ध. प. अट्ठ. नाम – गो प्र. वि., ए. व. - इलनागो ति नामेन रज्जं 1.211; - जातकवण्णना स्त्री., जा. अट्ट के उस अकारयि पुरे दी. वं. 21-40, 41; इळनागो ति नामेन छत्तं कथानक का शीर्षक, जिसमें राजगृह के सेठ इल्लिस की उस्सापयी पुरे म. वं. 35-15, 45, 46. कहानी वर्णित है, जा. अट्ठ. 1.330-338. इल-पच्चय पु., व्याकरण के सन्दर्भ में प्रयुक्त, राज आदि इल्ली स्त्री., [ईली], एक तरफ धार वाली छोटी तलवार, नामों में लगाया जाने वाला तद्धित-प्रत्यय 'इल' - या प्र. गुप्ती, प्र. वि., ए. व. - खेटकं फलकं चम्म, इल्ली तु वि., ब. . - चसद्दग्गहणेन इय-इलप्पच्चया होन्ति - करपालिका, अभि. प. 392; वण्टानिहारस्साखग्गाकति ओ इदं ठानं राजियं, एवं राजिलं, क. व्या. 358. हत्थकुण्डादि इल्ली, इलीपि, इल गतियं, नदादि, अभि. प. इलयति/इलेति ।इल (प्रेरणार्थक) का वर्त, प्र. पु., ए. व. टी. 392; तुल., स्यादीली करवालिका, अमर. 2 8-91. [इलयति], प्रेरित करता है - इल पेरणे - इलेति इव/व 1. औपम्यसूचक निपा., किन्ही दो की समानता इलयति, सद्द. 2.564. सूचित करने के लिए प्रयुक्त [इव], के समान, की तरह, इलिस पु.. [इलीष/इल्लिश/इल्लीस], एक प्रकार का के जैसा, जैसे कि, मानों कि - इवाति ओपम्मवचनं, इमत्स्य मछली की एक प्रजाति, हिल्सा मछली - सुरियो, कार लोपं कत्वा व-इच्चेव वुत्तं, सु. नि. अट्ठ. 1.12; चक्कंव For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इवण्ण 354 इसि वहतो पद, ध. प. 1; छायाव अनपायिनी, ध. प. 2; यो ओगहणे थम्भोरिवाभिजायति, सु. नि. 216; महोदधिं हंसोरिव अज्झपत्तो, सु. नि. 1140; समेति वुट्ठीव रज समूहतं. इतिवु. 60; वारि पोक्खरपत्तेव, आरग्गेरिव सासपो, ध. प. 401; 2. विशे. एवं क्रि. वि. के उपरान्त ‘एव' के ही समान पुष्टि-सूचक निपा., ही, केवल, कुछ, थोड़ा सा, कदाचित् - पोराणमेतं अतुल, नेतं अज्जतनामिव, ध. प. 227; नेतं अज्जतनामिवाति इदं निन्दनं वा पसंसनं वा अज्जतनं अधुना उप्पन्नं विय न होति,ध. प. अट्ठ. 2.190; भन्ते भगवा, भातिरिव भगवतो मुखवण्णो विष्णसन्नत्ता इन्द्रियानं, दी. नि. 2.151; भातिरिवाति, अतिविय भाति, अतिविय विरोचति, दी. नि. अट्ट. 2.207; मिगीव भन्ता सरचापधारिना, विराधिता मन्दमिव उदिक्खसि, जा. अट्ठ. 5.396; न वा ति कस्मा? यथा एव, तथा एव, क. व्या. 22; भुसामि वेति इव सद्दो एवत्थो, मो. व्या. 1.32; "यथरिव वसुधातलञ्च सब्ब तथरिव गुणवा सुपूजनीयो" न वा ति कस्मा -- यथा एव, तथा एव, सद्द. 3.618; यथा एव - 'यथरिव, एवं 'तथरिव, भुसामिव, सद्द. 3.636; तूलमिव एरितं मालुतेन, पिलवतीव मे कायोति, थेरगा. 104; अकामं परिकवन्ति, उलूक व वायसा, जा. अट्ठ. 7.265; तत्थापि भवनं महं, इन्दलठ्ठीव अग्गतं, अप. 1.32; आकिण्ण इन्दसदिसेहि, व्यग्घेहेव सुरक्खितं, जा. अठ्ठ. 6.151; उपगच्छसि अन्ध रित्तक, जनमज्झोरिव रूप्परूपक थेरीगा. 396; - सद्द पु., इव शब्द - तो प. वि., ए. व. - इवसद्दतो पुब्बस्स आकारस्स लोपो च न होति, सद्द. 3.614. इवण्ण पु., व्याकरणों में प्रयुक्त [इवर्ण], 'इ' एवं 'ई' स्वर - ण्णो प्र. वि., ए. व. - पुब्बो इवण्णो सरे परे यकारं पप्पोति न वा, क. व्या. 21; इई इवण्णो, सद्द. 3.606; सद्द. 3.617-18; अब्भासन्तस्स इवण्णो होति वा अकारो च, सद्द. 3.826; - ण्णुवण्ण पु., इ, ई, एवं उ, ऊ स्वर - ण्णा प्र. वि., ब. व. - इवण्णुवण्णा इच्चेते झलसा होन्ति यथासङ्घयं क. व्या. 58; ते इवण्णुवण्णा यदा इत्थिख्या, तदा प-सजा होन्ति, क. व्या. 59; तस्स अन्ते वत्तमाना इवण्णुवण्णा झल सजा होन्ति यथाक्कम, मो. व्या. 1.9; - ण्णागम पु., तत्पु. स. [इवर्णागम], इवर्ण (इ. ई) का आगम - मो प्र. वि., ए. व. - सब्बेहि धातूहि यम्हि पच्चये, परे इवण्णागमो होति वा, क. व्या. 444; तस्मि यपच्चये परे सब्बेहि धातहि इवण्णागमो होति वा, सद्द. 3.824. इवा इव निपा. का अनियमित प. वि., ए. व., इव निपा. से - इवा पुब्बाकारस्स लोपो चिस्से च, इवसद्दतो पुब्बस्स आकारस्स लोपो च न होति, सद्द. 3.614. इस/इस्स पु., [ऋश्य], अर्थ अनिश्चित, संभवत: एक प्रकार का वन्य पशु, श्वेत वर्ण के पैरों वाला कृष्णमृग या भालू, अट्ठ के व्याख्यानों में तृणभक्षक, काला सिंह - इस सिस-इच्छायं सिवं इच्छतीति इसि-तपस्सी, मो. वु. 7.9; कालसीहो काळगाविसदिसो तिणभक्खोयेव, अ. नि. अठ्ठ. 2.283; अच्छो इक्को च इस्सो तु, काळसीहो इसोप्यथ, अभि. प. 612; तत्थ इस्सोति त्वम्पि एको काळसीहो वनानि चरसि, जा. अठ्ठ. 4.186. इसति ।इस (गत्यर्थक) का वर्त, प्र. पु., ए. व. [इष्यति]. जाता है, गति को प्राप्त करता है - इसि गतियं, इसति, सद्द. 2.453; इस गतियं, इसति चित्तं पविसतीति उसभो, अभो, इस्सु च, अभि. प. टी. 132; असुरो ति देवो विय न सुरति न ईसति न विरोचति चा ति असुरो, सद्द. 2.429; - न्ति ब. व. - पकतिदेवा विय न सुरन्ति न इसन्ति न विरोचन्तीति असुरा, उदा. अट्ठ. 243. इसफन्दन/इस्सफन्दन पु., द्व. स., जातक संख्या 475 (फन्दन जातक) के नायक कृष्णमृग तथा फन्दन नामक वृक्ष - ना प्र. वि., ब. व. - मयूरनच्च नच्चन्ति, यथा ते इस्सफन्दना, जा. अट्ठ. 4.188. इसि पु., [ऋषि], क. सामान्य अर्थ, तपस्वी, साधक, गाथाओं में शुद्ध आचार वाले व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त सामान्य उपाधि, मुनि, बुद्ध, अर्हत्, गद्य-भाग में 'तापस' शब्द इसका स्थानापन्न - सि प्र. वि., ए. व. -- तापसो तु इसीरितो, अभि. प. 433; इसेति इसि एसितगुणो, जा. अट्ठ. 7.105; एसति इसि, एत्थ पन सीलादयो गुणे एसन्तीति इसयो बुद्धादयो अरिया तापसपब्बज्जाय च पब्बजिता नरा, इसि तापसो जटिलो जटी जटाधरोति एते तापसपरियाया, सद्द. 2.442; इसि गहेत्वा पुप्फानि, आगच्छन्तं महायसं पूजेसि जनसंमज्झे, बोधत्थाय महाइसि. अप. 2.257; इसीति तापसो, थेरगा. अट्ठ. 2.304; इसीति एसति गवेसति कुसले धम्मेति इसि, बु. वं. अट्ठ. 61; -सिनो ष. वि., ए. व. - इसिनोति अधिसीलसिक्खादीनं एसनद्वेन इसिनो, अधिमुत्तत्थेरस्स, थेरगा. अट्ट, 2.230; - सिं द्वि. वि., ए. व. - कण्हदीपायनासज्ज, इसिं अन्धकवेण्डयो, जा. अट्ठ. 5.259; - सि/से सम्बो., ए. व. - तस्मा त्वं इसि मा रोदि, जा. अट्ठ. 3.187; सुणोहि वचनं मयह इसिपण्डरसव्हय, For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसि 355 इसि थेरगा. 951; इसि-मुनिसद्दानं पनालपनट्ठाने इसे मने ति रूपन्तरम्पि गहेतब्ब - "पुत्तो उप्पज्जतं इसे, सद्द. 1.184; सद्द. 3.652; तं ब्याकरोहि भगवा, कळ विनय नो इसे, सु. नि. 1031; - सीहि तृ. वि., ब. व. - तस्मा एतं न सेवामि, धम्म इसीहि सेवितान्ति, जा. अट्ठ. 3.25; सम्बरो असुरिन्दो तेहि इसीहि सीलवन्तेहि कल्याणधम्मेहि ... उबिज्जी ति, स. नि. 1(1).263; "अनणस्स हि पब्बज्जा, एतं इसीहि वणितान्ति, जा. अट्ठ, 6.21; एवं इसीहि सपथे कते सक्को भायित्वा ... अन्तरधापेसिं, जा. अट्ठ. 4.278; - सिनं/सीनं ष. वि., ए. व. - ... आयस्मन्तानं इसीनं एकरत्तम्पि इमस्मि अरओ वसितं सुवसितमेव, जा. अट्ट 4.280; संकिच्चायं अनुप्पत्तो, इसीनं साधुसम्मतो, जा. अट्ठ. 5.255; आचारं इसिनं ब्रूहि, स. नि. 1(1).273; सिद्धत्थं इसिनं सेट्ट, अप. 1.136; ख. विशिष्ट अर्थ, 1. वेदों के मन्त्रद्रष्टा ऋषि - सि प्र. वि., ए. व. - ... येन त्वं इसि भवेय्यासि, एतं कारणं न विज्जति, दी. नि. अट्ट, 1.221; - सयो प्र. वि., ब. व. - येपि खो ते ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो... वासेट्ठो कस्सपो भगु, महाव. 322; -- सीनं ष. वि., ब. व. - यथा तेसं पुब्बकानं इसीनं तानि महायआनि अहेसु ..., अ. नि. 2(2).2058 2. देवों एवं लोकोत्तर प्राणियों के साथ जुड़े हुए प्राचीन तापस या तपस्वी - सयो प्र. वि., ब. व. - ये चापि इसयो लोके, सञ्जतत्ता तपस्सिनो, जा. अट्ठ. 5.6%; येसु बुद्धा खीणासवा च पच्चेकबुद्धा च इद्धिमन्ता च इसयो न्हायन्ति, अ. नि. अट्ठ. 3.218; - नो ष. वि., ए. व. - इसिनो देहनिक्खेपकतठानं हि तस्स तं, म. वं. 20.47; परक्कम तं सफलं, अद्दसं इसिनो तदा, अप. 2.257; इसिनोति तव महेसिनो सन्तकानि भिसानि, जा. अट्ठ. 4.279; - सयो/सी प्र. वि., ब. व. - सम्बहुला इसयो । सीलवन्तो कल्याणधम्मा अरुञायतने पण्णकुटीसु सम्मन्ति, स. नि. 1(1).261; इसयोति यमनियमादीन पटिकूलसआदीनञ्च एसनद्वेन इसयो, पे. व. अट्ठ. 86; इसयो पुब्बका आसू. सु. नि. 286; तथैव इसयो हिंस, सञ्जते ब्रह्मचारिनो, जा. अट्ठ. 5.232; संयोजनबन्धनच्छिदा, अनीघा खीणपुनब्भवा इसी, थेरगा. 1243; - सीमि/हि तृ. वि., ब. व. - तेहानुचिण्णं इसीभि, मग्गं दस्सनपत्तिया, थेरीगा. 206; 3. पूर्वजन्मों में तापस के रूप में विद्यमान विभिन्न स्थविर, प्रत्येकबुद्ध, पूर्वबुद्ध एवं बोधिसत्त्व अथवा बोधिसत्त्वों का श्रद्धालु अनुयायी --सि प्र. वि., ए. व. - इसीपि अच्चुतो तत्थ, जा. अट्ठ. 7.297; अच्चुतोति एवंनामको इसि तत्थ वसति, तदे.; - सी ब. व. - इमे इसीति इमे पच्चेकबुद्धइसी, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.91; तत्थ बोधिसत्तो सब्बञ्जतं पत्तो, जेट्टन्तेवासिको सारिपत्तत्थेरो जातो, सेसा इसयो बुद्धपरिसा जाताति..., अ. नि. अट्ठ. 1.105; 4. सीमित तात्पर्य में, क. गाथाओं में बौद्ध भिक्षु का समानान्तरवर्ती बौद्धेतर ऋषि या तापस, ख. गद्य-खण्डों में प्रत्येकबुद्ध का प्रतिद्वन्द्वी तापस - सी/सयो प्र. वि., ब. व. - इसी मूलफले गिद्धा, विप्पमुत्ता च भिक्खवो ति, जा. अट्ठ. 4.336; द्वत्तिंस महापुरिसरस महापुरिसलक्खणानि बाहिरकापि इसयो धारेन्ति, दी. नि. 3.107-108; बाहिरका इसयो कामेसु वीतरागा, तेसम्पि असुचि न मुच्चति, कथा. 147; 5. वर्तमान बुद्ध के साथ घनिष्ठ रूप में जुड़े हुए तापस, क. असित एवं बुद्ध से उपसम्पदा-प्राप्त अनेक अन्य भिक्षु - सि प्र. वि., ए. व. - असितो इसि अद्दस दिवाविहारे सु. नि. 684; दिस्वा जटी कण्हसिरिव्हयो इसि, सु. नि. 694; मोघराजा च मेधावी, पिङ्गियो च महाइसि, सु. नि. 1014; ख. बुद्ध के सक्षम शिष्य, अर्हत् शिष्य - सी/सयो ब. व. - संयोजनबन्धनच्छिदा, अनीघा खीणपुनब्भवा इसी, स. नि. 1(1).222; स. प. के रूप में, आकासो इसितापसभूतदिजगणानुसञ्चरितो, मि. प. 3563 - सत नपुं.. एक सौ ऋषियों का समूह - तानं ष. वि., ब. व. - सो पञ्चन्नं इसिसतानं ओवादाचरियो हुत्वा झानकीळं कीळन्तो हिमवन्ते वसति, जा. अट्ठ. 1.414; - नो ष. वि., ए. व. - आरञ्जिकस्स इसिनो, चिररत्तं तपस्सिनो, जा. अट्ठ. 4.333; - नं/सीनं ष. वि., ब. व. - ... परामसन्तो, कासावमद्दक्खि धजं इसीनं, जा. अट्ठ. 5.43; '... गन्धो इसीनं असुचि देवराजा ति, स. नि. 1(1).262; "भासये जोतये धम्म, परगण्हे इसिनं धज सुभासितधजा इसयो, धम्मो हि इसिनं धजो ति, स. नि. 1(2).254; कदा नु पआमयमुग्गतेज, सत्थं इसीन सहसादियित्वा, थेरगा. 1098; ग. धर्मदूत एवं आचार्य आदि के रूप में ख्याति प्राप्त भिक्षु - सि/सी प्र. वि., ए. व. - गन्त्वा कस्मीरगन्धार इसि मज्झन्तिको तदा, पारा. अट्ठ. 1.47; रओ सत्तरसे वस्से, द्वासत्ततिसमो इसि. म. वं. 5. 280; महारष्टुं इसी गन्तवा, सो महाधम्मरक्खितो, म. वं. 12. 37; 6. बुद्ध के लिए प्रयुक्त उपाधि - सयो प्र. वि., ब. व. - इसयोति बुद्धादयो अरिया, अ. नि. अट्ठ. 2.298; - सीहि तृ. वि., ब. व. - तत्थ एतन्ति एतं पब्बज्जाकरण For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसिगण 356 इसिदत्त बुद्धादीहि इसीहि वणितं पसत्थं थोमितं, जा. अट्ठ. 6.21; पब्बते चिरनिवासी अहोसि, म. नि. 3.115; -- पब्बत पु.. - सिं द्वि. वि., ए. व. - दिस्वा इसिं पविट्ठ, अहिनागो कर्म. स., इसिगिलि-नामक पर्वत - स्स प. वि., ए. व. .... पावकोव पज्जलि, महाव. 30; एते बुद्ध उपागच्छु - तत्थ नगरस पस्सेति इसिगिलिपब्बतस्स पस्से सम्पन्नचरणं इसिं. सु. नि. 1132; 7. सत्पुरुषों या उत्तम काळसिलायं, थेरगा. अट्ठ. 2.446; - ते सप्त. वि., ए. व. जनों के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त, सम्मान-सूचक शब्द - ... अकासेन आगन्त्वा इसिगिलिपब्बते ओतरित्वा ..., - सयो प्र. वि., ब. व. - ये इमस्मिं अस्समे विचरणका उदा. अट्ट- 237. इसयो, ते अरज उञ्छाय गता, जा. अट्ठ. 4.393; - नं इसिगिलिपरित्त नपुं., तत्पु. स., इसिगिलि-सुत्त के मन्त्र ष. वि., ब. व. - अहञ्च इसिनं इध, जा. अट्ट. 4.393; स. की सुरक्षा या परित्राण, इसिगिलिपर्वत पर निवास करने उ. प. के रूप में गन्धारि., देवि., ब्राह्मणि., महा., महे., वाले प्रत्येकबुद्धों के नामों के पाठ द्वारा प्राप्त सुरक्षा, मातङ्ग, राजी., वेदेहि. के अन्त., द्रष्ट.. स. प. के रूप में, - ... आटानाटियपरितइसिगिलिपरित्तधइसिगण पु.. [ऋषिगण], ऋषियों का झुण्ड, ऋषियों का जग्गपरित्तबोज्झङ्ग परित्तखन्धपरित्तमोरपरित्तमेत्त समूह - णो प्र. वि., ए. व. - हिमवन्तप्पदेसे सब्बो परित्तरतनपरित्तानं..., अ. नि. अट्ठ. 2.203. इसिगणो सन्निपतित्वा तं ओवादाचरियं कत्वा परिवारेसि, इसिगिलिपस्स नपुं., तत्पु. स., राजगृह के इसिगिलि पर्वत जा. अट्ठ. 1.414; तं सुत्वा इसिगणो “मारिस, मा एवं कथेथ, का वह पार्श्वभाग या ढालू भाग, जहां बुद्ध तथा अनेक अतिभारियो ते सपथो ति कण्णे पिदहि, जा. अट्ठ. 4.274; अन्य तापसों का अत्यन्त प्रिय कालसिला-विहार अवस्थित -- णेन तृ. वि., ए. व. - महता इसिगणेन परिखतो __ था - स्से सप्त. वि., ए. व. - ... सम्भत्ता भिक्खू अरओ वसन्तो बुद्धप्पादं सुत्वा ..., थेरगा. अट्ट, 1.320; - इसिगिलिपस्से तिणकुटियो करित्वा वस्सं उपगच्छिसु. पारा. णा प्र. वि., ब. व. - अनेकसहस्सा इसिगणा किसवच्छस्स 47; इसिगिलिपस्से काळसिलायं सेनासनं पञपेहि, चूळव. तापसरस चन्दनचितकं कत्वा सरीरं झापेसं. जा. अट्ठ. 178; .... तत्थेव राजगहे विहरामि इसिगिलिपरसे काळसिलायं 5.130; - णं द्वि. वि., ए. व. - एवं इसिगणं सञआपेत्वा ..... दी. नि. 2.89; ... सम्बहला निगण्ठा इसिगिलिपस्से बोधिसत्तो ब्रह्मलोकमेव गतो, अ. नि. अट्ठ. 1.105; अथ काळसिलायं उभट्ठका होन्ति आसनपटिक्खित्ता, म. नि. महासत्तो सक्कस्स देवरओ खमित्वा सयं इसिगणं खमापेन्तो। 1.129; - स्सं प्र. वि., ए. व., - अथ खो भगवा इतरं गाथमाह-सुवासितं इसिनं एकरतं..., जा. अट्ठ. सम्बहुलेहि भिक्खूहि सद्धिं येन इसिगिलिपस्सं काळसिला 4.280; - मज्झ पु.. [ऋषिगणमध्य], ऋषिसमूह के बीच तेनुपसङ्कमि, स. नि. 1(1).143; येन इसिगिलिपस्सं - ज्झे सप्त. वि., ए. व. - सो इसिगणमज्झे ठत्वा “सचे कालसिला तेनुपसङ्कमि, स. नि. 2(1).112. ते मया भिसानि खादितानि ..., जा. अट्ठ. 4.274. इसिगिलिसुत्त नपुं.. व्य. सं., म. नि. के एक सुत्त का इसिगिलि पु., व्य. सं., राजगृह के पांच पर्वतों में से एक शीर्षक, म. नि. 3.113-117. पर्वत का नाम, (सम्भवतः आधुनिक रत्नगिरि, जिस पर इसिण्ड पु., इसिण्डि से व्यु., दूसरों को कष्ट देने वाली शान्तिस्तूप बना है); प्र. वि., ए. व. - गिज्झकूटो च वेभारो एक जनजाति- ण्डो प्र. वि., ए. व. - इसिण्डति परेसं वेपुल्लोसिगिली नगा विंझो पण्डववंकादि, अभि. प. 606%3; मद्दतीति इसिण्डो, क. व्या. 663 पर क. वु.; - ण्डा ब. 'अयं पब्बतो इमे इसी गिलती ति, इसिगिलि इसिगिलित्वेव व. - इसिण्डा मक्कला चेव, आगच्छन्ति ममं घरं अप. समा उदपादि, म. नि. 3.114; स. प. के अन्त. - 1.394. तम्हि पण्डवगिज्झकूटवेभारइसिगिलि वेपुल्लनामकानं पञ्चन्नं इसित्थ संभवतः इसित्त के स्थान पर अप., नपुं.. भाव. गिरीनं मझे वजो विय ठितं, सु. नि. अट्ट, 2.101; तत्थ [ऋषित्व], ऋषि-भाव, ऋषि-अवस्था -- त्ताय च. वि., ए. नगन्तेति इसिगिलिवेपुल्लवेभारपण्डवगिज्झकूटसङ्घातानं व.- तावता त्वं भविस्ससि इसि वा इसित्थाय वा पटिपन्नोति पञ्चन्नं पब्बतानं अन्तरे वेमज्झे, वि. व. अट्ट 65; - लिं नेतं ठानं विज्जति, दी. नि. 1.91. द्वि. वि., ए. व. - पस्सथ नो तुम्हे, भिक्खवे, इमं इसिगिलिं इसिदत्त' पु., व्य. सं., एक स्थविर, जो उपसम्पदा ग्रहण पब्बत, म. नि. 3.114; - स्मिं सप्त. वि., ए. व. --- करने से पहले अवन्ति-निवासी कुलपुत्र था, थेरगा. की अरिष्टो नाम, भिक्खवे, पच्चेकसम्बद्धो इमस्मि इसिगिलिस्मिं गाथाओं का रचयिता तथा चित्तगहपति के प्रश्नों का उत्तर 4. For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसिदत्त 357 इसिपतन देने वाला थेर - त्तो प्र. वि., ए. व. - किमिलो इसिदासी स्त्री., एक थेरी का नाम, थेरीगा. की एक कविता वज्जिपुत्तो च, इसिदत्तो महायसोति, थेरगा. (पृ.) 187; - की रचयित्री थेरी, थेरीगा. 402-449; थेरीगा. अट्ठ. 283. त्थेर पु., इसिदत्त नामक स्थविर - रो प्र. वि., ए. व. - इसिदिन्न पु., व्य. सं., 1. थेरगा. के एक कवितासंग्रह का अथेकदिवसं इसिदत्तत्थेरो तत्थ गन्त्वा विहरन्तो.... अ. नि. रचयिता एक कवि-थेर, थेरगा. 186-187; थेरगा. अट्ठ. अट्ठ. 1.287; - स्स प. वि.. ए. व. - पञ्चक्खन्धा परिआताति 1.340-341; स. प. के अन्त., इच्चेवं सच्चबन्ध - इसिदिन्न आयस्मतो इसिदत्तत्थेरस्स गाथा, थेरगा. अट्ट, 1.258. - महापुण्णादयो पटिच्च अम्हाकं मरम्ममण्डले सासनं इसिदत्त' पु., व्य. सं., एक गहपति का नाम, सदा पतिहासि, सा. वं. 52; 2. एक व्यापारी का नाम, स. प. पुराण/पूरण के नाम के साथ ही प्रयुक्त – त्तो प्र. वि., के अन्त. - वाणिजगामे च इसिदिन्नसेडिआदीनं पि ए. व. - पेत्तेय्योपि मे, भन्ते, इसिदत्तो अब्रह्मचारी अहोसि धम्मरसं पायेसि, सा. वं. 52. सदारसन्तट्ठो, अ. नि. 2(2).63; पञआय इसिदत्तो समन्नागतो इसिद्धज पु./नपुं., तत्पु. स. [ऋषिध्वज], ऋषि का अहोसि तथारूपाय पाय पुराणो समन्नागतो अभविस्स. (काषाय वस्त्र आदि के रूप में) विशिष्ट पहचान-चिह्न, अ. नि. 3(2).119; - स्स ष. वि., ए. व. - पूरणस्स ऋषि का वेश, चीवर - जं द्वि. वि., ए. व. - सिरस्मि सील इसिदत्तस्स पआठाने ठितं. इसिदत्तस्स पञआ पूरणस्स अञ्जलिं कत्वा, वन्दितब्बं इसिद्धजं, अप. 1.45; ... सीलहाने ठिताति, अ. नि. अट्ठ. 3.117. वन्दितब्बं इसिद्धजं अरहत्तद्धजं बद्धपच्चेकबुद्धसावकदीपक इसिदत्त पु., व्य. सं., सोरेय्य का एक शासक, जिसने चीवरं नमस्सितब्बं ... अप. अट्ठ. 1.303; इसिद्धजं अरियानं अनोमदस्सी बुद्ध का धर्मोपदेश सुनते ही अर्हत्त्व प्राप्त कर धज परिक्खारं तदे.. लिया था - स्स ष. वि., ए. व. - तत्थ सोरेय्यनगरे इसिनाम त्रि., ब. स., किसी ऋषि के नाम वाला – मे नपुं., इसिदत्तस्स रओ धम्मे देसियमाने .... बु. वं. अट्ठ. 199. सप्त. वि., ए. व. - इसिनामे मिगारजे, अमतभेरिमाहनि, इसिदत्त' पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के शासक वट्टगामणी के अप. 1.46; थेरगा. अट्ठ. 2.214. समय के श्रीलङ्का के संघनायक थेरों में एक - त्त संबो., इसिनामक त्रि., ब. स. [ऋषिनामक], ऋषि नाम वाला, ए. व. - अथ चूळसीवत्थेरो इसिदत्तत्थेरं आह - "आवुसो ऋषि-नामधारी - का पु., प्र. वि., ब. व. - इसयोति इसिदत्त, अनागते महासोणत्थेरं निस्साय सासनपवेणी इसिनामका ये केचि इसिपब्बजे पब्बजिता आजीवका निगण्ठा ठस्सति, विभ, अट्ठ. 421. जटिला तापसा, चूळनि. 43. इसिदत्तपुराण पु., द्व. स., व्य. सं., कोशल के राजा इसिनिसभ पु., तत्पु. स. [ऋषि-नृषभ], सर्वश्रेष्ठ ऋषि प्रसेनजित के इसिदत्त एवं पुराण नामक दो अश्वपाल, जो (बुद्ध), ऋषियों में सर्वोत्तम ऋषि, बुद्ध की एक उपाधि - बुद्ध के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान थे - णा प्र. वि., ब. व. भो प्र. वि., ए. व. - बुद्धो च मे इसिनिसभो विनायको, वि. - इमे इसिदत्तपुराणा थपतयो ममभत्ता ममयाना, म. नि. व. 143; इसीसु निसभो, इसीनं वा निसभो, इसि च सो 2.333; इसिदत्तपुराणाति इसिदत्तो च पुराणो च म. नि.. निसभो चाति वा इसिनिसभो, वि. व. अट्ट, 66; - भं द्वि. अट्ठ. (म.प.) 2.252; तेन खो पन समयेन इसिदत्तपुराणा वि., ए. व. - सुत्वान घोसं जिनवरचक्कवत्तने, गन्त्वान थपतयो साधुके पटिवसन्ति केनचिदेव करणीयेन, स. नि. दिस्वा इसिनिसभं पसन्नो, सु. नि. 703; - भा प्र. वि., ब. 3(2).415; एकमन्तं निसिन्ना खो इसिदत्तपुराणा थपतयो व. - इसिनिसभाति इसीसु निसभ अजानीयसदिस, वि. व. भगवन्तं एतदवोचु, नेत्ति. 112. अट्ठ. 220. इसिदास पु., व्य. सं., इसिभट का भाई तथा कठिन-चीवर इसिपतन नपुं., तत्पु. स., व्य. सं. नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाला एक स्थविर - [ऋषिपतन/ऋषिपत्तन/ऋषिपट्टन]. शा. अ.. ऋषियों सो प्र. वि., ए. व. - आयस्मा च इसिदासो आयस्मा च (बुद्धों, प्रत्येकबुद्धों) के एकजुट होने (सन्निपात) का स्थान, इसिभटो, महाव. 391. वह स्थान जहां ऋषि लोग आकर उतरते हैं, एक दूसरे इसिदासिका स्त्री., एक थेरी का नाम, दूसरा नाम संभवतः से मिलते हैं तथा पुनः उत्पतित हो जाते हैं -- ने सप्त. इसिदासी - का प्र. वि., ए. व. - पटाचारा धम्मदिन्ना वि., ए. व. - पञ्चमे इसिपतनेति बुद्धपच्चेकबुद्धसङ्घातानं सोभिता इसिदासिका, दी. वं. 18.10. इसीनं धम्मचक्कप्पवत्तनत्थाय चेव उपोसथकरणत्थाय च For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इसिपतन आगन्त्वा पतने, सन्निपातद्वानेति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.8182; नं प्र. वि., ए. व. इमिना इसीनं पतनुप्पतनवसेन तं इसिपतनन्ति वुच्चति, पटि. म. अड. 2.198 ला. अ. बौद्धों के चार परम पावन स्थलों में दूसरा स्थल, जहां पर सारे बुद्ध धर्मचक्रप्रवर्तन करते हैं, बुद्धों द्वारा धर्मचक्रप्रवर्तन किए जाने का स्थान - ने सप्त. वि., ए. व. धम्मचक्कप्पवत्तनद्वानं इसिपतने मिगदाये अविजहितमेव होति, बु. वं. अट्ठ 149; चत्तारि हि अचलचेतियट्ठानानि नाम महाबोधिपल्लङ्कट्ठानं इसिपतने धम्मचक्कप्पवत्तनद्वानं... मञ्चपादट्ठानन्ति, म. नि. अ. (म.प.) 1 (2) 70, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बाराणसियं विहरति इसिपतने मिगदाये. म. नि. 2.250; सो सुदं भगवा वीसति भिक्खुसहस्त्रपरिषुतो तत्थेव इसिपतने वसति, सु. नि. अड. 1.260 परियोसानं जानातीति पुच्छित्वा इमे तात. इसयो इसिपतने विहरन्ति ध. प. अ. 2.254 पच्चेकबुद्धे नन्दमूलकपब्भारतो इसिपतने ओतरित्वा, नगरे पिण्डाय चरित्वा इसिपतनमेव गन्त्वा, थेरीगा. अह. 155: तदा बोधिसतो वाराणसियं कुलघरे निब्बतित्वा वयप्पत्तो इसिपब्बज्जं पब्बजित्वा इसिगणपरिवुतो इसिपतने वासं कप्पेसि, जा. अट्ठ. 2.294; नं' प्र. वि., ए. व. अथ खो भगवा अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन वाराणसी इसिपतनं मिगदायो, महाव. 12; येन वाराणसी इसिपतन मिगदायो येन पञ्चवग्गिया भिक्खु तेनुपरमं म. नि. 1.231 - न हि. वि. ए. व. तेसं धम्मं देसेतुकामो बाराणसियं इसिपतनं गत्वा धम्मचक्कं पवत्तेसीति, स. नि. अट्ठ 1.178 विहार पु. वाराणसी के इसिपत्तन में निर्मित एक विहार स्सष. वि. ए. व. - "... पवत्तमानाय एही "ति वत्वा इसिपतनविहारस्स पिट्ठिपरसेन थोकं गन्त्वा अट्टासि पे व अड. 47. इसिपतन' नपुं. वाराणसी के इसिपतन के ही नाम वाला श्रीलङ्का के शासक परक्कमबाहु प्रथम द्वारा पुलत्थि नगर के समीप निर्माण कराया गया श्रीलङ्का का एक विहार, आधुनिक पोलन्नरुव के समीप निर्मित एक विहार - नं द्वि. वि., ए.व. तथेसिपतनं साखानगरे यतिनन्दनं, चू. वं. 78.79 स. प. के अन्त. वेळुवनेसिपतनकुसिनारव्हयेन च, चू, वं. 73-152. इसिब्बज्जा / इसि पब्बजा स्त्री, तत्पु० स० [ ऋषिप्रव्रज्या ]. ऋषियों की प्रव्रज्या, बौद्धेतर तापसों या ऋषियों के रूप में गृहत्यागी जीवन में प्रवेश, आजीवक, निर्ग्रन्थ, जटिल - www.kobatirth.org ... 358 इसिप्पवेदित आदि श्रमणों के रूप में दीक्षा या प्रव्रजित होना ज्जं द्वि. वि. ए. व. इसयोति इसिनामका ये केचि इतिपब्बज्ज पब्बजिता आजीवका निगण्ठा जटिला तापसा, चूळ. नि. 43; प्रायः पू० का ० क्रि० के साथ प्रयुक्त इसिपबज्जे पब्बजित्वा तत्थेव अरज्ञे वसिस्सामीति आह जा. अनु. 1.286 इसिप बजे पथ्यजित्वा उञ्छाचरियाय वनमूलफलाफलेहि यापेन्तो वास कप्पेसि, जा. अड 3.343; उग्गहितसिप्पो इसिपब्वज्जं पब्बिजित्वा झानाभिज्ञा निब्बत्तेत्वा हिमवन्तपदेसे वासं कप्पेसि, जा. अड. 5.184; सत्तसतकमहादानं दत्वा इसिपव्बज्जं पब्बजित्वा पञ्च अभिञ्ञा अट्ट समापत्तियो निब्बत्तेति, अ. नि. अट्ठ. 1.98 पब्बतपादं पविसित्वा इसिपवज्जं पब्बजि ध, प. अड. 1.61: पब्बतपादे इसिपब्बज्जं पब्बजित्वा अट्टसमापत्तियों पञ्च च अभिज्ञायो निब्बत्तेसि, थेरगा. अट्ठ. 1.16; यदा कदा भू० क० कृ० आदि के साथ भी प्रयुक्त - अतीते पञ्च जातिसतानि इसिपब्बज्जं पब्बजितोपि अ. नि. अट्ठ. 1.108; सप्त. वि., ए. व. तत्थ येन अतीतभवेपि सासने वा इसिपव्वज्जाय या पब्बजित्या पथवीकसिणे विसुद्धि. 1.120 बुद्धादयो अरिया तापसपब्बज्जाय च पब्बजिता नरा, सद्द० 2.442. इसिपरिक्खार पु०, तत्पु० स० [ ऋषिपरिष्कार ], ऋषि की सामग्री या उपकरण रे हि. वि. ब. व. दिस्वा इसिपरिक्खारे पण्णसालवरे तहि, जिन. 32. इसिपलोभिका स्त्री० [ ऋषिप्रलोभिका ], ऋषि को पथभ्रष्ट करने वाली नारी, ऋषि को मोहित कर तपोभ्रष्ट करने वाली स्त्री 1- का प्र. वि. ए. व. 'निसिप्पलोभिका गच्छे, एतं सक्क वरं वरेति, जा. अट्ठ. 5.156 - यष. वि., ए. पुन इसिपलोभिकाय न गच्छेय्यं, जा. अट्ठ. 5.156. इसिपूग नपुं तत्पु स ऋषि गण, ऋषि समूह समञ्जात त्रि ऋषिगणों द्वारा अनुमोदित ते सप्त वि. ए. व. इसिपूग समातेति इसिगणेन सुद्ध अज्ञाते इसीनं सम्मते, जा. अट्ठ. 5.8. व. " इसिप्पयात स्त्री, तत्पु, स. [ ऋषिप्रयात] ऋषियों द्वारा अनुसृत, ऋषि द्वारा पकड़ा हुआ तम्हि पु. सप्त. वि., ए. क. इसिप्पयातम्हि पथे वजन्ते ओवस्सते ते नु कदा भविस्सति, थेरगा. 1105; इसिप्पयातम्हि पथे वजन्तन्ति बुद्धादीहि महेसीहि सम्मदेव.... थेरगा. अड. 2.395. इसिप्पवेदित त्रि तत्पु स [ ऋषिप्रवेदित] ऋषि द्वारा उपदिष्ट, ऋषि द्वारा बतलाया गया तं पु. द्वि. वि. ए. 7 - For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - — - - -- Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसिभट्ट 359 इसिवेस व. - एते तयो कम्मपथे विसोधये आराधये मग्गमिसिप्पवेदितं ध. प. 281. इसिभट्ट पु., व्य. सं., एक स्थविर जो इसिदास नामक दूसरे स्थविर का भाई था-ट्टो प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन द्वे भातिका थेरा, आयस्मा च इसिदासो आयस्मा च इसिभटो, महाव. 391. इसिभण्ड नपुं., तत्पु. स. [ऋषिभाण्ड], ऋषि का उपकरण, ऋषि का साजो-सामान, ऋषि की खास चीजें - ण्डं द्वि. वि., ए. व. - ... पण्णसालं पविसित्वा इसिभण्डं ओमञ्चित्वा पटिसामेत्वा सङ्घवण्णसाटकं निवासेत्वा ..., जा. अट्ठ. 7.373. इसिभत्तिक त्रि., ब. स., केवल स. उ. प. में प्रयुक्त [ऋषिभक्तिक], शा. अ., ऋषियों के प्रति भक्ति रखने वाला, ला. अ., भिक्षुओं की चिकित्सा करने वाला चिकित्सक या भिक्षुओं का परिचारक - सभावको, स्वभाव से ही ऋषियों का भक्त पु., प्र. वि., ए. व. - सभावइसिभत्तिको सुतमन्तपदधरो अतक्किको रोगप्पत्तिकुसलो.... मि. प. 233. इसिभाव पु.. [ऋषिभाव], ऋषि होने की अवस्था, ऋषित्व - वं द्वि. वि., ए. व. - तस्मा पटिनं अगहेत्वाव तं इसिभावं पटिक्खिपि, दी. नि. अट्ठ. 1.221. इसिभासित त्रि., तत्पु. स. [ऋषिभाषित], ऋषियों द्वारा कहा गया, ऋषियों द्वारा उपदिष्ट - तो पु., प्र. वि., ए. व. - धम्मो नाम बुद्धभासितो, सावकभासितो, इसिभासितो ... धम्मूपसम्हितो, पाचि. 263 इसिभासितोति बाहिरपरिब्बाजकेहि भासितो सकलो परिब्बाजकवग्गो, पाचि. अट्ठ. 8. इसिभूमङ्गन/ण नपुं., व्य. सं., श्रीलङ्का में अनुराधपुर का । वह स्थान, जहां महेन्द्रथेर के शरीरावशेषों का आधा भाग राजा उत्तिय द्वारा रखा गया था - नं प्र. वि., ए. व. - इसिनो देहनिक्खेप... वुच्चते बहुमानेन, इसिभूमङ्गणं इति, म. वं. 20.46; तस्मा तं तस्स इसिनो... इसिभूमङ्गणं इति वुच्चती ति, म. वं. टी. 380(ना.). इसिभूमि स्त्री., उपरिवत् - मि प्र. वि., ए. व. - कतं सरीरनिक्षेपं महिन्दस्स तदा यहिं इसिभूमी ति तस्सायं समा पठम अहू, दी. वं. 17.113. इसिमिग/इस्समिग पु., एक प्रकार का मृग, सफेद पैरों वाली नीलगाय, गवय, बड़ा हिरन जो गाय के बराबर होता है-स्स ष. वि., ए. व. - विपरिवत्तायोति यथा इस्समिगरस सिङ्ग परिवत्तित्वा ठितं. जा. अट्ठ. 5.428. इसिमुग्ग 1. पु., [ऋषिमुदग], एक पौधा, जिसके फलों की दाल बनती है, मूंग की दाल का पौधा - ग्गा प्र. वि., ब. व. - आळका इसिमुग्गा च कदलिमातुलुङ्गियो, अप. 1.13; अप. 1.381; 2. नपुं.. मूंग के पौधे का पुष्प - ग्गानि द्वि. वि., ब. व. - इसिमुग्गानि पिसित्वा मधुखुद्दे अनीळके, अप. 1.199. इसिमुग्गदायक पु.. व्य. सं., एक स्थविर - को प्र. वि., ए. व. - इत्थं सुदं आयस्मा इसिमुग्गदायको थेरो इमा गाथायो अभासित्थाति, अप. 1.199. इसिलिङ्ग नपुं., तत्पु. स. [ऋषिलिङ्ग], ऋषि के वेशभूषा आदि विशिष्ट पहचान-चिह्न, ऋषि का चिह्न या वेशभूषा - ङ्ग द्वि. वि., ए. व. - इमं इसिलिङ्ग, हारेत्वा राजवेसं गण्ह ताताति इमिना किर नं अधिप्पायेनेवमाह, जा. अट्ठ. 7.373. इसिवर पु., तत्पु. स. [ऋषिवर], शा. अ., ऋषियों में श्रेष्ठ या उत्तम, ला. अ., नारद का गुणसूचक विशेषण या उपाधि - रो प्र. वि., ए. व. - अथागमा इसिवरो सब्बलोकगू सुपुष्फितं दुमवरसाख मादिय, जा. अट्ठ. 5.388. इसिवातपटिवात त्रि., तत्पु. स. [ऋषिवातप्रतिवात], विरुद्ध दिशा की ओर भी बहने में समर्थ ऋषियों के गुणों या उत्तम आचरण की वायु से भरा हुआ - तो पु., प्र. वि., ए. व. - ... जेतवनं आगते सकलविहारो कासावपज्जोतो इसिवातप्पटिवातो होति, अ. नि. अट्ठ. 1.55; - तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - गेहं निच्चकालं भिक्खुसङ्घस्स ओपानभूतं कासावपज्जोतं इसिवातपटिवातं, जा. अट्ठ. 3.121; - तानि प्र. वि., ब. व. - यानि वा पन तानि... ओपानभूतानि कासावपज्जोतानि इसिवातपटिवातानि अत्थकामानि .... विभ. 277; विसुद्धि. 1.18; गेहं पविसन्तानं निक्खमन्तानञ्च भिक्खुभिक्खुनीसङ्घातानं इसीन चीवरवातेन चेव समिञ्जनपसारणादिजनितसरीरवातेन च पटिवातानि पवायितानि विनिद्धतकिब्बिसानि वा, विभ. अट्ठ. 324; - ता पु., प्र. वि., ब. व. - ततो पभुति च कस्मीरगन्धारा .... इसिवातपटिवाता, पारा, अट्ठ. 1.47. इसिवेस पु., तत्पु. स. [ऋषिवेश, ऋषि का पहनावा, ऋषि की वेशभूषा - सं द्वि. वि., ए. व. - किमत्थं दूसयिस्सामि इसिवेसं दुरासदं सद्धम्मो. 384; ... जटामण्डलं बन्धित्वा इसिवेसं गहेत्वा कत्तरदण्ड आदाय .... जा. अट्ठ. 7.280; चरिया. अट्ठ. 86; - सेन तृ. वि., ए. व. - काजकमण्डलु आदाय इसिवेसेनागन्त्वा पण्णसालद्वारे अग्गिस्स कारणा ..., जा. अट्ठ.2.225. For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra इसिव्हय इसिव्हय त्रि०, ब० स० [ ऋष्यावय], ऋषि नाम वाला ये सप्त. वि. ए. व. वत्तेस्सति चक्कमिसिव्हये वने सु. नि. 689; इसिव्हयं गमित्वान, विनेत्वा पञ्चवग्गिये, अप. 2.153. इसिस पु. तत्पु. स. [ ऋषिसह ] ऋषिमण्डली, ऋषिसमूह हे सप्त वि. ए. व. - इसिस अहं पुब्बे, आसिं मातङ्गवारणी, अप. 1.266; अहं पुब्बे बोधिसम्भारपूरणकाले इसिस पच्चेकबुद्धइसिसमूहे अप. अड. 2.191; एकतिंसतिमे वग्गे पठमापदाने इसिस अहं पुब्बेति अप. अट्ठ. 2.191; निसेवित त्रि, तत्पु० स० [ ऋषिसङ्घनिसेवित] ऋषियों के समूह द्वारा उपयोग किया जा रहा, ऋषि समूह द्वारा सेवा किया जा रहा तं नपुं०, प्र. वि., ए. व. - इदहि तं जेतवनं, इसिसङ्घनिसेवितं, म. नि 3.314; तो पु०, प्र. वि. ए. व. ताणो पञ्ञावुधो सत्था, इसिसङ्घनिसेवितो, थेरगा. 763; इसिसङ्खेन अग्गसावकादिअरियपुग्गलसमूहेन निसेवितो पयिरूपासितो इसिसङ्घनिसेवितो, थेरगा. अट्ठ. 2.244. - इसिसत्तम पु. तत्पु स. [ ऋषिसत्तम / ऋषिसप्तम] 1. ऋषियों में श्रेष्ठ (बुद्ध), 2. ऋषियों के बीच (बुद्धों के बीच ) सातवां (गौतम बुद्ध) विपस्सी, सिखी, वेस्सभू, ककुसन्ध कोणागमन तथा कस्सप इन छ बुद्धों सहित सातवें के रूप में गौतम बुद्ध मो प्र. वि. ए. व. नागनामोसि भगवा, इसीनं इसिसत्तमो. स. नि. 1 (1).223; इसीनं इसिसत्तमोति विपरिसतो पट्टाय इसीनं सत्तमको इसि स. नि. अट्ट 1. 245; इसीनं इसिसत्तमोति सावकपच्चेकबुद्धइसीनं उत्तमो इसि. विपस्सीसम्मासम्बुद्धतो पद्वाय इसीनं वा सत्तमको इसि थेरगा. अड. 2444-445 - म सम्बो., ए. व. एस सुत्वा पसीदामि वचो ते इसिसत्तम सु. नि. 358; तत्थ पठमगाथाय इसिसतमाति भगवा इसि च सत्तमो पातुभूतोतिषि इसिसत्तमो सु. नि. अड. 2.76; - छ इसयो अत्ता सह सत्त करोन्तो पातुभूतोतिपि इसिसत्तमो, तं आलपन्तो आह, सु. नि. अड. 2.76 - मं द्वि. वि. ए. व. तदाहं सन्थविं वीरं, गाथाहि, इसिसत्तमं, अप. 2.149. इसिसामञ्ञ नपुं तत्पु स [ ऋषिश्रामण्य]. ऋषि का श्रमणभाव, भिक्षु का श्रमणभाव, स. प. के अन्त इसिसामञ्ञभण्डुलिङ्गधारणतोपि दक्खिणं विसोधेति मि. ए. - - www.kobatirth.org - 360 240. इसिसिङ्ग पु. [ ऋष्यशृङ्ग / ऋश्यशृङ्ग, बौ. सं., ऋषिशृङ्ग]. एक ऋषि, मृग के दो शृङ्गों जैसे मस्तक पर उठे हुए दो चूलों (केशों के कारण इसिसिङ्ग नाम को प्राप्त एक ऋषि, इस्सति बोधिसत्त तथा एक मृगी के सम्पर्क के फलस्वरूप उत्पन्न एक ऋशि द्वि. वि. ए. व. - इसिप्पलोभने गच्छ इसिसिङ्ग अलम्बुसे, जा० अट्ठ. 5.147; इसिसिङ्गन्ति तस्स किर मत्थके मिगसिङ्गाकारेन द्वे चूळा उद्वहिंसु तस्मा एवं वुच्यति जा. अट्ठ. 5.147; ङ्गो प्र. वि., ए. व. महासत्तो तं पुत्तसिनेहेन पटिजग्गि, इसिसिङ्गो तिस्स नाम अकासि जा. अट्ट, 5.146; द्रष्ट, अम्बुसाजातकवण्णना जा. अट्ट. 5.145-156; तेन परसावसम्भवेन संकिच्चो च कुमारो इसिसिङ्गो च तापसो. मि. प. 129 स्सष. वि., ए. व. कुमारस्स इसिसिङ्गस्स च तापसस्स थेरस्स च मि. प. 130. इसीका / इसिका / इसिका स्त्री. [ इषीका, इशीका ]. नरकट, नरकुल, सरकण्डा, सौंक, नड का प्र. वि., ए. व. "सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिकं पवाहेय्य मुञ्जम्हा त्वेव इसिका पवाळ्हा ति दी. नि. 1.67; म. नि. 2.219; मुञ्जम्हा ईसकन्तिआदि उपमात्तयम्पि हि सदिसभावदस्सनत्थमेव वृत्तं, अन्तो इसिका होति, दी. नि. अट्ठ. 1.179 - कं द्वि. वि. ए. व. 3 सो ततो ईसिकं लुञ्चित्वा परससि सीवलि, अयं इध पुन घटेतु न सक्का, जा. अट्ठ. 6.81; द्वायिट्ठित त्रि, मूंज के अन्दर सरकण्डे के समान स्थित तो पु. प्र. वि. ए. व. - केचि पन ईसिकट्ठायिट्ठितोति पाळिं वत्वा मुञ्जे ईसिका विय ठितोति वदन्ति दी. नि. अट्ठ. 1.91; "सो एवमाह - "सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो, दी. नि. 1.12. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - इसु पु. [ इषु) वाण इसु उसु सद्द 5.1254. इस ईर्ष्या अर्थ वाली एक धातु इस्स इस्सायं. इस्सति, "देवा न इस्सन्ति पुरिसपरक्कमस्स, इस्सा इस्सायना", सद्द. 2.441; कुध - दुह- इस्स इच्चेतेसं धातूनं पयोगे, .... तं कारकं सम्पदानसञ्ञ होति, क. व्या० 279. इस्स पु० [ ऋष्य / ऋश्य ] एक प्रकार का वन्य पशु, संभवतः भालू अथवा कृष्णमृग ? सो प्र. वि., ए. व. - अच्छो इक्को च इस्सो तु, अभि. प. 612; "इस्सा" ति वुत्ते 'एवनामिका धम्मजाती 'ति विञ्ञयति, "इस्सो "ति वुत्ते पन 'अच्छमिगो ति विञ्ञयति, सद्द० 1.129; - स्सं द्वि. वि., ए. व... इस्सति उपदुस्सति इस्सं बन्धति म. नि. 3.252. इस्सति' इस्स (ईर्ष्या करना) का वर्त. प्र. पु. ए. व. [ईर्ष्यति] ईर्ष्या करता है, डाह करता है इस्स इस्सायं इस्सति, सद्द. 2.441; वत्तमानवसेन ताव इस्सति इस्सन्ति, " - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सति 361 इस्सर इस्ससि इस्सथाति सब्बं योजेतब्ब, सद्द. 2.320; परलाभसक्कारगरुकारमाननवन्दनपूजनासु इस्सति उपदुस्सति इस्सं बन्धति, म. नि. 3.252; अ. नि. 1(2).233; एवं मक्खी पळासी तस्स लाभसक्कारादीसु किं इमस्स इमिनाति इस्सति पदुस्सति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).114; - न्ति ब. व. - "देवा न इस्सन्ति पुरिसपरक्कमस्स, सद्द. 3.695; सद्द. 2.320. इस्सति' Vइ (गत्यर्थक) के भवि., प्र. पु., ए. व. [एष्यति]. जाएगा - इस्सति इस्सन्ति, इस्ससि ..., सद्द. 2.319. इस्सते ।इस (इच्छार्थक) के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व. [इष्यते], चाहा जाता है, इच्छा की जाती है - इस्सते इस्सन्ते, सद्द. 2.319; सो इच्छीयति, एसीयति, इस्सते, इस्सति, यकारस्स पुब्बरूपत्तं, प. रू. सि. 476. इस्सत्त/इस्सत्थ' पु./नपुं.. [इष्वरत्व], वाणशिल्प, वाणविद्या, शस्त्र-व्यवसाय - त्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - इस्सत्तन्ति उसुसिप्पं, स. नि. अट्ठ. 1.146; इस्सत्तं बलवीरियञ्च, यस्मिं विज्जेथ माणवे, स. नि. 1(1).118; उसून असनकम्मं इस्सत्तं, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).38; - त्थं द्वि. वि., ए. व. - यो हि कोचि मनुस्सेस इस्सत्थं उपजीवति, सु. नि. 622; इस्सत्थन्ति आवुधजीविक, उसुञ्च सत्तिं चाति वुत्तं होति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.306; सु. नि. अट्ठ. 2.169; – त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - इस्सत्थो वुच्चति आवुधं गहेत्वा उपट्ठानकम्म, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).369; - त्थेन तृ. वि., ए. व. - यदि कसिया यदि वणिज्जाय यदि गोरक्खेन यदि इस्सत्थेन यदि राजपोरिसेन यदि सिप्पञतरेन, म. नि. 1.120; - त्थे सप्त. वि., ए. व. - इस्सत्थे चस्मि कुसलो, दळहधम्मोति विस्सुतो, जा. अट्ठ. 6.91. इस्सत्तसुत्त नपुं., स. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, स. नि. 1(1).117-118. इस्सफन्दना पु., द्व. स., प्र. वि., ब. व., शा. अ..1. कृष्णमृग एवं फन्दन वृक्ष, 2. ईर्ष्या या द्वेष से स्पन्दित या प्रकम्पित होना, ला. अ.. सांप-नेवले के समान स्वाभाविक शत्रुता, पारस्परिक द्वेषभाव, परछिद्रान्वेषणता - सम्मोदथ मा विवदथ, मा होथ इस्सफन्दना, जा. अट्ठ. 4.188; मयूरनच्च नच्चन्ति, यथा ते इस्सफन्दना, तदे.; यथा ते इस्सफन्दना अञमञस्स रन्धं पकासेन्ता नच्चिसु नाम, तदे; - सदिस त्रि., 1. कृष्णमृग एवं फन्द न वृक्ष के समान एक दूसरे की कमी निकालने वाला, 2. सांप-नेवले के समान स्वाभाविक बैरी - सा पु., प्र. वि., ब. व. - यावन्तेत्थाति यावन्तो एत्थ इस्सफन्दनसदिसा मा अहुवत्थ, जा. अट्ठ. 4.188. इस्समान/इस्सामान नपुं.. ईर्ष्या एवं अभिमान - नेन तृ. वि., ए. व. - न तावाहं पणिपति, इस्सामानेन वञ्चितो, थेरगा. अट्ठ. 2.72; थेरगा. 375; इमस्स मयि सावकत्तं उपगते मम लाभसक्कारो परिहायिस्सति, इमस्स एवं ... परसम्पत्तिअसहनलक्खणाय इस्साय चेव 'अहं गणपामोक्खो बहुजनसम्मतो ति एवं अभुन्नतिलक्खणेन मानेन च वञ्चितो, थेरगा. अट्ठ. 2.72. इस्समिग पु., [ऋष्यमृग], एक वन्य पशु, सफेद पैरों वाला कृष्णमृग - गा प्र. वि., ब. व. - इस्समिगाति काळसीहा, जा. अट्ठ. 5.413; - स्स ष. वि., ए. व. - ... विपरिवत्तायोति यथा इस्समिगस्स सिङ्ग परिवत्तित्वा ठितं. जा. अट्ठ. 5.428; स. प. के अन्त., - "एवमक्खायति ... इस्समिगसाखमिगसरभमिगएणी मिगवातमिगपसदमिगपरि सालुकिम्पुरिसयक्खरक्ख सनिसेविते..., जा. अट्ठ. 5.411. इस्सयति इस्सा के ना. धा. से व्यु.. वर्त., प्र. पु., ए. व., ईर्ष्या करता है, डाह जैसा करता है -न्ति ब. व. - तिथिया इस्सयन्ति समणानं, सद्द. 3.695. इस्सयितत्ता नपुं., भाव., ईर्ष्यालुता, डाहपन - त्तं प्र. वि., ए. व. - यं एवरूपं निवारियं निद्वारियकम्मं इस्सा इस्सायना इस्सियतत्तं उसूया उसूयना उसूयितत्तं, महानि. 330. इस्सर पु., [ईश्वर], क. स्वामी, प्रभु, ज्येष्ठ, उच्च पदासीन अधिकारी, शासक, राजा, समर्थ, शक्तिशाली - रो प्र. वि., ए. व. - चक्कवत्ती अहं राजा, जम्बुमण्डस्स इस्सरो, अ. नि. 2(2).228; इस्सरो पणये दण्डं ध. प. अट्ठ. 2.103; इस्सरो धनधअस्स सुपहूतस्स मारिस, पे. व. 510; चातुरन्तो विजितावी, जम्बुसण्डस्स इस्सरो, सु. नि. 557; इद्धिमा यसवा होति, जम्बुमण्डस्स इस्सरो, अ. नि. 2(2).228; - रा ब. व. - कते इस्सरा होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.133; तंनिबन्धा अकतं सेनासनं करोन्ति, जिण्णं पटिसङ्करोन्ति, कते इस्सरा होन्ति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.133; -रं द्वि. वि., ए. व. - चतुन्नमपि दीपानं, इस्सरं योध कारये, वि. व. 194; - र सम्बो., ए. व. - वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर, जा. अट्ठ. 7.351; - रानं ष. वि., ब. व. - अयहि अम्हाक वचनं अकत्वा कीळाहंसे नो कत्वा इस्सरानं देन्तो बह धनं लभेय्य, जा. अट्ठ. 5.339; ख. महाब्रह्मा, सृष्टिकर्ता देव ब्रह्मा, लोकेश्वर पिथ For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सरकत 362 इस्सरनिम्मानवादी ब्रह्मा - रो प्र. वि., ए. व. - ... महाब्रह्मा अभिभू व. - इस्सरो लोक पवत्तेति सज्जेति निवत्तेति संहरतीति अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता ..., दी. इस्सरकारणिनो वदन्ति, विसुद्धि. महाटी. 2.204. नि. 1.16; ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू ... इस्सरो ... पिता इस्सरकाल पु., तत्पु. स., धन-सम्पत्ति आदि की प्रचुरता भूतभब्यानं, दी. नि. 3.21; - रेन तृ. वि., ए. व. - का समय, समृद्धि एवं सौभाग्य का काल - ले सप्त. वि., निगण्ठा पापकेन इस्सरेन निम्मिता यं एतरहि एवरूपा ए. व. - "तथा गहपतिं परिभिन्दिस्सामी ति तं वत्तकामापि दुक्खा तिब्बा कटुका वेदना वेदियन्ति, म. नि. 3.8; ग. इस्सरकाले किञ्चि वत्तुं नासक्खि, ध. प. अट्ठ. 2.7; त्रि., अधिकृत, अनुमोदित - रा पु., प्र. वि., ब. व. - अम्हाकं सेट्टि अत्तनो इस्सरकाले तुम्हे न किञ्चि आह, जा. भिक्खू- गोपेतुं इमे इस्सरा, नयिमे दातुन्ति, कुक्कुच्चायन्ता अट्ठ. 1.225. न पटिग्गण्हन्ति, पारा. 77; - रो पु., प्र. वि., ए. व. - इस्सरकुत्त नपुं., तत्पु. स. [ईश्वरक्लुप्त], ईश्वरकृत रचना, निज्झापेतुं महाराज, राजापि तत्थ निस्सरो, जा. अट्ट. ईश्वर-कर्तृत्त्व, सृष्टिकर्ता ईश्वर का सृजन - त्तं द्वि. वि., 7.276; घ. त्रि., सक्षम, समर्थ, सशक्त, समृद्ध, धनाढ्य - ए. व. - एके समणब्राह्मणा इस्सरकुत्तं ब्रह्मकुत्तं आचरियक रानि नपुं., प्र. वि., ब. व. - एवं महाकुलानि दुग्गतानि अग्गझं पञपेन्ति, दी. नि. 3.20. भविस्सन्ति, लामककुलानि इस्सरानि, जा. अट्ठ. 1.323; - इस्सरकुत्तिक त्रि., संसार को ईश्वर-कृत या ईश्वर द्वारा रो पु.. प्र. वि., ए. व. - अवोति इस्सरो, म. नि. अट्ट रचित मानने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अहेतुवादो (म.प.) 2.293; स. उ. प. के रूप में, अग्गि., अति.-भेसज्ज, पुरिसो, यो च इस्सरकुत्तिको, जा. अट्ठ. 5.229, अधिकि.-वचन, अनि., अवनि., असुरि., गरुडि., चित्ति., इस्सरजन पु., कर्म. स. [ईश्वरजन], समर्थ जन, सक्षम तम्बपण्णिकुलि., धतरट्ठमहि., धम्मि., नारि., पठवि., पदेसि., व्यक्ति, अधिकार एवं धन से सम्पन्न व्यक्ति, महाधनी एवं बोज्झङ्गरतनि., मण्डलि., महि., मेण्डि., यति., लङ्कि, शक्तिसम्पन्न व्यक्ति - नानं ष. वि., ब. व. - सद्देति सब्बदेसि., सब्बलोकि., समणि., सालि. के अन्त. तथेव इस्सरजनानं गेहं पविट्ठो तेसं पयुत्ते गीतवादितसद्दे द्रष्ट.. सोतुं, उदा. अट्ठ. 163; कि उप्पटिपाटिया इस्सरजनानं इस्सरकत त्रि., तत्पु. स. [ईश्वरकृत], ईश्वर द्वारा रचित, घरानि अगमंसु, जा. अट्ठ. 1.97; - नं द्वि. वि., ए. व. - ईश्वर द्वारा निर्मित --- तं नपुं॰, प्र. वि., ए. व. - इस्सरेन .... तत्थ जातकेहि पुप्फफलेहि नगरे इस्सरजनं सङ्गण्हित्वा कतं इस्सरकतं, क. व्या. 329; ... विचप्पसत्थो, इस्सरकतं. पुन किं करोमी ति पुच्छि, जा. अट्ठ. 4.120. सयंकतं ..., प. रू. सि. 351; इस्सरकतं, सल्लविद्धो, इस्सरजातिक त्रि., [ईश्वरजातिक]. सक्षम एवं समर्थ, गुळेन संसट्ठो ओदनो गुळोदनो, सद्द. 3.755; - वाद पु.. धनाढ्यों के वर्ग वाला, अधिकारसम्पन्न एवं धनी वर्ग कासंसार को ईश्वरनिर्मित प्रतिपादित करने वाला सिद्धान्त - को पु., प्र. वि., ए. व. - सचे पन कोचि इस्सरजातिको .... - वादी त्रि., संसार को ईश्वरनिर्मित प्रतिपादित करने धनं अदत्वाव "भिक्खूनं भागं मा गण्हथा ति वारेति, पारा. वाला - दी पु.. प्र. वि., ए. व. - तेसु एको अहेतुकवादी, अट्ठ 1.275; - का ब. व. - तस्मिञ्च पदेसे नदीकीळ एको इस्सरकतवादी..., जा. अट्ठ. 5.217; - दि पु., द्वि. कीळन्ता इस्सरजातिका तिखिणभेसज्जपरिभावितं खीर वि., ए. व. - इस्सरकरणेनेव इस्सरकतवाद भिन्दित्वा पिवन्ति, जा. अट्ठ. 1.438. पुब्बेकतवादि..., जा. अट्ठ. 5.226; महासत्तोपि तस्स वादं इस्सरनिम्मान/ण नपुं, तत्पु. स. [ईश्वरनिर्माण], सृष्टिकर्ता भिन्दित्वा इस्सरकतवादिं आमन्तेत्वा त्वं, जा. अट्ठ. ईश्वर द्वारा की गई सृष्टि या रचना - नादि त्रि., ईश्वर5.226. रचित रचना आदि - दि द्वि. वि., ए. व. - केचि पन इस्सरकरण नपुं.. [ईश्वरकरण], ईश्वर की क्रिया, दैवी- इस्सरनिम्मानादि निस्साय केन न खो कारणेन अहोसिन्ति क्रिया - णेन त. वि., ए. व. - ... अम्बं पातेन्तो विय हेतूतो कङ्कतीति वदन्ति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).75. इस्सरकरणेनेव इस्सरकतवादं भिन्दित्वा पुब्बेकतवादि इस्सरनिम्मानवादी त्रि., “संसार ईश्वर द्वारा सृजित है" आमन्तेत्वा त्वं जा. अट्ठ. 5.226. इस सिद्धान्त का प्रतिपादक, ईश्वर कारणवादी-दी पु.. इस्सरकारणी त्रि., ईश्वर को संसार का कारण प्रतिपादित प्र. वि., ए. व. - अम्हाक आचरियपाचरियो करने वाला, ईश्वरकारणवादी - णिनो पु., प्र. वि., ब. इस्सरनिम्मानवादी, अ. नि. अट्ठ. 2.153. For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सरनिम्मानविहार 363 इस्सराधिपच्च इस्सरनिम्मानविहार पु., व्य. सं., एक विहार जिसका अधिक प्रचलित नाम इस्सरसमणविहार था - रे सप्त. वि., ए. व. - एक थूपारामे, एक इस्सरनिम्मानविहारे, एक पठमचेतियट्ठाने, पारा. अट्ठ. 1.69. इस्सरनिम्मानहेतु त्रि., ब. स., ईश्वर द्वारा उत्पन्न किया गया, ईश्वर की रचना से समुद्भूत, ईश्वर के कारण से - तु नपुं, द्वि. वि., ए. व. - सत्ता इस्सरनिम्मानहेतु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति, म. नि. 3.8; ... तेनहायस्मन्तो पाणातिपातिनो भविस्सन्ति इस्सरनिम्मानहेतु, अ. नि. 1(1).203; इस्सरनिम्मानहेतुति दुतियं मो. वि. 230. इस्सरपुरिस पु., कर्म, स. [ईश्वरपुरुष], शक्तिशाली अथवा सक्षम पुरुष, धनाढ्य व्यक्ति - सो प्र. वि., ए. व. - .... अल्लकोसो अल्लवत्थो इस्सरपरिसो विय तस्मिं.... जा. अट्ट, 1.108. इस्सरभत्तिगण पु., तत्पु. स. [ईश्वरभक्तिगण], ईश्वर या महेश्वर की भक्ति करने वालों (शिव भक्तों) का समूह - णानं ष. वि., ब. व. - इस्सरभत्तिगणानं गावीस कतं सूललक्ख णं, अ. नि. टी. 3.340. इस्सरभाव पु., ईश्वरभाव, ईश्वरत्व, अधिपतित्व, ऐश्वर्य, शानशौकत - वो प्र. वि., ए. व. - इस्सरभावो इस्सरियं, खु. पा. अट्ट, 184; सद्द 2.451. इस्सरमेरी स्त्री., तत्पु. स. [ईश्वरभेरी], शा. अ., धनाढ्य अथवा महत्वपूर्ण व्यक्ति का ढोल या नगाड़ा, ला. अ., राजा या अधिपति जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति द्वारा जारी कराई जा रही उद्घोषणा - री प्र. वि., ए. व. - चोरा पठम व भेरिस सत्वा "इस्सरभेरी भविस्सती ति.... जा. अट्ठ. 1.273. इस्सरमद/इस्सरियमद पु., तत्पु. स. [ऐश्वर्यमद]. ऐश्वर्य का मद, ऐश्वर्य का अहङ्कार – दं द्वि. वि., ए. व. - पहाय इस्सरमद, भवे सग्गगतो नरो, पे. व. 752; - सम्भव त्रि., ब. स., ऐश्वर्य के अहङ्कार के कारण उत्पन्न – वं पु., द्वि. वि., ए. व. - एतमादीनवं ञत्वा, इस्सरमदसम्भवं पे. व. 752. इस्सरवचन नपुं, तत्पु. स., व्याकरणों में प्रयुक्त, (किसी के बीच) प्रधान या प्रमुख होने का अर्थ, प्रधान होने का कथन - ने सप्त. वि., ए. व. - यस्मा उप अधि इच्चेते अधिकिस्सरवचने वत्तन्ति, सद्द. 3.729; ... अधिकवचने च इस्सरवचने च सत्तमी विभत्ति होति, सद्द. 3.729. इस्सरवता स्त्री॰, भाव. [ईश्वरवत्ता], अधिपति या समर्थ व्यक्ति होने का अत्यधिक घमण्ड-भाव, हेकड़ी, औद्धत्य - य तृ. वि., ए. व. - सेनासनत्थाय नियमितं कुलसङ्गहणत्थाय ददतो दुक्कट इस्सरवताय थुल्लच्चयं थेय्यचित्तेन पाराजिक पारा. अट्ट, 1.307; इस्सरवतायाति “मयि देन्ते को निवारेस्सति, अहमेवेत्थ पमाण"न्ति एवं अत्तनो इस्सरियभावेन, वि. वि. टी. 1.176; योपिस्सरवतायेव, देन्तो थुल्लच्चयं फुसे, विन. वि. 441. इस्सरसमणक पु., व्य. सं., श्रीलङ्का के राजा देवानंपिय तिस्स द्वारा 247-207 ई. पू. में अनुराधपुर में निर्माण कराया गया एक विहार या आराम, इस्सरसमणविहार नाम से भी विख्यात इस विहार का निर्माण महेन्द्र से उपसम्पदा प्राप्त अरिठ्ठ आदि पांच सौ भिक्षुओं के विहार करने के स्थान पर कराया गया था - को प्र. वि., ए. व. - पञ्चसतेहिस्सरेहि, महाथेरस्स सन्तिके, पब्बजा वसितवाने इस्सरसमणको अहु, म. वं. 20.14; - के सप्त. वि., ए. व. – सो येवुपोसथागारं इस्सरसमणके इध, म. वं. 35.87; इस्सरसमणके इधा ति इध अनुराधपुरसन्तिके पुब्बवोहारेन पाकटभूते इस्सरसमणसङ्घाते कच्छपगिरिविहारे सो वसभो येव उपोसथागारं कारेसी ति अत्थो, म. वं. टी. 608 (ना.). इस्सरसमणविहार पु., उपरिवत् - रं द्वि. वि., ए. व. - अथेकदिवसं पातो येव इस्सरसमणविहारं गन्त्वा ... सील आवजेन्तो निसीदि, म. वं. टी. 561(ना.). इस्सरसमणव्ह त्रि., ब. स., इस्सर-समण नाम वाला (विहार)- स्स पु., ष. वि., ए. व. - इस्सरसमणव्हस्स, विहारस्स अदासि सो, म. वं. 35.47; - म्हि सप्त. वि., ए. व. - इस्सरसमणव्हम्हि, तिस्सव्हे नागदीपके, म. वं. 36.36. इस्सरसमणाराम पु., कर्म. स., इस्सरसमण नामक आराम - मे सप्त. वि., ए. व. - इस्सरसमणारामे, पठमे, चेतियङ्गणे, म. वं. 19.61; -- मं द्वि. वि., ए. व. - इस्सरसमणाराम, कारेत्वा पुब्बवत्थुतो, चू. वं. 39.10. इस्सरा स्त्री., [ईश्वरा], अधिपतिनी, घर की मालकिन, सर्वशक्तिसम्पन्ना गृहस्वामिनी – रा प्र. वि., ए. व. - विजायिस्सति सब्बस्स कुटुम्बस्स इस्सरा भविस्सति, पारा. 101; सा दानि सब्बस्स कुलस्स इस्सरा, जा. अट्ट. 3.377; ताय सकलाय पथविया साव इस्सरा होति, जा. अट्ठ. 7.266. इस्सराधिपच्च त्रि./न., कर्म. स. [ईश्वराधिपत्य/ ऐश्वर्याधिपत्य], क. नपुं., ऐश्वर्यमय आधिपत्य, सम्पूर्ण रूप से प्रभुत्व, चक्रवर्ती राजा के रूप में शासन, ख. त्रि., For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सराधिपति 364 इस्सरियत्त एकछत्र प्रभुत्व से युक्त, सम्पूर्ण आधिपत्य वाला- च्चं पु., ओवादकरो होति, जा. अट्ठ. 3.231; - स्मिं/ये सप्त. द्वि. वि., ए. व. - इमस्मि राजकुले खत्तियकापि वि., ए. व. - ... पत्तो ति आदिसु हि इस्सरिये दिस्सति, ब्राह्मणकापि गहपतिकापि, तासाहं इस्सराधिपच्चं सद्द, 2.354; इस्सरियस्मिं ठपेति, तं पराभवतो मुखं, . कारेमि. अ. नि. 1(2).235; - च्चे पु., सप्त. वि., ए. व. नि. 112: तं यो इस्सरियस्मिं ठपेति, लञ्छनमुद्दिकादीनि -- महापथविया पहूतरत्तरतनाय मातापितरो इस्सराधिपच्चे दत्वा घरावासे कम्मन्ते वा वणिज्जादिवोहारेसु वा तदेव रज्जे पतिद्वापेय्य, अ. नि. 1(1).78; इस्सराधिपच्चे रज्जेति वावट कारेति, सु. नि. अट्ठ. 1.137; सब्बं पिस्सरिये दानं, चक्कवत्तिरज्ज सन्धायेवमाह, अ. नि. अट्ठ. 2.28. न मे हासेति मानसं, म. वं. 32.46%; रडे सके इस्सरिये इस्सराधिपति पु., [ईश्वराधिपति], चक्रवर्ती राजा, सम्पूर्ण ठितेन, जा. अट्ठ. 5.474; - येन तृ. वि., ए. व. - रूप से आधिपत्य रखने वाला - ति प्र. वि., ए. व. - आधिपच्चेनाति इस्सरियेन, पे. व. अट्ठ. 119; तवणओव .... अनेकेसं हत्थिसहस्सानं इस्सराधिपति महानुभावो यूथपति उप्पन्नसंवेगा सामिकं याचित्वा महन्तेन इस्सरियेन ..... चरिया. अट्ठ. 111. पञ्चबलकत्थेरीनं ..., ध. प. अट्ठ. 2.308; 2. त्रि., ऐश्वर्य इस्सरापराधिक त्रि., [ईश्वरापराधिक], अपने स्वामी के से परिपूर्ण, महत्वपूर्ण, भव्य - ये नपुं., सप्त. वि., ए. व. साथ अपराध करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - - ... अनुरक्खा लद्धयसा विस्सासिका ठपिता महति परिसो इस्सरापराधिको बद्धो सङ्घलिकबन्धनेन गम्भे पक्खित्तो इस्सरिये ठाने, मि. प. 147; ... कुजातिको महन्ते इस्सरिये परिमुच्चितुकामो अस्स, मि. प. 150; -- स्स ष. वि., ए. ठाने अत्तानं ठपेसि, मि. प. 323; स. उ. प. के रूप में व. - तस्स इस्सरापराधिकस्स परिसस्स अन., चातुद्दीप, छ-कामसग्ग०, देव., ब्रह्म, भोग., मनुस्स., परिमच्चितुकामास्सापि इस्सरभया सन्तासो उप्पज्जति, मि. सक्क., सब्बत्थ., सब्ब. के अन्त. द्रष्ट.. प. 150. इस्सरिय' पु., व्य. सं., एक तमिल-शासक का नाम जिसे इस्सरायतन नपुं., तत्पु. स. [ईश्वरायतन], ईश्वर श्रीलङ्का के राजा दुट्ठगामणी ने हालकोल में पराजित किया (आराध्य देव महेश्वर, शिव) का निवासस्थान (मन्दिर)- - यं द्वि. वि., ए. व. - हालकोले इस्सरियं नाळिसोमम्हि नं प्र. वि., ए. व. - तथा हि लोके 'इस्सरायतनं नाळिक, म. वं. 25.11. वासुदेवायतनान्तिआदीस निवासट्टानं आयतनन्ति वुच्चति, इस्सरियकम्म नपुं., तत्पु. स. [ईश्वरीयकर्म], आधिपत्य या ध. स. अट्ठ. 186; तथा हि लोके “इस्सरायतनं, प्रभुत्व का काम, शासन-कार्य - म्म प्र. वि., ए. व. - वासुदेवायतनान्ति आदिसु ..., सद्द. 2.361; सद्द० नापि तेरससु सम्मुतीस एकसम्मतिवसेनापि इस्सरियकम्म 2.577. कातब्ब, चूळव. अट्ठ. 9. इस्सरिय' 1. नपुं., भाव. [ऐश्वर्य, बौ. सं. ईश्वरीय], घर इस्सरियकामकारिकादिकथा स्त्री., व्य. सं., कथा. के की मालिकी, गृह आदि का स्वामित्व या अधिपतित्व, एक खण्ड का शीर्षक, कथा. 502-504. अत्यन्त उच्च एवं प्रभावमयी स्थिति, उच्च पद पर आसीन इस्सरियग्गहण नपुं., तत्पु. स., 1. ऐश्वर्यमय का ग्रहण, होने की आनन्दमयी अवस्था, धनाढ्यता, रईसी, शान- 2. आधिपत्यपूर्ण ग्रहण - णेन तृ. वि., ए. व. - तस्मा शौकत - यं प्र. वि., ए. व. - सचे तुम्हे इमस्मिं गेहे सब्बं इस्सरियग्गहणेन महानुभावे देवमनुस्से सङ्गण्हाति, पे. व. इस्सरियं मय्ह देथ जा. अट्ठ. 1.159; आवासेसु च इस्सरिय, अट्ठ. 103. पूजा परकुलेसु च, ध. प. 73; किसुंइस्सरियं लोके, किसुं इस्सरियट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [ऐश्वर्यस्थान], प्रभावक्षेत्र, भण्डानमुत्तम, स. नि. 1(1).51; सब इस्सरियं सुखन्ति स्वामित्व या प्रभुत्व का क्षेत्र - नं प्र. वि., ए. व. - दविधं इस्सरियं लोकियं लोकुत्तरञ्च, उदा. अट्ठ. 127; - फलसमापत्ति हि बुद्धानं इस्सरियट्ठानं नाम, उदा. अट्ठ. यं द्वि. वि., ए. व. - मातुरक्खिता नाम माता रक्खति गोपेति इस्सरियं कारेति वसं वत्तेति, पारा. 205; इस्सरियत्त नपुं०, इस्सरिय का भाव., केवल स. उ. प. के “मनापकायिकानाम देवता इमेसु तीसु ठानेसु इस्सरियं रूप में प्राप्त, ऐश्वर्यभाव, ऐश्वर्यमयी स्थिति, सर्वोत्तम कारेम, वसं वत्तेमा ति, अ. नि. 3(1).92; महन्तं ठानं विपुलं अवस्था, स. उ. प. के रूप में, झानि.-त्त नपुं., इस्सरियं पत्तोति यसेन अनुद्धतो नीचवुत्ति पण्डितानं [ध्यानैश्वर्यत्व, ध्यान के पूर्ण आधिपत्य की अवस्था-त्तं प्रनुप 304. For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सरियपरियोसान 365 इस्सरियसम्पत्ति द्वि. वि., ए. व. - झानिस्सरियतम्पत्तो यो हि ब्रह्मा सहम्पति, सद्धम्मो. 422. इस्सरियपरियोसान त्रि., ब. स. [ऐश्वर्यपर्यवसान], ऐश्वर्य या प्रभुत्व को अपना अन्तिम लक्ष्य मानने वाला, राज्यपद को अन्तिम लक्ष्य बनाने वाला - ना पु., प्र. वि., ब. व. - "खत्तिया खो, ब्राह्मण, भोगाधिप्पाया पञ्जूपविचारा बलाधिट्ठाना पथवीभिनिवेसा इस्सरियपरियोसाना ति, अ. नि. 2(2).75; इस्सरियपरियोसानाति रज्जाभिसेकपरियोसाना, अ. नि. अट्ठ. 3.121. इस्सरियपरिवार पु., तत्पु. स., आधिपत्य या प्रभुत्व की प्रचुरता, भव्य यश का आधिक्य - रेन त. वि., ए. व. - पज्जलतीति इस्सरियपरिवारेन पज्जलति, जा. अट्ठ. 6.17. इस्सरियपरिहार पु., कर्म. स., ऐश्वर्यमयी सामग्री, भव्य उपकरण, शाही साजो-सामान – रेन तु प्र. वि., ए. व. - ... तस्स महन्तेन इस्सरियपरिहारेन न्हायन्तस्स न्हानपरियोसानं आगमेत्वा ..., म. नि. अट्ठ (म.प.) 2.199. इस्सरियप्पमाण नपुं., तत्पु. स. [ऐश्वर्यप्रमाण], ऐश्वर्य एवं धन की मात्रा – णेन तृ. वि., ए. व. -- इस्सरियमत्तायाति इस्सरियप्पमाणेन .... दी. नि. टी.(लीन.) 2.123. इस्सरियबल नपुं., तत्पु. स. [ऐश्वर्य-बल], ऐश्वर्य या प्रभुत्व का बल, उच्च अधिकार का बल, कुशलकर्मों की प्रचुरता का बल - लेन तृ. वि., ए. व. - इस्सरियबलेन अभिभूतं मातुगाम नेव रूपबलं तायति, स. नि. 2(2).241; अधिप्पायो पनेत्थ - नाहं बुद्धोति इस्सरियबलेन वदामि, खु. पा. अट्ठ. 134; - लं प्र. वि., ए. व. - "अपि च, अट्ठसट्टि बलानि - सद्धाबलं ... इस्सरियबलं ... दसतथागतबलानि, पटि. म. 343; कतम इस्सरियबलं? ... कामछन्दं पजहन्तो नेक्खम्मवसेन चित्तं वसं वत्तेतीतिइस्सरियबलं, पटि. म. 346; कुसलेसु बहुभावो इस्सरियबलं, पटि. म. अट्ठ. 2.211; ख. त्रि., ब. स., ऐश्वर्य या प्रभुता के बल से सम्पन्न - ला पु., प्र. वि., ब. व. - रुण्णबला, भिक्खवे, दारका ... इस्सरियबला राजानो, अ. नि. 3(1).58. इस्सरियभाव पु., [ऐश्वर्यभाव], अहंकार, दर्प, घमण्ड - वं द्वि. वि., ए. व. - इमिना अत्तनो इस्सरियभावं दीपेति, जा. अट्ठ. 7.231; अथ वा कन्तभावं इस्सरियभावं निप्फन्नभावं पत्तो, महानि. अट्ठ. 65; स. उ. प. के रूप में, सब्बलोकि.पु., समस्त लोकों पर प्रभुत्व की अवस्था - वं द्वि. वि., ए.व.- अभिसेको विय रुञो सब्बलोकिस्सरियभावं पारा. अट्ठ. 1.102. इस्सरियमत्ता स्त्री., तत्पु. स. [ऐश्वर्यमात्रा], ऐश्वर्य की मात्रा, प्रभुत्व का प्रमाण, ऐश्वर्य - य तृ. वि., ए. व. - मगधरडे वा महामत्ता महतिया इस्सरियमत्ताय समन्नागताति मगधमहामत्ता, दी. नि. अट्ठ. 2.116; इस्सरियमत्तायाति इस्सरियप्पमाणेन, इस्सरियेन चेव वित्तूपकरणेन चाति एवं वा अत्थो दट्टब्बो, दी. नि. टी. (लीन.) 2.123. इस्सरियमद पु., तत्पु. स. [ऐश्वर्यमद], आधिपत्य का घमण्ड, अधिकारसम्पन्न होने का नशा - देन त. वि., ए. व. - राजा पन खत्तियमानेन इस्सरियमदेन मत्तो हत्वा ___..., जा. अट्ठ. 6.224. इस्सरियमदमत्त त्रि., तत्पु. स. [ऐश्वर्यमदमत्त], ऐश्वर्य के अहंकार से ग्रस्त, शक्ति या अधिकार के मद से उन्मत्त - त्तानं पु., ष. वि., ब. व. - अं खत्तियानं मुद्धावसित्तानं इस्सरियमदमत्तानं कामगेधपरियुट्टितानं .... स. नि. 1(1).119; - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. - एकस्मिहि काले राजा इस्सरियमदमत्तो किलेससुखनिस्सितो विनिच्छयम्पि न पट्टपेसि, जा. अट्ठ. 4.157. इस्सरियलुद्ध त्रि., तत्पु. स. [ऐश्वर्यलुब्ध], ऐश्वर्य पाने के प्रति लालच रखने वाला, प्रभुत्व के प्रति लोलुप-द्धो पु.. प्र. वि., ए. व. - न नं इस्सरियलुद्धो पुरोहितो परित्ताणं कातुं सक्खि , जा. अट्ठ. 3.139. इस्सरियवोसग्ग पु., तत्पु. स. [ऐश्वर्यव्यवसर्ग], ऐश्वर्य या प्रभुत्व का परित्याग - ग्गेन तृ. वि., ए. व. - ... सम्माननाय अनवमाननाय अनतिचरियाय इस्सरियवोस्सग्गेन अलङ्कारानुप्पदानेन ..., दी. नि. 3.144; स. प. के अन्त., ... सम्मा परिहरन्तो भरिय इस्सरियवोस्सग्गअलङ्कारदानसम्माननादीहि ..., जा. अट्ठ. 5.234. इस्सरियसंवत्तनिय त्रि, तत्पु. स. [ऐश्वर्यसंवर्तनिक]. ऐश्वर्य या प्रभुत्व को देने वाला, ऐश्वर्य में परिणत होने वाला - यं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ननु अस्थि इस्सरियसंवत्तनियं कम्मं अधिपच्चसंवत्तनियं कम्मन्ति? कथा. 294 इस्सरियसम्पत्ति स्त्री., तत्पु. स. [ऐश्वर्यसम्पत्ति, ऐश्वर्य की सम्पदा, प्रभुत्व या अधिकार का सुख, ऐश्वर्य से प्राप्त सुखों की प्रचुरता, स. उ. प. के रूप में, - देवराजभोगसम्पत्तिसदिस ... तिं द्वि. वि., ए. व., For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सरियसुख 366 इस्साधम्म देवराज इन्द्र की सम्पदाओं के समान प्रभुत्व या अधिकार इस्सरियासा स्त्री., तत्पु. स. [ऐश्वर्याशा], आधिपत्य या राजपद पाने की आशा - सं द्वि. वि., ए. व. - आस देवराजभोगसम्पत्तिसदिसइस्सरियसम्पत्तिं अनुभवन्तो .... पुरक्खत्वाति इस्सरियासं पुरतो कत्वा .... जा. अट्ठ. 5.397. चरिया. अट्ट, 120. इस्ससिङ्ग नपुं, तत्पु. स. [ऋष्यशृङ्ग], कृष्णमृग का वक्र इस्सरियसुख नपुं., तत्पु. स. [ऐश्वर्यसुख], आधिपत्य का सींग -ङ्ग विवि., ए. व. - वाणिजो विय वाचासन्थुतियो सुख, ऐश्वर्य का सुख - खं प्र. वि., ए. व. - ... इस्ससिङ्गमिव विपरिवत्तायो उरगमिव दुजिव्हायो, जा. अट्ठ. यानसुखं सयनसुखं, इस्सरियसुखं आधिपच्चसुखं गिहिसुखं 5.421. ..., कथा. 177. इस्सा स्त्री., [ईर्ष्या], ईर्ष्या, डाह, दूसरों को आनन्दित एवं इस्सरियाधिपच्च नपुं./त्रि., [ऐश्वर्याधिपत्य], 1. एकछत्र समृद्ध देखकर मन में उत्पन्न दाह - सा प्र. वि., ए. व. आधिपत्य वाला, पूर्ण रूप से अपने ही प्रभुत्व वाला, 2. - इस्सा इस्सायं, सद्द. 2.441; इस्सा उसूया मच्छेर, तु चक्रवर्ती के रूप में आधिपत्य, प्रधान राजा या ईश्वर के मच्छरिय मच्छर, अभि. प. 168; या रूप में राजपद - च्च' पु., द्वि. वि., ए. व. - ... राजा परलाभसक्कारगरुकारमाननवन्दनपूजनासु इस्सा इस्सायना पसेनदि कोसलो इस्सरियाधिपच्चं रज्जं कारेति, म. नि. इस्सायितत्तं उसूया उसूयना उसूयितत्तं - अयं वुच्चति 2.338; ... उपजीवमानो देवानं तावतिंसानं “इस्सा विभ. 413; यं एवरूपं निवारियं निवरियकम्मं इस्सा इस्सरियाधिपच्चं रज्जंकारेन्तो..., स. नि. 1(1).251; राजा इस्सायना इस्सायितत्तं ..., महानि. 330; इस्सायना इस्सा, चक्कवत्ती चतुन्नं दीपानं इस्सरियाधिपच्चं रज्जं कारेत्वा सा परसम्पत्तीनं उसूयनलक्खणा, विसुद्धि. 2.97; ...., उदा. अट्ठ. 85; - च्चं नपुं., प्र. वि., ए. व. परसम्पत्तिउसूयनलक्खणा इस्सा, विसुद्धि. महाटी. 1.78; - इस्सरियाधिपच्चन्ति इस्सरभावेन वा इस्सरियमेव वा - सं द्वि. वि., ए. व. - आधिपच्चं, न एत्थ साहसिककम्मन्तिपि इस्सरियाधिपच्चं, परलाभसक्कारगरुकारमाननवन्दनपूजनासु इस्सति अ. नि. अट्ठ. 2.192; - च्चे सप्त. वि., ए. व. - उपदुस्सति इस्सं बन्धति, अ. नि. 1(2).233; मयह इस्सराधिपच्चे रज्जेति चक्कवत्तिरज्जं सन्धायेवमाह, अ. उपासिका ति मानं वा इस्सं वा कातुं न वट्टति, ध, प. अट्ठ. नि. अट्ठ. 2.28. 1.292; इस्सं करिंसु तस्स , राजपुत्तस्स सेवका, म. वं. इस्सरियाधिपच्चकारक त्रि, ऐश्वर्याधिपत्यकारक], एकछत्र 23.36; - य तृ. वि., ए. व. - सचे कोचि इस्साय उद्दिस्स राज्य करने वाला चक्रवर्ती, ईश्वरभाव से अथवा सम्पूर्ण कतं उपक्खटं परिभोग अन्तरायं करेय्य मि. प. 155; स. स्वामित्व के रूप में आधिपत्य-युक्त-का पु.. प्र. वि., ब. उ. प. के रूप में, महि.- अत्यन्त प्रबल ईर्ष्या - स्सया व. - एत्थ चतुन्नं महादीपानं द्विसहस्सानं परित्तदीपानञ्च तृ. वि., ए. व. - दिन्नं महापसादं तं असहन्तो महिस्सया, इस्सरियाधिपच्चकारका चक्कवत्ती उप्पज्जन्ति, खु. पा. चू. वं. 72.76. अट्ठ. 106. इस्साकार पु., [ईर्ष्याकार], ईर्ष्या का स्वरूप, ईर्ष्या का इस्सरियानुप्पदानसमत्थ त्रि., तत्पु. स. प्रकार - रो प्र. वि., ए. व. - इस्साकारो इस्सायना, [ऐश्वर्यानुप्रदानसमर्थ]. एकछत्र राज्य या पूर्ण आधिपत्य ध. स. अट्ठ. 398. को प्रदान करने में सक्षम - त्थो पु., प्र. वि., ए. व. - इस्साचार पु., [ईर्ष्याचार], ईर्ष्या से भरा आचरण, ईर्ष्यामय यो चायं चक्करतनस्स द्विसहस्सदीपपरिवारेसु चतूसु व्यवहार - रेन तृ. वि., ए. व. - न चापि सोत्थि भत्तार महादीपेसु इस्सरियानुप्पदानसमत्थो महानुभावो, म. नि. इस्साचारेन रोसये, अ. नि. 2(1).33; "न चा पि सोत्थि अट्ठ. (उप.प.) 3.87. भत्तारं इस्साचारेन मञ्जतीति, सद्द. 3.633. इस्सरियानुभाव त्रि., ब. स. [ऐश्वर्यानुभाव], आधिपत्य के इस्साजर त्रि., ब. स., ईर्ष्या के ज्वर से पीड़ित - रो पु., प्रभाव से युक्त, राजा के प्रभाव से युक्त, राजकीय शान- प्र. वि., ए. व. - कन्दं इस्साजरो मन्दो विरियं न करोति शौकत वाला- वो पु, प्र. वि., ए. व. - तस्सिस्सरियानुभावो सो, चू. वं. 72.77. "भूतपुब्ब, आनन्द, राजा महासुदस्सनो नाम अहोसि .... इस्साधम्म पु., तत्पु. स. [ईाधर्म], एक (चैतसिक) धर्म के चरिया. अट्ठ. 40. रूप में ईर्ष्या, ईर्ष्या का लक्षण - म्मो प्र. वि., ए. व. - For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सानिद्देस 367 इस्सास तस्स कामरसं अत्वा, इस्साधम्मो अजायथ, जा. अट्ठ. 4. 427. इस्सानिद्देस पु., ईर्ष्या की व्याख्या - से सप्त. वि., ए. व. -इस्सानिद्देसे या परलाभसक्कारगरुकारमाननवन्दनपूजनासु इस्साति, ध. स. अट्ठ. 398. इस्सापकत त्रि., 1. स्वभाव से ही ईर्ष्यालु, ईर्ष्याभरी प्रकृति वाला, 2. ईर्ष्या से अभिभूत - ता' स्त्री., प्र. वि., ए. व. - सा इस्सापकता सपत्तिं अङ्गारकटाहेन ओकिरि... पे. . .., पारा. 143; स. नि. 1(2).236; - ता. पु., प्र. वि., ब. व. - इस्सापकताति इस्साय अपकता: अभिभूताति अत्थो, पाचि. अट्ठ. 199; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - सो चन्दिमसूरिये विरोचमाने दिस्वा इस्सापकतो तेसंगमनवीथिं ओतरित्वा मुखं विवरित्वा तिट्ठति, स.नि. अट्ठ. 1.97-983; इस्सापकतो मारो पापिमा पञ्चसालके ब्राह्मणगहपतिके अन्वाविसि, मि. प. 154. इस्सापकतिइत्थिवत्थु नपुं., ध. प. अट्ठ. के एक कथानक का शीर्षक, ध. प. अट्ठ. 2.277. इस्सापरियुट्ठान नपुं.. तत्पु. स. [ईर्ष्यापर्युत्थान], ईर्ष्या का उभाड़, ईर्ष्या का दृढ़ता से ऊपर उठना - नं प्र. वि., ए. व. - इस्सापरियट्ठानं खो पन तथागतप्पवेदिते धम्मविनये परिहानमेतं, अ. नि. 3(2).131. इस्सापरियुट्ठित त्रि., तत्पु. स. [ईर्ष्यापर्युत्थित], ईर्ष्या से पूरी तरह से ग्रस्त, ईर्ष्या से भरा हुआ - तेन नपुं.. त. वि., ए. व. - मज्झन्हिकसमयं इस्सापरियहितेन चेतसा अगारं अज्झावसति, स. नि. 2(2).234; इस्सापरियहितेन चेतसा बहुलं विहरति, अ. नि. 3(2).131. इस्सापिसाच पु.. [ईर्ष्यापिशाच], ईर्ष्या के रूप में पिशाच या प्रेत, डाह का प्रेत - चो प्र. वि., ए. व. - इस्सापिसाचो विहतो अस्सासो परमो कतो, सद्धम्मो. 313. इस्साभिभूत त्रि., तत्पु. स. [ईर्ष्याभिभूत], ईर्ष्या से बुरी तरह से ग्रस्त, डाह से पीड़ित - तो पु., प्र. वि., ए. व. - न इस्सुकी होति न इस्साभिभूतो, परि. 365. इस्सामच्छरिय नपुं, द्व. स. [ईर्ष्यामात्सर्य], ईा एवं आत्मगुण निगूहन की मनोवृत्ति, ईर्ष्या एवं स्वार्थमयी मनोदशा - यं प्र. वि., ए. व. - “इस्सामच्छरियं पन, मारिस, किनिदानं किंसमुदयं किंजातिकं किंपभवं, दी. नि. 2.204; इति सो इस्सामच्छरियं कुलेसु नुप्पादेता होति.... दी. नि. 3.34. इस्सामच्छरियफल नपुं, तत्पू. स. [ईामात्सर्यफल], ईर्ष्या करने एवं स्वार्थपरता का फल, ईर्ष्या एवं मात्सर्य का परिणाम - लं द्वि. वि., ए. व. - तिरोकुट्टादीसु ठिते इस्सामच्छरियफलं अनुभवन्ते ..., पे. व. अट्ठ. 21. इस्सामनक त्रि., ब. स., ईर्ष्या-ग्रस्त मन वाला, ईर्ष्यालु मन से युक्त - को पु., प्र. वि., ए. व. - एकच्चो इत्थी वा पुरिसो वा इस्सामनको होति, म. नि. 3.252; नरोति एत्तकेनेव कारणेन परलाभादीसु इस्सामनको पञ्चविधेन ....... ध. प. अट्ठ. 2.224; - निका स्त्री., ईर्ष्यालु नारी, ईर्ष्या-ग्रस्त मन वाली स्त्री - का प्र. वि., ए. व. - इस्सामनिका खो पन होति, अ. नि. 1(2).233. इस्सामल नपुं., तत्पु. स. [ईर्ष्यामल], ईर्ष्या की अपवित्रता, ईर्ष्या का मैल -- लं प्र. वि., ए. व. - इस्सामलञ्चस्स अप्पहीनं होति, अ. नि. 1(1).128; इस्सुकी च होति, इस्सामलञ्चस्स अप्पहीनं होति, तदे; स. प. के अन्त. - इस्सामलमच्छरमलेसुपि एसेव नयो, अ. नि. अट्ठ. 2.75. इस्सामान नपुं॰, द्व. स. [ईर्ष्यामान], ईर्ष्या एवं अहंकार - नेन तृ. वि., ए. व. - न तावाहं पणिपति, इस्सामानेन वञ्चितो, थेरगा. 375. इस्सायना स्त्री., इस्सा के ना. धा. से व्यु., ईर्ष्यालुता, डाह की मनोदशा, ईर्ष्या भरी मानसिक स्थिति - ना प्र. वि., ए. व. - परलाभसक्कारगरुकारमाननवन्दनपूजनासु इस्सा इस्सायना इस्सायितत्तं उसूया उसूयना उसूयितत्तं इदं वुच्चति इस्सा, ध. स. 1126; विभ. 412. इस्सायितत्त नपुं, इस्सा के ना. धा. के भू. क. कृ. इस्सायित का भाव. [ईर्ष्यायितत्त्व], उपरिवत् - तं प्र. वि., ए. व. - ... इस्सा इस्सायना इस्सायितत्तं उसूया उसूयना उसूयितत्तं - इदं वुच्चति इस्सा, ध. स. 11263B विभ. 413; महानि. 38. इस्सायितभाव पु., ईर्ष्याभाव - वो प्र. वि., ए. व. - इस्सायितभावो इस्सायितत्तं, ध. स. अट्ठ. 398. इस्सालुक त्रि., इस्सालु + क के योग से व्यु. [ईर्ष्यालु, बौ. सं., ईर्ष्यालुक], ईर्ष्यालु, अत्यधिक ईर्ष्यावृत्ति से ग्रस्त मन वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - इस्सालका मच्छरिनो ते पेतेसूपजायरे, सद्धम्मो. 97. इस्सावतिण्ण त्रि., तत्पु. स. [ईर्ष्यावतीर्ण], ईर्ष्यालु, ईर्ष्याग्रस्त - णा स्त्री., प्र. वि., ब. व. - सचे तुवं विपुले लद्धभोगे, इस्सावतिण्णा मरणं उपेसि, जा. अट्ठ. 5.92. इस्सास पु.. 1. धनुष - सो प्र. वि., ए. व. - इस्सासो धनु कोदण्डं, चापो नित्थी सरासनं, अभि. प. 3883; चापेत्विस्सासमसुनो, इस्सासो खेपकम्हि च, अभि. प. 922; For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस्सासंयोजन 368 2. त्रि., धनुर्धरों का आचार्य, धनुष धारण करने वाला - इस्सासाचरिय प., तत्प. स. [इष्वासाचार्य], धनर्विद्या का सो पु., प्र. वि., ए. व. - तेन खो पन समयेन आयस्मा आचार्य, धनुर्विद्या का शिक्षक - यानं ष. वि., ब. व. - उदायी इस्सासो होति, पाचि. 167; सप्पाणकवग्गस्स धनुसत्तिसुलादीति एत्थ इस्सासाचरियानं गावीस कतं पठमसिक्खापदे- इस्सासो होतीति गिहिकाले धनग्गहाचरियो धनुलक्खणं, अ. नि. टी. 3.340. होति, पाचि. अट्ठ. 120; धनुग्गहोति इस्सासो, अ. नि. अट्ठ. इस्सासी पु., [इष्वासिन, धनुर्धारी, धनुर्ग्रह, धनुष को धारण 3.279; इस्सासो वा इस्सासन्तेवासी वा तिणपुरिसरूपके वा। करने वाला या उसके प्रयोग में कुशल योद्धा - नो पु., मत्तिकापुजे वा योग्गं करित्वा, अ. नि. 3(1).230; तन्हि प्र. वि., ब. व. - इस्सासिनो कतहत्थापि वीरा, दूरेपाती इस्सासो तेज करोति, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.243; इस्सासो अक्खणवेधिनोपि, जा. अट्ठ. 4.447; इस्सासिनोति इस्सासा वा इस्सासन्तेवासी वा बहुके दिवसे .... मि. प. 218; - सा धनुग्गहा, जा. अट्ठ. 4.450. ब. व. - इस्सासिनोति इस्सासा धनुग्गहा, जा. अट्ठ. 4. इस्सित त्रि., [ईयित], क. दूसरों द्वारा की गई ईर्ष्या का 450; - से द्वि. वि., ब. व. - दुवे तीणि सहस्सानि विषय, ख. ईर्ष्या से भरा हुआ - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. इस्सासेक्खणवेधिनो, चू, वं. 72.245; स. उ. प. के रूप में, - "सा इस्सिता दुक्खिता चस्मि लुद्द, उद्धञ्च सुस्सामि महि.-सा पु., प्र. वि., ब. व., महान् धनुर्धर, महान् शूरवीर अनुस्सरन्ती, जा. अट्ठ. 5.39. - 'उग्गपुत्ता महिस्सासा, सिक्खिता दळहधम्मिनो, थेरगा. इस्सुकिता स्त्री., इस्सुकी का भाव. [ई[कता], ईर्ष्यालुता . 1219; ते चिन्तयिंसु-मयं सुसिक्खिता कतहत्था कतूपासना - य तृ. वि., ए. व. - इस्सुकिताय परसम्पत्तिं न सहति, महिस्सासा, ध, प. अट्ठ. 1.201-202. अ. नि. अट्ठ. 2.314. इस्सासंयोजन नपुं., तत्पु. स. [ईर्ष्यासंयोजन]. ईर्ष्या का इस्सुकी त्रि., [सं. ईग्रंक, बौ. सं., ईर्षक], ईर्ष्याल, ईर्ष्या बन्धन, ईर्ष्या की बेड़ी या शृंखला - नं प्र. वि., ए. व. - से पीड़ित - की पु., प्र. वि., ए. व. - तपस्सी मक्खी कतमानि सत्त ? अनुनयसंयोजनं ... इस्सासंयोजनं. होति पळासी ... पे.... इस्सुकी होति मच्छरी, दी. नि. मच्छरियसंयोजनं, अ. नि. 2(2).160; कत्तमानि दस 3.32; यम्पावुसो, भिक्खु अनिस्सुकी होति अमच्छरी, म. नि. संयोजनानि ? कामरागसंयोजनं, ... इस्सासंयोजनं ... 1.136; इस्सुकीति परस्स सक्कारादीनि इस्सायनलक्खणाय दससंयोजनानि, पटि. म. अट्ठ. 2.29; इस्सा इस्सायना. इस्साय समन्नागतो, अ. नि. अट्ठ. 3.110; मक्खी थम्भी .. इदं वुच्चति इस्सासंयोजन, ध. स. 1126; - नेन तृ. पळासी च, इस्सुकी मच्छरी सठो, अ. नि. 3(1).19; ध. प. वि., ए. व. - अविज्जासंयोजन इस्सासंयोजनेन 262; - किस्स पु., ष. वि., ए. व. - इस्सुकिस्स संयोजनञ्चेव संयोजनसम्पयुत्तञ्च, ध. स. 1136; "अहो परिसपग्गलस्स अनिस्सकिता होति परिक्कमनाय, म. नि. 1.56. वत एतं रूपारम्मणं अञ न लभेय्यु न्ति उसूयतो इह अ., स्थानबोधक निपा., क्रि. वि. [इह], यहां, इस स्थान इस्सासंयोजनं उप्पज्जति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).298. पर, इस सन्दर्भ में, इस विषय में - इहेधात्र तु एत्थात्थ, इस्सासन्तेवासी पु., तत्पु. स. [इष्वासान्तेवासिन्], कुशल अथ सब्बत्र सब्बधि, अभि. प. 1161; इत्थं इदानि इह इतो धनुर्धर आचार्य का शिष्य या सहायक - सी प्र. वि., ए. इध, सद्द. 3.676; इह इध-इमस्मि वा, सद्द. 3.682; इध, व. - इस्सासो वा इस्सासन्तेवासी वा तिणपुरिसरूपके वा भन्ते नागसेन, आचरियेन अन्तेवासिम्हि सततं समितं आरक्खा मत्तिकापुजे वा योग्गं करित्वा, अ. नि. 3(1).230; इस्सासो उपट्टपेतब्बा, मि. प. 105. वा इस्सासन्तेवासी वा बहुके दिवसे सङ्गामत्थाय ..., मि. प. इहलोकिक त्रि०, इस लोक से सम्बन्धित, प्रत्यक्ष दिखलाई 218. देने वाला - कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - सुचरित मथो इस्साससिप्प नपुं., तत्पु. स. [इष्वासशिल्प], धनुर्विद्या का दिठ्ठधम्मिकं चेहलोकिक, अभि. प. 85. शिल्प, धनुर्वेध-शिल्प, धनुष-वाण चलाने में दक्षता सिखलाने वाला शिल्प - प्पं प्र. वि., ए. व. - धनुसिप्पन्ति इस्साससिप्प यो धनुब्बेधोति वुच्चति, उदा. अट्ठ. 165; - प्पे सप्त. वि., ए. व. - ... तेस इस्साससिप्पे असदिसो ३६ से ई देवनागरी लिपि में पालि वर्णमाला का चौथा अक्षर, इवर्ण हुत्वा बाराणसिं पच्चागमि, जा. अट्ठ. 2.72. का दीीकृत रूप, ईकाररूप में भी व्याकरण-ग्रन्थों में For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईकार 369 ईति/ईती उल्लिखित-ते च खो अक्खरा पिअकारादयो एकचत्तालीसं सुत्तन्तेसु सोपकारा होन्ति, तं यथा- अ आ इ ई ..., क. व्या. 2; अझे दीघा - तत्थ अट्ठसु सरेसु रस्सेहि अजे पञ्च सरा दीघा नाम होन्ति, तं यथा - आ ई ऊ ए ओ इति दीघा नाम, क. व्या. 5; एकचत्तालीससद्दा वण्णा नाम भवन्ति, सेय्यथीदं, अ आ इ ई..., सद्द. 3.604. ईकार पु., [ईकार], वर्णमाला का चतुर्थ अक्षर या वर्ण, तालुस्थानीय इवर्ण का दीर्घ मात्रा वाला 'ई' स्वर - रो प्र. वि., ए. व. - ईकारो चेत्थ उपरि वुच्चमाननिरोधपादकताय सातिसयाय झानसआय अस्थिभावजोतको दट्ठब्बो, दी. नि. अभि. टी. 2.334; - स्स ष. वि., ए. व. - सो एव नीकारगतस्स ईकारस्स रस्सत्तं यकारस्स च द्वित्तं कत्वा, सद्द. 3.84; ... ईकारस्स रस्सत्तं य-कारस्स च क-कारं कत्वा निय्यानिका, म. नि. टी. (म.प.) 108; - रे सप्त. वि., ए. व. - न्तुस्स तमीकारे, सब्बस्सेव न्तुप्पच्चयस्स तकारो होति वा ईकारे परे, गुणवती, गुणवन्ती, कुलवती कुलवन्ती, क. व्या. 241; - ऊकार पु., [ईकारोकार], ईकार एवं ऊकार (वर्ण) - रा प्र. वि., ब. व. - अतिदेसरहिते विसये कपच्चये परे ईकार-ऊकारा रस्सं पप्पोन्ति सुखुच्चारणत्थं सद्द. 3.775; - त्त नपुं., भाव. [ईकारत्व], ईकार होने की स्थिति, ईकार का स्वरूप - त्तं द्वि. वि., ए. व. - ... इच्चेवमादीनं धातूनं अन्तो सरो ईकारत्तमापज्जति ..., सद्द. 3.833-34; - न्त त्रि., ब. स. [ईकारान्त], ईकार में अन्त होने वाला - न्तो पु.. प्र. वि., ए. व. - घुसी कन्तिकरणे, ईकारन्तोयं तेन इतो न निग्गहीतागमो, घसति, सद्द. 2.449; - न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - "खि जि नि इच्चादयो एकस्सरा इकारन्तापि", इच्चादयो एकस्सरा इकारन्ता, सद्द. 2.572; “चक्खी" इच्चादयो अनेकस्सरा ईकारन्ता, सद्द 2.572; स. प. के रूप में, - पतिभिक्खुराजीकारन्तेहि इत्थियं वत्तमानेहि लिङ्गेहि इनीप्पच्चयो होति, गहपतानी, भिक्खुनी, राजिनी, क. व्या. 240; ईकारन्तवसेन वुत्तत्ता अस्मा धातुतो... एस नयो अजेसु पि आदिसेसु अनेसु, सद्द. 2.360; - लोप पु., [ईकारलोप], ई स्वर का लोप - पो प्र. वि., ए. व. - अयं अकारादिसु परेसु ईकारलोपो, सद्द. 3.612; - रागम पु., [ईकारागम], ईकार (ई स्वर) का आगम - मो प्र. वि., ए. व. - ईकारागमो यथा सम्मुखीभूतो, कद्दमीभूतं, एकोदकीभूतं, सरणीभूतं भस्मीकतं, सद्द. 3.875; ब्रू इच्चेताय धातुया ईकारागमो होति तिम्हि विभत्तिम्हि, ब्रवीति, क. व्या. 522; - रादेस पु., [ईकारादेश]. ईकार (ई स्वर) का आदेश - सो प्र. वि., ए. व. - धात्वन्तस्स सरस्स ईकारादेसो च दट्टब्बो, सद्द. 2.421. ईघ पु./नपुं., [इघ], दुख, राग, द्वेष आदि क्लेश- स्स ष. वि., ए. व. - ... यो भिक्खु कामच्छन्दादीनि पञ्च नीवरणानि समन्तभद्दके वुत्तनयेन सामञतो विसेसतो च नीवरणेसु आदीनवं दिस्वा तेन तेन मग्गेन पहाय तेसञ्च पहीनत्ता एव किलेसदुक्खसङ्घातस्स ईघस्साभावेन अनीघो, सु. नि. अट्ठ. 1.21; - विरहित त्रि., राग आदि क्लेशों से मुक्त, स. उ. प. के रूप में, - रागादि ... तो पु., प्र. वि., ए. व. - अनीघोति रागादिईघविरहितो, सु. नि. अट्ठ. 2.279-280; - सञित त्रि., ईघ (दुख, क्लेश) संज्ञा वाला, दुख के रूप में ज्ञात - ताय स्त्री., ष. वि., ए. व. - ... विसेसतो ब्यापादविरहतो ईघसञ्जिताय ईतिया अभावतो, विसुद्धि. महाटी. 1.332; - सद्द पु., कर्म. स., ईघ शब्द - दो प्र. वि., ए. व. - ईघ-सद्दो दुक्खपरियायोति आह निढुक्खस्सा ति, म. नि. टी. (म.प.) 238. ईज गत्यर्थक धातु [ईज],- ईज गतियं, ईजति, सद्द. 2.346. ईति/ईती स्त्री., [ईति], अकस्मात् आई हुई अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसी विपत्ति, संकट, दुख, संक्रामक रोगों से जनित विपदा, प्र. वि., ए. व. - ईति वित्थि अजझंच उपसग्गो उपद्दवो, अभि. प. 401; ईती च गण्डो च उपद्दवो च, रोगो च सल्लञ्च भयञ्च मेतं. सु. नि. 51; तत्थ एतीति ईति, आगन्तुकानं अकुसलभागियानं ब्यसनहेतूनं एतं अधिवचनं, सु. नि. अट्ट. 1.79; - यो प्र. वि., ब. व. - गाथासु अनीतिहन्ति ईतियो वुच्चन्ति उपद्दवा-दिठ्ठधम्मिका च सम्परायिका च, ईतियो हनति विनासेति पजहतीति इतिह..., इतिवु. अट्ठ. 97; सब्बीतियोति एन्तीति ईतियो, सब्बा ईतियो सब्बीतियो, उपद्दवा, बु. वं. अट्ठ. 134; - तो प. वि., ए. व. - ते तं अमतं असित्वा अरोगा दीघायुका सब्बीतितो परिमुच्चेय्यु, मि. प. 164; पञ्चक्खन्धे अनिच्चतो ... ईतितो ... संकिलेसिकधम्मतो, पटि. म. 4063 अनेकब्यसनावहनताय इतितो, पटि. म. अट्ठ. 2.292; योगिना योगावचरेन इमस्मिं काये उपासितब्बं, अनिच्चतो उपासितब्ध ..... इतितो ..., मि. प. 392; स. उ. प. के रूप में, - या ष. वि., ए. व. - कीटकिमिआदिपाणकईतिया अभावो एका सम्पदा होति, अ. नि. अट्ठ. 3.228; - तिं द्वि. वि., ए. व. - ईतिन्ति पीळ, उपद्दवन्ति ततो अधिकतरं पीळ वि. वि. For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईतिह 370 ईदिस टी. 1.195; - तीहि तृ. वि., ब. व. - अथ वा ईतीहि अनत्थेहि सद्धि हनन्ति गच्छन्ति पवत्तन्तीति ईतिहा, तण्हादिउपक्किलेसा, इतिवु. अट्ठ. 97; - गाथावण्णना स्त्री., सु. नि. के खग्गविसाणसुत्त की एक गाथा पर लिखी गई अट्ठकथा या व्याख्या - ईतिगाथावण्णना समत्ता, सु. नि.. अट्ठ. 1.80; - जात पु., रोग, संकट या दुख की उत्पत्ति --- ते सप्त. वि., ए. व. - ईतिजातेति रोगप्पन्ने, चूळनि. अट्ठ. 71; - निपात पु., तत्पु. स., आकस्मिक । संकट अथवा विपत्ति का आ पड़ना, संकट का आक्रमण - तेन त. वि., ए. व. - ईतीनिपातेन अद्विताय वा, न किञ्चि विन्दन्ति ततो फलागम, जा. अट्ठ. 5.396%B ईतीनिपातेनातिविसमवातमूसिकसलभसुकपाणकसेत द्विकरोगादीनं सस्सुपद्दवानं अञतरनिपातेन वा, जा. अट्ठ, 5.396; - पहान/पटिनिस्सग्ग/पटिप्पसद्धि स्त्री., तत्पु. स. [ईतिप्रतिप्रश्रब्धि], दुख या आकस्मिक आ पड़ी विपदा का उपशमन, संकट का उपशमन - द्धिं द्वि. वि., ए. व. - अनीतिकन्ति इति वच्चन्ति किलेसा च खन्धा च अभिसङ्घारा च, ईतिप्पहानं ईतिवूपसमं ईतिपटिनिस्सग्गं ईतिपटिप्पस्सद्धिं अमतं निब्बानन्ति-तण्हक्खयमनीतिक चूळनि. 195; - विरहित त्रि., क्लेश आदि के संकटों से रहित, स. उ. प. के रूप में, – तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - अनीतिकन्ति किलेसादिईतिविरहितं, चूळनि. अट्ट, 79; - वूपसम त्रि., ब. स., विपत्ति या दुख के उपशमन से युक्त - मं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - अनीतिकन्ति ... इतिवूपसमं... तण्हक्खयमनीतिक, चूळनि. 195. ईतिह त्रि., ईति (गत्यर्थक) एवं सहन (हननार्थक) के योग से व्यु.. 1. लौकिक एवं पारलौकिक सभी उपद्रवों को नष्ट कर देने वाला या उन्हें त्याग चुका (शासनब्रह्मचर्य एवं मार्गब्रह्मचर्य)- हं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ईतियो वुच्चन्ति उपद्दवा, दिट्ठधम्मिका च सम्परायिका च, ईतियो हनति विनासेति पजहतीति ईतिह, इतिवु. अट्ठ. 97; 2. ईति + गत्यर्थक बहन के योग से व्य.. अनर्थों या पाप-धर्मों के साथ गमन करने वाला उपक्लेश (तृष्णा आदि) अथवा बौद्धेतर धार्मिक मत – हा पु., प्र. वि., ब. व. - अथ वा ईतीहि अनत्थेहि सद्धि हनन्ति गच्छन्ति पवत्तन्तीति ईतिहा, तण्हादिउपक्किलेसा... ईतिहा वा यथाक्तेनटेन तित्थियसमया, इतिवु. अट्ठ. 97. ईदिक्ख त्रि., [ईदृक्ष], ऐसा, इस प्रकार का, इस पहलू का, ऐसे गुणों से युक्त, इस प्रकार से दिखने वाला - क्खो पु., प्र. वि., ए. व. - ईदिक्खो, यादिक्खो, तादिक्खो, मादिक्खो, कीदिक्खो, एदिक्खो, सादिक्खो, क. व्या. 6443; इदिक्खो यादिक्खो तादिक्खो मादिक्खो कीदिक्खो एदिक्खो सादिक्खो , सद्द. 3.866. ईदिस त्रि., [ईदृश्], उपरिवत् – सो पु., प्र. वि., ए. व. - इममिव नं पस्सतीति इदिसो, क. व्या. 644; इदिसो निरयो आसि, यत्थ दूसी अपच्चथ, म. नि. 1.421; "निब्बुता नून सा नारी, यस्सायं ईदिसो पती ति, बु. वं. अट्ट, 323; अच्छरियं वत अब्भुतं वत, अञ्जलिकम्मस्स अयमीदिसो विपाको, ध. प. अट्ठ. 1.21; - सं' स्त्री., वि. वि., ए. व. - कस्स त्वं धम्ममाय, वाचं भाससि ईदिसन्ति, स. नि. 1(1).41; - सं नपुं., द्वि. वि., ए. व. - ईदिसं दानं उपपरिक्खित्वा युत्तहाने दातुं वट्टती ति, पारा. अट्ट. 1.32; - सं नपुं., प्र. वि., ए. व. - “वेदेसु ईदिसं आगतं भविस्सतीति एवं भन्ते ति, म. नि. टी. (म.प.) 2.29; तत्थ या अयं "ईदिसं इदिसञ्च सुखुमतमविसयग्गहणसमत्थं चक्खु होतूति, अभि. अव. अभि. टी. 2.91; - से नपुं.. सप्त. वि., ए. व. - ईदिसे विपिने रम्मे, ठितोयं नवयोब्बने, अप. 2.216; तथापि ईदिसे ठाने पमाणं दस्सेन्तेन याथावतोव नियमेत्वा दस्सेतब्बन्ति, सारत्थ. टी. 1.91; -- सानि नपुं., द्वि. वि., ब. व. - 'अहो वत रे छेका आचरिया, इदिसानिपि नाम सिप्पानि करिस्सन्तीति, ध. स. अट्ठ. 251; तिपट्टादीनञ्च बहुपट्टचीवरानं अन्तरे ईदिसानि असारूप्पवण्णानि पटपिलोतिकानि कातब्बानीति दरसेति, विनया. टी. 2.278; ईदिसानीति पच्चक्खतो अनुभूतपुब्बपरिकप्पितरूपादिआरम्मणानि चे व रागादिसम्पयुत्तानि च सारत्थ. टी. 2.277; ईदिसानीति पच्चक्खातो अनुभूतपुब्बपरिकप्पितागन्तुकपच्चुप्पन्नरूपनिमित्तादि- आरम्मणानि रागादिसम्पयुत्तानि चाति अत्थो, वजिर. टी. 158; - सेसु सप्त. वि., ब. व. - सब्बत्थाति ईदिसेसु सब्बट्ठानेस, सारत्थ. टी. 2.140; अक्खरचिन्तका हि इदिसेसु ठानेसु कम्मद्वयं इच्छन्ति, पे. व. अट्ठ. 106; - सेहि तृ. वि., ब. व. - एवं-सद्दो इदमत्थो, तेन एवं पकारेहीति, इदंपकारेहि, ईदिसेहीति अत्थो, विभ. अनुटी. 66; - सा पु., प्र. वि., ब. व. - न मनुस्सेसु ईदिसा, यादिसा नो घरा इध, पे. व. 429; ईदिसा ते महानागा, अतुला च महायसा, अप. 2.65; - सी स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आरोचेसि कुमारस्स “वळवेत्थेदिसी" इति, म. वं. 10.54; --- करण नपुं., इस इस प्रकार से करना, For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईदिसक 371 ऐसे करना - णं प्र. वि., ए. व. - वट्टतीति सआयाति इदिसकरणं सङ्घस्स भेदाय न होतीति सआय ..., म. नि. टी. (उप.प.) 3.80; - रूप त्रि., ब. स., इस प्रकार के रूप से युक्त - पो पु., प्र. वि., ए. व. - एवंरूपोति इदिसरूपो, स. नि. टी. 2.187; - वचनपटिसंयुत्त त्रि., इस प्रकार के वचनों से युक्त - त्तो पु., प्र. वि., ए. व. -इदिसवचनपटिसंयुत्तो पुराणकथासङ्घातो इतिहासो पञ्चमो एतेसन्ति इतिहासपञ्चमा, दी. नि. अट्ठ. 1.200; अ. नि. अट्ठ.2.143. ईदिसक त्रि., [ईदृशक, बौ. सं. ईदृशिक], ऐसा, इस प्रकार का, ऐसा दिखने वाला - का पु., प्र. वि., ब. व. - “सन्ति ईदिसका अञ्जे जम्बुदीपे यती?" इति, म. वं. 14.13; --- कं नपुं., प्र. वि., ए. व. - चेलुक्खेपं पवत्तिंसु, नत्थि इदिसकं पुरे, दी. वं. 13.38. Vईदी' संदीपन अर्थ वाली एक धातु - ईदी सन्दीपने, ईदेति, ईदयति, सद्द. 2.544. ईदी/ईदि त्रि., [ईदृश्], इस तरह का, इस प्रकार का, ऐसा - ईदी, यादी, तादी, मादी, कीदी, एदी, सादी, क. व्या. 644; ईदी यादी तादी मादी कीदी एदी सादी, सद्द. 3.866; ईदि उदि एकोदि पण्डितो, सद्द. 2.315, ईध अ., निपा., इध का सन्धि के कारण विपरिवर्तित रूप [इध], यहां पर - सद्धीध वित्तं पुरिसस्स सेट्ट, सु. नि. 184; बुद्धानुस्सति “सद्धीध, सद्द. 3.614. ईर गति, कम्पन एवं फेंकने अर्थ वाली धातु -ईर वचने, गति कम्पनेस च, ईरति, इरितं एरितं, सद्द. 2.428; ईर खेपणे, ईरति ईरयति, सद्द. 2.560. ईरण नपुं., Vईर से व्यु., क्रि. ना. [ईरण], प्रकम्पन, कंपा देना, हिला देना, स. उ. प. के रूप में, - समी-णो पु. प्र. वि., ए. व., हिला देने वाला पवन – तत्थ समीरणो ति वातो, सोहि समीरति वायति समीरेति च.... सद्द. 2.428. ईरिण नपुं.. [ईरिण]. मरुस्थल, विविक्त स्थल, बंजर भूमि, द्रष्ट. इरिण के अन्त.. ईरित त्रि., ईर से व्यु., पू. का. कृ. [ईरित], 1. व्या. एवं अट्ठ. में प्रचालित, चलाया गया, हिलाया डुलाया गया, कंपाया गया, फेंका गया - नुण्णो नत्तात्तखित्ता चेरिताविद्धा, अभि. प. 744; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व. - ईर वचने, गति कम्पनेसु च, ईरति, ईरितं एरितं समीरणो, सद्द. 2.428; वातेरितं सालवनं, आधुतं दिजसेवितं. वि. व. अट्ठ. 147; 2. उदघोषित, उच्चारित, कथित, उदबोधित - तो ईस पु., प्र. वि., ए. व. - तापसो तु इसीरितो, अभि. प. 433; पटिवाक्योत्तराङ्गे सूत्तरं उत्तरो तिसु, सेटे दिसादिभेदे च परस्मिमुपरीरितो, अभि. प. 830; परं न व्याकरिस्सं सो सासने ईरितो न हि, सद्द. 2.341; - तं नपुं., प्र. वि., ए. व.- सम्भावने च गरहापेक्खासु च समुच्चये, पन्हे सञ्चरणे चेव आसंसत्थे अपीरितं, अभि. प. 1183; मनोधातत्तयं तत्थ, पञ्चारम्मणमीरितं, अभि. अव. 137; कामावचरपाकान, छन्नं रासीनमीरितं, अभि. अव. 347; - ता स्त्री., प्र. वि., ए. व. - आनापानसतिच्चेवं, दसधानुस्सतीरिता, ना. रू. प. 391; स. उ. प. के रूप में, जिने, अनिले., मालुते., हदये., वाते. के अन्त., द्रष्ट.. ईरियति इरियति के अन्त. पाठा. के रूप में द्रष्ट.. ईरियन नपुं., Vईर से व्यु., क्रि. ना., चेष्टा करना, चैतन्य या जागरुक होना, हिला डुला दिया जाना - नं प्र. वि., ए. व. - आयूहनं चेतयनं ईरियनं, विसुद्धि. महाटी. 2.132 ईरेति ईर का प्रेर., वर्त., प्र. पु., ए. व. ईरयति]. 1. हिला देता है, फेंक देता है, भेज देता है, प्रवर्तित करता है या सक्रिय करता है - ईर खेपणे, ईरति ईरयति, सद्द. 2.560; -- रयितब्बं नपुं., सं. कृ., प्र. वि., ए. व. - विधिना ईरयितब्बं पवत्तेतब्बन्ति वा वीरियं, उदा. अट्ठ. 188; - यितब्बतो सं. कृ., प. वि., ए. व. - वीरभावतो, विधिना ईरयितब्बतो च वीरियं अ. नि. अट्ट, 1.377; 2. उदघोषित करता है, वर्णन करता है, आहवान करता है, बतलाता है - न्ति वर्तः, प्र. पु., ब. व. - कसिणानि दसीरेन्ति, आदिकम्मिकयोगिनो, ना. रू. प. 388. ईळ स्तुति अर्थ वाली एक धातु [Vईड स्तुतौ], - ईळ थुतियं, ईळति, सद्द. 2.460; ईळ थवने, ईळेति ईळयति, सद्द. 2. 569. ईस' ऐश्वर्य अथवा स्वामित्व अर्थ वाली एक धातु ईश ऐश्वर्ये], - ईस इस्सरिये, इस्सरियं इस्सरभावो, ईसति, वङ्गीसो जनपदेसो मनुजेसो, सद्द. 2.451. ईस' हिंसा, गति एवं दर्शन अर्थ वाली एक धातु [ईष गतिहिंसादर्शनेषु], - ईस हिंसा-गति-दस्सनेसु, ईसति, ईसो, सद्द. 2.446. ईस' पु.. [ईश], स्वामी, प्रभु, ईश्वर, प्रमुख, प्रधान, समर्थ - सो प्र. वि., ए. व. - तत्र वङ्गीसो ति वाचाय ईसो इस्सरो ति वङ्गीसो, सद्द, 2.451; वागीसो वादिसूदनोति वादीनं पण्डितजनानं ईसो पधानो “वादीसो ति वत्तब्बे द-कारस्स For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईसं 372 ईसधर ग-कारं कत्वा एवं वुत्तन्ति दहब्बं, अप, अट्ठ. 2.251; सब्बवेदविदू जातो, वागीसो वादिसूदनो, अप. 2.147; सुवण्णपीळकाकिण्णं, मणिदण्डविचित्तकं को सो परिसमोगरह, ईसं खग्गं पमुञ्चति, जा. अट्ठ. 7.64; स. उ. प. के रूप में, अरियदेसी., ओसधी., जनपदे., नक्खत्ते., मनुजे., लङ्के, लोके., वङ्गी., वागी. के अन्त. द्रष्ट... ईसं अ., निपा., क्रि. वि. [ईषत], 1. आसानी से, बिना किसी प्रयास के, सरलतापूर्वक - ईस-दु-सु-सदादीहि सब्बधातूहि खप्पच्चयो होति भावकम्मेसु ईसंसयनं ईसस्सयो, दुवसयनं दुस्सयो, ... ईसं कम्मं करीयतीति इस्सक्कर क. व्या. 562; 2. थोड़ा सा, ज़रा सा, अपूर्ण रूप में, हल्केफुल्के ढङ्ग से - ईस किञ्चि मनं अप्पे, अभि. प. 1148; आतो गमु ईसमधिवासने, आगमेति .... सद्द. 2.558; म्हि ईसंहसने, म्हयते उम्हयते विम्हयते, सद्द. 2.454; ईसं कालं वसन्ता ते मिच्छादिट्टिकपापिका, चू, वं. 96.24. ईसकं अ., निपा., क्रि. वि. [ईषत्क], जरा सा, थोड़ा सा, कुछ सीमा तक, कुछ मात्रा में, आंशिक रूप में, अपूर्ण रूप में - वङ्क वा उजुकं अतिउजुकं वा ईसकं पोणं करोति, उभोपि न मुच्चन्ति, पारा. अट्ठ. 2.51; यस्स पन किञ्चि किञ्चि अङ्गपच्चङ्ग ईसकं वङ्क तं पब्बाजेतुं वट्टति, महाव. अट्ठ. 293; ईसकं पन खञ्जत्ता खञ्जदेवो ति तं विदु, म. वं. 23.78; पल्लङ्कतो ईसकंपाचीननिस्सिते उत्तरदिसाभागे ठत्वा, जा. अट्ठ. 1.86; काक-कुलल-सोण-सिङ्गालादीहि मुखतुण्डकेन वा दाठाय वा ईसकं फालितमत्तेनापि, पारा. अट्ठ. 1.302; एत्थ क्वसद्देन ईसकं समानसुतिको सत्तमियन्तो को सद्दो दिस्सति, सद्द. 1.128; करण्डमुखं ईसकं विवरित्वा पहारं वा दत्वा, पारा. अट्ठ 1.291; अच्चाधायाति अतिआधाय, ईसकं अतिक्कम्म ठपेत्वा. स. नि. अट्ठ. 1.71- 72 द्वारबाहं फुसित्वा पिहितमत्तेपि वति, ईसकं अफुसितेपि वट्टति, पारा. अट्ठ. 1.225; तानि पन अत्तनो गमनहानं ईसकम्पिन विजहन्ति, सद्द. 2.359; अनोलग्गोति लोभवसेन ईसकम्पि अलग्गो, चरिया. अट्ठ. 23; अनुग्घातीति न उग्घाति, अत्तनो उपरि निसिन्नानं ईसकम्पि खोभं अकरोन्तोति अत्थो, वि. व. अट्ठ. 27; सीलखण्डनभयेन ईसकम्पि चित्तस्स विकाराभावो, धनं लभापेमीति, चरिया. अट्ठ. 119; - फुकृत्त नपुं., भाव., केवल व्याकरणों में प्रयुक्त [ईषत्स्पृष्टत्व], अपूर्ण या अल्प स्पर्श वाला (य, र, ल, व के रूप में चार अन्तःस्थ वर्ण) - त्तं द्वि. वि., ए. व. - सद्दसत्थविदुनो वग्गानं फुट्टतं य-र-ल वानं ईसकंफट्टत्तं वदन्ति, सद्द. 3.607; - कग्गपवेल्लित त्रि., किनारों पर कुछ कुछ धुंघराला (केश) - ता पु., प्र. वि., ब. क. - दीघस्सा केसा असिता, ईसकग्गपवेल्लिता, जा. अट्ठ. 6.287; इसकग्गपवेल्लिताति ईसक अग्गेस ओनता, इसकग्गपवेल्लिता वा नेत्तिंसाय अग्गं विय विनता. जा. अट्ठ. 6.287; - कत्थवाचक त्रि., अपूर्णता या अल्पता के अर्थ को कहने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - आदिसु सकिंसद्दो ईसकत्थवाचको अप्पमत्तकत्थवाचको ..., सद्द. 3.868; - पोण त्रि., कुछ कुछ उन्नत, थोड़ा सा ऊपर की ओर उठा हुआ -- णे नपुं., सप्त. वि., ए. व. - सेय्यथापि, आनन्द, ईसकंपोणे पदुमपलासे उदकफुसितानि पवत्तन्ति, म. नि. 3.362; ईसकंपोणेति रथीसा विय उट्ठहित्वा ठिते, म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.264; - कायतगीव त्रि., ब. स., कुछ कुछ लम्बी गर्दन वाला, थोड़ी सी लम्बी गर्दन वाला - वो पु., प्र. वि., ए. व. - ईसकायतगीवोति च, सब्बेव अतिरोचती ति, जा. अट्ठ. 2.125; ईसकायतगीवो रथीसा विय आयतगीवो, जा. अट्ठ. 2.125-126. ईसति' ईस का वर्त., प्र. पु., ए. व. [ईष्टे], आधिपत्य, स्वामित्व या प्रभुत्व स्थापित करता है, ईश्वरभाव दरसाता है, अभिभूत या वशीभूत करता है, दूसरे का अतिक्रमण कर लेता है - ईस इस्सरिये, इस्सरियं इस्सरभावो, ईसति वङ्गीसो जनपदेसो मनुजेसो, सद्द. 2.451; सब्बसत्ते वा गुणेहि ईसति अभिभवतीति परमिस्सरो भगवा नाथो ति वुच्चतीति, सद्द० 2.365; तत्र सुरो ति सुरति ईसति देविस्सरियं पापुणाति विरोचति चाति सुरो, सद्द. 2.429. ईसति ईस का वर्त., प्र. पु., ए. व., हिंसा करता है, गति करता है-ईस हिंसा-गति-दस्सनेस. ईसति, ईसो, सद्द. 2.446. ईसत्त नपुं., भाव. [ईशत्त्व], आधिपत्य, स्वामित्व - त्तं प्र. वि., ए. व. - ईसत्तं नाम सयंवसिता, वजिर. टी. 38. ईसधर पु., व्य. सं. [बौ. सं., ईसाधार], सिनेरु (सुमेरु) पर्वत के चारों ओर विद्यमान सात पर्वतों में से एक - रो प्र. वि., ए. व. - युगन्धरो ईसधरो करवीको सुदस्सनो, नेमिन्धरो विनतको अस्सकण्णो कुलाचला, अभि. प. 2627; सुदुस्सनो करवीको, ईसधरो युगन्धरो, नेमिन्धरो विनतको, अस्सकण्णो गिरी ब्रह्म, जा. अट्ठ. 6.150; - तो प. वि., ए. व. - ईसधरस्स अनन्तरे युगन्धरो नाम, सो ईसधरतो उच्चतरो, जा. अट्ठ. 6.150. For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईससक्खरपासाण 373 ईसिका ईससक्खरपासाण त्रि., ब. स., थोडे से कंकड़-पत्थरों से अचलं असिथिलं, एवं हिरिपटिबद्धा .... स. नि. अट्ठ. युक्त - णा पु., प्र. वि., ब. व. - ईससक्खरपासाणा अट्ठ 1.222; - बद्ध त्रि., तत्पु. स., हलश के साथ जुड़ा हुआ अट्ठलिका सिला, एतानि भूमिकम्मानि कारापेत्वान खत्तियो, या बंधा हुआ-द्धं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - यथा युगं इंसाय दी. वं. 19.3. उपनिरसयं होति, पुरतो च ईसाबद्ध होति... हिरिप्पमुखानं ईसा स्त्री.. [ईषा]. रथ-दण्ड, हल का दण्ड, हलश, हरीस, धम्मानं उपनिस्सया होति, स. नि. अट्ठ. 1.222; - द्धा गाड़ी की फड़ - सा प्र. वि., ए. व. - ईसा नङ्गलदण्डके, स्त्री., प्र. वि., ए. व. - ईसाबद्धा होतीति हिरिसवातईसाय अभि. प. 449; हिरी ईसाति अत्तना सद्धि अधिविद्वेन बद्धा होति, पञआय कदाचि अप्पयोगतो मनोसीसेन बहिद्धासमुट्ठानेन ओत्तप्पेन सद्धिं अज्झत्तसमुठ्ठाना हिरी यस्स समाधि इध वुत्तोति आह ..., स. नि. टी. 1.237; -द्धो पु., मग्गरथस्स ईसा, स. नि. अट्ठ. 3.158; ईसाति युगन्धारिका प्र. वि., ए. व. - हिरिविप्पयोगेन अनुप्पत्तितो पन ईसाबद्धो दारुयुगळा, स. नि. टी. 2.106; - सं द्वि. वि., ए. व. -- होति, स. नि. अट्ठ. 1.222; - मुख नपुं., तत्पु. स., ईसञ्च पटिच्च अक्खञ्च पटिच्च.... मि. प.24; - य त. रथदण्ड या हलश का ऊपर वाला अग्रभाग - खं प्र. वि., वि., ए. व. - अथ खो अम्बपाली गणिका दहरानं दहरानं । ए. व. - यथा कुलावके ईसामुखं न सञ्चुण्णेति, एवं लिच्छवीनं ईसाय ईसं युगेन युगं चक्केन चक्कं अक्खेन इमिना ईसामुखेन ते परिवज्जय, स. नि. अट्ठ. 1.300; - अक्खं पटिवट्टेसि, महाव. 307; स. प. के अन्त., - खेन तृ. वि., ए. व. - कुलावका मातलि सिम्बलिस्मि. अक्खचक्कईसादिअवयवधातूहि..., वि. व. अट्ठ. 138; स. ईसामुखेन परिवज्जयस्सु. जा. अट्ठ. 1.201; ईसामुखेन उ. प. के रूप में, - हिरिईसे द्वि. वि., ब. व., लज्जा- परिवज्जयस्सूति एते एतस्स रथस्स ईसामुखेन यथा न रूपी हरीसों को - तथा मया हिरिईसे पञआयुगनङ्गले हअन्ति, एवं ते परिवज्जयस्सु जा. अट्ठ.1.201; ईसामुखेनाति मनोयोत्तेन एकाबद्धे कते वीरियबलीबद्दे योजेत्वा, स. नि. स्थस्स ईसामुखेन, स. नि. अट्ठ 1.300; - मूल नपुं.. अट्ठ. 1.221; स. उ. प. के रूप में, जम्बोनदी., नङ्गली., तत्पु. स., रथदण्ड या गाड़ी की फड़ का आधारभूत रथी., हिरि. के अन्त. द्रष्ट; - दन्त त्रि., ब. स. (निचला) भाग - लं प्र. वि., ए. व. - उरस्साति उरो [ईषादन्त], गाड़ी की फड़ जैसे दांतों वाला -न्तो पु., अस्स, स्थरस उरोति च ईसामूलं वदति, वि. व. अट्ठ. 226; प्र. वि., ए. व. - हत्थिराजा तदा आसिं ईसादन्तो उरुळ्हवा, - युगबलीवद्द पु., द्व. स., हरीस, जुआ एवं बैल - द्दे अप. 2.22; वरनागो मया दिन्नो, ईसादन्तो उरुळहवा, द्वि. वि., ब. व. - यथा ब्राह्मणस्स योत्तं ईसायुगबलीबद्दे थेरगा. अट्ठ. 2.246; सेय्यथापि, राहुल, रओ नागो ईसादन्तो एकाबद्धे कत्वा सककिच्चे पटिपादेति, स. नि. अट्ठ. ऊरुळहवा अभिजातो सङ्गामावचरो... कम्मं करोति, म. नि. 1.222. 2.85; - न्तं पु., द्वि. वि., ए. व. - रतनं देव याचाम, ईसान पु., [ईशान], 1. दी. नि. के तेविज्जसुत्त में इन्द्र, सिवीनं रट्ठवड्डन, ददाहि पवरं नाग, ईसादन्तं उरुळहवान्ति, सोम, वरुण एवं पजापति के साथ उल्लिखित एक वैदिक जा. अट्ठ. 7.236; - न्ता पु., प्र. वि., ब. व. - सतं देवता का नाम - नो प्र. वि., ए. व. - तथा वरुणो हेमवता नागा, ईसादन्ता उरुळहवा, वि. व. अट्ठ. 82; ईसानो च, वरुणो पन ततियं आसनं लभति, ईसानो ईसादन्ताति रथीसासदिसदन्ता, थोकयेव अवनतदन्ताति चतुत्थं स. नि. अट्ट, 1.298; - नं द्वि. वि., ए. व. - ये अत्थो, वि. व. अट्ठ, 83; ईसादन्ताति रथीसासदिसदन्ता, धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना एवमाहंस अप. अट्ठ. 1.322; ईसादन्ताति रथीसाय समानदन्ता, जा. - इन्दमव्हयाम... ईसानमव्हयाम... ति, दी. नि. 1.222; अट्ठ. 5.38; - स्स ष. वि., ए. व. - एतं नागस्स नागेन सो तं परमत्थब्राह्मणं अव्हयेय्य, ... ईसानमव्हयाम, ईसादन्तस्स हत्थिनो, महाव. 475; ईसादन्तस्साति याममव्हयामाति इदं पन अव्हानं निरत्थक, स. नि. अट्ठ. स्थईसासदिसदन्तस्स, महाव. अट्ठ. 409; - नेमिरथ पु., 1.207; 2. यदा कदा देवराज (इन्द्र) के आशय में भी तत्पु. स., हलश एवं पहिए के घेरे से युक्त रथ -स्स प्रयुक्त, - स्स ष. वि., ए. व. - अथ ईसानस्स देवराजस्स ष. वि., ए. व. - अरानं चक्कनाभीनं ईसानेमिरथस्स च. धजग्गं उल्लोकेय्याथ, ईसानस्स हि वो देवराजस्स धजग्गं जा. अट्ठ. 4.187; - पटिबद्धयुगनङ्गल नपुं, हलश उल्लोकयतं यं भविस्सति ..., स. नि. 1(1).253. (हरीस) के साथ बंधा हुआ जुआ एवं हल - लं प्र. वि., ईसिका स्त्री., [ईशिका/ईषिका], सरकण्डा, नरकुल, नरकट __ - का प्र. वि., ए. व. - ईसिकाति कळीरो, दी. नि. अभि. For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईसिता/ईसत्त 374 ईहित टी. 1.347; "पवाहेय्या ति वचनतो अन्तो छिता एव ईसिका व. -- पच्चयपच्चयुप्पन्ने, यथावत्थुववत्थिते, पहातुमीहमानानं. अधिप्पेताति दस्सेति "अन्तो ईसिका होती"ति इमिना, दी. निय्यानपटिपत्तितो, ना. रु. परि. 1533; निषे०, - अनीहमान नि. अभि. टी. 2.129; "तस्स एवमस्स अयं मुजो अयं त्रि., प्रयास नहीं कर रहा - स्स पु., च. वि., ए. व. - ईसिका, अओ मुजो अआ ईसिका, मुञ्जम्हात्वेव ईसिका तत्थ घरा नानीहमानस्साति निच्चकाल पवाळहा ति आदि, विसुद्धि. 2.34; एत्थ च यथा ईसिकादयो कसिगोरक्खादिकरणेन अनीहमानस्स अवायमन्तस्स घरा मजादीहि सदिसा होन्ति, एवं मनोमयरूपं इद्धिमतासदिसमेव नाम नत्थि , जा. अट्ठ. 2.195; - थ अनु., म. पु.. ब. व. होतीति, तदे; - कं द्वि. वि., ए. व. – “सेय्यथापि, - "पण्णसालं अमापेत्वा, उञ्छाचरियाय ईहथा ति, जा. महाराज, पुरिसो मुञ्जम्हा इसिक पवाहेय्य, दी. नि. 1.68. अट्ठ. 7.279; उच्छाचरियाय ईहथाति अथ तुम्हे, देव, ईसिता/ईसत्त स्त्री./नपुं., भाव. [ईशिता/ ईशित्व], योगी उञ्छाचरियाय यापेन्ता अप्पमत्ता ईहथ, आरद्धवीरिया हुत्वा की आठ प्रकार की दिव्य शक्तियों में से एक, ऐश्वर्य, प्राकृ विहरेय्याथाति अत्थी, तदे... तिक शक्तियों को अपने वश में रखने की अलौकिक शक्ति, ईहन/ईहा नपुं./स्त्री., Vईह से व्यु., क्रि. ना. [ईहा], पूर्ण स्वामित्व या आधिपत्य, अणिमा, महिमा आदि आठ प्रकार प्रयत्न, प्रयास, चेष्टा, सक्रियता, अध्यवसाय, कार्य, कृत्य, की अलौकिक शक्तियों में अन्यतम - ता प्र. वि., ए. व. - वीर्य, जीवित, जीवनवृत्ति -- हा स्त्री॰, प्र. वि., ए. व. - सयंवसिता इस्सरभावो ईसिता, विसुद्धि. महाटी. 1.241; वि. नासा जुण्हा गुहा ईहा लसिका परिसा दुसा, सद्द. 1.1983; वि. टी. 1.53; अणिमालघिमादिकन्ति आदि-सद्देन महिमा पत्ति। वायम ईहायं, वायमति वायामो, सद्द, 2.413; ईहा चेताय, पाकम्मईसिता वसिता यत्थकामावसायिताति इमे छपि सङ्गहिता, ईहति, ईहा, ईहा वच्चति विरियं सद्द. 2.457: दुज्जीविका, विसुद्धि. महाटी. 1.241; - त्तं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ईसत्तं ईहितं ईहा इरियनं पवत्तनं जीवितन्तिआदीनि पदानि नाम सयंवसिता, वजिर. टी. 38. एकत्थानि, पारा. अट्ट, 1.132; ईहितं नाम इरिया द्विधा ईह चेष्टा अर्थ वाली एक धातु [ईह चेष्टायाम्]. - ईह पवत्ता-चित्तइरिया, चित्तईहा, तदे.; स. प. के अन्तः, - चेताय, ईहति, ईहा, ईहा वुच्चति विरियं, सद्द. 2.457. अनत्तासस्सतन्ता च, ईहाभोगविवज्जिता, ना. रू. परि. ईहति/इहति Vईह का वर्त, प्र. पु., ए. व. [ईहते], 1564; - भाव पु., जीवित रहने की स्थिति, चेष्टायुक्त कोशिश करता है, चेष्टा करता है, प्रयास करता है, स्वयं होना, प्रयास करते रहने की दशा - तो प. वि., ए. व. को सक्रिय करता है, जीवन धारण करता है, इच्छा करता - मननलक्खणे सम्पयुत्तेसु आधिपच्चकरणतो पुब्बङ्गमो है, जाता है, गतिशील होता है, वीर्यवान् होकर विहार ईहाभावतो निस्सत्तनिज्जीवद्वेन धम्मा, नेत्ति. अट्ठ, 303; - करता है - आकासम्हि समीहतीति आकासे अन्तलिक्खे युत्त त्रि., प्रयास या चेष्टा से युक्त, सक्रिय - त्तो पु०, सम्मा ईहति, आरुळ्हानं खोभं अकरोन्तो चरति गच्छतीति प्र. वि., ए. व. - उस्सक्को-ईहायुत्तो, मण्डिते उस्सक्के अत्थो, वि. व. अट्ठ. 27; वेदेन ईहति घटति वायमतीति च ततिया सत्तमी च होति, बाला. 214(पृ.); बौद्धभारती. वेदेही, दी. नि. अट्ट, 1.117; दुक्खा ईहिति एत्थ न सक्का ईहित त्रि., Vईह का भू. क. कृ., चेष्टा, जीवनवृत्ति, कार्य, कोचि पयोगो सुखेन कातुन्ति दुहितिका, स. नि. अट्ठ. कृत्य, चित्त की क्रियाशीलता, प्रयत्न, प्रयास - तं नपुं.. 3.143; दुहितिकोति एत्थ इहितीति इरियना, दुक्खा इहिति प्र. वि., ए. व. - द्वीहितिकाति द्विधा पवत्तईहितिका, इहितं एत्थाति, दुहितिको, स. नि. अट्ठ. 3.103; – हामि उ. पु., ' नाम इरिया द्विधा पवत्ता चित्त-इरिया, चित्तईहा, पारा. ए. व. - वेहासगमनयोग्गे कातं ईहामीति अत्थो, अट्ठ. 1.132; द्वीहितिकाति दुज्जीविका, ईहितं ईहा इरियन "पतीहामी तिपि पठन्ति, तस्सत्थो - पादे पक्खे च पति पवत्तनं जीवितन्तिआदीनि पदानि एकत्थानि, तस्मा दुक्खेन विसुं ईहामि, गमनत्थं वायमामि, चरिया. अट्ट. 213; अथ वा ईहितं एत्थ पवत्ततीति द्वीहितिकाति अयमेत्थ पदत्थो, पारा. न ईहामि न समीहामि न उस्सहामि न वायमामि ... न अट्ठ. 1.132; द्विधा पवत्तं इहितं एत्थाति द्वीहितिकाति वीरियं करोमि न छन्दं जनेमि न सञ्जनेमि... चूळनि. 84; मज्झपदलोपीबाहिरत्थसमासोयमीति दस्सेन्तो आह "द्विधा ---न्ति वर्त, प्र. पु., ब. व. - न च तानि विआणुप्पादनत्थं पवत्तईहितिका ति, ईहनं ईहितन्ति ईहितसद्दोयं द्वारभावेन वत्थुभावेन आरम्मणभावेन वा ईहन्ति, न भावसाधनोति आह "ईहितं ना इरियाति, दुक्खं वा ईहितं व्यापारमापज्जन्ति, विभ. अट्ट. 45; - मान त्रि., वर्त एत्थ न सक्का कोचि पयोगो सुखेन कातुन्ति दुहितिका, कृ., आत्मने., कोशिश कर रहा - नानं पु., ष. वि., ब. दुक्करजीवितप्पयोगाति अत्थो, सारत्थ. टी. 1.372. 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